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योगी आदित्यनाथ की सीट गोरखपुर पर चुनाव कल

उत्तर प्रदेश के छठें चरण में होने वाले चुनाव मेंं सबसे महत्वपूर्ण सीटों में से एक गोरखपुर विधानसभा की सीट पर कल यानि 3 मार्च को चुनाव होने है। इस सीट से प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ चुनाव लड़ रहे है। इस वजह से प्रदेश के लिये ही नहीं बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिये इस सीट पर लोगों के साथ देश के नेताओं की नजर है।
प्रदेश की राजनीति के जानकार और गोरखपुर विधानसभा सीट पर पैनी नजर रखने वाले सुभाष पचौरी ने बताया कि यह सीट भाजपा तो निकाल लेगी। लेकिन इस सीट के कई मायने है। एक तो योगी की लोकप्रियता का सही आंकलन हो सकेंगा कि जीत का अंतर कितना है। क्योंकि जो चुनाव में माहौल बनाया गया कि भाजपा का प्रदेश में सपा से कड़ा मुकाबला है।
इससे ये बात सामने आ रही है। कि पार्टी की एक लॉबी भाजपा को चुनाव में कमजोर करने में तुली है। चुनाव में योगी ने जी-तोड़ पूरे प्रदेश में जनसभायें कर भाजपा को जिताने की अपील की है। गोरखपुर वैसे तो भाजपा का गढ़ माना जाता है। इस गढ़ में योगी के चाहने वालें और भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं से लेकर उत्तर प्रदेश से लेकर कई राज्यों के नेताओं ने वोट मांगे है। वहीं सपा के अलावा भाजपा विरोधी नेताओं ने योगी को हराने के लिये जोरआजमाइश में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी है। सो ये चुनाव प्रदेश के साथ देश के लिये सुर्खियों में है। 

इस बार होली पर कोरोना दहन

कोई भी त्यौहार हो बाजारों में 15 दिन पहले त्यौहार से संबंधित सामानों की धूम दिखने लगती है। इसी तरह होली पर्व से संबंधित सामान पिचकारी, रंग-गुलाल और रंग-बिरंगी टोपियों की दुकानें बाजारों में सजने लगी है। होलिका दहन 17 मार्च को है।
तहलका संवाददाता को दिल्ली के व्यापारियों ने बताया कि कोरोना का कहर हर रोज कम हो रहा है। और इसी कोरोना के कारण देश-दुनिया के बाजारों पर काफी असर देखने को मिला है। लेकिन इस बार व्यापारियों ने तय किया है कि होलाी के पर्व पर होली का सामान भी बेचेंगें। और होली पर कोरोना नामक महामारी का दहन भी करेगें।
दिल्ली के लक्ष्मी नगर बाजार के व्यापारी सुरेश ने बताया कि इस बार होली के सामान की बिक्री हो रही है। क्योंकि बाजारों से कोरोना संबंधी जो पाबंदियां लगी थी। वो पाबंदियां सरकार द्वारा हटा दी गयी है। जिससे बाजारों में रौनक आ गयी है।चांदनी चौक के व्यापारी अमन सेठ का कहना है कि चांदनी चौक का जो बाजार है वह होली का सामान देश के छोटे-छोटे कस्बों और गांवों में बेचने के मामलें में हब माना जाता है।
इस लिहाज से देश के गांव-गांव से छोटे-बड़े व्यापारी यहां से सामान लेने आ रहे है। उनका कहना है कि इस बार की होली में एक व्यापारी -दूसरे व्यापारी के माध्यम से लोगों से अपील कर कह रहा है कि इस बार होली पर कोरोना दहन करें। क्योंकि कोरोना ने ही लोगों की जानें ली है। लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलबाड़ किया है। और बाजार को तहस-नहस किया है। अब कोरोना का कहर कम हो रहा है। सो, होली का पर्व भी सावधानी के साथ भी बनायेगें और होली पर कोरोना का सदैव के लिये होली पर दहन कर जश्न मनाएंगे।
बतातें चलें दो साल से कोरोना के कहर के कारण त्यौहारों पर फींका पन देखा गया है। इस बार लोगों ने ठाना है कि कोरोना को भगाना है तो हाली की गुलाल की तरह उड़ाना है।

कोरोना को लेकर सजग-सतर्क रहे, डरे नहीं

कोरोना को लेकर आई आई टी कानपुर के शोधकर्ताओं ने दावा किया है कि कोरोना की चौथी लहर 22 जून से आ सकती है। और अगस्त के महीने में चरम पर होगी। कोरोना की चौथी लहर को लेकर आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ अनिल बंसल का कहना है कि आईआईटी ने जो दावा किया है वह ठीक है क्योंकि कोरोना का वायलस नये-नये स्वरूप में आ सकता है।
इसलिये कोरोना को लेकर डरने की जरूरत नहीं है। बल्कि सावधानी और सतर्कता की जरूरत है।भीड-भाड़ वालें इलाके में जाने से बचना चाहिये। क्योंकि कोरोना का वायरस हो या कोई अन्य वायरस हो आदमी से आदमी में आसानी से संक्रमित कर सकता है।एम्स के डॉ आलोक कुमार ने बताया कि कई बार कोरोना को लेकर जो भी शोध किये जाते है और अनुमान लगाये जाते है वो अक्सर सही साबित नहीं होते है।
लेकिन ऐसे में एक माहौल जो नकारात्मकता का बनता है उससे जरूर स्वास्थ्य संबंधी दिक्कत होने लगती है। उन्होंने बताया कि भी कोरोना गया नहीं है। इसलिये कोरोना को लेकर जो भी गाईड लाईन बनायी गयी है। उसका पालन होना चाहिये । अन्य़था संक्रमित बीमारी के फैलने में देरीा नहीं  लगती है। कोरोना का कहर रूक-रूक कर आया है।
वर्ष 2020 के बाद 2021 के अप्रैल -मई के महीने में कोरोना ने लोगों को बीमार ही नहीं किया ता बल्कि लोगों की जान भी ली थी। फिर जनवरी 2022 में ओमिक्रोन ने दहशत फैलाई थी। और लाखों मामलें हर रोज आने लगे थे  ओर एक हजार से ज्यादा लोगों की मौत होने लगी थी।ऐसे में कोरोना से बचाव के लिये हमें सावधानी के साथ जागरूकता पर बल देना चाहिये।

युद्ध की विभीषिका

‘तहलका’ की कवर स्टोरी इस बार रूस और यूक्रेन के युद्ध को लेकर है। व्लादिमीर पुतिन (रूस) ने यूक्रेन पर हमला करके पूर्व औपनिवेशिक रूसी साम्राज्य के अपने पूर्ववर्ती क्षेत्रों को पुन: प्राप्त करने की अपनी योजना का संकेत दिया है। ज़ाहिर है यह सब कुछ रूस को समझने में पश्चिम की विफलता के कारण हुआ है। यह दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश अमेरिका की सीमित सीमा के कारण भी था; जिसकी प्रतिष्ठा अफ़ग़ानिस्तान से अपनी सेना की वापसी के बाद पहले ही धूमिल हो चुकी है। साथ ही चेचन्या और जॉर्जिया के ख़िलाफ़ छोटे युद्धों में रूस की सफलता और सीरिया, क़ज़ाकिस्तान तथा पूरे अफ्रीका में सत्ता के खेल ने यूक्रेन पर आक्रमण करने के लिए अपनी सीमाओं से परे अपने शासन को महान् शक्ति के पायदान तक पहुँचाने के उद्देश्य से आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के कार्य ने अपनी कार्रवाई से साफ़ कर दिया कि उनका उद्देश्य यूक्रेन को नियंत्रण में लेना और कीव में अपने समर्थन वाला शासन सुनिश्चित करना है; जो मास्को के लिए अनुकूल है। ऐसा करके रूस ने एक ऐसे राज्य की स्वतंत्रता, क्षेत्रीय अखण्डता और सम्प्रभुता के सम्मान के सिद्धांत का उल्लंघन किया, जो संयुक्त राष्ट्र का एक मान्यता प्राप्त सदस्य है और जिसकी सम्प्रभुता को रूस ने भी पिछले तीन दशकों से मान्यता दी थी।

राष्ट्रहित में भारत ने अब तक यूक्रेन के संकट पर किसी का पक्ष नहीं लिया है। बेशक उसके लिए यह तलवार की धार पर चलने जैसा है। भारत ने रूस की आलोचना करने के लिए अमेरिकी लाइन पर चलने जैसा सन्देश नहीं जाने दिया। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुतिन से कहा है कि हिंसा बन्द होनी चाहिए। विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने ठीक ही पाया कि संकट की जड़ें सोवियत के बाद की राजनीति और नाटो के विस्तार में हैं। यह एक तथ्य है कि लम्बे समय से पुतिन क्रीमिया पर रूस की सम्प्रभुता को मान्यता देने के लिए कीव पर दबाव डाल रहे थे। जैसे काला सागर प्रायद्वीप, जिस पर मास्को ने सन् 2014 में यूक्रेन से ज़ब्त करने और नाटो में शामिल होने की अपनी ज़िद छोडऩे के बाद क़ब्ज़ा कर लिया था। यह रूस के इस डर से उपजा है कि यूक्रेन के नाटो क्लब में प्रवेश करने के बाद उस (रूस) पर अमेरिका और उसके सहयोगियों का दबाव बढ़ेगा। यूक्रेन पर आक्रमण का भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक दृष्टि से रणनीतिक परिणाम होना तय है। पहले हज़ारों भारतीय, जिनमें अधिकतर छात्र थे; यूक्रेन के हवाई क्षेत्र के बन्द होने के कारण युद्धग्रस्त यूक्रेन में फँस गये। हालाँकि हमारी सरकार ने उन्हें सडक़ मार्गों से निकालना शुरू कर दिया है।

भारत के लिए रूस पर कड़े अमेरिकी प्रतिबंध उस देश के साथ हमारी रक्षा आपूर्ति लाइन के साथ-साथ भविष्य में एस-400 मिसाइल प्रणाली जैसे अधिग्रहण को प्रभावित कर सकते हैं। भारतीय सेना के 3,000 से अधिक मुख्य युद्धक टैंकों में से 90 फ़ीसदी से अधिक रूसी टी-72 और टी-90एस हैं। भारत कथित तौर पर रूस से एक और 464 रूसी टी-90एमएस टैंक ख़रीदने के लिए बातचीत कर रहा था। तेल के मोर्चे पर भारत और बाक़ी दुनिया को अनिश्चित-काल तक तेल और गैस की ऊँची क़ीमतों का सामना करना पड़ेगा। तेल की क़ीमतें आठ साल के उच्च स्तर 105 डॉलर प्रति बैरल पर पहुँच गयी हैं, जिससे मुद्रास्फीति में तेज़ी आ सकती है। शेयर बाज़ारों में जहाँ उतार-चढ़ाव देखने को मिला है, वहीं सोना 15 महीने के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है। हम चाहते हैं कि युद्ध और आगे न बढ़े, ताकि पूरी दुनिया शान्ति से रह सके और कोरोना महामारी के दौर से गुज़र रही कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था और कमज़ोर न हो।

 

आक्रमण

रूस के यूक्रेन पर हमले से विश्व के शान्तिप्रिय देश नाराज़

युद्ध कभी मानवता का भला नहीं करते। रूस के यूक्रेन पर आक्रमण को कोई भी मानवतावादी गले से नहीं उतार सकता; क्योंकि इसमें हज़ारों बेक़ुसूर जानें चली जाती हैं। इस युद्ध से भविष्य में दुनिया में उभरने वाले शक्ति केंद्रों में बदलाव सम्भव है। निश्चित ही रूस ने ख़ून-ख़राबे के ज़रिये ख़ुद को विश्व शक्ति केंद्र के रूप में स्थापित करने का तरीक़ा अपनाया है। लेकिन इसमें अमेरिका जैसी महाशक्ति की नाकामी को भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। कोशिश होती, तो शायद युद्ध रोका भी जा सकता था। लेकिन अमेरिका जैसा ही बेलगाम रास्ता रूस ने भी अपनाया और मनमानी की। युद्ध से पैदा होने वाले हालात पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :-

अमेरिका ने एक बार फिर दग़ाबाज़ी की, और उसके इशारों पर नाचने वाले नाटो ने भी। यूक्रेन अकेला खड़ा रह गया। वैसे नाटो का सदस्य नहीं होने के कारण यूक्रेन की सैन्य मदद नाटो नहीं कर सकता था; लेकिन उसने यूक्रेन को अकेला ही छोड़ दिया। रूस के आक्रमण से पहले तक अमेरिका और नाटो पर आँख मूँदकर भरोसा कर रहे यूक्रेन को अपना सब कुछ गँवाकर आख़िर रूस से ही बात करनी पड़ी। यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की को कहना पड़ा कि सब डरते हैं और उन्हें अकेला छोड़ दिया गया है। रूस के अपने देश पर बरस रहे बमों के बीच जेलेंस्की ने अमेरिका और नाटो पर सख़्त नाराज़गी ज़ाहिर की। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोल्डीमिर जेलेंस्की भी तनाव को पढऩे में नाकाम रहे। युद्ध को सही नहीं ठहराया जा सकता हैं। लेकिन यूक्रेन से युद्ध के बहाने रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन दुनिया में नये विश्व शक्ति केंद्र के रूप में उभरे हैं। संकेत हैं कि इस युद्ध ने एक नयी विश्व व्यवस्था (न्यू वल्र्ड आर्डर) का रास्ता खोल दिया है। हालात बताते हैं कि अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन इस जंग में रूस के अपने समकक्ष पुतिन के मुक़ाबले हल्के साबित हुए हैं; क्योंकि वह यूक्रेन की बर्बादी बचाने के लिए बातचीत के ज़रिये दबाव का रास्ता भी नहीं बना पाये। इस हमले और उससे उपजे हालात ने बताया है कि सोवियत संघ के बाद आज का रूस दुनिया में नये शक्ति केंद्र के रूप में उभरा है और चीन  से उसका गठजोड़ आने वाले वर्षों में अमेरिका से किसी भी टकराव की सूरत में विश्व में बड़े तनाव का कारण बन सकता है।

सभी यूरोपीय देशों की ऊर्जा के लिए जैसी निर्भरता रूस पर है, वह भी अमेरिका के चुप बैठे रहने की बड़ी बजह रही। इस युद्ध से जो दूसरी बड़ी चीज़ सामने आयी है, वह है- रूस-चीन गठजोड़ का उदय। दुनिया में यह गठजोड़ नये शक्ति केंद्र (सुपर पॉवर्स) के रूप में उभरा है। चीन ने भले सैन्य रूप से यूक्रेन युद्ध में रूस के साथ मिलकर शिरकत नहीं की, भविष्य के युद्धों या ट्रेड में दोनों का साथ जाना अब बहुत बड़े पैमाने पर हो सकता है। यह स्थिति निश्चित ही अमेरिका जैसी महाशक्ति के लिए बड़ी चुनौती होगी और अब वह शायद ही उस स्तर मनमर्ज़ी कर पाये। कहते हैं कि व्लादिमीर पुतिन तत्कालीन सोवियत संघ की टूट से हमेशा नाख़ुश रहे; क्योंकि अमेरिका की भी इसमें भूमिका थी। तो क्या यूक्रेन में शक्ति दिखाकर पुतिन अपने भीतर दबी सोवियत संघ के फिर एक होने की अपनी इच्छा की पूर्ति की तरफ़ बढ़ रहे हैं?

