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परीक्षा से पहले रीट का पर्चा लीक!

विप्रतियोगी परीक्षाओं के पारखियों का दावा है कि बिना किसी पुख़्ता कड़ी और पारंगत खिलाडिय़ों के बड़े पैमाने पर नक़ल का गोरखधन्धा हो ही नहीं सकता। हर खेल, ख़ासतौर से चोरी-चकारी और हेराफेरी में तो इन क्षेत्रों के गुरु होते हैं। नक़ल के गोरखधन्धे की संस्कृति एक अपारदर्शी षड्यंत्र सरीखी होती है। राजस्थान में शैक्षिक पात्रता से जुड़ी प्रतियोगी परीक्षा बड़े पैमाने पर हुए नक़ल के खेल के खलनायक और मुख्य कड़ी बत्तीलाल को बेशक एसओजी ने केदारनाथ से धर लिया; लेकिन उसकी गिरफ़्तारी से सांसद किरोड़ीलाल मीणा सन्तुष्ट नहीं हैं। उनका कहना है कि बत्तीलाल तो इस पानी की छोटी मछली है। परीक्षा का आयोजन कराने वाले और वे लोग, जिनकी निगरानी में प्रश्न-पत्र था; असली घडिय़ाल तो वे थे। एसओजी उन पर हाथ डालने का हौसला क्यों नहीं जुटा रही? बत्तीलाल के साथ मलारणा डूंगर का शिवदास मीणा भी पकड़ा गया है। शिवदास जयपुर में गुर्जर की थड़ी के आस-पास हुक्काबार चलाता था।

बत्तीलाल से प्रश्न पत्र लेने और आगे परीक्षार्थियों तक पहुँचाने के लिए एसओजी ने 13 लोगों को गिरफ़्तार किया है। ऐसे में अब तक कुल 16 लोग गिरफ़्तार किये जा चुके हैं, जिनमें पाँच परीक्षार्थी और एक पुलिस कांस्टेबल भी शामिल है। सवाल उठते हैं कि बत्तीलाल को किस-किस ने पैसे दिये? प्रश्न पत्र बाहर लाने वालों में रसूख़दार लोग कौन-कौन थे? बत्तीलाल को जिसने प्रश्न पत्र दिया, क्या उसने प्रश्न पत्र आगे बाँटने का काम किया और वह कई घंटे पहले बाहर कैसे आया? नक़ल की पटकथा कैसे लिखी गयी? परीक्षा की घूसख़ोरी में किस-किसने अपने मुँह घुसा रखे थे? इतने बड़े संगठित गिरोह का मुखिया कौन है? उसकी इस मामले में क्या भूमिका है? और शिक्षा पात्रता परीक्षा का प्रश्न पत्र कब, कैसे और कहाँ से लीक हुआ? तय समय से कई घंटे पहले प्रश्न पत्र बाहर कैसे आया? परीक्षा तंत्र से जुड़े कर्मचारियों या अधिकारियों की इसमें कितनी संलिप्तता है?

बत्तीलाल को जाँच में फ़िलहाल सिर्फ़ एक कड़ी माना जा रहा है। उससे पहले 15 लोगों को एसओजी गिरफ़्तार कर चुकी है। लेकिन अभी सरगना तक नहीं पहुँचा जा सका है। सरकार परीक्षा के सफल आयोजन के लिए अपनी पीठ थपथपा रही है। माध्यमिक शिक्षा बोर्ड भी पर्चा लीक होने की बात नहीं मान रहा। मामला उजागर होने के बाद बत्तीलाल के नेताओं के साथ जिस तरह के फोटो सामने आये उससे उसे प्रभाव का तो ख़ुलासा हुआ ही है, सन्देह भी उठता है कि कहीं यह अपराधियों और नेताओं की मिलीभगत का खेल तो नहीं है?

रीट यानी शिक्षक प्रतियोगी पात्रता परीक्षा का प्रश्न पत्र लीक की घटना ने साबित किया है कि हमारे परीक्षा तंत्र में आसानी से सेंधमारी की जा सकती है। ऐसी घटनाएँ लगातार सामने आने से सरकार और परीक्षा एजेंसियों की साख गिरती है। वैसे भी संगठित गिरोह परीक्षा के सुरक्षित संचालन की प्रणाली में ख़ामियों का पूरा फ़ायदा उठाने की फ़िराक़ में रहते हैं। यह खेल मिलीभगत के बिना कामयाब नहीं हो सकता। नक़ल से पास होने की चाह रखने वाले अभ्यर्थी ऐसे गिरोह के आसान निशाना होते हैं। नक़ल के लिए जो तरीक़े अपनाये गये हैं, वो भी सभी को चौंकाते हैं। ऐसे में मेहनत के बूते ईमानदारी से परीक्षा देने वाले लाखों परिजन भी ख़ासे प्रभावित हुए हैं। मानसिक तनाव तो वे झेलते ही हैं और तंत्र से भी उनका भरोसा टूटता है। सभी चाहते हैं कि इस मामले का शीघ्रता से ख़ुलासा होना चाहिए। आख़िर 25 लाख से अधिक अभ्यर्थियों का भविष्य और उम्मीदें इस परीक्षा से जुड़ी हुई है। भविष्य में भी भर्तियों के लिए परीक्षाएँ होती रहेंगी। सख़्त सज़ा का प्रावधान लागू कर इस तरह की धाँधली को रोका जाना चाहिए। सूत्रों का कहना है कि रीट की परीक्षा शुरू होने के तय समय 10:00 बजे से पहले ही परीक्षा केंद्र के बाहर पहुँच चुका था। सवाई माधोपुर ज़िले के कुछ परीक्षा केंद्रों पर इस गड़बड़ी का ख़ुलासा हुआ है।

इस मामले में दो पुलिसकर्मियों सहित आठ लोगों को गिरफ़्तार किया है। गिरफ़्तार आरोपियों में शामिल पुलिस कांस्टेबल देवेन्द्र गुर्जर के मोबाइल में रीट प्रश्न पत्र मिला है, जिसकी रविवार सुबह 8.32 बजे फोटो खींची गयी थी। कांस्टेबल के अलावा सवाई माधोपुर शहर उप अधीक्षक के रीडर यदुवीर सिंह तथा दो अन्य को परीक्षा से पहले ही गिरफ़्तार कर लिया गया था। इसके बाद परीक्षा केंद्र पर ही दोनों पुलिसकर्मियों की पत्नियों सहित चार परीक्षार्थी महिलाओं की पहचान कर उनकी कॉपी में टिप्पणी भी डाली गयी। परीक्षा केंद्र से निक़लते ही चारों को गिरफ़्तार भी कर लिया गया। वहीं बोर्ड अधिकारियों का कहना है कि प्रश्न पत्र कोषागार तक सुरक्षित पहुँचा दिया गया। फिर क्यों कर प्रश्न पत्र लीक हुआ? जबकि सुरक्षा का पूरा ज़िम्मा पुलिस के पास था। सवाई माधोपुर वाले मामले में हमें अभी कोई रिपोर्ट नहीं मिली है। गिरफ़्तार कांस्टेबल देवेन्द्र वन विभाग में प्रतिनियुक्ति पर है। इसके साथ ही दूसरा आरोपी हैड कांस्टेबल यदुवीर सिंह सवाई माधोपुर शहर उप अधीक्षक का रीडर है। दोनों की परीक्षा में ड्यूटी नहीं थी। वे अपनी पत्नियों के लिए प्रश्न पत्र जुगाडऩे में जुटे थे। अभी तक की पड़ताल में सामने आया है कि प्रश्न पत्र एक गिरोह ने कहीं से हथियाया था। उनसे दोनों पुलिसकर्मी सम्पर्क में थे। इससे साफ़ है कि गिरोह के पास प्रश्न पत्र 8:32 बजे से पहले ही पहुँच चुका था। अब पुलिस इस पड़ताल में जुटी है कि आख़िर प्रश्न पत्र किस केंद्र से लीक हुआ तथा किस-किस के पास पहुँचा?

अलबत्ता यह बात सही है कि पूरी सख़्ती के बावजूद ‘रीट’ परीक्षा में परीक्षार्थी नक़ल की जुगत लगाने से बाज़ नहीं आये। हालाँकि यह सच है कि पुलिस ने परीक्षा शुरू होने से पहले एक महिला सहित पाँच अभ्यर्थियों को दबोच लिया था। बीकानेर पुलिस की सूचना पर अजमेर के किशनगढ़ एवं सीकर के नीमकाथाना में एक एक एवं प्रतापगढ़ में दो अभ्यर्थियों को गिरफ़्तार किया गया था। पुलिस अधीक्षक प्रीतीचन्द्रा ने बताया कि मुखबिर की सूचना पर नोखा रोड स्थित नया बस स्टेंड से एक महिला समेत पाँच लोगों को दबोचा। इनके पास से नक़ल कराने वाली सामग्री ज़ब्त की गयी। दिलचस्प बात है कि नक़ल माफिया तुलसाराम ने प्रदेश भर में 25 से अधिक लोगों को विशेष डिवाइस लगी चप्पलें उपलब्ध करायी थीं। तुलसाराम फ़िलहाल फ़रार है। रीट प्रश्न पत्र लीक मामले का सरगना बाड़मेर निवासी भजनलाल विश्नोई निकला है। पुलिस अधिकारी पृथ्वीराज मीणा ने पूछताछ में इसका ख़ुलासा किया। एसओजी सूत्रों के मुताबिक, मनरेगा में कनष्ठि तकनीकी सहायक पृथ्वीराज ने पूछताछ में इस बात को क़ुबूल किया है कि बाड़मेर निवासी भजनलाल ने परीक्षा से पहले रीट का प्रश्न पत्र उसको दिया था। आरोपी ने बताया कि बाड़मेर में पोस्टिंग के दौरान भजनलाल से उसकी मुलाक़ात हुई थी। भजनलाल ने पृथ्वीराज को रीट के आयोजन से आठ-नौ दिन पहले व्हाट्सऐप कॉल किया और प्रश्न पत्र उपलब्ध कराने पर प्रत्येक परीक्षार्थी 12 लाख रुपये बताये। इसके बाद पृथ्वीराज ने उसके साथी लाइनमैन रवि मीना उर्फ़ रवि पागड़ी और मीना जीनापुर तथा बत्तीलाल मीना से प्रश्न पत्र बेचने के सम्बन्ध में बातचीत की। भजनलाल ने 26 सितंबर तडक़े 3:45 बजे रीट प्रश्न पत्र पृथ्वीराज को व्हाट्सऐप पर उपलब्ध करवाया। पुलिस अधीक्षक राजेश सिंह ने बताया कि पृथ्वीराज गैंग ने यहाँ पर पकड़े गये परीक्षार्थियों के अलावा 14 परीक्षार्थियों को प्रश्न पत्र तीन लाख, सात लाख, आठ लाख और 10 लाख रुपये में बेचा।

प्रश्न पत्र लेने वाले परीक्षार्थियों के परिजन की तलाश जारी है। परीक्षार्थियों के अन्य परिजन से पूछताछ में इसका ख़ुलासा हुआ है। वहीं दौसा में गिरफ़्तार हुए कांस्टेबल ने जयपुर में दिलख़ुश मीणा से 15 लाख रुपये में प्रश्न पत्र ख़रीदने का सौदा तय करके अपने परिचित से दो लाख रुपये अग्रिम दिलाये थे। दौसा पुलिस ने इसका ख़ुलासा किया है। कांस्टेबल का परिचित जयपुर प्रश्न पत्र लेने पहुँचा, तब यहाँ पर कई लडक़े पहले से प्रश्न पत्र लेने के लिए खड़े थे। राजस्थान की सबसे बड़ी परीक्षा में गड़बड़ी की परतें आहिस्ता-आहिस्ता खुलने लगी हैं। गंगापुर सिटी में जिस कांस्टेबल के मोबाइल पर परीक्षा से डेढ़ घंटे पहले प्रश्न पत्र आ गया था, उसे प्रश्न पत्र के साथ आंसर की (उत्तर कुंजी) भी मिली थी। एसओजी और जयपुर कमिश्नरेट में संजय मीणा को जगतपुरा में दबोच लिया। जबकि संजय को प्रश्न पत्र देने वाला मास्टरमाइंड बत्तीलाल अभी फ़रार है। संजय मीणा सवाई माधोपुर में मलारणा के पास का रहने वाला है। उसने ही गंगापुर सिटी में कांस्टेबल देवेन्द्र गुर्जर को कहा कि वह दिलख़ुश से जाकर मिला था, फिर उसी ने प्रश्न पत्र और उत्तर कुंजी की कॉपी दी थी। देवेन्द्र ने दोनों की फोटो मोबाइल से खींच कर पत्नी लक्ष्मी को पूरा प्रश्न पत्र बता दिया। उसने यह प्रश्न पत्र अपने साथी हेड कांस्टेबल यदुवीर गुर्जर को भी बताया। उसने भी परीक्षा देने जा रही अपनी पत्नी सीमा को वह दे दिया। मामला सामने आने के बाद दिलख़ुश और उसके साथी को सवाई माधोपुर में ही दबोच लिया गया। उनका कहना था कि रीट परीक्षा देने वाली अपनी दो बहनों को प्रश्न पत्र और उत्तर कुंजी उसी ने दी थी।

