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लोकतंत्र की जीत

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आन्दोलन के एक साल पूरा होने से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक आश्चर्यजनक फ़ैसले में तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा की। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कृषि क़ानून वापसी विधेयक-2021 (द फार्म लॉ रिपील बिल-2021) के साथ तीनों कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया। निश्चित ही इन क़ानूनों को निरस्त करने का निर्णय लोकतंत्र की जीत है। इस फ़ैसले से यह भी संकेत मिलता है कि राज्य आन्दोलनकारी किसानों की एकता और दृढ़ता को तोडऩे में विफल रहा, जिन्होंने पूरे एक साल से शान्तिपूर्ण तरीक़े से विरोध-प्रदर्शन जारी रखा है। बेहद कठिन मौसम, एक जानलेवा महामारी, सत्ता की ताक़त और क़रीब 750 शहादत देने वाले किसानों के पास विजयी होने का एक कारण है। हालाँकि उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी जैसे कई मुद्दे अभी अनसुलझे हैं।

जब कोई सरकार विपक्ष के मज़बूत विरोध के बावजूद नीतिगत फ़ैसलों को पलटने को राज़ी नहीं होती, तो इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। ज़ाहिर तौर पर ख़ुफ़िया रिपोर्ट से पता चलता है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर तराई की पट्टी तक फैल रहा था। इस प्रकार किसान आन्दोलन के उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में चुनावी सम्भावनाओं को प्रभावित करने से सत्तारूढ़ दल विचलित हो गया था। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में उपचुनाव के नतीजों का मतलब है कि सत्ता में बैठी पार्टी के रूप में भाजपा लगातार कमज़ोर होती जा रही है। कृषि क़ानूनों के विरोध में हो रहे आन्दोलन से प्रभावित कई गाँवों में लोगों ने पार्टी नेताओं के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए साइन बोर्ड लगा दिये। पार्टी जानती है कि अगर वह उत्तर प्रदेश में पश्चिम हिस्से को खो देती है, तो वह राज्य खो सकती है; क्योंकि उत्तर प्रदेश और दिल्ली का रास्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही जाता है।

प्रधानमंत्री ने अपनी घोषणा के लिए गुरु पर्व को चुना और किसानों को समझाने में नाकाम रहने के लिए माफ़ी माँगी। इसने उनका न केवल सिखों, किसानों और राष्ट्र के प्रति सम्मान उजागर हुआ, बल्कि उनके लोकतांत्रिक दृष्टिकोण और राजनेता के रूप में उनकी स्थिति को स्थापित किया। प्रधानमंत्री के सम्बोधन से उनकी चतुर व्यावहारिकता प्रदर्शित हुई। क्योंकि उत्तर प्रदेश, जहाँ किसानों के आन्दोलन ने सत्तारूढ़ पार्टी की सम्भावनाओं को धुँधला किया है; भाजपा के 2024 के लोकसभा चुनाव में तीसरे कार्यकाल के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

हालाँकि सन् 2014 के बाद सरकार के इस सबसे महत्त्वपूर्ण यू-टर्न का 2022 में पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनावों में सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष दोनों की राजनीतिक गतिशीलता पर असर डालेगा। सत्तारूढ़ दल भाजपा मोदी के नाम का लाभ उठाएगा। लेकिन आन्दोलन के दौरान मानव जाति की व्यापक क्षति खोयी ज़मीन को फिर हासिल करने के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन सकती है। कृषि क़ानूनों को निरस्त करने से आगामी चुनावों में राजनीतिक लाभ हासिल करने की भाजपा की कोशिश से इतिहास में सबसे लम्बे और लोकप्रिय आन्दोलन के बाद उपजी किसानों की नाराज़गी का लाभ उठाने की विपक्ष की योजना पर पानी फिर सकता है। लेकिन प्रतिष्ठान को परिवारों के आँसू पोंछकर उनका दिल जीतना होगा। लेकिन बहुत कहने-सुनने और कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के बावजूद कृषि क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए इसमें सुधारों की तत्काल आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। हालाँकि सुधारों को एक परामर्शी तरीक़े से आगे बढ़ाना होगा, जो हमारे देश के संघीय और एकात्मक स्वरूप को बनाये रखने के लिए भी ज़रूरी है।

 चरणजीत आहुजा

पंजाब में उलझे राजनीति के तार

कृषि क़ानूनों के अलावा करतारपुर कॉरिडोर भी बन सकता है मुद्दा

किसान आन्दोलन का गढ़ रहा पंजाब विचित्र राजनीतिक स्थिति की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है। तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की मोदी सरकार की घोषणा के बाद पंजाब की राजनीतिक गलियारों में सबसे ज़्यादा चर्चा में है। पंजाब में फ़िलहाल राजनीतिक शक्तियों का बिखराव है। कांग्रेस सत्ता में है और उसे सत्ता से बाहर करने के लिए अकाली दल, भाजपा और आम आदमी पार्टी के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस ख़म ठोंक रहे हैं। विधानसभा चुनाव से पहले गठबन्धनों की तस्वीर साफ़ नहीं है; क्योंकि सभी के अपने-अपने हित हैं। चुनाव से पहले नहीं होता है, तो चुनाव के बाद निश्चित ही गठबन्धन होगा।

कृषि क़ानूनों का सबसे बड़ा राजनीतिक असर यदि किसी राज्य में पड़ सकता है, तो वह पंजाब है। क्योंकि आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से ही हुई थी। यह संयोग ही है कि आन्दोलन के बाद पंजाब में राजनीतिक घटनाक्रम इतनी तेज़ी से हुआ कि सब कुछ उलट-पलट हो गया। कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री का अपना पद गँवाना पड़ा और उससे पहले नवजोत सिंह सिद्धू प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हो गये। अमरिंदर की जगह चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री हो गये, जो किसी ने सोचा भी नहीं था।

अब जबकि पंजाब विधानसभा के चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, सूबे के राजनीतिक समीकरण दिलचस्प होते जा रहे हैं। तो तस्वीर दिख रही है, उसमें साल 2022 के चुनाव में चार राजनीतिक दल ताल ठोकते दिख रहे हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने तीन दलों की चुनौती होगी। कांग्रेस से बहार जा चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस भी इसमें एक है। भले कैप्टन का पंजाब की राजनीति में मज़बूत दख़ल रहा है, फ़िलहाल तो उनकी इस नयी पार्टी को पंजाब में कोई ख़ास महत्त्व नहीं मिला है।

भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने का ऐलान करके कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी झटका दिया है। यह अलग बात है कि कैप्टन भाजपा के आगे नतमस्तक दिखायी दे रहे हैं। वह घोषणा कर चुके हैं कि तीन कृषि क़ानून वापस करके प्रधानमंत्री मोदी ने अच्छा काम किया है और वह अपने वादे के मुताबिक भाजपा को समर्थन करेंगे। हालाँकि कांग्रेस को यह लगता है कि जिन लोगों को वह टिकट नहीं दे पाएगी, वे अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब विकास कांग्रेस के साथ जा सकते हैं। वैसे पार्टी के कुछ नेताओं के मुताबिक, भाजपा को यह अच्छा नहीं लगा कि कैप्टन अपनी पार्टी में कांग्रेस शब्द रखा। लेकिन कैप्टन ने किया यही।

भाजपा का अमरिंदर सिंह को लेकर आशंका का एक और कारण है। यह माना जाता है कि अमरिंदर सिंह की सांसद पत्नी परनीत कौर पति के भाजपा के साथ जाने के हक़ में नहीं थीं। हालाँकि हाल में कांग्रेस ने परनीत को एक सूचना (नोटिस) जारी करके उन पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का हिस्सा बनने का आरोप लगाते हुए उनसे जवाब माँगा है, जिससे संकेत मिलते हैं कि परनीत भी कांग्रेस से बाहर हो सकती हैं। ज़ाहिर है वह पति की पार्टी में जाएँगी।

भाजपा महसूस करती है कि चुनाव के बाद यदि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है और अमरिंदर सिंह की पार्टी कुछ सीट जीत लेती है, तो कैप्टन का समर्थन को लेकर क्या रूख़ रहता है? इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ नहीं जा सकता। अमरिंदर सिंह की नाराज़गी कांग्रेस से भी ज़्यादा नवजोत सिंह सिद्धू से है। वो किसी सूरत में सिद्धू को मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते। भाजपा को लगता है कि इसके अलावा कांग्रेस से उनका तालमेल बनने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

पंजाब में राजनीतिक खिचड़ी पकने का एक और कारण है। शिरोमणी अकाली दल ने भले ही देरी से सही, लेकिन कृषि क़ानूनों के विरोध में एनडीए सरकार से ख़ुद को अलग किया था। अब जबकि मोदी सरकार ने यह क़ानून वापस लेने का ऐलान कर दिया है, अकाली दल एनडीए में लौट सकता है। हालाँकि अकाली दल के कुछ नेता नाम न छापने की शर्त पर बातचीत में कहते हैं कि चुनाव से पहले भाजपा के साथ जाना राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा साबित हो सकता है। क्योंकि पंजाब की जनता, ख़ासकर किसानों में भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल है। उन्हें यह भी लगता है कि सभी सीटों पर भाजपा का चुनाव लडऩे का ऐलान और ख़ुद को बड़े भाई की तरह दिखाना किसी मज़ाक़ से कम नहीं। देखा जाए, तो कैप्टन अमरिंदर के साथ गठबन्धन करने को लेकर भाजपा ने भी अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। चुनाव की घोषणा के बाद ही तस्वीर होगी  सभी को केवल आचार संहिता लागू होने का इंतज़ार है। कैप्टन भी इसीलिए राजनीतिक रूप से ख़ामोश नज़र आ रहे हैं; क्योंकि उन्हें भी पता है कि वर्तमान में उनके साथ खड़े होने वाला कोई नहीं है। लेकिन यह तस्वीर आचार संहिता लागू होने के बाद बदल सकती है।

ऐसा माना जाता है कि विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के बीच भी मुख्यमंत्री पद की जंग हो सकती है। पार्टी के भीतर नवजोत सिंह सिद्धू और वर्तमान मुख्य्मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दोनों ही पार्टी में इस पद के दावेदार हैं। चन्नी लगातार यह ज़ाहिर करते हैं कि वह मुख्यमंत्री हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि चन्नी बतौर मुख्यमंत्री अपनी छवि बनाने में सफल रहे हैं। हालाँकि पंजाब कांग्रेस में बहुत से नेता यह मानते हैं कि सिद्धू का पार्टी में एक क़द है और इससे इन्कार नहीं किया सकता। उनका कहना है कि सिद्धू की जनता में पैठ है और वह ऐसे नेता हैं, जो पार्टी को अपने बूते चुनाव जितवा सकते हैं।

यह तय है कि चुनाव की घोषणा के बाद पंजाब में कांग्रेस काफी विधायकों के टिकट काट सकती है। इसके अलग-अलग कारण हैं। पहला तो पिछले साल में उनका बतौर विधायक प्रदर्शन। दूसरे ऐसे विधायक, जो कैप्टन अमरिंदर सिंह के क़रीब रहे हैं, पार्टी उनसे किनारा कर सकती है। माना जाता है कि पार्टी ने एक सर्वे करवाया है, जिसमें कुछ विधायकों के दोबारा जीतने पर प्रश्न चिह्न लगे हैं। इनकी संख्या डेढ़ दर्ज़न के क़रीब है। हालाँकि इतने ज़्यादा विधायकों के टिकट काटने पर वे सभी कैप्टन की पार्टी में जा सकते हैं, जिन्हें अभी तक कोई ख़ास समर्थन नेताओं की तरफ़ से मिला नहीं है।

ऐसे में हो सकता है कि कांग्रेस सोच-विचार कर ही टिकट काटे। कुछ विधायक अपनी सीट बदलना चाहते हैं, जिनमें एकाध मंत्री भी है। कांग्रेस की कोशिश यह होगी कि चुनाव में ऐसे कम-से-कम लोग कूदें, जो उसकी विचारधारा के हों। हालाँकि यह सम्भव नहीं लगता। इस बार मैदान में चार पार्टियाँ होंगी और अमरिंदर की पार्टी के ज़्यादातर उम्मीदवार निश्चित ही कांग्रेस विचारधारा के होंगे। यहाँ तक की आम आदमी पार्टी में जो ज़्यादातर नेता हैं, कभी कांग्रेस में ही रहे हैं। यह ज़रूर तय है कि इस बार चुनाव के नतीजे का अन्तर ज़्यादा नहीं होगा। पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) के हज़ार वादों के बावजूद ज़मीन पर उसकी पकड़ कमज़ोर होती दिख रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री के दिल्ली की तर्ज पर पंजाब को चमकाने के वादे के बावजूद जनता तो दूर, उनकी अपनी पार्टी के नेता भी सहारा नहीं बन पा रहे। यही कारण है पार्टी से नेता टूटकर कांग्रेस सहित दूसरे दलों में में जा रहे हैं। पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने अवसर खो दिया था और उसके बाद पार्टी ने ज़मीन पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कुछ नहीं किया। सारा कुछ दिल्ली से संचालित होने के कारण स्थानीय नेता ख़ास ख़ुश नहीं हैं। उन्हें लगता है कि इससे जनता में भी ख़राब सन्देश गया है।

पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन इतना बेहतर था कि कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर रहते हुए उसने अकाली दल जैसी पार्टी से भी चार सीटें ज़्यादा हासिल की थीं। किसान आन्दोलन को लेकर आप का रूख़ उनके हक़ में भले रहा है; लेकिन इससे उसे कोई बड़ा राजनीतिक हासिल होगा, इसकी सम्भावना दिख नहीं रही।