यूरोप की इस जंग में रूस सिर्फ़ अपने क्षेत्र में ही नहीं, वैश्विक स्तर पर अमेरिका के सामने एक अलग और ज़्यादा मज़बूत शक्ति केंद्र के रूप में उभरा है। चीन के इस मसले पर खुलकर उसके साथ आने से विश्व में नया और मज़बूत केंद्र बना है। रूस-चीन का यह गठजोड़ भविष्य में अमेरिका की शक्ति को ज़्यादा बड़ी चुनौती दे सकता है, जिससे किसे बड़े स्तर के युद्ध का रास्ता भी खुल सकता है। युद्ध से पहले अमेरिकी समर्थन वाला यूक्रेन इस जंग में अचानक अलग-थलग पड़ गया। नाटो सदस्य देश और अमेरिका सीधे तौर पर रूस से टकराने से डर गये और यूक्रेन युद्ध भूमि पर अकेला छोडक़र पीछे हट गये। बयानबाज़ी और कथित प्रतिबंधों की घोषणाओं के अलावा अमेरिका कुछ नहीं कर पाया। तो क्या अमेरिका या किसी भी देश को रूस से टकराना आसान नहीं? कम-से-कम इस युद्ध से तो यही संकेत गया है।

अमेरिका ने साफ़ कह दिया कि वह अपनी सेना यूक्रेन में नहीं भेजेगा। उसके इशारों पर नाचने वाले नाटो के भी हाथ खड़े दिखे। जबकि इससे पहले जब रूस यूक्रेन पर हमले की तैयारी में जुटा था और उसकी सीमाओं पर सैनिक तैनात कर रहा था। शुरू में अमेरिका के तेवर देखकर लगता था कि नाटो के सदस्य देश मिलकर रूस पर ही हमला कर देंगे। पुतिन ने अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन की धमकियों की परवाह नहीं और युद्ध के अंजाम की परवाह किये बगैर रूस ने यूक्रेन पर जबरदस्त हमला करके उसे तहस-नहश कर दिया। अमेरिका और नाटो सदस्य देश रूस से टकराने की हिम्मत नहीं दिखा पाये।

यूरोपीय देशों की जैसी निर्भरता रूस पर है, वह उससे न टकराने का सबसे बड़ा कारण है। कमोवेश सभी यूरोपीय देश ऊर्जा के लिए रूस पर काफ़ी हद तक निर्भर हैं। यूरोपीय संघ के नाटो सदस्य देश अपनी प्राकृतिक गैस आपूर्ति का 40 फ़ीसदी हिस्सा रूस से लेते हैं। यदि यूक्रेन के समर्थन के लिए अमेरिका सैन्य स्तर पर कार्रवाई करता, तो निश्चित ही रूस उनके लिए गैस और कच्चे तेल का निर्यात रोक देता। इससे यूरोप एक भीषण ऊर्जा संकट में फँस जाता। यहाँ यह ज़िक्र करना ज़रूरी है कि इन देशों को यहाँ पता है कि बिजली और पेट्रोलियम उत्पादों से भयंकर महँगाई का रास्ता खुल जाता। इसका नतीजा है कि यूरोपीय देश सीधे रूस से टकराने से किनारा कर गये। उन्होंने अपने हितों को प्राथमिकता दी और यूक्रेन को भगवान भरोसे छोड़ दिया।

अमेरिका की इस युद्ध में रूस को दबाव में लाने की कोशिश बचकाना साबित हुई हैं। अमेरिका और उसकी साथी देशों ने रूस पर जो प्रतिबंध लगाये उसका रूस पर कोई असर नहीं हुआ। रूस ने ख़ुद को इतना शक्तिशाली कर लिया है कि यह प्रतिबंध उसके लिए मायने ही नहीं रखते। हालात से ज़ाहिर होता है कि यूक्रेन से युद्ध से पहले रूस और पुतिन ने हर क्षेत्र में पूरी तरह तैयारी कर रखी थी। यह सब अचानक नहीं हुआ। रूस को पता था कि अमेरिका और नाटो सदस्य देश उसका कुछ बिगाड़ नहीं पाएँगे, क्योंकि उनकी बहुत सारी मजबूरियाँ हैं।

अंतरराष्ट्रीय रिपोट्र्स से ज़ाहिर होता है कि इसी साल जनवरी में रूस का अंतरराष्ट्रीय मुद्रा भण्डार 630 अरब डॉलर था। रूस इस भण्डार का सिर्फ़ 16 फ़ीसदी ही डॉलर के रूप में रखता है। चूँकि पाँच साल पहले यह 40 फ़ीसदी था, इससे ज़ाहिर होता है कि रूस ने ख़ुद को मज़बूत रखने के लिए पहले से अपनी रणनीति तैयार की। उधर चीन, जो एशिया के सबसे शक्तिशाली देशों में से एक है; ने रूस के साथ हाल के वर्षों में नज़दीकी बढ़ायी है। डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल से ही अमेरिका और चीन के रिश्ते ख़राब हो गये थे। जानकार यह भी कहते हैं कि चीन के भारत के साथ ख़राब रिश्ते की शुरुआत वास्तव में ट्रंप के समय से ही हुई; क्योंकि भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की ट्रंप से निजी स्तर की मित्रता चीन को कभी रास नहीं आयी।

यहाँ तक कि भारत में कांग्रेस सहित विपक्षी दल प्रधानमंत्री मोदी की इस मित्रता को देश के अंतरराष्ट्रीय सम्बन्धों के लिए अलाभकारी बताते रहे हैं। मोदी ने ट्रंप के चुनाव अभियान के समय दो कार्यक्रमों हाउदी मोदी और नमस्ते ट्रंप में जब हिस्सेदारी की थी, तो देश में विदेशी मामलों के काफ़ी जानकारों ने इसे जोखिम भरा बताया था। वैसे भी यह पहला मौक़ा था, जब भारत के किसी प्रधानमंत्री ने ऐसे किसी देश के प्रमुख के लिए चुनाव प्रचार में हिस्सा लिया। आज स्थिति यह है कि अमेरिका और चीन के रिश्ते अब तक के सबसे ख़राब दौर में हैं। यह माना जाता है कि यदि अमेरिका और नाटो ने रूस के ख़िलाफ़ सैन्य स्तर की कार्रवाई की होती, तो चीन भी उस युद्ध में कूद सकता था। और ऐसा टकराव निश्चित ही बड़े टकराव का रास्ता खोल सकता था।

रूस की ताक़त

यह माना जाता है कि रूस के पास घोषित-अघोषित ऐसे हथियार हैं, जो किसी भी देश के लिए घातक साबित हो सकते हैं। वैसे भी रूस परमाणु शक्ति से सम्पन्न है। उसके पास हथियारों का जो ज़ख़ीरा है। दुनिया उसके बारे में पूरी तरह जानती तक नहीं। दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं में से एक रूस के पास है। उसकी मिसाइल तकनीक (टेक्नोलॉजी) ऐसी है, जो किसी भी देश को पल भर में तवाह करने की क़ुव्वत रखती है।

पुतिन ने जब यह कहा था कि यूक्रेन मसले में किसी भी देश ने हस्तक्षेप की कोशिश की, तो उसे इतिहास का सबसे बुरा अंजाम झेलना पड़ेगा। उनके शब्दों से साफ़ ज़ाहिर होता था कि वह महज़ खोखली धमकी नहीं दे रहे हैं। अमेरिका और नाटो सदस्य देशों ने यदि पुतिन से टकराव मोल लेने से बचने के रास्ते को तरजीह दी, तो इसका यही कारण रहा है। उन्हें पता था कि इस टकराव की क़ीमत बड़ी और ख़तरनाक हो सकती है। रूस ने यूक्रेन पर हमले की कितने पहले तैयारी कर ली थी, यह इस बात से ज़ाहिर हो जाता है कि राष्‍ट्रपति व्‍लादिमीर पुतिन के यूक्रेन के ख़िलाफ़ जंग के ऐलान के साथ ही रूस ने यूक्रेन पर मिसाइलों, रॉकेट और लड़ाकू विमानों से हमला करना शुरू कर दिया। यदि अमेरिकी वैज्ञानिकों के दावों पर भरोसा किया जाए, तो ज़ाहिर होता है कि रूस के परमाणु हथियारों के आधुनिक ज़ख़ीरे की संख्या 4,477 है। फेडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि रूस के पास कुल 4,477 परमाणु बमों में 2,565 स्‍ट्रेटजिक और 1,912 नॉन स्‍ट्रेजिक हैं। रिपोर्ट से पता चलता है कि रूस लगातार अपनी परमाणु ताक़त और उसके आधारभूत ढाँचे का आधुनिकीकरण करता रहा है। रूस ने यूक्रेन सीमा पर ऐसे कई लॉन्‍चर पहले ही तैनात कर दिये थे, जिनकी मदद से परमाणु बम को गिराया जा सकता है। इनमें परमाणु बम लोड किये गये थे, इसकी कोई पुख़्ता जानकारी सामने नहीं आयी।

इस रिपोर्ट में अमेरिकी वैज्ञानिकों का दावा है कि रूस पिछले एक दशक से परमाणु हथियारों का आधुनिकीकरण कर रहा है। सोवियत संघ काल के परमाणु हथियारों की जगह नये हथियारों ने ले ली है। दिसंबर, 2021 में रूस के रक्षा मंत्री सर्गेई शोइगू ने ख़ुद कहा था कि उनके देश के कुल परमाणु ज़खीरे में आधुनिक हथियारों और उपकरणों की संख्या 89.1 फ़ीसदी पहुँच गयी है। एक साल पहले 2020 तह यह 86 फ़ीसदी थी, जिससे वहाँ आधुनिकीकरण के काम की गति का सहज ही अंदाज़ा हो जाता है। राष्ट्रपति पुतिन ने भी कुछ महीने पहले कहा था कि रूस परमाणु सेना को अपने प्रतिद्वंद्वियों के मुक़ाबले में आगे रखना चाहता है, ताकि किसी चीज़ में पिछड़े न।

देखा जाए, तो पुतिन ने समय-समय पर यह कहा है कि उन्हें यह बिल्कुल स्वीकार्य नहीं कि उनका देश अलग-थलग रहे। पुतिन आधुनिक काल में सशस्त्र बलों के लिए हर क्षेत्र में बदलाव के प्रबल समर्थक रहे हैं। पुतिन ने एक भाषण में कहा था- ‘यह फार्मूला वन की रेस नहीं, बल्कि सुपरसोनिक रफ़्तार से तेज़ है। आप एक सेकेंड थम जाते हैं, तो आप तत्काल दूसरे से पीछे छूट जाते हैं।’

पुत‍नि काफ़ी समय से रूस के आसपास वैश्विक मिसाइल डिफेंस सिस्‍टम तैनात किये जाने का विरोध कर रहे थे। पुतिन ने कहा था कि अमेरिका हवाई रक्षा उपकरण तैनात करने के नाम पर हमला करने में सक्षम हथियार तैनात कर रहा है, जिसके निशाने पर रूस है। यूक्रेन पर हमले को रूस ने अपने लिए इस ख़तरे को सबसे बड़ी बजह बताया है। हालाँकि रिपोर्ट लिखे जाने के वक़्त ख़बरें आने लगी थीं कि यूक्रेन के राष्ट्रपति जेलेंस्की ने युद्ध न करने की इच्छा जतायी और कहा कि वह शान्ति चाहते हैं।

जंग का असर

रूस के यूक्रेन पर हमले का व्यापक असर होगा। भविष्य में यदि यह युद्ध पश्चिम के हिस्सों तक फैलता है, तो इसका पूरी दुनिया की अर्थ-व्यवस्था से लेकर अन्य क्षेत्रों में पर बड़ा असर होगा। सबसे बड़ा असर तेल और प्राकृतिक गैस की क़ीमतों पर होगा। युद्ध का तात्कालिक और वृहद् असर तेल और नेचुरल गैस की क़ीमतों पर पड़ेगा। यूरोप के ज़्यादातर इन दोनों चीज़ें के लिए कमोवेश पूरी तरह रूस पर निर्भर हैं। युद्ध होने के बाद रूस के तेल की सप्लाई रुक गयी है और इसका पश्चिमी यूरोप देशों पर असर दिखने लगा है। सप्लाई नहीं भी रुकती, तो भी क़ीमतें तो बढऩी ही थीं। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय तक कच्चा तेल (क्रूड ऑयल) प्रति बैरल 100 डॉलर तक पहुँच चुका था।

जानकारों के मुताबिक, यह आने वाले समय में 125-130 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच सकता है। फ़िलहाल युद्ध रूस और यूक्रेन तक सीमित रहने से कुछ अच्छे की उम्मीद की जा सकता है। युद्ध के दौरान अचानक विकल्प तलाश करना किसी के लिए भी सम्भव नहीं था। तेल को लेकर हर देश का सप्लाई नियम पहले से तय होता है और अचानक एक देश दूसरे को सप्लाई नहीं कर सकता। युद्ध का दूसरा दुष्प्रभाव दुनिया में आर्थिक संकट के ख़तरे का है। कोरोना महामारी के कारण पहले से ही त्रस्त अर्थ-व्यवस्था पर युद्ध की और मार पड़ सकती है। तेल की क़ीमतें पहले ही स्थिति को काफ़ी हद तक अर्थ-व्यवस्था की गाड़ी को पटरी से उतार चुकी हैं। युद्ध का अब दुनिया के देशों के बाज़ार पर विपरीत असर होगा। विदेशी मुद्रा बाज़ार में अनिश्चितता का माहौल बना रहेगा, जिससे आर्थिक मंदी आ सकती है। भारत में तो बाज़ार तब ही गोते लगाता दिख रहा था, जब दोनों देशों के बीच अभी तनाव ही था।

युद्ध के बाद दुनिया भर में गेहूँ का संकट बन सकता है। दरअसल यूक्रेन, रूस, क़ज़ाकिस्तान और रोमानिया दुनिया भर में बड़ी मात्रा में गेहूँ निर्यात करते हैं। युद्ध होने पर यह निर्यात बाधित होगा। भारत इन सबसे कम प्रभावित नहीं होगा। आर्थिक संकट हुआ, तो पहली से डाँवाडोल चल रही भारत की अर्थ-व्यवस्था और ख़राब हालत में चली जाएगी। भारत ने रूस के यूक्रेन पर हमले के बाद शान्ति पर ज़ोर दिया था। ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी ने 24 फरवरी को रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन से फोन पर बात की थी। भारत ने तनाव शुरू होते ही इस मामले में बातचीत पर ज़ोर दिया, जिसे रूस ने भी सराहा।

बँटेगी दुनिया!

