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सुरक्षा में सेंध… विश्वास की कमी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में भयावह चूक, जिसके कारण उनका क़ाफ़िला पंजाब के फ़िरोज़पुर के पास राष्ट्रीय शहीद स्मारक और एक जनसभा स्थल के रास्ते में एक पुल पर क़रीब 20 मिनट तक फँसा रहा; एक बहुत गम्भीर मामला है। यह इसलिए भी गम्भीर है, क्योंकि यह ‘ब्लू बुक’ के तहत ज़रूरी केंद्रीय एजेंसियों, विशेष सुरक्षा समूह (एसपीजी) और राज्य पुलिस बल से जुड़े बहुस्तरीय सुरक्षा प्रोटोकॉल के बावजूद हुआ। प्रधानमंत्री की सुरक्षा के चार घटकों में विशेष सुरक्षा समूह (एसपीजी) या आंतरिक रिंग, केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) या बाहरी रिंग; स्थानीय पुलिस, जो मार्ग के साथ रसद और सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार है; के साथ-साथ इंटेलिजेंस ब्यूरो (आईबी) भी शामिल है, जो ख़तरे का आकलन करता है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए एक आकस्मिक योजना हमेशा मौसम की रिपोर्ट को ध्यान में पहले से तैयार रहती है, ताकि अगर प्रधानमंत्री उड़ान नहीं भर सकें, तो सड़क से एक वैकल्पिक मार्ग पूरी तरह साफ़ रखा जा सके। एसपीजी का प्राथमिक कार्य प्रधानमंत्री को निकटवर्ती सुरक्षा प्रदान करना है और यह राज्य पुलिस की ज़िम्मेदारी है कि वह समग्र सुरक्षा सुनिश्चित करे।

विडम्बना यह है कि ज़िम्मेदारी तय करने के बजाय पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी ने घटना के दो दिन बाद अपने एक ट्वीट में सरदार वल्लभभाई पटेल को उद्धृत करते हुए उपहास के अंदाज़ में कहा- ‘जो कर्तव्य से अधिक जीवन की परवाह करता है, उसे कोई बड़ी ज़िम्मेदारी नहीं लेनी चाहिए।’ यह स्पष्ट है कि पंजाब सरकार प्रधानमंत्री को सुरक्षित मार्ग सुनिश्चित करने के अपने संवैधानिक दायित्व को पूरा करने में विफल रही और वर्तमान घटना राज्य सरकार और उसके पुलिस बल की ख़राब छवि सामने लाती है। सर्वोच्च न्यायालय की तरफ़ से इस सुरक्षा चूक की जाँच के लिए सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा की अध्यक्षता में एक समिति गठित करने के एक दिन बाद पंजाब के मुख्यमंत्री चन्नी ने 13 जनवरी को देश में कोरोना की स्थिति का जायज़ा लेने के लिए प्रधानमंत्री के साथ अपनी आभासी बैठक (वर्चुअल मीटिंग) के दौरान इस घटना पर ख़ेद व्यक्त किया और प्रधानमंत्री की लम्बी उम्र की कामना की।

हालाँकि प्रधानमंत्री के जीवन के लिए ख़तरे को सड़क पर विरोध-प्रदर्शन करके नया मोड़ देने की कोशिशों से इस महत्त्वपूर्ण मसले की गम्भीरता को ही चोट पहुँची है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा को राजनीतिक विचारों या व्यक्तित्वों से परे रखना चाहिए; क्योंकि प्रधानमंत्री की सुरक्षा दलगत राजनीति से ऊपर है। लेकिन चुनाव की पूर्व संध्या पर इसे एक समुदाय विशेष को कलंकित करके एक मनोवैज्ञानिक लाभ या सहानुभूति बटोरने के लिए इस्तेमाल किये जाने की कोशिशें भी नाकाम हो गयी लगती हैं। इस घटनाक्रम से सबसे ज़्यादा परेशान किसान हैं, जो इसे समुदाय को बदनाम करने के लिए एक षड्यंत्र के रूप देखते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा ने आरोप भी लगाया कि बिना किसी कारण के पंजाब राज्य और किसानों को इस घटना के लिए दोषी ठहराया गया है। हालाँकि विरोध करने वाले किसानों ने कभी भी प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले की ओर जाने का कोई प्रयास नहीं किया। पंजाब में हुई चूक को ‘महामृत्युंजय जाप’ करके प्रधानमंत्री को नुक़सान पहुँचाने की साज़िश के रूप में या राज्य में चुनी हुई सरकार द्वारा जानबूझकर प्रधानमंत्री को ख़तरे में डालने की साज़िश के रूप में पेश करना निहायत ही ग़लत है। यह घटनाएँ पाँच राज्यों में महत्त्वपूर्ण विधानसभा चुनावों से पहले केंद्र और राज्य के बीच एक गम्भीर स्तर के अविश्वास का भी संकेत करती हैं। इस तरह इस विषवमन बन्द होना चाहिए।

 

चालबाज़ चीन

The Prime Minister, Shri Narendra Modi and the President of the People’s Republic of China, Mr. Xi Jinping at the delegation level talks, in Mamallapuram, Tamil Nadu on October 12, 2019.

सीमा पर चीन की गतिविधियाँ बड़े ख़तरे का संकेत

चीन का दूसरा नाम धोख़ेबाज़ है। सीमा पर उसकी शरारतें महज़ शरारतों तक सीमित नहीं हैं, बल्कि उनसे किसी बड़े ख़तरे की बू आ रही है। ज़्यादातर रणनीतिक जानकार इस बात पर सहमत हैं कि चीन लद्दाख़ के एक हिस्से में अपने क़ब्ज़े की साज़िश रच रहा है। चीन बहुत सोच-विचार के साथ अपनी सैन्य शक्ति को भी मज़बूत कर रहा है और भारत सीमा के संवेदनशील इलाक़ों में अपनी गतिविधियाँभी तेज़ कर रहा है। चीन की इस चाल और उससे बढ़ते ख़तरे के बारे में बता रहे हैं गोपाल मिश्रा :-

चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग की दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति के चलते चीन आर्मी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) अत्याधुनिक हथियार प्रणालियों से लैस है, जिसका अन्तिम ध्येय सैन्य सन्तुलन को स्थानांतरित कर पूर्वी लद्दाख़ में लम्बे समय तक सैन्य अभियानों की अपने पक्ष में तैयारी करना है। भारत और चीन के बीच चल रही कमांडर स्तर की बातचीत से कोई ठोस नतीजा नहीं निकल सकता है; क्योंकि चीन शान्ति की बात करते हुए भी सीमा क्षेत्रों में सैन्य रणनीतिक गतिविधियाँ सक्रिय रखना चाहता है।

हिमालय की ऊँचाइयों का लाभ लेने के लिए अपना पक्ष मज़बूत करने के अलावा पीएलए का एजेंडा अपने आश्रित पाकिस्तान को अपने कश्मीर एजेंडे की तरफ़ और अधिक मज़बूती से आगे बढ़ाने में सक्षम बनाने का है। उत्तरी और दक्षिणी तटों को जोडऩे के लिए पैंगोंग झील के नज़दीक एक पुल के निर्माण की हाल में सामने आयी उपग्रह छवियाँ एक बड़े राजनीतिक और रणनीतिक एजेंडे का हिस्सा प्रतीत होती हैं। इसके साथ ही चीन ने अरुणाचल प्रदेश में एक चोटी सहित कम-से-कम 15 स्थानों के चीनी भाषा में नये नामों की घोषणा की है।

वैसे चीन भले कुछ करे; लेकिन वह भारत से मुँह की खाएगा। भारत के सेनाध्यक्ष मनोज मुकंद नरवणे का कहना है कि यदि चीन भारत पर युद्ध थोपता है, तो उसे हार का मुँह देखना पड़ेगा। उधर 12 जनवरी को भारत और चीन के बीच 14वें दौर की सैन्य वार्ता हुई, जिसमें हॉट स्प्रिंग्स से सैनिकों को पीछे हटाने पर जोर दिया गया। नई दिल्ली में विदेश कार्यालय भारतीय स्थानों के नाम बदलने के लिए चीन की आलोचना करने में तत्पर रहा है; और यह भी आश्वासन दिया है कि पैंगोंग झील की तीन जनवरी की तस्वीरों से उन क्षेत्रों का पता चलता है, जो पिछले छ: दशकों से चीनी नियंत्रण में हैं। हालाँकि भारतीय प्रवक्ता अरिंदम बागची को यह याद दिलाना चाहिए था कि दलाई लामा की यात्रा के बाद सन् 2017 में चीन ने अरुणाचल प्रदेश में छ: स्थानों का नाम बदल दिया था। साल 2022 में चीन ने घोषणा क्यों दोहरायी? यह काफ़ी दिलचस्प है। इसका उत्तर शायद यह हो सकता है कि अब अक्टूबर, 2021 में बनाये गये क़ानून के तहत पीएलए को चीनी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने वालों के ख़िलाफ़ $कदम उठाने का पूरा अधिकार है। रूसी दबाव के बाद गलवान संघर्ष में भारत और चीन के बीच एक अस्थायी संघर्ष विराम हो गया था; लेकिन स्थिति अभी भी गम्भीर बनी हुई है। भारत शायद एक नये बहुपक्षीय चीनी आक्रमण के बारे में गहरे से आशंकित है, जिसमें कभी भी कहीं भी उसके ख़िलाफ़ आश्चर्यजनक तत्त्व हों। यह जून, 2020 में भारत द्वारा झेली गयी कई मौतों के साथ हुई झड़पों से कहीं अधिक विनाशकारी हो सकता है।

यह अब एक स्थापित तथ्य या भाग्य है कि सीमावर्ती राज्य होने के नाते अपने उत्तरी पड़ोसी देश चीन के साथ लगभग 2,500 किलोमीटर से अधिक लम्बी सीमा होने के कारण भारत को संघर्ष का सामना करना पड़ता है। जब भी यह संघर्ष होता है, इसमें किसी अन्य शक्ति का भौतिक समर्थन नहीं होता, विशेष रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका और रूस का। भारतीयों की स्मृति में यह अभी भी है कि सन् 1962 के संघर्ष के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन कैनेडी ने पीएलए से अधिक संख्या में भारतीय बलों को कोई भी हवाई कवर (समर्थन) देने से इन्कार कर दिया था। भारत को महत्त्वपूर्ण हवाई समर्थन से वंचित कर दिया गया था, जो उसे अपमान को बचा सकता था। हालाँकि सन् 1967 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के शासन के दौरान भारतीय सेना ने नाथू ला में चीनियों को परास्त किया और चार साल बाद बांग्लादेश भारत के सक्रिय समर्थन से स्वतंत्रता हासिल कर सका। इन घटनाओं के साथ, पूर्वोत्तर क्षेत्र में चीनी शरारत कुछ दशकों के लिए समाहित हो गयी। सन् 1962 के बाद के संघर्ष के वर्षों के दौरान तत्कालीन चीनी नेतृत्व की बढ़ती महत्त्वाकांक्षा को चुनौती देने के लिए भारत को उच्च तकनीक वाले हथियारों से वंचित कर दिया गया था। इसके बजाय संयुक्त राज्य अमेरिका और उसके पश्चिमी सहयोगियों ने पाकिस्तान को भारी आर्थिक सहायता और नवीनतम हथियार प्रणाली प्रदान की। इसने तत्कालीन पाकिस्तानी तानाशाह फील्ड मार्शल, अयूब ख़ान को तीन साल बाद सन् 1965 में भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। सन् 1971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने चीन से भारत पर हमला करने के लिए कहा था, ताकि पाकिस्तानी सेना बंगाली मुसलमानों को ख़त्म कर सके। यह अनुमान है कि अमेरिका और पश्चिमी शक्तियों द्वारा समर्थित नरसंहार ने 20 मिलियन लोगों की सामूहिक हत्याएँ कीं, जिसमें 30 मिलियन युवा बंगाली मुस्लिम महिलाओं का दमन शामिल था।

बड़े संघर्ष की तैयारी करे भारत

सावधानी के साथ एक प्रतिष्ठित पूर्व भारतीय राजनयिक एल.एल. मेहरोत्रा ने इस पत्रकार से कहा कि पैंगोंग झील के हालिया घटनाक्रम और चीनी भाषा में अरुणाचल प्रदेश के 15 स्थानों का नाम बदलने पर भारतीय कूटनीति द्वारा विश्वव्यापी अभियान शुरू करके आक्रामक रूप से मु$काबला किया जाना चाहिए। चीन के ख़िलाफ़ संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के स्थायी सदस्यों के पास वीटो की शक्ति है और जब भी वे मानते हैं कि वैश्विक शान्ति को ख़त्म है, वे इसका इस्तेमाल करते हैं। इसलिए यदि कोई स्थायी सदस्य हिंसा या संघर्ष को भड़काने में लिप्त होता है, तो उसे वीटो पावर से हटा दिया जाना चाहिए। उनका सुझाव था कि भारत को इसकी माँग करने में संकोच नहीं करना चाहिए।

महरोत्रा ने पीड़ा व्यक्त की कि भारत पहले ही मैकमोहन लाइन के कार्यान्वयन पर जोर न देकर चीन को कूटनीति में बहुत जगह दे चुका है। वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) या नियंत्रण रेखा (एलओसी) ने वास्तव में चीन को सीमाओं पर अपनी स्थिति को बदलने के लिए अनावश्यक स्थान दिया है। उन्होंने यह भी चेतावनी दी है कि यह एक मूर्खतापूर्ण तर्क है कि नेहरू शासन ने वर्तमान शासकों की तुलना में चीन को बहुत अधिक भूमि दी थी। चीनी एजेंडा हिमालय में रणनीतिक पदों पर क़ाबिज़ रहना है।

अधिकांश लोग, जो या तो कूटनीति के संवेदनशील क्षेत्र में रहे हैं या भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान का संचालन कर रहे हैं, 2022 में तिब्बत के साथ उसकी सीमाओं पर चीनी सैन्य गतिविधियों को नये सिरे से ख़ारिज़ नहीं करते हैं। चीनी सैन्य दुस्साहस उसके एजेंडे के साथ निकटता से जुड़ा हुआ है। वह एशिया के साथ-साथ दुनिया भर में अपनी सैन्य श्रेष्ठता का दावा करता है। वह पहले से ही विश्व व्यापार और वित्तीय प्रणालियों में ख़ुद को आर्थिक महाशक्ति के रूप में स्थापित कर चुका है। कुल मिलाकर भारतीय धारणा यह है कि भारत और चीन के बीच चल रहे अनावश्यक सैन्य टकराव दुनिया में अपनी निर्विवाद सत्ता स्थापित करना एक बड़े चीनी डिजाइन का एक हिस्सा है; ख़ासकर जब 2049 में चीन कम्युनिस्ट अधिग्रहण के 100 साल का जश्न मनाएगा।

विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर ध्यान

भारत के राजनीतिक और सैन्य दोनों सुरक्षा प्रतिष्ठानों ने निकट भविष्य में दो एशियाई दिग्गजों के बीच सीमा गतिरोध के किसी भी स्थायी समाधान से इन्कार किया है। भारतीय प्रयासों को प्रौद्योगिकी विकास पर अधिक ध्यान देकर बढ़ाया जाना चाहिए। यह एकमत है कि पिछले तीन दशक के दौरान लगातार दुनिया भर में सरकारें क्षेत्र में चीन की कभी न ख़त्म होने वाली महत्त्वाकांक्षाओं से निपटने के लिए चौबीसों घंटे सतर्कता के साथ एक बहुआयामी भारतीय रणनीति विकसित करने में विफल रही हैं।

हाल के वर्षों में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में चीनी पहल की तुलना में भारत पहले ही अपनी प्रौद्योगिकियों को विकसित करने का अवसर चूक चुका है। जबकि चीन अपने सकल घरेलू उत्पाद का 2.5 फ़ीसदी विज्ञान और प्रौद्योगिकी में निवेश करता है, भारत ने अपने सकल घरेलू उत्पाद का केवल 0.75 फ़ीसदी ज्ञान की उच्च खोज में निर्धारित किया है। इसलिए यह आश्चर्य की बात नहीं है कि जर्मनी ने नयी प्रौद्योगिकियों के विकास में चीन के साथ काम करने का फ़ैसला किया है। संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान के बाद चीन को पेटेंट होने वाले उत्पादों की सबसे बड़ी संख्या मिल रही है।

नयी रणनीतियाँ और हथियार

पिछले 10 वर्षों के दौरान राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन के केंद्रीय सैन्य आयोग ने पारम्परिक सैन्य योजना में सुधार किया है और इसे नागरिक-सैन्य एकीकरण के साथ सशक्त बनाया है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के क्षेत्र में नये आविष्कारों ने चीनी सेना को और मज़बूत किया है। आधुनिक फ्रिगेट और पनडुब्बियों के साथ पाकिस्तान, बांग्लादेश और म्यांमार की नौसेनाओं को सशक्त बनाने के चीनी निर्णय ने भारतीय रक्षा तैयारियों की क़ीमत पर इस क्षेत्र में शक्ति सन्तुलन को अचानक बदल दिया है।

पिछले एक दशक के दौरान चीनी पहल के बारे में भारतीय मीडिया या यहाँ तक कि भारत में थिंक टैंक के सम्मेलनों में शायद ही कभी चर्चा की जाती है। सन् 2011 के बाद से रियर एडमिरल वांग यू, जो नेवल इक्विपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट में प्रमुख व्यक्ति थे; ने नौसेना के जहाज़ों को नये सॉफ्टवेयर प्लेटफॉर्म के साथ नवीनीकृत करने में मदद की है। मेजर जनरल ये झेंग, जो 2011 से सैन्य योजना का हिस्सा थे; ने नये शोध के साथ विकास में मदद की है। इसलिए भारतीय नौसेना को दक्षिण-एशियाई क्षेत्र में इन घटनाओं पर ध्यान देना होगा और संघर्ष की स्थिति से कैसे निपटा जाए और ये स्थानीय शक्तियाँकैसे प्रतिक्रिया देंगी? इस पर मंथन करना चाहिए। भारत के सैन्य और नागरिक नेताओं के बीच एकमत है कि भारत को कभी भी यह उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि अगर कभी चीन के साथ कोई टकराव बड़े पैमाने पर होता है, तो विश्व शक्तियाँसंयुक्त राज्य अमेरिका और रूस, उसकी ओर से वास्तविक हस्तक्षेप करेंगे।

अमेरिका और भारत की निकटता

यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि मानवाधिकार के मुद्दों पर बहुत चर्चा के बावजूद, अमेरिका के नेतृत्व वाला पश्चिम चीन के ख़िलाफ़ कभी वित्तीय प्रतिबन्ध गम्भीरता से लगाएगा। भारतीय विद्वान और रक्षा विशेषज्ञ एकमत हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार को अपनी चीन नीति को ठीक करना चाहिए, वह भी बिना बयानबाज़ी या तेज़ घोषणाओं के। यह पूछा जा रहा है कि वुहान घोषणा के रूप में ज्ञात शान्ति और समृद्धि के लिए भारत और चीन के प्रस्तावित संयुक्त प्रयास अब तक क्यों नहीं चल पाए। इसका श्रेय मोदी को जाता है कि उन्होंने भारत के उत्तरी पड़ोसी देश के साथ एक स्थिर सम्बन्ध बनाने के लिए कई बार राष्ट्रपति जिनपिंग से मुलाक़ात की। वह अपने पूर्ववर्तियों की तरह, क्षेत्र के कल्याण और प्रगति के लिए चीन में शामिल होना चाहते थे; लेकिन अब उसे सीमाओं की रक्षा के लिए देश के संसाधनों को फिर से तैनात करना होगा। चूँकि चीन के साथ संघर्ष बहुपक्षीय और बहुआयामी होने जा रहा है, वित्तीय औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रों को शामिल करते हुए चुनौतियों का सामना करने की रणनीति बहुत व्यापक होनी चाहिए। इस बीच राजदूत मेहरोत्रा जी. पार्थसारथी जैसे विदेशी मामलों के विशेषज्ञों के सुझाव का समर्थन नहीं करते हैं कि चीन अमेरिका के प्रति निकटता के लिए भारत से नाराज़ हो रहा है। ज़मीनी सच्चाई यह है कि बाइडेन की चीन विरोधी बयानबाज़ी के बावजूद चीन में अमेरिकी निवेश बेरोकटोक जारी है। इस प्रकार, अमेरिकी राजधानी और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों के निरंतर प्रवाह से सशक्त चीन ने अंतत: विश्व व्यापार में प्रतिष्ठित महाशक्ति का दर्जा हासिल कर लिया है और एशिया में अपना अधिकार लागू करने का इच्छुक है। चीनी रणनीति से ऐसा प्रतीत होता है कि वह सैन्य टकराव के साथ भारत को अग्रिम पंक्ति का राज्य होने के नाते लक्षित और शान्त करना चाहता है।

पूर्वी लद्दाख़ से लेकर भारत के उत्तर-पूर्वी क्षेत्र तक चीन की सीमावर्ती राज्य अरुणाचल प्रदेश और 15 किलोमीटर चौड़ाई वाले संकीर्ण क्षेत्र, जो भारत की मुख्य भूमि को उसके पूर्वोत्तर आठ राज्यों जोड़ता है; में चीन की आक्रामक मुद्रा दर्शाती है कि उसे इनकी ज़रूरत है। एक महाशक्ति के रूप में भी सैन्य दृष्टि से अमेरिका के जगह लेने की चीन की इच्छा जगज़ाहिर है। पूर्वोत्तर राज्यों (अरुणाचल, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम) में चीनी घुसपैठ पिछले चार दशक से जारी है। वह मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और यहाँ तक कि मेघालय की गारो पहाडिय़ों में भी विद्रोहियों का समर्थन करने में कभी नहीं हिचकिचाता। भारत के मैत्रीपूर्ण प्रयासों के बावजूद चीन ने इस क्षेत्र में द$खल देना कभी नहीं छोड़ा।