जहाँ तक शिरोमणी अकाली दल की बात है, मोदी सरकार और एनडीए से बाहर आने के बाद पूरे किसान आन्दोलन के दौरान अकाली नेतृत्व, ख़ासकर सुखबीर सिंह बादल ने भरपूर कोशिश की है; लेकिन किसानों का भरोसा जीतने में उन्हें ख़ास कामयाबी मिलती नहीं दिखी है। पार्टी ने दिल्ली में किसानों के हक़ में प्रदर्शन में भी हिस्सा लिया; लेकिन किसानों का रूख़ पार्टी के प्रति ठंडा ही दिखा है।

भाजपा की उम्मीदें

भाजपा का पंजाब विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के पीछे एक कारण है। दरअसल पार्टी को लगता है कि गुरु नानक देव जयंती पर करतारपुर कॉरिडोर दोबारा खोलने और उसी दिन कृषि क़ानून वापस लेने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऐलान से विधानसभा चुनाव में उसे लाभ मिलेगा।

हाल के महीनों में पंजाब में राजनीतिक धुरी तीन कृषि क़ानूनों और किसान आन्दोलन आसपास घूमती रही है। अब जब विधानसभा चुनाव निकट हैं, और केंद्र का यह फ़ैसला किस पार्टी को कितना लाभ देगा? यह देखना दिलचस्प होगा। पंजाब में कांग्रेस ने किसान आन्दोलन का हमेशा खुलकर समर्थन किया है। इस दौरान पंजाब भाजपा के नेताओं ने किसानों का हर जगह जबरदस्त विरोध सहा। चरणजीत चन्नी सरकार ने 26 जनवरी को लाल क़िले से गिरफ़्तार किसानों के परिवारों को दो-दो लाख का मुआवज़ा देने का ऐलान करके राजनीतिक दाँव चला है। विधानसभा में कृषि क़ानून को रद्द करने के फ़ैसले के बाद सरकार ने 83 किसान समर्थकों को मुआवज़ा देने का ऐलान किया। चन्नी सरकार ने किसान आन्दोलन के दौरान पंजाब में किसानों पर दर्ज सभी मामले भी रद्द करने का फ़ैसला किया। वह आन्दोलन के दौरान शहीद हुए किसानों और मज़दूरों के परिजनों को सरकारी नौकरी और मुआवज़ा देने की बात कह चुकी है। इसके लिए उसने संयुक्त किसान मोर्चा से शहीद किसानों की सूची माँगी है। कांग्रेस करतारपुर कॉरिडोर का श्रेय भाजपा के लेने को ग़लत कहती है। उसका कहना है कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू को इसका श्रेय जाता है; क्योंकि इमरान ख़ान के शपथ ग्रहण पर पाकिस्तान गये सिद्धू ने ही सबसे पहले यह मसला उठाया था और उनकी कोशिशों पर ही पाकिस्तान सरकार ने इस पर आगे काम किया।

नयी पार्टी बना चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की उम्मीद अब चुनाव की घोषणा पर टिकी है। उन्हें भरोसा है कि टिकट न मिलने से दूसरी पार्टियों के बा$गी नेता उनके पास ही आएँगे। कृषि क़ानूनों के वापस लेने का श्रेय कैप्टेन ख़ुद को दे रहे हैं। उनके नेताओं का दावा है कि कैप्टन ने ही इस फ़ैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को तैयार किया। कैप्टन भाजपा से गठजोड़ की बात कह ही चुके हैं। जहाँ तक करतारपुर कॉरिडॉर की बात है, कोरोना के दौरान क़रीब 20 महीने बन्द रहे इस धार्मिक केंद्र के खुलने का रास्ता साफ़ होने का श्रेय भाजपा मोदी को देती है। भाजपा को उम्मीद है कि इसके सहारे उसे पंजाब में तवज्जो मिलेगी।

दिल्ली में लगातार बढ़ रहा भूजल दोहन

दिल्ली में भूजल स्तर लगातार गिरता जा रहा है। भूजल दोहन का दबाव इस शहरी ज़मीन पर दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। दिल्ली सरकार से लेकर जल बोर्ड और नगर निगम तक इसे रोकने के लिए कई बार नियम-क़ानून बनाने का दावा कर चुके हैं। लेकिन किसी अवैध या प्रतिबन्धित कार्य को रोकने के लिए सिर्फ़ दावे करने या नियम-क़ानून बनाने भर से बात नहीं बनती, बल्कि ठोस कार्रवाई भी करनी होती है, तब कहीं जाकर भ्रष्टाचार रुकता है। लेकिन दिल्ली में ऐसा नहीं हो पा रहा है।

सिर्फ़ दावे ही किये जा रहे हैं कि भूजल दोहन रोकने और पानी की कालाबाज़ारी और इस क्षेत्र में फैले भ्रष्टाचार को रोकने के लिए शासन-प्रशासन वचनबद्ध हैं। फिर भी सरेआम दिल्ली में हाज़ारों की संख्या में अवैध रूप से जल संयंत्र (प्लांट) लगाकर पानी का कारोबार किया जा रहा है। इससे एक ओर सरकार को चूना लगाया जा रहा है, तो दूसरी ओर लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। दिल्ली में अवैध भूजल दोहन करके शुद्ध पानी के नाम पर बस्तियों में जलशोधन मशीनें लगाने वालों की कोई गिनती नहीं है। तहलका के विशेष संवाददाता ने इस बारे में जानकारी लेने की कोशिश की, तो पता चला कि दिल्ली में अवैध रूप से बिना अनुज्ञा-पत्र (लाइसेंस) के घरों में बड़ी-बड़ी आरो मशीन लगाकर कारोबारी हाज़ारों लीटर पानी हर रोज़ ज़मीन से निकाल रहे हैं। इस तरह स्वच्छ पानी बेचने का यह कारोबार धड़ल्ले से चल रहा है।

बताते चलें पानी को तीन प्रकार से बेचा जाता है- थैली (पाउच) में; बोतल में और जार (20 लीटर बोतल) में। दिल्ली में शायद ही कोई ऐसा मोहल्ला हो, जहाँ पर पानी का कारोबार न चल रहा है; ख़ासकर कच्ची कॉलोनियों में यह कारोबार हर दूसरी-तीसरी गली में होता मिल जाएगा।

दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारी आर.के.एस. शर्मा का कहना है कि जबसे दिल्ली सरकार ने प्रत्येक कनेक्शन पर 20,000 पानी हर महीने मुफ़्त देना शुरू किया है, तबसे पानी के इस कारोबार पर काफ़ी हद तक रोक तो लगी है। क्योंकि लोगों को पीने और खाना बनाने के लिए जल बोर्ड का पानी उपलब्ध होने लगा है। लेकिन इसके बावजूद पानी बेचने वाले अपने इस कारोबारी जाल को फैलाये हुए हैं और हर दिन हाज़ारों लीटर पानी निकाल रहे हैं। पानी के ये कारोबारी अपने घरों के आस-पास बोरिंग कराकर उससे ज़मीन का पानी निकालकर उसे बड़ी आरो मशीनों से शोधित करके लोगों को बेचते हैं। जब तक किसी अवैध कारोबारी के बारे में ठोस सुबूत नहीं होंगे, या उसके धन्धे के बारे में ठीक से पता नहीं होगा, तब तक दिल्ली जल बोर्ड कार्रवाई नहीं कर सकता। क्योंकि ऐसा करना उसके अधिकार में नहीं है। दरअसल यह प्रशासन का काम है कि वो छापेमारी करके ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करे। आर.के.एस. शर्मा का कहना है कि पानी का कारोबार करने के लिए सरकार बढ़ावा देती है कि लोग इस कारोबार को करें। लेकिन ज़्यादातर लोग सरकारी नियमों के धज्जियाँ उड़ाते हैं और नियमों को ताक पर रखकर अपने घरों में ही आरो मशीन लगाकर शोधित पानी 20 लीटर के जारों में भरकर घरों से लेकर दफ़्तरों और दुकानों तक में बेचते हैं।

पानी का कारोबार करने वाले रतनदीप ने बताया कि पानी का कारोबार करने वालों को सबसे पहले लाइसेंस लेने के साथ ही लेवर विभाग में इस कारोबार के लिए पंजीकरण कराना होता है। साथ-ही-साथ पेस्ट कंट्रोलर विभाग का प्रमाण-पत्र लेना होता कि जहाँ पर पानी की मशीन लगी है, वहाँ पर किसी प्रकार की कोई गन्दगी और छिपकली, काकरोच आदि तो नहीं हैं। इसके अलावा कमर्शियल बिजली का कनेक्शन लेना होता है। लेकिन पानी का अवैध कारोबार करने वाले और शासन-प्रशासन से जुड़े लोग इन नियमों को नहीं मानते हैं। ऐसे लोग सीधे बोर का पानी आरो मशीन से पानी शोधित करके जारों और पाउच व छोटी बोतलों में बेचते है। सबसे बड़ी बात यह है कि इस पानी स्वच्छ होने की सम्भावना भी कम ही होती है, जिससे लोगों के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। रतनदीप का कहना है कि सबसे चौंकाने वाली बात तो यह है कि बोरिंग का पानी बेचने वाले ब्रांडेड कम्पनियों से मिलाजुला चमकीला लेवल लगाकर बेचते हैं। इससे आम नागरिक समझ नहीं पाते कि उनके साथ किस तरह धोखा हो रहा है और वे लगातार दूषित पानी का सेवन करते रहते हैं।

दिल्ली की कई कच्ची कॉलोनियों से लेकर लक्ष्मीनगर, शकरपुर, रोहिणी, जहाँगीरपुरी, बदरपुर और संगम बिहार में तो पानी कारोबार करने वालों के हौंसले इस क़दर बुलंद है कि उनका पानी जो पाउच में दिल्ली में स्थित अंरराज्जीय बस अड्डों से लेकर रेलवे स्टेशनों तक पर बिकता है। बस अड्डों और रेलवे स्टेशनों पर ठेकेदारों और छोटे-छोटे बितरकों के ज़रिये यह पानी रेहड़ी-पटरी वालों से लेकर दुकानदारों तक पहुँचाया जाता है।

दिल्ली सरकार के पूर्व अधिकारी मोतीलाल का कहना है कि एक ओर तो सरकार पन्नी (पॉलिथीन) पर पाबंदी लगा रही है, तो दूसरी ओर पॉलिथीन में पानी बेचा जा रहा है। इससे लोगों के स्वास्थ्य को तो हानि होनी ही है, साथ ही पर्यावरण को भी ख़तरा है। मोतीलाल का कहना है कि शासन-प्रशासन को इस मामले में कार्रवाई करनी चाहिए; लेकिन यह सब भ्रष्टाचार के चलते नहीं हो पा रहा है। मोतीलाल का कहना है कि जागरूक लोग तो पाउच का पानी नहीं पीते हैं। लेकिन गाँव के सीधे-साधे और इसके नुकसान से अनजान लोग जाने-अनजाने इस पानी का सेवन करके कहीं भी ख़ाली थैलियों को फेंक देते हैं। यही काम प्लास्टिक की बोतल का पानी पीने वाले अधिकतर लोग करते हैं।

सदर बाज़ार के व्यापारी राकेश कुमार कहते हैं कि अजीब विडम्बना है कि एक ओर तो सरकार पॉलिथीन पर रोक लगा रही है। वहीं देश का कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है, जहाँ पर पानी की बोतलें और पाउच बनाने की फैक्ट्री न चल रही हो। ऐसे में पानी का पाऊच और बोतलों में पानी बेचने के कारोबार को रोक पानी मुश्किल है।

पानी बचाओ, पर्यावरण बचाओ अभियान मंच के प्रमुख व लेखक पीयूष जैन का कहना है कि दिल्ली सहित पूरे देश में भूजल दोहन का काम बड़ी तेज़ी से हो रहा है। यह पर्यावरण और मानव जाति के लिए ख़तरानाक साबित हो रहा है। ऐसे में भूजल दोहन न सिर्फ़ व्यापार के लिहाज़ से, बल्कि घरेलू उपयोग के लिए भी नहीं किया जाना चाहिए। इसे क़ानूनी अपराध के तहत लागू किया जाना चाहिए।

पीयूष जैन का कहना है कि सन् 2017 से केंद्र से लेकर कई राज्य सरकारों ने भूजल दोहन रोकने की बात तो की है; लेकिन यह मामला सियासी दाँव-पेच में फँसकर रह जाता है, जिसके चलते इस मामले में कोई ठोस पहल नहीं हो सकी है। यही वजह है कि भूजल का दोहन हर स्तर पर धड़ल्ले से हो रहा है। अगर केंद्र सरकार ने समय रहते इस दिशा में कारगर क़दम नहीं उठाये, तो आने वाले दिनों में भयानक जल संकट का सामना करना होगा। जिस तरह से भूजल का स्तर दिन-ब-दिन गिर रहा है, उसके लिए लोग तो ज़िम्मेदार हैं ही, शासन-प्रशासन भी ज़िम्मेदार है।

बताते चलें सर्दियों में पानी के कारोबार में तो कुछ मंदी होती है; लेकिन फरवरी-मार्च से पानी का कारोबार तेज़ी से फैलता है। पानी का कारोबार करने वाले भली-भाँति जानते हैं कि उनके पानी की गुणवत्ता का लेवल किस स्तर का है। इसलिए वे चिह्नित जगहों पर ही पानी का कारोबार करते हैं, ताकि किसी किसी प्रकार की कोई शिकायत होने पर बचे रह सकें।

जारों से पानी ख़रीदने वालों का कहना है कि पानी का शुद्ध सेवन करने के लिए जार का पानी ख़रीदकर पीते हैं; लेकिन कई बार इस पानी के स्वाद में भी काफ़ी अन्तर आता है। इससे यह तो पता चलता है कि पानी की गुणवत्ता ठीक नहीं है। लेकिन फिर भी जार का पानी ख़रीदकर पीते हैं। बताते चलें कि लोगों में यह बात मान्य है कि पानी जार का पीना है, जो शुद्ध होता है। यह भी एक सच्चाई है कि जो पानी के कारोबारी हैं, वे कई बार उनका आरो ख़राब होने या लम्बे समय तक जलशोधन (फिल्टर) नहीं बदलवाने के चलते सीधे बोरिंग का पानी या अशोधित-अद्र्धशोधित पानी ही लोगों को वितरित (सप्लाई) कर देते हैं।

