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चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाना कितना वाज़िब?

चुनावों में रिकॉर्ड तोड़ ख़र्चा करते हैं राजनीतिक दल

कई लोगों का मत है कि बार-बार चुनाव कराने से महँगाई बढ़ती है। यह बात बहुत हद तक सही है। लेकिन इसके पीछे की वजह क्या है? इसके लिए राजनीतिक दलों के चुनावी ख़र्चों पर गहरी नज़र डालते हुए इसे विस्तार से समझने की ज़रूरत है। लेकिन इसका हल यह है कि इसके लिए देश की स्वायत्त संस्था भारतीय निर्वाचन आयोग, जिसे चुनाव आयोग भी कहा जाता है, ख़ुद भी पूरी ईमानदारी से काम करे और पार्टियों के अनाप-शनाप ख़र्चों पर भी अंकुश लगाए।

हाल ही में चुनाव आयोग ने बढ़ी महँगाई को ध्यान में रखते हुए प्रत्याशियों के चुनावी ख़र्चों में इज़ाफ़ा किया है। इसके लिए आयोग ने बाक़ायदा एक समिति गठित की थी और उसी के सुझावों और राजनीतिक पार्टियों की माँग के आधार पर चुनावी ख़र्चे को बढ़ाया गया है। अब लोकसभा चुनावों में एक उम्मीदवार 95 लाख रुपये ख़र्च कर सकता है। पहले इस ख़र्च की सीमा 70 लाख रुपये थी। जबकि छोटे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेश में इस ख़र्च सीमा को 54 लाख रुपये से बढ़ाकर 75 लाख किया गया है। वहीं विधानसभा चुनाव के लिए जिन प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों में ख़र्च की सीमा 28 लाख रुपये थी, उसे बढ़ाकर 40 लाख रुपये और जिन प्रदेशों व केंद्र शासित प्रदेशों की ख़र्च सीमा 20 लाख रुपये थी, उसे बढ़ाकर 28 लाख रुपये कर दिया गया है। बता दें कि इससे पहले सन् 2014 और सन् 2020 में चुनावी ख़र्चों में बढ़ोतरी की सीमा तय की गयी थी।

सवाल यह है कि क्या कोई भी प्रत्याशी इतने कम बजट में चुनाव लड़ता है? क्या चुनाव आयोग इस बात की तफ़तीश कभी करता भी है कि जो प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरते हैं, चाहे वे लोकसभा के हों या विधानसभा के, वे किस तरीक़े से पैसा बहाते हैं और किस तरीक़े से जीतने के बाद जनता को लूटते हैं? क्या चुनाव आयोग ने कभी विधायकों, सांसदों की बेनामी और बेतरतीब बढ़ी हुई सम्पत्ति पर कोई आपत्ति जतायी है? क्या चुनाव आयोग ने ऐसे प्रत्याशियों के नामांकन पत्र कभी ख़ारिज़ किये हैं, जिनके पास आय से ज़्यादा सम्पत्ति पायी गयी है और उनका आपराधिक रिकॉर्ड भी रहा है? अगर ऐसा होता, तो आज राजनीति में बाहुबलियों, दबंगों और अकूत सम्पत्ति वाले धन पशुओं का दबदबा नहीं होता। यह कोई मामूली बात नहीं है कि देश की राजनीति में अब ऐसे लोगों का क़ब्ज़ा हो चुका है, जो क़तर्इ ईमानदार नहीं हैं। आज चाहे सत्तापक्ष की बात हो या विपक्ष की, कोई इक्का-दुक्का नेता ही ऐसा होगा, जो ईमानदारी और जनसेवा की भावना से राजनीति में हो। पहले के नेताओं में कुछ हद तक यह बात थी; लेकिन अब नेता भ्रष्टाचार की पराकाष्ठा पार करते जा रहे हैं। यह बात सभी जानते हैं, लेकिन इस पर अंकुश लगाने को कोई तैयार नहीं है, न चुनाव आयोग, न सरकार और न कोई और संस्था।

ख़ैर, चुनाव आयोग द्वारा प्रत्याशियों के ख़र्चों की तय सीमा की पाबंदी का मखौल उड़ता देखने के लिए इन प्रत्याशियों और पार्टियों के अनाप-शनाब चुनावी ख़र्चों को देखना ज़रूरी होगा। साल 2019 के लोकसभा चुनावों में सभी पार्टियों ने ख़र्चों के पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए 60,000 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे। इन पार्टियों में अकेले भाजपा ने सभी पार्टियों के ख़र्च का 45 फ़ीसदी ख़र्च किया, यानी कुल 27,000 करोड़ रुपये चुनाव में उड़ाये। इसके अलावा भाजपा के समर्थक दलों ने भी इस चुनाव में मौटा ख़र्च किया। वहीं मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी इस चुनाव में 820 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे। इससे पहले अगर 2014 के लोकसभा चुनाव और इसी दौरान हुए आंध्र प्रदेश, अरुणाचल प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और सिक्किम के विधानसभा चुनावों की बात करें, तो भाजपा ने इन चुनावों में 714 करोड़ रुपये ख़र्च किये, जबकि कांग्रेस ने 516 करोड़ रुपये ख़र्च किये थे।

अब अगर लोकसभा की 543 सीटों के हिसाब से 2019 में केवल भाजपा के 27,000 करोड़ रुपये ख़र्च के हिसाब से इस ख़र्च में उसके सहयोगी दलों को भी शामिल करके भी देखें, तो उसके प्रत्येक प्रत्याशी के ख़र्च का औसतन 49.72 करोड़ रुपये से ज़्यादा आता है। यानी उस साल चुनाव आयोग की 70 लाख ख़र्च अनुमति से 49.02 करोड़ रुपये ज़्यादा, जबकि चुनाव आयोग द्वारा पिछले चुनाव में ख़र्च की अनुमति के हिसाब से भाजपा और उसके सहयोगी दलों को महज़ 380 करोड़ रुपये तक ही ख़र्च करने थे। यानी भाजपा और उसके सहयोगी दलों के 543 प्रत्याशियों के ख़र्च से कहीं ज़्यादा आठ प्रत्याशियों ने ही ख़र्च कर डाला। यह तब है, जब भाजपा के सहयोगी दलों के ख़र्च को इसमें नहीं जोड़ा गया है। इसी तरह 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रत्येक प्रत्याशी का ख़र्च क़रीब डेढ़ करोड़ रुपये आया था, जो कि चुनाव आयोग द्वारा तय ख़र्च सीमा से दोगुने से ऊपर था। जबकि इसमें ख़र्च की कम सीमा वाले राज्यों को नहीं जोड़ा है, उस हिसाब से देखेंगे, तो प्रत्याशियों के ख़र्च में और बढ़ोतरी हो जाएगी।

ख़ास बात यह है कि यह वो ख़र्च है, जो भाजपा और कांग्रेस ने क़ुबूल किया है। जबकि सच्चाई यह है कि चुनावों में जो ख़र्च पार्टियाँ दिखाती हैं, उससे कहीं ज़्यादा वो ख़र्च करती हैं। इससे अलग और ग़ौर करने वाली बात यह है कि देश के 2019 के लोकसभा चुनाव दुनिया के सबसे महँगे चुनाव थे। सोचने वाली बात यह है कि हमारे देश की आर्थिक हालत अमेरिका, रूस, ब्रिटेन, चीन से कहीं ख़राब है, उसके बावजूद उन देशों के चुनावी ख़र्च से भी कई गुना ज़्यादा ख़र्च करके भारतीय राजनीतिक पार्टियाँ आख़िर देश की जनता की जेब पर अतिरिक्त भार क्यों डाल रही हैं? क्या इस पर चुनाव आयोग और सरकार को ध्यान देने की ज़रूरत नहीं है?

मेरा मानना है कि अगर चुनाव आयोग भी इस मामले पर आँखें बन्द करे बैठा है, तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय को इस पर तत्काल दख़ल देने की ज़रूरत है, अन्यथा इन नेताओं की ऐशपरस्ती और अनाप-शनाप चुनावी ख़र्चे के चलते लोगों का जीवन यूँ ही महँगाई, बेरोज़गारी, मोटे कर (टैक्स) और काम ज़्यादा, वेतन कम की उलझनों में उलझा रहेगा और देश में ग़रीबी भी बढ़ती रहेगी तथा ग़रीबों की संख्या भी। इसी तरह अगर उत्तर प्रदेश के 2017 के विधानसभा चुनावों पर नज़र डालें, तो उस साल सभी पार्टियों ने क़रीब 5,500 करोड़ रुपये ख़र्च किये। कहा जाता है कि इनमें से तक़रीबन 1,000 करोड़ रुपये नोट के बदले वोट पर ख़र्च किये गये। यह चुनाव भी देश के 2017 तक के सभी विधानसभा चुनावों से महँगा था।

सवाल यह है कि राजनीतिक दलों के पास इतना मोटा पैसा कहाँ से आता है? पहले यह माना जाता था कि पार्टी फंड से राजनीतिक दल चुनाव लड़ते हैं और पहले इसे उजागर भी करना होता था। लेकिन अब यह हिसाब भी पार्टियाँ नहीं देतीं। भाजपा की अगर बात करें, तो उसने तो अपने तमाम हिसाबों को उजागर करना कब से बन्द कर रखा है।

सवाल यह है कि सन् 1980 से अस्तित्त्व में आयी भाजपा महज़ चार दशक में इतना पैसा कहाँ से पा गयी? जिसके चलते वह हर चुनाव में पानी की तरह पैसा बहा रही है और उसने देश भर में हज़ारों आलीशान कार्यालय बना लिये। जबकि वहीं दूसरी तरफ़ देश के आर्थिक हालात बुरी तरह ख़राब होती जा रहे हैं और भुखमरी, महँगाई, बेरोज़गारी व ग़रीबी लगातार बढ़ती जा रही है। यह सवाल कांग्रेस से भी पूछना उतना ही ज़रूरी है, जितना भाजपा से। क्योंकि कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं है। लेकिन भाजपा ने जिस तरह से पैसों का दुरुपयोग शुरू किया है, इससे पहले किसी भी पार्टी ने नहीं किया। यहाँ तक कि अटल बिहारी बाजपेयी के दौर में ख़ुद भाजपा ने इस तरह से जनता के पैसे को चुनावों में नहीं बहाया।

हालाँकि यह भी एक सच है कि चुनाव आयोग द्वारा तय ख़र्च की सीमा को हर पार्टी ने हर चुनाव में पार किया है। लेकिन चुनाव आयोग ने इस पर कभी अंकुश लगाने की कोशिश नहीं की। यही वजह है कि अब सभी पार्टियाँ निरंकुश हो गयी हैं और चुनावों में अनाप-शनाप ख़र्च करती हैं, जिनमें चुनावी ख़र्च की इस दौड़ में सत्ताधारी भाजपा सबसे आगे दिखायी पड़ रही है। जहाँ एक ओर चुनावी ख़र्च की सीमा को बढ़ाये जाने के बाद ज़्यादातर राजनीतिक दलों ने सहमति जतायी है, वहीं तृणमूल कांग्रेस की मुखिया और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इस पर असहमति जतायी है। चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाने पर उन्होंने कहा कि निर्वाचन आयोग का यह फ़ैसला साफ़तौर पर भ्रष्टाचार और काले धन को बढ़ावा देने में सहायक सिद्ध होगा। यह फ़ैसला हैरान कर देने वाला है; इसलिए मैं चुनाव आयोग के इस फ़ैसले की निंदा करता हूँ। ज़ाहिर है कि जिस समय चुनावों को धन-बल से मुक्त करने की माँग ख़ूब हो रही है, उस समय चुनावी ख़र्च सीमा बढ़ाया जाना वाक़र्इ हैरत में डालने वाला है। क्योंकि चुनावी ख़र्च की सीमा बढऩे से कम बजट वाली पार्टियों को मुश्किल का सामना कर पड़ सकता है। दरअसल चुनावी ख़र्च की सीमा बढ़ाये जाने वालों की दलील है कि राजनीतिक दल समय-समय पर यह कहते रहे हैं कि चुनावी ख़र्च की अब तक जो सीमा तय है, वह व्यावहारिक नहीं है। प्रत्याशियों पर तय सीमा से ज़्यादा ख़र्च करने और पैसे बाँटने के आरोप भी लगते रहे हैं। लिहाज़ा यदि चुनावी ख़र्च सीमा को बढ़ा दिया जाएगा, तो उम्मीदवारों को अपने हलफ़नामे में झूठ नहीं बोलना पड़ेगा।

फ़िलहाल चुनाव में इस साल होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों की भारतीय निर्वाचन आयोग ने तारीख़ तय कर दी है। इसी के साथ आगामी चुनाव वाले उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, पंजाब और मणिपुर में आचार संहिता लागू हो गयी है। सभी राज्यों में 10 फरवरी से लेकर 7 मार्च तक सात चरणों में मतदान होगा और सभी राज्यों के विधानसभा चुनाव की मतगणना 10 मार्च को होगी। कोरोना से बचाव के लिए ज़रूरी दिशा-निर्देशों के बीच मतदान होगा और चुनावी प्रक्रिया में लगे सभी अधिकारी व कर्मचारियों को कोरोना टीके लगे होने चाहिए और मास्क लगा होना चाहिए।

मतदान केंद्रों पर सैनिटाइजर, मास्क जैसी सुविधाएँ उपलब्ध होंगी और मतदाता केंद्रों की संख्या भी बढ़ायी जाएगी, ताकि भीड़ एक ही मतदान केंद्र पर ज़्यादा न जुटे। यह सब तो ठीक है, लेकिन क्या चुनाव आयोग पार्टियों द्वारा पैसा ख़र्च करके मतदान बूथों के आसपास बेतरतीब भीड़ जुटाने पर भी अंकुश लगाएगा? राजनीतिक जानकार कहते हैं कि चुनाव आयोग अब उसी के पक्ष में काम करता है, जिसके हाथ में सत्ता होती है। यही वजह है कि वह पार्टियों के मोटे ख़र्च और तमाम दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ाने पर भी आँखें बन्द किये रहता है। क्योंकि अगर वह विपक्षी दलों पर अंकुश लगाएगा, तो उसे सत्ता पक्ष में जो पार्टी होगी, उस पर भी अंकुश लगाना पड़ेगा। इसीलिए वह किसी पर भी अंकुश नहीं लगाता।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

लोगों के संकल्प से रुकेगा कोरोना का संक्रमण

डॉक्टरों के कोरोना की चपेट में आने से स्वास्थ्य महकमा सकते में

शंका-आशंका के बीच कोरोना यह अनुमान लगाने को विवश कर रहा है कि उसका कहर किस सीमा तक बढ़ेगा? लेकिन अनुमान तो अनुमान होता है, जो सर्वथा सत्य नहीं होता। वैसे भारत देश में हर रोज़ एक लाख से ज़्यादा कोरोना वायरस के मामले सामने आ रहे हैं। कोरोना क्यों बढ़ रहा है और कब तक इसका प्रकोप रहेगा? इसे लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता ने विशेषज्ञों से बात की, जिन्होंने कोरोना के नये वायरस ओमिक्रॉन को लेकर काफ़ी कुछ बताया।

दिल्ली मेडिकल काउंसिल (डीएमसी) के वाइस प्रेसीडेंट डॉक्टर नरेश चावला ने कहा कि कोरोना वायरस की रोकथाम को लेकर दिल्ली सरकार ने तो तामाम पाबंदियाँ लगा दी हैं और सप्ताह में दो दिन का लॉकडाउन (तालाबंदी) भी लगा दिया है। लेकिन लोगों की लापरवाही का आलम यह है कि वे बिना मास्क के जगह-जगह दिख रहे हैं, जिससे कोरोना संक्रमण बढ़ रहा है। डॉक्टर चावला का कहना है कि सरकार तो लॉकडाउन लगा देती है। लेकिन लॉकडाउन का पालन सही तरीक़े से नहीं होता है। ऐसे में लोगों को स्वयं अपने मन में लॉकडाउन लगाना चाहिए और लॉकडाउन के दिशा-निर्देशों का पालन करना चाहिए। कहने का मतलब है कि लोगों को दिशा-निर्देशों के पालन के लिए संकल्प लेना होगा, तभी कोरोना के बढ़ते संक्रमण को रोका जा सकता है। क्योंकि जिस रफ़्तार से कोरोना बढ़ रहा है, अगर समय रहते लोगों ने स्वयं पर क़ाबू नहीं पाया, तो कोरोना का कोहराम घातक साबित होगा।

