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ठीक नहीं हबीब के थूक की तरकीब

बुराई आक्रामक होती है। सोशल मीडिया के युग में बुराई और अच्छाई को वायरल होने में कोई ज़्यादा समय नहीं लगता है। अच्छाई में कोई प्रतिक्रिया ख़ास मायने नहीं रखती है; लेकिन बुराई में प्रतिक्रिया आग में घी का काम करती है। ऐसा ही मौज़ूदा समय में हेयर स्टाइलिस्ट जावेद हबीब के थूक कांड को लेकर वीडियो वायरल होने पर हो रहा है। इससे मानवीय संवेदनाओं और विश्वास को आघात लगा है। बताते चलें कि उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में एक सेमिनार में ब्यूटिशियन पूजा गुप्ता नामक एक महिला के बाल काटते हुए वहाँ उपस्थित सैकड़ों लोगों के सामने जावेद हबीब तो पूजा के बालों पर थूककर यह बताते हुए दिखाया है कि अगर बालों की कटिंग के दौरान पानी कम पड़ जाए, तो थूक से पानी की कमी को दूर किया जा सकता है।

साथ ही जावेद हबीब ने यह भी कहा है कि उसके थूक में जान है। इसी बात को लेकर पूजा गुप्ता ने जावेद हबीब की शरारत पर रोष जताते हुए आपत्ति व्यक्त की है और मुज़फ़्फ़रनगर थाने में एफआरआई दर्ज करायी है। पूजा गुप्ता के साथ हुए थूक कांड के बाद बजरंग दल और हिन्दू सेना के सैकड़ों लोगों ने प्रदर्शन कर हबीब का विरोध जताया है और कई जगह तोड़-फोड़ भी है। मामला तूल पकड़ता देख जावेद हबीब ने सार्वजनिक तौर पर माफ़ी माँगते हुए कहा कि सेमिनार में कई-कई घंटे लग जाते हैं। ऐसे में मज़ाक़ में मनोरंजन के तौर पर उसने यह किया। फिर भी वह माफ़ी माँगता है।

पूजा गुप्ता का कहना है कि वह ख़ुद एक ब्यूटी पार्लर चलाती है। इसलिए बालों के रख-रखाव और ब्यूटिशियन से जुड़े सेमिनार में भाग लेने गयी थी। जावेद हबीब ने बाल काटते हुए और बालों में सूखापन को पानी की बजाय थूक से दूर करने का जो षड्यंत्र किया है, उससे वह आहत है। पूजा ने कहा कि सोशल मीडिया के युग में तो बात हबीब की सामने आ गयी। अन्यथा न जाने कबसे हबीब लोगों के बालों पर थूककर उन्हें काट रहा होगा। हबीब जैसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। पूजा ने माँग की है कि कोरोना जैसी घातक बीमारी में थूक से न जाने कितने लोग बीमार हुए होंगे, इसकी भी जाँच होनी चाहिए। जावेद हबीब के थूक कांड के बाद लोगों ने हबीब के देश भर में बने सैकड़ों सैलूनों पर जाना कम कर दिया है। दिल्ली के हबीब हेयर सैलून में बाल कटवाने वाले पंकज ने ‘तहलका’ को बताया कि हबीब का कैंची और बालों से पुस्तैनी रिश्ता रहा है। लोगों को हबीब पर विश्वास था; लेकिन अब विश्वास टूट गया है। ऐसे में हबीब जैसों की दुकानों को बन्द किया जाना चाहिए। हबीब की तरकीब और घिनौने अमानवीय कृत्य को लेकर तामाम सामाजिक संगठनों के साथ राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस घटना पर कड़ी आपत्ति व्यक्त करते हुए इस मामले की जाँच के अलावा हबीब पर क़ानूनी कार्रवाई की माँग की है।

बताते चलें कि जावेद हबीब के दादा नजीर अहमद और पिता हबीब अहमद अग्रेजों के जमाने से बाल काटते आ रहे हैं। जावेद हबीब भी उसी पुस्तैनी काम को आगे बढ़ा रहा है। हबीब जवाहर लाल विश्वविद्यालय (जेएनयू) से फ्रांस भाषा से मास्टर की डिग्री हासिल करने के अलावा हबीब ने लंदन में भी हेयर स्टाइलिस्ट में भी डिग्री हासिल ही है। फिर भी अगर उसने थूक कांड किया है, तो इसको सोची-समझी शरारत ही कहा जाएगा, जो हबीब और उसके काम की विश्वनीयता पर सवालिया निशान लगाती है। जावेद हबीब के देश भर में कई हज़ार हेयर सैलून चल रहे हैं, जिसमें अमीर लोग ही बाल कटवाने जाते हैं। क्योंकि उनके यहाँ बालों की कटिंग 500 रुपये से शुरू होती है। बताते चलें कि भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में सिंगापुर, बंग्लादेश, केन्या और दुबई जैसे देशों में फ्रेंचाइजी चल रही है। दिल्ली में बारबर एसोसिएशन के पदाधिकारी सलीम खान का कहना है कि बालों की कटिंग का काम विश्वनीयता का होता है। लोग विश्वास करके कटिंग करने वालों की बात पर भरोसा करके दाढ़ी और बाल कटवाते हैं। बालों की कटिंग के दौरान बाल आँख में न चले जाएँ, इसलिए वे आखों को बन्द कर लेते हैं। यह सब विश्वास ही तो है। ऐसे में अगर कोई थूककर या अन्य शरारत करके कटिंग करता है, तो यह धोखा है। उनका कहना है कि अगर ऐसी घटनाएँ होंगी, तो निश्चित तौर पर लोग सैलून में बालों की कटिंग कराने से बचेंगे। क्योंकि सोशल मीडिया के ज़रिये ऐसे मामले लोगों तक पहुँचते हैं और उनमें आक्रोश पनपता है। वैसे भी आजकल वीडियो बनना परम्परा में आ गया है। ऐसे में ईमानदारी और साफ़-सुथरे तरीक़े से बाल काटने वालों का काम भी प्रभावित होगा।

कपड़ा उद्योग पर फिर संकट के बादल

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बाद लगा था कि कपड़ा उद्योग की गुजरात में लगी मिलें, फैक्ट्रियाँ पहले की तरह सुचारू रूप से चल सकेंगी। बीते साल 2021 के आख़िर तक इस उद्योग से जुड़े लोगों को यही उम्मीद रही और उन्हें लगा कि 2022 में सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन एक बार फिर कोरोना के ओमिक्रॉन रूप ने इस उद्योग से जुड़े हर आदमी को चिन्ता में डाल दिया है। सन् 2016 में हुई नोटबंदी के बाद से इस उद्योग पर जिस तरह मार पड़ी है, उससे न केवल कपड़ा फैक्ट्रियों, मिलों और कम्पनियों के मालिक, बल्कि इनमें काम करने वाले लोग भी बेहद कमज़ोर हुए। नोटबंदी और कोरोना ने इस उद्योग को बिल्कुल बर्बादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। इसके बाद पिछले साल पड़े कोयला संकट से उभरे बिजली संकट ने भी इस उद्योग को एक बड़ा झटका दिया था। उन दिनों कई-कई दिन तक मिलों, कम्पनियों और फैक्ट्रियों में काम नहीं हुआ था।

हालात यह हैं कि पिछले पाँच-छ: साल में बाज़ार में दर्ज़नों मिलों, फैक्ट्रियों और कम्पनियों पर ताले लग चुके हैं और अधिकतर की हालत पहले से काफ़ी कमज़ोर हुई है। कोरोना महामारी के दौरान कई-कई बार हुई तालाबन्दी ने एक तरफ़ इनमें काम करने वाले हज़ारों लोगों को अपने घर-गाँव लौटने को मजबूर किया। वहीं अब जब उनकी वापसी की उम्मीद बँधी थी, फिर से कोरोना के नये वारियंट ओमिक्रॉन ने दस्तक दे दी है, जिससे एक बार फिर तालाबंदी के हालात नज़र आ रहे हैं। इससे न केवल कपड़ा उद्योग से जुड़े मालिकों में, बल्कि काम करने वालों में भी रोज़गार को लेकर डर घर करने लगा है।

हालाँकि गुजरात सरकार ने तीसरी बार बढ़ते कोरोना के ओमिक्रॉन मामलों से बचाव के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिये हैं। नाइट कफ्र्यू लागू कर दिया है। लेकिन मिलों, कम्पनियों और फैक्ट्रियों को दिशा-निर्देश का पालन करते हुए दिन में चालू रखने के लिए कहा है। अब मिलों, कम्पनियों और फैक्ट्रियों में काम करने वाले लोगों को सैनिटाइज करके, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) के साथ मास्क लगाकर काम करना है। काम करने वाले सभी लोगों के साथ-साथ मशीनों को भी सैनिटाइज किया जाना ज़रूरी है। लेकिन इन नियमों की वजह से मिलों, फैक्ट्रियों और कम्पनियों में काम उस गति से नहीं हो पा रहा है, क्योंकि अब लोगों की संख्या भी उतनी नहीं है और उत्पादन भी कम हो रहा है।

बन्द नहीं होगा काम

अहमदाबाद के नारोल में स्थित श्री साई इंपेक्स के मालिक ललित राजपूत कहते हैं कि अहमदाबाद में उन्हें कई दशक हो गये। लेकिन कपड़ा उद्योग की जैसी स्थिति अब हो गयी है, वैसी स्थिति कभी नहीं हुई। देश के दूर-दराज़ से इस क्षेत्र में करियर बनाने वाले लोग भी अब इस क्षेत्र में आने से डर रहे हैं। पहले हर कम्पनी में भर्तियाँ होती ही रहती थीं। लेकिन अब पुराने काम करने वालों को भी भरपूर काम नहीं मिल रहा है। इसके अलावा कोरोना के डर से व्यापारी लोगों का आना-जाना कम हो रहा है। ऑर्डर भी कम मिल रहे हैं। ऐसे में पहले जैसा काम अब कपड़ा उद्योग के क्षेत्र में नहीं है।

एक प्राइवेट लिमिटेड में प्रबन्धन समिति में अधिकारी स्तर पर कार्यरत सतीश सिंह ने इस बारे में बताया कि पहले से कपड़ा उद्योग पर दो तरह से अन्तर आया है। एक तो कोरोना ने इसे कमज़ोर किया है। दूसरा पहले प्रोडक्शन (उत्पादन) में कपड़े पर पाँच फ़ीसदी कर (टैक्स) लगता था और अब 12 फ़ीसदी कर लगता है। यह प्रोसेसिंग (मिल या फैक्टरी में बनने वाले माल) में है, बाक़ी प्रोसेसिंग के बाद बाहर कितना कर लगता है, वो नहीं पता। इन दोनों कारणों से कपड़ा उद्योग पर फ़र्क़ इसलिए भी पड़ा है, क्योंकि लोगों की आमदनी घटी है। कुछ लोग बेरोज़गार भी हुए हैं। ऐसे में कपड़े की बिक्री भी कम हुई है। अब मिलों में या कम्पनियों और फैक्ट्रियों में पहले की तरह लगातार उत्पादन नहीं हो रहा है। क्योंकि पहले इस क्षेत्र से जुड़े मालिकों को यह डर नहीं था कि उत्पादन के बाद उनका कपड़ा बिकेगा या नहीं? लेकिन अब वे उतना ही कपड़ा तैयार करते हैं, जितना उन्हें ऑर्डर मिलता है। इन दिनों में बाज़ार में मंदी होने के चलते ज़ाहिर है कि प्रोडक्शन पहले की अपेक्षा काफ़ी कम हो रहा है। इसकी वजह यह है कि लोगों के पास पैसा ही नहीं है, तो बाज़ार में उछाल कहाँ से आएगा? बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हो चुके हैं।