लेकिन वे पानी की गुणवत्ता जाने बग़ैर सस्ते के चक्कर में इस पानी का सेवन करते हैं, जबकि दिल्ली जलबोर्ड का पानी भी पीने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। हालाँकि जल बोर्ड के पानी को लेकर भी लोगों की अलग-अलग शिकायतें और समझ है।

दिल्ली के शकरपुर निवासी प्रदीप कुमार का कहना है कि सरकार और लोगों के साथ किस हद तक मज़ाक़ किया जा रहा है, ये किसी भी जलशोधन संयंत्र में जाकर देखा जा सकता है। उनका कहना है कि गर्मियों के दिनों में पानी की माँग ज़्यादा होती है। लेकिन संयंत्र की क्षमता कम होने के कारण पानी बिक्रेता जागरूक लोगों को आरो-मशीन द्वारा शोधित पानी ही बेचते हैं। बाक़ी लोगों को बिना शोधन के ही जारों में पानी भरकर बेच देते हैं। और तो और उनके पास पानी ठण्डा करने की मशीन ख़राब होने की स्थिति में बाज़ार से कच्ची बर्फ़ ख़रीदकर पानी में डाल देते हैं, जो पूरी तरह से स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। लेकिन भ्रष्टतंत्र में सब चल रहा है।

भारतीय कारीगरों के हाथों से छिन रहा हस्तशिल्प का काम

प्रधानमंत्री मोदी के हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के बावजूद इस क्षेत्र छायी मंदी, बेरोज़गारी की मार झेल रहे हज़ारों लोग

इन दिनों पूरी दुनिया कोरोना महामारी की तीसरी लहर के ख़ौफ़ में आगे बढऩे की कोशिश में है। भारत में कोरोना महामारी की दो लहरों से मची त्रासदी और तालाबन्दी के बुरे दौर के बाद लोगों ने एक नयी हिम्मत और ऊर्जा के साथ दोबारा काम शुरू कर दिया है।

इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकारें हर तरह से कोशिश में हैं कि सभी छोटे-बड़े उद्योग-धन्धे दोबारा से सुचारू रूप से चल सकें। इसी के चलते प्रधानमंत्री मोदी ने हस्तशिल्प कारीगरों को कई बार प्रोत्साहित किया है और इन दिनों भी उनका एक पोस्टर व्यापार मेले में हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के लिए जगह-जगह देखने को मिल रहा है। पिछले दो साल में इस बार दिल्ली में ठीक से विश्व व्यापार मेला भी लगा है। लेकिन इस मेले में भी न तो विदेशी लोग पहले की तरह आये हैं और न ही मेले में पहले जैसी रौनक़ ही है। इसकी वजह यह भी है कि क़रीब दो साल में देश के अधिकतर छोटे-बड़े उद्योगों को ख़ासा नुक़सान पहुँचा है, जिसमें सबसे ज़्यादा प्रभावित लघु उद्योग हुए हैं। ऐसे में इनमें काम करने वाले कामगारों, कारीगरों और दिहाड़ी मज़दूरों की स्थिति काफ़ी दयनीय बनी हुई है। पिछले डेढ़-दो साल में हस्तशिल्प के कारीगरों पर जिस तरह से मार पड़ी है, उससे देश भर के हस्तशिल्प के लाखों कारीगर अभी भी बेरोज़गारी की दशा में हैं। अगर कुछ हद तक हस्त शिल्प का काम शुरू भी हो गया है, तो उसने उतनी गति नहीं पकड़ी है, जितनी कि पहले थी। चाहे वह लखनऊ, बरेली की विश्व विख्यात चिकनकारी और ज़री-ज़रदोज़ी का काम हो या फिर चाहे बनारस की बनारसी साड़ी और खिलौनों का धन्धा हो।

सन् 2018 से ही बनारस के साड़ी कारीगर प्रदेश में महँगी बिजली, कच्चे माल पर बढ़ी महँगाई और प्रदेश सरकार के तरह-तरह की कर व्यवस्था से परेशान आज भी परेशान हैं और सरकार से राहत देने की कई बार माँग कर चुके हैं। कई बार काम बन्द कर चुके हैं और कई बार आन्दोलन भी कर चुके हैं। प्रदेश सरकार उन्हें हर बार आश्वासन देकर किनारा कर लेती है। इसी तरह लखनऊ में ज़री-ज़रदोज़ी और चिकनकारी का काम कराने वाले संगठनों ने सरकार से कोरोना-काल में लगे दूसरे लॉकडाउन के समय ही राहत पैकेज की माँग की थी, जिस पर कोई सुनवाई नहीं हुई। हाल यह है कि पूरे प्रदेश में हर बनारस, लखनऊ और बरेली जैसे बड़े शहरों से लाखों कारीगरों, कामगारों के हाथ आज भी ख़ाली हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, बनारस में केवल बनारसी साडिय़ों का सालाना कारोबार तकरीबन 15,000 करोड़ रुपये का, जबकि लकड़ी के खिलौनों का सालाना कारोबार 15 से 20 करोड़ रुपये का था, जो कि घटकर बहुत कम रह गया है। अकेले बनारस में साड़ी के कारोबार के लिए 2014-15 में क़रीब 30,000 हथकरघा और क़रीब 90,000 पॉवरलूम चलते थे, जो अब तक़रीबन 70 फ़ीसदी रह गये हैं। इस कारोबार से लाखों लोग जुड़े थे, जबकि इसके क़रीब एक-चौथाई लोग लकड़ी के खिलौने से जुड़े थे। इन दोनों ही प्रकार के हस्तशिल्प से अब बहुत-से लोग दूर हो चुके हैं।

मोदी सुनें जन के मन की बात

पिछले साल 30 अगस्त 2020 को ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने अपने कार्यक्रम मन की बात में भारत को आत्मनिर्भर बनाने की दिशा में देशी खिलौने बनाने को बढ़ावा देने और लोगों को लकड़ी के खिलौनों के धन्धे से जुडऩे की सलाह दी थी। भारतीय खिलौना मेला-2021 के दौरान भी प्रधानमंत्री मोदी ने लकड़ी के खिलौने बनाने की अपील भारतीय कारीगरों से की थी और कहा था कि लकड़ी के खिलौने पर्यावरण के अनुकूल होते हैं। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने कभी अपने ही लोकसभा क्षेत्र बनारस के लकड़ी के खिलौने और साड़ी बनाने वाले कारीगरों और इन उद्योगों से जुड़े लोगों के दर्द को नहीं समझा। उन्हें जनता के मन की बात सुननी भी चाहिए और समझनी भी चाहिए। उन्हें समझना होगा कि कोरोना महामारी और चीन के कपड़े, खिलौनों और अन्य सामान की भरमार से भारतीय कारीगरों, कामगारों पर क्या बीत रही है?

सीधी सी बात है कि इस उद्योग को अगर वास्तव में वह बढ़ाना चाहते हैं, तो केंद्र सरकार इसके लिए एक राहत पैकेज और इस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए इस हस्तशिल्प के उद्योग से जुड़े लोगों को सुविधाएँ मुहैया कराये, ताकि भारत के इस परम्परागत कुटीर उद्योग की कमर टूटने से बचायी जा सके। इसके लिए चीन के हानिकारक खिलौनों पर भी रोक लगानी होगी। सन् 2019 में भारतीय गुणवत्ता परिषद् (क्यूसीआई) ने अपनी एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसमें कहा गया था कि रसायन (केमिकल) युक्त क़रीब 67 फ़ीसदी विदेशी खिलौने भारत के बच्चों के लिए घातक साबित हो रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक, चीन हर साल भारत को क़रीब 1500 अरब के खिलौने निर्यात करता है, जबकि भारत पूरे विश्व को 20 अरब से कम के खिलौने ही निर्यात कर पाता है, जो कि पूरे विश्व में खिलौने के निर्यात की केवल पाँच फ़ीसदी हिस्सेदारी है। यह तब है, जब पूरी दुनिया में भारत के खिलौनों की माँग बहुत ज़्यादा है। यानी अगर केंद्र सरकार देश के खिलौना उद्योग को बढ़ावा दे, तो न केवल लाखों लोगों को इस उद्योग से काम मिलेगा, बल्कि केवल इसी उद्योग से भारत को एक बड़ी विदेशी रक़म प्राप्त होगी, जिससे देश मज़बूत होगा।

क्या कहते हैं लोग?

बनारसी साड़ी बनाने वाले कारीगर शफी अहमद अंसारी कहते हैं कि कोरोना के आने के बाद काम तो बन्द हो गया था। अभी चार-पाँच महीने से काम शुरू हुआ है। कोरोना-काल में हमे साड़ी की बुनाई भी कम मिलने लगी है। काम भी बहुत कम है। हमें एक साड़ी बुनने के 200 रुपये ही मिलते हैं। दिन भर में अगर काम ठीक हो, तो दो साडिय़ाँ हम बुन पाते हैं। इसी में परिवार चलाना है। बनारस में 90 फ़ीसदी कारीगर हैं और 10 फ़ीसदी मालिक हैं। कोरोना की मार मालिकों पर भी पड़ी है, मगर मज़दूरों पर इसकी मार ज़्यादा पड़ी है। पहले हमें काम भी भरपूर मिलता था और पाँच साल पहले एक साड़ी की बुनाई की मज़दूरी 225 से 230 रुपये मिलते थे। कोरोना आने के बाद मज़दूरी कम हो गयी; चाहे साड़ी 1,000 रुपये की बुनें या 10,000 की। गैस से लेकर तेल, सब्ज़ी सब कुछ महँगा हुआ है; लेकिन हमारी आमदनी भी कम हुई है। हमारे साथ ज़्यादती बीच के लोग करते हैं। उनकी समस्या है कि बिजली महँगी हुई है, हाउस टैक्स बढ़ा है। रेशम के भाव भी बढ़े हैं। जो रेशम आज से सात-आठ साल पहले 2,000 रुपये किलो मिलती थी, वही रेशम आज 7,000 रुपये किलो मिलती है। साडिय़ों के दाम भी बढ़े हैं। मगर हमारी मज़दूरी घटी है। कभी हम लोग परम्परागत और हुनर का काम होने की वजह से इस काम को सीखकर इसी से जीवन का गुज़ारा करने की सोच से इस काम में आये थे, मगर आज बहुत परेशानी में हैं और हम कारीगरों की कहीं कोई सुनवाई नहीं है।

बनारस में ही साडिय़ों के काम से जुड़े संगठन बुनकर साझा मंच एवं कम्युनिस्ट फ्रंट के संयोजक मनीष शर्मा ने बताया कि पिछले कई सरकारों ने बुनकरी को लेकर कोशिश की है कि कैसे इस कारोबार में बड़ी पूँजी आये यानी इस धन्धे को कॉर्पोरेट घराने चलाएँ और इस काम में जो अभी तक काम कर रहे हैं, वो मज़दूर बनकर रह जाएँ। मोदी सरकार जबसे आयी और उत्तर प्रदेश में योगी सरकार आने के बाद इस काम को कॉर्पोरेट हाथों में सौंपने की कोशिशें तेज़ हुई हैं। बिजली बिल पहले मशीनों के हिसाब से था, जिसे फ्लैट रेट यानी फिक्स रेट कहते हैं। यह बिजली बिल ज़्यादा से ज़्यादा 75 रुपये से लेकर 150 रुपये महीने का आता था। उसमें कितनी बिजली इस्तेमाल होगी, इसे नहीं देखा जाता था। क्योंकि यह लघु उद्योग है और इनकी स्थापना छोटी पूँजी वाले लोगों को बढ़ावा देने के लिए की गयी थी। इसीलिए इसमें बहुत पूँजी वाले लोग इसमें नहीं हैं। अब बिजली बिल प्रति यूनिट के हिसाब से  2,500 से 3,500 रुपये तक बिजली बिल आ जाता है। इसे लेकर एक साल से ज़्यादा समय से हम लोग आन्दोलन कर रहे हैं। इससे सरकार पर दबाव बना और वापस फ्लैट रेट पर सरकार मान गयी, और यह तय हुआ कि जब तक नया सर्कुलर जारी नहीं होता, तब तक पुराने पुराने तरीक़े से ही फ्लैट रेट पर ही बिजली बिल लिया जाए। लेकिन सरकार ने लिखित में यह आदेश नहीं दिया है। इसके चलते बिजली विभाग किताब पर जमा बिल नहीं चढ़ा रही है। मतलब बिल काटकर नहीं दे रहा है। इससे यह होगा कि अगर सरकार अपनी बात से मुकरती है, तो बुनकर लाखों के बिजली बिल क़र्ज़ में आ जाएँगे। पहले बुनकरों के लिए अलग से मंत्रालय था, जो कि सब्सिडी के रूप में बिजली विभाग को पैसा देता था, जिससे बुनकरों पर कम भार पड़ता था। लेकिन 2015 में केंद्र सरकार ने बिजली की सब्सिडी देने का ज़िम्मा केंद्रीय कपड़ा मंत्रालय को दे दिया, तब से बुनकरों को परेशानी हो रही है। मुझे लगता है कि अब इस सरकार के इस कार्यकाल में बुनकरों की इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है। यह सरकार आगामी सरकार पर यह सब डालना चाहती है। अब जो भी नयी सरकार बनेगी, देखते हैं कि वह बुनकरों के लिए क्या करती है। लेकिन हम लोग विधानसभा चुनाव में यह मुद्दा उठाएँगे और सरकार की बुनकर विरोधी नीतियों का विरोध करेंगे। योगी सरकार पर बुनकर किसानों की तरह ही भरोसा नहीं कर सकते। जैसे किसान कृषि क़ानूनों को लेकर विरोध कर रहे हैं, वैसे ही बुनकर भी अपने काम में आ रही परेशानियों और सरकार की नीतियों को लेकर विरोध करेंगे। दूसरा कच्चे माल की सही दाम पर उपलब्धता और तैयार माल को सही भाव मिलने को लेकर भी आवाज़ उठायी जाएगी। इसी तरह कई और भी बड़े सवाल हैं, जिनका जवाब सरकार से माँगा जाएगा।

