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दिल्ली के बाजारों में धूम, कहीं कोरोना न बढ़ा दें

दिल्ली के बाजारों में दीपावली की धूम है। बाजारों में रौनक है।  वहीं कोरोना कहर अभी कम हुआ है लेकिन गया नहीं है। ऐसे में बाजारों मे सोशल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ाई जा रही है। लोगों का बाजारों में बिना मास्क के आना–जाना कहीं कोरोना के संक्रमण को ना बढ़ा दें। ऐसे में जरा सी लापरवाही घातक हो सकती है।

दिल्ली के चांदनी चौक, सदर बाजार और लाजपत नगर बाजार सहित अन्य बाजारों में  हजारों लोगों की एक साथ भीड़ का होना कोरोना को बढ़ावा दें सकता है। दिल्ली पुलिस का कहना है कि लोगों से कई मर्तबा अपील भी की है। कोरोना से बचाव के लिए सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करें, लेकिन लापरवाह जनता खुद ही अपने स्वास्थ्य के लिये सावधान नहीं है।

बताते चलें, दिल्ली के बाजारों में कहने को तो लोगों की जांच  व कोरोना की जांच के लिये जगह-जगह दिल्ली पुलिस व अन्य सिक्योरिटी गार्ड वाले भी लगे है। लेकिन उनमें ज्यादातर तो दिखावे के तौर पर बुखार चेक करने वाली मशीन है। वहीं सैनिटाइजर भी पानी मिला लगाते है। ऐसे में कोरोना की रोकथाम का सारा प्रयास दिखावे के तौर पर ही है।

दिल्ली के व्यापारियों का कहना है कि, देश भर का व्यापारी दिल्ली से सामान खरीदकर अपने–अपने गांवों  में जाता है। ऐसे में सही मायने में कोरोना के नियमों का पालन सब दिखावा ही है। ऐसे सभी लोगों को सोशल डिस्टेंसिंग का पालन करने लिये आगे आना होगा। अभी कोरोना की रोकथाम संभव है।

लहू के धब्बे

कश्मीर में चिह्नित हत्याओं पर राजनीति से उठ रहे कई सवाल

कश्मीर की घटनाएँ बता रही हैं कि केंद्र सरकार के दावे शान्ति को लेकर कितने खोखले हैं। वहाँ चिह्नित हत्याओं का दौर चला है। हालाँकि इन पर भी राजनीति करने के भाजपा पर आरोप लग रहे हैं कि उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव से पहले कश्मीर को फिर मतों (वोटों) के लिए प्रयोगशाला बनाया जा रहा। ज़ाहिर है ख़ौफ़ के इस माहौल में घाटी से पलायन बढऩे को किसी भी तरह कश्मीर या देश हित में नहीं माना जा सकता। बेगुनाहों के ख़ून पर राजनीति के आरोपों के बीच विशेष संवादताता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

कश्मीर में हाल में हिंसा का नया दौर शुरू हुआ है। वहाँ चिह्नित हत्याओं (टारगेटेड किलिंग्स) ने देश में नयी बहस छेड़ दी है कि क्या कश्मीर फिर दोराहे पर है? क्या घाटी को फिर नब्बे के दशक वाली मुश्किल स्थिति झेलने की तरफ़ धकेला जा रहा है? देश का गृह मंत्री बनने के ढाई साल बाद अमित शाह इन घटनाओं पर चल रही बहस के दौरान जम्मू-कश्मीर हो आये हैं और उन्होंने अपने तरीक़े से इन हत्याओं की व्याख्या की है। लेकिन इससे इतर भी कई सवाल उठ रहे हैं। कारण है अचानक इन हत्याओं को राजनीतिक रंग दे देना।

यह भी कहा जाने लगा है कि कश्मीरी पंडितों की इस त्रासदी को फिर राजनीति के लिए इस्तेमाल करने की कोशिश शुरू हो गयी है। बहुत-से लोग इसे देश में अगले साल होने वाले विधानसभा के चुनावों से भी जोड़ कर देख रहे हैं। हालाँकि कश्मीर में फिर हिंसा लौटने की ज़मीनी हक़ीक़त से घाटी में गहरी चिन्ता ज़रूर पसर गयी है। लोगों को लगता है कि कश्मीर को मत (वोट) हासिल करने की एक प्रयोगशाला बना दिया गया है, जहाँ राजनीति से लेकर आतंकवाद तक के प्रयोग होते हैं और पीडि़त कश्मीर की जनता के दर्द को कोई नहीं समझता और उन्हें इसका मोहरा बना दिया जाता है। कश्मीर में चिह्नित हत्या की घटनाएँ व्यापक हिंसा के दायरे से हटाकर एक योजना के तहत राजनीति की गंदी और अँधेरी सुरंग में सरका दी गयी हैं, ताकि इन पर विमर्श का रुख ही मोड़ दिया जाये।

साफ़ है कि आतंकी हिंसा को एक दायरे में समेटने की कोशिश की जा रही है और कथित धर्मवादी और राष्ट्रवादी चिन्तन वाला सोशल मीडिया और सरकारी बोली बोलने वाले टीवी चैनल मुद्दे को नया रंग दे रहे हैं। यह एक स्थापित सत्य है कि कश्मीर में हाल की आतंकी हिंसा में मुसलमान ज़्यादा मारे गये हैं। बावजूद इसके सरकारी राष्ट्रवादी सिर्फ़ चिह्नित हत्याओं का राग अलापते हुए राजनीतिक रंग वाला स्यापा कर रहे हैं। कोई यह नहीं पूछ रहा कि अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद भी आतंकवाद क्यों ख़त्म नहीं हुआ? और क्यों मोदी सरकार इन दो वर्षों में नाकाम रही? जैसा कि उस समय सरकार ने दावा किया था।

कश्मीर के एक हिस्से को अल्पसंख्यक वाले कुएँ में धकेलकर दहशत भरने और बन्दूक की गोली से सडक़ों पर छितरने वाले एक ही रंग के ख़ून के बावजूद अलग-अलग मज़हबी इबारत लिखने की कोशिश हो रही है; क्योंकि राजनीति के धन्धेबाज़ मैदान में कूद गये हैं। ख़ौफ़ का एक माहौल बनाया जा रहा है, जबकि इसके बड़े ख़तरे हैं। सबसे बड़ा ख़तरा यह है कि यह ख़ौफ़ घाटी में बचे कश्मीरी पंडितों को पलायन के लिए मजबूर कर देगा, जो इन वर्षों में अनेक मुसीबतें झेलने को अभिशप्त हुए हैं। इन वर्षों में कश्मीरी पंडितों ने काफ़ी दर्द झेले हैं। यही नहीं, रोज़ी-रोटी कमाने वहाँ गये प्रवासी मज़दूर अलग से दहशत में भरे हैं। उनकी सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकार पर इसलिए भी ज़्यादा थी, क्योंकि मोदी सरकार ने अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के बाद हमेशा यही कहा है कि अब कश्मीर बदल गया है और वहाँ विकास की नयी शुरुआत हुई है। लेकिन इस विकास में अपनी जान जोखिम में डालकर वहाँ काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों की बड़ी भूमिका है; जिसे सरकार भूल गयी।

अगस्त, 2019 के बाद कश्मीरी अवाम का दिल केंद्र सरकार जीत नहीं पायी। क्योंकि लोगों को यह भरोसा दिलाने में सरकार नाकाम रही कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने वाला उसका क़दम राजनीतिक नहीं, बल्कि घाटी की बेहतरी के लिए था। वहाँ अभी भी अविश्वास की एक गहरी खाई बनी हुई है। किसी ने कभी कहा था कि बन्दूक के ज़ोर पर ज़मीन जीती जा सकती है, इंसान नहीं। कश्मीर में यह काफ़ी हद तक सच साबित हो रहा है। अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के बाद कश्मीर की बेहतरी के हज़ारों दावों के बीच वहाँ अचानक नब्बे के दशक वाली भयावह परिस्थितियाँ बनने का ख़तरा बन गया है। वहाँ घटनाएँ बढऩे का मतलब है लोगों पर पाबंदियाँ लगना, जिनमें बाज़ार बन्द होने, इंटरनेट सेवाओं पर रोक से लेकर अन्य पाबंदियाँ शामिल हैं। कश्मीर ही नहीं, जम्मू तक में लोग यह महसूस करते हैं कि अनुच्छेद-370 वापस लेने के बावजूद उनके जीवन में कोई बुनियादी अन्तर नहीं आया है। भले गृह मंत्री अमित शाह ने राज्य के अपने तीन दिन के दौरे के दौरान जम्मू में वहाँ की जनता को सम्बोधित करते हुए कहा कि ‘आपके साथ अन्याय के दिन ख़त्म हो गये। अब आपके साथ कोई भेदभाव या नाइंसाफ़ी नहीं करेगा।’

घाटी में अभी भी सुरक्षा बलों की बड़ी उपस्थिति है और इसका आम लोगों की ज़िन्दगी पर भी असर पड़ा है। अब आतंकवादी घटनाएँ बढऩे से घाटी में न केवल मुसलमान, बल्कि वहाँ काम कर रहे प्रवासी मज़दूर, अल्पसंख्यक (कश्मीरी पंडित और सिख) और सेना या पुलिस में काम कर रहे कश्मीरी मुसलमान भी दहशत में हैं। कश्मीर में इस बात से भी नाराज़गी है कि वहाँ जनसंख्या की प्रकृति में बदलाव किया जा रहा है।

केंद्र सरकार अगले साल जम्मू-कश्मीर में विधानसभा के चुनाव करवाने की तैयारी कर रही है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर गृह मंत्री अमित शाह तक विधानसभा चुनाव को लेकर कह चुके हैं। लेकिन अचानक आतंकवादी घटनाएँ बढऩे से चुनावों की सम्भावना पर काले बादल मँडराने लगे हैं। हालाँकि यह हिंसा अस्थायी भी साबित हो सकती है। वैसे भी आतंकवादियों का इतिहास देखें, तो वे हरेक लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अड़चन डालने की भरपूर कोशिश करते रहे हैं। इस साल के शुरू में ज़िला विकास समितियों (डीडीसी) के चुनाव के वक़्त आतंकिवादियों ने लोगों में इनमें हिस्सा लेने के ख़िलाफ़ चेताया था; लेकिन लोगों ने कतारों में खड़े होकर बिना डरे मतदान किया था।

हत्याओं का दौर

यह सन् 2010 की बात है। जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की छोटे दलों के साथ साझा सरकार थी। विधानसभा का सत्र चल रहा था, जिसमें कश्मीरी पंडितों के पलायन पर सवाल था। लिखित जबाव में तब सरकार ने बताया था कि कश्मीर में सन् 1989 में आतंकवाद शुरू होने के बाद से लेकर सन् 2004 के बीच 219 कश्मीरी पंडितों की हत्या हुई। उसके बाद भी हत्याएँ हुई हैं और यह संख्या 250 से ज़्यादा मानी जाती है। उनके अलावा घाटी में जान गँवाने वाले सिखों की संख्या 50 से ज़्यादा है। इनके अलावा प्रवासी मज़दूरों की भी हत्याएँ घाटी में हुई हैं।

श्रीनगर में कश्मीरी पंडित दवा विक्रेता (कैमिस्ट) की दिन-दिहाड़े हत्या की घटना के बाद हाल के हफ़्तों में घाटी से कश्मीरी पंडितों का पलायन शुरू हुआ है। हालाँकि अभी भी कश्मीरी पंडित परिवार घाटी में रह रहे हैं। यह वही परिवार हैं, जो इस समुदाय के ख़िलाफ़ नब्बे के दशक की हिंसा के बाद भी घाटी में ही रुके रहे। अक्टूबर महीने में यह लेख लिखे जाने तक आतंकियों ने 12 आम नागरिकों की हत्या की थी, जिनमें सात ग़ैर-मुस्लिम थे। वैसे अभी तक के 10 महीनों में मरने वाले ज़्यादातर मुस्लिम ही हैं।

दरअसल घाटी में अल्पसंख्यकों की हत्याओं का दौर केंद्र सरकार की घोर नाकामी की तरफ़ इशारा करता है। यही कारण है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह को जम्मू-कश्मीर का तीन दिन का दौरा करना पड़ा। इस दौरे में उन्होंने कहा कि मोदी सरकार की कश्मीर में विकास की बयार से देश के दुश्मन परेशान हैं और वे इस तरह की घटनाएँ करके विकास को रोकना चाहते हैं।

वैसे यह सरकारी भाषा है, जो अब तक केंद्र में सत्ता में रहे तमाम दलों के नेता बोलते रहे हैं। ‘तहलका’ से बातचीत में ऑल स्टेट कश्मीरी पंडित कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष रविंदर रैणा ने कहा- ‘कश्मीरी पंडितों को सरकारों ने ऐसा बना दिया है, मानों यह देश उनका है ही नहीं। जब अनुच्छेद-370 हटाया गया, तब भी हमें लेकर कुछ नहीं कहा गया। गृह मंत्री अमित शाह जम्मू-कश्मीर आये, मगर आज तक हमें यह नहीं पता कि हम लोग कब घाटी वापस लौटेंगे? ऊपर से हमारे लोगों को फिर मारा जा रहा है। केंद्र सरकार यह तो बताए कि हम कब घर लौटेंगे? कैसे लौटेंगे? क्या केंद्र सरकार ने कोई रोडमैप बनाया है? कभी नहीं बताया। लौट गये, तो वहाँ हमारी सुरक्षा का क्या होगा? सच बोलूँ तो अनुच्छेद-370 हटने का भी कश्मीरी पंडितों पर अभी तक तो कुछ असर पड़ता दिख नहीं रहा।’

कश्मीरी पंडितों के ही बड़े नेता संजय तिक्कू हैं। ‘तहलका’ को कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के अध्यक्ष तिक्कू ने फोन पर बताया- ‘देखिए, मैंने पहले भी कहा था- हमारे लोग घाटी से पलायन कर रहे हैं। गृह मंत्री के दौरे में हमने उन्हें बताया है कि हमारी सुरक्षा की कोई ज़मानत (गारंटी) नहीं मिल रही। सच बताएँ, तो सन् 1990 जैसे हालात फिर बने हैं। सरकार को हमारा दर्द समझना होगा।’

केंद्र सरकार पर सवाल उठने की वजह यह है कि अगस्त, 2019 में जब उसने जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जे वाले अनुच्छेद-370 को हटाया था, तब घाटी में बड़े-बड़े दावे किये गये थे। हाल में संसद में भी मोदी सरकार ने घाटी में हालात सुधरने का दावा करके अपनी पीठ थपथपायी थी। लेकिन अब हालात फिर बदल गये लगते हैं और हाल की घटनाओं से लोगों में फिर ख़ौफ़ पसर गया है।

