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अपराध नहीं रोक सके योगी

वर्तमान उत्तर प्रदेश सरकार का कार्यकाल समाप्ति की ओर है और एक बार फिर प्रदेश चुनावी जंग का अखाड़ा बन चुका है। आरोपों-प्रत्यारोपों की नियम विहीन प्रतियोगिता शुरू हो चुकी है, जिसमें जनता का तबक़ा मूक दर्शक, तो एक तबक़ा विश्लेषक बना हुआ है। हालाँकि राजनीति का अस्तित्व इस तथ्य पर निर्भर होना चाहिए कि समाज के लिए क्या उचित है और क्या अनुचित? किन्तु जब समाज ही पथभ्रष्टता और दिशा हीनता का शिकार हो, तो राजनीति और राजनेताओं से क्या उम्मीद की जा सकती है? फिर भी समाज के अस्तित्व के लिए कुछ ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर गम्भीर विमर्श की महती आवश्यकता है। ऐसा ही एक मुद्दा क़ानून व्यवस्था का भी है।

साल 15 मार्च, 2012 से 19 मार्च, 2017 तक समाजवादी पार्टी की सरकार अपराध एवं धार्मिक दंगे-फ़साद को लेकर आलोचना के केंद्र में रही थी। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा के घोषणा-पत्र में प्रदेश से अपराध और भ्रष्टाचार को ख़त्म करने का मुद्दा सबसे प्रमुख था। पूरे चुनाव प्रचार में पूर्ववर्ती सपा-बसपा सरकारों के कार्यकाल में आपराधिक आँकड़ों को लेकर भाजपा नेता हमलावर थे। जनता ने भी भाजपा पर भरोसा दिखाया और सूबे की कमान उसे सौंप दी। सरकार बनने के पश्चात् मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ऐलान किया कि अपराधी या तो अपराध छोड़ दें या फिर उत्तर प्रदेश छोड़ दें; वरना उन्हें सही जगह पहुँचा दिया जाएगा। शायद इस सही जगह का इशारा जेल की सज़ा का था, या फिर पुलिस एनकाउंटर के माध्यम से स्वर्ग गमन! शतपथ ब्राह्मण (5/3/3/6,9) के अनुसार, ‘इहलोक का राजा देवलोक के राजा वरुण की भाँति धर्मपति था और वरुण की भाँति दुष्टों का दमन करके राज्य में सुशासन बनाये रखता था।’

जॉन लॉक भी कहते हैं- ‘सरकार का प्रथम कार्य मानव जीवन को व्यवस्थित रखने और समस्त विवादों का निर्णय करने के लिए उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का मापदण्ड निर्धारित करना है।’

ऐसे में वर्तमान सरकार का इस मापदण्ड पर मूल्यांकन तथा इस सम्बन्ध में तथ्यों की पड़ताल आवश्यक है। क्योंकि तथ्य ही तर्कों की सबसे बेहतरीन गवाही देते हैं। आँकड़ों पर ग़ौर करें, तो एनसीआरबी की रिपोर्ट बताती है कि साल 2018 में पूरे देश में 50,74,634 आपराधिक मामले दर्ज़ किये गये, जो 2017 की तुलना में 1.3 फ़ीसदी अधिक थे। इनमें भी अकेले उत्तर प्रदेश में साल 2018 के सर्वाधिक 11.5 फ़ीसदी आपराधिक मामले दर्ज हुए, जिनकी संख्या 5,85,157 थी। यहाँ तक की महिलाओं के प्रति अपराध में भी उत्तर प्रदेश शीर्ष पर रहा। कुल 15.7 फ़ीसदी मामले अकेले यहीं दर्ज हुए। साल 2017 में लड़कियों के साथ होने वाली छेड़छाड़ रोकने के लिए एंटी रोमियो दस्ते का गठन किया गया। इस दस्ते ने उलटे कई जगह लोगों को परेशान ही किया। साल 2019 में भी दुर्भाग्यपूर्ण रूप से देश में सर्वाधिक आपराधिक मामले उत्तर प्रदेश में ही दर्ज किये गये। इनकी संख्या 6,28,578 थी। साल 2020 में साल 2019 की अपेक्षा आपराधिक मामलों में 28 फ़ीसदी की वृद्धि हुई। साल 2020 में प्रदेश में हत्या के 3779, अपहरण के 12,913 मामले दर्ज हुए। बड़ी बात यह है कि साल 2017 से हत्याओं में उत्तर प्रदेश देश में अग्रणी है।

इन आपराधिक घटनाओं में आम जनता के साथ ही पुलिसकर्मियों एवं कई पत्रकारों की भी हत्या हुई। विक्रम जोशी, सुलभ श्रीवास्तव, शुभम मणि त्रिपाठी, रतन सिंह राजेश तोमर जैसे कई पत्रकारों की अलग अलग घटनाओं में हत्या कर दी गयी। राइट एंड रिस्क एनालिसिस ग्रुप नामक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारों की प्रताडऩा की दृष्टि से भी सन् 2020 में उत्तर प्रदेश पहले पायदान (37) पर था।

कहते हैं इतिहास ख़ुद को दोहराता है। पाँच साल पहले जिस क़ानून व्यवस्था को लेकर भाजपा तत्कालीन समाजवादी सरकार पर हमलावर थी, आज उन्हीं मुद्दों को लेकर विपक्षी दल भाजपा सरकार पर हमलावर हैं। भाजपा की सबसे बड़ी कठिनाई यह हैं कि आँकड़े और तथ्य उसके विरुद्ध हैं और विपक्ष के आरोपों की पुष्टि कर रहे हैं। आसन्न चुनावों में सरकार तथा दल की बिगड़ती छवि उसके लिए कठिनाई पैदा करेगी।

हालाँकि भाजपा नेता एवं सरकार की तरफ़ से अपने बचाव में देश की सर्वाधिक जनसंख्या के वहन, स्वयं के निर्धारित आँकड़े तथा अन्य विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों से तुलनात्मक रूप में ख़ुद को बेहतर बताने जैसे कई तर्क दिये जाते रहे हैं। यह सही है कि देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण यहाँ पर अपराध के मामले भी सबसे ज़्यादा है। नि:सन्देह तुलनात्मक रूप से देखें, तो राजस्थान जैसे राज्यों में महिलाओं के प्रति अपराध की दर कहीं अधिक है। किन्तु तथ्य तर्कों से पराजित नहीं किये जाते। यहाँ बात तुलना कर ख़ुद को सही साबित करने की नहीं, बल्कि स्वयं के अन्दर सुधार करने की है।

दो प्रमुख वर्ग, जिन्होंने प्रदेश एवं प्रदेश सरकार की छवि बिगाडऩे में सबसे बड़ी भूमिका निभायी है; इनमें पहले स्थान पर सत्तारूढ़ दल के सांसद, विधायक, एमएलसी आदि हैं और दूसरे स्थान पर पुलिस-प्रशासन। सत्तारूढ़ दल के कई नेताओं एवं विधायकों के ऑडियो सार्वजनिक हुए हैं, जिनमें वे कटमनी (रिश्वत) माँगते हुए सुने जा सकते हैं। जैसे कि पूर्वांचल की महिला विधायक एक ऑडियो में ऐसे ही सुविधा शुल्क की माँग करती सुनी जा सकती हैं। यही नहीं, कई विधायक या पार्टी पदाधिकारी जनता या सरकारी कर्मचारियों को धमकाने आदि के कारनामों में लिप्त रहे हैं।

राजनीति और अपराध का गठजोड़ बहुत पुराना है। चर्चित रही एन.एन. वोहरा समिति (1993) की रिपोर्ट ने भी राजनीतिज्ञों, नौकरशाहों और अपराधियों के मध्य की दुरभि-सन्धि एवं इनके द्वारा देश में एक समानांतर अर्थ-व्यवस्था के संचालन का उल्लेख किया था। 80 और विशेषकर 90 के दशक में अपराधियों ने सीधे राजनीति में हस्तक्षेप प्रारम्भ किया। पहले क्षेत्रीय दलों ने अपना जनाधार बढ़ाने और बलपूर्वक चुनाव जीतने के लिए इन्हें टिकट देना प्रारम्भ किया। बाद में राष्ट्रीय दल भी इस होड़ में शामिल हो गये। आज हालात ये हैं कि ख़ुद को पार्टी विद् डिफरेंस कहने वाली भाजपा राजनीति में अपराधियों की सबसे बड़ी आश्रयदाता बनती जा रही है। कम-से-कम आँकड़े तो यही दर्शा रहे हैं। साल 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के आँकड़ों पर नज़र डालें, तो 403 विधायकों में से 138 पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। चुनाव जीतने वाले विधायकों में से 36 फ़ीसदी आपराधिक पृष्ठभूमि से आते हैं। इनमें भाजपा में सर्वाधिक 114 विधायक आपराधिक पृष्ठभूमि के हैं, तो विपक्ष के 72 विधायकों पर गम्भीर आरोप हैं। अब ऐसे लोग, जो स्वयं क़ानून की धज्जियाँ उड़ाते रहे हों, उनसे क़ानून व्यवस्था में सहयोग की उम्मीद एक मूर्खतापूर्ण विचार है।

दूसरे, सरकार से मिली खुली छूट या यूँ कहें कि मुख्यमंत्री के आदेश की आड़ लेकर कुछ पुलिस वाले ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से कार्य करने लगें, अपराध बढ़ेगा ही। क़ानून व्यवस्था की स्थापना के लिए संवैधानिक मूल्यों की अनदेखी एक भ्रामक सोच है। आगरा में सफाईकर्मी अमित वाल्मीकि और गोरखपुर में मनीष गुप्ता की हत्या के मामले हों अथवा लखनऊ में विवेक तिवारी की हत्या की मामला हो, सरकार के लिए इनका औचित्य साबित करना कठिन हो गया। उस पर वरिष्ठ अधिकारियों ने जिस तरह इन मामलों को ढकने की कोशिश की, उससे सरकार की और फ़ज़ीहत ही हुई। आँकड़े बताते हैं कि हिरासत में मौत के मामले में उत्तर प्रदेश देश में शीर्ष स्थान पर है। रही सही कसर विपक्षी दलों ने इन मामलों को उछालकर पूरी कर दी। सोनभद्र का सामूहिक हत्याकांड, हाथरस दुष्कर्म मामला, बदायूँ दुष्कर्म मामले के अलावा लखनऊ में विवेक तिवारी एनकाउंटर मामला, बिकरू कांड जैसे कई मामलों ने भाजपा के सुशासन और उत्कृष्ट क़ानून व्यवस्था के दावों की धज्जियाँ उड़ा दीं, साथ ही भाजपा को रक्षात्मक होने पर विवश कर दिया।

मामला सिर्फ़ फ़ौजदारी के अपराधों तक ही सीमित नहीं रहा है। भ्रष्टाचार एक प्रकार का आर्थिक अपराध भी होता है। इसमें सबसे ज़्यादा संलग्न प्रशासनिक अधिकारी ही हैं। उदाहरण के तौर पर सितंबर, 2020 में भाजपा के ही बाराबंकी के एक विधायक ने लखनऊ विकास प्राधिकरण पर रिश्वतखोरी का आरोप लगाया था। ऐसे में इनकी गम्भीरता को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इसमें कोई सन्देह नहीं कि वर्तमान सरकार ने पूर्व में सत्ता के सहयोग से अपना आपराधिक साम्राज्य खड़ा करने वाले, प्रदेश में समानांतर सत्ता क़ायम करने वाले एवं विधायक या सांसद रह चुके बाहुबलियों के विरुद्ध कड़ी कार्रवाइयाँ की हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में संगठित अपराध की कमर भी टूटी है। लेकिन इस बीच सरकार और पुलिस की कार्यशैली पर भी सवाल उठे हैं और दोनों की ही भूमिका आलोचना के केंद्र में रही है।

एक बात तो तय है कि पार्टी न सिर्फ़ अपने जन प्रतिनिधियों पर लगाम लगाने में असफल हो रही है, बल्कि प्रशासनिक वर्ग भी मनमानी पर उतारू रहा है। इन दोनों के अनियंत्रित व्यवहार से किसी पार्टी या सरकार की क्या दुर्गति हो सकती है? इसका सबसे बड़ा उदाहरण साल 2012 से 2017 तक रही सपा सरकार है। पार्टी नेताओं और विशेषकर सरकारी अधिकारियों ने ही पिछली सरकार को डुबोया। उच्च कोटि के बौद्धिक वर्ग से सुसज्जित भाजपा को दीवार पर लिखी इबारत शायद नहीं दिख रही है।