संजय मीणा का नाम दिलख़ुश से पूछताछ में सामने आया। पुलिस टीमों ने रात क़रीब डेढ़ बजे उसे पकड़ लिया। एटीएस एएसपी सतेन्द्र सिंह ने बताया कि प्रश्न पत्र पहली बार कहाँ से लीक हुआ और कहाँ कहाँ पहुँचा फ़िलहाल इसकी पूछताछ की जा रही है। बता दें कि रविवार को रीट की परीक्षा थी। पहली पारी की परीक्षा सुबह 10:00 बजे हुई थी; लेकिन सुबह 8:32 बजे ही कांस्टेबल दवेन्द्र के मोबाइल पर प्रश्न पत्र व उत्तर कुंजी आ गयी थी। इसके बाद 9:40 बजे उसे गिरफ़्तार किया गया। फिर उसकी पत्नी समेत चार महिला अभ्यर्थियों को परीक्षा केंद्र से ही पकड़ा गया। रीट-2021 का प्रश्न पत्र लीक होने के मामले में पुलिस और एसओजी अभी कार्रवाई में लगे हैं। बत्तीलाल की गिरफ़्तारी के बाद तीन और लोगों को पकड़ा गया है। हालाँकि इन्हें सज़ा मिलेगी या नहीं? यह सबसे बड़ा सवाल है। क्योंकि प्रदेश में 40 से अधिक परीक्षा माफिया सक्रिय हैं। इनके गुर्गे डमी अभ्यर्थी ढूँढते हैं। साथ ही प्रश्न हल करने वाले ढूँढना, आधुनिक उपकरण ख़रीदना, परीक्षा केंद्र को पर्चा लीक करने के लिए तैयार करना ज़िम्मा भी इन्हीं का होता है।

माफिया परीक्षा केंद्र संचालक और वीक्षकों (निरीक्षकों) से साँठगाँठ करता है। परीक्षा की कैटेगरी के आधार पर 50 करोड़ रुपये तक में पर्चा लीक कराया जाता है। डमी अभ्यर्थी की डील 5 लाख रुपये तक में होती है। 11 साल में 38 से ज़्यादा बड़ी परीक्षाओं में पर्चे लीक हो चुके। हाल में नीट व एसआई भर्ती के भी प्रश्न पत्र लीक होने की बात सामने आयी है। पूर्व आरपीएससी चेयरमैन हबीब ख़ाँ गौराण पर आरजेएस पर्चा लीक करने का भी आरोप है। रीट प्रश्न पत्र लीक में सवाई माधोपुर से पुलिसकर्मी भी पकड़े जा चुके हैं।

देश में 16 लाख विद्यार्थियों की ओर से दी गयी नीट परीक्षा-2021 का पर्चा लीक हुआ था। यह ख़ुलासा करते हुए जयपुर पुलिस ने बताया कि भांकरोटा के एक कॉलेज से 2:00 बजे प्रश्न पत्र खुलते ही 37 मिनट में 2:37 बजे सीकर पहुँचाया गया। सीकर की एक कोचिंग के शिक्षकों ने दो घंटे में प्रश्न पत्र हल करके वापस जयपुर के उसी कॉलेज में 4.30 बजे पहुँचा। यहाँ एक छात्रा ने इससे नक़ल करके 200 में से 172 प्रश्न हल कर दिये। पुलिस ने पूरे मामले में अभ्यर्थी छात्रा सहित आठ आरोपियों को गिरफ़्तार किया था। पुलिस ने प्रश्न पत्र सीकर भेजने के काम में लिए मोबाइल पर हल किये गये प्रश्न पत्र के उत्तर की हार्ड कॉपी और 10 लाख रुपये नक़द बरामद किये हैं। गिरफ़्तार आरोपियों में छात्रा को न्यायिक हिरासत में भेज दिया तथा 20 सितंबर तक रिमांड पर लिया गया है। प्रश्न पत्र भांकरोटा स्थित राजस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एण्ड टेक्नोलॉजी सेंटर (आरआईईटी) से लीक हुआ। डीसीपी (वेस्ट) ऋचा तोमर ने बताया कि गिरोह का मास्टरमाइंड नवरत्न स्वामी बानसूर में रक्षा अकादमी के नाम से कोचिंग संस्थान चलाता है। स्वामी ने प्रश्न पत्र लीक की साज़िश के बाद अभ्यर्थी तलाशने की ज़िम्मेदारी दलाल निवास रोड निवासी सुनील यादव को दी।

उधर एडीशनल डीसीपी रामसिंह शेखावत ने बताया कि साज़िश के तहत दलाल छात्रा और उसके चाचा को लेकर पहले मानसरोवर में सरगना के पास पहुँचे। यहाँ उसने बताया कि परीक्षा केंद्र में वीक्षक रामसिंह मिलेगा। वहाँ रामसिंह व कॉलेज प्रशासक मुकेश सामोता ने तय समय 2:00 बजे प्रश्न पत्र खुलते ही उसकी फोटो खींचकर व्हाट्सऐप से चित्रकूट स्थित एक अपार्टमेंट में ठहरे गिरोह के सदस्य सीकर निवासी पंकज और संदीप यादव को भेजी। उसने सीकर में एक कोचिंग सेंटर के शिक्षकों के पास भेजा।

भांकरोटा में सोमवार को हुए नीट प्रश्न पत्र लीक मामले में पुलिस ने परीक्षा कराने वाली एनटीए के डीजी को रिपोर्ट भेज दी है। साथ ही सीकर में दबिश देकर देर रात गिरोह से जुड़े एक और आरोपी सुनील रणवा को पकड़ लिया। जयपुर लाकर पूछताछ की गयी, तो उसने बताया कि प्रश्न पत्र आने के बाद आधे सवालों के जवाब उसने और उसके साथी दिनेश ने तैयार किये थे। बाक़ी प्रश्नों के जवाब के लिए प्रश्न पत्र हरियाणा में परिचित एक भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) के अध्यापक को भेजा था। उसने उत्तर कुंजी भेज दी थी। डीसीपी वेस्ट ऋचा तोमर ने बताया कि पुलिस आरोपी को पकड़े के लिए हरियाणा रवाना हो गयी है। भांकरोटा में प्रश्न पत्र लीक मामले में मेडिकल छात्रा धनेश्वरी समेत आठ लोगों को गिरफ़्तार किया गया था। इसमें सौदा 35 लाख में तय हुआ था। पूरे पैसे मिलने के बाद 10-10 लाख रुपये सरगना रामसिंह व परीक्षा केंद्र प्रशासक मुकेश बाँट लेते। बाक़ी बचे 15 लाख रुपये बिचौलिये नवरत्न, अनिल और सॉल्व करने वाली टीम के पंकज यादव, संदीप कुमार, सुनील, दिनेश बेनीवाल और हरियाणा के भौतिक विज्ञान अध्यापक को दिये जाने थे। रामसिंह व नवरत्न स्वामी गिरोह के मास्टरमाइंड और कई साल से दोस्त हैं। रामसिंह दोस्तों के साथ किराये पर रहकर तैयारी कर रहा था। नवरत्न स्वामी बानसूर में रक्षा अकादमी चलाता है।

राजस्थान इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एवं टेक्नोलॉजी में प्रशासक के पद पर कार्यरत मुकेश सामोता व रामसिंह भी दोस्त हैं। ऐसे में इस कॉलेज में होने वाली परीक्षाओं में रामसिंह कई बार वीक्षक लगता है। इस बार नीट में भी वीक्षक लग गया था। रामसिंह ने नवरत्न को कॉलेज केंद्र आने वाले छात्रों से साँठगाँठ कराने की बात कही तो नवरत्न ने ई-मित्र चलाने वाले परिचित अनिल को बताया। अनिल ने तुरन्त पड़ोस में रहने वाले सुनील यादव की भतीजी धनेश्वरी के बारे में बताय। क्योंकि धनेश्वरी का फार्म अनिल ने ही भरा था। प्रवेश पत्र की प्रतिलिपि को भी उसने ही निकाला। उसके बाद अनिल ने धनेश्वरी के चाचा से 35 लाख में सौदा कर लिया। पंकज यादव व संदीप से प्रश्न पत्र हल नहीं हुआ, तो उन्होंने सीकर में साथ पढ़े हुए दोस्त सुनील रणवा को भेज दिया। सुनील ने साथी दिनेश बेनीवाल से मिलकर आधा हल करके बाक़ी हरियाणा के अध्यापक से हल कराया। कुल मिलाकर यह खेल किसी नवयौवना की ज़ुल्फ़ों की तरह उलझा हुआ है। जब पुलिस वाले ही इसमें शामिल हैं, तो उलझी ज़ुल्फ़ें कैसे सुलझेंगी?

100 करोड़ टीकाकरण का परचम

The Prime Minister, Shri Narendra Modi visits the vaccination centre at Dr. Ram Manohar Lohia Hospital, in New Delhi on October 21, 2021.

भारत ने कोरोना-टीके (वैक्सीन) की 100 करोड़ ख़ुराकें लगाने का महत्त्वपूर्ण पड़ाव हासिल करके विश्व का दूसरा ऐसा देश बन गया है, जो इसमें बड़े पैमाने पर सफल हुआ है। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस विशेष मौक़े पर कहा- ‘भारत ने इतिहास रच दिया। यह महत्त्वपूर्ण उपलब्धि भारतीय विज्ञान, उद्यमों और 130 करोड़ देशवासियों की सामूहिक भावना की जीत है। डॉक्टरों, नर्सों और यह उपलब्धि हासिल करने के लिए काम करने वाले सभी लोगों का आभार।’

ग़ौरतलब है कि इसी साल 16 जनवरी को शुरू हुए टीकाकरण के बाद यह पड़ाव पाने में देश को 279 दिन लगे। देश में वयस्कों में से 75 फ़ीसदी को पहला टीका और 31 फ़ीसदी को दोनों टीके लग चुके हैं। इस मौक़े पर भारत को बधाई विश्व भर से मिल रही है। यूनिसेफ भारत की प्रतिनिधि डॉ. यास्मीन अली हक़ ने कहा-‘यह उपलब्धि शानदार है। जब भारतीय परिवार कोरोना की हालिया विनाशकारी लहर से उबर रहे हैं। ऐसे में कई लोगों के लिए इस उपलब्धि का अर्थ उम्मीद है।’

दक्षिण-पूर्व एशिया में विश्व स्वास्थ्य संगठन की क्षेत्रीय निदेशक डॉ. पूनम खेत्रपाल ने कहा- ‘यह मज़बूत राजनीतिक नेतृत्व के बिना सम्भव नहीं था।’

100 करोड़ यानी एक अरब टीकाकरण में देश के किन-किन प्रदेशों ने अच्छा प्रदर्शन किया और कौन-से राज्य पिछड़ गये? इसका विश्लेषण करना भी ज़रूरी है। अब तक केरल, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश का प्रदर्शन सबसे अच्छा रहा है। नौ राज्य और केंद्रशासित क्षेत्र- अंडमान-निकोबार, चंडीगढ़, गोवा, हिमाचल प्रदेश, लक्षद्वीप, सिक्किम, उत्तराखण्ड और दादर-नागर हवेली अपनी पूरी वयस्क आबादी को टीके की पहली ख़ुराक दे चुके हैं। इन राज्यों में हिमाचल शीर्ष पर है। इस राज्य की पात्र पूरी वयस्क आबादी को पहला कोरोना टीका लग चुका है और उसमें से आधी को दोनों टीके लग चुके हैं। हिमाचल जैसे पहाड़ी इलाक़े में यह करके दिखाना आसान नहीं था। लेकिन राजनीतिक प्रतिबद्धता और स्वास्थ्य विभाग की कर्मठता ने हर बाधा का समाधान निकालकर इसे सम्भव करके दूसरों के सामने एक मिसाल क़ायम की है।

केरल में इस साल के मध्य में कोरोना वायरस के मामले काफ़ी बढ़े और पूरे देश का ध्यान वहाँ चला गया था, मगर वहाँ टीकाकरण की गति बढ़ाने पर ज़ोर दिया गया। आबादी के हिसाब से टीकों का वितरण नहीं होने के चलते भी कई राज्य पीछे रह गये हैं। जैसे- उत्तर प्रदेश की आबादी 23 करोड़ से अधिक है और देश की कुल आबादी में इसकी हिस्सेदारी 17.4 फ़ीसदी है, मगर टीकों में हिस्सेदारी 11.9 फ़ीसदी है। पश्चिम बंगाल की कुल आबादी में हिस्सेदारी 7.3 फ़ीसदी है, मगर टीकों में हिस्सेदारी 6.7 फ़ीसदी है। बिहार की कुल आबादी में हिस्सेदारी 9.1 फ़ीसदी है, मगर टीके 6.2 फ़ीसदी लगे हैं। तमिलनाडु का हिस्सा कुल आबादी में 5.7 फ़ीसदी है, मगर टीकों में हिस्सेदारी 5.3 फ़ीसदी है।