अहमदाबाद के पीपलेज में स्थित अंजनी फैबरिक प्राइवेट लिमिटेड में काम करने वाले जगदीश भाई ने बताया कि काम तो पहले जैसा नहीं रहा। अब पहले की अपेक्षा क़रीब आधा काम रह गया है।

बेहद महँगी हुई कपास

पिछले दिनों भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ (सिटी) के सदस्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले। उन्होंने प्रधानमंत्री से घरेलू उद्योग के संरक्षण के लिए कपास पर आयात शुल्क हटाने की माँग करते हुए कहा कि भारत में कपास की क़ीमतें अन्तरराष्ट्रीय स्तर से अधिक हो गयी हैं। इससे कपड़े पर तेज़ी से महँगाई बढ़ी है, जो स्वाभाविक है। परिसंघ ने कहा कि आसमान छू रही कपास की क़ीमतों ने कपड़े के दाम में बढ़ा दिये हैं, जिससे कपड़ा उद्योग का सम्भावित विकास रुक रहा है और बाज़ार में अनिश्चितता पैदा हो रही है।

उसने कहा कि सितंबर, 2020 में कपास की क़ीमत 37,000 रुपये प्रति कैंडी (प्रति 355 किलोग्राम) थी। ठीक एक साल बाद अक्टूबर, 2021 में यह बढ़कर 60,000 रुपये प्रति कैंडी हो गयी। कपास होता है। वहीं नवंबर, 2021 में फिर प्रति कैंडी की क़ीमत 64,500 रुपये से 67,000 रुपये के बीच पहुँच गयी। इसके बाद 31 दिसंबर, 2021 को कपास की क़ीमत में फिर जबरदस्त उछाल आया और यह 70,000 रुपये प्रति कैंडी के उच्चस्तर पर पहुँच गयी।

इतना ही नहीं कपड़ा उद्योग निकाय ने तर्क दिया कि भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ ने बताया कि वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में पाँच फ़ीसदी मूल प्रतिपूर्ति शुल्क, पाँच फ़ीसदी कृषि अवसंरचना विकास उपकर (एआईडीसी) और 10 फ़ीसदी समाज कल्याण उपकर लगाये जाने से कपास पर लगने वाला आयात शुल्क 11 फ़ीसदी हो गया है। इससे न केवल भारतीय कपास की क़ीमत अन्तरराष्ट्रीय मूल्य से ज़्यादा हो गयी है, बल्कि यह देश में पहली बार हुआ है। इससे निर्यातकों को ऑर्डर प्राप्त में कठिनाई हो रही है और कपड़े के दाम अनाप-शनाप बढ़ रहे हैं।

भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ (सिटी) के अध्यक्ष टी. राजकुमार ने कहा कि बाज़ार में 31 दिसंबर, 2021 तक कपास की क़रीब 121 लाख गाँठें ही आ सकी थीं, जबकि पहले इस मौसम में आमतौर पर कम-से-कम 170 से 200 लाख गाँठों की आवक हुआ करती थी। आपूर्ति की इस कमी को व्यापारियों की चिन्ता बढ़ी हुई है, जो स्वाभाविक है।

कपास का मिलों तक नहीं पहुँचने और अच्छी गुणवत्ता वाले कपास की कमी से परेशानी बढ़ रही है, जिसका फ़र्क़ वस्त्र उत्पादन पर पड़ रहा है। उन्होंने परिसंघ की तरफ़ से प्रधानमंत्री को बताया कि इन दिनों कपास की क़ीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से क़रीब 65 फ़ीसदी ज़्यादा है, इसलिए वे आयात शुल्क घटाएँ, ताकि वस्त्र उद्योग को सुगमता हो सके। क्योंकि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारतीय वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने और संकट से बचाने के लिए सरकार द्वारा वस्त्र उद्योग की मदद बहुत ज़रूरी है।

आगे की चिन्ता

कपड़ा उद्योग से जुड़े व्यापारियों की चिन्ता यह है कि पिछले दो साल से कोरोना के चलते और उससे पहले नोटबंदी के बाद से ठप हो रहे इस बेहद ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण उद्योग के लिए यह साल भी ख़राब साबित न हो। क्योंकि जिस तरह देश में कोरोना के इस नये वायरस के मामले बढ़ रहे हैं, उससे भले ही अभी थोड़ा-बहुत काम चल रहा हो, लेकिन आगे की चिन्ता सभी में बनी हुई है। देखने में आया है कि पिछले दो साल में हुई तालाबंदी से कपड़ा उद्योग काफ़ी हद तक चौपट हुआ है और इस साल की शुरुआत ही ख़राब हुई है। इतना ही नहीं इससे कपड़ों पर भी महँगाई बढ़ी है। पिछले साल ठप हुए कारोबार ने बीती दीपावली पर थोड़ी-सी रफ्तार पकड़ी ही थी कि नवंबर-दिसंबर में कपास पर बढ़े आयात शुल्क और ओमिक्रॉन की दस्तक ने इस पर पानी फेर दिया। कोरोना के चलते कपड़ों के निर्यात पर भी बुरा असर पड़ा है।

एक अनुमान के मुताबिक, अगर केवल सूरत में एक दिन कारोबार ठप रहे, तो कपड़ा कारोबार को 150 करोड़ रुपये से ज़्यादा नुक़सान होता है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे गुजरात में एक दिन काम ठप रहने से कितना बड़ा नुक़सान देश को होता होगा? इन दिनों हालत कुछ सुधर रही थी, वह अब फिर से बदतर होने के कगार पर है। 2020 की तालाबंदी में पलायन कर चुके इस उद्योग से जुड़े कामगार लोग पूरी तरह लौट भी नहीं पाये थे कि दोबारा कोरोना की दस्तक और सम्भावित तालाबंदी के हालात ने उन्हें डरा रखा है।

हरियाणा में डाडम हादसा किसकी चूक?

अवैज्ञानिक खनन और सरकारी नियमों की धज्जियाँ उड़ाना मौत को न्यौता देने जैसा है। हरियाणा के ज़िला भिवानी में पत्थर की डाडम खान में यही सब कुछ हो रहा था। सरकारी विभागों की अनदेखी का नतीजा यह रहा कि खनन कम्पनी गोवर्धन माइंस ऐंड मिनरल्स कम्पनी मनमाने तरीक़े से काम कर रही थी। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की टीम ने अपनी जाँच रिपोर्ट में कम्पनी पर अवैज्ञानिक तरीक़े से खनन, बल्कि अरावली वन क्षेत्र में घुसपैठ जैसे गम्भीर आरोप दर्ज किये थे।

अब तो जाँच में बहुत-सी गम्भीर ख़ामियाँ सामने आ रही हैं। पर्यावरण से लेकर तय अनुमति से ज़्यादा गहराई में खनन करने जैसी बात सामने आ रही है। यह कोई बहुत ज़्यादा पुरानी बात नहीं, बल्कि अक्टूबर वर्ष 2021 में एनजीटी टीम की औचक जाँच में गम्भीर ख़ामियाँ मिलीं।

सवाल यह कि कम्पनी को काम करने की अनुमति किस आधार पर दी गयी। खान में दिहाड़ी पर काम करने वाले कामगारों की राय में खान मौत के कुएँ जैसी थी। कभी भी हादसा होने का ख़तरा हरदम बना रहता था। बावजूद इसके पेट के लिए काम करने को मजबूरी थी। दिहाड़ीदारों की तो मजबूरी हो सकती है, लेकिन सरकारी विभागों की मजबूरी समझ से बाहर है, जिन्होंने गम्भीर आरोपों के बावजूद कम्पनी को फिर से काम करने की अनुमति दी।

नये साल की शुरुआत में डाडम की पत्थर खान ने पाँच लोगों को लील लिया। हादसा बहुत बड़ा हो सकता था। लेकिन काफ़ी समय तक रुका काम कुछ समय पहले ही शुरू हुआ था, लिहाज़ा कामगारों की संख्या कम थी।

भिवानी ज़िले में तौशाम पहाड़ी क्षेत्र में पत्थर की कई खानें हैं। खानक, रिवासा, निगाना, दुल्हेड़ी, धारण और खरकड़ी मखवा में भी डाडम हादसे के बाद सरकार को अहतियाती क़दम उठा लेने चाहिए, वरना ऐसे हादसे होते रहेंगे। वरना हादसे के बाद जाँच, मृतकों को मुआवज़ा, कम्पनी पर कार्रवाई जैसी औपचारिकताएँ होती रहेंगी। डाडम खनन क्षेत्र अरावली की पहाडिय़ों वाला है, यहाँ वन क्षेत्र है, जहाँ किसी तरह का निर्माण कार्य प्रतिबन्धित है।

कहा जाए तो यह खनन प्रतिबन्धित इलाक़ा होता है। लेकिन औचक जाँच में जाँच ऐसे क्षेत्र में खनन में काम आने वाली मशीनें और औज़ार आदि मिले। अरावली क्षेत्र में पर्यावरण से छेड़छाड़ के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय के कड़े आदेश हैं, जिनकी अनदेखी कई बार होती दिखी है। जबकि पिछले वर्ष राज्य के फ़रीदाबाद ज़िले के खोरी गाँव में अरावली क्षेत्र में दशकों से बने सैकड़ों घर तोड़ दिये गये थे। पूरे क्षेत्र में अवैध निर्माण गिराने से एक लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए थे, जबकि वहाँ रहने वालों के बिजली और पानी के कनेक्शन तक थे। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की पालना करते कार्रवाई को अंजाम दिया। लेकिन डाडम में अवैज्ञानिक और अवैध खनन के आरोपों पर काम करने वाली कम्पनी पर कार्रवाई को अंजाम नहीं दिया गया। शुरुआती जाँच में पाया गया है कि डाडम खान में बैच बनाकर खनन नहीं हो रहा था। बैच एक तरह से पहाड़ों के बीच रास्ते बनाकर खनन क्षेत्र तक पहुँचने का सुरक्षित माध्यम होता है। अगर पहाड़़ दरकता है, तो उसका ज़्यादा हिस्सा उस रास्ते (बैच) पर गिरता है, जिससे जन हानि बच सके। जाँच में पाया गया है कि खनन क्षेत्र के कुछ पहाड़ों में दरारें आयी हुई हैं। बारूद के विस्फोट से दरार वाले इन पहाड़ों के दरकने का ख़तरा बना हुआ है। इस हादसे की वजह भी दरार वाले पहाड़ का गिरना ही रहा, जिसमें वहाँ काम करने वाले लोग दब गये। खनन के काम में जुटी बड़ी मशीनें ट्रैक्टर आदि उससे बुरी तरह से पिचक गये।

