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क्या आप बच पाएगी ?

जहां कांशीराम ने मायावती को झुग्गी-झोपड़ियों में देखा था, तो वहीं अरविंद केजरीवाल भी सुंदर नगरी से आए थे, जो दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित एक झुग्गी-झोपड़ी है, जहां उन्होंने अपने एनजीओ ‘परिवर्तन’ के जरिए खुद को एक सिविल सर्वेंट से बदलकर पारदर्शिता कार्यकर्ता के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन इन दो दशकों की यात्रा के दौरान वे 2025 में शीश महल में पहुंच गए, जिसने उनकी पार्टी को दिल्ली में पतन की राह पर ला खड़ा किया। यह एक क्लासिक केस स्टडी है क्योंकि लोगों के जीवन और समय में परिवर्तन लाने के बजाय लोगों ने एक परिवर्तित आदमी को देखा। इसके कारण दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की हार हुई जो विनाशकारी थी। यह दिल तोड़ने वाला है क्योंकि लाखों लोग उम्मीद कर रहे हैं कि कभी न कभी तो देश की राजनीति बदलेगी। केजरीवाल ने जो किया वह भारत को भ्रष्टाचार मुक्त देश देखने के सपने की मौत के समान है और आप के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। अगर आप अजेय थी, 2020 में लगातार दूसरी बार जीत हासिल की और कांग्रेस के जबड़े से पंजाब को छीन लिया और अकालियों को खत्म कर दिया, तो इसका पतन भी उतनी ही तेजी से हो रहा है और गौरव फीका पड़ रहा है। केजरीवाल शायद आत्ममंथन करने के लिए हाइबरनेशन में चले गए हैं कि उन्होंने क्या-क्या गलतियां कर दीं। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है क्योंकि वह उस शानदार जीवनशैली से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं जिसके वह अब आदी हो चुके हैं। वह बड़े काफिले के साथ यात्रा करते हैं और एक साधारण अपार्टमेंट में रहने से इनकार करते हैं तथा आप के लिए जगह बनाने को तैयार नहीं हैं। पार्टी में दरारें दिखाई दे रही हैं और केजरीवाल ने दिल्ली में हार के बाद पंजाब को अपना ‘पहला घर’ बनाकर एक और गलती कर दी है। इसने पार्टी के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए हैं।

पोप फ्रांसिस का देहांत, वेटिकन सिटी में ली अंतिम सांस

लंबे समय से बीमार पोप फ्रांसिस का वेटिकन सिटी में देहांत हो गया है। निमोनिया की शिकायत पर फ्रांसिस पिछले दिनों अस्पताल में भर्ती हुए थे। पॉप फ्रांसिस के मौत की खबर वेटिकन सिटी से दी गई है। 88 साल के फ्रांसिस ने एक दिन पहले ही अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस से मुलाकात की थी।

पोप फ्रांसिस लंबे समय से बीमार चल रहे थे। लगभग एक महीने तक अस्पताल में इलाज कराने के बाद पोप 24 मार्च को अपने निवास स्थान कासा सांता मार्टा लौटे थे। अस्पताल से लौटने पर उन्होंने बड़ी संख्या में अस्पताल के बाहर जमा हुए लोगों को आशीर्वाद दिया था। सार्वजनिक रूप से पोप को देखने के बाद लोग काफी खुश दिखे थे और जयकारे भी लगाए थे।

पोप फ्रांसिस का जन्म 17 दिसंबर 1936 को अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में हुआ था। उनका असली नाम जॉर्ज मारियो बर्गोग्लियो था। उन्होंने 13 मार्च 2013 को पोप का पद संभाला था। वह लैटिन अमेरिका से आने वाले पहले पोप थे। पोप फ्रांसिस ने अपने कार्यकाल में चर्च में सुधारों को बढ़ावा दिया। उनको अपने मानवीय क्षेत्र में किए कामों के लिए भी जाना गया। पोप फ्रांसिस अर्जेंटीना के एक जेसुइट पादरी थे। उन्हें पोप बेनेडिक्ट सोलहवें का उत्तराधिकारी चुना गया था। पोप फ्रांसिस बीते 1000 साल में पहले ऐसे इंसान थे जो गैर-यूरोपीय होते हुए भी कैथोलिक धर्म के सर्वोच्च पद पर पहुंचे।

महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ी हलचल- फिर एकसाथ आ सकते हैं उद्धव और राज ठाकरे

महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ी हलचल देखने को मिल रही है। खबर ये है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे और शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने शनिवार को महाराष्ट्र और मराठी लोगों के हितों के लिए अपने बीच मतभेदों को भुलाकर एकजुट होने की इच्छा जताई है। राज ठाकरे ने अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे को साथ आने का प्रस्ताव दिया है।

मनसे प्रमुख ने कहा है कि महाराष्ट्र और मराठियों के अस्तित्व के आगे उद्धव और उनके झगड़े बहुत छोटे हैं। महाराष्ट्र बहुत बड़ा है। उनके लिए उद्धव के साथ आना और साथ में रहना कोई मुश्किल काम नहीं हैं। राज ठाकरे ने ये बात फिल्म निर्देशक महेश मांजरेकर के साथ किए पॉडकास्ट के दौरान कही। राज ठाकरे ने उद्धव ठाकरे को साथ आने का प्रस्ताव देते हुए अपनी तरफ से ये साफ कर दिया कि उद्धव के साथ आने में उनको कोई परेशानी नहीं है। महाराष्ट्र के लिए दोनों एक साथ आ सकते हैं।

राज ठाकरे के साथ आने के प्रस्ताव पर उद्धव ठाकरे का भी बयान सामने आया है। उद्धव का कहना है कि उनकी तरफ से कोई झगड़ा नहीं था। महाराष्ट्र के हित के लिए वे साथ आने को तैयार हैं। उद्धव ठाकरे भी भाई राज ठाकरे के प्रस्ताव से सहमत दिखाई दे हैं। उन्होंने मिलकर काम करने के संकेत दिए हैं। उद्धव ने कहा कि महाराष्ट्र की भलाई के लिए वह छोटे-मोटे झगड़ों को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि अगर हमने सही फैसला लिया होता तो हम केंद्र और राज्य में सरकार बना सकते थे। पहले उनके साथ जाओ, फिर उनका विरोध करो, फिर एडजस्टमेंट करो, इससे काम नहीं चलेगा, सिर्फ महाराष्ट्र का भविष्य, फिर जो बीच में आएगा, उसका मैं स्वागत नहीं करूंगा। बता दें कि राज ने शिवसेना में उद्धव को उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद 27 नवंबर 2005 को पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद अपनी पार्टी ‘महाराष्ट्र नव निर्माण सेना’ बनाई थी। तब दोनों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं रहे।

क्या भारत की न्यायपालिका एक “गैर-निर्वाचित सुपर विधायिका” बन चुकी है?

न्यायिक अतिक्रमण या फिर मज़बूरी की दख़लअंदाज़ी ?

ब्रज खंडेलवाल  द्वारा

हाल के दिनों में भारत की उच्च न्यायपालिका के फ़ैसलों और टिप्पणियों ने एक ख़तरनाक रुझान पैदा कर दिया है। अदालतें कानून की व्याख्या करने की बजाय, अब नैतिकता के फ़तवे देने लगी हैं, समाज को सुधारने का दावा करने लगी हैं, और यहाँ तक कि सरकार को चलाने के तरीके भी बताने लगी हैं।

क्या यह न्यायिक सक्रियता है या फिर साफ़-साफ़ न्यायिक अतिक्रमण? उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने  इसी मुद्दे पर सवाल उठाए हैं, और उनकी चिंता बिल्कुल वाजिब है। 

पूछ रहा है पूरा इंडिया। अदालतों की बढ़ती हुई दख़ल: क्या यह जायज़ है?

अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल केस में एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल पर एक महीने के अंदर फ़ैसला नहीं करता है, तो वह बिल अपने-आप पास माना जाएगा। राष्ट्रपति के लिए यह समय सीमा तीन महीने रखी गई। यह फ़ैसला अनुच्छेद 142 के तहत दिया गया, जो कोर्ट को “पूर्ण न्याय” देने का अधिकार देता है। 

लेकिन सवाल यह है: क्या अदालतों को यह अधिकार है कि वे संविधान में लिखे हुए नियमों को बदल दें? राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास संविधान द्वारा दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ हैं। अगर अदालतें उन्हें समय सीमा देने लगेंगी, तो फिर संविधान का मतलब ही क्या रह जाएगा? 

उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़  ने सही कहा आज कुछ जज ऐसे हैं जो कानून बनाते हैं, सरकार चलाते हैं, और संसद से ऊपर हो गए हैं… लेकिन उन पर कोई कानून लागू नहीं होता!

यह कोई मामूली बात नहीं है। अगर अदालतें ऐसे फ़ैसले देती रहीं, तो एक दिन लोकतंत्र की बुनियाद ही हिल जाएगी।  वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं, अदालतें अब “उपदेशक” भी बन गई हैं।

सिर्फ़ कानूनी फ़ैसले ही नहीं, अब तो जज महोदय समाज को नैतिकता का पाठ भी पढ़ाने लगे हैं। कुछ वक़्त पहले दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से जली हुई नोटें मिलने का मामला सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जाँच शुरू की। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह अदालत का काम है? क्या पुलिस और प्रशासन इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं? 

इसी तरह, पहले भी अदालतों ने यौन संबंध, लव जिहाद, बलात्कार, पोर्नोग्राफी,  शादी-ब्याह, धर्म, और संस्कृति पर अपनी राय थोपने की कोशिश की है। कुछ लोग इसे “प्रगतिशील” कहते हैं, लेकिन असल में यह लोकतंत्र के लिए ख़तरा है। अगर जज ही सब कुछ तय करेंगे, तो फिर जनता द्वारा चुने हुए नेताओं की क्या भूमिका रह जाएगी? 

NJAC केस: जब अदालत ने खुद को संसद से ऊपर रख लिया

2015 में संसद ने NJAC (नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन) बनाने के लिए एक कानून पास किया था। इसका मक़सद था कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाई जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को ही रद्द कर दिया और कहा कि जजों की नियुक्ति का अधिकार सिर्फ़ “कॉलेजियम सिस्टम” के पास रहेगा। 

यह फ़ैसला संसद की अवमानना थी। धनखड़ ने ठीक ही कहा कि यह एक “अलोकतांत्रिक वीटो” था। अगर न्यायपालिका खुद को संसद और सरकार से ऊपर समझने लगे, तो फिर लोकतंत्र का क्या होगा? 

अदालतों को अपनी हद और मर्यादाएं मालूम होनी चाहिए, कहते हैं विधि जानकार। न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधे होने का कुछ तो अर्थ है।  न्यायपालिका का काम कानून का पालन करवाना है, न कि खुद कानून बनाना या सरकार चलाना। अगर जज लगातार नैतिक उपदेश देते रहेंगे, सरकार के काम में दख़ल देते रहेंगे, और संसद के फ़ैसलों को रद्द करते रहेंगे, तो एक दिन लोकतंत्र की जगह “जजतंत्र” (Judiciary की हुकूमत) आ जाएगी। 

धनखड़ की चेतावनी गंभीरता से लेने की ज़रूरत है:  “जब एक संस्था दूसरी संस्था के काम में दख़ल देती है, तो यह संविधान के लिए ख़तरा है।”

भारत को फ़िलॉसफर किंग्स (दार्शनिक राजाओं) की नहीं, बल्कि ऐसे जजों की ज़रूरत है जो संविधान की मर्यादा को समझें, लोकतंत्र का सम्मान करें, और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। वरना, आने वाला वक़्त भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत मुश्किल लेकर आएगा।  हमें फैसला लेना होगा कि अदालतें कानून की व्याख्या करें या फिर देश चलाएँ?

सुप्रीम कोर्ट का अगले आदेश तक वक्फ में कोई नई नियुक्ति नहीं, सरकार को 7 दिन की मोहलत

वक्फ कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई है। कोर्ट ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए 7 दिन का समय दिया है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा है कि वक्फ संपत्ति में कोई बदलाव नहीं होगा। यानी वक्फ की स्थिति जैसी है वैसी ही रहेगी। वक्फ कानून के खिलाफ 70 से ज्यादा याचिकाएं कोर्ट में दायर की गई है।

इस मामले की अगली सुनवाई 5 मई को होगी। सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता दलील दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फिलहाल वक्फ बोर्ड और काउंसिल में कोई नियुक्ति न हो। इसपर तुषार मेहता ने कहा कि सरकार अभी नियुक्ति नहीं करने वाली है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसने कहा था कि कानून में कुछ सकारात्मक बातें हैं और इस पर पूरी तरह रोक नहीं लगाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह नहीं चाहता कि मौजूदा स्थिति में कोई बदलाव हो। सरकार के जवाब तक यथास्थिति बनी रहेगी। इसके साथ ही अगले आदेश तक नई नियुक्तियां भी नहीं होगी।

सीजेआई संजीव खन्ना ने कहा कि सरकार 7 दिनों के भीतर जवाब दाखिल करे और उस पर प्रतिउत्तर अगले 5 दिनों के भीतर दाखिल किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम फैसला नहीं दे रहे। यह तो अंतरिम आदेश होगा। सीजेआई ने कहा कि हमारे सामने जो स्थिति है उसके आधार पर हम आगे बढ़ रहे हैं। हम नहीं चाहते कि स्थिति पूरी तरह से बदल जाए। हम एक्ट पर रोक नहीं लगा रहे हैं।

सुरक्षित-असुरक्षित लोग

कुछ लोग जब सत्ता के सुरक्षा के कवच में आ जाते हैं, तो उन्हें दूसरों की जान लेने में बड़ा आनंद आता है। लेकिन ऐसे लोग नहीं जानते कि उनका यह शौक़ एक दिन उन्हें भी ले डूबेगा। आख़िर मौत से कौन बच सका है। जो लोग दूसरों को पीड़ा देकर यह सोचते हैं कि अगला जन्म किसने देखा है? उन्हें शायद नहीं मालूम कि ऐसे लोगों को वही पीड़ा सहने के लिए संसार में वापस आना पड़ता है, जो पीड़ा वे दूसरों को दे रहे हैं। यह बात उन लोगों को भले ही नहीं पता हो, जो लोग अपने सुख के लिए दूसरों को पीड़ा पहुँचाते हैं या वे ऐसा विश्वास न करते हों; लेकिन ऐसे ज़ालिम कड़ी सुरक्षा में रहते हुए भी हमेशा डरे हुए रहते हैं। इसलिए ये लोग धर्म और दूसरों की रक्षा के दिखावे की आड़ में अत्याचार करते हैं। ग़रीबों, किसानों को ग़रीबी से निकालने का जुमला, वन्यजीव संरक्षण और गोरक्षा जैसे मुद्दे इसके सबसे सटीक; लेकिन क्रूरतम उदाहरण हैं।

हैदराबाद में 400 एकड़ में फैले कांचा गाजीबोवली जंगल को काटने की हिम्मत करने वाले क्रूर शासकों और माफ़ियाओं ने जो दर्द उस जंगल में रहने वाले निरीह मूक प्राणियों को दिया है, उसकी जिसकी निंदा की जाए, उतनी कम है। वन्यजीवों की दुर्दशा पर तरस जिनको आया, उन्होंने इस पाप-कृत्य की निंदा की। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय एवं अन्य विद्यालयों, महाविद्यालयों के विद्यार्थियों के अतिरिक्त आम लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठायी। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का, जिसने इन लोगों के विरोध एवं मूक वन्य-प्राणियों के दर्द को समझा और जंगल के कटान पर रोक लगा दी। लेकिन क्या जंगल काटने, वन्यजीवों की हत्या करने और लोगों पर अत्याचार करने वाले इस बात को समझेंगे कि वे अपराध कर रहे हैं? कैसे समझेंगे? उन्हें क़ानून या प्रकृति से सज़ा नहीं मिल रही है। दयालु लोग कहते हैं कि लोग इतने कट्टर और हिंसक कैसे हो सकते हैं? इसका भी सीधा जवाब यही है कि ऐसे लोगों को तत्काल सज़ा नहीं मिल पाती है, इसलिए वे कट्टर और हिंसक हो जाते हैं। 

