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यूपी के चुनाव की दिल्ली में धमक, टिकटों के तलबगार काटने लगे नेताओं के चक्कर  

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के चुनाव की तारीखों का ऐलान होने से पहले ही राजनीतिक दल और टिकटों के तलबगार सक्रिय हो गए हैं। चुनाव जैसी हलचल अब धीरे-धीरे ज़मीन पर दिखने लगी है।

राजनीतिक दल विरोधियों पर तीखे तेवर के साथ आक्रमण कर रहे हैं। चुनावी बिसात बिछने लगी है और भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस के नेता कमोवेश हर रोज नगरों, गाँवों और गली-कूचों की ख़ाक छानने लगे हैं। लेकिन दिलचस्प यह है कि यूपी चुनाव की हलचल दिल्ली में भी दिखने लगी है, जहाँ विभिन्न दलों में टिकट चाहने वाले बड़े नेताओं और पार्टी दफ्तरों के चक्कर काटने लगे हैं।

दिल्ली में भाजपा के एक नेता ने बताया पार्टी नेतृत्व के निर्देश भाजपा नेता और कार्यकर्ता उत्तर प्रदेश के चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत कर रहे हैं। उन्होंने बताया – ‘प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के तूफानी दौरों से सपा, बसपा और कांग्रेस सकते में हैं। प्रधानमंत्री मोदी की नवम्बर में प्रदेश में बड़ी रैलियां ने विपक्षियों के होश गुम कर दिए हैं। योगी सरकार के कामकाज ने साफ़ संदेश दिया है कि भाजपा ही प्रदेश में सुशासन ला सकती है।’

बता दें 13 दिसंबर को पीएम मोदी अपने संसदीय क्षेत्र वाराणसी में काशी विश्वनाथ कॉरिडोर का उद्घाटन करेंगे। इसके अलावा वे दो और दौरे कर सकते हैं जबकि सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव भी भाजपा सरकार के खिलाफ माहौल बनाने और सपा के कार्यकर्ताओं में जोश फूंकने के लिये रथ यात्रा कर रहे हैं। साथ ही छोटे-छोटे राजनीतिक दलों के साथ गठबंधन भी कर रहे हैं।

अखिलेश यादव का आरोप है कि भाजपा के शासन काल में महंगाई, बेरोजगारी बढ़ी  है। किसान डीजल-पेट्रोल की महंगी कीमतों से हलकान हैं। योगे सरकार की नाकामी से कोरोना महामारी में लोगों को इलाज कराने के लिए भटकना पड़ा है, जिससे उनमें गुस्सा है।

उधर कांग्रेस की राष्ट्रीय महासचिव प्रियंका गांधी भी यूपी में जबरदस्त तरीके से सक्रिय हैं। प्रदेश में कांग्रेस के खोये जनाधार को वापस पाने के लिये और कांग्रेस के रूठे नेताओं को कांग्रेस में लाने में जुटी हैं। वे अपनी जनसभाओं में भाजपा के साथ-साथ सपा और बसपा पर हमले कर रही हैं।

बसपा की राष्ट्रीय अध्यक्ष मायावती भी अब धीरे-धीरे सक्रिय दिखने लगी हैं। उनका दावा है कि सिर्फ बसपा ने ही सभी वर्ग के लोगों को साथ लेकर राजनीति की है। उनका कहना है – ”भाजपा को हार का डर सता रहा है। इसलिये वह धर्म की राजनीति करने लगी है।”

उधर उत्तर प्रदेश की राजनीति की जानकारी रखने वाले विश्लेषक कमल किशोर का कहना है कि यूपी के रण में कोई भी राजनीति दल कुछ भी मुद्दा बना ले, आखिरकार चुनाव आते-आते पूरा चुनाव जाति-धर्म के मुद्दे पर सिमट जाएगा।”

एमसीडी के चुनाव में सभी सीटों पर चुनाव लड़ेगी एनसीपी

भले ही दिल्ली में सर्दी से लोग कांपने लगे है पर, दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) चुनाव को लेकर दिल्ली की सियासी हवा दिन व दिन तेज होती जा रही है। दिल्ली की सियासत में कभी कांग्रेस के बड़े नेताओं में शुमार रहे पूर्व मंत्री योगानंद शास्त्री ने एनसीपी का दामन थाम लिया है अब दिल्ली प्रदेश एनसीपी के प्रदेश अध्यक्ष है।

दिल्ली में आयोजित एनसीपी के एक कार्यक्रम में योगानन्द शास्त्री ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल अपने नाम के प्रचार–प्रसार पर करोडो रूपये खर्च कर, गरीबों के पैसे का दुरूप्रयोग कर रहे है।

वहीं केन्द्र की भाजपा सरकार की गलत नीतियों के चलते देश में महगांई बढ़ रही है। डीजल-पेट्रोल के दामों में इजाफा होने से लोगों को काफी परेशानी हो रही है। दिन व दिन गरीब, और गरीब होता जा रहा है।

आप पार्टी से नाता तोड़ चुके कंमाडों सुरेन्द्र कुमार का कहना है कि दिल्ली में न तो केजरी चलेगा और न ही केसरी दिल्ली के एमसीडी के चुनाव में अब की बार एनसीपी पूरे दमखम के साथ चुनाव लड़ेगी। क्योंकि दिल्ली की सियासत से कांग्रेस पार्टी का अस्तित्व गायब होता जा रहा है।

कंमाड़ों ने आप पार्टी को आड़े हाथों लेते हुये कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने दिल्ली की जनता के साथ धोखा किया है। उन्होंने कहा कि जब केजरीवाल दिल्ली की सियासत में नये–नये आये थे। तब कहा करते थे कि दिल्ली का विकास करेगें और भ्रष्ट्राचार को रोकेगे। दिखावा के तौर पर प्रचार–प्रसार नहीं करेगें।

आज दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल करोड़ों रूपये खर्च कर अपना विज्ञापन दें रहे है। दिल्ली में गली-गली शराब की दुकानें खोली जा रही है। जिससे रिहाइशी इलाकों में रहने वालों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है। महिलाओं को आने–जाने में दिक्कत होती है। लेकिन केजरीवाल अपनी सियासत को चमकाने के लिये लोगों के साथ धोखा कर रहे है। कंमाड़ो सुरेन्द्र ने कहा कि अब की बार एमसीडी के चुनाव में एनसीपी सभी  दिल्ली नगर निगम की सीटों पर चुनाव लड़ेगी।

फिर स्कूल बंद, बच्चों की पढाई हो रही है प्रभावित

पहले कोरोना का कहर और अब दिल्ली–एनसीआर में प्रदूषण का कहर जिसके चलते शिक्षण संस्थानों को बंद किया गया है। कोरोना और प्रदूषण दोनों ही शिक्षा और स्वास्थ्य के लिये काफी हानिकारक है।

लगभग दो साल से स्कूलों के बंद होने के कारण बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है। दिल्ली में फिर से बढ़ते प्रदूषण के मद्देनजर दिल्ली के स्कूलों को तो बंद कर दिया गया है। लेकिन इससे बच्चों की पढ़ाई प्रभावित हो रही है।

अभिभावकों ने तहलका संवाददाता को बताया कि कोरोना के बाद प्रदूषण अब कहीं कोरोना के नये स्वरूप ओमिक्रोन के चलते फिर से लाँकडाउन जैसे हालात न बन जाये। जिसके चलते स्कूलों को बंद करना पड़े तो शिक्षा व्यवस्था पूरी तरह से खासकर पिछड़े इलाकों में लड़खड़ा जायेगी।

अभिभावक सुरेश कुमार ने बताया कि सरकार को स्कूलों को खोलने के लिये कोई नया विकल्प देखना होगा। अन्यथा गरीब बच्चे है जिनके पास मोबाइल और इंटरनेट जैसी सुविधा नहीं है। वे आँनलाईन पढ़ाई कैसे कर सकते है।

रामकिशन ने बताया कि सरकार तो सीधे स्कूलों को बंद करने का आदेश जारी कर देती है। कभी सरकार ने ये आदेश जारी किया है कि स्कूल बच्चे नहीं जा रहे है। तो, बच्चों की फीस माफ करें या कम करें। ये तो, सरकार नहीं कर रही है। जिससे बच्चों के साथ अभिभावकों पर काफी विपरीत असर पड़ रहा है। उनका कहना है कि अगर समय रहते स्कूलों को खोलने के लिये कोई गाइड लाईन न लायी गयी तो देश के बच्चों की पढ़ाई अधर में लटक जायेगी।

दिल्ली के प्राईवेट स्कूल के टीचरों का कहना है कि अजीब बिडम्बना है एक ओर तो सरकार बाजारों को खोल रही है। कोरोना गाईड लाईन की धज्जियां उड़ाई जा रही है। लेकिन स्कूल खोलने के नाम पर कहीं प्रदूषण का हवाला दिया जाता है तो कहीं कोरोना का जिससे के चलते देश के बच्चों की पढ़ाई का सिस्टम टूट रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने प्रदूषण पर केंद्र, दिल्ली सरकार को 24 घंटे का समय दिया

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली और एनसीआर में लगातार बढ़ रहे वायु प्रदूषण पर सर्वोच्च न्यायालय ने गुरुवार को शहर में खतरनाक स्तर तक बढ़ चुके वायु प्रदूषण के स्तर के बीच स्कूल खोलने के लिए दिल्ली सरकार की कड़ी खिंचाई की है। सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों को लागू करने के लिए गंभीर योजना बनाने के लिए 24 घंटे की समय सीमा तय की है।

सुनवाई के दौरान सर्वोच्च अदालत ने दिल्ली सरकार से पूछा कि जब सरकार ने वयस्कों के लिए वर्क फ्रॉम होम लागू किया तो बच्चों को स्कूल जाने के लिए क्यों मजबूर किया जा रहा है? आज इस मामले पर सुनवाई हुई। कोर्ट ने राज्यों और केंद्र को फटकार लगाई। साथ ही उन्हें 24 घंटे के अंदर प्रदूषण नियंत्रण पर गंभीर योजना पेश करने का आदेश दिया।

इस मसले पर गुरुवार को दोबारा सुनवाई हुई। सुप्रीम कोर्ट ने कहा – ‘हमें लगता है कि वायु प्रदूषण का स्तर बढ़ने के बावजूद इस समस्या से निपटने के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है।’ सुनवाई के दौरान सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से सीएनजी बसों को लेकर भी सवाल किया।

