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मुद्दों पर मतदान

हाल के उपचुनाव नतीजे भाजपा के लिए बड़ा सबक़ हैं

दीपावली से पहले 13 राज्यों में फैले विधानसभा उपचुनाव के नतीजों ने भाजपा नेताओं की पेशानी पर बल डाल दिये हैं। नतीजों के संकेत साफ़ हैं। देश में कोरोना की दूसरी लहर में ऑक्सीजन की भयंकर कमी से हज़ारों लोगों की मौत, आम आदमी की पीठ पर मुसीबतों का बोझ लाद चुकी महँगाई, पेट्रोल-डीजल के हद से आगे निकल चुके दाम और किसानों की समस्यायों का हल न होना जनता को त्रस्त कर रहा है और मत (वोट) के ज़रिये वह इसका सन्देश दे रही है। नतीजों से जो दूसरा संकेत मिलता है वह यह है कि कांग्रेस धीरे-धीरे खोई ज़मीन हासिल कर रही है और भाजपा का कांग्रेस मुक्त भारत का सपना फलीभूत नहीं हुआ है। भविष्य में कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले इन नतीजों ने भाजपा ख़ेमे में चिन्ता भर दी है। क्योंकि जनता ने मुद्दों पर मतदान किया है और भाजपा इन मुद्दों के प्रति बेपरवाह दिखती है।

कमोबेश पूरे देश में हुए इन उपचुनावों के नतीजों से भविष्य की राजनीतिक स्थिति की जो ज़मीनी तस्वीर उभरती है, भाजपा शिविर में उससे निश्चित ही चिन्ता पसरी है; क्योंकि इन नतीजों का जनता में भाजपा के प्रति इसका नकारात्मक सन्देश गया है, जिसका असर उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों के 2022 के विधानसभा चुनावों पर पड़ेगा। भाजपा के लिए बड़ी चिन्ता की बात यह है कि इन नतीजों से यह कहीं नहीं लगता कि उसकी सबसे प्रमुख प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस ख़त्म हो रही है, जो उसके कांग्रेस मुक्त भारत के नारे को चिढ़ाती दिखती है। हिमाचल जैसे भाजपा शासित राज्य में तो भाजपा को चार (एक लोकसभा सीट सहित) सीटों में से एक भी सीट नहीं मिली है।

पंजाब, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के किसान पिछले 11 महीने से तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन कर रहे हैं। सरकार बेपरवाह है। तीन महीने से पेट्रोल-डीजल के दाम से जनता में हाहाकार था। सरकार ने उसमें मामूली-सी राहत देकर ऐसा ज़ाहिर किया मानों कोई बड़ा नज़राना जनता को दे दिया हो। अब जो जनता सरकार की इस ज़्यादती का सामना कर रही है, उसे आप झूठ का लॉलीपॉप थमाने लगो, तो यह उसके गले कहाँ उतरेगा। नतीजों से यह भी ज़ाहिर होता है कि सरकार की मुद्दों के प्रति असंवेदनशीलता जनता को रास नहीं आ रही। उदहारण के तौर पर किसान आन्दोलन इतने महीनों से चल रहा है। देश की आबादी का बड़ा हिस्सा खेत-खलिहान से जुड़ा हुआ है। ऐसे में उसे सरकार की किसानों के प्रति उपेक्षा समझ नहीं आ रही। देश में आज भी किसान और सैनिक दो ऐसे वर्ग हैं, जिनके प्रति आम जनता में सम्मान की भावना रहती है। लेकिन सरकार इसे समझ नहीं पा रही। जनता इसका अर्थ मान रही है कि केंद्र सरकार अहंकारी हो गयी है।

अगले साल के पहले हिस्से में उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, पंजाब, गोवा और मणिपुर के विधानसभा चुनाव हैं। यह चुनाव जितनी बड़ी चुनौती विपक्ष के लिए हैं, उतनी ही बड़ी चुनौती भाजपा के लिए भी हैं, जिसे तीन राज्यों उत्तर प्रदेश, गोआ और उत्तराखण्ड में अपनी सत्ता बचानी है। पंजाब में उसका कोई नामलेवा है नहीं और मणिपुर में उसका संघर्ष चल रहा है, जहाँ स्थानीय मुद्दे जनता में हमेशा राष्ट्रीय मुद्दों से कहीं ज़्यादा महत्त्व रखते हैं। इन पाँच राज्यों में पंजाब, उत्तराखण्ड, गोआ, मणिपुर में कांग्रेस का ख़ासा असर है; जबकि उत्तर प्रदेश में वह अपने आधार का विस्तार कर रही है, जिसका पता चुनाव के पास ही चलेगा। इस तरह देखा जाए, तो भाजपा को कांग्रेस से मिलने वाली चुनौती एक बार कम होकर फिर बढऩे लगी है।

इन उपचुनावों में भाजपा को कई बड़े झटके लगे हैं। इन एक पहाड़ी राज्य हिमाचल भी है, जहाँ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी एक समय भाजपा प्रभारी रह चुके हैं। वहाँ लोकसभा की एक सीट के अलावा तीन विधानसभा सीटों के लिए भी उपचुनाव था। भाजपा सत्ता में होते हुए भी सभी चार सीटें हार गयी। भाजपा के लिए यह बड़ा झटका इसलिए भी है, क्योंकि जिस मंडी लोकसभा सीट पर भाजपा पूर्व मुख्यमंत्री दिवंगत वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह से हारीं, यह सीट भाजपा के पास थी और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के गृह ज़िले में पड़ती है। इससे जयराम की जनता पर पकड़ को लेकर भाजपा के बीच ही सवाल उठने लगे हैं।

जयराम की छवि को इससे धक्का लगा है; क्योंकि इससे यह संकेत गया है कि वह पार्टी को चुनाव नहीं जिता सकते। हिमाचल वैसे भी ऐसा राज्य हैं, जहाँ हर चुनाव के बाद सत्ता बदल देने का चलन जनता में रहा है। हाल के वर्षों में प्रधानमंत्री मोदी की छवि के बूते भाजपा चुनावों में अपनी जीत की ज़मानत (गारंटी) मानती रही है। अब यह चलन टूट गया है। इन उपचुनावों के प्रचार में मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का ऐसा कोई भाषण नहीं था, जिसमें उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी और केंद्र सरकार की उपलब्धियों का बखान न किया हो। दिलचस्प यह है कि उप चुनाव में पार्टी की शर्मनाक हार के बाद जयराम ने महँगाई को ज़िम्मेदार बताया। क्या यह माना जाए कि मोदी सरकार की महँगाई रोकने में नाकामी पर यह उनकी ही पार्टी के मुख्यमंत्री की एक अति गम्भीर टिप्पणी है?

नतीजे देखें तो भाजपा तीन लोकसभा सीटों में से दो पर हार गयी। मध्य प्रदेश में ज़रूर उसे एक लोकसभा और दो विधानसभा सीटों पर जीत मिली, जिसे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के समर्थकों ने मुख्यमंत्री की छवि की जीत कहकर ज़्यादा प्रचारित किया। हालाँकि यह आम राय है कि कांग्रेस की सरकार तोडक़र अपनी सरकार बनाने वाले शिवराज सिंह धीरे-धीरे पकड़ खो रहे हैं और अगले विधानसभा चुनाव में उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा।

उधर पश्चिम बंगाल में सभी सीटों पर भाजपा को पटखनी देकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने साबित कर दिया कि राज्य में भाजपा के पास उन्हें टक्कर दे सकने ही हैसियत वाला एक भी नेता नहीं है। पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनावों में भाजपा की करारी हार के बद उपचुनावों में भी यही संकेत गया है कि भाजपा आलाकमान जिन सुवेंदु अधिकारी पर बहुत ज़्यादा उम्मीद लगाये बैठी थी, जो असल में उतने असर रखने वालेनेता हैं नहीं। तृणमूल कांग्रेस ने चारों सीट जीत लीं।

असम की ज़रूर भाजपा ने पाँच सीटों में उन तीन पर जीत हासिल की जहाँ उसने अपने उम्मीदवार उतारे थे। मुख्यमंत्री हिमंता विश्व सरमा को इसका श्रेय दिया जा सकता है, जिन्होंने असम में अपनी अलग छवि बनायी है।

राजस्थान की बात करें, तो वहाँ मुख्यमंत्री गहलोत ने ज़मीनी पकड़ बनाकर रखी है। राजस्थान में दी सीटों पर ही कांग्रेस जीती, जिनमें वल्लभनगर और भाजपा के मज़बूत प्रभाव वाली धरियावद सीट शामिल हैं। हालाँकि राज्य में गहलोत और युवा नेता सचिन पायलट के बीच अभी तनातनी जारी है।

दक्षिणी के राज्य कर्नाटक में भी भाजपा सत्ता में है। येदियुरप्पा को हटाकर भाजपा ने बीएस बोम्मई को हाल में मुख्यमंत्री बनाया था; लेकिन पार्टी दो में से एक सीट पर हार गयी। एक सीट पर कांग्रेस जीती। हंगल सीट पर भाजपा की हार से उसे झटका लगा है, क्योंकि यह सीट नये मुख्यमंत्री बोम्मई के गृह ज़िले हावेरी का हिस्सा है।

पूरे नतीजे देखें, तो 13 राज्यों की 29 विधानसभा सीटों के उपचुनाव में से भाजपा वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन (एनडीए) को 15 सीटें मिलीं, जबकि कांग्रेस ने आठ सीटें जीतें जीतीं। ज़ाहिर है कांग्रेस भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बनी हुई है। टीएमसी के खाते में चार सीटें गयीं, जबकि आंध्र प्रदेश की एक सीट पर वाईएसआरसीपी और हरियाणा की एक सीट पर इनेलो ने विजय पायी। तीन लोकसभा सीटों में दादरा और नगर हवेली सीट शिवसेना, हिमाचल प्रदेश की मंडी सीट कांग्रेस और मध्य प्रदेश की खंडवा सीट भाजपा की झोली में गयी। नतीजों को देखकर लगता है कि भाजपा को आने वाले चुनावों में आसानी से सत्ता नहीं मिलेगी या उसे कुछ जगह सत्ता खोनी पड़ सकती है।

 

“भाजपा लोकसभा उपचुनावों में तीन में से दो लोकसभा सीटें हारी है। विधानसभा चुनावों में भी कांग्रेस-भाजपा की जहाँ सीधी टक्कर थी, वहाँ भाजपा ज़्यादातर जगहों पर हारी है। हिमाचल, राजस्थान, कर्नाटक और महाराष्ट्र इसके सुबूत हैं।”

रणदीप सुरजेवाला

कांग्रेस प्रवक्ता

 

भाजपा में योगी का बढ़ता क़द

उपचुनावों के नतीजों से भाजपा ख़ेमे में बेचैनी को यह इस बात से समझा सकता है कि उसने उत्तर प्रदेश से लेकर दूसरे सभी राज्यों में रणनीति को लेकर अभी बैठकों का दौर शुरू कर दिया है। पार्टी के लिए उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव बहुत ज़्यादा मायने रखता है। भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की अक्टूबर के पहले हफ़्ते बैठक हुई। इस बैठक का मक़सद पार्टी की चुनावी तैयारियों की रणनीति बनाना था। लेकिन काफ़ी आश्चर्यचकित बात यह हुई कि बैठक में कुछ नेता दिल्ली में साथ बैठे; लेकिन बाक़ी ने आभासी रूप से (वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये) बैठक में शामिल हुए। बैठक का एजेंडा पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव ही था। सबसे दिलचस्प बात यह हुई कि बैठक में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ बैठक दिल्ली में मौज़ूद रहे, जबकि पार्टी के अन्य मुख्यमंत्रियों को आभासी रूप से जोड़ा गया। निश्चित ही यह भाजपा में योगी के बढ़ते क़द की तरफ इशारा करता है।

सिद्धू-चन्नी का शीतयुद्ध ख़त्म

पंजाब में चरणजीत सिंह चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद नियुक्तियों को लेकर हो रही थी खींचतान, दोनों के रिश्ते पटरी पर आने से आलाकमान को हुई तसल्ली

विधानसभा चुनाव से पहले पंजाब की राजनीति दिलचस्प मोड़ ले रही है। माँगें माने जाने के बाद पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू ने अपने पद पर दोबारा काम करना शुरू कर दिया दिया है, जिससे आलाकमान की जान-में-जान आ गयी है। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी पहले ही अपने मंत्रिमंडल के ज़रिये लोगों को रियायतें देने की कई घोषणाएँ कर चुके हैं।

इस तरह पंजाब में आख़िर सत्तारूढ़ दल के दोनों बड़े नेताओं- मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच क़रीब दो महीने से चल रहा शीतयुद्ध ख़त्म हो गया है। कांग्रेस अब मान कर चल रही है कि चन्नी और सिद्धू की जोड़ी मिलकर राजनीतिक रूप से पंजाब में कांग्रेस को दोबारा सत्ता में ले आएगी। पार्टी को यह भी महसूस हो रहा है कि बतौर मुख्यमंत्री दो महीने के कम समय में भी जनहित में काम करके चन्नी अपनी अलग छवि बनाने में सफल दिख रहे हैं।