ऐसे लोगों में यह कट्टरता, क्रूरता और ज़्यादा सुख पाने की आकांक्षा के वेग के साथ आती है। ये लोग अपने स्वार्थ साधने के लिए सिर्फ़ मूक और असहाय प्राणियों को ही दु:ख नहीं देते। निर्बल लोगों को भी दु:ख देते हैं। देश भर में फैली अराजकता और अत्याचार की घटनाएँ इसकी गवाह हैं। निरंकुश सत्ता के मोह और सत्ता का संरक्षण के लिए जो लोग निर्दोषों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनका ख़ून बहा रहे हैं, उन्हें डर इतना है कि अगर उनसे कोई सवाल कर दे, तो उनकी बेचैनी देखने लायक होती है। देश में कई पत्रकारों, लेखकों, समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों की हत्याएँ करवा देना या उन्हें अपराधी साबित करके प्रताड़ित करना अब देश की सत्तात्मक-प्रथा बन चुकी है। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि अब सवाल पूछने पर भी लगभग पाबंदी लग चुकी है।

आरटीआई के जवाब नहीं मिलते। संसद में सवाल पूछने पर किसी भी सांसद के ख़िलाफ़ एक पूरी जमात खड़ी हो जाती है। देश और देशवासियों के हित में बात करने वाले सत्ता पक्ष के सांसदों को तो चुभते ही हैं, संवैधानिक पदों पर बैठे सभापतियों को भी दुश्मन नज़र आते हैं। अब तो संसद में डिजिटल व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के नाम पर केंद्र  सरकार ने डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम-2025 (डीपीडीपी एक्ट-2025) का मसौदा भी तैयार कर लिया है। यह मसौदा डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम-2023 (डीपीडीपी एक्ट-2023) को लागू करने के लिए तैयार किया गया है, जिसके तहत देश में लोगों के व्यक्तिगत डिजिटल डेटा को संरक्षित करने के लिए बनाया गया है। लेकिन क्या इससे आम आदमी का डेटा संरक्षित हो सकेगा?

साइबर अपराधी आज आम आदमी से लेकर ख़ास लोगों तक का डेटा उड़ा रहे हैं। उनके इस कृत्य में तमाम सोशल मीडिया ऐप उनकी मदद कर रहे हैं या ख़ुद इसमें शामिल मिले हैं। लेकिन यही डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम से सत्ता में सुरक्षित बैठे लोगों के डेटा की सुरक्षा करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि इन लोगों से कोई सवाल न पूछे। इससे इन लोगों के काले कारनामों का ख़ुलासा नहीं हो सकेगा। चुनावों के ज़रिये चुने हुए लोग, संवैधानिक पदों पर आसीन लोग, अधिकारी सब सुरक्षित किये जाने की चाल है, जिससे उनके गिरेबान में कोई झाँक न सके। जो झाँकने की कोशिश करेगा, उसे सज़ा मिलेगी।

देश में लोकतंत्र का यह सबसे क्रूर स्वरूप है कि देश का एक नागरिक दूसरे नागरिक को मार सकता है। अत्याचार कर सकता है। इसकी संपत्ति छीन सकता है। भ्रष्टाचार कर सकता है। लेकिन उच्च पदों पर पहुँचे लोगों की ग़लतियों, उनके भ्रष्टाचार, उनकी निरंकुशता को लेकर कोई सवाल तक नहीं कर सकता। जानकारी नहीं माँग सकता। जाँच एजेंसियाँ भी दोहरी नीति के तहत कार्रवाई करने का निर्णय लेती हैं। ऐसे में डेटा संरक्षण का यह स्वरूप लोकतंत्र नहीं निरंकुश-तंत्र की जड़ें मज़बूत करेगा, जो निर्बल बहुसंख्यक लोगों को ग़ुलामी की बेड़ियों में जकड़ने का प्रयास है। समझिए, इस क़ानून से सुरक्षा किसकी होगी?

टैरिफ : झटका या अवसर

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ पर अचानक यू-टर्न ने वैश्विक आर्थिक व्यवस्था को गहरा झटका दिया है। चीन को छोड़कर अन्य सभी देशों पर व्यापक पारस्परिक शुल्क को रोकने का उनका निर्णय एक दुर्लभ रियायत है। लेकिन यह उस अस्थिरता को भी रेखांकित करता है, जो ट्रम्प की व्यापार नीति को परिभाषित करती है। भारत के लिए यह क्षण चुनौती भरा भी है और एक अवसर के रूप में भी। अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रम्प ने वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता को फिर से भड़का दिया, जिससे शेयर बाज़ारों और वास्तविक अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक निर्णय बाधित हो गये। इस व्यवधान की भयावहता स्पष्ट रूप से स्वाभाविक है, क्योंकि जापान का निक्केई 7.83 प्रतिशत गिरा, हॉन्गकॉन्ग का हैंगसेंग 13.22 प्रतिशत गिरा और भारत का सेंसेक्स एक ही दिन में 2.95 प्रतिशत गिर गया। 01 जनवरी से अब तक सेंसेक्स में 6.84 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है और यह सितंबर 2024 के अपने शिखर 85,978.25 से लगभग 15 प्रतिशत नीचे है।

‘तहलका’ की आवरण कथा- ‘टैरिफ-तूफ़ान के बीच भारत स्थिर’ इस उथल-पुथल को दर्शाती है तथा यह भी बताती है कि भारत इससे कैसे निपट रहा है। जैसे-जैसे व्यापारिक अस्थिरता का तूफ़ान तेज़ होता जा रहा है, भारत ख़ुद को दो महाशक्तियों के बीच कूटनीतिक रूप से संतुलित करते हुए पा रहा है। वहीं चीन ट्रम्प के 125 प्रतिशत टैरिफ के दबाव में दो सबसे बड़े विकासशील देशों के बीच एकजुटता की अपील के साथ नई दिल्ली तक पहुँच रहा है। ट्रम्प द्वारा भारत और यूरोपीय संघ सहित 59 देशों के लिए 10 प्रतिशत से अधिक टैरिफ को अस्थायी रूप से निलंबित करना एक रणनीतिक क़दम है। यह व्यापार सौदों पर बातचीत करने के लिए 90 दिनों का समय प्रदान करता है; शायद यह इस बात की स्वीकृति है कि अमेरिका को फिर से महान् बनाओ के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक व्यापार युद्ध छेड़ना टिकाऊ नहीं हो सकता है। इसके बजाय ट्रम्प ने चीन पर अपनी शक्ति केंद्रित करने का निर्णय लिया है, जो अब अमेरिकी टैरिफ का ख़ामियाज़ा भुगत रहा है। वैश्विक टकराव से चीन के साथ द्विपक्षीय लड़ाई की ओर यह बदलाव अभूतपूर्व है। लेकिन यह बहुत कुछ कहता है; यहाँ तक ​​कि ट्रम्प को भी अहसास हो गया है कि आधी दुनिया को नाराज़ करना आर्थिक और कूटनीतिक रूप से उलटा पड़ सकता है।