अब यह साफ़ दिख रहा है कि इस युद्ध के बाद दुनिया दो हिस्सों में बँट गयी है। इसमें एक तरफ़ अमेरिका-नाटो सदस्य देश हैं, तो दूसरी तरफ़ रूस-चीन और उनके सहयोगी देशों का गठजोड़। अमेरिका ने युद्ध के बाद रूस और उसके सहयोगी देशों पर कुछ कड़े प्रतिबंध लगाये हैं। दूसरे यूरोपियन देश भी यूक्रेन के साथ भले युद्ध में शामिल नहीं हुए; लेकिन उसे मदद दे रहे हैं। इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देशों ने तो युद्ध से पहले ही हथियार या दूसरी चीज़ें भेज दी थीं। कुछ जानकार मानते हैं कि युद्ध यदि लम्बा खिंचा, तो यह पहले के दोनों विश्वयुद्धों से कहीं ज़्यादा तबाही वाला साबित होगा। दुनिया के शान्तिप्रिय देश रूस से इस हमले के लिए नाराज़ हैं।

रूस के यूक्रेन में घुसने के बाद यदि रूस समर्थित सरकार या सैन्य शासन आता है, तो तो ठीक है। लेकिन यदि नहीं हुआ, तो रूस के साथ युद्ध में यूक्रेन की हालत दूसरे अफ़ग़ानिस्तान जैसी हो जाएगी। इसमें कुछ नुक़सान रूस तो को भी उठाना पड़ेगा। हालाँकि अभी तक के हालात में रूस सब पर भारी पड़ा है। सन् 1992 में अफ़ग़ानिस्तान के साथ यही हुआ था, जब रूस वहाँ काफ़ी दिन तक फँसा रहा था; उसका मक़सद भी हल नहीं हुआ था। बाद में सोवियत संघ का विघटन हो गया था। रूस अब सोवियत संघ के जमाने के विपरीत बहुत शक्तिशाली हो चुका है। उसने पुतिन के शासनकाल में ख़ुद को आर्थिक से लेकर सैन्य स्तर तक बहुत मज़बूत किया है। मध्य एशिया में उसकी पकड़ पहले से कहीं मज़बूत हुई है और आधुनिक हथियार उसकी सबसे बड़ी ताक़त हैं। उसके परमाणु हथियार तो किसी पर भी भारी पड़ सकते हैं।

रूस पर प्रतिबंध

रूस के आक्रमण के बाद संयुक्त राष्ट्र मानवीय कोष ने यूक्रेन के लिए दो करोड़ डॉलर और ईयू आर्थिक सहायता कोष में 1.5 अरब यूरो देने की योजना बनायी है। इसके अलावा जापान, ऑस्ट्रेलिया, ताइवान और अन्य देशों ने रूस पर नये और कड़े प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। उन्होंने रूस की कार्रवाई की निंदा भी की है। रूस ने 24 फरवरी को यूक्रेन पर आक्रमण किया था। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने हमले के बाद कहा कि फ्रांस और उसके यूरोपीय सहयोगियों ने मॉस्को पर बहुत गम्भीर प्रहार करने का फ़ैसला किया है। इसके तहत रूसी लोगों पर और प्रतिबंध लगाने के अलावा वित्त, ऊर्जा और अन्य क्षेत्रों पर ज़ुर्माना लगाना शामिल है।

इस बीच रूसी नागरिक उड्डयन प्राधिकरण ने रूस आने जाने वाली ब्रिटेन की उड़ानों पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे पहले ब्रिटेन ने रूसी उड़ान कम्पनी एयरोफ्लोत की उड़ानों पर पाबंदी लगा दी थी। जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा ने कहा कि हम स्थिति में बलपूर्वक बदलाव की किसी भी कोशिश को बर्दाश्त नहीं करेंगे। किशिदा ने इसके साथ ही नये दंडात्मक क़दमों की भी घोषणा की, जिसमें रूसी समूह, बैंकों और व्यक्तियों के वीजा और सम्पत्ति को फ्रीज किया जाना शामिल है।

न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जेसिंडा अर्डर्न ने कहा कि रूस के निर्णय से अनगिनत निर्दोष लोगों की जान जा सकती है। उन्होंने रूसी अधिकारियों पर यात्रा प्रतिबंध लगाने समेत विभिन्न पाबंदियाँ लागू करने की घोषणा की। संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् ने भी बैठक की और हालात पर चर्चा की। संयुक्त राष्ट्र मानवीय मामलों के प्रमुख मार्टिन ग्रिफिथ ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र के केंद्रीय आपात प्रतिक्रिया कोष को दी जाने वाली दो करोड़ डॉलर की धनराशि से यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में दोनेत्स्क और लुगांस्क और अन्य हिस्सों में आपात अभियानों में मदद मिलेगी।

दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति मून जे-इन ने कहा कि उनका देश अंतरराष्ट्रीय पाबंदियों का समर्थन करेगा; लेकिन एकतर$फा प्रतिबंधों पर विचार नहीं करेगा। परमाणु संकट के समाधान के प्रयास भी कमज़ोर दक्षिण कोरिया ने इसलिए सतर्क रुख़ अपनाया है; क्योंकि उसकी अर्थ-व्यवस्था काफ़ी हद तक अंतरराष्ट्रीय व्यापार पर निर्भर है। हालाँकि ताइवान ने घोषणा की कि वह रूस के ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंध लगाने का समर्थक है। ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्री स्कॉट मॉरिसन ने कहा कि ऐसे समय में जब ऑस्ट्रेलिया, ब्रिटेन, अमेरिका, यूरोप और जापान मिलकर रूस को रोकने की कोशिश कर रहे हैं, तो वहीं चीन की सरकार रूस को व्यापार पाबंदियों में ढील देने की बात कह रही है। यह अस्वीकार्य है।

पुतिन की कल्पना

इतिहास को याद करें, तो सन् 1991 में जब सोवियत संघ अमेरिका के साथ जारी शीतयुद्ध के दौरान टूट गया था, तो उसके कई हिस्से हो गये। यह 25 दिसंबर, 1991 का दिन था, जब रूस के राष्ट्रपति भवन क्रेमलिन पर से विराट सोवियत संघ का झण्डा उतर गया और रूसी झण्डा चढ़ाया गया, तो राष्ट्रपति मिखाइल गोर्बोचेव ने इस्तीफ़ा दे दिया। उनके बाद बोरिस येल्तासिन राष्ट्रपति बने, जिनके वर्तमान राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ बहुत घनिष्ट सम्बन्ध थे। यह येल्तसिन ही थे, जिन्होंने पुतिन को रूस की राजनीति में बढऩे के लिए सीढ़ी का काम किया। पुतिन ने तरक़्क़ी करते हुए 26 मार्च, 2000 को रूस के राष्ट्रपति पद का चुनाव जीता और सन् 2004 में 70 फ़ीसदी मतों के साथ फिर से राष्ट्रपति बन गये। उनके क़रीब से जानने वाले बहुत ही कम लोग हैं। लेकिन जो हैं, उनमें से कुछ का कहना है कि व्लादिमीर पुतिन के मन का सोवियत संघ के विघटन का घाव कभी नहीं भरा और वह वृहद् सोवियत संघ की आज भी कल्पना करते हैं।

भारत पर प्रभाव

भारत के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध पर स्थिति काफ़ी पेचीदा थी। भारत ने बीच का रास्ता अपनाया और बातचीत से मसले को हल करने पर ज़ोर दिया। जानकारों का कहना है कि यह युद्ध भारत की राजनीतिक, सामरिक और आर्थिक स्थिति को बड़े स्तर पर प्रभावित करेगा। यूरोप या रूस में किसी एक को चुनना भारत के लिए बहुत टेढ़ी खीर है। ज़ाहिर है इस युद्ध ने गुटनिरपेक्ष नीति की सार्थकता को प्रासंगिक कर दिया है। युद्ध भविष्य में बड़ा रूप लेता है, तो भारत की अर्थ-व्यवस्था बहुत बुरी तरह प्रभावित होगी। भारत और यूक्रेन के बीच लम्बे समय से मज़बूत व्यापारिक रिश्ते हैं। यदि हाल के वर्षों का ग्राफ देखें, तो ज़ाहिर होता है कि भारत यूक्रेन के लिए दुनिया का 15वाँ सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार है। यही नहीं, भारत के लिए यूक्रेन 23वाँ सबसे बड़ा निर्यात बाज़ार है। युद्ध दोनों देशों के व्यापारिक हितों को तबाह कर सकता है।

भारत बड़े पैमाने पर कुकिंग ऑयल यूक्रेन से आयात करता है। इसके अलावा लोहा, स्टील, प्लास्टिक, इनॉर्गनिक केमिकल्स आदि कई वस्तुओं को यूक्रेन से आयात करता है। दूसरी तरफ़ यूक्रेन के अलावा कई यूरोपीय देशों में भारत दवा, बॉयलर मशीनरी, मैकेनिकल अपल्यांस आदि चीज़ें का निर्यात करते हैं। युद्ध से दोनों देशों के बीच आयात-निर्यात होने वाली वस्तुओं की सप्लाई फ़िलहाल बन्द हो गयी है। दूसरी बात, जो तबाही रूस ने यूक्रेन में की है, उससे उबरने में उसे अब बहुत समय लग जाएगा। इसका सीधा असर महँगाई पर पड़ेगा। आने वाले समय में कई ज़रूरी वस्तुओं की क़ीमतों में वृद्धि हो सकती है। भारत अब तक बड़े पैमाने पर खाने के तेल (कुकिंग ऑयल) को यूक्रेन से आयात करता आ रहा था। युद्ध के बाद अब यह आयात यूक्रेन से नहीं होगा। इस स्थिति में भारत सरकार सूरजमुखी तेल (सनफ्लावर ऑयल) के आयात के लिए दूसरे देशों के विकल्प की तलाश करेगी। हालाँकि आयात शिफ्टिंग नियमों के चलते सरल नहीं। लिहाज़ा खाने के तेलों की क़ीमतें आसमान पर पहुँच सकती हैं, जो कि भारत में पहले ही काफ़ी ऊपर हैं।

युद्ध से वैश्विक आपूर्ति शृंखला (सप्लाई चेन) बहुत बुरी तरह प्रभावित हुई है। कोरोना महामारी के बाद ग्लोबल सप्लाई चेन पहले से ही दुर्दशा झेल रही है। महामारी कुछ थमने से जो उम्मीद जगी थी, वह युद्ध के बाद फिर धुँधली पड़ गयी है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भारत में महँगाई काफ़ी बढ़ेगी। युद्ध ज़्यादा बढ़ता है, तो कच्चे तेल (क्रूड ऑयल) की क़ीमतों बड़ी वृद्धि होगी, जो भारत की मुद्रास्फीति का ग्राफ बढ़ाएगी। भारतीय अर्थ-व्यवस्था पर युद्ध का गहरा असर दिखेगा। व्यापारिक गतिविधियों पर नकारात्मक असर पड़ेगा। कच्चे तेल के दाम बढ़ेंगे और देश का आयात ख़र्च बढ़ेगा। इसका असर व्यापार घाटे पर पड़ेगा तथा यह और ऊपर जाएगा। फ़िलहाल तो कच्चे तेल के बढ़ते दामों का भार ऑयल एंड गैस की मार्केटिंग कम्पनियों ने ग्राहकों पर नहीं डाला है; लेकिन इसका कारण देश में चल रहे पाँच विधानसभाओं के चुनाव हैं। देश में 10 मार्च के बाद पेट्रोल-डीजल के दाम में एकमुश्त बढऩे की पूरी सम्भावना है। तेल के दाम बढऩे से माल ढुलाई महँगी होंगी और खाने-पीने की चीज़ें जैसे सब्जियों-फल, दालें, तेल आदि के रेट महँगे होंगे।

यह महँगाई रिजर्व बैंक के अनुमानित आँकड़ों से ऊपर चली जाएगी, जिससे देश का केंद्रीय बैंक दरें बढ़ाने पर मजबूर होगा। एक्सचेंज रेट पर भी असर आएगा; क्योंकि रुपये की क़ीमतों में और गिरावट आ सकती है। एक्सचेंज रेट पर असर आने से भारत का कुल ट्रेड $खर्च भी बढ़ेगा। यही नहीं, रूस से आयात-निर्यात (इंपोर्ट-एक्सपोर्ट) के आँकड़े देखें, तो साल 2021 में भारत ने कुल 550 करोड़ डॉलर का निर्यात रूस को किया है और 260 करोड़ डॉलर का आयात रूस से किया है। सन् 2021 में भारत का रूल को जाने वाला थर्मल कोल आयात 1.6 फ़ीसदी से घटकर 1.3 फ़ीसदी पर आ गया था। अब इसमें और कमी आने की सम्भावना है। इसके अलावा भारत रूस से कच्चा तेल भी आयात करता है। सन् 2021 में भारत ने रूस से 43,000 बीपीडी क्रूड आयात किया है।

भारत का रूस से होने वाले कच्चे तेल का कुल आयात केवल एक फ़ीसदी है, जबकि गैस आयात 0.20 फ़ीसदी है। हाल ही में गैस अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड (गैल) का एलएनजी के लिए गाजप्रोम के साथ अनुबंध हुआ है। इसके तहत 20 वर्षों तक 25 लाख टन सालाना आयात का अनुबंध हुआ है। रूस पर अमेरिका ने जो प्रतिबंध लगाये हैं, उनमें तेल और गैस के निर्यात पर रोक शामिल नहीं है और रूस कच्चे तेल और गैस का निर्यात करता रहेगा। यह कुछ राहत की बात है अन्यथा भारत की ओएनजीसी जैसी कम्पनी के तेल की विदेशी यूनिट्स सबसे ज़्यादा रूस में ही हैं।

गहलोत का बड़ा दाँव पुरानी पेंशन की बहाली राजस्थान सरकार के फ़ैसले से अब केंद्र और अन्य राज्य सरकारों पर भी बन रहा दबाव

राजस्थान में अशोक गहलोत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने फरवरी के दूसरे पखवाड़े में एक ऐसा फ़ैसला कर लिया, जिसने देश भर की राज्य सरकारों को भी इस पर अमल करने को मजबूर कर दिया है। दरअसल गहलोत सरकार ने एक बड़े फ़ैसले में कर्मचारियों के लिए नयी पेंशन स्कीम की जगह पुरानी पेंशन बहाल करके देश के दूसरे हिस्सों में भी कर्मचारियों के लिए बड़ी उम्मीद जगा दी है। अब केंद्र सरकार पर भी इसका दबाव बनेगा।