वहीं कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जिन्होंने आबादी के अनुपात से अधिक टीके लगाये हैं। दिल्ली की कुल आबादी में हिस्सेदारी 1.4 फ़ीसदी है, मगर टीकों में हिस्सेदारी 2.0 फ़ीसदी और केरल की कुल आबादी में भागीदारी 2.6 फ़ीसदी, मगर टीकाकरण में हिस्सेदारी 3.7 फ़ीसदी है। हरियाणा का हिस्सा कुल आबादी में 2.1 फ़ीसदी है, मगर टीकों में हिस्सेदारी 2.2 फ़ीसदी है। पंजाब की कुल आबादी में 2.2 फ़ीसदी है, मगर टीकों में 2.1 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल, बिहार, तमिलनाडु टीकाकरण में पीछे चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश की स्थिति इस सन्दर्भ में सबसे ख़राब है, यानी देश का सबसे अधिक आबादी वाला यह प्रदेश सबसे पीछे नज़र आ रहा है।

अब तक उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, सबसे कम टीकों वाले आठ ज़िलों में सात उत्तर प्रदेश के हैं। इस सूची में रायबरेली, संभल, बदायूँ, मुरादाबाद, सीतापुर, कासगंज और सुल्तानपुर शामिल हैं। पंजाब का फ़िरोज़पुर भी इसी सूची का आठवाँ ज़िला है।

सवाल यह है कि विश्व पटल पर भारत की क्या स्थिति है? इसके बारे में आँकड़े बहुत कुछ बोलते हैं। 20 अक्टूबर तक उपलब्ध आँकड़ों के मुताबिक, दक्षिण कोरिया दुनिया के 30 सबसे बड़े देशों में शीर्ष पर है, जिसने अपनी 79 फ़ीसदी आबादी को पहला टीका लगा दिया है। उसके बाद इटली, चीन, जापान, फ्रांस, ब्राजील, इंग्लेंड, जर्मनी, अमेरिका और टर्की की नंबर आता है। चीन जहाँ दुनिया की सबसे अधिक आबादी बसती है, वहाँ 76 फ़ीसदी आबादी को पहला टीका लग चुका है और 71 फ़ीसदी को दोनों टीके लग चुके हैं। अमेरिका में 56 फ़ीसदी को दोनों टीके लग चुके हैं। भारत में 75 फ़ीसदी को पहला और 30.6 फ़ीसदी को दोनों टीके लग चुके हैं।

इस सन्दर्भ में भारत चीन से काफ़ी पिछड़ता दिखायी दे रहा है। दरअसल भारत के समक्ष एक बहुत बड़ी चुनौती यह है कि लोग अभी भी टीकाकरण से कतरा रहे हैं। बेशक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 100 करोड़ टीकाकरण के मौक़े पर कहा है- ‘कोरोना वायरस के मुक़ाबले में यह यात्रा अद्भुत रही है; विशेषकर जब हम याद करते हैं कि 2020 की शुरुआती परिस्थितियाँ कैसी थीं? हमें याद है कि उस समय स्थिति कितनी अप्रत्याशित थी; क्योंकि हम एक अज्ञात और अदृश्य शत्रु का मुक़ाबला कर रहे थे। चिन्ता से आश्वासन तक की यात्रा पूरी हो चुकी है और दुनिया के सबसे बड़े टीकाकरण अभियान के फलस्वरूप हमारा देश और भी मज़बूत होकर उभरा है। इसे वास्तव में एक भागीरथ प्रयास मानना चाहिए, जिसमें समाज के कई वर्ग शामिल हुए।’

इसमें कोई दो-राय नहीं कि टीकाकरण अभियान के शुरुआती दौर में कई बाधाएँ सामने आयीं और टीकाकरण को रफ़्तार देने के लिए विशेष दिनों पर विशेष लक्ष्य हासिल करने के वास्ते कार्यक्रम भी बनाये गये। इस 100 करोड़ टीकाकरण वाली उपलब्धि के साथ-साथ जो चुनौतियाँ अभी भी हैं, उनसे निपटने के लिए सरकार को विशेष प्रयास करने होंगे। इसी साल सितंबर में 70 करोड़ से 80 करोड़ टीकाकरण करने का आँकड़ा छूने में 11 दिन लगे थे और 80 करोड़ से 100 करोड़ होने में 31 दिन लगे।

अब टीकाकरण का औसत रोज़ाना 36 लाख है; यानी रफ़्तार में कमी आयी है। दूसरी ख़ुराक लेने वाले भी टीकाकरण केंद्रों में अपेक्षित संख्या में नहीं पहुँच रहे हैं। और कई राज्य सरकारों के सामने यह बहुत बड़ी समस्या है। हरियाणा के फ़रीदाबाद ज़िले का स्वास्थ्य विभाग ऐसी ही समस्या से जूझ रहा है। इस ज़िले के क़रीब डेढ़ लाख लोग कोरोना-टीके की दूसरी ख़ुराक लगवाने के लिए नहीं आ रहे हैं। स्वास्थ्य विभाग का दावा है कि दूसरी ख़ुराक अभी तक 48 फ़ीसदी लोगों की ही लग पायी है। स्वास्थ्य केंद्रों पर टीके उपलब्ध हैं; लेकिन लोग नहीं आ रहे। इसका हल स्वास्थ्य विभाग ने यह निकाला है कि अब इन लोगों की तलाश कर एएनएम और स्वास्थ्यकर्मियों को इनके घर भेजकर वहीं उनका टीकाकरण कराया जाएगा। मध्य प्रदेश में टीके की पहली ख़ुराक को लेकर अच्छा काम किया; लेकिन दूसरी ख़ुराक को लेकर नागरिकों की उदासीनता सरकार के लिए परेशानी का कारण बन गयी है। सरकार व प्रशासन की तमाम प्रयासों के बावजूद कम लोग ही दूसरी ख़ुराक के लिए आ रहे हैं। अभी तक केवल 32 फ़ीसदी लोगों को ही दूसरी ख़ुराक लग पायी है। भाजपा शासित इस राज्य में वर्तमान में क़रीब 30 लाख ऐसे लोग हैं, जिन्होंने अवधि निकलने के बाद भी दूसरी ख़ुराक नहीं लगवायी है। इस प्रदेश के मुख्य शिवराज सिंह चौहान ने इस साल दिसंबर तक सभी पात्र वयस्कों को टीके की दोनों ख़ुराकें लगाने का लक्ष्य रखा है। मगर सरकार के लिए यह लक्ष्य हासिल करना एक चुनौती बन गया है।

सभी वयस्कों के पूर्ण टीकाकरण के लिए क़रीब 90 करोड़ टीकों की ज़रूरत पड़ेगी और अगर सरकार दो साल से अधिक आयु के सभी बच्चों का टीकाकरण का फ़ैसला लेती है, तो उनके लिए 80 करोड़ टीकों की ज़रूरत होगी। बेशक टीकों की इस समय क़िल्लत नहीं है, मगर सरकारी तंत्र का ध्यान टीकाकरण की रफ़्तार में ढिलाई नहीं आने पर होना चाहिए। विभिन्न देशों के अध्ययन यही बताते हैं कि कोरोना-टीके की दोनों ख़ुराकें बेहतर तरीक़े से सुरक्षा कवच का काम करती हैं।

बीमार होने पर रोगी के अस्पताल जाने की सम्भावना कम होती है। अगर अस्पताल में भर्ती होता भी है, तो उसे ऑक्सीजन और आईसीयू बेड की ज़रूरत बहुत ही कम पड़ती है। अर्थात् वह अधिक गम्भीर श्रेणी में बहुत कम ही आता है। कोरोना वायरस का ख़तरा अभी बना हुआ है। 100 करोड़ टीकाकरण के अहम पड़ाव को हासिल करने के साथ सरकार, समाज और आम नागरिक को सजग चौकीदार की भूमिका में अभी बने रहना होगा। न्यूजीलैंड में कोरोना वायरस के मामले आ रहे हैं। रूस में कोरोना का प्रकोप बढ़ता जा रहा है। हालात के मद्देनज़र मॉस्को के मेयर ने राजधानी में 28 अक्टूबर से 11 दिन तक लॉकडाउन लगाने का ऐलान किया है। भारत में बेशक इन दिनों कोरोना के मामले घट रहे हैं, मगर इस बधाई वाले माहौल में अधिक दूरदर्शिता दिखानी होगी।

फिर दम घोटने लगीं ज़हरीली हवाएँ

आख़िर में कहाँ चूक हो रही है कि दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण हर साल अक्टूबर महीने में विकराल रूप लेता है और जनवरी महीने के अन्त तक चलता है। इसके कारण बच्चों से लेकर बुजुर्गों तक को साँस लेने में परेशानी के साथ-साथ स्वास्थ्य सम्बन्धी दिक़्क़तें हो रही हैं।

सन् 2005 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने वायु गुणवत्ता दिशा-निर्देशों के मुताबिक मानक तय किये थे। भारत में बढ़ते वायु प्रदूषण को समय रहते नहीं रोका गया, तो आने वाले दिनों में शहरों, ख़ासकर दिल्ली-एनसीआर में दिक़्क़तें और बढ़ेंगी। डब्ल्यूएचओ के चेताने के बाद से अब तक इन 16 वर्षों में देश में वायु प्रदूषण बढ़ाने वाले साधन भी बढ़े हैं। तंत्र की नाकामी का नतीजा यह है कि शहरों में तो ट्रैफिक पुलिस पूछताछ कर वाहनों की जाँच भी करती है। लेकिन गाँवों में तो 20 से 25 साल पुराने वाहन धड़ल्ले से चल रहे हैं।

वायु प्रदूषण के जानकार डॉ. दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि वायु प्रदूषण की रोकथाम के लिए सरकार तब हरकत में आती है, जब प्रदूषण से बढ़ जाता है और लोग बीमार पडऩे लगते हैं। हो-हल्ला मचने लगता है। तब शासन से प्रशासन तक अपनी ज़िम्मेदारी से बचाव के लिए एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप करने लगने हैं। व्यवस्था ठीक नहीं होती और स्थिति जस-की-तस रहती है और लोगों को प्रदूषित हवा में साँस लेने को मजबूर होना पड़ता है।

डॉ. दिव्यांग देव का मानना है कि पराली ही अकेली वायु प्रदूषण को लेकर ज़िम्मेदार नहीं है। अन्य साधन भी ज़िम्मेदार हैं; जिसको सरकार अक्सर नज़रअंदाज़ करती है। कई दशक पुराने वाहन जिन पर रोक है, वो धड़ल्ले से सडक़ों पर ज़हरीला धुआँ छोड़ते हुए दौड़ रहे हैं। इन पर क़ानूनी तौर पर रोक लगनी चाहिए।

पर्यावरण विशेषज्ञ डॉ. ज्योति स्वरूप का कहना है कि हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पराली जलाये जाने से इन दिनों सर्द मौसमी हवाओं चलते दिल्ली-एनसीआर में पराली का धुआँ वायु प्रदूषण का कहर बनकर आता है। उनका कहना है कि सरकार ने कभी भी वायु प्रदूषण को लेकर गम्भीरता नहीं दिखायी है। इसका ख़ामियाज़ा हर साल साल अक्टूबर से लेकर जनवरी तक जनता भुगतती है। मौज़ूदा हालात में वायु प्रदूषण लोगों के जीवन में कहर बनकर लोगों को श्वास, फेफड़े, गुर्दा, हृदय सम्बन्धी रोग हो रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में वायु प्रदूषण 4,00 के पार हो रही है। चौंकाने वाली बात तो यह है कि जिन संस्थाओं को वायु प्रदूषण को रोकने की ज़िम्मेदारी मिली है। उनकी रिपोर्ट तब आती है, जब वायु प्रदूषण दमघोंटू होने लगता है। ऐसे में ग़ैर-ज़िम्मेदराना रवैये के कारण वायु प्रदूषण देश के अन्दर एक स्थायी समस्या बनकर उभरा है।

प्रदूषण की रोकथाम पर काम करने वाले प्रदीप कुमार का कहना है कि सरकार की नीयत का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि सरकार तो यह सोचती है कि वायु प्रदूषण जिस गति से आता है, उसी गति से कुछ दिन बाद परेशान करके चला जाएगा। इसलिए धरातल पर काम नहीं होता है। जबकि वायु प्रदूषण को रोकने के लिए अगर शहर-शहर किसी भी एंजेसी को काम दिया जाए, तो वायु प्रदूषण पर काफ़ी हद तक क़ाबू पाया जा सकता है।

