पहले खाली वक्त में अंताक्षरी खेलते थे, अब रील्स और यूट्यूब शॉट्स से फुर्सत नहीं मिल रही। फालतू बैठी गृहणियां मोबाइल पर इस दूषित, खतरनाक कंटेंट की सबसे ज्यादा कंज्यूमर हैं। उधर ओल्ड एंड यंग, “पुरुष सोशल मीडिया निपल को चूसे बगैर छटपटाते रहते हैं।”
यह बस 15 सेकंड का एक स्टंट होना था — इंस्टाग्राम पर “लाइक” पाने के लिए नहर में छलांग लगाना। लेकिन मध्य प्रदेश के 19 साल के राकेश के लिए यह रील उसकी आख़िरी बन गई। दोस्त वीडियो बनाते रहे, और राकेश डूब गया। वीडियो फिर भी वायरल हो गया। आज हिंदुस्तान में सोशल मीडिया की यह दीवानगी जानलेवा बन चुकी है। जो प्लेटफ़ॉर्म कभी रचनात्मकता के लिए बने थे, अब वहाँ अश्लीलता, हैरानी और हद से ज़्यादा दिखावे की दौड़ मची है। “वायरल” होने की इस पागलपन ने न सिर्फ़ क़ीमती जानें ली हैं, बल्कि हमारी तहज़ीब और सामाजिक मूल्यों को खोखला कर दिया है। हाल ही में दिल्ली मेट्रो में एक जोड़े ने ऐसा वीडियो बनाया जिसमें वे सॉफ्ट ड्रिंक को एक-दूसरे के मुँह में डालते दिखे — लोगों को घिन आई, लेकिन व्यूज़ लाखों में पहुंचे।
नोएडा में दो लड़कियों ने “अंग लगा दे” गाने पर रील बनाई, जिसमें वे एक-दूसरे को रंग लगाते और आपत्तिजनक हरकतें करती दिखीं। वीडियो वायरल हुआ, पर साथ में भारी आलोचना भी मिली। एक इन्फ़्लुएंसर ने एक वीडियो डाला, जिसमें एक लड़का गाड़ी पर नाचता दिखा और पीछे दो लड़कियाँ थीं — नतीजा, ₹33,000 का जुर्माना और सोशल मीडिया पर हंगामा। तेलंगाना में एक कुल्फ़ी बेचने वाला भी तब गिरफ़्तार हुआ जब उसने ग्राहकों के सामने अश्लील इशारे करते हुए रीलें बनाईं। और फिर वे हादसे — जो इस पागलपन की असली कीमत दिखाते हैं: श्वेता सुरवसे, 23, महाराष्ट्र में रील बनाते वक़्त कार समेत 300 फ़ीट गहरी खाई में गिरी और जान चली गई। छत्तीसगढ़ में एक 20 साल का स्टूडेंट दोस्तों के साथ रील बनाते हुए छत से गिरकर मर गया। शिवम कुमार, 21, यूपी के खैराडा गाँव में झंडे के डंडे पर उल्टा लटकने का स्टंट करते वक़्त नीचे दब गया। 2023 में ही देशभर की पुलिस ने 100 से ज़्यादा ऐसी मौतों की रिपोर्ट दी — ज़्यादातर 25 साल से कम उम्र के लड़के-लड़कियाँ, जिन्हें चाहिए था बस थोड़ा सा नाम और कुछ “फ़ॉलोअर्स।” नशे की तरह लाइक्स की भूख निरंतर बढ़ रही है।मनोवैज्ञानिक इसे “डोपामिन इकॉनमी” कहते हैं — जितनी सनसनीख़ेज़ हरकत, उतने ज़्यादा लाइक्स। हर “लाइक” एक नशे जैसा एहसास देता है।
सोशल मीडिया के एल्गोरिदम अब अच्छाई या रचनात्मकता नहीं, बल्कि हैरान कर देने वाले या गंदे कंटेंट को आगे बढ़ाते हैं। आगरा में कुछ लड़कों ने बुज़ुर्ग आदमी का मज़ाक उड़ाते हुए रील बनाई। दिल्ली में एक औरत ने भिखारी की नकल की — वीडियो को लाखों ने देखा, कुछ ने ही विरोध किया। आज मज़ाक के नाम पर ज़िल्लत और बेइज़्ज़ती को भी मनोरंजन मान लिया गया है। और सिर्फ़ अश्लीलता नहीं — सोशल मीडिया पर ग़लत जानकारी (मिसइनफ़ॉर्मेशन) सबसे तेज़ फैलती है। किसी “चमत्कारी इलाज” या “झटपट अमीरी के नुस्खे” वाला वीडियो कुछ ही घंटों में लाखों लोगों तक पहुँच जाता है। एक वायरल वीडियो में “डायबिटीज़ का देसी इलाज” बताया गया — दस मिलियन लोगों ने देखा, तब तक बहुत देर हो चुकी थी। डिजिटल थिएटर बिना किसी निगरानी के बंदर के हाथ स्तर बन रहे हैं। हर फ़िल्म को रिलीज़ से पहले सेंसर बोर्ड (CBFC) की मंज़ूरी चाहिए। मगर सोशल मीडिया पर कुछ भी, कभी भी पोस्ट किया जा सकता है — कोई रोक नहीं, कोई जवाबदेही नहीं। 15 सेकंड की एक रील करोड़ों लोगों की सोच को बदल सकती है — और कोई नहीं पूछता कि ये सही है या नहीं। चीन ने जब ऐसी ही समस्या देखी, तो तुरंत क़दम उठाया। अब वहाँ जो भी स्वास्थ्य, फ़ाइनेंस, क़ानून या शिक्षा पर कंटेंट डालना चाहता है, उसे अपनी क़ाबिलियत साबित करनी पड़ती है। सज़ा भारी नहीं, पर संदेश साफ़ है — ज़िम्मेदारी के बिना असर नहीं। भारत में भी आईटी नियम 2021 हैं, जो सरकार को आपत्तिजनक कंटेंट हटाने का अधिकार देते हैं, मगर तब जब कोई शिकायत करे। तब तक वीडियो लाखों बार देखा जा चुका होता है।
भारत को सेंसरशिप नहीं, बल्कि जवाबदेही चाहिए। सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के तहत एक “सोशल मीडिया मानक परिषद” (Social Media Standards Council) बनाई जा सकती है, जो: हेल्थ, फ़ाइनेंस या क़ानून से जुड़े कंटेंट डालने वालों की जाँच करे, अश्लील या हिंसक वीडियो को चिन्हित कर नीचे करे, बार-बार ग़लत जानकारी फैलाने वालों को सस्पेंड करे, और सच्चे, जिम्मेदार क्रिएटर्स को बढ़ावा दे।
जैसे फ़िल्म सेंसर बोर्ड सिनेमाघरों में मर्यादा बनाए रखता है, वैसे ही सोशल मीडिया के लिए भी एक हल्की लेकिन असरदार निगरानी ज़रूरी है — ताकि आज़ादी बनी रहे, पर अराजकता नहीं फैले। हर ख़तरनाक रील के पीछे एक ख़ालीपन है — देखा जाने की, सुना जाने की, क़द्र पाने की तलब। नौकरी, मौके और उम्मीदें कम होती जा रही हैं। ऐसे में सोशल मीडिया एक झूठा सुकून देता है — कुछ सेकंड की शोहरत, थोड़ी सी पहचान। मगर यह पहचान अक्सर ज़िल्लत, मौत या गिरावट में बदल जाती है। कितने और राकेश मरेंगे कुछ “व्यूज़” के लिए? अगर हमने अब भी रोक नहीं लगाई, तो रील लाइफ़ हमारी असली ज़िंदगी को निगल जाएगी।
जीएसटी कम करने की सरकारी घोषणा के बावजूद दिल्ली-एनसीआर में अधिकांश स्थानीय दुकानदार उपभोक्ताओं को जीएसटी छूट का लाभ नहीं दे रहे हैं, जिससे आम जनता की जेब पहले की तरह ही कट रही है। उपभोक्ताओं का बोझ कम करने के लिए केंद्र सरकार ने जीएसटी में कटौती की थी, लेकिन दिल्ली-एनसीआर में ज़्यादातर स्थानीय खुदरा विक्रेता जरूरी सामान पुरानी दरों पर ही बेच रहे हैं और ग्राहकों द्वारा जीएसटी कम होने की बात कहने पर भी उन्हें राहत देने से इनकार कर रहे हैं। इसी को लेकर इस बार तहलका ने पड़ताल की है। तहलका एसआईटी की रिपोर्ट :-
15 अगस्त 2025 को अपने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘अगली पीढ़ी’ माल और सेवा कर (जीएसटी) सुधारों की घोषणा की, जिसमें पर्याप्त दर में कटौती शामिल होने की घोषणा हुई। प्रधानमंत्री मोदी ने इन बदलावों को नागरिकों के लिए दीपावली उपहार और आम आदमी पर कर का बोझ कम करने का एक तरीका बताया। जीएसटी की नई दरें नवरात्रि के पहले दिन 22 सितंबर 2025 से लागू हो भी चुकी हैं। नई जीएसटी दरें लागू होने से एक दिन पहले भी प्रधानमंत्री मोदी ने राष्ट्र को संबोधित करते हुए वादा किया था कि “अगली पीढ़ी के जीएसटी सुधार” कर ढांचे को सरल बनाएंगे और सैकड़ों रोजमर्रा की वस्तुओं और सेवाओं को अधिक किफायती बनाएंगे। इस तरह जीएसटी घटाने के लिए चार-स्तरीय संरचना- 5 प्रतिशत, 12 प्रतिशत, 18 प्रतिशत, 28 प्रतिशत को 5 प्रतिशत और 18 प्रतिशत की दो-स्तरीय सरल प्रणाली के बदल दिया गया है।