चन्नी-सिद्धू के बीच जंग ख़त्म होने से कांग्रेस को लग रहा है कि सिद्धू के प्रदेश अध्यक्ष के रूप से अब काम सँभाल लेने से अब संगठन की सक्रियता में तेज़ी आएगी; जबकि चन्नी सरकार पहले से ही सक्रिय है। अब तक चन्नी सरकार ने कई बड़े फ़ैसले लिये हैं। कांग्रेस महसूस कर रही है कि चुनाव से पहले दोनों में तनाव ख़त्म होना पार्टी के लिए सुकून वाली ख़बर है।

चन्नी सरकार बनने के बाद हुए कुछ फ़ैसलों से सिद्धू नाराज़ थे। इसका कारण यह था कि जो वादे पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने किये थे, उनमें से कई पर कैप्टन अमरिंदर सिंह सरकार के समय में अमल नहीं हुआ। कुछ ऐसे फ़ैसले या नियुक्तियाँ भी थीं, जिनसे सिद्धू इसलिए असहमत थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि इससे जनता में ग़लत संकेत जाएगा।

यहाँ यह बताना भी ज़रूरी है कि बतौर मुख्यमंत्री चन्नी ने अपने फ़ैसलों पर दृढ़ता दिखायी और कभी नहीं लगा कि वे किसी के दबाव में काम कर रहे हैं। इसकी उनकी छवि एक प्रशासक के रूप में भी मज़बूत बनी है। भले डीजीपी के बाद अब अधिवक्ता जनरल एपीएस देओल का इस्तीफ़ा मंज़ूर कर लिया गया है; पर इसे पार्टी हित में किया फ़ैसला माना जा सकता है, न कि किसी दबाव में। हालाँकि इन फ़ैसलों से यह अवश्य ज़ाहिर हुआ है कि चन्नी के राहुल गाँधी के काफ़ी क़रीब होने के बावजूद सिद्धू भी दोनों युवा गाँधी नेताओं के क़रीब हैं और उनकी बात सुनी जाती है। चन्नी और सिद्धू विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद के सबसे बड़े दावेदार हैं। सिद्धू को लेकर तो पंजाब कांग्रेस के पिछले प्रभारी हरीश रावत ने चन्नी के मुख्यमंत्री बनने के बाद यह तक कह दिया था कि उनके नेतृत्व में ही कांग्रेस अगला चुनाव लड़ेगी। हालाँकि यह भी सच है कि चन्नी पिछले क़रीब दो महीने में अपनी अलग छवि गढऩे में सफल रहे हैं, जिससे उनका राजनीतिक कौशल झलकता है।

तनातनी के दो बड़े मुद्दों- एडवोकेट जनरल और डीजीपी की नियुक्तियाँ तनाव का बड़ा कारण बनी हुई थीं। डीजीपी के पद पर इकबाल प्रीत सिंह सहोता को हटाने की सिद्धू की माँग को स्वीकार करते हुए चन्नी ने पहले ही यूपीएससी से पैनल मिलते ही नये डीजीपी की नियुक्ति की बात कह दी थी। इस तरह ये मसले अब हल हो गये हैं। मुख्यमंत्री चन्नी और सिद्धू के बीच लगातार दो सुलह बैठकों के सकारात्मक नतीजे सामने आये; मुख्यमंत्री चन्नी ने बताया कि अटॉर्नी जनरल देओल का इस्तीफ़ा मंज़ूर कर लिया गया है, पंजाब पुलिस के नये डीजीपी की नियुक्ति भी यूपीएससी पैनल के मिलते ही हो जाएगी।

नरम हुए सिद्धू

पंजाब विधानसभा में तीन कृषि क़ानूनों के खिलाफ प्रस्ताव पास करने को लेकर काफ़ी हंगामा हुआ। इस दौरान पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह को लेकर नवजोत सिंह सिद्धू के सुर बदले हुए नज़र आये। सिद्धू ने तीन कृषि क़ानूनों के लिए अकाली दल को ज़िम्मेदार ठहराया। साथ ही सिद्धू का कहना था कि कैप्टन अमरिंदर सिंह ने किसानों के लिए अच्छा काम किया।

सदन की कार्रवाई के दौरान सिद्धू ने अकाली दल पर जमकर हमला बोला। पंजाब विधानसभा में सन् 2013 के कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग एक्ट के ख़िलाफ़ भी नया क़ानून लाया गया है। सिद्धू ने कहा- ‘तीन कृषि क़ानूनों को लाने के लिए अकाली दल ज़िम्मेदार है। अकाली सरकार सन् 2013 में कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग को लेकर क़ानून लायी। भाजपा की केंद्र में सरकार भी वैसा ही क़ानून लायी है।’

सिद्धू ने इस दौरान दावा किया कि कांग्रेस किसानों के लिए काम करती है। मनमोहन सरकार ने किसानों का 72,000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ किया। कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पंजाब का मुख्यमंत्री रहते हुए किसानों का क़र्ज़ माफ़ किया। अमरिंदर सिंह ने कई अच्छे काम भी किये। पंजाब में पानी को लेकर क़ानून लाया गया।

यह पहला मौक़ा था, जब सिद्धू इस तरह से कैप्टन अमरिंदर सिंह की तारीफ़ करते नज़र आये। इससे पहले सिद्धू ने अमरिंदर सिंह पर बेअदबी के मामले में कार्रवाई नहीं करने के आरोप लगाये थे और भाजपा के साथ मिले होने के आरोप भी लगा दिये थे। सिद्धू के साथ तकरार के चलते ही अमरिंदर सिंह को सितंबर में मुख्यमंत्री की कुर्सी गँवानी पड़ी।

हालाँकि नवजोत सिंह सिद्धू और कैप्टन अमरिंदर सिंह के रास्ते अब अलग हो चुके हैं। सिद्धू के पास पंजाब कांग्रेस की कमान है, जबकि अमरिंदर सिंह ने अलग पार्टी बनाकर 2022 का पंजाब विधानसभा चुनाव लडऩे का ऐलान किया है। लिहाज़ा देखना दिलचस्प होगा कि आने वाले दिनों में सूबे की राजनीति क्या रंग लाती है?

आलाकमान सक्रिय

पंजाब के विधानसभा चुनाव और चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव को देखते हुए कांग्रेस पार्टी ने संगठन में भी बदलाव किये हैं। कांग्रेस ने हर्षवर्धन सपकल और चेतन चौहान को राष्ट्रीय सचिव नियुक्त करते हुए दोनों को पार्टी का पंजाब मामलों का सह-प्रभारी बनाया है। ये दोनों नेता पार्टी के पंजाब और चंडीगढ़ मामलों के प्रभारी हरीश चौधरी के साथ मिलकर काम करेंगे। लेकिन सपकल और चौहान को पंजाब में बड़ी चुनौती का सामना करना पड़ सकता है। पार्टी के संगठन महासचिव के.सी. वेणुगोपाल ने बताया कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने सपकल और चौहान को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी का राष्ट्रीय सचिव नियुक्त किया है।

सपकल अब तक कांग्रेस के राजीव गाँधी पंचायती राज संगठन में उपाध्यक्ष की भूमिका निभा रहे थे, जबकि चौहान भारतीय युवा कांग्रेस के महासचिव रह चुके हैं। कांग्रेस ने पिछले दिनों राजस्थान सरकार में मंत्री हरीश चौधरी को पंजाब का प्रभारी नियुक्त किया था।

बता दें कि पंजाब कांग्रेस में पिछले कई महीनों से जंग छिड़ी हुई थी। नवजोत सिंह सिद्धू को पार्टी अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से पार्टी की आपसी फूट खुलकर सामने आयी। अमरिंदर सिंह के अलावा कुछ नेता केंद्रीय नेतृत्व से अब भी नाराज़ हैं। कुछ नियुक्तियों को लेकर सिद्धू भी कांग्रेस की राज्य सरकार पर हमले कर रहे थे।

दलबदल शुरू

पंजाब विधानसभा चुनाव से ठीक पहले आम आदमी पार्टी (आप) को बड़ा झटका लगा है। बठिंडा ग्रामीण से विधायक रूपिंदर कौर रूबी ने पार्टी की सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया है। इसकी जानकारी उन्होंने पार्टी के राष्ट्रीय संयोजक एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और पार्टी प्रदेश अध्यक्ष भगवंत मान को दे दी है।

राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान को लिखे पत्र में उन्होंने एक लाइन में लिखा- ‘मैं आम आदमी पार्टी की सदस्यता से तत्काल प्रभाव से इस्तीफ़ा दे रही हूँ। कृपया मेरा इस्तीफ़ा स्वीकार करें।’ – रूपिंदर कौर रूबी, विधायक, बठिंडा ग्रामीण।

गुरदासपुर में कांग्रेस को बड़ा झटका लगा। एसएसएस बोर्ड (पंजाब) के चेयरमैन के पद से इस्तीफ़ा देने के बाद रमन बहल आदमी पार्टी में शामिल हो गये। उन्हें आम आदमी पार्टी के पंजाब प्रधान भगवंत मान और प्रवक्ता राघव चड्डा ने पार्टी में शामिल करवाया। रमन बहल के आम आदमी पार्टी में शामिल होने से अब गुरदासपुर में राजनीति के समीकरण बदलने की सम्भावना है।

उम्मीद जतायी जा रही है कि आम आदमी पार्टी बहल को टिकट भी दे सकती है। आम आदमी पार्टी में शामिल होने के बाद रमन बहल ने कहा कि कांग्रेस जिस लड़ाई और सोच को लेकर चली थी, उससे भटक गयी है; यही वजह है कि उन्होंने आम आदमी पार्टी का साथ चुना है। अरविंद केजरीवाल मुद्दों की बात करते हैं। उन्होंने कहा कि हलके के लोग पिछले 15 साल से जिन मुश्किलों से गुज़र रहे हैं, उन्हें ख़त्म किया जाएगा।

अभी पंजाब में कुछ और नेताओं के दलबदल की प्रबल सम्भावना है। बता दें कि अगले साल उत्तर प्रदेश के साथ पंजाब में भी विधानसभा चुनाव होने हैं। वहाँ भाजपा की स्थिति बेहद ख़राब है। अकाली दल की भी स्थिति कुछ ठीक नहीं है। ऐसे में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी ही चुनावी मैदान में एक-दूसरे को चुनौती देती दिखेंगी। कांग्रेस का पलड़ा आज भी भारी है; लेकिन आम आदमी पार्टी से उसे टक्कर तो मिलेगी ही, जिससे उसे प्रदेश में इस बचे हुए कार्यकाल में जमकर काम करना पड़ेगा।

बिना माँग बढ़े ही डीएपी की क़िल्लत!

हाथरस की चंदपा सहकारी समिति के एक कर्मचारी द्वारा वहाँ के किसानों को डाई अमोनियम फॉस्फेट (डीएपी) न देने पर किसानों ने उसे बन्धक बना लिया। बाद में पुलिस ने सहकारी समिति के कर्मचारी को मुक्त कराकर डीएपी का वितरण कराया। हाथरस की दूसरी सहकारी समितियों और खाद की दुकानों पर भी किसानों को खाद न मिलने से पूरे ज़िले में जगह-जगह हंगामा हो रहा है। ज़िलाधिकारी रमेश रंजन ने स्थिति को भाँपते हुए कृषि विभाग के अधिकारियों से डीएपी और दूसरी उर्वरक खादों की दुकानों का निरीक्षण करवाकर किसानों को उनकी उपलब्धता सुनिश्चित की।

इसके अलावा इलाहाबाद के मानधाता में साधन सहकारी समिति से 2 नवंबर को लुटेरों ने चौकीदार को बन्धक बनाकर तमंचे की नोक पर 80 बोरी लूट लीं। चौकीदार ने बताया कि लुटेरे किसान नहीं थे। क्षेत्र के किसानों को वह पहचानता है। इससे पहले अक्टूबर में हरियाणा के नारनौल के मंडी अटेली में डीएपी के 100 कट्टे लूटने का मामला सामने आया था। डीएपी की इस लूट का वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें पुरुष ही नहीं महिलाएँ भी सिर पर कट्टे लेकर भागती दिखी। हालाँकि पुलिस ने दिनदिहाड़े हुई इस डीएपी लूट में आशंका जतायी थी कि किसानों में अराजक तत्त्व भी शामिल थे, जो शासन-प्रशासन की छवि बिगाडऩे के लिए ऐसे काम कर रहे हैं। हरियाणा के इसी शहर में खाद से भरा एक ट्रक लूटने का प्रयास भी भीड़ द्वारा किया गया। उत्तर प्रदेश के बस्ती से ऐसी भी ख़बरें सामने आयी हैं कि सहकारी समितियों में ताले लटक रहे हैं और उनके सचिव व अन्य कर्मचारी छुट्टी पर चले गये। जब इन गोदामों केताले खुलवाये गये, तो खाद की कोई कमी नहीं थी। किसानों को खाद न देने की आख़िर यह किसकी साज़िश होगी? कौन खाद की कालाबाज़ारी करना चाहता है?

