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संसद में महिला आरक्षण कब?

आधी आबादी। सुनने में यह शब्द अच्छा लगता है। लेकिन यदि संसद की ही बात करें, तो महिलाओं का प्रतिनिधित्व आधा तो दूर, नाम मात्र का ही है। स्थिति यह है कि भारत की लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज़ 14.3 फ़ीसदी है। जबकि पड़ोसी बांग्लादेश में यह 21 फ़ीसदी है। महिलाओं के प्रति भारतीय राजनीति में यह उदासीनता इस सन्दर्भ में भी महत्त्वपूर्ण है कि महिलाओं को 33 फ़ीसदी आरक्षण की बात काग़ज़ों में ही सिमटी है, अभी तक हक़ीक़त का जामा नहीं पहन पायी। ऐसे में प्रियंका गाँधी की उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने की पहल स्वागत योग्य कही जाएगी।

वैसे भारत में लोकसभा में महिलाओं का प्रतिनिधित्त्व लगातार बढ़ा है। लेकिन यह संख्या अभी भी बहुत कम है। देश में महिलाओं की जैसी भागीदारी कारपोरेट या अन्य संस्थानों में बढ़ी है, उस लिहाज़ से देखें तो संसद में यह भागीदारी न के बराबर है। पहली लोकसभा में केवल 5 फ़ीसदी महिलाएँ थीं, जो अब इतने वर्षों में महज़ 14.3 फ़ीसदी हो पायी हैं। सन् 2019 के चुनाव में लोकसभा में 78 महिलाएँ चुनकर आयीं, जबकि लोकसभा के कुल सदस्यों संख्या 543 है।

बहुत-से लोग कहते हैं कि महिलाओं के लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्त्व नहीं होने का कारण निरक्षरता है। हालाँकि यह कारण सही नहीं है। संसद और विधानसभाओं में प्रतिनिधित्व की बात छोड़ दें, तो लोकतंत्र के निचले संस्थानों में महिलाओं ने ख़ासा नाम किया है। पंचायतों, पंचायत समितियों और स्थानीय निकायों में चुनकर आयी महिलाओं ने जबरदस्त नेतृत्व किया है। यह सही है कि हमारे पुरुष प्रधान समाज में उन्हें काम करने नहीं दिया जाता। हालाँकि बहुत सारे मामलों में महिलाओं ने इन संस्थाओं में अपने अधिकारों का इस्तेमाल समाज की बेहतरी और विकास के कामों में किया है।

इस लैंगिक असमानता के बावजूद महिला नेतृत्व कई मामलों में उभरकर आया है। यह सब तब है, जब पुरुषों की तुलना में महिलाओं को परिवारों में ज़्यादा वक़्त देना होता है। राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को लेकर तो बहुत कुछ कहा जाता है; लेकिन जब बात टिकटों की आती है, तो पुरुष बाज़ी मार ले जाते हैं। लेकिन उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले कांग्रेस की प्रदेश प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी ने महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा एक बार फिर विमर्श में ला दिया है। उन्होंने कांग्रेस के 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का ऐलान करके दूसरे दलों पर भी दबाव बनाया है। देखना दिलचस्प होगा कि क्या प्रियंका अपने इस वादे पर खरा उतर पाती हैं?

यह बार-बार कहा जाता रहा है कि राजनीतिक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के बराबर होनी चाहिए। समय आ गया है, जब राज्य विधानसभा और संसदीय चुनावों में महिलाओं के लिए न्यूनतम प्रतिशतता सुनिश्चित की जाए और मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल इसकी पहल करते हुए बाक़ायदा भारत के निर्वाचन आयोग के प्रस्ताव (गिल फार्मूला) को लागू करें। यह भी ज़रूरी है कि देश में महिलाओं को संसद में 33 फ़ीसदी भागीदारी का क़ानून संसद में पास करके इसे अनिवार्यता के दायरे में लाया जाए, ताकि जो पार्टी इस पर अमल करने में विफल रहे, उस पर मान्यता रद्द होने की तलवार टँगी रहे। इसके लिए देश में समानता का माहौल बनाना भी आवश्यक होगा।

‘तहलका’ की जुटायी जानकारी के मुताबिक, देश में कुल 543 लोकसभा सीटों में से 48.4 फ़ीसदी में सन् 1962 के बाद कभी कोई महिला लोकसभा का चुनाव जीतकर नहीं आयी। यह सही है कि महिलाओं की रुचि कम रही है और इसका एक बड़ा कारण उत्पीडऩ का भय भी है। यह आम धारणा हमारे समाज में है कि महिलाओं के लिए राजनीति कोई सम्मानजनक पेशा नहीं। हालाँकि समय-समय पर महिलाओं ने बताया है कि उन्हें भी सम्मानजनक तरीक़े से काम करने का अधिकार है। भारत की संसद में भी महिलाओं ने कई ज्वलंत मुद्दों को उतनी की शिद्दत से उठाया है, जितना उनके समकक्ष पुरुष उठाते रहे हैं। देश में महिला आरक्षण की काफ़ी कोशिश होती रही है। सन् 1998 में पहली बार इस दिशा में बड़ी कोशिश तब हुई, जब लोकसभा में 33 फ़ीसदी महिला आरक्षण की बात हुई। यह भी कहा गया कि कुछ सीटों को चक्र क्रम में आरक्षण रूप में दिया जा सकता है। हालाँकि इसके बाद इस पर कोई ख़ास काम नहीं हुआ। लेकिन यूपीए जब सत्ता में आयी, तो ख़ासकर इसकी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने महिलाओं को आरक्षण देने के मद्दे पर बहुत दिलचस्पी दिखायी। उन्होंने इसे पार्टी के घोषणा पत्र में शामिल किया।

यूपीए के ही समय में सन् 2010 में महिला आरक्षण का विधेयक बाक़ायदा राज्यसभा में पेश किया गया। इसे पास भी करवा लिया गया। सोनिया गाँधी ने अपने सांसदों से कहा भी कि वे देश की जनता को भी इससे अवगत करवाएँ। बहुत दिलचस्प बात यह है कि यह मामला लटका रह गया। यूपीए के सपा, राजद जैसे घटक इस विधेयक के पक्ष में नहीं थे।

पुरानी बात करें, तो सन् 1974 संसद में महिलाओं के प्रतिनिधित्व का मुद्दा देश में महिलाओं की स्थिति के आकलन सम्बन्धी समिति की रिपोर्ट में पहली बार उठाया गया था। इसमें राजनीतिक इकाइयों में महिलाओं की कम संख्या का ज़िक्र करते हुए पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित करने का सुझाव दिया गया था। इसके बाद सन् 1993 में संविधान में 73वें और 74वें संशोधन के तहत पंचायतों और नगरपालिकाओं में महिलाओं के लिए एक-तिहाई सीटों के आरक्षण का प्रावधान किया गया।

इसके बाद 1996 में महिला आरक्षण विधेयक पहली बार देवगौड़ा सरकार के समय संसद में पेश किया गया। उस समय 81वें संविधान संशोधन विधेयक के रूप में इसे संसद में लाया गया था। हालाँकि बाद में देवगौड़ा सरकार अल्पमत में आ गयी और लोकसभा भंग होने के बाद यह मामला फिर लटक गया। लेकिन इस विधेयक को गीता मुखर्जी की अध्यक्षता वाली संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष भेजा गया, जिसने दिसंबर, 1996 में इस पर लोकसभा में रिपोर्ट पेश की।