नेशनल मेडिकल फोरम के चेयरमैन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि कोरोना के नये स्वरूप ओमिक्रॉन के चलते देश-दुनिया में हड़कम्प मचा हुआ है। लोगों में कोरोना के नये-नये वारियंट के आने से डर सता रहा है कि कोरोना फिर से उसी तरह लोगों पर कहर बनकर न टूट पड़े, जिस तरह 2021 के मार्च और मई के बीच दूसरी लहर के रूप में टूटा था। डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि कोरोना के नये स्वरूप ओमिक्रॉन को लेकर कुछ विशेषज्ञ कह रहे हैं कि कोरोना अप्रैल में समाप्त हो जाएगा, जबकि कई विशेषज्ञ इस बात का दावा भी कर रहे हैं कि कोरोना के रहने की कोई सीमा नहीं है कि यह कब तक, और किस रूप में रहेगा। ऐसे में किसी प्रकार की लापरवाही करके इसे नज़रअंदाज़ करना घातक होगा। क्योंकि भारत में आये दिन कोरोना के सारे रिकॉर्ड टूट रहे हैं और हर रोज़ एक लाख से ज़्यादा मामले सामने आ रहे हैं। हालाँकि राहत वाली बात यह है कि कोरोना मरीज़ों की संख्या तो बढ़ रही है; लेकिन जान गँवाने के मामलें कम आ रहे हैं, साथ ही पिछली बार की तरह अस्पतालों में हाय-तौबा नहीं मच रही है। लेकिन फिर भी इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की दक्षिण-पूर्व एशिया की क्षेत्रीय निदेशक डॉक्टर पूनम क्षेत्रपाल का कहना है कि जिस तरीक़े से अस्पतालों में मरीज़ों की संख्या बढ़ रही है, अगर यही हाल रहा, तो अस्पतालों में मरीज़ों को इलाज कराना मुश्किल होगा। इसलिए जहाँ पर स्वास्थ्य ढाँचा कमज़ोर है, वहाँ पर उसे मज़बूत करने की ज़रूरत है। उन्होंने कहा कि कोरोना की रफ़्तार को कम करने के लिए टीकाकरण अभियान तेज़ करना होगा। साथ ही जिन लोगों ने दोनों टीके लगवाये हैं, उनको भी अपने बचाव के लिए विशेष ध्यान देना होगा।

आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि भारत में कोरोना के मामले बढऩे की वजह साफ़ है कि लापरवाही की सारी हदें पार की जा रही हैं। सरकार कहती है कि कोरोना की रोकथाम की जा रही है। लेकिन ख़ुद ग़लती-पर-ग़लती किये जा रही है, जिसके कारण देश में कोरोना का तांडव सामने है। डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि इटली से अमृतसर जो यात्री विमान आया है, उसमें 179 यात्रियों में से 125 कोरोना संक्रमित पाये गये हैं। इटली दुनिया के उन देशों में शामिल है, जहाँ शुरुआती दौर में कोरोना का विस्फोट हुआ था। कोरोना से इटली का बुरा हाल है। ऐसे में इटली से भारत आने पर हवाई सेवा को कैसे मंज़ूरी दे दी गयी है। इटली और भारतीय विमान सेवा के अधिकारियों पर कार्रवाई होना चाहिए। डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि इस तरह की लापरवाही ही कोरोना विस्फोट कर रही है। लापरवाही का अंदाज़ा तो इस बात से लगाया जाता है कि जो लोग विदेश से कोरोना लेकर आते हैं, फिर वे अचानक हवाई अड्डे से ग़ायब हो जाते हैं। उसको हवाई अड्डे के अन्दर तो पकड़ नहीं पाते हैं, फिर कई-कई दिनों तक उसको पकडऩे में लगा देते हैं, जिससे कोरोना का विस्तार हो जाता है।

कोरोना को लेकर आयुर्वेदाचार्य एवं कैनेडियन कॉलेज ऑफ आयुर्वेद ऐंड योग के प्रमुख डॉक्टर हरीश वर्मा का कहना है कि कोई भी बीमारी तब तक घातक नहीं होती है, जब तक लापरवाही न बरती जाए। कोरोना के नये-नये रूप में फैलने से बचने के लिए हमें वहीं सब कुछ करना है, जो 2020 में कोरोना की दस्तक के बाद किया था। जैसे सामाजिक दूरी बनाकर रहना, मास्क लगाकर रखना, साफ़-सफ़ार्इ रखना, सैनिटाइजर का इस्तेमाल करना, सर्दी-जुकाम, बुख़ार होने या साँस लेने में दिक़्क़्त होने पर तुरन्त कोरोना जाँच कराना। अगर कोरोना नहीं है, तो भी उचित इलाज कराना। अगर किसी को कोरोना सम्बन्धी लक्षण दिखायी दें, तो उसे छिपाये नहीं, बल्कि उपचार करवाएँ। डॉक्टर वर्मा ने बताया कि आयुर्वेद में इलाज है और जो लोग नियमित योग-व्यायाम करते हैं, उनको कोरोना होने का ख़तरा न के बराबर होता है।

बताते चलें आईआईटी कानपुर के प्रोफेसर महेन्द्र अग्रवाल का कहना है कि और उनका अनुमान है कि कोरोना का जब चरम पर होगा, तब देश में कोरोना के मामलें चार से आठ लाख तक आ सकते हैं। ऐसे में बचाव के तौर पर सम्पूर्ण लॉकडाउन से ज़्यादा ज़रूरी है कि सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का वितार करे, ताकि इलाज के अभाव में मरीज़ों को भटकना न पड़े।

साकेत मैक्स अस्पताल के कैथ लेब के डायरेक्टर डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना वायरस को लेकर सचेत रहने की ज़रूरत है। हृदय रोगी, दमा रोगी और लीवर-किडनी के रोगियों को विशेष सावधानी बरतने की ज़रूरत है। क्योंकि कई बार लोगों को यह भ्रम रहता है कि उनका इलाज चल रहा है और वे कोरोना की चपेट में नहीं आएँगे, जबकि सच्चाई यह है कि जो बीमार हैं, कोरोना उनको आसानी से अपनी चपेट में ले रहा है।

मौज़ूदा समय में भारत के महानगरों में तो कोरोना मामलों की जाँच हो रही है, जिससे कोरोना की पुष्टि भी हो रही है। लेकिन गाँव-क़स्बों में कोरोना की जाँच न के बराबर हो रही है। इससे वहाँ पर कोरोना के मामले सामने नहीं आ रहे हैं। यानी वहाँ पर छिपा हुआ कोरोना कब विस्फोट कर दे, इसका कोई पता नहीं। ऐसे हालात से निपटने में लिए कड़े बंदोबस्त की ज़रूरत है। क्योंकि जिस गति से हर रोज़ कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, उससे अब गाँव और क़स्बों के लोग भी नहीं बच पा रहे हैं। कोरोना की पहली और दूसरी लहर के चपेट में भी शहरों से लेकर गाँव-क़स्बों तक के लोग आये थे। पहली और दूसरी लहर से सबक़ लेना ज़रूरी है। महानगरों की तरह ज़िला स्तरीय अस्पतालों में भी पर्याप्त ऑक्सीजन की व्यवस्था होनी चाहिए, ताकि किसी को ऑक्सीजन गैस के भटकना न पड़े और उसके लिए लाखों रुपये न चुकाने पड़ें। कोरोना के बढ़ते प्रकोप को लेकर सबसे ज़्यादा चिन्ता की बात यह है कि इस बार कोरोना के ओमिक्रॉन वायरस का संक्रमण डॉक्टरों और पैरामेडिकल कर्मचारियों को अपनी चपेट में ले रहा है। अगर इसी तरह स्वास्थ्य कर्मचारियों में संक्रमण फैलता रहा, तो कहीं ऐसा न हो कि लोगों को डॉक्टरों के अभाव में भटकना पड़े। ऐसे में सरकार को डॉक्टरों के स्वास्थ्य को लेकर भी सजग रहना होगा और डॉक्टरों को अधिक-से-अधिक सुविधा देनी होगी, ताकि लोगों की जान बचाने वाले बीमार न पड़ें।

चौंकाने वाली बात यह है कि देश में ड्रग माफिया भी सुनियोजित तरीक़े से कोरोना को प्रोत्साहित कर रहे हैं। इसके कारण देश में कोरोना को लेकर डर और भय का माहौल बना हुआ है। दिल्ली से लेकर अन्य महानगरों में बड़े-बड़े मेडिकल स्टोरों में कोरोना से बचाव के सारे सामानों की उपलब्धता दर्शायी जा रही है। और तो और कई मेडिकल वाले तो यह भी दावा कर सामान बेच रहे हैं कि कोरोना के पीक आवर के समय फलाँ-फलाँ सामान की क़िल्लत हो सकती है। ऐसे में एक बार फिर 2021 की तरह बहुत-सी ज़रूरी दवाओं और वस्तुओं की जमाख़ोरी होने लगी है।

दरअसल कोरोना की दस्तक को लोगों ने अपने तरीक़े से अवसर में बदलने की परिभाषा गढ़ ली है। ये लोग जमाख़ोरी करके कोरोनारोधी चीज़ों के दामों को मनमर्ज़ी से बढ़ाकर बेचते हैं। ओमिक्रॉन की दस्तक के बाद एक बार फिर सैनिटाइजर और मास्क के दाम बढऩे लगे हैं। फार्मास्युटिकल से जुड़े आलोक कुमार का कहना है कि जब 2021 के अप्रैल-मई में करोना की दूसरी लहर के दौरान कहा गया था कि रेमडेसिविर ही आपकी जान बचा सकती है, तो यह दवा मेडिकलों पर अचानक आयी थी और रेमडेसिविर को लेकर हाहाकार मचा था। इसी तरह अब जब कोरोना चरम पर होगा, तब रेमडेसिविर की तरह किसी दवा को लॉन्च किया जाएगा। इससे फिर से दवा की कालाबाज़ारी भी बढ़ेगी और मुनाफ़ाख़ोरी भी होगी।

कितने सच हैं उत्तर प्रदेश सरकार के नौकरी देने वाले आँकड़े?

जब सत्ता में आने या वापसी की बेचैनी हो, तो राजनीतिक दल क्या-क्या चुनावी घोषणाएँ नहीं करते, भले ही वो पूरी हों या न हों। उत्तर प्रदेश में भी इन दिनों यही हो रहा है। हर पाँच साल के विधानसभा चुनाव के अलावा लोकसभा के चुनावों में भी जनता पर वादों की जिस तरह बारिश होती है, अगर उन वादों को कोई पार्टी अपनी सरकार बनने के बाद पूरा कर दे, तो अगले चुनावों में जनता को प्रलोभन देने की नौबत ही न आये, जनता उस पार्टी को पुन: आँखें बन्द करके चुन ले। मगर यह कभी नहीं होता, शायद आगे कभी हो।

इन दिनों सबसे बढ़-चढ़कर अगर कोई पार्टी दावे और वादे कर रही है, तो वह उत्तर प्रदेश की सत्ता में मौज़ूदा भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) है। जबसे चुनावी मौसम शुरू हुआ है, प्रदेश की भाजपा सरकार या सीधे-सीधे ये कहें कि स्वयं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दावों और वादों के पिटारों पर पिटारे खोले हुए हैं और विकास की हवा चलाने की हरसम्भव कोशिश करने में जुटे हैं।

अगर उनके सन् 2017 के चुनावी घोषणा-पत्र पर नज़र डालें, तो उन्हें सवालों के कठघरे में आराम से घेरा जा सकता है, जहाँ से उनका और उनकी सरकार का बच निकलना मुश्किल हो जाएगा। मगर इस मामले में न पड़कर केवल उनके पाँच साल के कामों में नौकरी के वादों और दावों पर नज़र डालें, तो सा$फ पता चलता है कि वह न तो 2017 में लोगों से किया अपना नौकरी देने का वादा पूरा कर सके हैं और न ही उनका साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियाँ देने का दावा ही कहीं से खरा उतरता दिखायी दे रहा है।

प्रदेश की योगी सरकार इन दिनों कई पोस्टरों को लेकर चर्चा में है, मगर इनमें से उनका वह पोस्टर ग़ौर करने को मजबूर करता है, जिसमें लिखा है- साढ़े चार साल, 4.5 लाख नौकरियाँ, साथ ही लिखा है- आओ मनाएँ विकास उत्सव। अब उनके इस 4.5 लाख नौकरियों के दावे पर विचार करने से पहले पिछले साल 3 अगस्त के लखनऊ के लोकभवन दिये गये उनके भाषण पर ग़ौर करते हैं। दरअसल पिछले साल 3 अगस्त को मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने लोकभवन लखनऊ में जाकर उत्तर प्रदेश लोकसेवा आयोग में चयनित अभ्यर्थियों को नियुक्ति पत्र बाँटने के दौरान दावा किया था कि उनकी सरकार ने साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियाँ दी हैं, जिनमें कहीं भ्रष्टाचार नहीं हुआ है।

मगर उनके दावे की सच्चाई जानने के लिए किसी ने तुरन्त आरटीआई डालकर कार्मिक विभाग से इसकी जानकारी माँगी, जिसका जबाव मिला कि ऐसा कोई आँकड़ा उसके पास नहीं है। बस फिर क्या था, विधानसभा के मानसून सत्र में विधानसभा में जमकर हंगागा हुआ और कांग्रेस नेता प्रियंका गाँधी ने ट्वीटर पर सरकार के 4.5 लाख नौकरियों के दावे को लेकर सवाल उठाये, जिस पर भाजपा ने ट्वीटर पर उन पर पलटवार करते हुए अलग-अलग विभागों में क़रीब 4.13 लाख नौकरियों का ब्यौरा दिया। यहाँ दो-तीन सवाल ये उठे कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने 4.5 लाख नौकरियों का दावा किया, तो ट्वीटर पर 4.13 लाख नौकरियाँ ही क्यों बतायी गयीं और अगर ट्वीटर पर और भाषणों में योगी सरकार और उसके लोग लाखों नौकरियाँ देने का दावा करते रहे हैं, तो इसके आँकड़े सरकार के पास मौज़ूदा क्यों नहीं हैं। इसके अतिरिक्त साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियों के बाद योगी आदित्यनाथ सरकार ने क्या और लोगों को नौकरी नहीं दी, जो वो अभी भी 4.5 लाख नौकरियों का जश्न मना रही है।

अजगर की भूख, मुर्ग़ी का अण्डा

एक बार को मान भी लिया जाए कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश में साढ़े चार साल में 4.5 लाख लोगों को नौकरियाँ दी हैं, तो क्या इतनी कम नौकरियों से प्रदेश के युवाओं का भला हुआ होगा।

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, उत्तर प्रदेश की जनसंख्या 19,98,12,341 है। वहीं 2020 में उत्तर प्रदेश की अनुमानित जनसंख्या 23,15,02,578 मानी गयी है। ऐसे में अगर मान भी लें कि योगी आदित्यनाथ की सरकार ने अपने इस कार्यकाल में 4.5 लाख लोगों को नौकरियाँ दे भी दीं, तो इनका फ़ीसद मात्र 5.14 के आसपास ही होता है। मतलब प्रदेश सरकार ने हर साल केवल एक फ़ीसदी नौकरियाँ ही दी हैं। इसका मतलब यह हुआ कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अजगर की भूख मिटाने के लिए मुर्ग़ी का अण्डा लिए बैठे दिखायी दे रहे हैं।