भारत के लिए यह विराम एक रणनीतिक अवसर प्रस्तुत करता है। आवेगपूर्ण तरीक़े से जवाबी कार्यवाही करने के प्रलोभन का प्रतिरोध करके तथा इसके बजाय दीर्घकालिक रणनीति अपनाकर नई दिल्ली ने स्वयं को एक व्यावहारिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित किया है। अब उसे अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार को 2.5 गुना बढ़ाने के अपने सपने को साकार करने का लक्ष्य सुनिश्चित करना चाहिए। सकारात्मक पक्ष यह है कि टैरिफ में राहत से विदेशी पोर्टफोलियो प्रवाह को बढ़ावा मिल सकता है और रुपया मज़बूत हो सकता है। इसके साथ ही तरलता में आसानी हो सकती है और ब्याज दरों में कमी आ सकती है। हालाँकि आगे का रास्ता जोखिम भरा भी है। लम्बे समय से चल रहे अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के बाधित होने का ख़तरा है, और भारत को अपने बाज़ारों में आने वाले सस्ती चीन की वस्तुओं की बाढ़ से सावधान रहना होगा। यद्यपि चीन की पहल मैत्रीपूर्ण प्रतीत हो सकती है, फिर भी भारत को सावधानी से क़दम उठाना होगा। बीजिंग की एकजुटता की अचानक इच्छा साझा मूल्यों को बढ़ावा देने से ज़्यादा उसके रणनीतिक स्वार्थ को लक्षित करती है, जो कि वह फ़िलहाल अपनी अटकी के चलते छुपा रहा है। भारत की सबसे अच्छी प्रतिक्रिया सतर्क भागीदारी में निहित है। इसलिए भारत को अमेरिका के साथ इस कूटनीतिक अवसर का लाभ उठाना चाहिए और अपने घरेलू बाज़ारों की सुरक्षा करते हुए तेज़ी से खंडित हो रहे विश्व में एक विश्वसनीय, नियम-आधारित आर्थिक साझेदार के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रखना चाहिए।

ट्रम्प के टैरिफ सम्बन्धी उतार-चढ़ाव ने भले ही बाज़ारों को हिलाकर रख दिया हो; लेकिन भारत के लिए यह आर्थिक शासन-कौशल की भी परीक्षा है। भारत के लिए अगले 90 दिन निर्णायक हो सकते हैं; न केवल व्यापार के लिए, बल्कि विकसित हो रही वैश्विक व्यवस्था में अपनी भूमिका के लिए भी।

टैरिफ-तूफ़ान के बीच भारत स्थिर

– अमेरिका द्वारा टैरिफ लगाने के ऐलान से त्रस्त चीन भारत से चाहता है सहयोग

पिछले दिनों अमेरिका के भारत समेत कई देशों पर टैरिफ लगाने का ऐलान से वैश्विक बाज़ारों में व्यापारिक तूफ़ान-सा आ गया। इस व्यापारिक तूफ़ान के ज़ोर पकड़ने के बाद इस समस्या का सामना करने के लिए भारत अपनी कूटनीति नये सिरे से तैयार कर रहा है। वहीं अमेरिका द्वारा टैरिफ लगाये जाने से त्रस्त चीन नई दिल्ली के साथ शान्ति की पहल कर रहा है। इस सम्बन्ध में गोपाल मिश्रा की रिपोर्ट : –

फोर्ट नॉक्स के प्रसिद्ध स्वर्ण भंडार के समाप्त होने के साथ ही अमेरिकी डॉलर के समक्ष चुनौती प्रत्येक बीतते दिन के साथ बढ़ती जा रही है। यह अत्यधिक संदिग्ध है कि क्या राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की उच्च-शुल्क व्यवस्था वास्तव में कभी मज़बूत रहे अमेरिकी डॉलर को बचा पाएगी या इसके घटते संसाधनों को आर्थिक विकास को पुन: गति देने की दिशा में पुनर्निर्देशित कर पाएगी। इस बीच इन शुल्कों को लेकर चल रही बयानबाज़ी, जिसे अमेरिकी वित्त मंत्रालय के नेक इरादे वाले; लेकिन यक़ीनन गुमराह अधिकारियों द्वारा परिकल्पित और लागू किया गया है; ने महाद्वीपों के धन प्रबंधकों को अस्थिर करने में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभायी है। वे जानते हैं कि अमेरिकी डॉलर की आत्मा को बीजिंग के लॉकरों में सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखा गया है।

जनवरी, 2025 तक चीन के पास लगभग 760.8 बिलियन डॉलर की अमेरिकी ट्रेजरी प्रतिभूतियाँ होंगी, जिससे वह जापान के बाद दूसरा सबसे बड़ा विदेशी धारक बन जाएगा। यह पर्याप्त निवेश अमेरिकी डॉलर की स्थिरता में चीन के निहित स्वार्थ को रेखांकित करता है, जो संभवत: वाशिंगटन के कुछ भोले नीति-निर्माताओं से भी अधिक है। दिलचस्प बात यह है कि यूरोप में वाशिंगटन के क़रीबी सहयोगियों के बीच यह सच्चाई अच्छी तरह से समझी जा चुकी है, जो बीजिंग और नई दिल्ली के साथ अपने वित्तीय हितों को फिर से जोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि बढ़ते क़र्ज़ और प्रतिभूति मोचन को पुनर्निर्धारित करने की आवश्यकता के बीच 2024 के अंत तक अमेरिकी ऋण-जीडीपी अनुपात 123 प्रतिशत तक बढ़ गया था।

भारत में अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ कॉर्पोरेट जगत भी इस बात से आश्वस्त है कि प्रमुख वैश्विक खिलाड़ियों की तुलना में बहुत छोटी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद नई दिल्ली संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा टैरिफ युद्ध शुरू करने के बाद आयी सुनामी का सामना कर सकती है। हालाँकि इसमें कुछ बाधाएँ भी आएँगी। नई दिल्ली के कई अर्थशास्त्रियों के अनुसार, यह संदेहास्पद है कि ट्रम्प प्रशासन ने इस विश्वव्यापी टकराव को शुरू करने से पहले अपना होमवर्क किया था। वैश्विक स्तर पर यह आशंका बढ़ रही है कि ट्रम्प के पूर्ववर्ती और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जानबूझकर बीजिंग को अच्छे मूड में रखा था; शायद रूस-यूक्रेन युद्ध के परिणामस्वरूप यूरेशिया में ड्रैगन को पूर्ण नियंत्रण देने का वादा भी किया था; लेकिन इस टकराव को शुरू करने का ट्रम्प का फ़ैसला कुछ हद तक मनोरंजक प्रतीत होता है। यह सर्वविदित है कि विश्व बाज़ार में प्रमुख खिलाड़ी चीन, जापान और यूरोपीय संघ हैं।

भारत के मामले में इस टकराव का प्रभाव बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता है; विशेष रूप से तब, जब वर्तमान में भारत-अमेरिका व्यापार चीन, यूरोपीय संघ और कनाडा की तुलना में बहुत कम है; यदि नगण्य नहीं है। यद्यपि अर्थव्यवस्था कुछ गंभीर झटकों को सहन कर सकती है, फिर भी यह उम्मीद की जाती है कि यह अमेरिका और एशिया में अन्य अमेरिकी सहयोगियों की तुलना में इस तूफ़ान को बेहतर ढंग से झेल लेगी। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय वस्तुओं पर 26 प्रतिशत टैरिफ लगाये जाने से हमारे निर्यात पर असर पड़ सकता है या इसमें तत्काल गिरावट आ सकती है। यदि ब्रिटेन के पूर्व वित्त मंत्री जिम ओ’नील के हालिया बयान पर विश्वास किया जाए, तो ऐसा प्रतीत होता है कि नये गठबंधनों पर काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा है कि बीजिंग के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध उस पुनर्गठन का हिस्सा होना चाहिए, जो ट्रम्प की कामिकेज़ टैरिफ पहल के बाद अपरिहार्य है। गोल्डमैन सैक्स के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री लॉर्ड ओ’नील ने कहा कि जी-7 देश इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं; लेकिन भारत और चीन को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा- ‘यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि अमेरिका को छोड़कर शेष जी-7 देश सामूहिक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के समान आकार के हैं। और मैं समझता हूँ कि सबसे समझदारी वाली बात यह होगी कि हम अन्य सदस्यों के साथ अपने बीच व्यापार बाधाओं को कम करने के बारे में गंभीरता से बातचीत करें।’