सर्वोच्च अदालत में यह सुनवाई दिल्ली के एक छात्र 17 वर्षीय आदित्य दुबे की राजधानी में बढ़ते प्रदूषण के खिलाफ दायर याचिका पर हो रही है। बता दें दिल्ली में
दिवाली के बाद से ही हवा खराब या गंभीर श्रेणी में दर्ज की जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने एनसीआर और आसपास के इलाकों में वायु गुणवत्ता प्रबंधन आयोग से कहा कि आपात स्थिति में आपको आकस्मिक तरीके से काम करना होगा।

अदालत ने केंद्र से कहा – ‘हम आपकी नौकरशाही में रचनात्मकता को लागू या थोप नहीं सकते, आपको कुछ कदम उठाने होंगे।’ केंद्र के सॉलिसिटर जनरल ने सुप्रीम कोर्ट को बताया कि शीर्ष अधिकारी प्रदूषण के बारे में समान रूप से चिंतित हैं और बिजली संरचना को फिर से बनाने की जरूरत है। उन्होंने वायु प्रदूषण से निपटने के लिए उच्चतम प्राधिकरण से बात करने और अतिरिक्त उपायों के साथ आने के लिए समय की मांग की।

सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली सरकार से आगे कहा, “हम औद्योगिक और वाहनों के प्रदूषण को लेकर गंभीर हैं। आप हमारे कंधों से गोलियां नहीं चला सकते, आपको कदम उठाने होंगे। स्कूल क्यों खुले हैं?’ सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र और दिल्ली सरकार को वायु प्रदूषण नियंत्रण उपायों को लागू करने के लिए गंभीर योजना बनाने के लिए 24 घंटे की समय सीमा दी है।

अदालत ने केंद्र और दिल्ली सरकारों से कहा कि अगर वे प्रदूषण को नियंत्रित करने के उपाय नहीं करते हैं तो अदालत आदेश पारित करेगी। इसके साथ ही कोर्ट ने सुनवाई को कल (शुक्रवार) सुबह 10 बजे तक के लिए टाल दिया है। पिछले एक महीने से दिल्ली में प्रदूषण का स्तर काफी ज्यादा बढ़ा हुआ है।

दिल्ली सरकार ने मामले की गंभीरता को देखते हुए स्कूलों को बंद कर दिया था, साथ ही निजी कंपनियों को ज्यादा से ज्यादा कर्मचारियों को ‘वर्क फ्रॉम होम’ देने के निर्देश भी दिए थे।

सर्दी की दस्तक के साथ दिखने लगा कुहासा

राजधानी दिल्ली में अब सर्दी बढ़ने लगी है। सुबह-सुबह कुहासा भी दिखने लगा। मौसम विभाग की माने तो 3 दिसम्बर से हल्ली बारिश भी हो सकती है। जिससे सर्दी और भी बढ़ेगी।

वहीं सर्दी के बढ़ने से दिल्ली में देश के अन्य राज्यों से आये लोगों को सर्दी के सितम से जूझने को मजबूर होना पड़ता है। दिल्ली के रेलवे स्टेशनों और सरकारी अस्पतालों के बाहर मरीजों के तीमारदारों को काफी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

बताते चलें हर साल दिल्ली सरकार सर्दी से लोगों को बचाने के लिये रैन बसेरे की व्यवस्था करती है। ताकि कोई भी नागरिक सर्दी में परेशान न हो। सर्दी से बचाव के लिए सरकारी अस्पतालों के बाहर पर्याप्त संख्या में रैन बसेरे भी बनाये जाते है।

रैन बसेरा में काम करने वाले मनोज कुमार ने बताया कि अभी तो सर्दी ने सही से दस्तक देना शुरू नहीं किया है। जैसी ही सर्दी का प्रकोप जोर पकड़ेगा। रैन बसेरा में लोग रहने के लिये आने लगेगें। उनका कहना है कि किसी को भी सर्दी से न जूझना पड़े उसके लिये पर्याप्त व्यवस्था की जाती है।

वहीं दिल्ली के कई बड़े पुल है जो रेलवे स्टेशनों, बस अड्डों के पास उनके नीचे भी लोग अलाव जलाकर सर्दी से बचने का पूरा इंतजाम करते है।

तहलका संवाददाता को पुल के नीचे रात गुजारने वाले लोगों ने बताया कि सर्दी हो गरमी वे पुल के नीचे ही रहते है और दिहाड़ी, रिक्शा चलाकर अपना दैनिक जीवन –यापन करते है। उन्होंने सरकार से अपील की है। जो दिहाड़ी मजदूर है। जिनके रहने के लिये कोई घर नहीं है वे किराये पर घर नहीं ले सकते है। तो उनके लिये पुलों के नीचें या आस-पास अलाव या रैन बसेरा बनाये जाये ताकि सर्दी के सितम से बच सकें।

 

कानून तो वापस हो गया लेकिन आंदोलन समाप्त होने में किसानों के बीच रस्साकशी जारी

केन्द्र सरकार द्वारा थोपे गये, तीन कृषि कानूनों के विरोध में एक साल से अधिक समय तक किसानों ने देश भर आंदोलन कर विरोध जताया और तीनों कृषि कानून के वापस होने तक आंदोलन को जारी रखा है। कानून वापस होने के बाद भी किसान आंदोलन को समाप्त करने को लेकर असमंजस में है।

बताया जा रहा है कि किसान आंदोलन तो जरूर था । लेकिन इस में सियासी लोग पर्दे के पीछे सियासत करते रहे है। किसान आंदोलन को समाप्त कराने से लेकर अब किसानों के बीच दो-फाड़ कराने के लिये सियासत साफ देखी जा रही है।

जानकारों का कहना है कि किसान आंदोलन को समाप्त करने के पीछे सरकार की मंशा साफ दिखी कि सरकार किसानों को ना-खुश नहीं करना चाहती है। इसलिये सरकार ने एक साल तक देख लिया कि बिना कानून वापस लिये बात नहीं बनेगीं, तो प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने खुद कानून वापस करने की बात कहीं और संसद से कृषि कानून बिल को वापस करवाया।

कृषि कानून बिल वापस होने से देश के किसान तो खुश हो गये किंतु किसान आंदोलन का नेतृत्व करने वाले किसानों के बीच इस समय किसान आंदोलन को पूरी तरह समाप्त करने के लिये आपसी में रस्साकशी चल रही है कि आंदोलन को समाप्त किया जाये या नहीं?

किसान आंदोलन से जुड़े किसान नेता बलबेन्द्र सिंह ने बताया कि किसान आंदोलन को समाप्त कराने के पीछे पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह का हाथ रहा है। अब केन्द्र सरकार, हरियाणा सरकार और भाजपा के वरिष्ठ नेता और अमरिंदर सिंह किसानों को साफ संदेश दे रहे है कि किसानों की मांगों को पूरा मान लिया गया है। किसान आंदोलन को समाप्त कर किसान अपने घरों में जाये।

वहीं किसान आंदोलन को धार देने वाले व पूरे आंदोलन की अगुवाई करने वाले किसान नेता राकेश टिकैत की अब किसान नेताओं द्वारा अनदेखी की जा रही है। सरकार की ओर से कोई बड़ा नेता किसी भी मुद्दे पर राकेश टिकैत से बात नहीं कर रहा है। इससे किसान नेता राकेश टिकैत काफी नाराज है।

राकेश टिकैत का कहना है कि जब तक किसानों पर दर्ज मुकदमें वापस नहीं हो जाते है साथ ही मृतक किसानों को मुआबजा व एमएसपी जैसे मामलें हल नहीं हो जाते है। तब तक आंदोलन को समाप्त नहीं होना चाहिये।

दिल्ली में कमर्शियल गैस सिलेंडर की कीमतों में 100 रुपये बढ़ोतरी

लोगों को झटका देते हुए राजधानी दिल्ली में बुधवार को लोगों को झटका देते हुए व्यवसायिक कुकिंग गैस सिलेंडर सौ रुपए महंगा कर दिया गया है जिसे लोगों की जेब पर बोझ और बढ़ गया है।

कमर्शियल कामों के लिए इस्तेमाल किये जाने वाले एलपीजी सिलेंडरों के दाम में बुधवार को 100 रुपए का इजाफा कर दिया गया. इसके बढ़ौतरी के बाद दिल्ली में अब 19 किलो के एलपीजी सिलेंडर का दाम 2000.50 से बढ़कर 2100.50 रुपये हो गया है। हालांकि, घरेलू इस्तेमाल वाले सिलेंडरों की कीमत में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी है। पिछले साल दिसंबर से लेकर अब तक कमर्शियल सिलेंडर के दाम 1300 रुपए से बढ़कर 2100 पहुँच चुके हैं।

बढ़ौतरी होने पर होटल व्यवसाय से जुड़े लोगों का कहना है कि इससे इससे ढाबे, होटल और बेकरी से लेकर तैयार खाने के दामों में करीब दो फीसदी का इजाफा हो सकता है. इसका असर आम लोगों को ही झेलना पड़ेगा। अगर आंकड़ों पर नजर डालें तो पिछले साल दिसंबर से लेकर कमर्शियल सिलेंडर के दाम के बार बढ़ चुके हैं. देख जाए तो 19 KG का सिलेंडर अक्टूबर 2020 में जहां 1250 रुपए का था, वहीं अब सालभर बाद ये बढ़तर 2093 रुपए का हो चुका है।

बीते चार महीनों में कमर्शियल सिलेंडर की कीमतों में अकेले सितंबर में 75 रुपए की बढ़ोतरी हुई जबकि अक्टूबर में 33 रुपए और नवंबर में 163 रुपए के बाद अब दिसंबर में 103 रुपए की बढ़ोत्तरी हुई है।

आमने-सामने

Protesting Farmers gather at Singhu border during the demonstration against newly passed farm bills in Delhi. Thousands of farmers from various states march towards the India capital to protest against newly passed farm bills they say will severely hurt their incomes, according to farmers union

तीन कृषि क़ानून वापस लेने पर भी किसान अन्य मुद्दों पर अडिग

एक साल से जारी आन्दोलन बताता है कि किसान हार मानने को तैयार नहीं हैं। प्रधानमंत्री मोदी की तीन कृषि क़ानून वापस लेने की बड़ी घोषणा के बाद 29 नवंबर, 2021 को संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों सदनों में कृषि क़ानून वापसी विधेयक-2021 पारित करने के बावजूद किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को क़ानून का दर्जा देने सहित अन्य सभी मसले हल करने की माँग को लेकर अडिग हैं। क़ानून वापस लेने की घोषणा से भाजपा जिस राजनीतिक लाभ की उम्मीद कर रही थी, किसानों की रणनीति ने उसे ध्वस्त कर दिया है। किसानों ने आन्दोलन जारी रखने का फ़ैसला किया है। क्योंकि उन्हें मालूम है कि दबाव हटते ही सरकार उन पर हावी हो जाएगी। विधानसभा चुनावों की बेला में किसानों और सरकार के बीच तनातनी भाजपा ख़ेमे की चिन्ता बढ़ा रही है। पूरे घटनाक्रम और सरकार व किसानों के बीच बढ़ रहे तनाव को लेकर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