राहत कार्य के बाद बचे लोग ख़ुशक़िस्मत ही कहे जाएँगे। खनन के काम में अवैध और अवैज्ञानिक जैसी बातें नयी नहीं है। लेकिन गहराई में ये बातें जानलेवा साबित होती हैं। जाँच टीम ने पाया कि डाडम खान में 109 मीटर तक की गहराई हो गयी है, जबकि सरकारी अनुमति 78 मीटर तक की है। तय सीमा से ज़्यादा गहराई में खनन क्यों हो रहा था। 31 मीटर ज़्यादा गहराई कोई एक-दो महीने में तो नहीं हो गयी थी।

यह राज्य सरकार की अनदेखी का एक उदाहरण है। खनन करोड़ों का कारोबार है और लाख्रों रुपये की भेंट इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। बिना इसके करोड़ों का काम चल ही नहीं सकता। इसे एक उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है। सन् 2013 में खनन और भूभर्ग विभाग ने डाडम खान की नीलामी की तो इसके लिए कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी (केजेएसएल) और सुन्दर मार्केटिंग एसोसिएट (एसएमए) को सबसे ज़्यादा बोली देने पर योग्य पाया गया।

सन् 2015 में कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी ने सरकार से आग्रह किया कि वह डाडम खान ठेके पर आगे काम नही करना चाहती। मई, 2015 में कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी के 51 फ़ीसदी शेयर (हिस्सा) सुन्दर मार्केटिंग एसोसिएट को दे दिये गये। यह सब कुछ हो गया। लेकिन बाद में पता चला कि सुन्दर मार्केटिंग एसोसएशन नामक कम्पनी के पास खनन का पर्याप्त अनुभव नहीं है। एक तरह से वह डाडम खान में खनन काम के लिए सक्षम नहीं है। बिना पर्याप्त अनुभव के उसे कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी के साथ सयुक्त रुप से ठेका किस आधार पर दिया गया?

सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया और सुन्दर एसोसिएट नामक कम्पनी का ठेका रद्द कर दिया और खान क्षेत्र हरियाणा स्टेट इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट कारपोरेशन (एचएसआईडीसी) के सुपर्द कर दिया। काफ़ी महीनों तक खान बन्द रही। मामला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में पहुँचा। आख़िर नवंबर, 2017 में डाडम खान का ठेका गोवर्धन माइंस ऐंड मिनरल्स कम्पनी को मिला, जो अब तक उसी के पास है। काम मिलने के बाद कम्पनी विवादों में घिरी रही है। खनन के लिए विभाग के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन और पर्यावरण के दूषित होने जैसे आरोप बराबर लगते रहे हैं। सन् 2020 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की छ: सदस्यीय टीम ने शिकायतों के बाद खान क्षेत्र का औचक दौरा किया, तो वहाँ बहुत-सी ख़ामियाँ पायी गयीं। इन्हें गम्भीरता से लिया गया होता और ठोस कार्रवाई को अंजाम दिया गया होता, तो डाडम हादसा नहीं होता। खनन के ठेकेदार जहाँ आर्थिक रूप से मज़बूत होते हैं। वहीं राजनीतिक तौर पर भी बहुत प्रभावी भूमिका निभाते हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राजनीतिक संरक्षण के आरोपों को ख़ारिज़ करते हुए कहा है कि हादसे की विस्तृत जाँच होगी और दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। राज्य सरकार के आदेश पर अतिरिक्त ज़िला उपायुक्त (एडीसी) राहुल नरवाल की अध्यक्षता में समिति गठित कर हादसे की विस्तृत जाँच कर रिपोर्ट सौंपने को कहा है। डाडम खान पर्यावरण के लिए क्षेत्र में एक ख़तरनाक संकेत है। सरकार के दिशा-निर्देशों को दरकिनार कर मोटी कमायी करने वाले ठेकेदारों को शायद पर्यावरण जैसे अहम मुद्दों से जैसे कोई सरोकार नहीं होता।

मामले की गम्भीरता को देखते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने स्वत: संज्ञान लेते हुए आठ सदस्यीय समिति गठित कर दी है। इसमें राज्य सरकार के अलावा केंद्र से जुड़े कई विभागों के उच्चाधिकारियों को शामिल कर आठ सदस्यीय समिति गठित की गयी है। इस समिति की जाँच रिपोर्ट काफ़ी महत्त्वपूर्ण साबित होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि तय समय में जाँच रिपोर्ट आये और दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की संस्तुति की जाए, वरना डाडम जैसे हादसे होते रहेंगे। कम्पनियाँ और मालिक बदलते रहेंगे और पहले की तरह सरकारी नियमों की अवहेलना होती रहेगी। यह सिलसिला रुकना चाहिए वरना कामगार केवल 500 रुपये की दिहाड़ी पर जान हथेली पर लेकर जाते रहेंगे।

हादसे में बचे एक कामगार के मुताबिक, डाडम खान में काम पर जाते समय मौत की आशंका बनी रहती है। यहाँ के कई पहाड़ों में दरारें आयी हुई हैं, जो विस्फोट के बाद भरभराकर गिर सकते हैं। मजबूरी यह कि हम लोग खनन के काम शुरू से कर रहे हैं। इसके अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकते। यह हमारी रोज़ी-रोटी है। लेकिन इसके बदले मौत मिलती है, तो फिर कुछ सोचना पड़ेगा। मौत के कुएँ में आख़िर कब तक उतरते रहेंगे। किसी दिन उसी में समा जाएँगे। सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकारों की होती है। ठेकेदार या उसके लोग तो ज़्यादा-से-ज़्यादा खनन करने में लगे रहते हैं। ये खाने उनके लिए सोना उगलती हैं। लेकिन हमारे पास तो पेट भरने लायक पर्याप्त पैसा ही नहीं मिल पाता है।

शिकायतें आती रही हैं

डाडम खान क्षेत्र भिवानी-महेंद्रगढ़ लोकसभा क्षेत्र में आता है और यहाँ के भाजपा सांसद धर्मवीर सिंह हैं। सन् 2014 से लगातार दूसरी बार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उनके मुताबिक, शिकायतों के बाद वह सम्बन्धित विभागों और सरकार को यहाँ होने वाले बेक़ायदा काम के बारे में बताते रहे हैं। डाडम खान क्षेत्र के चार स्थानों पर खनन के सरकारी दिशा-निर्देशों की उल्लंघना हो रही है, यह उनकी जानकारी में है और इसके बार में स्पष्ट तौर पर बताया जा चुका है। यही वजह है कि बार-बार जाँच और मामला उच्च न्यायालय में जाता रहा है। हादसे को दुर्भाग्यशाली बताते हुए उन्होंने जाँच में दोषी पाये जाने वालों पर कड़ी कार्रवाई की माँग की है।

झारखण्ड में फँसा आरक्षण का पेच

झारखण्ड में पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने की माँग लम्बे समय से चल रही है। पिछले कुछ दिनों से आरक्षण के इस मुद्दे से राजनीति गरमा गयी है। सत्ताधारी दल- झामुमो, कांग्रस, राजद हों या फिर विपक्षी दल भाजपा और आजसू, सभी इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर गोल-गोल घूम रहे हैं और सभी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण दिलाने और श्रेय लेने के होड़ में लगे हैं। सरकार ने तो अब विधानसभा में भी इस पर क़दम उठाने की घोषणा कर दी। लेकिन इस मुद्दे के पेच सुलझाना इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि इसके रास्ते में कई ऐसी बाधाएँ हैं, जिनसे पार पाना दोधारी तलवार से चलने से कम नहीं है। अब मौज़ूदा सरकार इसे कैसे सुलझा पाती है? यह देखना दिलचस्प होगा। राज्य में आरक्षण पर मचे बवाल को लेकर बता रहे हैं प्रशान्त झा :-

आरक्षण शब्द सुनते ही ज़ेहन में अस्सी की दशक याद आती है। साथ ही याद आ जाते हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह। ‘राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है’ के नारे के साथ वी.पी. सिंह देश के आठवें प्रधानमंत्री बने थे। बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आये वी.पी. सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नये मसीहा और स्वच्छ व्यक्ति की छवि के साथ अवतरित हुए थे। लेकिन मंडल कमीशन की सि$फारिशों को देश में लागू करते ही वी.पी. सिंह सवर्ण समुदाय की नज़र राजा नहीं रंक और देश का कलंक में तब्दील हो गये। हालाँकि ओबीसी का बड़ा तबक़ा उन्हें नायक के तौर पर भी देखता है।

मंडल कमीशन का विरोध पूरे देश में इस क़दर हुआ कि संसद में विश्वास मत के दौरान वीपी सिंह की सरकार चली गयी। दरअसल आरक्षण का यह मुद्दा ही ऐसा है कि जिस पर चलना दोधारी तलवार से कम नहीं है। झारखण्ड की सियासत में यह मुद्दा इन दिनों गरम है। ओबीसी के 27 फ़ीसदी आरक्षण की माँग को राजनीतिक मजबूरी में ही सही पर कोई भी दल इससे ख़ुद को अलग नहीं कर पा रहा है। नतजीतन हर दल चाहे सत्ताधारी झामुमो, कांग्रस और राजद हो या फिर विपक्षी दल भाजपा और आजसू सभी इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर घूम रहे और राजनीति कर रहे हैं। मौज़ूदा हेमंत सरकार ने पिछले दिनों शीतकालीन सत्र के दौरान ओबीसी आरक्षण की दिशा में क़दम उठाने की घोषणा कर दी है।

अब राज्य में इसे लेकर एक नयी बहस शुरू हो गयी है। ज़ाहिर है आने वाले समय में इससे विवाद भी पैदा होंगे। देखना है कि मौज़ूदा सरकार क्या फार्मूला ले कर आती है? कैसे सभी को सन्तुष्ट कर पाती है और कैसे विवाद का समाधान निकाल सकती है? राज्य इस आरक्षण की दिशा में कैसे आगे बढ़ता है?