“कश्मीर से अनुच्छेद-370 हटाने के वक़्त हमें बताया गया था कि अब यहाँ विकास होगा और घाटी को मुख्य धारा में शामिल किया जाएगा। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल अलग है। सरकार ने जनता से जो वादे किये थे, उनमें से कुछ भी पूरा नहीं हुआ है। आज कश्मीर में आतंकी घटनाएँ पहले से अधिक बढ़ गयी हैं। आतंकी आम नागरिकों और प्रवासी मज़दूरों को निशाना बना रहे हैं। इससे बेहतर तो हम तभी थे, जब कश्मीर में मुख्यमंत्री-शासन था। कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल होना चाहिए। सरकार कश्मीर को सँभाल नहीं पा रही है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि पहले कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया जाए, उसके बाद कश्मीर में निष्पक्षता से चुनाव कराये जाएँ। मैंने प्रधानमंत्री मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से अनुरोध किया है।”

गुलाम नबी आज़ाद

वरिष्ठ कांग्रेस नेता

 

सुरक्षा बलों पर हमले

ऐसा नहीं है कि हाल में बढ़ी आतंकी हिंसा में चिह्नित हत्याएँ सिर्फ़ आम लोगों की हुई हैं। सुरक्षा बलों पर भी आतंकियों ने घात लगाकर हमले किये हैं। हाल के पाँच हफ़्तों में जम्मू-कश्मीर में सुरक्षा बलों के जेसीओ सहित 14 जवान शहीद हो चुके हैं। वैसे तो अपने अभियानों को सफल बनाने के लिए सेना ड्रोन तकनीक के अलावा आधुनिक हथियारों का इस्तेमाल भी कर रही है। लेकिन आतंकी वारदात लगातार जारी हैं।

हाल में सेना प्रमुख जनरल एम.एम. नरवणे भी जम्मू-कश्मीर का दौरा कर चुके हैं, जहाँ उन्होंने आला अफ़सरों के साथ कार्रवाई (ऑपरेशन) की समीक्षा की है। उन्होंने अग्रिम चौकियों का निरीक्षण भी किया। सैन्य कमांडरों ने उन्हें वर्तमान स्थिति और चल रहे घुसपैठ विरोधी अभियानों के बारे में जानकारी दी। जम्मू में सेना के प्रवक्ता लेफ्टिनेंट कर्नल देवेंद्र आनंद के मुताबिक, आतंकवादियों का पता लगाने के लिए व्यापक तलाशी अभियान अभी भी चलाया जा रहा है। इलाक़े की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए अधिक समय लग जाता है; क्योंकि इलाक़ा पर्वतीय और जंगलों वाला है।

रक्षा जानकारों का कहना है कि जिस तरह जम्मू सम्भाग में सुरक्षा बलों पर घात लगाकार हमले हुए हैं, उनसे ज़ाहिर होता है कि आतंकी इलाक़े की पूरी जानकारी रखते हैं और वे पिछले काफ़ी समय से इलाक़े में हैं। इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पाकिस्तानी सेना का इसमें हाथ हो। उसके लोग पहले भी ऐसे ऑपरेशन्स करते रहे हैं। हैरानी यह है कि कड़ी सुरक्षा के बावजूद आतंकियों का बड़ा दस्ता नियंत्रण रेखा (एलओसी) पार कर हमारे क्षेत्र में घुस आया।

जानकारी थी, फिर भी हुईं हत्याएँ

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कश्मीर में चिह्नित हत्याओं को लेकर सुरक्षा एजेंसियों के पास जानकारी पहले से थी। कुछ अवरोधन (इंटरसेप्शन) के दौरान ख़ुफ़िया संस्थाओं ने जब कोड वड्र्स को डी-कोड किया था, तो उन्हें हल्का-सा आभास मिल गया था कि आतंकी कुछ अलग कर सकते हैं। इसकी कोशिश आतंकियों ने तीन महीने पहले ही शुरू कर दी थी। हालाँकि सूचना के बावजूद एजेंसियाँ समय रहते काम नहीं कर पायीं। इनमें कश्मीर के ऐसे मुसलमान, जो सेना या पुलिस में हैं; जम्मू के डोगरा समुदाय के कश्मीर में रहने वाले लोग, कश्मीरी पंडित, सिख और प्रवासी मज़दूरों के अलावा ग़ैर-कश्मीरी सरकारी अधिकारियों को निशाना बनाये जाने के संकेत थे। अब भले सरकार ने कुछ क़दम उठाये हैं; लेकिन लोगों में ख़ौफ़ पसर चुका है।

 

हिन्दुओं व सिखों की हत्याओं की बड़ी घटनाएँ

 डोडा हत्याकांड : आतंकियों ने 14 अगस्त, 1993 को जम्मू सम्भाग के डोडा में एक निजी बस को रोककर 15 हिन्दुओं की हत्या कर दी।

 संग्रामपुर : 21 मार्च, 1997 घर में घुसकर 7 कश्मीरी पंडितों का अपहरण कर लिया गया, फिर उनकी नृशस हत्या कर दी गयी।

 वंधामा नरसंहार : 25 जनवरी, 1998 को आतंकियों ने 23 कश्मीरी पंडितों की हत्या कर दी।

 प्राणकोट : 17 अप्रैल, 1998 को उधमपुर ज़िले के प्रानकोट गाँव में आतंकवादियों ने 27 कश्मीरी हिन्दुओं, जिनमें 11 मासूम बच्चे थे; की हत्या कर दी।

 पहलगाम : जुलाई, 2000 में अनंतनाग के पहलगाम बेस कैम्प में 30 अमरनाथ यात्रियों की हत्या।

 चित्ती सिंघपोरा : 20 मार्च, 2000 में होला मोहल्ला के दौरान 36 सिखों की गुरुद्वारे के सामने हत्या।

 डोडा : सन् 2001 में छ: हिन्दुओं की हत्या।

 जम्मू-कश्मीर रेलवे स्टेशन पर अगस्त, 2001 में सेना की बर्दी पहने आतंकियों ने गोलीबारी करके 11 लोगों की हत्या कर दी, जिनमें सैलानी भी शामिल थे।

 रघुनाथपुर मन्दिर : सन् 2002 में जम्मू के रघुनाथपुर मन्दिर पर अलग-अलग हमलों में 17 लोगों की हत्या जो सभी हिन्दू श्रद्धालु थे।

 कासिम नगर : जम्मू के कासिम नगर (राजीव नगर) की मज़दूर बस्ती में 34 मज़दूरों की हत्या। यह सभी प्रदेश से बाहर के हिन्दू थे।

 पुलवामा : 2003 में पुलवामा के नाडिमार्ग में 24 हिन्दुओं की हत्या।

 इसके अलावा 2021 तक कई इक्का-दुक्का घटनाओं में 80 के क़रीब हिन्दुओं की हत्या।

 

शाह का कश्मीर-दौरा

हाल की आतंकी घटनाओं ने मोदी सरकार को कितनी चिन्ता में डाल दिया है? यह केंद्रीय मंत्री अमित शाह के तीन दिन तक कश्मीर का दौरा करने से पता चलता है। हालाँकि कश्मीर और जम्मू में उनके भाषणों की भाषा बिल्कुल अलग रही। कश्मीर में जहाँ उन्होंने मरहम की बात की, वहीं जम्मू में उनके तेवर चुनावी दिखे।

श्रीनगर में आख़िरी दिन 25 अक्टूबर को एक जनसभा में शाह ने कहा कि‍ कश्‍मीर के लोगों ने बहुत सहा (सहन किया) है। मैं कश्‍मीर के युवाओं से दोस्‍ती करना चाहता हूँ। इस कारण बिना बुलेटप्रूफ आपके बीच आया हूँ। दि‍ल से ख़ौफ़ नि‍काल दीजि‍ए। मैं यहाँ पाकिस्तान के बदले घाटी के लोगों से बात करूँगा। लेकिन पिछले सवा साल में कितनी बार केंद्र ने घाटी के लोगों से बात की है? ख़ुद शाह सन् 2019 में देश के गृह मंत्री बनने के बाद पहली बार जम्मू-कश्मीर आये। अमित शाह ने कहा कि‍ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का दि‍ल जम्‍मू-कश्‍मीर बसता है। कश्‍मीर के लोगों को बराबरी का अधिकार मिले, इसके लि‍ए हमारी सरकार ने सभी ज़रूरी क़दम उठाये हैं। उन्होंने भारत सरकार को पाकिस्तान से बात करने की पूर्व मुख्यमंत्री फ़ारूक़ अब्दुल्ला की सलाह पर कहा- ‘मैं घाटी के युवाओं से बात करना चाहता हूँ। मैंने घाटी के युवाओं के सामने दोस्ती का हाथ बढ़ाया है। घाटी, जम्मू और नये बने लद्दाख़ का विकास पाक़ीज़ा मक़सद से उठाया गया क़दम है।’

लेकिन उनकी बात का भरोसा किसे होगा? शाह ने कहा कि बहुत लोगों ने सवाल उठाये कि अनुच्छेद-370 हटने के बाद घाटी के लोगों की ज़मीन छीन ली जाएगी। ये लोग विकास को बाँधकर रखना चाहते हैं। अपनी सत्ता को बचाकर रखना चाहते हैं। 70 साल से जो भ्रष्टाचार किया है, उसको चालू रखना चाहते हैं। अमित शाह ने 25 अक्टूबर को जम्मू-कश्मीर के गंदेरबल ज़िले में खीर भवानी मन्दिर में पूजा-अर्चना की। इसे कश्मीरी पंडितों का सबसे बड़ा मन्दिर माना जाता है। शाह सोमवार तडक़े मध्य कश्मीर ज़िले के तुल्लामुल्ला इलाक़े में चिनार के पेड़ों से घिरे मन्दिर परिसर में गये। पारम्परिक कश्मीरी फिरन पहने शाह ने माता रागन्या देवी के मन्दिर में पूजा-अर्चना की। उस समय उनके साथ जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा भी थे।

बता दें जम्मू-कश्मीर के तीन दिवसीय दौरे पर श्रीनगर पहुँचते ही 23 अक्टूबर को शाह ने पुलिस अधिकारी परवेज़ अहमद के परिवार से मुलाक़ात की थी। वह इस साल जून में आतंकवादियों के हमले में शहीद हो गये थे। बाद में उसी दिन शाह ने राजभवन में एक बैठक में सुरक्षा स्थिति की समीक्षा की और घाटी में नवगठित युवा क्लब के सदस्यों के साथ शाम को बातचीत की। अगले दिन वह जम्मू गये, जहाँ उन्होंने एक जनसभा को सम्बोधित किया।

शाह ने राजभवन में सुरक्षा को लेकर एक एकीकृत कमान की बैठक की अध्यक्षता की। बैठक में चार कोर कमांडर, जम्मू-कश्मीर पुलिस के शीर्ष अधिकारी और अन्य शीर्ष अधिकारियों के अलावा ख़ुफ़िया ब्यूरो और केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों के प्रमुख शामिल थे, जिसके बाद वह कई राजनीतिक कार्यक्रमों में शामिल हुए। शाह ने जम्मू-कश्मीर युवा क्लब के लोगों से आभासी बैठक (वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये बातचीत भी की। शाम को श्रीनगर-शारजाह इंटरनेशनल फ्लाइट का शुभारम्भ भी किया। बता दें यह श्रीनगर से शारजाह के बीच सीधी फ्लाइट (उड़ान) है।

 

हिन्दुओं-मुसलमानों के बीच पैदा की जा रही नफ़रत : फ़ारूक़

फ़ारूक़ अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के ऐसे नेता हैं, जिनकी देश भर के राजनेताओं से निजी मित्रता रही है। उनके बिना कश्मीर की राजनीति को अधूरा माना जाता है। वह भाजपा की अगुवाई वाले एनडीए के सहयोगी होने से लेकर कांग्रेस के यूपीए में मंत्री रहे हैं। उनके पुत्र उमर अब्दुल्ला वाजपेयी सरकार में विदेश राज्य मंत्री थे। विशेष संवाददाता राकेश रॉकी से उन्होंने फोन पर कश्मीर को लेकर बात की। इस बातचीत के प्रमुख अंश :-

गृह मंत्री अमित शाह कश्मीर के दौरे पर हैं। उन्होंने कहा है कि विधानसभा चुनाव के बाद जम्मू-कश्मीर का पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। क्या कहेंगे?

केंद्र शासित प्रदेश में दीर्घकालिक शान्ति के लिए लोगों की आकांक्षाओं और इच्छाओं को समझना और पूरा करना होगा। केंद्रीय नेतृत्व का यह तर्क हैरानी वाला है कि निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन पूरा करने और चुनाव के बाद पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल कर दिया जाएगा। यह बहुत ही हैरानी की बात है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ सर्वदलीय बैठक में हमने चुनाव का मुद्दा उठाया था। तब प्रधानमंत्री मोदी ने कहा था कि दिल जीतकर नयी दिल्ली और जम्मू-कश्मीर के बीच के दूरी ख़त्म करनी होगी। जम्मू-कश्मीर के दर्जे को कमज़ोर करके दिलों को नहीं जीता जा सकता, जिसे उनकी सरकार ने दो प्रदेशों में बाँट दिया है।

कश्मीरी पंडित घाटी से पलायन कर रहे हैं। उनकी फिर हत्याएँ होनी शुरू हुई हैं। वहाँ की ज़मीनी हक़ीक़त क्या है?

यह (मोदी) सरकार देश को धर्म के आधार पर विभाजित कर रही है। मत भूलें कि कश्मीर में न केवल हिन्दू, बल्कि मुसलमान भी आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हुए हैं। घाटी का माहौल कश्‍मीरी पंडितों की वापसी के लिए अभी अनुकूल नहीं है। आप कश्‍मीर में तब तक शान्ति स्‍थापित नहीं कर पाएँगे, जब तक अनुच्छेद-370 को बहाल नहीं कर देते। घाटी में हाल की घटनाएँ उन सभी की आँखें खोलने वाली है, जो दावे करते थे कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करके आतंकवाद का $खात्मा हो गया है।

अमित शाह कश्मीर आये। लेकिन आप उनसे नहीं मिले?