सिंघु बॉर्डर पर अजीब-सी ख़ामोशी है। जैसे किसी तूफ़ान से पहले की ख़ामोशी हो। पिछले एक साल में दिल्ली की सीमाओं पर किसानों की एक पूरी बस्ती बस गयी है। अपने हक़ की लड़ाई और देश को अन्न दे सकने की कुव्वत बनी रहे, इसके लिए 700 से अधिक किसान इस आन्दोलन के दौरान अपनी शहादत दे चुके हैं और जो लाखों किसान इस आन्दोलन से अभी भी जुड़े हैं; दिल्ली की सीमाओं और दूसरे कई प्रदेशों में जगह-जगह डटे हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा के बाद सरकार को लगा था कि किसान अब शायद अपने घर लौट जाएँगे और आन्दोलन ख़त्म हो जाएगा। लेकिन किसान संघर्ष समिति ने साफ़ कह दिया है कि जब तक एमएसपी (न्यूनतम समर्थन मूल्य) सहित उनके दूर मसले हल नहीं होते, आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा। 29 नवंबर, 2021 को संसद के शीतकालीन सत्र में दोनों सदनों में कृषि क़ानून वापसी विधेयक-2021 पास हो गया।

मोदी सरकार की तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा जिस तरह गुरु पर्व (कार्तिक पूर्णिमा) के दिन आयी, उससे किसानों और अन्य कई लोगों को लगा है कि एनडीए सरकार, ख़ासकर भाजपा इस पवित्र दिन को राजनीतिक लाभ के लिए इस्तेमाल करना चाहती है। किसान सुखदेव सिंह ने कहा- ‘एक साल में 700 से अधिक किसान मर गये। किसान आन्दोलन स्थल पर सर्दी में ठिठुरते रहे, गर्मी से बेहाल रहे और भारी बारिश में भीगते रहे। किसानों को ख़ालिस्तानी और देशद्रोही कहा गया। अब उपचुनावों के नतीजों में भाजपा की हवा खिसकी है, तो किसानों की याद आ गयी। वो (सरकार और भाजपा) सिर्फ़ राजनीति कर रहे हैं।’

यह सही है कि पंजाब किसान आन्दोलन का अगुआ रहे हैं; लेकिन इसे इस तरह एक धर्म विशेष से जोडऩे की सरकार की कोशिश का लोगों में ग़लत सन्देश गया है। किसान तो हर वर्ग के हैं। फ़िलहाल सिंघु बॉर्डर और आन्दोलन के अन्य ठिकानों में जाने पर कहीं नहीं लगता कि किसान बोरिया-बिस्तर समेटकर अपने-अपने घरों को लौटने वाले हैं।

सिंघु बॉर्डर पर लुधियाना के एक गाँव के किसान गुरबख्श सिंह ने कहा- ‘खेत हमने कोई खिल्ले (ख़ाली) थोड़े ही छोड़ रखे हैं। बारी-बारी से हमारे परिवारों के लोग यहाँ (सिंघु बॉर्डर) पर ड्यूटी निभाते हैं और जो गाँवों में हैं, वे खेतों में करते हैं। फ़ौज में हमारे जो बच्चे हैं, वे भी छुट्टी लेकर आते हैं और यहाँ आन्दोलन स्थल पर ड्यूटी निभाते हैं। यह आन्दोलन किसान अपने लिए थोड़े ही कर रहे हैं; देश के लिए कर रहे हैं। किसान तो नमक के साथ भी रोटी खा लेता है। यह आन्दोलन तो देश के अन्न (लोगों को अन्न उपलब्ध कराने) के लिए है।’

किसान कहते हैं कि कृषि क़ानून किसी भी तरह किसानी और किसान के हक़ में नहीं। एमएसपी को क़ानून के दायरे में लाना भी बड़ा मसला है। तीन क़ानूनों से जुड़े और कई मुद्दे हैं जो किसानों और खेती को प्रभावित करते हैं। किसान संघर्ष समिति के नेता राकेश टिकैत ने कहा- ‘संयुक्त किसान मोर्चा प्रधानमंत्री मोदी के फ़ैसले का स्वागत करता है और संसदीय प्रक्रियाओं के माध्यम से घोषणा के प्रभावी होने की प्रतीक्षा करेगा। आन्दोलन अभी ख़त्म नहीं हो रहा। प्रधानमंत्री यह याद रखें कि किसानों का आन्दोलन न केवल तीन काले क़ानूनों को निरस्त करने के ख़िलाफ़ है, बल्कि सभी कृषि उत्पादों और सभी किसानों के लिए लाभकारी मूल्य की वैधानिक गारंटी के लिए भी है। किसानों की यह अहम माँग अभी बाक़ी है।’ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब गुरु पर्व वाले दिन किसान क़ानून वापस लेने के घोषणा की तो उन्होंने यह भी कहा कि शायद वे किसानों को समझाने में नाकाम रहे तो ऐसा लगा कि वे इतनी बड़ी घोषणा करने के बावजूद किसानों पर ही सब चीजों का ठीकरा फोड़ रहे हैं। उस समय प्रधानमंत्री ने देश को भी सम्बोधित किया और कहा कि किसान अब खेतों में लौट जाएँ। लेकिन इस बड़े ऐलान से किसान आन्दोलन को लेकर जो होने की कल्पना भाजपा या मोदी सरकार ने की थी वैसा कुछ हुआ नहीं। कारण यह था कि किसानों की बड़ी जमात ने इस घोषणा को भाजपा के राजनीतिक एजेंडे के रूप में देखा।

यदि ऐसी कोई घोषणा आज से साथ-आठ महीने पहली होती तो उसमें सरकार की मंशा ईमानदारी के रूप में ली जाती। लेकिन यह वो दौर था, जब भाजपा के बड़े नेता से लेकर छोटे नेता तक किसानों को जी भर-भरकर गालियाँ दे रहे थे। उन्हें ख़ालिस्तानी और देश विरोधी बताया जा रहा था। निश्चित ही सत्तारूढ़ दल की इन राजनातिक कोशिशों से किसान ख़फ़ा थे। उन्हें सरकार के रूप में दोस्त नहीं दुश्मन नज़र आ रहा था। केंद्र और किसान नेताओं के बीच बातचीत की दर्ज़न भर बैठकों के बावजूद यदि कोई ठोस फार्मूला नहीं निकल पाया, तो इसका सबसे बड़ा कारण किसानों को बदनाम करने की यही साज़िश थी; क्योंकि इसने किसानों और सरकार (भाजपा भी) के बीच अविश्वास की गहरी खाई खोद दी थी। अब जबकि तीन कृषि क़ानून वापस लेने जैसा बड़ा ऐलान देश के प्रधानमंत्री की तरफ़ से हुआ है; विश्वास की कमी नासूर बनकर सामने है। किसानों का सरकार पर कोई भरोसा नहीं बचा है। किसान सरकार को एक मित्र और शुभचिन्तक के रूप में देखने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। किसानों को लगता है कि भाजपा उपचुनावों में हारी है और आने वाले विधानसभा चुनावों में उसे गम्भीर चुनौती दिख रही है। इसलिए उसने तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने का दाँव चला है। किसान समझते हैं कि इसमें शुद्ध राजनीति है, किसानों के प्रति कोई प्यार या सहानुभूति नहीं।

अब यह साफ़ हो गया है कि प्रधानमंत्री मोदी ने क़ानून वापस लेने की जो घोषणा की थी, वह किसानों के तमाम अन्य मसलों के हल होने तक आन्दोलन जारी रखने की घोषणा से राजनीतिक रूप से धारदार नहीं रह गयी। यदि किसानों की समस्याओं को समझते हुए पहले ऐसी घोषणा होती, तो उसके मायने अलग होते; भले ही तब भी भाजपा राजनीतिक लाभ की मंशा रखे होती। उसे एक राजनीतिक दल के रूप में इसका लाभ मिलता; लेकिन अब शायद ऐसा न हो। भाजपा के सामने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राज्य सहित पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव की बड़ी चुनौती है। यह साफ़ है कि देश में आज की तारीख़ में भाजपा देश में सन् 2014 या सन् 2019 जैसा लोकप्रिय राजनीतिक दल नहीं रह गया है। नवंबर में उसे देश भर में हुए विभिन्न उपचुनावों में बांछित नतीजे नहीं मिले हैं। हिमाचल जैसे भाजपा के मज़बूत गढ़ में पार्टी को करारी हार मिली है। मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के घर मंडी में भाजपा का उम्मीदवार लोकसभा उपचुनाव हार गया। यही नहीं तीन विधानसभा सीटों में से एक भी भाजपा को नहीं मिली और उसे शर्मनाक हार झेलने पड़ी। अब चर्चा है कि विधानसभा चुनावों से पहले या बाद में मुख्यमंत्री जयराम पर इस हार की गाज गिर सकती है।

देश में भले भाजपा के नेता और भाजपा-संघ-पूँजीपति समर्थक सोशल मीडिया प्रधानमंत्री मोदी की घोषणा को बहुत बड़ी घोषणा के रूप में पेश कर रहा हो, यही वर्ग एक महीने पहले तक किसानों को देशद्रोही ब्रांड करने के लिए रात-दिन एक किये हुए था। इन 12 महीनों में किसानों को क्या-क्या नहीं कहा गया? सैकड़ों की शहादत हुई, वह अलग। प्रधानमंत्री ने जब तीन क़ानून वापस लेने की बात कही और किसानों ने कहा कि वे एमएसपी को क़ानून के दायरे में लाने की भी माँग कर रहे हैं। लिहाज़ आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा, अभी तो इस वर्ग ने फिर बन्दूकें किसानों की तरफ़ तान लीं। सौहाद्र्र की कमी इसी से ज़ाहिर हो जाती है; क्योंकि किसानों की माँगें तो साल भर से जनता के सामने हैं।

क्या थे तीन क़ानून?