आज देश की राजनीति का सबसे नकारात्मक पहलू आरोप के बदले आरोप लगाना है। अथवा यूँ कहिए कि ख़ुद की कमियाँ छुपाने के लिए अतीत की सरकारों के आँकड़े दिखाना है। तर्क यह भी है कि प्रश्न हमसे ही क्यों, बाक़ी दलों से क्यों नहीं? यहाँ प्रश्न भाजपा से इसलिए किये जा रहे हैं, क्योंकि सत्ता में वह है; न कि सपा, बसपा और कांग्रेस। पिछली सरकारों एवं विपक्ष में बैठे दलों ने भी कभी ऐसे तथ्यों कि अनदेखी की और हाशिये पर आ गयी। अगर भाजपा को अपने लिए यही भविष्य चाहिए, तो यह उसकी अपनी इच्छा है।

आम जनता आज भी सरकारों से मात्र बिजली, पानी और सडक़ के साथ अपने और परिवार के साथ-साथ माल की हिफ़ाज़त चाहती है। इनमें भी सुरक्षा उसकी पहली प्राथमिकता है। वैश्विक सम्मेलन (ग्लोबल सम्मिट) और एनएसजी एवं सुरक्षा परिषद् की स्थायी सदस्यता जैसी बड़ी-बड़ी बातें उसे न बहुत समझ आती हैं और न ही वह उन्हें समझना चाहती है। उनके अपनों की सुरक्षा एवं सम्मान का जीवन ही उसके लिए प्राथमिकता है। अली अहमद जलीली लिखते हैं :-

‘अम्न की बात में तकरार भी हो सकती है।

शाख़ जैतून की तलवार भी हो सकती है।।’

उचित यही होगा कि भाजपा को जनता के उस ख़ामोश वर्ग का मिजाज़ भी पढऩा चाहिए, जो प्रतिबद्ध मतदाता है। यह वो वर्ग है, जो ख़ामोशी से ही सरकारें बनाता भी है और बदलता भी है।

जेवर हवाई अड्डे से जगी लोगों में उम्मीद

The Prime Minister, Shri Narendra Modi witnessing the Air Show at the inauguration of the Purvanchal Expressway, in Sultanpur, Uttar Pradesh on July 16, 2021.

उत्तर प्रदेश ही नहीं, वरन पूरे देश के लिए भी जेवर परियोजना ऐतिहासिक है। लेकिन क्या यह परियोजना इस प्रदेश के साथ-साथ देश के लिए मील का पत्थर साबित होगी? देश की जनता को जेवर हवाई अड्डे के अलावा कई अन्य ऐसी मेगा परियोजनाओं की सौगात मिल रही है, जिससे उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश की तरक़्क़ी के द्वार खुलेंगे। माना जा रहा है कि क़रीब 30,000 करोड़ की जेवर परियोजना पर तेज़ी से काम चल रहा है और 2024 तक जेवर हवाई अड्डे से हवाई जहाज़ उड़ान भरने लगेंगे। लेकिन यह हवाई अड्डा पूरी तरह 2030 तक तैयार हो सकेगा। हवाई अड्डे के अलावा उत्तर प्रदेश सरकार की कई बड़ी परियोजनाएँ पूरी हो चुकी हैं, तो कई परियोजनाएँ 2024 तक पूरी करने का लक्ष्य तय किया गया है, जिनमें केंद्र की मोदी सरकार पूरी दिलचस्पी दिखा रही है।

सरकारी सूत्रों का कहना है कि ये वो मेगा परियोजनाएँ हैं, जिनका निर्माण कार्य मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सत्ता सँभालने के बाद शुरू कराया था। इन मेगा परियोजनाओं में पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे और काशी विश्वनाथ मन्दिर कॉरिडोर का निर्माण कार्य पूरा हो गया है। पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन मेगा परियोजनाओं को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौज़ूदगी में सूबे की जनता को सौंपने का काम किया। इसके साथ ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जेवर हवाई अड्डा, फ़िल्म सिटी और गंगा एक्सप्रेस-वे जैसी मेगा परियोजनाओं की आधारशिला भी रखी।

माना जा रहा है कि राज्य में यह पहला अवसर है, जब जनता के उपयोग वाली करोड़ों रुपये ख़र्च कर तैयार करायी गयी कई मेगा परियोजनाएँ जनता को सौंपी जा रही हैं। इसके तहत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की मौज़ूदगी में क़रीब 42,000 करोड़ रुपये की लागत से तैयार कराया गया 340.82 किलोमीटर लम्बा पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनता को सौंपा। यह एक्सप्रेस-वे पश्चिमी उत्तर प्रदेश के ज़िले मेरठ से शुरू होकर प्रयागराज पर समाप्त होगा। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की स्वप्निल परियोजना (ड्रीम प्रोजेक्ट) कहे जाने वाले पूर्वांचल एक्सप्रेस-वे का शिलान्यास जुलाई, 2018 में आजमगढ़ में प्रधानमंत्री मोदी ने किया था। इस एक्सप्रेस-वे को पूर्वी उत्तर प्रदेश के लिए लाइफ लाइन कहा जा रहा है। लखनऊ से आजमगढ़ और मऊ होते हुए ग़ाज़ीपुर तक 340.824 किमी लम्बे इस एक्सप्रेस-वे पर वाहनों के फर्राटा भरने से जहाँ समय के लिहाज़ से पूर्वी और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बीच की दूरी कम हो जाएगी, वहीं व्यापार और वाणिज्य को पंख लगेंगे। क़रीब 15,000 करोड़ रुपये की लागत से 296 किलोमीटर लम्बा बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस-वे के निर्माण का कार्य तेज़ी से हो रहा है।

बुन्देलखण्ड एक्सप्रेस-वे का शिलान्यास बीते वर्ष फरवरी में किया था। चित्रकूट से शुरू होने वाला यह एक्सप्रेस-वे बाँदा, महोबा, हमीरपुर, जालौन होते हुए इटावा के कुदरौल गाँव के पास लखनऊ-आगरा एक्सप्रेस-वे से जुड़ेगा। इस एक्सप्रेस-वे के बनने से बुंदेलखण्ड पहुँचना आसान होगा। वहाँ कृषि, वाणिज्यिक, पर्यटन और उद्यमिता के लिए राह आसान होगी और बुंदेलखण्ड का विकास होगा। इस प्रकार गौतमबुद्धनगर (नोएडा) में बनने वाले जेवर हवाई अड्डा, फ़िल्म सिटी और अन्य परियोजनाएँ भविष्य में सूबे की शान साबित होंगी और इन महत्त्वपूर्ण परियोजनाओं से हज़ारों लोगों को रोज़गार मिलेगा। बता दें कि जेवर हवाई अड्डा देश का सबसे बड़ा और दुनिया का चौथा सबसे बड़ा हवाई अड्डा होगा, जो दिल्ली के इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे से तक़रीबन 72 किलोमीटर दूर होगा। सर्वविदित है कि जेवर अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के विनिर्माण के लिए उत्तर प्रदेश सरकार को सभी ज़रूरी अनापत्ति प्रमाण-पत्र (एनओसी) सरकार को मिल चुके हैं। हवाई अड्डे का पहला चरण तीन साल में पूरा होगा। शुरू में हर साल 1.20 करोड़ यात्री सफ़र कर सकेंगे। अनुमान लगाया जा रहा है कि साल 2040-50 तक इस हवाई अड्डे पर तक़रीबन सात करोड़ यात्रियों का भार होगा। ज़ाहिर है जेवर हवाई अड्डा कार्गो हवाई अड्डा भी है। इसलिए साल 2040-50 तक 2.6 मिलियन टन कार्गो की क्षमता का विकास यहाँ होगा। नोएडा इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड हवाई अड्डे के रनवे की संख्या दो से बढ़ाकर छ: की गयी है। माना जा रहा है कि जेवर हवाई अड्डे के सुचारू होने से दिल्ली के हवाई अड्डों का बोझ हल्का होगा। जेवर हवाई अड्डा राष्ट्रीय राजधानी के निकट बनने वाला एक बड़ा हवाई अड्डा होगा, जिससे पश्चिमी उत्तर प्रदेश की $कीमत और देश का रुतबा दोनों बढ़ेंगे।

इतना ही नहीं जेवर हवाई अड्डे को हाई स्पीड रेल से जोड़ा जाएगा। साथ ही इंदिरा गाँधी हवाई अड्डे से सडक़ मार्ग द्वारा जोड़े जाने तथा मेट्रो रेल से जोड़े जाने पर भी काम चल रहा है।

विदित हो कि जेवर हवाई अड्डे का नाम पिछले साल ही प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने नोएडा इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट, जेवर करने का प्रस्ताव पास किया था। लेकिन अभी तक यह साफ़ नहीं हो सका है कि इस हवाई अड्डे का नाम जेवर हवाई अड्डा ही रहेगा या के नाम नोएडा इंटरनेशनल ग्रीनफील्ड एयरपोर्ट, जेवर यानी नोएडा अंतरराष्ट्रीय हरित क्षेत्र, जेवर होगा। लेकिन यह तय है कि जेवर के इस हवाई अड्डे में परम्परा और आधुनिकता की झलक दिखेगी। यह हवाई अड्डा भारतीय परम्परा को समेटे हुए होगा। हवाई अड्डे में प्रवेश करते समय वाराणसी के घाटों का अहसास होगा, तो लोग प्रयागराज संगम जैसा अनुभव भी महसूस कर सकेंगे। अवसान भवन (टर्मिनल बिल्डिंग) में प्रवेश करने के बाद आँगन जैसा स्वरूप मिलेगा।

हवाई अड्डे के निर्माण में यह अवधारणा भारतीय मन्दिरों से ली गयी है। जेवर हवाई अड्डे की बनावट (डिजाइन) में इन बातों पर ज़ोर दिया गया है। कुल मिलाकर जेवर हवाई अड्डा अपने आप में कई इतिहास समेटे हुए नज़र आयेगा। इसकी बनावट भारतीय परम्परा को प्रदर्शित करेगी। हवाई अड्डा की डिजाइन कुछ तरह से तैयार की गयी है कि प्रवेश करते समय लोग उत्तर प्रदेश की आतिथ्य सत्कार परम्परा का अनुभव कर सकेंगे। हवाई अड्डा परिसर में क़रीब 300 मीटर चलने के बाद टर्मिनल बिल्डिंग के सामने पहुँच जाएँगे। यात्रियों को चेक इन प्रक्रिया के लिए एलिवेटर और एस्केलेटर से एक मंज़िल ऊपर जाना होगा। इसका डिजाइन कुछ इस तरह होगा, जैसे आप किसी हवेली में दाखिल हो रहे हैं। यही नहीं टर्मिनल बिल्डिंग के प्रवेश द्वार पर व्यावसायिकता नज़र नहीं आएगी। यमुना इंटरनेशनल हवाई अड्डा प्राइवेट लिमिटेड के सीईओ क्रिस्टोफर श्नेलमैन के मुताबिक, हवाई अड्डे की शुरुआत में टर्मिनल बिल्डिंग तक कार नहीं ले जा सकेंगे। कार छोडऩे के बाद यात्री टर्मिनल बिल्डिंग के सामने पहुँचेंगे। यहाँ पर टर्मिनल बिल्डिंग के सामने एक इमारत वाराणसी के घाटों जैसी दिखायी देगी। यहाँ पर घाटों वाली चहल-पहल का दृश्य दिखायी देगा।