पुराना है आरक्षण का मुद्दा

भारत में आरक्षण का इतिहास आज़ादी से पहले से है। भारत में आरक्षण की शुरुआत सन् 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (आरक्षण) की माँग की थी। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएँ रखी गयी हैं। इसके अलावा 10 वर्षों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किये गये थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों से माँगी राय

आरक्षण का मुद्दा ऐसा है कि 70 साल में भी यह देश से समाप्त नहीं हो सका। राजनीतिक दलों के लिए चुनाव के लिए यह एक अहम मुद्दा है। सभी दल इसे लेकर अपना-अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। नतीजतन मामला न्यायालय तक भी पहुँचता रहा है। सन् 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फ़ीसदी तय कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय के इसी फ़ैसले के बाद क़ानून बन गया कि 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की 50 फ़ीसदी तय सीमा में बदलाव के एक मामले पर सुनवाई के दौरान राज्यों से राय माँगी थी। देश के आधा दर्ज़न ऐसे राज्य हैं, जो आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से ज़्यादा करने के पक्ष में हैं। इनमें हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और झारखण्ड समेत अन्य राज्य शामिल हैं। राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में माराठा, गुजरात में पटेल आदि राज्यों में आरक्षण की माँग कर रहे हैं। इनके माँग में सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आड़े आ जाता है। संविधान में भी प्रावधान किया गया था कि किसी भी सूरत में 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता; लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए संविधान तक में संशोधन किया गया। केंद्र की मोदी सरकार ने सामान्य जाति में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया है। इसके अंतर्गत सरकारी नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया है। यह पहली बार है, जब देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है। उधर, राज्यों द्वारा आरक्षण का दायरा बढ़ाने का मामला फ़िलहाल न्यायालय में ही लम्बित है।

ओबीसी की माँग

झारखण्ड में अनुसूचित जनजाति को 26 फ़ीसदी, अनुसूचित जाति को 10 और पिछड़े वर्ग को 14 फ़ीसदी आरक्षण मिल रहा है। इसके अलावा केंद्र द्वारा आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण का लाभ मिल रहा है। राज्य के ओबीसी लम्बे समय से 14 से 27 फ़ीसदी आरक्षण करने की माँग कर रहे हैं। अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाति से कटौती कर ओबीसी का आरक्षण बढ़ाना सम्भव नहीं है। अगर ऐसा किया गया, तो उनमें असन्तोष उत्पन्न होगा, साथ ही संवैधानिक परेशानी भी आएगी। अगर सीधे आरक्षण 14 से 27 किया गया, तो आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से ऊपर जाएगा। यानी राज्य में आरक्षण 73 फ़ीसदी हो जाएगा। सरकार के पास यह मुद्दा विचाराधीन है। प्रस्ताव के अनुसार, आरक्षण 73 फ़ीसदी होगा। इसमें एसटी को 32, एससी को 14 और पिछड़े वर्ग को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव है।

राजनीतिक दल उठा रहे मुद्दा

दरअसल आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर लम्बे समय से राजनीति चल रही है। इस मुद्दे को लेकर कई राजनीतिक दल चुनावी बैतरणी में अपनी नैया तक पार लगा रहे हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबन्धन की सरकार है। विपक्ष में भाजपा और आजसू है। झामुमो ने चुनावी वादे में ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण करने की बात कही थी। कांग्रेस ने भी अपने चुनाव प्रचार में इसे शामिल किया था। इन दिनों सभी राजनीतिक दल ओबीसी आरक्षण को 27 फ़ीसदी करने को लेकर गतिविधियाँ बढ़ा दी हैं। कांग्रेस जनसभाओं में इस मुद्दे को उठा रही, तो आजसू आन्दोलन करने की भी बात कर रहा। भाजपा भी इसके पक्ष में दिख रही है।

सरकार ने कर दी है घोषणा

दिसंबर में झारखण्ड विधानसभा का शीतकालीन सत्र ख़त्म हुआ। शीत सत्र के आख़िरी दिन सदन में कांग्रेस विधायक अंबा प्रसाद, आजसू विधायक सुदेश महतो समेत अन्य विधायकों ने ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने के मुद्दे को उठाया। जिस पर सरकार की ओर से संसदीय कार्यमंत्री आलमगीर आलम ने जवाब दिया। उन्होंने कहा कि इस मसले को लेकर सरकार संवेदनशील है। सरकार इस दिशा में क़दम उठा रहा है और जल्द ही ठोस क़दम उठाएगी। बहुत जल्द इसके लिए एक समिति बनायी जाएगी।

पेच सुलझाना नहीं आसान

भारत में ख़ासकर हिन्दी पट्टी के राज्यों में आरक्षण एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा है, जिसकी लहरों पर सवार होकर कई लोग सियासी ऊँचाई तय करने में सफल हो गये। कई आज भी सफल हो रहे हैं। तो कई असफल भी रहे। इसके कई मिसाल देखने को मल जाएँगे। इसलिए इस मामले को निपटाना किसी जोखिम से कम नहीं है। आरक्षण जैसे मुद्दे में सफलता से अधिक असफलता का सन्देह हमेशा रहता है। यह स्व. वी.पी. सिंह के मामले में लोग देख चुके हैं। क्योंकि हर किसी को सन्तुष्ट करना आसान काम नहीं है। अब देखना होगा कि हेमंत सरकार ने विधानसभा में आरक्षण का दाँव तो खेल दिया है, आमजन का विरोध या समर्थन कितना हुआ, यह सरकार के बढ़ते क़दम से दिखेगा। झारखण्ड में सबसे बड़ी बाधा सर्वोच्च न्यायालय का 50 फ़ीसदी के आरक्षण को लेकर फ़ैसला है। इसके अलावा राज्य में जातीय आधार पर सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाएँ हैं। बिहार से अलग होकर बने इस राज्य में कई ऐसे जातीय समूह भी हैं, जिन्हें बिहार में तो आरक्षण मिलता है; लेकिन झारखण्ड में नहीं मिलता। इसके अलावा सामान्य वर्ग के असन्तोष का ख़तरा भी है। इन सभी को साधना और रास्ता निकलना आसान नहीं है। फ़िलहाल सरकार ने अभी आश्वासन ही दिया है। सरकार के आश्वासन के बाद अन्दरख़ाने में मुद्दा धीरे-धीरे सुलगने लगा है। यह तो वक़्त ही बताएगा कि आरक्षण का मसला राज्य को किस दिशा में ले जाएगा। फ़िलहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से सरकार कैसे निपटती है? सरकार के बढ़ते क़दम को थामने के लिए कोई न्यायालय तो नहीं जाता। सरकार के निणर्य का विरोध किस तरह से उठता है। लिहाज़ा अभी सरकार के आरक्षण का दायरा बढ़ाने के आश्वासन पर सभी इंतज़ार करो और देखो की ही स्थिति है।

महिला विरोधी गतिविधियाँ रुकें

New Delhi, Jan 06 (ANI): Neeraj Bishnoi, one of the main conspirator in the 'Bulli Bai' case, arrives at an IGI airport after being arrested by Delhi Police Special Cell from Assam, in New Delhi on Thursday. (ANI Photo/Prateek Kumar)

नये साल के पहले दिन की पहली सुबह अक्सर इंसान को एक नयी दुनिया में ले जाती है। इंसान कुछ नया करने की ऊर्जा, जोश से भरा होता है। उसकी आँखों के सामने उस साल का रोडमैप तैरने लगता है। लेकिन अफ़सोस कि वर्ष 2022 की पहली सुबह ने देश के एक अल्पसंख्यक समुदाय की क़रीब 100 महिलाओं के लिए उल्लास के इस पर्व को फीका कर दिया। ऑनलाइन बुलिंग के ज़रिये केवल 100 मुस्लिम महिलाओं के भीतर ही दहशत पैदा करने की कोशिश नहीं की गयी, बल्कि इसके ज़रिये अल्पसंख्यक समुदाय की हज़ारों महिलाओं को सन्देश भिजवाया गया कि मुखर, ग़लत नीतियों, फ़ैसलों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने पर उनकी भी इसी तरह बोली लगायी जा सकती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में हाल के वर्षों में जिस तरह से राजनीति को ध्रुवीकरण ने जकड़ लिया है, धर्म संसदों में धर्म के नाम पर नफ़रती तकरीरें सुनायी पड़ रही हैं। ऐसे माहौल में एक ख़ास समुदाय विषेश की महिलाओं को अपमानित करने वाले मामले देश की छवि पर दाग़ ही लगाते हैं।

बहरहाल पहली जनवरी को दिल्ली की एक पत्रकार ने व्हाट्स ऐप पर अपने एक दोस्त का सन्देश खोला और उसमें दर्शाये गये लिंक को इस उम्मीद के साथ खोला कि यह हैप्पी न्यू ईयर का सन्देश होगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था, जो मेरे ख़यालों में चल रहा था। इसके उलट मैंने अपनी एक फोटो का स्क्रीनशॉट देखा, जिसमें यह लिखा हुआ था कि ‘मैं बुल्ली ऑफ द डे हूँ। मुझे यह देख सदमा लगा।’

इस महिला पत्रकार ने ट्विट किया- ‘यह बहुत दु:खद है कि एक मुस्लिम महिला होने के रूप में आपको अपने नये साल की शुरुआत इस डर और नफ़रत के साथ करनी पड़ रही है।’

महिला पत्रकार ने ख़ामोश बैठने की बजाय दिल्ली पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने का फ़ैसला लिया। और 2 जनवरी को दिल्ली व मुम्बई पुलिस ने पीडि़त महिलाओं की शिकायत पर अज्ञात व्यक्तियों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की। दिल्ली व मुम्बई की पुलिस ने यह लेख लिखे जाने तक इस मामले में चार लोगों को देश के अलग-अलग शहरों से गिरफ़्तार किया था।

दरअसल दिल्ली पुलिस की विषेश शाखा ने इस मामले में असम के ज़ोरहाट ज़िले से एक 21 साल के नीरज बिश्नोई को पकड़ा है, जो कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। पुलिस का दावा है कि जिस वेब आधारित ऐप पर 100 मुस्लिम महिलाओं की आपत्तिजनक तस्वीरें व भद्दी टिप्पणियाँ डाली गयी थीं, वह इसी युवा छात्र ने बनाया था और उसे संचालित भी कर रहा था। दरअसल यह समझना भी ज़रूरी है कि बुल्ली बाई ऐप क्या है? बुल्ली बाई ऐप गिटहब नाम के प्लेटफॉर्म पर मौज़ूद है। गिटहब एक खुला मंच है और यह अपने इस्तेमालकर्ता को कोई भी ऐप बनाकर उन्हें साझा करने का विकल्प देता है। आप यहाँ निजी और व्यावसायिक किसी भी तरह का ऐप साझा करने के साथ उसे बेच भी सकते हैं।

इस ऐप को खोलने पर समुदाय विशेष की 100 महिलाओं के चेहरे नज़र आते थे। इस सूची में महिला पत्रकार, कार्यकर्ता, वकील शामिल थीं। यह ऐप खोलने पर इस्तेमाल करना इन तस्वीरों में से एक महिला की तस्वीर को बुल्ली बाई ऑफ द डे चुनता था। बुल्ली बाई नाम के एक ट्विटर हैंडल से इसे प्रमोट भी किया जा रहा था। इस हैंडल पर समुदाय विशेष की महिलाओं की बोली लगने की बात लिखी थी। यह मामला सामने आने पर विपक्षी दलों ने इसका तत्काल विरोध करना शुरू कर दिया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने महिलाओं का उत्पीडऩ किये जाने की निंदा की और दावा किया कि यह भाजपा द्वारा अमानवीयकरण का नतीजा है। शिव सेना की सांसद प्रिंयका चतुर्वेदी ने भी इस घटना की निंदा की और दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई करने की अपील की।