देश भर के कर्मचारी संगठनों की यह बड़ी माँग थी कि पुरानी पेंशन बहाल की जाए। राजनीति के लिहाज़ से यह बड़ा फ़ैसला है और देश में अगर दूसरे राज्य भी इसे लागू करते हैं, तो करोड़ों कर्मचारी इससे लाभान्वित होंगे। निश्चित ही गहलोत सरकार के पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने के ऐलान के बाद देश के बाक़ी राज्यों में भी ये बड़ा मुद्दा बनने जा रहा है। उन्होंने निश्चित ही बड़ा दाँव चल दिया है।

अब मोदी सरकार पर भी केंद्रीय कर्मचारी संगठनों की इन राज्यों में भी सरकारी कर्मचारी संगठन सरकारों के सामने ये माँगें पहले से रखते रहे हैं और अब गहलोत सरकार के फ़ैसले के बाद उन्हें कहने का अवसर मिल गया है। उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के घोषणा-पत्र में समाजवादी पार्टी ऐसा ही वादा कर चुकी है। देश के कई राज्यों में सरकारी कर्मचारी संगठन फिर से पुरानी पेंशन योजना बहाल करने के लिए लगातार सरकार पर दबाव बनाते रहे हैं। इसके लिए वे सडक़ों पर आन्दोलन भी कर रहे हैं। निश्चित ही गहलोत सरकार ने कर्मचारियों की वाहवाही लूट ली है। राजनीतिक दलों में पुरानी पेंशन योजना की चर्चा रही है। कांग्रेस इसका समर्थन करती रही है। अब करोड़ों कर्मचारी आस लगाये हैं कि पुरानी पेंशन योजना फिर से बहाल हो जाएगी।

वैसे केंद्र सरकार ने जब नयी पेंशन योजना (एनपीएस) लागू की थी; लेकिन राज्यों पर इसे लागू करने की अनिवार्यता नहीं थी। हालाँकि धीरे-धीरे कमोबेश सभी राज्यों ने इसे अपना लिया। लेकिन जल्दी ही नयी पेंशन योजना का विरोध भी शुरू हो गया, जो आज तक जारी है।

गहलोत ने क्या कहा?

राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एक ट्वीट में कहा- ‘हम सभी जानते हैं कि सरकारी सेवाओं से जुड़े कर्मचारी भविष्य के प्रति सुरक्षित महसूस करें, तभी वे सेवाकाल में सुशासन के लिए अपना अमूल्य योगदान दे सकते हैं। अत: पहली जनवरी, 2004 और उसके पश्चात् नियुक्त हुए समस्त कर्मचारियों के लिए मैं आगामी वर्ष से पूर्व पेंशन योजना लागू करने की घोषणा करता हूँ।’

पुरानी पेंशन बहाली के लिए लड़ाई लड़ रहे कर्मचारी संगठनों ने राजस्थान सरकार के फ़ैसले का स्वागत करने के साथ ही अब राज्यों और केंद्रीय स्तर पर इस लड़ाई को और तेज़ करने का आह्वान भी किया है। पुरानी पेंशन बहाली के लिए राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड़े नेताओं का कहना है कि राजस्थान सरकार के फ़ैसले से कर्मचारी देश भर में बेहद ख़ुश हैं। उन्होंने कहा कि गहलोत का इस फ़ैसले के लिए संगठन आभार करते हैं; क्योंकि उन्होंने कर्मचारियों की भावनाओं को समझा। राष्ट्रीय पुरानी पेंशन बहाली संयुक्त मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बी.पी. सिंह रावत का कहना है कि राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने एनपीएस कार्मिकों के लिए जो फ़ैसला लिया है, वह ऐतिहासिक है। उन्होंने कहा कि देश के लाखों एनपीएस कर्मचारियों में राजस्थान सरकार के इस फ़ैसले से उत्साह है। पुरानी पेंशन बहाली के लिए दिन रात मेहनत करके एनपीएस कार्मिकों ने अपने संघर्ष से पुरानी पेंशन बहाली की आवाज़ को लगातार सडक़ से सदन तक पहुँचाने का प्रयास किया है। राजस्थान सरकार के सराहनीय क़दम से अन्य राज्यों में भी उम्मीद जगी है। अब समय आ गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पुरानी पेंशन बहाली को गम्भीरता से लें; क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव में यह बड़ा मुद्दा बनने वाला है।

राजस्थान के सरकारी कर्मचारियों को अब सेवानिवृत्त होने पर पहले के सरकारी कर्मचारियों की तरह ही पूरी पेंशन मिलेगी। बता दें कि सन् 2004 में पुरानी पेंशन योजना को ख़त्म कर दिया गया था। सन् 2004 से पहले कर्मचारियों को पुरानी पेंशन स्कीम के तहत सेवानिवृत्ति के बाद एक निश्चित पेंशन मिलती थी। यह पेंशन सेवानिवृत्ति के समय कर्मचारी के वेतन पर आधारित होती थी।

इस योजना के तहत सेवानिवृत्त कर्मचारी की मौत के बाद उसके परिजनों को भी पेंशन का प्रावधान था। अटल बिहारी वाजपेई की सरकार ने अप्रैल, 2005 के बाद नियुक्त होने वाले कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना को बन्द कर दिया था और नयी पेंशन योजना लागू की गयी थी। इसके बाद राज्यों ने भी नयी पेंशन योजना को अपना लिया। बता दें कि पिछले कई वर्षों से सरकारी कर्मचारी फिर पुरानी पेंशन स्कीम को लागू करने की माँग के साथ विरोध-प्रदर्शन करते रहे हैं। केंद्रीय कर्मचारियों को भी इसका इंतज़ार है। कहा जा रहा है कि राजस्थान सरकार कुछ केंद्रीय कर्मचारियों को भी एनपीएस से ओपीएस में ला सकती है। इनमें वो कर्मचारी शामिल होंगे, जिनकी भर्ती के लिए विज्ञापन 31 दिसंबर, 2003 को या उससे पहले जारी किये गये थे। सर्वोच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद इसकी सुगबुगाहट शुरू हुई है।

पुरानी और नयी पेंशन में अन्तर

पुरानी पेंशन योजना यानी ओल्ड पेंशन स्कीम (ओपीएस) और नयी पेंशन योजना यानी न्यू पेंशन स्कीम (एनपीएस) में बड़ा अन्तर है। ओपीएस में कर्मी की पेंशन के लिए वेतन से कटौती नहीं होती, जबकि एनपीएस में उसके वेतन से 10 फ़ीसदी (बेसिक+डीए (महँगाई भत्ता) की कटौती होती है। पुरानी पेंशन योजना में जीपीएफ सुविधा है; लेकिन एनपीएस में यह नहीं है। ओपीएस एक सुरक्षित पेंशन योजना है और इसका भुगतान सरकारी ख़ज़ाने से होता है। लेकिन एनपीएस शेयर बाज़ार पर आधारित है और बाज़ार के मिजाज़ पर इसका भुगतान निर्भर है। ज़ाहिर है बाज़ार से मिलने वाले रिटर्न की कोई गारंटी नहीं मिलती। ओपीएस में सेवानिवृत्ति के समय अन्तिम बेसिक वेतन की 50 फ़ीसदी तक निश्चित पेंशन मिलती है, जबकि एनपीएस में निश्चित पेंशन की गारंटी नहीं। ओपीएस में छ: महीने के बाद मिलने वाला महँगाई भत्ता लागू होता है; लेकिन एनपीएस में यह नहीं होता। ओपीएस सेवानिवृत्ति के बाद 20 लाख रुपये तक ग्रेच्युटी मिलती है, एनपीएस में इसका अस्थायी प्रावधान ही है। ओपीएस में सर्विस के दौरान मौत होने की स्थिति में फैमिली पेंशन मिलती है, जबकि एनपीएस ऐसा होने पर फैमिली पेंशन तो मिलती है; लेकिन योजना में जमा पैसा सरकार ज़ब्त कर लेती है। ओपीएस में सेवानिवृत्ति पर जीपीएफ के ब्याज पर किसी प्रकार का आयकर नहीं लगता; लेकिन एनपीएस में शेयर बाज़ार के आधार पर जो पैसा मिलेगा, उस पर कर (टैक्स) देना पड़ेगा। ओपीएस में रिटायरमेंट के समय पेंशन प्राप्ति के लिए जीपीएफ से कोई निवेश नहीं होता; लेकिन एनपीएस में सेवानिवृत्ति पर पेंशन प्राप्ति के लिए एनपीएस फंड से 40 फ़ीसदी पैसा इन्वेस्ट करना ज़रूरी है। ओपीएस में 40 फ़ीसदी पेंशन कम्यूटेशन का प्रावधान है, एनपीएस में यह प्रावधान नहीं है। ओपीएस में मेडिकल सुविधा है; लेकिन एनपीएस में इसका कोई निश्चित प्रावधान नहीं है।

उत्तर प्रदेश में बदलाव के संकेत

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में पहले पाँच चरणों में भाजपा बैकफुट पर

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में इस बार पहले पाँच चरण तक भाजपा के लिए सन् 2017 के विपरीत एक चौंकाने वाला अनुभव रहा। इन चरणों में प्रचार के लिए पहुँचे भाजपा नेताओं को जनता का खुला विरोध सहना पड़ा। जनता ने उनके भाषण सुनने से मना कर दिया या उन्हें सभा स्थल से भागने को मजबूर कर दिया। देवरिया में 22 फरवरी को भाजपा के लोकप्रिय नेता मनोज तिवारी को तो लोगों के विरोध के चलते बाइक से भागना पड़ा।

एक अनुमान के मुताबिक, इन पाँच चरणों में जनता की तरफ़ से भाजपा के नेताओं के खुले विरोध या उन्हें भगाने की 100 से ज़्यादा घटनाएँ हुईं। क्या भाजपा के प्रति जनता के रूख़ का यह बड़ा सन्देश है? या यह महज़ छिटपुट घटनाएँ थीं? इसका पता 10 मार्च को ही चलेगा। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त बता रही है कि कम-से-कम इन पाँच चरणों में भाजपा चुनाव प्रचार में काफ़ी रक्षात्मक दिखी है। उत्तर प्रदेश की राजनीति की गहरी जानकारी रखने वाले जानकारों के दावे सही हैं, तो इन चरणों में भाजपा ने 2017 के चुनाव में जीतीं सीटों में से 40 से 50 फ़ीसदी सीटें खो दी हैं।

भाजपा को इस चुनाव में समाजवादी पार्टी (सपा)-राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) गठबन्धन ही नहीं, कांग्रेस और बसपा से भी कई सीटों पर टक्कर मिली है। सपा-रालोद की चुनाव सभाओं में भीड़ से गठबन्धन के नेता उत्साहित हैं और उनके ख़ेमे के बीच चर्चा से ज़ाहिर होता है कि वे ख़ुद को जनता की तरफ़ से भाजपा के विकल्प के रूप में चुना हुआ मान रहे हैं। मतदान का फ़ीसद भी पिछले चुनावों के मुक़ाबले कमोवेश सभी चरणों में थोड़ा कम रहा है और राजनीति को समझने वालों के एक ख़ेमे का कहना है कि इसका कारण यह है कि पिछले चुनाव में जो लोग भाजपा के पक्ष में मत देने के लिए बड़ी संख्या में निकले थे, वे इस बार उससे निराशा के कारण तटस्थ रहे। हालाँकि इस बार कुछ मतदान बूथों पर रिकॉर्ड 90 फ़ीसदी तक मतदान हुआ है।

इस बार एक और दिलचस्प बात दिखी है। चुनाव प्रचार में नेताओं ने मुद्दों की गाड़ी पटरी से उतारने की कोशिश की; लेकिन जनता ख़ुद उसे पटरी पर ले आयी। भाजपा का प्रचार इन चरणों में बिल्कुल भी जनता के मुद्दों को छू नहीं पाया। यही कारण था सपा, कांग्रेस और बसपा जैसी पार्टियों को योगी सरकार पर आक्रमण करने का खुला रास्ता मिल गया।

ख़ुद जनता ने जान नेताओं को प्रचार के दौरान घेरा, तो उनके सवाल रोज़गार, खेती, गन्ना, महँगाई और कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान बड़े पैमाने पर इंसानी ज़िन्दगियाँ जाने के इर्द-गिर्द थे। उत्तर प्रदेश की नदी में ही कोरोना में जान गँवाने वालों के शव तैरते मिले थे।

मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने अपनी सरकार का पाँच साल का जो लेखा-जोखा रखा, उससे जनता बहुत ज़्यादा प्रभावित नहीं दिखी है। भाजपा के लिए चिन्ता का बड़ा सबब यह रहा है कि अभी तक के पाँच चरणों में उसका हिन्दू-मुस्लिम का एजेंडा जनता के एक छोटे-से तबक़े को छोडक़र बाक़ी जनता के दिमाग़ में नहीं घुस पाया। भाजपा को इससे बड़ा नुक़सान झेलना पड़ा है, क्योंकि वह चाहकर भी जनता के मुद्दों पर प्रभावशाली तरीक़े से लौट नहीं पायी है। भाजपा ने राम मन्दिर को चुनाव में ज़्यादा नहीं भुनाया। सम्भवत: भाजपा का शीर्ष नेतृत्व राम मन्दिर, मथुरा और काशी को 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बचाकर रखना चाहती है। उस चुनाव तक राम मन्दिर का निर्माण लगभग पूरा हो चुका होगा और मथुरा का राग भाजपा छेड़ चुकी होगी।

राम मन्दिर की बात करें, तो भाजपा के लिए यह मुद्दा कई चुनावों में सोने की खान साबित हुआ है। लेकिन इस बार भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व ने शायद इसे राज्य में बहुत ज़्यादा नहीं भुनाने दिया। यहाँ तक कि अपने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अयोध्या (या मथुरा) से चुनाव लडऩे की हार्दिक इच्छा को भी केंद्रीय नेतृत्व ने नहीं माना। ज़ाहिर है भाजपा को लगता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव में उसे इन धार्मिक मुद्दों की ज़रूरत पड़ सकती है। भाजपा के बड़े नेता भी नाम ज़ाहिर न करने की सूरत में स्वीकार करते हैं कि उनके सबसे बड़े ब्रांड नरेंद्र मोदी का जनता पर प्रभाव अब 2019 जैसा नहीं रहा है, भले मैदान में मोदी के सामने टिकने वाला कोई प्रभावशाली चेहरा फ़िलहाल सामने न हो। राहुल गाँधी हैं; लेकिन उन्हें विपक्ष की सर्व-मान्यता हासिल करनी होगी।