जीएसटी की दरों में कटौती की घोषणा के तुरंत बाद केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण (सीसीपीए) को यह सुनिश्चित करने का काम सौंपा गया कि व्यवसायी जीएसटी दरों में कटौती का पूरा लाभ खरीदारों तक पहुंचाएं। उल्लंघनकर्ताओं पर अनुचित व्यापार प्रथाओं का आरोप में कार्रवाई की जा सकती है, क्योंकि ऐसा करना उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम, 2019 के तहत एक अपराध है। उपभोक्ता अधिकार निगरानी संस्था की एक विशेष शाखा को नए, निम्न राष्ट्रीय उपभोग कर (टैक्स) के बाद क्षेत्रीय निरीक्षण के माध्यम से 430 से अधिक सामान्यतः व्यापार की जाने वाली वस्तुओं की बाजार दरों पर निगरानी रखने का निर्देश दिया गया। केंद्रीय उपभोक्ता मामलों की सचिव निधि खरे ने मीडिया को बताया- ‘सीसीपीए यह सुनिश्चित करने के लिए कड़ी निगरानी रखेगा कि नई जीएसटी व्यवस्था के सभी लाभ उपभोक्ताओं तक पहुंचें। किसी भी उल्लंघन को अनुचित व्यापारिक व्यवहार माना जाएगा तथा कार्रवाई की जाएगी।’
जीएसटी दरों में कटौती के बाद बड़े धूमधाम से सरकार ने जीएसटी बचत उत्सव शुरू किया। लेकिन देश भर से मिल रही रिपोर्टों से पता चलता है कि दुकानदार इन कटौतियों का लाभ ग्राहकों को नहीं दे रहे हैं। व्यापारी पुरानी कीमतों पर ही चीजें बेच रहे हैं। जीएसटी कम होने से चीजों के बाजिव दाम लेने की बात कहने पर व्यापारी दावा कर रहे हैं कि वे पिछली जीएसटी दरों के तहत खरीदे गए पुराने स्टॉक को खत्म कर रहे हैं, जिसके चलते वे चीजों के दाम कम नहीं ले सकते। जीएसटी 2.0 सुधारों के तहत केंद्र सरकार ने यह दावा करते हुए कई श्रेणियों के उत्पादों पर कर की दरें कम कर दी थीं कि इससे त्योहारी सीजन से पहले आम नागरिकों पर बोझ कम होगा और उन्हें अधिक बचत करने में मदद मिलेगी। हालांकि उपभोक्ताओं का आरोप है कि व्यापारी ढीली व्यवस्था और कमजोर निगरानी प्रणाली का फायदा उठाकर उन्हें गुमराह कर रहे हैं और चीजों की अधिक कीमतें वसूल रहे हैं।
जमीनी हकीकत जानने के लिए तहलका ने दिल्ली-एनसीआर में एक रियलिटी चेक किया, ताकि पता लगाया जा सके कि क्या दुकानदार वास्तव में जीएसटी का लाभ आम आदमी को नहीं दे रहे हैं। इस दौरान तहलका ने कई बड़ी और छोटी दुकानों का दौरा किया और आम लोगों से बात की, जिनके लिए सरकार ने जीएसटी दर में कटौती के माध्यम से राहत का वादा किया था।
‘जीएसटी दरों में कटौती का फायदा ज्यादातर अमीरों को हो रहा है, गरीबों को नहीं। कटौती के बाद कारों की कीमतें कम हुई हैं, लेकिन कारें आम आदमी नहीं, बल्कि अमीर लोग खरीदते हैं। बड़े ब्रांडेड स्टोर जीएसटी का लाभ दे रहे हैं, लेकिन साधारण किराना दुकानदार दरों को कम नहीं कर रहे हैं। गरीब लोग आमतौर पर अपनी दैनिक जरूरत की चीजें स्थानीय किराना दुकानों से खरीदते हैं, ब्रांडेड दुकानों से नहीं।’ -नोएडा के सेक्टर 134 स्थित वाजिदपुर में मोबाइल की दुकान चलाने वाले सुधीर कुमार ने कहा। उन्होंने स्वीकार किया कि वे खुद भी पुरानी दरों पर सामान बेच रहे हैं।
‘मैं पुरानी दरों पर दवाइयां बेच रहा हूं, क्योंकि मेरा स्टॉक पुराना है। इसलिए मैं अपने ग्राहकों को कोई जीएसटी राहत नहीं दे रहा हूं। जब नया स्टॉक नए एमआरपी के साथ आएगा, तब हम देखेंगे।’ -नोएडा सेक्टर 134 के नागली में दुर्गा मेडिकल स्टोर के मालिक परविंदर मावी ने कहा।
‘जब मुझे दिल्ली की आजादपुर मंडी से खरीदे गए नारियल पर कोई जीएसटी राहत नहीं मिल रही है, तो मैं नारियल पानी कम कीमत पर कैसे बेच सकता हूं? जब भी मैं मंडी में व्यापारियों से जीएसटी कटौती का जिक्र करता हूं, तो वे इसे नजरअंदाज कर देते हैं और मुझसे कहते हैं कि या तो पुरानी कीमत पर खरीदो या चले जाओ।’ -नोएडा के सेक्टर 107 में नारियल पानी बेचने वाले नदीम खान ने कहा।
‘सभी दैनिक जरूरत की चीजें पुराने दामों पर ही बिक रही हैं। जीएसटी में कटौती के बाद कुछ भी नहीं बदला है, सब कागजों पर है। चाहे आप आटा खरीदें, दूध खरीदें या कुछ और, कीमतें अपरिवर्तित हैं। आम आदमी के लिए जीएसटी में कोई राहत नहीं है। यदि मैं चश्मे के फ्रेम पुरानी दरों पर बेच रहा हूं, तो यह समझ में आता है, क्योंकि वे पुराने स्टॉक से हैं। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि दैनिक उपयोग की चीजें भी उसी कीमत पर बेची जा रही हैं।’ -नोएडा के सेक्टर 134 स्थित वाजिदपुर स्थित मलिक ऑप्टिकल शॉप के मालिक मुस्तकीम ने कहा।
‘जीएसटी कटौती के बाद मुझे कोई राहत नहीं मिली है। मैं दैनिक आवश्यक चीजों के लिए पहले की तरह ही कीमत चुका रहा हूं।’ -उपभोक्ता कृपाल मौर्य ने कहा।
‘मेरे सेल्समैन ने मुझे बताया कि मैं अपनी दुकान के लिए जो सामान खरीदता हूं, उसकी कीमत अभी भी वही है। सरकार द्वारा हाल ही में घोषित जीएसटी कटौती के बाद कोई कमी नहीं हुई है। इसलिए मैं बाल कटाने, शेविंग, हेयर कलर और अन्य सेवाओं के लिए समान दरें ले रहा हूं। जीएसटी में कटौती सिर्फ़ कागजों पर ही है। यहां तक कि चावल, आटा और खाने का तेल जैसी घरेलू चीजेंं भी अभी भी पुरानी दरों पर ही बिक रही हैं। कीमतों में कोई छूट नहीं दी गई है।’ -नोएडा के सेक्टर 134 में नाई की दुकान के मालिक नसीम ने कहा।
जीएसटी कटौती की पड़ताल के दौरान तहलका रिपोर्टर की मुलाकात नोएडा के सेक्टर 134 में दुर्गा मेडिकल स्टोर के मालिक परविंदर मावी से हुई। उनके साथ हुई संक्षिप्त बातचीत में रिपोर्टर को पता चला कि बहुप्रचारित जीएसटी दर में कटौती उपभोक्ताओं तक पहुंचने में विफल रही है। मावी ने स्वीकार किया कि वह पुरानी दरों पर ही दवाइयां बेच रहे हैं, जिसका कारण उनका न बिका हुआ स्टॉक है। हालांकि उन्होंने स्वीकार किया कि नई आपूर्ति के साथ कीमतें गिर सकती हैं, लेकिन अभी तक यह लाभ तथाकथित ही है, जिससे आम खरीदार को कोई सैद्धांतिक राहत नहीं मिल रही है। रिपोर्टर : अब तो रेट कम हो गए होंगे दवाई पर, जीएसटी हटने से? परविंदर : अभी तो चल रहा है। रिपोर्टर : चल रहा मतलब? परविंदर : अभी मार्केट जाना नहीं हुआ ना, कुछ पर बढ़ेंगे, कुछ पर घटेंगे। रिपोर्टर : तो आपके वही रेट हैं, …पुराने वाले? परविंदर : हां। रिपोर्टर : पुराना स्टॉक होगा, किसी पर जीएसटी कम नहीं हुई? परविंदर : अभी मेरे पास तो नहीं, जो है पुराना ही है। रिपोर्टर : दवाइयों पर तो लगभग सभी पर जीएसटी कम हुई है? परविंदर : हां, अब जो माल आएगा ना, उस पर। रिपोर्टर : अभी पुराना माल है? परविंदर : अभी पुराना माल है। रिपोर्टर : उसी रेट पर बेच रहे हो, …पुराने वाले? परविंदर : हां, अब जो आएगा ना, एमआरपी कम होकर आएगा। रिपोर्टर : तभी जनता को फायदा नहीं हो रहा आपसे?