आँकड़ों की सच्चाई

दरअसल उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दोबारा सत्ता में आने के लिए इतने बेचैन हैं कि अब उनकी हालत ये कर दूँ, वो कर दूँ, क्या कर दूँ वाली बन चुकी है। वह दावों और वादों की प्रदेश की जनता के सामने ऐसी झड़ी लगाये हुए हैं, जो उन्होंने लगभग पाँच साल के शासनकाल में कभी नहीं लगायी। उनका दावा है कि उन्होंने अपने कार्यकाल में प्रदेश का पिछली हर सरकार से ज़्यादा विकास किया है, मगर इस बात को भी वह झुठला नहीं सकते कि बेरोज़गारी के मामले में प्रदेश का रिकॉर्ड बहुत ख़राब है।

योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्री भले ही दावा करते घूम रहे हैं कि भाजपा सरकार आने के बाद बेरोज़गारी में कमी आयी है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के भी पिछले आँकड़े बताते रहे हों कि 2016 में प्रदेश में बेरोज़गारी दर 16.82 फ़ीसदी थी, जो मार्च 2017 में घटकर 3.75 फ़ीसदी हो गयी। मगर इस हिसाब से अगर देखें, तो योगी सरकार ने आते ही 13.07 फ़ीसदी लोगों को नौकरियाँ दे दी थीं। तो फिर सरकार साढ़े चार साल में केवल 4.5 लाख नौकरियाँ देने की बात क्यों कर रही है, क्योंकि इस हिसाब से तो उसने 2017 में प्रदेश की बा$गडोर सँभालते ही लाखों नौकरियाँ दे दी थीं। यहाँ कौन झूठा है? यह तो श्रीराम ही जानें।

बाद में इसी सीएमआईई ने कहा कि 2021 के मई-अगस्त में उत्तर प्रदेश की बेरोज़गारी दर 5.41 फ़ीसदी है। कुछ और बाद के सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी (सीएमआईई) के आँकड़े देखें, तो पता चलता है कि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी दर बढ़कर 6.9 फ़ीसदी दर्ज की गयी है। इसका अर्थ यह हुआ कि 2017 में एक साथ बेरोज़गारी दर घटने के बाद 2021 में फिर दोगुने से ऊपर बढ़ गयी। तो फिर योगी आदित्यनाथ सरकार ने हर साल जो एक लाख नौकरियाँ दीं, उनका क्या हुआ, यह बात भी समझ से परे है।

वैसे पिछले साल जून-जुलाई के आसपास भारतीय रिजर्ब बैंक ने भी रोज़गार के मामले में उत्तर प्रदेश की स्थिति बेहद ख़राब बतायी थी। इसके अलावा जैसे ही मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने यह दावा किया था कि उनकी सरकार ने साढ़े चार साल में साढे चार लाख नौकरियाँ दी हैं, कई ख़बरें ऐसी भी सामने आयीं, जिनमें दावा किया गया कि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी उच्च स्तर पर है।

जो भर्तियाँ हुईं रद्द

उत्तर प्रदेश में अब तक लाखों भर्तियाँ होने से पहले ही रद्द हो चुकी हैं। इसका पूरा-पूरा लेखा-जोखा तो उपलब्ध नहीं है, मगर मोटा-मोटा हिसाब जो ख़बरों के मुताबिक है, वो इस प्रकार है- ग्राम विकास अधिकारी की मई, 2018 में भर्तियाँ निकलीं। दिसंबर, 2018 में परीक्षा हुई और अगस्‍त, 2019 में परीक्षा परिणाम आया। जो युवा इसमें पास हुए वे ख़ुश थे कि उन्हें सरकारी नौकरी मिल गयी। मगर मार्च, 2021 में ये भर्तियाँ रद्द हो गयीं। इसके अतिरिक्त जूनियर असिस्‍टेंट की भर्तियाँ जून, 2019 में निकलीं, जनवरी, 2020 में परीक्षा हुई, जून, 2021 में टाइपिंग टेस्‍ट (टंकण परीक्षण) हुआ। लेकिन इसका भी परिणाम नहीं आया। इसके अतिरिक्त वन रक्षक (फॉरेस्‍ट गार्ड) की रिक्तियाँ निकाली गयीं। प्रदेश के युवाओं ने बड़ी लगन से इसमें आवेदन किया। मगर कई बार परीक्षा की तारीख़ मिलने पर भी परीक्षा ही नहीं हुई है।

फिर निकलीं रिक्तियाँ

अब पिछले साल जैसे ही चुनाव सामने दिखे एक बार फिर योगी सरकार ने एक-एक करके कई विभागों में भर्तियाँ निकाल दी हैं। इनमें शिक्षा, स्वास्थ्य, सहकारिता विभाग, नगर विकास, वित्त विभाग, लेखा विभाग आदि हैं। मगर इसमें लोचा यह है कि प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले ये भर्तियाँ सम्भव नहीं हैं और चुनाव के बाद का भरोसा नहीं है। तो फिर सरकार ने क्या ये भर्तियाँ युवाओं को लुभाने के लिए निकाली हैं, यह कहना उचित नहीं है।

नियमित नहीं हुए संविदाकर्मी

यह भी याद रखना चाहिए कि उत्तर प्रदेश में संविदा पर हर विभाग में लोगों की भरमार है। उत्तर प्रदेश परिवहन विभाग में बस ड्राइवरों से लेकर कंडक्टर तक बड़ी संख्या में संविदा पर हैं। इसी तरह शिक्षा विभाग का भी यही हाल है। हाल ही में 69,000 शिक्षक भर्तियों पर इंसाफ़ की माँग के लिए निकले अभ्यर्थियों पर लखनऊ में पुलिस ने लाठियाँ बरसायी थीं।

इससे पहले आँगनबाड़ी कार्यकर्ता भी सरकार से अपना पारिश्रमिक बढ़ाने और उन्हें पक्का करने की कई बार माँग कर चुकी हैं। इसके लिए उन्होंने जगह-जगह धरना भी दिया, मगर उन्हें भी अभी कुछ हासिल नहीं हो सका है। इसके अतिरिक्त दो साल पहले उत्तर प्रदेश की सुरक्षा सेवा में लगे 25,000 होमगाड्र्स को हटा दिया गया था। उससे ठीक पहले 17,000 होमगाड्र्स को ड्यूटी से हटाया गया था। कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय ने होमगाड्र्स का मानदेय बढ़ाने का आदेश दिया था, जिसके बाद योगी आदित्यनाथ सरकार ने यह छँटनी कर डाली।

हालाँकि बाद में सरकार ने इन होमगार्ड को वापस लिया गया या नहीं इस पर $खास चर्चा नहीं हुई। दरअसल सर्वोच्च न्यायालय ने होमगाड्र्स को 500 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से मिलने वाले मानदेय को बढ़ाकर 600 रुपये और किराया भत्ता 72 रुपये देने का आदेश प्रदेश सरकार को दिया था। मगर प्रदेश सरकार ने उनका मानदेय और भत्ता बढ़ाने की जगह उन्हें बेरोज़गारी दे दी और सरकार दावा कर रही है कि उसने साढ़े चार साल में 4.5 लाख नौकरियाँ दी हैं और यह प्रदर्शन कर रही है कि मानो उसके राज्य में बेरोज़गारी है ही नहीं।

महँगाई और दलबदल के साये में उत्तराखण्ड चुनेगा पाँचवीं सरकार

 किसी भी दल की लहर नहीं        मतदाता उत्सुक, नेता बेचैन

 वापसी को लेकर कांग्रेस बेचैन            देवभूमि पर 85,000 करोड़ के क़र्ज़

उत्तराखण्ड की ख़ूबसूरत सर्द वादियों में अगले महीने तापमान बढ़ जाएगा। यह इसलिए नहीं कि जाड़ा चला जाएगा, बल्कि फरवरी में होने वाले विधानसभा चुनावों में सभी राजनीतिक दलों की अचानक तेज़ हुई सरगर्मियों से देवभूमि इस वक़्त पूरे देशवासियों के लिए जिज्ञासा का केंद्र बना हुआ है। गोवा, मणिपुर, पंजाब और उत्तर प्रदेश के साथ उत्तराखण्ड में भी मार्च तक नयी सरकार का गठन होना है।

22 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश से अलग हुए छोटे से इस हिमालयी राज्य में कहने को तो कुल 70 विधानसभा सीटें हैं; लेकिन प्रधानमंत्री के पसन्दीदा आस्था केंद्र केदारनाथ धाम के कारण उत्तराखण्ड इस वक़्त राजनीति की दृष्टि से वीआईपी राज्य बना हुआ है। यही कारण है कि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, गृह मंत्री अमित शाह, कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, ख़ुद आम आदमी पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया समेत इन दलों के वरिष्ठ नेताओं के दो से तीन दौरे और जनसभाएँ हो चुकी हैं। सत्ता में आने पर मुफ़्त की बिजली और बेरोज़गारी भत्ता जैसी गारंटी के लुभावने वादों के साथ आम आदमी पार्टी ने विपक्षी दलों पर तीखे प्रहार करते हुए स्वयं को देशभक्ति की राह पर चलने वाली पार्टी बताया है।

देवभूमि वासी अगले महीने पाँचवीं विधानसभा के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगे। क़रीब 54 वर्ग किलोमीटर में फैले इस पहाड़ी राज्य का 71 फ़ीसदी भाग वन क्षेत्र में आता है। लेकिन पहाड़ी और मैदानी विधानसभाओं की दृष्टि से देखा जाए, तो 70 में से आधी पर्वतीय और आधी मैदानी क्षेत्र की विधानसभा गिनी जाती हैं। इनमें से 41 सीटें गढ़वाल और 29 सीटें कुमाऊँ से हैं। राज्य बनने के बाद से भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस बारी-बारी से दो-दो बार सत्ता पर क़ाबिज़ रही हैं। इस बार वैसे तो किसी भी दल के पक्ष में एक तरफ़ा लहर नहीं दिख रही; लेकिन पिछली बार 11 सीटों पर सिमटने वाली कांग्रेस सत्ता में आने को काफ़ी बेचैन है। दिग्गज कांग्रेसी नेता स्व. नारायण दत्त तिवारी को छोड़कर दोनों राष्ट्रीय दलों के किसी भी मुख्यमंत्री को पाँच साल का कार्यकाल पार्टी के अंतर्कलह और भितरघात ने पूरा नहीं करने दिया। जैसे उत्तराखण्ड का मौसम हमेशा अप्रत्याशित रहता है, उसी तरह नेताओं की भी आदत बन चुकी है। अवसरवादिता और मौक़ापरस्ती के राजनीतिक वायरस से अमूमन यहाँ के नेता संक्रमित हो ही जाते हैं।

कुछेक ठेठ भाजपाइयों या कांग्रेसियों को छोड़कर यहाँ अवसरवादी राजनीति की पैदावार इतनी अच्छी हुई कि जिसके फलस्वरूप भ्रष्टाचार की फ़सलों को जिसे भी मौक़ा मिला वह बोने और काटने से नहीं चूका। नतीजा यह रहा कि 10 से 15 साल के भीतर ऐसे विधायकों की माली हैसियत में 20 गुना इज़ाफ़ा हो गया। नया राज्य और कमायी / कमीशनख़ोरी के अथाह अवसरों ने नेताओं के ज़मीर को तार-तार करके रख दिया। इसका जीता-जागता उदाहरण यह है कि शुरू से लेकर अब तक सभी मुख्यमंत्रियों के नाम के साथ विकासशील, ऊर्जावान और समर्पित शब्द पोस्टरों और बैनरों में तो ज़रूर देखने को मिले; लेकिन ईमानदार लिखने का साहस कोई भी मुख्यमंत्री नहीं जुटा पाया।

राज्य में राजनीतिक अस्थिरता उसके विकास में सबसे बड़ा रोड़ा है, क्योंकि नेताओं को दलबदल की बीमारी से छुटकारा नहीं मिल रहा है। सन् 2016 में पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा और हरक सिंह रावत के नेतृत्व में 10 विधायकों ने बग़ावत कर मुख्यमंत्री हरीश रावत को छोड़कर भाजपा का दामन थाम लिया था। हालाँकि यह बात अलग है कि कांग्रेसी गोत्र के इन 10 विधायकों को भाजपा में अपना वजूद बनाये रखने के लिए पिछले 5 साल से प्रेशर पॉलिटिक्स के हथकंडे अपनाने पड़े, उधर भाजपा ने भी इन पर कभी दिल से भरोसा नहीं किया और यह कहकर सन्तोष कर लिया कि अपना तो अपना ही होता है।

शिक्षा जगत के मानचित्र पर यूँ तो देहरादून, हल्द्वानी और रुड़की का नाम प्रमुखता से गिना जाता है, बावजूद इसके राज्य की महिला साक्षरता दर अभी भी केवल 69 फ़ीसदी पर अटकी हुई है। यहाँ के ग्रामीण क्षेत्रों में तो और भी बुरा हाल है। दिल्ली के सरकारी स्कूलों में शिक्षा क्रान्ति लाने के लिए आम आदमी पार्टी को जो सफलता मिली, शायद उत्तराखण्ड के सरकारी स्कूलों की बदहाली इसके सापेक्ष उनको उपजाऊ भूमि नज़र आ रही है और उत्साहित आम आदमी पार्टी ने दिल्ली की तर्ज पर यहाँ की शिक्षा में भी क्रान्ति लाने का वादा कर दिया है। दिल्ली में तीन बार से लगातार सत्ता पर क़ाबिज़ आम आदमी पार्टी अबकी बार उत्तराखण्ड में होने जा रहे चुनावों में राज्य के कुछ ऐसे ही बुनियादी मुद्दों पर मतदाताओं के साथ विकास और भावनात्मक जुड़ाव बनाने की कोशिश कर रही है। उनकी इस सियासत ने कांग्रेस और भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी है। केजरीवाल ने अपनी तीन जनसभाओं में 300 यूनिट मुफ़्त बिजली, हर बेरोज़गार को 5,000 रुपये बेरोज़गारी भत्ता और हर महिला या युवती को 1,000 रुपये का व्यक्तिगत ख़र्च देने की घोषणा गारंटी के तौर पर अपनी सभाओं से कर दी है।

इन लोकलुभावन घोषणाओं पर सवाल खड़े करते हुए जब कांग्रेस और भाजपा के नेता भड़के कि मुफ़्त की बिजली के लिए पैसा कहाँ से आएगा, तो केजरीवाल अपनी जनसभाओं में इस पर भी पलटवार करते हुए बोल गये कि जो करोड़ों रुपया रिश्वत का नेताओं के घरों में जा रहा है, उसे हम जनता पर लुटाने में गुरेज़ नहीं करेंगे।

आम आदमी पार्टी के प्रदेश प्रवक्ता नवीन पिरशाली का मानना है कि भाजपा और कांग्रेस ने पिछले 21 साल में प्रदेश को एक दर्ज़न मुख्यमंत्री तो दे दिये; लेकिन एक स्थायी राजधानी नहीं दे पाये। पिरशाली कहते हैं कि इन 21 साल में भाजपा और कांग्रेस ने उत्तराखण्ड पर क़र्ज़ का पहाड़ लाद दिया है और स्वास्थ्य के क्षेत्र में हिमालयी राज्यों में यह राज्य सबसे निचले पायदान पर लुढ़ककर आ गया है। नवीन पिरशाली ने कहा कि जहाँ एक ओर भाजपा कांग्रेस राज्य में मुद्दा विहीन हो चुके हैं और जनता के मुद्दों की बात न करके पैसे की चमक व सत्ता के प्रभाव से आकर्षण पैदा करके राज्य की जनता को बरगलाने का प्रयास कर रहे हैं, वही आम आदमी पार्टी इस राज्य की अवधारणा को पुनर्जीवित कर इस नववर्ष में उत्तराखण्ड नव-निर्माण के लिए नव-परिवर्तन और जनहित के मुद्दों पर काम कर रही है। उनका दावा है कि उत्तराखण्ड की जनता को गारंटी की जो सौगात अरविंद केजरीवाल ने दी है, उनके प्रयासों और जनता के भारी समर्थन की बदौलत 27 लाख से ज़्यादा राज्य की जनता सीधे तौर से आम आदमी पार्टी से जुड़ चुकी है। बुज़ुर्गों को तीर्थ यात्रा और पूर्व सैनिकों को सरकारी नौकरी देने सहित शहीदों की शहादत की सम्मान राशि एक करोड़ रुपये कर देने का संकल्प भी आम आदमी पार्टी ने लिया है। पिरशाली का मानना है कि जहाँ भाजपा कांग्रेस की राजनीति अपनों को समृद्ध बनाने की है, वहीं आम आदमी पार्टी की राजनीति ज़रूरतमंदों व समाज के अन्तिम छोर में बैठे उपेक्षित लोगों को राहत देने की है। कांग्रेस और भाजपा के चुनाव कैंपेन पर प्रहार करते हुए नवीन प्रशाली ने बताया कि आम आदमी पार्टी का चुनाव कैंपेन चमक-दमक से दूर रहकर, लोगों को समझाकर शिक्षित करके जनहित के लिए सहमति बनाना है।