खिलौना उद्योग की दशा के बारे में मनीष शर्मा कहते हैं कि बनारस का लकड़ी खिलौना उद्योग भी बिल्कुल चौपट पड़ा है। लोग डरकर चाहे जो कहें; लेकिन सच्चाई यह है कि तालाबन्दी के समय से धन्धा बिल्कुल चौपट हुआ है। बुनकरों और खिलौना कारीगरों का पलायन बहुत तेज़ी से हुआ है। खिलौना उद्योग बर्बाद हो गया है। खिलौना उद्योग तो ख़त्म होने के कगार पर है, कारीगरों की बुरी दशा है।

वहीं बनारस में ही लकड़ी के खिलौने बनाकर उनका व्यापार करने वाली कम्पनी अग्रवाल टॉय इम्पोरियम के मालिक बिहारी लाल अग्रवाल ने बताया कि बनारस में लकड़ी के काम की शुरुआत हमारे ही परिवार से हुई थी। इस काम की शुरुआत मेरे दादा नरसिंह दास अग्रवाल ने की थी और मैंने इस काम को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचाने का काम किया है। आज हमारे खिलौनों का इंटरनेशनल स्तर पर भी निर्यात होता है। अभी हमारी कम्पनी में 110 कारीगर लोगों का परिवार है, जिनके साथ हम अपना काम करते हैं। इसके अलावा हमारी फैक्ट्री भी है, जहाँ हम लोग प्रशिक्षण कार्यक्रम भी चलाते हैं।

अग्रवाल कहते हैं कि हमारे काम पर न तो भाजपा के आने से कोई प्रभाव पड़ है और न ही कोरोना से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ा है। बल्कि उत्तर प्रदेश में योगी सरकार के आने से हमारे लकड़ी के इस काम को बढ़ावा मिला है, क्योंकि योगी सरकार ने लकड़ी के इस काम को जीआई का टैग मिल गया। जो लोग आश्वस्त नहीं थे कि लकड़ी के काम को भी इस तरह वरीयता मिल सकती है, वो जीआई का टैग मिलने से आश्वस्त हो गये। फिर कोरोना-काल में भी हमारा काम उतना प्रभावित नहीं हुआ, जितना दूसरे काम प्रभावित हुआ, सिर्फ़ शुरू के 20-25 दिन तो परेशानी हुई; लेकिन बाद में सब ठीक हो गया। न हमारे काम पर चाइनीज खिलौनों के आने से बहुत फ़र्क़ पड़ा है। हमारे खिलौनों का निर्यात बड़े स्तर पर विदेशों में होता है। इस समय 150 से 200 करोड़ का सालाना टर्नओवर लकड़ी के खिलौनों का है। हमने इको फ्रेंडली और बेहतर खिलौने बनाने शुरू कर दिये, जिनकी माँग विदेशों में बहुत है। इस समय हमारी चौथी पीढ़ी इस काम को सँभाल रही है, जिसमें मेरी बेटी आती है।

कुल मिलाकर बनारस बनारसी साड़ी और लकड़ी के खिलौनों में दुनिया भर में जाना जाता है; लेकिन आज दोनों ही उद्योग चौपट होते जा रहे हैं, जिससे लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी पर संकट के बादल छाये हुए हैं। इन दोनों उद्योगों से जुड़े अनेक लोगों से बात करने पर यही परिणाम निकलकर सामने आया कि अगर केंद्र और राज्य सरकार चाहें, तो बनारस के सदियों पुराने इन दोनों उद्योगों को बचाया जा सकता है, अन्यथा इन उद्योगों पर भी उद्योगपतियों की गिद्ध दृष्टि टिक चुकी है और वे मोटी कमायी वाले इन दोनों उद्योंगों को कृषि क्षेत्र की तरह ही अपने अधीन करके मोटी कमायी करना चाहते हैं।

बनारस के रहने वाले अवधेश सिंह कहते हैं कि अगर बनारस की पहचान वाले इन दोनों उद्योगों को बचाना है, तो इन उद्योगों से जुड़े सभी लोगों को एक साथ आना होगा। इस समय समस्या यह है कि इन दोनों उद्योगों से जुड़े लोगों की अपनी-अपनी समस्याएँ हैं और दोनों ही उद्योगों के लोग अपनी-अपनी लड़ाई अलग-अलग होकर लड़ रहे हैं। इसमें भी एक समस्या यह है कि बुनकर उद्योग से जुड़े लोगों में भी अलग-अलग लड़ाइयाँ हैं। इस उद्योग के कारीगरों की लड़ाई अलग है। कामगारों की लड़ाई अलग है; तो पॉवरलूम और हथकरघा मालिकों की लड़ाई अलग है। इसी तरह खिलौना उद्योग में भी मालिकों की लड़ाई अलग तरह की है और कारीगरों की लड़ाई अलग तरह की है। जबकि सबकी समस्या एक जैसी ही है। पहली इन उद्योगों के अस्तित्व को बचाना और दूसरी सरकार की उद्योग विरोधी नीतियों को ख़त्म कराना। तो पहले इस सबको मिलकर इन दोनों मुद्दों पर एकजुट होकर सरकार से लडऩा चाहिए। अगर सरकार से वे लड़ाई जीत जाते हैं, तो मालिक-नौकर की लड़ाई का निपटारा भी आसानी से हो जाएगा। मालिक और नौकरों की लड़ाई तो वैसे भी मुद्दतों पुरानी है और दोनों ही में वेतन और काम को लेकर लड़ाई चलती रहती है। लेकिन इस काम में सरकार कोई मदद नहीं करती, अन्यथा यह समस्या भी कब की ख़त्म हो गयी होती। लेकिन ज़रूरी यह है कि पहले देश के उद्योग बचे। उद्योग बचेंगे, तो लोगों को काम भी भरपूर रहेगा और कामगारों को मज़दूरी भी उचित मिलेगी।

भारत के ख़िलाफ़ ख़तरनाक चालें चल रहा चीन

परमाणु बम और मिसाइलें बनाने में पाकिस्तान की मदद कर रहा है चीन

भारत का इतिहास पड़ोसी देशों की सहायता और शान्ति का रहा है। लेकिन अगर दुश्मन देश भारत की शान्ति प्रक्रिया में दख़ल डालता है, तो वह उसे नाकों चने चबवाने का वजूद रखता है। लेकिन बड़ी बात यह है कि चीन पिछले कई साल से भारत को कमज़ोर करने की चालें चल रहा है, फिर भी भारत की सरकार चुपचाप सब बर्दाश्त कर रही है।

हालत यह है लोगों ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चीन को लाल आँखें दिखाने वले बयान पर कई बार सवाल खड़े किये हैं। चीन की कूटनीति बड़ी ख़तरनाक और मानवता विरोधी है। वह भारत की ज़मीन पर क़ब्ज़ा करने के अलावा हमारे पड़ोसी देशों को अपने फेवर में लेकर या उन्हें भी कमज़ोर करके अपना बर्चस्व बढ़ा रहा है।

हाल ही में अमेरिका ने एक ऐसी चीनी साज़िश का ख़ुलासा करते हुए कहा कै कि चीन भारत के ख़िलाफ़ पाकिस्तान को खड़ा करने की एक नयी रणनीति के तहत काम कर रहा है। अमेरिका ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिन्ताओं का हवाला देते हुए कहा है कि चीन पाकिस्तान को परमाणु बम और मिसाइलें बनाने में मदद कर रहा है।

इसके साथ ही अमेरिका ने चीन की दर्ज़नों कम्पनियों के साथ-साथ चीन, पाकिस्तान, जापान और सिंगापुर के कुल 27 संगठनों और लोगों को व्यापार की काली सूची में डाल दिया है। इसके कारण बताते हुए अमेरिका ने कहा है कि प्रतिबन्धित कम्पनियाँ पीएलए (पीपुल्स लिबरेशन आर्मी) को क्वांटम कम्प्यूटिंग के प्रयासों में भी मदद कर रही थीं। अमेरिका ने इन कम्पनियों पर पाकिस्तान के परमाणु गतिविधियों और मिसाइल बनाने के कार्यक्रमों में योगदान देने जैसा गम्भीर आरोप लगाते हुए अमेरिका के वाणिज्‍य मंत्री गिना रैमोंडो अपने एक बयान में कहा है कि इस क़दम से अमेरिकी तकनीक की मदद से पाकिस्तान के असुरक्षित परमाणु कार्यक्रम या मिसाइल कार्यक्रम पर रोक लगेगी और कोई भी सामान बेचने से पहले इन देशों की कम्पनियों को अमेरिकी सरकार से अनुमति लेनी होगी। अमेरिकी सूत्रों का कहना है कि प्रतिबन्धित संगठनों को अब यह अनुमति नहीं मिलेगी।

पिछली रिपोट्र्स इस बात का दावा करती हैं कि चीन भारत के ख़िलाफ़ जंग की तैयारी कर रहा है और इसके लिए उसने ख़ुद हथियारों का संग्रह किया है, जिसकी चर्चा पिछले साल संसद में ख़ुद रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने की थी। अभी नवंबर में अमेरिकी रक्षा सूत्रों ने दावा किया है कि चीन भारत के पड़ोसी दुश्मन देशों को भी अपने रहम-ओ-क़रम और शह पर हथियारों से मज़बूती प्रदान कर रहा है, जिसमें पाकिस्तान सबसे आगे है। पिछले दिनों कुछ ख़बरें आयीं, जिनमें कहा गया कि चीन लगातार पाकिस्तानी सेना को आधुनिक हथियारों की आपूर्ति कर रहा है।

हाल ही में पाकिस्तान की सेना ने चीन द्वारा निर्मित किया गया HQ-9/P HIMADS  वायु रक्षा प्रणाली (एयर डिफेंस सिस्‍टम) अपनी सेना में शामिल किया था। खास बात यह है कि पाकिस्तान ने यह सब भारत की वायुसेना में एस-400 एयर डिफेंस सिस्‍टम के शामिल होने से ठीक पहले किया, वह भी तब जब भारत की वायुसेना में ताकतवर मिसाइलें और एस-400 एयर डिफेंस सिस्टम के शामिल होने की ख़बरें सामने आयीं। पाकिस्तान ने HQ-9/P HIMADS वायु रक्षा प्रणाली को शामिल करने के दौरान यह दावा किया था कि चीनी वायु रक्षा प्रणाली लम्बी दूरी तक सतह से हवा में मार करने वाली मिसाइलों से लैस है और यह 100 किलोमीटर तक फाइटर जेट, क्रूज मिसाइलों व अन्‍य हथियारों को एक ही वार से पूरी तरह नष्ट कर सकता है। सोचने वाली बात यह है कि चीन ने भारत के तक़रीबन सभी पड़ोसी देशों को या तो अपने पक्ष में कर रखा है या उन्हें डराकर भारत के ख़िलाफ़ कर रखा है। यहाँ तक कि भारत से डरने वाले छोटे-छोटे पडोसी देश भी अब भारत को आँख दिखाने लगे हैं।

बता दें कि 15-16 जून, 2020 को लद्दाख़ की गलवान घाटी में चीन की सेना पीएलए ने भारत और चीन सीमा लाइन ऑफ एक्चुअल कंट्रोल (एलएसी) से भारत में घुसपैठ की, जिसके बाद दोनों सेनाओं के बीच हुई झड़प हुई। चीनी सेना के पास राड और दूसरे हथियार थे, जबकि भारतीय सैनिक निहत्थे थे, जिससे हमारे एक कर्नल समेत 20 सैनिक शहीद हो गये। हालाँकि इस झड़प में चीन के सैनिकों के हताहत होने और मारे जाने की भी ख़बरें सामने आयीं; लेकिन चीन ने इससे साफ़ इन्कार किया।

भारतीय सीमा में चीनी गाँव

अमेरिकी रक्षा विभाग पेंटागन ने पिछले दिनों अपनी सालाना रिपोर्ट में दावा किया था कि चीन ने एलएसी के पास अरुणाचल के अपर सुबनसिरि ज़िले में एक बड़ा गाँव और चीन ने सेना की चौकी भी बना रखी हैं। अरुणाचल प्रदेश के लोगों ने भी चीन द्वारा भारतीय सीमा में गाँव बसाये जाने की बात सोशल मीडिया के माध्यम से ज़ोर-शोर से उठायी है।

पेंटागन ने अपनी इस रिपोर्ट में ये भी दावा किया था कि भारतीय सीमा में चीनी सेना की यह चौकी पिछले कुछ साल पहले बनी थी। पेंटागन का कहना है कि चीन ने जिस इलाक़े में यह गाँव बसाया है, वह क़रीब छ: दशक पहले 1959 में पीतलए ने असम राइफल पोस्ट पर क़ब्ज़ा करके हथिया लिया था। अरुणाचल प्रदेश में इसे लोंगजु घटना के नाम से जाना जाता है।

बता दें कि 5 मई 2020 में जब चीन और भारत की सेनाओं के बीच गतिरोध शुरू हुआ और यह चरम पर पहुँचा, और चीन द्वारा भारत की बड़ी ज़मीनें हथियाने की ख़बरें फैलीं, तब रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने संसद में कहा था कि चीन ने मई और जून में यथास्थिति को बदलने की कोशिश की, मगर भारतीय सेना ने उसके प्रयासों को विफल कर दिया।