परविंदर
अब हमारी मुलाकात नदीम से हुई, जो कई वर्षों से नोएडा के सेक्टर 107 में नारियल पानी बेचते हैं। हमने उनसे पूछा कि क्या जीएसटी में कटौती के बाद नारियल की कीमत कम हुई है? इस पर नदीम ने कहा कि दिल्ली की आजादपुर मंडी से वह नारियल खरीदता है, जहां नारियल के दाम कम नहीं हुए हैं। इसलिए वह भी कम दामों पर नारियल पानी नहीं बेच सकता। पिछले कई महीनों से उनकी दरें एक समान बनी हुई हैं- 80 रुपये प्रति नारियल। इस चर्चा में यह स्पष्ट हो गया कि जीएसटी कटौती का प्रभाव जमीनी स्तर पर नहीं हुआ है।
नदीम
रिपोर्टर : क्या रेट है नारियल पानी? नदीम : 80 रुपए। रिपोर्टर : अभी कम नहीं किए रेट तुमने? नदीम : काफी टाइम से है। रिपोर्टर : अरे पर अब तो जीएसटी कम हो गई? नदीम : आज भी 72-71 रुपए है नारियल आजादपुर मंडी में। रिपोर्टर : नारियल पानी पर भी तो जीएसटी कम हुई है? नदीम : मंडी वाले जब कम दे तभी तो हो। रिपोर्टर : मैं तो समझ रहा था कि तुम 60 रुपए का बेचोगे आज? नदीम : आज भी 70-72 रुपए आजादपुर मंडी में है। रिपोर्टर : नारियल की कीमत? नदीम : हां। रिपोर्टर : कहां से लाते हो? नदीम : आजादपुर से। रिपोर्टर : वहां भी कम नहीं हुआ? नदीम : वहां भी कम नहीं हुआ। रिपोर्टर : हमें कैसे पता, हो सकता है झूठ बोल रहे हो तुम? नदीम : हमारा डेली का काम है। रिपोर्टर : वहां जीएसटी कम हो गई हो पर तुम जीएसटी लगा रहे हो? नदीम : आपकी बात मैं मानता हूं, मगर मंडी के अंदर कोई नहीं मानता। वहां तो पैसा मांगता है, कहते हैं ये रेट है, …लेना हो तो लो, नहीं तो जाओ। रिपोर्टर : तुम तो 80 रुपए बहुत टाइम से बेच रहे हो? नदीम : बहुत टाइम से। रिपोर्टर : नहीं, जीएसटी कम हुई है, …तभ तो सस्ता होना चाहिए? नदीम : जीएसटी कम हुई है, तो माल सस्ता होना चाहिए, मगर मंडी के अंदर सस्ता नहीं हुआ।
जब तहलका ने मलिक ऑप्टिकल से संपर्क कर यह जानना चाहा कि क्या उपभोक्ताओं को दुकान से सामान खरीदते समय जीएसटी राहत का लाभ मिल रहा है, तो उसके मालिक मुस्तकीम ने संवाददाता को बताया कि जीएसटी दर में कटौती के बाद दैनिक जरूरत की वस्तुओं की कीमतों में कोई बदलाव नहीं आया है। उन्होंने कहा कि वे सभी आवश्यक वस्तुओं के लिए वही कीमत चुका रहे हैं जो वे कर छूट से पहले चुकाते थे। उनके अनुसार, जीएसटी दर में कटौती केवल कागजों पर ही है। उन्होंने कहा कि यहां तक कि वे जो सामान बेच रहे थे, जैसे कि चश्मे के फ्रेम, उनकी कीमतें भी पहले की तरह ही बनी हुई हैं – तथाकथित सुधारों से उन पर कोई असर नहीं पड़ा है।
मुस्तकीम
रिपोर्टर : अब तो रेट कम हो गए होंगे फ्रेम के, ,,,जीएसटी हट गई है? मुस्तकीम : किस चीज के रेट कम हुए हैं बत दो? दूध आज भी 70 रुपए किलो ही आ रहा है, अनाज भी वही रेट आ रहा है, ..ये दिखाने के लिए ही है कागजों में, हकीकत में कुछ भी नहीं है। मुस्तकीम (आगे) : दूध 70 ही आ रहा है अभी क्यूं, एक रुपया भी कम न हुआ, ये तो छोड़ो (रिफरिंग टू फ्रेम्स) रोज नहीं खरीदेगा आदमी, जो रोज की चीज है डेली की, उसमें एक रुपया भी कम नहीं हुआ है, कागजों में है बस। रिपोर्टर : सरकार कह रही है जीएसटी हटा दी 22 सितंबर से। मुस्तकीम : चलो फ्रेम तो ऐसी चीज है छ: महीने पहले खरीदा, चार महीने पहले खरीदी, लेकिन जो रोज पैकिंग में आ रही है उसमें एक रुपया कम न हुआ अभी तक, दूध का रेट वही है 70, जो पहले था। मुस्तकीम (आगे) : जो पैकेट में आते हैं दूध उसकी बत कर रहा हूं। रिपोर्टर : मदर डेयरी का भी वही रेट है? मुस्तकीम : वही रेट है, एक पैसा भी कम नहीं हुआ। रिपोर्टर : हमारी सोसायटी में जो मदर डेयरी है उसने तो कम कर दिया। मुस्तकीम : किसी ने भी कम नहीं किया सर, एमआरपी चेर कर लो, उसी रेट पर मिल रहा है। एक चीज पर भी कम नहीं हुआ है, कागजों में है। रिपोर्टर : मतलब अभी चश्मों में भी नहीं है, अभी कोई उम्मीद नहीं है? मुस्तकीम : नहीं सर, अभी कागजों में ही है, …यही हकीकत है। रिपोर्टर : कागज मतल आपके या सरकार के? मुस्तकीम : सबके, …हमारे पास तो होकर ही जाएगा जब ऑर्डर आएगा तो।
पता लगाया जा सके कि क्या उन्होंने अपनी दुकान में इस्तेमाल होने वाली कई वस्तुओं पर जीएसटी कटौती के बाद अपनी दरें कम कर दी हैं। नसीम के अनुसार, उनके सप्लायर ने उनसे कहा कि दुकान के लिए वे जो उत्पाद खरीदते हैं, उनकी कीमतें अभी भी कम वही हैं और जीएसटी में छूट के बाद भी उनमें कोई कमी नहीं आई है। इसलिए वह बाल कटाने, शेविंग करने, बाल रंगने और अन्य सेवाओं के लिए पहले वाली ही दरें ले रहे हैं। अपने तर्क के समर्थन में नसीम ने कहा कि जीएसटी में कटौती केवल कागजों पर ही है, वह अभी भी चावल, आटा और खाना पकाने के तेल जैसी दैनिक घरेलू वस्तुएं पुरानी दरों पर ही खरीद रहे हैं। इन चीजों की कीमतों में किसी भी तरह की कोई राहत नहीं दी गई है। नसीम ने बताया कि वह तो दीपावली के बाद दरें बढ़ाने की योजना बना रहे हैं, क्योंकि उनके दुकान मालिक दुकान का किराया बढ़ाने वाले हैं। रिपोर्टर : अब तो कटिंग के रेट कम कर दिए होंगे तुमने? नसीम : दिवाली से बढ़ जाएंगे और। रिपोर्टर : अरे! जीएसटी कम हो गई, सामान सस्ता हो गया, फिर भी? नसीम : हमारी कम नहीं हुई। रिपोर्टर : आपकी कम नहीं हुई? क्या चल रहा है कटिंग का रेट? नसीम : वही, …70 रुपए। रिपोर्टर : वही जो पहले था? और सेविंग? नसीम : 60 रुपए स्ट्रेट बनाने का। रिपोर्टर : कटिंग 70 रुपए जो पहले थी? नसीम : हां दिवाली से रेट बढ़ जाएगा। रिपोर्टर : क्यूं? नसीम : दिवाली के बाद किराया बढ़ जाएगा। रिपोर्टर : अच्छा, टुम्हारी दुकान का किराया बढ़ जाएगा? रिपोर्टर : अब तो रेट कम कर दिए होंगे? नसीम : हमारे सामान पर कम नहीं हुआ। रिपोर्टर : कुछ कम नहीं हुआ? तुम उसी रेट पर ले रहे हो? नसीम : वो कहता कहीं कम नहीं हुआ है, ….लाओ दिखाओ हमें, …कहीं कम नहीं हुआ है। रिपोर्टर : वही रेट चल रहे हैं? नसीम : राशन के कम हुए हैं? …अब राशन वाले ने भी बंद कर दिया है, …कह रहा है हमारे भी कम नहीं हुए, दिखाओ कहां है? रिपोर्टर : तुम तो कह रहे हो कम हुए हैं राशन के? नसीम : अखबार में लिखा है, मगर ये लोग मानते नहीं हैं, उस पर हुआ है… शैम्पू पर। रिपोर्टर : आप राशन ले रहे हो पुराने रेट में? नसीम : पुराने रेट में। रिपोर्टर : आटा-वाटा सब, कोई कम नहीं हुआ? जीएसटी नहीं हटी? नसीम : नहीं, हम तेल लेते हैं, एक रुपया भी कम नहीं करता है। रिपोर्टर : एक बार जो बढ़ा देता है, कम नहीं करता है।