सरकार (केंद्र) ने मुझसे सम्पर्क किया था। अमित शाह मुझसे मिलना चाहते थे; लेकिन मैंने ही मना कर दिया। एक तो उस समय मेरे राजौरी-पुंछ जाने का कार्यक्रम पहले से बन चुका था। दूसरे हमारी बातों पर केंद्र सरकार गम्भीर नहीं दिख रही।

आपने शाह के दौरे के दौरान ही पाकिस्तान से बातचीत की माँग कर दी। उन्होंने कहा कि वह कश्मीर से बात करेंगे, पाकिस्तान से नहीं।

हमारा मत साफ़ है, कि जब तक आप पाकिस्तान से बात नहीं करते, तब तक हम कभी जम्मू-कश्मीर में शान्ति से नहीं रह सकेंगे। अगर भारत और पाकिस्तान के बीच दोस्ती होती, तो लोग यहाँ आरएसपुरा के साथ लगते पाकिस्तान के सियालकोट से चाय पीने आते और हम भी वहाँ जाते। आज़ादी से पहले ऐसा होता था। आप जानते हैं, जम्मू से आरएसपुरा होकर ट्रेन लाइन सियालकोट के लिए थी। लोग आते-जाते थे। हमारा व्यापार साझा रहा है। इसलिए मैं आज भी इस बात पर क़ायम हूँ कि जब तक आप पाकिस्तान से बात नहीं करते और एक-दूसरे के साथ दोस्ती से हाथ नहीं मिलाते, तब तक हम कभी भी शान्ति से नहीं रह सकते, कभी भी नहीं। मुझसे यह बात लिखवा लीजिए।

लेकिन पाकिस्तान अपने यहाँ भारत के ख़िलाफ़ आतंकवादियों को ट्रेनिंग देता है। सीमा पार से घुसपैठ करवाता है। उसका क्या?

तभी तो कहता हूँ कि पाकिस्तान से बात होनी चाहिए। बातचीत नहीं होने से क्या यह सिलसिला रुक गया? नहीं रुका। तो बात करने में क्या हर्ज़ है? उन्हें समझाया जा सकता है। एक बार बैठकर बात तो हो। कश्मीर के लोगों ने इस तनाव का सबसे ज़्यादा नुक़सान झेला है। हम जानते हैं कि लोगों की कश्मीर में क्या हालत है।

भाजपा का दावा है कि तरक़्क़ी हो रही है और उसने नफ़रत कम की है। क्या आप देश की स्थिति से प्रसन्न नहीं हैं?

सच कहूँ तो मेरे भारत में नफ़रत को चुनाव जीतने का हथियार बना दिया गया है। यह गाँधी का देश है। किसी ने सोचा नहीं होगा कि एक दिन हम यह सब देखेंगे। भाजपा अगले साल उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जीतने के लिए फिर नफ़रत का सहारा ले रही है। देश के लोगों को उसकी चालों को समझना होगा। हम जम्मू-कश्मीर के साथ-साथ देश की जनता का भी आह्वान करते हैं कि देश को बचाने के लिए इस नफ़रत से लड़ें। अगर नफ़रत बढ़ती रही तो भारत को बिखरने से नहीं रोका जा सकता। भाजपा जो कर रही है, उससे भारत के बँटने का गम्भीर ख़तरा है।

हमें इस साम्प्रदायिकता से जंग लडऩी है। हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच पैदा की जा रही खाई और नफ़रत को ख़त्म करना है। मैंने मुल्क की आज़ादी के बाद से हर चुनाव में इसे देखा है। मुस्लिम नेताओं को मुस्लिम इलाक़ों में ले जाया जाता है और हिन्दू नेता हिन्दू इलाक़ों में जाते हैं। अब भाजपा उत्तर प्रदेश में चुनाव जीतने के लिए नफ़रत और फूट की राजनीति खेल रही है। पिछले लोकसभा चुनाव ने भी पुलवामा और बालाकोट देखा था, जिसके बाद भाजपा दोबारा सत्ता में आयी थी। आज फिर वैसा कुछ हो रहा है।

 

बुरी तरह प्रभावित हो गया पर्यटन

कश्मीर में आतंकियों ने चिह्नित हत्याएँ ऐसे समय में करनी शुरू की हैं, जब वहाँ सैलानियों के आने का वक़्त आ गया है। कश्मीर में पर्यटन इससे बुरी तरह प्रभावित हुआ है। कश्मीर में एक अधिकारी ने अपना नाम ज़ाहिर करने की शर्त पर बताया कि पिछले एक महीने में पर्यटकों के आने का ग्राफ अचानक काफ़ी गिर गया है। क्योंकि लोगों को असुरक्षा का डर है। उनके मुताबिक, यही कारण है कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने अपने एक जगह सुरक्षा ग्लास हटाकर भाषण दिया और कहा कि देखिए, यहाँ डर जैसी कोई बात नहीं। हालाँकि अधिकारी ने स्वीकार किया कि इसका ज़्यादा असर देश के दूसरे हिस्सों से कश्मीर आने की योजना बना; पर फ़िलहाल शायद यह न पड़े। देश के अन्य हिस्सों की तरह जम्मू-कश्मीर में भी जुलाई में जब तालाबन्दी की बंदिशें ख़त्म हुईं, तो पर्यटक यहाँ आने लगे थे। होटलों और अन्य पर्यटन स्थलों पर भीड़ दिखने लगी थी; लेकिन अब फिर इनमें कमी आ गयी है। जानकारी के मुताबिक, इन घटनाओं के बाद कश्मीर आने वाले पर्यटकों की संख्या में 80 फ़ीसदी की गिरावट आयी है। याद रहे अक्टूबर में आतंकवादियों ने कुलगाम में बिहार के दो मज़दूरों राजा ऋषि देव और योगेंद्र ऋषि देव के अलावा बिहार के अरविंद कुमार शाह और पुलवामा में उत्तर प्रदेश के सग़ीर अहमद की हत्या कर दी। इसके बाद यह ख़बर आयी थी कि राज्य सरकार प्रवासी मज़दूरों को सुरक्षा बलों के शिविरों में सुरक्षा हो सके।

हालाँकि यह लेख लिखे जाने तक ‘तहलका’ की जानकारी मिली कि ऐसा कोई क़दम ज़मीन पर नहीं उठाया गया था। हालाँकि इस दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह का भी दौरा हो चुका है। उन्होंने भी अपने भाषणों में इसका कोई ज़िक्र नहीं किया।

‘तहलका’ की जुटायी जानकारी के मुताबिक, इस साल जुलाई-सितंबर के बीच के तीन महीनों में राज्य में 33,08,559 पर्यटक आये। उस समय तक कश्मीर में आतंकी घटनाएँ बहुत कम थीं। इनमें से 12,05,696 सैलानी अकेले सितंबर में आये, जबकि अगस्त में 10,99,776 और उससे पहली तालाबन्दी खुलने के बाद जुलाई में 10,03087 पर्यटक जम्मू-कश्मीर आये। पर्यटकों के आने का सिलसिला बढ़ रहा था; लेकिन अक्टूबर की घटनाओं ने इस संख्या पर विराम लगा दिया। अक्टूबर में कुछ हज़ार लोग ही कश्मीर आये थे। कई पर्यटक, जो यहाँ आने के लिए होटलों में बुकिंग कर चुके थे, उन्होंने बुकिंग रद्द कर दी। जानकारों के मुताबिक, पर्यटकों का सिलसिला थमने का सीधा असर प्रदेश की अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा, जिसे गति देने की बेहद ज़रूरत है।

जम्मू में वरिष्ठ पत्रकार एस.पी. शर्मा ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘निश्चित ही हालात ख़राब हुए हैं और इससे राज्य की होटल इंडस्ट्री में निराशा है। साथ ही अन्य दुकानदार, जिनका काम बहुत हद तक पर्यटकों से जुड़ा है; फिर ख़ाली हो गये हैं। पहले की तालाबन्दी की लम्बी मार और उससे पहले पाबंदियों से स्थिति ख़राब रही थी। मज़दूरों के पलायन से स्थिति और ज़्यादा ख़राब होने का डर है।’

क्या परदे के पीछे चली जा रहीं कूटनीतिक चालें?

सवाल उठते रहे हैं कि क्या केंद्र सरकार किसान आन्दोलन को साम, दाम, दण्ड और भेद से बिखराव पैदा करके ख़त्म कराना चाहती है? क्योंकि जब सीधी बातचीत से बात न बनी, तो केंद्र और भाजपा शासित राज्यों द्वारा हनन के तरीक़े अपनाये जाने के कुछ मामले साफ़ दिखायी दिये और कुछ खेल परदे के पीछे करने के आरोप भी भाजपा की सरकारों पर लगे। इनमें से कई मामलों में तो सरकार ने भी सफ़ार्इ नहीं दी। राज्य से जुड़ा मामला तो वहाँ की सरकार और केंद्र का हो तो केंद्र सरकार इसी नीति का इस्तेमाल करती रही हैं। ऐसे बहुत-से आन्दोलन टूटते रहे हैं। तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने या इसे हर हालत में लागू करने का मुद्दा उस मोड़ पर पहुँच गया है कि ख़त्म होने में नहीं आ रहा है। एक दर्ज़न दौर की बातचीत नाकाम होने के बाद अब दोनों पक्ष एक-दूसरे पर दबाव की कोशिश कर रहे हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा तीन कृषि क़ानूनों को रद्द और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर अडिग है, तो केंद्र सरकार कुछेक संशोधन के साथ इसे लागू करने पर आमादा है। आन्दोलन अब दिल्ली की बजाय राज्यों में बिखर-सा गया है। हरियाणा में जींद हिसार, करनाल, उत्तर प्रदेश में लखीमपुर खीरी जैसी घटनाएँ हुईं, जो कहीं-न-कहीं आन्दोलन को ख़त्म करने से ही जुड़ी रही हैं। ताज़ा मामला केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, राज्यमंत्री कैलाश चौधरी के साथ निहंग सिख बाबा अमन सिंह की मुलाक़ात का है।

ऐसे चित्र और ख़बरों के सामने आने के बाद सवाल उठा कि क्या इसके कोई तार किसान आन्दोलन से भी जुड़ते हैं? अगर नहीं, तो फिर तोमर की निहंग अमन सिंह से मुलाक़ात से क्या मायने रहे होंगे? निहंग अमन सिंह विवादास्पद शख़्स है। अप्रैल, 2018 में माँ-बाप ने उसे घर से बेदख़ल कर रखा है। बाक़ायदा समाचार-पत्र में यह प्रकाशित हो चुका है। पंजाब सरकार की विशेष जाँच समिति की टीम बाबा अमन के माँ-बाप और परिजनों से उसके बारे में जानकारी जुटायी है।

उसके माँ-बाप बीमार हैं और उनका उपचार गाँव के लोग चन्दा आदि करके कर रहे हैं। संगरूर ज़िले के गाँव बब्बनपुर का रहने वाले बाबा अमन के साथ उनका कोई रिश्ता नहीं है। एनडीपीसी एक्ट में उस पर मामला है। फ़िलहाल वह पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय से जमानत पर है। दिल्ली में केंद्रीय कृषि राज्य मंत्री कैलाश चौधरी के आवास पर इस तरह का आयोजन ही अपने आप में कई सवाल खड़े करता है। आख़िर क्यों सरकारी आवास पर उसे इतना महत्त्व दिया गया? कुछ तो निहितार्थ रहे ही होंगे, जिनका ख़ुलासा होना अभी बाक़ी है।

संयुक्त किसान मोर्चा का कोई पदाधिकारी ऐसे संवाद में शामिल होता तो निश्चित ही सवाल खड़े होते; लेकिन बाबा अमन सिंह तो आन्दोलन का हिस्सा नहीं है। वह निहंग है और संगठन में बहुत प्रभावी भी नहीं है। उसकी क्या हैसियत है कि वह आन्दोलन को ख़त्म कराने में अहम भूमिका अदा कर दे। मुलाक़ात और बातचीत में बाबा अमन को सम्मानित करने की वजह का क्या कुछ अर्थ है? कुछ तो है; वरना पंजाब के विवादास्पद पुलिस इंस्पेक्टर (बर्ख़ास्त) गुरमीत सिंह पिंकी की मौज़ूदगी क्यों थी? पिंकी और बाबा अमन, दोनों संदेहास्पद हैं। गुपचुप संवाद में भाजपा किसान प्रकोष्ठ के राष्ट्रीय सचिव सुखमिंदर पाल ग्रेवाल भी थे। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि संवाद का आयोजन किसी ख़ास मक़सद के लिए हुआ होगा। किसान आन्दोलन की शुचिता पर उँगलिया भले उठायी गयी हैं। लेकिन केंद्र सरकार पर तो शुरू से ही आन्दोलन को किसी भी तरह ख़त्म करने के आरोप लगते ही रहे हैं। अब आन्दोलन इस स्थिति में पहुँच गया है कि किसी गुपचुप संवाद से नहीं, बल्कि सीधी बातचीत से ही निपटेगा। निहंग संगठनों या किसी अन्य की मध्यस्थता की कहीं कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रह गयी है।

वैसे देखा जाए, तो आन्दोलन तो तीन कृषि क़ानूनों पर चल रहा है इनमें निहंगों का क्या काम है? सिंघु सीमा पर पंजाब से जुड़े किसान संगठन सक्रिय है और निहंगों का डेरा यहीं पर है। वे अपनी मर्ज़ी से आन्दोलन में शामिल हुए या फिर उन्हें सुरक्षा के हिसाब से यहाँ बुलाया गया? नहीं कहा जा सकता। हालाँकि सभी निहंग ऐसे नहीं हैं और वे बहुत शान्त होते हैं। लेकिन कुछ आवेशित भी होते हैं। दशहरे के दिन गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी मामले में लखबीर सिंह की नृशंस हत्या के बाद निहंग दूसरी बार विवाद में फँसे हैं। इससे पहले 26 जनवरी को दिल्ली कूच के दौरान उन्होंने जो कुछ किया उसे सभी ने देखा। इसमें कुछ और गिरफ़्तारियाँ भी होंगी। फ़िलहाल पुलिस ने ख़ून में सने कपड़े और तलवारें बरामद करने के साथ-साथ मृतक लखबीर सिंह के ख़िलाफ़ गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला दर्ज कर लिया है और जाँच कर रही है।

सबसे बड़ा सवाल यही कि आख़िर निहंगों का किसान आन्दोलन से सरोकार क्या है? क्यों वे 10 माह से सिंघु सीमा पर हैं? लखबीर हत्याकांड के बाद संयुक्त मोर्चा के नेताओं ने घटना की निंदा करते हुए निहंगों को चले जाने की ताक़ीद की है; लेकिन उनकी हिम्मत नहीं कि वे उन्हें वहाँ से जबरन हटा कर दें। निहंग संगठनों की ओर से कहा गया है कि वे अपनी मर्ज़ी से किसान आन्दोलन आये हैं और अपनी मर्ज़ी से ही जाएँगे किसी के कहने से कदापि नहीं जाने वाले। किसान संगठनों के किसी पदाधिकारी की इतनी हिम्मत नहीं कि वे खुलकर कह सकें कि आन्दोलनकारियों को निहंगों की कोई ज़रूरत नहीं है।