लेकिन रक्षा मंत्री ने स्वीकार किया कि केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ में चीन ने लगभग 38,000 वर्ग किलोमीटर के अवैध क़ब्ज़े में है। उन्होंने यह भी कहा कि चीन ने अरुणाचल प्रदेश में भारत-चीन सीमा के पूर्वी क्षेत्र में लगभग 90,000 वर्ग किलोमीटर भारतीय क्षेत्र का दावा किया है। साथ ही उन्होंने कहा कि बीजिंग (चीन की राजधानी) ने सन्धि नियमों का पालन नहीं किया। उन्होंने कहा कि हम मानते हैं कि यह सन्धि अच्छी तरह से स्थापित भौगोलिक सिद्धांतों पर आधारित है। दोनों देशों ने सन् 1950 और सन् 1960 के दशक के दौरान विचार-विमर्श किया था; लेकिन इन प्रयासों से पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान नहीं निकल सका। सीमा प्रश्न एक जटिल मुद्दा है, जिसके लिए धैर्य की ज़रूरत है, और बातचीत तथा शान्तिपूर्ण वार्ता के माध्यम से उचित और पारस्परिक रूप से स्वीकार्य समाधान की माँग करने के लिए प्रतिबद्ध है, जिसके लिए शान्ति ज़रूरी है। लेकिन सम्प्रभुता से कोई समझौता नहीं हो सकता। उन्होंने कहा कि हम इस मुद्दे का शान्तिपूर्ण तरीक़े से हल करना चाहते हैं। काश चीन इस बात को समझे और अपने ढीढता और उद्दण्ता भरी नीच हरकतों से बाज़ आये।

चीन ने भूटान की सीमा पर भी बसाये चार गाँव

चीन ने भारत की सीमा पर ही नहीं, भूटान की सीमा पर भी डोकलाम पठार के पास चार गाँव मई, 2020 से लेकर नवंबर, 2021 में बसा लिये हैं। इस बात का दावा ओपन सोर्स अकाउंट डेट्रस्फा ने इसी नवंबर, 2021 में किया है। चीन ने ये गाँव डोकलाम के पास बसाये हैं, जहाँ 2017 में भारत और चीन की सेनाओं में हल्का-फुल्का तनाव हुआ था। यह हिस्सा भारत के चिकन नेक गुज़रता है।

चीन से भारत ही कर सकता है मुक़ाबला

यह सच है कि एशिया में चीन और भारत, दो ही सबसे ताक़तवर देश हैं और भारत ही चीन को सबक़ सिखा सकता है। लेकिन एक तरफ़ जहाँ चीन अपनी ताक़त बढ़ाने के साथ-साथ भारत और दूसरे पड़ोसी देशों की सीमाओं पर दबदबा बढ़ा रहा है, वहीं भारत अपनी प्राचीन शान्ति परम्परा का निर्वहन करते हुए ख़ामोश दिख रहा है। बड़ी बात यह है कि पिछले कुछ साल से भारत के अपने अन्य पड़ोसी देशों भी सम्बन्ध खटास भरे हुए हैं। अन्यथा भारत अगर चाहे तो चीन और पाकिस्तान के अलावा अपने बाक़ी पड़ोसी देशों से फिर से अच्छे सम्बन्ध बनाकर उनके साथ मिलकर चीन को ललकार सकता है।

उत्तर प्रदेश में इतनी शिद्दत से क्यों जुटे हैं प्रधानमंत्री?

The Prime Minister, Shri Narendra Modi addressing at the dedication of the various developmental projects to the nation, in Mahoba, Uttar Pradesh on November 19, 2021.

सन् 2014 में जब गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र की सत्ता में सर्वोच्च पद पर आसीन होने का मन बनाया, तो उन्होंने उत्तर प्रदेश के बनारस से लोकसभा चुनाव लडऩे का फ़ैसला लिया। और यह उनके लिए केवल भाग्यशाली ही साबित नहीं हुआ, बल्कि वह देश के प्रधानमंत्री भी बने। सवाल यह है कि मोदी ने चुनाव के लिए उत्तर प्रदेश को ही क्यों चुना? जबकि गुजरात उनका गृहराज्य है और वहाँ उन्होंने लगभग 14 साल शासन किया। इतना ही नहीं, ख़ुद भाजपा यह मानती है कि गुजरात के लोग नरेंद्र मोदी के कामों से बहुत प्रभावित हैं और वे उन्हें मसीहा के रूप में देखते हैं। अगर ऐसा था, तो भी नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले ही लोकसभा चुनाव मोदी ने वहाँ से क्यों नहीं लड़ा? इसकी वजह यह रही कि वह जानते थे कि उत्तर प्रदेश को जीतना देश को जीतना है।

हालाँकि इसकी दूसरी वजह यह भी है कि अपने गाँव का ग़रीब भी दूसरे गाँव में जाकर ख़ुद को अमीर बता सकता है। मोदी ने भी इसी नीति का सहारा लिया और पूरे देश में इस तरह प्रचार किया कि मानों उन्होंने गुजरात को स्वर्ग बना दिया हो, और इसे गुजरात मॉडल का नाम दिया। पूरे देश के लोगों ने इस पर भरोसा किया और सन् 2014 में उन्हें और उनके नेतृत्व में भाजपा को जबरदस्त सीटों से जीत का सहरा पहनाया। तबसे लेकर नरेंद्र मोदी के दूसरे प्रधानमंत्री के कार्यकाल तक उत्तर प्रदेश में 2022 का यह दूसरा विधानसभा चुनाव होने जा रहा है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहाँ डेरा डाल चुके हैं। हालाँकि इसके अलावा वह बिहार और बंगाल में भी जमकर रैलियाँ करते रहे हैं; लेकिन इतने बड़े स्तर पर नहीं। इसका जवाब सभी जानते हैं कि अगर उत्तर प्रदेश हाथ से गया, तो देश की सत्ता भी हाथ से जाएगी।

सन् 2017 के उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी प्रधाननमंत्री ने चार महीने पहले से ही वहाँ प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया था और ताबड़तोड़ लगभग दो दर्ज़न रैलियाँ की थीं। अब इस बार भी वह बीते अक्टूबर से ही उत्तर प्रदेश में रैलियाँ करने लगे हैं। विकास के लिए कई बजटों का ऐलान कर चुके हैं और लोगों को अपनी और उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के फ़ायदे गिना रहे हैं। वैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार बिना चुनावों के भी उत्तर प्रदेश जाते रहे हैं। ख़ुद को माँ गंगा का बेटा कहने वाले मोदी अपनी कर्मभूमि अब उत्तर प्रदेश को ही मानने लगे हैं। यह भूमि उनके लिए भाग्यशाली भी है। क्योंकि अभी तक उनका देश की सत्ता पर एकाधिकार बना हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि उनके प्रधानमंत्री बनने से उत्तर प्रदेश का बहुत भला हुआ हो। वहाँ भी देश के दूसरे प्रदेशों की तरह महँगाई, बेरोज़गारी, भुखमरी और अपराध बढ़े हैं, बल्कि अपराध में उत्तर प्रदेश के मुक़ाबले कोई दूसरा प्रदेश नहीं दिखायी देता।

चुनाव वाले दूसरे प्रदेशों पर इतनी मेहरबानी क्यों नहीं?

उत्तर प्रदेश के अलावा इसी दौरान गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तराखण्ड के भी चुनाव हैं; लेकिन देखा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पार्टी की जीत के लिए हर राज्य से ज़्यादा उत्तर प्रदेश में रैलियाँ करते दिखे हैं। न तो वह अभी तक पंजाब गये हैं और न ही किसी अन्य राज्य में जाने की उन्हें जल्दी है। उत्तर प्रदेश में अब तक वह कई रैलियाँ करने लगे हैं। हालाँकि भाजपा के कुछ नेता दबी ज़ुबान से साफ़ कह रहे हैं कि मोदी उत्तर प्रदेश तो जीतना चाहते हैं, मगर वह ये नहीं चाहते कि योगी की जीत हो और वह दोबारा मुख्यमंत्री बनें।

इसके लिए एक भाजपा नेता ने नाम न छापने की गुज़ारिश करते हुए क़सम दिलाकर कहा कि देखिए, यह बात कई मौक़ों पर ज़ाहिर हो चुकी है कि प्रधानमंत्री उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से कहीं-न-कहीं ख़फ़ा हैं। पहली बार सन् 2017 में भी मोदी नहीं चाहते थे कि योगी प्रदेश के मुख्यमंत्री बनें और यह लड़ाई अन्दरखाने चुनाव जीतने के बाद ख़ूब चली। लेकिन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने योगी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए दबाव बनाया और मोदी को मजबूरन उन्हें राज्य का मुख्यमंत्री बनाने का ऐलान करना पड़ा। उसके बाद गोरखपुर और फूलपुर की लोकसभा सीटें ख़ाली होने के बाद वहाँ के उप चुनाव में दोनों सीटों पर भारतीय जनता पार्टी की करारी हार हुई। योगी आदित्यनाथ कई बार इस सीट पर जीत चुके थे, फिर भी उसे बचा नहीं पाये।

यह सब भी ऐसे ही नहीं हुआ। इस बार जैसे ही चुनाव आयोग ने पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव मार्च, 2022 में कराने की घोषणा की, उत्तर प्रदेश में यह बात उठी कि इस बार राज्य में मुख्यमंत्री चेहरा कौन होगा?

केंद्र की मोदी सरकार की तरफ़ से साफ़ संकेत आये कि योगी मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं होंगे। लेकिन एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का दबाव पड़ा और मोदी को उसके निर्णय के आगे झुकना पड़ा और एक बार फिर योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित किया गया। इसके बाद हाल ही में सभी ने देखा कि मोदी जी की गाड़ी के पीछे-पीछे योगी आदित्यनाथ पैदल चल रहे हैं। यह कोई छोटा संकेत नहीं है और न ही छोटी बात है। बड़ी बात यह है कि योगी को मोदी के सुरक्षाकर्मियों ने पीछे रहकर चलने को कहा। भाजपा नेता ने कहा कि उत्तर प्रदेश का चुनाव किसी भी हाल में जीतना मोदी चाहते ही चाहते हैं; लेकिन वह उत्तर प्रदेश में अपनी मर्ज़ी के चेहरे को मुख्यमंत्री बनाने के शुरू से ही इच्छुक रहे हैं।

भूलते नहीं योगी

भाजपा नेता ने आगे कहा कि देखिए, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कुछ भी नहीं भूलते। वह दोस्तों को भी याद रखते हैं और अपने दुश्मनों को भी याद रखते हैं। लेकिन योगी आदित्यनाथ भी कुछ नहीं भूलते। योगी आदित्यनाथ भविष्य में देश के प्रधानमंत्री बन सकते हैं और इसके लिए उनकी तैयारी भी चल रही है। वैसे भी मोदी के शासन के बाद उनकी जगह भाजपा में कोई दूसरा ऐसा हिन्दुत्व का दमकता चेहरा कोई और दिखायी भी नहीं देता। मैं आपसे दावे के साथ यह कह रहा हूँ कि योगी भविष्य के प्रधानमंत्री हैं और वह भी किसी बात को भूलते नहीं हैं। उन्हें सब याद रहेगा कि उन्हें किसने समर्थन दिया और किसने उन्हें धक्का दिया। भाजपा नेता की इस बात को अगर समझने की कोशिश करें, तो इसका मतलब यह हुआ कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह ही उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी न दोस्तों को भूलते हैं और न दुश्मनों को।

इसका मतलब यह भी निकलता है कि योगी आदित्यनाथ समय की प्रतीक्षा कर रहे हैं। तो क्या यह मान लिया जाए कि अगर भविष्य में यदि उन्हें मौक़ा मिला, तो वह नरेंद्र मोदी से भी इस बात का बदला लेंगे? कहावत है कि प्यार, जंग और राजनीति में सब कुछ जायज़ है और राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता, जब जिसको मौक़ा मिले दूसरे को पटखनी दे देता है। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी ने भी अपने राजनीतिक गुरु लालकृष्ण आडवाणी को भी यह मौक़ा नहीं दिया और ख़ुद प्रधानमंत्री पद पर विराजमान हो गये थे।

उत्तर प्रदेश पर विशेष कृपा क्यों?