पहले जेवर का नोएडा इंटरनेशनल हवाई अड्डा को 5,000 हेक्टेयर में बनाया जाना था। अब इसका क्षेत्रफल बढ़ाकर 5,845 हेक्टेयर कर दिया गया है। तय हुआ है कि मेंटेनेंस रिपेयरिंग ओवरहालिंग हब भी हवाई अड्डा परिसर में ही विकसित किया जाएगा। यमुना एक्सप्रेसवे औद्योगिक विकास प्राधिकरण ने सेक्टर-30 और सेक्टर-31 की 845 हेक्टेयर ज़मीन भी हवाई अड्डा में समाहित कर दी है। इसके बाद नोएडा इंटरनेशनल हवाई अड्डा का क्षेत्रफल बढक़र 5,845 हेक्टेयर हो गया है, जो इसे दुनिया का चौथा सबसे बड़ा अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाता है। आधुनिक विकास तो ठीक है; लेकिन अगर दूसरी तरफ़ देखा जाए तो हम प्रकृति के ख़िलाफ़ भी पेड़ों को काटकर नुक़सान कर रहे हैं; लेकिन इसके लिए सोचता कौन है।

उल्लेखनीय है कि जेवर हवाई अड्डा परियोजना में क़रीब 11 हज़ार से अधिक पेड़ काटे जाने की योजना हैं। इन पेड़ों की जियो टैगिंग की गयी है, ताकि इनका पूरा विवरण तैयार हो जाए। विशेष वृक्षों की अलग से सूची बनायी गयी है। पहली श्रेणी में संरक्षित करने वाले पेड़ों को रखा गया है। दूसरी श्रेणी में ऐसे पेड़ रखे गये हैं, जिन्हें प्रत्यारोपित किया जाएगा। तीसरी श्रेणी में ऐसे पेड़ हैं, जिन्हें काटा जाएगा। नीम, कदंब जैसे पेड़ संरक्षित किये जाएँगे। नीम व कदंब के पेड़ भगवान श्रीकृष्ण से सम्बन्ध रखते हैं। भावी पीढिय़ों के लिए इन्हें संरक्षित किया जाएगा।

ज़ाहिर है बीते माह सूबे को मिलने वाली उक्त परियोजनाओं के पहले प्रधानमंत्री पिछले महीने वाराणसी, कुशीनगर को कई विकास परियोजनाओं की सौगात दे चुके हैं। सरकार ने भगवान बुद्ध की क्रीड़ास्थली सिद्धार्थनगर की रैली में घोषणा करते हुए नौ नये राजकीय मेडिकल कॉलेजों की सौगात प्रदेश को दी थी। तब एक साथ इतने मेडिकल कॉलेज की सौगात पाने वाला उत्तर प्रदेश देश का इकलौता राज्य बना था।

सवाल यह है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने पिछले पौने पाँच साल में इतनी तेज़ी से काम क्यों नहीं किया, जितनी तेज़ी से वह अब कर रही है? दूसरा सवाल यह कि अगर भाजपा की सरकार दोबारा नहीं बनी, तो फिर अधूरी परियोजनाओं को अगली सरकार पूरा करेगी? या मान लीजिए प्रदेश में फिर भाजपा की सरकार बनी, तो वह इन्हें कब तक पूरा करेगी?

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

झारखण्ड की कोख में छिपा ख़ज़ाना

अवैध कारोबारी लगातार कई क़ीमती पदार्थ निकालकर हो रहे मालमाल, सरकार ख़ामोश

झारखण्ड को ग़रीब राज्य माना जाता है, जबकि इस प्रदेश की ज़मीन की कोख में अमीरी के वो निशान छिपे हैं, जो देश के दूसरे राज्य में शायद ही मिलें। भारत से खनिज के क्षेत्र में झारखण्ड का श्रेष्ठ स्थान है। खनिज संसाधनों की बहुलता के कारण ही झारखण्ड को भारत का ज़रूर प्रदेश भी कहा जाता है। यहाँ सभी धात्विक एवं अधात्विक खनिज उपलब्ध हैं।

झारखण्ड खनिज उत्पादन की दृष्टि से सम्पूर्ण भारत में सर्वोच्च स्थान पर है। इसके कारण इसे रत्नगर्भ भी कहा जाता है। मूल्य की दृष्टि से भारत के कुल खनिज उत्पादन का 26 फ़ीसदी एवं उत्पादन की दृष्टि से देश के कुल खनिज उत्पादन का लगभग 40 फ़ीसदी हिस्सा वर्तमान में अकेले झारखण्ड से निकला जाता है। कोयला, अभ्रक, लोहा, ताँबा, चीनी मिट्टी, फायर क्ले, कायनाइट, ग्रेफाइट, बॉक्साइट तथा चूना पत्थर के उत्पादन में झारखण्ड अनेक राज्यों से आगे है। एस्बेस्टस, क्वाट्र्ज तथा आणविक खनिज के उत्पादन में भी झारखण्ड का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

यहाँ अधिकांश खनिज धारवाड़ और विंध्य प्रणाली के चट्टानों से प्राप्त होता है। समय-समय पर इसकी नीलामी भी होती है। कोयला, लोहा और अन्य खनिज के बारे में दुनिया जानती है। इससे इतर यहाँ की धरती के अन्दर बहुमूल्य ख़ज़ाने छिपे हैं। इनमें से कुछ बहुमूल्य रत्न और खनिज की जानकारी है, तो कुछ के अभी केवल संकेत ही मिले हैं।

इसके बावजूद सरकार पिछले कई साल से क़दम आगे नहीं बढ़ा पा रही है। नतीजतन सरकार को इससे कोई लाभ नहीं मिल रहा। कोई राजस्व नहीं मिल रहा और ख़ज़ाना ख़ाली है। वहीं दूसरी ओर इन खज़ानों के अवैध कारोबारियों को एक-एक जगह की जानकारी है कि झारखण्ड के किस हिस्से में धरती के अन्दर कौन-सा ख़ज़ाना छिपा है? वे अवैध खुदाई से इन अनमोल खनिजों को निकालते और औने-पौने दामों पर बेचकर भी मालमाल हो रहे हैं। इस स्थिति के लिए केंद्र और राज्य सरकार दोनों ज़िम्मेवार है। केंद्र और राज्य सरकार के समन्वय के अभाव और ढुलमुल रवैये के कारण इन अनमोल खनिजों का लाभ राज्य और देश को नहीं मिल रहा है।

कहाँ, किस खनिज का भण्डार?

झारखण्ड में लौह अयस्क धारवाड़ क्रम की चट्टानों से मिलता है। झारखण्ड में लौह अयस्क हेमेटाइट कोटि का है, जिसमें 60-68 फ़ीसदी तक लोहे का अंश पाया जाता है। यहाँ लाख अयस्क का कुल भण्डार 3,758 मिलियन टन है जो देश के कुल भण्डार का 37 फ़ीसदी है। यहाँ से हर साल क़रीब 120 लाख टन लोहे का उत्पादन होता है। लोहे का मुख्य उत्पादन पश्चिमी सिंहभूम ज़िले में गुवा से लेकर उड़ीसा में गुनाई तक फैली एक पट्टी में होता है। जिसे बड़ा जामदा कॉम्प्लेक्स कहते हैं। यह विश्व की सबसे घनी लोहे की पट्टी है। नोवामुंडी की खान पूरे एशिया की सबसे बड़ी लोहे कि खान है। मैंगनीज लौह समूह का दूसरा प्रमुख खनिज है।

झारखण्ड में मैंगनीज की प्राप्ति धारवाड़ क्रम की चट्टानों से होती है। इसका उपयोग इस्पात बनाने के साथ साथ बैटरी, विभिन्न प्रकार के रंग एवं रसायन उद्योग में किया जाता है। यहाँ मैंगनीज के तीन प्रमुख क्षेत्र हैं। पहला- गुवा से लिम्टू; दूसरा- चाईबासा से बड़ा जामदा और तीसरा- बड़ा जामदा से नोवामुंडी। ताँबे के उत्पादन तथा भण्डारण के दृष्टिकोण से झारखण्ड भारत का अग्रणी राज्य है। झारखण्ड में ताँबे का कुल भण्डार 112 मिलियन टन है, जो भारत के कुल भण्डार का 25 फ़ीसदी है।

झारखण्ड राज्य में भारत का सबसे अधिक ताँबे का उत्पादन होता है। यहाँ ताँबे का खनन मुसाबनी, सरायकेला, राखामाइंस, पत्थरगोड़ा, घाटशिला तथा बहरागोड़ा में होता है। झारखण्ड में बॉक्साइट का भी भण्डार है। बॉक्साइट एल्युमिनियम का एकमात्र स्रोत है। यहाँ बॉक्साइट का कुल भण्डार 70 मिलियन टन है, जो भारत के कुल बॉक्साइट भण्डारण का 2.8 फ़ीसदी है। झारखण्ड में बॉक्साइट का सम्पूर्ण भण्डार पाट प्रदेश में संचित है। झारखण्ड के दो ज़िले गुमला एवं लोहरदगा बॉक्साइट के उत्पादन में सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। बॉक्साइट को गलाकर एल्युमिनियम धातु निकाली जाती है। मुरी में बॉक्साइट को गलाने का सबसे बड़ा संयंत्र है।

ज़मीन में छिपे हैं बेशक़ीमती रत्न

उधर, भूतत्व वैज्ञानिक कहते हैं कि झारखण्ड की धरती के अन्दर अनमोल रत्न भी छिपे हैं। हीरा, पन्ना, प्लेटिनम, लिथियम, क्रोमियम, निकेल, मून स्टॉन, ब्लू स्टोन समेत कई दुर्लभ और बेशक़ीमती खनिज का भण्डार है। इनमें से कुछ खनिजों के होने की पुख़्ता जानकारी सरकार को है। लेकिन कुछ ऐसे खनिज भी हैं, जिनके संकेत तो मिले हैं। फिर भी काफ़ी जानकारी मिलने के बाद भी सरकार अभी तक लाभ नहीं उठा सकी है। भू-वैज्ञानिकों की मानें, तो हीरा गुमला और सिमडेगा ज़िलों के बड़े इलाक़े में है। प्लैटिनम भी सिमडेगा ज़िले में होने के संकेत मिले हैं। मून स्टोन कोडरमा ज़िले तो वेनेडियम रांची के तमाड़ से जमशेदपुर के बीच होने का संकेत मिल चुका है। निकेल रांची और जमशेदपुर में, लिथियम तमाड़, ग्लेडियम जमशेदपुर में, कैडमियम चाईबासा और क्रोमियम रांची ज़िले में होने के संकेत मिले हैं। झारखण्ड की धरती में इन बहुमूल्य खनिज दबे होने का संकेत कोई नया नहीं है। लगभग तीन साल पहले भारती भूगर्भ सर्वेक्षण ने दर्ज़नभर रत्नों और बेशक़ीमती खनिजों के होने का राज्य सरकार को संकेत दे चुकी है।  माना जा रहा है कि ज़्यादा नहीं 200 मीटर की गहराई पर ही बेहतर क्वालिटी के रत्न मौज़ूदा हैं। इसके बाद भी राज्य सरकार ने इस ओर ध्यान नहीं दिया है।

जयपुर पहुँच रहा गुड़ाबांदा का पन्ना

 

राज्य सरकार अभी तक केवल कोयला, लोहा और बाक्साइड को लेकर ही अटकी है। इन्हीं खनिजों के भण्डार की नीलामी हो रही है। सरकार इन बेशक़ीमती पत्थरों और खनिजों का लाभ नहीं उठा पा रही है; लेकिन इसके अवैध कारोबारी चाँदी काट रहे हैं।

सूत्रों की मानें, तो यहाँ से निकलने वाले पन्ना की चमक जयपुर की जौहरी मण्डी तक है। अवैध तरीक़े से निकाले जाने वाला पन्ना चोरी-छिपे जयपुर तक पहुँचता है। पूर्वी सिंहभूम ज़िले के गुड़ाबांदा इलाक़े में जाने पर अवैध खनन के दिख जाते हैं। इसी तरह सिमडेगा से हीरा और कोडरमा से मून स्टोन का अवैध खनन हो रहा। इस बात को राज्य सरकार के खान एवं भूतत्व विभाग के अधिकारी भी मानते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, केवल पन्ना का ही 800 करोड़ रुपये का सालाना व्यवसाय होता है।

नक्सली हस्तक्षेप के बिना खनन सम्भव नहीं!