चीनी खेल

01 जनवरी, 2022 की सुबह जब सूरज एक नयी उम्मीद की शुरुआत कर रहा था, तब एक अचंभित करने वाली शान्त धुन्ध भी थी। नये साल की पूर्व संध्या पिछले वर्षों में आशाओं और वादों को बढ़ाने के लिए धूमधाम वाली संध्या हुआ करती थी। हालाँकि पिछले दो वर्ष कोरोना महामारी के घातक दौर के चलते चुनौतियों भरे रहे हैं। इसके बावजूद दो देशों- भारत और चीन के सैनिकों का एक बड़ा समूह नये साल का स्वागत करने के लिए एक-दूसरे को बधाई देता है, वह भी ब$र्फ से ढकी हिमालय पर्वतमाला के बीच; जहाँ शिविरों में साँस लेने के लिए अतिरिक्त प्रयास करना पड़ता है। इन कठिन इलाक़ों में ऑक्सीजन कम हो जाती है, जहाँ हमारे सैनिक चौबीसों घंटे निगरानी रखते हैं। हालाँकि उन्होंने चीनी सैनिकों को मिठाई के साथ बधाई देने के लिए अपने नये साल की भावना को बरक़रार रखा। कुछ समय के लिए यह भूल गये कि जून, 2020 में ही, उनके बीच झड़प हुई थीं, जिसके नतीजे में दोनों पक्षों का भारी नु$कसान हुआ था। यह वही जगह गलवान घाटी थी, जहाँ सेनाएँ पिछले 20 महीनों से एक-दूसरे के सामने डटी हैं। लेकिन $खुशियों का यह आदान-प्रदान अल्पकालिक था। कई लोग तब आश्चर्यचकित रह गये, विशेष रूप से वह लोग, जिन्होंने केवल कुछ घंटे पहले ही मिठाइयों का आदान-प्रदान किया था; क्योंकि उन्हें उनके वरिष्ठों ने सूचित किया कि चीनियों ने एक अपनी भाषा में कई चीनी सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर अपना झण्डा साझा किया है, जिसमें उन्होंने दवा किया है कि जिस क्षेत्र पर वे क़ब्ज़ा करना चाहते थे, उस पर क़ब्ज़ा कर लिया है। भारतीय पक्ष ने भी इस दुष्प्रचार का मु$काबला करने के लिए तुरन्त तिरंगा साझा किया।

चीनी युद्ध खेल, वेई अपने आश्चर्यजनक तत्त्व के साथ शतरंज से अलग है। चीन की इन चालों से भारतीय वा$िक$फ हैं। इसलिए भारत में कुछ लोग आश्चर्यचकित थे, जब इस उत्तेजक कार्रवाई के बीच एक चीनी अंग्रेजी दैनिक ‘ग्लोबल टाइम्सÓ ने चीनी भाषा में अरुणाचल प्रदेश की चोटी सहित 15 स्थानों का नाम बदलकर एक लेख प्रकाशित किया। चीन के नागरिक मामलों के मंत्रालय के हवाले से दैनिक ने यह भी घोषणा की कि पहली जनवरी, 2022 से चीन नये नामों को लागू करेगा। यह अक्टूबर, 2021 में बने क़ानून के प्रावधानों के तहत किया जा रहा है। इस प्रकार वर्ष 2022 एक और टकराव की आशंका के साथ शुरू हुआ है, जो दो एशियाई देशों की सेनाओं के बीच बहुत बड़े टकराव में बदल सकता है। भारतीय नीति निर्माता, साउथ ब्लॉक (केंद्र सरकार के तीन प्रमुख पदाधिकारियों के कार्यालय, विदेश मंत्री, रक्षा मंत्री और प्रधानमंत्री के कार्यालय इस भवन में स्थित हैं) और विभिन्न थिंक टैंक, जो विभिन्न भारतीय कूटनीति में आँकड़े रखते हैं; सेना के पूर्व शीर्ष अधिकारी और प्रतिष्ठित शिक्षाविद्् आशंकाओं से भरे हैं। गलवान अनुभव की पुनरावृत्ति के उनके डर से वास्तव में इंकार नहीं किया जा सकता है। उनकी प्रारम्भिक प्रतिक्रिया यह है कि भारत को एक और टकराव के लिए तैयार रहना चाहिए; लेकिन समय और स्थान चीन द्वारा तय किया जाएगा।

इस बीच यह आम सहमति है कि चीन के साथ सन् 1962 के युद्ध में भारत की पराजय के लिए भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दोष देने के बजाय यह उचित समय है कि नरेंद्र मोदी को यह महसूस करना चाहिए कि भारत को मैकमोहन रेखा से सहमत नहीं होना चाहिए, जैसा सन् 1914 में 24-25 मार्च को दिल्ली में ब्रिटिश भारत और तिब्बत के बीच तय हुआ था। यह शिमला सम्मेलन की अनुवर्ती था, जिसमें पहले भी चीन ने भाग लिया था, जो दावा करता है कि अरुणाचल प्रदेश दक्षिणी तिब्बत है, इसलिए इसे चीनी नियंत्रण में होना चाहिए। दिलचस्प बात यह है कि चीन पहले ही तिब्बती राष्ट्रवाद को और कमजोर करने के लिए बड़े तिब्बत को विभाजित कर चुका है।

शिखर सम्मेलन के दौरान भी चालबाज़ियाँ

सन् 2014 और 2015 के दौरान भारत उत्साहपूर्वक चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग और उनके सहयोगियों की क्रमश: अहमदाबाद और नई दिल्ली में मेजबानी कर रहा था। लेकिन उच्चतम स्तर पर इन बैठकों के दौरान पीएलए ने चुमार गाँव के नये भारतीय क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने में संकोच नहीं किया। लद्दाख़ त्सो मोरीरी झील के दक्षिण में नदी के तट पर परंग नदी और डेमचोक अपने दावों को और मज़बूत करने के लिए उसने ऐसा किया।

भारतीय सैन्य सूत्रों से पता चलता है कि भारत में जिनपिंग के आगमन से कुछ दिन पहले 1,000 से अधिक मंडलों को स्थानांतरित कर दिया गया था। यह ध्यान रखना आवश्यक है कि चुमार (चुमुर) सीमा एक अन्तरराष्ट्रीय सीमा थी, जो कभी विवाद में नहीं थी। हालाँकि बिंदु 4925 से बिंदु 5318 के बीच सीधा सम्बन्ध रखने की अपनी चालों में चीन ने इसके एक विवादित क्षेत्र होना का दावा किया है, ताकि उस पर क़ब्ज़ा कर सके।

यहाँ दो सवाल उठते हैं। पहला, क्यों नरेंद्र मोदी मैकमोहन लाइन के आधार पर भारतीय दावों पर जोर देने के प्रति अनिच्छुक हैं? और दूसरा, क्या शी जिनपिंग पर वास्तव में उनकी इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि वह वास्तव में भारत के साथ शान्ति चाहते हैं? जिनपिंग देश के सैन्य आयोग के प्रमुख भी हैं, यह विश्वास नहीं किया जा सकता है कि पीएलए उनकी मं•ाूरी के बिना भारतीय इलाक़ों पर हमला कर सकता है। इस प्रकार पीएलए पुराने चीनी युद्ध के खेल में लिप्त है।

चीन का आतंकवादियों को समर्थन

नरेंद्र मोदी और जिनपिंग के बीच चीन के वुहान में अनौपचारिक शिखर सम्मेलन के दौरान अप्रैल, 2018 में एक घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर किये गये थे। इसमें आतंकवाद का संयुक्त रूप से विरोध करने पर सहमति व्यक्त की गयी थी, जो वैश्विक शान्ति के लिए ख़त्म है। लेकिन चीन ने अगले आठ महीनों के भीतर पाकिस्तानी आतंकवादियों और आतंकी संगठनों का समर्थन किया। फरवरी, 2019 में उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् के अन्य चार स्थायी सदस्यों यूके, फ्रांस, रूस और यूएसए के पाकिस्तान स्थित आतंकवादी अजहर मसूद, जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख को आतंकवादी घोषित करने के प्रस्ताव का समर्थन करने से इन्कार कर दिया था। सन् 2008 में मुम्बई में 26/11 के आतंकवादी हमले के यह लोग आरोपी थे।

पुतिन की शान्ति-पहल

पिछले दो साल मानव जाति के लिए काफ़ी दर्दनाक थे, ख़ासकर भारत के लिए। जब दुनिया कोरोना की मौत का सामना कर रही थी, भारत को पूर्वी लद्दाख़ में गलवान घाटी से सिक्किम तक की सीमाओं पर चीनी घुसपैठ का सामना करना पड़ा। झड़पें 5 मई, 2020 को हुईं, जो बड़े पैमाने पर टकराव में भड़क सकती थीं। हालाँकि रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के समय पर हस्तक्षेप के कारण सबसे $खराब स्थिति टल गयी। उन्होंने सुनिश्चित किया कि दो एशियाई दिग्गजों के बीच सन् 1962 के युद्ध की पुनरावृत्ति नहीं हो। कुछ किलोमीटर की प्रतीकात्मक वापसी को छोड़कर चीनी 2020 से पहले की स्थिति में नहीं लौटे हैं। भारत को उम्मीद थी कि जनवरी में कोर कमांडर स्तर पर फिर से शुरू होने वाली बातचीत कुछ समय के लिए तनाव कम कर सकती है; लेकिन स्थायी शान्ति मायावी बनी हुई है। हाल की उपग्रह छवियों से पहले ही लद्दाख़ सीमा पर चीनी सेना के और अधिक $िकलेबंदी का पता चला है। इसके साथ भारतीय स्थानों और अरुणाचल प्रदेश की चोटियों का चीनी भाषा में नामकरण किया जाता है। ये नये चीनी मुद्राएँ नये साल पर सीमा पर भारतीय और चीनी सैनिकों के बीच मिठाइयों के आदान-प्रदान के एक सप्ताह के भीतर हो रही हैं। इस उत्सव के मूड के बीच गलवान घाटी में चीनी झण्डा फहराया गया। भारत की ओर से तिरंगा फहराकर इसका तुरन्त विरोध किया गया।

एक ग़ैर-राजनयिक अधिनियम

लद्दाख़ में नये आक्रामक रु$ख से कुछ ह$फ्ते पहले, कई भारतीय क़ानून निर्माताओं को चीनी दूतावास से तिब्बती स्वतंत्रता का समर्थन करने वाली किसी भी बैठक में भाग लेने से परहेज़ करने के लिए एक सन्देश मिला था। 22 दिसंबर, 2021 को, तिब्बत के लिए ऑल पार्टी फोरम की बैठक में कई प्रमुख भारतीय राजनेताओं ने भाग लिया। इनमें केंद्रीय राज्य मंत्री चंद्रशेखर, कांग्रेस पार्टी के प्रमुख नेता जयराम रमेश, मनीष तिवारी, भाजपा की मेनका गाँधी और इसके संयोजक बीजू जनता दल के सुजीत कुमार शामिल थे। निर्वासन में तिब्बती संसद के अध्यक्ष खेंपो सोनम तेनफेल ने तिब्बत का प्रतिनिधित्व किया।

नई दिल्ली में चीनी दूतावास के राजनीतिक सलाहकार, झोउ योंगशेंग ने भारतीय सांसदों को एक सन्देश में कहा है कि अगर तिब्बत स्वतंत्र है तो इस कारण का समर्थन करने से बचें। इस को भारतीय पक्ष से तीखी आलोचना मिली है। यह बताया जा रहा है कि निर्वासित तिब्बती सरकार चीन के भीतर स्वायत्तता की माँग कर रही है। तिब्बती प्रतिनिधियों और चीनी नेतृत्व के बीच कई गोपनीय बैठकें हुई हैं। एक देश के भीतर दो प्रणालियों के होने का फार्मूला, जिसे हॉन्गकॉन्ग में लागू किया गया था, बीजिंग में कम्युनिस्ट शासन और तिब्बती नेतृत्व के बीच छ: दशकों के गतिरोध को समाप्त करने का मार्ग प्रशस्त कर सकता था। हालाँकि हॉन्गकॉन्ग में स्वायत्तता की समाप्ति के साथ तिब्बती मुद्दे के समाधान की सम्भावनाओं को अब ख़ारिज़ कर दिया गया है। चीनी उकसावे का पता कोरोना महामारी के चल रहे दौर के तीसरे वर्ष में अपनाये जा रहे नये आक्रामक रु$ख से लगाया जा सकता है।

चीन की नयी मुद्रा

ऐसा प्रतीत होता है कि भारत की राजनीतिक राय के दायरे ने विचारधाराओं के बावजूद सांसदों के साथ-साथ भारत के सुरक्षा प्रतिष्ठान का संचालन करने वालों को भी चकित कर दिया है। जनरल (सेवानिवृत्त) वी.के. तिवारी, जो हाल ही में सेवानिवृत्त हुए हैं; का मानना है कि भारत को अपने अप्रत्याशित उत्तरी पड़ोसी के साथ रहना सीखना होगा। वह भारत में बेहतर तोपों और तोप$खाने के निर्माण की सराहना करते हैं; लेकिन भारत और चीन के बीच तकनीकी अन्तर हर गुज़रते दिन के साथ व्यापक होता जा रहा है। उन्होंने यह भी चेतावनी दी कि चीन की मित्रता हमारे प्रमुख रणनीतिक निर्णयों को प्रभावित नहीं करनी चाहिए। नीति निर्माताओं के लिए यह कार्य प्रत्येक बीतते दिन के साथ और अधिक कठिन और जटिल होता जा रहा है। चूँकि भारत एक अग्रिम पंक्ति का राज्य है, इसलिए उसे चीन के अंतहीन आक्रामक रुख़ और जुझारू रवैये का सामना करना पड़ता है। उसे किसी भी स्थिति का सामना करने के लिए हमेशा तैयार रहने की स्थिति में रहना पड़ता है। चीन को $खुश करने के लिए, अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों ने पहले ही तिब्बत के लोगों को असहाय छोड़ दिया है। हालाँकि यह मुद्दा 2020 में पश्चिमी मीडिया में सुर्खियां में आया, जब चीन ने अचानक हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता समाप्त कर दी और आश्वासनों को ख़ारिज़ कर दिया।

चीन ने 50 साल की अवधि के लिए अपनी लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाये रखने का वादा किया था। $करीब 156 साल के ब्रिटिश शासन के बाद पहली जुलाई, 1997 को इसे चीन को वापस कर दिया गया था। इससे पहले चीन और ब्रिटेन द्वारा सन् 1984 में एक संयुक्त बयान जारी किया गया था कि चीन एक देश में दो प्रणालियों के सिद्धांत के तहत हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता को बरक़रार रखेगा। चीन की निंदा करने वाले कुछ बयानों को छोड़कर पश्चिमी शक्तियाँ चीन के ख़िलाफ़ कोई भी ठोस फ़ैसला लेने में हिचकिचा रही हैं। अमेरिकियों ने चीन को हॉन्गकॉन्ग डॉलर को प्रिंट करना जारी रखने की अनुमति दी है, जिसे यूएसडी जैसी अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा की प्रतिष्ठा प्राप्त है।

चीन की पैठ

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन, पुतिन के साथ अपने शिखर सम्मेलन के दौरान यूक्रेन के मुद्दे पर कठिन मुद्रा अपनाते हैं; लेकिन वह चीन को ताइवान पर बलपूर्वक क़ब्ज़ा करने से रोकते हुए किसी भी कठोर शब्दों का उपयोग करने से परहेज़ करते हैं। साउथ ब्लॉक में आकलन यह है कि आने वाले महीनों में चीनी परदे के पीछे ताइवान पर दुनिया भर में दबाव बढ़ेगा। निकारागुआ द्वारा हाल ही में ताइवान के दूतावास को बन्द करने का निर्णय चीनी मिशन द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना एक ऐसा उदाहरण है।

इसके दो कारण हो सकते हैं; पहला यह कि पिछले दो दशक के दौरान अमेरिकी व्यवस्थाओं में चीन की पैठ इतनी गहरी हो गयी है कि अमेरिकी प्रशासन ख़ुद को चीन से निपटने में असहाय पाता है। दूसरा, अमेरिकी रूस को चीन से कहीं ज़्यादा बड़ा ख़त्म मानते हैं। इसलिए ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका, जापान और भारत में शामिल बहुचर्चित क्वैड भी एक ग़ैर-स्टार्टर गठबन्धन प्रतीत होता है। इस बीच ऑस्ट्रेलिया, फिलीपींस सहित अधिकांश अमेरिकी सहयोगी चीनी प्रायोजित मुक्त व्यापार समझौते क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी (आरसीईपी ) में शामिल हो गये हैं। यह चीन को एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में अपना आर्थिक वर्चस्व स्थापित करने में सक्षम करेगा। भारत आरसीईपी में शामिल नहीं हुआ है; लेकिन द्विपक्षीय व्यापार 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुँच गया है।

चीन से आयात बढ़ा

हिमालय पर चीन-भारत गतिरोध के बाद बहिष्कार के आह्वान के साथ-साथ आत्म निर्भरता की बयानबाज़ी के बावजूद चीन से आयात में वृद्धि देखी जा रही है। सन् 2014-15 के दौरान जब भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए (राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबन्धन) सत्ता में आया, तो चीन से आयात 42.33 बिलियन अमेरिकी डॉलर था, जबकि भारत का निर्यात 12.26 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। अप्रैल-दिसंबर 2021 की अवधि के दौरान चीनी आयात पहले ही 85 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर गया था और चीन को भारतीय निर्यात, वह भी कम मूल्य वाले कच्चे माल का, केवल 12.26 बिलियन अमेरिकी डॉलर था। हालाँकि चीन से बड़े पैमाने पर आयात के बावजूद, इसने सीमाओं पर और साथ ही संयुक्त राष्ट्र के विभिन्न मंचों पर भारत के ख़िलाफ़ अपने आक्रामक रुख़ को जारी रखा है।

पंजाब में वैलेंटाइन-डे पर तय करेगी जनता, उसे किससे है मोहब्बत

इस बार राज्य के विधानसभा चुनाव में पारम्परिक प्रतिद्वंद्वियों को चुनौती देंगे कई दल

पंजाब के विधानसभा चुनाव में इस बार दिलचस्प जंग की सूरत बन रही है। चुनाव 14 फरवरी को हैं, जो ‘वैलेंटाइन-डे’ भी कहलाता है। इस चुनाव में राजनीतिक दलों की कतार पिछले चुनावों के मुक़ाबले कहीं लम्बी हो गयी है और यह दल दो पारम्परिक प्रतिद्वंद्वियों- कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के प्रभुत्व को चुनौती दे रहे हैं। इन दोनों ने ही वर्षों पंजाब पर शासन किया है।

कुल 117 सीटों के लिए कांग्रेस, आम आदमी पार्टी, भाजपा, शिरोमणि अकाली दल, बहुजन समाज पार्टी और संयुक्त समाज मोर्चा मैदान में हैं। शिरोमणि अकाली दल और बहुजन समाज पार्टी गठबन्धन सहयोगी के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं, जबकि भारतीय जनता पार्टी और पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस ने चुनाव में हाथ मिलाया है। इसने चुनाव की गतिशीलता को बदल दिया है, जहाँ लगभग 21.1 मिलियन (दो करोड़ 11 लाख) मतदाता प्रतियोगियों की क़िस्मत का फ़ैसला करेंगे।

कांग्रेस का अंदरूनी विवाद

कुछ महीने पहले कांग्रेस सभी दलों से आगे दिख रही थी। लेकिन अब सत्तारूढ़ कांग्रेस में दरार दिख रही है। यह अभी भी स्पष्ट नहीं है कि क्या मुख्यमंत्री, चरणजीत सिंह चन्नी, प्रदेश अध्यक्ष, नवजोत सिंह सिद्धू और वरिष्ठ नेता सुनील जाखड़ चुनाव से पहले अपने मतभेदों और आंतरिक कलह को दूर करने या अपना लक्ष्य निर्धारित करने के लिए कुछ करेंगे? बिना मुख्यमंत्री चेहरे की घोषणा किये सामूहिक नेतृत्व में चल रही पार्टी को चुनाव में दिक़्क़तें हो सकती हैं। कांग्रेस चन्नी को 32 फ़ीसदी से अधिक अनुसूचित जाति के वोटों के एक बड़े हिस्से को हासिल करने के लिए एक तुरुप के इक्के के रूप में देखती है। लेकिन चन्नी-सिद्धू की लड़ाई पार्टी के लिए आत्मघाती साबित हो सकती है।