भारतीय जनता पार्टी की सरकार में तीसरे मुख्यमंत्री के तौर पर बदले गये पुष्कर सिंह धामी ने पार्टी की छवि को काफ़ी हद तक सँभाल लिया वरना भाजपा के लिए यह दाग़ होना, मुश्किल हो गया था कि पार्टी ने पाँच साल में तीन मुख्यमंत्री बदल दिये। मुख्यमंत्री धामी की पारदर्शी कार्यप्रणाली के आगे विपक्ष भी उस समय नि:शब्द हो गया, जब उन्होंने अपने ही ओएसडी को एक मामले में 24 घंटे के भीतर निलम्बित कर दिया। ओएसडी नंदन सिंह बिष्ट ने मुख्यमंत्री के लेटर हेड पर परिवहन विभाग से सीज हुए वाहनों को छुड़वाने के लिए सिफ़ारशी पत्र लिख दिया था। इसके अलावा नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह और अमित शाह भी धामी को राजनीति का एक अच्छा बॉलर और धाकड़ बल्लेबाज़ बता चुके हैं।

वर्तमान सदन में भाजपा का 57 विधायकों का प्रचण्ड बहुमत है, जिसमें से आठ बार विधायक रहे हरबंस कपूर का निधन हो गया। उधमसिंह नगर से पिता पुत्र विधायक यशपाल आर्य और संजीव आर्य भाजपा छोड़कर कांग्रेस में सम्मिलित हो चुके हैं। कैबिनेट मंत्री हरक सिंह रावत और विधायक उमेश शर्मा काऊ समेत कांग्रेसी गोत्र के अन्य विधायकों के प्रति इसी कारण भाजपा का रुख़ कुछ नरम रहता है कि कहीं वह भी पासा न पलट लें। हालाँकि भाजपा के मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को बदलने के बाद पार्टी ने केंद्र से सांसद तीरथ सिंह रावत को कमान सौंपी थी, लेकिन उन पर भी भरोसा न करके पुष्कर सिंह धामी को मुख्यमंत्री बना दिया, लेकिन संघ में अच्छी पैठ की वजह से आज भी भाजपा के शीर्ष नेता लगातार त्रिवेंद्र सिंह रावत के अच्छे सम्पर्क में हैं।

कांग्रेस के हैवीवेट नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के लिए भी यह चुनाव करो या मरो वाली स्थिति बन चुका है। मीडिया और चैनलों पर कई मर्तबा वह इस बात को दोहरा चुके हैं कि या तो मुख्यमंत्री बनूँगा या घर बैठूँगा। इतने दिग्गज राजनीतिज्ञ हरीश रावत के साथ ख़ुद उनकी कांग्रेस पार्टी राजनीति खेल रही है। पार्टी हाईकमान ने उनको मुख्यमंत्री का चेहरा तो नहीं घोषित किया, लेकिन चुनाव उनके संचालन में कराने की घोषणा कर दी। इसके बावजूद कांग्रेस अभी भी राज्य में धड़ों में बँटी हुई है।

भारतीय जनता पार्टी को भी सत्ता वापसी से ज़्यादा चिन्ता इस बात की है कि राज्य में कहीं कांग्रेस के सारे धड़े एकजुट न हो जाएँ। कांग्रेस की पिछली सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे और प्रदेश अध्यक्ष रह चुके प्रीतम सिंह का भी पार्टी में अच्छा-ख़ासा वजूद है। इन चुनावों में कांग्रेस अगर सरकार बनाने लायक बहुमत ले आती है, तो प्रीतम सिंह की मुख्यमंत्री के लिए दावेदारी प्रबल मानी जाएगी। अपनी चाहत और मन की बात को भी प्रीतम सिंह ने पार्टी हाईकमान के समक्ष हमेशा अनुशासित स्वर में रखा है। ऐसा माना जाता है कि हरीश रावत की सहमति के बिना कांग्रेस का नेता नहीं चुना जाएगा; लेकिन पार्टी में आंतरिक अस्थिरता न पनपे इसके लिए भी राहुल गाँधी ख़ासे चिन्तित हैं।

बहराल भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, पलायन, प्राकृतिक आपदाओं और राजनीतिक अस्थिरता से त्रस्त उत्तराखण्ड वर्तमान में तक़रीबन 85,000 करोड़ रुपये के क़र्ज़ में डूबा हुआ है। इसकी भरपाई कैसे होगी? कैसे चुकाया जाएगा यह क़र्ज़? न तो किसी दल को इसकी चिन्ता है, न ही सत्तारूढ़ किसी दल ने कभी अपने चुनावी घोषणा-पत्र में इस क़र्ज़ से निजात पाने का ज़िक्र भी किया। इसलिए यही कहा जा सकता है कि देवी-देवताओं की भूमि में सरकारें और जनता भी दैवीय-कृपा पर ही निर्भर हैं।

ठीक नहीं हबीब के थूक की तरकीब

बुराई आक्रामक होती है। सोशल मीडिया के युग में बुराई और अच्छाई को वायरल होने में कोई ज़्यादा समय नहीं लगता है। अच्छाई में कोई प्रतिक्रिया ख़ास मायने नहीं रखती है; लेकिन बुराई में प्रतिक्रिया आग में घी का काम करती है। ऐसा ही मौज़ूदा समय में हेयर स्टाइलिस्ट जावेद हबीब के थूक कांड को लेकर वीडियो वायरल होने पर हो रहा है। इससे मानवीय संवेदनाओं और विश्वास को आघात लगा है। बताते चलें कि उत्तर प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर में एक सेमिनार में ब्यूटिशियन पूजा गुप्ता नामक एक महिला के बाल काटते हुए वहाँ उपस्थित सैकड़ों लोगों के सामने जावेद हबीब तो पूजा के बालों पर थूककर यह बताते हुए दिखाया है कि अगर बालों की कटिंग के दौरान पानी कम पड़ जाए, तो थूक से पानी की कमी को दूर किया जा सकता है।

साथ ही जावेद हबीब ने यह भी कहा है कि उसके थूक में जान है। इसी बात को लेकर पूजा गुप्ता ने जावेद हबीब की शरारत पर रोष जताते हुए आपत्ति व्यक्त की है और मुज़फ़्फ़रनगर थाने में एफआरआई दर्ज करायी है। पूजा गुप्ता के साथ हुए थूक कांड के बाद बजरंग दल और हिन्दू सेना के सैकड़ों लोगों ने प्रदर्शन कर हबीब का विरोध जताया है और कई जगह तोड़-फोड़ भी है। मामला तूल पकड़ता देख जावेद हबीब ने सार्वजनिक तौर पर माफ़ी माँगते हुए कहा कि सेमिनार में कई-कई घंटे लग जाते हैं। ऐसे में मज़ाक़ में मनोरंजन के तौर पर उसने यह किया। फिर भी वह माफ़ी माँगता है।

पूजा गुप्ता का कहना है कि वह ख़ुद एक ब्यूटी पार्लर चलाती है। इसलिए बालों के रख-रखाव और ब्यूटिशियन से जुड़े सेमिनार में भाग लेने गयी थी। जावेद हबीब ने बाल काटते हुए और बालों में सूखापन को पानी की बजाय थूक से दूर करने का जो षड्यंत्र किया है, उससे वह आहत है। पूजा ने कहा कि सोशल मीडिया के युग में तो बात हबीब की सामने आ गयी। अन्यथा न जाने कबसे हबीब लोगों के बालों पर थूककर उन्हें काट रहा होगा। हबीब जैसे लोगों का सामाजिक बहिष्कार होना चाहिए। पूजा ने माँग की है कि कोरोना जैसी घातक बीमारी में थूक से न जाने कितने लोग बीमार हुए होंगे, इसकी भी जाँच होनी चाहिए। जावेद हबीब के थूक कांड के बाद लोगों ने हबीब के देश भर में बने सैकड़ों सैलूनों पर जाना कम कर दिया है। दिल्ली के हबीब हेयर सैलून में बाल कटवाने वाले पंकज ने ‘तहलका’ को बताया कि हबीब का कैंची और बालों से पुस्तैनी रिश्ता रहा है। लोगों को हबीब पर विश्वास था; लेकिन अब विश्वास टूट गया है। ऐसे में हबीब जैसों की दुकानों को बन्द किया जाना चाहिए। हबीब की तरकीब और घिनौने अमानवीय कृत्य को लेकर तामाम सामाजिक संगठनों के साथ राष्ट्रीय महिला आयोग ने इस घटना पर कड़ी आपत्ति व्यक्त करते हुए इस मामले की जाँच के अलावा हबीब पर क़ानूनी कार्रवाई की माँग की है।

बताते चलें कि जावेद हबीब के दादा नजीर अहमद और पिता हबीब अहमद अग्रेजों के जमाने से बाल काटते आ रहे हैं। जावेद हबीब भी उसी पुस्तैनी काम को आगे बढ़ा रहा है। हबीब जवाहर लाल विश्वविद्यालय (जेएनयू) से फ्रांस भाषा से मास्टर की डिग्री हासिल करने के अलावा हबीब ने लंदन में भी हेयर स्टाइलिस्ट में भी डिग्री हासिल ही है। फिर भी अगर उसने थूक कांड किया है, तो इसको सोची-समझी शरारत ही कहा जाएगा, जो हबीब और उसके काम की विश्वनीयता पर सवालिया निशान लगाती है। जावेद हबीब के देश भर में कई हज़ार हेयर सैलून चल रहे हैं, जिसमें अमीर लोग ही बाल कटवाने जाते हैं। क्योंकि उनके यहाँ बालों की कटिंग 500 रुपये से शुरू होती है। बताते चलें कि भारत में ही नहीं, बल्कि विदेशों में सिंगापुर, बंग्लादेश, केन्या और दुबई जैसे देशों में फ्रेंचाइजी चल रही है। दिल्ली में बारबर एसोसिएशन के पदाधिकारी सलीम खान का कहना है कि बालों की कटिंग का काम विश्वनीयता का होता है। लोग विश्वास करके कटिंग करने वालों की बात पर भरोसा करके दाढ़ी और बाल कटवाते हैं। बालों की कटिंग के दौरान बाल आँख में न चले जाएँ, इसलिए वे आखों को बन्द कर लेते हैं। यह सब विश्वास ही तो है। ऐसे में अगर कोई थूककर या अन्य शरारत करके कटिंग करता है, तो यह धोखा है। उनका कहना है कि अगर ऐसी घटनाएँ होंगी, तो निश्चित तौर पर लोग सैलून में बालों की कटिंग कराने से बचेंगे। क्योंकि सोशल मीडिया के ज़रिये ऐसे मामले लोगों तक पहुँचते हैं और उनमें आक्रोश पनपता है। वैसे भी आजकल वीडियो बनना परम्परा में आ गया है। ऐसे में ईमानदारी और साफ़-सुथरे तरीक़े से बाल काटने वालों का काम भी प्रभावित होगा।

कपड़ा उद्योग पर फिर संकट के बादल

कोरोना महामारी की दूसरी लहर के बाद लगा था कि कपड़ा उद्योग की गुजरात में लगी मिलें, फैक्ट्रियाँ पहले की तरह सुचारू रूप से चल सकेंगी। बीते साल 2021 के आख़िर तक इस उद्योग से जुड़े लोगों को यही उम्मीद रही और उन्हें लगा कि 2022 में सब कुछ ठीक हो जाएगा। लेकिन एक बार फिर कोरोना के ओमिक्रॉन रूप ने इस उद्योग से जुड़े हर आदमी को चिन्ता में डाल दिया है। सन् 2016 में हुई नोटबंदी के बाद से इस उद्योग पर जिस तरह मार पड़ी है, उससे न केवल कपड़ा फैक्ट्रियों, मिलों और कम्पनियों के मालिक, बल्कि इनमें काम करने वाले लोग भी बेहद कमज़ोर हुए। नोटबंदी और कोरोना ने इस उद्योग को बिल्कुल बर्बादी के कगार पर लाकर खड़ा कर दिया। इसके बाद पिछले साल पड़े कोयला संकट से उभरे बिजली संकट ने भी इस उद्योग को एक बड़ा झटका दिया था। उन दिनों कई-कई दिन तक मिलों, कम्पनियों और फैक्ट्रियों में काम नहीं हुआ था।

हालात यह हैं कि पिछले पाँच-छ: साल में बाज़ार में दर्ज़नों मिलों, फैक्ट्रियों और कम्पनियों पर ताले लग चुके हैं और अधिकतर की हालत पहले से काफ़ी कमज़ोर हुई है। कोरोना महामारी के दौरान कई-कई बार हुई तालाबन्दी ने एक तरफ़ इनमें काम करने वाले हज़ारों लोगों को अपने घर-गाँव लौटने को मजबूर किया। वहीं अब जब उनकी वापसी की उम्मीद बँधी थी, फिर से कोरोना के नये वारियंट ओमिक्रॉन ने दस्तक दे दी है, जिससे एक बार फिर तालाबंदी के हालात नज़र आ रहे हैं। इससे न केवल कपड़ा उद्योग से जुड़े मालिकों में, बल्कि काम करने वालों में भी रोज़गार को लेकर डर घर करने लगा है।

हालाँकि गुजरात सरकार ने तीसरी बार बढ़ते कोरोना के ओमिक्रॉन मामलों से बचाव के लिए दिशा-निर्देश जारी कर दिये हैं। नाइट कफ्र्यू लागू कर दिया है। लेकिन मिलों, कम्पनियों और फैक्ट्रियों को दिशा-निर्देश का पालन करते हुए दिन में चालू रखने के लिए कहा है। अब मिलों, कम्पनियों और फैक्ट्रियों में काम करने वाले लोगों को सैनिटाइज करके, सामाजिक दूरी (सोशल डिस्टेंसिंग) के साथ मास्क लगाकर काम करना है। काम करने वाले सभी लोगों के साथ-साथ मशीनों को भी सैनिटाइज किया जाना ज़रूरी है। लेकिन इन नियमों की वजह से मिलों, फैक्ट्रियों और कम्पनियों में काम उस गति से नहीं हो पा रहा है, क्योंकि अब लोगों की संख्या भी उतनी नहीं है और उत्पादन भी कम हो रहा है।

बन्द नहीं होगा काम

अहमदाबाद के नारोल में स्थित श्री साई इंपेक्स के मालिक ललित राजपूत कहते हैं कि अहमदाबाद में उन्हें कई दशक हो गये। लेकिन कपड़ा उद्योग की जैसी स्थिति अब हो गयी है, वैसी स्थिति कभी नहीं हुई। देश के दूर-दराज़ से इस क्षेत्र में करियर बनाने वाले लोग भी अब इस क्षेत्र में आने से डर रहे हैं। पहले हर कम्पनी में भर्तियाँ होती ही रहती थीं। लेकिन अब पुराने काम करने वालों को भी भरपूर काम नहीं मिल रहा है। इसके अलावा कोरोना के डर से व्यापारी लोगों का आना-जाना कम हो रहा है। ऑर्डर भी कम मिल रहे हैं। ऐसे में पहले जैसा काम अब कपड़ा उद्योग के क्षेत्र में नहीं है।