चीन वास्तव में अमेरिका की तुलना में यूरोपीय संघ को अधिक माल भेजता है और अमेरिका से दूर यह निर्यात बदलाव व्हाइट हाउस में ट्रम्प के पहले कार्यकाल के बाद से तेज़ हो गया है, तब भी जब चीनी निर्यात में कोरोना-सम्बन्धी उछाल को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। चीन अब अमेरिका को लगभग 440 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य का सामान भेजता है, जबकि यूरोपीय संघ के 27 सदस्यों को उसका निर्यात लगभग 580 अरब अमेरिकी डॉलर है। विश्व अर्थव्यवस्था में इन उथल-पुथल भरे घटनाक्रमों के दौरान ऐसा प्रतीत होता है कि भारत स्थिति पर अधिक प्रभावी प्रतिक्रिया देने की तैयारी कर रहा है। हालाँकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार में ख़राब प्रदर्शन करने वालों को हटाकर कितनी नयी ऊर्जा भर पाते हैं। इस संभावना का संकेत उनके हाल के नागपुर दौरे के दौरान सामने आया, जहाँ उन्होंने कथित तौर पर संघ के दिग्गजों से देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय मंच पर नयी वास्तविकताओं का सामना करने के लिए ख़ुद को पुन: संगठित करने को कहा। हालाँकि इस बयान को राष्ट्रीय मीडिया के लिए विस्तार से नहीं बताया गया, जो मोदी के पिछले कार्यकालों से परिचित दिशा-निर्देशों का पालन करना जारी रखता है; जैसे कि नियमित रूप से भारत के अतीत का महिमामंडन करना या मोदी को केंद्रीय व्यक्ति बनाकर सनातनी आख्यान को बढ़ावा देना।

मोदी 3.0 में एन2 ट्विस्ट

नई दिल्ली के राजनीतिक हलक़ों में इस बात पर आम सहमति है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी नवीनीकृत धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक छवि के साथ अस्पष्ट अतीत से जुड़े रहने के बजाय समकालीन विश्व, और विशेष रूप से भारत के समक्ष उपस्थित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके कहीं अधिक प्रभावी भूमिका निभाएँगे। अमेरिका में भारत की कूटनीतिक पहुँच को लगे झटके का श्रेय विदेश मंत्री एस. जयशंकर को दिया जा रहा है, जो पूर्व सिविल सेवक हैं और अब विदेश मंत्रालय में राजनीतिक भूमिका में आ गये हैं। फिर भी मोदी को यह सलाह दी जा रही है कि वे सिविल सेवकों को कैबिनेट मंत्री के रूप में नियुक्त करना जारी रखें, क्योंकि वे न केवल आज्ञाकारी हैं, बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर उनकी राजनीतिक स्थिति को चुनौती देने की भी संभावना नहीं रखते हैं, जो अब वर्तमान सरकार में केवल गठबंधन सहयोगी तक सीमित हो गयी है।

यह भी कहा जा रहा है कि अपने नये अवतार में देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर आसीन मोदी से भाजपा नेता के रूप में अपने पिछले कार्यकालों की तुलना में काफ़ी अधिक मुखर होने की उम्मीद है। वह वर्तमान में एनडीए गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसे दो अनुभवी राजनीतिक दिग्गजों द्वारा चुपचाप सहायता दी जा रही है; बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू। नीतीश कुमार, जिन्हें प्यार से सुशासन बाबू या सुशासन का प्रतीक कहा जाता है; ने जाति-संवेदनशील अपने राज्य में जटिल मुस्लिम-यादव सामाजिक गठबंधन की चुनौतियों का डटकर सामना किया है। इसी तरह नायडू, जो विखंडित आंध्र प्रदेश में सत्ता में लौटे हैं; जो अब तटीय आंध्र और तेलंगाना के बीच विभाजित है। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण क़दम से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं, जिसके कारण पहले राज्य का विभाजन हुआ था।

दक्कन के जाने-माने राजनीतिक नेताओं के अनुसार, सोनिया से चिन्तित रहने वाले नायडू चाहते हैं कि मोदी को एन2 टैग के साथ मोदी 3.0 के रूप में पुन: लॉन्च किया जाए, जो धर्मनिरपेक्ष रुझान का संकेत देता है। एन2 नीतीश और नायडू के समर्थन का प्रतीक है, जो अब मोदी को मिल रहा है। अनुमान है कि यह गठबंधन मोदी को दक्षिण भारत में अपनी राजनीतिक उपस्थिति को फिर से स्थापित करने में सक्षम बना सकता है, साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका में तेलुगु प्रवासियों से समर्थन भी प्राप्त कर सकता है, जिनमें से कई ट्रम्प प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर हैं।

जब कूटनीतिक दाँव पड़ गया उलटा

विदेश मंत्री एस. जयशंकर और अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो के बीच 07 अप्रैल को हुई वार्ता के 24 घंटे के भीतर भारत ने एक और कूटनीतिक चूक देखी, जिसके दौरान दोनों इस बात पर सहमत हुए थे कि जल्द ही एक द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये जाएँगे। हालाँकि इसके बाद अमेरिकी प्रशासन ने भारतीय वस्तुओं पर 26 प्रतिशत पारस्परिक टैरिफ लगाने का निर्णय लिया, जो 09 अप्रैल से प्रभावी होगा। ऐसा माना जाता है कि शायद रूबियो के साथ जयशंकर की निकटता को दर्शाने के एक बचकाने प्रयास में, जिसे साउथ ब्लॉक में कई लोग अनावश्यक मानते हैं; भारतीय विदेश कार्यालय ने एक आकस्मिक आदान-प्रदान को एक गंभीर कूटनीतिक जुड़ाव के रूप में पेश किया। एक पूर्व भारतीय राजनयिक ने इस लेखक को बताया कि 20 जनवरी को ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए व्हाइट हाउस का निमंत्रण प्राप्त करने में जयशंकर की विफलता के बाद से उनकी छवि को फिर से बनाने के प्रयास में मीडिया में चुनिंदा रूप से अप्रासंगिक या ग़ैर-महत्त्वपूर्ण अपडेट को प्रमुखता दी गयी है।

इससे पहले भारतीय कूटनीति की तब आलोचना हुई थी, जब वाशिंगटन स्थित राजनयिक मिशन यह सुनिश्चित करने में विफल रहा था कि वापस भेजे जा रहे अवैध भारतीय प्रवासियों को हथकड़ी लगाने से बचाया जाए। इसके बजाय जयशंकर ने राज्यसभा को बताया कि अमेरिकी अधिकारी केवल अपनी मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन कर रहे हैं। विदेश मामलों के एक वरिष्ठ विद्वान को हाल ही में यह टिप्पणी करते हुए सुना गया कि ‘हमारे सज्जन विदेश मंत्री जल्द ही अमेरिकी प्रशासन के एक और एसओपी के रूप में भारतीय वस्तुओं पर भारी टैरिफ वृद्धि को उचित ठहरा सकते हैं।’ विद्वान ने कहा कि भारत को यह समझना होगा कि अमेरिका में घरेलू आय में अचानक गिरावट आने के कारण भारतीय उत्पादों के ख़रीदार कम हो सकते हैं।

सामने आएँगी वाशिंगटन की ग़लतियाँ

शास्त्रीय अर्थशास्त्री संयुक्त राज्य अमेरिका में चल रहे आर्थिक संकट की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि यह धीरे-धीरे विश्व के अधिकांश भाग को अपनी चपेट में ले रहा है। उनका मानना है कि इसकी जड़ें सोवियत संघ के बाद के युग में विशेषकर 1990 के दशक के बाद विभिन्न क्षेत्रों में छेड़े गये अनावश्यक युद्धों में निहित हैं। वे आगे तर्क देते हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ज़मीनी चुनौतियों का समाधान करने के बजाय उत्तरोत्तर प्रशासनों ने देश के विनिर्माण का अधिकांश कार्य चीन को आउटसोर्स कर दिया, जबकि महाद्वीपों के बीच संघर्षों को बढ़ावा देने के लिए रक्षा-औद्योगिक शक्ति पर निर्भरता बनाये रखी। 2021 के आँकड़ों के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने कुल माल का 14.6 प्रतिशत, यानी 413.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आयात चीन से किया। अभी तक यह ख़ुलासा नहीं किया गया है कि अमेरिकी कम्पनियाँ अन्य बाज़ारों में कितना निर्यात करती हैं।