सूत्रों बताते हैं कि नक्सलियों के हस्तक्षेप के बिना अवैध खनन सम्भव नहीं है। उनकी अनुमति से ही अवैध खनन होता है, तभी अवैध खनन करवाया जाता है। अवैध खनन का पूरा शृंखला (चेन) बनी हुई है। खनन कोई और करवाता है। स्थानीय स्तर पर निकाले गये बहुमूल्य पत्थर कोई और खरीदता है; और मंडी तक कोई और पहुँचाता है। खनन में महिलाएँ और बच्चे तक लगाये जाते हैं। जिन्हें काफ़ी कम पैसा मिलता है। हाँ, कुछ पत्थर की पहचान रखने वाले पारखी मज़दूरों को अलग से पैसे दिये जाते हैं, जो पत्थर को देखकर परख लेते हैं कि वह किस धातु का है।

विदेशी तकनीक की ज़रूरत

राज्य सरकार के खनन विभाग के अधिकारियों कहते हैं कि हीरा और पन्ना के खान होने के पुख़्ता सुबूत हैं। इसके अलावा निकेल, लिथियम, ग्लेडियम आदि होने के संकेत तो मिले हैं। लेकिन इन्हें पुख़्ता करने के लिए अभी वैज्ञानिक तरीक़े से जाँच की ज़रूरत है। इसके लिए बड़े निवेश की ज़रूरत है। साथ ही ज़मीन के अन्दर दबे खनिजों की गुणवत्ता की जाँच के लिए उच्च तकनीक की ज़रूरत है। हीरा या पन्ना की गुणवत्ता कैसी है? अन्य खनिजों की क्या स्थिति है? कितनी खुदाई के बाद अच्छी गुणवत्ता वाले खनिज प्राप्त होंगे? कहाँ, कितनी मात्रा में खनिज होने का अनुमान है? इन तमाम सवालों के जवाब की ज़रूरत होगी। इसके लिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार, दोनों को इस दिशा में मिलकर ठोस क़दम उठाने होंगे, तभी खनिजों को निकाला जा सकेगा और उनकी मात्रा तथा गुणवत्ता की सही-सही जानकारी मिल सकेगी और राजस्व प्राप्त हो सकेगा; अन्यथा कोई फ़ायदा नहीं।

“खनिजों की खोज के लिए एक एक्सपोलेरशन विंग काम करती है। इसमें केंद्र और राज्य सरकारों के अधिकारी होते हैं। ये लगातार विभिन्न इलाक़ों में खनिजों की खोजबीन करते हैं और रिपोर्ट देते हैं। इस रिपोर्ट के आधार पर सरकार क़दम आगे बढ़ाती है। यह सही है कि राज्य में बहुमूल्य खनिज पदार्थों का भण्डार है। अभी तक सिमडेगा में हीरा, कोडरमा में मून स्टोन और गुड़ाबांदा में पन्ना के होने की पुख़्ता जानकारी मिली है। दरअसल, एवरेज सेल प्राइस (एएसपी) केंद्र सरकार तय करती है। इसे इंडियन ब्यूरो ऑफ माइंस (आइबीएम) द्वारा तय किया जाता है, जो अभी तक नहीं हुआ है। राज्य सरकार से या तो केंद्र सरकार एएसपी तय करे, या फिर हमें स्वंतत्र रूप से सामान्य तरीक़े से एक्सप्रेशन ऑफ इंटरेस्ट (पसन्द से अभिव्यक्ति) दे और खनिज निकालने की अनुमति दे। इसके लिए केंद्र से पत्राचार किया गया है। उम्मीद है कि जल्द ही कोई रास्ता निकलेगा।”

विजय कुमार ओझा

खान निदेशक, झारखण्ड सरकार

हरियाणा में चल रहा पर्ची और ख़र्ची का खेल

पैसों के बदले शर्तिया नौकरी की बात सामने आने से मची खलबली

ऐसे आरोप लगते रहे हैं कि हरियाणा में आज भी सरकारी नौकरियाँ बिकती हैं। हालाँकि पहले इनकी पुष्टि नहीं हो पा रही थी; लेकिन अब पैसों के बदले शर्तिया नौकरी की बात पुष्ट हो गयी है। अब सरकार न केवल विपक्ष के निशाने पर है; बल्कि युवाओं का भरोसा चयन करने वाले आयोग से भी कुछ हद तक टूटा है। अब तक यही प्रचारित होता रहा है कि राज्य में भाजपा की सरकार बनने के बाद नौकरी मामले में खुला खेल फ़र्रूख़ाबादी वाला चलन बन्द हो गया है और अब योग्य व्यक्ति अपने बूते नौकरी पा सकता है।

अब चयन के लिए किसी सिफ़ारिश या रिश्वत की नहीं, बल्कि योग्यता साबित करने की ज़रूरत है। राज्य में नौकरी पाने के लिए पर्ची (सिफ़ारिशी पत्र) और ख़र्ची (रिश्वत) की पुरानी व्यवस्था बन्द हो गयी है। लेकिन यह बात सिर्फ़ खोखली साबित हुई।

कुल मिलाकर आया राम, गया राम की राजनीति की परम्परा वाले हरियाणा में नौकरी में योग्यता से ज़्यादा दो पैमाने- पर्ची और ख़र्ची के रहे हैं। राज्य में ऐसा भी दौर रहा है, जब चयन प्रक्रिया शुरू होने से पहले सिफ़ारिशी या पैसा दे चुके युवा को उसका सूची (मैरिट) में स्थान बता दिया जाता था और लगभग वही स्थान आता था।

हरियाणा स्टाफ सिलेक्शन कमीशन (एचएसएससी) की अपेक्षा हरियाणा लोक सेवा आयोग (एचपीएसी) की साख कुछ हद तक ठीक थी। एचएसएसपी छोटे दर्जे की नौकरियों की भर्ती करने का काम करती है, जबकि एचएसएसपी का काम श्रेणी-1 (वन ग्रेड) जैसे पदों के लिए भर्ती करना है। इसी अच्छी साख वाले हरियाणा लोक सेवा आयोग में धाँधली के ऐसे बड़े मामले का पर्दाफ़ाश हुआ है कि सरकार की साख पर बट्टा लगता नज़र आ रहा है। दरअसल स्वास्थ्य विभाग में दन्त चिकित्सक (डेंटल सर्जन) की रिक्तियाँ थीं। इन्हें भरने की प्रक्रिया चल रही थी। लेकिन जो अभ्यर्थी योग्य थे, उनके चयन के सपने को पलीता लग गया। दरअसल अन्दरखाते बड़े स्तर पर योग्यता को दरकिनार कर लाखों रुपये देने वाले वाले अभ्यर्थियों को चुने जाने का खेल चल रहा था। उधर सरकार नौकरियों में पूरी पारदर्शिता के दावे करती नहीं अघा रही थी। इधर करोड़ों के वारे-न्यारे हो रहे थे।

योग्य और सक्षम अभ्यर्थियों में से शिकायत पहुँची, जिसका सरकार ने संज्ञान लिया और त्वरित कार्रवाई कर पड़े रहस्य से पर्दा उठा दिया। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर जो चाहे दावे करें; लेकिन सरकारी नौकरियों में पारदर्शिता और योग्यता अब भी पीछे है। अलग-अलग पदों के भाव तय हैं। जो काम पहले खुलेआम होता था, अब गुप्त तरीक़े से चलता है; लेकिन होता है। इससे किसी को इन्कार नहीं होना चाहिए। अब तो मुख्यमंत्री भी शायद इस ख़ुशफ़हमी में नहीं हैं कि उनकी सरकार में भ्रष्टाचार पर शून्य स्तर (जीरो टोलरेंस) पर है और नौकरियों में पूरी पारदर्शिता बरती जा रही है।

हरियाणा लोक सेवा आयोग में उपसचिव अनिल नागर को राज्य सतर्कता विभाग की टीम ने 90 लाख रुपये लेते गिरफ़्तार किया है। टीम ने अब तक नागर समेत तीन लोगों को गिरफ़्तार करके दो करोड़ रुपये से ज़्यादा की नक़दी बरामद की है। यह पैसा दन्त चिकित्सक की भर्ती के लिए बटोरा गया था। नागर की उपसचिव पद पर नियुक्ति के बाद कई पदों पर भर्ती हो चुकी है। ज़ाहिर है उनमें भी बहुत कुछ किया गया हो। उनमें कितना माल इकट्ठा किया गया होगा यह भी जाँच के दायरे में रहेगा। सवाल यह कि क्या राज्य प्रशासनिक स्तर का एक अधिकारी ही इतने बड़े काम को अंजाम दे रहा था या फिर उसे कोई राजनीतिक संरक्षण हासिल था? इसका ख़ुलासा राज्य सतर्कता विभाग नहीं, बल्कि कोई केंद्रीय जाँच संस्था ही कर सकती है।

चयन प्रक्रिया काफ़ी लम्बी होती है और यह कई चरणों में पूरी होती है। कोई एक व्यक्ति, एक अधिकारी और कुछ दलाल इतने बड़े काम को अंजाम नहीं दे सकते। बिना राजनीतिक संरक्षण के यह सम्भव नहीं जान पड़ता। अगर पहले की तरह राजनीतिक संरक्षण की बात सामने आती है, तो यह बेहद गम्भीर मामला बनता है। लोक सेवा आयोग (एचपीएससी) स्टेट विजिलैंस विभाग ने आयोग के उपसचिव अनिल नागर समेत तीन लोगों को गिरफ़्तार कर इनके क़ब्ज़े से फ़िलहाल दो करोड़ रुपये से ज़्यादा की बरामदगी की है। इससे मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की भ्रष्टाचार पर शून्य स्तर पर और भर्ती में पारदर्शिता का दावा झूठा साबित हुआ है।

सरकारी विज्ञापनों में इसे ख़ूब प्रचारित किया जाता रहा है कि अब हरियाणा में नौकरियाँ सिफ़ारिश और पैसों से नहीं, बल्कि योग्यता के आधार पर मिलती हैं। चयन के बाद नियुक्ति पत्र सौंपने के कई कार्यक्रमों में मुख्यमंत्री बहुत गर्मजोशी से ऐसे दावा करते थे, मानो अब राज्य में नौकरी भर्ती का पुरानी व्यवस्था ख़्त्म हो गयी है। ऐसे कई कार्यक्रमों में चयनित युवाओं ने बताया कि अगर पहले जैसी व्यवस्था होती, तो उन्हें कभी नौकरी मिलने की उम्मीद नहीं थी। वे अपनी योग्यता साबित कर नौकरी हासिल कर सके हैं। उन्हें बिना किसी सिफ़ारिश या पैसे के नौकरी मिली है, जिसके लिए वे इस सरकार को बधाई देते हैं। इसके बाद मुख्यमंत्री अपने सम्बोधन में विशेषतौर पर इसे अपनी सरकार की उपलब्धि बताते, तो ऐसा लगता मानो अब सब कुछ ठीक हो गया है।

हरियाणा लोक सेवा आयोग में करोड़ों का मामला उजागर होने के बाद मुख्यमंत्री इसे सरकार की नाकामी कम, बल्कि उपलब्धि ज़्यादा बता रहे हैं। उनके मुताबिक, पहले की सरकारों में यह काम धड़ल्ले से होता था। पर्ची और ख़र्ची का खेल पूर्व की सरकारों की देन है। उनकी सरकार ने पुरानी व्यवस्था बन्द कर चयन प्रक्रिया को पूरी तरह से पारदर्शी बना दिया है।

आरोपों से घिरने के बाद वह कहने लगे हैं कि आयोग में गड़बड़ी की शिकायत पर गुप्त तौर पर कार्रवाई को अंजाम दिया गया। मामले की विस्तृत जाँच हो रही है। दोषी कोई भी हो, कार्रवाई होगी। ऐसी प्रतिक्रिया को सामान्य ही कहा जा सकता है। अगर विपक्ष मामले की किसी केंद्रीय एजेंसी से जाँच की माँग कर रहा है, तो उन्हें इसके लिए भी तैयार रहना चाहिए।

पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने मामले को गम्भीर बताते हुए किसी केंद्रीय जाँच संस्था या उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से कराने की माँग की है। उन्होंने इस मामले में राजनीतिक संरक्षण की बात कही है। राज्य में भाजपा सरकार बनने के बाद अब तक दूसरे कार्यकाल में दो दर्ज़न से ज़्यादा बार परीक्षा-पत्र सार्वजनिक हुए हैं। आयोग परीक्षा में गोपनीयता बनाये रखने पर करोड़ों रुपये ख़र्च करता है। लेकिन इतने बड़े स्तर पर ऐसा होना कहीं-न-कहीं उसकी कार्यशैली पर सवालिया निशान है। अगस्त में हरियाणा पुलिस कांस्टेबल की परीक्षा में प्रश्न-पत्र सार्वजनिक होने का मामला सामने आया था।