फ़िलहाल 27 नवंबर को बैठक के बाद फ़ैसला होगा कि निहंग सिंघु सीमा पर रहेंगे या चले जाएँगे। इसके बाद ही आगे की दिशा तय होगी। संयुक्त मोर्चा के ज़्यादा संगठन पंजाब से हैं। सिंघु बॉर्डर पर किसान संगठनों को मज़बूत कहे जाने वाले नेताओं से ज़्यादा दख़ल निहंगों का है। निहंग सिख धर्म का संगठन है और इसका इतिहास भी निर्दोषों की रक्षा का ही रहा है। लेकिन कौन, कब, किससे मिल जाए? नहीं कहा जा सकता। क्योंकि यह इंसानी फ़ितरत है। भाजपा नेताओं के साथ मुलाक़ात की बात सामने आने के बाद निहंग संगठन ने बाबा अमन सिंह से किनारा कर लिया है।

दिल्ली में भाजपा नेताओं के साथ बातचीत के इस मामले पर बाबा अमन ने केंद्र सरकार पर गम्भीर आरोप लगाये हैं, जिनमें उन्हें आन्दोलन ख़त्म कराने की एवज़ में 10 लाख रुपये की पेशकश का प्रलोभन दिया गया। इस कथित समझौता संवाद में उसके साथ अन्य निहंगों का होना बताया गया। यह जाँच का विषय है। लेकिन यह देखा गया है कि जब सरकार पर आरोप लगते हैं, तो मामले की जाँच नहीं होती; चाहे वो कोई भी मामला हो।

सिंघु सीमा पर गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी मामले में निहंगों ने जो सज़ा दी है, वह लोकतंत्र में किसी भी नज़रिये से उचित नहीं है। उसका अपराध गम्भीर है और सिख धर्म के हिसाब से उसे दण्डित किया जा सकता है। पर इसके लिए निहंगों को कोई अधिकार नहीं कि वे खुलेआम उसका अंग-भंग करते हुए उसे तड़पा-तड़पाकर मार डाले। उसे अकाल तख़्त के सामने पेश किया जाना चाहिए था। वहाँ से उसे जो सज़ा होती, उसकी स्वीकार्यता पूरे सिख समाज की होती। वैसे भी सिख धर्म में ग़लती या बेअदबी की सज़ा परिश्रम कराकर या माफ़ी माँगने पर दे दी जाती है। लेकिन किसी की जान नहीं ली जाती।

पंजाब में बेअदबी के मामले पहले भी हुए हैं। आरोपियों की पहचान भी हुई; लेकिन ऐसा जघन्य काम किसी सिख ने नहीं किया, चाहे वे निहंग ही क्यों न हों। इससे साफ़ है कि यह कृत्य या तो किसी साज़िश के तहत हुआ है या फिर मानसिक विकृति के लोग ही ऐसा कर सकते हैं। सिंघु बॉर्डर पर बेअदबी कोई साज़िश तो नहीं? ऐसे सवाल अभी ख़त्म नहीं हुए हैं। कुछ लोग इसे किसानों से जोडऩे की कोशिश में लगे हैं। लेकिन यह धार्मिक मामला है और इसे उससे जोडऩा उचित भी नहीं है। क्योंकि अभी तक किसानों पर ऐसा कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया है, जिसमें उन्होंने कोई ग़ैर-क़ानूनी क़दम उठाया हो।

निहंग संगठनों का आरोप है कि लखविंदर ने मरने से पहले गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी करने के लिए 20 लोगों को 30-30 हज़ार रुपये देने का आरोप भी लगाया था। हालाँकि इसकी पुष्टि नहीं हुई है कि यह पैसा किसने किसे दिया? या दिया भी अथवा नहीं? अगर वह ज़िन्दा रहता, तो इससे परतें हटतीं और उस पर निहंगों के हमले की असली वजह पता चलती और साज़िश का पर्दाफ़ाश हो सकता था। लेकिन ऐसा हो नहीं सका या सम्भव है कि होने ही न दिया गया हो। क्योंकि आरोपी निहंग के सत्ताधारियों से मिलने की कोई तुक नहीं दिखती। अगर सरकार को आन्दोलन ख़त्म कराने या क़ानूनों को लेकर कोई क़दम उठाना है, तो उसे सीधे किसानों से बातचीत करनी चाहिए। लेकिन कहीं किसानों पर गाडिय़ाँ चढ़ती हैं, तो कहीं किसानों की हत्या हो जाती है। ये खेल कुछ समझ में नहीं आता और न ही इसे किसी भी हाल में उचित ठहराया जा सकता है। रही मध्यस्थता करने की बात, तो  मेघालय के राज्यपाल सतपाल मलिक इसके लिए तैयार हैं। वह कह चुके हैं कि अगर केंद्र सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर तैयार हो जाए, तो वह कृषि क़ानूनों के मामले में किसान नेताओं से सहमति बना लेंगे।

सवाल यह है कि जब न्यूनतम समर्थन मूल्य तो सरकार हमेशा देने को कहती रही है, तो फिर उसकी लिखित गारंटी क्यों नहीं देती? इससे तो सरकार की नीयत पर सीधे-सीधे सवाल खड़े होते हैं। उसे चाहिए कि वह देश में अस्थिरता का माहौल ख़त्म हो इसके लिए किसी जोड़-तोड़ या साम, दाम, दण्ड, भेद से काम लेने के बजाय बातचीत का रास्ता अपनाये। किसानों से बातचीत करे। सम्भव है कि वे इसके लिए तैयार भी हो जाएँ। क्योंकि किसानों ने शुरू से ही कहा है कि वे समाधान चाहते हैं; प्रधानमंत्री उनसे बातचीत करें। लेकिन प्रधानमंत्री ने आज तक किसानों को एक सेकेंड का भी समय नहीं दिया। इस बात को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को समझने की ज़रूरत है।

हिमाचल का आईटी और फार्मा पर बड़ा दाँव

विकास को मिली गति, बड़े निवेश की सम्भावना से जगा उत्साह

हिमाचल प्रदेश की योजना राज्य को सूचना प्रौद्योगिकी और फार्मा उद्योग का केंद्र बनाने की है। मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि प्रस्तावित फार्मा पार्क से 40,000 करोड़ रुपये से 50,000 करोड़ रुपये के बीच निवेश आएगा। साथ ही पर्यावरण के अनुकूल निवेश को आकर्षित करने के लिए आईटी हब का ख़ाका विकास को गति देगा। इस पर विस्तार से बता रहे हैं अनिल मनोचा :-

हिमाचल प्रदेश दवा निर्माण में अग्रणी रहा है। भारत की एक-चौथाई से अधिक फॉर्मूलेशन दवाओं का उत्पादन और आपूर्ति  प्रदेश के औद्योगिक नगर बद्दी-बरोटीवाला-नालागढ़ (बीबीएन) से की जाती है, जिसमें डॉ. रेड्डी, रैनबैक्सी, सिप्ला, मोरपैन, कैडिला अदि 700 से अधिक फार्मा इकाइयाँ हैं। सरकार ने 1,400 एकड़ ज़मीन इसके लिए चयनित की है। केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय ने राज्य सरकार द्वारा ऊना ज़िले में समर्पित बल्क ड्रग्स पार्क (जो दवा का एक प्रमुख घटक है) के लिए भेजे संशोधित प्रस्ताव पर अनुकूल प्रतिक्रिया दी है।

फार्मा पार्क के लिए बोली

इस संवाददाता से एक विशेष साक्षात्कार में हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने बताया कि राज्य ने प्रस्तावित फार्मा पार्क के लिए बेहतर बोली लगायी है और इसके हासिल करने की सम्भावना है। उन्होंने कहा कि केंद्र द्वारा देश भर में ऐसे तीन पार्कों की स्थापना की जानी है और हिमाचल प्रदेश इसे प्राप्त करने के लिए सकारात्मक है। उन्होंने कहा- ‘वास्तव में प्रस्तावित पार्क के लिए प्रिंसिपल (मुख्य) मंज़ूरी दे दी गयी है। प्रस्तावित पार्क अप्रत्यक्ष रूप से रोज़गार के अवसर पैदा करने के अलावा क़रीब 20,000 प्रत्यक्ष रोज़गार पैदा करेगा। राज्य निवेशकों को विशेष रियायती बिजली और पानी की दरों की पेशकश करेगा।’

हिमाचल प्रदेश भारत में फार्मास्युटिकल उद्योग में सबसे तेज़ी से बढ़ते क्षेत्रों में से एक है। वर्ष 2020 में राज्य से दवा निर्माण और जैविक का निर्यात 822.0 मिलियन अमेरिकी डॉलर था और वर्ष 2021 में 814.39 मिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है। शिमला और सोलन के बीच 106 एकड़ भूमि पर आईटी पार्क स्थापित करने का प्रस्ताव है। कांगड़ा के गग्गल में फार्मा पार्क के साथ मिलकर राज्य में युवाओं के लिए रोज़गार पैदा होगा और यह विकास के लिए वरदान होगा। मुख्यमंत्री ने यह बात स्वीकार की कि सरकार को आईटी क्षमता का जल्द-से-जल्द दोहन करना चाहिए था। हालाँकि उन्होंने कहा कि फार्मा पार्क के साथ आईटी पहल से राज्य को वापसी में मदद मिलेगी।

वर्तमान में 50 फ़ीसदी से अधिक सामग्री अकेले चीन से आयात की जाती है। मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर ने केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्री डी.वी. सदानंद गौड़ा से भी  सिलसिले मुलाक़ात की और कहा कि यह पहाड़ी राज्य के लिए एक परिवर्तन का बड़ा कारण होगा। उन्होंने कहा कि बायो-टेक और फार्मा क्षेत्र राज्य के लिए चमत्कार करेंगे। उन्होंने स्वीकार किया कि कुछ फार्मा इकाइयाँ उन्हें दी गयीं, जो विशेष रियायतों के समाप्त होने के बाद बन्द कर दी गयीं; लेकिन साथ ही उन्होंने कहा कि ये इकाइयाँ वो थीं, जो लगातार घाटे में चल रही थीं।

मुख्यमंत्री ने कहा कि हिमाचल को निवेश का पसन्दीदा स्थान बनाने के साथ ही सरकार ने कई समाज कल्याण योजनाएँ शुरू की हैं। इनमें प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना शामिल है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ग़रीबी रेखा से नीचे के परिवारों की महिलाओं को 50 मिलियन एलपीजी कनेक्शन वितरित करने के लिए शुरू किया था। राज्य ने योजना के प्रावधानों के अनुसार 1.36 लाख एलपीजी कनेक्शन प्रदान किये। चूँकि इसके तहत पूरे घरों को कवर नहीं किया गया था, इसलिए बाद में 3.25 लाख एलपीजी कनेक्शन प्रदान किये गये।

उन्होंने दावा किया कि जनमन की उनकी अवधारणा काफ़ी लोकप्रिय साबित हुई; क्योंकि इसका अर्थ है- ‘सरकार को जनता के दरवाज़े तक ले जाना।’ यदि समस्या के समाधान की आवश्यकता है, तो समस्याओं का उपायुक्त स्तर पर, मंत्रियों के स्तर पर और अन्त में मंत्रिमंडल के स्तर पर समाधान किया जाता है। आयुष्मान भारत योजना के बारे में उन्होंने दावा किया कि शुरुआत में लगभग 22 लाख लोगों को योजना के तहत कवर किया गया था; लेकिन अब पूरी आबादी को कवर किया गया है। दिव्यांगों में 70 साल से ऊपर आयु के पुरुष और 65 से ऊपर की महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा उपाय के रूप में पेंशन मिल रही है, जबकि लड़कियों की शादी में मदद करने के लिए मुख्यमंत्री की शगुन योजना लागू की गयी है।

ज़रूरी मुद्दों पर ध्यान

निवेश आकर्षित करने में आने वाली बाधाओं के बारे में मुख्यमंत्री ने कहा कि परिवहन, कनेक्टिविटी और बुनियादी ढाँचे जैसे कुछ मुद्दे हैं। लेकिन सरकार निकट भविष्य में मंडी में हवाई अड्डे को शुरू करने, विभिन्न सडक़ों को चार लेन बनाने और विकास के लिए अधिक अनुकूल वातावरण प्रदान करने पर काम कर रही है। ट्रांसपोर्ट यूनियनों के सम्बन्ध में कुछ मुद्दा था; लेकिन उच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर होने के बाद चीज़ें सामान्य हो रही हैं। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी सरकार ने बदले की राजनीति पर काम न करके समाज के हर वर्ग को विकास की धारा में शामिल किया है। उन्होंने दावा किया कि उनकी सबसे बड़ी उपलब्धि पिछली सरकार के पाँच साल के कार्यकाल की तुलना में चार साल से भी कम समय में राज्य में अधिक समावेशी विकास सुनिश्चित करना है।

हिमाचल प्रदेश में 27,000 मेगावाट पनबिजली पैदा करने की क्षमता है। लेकिन पूरी क्षमता का दोहन नहीं किया गया है। इसके लिए उन्होंने पाया कि अभी तक केवल 26 फ़ीसदी क्षमता का उपयोग किया गया है। उन्होंने माना कि बिजली नीति को और अधिक लचीला बनाने की ज़रूरत है। साथ ही हिमाचल में बिजली के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने के लिए 210 मेगावॉट की लुहरी प्रथम चरण जलविद्युत परियोजना को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नवंबर 2020 में 1,810 करोड़ (245.41 मिलियन डालर) की मंज़ूरी दी गयी थी।

मुख्यमंत्री का कहना है कि बाग़वानी और कृषि राज्य की अर्थ-व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। हिमाचल में एक मज़बूत खाद्य प्रसंस्करण क्षेत्र है। राज्य की प्राकृतिक सुन्दरता के कारण पर्यटन की अपार सम्भावनाएँ हैं। हालाँकि राज्य सरकार केवल शिमला या मनाली के अलावा अन्य स्थलों को विकसित करने की इच्छुक थी। पहले से ही दुनिया की सबसे लम्बी रोहतांग सुरंग इतनी ऊँचाई पर पर्यटकों की भीड़ को आकर्षित कर रही थी। साहसिक खेलों के अलावा निकट भविष्य में जल क्रीड़ाओं का संचालन किया जा रहा था। लाहौल भी एक लोकप्रिय गंतव्य के रूप में उभर रहा था। इसके अलावा मंडी में 200 करोड़ रुपये की लागत से विकसित किया जा रहा शिव धाम एक प्रमुख पर्यटक आकर्षण बनने की सम्भावना है।