शहरों के बीचों-बीच में तामाम फैक्ट्रियाँ ऐसी हैं, जो ज़हरीली गैसें छोड़ती हैं। पूरे वातावरण को ख़राब करती हैं। इसके लिए अगर कोई ज़िम्मेदार है, तो वह भ्रष्ट सरकारी तंत्र है, जिसके देखरेख में तामाम नियमों को ताक पर रखकर अवैध रूप से फैक्ट्रियों का संचालन हो रहा है। वायु प्रदूषण एक चुनौती बन गया है। सरकारी तंत्र हाँफ रहा है। डब्ल्यूएचओ  ने समय-समय पर चेताया भी है और बचाव के रास्ता भी बताया है कि हवा में पीएम 2.5 और पीएम 10 में से ख़तरनाक ज़हरीले तत्त्व वाले अवयवों को कम करने के नये मानकों के ज़रिये कम करने की बात कहीं है; जिसके लिए ईंधन और पेट्रोल जैसे ईंधनों का उपयोग कम करना होगा। क्योंकि प्रदूषण को बढ़ाने में दशकों पुराने वाहन, जो सडक़ों पर रेंगते हुए धुआँ छोड़ते हैं; उन पर तत्काल रोक पूरे देश में लगनी चाहिए। इससे काफ़ी हद तक प्रदूषण कम होगा।

मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि वायु प्रदूषण के कारण शारीरिक और मानसिक तनाव बढ़ता है, जो हृदय और अस्थमा जैसी बीमारियों को बढ़ाता है। ऐसे में बचाव के तौर पर जब वायु प्रदूषण का कहर ज़्यादा हो तो अपने घरों में रहकर बचाव किया जा सकता है। डॉ. विवेका कुमार कहते हैं कि कई बार लोगों के बीच यह धारणा होती है कि वायु प्रदूषण के कारण साँस लेने में दिक़्क़त हो रही है। जबकि सच्चाई यह है कि ये हृदय और अस्थमा जैसी बीमारियों के लक्षण भी हो सकते है।

कांग्रेस का महिला कार्ड

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से ठीक पहले कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी ने अपने खोये हुए जनाधार को पाने के लिए जो महिला कार्ड खेला है, उससे उसके जनाधार में बदलाव आ सकता है। अभी तक राजनीतिक दल महिलाओं की राजनीति में भागीदारी को लेकर सिर्फ़ बयानबाज़ी ही करते रहे हैं। लेकिन प्रियंका गाँधी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में 40 फ़ीसदी महिलाओं को टिकट देने की घोषणा करके देश के राजनीतिक आकाओं को साफ़ सन्देश दे दिया है कि अब कांग्रेस राजनीतिक समीकरणों में बदलाव लाना चाहती है। उत्तर प्रदेश में ही नहीं, पूरे देश में कांग्रेस की इस पहल को नयी राजनीति के तौर पर देखा जा रहा है। भले ही यह आधी आबादी के हित में है।

राजनीतिक जानकारों का कहना है कि कांग्रेस की इस पहल से देश में नये राजनीति समीकरण बनकर उभरेंगे। कांग्रेस की देखा-देखी अन्य राजनीतिक दल भी महिलाओं को टिकट देने को मजबूर हो सकते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं का कहना है कि भले ही आज कांग्रेस में उठा-पटक चली रही है। कुछ कांग्रेस नेता, जो पार्टी छोड़ रहे हैं; उसे डूबता जहाज़ बता रहे हैं। लेकिन कांग्रेस आलाकमान को इन बातों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है। पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गाँधी कांग्रेस कार्य समिति की बैठक में जी-23 के नेताओं को साफ़ सन्देश दे चुकी हैं कि ‘कोई भ्रम में न रहे, मैं ही कांग्रेस अध्यक्ष हूँ।’ उनके इस सन्देश के बाद ही तय हो गया था कि कांग्रेस अपनी नीति के तहत राजनीति करेगी और उत्तर प्रदेश सहित पंजाब में जी-तोड़ मेहनत करके जनता के बीच जाएगी। तभी से कांग्रेस आक्रामक राजनीति कर रही है।

बताते चलें कि प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश की सियासत पर लम्बे समय से पैनी नज़र रखे हुए हैं। किसान आन्दोलन से लेकर  हाथरस कांड, लखीमपुर खीरी कांड और उसके बाद आगरा में वाल्मीकि समाज के व्यक्ति की थाने में मौत के बाद पीडि़तों से मिलने के लिए उन्होंने जिस तरह से सत्ताधारी भाजपा से जिस तरह से लोहा लिया, उससे लोगों का रुझान प्रियंका और कांग्रेस की तरफ़ हुआ है। उत्तर प्रदेश की सियासत तीन दशक से पूरी तरह से जाति-धर्म को केंद्र में रखकर की जाती रही है और उत्तर प्रदेश से होकर ही दिल्ली की सियासत का रास्ता निकलता है। जनता के मिजाज़ को भाँपते हुए कांग्रेस ने जो महिला कार्ड खेला है, उससे प्रदेश के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले साबित हो सकते हैं।

कांग्रेस पार्टी का मानना है कि 403 विधानसभा वाली सीटों पर 40 फ़ीसदी महिलाओं को टिकट दिया जाएगा यानी 160 सीटों पर कांग्रेस महिलाओं को प्रत्याशी के रूप में मैदान में उतारेगी। अनुमान लगाया जा रहा है कि अगर प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश की किसी भी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ती हैं, तो निश्चित तौर पर प्रदेश में कांग्रेस मज़बूत हो सकती है। अगर ऐसा होता है, तो सत्ता पाने के लिए भाजपा के अलावा सपा, बसपा और छोटे-छोटे दलों को भी व्यापक बदलाव लाने के लिए विवश होना पड़ेगा। कांग्रेस का यह महिला कार्ड ममता बनर्जी से प्रेरित बताया जा रहा है। जिस तर्ज पर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी ने महिलाओं को टिकट देकर पार्टी को मज़बूती दी है और सत्ता में वापसी करके सबको चौंकाया है। उसी तर्ज पर कांग्रेस उत्तर प्रदेश में खोये हुए जनाधार को पाने की कोशिश में है। कांग्रेस का मानना है कि अगर यह महिला कार्ड प्रदेश में सफल होता है, तो अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी इसे अजमाया जाएगा। 2024 का लोकसभा चुनाव भी इसी तर्ज पर लड़ा जा सकता है। कांग्रेस का मानना है कि बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, किसान आन्दोलन और आन्दोलन के दौरान सैकड़ों किसानों के मारे जाने से भाजपा के प्रति लोगों में रोष है। ग़रीब लोग परेशान हैं, इससे लोगों को अब कांग्रेस की ज़रूरत है। लेकिन अगर कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में सही मायने में खोया हुआ जनाधार पाना है, तो उसे तय करना होगा कि पार्टी में अंतर्कलह न हो। क्योंकि हाल ही में जतिन प्रसाद और ललितेश पति त्रिपाठी जैसे नेताओं के कांग्रेस छोडऩे से पार्टी को काफ़ी नुक़सान हुआ है। अगर विधानसभा चुनाव से पहले इसी तरह और नेता कांग्रेस छोड़ते हैं, तो उसे जनाधार पाने में दिक़्क़त हो सकती है। इसलिए पार्टी को अपने वफ़ादार और क़द्दावर नेताओं को हासिये से उठाकर सही सम्मान देते हुए टिकट देने के बारे में भी सोचना होगा, अन्यथा उसके महिला कार्ड को भी पलीता लग सकता है।

कांग्रेस का महिलाओं का टिकट देने का फ़ैसला स्वागत योग्य है; लेकिन योग्य और क़द्दावर नेताओं को किनारे करने की सोच उसे बहुत फ़ायदेमंद नहीं होगी। कांग्रेस सूत्रों का कहना है कि प्रदेश में तीन दशक से सपा, बसपा और भाजपा की राजनीति के इर्द-गिर्द राजनीति होती रही है। लेकिन मायावती और मुलायम सिंह का राजनीति में पहले जैसा हस्तक्षेप नहीं रह गया है। इसी देखते हुए नयी राजनीति के तहत कांग्रेस ने अपने खोये हुए जनाधार को पाने का प्रयास किया है। अब यह तो आने वाला समय ही तय करेगा कि नयी राजनीति के नये प्रयास कितने सार्थक होंगे।

कई सरकारी संस्थाओं में ख़ाली पड़े हैं महत्त्वपूर्ण पद

झारखण्ड में निगम, बोर्ड, आयोग, परिषद् समेत कई ऐसी सरकारी संस्थाएँ हैं, जिनमें वर्षों से कहीं अध्यक्ष, तो कहीं सदस्य के पद ख़ाली पड़े हुए हैं। इसकी वजह से ये सभी संवैधानिक और सरकारी संस्थाएँ निष्क्रिय पड़ी हुई हैं। इनकी निष्क्रियता के कारण जनहित में कोई काम नहीं हो रहा है। झारखण्ड की वर्तमान महा गठबन्धन की सरकार आपसी खींचतान के कारण इन संस्थाओं में नियुक्ति नहीं कर पा रही है। प्रदेश की संस्थाओं में इन दिनों क्या स्थिति है बता रहे हैं प्रशांत झा :-

देश के हर राज्य में सरकार के विभिन्न विभागों के अधीन बोर्ड, निगम और संवैधानिक आयोग होते हैं। इनके गठन के पीछे का उद्देश्य होता है कि ये सरकारी विभागों से इतर स्वायत्त तरीक़े से अपने संस्थान से सम्बन्धित जनहित में काम करें। साथ ही सरकार के कामकाज और योजनाओं की निगरानी करते हैं। कई संस्थाएँ विभागों को सहयोग करती हैं और कई संस्थाएँ उन पर नज़र रखती हैं। यह जनहित के कार्यों में सरकार की मदद करते हैं। संस्थानों को आवंटित ज़िम्मेदारी और कार्य के अनुसार अधिकार प्राप्त होता है। झारखण्ड में भी दर्ज़नों ऐसे निगम, बोर्ड और आयोग हैं। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि सरकार के अन्दर सहयोगी दलों की आपसी खींचतान की वजह से ये निष्क्रिय पड़े हुए हैं। फ़िलहाल लम्बे समय से ये बोर्ड, निगम, आयोग केवल अपने नाम की शोभा बढ़ा रहे हैं। उधर दूसरे राज्यों उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल की स्थिति झारखण्ड की तरह नहीं है। वहाँ कम-से-कम महत्त्वपूर्ण संस्थाएँ फ़िलहाल निष्क्रिय होने से बचे हुई हैं। कुछ बोर्ड, निगम में पद ख़ाली हैं; लेकिन वो इतने महत्त्वपूर्ण नहीं हैं।

35 संस्थाओं में नहीं अध्यक्ष

कहा जाता है कि निगम, बोर्ड, 20 सूत्री क्रियान्वयन समिति जैसी संस्थाएँ सरकार अपनी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं को उपकृत करने के लिए रखती है। उन संस्थाओं के अध्यक्ष, सदस्य आदि पार्टी के विधायकों, नेताओं, कार्यकर्ताओं को दिया जाता है। इसका बहुत अधिक महत्त्व नहीं होता है। पर कुछ बोर्ड, निगम और आयोग ऐसे हैं, जो काफ़ी महत्त्व रखते हैं। यह सीधे जनहित से जुड़े होते हैं। अगर यह निष्क्रिय हो जाएँ, तो इसका असर रोज़ाना के काम और विकास पर होता है। झारखण्ड में ऐसा ही कुछ हाल है। लोकायुक्त तक का पद ख़ाली पड़ा है। इसके अलावा राज्य सूचना आयोग, राज्य विद्युत नियामक आयोग, बाल संरक्षण आयोग, राज्य महिला आयोग, राज्य निगरानी परिषद्, राज्य विकास परिषद्, औद्योगिक क्षेत्र विकास प्राधिकार, राज्य खादी ग्रामोद्योग बोर्ड, राज्य आवास बोर्ड, कृषि विपणन परिषद्, रांची क्षेत्रीय विकास प्राधिकार, पर्यटन विकास निगम, राज्य वन विकास निगम, राज्य धार्मिक न्यास बोर्ड, मुख्यमंत्री लघु एवं कुटीर उद्यम विकास बोर्ड समेत कई बोर्डों में शीर्ष पद ख़ाली पड़े हैं।

आयोग भी निष्क्रिय

सूचना आयोग, बाल संरक्षण आयोग, लोकायुक्त, विद्युत नियामक आयोग आदि जैसी कई संस्थाओं की महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यह जनता से सीधे जुड़े होते हैं। हालत यह है कि राज्य में ये संस्थाएँ भी लम्बे से समय से निष्क्रिय पड़ी हुई हैं। राज्य सूचना आयोग में पिछले डेढ़ साल से मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त नहीं हैं। यहाँ 2,600 से अधिक शिकायतें और 7,669 अपीलें धूल फाँक रही हैं। राज्य विद्युत नियामक आयोग की भी बिजली सम्बन्धित मामले में महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। बिजली उपभोक्ताओं को यहाँ से काफ़ी मदद मिलती है। यहाँ के तत्कालीन अध्यक्ष अरविंद प्रसाद ने 12 मई, 2020 को इस्तीफ़ा दे दिया था, तब से यह पद ख़ाली है। इसी तरह राज्य महिला आयोग में अध्यक्ष, सचिव सहित चार सदस्यों के पद एक साल से ख़ाली है। यहाँ सुनवाई के लिए 3200 मामले लम्बित हैं। राज्य मानवाधिकार आयोग का पद पिछले छ: महीने से ख़ाली है। लोकायुक्त की नियुक्ति पिछले पाँच महीने से लटकी हुई है। यहाँ 1,700 से अधिक मामलों की सुनवाई और फ़ैसला का काम लम्बित है। यही हाल अन्य महत्त्वपूर्ण आयोगों का है। इसके अलावा खादी ग्रामोद्योग बोर्ड, माटी कला बोर्ड, समाज कल्याण बोर्ड, आवास बोर्ड समेत कई बोर्ड और निगम में पद रिक्त पड़े हुए हैं।