संघीय सरकार और संघीय संसाधनों से वित्त पोषित संस्थानों में बड़े पैमाने पर छँटनी के कारण अमेरिकी उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति में काफ़ी गिरावट आयी है। ग़ैर-ज़रूरी सामान, विशेषकर ऊँची क़ीमत पर ख़रीदने में उनकी हिचकिचाहट समझ में आती है। ट्रम्प द्वारा लगाये गये टैरिफ में औसतन 1.9 प्रतिशत की कमी की जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप 2025 में प्रति अमेरिकी परिवार पर औसतन 1,900 अमेरिकी डॉलर से अधिक की कर वृद्धि होगी। 04 अप्रैल तक चीन, कनाडा और यूरोपीय संघ ने जवाबी टैरिफ की घोषणा की है या लागू किया है, जिससे संयुक्त रूप से 330 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अमेरिकी निर्यात प्रभावित होंगे। इन लगाये गये और धमकी भरे उपायों से अमेरिकी जीडीपी में अतिरिक्त 0.1 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान है। 2025 में ट्रम्प टैरिफ से संघीय कर राजस्व में 258.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर या जीडीपी का 0.85 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है; जो 1982 के बाद से सबसे बड़ी कर वृद्धि होगी। उल्लेखनीय बात यह है कि ये शुल्क राष्ट्रपति जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश, बिल क्लिंटन और बराक ओबामा के कार्यकाल में लागू की गयी कर वृद्धि से अधिक हैं।

भारत के प्रति चीन के उत्साहपूर्ण रुख़ की वजह

ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रम्प के टैरिफ आक्रमण के प्रभाव को कम करने के लिए चीन की रणनीति के रडार पर भारत तेज़ी से आ रहा है। भारतीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को हाल ही में भेजे गये पत्र में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रतीकात्मक टैंगो का प्रस्ताव रखते हुए शान्ति की पहल की है। यह उल्लेख किया जा सकता है कि टैंगो एक जीवंत दक्षिण अमेरिकी नृत्य है, जिसमें एक मज़बूत लय होती है, जिसे दो साथी एक-दूसरे को कसकर पकड़कर करते हैं; शायद यह वास्तविक सम्बन्ध का एक रूपक है। शी जिनपिंग ने आगे कहा कि ‘दोनों देशों के लिए पारस्परिक उपलब्धि के भागीदार बनना और ड्रैगन-हाथी टैंगो को साकार करना, सही विकल्प है।’ उन्होंने आगे कहा- ‘जो दोनों देशों और उनके लोगों के मौलिक हितों की पूरी तरह से पूर्ति करता है।’

बीजिंग स्पष्ट रूप से व्यापक आकर्षण के लिए आक्रामक रुख़ अपना रहा है तथा वह अपने निर्यात को अमेरिका से हटाकर अधिक ग्रहणशील स्थानों की ओर ले जाने का प्रयास कर रहा है, जबकि वाशिंगटन नये व्यापार अवरोध लगा रहा है। इस वर्ष के प्रारंभ में अमेरिकी प्रशासन द्वारा लगाया गया टैरिफ 20 प्रतिशत था; लेकिन पिछले सप्ताह इसे दोगुना से भी अधिक बढ़ाकर 54 प्रतिशत कर दिया गया, जिससे प्रभावी औसत दर 65 प्रतिशत तक पहुँच गयी; जिससे चीनी आयात की लागत इतनी बढ़ गयी कि कई विश्लेषक इसे अप्रतिस्पर्धी मानते हैं। बीजिंग की प्रतिक्रिया त्वरित थी। वित्तीय बाज़ारों में उथल-पुथल मच गयी, क्योंकि चीन के वित्त मंत्रालय ने घोषणा की कि वह 10 अप्रैल से सभी अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाकर जवाबी कार्रवाई करेगा।

अमेरिका द्वारा नयी टैरिफ योजना पर अपने निर्णय को 90 दिनों के लिए स्थगित रखने तथा चीनी वस्तुओं पर टैरिफ को 104 प्रतिशत पर बरक़रार रखने के विलंबित निर्णय से ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका-चीन के बीच पूर्ण पैमाने पर टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। ज़ाहिर है निवेशकों की भावनाएँ चिन्ताजनक हो गयी हैं। व्यापार युद्ध बढ़ने के साथ ही अमेरिका में संभावित मंदी की आशंकाएँ भी बढ़ रही हैं, क्योंकि कम्पनियाँ इस तूफ़ान से बचने के लिए निवेश कम करने और नौकरियों में कटौती करने लगी हैं।

भारत के लिए खुल सकते हैं निर्यात के रास्ते

अमेरिका द्वारा नयी टैरिफ योजना पर अपने निर्णय को 90 दिनों तक स्थगित रखने तथा चीनी वस्तुओं पर टैरिफ को 104 प्रतिशत पर बरक़रार रखने के निर्णय से ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका-चीन के बीच पूर्ण पैमाने पर टकराव शुरू हो गया है। इस बीच अमेरिकी ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेन्ट ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) को चेतावनी देते हुए कहा है कि टैरिफ बढ़ाने का उसका निर्णय एक बड़ी ग़लती है; विशेष रूप से चीन के साथ अमेरिका के भारी व्यापार घाटे के संदर्भ में। संयुक्त राष्ट्र कॉमट्रेड डेटाबेस के अनुसार, 2023 में चीन ने 165 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का सामान आयात किया, जबकि अमेरिका को उसका निर्यात 502 बिलियन अमेरिकी डॉलर था; जो कि आयात से तीन गुना अधिक है।

चीन को छोड़कर अधिकांश देशों के लिए पारस्परिक टैरिफ को रोकने के ट्रम्प के फ़ैसले का अमेरिकी शेयर सूचकांक पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। 11 अप्रैल को डॉव लगभग 3,000 अंक ऊपर चढ़ गया, जबकि नैस्डैक 12.1 प्रतिशत ऊपर चला गया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने मीडिया के समक्ष दोहराया कि देश की व्यापारिक साझेदारियाँ टिकाऊ नहीं हैं। इससे पहले कैनबरा में ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीस ने मई में होने वाले देश के आम चुनावों से कुछ सप्ताह पहले ट्रम्प की टैरिफ योजना के ख़िलाफ़ हाथ मिलाने के चीनी राजदूत शियाओ कियान के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

इस बीच चीनी अधिकारियों ने इंटरनेट प्लेटफार्मों पर निगरानी कड़ी कर दी है तथा ग्रेट फायरवॉल के माध्यम से नियंत्रण को मज़बूत किया है। इसके साथ ही सोशल मीडिया पर टैरिफ से सम्बन्धित सामग्री पर नियंत्रण बढ़ा दिया गया है। वेइबो पर हैशटैग और टैरिफ या 104 जैसे शब्दों की खोज कथित तौर पर प्रतिबंधित कर दी गयी है, तथा पेजों पर त्रुटि संदेश दिखायी दे रहे हैं। आलोचना को टालने के स्पष्ट प्रयास में सरकारी प्रसारक सीसीटीवी ने वेइबो का उपयोग करके अमेरिकी टैरिफ को अण्डों जैसी रोज़मर्रा की वस्तुओं की कमी से जोड़ दिया है। सेंसरशिप का दायरा वीचैट तक भी पहुँच गया है, जहाँ अमेरिकी टैरिफ के आर्थिक प्रभाव को कमतर आँकने वाले पोस्ट चुपचाप प्रसारित किये जा रहे हैं।

बीजिंग स्थित वकील पैंग जिउलिन, जिनके वेइबो अकाउंट पर 10.5 मिलियन से अधिक फॉलोअर्स हैं; ने आगाह किया है कि यदि चीन ने 104 प्रतिशत टैरिफ लगाने के अमेरिकी निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त की, तो अमेरिकी ख़रीदार चीनी उत्पाद ख़रीदना बंद कर देंगे और जल्द ही उनका स्थान भारत और वियतनाम के निर्यात द्वारा ले लिया जाएगा।

टैरिफ़ बढ़ा; लेकिन आगे बढ़ती रही बी.वाई.डी.