हालाँकि जून, 1998 में वाजयेपी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार ने महिला आरक्षण विधेयक संसद में पेश किया। लेकिन पूरी सम्भावना के बावजूद यह विधेयक पास नहीं हो पाया। जब नवंबर, 1999 में एनडीए वाजपेयी के नेतृत्व में सत्ता में फिर वापस आ गयी, तो फिर महिला आरक्षण विधेयक लोकसभा में पेश किया गया। दुर्भाग्य से सरकार फिर सफल नहीं हो पायी। सत्ता में रहते हुए वाजपेयी सरकार यह विधेयक सन् 2002 और सन् 2003 में फिर लायी; लेकिन पास नहीं हो सका। महिला आरक्षण विधेयक के पास होने की सम्भावना सोनिया गाँधी की अध्यक्षता वाले यूपीए के सत्ता में आने के बाद काफ़ी मज़बूत बनी; क्योंकि सोनिया गाँधी ख़ुद महिला आरक्षण की मुखर समर्थक रही हैं।

यूपीए ने सत्ता में आते ही अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम (सीएमपी) में महिला आरक्षण विधेयक पारित करने को प्रमुखता से जोड़ा। यूपीए के समय पहली बार मई, 2008 में महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पेश हुआ और उसे क़ानून और न्याय से सम्बन्धित स्थायी समिति के पास भेजा गया। दिसंबर, 2009 में स्थायी समिति ने अपनी रिपोर्ट पेश की। हालाँकि सपा, जदयू और राजद ने इसका जबरदस्त विरोध किया। अगले ही साल फरवरी में तब की राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल ने संसद में अपने अभिभाषण में महिला आरक्षण विधेयक पारित करने की प्रतिबद्धता दोहरायी। फरवरी में ही मंत्रिमंडल ने महिला आरक्षण विधेयक को पास किया और मार्च, 2010 के बजट सत्र में महिला आरक्षण विधेयक राज्यसभा में पेश किया गया। लेकिन इस पर राज्यसभा में ख़ूब हंगामा हुआ।

मुलायम सिंह यादव की एसपी और लालू प्रसाद यादव की राजद ने यूपीए से समर्थन वापस लेने की धमकी दे दी। लेकिन इसके बावजूद 9 मार्च, 2010 को कांग्रेस ने भाजपा, जदयू और वामपंथी दलों के सहारे राज्यसभा में महिला आरक्षण विधेयक बड़े बहुमत से पास करवा लिया। हालाँकि इसे लोकसभा में पेश ही नहीं किया गया। इस तरह मामला लटक गया और आज तक लटका हुआ है। इसके बाद सन् 2017 में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने इसे लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक चिट्ठी लिखी थी, जिसमें उन्होंने आग्रह किया था कि महिला आरक्षण के विधेयक पर आगे बढ़ा जाना चाहिए। हालाँकि उसके बाद इस पर काम नहीं हो पाया।

हमारी संसद में महिलाएँ

लोकसभा चुनाव 2019 में 78 महिलाएँ लोकसभा में जीतकर पहुँची। इनमें सबसे ज़्यादा 40 भाजपा के टिकट पर जीतीं। इस चुनाव में जो 78 महिलाएँ जीतीं उनमें से 27 पहले भी सांसद बन चुकी थीं। उत्तर प्रदेश और बंगाल से सबसे ज़्यादा 11-11 महिला सांसद चुनी गयी थीं। वैसे 2019 लोकसभा चुनाव में कुल 8049 उम्मीदवार मैदान में उतरे थे; जिनमें 724 महिला उम्मीदवार थीं। हालाँकि इनमें से 78 ही चुनाव जीत पायीं।

इस चुनाव में कांग्रेस ने सबसे ज़्यादा 54, जबकि भाजपा ने 53, बसपा ने 24, टीएमसी ने 23, माकपा ने 10, भाकपा ने चार महिलाओं को और एनसीपी ने एक महिला को उम्मीदवार बनाया था। वहीं 222 महिलाएँ निर्दलीय के चुनाव मैदान में उतरी थीं। भाजपा की ही सबसे ज़्यादा महिला सांसद हैं; जबकि कांग्रेस की एक ही सांसद सोनिया गाँधी हैं।

 

अन्य देशों की संसदों में महिलाओं का फ़ीसद

 रवांडा : 61 फ़ीसदी

 दक्षिण अफ्रीका : 43 फ़ीसदी

 ब्रिटेन : 32 फ़ीसदी

 अमेरिका : 24 फ़ीसदी

 बांग्लादेश : 21 फ़ीसदी

 फ्रांस : 39.7 फ़ीसदी

 जर्मनी : 30.9 फ़ीसदी

उत्तर प्रदेश की सियासत में पोस्टर वार तेज

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर भले ही अभी तीन महीनें से कम का समय बचा हो, पर प्रदेश की सियासत में गर्माहट तेज हो गयी है। प्रदेश में विकास के नाम पर कम, किसान आंदोलन और महगांई के नाम पर  ज्यादा राजनीति हो रही है। सियासी दल एक दूसरे पर शब्दों के तो बाण चला ही रहे है। साथ ही प्रदेश में पोस्टर वार भी तेज हो गर्इ है।

दिल्ली  सीमा से सटे उत्तर प्रदेश के जिले गाजियाबाद और नोएडा में जमकर पोस्टर वार हो रहे है। कहीं किसानों के समर्थन में तो कहीं सत्ता के विरोध में । उत्तर प्रदेश का मतदाता फिलहाल चुप है। लेकिन राजनीतिक दलों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में राजनीति हवा का रूख कुछ और ही है।

किसानों और बढ़ती महंगाई ने लोगों को काफी परेशानी में डाल दिया है। कोरोना काल से जैसे –तैसे ऊभर ही रहे थे। वैसे ही महंगाई की मार लोगों के लिये मुसीबत बनकर ऊभरी है।

बतातें चलें, उत्तर प्रदेश और देश में भाजपा की सरकार है। ऐसे में लोगों का गुस्सा भी महगांई के कारण सरकार के प्रति है। वहीं कांग्रेस, बसपा और सपा भी इस बार के विधानसभा चुनाव को लेकर अपनी जीत को लेकर ज्यादा मेहनत कर रही है। और सीधें जनता से संपर्क स्थापित कर रही है।और अपनी-अपनी उपलब्धियां बताने में लगी है।

क्या राहुल पर भारी पड़ेंगी प्रियंका?

कांग्रेस जब ठंडी पड़ी थी, तब भी उसकी चर्चा थी। अब उठने की कोशिश कर रही है, तो भी उसकी चर्चा है। लेकिन कांग्रेस में सोनिया गाँधी बनाम राहुल गाँधी के दौर के बाद अब राहुल गाँधी बनाम प्रियंका गाँधी की चर्चा है। कारण, उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी की सक्रियता ने कांग्रेस के भीतर और बाहर हलचल मचा दी है। क्या प्रियंका गाँधी की सफलता राहुल गाँधी की राजनीति को अँधेरे में ले जाएगी? या क्या वह राहुल पर भारी पड़ेंगी? ऐसी ही सम्भावनाओं और सवालों पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी का यह विश्लेषण :-

पिछले सात साल में समर्थन की बड़ी ज़मीन और संगठन के स्तर पर बहुत कुछ खोने वाली कांग्रेस को फिर से खड़ा करने की क़वायद क्या फलीभूत हो पाएगी? उत्तर प्रदेश में महिलाओं को 40 फ़ीसदी टिकट देने की प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी की घोषणा और अक्टूबर के मध्य में कांग्रेस कार्य समिति (सीडब्ल्यूसी) की बैठक में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के तेवर बता रहे हैं कि पार्टी अब संगठन और चुनाव के स्तर पर गम्भीरता से काम करना शुरू कर रही है।