नसीम
इसके बाद हम नोएडा के गुलशन वन 29 मॉल स्थित मल्टीप्लेक्स मूवीमैक्स गए, जहां जॉली एलएलबी 3 फिल्म दिखाई जा रही थी, वहां सिनेमाघर में दर्शकों को बेचे जा रहे पॉपकॉर्न की कीमतों की जांच की। सेल्समैन ने हमें बताया कि जीएसटी कटौती के बाद भी मूवीमैक्स की कीमतें कम नहीं हुई हैं। उनके अनुसार, अभी तक किसी भी मल्टीप्लेक्स में दरें कम नहीं की गई हैं और कोई भी संभावित परिवर्तन प्रबंधन से प्राप्त मेल पर निर्भर करेगा। यदि उन्हें ब्याज दरों में कटौती की सूचना प्राप्त होती है, तो कीमतें कम कर दी जाएंगी। रिपोर्टर : पॉपकॉर्न क्य रेट है? सेल्समैन : 550 और 650। रिपोर्टर : ओके विद बटर और विदआउट बटर? सेल्समैन : विदाउट बटर। रिपोर्टर : ओके कुछ कम नहीं हुए रेट जीएसटी के बाद? सेल्समैन : नहीं, अभी इतना ही है। रिपोर्टर : मूवीमिक्स में रेट ही कम नहीं हुए जीएसटी के बाद? सेल्समैन : नहीं, कहीं भी अभी कम नहीं हुए, XXXX में भी नहीं हुए। रिपोर्टर : XXXX में भी कम नहीं हुए। सेल्समैन : हो जाएंगे, मेल आएगा तो उसके बाद हो सकते हैं। रिपोर्टर : 22 सितंबर को ही जीएसटी कम हो गई थी। सेल्समैन : मेल तो ऊपर से आता है। रिपोर्टर : वाटर बोटल कितने की है आपकी? सेल्समैन : 70 रुपए की, सर! रिपोर्टर : उस पर भी कम नहीं हुए? सेल्समैन : होगा तो सर बिलकुल आएगा।
सेल्समैन
चूंकि पनीर की कीमतें भी कम हो गई हैं, इसलिए हमने यह देखने के लिए नोएडा के सेक्टर 134 में एवरग्रीन स्वीट शॉप का दौरा किया कि क्या जीएसटी कटौती के बाद पनीर, समोसे की कीमतें कम हुई हैं या नहीं। हमें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि काउंटर पर बैठे सेल्समैन ने बताया कि पनीर के दाम कम होने के बावजूद समोसे के दाम कम नहीं हुए हैं। उन्होंने बताया कि समोसे तलने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले गैस सिलेंडर की कीमत अभी भी वही है और समोसे तलने में लगे श्रमिकों के वेतन में कोई कटौती नहीं की गई है। इसलिए उन्होंने एक समोसे के लिए 17 रुपए वसूले, जो जीएसटी कटौती से पहले की दर के समान ही था। जब हमने समोसे तल रहे मजदूर से कीमतों के बारे में बात की, तो उसने कहा कि एक बार कीमतें बढ़ जाने पर कोई उन्हें कम नहीं करता। लेकिन जब लागत बढ़ जाती है, तो स्थिति के अनुसार कीमतें तुरंत बढ़ जाती हैं। रिपोर्टर : ये पनीर का समोसा है ना? सेल्समैन : हां। रिपोर्टर : मिल जाएगा? सेल्समैन : हां। रिपोर्टर : कितने का एक? सेल्समैन : 17 रुपए का। रिपोर्टर : 17 रुपए? सस्ता नहीं हुआ अभी, जीएसटी हटने के बाद, पनीर से जीएसटी हट गई ना? हम समझ रहे थे कि सस्ता हो गया होगा? सेल्समैन : पनीर से ही तो हटी है, कारीगरों से तो नहीं। कारीगर तो उतने का ही है, गैस सिलेंडर उतने का ही है। केवल पनीर से क्या होगा? रिपोर्टर : समोसा अभी भी महंगा है, …17 रुपए का एक। मैं सोच रहा था जीएसटी हट गई है पनीर से, तो समोसा सस्ता हो गया होगा? दूसरा सेल्समैन : रेट घट जाएं तो कम नहीं करते, बढ़ा देंगे।
सेल्समैन
नोएडा के सेक्टर 134 में हमारी मुलाकात मोबाइल दुकान के मालिक सुधीर कुमार से हुई। जीएसटी दरों में कटौती के बारे में पूछे जाने पर सुधीर ने कहा कि इससे ज्यादातर अमीरों को फायदा होगा, गरीबों को नहीं। जीएसटी में कटौती के बाद कारों की कीमतें कम हो गई हैं, लेकिन कारें आम आदमी नहीं, बल्कि अमीर लोग खरीदते हैं। बड़े ब्रांडेड स्टोर तो जीएसटी में कटौती का लाभ ग्राहकों को दे रहे हैं, लेकिन साधारण किराना दुकानें कोई छूट नहीं दे रही हैं। सुधीर कुमार ने कहा कि ‘गरीब लोग अपनी दैनिक जरूरत की वस्तुएं ब्रांडेड दुकानों से नहीं, बल्कि स्थानीय किराना दुकानों से खरीदते हैं।’
ड्राइवर कृपाल मौर्य ने हमें बताया कि स्थानीय किराना दुकानों से दैनिक जरूरत की चीजों पर जीएसटी कटौती के बाद कीमतों में कोई राहत नहीं मिली है। उन्होंने कहा कि वे पहले की तरह ही कीमतें चुका रहे हैं। हम उत्तर प्रदेश के आगरा में फतेहाबाद रोड पर स्थित मल्टी-स्पेशलिटी अस्पताल शांति मांगलिक के गेट के पास स्थित एक मेडिकल स्टोर पर भी गए। जब पूछा गया कि क्या जीएसटी में कटौती के बाद दवाओं की कीमतें कम हुई हैं, तो काउंटर पर मौजूद सेल्समैन ने तुरंत जवाब दिया कि जीएसटी में छूट के बावजूद कीमतें अपरिवर्तित हैं।
हालांकि तहलका रिपोर्टर ने पाया कि सभी दुकानदार ग्राहकों से पुरानी कीमत नहीं वसूल रहे हैं, कुछ उन्हें जीएसटी लाभ दे भी रहे थे। अपोलो फार्मेसी के सेल्समैन मूनिस ने कहा कि वे दवाओं पर जीएसटी में कटौती की पेशकश कर रहे हैं। उन्होंने स्वीकार किया कि कई स्थानीय मेडिकल स्टोर पुराने स्टॉक को कारण बताते हुए ग्राहकों को लाभ नहीं दे रहे हैं।
मूनिस
नीचे एक मेडिकल स्टोर के मालिक के साथ संक्षिप्त बातचीत से यह स्पष्ट हो जाता है कि जीएसटी कटौती का लाभ केवल कुछ ही लोगों को मिल रहा है, जबकि अधिकांश स्थानीय दुकानों पर ग्राहकों को राहत नहीं दी जा रही है। मूनिस बताते हैं कि अधिकांश दुकानें अभी भी पुराना स्टॉक खत्म करने में लगी हैं, जिससे कीमतों में कोई कमी नहीं हो पा रही है। हालांकि उन्होंने कहा कि उनका स्टोर लाभ दे रहा है, लेकिन अधिकांश व्यापारी पहले की तरह ग्राहकों से रेट ले रहे हैं, जो नीति के असमान कार्यान्वयन को उजागर करता है। रिपोर्टर : आप तो जीएसटी का फायदा दे भी रहे हो, बहुत से नहीं दे रहे। मूनिस : रोज सिस्टम अपडेट होता है। बहुत से लोग तो दे नहीं रहे हैं, अभी पुराना स्टॉक पड़ा हुआ है। रिपोर्टर : बहुत सारे मेडिकल स्टोर नहीं दे रहे। मूनिस : नहीं, लोकल वाले तो दे नहीं पा रहे, कहते हैं पुराना स्टॉक है। रिपोर्टर : तो आप कैसे दे रहे हो? मूनिस : हा.हा..।