नहीं चला हिन्दू-मुस्लिम कार्ड

भाजपा हाल के साल में हिन्दू-मुस्लिम को हर चुनाव के केंद्र में रखती रही है। लेकिन धीरे-धीरे जनता इसके प्रभाव से विमुख हुई है। कारण साफ़ है कि उसे लगता है कि यह मुद्दे उसका पेट नहीं भर सकते, न ही उसके बच्चों को रोज़गार दे सकते हैं। यही कारण रहा है कि इस चुनाव में भाजपा नेताओं को जनता ने जब प्रचार के दौरान घेरा या उनका विरोध किया, तो उनके सवाल इन्हीं मुद्दों पर थे और नेताओं के पास इनका कोई ठोस जवाब नहीं था। अगर देखें, तो भाजपा के लिए चुनाव मतदान गंगा और यमुना के उपजाऊ इलाक़ों से होते हुए गोमती तट (चौथे चरण) तक पहुँचने के वक़्त तक कोई ख़ास उम्मीद वाला नहीं दिखा। अवध और सरयू पार पूर्वांचल में जनता क्या करेगी? यह तो नतीजों में ही पता चलेगा। लेकिन फ़िलहाल भाजपा अवध में बढ़त की उम्मीद कर रही है। हालाँकि पूरब उसके लिए फिर कठिन हो सकता है। लेकिन इन चरणों में मुक़ाबला सीधे-सीधे भाजपा के ब्रांड नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के भाजपा क्षत्रप योगी आदित्यनाथ बनाम सपा के ब्रांड अखिलेश यादव के बीच दिखा है। कांग्रेस के लिए इतने वर्षों बाद प्रियंका गाँधी पहली बार जनता के बीच निश्चित ही उपस्थिति दिखाने में सफल रहीं। शायद लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस को इसका लाभ मिले। हाँ, विधानसभा चुनाव में अपनी सीटें ज़्यादा करने से कांग्रेस कोई बड़ा करिश्मा शायद न कर पाए। बसपा भी शुरुआती ठंड से बाहर निकलकर कई सीटों पर जीत सकती है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी चुनाव जनसभाओं में बार-बार डबल इंजन सरकार की बात की। अर्थात् लखनऊ और दिल्ली में एक ही पार्टी की सरकार। सवाल यह है कि क्या पिछले पाँच साल तक दोनों जगह डबल इंजन की सरकार नहीं थी? लेकिन इसके बावजूद योगी सरकार को लेकर जनता के बीच विरोधी लहर (एंटी इनकम्बेंसी) हुई है, तो डबल इंजन सरकार के फ़ायदे के दावों पर सवाल तो उठते ही हैं। देखना दिलचस्प होगा कि डबल इंजन सरकार के नाम पर क्या जनता भाजपा पर भरोसा कर रही है? कारण यह है कि इस बार के विधानसभा चुनाव में भाजपा के सामने भी डबल इंकम्बेंसी है- केंद्र सरकार और प्रदेश सरकार दोनों की।

किसानों की नाराज़गी

हालाँकि कुछ विश्लेषक मानते हैं कि सीधे खातों में पैसा डालने की मोदी सरकार की नीति भाजपा को फ़ायदा दे सकती दे सकती है। एक बड़ा वर्ग इससे लाभान्वित हुआ है। लेकिन इन सबके बावजूद शुरुआती चरण में किसान आन्दोलन का चुनाव में जबरदस्त प्रभाव दिखा है। इसके बाद के चरण में किसान-मुसलमान भी भाजपा के ख़िलाफ़ रहे। सपा की सम्भावनाओं और उम्मीदों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव भी मैदान में आने से ख़ुद को रोक नहीं पाये। पिछले साल के मध्य तक भाजपा उत्तर प्रदेश में ख़ुद को बहुत मज़बूत मानकर चल रही थी। हालाँकि कोरोना वायरस के दूसरे घातक हमले में बड़े पैमाने पर लोगों की मौतों और उसके बाद किसान आन्दोलन के आख़िरी छ: महीनों ने राजनीतिक स्थिति को बदल दिया। लखीमपुर खीरी में जो हुआ उसने ग़ैर-सिख और ग़ैर-किसान मतदाता के मन में भी ग़ुस्सा भर दिया। यह आरोप लगाया जाता है कि भाजपा के स्थानीय नेताओं ने यहाँ हिन्दू-सिख के बीच दरार डालने की कोशिश की थी; लेकिन वह सफल नहीं हुई। चौथे चरण में जब यहाँ मतदान हुआ, तो यह 65.54 फ़ीसदी था, जिससे ज़ाहिर होता है कि लखीमपुर खीरी किसान हत्याकांड को लेकर लोगों में जबरदस्त ग़ुस्सा रहा। ऊपर से इसके गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ ज़मानत मिलने से लोग नाराज़ हैं।

उत्तर प्रदेश का राजनीतिक माहौल बदलने में सबसे बड़ी भूमिका किसान आन्दोलन की दिखती है। पश्चिम उत्तर प्रदेश में भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत और पूरब में योगी सरकार में मंत्री रहे सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी के अध्यक्ष ओम प्रकाश राजभर को बदलाव का श्रेय जाता है। ऊपर के एक के बाद एक 14 दलित भाजपा विधायकों के इस्तीफ़ों से माहौल बदला है। यह साफ़ हो गया है कि भाजपा का रास्ता उतना साफ़ नहीं रहा है, जितना जितना आज से कुछ महीने पहले दिख रहा था।

इस चुनाव से पहले भाजपा से ज़्यादा बेहतर रणनीति सपा की दिखी। इसका असर भी पहले पाँच चरणों में दिखा है। उसने पिछड़े और दलित वर्गों को साधने में चतुराई दिखायी। ये वर्ग भाजपा से नाराज़ हैं। क्योंकि उसने जातिगत जनगणना से मना कर दिया था। सरकारी कम्पनियों का निजीकरण भी आरक्षित वर्गों के लिए चुनाव का मुद्दा है। हाल के हफ़्तों में यह साफ़ दिखा है कि सामाजिक न्याय वाली राजनीतिक ताक़तें लम्बे अरसे बाद सपा के साथ लामबंद हुई हैं। भाजपा को इसका नुक़सान हो सकता है, भले भाजपा नेता इससे मना करते हैं।

रोज़गार बड़ा मुद्दा

इस चुनाव में रोज़गार बड़ा मुद्दा रहा है। तालाबंदी (लॉकडाउन) में सैकड़ों किलोमीटर पैदल चलकर जो लोग अपना रोज़गार छोडक़र वापस गाँवों को गये, उनमें उत्तर प्रदेश के बहुत युवा और अन्य लोग थे। तालाबंदी के बाद असंगठित क्षेत्र की जैसी हालत हुई है, उसने बेरोज़गारों की कतार लम्बी कर दी है। इसके लिए सरकारी नौकरियों बनाया जा सकता था; लेकिन ऐसा हुआ नहीं। भले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का दावा है कि उन्होंने इन पाँच साल में साढ़े चार लाख लोगों को नौकरियाँ दीं। लेकिन ज़मीन पर बेरोज़गारी को लेकर सरकार के ख़िलाफ़ नाराज़गी दिखती है। इसका कारण राज्य में बड़े पैमाने पर ख़ाली पड़े पदों पर भर्ती न होना और लाखों युवाओं की नौकरी जाना है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव के बीच में ही राजस्थान में कांग्रेस की गहलोत सरकार ने पुरानी पेंशन देने का ऐलान करके उत्तर प्रदेश में भी माहौल गर्म कर दिया है। देश भर में कर्मचारी यूनियन पुरानी पेंशन लागू करने की माँग कर रही हैं। उत्तर प्रदेश के चुनाव से इसका कनेक्शन यह है कि सपा नेता अखिलेश यादव अपनी सरकार आने पर पुरानी पेंशन का वादा कर चुके हैं। इसका असर यह हुआ है कि कर्मचारी संगठन सपा गठबन्धन के साथ खड़े दिख रहे हैं।

भाजपा के समर्थक सुस्त

पाँच दौर के मतदान से यह ज़ाहिर होता है कि ग्रामीण इलाक़ों और सपा गठबन्धन के प्रभाव वाले इलाक़ों में मतदान ज़्यादा हुआ है, जबकि शहरों और भाजपा समर्थक इलाक़ों में मतदान कम रहा। इन चरणों में प्रचार के दौरान भी भाजपा नेताओं को दिक़्क़तें झेलनी पड़ीं। कानपुर जैसे बड़े शहर में भाजपा नेताओं की सभाओं और रोड शो में भीड़ का टोटा दिखा। एक मौक़े पर तो रोड शो में कम भीड़ को देखकर केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह की नाराज़गी वाली वीडियो बहुत वायरल हो गयी। वहीं एक जगह योगी आदित्यनाथ ने एक ट्वीट किया, जिसमें उन्होंने किसी अन्य दल की भीड़ को फोटो शॉप पर एडिट कराकर पोस्ट कर दिया, जिस पर वह ट्रोल हो गये।

उत्तर प्रदेश में सन् 1989 के बाद सरकार का कभी भी दोहराव नहीं हुआ है। भाजपा के लिए यह भी बड़ी चिन्ता का सबब है। भाजपा नेता तक यह मान रहे हैं कि कम मतदान उन्हें नुक़सान का अहसास है। हिन्दू-मुस्लिम एजेंडा न चल पाने के बाद भाजपा के नेता, यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी अपने भाषणों में मतदाताओं को अखिलेश यादव के सत्ता में आने की स्थिति में गुण्डा-बदमाश और मुसलमानों के ताक़तवर होने का डर दिखाते नज़र आये।

बसपा और कांग्रेस का हाल

बसपा को इस चुनाव में दो कारणों से समर्थन की कमी रह सकती है। एक यह कि बसपा ज़रूरत पडऩे पर भाजपा को समर्थन दे सकती हैं। जनता, यदि भाजपा को हटाना चाहती है, तो उसे बसपा का यह रूख़ सही नहीं लगेगा और वह उसे वोट नहीं देगी। दलित वर्ग के बुद्धिजीवी नया नेतृत्व चाहते हैं। हाँ, इस चुनाव बसपा का सबसे पुराने मतदाता जाटव अभी भी उसके साथ दिखते हैं। ग़ैर-जाटव सपा या कांग्रेस का समर्थन कर सकते हैं। इस चुनाव में बसपा की रणनीति ख़राब रही। उसने बड़ी संख्या में मुस्लिम प्रत्याशी तो खड़े किये; लेकिन उनका रुझान सपा की तरफ़ दिखा है। इसका कारण यह है कि उन्हें लगता है कि यदि भाजपा को हराना है, तो सपा को ताक़त देनी होगी। बसपा के महामंत्री सतीश मिश्रा राम मन्दिर में पूजा करके चुनाव अभियान में कूदे और बसपा प्रमुख मायावती को ज़्यादा ब्राह्मण उम्मीदवार मैदान में उतारने के लिए तैयार किया; लेकिन इस वर्ग के वोट अभी भी भाजपा या कांग्रेस को जाते दिख रहे हैं।

जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो प्रियंका गाँधी की मेहनत का असर ज़मीन पर दिखा है। लड़कियों और महिलाओं को साथ प्रियंका की कोशिश थी तो अच्छी; लेकिन कितने वोट दिला पाएगी? यह कहना मुश्किल है। हाँ, 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए प्रियंका कांग्रेस कार्यकर्ताओं को सक्रिय करने में सफल रही हैं। मुस्लिम उसके साथ आ सकते थे; लेकिन सपा को भाजपा से मुक़ाबले के लिए उन्होंने सम्भवत: तरजीह दी। लेकिन अगले लोकसभा चुनाव में मुस्लिमों का बड़ा वर्ग कांग्रेस दे, तो हैरानी नहीं होगी।

 

कितना मतदान?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव 2022 के लिए पहले चरण की 58 सीटों पर 60.71 फ़ीसदी मतदान हुआ था। सन् 2017 में 64.56 फ़ीसदी मतदान हुआ था। पिछले चुनाव में भाजपा को 43 सीटों का फ़ायदा हुआ था, जबकि बसपा को 18 सीटें और सपा को 12 सीटों का नु$कसान उठाना पड़ा था। कांग्रेस खाता भी नहीं खोल सकी थी। इस बार सपा-रालोद के साथ आने से गठबन्धन मज़बूत दिख रहा है। दूसरे चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रुहेलखण्ड के नौ ज़िलों की 55 सीटों पर 62.69 फ़ीसदी मतदान हुआ था। सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, सम्भल, रामपुर, अमरोहा, बदायूँ, बरेली और शाहजहाँपुर में मुस्लिम, जाट और किसान बाहुल्य इलाक़े हैं और सपा और रालोद गठबन्धन, भाजपा, कांग्रेस और बसपा यहाँ मुक़ाबले में हैं। तीसरे चरण में 61 फ़ीसदी मतदान हुआ। इससे पहले सन् 2017 में इन 59 सीटों पर 62.21 फ़ीसदी मतदान हुआ था। दूसरे चरण में पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रुहेलखण्ड के नौ ज़िलों की 55 सीटों पर 62.69 फ़ीसदी वोट पड़े थे। सहारनपुर, बिजनौर, मुरादाबाद, सम्भल, रामपुर, अमरोहा, बदायूँ, बरेली और शाहजहाँपुर में मुस्लिम, जाट और किसान बहुल इलाक़े हैं। चौथे चरण में उत्तर प्रदेश के चौथे चरण में 59.23 फ़ीसदी मतदान हुआ। नौ ज़िलों की 59 सीटों में मतदान शान्तिपूर्ण रहा। हालाँकि कुछ जगह ईवीएम में गड़बड़ी की शिकायतें मिलीं। यह पहले के चरणों में भी हुआ था। लखीमपुर खीरी में ईवीएम में फेविक्विक डालने की घटना सामने आयी, जिस पर चुनाव आयोग ने मुक़दमा दर्ज कर लिया।

 

“इन पाँच वर्षों में हमने जो काम किये जनता उससे ख़ुश है। कोई दंगा इन पाँच वर्षों में नहीं हुआ। हमने चार लाख से ज़्यादा युवाओं को नौकरियाँ दीं। एक बार फिर जनता के समर्थन से हम प्रदेश की सेवा करेंगे।”

योगी आदित्यनाथ

मुख्यमंत्री, उत्तर प्रदेश

 

“पहले पाँच चरणों में जनता ने सपा का खुलकर समर्थन किया है। हमारी सभाओं में जनता की भीड़ बता रही है कि हम निश्चित ही अगली सरकार बनाने जा रहे हैं। भाजपा के प्रति जनता में जबरदस्त नाराज़गी है।”

                                  अखिलेश यादव

सपा नेता

 

“कांग्रेस अकेले पार्टी है, जो उत्तर प्रदेश में जनता के मुद्दों पर चुनाव लड़ रही है। हमारी विरोधी तीन पार्टियों को जनता ने पिछले वर्षों में आजमाया है। इस बार जनता हमें मौक़ा देगी। युवाओं और महिलाओं के आलावा सभी वर्गों के ज़्यादा लोग हमारे साथ हैं।”

                               प्रियंका गाँधी

कांग्रेस नेता

 

“पहले तो हमारे सक्रिय न होने की अफ़वाहें फैलायी गयीं। फिर कहा गया कि हम भाजपा से समर्थन लेंगे या उन्हें देंगे। यह बिल्कुल झूठ है। जब हमारी सरकार थी, तो गुण्डे बिलों में घुसने को मजबूर थे। लेकिन सपा और भाजपा सरकारों में गुण्डागर्दी बहुत ज़्यादा बढ़ गयी है।”

                                 मायावती

बसपा प्रमुख

क्या उत्तर प्रदेश पर चढ़ रहा साम्प्रदायिक रंग?