पंजाब कांग्रेस कमेटी के पूर्व अध्यक्ष और चुनाव प्रचार कमेटी के प्रभारी सुनील जाखड़ ने कहा है कि पार्टी आलाकमान ने पहले ही स्पष्ट कर दिया है कि वह इस बार सामूहिक नेतृत्व के साथ जाने का इरादा रखती हैं। उधर पंजाब मामलों के पार्टी प्रभारी हरीश चौधरी ने भी स्पष्ट कर दिया था कि यह चुनाव एक व्यक्ति विशेष के इर्द-गिर्द नहीं बनने जा रहा है। जाखड़ ने कहा कि कांग्रेस की ताक़त राहुल गाँधी का विश्वास है, जिसमें वह कहते हैं कि पारम्परिक मानदण्डों को तोडऩा है। उनके पास एक दृष्टि है और उन्होंने पंजाब में यही कोशिश की। उन्होंने चरणजीत सिंह चन्नी, जो अनुसूचित समुदाय से हैं; को मुख्यमंत्री के रूप में लाते हुए उसी सोच का अनुसरण किया। यह निर्णय समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक सशक्तिकरण की दिशा में एक बड़ा क़दम था। पंजाब में कांग्रेस सरकार के प्रदर्शन के बारे में उन्होंने चुटकी लेते हुए कहा कि हमारे बड़े चुनावी वादों में से एक वृद्धावस्था पेंशन की वृद्धि थी, जिसे हमने 700 रुपये से बढ़ाकर 1,500 रुपये कर दिया था। हमने हमारे संसाधनों के भीतर किसानों के लिए ऋण काफ़ी की।

उन्होंने माना कि सार्वजनिक मंचों पर वरिष्ठ नेताओं द्वारा अपनी ही सरकार के ख़िलाफ़ लगातार अपशब्दों ने कांग्रेस को नुक़सान पहुँचाया है। उन्होंने कहा- ‘मैं व्यक्तिगत तौर पर सोचता हूँ कि इसकी जाँच होनी चाहिए। मुझे लगता है कि बहुत अधिक छूट दी गयी है और यह किसी व्यक्ति विशेष के बारे में नहीं है। इस तरह के मुद्दों पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है और उन पर नज़र डालने के बजाय उन्हें सख़्ती से निपटा जाना चाहिए था। बँटा हुआ घर कभी किसी की मदद नहीं करता। जो भी मतभेद हैं, उन्हें घर में ही सुलझा लेना चाहिए।‘

उन्होंने कहा कि प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद उतना ही ऊँचा होता है, जितना किसी राज्य में किसी को पार्टी में मिल सकता है। और आम आदमी पार्टी के लिए यह भी आवश्यक है कि वह पालन की जाने वाली प्रक्रियाओं के बारे में सावधान रहें। आलाकमान को इस मसले को हमेशा के लिए सुलझा लेना चाहिए।

आप, शिअद, भाजपा को उम्मीदें

ऐसे में आम आदमी पार्टी (आप) सन् 2017 में पार्टी की पराजय के बाद दूसरे अवसर की उम्मीद कर रही है। आम आदमी पार्टी ने अपने लोक-लुभावन वादों और शासन के दिल्ली मॉडल के साथ पंजाब की दीवारों को अपने आकर्षक नारे- ‘एक मौक़ा आप नू’ (आप को एक अवसर) सेरंग दिया है।

उधर भाजपा की स्पष्ट योजना है और उसने पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुखदेव सिंह ढींडसा की संयुक्त अकाली दल के साथ गठबन्धन किया है। शिरोमणि अकाली दल अपने 24 साल पुराने साथी भाजपा के बिना चुनाव लड़ेगा और उसने मायावती की बहुजन समाज पार्टी के साथ गठबन्धन कर अनुसूचित जाति के मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है, जिनकी पंजाब में 32 फ़ीसदी हिस्सेदारी है। शिअद अपनी पंथिक सोच को भी आगे कर रही है, जबकि वह अपने संरक्षक और वरिष्ठ नेता प्रकाश सिंह बादल और सुखबीर सिंह बादल के नेतृत्व में एक आक्रामक अभियान की तैयारी कर रही है।

प्रधानमंत्री की सुरक्षा में सेंध से लेकर नशीली दवाओं के मामले, बेअदबी और रेत खनन आदि के कई मुद्दे इस चुनाव में हैं। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा ने सुरक्षा चूक के मुद्दे को बड़े पैमाने पर उठाया है और अब यह उनके हर बयान में शामिल हो चुका है। इससे राजनीतिक माहौल में अचानक बदलाव आया है और यह पंजाब में कुछ सीटों पर शहरी हिन्दू वोट बैंक को एकजुट कर सकता है।

दरअसल उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर के नतीजे सत्तारूढ़ भाजपा के लिए 2024 तक महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालने वाले हैं। पंजाब को छोड़कर भाजपा इन सभी राज्यों में शासन कर रही है। प्रधानमंत्री के हाल के पंजाब दौरे के दौरान भाजपा नेजिस पैमाने पर सुरक्षा में चूक का मुद्दा उठाया, उससे साफ़ संकेत मिलता है कि आने वाले विधानसभा चुनावों में भी नरेंद्र मोदी उसके चुनावी प्रचार का चेहरा बने रहेंगे। कैसे भी जीत भगवा पार्टी के लिए प्राथमिकता होगी। पार्टी अपनी स्थिति मज़बूत करने के लिए ‘डबल-इंजन का सरकारी मॉडल’ पेश कर रही है। यह जनता को मनोवैज्ञानिक तरीक़े से सन्देश देने की कोशिश है कि यदि प्रदेशों में भी आप भाजपा की सरकार बनाते हैं, तो आपका ज़्यादा काम होगा। अब तक उपेक्षित क्षेत्र में विकास की राह देख रहे लोगों को यह नारा आकर्षित कर सकता है। हालाँकि पंजाब में एक अलग तरह का चुनावी खेल हो सकता है। क्योंकि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ आन्दोलन के दौरान लगभग 700 किसानों की मौत भाजपा के लिए एक बड़ा नकारात्मक मुद्दा है और लोगों के घाव अभी तक नहीं भरे हैं।

पंजाब में जहाँ भाजपा अपने दम पर एक मज़बूत चुनावी ताक़त नहीं बन पायी है, पार्टी एक तरह से जुआ खेलने जा रही है। क्योंकि यह दो दशक से अधिक समय के बाद पारम्परिक सहयोगी शिरोमणि अकाली दल के बिना चुनाव में उतर रही है। पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस से बाहर जा चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की नवगठित पंजाब लोक कांग्रेस जैसे छोटे और नये दल के साथ हाथ मिलाने के बाद भाजपा कांग्रेस को सीमावर्ती राज्य में सत्ता में लौटने से रोकने पर ध्यान केंद्रित कर रही है। याद रहे मोदी लहर के बीच भी प्रदेश की जनता कांग्रेस के साथ खड़ी रही थी।

हालाँकि भाजपा नेताओं को उम्मीद है कि क़रीब 40 फ़ीसदी हिन्दू मतदाताओं से फ़र्क़ पड़ सकता है। साथ ही भाजपा राज्य में अस्पष्ट राजनीतिक स्थिति का फ़ायदा उठाने की इच्छा कर रही है। पार्टी की आशा का कारण एक प्रमुख सिख चेहरे पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के उसके साथ आने से है। उसे यह भी लगता है अकाली दल से बाहर जाकर मोदी फैक्टर पंजाब में भगवा पार्टी को लाभ दे सकता है। हालाँकि इस बार चुनाव में खिलाडिय़ों की संख्या को देखते हुए अप्रत्याशित परिणाम सामने आ सकते हैं।

चुनाव की रणभेरी

लोकसभा के 2024 के चुनाव से पहले पाँच राज्यों के यह चुनाव दो बड़े राजनीतिक दलों भाजपा और कांग्रेस के साथ कुछ क्षेत्रीय दलों का बड़ा इम्तिहान है। भाजपा के सामने उन चार राज्यों को बचाने की चुनौती है, जहाँ वह सत्ता में है; जबकि कांग्रेस उस एक राज्य पंजाब से ज़्यादा राज्यों में जीतना चाहती है, जहाँ वह इस समय सत्ता में है। इन चुनावों में आम आदमी पार्टी, ममता बनर्जी की टीएमसी, अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और अकाली दल के अलावा कुछ क्षेत्रीय क्षत्रपों की राजनीति का भविष्य भी तय होगा। चुनावों की घोषणा और बढ़ते कोरोना मामलों से उपजी चुनौतियों को लेकर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :- 

दर्ज़नों चुनौतियों के बीच पाँच राज्यों के चुनाव आ गये। इनमें एक चुनौती कोरोना है, तो महँगाई, बेरोज़गारी और देश में समुदायों के बीच अविश्वास के बढ़ते ख़तरे की बड़ी चुनौती भी है। यह सिर्फ़ पाँच विधानसभाओं के चुनाव भर नहीं हैं।

यह चुनाव जनता के उस सम्भावित निर्णय का संकेत देंगे, जो भविष्य में वह कर सकती है। इन चुनावों के नतीजे देश के नेतृत्व के लिहाज़ से भी बहुत महत्त्वपूर्ण होंगे; क्योंकि कांग्रेस के राहुल गाँधी, टीएमसी की ममता बनर्जी और भाजपा के ही भीतर योगी आदित्यनाथ जाने-अनजाने प्रधानमंत्री पद के दावेदारों के रूप में सामने रहेंगे। यही नहीं भाजपा के एक बड़े वर्ग का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की नेतृत्व क्षमता पर अटूट विश्वास भी इन चुनावों में दाँव पर रहेगा। यह चुनाव वोटर की भी परीक्षा हैं; क्योंकि इनमें तय होगा कि वह अपने मुद्दों और भाजपा के हिन्दुत्व के एजेंडे में से किसे चुनता है। भाजपा के लिए यह चुनाव इसलिए भी चुनौती वाले हैं। क्योंकि जिन पाँच राज्यों में मतदान होगा, उनमें से चार पर भाजपा सत्ता में है, जबकि एक पंजाब में कांग्रेस सत्ता में है। सात चरणों के इस चुनाव में देश की राजनीति की भविष्य की दिशा काफ़ी हद तक तय हो जाएगी, यह तय है, भले यह चुनाव प्रदेशों के लिए हैं।

 

निर्वाचन आयोग ने इन चुनावों की लिए तारीख़ों का ऐलान ऐसे मौक़े पर किया है जब जनता के मन में ढेरों सवाल हैं। उसके सामने महँगाई से लेकर बेरोज़गारी के मुद्दे दिन प्रतिदिन विकराल होते जा रहे हैं। समुदायों के बीच नफ़रतों की दीवार ऊँची होती जा रही है, जिससे सामाजिक ताना-बाना छिन्न-भिन्न होने को है।

इससे लोगों में अपनी समस्यायों के हल होने की उम्मीद कम होती जा रही है; क्योंकि उन्हें लग रहा है कि सत्ता में बैठे लोगों की उनकी दिक़्क़तें हल करने में कोई रुचि नहीं। यह चीज़ें जनता में गहरी निराशा इसलिए भी रही हैं; क्योंकि कोरोना से पनपी बेरोज़गारी और अपनों को खोने का गहरा दर्द उन्हें निराशा की तरफ़ धकेल रहा है। वे महसूस करने लगे हैं कि यदि वह अपने असली मुद्दों और समस्यायों (बेरोज़गारी, महँगाई आदि) की लड़ाई नहीं लड़ते हैं, तो उन्हें और उनकी नयी पीढ़ी को बहुत कठिनाई भरे दिन देखने होंगे।

मोदी सरकार को सत्ता में आये अब आठ साल होने को हैं। यह वह समय होता है, जब जनता किसी सरकार के वादों, उसके काम और अपनी समस्याओं के हल होने का लेखा-जोखा करने लगती है। मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के समय भी यही हुआ था। 10 साल के उसके शासन के दौरान यही समय था, जब जनता उसे लेकर अपनी सोच साफ़ करने लग पड़ी थी। विपक्ष यूपीए सरकार पर गम्भीर रूप से हमलावर होने लगा था और तब क़रीब आठ साल से सत्ता से बाहर भाजपा अचानक बहुत सक्रिय होने लगी थी। तब में और आज में यह अन्तर ज़रूर है कि कोरोना महामारी के कारण कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल जनता के बीच आज उस स्तर पर नहीं पहुँच पा रहे, जैसा 2012-13 के आसपास भाजपा कर पा रही थी। दूसरे विपक्ष के बीच आज बिखराव है, भले कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूपीए एकजुट है। ज़ाहिर है एक तरह से यह क्रमश: भाजपा और कांग्रेस के एनडीए और यूपीए के अलावा तीसरे मोर्चे (आप, टीएमसी, वामपंथी दल आदि) की जंग है, जो कमोबेश हर चुनाव में रही ही है।

राज्यों के यह चुनाव ऐसे मौक़े पर होने जा रहे हैं, जब देश में विचारधारा के स्तर पर बड़ा बिखराव हो चुका है और सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोग जनता को धार्मिक आधार पर विचारधाराओं के खुले टकराव की तरफ़ जाने के लिए उकसा रहे हैं, ताकि अपनी राजनीति की फ़सल को पकाया जा सके। यह चुनाव तय करेंगे कि क्या जनता इस मक़सद को समझ रही है या वह उनके राजनीतिक मक़सदों के लिए इस्तेमाल होने को तैयार है, भले इससे उन्हें अपने असली हितों की बलि देनी पड़ जाए।

मोदी सरकार के वादों के बाद किसान आन्दोलन स्थगित हो गया है; लेकिन किसानों और केंद्र सरकार के बीच अविश्वास जस-का-तस है। किसानों की कोई माँग अभी पूरी नहीं हुई है और चुनाव आचार संहिता के बाद इसकी कोई सम्भावना नहीं कि केंद्र सरकार इस दिशा में कुछ करेगी। किसान अब शिद्दत से यह महसूस कर रहे हैं केंद्र सरकार ने उन्हें छला है। एमएसपी की किसानों की माँग और अन्य मुद्दे अभी भी उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखण्ड में बड़े मुद्दे बने हुए हैं, जिससे भाजपा विचलित है। चुनावों में इसके उलटे असर का डर उसे सता रहा है। भाजपा के बड़े नेताओं के भाषण इसका संकेत देते हैं।

देश में बुल्ली बाई, सुल्ली डील जैसे सोशल मीडिया के आपराधिक कारनामे और कट्टर विचारों को पोसने वाले धर्म संसद जैसे आयोजन और ऐसे ही अन्य उदाहरण ज़ाहिर करते हैं कि देश में नफ़रतों का बाज़ार किस स्तर पर सज रहा है। धर्म संसद में नफ़रत फैलाने का मसला तो ऐसा था, जिसमें पाँच पूर्व सेना प्रमुखों ने प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को चिट्ठी लिखकर इस पर गहरी चिन्ता जतायी और इस तरह के आयोजनों पर रोक लगाने की माँग की। जनता को धार्मिक आधार पर उलझाने की कोशिश जैसी आज हो रही है, वैसी कभी नहीं हुई।

आश्चर्य यह कि यह काम कोई धार्मिक हिन्दूवादी संगठन नहीं, बल्कि भाजपा जैसा देश का सबसे बड़ा राजनीतिक दल कर रहा है; और वह भी खुले रूप से। भाजपा ने साफ़ कर दिया है कि हिन्दुत्व उसका मुख्य एजेंडा है और उसे इसपर चुनाव लडऩे में कोई परहेज़ नहीं। ज़ाहिर है इसने देश की आबादी को पूरी तरह बाँटकर रख दिया है। भाजपा को अपने मक़सद में सफल होने का भरोसा है; लेकिन समाज के बीच बँटवारा हो रहा है।

आने वाले पाँच राज्यों के चुनाव में कम-से-कम उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में भाजपा इसी लाइन पर काम करती दिख रही है, जो चुनाव पास आते आते और तेज़ हो जाएगा।

कांग्रेस, जिन पाँच राज्यों में चुनाव हो रहे हैं, उन सभी में अपनी उपस्थिति रखती है। उत्तर प्रदेश में भले उसका संगठन कमज़ोर हो, राज्य की जनता उसे उतना ही जानती है, जितना भाजपा, सपा और बसपा को। इसमें कोई दो-राय नहीं कि आज भी भाजपा के मुक़ाबले के लिए जनता के दिमाग़ में कांग्रेस का ही नाम आता है। लेकिन कांग्रेस लगातार दो लोकसभा चुनावों में मिली हार की धूल झाड़कर वर्तमान राजनीतिक चुनौतियों के लिए तैयार नहीं हो पा रही।

सन् 2018 के आख़िर में जब उसने मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में बड़ी जीत हासिल करके भाजपा को रक्षात्मक कर दिया था, तब लगा था कांग्रेस अब पीछे मुड़कर नहीं देखेगी; लेकिन लगता है संगठन के भीतर तालमेल की कमी से वह पंगु-सी हो गयी है।

सही मायने में देखा जाए, तो इन पाँच राज्यों के चुनाव जनता के चुनाव होने चाहिए थे। लेकिन साफ़ दिख रहा है कि साम्प्रदायिक ध्रवीकरण के ज़रिये जनता की सोच हाईजैक करके उसे दिमाग़ में धर्म आधारित ज़हर भरकर जनादेश लेने की कोशिश हो रही है। वरना उत्तर प्रदेश जैसे देश के सबसे बड़े राज्य में महँगाई, बेरोज़गारी, कोरोना में सरकार के काम जैसे मुद्दों पर चुनाव लडऩे से भाजपा न घबरा रही होती। उसे वहाँ अपने धार्मिक एजेंडे को ही आगे करना पड़ रहा है। भले चुनावी सर्वे में इंतज़ाम करके जो दिखाया जा रहा हो, उत्तर प्रदेश की ज़मीनी सच्चाई यह है कि योगी सरकार पर कामकाज के नाम पर फेल रहने, कोरोना को बहुत ख़राब तरीक़े से हैंडल करने और रोज़गार के मुद्दे पर पूरी तरह नाकाम रहने की तोहमत लगायी जा रही है। जनता उनसे काम के मामले में बहुत प्रसन्न नहीं है।

ऊपर से उत्तर प्रदेश के राजपूत मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर एक ही जाति विशेष के लोगों को पोसने और संरक्षण देने होने के गम्भीर आरोप लग रहे हैं। ब्राह्मण यूपी में योगी के कारण भाजपा के सख़्त नाराज़ हैं। दूसरे वर्ग भी ख़ुद को असहाय महसूस कर रहे हैं। मुसलमान तो उसके ख़िलाफ़ हैं ही। योगी शासन के दौरान अपराध इतने हुए हैं कि गिनना मुश्किल। ऊपर से तुर्रा यह कि अपराधियों को संरक्षण देने की आरोप हैं।

ऐसे में भाजपा के लिए 2022 के इस विधानसभा चुनाव में बड़ी दिक़्क़ते हैं। भाजपा ने योगी को लेकर जनता की इस नाराज़गी को समझा है। यह तो उसे पता चल गया है कि सरकार के काम या उसके प्रदर्शन के नाम पर पार्टी को दोबारा सत्ता मिलना मुमकिन नहीं है। लिहाज़ा मन्दिर-मस्जिद, काशी-मथुरा, जिन्ना, हिन्दू-मुस्लिम उसके बड़े नेताओं के भाषणों में मज़बूती से उभर आये हैं।

उत्तर प्रदेश में भाजपा के सबसे मज़बूत और कट्टर विरोधी समाजवादी पार्टी और कांग्रेस भाजपा पर चुनावों को साम्प्रदायिक रूख़ देने के आरोप लगा रहे हैं; लेकिन यूपी जैसे राज्य में उसके लिए भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल बनाना आसान नहीं। बस एक ही रास्ता है कि जनता तो चुनाव तक किसी तरह असली मुद्दों के नज़दीक ले जाया जाए, जैसा कि अखिलेश यादव और प्रियंका गाँधी कर रहे हैं। योगी सरकार के प्रति नाराज़गी यदि जनता के सिर पर हावी हुई, तो ही भाजपा को लेने के देने पड़ सकते हैं; और इसकी सम्भावना को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता। जहाँ तक बसपा और उसकी नेता मायावती की बात है, तो जनता में फ़िलहाल उसकी छवि भाजपा की बी टीम और गुमसुम बैठी पार्टी वाली स्थापित हो गयी है।

उत्तर पूर्व के राज्य माणिपुर में भी चुनाव के अपने गम्भीर मुद्दे हैं। वहाँ जनता में सुरक्षा बलों की कथित ज़्यादतियों को लेकर नाराज़गी और व्यवस्था के प्रति गहरी निराशा है। लोगों का आरोप है कि उत्तर पूर्व के राज्यों में सुरक्षा बलों को अफ्सपा क़ानून (एएफएसपीए क़ानून) के तहत मिले विशेष अधिकारों का दुरुपयोग जनता के दमन के लिए किया जाता है। हर किसी को शक की निगाह से देखा जाता है और किसी को भी पकड़कर उसे विद्रोही बताकर गोली से उड़ा दिया जाता है या उस पर ज़ुल्म किया जाता है।

ऐसे में लोगों के बीच बहुत ज़्यादा ग़ुस्सा है। हाल में उत्तर पूर्व के राज्य नागालैंड में 15 लोगों को सुरक्षा बलों ने महज़ इस आधार पर गोली से उड़ा दिया था; क्योंकि उन्हें इन लोगों पर शक था। बाद में देश के गृह मंत्री अमित शाह को संसद में इसे लेकर सफ़ार्इ देनी पड़ी, जिसमें उन्होंने कहा कि ग़लत पहचान के कारण सुरक्षा बलों ने गोली चलायी, जिससे इन लोगों की जान गयी।