पार्टी की इस क़वायद के बीच यह साफ़ दिख रहा है कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से उत्तर प्रदेश अब केंद्र की राजनीति में पहुँचने और पार्टी का आधार मज़बूत करने का बड़ा केंद्र बन रहा है। जिस तरह कांग्रेस ने प्रियंका गाँधी को उत्तर प्रदेश के चुनाव में आगे किया है, उससे ज़ाहिर होता है कि वह एक बड़ा राजनीतिक जोखिम लेने के लिए ख़ुद को तैयार कर चुकी है। कांग्रेस के सामने इससे भविष्य में बड़ी पेचीदा स्थिति भी आ सकती है। बड़ा सवाल यही है कि यदि प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को करिश्माई तरीक़े से ज़्यादा सीटें दिलाने में सफल हो जाती हैं, तो क्या कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी की राजनीतिक भूमिका पर सवाल खड़ा हो जाएगा।

दो दशक से भी ज़्यादा वक़्त के बाद कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनाव पर बहुत गम्भीरता से फोकस करती दिख रही है। लेकिन प्रियंका गाँधी की इस सक्रियता की जितनी कांग्रेस से बाहर चर्चा है, उतनी ही कांग्रेस के भीतर भी है। कांग्रेस के कुछ नेताओं से ‘तहलका’ की बातचीत का सार यह निकलता है कि कांग्रेस महासचिव और कार्यकर्ता प्रियंका गाँधी की इस सक्रियता से न सिर्फ़ उत्साहित हैं, बल्कि उनमें नयी ऊर्जा भी आयी है।

हालाँकि प्रियंका गाँधी बनाम राहुल गाँधी इस की इस चर्चा से कांग्रेस के भीतर बेचैनी भी है। कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व किसी भी सूरत में यह चर्चा नहीं चाहता है। ख़ुद प्रियंका गाँधी जब कुछ करती हैं, तो इसे राहुल गाँधी की योजना का हिस्सा बताती हैं। लेकिन इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की सफलता कांग्रेस के भीतर प्रियंका गाँधी को एक अलग शक्ति केंद्र (पॉवर सेंटर) के रूप में उभार सकती है। ऐसे में कांग्रेस के सामने बड़ी पेचीदगी वाली स्थिति बन सकती है।

कांग्रेस में राहुल गाँधी के नेतृत्व पर सवाल उठाने वाले नेता प्रियंका गाँधी को राष्ट्रीय स्तर का ज़िम्मा देने की माँग कर सकते हैं; भले आज की तारीख़ में कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी को नेतृत्व का ज़िम्मा देने वाले नेताओं की संख्या कहीं ज़्यादा है। लेकिन यदि हाल के घटनाक्रम को देखें, तो यह भी हक़ीक़त है कि जी-23 के नेताओं ने उत्तर प्रदेश में प्रियंका गाँधी की सक्रियता, ख़ासकर लखीमपुर खीरी में उनके तेवर के बाद ही पार्टी के प्रति अपना रूख़ बदला है।

लखीमपुर कांड में जिस तरीक़े से कांग्रेस ने आक्रामक रूख़ अख़्तियार किया, उसे लेकर कांग्रेस के असन्तुष्ट नेताओं में शामिल पूर्व केंद्रीय मंत्री आनंद शर्मा ने न सिर्फ़ कांग्रेस के आक्रामक रवैये की तारीफ़ की, बल्कि उसका खुलकर समर्थन भी किया। इसी तरह लखीमपुर कांड में जब प्रियंका गाँधी और राहुल गाँधी राष्ट्रपति से मिलकर ज्ञापन देने गये, तो असन्तुष्ट नेताओं में शामिल रहे गुलाम नबी आज़ाद उनके साथ थे। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पूर्व केंद्रीय मंत्री कमलनाथ भी पार्टी में नाराज़ नेताओं को मुख्यधारा में लाने की क़वायद में आलाकमान के साथ जुड़े रहे हैं। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जिस तरह भाजपा ने अपने सोशल मीडिया के ज़रिये राहुल गाँधी की छवि को नुक़सान पहुँचाया है, उसके कारण हाल के वर्षों में उन्हें जनता के बीच एक ऐसी अलोकप्रियता झेलनी पड़ी, जिसके वह वास्तव में हक़दार नहीं थे। राहुल गाँधी की छवि को तब ज़रूर ठेस पहुँची थी, जब सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की ख़राब हार के बाद उन्होंने पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफ़ा दे दिया था।

बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि उन्हें भावुकता की जगह दृढ़ता से भाजपा के ख़िलाफ़ डटे रहना चाहिए था। हालाँकि अन्य जानकारों का मानना है कि राहुल गाँधी के इस्तीफ़े की वजह अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं का नकारात्मक रोल था, जिससे राहुल बहुत आहत थे। राहुल उस समय अपने प्रति भाजपा के लगातार दुष्प्रचार का भी सामना कर रहे थे और अपने नेताओं के असहयोग ने उन्हें निराश किया था।

राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा के दुष्प्रचार के कारण राहुल गाँधी अपनी जबरदस्त सक्रियता के बावजूद मोदी सरकार के ख़िलाफ़ अपने अभियानों में उतना प्रभाव नहीं डाल पाये, जितना हक़ीक़त में डालना चाहिए था। हालाँकि हाल के घटनाक्रमों, जिनमें कोरोना वायरस की दूसरी लहर में फैली अव्यवस्था और आसमान छू रही महँगाई के कारण केंद्र सरकार के प्रति जनता में फैल रही निराशा में राहुल गाँधी का केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ विरोध ख़ासा चर्चा में रहा है। अब प्रियंका गाँधी जो कुछ भी कर रही हैं, वह चर्चा का विषय बन रहा है। इसकी वजह उनकी आक्रामक शैली और लोगों, ख़ासकर महिलाओं से खुलकर मिलने की सोच है। वह सत्तापक्ष पर मुखर ढंग से आक्रमण भी करती हैं। प्रियंका जनता के बीच लोकप्रियता के लिए वह सब कर लेती हैं, जो राहुल गाँधी नहीं करते। राहुल गाँधी एक गम्भीर राजनेता के रूप में जनता के सामने रहते हैं, जिनका ज़्यादा फोकस मुद्दों पर रहता है।

ऐसा नहीं कि प्रियंका गाँधी गम्भीर राजनेता नहीं हैं; लेकिन जनता को ऐसी चीज़ें ज़्यादा आकर्षित करती हैं, जो प्रियंका कर लेती हैं। जैसे लखीमपुर खीरी जाते हुए जेल में बन्द होने पर झाड़ू लगाना, उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की इस पर की विवादित टिप्पणी को भुनाते हुए इसे वाल्मीकि समाज के ख़िलाफ़ दिखाना और वाल्मीकि मंदिर में सफ़ार्इ करना, एक दलित की पुलिस स्टेशन में मौत पर पीडि़त परिवार से मिलने आगरा जाते हुए रास्ते में एक घायल लडक़ी को अपनी गाड़ी से फस्र्ट ऐड बॉक्स निकालकर उसकी मरहम पट्टी करना जैसी चीज़ें प्रियंका को राहुल से अलग करती हैं। हालाँकि इससे राहुल गाँधी का राजनीतिक महत्त्व घट नहीं जाता।

राहुल बनाम प्रियंका

यह सवाल लाज़िम है कि यदि प्रियंका गाँधी को कोई बड़ी सफलता मिलती है, तो क्या राहुल गाँधी को कांग्रेस में किनारे होना पड़ेगा? कांग्रेस के भीतर भी यह सवाल है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने नाम न छपने की शर्त पर ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘इसकी बिल्कुल भी सम्भावना नहीं। राहुल गाँधी ही कांग्रेस के स्वाभाविक नेता हैं। भाजपा के दुष्प्रचार के आधार पर आप राहुल गाँधी का क़द तय नहीं कर सकते। वह मुद्दों पर गम्भीरता से बात करने वाले नेता हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उन्होंने हमेशा मोदी सरकार की मुद्दों पर आधारित आलोचना की है, भाजपा नेताओं की तरह भद्दी व्यक्तिगत टिप्पणियाँ नहीं की हैं।’