मोदी सरकार ने पिछले साल तीन कृषि क़ानून बनाये थे, जिनके किसानों के हित में होने का दावा किया गया था। हालाँकि इन क़ानूनों का व्यापक स्तर पर विरोध भी हुआ और इनके ज़रिये किसानों को कार्पोरेट की दया पर छोडऩे के आरोप भी कांग्रेस, अन्य विपक्षी दल और कृषि जानकार लगाते रहे हैं। इनमें पहले क़ानून कृषक उपज, व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम-2020, दूसरा कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार अधिनियम-2020 और तीसरा आवश्यक वस्तुएँ संशोधन अधिनियम-2020 शामिल हैं।

कृषक उपज व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सरलीकरण) अधिनियम-2020 : सरकार के दावे के मुताबिक, इन तीन क़ानूनों के तहत देश के किसानों को उनकी उपज बेचने के लिए अधिक विकल्प मुहैया कराना मुख्य उद्देश्य था। ये क़ानून देश के किसानों को अच्छी क़ीमत पर अपनी फ़सल बेचने की स्वतंत्रता देता था।

इसके अलावा यह, राज्य सरकारों को मंडी के बाहर होने वाली उपज की ख़रीद-फ़रोख़्त पर कर (टैक्स) वसूलने से रोक लगाता था। इस क़ानून के तहत किसान अपनी फ़सलों को देश के किसी भी हिस्से में किसी भी व्यक्ति, दुकानदार, संस्था आदि को बेच सकते हैं। इतना ही नहीं, किसान अपनी उपज की क़ीमत भी ख़ुद तय कर सकते हैं।

कृषक (सशक्तिकरण व संरक्षण) क़ीमत आश्वासन और कृषि सेवा पर क़रार अधिनियम-2020 : इस क़ानून के तहत देश भर के किसान बुवाई से पहले ही तय मानकों और तय क़ीमत के हिसाब से अपनी फ़सल को बेच सकते थे। सीधे शब्दों में कहें, तो यह क़ानून ठेके पर खेती (कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग) से जुड़ा है। इस क़ानून को लेकर सरकार का कहना था कि इसके ज़रिये किसानों को नुक़सान का जोखिम कम रहेगा। इसके अलावा उन्हें फ़सल तैयार होने के बाद ख़रीदारों को जगह-जगह जाकर ढूँढने की भी ज़रूरत नहीं होगी। इतना ही नहीं, इसके ज़रिये देश का किसान समानता के आधार पर न सिर्फ़ ख़रीदार ढूँढ पाने में सक्षम होगा, बल्कि उसकी पहुँच बड़े कारोबारियों और निर्यातकों तक बढ़ जाएगी।

आवश्यक वस्तुएँ संशोधन अधिनियम-2020 : फ़सलों के भण्डारण और फिर उसकी काला बाज़ारी को रोकने के लिए सरकार ने पहले ज़रूरी वास्तु अधिनियम 1955 बनाया था। इसके तहत व्यापारी एक सीमित मात्रा में ही किसी भी कृषि उपज का भण्डारण कर सकते थे। वे तय सीमा से बढक़र किसी भी फ़सल को स्टॉक में नहीं रख सकते थे। नए कृषि क़ानूनों में आवश्यक वस्तुएँ संशोधन अधिनियम-2020 के तहत अनाज, दाल, तिलहन, खाद्य तेल, प्याज और आलू जैसी कई फ़सलों को आवश्यक वस्तुओं की लिस्ट से बाहर कर दिया। सरकार ने कहा कि राष्ट्रीय आपदा, अकाल या ऐसे ही किसी विपरीत हालात के दौरान इन वस्तुओं के भण्डारण पर कोई सीमा नहीं लगेगी।

एमएसपी पर क़ानून क्यों ज़रूरी?

न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी। किसान इसे क़ानून के दायरे लाने की माँग कर रहे हैं। एमएसपी उत्पाद की वो न्यूनतम क़ीमत है, जिस पर सरकार किसानों से उनकी फ़सल ख़रीदती है। यदि फ़सलों के दाम बहुत ज़्यादा गिर जाएँ, तो भी किसान कम-से-कम अपनी लागत का ख़र्च इसमें निकाल लेता है। उन्हें कुछ-न-कुछ मुनाफ़ा भी हो जाता है। देश में आज की तारीख़ में 23 फ़सलों पर किसानों को एमएसपी सरकार की तरफ़ से मिलता है। इन फ़सलों में गेहूँ-धान जैसी मुख्य फ़सलें शामिल। दिलचस्प यह है कि देश में इस व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा नहीं है। देश में अनाज उत्पादन बढ़ाने की पहली कोशिश सन् 1964 में हुई, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने एक समिति बनायी; जिसे गेहूँ और चावल का न्यूनतम मूल्य (एमएसपी) तय करने का ज़िम्मा दिया गया। कृषि मूल्य आयोग का गठन किया गया, जो बाद में कृषि लागत और मूल्य आयोग बन गया और यही आयोग आज देश की 23 फ़सलों का एमएसपी तय करता है। वैसे सन् 2015 में भारत सरकार की एक समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि देश में एमएसपी का महज़ छ: फ़ीसदी किसानों को ही मिल पाता है। यानी 94 फ़ीसदी को कोई लाभ नहीं मिलता। इसके दो कारण हैं। एक तो देश के सभी ज़िलों में सरकारी मंडियाँ नहीं हैं, जिससे किसान अपनी फ़सलें सरकार को आसान से बेच सकें और दूसरा सरकार के पास फ़सलों के स्टॉक के लिए ज़्यादा व्यवस्था नहीं है।

किसान चाहते हैं कि सरकार ऐसा क़ानून बनाये, जिससे कोई भी उनके उत्पाद को एमएसपी से नीचे न ख़रीद सके। उसके लिए दण्ड की व्यवस्था हो। अभी एमएसपी पर ख़रीद दो दर्ज़न फ़सलों तक सीमित है। लेकिन गेहूँ और धान को छोड़ दें, तो अधिकतर फ़सलों की ख़रीद दयनीय दशा में है। ऐसा नहीं है कि मौज़ूदा किसान आन्दोलन में ही न्यूनतम समर्थन मूल्य या एमएसपी पर ख़रीद की चर्चा चल रही है।

लम्बे समय से किसान आन्दोलनों के केंद्र में कृषि मूल्य नीति या वाजिब दाम शामिल रहा है। किसान अरसे से माँग करते आ रहे हैं कि कृषि उत्पादों के मूल्य-1967 को आधार वर्ष तय करके घोषित किये जाएँ। अस्सी के दशक के बाद तो कोई ऐसा किसान आन्दोलन नहीं हुआ, जिसमें फ़सलों का वाजिब दाम न शामिल रहा हो। ख़ुद संसद, संसदीय समितियों और विधान सभाओं में इस पर व्यापक चर्चाएँ हुई हैं। एक दौर में जबकि एमएसपी की व्यवस्था की गयी थी, वह ठीक ठाक थी। उत्पादन बढऩे के साथ अन्य इलाक़ों के किसानों की भी इसके दायरे में आने की चाहत बढ़ी है। किसान संगठन एमएसपी के पैमाने और सरकारी ख़रीद दोनों से असन्तुष्ट रहे हैं। वहीं सरकार भी जानती है कि किसानों को वाजिब दाम मिलने लगे तो उनकी अधिकतर समस्याओं का हल निकल जाएगा। उनका उत्पाद सरकार ख़रीदे या निजी क्षेत्र; लेकिन सही दाम मिलेगा, तभी तो आय बेहतर होगी। इसका उनके जीवन स्तर अनुकूल पर असर पड़ेगा और देश की अर्थ-व्यवस्था पर भी। दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा खाद्यान्न उत्पादक देश भारत ही है। पाँच दशक में हमारा गेहूँ उत्पादन नौ गुने और धान उत्पादन तीन गुने से ज़्यादा बढ़ा है। लेकिन खेती की लागत भी इसी अनुपात में बढ़ी है। अफ़सोस यह है कि कृषि उत्पादों के दाम नहीं। लिहाज़ एमएसपी को क़ानूनी दायरे में लाना किसानों के हित में ही होगा।

किसान और राजनीति

बहुत-से लोग मानते हैं कि उत्तर प्रदेश में आने वाले विधानसभा चुनाव में राजनीतिक घाटे का ख़तरा महसूस करके ही मोदी सरकार को तीन कृषि क़ानून वापस लेने के लिए मजबूर होना पड़ा है। याद रहे मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत में सितंबर में किसान नेता राकेश टिकैत ने ‘वोट पर चोट’ का नारा दिया था। तब से ही माना गया है कि उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव में किसानों का गुस्सा असर दिखाएगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसानों का आन्दोलन लगातार राजनीतिक चर्चा के केंद्र में रहा है।

हाल के महीनों में उत्तर प्रदेश में किसान आन्दोलन का प्रभाव, ख़ासतौर पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश में काफ़ी दिख रहा है। इसके कई कारण हैं। एक तो इस इलाक़े में ज़्यादातर गन्ना किसान हैं और वो तीन कृषि क़ानून के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन में शुरू से ही शामिल रहे हैं। दूसरे, आन्दोलन का नेतृत्व करने वाली भारतीय किसान यूनियन का इस इलाक़े में जबरदस्त प्रभाव है। जिन राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं, किसान संघर्ष मोर्चा वहाँ महापंचायतों के कार्यक्रम कर रहा है। किसान नेता इनमें लगातार भाजपा के ख़िलाफ़ लोगों से वोट करने की अपील करते रहे हैं।

किसान संघर्ष मोर्चा के नेता राकेश टिकैत का कहना रहा है कि पश्चिम उत्तर प्रदेश से ही भाजपा का उत्तर प्रदेश में झंडा बुलंद हुआ था और वहीं से उनकी उल्टी गिनती भी शुरू होगी। किसानों ने केंद्र और उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार बनवायी; लेकिन अब सरकार इन्हीं किसानों की बात अनसुनी कर रही है। यदि किसान वोट देकर सत्ता दिला सकता है, तो वोट की चोट करके गद्दी से उतार भी सकता है।

भाजपा की चिन्ता का दूसरा बड़ा कारण हाल के महीनों में पंचायत चुनाव में भाजपा को झटका लगना भी है। सीधे मतदाताओं की ओर से चुने जाने वाले ज़िला पंचायत सदस्यों में समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय लोकदल को अच्छी-ख़ासी जीत मिली थी। अब तो राज्य में कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी भी जबतदस्त तरीक़े से सक्रिय हो चुकी हैं।