इन घटनाओं से इस बात को समझा जा सकता है कि देश में डीएपी खाद की कितनी क़िल्लत है। भारत सरकार कह रही है कि डीएपी की आपूर्ति की जा रही है, मगर राज्य सरकारें और खाद वितरण केंद्र कुछ और ही कह रहे हैं। देश के कई ज़िलों में किसान डीएपी न मिलने को लेकर प्रदर्शन कर रहे हैं।

जबरन दिया जा रहा सल्फर

डीएपी की क़िल्लत के बाद किसानों को सल्फर ख़रीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। यह बात संयुक्त किसान मोर्चा और हरियाणा के किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर, केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक पत्र लिखकर कही है। चढ़ूनी ने इस पत्र में कहा है कि हरियाणा में किसानों को डीएपी और यूरिया के साथ सल्फर ख़रीदने के लिए मजबूर किया जा रहा है। इसलिए वे उर्वरक कम्पनियों पर कार्रवाई करें। चढ़ूनी ने पत्र पर लिखा है कि अभी देश में तीन कृषि क़ानून लागू भी नहीं हुए हैं और खाद कम्पनियों ने कालाबाज़ारी व किसानों के साथ जबरदस्ती शुरू भी कर दी।

उन्होंने कहा कि देश में तीनों कृषि क़ानूनों के विरोध में किसानों का आन्दोलन जारी है और खाद कम्पनियों की कालाबाज़ारी को लेकर हरियाणा प्रदेश में किसानों की दुर्दशा दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। उन्होंने कहा कि जबसे रबी की फ़सलों की बुवाई शुरू हुई है, तबसे राज्य में डीएपी की भारी कमी बनी हुई है। ऊपर से खाद कम्पनियाँ किसानों को यूरिया के साथ जबरन सल्फर दे रहीं हैं। विदित हो कि अधिक सल्फर फ़सलों में लगाने से फ़सलों को नुक़सान पहुँचाता ही है, ज़मीन भी ख़राब होती है।

वैश्विक स्तर पर कमी

भारत सरकार की मानें तो डीएपी की वैश्विक स्तर पर कमी है, जिससे निपटने के लिए देश के उर्वरक विभाग का वार रूम 24 घंटे काम कर रहा है। सरकारी सूत्र बताते हैं कि अक्टूबर महीने में राज्यों को 18.06 लाख टन डीएपी भेजी गयी थी, जबकि उर्वरक कम्पनियों ने छ: लाख टन डीएपी का आयात भी किया है, जिसमें से 4.5 लाख टन डीएपी बंदरगाहों पर पहुँच चुकी है। भारत सरकार की मानें तो देश में 2.8 लाख डीलर, 940 रैक प्वाइंट, 21 बंदरगाह और 40 संयंत्रों के द्वारा उर्वरकों की मानिटरिंग और प्लानिंग की जा रही है। सरकारी सूत्र यह भी बताते हैं कि पिछले साल के मुताबिक, इस साल 30 सितंबर को देश में डीएपी और एमओपी का स्टॉक आधे से भी कम था। वहीं कुछ राज्यों का कहना है कि उन्हें भारत सरकार द्वारा 40 फ़ीसदी आपूर्ति ही की गयी है, जिससे डीएपी की क़िल्लत बनी हुई है। डीएपी की क़िल्लत तब है, जब रबी की फ़सलों में डीएपी की आपूर्ति के लिए भारत सरकार ने उर्वरक कम्पनियों को 28,000 करोड़ रुपये की सब्सिडी दी है।

माँग और आपूर्ति

उर्वरक विभाग की मानें तो 2021-22 के रबी फ़सलों के मौसम के लिए अक्टूबर से मार्च, 2022 तक 58.68 लाख टन डीएपी की आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त इतने समय की आपूर्ति के लिए 60.84 लाख टन नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटाश (एनपीके) और सल्फर के विभिन्न ग्रेड की कॉम्प्लेक्स उर्वरकों की भी आवश्यकता है।

रसायन एवं उर्वरक मंत्री मनसुख मंडाविया का कहना है कि उन्होंने अपने मंत्रालय में विस्तार से खाद की कमी को लेकर अध्ययन किया है। इसी नवंबर में डीएपी खाद की सभी राज्यों की 17 लाख मैट्रिक टन की माँग की तुलना में 18 लाख मैट्रिक टन आपूर्ति का लक्ष्य उन्होंने बनाया है। इसी प्रकार सभी राज्यों की 41 लाख टन यूरिया की माँग की तुलना में 76 लाख मीट्रिक टन यूरिया की आपूर्ति करने का लक्ष्य बनाया गया है। इसके अतिरिक्त एनपीके की राज्यों की 15 लाख मीट्रिक टन की माँग की तुलना में 20 लाख मीट्रिक टन एनपीके आपूर्ति का लक्ष्य रखा है।

विदित हो कि उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, बिहार, हरियाणा, राजस्थान समेत देश के कई राज्यों में डीएपी व अन्य उर्वरक खादों की क़िल्लत लगातार बनी हुई है, जिसके चलते किसानों की रबी की फ़सल ख़राब हो रही है। अगर किसानों को समय रहते उर्वरक खादें किसानों को नहीं मिलीं, तो रबी की फ़सलों की पैदाबार बहुत कम हो जाएगी।

महँगी हुईं उर्वरक खादें

डीएपी के बाद एनपीके की भी देश में भारी क़िल्लत है, जिसके चलते एनपीके का बैग 500 रुपये महँगा हो गया है। एनपीके ही नहीं, कई अन्य कॉम्पलेक्स उर्वरकों के दामों में भी आपूर्ति में कमी के चलते उछाल आया है। हालाँकि भारत सरकार ने किसानों को आश्वस्त कर रही है कि उर्वरक खादों के दाम नहीं बढ़ेंगे। कहा जा रहा है कि महँगी खाद प्राइवेट खाद विक्रेता बेच रहे हैं। उत्तर प्रदेश में महँगी खाद बेचने की शिकायतों के बाद कुछ अधिकारियों ने महँगी खाद बेचने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की बात कही है। अधिकारियों का कहना है कि अभी तक उनके संज्ञान में महँगी खाद बेचने का मामला नहीं आया है, कुछ लोगों ने शिकायतें ज़रूर की हैं।

नक़ली और मिलावटी खाद

देश के कई राज्यों में सहकारी समितियों पर लम्बी-लम्बी लाइनों के बाद भी डीएपी और दूसरी उर्वरक खादें न मिलने पर किसान जहाँ से भी ये खादें मिल रही हैं, वहाँ से ख़रीदने को मजबूर हो रहे हैं। इसके चलते मिलावटख़ोर सक्रिय हो गये हैं, जो मिलावटी उर्वरक खादों को बेचने के अलावा नक़ली खादों की बिक्री भी महँगे दामों में किसानों को कर रहे हैं। यह बात कृषि विभाग की टीमों द्वारा राज्यों में की जगह-जगह की गयी छापेमारी के बाद सामने आयी है।

सरकार ने बढ़ायी सब्सिडी

एक सच यह भी है कि उत्तर प्रदेश में अब इफको की एनपीके का 50 किलो की बोरी 1450 रुपये में मिलेगी। केवल पुराना भण्डारण पुरानी क़ीमत 1185 रुपये के हिसाब से बेचा जाएगा। विदित हो कि मई, 2021 में भारत सरकार ने 500 रुपये प्रति बोरी डीएपी की सब्सिडी बढ़ायी थी। उस समय तक डीएपी की एक बोरी 1700 रुपये में मिलती थी, जिस पर सरकार 500 की सब्सिडी देती थी और किसानों को उर्वरक कम्पनियाँ 1200 रुपये में बेचती थीं। बाद में वैश्विक बाज़ार में फॉस्फोरिक एसिड, अमोनिया की क़ीमतें बढऩे के समाचार आने के बाद उर्वरक कम्पनियों ने ख़रीफ़ की बुवाई के दौरान डीएपी की बोरी 1900 का कर दिया, जिस पर काफ़ी हंगामा हुआ। लेकिन भारत सरकार ने उर्वरक कम्पनियों पर डीएपी के भाव कम करने का दबाव बनाये बग़ैर उसे 2400 रुपये का कर दिया और कहा कि हर बोरी पर वह 1200 रुपये सब्सिडी देगी; जबकि कम्पनियाँ किसानों से 1200 रुपये ही लेंगी। लेकिन यह भाव कम्पनियों की अपनी आकांक्षा से भी 500 रुपये अधिक था। बावजूद इसके अब अगली छमाही रबी की फ़सल की बुवाई में ही कम्पनियों ने फिर डीएपी की आपूर्ति कम कर दी और दाम बढ़ाने का उनका मक़सद फिर हल होता दिखायी दे रहा है। क्योंकि अब सरकार उर्वरक कम्पनियों को डीएपी के एक बोरी पर 1200 की जगह 1650 रुपये सब्सिडी देगी।

एक तरफ़ सरकार कह रही है कि किसानों को डीएपी की बोरी 1200 रुपये में ही मिलेगी, वहीं दूसरी तरफ़ इफको डीएपी के नये भण्डार (स्टाक) को महँगा करके बेचने की बात कह चुकी है। सरकार कम्पनियों पर उर्वरक खादों के भाव कम करने का दबाव बनाने की जगह चुपचाप सब्सिडी बढ़ाती जा रही है, जिससे कम्पनियों का मनोबल बढ़ा हुआ है। कहीं ऐसा न हो सरकार रसोई गैस सिलेंडर की सब्सिडी की तरह ही उर्वरक खादों पर दी जाने वाली सब्सिडी भी एक दिन अचानक ख़त्म कर दे और किसानों को 1200 रुपये का डीएपी की बोरी 3000 के आसपास ख़रीदनी पड़े।

क्या करें किसान?

किसान और खेती बाड़ी के अच्छे जानकार मंगल सिंह का कहना है कि महँगी उर्वरक खादों से बचने के लिए किसानों के पास एक ही रास्ता है और वह है- जैविक खेती करना। अगर किसान अपने पूर्वजों की तरह जैविक खेती करने लगें, तो खाद्यानों में बढ़ता ज़हर भी ख़त्म होगा और किसानों को महँगी खादों की ख़रीदारी भी नहीं करनी पड़ेगी। मंगल सिंह का कहना है कि अगर देश भर के किसान पशुधन से प्राप्त गोबर, मूत्र, फ़सलों के अवशेष का इस्तेमाल खाद के रूप में करें, तो उर्वरक कम्पनियों का दिमाग़ भी ठिकाने आ जाएगा और सरकार द्वारा उन्हें दी जा रही मोटी सब्सिडी भी बचेगी, जिसे सरकार चाहे तो सीधे तौर पर किसानों को दे सकती है। हालाँकि इसके लिए पूरे देश के किसानों को दृढ़ संकल्प लेना होगा।

मुकेश अंबानी के लंदन जाने का सच!

हाल ही में जारी वैश्विक धन प्रवासन समीक्षा (ग्लोबल वेल्थ माइग्रेशन रिव्यू) की रिपोर्ट से पता चलता है कि क़रीब 5,000 करोड़पतियों अर्थात् भारत के कुल एचएनआई में से दो फ़ीसदी ने 2020 में देश छोड़ दिया। भारत इस साल की सूची में सबसे ऊपर है, जबकि पिछले साल दूसरे स्थान पर था।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि जब रिपोट्र्स में इस तरह की ख़बरें आयीं कि एशिया के सबसे अमीर आदमी और रिलायंस इंडस्ट्रीज लिमिटेड के अध्यक्ष मुकेश अंबानी लंदन जा रहे हैं, तो बहुत लोगों ने इसे सत्य माना। हालाँकि आरआईएल ने इन ख़बरों का खण्डन किया है।

6 नवंबर को जारी आरआईएल के बयान में कहा गया है कि एक अख़बार ने हाल ही में अंबानी परिवार के लंदन के स्टोक पार्क में आंशिक रूप से रहने की योजना के बारे में जो ख़बर छापी, उसने सोशल मीडिया में अनुचित अटकलों को जन्म दिया है। आरआईएल यह स्पष्ट करना चाहेगी कि चेयरमैन (अंबानी) और उनके परिवार की लंदन या कहीं और स्थानांतरित होने या रहने की कोई योजना नहीं है। रिलायंस समूह ने कहा कि रिलायंस इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट्स एंड होल्डिंग्स लिमिटेड, जिसने हाल ही में स्टोक पार्क एस्टेट का अधिग्रहण किया है; स्पष्ट करना चाहती है कि विरासत सम्पत्ति के अधिग्रहण का उद्देश्य इसे एक प्रमुख गोल्फिंग और स्पोर्टिंग रिसॉर्ट के रूप में बढ़ाना है। यह अधिग्रहण समूह के तेज़ी से बढ़ते उपभोक्ता व्यवसाय को जोड़ेगा। साथ ही यह विश्व स्तर पर भारत के प्रसिद्ध आतिथ्य उद्योग के पदचिह्न का भी विस्तार करेगा।

बता दें कि मुकेश अंबानी अपने परिवार के साथ मुम्बई, महाराष्ट्र में 4,00,000 वर्ग फुट के अल्टामोंटे रोड निवास, एंटीलिया में रहते हैं। हाल में ख़बरें आयी थीं कि अंबानी परिवार से लंदन के बकिंघमशायर, स्टोक पार्क में 300 एकड़ के कंट्री क्लब को अपना प्राथमिक निवास बनाने की सम्भावना है। हालाँकि भले ही आरआईएल ने उनके लंदन में बसने की ख़बरों को नकारा है; लेकिन मुकेश ने लंदन में घर तो ख़रीदा ही है।

विदेश में ख़रीदी सम्पत्ति

इन ख़बरों के सच होने के कई कारण हैं। अंबानी परिवार ने इस साल की शुरुआत में स्टोक पार्क की सम्पत्ति 592 करोड़ रुपये में ख़रीदी थी। सम्पत्ति में 49 शयनकक्ष हैं। एक ब्रिटिश डॉक्टर की अध्यक्षता में एक अत्याधुनिक चिकित्सा सुविधा और अन्य लक्जरी सुविधाएँ हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि हाल ही में लंदन में ख़रीदे गये स्टोक पार्क एस्टेट के लिए अंबानी भारत से बाहर जा रहे थे; यह वास्तविक लग रहा था।

भारतीय हिन्दू व्यापारिक समुदाय के बीच एक रिवाज़ है कि वे अपने नये घरों में दीपावली मनाना पसन्द करते हैं। कई परिवारों के मामले में यह त्योहार परिवार के पहले निवास पर मनाया जाता है। यह एक प्रथा है, जो यह सुनिश्चित करने के प्रयासों का प्रतीक है कि धन की देवी या लक्ष्मी घर पर रहती है। लंदन स्थित नये घर में ही अंबानी परिवार द्वारा दीपावली मनाये जाने की अफ़वाह ने ही उनके लंदन बसने की ख़बरों को विश्वसनीय बनाया। लोगों ने ट्वीटर पर सवाल किया कि क्या अंबानी का लंदन निवास उनका स्थायी घर बन रहा है?