पार्टी के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने कहा- ‘राहुल गाँधी की भाषा लुभावनी नहीं हो सकती है। लेकिन वह चुटकुलों की भाषा वाले राजनेता कभी नहीं रहे। उन्हें चीज़ें की गहन समझ है और जो उनके प्रिय विषय हैं, वही देश के असली मुद्दे भी हैं। लेकिन भाजपा इन मुद्दों में नाकाम है। लिहाज़ा वह जनता का ध्यान इनसे हटाने के लिए राहुल गाँधी पर व्यक्तिगत आक्रमण करती है और वह भी झूठ से भरा होता है।’

हालाँकि पार्टी की महिला विंग की अध्यक्ष रह चुकीं अनीता वर्मा ने कहा कि प्रियंका गाँधी की छवि इंदिरा गाँधी जैसी है और वह उत्तर प्रदेश में जिस तरह पार्टी को मज़बूत कर रही हैं, उससे कांग्रेस के भीतर उन्हें लेकर बहुत उम्मीद है और राज्य में आने वाले चुनाव में पार्टी बड़ा कमाल कर सकती है। लेकिन इसे कांग्रेस के बीच किसी तरह का मुक़ाबला कहना सिर्फ़ मीडिया की उपज है। उन्होंने कहा कि राहुल और प्रियंका, दोनों कांग्रेस को मज़बूत कर रहे हैं।

दलितों को लुभाने की कोशिश

यह अब साफ़ है कि कांग्रेस अब अपने पुराने जनाधार- दलित और पिछड़ों को फिर अपने साथ जोडऩे के लिए पूरी ताक़त झोंक रही है। हाल के दशकों में यह वर्ग उससे छिटककर उससे दूर चला गया है। उत्तर प्रदेश के आगरा में दलित की पुलिस थाने में मौत के मसले को जिस तरह प्रियंका गाँधी ने उठाया और पीडि़त परिवार से मिलने आगरा गयीं, उससे भाजपा में बड़ी बेचैनी है। आगरा जाते हुए रास्ते में प्रियंका गाँधी ने जिस तरह अपना क़ाफ़िला रोककर एक घायल लडक़ी को ‘फस्र्ट ऐड’ दिया, उसने तो उन्हें काफ़ी चर्चा में ला दिया और कई दिन तक सोशल मीडिया में इसकी चर्चा होती रही।

कांग्रेस के नेताओं का कहना है कि प्रियंका गाँधी तेज़ी से एक राजनेता के रूप स्थापित होने की तरफ़ बढ़ा रही हैं। ऐसे में ज़ाहिर है पार्टी के भीतर उनकी तुलना राहुल गाँधी से होगी। अब यह भी साफ़ दिख रहा है कि कांग्रेस प्रियंका गाँधी को चर्चा के केंद्र में लाना चाहती है, और दिख रहा है कि अपनी मेहनत से उन्होंने इसमें सफलता पायी है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि उत्तर प्रदेश में अचानक प्रियंका गाँधी की लोकप्रियता बढ़ रही है। जिस तरह उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में किसान न्याय रैली की और जैसी भीड़ उसमें जुटी, उससे कांग्रेस उत्साहित है। यह अभी साफ़ नहीं है कि कांग्रेस उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में प्रियंका गाँधी को मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में सामने लाएगी या नहीं? लेकिन यह लगभग तय है कि चुनाव उनका चेहरा आगे करके ही लड़ा जाएगा।

उनकी सक्रियता से गाँवों तक में उनकी चर्चा आम लोगों में होने लगी है। उत्तर प्रदेश की राजनीति को समझने वाले कहते हैं कि ठीक है कि देश के इस सबसे बड़े राज्य में कांग्रेस संगठन के नाम पर कमज़ोर है; लेकिन प्रियंका गाँधी की लोकप्रियता जिस तरह बढ़ रही है, वो कांग्रेस को चुनाव में आश्चर्यजनक नतीजे भी दिला सकती है। उत्तर प्रदेश में संगठन और आधार वाली पार्टियाँ भाजपा, सपा और बसपा में इससे बेचैनी है। प्रियंका गाँधी की मार्फ़त उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक बड़ा राजनीतिक प्रयोग कर रही है। इसमें उनकी सफलता राष्ट्रीय राजनीति में कांग्रेस के लिए नयी शुरुआत का रास्ता खोल सकती है। चुनाव में बेहतर नतीजे इसकी बड़ी शर्त होगी।

प्रियंका योजनावद्ध तरीक़े से आगे बढ़ रही हैं। वह जातिगत समीकरणों से लेकर हर चीज़ का ख्याल रख रही हैं। आने वाले समय में प्रियंका उत्तर प्रदेश में पार्टी और ख़ुद को स्थापित करने के लिए यात्रा कार्यक्रम बनाने वाली हैं, ताकि जनता तक अधिक-से-अधिक पहुँचा जा सके। जानकारी के मुताबिक, प्रियंका गाँवों पर ज़्यादा फोकस करने की तैयारी कर रही हैं।

कांग्रेस में परिवर्तन

लम्बे समय तक सोयी रहने के बाद कांग्रेस में परिवर्तन दिख रहा है। पार्टी अपने संगठन चुनाव से पहले भीतर की असन्तुष्ट गतिविधियों को शान्त करना चाहती है, ताकि अध्यक्ष का चुनाव निर्विरोध हो। सीडब्ल्यूसी में सोनिया गाँधी के तेवर के बाद गुलाम नबी आज़ाद और आनंद शर्मा जैसे नेता फिर नेतृत्व के आगे हाथ बाँधे खड़े दिखने लगे हैं। यह दोनों नेता हाल के महीनों में असन्तुष्ट गतिविधियों के अगुआ की भूमिका में दिखे थे। गाँधी परिवार के लिए आज़ाद का असन्तुष्टों के साथ जाना किसी झटके से कम नहीं था; क्योंकि उन्हें हमेशा से गाँधी परिवार का क़रीबी माना जाता है। हालाँकि आज़ाद फिर से पार्टी कामों में सक्रिय दिख रहे हैं। हाल में लखीमपुर के मामले में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी जब राष्ट्रपति को ज्ञापन देने गये थे, तो ए.के. एंटनी के साथ गुलाम नबी आज़ाद भी उनके साथ थे।

कांग्रेस महसूस कर रही है कि मोदी सरकार का जलवा कम हो रहा है, देश में बढ़ रही समस्यायों से लोगों में सरकार के प्रति आक्रोश बढ़ रहा है और निराशा की धूल झाडक़र कांग्रेस के पास अपने संगठन को खड़ा करने का यह सही समय है। अगले साल जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, कांग्रेस उन पर ज़्यादा फोकस कर रही है। कांग्रेस की कोशिश राज्यों में बेहतर प्रदर्शन करके विपक्ष का नेतृत्व करने की है। राज्यों के चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा अवसर हैं। पार्टी का इन चुनावों में एक से ज़्यादा राज्यों में सीधे भाजपा के मुक़ाबला है; लिहाज़ा उसके लिए सम्भावनाएँ तो हैं ही।