देखा जाए, तो पिछले तीन चुनावों (सन् 2014 व 2019 के लोकसभा चुनाव और 2017 के विधानसभा चुनाव) में पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा को बड़ी बढ़त मिली थी। हालाँकि अब किसान आन्दोलन की वजह से स्थितियाँ काफ़ी बदल चुकी हैं। भले भाजपा के नेता ऊपरी तौर पर कहते रहें कि किसान आन्दोलन का कोई नुक़सान भाजपा को नहीं होगा। लेकिन एक भाजपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर स्वीकार किया कि पार्टी को नुक़सान होगा। उनका यह भी मानना है कि भले तीन कृषि क़ानून वापस लेने की घोषणा की गयी है, यह बहुत देरी से किया गया फ़ैसला है। 100 से ज़्यादा विधानसभा सीटों की क्षमता वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश में निश्चित की किसान भाजपा के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हो सकते हैं। उत्तराखण्ड में भी किसान किसी पार्टी की हार जीत में बड़ी भूमिका अदा कर सकते हैं।

प्रधानमंत्री का ऐलान

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुरु पर्व जैसे बड़े मौक़े पर केंद्र सरकार द्वारा तीनों कृषि क़ानून वापस लिए जाने का ऐलान किया। निश्चित ही प्रधानमंत्री की घोषणा स्वागत योग्य थी और दिल्ली के ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर जलेबियाँ बाँटी गयीं। लेकिन इसे मोदी सरकार की दरियादिली और मास्टरस्ट्रोक के रूप में पेश करने वाला गोदी मीडिया भूल गया कि यह सरकार का किसानों की दृढ़ता के आगे झुकने और हाल के उपचुनावों में बेहतर नतीजे नहीं आने का असर था। मोदी ने राष्ट्र के नाम अपने सम्बोधन में तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने का ऐलान किया और कहा कि मैं आपको, पूरे देश को, ये बताने आया हूँ कि हमने तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने का फ़ैसला किया है। नवंबर के अन्त में होने जा रहे संसद सत्र में हम इन तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने की संवैधानिक प्रक्रिया को पूरा कर देंगे।

प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार ने कृषि क्षेत्र से जुड़ा एक और अहम फ़ैसला किया है। वो यह कि ज़ीरो बजट खेती यानी प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने के लिए, देश की बदलती ज़रूरतों को ध्यान में रखकर क्रॉप पैटर्न को वैज्ञानिक तरीक़े से बदलने के लिए, एमएसपी को और अधिक प्रभावी और पारदर्शी बनाने के लिए ऐसे सभी विषयों पर भविष्य को ध्यान में रखते हुए निर्णय लेने के लिए एक समिति का गठन किया जाएगा। इस समिति में केंद्र सरकार, राज्य सरकारों के प्रतिनिधि होंगे, किसान होंगे, कृषि वैज्ञानिक होंगे, कृषि अर्थशास्त्री होंगे। संयुक्त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री मोदी के ऐलान पर कहा कि मोर्चा इस निर्णय का स्वागत करता है और उचित संसदीय प्रक्रियाओं के माध्यम से घोषणा के प्रभावी होने की प्रतीक्षा करेगा। मोर्चा ने कहा कि किसानों की कई अहम माँगें अभी बाक़ी हैं। मोर्चा इन सभी घटनाक्रमों पर ध्यान देगा, जल्द ही अपनी बैठक करेगा, और आगे के निर्णयों की घोषणा करेगा। कृषि क़ानून रद्द होने पर ऑल इंडिया किसान सभा महासचिव हन्नान मोल्लाह ने कहा कि मैं इस घोषणा का स्वागत करता हूँ। जब तक सदन से इस घोषणा पर कार्यवाही नहीं होती है, तब तक यह कोशिश सम्पूर्ण नहीं होगी। इससे हमारे किसानों की समस्या हल नहीं होगी। एमएसपी के लिए हमारा आन्दोलन जारी है और जारी रहेगा।

किसान नेता राकेश टिकैत ने प्रधानमंत्री के ऐलान पर ट्वीट कर कहा कि आन्दोलन तत्काल वापस नहीं होगा। हम उस दिन का इंतज़ार करेंगे, जब कृषि क़ानूनों को संसद में रद्द किया जाएगा। टिकैत ने कहा कि अगर समझने में एक साल लगा तो देश बर्बाद हो जाएगा। आन्दोलन में 700 से अधिक  किसान शहीद हो गये। हम लोग एक साल से आन्दोलन कर रहे हैं। देश की राजधानी को घेर कर रखे हुए हैं। यह सरकार के लिए शर्म की बात है। इसके बाद अगले दिन किसान संगठनों ने महाबैठक की जिसमें सर्वसम्मत फ़ैसला हुआ कि आन्दोलन जारी रखा जाएगा।

कितने किसान गिरफ़्तार?

दिल्ली में ही पिछले एक साल में किसानों को लेकर 53 एफआईआर दर्ज हुई हैं। इनमें 183 किसानों को गिरफ़्तार किया गया है जिनपर हत्या, दंगे भडक़ाने, पुलिस के काम में वाधा डालने और धमकी देने जैसे मामले हैं। किसान इन आरोपों और मामलों को किसानों को दबाने की साज़िश बताते रहे हैं। किसानों पर जो अत्याचार हुए, उनमें 26 जनवरी को लाल क़िले पर हुई हिंसा का मामला भी है, जिसमें पुलिस कोर्ट में चार्जशीट जमा करा चुकी है। इस हिंसा के मुख्य आरोपी दीप सिद्धू को जमानत मिल चुकी है। इसके अलावा आन्दोलन में 700 से अधिक  किसान शहीद हो चुके हैं।

भारत का किसान ग़रीब क्यों?

अमेरिका की तुलना में भारत में 57 गुना अधिक किसान आबादी है। लेकिन बाज़ार शास्त्र कहता है कि अमेरिका की तुलना में भारत का किसान काफ़ी कमज़ोर और पुरानी तकनीक पर निर्भर है। अमेरिका में एक किसान परिवार औसतन सालाना 83,000 डॉलर यानी 65 लाख रुपये कमाता है। लेकिन भारत में एक किसान परिवार की औसतन सालाना आय 1,25,000 रुपये है। भारत की 135 करोड़ की आबादी में लगभग 15 करोड़ किसान हैं और देश की 60 फ़ीसदी आबादी किस-न-किसी रूप में कृषि से जुड़ी हुई है; जबकि अमेरिका में किसानों की कुल आबादी सिर्फ़ 26 लाख हैं। ज़मीन के मामले में भी अमेरिका के किसान काफ़ी समृद्ध हैं। वहाँ एक किसान के पास औसतन 444 हेक्टेयर ज़मीन है; जबकि भारत में एक किसान के पास औसतन ढाई हेक्टेयर ही ज़मीन है। भारत की कुल जीडीपी में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी लगभग 20 फ़ीसदी है, जबकि अमेरिका में यह आँकड़ा पाँच फ़ीसदी के आसपास है। सवाल ये हैं कि क्या भारतीय किसानों की दशा ठीक नहीं की जा सकती? यहाँ के किसान ग़रीब क्यों हैं? कौन लोग इसके लिए ज़िम्मेदार हैं?

किसान आयोग गठित करने की घोषणा के क्या मायने?

नेशन फॉर फॉर्मर्स किसानों की लड़ाई लडऩे वाला संगठन है। उसने अन्य संगठनों और किसान समर्थक मंचों के साथ मिलकर देश में कृषि की स्थिति के मूल्यांकन और प्रकाशन के लिए किसान आयोग के गठन की प्रक्रिया की घोषणा की है।

पत्रकार और कृषि जानकार पी. साईनाथ, जगमोहन सिंह और नवशरण सिंह जैसे बड़े आन्दोलनकारी किसान समर्थक चेहरों के साथ नेशन फॉर फॉर्मर्स ने यह घोषणा तब की है जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तीन कृषि क़ानून वापस लेने और किसानों ने इसके बावजूद आन्दोलन ख़त्म न करने की घोषणा की है क्योंकि उनके एमएसपी जैसे अन्य बड़े मुद्दे अभी लटके हैं। किसान आन्दोलनों के अग्रणी यह सभी दिग्गज 25 नवंबर को दिल्ली के प्रेस क्लब आफ इण्डिया में जुटे, जहाँ उन्होंने किसानों के हक़ में एक प्रेस कांफ्रेंस को भी सम्बोधित किया।

इसमें पी. साईनाथ ने कहा कि डॉक्टर एमएस स्वामीनाथन की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय किसान आयोग, जिसे हम स्वामीनाथन आयोग के नाम से बेहतर जानते हैं, उसका हश्र किसी से छिपा नहीं है। आज भी आयोग की अहम सिफ़ारिशें देश भर के किसानों के बीच लोकप्रिय हैं, जिनमें से कुछ को- ख़ासकर फ़सलों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करने से सम्बन्धित- तत्काल सम्बोधित किये जाने की ज़रूरत है, ताकि आन्दोलनरत किसान अपने घर लौट सकें।

उन्होंने कहा कि स्वामीनाथन आयोग को अपनी पाँच में से पहली रिपोर्ट सरकार को जमा किये 16 साल हो गये। संसद में इन पर बहस करवाने की बार-बार माँग की गयी; लेकिन यूपीए और एनडीए दोनों की सरकारों ने इसके लिए न्यूनतम समय भी नहीं दिया। पिछले कई वर्ष से नेशन फॉर फॉर्मर्स नाम का यह मंच मौज़ूदा कृषि संकट के सन्दर्भ में रिपोर्ट और सम्बन्धित मसलों पर संसद में विशेष सत्र रखकर बहस करवाने की माँग करता रहा है।

यह कृषि संकट बीते दो दशकों में लाखों किसानों की जान ले चुका है। इस मौक़े पर अन्य किसान नेताओं दिनेश अबरोल, अनिल चौधरी, निखिल-डे, नवशरण सिंह, जगमोहन सिंह, एनडी जयप्रकाश, थॉमस फ्रांको और गोपाल कृष्ण ने कहा भारत में कृषि और उससे सम्बद्ध सभी क्षेत्रों में किसानों और खेतिहर आबादी के विभिन्न तबक़ों की आय के समक्ष खड़ी चुनौतियों के मद्देनज़र किसान आयोग देश भर में विविध कृषि प्रणालियों से जुड़े संगठनों के साथ मिलकर सार्वजनिक जाँच-पड़ताल की एक प्रक्रिया को चलाएगा। इन किसान विशेषज्ञों ने कहा कि किसान आयोग की ज़रूरत क्या है? इसकी वजह ये है कि जब-जब सरकारों द्वारा गठित किये गये आयोगों की सिफ़ारिशें सरकारों और कॉर्पोरेट ताक़तों के ख़िलाफ़ गयीं, तब-तब उन सिफ़ारिशों को दफ़्न कर दिया गया।