एक प्राइवेट लिमिटेड में प्रबन्धन समिति में अधिकारी स्तर पर कार्यरत सतीश सिंह ने इस बारे में बताया कि पहले से कपड़ा उद्योग पर दो तरह से अन्तर आया है। एक तो कोरोना ने इसे कमज़ोर किया है। दूसरा पहले प्रोडक्शन (उत्पादन) में कपड़े पर पाँच फ़ीसदी कर (टैक्स) लगता था और अब 12 फ़ीसदी कर लगता है। यह प्रोसेसिंग (मिल या फैक्टरी में बनने वाले माल) में है, बाक़ी प्रोसेसिंग के बाद बाहर कितना कर लगता है, वो नहीं पता। इन दोनों कारणों से कपड़ा उद्योग पर फ़र्क़ इसलिए भी पड़ा है, क्योंकि लोगों की आमदनी घटी है। कुछ लोग बेरोज़गार भी हुए हैं। ऐसे में कपड़े की बिक्री भी कम हुई है। अब मिलों में या कम्पनियों और फैक्ट्रियों में पहले की तरह लगातार उत्पादन नहीं हो रहा है। क्योंकि पहले इस क्षेत्र से जुड़े मालिकों को यह डर नहीं था कि उत्पादन के बाद उनका कपड़ा बिकेगा या नहीं? लेकिन अब वे उतना ही कपड़ा तैयार करते हैं, जितना उन्हें ऑर्डर मिलता है। इन दिनों में बाज़ार में मंदी होने के चलते ज़ाहिर है कि प्रोडक्शन पहले की अपेक्षा काफ़ी कम हो रहा है। इसकी वजह यह है कि लोगों के पास पैसा ही नहीं है, तो बाज़ार में उछाल कहाँ से आएगा? बड़ी संख्या में लोग बेरोज़गार हो चुके हैं।

अहमदाबाद के पीपलेज में स्थित अंजनी फैबरिक प्राइवेट लिमिटेड में काम करने वाले जगदीश भाई ने बताया कि काम तो पहले जैसा नहीं रहा। अब पहले की अपेक्षा क़रीब आधा काम रह गया है।

बेहद महँगी हुई कपास

पिछले दिनों भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ (सिटी) के सदस्य प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिले। उन्होंने प्रधानमंत्री से घरेलू उद्योग के संरक्षण के लिए कपास पर आयात शुल्क हटाने की माँग करते हुए कहा कि भारत में कपास की क़ीमतें अन्तरराष्ट्रीय स्तर से अधिक हो गयी हैं। इससे कपड़े पर तेज़ी से महँगाई बढ़ी है, जो स्वाभाविक है। परिसंघ ने कहा कि आसमान छू रही कपास की क़ीमतों ने कपड़े के दाम में बढ़ा दिये हैं, जिससे कपड़ा उद्योग का सम्भावित विकास रुक रहा है और बाज़ार में अनिश्चितता पैदा हो रही है।

उसने कहा कि सितंबर, 2020 में कपास की क़ीमत 37,000 रुपये प्रति कैंडी (प्रति 355 किलोग्राम) थी। ठीक एक साल बाद अक्टूबर, 2021 में यह बढ़कर 60,000 रुपये प्रति कैंडी हो गयी। कपास होता है। वहीं नवंबर, 2021 में फिर प्रति कैंडी की क़ीमत 64,500 रुपये से 67,000 रुपये के बीच पहुँच गयी। इसके बाद 31 दिसंबर, 2021 को कपास की क़ीमत में फिर जबरदस्त उछाल आया और यह 70,000 रुपये प्रति कैंडी के उच्चस्तर पर पहुँच गयी।

इतना ही नहीं कपड़ा उद्योग निकाय ने तर्क दिया कि भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ ने बताया कि वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में पाँच फ़ीसदी मूल प्रतिपूर्ति शुल्क, पाँच फ़ीसदी कृषि अवसंरचना विकास उपकर (एआईडीसी) और 10 फ़ीसदी समाज कल्याण उपकर लगाये जाने से कपास पर लगने वाला आयात शुल्क 11 फ़ीसदी हो गया है। इससे न केवल भारतीय कपास की क़ीमत अन्तरराष्ट्रीय मूल्य से ज़्यादा हो गयी है, बल्कि यह देश में पहली बार हुआ है। इससे निर्यातकों को ऑर्डर प्राप्त में कठिनाई हो रही है और कपड़े के दाम अनाप-शनाप बढ़ रहे हैं।

भारतीय कपड़ा उद्योग परिसंघ (सिटी) के अध्यक्ष टी. राजकुमार ने कहा कि बाज़ार में 31 दिसंबर, 2021 तक कपास की क़रीब 121 लाख गाँठें ही आ सकी थीं, जबकि पहले इस मौसम में आमतौर पर कम-से-कम 170 से 200 लाख गाँठों की आवक हुआ करती थी। आपूर्ति की इस कमी को व्यापारियों की चिन्ता बढ़ी हुई है, जो स्वाभाविक है।

कपास का मिलों तक नहीं पहुँचने और अच्छी गुणवत्ता वाले कपास की कमी से परेशानी बढ़ रही है, जिसका फ़र्क़ वस्त्र उत्पादन पर पड़ रहा है। उन्होंने परिसंघ की तरफ़ से प्रधानमंत्री को बताया कि इन दिनों कपास की क़ीमत न्यूनतम समर्थन मूल्य से क़रीब 65 फ़ीसदी ज़्यादा है, इसलिए वे आयात शुल्क घटाएँ, ताकि वस्त्र उद्योग को सुगमता हो सके। क्योंकि वैश्विक प्रतिस्पर्धा में भारतीय वस्त्र उद्योग को बढ़ावा देने और संकट से बचाने के लिए सरकार द्वारा वस्त्र उद्योग की मदद बहुत ज़रूरी है।

आगे की चिन्ता

कपड़ा उद्योग से जुड़े व्यापारियों की चिन्ता यह है कि पिछले दो साल से कोरोना के चलते और उससे पहले नोटबंदी के बाद से ठप हो रहे इस बेहद ज़रूरी और महत्त्वपूर्ण उद्योग के लिए यह साल भी ख़राब साबित न हो। क्योंकि जिस तरह देश में कोरोना के इस नये वायरस के मामले बढ़ रहे हैं, उससे भले ही अभी थोड़ा-बहुत काम चल रहा हो, लेकिन आगे की चिन्ता सभी में बनी हुई है। देखने में आया है कि पिछले दो साल में हुई तालाबंदी से कपड़ा उद्योग काफ़ी हद तक चौपट हुआ है और इस साल की शुरुआत ही ख़राब हुई है। इतना ही नहीं इससे कपड़ों पर भी महँगाई बढ़ी है। पिछले साल ठप हुए कारोबार ने बीती दीपावली पर थोड़ी-सी रफ्तार पकड़ी ही थी कि नवंबर-दिसंबर में कपास पर बढ़े आयात शुल्क और ओमिक्रॉन की दस्तक ने इस पर पानी फेर दिया। कोरोना के चलते कपड़ों के निर्यात पर भी बुरा असर पड़ा है।

एक अनुमान के मुताबिक, अगर केवल सूरत में एक दिन कारोबार ठप रहे, तो कपड़ा कारोबार को 150 करोड़ रुपये से ज़्यादा नुक़सान होता है। ऐसे में अनुमान लगाया जा सकता है कि पूरे गुजरात में एक दिन काम ठप रहने से कितना बड़ा नुक़सान देश को होता होगा? इन दिनों हालत कुछ सुधर रही थी, वह अब फिर से बदतर होने के कगार पर है। 2020 की तालाबंदी में पलायन कर चुके इस उद्योग से जुड़े कामगार लोग पूरी तरह लौट भी नहीं पाये थे कि दोबारा कोरोना की दस्तक और सम्भावित तालाबंदी के हालात ने उन्हें डरा रखा है।

हरियाणा में डाडम हादसा किसकी चूक?

अवैज्ञानिक खनन और सरकारी नियमों की धज्जियाँ उड़ाना मौत को न्यौता देने जैसा है। हरियाणा के ज़िला भिवानी में पत्थर की डाडम खान में यही सब कुछ हो रहा था। सरकारी विभागों की अनदेखी का नतीजा यह रहा कि खनन कम्पनी गोवर्धन माइंस ऐंड मिनरल्स कम्पनी मनमाने तरीक़े से काम कर रही थी। नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) की टीम ने अपनी जाँच रिपोर्ट में कम्पनी पर अवैज्ञानिक तरीक़े से खनन, बल्कि अरावली वन क्षेत्र में घुसपैठ जैसे गम्भीर आरोप दर्ज किये थे।

अब तो जाँच में बहुत-सी गम्भीर ख़ामियाँ सामने आ रही हैं। पर्यावरण से लेकर तय अनुमति से ज़्यादा गहराई में खनन करने जैसी बात सामने आ रही है। यह कोई बहुत ज़्यादा पुरानी बात नहीं, बल्कि अक्टूबर वर्ष 2021 में एनजीटी टीम की औचक जाँच में गम्भीर ख़ामियाँ मिलीं।

सवाल यह कि कम्पनी को काम करने की अनुमति किस आधार पर दी गयी। खान में दिहाड़ी पर काम करने वाले कामगारों की राय में खान मौत के कुएँ जैसी थी। कभी भी हादसा होने का ख़तरा हरदम बना रहता था। बावजूद इसके पेट के लिए काम करने को मजबूरी थी। दिहाड़ीदारों की तो मजबूरी हो सकती है, लेकिन सरकारी विभागों की मजबूरी समझ से बाहर है, जिन्होंने गम्भीर आरोपों के बावजूद कम्पनी को फिर से काम करने की अनुमति दी।

नये साल की शुरुआत में डाडम की पत्थर खान ने पाँच लोगों को लील लिया। हादसा बहुत बड़ा हो सकता था। लेकिन काफ़ी समय तक रुका काम कुछ समय पहले ही शुरू हुआ था, लिहाज़ा कामगारों की संख्या कम थी।

भिवानी ज़िले में तौशाम पहाड़ी क्षेत्र में पत्थर की कई खानें हैं। खानक, रिवासा, निगाना, दुल्हेड़ी, धारण और खरकड़ी मखवा में भी डाडम हादसे के बाद सरकार को अहतियाती क़दम उठा लेने चाहिए, वरना ऐसे हादसे होते रहेंगे। वरना हादसे के बाद जाँच, मृतकों को मुआवज़ा, कम्पनी पर कार्रवाई जैसी औपचारिकताएँ होती रहेंगी। डाडम खनन क्षेत्र अरावली की पहाडिय़ों वाला है, यहाँ वन क्षेत्र है, जहाँ किसी तरह का निर्माण कार्य प्रतिबन्धित है।

कहा जाए तो यह खनन प्रतिबन्धित इलाक़ा होता है। लेकिन औचक जाँच में जाँच ऐसे क्षेत्र में खनन में काम आने वाली मशीनें और औज़ार आदि मिले। अरावली क्षेत्र में पर्यावरण से छेड़छाड़ के मद्देनज़र सर्वोच्च न्यायालय के कड़े आदेश हैं, जिनकी अनदेखी कई बार होती दिखी है। जबकि पिछले वर्ष राज्य के फ़रीदाबाद ज़िले के खोरी गाँव में अरावली क्षेत्र में दशकों से बने सैकड़ों घर तोड़ दिये गये थे। पूरे क्षेत्र में अवैध निर्माण गिराने से एक लाख से ज़्यादा लोग प्रभावित हुए थे, जबकि वहाँ रहने वालों के बिजली और पानी के कनेक्शन तक थे। सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों की पालना करते कार्रवाई को अंजाम दिया। लेकिन डाडम में अवैज्ञानिक और अवैध खनन के आरोपों पर काम करने वाली कम्पनी पर कार्रवाई को अंजाम नहीं दिया गया। शुरुआती जाँच में पाया गया है कि डाडम खान में बैच बनाकर खनन नहीं हो रहा था। बैच एक तरह से पहाड़ों के बीच रास्ते बनाकर खनन क्षेत्र तक पहुँचने का सुरक्षित माध्यम होता है। अगर पहाड़़ दरकता है, तो उसका ज़्यादा हिस्सा उस रास्ते (बैच) पर गिरता है, जिससे जन हानि बच सके। जाँच में पाया गया है कि खनन क्षेत्र के कुछ पहाड़ों में दरारें आयी हुई हैं। बारूद के विस्फोट से दरार वाले इन पहाड़ों के दरकने का ख़तरा बना हुआ है। इस हादसे की वजह भी दरार वाले पहाड़ का गिरना ही रहा, जिसमें वहाँ काम करने वाले लोग दब गये। खनन के काम में जुटी बड़ी मशीनें ट्रैक्टर आदि उससे बुरी तरह से पिचक गये।

राहत कार्य के बाद बचे लोग ख़ुशक़िस्मत ही कहे जाएँगे। खनन के काम में अवैध और अवैज्ञानिक जैसी बातें नयी नहीं है। लेकिन गहराई में ये बातें जानलेवा साबित होती हैं। जाँच टीम ने पाया कि डाडम खान में 109 मीटर तक की गहराई हो गयी है, जबकि सरकारी अनुमति 78 मीटर तक की है। तय सीमा से ज़्यादा गहराई में खनन क्यों हो रहा था। 31 मीटर ज़्यादा गहराई कोई एक-दो महीने में तो नहीं हो गयी थी।

यह राज्य सरकार की अनदेखी का एक उदाहरण है। खनन करोड़ों का कारोबार है और लाख्रों रुपये की भेंट इसमें कोई बड़ी बात नहीं है। बिना इसके करोड़ों का काम चल ही नहीं सकता। इसे एक उदाहरण के तौर पर समझा जा सकता है। सन् 2013 में खनन और भूभर्ग विभाग ने डाडम खान की नीलामी की तो इसके लिए कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी (केजेएसएल) और सुन्दर मार्केटिंग एसोसिएट (एसएमए) को सबसे ज़्यादा बोली देने पर योग्य पाया गया।

सन् 2015 में कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी ने सरकार से आग्रह किया कि वह डाडम खान ठेके पर आगे काम नही करना चाहती। मई, 2015 में कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी के 51 फ़ीसदी शेयर (हिस्सा) सुन्दर मार्केटिंग एसोसिएट को दे दिये गये। यह सब कुछ हो गया। लेकिन बाद में पता चला कि सुन्दर मार्केटिंग एसोसएशन नामक कम्पनी के पास खनन का पर्याप्त अनुभव नहीं है। एक तरह से वह डाडम खान में खनन काम के लिए सक्षम नहीं है। बिना पर्याप्त अनुभव के उसे कर्मजीत सिंह ऐंड कम्पनी के साथ सयुक्त रुप से ठेका किस आधार पर दिया गया?