कर्नाटक से उठा हिजाब का विवाद उत्तर प्रदेश में ऐसे समय में फैला, जब वहाँ विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। उत्तर प्रदेश के बारे में कहा जाता है कि इसके कई शहर साम्प्रदायिकता की आग पर बैठे हुए हैं। मगर इस बार हिजाब का मुद्दा गरमाने के बावजूद साम्प्रदायिकता के मामले में संवेदनशील उत्तर प्रदेश में यह मुद्दा इसलिए थोड़ा-बहुत शान्त है, क्योंकि मुस्लिम किसी भी हाल में इस बाज़ी को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के हाथ में नहीं जाने देना चाहते और वहीं दूसरी ओर हिन्दू भी साम्प्रदायिक मामलों से बचकर रहने में ही भलाई समझ रहे हैं, विशेषकर वे हिन्दू, जो भाजपा को साम्प्रदायिक रंग देने में माहिर मानते हैं।

विदित हो कि कुछ दिनों पहले प्रदेश के कुछ लोगों पर भारत को तालिबान बनाने का आरोप लगाने का इशारा करते हुए उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हिजाब वाले मामले पर कहा था कि कोई बच्ची अपनी मर्ज़ी से हिजाब नहीं पहनती। हम भगवा किसी अन्य पर थोप नहीं रहे हैं, तो कोई किसी पर हिजाब कैसे थोप सकता है? भगवा पहनने के सवाल पर उन्होंने कहा कि भगवा कपड़े वह अपनी मर्ज़ी से पहनते हैं, किसी का उन पर दबाव नहीं है।

हिजाब को लेकर योगी आदित्यनाथ का जवाब सही हो सकता है; लेकिन गजवा-ए-हिन्द की बात उन्होंने चुनाव के समय पर क्यों कही, इसका उत्तर जीत की मंशा में ही छिपा है। लेकिन हिजाब के मुद्दे पर पूरे प्रदेश में इन दिनों बात हो रही है। कहीं-कहीं हिजाब के समर्थन और विरोध में रैलियाँ भी निकल रही हैं। इसी दौरान एक अच्छा फ़ैसला अलीगढ़ के एक कॉलेज ने लिया है। जानकारी के अनुसार, अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज ने बाक़ायदा कैंपस में हिजाब और भगवा को पूरी तरह से बैन करते हुए नोटिस लगा दिये हैं। इस नोटिस में लिखा गया है कि सभी विद्यार्थियों को सूचना दी जाती है कि उन्हें निर्धारित यूनिफॉर्म में कॉलेज आना चाहिए। यदि वे निर्धारित यूनिफॉर्म में नहीं आते हैं, तो कॉलेज प्रशासन उन्हें कॉलेज में प्रवेश से रोकने के लिए बाध्य होगा। इसलिए इस आदेश का सख़्ती से पालन किया जाना चाहिए। एक तरह से अलीगढ़ के धर्म समाज कॉलेज प्रशासन का यह फ़ैसला काफ़ी सराहनीय है और प्रदेश भर के स्कूलों व कॉलेजों को इस तरह के कड़े नियम अपने यहाँ भी लागू करने चाहिए। हालाँकि बहुत-से स्कूल और कॉलेज अभी बन्द हैं, मगर मुस्लिम लड़कियाँ हिजाब पहनने देने की माँग उठाकर इसे अपना हक़ बता रही हैं। वहीं कुछ हिन्दू संगठन इसे ग़लत बताकर इस पर प्रतिबन्ध की माँग कर रहे हैं। अलीगढ़ जैसे संवेदनशील शहर में यह मुद्दा आज भी छाया हुआ है और कभी भी हालात बिगाड़ सकता है। क्योंकि हिजाब का मामला केवल अलीगढ़ या ग़ाज़ियाबाद में ही गरमाया हुआ नहीं है, बल्कि इसकी आँच पूर्वी उत्तर प्रदेश में भी फैली हुई है और कई जगह हिन्दू संगठन से जुड़े लोग और दूसरे हिन्दू विद्यार्थी विरोध प्रदर्शन पर उतरे हुए हैं। कुछ दिन पहले वाराणसी के शिवपुर में एक निजी स्कूल के सामने भी कुछ युवाओं ने हिजाब को लेकर विरोध किया। हालाँकि वहाँ कुछ ही समय में पुलिस पहुँच गयी और प्रदर्शनकारियों को वहाँ से खदेड़ दिया। इस स्कूल के प्रशासन ने बताया कि स्कूल में ड्रेस कोड लागू है और कोई भी लडक़ी हिजाब में नहीं आती है, फिर भी कुछ लोग साम्प्रदायिक तूल देने के लिए जबरन विरोध कर रहे थे।

हिजाब के मामले ने उत्तर प्रदेश में इस क़दर तूल पकड़ा हुआ है कि तीसरे चरण के चुनाव के दौरान कई मतदान केंद्रों (पोलिंग बूथों)पर हिजाब को लेकर विवाद हुआ। कानपुर में तो एक मतदान केंद्र पर मुस्लिम महिलाओं ने यह कहते हुए हंगामा कर दिया कि उनसे हिजाब उतारने को कहा जा रहा है। स्थानीय जानकारी कहती है कि बूथ अधिकारियों ने इन महिलाओं की पहचान ज़ाहिर करके ही वोट डालने को कहा, जो कि हिजाब में सम्भव नहीं थी।

इधर कासगंज में अल्ताफ़ की मौत से साम्प्रदायिक दंगों का डर था, मगर वहाँ चुनाव सही सलामत हो गये। इसके अलावा कई अन्य जगहों पर भी हिन्दू-मुस्लिम का राग अलापा जा रहा है, जिसमें साम्प्रदायिक रंग देने की सबसे बड़ी कोशिश भाजपा की ओर से की जा रही है। इसका एक उदाहरण यह है कि कुछ महीने पहले मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने कहा था कि 2017 से राशन सिर्फ़ उन लोगों को ही मिलता था, जो अब्बा जान, अब्बा जान करते थे। लेकिन उनकी भाजपा सरकार ने हर घर में राशन पहुँचाया है। हालाँकि यह बात कुछ पुरानी है, मगर साम्प्रदायिक रंग देने की ताज़ा हवा पिछले महीने तब चलाने की एक कोशिश हुई, जब ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के मुखिया असदुद्दीन ओवैसी की गाड़ी पर फायरिंग हुई और उन्हें जेड प्लस सुरक्षा केंद्र सरकार ने मुहैया करायी। वैसे तो साम्प्रदायिक रंग देने में उत्तर प्रदेश की कोई भी पार्टी पीछे नहीं है, मगर भाजपा को हिन्दू कार्ड खेलकर जो फ़ायदा मिल सकता है, वो किसी अन्य पार्टी को शायद ही मिले। क्योंकि भाजपा जानती है कि उसे ऐसा करने पर हिन्दुओं के वोट सबसे ज़्यादा मिलेंगे, जो कि संख्या में 75 से 80 फ़ीसदी तक हैं। विधानसभा चुनावों की हवा चलने के दौरान तो योगी आदित्यनाथ ने कहा भी था कि मुक़ाबला 80-20 का है। जब लोगों ने इस पर आपत्ति जतायी और सवाल उठाया कि क्या वे हिन्दू-मुस्लिम की बात कर रहे हैं, तो उन्होंने कहा था कि नहीं, वह उन 80 फ़ीसदी लोगों की बात कर रहे हैं, जो प्रदेश में शान्ति चाहते हैं और उन 20 फ़ीसदी की बात कर रहे हैं, जो प्रदेश में अशान्ति और गुंडाराज चाहते हैं। अगर अखिलेश की बात करें, तो उनके शासन के मुज़फ़्फ़रनगर के 2013 के हिन्दू मुस्लिम दंगों को कौन भूल सकता है? मायावती के शासनकाल में भी कई ऐसे साम्प्रदायिक दंगे हुए। मगर भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और समाजवादी पार्टी (सपा) के शासनकाल के मुक़ाबले मायावती के शासनकाल को काफ़ी हद तक क़ानून हालात के मामले में अच्छा माना जा सकता है।

इधर आगरा में अराजक तत्त्वों ने एक मन्दिर में रखी गणेश जी की प्रतिमा को तोडक़र झाडिय़ों में फेंक दिया, जिससे मामला काफ़ी गरमा गया। लेकिन स्थानीय पुलिस ने इसे सँभाल लिया और साम्प्रदायिक तूल नहीं देने दिया। हालाँकि मन्दिर में प्रतिमा क्षतिग्रस्त किये जाने की जानकारी मिलते ही वहाँ पर काफ़ी भीड़ जमा हो गयी और हिन्दू संगठनों के लोगों ने आरोपी की गिरफ़्तारी की माँग को लेकर हंगामा किया। पुलिस के आश्वासन के बाद ही लोग शान्त हुए। यह घटना आगरा के थाना लोहामंडी अंतर्गत सेंट जॉन्स लोहा मंडी रोड पर पुल के बराबर में एक प्राचीन मन्दिर की है।

इन छिटपुट घटनाओं से लगता है कि उत्तर प्रदेश में कुछ ताक़तें हिन्दू मुस्लिम कर करके साम्प्रदायिकता की आग भडक़ाने की जो कोशिश कर रहे हैं, उस पर पुलिस प्रशासन को ध्यान देने की आवश्यकता है। क्योंकि यह एक ऐसा प्रदेश है, जिसमें साम्प्रदायिक दंगों की संख्या देश के दूसरे प्रदेशों से कहीं ज़्यादा है। इस प्रदेश में साम्प्रदायिक सौहार्द भी बहुत है; लेकिन यहाँ साम्प्रदायिक आग भडक़ाना अराजक तत्त्वों और सियासियों के लिए बायें हाथ का खेल है। क्योंकि इस प्रदेश का ऐसा कोई शहर या गाँव शायद ही होगा, जहाँ हिन्दू मुस्लिम एक साथ न रहते हों। यही वजह है कि सियासियों को यहाँ आग भडक़ाने में वक़्त नहीं लगता। इन दिनों प्रदेश में चुनाव उस मोड़ पर पहुँच गये हैं, जिस मोड़ पर हर पार्टी अपनी जीत के लिए प्रचार-प्रसार में दिन-रात एक कर देती है। ऐसे समय में छोटी-छोटी साम्प्रदायिक घटनाएँ भी कई बार बड़ा विकराल रूप धारण कर लेती हैं और लोग लडऩे-मरने के लिए बिना किसी सोच विचार के उठ खड़े होते हैं। ऊपर से इस बार के चुनावों में आमजन के मुद्दों और उसकी समस्याओं से हटकर जिन्ना, अब्बा जान, गजवा-ए-हिन्द, 80-20 की बातें हो रही हैं।

चुनावी गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने वाले राम प्रसाद कहते हैं कि हमारा देश साम्प्रदायिक सौहार्द की मिसाल है। यहाँ हर धर्म के लोग रहते हैं। हिन्दू और मुसलमानों का यहाँ बहुत गहरा नाता है। हमने दोनों की धर्मों के लोगों को एक साथ दोनों ही धर्मों के त्योहार मनाते देखा है। मगर अब सियासियों की कुर्सी की भूख ने इस एकता की जड़ में मट्ठा डाल दिया है। राम प्रसाद कहते हैं कि जब सियासी लोगों के पास जनता के हित के मुद्दे नहीं होते हैं, तो वे साम्प्रदायिकता को तूल देने का प्रयास करते हैं। यह बात हर आदमी को अच्छी तरह समझनी चाहिए। उनका कहना है कि साम्प्रदायिकता उन लोगों का खेल है, जो बड़ी-बड़ी कोठियों में लम्बे-चौड़े सुरक्षा घेरे में रहते हैं और लोगों के हित में काम करने के बजाय उन्हें ऐसे मुद्दों में उलझाकर रखते हैं, जिनकी आग अगर लग जाए, तो लम्बे समय तक सियासी लोग उसे अपने फ़ायदे के लिए भुना सकें।

पंजाब में कांग्रेस की टक्कर आप से

पंजाब विधानसभा चुनाव पर सभी की नज़र है। सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी सरकार बचाने की कोशिश की है, जबकि आम आदमी पार्टी (आप) ने ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतने की। वहीं अकाली दल ने भी अपनी खोयी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश की है। पहली बार पाँच दल मैदान में हैं, जिनमें भाजपा और अमरिंदर सिंह के अलावा किसानों की पार्टी भी है। चुनाव में मतदान तक क्या-क्या हुआ? मतदान के बाद वहाँ किस तरह की चर्चा हैं? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

कवि कुमार विश्वास ने जब अपने पुराने साथी अरविन्द केजरीवाल पर ख़ालिस्तान समर्थक होने जैसा आरोप लगाया, तब पंजाब विधानसभा चुनाव में मतदान के चंद ही दिन शेष थे और आम आदमी पार्टी ख़ुद को अगली सरकार के रूप में देखने की कल्पना कर रही थी। लेकिन इसके बाद अचानक उसे रक्षात्मक होना पड़ा। केजरीवाल की तरफ़ से इसका खण्डन आया; लेकिन उनका राजनीतिक नुक़सान हो चुका था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पंजाब में कमोवेश उसी समय दो चुनाव सभाएँ करने गये और अपने तरीक़े से विपक्ष पर हमला किया। यही दिन थे, जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक आक्रामक बयान आया, जिसमें भाजपा की केंद्र सरकार की नीतियों पर सीधा हमला था और पंजाब के लोगों को सन्देश भी। चुनाव के आख़िरी हिस्से में ही एक और बात हुई। डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को अचानक पैरोल मिल गयी। मतदान के आख़िरी 10 दिन में हुए इन घटनाक्रमों ने पंजाब के लोगों का मन कितना बदला? यह तो नतीजे ही बताएँगे। लेकिन यह साफ़ है कि पंजाब में मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) में ही रहा है और कांग्रेस हल्की बढ़त लिये दिखती है।