ब्रिटेन और यूरोपीय संघ द्वारा चीनी ऑटोमोबाइल पर लगाये गये उच्च टैरिफ के बावजूद दुनिया की सबसे लोकप्रिय इलेक्ट्रिक कारें बी.वाई.डी. (बिल्ड योर ड्रीम) से भरी शिप पहले ही रॉटरडैम, ब्रिस्टल, ब्रेमर हेवन और फ्लशिंग सहित प्रमुख यूरोपीय बंदरगाहों पर पहुँच चुकी हैं। इसके अतिरिक्त 5,000 इलेक्ट्रिक वाहनों की खेप चीन के शेनझेन से नीदरलैंड के फ्लशिंग और जर्मनी के ब्रेमर हेवन तक भेजने के लिए तैयार की जा रही है। बी.वाई.डी. के चांगझू संयंत्र से यंताई, शानदोंग से ब्रिस्टल और रॉटरडैम के लिए 5,000 अन्य कारों के रवाना होने की उम्मीद है। हाल ही में वाशिंगटन द्वारा शुरू किये गये टैरिफ युद्ध के बीच बी.वाई.डी. बेड़ा, जो पहले ही एलोन मस्क की टेस्ला से आगे निकल चुका है; यूरोप में अपनी विजय पताका गाड़ने के लिए तैयार दिखायी देता है।

फिर हिन्दू राष्ट्र बनेगा नेपाल?

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) जितना भारत में सक्रिय रहता है, उतनी ही उसकी सक्रियता नेपाल में भी है। और भी दिलचस्प सच्चाई यह है कि संघ नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व के मुक़ाबले वहाँ की राजशाही के ज़्यादा निकट है। नेपाल में चूँकि राजशाही की सक्रियता अचानक बढ़ गयी है और राजनीतिक नेतृत्व से उसकी टकराव जैसी स्थिति बन रही है, ऐसे में भारत की भी गहरी नज़र वहाँ के घटनाक्रम पर है। आईने में दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या नेपाल की जनता लोकशाही से विमुख हो रही है और दोबारा उसकी नज़र राजशाही पर है? जो नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाने की माँग कर रही है। दूसरा सवाल यह है कि यदि नेपाल में स्थिति बदलती है, तो क्या भारत किसी भूमिका में रहेगा? साल 2008 में नेपाल में राजशाही के अंत के बाद यह पहली बार है कि वहाँ के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह जब 09 मार्च को पोखरा से काठमांडू पहुँचे, तो उनके स्वागत के लिए हज़ारों की भीड़ जमा हो गयी। यह आश्चर्यजनक था; क्योंकि राजा हाल के वर्षों में बहुत कम ही सार्वजनिक रूप से दिखते रहे हैं।

पिछले एक महीने में राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह एक से ज़्यादा बार जनता के बीच पहुँचे हैं, जो उनकी सक्रियता को ज़ाहिर करता है। और भी दिलचस्प यह है कि यह सक्रियता राजनीतिक सक्रियता दिख रही है। उन्होंने इस दौरान नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की माँग की है। नेपाल राजशाही के समय तक घोषित हिन्दू राष्ट्र था। निश्चित ही नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था राजा की सक्रियता से परेशान होगी। नेपाल में राजा के सक्रिय होने और उनके दोबारा नेपाल में राजतंत्र को जीवित करने की मंशा को इसलिए भी बल मिल रहा है; क्योंकि नेपाल की स्थिति हाल के वर्षों में ख़राब हुई है। वहाँ की अर्थव्यवस्था बदहाल हुई है।

नेपाल की जनता राजनीतिक सत्ता से अप्रसन्न है। एक तो नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता बहुत ज़्यादा है, दूसरे बेरोज़गारी और महँगाई जैसे मुद्दे जनता को बेचैन कर रहे हैं। नेपाल की स्थिति देखने से लगता है कि जनता का राजनीतिक सत्ता (लोकशाही) से मोह भंग हो रहा है। वे परिवर्तन चाहते हैं और राजशाही को इसमें अपनी वापसी का रास्ता दिख रहा है। राजा ज्ञानेंद्र जनता की इस नब्ज़ को पकड़ रहे हैं और उन्होंने अपने सक्रियता बढ़ा दी है। राजा ज्ञानेंद्र अलवत्ता हाल के वर्षों में सक्रिय नहीं रहे थे। साल 2008 के बाद वे सार्वजानिक रूप से बहुत ही कम दिखे थे। अब उनके जाने के स्थानों पर जिस तरह भीड़ उमड़ रही है उससे संकेत मिलता है कि जनता उनसे कुछ उम्मीद कर रही है।

नेपाल में बदलते घटनाक्रम पर भारत की ही नहीं, चीन की भी नज़र है। यह माना जाता है कि हाल के वर्षों में चीन ने नेपाल में अपनी भूमिका को काफ़ी बढ़ाया है और राजनीतिक नेतृत्व के बीच उसकी सक्रियता और प्रभाव साफ़ तौर पर दिखे हैं। चीन ने नेपाल की परियोजनाओं में हिस्सेदारी बढ़ायी है और आर्थिक मदद के ज़रिये नेपाल को अपने साथ खड़ा करने की रणनीति अपनायी है। चीन ने यही रणनीति श्रीलंका, मालदीव और भूटान के लिए भी रखी है जिसके पीछे उसकी मंशा इन देशों को भारत से दूर ले जाने की रही है। श्रीलंका और मालदीव भारत से समुद्री सीमा साझा करते हैं, जबकि अन्य भूमि सीमा के रूप में। बहुत-से विशेषज्ञ मानते हैं कि आर्थिक मदद से इन देशों को क़ज़र्दार बनाकर चीन ने उन पर अपनी पकड़ क़ायम कर ली है। पाकिस्तान पहले से ही चीन का रणनीतिक साझेदार रहा है।

नेपाल आर्थिक रूप से कमज़ोर ट्रैक पर चलता रहा है। यही कारण है कि देश की जनता में असंतोष पनप रहा है। वहाँ बेरोज़गारों की क़तार लम्बी हुई है और आर्थिक विकास पर भी ब्रेक लगा है। हाल के वर्षों में नेपाल-भारत सीमा पर तनाव भी देखने को मिला है और जानकार इसके पीछे चीन को मानते हैं। यह भी सामने आया है कि भारत से लगती सीमा पर नेपाल के हिस्से में चीन ने कुछ निर्माण किये हैं। नेपाल इससे मन करता रहा है; लेकिन हाल के महीनों में ऐसे दस्तावेज़ और प्रमाण सामने आये हैं, जिनसे पता चलता है कि चीन ने नेपाल में निर्माण किये हैं और इनका मक़सद भारत पर नज़र रखना है।

बेशक नेपाल में आज से 17 साल पहले 2008 में लोकतंत्र ने दस्तक दे दे थी; लेकिन यह अभी भी वहाँ शैशवकाल में दिखता है। हाल के वर्षों में वहाँ लगातार राजनीतिक अस्थिरता रही है और बार-बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। नेपाल की अर्थव्यवस्था (जीडीपी) को लेकर वैसे तो विश्व बैंक के अनुमान बहुत चिन्ता जगाने वाले नहीं हैं; लेकिन हालात बहुत अच्छे भी नहीं हैं। विश्व बैंक के मुताबिक, नेपाल की अर्थव्यवस्था 2025 में 4.5 फ़ीसदी बढ़ने की संभावना है, जो पिछले माली साल में 3.9 फ़ीसदी थी। हालाँकि इसे व्यापक मामले में बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता है। यदि विश्व बैंक के अनुमान सही साबित होते हैं, तो 2025 के आख़िर तक नेपाल की जीडीपी 42.96 बिलियन यूएस डॉलर होने की उम्मीद है। नेपाल का विदेशी क़र्ज़ 2024 के आख़िर तक 10.5 अरब डॉलर था।