कांग्रेस जानती है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर निकलता है। पिछले तीन दशक से उत्तर प्रदेश में कांग्रेस एक कमज़ोर संगठन रहा है। ऐसा नहीं है कि प्रियंका गाँधी राज्य में रातोंरात कोई उलटफेर कर देंगी; लेकिन जिस तरह वह उत्तर प्रदेश में आकर जम गयी हैं, उससे सत्तारूढ़ भाजपा ही नहीं, विरोधी दलों सपा और बसपा में भी हलचल है। इसे प्रियंका गाँधी की सफलता माना जाएगा कि राज्य में बिना किसी मज़बूत संगठन के उन्होंने कांग्रेस को जबरदस्त चर्चा में ही नहीं ला दिया है, बल्कि अपनी चतुर रणनीति से अन्य राजनीतिक दलों के लिए धीरे-धीरे गम्भीर चुनौती बनती दिख रही हैं।

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक से यह साफ़ हो गया है कि पार्टी नेतृत्व अब अनुशासन के साथ-साथ ज़मीनी स्तर पर भी सक्रियता बढ़ाना चाहता है। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस आने वाले समय में देश के विभिन्न मुद्दों को लेकर बड़ा आन्दोलन शुरू करने की तैयारी कर रही है। राहुल गाँधी जिन युवा नेताओं को कांग्रेस में ला रहे हैं, उनकी एक टीम बनाकर वे आन्दोलन खड़ा करना चाहते हैं। चूँकि कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव अगले साल है, इसलिए सम्भावना यही है कि यह आन्दोलन उसके बाद ही शुरू होगा। यदि राहुल गाँधी इससे पहले कार्यकारी अध्यक्ष बनने को तैयार हो जाते हैं, तो हो सकता है कि अगले साल के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद यह आन्दोलन शुरू हो।

कांग्रेस उम्मीद कर रही है कि भाजपा इन चुनावों में उतनी सफलता हासिल नहीं कर पाएगी। ऐसा सोचने के पीछे कांग्रेस के अपने कारण हैं। हालाँकि इसके लिए अब वह ख़ुद को सक्रिय करना चाहती है, ताकि यूपीए के सहयोगी दलों के सहारे से बाहर निकलकर अपनी ज़मीन मज़बूत कर सके। कुछ राज्यों में तो हालत यह है कि वह सहयोगी दलों की पिछलग्गू मात्र बनकर रह गयी है। पार्टी इस स्थिति से ख़ुद को बाहर निकालना चाहती है। इसके लिए ज़रूरी है कि वह ख़ुद को राज्यों में खड़ा करे।

विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कोशिश ज़्यादा-से-ज़्यादा राज्य जीतने की है। इसके लिए वह इस बार नये तेवर के साथ चुनाव में दिखेगी। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पार्टी राष्ट्रीय स्तर पर अपने युवा नेताओं, जिनमें महिला नेता भी हैं; को इस बार चुनाव में विशेष रणनीति के तहत मैदान में उतारने की तैयारी कर रही है। इनमें वे नेता शामिल रहेंगे, जो केंद्र सरकार की नीतियों पर तथ्यों के साथ जबरदस्त आक्रमण कर सकते हों। उनकी बाक़ायदा एक टीम बनाकर उन्हें चुनाव प्रचार में झोंका जाएगा।

पार्टी उत्तर भारत के क्षेत्र में यहाँ के तेवर वाले जबकि दक्षिण, पश्चिम और उत्तर पूर्व क्षेत्र में वहाँ के तेवर वाले नेताओं को ज़िम्मा सौंपेगी। राहुल गाँधी इस तरह की टीम बना रहे हैं। अब यह साफ़ हो गया है कि राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की सक्रियता ने कांग्रेस में निराशा से भरे वरिष्ठ असन्तुष्ट धड़े को ख़ामोश कर दिया है और वह अब महसूस करने लगा है कि युवा नेतृत्व के साथ आगे जाने का प्रयोग ठीक रहेगा।

 

नेतृत्व सँभालने की कशमकश

लखीमपुर में प्रियंका गाँधी ने जो झलक दिखायी है, उसका व्यापक असर कांग्रेस के भीतर और बाहर विपक्ष तक में हुआ है। राहुल और प्रियंका गाँधी की इस आक्रामक सक्रियता ने कांग्रेस के भीतर उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश में नये प्राण फूँक दिये हैं। देखा जाए, तो आज देश भर में पूरे विपक्ष में ऐसा कोई नेता नहीं, जो इस तरह के तेवर के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह की आक्रामक शैली का मुक़ाबला कर सके। कांग्रेस के पास नेतृत्व की यह बढ़त ज़रूर दिखने लगी है, जिसका उसे लाभ मिलेगा। कांग्रेस के सहयोगी दलों में राष्ट्रीय स्तर के नेतृत्व का वास्तव में टोटा है। शरद पवार जैसे नेता हैं; लेकिन आयु और स्वास्थ्य उनके आड़े हैं।

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को छोड़ दें, तो यूपीए दलों में ऐसा कोई नहीं, जिसके पास राष्ट्रीय छवि वाले नेता हों। टीएमसी चूँकि यूपीए का हिस्सा नहीं है, कांग्रेस को इस मामले में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के रूप में बढ़त है। वैसे यह माना जाता है कि टीएमसी कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए से ज़्यादा तीसरे मोर्चे पर फोकस करती रही है। यहाँ तक कि हाल के महीनों में उसने कांग्रेस के नेताओं को तोडक़र अपने साथ मिलाया है। दूसरे ममता बनर्जी की अपनी महत्त्वाकांक्षाएँ हैं, जिन्हें वह और उनकी पार्टी सार्वजनिक तौर पर ज़ाहिर करते रहे हैं। देखा जाए, तो टीएमसी वास्तव में कांग्रेस की राष्ट्रीय महत्त्वाकांक्षाओं की राह में सहयोगी सी है। हाँ, यह हो सकता है कि अगले लोकसभा चुनाव में यदि कांग्रेस राष्ट्रीय फलक पर फिर उभरे तो टीएमसी उसके साथ चली जाए। कांग्रेस अब राज्यों में सरकारें बनाकर नेतृत्व वाली बढ़त को और मज़बूत करना चाहती है। लिहाज़ा वह इन चुनावों में पूरी ताक़त झोंकेगी। उसे पता है कि यदि वह चुनावी राजनीति में अब भी नाकाम रहती है, तो उसके सहयोगी दल छिटककर तीसरे मोर्चे में जा सकते हैं, जिसके अगले साल के आख़िर तक या 2023 में आकार लेने की सम्भावना है।

राज्यों में अभी भी ऐसे कई क्षेत्रीय दल हैं, जो वास्तव में भाजपा के एनडीए या कांग्रेस के यूपीए में से किसी के साथ नहीं हैं। लिहाज़ा तीसरे मोर्चे के गठन के लिए दलों की कमी नहीं है। ऐसे में कांग्रेस अभी से ज़मीन पर उतरने की तैयारी कर रही है, ताकि यूपीए की ताक़त के मज़बूत किया जा सके। अगला साल कांग्रेस के लिए काफ़ी अहम है। उसे आधा दर्ज़न से ज़्यादा विधानसभा चुनाव का सामना करना है। नया अध्यक्ष चुनना है और उसके बाद पुराने, नये और युवा लोगों के साथ संगठन को नया रूप देना है। यह चुनौती वाला काम होगा। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि राहुल और प्रियंका की टीम में नये लोगों की भरमार होगी।

 