इसी वर्ष 7 और 8 अगस्त को परीक्षा थी। 7 अगस्त की पहली पारी की परीक्षा हो भी गयी थी। लेकिन बाद में पता चला कि प्रश्न-पत्र तो पहले ही सार्वजनिक हो चुका है। एक बड़ा गिरोह इसमें संलिप्त था, जिसमें 10 से 20 लाख रुपये में प्रश्न-पत्र बेचे थे। मामले में एक दर्ज़न से ज़्यादा लोगों की गिरफ़्तारियाँ हुईं। सामाजिक कार्यकर्ता सविता ढुल कहती हैं कि सरकार को कड़ी कार्रवाई करके नज़ीर पेश करनी चाहिए। योग्य युवाओं के भविष्य से खिलवाड़ को रोका जाना चाहिए।

साक्षात्कार, परीक्षाएँ स्थगित

हरियाणा लोक सेवा आयोग में लाखों रुपये लेकर नौकरी देने का मामला उजागर होने के बाद चयन प्रक्रिया बाधित हो गयी। आयोग ने दिसंबर के पहले सप्ताह में होने वाली हरियाणा सिविल सर्विस की मुख्य परीक्षा स्थगित कर दी है। इसके अलावा अन्य कई नौकरियों के लिए होने वाले साक्षात्कार, दस्तावेज़ जमा करने की प्रक्रिया आदि स्थगित कर दी गयी हैं। आयोग ने इनके लिए प्रशासनिक कारण का हवाला दिया है। जब तक जाँच पूरी नहीं हो जाती आयोग की भर्ती प्रक्रिया रुकी रहेगी। हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग की भर्ती में गड़बड़ी की आशंका बनी हुई है। आयोग के नियमों को दरकिनार कर छोटे पदों के लिए अभ्यर्थियों ने ज़्यादा अंक हासिल किये हैं। चयन आयोग के अध्यक्ष ने ऐसे अभ्यर्थियों से $गलत तरीक़े से हासिल अंक कम करके किसी बड़ी मुसीबत से बचने की सलाह दी है। उन्होंने यह बात लोक सेवा आयोग मामला उजागर होने के बाद कही है। अगर पहले कही होती, तो शायद व्यवस्था ठीक रहती। लेकिन ऐसा पहले नहीं किया गया और न ही भर्ती प्रक्रिया पर नज़र रखी गयी।

जेबीटी भर्ती घोटाला

हरियाणा में जूनियर बेसिक टीचर (जेबीटी) शिक्षक भर्ती का घोटाला हुआ। इसमें पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला और उनके बेटे अजय चौटाला समेत 53 लोगों को न्यायालय ने दोषी ठहराया। दोनों को 10-10 साल का सज़ा हुई। यह भर्ती प्रक्रिया पूरी तरह से राजनीतिक संरक्षण में हुई। यह मामला देश के सामने एक नज़ीर है। इससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है; बावजूद इसके हरियाणा में ही वैसा ही खेल चल रहा है। मामले की गम्भीरता को देखते हुए इसकी निष्पक्ष और विस्तृत जाँच होनी चाहिए। मामला उन युवाओं के भविष्य से जुड़ा है, जिनके पास न सिफ़ारिश है और न ही पैसा। वे अपनी योग्यता साबित कर नौकरी हासिल करना चाहते हैं।

शिक्षा क्षेत्र में अब सरकार की परीक्षा

लोग मॉल में अक्सर ख़रीदारी और सिनेमा के लिए जाते हैं। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली के सिलेक्ट सिटी वॉक मॉल में इस 14 से 20 नवंबर यानी राष्ट्रीय बाल दिवस से लेकर विश्व बाल दिवस तक सांकेतिक पैन्डेमिक क्लास रूम का अनावरण किया गया। इस कक्षा में बेशक बच्चे नहीं थे; लेकिन मेजें और कुर्सियाँथीं। मेजों पर किताबें, पेंसिल बॉक्स आदि थे। यह दृश्य उन लाखों बच्चों की उस दुर्दशा की ओर ध्यान आकर्षित कर रहा था, जो वैश्विक महामारी कोरोना वायरस की वजह से लम्बे समय से स्कूल नहीं गये हैं।

ग़ौरतलब है कि इस सांकेतिक पैन्डेमिक क्लास रूम का आयोजन यूनिसेफ इंडिया ने बाल दिवस सप्ताह के मौक़े पर किया था। कोरोना महामारी ने देश के बच्चों की शिक्षा को प्रभावित किया है। इस बाबत हाल ही में जारी एक देशव्यापी सर्वे ने नीति निर्धारकों, शैक्षणिक चिन्तकों और सरकारी तंत्र के सामने जो तस्वीर उकेरी है, उसके महत्त्व को समझना ज़रूरी है। असर-2021 (एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट-2021) के एक सर्वे से पता चलता है कि पिछले एक साल में सरकारी स्कूलों में दाख़िलों में सात फ़ीसदी की वृद्धि और निजी स्कूलों में नौ फ़ीसदी की गिरावट आयी है। निजी स्कूलों में यह गिरावट उल्लेखनीय है। पढ़ाई के लिए डिजिटल डिवाइस तक सबकी पहुँच नहीं थी। ख़ासकर निचली कक्षाओं में पढऩे वाले बच्चों को इसका इस्तेमाल बहुत कम करने का मौक़ा दिया गया।

राज्य सरकारें सरकारी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि वाले आँकड़ों को अपनी उपलब्धि के तौर पर प्रस्तुत कर सकती हैं। मगर आने वाला वक़्त बताएगा कि क्या वृद्धि का यह रुझान आगे भी जारी रहेगा? और सरकारें इस रुझान को बनाये रखने के लिए क्या अतिरिक्त प्रयास करती हैं। शिक्षातंत्र में कितना सुधार करती हैं? और बजट कितना बढ़ाती हैं? ये सवाल महत्त्वपूर्ण हैं। क्योंकि केंद्र सरकार की प्राथमिकताओं में देश में शिक्षा का निजीकरण भी शामिल है। कोरोना महामारी ने अधिकतर लोगों को और अधिक ग़रीब बना दिया है।

बीते साल देश के विज्ञान और पर्यावरण केंद्र संगठन ने अपनी एक रिपोर्ट में बताया था कि 22 साल में पहली बार ग़रीबी का स्तर बढ़ेगा। भारत में भी एक करोड़ 20 लाख ग़रीब और जुड़ेंगे, जो दुनिया में सबसे अधिक हो सकते हैं। इस सन्दर्भ में यह सर्वे इसी ओर इशारा करता है कि नामांकन के मामले में निजी स्कूलों से सरकारी स्कूलों के आगे निकलने की एक अहम वजह मौज़ूदा महामारी में ग़रीबी का बढऩा और निम्न आय वाले रिहायशी इलाक़ों में सैकड़ों निजी स्कूलों का बन्द होना भी है। आय के सिकुड़ते साधनों ने अभिभावकों को यह फ़ैसला लेने को बाध्य किया होगा।

ग़ौरतलब है कि असर-2021 के लिए प्रथम नामक संस्था ने यह सर्वेक्षण सितंबर-अक्टूबर, 2021 में देश के 25 राज्यों के 581 ज़िलों और तीन केंद्र शासित राज्यों के 17,184 गाँवों के 7,299 स्कूलों के 75,234 बच्चों पर किया गया। सर्वे करने वालों ने प्राइमरी स्तर तक की शिक्षा मुहैया कराने वाले सरकारी स्कूलों के अध्यापकों और मुख्य अध्यापकों से भी बातचीत की। इसमें पाँच से 16 वर्ष की आयु-वर्ग के बच्चों से फोन पर बातचीत की गयी। यह सर्वेक्षण नामांकन, शिक्षण सामग्री तक पहुँच, डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता और उनके इस्तेमाल आदि पर केंद्रित था। सर्वेक्षण बताता है कि पिछले एक साल में सरकारी स्कूलों में नामांकन 65.8 फ़ीसदी से बढक़र 70.3 फ़ीसदी हो गया है। बीते दो साल से लगातार सरकारी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि और निजी स्कूलों में नामांकन में गिरावट जारी है। देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में साल 2018 की तुलना में 2021 में 13.2 फ़ीसदी की सबसे अधिक वृद्धि देखी गयी। केरल में यह वृद्धि दर 11.9 फ़ीसदी है। तेलगांना को छोडक़र, दक्षिणी राज्यों के सभी सरकारी स्कूलों में आठ फ़ीसदी से अधिक की वृद्धि देखी गयी है।

सन् 2006 से सन् 2018 तक यानी 12 साल में निजी स्कूलों में नामांकन में वृद्धि का रुझान लगातार बना रहा और सन् 2018 में यह दर 30 फ़ीसदी तक पहुँच गयी थी। लेकिन बीते दो साल में यह रुझान पलट रहा है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि क्या सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता में अचानक कोई बड़ा बदलाव आ गया, जिसने भारतीय ग्रामीण मानस को यह फ़ैसला उठाने को विवश कर दिया हो? ऐसा नहीं है। कोरोना महामारी की मार यानी आर्थिक मंदी, तंगी और शहरों से गाँव वापसी, कम फीस वाले निजी स्कूलों के बन्द होने सरीखे कारण साफ़ नज़र आते हैं। 62.4 फ़ीसदी लोगों ने आर्थिक तंगी व 15.5 फ़ीसदी ने पलायन को वजह बताया।

असर की सन् 2005 से प्रकाशित हो रही रिपोर्ट हर साल देश की शिक्षा के स्तर को सरकार व अन्य लोगों के सामने सार्वजनिक करती है। कोरोना महामारी के शुरुआती दौर में भी देश में शिक्षा का स्तर चिन्ताजनक ही था। तीसरी कक्षा तक के क़रीब 70 फ़ीसदी बच्चे अभी भी सरल पाठ नहीं पढ़ पाते हैं। कोरोना-काल में तो देश में लम्बे समय तक 15 लाख स्कूलों के क़रीब 25 करोड़ बच्चे स्कूल नहीं जा सके। पहली तथा दूसरी कक्षा के ही तीन में से एक बच्चे ने स्कूल का मुँह तक नहीं देखा है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि बच्चे पढ़ाई में कितने और पिछड़ गये होंगे?