मणिपुर में दो चरणों में चुनाव होने हैं और भाजपा वहाँ इस समय सत्ता में है। वहाँ जनता बहुत ताक़त से राज्य में अफ्सपा क़ानून को लागू नहीं (ख़त्म) करने की माँग कर रही है। लेकिन भाजपा इसके सख़्त ख़िलाफ़ है और चाहती है यह लागू रहे, जबकि एक सच्चाई यह भी है कि उत्तर पूर्व राज्यों के दो मुख्यमंत्री खुले रूप से इस क़ानून के ख़िलाफ़ बोल चुके हैं और हटाने की माँग कर चुके हैं। कांग्रेस वादा कर चुकी है कि सत्ता में आते ही अफस्पा को हटा देगी, ताकि मानवाधिकारों का हनन न हो। चीन की सीमा पर संवेदनशील राज्यों में जनता को मुख्यधारा में बनाये रखने के लिए केंद्र की सरकार को इसका कोई रास्ता निकालना चाहिए था; लेकिन ऐसा हुआ नहीं।

पंजाब में भी स्थिति को साम्प्रदायिक करने की कोशिशों के आरोप लग रहे हैं। किसान आन्दोलन के बाद पंजाब के बहुसंख्यक वर्ग के प्रति एक अलग तरह का अभियान सोशल मीडिया के ज़रिये शुरू हो चुका है, जिसमें उन्हें देश के ख़िलाफ़ दिखाने की गहरी साज़िश हो रही है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी की पंजाब की चुनाव यात्रा के दौरान उनके एक पुल पर फँसने तक को सोशल मीडिया में एक अलग और साम्प्रदायिक तरीक़े से दिखाने की साज़िश हुई है।

यहाँ तक आरोप हैं कि चूँकि पंजाब चुनाव में भाजपा के लिए कोई गुंजाइश नहीं, यूपी चुनाव में लाभ लेने के लिए इस घटना को एक अलग ही तरह का रूप देने की कोशिश हो रही है। ज़ाहिर है ऐसा करके पाकिस्तान से सटे राज्य के एक समुदाय विशेष को निशाने पर रखने की कोशिश भविष्य में बहुत ख़राब नतीजे देने वाली साबित हो सकती है। पंजाब पहले ही दशक तक लम्बे खिंचे आतंकवाद से ग्रस्त रहा है और देश विरोधी शक्तियाँ ऐसे मौक़ों की तलाश में रहती हैं। ज़ाहिर है, असली मुद्दों की जगह साम्प्रदायिक तनाव को बढ़ावा देने की कोशिश हो रही है ताकि चुनाव जीते जा सकें। जनता से जुड़े मुद्दों को इसलिए परदे के पीछे सरकाया जा रहा है, क्योंकि यह सत्ता में बैठे लोगों के लिए कलंक बनकर उभरता है। यह उनकी नाकामी और चुनाव जीतने के लिए किये वादों को पूरा न कर पाने की कमज़ोरी को उजागर करता है। ये मुद्दे सामने रहे, तो उन्हें हार का डर सताता है; लिहाज़ा अप्रासंगिक मुद्दे सामने हैं। ये मुद्दे निश्चित ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की कोशिश के लिए हैं। भाजपा को लगता है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में जैसे पुलवामा के बाद देश में उठी देशभक्ति की लहर उसके लिए वोटों की खान बन गयी थी, वैसा ही अब भी हो सकता है।

महामारी और चुनाव

चुनाव आयोग की चुनौती इस बार बड़ी है; क्योंकि जिस दिन (8 जनवरी की शाम) उसने चुनाव की घोषणा की, देश में उस सुबह तक कोरोना के 1,41,986 नये मामले सामने आये थे और 24 घंटे में 285 लोगों की जान गयी थी। लोगों में कोरोना और ओमिक्रॉन को लेकर दहशत भर रही थी; लेकिन फिर भी चुनाव की घोषणा हुई।

हाँ, चुनाव आयोग ने पिछले एक महीने से लाखों की भीड़ वाली चुनाव जनसभाओं से बचने के लिए 15 फरवरी तक इन पर और नुक्कड़ सभाओं पर रोक लगते हुए सिर्फ़ वर्चुअल (आभासी) चुनाव सभाएँ करने की मंज़ूरी दी।

यह एक अच्छा फ़ैसला था। यह देश के चुनावी इतिहास का भी पहला ऐसा फ़ैसला है, जिसकी सभी राजनीतिक दलों के नेताओं ने प्रशंसा की।

लेकिन सवाल यह है कि इस दौरान जब महामारी के मामले बढ़ेंगे, चुनाव में उलझीं पाँच राज्यों की सरकारें या राजनीतिक दल महामारी पर ध्यान कहाँ दे पाएँगे? चुनाव अपने आप में सरकारी तंत्र के एक बड़े हिस्से को व्यस्त कर देते हैं। चुनाव निपटाने की ज़िम्मेदारियों सरकारी कर्मचारियों पर होती हैं, जिससे निश्चित ही कोरोना से बचाव की तैयारियाँ प्रभावित होंगी। अफ़सरों का एक बड़ा तबक़ा चुनाव में उलझा रहेगा। यही कारण है कि काफ़ी लोग ऐसे संकट के समय में चुनाव करवाने के फ़ैसले पर सवाल भी उठा रहे हैं।

सत्ता में बैठे लोगों को यह लगता है कि चूँकि देश में बड़े पैमाने पर कोरोना बचाव का टीकाकरण हो चुका है, यहाँ अब महामारी से जानी नुक़सान का कोई बड़ा ख़तरा नहीं है, बेशक कोरोना मामलों में तेज़ी भी आ जाए। लेकिन यह उतना सच नहीं। आँकड़े ज़ाहिर करते हैं कि देश में ऐसे हज़ारों लोग अब फिर कोरोना संक्रमित हुए हैं, जो पहले ही कोरोना के दोनों टीके लगवा चुके हैं।

कोई भी ऐसा व्यक्ति किसी पॉजिटिव व्यक्ति के सम्पर्क में आने से संक्रमित हो सकता है। लिहाज़ा चुनाव में इसका ख़तरा सबसे ज़्यादा रहेगा, भले चुनाव सभाएँ न भी हों, क्योंकि राजनीतिक दलों के छोटे समूह मतदाताओं से व्यक्तिगत सम्पर्क किये बिना रह नहीं पाएँगे। वैसे भी यह पाबंदी 15 जनवरी तक है और उसके बाद इस पर स्थिति को देखकर फ़ैसला होना है।

देश में 2021 के मध्य में कोरोना की दूसरी लहर के बाद यह पहले बड़े चुनाव हैं। भले पश्चिम बंगाल के चुनाव भी हुए थे। लेकिन यह अप्रैल में हुए थे, जब दूसरी लहर उफान पर थी। भाजपा को उस चुनाव में हार झेलनी पड़ी थी, लेकिन यह कहना मुश्किल है कि क्या जनता ने देश में उस समय ऑक्सीजन की गम्भीर क़िल्लत और इससे बड़े पैमाने पर हुई मौतों के ख़िलाफ़ जनादेश दिया था! लोगों के ज़हन से वो दौर अभी निकला नहीं है और कोरोना की इस तीसरी लहर के ख़ौफ़ ने उन लम्हों और अपनों को गँवाने वाले लोगों के ज़ख़्मों को फिर हरा कर दिया है। लिहाज़ा इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जनता वोट डालते समय इसे याद रखे।

दिसंबर के आख़िर तक के दूसरी लहर के बाद के पिछले कुछ महीनों में जब कोरोना के कम मामले देश में हुए थे, छोटे धन्धे धीरे-धीरे पटरी पर लौटने लगे थे। हालाँकि मार्च, 2020 के अनियोजित लॉकडाउन के बाद जो करोड़ों लोग बेरोज़गार हुए उनमें से कुछ फ़ीसदी ही दोबारा रोज़गार में वापस लौट पाये हैं। कई छोटे धन्धे हमेशा के लिए बन्द हो गये हैं, और लोगों की जेब में पैसा नहीं है। रोज़गार आज की तारीख़ में एक बड़ा मुद्दा है ऊपर से महँगाई ने जनता की कमर तोड़ रखी है। उधर देश की अर्थ-व्यवस्था का जो बँटाधार इन दो वर्षों में हुआ है, आज तक उसके बेहतर होने के कोई ठोस संकेत नहीं दिखायी दियी हैं।

लोगों में अभी भी बहुत निराशा है और उन्हें लगता है कि केंद्र सरकार इस मोर्चे पर बहुत नाकाम साबित हुई है। कोरोना की नयी लहर के ख़तरे से यह निराशा और गहरा रही है, जिसका चुनाव में वोट देने के ट्रेंड पर असर पड़ सकता है। ऐसा हुआ तो भाजपा को इसका नुक़सान उठाना पड़ेगा। ज़ाहिर है, इस चुनाव के ज़रिये इन पाँच राज्यों की जनता यह मत भी देगी कि क्या वह केंद्र की मोदी सरकार कोरोना लहरों के समय किये इंतज़ामों से सन्तुष्ट रही है, या नहीं?

राजनीतिक दलों की जंग

पाँच राज्यों के यह चुनाव भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती हैं, जो अगले लोकसभा चुनाव से पहले राज्यों को जीतकर अपना सिंहासन बचाये रखना चाहती है। भाजपा के नेताओं से लेकर आम कार्यकर्ता को अभी भी भरोसा है कि पार्टी अकेले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बूते येपाँच चुनाव ही नहीं अगले लोकसभा चुनाव भी फिर से जीतेगी। उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं कि केंद्र सरकार लोगों की अपेक्षाओं पर कितनी खरी उतरी है? वो सिर्फ़ यह मानते हैं कि आज भी मोदी का जादू जनता के सिर चढ़कर बोल रहा है।

मोदी के यह समर्थक यह भी मानते हैं कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व कांग्रेस, ख़ासकर गाँधी परिवार की छवि जनता के बीच ध्वस्त कर चुका है। वो यह गर्व से कहते हैं कि इसमें ग़लत क्या है? दिल्ली में भाजपा के एक नेता ने नाम न छापने की शर्त पर इस संवाददाता से कहा- ‘राजनीति में हर हथकंडा अपनाया जाता है। भाजपा नेतृत्व को कांग्रेस पर हर तरह से आक्रमण करने का अधिकार है। जनता ने हमारे नेताओं की बात पर भरोसा किया न? फिर? बात ख़त्म।‘

लेकिन जो भाजपा ने किया क्या वह सच में स्थायी रूप से जनता के मन में बस गया है? अर्थात् कांग्रेस, ख़ासकर गाँधी परिवार को, बदनाम करने की उसकी मुहिम का जनता पर अभी भी असर है? क्या इस चुनाव में जनता बताएगी कि उसने भाजपा नेताओं के आरोपों पर आँख मूँदकर भरोसा नहीं किया। यह तो चुनाव नतीजों से ही ज़ाहिर होगा।

यदि जनता अब भी कांग्रेस को वोट करती है और कुछ जगह उसे सत्ता में ले आती है, तो यही माना जाएगा कि भाजपा नेतृत्व के उन आरोपों या वर्षों चलायी मुहिम का असर धुलने लगा है। ऐसे में यह तथ्य भाजपा के लिए आने वाले वर्षों में चिन्ता का सबब रहेगा। और यदि कांग्रेस को एक भी राज्य में सत्ता नहीं मिलती, तो यही माना जाएगा कि भाजपा नेतृत्व (या पार्टी रणनीतिकारों) ने देश को कांग्रेस मुक्त करने की, जो मुहिम वर्षों चलाये रखी, उसका असर अभी तक जनता पर है।

राजनीति के जानकार मानते हैं कि भाजपा के नेता चाहे जितना कांग्रेस को कोसें या उसे कमज़ोर बताएँ, वो जानते हैं कि राष्ट्रीय स्तर पर यदि उसके लिए कोई पार्टी ख़तरा बन सकती है, तो वह कांग्रेस ही है। हाल में टीएमसी नेता ममता बनर्जी की तीसरा मोर्चा जमाने की मुहिम इसलिए ज़ोर नहीं पकड़ पायी; क्योंकि उन्होंने कांग्रेस को इससे बाहर रखने की कोशिश की।

देश के तमाम बड़े विपक्षी नेताओं का साफ़ कहना था कि बिना कांग्रेस के मज़बूत विपक्ष की कल्पना नहीं की जा सकती।

भाजपा इन चुनावों में उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण करना चाहती है। पंजाब में उसका तुक्का तीर बन जाए, तो पता नहीं। ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि पंजाब में भाजपा बहुत ख़राब स्थिति में है। उसके साथ जाने का नुक़सान पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह को भी झेलना पड़ सकता है। अकाली दल किसान आन्दोलन के समय हुए अपने नुक़सान की भरपाई की कोशिश में अन्यथा लगता यही है कि मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और आप में होगा।

मणिपुर में कांग्रेस उससे सत्ता छीनने की कोशिश में है, जबकि गोवा में स्थिति बिखरी-सी है। इस तरह भाजपा का सबसे बड़ा दाँव उत्तर प्रदेश पर ही है।

यह चुनाव कांग्रेस के लिए बतौर एक पार्टी और बतौर उसके नेतृत्व बहुत-ही ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। यह चुनाव बताएँगे कि आने वाले महीनों में उसके फिर से खड़ा होने की कितनी गुंजाइश है। उसके लिए कम-से-कम एक या दो राज्य जीतने और उत्तर प्रदेश में उसे पहले से बेहतर प्रदर्शन करना बहुत ज़रूरी है।

उसके पास उत्तराखण्ड, पंजाब, मणिपुर और गोवा में सत्ता में लौटने का समान रूप से अवसर है। उसके चुनाव प्रचार पर निर्भर करेगा कि वह कैसे जनता तक मज़बूती से पहुँच पाती है। उत्तर प्रदेश में पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी ने बहुत ज़ोर लगा रखा है।

इस समय मेघालय के राज्यपाल सत्यपाल मलिक प्रियंका गाँधी की यूपी में मेहनत की तारीफ़ कर चुके हैं। भाजपा से नाराज़ चल रहे वरुण गाँधी भी चर्चा में हैं। क्या यह दोनों कांग्रेस से जुड़कर उत्तर प्रदेश की राजनीति की धारा को अचानक बदल सकते हैं? अभी कहना मुश्किल है। मालिक किसानों ने हक़ में लगातार बोल रहे हैं। उनका उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपना $कद है।

वरुण गाँधी को लेकर कहा जाता है कि वह प्रियंका गाँधी का काफ़ी सम्मान करते हैं और कभी-कभार दोनों में बात भी होती है। वरुण क्या कांग्रेस में आ सकते हैं? यह भी वक़्त ही बताएगा। यदि सत्यपाल मलिक और वरुण गाँधी आये तो कांग्रेस अचानक बड़ी चर्चा में आ जाएगी। ऐसे में मुस्लिम वोट भी कांग्रेस की झोली में टपक सकता है। लेकिन सब चर्चाएँ हैं, होगा क्या यह आने वाले एक पखबाड़े में ही साफ़ होगा? टीएमसी गोवा में दाँव आजमा रही है और मणिपुर में भी। अन्य राज्यों में उसका कोई नाम लेवा नहीं। आप पंजाब में मज़बूत है और उत्तराखण्ड, गोवा में भी कुछ सीटें जीतने की उसकी मंशा है। गोवा और मणिपुर में क्षेत्रीय क्षत्रप भी हैं।

उत्तर प्रदेश

मुख्यमंत्री : योगी आदित्यनाथ (भाजपा)

उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव शायद हाल के वर्षों की सबसे महत्त्वपूर्ण चुनावी लड़ाइयों में से एक है। राज्य के चुनाव नतीजे 2024 के लोकसभा चुनाव पर गहरा प्रभाव डालेंगे। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 325 सीटों के साथ तीन-चौथाई बहुमत हासिल किया था। उस समय पाँच बार के सांसद योगी आदित्यनाथ पहली बार मुख्यमंत्री बने। हिन्दुत्व की राजनीति के मज़बूत पैरोकार योगी को आज भाजपा में उनके समर्थक भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं। चुनाव में भाजपा के अलावा समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा प्रमुख दावेदार हैं।

 

पंजाब

मुख्यमंत्री : चरणजीत सिंह चन्नी (कांग्रेस)

पंजाब की राजनीति के पिछले कुछ महीने बहुत उथल-पुथल भरे रहे हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस अभी भी भीतरी उठापटक से पीडि़त है। लेकिन इसके बावजूद सत्ता की दौड़ में वह मज़बूत दिख रही है। उसका मुख्य मुक़ाबला फ़िलहाल आम आदमी पार्टी (आप) से दिख रहा है, जबकि कई बार सत्ता में रहा अकाली दल, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टेन अमरिंदर सिंह की पंजाब लोक कांग्रेस और भाजपा भी मैदान में डटे हैं। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, प्रचार समिति के अध्यक्ष सुनील जाखड़ और मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के बीच मतभेदों की बातें सामने आती रहती हैं; लेकिन इसके बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि कांग्रेस को हारने के लिए आप सहित अन्य दलों को काफ़ी मेहनत करनी होगी। सन् 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने 77 सीटें जीतकर राज्य में पूर्ण बहुमत हासिल किया था, जबकि आम आदमी पार्टी 20 सीटें जीतकर दूसरे नंबर पर रही थी। अकाली दल को 15, जबकि भाजपा को सिर्फ़ तीन सीटें मिली थीं।

 

उत्तराखण्ड

मुख्यमंत्री: पुष्कर सिंह धामी (भाजपा)

सन् 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने हरीश रावत के नेतृत्व में चुनाव लड़ा; लेकिन ख़ुद रावत और कांग्रेस चुनाव हार गये। हालाँकि हाल के महीनों में भाजपा ने जिस तरह मुख्यमंत्री बदले हैं, उस से उसकी छवि को धक्का लगा है। उस चुनाव में भाजपा ने 57 सीटों पर जीत हासिल की और कांग्रेस 11 सीटों पर सिमट गयी। त्रिवेंद्र सिंह रावत ने 9 मार्च, 2021 को इस्ती$फा दे दिया। उनके बाद मुख्यमंत्री बने तीरथ सिंह रावत भी थोड़े समय बाद चलते बने। धामी के नेतृत्व में अब भाजपा कांग्रेस की तरफ़ से मिल रही चुनौती को झेल रही है। यहाँ ‘आप’ भी मैदान में है।

 

मणिपुर

मुख्यमंत्री : एन बीरेन सिंह (भाजपा)

मणिपुर में भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए सत्ता में है। वह सत्ता दोहराना चाहती है। लेकिन इस बार ममता बनर्जी की टीएमसी भी मैदान में आ डटी है। कांग्रेस पहले से ही मैदान में है और भाजपा को कड़ी टक्कर देकर सत्ता से बाहर करना चाहती है, पिछली बार वह भाजपा से आगे थी। कुछ स्थानीय दल भी मैदान में हैं।

 

गोवा

मुख्यमंत्री : प्रमोद सावंत (भाजपा)

गोवा में इस बार चुनावी जंग बड़ी कड़ी दिख रही है। भाजपा, कांग्रेस, टीएमसी के अलावा स्थानीय दल मैदान में हैं। सन् 2017 में भाजपा ने मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में सरकार बनायी थी। पर्रिकर के मार्च 2019 में निधन के बाद प्रमोद सावंत मुख्यमंत्री बने।

 

चुनाव की तारीख़ें

उत्‍तर प्रदेश में पहले चरण का मतदान 10 फरवरी को, दूसरे चरण का 14 फरवरी को,   तीसरे चरण का 20 फरवरी को, चौथे चरण का 23 फरवरी को, पाँचवें चरण का 27 फरवरी को, छठे चरण का 3 मार्च को और सातवें चरण का मतदान 7 मार्च को होगा। मणिपुर में पहले चरण का मतदान 27 फरवरी को और दूसरे चरण के लिए 3 मार्च को होगा। उत्तराखण्ड, पंजाब और गोवा में मतदान एक ही चरण में 14 फरवरी को होगा। सभी राज्‍यों के नतीजे 10 मार्च को घोषित किये जाएँगे।

 

प्रधानमंत्री की सुरक्षा और राजनीति

‘अपने सीएम को थैंक्स कहना कि मैं बठिंडा हवाई अड्डे तक ज़िन्दा लौट पाया।‘ यह  शब्द प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के थे, जो उन्होंने 5 जनवरी को बठिंडा हवाई अड्डे पर पंजाब पुलिस अधिकारियों से कहे। उस समय तक उनके हुसैनीवाला के पास लोगों के विरोध के चलते एक पुल (फ्लाईओवर) पर 15 मिनट तक फँसे रहने के मामले को सुरक्षा में लापरवाही ही माना जा रहा था। लेकिन जैसे ही प्रधानमंत्री मोदी ने पंजाब सरकार के अधिकारियों से ये शब्द कहे, ख़बरों की सुर्ख़ियाँ बन गये, और इस पर जमकर राजनीति शुरू हो गयी। वैसे अब इस मामले की जाँच के सर्वोच्च न्यायालय ने सेवानिवृत्त जज इन्दु मल्होत्रा के नेतृत्व में एक जाँच समिति को सौंप दिया है। इसमें राष्ट्रीय जाँच एजेंसी के डीजी और इंटेलिजेंस ब्यूरो की पंजाब यूनिट के एडिशनल डीजी भी शामिल हैं।