इसलिए अब किसान संगठनों के सामने यह चुनौती है कि वे विभिन्न मज़दूर संगठनों, महिला संगठनों, पर्यावरण पर काम करने वाले समूहों, सामाजिक आन्दोलनों और खाद्य व पोषण, समग्र स्वास्थ्य, रूपांतरकारी शिक्षा, सुरक्षित पर्यावरण, वन अधिकार और ग्रामीण उद्योगों के पुनर्नवीकरण और स्थानीय स्तर पर चल रही मूल्यवर्धित कृषि गतिविधियों से जुड़े नागरिक समूहों के नेटवर्कों और अधिकार केंद्रित मंचों को एक साथ लाकर एक जन-केंद्रित व्यापक मंच बनाएँ।

उन्होंने कहा कि इसका उद्देश्य किसान संगठनों की सक्रिय भागीदारी से कृषि क्षेत्र में रूपांतरण की एक ठोस दृष्टि और रणनीति को विकसित करना है, ताकि खाद्य विविधता, पारिस्थितिकीय सातत्य, समता और सामाजिक न्याय की राजनीति के एजेंडे को कॉर्पोरेट पूँजी से अप्रभावित रहते हुए कृषि रूपांतरण की प्रक्रिया में समाहित किया जा सके।

राष्ट्रीय किसान आयोग को लेकर इन नेताओं ने कहा- ‘कुछ प्रतिष्ठित किसान और कृषि विशेषज्ञ शामिल होंगे। इसकी अन्तिम संरचना को तय करने में थोड़ा समय लगेगा। यह देश भर के किसानों की नुमाइंदगी करेगा। यह आयोग राज्यस्तरीय आयोगों के गठन को भी प्रोत्साहित करेगा जो कृषि आधारित समूहों और वर्गों के बीच देश भर में अध्ययन, तथ्यान्वेषण और सुनवाई कर सकें। स्वामीनाथन आयोग की पहली रिपोर्ट दिसंबर, 2004 और आख़िरी रिपोर्ट अक्टूबर, 2006 में जमा की गयी थी।

इस देश के इतिहास में कृषि पर सबसे महत्त्वपूर्ण इस रिपोर्ट पर संसद में चर्चा के लिए एक दिन भी नहीं दिया गया। अब जबकि 16 साल बीत गये हैं, पुराने लम्बित मुद्दों और नयी परिस्थितियों में पैदा हुए जलवायु परिवर्तन,$ कर्•ा आदि मुद्दों ने मिलकर स्थिति को और घातक बना दिया है। इस पर नये सिरे से एक रिपोर्ट लाये जाने की ज़रूरत है।’

कृषि जानकारों ने कहा- ‘इसी के साथ दूसरे सरकारी आयोगों की निरर्थकता को भी देखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने किसानों की समस्याओं को समझने और समाधान सुझाने के लिए एक समिति गठित करने का निर्देश दिया था।

इस समिति में कृषि क़ानूनों के स्वयंभू समर्थक भरे हुए थे। अब चूँकि सरकार कह रही है कि वह संसद में इन क़ानूनों को वापस लेगी, समिति के सदस्यों को उसकी अप्रासंगिकता का बोध हो गया है। इस दौरान मीडिया लगातार जोर देकर कहा रहा है कि सिर्फ़ कॉरपोरेट समर्थक उपायों को ही सुधार कहा जा सकता है।’

उन्होंने कहा कि नेशन फॉर फार्मर्स ने किसान आयोग का गठन शुरू कर दिया है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट सरकार द्वारा नियुक्त प्रतिष्ठित विद्वानों के अध्ययन व परामर्श का परिणाम थी, जिन्होंने किसानों और अन्य से व्यापक रायशुमारी की थी। किसान आयोग का गठन किसानों द्वारा किया जाएगा और उसकी कमान किसानों के हाथ में ही रहेगी, जो विशेषज्ञों के साथ परामर्श करेंगे और फॉलोअप के लिए ऐसे संयुक्त मंचों का गठन करेंगे, जिन्हें सरकार या न्यायालय ख़त्म नहीं कर पाएँगे। भारतीय कृषि की समस्याओं के बारे में हमें किसानों से बेहतर आ$िखर कौन बता सकता है?

किसानों की छ: बड़ी माँगें

आन्दोलन के शुरू से ही किसानों ने अपनी माँगों को लेकर रु$ख हमेशा साफ़ रखा है। उन्होंने एक साल पहले ही यह साफ़ कर दिया था कि इन माँगों पर कभी भी समझौता नहीं किया जाएगा। अब जबकि तीन कृषि क़ानून वापस लेने की सरकार ने घोषणा की है, किसान आन्दोलन बन्द करने को रा•ाी नहीं हैं। उनका कहना है कि उनकी अन्य मुख्य माँगों पर कोई बात सरकार ने नहीं की। संयुक्‍त किसान मोर्चा ने प्रधानमंत्री सम्बोधित करते हुए प्रधानमंत्री मोदी को सन्देश देते हुए साफ़ कहा दिया कि आप भली-भाँति जानते हैं कि तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करना इस आन्दोलन की एकमात्र माँग नहीं है। मोर्चा ने सरकार के साथ वार्ता की शुरुआत से ही तीन और माँगें उठायी थीं, जिनमें पहली थी खेती की सम्पूर्ण लागत पर आधारित (सी2+50 फ़ीसदी) न्यूनतम समर्थन मूल्य को सभी कृषि उपज के ऊपर, सभी किसानों का क़ानूनी हक़ बना दिया जाए, ताकि देश के हर किसान को अपनी पूरी फ़सल पर कम-से-कम सरकार द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य पर ख़रीद की गारंटी हो सके।

किसानों ने प्रधानमंत्री मोदी को याद दिलाया कि स्वयं उनकी अध्यक्षता में बनी समिति ने 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री को यह सि$फारिश दी थी और सरकार ने संसद में भी इसके बारे में घोषणा भी की थी। मोर्चा ने अगली माँग दोहराते हुए कहा कि सरकार द्वारा प्रस्तावित विद्युत अधिनियम संशोधन विधेयक-2020/2021 का ड्राफ्ट वापस किया जाए। साथ ही प्रधानमंत्री से कहा कि वार्ता के दौरान सरकार ने वादा किया था कि इसे वापस किया जाएगा। लेकिन फिर वादे के ख़िलाफ़ इसे संसद की कार्यसूची में शामिल किया गया था। किसानों की और माँगों में कहा गया कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और इससे जुड़े क्षेत्रों में वायु गुणवत्ता प्रबन्धन के लिए आयोग अधिनियम-2021 में किसानों को सज़ा देने के प्रावधान हटाए जाएँ। इस सन्दर्भ में साथ ही उन्‍होंने कहा कि इस साल सरकार ने कुछ किसान विरोधी प्रावधान तो हटा दिये; लेकिन धारा-15 के माध्यम से फिर किसान को सज़ा की गुंजाइश बना दी गयी है। किसानों की तरफ़ से प्रधानमंत्री से आगे कहा गया कि पिछले एक वर्ष में किसान आन्दोलन के दौरान कुछ और मुद्दे भी उठे हैं, जिनका तत्काल निपटारा करना अनिवार्य है। इनमें शामिल हैं- दिल्ली, हरियाणा, चंडीगढ़, उत्तर प्रदेश और अनेक राज्यों में ह•ाारों किसानों को इस आन्दोलन के दौरान (जून 2020 से अब तक) हुए मामलों को तत्काल वापस लिया जाए। उन्‍होंने आगे कहा कि लखीमपुर खीरी हत्याकांड के सूत्रधार और धारा-120(बी) के अभियुक्त अजय मिश्रा टेनी खुले घूम रहे हैं और आपके मंत्रिमंडल में मंत्री बने हुए हैं। वह आपके और अन्य वरिष्ठ मंत्रियों के साथ मंच भी साझा कर रहे हैं। उन्हें ब$र्खास्त और गिरफ़्तार किया जाए। इसके अलावा आख़िरी माँग में किसानों की तरफ़ से कहा गया कि इस आन्दोलन के दौरान अब तक लगभग 750 किसान शहादत दे चुके हैं। उनके परिवारों के मुआवज़े और पुनर्वास की व्यवस्था हो। शहीद किसानों की स्मृति में एक शहीद स्मारक बनाने के लिए सिंघु बॉर्डर में ज़मीन देने की माँग किसानों की तरफ़ से है।

कुल मिलाकर किसानों की पहली माँग देश में एमएसपी को संवैधानिक दर्जा देने की है। यानी एमएसपी पर फ़सलों की ख़रीद सुनिश्चित करने के लिए एक क़ानून बनाया जाए, जो ऐसा नहीं होने पर आरोपियों को दंडित कर सके। किसानों के मुताबिक, देश में एमएसपी की व्यवस्था 55 वर्ष पुरानी है; लेकिन इसे आज तक संवैधानिक दर्जा नहीं मिला है। दूसरी माँग बिजली संशोधन विधेयक वापस लेने की है। बता दें इस विधेयक के तहत किसानों को बिजली बिल पर जो सब्सिडी मिलती है, वो बाद में सीधे लाभ ट्रांसफर के ज़रिये मिला करेगी। किसानों का यह भी कहना है कि बिजली की दरें भी पहले से बढ़ा दी जाएँगी, जिससे खेती करना और भी मुश्किल हो जाएगा। एक माँग मौज़ूदा क़ानून में पराली जलाने वाले किसानों के ख़िलाफ़ सज़ा के प्रावधान को ख़त्म कारण की है। इसके अलावा किसान अपने आन्दोलन के दौरान दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों में दर्ज हुए पुलिस मामले वापस लेने की है। किसानों का कहना है कि वे भी चाहते हैं कि जल्द-से-जल्द बाक़ी मुद्दों का निपटारा हो और हम अपने घर, परिवार और खेती बाड़ी में वापस लौटें। अगर आप भी यही चाहते हैं तो सरकार उपरोक्त छ: मुद्दों पर अविलंब संयुक्त किसान मोर्चा के साथ वार्ता शुरू करे।