कोरोना महामारी के बावजूद वैश्विक निवेशक सम्मेलन के बाद राज्य 96,000 करोड़ रुपये के निवेश प्रस्तावों को आकर्षित करने में सक्षम हुआ है, जिसमें से 13,500 करोड़ रुपये का निवेश पहले ही ज़मीन पर आ चुका है। इस उपलब्धि को हासिल करने के लिए देश में शीर्ष राज्य के रूप में उभरने के लिए राज्य ने जून तक पूरी आबादी को 100 फ़ीसदी कोरोना टीकाकरण का गौरव हासिल किया था। राज्य का लक्ष्य नवंबर के अन्त तक ही पूर्ण टीकाकरण का गौरव हासिल करना है।

विभिन्न उद्योगों के विकास पैटर्न से पता चलता है कि इस अवधि में खाद्य प्रसंस्करण उद्योग में सबसे अधिक वृद्धि देखी गयी है। इसके बाद विविध इंजीनियरिंग, फार्मा उत्पाद, प्लास्टिक, पैकेजिंग, इलेक्ट्रिकल और इलेक्ट्रॉनिक्स में सबसे कम वृद्धि दर्ज की गयी है, जबकि सबसे कम वृद्धि फुटवियर, एरोमैटिक / मेडिकल हब्र्स बेस्ड शॉप, केमिकल्स और ऑटोमोबाइल्स उद्योगों में दर्ज की गयी है। इसके अलावा औद्योगिक क्षेत्र के विकास में बहुत कम समय में कई ज़िलों में फैल गयी है। पिछड़े ज़िलों की तुलना में सोलन, सिरमौर और ऊना जैसे उन्नत ज़िले अपने स्थान और बेहतर बुनियादी सुविधाओं की उपलब्धता के कारण अधिक औद्योगीकृत हो गये हैं।

सिद्धू की चली, पंजाब के महाधिवक्ता देओल ने दिया पद से इस्तीफा

पंजाब में कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू की मांग को वजन मिलना शुरू हो गया है। इस्तीफा देने की घोषणा के बाद हाल में वे दिल्ली में राहुल गांधी से मिले थे। प्रदेश में कुछ नियुक्तियों को लेकर उनका विरोध था।  इसी सिलसिले में पंजाब के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) एपीएस देओल ने सोमवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया।

याद रहे देओल को पिछले महीने ही चरणजीत सिंह चन्नी सरकार ने महाधिवक्ता नियुक्त किया था। हालांकि, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू उनकी नियुक्ति से नाराज थे। माना जा रहा है कि सिद्धू की नाराज़गी के कारण ही देओल को कुर्सी छोड़नी पड़ी। सिद्धू ने हाल में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी को भी पत्र लिखकर अपनी बातें उन्हें बताई थीं।

फिलहाल सिद्धू कोपभवन में बैठे दिख रहे हैं और कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय नहीं दिख रहे। हालांकि, अब उनके मैदान में लौटने की सम्भावना है। सिद्धू डीजीपी के नियुक्ति का भी विरोध कर रहे हैं। बता दें डीजीपी आईपीएस सहोता का मामला यूपीएससी के पास लंबित है। यूपीएस की सिफारिश पर नए पैनल से एक नाम डीजीपी के लिए तय होगा।

अखिलेश यादव नहीं लड़ेंगे चुनाव, चाचा शिवपाल से गठबंधन पर इंकार नहीं

धीरे-धीरे दिलचस्प बनते जा रहे उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव में समाजवादी पार्टी इस बार खुद को मजबूत मानकर चल रही है। अब पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने ऐलान किया है कि वे खुद चुनाव नहीं लड़ेंगे। यादव इस समय लोकसभा के सदस्य हैं।
माना जा रहा है कि इस चुनाव में प्रियंका गांधी की सक्रियता और भाजपा के पूरी ताकत झोंक देने से अखिलेश समाजवादी पार्टी के प्रचार में पूरा वक्त देना चाहते हैं।

पिछली बार जब अखिलेश यादव मुख्यमंत्री बने थे तब भी वे विधानसभा के सदस्य नहीं थे। उनके पार्टी सदस्यों की मान्यता है कि इस बार यदि पार्टी की सरकार बनती है तो वे विधान परिषद से ही चुने जाएंगे। मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक चाचा शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से गठबंधन करने पर उन्होंने सकारात्मक रुख दिखाया। यादव ने कहा कि प्रगतिशील समाजवादी पार्टी से गठबंधन मुश्किल नहीं है।

बता दें, अखिलेश यादव आजकल ‘विजय रथ यात्रा’ निकाल रहे हैं। पार्टी के कार्यकर्ता  मान कर चल रहे हैं कि अगली सरकार पार्टी की ही बन रही है। सपा नेता कह रहे हैं कि भाजपा से सिर्फ सपा की टक्कर है और कोई मैदान में नहीं है। हालांकि, जानकार मान रहे हैं कि इस बार उत्तर प्रदेश का चुनाव काफी दिलचस्प होने वाला है। भाजपा ने अभी से पूरी ताकत मैदान में झोंक दी है, जबकि प्रियंका गांधी की सक्रियता प्रदेश में जिस तरीके से दिख रही है और जनता के बीच जैसी उनकी चर्चा चल रही है वह चुनाव को दिलचस्प बनाने के सम्भावना दिखा रही है।

हाल के हफ़्तों में प्रदेश में प्रियंका गांधी की रैलियों को जबरदस्त समर्थन मिल रहा है। सपा की यात्रा भी भीड़ खींच रही है। प्रियंका गांधी की रविवार की गोरखपुर रैली में जबरदस्त भीड़ दिखी थी। प्रियंका ने जिस तरह योगी सरकार की खिंचाई की उससे पार्टी कार्यकर्ताओं में जोश भरा है।

उन्होंने अखिलेश यादव को भी निशाने पर लिया। प्रियंका ने जब यह कि उत्तर प्रदेश में आज कांग्रेस ही मुख्य विपक्षी दल के रूप में दिख रही है। उसी ने सड़कों पर जनता की लड़ाई लड़ी है। जनता ने इसका तालियां बजाकर समर्थन भी किया। प्रियंका राजनीतिक गठबंधन पर भी नजर रखे  हुए हैं। रालोद अध्यक्ष जयंत चौधरी से उनकी मुलाकात की चर्चा राजनीतिक गलियारों में है। वैसे रालोद का सपा से गठबंधन हो चुका है। लेकिन कांग्रेस की सक्रियता देखकर रालोद इरादा बदल सकता है।

विश्व पटल पर भुखमरी में शर्मनाक स्थिति में भारत

देश की सत्ताधारी पार्टी के लोग कहते हैं कि 16 घंटे काम करने वाले प्रधानमंत्री ने भारत की छवि को दुनिया मे शिखर पर पहुँचाया है। लेकिन उन लोगों को ग्लोबल हंगर इंडेक्स (जीएचआई) यानी वैश्विक भूख सूचकांक के आँकड़े देखकर ज़मीनी हक़ीक़त जानने की ज़रूरत है। हम शिखर पर तो ज़रूर पहुँचे; लेकिन तरक़्क़ी के नहीं, बल्कि भुखमरी के। भारत वैश्विक भूख सूचकांक-2021 में 116 देशों की सूची में पिछडक़र 101वें स्थान पर आ गया है; यानी इस सूची में भारत अब पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि भुखमरी की समस्या का हल केवल किसान की ख़ुशहाली है। क्योंकि खेती आज भारत में ने केवल सबसे ज़्यादा रोज़गार देने वाला क्षेत्र है, बल्कि देश को भूख से बचाने वाला क्षेत्र भी है। यह लिखने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं है कि खेती और किसान की ख़ुशहाली में ही भारत की तरक़्क़ी छुपी है। इसलिए सरकार को इस क्षेत्र पर विशेष ध्यान देते हुए ख़ास क़दम उठाने की ज़रूरत है।

सत्तारूढ़ दल ने कई बार कहा है कि हवाई चप्पल पहनने वाला ग़रीब भी हवाई जहाज़ से चलेगा। काला धन आयेगा। विकास होगा। स्मार्ट सिटी और स्मार्ट गाँव बनेंगे। हर साल दो करोड़ रोज़गार मुहैया कराये जाएँगे। हर खाते में 15-15 लाख आएँगे। हर देशवासी के पास अपना मकान होगा। अब यह सब सुनकर और याद कर अपना ही सिर के बाल नोचने को मन करता है। यह बात एक ऐसे व्यक्ति ने कही, जिसकी नौकरी पिछले लॉकडाउन में चली गयी थी और वह आज गाँव में मज़दूरी करने को मजबूर है।

यह समस्या किसी एक व्यक्ति की नहीं है, बल्कि उन लाखों लोगों की है, जो बेरोज़गार हो चुके हैं। अह हम केवल महँगाई से परेशान ही नहीं, बल्कि पिछले सात साल में भुखमरी के उस कगार पर पहुँच गये हैं, जहाँ अगर इसी तरह हम पीछे खिसकते रहे तो भविष्य में हमारी गिनती ग़रीब देशों में हो सकती है। पिछले दो साल में कितने ही परिवार भूख और ग़रीबी के चलते आत्महत्या जैसा दु:खदायी क़दम उठा चुके हैं। सरकार को इन सब चीज़ें से यह स्कीकार करना चाहिए कि देश में बेरोज़गारी, ग़रीबी के साथ-साथ भुखमरी भी तेज़ी से बढ़ रही है। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ग्लोबल हंगर इंडेक्स यानी वैश्विक भुखमरी सूचकांक की सन् 2014 की रिपोर्ट जब मोदी सरकार सत्ता में आ चुकी थी और उसके शासन के लगभग पाँच महीने बीत चुके थे, तब भी 120 विकासशील देशों में भारत का भुखमरी में 55वाँ स्थान था।

मोदी सरकार के छ: साल बाद यानी सन् 2020 में भारत 107 देशों में 94वें स्थान पर खिसक गया। यानी इन छ: साल में भारत में भुखमरी दोगुने स्तर पर पहुँच गयी थी; और अब मोदी सरकार के क़रीब सात साल के शासन के बाद वैश्विक भूखमरी सूचकांक-2021 की रिपोर्ट हमारे सामने है, जिसमें भारत को 116 देशों में 101वें स्थान पर भुखमरी के मामले में पहुँच चुका है। अगर ऐसे ही तानाशाही रवैये से उद्योगधन्धों को चौपट करके, उन्हें गिरवी रखकर सरकार ने शासन किया, तो अगले साल हम दुनिया के सबसे ज़्यादा भूखे देश के निवासी कहलाएँगे। सबसे दु:खदायी और शर्मनाक बात यह है कि भारत अपने छोटे-छोटे पिछड़े माने जाने वाले पड़ोसी देशों पाकिस्तान, बांग्लादेश और नेपाल से भी पीछे चला गया है।

सात साल पहले जो देश भारत की दया पर निर्भर हुआ करते थे, आज वो हमसे बेहतर स्थिति में कैसे पहुँचे? यह बात वे सब लोग जानते हैं, जिन्होंने सरकार की गतिविधियों और कामों की भलीभाँति समीक्षा की है। मैं वर्तमान सरकार से पूछना चाहता हूँ कि जैसा कि वह विज्ञापनों में दावा करती है कि उसने देश को विकास की नयी ऊँचाइयाँ दी हैं। अगर ऐसा है, तो फिर देश ग़रीबी, भुखमरी, बेरोज़गारी, महँगाई और तनाव की तरफ़ क्यों जा रहा है? हर साल सैकड़ों लोग आत्महत्या क्यों कर रहे हैं? अपराधों में लगातार बढ़ोतरी क्यों हो रही है? क्यों लोग सडक़ों पर हैं? हर क्षेत्र में मंदी क्यों है? सवाल तो और भी बहुत हैं; लेकिन यहाँ सबसे पहला सवाल रोटी का है। क्योंकि यह इंसानों की ही नहीं, दुनिया के हर प्राणी की पहली मूलभूत ज़रूरत है। अगर भोजन नहीं मिलेगा, जो जीवन नहीं बचेगा। ऐसे में करोड़ों लोग अगर आज भारत में भूख से तड़प रहे हैं, तो इसकी ज़िम्मेदारी किसकी है?

पिछले दिनों सरकार ने प्रधानमंत्री का बड़ा-सा फोटो लगे हुए 15 किलो के बोरे पर मोटे-मोटे अक्षरों में प्रचार के मक़सद से कुछ शब्द लिखकर महज़ पाँच किलो गेहूँ देकर अपनी पीठ जमकर थपथपायी थी। जिस पर लोगों ने सरकार की खिंचाई और निंदा भी की थी। उसके ठीक दो महीने के बाद ही वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2021 की रिपोर्ट हमारे सामने आती है, जिसमें सरकार के उस सारे झूठ पर से परदा हट जाता है, जिसमें सरकार हर ग़रीब को भरपूर राशन देने का दावा करती है।

वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत की बेहद ख़राब श्रेणी (रैकिंग) के बाद भारत सरकार कहती है कि रैंकिंग के लिए इस्तेमाल की गयी पद्धति अवैज्ञानिक है। मतलब अगर अख़बारों में तारीफ़ों के पुल वाली रिपोर्ट छपती हैं, तो वो सही हैं; लेकिन अगर कोई ख़बर ऐसी आती है, जिससे सरकार की बखिया उधड़ती है, तो वह ग़लत। जबकि वैश्विक भुखमरी सूचकांक की रिपोर्ट कई दशक से लगातार बिना किसी सरकार के हस्तक्षेप के आती है। यानी जब 2014 से पहले देश में ग़रीबी, भुखमरी और बेरोज़गारी के आँकड़ों पर सियापा पीटा जाता था, तो वह ठीक था और आज वही समस्याएँ और विकराल हो चुकी हैं तथा महिमामण्डन वाले विज्ञापनों और दावों का भाँडा फूट रहा है, तो रिपोट्र्स ग़लत हैं।

ग़ौरतलब है कि भारत का वैश्विक भुखमरी सूचकांक का स्कोर (गणना) सन् 2000 में 38.8 था, जो 2021 में 27.5 पाया गया। बता दें कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक की गणना के लिए चार पैरामीटर पर नज़र रखी जाती है, जिसमें कुपोषण, बच्चों की वृद्धि दर, अल्पपोषण और बाल मृत्यु से जुड़े आँकड़ें लिये जाते हैं। इस बार की रिपोर्ट में चीन, ब्राजील और क़ुवैत सहित 18 देशों ने पाँच से कम स्तर यानी वैश्विक भुखमरी सूचकांक स्कोर हासिल किया है और भुखमरी से लडऩे में शीर्ष स्थानों पर रहे हैं। वैश्विक भुखमरी सूचकांक की रिपोर्ट के अनुसार, भुखमरी के ख़िलाफ़ पूरी दुनिया की लड़ाई को ख़तरनाक तरीक़े से झटका लगा है। मौज़ूदा समय में अनुमानों के आधार पर  कहा जा रहा है कि दुनिया और ख़ासतौर पर 47 देश 2030 तक निम्न स्तर की भूख को प्राप्त करने में समर्थ नहीं होंगे।