प्रधानमंत्री मोदी पुल पर तब फँसे, जब उन्होंने फ़िरोज़पुर में भाजपा की चुनाव रैली में अचानक सड़क मार्ग से जाने का फ़ैसला किया, जबकि पहले हवाई यात्रा से जाने की सरकारी स्तर पर जानकारी थी। प्रधानमंत्री की अधिकारियों से कही इस बात के बाद यह मामला पूरी तरह राजनीतिक हो गया। इसमें कोई दो-राय नहीं कि प्रधानमंत्री या किसी भी व्यक्ति की सुरक्षा अहम है और इस पर कोई समझौता नहीं होना चाहिए। वैसे पुल पर जहाँ प्रधानमंत्री का क़ाफ़िला रुका, वहाँ से प्रदर्शनकारी काफ़ी दूर थे। लेकिन भाजपा के नेताओं का आरोप था कि प्रधानमंत्री का क़ाफ़िला जानबूझकर रुकवाया गया, ताकि उनकी सुरक्षा ख़तरे में डाली जा सके। एक-दो ने तो सीधे कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी पर ही आरोप जड़ दिया। कुछ ने कहा कि पाकिस्तान की सीमा पास है, लिहाज़ा ऐसा किसी षड्यंत्र के तहत किया गया।

हालाँकि भाजपा नेताओं बयानों से साफ़ दिखा कि भाजपा इस मसले पर प्रधानमंत्री की सुरक्षा की चिन्ता कम और राजनीति ज़्यादा कर रही है। जिसे ही मामला सामने आया केंद्रीय गृह मंत्रालय ने इसे इसे प्रधानमंत्री की सुरक्षा में गम्भीर चूक बताते हुए पंजाब सरकार से इस पूरे मामले में रिपोर्ट तलब की। मुख्यमंत्री चन्नी ने अधिकारियों के साथ बैठक कर उनसे घटना की पूरी जानकारी ली और एक बयान दिया कि सरकार प्रधानमंत्री की सुरक्षा की पूरी चिन्ता करती है; लेकिन साथ ही यह भी कहा कि प्रधानमंत्री का सड़क के रास्ते जाने का फ़ैसला अचानक आया। पंजाब सरकार ने भी मामले लिए एक समिति गठित कर दी। लेकिन बाद में सर्वोच्च न्यायालय ने मामले में दख़ल देते हुए ख़ुद की समिति बनाने का आदेश दिया।

इस सारे मामले को देखा जाए, तो इसमें सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल के गम्भीर क़िस्म के अभाव का पता चलता है। अति विशिष्ट व्यक्ति (वीवीआईपी) सुरक्षा के लिए जो एजेंसियाँ ज़िम्मेदार होती हैं, उनमें बहुत सघन समन्वय की ज़रूरत रहती है। लेकिन प्रधानमंत्री के एक पुल पर फँसने पर यह समन्वय पूरी छिन्न-भिन्न दिखा।

इसके बाद स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप (एसपीजी) ने वायुसेना एयरबेस की ओर लौटने का निर्णय किया। यह बहुत हैरानी की बात है कि देश में ऐसे मामलों में ज़िम्मेदारी और जवाबदेही तय करने के लिए कोई क़ानूनी प्रावधान नहीं है।

‘तहलका’ की जुटाई जानकारी के मुताबिक, एसपीजी अधिनियम में ऐसी चूक करने वाले अधिकारियों के ख़िलाफ़ किसी भी दंडात्मक कार्रवाई का प्रावधान ही नहीं है। प्रधानमंत्री की सुरक्षा ब्लू बुक (एसपीजी इसी के तहत काम करती है) से निर्धारित होती है। हाँ, यह ज़रूर कि प्रधानमंत्री के दौरों के दौरान सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सम्बन्धित राज्य सरकार की होती है। विशेषज्ञों के मुताबिक, प्रधानमंत्री को अचानक सड़क के रास्ते 100 किलोमीटर ले जाने का फ़ैसला ही ग़लत था। उनके सुरक्षा के लिए ज़िम्मेदार एसपीजी को ही ऐसा नहीं करने देना चाहिए था। प्रधानमंत्री की सुरक्षा से जुड़े लोगों की यह भी बड़ी चूक थी कि दूसरी चूक उस उन्हें उस रास्ते से ले जाने का फ़ैसला किया गया, जिसमें एक ऐसा पुल था; जिसे प्रदर्शनकारियों ने बन्द किया हुआ था। नियमों के मुताबिक, प्रधानमंत्री के दौरों के दौरान किसी भी तरह की सुरक्षा लापरवाही आदि होने की सूरत में केंद्रीय गृह मंत्रालय दोषी / आरोपी कर्मियों के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई के लिए सम्बन्धित राज्य (या यूटी) को एक परामर्श भेजता है। इसमें राज्य सरकार से दोषी/आरोपी अधिकारियों के ख़िलाफ़ अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफ़ारिश होती है। जब एसपीजी कर्मी लापरवाही का ज़िम्मेदार पाया जाता है, उसके ख़िलाफ़ उचित अनुशासनात्मक कार्रवाई की सिफ़ारिश के अलावा उसे उसके मूल संगठन में वापस भेजने का प्रावधान है।

 

सर्वोच्च न्यायालय की समिति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सुरक्षा में सेंध के मामले में जाँच सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्रीय गृह मंत्रालय और पंजाब सरकार की जाँच समितियों को नकारते हुए सेवानिवृत्त जज की अगुवाई में समिति का गठन कर दिया। सर्वोच्च अदालत ने इस समिति में डीजी एनआईए और आईबी के पंजाब के एडीजी शामिल हैं। प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना की अगुवाई वाली सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने इस मामले की सुनवाई के दौरान सभी पक्षों की दलीलें सुनने के बाद समिति के गठन निर्देश दिया।

सुनवाई के दौरान इस मामले में याचिकाकर्ता, जो सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता (सीनियर एडवोकेट) भी हैं; ने रजिस्ट्रार जनरल की रिपोर्ट सौंपने की उम्मीद जतायी। इस पर प्रधान न्यायाधीश एन.वी. रमना ने कहा कि हमें रात 10 बजे कंप्लायंस (अनुपालन) रिपोर्ट मिली है। इसके बाद याचिकाकर्ता ने कहा कि तब हम इस पर परसों बहस कर सकते हैं। इस पर प्रधान न्यायाधीश ने सवाल किया कि राज्य (पंजाब) के महाधिवक्ता (एडवोकेट जनरल) कहाँ हैं?

वरिष्ठ अधिवक्ता डी.एस. पटवालिया ने कहा कि रजिस्ट्रार जनरल ने इन रिकॉड्र्स को रिकॉर्ड पर रख लिया है। जहाँ तक बात जज के ख़िलाफ़ आरोपों की है, तो सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले में ऐसा कुछ भी नहीं है। लगता है कि कुछ राजनीति हुई है। एसएसपी को सात कारण बताओ नोटिस जारी कर पूछा गया है कि आख़िर उन पर कार्रवाई क्यों नहीं की जानी चाहिए। मुझे पक्ष रखने का मौक़ा नहीं दिया गया। जब कार्यवाही रोक दी गयी, तो फिर ये कारण बताओ नोटिस कहाँ से आ गये।

मुझे तो केंद्र सरकार की जाँच समिति से न्याय नहीं मिलेगा। मामले की स्वतंत्र जाँच की ज़रूरत है। इस पर सीजेआई ने कहा कि कारण बताओ नोटिस में क्या लिखा है? पढि़ए। याचिकाकर्ता पटवालिया ने कहा कि पंजाब के मुख्य सचिव के नाम जारी कारण बताओ नोटिस में कहा गया है कि एसपीजी एक्ट के तहत दी गयी ज़िम्मेदारी का पहली नज़र में पालन होता नहीं दिखा है और बेरोक-टोक वीवीआईपी ट्रेवल की व्यवस्था नहीं की गयी। कारण बताओ नोटिस में हमारे ख़िलाफ़ हर चीज़ का अंदाज़ा लगाया गया है। मुझे नहीं लगता है कि निष्पक्ष सुनवाई होगी। निष्पक्ष जाँच की ज़रूरत है।

केंद्र सरकार की तरफ़ से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय के आदेश से पहले ये नोटिस जारी किये गये थे। हमें आपको वह क़ानून बताना है जिसके अन्दर नोटिस जारी किया गया था। देखिए यहाँ कुछ ग़लत फ़हमियाँ पैदा हुई हैं। कृपया एसपीजी एक्ट के तहत सुरक्षा की परिभाषा को देखिए। इसका मतलब है कि एसपीजी सिर्फ़ नज़दीकी सुरक्षा करेगा। अब बताइए कि डीजी की क्या भूमिका है। प्रोसीजर के लिए एक ब्लू बुक है।‘

एसजी ने कहा कि प्रधानमंत्री का क़ाफ़िला आन्दोलन स्थल से 100 मीटर दूर पहुँचा। ब्लू बुक के मुताबिक, अधिकारियों की ज़िम्मेदारी है कि वो नियमों का कड़ाई से पालन कराएँ और राज्य सरकार का दायित्व है कि वो अधिकारियों को निर्देश दे, ताकि कम-से-कम असुविधा हो। पर्याप्त सुरक्षा बल की तैनाती करके भीड़ को पूरी तरह नियंत्रित किया जाना चाहिए था।

प्रधानमंत्री के क़ाफ़िले को नहीं बताया गया कि मौक़े पर भीड़ इकट्ठी हो रही है। अगर ख़तरे की आशंका थी, तो प्रधानमंत्री को तुरन्त वहाँ से हटाया जाना चाहिए था। यह पूरी तरह इंटेलिजेंस फेल्योर का मामला है। कुछ मामलों में डीजी और सीएस प्रधानमंत्री के साथ ट्रेवल करते हैं, ताकि कम्यूनिकेशन सिस्टम में कोई बाधा नहीं आये और सुनिश्चित किया जाता है कि सड़क पूरी तरह साफ़ हो। अगर सड़क कहीं भी जाम हो, तो गाडिय़ाँ 4-5 किमी पहले ही रोक दी जाती हैं। इतना तो तय है कि राज्य जिन मामलों में अपना बचाव कर रही है, वो काफ़ी गम्भीर हैं। केंद्र सरकार की जाँच समिति पता करेगी कि गड़बड़ी कहाँ हुई?

उन्होंने कहा कि प्रधानमंत्री हेलिकॉप्टर से नहीं, बल्कि गाडिय़ों से जाएँगे, यह फ़ैसला अचानक नहीं किया गया था। एसपीजी ने डीजीपी से बात की थी और उनसे पूछा था कि क्या रास्ता साफ़ है? ये सब बातें राज्य की पुलिस भी स्वीकार कर रही है। सुनवाई तो इस बात की हो रही है कि मामले में क्या अनुशासनिक कार्रवाई होनी चाहिए? इसके बाद पीठ में शामिल जज आपसे में बात करते हैं। जस्टिस सूर्यकांत सॉलिसिटर जनरल से कहते हैं कि केंद्र सरकार की तरफ़ से जारी कारण बताओ नोटिस अपने आम आदमी पार्टी में विरोधाभासी है। समिति गठित करके आप जाँच करवाना चाहते हैं कि क्या एसपीजी एक्ट का उल्लंघन हुआ है। दूसरी तरफ़ आप चीफ सेक्रेटरी और डीजीपी को दोषी भी बता देते हैं। उन्हें किसने दोषी बताया?

प्रधान न्यायाधीश ने कहा कि अगर आप पंजाब पुलिस के ख़िलाफ़ कार्रवाई करना चाहते हैं, तो न्यायालय के लिए बचा क्या है? एसजी ने कहा कि इसमें पंजाब फ़ैसला नहीं ले सकता है। समिति के सदस्यों को जाँच करने दीजिए, जो तीन सप्ताह में रिपोर्ट देंगे। सीजेआई ने कहा कि अगर मुख्य मुद्दा किसी-न-किसी पर दोषारोपण करना हो, तो हम क्या कर सकते हैं? कृपया ऐसा दिखावा मत कीजिए, जैसे कि हम इस मामले में गम्भीर नहीं हैं। एसजी ने कहा कि मेरे पास एक सुझाव है। अगर न्यायालय को लगता है कि कारण बताओ नोटिस पूर्वाग्रहों पर आधारित हैं; तो केंद्र सरकार की जाँच समिति इसकी जाँच करेगी और न्यायालय को रिपोर्ट करेगी। तब तक नोटिस के आधार पर कोई कार्रवाई नहीं करेगी। मुझे लगता है कि यह सही रहेगा। पटियावाला ने कहा कि स्वतंत्र जाँच समिति का गठन किया जाना चाहिए। मुझे केंद्र सरकार की जाँच समिति से कोई उम्मीद नहीं है। हम कौन-सा चेहरा लेकर उस समिति के सामने जाएँगे?

इसके बाद सीजेआई ने पीठ के साथी जजों के साथ बातचीत करने के बाद कहा कि एक सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त जज जाँच समिति की अगुवाई करेंगे। एनआईए के डीजी और पंजाब के एडिशनल डीजी इंटेलिजेंस ब्यूरो इसका हिस्सा होंगे। अब सर्वोच्च न्यायालय की बनायी समिति इस मामले की जाँच कर रही है।

चुनाव आयोग की पाबंदियाँ

चुनाव आयोग ने चुनाव के लिए ये दिशा-निर्देश जारी किये हैं। इनके मुताबिक, 15 जनवरी तक कोई रोड शो, पदयात्रा, साइकिल या बाइक रैली नहीं होगी। कोई फिजिकल रैली नहीं होगी। रात

8:00 बजे से सुबह 8:00 बजे तक कोई पब्लिक मीटिंग या रैली नहीं होगी और ‘कैंपेन कफ्र्यू’ (अभियान निषेध) रहेगा। कोई नुक्कड़ सभा नहीं होगी। विजय रैली नहीं निकाली जाएगी। विजेता के साथ दो से ज़्यादा लोग प्रमाण-पत्र (सर्टिफिकेट) लेने के लिए निर्वाचन अधिकारी (रिटर्निंग ऑफिसर) के पास नहीं जा पाएँगे। सभी राजनीतिक पार्टियाँ और उम्मीदवार वर्चुअल कैंपेन करेंगे। कोरोना दिशा-निर्देश का पालन करके ही मीटिंग कर पाएँगे। एसडीएम की ओर से जारी आदेश के अनुसार ही मीटिंग करनी होगी। इसमें मास्क और सैनिटाइजर का वितरण गेट पर ही करना होगा। घर-घर प्रचार के लिए अधिकतम 5 लोग ही जा पाएँगे। सभी पार्टियों के प्रत्याशियों को सुविधा ऐप पर शपथ पत्र देना होगा कि वे सभी कोरोना नियमों का पालन कर रहे हैं। कोरोना दिशा-निर्देश का उल्लंघन करने पर कड़ी कार्रवाई होगी। कोरोना दिशा-निर्देश का उल्लंघन हुआ, तो चुनाव आयोग राजनीतिक दलों की रैलियों को रद्द कर सकता है। उत्तर प्रदेश, पंजाब और उत्तराखण्ड में प्रत्याशी-ख़र्च की सीमा बढ़ाकर 40 लाख रुपये और मणिपुर और गोवा में 28 लाख रुपये कर दी गयी है।

 

उत्तर प्रदेशकुल सीटें : 403

 कुल मतदाता : 15,02,84,005

 पुरुष : 8,04,52,736

 महिला     : 6,98,22,416

 थर्ड जेंडर   : 8,853

 नये मतदाता : 52,80,882

 पुराने नाम हटे     : 21.40 लाख

 मतदान केंद्र : 1,74,351

 

पंजाबकुल सीटें : 117

 कुल मतदाता : 2,12,75,066

 पुरुष       : 1,11,87,857

 महिलाएँ    : 1,00,86,514

 मतदाता (अन्य)    : 695

 80 वर्ष से अधिक   : 5,13,229

 दिव्यांग    : 1,44,667

 सेवा मतदाता      : 1,10,163

 एनआरआई  : 1,601

 मतदान केंद्र : 24,689

 

उत्तराखण्डकुल सीटें : 70

 कुल मतदाता : 81,43,922

 पुरुष : 42,24,288

 महिला     : 39,19,334

 80 प्लस    : 1,58,742

 दिव्यांग मतदाता   : 68,478

 सेवा मतदाता      : 94,265

 मतदान केंद्र : 11,647

भाजपा में लगी इस्तीफ़ों की झड़ी

उत्तर प्रदेश में दोबारा सरकार बनाने के दावों के बीच दर्ज़न भर से ज़्यादा

मंत्रियों-विधायकों के इस्तीफ़ों से भाजपा को बड़ा झटका

स्वामी प्रसाद मौर्य ने उत्तर प्रदेश में भाजपा की नींद उड़ा दी है। उन्होंने 11 जनवरी की ठंडी दोपहरी में जब सपा प्रमुख अखिलेश यादव से मुलाक़ात की तस्वीर अपने ट्वीटर हैंडल पर डाली और योगी सरकार के मंत्री के रूप में इस्तीफ़ा देने की घोषणा की, तो भाजपा ख़ेमे को पार्टी और मंत्री पद से उनके इस्तीफ़े के बड़े नुक़सान का अहसास तक नहीं था। लेकिन जैसे ही मौर्य ने लिखा- ‘भाजपा को आने वाले दिनों में बड़े झटके लगने वाले हैं।‘ लखनऊ से लेकर दिल्ली तक भाजपा ख़ेमे में हड़कम्प मच गया।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव पर ख़ास नज़र रखे भाजपा के चाणक्य और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इस घटनाक्रम की जानकारी मिलते ही उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य और अन्य नेताओं से सम्पर्क साधा और उन्हें निर्देश दिया कि किसी भी तरह से और इस्तीफ़े न होने दें। लेकिन उत्तर प्रदेश में पार्टी के नेता कुछ नहीं कर सके और एक दर्ज़न से ज़्यादा विधायकों को पार्टी से बाहर जाने से नहीं रोक पाये।

विधानसभा चुनाव से पहले ‘संगठित और एकजुट’ और ‘पूरे बहुमत वाली सरकार’ बनाने का दावा कर रही भाजपा की इस घटनाक्रम ने हवा सरका दी है। इससे यह साफ़ ज़ाहिर हो गया है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ख़िलाप़ मंत्रियों और विधायकों में बड़े पैमाने पर नाराज़गी और ग़ुस्सा है। इन इस्तीफ़ों ने भाजपा को अचानक अर्श से फर्श पर ला पटका है। उत्तर प्रदेश से बाहर के उन राज्यों में भी इसका भाजपा के ख़िलाफ़ सन्देश गया है जहाँ विधानसभा चुनाव होने जा रहे हैं। राजनीतिक गलियारों में यह ख़बर पहले ही सुलगती रही है कि भाजपा में नेतृत्व के कुछ लोग योगी से ज़्यादा ख़ुश नहीं हैं और उन्हें दोबारा मुख्यमंत्री बनते नहीं देखना चाहते।

उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत अहम राज्य में चुनाव से ठीक पहले भाजपा के इस बिखराव ने समाजवादी पार्टी पार्टी (सपा) की सत्ता हासिल करने की उम्मीदों को पंख लगा दिये हैं। भाजपा को पहले से मज़बूत चुनौती देती दिख रही सपा के अलावा प्रियंका गाँधी की कांग्रेस भी भाजपा के बिखराब का लाभ ले सकती है। गाँधी ब्राह्मण, ओबीसी और पिछड़े वर्गों को कांग्रेस के साथ जोड़ पायीं, तो कांग्रेस की स्थिति में आश्चर्यजनक सुधार हो सकता है।

भाजपा को उत्तर प्रदेश में मंत्रियों और विधायकों के इस्तीफ़ों से सबसे बड़ा झटका यह कि यह इस्तीफ़े पिछड़ी और ओवीसी जातियों के नेताओं के हैं, जिन्हें भाजपा पिछले छ: महीने से साधना चाह रही है। पिछले साल के आख़िर में भाजपा ने केंद्रीय मंत्रिमंडल में इन वर्गों के एक दर्ज़न मंत्रियों को जगह देकर उनके प्रति अपना प्रेम दिखाने की कोशिश की थी। लेकिन अब जबकि इन वर्गों के ही मंत्रियों और विधायकों ने इस्तीफ़े दिये हैं, तो भाजपा के पाँव तले की ज़मीन सरक गयी है।

वैसे भाजपा ने भी इसकी भरपाई करने की कोशिश की। उसने ख़ुद को फ़ज़ीहत से बचाने के लिए कांग्रेस विधायक नरेश सैनी और सपा के विधायक हरिओम यादव को दलबदल करवा दिया। हरिओम यादव मुलायम सिंह यादव के रिश्तेदार हैं। लेकिन इसके बावजूद भाजपा में यह रिपोर्ट लिखे जाने तक बग़ावत जारी थी।

भाजपा के लिए विधायकों और मंत्रियों का जाना इतना चौंकाने वाला था कि उसे 13 जनवरी को दिल्ली में पार्टी की कोर कमेटी (अंतर्भाग समिति) की बैठक करनी पड़ी। इसमें चुनाव के लिए उम्मीदवारों का चयन भी चर्चा में रहा; लेकिन बैठक में बड़े नेता इस बग़ावत से काफ़ी चिन्तित दिखे। यह माना जाता है कि स्वामी प्रसाद मौर्य और दूसरे मंत्रियों-विधायकों के इस्तीफ़े के बाद भाजपा को उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अपनी रणनीति में बदलाव करना पड़ा।

मौर्य के इस्तीफ़े की ख़बर आते ही अमित शाह ने मुख्यंमत्री योगी आदित्यनाथ और अन्य नेताओं के साथ लम्बी चर्चा की। जानकारी के मुताबिक, उन्हें सख़्त हिदायत दी गयी कि किसी भी सूरत में इन लोगों को पार्टी में रोका जाए। लेकिन किसी को इसमें सफलता नहीं मिली। उधर भाजपा में टिकटों को लेकर भी जंग है। कुछ अपने रिश्तेदारों को टिकट चाहते हैं, पार्टी इसे लेकर दुविधा में है।