“किसानों की स्थिति को सुधारने के इसी महा अभियान में देश में तीन कृषि क़ानून लाये गये थे। मक़सद यह था कि देश के किसानों को, ख़ासकर छोटे किसानों को और ताक़त मिले। उन्हें अपनी उपज की सही क़ीमत और उपज बेचने के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा विकल्प मिलें। वर्षों से यह माँग देश के किसान ही नहीं, देश के कृषि विशेषज्ञ और किसान संगठन लगातार कर रहे थे। पहले भी कई सरकारों ने इस पर मंथन किया था। इस बार भी संसद में चर्चा हुई, मंथन हुआ और ये क़ानून लाये गये। देश के कोने-कोने में कोटि-कोटि किसानों ने, अनेक किसान संगठनों ने इसका स्वागत किया, समर्थन किया। मैं आज उन सभी का बहुत आभारी हूँ। मुझे अफ़सोस है कि किसानों को हम समझा नहीं पाये।”

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

 

“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव में हार देखकर तीन कृषि क़ानूनों को रद्द करने का फ़ैसला किया है। केंद्र सरकार को एक साल में 600 से अधिक किसानों की शहादत या लखीमपुर खीरी की घटना की परवाह नहीं थी, जहाँ प्रदर्शनकारी किसानों को एक केंद्रीय मंत्री के बेटे की कार से कुचल दिया गया था। सरकार के नेताओं ने किसानों को क्या नहीं कहा? आन्दोलनजीवी, गुण्डे, आतंकवादी, देशद्रोही, जब यह सब कहा जा रहा था तो प्रधानमंत्री चुप क्यों थे? उन्होंने स्वयं आन्दोलनजीवी शब्द का उच्चारण किया। वह इसे क्यों कर रहा है? क्या देश यह नहीं समझ रहा है कि चुनाव नज़दीक आ रहे हैं और उन्हें लगा होगा कि स्थिति ठीक नहीं है। वे सर्वेक्षणों में देख सकते हैं कि स्थिति ठीक नहीं है। इसलिए वे चुनाव से पहले माफ़ी माँगने आये हैं।”

प्रियंका गाँधी

कांग्रेस महासचिव

लोकतंत्र की जीत

दिल्ली की सीमाओं पर किसानों के आन्दोलन के एक साल पूरा होने से कुछ दिन पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक आश्चर्यजनक फ़ैसले में तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों को वापस लेने की घोषणा की। केंद्रीय मंत्रिमंडल ने कृषि क़ानून वापसी विधेयक-2021 (द फार्म लॉ रिपील बिल-2021) के साथ तीनों कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया। निश्चित ही इन क़ानूनों को निरस्त करने का निर्णय लोकतंत्र की जीत है। इस फ़ैसले से यह भी संकेत मिलता है कि राज्य आन्दोलनकारी किसानों की एकता और दृढ़ता को तोडऩे में विफल रहा, जिन्होंने पूरे एक साल से शान्तिपूर्ण तरीक़े से विरोध-प्रदर्शन जारी रखा है। बेहद कठिन मौसम, एक जानलेवा महामारी, सत्ता की ताक़त और क़रीब 750 शहादत देने वाले किसानों के पास विजयी होने का एक कारण है। हालाँकि उनके न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी जैसे कई मुद्दे अभी अनसुलझे हैं।

जब कोई सरकार विपक्ष के मज़बूत विरोध के बावजूद नीतिगत फ़ैसलों को पलटने को राज़ी नहीं होती, तो इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ होते हैं। ज़ाहिर तौर पर ख़ुफ़िया रिपोर्ट से पता चलता है कि कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ ग़ुस्सा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से लेकर तराई की पट्टी तक फैल रहा था। इस प्रकार किसान आन्दोलन के उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में चुनावी सम्भावनाओं को प्रभावित करने से सत्तारूढ़ दल विचलित हो गया था। हिमाचल प्रदेश और हरियाणा में उपचुनाव के नतीजों का मतलब है कि सत्ता में बैठी पार्टी के रूप में भाजपा लगातार कमज़ोर होती जा रही है। कृषि क़ानूनों के विरोध में हो रहे आन्दोलन से प्रभावित कई गाँवों में लोगों ने पार्टी नेताओं के प्रवेश पर रोक लगाने के लिए साइन बोर्ड लगा दिये। पार्टी जानती है कि अगर वह उत्तर प्रदेश में पश्चिम हिस्से को खो देती है, तो वह राज्य खो सकती है; क्योंकि उत्तर प्रदेश और दिल्ली का रास्ता पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ही जाता है।

प्रधानमंत्री ने अपनी घोषणा के लिए गुरु पर्व को चुना और किसानों को समझाने में नाकाम रहने के लिए माफ़ी माँगी। इसने उनका न केवल सिखों, किसानों और राष्ट्र के प्रति सम्मान उजागर हुआ, बल्कि उनके लोकतांत्रिक दृष्टिकोण और राजनेता के रूप में उनकी स्थिति को स्थापित किया। प्रधानमंत्री के सम्बोधन से उनकी चतुर व्यावहारिकता प्रदर्शित हुई। क्योंकि उत्तर प्रदेश, जहाँ किसानों के आन्दोलन ने सत्तारूढ़ पार्टी की सम्भावनाओं को धुँधला किया है; भाजपा के 2024 के लोकसभा चुनाव में तीसरे कार्यकाल के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है।

हालाँकि सन् 2014 के बाद सरकार के इस सबसे महत्त्वपूर्ण यू-टर्न का 2022 में पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और 2024 के लोकसभा चुनावों में सत्ताधारी पार्टी और विपक्ष दोनों की राजनीतिक गतिशीलता पर असर डालेगा। सत्तारूढ़ दल भाजपा मोदी के नाम का लाभ उठाएगा। लेकिन आन्दोलन के दौरान मानव जाति की व्यापक क्षति खोयी ज़मीन को फिर हासिल करने के मार्ग में एक बड़ी बाधा बन सकती है। कृषि क़ानूनों को निरस्त करने से आगामी चुनावों में राजनीतिक लाभ हासिल करने की भाजपा की कोशिश से इतिहास में सबसे लम्बे और लोकप्रिय आन्दोलन के बाद उपजी किसानों की नाराज़गी का लाभ उठाने की विपक्ष की योजना पर पानी फिर सकता है। लेकिन प्रतिष्ठान को परिवारों के आँसू पोंछकर उनका दिल जीतना होगा। लेकिन बहुत कहने-सुनने और कृषि क़ानूनों को निरस्त करने के बावजूद कृषि क्षेत्र को प्रतिस्पर्धी बनाने के लिए इसमें सुधारों की तत्काल आवश्यकता से इन्कार नहीं किया जा सकता। हालाँकि सुधारों को एक परामर्शी तरीक़े से आगे बढ़ाना होगा, जो हमारे देश के संघीय और एकात्मक स्वरूप को बनाये रखने के लिए भी ज़रूरी है।

 चरणजीत आहुजा

पंजाब में उलझे राजनीति के तार

कृषि क़ानूनों के अलावा करतारपुर कॉरिडोर भी बन सकता है मुद्दा

किसान आन्दोलन का गढ़ रहा पंजाब विचित्र राजनीतिक स्थिति की तरफ़ बढ़ता दिख रहा है। तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की मोदी सरकार की घोषणा के बाद पंजाब की राजनीतिक गलियारों में सबसे ज़्यादा चर्चा में है। पंजाब में फ़िलहाल राजनीतिक शक्तियों का बिखराव है। कांग्रेस सत्ता में है और उसे सत्ता से बाहर करने के लिए अकाली दल, भाजपा और आम आदमी पार्टी के अलावा पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस ख़म ठोंक रहे हैं। विधानसभा चुनाव से पहले गठबन्धनों की तस्वीर साफ़ नहीं है; क्योंकि सभी के अपने-अपने हित हैं। चुनाव से पहले नहीं होता है, तो चुनाव के बाद निश्चित ही गठबन्धन होगा।

कृषि क़ानूनों का सबसे बड़ा राजनीतिक असर यदि किसी राज्य में पड़ सकता है, तो वह पंजाब है। क्योंकि आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से ही हुई थी। यह संयोग ही है कि आन्दोलन के बाद पंजाब में राजनीतिक घटनाक्रम इतनी तेज़ी से हुआ कि सब कुछ उलट-पलट हो गया। कैप्टन अमरिंदर सिंह को मुख्यमंत्री का अपना पद गँवाना पड़ा और उससे पहले नवजोत सिंह सिद्धू प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष हो गये। अमरिंदर की जगह चरणजीत सिंह चन्नी मुख्यमंत्री हो गये, जो किसी ने सोचा भी नहीं था।

अब जबकि पंजाब विधानसभा के चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, सूबे के राजनीतिक समीकरण दिलचस्प होते जा रहे हैं। तो तस्वीर दिख रही है, उसमें साल 2022 के चुनाव में चार राजनीतिक दल ताल ठोकते दिख रहे हैं। सत्तारूढ़ कांग्रेस के सामने तीन दलों की चुनौती होगी। कांग्रेस से बहार जा चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस भी इसमें एक है। भले कैप्टन का पंजाब की राजनीति में मज़बूत दख़ल रहा है, फ़िलहाल तो उनकी इस नयी पार्टी को पंजाब में कोई ख़ास महत्त्व नहीं मिला है।

भाजपा ने अपनी राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने का ऐलान करके कैप्टन अमरिंदर सिंह को भी झटका दिया है। यह अलग बात है कि कैप्टन भाजपा के आगे नतमस्तक दिखायी दे रहे हैं। वह घोषणा कर चुके हैं कि तीन कृषि क़ानून वापस करके प्रधानमंत्री मोदी ने अच्छा काम किया है और वह अपने वादे के मुताबिक भाजपा को समर्थन करेंगे। हालाँकि कांग्रेस को यह लगता है कि जिन लोगों को वह टिकट नहीं दे पाएगी, वे अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब विकास कांग्रेस के साथ जा सकते हैं। वैसे पार्टी के कुछ नेताओं के मुताबिक, भाजपा को यह अच्छा नहीं लगा कि कैप्टन अपनी पार्टी में कांग्रेस शब्द रखा। लेकिन कैप्टन ने किया यही।

भाजपा का अमरिंदर सिंह को लेकर आशंका का एक और कारण है। यह माना जाता है कि अमरिंदर सिंह की सांसद पत्नी परनीत कौर पति के भाजपा के साथ जाने के हक़ में नहीं थीं। हालाँकि हाल में कांग्रेस ने परनीत को एक सूचना (नोटिस) जारी करके उन पर पार्टी विरोधी गतिविधियों का हिस्सा बनने का आरोप लगाते हुए उनसे जवाब माँगा है, जिससे संकेत मिलते हैं कि परनीत भी कांग्रेस से बाहर हो सकती हैं। ज़ाहिर है वह पति की पार्टी में जाएँगी।