खींचतान में फँसा पेच

मुख्य सूचना आयुक्त और सूचना आयुक्त की नियुक्ति के लिए लगभग डेढ़ साल पहले कार्मिक विभाग ने आवेदन आमंत्रित किया था। एक मुख्य सूचना आयुक्त और छ: सूचना आयुक्त के पद ख़ाली हैं। इनके लिए लगभग 350 से आवेदन आये। इनकी नियुक्ति में मुख्यमंत्री के अलावा विधानसभा में प्रतिपक्ष का नेता होना ज़रूरी है। विधानसभा में अभी तक भाजपा के बाबूलाल मरांडी को प्रतिपक्ष का नेता नहीं माना गया है, नतीजतन यह नियुक्ति अटकी हुई है। इसी तरह बोर्ड, निगम, 20 सूत्री का बँटवारा सरकार के गठबन्धन दलों झामुमो, कांग्रेस और राजद के बीच होना है। आपसी खींचतान के कारण अभी तक बँटवारा नहीं हो सका है। जबकि मौज़ूदा सरकार का दो साल पूरा होने वाला है। इन बोर्ड, निगम आदि पर सत्ताधारी दल के विधायकों, पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं की नज़र टिकी हुई है। हर कुछ दिन पर इसके लिए प्रयास होता है; लेकिन सफलता अब तक नहीं मिली है।

कुछ माह पहले मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने मंत्रिमंडल समन्वय विभाग से राज्य के सभी बोर्ड, निगम, आयोग आदि की सूची और रिक्त पदों की जानकारी माँगी थी। पिछले दिनों कांग्रेस प्रदेश प्रभारी आर.पी.एन. सिंह रांची आये थे और मुख्यमंत्री से मिले भी थे। आर.पी.एन. ने कहा था कि गठबन्धन दलों के बीच निगम, बोर्ड, आयोग, 20 सूत्री आदि के बँटवारे को लेकर एक ख़ाका तैयार कर लिया गया है, जल्द ही इसका बँटवारा होगा। इस बात को भी अब दो महीने बीत गये। सत्ता पक्ष के पार्टी पदाधिकारी रटे-रटाये बयान कि जल्द बँटवारा होगा, गठबन्धन दलों ने एक रूपरेखा तैयार कर ली; आदि देकर टाल जाते हैं। विपक्षी दल भाजपा के नेता कहते हैं कि इन संस्थानों का अपना एक महत्त्व है। इसका पुनर्गठन सरकार को करना चाहिए। सरकार कुछ करना ही नहीं चाहती है। लेकिन विपक्ष इसे मुद्दा बनाकर उठाती नहीं है। राजनीति और आपसी खींचतान के बीच जनता की समस्याओं का निदान नहीं हो पा रहा है।

अन्य राज्यों की स्थिति कुछ बेहतर

देश के अन्य राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, उड़ीसा, बंगाल आदि की स्थिति कुछ बेहतर है। उत्तर प्रदेश में आयोग, निगम, बोर्ड आदि में ज़्यादा महत्त्वपूर्ण पदों को सन् 2019 के लोकसभा चुनाव से ठीक पहले भरा गया था। बिहार में भी महत्त्वपूर्ण आयोग क्रियाशील हैं। हालाँकि वहाँ भी कई बोर्डों और निगमों में पद रिक्त हैं। बंगाल में अभी चुनाव सम्पन्न हुआ है। ममता बनर्जी की सरकार बनी है। पूर्व से जिन बोर्ड, निगम, पार्षद आदि के पद भरे हुए थे, वह क्रियाशील हैं। अब एक बार फिर सरकार इस पर ध्यान देने की तैयारी में है।

अदालत पहुँचा झारखण्ड का मामला

आयोग, बोर्ड, निगम आदि में पद रिक्त होने का मामला झारखण्ड उच्च न्यायालय में भी पहुँच गया है। इस मामले में सरकार का ध्यान आकृष्ट करने के लिए पिछले दिनों एक जनहित याचिका भी दाख़िल की गयी है। हालाँकि इस पर अभी सुनवाई नहीं हुई है। उम्मीद है कि अगले महीने इस पर कोर्ट में सुनवाई होगी। अब अदालत के निर्देश पर सरकार कोई फ़ैसला लेती है या फिर इससे पहले ही सरकार महत्त्वपूर्ण आयोग, बोर्ड और निगम में पदों पर नियुक्ति करती है? यह तो आने वाले वक़्त में पता चलेगा। फ़िलहाल लोगों की जो परेशानी है और विकास को गति नहीं मिल रही है, उसे नकारा नहीं जा सकता है।

“सरकार में जो कामकाज होता है, वह एक अलग तरीक़े से होता है। निगम, बोर्ड, आयोग को एक ऑटोनोमस बॉडी के रूप में बनाया जाता है, जिससे वह स्वतंत्र रूप से काम करे। इसके गठन से सरकारी तंत्र के काम करने की जो प्रक्रिया है, उसका और सरलीकरण हो जाता है। इसके गठन नहीं होने से जिस कारण से बोर्ड, निगम या आयोग बनाया गया है, वह हल नहीं हो पाएगा। अगर गठन नहीं हो रहा है, तो निश्चित कोई  बात होगी। सम्भव है कि सरकार ने कोई  वैकल्पिक व्यवस्था की हो।”

आदित्य स्वरूप

पूर्व मुख्य सूचना आयुक्त और पूर्व प्रधान सचिव,

कार्मिक विभाग

नियमित स़फाई , अनियमित स़फाईकर्मी

स़फाई का काम पूँजीपतियों के हाथ में जाने से बढ़ी समस्या

सरकार सरकारी कर्मचारियों पर लापरवाही के आरोपों और कम बजट में अधिक व बेहतर सेवाएँ प्रदान करने के लिए हर सेक्टर में निजीकरण को बढ़ावा दे रही है। लेकिन निजीकरण के तहत जो भी काम हो रहा है, वह भी सरकारी व्यवस्था की तरह, बल्कि कई क्षेत्रों में उससे भी कई गुना लचर व अव्यस्थित साबित हो रहा है। ऐसे में लोगों को उन्हीं हालात का सामना करना पड़ रहा है, जो हालात सरकारी व्यवस्था के तहत पेश आते रहे हैं।

ऐसे ही कार्यों में स़फाई भी शामिल है। स्वस्थ रहने के लिए नियमित स़फाई अत्यधिक ज़रूरी है। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि देश इन दिनों कई महामारियों और बीमारियों से जूझ रहा है। बीमारियों में जितनी ज़रूरत इलाज की होती है, उतनी ही ज़रूरत साफ़-स़फाई की भी होती है, जिसमें स़फाईकर्मियों की बड़ी भूमिका होती है। लेकिन देश भर में स़फाई व्यवस्था लचर होने से लोगों को तो अनेक दिक़्क़तों का सामना करना पड़ ही रहा है, नित नयी बीमारियाँ भी बढ़ रही हैं।

मौज़ूद स़फाई अव्यवस्था और शहरों में दिन-दिन बढ़ती गन्दगी के कई कारण हैं। लेकिन सबसे बड़ी दिक़्क़्त देश में स़फाईकर्मियों की कमी है। ‘तहलका’ ने इस बारे में दिल्ली समेत कई राज्यों में इसे लेकर पड़ताल की, जिसमें मुख्य वजह यह सामने आयी कि सरकारी स़फाईकर्मचारियों की नियुक्तियाँ न होने के कारण स़फाई के काम से जुड़े लोगों को मजबूरन ठेकेदारी या निजी संस्थाओं के तहत काम करना पड़ता है, जहाँ उन्हें पर्याप्त वेतन भी नहीं मिलता। दिल्ली में ठेकेदारी के तहत काम करने वाले कई स़फाईकर्मियों ने बताया कि उनको जो वेतन बताया जाता है, उसमें से भी 30 फ़ीसदी काटकर ठेकेदार उन्हें देता है। उनकी मजबूरी यह है कि अगर वे विरोध करें, तो उन्हें काम से निकाल दिया जाता है। इसके अलावा जो सरकारी स़फाईकर्मी हैं, वे भी कई बार अफ़सरों से साँठगाँठ करके कम पैसे पर स़फाईकर्मी रखकर उनसे काम करा लेते हैं। इतना ही नहीं, दिल्ली में नगर निगम से लेकर नई दिल्ली नगर पालिका में जितने स़फाईकर्मियों की आवश्यकता है, उतने स़फाईकर्मी कभी होते ही नहीं हैं। ऐसे में बेहतर स़फाई व्यवस्था की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

एक स़फाई कर्मचारी उदय का कहना है कि दिल्ली में अक्सर स़फाई व्यवस्था चौपट रहने की वजह सियासत भी है। दिल्ली नगर निगम से लेकर केंद्र सरकार के अस्पताल, दिल्ली सरकार के स्कूल, अस्पताल और सडक़ों की साफ़-स़फाई का अधिक-से-अधिक काम ठेकेदारों के हाथ में है। ऐसे में ठेकेदार कम-से-कम लोगों से, कम-से-कम पैसे में अधिक-से-अधिक काम कराने के चक्कर में पड़े रहते हैं और स़फाई की ओर ध्यान तक नहीं देते हैं। इसकी वजह यह है कि इस महत्त्वपूर्ण काम में ठेकेदारों, आला अफ़सरों से लेकर सत्ता में बैठे कुछ लोग तक जमकर मलाई काट रहे हैं। यह एक तरह से बजट से कम में काम कराने से लेकर स़फाईकर्मियों का हिस्सा खाने तक का खेल है। हर कोई शिकायत करने से डरता है; क्योंकि उसे काम से हटाना इन लोगों के बाएँ हाथ का काम है। दिक़्क़्त यह है कि इस महत्त्वपूर्ण काम की ठीक से जाँच नहीं होती और अगर कभी कोई जाँच हो भी जाए, तो या तो उसे वहीं दबा दिया जाता है या फिर किसी भ्रष्टाचार को लेकर कभी कोई कार्रवाई नहीं होती है।

आज के आधुनिक युग में जब स़फाई की कई बेहतरीन मशीने आ चुकी हैं, बावजूद इसके देश की राजधानी दिल्ली तक में सीवर और गटर की स़फाई के लिए स़फाई कर्मचारियों को उनमें उतारा जाता है। इस काम से हर साल कई स़फाईकर्मियों की दम घुटने से मौत तक होती है। लेकिन इसके बावजूद सरकारें, निगम व स़फाई के काम से जुड़े अन्य संस्थान इस ओर ध्यान नहीं देते। पिछले कुछ वर्षों में दिल्ली सरकार ने गटर साफ़ करने वाली कुछ मशीने मँगायी थीं; लेकिन वो ज़रूरत के हिसाब से अभी अपर्याप्त हैं। दिल्ली नगर निगम के पास भी मशीनें हैं। लेकिन अगर वह और आधुनिक तथा अधिक मशीनें ख़रीदे, तो साधनों गटर की स़फाई स़फाईकर्मियों को उनमें घुसकर न करनी पड़े और किसी भी स़फाईकर्मी की स़फाई के दौरान दम घुटने से मौत न हो। दु:खद यह है कि किसी स़फाईकर्मी की गटर स़फाई के दौरान मौत होती है, तो उस पर जमकर सियासत होती है, जिसके चलते कई बार तो मृतक के परिजनों को उचित न्याय और मुआवज़ा नहीं मिल पाता। अगर स़फाईकर्मी ठेकेदार के अंतर्गत काम करने वाला हो, तब तो और भी नहीं।

दूसरा, सेवा के दौरान मृत्यु होने पर दिल्ली सरकार अपने कर्मचारियों को एक करोड़ का मुआवज़ा देती है। लेकिन दिल्ली नगर निगम में भाजपा का शासन है, जिसके चलते अगर दिल्ली नगर निगम के किसी कर्मचारी की सेवा के दौरान मृत्यु होती है, तो उसके परिजनों को दिल्ली सरकार की तरफ़ से यह मुआवज़ा मिल नहीं पाता और निगम में इतना मुआवज़ा मिलता नहीं। इसके अलावा दिल्ली में अधिकतर अस्पतालों में स़फाई का काम निजी कम्पनियों को दिया गया है। ऐसे में वही समस्या- कम वेतन वाले, कम कर्मचारियों के सिर पर पूरी व्यवस्था होती है, जिससे किसी भी अस्पताल से पूरी तरह गन्दगी साफ़ नहीं हो पाती। सरकारें ख़ुद स़फाई पर ज़ोर देती हैं और इसके लिए विज्ञापन भी करती हैं कि स़फाई व्यवस्था ठीक होने से बीमारियों को क़ाबू किया जा सकता है। कोरोना, डेंगू और मलेरिया सहित मौसमी बीमारियों के प्रकोप से बचने के लिए सारे टंटे आजमाये जाते हैं। लेकिन स़फाई में कोताही बरती जाती है; जिस पर सरकारों को ध्यान देना चाहिए। क्योंकि दिल्ली वैसे भी कई सत्ताओं के बीच लगातार होती सियासत के बीच पिसती है। इन सत्ताओं में केंद्र सरकार, दिल्ली सरकार, नगर निगम, नई दिल्ली नगर पालिका, डीडीए, उप राज्यपाल आदि हैं।