नोएडा के गुलशन वन 29 मॉल में स्थित एक बड़ी खुदरा श्रृंखला, मॉडर्न बाजार में हमें उनके बिक्री कर्मचारियों ने बताया कि उनके स्टोर पर सभी किराना वस्तुओं पर जीएसटी कटौती पूरी तरह से लागू है। हालांकि उनके सेल्समैन सत्या ने स्वीकार किया कि स्थानीय किराना स्टोर जीएसटी का लाभ आम लोगों को नहीं दे रहे हैं और वह प्रभावित ग्राहकों में से खुद को भी एक मानते हैं। रिपोर्टर : ग्रॉसरीज पर रेट कम हुए क्या? सेल्सगर्ल : हां सर! हुई तो है। रिपोर्टर : किस-किस पर हुई है? सेल्सगर्ल : ये नहीं पता, डाल पर, …सारी ग्रॉसरीज पर, इनफेक्ट कितना कम हुआ है ये तो आपको सर बता सकते हैं। रिपोर्टर : दाल, चावल… सब पर कम हुआ है? सेल्सगर्ल : जी। रिपोर्टर : हां ग्रॉसरीज पर रेट कम हुए हैं जीएसटी के बाद? सत्या : आप रेट देख लीजिए बिल पर आपको रेट दे देता हूं। रिपोर्टर : जैसे आटा है, दाल है, चावल? सत्या : सब पर हुआ है, …ये देख रहे हो आप… जीएसटी रेट है। …आइए अभी तो ऑफर चल रहा है। रिपोर्टर : नो पुराने रेट पर ही बेच रहे हैं? रिपोर्टर (आगे) : आपने तो कम कर दिए हैं, पर जो नॉर्मल ग्रॉसरी स्टोर्स हैं, वो नहीं कर रहे। मॉडर्न बाजार ने तो कम कर दिए। सत्या : हां, मैं भी गया था, मुझे भी वही रेट दिए हैं, …अभी पुराना स्टॉक निकल रहा है। मैंने बोला बिल भी तो दिखाना चाहिए।
तहलका ने अपनी इस पड़ताल में पाया गया कि किराने का सामान और दवाइयों का कारोबार करने वाले सभी ब्रांडेड स्टोर अपने ग्राहकों को जीएसटी का लाभ दे रहे हैं। लेकिन छोटे मेडिकल और किराना स्टोर अपने गरीब ग्राहकों को ये लाभ नहीं दे रहे हैं, उनका दावा है कि वे पिछली कर दरों के तहत खरीदे गए पुराने स्टॉक को खत्म कर रहे हैं। दिल्ली-एनसीआर में हमने जिन दुकानों का दौरा किया, उनमें से कई में कोई नोटिस बोर्ड नहीं था और व्यापारी खुलेआम नियमों का उल्लंघन करते मिले। अधिकांश चीजों पर सरकार के वादे के मुताबिक चीजों के मूल्यों में कम जीएसटी के हिसाब से कटौती करके ग्राहकों को बेचते नहीं मिले। उपभोक्ताओं का आरोप है कि निगरानी की कमी के कारण व्यापारी पुरानी दरों पर उत्पाद बेचकर उन्हें बेवकूफ बना रहे हैं और लूट रहे हैं। जीएसटी की नई दरों का क्रियान्वयन न होना विशेष रूप से दवाओं और आवश्यक वस्तुओं के मामले में गंभीर प्रतीत होता है। दुकानदार और मेडिकल स्टोर वाले अधिकारीयों की कार्रवाई के डर के बिना पुरानी दरें वसूल रहे हैं। तहलका में हमारा मानना है कि सरकार को तुरंत विशेष अभियान शुरू करना चाहिए। बाजारों का निरीक्षण करना चाहिए। उल्लंघन करने वालों को दंडित करना चाहिए और एक सार्वजनिक हेल्पलाइन शुरू करनी चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि जीएसटी दर में बदलाव का लाभ आम लोगों तक पहुंचे। प्रवर्तन में थोड़ी-सी भी देरी से उपभोक्ताओं को भारी वित्तीय नुकसान होता है। इस मुद्दे पर त्वरित कार्रवाई और जन जागरूकता पैदा करना महत्वपूर्ण है। सरकार ने उन दुकानदारों और व्यवसायों के खिलाफ सख्त कदम उठाने की घोषणा की है, जो ग्राहकों को जीएसटी का लाभ देने में विफल रहे हैं। लेकिन जमीनी स्तर पर क्रियान्वयन इरादे के अनुरूप होना चाहिए।
बिहार के एक छोटे से गाँव की धूलभरी गलियों में 19 वर्षीय रामवती कभी “अछूत” कहलाती थी। कुएँ से पानी भरने जाओ तो औरतें पीछे हट जाती थीं। उसकी परछाईं तक मनहूस मानी जाती थी। मगर, ग्रेजुएशन के बाद, अंग्रेजी भाषा सीखकर आज, गुरुग्राम के एक कॉल सेंटर में बैठी वही रामवती अपनी आवाज़ से महाद्वीपों के पार ग्राहकों से बात करती है। यहाँ कोई उसकी जात नहीं पूछता। उसकी क़ीमत उसकी बोलने की रफ़्तार, विनम्रता और काम के प्रति लगन से तय होती है। मुंबई के किसी और कोने में राजू, जो कभी एक मज़दूर का बेटा था, अब बीएमडब्ल्यू की ड्राइविंग सीट पर है। जिन अफ़सरों को वह रोज़ ऑफ़िस छोड़ने जाता है, वे मुस्कुराकर “गुड मॉर्निंग” कहते हैं — “कौन सी जात हो?” नहीं पूछते। राजू का चचेरा भाई रमेश, एक बिजली मिस्त्री, सुबह से रात तक टेक पार्क, मॉल और ऊँची रिहायशी सोसाइटियों में काम करता है। वहीं राम, जो एक सोसाइटी का हेल्पिंग स्टाफ है, बुज़ुर्गों को उतरने में मदद करता है, उनके किराने या खाने का सामान उठाता है — अब उसके लिए लोगों के दिलों में सम्मान है, संकोच नहीं। गाँव के कुएँ से लेकर वर्चुअल दुनिया तक, भारत का तेज़ शहरीकरण, तकनीकी उन्नति और खुलती हुई ग्लोबल अर्थव्यवस्था, सदियों से बनी जातीय दीवारों को चुपचाप गिरा रही है। शहर अपनी अव्यवस्था और अवसरों के साथ एक नए युग का महान समताकारी (Great Equaliser) बन चुका है — जहाँ जात नहीं, योग्यता और परिश्रम पहचान तय करते हैं।
सदियों तक जाति व्यवस्था ने तय किया कि कौन ऊँचा है और कौन नीचा, कौन क्या काम करेगा और कौन नहीं। मगर अब एक धीमी, पर गहरी सामाजिक क्रांति चल रही है — जिसे आगे बढ़ा रहे हैं शहरीकरण और डिजिटल कनेक्टिविटी के दो मज़बूत इंजन। शादी-ब्याह या गाँव के सामाजिक रीति-रिवाजों में जात की दीवारें अब भी कायम हैं, लेकिन शहरों में वे दीवारें दरक चुकी हैं। अब तरक़्क़ी का रास्ता परिश्रम और हुनर से निकलता है, खानदान और कुलनाम से नहीं। सबसे नज़र आने वाला बदलाव अब सार्वजनिक जीवन में दिख रहा है। देश के मंदिर, जो कभी भेदभाव के गढ़ थे, अब सबके लिए खुले हैं। प्रवेश का टिकट डिजिटल होता है, जातीय नहीं। कार्यालयों, मॉलों और सर्विस सेक्टर ने एक नई समानता रची है — यहाँ अहमियत काम की है, नाम की नहीं। पुराने सामाजिक बंधन, जो औरतों के कदम रोकते थे, अब टूट रहे हैं। सड़क से लेकर बोर्डरूम तक, महिलाएँ बराबरी से हिस्सेदारी निभा रही हैं। यह बदलाव परंपरागत समाज की नींव से लेकर उसकी मानसिकता तक को चुनौती दे रहा है। इस परिवर्तन को रफ़्तार दी है तकनीक ने।