सरकार ने इसे गम्भीरता से लिया और सुन्दर एसोसिएट नामक कम्पनी का ठेका रद्द कर दिया और खान क्षेत्र हरियाणा स्टेट इंफ्रास्ट्रक्चर डवलपमेंट कारपोरेशन (एचएसआईडीसी) के सुपर्द कर दिया। काफ़ी महीनों तक खान बन्द रही। मामला पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में पहुँचा। आख़िर नवंबर, 2017 में डाडम खान का ठेका गोवर्धन माइंस ऐंड मिनरल्स कम्पनी को मिला, जो अब तक उसी के पास है। काम मिलने के बाद कम्पनी विवादों में घिरी रही है। खनन के लिए विभाग के दिशा-निर्देशों का उल्लंघन और पर्यावरण के दूषित होने जैसे आरोप बराबर लगते रहे हैं। सन् 2020 में नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल की छ: सदस्यीय टीम ने शिकायतों के बाद खान क्षेत्र का औचक दौरा किया, तो वहाँ बहुत-सी ख़ामियाँ पायी गयीं। इन्हें गम्भीरता से लिया गया होता और ठोस कार्रवाई को अंजाम दिया गया होता, तो डाडम हादसा नहीं होता। खनन के ठेकेदार जहाँ आर्थिक रूप से मज़बूत होते हैं। वहीं राजनीतिक तौर पर भी बहुत प्रभावी भूमिका निभाते हैं। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने राजनीतिक संरक्षण के आरोपों को ख़ारिज़ करते हुए कहा है कि हादसे की विस्तृत जाँच होगी और दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की जाएगी। राज्य सरकार के आदेश पर अतिरिक्त ज़िला उपायुक्त (एडीसी) राहुल नरवाल की अध्यक्षता में समिति गठित कर हादसे की विस्तृत जाँच कर रिपोर्ट सौंपने को कहा है। डाडम खान पर्यावरण के लिए क्षेत्र में एक ख़तरनाक संकेत है। सरकार के दिशा-निर्देशों को दरकिनार कर मोटी कमायी करने वाले ठेकेदारों को शायद पर्यावरण जैसे अहम मुद्दों से जैसे कोई सरोकार नहीं होता।

मामले की गम्भीरता को देखते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनजीटी) ने स्वत: संज्ञान लेते हुए आठ सदस्यीय समिति गठित कर दी है। इसमें राज्य सरकार के अलावा केंद्र से जुड़े कई विभागों के उच्चाधिकारियों को शामिल कर आठ सदस्यीय समिति गठित की गयी है। इस समिति की जाँच रिपोर्ट काफ़ी महत्त्वपूर्ण साबित होगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि तय समय में जाँच रिपोर्ट आये और दोषियों पर कड़ी कार्रवाई की संस्तुति की जाए, वरना डाडम जैसे हादसे होते रहेंगे। कम्पनियाँ और मालिक बदलते रहेंगे और पहले की तरह सरकारी नियमों की अवहेलना होती रहेगी। यह सिलसिला रुकना चाहिए वरना कामगार केवल 500 रुपये की दिहाड़ी पर जान हथेली पर लेकर जाते रहेंगे।

हादसे में बचे एक कामगार के मुताबिक, डाडम खान में काम पर जाते समय मौत की आशंका बनी रहती है। यहाँ के कई पहाड़ों में दरारें आयी हुई हैं, जो विस्फोट के बाद भरभराकर गिर सकते हैं। मजबूरी यह कि हम लोग खनन के काम शुरू से कर रहे हैं। इसके अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकते। यह हमारी रोज़ी-रोटी है। लेकिन इसके बदले मौत मिलती है, तो फिर कुछ सोचना पड़ेगा। मौत के कुएँ में आख़िर कब तक उतरते रहेंगे। किसी दिन उसी में समा जाएँगे। सुरक्षा की ज़िम्मेदारी सरकारों की होती है। ठेकेदार या उसके लोग तो ज़्यादा-से-ज़्यादा खनन करने में लगे रहते हैं। ये खाने उनके लिए सोना उगलती हैं। लेकिन हमारे पास तो पेट भरने लायक पर्याप्त पैसा ही नहीं मिल पाता है।

शिकायतें आती रही हैं

डाडम खान क्षेत्र भिवानी-महेंद्रगढ़ लोकसभा क्षेत्र में आता है और यहाँ के भाजपा सांसद धर्मवीर सिंह हैं। सन् 2014 से लगातार दूसरी बार क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। उनके मुताबिक, शिकायतों के बाद वह सम्बन्धित विभागों और सरकार को यहाँ होने वाले बेक़ायदा काम के बारे में बताते रहे हैं। डाडम खान क्षेत्र के चार स्थानों पर खनन के सरकारी दिशा-निर्देशों की उल्लंघना हो रही है, यह उनकी जानकारी में है और इसके बार में स्पष्ट तौर पर बताया जा चुका है। यही वजह है कि बार-बार जाँच और मामला उच्च न्यायालय में जाता रहा है। हादसे को दुर्भाग्यशाली बताते हुए उन्होंने जाँच में दोषी पाये जाने वालों पर कड़ी कार्रवाई की माँग की है।

झारखण्ड में फँसा आरक्षण का पेच

झारखण्ड में पिछड़े वर्ग यानी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने की माँग लम्बे समय से चल रही है। पिछले कुछ दिनों से आरक्षण के इस मुद्दे से राजनीति गरमा गयी है। सत्ताधारी दल- झामुमो, कांग्रस, राजद हों या फिर विपक्षी दल भाजपा और आजसू, सभी इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर गोल-गोल घूम रहे हैं और सभी ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण दिलाने और श्रेय लेने के होड़ में लगे हैं। सरकार ने तो अब विधानसभा में भी इस पर क़दम उठाने की घोषणा कर दी। लेकिन इस मुद्दे के पेच सुलझाना इतना आसान भी नहीं है। क्योंकि इसके रास्ते में कई ऐसी बाधाएँ हैं, जिनसे पार पाना दोधारी तलवार से चलने से कम नहीं है। अब मौज़ूदा सरकार इसे कैसे सुलझा पाती है? यह देखना दिलचस्प होगा। राज्य में आरक्षण पर मचे बवाल को लेकर बता रहे हैं प्रशान्त झा :-

आरक्षण शब्द सुनते ही ज़ेहन में अस्सी की दशक याद आती है। साथ ही याद आ जाते हैं तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. विश्वनाथ प्रताप सिंह। ‘राजा नहीं फ़क़ीर है, देश की तक़दीर है’ के नारे के साथ वी.पी. सिंह देश के आठवें प्रधानमंत्री बने थे। बोफोर्स तोप दलाली के मुद्दे पर मंत्री पद को लात मार आये वी.पी. सिंह भारतीय राजनीति के पटल पर नये मसीहा और स्वच्छ व्यक्ति की छवि के साथ अवतरित हुए थे। लेकिन मंडल कमीशन की सि$फारिशों को देश में लागू करते ही वी.पी. सिंह सवर्ण समुदाय की नज़र राजा नहीं रंक और देश का कलंक में तब्दील हो गये। हालाँकि ओबीसी का बड़ा तबक़ा उन्हें नायक के तौर पर भी देखता है।

मंडल कमीशन का विरोध पूरे देश में इस क़दर हुआ कि संसद में विश्वास मत के दौरान वीपी सिंह की सरकार चली गयी। दरअसल आरक्षण का यह मुद्दा ही ऐसा है कि जिस पर चलना दोधारी तलवार से कम नहीं है। झारखण्ड की सियासत में यह मुद्दा इन दिनों गरम है। ओबीसी के 27 फ़ीसदी आरक्षण की माँग को राजनीतिक मजबूरी में ही सही पर कोई भी दल इससे ख़ुद को अलग नहीं कर पा रहा है। नतजीतन हर दल चाहे सत्ताधारी झामुमो, कांग्रस और राजद हो या फिर विपक्षी दल भाजपा और आजसू सभी इस आरक्षण के मुद्दे को लेकर घूम रहे और राजनीति कर रहे हैं। मौज़ूदा हेमंत सरकार ने पिछले दिनों शीतकालीन सत्र के दौरान ओबीसी आरक्षण की दिशा में क़दम उठाने की घोषणा कर दी है।

अब राज्य में इसे लेकर एक नयी बहस शुरू हो गयी है। ज़ाहिर है आने वाले समय में इससे विवाद भी पैदा होंगे। देखना है कि मौज़ूदा सरकार क्या फार्मूला ले कर आती है? कैसे सभी को सन्तुष्ट कर पाती है और कैसे विवाद का समाधान निकाल सकती है? राज्य इस आरक्षण की दिशा में कैसे आगे बढ़ता है?

पुराना है आरक्षण का मुद्दा

भारत में आरक्षण का इतिहास आज़ादी से पहले से है। भारत में आरक्षण की शुरुआत सन् 1882 में हंटर आयोग के गठन के साथ हुई थी। उस समय विख्यात समाज सुधारक महात्मा ज्योतिराव फुले ने सभी के लिए नि:शुल्क और अनिवार्य शिक्षा तथा अंग्रेज सरकार की नौकरियों में आनुपातिक प्रतिनिधित्व (आरक्षण) की माँग की थी। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू हुआ। भारतीय संविधान में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर प्रदान करते हुए सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछले वर्गों या अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की उन्नति के लिए संविधान में विशेष धाराएँ रखी गयी हैं। इसके अलावा 10 वर्षों के लिए उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व को सुनिश्चित करने के लिए अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए अलग से निर्वाचन क्षेत्र आवंटित किये गये थे।

सर्वोच्च न्यायालय ने राज्यों से माँगी राय

आरक्षण का मुद्दा ऐसा है कि 70 साल में भी यह देश से समाप्त नहीं हो सका। राजनीतिक दलों के लिए चुनाव के लिए यह एक अहम मुद्दा है। सभी दल इसे लेकर अपना-अपना स्वार्थ साधना चाहते हैं। नतीजतन मामला न्यायालय तक भी पहुँचता रहा है। सन् 1992 में सर्वोच्च न्यायालय ने इंदिरा साहनी मामले में ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाते हुए जाति आधारित आरक्षण की अधिकतम सीमा 50 फ़ीसदी तय कर दी थी। सर्वोच्च न्यायालय के इसी फ़ैसले के बाद क़ानून बन गया कि 50 फ़ीसदी से ज़्यादा आरक्षण नहीं दिया जा सकता है। पिछले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में आरक्षण की 50 फ़ीसदी तय सीमा में बदलाव के एक मामले पर सुनवाई के दौरान राज्यों से राय माँगी थी। देश के आधा दर्ज़न ऐसे राज्य हैं, जो आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से ज़्यादा करने के पक्ष में हैं। इनमें हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र, कर्नाटक और झारखण्ड समेत अन्य राज्य शामिल हैं। राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, महाराष्ट्र में माराठा, गुजरात में पटेल आदि राज्यों में आरक्षण की माँग कर रहे हैं। इनके माँग में सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला आड़े आ जाता है। संविधान में भी प्रावधान किया गया था कि किसी भी सूरत में 50 फ़ीसदी से अधिक आरक्षण नहीं दिया जा सकता; लेकिन राजनीतिक लाभ के लिए संविधान तक में संशोधन किया गया। केंद्र की मोदी सरकार ने सामान्य जाति में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया है। इसके अंतर्गत सरकारी नौकरी और शिक्षा के क्षेत्र में 10 फ़ीसदी आरक्षण दिया गया है। यह पहली बार है, जब देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा रहा है। उधर, राज्यों द्वारा आरक्षण का दायरा बढ़ाने का मामला फ़िलहाल न्यायालय में ही लम्बित है।

ओबीसी की माँग

झारखण्ड में अनुसूचित जनजाति को 26 फ़ीसदी, अनुसूचित जाति को 10 और पिछड़े वर्ग को 14 फ़ीसदी आरक्षण मिल रहा है। इसके अलावा केंद्र द्वारा आर्थिक रूप से कमज़ोर सवर्णों को 10 फ़ीसदी आरक्षण का लाभ मिल रहा है। राज्य के ओबीसी लम्बे समय से 14 से 27 फ़ीसदी आरक्षण करने की माँग कर रहे हैं। अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाति से कटौती कर ओबीसी का आरक्षण बढ़ाना सम्भव नहीं है। अगर ऐसा किया गया, तो उनमें असन्तोष उत्पन्न होगा, साथ ही संवैधानिक परेशानी भी आएगी। अगर सीधे आरक्षण 14 से 27 किया गया, तो आरक्षण का दायरा 50 फ़ीसदी से ऊपर जाएगा। यानी राज्य में आरक्षण 73 फ़ीसदी हो जाएगा। सरकार के पास यह मुद्दा विचाराधीन है। प्रस्ताव के अनुसार, आरक्षण 73 फ़ीसदी होगा। इसमें एसटी को 32, एससी को 14 और पिछड़े वर्ग को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने का प्रस्ताव है।

राजनीतिक दल उठा रहे मुद्दा

दरअसल आरक्षण एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर लम्बे समय से राजनीति चल रही है। इस मुद्दे को लेकर कई राजनीतिक दल चुनावी बैतरणी में अपनी नैया तक पार लगा रहे हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो, कांग्रेस और राजद के गठबन्धन की सरकार है। विपक्ष में भाजपा और आजसू है। झामुमो ने चुनावी वादे में ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण करने की बात कही थी। कांग्रेस ने भी अपने चुनाव प्रचार में इसे शामिल किया था। इन दिनों सभी राजनीतिक दल ओबीसी आरक्षण को 27 फ़ीसदी करने को लेकर गतिविधियाँ बढ़ा दी हैं। कांग्रेस जनसभाओं में इस मुद्दे को उठा रही, तो आजसू आन्दोलन करने की भी बात कर रहा। भाजपा भी इसके पक्ष में दिख रही है।

सरकार ने कर दी है घोषणा

दिसंबर में झारखण्ड विधानसभा का शीतकालीन सत्र ख़त्म हुआ। शीत सत्र के आख़िरी दिन सदन में कांग्रेस विधायक अंबा प्रसाद, आजसू विधायक सुदेश महतो समेत अन्य विधायकों ने ओबीसी को 27 फ़ीसदी आरक्षण देने के मुद्दे को उठाया। जिस पर सरकार की ओर से संसदीय कार्यमंत्री आलमगीर आलम ने जवाब दिया। उन्होंने कहा कि इस मसले को लेकर सरकार संवेदनशील है। सरकार इस दिशा में क़दम उठा रहा है और जल्द ही ठोस क़दम उठाएगी। बहुत जल्द इसके लिए एक समिति बनायी जाएगी।

पेच सुलझाना नहीं आसान

भारत में ख़ासकर हिन्दी पट्टी के राज्यों में आरक्षण एक ऐसा राजनीतिक मुद्दा है, जिसकी लहरों पर सवार होकर कई लोग सियासी ऊँचाई तय करने में सफल हो गये। कई आज भी सफल हो रहे हैं। तो कई असफल भी रहे। इसके कई मिसाल देखने को मल जाएँगे। इसलिए इस मामले को निपटाना किसी जोखिम से कम नहीं है। आरक्षण जैसे मुद्दे में सफलता से अधिक असफलता का सन्देह हमेशा रहता है। यह स्व. वी.पी. सिंह के मामले में लोग देख चुके हैं। क्योंकि हर किसी को सन्तुष्ट करना आसान काम नहीं है। अब देखना होगा कि हेमंत सरकार ने विधानसभा में आरक्षण का दाँव तो खेल दिया है, आमजन का विरोध या समर्थन कितना हुआ, यह सरकार के बढ़ते क़दम से दिखेगा। झारखण्ड में सबसे बड़ी बाधा सर्वोच्च न्यायालय का 50 फ़ीसदी के आरक्षण को लेकर फ़ैसला है। इसके अलावा राज्य में जातीय आधार पर सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाएँ हैं। बिहार से अलग होकर बने इस राज्य में कई ऐसे जातीय समूह भी हैं, जिन्हें बिहार में तो आरक्षण मिलता है; लेकिन झारखण्ड में नहीं मिलता। इसके अलावा सामान्य वर्ग के असन्तोष का ख़तरा भी है। इन सभी को साधना और रास्ता निकलना आसान नहीं है। फ़िलहाल सरकार ने अभी आश्वासन ही दिया है। सरकार के आश्वासन के बाद अन्दरख़ाने में मुद्दा धीरे-धीरे सुलगने लगा है। यह तो वक़्त ही बताएगा कि आरक्षण का मसला राज्य को किस दिशा में ले जाएगा। फ़िलहाल यह देखना दिलचस्प होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले से सरकार कैसे निपटती है? सरकार के बढ़ते क़दम को थामने के लिए कोई न्यायालय तो नहीं जाता। सरकार के निणर्य का विरोध किस तरह से उठता है। लिहाज़ा अभी सरकार के आरक्षण का दायरा बढ़ाने के आश्वासन पर सभी इंतज़ार करो और देखो की ही स्थिति है।