अगर हम अस्पतालों की बात करें, तो वहाँ ठीक से स़फाई न होने का कारण इन सत्ताओं के तंत्रों और व्यवस्थाओं में फैली गन्दगी है। निजी संस्थाएँ और ठेकेदारी प्रथा इसमें परेशानी का एक और कारण है। अस्पतालों में काम करने वाले कुछ स़फाई कर्मचारियों ने बताया कि उन्हें 8 घंटे के काम के लिए नियुक्त किया गया था। लेकिन ठेकेदार उनसे 12 घंटे काम करवाते हैं। वह भी कम वेतन पर, ऐसे में कम लोग अधिक काम लगातार 12 घंटे करें, तो कैसे करें? एक स़फाईकर्मी ने बताया कि दो कर्मचारियों से कम-से-कम तीन कर्मचारियों का काम करवाया जा रहा है।

यही हाल अन्य संस्थानों का है। स़फाई कर्मचारी यूनियन के नेता रघुवीर सोढ़ा का कहना है कि स़फाई को लेकर जो सियासी माहौल चल रहा है, उसमें व्यवस्था की बात करनी ही बेमानी है। जब व्यवस्था ही लचर है, तो स़फाई व्यवस्था तो लचर होगी ही। इसकी कहीं कोई सुनवाई नहीं होती। ठेकेदार, संस्थाएँ कब कर्मचारियों को निकाल दें; वेतन दें, न दें; कोई गांरटी नहीं है। आये दिन ठेकेदार कर्मचारियों को निकाल रहे हैं। वेतन भी काटकर दे रहे हैं। किसी कर्मचारी की कहीं सुनवाई भी नहीं हो रही। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अब सुरक्षा से लेकर स़फाई तक का काम बड़े-बड़े पूँजीपतियों के हाथों में है। ये पूँजीपति परदे के पीछे बड़े खेल कर रहे हैं। क्योंकि मौज़ूद दौर में सुरक्षा और स़फाई अरबों-ख़रबों के कारोबार का क्षेत्र बन गये हैं। भले ही सुरक्षा और स़फाई का काम किसी साधारण से व्यक्ति नाम क्यों न हो। लेकिन असली संचालक पूँजीपतियों, सियासतदानों के हाथ में है, जिसे आला अफ़सरों के द्वारा कराया जा रहा है। इन लोगों का मक़सद पैसा कमाना है, न कि व्यवस्था को ठीक करना है।

तभी तो कहते हैं- ‘जिसका काम उसी साजे, और करे, तो डंडा बाजे।’ स़फाई के काम में भी ऐसा ही रहा है। स़फाई के काम में जो पूँजीपति शामिल हैं, वे अपनी कोठियों, बंगलों, गाडिय़ों, कपड़ों की स़फाई पर ध्यान देते हैं। वहाँ उन्हें सब कुछ बेहतरीन चाहिए। लेकिन गलियों, सडक़ों, सीवरों, रास्तों, पार्कों की स़फाई के बारे में न तो जानते हैं और न जानना चाहते हैं। उन्हें पैसा कमाने से मतलब है। इसी वजह से ठेकेदार मौज़ करते हैं। और जब कोई अधिकारी या मंत्री मुआयना करने जाता है, तो वहाँ थोड़ी स़फाई करवाकर चूना बिखरवा दिया जाता है। सरकारें, तंत्र और अफ़सर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए इन पूँजीपतियों के साथ हैं ही।

पूर्व श्रम अधिकारी घनश्याम का कहना है कि एक दशक पहले स़फाई के काम को हल्का काम माना जाता था। ठेकेदारी का जब चलन आया, तब भी स़फाई का काम स़फाई कर्मचारियों को मिलता था। लेकिन जैसे-जैसे पैसों वालों की इस काम पर नज़र पड़ी और उन्होंने इससे पैसा कमाने का मन बनाया, तबसे धीरे-धीरे इस पर क़ब्ज़ा कर लिया और ठेकेदारों के ज़रिये काम करवाना शुरू कर दिया। स़फाईकर्मियों का कुछ काम आधुनिक और इलेक्ट्रॉनिक मशीनों ने छीन लिया। इससे ग़रीब स़फाईकर्मचारियों के सामने कई समस्याएँ खड़ी हो गयी हैं। अगर देश में स़फाई व्यवस्था को ठीक करना है, तो इसे कार्पोरेट के हाथों से वापस लेकर सीधे स़फाईकर्मियों की भर्ती करके ईमानदार अफ़सरों के हाथ में इसकी बाग़डोर देनी होगी।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2022 सपा की सेंधमारी से भाजपा हैरान

विधानसभा उपाध्यक्ष बने भाजपा विधायक नितिन अग्रवाल

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से लगभग पाँच महीने पहले हुए विधानसभा उपाध्यक्ष के चुनाव में भले ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के उम्मीदवार को उपाध्यक्ष बनने का मौक़ा मिल गया, मगर समाजवादी पार्टी (सपा) के पक्ष में गये अन्य पार्टियों के विधायकों के 11 मतों ने, जिसमें भाजपा के विधायकों के द्वारा विरोध में मतदान किये जाने की सुगबुगाहट भी है; मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के कान खड़े कर दिये हैं। विधानसभा के उपाध्यक्ष पद पर भाजपा ने नरेश अग्रवाल के बेटे और सपा के बाग़ी विधायक नितिन अग्रवाल पर दाँव लगाया। भाजपा की यह रणनीति विपक्षी दल के उम्मीदवार पर दाँव लगाने के साथ-साथ वैश्य जनाधार में सेंधमारी करने की सोच मानी जा रही है। वहीं सपा ने नरेंद्र वर्मा को उपाध्यक्ष पद का उम्मीदवार बनाया था।

बता दें कि उत्तर प्रदेश के राजनीतिक इतिहास में 37 साल बाद यह दूसरा विधानसभा उपाध्यक्ष का चुनाव हुआ है। इससे पहले सन् 1984 में उपाध्यक्ष पद के लिए चुनावों का सहारा लिया गया था। अन्यथा प्रदेश की राजनीतिक परम्परा रही है कि विधानसभा अध्यक्ष सत्तापक्ष की ओर से और उपाध्यक्ष मुख्य विपक्षी दल की ओर से चुने जाते रहे हैं। मगर इस बार भाजपा ने अपना उपाध्यक्ष बनाने के लिए यह चुनाव का दाँव चला, जिसमें सपा के उम्मीदवार नरेंद्र वर्मा की हार हुई। मगर सपा के पक्ष में बढक़र हुई वोटों की संख्या ने सत्तापक्ष को हैरानी-परेशानी में डाल दिया है।

समाजवादी नेता और विधायक पद के टिकट के दावेदार ओमप्रकाश सेठ का कहना है कि समाजवादी पार्टी ने पंचायत चुनाव में सबसे ज़्यादा सीटें जीती थीं और अब विधानसभा चुनाव में भी समाजवादी पार्टी की ही सरकार बनेगी; क्योंकि प्रदेश की जनता मौज़ूदा सरकार की नीतियों, कार्यों और प्रदेश में हो रही अराजकता से बहुत परेशान है। जनता ही नहीं ख़ुद भाजपा के अनेक विधायक और नेता भी अपनी ही पार्टी से सन्तुष्ट नहीं हैं। अन्दरख़ाने भाजपा में बग़ावत होने लगी है। विधानसभा उपाध्यक्ष पद के लिए हुए चुनाव में यह बात साफ़ हो गयी है कि सरकार होने के बावजूद भाजपा के कई विधायकों ने अपनी पार्टी से कन्नी काट ली। वहीं भाजपा के एक समर्थक का कहना है कि भाजपा एक बार फिर प्रदेश में 300 पार का आँकड़ा पार करेगी। सपा अध्यक्ष और उनके समर्थक भी यह बात जानते हैं और उन्हें अपनी छत बचाने के लाले पड़े हैं। इस बात का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता कि अखिलेश अपना उपाध्यक्ष भी विधानसभा में नहीं बनवा सके।

किसके पक्ष में कितने मत?

उत्तर प्रदेश की 403 सदस्यों वाली विधानसभा में वर्तमान में कुल 395 विधायक हैं, जिनमें भाजपा के 304 और सपा के 49 विधायक हैं। वहीं भाजपा की सहयोगी पार्टी अपना दल(एस) के पास नौ, राजभर की सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के चार, निषाद पार्टी का एक और तीन निर्दलीय और रालोद का एक विधायक है, जो अब भाजपा में ही है। इसके अलावा बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के 15 विधायक, जिनमें से लगभग 10 बाग़ी हैं, कांग्रेस के सात विधायक, जिनमें में दो भाजपा के हो चुके हैं और दो असम्बद्ध सदस्य हैं। विधानसभा के उपाध्यक्ष पद पर हुए चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार नितिन अग्रवाल 244 मतों (वोटो) से जीत गये और सपा के नरेंद्र वर्मा 60 मत ही पा सके और हार गये, मगर बड़ी बात यह है कि नरेंद्र वर्मा के पक्ष में 11 वोट किसी दूसरी पार्टी के विधायकों ने डाल दिये। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सपा पक्ष में भाजपा के ही विधायकों ने वोट डाले हैं। भाजपा इस बात से इन्कार भी कर रही है और अन्दरख़ाने डरी हुई भी है। उसका डर इस बात को लेकर भी है कि प्रदेश में एक के बाद एक ऐसी घटनाएँ घट रही हैं, जिससे सरकार के माथे पर धब्बों की संख्या लगातार बढ़ रही है। सरकार एक मामले को जैसे-तैसे रफ़ा-दफ़ा करती है, वैसे ही कोई दूसरा मामला उसके ख़िलाफ़ गवाही देने को खड़ा हो जाता है।

सपा में जगी उम्मीद

विधानसभा उपाध्यक्ष की कुर्सी सपा के हाथ से ज़रूर निकल गयी, मगर 11 मत दूसरी पार्टी के उसके पक्ष में आने से उसे एक बार फिर उम्मीद बँधी है कि विधानसभा चुनाव में उसे बड़ी जीत हासिल होगी। वहीं भाजपा की चिन्ता बढ़ गयी है। कहने वाले तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सत्ता पक्ष ने सपा के पक्ष में पड़े अतिरिक्त 11 मतों की अन्दरख़ाने गोपनीय पड़ताल शुरू कर दी है कि विरोधी दल के पक्ष में मतदान करने वाले विधायक कौन-कौन थे?

प्रदेश में सपा ख़ुद को अग्रणी पार्टी मानती है; क्योंकि बसपा उससे कमज़ोर दिख रही है और कांग्रेस को वह अभी भी उतनी गम्भीरता से नहीं ले रही है। हालाँकि यह भी सपा की भूल ही कही जाएगी; क्योंकि कांग्रेस पहले से कहीं मज़बूत होती दिख रही है। सपा को किसान आन्दोलन से भी जीत की उम्मीद बँध रही है। यह तो तय है कि सपा का जनाधार पिछले विधानसभा चुनाव की अपेक्षा बढ़ा है, मगर यह कहना कठिन है कि सपा सरकार बना पाएगी; क्योंकि अभी भी प्रदेश में भाजपा का अपना जनाधार बहुत तगड़ा है।

निर्वाचन की जगह चुनाव क्यों?