समाजवादी पार्टी के नेता और विधानसभा टिकट के दावेदार ओमप्रकाश कहते हैं कि यही अंतर्कलह भाजपा को ले डूबेगा। भाजपा जिस तरह अति विश्वास से भरकर लोगों को अभी से अपनी जीत का डंका बजाने के लिए उकसाने की कोशिश कर रही है, दरअसल वही भाजपा का असली डर है; जिसे वह उजागर नहीं करना चाहती। सच तो यह है कि इस बार भाजपा को बहुत पहले से ही अपनी हार दिखायी देने लगी है और इसी के चलते प्रधानमंत्री ने तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने की बात भी बड़ी भावुकता दिखाते हुए ऐसे कही, जैसे वह किसानों से सबसे बड़े हितैषी हैं। जबकि सच तो यह है कि आज उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में किसानों की दशा ख़राब है।

पूरे पाँच साल शासन कर चुकने के बाद प्रदेश के मुख़्यमंत्री, बल्कि मैं कहूँगा कि भाजपा के एक कट्टर नेता ने, जिन्हें किसी भी ग़रीब, दबे-कुचले और किसान का दर्द दिखायी ही नहीं देता- पाँच साल में 25 रुपये गन्ने के एक कुंतल का दाम बढ़ाया; जबकि चीनी पर इन पाँच साल में प्रति कुंतल कम-से-कम 1,000 रुपये प्रति कुंतल की बढ़त हुई है। मतलब हद कर दी। जिस किसान का गन्ना आप मुफ़्त के भाव उधारी में ख़रीदते हो, उसी को उसी के गन्ने की चीनी मनमाने दाम पर बेच रहे हो। क्या मज़ाक़ बनाकर रखा है। और अब जब किसान इसका विरोध कर रहा है, तो उससे निपटने के लिए तुम गुंडागर्दी कर रहे हो। और कह रहे हो कि यह राम राज्य है। यह कैसा राम राज्य है? जिसमें लोग इतने परेशान हैं कि अपना ही सिर धुन रहे हैं।

जो भी हो, इस समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश पर कुछ ज़्यादा ही मेहरबान हैं। हालाँकि जिन विकास योजनाओं की वह घोषणा कर रहे हैं, वो कब पूरी होंगी? नहीं कहा जा सकता। क्योंकि उनकी पहले की घोषणाएँ भी पूरी नहीं हो सकी हैं, जिनमें 24 घंटे हर घर को बिजली, हर आदमी को घर, सभी के खातों में 15-15 लाख रुपये, हर युवा को रोज़गार, बेसहारा लोगों को पेंशन, किसानों की आय दोगुनी जैसे कई वादे पूरे नहीं हुए हैं।

अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कभी झाँसी पर, तो कभी पूर्वांचल के अन्य ज़िलों पर मेहरबान होकर विकास के लिए बड़े-बड़े बजटों का ऐलान कर रहे हैं। यह बजट बाक़र्इ राज्य को मिलेगा या इन विकास की इन योजनाओं को सच में पंख लगेंगे? यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा। फ़िलहाल तो लोगों को हर बार की तरह एक बार फिर प्रदेश को स्वर्ग बनाने का सपना दिखाया जा रहा है, जिसके लिए शिलान्यास, उद्घाटन भी ख़ूब किये जा रहे हैं।

विश्व एड्स दिवस पर कार्यक्रम आयोजित

विश्व एड्स दिवस के अवसर पर राजधानी दिल्ली में विभिन्न स्वास्थ्य संगठनों द्वारा एड्स जागरूकता कार्यक्रम का आयोजन किया गया। एम्स के मेडिसन विभाग के डाँ ए. कुमार का कहना है कि एड्स एक गंभीर बीमारी जरूर है। लेकिन इसका इलाज संभव है।

एड्स रोगी अगर समय पर इलाज के साथ परहेज करें तो वह सामान्य जीवन–यापन कर सकता है। एड्स संक्रमित रोग है। जो संक्रमित रक्त से होता है। एड्स रोगी के साथ यौन सबंध बनाने से एड्स रोग होने की संभावना ज्यादा रहती है।

इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डाँ आर एन कालरा का कहना है कि एड्स को लेकर डरने की जरूरत नहीं है। बल्कि सावधान रहने की जरूरत है। एड्स रोगी से छुआछूत जैसा बर्ताव न करें। उन्होंने बताया कि एड्स रोग, एड्स रोगी से शारीरिक संबंध बनाने के साथ एड्स-संक्रमित रक्त चढ़ाने से भी होता है।

डीएमए के पूर्व अध्यक्ष डाँ अनिल बंसल का कहना है कि जागरूकता के अभाव में आज भी बच्चो में एड्स रोग के ज्यादा मामलें रहे है। वजह साफ है कि कई बार अस्पतालों में संक्रमित रक्त और एड्स की जांच न होने के कारण गर्भवती महिलायें भी एड्स रोग की चपेट में आ रही है।

डाँ बंसल का कहना है कि एड्स रोग की जांच गांव –गांव और शहरों –शहरों में होनी चाहिये। ताकि समय रहते एड्स रोगी का इलाज हो सकें।उनका कहना है कि एड्स रोग को लेकर तामाम स्वास्थ्य संगठन द्वारा जो भी सर्वे आ रहे है। वो चौकाने वाले है कि आज भी एड्स रोग के मामलों में इजाफा हो रहा है।

अपराध नहीं रोक सके योगी

वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और एक बार फिर प्रदेश चुनावी जंग का अखाड़ा बन चुका है। आरोपों-प्रत्यारोपों की नियम विहीन प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है, जिसमें जनता का तबक़ा मूक दर्शक, तो एक तबक़ा विश्लेषक बना हुआ है। हालाँकि राजनीति का अस्तित्व इस तथ्य पर निर्भर होना चाहिए कि समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित? किन्तु जब समाज ही पथभ्रष्टता और दिशा हीनता का शिकार हो, तो राजनीति और राजनेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है? फिर भी समाज के अस्तित्व के लिए कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर गम्भीर विमर्श की महती आवश्यकता है। ऐसा ही एक मुद्दा क़ानून व्यवस्था का भी है।

साल 15 मार्च, 2012 से 19 मार्च, 2017 तक समाजवादी पार्टी की सरकार अपराध एवं धार्मिक दंगे-फ़साद को लेकर आलोचना के केंद्र में रही थी। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के घोषणा-पत्र में प्रदेश से अपराध और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का मुद्दा सबसे प्रमुख था। पूरे चुनाव प्रचार में पूर्ववर्ती सपा-बसपा सरकारों के कार्यकाल में आपराधिक आँकड़ों को लेकर भाजपा नेता हमलावर थे। जनता ने भी भाजपा पर भरोसा दिखाया और सूबे की कमान उसे सौंप दी। सरकार बनने के पश्चात् मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐलान किया कि अपराधी या तो अपराध छोड़ दें या फिर उत्तर प्रदेश छोड़ दें; वरना उन्हें सही जगह पहुँचा दिया जाएगा। शायद इस सही जगह का इशारा जेल की सज़ा का था, या फिर पुलिस एनकाउंटर के माध्यम से स्वर्ग गमन! शतपथ ब्राह्मण (5/3/3/6,9) के अनुसार, ‘इहलोक का राजा देवलोक के राजा वरुण की भाँति धर्मपति था और वरुण की भाँति दुष्टों का दमन करके राज्य में सुशासन बनाये रखता था।’

जॉन लॉक भी कहते हैं- ‘सरकार का प्रथम कार्य मानव जीवन को व्यवस्थित रखने और समस्त विवादों का निर्णय करने के लिए उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का मापदण्ड निर्धारित करना है।’

ऐसे में वर्तमान सरकार का इस मापदण्ड पर मूल्यांकन तथा इस सम्बन्ध में तथ्यों की पड़ताल आवश्यक है। क्योंकि तथ्य ही तर्कों की सबसे बेहतरीन गवाही देते हैं। आँकड़ों पर ग़ौर करें, तो एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में पूरे देश में 50,74,634 आपराधिक मामले दर्ज़ किये गये, जो 2017 की तुलना में 1.3 फ़ीसदी अधिक थे। इनमें भी अकेले उत्तर प्रदेश में साल 2018 के सर्वाधिक 11.5 फ़ीसदी आपराधिक मामले दर्ज हुए, जिनकी संख्या 5,85,157 थी। यहाँ तक की महिलाओं के प्रति अपराध में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा। कुल 15.7 फ़ीसदी मामले अकेले यहीं दर्ज हुए। साल 2017 में लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ रोकने के लिए एंटी रोमियो दस्ते का गठन किया गया। इस दस्ते ने उलटे कई जगह लोगों को परेशान ही किया। साल 2019 में भी दुर्भाग्यपूर्ण रूप से देश में सर्वाधिक आपराधिक मामले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज किये गये। इनकी संख्या 6,28,578 थी। साल 2020 में साल 2019 की अपेक्षा आपराधिक मामलों में 28 फ़ीसदी की वृद्धि हुई। साल 2020 में प्रदेश में हत्या के 3779, अपहरण के 12,913 मामले दर्ज हुए। बड़ी बात यह है कि साल 2017 से हत्याओं में उत्तर प्रदेश देश में अग्रणी है।

इन आपराधिक घटनाओं में आम जनता के साथ ही पुलिसकर्मियों एवं कई पत्रकारों की भी हत्या हुई। विक्रम जोशी, सुलभ श्रीवास्तव, शुभम मणि त्रिपाठी, रतन सिंह राजेश तोमर जैसे कई पत्रकारों की अलग अलग घटनाओं में हत्या कर दी गयी। राइट एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप नामक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों की प्रताडऩा की दृष्टि से भी सन् 2020 में उत्तर प्रदेश पहले पायदान (37) पर था।

कहते हैं इतिहास ख़ुद को दोहराता है। पाँच साल पहले जिस क़ानून व्यवस्था को लेकर भाजपा तत्कालीन समाजवादी सरकार पर हमलावर थी, आज उन्हीं मुद्दों को लेकर विपक्षी दल भाजपा सरकार पर हमलावर हैं। भाजपा की सबसे बड़ी कठिनाई यह हैं कि आँकड़े और तथ्य उसके विरुद्ध हैं और विपक्ष के आरोपों की पुष्टि कर रहे हैं। आसन्न चुनावों में सरकार तथा दल की बिगड़ती छवि उसके लिए कठिनाई पैदा करेगी।

हालाँकि भाजपा नेता एवं सरकार की तरफ़ से अपने बचाव में देश की सर्वाधिक जनसंख्या के वहन, स्वयं के निर्धारित आँकड़े तथा अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों से तुलनात्मक रूप में ख़ुद को बेहतर बताने जैसे कई तर्क दिये जाते रहे हैं। यह सही है कि देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण यहाँ पर अपराध के मामले भी सबसे ज़्यादा है। नि:सन्देह तुलनात्मक रूप से देखें, तो राजस्थान जैसे राज्यों में महिलाओं के प्रति अपराध की दर कहीं अधिक है। किन्तु तथ्य तर्कों से पराजित नहीं किये जाते। यहाँ बात तुलना कर ख़ुद को सही साबित करने की नहीं, बल्कि स्वयं के अन्दर सुधार करने की है।

दो प्रमुख वर्ग, जिन्होंने प्रदेश एवं प्रदेश सरकार की छवि बिगाडऩे में सबसे बड़ी भूमिका निभायी है; इनमें पहले स्थान पर सत्तारूढ़ दल के सांसद, विधायक, एमएलसी आदि हैं और दूसरे स्थान पर पुलिस-प्रशासन। सत्तारूढ़ दल के कई नेताओं एवं विधायकों के ऑडियो सार्वजनिक हुए हैं, जिनमें वे कटमनी (रिश्वत) माँगते हुए सुने जा सकते हैं। जैसे कि पूर्वांचल की महिला विधायक एक ऑडियो में ऐसे ही सुविधा शुल्क की माँग करती सुनी जा सकती हैं। यही नहीं, कई विधायक या पार्टी पदाधिकारी जनता या सरकारी कर्मचारियों को धमकाने आदि के कारनामों में लिप्त रहे हैं।

राजनीति और अपराध का गठजोड़ बहुत पुराना है। चर्चित रही एन.एन. वोहरा समिति (1993) की रिपोर्ट ने भी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और अपराधियों के मध्य की दुरभि-सन्धि एवं इनके द्वारा देश में एक समानांतर अर्थ-व्यवस्था के संचालन का उल्लेख किया था। 80 और विशेषकर 90 के दशक में अपराधियों ने सीधे राजनीति में हस्तक्षेप प्रारम्भ किया। पहले क्षेत्रीय दलों ने अपना जनाधार बढ़ाने और बलपूर्वक चुनाव जीतने के लिए इन्हें टिकट देना प्रारम्भ किया। बाद में राष्ट्रीय दल भी इस होड़ में शामिल हो गये। आज हालात ये हैं कि ख़ुद को पार्टी विद् डिफरेंस कहने वाली भाजपा राजनीति में अपराधियों की सबसे बड़ी आश्रयदाता बनती जा रही है। कम-से-कम आँकड़े तो यही दर्शा रहे हैं। साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो 403 विधायकों में से 138 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। चुनाव जीतने वाले विधायकों में से 36 फ़ीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं। इनमें भाजपा में सर्वाधिक 114 विधायक आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, तो विपक्ष के 72 विधायकों पर गम्भीर आरोप हैं। अब ऐसे लोग, जो स्वयं क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते रहे हों, उनसे क़ानून व्यवस्था में सहयोग की उम्मीद एक मूर्खतापूर्ण विचार है।

दूसरे, सरकार से मिली खुली छूट या यूँ कहें कि मुख्यमंत्री के आदेश की आड़ लेकर कुछ पुलिस वाले ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से कार्य करने लगें, अपराध बढ़ेगा ही। क़ानून व्यवस्था की स्थापना के लिए संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी एक भ्रामक सोच है। आगरा में सफाईकर्मी अमित वाल्मीकि और गोरखपुर में मनीष गुप्ता की हत्या के मामले हों अथवा लखनऊ में विवेक तिवारी की हत्या की मामला हो, सरकार के लिए इनका औचित्य साबित करना कठिन हो गया। उस पर वरिष्ठ अधिकारियों ने जिस तरह इन मामलों को ढकने की कोशिश की, उससे सरकार की और फ़ज़ीहत ही हुई। आँकड़े बताते हैं कि हिरासत में मौत के मामले में उत्तर प्रदेश देश में शीर्ष स्थान पर है। रही सही कसर विपक्षी दलों ने इन मामलों को उछालकर पूरी कर दी। सोनभद्र का सामूहिक हत्याकांड, हाथरस दुष्कर्म मामला, बदायूँ दुष्कर्म मामले के अलावा लखनऊ में विवेक तिवारी एनकाउंटर मामला, बिकरू कांड जैसे कई मामलों ने भाजपा के सुशासन और उत्कृष्ट क़ानून व्यवस्था के दावों की धज्जियाँ उड़ा दीं, साथ ही भाजपा को रक्षात्मक होने पर विवश कर दिया।