महिला विरोधी गतिविधियाँ रुकें

New Delhi, Jan 06 (ANI): Neeraj Bishnoi, one of the main conspirator in the 'Bulli Bai' case, arrives at an IGI airport after being arrested by Delhi Police Special Cell from Assam, in New Delhi on Thursday. (ANI Photo/Prateek Kumar)

नये साल के पहले दिन की पहली सुबह अक्सर इंसान को एक नयी दुनिया में ले जाती है। इंसान कुछ नया करने की ऊर्जा, जोश से भरा होता है। उसकी आँखों के सामने उस साल का रोडमैप तैरने लगता है। लेकिन अफ़सोस कि वर्ष 2022 की पहली सुबह ने देश के एक अल्पसंख्यक समुदाय की क़रीब 100 महिलाओं के लिए उल्लास के इस पर्व को फीका कर दिया। ऑनलाइन बुलिंग के ज़रिये केवल 100 मुस्लिम महिलाओं के भीतर ही दहशत पैदा करने की कोशिश नहीं की गयी, बल्कि इसके ज़रिये अल्पसंख्यक समुदाय की हज़ारों महिलाओं को सन्देश भिजवाया गया कि मुखर, ग़लत नीतियों, फ़ैसलों के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलन्द करने पर उनकी भी इसी तरह बोली लगायी जा सकती है। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश में हाल के वर्षों में जिस तरह से राजनीति को ध्रुवीकरण ने जकड़ लिया है, धर्म संसदों में धर्म के नाम पर नफ़रती तकरीरें सुनायी पड़ रही हैं। ऐसे माहौल में एक ख़ास समुदाय विषेश की महिलाओं को अपमानित करने वाले मामले देश की छवि पर दाग़ ही लगाते हैं।

बहरहाल पहली जनवरी को दिल्ली की एक पत्रकार ने व्हाट्स ऐप पर अपने एक दोस्त का सन्देश खोला और उसमें दर्शाये गये लिंक को इस उम्मीद के साथ खोला कि यह हैप्पी न्यू ईयर का सन्देश होगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था, जो मेरे ख़यालों में चल रहा था। इसके उलट मैंने अपनी एक फोटो का स्क्रीनशॉट देखा, जिसमें यह लिखा हुआ था कि ‘मैं बुल्ली ऑफ द डे हूँ। मुझे यह देख सदमा लगा।’

इस महिला पत्रकार ने ट्विट किया- ‘यह बहुत दु:खद है कि एक मुस्लिम महिला होने के रूप में आपको अपने नये साल की शुरुआत इस डर और नफ़रत के साथ करनी पड़ रही है।’

महिला पत्रकार ने ख़ामोश बैठने की बजाय दिल्ली पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने का फ़ैसला लिया। और 2 जनवरी को दिल्ली व मुम्बई पुलिस ने पीडि़त महिलाओं की शिकायत पर अज्ञात व्यक्तियों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज की। दिल्ली व मुम्बई की पुलिस ने यह लेख लिखे जाने तक इस मामले में चार लोगों को देश के अलग-अलग शहरों से गिरफ़्तार किया था।

दरअसल दिल्ली पुलिस की विषेश शाखा ने इस मामले में असम के ज़ोरहाट ज़िले से एक 21 साल के नीरज बिश्नोई को पकड़ा है, जो कि इंजीनियरिंग की पढ़ाई कर रहा है। पुलिस का दावा है कि जिस वेब आधारित ऐप पर 100 मुस्लिम महिलाओं की आपत्तिजनक तस्वीरें व भद्दी टिप्पणियाँ डाली गयी थीं, वह इसी युवा छात्र ने बनाया था और उसे संचालित भी कर रहा था। दरअसल यह समझना भी ज़रूरी है कि बुल्ली बाई ऐप क्या है? बुल्ली बाई ऐप गिटहब नाम के प्लेटफॉर्म पर मौज़ूद है। गिटहब एक खुला मंच है और यह अपने इस्तेमालकर्ता को कोई भी ऐप बनाकर उन्हें साझा करने का विकल्प देता है। आप यहाँ निजी और व्यावसायिक किसी भी तरह का ऐप साझा करने के साथ उसे बेच भी सकते हैं।

इस ऐप को खोलने पर समुदाय विशेष की 100 महिलाओं के चेहरे नज़र आते थे। इस सूची में महिला पत्रकार, कार्यकर्ता, वकील शामिल थीं। यह ऐप खोलने पर इस्तेमाल करना इन तस्वीरों में से एक महिला की तस्वीर को बुल्ली बाई ऑफ द डे चुनता था। बुल्ली बाई नाम के एक ट्विटर हैंडल से इसे प्रमोट भी किया जा रहा था। इस हैंडल पर समुदाय विशेष की महिलाओं की बोली लगने की बात लिखी थी। यह मामला सामने आने पर विपक्षी दलों ने इसका तत्काल विरोध करना शुरू कर दिया। वरिष्ठ कांग्रेसी नेता मल्लिकार्जुन खडग़े ने महिलाओं का उत्पीडऩ किये जाने की निंदा की और दावा किया कि यह भाजपा द्वारा अमानवीयकरण का नतीजा है। शिव सेना की सांसद प्रिंयका चतुर्वेदी ने भी इस घटना की निंदा की और दोषियों के ख़िलाफ़ कड़ी-से-कड़ी कार्रवाई करने की अपील की।

चौतरफ़ा दबाव के मद्देनज़र पुलिस ने फ़ौरन कार्रवाई शुरू करते हुए गिरफ़्तारियाँ करनी शुरू कीं, जो जारी हैं। बुल्ली बाई ऐप व ट्विटर हैंडल को भारत सरकार के दख़ल के बाद हटा लिया गया है। इस मामले में अभी कितनी और गिरफ़्तारियाँ होंगी, न्यायालय में यह मामला क्या मोड़ लेता है, क्या दोषियों को सज़ा होगी व कब होगी? ऐसे सवालों के जबाव अभी नहीं दिये जा सकते हैं। लेकिन इस घटना से प्रभावित कुछेक महिलाओं का कहना है कि अगर सरकार जुलाई, 2021 में सख़्ती दिखाती, तो बुल्ली बाई वाले मामले को रोका जा सकता था।

ग़ौरतलब है कि 4 जुलाई 2021 को कई ट्विटर यूजर्स ने ‘सुल्ली डील्स’ नाम के एक ऐप के स्क्रीनशॉट साझा किये थे, जिसे गिटहब पर एक अज्ञात समूह द्वारा बनाया गया था। ऐप में एक टैगलाइन थी, जिस पर लिखा था- ‘सुल्ली डील ऑफ द डे’ और इसे समुदाय विशेष की क़रीब 80 महिलाओं की तस्वीरों के साथ लगाया गया था। सुल्ली व बुल्ली सोशल मीडिया पर मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ प्रयोग किये जाने वाले अपमानजनक शब्द हैं। दोनों मामलों में किसी भी तरह की असली नीलामी नहीं थी, बल्कि असल मक़सद मुस्लिम महिलाओं को नीचा दिखाना था। ध्यान देने वाली बात यह है कि उस समय भी प्रभावित महिलाओं ने पुलिस से शिकायत दर्ज करायी; लेकिन पुलिस ने मामले के तूल पकडऩे से पहले किसी को भी गिरफ़्तार तक नहीं किया। अब जब बुल्ली बाई का मामला सामने आया और सुल्ली डील्स के मामले में पुलिस की निष्क्रियता, अगम्भीरता, संवेदनहीनता की पोल फिर से खुलने लगी, तो दिल्ली के डीसीपी के.पी.एस. मल्होत्रा ने 5 जनवरी को मीडिया को बताया कि सुल्ली ऐप मामले में म्यूचुअल लीगल असिस्टेंट ट्रीटी प्रक्रिया (एमएलएटी) भारत में पूरी हो गयी है और जल्द ही इसे न्याय विभाग को सौंप दिया जाएगा। डीसीपी मल्होत्रा ने यह भी कहा कि बुल्ली बाई ऐप सुल्ली डील्स जैसा ही प्रतीत होता है, जिसने पिछले साल इसी तरह की गतिविधि शुरू की थी। भारत में महिलाओं के ऑनलाइन उत्पीडऩ के बाबत अमनेस्टी इंटरनेशनल 2018 की रिपोर्ट में कहा गया है कि जो औरत जितनी मुखर थी, उसको निशाना बनाये जाने की सम्भावना उतनी अधिक थी। और इस सम्भावना का स्केल धार्मिक अल्पसंख्यक महिला व वंचित समुदाय की महिला होने के कारण बढ़ जाता है। यह उन्हें चुप कराने व शर्मिंदा करने का प्रयास है और उन्होंने समाज, सार्वजनिक मंचों पर अपना जो वजूद बनाया है, जो जगह बनायी है, उसे छीनने की कोशिश है।’

दरअसल भारत की आबादी में 48 फ़ीसदी महिलाएँ हैं और ऑनलाइन महिलाओं का उत्पीडऩ एक गम्भीर मुद्दा है। देश में टेलिकॉम रेगुलेटरी अथॉरिटी ऑफ इंडिया (ट्राई) के अनुसार, मार्च 2021 तक क़रीब 82 करोड़ 50 लाख इंटरनेट उपभोक्ता थे। इनमें से अधिकतर अपनी वास्तविक पहचान के साथ इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं, जो ग़लत मंशा से फ़र्ज़ी नाम से इस्तेमाल करते हैं। कई लड़कियों, महिलाओं को निशाना बनाते हैं। कड़ुवी हक़ीक़त यह है कि यह संगीन अपराध केवल महानगरों, नगरों तक ही सीमित नहीं है, बल्कि गाँवों तक में भी फैल चुका है। लेकिन अभिभावक, परिजन ऐसे मामलों की अक्सर शिकायत ही दर्ज नहीं कराते। उन्हें एक तो अपने परिवार, सम्बन्धित लड़की, महिला की इज़्ज़त ख़राब होने का डर सताता है, दूसरा उन्हें इस बात की सही जानकारी भी नहीं होती कि साइबर अपराध दर्ज कराने की प्रक्रिया क्या है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड शाखा की रिपोर्ट ‘भारत में अपराध 2020’ महिलाओं को बदनाम करने, उनकी तस्वीरों के साथ छेड़छाड़ करने के 251 मामले और उनके फ़र्ज़ी प्रोफाइल बनाने के 354 मामले ही बताती है।

सरकारी रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश में 2020 में साइबर अपराध के कुल 50,035 मामले दर्ज किये गये, जिसमें महिलाओं के ख़िलाफ़ मामलों की संख्या 10,405 थी। ये आँकड़े ज़मीनी हक़ीक़त नहीं बोलते। आधी आबादी की ऑनलाइन हिफ़ाज़त के लिए कई र्मोचों पर तेज़ी से काम करने की ज़रूरत है। क्योंकि इंटरनेट इस्तेमाल करने वालों का आँकड़ा रोज़ बढ़ ही रहा है और तकनीक में बदलाव भी तेज़ी से हो रहे हैं। समाज को महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले साइबर अपराधों को गम्भीरता से लेना होगा, ज़िला प्रशासन, क़ानून लागू करने वाली एजेंसियों को शिविर लगाकर आम लोगों को इससे सम्बन्धित क़ानूनी जानकारी व लिखित सामग्री मुहैया करानी चाहिए।

इसके अलावा शैक्षाणिक संस्थानों व कार्यस्थलों पर लड़कियों, महिलाओं को इससे सम्बन्धित जानकारियाँ देकर उन्हें सशक्त करने की दिशा में ठोस काम करने की ज़रूरत है। साइबर अपराधों की सुनवाई भी त्वरित होनी चाहिए। दोषियों को सही समय पर मिली सज़ा का सन्देश कहीं-न-कहीं अपना असर दिखाता है। सोशल मीडिया से अरबों की मुनाफ़ा कमाने वाली दिग्गज कम्पनियों को भी महिलाओं की ऑनलाइन सुरक्षा के प्रति अपनी जबावदेही को गम्भीरता से लेना होगा।

सुल्ली डील्स मामले के बाद जुलाई, 2021 में दुनिया भर से 200 से अधिक जाने-माने अभिनेताओं, संगीतकारों, पत्रकारों व सरकारी अधिकारियों ने फेसबुक, गूगल, ट्विटर व टिकटॉक के सीईओ को एक खुला पत्र लिखकर महिलाओं की सुरक्षा को प्राथमिकता देने की अपील की थी। हालाँकि इस मामले में कार्रवाई हुई है; लेकिन देर से हुई है। साथ ही अभी ऐसे मामलों में और सख़्ती की ज़रूरत है।

कमज़ोर पर वार!

पिछली गर्मियों में सुल्ली डील ऐप आया और अब बुल्लीबाई ऐप। मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाने के लिए। मुस्लिम महिलाओं की फोटो लगाकर उनकी आभासी नीलामी के लिए! धर्म को जोड़कर नफ़रत की राजनीति को इस अकल्पनीय और निम्न स्तर तक देखना सच में बहुत घिनौना है। पहले अल्पसंख्यक समुदाय की महिलाओं के प्रति साम्प्रदायिक भड़काऊ बयान या ताने, कार्य या शैक्षणिक संस्थानों में पक्षपात तक सीमित थे। लेकिन अन्य के लिए घृणा का इस स्तर तक पहुँचना अकल्पनीय है।

एक भारतीय मुस्लिम महिला के रूप में मैंने साम्प्रदायिक रूप से भड़काने वाली कई टिप्पणियाँ सुनी हैं। हाल के वर्षों में इनमें तेज़ी आयी है। नहीं, कोई कुछ ज़्यादा नहीं कर सकता। नतीजे के डर से बहुत खुले तौर पर प्रतिक्रिया भी नहीं करते। इसके अलावा कोई हेल्पलाइन नंबर नहीं है, जहाँ कोई पहुँच सके। यह भी सुनिश्चित नहीं है कि संकट-कॉल से राहत मिलेगी या नहीं। उन्होंने कहा कि वे सरकारी ख़ेमे में आ जाएँगे, जो बदले में बाबुओं और मंत्रियों के दबाव में होंगे। ध्यान रहे राजनीतिक, प्रशासनिक और पुलिस मशीनरी चलाने वाले कई लोग दक्षिणपंथी पृष्ठभूमि वालों के साथ हैं। वास्तव में अगर व्यवस्था निष्पक्ष होती, तो सरकारी बंदोबस्त का पर्याप्त डर होता; लेकिन ऐसा है नहीं।

ज़मीनी हक़ीक़त को चिन्ताजनक कहा जा सकता है। लिंच करने वाले क्रूर लोगों और अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने वालों पर तथाकथित हिन्दुत्व के शीर्ष स्तर का हाथ रहा है और उन्हें उनसे सुरक्षा मिलती रही है। यही कारण है कि वे बिना किसी बाधा के बच जाने का इंतज़ाम कर लेते हैं। कई मामलों में तो पस्त-बिखरे पीडि़तों को ही अपराधी के रूप में नामित कर दिया जाता है।

अजीब या कुछ उतना अजीब कारण नहीं, से मैंने लम्बी और छोटी ट्रेन यात्रा के दौरान सबसे ख़राब साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ सुनी हैं। टिप्पणियाँ- ‘वो मुसलमान जैसा दिख रहा है, उनसे दूर रहो’ से लेकर ‘ये मुसलमान लोग कुछ भी कर सकते हैं… मरना, काटना, बम बनाना !’