बड़े अमीर जा रहे विदेश

पहले भी ऐसी ख़बरें थीं कि सम्पन्न परिवार किसी दूसरे देश में नागरिकता या निवास के बदले बड़े निवेश के माध्यम से विदेश जा रहा है। सन् 2018 में वॉल स्ट्रीट पर मॉर्गन स्टेनली बैंक की एक रिपोर्ट ने भी संकेत दिया था कि सन् 2014 से 23,000 भारतीय करोड़पति देश छोड़ चुके थे। और अब वैश्विक धन प्रवासन समीक्षा की रिपोर्ट में कहा गया कि सिर्फ़ पिछले साल (2020 में) क़रीब 5,000 करोड़पति विदेश चले गये। अभी भारत 6,884 मोटी सम्पति वाले लोगों और 177 अरबपतियों का घर है। हैरानी इस बात की है कि भारत में कोरोना-काल में जब करोड़ों लोग धन-सम्पदा में कमज़ोर हुए, 40 नये अरबपति पैदा हुए।

हालाँकि भारत में निवेश द्वारा नागरिकता में रुचि हमेशा अधिक रही है; लेकिन महामारी के दौरान इसमें काफ़ी वृद्धि हुई है और आने वाले वर्षों में इसके बढऩे की उम्मीद है। विशेषज्ञ बताते हैं कि अमीरों का यह पलायन आंशिक रूप से मार्च, 2020 में संयुक्त राज्य अमेरिका के समान निवास-आधारित कर प्रणाली से नागरिकता-आधारित कर प्रणाली में जाने के लिए था।

अंबानी के मामले में पहले ही कुछ ख़बरों में बताया गया था कि वह इस साल दीपालली नये घर में मनाएँगे और मुम्बई व लंदन के घरों में आते-जाते रहेंगे। इस पर ट्वीटर पर लोगों ने आपत्ति की और कहा कि अंबानी का भारत से बाहर जाने का मतलब देश से पूँजी के बाहर जाने जैसा होगा। इस पर आरआईएल ने तुरन्त प्रतिक्रिया देकर ख़बरों को अफ़वाह बताते हुए उनका खण्डन किया।

दिलचस्प रूप से अंबानी का उदय एक दिलचस्प कहानी है और भारत के सबसे अमीर व्यक्ति का मानना है कि अगर उनके और बिल गेट्स जैसे कॉलेज छोडऩे वाले लोग लाखों अरब डॉलर की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का निर्माण कर सकते हैं, तो कोई भी औसत भारतीय कर सकता है। उन्होंने कहा कि मेरे पिता ने पाँच दशक पहले एक टेबल, कुर्सी और 1,000 रुपये के साथ रिलायंस की स्थापना की थी। यह पहले एक सूक्ष्म उद्योग बना। फिर एक छोटा उद्योग, फिर मध्यम और आज आप हमें बड़ा मान सकते हैं। रिलायंस इंडस्ट्रीज के अध्यक्ष मुकेश अंबानी ने बात कुछ समय पहले माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला के साथ एक फायरसाइड चैट के दौरान कही थी। उन्होंने कहा था कहा था कि अपने स्टैनफोर्ड दिनों से स्टीव (बाल्मर) और बिल (गेट्स) को जानने के मामले में बहुत भाग्यशाली रहे हैं। उन्होंने कहा कि धीरूभाई अंबानी या बिल गेट्स और यही वह शक्ति है, जो भारत को दुनिया के बाक़ी हिस्सों से अलग करती है।

राजनीतिक दोषारोपण

सन् 2014 से दो राजनीतिक दलों-आम आदमी पार्टी और कांग्रेस द्वारा अंबानी परिवार पर हमले किये जा रहे हैं। सन् 2014 में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार के फ़ैसले के कारण आरआईएल को देश में प्राकृतिक गैस की क़ीमत को दोगुना करके अप्रत्याशित लाभ के मामले में पूर्व तेल मंत्री वीरप्पा मोइली के साथ मुकेश अंबानी के ख़िलाफ़ मामला दर्ज करने के लिए दिल्ली की भ्रष्टाचार विरोधी शाखा को आदेश दिया था। ऐसे देश में जहाँ राजनीतिक दलों के साथ-साथ व्यापारियों की भी क़िस्मत बनती है, अंबानी का देश की मुख्य विपक्षी पार्टी के लिए राजनीति का केंद्र बनना चिन्ता का विषय है।

बम कांड

इस साल की शुरुआत में मुकेश अंबानी के मुम्बई स्थित आवास एंटीलिया के बाहर एक कार में 20 विस्फोटक जिलेटिन की छड़ें और एक धमकी भरा पत्र मिला था। कार के मालिक ठाणे के एक व्यवसायी मनसुख हिरेन के एक हफ़्ते बाद मृत पाये जाने के बाद मामला और जटिल हो गया। राष्ट्रीय जाँच एजेंसी द्वारा मुम्बई के प्रसिद्ध मुठभेड़ विशेषज्ञ सचिन वाजे की गिरफ़्तारी से देश में और भी बड़ी लहर उठी। उन पर बम धमाकों का मास्टरमाइंड होने का आरोप था। गिरफ़्तार होने से पहले वाजे इस बम मामले में जाँच दल के प्रभारी थे।

अन्य मामले

सन् 2019 में आयकर विभाग की मुम्बई इकाई ने मुकेश अंबानी, उनकी पत्नी नीता अंबानी समेत पूरे अंबानी परिवार को नोटिस भेजा था। कथित तौर पर काला धन अधिनियम के तहत उनकी अघोषित विदेशी आय और सम्पत्ति के लिए यह नोटिस 28 मार्च, 2019 को दिये गये थे।

जानलेवा रही तालाबन्दी

कोरोना महामारी के दौरान 10 फ़ीसदी ज़्यादा लोगों ने आत्महत्या की, यानी हर रोज़ 418 लोगों ने दी जान

देश में आत्महत्याएँ करने की संख्या बढ़ रही है। एनसीआरबी की 2020 की रिपोर्ट में जो इससे भी ज़्यादा चिन्ताजनक बात है वह यह कि कोरोना-काल में हुई तालाबन्दी के दौरान देश भर में आत्महत्याओं का ग्राफ सीधे 10 फ़ीसदी बढ़ गया है। दूसरी चिन्ताजनक बात यह है कि सन् 1967 के बाद सन् 2020 में आत्महत्यायों के सबसे अधिक मामले हुए हैं। अच्छे दिन वाले देश में सन् 2020 में हर रोज़ 418 लोगों ने आत्महत्या कर ली।

चिन्ताजनक पहलू यह भी है कि आत्महत्या करने वालों में ज़्यादातर छात्र और छोटे उद्यमी हैं। ज़ाहिर है अनियोजित तालाबन्दी के नुक़सान के गम्भीर नतीजे अब धीरे-धीरे सामने आने लगे हैं। एनसीआरबी की रिपोर्ट पूरे साल की घटनाओं पर आधारित है। यह वह कालखण्ड है जब देश में लम्बे और अनियोजित तालाबन्दी के कारण लाखों छोटे उद्योग-धन्धे चौपट हो गये और करोड़ों लोग रोज़गार से हाथ धो बैठे। इनमें से ज़्यादातर को अभी तक दोबारा रोज़गार नहीं मिल पाया है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट-2020 के जनवरी से दिसंबर तक में हुई घटनाओं पर आधारित है। रिपोर्ट कहती है कि एक साल में आत्महत्या के कुल 1,53,052 मामले सामने आये। पिछले 53 साल में आत्महत्यायों का यह आँकड़ा सबसे बड़ा हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के चौंकाने वाले आँकड़े कहते हैं कि 2019 के मुक़ाबले 2020 में व्यापारियों की आत्महत्यायों की संख्या चिन्ताजनक 50 फ़ीसदी ज़्यादा हो गयी। आत्महत्यायों की किसी भी श्रेणी में यह सबसे बड़ा उछाल है।

देश में आत्महत्या करने वालों की संख्या 2019 के मुक़ाबले 2020 में बढ़ गयी। आँकड़ों के मुताबिक, देश में 2020 में प्रति लाख आबादी पर आत्महत्या संख्या 2019 के मुक़ाबले 10.4 फ़ीसदी से बढक़र 11.3 फ़ीसदी हो गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, 2020 में देश में हर रोज़ 418 लोगों ने अपनी ज़िन्दगी ख़त्म कर ली।

देश में मार्च, 2020 में जल्दबाज़ी में रात 8 बजे घोषित देशव्यापी तालाबन्दी ने करोड़ों लोगों को सडक़ पर ला पटका। रोज़गार से जुड़े लाखों धन्धे बन्द हो गये।

महामारी ने 2020 में ज़मीन पर ज़िन्दगियाँ तो लील ही लीं, करोड़ों ज़िन्दा लोगों के सामने दो जून की रोटी का बड़ा सवाल खड़ा कर दिया। तबाही का अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि 2019 की तुलना में 2020 में आत्महत्या करने वालों में किसानों से अधिक व्यापारी रहे। साल 2020 में महामारी के कारण आर्थिक संकट के काले काल के दौरान व्यापारियों की हत्या बताती है कि सरकार लोगों के रोज़गार को नाकाम रही।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 के एक ही साल में 10,677 किसानों की तुलना में 11,716 छोटे-बड़े व्यापारियों ने आत्महत्या जैसा क़दम उठाया। इन 11,716 मौतों में आत्महत्या करने वाले 4,356 ट्रेड्समैन थे और 4,226 वेंडर्स यानी विक्रेता थे। बाक़ी मरने वाले लोगों को अन्य व्यवसायों की श्रेणी में रखा गया है। ये तीन समूह हैं, जिन्हें एनसीआरबी आत्महत्या रिकॉर्ड करते समय व्यापारिक समुदाय के रूप में मानता है। सन् 2019 की तुलना में 2020 में कारोबारी समुदाय के बीच आत्महत्या के मामलों में 29 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई। इस बीच व्यापारियों के बीच आत्महत्या 49.9 फ़ीसदी की उछाल के साथ 2019 में 2,906 से बढक़र 2020 में 4,356 हो गयी।

हाल के दशकों में किसानों ने देश में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ की हैं। यह व्यापारिक समुदाय से कहीं कम थी। आँकड़े साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि व्यापारी कोरोना महामारी और तालाबन्दी के बाद पैदा हुए घोर आर्थिक संकट से सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए और बड़ी संख्या में उन्हें तनाव या डिप्रेशन झेलना पड़ा। जानकारों के मुताबिक, तालाबन्दी के दौरान छोटे व्यवसायों और व्यापारियों को बड़ा नुक़सान हुआ है और इनमें से कई अपने धन्धे समेटने को मजबूर हो गये।

किसानों की दशा ख़राब

 

तमाम सरकारी दावों के बावजूद देश में किसानों की आत्महत्या का सिलसिला भी बदस्तूर जारी है। एनसीआरबी के आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि सन् 2020 में 2019 की अपेक्षा किसानों (किसान और कृषि मज़दूर) की आत्महत्याओं के मामले लगभग 4 फ़ीसदी बढ़े हैं। यही नहीं देश में कृषि मज़दूरों की आत्महत्या के मामले 18 फ़ीसदी बढ़े हैं। वैसे राज्यों की बात करें, तो महाराष्ट्र 4,006 आत्महत्याओं के साथ सूची में सबसे ऊपर है। इसके बाद कर्नाटक में 2,016, आंध्र प्रदेश में 889, मध्य प्रदेश में 735 और छत्तीसगढ़ में 537 कृषि क्षेत्र से जुड़े लोगों ने आत्महत्या की है।

एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि किसानों और कृषि मज़दूरों में आत्महत्या के मामले रुकने की जगह बढ़ रहे हैं। देश में सन् 2020 के दौरान कृषि क्षेत्र में 10,677 लोगों की आत्महत्या की जो देश में कुल आत्महत्याओं (1,53,052) का 7 फ़ीसदी है। इसमें 5,579 किसान और 5,098 खेतिहर मज़दूरों की आत्महत्याएँ दर्ज हैं।

वैसे 2016 से 2019 के बीच चार साल तक इन आत्महत्यायों में गिरावट दर्ज होने के बावजूद कृषि क्षेत्र में आत्महत्या के मामले बढ़े हैं। सन् 2016 में कुल 11,379 किसान और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि 2017 में इसमें गिरावट आयी और संख्या 10,655 रह गयी। सन् 2018 में 10,349 तो 2019 में इस तरह के आत्महत्या के कुल 10,281 मामले सामने आये थे, जबकि सन् 2020 में यह मामले 10,677 हो। गये।