जब कोई पार्टी अपनी सत्ता दूसरी किसी पार्टी के हाथ में नहीं देना चाहती, तो वह कुछ राजनियक और महत्त्वपूर्ण पदों पर अपने लोगों को किसी भी तरह लाने का प्रयास करती है। उत्तर प्रदेश में भी इस साल यही हुआ है। इससे पहले सन् 1984 में कांग्रेस ने भी यही किया था।

सन् 1980 में कांग्रेस प्रचंड बहुमत से चुनकर सत्ता में आयी और उसने सन् 1984 में विपक्ष का उपाध्यक्ष चुने जाने की निर्वाचन की परम्परा को तोड़ते हुए विपक्षी दल को यह पद न देने की मंशा से हुकुम सिंह को प्रत्याशी बनाकर चुनाव करा दिये। सत्तापक्ष के पास संख्या बल होने के चलते इस चुनाव में हुकुम सिंह उपाध्यक्ष बने। अब भाजपा ने भी वही इतिहास दोहराया है। लेकिन उस समय में और अब में अन्तर यह है कि भाजपा ने अपनी पार्टी के किसी पुराने विधायक को यह मौक़ा न देकर सपा के बाग़ी विधायक नितिन अग्रवाल को उपाध्यक्ष बनाया है। उपाध्यक्ष पद के पद पर हुए इस चुनाव में ख़ास बात यह रही कि अखिलेश के चाचा और प्रगतिशील समाजवादी पार्टी (लोहिया) के अध्यक्ष शिवपाल सिंह यादव ही मतदान करने नहीं गये। वहीं सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी प्रमुख ओमप्रकाश राजभर ने भी मतदान नहीं किया, जबकि उनकी पार्टी के तीन विधायकों ने इस चुनाव में मतदान किया।

कांग्रेस भी हो रही मज़बूत

पीडि़तों को न्याय दिलाने और उनसे मिलने की कोशिश में कांग्रेस उपाध्यक्ष प्रियंका गाँधी दो बार हिरासत में ली जा चुकी हैं। लोगों को प्रियंका की यह लड़ाई पसन्द आने लगी है और वे वापस कांग्रेस की ओर देखने को विवश हो रहे हैं।

कुछ राजनीतिक जानकारों का कहना है कि अगर कांग्रेस प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री पद का चेहरा बना दे, तो कांग्रेस से कट चुके लोग उसके पक्ष में मतदान करेंगे। हालाँकि भले ही जानकार भी कह रहे हैं कि ऐसा करने से कांग्रेस चुनाव जीत सकती है, मगर यह इतना भी आसान नहीं है; भले ही कांग्रेस का जनाधार बढ़ता नजर आ रहा है। हाँ, महिलाओं को 40 फ़ीसदी टिकट देने की प्रियंका की घोषणा और राजनीति में क़दम रखने वाली युवतियों को सुविधाएँ देने की घोषणा से यह सम्भव है कि कांग्रेस के पक्ष में महिला मत बढ़ जाएँ। इसके लिए उनकी महिलाओं से गले लगकर मिलना और उनके साथ फोटो खिंचवाना भी एक अच्छा कारण बन सकता है।

भविष्य की सम्भावनाएँ

भविष्य के पर्दे में क्या पोशीदा है? यह कोई नहीं जानता। कभी-कभी लोगों का तुक्का भी सही साबित हो जाता है और कभी कभी बड़े-बड़े विद्वानों और ज्योतिषियों की भविष्यवाणी भी झूठ साबित हो जाती है। उत्तर प्रदेश में अगली सरकार किसकी बनेगी? इस पर भी राजनीतिक जानकार, भविष्यवक्ता और आम लोग भविष्यवाणी कर रहे हैं। कुछ लोग दावा भी कर रहे हैं, जिस पर बहस भी छिड़ती है और कई बार कहीं-कहीं झगड़े का माहौल भी बन जाता है।

फ़िलहाल सभी पार्टियों में दाँवपेंच का खेल चरम पर है। प्रियंका गाँधी अपनापन दिखाकर, 40 फ़ीसदी आरक्षण महिलाओं को देकर, उनके बीच जाकर उनका खाना खाकर, उन्हें गले लगाकर और पीडि़तों का दु:ख बाँटकर लोगों का दिल जीतने की कोशिश में लगी हैं; तो अखिलेश को सन् 2012 की तरह पुराने मतदाताओं से उम्मीद है। वहीं रालोद को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जीत का पक्का भरोसा है, तो आम आदमी पार्टी को ईमानदारी, मुफ़्त 300 यूनिट बिजली और तिरंगा यात्रा से काफ़ी कुछ पाने की उम्मीद है। छोटे-छोटे दलों को अपने-अपने गढ़ों में जीत का विश्वास तो है; लेकिन डर भी है कि कहीं बड़ी पार्टियाँ उनका खेल न बिगाड़ दें।

इन सबके बीच सबसे ज़्यादा भरोसा सत्ता में मौज़ूद भाजपा को ही है। भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं के द्वारा 300 से ज़्यादा सीटें जीतने का दावा आत्मविश्वास है या अतिविश्वास? नहीं कह सकते; मगर डरी हुई भाजपा भी कम नहीं है। क्योंकि एक के बाद एक घट रही आपराधिक घटनाएँ उसके ख़िलाफ़ लोगों के समूह खड़े कर रही हैं। ऐसे में भाजपा को अपने प्रति लोगों में पहले जैसा विश्वास भरना पड़ेगा, जो कि कमज़ोर होता दिख रहा है।

दिल्ली में बंदरों का आतंक, लोग परेशान

दिल्ली में बंदरों से तंग आकर, दिल्ली मेट्रो ने तो लंगूरों को लगा दिया है। ताकि वो बंदरों को रोक सकें। इस पहल से बंदरों के आतंक से कुछ तो राहत मेट्रो में यात्रा करने वालों को मिली है। लेकिन अन्य सार्वजनिक स्थानों में व सरकारी ऑफिस के बाहर के बंदरों के आतंक से कैसे निजात मिलेगी।

दिल्ली के नामी –गिरामी माँलों के बाहर सब्जी मंडियों में बंदरों का आतंक इस कदर है। वहां पर तो लाखों रुपये खर्च कर सिक्योरिटी गार्डो तक को लगाया जा रहा है। ताकि वे बंदरों को रोक सकें। बताते चलें दिल्ली में बंदरों का आतंक इस कदर है कि अब, तो ये रिहायशी इलाकों में भी जमकर उत्पात मचा रहे है। स्थानीय लोगों का कहना है कि, कोरोना काल के पहले दिल्ली में कुछ ही इलाकों में बंदरों का कहर देखा जाता था। लेकिन कुछ ही महीनों पहले से बंदरों का कहर –आतंक बनकर उभरा है।

दिल्ली के संसद मार्ग पर तो बंदर कहर इस कदर है कि आने-जाने वाले राहगीरों तक को दिक्कत है। उनके हाथ में पाँलीथीन हो या अन्य खाने का सामान हो तो बंदर कर छीन ले जाते है। इस बारे में आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डाँ अनिल बंसल का कहना है कि बंदर के शहरों में आने का कारण ये है कि एक तो जंगल दिन व दिन कम होते जा रहे है। वहीं लोगों में जागरूकता के अभाव के कारण लोग बंदरों को खुद फल खिलाते है जिसके कारण दिल्ली यूनिवर्सिटी के पास पहाड़ियों के आस-पास बंदर झुण्ड के झुण्ड बैठे देखे जाते है। डॉ अनिल बंसल का कहना है कि अगर बंदर काट ले तो उसे नजरअंदाज ना करें। बल्कि रैबीज का इंजेक्शन लगवाये। ताकि इन्फेक्शन ना फैल सकें।

उत्तर प्रदेश के सियासी समीकरण

उत्तर प्रदेश के विधानसभा के चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, चुनावी गहमागहमी बढ़ती जा रही है। सत्तापक्ष और विपक्षी दल अपनी-अपनी गोटियाँ फिट करने में जुटे हैं। जातीय समीकरण बैठाये जा रहे हैं। एक के बाद एक सियासी दाँव चले जा रहे हैं। आरोपों-प्रत्यारोपों की झड़ी लगी है। सियासी दल समाज के हर वर्ग को अपने पाले में करने की कोशिश में लगे हैं।

उत्तर प्रदेश सियासी लिहाज़ से बहुत विशेष स्थान रखता है। उत्तर प्रदेश से जो संकेत आएँगे, उसका सीधा असर 2024 के लोकसभा चुनाव पर पड़ेगा। इसीलिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 15 जुलाई को ही अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में पहुँचकर 744 करोड़ योजनाओं का उद्घाटन करने के अलावा 889 करोड़ की परियोजनाओं की आधारशिला रख चुके हैं। कोरोना-काल से निपटने की उत्तर प्रदेश की तैयारियों को अभूतपूर्व बता चुके हैं। भाजपा ओबीसी जनाधार को लगातार अपने पाले में बनाये रखने में जुटी है। लेकिन ओमप्रकाश राजभर के समाजवादी पार्टी (सपा) के साथ जाने के ऐलान से पूर्वांचल में सपा को फ़ायदा होने की उम्मीद जतायी जा सकती है। चुनाव से पहले जिन विधायकों को टिकट दिये जाने की सम्भावना है, उन पर इस बात का दबाव है कि वे अपना जनाधार बचाकर रखें। वहीं बाक़ी सम्भावित उम्मीदवारों को जनाधार मज़बूत करने का दबाव है। जिन्हें टिकट मिलने की उम्मीद है या जो इसकी कोशिश में लगे हैं, वो विरोधी उम्मीदवार के जनाधार में सेंधमारी की कोशिश में जुटे हैं।

कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी लड़कियों को प्रदेश में पार्टी की सत्ता में आने पर स्मार्टफोन और इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी देने, महिलाओं को 40 फ़ीसदी आरक्षण देने की घोषणा करके प्रदेश की महिलाओं को लगातार लुभाने का प्रयास कर रही हैं। इस मुद्दे पर नयी बहस छिड़ गयी है। प्रदेश की सत्ता से वह 32 साल से बाहर है और दोबारा से वापसी के लिए प्रियंका गाँधी के इस फ़ैसले को बड़ा दाँव माना जा रहा है। प्रदेश में महिला मतदाता काफ़ी अहम हैं, जिन्हें प्रियंका गाँधी राजनीति में आने का ही नहीं, बल्कि टिकट का खुला प्रस्ताव दिया है, जिससे विपक्षी दलों के माथे पर चिन्ता की लकीरें दिखने लगी हैं।

2022 के विधानसभा चुनाव को प्रियंका गाँधी एक बड़े मौक़े के तौर पर देख रही हैं; क्योंकि उनके सामने पार्टी के लिए ज़मीन तैयार करना भी एक बड़ी चुनौती है। उन्होंने महिलाओं पर दाँव लगाकर सत्ता का रास्ता तैयार करने की पूरी कोशिश की है। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि प्रियंका अपनी रणनीति में कितनी कामयाब हो पाती हैं? कांग्रेस महासचिव महिलाओं के भरोसे चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी कर चुकी हैं। वह नारी शक्ति के दम पर पार्टी का वर्चस्व बढ़ाना चाहती हैं। असल में प्रदेश में महिलाओं की आबादी क़रीब 11 करोड़ है, जिनमें से 6.74 फ़ीसदी महिला मतदाता हैं। इसलिए कांग्रेस ने 2022 की चुनावी जंग फ़तह करने के लिए किसानों के साथ-साथ महिलाओं को जोडऩे की रणनीति बनायी है। हालाँकि भाजपा समेत तमाम सियासी दल भी महिला मतों को अधिक-से-अधिक बटोरने के जतन कर रहे हैं। बिहार में पिछले साल ट्रंप कार्ड से एनडीए की सत्ता में वापसी हुई, जिसमें ख़ामोश (साइलेंट) मतदाता महिलाएँ ही साबित हुई थीं। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस जीत का श्रेय भाजपा के इन्हीं ख़ामोश मतदाताओं को देते हुए बताया था कि ख़ामोश मतदाता कोई और नहीं, बल्कि महिलाएँ हैं। ऐसा लगता है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति भी इन्हीं ख़ामोश मतदाताओं पर आकर ठहर गयी है।

उत्तर प्रदेश में गठबन्धनों की बाढ़ आने वाली है, जैसे-जैसे गठबन्धन बढ़ेंगे, वैसे-वैसे सत्ता के समीकरण बदलेंगे। इस बार मुक़ाबला बहु कोणीय होने के साफ़ संकेत दिख रहे हैं। सपा और बसपा दोनों ने ही किसी बड़े दल से गठबन्धन न करने की घोषणा की है। नये खिलाड़ी के तौर पर अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी चुनाव मैदान में ज़ोर आजमाइश करेगी। असदुद्दीन ओवैसी की तेलंगाना की एआईएमआईएम भी बिहार की चुनावी सफलता के बाद उत्तर प्रदेश में उम्मीदवार उतारने को तत्पर है। ओवैसी अब मुसलमानों के रहनुमा बनकर उत्तर प्रदेश में अपनी सियासी ज़मीन तैयार करना चाहते हैं। देखना यह है कि अब मुसलमान किस मुद्दे पर, किस दल को मतदान करते हैं? कांग्रेस ने भी प्रियंका गाँधी के बूते अकेले लडऩे की रणनीति बनायी है। वहीं भागीदारी मोर्चा व अन्य कई छोटे दल हैं, जो गठबन्धन करके उत्तर प्रदेश के चुनाव में सत्ता की मलाई चखना चाहते हैं।

अखिलेश यादव ने साफ़ संकेत दे दिये हैं कि वह छोटे दलों के साथ गठबन्धन करेंगे। सपा और सुभासपा में गठबन्धन हो गया है और ओमप्रकाश राजभर ने अखिलेश यादव से हाथ मिला लिया है। पिछले लोकसभा चुनाव के ठीक पहले राजभर ने योगी मंत्रिमंडल से इस्तीफ़ा दे दिया था और भाजपा से अपना गठबन्धन तोड़ दिया था। भाजपा से उनकी गठबन्धन की कोशिश नाकाम रही। भाजपा ने गठबन्धन के मामले में नाराज़ सहयोगी अपना दल की अनुप्रिया पटेल और निषाद पार्टी को मना लिया है। चंद्रशेखर आज़ाद की आज़ाद समाज पार्टी, शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी और ओवैसी की एआईएमआईएम अभी गठबन्धन के फेर में हैं।