चौतरफ़ा दबाव के मद्देनज़र पुलिस ने फ़ौरन कार्रवाई शुरू करते हुए गिरफ़्तारियाँ करनी शुरू कीं, जो जारी हैं। बुल्ली बाई ऐप व ट्विटर हैंडल को भारत सरकार के दख़ल के बाद हटा लिया गया है। इस मामले में अभी कितनी और गिरफ़्तारियाँ होंगी, न्यायालय में यह मामला क्या मोड़ लेता है, क्या दोषियों को सज़ा होगी व कब होगी? ऐसे सवालों के जबाव अभी नहीं दिये जा सकते हैं। लेकिन इस घटना से प्रभावित कुछेक महिलाओं का कहना है कि अगर सरकार जुलाई, 2021 में सख़्ती दिखाती, तो बुल्ली बाई वाले मामले को रोका जा सकता था।

ग़ौरतलब है कि 4 जुलाई 2021 को कई ट्विटर यूजर्स ने ‘सुल्ली डील्स’ नाम के एक ऐप के स्क्रीनशॉट साझा किये थे, जिसे गिटहब पर एक अज्ञात समूह द्वारा बनाया गया था। ऐप में एक टैगलाइन थी, जिस पर लिखा था- ‘सुल्ली डील ऑफ द डे’ और इसे समुदाय विशेष की क़रीब 80 महिलाओं की तस्वीरों के साथ लगाया गया था। सुल्ली व बुल्ली सोशल मीडिया पर मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ प्रयोग किये जाने वाले अपमानजनक शब्द हैं। दोनों मामलों में किसी भी तरह की असली नीलामी नहीं थी, बल्कि असल मक़सद मुस्लिम महिलाओं को नीचा दिखाना था। ध्यान देने वाली बात यह है कि उस समय भी प्रभावित महिलाओं ने पुलिस से शिकायत दर्ज करायी; लेकिन पुलिस ने मामले के तूल पकडऩे से पहले किसी को भी गिरफ़्तार तक नहीं किया। अब जब बुल्ली बाई का मामला सामने आया और सुल्ली डील्स के मामले में पुलिस की निष्क्रियता, अगम्भीरता, संवेदनहीनता की पोल फिर से खुलने लगी, तो दिल्ली के डीसीपी के.पी.एस. मल्होत्रा ने 5 जनवरी को मीडिया को बताया कि सुल्ली ऐप मामले में म्यूचुअल लीगल असिस्टेंट ट्रीटी प्रक्रिया (एमएलएटी) भारत में पूरी हो गयी है और जल्द ही इसे न्याय विभाग को सौंप दिया जाएगा। डीसीपी मल्होत्रा ने यह भी कहा कि बुल्ली बाई ऐप सुल्ली डील्स जैसा ही प्रतीत होता है, जिसने पिछले साल इसी तरह की गतिविधि शुरू की थी। भारत में महिलाओं के ऑनलाइन उत्पीडऩ के बाबत अमनेस्टी इंटरनेशनल 2018 की रिपोर्ट में कहा गया है कि जो औरत जितनी मुखर थी, उसको निशाना बनाये जाने की सम्भावना उतनी अधिक थी। और इस सम्भावना का स्केल धार्मिक अल्पसंख्यक महिला व वंचित समुदाय की महिला होने के कारण बढ़ जाता है। यह उन्हें चुप कराने व शर्मिंदा करने का प्रयास है और उन्होंने समाज, सार्वजनिक मंचों पर अपना जो वजूद बनाया है, जो जगह बनायी है, उसे छीनने की कोशिश है।’

दरअसल भारत की आबादी में 48 फ़ीसदी महिलाएँ हैं और ऑनलाइन महिलाओं का उत्पीडऩ एक गम्भीर मुद्दा है। देश में टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के अनुसार, मार्च 2021 तक क़रीब 82 करोड़ 50 लाख इंटरनेट उपभोक्ता थे। इनमें से अधिकतर अपनी वास्तविक पहचान के साथ इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जो ग़लत मंशा से फ़र्ज़ी नाम से इस्तेमाल करते हैं। कई लड़कियों, महिलाओं को निशाना बनाते हैं। कड़ुवी हक़ीक़त यह है कि यह संगीन अपराध केवल महानगरों, नगरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि गाँवों तक में भी फैल चुका है। लेकिन अभिभावक, परिजन ऐसे मामलों की अक्सर शिकायत ही दर्ज नहीं कराते। उन्हें एक तो अपने परिवार, सम्बन्धित लड़की, महिला की इज़्ज़त ख़राब होने का डर सताता है, दूसरा उन्हें इस बात की सही जानकारी भी नहीं होती कि साइबर अपराध दर्ज कराने की प्रक्रिया क्या है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड शाखा की रिपोर्ट ‘भारत में अपराध 2020’ महिलाओं को बदनाम करने, उनकी तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ करने के 251 मामले और उनके फ़र्ज़ी प्रोफाइल बनाने के 354 मामले ही बताती है।

सरकारी रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश में 2020 में साइबर अपराध के कुल 50,035 मामले दर्ज किये गये, जिसमें महिलाओं के ख़िलाफ़ मामलों की संख्या 10,405 थी। ये आँकड़े ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बोलते। आधी आबादी की ऑनलाइन हिफ़ाज़त के लिए कई र्मोचों पर तेज़ी से काम करने की ज़रूरत है। क्योंकि इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों का आँकड़ा रोज़ बढ़ ही रहा है और तकनीक में बदलाव भी तेज़ी से हो रहे हैं। समाज को महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले साइबर अपराधों को गम्भीरता से लेना होगा, ज़िला प्रशासन, क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों को शिविर लगाकर आम लोगों को इससे सम्बन्धित क़ानूनी जानकारी व लिखित सामग्री मुहैया करानी चाहिए।

इसके अलावा शैक्षाणिक संस्थानों व कार्यस्थलों पर लड़कियों, महिलाओं को इससे सम्बन्धित जानकारियाँ देकर उन्हें सशक्त करने की दिशा में ठोस काम करने की ज़रूरत है। साइबर अपराधों की सुनवाई भी त्वरित होनी चाहिए। दोषियों को सही समय पर मिली सज़ा का सन्देश कहीं-न-कहीं अपना असर दिखाता है। सोशल मीडिया से अरबों की मुनाफ़ा कमाने वाली दिग्गज कम्पनियों को भी महिलाओं की ऑनलाइन सुरक्षा के प्रति अपनी जबावदेही को गम्भीरता से लेना होगा।

सुल्ली डील्स मामले के बाद जुलाई, 2021 में दुनिया भर से 200 से अधिक जाने-माने अभिनेताओं, संगीतकारों, पत्रकारों व सरकारी अधिकारियों ने फेसबुक, गूगल, ट्विटर व टिकटॉक के सीईओ को एक खुला पत्र लिखकर महिलाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की अपील की थी। हालाँकि इस मामले में कार्रवाई हुई है; लेकिन देर से हुई है। साथ ही अभी ऐसे मामलों में और सख़्ती की ज़रूरत है।

कमज़ोर पर वार!

पिछली गर्मियों में सुल्ली डील ऐप आया और अब बुल्लीबाई ऐप। मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाने के लिए। मुस्लिम महिलाओं की फोटो लगाकर उनकी आभासी नीलामी के लिए! धर्म को जोड़कर नफ़रत की राजनीति को इस अकल्पनीय और निम्न स्तर तक देखना सच में बहुत घिनौना है। पहले अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के प्रति साम्प्रदायिक भड़काऊ बयान या ताने, कार्य या शैक्षणिक संस्थानों में पक्षपात तक सीमित थे। लेकिन अन्य के लिए घृणा का इस स्तर तक पहुँचना अकल्पनीय है।

एक भारतीय मुस्लिम महिला के रूप में मैंने साम्प्रदायिक रूप से भड़काने वाली कई टिप्पणियाँ सुनी हैं। हाल के वर्षों में इनमें तेज़ी आयी है। नहीं, कोई कुछ ज़्यादा नहीं कर सकता। नतीजे के डर से बहुत खुले तौर पर प्रतिक्रिया भी नहीं करते। इसके अलावा कोई हेल्पलाइन नंबर नहीं है, जहाँ कोई पहुँच सके। यह भी सुनिश्चित नहीं है कि संकट-कॉल से राहत मिलेगी या नहीं। उन्होंने कहा कि वे सरकारी ख़ेमे में आ जाएँगे, जो बदले में बाबुओं और मंत्रियों के दबाव में होंगे। ध्यान रहे राजनीतिक, प्रशासनिक और पुलिस मशीनरी चलाने वाले कई लोग दक्षिणपंथी पृष्ठभूमि वालों के साथ हैं। वास्तव में अगर व्यवस्था निष्पक्ष होती, तो सरकारी बंदोबस्त का पर्याप्त डर होता; लेकिन ऐसा है नहीं।

ज़मीनी हक़ीक़त को चिन्ताजनक कहा जा सकता है। लिंच करने वाले क्रूर लोगों और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वालों पर तथाकथित हिन्दुत्व के शीर्ष स्तर का हाथ रहा है और उन्हें उनसे सुरक्षा मिलती रही है। यही कारण है कि वे बिना किसी बाधा के बच जाने का इंतज़ाम कर लेते हैं। कई मामलों में तो पस्त-बिखरे पीडि़तों को ही अपराधी के रूप में नामित कर दिया जाता है।

अजीब या कुछ उतना अजीब कारण नहीं, से मैंने लम्बी और छोटी ट्रेन यात्रा के दौरान सबसे ख़राब साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ सुनी हैं। टिप्पणियाँ- ‘वो मुसलमान जैसा दिख रहा है, उनसे दूर रहो’ से लेकर ‘ये मुसलमान लोग कुछ भी कर सकते हैं… मरना, काटना, बम बनाना !’