भाजपा ने ख़ुद को इस चुनाव में भविष्य के लिए तैयार करने की कोशिश की है। यदि अकाली दल इस चुनाव में पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन करता है और सीटें 25 से पार ले जाता है, तो 117 सीटों वाली विधानसभा मामला फँस सकता है। लेकिन दलित चेहरे के साथ कांग्रेस और ग्रामीण इलाक़ों में थोड़ी मज़बूत दिख रही आम आदमी पार्टी साफ़तौर पर मुख्य मुक़ाबले में हैं। पाँच प्रमुख दलों में से सिर्फ़ कांग्रेस के पास दलित चेहरा है।

देश भर में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार चरणजीत सिंह चन्नी अकेले दलित मुख्यमंत्री हैं। क्या इसे एक उपलब्धि के रूप में मानकर दलित एकतरफ़ा कांग्रेस के पाले में गये हैं? ऐसा हुआ है, तो आम आदमी पार्टी ही नहीं, बल्कि अन्य दलों को भी कांग्रेस के मुक़ाबले ख़ुद को खड़ा करके रखने की मेहनत बेकार जा सकती है। लेकिन अगर दलित मतदाता बड़े स्तर पर बँटे होंगे (जिसकी सम्भावना कम है), तो कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से टक्कर मिलेगी।

कवि कुमार विश्वास ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को लेकर चुनाव प्रचार की ऊँचाई पर जब यह सनसनीख़ेज दावा किया कि केजरीवाल ने एक दिन ख़ालिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की बात उनसे कही थी, तो यह तुरन्त बड़ी बहस का मुद्दा बन गया। पंजाब के पिंडों (गाँवों) में भले यह बहुत तेज़ी से नहीं पहुँच पाया; लेकिन शहरों में इसकी जबरदस्त चर्चा हुई। पंजाब में आम आदमी पार्टी को पसन्द करने वालों में काफ़ी संख्या उन लोगों की है, जो थोड़ा गर्म मिजाज़ के माने जाते हैं। यह लोग अकाली दल को मतदाता देते रहे हैं; लेकिन कांग्रेस को कतई पसन्द नहीं करते। कांग्रेस की जगह उनकी पसन्द पिछले चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी बनी थी। मुख्यत: यह ग्रामीण इलाक़े के लोग हैं, जिनमें किसान भी हैं। हालाँकि जो लोग आम आदमी पार्टी से उसकी दिल्ली सरकार के किये काम के दावों को लेकर जुड़े, वे कवि विश्वास के गम्भीर क़िस्म के दावे से बिदके हैं। ये वोट कांग्रेस को मिल सकते हैं। यदि अकाली दल को भी गये होंगे, तो भी कांग्रेस को लाभ होगा।

 

मतदान के संकेत

वैसे पंजाब में मतदान के बाद हर सियासी दल अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहा है। यहाँ तक की भाजपा भी, जिसने आज तक अकाली दल वैसाखी के अलावा कभी ख़ुद अपने बूते चुनाव नहीं लड़ा। किसान आन्दोलन में सबसे ज़्यादा नाराज़गी भाजपा के ही ख़िलाफ़ रही। हालाँकि भाजपा ने एक असफल कोशिश इस चुनाव में हिन्दू ध्रुवीकरण की भी की थी; लेकिन सफल नहीं हुई। आमतौर पर माना जाता है कि ज़्यादा मतदान सत्ता-विरोधी होता है। देश के चुनावी इतिहास में यह कई बार साबित भी हुआ है। इस बार पंजाब में पिछले चुनाव की तुलना में आठ फ़ीसदी कम मतदान हुआ है। इसका पहला संकेत यह हो सकता है कि चार महीने पुरानी चन्नी सरकार के ख़िलाफ़ विरोधी लहर (एंटी इंकम्बेंसी) नहीं बन पायी।

चन्नी से पहले चूँकि अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री थे और उन्होंने मतदान से बहुत पहले अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ गठबन्धन का ऐलान भी कर दिया, लोगों के मन में सरकार की विरोधी लहर कैप्टन के साथ ही चली गयी और ज़्यादातर लोगों के मन में चन्नी की सरकार की चार महीने वाली छवि ही रह गयी। ऊपर से चन्नी ने मुख्यमंत्री बनते ही लोगों के लिए राहत वाली घोषणाओं के दरवाज़े खोलकर आम आदमी पार्टी की सम्भावित घोषणाओं का असर कम कर दिया।

याद करें, तो सन् 2017 में 77.40 फ़ीसदी मतदान हुआ था। इस बार आँकड़ा 67 फ़ीसदी के आसपास रह गया। इसे जानकार यह मानते हैं कि सरकार के विरोध वाला मत कम पड़ा। हाँ, कुछ जानकार इसे त्रिशंकु विधानसभा का आसार भी मानते हैं। उनके मुताबिक, इसका कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने सन् 2017 में जो सीटें जीती थीं, उन पर उन्हें पाँच फ़ीसदी तक का नुक़सान हो सकता है। नुक़सान का आकलन करें, तो कांग्रेस को शायद कम नुक़सान उठाना पड़े। चुनाव के दौरान हिन्दू मतदाता भ्रमित दिखा। भाजपा उसे अपने साथ जुडऩे का लालच दे रही थी। लेकिन उसके दिमाग़ में यह बात हमेशा रही कि भाजपा सरकार नहीं बना सकती, तो वोट बर्बाद क्यों किया जाए? वैसे हिन्दू वोट भी बँटा होगा, क्योंकि इनमें से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों को मिलेगा। चुनाव के आख़िरी हिस्से में डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को अचानक पैरोल मिल गयी। ज़्यादातर लोगों का मानना था कि चुनावी पैरोल थी और इसका मक़सद डेरा समर्थकों से किसी एक ख़ास राजनीतिक दल के हक़ में वोट डलवाना था। डेरा के ज़्यादातर अनुयायी दलित वर्ग से हैं। यह माना जाता है कि भाजपा ने डेरा प्रमुख के ज़रिये ख़ुद को और अकाली दल को वोट डलवाया। लिहाज़ा कोशिश कांग्रेस को दलित वोट का नुक़सान देने की हो सकती है। समुदाय के कई उप जातियों में बँटे हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि डेरा के प्रभाव का असर हुआ और समुदाय के मतदाताओं का किसी हद तक ध्रुवीकरण हुआ। निश्चित ही इसका फ़ायदा भाजपा और शिरोमणि अकाली दल को होगा; लेकिन ज़्यादातर जानकारों का कहना है कि डेरा अनुयायियों का ध्रुवीकरण नहीं हो सका। चरणजीत चन्नी का दलित होना, इसमें एक बड़ा फैक्टर रहा। इस चुनाव में मतदाताओं में सन् 2017 की तुलना में वोट डालने के मामले में कम उत्साह था। आम आदमी पार्टी का बदलाव का नारा कोई ख़ास कारगर नहीं दिखा। यह नारा चल जाता, तो शायद उसका वोट फ़ीसद ज़्यादा रहता। इस चुनाव में भले किसानों का मुद्दा सामने नहीं दिखा; लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका व्यापक असर था। उतना ही, जितना पश्चिम उत्तर प्रदेश में है।

चूँकि इस बार बहुकोणीय मुक़ाबला था, इसलिए इसका नतीजों पर भी असर दिखेगा। ज़्यादा नुक़सान आम आदमी पार्टी को हो सकता है। यह इसलिए, क्योंकि विरोधी लहर से जिस वोट बैंक का कांग्रेस को नुक़सान होना था, वह वोट आम आदमी पार्टी को नहीं मिल पाया। यही वे मतदाता हैं, जो वोट डालने ही नहीं आये। ऐसे में ज़्यादा वोट फ़ीसद विरोध का संकेत देता है, जो इस बार हुआ नहीं।

 

क्या कांग्रेस का दलित कार्ड चलेगा?

कांग्रेस ने बिना नाम लिये चन्नी को देश का इकलौता दलित मुख्यमंत्री बताकर इसका लाभ पंजाब ही नहीं, उत्तर प्रदेश और अन्य चुनावी राज्यों में भी लेने की कोशिश की। आँकड़े देखें, तो राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से 34 सीटें आरक्षित हैं।

पंजाब में क़रीब 32 फ़ीसदी दलित मतदाता हैं, और इस वर्ग के लिए अलग-अलग इलाक़ों में 34 सीटें आरक्षित हैं। वैसे तो सभी राजनीतिक दलों ने दलित कार्ड खेलने की कोशिश की; लेकिन कांग्रेस का दावा इसलिए मज़बूत रहा कि उसके पास चरणजीत चन्नी दलित के रूप में दलित मुख्यमंत्री चेहरा है।

पंजाब में सन् 1967 के बाद कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना था। देखा जाए, तो राज्य में दलित मतदाता 58 से ज़्यादा विधानसभा सीटों पर सीधा प्रभाव डालते हैं। बहुत-से जानकार मानते हैं कि किसानों के अलावा पंजाब में इस बार दलित मतदाताओं का भी निर्णायक रुख़ रहा है। पंजाब में दलितों में सबसे बड़ा वर्ग रविदासिया समाज का है। भगत बिरादरी, वाल्मीकि भाईचारा, मज़हबी सिख भी ख़ासी संख्या में हैं। चन्नी दलितों के रविदासिया समाज से ताल्लुक़ रखते हैं। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री चन्नी को फिर से मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करके दलित-लाभ लेने की कोशिश की है।

अकाली दल-बसपा गठबन्धन ने दलित समुदाय को लुभाने के लिए उप मुख्यमंत्री का पद देने की घोषणा की थी। इस लिहाज़ से देखें, तो दलित मतदाता का ज़्यादा झुकाव सबसे ज़्यादा कांग्रेस और उसके बाद अकाली दल-बसपा गठबन्धन की तरफ़ रहा है। वैसे यदि पिछले चुनावों पर नज़र दौड़ाएँ, तो दलित मतदाता किसी राजनीतिक दल विशेष के साथ नहीं रहा है। सन् 2002 के चुनाव में कांग्रेस से 14 दलित प्रत्याशी चुने गये थे; जबकि अकाली दल से 12 दलित चुनकर आये थे। अगर सन् 2007 की बात करें, तो इस साल सबसे ज़्यादा दलित विधायक अकाली दल से बने और 17 सीटों पर जीत हासिल की। वहीं तीन दलित सीटों पर भाजपा जीती, तो वहीं सात सीटें कांग्रेस के हाथ आयीं।

यही नहीं, 2012 के चुनाव में भी अकाली दल ने दलितों का दिल जीतते हुए 21 सीटों पर जीत का परचम लहराया। कांग्रेस को 10 सीटों पर ही जीत हासिल हुई। इसके बाद सन् 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने दलित मतदाताओं पर अकाली दल की पकड़ को कमज़ोर करते हुए सारे समीकरण बदल दिये और 21 सीटों पर जीत दर्ज की। अकाली दल को महज़ तीन सीटों पर जीत मिली। इस तरह देखा जाए, तो जब जब दलित वोटों का ज़्यादा समर्थन जिस पार्टी को मिला, उसी की सरकार बनी। पिछले दो चुनावों से यह साफ़ ज़ाहिर है कि दलित विधायक जिस पार्टी के ज़्यादा जीते उसी की सरकार बनी, वह भी अच्छे बहुमत से। ऐसे में यदि कांग्रेस एक दलित को मुख्यमंत्री बनाकर दलित वोट की उम्मीद कर रही है, तो इसके ज़मीनी कारण हैं।

 

मैदान में चर्चित चेहरे

पंजाब के विधानसभा चुनाव में इस बार चार ऐसे नेता मैदान में हैं, जो प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। इनमें मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और पूर्व मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्ठल शामिल हैं। जबकि भट्ठल को छोडक़र बाक़ी सभी और सुखबीर सिंह बादल, भगवंत मान तथा किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल मुख्यमंत्री पद के अन्य उम्मीदवार हैं। वैसे नवजोत सिंह सिद्धू का चुनाव मुक़ाबला भी दिलचस्प है, भले वह फ़िलहाल मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हैं।

देखा जाए, तो यह चुनाव पंजाब के 55 साल के इतिहास में सबसे अलग चुनाव है। सन् 2012 तक पंजाब में कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल (भाजपा के साथ) ही मुख्य मुक़ाबले में होते थे। हालाँकि 2017 में जब आम आदमी पार्टी (आप) ने चुनाव लडऩे का फ़ैसला किया, तो राज्य में मुक़ाबला त्रिकोणीय हो गया। आम आदमी पार्टी ने काफ़ी मज़बूती से चुनाव लड़ा और 20 सीटें जीतकर अकाली दल जैसे स्थापित दल को तीसरे पायदान पर धकेल दिया।

 

अब 2021 में तो सारा परिदृश्य ही बदल गया है। कांग्रेस से बाहर होकर पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने अपनी पार्टी बना ली और अब वह फिर (भाजपा के सहयोग से) मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। किसान आन्दोलन से उभरे नेता बलबीर सिंह राजेवाल इस चुनाव में नया चेहरा हैं। संयुक्त समाज मोर्चा गठित करके मैदान में उतरे राजेवाल फ़िलहाल ज़मीनी संगठन के अभाव से जूझ रहे हैं। हालाँकि इससे चुनाव ज़रूर दिलचस्प हो गया है।

अब बात करते हैं, इस चुनाव के चर्चित हलक़ों (क्षेत्रों) की। चमकौर साहिब से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मैदान में हैं। कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। देश के अकेले दलित मुख्यमंत्री होने के कारण देश भर में उनके हलक़े की चर्चा है। उनका मुक़ाबला अकाली दल-बसपा गठबन्धन के हरमोहन सिंह से है। चन्नी को कांग्रेस ने चन्नी भदौड़ से भी चुनाव में उतारा है। पटियाला शहर दूसरी ऐसी सीट है, जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस से अलग होकर और पंजाब लोक कांग्रेस पार्टी के नाम से पार्टी बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा के सहयोग से फिर मैदान में हैं। यह चुनाव उनके लिए इज़्ज़त का चुनाव बन गया है। क़रीब 80 साल के इस नेता का राजनीतिक भविष्य इस चुनाव पर निर्भर है। उनकी सांसद पत्नी अभी भी कांग्रेस में हैं। आम आदमी पार्टी ने यहाँ अजीतपाल कोहली और कांग्रेस ने पूर्व मेयर विष्णु शर्मा को मैदान में उतारा है।

जलालाबाद सीट पर शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल मैदान में हैं। चुनाव के सबसे अमीर प्रत्याशी बादल बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। उनका गठबन्धन जीता, तो सुखबीर मुख्यमंत्री बन सकते हैं। कांग्रेस ने मोहन सिंह फलियांवाल और आम आदमी पार्टी ने जगदीप कंबोज को उनके ख़िलाफ़ मैदान में उतारा है। भाजपा के पूरन चंद भी मैदान में हैं। इस धूरी की सीट भी काफ़ी चर्चा में है, जहाँ आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भगवंत मान मैदान में हैं। मान को टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने दलवीर सिंह गोल्डी को, जबकि अकाली दल ने प्रकाश चंद गर्ग और भाजपा ने रनदीप सिंह देओल को मुक़ाबले में उतारा है।