“यदि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनती है, तो 12वीं पास छात्राओं को स्मार्ट फोन और स्नातक पास छात्राओं को इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी दी जाएगी। हम पहले ही 40 फ़ीसदी टिकट महिलाओं को देने का वादा कर चुके हैं। मैं कुछ छात्राओं से मिली। उन्होंने बताया कि उन्हें पढऩे और सुरक्षा के लिए स्मार्टफोन की ज़रूरत है। मुझे ख़ुशी है कि घोषणा समिति की सहमति से उत्तर प्रदेश कांग्रेस ने निर्णय किया है कि सरकार बनने पर इंटर पास लड़कियों को स्मार्टफोन और स्नातक की लड़कियों को इलेक्ट्रॉनिक स्कूटी दी जाएगी। हमारा पूरा फोकस जनता के मुद्दों पर है। प्रदेश में जिस तरह लोगों की हत्याएँ हुई हैं। क़ानून व्यवस्था का दिवाला पिटा है। इस स्थिति को सत्ता में आकर हम बदल देंगे।”

प्रियंका गाँधी

कांग्रेस महासचिव (ट्विटर पर)

 

“हमारे सामने कई चुनौतियाँ आएँगी; लेकिन अगर हम एकजुट और अनुशासित रहते हैं और सिर्फ़ पार्टी के हित पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो मुझे पूरा विश्वास है कि हम अच्छा करेंगे। उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में होने वाले विधानसभा चुनावों के लिए हमारी तैयारियाँ आरम्भ हो चुकी हैं।”

                                             सोनिया गाँधी

कांग्रेस अध्यक्ष (सीडब्ल्यूसी में)

 

जी-23 का अस्तित्व ख़त्म!

अक्टूबर में हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में जैसे तेवर अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने दिखाये, उससे ज़ाहिर हो गया है कि पार्टी के बीच असन्तुष्ट गतिविधियों के लिए अब जगह मुश्किल होगी। उसका असर भी साफ़ दिख रहा है। कथित नाराज़ नेता शान्त हो गये हैं। दूसरे पार्टी अध्यक्ष ने इनमें से कुछ को पार्टी के बीच ओहदे देकर शान्त कर दिया है। जो इक्का-दुक्का विरोध में बचे भी हैं, वे अलग-थलग पड़ चुके हैं। कार्यसमिति की बैठक में यह कथित असन्तुष्ट जिस तरह अलग-थलग दिखे, उससे ज़ाहिर हो गया कि अब चीज़ें बदल चुकी हैं।

गुलाम नबी आज़ाद को सोनिया गाँधी पार्टी में अहम भूमिका दे चुकी हैं, जबकि हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपिंदर सिंह हुड्डा के सांसद बेटे दीपेंद्र सिंह हुड्डा को उत्तर प्रदेश की स्क्रीनिंग कमेटी में सदस्य तो बनाया ही गया है। हाल में लखीमपुर खीरी में जिस तरह प्रियंका गाँधी ने उन्हें अपने साथ रखा, उससे पार्टी में उनका महत्त्व बढ़ा है। कार्यसमिति की बैठक में आज़ाद ने मुक्त कण्ठ से सोनिया गाँधी के नेतृत्व की तारीफ़ की और हाल के अपने रूख़ के विपरीत नेतृत्व का कोई सवाल नहीं उठाया। आनंद शर्मा को भी सोनिया गाँधी ने असन्तुष्ट ख़मे से बाहर निकालने के लिए महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारियाँ देने का सूत्र अपनाया। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा भी कांग्रेस के नाराज़ नेताओं में शामिल थे। लेकिन भूपेंद्र हुड्डा को कांग्रेस की कुछ महत्त्वपूर्ण कमेटियों में ज़िम्मेदारी दी गयी है। याद रहे इसी साल जब गुलाम नबी आज़ाद की जम्मू में एक रैली हुई थी; जिसमें हुड्डा ख़ासतौर पर शामिल हुए थे। उस रैली को कांग्रेस के असन्तुष्टों के शक्ति परीक्षण के रूप में प्रचारित किया गया था। हुड्डा की तरह ही महाराष्ट्र के नेता मुकुल वासनिक को कांग्रेस की कई अहम समितियों में स्थान देकर महत्त्व दिया गया है। पिछले कुछ समय से वे असन्तुष्ट ख़मे से पूरी तरह कट चुके हैं। उधर वरिष्ठ नेता और कई बार मंत्री रह चुके वीरप्पा मोइली तो पहले ही असन्तुष्टों से कट गये थे, जब उन्होंने कहा कि जी-23 नेताओं वाली चिट्ठी पर उन्होंने एक काग़ज़ पर दस्तख़त कांग्रेस को नुक़सान करने के लिए नहीं, बल्कि मज़बूत करने के समर्थन के लिए किये थे।

ड्रग्स मामले में आर्यन खान की रिहाई, मन्नत में जश्न का माहौल

आखिर लम्बे इन्तजार के बाद फिल्म कलाकार शाहरुख खान के बेटे आर्यन खान शनिवार को जेल से रिहा हो गए। करीब 28 दिन ड्रग्स मामले में जेल में रहे आर्यन खान जमानत मिलने के बाद आज सुबह मुंबई के आर्थर रोड जेल से रिहा कर दिए गए। उधर आर्यन को बॉम्बे हाईकोर्ट से सशर्त जमानत मिलने की खुशी में शाहरुख खान के बंगले मन्नत को गुरुवार को ही रोशनियां की गयी हैं।

याद रहे एनसीबी ने 2 अक्टूबर को ड्रग्स बरामद होने के मामले में आर्यन खान समेत 8 लोगों को हिरासत में लिया गया था। बाद में पूछताछ और जांच के आधार पर मामले में कुछ और आरोपी हिरासत में लिए गए थे।

आर्यन के साथ इस मामले से जुड़े मुनमुन धमेचा और अरबाज मर्चेंट की भी रिहाई हो गई है। बॉम्बे हाइकोर्ट ने कुछ शर्तों के साथ आर्यन और अन्य को जमानत दी है। शाहरुख के परिवार के अलावा उनके फैंस भी आर्यन की रिहाई से खुश हैं और सोशल मीडिया पर कमेंट्स के जरिये इसका जश्न मना रहे हैं।

बता दें बॉम्बे हाइकोर्ट ने आर्यन को जमानत देते हुए 14 शर्तें लगाई हैं। इनमें से एक एक लाख रुपये का निजी मुचलका और एनसीबी दफ्तर मुम्बई में हर शुक्रवार हाजिरी लगाना शामिल है। इन शर्तों में आर्यन खान और दो सह-आरोपियों अरबाज मर्चेंट और मुनमुन धमेचा, तीनों को विशेष एनडीपीएस अदालत में अपने पासपोर्ट जमा कराने होंगे और वे विशेष अदालत से अनुमति लिये बिना भारत छोड़कर नहीं जा सकेंगे।

जमानत के समय अदालत ने कहा यह भी कहा कि आरोपी व्यक्तिगत रूप से या किसी अन्य के माध्यम से गवाहों को प्रभावित करने या सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने की कोशिश नहीं करेंगे। सभी आरोपी मुंबई से बाहर जाने से पहले एनसीबी को सूचित करेंगे और अपनी यात्रा की डिटेल्स देंगे। तीनों आरोपी किसी सह-आरोपी के साथ या इस तरह की गतिविधियों में संलिप्त किसी और के साथ कोई संपर्क स्थापित नहीं करेंगे।

उधर आर्यन को बॉम्बे हाईकोर्ट से सशर्त जमानत मिलने की खुशी में शाहरुख खान के बंगले मन्नत को गुरुवार को ही रोशनियां की गयी हैं। रिहाई के बाद आर्यन सीधे मन्नत के लिए रवाना हो गए। वहां बड़े पैमाने पर उनके स्वागत के तैयारी की गयी है।