हालाँकि भारत सरकार ने इस रिपोर्ट पर सफ़ार्इ दी है। केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने तीखी प्रतिक्रिया की है कि यह चौंकाने वाला है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक-2021 ने कुपोषित आबादी के अनुपात पर एफएओ के अनुमान के आधार पर भारत के रैंक को कम कर दिया है, जो ज़मीनी वास्तविकता और तथ्यों से रहित और गम्भीर कार्यप्रणाली मुद्दों से ग्रस्त है।

मंत्रालय का कहना है कि इस रिपोर्ट की प्रकाशन एजेंसियों, कंसर्न वल्र्डवाइड और वेल्ट हंगरहिल्फ ने रिपोर्ट जारी करने से पहले उचित मेहनत नहीं की है। मंत्रालय ने दावा किया है कि एफएओ द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली कार्यप्रणाली अवैज्ञानिक है। मंत्रालय ने यह भी कहा है कि हंगर इंडेक्स ने चार प्रश्न के एक जनमत सर्वेक्षण के परिणामों पर अपना मूल्यांकन पेश किया है, जो गैलप द्वारा टेलीफोन पर किया गया था। इस अवधि के दौरान प्रति व्यक्ति खाद्यान्न की उपलब्धता जैसे अल्पपोषण को मापने के लिए कोई वैज्ञानिक पद्धति नहीं है। उसका कहना है कि अल्पपोषण का वैज्ञानिक माप करने के लिए लोगों के वज़न और ऊँचाई के माप की आवश्यकता होती है, जबकि यहाँ शामिल पद्धति में पूरी तरह से टेलीफोन पर लिये आँकड़ों के अनुमान को आधार बनाया गया है।

मंत्रालय ने कहा है कि रिपोर्ट में कोरोना वायरस की अवधि के दौरान पूरी आबादी की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार के बड़े पैमाने पर प्रयासों की पूरी तरह से अनदेखी की गयी है, जिस पर सत्यापन योग्य विवरण उपलब्ध है। कुल मिलाकर यह सफ़ार्इ देने वाली बात है; क्योंकि वैश्विक भुखमरी सूचकांक की रिपोर्ट पहले भी आती रही हैं। मोदी सरकार में हर साल भुखमरी की रिपोर्ट जारी हुई है। जिसे इससे पहले कभी न इस सरकार ने ग़लत बताया और न किसी सरकार ने ग़लत ठहराया, तो फिर आज यह रिपोर्ट ग़लत कैसे हो गयी? जबकि साफ़ दिख रहा है कि देश में समस्याएँ बढ़ती जा रही हैं। मसलन देश में पिछले सात साल में न केवल ग़रीबी बढ़ी है, बल्कि बेरोज़गारी, महँगाई बढ़ी भी है। देश की अर्थ-व्यवस्था कमज़ोर हुई है। सवाल यह है कि सरकार आख़िर कौन-कौन से आँकड़े झुठलाती रहेगी? सही तो यही होगा कि उसे अपनी ग़लतियों और कमियों को स्वीकार करते हुए उनमें सुधार करना चाहिए।

बहरहाल सरकार कोई ऐसा एक काम बताने में आज नाकाम है, जिसमें लोग ख़ुश हुए हों। ख़ुद भाजपा के कई नेता भी अन्दरख़ाने अपनी सरकार से नाख़ुश दिखने लगे हैं। हमारे देहात में एक कहावत है कि अच्छा आदमी वह होता है, जिसकी ज़्यादा लोग तारीफ़ करें और बुरा वह जिसकी ज़्यादा लोग बुराई करें। यहाँ सरकार को इसी से अंदाज़ा लगा लेना चाहिए कि उसके काम अच्छे हैं या ख़राब? वैश्विक भुखमरी सूचकांक की रिपोर्ट पर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने इसके लिए प्रधानमंत्री को सीधे तौर पर ज़िम्मेदार ठहराते हुए उन पर निशाना साधते हुए ट्वीट किया है कि ‘ग़रीबी और भूख मिटाने के लिए भारत को एक विश्व शक्ति बनाने के लिए हमारी डिजिटल अर्थ-व्यवस्था के लिए मोदी जी को धन्यवाद! वैश्विक भुखमरी सूचकांक में हम साल 2020 में 94वें स्थान पर थे और 2021 में हम 101 वें स्थान पर पहुँच गये हैं।’

दरअसल यह कोई छोटा तंज़ नहीं है। प्रधानमंत्री को लोगों के सामने आकर इसके लिए स्पष्टीकरण देना चाहिए और सुधार के लिए ज़मीनी स्तर पर नये सिरे से काम करने का संकल्प करना चाहिए। वैश्विक भुखमरी की रिपोर्ट की आलोचना करना और इसे भारत विरोधी अंतरराष्ट्रीय साज़िश का हिस्सा बताना बहुत आसान है; लेकिन आईना दिखाने वाली इस हक़ीक़त के प्रति शुतुर्गमुर्ग़ वाला रवैया अपनाने के बजाय इससे सबक़ लेकर व्यवस्था में आवश्यक और अपेक्षित सुधार करने की दिशा में आगे बढ़ा जाए, तो तस्वीर बदली ही नहीं जा सकती, बल्कि पूरी तरह पलटी भी जा सकती है। यहाँ मशहूर शायर वसीम बरेलवी का एक शेर मुझे याद आता है :-

‘आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है। भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है।।’

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

ईंधन की बढ़ती क़ीमतों से बढ़ रही महँगाई

पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा का वह ट्वीट हल्के में नहीं लिया जा सकता, जिसमें उन्होंने कहा- ‘हम मरे हुए लोगों का देश हैं। पेट्रोल, डीजल और एलपीजी की क़ीमतों में इस तरह रोज़ और अनुचित वृद्धि को दुनिया में कहीं भी लोगों ने बर्दाश्त नहीं किया होगा। अगर सरकार ने सन् 2014 में कर (टैक्स) के रूप में 75,000 करोड़ रुपये हासिल किये थे, तो आज वह 3.50 लाख करोड़ रुपये जमा कर रही है। क्या यह दिन के उजाले में डकैती करने जैसा नहीं है?’

इसके एक दिन पहले कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने ट्वीट करके कहा- ‘केंद्र ने वित्त वर्ष 2018-19 के दौरान 3.5 लाख करोड़ रुपये और राज्यों ने 2.3 लाख करोड़ रुपये और 2019-20 के दौरान केंद्र ने 3.3 लाख करोड़ रुपये और राज्यों ने 2.2 लाख करोड़ रुपये एकत्र किये। वित्त वर्ष 2020-21 में केंद्र ने ईंधन पर कर के रूप में 4.6 लाख करोड़ रुपये और राज्यों ने 2.2 लाख करोड़ रुपये एकत्र किये।’ ट्वीट में उन्होंने सवाल किया कि सन् 2014 की तुलना में क्रूड ऑयल सस्ता है। कर वृद्धि के बिना, पेट्रोल 66 रुपये और डीजल 55 रुपये में मिल सकता है। कर का पैसा आख़िर कहाँ जा रहा है?

सोशल मीडिया पर हैशटैग #CutFuelTax तुरन्त वायरल हो गया। कच्चे तेल की क़ीमत ब्रेंट, ओमान और दुबई की औसत क़ीमत है। भारत अपनी ज़रूरत का क़रीब 80 फ़ीसदी कच्चा तेल विदेशों से आयात करता है। रिफाइनरियों और तेल विपणन कम्पनियों (ओएमसी) द्वारा कच्चे तेल को परिष्कृत करने की आवश्यकता है। घरेलू बाज़ार में ईंधन की क़ीमत वास्तविक आपूर्ति और माँग और अधिकतर कराधान और डीलर कमीशन के आधार पर तय होती है।

ईंधन की क़ीमतों में बढ़ोतरी से सब्ज़ियों, ख़ासकर प्याज और टमाटर की क़ीमतों में तेज़ी आयी है। इसी तरह उच्च वैश्विक क़ीमतों के कारण खाद्य तेल की क़ीमतें भी महँगी बनी हुई हैं। ऐसा नहीं है कि सरकार उचित क़दम नहीं उठा रही है। मौज़ूदा कमज़ोर मौसम के दौरान क़ीमतों में सम्भावित उछाल से निपटने के लिए सरकार के पास 2,00,000 टन प्याज का भण्डार है। सरकार की आशंकाएँ निराधार नहीं हैं। ख़ासकर तब जब पाँच राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। पूर्व में भी चुनाव परिणामों को बदलने में प्याज ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी है।

मुद्रास्फीति अतीत में भी प्रमुख चुनावी मुद्दों में से एक रही है। अक्टूबर के बाद प्याज की क़ीमतों में भी बढ़ोतरी की सम्भावना है। ये महीने उपभोक्ताओं के लिए कठिन होते हैं; क्योंकि क़ीमतें बढ़ती हैं। नयी फ़सल दिसंबर तक ही आने लगती है, जबकि पुराने स्टॉक ख़त्म होने लगता है। आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक प्रमुख प्याज उत्पादक राज्य हैं, जो कुल उत्पादन का लगभग दो-तिहाई योगदान देते हैं। त्योहारों का मौसम पहले से ही निर्धारित है, मुद्रास्फीति मध्यम वर्ग और ग़रीबों की जश्न को ख़राब कर सकती है।

दिलचस्प बात यह है कि आरबीआई की मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने संकट को कम करने और विकास को प्राथमिकता देने की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए बैठक की, जिसमें पाया गया कि सेंट्रल बैंक के दृष्टिकोण को मार्टिन लूथर किंग जूनियर-1 के दो उद्धरणों को एक साथ जोडक़र सबसे अच्छे तरीक़े से वर्णित किया जा सकता है। यह है; लेकिन मुझे पता है कि किसी तरह अँधेरा होने पर ही आप सितारों को देख सकते हैं। चलते रहो। कुछ भी धीमा न होने दो। आगे बढ़ो। सहिष्णुता बैंड से ऊपर के दो हालिया मुद्रास्फीति सुधारों के बीच हुई एमपीसी की इस बैठक में सन्तुष्टि ज़ाहिर की गयी। हालाँकि प्रतिकूल आपूर्ति झटकों, उच्च लॉजिस्टिक्स लागत, उच्च वैश्विक उपभोक्ता क़ीमतों और घरेलू ईंधन करों के चलते मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी ने सबको हैरान किया है। शीर्ष पंक्ति (हेडलाइन) मुद्रास्फीति ऊपरी स्तर से भी ऊपर रही। अंतरराष्ट्रीय कच्चे तेल की क़ीमतों में उतार-चढ़ाव बना हुआ है; ओपेक प्लस समझौते के परिणामस्वरूप क़ीमतों में कोई भी कमी मुद्रास्फीति के दबाव को कम करने में योगदान दे सकती है।

आरबीआई ने कहा कि हाल में मुद्रास्फीति के दबाव ने गम्भीर चिन्ता पैदा की है। लेकिन वर्तमान आकलन यह है कि ये दबाव अस्थायी हैं और मुख्य रूप से प्रतिकूल आपूर्ति पक्ष कारकों से प्रेरित हैं। हम महामारी से उत्पन्न एक असाधारण स्थिति के बीच में हैं। जैसे ही मज़बूत और सतत विकास क्षेत्रों की सम्भावनाएँ सुनिश्चित होती हैं, एमपीसी मुद्रास्फीति की उम्मीदों को स्थिर करने के अपने जनादेश के प्रति सचेत रहती है।

विकास और मुद्रास्फीति का आकलन

अपनी अक्टूबर की रिपोर्ट में आरबीआई ने पाया कि उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) मुद्रास्फीति मई और जून, 2021 में खाद्य, ईंधन और मूल मुद्रास्फीति में आपूर्ति-पक्ष के दबावों के कारण छ: फ़ीसदी की ऊपरी सीमा को पार कर गयी। अगस्त, 2021 में गति में नरमी और अनुकूल आधार प्रभाव के कारण मुद्रास्फीति घटकर 5.3 फ़ीसदी हो गयी। रिज़र्व बैंक के औद्योगिक दृष्टिकोण सर्वेक्षण के जुलाई-सितंबर, 2021 के दौर में विनिर्माण फर्मों ने कच्चे माल की लागत और बिक्री की क़ीमतों में वित्त वर्ष 2021-22 की तीसरी तिमाही में और वृद्धि की उम्मीद की। सेवाओं और बुनियादी ढाँचे के दृष्टिकोण सर्वेक्षण में भाग लेने वाली सेवा क्षेत्र की कम्पनियों को भी वित्त वर्ष 2021-22 की तीसरी तिमाही में निवेश लागत दबाव तथा बिक्री क़ीमतों में और वृद्धि की सम्भावना है।

अप्रैल-सितंबर 2021 के दौरान एमपीसी की तीन बार बैठक हुई। अप्रैल की बैठक में एमपीसी ने कहा कि मुद्रास्फीति पर आपूर्ति पक्ष का दबाव बना रह सकता है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के विकास के दृष्टिकोण पर कुछ हिस्सों में कोरोना वायरस संक्रमण में उछाल और तालाबन्दी के दौरान स्थानीय सेवाओं की माँग को कम करने, विकास आवेगों को रोकने और सामान्य स्थिति में वापसी को लम्बा करने के रूप में देखा गया। ऐसे माहौल में एमपीसी ने पाया कि निरंतर नीति समर्थन बना रहा और सर्वसम्मति से नीति रेपो दर को अपरिवर्तित रखने और टिकाऊ आधार पर विकास को बनाये रखने और अर्थ-व्यवस्था पर कोरोना वायरस के प्रभाव को कम करने के लिए आवश्यक रूप से समायोजनात्मक रूख़ के साथ जारी रखने के पक्ष में समर्थन किया।