इंटरनेट और सोशल मीडिया ने चाहतों और सपनों को लोकतांत्रिक बना दिया है। अब कोई भी जानता है कि सफलता विरासत से नहीं, मेहनत से मिलती है। इस नई डिजिटल दुनिया में जात का कोई दाम नहीं। प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी, जो सामाजिक विश्लेषक हैं, कहते हैं — “शहरों में एक नई आपसी निर्भरता (Interdependency) जन्म ले रही है। अब बिजली मिस्त्री, प्लंबर, डिलीवरी बॉय — सब अहम हैं। वे हर घर में बेझिझक जाते हैं, उनके काम की क़ीमत है, जात की नहीं। आज कोई ऊँची जात का युवा डिलीवरी बॉय से पार्सल लेता है या किसी बाई पर घर की ज़िम्मेदारी छोड़ता है तो उसे उसकी जात की परवाह नहीं रहती। यह बदलाव मामूली दिखता है, पर सामाजिक दृष्टि से गहरा और ऐतिहासिक है।” नोएडा के आवासीय कॉम्प्लेक्स हों या मुंबई की सोसायटियाँ — हाउस हेल्प, ड्राइवर, टेक्नीशियन, सब एक बड़े महानगरीय ताने-बाने में शामिल हो चुके हैं। अब जाति किसी दरवाज़े के बाहर नहीं खड़ी रहती। सर्विस इकॉनमी ने इस सामाजिक बदलाव को और गति दी है। कॉल सेंटर्स, बीपीओ, और ऐप-आधारित कामों में व्यक्ति की पहचान उसकी आवाज़, उसकी प्रोफ़ाइल, और रेटिंग से होती है — उपनाम या जात से नहीं। तकनीकी गुमनामी ने जन्म आधारित भेदभाव को धीरे से किनारे कर दिया है, कहती हैं सोशल एक्टिविस्ट पद्मिनी अय्यर। अब वेटर, ड्राइवर, इवेंट मैनेजर, या कैटरर — सब अपनी पेशेवर पहचान से पहचाने जाते हैं। बैंगलोर की एक्टिविस्ट मुक्ता के मुताबिक, ” शहरों में पहनावे और संस्कृति में भी यह बराबरी झलकती है। जीन्स और टी-शर्ट जैसे कपड़े अब नई पीढ़ी की साझा यूनिफ़ॉर्म बन गए हैं। जातीय अंतर कपड़ों और बोलचाल से मिट गए हैं। उत्तर से दक्षिण, पूरब से पश्चिम — महानगर एक पैन-इंडियन समाज की बुनियाद गढ़ रहे हैं। मॉल, मल्टीप्लेक्स, कैफ़े — यह सब नई समानता के प्रतीक हैं, जहाँ कोई जात पूछने की फुर्सत नहीं रखता। रोज़मर्रा की भागदौड़ में, लोग जात भूलकर केवल काम, लक्ष्य और सपनों पर भरोसा करना सीख रहे हैं।” सच तो यह है कि आधुनिक शहर एक ग़ैर-सियासी क्रांति ला रहे हैं — बिना किसी घोषणा के, बिना किसी नारे के। ज़िंदगी की ज़रूरतें, रोज़ी-रोटी की मजबूरी, और तकनीक की सर्वव्यापकता मिलकर एक नया समाज रच रही हैं — जहाँ इंसान को पहली बार अपने जन्म की बेड़ियों से निकलकर खुद कुछ बनने का सच्चा मौक़ा मिला है। यह नया भारत है — जहाँ पहचान अब जात से नहीं, काम और काबिलियत से बनती है।
24 अक्टूबर को संयुक्त राष्ट्र ने अपना स्थापना दिवस मनाया — लेकिन ये जश्न कहीं से भी जश्न जैसा नहीं लगा। दावे शांति के, पर माहौल बेचारगी का। नाकामियों की ये सालगिरह दुनिया के लिए अब बस एक रस्म बनकर रह गई है। 1945 में बनी संस्था, जिसे दुनिया में अमन की मशाल बनना था, आज अमेरिका की मुट्ठी में कैद है। सवाल सीधा है — क्या वैश्विक शांति की प्रहरी संस्था किसी एक खून-सने सुपरपावर की दया पर टिक सकती है? सितंबर 2025 में हुए 80वें जनरल असेंबली सत्र में फलस्तीनी प्रतिनिधियों को वीज़ा न देना इस कैद का ताज़ा सबूत है। ये सिर्फ़ ‘सुरक्षा’ नहीं, बल्कि अमेरिका का अश्लील शक्ति प्रदर्शन है — एक ऐसा कदम जो होस्ट कंट्री एग्रीमेंट की धज्जियां उड़ाता है और ग्लोबल साउथ की आवाज़ को गला घोंटता है। “संयुक्त राष्ट्र को न्यूयॉर्क नहीं, नई दिल्ली में होना चाहिए,” कहते हैं पब्लिक कॉमेंटेटर प्रो. पारस नाथ चौधरी। “इससे संयुक्त राष्ट्र ग्लोबल साउथ में जड़ें जमाएगा — जहां असली संघर्ष और असली उम्मीदें हैं। न्यूयॉर्क का पता असल में विरोधाभास है। वही अमेरिका जिसने परमाणु हथियार चलाए, वही हर दूसरी जंग में नेता बना घूमता है, वही ‘वीटो’ की तलवार से अपने दोस्तों को सुरक्षा देता है।” फलस्तीनी वीज़ा विवाद कोई एक्सीडेंट नहीं। ये उस पैटर्न की झलक है जिसमें अमेरिका खुद तय करता है कि दुनिया की मेज़ पर कौन बोलेगा, कौन नहीं।
नई दिल्ली, खुलेपन का प्रतीक है। भारत की विदेश नीति में संवाद, सह-अस्तित्व और निष्पक्षता की झलक साफ है। भारत की भूमिका शब्दों तक सीमित नहीं रही — 1948 से नामी 50 मिशनों में 2.75 लाख भारतीय सैनिक शांति सेना का हिस्सा रहे हैं। भारत की गैर-गठबंधन नीति और ग्लोबल साउथ की पक्षधरता उसे एक नैतिक मेज़बान बनाती है — वो जो आवाज़ों को जगह देता है, दबाता नहीं। न्यूयॉर्क, दुनिया के सबसे महंगे शहरों में एक, अरबों डॉलर का खर्च खा रहा है। वही पैसा अगर नई दिल्ली में इस्तेमाल हो, तो वो गरीबी मिटाने और जलवायु कार्रवाई का हथियार बन सकता है। “नई दिल्ली में शिफ्ट करना दिखाएगा कि संयुक्त राष्ट्र अब वाकई उन लोगों के लिए है जिनकी वह सेवा करता है,” कहते हैं वरिष्ठ पत्रकार अजय। कोविड महामारी से लेकर जलवायु संकट तक — ग्लोबल साउथ ने हमेशा असमानता का स्वाद चखा। वैक्सीन जमा करने वाले अमीर मुल्क, कर्ज़ में डूबे गरीब देश और सिक्योरिटी काउंसिल के पांच पिता — तस्वीर बहुत साफ है। जनरल असेंबली की वो खाली कुर्सियां, जिन्हें अमेरिकी वीज़ा पाबंदियों ने खाली कराया, असल में संयुक्त राष्ट्र की साख के गाल पर थप्पड़ हैं। “संयुक्त राष्ट्र को ऐसे मुल्क में जाना चाहिए जो सबके लिए खुला हो,” समाजशास्त्री टी.पी. श्रीवास्तव कहते हैं। “नई दिल्ली की समावेशी वीज़ा नीति और स्वागतयोग्य माहौल इसे आदर्श बनाते हैं।”
शिफ्ट करना प्रतीकात्मक नहीं, बल्कि संरचनात्मक सुधार का संकेत भी है। मौजूदा सिस्टम पांच देशों की मुठ्ठी में है — दुनिया की बाकी आबादी बस दर्शक बनकर रह गई है। 78 सालों में तीसरा विश्व युद्ध भले न हुआ हो, लेकिन छोटी जंगें और नफरत की आग हर कोने में जलती रही। बदलाव वक्त की मांग है। नई दिल्ली में नया मुख्यालय संयुक्त राष्ट्र को इंसाफ, समावेशन और वास्तविक लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व का चेहरा दे सकता है। भारत की गांधीवादी परंपरा और संवाद की संस्कृति इस संस्था को नई नैतिक ऊर्जा देगी। सोचिए — दुनिया की सबसे बड़ी शांति संस्था अगर ऐसे मुल्क में बसे जो खुद अहिंसा का जन्मस्थान है, तो संदेश कितना गूंजेगा। 78 साल पुराना न्यूयॉर्क मुख्यालय दूसरे विश्व युद्ध की स्मृति है। अब वक्त है — संयुक्त राष्ट्र का नया मकान, नई सोच, और नई दिशा तय करने का। नई दिल्ली में शिफ्ट करना महज़ पते का नहीं, न्याय और जवाबदेही के नए अध्याय का एलान होगा। अमन की मशाल अब अमेरिका की दीवारों में नहीं, ग्लोबल साउथ के दिल में जलनी चाहिए — नई दिल्ली से।