वायु प्रदूषण को जहरीला कर रहा सार्वजनिक स्थानों का धुआं

सर्दी ने दस्तक दे दी है।वायु प्रदूषण का कहर है। ऐसे में सरकार की ओर से अलाव बंद है। फिर भी लोग नियमों की अनदेखी कर पार्को में , बस स्टैण्डों पर और सार्वजनिक स्थानों में सर्दी से बचाव के लिये सुबह-सुबह बसों के टायर और सड़कों पर फैले कूड़े को जलाकर जहरीला धुंआ फेंक रहे है। जिससे शहर का पूरा वातावरण खराब हो रहा है।

तहलका संवाददाता ने सुबह कई पार्कों सहित कई अन्य स्थानों पर देखा कि लोग सर्दी से बचाव के लिये आग जला रहें। सुबह-सुबह पार्को में आग जलाये जाने पर लोगों ने विरोध भी किया है। लेकिन कोई किसी की सुनने को तैयार ही नहीं है।

दिल्ली के पांडव नगर में पार्क में आग जलाकर सर्दी बचाने वाले को रोका तो उसका कहना था कि हम गरीब लोग है। सर्दी से बचाव के लिये हमारे पास न तो गर्म हीटर है और अन्य ही गर्म कपड़े तो ऐसे में मजबूर होकर पार्क में फैली पड़ी लकड़ी को जलाकर सर्दी बचा रहे है। यहां के निवासियों का कहना है कि हर साल सर्दी के मौसम में यहां पर कुछ लोग ऐसे ही यहां पर वायु प्रदूषण फैला कर लोगों को परेशान करते है। जिससे बच्चे और बुजुर्गों को सांस लेने में दिक्कत होती है।

सामाजिक कार्यकर्ता परम जीत सहोता ने बताया कि वायु प्रदूषण को खराब करने में पराली और बसों का धुआं ही जिम्मेदार नहीं है। सड़को और कूड़ा घरों में अवैध रूप से जलाये जाने वाला धुआं ही जिम्मेदार है।जो भी सार्वजनिक स्थानों पर अगर आग जलाता है। उसके खिलाफ भी कानूनी कार्यवाही होनी चाहिये।

टेनिस स्टार लिएंडर पेस, अभिनेत्री नफीसा अली टीएमसी में शामिल

भारत के टेनिस स्टार लिएंडर पेस शुक्रवार को टीएमसी में शामिल हो गए। टेनिस खिलाड़ी के तौर पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाने वाले पेस अब राजनीति की पारी खेलेंगे। पेस पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की उपस्थिति में टीएमसी में शामिल हुए। लिएंडर पेस का जन्म 1973 को कोलकाता में ही हुआ था। अभिनेत्री नफीसा अली भी आज सुबह टीएमसी में शामिल हो गईं।

गोवा विधानसभा चुनाव से पहले ममता बनर्जी जानी मानी हस्तियों को टीएमसी में शामिल कर रही हैं। ममता आज गोवा में ही हैं। यह माना जा रहा है कि टीएमसी गोवा का चुनाव जीतने की पूरी कोशिश कर रही है। पेस को भारत का खेल जगत में सबसे बड़ा पुरस्कार राजीव गांधी खेल रत्न पुरस्कार 1996-1997 में प्रदान किया गया था जबकि सरकार ने उन्हें 2009 में पद्मश्री और 2014 में पद्म भूषण से सम्मानित किया था।

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी तीन दिवसीय गोवा दौरे पर हैं जहां विधानसभा चुनाव होने हैं. शुक्रवार को टेनिस चैंपियन लिएंडर पेस गोवा में ममता बनर्जी की मौजूदगी में TMC में शामिल हो गए. लिएंडर पेस को डबल्स में सबसे महान टेनिस खिलाड़ियों में माना जाता है. उन्होंने आठ पुरुष डबल्स और दस मिक्स डबल्स ग्रैंड स्लैम खिताब जीते हैं. डेविस कप में सबसे ज्यादा डबल्स जीतने का रिकॉर्ड लिएंडर पेस के पास ही है.

उधर गोवा के तीन दिन के दौरे पर निकलीं ममता बनर्जी ने पणजी में आज टीएमसी कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा – ‘मैं राजनीति के लिए नहीं विकास के लिए आयी हूं। वो कहते हैं कि ममता बंगाल की है, मैं भारत की हूं कहीं भी जा सकती हूं।  उनकी तरफ से मुझे काले झंडे दिखाए गए। मैंने उनका हाथ जोड़ कर धन्यवाद किया। जब हम काम करते हैं तो विकास के लिए काम करते हैं।’

उधर जानी मानी अभिनेत्री नफीसा अली भी शुक्रवार सुबह टीएमसी में शामिल हो गईं। नफीसा अली के पार्टी में शामिल होने से पहले तृणमूल कांग्रेस के सांसद डेरेक-ओ- ब्रायन ने गोवा में बॉलीवुड सिंगर लकी अली और नफीसा अली से मुलाकात की थी। इसके बाद उनके टीएमसी में आने की चर्चा थी। नफीसा को टीएमसी प्रचार का जिम्मा दे सकती है।

आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल 3 साल बढ़ाया गया

केंद्र सरकार ने रिजर्व बैंक आफ इंडिया (आरबीआई) के गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल तीन साल के लिए बढ़ा दिया है। केंद्रीय मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति ने गुरूवार देर रात उनका कार्यकाल बढ़ाने को मंजूरी प्रदान कर दी थी।

केंद्रीय मंत्रिमंडल की नियुक्ति समिति ने गुरूवार को इसकी मंजूरी दी और आज सरकार ने एक बयान में कहा कि आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास का कार्यकाल तीन साल के लिए दिसंबर 2024 तक बढ़ाया गया है। उनका पुनर्नियुक्ति 10 दिसंबर से अगले आदेश तक, जो भी पहले हो, प्रभावी रहेगा।

बता दें शक्तिकांत दास को 11 दिसंबर, 2018 को तीन साल की अवधि के लिए आरबीआई का गवर्नर नियुक्त किया गया था। उससे पहल दास वित्त मंत्रालय में आर्थिक मामलों के सचिव थे। यूपीए-एक की सरकार के समय 2008 में जब पी चिदंबरम वित्त मंत्री थे, उस समय शक्तिकांत दास को पहली बार संयुक्त सचिव नियुक्त किया गया था। भारत सरकार के वित्त मंत्रालय में अपने कार्यकाल में दास  लगातार 8 केंद्रीय बजट तैयार करने के काम से सीधे रूप से जुड़े रहे हैं।

वैसे आरबीआई एक्ट सरकार को इसका गवर्नर का कार्यकाल तय करने की छूट देता है, हालांकि, आम तौर पर यह पांच साल से ज्यादा नहीं होता रहा है। सरकार चाहे इस  पद पर किसी को भी लगातार दूसरे कार्यकाल के लिए नियुक्त कर सकती है। उदाहरण के लिए एस वेंकटरमण का कार्यकाल रघुराम राजन से भी छोटा था और  वह सिर्फ 2 साल आरबीआई के गवर्नर रहे।

बहादुरगढ़ में किसान महिलाओं को ट्रक ने कुचला ; 3 की मौत, दो घायल अस्पताल में भर्ती

हरियाणा के बहादुरगढ़ में झज्जर रोड पर गुरवार को एक ट्रक ने पांच महिलाओं को कुचल दिया जिसमें से तीन की मौत हो गयी जबकि दो अन्य बुजुर्ग महिलाएं घायल हुई हैं। जानकारी के मुताबिक पंजाब के मानसा की यह महिलाएं किसान आंदोलन से जुड़ी हुई थीं। जब हादसा हुआ उस समय यह महिलाएं डिवाइडर पर बैठी हुई थीं। तेज रफ़्तार ट्रक (डम्पर) ने उन्हें कुचल दिया, जिससे दो की मौके पर ही मौत हो गयी जबकि एक ने अस्पताल जाकर दम तोड़ा।