अब धीरे-धीरे नेपाल में राजशाही और लोकशाही के बीच तनाव बढ़ रहा है। हाल में तो वहाँ दोनों के समर्थकों के बीच हिंसक झड़पें भी देखने को मिली हैं। काठमांडू में इन झड़पों में दो लोगों की जान जाने से साफ़ संकेत मिलते हैं कि नेपाल में आने वाले समय में राजनीतिक तनाव और बढ़ेगा। हाल के समय में नेपाल के कुछ इलाक़ों, ख़ासकर मैदानी और मधेस के इलाक़ों में हिन्दू-मुस्लिम विवाद भी बढ़े हैं और दोनों समुदायों में हिंसा जैसी स्थिति भी बनी है। बहुत-से लोग नेपाल में इसके पीछे संघ की सक्रियता को देखते हैं। मधेश जैसे क्षेत्र में संघ ने अपना आधार मज़बूत किया है। बहुत दिलचस्प बात है कि संघ के राजाओं को विश्व हिन्दू सम्राट की उपाधि से सम्मानित करता रहा है। संघ नेपाल के राजा के हिन्दू होने के कारण वहाँ के राज-व्यवस्था को हिंदू राष्ट्र के रूप में व्याख्यायित करता रहा है। भारत के हिन्दू राष्ट्र होने की संघ की परिकल्पना किसी से छिपी नहीं है।

नेपाल का इतिहास काफ़ी पुराना है। वहाँ 1768 से राजतंत्र था; लेकिन 2008 में देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई और संसदीय प्रणाली के लागू होने के बाद देश के हिन्दू राष्ट्र के रूप में होने की पहचान ख़त्म हो गयी। राजा बीरेंद्र बीर विक्रम शाह की राजशाही जब थी, तब वह भारत और चीन के बीच संतुलन की नीति पर चलते थे। नेपाल में अस्सी के दशक में लोकतंत्र के आन्दोलन की आहूति पड़ी। वहाँ काम कर रहे राजनीतिक दलों ने देश में लोकशाही स्थापित करने और संविधान में सुधार का आन्दोलन शुरू किया। हालाँकि नेपाल में जब 1980 में एक जनमत संग्रह हुआ तो 45 फ़ीसदी लोगों ने राजतंत्र की जगह लोकतंत्र के हक़ में मत दिया। जनमत संग्रह के इस नतीजे ने राजशाही के भीतर हलचल पैदा कर दी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी का सिलसिला शुरू हो गया।

जनता के बीच इसका अच्छा संकेत नहीं गया। राजशाही पर दबाव बनने लगा और आख़िर नब्बे के दशक का आगाज़ राजनीतिक दलों को छूट मिलने से हुआ। राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह ने संसदीय राजशाही घोषित करके जनप्रतिनिधियों की सरकार गठित करने की राह हमवार कर दी। लेकिन नेपाल में इसके बाद अस्थिरता और हिंसा का दौर शुरू हो गया। के.पी. भट्टराई सरकार स्थितियों को सँभालने में अक्षम साबित हुई और नेपाल गृहयुद्ध की दलदल में धँस गया। यही समय था, जब माओवादी काफ़ी ताक़तवर हो गये थे और 2006 तक क़रीब 10 साल देश के राजनीतिक दलों और माओवादियों के बीच हिंसा का दौर चला। एक अनुमान के मुताबिक, इस हिंसा में क़रीब 17 से 18 हज़ार लोगों की जान चली गयी। इस हिंसा के दौर में ही राजशाही में भी हिंसा की बड़ी घटना हुई साल 2001 में, जिसमें राजमहल के भीतर राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह के पूरे परिवार की हत्या कर दी गयी। नेपाल की जनता ने राजा बीरेंद्र के भाई ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह को इस क़त्ल-ओ-ग़ारत का ज़िम्मेदार माना, जो अब नये राजा बन चुके थे। लेकिन ज्ञानेंद्र कमज़ोर शासक साबित हुए और उन्होंने जल्दी ही घुटने टेकते हुए राजनीतिक आन्दोलन का सामना न करते हुए 2008 में इस्तीफ़ा दे दिया और नेपाल हिन्दू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बन गया और पाँच साल के बाद देश का नया संविधान बन गया। अब यही राजा ज्ञानेंद्र नेपाल में राजशाही को बहाल करने के आन्दोलन के अगुआ बनने की कोशिश में हैं। देश में हिंसा का नया दौर शुरू होने के संकेत मिल रहे हैं। राजनीति और राजशाही के बीच टकराव का यह दौर क्या गुल खिलाएगा, अभी कहा नहीं जा सकता। लेकिन जनता भी बँट गयी है। एक धड़े में बड़ी संख्या में वे लोग हैं, जो राजशाही वापस लाने और नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की राजा ज्ञानेंद्र की माँग के साथ खड़े दिखते हैं।

संघ-मोदी का मन किसने मिलाया?

अरुण कुमार के बारे में सुना है? पूर्वी दिल्ली की झिलमिल कॉलोनी में जन्मे, वे 18 साल की उम्र में संघ के प्रचारक (पूर्णकालिक कार्यकर्ता) बन गये और 2021 में भाजपा के साथ समन्वयक बने। यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कृष्ण गोपाल की ज़िम्मेदारी सँभाली है, जिनके अधीन संघ ने अपने राजनीतिक विंग पर नियंत्रण खोना शुरू कर दिया था।

भाजपा अधिक मुखर हो गयी थी और प्रमुख मुद्दों पर परामर्श कम हो गया था। भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के यह कहने के बाद कि संगठन सक्षम है और उसे राजनीतिक समर्थन के लिए अपने मूल निकाय यानी संघ पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है; सम्बन्ध और ख़राब हो गये। संघ नेतृत्व ने चेतावनी दी; लेकिन भाजपा अपने ही रास्ते पर चलती रही और उसने ‘अबकी बार 400 पार’ का लक्ष्य रखा; लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में केवल 240 सीटों पर सिमट गयी।

यह धैर्य का खेल था और अरुण कुमार ने उस केमिस्ट्री को फिर से स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया था। संघ फिर से सक्रिय हो गया और भाजपा ने हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में इतिहास रच दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक क़दम आगे बढ़ने का फ़ैसला लिया और दिल्ली में मराठी साहित्य सम्मेलन में संघ की जमकर तारीफ़ की। बाद में लेक्स फ्रीडमैन के पॉडकास्ट पर बोलते हुए मोदी ने कहा कि संघ की वजह से उन्हें जीवन का उद्देश्य मिला है। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर नागपुर में संघ मुख्यालय का ऐतिहासिक दौरा किया। उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत की भी प्रशंसा की।

संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अरुण कुमार ने मोदी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध विकसित कर लिये थे, क्योंकि उन्होंने दिल्ली, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में प्रचारक के तौर पर भी काम किया था, जब मोदी इन राज्यों के मामलों को सँभाल रहे थे। अरुण कुमार की अतिरिक्त योग्यता यह है कि वह कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ हैं। बताया जाता है कि अनुच्छेद-370 को हटाने के सम्बन्ध में सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति तैयार करने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी थी। अरुण कुमार की सबसे बड़ी चुनौती भाजपा के नये अध्यक्ष की तलाश है, जो एक साल से अटकी हुई है; क्योंकि आदमी ऐसा चाहिए, जिस पर संघ और मोदी दोनों को भरोसा हो।