मेट्रो से गुडग़ाँव से नई दिल्ली आते समय मेरा मोबाइल बज उठा। दूसरी और से मेरे एक दोस्त की ऊँची और स्पष्ट आवाज़ थी- ‘अस्सलाम-अलैक्कुम’। और जबसे मैं इन शब्दों में निहित अर्थ से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, ‘आप शान्ति में रहें’। मैं इसमें ‘वालेकुम-सलाम’ (आप भी शान्ति में रहें) के साथ प्रत्युत्तर करती हूँ। आख़िरकार, क्या हम सब शान्ति के लिए तरसते नहीं हैं? लेकिन उस शाम जैसे ही मैंने ‘वालेकुम-सलाम’ कहा; डिब्बे वालों ने मेरी तरफ़ देखा। और तब तक बहुत धूर्तता से घूरते रहे, जब तक, शायद उन्हें यह आभास नहीं हो गया कि मैं बिना आस्तीन के ब्लाउज के साथ साड़ी में हूँ। इसलिए मैं सुरक्षित श्रेणी में रखी जा सकती हूँ। नहीं, मैं एक आतंकवादी के रूप में चिह्नित नहीं हुई। अगर मैं बुर्के में होती, तो उन नज़रों की सीमा की कल्पना भी नहीं कर पाती।

उसी शाम मैंने एक लड़के को मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े दाढ़ी वाले शेरवानी पहने आदमी की ओर इशारा कर अपने पिता से सवाल करते हुए सुना- ‘पापा! क्या आतंकवादी लोग ऐसे ही दिखते हैं?’ पिता ने अपने बेटे को ‘नहीं’ नहीं कहा, उलटे उस व्यक्ति की तरफ़ से नफ़रत और ग़ुस्से से देखा। मानो सोच रहा हो कि एक मुसलमान की हिम्मत कैसे हुई कि वह उसी मंच पर खड़ा है, जहाँ वह और उसका बेटा खड़ा हो।

मैं उन दर्दनाक ट्रेन यात्राओं में से एक के विवरण को भुला नहीं सकती, जो मैंने की थीं। जैसे ही मुझे शाहजहाँपुर में अपने नाना के आकस्मिक निधन की ख़बर मिली, मैंने दिन में चलने वाली ट्रेनों में से एक में सवार होने का फ़ैसला किया; जो मुझे बरेली होते हुए नई दिल्ली से शाहजहाँपुर ले जाती। चारों ओर की शोर-शराबे से अचानक विचलित होकर, मैंने अपने कम्पार्टमेंट-वालों की ओर देखा। कई साड़ी पहने महिलाएँ अपने माथे पर लाल बिंदी लगाये आपस में बातें करने में व्यस्त थीं, जब पाँच बुर्क़ा पहने महिलाओं के एक समूह ने कम्पार्टमेंट के भीतर प्रवेश किया। इनमें से तीन कम्पार्टमेंट के फर्श और दो लकड़ी के बर्थ पर बैठीं। साड़ी पहने महिलाएँ अचानक उत्तेजित दिखीं। वे मुझे अपने क़रीब खींचने लगीं, साथ ही बुर्क़ा पहने दो महिलाओं से दूर हट गयीं। साथ ही मुझे कहा- ‘बहनजी! एक मुसलमान औरत से अलग रहो, अलग बैठो, …मुसलमानों से दुर्गन्ध आती है। ये लोग मुसलमान हैं।‘ (बहन, इन मुस्लिम महिलाओं से दूर बैठो…मुसलमानों की गन्ध आती है। वे मुसलमान हैं।)’

हालाँकि बुर्क़ा पहने महिलाओं ने ट्रेन के डिब्बे के भीतर एक-एक शब्द सुना; लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैं निराश होकर इधर-उधर देखती रही। मुझे पता है, मुझे साड़ी पहने समूह को बताना चाहिए था कि मैं भी एक मुसलमान हूँ। मुझे बुर्क़ा पहने मुस्लिम महिलाओं की ओर से बहस करनी चाहिए थी।

मुझे कहना चाहिए था कि मुसलमान दुर्गन्ध नहीं करते! या फिर साड़ी पहने मैं उनके साम्प्रदायिक रवैये पर कड़ा व्याख्यान दे सकती थी और इसके साथ ही कुछ आक्रामक मुद्रा भी अपना सकती थी।

लेकिन मैंने एक भी शब्द नहीं बोला। मैं चुप रही। एक मूर्ख कायर की तरह वहाँ बैठ गयी। मैं चुप क्यों रही, और बात नहीं की या क्यों पलटवार नहीं किया? क्या मैं डर गयी थी? हाँ, मैं डर गयी थी। आख़िर हिन्दुत्ववादी द्वारा चलती ट्रेनों में मुस्लिम यात्रियों पर हमला करने और उनकी पिटाई करने की ख़बरें तो पढ़ी ही थीं। ऐसी तमाम ख़बरें हैं। इसलिए मैं बहुत दबी-सी और शान्त बैठी रही। विशेष रूप से शून्य में घूरती रही। लेकिन अपनी बेबसी पर आत्मनिरीक्षण करती रही। शाहजहाँपुर की शेष एक घंटे की यात्रा में मैं तनाव से भरी बैठी रही। बुर्क़ा पहने महिलाओं पर किये गये तानों पर प्रतिक्रिया न करने के लिए मैं ख़ुद से नाराज़ और परेशान थी। उस पूरे अनुभव ने मुझे बेहद परेशान कर दिया। वास्तव में ऐसा होना मुझे आज भी परेशान करता है। इस क्षण में जब मैं उस घटना को याद करती हूँ। अन्य घटनाएँ और अनुभव सहज ही आँखों के सामने तैर जाते हैं। चोट और दर्द के निशान आज भी उद्वेलित करते हैं।

वर्षों पहले 60 के दशक के मध्य में मुझे लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में भर्ती कराया गया था। यह स्कूल में मेरा पहला दिन था और आज तक इसका विवरण अपरिवर्तित है; क्योंकि पहले ही दिन एक विशेष कक्षा की सहपाठी, 10 वर्षीय त्रिपाठी ने कक्षा में मेरे बगल की कुर्सी पर बैठने से इन्कार कर दिया था। यह चुटकी लेते हुए- ‘मैं तुम्हें जानती हूँ, मुसलमान… मेरी दादी कहती हैं कि सभी मुसलमान दुर्गन्ध करते हैं!’

हालाँकि मेरी सबसे अच्छी याद उसी कक्षा के शिक्षक की है, जिन्होंने उस लड़की को मेरे बग़ल में रखी कुर्सी पर बैठने के लिए मजबूर किया था। विडम्बना यह है कि बहुत बाद के चरण में हमारे माता-पिता पड़ोसी रहे, जो उसी सरकारी कॉलोनी में रहते थे। हालाँकि दोनों परिवारों ने कुछ हद तक एक-दूसरे से दोस्ती की। लेकिन मैंने उससे और उसके पूरे परिवार- उसके भाई-बहनों और उसके चिकित्सक माता-पिता से दूर रहना मुनासिब समझा। क्योंकि उस पहली चोट को मिटाया नहीं जा सका। धार्मिक तनाव से भरी उस पहली साम्प्रदायिक टिप्पणी को मिटाना लगभग असम्भव है। मैंने एक के बाद एक साम्प्रदायिक हमले अनुभव किये हैं। यहाँ तक कि उन लोगों से भी, जो मेरी मुस्लिम पहचान से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। इन कई हमलों में से मैं एक  विशेष घटना को विस्तार से बताना चाहती हूँ- ‘साल 2000 की जनवरी में इंडियन एयरलाइंस के एक विमान को अपहृत करके कंधार ले जाया गया था और उड़ानों के दौरान अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने की बात चल रही थी। मुझे तब एक राष्ट्रीय दैनिक के लिए साक्षात्कार करना था। तत्कालीन सचिव नागरिक उड्डयन (भारत सरकार)। वह नई दिल्ली के शाहजहाँ रोड पर मेरे पड़ोसी थे। लेकिन उस साक्षात्कार के लिए उन्होंने मुझे अपने ऑफिस आने को कहा। जैसे-जैसे साक्षात्कार आगे बढ़ा, मैंने उनसे उन सुरक्षा उपायों का विवरण पूछा जिन्हें उनके मंत्रालय ने अपहरण रोकने के लिए शुरू करने की योजना बनायी थी। उन्होंने रुटीन उपायों के बारे में बताया- ‘हवाई अड्डों पर सुरक्षा कड़ी कर दी गयी, अस्थायी पास जारी करना बन्द कर दिया गया है।‘

उन्होंने इससे जुड़े कुछ अन्य सवालों के जवाब दिये, लेकिन जब मैंने उनसे सुरक्षा उपायों के सटीक कार्यान्वयन के बारे में विस्तार से पूछा, तो वह शुरू में चुप रहे; लेकिन फिर लगभग ची$खते हुए बोले- ‘मैं आपको वो सटीक विवरण क्यों बताऊँ! आप कुरैशी, तो आप…शायद आप…!’

शायद क्या? ‘आप कुरैशी! आप उस दुश्मन देश में उन लोगों को बता सकते हैं… सीमा पार हमारे दुश्मन को! आप …आप एक मुस्लिम हैं।’

क्या! मैंने किसी तरह उस अपमान को सहन किया, उनकी साम्प्रदायिक टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया किये बिना। लेकिन फिर वापस गाड़ी चलाते हुए, मेरा ग़ुस्सा फूट पड़ा। क्या बकवास है? उसकी इतने घिनौने, असभ्य और साम्प्रदायिक तरीक़े से बात करने की हिम्मत कैसे हुई? उसने मुझे उस तीसरे दर्जे के तरीक़े से अपमानित करने की हिम्मत कैसे की?

नहीं, ऐसी कोई जगह नहीं थी, जहाँ मैं उसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करा सकती थी। जब हत्यारे अछूते चले गये, तो उन बाबुओं के लिए इतनी कम सज़ा की उम्मीद तो थी, जो साम्प्रदायिक टिप्पणियों से गहरी मार करके चोट पहुँचाते और घायल करते हैं। मैंने शीर्ष नौकरशाहों से कठोरतम साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ सुनी हैं। एक सिविल अधिकारी ने मुझसे मेरे तलाक़ से सम्बन्धित कई अजीबोग़रीब सवाल पूछे, एक सवाल का जवाब देने के लिए उकसाया- क्या वह मेरे तलाक़ पर किसी तरह का शोध कर रहा था? दर्द होता है जब आपसे सबसे अजीब चीज़े पूछी जाती हैं- ‘मुसलमान कैसे खाते हैं? या स्नान करते हैं? या कैसे रहते हैं? या दाढ़ी बनाते हैं? या प्यार करते हैं? या असफल विवाहों के अनुबन्ध रद्द करने के लिए क्या करते हैं?’ और आज जब हिन्दुत्व ब्रिगेड और साम्प्रदायिक तत्त्व दो समुदायों के लोगों को एक-दूसरे के क़रीब नहीं रहने दे रहे हैं। हमें मिथकों और ग़लत धारणाओं और दूसरे के बारे में तीसरे वर्ग के दुष्प्रचार से भरा जाएगा। शायद यह सत्तारूढ़ दल के अनुकूल है। यह उन्हें कई विभाजन पैदा करने में मदद करता है।

मुस्लिम समुदाय के लिए तथ्य जगज़ााहिर हैं। सच्चर समिति, गोपाल सिंह समिति, कुंडू समिति की रिपोट्र्स में सब है। इन रिपोट्र्स में मुस्लिम समुदाय की निराशाजनक स्थितियों का विवरण है। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर भी विस्तृत रिपोर्ट हैं। सबसे बड़ा तथ्य यह है कि मुस्लिम महिलाएँ तीन मोर्चों पर वंचित हैं- महिलाओं के रूप में; अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के रूप में; और सबसे अधिक ग़रीब महिलाओं के रूप में।