कृषि मज़दूरों की हालत भी देश में जगज़ाहिर है। यदि सन् 2019 से सन् 2020 की तुलना करें, तो सन् 2019 में 5,957 किसान और 4324 कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की थी, जबकि सन् 2020 में यह आँकड़ा क्रमश: 5,579 और 5,098 रहा। यानी कृषि मज़दूरों की आत्महत्या के मामले सन् 2020 में बढ़े हैं। सन् 2020 में आत्महत्या करने वाले 5,579 किसानों में से 5,335 पुरुष थे और 244 महिलाएँ थीं, जबकि आत्महत्या करने वाले 5,098 कृषि मज़दूरों में 4621 पुरुष और 477 महिलाएँ थीं। किसान आन्दोलन के गढ़ पंजाब और हरियाणा में भी स्थिति बदतर है। पंजाब में साल भर में 257 जबकि हरियाणा में 280 आत्महत्या मामले दर्ज हुए। पश्चिम बंगाल, बिहार, नागालैंड, त्रिपुरा, उत्तराखण्ड, चंडीगढ़, दिल्ली, लद्दाख, लक्षद्वीप और पुडुचेरी में शून्य आत्महत्या मामले दर्ज हुए। रिपोर्ट में किसानों और कृषि मज़दूरों को विभाजित करके आँकड़े बताये गये हैं। किसान उन्हें बताया गया है जिनके पास ख़ुद की ज़मीन है और खेती करते हैं। कृषि मज़दूर वे हैं, जिनके पास अपनी ज़मीन तो नहीं; लेकिन उनकी आय का साधन दूसरे किसानों के खेत में काम करके अपनी आजीविका कमाना है।

अवसाद बढ़ा

क़रीब 68 दिन के पहले सबसे लम्बे तालाबन्दी ने देश की निचली आबादी की कमर तोड़ कर रख दी। लोगों में इस दौरान अवसाद बढ़ गया और अत्महत्या के मामलों में आश्चर्यजनक उछाल देखने को मिला। रिपोर्ट से यह भी ज़ाहिर होता है कि तालाबन्दी में सबसे अधिक प्रभावित वे छात्र भी रहे, जो प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहे थे। इनमें से कई ऐसे थे, जिनके करियर की उम्र ख़त्म हो रही थी और वही सबसे ज़्यादा अवसाद की चपेट में आये।

इस दौरान न तो स्कूल-कॉलेज खोले गये और न ही दुकान खोलने की इजाज़त दी गयी। शिक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि भारत में अभी भी 2.9 करोड़ छात्रों के पास डिजिटल उपकरणों की पहुँच नहीं है। ऑनलाइन शिक्षा जारी रखने के लिए संसाधनों का उपयोग करने में असमर्थता के कारण छात्रों के आत्महत्या करने की कई रिपोट्र्स आयी हैं। हर साल आत्महत्या करने वाले छात्रों की संख्या कुल आँकड़ों का सात से आठ फ़ीसदी होता था, जो साल 2020 में बढक़र 21.2 फ़ीसदी हो गया है। इसके बाद प्रोफेशनल लोगों की संख्या 16.5 फ़ीसदी, दैनिक वेतन पाने वाले 15.67 फ़ीसदी और बेरोज़गार 11.65 फ़ीसदी के आसपास थे।

उधर छोटे उद्यमी, जिन्होंने बैंक कज़ऱ् और अन्य माध्यमों से उद्यम शुरू किया था, तालाबन्दी में उनका कामकाज चौपट हो गया। क़र्ज़ का बोझ ऊपर से आर्थिक तंगी। नतीजे में कई उद्यमियों ने आत्महत्या का रास्ता अपना लिया। विशेषज्ञों के मुताबिक, तालाबन्दी तनाव का सबसे बड़ा ज़रिया बना।

महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ

एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक, देश में सबसे ज़्यादा आत्महत्याएँ महाराष्ट्र में हुईं। वहाँ 19,909 लोगों ने अपनी जान दी। तमिलनाडु में 16,883, मध्य प्रदेश में 14,578, पश्चिम बंगाल में 13,103 और कर्नाटक में 12,259 लोगों ने 2020 में आत्महत्या कर ली। एनसीआरबी की रिपोर्ट में मुताबिक, कुल आत्महत्याओं में  अकेले इन पाँच राज्यों में ही 50.1 फ़ीसदी लोगों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। अन्य आत्महत्या मामले  जो 49.9 फ़ीसदी आत्महत्याएँ अन्य राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हुईं। इस लिहाज़ से देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश सही है। वहाँ 3.1 लोगों ने आत्महत्या का रास्ता अपनाया। यह आँकड़े इस लिहाज़ से अपेक्षाकृत कम लगते हैं कि देश की कुल आबादी के 16.9 फ़ीसदी जनता उत्तर प्रदेश में है। केंद्र शासित प्रदेशों में दिल्ली में सबसे ज़्यादा 3,142 लोगों ने ख़ुदकुशी की। रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में 2020 में आत्महत्या करने वाले लोगों में से कुल 56.7 फ़ीसदी लोगों ने पारिवारिक समस्याओं (33.6 फ़ीसदी), विवाह सम्बन्धी समस्याओं (पाँच फ़ीसदी) और किसी बीमारी (18 फ़ीसदी) के कारण आत्महत्या की।

आत्महत्या के कारण

तालाबन्दी बढऩे के बाद देश में आत्महत्या बढऩे के मामले बढऩे का ख़तरा जताया गया था। एक सर्वे के मुताबिक, तालाबन्दी में भारत के लोगों का मानसिक स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। सर्वे के मुताबिक, हर पांच में से एक भारतीय मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। लॉकडाउन की घोषणा के बाद कमोवेश पूरी आबादी प्रभावित हुई। चिकित्सा विशेषज्ञों के मुताबिक लाखों लोग बेरोज़गार हुए। इस कारण से लोगों को कई गम्भीर तनावों और रोगों ने घेर लिया है। चिकित्सा जानकारों के मुताबिक, देश में कई ऐसे मामले भी दिखे, जिनमें ऐसे लोगों जो जीवन में कभी मानसिक रोग से नहीं जूझे, वे भी आज परेशानियों का सामना कर रहे हैं। मनोविज्ञानियों के मुताबिक, महामारी के कारण बच्चे भी मानसिक रूप से प्रभावित हुए हैं। इंडियन साइकेट्री सोसायटी (आईपीएस) का एक सर्वे ज़ाहिर करता है कि तालाबन्दी के बाद मानसिक बीमारी के मामले 30 फ़ीसदी तक बढ़े हैं। आज हर पाँचवाँ व्यक्ति मानसिक बीमारी से जूझ रहा है। आईपीएस का कहना है कि बार-बार के तालाबन्दी से आर्थिक परेशानियाँ बढ़ी हैं। इसके अलावा आइसोलेशन ने देश में नया मानसिक संकट पैदा किया है। इन सबसे आत्महत्या के मामले बढ़े हैं।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, अब मानसिक स्वास्थ्य का असर दिख रहा है। वैसे यह संकट काफ़ी देर से चल रहा है और लोग भटकते जा रहे हैं। मनोवैज्ञानिकों के मुताबिक, बढ़ती घरेलू हिंसा और आइसोलेशन के कारण बच्चों में मानसिक बीमारी बढऩे का ज़्यादा जोखिम है। दिलचस्प बात यह भी है कि तालाबन्दी दौरान भारत में शराब न मिलने के कारण भी लोगों ने आत्महत्या की। वैसे देश में सन् 2017 में केंद्र सरकार ने मेंटल हेल्थकेयर एक्ट लागू किया था। इसके तहत नागरिक सरकारी मदद से अपना मानसिक इलाज करा सकते हैं।

उत्तर प्रदेश में जिन्ना और अब्बाजान!

हर रोज़ नये-नये जुमलों से सनी उत्तर प्रदेश की सियासत एक-दूसरे पर छींटाकसी करती नज़र आ रही है। हार का डर सभी को है। लेकिन जनता में वर्चस्व क़ायम करने के लिए योगी एक बार फिर से कमल खिलाने का दम भर रहे हैं, तो अखिलेश यादव विजय यात्रा करके जीत का दावा कर रहे हैं। वहीं प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश के अलग-अलग हिस्सों में जाकर हाथ के पंजे को मज़बूत करने की कोशिश में जुटी हैं, तो मायावती परदे के पीछे से राजनीति चल रही हैं।

इन दिनों उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के अब्बाजान कहे जाने पर उन्हें ही इसका शिकार होना पड़ रहा है। इसकी वजह यह है कि उन्होंने ख़ुद अपने सम्बोधन में अब्बाजान शब्द को लम्बे समय तक तकिया कलाम बनाये रखा। सितंबर में जब यह मुद्दा विधान परिषद् में उठा था, तो योगी ने कहा था कि अब्बाजान शब्द कबसे असंसदीय हो गया? इसका मतलब यह हुआ कि अब्बाजान शब्द को योगी साफ़ तौर पर संसदीय घोषित करने की कोशिश कर रहे थे, जिसके बाद सियासी गलियारे में उन्हें अब्बाजान को याद करने वाला जुमला मज़ाक़ बन गया।

भाजपा और योगी ने अयोध्या में भगवान राम के मन्दिर के निर्माण को अपनी सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में भुनाने की कोशिश के बीच दीपावली पर 12 लाख दीपक प्रज्ज्वलित करके भव्य दीपोत्सव मनाया, जिससे हिन्दुओं की भावनाएँ एक बार फिर उद्वेलित हुई हैं। लेकिन महँगाई, बेरोज़गारी के बीच कोरोना महामारी के बाद प्रदेश भर में डेंगू ने मौत का जो तांडव किया है, उससे लोग सरकार से ख़ासे नाराज़ भी हैं।

भाजपा के लिए हिन्दुत्व पहले भी सबसे बड़ा मुद्दा था और आज भी सबसे बड़ा मुद्दा है। महँगाई और बेरोज़गारी, स्वास्थ्य अव्यवस्था जैसे मुद्दों पर विपक्ष भले ही उसे घेर ले; लेकिन भाजपा की हिन्दुत्व वाली छवि आज भी काफ़ी मज़बूत है। अयोध्या में पाँचवा भव्य दीपोत्सव मनाकर उसने अपनी इसी छवि को मज़बूत किया है। वैसे बाक़ी मुद्दों पर भी पार्टी रणनीतियाँ बनाकर काम कर रही है। लेकिन काम को लेकर केवल प्रचार के अलावा उसके पास कोई ख़ास नहीं है। इसीलिए वह राम मन्दिर, हिन्दुत्व, जातिवाद के ज़रिये जनाधार जुटाने में लगी है। इतना ही नहीं, भाजपा दूसरे दलों में तोडफ़ोड़ का भी कोई मौक़ा नहीं छोडऩा चाहती और विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश में भी वह यही कर रही है। इसका सबसे बड़ा उदाहरण गाज़ीपुर  के सैदपुर से विधायक सुभाष पासी को सपा से तोडक़र अपने ख़ेमे में करना है। माना जा रहा है कि पत्नी समेत भाजपा में शामिल हुए सुभाष पासी से योगी को ग़ाज़ीपुर, आजमगढ़ और जौनपुर के कुछ इलाक़ों में दलितों के मतदाताओं का समर्थन मिलेगा। मोदी लहर के बावजूद इन इलाक़ों सुभाष पासी का जल्वा क़ायम है। दूसरा, पूर्वांचल में भाजपा के पास कोई बेहतर दलित चेहरा नहीं था, जिसकी भरपायी उसने सपा के सुभाष पासी को तोडक़र कर ली है। वैसे तो सुभाष पासी इन इलाक़ों में ख़ासे लोकप्रिय हैं; लेकिन देखना यह है कि भाजपा में जाने से वह इस लोकप्रियता को बचा पाएँगे या नहीं।

अखिलेश यादव की बात करें, तो उन्हें चुनाव के समय जिन्ना याद आ गये। माना जा रहा है कि उन्होंने मुस्लिम मत (वोट) बटोरने के लिए बँटवारे के सबसे बड़े क़ुसूरवार मोहम्मद अली जिन्ना को गाँधी, नेहरू और सरदार पटेल की कतार में खड़ा कर दिया है। इस पर उन्हें असदुद्दीन ओवैसी ने जमकर लताड़ा। दरअसल ओवैसी को यह डर है कि इससे अखिलेश मुस्लिम जनाधार अपने पक्ष में कर लेंगे। हालाँकि अखिलेश के जिन्ना को याद करने से भले ही कुछ मुसलमान ख़ुश हुए हों; लेकिन अधिकतर मुस्लिम नाराज़ हुए हैं। भले ही दूसरी पार्टियों से भी मुस्लिम मतदाता ख़ुश नहीं हैं।

इधर अखिलेश यादव ने मायावती की पार्टी में बड़ी सेंधमारी करके उनके छ: विधायकों और भाजपा के एक विधायक को अपनी पार्टी में शामिल कर लिया है। इतना ही नहीं, अखिलेश और उनके समर्थन में आये ओमप्रकाश राजभर ने ममता बनर्जी के ‘खेला होबे’ की तर्ज पर उत्तर प्रदेश में नारा दिया है- ‘खदेड़ा होबे’। उन्हें विश्वास है कि जिस तरह ममता बनर्जी ने खेला होबे के नारे से बंगाल को जीता, उसी तरह वे भी खदेड़ा होबे के नारे से उत्तर प्रदेश जीत लेंगे।