इधर नयी राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में कहा गया है कि अगर तीसरी कक्षा तक बच्चे पढऩा और साधारण गणित नहीं सीख लेते हैं, तो बाक़ी शिक्षा नीति का कोई मतलब नहीं रहेगा। बच्चों की सुरक्षा के मद्देनज़र ऑनलाइन पढ़ाई का बंदोबस्त किया गया; लेकिन इसके बावजूद अधिकांश राज्यों के बच्चों को पढ़ाई के स्तर पर भारी नुक़सान हुआ है। कोरोना महामारी, जो एक स्वास्थ्य संकट के तौर पर शुरू हुई और बाद में लम्बे समय तक स्कूलों के बन्द रहने के चलते तेज़ी से पढ़ाई-संकट में बदल गयी; आज भी पढ़ाई में बड़ी बाधा बनी हुई है।

यूनिसेफ इंडिया के भारत प्रतिनिधि यासुमासा किमारा के अनुसार, इस प्रतीकात्मक महामारी कक्षा में हरेक मेज उन लाखों बच्चों को समर्पित है, जिन्होंने पढ़ाई सम्बन्धित चुनौतियों का सामना किया है। दुर्भाग्यवश सबसे संवेदनशील स्कूल बन्द होने की सबसे बड़ी क़ीमत चुका रहे हैं और बहुत-से बच्चे तो पढऩा-लिखना ही भूल गये होंगे। आँकड़ों के अनुसार, सन् 2018 में 38.9 फ़ीसदी भारतीय परिवारों के पास स्मार्टफोन थे। लेकिन साल 2021 तक यह आँकड़ा 67.6 फ़ीसदी तक पहुँच गया है। लगभग 28 फ़ीसदी परिवारों ने बताया कि उन्होंने बच्चों की पढ़ाई के लिए ही इसे ख़रीदा, मगर 26.1 फ़ीसदी बच्चे, विशेषतौर पर युवा इसका इस्तेमाल करने के लिए अभी भी संघर्षरत हैं। यानी यह साफ़ हो गया है कि स्मार्टफोन से पढ़ाई सभी बच्चे नहीं कर पा रहे हैं। इसमें नेटवर्क से लेकर इंटरनेट रिचार्ज कराने के लिए पैसों का अभाव और कुछ जगह पैसा होने पर भी इंटरनेट कनेक्शन की उपलब्धता का न होने जैसी दिक़्क़तें सामने आयी हैं। अब जब सरकारी स्कूलों में बीते दो साल से दाख़िले लगातार बढ़े हैं, तो सरकार के समक्ष अभिभावकों के इस आकर्षण को बनाये रखने की चुनौती है; जो चाहे विवशता के चलते ही बनी है। इस सन्दर्भ में दिल्ली की आम आदमी पार्टी की सरकार अभिभावकों का सरकारी शिक्षातंत्र पर भरोसा बनाने के लिए बेहतर क़दम उठाती नज़र आती है। हाल ही में देश के मेडिकल कॉलेजों में दाख़िले के लिए आयोजित नीट परीक्षा के नतीजे घोषित हुए, जिसमें दिल्ली के सरकारी स्कूलों के 496 छात्र उत्तीर्ण हुए हैं। दूसरे राज्यों की सरकारों और केंद्र सरकार को भी दिल्ली सरकार की शिक्षा नीति से सीख लेनी चाहिए।

दिल्ली सरकार ने छात्रों के लिए कौशल पाठ्यक्रम (स्किल कोर्सेस) भी शुरू किये हैं। संरक्षक कार्यक्रम (मेंटोर प्रोग्राम) भी शुरू हो गया है। यहाँ पर दृष्टि (विजन) के साथ-साथ मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का होना भी मुख्य भूमिका निभाता है। शिक्षा के विस्तृत सरकारी ढाँचे को नये उपकरणों से लैस करना अनिवार्य है। सरकारी स्कूलों में अध्यापकों के रिक्त पदों को जल्द-से-जल्द भरा जाना चाहिए; यह वक़्त की माँग है।

कहने का मतलब यह है कि यह कोरोना-काल में बच्चे पढ़ाई में पीछे रह गये हैं। शिक्षा और बच्चों के शैक्षणिक व बुध्दि के विकास की भरपायी के लिए प्रभावशाली, परिणामोन्मुख प्रयासों के लिए भी अध्यापकों की आवश्यकता भी है। बजट भी बढ़ाना होगा। जहाँ तक केंद्रीय शिक्षा बजट का सवाल है, तो यह केंद्र सरकार की नीयत पर सवाल खड़े करता है। वित्त वर्ष 2020-2021 में शिक्षा मंत्रालय का बजट 99,300 करोड़ था, जो कि वित्त वर्ष 2021-2022 में घटकर 93,224 करोड़ कर दिया गया। जबकि केंद्र सरकार को मालूम है कि महामारी के दौरान बच्चों की शिक्षा प्रभावित हुई है।

राष्ट्रीय स्तर पर सन् 2018 में 30 फ़ीसदी से कम बच्चे निजी ट्यूशन लेते थे; लेकिन मौज़ूदा साल 2021 में यह अनुपात क़रीब 40 फ़ीसदी हो गया है। निजी ट्यूशन का मतलब अभिभावकों की जेब पर अतिरिक्त भार पडऩा है, जो कि इस दौर में और भी कठिनाई भरा है। सैकड़ों अभिभावक महँगी ब्याज दर पर क़र्ज़ लेकर अपने बच्चों को ट्यूशन भेजते हैं। स्कूलों में अगर पढ़ाई का स्तर बढिय़ा हो, तो इस ट्यूशन के रुझान में कमी लायी जा सकती है। फ़िलहाल चुनौती यह है कि कोरोना महामारी ने बच्चों की शिक्षा का जो नुक़सान किया है, उसकी भरपाई के लिए केंद्र सरकार के अलावा राज्य सरकारें क्या क़दम उठाती हैं?

ज़िन्दगी की खोज

‘ज़िन्दगी की खोज – जीवन के आध्यात्मिक पहलुओं को जानना’ एक बड़े आकार का खण्ड है। शायद, जीवन को ध्यान में रखते हुए, इसके सभी विभिन्न आयामों और बहुस्तरीय पहलुओं के साथ। लेकिन सबसे ख़ास बात किताब के डिजाइन की है।

पुस्तक का अनौपचारिक लेआउट मन को काफ़ी लुभाता है। अच्छी तरह से उकेरे गये ग्राफिक्स, चित्र और लिखित सामग्री सभी बेहतरीन है। आँखों और दिमाग़ पर बिना किसी दबाव के इसे आसानी से पढ़ा जा सकता है।

सेवानिवृत्त नौकरशाह बलविंदर कुमार की इस पुस्तक में जीवन और इसके हर पहलू पर उनके विचार और टिप्पणियाँ हैं। दो पहलू सामने हैं। पुस्तक मृत्यु पर ध्यान केंद्रित करती है – वास्तव में और यथार्थवादी तरीक़े से। मृत्यु के बारे में लेखक बलविंदर कुमार यही लिखते हैं- ‘हमें मृत्यु को स्वीकार करने और शालीनता से मरने की कला सीखनी चाहिए… तथ्य यह है कि मृत्यु को स्वीकार और इसकी चर्चा न करके, हम ख़ुद को और अधिक नुक़सान पहुँचाते हैं। हमारे जीवन की गुणवत्ता में काफ़ी सुधार होगा यदि हम मृत्यु को शान से गले लगा सकना ही सीख लें। हमें जीवन में मृत्यु को एक प्राकृतिक घटना के रूप में लेना चाहिए और अपने अवरोधों को दूर करना चाहिए।’

पुस्तक में जो बात अलग है, वह हमारी आत्म-जागरूकता जैसी बुनियादी चीज़ पर उनके विचार हैं। हम अपने बारे में जानने की कितनी कम परवाह करते हैं। शायद, अगर हम ख़ुद को समझ लें, तो हम अधिक सहज होंगे, विभिन्न असफलताओं और कथित असफलताओं को समझ पाएँगे। जैसा कि वे कहते हैं- ‘हम अपने बारे में बहुत कम जानते हैं। यह जीवन की सबसे बड़ी दुविधाओं में से एक है। ज़्यादातर मामलों में हम अपने बारे में बहुत कम जानते हैं; लेकिन अपनी आत्म-जागरूकता के बारे में अत्यधिक आत्मविश्वास महसूस करते हैं। आपको जानकर हैरानी होगी कि भले ही 95 फ़ीसदी लोग कहते हैं कि वे स्वयं जागरूक हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा करने वाले केवल 10-15 फ़ीसदी लोग ही हैं। इसका मतलब है कि लोगों का एक बड़ा तबक़ा ख़ुद से झूठ बोल रहा है। इस अध्ययन से पता चलता है कि हम अपने बारे में बहुत कम जानते हैं।’

अपनी टिप्पणियों को आगे बढ़ाते हुए, बलविंदर कुमार जुड़ी हुई वास्तविकताओं पर भी ध्यान केंद्रित करते हैं कि आज के इस युग में कोई भी हमें आत्म-जागरूकता नहीं सिखाता है। यह, जब प्रमुख महत्त्व का है, बेहतर अस्तित्व की कुंजी है।

यह पुस्तक किसी को भी बैठकर विचार करने और आत्मनिरीक्षण करने के लिए बाध्य करती है। जैसा कि कोई पढ़ता है, तो इसमें हमारे बहुत-ही बुनियादी अस्तित्व के विभिन्न पहलू हैं। पढऩे और फिर से पढऩे के लिए प्रेरित करती है। पुस्तक की ख़ासियत, शायद सरल, स्पष्ट और तरीक़े से इसे पाठक के सामने रखना है।

लेखक ने पाठक को प्रभावित करने की कोशिश नहीं की है। वह पाठक के साथ जुडऩे और बँधने की कोशिश करते हैं। इस उम्मीद में कि सैकड़ों लोग साधारण दर्शन से दैनिक जीवन तक लाभान्वित हो सकते हैं।

काश, किताब की क़ीमत कम होती, ताकि हममें और भी बहुत-से लोग इस क़ीमती किताब को ख़रीद पाते।

 

 

 

 

कोई मज़हब परिपूर्ण नहीं

ईश्वर को पाने के लिए मज़हबों का सहारा लेना ज़रूरी नहीं है। मज़हब तो केवल ज्ञान का स्रोत हैं। लेकिन किसी मज़हब में परिपूर्ण ज्ञान नहीं है। अगर परिपूर्ण होता, तो फिर दुनिया में कई मज़हबी किताबों की आवश्यकता ही नहीं होती। न ही इतने मज़हब बनते। सबका एक ही मज़हब होता। सब एक ही मज़हब को तरजीह देते। लेकिन मज़हब विचारों की देन हैं। जिस तरह अरबों लोगों के विचार किसी भी काल में एक समान नहीं हो सके, उसी तरह एक मज़हब का होना भी असम्भव था। सो जिस काल में जो भी सन्त या विद्वान हुए, उन्होंने अपने-अपने हिसाब से ईश्वर और उस तक पहुँचने के रास्ते बताने का प्रयास किया। लेकिन सबने एक बात पर सबसे ज़्यादा बल दिया, और वह है- मानवता अर्थात् इंसानियत। किसी ने दो ईश्वर नहीं बताये। किसी ने जल, वायु, अग्नि, पृथ्वी और आकाश को अपना बताने और सभी का उस पर अधिकार होने से इन्कार नहीं किया; और कोई भी इन तत्त्वों के टुकड़े नहीं कर सका।

फिर आपस में प्यार क्यों नहीं? क्यों सब एक होकर नहीं रह सकते? इसका सीधा-सा जवाब है- लोग एकमत नहीं हैं। उनके विचार अलग-अलग हैं। हालाँकि सभी मज़हब लोगों को जोडऩे की बात करते हैं। लेकिन सभी मज़हबों की किताबें अलग-अलग होने की वजह से लोग अपनी-अपनी पसन्द से उन मज़हबों को स्वीकार करते हैं और उनमें विश्वास रखते हैं; और सभी इन मज़हबों के सहारे ईश्वर को पाना चाहते हैं। अर्थात् उद्देश्य एक होने के बावजूद लोग आपस में कभी एक नहीं होते। भले ही वे यह स्वीकार करते हैं कि उनका मालिक एक ही ईश्वर है और यह भी जानते हैं कि वही ईश्वर सभी का पिता है। आश्चर्य की बात है कि दुनिया के अधिकांश लोग इस बात पर एकमत होते हुए भी एक नहीं हैं। इसकी वजह यह है कि लोग एक-दूसरे को ख़ुद से, ख़ुद के विचार से, ख़ुद के अस्तित्व से ऊपर न मानना चाहते हैं और न देखना।

हैरानी की बात यह है कि लोग अपनी-अपनी मर्ज़ी के मज़हबों को इसलिए पकड़े बैठे हैं; क्योंकि उनमें यह विश्वास कूट-कूटकर भरा है कि ये मज़हब उन्हें ईश्वर तक ले जाएँगे। और यही लोगों की सबसे बड़ी मूर्खता है। ये ठीक ऐसे ही है, जैसे वाहन चलाने का हुनर न जानने वाले लोग उसमें बैठ जाएँ और अपेक्षा करें कि वह वाहन उन्हें गन्तव्य तक ले जाएगा। दरअसल वाहन तो गन्तव्य तक ले जाने के लिए साधन मात्र है। जिस तरह वाहन को ठीक से चलाना आने पर ही वह गन्तव्य तक ले जा सकेगा, उसी तरह मज़हबों के मार्गदर्शन पर चलना आना चाहिए और वह भी ठीक से। वाहन और मज़हब दोनों के सहारे चलने पर छोटे-बड़े गड्ढे अर्थात् परेशानियाँ, अनेक तरह की मुसीबतें, मुश्किलें आती हैं। केवल ध्यान, सन्तुलन, गति, स्फूर्ति आदि का ध्यान रखना होता है। लेकिन इन सबसे इतर एक महत्त्वपूर्ण चीज़ है और वह यह है- गति। जिस तरह वाहन में स$फर करते समय वाहन की गति की तरफ़ हमारा शरीर गतिमान रहता है, ठीक उसी तरह मज़हब का सहारा लेने के समय हमें शरीर और मन, दोनों से उसकी गति (मज़हबी किताब में बताये गये मार्ग) की ओर अनवरत तय करनी होगी। अन्यथा कोई फ़ायदा नहीं।