वास्तव में 10 साल पहले जब प्रोफेसर जोया हसन और रितु मेनन की किताब ‘अनईकुअल सिटिजन्स : ए स्टडी ऑफ मुस्लिम वीमेन इन इंडिया’ लॉन्च हुई, तो इसने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर तत्काल ध्यान आकर्षित किया। उनके निष्कर्ष 12 राज्यों और 40 ज़िलों में फैले 10,000 घरों के सर्वेक्षण पर आधारित थे। जैसा कि प्रो. जोया हसन की टिप्पणी थी- ‘सर्वेक्षण से पता चलता है कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति निराशाजनक है। मुस्लिम महिला की छवि एक परदे वाली महिला के रूप में स्थापित हो चुकी है, जिसकी सारी समस्याएँ उसके धर्म से जुड़ी हैं; लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। हमने उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, उसकी शिक्षा, रोज़गार के अवसरों, कल्याणकारी योजनाओं और राजनीतिक जागरूकता का अध्ययन किया है। साथ ही उनका भी अध्ययन किया है, जो लिंग सम्बन्धी मुद्दे हैं। जो विवाह, घरेलू हिंसा, निर्णय लेने के अधिकार और गतिशीलता के आसपास घूमते हैं। हमने उनकी स्थितियों की हिन्दू महिलाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। सबसे ख़ास बात यह है कि मुसलमानों और महिलाओं की स्थिति देश के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है। दक्षिण भारत में मुसलमान बिहार और उत्तर प्रदेश में अपने समकक्षों की तुलना में थोड़ा बेहतर हैं।’

उन्होंने यह भी विस्तार से बताया कि मुस्लिम महिलाओं ने सात दशक के विकास में कुछ ठोस लाभ कमाये हैं। वे राजनीति की दुनिया में, व्यवसायों, नौकरशाही, विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में उनकी अनुपस्थिति सी ज़ाहिर होती हैं। वे शायद ही कभी सशक्तिकरण, ग़रीबी, शिक्षा या स्वास्थ्य पर बहस में शामिल होती हैं। न ही उनसे भेदभाव बड़ी चिन्ता या बहस का विषय बन पाता है। मुस्लिम महिलाओं को हर रूप, चाहे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों, महिलाओं या ग़रीब महिलाओं के रूप में  वंचित किया जाता है। वे धार्मिक अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण के कार्यक्रमों में काफ़ी हद तक ग़ायब दिखती हैं। उदाहरण के लिए मुस्लिम महिलाओं के लिए शिक्षा, रोज़गार, कौशल विकास और बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच में पर्याप्त प्रगति नहीं हुई है।’

बेशक, मुझे यह अहसास है कि ख़राब सामाजिक-आर्थिक स्थिति केवल मुस्लिम महिलाओं में ही नहीं है, बल्कि यह उनके द्वारा झेले जाने वाले वृहद् सामाजिक नुक़सान के समग्र सन्दर्भ में उनकी हाशिये की स्थिति को दर्शाती है।

एक और गम्भीर तथ्य सामने आता है कि एक ओर बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने मतदान किया और चुनाव प्रक्रिया में भाग भी लिया। लेकिन दूसरी ओर बहुत कम संख्या में ही वे किसी पद के लिए चुनी गयी हैं। मुस्लिम महिलाओं के लिए निर्वाचित होना कठिन है। उनकी भागीदारी में उनके लिंग और साथ ही उनकी अल्पसंख्यक धार्मिक स्थिति दोनों ने बाधा डाली और हिन्दुत्व द्वारा बनाये गये सभी प्रचारों के विपरीत, तीन तलाक़ का मुद्दा समुदाय द्वारा ही दरकिनार कर दिया गया; क्योंकि यह इस्लामिक नहीं है। तथ्य यह है कि आज एक मुस्लिम महिला और उसके परिवार की भलाई प्रभावित हो रही है और हिंदुत्व ब्रिगेड और नफ़रत की राजनीति ख़तरनाक गति से फैल रही है।

(उपरोक्त लेखिका के अपने विचार हैं।)

युवाओं को प्रेरित करती पुलिस अधिकारी की किताब

महाराष्ट्र से अपनी प्रतिनियुक्ति पूरी करके बिहार में फिर से लौटे जांबाज़ पुलिस अधिकारी शिवदीप लांडे महिलाओं और युवाओं का बेहद सम्मान करते हैं। यही वजह है कि इनका ग़लत रास्तों पर भटकना उन्हें इतना अखरता है कि लांडे उन्हें सही रास्ता दिखाने का प्रयास लगातार करते रहे हैं। हाल ही में उनकी पुस्तक ‘वुमन बिहाइंड द लायन’ प्रकाशित हुई है।

महाराष्ट्र की मिट्टी में पैदा हुए शिवदीप लांडे का करियर बिहार शरीफ़ में शुरू हुआ, जहाँ से वह समस्त भारत में प्रसिद्ध हुए हैं। उनकी किताब देखकर ऐसा लगता है कि उन्होंने अपने करियर की प्रेरणा के बारे में लिखा होगा और इसका श्रेय अपनी पत्नी को दिया होगा। करियर से पहले उनकी ज़िन्दगी में काफ़ी परिस्थितियाँ रहीं, उन परिस्थितियों से युवा वर्ग को कसे निकलना है, यह इस किताब में है।

लेकिन वास्तव में उनकी माँ उनकी मार्गदर्शक हैं और लायन उनकी वर्दी में एक आदर्श वाक्य है। इस पुस्तक में ऊन्होंने जो ख़ाका खींचा है, वह उनकी सेवा का वर्णन नहीं, बल्कि अपना मक़ाम हासिल करते हुए युवाओं को हताशा की अवस्था से निकालकर उनका मनोबल बढ़ाना है। किताब में युवाओं को उन परिस्थितियों से रू-ब-रू कराया गया है, जिनसे वे ज़िन्दगी के उस मोड़ पर दो-चार होते हैं, जहाँ से ज़िम्मेदारियाँ उनके कन्धों पर आ रही होती हैं। इन्हीं परिस्थितियों से निकलने के रास्ते इस किताब में हैं।

शिवदीप लांडे को सिंघम और दबंग जैसे शब्दों का पुलिस बल और ख़ुद के साथ जोड़ा जाना पसन्द नहीं है। उनका विचार है कि पुलिसकर्मी और अधिकारी ड्यूटी पर रहते हैं और जांबाज़ी से देश व देश के नागरिकों की रक्षा और सेवा करना उनका फ़र्क़ होता है। लेकिन नेताओं को उसके काम में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। शिवदीप लांडे मानते हैं कि साहित्य समाज को जागृत करने के अलावा रास्ता दिखाता है, इसलिए वह अभी और किताबें भी लिखेंगे। वुमन बिहाइंड लायन पुस्तक में उन्होंने लिखा है कि बिहार में करियर के बाद तीन प्रोडक्शन हाऊस उनके पीछे थे। जिन चीज़ों ने उन्हें परेशान किया, वो बिहार में अपने कर्तव्यों में सन्तुष्टि की सुखद चीज़ों से अलग थीं। उन्होने युवा दुनिया को क़रीब से देखा और महाराष्ट्र में पढ़ाई के बाद बिहार में पुलिस बल मे भर्ती होकर युवाओं को प्रेरित किया कि वे भटकने से बेहतर है अपने करियर पर ध्यान दें।

सिगरेट, सिनेमा में समय बिताने से भविष्य बर्बाद होता जाता है, जिसका अहसास उन्हें जब होता है, तब तक उम्र और वक़्त दोनों निकल जाते हैं। शिवदीप ने बचपन से ही इसका अनुभव किया है। बचपन से ही महाराष्ट्र के विदर्भ जैसे शुष्क क्षेत्रों के हालात से लड़ते हुए लेखक गहरे अवसाद से बाहर आये। इस अवस्था से उन्होंने सीखा कि यह निराशावाद या लक्ष्य भटकाव की ओर ले जाने वाली नहीं, बल्कि कुछ कर दिखाने की उम्र है। इसलिए उन्होंने ख़ुद को इससे बचाया।

अकोला ज़िले के बालापुर तालुका के पारस गाँव में एक किसान परिवार में जन्में शिवदीप के माता-पिता कम पढ़े-लिखे थे। इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करके शिवदीप मुम्बई में भारतीय प्रशासनिक सेवा की पढ़ाई करके राजस्व विभाग में सेवाएँ देने लगे। इसके बाद भारतीय पुलिस सेवा परीक्षा पास करके 2006 में बिहार पुलिस में शामिल हुए। यहीं से पुलिस करियर के दौरान पटना, अररिया, पूर्णिया और मुंगेर जैसे ज़िलों में सेवा के दौरान अपने अनुभवों को भी लेखक ने किताब में जगह दी है।

इसमें आम जनजीवन से लेकर नक्सल प्रभावित इलाक़ों के अनुभव भी साझा हैं। समाजसेवा की भावना से प्रेरित शिवदीप की एक अलग आदत यह रही कि वह शादी से पहले अपने वेतन का 60 फ़ीसदी हिस्सा ग़ैर-सरकारी संगठनों को दे देते थे। जब उन्होंने शादी का मन बनाया, तो उनके बैंक में मात्र 32,000 रुपये थे। यह वह दौर था, जब महाराष्ट्र में उत्तर भारतीयों के ख़िलाफ़ विद्रोह हुआ था। इसका असर बिहार में देखने को मिला। अच्छी बात यह रही कि पुलिस अधिकारी शिवदीप लांडे की तरह ही उनकी पत्नी भी समाजसेवा की भावना से प्रेरित हैं। पुलिस सेवा में बेहतर प्रदर्शन करने वाले शिवदीप एक अच्छे लेखक हैं, इसका प्रमाण उनकी किताब वुमन बिहाइंड लायन है।

भटके हुए लोग

आज विश्व भर में जो अराजकता फैली हुई है। लोग एक-दूसरे के दुश्मन बने बैठे हैं, उसकी एक बड़ी वजह यह है कि लोगों ने धर्मों (मज़हबों) को पढ़ा नहीं है; और अगर कुछेक ने पढ़ा है, तो उनमें से अधिकतर ने उस पर अमल नहीं किया। क्योंकि जो धर्म को पढ़ते हैं, वो लोगों के धर्म-गुरु कहलाते हैं। अर्थात् ये लोग लोगों को धर्म के रास्ते पर आगे लेकर बढ़ते हैं। लेकिन हमारे इन धर्म-गुरुओं ने न केवल धर्म में वर्णित अच्छी शिक्षाओं को और धर्म के सत्य को हमसे छुपाया है, बल्कि हमें सत्य के मार्ग पर जाने से रोककर लगातार हमें भटकाया है।

इतना ही नहीं, जिन धर्मगुरुओं ने हमें सत्य का मार्ग दिखाया है, उन्हें भी इन स्वार्थी तथाकथित धर्मगुरुओं ने हमारे सामने अधर्मी और ग़लत सिद्ध करने का निरंतर प्रयास किया है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं, जो बताते हैं कि ईश्वर से मिलने का सच्चा मार्ग बताने वालों को ऐसे लोगों ने मृत्युदण्ड तक दिया है।