मेट्रो से गुडग़ाँव से नई दिल्ली आते समय मेरा मोबाइल बज उठा। दूसरी और से मेरे एक दोस्त की ऊँची और स्पष्ट आवाज़ थी- ‘अस्सलाम-अलैक्कुम’। और जबसे मैं इन शब्दों में निहित अर्थ से अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, ‘आप शान्ति में रहें’। मैं इसमें ‘वालेकुम-सलाम’ (आप भी शान्ति में रहें) के साथ प्रत्युत्तर करती हूँ। आख़िरकार, क्या हम सब शान्ति के लिए तरसते नहीं हैं? लेकिन उस शाम जैसे ही मैंने ‘वालेकुम-सलाम’ कहा; डिब्बे वालों ने मेरी तरफ़ देखा। और तब तक बहुत धूर्तता से घूरते रहे, जब तक, शायद उन्हें यह आभास नहीं हो गया कि मैं बिना आस्तीन के ब्लाउज के साथ साड़ी में हूँ। इसलिए मैं सुरक्षित श्रेणी में रखी जा सकती हूँ। नहीं, मैं एक आतंकवादी के रूप में चिह्नित नहीं हुई। अगर मैं बुर्के में होती, तो उन नज़रों की सीमा की कल्पना भी नहीं कर पाती।

उसी शाम मैंने एक लड़के को मेट्रो स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर खड़े दाढ़ी वाले शेरवानी पहने आदमी की ओर इशारा कर अपने पिता से सवाल करते हुए सुना- ‘पापा! क्या आतंकवादी लोग ऐसे ही दिखते हैं?’ पिता ने अपने बेटे को ‘नहीं’ नहीं कहा, उलटे उस व्यक्ति की तरफ़ से नफ़रत और ग़ुस्से से देखा। मानो सोच रहा हो कि एक मुसलमान की हिम्मत कैसे हुई कि वह उसी मंच पर खड़ा है, जहाँ वह और उसका बेटा खड़ा हो।

मैं उन दर्दनाक ट्रेन यात्राओं में से एक के विवरण को भुला नहीं सकती, जो मैंने की थीं। जैसे ही मुझे शाहजहाँपुर में अपने नाना के आकस्मिक निधन की ख़बर मिली, मैंने दिन में चलने वाली ट्रेनों में से एक में सवार होने का फ़ैसला किया; जो मुझे बरेली होते हुए नई दिल्ली से शाहजहाँपुर ले जाती। चारों ओर की शोर-शराबे से अचानक विचलित होकर, मैंने अपने कम्पार्टमेंट-वालों की ओर देखा। कई साड़ी पहने महिलाएँ अपने माथे पर लाल बिंदी लगाये आपस में बातें करने में व्यस्त थीं, जब पाँच बुर्क़ा पहने महिलाओं के एक समूह ने कम्पार्टमेंट के भीतर प्रवेश किया। इनमें से तीन कम्पार्टमेंट के फर्श और दो लकड़ी के बर्थ पर बैठीं। साड़ी पहने महिलाएँ अचानक उत्तेजित दिखीं। वे मुझे अपने क़रीब खींचने लगीं, साथ ही बुर्क़ा पहने दो महिलाओं से दूर हट गयीं। साथ ही मुझे कहा- ‘बहनजी! एक मुसलमान औरत से अलग रहो, अलग बैठो, …मुसलमानों से दुर्गन्ध आती है। ये लोग मुसलमान हैं।‘ (बहन, इन मुस्लिम महिलाओं से दूर बैठो…मुसलमानों की गन्ध आती है। वे मुसलमान हैं।)’

हालाँकि बुर्क़ा पहने महिलाओं ने ट्रेन के डिब्बे के भीतर एक-एक शब्द सुना; लेकिन कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। मैं निराश होकर इधर-उधर देखती रही। मुझे पता है, मुझे साड़ी पहने समूह को बताना चाहिए था कि मैं भी एक मुसलमान हूँ। मुझे बुर्क़ा पहने मुस्लिम महिलाओं की ओर से बहस करनी चाहिए थी।

मुझे कहना चाहिए था कि मुसलमान दुर्गन्ध नहीं करते! या फिर साड़ी पहने मैं उनके साम्प्रदायिक रवैये पर कड़ा व्याख्यान दे सकती थी और इसके साथ ही कुछ आक्रामक मुद्रा भी अपना सकती थी।

लेकिन मैंने एक भी शब्द नहीं बोला। मैं चुप रही। एक मूर्ख कायर की तरह वहाँ बैठ गयी। मैं चुप क्यों रही, और बात नहीं की या क्यों पलटवार नहीं किया? क्या मैं डर गयी थी? हाँ, मैं डर गयी थी। आख़िर हिन्दुत्ववादी द्वारा चलती ट्रेनों में मुस्लिम यात्रियों पर हमला करने और उनकी पिटाई करने की ख़बरें तो पढ़ी ही थीं। ऐसी तमाम ख़बरें हैं। इसलिए मैं बहुत दबी-सी और शान्त बैठी रही। विशेष रूप से शून्य में घूरती रही। लेकिन अपनी बेबसी पर आत्मनिरीक्षण करती रही। शाहजहाँपुर की शेष एक घंटे की यात्रा में मैं तनाव से भरी बैठी रही। बुर्क़ा पहने महिलाओं पर किये गये तानों पर प्रतिक्रिया न करने के लिए मैं ख़ुद से नाराज़ और परेशान थी। उस पूरे अनुभव ने मुझे बेहद परेशान कर दिया। वास्तव में ऐसा होना मुझे आज भी परेशान करता है। इस क्षण में जब मैं उस घटना को याद करती हूँ। अन्य घटनाएँ और अनुभव सहज ही आँखों के सामने तैर जाते हैं। चोट और दर्द के निशान आज भी उद्वेलित करते हैं।

वर्षों पहले 60 के दशक के मध्य में मुझे लखनऊ के लोरेटो कॉन्वेंट में भर्ती कराया गया था। यह स्कूल में मेरा पहला दिन था और आज तक इसका विवरण अपरिवर्तित है; क्योंकि पहले ही दिन एक विशेष कक्षा की सहपाठी, 10 वर्षीय त्रिपाठी ने कक्षा में मेरे बगल की कुर्सी पर बैठने से इन्कार कर दिया था। यह चुटकी लेते हुए- ‘मैं तुम्हें जानती हूँ, मुसलमान… मेरी दादी कहती हैं कि सभी मुसलमान दुर्गन्ध करते हैं!’

हालाँकि मेरी सबसे अच्छी याद उसी कक्षा के शिक्षक की है, जिन्होंने उस लड़की को मेरे बग़ल में रखी कुर्सी पर बैठने के लिए मजबूर किया था। विडम्बना यह है कि बहुत बाद के चरण में हमारे माता-पिता पड़ोसी रहे, जो उसी सरकारी कॉलोनी में रहते थे। हालाँकि दोनों परिवारों ने कुछ हद तक एक-दूसरे से दोस्ती की। लेकिन मैंने उससे और उसके पूरे परिवार- उसके भाई-बहनों और उसके चिकित्सक माता-पिता से दूर रहना मुनासिब समझा। क्योंकि उस पहली चोट को मिटाया नहीं जा सका। धार्मिक तनाव से भरी उस पहली साम्प्रदायिक टिप्पणी को मिटाना लगभग असम्भव है। मैंने एक के बाद एक साम्प्रदायिक हमले अनुभव किये हैं। यहाँ तक कि उन लोगों से भी, जो मेरी मुस्लिम पहचान से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। इन कई हमलों में से मैं एक  विशेष घटना को विस्तार से बताना चाहती हूँ- ‘साल 2000 की जनवरी में इंडियन एयरलाइंस के एक विमान को अपहृत करके कंधार ले जाया गया था और उड़ानों के दौरान अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करने की बात चल रही थी। मुझे तब एक राष्ट्रीय दैनिक के लिए साक्षात्कार करना था। तत्कालीन सचिव नागरिक उड्डयन (भारत सरकार)। वह नई दिल्ली के शाहजहाँ रोड पर मेरे पड़ोसी थे। लेकिन उस साक्षात्कार के लिए उन्होंने मुझे अपने ऑफिस आने को कहा। जैसे-जैसे साक्षात्कार आगे बढ़ा, मैंने उनसे उन सुरक्षा उपायों का विवरण पूछा जिन्हें उनके मंत्रालय ने अपहरण रोकने के लिए शुरू करने की योजना बनायी थी। उन्होंने रुटीन उपायों के बारे में बताया- ‘हवाई अड्डों पर सुरक्षा कड़ी कर दी गयी, अस्थायी पास जारी करना बन्द कर दिया गया है।‘

उन्होंने इससे जुड़े कुछ अन्य सवालों के जवाब दिये, लेकिन जब मैंने उनसे सुरक्षा उपायों के सटीक कार्यान्वयन के बारे में विस्तार से पूछा, तो वह शुरू में चुप रहे; लेकिन फिर लगभग ची$खते हुए बोले- ‘मैं आपको वो सटीक विवरण क्यों बताऊँ! आप कुरैशी, तो आप…शायद आप…!’

शायद क्या? ‘आप कुरैशी! आप उस दुश्मन देश में उन लोगों को बता सकते हैं… सीमा पार हमारे दुश्मन को! आप …आप एक मुस्लिम हैं।’

क्या! मैंने किसी तरह उस अपमान को सहन किया, उनकी साम्प्रदायिक टिप्पणियों पर प्रतिक्रिया किये बिना। लेकिन फिर वापस गाड़ी चलाते हुए, मेरा ग़ुस्सा फूट पड़ा। क्या बकवास है? उसकी इतने घिनौने, असभ्य और साम्प्रदायिक तरीक़े से बात करने की हिम्मत कैसे हुई? उसने मुझे उस तीसरे दर्जे के तरीक़े से अपमानित करने की हिम्मत कैसे की?

नहीं, ऐसी कोई जगह नहीं थी, जहाँ मैं उसके ख़िलाफ़ शिकायत दर्ज करा सकती थी। जब हत्यारे अछूते चले गये, तो उन बाबुओं के लिए इतनी कम सज़ा की उम्मीद तो थी, जो साम्प्रदायिक टिप्पणियों से गहरी मार करके चोट पहुँचाते और घायल करते हैं। मैंने शीर्ष नौकरशाहों से कठोरतम साम्प्रदायिक टिप्पणियाँ सुनी हैं। एक सिविल अधिकारी ने मुझसे मेरे तलाक़ से सम्बन्धित कई अजीबोग़रीब सवाल पूछे, एक सवाल का जवाब देने के लिए उकसाया- क्या वह मेरे तलाक़ पर किसी तरह का शोध कर रहा था? दर्द होता है जब आपसे सबसे अजीब चीज़े पूछी जाती हैं- ‘मुसलमान कैसे खाते हैं? या स्नान करते हैं? या कैसे रहते हैं? या दाढ़ी बनाते हैं? या प्यार करते हैं? या असफल विवाहों के अनुबन्ध रद्द करने के लिए क्या करते हैं?’ और आज जब हिन्दुत्व ब्रिगेड और साम्प्रदायिक तत्त्व दो समुदायों के लोगों को एक-दूसरे के क़रीब नहीं रहने दे रहे हैं। हमें मिथकों और ग़लत धारणाओं और दूसरे के बारे में तीसरे वर्ग के दुष्प्रचार से भरा जाएगा। शायद यह सत्तारूढ़ दल के अनुकूल है। यह उन्हें कई विभाजन पैदा करने में मदद करता है।

मुस्लिम समुदाय के लिए तथ्य जगज़ााहिर हैं। सच्चर समिति, गोपाल सिंह समिति, कुंडू समिति की रिपोट्र्स में सब है। इन रिपोट्र्स में मुस्लिम समुदाय की निराशाजनक स्थितियों का विवरण है। देश में मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर भी विस्तृत रिपोर्ट हैं। सबसे बड़ा तथ्य यह है कि मुस्लिम महिलाएँ तीन मोर्चों पर वंचित हैं- महिलाओं के रूप में; अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों के रूप में; और सबसे अधिक ग़रीब महिलाओं के रूप में।

वास्तव में 10 साल पहले जब प्रोफेसर जोया हसन और रितु मेनन की किताब ‘अनईकुअल सिटिजन्स : ए स्टडी ऑफ मुस्लिम वीमेन इन इंडिया’ लॉन्च हुई, तो इसने मुस्लिम महिलाओं की स्थिति पर तत्काल ध्यान आकर्षित किया। उनके निष्कर्ष 12 राज्यों और 40 ज़िलों में फैले 10,000 घरों के सर्वेक्षण पर आधारित थे। जैसा कि प्रो. जोया हसन की टिप्पणी थी- ‘सर्वेक्षण से पता चलता है कि मुस्लिम महिलाओं की स्थिति निराशाजनक है। मुस्लिम महिला की छवि एक परदे वाली महिला के रूप में स्थापित हो चुकी है, जिसकी सारी समस्याएँ उसके धर्म से जुड़ी हैं; लेकिन यह वास्तविकता नहीं है। हमने उसकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति, उसकी शिक्षा, रोज़गार के अवसरों, कल्याणकारी योजनाओं और राजनीतिक जागरूकता का अध्ययन किया है। साथ ही उनका भी अध्ययन किया है, जो लिंग सम्बन्धी मुद्दे हैं। जो विवाह, घरेलू हिंसा, निर्णय लेने के अधिकार और गतिशीलता के आसपास घूमते हैं। हमने उनकी स्थितियों की हिन्दू महिलाओं के साथ तुलनात्मक अध्ययन भी किया है। सबसे ख़ास बात यह है कि मुसलमानों और महिलाओं की स्थिति देश के एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में भिन्न होती है। दक्षिण भारत में मुसलमान बिहार और उत्तर प्रदेश में अपने समकक्षों की तुलना में थोड़ा बेहतर हैं।’

उन्होंने यह भी विस्तार से बताया कि मुस्लिम महिलाओं ने सात दशक के विकास में कुछ ठोस लाभ कमाये हैं। वे राजनीति की दुनिया में, व्यवसायों, नौकरशाही, विश्वविद्यालयों और सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में उनकी अनुपस्थिति सी ज़ाहिर होती हैं। वे शायद ही कभी सशक्तिकरण, ग़रीबी, शिक्षा या स्वास्थ्य पर बहस में शामिल होती हैं। न ही उनसे भेदभाव बड़ी चिन्ता या बहस का विषय बन पाता है। मुस्लिम महिलाओं को हर रूप, चाहे अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्यों, महिलाओं या ग़रीब महिलाओं के रूप में  वंचित किया जाता है। वे धार्मिक अल्पसंख्यकों के सशक्तिकरण के कार्यक्रमों में काफ़ी हद तक ग़ायब दिखती हैं। उदाहरण के लिए मुस्लिम महिलाओं के लिए शिक्षा, रोज़गार, कौशल विकास और बुनियादी सुविधाओं तक पहुँच में पर्याप्त प्रगति नहीं हुई है।’

बेशक, मुझे यह अहसास है कि ख़राब सामाजिक-आर्थिक स्थिति केवल मुस्लिम महिलाओं में ही नहीं है, बल्कि यह उनके द्वारा झेले जाने वाले वृहद् सामाजिक नुक़सान के समग्र सन्दर्भ में उनकी हाशिये की स्थिति को दर्शाती है।

एक और गम्भीर तथ्य सामने आता है कि एक ओर बड़ी संख्या में मुस्लिम महिलाओं ने मतदान किया और चुनाव प्रक्रिया में भाग भी लिया। लेकिन दूसरी ओर बहुत कम संख्या में ही वे किसी पद के लिए चुनी गयी हैं। मुस्लिम महिलाओं के लिए निर्वाचित होना कठिन है। उनकी भागीदारी में उनके लिंग और साथ ही उनकी अल्पसंख्यक धार्मिक स्थिति दोनों ने बाधा डाली और हिन्दुत्व द्वारा बनाये गये सभी प्रचारों के विपरीत, तीन तलाक़ का मुद्दा समुदाय द्वारा ही दरकिनार कर दिया गया; क्योंकि यह इस्लामिक नहीं है। तथ्य यह है कि आज एक मुस्लिम महिला और उसके परिवार की भलाई प्रभावित हो रही है और हिंदुत्व ब्रिगेड और नफ़रत की राजनीति ख़तरनाक गति से फैल रही है।

(उपरोक्त लेखिका के अपने विचार हैं।)