कोई भी मज़हब ईश्वर को पाने या उस तक पहुँचने का दावा नहीं करता। न ही मज़हबी किताबें यह कर सकती हैं; जब तक कि इंसान इसके लिए शुद्ध कर्म न करे। मज़हब के बताये मार्ग पर उसूलों के साथ न चले। सवाल यह है कि अगर कोई किसी मज़हब को नहीं मानता हो, तो वह क्या करे? इसके लिए वह विशुद्ध कर्म करे। कर्म तो सभी लोग करते हैं। एक चोर भी चोरी करता है, तो वह कर्म ही है। कोई किसी को मारता है, तो उसका मारना भी एक प्रकार का कर्म है। लेकिन वह ग़लत है। इंसान को विशुद्ध अर्थात् शुद्धातिशुद्ध कर्म करना चाहिए। सीधे शब्दों में कहें, तो अच्छे कर्म, नेक कर्म करने चाहिए; वे कर्म, जिससे किसी का अनुचित या बुरा न हो, किसी को दु:ख न पहुँचे। सच तो यह है कि सभी लोग किसी का दिल दुखाये बग़ैर, उसका बुरा किये बग़ैर भी जी सकते हैं। लेकिन कुछ लोग फिर भी दूसरों का बुरा करने में सुख देखते हैं।

कहने का तात्पर्य यह है, इंसान को अपने ही विशुद्ध कर्मों के आधार पर ईश्वर की निकटता हासिल हो सकती है। दूसरा कोई रास्ता साधन उसे ईश्वर से नहीं मिला सकता। अर्थात् अगर कोई व्यक्ति उम्र भर ग़लत काम करे और अपने मज़हब की किताब को हर रोज़ पढ़ता रहे। धार्मिक अनुष्ठान करता रहे, तो ईश्वर की शरण को कभी प्राप्त नहीं हो सकता। ईश्वर की शरण पाने के लिए तो अनपढ़ भी उतना ही योग्य हो सकता है, जितना एक मज़हब को मानने और उसके उसूलों पर चलने वाला। लेकिन दोनों में ही विशुद्ध सत्कर्मों, निश्छलता, पावनता, समभाव, सद्भाव, सरलता, परहित, प्रेम, करुणा, दया, विनम्रता, विश्वास, व्याकुलता, अहसास का होना परम् आवश्यक है। लेकिन इसके लिए तन-मन और विचारों से पवित्र होना पड़ेगा। पतित तो हमेशा नीचे ही जाता है, फिर चाहे वह कितना भी विद्वान क्यों न हो। कितना भी मज़हबी क्यों न हो। ऐसा व्यक्ति लोगों में सम्मान भी पा सकता है; लेकिन ईश्वर को नहीं। क्योंकि लोग तो मूर्खों के भी गुण गाने लगते हैं। लेकिन ईश्वर को पाने के लिए तो मासूम बच्चे की तरह निश्छल और निर्मल होना पड़ेगा, जल की तरह स्वच्छ होना पड़ेगा, वायु की तरह कोमल होना पड़ेगा और अग्नि की तरह पवित्र होना पड़ेगा।

प्रमुख जाँच संस्थाओं की आज़ादी छीनने की कोशिश

सीबीआई, ईडी में कार्यकाल बढ़ाने की आड़ में सरकार कर रही उन्हें पिंजरे का तोता बनाने की एक और कोशिश

संसद के शीतकालीन सत्र के निर्धारित होने से कुछ दिन पहले सरकार ने शीर्ष जाँच संस्थाओं- सीबीआई और ईडी के प्रमुखों का कार्यकाल बढ़ाने वाले दो अध्यादेश जारी किये। इनसे सरकार की मंशा साफ़ झलक रही थी। सन् 2013 में कोलफील्ड आवंटन मामलों की सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने जिस तरह से सीबीआई का वर्णन करके उसे ‘पिंजरे का तोता’ की संज्ञा दी थी। अब वही हो रहा है। केंद्र सरकार के दो अध्यादेशों में इन एजेंसियों की स्वतंत्रतता को सीमित करने की पूरी क्षमता है।

यह दो अध्यादेश प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) के निदेशकों की सेवा को कम-से-कम दो साल के निर्धारित कार्यकाल से अधिकतम पाँच साल तक बढ़ाने की अनुमति देते हैं। विस्तार एक बार में केवल एक वर्ष दिया जा सकता है। यानी दो साल के एक निश्चित कार्यकाल के बाद उन्हें तीन साल का विस्तार (एक्सटेंशन) मिल सकता है।

वर्तमान ईडी प्रमुख संजय कुमार मिश्रा, जिनका कार्यकाल 17 नवंबर को समाप्त होना था; नये नियम के तहत एक साल का विस्तार प्राप्त करने वाले पहले अधिकारी बन गये हैं। अध्यादेशों का समय बताता है कि यह क़दम ईडी निदेशक के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए था, जिसका कार्यकाल पहले 2020 में एक वर्ष के लिए बढ़ाया गया था।

ग़ौरतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय ने 8 सितंबर, 2018 के नियुक्ति आदेश में पूर्वव्यापी बदलाव को चुनौती देने वाली याचिका को ख़ारिज कर दिया था। ईडी के निदेशक के रूप में संजय कुमार मिश्रा ने कहा कि चल रही जाँच को पूरा करने की सुविधा के लिए विस्तार की एक उचित अवधि दी जा सकती है। शीर्ष अदालत ने स्पष्ट किया था कि सेवानिवृत्ति की आयु प्राप्त करने वाले अधिकारियों के कार्यकाल का विस्तार दुर्लभ और असाधारण मामलों में किया जाना चाहिए। अध्यादेश दिल्ली पुलिस विशेष स्थापना अधिनियम में संशोधन करते हैं, जो सीबीआई के लिए मूल क़ानून है और केंद्रीय सतर्कता अधिनियम, जो ईडी निदेशक की नियुक्ति को आवृत्त (कवर) करता है। क़ानून और न्याय मंत्रालय ने घोषणा की कि दो अध्यादेशों- दिल्ली विशेष पुलिस (स्थापना) अध्यादेश-2021 और केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश-2021 को तत्काल प्रभाव से लागू होंगे।

सीबीआई और ईडी के प्रमुखों के कार्यकाल को मौज़ूदा दो साल के कार्यकाल से पाँच साल तक बढ़ाने की सिफ़ारिश करने के सरकार के फ़ैसले को दो प्रमुख जाँच एजेंसियों की आज़ादी को छीनने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है। दिल्ली विशेष पुलिस (स्थापना) अध्यादेश के माध्यम से मंत्रालय ने दिल्ली विशेष पुलिस स्थापना अधिनियम-1946 में एक संशोधन पेश किया है, जिसमें एक खण्ड जोड़ा गया है। इसमें कहा गया है- ‘बशर्ते कि जिस अवधि के लिए निदेशक अपनी प्रारम्भिक नियुक्ति पर पद धारण करता है, जनहित में धारा-4(ए) की उप-धारा(1) के तहत समिति की सिफ़ारिश पर और लिखित रूप में दर्ज किये जाने वाले कारणों के लिए एक बार में एक वर्ष तक बढ़ाया जा सकता है। बशर्ते कि ऐसा कोई विस्तार बाद में नहीं दिया जाएगा। कुल मिलाकर प्रारम्भिक नियुक्ति में उल्लिखित अवधि सहित पाँच वर्ष की अवधि पूरी करने तक विस्तार किया जा सकता है।’

सीबीआई निदेशक के विपरीत ईडी के प्रमुख का चयन उस समिति द्वारा नहीं किया जाता है, जिसमें प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं। हालाँकि ईडी निदेशक के कार्यकाल के विस्तार की सिफ़ारिश मुख्य सतर्कता आयुक्त, सतर्कता आयुक्त, गृह सचिव और कार्मिक और प्रशिक्षण और राजस्व विभाग के सचिवों की एक समिति से आती है। ज़ाहिर है सरकार ने एक अध्यादेश के ज़रिये ईडी प्रमुख का कार्यकाल बढ़ाकर इस समिति को दरकिनार कर दिया गया है।

अध्यादेश के पहले से ही सर्वोच्च न्यायालय में एक जनहित याचिका दायर की गयी है, जिसमें केंद्र द्वारा 14 नवंबर को जारी किये गये उन दो अध्यादेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गयी है, जिसके तहत सीबीआई और प्रवर्तन निदेशालय के निदेशकों का कार्यकाल अब दो साल की अनिवार्य अवधि के बाद तीन साल तक बढ़ाये जाने की पहल की गयी है। याचिका में आरोप लगाया गया कि केंद्रीय सतर्कता आयोग (संशोधन) अध्यादेश और दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (संशोधन) अध्यादेश संविधान के असंवैधानिक, मनमाना और अधिकारहीन हैं और उन्हें रद्द करने किया जाना चाहिए।

अधिवक्ता एम.एल. शर्मा द्वारा दायर जनहित याचिका में आरोप लगाया गया है कि केंद्र सरकार ने संविधान के अनुच्छेद-123 के तहत अपनी शक्ति का दुरुपयोग किया है, जो संसद के अवकाश के दौरान राष्ट्रपति को अध्यादेश जारी करने की शक्ति से सम्बन्धित है। इसमें कहा गया है कि वर्तमान में सरकार को दो एजेंसियों के प्रमुखों के कार्यकाल को दो साल से अधिकतम पाँच साल तक बढ़ाने की शक्ति देकर दो अध्यादेश इन एजेंसियों की स्वतंत्रता को और कम करने की क्षमता रखते हैं।

तृणमूल कांग्रेस नेता और सांसद मोहुआ मोइत्रा ने भी अध्यादेशों को चुनौती देने वाली एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय में दायर की है। उधर राकांपा प्रमुख शरद पवार ने कथित तौर पर आरोप लगाया है कि ईडी, सीबीआई और नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो का इस्तेमाल विपक्ष को निशाना बनाने के लिए किया जा रहा है। कांग्रेस नेता रणदीप सुरजेवाला ने भी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) के प्रमुखों के कार्यकाल को दो से पाँच साल तक बढ़ाने के केंद्र सरकार के अध्यादेशों को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का रूख़ किया है। कांग्रेस नेता ने अध्यादेशों द्वारा संस्थानों की स्वतंत्रता सुनिश्चित करने के लिए समय-समय पर जारी न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए न्यायालय से अंतरिम राहत की भी माँग करते हुए कहा है कि ऐसे संस्थानों को किसी भी बाहरी विचार से दूर रखा जाता है। उन्होंने कहा कि अध्यादेश अधिकारियों द्वारा सत्ता के स्पष्ट दुरुपयोग का ख़ुलासा करते हैं।

ये अध्यादेश भारत सरकार को ईडी और सीबीआई के निदेशकों के कार्यकाल का एक-एक साल का टुकडा़-टुकड़ा विस्तार प्रदान करने का अधिकार देते हैं और यह उनकी क़ानून में प्रदान की गयी निश्चित शर्तों के समापन के बाद शुरू होता है। अध्यादेशों के ख़िलाफ़ याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि कोई मानदण्ड प्रदान नहीं किया गया है और यह सार्वजनिक हित के अस्पष्ट सन्दर्भ को छोडक़र और वास्तव में उत्तरदाताओं की व्यक्तिपरक सन्तुष्टि पर आधारित है। इसका प्रत्यक्ष और स्पष्ट प्रभाव जाँच करने वाले निकायों की स्वतंत्रता को नष्ट करने का है; क्योंकि यह प्रत्येक वर्ष नियुक्ति प्राधिकारी की व्यक्तिपरक सन्तुष्टि के आधार पर एजेंसी प्रमुखों की निर्भरता को बढ़ाने का प्रभाव है। याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि अध्यादेश पूरी तरह से सुरक्षा उपायों को पूर्ववत् करते हैं, जो कार्यकाल की स्थिरता सुनिश्चित करते हैं और अधिकारी को कार्यपालिका की दया पर निर्भर कर देते हैं। सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि दोनों अध्यादेश इन जाँच एजेंसियों के निदेशकों पर केंद्रीय नियंत्रण को मज़बूत करने के लिए ग़लत तरीक़े से छिपाये गये प्रयास हैं। इन जाँच एजेंसियों को जनता की सेवा के लिए बनाया गया था; लेकिन इन संशोधनों के साथ कार्यपालिका की इच्छा को पूरा करने के लिए उन्हें स्पष्ट और दुर्भावनापूर्ण तरीक़े से अधीनस्थ किया जा रहा है।

इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह मुद्दा एक बड़े विवाद में बदल सकता है और विपक्ष द्वारा संसद सत्र शुरू होने से कुछ दिन पहले जिस तरह से अध्यादेश लाये गये, उसके लिए सरकार पर निशाना साधा जाना स्वाभाविक है। आलोचकों को डराने के लिए उनके दुरुपयोग के आरोपों के साथ केंद्रीय जाँच एजेंसियों की कार्यप्रणाली पहले से ही सवालों के घेरे में आ गयी है।

जानिए क्रिप्टो करेंसी के बारे में

हाल ही में एक संसदीय बुलेटिन में आगामी क़ानून की सूची में ‘द क्रिप्टो करेंसी एंड रेगुलेशन ऑफ ऑफिशियल डिजिटल करेंसी बिल-2021’ में एक पैराग्राफ शामिल किया गया है। इसमें लिखा गया है- ‘भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी की जाने वाली आधिकारिक डिजिटल मुद्रा के निर्माण के लिए एक सुविधाजनक ढाँचा तैयार करना।’ जबसे प्रस्तावित क़ानून के बारे में बहस और चर्चा हुई है, बाज़ार में उथल-पुथल मची हुई है। बिटक्वॉइन और क्रिप्टो करेंसी क्या हैं और विधेयक की मुख्य विशेषताएँ क्या हो सकती हैं, इसके बारे में बता रहे हैं अनिल मनोचा :-

संसदीय बुलेटिन में कहा गया है- ‘यह विधेयक भारत में सभी निजी क्रिप्टो करेंसीज को प्रतिबन्धित करने का भी प्रयास करता है। हालाँकि यह कुछ अपवादों को क्रिप्टो करेंसी और इसके उपयोग की अंतर्निहित तकनीक को बढ़ावा देने की अनुमति देता है।’ हालाँकि यह व्यापक रूप से प्रस्तावित क़ानून के बारे में संकेत देता है कि निजी क्रिप्टो करेंसी प्रतिबन्धित हो सकती है; लेकिन सरकार द्वारा विनियमित जारी रहेगी। प्रस्तावित क़ानून को समझने के लिए पहले क्रिप्टो करेंसी को समझना होगा।

क्या है क्रिप्टो करेंसी?

क्रिप्टोक्यूरेंसी क्रिप्टो या डेटा का एक संग्रह है, जिसका उपयोग एक्सचेंज के माध्यम के रूप में किया जाता है, जहाँ व्यक्तिगत रिकॉर्ड संग्रहीत और डिजिटल लेजर में सहेजे जाते हैं। यह लेन-देन रिकॉर्ड को सुरक्षित करने, अतिरिक्त सिक्कों के निर्माण को नियंत्रित करने और सिक्का स्वामित्व के हस्तांतरण को सत्यापित करने के लिए एक डिजिटल डेटा बेस है। वर्तमान में भारत में क्वाइनस्विच कुबेर, ज़ेबपे, वाज्रक्सि, यूनोक्वाइन और क्वाइनडीसीएक्स सहित 15 क्रिप्टो करेंसी एक्सचेंज प्लेटफॉर्म हैं।

क्रिप्टो मुद्रा केवल संपाशर्विक के रूप में जारी टोकन द्वारा समर्थित हैं। बदले में निवेशकों को उनके द्वारा डाली गयी राशि के अनुपात में टोकन पर अधिकार प्राप्त होता है। क्रिप्टो करेंसी भौतिक रूप में मौज़ूद नहीं है, (जैसे पेपर मनी) और आमतौर पर केंद्रीय प्राधिकरण द्वारा जारी नहीं किया जाता है।

यही कारण है कि क्रिप्टो करेंसी आमतौर पर सेंट्रल बैंक नियंत्रण के विपरीत विकेंद्रीकृत नियंत्रण का उपयोग करती है। क्रिप्टो करेंसी ब्लॉकचेन या डिस्ट्रीब्यूटेड एलईडी तकनीक के ज़रिये काम करती है। यही कारण है कि एनिमेटेड बिटक्वाइन है, जो पहली बार सन् 2009 में ओपन-सोर्स सॉफ्टवेयर के रूप में जारी किया गया था, यह पहला विकेन्द्रीकृत क्रिप्टो करेंसी है। स्पष्ट रूप से समझाने के लिए फिएट मुद्राओं के विपरीत वे राज्य-नियंत्रित नहीं हैं।

बिक्री में गिरावट

जैसा कि अपेक्षित था, देश में निजी क्रिप्टो करेंसी पर प्रतिबन्ध लगाने के प्रस्तावित क़ानून ने व्यक्तिगत धारकों द्वारा 25 फ़ीसदी तक की छूट के साथ बिक्री में हलचल पैदा कर दी है। याद रहे पिछले साल सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पिछले प्रतिबन्ध को पलटने के बाद से बाज़ार में तेज़ी आयी थी। चेनालिसस के शोध के अनुसार पिछले 12 महीनों में बाज़ार में 600 फ़ीसदी से अधिक की वृद्धि हुई है। उद्योग निकाय ब्लॉकचैन और क्रिप्टो एसेट्स काउंसिल के अनुसार, एशिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था में 15 से 20 मिलियन लोगों के पास क्रिप्टो करेंसी के मालिक होने का अनुमान है।

हालाँकि क्रिप्टो करेंसी होल्डिंग्स और उपयोगकर्ता आधार पर कोई आधिकारिक विवरण (डाटा) उपलब्ध नहीं काराती है। उद्योग का अनुमान है कि भारत में 1.5 करोड़ से 2 करोड़ निवेशक हैं। निजी फर्म ब्रोकर चूज़र ने हाल ही में उपयोगकर्ता आधार की संख्या 10 करोड़ से अधिक रखी थी। कहा जाता है कि देश में क्रिप्टो निवेश पिछले साल अप्रैल में 6,876 करोड़ रुपये से बढक़र इस साल 40,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गया है। क्रिप्टो-मुद्रा क़ानून के बारे में आप सभी को पता होना चाहिए।

हाल ही में एक संसदीय बुलेटिन में आगामी क़ानून की सूची में ‘द क्रिप्टो करेंसी एंड रेगुलेशन ऑफ ऑफिशियल डिजिटल करेंसी बिल-2021’ पर एक पैराग्राफ शामिल है। इसमें आगे लिखा गया है- ‘भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी की जाने वाली आधिकारिक डिजिटल मुद्रा के निर्माण के लिए एक सुविधाजनक ढाँचा तैयार करना।’

जबसे क्रिप्टो करेंसी पर प्रस्तावित क़ानून और सरकार द्वारा विधेयक लाने के बारे में बहस और बात शुरू हुई है, तबसे बाज़ार में काफ़ी उथल-पुथल मची हुई है और कयासों का बाज़ार गर्म है। ऐसे भी अनुमान लगाये जा रहे हैं कि भारत सरकार निजी क्रिप्टो करेंसी पर प्रतिबन्ध लगा सकती है। हालाँकि अभी तक सरकार ने निजी और जनता क्रिप्टो करेंसी की परिभाषा तय नहीं की है। सवाल यह है कि लेकिन अगर क्रिप्टो करेंसी पर सब कुछ तय हो जाता है, तो क्या विधेयक आगे बढ़ेगा? फ़िलहाल बहुत-से लोगों को यह नहीं पता है कि क्रिप्टो करेंसी क्या है? और इसका इस्तेमाल कैसे किया जाएगा?

प्रधानमंत्री ने क्या कहा?

एक समय में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सभी लोकतांत्रिक देशों को क्रिप्टो करेंसी पर एक साथ काम करने और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि यह ग़लत हाथों में न जाए। उन्होंने महसूस किया था कि क्रिप्टो करेंसी हमारे युवाओं को ख़राब कर सकती है और केंद्रीय बैंक ने बार-बार चेतावनी दी है कि वह व्यापक आर्थिक और वित्तीय स्थिरता पर गम्भीर चिन्ताएँ पैदा कर सकते हैं। इसके बाद संसदीय स्थायी समिति ने क्रिप्टो करेंसी और इसके इकोसिस्टम पर नियमावली की भी माँग की थी।

विशेषज्ञों का कहना है कि क्रिप्टो बिल का उद्देश्य भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा जारी की जाने वाली आधिकारिक डिजिटल मुद्रा के निर्माण के लिए एक सुविधाजनक ढाँचा तैयार करना है। वह कहते हैं कि क़ानून ज़रूरी है और समय की ज़रूरत है, क्योंकि पहले से ही क़ानून लाने में देरी ने कुछ एक्सचेंजों को क्रिप्टो करेंसी के समानांतर साम्राज्य बनाने का मौक़ा दिया है, जिससे व्यक्तिगत निवेशकों को जोखिम में डाल दिया गया है।

अब तक नियोजित क़ानून का विवरण स्पष्ट नहीं है, जिससे क्रिप्टो करेंसी निवेशक भ्रम में हैं। इस भ्रम ने डर पैदा कर दिया और कई निवेशकों ने अपने दाँव छोड़ दिये और नुक़सान के बावजूद बाहर निकलने की स्थिति की तलाश की। वास्तव में अधिक मात्रा में बिक्री के कारण अधिकांश एक्सचेंज जमा और निकासी की समस्याओं का सामना कर रहे थे।

इस बीच कुछ एक्सचेंजर्स ने कथित तौर पर क्रिप्टो करेंसी को विनियमित करने के क़दम का स्वागत किया है। वह इस बात का दावा करते हैं कि यह उद्योग में पारदर्शिता और जवाबदेही का मार्ग प्रशस्त करेगा।

उन्होंने यह भी माँग की कि सरकार को देश में बड़ी संख्या में क्रिप्टो निवेशकों के हितों की रक्षा करनी चाहिए, साथ ही साथ क्रिप्टो करेंसी की अंतर्निहित तकनीक को बढ़ावा देना चाहिए।

दिल्ली सरकार के वैट कम करने के बाद पेट्रोल आज रात से 8 रुपये सस्ता होगा

दिल्ली सरकार ने बुधवार को जनता को बड़ी राहत देते हुए राजधानी में पेट्रोल पर वैट घटा दिया है। केजरीवाल सरकार के इस फैसले से जनता की जेब से पेट्रोल के खर्च का 8 रूपये का बजन कम होगा। सरकार के फैसले के मुताबिक उसने वैट 30 फीसदी से घटाकर 19.40 फीसदी कर दिया है और आज आधी रात के बाद पेट्रोल दिल्ली में 8 रुपये सस्ता मिलेगा।

मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने आज मंत्रिमंडल की बैठक की अध्यक्षता की जिसमें यह फैसला किया गया। बैठक में पेट्रोल पर लगने वाले वैट को 30 फीसदी से घटाकर  19.40 फीसदी करने का फैसला हुआ। इस फैसले से बुधवार (आज) रात से पेट्रोल 8 रुपये काम कीमत पर मिलेगा।

यहाँ बता दें राजधानी दिल्ली में आज पेट्रोल की कीमत 103.97 रुपये और डीजल का भाव 86.67 रुपये प्रति लीटर है। हालांकि, आज आधी रात से दिल्ली में पेट्रोल नए मूल्य के बाद 8 रुपये सस्ता मिलेगा।

सरकारी तेल कंपनियों पेट्रोल-डीजल के रेट में बदलाव नहीं कर रही हैं जिसके चलते सरकार ने अपने स्तर पर 8 रूपये की राहत देने का यह फैसला किया है। पिछले महीनों में पेट्रोल-डीजल की कीमतों में बहुत ज्यादा बढ़ौतरी से लोगों में नाराजगी पैदा हुई है।