इसीलिए मैं कहता हूँ कि ये ईश्वर को बाँटने वाले धर्म के ठेकेदार धर्मगुरु नहीं हो सकते। लोगों को जितनी जल्दी हो सके, ऐसे अधर्मियों-पाखण्डियों से दूरी बना लेनी चाहिए, जो भाषाओं और धर्म-ग्रन्थों का सहारा लेकर ईश्वर को बाँटने की मूर्खता करने की आड़ में उसके पुत्रों को बाँट रहे हैं। क्योंकि ईश्वर तो एक है। और दुनिया के किसी भी इंसान में वह ताक़त नहीं, जो ईश्वर को बाँटना तो दूर, उसकी किसी अनश्वर संरचना को भी बाँट सके या उसके टुकड़े कर सके।

लोग मूर्खता और भ्रम-वश एक ही ईश्वर को अलग-अलग समझते हैं। लेकिन क्या इससे सत्य बदल जाएगा? कभी नहीं। रही धर्म-ग्रन्थों की बात, तो हर धर्म-ग्रन्थ इस बात की पुष्टि करता है कि ईश्वर एक है और हर इंसान समान है।

ऋग्वेद के खण्ड पाँच (5) के 60वें सूक्त का पाँचवाँ मंत्र कहता है – ‘अज्येष्ठासो अकनिष्ठास एते संभ्रातरो वावृधु: सौभाग्य।‘-(ऋ ग्वेद 5/60/5)

अर्थात् ईश्वर कहते हैं कि ‘हे संसार के लोगो! न तो तुममें कोई बड़ा है और न छोटा। तुम सब भाई-भाई हो। इसलिए सौभाग्य की प्राप्ति के लिए मिलकर आगे बढ़ो।‘

अथर्ववेद के तीसरे काण्ड के 30वें सूक्त के पहले मंत्र में कहा गया है – ‘सह्रदयं सांमनस्यमविद्वेषं कृणोमि व: ।

अन्यो अन्यमभि हर्यत वत्सं जातमिवाघ्न्या।।‘ -(अथर्व0 3/30/1) अर्थात् ‘मैं तुम्हारे लिए एकहृदयता, एकमनता और निर्वेरता करता हूँ। एक-दूसरे को तुम सब और प्रेम से चाहो, जैसे न मारने योग्य गाय उत्पन्न हुए अपने बछड़े को प्रेम करती है।‘

इसी तरह क़ुरआन में कहा गया है कि ‘अल्लाह एक है। ऐ ईमान वालो! तुम इंसाफ़ की निगरानी करने वाले बनो। ऐसा न हो कि किसी गिरोह की शत्रुता तुम्हें इस बात को मजबूर कर दे कि तुम इंसाफ़ करना छोड़ दो। इंसाफ़ करो। यही मज़हब से अधिक निकट है। अल्लाह का डर रखो। निश्चय ही जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह को उसकी ख़बर है। -(सूरह 8:5) तुम यतीम पर सितम मत करना। -(सूरह 93:9)माँगने वालों को झिड़क मत देना। -(सूरह 93:10) अपने परवरदिगार की नेअमतों का जि़क्र करते रहना। -(सूरह 93:11) भलाई और बुराई समान नहीं है। तुम बुरे आचरण और बुराई को अच्छे-से-अच्छे आचरण के द्वारा दूर करो। फिर क्या देखोगे कि वही व्यक्ति, जिसे तुम बैरी समझ रहे थे; वह तुम्हारा वह कोई घनिष्ठ मित्र है।‘ -(सूरह 41:34)

इसी तरह ईसाई और यहूदी धर्म एक ईश्वर, आपसी प्रेम और पाप से दूर रहने पर ज़ोर देते हैं। भारत में दुनिया के सर्वाधिक धर्मों के लोग रहते हैं। लेकिन सभी धर्मों का मूल यही है कि ईश्वर एक है। सभी से प्रेम करो और पाप मत करो। इसके बावजूद लोगों में अगर खटास पड़ी हुई है, तो उसके पीछे वे धर्मगुरु हैं, जो धर्म संसद लगाकर आपस में तो एक साथ बैठते-उठते हैं। एकता की चर्चा करते हैं। आपस में एक साथ भोजन भी करते हैं। लेकिन जब अपने-अपने धर्मों के लोगों को शिक्षाएँ देते हैं, तो यह नहीं सिखाते कि दूसरे धर्म के लोग आपके ही भाई हैं। क्योंकि हम सबका ईश्वर एक है, जिसे न वे बाँट सकते हैं और न हम। ये धर्म गुरु अपने अनुयायियों से यह नहीं कहते कि किसी भी प्राणी के प्रति मन में बैर पालने से तुमसे ईश्वर नाराज़ हो जाएगा; बल्कि कई तो यह सिखाते हैं कि तुम अगर दूसरे धर्म के व्यक्ति को अपने धर्म में शामिल कर लोगे, और अगर वह ऐसा नहीं करता है, तो उसे मार दोगे, तो तुम्हारा ईश्वर तुमसे ख़ुश होगा, तुम्हें स्वर्ग प्रदान करेगा। इन मूर्खों से कोई यह कभी नहीं पूछता कि जिस ईश्वर ने सभी को जीवन दिया है, उसका जीवन ले लेने से वह परमपिता हमसे कैसे ख़ुश हो सकता है?

मेरा मानना है कि जब कोई व्यक्ति एक निष्पाप या निर्दोष शरीर की केवल इसलिए हत्या करता है कि वह शरीर उसके धर्म को नहीं मानता, तो वह केवल उस शरीर की हत्या नहीं करता, बल्कि अपने अन्दर की इंसानियत की हत्या करता है। ईश्वर की रचना की हत्या करता है। सत्य की हत्या करता है। एक सहोदर की हत्या करता है; और अपने अन्दर एक महापाप को जन्म देता है, जिससे वह कभी मुक्त नहीं हो सकता। ईश्वर की नज़र में वह अपराध कर चुका है। दुनिया में कितने ही लोगों ने धर्म के नाम पर ऐसी हत्याएँ की हैं।

हज़ारों साल से कई धर्मों के बीच ऐसे युद्ध होते आये हैं, जिनसे सिवाय मानव क्षति के और कुछ हासिल नहीं हुआ है। लेकिन धर्म के नाम पर लडऩे-कटने वाले अपनी एक धार्मिक किताब को छोड़कर आज तक यह नहीं बता पाये कि उनका वास्तविक धर्म क्या है? क्योंकि ये धर्म से भटके हुए लोग हैं।

वरिष्ठ पत्रकार कमाल खान का निधन, नेताओं, संस्थाओं ने गहरा दुख जताया

वरिष्ठ पत्रकार कमाल खान का निधन हो गया है। खान ने लखनऊ स्थित अपने आवास में शुक्रवार तड़के अंतिम सांस ली। उन्हें सुबह जब अस्पताल ले जाया गया जहाँ डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित किया। पत्रकारिता में अपनी भाषा और तेवर के लिए कमाल खान की पहचान थी।

रामनाथ गोयनका और गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे प्रतिष्ठित अवार्ड्स से सम्मानित खान (61) एनडीटीवी में लखनऊ में वरिष्ठ पद पर थे। उनका विवाह पत्रकार रुचि कुमार से हुआ है। उनके निधन पर कई दलों के नेताओं, सामजिक संस्थाओं और अन्य जानी मानी हस्तियों ने दुःख जताया है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक कमाल खान लखनऊ स्थित अपने आवास में अंतिम सांस ली।  खान अपने परिवार के साथ लखनऊ के बटलर पैलेस स्थित सरकारी आवास में रहते थे। जानकारी के मुताबिक कल रात तक उन्हें स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई दिक्कत नहीं दिख रही थी। शुक्रवार तड़के उन्होंने अपने घर में ही अंतिम सांस ली। जानकारी के मुताबिक कमाल खान का निधन दिल का दौरा पड़ने से हुआ।

उन्हें अस्पताल ले जाया गया, लेकिन वहां डाक्टरों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। उत्तर  प्रदेश सहित सहित देश के कई गणमान्य लोगों ने उनके निधन पर शोक जताया है।  है। समाजवादी पार्टी ने कमाल खान के निधन पर ट्वीट में कहा – ‘अत्यंत दुखद! एनडीटीवी के वरिष्ठ संवाददाता जनाब कमाल खान साहब का इंतक़ाल, अपूरणीय क्षति। दिवंगत आत्मा को शांति दे भगवान। शोकाकुल परिजनों के प्रति गहन संवेदना। भावभीनी श्रद्धांजलि।’

बसपा प्रमुख मायावती ने ट्वीट में कहा – ‘एनडीटीवी से जुड़े प्रतिष्ठित व जाने-माने टीवी पत्रकार कमाल ख़ान की अचानक ही निधन के ख़बर अति-दुःखद तथा पत्रकारिता जगत की अपूर्णीय क्षति। उनके परिवार व उनके सभी चाहने वालों के प्रति मेरी गहरी संवेदना। कुदरत सबको इस दुःख को सहन करने की शक्ति दे, ऐसी कुदरत से कामना।’

कांग्रेस ने अपने ट्वीट में कहा – ‘वरिष्ठ पत्रकार कमाल खान साहब के निधन की खबर स्तब्ध करने वाली है। ईश्वर दिवंगत आत्मा को शांति दें और परिजनों को इस अपार दुख को सहने की शक्ति दें। भावभीनी श्रद्धांजलि।’

नेताओं का आना-जाना पार्टियों के लिये चिंता का विषय

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सियासी हलचल तेज है। विधायकों का एक दूसरे राजनीतिक दलों में आने–जाने का दौर जारी है, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप भी लगाये जा रहे है। सबसे मजे की बात ये है। जिस अंदाज में भाजपा के विधायक और मंत्री सत्ता को छोड़कर दूसरे राजनीति दलों में जा रहे है। वहां पर अब संभावनायें, ये जतायी जा रही है कि कहीं ये सियासी खेल तो नहीं है।

और तो और भाजपा को छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल होने से अब समाजवादी पार्टी में इस बात का मंथन चल रहा है कि अगर भाजपा और अन्य राजनीति दलों से विधायक या बड़े नेता शामिल होते और समाजवादी पार्टी से टिकट मांगा तो टिकट देना पार्टी के लिये मुसीबत हो सकता है। क्योंकि समाजवादी के जो नेता भाजपा के विरोध में और सत्ता के विरोध में गत पांच सालों से संघर्ष करते आ रहे है। उनका टिकट काटना या उपेक्षा करना मुश्किल साबित होगा। क्योंकि वो पार्टी के साथ बगावत भी कर सकते है।

समाजवादी पार्टी का मानना है। जो दूसरी पार्टी को छोड़कर समाजवादी पार्टी में शामिल हो रहे है वे महत्तपूर्ण तो है। लेकिन इतने भी महत्त पूर्ण नहीं है। कि वे अपने संघर्षशील नेताओं के साथ–साथ कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर सकें।

मौजूदा दौर में सभी राजनीति दलों में इस बात पर भी चिंतन चल रहा है कि अगर टिकट पाने के बाद भी अगर पार्टी को छोड़कर दूसरे दल में जाने का सिलसिला जारी रहा तो, निश्चित तौर पर चुनाव में बड़ी दिक्कत के साथ चुनावी परिणाम के साथ–साथ सियासी समीकरण भी बदल सकतें है।