जून, 2021 की बैठक में एमपीसी ने पाया कि अंतरराष्ट्रीय वस्तुओं की क़ीमतों, विशेष रूप से कच्चे तेल, रसद लागत और कमज़ोर माँग की स्थिति के साथ मुद्रास्फीति के दृष्टिकोण के लिए ऊपर की ओर जोखिम पैदा करती है, जो स्थिर कोर मुद्रास्फीति को प्रभावित करती है। विकास के दृष्टिकोण पर एमपीसी ने नोट किया कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने निकट अवधि के दृष्टिकोण को बदल दिया था और सभी पक्षों से नीति समर्थन, वित्तीय, मौद्रिक और क्षेत्रीय को वसूली और सामान्य स्थिति में तेज़ी से वापसी की ज़रूरत थी। लिहाज़ा एमपीसी ने सर्वसम्मति से नीति रेपो दर पर यथास्थिति बनाये रखने और समायोजन के साथ जारी रखने के लिए निर्णय किया।

जब अगस्त में एमपीसी की बैठक हुई, तो सभी प्रमुख उप-समूहों में चल रहे मई के प्रिंट में मज़बूत गति के कारण जून में लगातार दूसरे महीने हेडलाइन मुद्रास्फीति ऊपरी सीमा को पार कर गयी थी। एमपीसी ने आकलन किया कि मुद्रास्फीति के दबाव काफ़ी हद तक अल्पकालिक आपूर्ति द्वारा संचालित थे। उसने इस बात पर बल देते हुए कहा कि वह मुद्रास्फीति प्रत्याशाओं को स्थिर करने के अपने उद्देश्य के प्रति सचेत था। विकास पर एमपीसी ने नोट किया कि समग्र माँग के लिए दृष्टिकोण में सुधार हो रहा था; लेकिन यह अभी भी कमज़ोर था और अर्थ-व्यवस्था में भारी मात्रा में सुस्ती थी, जो अपने पूर्व-महामारी स्तर से नीचे का उत्पादन था। लिहाज़ा उसने फ़ैसला किया कि नवजात और सुस्त पुनप्र्राप्ति को पोषित करने की आवश्यकता है।

विकास में अनिश्चितता

जब वैश्विक विकास दृष्टिकोण को अप्रैल एमपीआर के सापेक्ष उन्नत किया गया है। यह वैश्विक वस्तुओं की क़ीमतों में अस्थिरता और अमेरिकी मौद्रिक नीति सामान्यीकरण पर उच्च अनिश्चितता के अलावा देश भर में टीकाकरण के असमान प्रसार को देखते हुए महामारी उतार-चढ़ाव के लिए अति संवेदनशील बना हुआ है। सबसे पहले निरंतर वैश्विक आपूर्ति शृंखला व्यवधान कई विनिर्माण गतिविधियों में उत्पादन पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहे हैं और वैश्विक विकास को और अधिक प्रभावित कर सकते हैं। दूसरे हाल के हफ़्तों में अप्राकृतिक गैस की क़ीमतों में वर्तमान की तुलना में तेज़ वृद्धि से अतिरिक्त प्रतिकूल परिस्थितियाँ बनी हैं। इसके अलावा धीमी चीनी अर्थ-व्यवस्था बाहरी माँग को कम कर सकती है।

इसके अलावा यदि अमेरिका और एडवांस्ड एन्क्रिप्शन स्टैण्डर्ड (एई) में माँग-आपूर्ति बाधाओं से उत्पन्न मुद्रास्फीति बढ़ाने वाले दबाव लगातार बने रहे, तो यह प्रमुख एई में समायोजन नीतियों से वर्तमान की तुलना में पहले के निकास को तीव्र और बड़े वित्तीय बाज़ार को प्रेरित कर सकता है, जिससे अस्थिरता और वैश्विक विकास के लिए नकारात्मक जोखिम पैदा होने की सम्भावना नहीं किया जा सकता। चौथा भू-राजनीतिक तनावों का बढऩा वैश्विक विकास के लिए नकारात्मक जोखिम का एक सम्भावित स्रोत बना हुआ है। वैसे खाद्य तेल की क़ीमतों में मुद्रास्फीति अगस्त में 33.0 फ़ीसदी बढ़ी रही। इसके विपरीत, अंतरराष्ट्रीय खाद्य क़ीमतों का और सख़्त होना, कुछ खाद्य पदार्थों में माँग-आपूर्ति असन्तुलन और बेमौसम बारिश हेडलाइन मुद्रास्फीति पर ऊपर की ओर दबाव डाल सकती है।

बेमौसम बारिश से भारी तबाही

उत्तराखण्ड और केरल में जान-माल का विकट नुक़सान, कई अन्य राज्यों में भी बारिश

प्रकृति इंसानों के साथ-साथ सभी प्राणियों को अपनी गोद में बच्चों की तरह पालती है। लेकिन जब वह रूठती है, तो आपदाओं के ज़रिये तबाही भी मचा देती है। यूँ तो धरती पर आपदाओं का आना कोई नयी बात नहीं है; लेकिन अब इनमें लगातार होती बढ़ोतरी ने दुनिया भर के भूविज्ञानियों, भूसंरक्षकों, खगोलशास्त्रियों और इंसानों व प्राणियों की रक्षा के निहितार्थ काम करने वालों को चिन्ता में डाल दिया है। भारत भी इस चिन्ता से बाहर नहीं है। भारत में प्राकृतिक आपदाओं का बार-बार आना इस चिन्ता को लगातार बढ़ा रहा है। पिछले कुछ वर्षों में भारत में तरह-तरह की छोटी-बड़ी सैकड़ों आपदाएँ दस्तक दे चुकी हैं। भारत के सबसे ज़्यादा तबाही वाले क्षेत्रों में समुद्र तटीय क्षेत्र और पहाड़ी क्षेत्र हैं।

पिछले कई दिनों तक हुई दोनों ही क्षेत्रों में भारी बारिश से तबाही हुई है। इन दोनों तरह के क्षेत्रों यानी राज्यों में समुद्र तटीय क्षेत्र केरल और पहाड़ी क्षेत्र उत्तराखण्ड हैं, जहाँ लेख लिखे जाने तक क़रीब 100 लोगों की मौत हो गयी और क़रीब तीन दर्ज़न लोग लापता हो गये। इनमें उत्तराखण्ड में सबसे अधिक 60 से ज़्यादा लोगों के मारे जाने और क़रीब 9-10 लोगों के लापता होने की ख़बरें मिलीं उत्तराखण्ड में मारे गये लोगों में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोग भी शामिल हैं। वहीं केरल में क़रीब 27 लोगों के मारे गये और क़रीब आठ लोगों के लापता होने की ख़बरें सामने आयीं। इसके अलावा दोनों ही राज्यों में सैकड़ों पशुओं के मारे जाने और सैकड़ों मकानों के छतिग्रसत होने और कुछ के पानी में बह जाने की ख़बरें सामने आयीं।

केरल में भारी बारिश के चलते भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने 10 बाँधों के लिए रेड अलर्ट, आठ बाँधों के लिए ऑरेंज अलर्ट जारी किया गया। इसके अलावा क़रीब 20 ज़िलों के लिए ऑरेंज अलर्ट और पाँच ज़िलों में येलो अलर्ट जारी किया गया, जबकि रेड अलर्ट वाले क्षेत्र क़रीब-क़रीब ख़ाली करा लिये गये। ख़तरे को देखते हुए काकी डैम से 200 क्यूमेक्स पानी छोडऩे का निर्णय लेते हुए उसके दो शटर खोलने पड़े, जिससे आसपास के इलाक़ों में पानी का प्रवाह बढ़ गया और बाढ़ आ गयी। रेड अलर्ट वाले 10 बाँध काकी, शोलयार, मातुपट्टी, मूझियार, कुंडाला, पीची, पतनमथिट्टा, इडुकी और त्रिशूर ज़िले में स्थित हैं।

भारी बारिश और भूस्खलन के चलते सबरीमाला में भगवान अयप्पा मंदिर बन्द करना पड़ा है। पम्पा नदी के तटों पर से 2,000 से अधिक लोगों को सुरक्षित कैम्पों में ले जाया गया है। राज्य के अधिकतर भागों में बारिश हुई और लक्षद्वीप के भी कुछ स्थानों पर बारिश दर्ज की गयी। दक्षिणी केरल में 1 से 19 अक्टूबर तक 90 फ़ीसदी अधिक 192.7 मिमी बारिश हो चुकी थी, जो कि सामान्य से 135 फ़ीसदी अधिक थी, जो कि बाद में 453.5 मिमी तक पहुँच गयी। आईएमडी की मानें तो अक्टूबर-दिसंबर के दौरान उत्तर-पूर्वी मानसून के माध्यम से राज्य में औसतन 16.8 फ़ीसदी (491.6 मिमी) बारिश होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन को हर सम्भव मदद का आश्वासन दिया है। इधर तिब्बती धर्मगुरु दलाईलामा ने केरल की विभीषिका पर दु:ख जताया है। उन्होंने केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन को पत्र लिखकर कहा है कि इस आपदा में जिन परिवारों ने अपने प्रियजनों को खोया है और जो प्रभावित हुए हैं, उनके प्रति मैं अपनी संवेदना प्रकट करता हूँ। मुझे मालूम है कि राज्य सरकार और सम्बन्धित निकाय अपने स्तर पर ज़रूरतमंदों की मदद के लिए प्रयास कर रहे हैं। मैं अपनी सहानुभूति प्रकट करने के लिए दलाईलामा ट्रस्ट की ओर से मदद करना चाहता हूँ।

इधर उत्तराखण्ड में भी भारी बारिश से तबाही मची। यहाँ चारों धामों और उन तक जाने वाले रास्तों को, शिक्षा संस्थानों के साथ-साथ अन्य संस्थानों को बन्द कर दिया गया। मौसम विभाग ने राज्य के 13 ज़िलों में भारी बारिश, ओले पडऩे, बिजली गिरने और क़रीब 70 किमी प्रति घंटे की रफ़्तार से आँधी चलने का पूर्वानुमान व्यक्त करते हुए रेड अलर्ट जारी किया। इस साल अब तक बारिश का सालाना औसत 1580 मिलीमीटर से कहीं ज्यादा 1684 मिलीमीटर बारिश हो चुकी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तराखण्ड के मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी और केंद्रीय रक्षा राज्य मंत्री अजय भट्ट से फोन पर राज्य में आपदा और राहत बचाव कार्यों की जानकारी ली और हर सम्भव मदद का आश्वासन देते हुए केंद्रीय एजेंसियों को अलर्ट पर रहने के निर्देश दिये।

मुख्यमंत्री धामी ने राज्य आपदा नियंत्रण कक्ष में जाकर मौसम से जानकारी लेने के साथ-साथ सडक़ों और राजमार्गों का जायज़ा लिया और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह से बात की। अमित शाह ने राज्य को हर सम्भव मदद का आश्वासन दिया है। राज्य के कई क्षेत्रों में 400 मिली ले अधिक बारिश होने, बादल फटने और भूस्खलन से भारी तबाही हुई है। यह तबाही क्वारब, कैंची धाम, बोहराघाट, ज्योलिकोट, अल्मोड़ा, चंपावत, पिथौरागढ़, बागेश्वर, बाजपुर से लेकर नैनीताल, तल्लीताल और नीचे तराई वाले क्षेत्रों से लेकर उत्तर प्रदेश तक हुई है। दोनों ही राज्यों में सेना के जवानों और समाजसेवी संगठनों ने बड़ी संख्या में लोगों को बचाने में कामयाबी हासिल की है।

कई राज्यों में बारिश

उत्तराखण्ड और केरल के अलावा देश के कई राज्यों में भारी बारिश हुई है। अक्टूबर के महीने में क़रीब 20 राज्यों में बारिश होने का अनुमान मौसम विभाग ने जताया था। बारिश से इस बार पश्चिमी विक्षोभ के पश्चिमी हिमालयी क्षेत्र ख़ासतौर पर जम्मू-कश्मीर, लद्दाख़, हिमाचल प्रदेश, गिलगित-बाल्टिस्तान और मुज़फ़्फ़राबाद प्रभावित हुए।। इसके अलावा उत्तर-पूर्व के सभी राज्य, उत्तर भारत और दक्षिण भारत के अधिकांश राज्यों में बारिश होगी। दिल्ली में सन् 1960 के बाद इस साल अक्टूबर में सबसे अधिक 94.6 मिलीमीटर बारिश हुई थी।

तबाही की यादें

उत्तराखण्ड में सन् 2003 में, उसके बाद सन् 2013 में बारिश से भारी तबाही हो चुकी है और अब 2021 में फिर तबाही मच रही है। इसके अलावा इसी साल ग्लेशियर फटने से उत्तराखण्ड में भारी तबाही मची थी। यहाँ हर साल बारिश के मौसम में वहाँ जान-माल का नुक़सान होना तो अब आम बात है। इसी तरह केरल में भी साल में एक-दो बार तबाही की वजह भारी बारिश बनती है। यहाँ सन् 2018 में इस साल से भी ज़्यादा तबाही हुई थी। इसके अलावा केरल और महाराष्ट्र में हर साल बारिश के मौसम में तबाही होना आम बात है।

तबाही के कारण

समुद्री और पहाड़ी क्षेत्रों पर तबाही के कई कारण समान हैं, तो कई कारण अलग-अलग हैं। अगर समान कारणों की बात करें, तो इनमें जलवायु परिवर्तन, ऊष्णता का बढऩा, ओजोन परत का कमज़ोर होना, जंगलों का कम होना और समुद्री जल स्तर का बढऩा है। वहीं अगर पहाड़ी क्षेत्रों की बात करें, तो वहाँ नित नये निर्माण, विकास की योजनाएँ, सडक़ों का चौड़ीकरण, रेल और सडक़ों के लिए सुरंगें बनना, जंगलों के क्षेत्रफल में कमी, जनसंख्या घनत्व, हिमालय पर बढ़ता कचरा, ग्लेशियर पहाड़ों का पिघलना आदि कई कारण हैं। वहीं समुद्री क्षेत्रों में तबाही के मुख्य कारण समुद्रों में बढ़ रही गन्दगी, गर्मी, बढ़ता जलस्तर, समुद्र किनारे बढ़ता अतिक्रमण, घटते पेड़ आदि हैं।