आगरा के ताज व्यू अपार्टमेंट्स में रहने वाली होम मेकर पद्मिनी दीवाली की तैयारियों में व्यस्त थीं। ट्रैफिक जाम और प्रदूषण से तंग आकर उन्होंने देर शाम एक ऑनलाइन दीवाली डील देखी और “अभी ऑर्डर करें” पर क्लिक कर दिया। उन्हें क्या पता था कि वो भारत के रिटेल की नई कहानी का हिस्सा बन रही थीं! कुछ ही मिनटों में, फूल, दीये, लाइट्स, फल, और मिठाइयाँ—सब कुछ पैक होकर उनके घर पहुंच गया। एक युवा बाइक राइडर लाया सामान, और UPI से पेमेंट लेकर चला गया। दूसरी तरफ, शहर के कोने में उनके बड़े ताऊ जी, जो एक जनरल स्टोर चलाते हैं, अपनी दुकान पर ग्राहकों की भीड़ संभाल रहे थे। दो पीढ़ियाँ, एक त्योहार, और एक साफ बात—भारत का त्योहारी व्यापार अब डिजिटल ताल पर थिरक रहा है। सचमुच, ये तो जैसे जादू सा है! पहले व्यापारी ऑनलाइन दुकानों से घबराते थे, लेकिन इस बार दीवाली ने सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए। 2025 के त्योहारी सीजन में 6.05 लाख करोड़ रुपये का व्यापार हुआ—पिछले साल से 25% ज़्यादा! इसमें 5.4 लाख करोड़ का सामान था और 65,000 करोड़ की सेवाएँ। लेकिन इस धमाकेदार बिक्री के पीछे न सोना था, न गैजेट्स—बल्कि वो डिजिटल ताकत थी, जो भारत के हर गली-नुक्कड़ तक रिटेल को ले जा रही थी। पहले तो पारंपरिक बाज़ार और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म्स को दुश्मन समझा जाता था। लेकिन अब? दोनों मिलकर एक नया तमाशा रच रहे हैं—धूल भरे बाज़ारों से लेकर चमचमाती स्मार्टफोन स्क्रीनों तक। फ्लैश सेल, कैशबैक का लालच, और पंसारी, दवा, किराना दुकानों का डिजिटल दुनिया में कदम—त्योहारी जोश अब इंटरनेट की लाइनों और सैटेलाइट की लहरों में उतना ही बह रहा है, जितना बाज़ारों की रौनक में। बड़े भैया देवाशीष कहते हैं, “सिर्फ दारू की होम डिलीवरी का इंतेज़ार है। कंडोम्स, sanitary napkins, जो पहले, हिचक से खरीदे जाते थे, अब घर पर ही आ रहे हैं।”
RedSeer के आंकड़े बताते हैं कि इस त्योहारी महीने में ई-कॉमर्स की बिक्री 1.15 लाख करोड़ रुपये को पार कर गई, जो पिछले साल से 25% ज़्यादा है। और ये ऑनलाइन बिक्री ऑफलाइन दुकानों को नुकसान नहीं पहुंचा रही—बल्कि छोटे शहरों, टियर-2 और टियर-3 कस्बों में खरीदारी को और बढ़ा रही है, जो अब पूरी तरह डिजिटल दुनिया से जुड़ चुके हैं। लोगों को लगता था कि ऑनलाइन व्यापार बाज़ारों को खा जाएगा, लेकिन अब ये तो उपभोक्ताओं के जोश का दिल बन गया है। 2024 में ई-रिटेल की बिक्री करीब 60 बिलियन डॉलर थी और ये हर साल 18% की रफ्तार से बढ़ रही है। फ्लिपकार्ट, अमेज़न, मीशो, और जियोमार्ट ने इस दीवाली को एक डिजिटल मेला बना दिया। जम्मू से मैसूर तक, लोग अपने फोन पर किफायती डील्स ढूंढ रहे थे। क्विक-कॉमर्स ने डिलीवरी का समय 15% तक कम कर दिया—त्योहारी सामान, गिफ्ट हैम्पर्स, और इलेक्ट्रॉनिक्स बस पलक झपकते पहुंच रहे थे। ये डिजिटल धमाल पारंपरिक दुकानों को कमज़ोर नहीं कर रहा था—बल्कि उनकी रौनक को और बढ़ा रहा था, जिससे सड़कों और शोरूम्स तक खरीदारी की लहर फैल गई। लेकिन बाज़ारों की वो पुरानी रौनक? वो तो अब भी बरकरार है! दिल्ली के चांदनी चौक से लेकर आगरा, जयपुर, दिल्ली, और हैदराबाद के व्यापारियों ने मीडिया को बताया कि इस साल ग्राहकों की भीड़ कई सालों में सबसे ज़्यादा थी। कपड़े 25%, गहने 30%, इलेक्ट्रॉनिक्स 20%, और रोज़मर्रा का सामान 15% ज़्यादा बिका। GST में राहत और बढ़ती कमाई ने माहौल को और रंगीन किया। लेकिन इस बार डिजिटल ताकत ने चुपके से बड़ा रोल निभाया। छोटे दुकानदार व्हाट्सएप पर कैटलॉग भेज रहे थे, UPI से पैसे ले रहे थे, और ऑनलाइन डिलीवरी ऐप्स से ऑर्डर मैनेज कर रहे थे।
कुरियर कंपनी संचालक गुप्तजी कहते हैं, इस डिजिटल त्योहार को सपोर्ट करने वाला लॉजिस्टिक्स नेटवर्क भी कमाल का था। लाखों गिग वर्कर्स—डिलीवरी ब्वॉय, वेयरहाउस पैकर्स, और ट्रांसपोर्ट हैंडलर्स—त्योहार की असली जान बने। अनुमान है कि 50 लाख से ज़्यादा टेम्परेरी नौकरियाँ बनीं। इन नौकरियों ने कई लोगों को सीज़न के बीच कमाई का सहारा दिया और शहरों में नए मौके दिए। बड़ी संख्या में स्टूडेंट्स को पार्ट टाइम जॉब्स मिले। और सबसे मज़ेदार बात? अब विरोध नहीं, बल्कि हाइब्रिड मोड में साथ चलने का ज़माना है। हलवाई, मिठाई की दुकानें, और किराना स्टोर अब ई-कॉमर्स के साथ हाथ मिला रहे हैं। वो डिजिटल इन्वेंट्री और लोकल डिलीवरी का फायदा उठा रहे हैं। अब जब देश शादी के बड़े सीजन में कदम रख रहा है—जिसमें 6 लाख करोड़ रुपये का व्यापार होने की उम्मीद है—एक बात तो साफ है: ऑनलाइन व्यापार बाज़ारों को मिटा नहीं रहा, बल्कि उन्हें नया रंग दे रहा है। डिजिटल मार्केटप्लेस, जिससे कभी डर लगता था, अब वो इंजन बन गया है जो त्योहारी खुशहाली को बढ़ा रहा है, लाखों लोगों की रोज़ी-रोटी को जोड़ रहा है, और उत्सव को व्यापार और कनेक्शन का एक ज़बरदस्त हाइब्रिड मेल बना रहा है, बताते हैं नोएडा के ट्रेडर रवि चंद्र। सच में, आज के भारत में, दीवाली के दीयों की रौशनी सिर्फ घरों और गलियों में ही नहीं जल रही—बल्कि लाखों स्क्रीनों पर भी चमक रही है, जो भारत की सबसे ताकतवर रिटेल कहानी को और रौशन कर रही है।