भाजपा महसूस करती है कि चुनाव के बाद यदि किसी पार्टी को बहुमत नहीं मिलता है और अमरिंदर सिंह की पार्टी कुछ सीट जीत लेती है, तो कैप्टन का समर्थन को लेकर क्या रूख़ रहता है? इसे लेकर पक्के तौर पर कुछ नहीं जा सकता। अमरिंदर सिंह की नाराज़गी कांग्रेस से भी ज़्यादा नवजोत सिंह सिद्धू से है। वो किसी सूरत में सिद्धू को मुख्यमंत्री नहीं बनने देना चाहते। भाजपा को लगता है कि इसके अलावा कांग्रेस से उनका तालमेल बनने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता।

पंजाब में राजनीतिक खिचड़ी पकने का एक और कारण है। शिरोमणी अकाली दल ने भले ही देरी से सही, लेकिन कृषि क़ानूनों के विरोध में एनडीए सरकार से ख़ुद को अलग किया था। अब जबकि मोदी सरकार ने यह क़ानून वापस लेने का ऐलान कर दिया है, अकाली दल एनडीए में लौट सकता है। हालाँकि अकाली दल के कुछ नेता नाम न छापने की शर्त पर बातचीत में कहते हैं कि चुनाव से पहले भाजपा के साथ जाना राजनीतिक रूप से घाटे का सौदा साबित हो सकता है। क्योंकि पंजाब की जनता, ख़ासकर किसानों में भाजपा के ख़िलाफ़ माहौल है। उन्हें यह भी लगता है कि सभी सीटों पर भाजपा का चुनाव लडऩे का ऐलान और ख़ुद को बड़े भाई की तरह दिखाना किसी मज़ाक़ से कम नहीं। देखा जाए, तो कैप्टन अमरिंदर के साथ गठबन्धन करने को लेकर भाजपा ने भी अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। चुनाव की घोषणा के बाद ही तस्वीर होगी  सभी को केवल आचार संहिता लागू होने का इंतज़ार है। कैप्टन भी इसीलिए राजनीतिक रूप से ख़ामोश नज़र आ रहे हैं; क्योंकि उन्हें भी पता है कि वर्तमान में उनके साथ खड़े होने वाला कोई नहीं है। लेकिन यह तस्वीर आचार संहिता लागू होने के बाद बदल सकती है।

ऐसा माना जाता है कि विधानसभा चुनाव के बाद कांग्रेस के बीच भी मुख्यमंत्री पद की जंग हो सकती है। पार्टी के भीतर नवजोत सिंह सिद्धू और वर्तमान मुख्य्मंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दोनों ही पार्टी में इस पद के दावेदार हैं। चन्नी लगातार यह ज़ाहिर करते हैं कि वह मुख्यमंत्री हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि चन्नी बतौर मुख्यमंत्री अपनी छवि बनाने में सफल रहे हैं। हालाँकि पंजाब कांग्रेस में बहुत से नेता यह मानते हैं कि सिद्धू का पार्टी में एक क़द है और इससे इन्कार नहीं किया सकता। उनका कहना है कि सिद्धू की जनता में पैठ है और वह ऐसे नेता हैं, जो पार्टी को अपने बूते चुनाव जितवा सकते हैं।

यह तय है कि चुनाव की घोषणा के बाद पंजाब में कांग्रेस काफी विधायकों के टिकट काट सकती है। इसके अलग-अलग कारण हैं। पहला तो पिछले साल में उनका बतौर विधायक प्रदर्शन। दूसरे ऐसे विधायक, जो कैप्टन अमरिंदर सिंह के क़रीब रहे हैं, पार्टी उनसे किनारा कर सकती है। माना जाता है कि पार्टी ने एक सर्वे करवाया है, जिसमें कुछ विधायकों के दोबारा जीतने पर प्रश्न चिह्न लगे हैं। इनकी संख्या डेढ़ दर्ज़न के क़रीब है। हालाँकि इतने ज़्यादा विधायकों के टिकट काटने पर वे सभी कैप्टन की पार्टी में जा सकते हैं, जिन्हें अभी तक कोई ख़ास समर्थन नेताओं की तरफ़ से मिला नहीं है।

ऐसे में हो सकता है कि कांग्रेस सोच-विचार कर ही टिकट काटे। कुछ विधायक अपनी सीट बदलना चाहते हैं, जिनमें एकाध मंत्री भी है। कांग्रेस की कोशिश यह होगी कि चुनाव में ऐसे कम-से-कम लोग कूदें, जो उसकी विचारधारा के हों। हालाँकि यह सम्भव नहीं लगता। इस बार मैदान में चार पार्टियाँ होंगी और अमरिंदर की पार्टी के ज़्यादातर उम्मीदवार निश्चित ही कांग्रेस विचारधारा के होंगे। यहाँ तक की आम आदमी पार्टी में जो ज़्यादातर नेता हैं, कभी कांग्रेस में ही रहे हैं। यह ज़रूर तय है कि इस बार चुनाव के नतीजे का अन्तर ज़्यादा नहीं होगा। पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) के हज़ार वादों के बावजूद ज़मीन पर उसकी पकड़ कमज़ोर होती दिख रही है। दिल्ली के मुख्यमंत्री के दिल्ली की तर्ज पर पंजाब को चमकाने के वादे के बावजूद जनता तो दूर, उनकी अपनी पार्टी के नेता भी सहारा नहीं बन पा रहे। यही कारण है पार्टी से नेता टूटकर कांग्रेस सहित दूसरे दलों में में जा रहे हैं। पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी ने अवसर खो दिया था और उसके बाद पार्टी ने ज़मीन पर अपनी पकड़ बनाने के लिए कुछ नहीं किया। सारा कुछ दिल्ली से संचालित होने के कारण स्थानीय नेता ख़ास ख़ुश नहीं हैं। उन्हें लगता है कि इससे जनता में भी ख़राब सन्देश गया है।

पिछले चुनाव में आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन इतना बेहतर था कि कांग्रेस के बाद दूसरे नंबर पर रहते हुए उसने अकाली दल जैसी पार्टी से भी चार सीटें ज़्यादा हासिल की थीं। किसान आन्दोलन को लेकर आप का रूख़ उनके हक़ में भले रहा है; लेकिन इससे उसे कोई बड़ा राजनीतिक हासिल होगा, इसकी सम्भावना दिख नहीं रही।

जहाँ तक शिरोमणी अकाली दल की बात है, मोदी सरकार और एनडीए से बाहर आने के बाद पूरे किसान आन्दोलन के दौरान अकाली नेतृत्व, ख़ासकर सुखबीर सिंह बादल ने भरपूर कोशिश की है; लेकिन किसानों का भरोसा जीतने में उन्हें ख़ास कामयाबी मिलती नहीं दिखी है। पार्टी ने दिल्ली में किसानों के हक़ में प्रदर्शन में भी हिस्सा लिया; लेकिन किसानों का रूख़ पार्टी के प्रति ठंडा ही दिखा है।

भाजपा की उम्मीदें

भाजपा का पंजाब विधानसभा चुनाव में सभी सीटों पर उम्मीदवार खड़े करने के पीछे एक कारण है। दरअसल पार्टी को लगता है कि गुरु नानक देव जयंती पर करतारपुर कॉरिडोर दोबारा खोलने और उसी दिन कृषि क़ानून वापस लेने के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ऐलान से विधानसभा चुनाव में उसे लाभ मिलेगा।

हाल के महीनों में पंजाब में राजनीतिक धुरी तीन कृषि क़ानूनों और किसान आन्दोलन आसपास घूमती रही है। अब जब विधानसभा चुनाव निकट हैं, और केंद्र का यह फ़ैसला किस पार्टी को कितना लाभ देगा? यह देखना दिलचस्प होगा। पंजाब में कांग्रेस ने किसान आन्दोलन का हमेशा खुलकर समर्थन किया है। इस दौरान पंजाब भाजपा के नेताओं ने किसानों का हर जगह जबरदस्त विरोध सहा। चरणजीत चन्नी सरकार ने 26 जनवरी को लाल क़िले से गिरफ़्तार किसानों के परिवारों को दो-दो लाख का मुआवज़ा देने का ऐलान करके राजनीतिक दाँव चला है। विधानसभा में कृषि क़ानून को रद्द करने के फ़ैसले के बाद सरकार ने 83 किसान समर्थकों को मुआवज़ा देने का ऐलान किया। चन्नी सरकार ने किसान आन्दोलन के दौरान पंजाब में किसानों पर दर्ज सभी मामले भी रद्द करने का फ़ैसला किया। वह आन्दोलन के दौरान शहीद हुए किसानों और मज़दूरों के परिजनों को सरकारी नौकरी और मुआवज़ा देने की बात कह चुकी है। इसके लिए उसने संयुक्त किसान मोर्चा से शहीद किसानों की सूची माँगी है। कांग्रेस करतारपुर कॉरिडोर का श्रेय भाजपा के लेने को ग़लत कहती है। उसका कहना है कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू को इसका श्रेय जाता है; क्योंकि इमरान ख़ान के शपथ ग्रहण पर पाकिस्तान गये सिद्धू ने ही सबसे पहले यह मसला उठाया था और उनकी कोशिशों पर ही पाकिस्तान सरकार ने इस पर आगे काम किया।

नयी पार्टी बना चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह की उम्मीद अब चुनाव की घोषणा पर टिकी है। उन्हें भरोसा है कि टिकट न मिलने से दूसरी पार्टियों के बा$गी नेता उनके पास ही आएँगे। कृषि क़ानूनों के वापस लेने का श्रेय कैप्टेन ख़ुद को दे रहे हैं। उनके नेताओं का दावा है कि कैप्टन ने ही इस फ़ैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह को तैयार किया। कैप्टन भाजपा से गठजोड़ की बात कह ही चुके हैं। जहाँ तक करतारपुर कॉरिडॉर की बात है, कोरोना के दौरान क़रीब 20 महीने बन्द रहे इस धार्मिक केंद्र के खुलने का रास्ता साफ़ होने का श्रेय भाजपा मोदी को देती है। भाजपा को उम्मीद है कि इसके सहारे उसे पंजाब में तवज्जो मिलेगी।