बचाव के उपाय

प्रकृति है, तो तबाही भी होगी। लेकिन सवाल यह है कि क्या इन तबाहियों से निजात पायी जा सकती है? इस सवाल का जवाब ढूँढने के लिए दुनिया भर के हर क्षेत्र के वैज्ञानिक और विद्वान सदियों से हर सम्भव कोशिश कर रहे हैं; लेकिन यह मुमकिन नहीं हो सका है कि इंसानों के साथ-साथ दूसरे सभी प्राणियों की सुरक्षा करने के पुख़्ता इंतज़ाम हो सकें। वजह, यह सम्भव ही नहीं है। लेकिन यह सच है कि इंसान इन तबाहियों को कम कर सकता है। क्योंकि तबाहियों को बढ़ाने में उसकी ही अहम भूमिका है। कई बार वैज्ञानिक चेतावनी दे चुके हैं कि इंसान और दूसरे प्राणी तभी बचेंगे, जब पृथ्वी बचेगी और पृथ्वी तब बचेगी, जब वातावरण सन्तुलित रह सकेगा। इसके लिए वन क्षेत्र को बढ़ाना होगा, प्रदूषण फैलाने वाले यंत्रों, उद्योगों और चीज़ें को प्रतिबन्धित करना होगा और विकास की होड़ से पीछे हटते हुए आदिवासियों की तरह प्रकृति की गोद में जीवन जीने की प्रक्रिया को अपनाना होगा। अन्यथा तबाहियाँ बढ़ती रहेंगी और जब-तब कीड़े-मकोड़ों की तरह इंसान भी मरते रहेंगे।

पंजाब में कैप्टन बनाम कांग्रेस

अब अमरिंदर सिंह पर कांग्रेस नेता कर रहे थे निजी हमले, सोनिया गाँधी ने रोका

पंजाब में अब कांग्रेस और अभी भी पार्टी में शामिल पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हो चुके हैं। अमरिंदर अपने मीडिया सलाहकार के ट्वीट के ज़रिये भविष्य में अपनी ही राजनीतिक पार्टी बनाने और आगे चलकर टीम कृषि क़ानूनों पर सम्मानजनक समझौते की सूरत में विधानसभा चुनाव में भाजपा के कन्धे से कन्धा मिलकर चलने की घोषणा कर चुके हैं। खुले रूप से भाजपा के साथ क़दमताल करने की उनकी घोषणा के बाद अब कांग्रेस के नेता उन पर हमलावर हो चुके हैं और विवादित पाकिस्तानी पत्रकार अरूसा आलम से उनके रिश्तों को लेकर जाँच तक की बात हो रही है।

क़रीब 80 साल के अमरिंदर सिंह की कांग्रेस से नाराज़गी उनके घोर प्रतिद्वंद्वी नवजोत सिंह सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनने से शुरू हुई थी, जो अब तल्ख़ियों में बदल चुकी है। लेकिन कैप्टन के ख़िलाफ़ अब पंजाब कांग्रेस के दूसरे नेता भी आ गये हैं। कैप्टन ने सिद्धू को पाकिस्तान परस्त बताकर एक तरह से देश के लिए ख़तरा बताया था। हालाँकि अब पंजाब सरकार में गृह मंत्री और उप मुख्यमंत्री सुखजिंदर रंधावा ने अरूसा आलम के आईएसआई के साथ कथित सम्बन्धों की जाँच की ज़रूरत पर ज़ोर दिया।

इसके बाद सिद्धू के नज़दीकी समझे जाने वाले उनके पूर्व मुख्य रणनीतिक सलाहकार मोहम्मद मुस्तफ़ा ने अपने ट्वीटर अकाउंट पर पूर्व डीजीपी दिनकर गुप्ता और पूर्व मुख्य सचिव विनी महाजन के साथ अरूसा आलम की एक तस्वीर साझा कर दी। हालाँकि पूर्व मुख्यमंत्री के राजनीतिक सचिव मेजर अमरदीप सिंह ने रंधावा को इलाक़े (बेल्ट) से नीचे नहीं उतरने की सलाह दी। इस विवाद के बीच कैप्टन अमरिंदर सिंह के मीडिया सलाहकार रवीन ठुकराल ने अरूसा की कुछ तस्वीरें जारी कीं, जिसमें वह पंजाब के पूर्व डीजीपी मोहम्मद मुस्तफ़ा की पत्नी और बहू के साथ नज़र आ रही हैं।

मामला तब और गरम हो गया, जब पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिद्धू की पूर्व मंत्री पत्नी नवजोत कौर ने अमरिंदर सिंह पर सीधा हमला बोल दिया। उन्होंने कहा- ‘कैप्टन के मुख्यमंत्री रहते पंजाब में कोई तैनाती (पोस्टिंग) बिना तोहफ़े और पैसे के नहीं होती थी। यह सब अरूसा आलम को दिया जाता था। उस वक़्त अरूसा पंजाब में मुख्यमंत्री नहीं, बल्कि उत्कृष्ट मुख्यमंत्री की तरह काम कर रही थीं। अमरिंदर सिंह को सलाह है कि अरूसा पंजाब का पैसा लेकर इंग्लैंड और दुबई चली गयी। वह भी वहाँ जाकर ऐश करें। ऐसा न हो कि अरूसा सारा पैसा उड़ा दे।’

नवजोत कौर सिद्धू का अमरिंदर पर यह पहला हमला नहीं है। इससे पहले अमरिंदर ने उनके पति को जब चुनाव न जीतने देने वाला बयान दिया था, तब भी कौर ने अमरिंदर को अमृतसर ईस्ट में सिद्धू के ख़िलाफ़ चुनाव लडऩे की चुनौती दे डाली थी। उन्होंने तब कहा था कि उसके बाद अमरिंदर को पता चल जाएगा कि कौन अधिक लोकप्रिय है। वैसे अमरिंदर ने बी उन पर हमला करने वालों पर हमला किया। हालाँकि सोनिया गाँधी ने अमरिंदर पर हमला करने वालों को रोक दिया कि वे ऐसा न करें।

याद रहे जिन अरूसा आलम के नाम पर पंजाब में राजनीति तेज़ है वह अरूसा पाकिस्तान से हैं और रक्षा पत्रकार (डिफेंस जर्नलिस्ट) हैं। दावा किया जाता रहा है कि कैप्टन से अरूसा की पहली मुलाक़ात सन् 2004 में पाकिस्तान दौरे के दौरान हुई थी और उसके बाद अरूसा कई बार भारत आयीं। उन्हें पिछले एक दशक से भी ज़यादा समय से अमरिंदर सिंह का क़रीबी माना जाता है।

बता दें कुछ मीडिया रिपोट्र्स में दावा किया जाता रहा है कि अरूसा आलम एक बार जब पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हामिद के साथ कथित तौर पर आपत्तिजनक स्थिति में थीं, तो उनकी पत्नी ने वहाँ पहुँचकर ख़ासा हंगामा कर दिया था।

कैप्टन और भाजपा

अमरिंदर सिंह तकनीकी रूप से भले अभी कांग्रेस में हैं; लेकिन वह ख़ुद एक ट्वीट में नयी पार्टी बनाने की घोषणा कर चुके हैं। उन्होंने इस ट्वीट में जो दिलचस्प बात यह कही कि कृषि क़ानूनों पर कोई सही फ़ैसला होने पर वह भाजपा का साथ दे सकते हैं। यहाँ सवाल यही है कि अपने एक साल के आन्दोलन में क़रीब 800 साथियों की शहादत देख चुके किसान क्या तीनों क़ानूनों को वापस लेने से कम पर मानेंगे? और क्या सिर्फ़ अमरिंदर सिंह को अपने बेड़े में बैठाने के लिए भाजपा तीन कृषि क़ानूनों की बलि देने की हिम्मत जुटा पाएगी।

किसान नेताओं से बातचीत में यही समझ आता है कि वे आने वाले विधानसभा चुनावों में किसी भी सूरत में भाजपा को सबक़ सिखाएँगे। और यदि अमरिंदर सिंह भाजपा के साथ गये, तो किसानों की नाराज़गी उन्हें भी भारी पड़ सकती है। पंजाब में कम-से-कम आज की तारीक़ में तो लोगों में भाजपा के प्रति बहुत तलख़ी है। पंजाब में विधानसभा चुनाव को अब ज़यादा समय नहीं बचा है।

यहाँ बड़ा सवाल यही है कि अपनी पार्टी बनाते हुए अमरिंदर कांग्रेस के कितने विधायकों को तोडक़र अपने साथ ले जाएँगे? अभी तक यह तो नहीं लगता कि कैप्टन कांग्रेस सरकार गिराने की स्थिति में हैं। एक मोटे अनुमान के मुताबिक, 7 से 9 विधायक या मंत्री ही ज़यादा-से-ज़यादा अमरिंदर सिंह के साथ कांग्रेस से जा सकते हैं। लेकिन जिस तरह कांग्रेस ने चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने वाला कार्ड खेला है, उससे पार्टी को उम्मीद है कि जनता उसे सत्ता में वापस लाएगी। सिद्धू के रहते कांग्रेस और ताक़तवर हो जाती है। अमरिंदर के पास निश्चित ही इस स्तर के नेता नहीं जुट पाएँगे।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि अमरिंदर सिंह कांग्रेस को नुक़सान पहुँचाने की क्षमता रखते हैं। लेकिन बहुत कुछ किसानों के रूख़ पर निर्भर करेगा। किसान यदि भाजपा से नाराज़ रहते हैं, तो भाजपा के साथ-साथ अमरिंदर सिंह भी डूबेंगे। वैसे चर्चा है कि कैप्टन दीवाली के आसपास नयी पार्टी की घोषणा कर सकते हैं। कैप्टन के साथ कुछ पूर्व मंत्री और विधायकों के अलावा कुछ पार्टी नेता भी उनके साथ जा सकते हैं। मनीष तिवारी जैसे कांग्रेस में उपेक्षित नेता कैप्टन का हाथ थाम लें, तो हैरानी नहीं होगी। ख़ुद कैप्टन की पत्नी परनीत कौर सांसद हैं। हालाँकि बहुत कुछ एक-दो महीने बाद के राजनीतिक माहौल पर निर्भर करेगा। अकाली दल भी किसान आन्दोलन का सन्ताप झेल रहा है। हालाँकि अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) पंजाब में इस बार बहुत ज़यादा चर्चा में नहीं दिख रही। भाजपा को लेकर कहा जा रहा है कि वह पुराने साथी अकाली दल के साथ अन्दरखाने अभी भी नरम हैं; भले उसने किसान क़ानूनों पर ही उसका साथ छोड़ा था। कृषि क़ानून वापस लेने की स्थिति में अकाली दल का प्रेम फिर भाजपा पर उमड़ सकता है। अकाली दल का रूख़ आने वाले हफ़्तों में साफ़ होगा।

पिछले विधानसभा चुनावों का रुझान देखें, तो पता चलता है कि सवर्ण हिन्दू मतदाता भाजपा-अकाली गठबन्धन को मतदान करते रहे हैं। हालाँकि पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी की जगह हिन्दू वोटर कांग्रेस के साथ गया था। यही कारण है कि कैप्टन पाकिस्तान के ख़िलाफ़ बोलकर अपनी राष्ट्रवादी नेता की छवि गढऩा चाहते हैं। भाजपा को कैप्टन से चमत्कार की उम्मीद है। पंजाब में क़रीब 39 फ़ीसदी हिन्दू मतदाता है। हालाँकि इनमें भी काफ़ी किसान हैं।

भाजपा का गणित यह है कि हिन्दू मतदाता यदि कैप्टन का साथ देता है, तो शहरों में कांग्रेस को नुक़सान पहुँच सकता है। प्रदेश में क़रीब 45 शहरी सीटें ऐसी हैं, जो हिन्दू बहुसंख्यक हैं। सवर्ण सिख मत कांग्रेस, आप और अकाली दल में बँटेगा, लिहाज़ा दलित सिख मतदाता की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण हो जाएगी। दलित चरणजीत सिंह चन्नी को मुख्यमंत्री बनाने वाली कांग्रेस इससे बाक़ी जगह के नुक़सान की भरपाई कर सकती है। ख़ुद प्रदेश अध्यक्ष सिद्धू हिन्दुओं में लोकप्रियता रखते हैं।

कांग्रेस की लड़ाई

सब कुछ अच्छा होने के बाद भी पंजाब कांग्रेस में पिछले तीन महीने में कई बार सब कुछ ख़राब होने जैसे स्थिति बनी है। नवजोत सिंह सिद्धू अपने ही मुख्यमंत्री से भिड़े हुए हैं। आलाकमान को वह अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। सीडब्ल्यूसी में अध्यक्ष सोनिया गाँधी की साफ़ हिदायत कि अपनी बात कहने के लिए उनसे सीधे बात की जानी चाहिए, न कि मीडिया के ज़रिये। सिद्धू ने अगले ही दिन सोनिया गाँधी को लिखे अपने पत्र की कॉपी ट्वीटर पर सार्वजनिक कर दी। सिद्धू भले अच्छे मुद्दे उठा रहे हों, वह यह नहीं समझ रहे कि वह पार्टी आलाकमान के सब्र का भी इम्तिहान ले रहे हैं। उनके इस व्यवहार के कारण भाजपा को कांग्रेस पर लगातार हमले करने का अवसर मिल रहा है। पंजाब में उनके व्यवहार से जनता में यह सन्देश भी जा रहा है कि वह मुख्यमंत्री से ख़ुश नहीं हैं और उन्हें अपने हिसाब से चलाना चाहते हैं। निश्चित ही यह ग़लत है। कांग्रेस नेताओं का कहना है कि सिद्धू को पार्टी संगठन पर ध्यान देना चाहिए। चुनाव पास होने के बावजूद संगठन के पर उनकी सक्रियता शून्य दिखा रही है। सांसद मनीष तिवारी अपना राग अलाप रहे हैं। पूर्व अध्यक्ष जाखड़ फ़िलहाल ख़ामोश हैं। निश्चित ही प्रदेश कांग्रेस के नये प्रभारी हरीश चौधरी के सामने चीज़ों को पटरी पर लाने की निश्चित ही बड़ी चुनौती सामने है।

 

“जल्द ही अपनी ख़ुद की राजनीतिक पार्टी के गठन की घोषणा करूँगा। अगर किसान आन्दोलन का समाधान उनके हित में हो जाता है, तो पंजाब में भाजपा के साथ गठजोड़ कर सकते हैं। अकाली दल से अलग हुए नेताओं सहित समान विचारधारा वाली पार्टियों के साथ गठबन्धन का विचार है। पंजाब में अगली सरकार हमारे सहयोग के बिना नहीं बन सकेगी।”

कैप्टन अमरिंदर सिंह

पूर्व मुख्यमंत्री, पंजाब

 

“अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्री रहते कोई पोस्टिंग बिना अटैची और अरूसा को तोहफ़े दिये बग़ैर नहीं हुई। उस दौरान बड़े पुलिस अफ़सरों की तैनाती (पोस्टिंग) अरूसा करती थी; जबकि जूनियर की कैप्टन के सलाहकार भरतइंदर सिंह चहल करते थे। अब यह ओपन सीक्रेट है। कैप्टन अरूसा के पीछे जाएँ। कहीं ऐसा न हो कि वह पैसा लेकर ग़ायब हो जाएँ।”

नवजोत कौर सिद्धू

पीसीसी प्रमुख की पत्नी