अखिलेश को भरोसा है कि इस बार उनकी वापसी होने के आसार हैं। शायद इसीलिए वह कभी भाजपा, कभी मायावती, तो कभी कांग्रेस के जनाधार में सेंधमारी करने में जुटे हैं। कांग्रेस की देखादेखी ही उन्होंने लखीमपुर खीरी की घटना से आहत किसानों के ज़ख़्मों पर मरहम लगाने की कोशिश शुरू की, ताकि प्रदेश के किसानों का दिल जीत सकें। लेकिन इस मामले में वह प्रियंका गाँधी का मुक़ाबला करते नहीं दिख रहे हैं। कुर्सी की आकांक्षा में बीच-बीच में वह भी भाजपा की तरह ग़लतियाँ करते जा रहे हैं। जिन्ना का ज़िक्र करना और उनके सहयोगी ओमप्रकाश राजभर का माफिया मुख़्तार अंसारी से बांदा जेल में जाकर मिलना ऐसी ही ग़लतियाँ हैं। राजभर ने माफिया मुख्तार अंसारी को ग़रीबों का मसीहा बताते हुए उन्हें उनकी इच्छानुसार जगह से चुनाव लडऩे का न्यौता देकर एक ऐसा पासा फेंका है, जो समाजवादी पार्टी के लिए बेहतर क़दम तो नहीं कहा जा सकता। अखिलेश का चुनाव लडऩे से इन्कार करना भी सपा के लिए बहुत बेहतर नहीं तो माना जा रहा है। लेकिन माना जा रहा कि अखिलेश ने यह क़दम अपनी लोकसभा सीट बचाये रखने, भाजपा के निशाने से बचने और अपने चाचा को शिवपाल यादव को ख़ुश करने के लिए उठाया है। उन्होंने जीतने पर प्रदेश में पेट्रोल सस्ता करने का जाल भी फेंक दिया है। अखिलेश की कोशिश है कि राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) और उनके चाचा शिवपाल सिंह यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी लोहिया से गठबन्धन करके वह बाज़ीमार लें।

इधर प्रियंका गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस उत्तर प्रदेश में पहले से काफ़ी मज़बूत दिख रही है। माना जा रहा है कि इसका लाभ इस बार कांग्रेस को ज़रूर मिलेगा। यही वजह है कि बसपा, सपा जैसे मज़बूत क्षेत्रीय दलों में ही नहीं सत्ता में मौज़ूद भाजपा को भी कांग्रेस की सक्रियता खटकने लगी है। तीन दशक से कांग्रेस उत्तर प्रदेश की सत्ता से दूर ही नहीं है, बल्कि लगातार कमज़ोर भी हुई है। लेकिन अब इसे मज़बूत करने का बीड़ा प्रियंका गाँधी ने उठाया है और इसमें वह स$फल होती हुई भी दिख रही हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश की सत्ता हासिल करना उनके लिए आसान नहीं है। उनके सहयोगी अभी भी दूसरों की नाव में कूद रहे हैं।

मगर प्रियंका इसकी फ़िक्र किये बग़ैर ही कार्यर्काओं को पार्टी में शामिल करने और योजनाएँ बनाने में चुपचाप जुटी हुई हैं। वह भाजपा की तरह ही सोशल मीडिया के ज़रिये प्रचार कर रही हैं। यूट्यूब व अन्य चैनलों के ज़रिये जनता के मुद्दों को उठाकर सरकार को घेरने की कोशिश में लगी हैं। वह भाजपा की तरह धर्मवाद और जातिवाद की राजनीति में न फँसकर सभी को साथ लेकर चलने की कोशिश करती दिख रही हैं, जिसमें उन्होंने महिलाओं को प्रमुखता दी है और बेरोज़गारी के अलावा किसानों व पीडि़तों के मुद्दों को ज़ोर-शोर से उठा रही हैं। कुल मिलाकर प्रियंका गाँधी सहानुभूति वाली राजनीति कर रही हैं। हालाँकि प्रियंका उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की बंजर ज़मीन उपजाऊ बनाने की कोशिश में लगी हैं। देखना यह है कि वह इस पर 2022 में कितनी फ़सल उगा पाती हैं। उन्होंने जनाधार की फ़सल उगाने के लिए अपनी पूरी ताक़त झोंक दी है और प्रदेश की पाँच करोड़ महिलाओं तक अपनी पहुँच मज़बूत करने के लिए ‘लडक़ी हूँ, लड़ सकती हूँ’ का नारा दिया  है। इस समय उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभन सीटों में कांग्रेस के पास सिर्फ़ एक और विधानसभा की 404 (403+1) में सिर्फ़ सात सीटें ही हैं।

उत्तर प्रदेश में के चुनावी रण में यूँ तो बहुजन समाज पार्टी (बसपा) भी थके हुए महारथी की तरह खड़ी है; लेकिन अभी तक ये स्पष्ट नहीं है कि उसकी लड़ाई किससे है? क्योंकि मायावती सभी पार्टियों पर बरसती दिखायी दे तो रही हैं; लेकिन पहले की तरह ताक़त चुनाव में झोंक नहीं रही हैं। भले ही उन्होंने ब्राह्मण सम्मेलन से लेकर प्रबुद्ध सम्मेलन तक करने का काम किया है। लेकिन बसपा की राजनीति ट्विटर से आगे नज़र नहीं आ रही। दीपावली पर मायावती और उनकी पार्टी बिल्कुल शान्त नज़र आयीं। पिछले विधानसभा चुनाव में बसपा से जीतकर आये उनके विधायकों में भगदड़ मची है। ऐसा लग रहा है कि 2022 के विधानसभा चुनाव में बसपा को अस्तित्व की लड़ाई लडऩी होगी; क्योंकि 2012 के विधानसभा चुनाव के बाद वह प्रदेश में लगातार कमज़ोर होती दिख रही है। मायावती 2007 के विधानसभा चुनाव की तरह ब्राह्मण मतदाताओं के ज़रिये बड़ा धमाका करने की तैयारी में हैं। लेकिन उनका दलित मतदाता उनके हाथ से खिसकता दिख रहा है। अब देखना यह है कि क्या बसपा इन्हें पछाडक़र आगे निकल पाएगी?

केंद्र सरकार के ग़रीबों को मुफ़्त राशन योजना से वंचित करने की ख़बरों के बीच उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने प्रधानमंत्री अन्न योजना को होली तक बढ़ाने का ऐलान करके मतदाताओं को भाजपा से टूटने से बचाने का प्रयास किया है। दूसरी तरफ़ उप चुनावों में भाजपा के ख़राब प्रदर्शन के बाद केंद्र की एक्साइज ड्यूटी में कटौती के फ़ैसले के बाद राज्य सरकार ने पेट्रोल-डीजल की क़ीमतों में मामूली कटौती की है। प्रदेश सरकार की दोनों घोषणाएँ लोगों को थोड़ी राहत देने वाली ज़रूर हैं; लेकिन महँगाई से परेशान जनता क्या इतने से सन्तुष्ट होकर फिर से भाजपा को प्रदेश की सत्ता सौंपेगी?

कुल मिलाकर इस समय हर पार्टी अपना क़िला बचाने में लगी है, जिसके चलते सियासी गर्मी बढ़ी हुई  है। लेकिन सत्ता में वापसी किसती होगी। यह तो वक़्त ही बताएगा।

बुंदेलखण्ड की सियासी बयार

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक़ आते जा रहे हैं, शहरों से लेकर गाँवों तक के मतदाताओं में सियासी दल गुणा-भाग कर अपना-अपना जनाधार मज़बूत करने की जुगत में लगे हैं।

उत्तर प्रदेश के हिस्से वाले बुंदेलखण्ड में सियासी हलचल जानने के लिए तहलका संवाददाता ने बुंदेलखण्ड के हिस्से वाले उत्तर प्रदेश के छ: ज़िलों- झाँसी, जालौन, बांदा, महोबा, हमीरपुर और ललितपुर की 19 विधानसभा सीटों के सियासी लोगों से बातचीत की। यहाँ के लोगों का कहना है कि बुंदेलखण्ड के लोगों की उपेक्षा और अनदेखी पहले की सरकारों ने भी की और वर्तमान सरकार भी कर रही है। बुंदेलखण्ड के लोगों को सियासी दलों ने वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल किया है, जिसके कारण बुंदेलखण्ड दिन-ब-दिन पिछड़ता ही गया है। यहाँ बेरोज़गार लोग बड़ी संख्या में हैं। आज भी लोग बिजली-पानी और अन्य बुनियादी ज़रूरतों के लिए जूझ रहे हैं। कुछ लोगों ने बताया इस बार यहाँ के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले साबित होंगे। क्योंकि किसान आन्दोलन से लेकर बढ़ती महँगाई के अलावा किसानों को खाद के लिए जूझना पड़ रहा है, जिसके चलते वे समय पर बुवाई नहीं कर पा रहे हैं।

बताते चलें इस बार का विधानसभा चुनाव भाजपा और सपा के बीच सीधी चुनावी टक्कर तो है; लेकिन कांग्रेस के बढ़ते जनाधार और बसपा की चुनावी चुप्पी से चुनावी समीकरण बदल सकते हैं। इसके अलावा इस बार उत्तर प्रदेश की सियासत में दो नयी सियासी पार्टियाँ- आम आदमी पार्टी और ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन ज़रूर सेंध लगाएँगी। लोगों का मानना है कि बुंदेलखण्ड में दो दशक से बसपा, सपा और भाजपा को एक तरफ़ा शासन का मौक़ा मिला है। लेकिन इस बार अगर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के साथ औवेसी की पार्टी अगर दमख़म से चुनाव लड़ती है, तो बुंदेलखण्ड में काफ़ी कुछ बदलाव की राजनीति हो सकती है।

बुंदेलखण्ड के लोगों का कहना है कि आज भी यहाँ के लोग बिजली की क़िल्लत से जूझ रहे हैं। अगर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविन्द केजरीवाल दिल्ली की तर्ज पर मुफ़्त बिजली-पानी की सुविधा देते हैं, तो केजरीवाल को जिताने में क्या हर्ज है? अब तक जिस तरह पूरे देश में जाति-धर्म की सियासत होती रही है, उससे कहीं बढक़र बुंदेलखण्ड में जाति-धर्म को लेकर सियासत होती है। लेकिन इस बार बुंदेलखण्ड के लोग जाति-धर्म से हटकर विकास के लिए चुनाव में मतदान करने का मन बना रहे हैं। लोगों का कहना है कि जब पूर्वांचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में विकास हो सकता है, तो बुंदेलखण्ड का विकास क्यों नहीं हो सकता? जबकि बुंदेलखण्ड में 19 विधानसभा सीटों में भाजपा का परचम लहराया था।

बुंदेलखण्ड के लोगों का कहना है कि कांग्रेस महासचिव प्रियंका गाँधी ने बुंदेलखण्ड के लोगों के बीच आकर साफ़ कहा है कि सपा, बसपा और भाजपा ने यहाँ की जनता को गुमराह किया है, जिसके चलते आज भी यहाँ के किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। उन्होंने कहा कि इस बार के विधानसभा चुनाव में पूरे प्रदेश में कांग्रेस का जनाधार बढ़ेगा।

बुंदेलखण्ड की राजनीति के जानकार संजीव कुमार का कहना है कि इस बार अगर कोई भी सियासी दल सही प्रत्याशी को चुनाव मैदान में उतारता है, तो वह चुनाव जीत सकता है। क्योंकि अभी जो चुनाव जीते हैं, वे रातोंरात भाजपा में शामिल होकर भाजपा लहर में जीतकर तो आ गये हैं; लेकिन उन्होंने बुंदेलखण्ड का विकास न करके, ख़ुद का विकास किया है। यहाँ के लोगों का कहना है कि जब 2017 में बुंदेलखण्ड की चुनावी सभा में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि बुंदेलखण्ड के विकास के लिए बुंदेलखण्ड विकास बोर्ड का गठन किया जाएगा।

विकास बोर्ड का गठन तो हुआ; लेकिन विकास नहीं हुआ। भाजपा के प्रति लोगों के बढ़ते आक्रोश के चलते जीते हुए विधायकों का टिकट कटने कयास लगाये जा रहे हैं, जिसके चलते यहाँ की सियासतदानों में उथल-पुथल सी मची हुई है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अब भी कह रहे हैं कि बुंदेलखण्ड के विकास में कोई बाधा नहीं आने देंगे। जबकि यहाँ के लोगों ने बताया कि योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही प्रदेश की सडक़ों को गड्ढामुक्त करने का वादा किया था; लेकिन सडक़ों की हालत और जर्जर हो गयी।

समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ता आशाराम सिंह का कहना है कि अगर सपा का संवर्ग मत (काडर वोट) मुस्लिम-यादव तथा अन्य जातियों के मतदाता मज़बूती के साथ रहे, तो कोई भी राजनीति दल सपा को सरकार बनाने से नहीं रोक सकेगा। आने वाले समय में चौंकाने वाली बात यह हो सकती है कि अगर भाजपा, सपा और बसपा के विधायकों को उनकी पार्टियों ने टिकट नहीं दिये, तो वे किसी दूसरे दल के टिकट पर चुनाव लड़ सकते हैं। इससे यह बात तो साफ़ है कि भाजपा ही नहीं, दूसरे क्षेत्रीय दलों की भी स्थिति बुंदेलखण्ड में बहुत मज़बूत नहीं है।

क्या रालोद का अस्तित्व बचा पाएँगे जयंत?

उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव जैसे-जैसे नज़दीक आ रहे हैं, प्रदेश की सभी पार्टियाँ कमर कसती नज़र आ रही हैं। लेकिन इन पार्टियों को इस बार के चुनाव में कड़ी चुनौती किसान, ख़ासकर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट किसान दे रहे हैं। यही वजह है कि सभी पार्टियाँ अपना-अपना अस्तित्व बचाने की चिन्ता सताने लगी है।

अगर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की बात करें, तो वहाँ सिर्फ़ जाट ही नहीं, दूसरी जाति के किसान भी भाजपा से सख़्त नाराज़ हैं। जाटों के साथ-साथ इन मतदाताओं के बीच अपनी पैठ बनाने में जुटे हैं- छोटे चौधरी यानी चौधरी जयंत सिंह। उन्हें किसान आन्दोलन के चलते बल मिला है। लेकिन उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें अपने पिता चौधरी अजित सिंह के गुजर जाने के बाद पिछले कई चुनावों में बुरी तरह कमज़ोर पड़ चुकी अपनी पार्टी की साख और उसके अस्तित्व को बचाना होगा। इसके लिए उत्तर प्रदेश के आगामी साल के विधानसभा चुनाव जयंत के लिए स्वर्णिम अवसर के रूप में सामने हैं, जिन्हें उन्हें अपने राजनीतिक विवेक से जनता में एक नया जोश और विश्वास पैदा करके हर हाल में हासिल करना होगा, अन्यथा अगर यह अवसर उन्होंने गँवा दिया, तो उन्हें भविष्य में राजनीति में अपना क़द और पार्टी का अस्तित्व बचाये रखने की चुनौती हमेशा रहेगी। इसके लिए भले ही वह सपा से गठबन्धन कर लें; लेकिन अपना क़द छोटा करके समझौता न करें।

जानकारी के मुताबिक, रालोद के लिए उन्होंने समाजवादी पार्टी के मुखिया अखिलेश यादव से 40 सीटों की जो माँग की थी, जिसमें 32 सीटें मिलने पर सहमति बनने की बात सामने आ रही है। माना जा रहा है कि 21 नवंबर को मुलायम सिंह के जन्मदिन पर कार्यक्रम के दौरान सपा के रालोद से गठबन्धन की औपचारिक घोषणा हो सकती है। उनके कार्यकर्ताओं का मानना है कि उससे कम में उन्हें किसी हाल में नहीं मानना है, भले ही यह गठबन्धन हो या न हो। हालाँकि अभी तक तो यही बात सामने आ रही है कि जयंत को पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट बेल्ट की 32 सीटें सपा छोड़ रही है, जिसका उन्हें राजनीतिक फ़ायदा मिल सकता है। क्योंकि कृषि क़ानूनों के विरोध में आन्दोलन कर रहे किसानों, जिनमें जाट भी शामिल हैं; ने उन्हें रस्म पगड़ी के दौरान जो ज़िम्मेदारी दी है, उससे यह साफ़ है कि जाट मतदाता चौधरी जयंत सिंह की तरफ़ जाटों के नेतृत्व करने वाले नेता की नज़र से देख रहे हैं, जिनसे जाट किसानों को बड़ी उम्मीदें हैं।

ज़ाहिर है कि रालोद की ज़िम्मेदारी अब पूरी तरह चौधरी जयंत सिंह पर आ चुकी है और पार्टी अध्यक्ष के तौर पर यह उनका पहला बड़ा इम्तिहान है, जिसमें जाटों के साथ-साथ मुस्लिम मत भी रालोद के खाते में जाएँ, तो उनकी जीत पक्की है। ऐसा माना जा रहा है, जिसके बग़ैर जाटलैंड में किसी भी पार्टी की जीत सम्भव नहीं है। इसके अलावा अगर दलित वोट का भी कुछ प्रतिशत वोट रालोद को मिल गया, तो फिर उसे अच्छी ख़ासी सीटों पर आसानी से जीत हासिल हो सकती है। केवल जाटों के दम पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 20-22 फ़ीसदी सीटें तो जीती जा सकती हैं; लेकिन 100 फ़ीसदी तो क़तर्इ नहीं।

राजनीतिक जानकारों का मानना है कि अधिकतर जाटों का भाजपा प्रेम अभी पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ है, जिसकी वजह भाजपा में जाट नेताओं का होना भी है। अगर जाट नेता भाजपा का दामन छोड़ दें, तो बचे-खुचे भाजपा समर्थक जाटों का भी भाजपा मोह भंग हो जाएगा और इससे भाजपा को उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में ही नहीं, बल्कि 2024 के लोकसभा चुनाव में भी तगड़ा झटका लग सकता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश को राष्ट्रीय लोकदल का गढ़ माना जाता रहा है। किसान मसीहा चौधरी चरणसिंह से लेकर जयंत चौधरी तक छपरौली, बाग़पत सीना ताने खड़े रहे हैं। तमाम नाराजगी और रूठने मनाने के बावजूद छपरौली ने कभी भी इन परम्परागत सियासत दानों का सिर नीचा नहीं होने दिया। लेकिन सन् 2013 के मुज़फ़्फ़रनगर दंगे और टिकट के ग़लत बँटवारे के चलते रालोद की नाव डूब गयी। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची कि रालोद सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में एकमात्र छपरौली की सीट बचा पायी। लेकिन अब रालोद को एक बेहतरीन मौक़ा मिला है, जिसे चौधरी जयंत सिंह को बचना है, जो कि थोड़ा मुश्किल भले है, लेकिन नामुमकिन नहीं। इसके लिए जयंत को खुलकर किसान आन्दोलन के साथ डटकर खड़े रहना होगा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मतदाताओं में एक विश्वास जगाना होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान आन्दोलन के दौरान जयंत ने किसानों का समर्थन देकर कार्यकर्ताओं में जोश डालने का कार्य किया है। इस दौरान की गयी मेहनत और हाथरस के लाठीचार्ज के परिणामस्वरूप ही वह लोगों में चर्चा का विषय भी बने। लेकिन उन्हें पार्टी को वन मैन आर्मी के तंत्र (मॉडल) से बाहर निकालकार असलियत में लोकतांत्रिक बनाना होगा। फ़िलहाल सवाल यही है कि क्या रालोद का अस्तित्व बचा पाएँगे चौधरी जयंत सिंह?

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

धान की ख़रीद में देरी से बढ़ी कालाबाज़ारी

हरियाणा में ही आढ़तियों के हाथ सस्ते में बेचने को मजबूर है। उन्होंने यह भी बताया कि हरियाणा में अलग-अलग मंडियों में धान का भाव भी अलग-अलग, कहीं 1,100 रुपये प्रति कुंतल, तो कहीं 1,300 रुपये प्रति कुंतल है।

देश के किसान इन दिनों तीन कृषि क़ानूनों के विरोध के साथ-साथ न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की गारंटी के लिए आन्दोलन कर रहे हैं। वहीं सरकार मौखिक रूप से कई बार कह चुकी है कि एमएसपी है, एमएसपी रहेगी। लेकिन क्या यह सत्य है? शायद नहीं। क्योंकि हर छमाही रबी और ख़रीफ़ की फ़सल बेचने के लिए किसानों को जिस तरह की दिक़्क़तों का सामना करना पड़ता है, उनकी हक़ीक़त जानने के बाद यही कहा जाना उचित लगता है। 10-20 दिन पहले ही धान की फ़सल खेतों से उठा चुके किसानों के लिए सरकारी ख़रीद केंद्रों के खुलने में देरी होना इसका प्रमाण है। यह लेख लिखे जाने तक अनेक ख़रीद केंद्र खुले भी; लेकिन 100 फ़ीसदी नहीं खुले थे। काफ़ी दिनों तक धान की ख़रीद सरकारी ख़रीद केंद्रों पर न होने के चलते ज़रूरतमंद किसानों से आढ़तियों ने औने-पौने भाव में धान ख़रीद लिया। सवाल यह है कि किसान किससे शिकायत करें? सरकार एमएसपी पर गारंटी देना नहीं चाहती और ख़रीद केंद्रों को भी देरी से खोला जाता है। इसके बाद वहाँ भी किसानों के अनाज में अनेक कमियाँ निकालकर करदा काटकर अनाज को तौला जाता है। अगर किसान ख़रीद केंद्रों की शिकायत करें, तो उन पर ख़रीद करने वाले लोग अनाज को गीला और ख़राब बताकर ख़रीदने से मना कर देते हैं। उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, हरियाणा, पंजाब और बिहार के कई किसानों से तहलका संवाददाता ने ने बात की, तो उन्होंने बताया कि किसानों के साथ अन्याय ही अन्याय हो रहा है।

किसान नेता और वकील चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने बताया कि अब तक के इतिहास में किसानों के साथ बाज़ारों में इतना भेद-भाव नहीं हुआ है, जितना कि अब हो रहा है। उनका कहना है कि बाज़ारों और गेहूँ की बड़ी-बड़ी मंडियों में सत्ता से जुड़े पूँजीपतियों का कारोबार है। सरकार द्वारा निर्धारित भाव को वे मानते नहीं हैं। अपने-अपने हिसाब से ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं। ग़रीब किसान मजबूरी में औने-पौने दाम में उन्हें अनाज बेच देते हैं। सरकार ने जो ख़रीद केंद्र बनाये हैं, वहाँ पर प्रशासन भी मंडियों की भाषा बोलता है। ऐसे आख़िरक़ार न चाहते हुए भी किसान हर हालत लुटता जा रहा है। उन्होंने कहा कि देश में पहले जमाख़ोरी का कारोबार कम हुआ करता था। लेकिन अब सरकार में पूँजीपतियों की तूती बोल रही है और वे सारे क़ानून-क़ायदे ताक पर रखकर जमाख़ोरी करके खाद्यान की कालाबाज़ारी कर रहे हैं। यह एक सच्चाई है कि अब देश के पूँजीपतियों की नज़र कृषि उत्पादों पर टिकी है और वे इस पर अपना आधिपत्य चाहते हैं। किसानों का तो कहना है कि तीन कृषि क़ानून भी सरकार इसी सोच के चलते लायी है और यही वजह है कि उन्हें वापस करना नहीं चाहती।

हरियाणा के किसान राजू सिंह ने बताया कि हरियाणा का किसान अपनी धान की फ़सल को बेचने के लिए भटक रहा है। करनाल, सिरसा और पानीपत में किसानों के ट्रैक्टर के ट्रैक्टर भरे मंडियों में कई-कई दिनों से खड़े हैं। राजू सिंह का कहना है कि पंजाब सरकार धान की सही क़ीमत दे रही है। वहीं हरियाणा सरकार दावा तो कर रही है कि वह धान ख़रीद रही है। लेकिन सच यह है कि वह उन्हीं किसानों का धान ख़रीद रही है, जो सरकार से जुड़े हैं, जिनमें दलाल भी शामिल हैं। असल किसान तो भटक रहे हैं। हरियाणा के किसान पंजाब में जाकर अगर धान बेचें, तो मोटा भाड़ा लगेगा। इसलिए हरियाणा में ही आढ़तियों के हाथ सस्ते में बेचने को मजबूर है। उन्होंने यह भी बताया कि हरियाणा में अलग-अलग मंडियों में धान का भाव भी अलग-अलग, कहीं 1,100 रुपये प्रति कुंतल, तो कहीं 1,300 रुपये प्रति कुंतल है।

धान की खेती में अग्रणी उत्तर प्रदेश के ज़िला बांदा ज़िले की अर्तरा तहसील धान की उत्तर प्रदेश की प्रमुख मंडियों में से एक है। यहाँ पर धान की ख़रीददारी को लेकर किसानों के साथ अजीब से व्यवहार किया जा रहा है। अन्य ज़िलों से जो बिकने को आ रही है। उनके साथ बाज़ार और मंडियों के लोग अपनी मनमर्ज़ी के भाव में धान ख़रीद रहे हैं और जमकर घटतौली कर रहे हैं। हमीरपुर ज़िले के भरुआ सुमेरपुर के किसान दिलीप कुमार ने बताया कि आज देश के किसान मज़ाक़ बन गये हैं। सरकार तो वादे करती है कि यह होगा, वह होगा; लेकिन धरातल पर किसानों के हित में कुछ नहीं हो रहा है। शासन-प्रशासन के लोग और पूँजीपति मिलकर जो खेल किसानों के साथ कर रहे हैं, उस पर सरकार कुछ नहीं करती है। सत्ता से जुड़े लोग अपनी तानाशाही कर रहे हैं। किसानों को मंडियों में न केवल परेशान किया जा रहा है, बल्कि बेइज़्ज़त भी किया जा रहा है, जिससे वे खाद्यान बेचने के दौरान सहमे-सहमे से हैं कि किसी प्रकार उनकी फ़सल बिक जाए।