हाल के वर्षों के विपरीत भाजपा को उत्तर प्रदेश में इस बार टिकटों के मामले में विधायकों के आगे काफ़ी हद तक समर्पण करना पड़ा है। कई को मनाने के लिए दिल्ली में वरिष्ठ नेताओं को कसरत करनी पड़ी। जो नहीं माने, वो बग़ावत करके पार्टी छोड़कर चले गये। पार्टी पहले बड़े पैमाने पर विधायकों के टिकट काटने की तैयारी में थी। बाद में उसे समीक्षा करनी पड़ी और यह संख्या बहुत कम रह गयी। मौर्य के साथ जा सकने की सम्भावना वाले विधायकों को सकने वाले विधायकों और दिल्ली से बड़े नेताओं को फोन करके उनकी चिरोरी करनी पड़ी।

उत्तर प्रदेश में जो कुछ हुआ, उससे भाजपा के राजनीतिक और चुनाव प्रबन्धन की भी पोल खुल गयी। भाजपा हाल के वर्षों में अपने इस प्रबन्धन पर गर्व करती रही है। भाजपा के प्रबन्धन की यह तक हालत हुई कि उसने मंत्री दारासिंह चौहान को चार्टर प्लेन भेजकर दिल्ली में बातचीत के लिए दिल्ली बुलाया; लेकिन उन्होंने भी इस्तीफ़ा दे दिया। भाजपा के चुनाव और राजनीतिक प्रबन्धन में ऐसी ही दरारें बंगाल विधानसभा चुनाव से पहले और नतीजे आने के बाद भी दिखी थीं। उत्तर प्रदेश में तो यह राजनीतिक रूप से इसलिए ज़्यादा घातक साबित हो सकती हैं, क्योंकि वहाँ भाजपा जिस ओबीसी और पिछड़े वर्ग पर सबसे ज़्यादा ध्यान दे रही थी, उसी समुदाय के मंत्री-विधायक इतनी बड़ी संख्या में उसका साथ छोड़कर चले गये। निश्चित ही इस्तीफ़ों वाले इस राजनीतिक घटनाक्रम से चुनाव से ऐन पहले भाजपा के लिए माहौल ख़राब हुआ है। बसपा की तर्ज पर वह जिस नयी तरह की सोशल इंजीनियरिंग को आगे करके चुनाव जीतना चाह रही थी। इसमें फ़िलहाल पार्टी को झटका लगा है, जिसका उसे बड़ा नुकसान कर सकता है।

यह माना जा रहा है कि चूँकि उत्तर प्रदेश में भाजपा का वोट बैंक ग़ैर-यादव पिछड़ा वर्ग है, लिहाज़ा सपा उसमें सेंध लगाने की कोशिश में है। भाजपा को जब तक पता चलता, तब तक स्वामी प्रसाद मौर्य की मार्फ़त सपा खेल कर चुकी थी। उनसे पहले भाजपा से संवादहीनता के चलते नाराज़ ओमप्रकाश राजभर भी सपा के साथ चले गये थे। सपा ने ओबीसी-पिछड़ा वर्ग की अपनी रणनीति के ही तहत बसपा के भी काफ़ी ग़ैर-यादव नेताओं को हाल में फोड़ा है। इस तरह सपा ने अपने जातिगत समीकरण मज़बूत करने के लिए काफ़ी चतुराई से रणनीति बुनी है।

हाल के दशकों में भाजपा के लिए यह पहला ऐसा चुनाव है, जिसमें उसके दिग्गज ओबीसी नेता कल्याण नहीं होंगे। उनका पिछले साल अगस्त में निधन हो गया था। ऐसे में भाजपा के लिए ओबीसी मतदाता को साधना वैसे ही मुश्किल बना हुआ है। अब ओबीसी मंत्रियों-विधायकों के इस्तीफ़ों ने उसकी नींद हराम कर दी है।

इस्तीफ़ों का असर

श्रम मंत्री स्वामी प्रसाद मौर्य के भाजपा का दामन छडऩे के 24 घंटे के भीतर वन मंत्री दारा सिंह चौहान भी पार्टी को ठेंगा दिखा गये। ओबीसी समुदाय से आने वाले दोनों ही नेता समाजवादी पार्टी से जुड़ गये। अब सपा और भाजपा के बीच ओबीसी मतों को लेकर जंग खुले रूप से शुरू गयी है। याद रहे 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ग़ैर-यादव ओबीसी जातियों जैसे कुर्मी, मौर्य, शाक्य, सैनी, कुशवाहा, राजभर और निषाद नेताओं को अपने पाले में लाकर सपा की कमर तोड़ दी थी। अब इसी समुदाय के विधायक भाजपा का साथ छोड़कर सपा में जा रहे हैं।

भाजपा ने उत्तर प्रदेश में बनी इस आम धारणा कि सपा राज में सिर्फ़ यादवों को सरकारी संसाधनों का लाभ मिला, भाजपा ने ग़ैर-यादव पिछड़ी जाति के नेताओं की नाराज़गी को हवा देकर उन्हें अपने साथ जोड़ा। याद रहे उस समय सपा और बसपा के कई बड़े ओबीसी नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, आर.के. सिंह पटेल, एसपी सिंह बघेल, दारा सिंह चौहान, धर्म सिंह सैनी, ब्रिजेश, कुमार वर्मा, रोशन लाल वर्मा और रमेश कुशवाहा भाजपा में चले गये थे। इससे भाजपा को 2017 के विधानसभा चुनाव में बम्पर जीत हासिल करने में बड़ी मदद मिली। जिन्हें विधायक नहीं बनाया जा सका उन्हें भाजपा ने विधान परिषद् की खिड़की से सत्ता या संगठन में हिस्सेदारी दी।

सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 403 में से 312 सीटें मिली थीं। उसके सहयोगियों अपना दल और सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी (सुभासपा) को क्रमश: 9 और 4 सीटें मिलीं। हालाँकि सिर्फ़ दो साल बाद ही सन् 2019 लोकसभा चुनाव के बाद सुभासपा ने भाजपा से नाता और गठबन्धन तोड़ लिया। अब 2022 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव भाजपा की 2017 वाली रणनीति अपनाते दिख रहे हैं। सम्भवता अखिलेश यादवों के अपने साथ होने की गारंटी मानते हुए ग़ैर-यादव को अपने साथ जोडऩे की $कवायद कर रहे हैं। अखिलेश बसपा के नेताओं को पहले ही बड़ी संख्या में साथ जोड़ चुके हैं।

इनमें कुशवाहा, लालजी वर्मा, रामाचल राजभर, के.के. सचान, वीर सिंह और राम प्रसाद चौधरी के नाम प्रमुख हैं। अब बसपा से पहले भाजपा में गये स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान, रोशन लाल वर्मा, विजय पाल, ब्रजेश कुमार प्रजापति और भगवती सागर जैसे नेताओं को अखिलेश साथ लाने में सफल रहे हैं। रिपोर्ट लिखे जाने तक भाजपा छोड़कर सपा में जाने वाले नेताओं की संख्या डेढ़ दर्ज़न के क़रीब हो चुकी थी। ओबीसी विधायकों के टूटने से होने वाले नुक़सान से भाजपा वाक़िफ़ है।

भाजपा छोड़ चुके विधायक

1              स्वामी प्रसाद मौर्य

2              भगवती सागर

3              रोशनलाल वर्मा

4              विनय शाक्य

5              अवतार सिंह भाड़ाना

6              दारा सिंह चौहान

7              बृजेश प्रजापति

8              मुकेश वर्मा

9              राकेश राठौर

10           जय चौबे

11           माधुरी वर्मा

12           आर.के. शर्मा

13           बाला अवस्थी

14           धर्म सिंह सैनी

“योगी सरकार ने पाँच साल के कार्यकाल के दौरान दलित, पिछड़ों और अल्पसंख्यक समुदाय के नेताओं और जनप्रतिनिधियों को कोई तवज्जो नहीं दी। उन्हें उचित सम्मान नहीं दिया गया। योगी सरकार में दलितों, पिछड़ों, किसानों, बेरोज़गार नौजवानों और छोटे-लघु और मध्यम श्रेणी के व्यापारियों की घोर उपेक्षा हुई है।”

मुकेश वर्मा

(भाजपा छोडऩे वाले विधायक)

अशोका विश्वविद्यालय घोटाले से शिक्षा तंत्र शर्मसार

सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार की जड़े इस क़दर फैली हैं कि आये दिन इसे लेकर ख़ुलासे होते रहते हैं। लेकिन निजी तंत्र (प्राइवेट सिस्टम) में जब भ्रष्टाचार का ख़ुलासा होता है, तो लोग भौचक्के रह जाते हैं। ऐसा ही मामला दिल्ली से सटे हरियाणा के सोनीपत में अशोका विश्वविद्यालय में सामने आया है। विश्वविद्यालय के संस्थापक प्रणव गुप्ता और विनय गुप्ता ने सेन्ट्रल बैंक ऑफ इंडिया तथा अन्य बैंकों के साथ 1,626 करोड़ रुपये से अधिक का घोटाला किया है। इस घोटाले का पता तब चला, जब 31 दिसंबर, 2021 को पैरावोलिक ड्रग लिमिटेड की कम्पनी पर दिल्ली, पंचकूला और चंड़ीगढ़ सहित देश के 12 शहरों में सीबीआई के छापेमारी हुई। छापेमारी के बाद इस बात का भी ख़ुलासा हुआ है कि गुप्ता ब्रदर्स विश्वविद्यालय के निदेशक (डायरेक्टर) हैं। दोनों पर भ्रष्टाचार के आरोप होने पर विश्वविद्यालय के अध्यापकों के साथ छात्रों ने गुप्ता को बर्ख़ास्त करने की सरकार से माँग की है। उन्होंने कहा कि जब अशोका विश्वविद्यालय की स्थापना की गयी थी, तब इसका आधार और उद्देश्य यही था कि यह विश्वविद्यालय देश-दुनिया में ज्ञान और संस्कृति में अपनी पहचान स्थापित करेगी। लेकिन मौज़ूदा समय में जो भ्रष्टाचार सामने आया है। इससे विश्वविद्यालय की साख को धक्का लगेगा। इसलिए अशोका विश्वविद्यालय पर बड़े पैमाने पर सुधार की ज़रूरत है।

बताते चलें कि विश्वविद्यालय का विवाद से पुराना नाता रहा है। मार्च-अप्रैल 2021 में जब स्तम्भकार प्रताप भानु मेहता ने इस बात को लेकर इस्तीफ़ा दिया था कि विश्वविद्यालय में अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंकुश लग रहा है। ऐसे में वातावरण में उनका रहना यहाँ ठीक नहीं है। प्रताप भानु ने सरकारी की नीतियों का मुखर विरोध अपने लेख के माध्यम से किया है और किसान आन्दोलन की कई बार आलोचना की थी। मेहता के विरोध और लेख को लेकर विश्वविद्यालय प्रशासन का दबाव था कि सरकार की इस तरह की आलोचना से बचना चाहिए। स्तम्भकार मेहता के इस्तीफ़ा के बाद ही अगले दो दिनों बाद देश के जाने-माने आर्थिक मामलों के जानकार प्रो. अरविन्द सुब्रमण्यम ने भी अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया। तब भी विश्वविद्यालय पर सवालिया निशान लगे थे। अशोका विश्वविद्यालय के एक वरिष्ठ अध्यापक ने नाम न छापने पर ‘तहलका’ को बताया कि जब तक स्तम्भकार प्रताप भानु मेहता और प्रो. अरविन्द सुब्रमण्यम का इस्तीफ़ा वापस नहीं हो जाता है, तब तक विश्वविद्यालय में हालात सामान्य नहीं होंगे।

अशोका विश्वविद्यालय से जुड़े वरिष्ठ एक कर्मचारी ने बताया कि गुप्ता ब्रदर्स की राजनीतिक पहुँच के चलते तमाम मामले अक्सर सामने नहीं आते थे। लेकिन बुद्धिजीवियों से जबसे पंगा हुआ है, तबसे विश्वविद्यालय में फैले भ्रष्टाचार को ख़ुलासे को लेकर आशंका प्रबल हो गयी थी; जो अब सामने आ गयी है। लेकिन मौज़ूदा समय में विश्वविद्यालय में सियासी माहौल दिन-ब-दिन गरमाता जा रहा है। सूत्रों से पता चला है कि अगर विश्वविद्यालय में प्रशासनिक किसी प्रकार का कोई फेरबदल होता है, तो निश्चित तौर पर उन लोगों को मौ$का दिया जाएगा, जो देश की सियासत से जुड़े होने के साथ-साथ उस विचारधारा सहमत हैं, जिसको मौज़ूदा समय में सरकार बढ़ाना चाहती है। क्योंकि अशोका विश्वविद्यालय देश-दुनिया के उन शैक्षिण संस्थानों में नाम है, जहाँ पर कई अतंरराष्ट्रीय कोर्स एक साथ चल रहे हैं।

दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. एच.के. खन्ना का कहना है कि किसी भी विश्वविद्यालय में फैला भ्रष्टाचार इस बात की पुष्टि करते हैं कि वहाँ पर शिक्षा के अलावा अन्य अवसरों को मौक़ा दिया जा रहा है। उनका कहना है कि जिस तरीक़े से स्तम्भकार भानु प्रताप मेहता और भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविन्द सुब्रमण्यण का इस्तीफ़ा हुआ है। इससे इस बात की पुष्टि होती है कि अशोका विश्वविद्यालय में सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। और जो भ्रष्टाचार के मामले विश्वविद्यालय के सामने आये हैं, वो शिक्षा और विश्वविद्यालय के लिए ठीक नहीं है।

चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाना कितना वाज़िब?

चुनावों में रिकॉर्ड तोड़ ख़र्चा करते हैं राजनीतिक दल

कई लोगों का मत है कि बार-बार चुनाव कराने से महँगाई बढ़ती है। यह बात बहुत हद तक सही है। लेकिन इसके पीछे की वजह क्या है? इसके लिए राजनीतिक दलों के चुनावी ख़र्चों पर गहरी नज़र डालते हुए इसे विस्तार से समझने की ज़रूरत है। लेकिन इसका हल यह है कि इसके लिए देश की स्वायत्त संस्था भारतीय निर्वाचन आयोग, जिसे चुनाव आयोग भी कहा जाता है, ख़ुद भी पूरी ईमानदारी से काम करे और पार्टियों के अनाप-शनाप ख़र्चों पर भी अंकुश लगाए।

हाल ही में चुनाव आयोग ने बढ़ी महँगाई को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशियों के चुनावी ख़र्चों में इज़ाफ़ा किया है। इसके लिए आयोग ने बाक़ायदा एक समिति गठित की थी और उसी के सुझावों और राजनीतिक पार्टियों की माँग के आधार पर चुनावी ख़र्चे को बढ़ाया गया है। अब लोकसभा चुनावों में एक उम्मीदवार 95 लाख रुपये ख़र्च कर सकता है। पहले इस ख़र्च की सीमा 70 लाख रुपये थी। जबकि छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में इस ख़र्च सीमा को 54 लाख रुपये से बढ़ाकर 75 लाख किया गया है। वहीं विधानसभा चुनाव के लिए जिन प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों में ख़र्च की सीमा 28 लाख रुपये थी, उसे बढ़ाकर 40 लाख रुपये और जिन प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों की ख़र्च सीमा 20 लाख रुपये थी, उसे बढ़ाकर 28 लाख रुपये कर दिया गया है। बता दें कि इससे पहले सन् 2014 और सन् 2020 में चुनावी ख़र्चों में बढ़ोतरी की सीमा तय की गयी थी।

सवाल यह है कि क्या कोई भी प्रत्याशी इतने कम बजट में चुनाव लड़ता है? क्या चुनाव आयोग इस बात की तफ़तीश कभी करता भी है कि जो प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरते हैं, चाहे वे लोकसभा के हों या विधानसभा के, वे किस तरीक़े से पैसा बहाते हैं और किस तरीक़े से जीतने के बाद जनता को लूटते हैं? क्या चुनाव आयोग ने कभी विधायकों, सांसदों की बेनामी और बेतरतीब बढ़ी हुई सम्पत्ति पर कोई आपत्ति जतायी है? क्या चुनाव आयोग ने ऐसे प्रत्याशियों के नामांकन पत्र कभी ख़ारिज़ किये हैं, जिनके पास आय से ज़्यादा सम्पत्ति पायी गयी है और उनका आपराधिक रिकॉर्ड भी रहा है? अगर ऐसा होता, तो आज राजनीति में बाहुबलियों, दबंगों और अकूत सम्पत्ति वाले धन पशुओं का दबदबा नहीं होता। यह कोई मामूली बात नहीं है कि देश की राजनीति में अब ऐसे लोगों का क़ब्ज़ा हो चुका है, जो क़तर्इ ईमानदार नहीं हैं। आज चाहे सत्तापक्ष की बात हो या विपक्ष की, कोई इक्का-दुक्का नेता ही ऐसा होगा, जो ईमानदारी और जनसेवा की भावना से राजनीति में हो। पहले के नेताओं में कुछ हद तक यह बात थी; लेकिन अब नेता भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा पार करते जा रहे हैं। यह बात सभी जानते हैं, लेकिन इस पर अंकुश लगाने को कोई तैयार नहीं है, न चुनाव आयोग, न सरकार और न कोई और संस्था।

ख़ैर, चुनाव आयोग द्वारा प्रत्याशियों के ख़र्चों की तय सीमा की पाबंदी का मखौल उड़ता देखने के लिए इन प्रत्याशियों और पार्टियों के अनाप-शनाब चुनावी ख़र्चों को देखना ज़रूरी होगा। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में सभी पार्टियों ने ख़र्चों के पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए 60,000 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे। इन पार्टियों में अकेले भाजपा ने सभी पार्टियों के ख़र्च का 45 फ़ीसदी ख़र्च किया, यानी कुल 27,000 करोड़ रुपये चुनाव में उड़ाये। इसके अलावा भाजपा के समर्थक दलों ने भी इस चुनाव में मौटा ख़र्च किया। वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इस चुनाव में 820 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे। इससे पहले अगर 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी दौरान हुए आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और सिक्किम के विधानसभा चुनावों की बात करें, तो भाजपा ने इन चुनावों में 714 करोड़ रुपये ख़र्च किये, जबकि कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे।

अब अगर लोकसभा की 543 सीटों के हिसाब से 2019 में केवल भाजपा के 27,000 करोड़ रुपये ख़र्च के हिसाब से इस ख़र्च में उसके सहयोगी दलों को भी शामिल करके भी देखें, तो उसके प्रत्येक प्रत्याशी के ख़र्च का औसतन 49.72 करोड़ रुपये से ज़्यादा आता है। यानी उस साल चुनाव आयोग की 70 लाख ख़र्च अनुमति से 49.02 करोड़ रुपये ज़्यादा, जबकि चुनाव आयोग द्वारा पिछले चुनाव में ख़र्च की अनुमति के हिसाब से भाजपा और उसके सहयोगी दलों को महज़ 380 करोड़ रुपये तक ही ख़र्च करने थे। यानी भाजपा और उसके सहयोगी दलों के 543 प्रत्याशियों के ख़र्च से कहीं ज़्यादा आठ प्रत्याशियों ने ही ख़र्च कर डाला। यह तब है, जब भाजपा के सहयोगी दलों के ख़र्च को इसमें नहीं जोड़ा गया है। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्येक प्रत्याशी का ख़र्च क़रीब डेढ़ करोड़ रुपये आया था, जो कि चुनाव आयोग द्वारा तय ख़र्च सीमा से दोगुने से ऊपर था। जबकि इसमें ख़र्च की कम सीमा वाले राज्यों को नहीं जोड़ा है, उस हिसाब से देखेंगे, तो प्रत्याशियों के ख़र्च में और बढ़ोतरी हो जाएगी।

ख़ास बात यह है कि यह वो ख़र्च है, जो भाजपा और कांग्रेस ने क़ुबूल किया है। जबकि सच्चाई यह है कि चुनावों में जो ख़र्च पार्टियाँ दिखाती हैं, उससे कहीं ज़्यादा वो ख़र्च करती हैं। इससे अलग और ग़ौर करने वाली बात यह है कि देश के 2019 के लोकसभा चुनाव दुनिया के सबसे महँगे चुनाव थे। सोचने वाली बात यह है कि हमारे देश की आर्थिक हालत अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन से कहीं ख़राब है, उसके बावजूद उन देशों के चुनावी ख़र्च से भी कई गुना ज़्यादा ख़र्च करके भारतीय राजनीतिक पार्टियाँ आख़िर देश की जनता की जेब पर अतिरिक्त भार क्यों डाल रही हैं? क्या इस पर चुनाव आयोग और सरकार को ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है?