मामला सिर्फ़ फ़ौजदारी के अपराधों तक ही सीमित नहीं रहा है। भ्रष्टाचार एक प्रकार का आर्थिक अपराध भी होता है। इसमें सबसे ज़्यादा संलग्न प्रशासनिक अधिकारी ही हैं। उदाहरण के तौर पर सितंबर, 2020 में भाजपा के ही बाराबंकी के एक विधायक ने लखनऊ विकास प्राधिकरण पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाया था। ऐसे में इनकी गम्भीरता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्तमान सरकार ने पूर्व में सत्ता के सहयोग से अपना आपराधिक साम्राज्य खड़ा करने वाले, प्रदेश में समानांतर सत्ता क़ायम करने वाले एवं विधायक या सांसद रह चुके बाहुबलियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाइयाँ की हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध की कमर भी टूटी है। लेकिन इस बीच सरकार और पुलिस की कार्यशैली पर भी सवाल उठे हैं और दोनों की ही भूमिका आलोचना के केंद्र में रही है।

एक बात तो तय है कि पार्टी न सिर्फ़ अपने जन प्रतिनिधियों पर लगाम लगाने में असफल हो रही है, बल्कि प्रशासनिक वर्ग भी मनमानी पर उतारू रहा है। इन दोनों के अनियंत्रित व्यवहार से किसी पार्टी या सरकार की क्या दुर्गति हो सकती है? इसका सबसे बड़ा उदाहरण साल 2012 से 2017 तक रही सपा सरकार है। पार्टी नेताओं और विशेषकर सरकारी अधिकारियों ने ही पिछली सरकार को डुबोया। उच्च कोटि के बौद्धिक वर्ग से सुसज्जित भाजपा को दीवार पर लिखी इबारत शायद नहीं दिख रही है।

आज देश की राजनीति का सबसे नकारात्मक पहलू आरोप के बदले आरोप लगाना है। अथवा यूँ कहिए कि ख़ुद की कमियाँ छुपाने के लिए अतीत की सरकारों के आँकड़े दिखाना है। तर्क यह भी है कि प्रश्न हमसे ही क्यों, बाक़ी दलों से क्यों नहीं? यहाँ प्रश्न भाजपा से इसलिए किये जा रहे हैं, क्योंकि सत्ता में वह है; न कि सपा, बसपा और कांग्रेस। पिछली सरकारों एवं विपक्ष में बैठे दलों ने भी कभी ऐसे तथ्यों कि अनदेखी की और हाशिये पर आ गयी। अगर भाजपा को अपने लिए यही भविष्य चाहिए, तो यह उसकी अपनी इच्छा है।

आम जनता आज भी सरकारों से मात्र बिजली, पानी और सडक़ के साथ अपने और परिवार के साथ-साथ माल की हिफ़ाज़त चाहती है। इनमें भी सुरक्षा उसकी पहली प्राथमिकता है। वैश्विक सम्मेलन (ग्लोबल सम्मिट) और एनएसजी एवं सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता जैसी बड़ी-बड़ी बातें उसे न बहुत समझ आती हैं और न ही वह उन्हें समझना चाहती है। उनके अपनों की सुरक्षा एवं सम्मान का जीवन ही उसके लिए प्राथमिकता है। अली अहमद जलीली लिखते हैं :-

‘अम्न की बात में तकरार भी हो सकती है।

शाख़ जैतून की तलवार भी हो सकती है।।’

उचित यही होगा कि भाजपा को जनता के उस ख़ामोश वर्ग का मिजाज़ भी पढऩा चाहिए, जो प्रतिबद्ध मतदाता है। यह वो वर्ग है, जो ख़ामोशी से ही सरकारें बनाता भी है और बदलता भी है।

जेवर हवाई अड्डे से जगी लोगों में उम्मीद

The Prime Minister, Shri Narendra Modi witnessing the Air Show at the inauguration of the Purvanchal Expressway, in Sultanpur, Uttar Pradesh on July 16, 2021.

उत्तर प्रदेश ही नहीं, वरन पूरे देश के लिए भी जेवर परियोजना ऐतिहासिक है। लेकिन क्या यह परियोजना इस प्रदेश के साथ-साथ देश के लिए मील का पत्थर साबित होगी? देश की जनता को जेवर हवाई अड्डे के अलावा कई अन्य ऐसी मेगा परियोजनाओं की सौगात मिल रही है, जिससे उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश की तरक़्क़ी के द्वार खुलेंगे। माना जा रहा है कि क़रीब 30,000 करोड़ की जेवर परियोजना पर तेज़ी से काम चल रहा है और 2024 तक जेवर हवाई अड्डे से हवाई जहाज़ उड़ान भरने लगेंगे। लेकिन यह हवाई अड्डा पूरी तरह 2030 तक तैयार हो सकेगा। हवाई अड्डे के अलावा उत्तर प्रदेश सरकार की कई बड़ी परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं, तो कई परियोजनाएँ 2024 तक पूरी करने का लक्ष्य तय किया गया है, जिनमें केंद्र की मोदी सरकार पूरी दिलचस्पी दिखा रही है।

सरकारी सूत्रों का कहना है कि ये वो मेगा परियोजनाएँ हैं, जिनका निर्माण कार्य मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सत्ता सँभालने के बाद शुरू कराया था। इन मेगा परियोजनाओं में पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे और काशी विश्वनाथ मन्दिर कॉरिडोर का निर्माण कार्य पूरा हो गया है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन मेगा परियोजनाओं को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौज़ूदगी में सूबे की जनता को सौंपने का काम किया। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जेवर हवाई अड्डा, फ़िल्म सिटी और गंगा एक्सप्रेस-वे जैसी मेगा परियोजनाओं की आधारशिला भी रखी।

माना जा रहा है कि राज्य में यह पहला अवसर है, जब जनता के उपयोग वाली करोड़ों रुपये ख़र्च कर तैयार करायी गयी कई मेगा परियोजनाएँ जनता को सौंपी जा रही हैं। इसके तहत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौज़ूदगी में क़रीब 42,000 करोड़ रुपये की लागत से तैयार कराया गया 340.82 किलोमीटर लम्बा पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता को सौंपा। यह एक्सप्रेस-वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िले मेरठ से शुरू होकर प्रयागराज पर समाप्त होगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की स्वप्निल परियोजना (ड्रीम प्रोजेक्ट) कहे जाने वाले पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे का शिलान्यास जुलाई, 2018 में आजमगढ़ में प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। इस एक्सप्रेस-वे को पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए लाइफ लाइन कहा जा रहा है। लखनऊ से आजमगढ़ और मऊ होते हुए ग़ाज़ीपुर तक 340.824 किमी लम्बे इस एक्सप्रेस-वे पर वाहनों के फर्राटा भरने से जहाँ समय के लिहाज़ से पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बीच की दूरी कम हो जाएगी, वहीं व्यापार और वाणिज्य को पंख लगेंगे। क़रीब 15,000 करोड़ रुपये की लागत से 296 किलोमीटर लम्बा बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस-वे के निर्माण का कार्य तेज़ी से हो रहा है।

बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस-वे का शिलान्यास बीते वर्ष फरवरी में किया था। चित्रकूट से शुरू होने वाला यह एक्सप्रेस-वे बाँदा, महोबा, हमीरपुर, जालौन होते हुए इटावा के कुदरौल गाँव के पास लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे से जुड़ेगा। इस एक्सप्रेस-वे के बनने से बुंदेलखण्ड पहुँचना आसान होगा। वहाँ कृषि, वाणिज्यिक, पर्यटन और उद्यमिता के लिए राह आसान होगी और बुंदेलखण्ड का विकास होगा। इस प्रकार गौतमबुद्धनगर (नोएडा) में बनने वाले जेवर हवाई अड्डा, फ़िल्म सिटी और अन्य परियोजनाएँ भविष्य में सूबे की शान साबित होंगी और इन महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं से हज़ारों लोगों को रोज़गार मिलेगा। बता दें कि जेवर हवाई अड्डा देश का सबसे बड़ा और दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हवाई अड्डा होगा, जो दिल्ली के इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे से तक़रीबन 72 किलोमीटर दूर होगा। सर्वविदित है कि जेवर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के विनिर्माण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को सभी ज़रूरी अनापत्ति प्रमाण-पत्र (एनओसी) सरकार को मिल चुके हैं। हवाई अड्डे का पहला चरण तीन साल में पूरा होगा। शुरू में हर साल 1.20 करोड़ यात्री सफ़र कर सकेंगे। अनुमान लगाया जा रहा है कि साल 2040-50 तक इस हवाई अड्डे पर तक़रीबन सात करोड़ यात्रियों का भार होगा। ज़ाहिर है जेवर हवाई अड्डा कार्गो हवाई अड्डा भी है। इसलिए साल 2040-50 तक 2.6 मिलियन टन कार्गो की क्षमता का विकास यहाँ होगा। नोएडा इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे के रनवे की संख्या दो से बढ़ाकर छ: की गयी है। माना जा रहा है कि जेवर हवाई अड्डे के सुचारू होने से दिल्ली के हवाई अड्डों का बोझ हल्का होगा। जेवर हवाई अड्डा राष्ट्रीय राजधानी के निकट बनने वाला एक बड़ा हवाई अड्डा होगा, जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की $कीमत और देश का रुतबा दोनों बढ़ेंगे।

इतना ही नहीं जेवर हवाई अड्डे को हाई स्पीड रेल से जोड़ा जाएगा। साथ ही इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे से सडक़ मार्ग द्वारा जोड़े जाने तथा मेट्रो रेल से जोड़े जाने पर भी काम चल रहा है।

विदित हो कि जेवर हवाई अड्डे का नाम पिछले साल ही प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नोएडा इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट, जेवर करने का प्रस्ताव पास किया था। लेकिन अभी तक यह साफ़ नहीं हो सका है कि इस हवाई अड्डे का नाम जेवर हवाई अड्डा ही रहेगा या के नाम नोएडा इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट, जेवर यानी नोएडा अंतरराष्ट्रीय हरित क्षेत्र, जेवर होगा। लेकिन यह तय है कि जेवर के इस हवाई अड्डे में परम्परा और आधुनिकता की झलक दिखेगी। यह हवाई अड्डा भारतीय परम्परा को समेटे हुए होगा। हवाई अड्डे में प्रवेश करते समय वाराणसी के घाटों का अहसास होगा, तो लोग प्रयागराज संगम जैसा अनुभव भी महसूस कर सकेंगे। अवसान भवन (टर्मिनल बिल्डिंग) में प्रवेश करने के बाद आँगन जैसा स्वरूप मिलेगा।

हवाई अड्डे के निर्माण में यह अवधारणा भारतीय मन्दिरों से ली गयी है। जेवर हवाई अड्डे की बनावट (डिजाइन) में इन बातों पर ज़ोर दिया गया है। कुल मिलाकर जेवर हवाई अड्डा अपने आप में कई इतिहास समेटे हुए नज़र आयेगा। इसकी बनावट भारतीय परम्परा को प्रदर्शित करेगी। हवाई अड्डा की डिजाइन कुछ तरह से तैयार की गयी है कि प्रवेश करते समय लोग उत्तर प्रदेश की आतिथ्य सत्कार परम्परा का अनुभव कर सकेंगे। हवाई अड्डा परिसर में क़रीब 300 मीटर चलने के बाद टर्मिनल बिल्डिंग के सामने पहुँच जाएँगे। यात्रियों को चेक इन प्रक्रिया के लिए एलिवेटर और एस्केलेटर से एक मंज़िल ऊपर जाना होगा। इसका डिजाइन कुछ इस तरह होगा, जैसे आप किसी हवेली में दाखिल हो रहे हैं। यही नहीं टर्मिनल बिल्डिंग के प्रवेश द्वार पर व्यावसायिकता नज़र नहीं आएगी। यमुना इंटरनेशनल हवाई अड्डा प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ क्रिस्टोफर श्नेलमैन के मुताबिक, हवाई अड्डे की शुरुआत में टर्मिनल बिल्डिंग तक कार नहीं ले जा सकेंगे। कार छोडऩे के बाद यात्री टर्मिनल बिल्डिंग के सामने पहुँचेंगे। यहाँ पर टर्मिनल बिल्डिंग के सामने एक इमारत वाराणसी के घाटों जैसी दिखायी देगी। यहाँ पर घाटों वाली चहल-पहल का दृश्य दिखायी देगा।

पहले जेवर का नोएडा इंटरनेशनल हवाई अड्डा को 5,000 हेक्टेयर में बनाया जाना था। अब इसका क्षेत्रफल बढ़ाकर 5,845 हेक्टेयर कर दिया गया है। तय हुआ है कि मेंटेनेंस रिपेयरिंग ओवरहालिंग हब भी हवाई अड्डा परिसर में ही विकसित किया जाएगा। यमुना एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने सेक्टर-30 और सेक्टर-31 की 845 हेक्टेयर ज़मीन भी हवाई अड्डा में समाहित कर दी है। इसके बाद नोएडा इंटरनेशनल हवाई अड्डा का क्षेत्रफल बढक़र 5,845 हेक्टेयर हो गया है, जो इसे दुनिया का चौथा सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाता है। आधुनिक विकास तो ठीक है; लेकिन अगर दूसरी तरफ़ देखा जाए तो हम प्रकृति के ख़िलाफ़ भी पेड़ों को काटकर नुक़सान कर रहे हैं; लेकिन इसके लिए सोचता कौन है।

उल्लेखनीय है कि जेवर हवाई अड्डा परियोजना में क़रीब 11 हज़ार से अधिक पेड़ काटे जाने की योजना हैं। इन पेड़ों की जियो टैगिंग की गयी है, ताकि इनका पूरा विवरण तैयार हो जाए। विशेष वृक्षों की अलग से सूची बनायी गयी है। पहली श्रेणी में संरक्षित करने वाले पेड़ों को रखा गया है। दूसरी श्रेणी में ऐसे पेड़ रखे गये हैं, जिन्हें प्रत्यारोपित किया जाएगा। तीसरी श्रेणी में ऐसे पेड़ हैं, जिन्हें काटा जाएगा। नीम, कदंब जैसे पेड़ संरक्षित किये जाएँगे। नीम व कदंब के पेड़ भगवान श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखते हैं। भावी पीढिय़ों के लिए इन्हें संरक्षित किया जाएगा।

ज़ाहिर है बीते माह सूबे को मिलने वाली उक्त परियोजनाओं के पहले प्रधानमंत्री पिछले महीने वाराणसी, कुशीनगर को कई विकास परियोजनाओं की सौगात दे चुके हैं। सरकार ने भगवान बुद्ध की क्रीड़ास्थली सिद्धार्थनगर की रैली में घोषणा करते हुए नौ नये राजकीय मेडिकल कॉलेजों की सौगात प्रदेश को दी थी। तब एक साथ इतने मेडिकल कॉलेज की सौगात पाने वाला उत्तर प्रदेश देश का इकलौता राज्य बना था।

सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले पौने पाँच साल में इतनी तेज़ी से काम क्यों नहीं किया, जितनी तेज़ी से वह अब कर रही है? दूसरा सवाल यह कि अगर भाजपा की सरकार दोबारा नहीं बनी, तो फिर अधूरी परियोजनाओं को अगली सरकार पूरा करेगी? या मान लीजिए प्रदेश में फिर भाजपा की सरकार बनी, तो वह इन्हें कब तक पूरा करेगी?