किसान नेता भूपेन्द्र सिंह का कहना है कि जब तक सरकार स्पष्ट तौर प्रशासन और बाज़ार के बीच ज़िम्मेदारीयाँ तय नहीं करती है, तब तक बाज़ारों में किसान लुटता रहेगा। रामपुर से लेकर हापुड़ तक किसानों ने कई बार उत्तर प्रदेश सरकार से लिखित में शिकायत की है कि किसानों के साथ अगर कोई अन्याय कर रहा है, तो वह सरकार का प्रशासन-तंत्र है। किसान जब अपना अनाज बेचने आता है, तो उसे कई-कई दिन लग जाते हैं। किसान केंद्रों में हर कर्मचारी किसानों से लेन-देन की बात करता है, तब जाकर उसका अनाज बिकता है। मध्य प्रदेश के किसान राजेश कुमार का कहना है कि मौज़ूदा समय किसानों को पैसा की सख़्त ज़रूरत है। वजह साफ़ है कि इस समय किसान रबी की बुवाई में व्यस्त हैं। धान की फ़सल बेचने में वे समय बर्बाद नहीं करना चाहते और उन्हें पैसे की भी ज़रूरत है। इसलिए वे मजबूरन आढ़तियों और सरकारी ख़रीद केंद्रों के कर्मचारियों के हाथों छले जा रहे हैं। उनका कहना है कि अगर सरकार का यही रवैया रहा, तो आने वाले दिनों में किसान धान की फ़सल नहीं उगाएगा। राजेश का कहना है कि मध्य प्रदेश से सटा राज्य छत्तीसगढ़ है। छत्तीसगढ़ कभी धान का कटोरा कहा जाता था; लेकिन अब नहीं कहा जाता है। क्योंकि धान की ख़रीद में कमी और कम भाव की ख़रीद के चलते वहाँ के लोगों ने धान की फ़सल बोना बन्द कर दी है।

मध्य प्रदेश के किसान विनोद कुमार साहू का कहना है कि यह पूँजीपतियों की सोची-समझी चाल है, जिसके तहत धान ही नहीं, किसी भी फ़सल की ख़रीददारी समय पर नहीं की जाती है। पहले डीजल-पेट्रोल के दाम कम थे, तो किराया-भाड़ा भी कम लगता था; लेकिन अब तो वह भी बढ़ गया है। पहले किसान आसानी से दूसरे ज़िले या राज्य में फ़सल बेच देते थे; अब यह सम्भव नहीं है। कुल मिलाकर किसानों को परेशान किया जा रहा है। महँगाई के अलावा बीमारियों का दौर चल रहा है। ऐसे में हर किसान को पैसे की सख़्त ज़रूरत है और इसका फायदा आढ़तिये, पूँजीपति, ख़रीद केंद्रों के कर्मचारी, मंडियों में बैठे दलाल उठा हैं और सरकार एमएसपी का ढोल ऐसे पीटती है, जैसे हक़ीक़त में उसने किसानों पर कोई अहसान कर दिया हो। बड़ी बात तो यह है कि एमएसपी पर किसानों के खाद्यान शायद ही कहीं ख़रीदे जाते हों।

बताते चलें एक दौर में खाद्यान्न खेतों से सीधे ख़रीद केंद्रों पर तुलती थे, बाज़ार में भी उनके दाम ठीकठाक मिल जाते थे। तब किसानों को प्रशासन से मिन्नतें भी नहीं करनी पड़ती थीं और न ही समझौते का सहारा लेना पड़ता था। अब यह हालत है कि ख़रीद केंद्रों पर कर्मचारियों का दबदबा चलता है। वहाँ पुलिस मौज़ूद होती है। टोकन सिस्टम है। बारी आने पर अनाज लिया जाता है और बारी कई दिन तक नहीं आती। जब बारी आती है, तो कई कमियाँ। ऐसे में किसानों का हर तरह से नुक़सान-ही-नुक़सान होता है।

ग़ाज़ीपुर मंडी में व्यापारी महेन्द्र सिंह का कहना है कि किसान और आम जनमानस की समझ से बाहर है कि अलग-अलग राज्यों में धान का भाव अलग-अलग होने का मतलब क्या है? मतलब साफ है कि मंडियों से लेकर सरकारी ख़रीद केंद्रों पर दलालों का बोलबाला है, जो किसानों की मजबूरी का लाभ उठाकर मनमर्ज़ी के भाव तय करके अनाज ख़रीदते हैं। कई बार ख़रीद केंद्रों के कर्मचारी नकद पैसा देकर किसानों का माल ख़रीद रहे हैं और आढ़तियों की तरह जमाख़ोरी करने में लगे हैं। ऐसा नहीं है कि ये सब शासन-प्रशासन को पता नहीं है; सब कुछ पता है और उनकी ही देख-रेख में ही सब हो रहा है। जागरूक और पढ़े-लिखे किसान इसे लेकर उनसे बात भी करते हैं, सरकार से शिकायत की चेतावनी तक देते हैं; लेकिन इससे होता कुछ नहीं।

शुरू से ही किसान आन्दोलन से जुड़ीं किसान नेता सुनीता गौर ने कहा कि जब सरकारें व्यापारियों के हित में काम करती हैं, तो देश की जनता हो या किसान, सबको कुछ-न-कुछ परेशानी होती है। उनका कहना है कि देश में शासन से लेकर प्रशासन तक पूँजीपति व्यापारियों के हित में काम कर रहे हैं। ऐसे में फ़सल में ही क्या, छोटे-छोटे व्यापारों में सेंध लगायी जा रही है।

मौज़ूदा दौर में अगर सबसे ज़्यादा अगर धान की बिक्री को लेकर अगर किसान परेशान है, तो वे उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा के किसान हैं। यहाँ पर किसानों को अपनी धान को औने-पौने दामों में बेचने का मजबूर होना पड़ रहा है। किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि आगामी 27 नवंबर को दिल्ली में देश के किसान धान की बिक्री में हो रही घपलेबाज़ी की शिकायत केंद्र सरकार के समक्ष रखेंगे।

रंगीन नफ़रतें

मज़हब ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता बताने वाले नहीं होते, बल्कि मन की आँखें खोलने वाले होते हैं। लेकिन अब लोगों के मन की आँखें ही बन्द होती जा रही हैं। लोग इस क़दर कुछ कट्टपंथियों का अन्धानुकरण करने लगे हैं कि वे अन्धविश्वासी हो चुके हैं। ऐसे लोग किसी एक मज़हब में नहीं, बल्कि हरेक में हैं। ऐसे लोग एकता और सद्भाव की बात करने वालों की नहीं, मज़हबों के नाम पर भडक़ाने वालों की बात मानते हैं। दूसरों के रहन-सहन, वेशभूषा, मज़हब और ख़ान-पान को लेकर चिढ़ रखने की होड़ लग चुकी है। इसी होड़ में रंगे-पुते लोग अब रंगों को लेकर भी नफ़रतों की आग जलने के कगार की ओर बढ़ रहे हैं। यह आग भडक़ाने का काम कौन लोग कर रहे हैं? यह किसी से छिपा नहीं है।

ऐसे लोगों ने अब रंगों को भी मज़हबों के नाम पर बाँट दिया है। मसलन, केसरिया रंग सनातनियों (हिन्दुओं) का है। हरा रंग मुसलमानों का है। सफ़ेद रंग ईसाइयों का है। यहूदियों का पीला रंग है। बौद्धों का गहरा लाल रंग है। सिखों का नीला रंग है। कुछ मज़हबों में एक से अधिक रंगों को भी पसन्द किया जाता है। लेकिन क्या ऐसा कोई रंग है, जो किसी इंसान की ज़िन्दगी में न हो? या वह उससे हमेशा के लिए दूर रहे सके और उसका उपयोग वह कभी न करे? सम्भव ही नहीं है। फिर भी अब रंगों के हिसाब से नफ़रतें पनपने लगी हैं। ख़ासकर सनातन धर्म और इस्लाम धर्म के लोग रंगों को लेकर अब नफ़रतों की आग की लपटों की तरफ़ बढ़ते दिख रहे हैं। लेकिन रंगों को मज़हबी नज़रों से देखने वाले और रंगों के हिसाब से नफ़रतों की आग भडक़ाने वाले किसी भी व्यक्ति को यह समझ नहीं आता कि सभी रंग प्रकृति के हैं और अगर एक भी रंग इनमें से कम कर दिया जाए, तो दूसरे रंगों का न केवल महत्त्व कम होगा, बल्कि बचे हुए रंग फीके भी लगेंगे। एक ही मज़हब के लोगों में, बल्कि एक ही परिवार में भी सबकी पसन्द के अलग-अलग रंग होते हैं। तो क्या उन्हें आपस में नफ़रत करनी चाहिए?

सभी रंगों का एक मतलब होता है। हर रंग कोई-न-कोई सन्देश देता है। किसी प्रेरणा का प्रतीक होता है। मसलन, लाल रंग मंगल, पराक्रम, धन, ख़शी और स्वास्थ्य का प्रतीक होता है। केसरिया (नारंगी) रंग ऐश्वर्य, वीरता, सक्रियता, ख़शी, स्वतंत्रता, ऊर्जा, सामाजिकता, सृजनात्मकता और ध्यान का प्रतीक माना जाता है। इसलिए भारत के राष्ट्रीय ध्वज में भी इसका स्थान सबसे ऊपर आता है। हरा रंग प्रकृति का है और यह शान्ति, शीतलता, सुख और स्फूर्ति का प्रतीक होता है। सफ़ेद रंग को लोग बेरंग समझते हैं। लेकिन सफ़ेद रंग सातों रंगों का मिश्रण होता है, जो कि पवित्रता, शुद्धता, शान्ति, ज्ञान, विद्या गृहण, शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और नैतिक स्वच्छता का प्रतीक होता है। पीला रंग मानसिक, बौद्धिक उन्नति के साथ-साथ ज्ञान, विद्या, सुख, शान्ति, योग्यता और एकाग्रता का भी प्रतीक होता है। गेरुआ रंग नयी सुबह, नये उजाले, नयी ऊर्जा, शुद्धिकरण का प्रतीक और आज्ञाकारक तथा ज्ञान प्राप्ति का सूचक होता है। नीला रंग ऊँचाई, गहराई के साथ-साथ बल, पौरुष, वीरता, ठंडक, एकता, वफ़ादारी और सतर्कता का प्रतीक होता है। शान्ति प्रदान करता है। गुलाबी रंग प्रेम, प्रणय, सकारात्मकता, कोमलता, नेतृत्व और सुन्दरता का प्रतीक होता है।

इसी तरह काला रंग अँधेरे, नकारात्मकता का प्रतीक समझा जाता है। लेकिन इस रंग की वजह से ही बाक़ी के सभी रंग प्रकट हो पाते हैं। सोचिए, अगर ब्रह्माण्ड काला नहीं होता, तो चीज़ें दिखतीं कैसे और रंगीन कैसे नज़र आतीं? काले रंग की वजह से ही दूसरे रंगों को हम देख पाते हैं। इसका मतलब यह है कि हर रंग अपने में प्रकृति का, ज़िन्दगी का कोई-न-कोई हिस्सा भरता है और उसे रंगीन करता है। इससे यह सिद्ध होता है कि किसी मज़हब में पसन्द किये जाने वाले रंग का विरोध करने वाले या उस रंग से नफ़रत करने वाले लोग ईश्वर और उसकी संरचना अर्थात् प्रकृति से नफ़रत कर रहे हैं। ज़िन्दगी रंगीन है; रंगहीन नहीं। रंगहीन ज़िन्दगी हो भी नहीं सकती। भले ही किसी की ज़िन्दगी कितनी भी दुश्वार क्यों न हो। ऐसे में किसी रंग के नज़रिये एक-दूसरे से नफ़रत करना मूर्खता नहीं, तो और क्या है? लोगों की इसी मूर्खता का फ़ायदा मज़हबी कट्टरपंथी और राजनीतिक लोग उठा रहे हैं। ये लोग आपकी ज़िन्दगी से कुछ रंग छीनना चाहते हैं। जब वे इसमें कामयाब हो जाएँगे, तब आप अपनी ज़िन्दगी में उन रंगों को न केवल शामिल करने से परहेज़ करेंगे, बल्कि उन रंगों और उन्हें पसन्द करने वालों से नफ़रत करेंगे। आपस में लड़ेंगे, झगड़ेंगे। इसके बाद आपकी आने वाली पीडिय़ाँ इसे परम्परा और संस्कृति मान लेंगी और इस पर तब तक क़ायम रहकर लड़ती-मरती रहेंगी, जब तक वे बड़े विनाश के मुहाने पर नहीं पहुँच जाएँगी।

क्या आप यह चाहते हैं कि आपके बच्चों की ज़िन्दगी इन फ़िज़ूल की उलझनों में बर्बाद हो? जिन रंगों को प्रकृति ने आपको दिया है; आप उनमें से कुछ से इस वजह से नफ़रत क्यों करने पर आमादा हो कि उन्हें किसी दूसरे मज़हब के लोग पसन्द करते हैं। क्या रंगों का भी कोई मज़हब होता है? सभी रंग तो प्रकृति के ही हैं। तो क्या आप प्रकृति से उन रंगों को समाप्त कर दोगे? क्या उन रंगों के, जो आपके मज़हब में प्राथमिकता नहीं पा सके हैं; बग़ैर अपना काम चला सकोगें? क्या आपको मालूम नहीं कि आप जो खाते-पीते हो, पहनते-ओढ़ते हो, देखते हो; सबमें ही सभी रंग भरे हुए हैं। फिर यह पागलपन क्यों? किसके लिए?