मेरा मानना है कि अगर चुनाव आयोग भी इस मामले पर आँखें बन्द करे बैठा है, तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इस पर तत्काल दख़ल देने की ज़रूरत है, अन्यथा इन नेताओं की ऐशपरस्ती और अनाप-शनाप चुनावी ख़र्चे के चलते लोगों का जीवन यूँ ही महँगाई, बेरोज़गारी, मोटे कर (टैक्स) और काम ज़्यादा, वेतन कम की उलझनों में उलझा रहेगा और देश में ग़रीबी भी बढ़ती रहेगी तथा ग़रीबों की संख्या भी। इसी तरह अगर उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें, तो उस साल सभी पार्टियों ने क़रीब 5,500 करोड़ रुपये ख़र्च किये। कहा जाता है कि इनमें से तक़रीबन 1,000 करोड़ रुपये नोट के बदले वोट पर ख़र्च किये गये। यह चुनाव भी देश के 2017 तक के सभी विधानसभा चुनावों से महँगा था।

सवाल यह है कि राजनीतिक दलों के पास इतना मोटा पैसा कहाँ से आता है? पहले यह माना जाता था कि पार्टी फंड से राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं और पहले इसे उजागर भी करना होता था। लेकिन अब यह हिसाब भी पार्टियाँ नहीं देतीं। भाजपा की अगर बात करें, तो उसने तो अपने तमाम हिसाबों को उजागर करना कब से बन्द कर रखा है।

सवाल यह है कि सन् 1980 से अस्तित्त्व में आयी भाजपा महज़ चार दशक में इतना पैसा कहाँ से पा गयी? जिसके चलते वह हर चुनाव में पानी की तरह पैसा बहा रही है और उसने देश भर में हज़ारों आलीशान कार्यालय बना लिये। जबकि वहीं दूसरी तरफ़ देश के आर्थिक हालात बुरी तरह ख़राब होती जा रहे हैं और भुखमरी, महँगाई, बेरोज़गारी व ग़रीबी लगातार बढ़ती जा रही है। यह सवाल कांग्रेस से भी पूछना उतना ही ज़रूरी है, जितना भाजपा से। क्योंकि कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है। लेकिन भाजपा ने जिस तरह से पैसों का दुरुपयोग शुरू किया है, इससे पहले किसी भी पार्टी ने नहीं किया। यहाँ तक कि अटल बिहारी बाजपेयी के दौर में ख़ुद भाजपा ने इस तरह से जनता के पैसे को चुनावों में नहीं बहाया।

हालाँकि यह भी एक सच है कि चुनाव आयोग द्वारा तय ख़र्च की सीमा को हर पार्टी ने हर चुनाव में पार किया है। लेकिन चुनाव आयोग ने इस पर कभी अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की। यही वजह है कि अब सभी पार्टियाँ निरंकुश हो गयी हैं और चुनावों में अनाप-शनाप ख़र्च करती हैं, जिनमें चुनावी ख़र्च की इस दौड़ में सत्ताधारी भाजपा सबसे आगे दिखायी पड़ रही है। जहाँ एक ओर चुनावी ख़र्च की सीमा को बढ़ाये जाने के बाद ज़्यादातर राजनीतिक दलों ने सहमति जतायी है, वहीं तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर असहमति जतायी है। चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाने पर उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयोग का यह फ़ैसला साफ़तौर पर भ्रष्टाचार और काले धन को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होगा। यह फ़ैसला हैरान कर देने वाला है; इसलिए मैं चुनाव आयोग के इस फ़ैसले की निंदा करता हूँ। ज़ाहिर है कि जिस समय चुनावों को धन-बल से मुक्त करने की माँग ख़ूब हो रही है, उस समय चुनावी ख़र्च सीमा बढ़ाया जाना वाक़र्इ हैरत में डालने वाला है। क्योंकि चुनावी ख़र्च की सीमा बढऩे से कम बजट वाली पार्टियों को मुश्किल का सामना कर पड़ सकता है। दरअसल चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाये जाने वालों की दलील है कि राजनीतिक दल समय-समय पर यह कहते रहे हैं कि चुनावी ख़र्च की अब तक जो सीमा तय है, वह व्यावहारिक नहीं है। प्रत्याशियों पर तय सीमा से ज़्यादा ख़र्च करने और पैसे बाँटने के आरोप भी लगते रहे हैं। लिहाज़ा यदि चुनावी ख़र्च सीमा को बढ़ा दिया जाएगा, तो उम्मीदवारों को अपने हलफ़नामे में झूठ नहीं बोलना पड़ेगा।

फ़िलहाल चुनाव में इस साल होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों की भारतीय निर्वाचन आयोग ने तारीख़ तय कर दी है। इसी के साथ आगामी चुनाव वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, पंजाब और मणिपुर में आचार संहिता लागू हो गयी है। सभी राज्यों में 10 फरवरी से लेकर 7 मार्च तक सात चरणों में मतदान होगा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव की मतगणना 10 मार्च को होगी। कोरोना से बचाव के लिए ज़रूरी दिशा-निर्देशों के बीच मतदान होगा और चुनावी प्रक्रिया में लगे सभी अधिकारी व कर्मचारियों को कोरोना टीके लगे होने चाहिए और मास्क लगा होना चाहिए।

मतदान केंद्रों पर सैनिटाइजर, मास्क जैसी सुविधाएँ उपलब्ध होंगी और मतदाता केंद्रों की संख्या भी बढ़ायी जाएगी, ताकि भीड़ एक ही मतदान केंद्र पर ज़्यादा न जुटे। यह सब तो ठीक है, लेकिन क्या चुनाव आयोग पार्टियों द्वारा पैसा ख़र्च करके मतदान बूथों के आसपास बेतरतीब भीड़ जुटाने पर भी अंकुश लगाएगा? राजनीतिक जानकार कहते हैं कि चुनाव आयोग अब उसी के पक्ष में काम करता है, जिसके हाथ में सत्ता होती है। यही वजह है कि वह पार्टियों के मोटे ख़र्च और तमाम दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाने पर भी आँखें बन्द किये रहता है। क्योंकि अगर वह विपक्षी दलों पर अंकुश लगाएगा, तो उसे सत्ता पक्ष में जो पार्टी होगी, उस पर भी अंकुश लगाना पड़ेगा। इसीलिए वह किसी पर भी अंकुश नहीं लगाता।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

लोगों के संकल्प से रुकेगा कोरोना का संक्रमण

डॉक्टरों के कोरोना की चपेट में आने से स्वास्थ्य महकमा सकते में

शंका-आशंका के बीच कोरोना यह अनुमान लगाने को विवश कर रहा है कि उसका कहर किस सीमा तक बढ़ेगा? लेकिन अनुमान तो अनुमान होता है, जो सर्वथा सत्य नहीं होता। वैसे भारत देश में हर रोज़ एक लाख से ज़्यादा कोरोना वायरस के मामले सामने आ रहे हैं। कोरोना क्यों बढ़ रहा है और कब तक इसका प्रकोप रहेगा? इसे लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता ने विशेषज्ञों से बात की, जिन्होंने कोरोना के नये वायरस ओमिक्रॉन को लेकर काफ़ी कुछ बताया।

दिल्ली मेडिकल काउंसिल (डीएमसी) के वाइस प्रेसीडेंट डॉक्टर नरेश चावला ने कहा कि कोरोना वायरस की रोकथाम को लेकर दिल्ली सरकार ने तो तामाम पाबंदियाँ लगा दी हैं और सप्ताह में दो दिन का लॉकडाउन (तालाबंदी) भी लगा दिया है। लेकिन लोगों की लापरवाही का आलम यह है कि वे बिना मास्क के जगह-जगह दिख रहे हैं, जिससे कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है। डॉक्टर चावला का कहना है कि सरकार तो लॉकडाउन लगा देती है। लेकिन लॉकडाउन का पालन सही तरीक़े से नहीं होता है। ऐसे में लोगों को स्वयं अपने मन में लॉकडाउन लगाना चाहिए और लॉकडाउन के दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिए। कहने का मतलब है कि लोगों को दिशा-निर्देशों के पालन के लिए संकल्प लेना होगा, तभी कोरोना के बढ़ते संक्रमण को रोका जा सकता है। क्योंकि जिस रफ़्तार से कोरोना बढ़ रहा है, अगर समय रहते लोगों ने स्वयं पर क़ाबू नहीं पाया, तो कोरोना का कोहराम घातक साबित होगा।

नेशनल मेडिकल फोरम के चेयरमैन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि कोरोना के नये स्वरूप ओमिक्रॉन के चलते देश-दुनिया में हड़कम्प मचा हुआ है। लोगों में कोरोना के नये-नये वारियंट के आने से डर सता रहा है कि कोरोना फिर से उसी तरह लोगों पर कहर बनकर न टूट पड़े, जिस तरह 2021 के मार्च और मई के बीच दूसरी लहर के रूप में टूटा था। डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि कोरोना के नये स्वरूप ओमिक्रॉन को लेकर कुछ विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना अप्रैल में समाप्त हो जाएगा, जबकि कई विशेषज्ञ इस बात का दावा भी कर रहे हैं कि कोरोना के रहने की कोई सीमा नहीं है कि यह कब तक, और किस रूप में रहेगा। ऐसे में किसी प्रकार की लापरवाही करके इसे नज़रअंदाज़ करना घातक होगा। क्योंकि भारत में आये दिन कोरोना के सारे रिकॉर्ड टूट रहे हैं और हर रोज़ एक लाख से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। हालाँकि राहत वाली बात यह है कि कोरोना मरीज़ों की संख्या तो बढ़ रही है; लेकिन जान गँवाने के मामलें कम आ रहे हैं, साथ ही पिछली बार की तरह अस्पतालों में हाय-तौबा नहीं मच रही है। लेकिन फिर भी इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की दक्षिण-पूर्व एशिया की क्षेत्रीय निदेशक डॉक्टर पूनम क्षेत्रपाल का कहना है कि जिस तरीक़े से अस्पतालों में मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है, अगर यही हाल रहा, तो अस्पतालों में मरीज़ों को इलाज कराना मुश्किल होगा। इसलिए जहाँ पर स्वास्थ्य ढाँचा कमज़ोर है, वहाँ पर उसे मज़बूत करने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि कोरोना की रफ़्तार को कम करने के लिए टीकाकरण अभियान तेज़ करना होगा। साथ ही जिन लोगों ने दोनों टीके लगवाये हैं, उनको भी अपने बचाव के लिए विशेष ध्यान देना होगा।

आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि भारत में कोरोना के मामले बढऩे की वजह साफ़ है कि लापरवाही की सारी हदें पार की जा रही हैं। सरकार कहती है कि कोरोना की रोकथाम की जा रही है। लेकिन ख़ुद ग़लती-पर-ग़लती किये जा रही है, जिसके कारण देश में कोरोना का तांडव सामने है। डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि इटली से अमृतसर जो यात्री विमान आया है, उसमें 179 यात्रियों में से 125 कोरोना संक्रमित पाये गये हैं। इटली दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहाँ शुरुआती दौर में कोरोना का विस्फोट हुआ था। कोरोना से इटली का बुरा हाल है। ऐसे में इटली से भारत आने पर हवाई सेवा को कैसे मंज़ूरी दे दी गयी है। इटली और भारतीय विमान सेवा के अधिकारियों पर कार्रवाई होना चाहिए। डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि इस तरह की लापरवाही ही कोरोना विस्फोट कर रही है। लापरवाही का अंदाज़ा तो इस बात से लगाया जाता है कि जो लोग विदेश से कोरोना लेकर आते हैं, फिर वे अचानक हवाई अड्डे से ग़ायब हो जाते हैं। उसको हवाई अड्डे के अन्दर तो पकड़ नहीं पाते हैं, फिर कई-कई दिनों तक उसको पकडऩे में लगा देते हैं, जिससे कोरोना का विस्तार हो जाता है।

कोरोना को लेकर आयुर्वेदाचार्य एवं कैनेडियन कॉलेज ऑफ आयुर्वेद ऐंड योग के प्रमुख डॉक्टर हरीश वर्मा का कहना है कि कोई भी बीमारी तब तक घातक नहीं होती है, जब तक लापरवाही न बरती जाए। कोरोना के नये-नये रूप में फैलने से बचने के लिए हमें वहीं सब कुछ करना है, जो 2020 में कोरोना की दस्तक के बाद किया था। जैसे सामाजिक दूरी बनाकर रहना, मास्क लगाकर रखना, साफ़-सफ़ार्इ रखना, सैनिटाइजर का इस्तेमाल करना, सर्दी-जुकाम, बुख़ार होने या साँस लेने में दिक़्क़्त होने पर तुरन्त कोरोना जाँच कराना। अगर कोरोना नहीं है, तो भी उचित इलाज कराना। अगर किसी को कोरोना सम्बन्धी लक्षण दिखायी दें, तो उसे छिपाये नहीं, बल्कि उपचार करवाएँ। डॉक्टर वर्मा ने बताया कि आयुर्वेद में इलाज है और जो लोग नियमित योग-व्यायाम करते हैं, उनको कोरोना होने का ख़तरा न के बराबर होता है।

बताते चलें आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर महेन्द्र अग्रवाल का कहना है कि और उनका अनुमान है कि कोरोना का जब चरम पर होगा, तब देश में कोरोना के मामलें चार से आठ लाख तक आ सकते हैं। ऐसे में बचाव के तौर पर सम्पूर्ण लॉकडाउन से ज़्यादा ज़रूरी है कि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का वितार करे, ताकि इलाज के अभाव में मरीज़ों को भटकना न पड़े।

साकेत मैक्स अस्पताल के कैथ लेब के डायरेक्टर डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना वायरस को लेकर सचेत रहने की ज़रूरत है। हृदय रोगी, दमा रोगी और लीवर-किडनी के रोगियों को विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है। क्योंकि कई बार लोगों को यह भ्रम रहता है कि उनका इलाज चल रहा है और वे कोरोना की चपेट में नहीं आएँगे, जबकि सच्चाई यह है कि जो बीमार हैं, कोरोना उनको आसानी से अपनी चपेट में ले रहा है।

मौज़ूदा समय में भारत के महानगरों में तो कोरोना मामलों की जाँच हो रही है, जिससे कोरोना की पुष्टि भी हो रही है। लेकिन गाँव-क़स्बों में कोरोना की जाँच न के बराबर हो रही है। इससे वहाँ पर कोरोना के मामले सामने नहीं आ रहे हैं। यानी वहाँ पर छिपा हुआ कोरोना कब विस्फोट कर दे, इसका कोई पता नहीं। ऐसे हालात से निपटने में लिए कड़े बंदोबस्त की ज़रूरत है। क्योंकि जिस गति से हर रोज़ कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, उससे अब गाँव और क़स्बों के लोग भी नहीं बच पा रहे हैं। कोरोना की पहली और दूसरी लहर के चपेट में भी शहरों से लेकर गाँव-क़स्बों तक के लोग आये थे। पहली और दूसरी लहर से सबक़ लेना ज़रूरी है। महानगरों की तरह ज़िला स्तरीय अस्पतालों में भी पर्याप्त ऑक्सीजन की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि किसी को ऑक्सीजन गैस के भटकना न पड़े और उसके लिए लाखों रुपये न चुकाने पड़ें। कोरोना के बढ़ते प्रकोप को लेकर सबसे ज़्यादा चिन्ता की बात यह है कि इस बार कोरोना के ओमिक्रॉन वायरस का संक्रमण डॉक्टरों और पैरामेडिकल कर्मचारियों को अपनी चपेट में ले रहा है। अगर इसी तरह स्वास्थ्य कर्मचारियों में संक्रमण फैलता रहा, तो कहीं ऐसा न हो कि लोगों को डॉक्टरों के अभाव में भटकना पड़े। ऐसे में सरकार को डॉक्टरों के स्वास्थ्य को लेकर भी सजग रहना होगा और डॉक्टरों को अधिक-से-अधिक सुविधा देनी होगी, ताकि लोगों की जान बचाने वाले बीमार न पड़ें।

चौंकाने वाली बात यह है कि देश में ड्रग माफिया भी सुनियोजित तरीक़े से कोरोना को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके कारण देश में कोरोना को लेकर डर और भय का माहौल बना हुआ है। दिल्ली से लेकर अन्य महानगरों में बड़े-बड़े मेडिकल स्टोरों में कोरोना से बचाव के सारे सामानों की उपलब्धता दर्शायी जा रही है। और तो और कई मेडिकल वाले तो यह भी दावा कर सामान बेच रहे हैं कि कोरोना के पीक आवर के समय फलाँ-फलाँ सामान की क़िल्लत हो सकती है। ऐसे में एक बार फिर 2021 की तरह बहुत-सी ज़रूरी दवाओं और वस्तुओं की जमाख़ोरी होने लगी है।

दरअसल कोरोना की दस्तक को लोगों ने अपने तरीक़े से अवसर में बदलने की परिभाषा गढ़ ली है। ये लोग जमाख़ोरी करके कोरोनारोधी चीज़ों के दामों को मनमर्ज़ी से बढ़ाकर बेचते हैं। ओमिक्रॉन की दस्तक के बाद एक बार फिर सैनिटाइजर और मास्क के दाम बढऩे लगे हैं। फार्मास्युटिकल से जुड़े आलोक कुमार का कहना है कि जब 2021 के अप्रैल-मई में करोना की दूसरी लहर के दौरान कहा गया था कि रेमडेसिविर ही आपकी जान बचा सकती है, तो यह दवा मेडिकलों पर अचानक आयी थी और रेमडेसिविर को लेकर हाहाकार मचा था। इसी तरह अब जब कोरोना चरम पर होगा, तब रेमडेसिविर की तरह किसी दवा को लॉन्च किया जाएगा। इससे फिर से दवा की कालाबाज़ारी भी बढ़ेगी और मुनाफ़ाख़ोरी भी होगी।

कितने सच हैं उत्तर प्रदेश सरकार के नौकरी देने वाले आँकड़े?

जब सत्ता में आने या वापसी की बेचैनी हो, तो राजनीतिक दल क्या-क्या चुनावी घोषणाएँ नहीं करते, भले ही वो पूरी हों या न हों। उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों यही हो रहा है। हर पाँच साल के विधानसभा चुनाव के अलावा लोकसभा के चुनावों में भी जनता पर वादों की जिस तरह बारिश होती है, अगर उन वादों को कोई पार्टी अपनी सरकार बनने के बाद पूरा कर दे, तो अगले चुनावों में जनता को प्रलोभन देने की नौबत ही न आये, जनता उस पार्टी को पुन: आँखें बन्द करके चुन ले। मगर यह कभी नहीं होता, शायद आगे कभी हो।

इन दिनों सबसे बढ़-चढ़कर अगर कोई पार्टी दावे और वादे कर रही है, तो वह उत्तर प्रदेश की सत्ता में मौज़ूदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) है। जबसे चुनावी मौसम शुरू हुआ है, प्रदेश की भाजपा सरकार या सीधे-सीधे ये कहें कि स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावों और वादों के पिटारों पर पिटारे खोले हुए हैं और विकास की हवा चलाने की हरसम्भव कोशिश करने में जुटे हैं।

अगर उनके सन् 2017 के चुनावी घोषणा-पत्र पर नज़र डालें, तो उन्हें सवालों के कठघरे में आराम से घेरा जा सकता है, जहाँ से उनका और उनकी सरकार का बच निकलना मुश्किल हो जाएगा। मगर इस मामले में न पड़कर केवल उनके पाँच साल के कामों में नौकरी के वादों और दावों पर नज़र डालें, तो सा$फ पता चलता है कि वह न तो 2017 में लोगों से किया अपना नौकरी देने का वादा पूरा कर सके हैं और न ही उनका साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियाँ देने का दावा ही कहीं से खरा उतरता दिखायी दे रहा है।

प्रदेश की योगी सरकार इन दिनों कई पोस्टरों को लेकर चर्चा में है, मगर इनमें से उनका वह पोस्टर ग़ौर करने को मजबूर करता है, जिसमें लिखा है- साढ़े चार साल, 4.5 लाख नौकरियाँ, साथ ही लिखा है- आओ मनाएँ विकास उत्सव। अब उनके इस 4.5 लाख नौकरियों के दावे पर विचार करने से पहले पिछले साल 3 अगस्त के लखनऊ के लोकभवन दिये गये उनके भाषण पर ग़ौर करते हैं। दरअसल पिछले साल 3 अगस्त को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोकभवन लखनऊ में जाकर उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग में चयनित अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र बाँटने के दौरान दावा किया था कि उनकी सरकार ने साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियाँ दी हैं, जिनमें कहीं भ्रष्टाचार नहीं हुआ है।

मगर उनके दावे की सच्चाई जानने के लिए किसी ने तुरन्त आरटीआई डालकर कार्मिक विभाग से इसकी जानकारी माँगी, जिसका जबाव मिला कि ऐसा कोई आँकड़ा उसके पास नहीं है। बस फिर क्या था, विधानसभा के मानसून सत्र में विधानसभा में जमकर हंगागा हुआ और कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी ने ट्वीटर पर सरकार के 4.5 लाख नौकरियों के दावे को लेकर सवाल उठाये, जिस पर भाजपा ने ट्वीटर पर उन पर पलटवार करते हुए अलग-अलग विभागों में क़रीब 4.13 लाख नौकरियों का ब्यौरा दिया। यहाँ दो-तीन सवाल ये उठे कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने 4.5 लाख नौकरियों का दावा किया, तो ट्वीटर पर 4.13 लाख नौकरियाँ ही क्यों बतायी गयीं और अगर ट्वीटर पर और भाषणों में योगी सरकार और उसके लोग लाखों नौकरियाँ देने का दावा करते रहे हैं, तो इसके आँकड़े सरकार के पास मौज़ूदा क्यों नहीं हैं। इसके अतिरिक्त साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियों के बाद योगी आदित्यनाथ सरकार ने क्या और लोगों को नौकरी नहीं दी, जो वो अभी भी 4.5 लाख नौकरियों का जश्न मना रही है।