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

झारखण्ड की कोख में छिपा ख़ज़ाना

अवैध कारोबारी लगातार कई क़ीमती पदार्थ निकालकर हो रहे मालमाल, सरकार ख़ामोश

झारखण्ड को ग़रीब राज्य माना जाता है, जबकि इस प्रदेश की ज़मीन की कोख में अमीरी के वो निशान छिपे हैं, जो देश के दूसरे राज्य में शायद ही मिलें। भारत से खनिज के क्षेत्र में झारखण्ड का श्रेष्ठ स्थान है। खनिज संसाधनों की बहुलता के कारण ही झारखण्ड को भारत का ज़रूर प्रदेश भी कहा जाता है। यहाँ सभी धात्विक एवं अधात्विक खनिज उपलब्ध हैं।

झारखण्ड खनिज उत्पादन की दृष्टि से सम्पूर्ण भारत में सर्वोच्च स्थान पर है। इसके कारण इसे रत्नगर्भ भी कहा जाता है। मूल्य की दृष्टि से भारत के कुल खनिज उत्पादन का 26 फ़ीसदी एवं उत्पादन की दृष्टि से देश के कुल खनिज उत्पादन का लगभग 40 फ़ीसदी हिस्सा वर्तमान में अकेले झारखण्ड से निकला जाता है। कोयला, अभ्रक, लोहा, ताँबा, चीनी मिट्टी, फायर क्ले, कायनाइट, ग्रेफाइट, बॉक्साइट तथा चूना पत्थर के उत्पादन में झारखण्ड अनेक राज्यों से आगे है। एस्बेस्टस, क्वाट्र्ज तथा आणविक खनिज के उत्पादन में भी झारखण्ड का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

यहाँ अधिकांश खनिज धारवाड़ और विंध्य प्रणाली के चट्टानों से प्राप्त होता है। समय-समय पर इसकी नीलामी भी होती है। कोयला, लोहा और अन्य खनिज के बारे में दुनिया जानती है। इससे इतर यहाँ की धरती के अन्दर बहुमूल्य ख़ज़ाने छिपे हैं। इनमें से कुछ बहुमूल्य रत्न और खनिज की जानकारी है, तो कुछ के अभी केवल संकेत ही मिले हैं।

इसके बावजूद सरकार पिछले कई साल से क़दम आगे नहीं बढ़ा पा रही है। नतीजतन सरकार को इससे कोई लाभ नहीं मिल रहा। कोई राजस्व नहीं मिल रहा और ख़ज़ाना ख़ाली है। वहीं दूसरी ओर इन खज़ानों के अवैध कारोबारियों को एक-एक जगह की जानकारी है कि झारखण्ड के किस हिस्से में धरती के अन्दर कौन-सा ख़ज़ाना छिपा है? वे अवैध खुदाई से इन अनमोल खनिजों को निकालते और औने-पौने दामों पर बेचकर भी मालमाल हो रहे हैं। इस स्थिति के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों ज़िम्मेवार है। केंद्र और राज्य सरकार के समन्वय के अभाव और ढुलमुल रवैये के कारण इन अनमोल खनिजों का लाभ राज्य और देश को नहीं मिल रहा है।

कहाँ, किस खनिज का भण्डार?

झारखण्ड में लौह अयस्क धारवाड़ क्रम की चट्टानों से मिलता है। झारखण्ड में लौह अयस्क हेमेटाइट कोटि का है, जिसमें 60-68 फ़ीसदी तक लोहे का अंश पाया जाता है। यहाँ लाख अयस्क का कुल भण्डार 3,758 मिलियन टन है जो देश के कुल भण्डार का 37 फ़ीसदी है। यहाँ से हर साल क़रीब 120 लाख टन लोहे का उत्पादन होता है। लोहे का मुख्य उत्पादन पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में गुवा से लेकर उड़ीसा में गुनाई तक फैली एक पट्टी में होता है। जिसे बड़ा जामदा कॉम्प्लेक्स कहते हैं। यह विश्व की सबसे घनी लोहे की पट्टी है। नोवामुंडी की खान पूरे एशिया की सबसे बड़ी लोहे कि खान है। मैंगनीज लौह समूह का दूसरा प्रमुख खनिज है।

झारखण्ड में मैंगनीज की प्राप्ति धारवाड़ क्रम की चट्टानों से होती है। इसका उपयोग इस्पात बनाने के साथ साथ बैटरी, विभिन्न प्रकार के रंग एवं रसायन उद्योग में किया जाता है। यहाँ मैंगनीज के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं। पहला- गुवा से लिम्टू; दूसरा- चाईबासा से बड़ा जामदा और तीसरा- बड़ा जामदा से नोवामुंडी। ताँबे के उत्पादन तथा भण्डारण के दृष्टिकोण से झारखण्ड भारत का अग्रणी राज्य है। झारखण्ड में ताँबे का कुल भण्डार 112 मिलियन टन है, जो भारत के कुल भण्डार का 25 फ़ीसदी है।

झारखण्ड राज्य में भारत का सबसे अधिक ताँबे का उत्पादन होता है। यहाँ ताँबे का खनन मुसाबनी, सरायकेला, राखामाइंस, पत्थरगोड़ा, घाटशिला तथा बहरागोड़ा में होता है। झारखण्ड में बॉक्साइट का भी भण्डार है। बॉक्साइट एल्युमिनियम का एकमात्र स्रोत है। यहाँ बॉक्साइट का कुल भण्डार 70 मिलियन टन है, जो भारत के कुल बॉक्साइट भण्डारण का 2.8 फ़ीसदी है। झारखण्ड में बॉक्साइट का सम्पूर्ण भण्डार पाट प्रदेश में संचित है। झारखण्ड के दो ज़िले गुमला एवं लोहरदगा बॉक्साइट के उत्पादन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। बॉक्साइट को गलाकर एल्युमिनियम धातु निकाली जाती है। मुरी में बॉक्साइट को गलाने का सबसे बड़ा संयंत्र है।

ज़मीन में छिपे हैं बेशक़ीमती रत्न

उधर, भूतत्व वैज्ञानिक कहते हैं कि झारखण्ड की धरती के अन्दर अनमोल रत्न भी छिपे हैं। हीरा, पन्ना, प्लेटिनम, लिथियम, क्रोमियम, निकेल, मून स्टॉन, ब्लू स्टोन समेत कई दुर्लभ और बेशक़ीमती खनिज का भण्डार है। इनमें से कुछ खनिजों के होने की पुख़्ता जानकारी सरकार को है। लेकिन कुछ ऐसे खनिज भी हैं, जिनके संकेत तो मिले हैं। फिर भी काफ़ी जानकारी मिलने के बाद भी सरकार अभी तक लाभ नहीं उठा सकी है। भू-वैज्ञानिकों की मानें, तो हीरा गुमला और सिमडेगा ज़िलों के बड़े इलाक़े में है। प्लैटिनम भी सिमडेगा ज़िले में होने के संकेत मिले हैं। मून स्टोन कोडरमा ज़िले तो वेनेडियम रांची के तमाड़ से जमशेदपुर के बीच होने का संकेत मिल चुका है। निकेल रांची और जमशेदपुर में, लिथियम तमाड़, ग्लेडियम जमशेदपुर में, कैडमियम चाईबासा और क्रोमियम रांची ज़िले में होने के संकेत मिले हैं। झारखण्ड की धरती में इन बहुमूल्य खनिज दबे होने का संकेत कोई नया नहीं है। लगभग तीन साल पहले भारती भूगर्भ सर्वेक्षण ने दर्ज़नभर रत्नों और बेशक़ीमती खनिजों के होने का राज्य सरकार को संकेत दे चुकी है।  माना जा रहा है कि ज़्यादा नहीं 200 मीटर की गहराई पर ही बेहतर क्वालिटी के रत्न मौज़ूदा हैं। इसके बाद भी राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है।

जयपुर पहुँच रहा गुड़ाबांदा का पन्ना

 

राज्य सरकार अभी तक केवल कोयला, लोहा और बाक्साइड को लेकर ही अटकी है। इन्हीं खनिजों के भण्डार की नीलामी हो रही है। सरकार इन बेशक़ीमती पत्थरों और खनिजों का लाभ नहीं उठा पा रही है; लेकिन इसके अवैध कारोबारी चाँदी काट रहे हैं।

सूत्रों की मानें, तो यहाँ से निकलने वाले पन्ना की चमक जयपुर की जौहरी मण्डी तक है। अवैध तरीक़े से निकाले जाने वाला पन्ना चोरी-छिपे जयपुर तक पहुँचता है। पूर्वी सिंहभूम ज़िले के गुड़ाबांदा इलाक़े में जाने पर अवैध खनन के दिख जाते हैं। इसी तरह सिमडेगा से हीरा और कोडरमा से मून स्टोन का अवैध खनन हो रहा। इस बात को राज्य सरकार के खान एवं भूतत्व विभाग के अधिकारी भी मानते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, केवल पन्ना का ही 800 करोड़ रुपये का सालाना व्यवसाय होता है।

नक्सली हस्तक्षेप के बिना खनन सम्भव नहीं!

सूत्रों बताते हैं कि नक्सलियों के हस्तक्षेप के बिना अवैध खनन सम्भव नहीं है। उनकी अनुमति से ही अवैध खनन होता है, तभी अवैध खनन करवाया जाता है। अवैध खनन का पूरा शृंखला (चेन) बनी हुई है। खनन कोई और करवाता है। स्थानीय स्तर पर निकाले गये बहुमूल्य पत्थर कोई और खरीदता है; और मंडी तक कोई और पहुँचाता है। खनन में महिलाएँ और बच्चे तक लगाये जाते हैं। जिन्हें काफ़ी कम पैसा मिलता है। हाँ, कुछ पत्थर की पहचान रखने वाले पारखी मज़दूरों को अलग से पैसे दिये जाते हैं, जो पत्थर को देखकर परख लेते हैं कि वह किस धातु का है।

विदेशी तकनीक की ज़रूरत

राज्य सरकार के खनन विभाग के अधिकारियों कहते हैं कि हीरा और पन्ना के खान होने के पुख़्ता सुबूत हैं। इसके अलावा निकेल, लिथियम, ग्लेडियम आदि होने के संकेत तो मिले हैं। लेकिन इन्हें पुख़्ता करने के लिए अभी वैज्ञानिक तरीक़े से जाँच की ज़रूरत है। इसके लिए बड़े निवेश की ज़रूरत है। साथ ही ज़मीन के अन्दर दबे खनिजों की गुणवत्ता की जाँच के लिए उच्च तकनीक की ज़रूरत है। हीरा या पन्ना की गुणवत्ता कैसी है? अन्य खनिजों की क्या स्थिति है? कितनी खुदाई के बाद अच्छी गुणवत्ता वाले खनिज प्राप्त होंगे? कहाँ, कितनी मात्रा में खनिज होने का अनुमान है? इन तमाम सवालों के जवाब की ज़रूरत होगी। इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार, दोनों को इस दिशा में मिलकर ठोस क़दम उठाने होंगे, तभी खनिजों को निकाला जा सकेगा और उनकी मात्रा तथा गुणवत्ता की सही-सही जानकारी मिल सकेगी और राजस्व प्राप्त हो सकेगा; अन्यथा कोई फ़ायदा नहीं।

“खनिजों की खोज के लिए एक एक्सपोलेरशन विंग काम करती है। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारी होते हैं। ये लगातार विभिन्न इलाक़ों में खनिजों की खोजबीन करते हैं और रिपोर्ट देते हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर सरकार क़दम आगे बढ़ाती है। यह सही है कि राज्य में बहुमूल्य खनिज पदार्थों का भण्डार है। अभी तक सिमडेगा में हीरा, कोडरमा में मून स्टोन और गुड़ाबांदा में पन्ना के होने की पुख़्ता जानकारी मिली है। दरअसल, एवरेज सेल प्राइस (एएसपी) केंद्र सरकार तय करती है। इसे इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस (आइबीएम) द्वारा तय किया जाता है, जो अभी तक नहीं हुआ है। राज्य सरकार से या तो केंद्र सरकार एएसपी तय करे, या फिर हमें स्वंतत्र रूप से सामान्य तरीक़े से एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट (पसन्द से अभिव्यक्ति) दे और खनिज निकालने की अनुमति दे। इसके लिए केंद्र से पत्राचार किया गया है। उम्मीद है कि जल्द ही कोई रास्ता निकलेगा।”

विजय कुमार ओझा

खान निदेशक, झारखण्ड सरकार