लम्बे समय से पंजाब के गढ़, जहाँ से शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल कई बार से चुनाव लड़ते रहे हैं और मुख्यमंत्री भी रहे हैं; उनके ख़िलाफ़ इस बार कांग्रेस ने जगपाल सिंह अबुलखुराना और आम आदमी पार्टी ने गुरमीत खुड्डियाँ को, जबकि भाजपा से राकेश ढींगरा को उतारा है। यहाँ मुक़ाबला काफ़ी कड़ा है। अमृतसर (पूर्व) से कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू भले ही मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं; लेकिन वह कड़े मुक़ाबले में फँसे हैं। दिलचस्प यह है कि उनके ख़िलाफ़ एक नहीं कई ताक़तें हैं। शिरोमणि अकाली दल नेता बिक्रम मजीठिया से मुख्य मुक़ाबला है, जिन्हें अमरिंदर सिंह का भी समर्थन है। अमृतसर (पूर्व) सिद्धू की परम्परागत सीट है; लेकिन मजीठिया से उनकी जंग के कारण मुक़ाबला दिलचस्प हो गया है। आम आदमी पार्टी ने वहाँ जीवनजोत कौर को उतारा है।

इनके अलावा मोगा सीट भी बड़ी चर्चा में है, जहाँ बॉलीवुड अभिनेता सोनू सूद की बहन मालविका सूद कांग्रेस टिकट पर मैदान में उतरी हैं। यह उनका पहला चुनाव है; लेकिन पार्टी ने पूरी ताक़त से उनका चुनाव प्रबन्धन सँभाला है। लुधियाना के समराला की सीट पर किसान आन्दोलन का बड़ा चेहरा बलबीर सिंह राजेवाल मैदान में हैं। राजेवाल का यह पहला चुनाव है। उन्हें चुनाव प्रबन्धन का अनुभव नहीं; लेकिन किसानों के समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं।

 

दलित फैक्टर

पंजाब में पठानकोट की भोआ, गुरदासपुर की दीनानगर और हरगोबिंदपुर, अमृतसर की जंडियाला गुरु, अमृतसर वेस्ट, अटारी, बाबा बकाला, कपूरथला की फगवाड़ा, जालंधर की फिल्लौर, करतारपुर, जालंधर वेस्ट, आदमपुर, होशियारपुर की शाम चौरासी और छब्बेवाल, शहीद भगत सिंह नगर की बंगा, फतेहगढ़ साहिब की बस्सी पठान, रूप नगर की चमकौर साहिब, मोगा की निहाल सिंह वाला, लुधियाना की गिल, पायल, जगरांव और रायकोट, फजिल्का की बल्लुआना, श्री मुख़्तसर साहिब की मलौत, भठिंडा की भुचो मंडी और भठिंडा ग्रामीण, मानसा की बुढलाडा, संगरूर की दिरबा, बरनाला की भादौर और मेहल कलान, पटियाला की नाभा और सुतराना तथा फ़िरोज़पुर सीटें दलित सीटों में शामिल हैं। इस तरह पंजाब की कुल 117 विधानसभा सीटों में से 34 दलित प्रत्याशियों के लिए आरक्षित हैं। प्रदेश में सबसे ज़्यादा सिख मतदाता हैं, जबकि संख्या के लिहाज़ से दूसरे स्थान पर दलित हैं। सिख मतदाता 38.49 फ़ीसदी, दलित मतदाता 31.49 फ़ीसदी, जट्ट सिख 19 फ़ीसदी और हिन्दू मतदाता 10.57 फ़ीसदी हैं।

केंद्र सरकार पर बरसे मनमोहन सिंह

देश में चुनाव का मौसम था। लेकिन जनता के मुद्दे ग़ायब रहे। पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अचानक ख़ामोशी तोड़ते हुए फरवरी के दूसरे पखवाड़े में केंद्र सरकार को जनता के मुद्दे याद दिला दिये। बुरे हाल में जा चुकी अर्थ-व्यवस्था से लेकर बेरोज़गारी, महँगाई, चीन, विदेश नीति आदि सबकी एक-एक कर गिनती की। यह भी याद दिलाया कि जवाहरलाल नेहरू का मज़ाक़ उड़ाने से या उन्हें कोसने से वर्तमान मसले हल नहीं होंगे। लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं ने मनमोहन सिंह को ख़ूब खरी-खोटी सुना दी और चुनाव प्रचार में भाजपा के तमाम स्टार प्रचारक, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी शामिल हैं; साइकिल, बम्ब, लाल टोपी वाले, जिन्ना, गर्मी निकालने, चर्बी उतारने तक सिमटे रहे। अब यह तो चुनाव नतीजे ही बताएँगे कि जनता ने असली मुद्दे किन्हें माना?

मनमोहन सिंह ने मोदी सरकार की आर्थिक नीति पर जमकर प्रहार किया। उन्होंने कहा कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार नाकाम है और उसकी नीति फेल है। मनमोहन सिंह, जिन्हें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा तक ने ‘दुनिया का आर्थिक गुरु’ कहा था; ने यहाँ तक कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार को आर्थिक नीतियों की समझ ही नहीं है। हाल में केंद्रीय बजट, आर्थिक सर्वेक्षण, आरबीआई की बैठक और एजेंसियों के आँकड़े जिस तरह से जीडीपी को लेकर अलग-अलग थे, उससे ज़ाहिर होता है कि मनमोहन सिंह की चोट सही जगह थी।

हालाँकि मनमोहन सिंह के हमले से परेशान मोदी सरकार की तरफ़ से सफ़ार्इ भी आयी, जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि उन्हें (मनमोहन सिंह को) भारत को सबसे कमज़ोर बनाने और देश में भीषण महँगाई के लिए याद किया जाता है। सीतारमण ने कहा कि सत्ता में रहते हुए सिंह को लम्बे समय तक पता भी नहीं था कि चीज़ें कैसे चल रही हैं। ख़ुद को सही साबित करने के लिए सीतारमण ने मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आँकड़ों की तुलना की।

कई आर्थिक जानकार कह रहे हैं कि सरकार के अर्थ-व्यवस्था को लेकर आँकड़े भ्रमित करने वाले हैं। पूर्व प्रधानमंत्री ने भी इसी तरह की बातें कही हैं। मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार की इस बात के लिए भी खिंचाई की कि महँगाई, बेरोज़गारी से लेकर आर्थिक और विदेश नीति तक केंद्र सरकार नाकाम रही है, पर इन तमाम समस्‍याओं को सुलझाने की जगह मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू को क़ुसूरवार ठहराने में ज़्यादा दिलचस्‍पी ले रही है।

सिंह ने मोदी सरकार पर हमले में कहा कि बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, विदेश नीति और आर्थिक नीति पर सरकार फेल है। पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि चीन हमारी सरहदों पर बैठा है। सरकार तथ्‍य दबाने में जुटी है। भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को आर्थिक नीतियों की समझ नहीं है। यह मसला सिर्फ़ देश तक सीमित नहीं है। यह सरकार विदेश नीति में भी फेल साबित हुई है। किसान आन्दोलन का मुद्दा भी मनमोहन सिंह ने उठाया और देश में धर्म के आधार पर बँटवारे को लेकर भी सरकार को घेरा। सिंह ने कहा कि किसान आन्दोलन पर सरकार की प्रतिक्रिया ख़राब रही। कांग्रेस ने राजनीतिक लाभ के लिए कभी देश को नहीं बाँटा। न ही सच छिपाने का काम किया। एक तरफ़ लोग बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ सरकार अब भी तमाम समस्याओं के लिए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहरा रही है। मोदी सरकार पिछले साढ़े सात साल से सत्ता में है। वह ग़लतियों को मानने और उन्हें दुरुस्त करने के बजाय पुरानी बातों का राग अलाप रही है।

ज़मीनी हक़ीक़त

हाल में आयी ऑक्सफोर्ड कमेटी फॉर फेमिन रिलीफ (ऑक्सफैम) की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि साल 2021 में देश के 84 फ़ीसदी परिवारों की आय में गिरावट आयी है। लेकिन भारत में अरबपतियों की संख्या 102 से बढक़र 142 हो गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड-19 महामारी के दौरान भारतीय अरबपतियों की सम्पत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढक़र 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गयी। वैसे देखा जाए, तो वैश्विक स्तर पर चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के ठीक बाद भारत अरबपतियों की संख्या के मामले में तीसरे नंबर पर है।

इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि साल 2021 में भारत में अरबपतियों की संख्या में 39 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। साल 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक भारतीयों के अत्यधिक ग़रीब होने का अनुमान है, जो संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार नये वैश्विक ग़रीबों का लगभग आधा हिस्सा है। इसके अलावा 2020 में राष्ट्रीय सम्पत्ति में नीचे की 50 फ़ीसदी आबादी का हिस्सा मात्र छ: फ़ीसदी था। भारत में बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ रही है। देखा जाए तो नोटबंदी के बाद से देश में अर्थ-व्यवस्था का हाल ख़राब ही चल रहा है। नोटबंदी को लेकर मोदी सरकार के शुरुआती दावों के विपरीत अनौपचारिक क्षेत्र को इसने अस्त-व्यस्त करके अर्थ-व्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया। इसके बाद 2020 में कोरोना महामारी ने अर्थ-व्यवस्था का सत्यानाश कर दिया। हालाँकि उससे पहले ही 31 मार्च, 2020 तक देश की जीडीपी दर में दो फ़ीसदी की गिरावट आ चुकी थी। सरकार आज की तारीख़ में नोटबंदी का नाम लेने से भी कतराती है।

अनौपचारिक क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था का क़रीब 90 फ़ीसदी रोज़गार देता है। अब यह क्षेत्र सिकुड़ रहा है। औपचारिक क्षेत्र अनौपचारिक क्षेत्र के कमज़ोर होने के कारण पैदा हुई बेरोज़गारी को खपा नहीं पा रहा। यही कारण है कि अमीर और ग़रीब की खाई बढ़ गयी है। सीएमआईई के आँकड़े बताते हैं कि दिसंबर, 2021 तक बेरोज़गारी आठ फ़ीसदी थी।

महामारी ने आर्थिक स्थिति पर व्यापक असर डाला है। उत्पादन प्रक्रिया में गिरावट से रोज़गार में कमी आयी है और लोगों की आमदनी घटी है। बेशक धीरे-धीरे उद्योगों और कारोबारों में सुधार हो रहा है और रोज़गार की स्थिति पहले से बेहतर होती दिख रही है; लेकिन करोड़ों लोग जो महामारी के पहले चरण में गाँव लौट गये थे, उनमें से बहुत अभी भी रोज़गार हासिल नहीं कर पाये हैं। आमदनी भी कोरोना से पहले के स्तर तक नहीं पहुँच सकी है।

सरकारी आँकड़ों की ही मानें, तो महामारी से पहले देश की औसत प्रति व्यक्ति आय क़रीब 94.6 हज़ार रुपये थी, जो चालू माली साल में घटकर 93.9 हज़ार रुपये हो चुकी है। दिसंबर, 2021 में बेरोज़गारी दर 7.9 फ़ीसदी आँकी गयी थी और क़रीब 3.5 करोड़ लोग बेरोज़गारी की कतार में खड़े थे। ज़रूरी चीज़ें की क़ीमतों में बढ़ोतरी आज भी जनता की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। ज़रूरी उपभोक्ता वस्तुओं की क़ीमतों में 20 से 40 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जो काफ़ी ज़्यादा है। पेट्रोल और डीजल ही 100 रुपये प्रति लीटर के आसपास हैं।

औसत ख़ुदरा मूल्यों में क़रीब 10 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। महामारी से पहले के साढ़े पाँच साल में यह आठ फ़ीसदी रही थी। उस समय आमदनी और रोज़गार में भी कमी का ऐसा संकट नहीं था। अच्छी संख्या में रोज़गार के अवसर सृजित नहीं हो रहे। आर्थिक जानकारों का मानना है कि अर्थ-व्यवस्था का बैंड बजने और अधिक कर, बढ़ता वित्तीय घाटा, रिजर्व बैंक की आसान मौद्रिक नीति और आपूर्ति शृंखला की समस्या मुद्रास्फीति का सबसे कारण है।

 

“आज भी लोगों को हमारी सरकार के अच्‍छे काम याद हैं। आज देश की हालत ऐसी है कि अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं, जबकि ग़रीब लोग और $गरीबी में जा रहे हैं। प्रधानमंत्री के पद की गरिमा होती है। मैं भी 10 साल प्रधानमंत्री रहा हूँ। लेकिन कभी मैंने इस पद की मर्यादा कम नहीं होने दी। बतौर प्रधानमंत्री मैंने ज़्यादा बोलने की जगह काम को तरजीह दी। हमने सियासी लाभ के लिए देश को नहीं बाँटा। कभी सच पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं की। एक साल से चीन की फ़ौज भारत की ज़मीन पर बैठी है। यह सरकार संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमज़ोर कर रही है। विदेश नीति के मोर्चे पर भी वह फेल हुई है। आज देश की स्थिति चिन्ताजनक है। $गलत नीतियों से अर्थ-व्यवस्था गिरी है और महँगाई तथा बेरोज़गारी से जनता परेशान है। ग़लत नीतियों से देश आर्थिक मंदी की जकड़ में है। किसान, व्यापारी, विद्यार्थी और महिलाएँ परेशान हैं। अन्नदाता दाने-दाने का मोहताज हैं। सामाजिक असमानता बढ़ गयी है।’’

मनमोहन सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री

 

“मनमोहन सिंह को भारत को सबसे कमज़ोर बनाने और देश में भीषण महँगाई के लिए याद किया जाता है। वह राजनीतिक कारणों से भारत को पीछे खींचने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि कोरोना महामारी के बावजूद भारत सबसे तेज़ी से विकास कर रही बड़ी अर्थ-व्यवस्था है और अगले साल भी ऐसा ही रहने की सम्भावना है। मैं आपका (मनमोहन का) बहुत सम्मान करती हूँ। मुझे आपसे यह आशा नहीं थी। मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आँकड़ों की भी तुलना करें, तो मनमोहन सिंह को ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है, जिनके कार्यकाल में लगातार 22 महीनों तक मुद्रा स्फीति (महँगाई) दहाई में थी और पूँजी देश से बाहर जा रही थी। महँगाई को लेकर मोदी सरकार पर निशाना साधने वाले भ्रम पैदा कर रहे हैं। सत्ता में रहते हुए सिंह को लम्बे समय तक पता भी नहीं था कि चीज़ें कैसे चल रही हैं?’’

निर्मला सीतारमण

केंद्रीय वित्त मंत्री