अजगर की भूख, मुर्ग़ी का अण्डा

एक बार को मान भी लिया जाए कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश में साढ़े चार साल में 4.5 लाख लोगों को नौकरियाँ दी हैं, तो क्या इतनी कम नौकरियों से प्रदेश के युवाओं का भला हुआ होगा।

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19,98,12,341 है। वहीं 2020 में उत्तर प्रदेश की अनुमानित जनसंख्या 23,15,02,578 मानी गयी है। ऐसे में अगर मान भी लें कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अपने इस कार्यकाल में 4.5 लाख लोगों को नौकरियाँ दे भी दीं, तो इनका फ़ीसद मात्र 5.14 के आसपास ही होता है। मतलब प्रदेश सरकार ने हर साल केवल एक फ़ीसदी नौकरियाँ ही दी हैं। इसका मतलब यह हुआ कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अजगर की भूख मिटाने के लिए मुर्ग़ी का अण्डा लिए बैठे दिखायी दे रहे हैं।

आँकड़ों की सच्चाई

दरअसल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दोबारा सत्ता में आने के लिए इतने बेचैन हैं कि अब उनकी हालत ये कर दूँ, वो कर दूँ, क्या कर दूँ वाली बन चुकी है। वह दावों और वादों की प्रदेश की जनता के सामने ऐसी झड़ी लगाये हुए हैं, जो उन्होंने लगभग पाँच साल के शासनकाल में कभी नहीं लगायी। उनका दावा है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में प्रदेश का पिछली हर सरकार से ज़्यादा विकास किया है, मगर इस बात को भी वह झुठला नहीं सकते कि बेरोज़गारी के मामले में प्रदेश का रिकॉर्ड बहुत ख़राब है।

योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्री भले ही दावा करते घूम रहे हैं कि भाजपा सरकार आने के बाद बेरोज़गारी में कमी आयी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के भी पिछले आँकड़े बताते रहे हों कि 2016 में प्रदेश में बेरोज़गारी दर 16.82 फ़ीसदी थी, जो मार्च 2017 में घटकर 3.75 फ़ीसदी हो गयी। मगर इस हिसाब से अगर देखें, तो योगी सरकार ने आते ही 13.07 फ़ीसदी लोगों को नौकरियाँ दे दी थीं। तो फिर सरकार साढ़े चार साल में केवल 4.5 लाख नौकरियाँ देने की बात क्यों कर रही है, क्योंकि इस हिसाब से तो उसने 2017 में प्रदेश की बा$गडोर सँभालते ही लाखों नौकरियाँ दे दी थीं। यहाँ कौन झूठा है? यह तो श्रीराम ही जानें।

बाद में इसी सीएमआईई ने कहा कि 2021 के मई-अगस्त में उत्तर प्रदेश की बेरोज़गारी दर 5.41 फ़ीसदी है। कुछ और बाद के सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आँकड़े देखें, तो पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी दर बढ़कर 6.9 फ़ीसदी दर्ज की गयी है। इसका अर्थ यह हुआ कि 2017 में एक साथ बेरोज़गारी दर घटने के बाद 2021 में फिर दोगुने से ऊपर बढ़ गयी। तो फिर योगी आदित्यनाथ सरकार ने हर साल जो एक लाख नौकरियाँ दीं, उनका क्या हुआ, यह बात भी समझ से परे है।

वैसे पिछले साल जून-जुलाई के आसपास भारतीय रिजर्ब बैंक ने भी रोज़गार के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति बेहद ख़राब बतायी थी। इसके अलावा जैसे ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह दावा किया था कि उनकी सरकार ने साढ़े चार साल में साढे चार लाख नौकरियाँ दी हैं, कई ख़बरें ऐसी भी सामने आयीं, जिनमें दावा किया गया कि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी उच्च स्तर पर है।

जो भर्तियाँ हुईं रद्द

उत्तर प्रदेश में अब तक लाखों भर्तियाँ होने से पहले ही रद्द हो चुकी हैं। इसका पूरा-पूरा लेखा-जोखा तो उपलब्ध नहीं है, मगर मोटा-मोटा हिसाब जो ख़बरों के मुताबिक है, वो इस प्रकार है- ग्राम विकास अधिकारी की मई, 2018 में भर्तियाँ निकलीं। दिसंबर, 2018 में परीक्षा हुई और अगस्‍त, 2019 में परीक्षा परिणाम आया। जो युवा इसमें पास हुए वे ख़ुश थे कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी। मगर मार्च, 2021 में ये भर्तियाँ रद्द हो गयीं। इसके अतिरिक्त जूनियर असिस्‍टेंट की भर्तियाँ जून, 2019 में निकलीं, जनवरी, 2020 में परीक्षा हुई, जून, 2021 में टाइपिंग टेस्‍ट (टंकण परीक्षण) हुआ। लेकिन इसका भी परिणाम नहीं आया। इसके अतिरिक्त वन रक्षक (फॉरेस्‍ट गार्ड) की रिक्तियाँ निकाली गयीं। प्रदेश के युवाओं ने बड़ी लगन से इसमें आवेदन किया। मगर कई बार परीक्षा की तारीख़ मिलने पर भी परीक्षा ही नहीं हुई है।

फिर निकलीं रिक्तियाँ

अब पिछले साल जैसे ही चुनाव सामने दिखे एक बार फिर योगी सरकार ने एक-एक करके कई विभागों में भर्तियाँ निकाल दी हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, सहकारिता विभाग, नगर विकास, वित्त विभाग, लेखा विभाग आदि हैं। मगर इसमें लोचा यह है कि प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ये भर्तियाँ सम्भव नहीं हैं और चुनाव के बाद का भरोसा नहीं है। तो फिर सरकार ने क्या ये भर्तियाँ युवाओं को लुभाने के लिए निकाली हैं, यह कहना उचित नहीं है।

नियमित नहीं हुए संविदाकर्मी

यह भी याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में संविदा पर हर विभाग में लोगों की भरमार है। उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग में बस ड्राइवरों से लेकर कंडक्टर तक बड़ी संख्या में संविदा पर हैं। इसी तरह शिक्षा विभाग का भी यही हाल है। हाल ही में 69,000 शिक्षक भर्तियों पर इंसाफ़ की माँग के लिए निकले अभ्यर्थियों पर लखनऊ में पुलिस ने लाठियाँ बरसायी थीं।

इससे पहले आँगनबाड़ी कार्यकर्ता भी सरकार से अपना पारिश्रमिक बढ़ाने और उन्हें पक्का करने की कई बार माँग कर चुकी हैं। इसके लिए उन्होंने जगह-जगह धरना भी दिया, मगर उन्हें भी अभी कुछ हासिल नहीं हो सका है। इसके अतिरिक्त दो साल पहले उत्तर प्रदेश की सुरक्षा सेवा में लगे 25,000 होमगाड्र्स को हटा दिया गया था। उससे ठीक पहले 17,000 होमगाड्र्स को ड्यूटी से हटाया गया था। कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय ने होमगाड्र्स का मानदेय बढ़ाने का आदेश दिया था, जिसके बाद योगी आदित्यनाथ सरकार ने यह छँटनी कर डाली।

हालाँकि बाद में सरकार ने इन होमगार्ड को वापस लिया गया या नहीं इस पर $खास चर्चा नहीं हुई। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने होमगाड्र्स को 500 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलने वाले मानदेय को बढ़ाकर 600 रुपये और किराया भत्ता 72 रुपये देने का आदेश प्रदेश सरकार को दिया था। मगर प्रदेश सरकार ने उनका मानदेय और भत्ता बढ़ाने की जगह उन्हें बेरोज़गारी दे दी और सरकार दावा कर रही है कि उसने साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियाँ दी हैं और यह प्रदर्शन कर रही है कि मानो उसके राज्य में बेरोज़गारी है ही नहीं।

महँगाई और दलबदल के साये में उत्तराखण्ड चुनेगा पाँचवीं सरकार

 किसी भी दल की लहर नहीं        मतदाता उत्सुक, नेता बेचैन

 वापसी को लेकर कांग्रेस बेचैन            देवभूमि पर 85,000 करोड़ के क़र्ज़

उत्तराखण्ड की ख़ूबसूरत सर्द वादियों में अगले महीने तापमान बढ़ जाएगा। यह इसलिए नहीं कि जाड़ा चला जाएगा, बल्कि फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनावों में सभी राजनीतिक दलों की अचानक तेज़ हुई सरगर्मियों से देवभूमि इस वक़्त पूरे देशवासियों के लिए जिज्ञासा का केंद्र बना हुआ है। गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तर प्रदेश के साथ उत्तराखण्ड में भी मार्च तक नयी सरकार का गठन होना है।

22 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश से अलग हुए छोटे से इस हिमालयी राज्य में कहने को तो कुल 70 विधानसभा सीटें हैं; लेकिन प्रधानमंत्री के पसन्दीदा आस्था केंद्र केदारनाथ धाम के कारण उत्तराखण्ड इस वक़्त राजनीति की दृष्टि से वीआईपी राज्य बना हुआ है। यही कारण है कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, ख़ुद आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया समेत इन दलों के वरिष्ठ नेताओं के दो से तीन दौरे और जनसभाएँ हो चुकी हैं। सत्ता में आने पर मुफ़्त की बिजली और बेरोज़गारी भत्ता जैसी गारंटी के लुभावने वादों के साथ आम आदमी पार्टी ने विपक्षी दलों पर तीखे प्रहार करते हुए स्वयं को देशभक्ति की राह पर चलने वाली पार्टी बताया है।

देवभूमि वासी अगले महीने पाँचवीं विधानसभा के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। क़रीब 54 वर्ग किलोमीटर में फैले इस पहाड़ी राज्य का 71 फ़ीसदी भाग वन क्षेत्र में आता है। लेकिन पहाड़ी और मैदानी विधानसभाओं की दृष्टि से देखा जाए, तो 70 में से आधी पर्वतीय और आधी मैदानी क्षेत्र की विधानसभा गिनी जाती हैं। इनमें से 41 सीटें गढ़वाल और 29 सीटें कुमाऊँ से हैं। राज्य बनने के बाद से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस बारी-बारी से दो-दो बार सत्ता पर क़ाबिज़ रही हैं। इस बार वैसे तो किसी भी दल के पक्ष में एक तरफ़ा लहर नहीं दिख रही; लेकिन पिछली बार 11 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस सत्ता में आने को काफ़ी बेचैन है। दिग्गज कांग्रेसी नेता स्व. नारायण दत्त तिवारी को छोड़कर दोनों राष्ट्रीय दलों के किसी भी मुख्यमंत्री को पाँच साल का कार्यकाल पार्टी के अंतर्कलह और भितरघात ने पूरा नहीं करने दिया। जैसे उत्तराखण्ड का मौसम हमेशा अप्रत्याशित रहता है, उसी तरह नेताओं की भी आदत बन चुकी है। अवसरवादिता और मौक़ापरस्ती के राजनीतिक वायरस से अमूमन यहाँ के नेता संक्रमित हो ही जाते हैं।

कुछेक ठेठ भाजपाइयों या कांग्रेसियों को छोड़कर यहाँ अवसरवादी राजनीति की पैदावार इतनी अच्छी हुई कि जिसके फलस्वरूप भ्रष्टाचार की फ़सलों को जिसे भी मौक़ा मिला वह बोने और काटने से नहीं चूका। नतीजा यह रहा कि 10 से 15 साल के भीतर ऐसे विधायकों की माली हैसियत में 20 गुना इज़ाफ़ा हो गया। नया राज्य और कमायी / कमीशनख़ोरी के अथाह अवसरों ने नेताओं के ज़मीर को तार-तार करके रख दिया। इसका जीता-जागता उदाहरण यह है कि शुरू से लेकर अब तक सभी मुख्यमंत्रियों के नाम के साथ विकासशील, ऊर्जावान और समर्पित शब्द पोस्टरों और बैनरों में तो ज़रूर देखने को मिले; लेकिन ईमानदार लिखने का साहस कोई भी मुख्यमंत्री नहीं जुटा पाया।

राज्य में राजनीतिक अस्थिरता उसके विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है, क्योंकि नेताओं को दलबदल की बीमारी से छुटकारा नहीं मिल रहा है। सन् 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत के नेतृत्व में 10 विधायकों ने बग़ावत कर मुख्यमंत्री हरीश रावत को छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। हालाँकि यह बात अलग है कि कांग्रेसी गोत्र के इन 10 विधायकों को भाजपा में अपना वजूद बनाये रखने के लिए पिछले 5 साल से प्रेशर पॉलिटिक्स के हथकंडे अपनाने पड़े, उधर भाजपा ने भी इन पर कभी दिल से भरोसा नहीं किया और यह कहकर सन्तोष कर लिया कि अपना तो अपना ही होता है।

शिक्षा जगत के मानचित्र पर यूँ तो देहरादून, हल्द्वानी और रुड़की का नाम प्रमुखता से गिना जाता है, बावजूद इसके राज्य की महिला साक्षरता दर अभी भी केवल 69 फ़ीसदी पर अटकी हुई है। यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में तो और भी बुरा हाल है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में शिक्षा क्रान्ति लाने के लिए आम आदमी पार्टी को जो सफलता मिली, शायद उत्तराखण्ड के सरकारी स्कूलों की बदहाली इसके सापेक्ष उनको उपजाऊ भूमि नज़र आ रही है और उत्साहित आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की तर्ज पर यहाँ की शिक्षा में भी क्रान्ति लाने का वादा कर दिया है। दिल्ली में तीन बार से लगातार सत्ता पर क़ाबिज़ आम आदमी पार्टी अबकी बार उत्तराखण्ड में होने जा रहे चुनावों में राज्य के कुछ ऐसे ही बुनियादी मुद्दों पर मतदाताओं के साथ विकास और भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश कर रही है। उनकी इस सियासत ने कांग्रेस और भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी है। केजरीवाल ने अपनी तीन जनसभाओं में 300 यूनिट मुफ़्त बिजली, हर बेरोज़गार को 5,000 रुपये बेरोज़गारी भत्ता और हर महिला या युवती को 1,000 रुपये का व्यक्तिगत ख़र्च देने की घोषणा गारंटी के तौर पर अपनी सभाओं से कर दी है।

इन लोकलुभावन घोषणाओं पर सवाल खड़े करते हुए जब कांग्रेस और भाजपा के नेता भड़के कि मुफ़्त की बिजली के लिए पैसा कहाँ से आएगा, तो केजरीवाल अपनी जनसभाओं में इस पर भी पलटवार करते हुए बोल गये कि जो करोड़ों रुपया रिश्वत का नेताओं के घरों में जा रहा है, उसे हम जनता पर लुटाने में गुरेज़ नहीं करेंगे।

आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता नवीन पिरशाली का मानना है कि भाजपा और कांग्रेस ने पिछले 21 साल में प्रदेश को एक दर्ज़न मुख्यमंत्री तो दे दिये; लेकिन एक स्थायी राजधानी नहीं दे पाये। पिरशाली कहते हैं कि इन 21 साल में भाजपा और कांग्रेस ने उत्तराखण्ड पर क़र्ज़ का पहाड़ लाद दिया है और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हिमालयी राज्यों में यह राज्य सबसे निचले पायदान पर लुढ़ककर आ गया है। नवीन पिरशाली ने कहा कि जहाँ एक ओर भाजपा कांग्रेस राज्य में मुद्दा विहीन हो चुके हैं और जनता के मुद्दों की बात न करके पैसे की चमक व सत्ता के प्रभाव से आकर्षण पैदा करके राज्य की जनता को बरगलाने का प्रयास कर रहे हैं, वही आम आदमी पार्टी इस राज्य की अवधारणा को पुनर्जीवित कर इस नववर्ष में उत्तराखण्ड नव-निर्माण के लिए नव-परिवर्तन और जनहित के मुद्दों पर काम कर रही है। उनका दावा है कि उत्तराखण्ड की जनता को गारंटी की जो सौगात अरविंद केजरीवाल ने दी है, उनके प्रयासों और जनता के भारी समर्थन की बदौलत 27 लाख से ज़्यादा राज्य की जनता सीधे तौर से आम आदमी पार्टी से जुड़ चुकी है। बुज़ुर्गों को तीर्थ यात्रा और पूर्व सैनिकों को सरकारी नौकरी देने सहित शहीदों की शहादत की सम्मान राशि एक करोड़ रुपये कर देने का संकल्प भी आम आदमी पार्टी ने लिया है। पिरशाली का मानना है कि जहाँ भाजपा कांग्रेस की राजनीति अपनों को समृद्ध बनाने की है, वहीं आम आदमी पार्टी की राजनीति ज़रूरतमंदों व समाज के अन्तिम छोर में बैठे उपेक्षित लोगों को राहत देने की है। कांग्रेस और भाजपा के चुनाव कैंपेन पर प्रहार करते हुए नवीन प्रशाली ने बताया कि आम आदमी पार्टी का चुनाव कैंपेन चमक-दमक से दूर रहकर, लोगों को समझाकर शिक्षित करके जनहित के लिए सहमति बनाना है।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार में तीसरे मुख्यमंत्री के तौर पर बदले गये पुष्कर सिंह धामी ने पार्टी की छवि को काफ़ी हद तक सँभाल लिया वरना भाजपा के लिए यह दाग़ होना, मुश्किल हो गया था कि पार्टी ने पाँच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल दिये। मुख्यमंत्री धामी की पारदर्शी कार्यप्रणाली के आगे विपक्ष भी उस समय नि:शब्द हो गया, जब उन्होंने अपने ही ओएसडी को एक मामले में 24 घंटे के भीतर निलम्बित कर दिया। ओएसडी नंदन सिंह बिष्ट ने मुख्यमंत्री के लेटर हेड पर परिवहन विभाग से सीज हुए वाहनों को छुड़वाने के लिए सिफ़ारशी पत्र लिख दिया था। इसके अलावा नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और अमित शाह भी धामी को राजनीति का एक अच्छा बॉलर और धाकड़ बल्लेबाज़ बता चुके हैं।

वर्तमान सदन में भाजपा का 57 विधायकों का प्रचण्ड बहुमत है, जिसमें से आठ बार विधायक रहे हरबंस कपूर का निधन हो गया। उधमसिंह नगर से पिता पुत्र विधायक यशपाल आर्य और संजीव आर्य भाजपा छोड़कर कांग्रेस में सम्मिलित हो चुके हैं। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ समेत कांग्रेसी गोत्र के अन्य विधायकों के प्रति इसी कारण भाजपा का रुख़ कुछ नरम रहता है कि कहीं वह भी पासा न पलट लें। हालाँकि भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को बदलने के बाद पार्टी ने केंद्र से सांसद तीरथ सिंह रावत को कमान सौंपी थी, लेकिन उन पर भी भरोसा न करके पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन संघ में अच्छी पैठ की वजह से आज भी भाजपा के शीर्ष नेता लगातार त्रिवेंद्र सिंह रावत के अच्छे सम्पर्क में हैं।

कांग्रेस के हैवीवेट नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के लिए भी यह चुनाव करो या मरो वाली स्थिति बन चुका है। मीडिया और चैनलों पर कई मर्तबा वह इस बात को दोहरा चुके हैं कि या तो मुख्यमंत्री बनूँगा या घर बैठूँगा। इतने दिग्गज राजनीतिज्ञ हरीश रावत के साथ ख़ुद उनकी कांग्रेस पार्टी राजनीति खेल रही है। पार्टी हाईकमान ने उनको मुख्यमंत्री का चेहरा तो नहीं घोषित किया, लेकिन चुनाव उनके संचालन में कराने की घोषणा कर दी। इसके बावजूद कांग्रेस अभी भी राज्य में धड़ों में बँटी हुई है।

भारतीय जनता पार्टी को भी सत्ता वापसी से ज़्यादा चिन्ता इस बात की है कि राज्य में कहीं कांग्रेस के सारे धड़े एकजुट न हो जाएँ। कांग्रेस की पिछली सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे और प्रदेश अध्यक्ष रह चुके प्रीतम सिंह का भी पार्टी में अच्छा-ख़ासा वजूद है। इन चुनावों में कांग्रेस अगर सरकार बनाने लायक बहुमत ले आती है, तो प्रीतम सिंह की मुख्यमंत्री के लिए दावेदारी प्रबल मानी जाएगी। अपनी चाहत और मन की बात को भी प्रीतम सिंह ने पार्टी हाईकमान के समक्ष हमेशा अनुशासित स्वर में रखा है। ऐसा माना जाता है कि हरीश रावत की सहमति के बिना कांग्रेस का नेता नहीं चुना जाएगा; लेकिन पार्टी में आंतरिक अस्थिरता न पनपे इसके लिए भी राहुल गाँधी ख़ासे चिन्तित हैं।

बहराल भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, पलायन, प्राकृतिक आपदाओं और राजनीतिक अस्थिरता से त्रस्त उत्तराखण्ड वर्तमान में तक़रीबन 85,000 करोड़ रुपये के क़र्ज़ में डूबा हुआ है। इसकी भरपाई कैसे होगी? कैसे चुकाया जाएगा यह क़र्ज़? न तो किसी दल को इसकी चिन्ता है, न ही सत्तारूढ़ किसी दल ने कभी अपने चुनावी घोषणा-पत्र में इस क़र्ज़ से निजात पाने का ज़िक्र भी किया। इसलिए यही कहा जा सकता है कि देवी-देवताओं की भूमि में सरकारें और जनता भी दैवीय-कृपा पर ही निर्भर हैं।