भाजपा अभी तक अपने विरोधियों पर भारी नज़र आ रही है। हालाँकि अखिलेश यादव ने भी अपने चुनावी अभियान की औपचारिक शुरुआत दशहरे से पहले कानपुर से विजय यात्रा के ज़रिये कर दी थी। चुनाव में भाजपा को टक्कर देने की हैसियत में सपा ही है। वैसे तो बसपा के पास भी उसका ठोस दलित बैंक है; लेकिन प्रचार अभियान के मामले में अभी वह ज़्यादा आक्रामक दिख नहीं रही है। मायावती ने अपनी ताक़त ब्राह्मण मतदाताओं को लुभाने में लगा रखी है। लेकिन बसपा की दुविधा यह है कि कांग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा से ज़्यादा हमलावर बसपा के प्रति नज़र आ रही है। साफ़ है कि बसपा को यह डर सता रहा है कि कहीं उनके वोट बैंक में प्रियंका गाँधी सेंध न लगा दें। भाजपा ने मुज़फ़्फ़रनगर के गुर्जर नेता वीरेंद्र सिंह को विधान परिषद् सदस्य (एमएलसी) बनाया है और अखिलेश गुर्जर समाज में सेंध के लिए ताक़त लगा रहे हैं। हर पार्टी जाति सम्मेलनों का सहारा ले रही हैं। यहाँ तक कि किसानों के मामले को भी मुद्दा बनाया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश की सरकार ने गन्ना किसानों की नाराज़गी को देखते हुए गन्ना ख़रीद मूल्य में मामूली बढ़ोतरी का ऐलान किया है; लेकिन गन्ना किसान सन्तुष्ट नहीं लग रहे। किसानों में सरकार को लेकर जो ग़ुस्सा है, जिसका असर मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद, अलीगढ़ और आगरा मंडलों में कम-से-कम सवा सौ विधानसभा सीटों पर ज़रूर पड़ेगा। ग्रामीण इलाक़ों में भाजपा नेता जाने से डर रहे हैं। लखीमपुर कांड ने और अब आगरा के सफ़ार्इ कर्मचारी की हत्याकांड ने विरोधियों को योगी सरकार पर हमला करने के लिए एक बड़ा मुद्दा दे दिया है। मेघालय के राज्यपाल, सत्यपाल मलिक जो उत्तर प्रदेश के बाग़पत के रहने वाले हैं, उन्होंने केंद्र और उत्तर प्रदेश की सरकारों को लगातार आगाह किया है कि यदि किसानों की नाराज़गी दूर नहीं की, तो उन्हें चुनाव में भारी नुक़सान उठाना पड़ेगा।

भाजपा ने पूर्वांचल में पूरा दमख़म लगा दिया है। हाल ही में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुशीनगर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के रूप में उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल को एक बड़ी सौगात दी। पूर्वांचल पर सौगातों की बारिश होने के पीछे 28 ज़िलों की 33 फ़ीसदी यानी 164 सीटों का चुनावी गणित है। पूर्वांचल का इतिहास भी रहा है कि वह एक बार जिसे चुनता है, पाँच साल बाद उसे ख़ारिज कर देता है। इसीलिए भाजपा चिन्तित है और पूर्वांचल जीतने के लिए चीज़ें दुरुस्त करने की कोशिश में लगी है। प्रधानमंत्री ताबड़तोड़ रैलियाँ कर रहे हैं। कुशीनगर में जब प्रधानमंत्री मोदी ने इशारों में निशाना साधा, तो उनके निशाने पर थे- अखिलेश यादव और उनकी समाजवादी पार्टी। प्रधानमंत्री के पूरे कार्यक्रम पर सपा की नज़र रही। वाल्मीकि जयंती पर बधाई देने के बाद अखिलेश यादव ने भी ट्वीट करके भाजपा पर भड़ास निकाली और कुशीनगर के शिलान्यास की ईंटों को अपनी व रनवे की ज़मीन को अपने द्वारा निर्मित बताते हुए भाजपा पर तंज कसा कि वह (प्रधानमंत्री) जिस प्लेन को पायलट बनकर उड़ा रहे हैं, वह उन्हीं का है और जहाँ वह उड़ान भर रहे हैं, वह ज़मीन भी उन्हीं के द्वारा निर्मित है। अखिलेश तो भाजपा पर हमलावर हैं ही, राहुल गाँधी भी मोदी सरकार पर हमलावर हैं। वहीं भाजपा पूर्वांचल का क़िला फ़तह करने के लिए अपना जातीय गणित बनाने में जुटी है। वह दल जातीय समीकरण साधने के लिए सामाजिक सम्मेलन कर रही है। योगी भगवान राम पर भी सियासत कर रहे हैं।

कुशीनगर गोरखपुर से महज़ 50 किलोमीटर दूर है। यह मोदी की संसदीय क्षेत्र वाराणसी से भी ज़्यादा दूर नहीं है। सन् 2017 के चुनाव में भाजपा ने पूर्वांचल में 164 में से 115 सीटें जीती थीं, जबकि सपा को 17, बसपा को 14 और कांग्रेस को सिर्फ़ दो सीटें मिली थीं। 16 सीटें अन्य के खाते में गयी थीं।  उत्तर प्रदेश में बारिश और बाढ़ ने त्राहिमाम मचा रखा है। फ़सलें डूब गयी हैं और आर्थिक पहिये बहुत धीमी गति से या कहें कि घिसटकर चल रहे हैं। लेकिन सियासत में उम्मीदों की फ़सलें लहलहा रही हैं और वादों की गाड़ी ख़ूब तेज़ दौड़ रही है। कुल मिलाकर अबकी बार बहुकोणीय मुक़ाबले में कई कोण बनते नज़र आ रहे हैं। लेकिन यह तो चुनाव के बाद ही पता चलेगा कि उत्तर प्रदेश में जन-निर्णय का ऊँट किस करवट बैठेगा?

एक मात्र हथियार

धर्मों (मज़हबों) के बीच झगड़ा लगातार बढ़ता जा रहा है। इसके कारण कई हैं; लेकिन मुख्य कारण सियासत है। जबसे धर्मों के सहारे सियासत होनी शुरू हुई है और धर्मों के कट्टरवादी समर्थक सियासत में आये हैं, तबसे सियासत क्रूर हुई है। यही वजह है कि सभी धर्मों के अुनयायियों के बीच टकराव बढ़ता जा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या इसे रोका नहीं जा सकता? इसका सीधा सा जवाब है- बिल्कुल रोका जा सकता है। इसके लिए शिक्षा ही एक मात्र हथियार है।

लेकिन शिक्षा का मतलब यह भी नहीं है कि पढ़-लिखकर लोग ईश्वर के अस्तित्व को ही नकार दें। यहाँ शिक्षा का मतलब लोगों का पढ़ा-लिखा होने के साथ-साथ संस्कारवान और सदाचारी होने से भी है। इससे इंसान का घमण्ड मरता है और जब इंसान में घमण्ड नहीं होता, तभी वह ईश्वर और दूसरों का अस्तित्व स्वीकार करता है। इतिहास में ऐसे अनेक लोगों का ज़िक्र है, जिन्होंने घमण्ड के चलते ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार ही नहीं किया। इनमें कइयों ने तो ख़ुद को ही ईश्वर बता डाला। लेकिन उनका हश्र क्या हुआ? वही मौत! ईश्वर तो है ही; और उसका अस्तित्व हम सबको स्वीकार करना भी चाहिए। ईश्वर के अस्तित्व को तो विज्ञान तक को स्वीकार करना पड़ा। अगर ईश्वर नहीं होता, तो बहुत कुछ आश्चर्यचकित कर देने वाला हमारे सामने नहीं घटता। बहुत कुछ हमसे छिपा हुआ नहीं होता। हमारी समझ से कुछ भी परे नहीं होता।

लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि वह अलग-अलग है अलग-अलग नामों के चलते उसको बाँटा नहीं जा सकता; जैसा कि लोग करते हैं। यह तो महामूर्खता है। अलग-अलग भाषाओं में जैसे हम एक ही अर्थ वाले शब्दों का उच्चारण अलग-अलग करते, सुनते हैं; ठीक इसी प्रकार ईश्वर के भी अलग-अलग भाषाओं में अलग-अलग नाम होते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि ईश्वर बँट गया या सबका ईश्वर ही अलग-अलग है। ईश्वर के एक होने का दावा दुनिया का हर धर्म करता है। लेकिन बावजूद इसके हममें से कितने ही लोग मज़हबों की दीवारों में ख़ुद को बँटा हुआ मानते हैं और इसी के चलते ईश्वर को भी बँटा हुआ मानते हैं।

फिर झगड़ा किस बात का? झगड़ा इसलिए है, क्योंकि हर धर्म में कट्टरपंथी लोग हैं, जो एक-दूसरे को दुश्मन मानकर एक-दूसरे पर आक्रामक रहते हैं। सियासत यही चाहती है। क्योंकि सियासतदानों को सत्ता सुख चाहिए। जबकि सत्ता का मक़सद समाजसेवा होना चाहिए। लेकिन अब सत्ताधारी स्वपोशी, परजीवी और अत्याचारी होते जा रहे हैं। सवाल यह है कि अब उसकी निरंकुशता पर कोई अंकुश लगाने वाला क्यों नहीं है? धर्म है। लेकिन इसके ठेकेदार अब भोग-विलासी हो चुके हैं। पहले सत्ताएँ धर्म से डरती थीं। लेकिन पहले साधु, सन्त, सन्यासी, पीर, फ़क़ीर तपस्वी, सिद्धिधारी, निष्कामी और निष्पाप होते थे। राजा-महाराजा न सिर्फ़ उनका सम्मान करते थे, बल्कि उनसे डरते भी थे। यही वजह है कि सत्ताधारी धर्म के रास्ते को सर्वोपरि मानते थे और अपने कर्तव्यपालन से मुँह नहीं फेर पाते थे। लेकिन अब साधु, सन्त और फ़क़ीर ही आलीशान बंगलों में रहते हैं। ऐश-ओ-आराम की ज़िन्दगी जीते हैं। और यह सब उन्हें सत्ताओं के रहम-ओ-क़रम पर ही हासिल होता हैं; क्योंकि अब धर्मों का चोला ओढ़े बहुत-से लोग ख़ुद गुनाहों की दलदल में धँसे हुए हैं और सत्ताओं के गुनाहों में बराबर के शरीक़ बने हैं। आज दर्ज़नों ऐसे नाम हैं, जो देखने और कहने भर के लिए साधु, सन्त, फ़क़ीर हैं; लेकिन वास्तव में कामी, क्रोधी, अत्याचारी, लोभी और भोगी-विलासी हैं। सब ऐसे नहीं हैं। लेकिन जो ऐसे नहीं हैं, उनका जीवन कठिन है। उन्हें सत्ताएँ न पसन्द करती हैं और न ही उनका सम्मान करती हैं। स्वर्गीय स्वामी अग्निवेश इसका एक बड़ा उदाहरण हैं। उनके साथ सत्ताओं ने वही किया, जो एक अपराधी के साथ किया जाता है। लेकिन उन्होंने एक तपस्वी सन्त की तरह ही सत्ता के आगे घुटने नहीं टेके और वही कहा, जो निरंकुश सत्ता से एक सन्त को कहना चाहिए। लेकिन आज बहुत-से साधु, सन्त, फ़क़ीर और समाजसेवी असल में अपराधी हैं।

मेरा एक दोहा है-

‘गुण्डे, लुच्चे गढ़ रहे दुनिया की तक़दीर।

अपराधी सब आज के नेता, सन्त, फ़क़ीर।।’ इसका मतलब यह नहीं है कि सभी नेता, सभी सन्त और सभी फ़क़ीर अपराधी हैं; बल्कि यह है कि जितने अपराधी है, वे या तो सियासी चोले में हैं; या सन्तों के भेष में हैं; या फ़क़ीरी का चोला ओढ़े हुए हैं। यानी इनमें से किसी-न-किसी चोले से अपने काले कारनामों को ढके हुए हैं। इन अपराधियों ने ही सियासत की कोठरी को काला किया हुआ है और इन्हीं अपराधियों ने धर्म को कलुषित किया हुआ है। और इन सबने ही मिलकर आम लोगों के बीच झगड़ा डाला हुआ है। हैरत यह है कि लोग इनकी चाल को समझ नहीं पाते। दरअसल आम लोग बड़ी आसानी से बहकावे में आ जाते हैं; ख़ासकर ताक़तवर लोगों के। सियासत और मज़हबों की यह साठगाँठ जब तक रहेगी, दुनिया में मारकाट मची रहेगी और लोग इसी तरह देश, धर्म, क्षेत्र, वर्ण, जाति आदि के नाम पर बँटे रहेंगे; लड़ते रहेंगे। इन सब दीवारों को गिराने और सबकी सुरक्षा के लिए प्रेम ही एक मात्र हथियार है, जिसकी सबसे पहली शर्त है- ‘सभी को प्रेम करो।’ दूसरी- ‘सभी का सम्मान करो’ और तीसरी- ‘जीओ और जीने दो।’