जानकारी के मुताबिक या सभी महिलाएं किसान आंदोलन में अपनी रोटेशन पूरी करके घर वापस जाने के लिए ऑटो का इंतजार कर रही थी जब यह हादसा हुआ। कचरे से भरे डम्पर ने तेज गति से आते हुए उन्हें कुचल दिया। हादसे के बाद डम्पर का चालक फरार हो गया। हादसे का शिकार हुई इन सभी महिलाओं का टिकरी बॉर्डर से काफी पहले बहादुरगढ़ बाइपास स्थित फ्लाइओवर के नीचे कैंप था, जिसमें यह करीब 20 दिन से रुकी हुई थीं।

हादसे का शिकार महिलाएं पंजाब के मानसा जिले की रहने वाली हैं। दो घायल किसान महिलाओं को अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती किया गया है। इनमें से दो की हालत गंभीर बताई गयी हैं। एक की हालत गंभीर होने पर उसे बहादुरगढ़ नागरिक अस्पताल से रोहतक पीजीआई रेफर किया गया है।

यह हादसा सुबह छह बजे के करीब हुआ। उन्हें ऑटो में बैठकर रेलवे स्टेशन जाना था। पुलिस मामले की जांच कर रही है और फरार चालक के तलाश की जा रही है।
पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने इन महिलाओं की मौत पर दुःख जताया है, जबकि घायलों के जल्द स्वस्थ होने की कामना की है। उन्होंने उनके परिवारों आर्थिक मदद की भी घोषणा की है। पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने भी हादसे पर दुख जताया है।

हादसे में जान गंवाने वाले महिलाओं में सिंदर कौर (60) पत्नी भान सिंह, अमरजीत कौर (58) पत्नी हरजीत सिंह , गुरमेल कौर (60) पत्नी भोला सिंह शामिल हैं। गंभीर रूप से घायल गुरमेल कौर (60) मेहर सिंह की पत्नी है। एक अन्य घायल गुरमीत कौर हैं। सभी पंजाब के मानसा जिले की तहसील भीखी के गांव खीवा दयालुवाला सिंह की हैं। पोस्टमार्टम के बाद मृतकों के शव परिजनों को सौंपे जाएंगे।

त्योहारी सीजन में पनप रहा है मिलावटी खोवा का कारोबार

दीपावली के पर्व के अवसर पर मिठाईयों की बिक्री जमकर होती है। ऐसे में मिठाई विक्रेता मौके का फायदा उठाकर मिलावटी खोवे का जमकर प्रयोग करते है।

दिल्ली एनसीआर में इन दिनों खोवा मंड़ी लेकर नामी –गिरामी दुकानों पर मिलावटी खोवा की जमकर बिक्री हो रही है। सामाजिक कार्यकर्ता रामदेव शर्मा ने बताया ने बताया कि, मिलावटी खोवा के व्यापार में मिठाई विक्रेता से लेकर संबंधित विभाग के आला अफसर शामिल है। और पुलिस भी अन्जान बनी हुई है। जिसके कारण दिल्ली –एनसीआर में मिलावटी खोवा का कारोबार जमकर फल-फूल रहा है।

जानकारों का कहना है कि मिलावटी खोवा स्वास्थ्य के लिये हानिकारक है। फिर भी शासन-प्रशासन चुप है। कार्रवाई के तौर पर कुछ नहीं कर रही है। दिल्ली के चांदनी चौक, लाजपत नगर और ईस्ट दिल्ली से लेकर साउथ दिल्ली तक कुछेक दुकानों को छोड़कर ज्यादा दुकानों में मिलावटी खोवा की मिठाईयां धड़ल्लें से बेंची जा रही है।

बतातें चलें कि, हर साल मिलावटी खोवा के नाम पर दुकानदारों और गोदामों पर छापे मारी के डर से कम ही मिलावटी खोवा बाजारों में आता था। लेकिन कोरोना काल के चलते छापेमारी न के बराबर होने से इस बार तो मिलावटी खोवा का कारोबार खूब पनप रहा है।

सर्वोच्च न्यायालय की पेगासस पर कड़ी टिप्पणी; पूर्व जज रविंद्रन के नेतृत्व में विशेषज्ञ समिति गठित  

देश में व्यापक चर्चा में रहे पेगासस जासूसी मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने बुधवार को इसकी जांच के आदेश दिए हैं। सर्वोच्च अदालत ने साथ ही एक विशेषज्ञ समिति का भी गठन किया है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज जस्टिस आरवी रविंद्रन को अध्यक्ष बनाया गया है जबकि आईपीएस अधिकारी रॉ के पूर्व प्रमुख आलोक जोशी को भी इसमें शामिल किया गया। आज मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कटघरे में खड़ा किया। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में सख्त टिप्पणी की कि अदालत मूकदर्शक बनी नहीं रह सकती।

अदालत ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व जज जस्टिस आरवी रविंद्रन कमेटी का अध्यक्ष नियुक्त किया है जबकि इसमें रॉ के पूर्व प्रमुख आईपीएस अधिकारी आलोक जोशी और संदीप ओबेराय को शामिल किया है।

इनके अलावा तीन तकनीकी सदस्यों का बी पैनल भी गठित किया गया है। इनमें राष्ट्रीय फोरेंसिक विज्ञान विश्वविद्यालय, गांधीनगर के साइबर सुरक्षा और डिजिटल फोरेंसिक विभाग के प्रोफेसर और डीन नवीन कुमार चौधरी के अलावा अमृता विश्व विद्यापीठम, अमृतापुरी, केरल के इंजीनियरिंग स्कूल के प्रोफेसर डॉ प्रबहारन पी और भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, बॉम्बे के कंप्यूटर विज्ञान इंजीनियरिंग के एसोसिएट प्रोफेसर  डॉ अश्विन अनिल गुमस्ते शामिल किये गए हैं।

अदालत ने कहा कि केंद्र को यहां अपने रुख को सही ठहराना चाहिए था। केंद्र को बार-बार मौके देने के बावजूद उन्होंने सीमित हलफनामा दिया जो स्पष्ट नहीं था। यदि उन्होंने स्पष्ट किया होता तो हम पर बोझ कम होता। कोर्ट राष्ट्रीय सुरक्षा का अतिक्रमण नहीं करेगा, लेकिन इससे न्यायालय मूकदर्शक नहीं बनेगा . विदेशी एजेंसियों के शामिल होने के आरोप हैं,  जांच होनी चाहिए.

हाल के दिनों में पेगासस जासूसी कांड ने देश में विपक्षी दलों को काफी आंदोलित किया है। सर्वोच्च अदालत का फैसला सरकार के लिए झटका माना जा रहा है। आज मामले में फैसला सुनाते हुए सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को कटघरे में खड़ा किया। सर्वोच्च अदालत ने अपने फैसले में सख्त टिप्पणी की कि अदालत मूकदर्शक बनी नहीं रह सकती।

सर्वोच्च अदालत ने कहा कि देश के प्रत्येक नागरिक को उनकी निजता के अधिकार के उल्लंघन से बचाया जाना चाहिए। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि पेगासस जासूसी का आरोप प्रकृति में बड़े प्रभाव वाला है और अदालत को सच्चाई का पता लगाना चाहिए।

आज की सुनवाई में सर्वोच्च अदालत ने केंद्र सरकार को कटघरे में खड़ा किया और कहा कि ‘राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं को उठाकर सरकार को हर बार फ्री पास नहीं मिल सकता और न्यायिक समीक्षा के खिलाफ कोई सर्वव्यापी प्रतिबंध नहीं है।’