जयप्रकाश नारायण की क्रांति से जो युवा छात्र नेता उभरे थे उनमें से एक लालू यादव भी हैं। सत्तर के दशक में जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस के खिलाफ जो अलख जगाई थी उसकी लौ बढ़ाने में बिहार के अनेक युवा नेताओं का योगदान था । इमरजेंसी में जिन छात्र नेताओं को जेल में मीसा कानून के तहत जेल में डाला गया उसमें लालू यादव भी थे । अपनी बड़ी बेटी इमरजेंसी में पैदा हुई थी इसलिए बेटी का नामकरण लालू यादव ने मीसा रखा। लालू यादव को भारतीय राजनीति में फैमिली मैन के रूप में जाना जाता है उनका परिवार ही इतना बड़ा है सात बेटियां दो बेटे। वैसे तो लालू यादव ऐसे नेता के आंदोलन की उपज थे जो जातिवाद के बिल्कुल विरोधी थे जिन्होंने सबको प्रेरित किया कि वे अपने नाम के साथ अपनी जाति न लगाएं। लेकिन पता नहीं कैसे उनके बड़े शिष्य लालू यादव यादव जाति के नेता और मान सम्मान बन गए और यादव उनका सबसे बड़ा वोट बैंक।
लालू यादव राजनीति के चतुर खिलाड़ी हैं उनको पता है कब क्या चाल चलनी है और जनता के बीच अपनी छवि किस तरह से बनानी है। अपना पहनावा खानपान सब बिहार की आम जनता से जुड़ा हुआ रखा। पायजामा और बंडी पहनना, कुर्सी पर आलती पालथी मार कर बैठना स्टील के गिलास में सत्तू घोल कर पीना इन सब अदाओं ने उनको आम जन का लोकप्रिय नेता बनाया । अपने बड़े परिवार को भी उन्होंने किसी से नहीं छुपाया उनकी पत्नी राबड़ी देवी, बेटे बेटियां सार्वजनिक रूप से उनके साथ दिखायी देते थे। लालू का सितारा बिहार और देश की राजनीति में खूब चमका इतना चमका कि वो बिहार के बादशाह जैसे बन गए उनके साथ साथ पूरा यादव समाज भी ताकतवर बना । लालू यादव ने अपनी राजनीति एम वाई ( मुस्लिम—यादव ) समीकरण पर की सवर्णों के खिलाफ उन्होंने भूरा बाल उखाड़ फेंको का नारा दिया । भूरा बाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला (कायस्थ) चारों सवर्ण जातियों के खिलाफ लालू यादव ने एक अभियान चलाया। जोकि उनका एक सफल प्रयोग रहा । प्रदेश और देश की राजनीति के साथ साथ अपने परिवार को उन्होंने हमेशा अपनी ताकत बनाए रखा पत्नी, पुत्रियों और पुत्रों सबको राजनीति में लाए । जब वे चारा घोटाला में जेल गए तो अपनी पत्नी राबड़ी देवी को राज्य की सत्ता सौंप गए मुख्यमंत्री पद परिवार से बाहर वे किसी को नहीं देना चाहते थे। उनके किसी पर भरोसा नहीं था पता नहीं कब किसका दिल बदल जाए।
जिस कुनबे को लालू ने जतन से सहेज कर रखा जो उनकी सबसे बड़ी ताकत था अब वो कुनबा बिखर गया है । बेटा तेज प्रताप तो लंबे अरसे से परिवार से अलग लाइन ले कर चल रहा था अब बेटी रोहिणी आचार्य भी खुल कर सामने आ गयी है। लालू के परिवार के मजबूत किले में जो आज तक कोई सेंध नहीं लगा पाया था अब उसमें संजय यादव नाम के शख्स ने सेंध लगा कर परिवार के किले को ध्वस्त कर दिया है। केवल परिवार ही क्यों पार्टी पर भी इसका असर पडा । संजय यादव के कारण नौबत यहां तक आ पहुंची कि रोहिणी ने धमकी दी कि या तो वो रहेगी या संजय यादव रहेगा । घर की दहलीज और पार्टी दफ्तर से बात निकल कर सोशल मीडिया पर आ गयी। जमाने को खबर लगी तो जंगल की आग की तरह बात फैल गयी । तेज प्रताप और तेजस्वी यादव की लड़ाई में मां बाप के दुलारे रहे तेज प्रताप को परिवार से बेदखल कर दिया गया।
भारतीय समाज में पिता की विरासत पुत्र संभालते हैं फिर चाहे वो आर्थिक ,राजनीतिक, सामाजिक हो या पिता की चल अचल संपत्ति हो। विरासत का असली हकदार कौन होगा अनेक संतानों में से कौन पिता की विरासत को आगे बढ़ाएगा ये पिता की मर्जी और बच्चों के व्यवहार पर निर्भर करता है । लालू यादव ने अपनी विरासत दोनों बेटों तेजस्वी यादव और तेज प्रताप यादव को समान रूप से देने की भरपूर कोशिश की दोनों को राजनीति में उतारा दोनों को चुनाव लडवाए नीतीश कुमार के साथ गठबंधन सरकार में दोनों को मंत्री बनवाया । लेकिन जो लालू यादव चाहते थे वो नहीं हो पाया। केंद्र में 2014 में जब से सरकार बदली लालू यादव का राजनीतिक ग्राफ और दबदबा दोनों कम होते चले गए । कहते हैं ना मुसीबत कभी अकेले नहीं आती राजनीतिक रूतबा कम हुआ , सेहत बिगड़ती चली गयी और परिवार में बिखराव होता चला गया । घर की चारदीवारी में क्या होता है कोई नहीं जानता लालू के घर के भीतर बहुत कुछ चल रहा था। लंबे समय तक छन छन कर घर के भेद बाहर आते रहे परिवार चूंकि लालू यादव का था इसलिए मीडिया में सुर्खियां भी खूब बनी। घरेलू कलह और तेज प्रताप के निजी जीवन के रहस्य जब दुनिया के सामने आए तो पिता लालू यादव को सामाजिक मान मर्यादा की दुहाई दे कर घर और राजनीति दोनों से बेदखल करना पड़ा । किसी भी माता पिता के लिए ये जीवन का सबसे कठिन और दुखदायी समय होता है जब उनको अपनी ही औलाद को सार्वजनिक रूप से बेदखल करना पडता है। तेज प्रताप बेदखल किए गए तो दूसरा बेटा तेजस्वी यादव लालू यादव का एकमात्र उत्तराधिकारी रह गया ।
तेज प्रताप की किस्मत कहें या फिर उनका स्वभाव वे एक न एक विवाद में वे फंसे रहे। उनसे जुड़े विवादों की कहानी लंबी है फिलहाल हम ताजा घटना की बात करते हैं। आखिर क्यों नौबत यहां तक पहुंची। तेज प्रताप यादव ने अपने सोशल हैंडल पर अनुष्का यादव नाम की एक युवती से अपने दूसरे विवाह की तस्वीरें पोस्ट कीं और लिखा कि – तस्वीर में दिख रही लड़की के साथ उनका 12 साल पुराना रिश्ता है। हर व्यक्ति को अपना निजी जीवन जीने का अधिकार है लेकिन जब कोई राजनीतिक परिवार से हो सार्वजनिक जीवन में हो तो उसका जीवन जनता के मैग्नीफाइंग ग्लास से होकर गुजरता है । छोटी सी भूल भी बहुत बडी हो जाती है । लालू प्रसाद के बेटे हैं खुद भी राजनीति में हैं इसलिए इन तस्वीरों से उनके राजनीतिक विरोधी सक्रिय हो गए मीडिया सोशल और मेन स्ट्रीम में बड़ी खबर बन गयी। मामला ने इसलिए भी तूल पकडा कि तेज प्रताप का अपनी पहली पत्नी ऐश्वर्य के साथ तलाक नहीं हुआ है आठ साल से तलाक का केस चल रहा है । ऐश्वर्या राय बिहार के प्रभावशाली राजनीतिक परिवार की पढ़ी लिखी लड़की है । दिल्ली के मिरांडा हाउस कॉलेज से स्नातक और एमिटी विश्वविद्यालय से एमबीए हैं। वे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री दरोगा राय की पोती और 6 बार के विधायक चंद्रिका राय की बेटी हैं। विवाह के गठबंधन से ज्यादा ये राजनीतिक गठबंधन था बेमल विवाह हुआ इसलिए पति पत्नी के रिश्तों में दरारें आ गयीं। विवाह के कुछ महीने बाद ही पति पत्नी के मतभेद और मनभेद बाहर आ गए। दोनों का विवाह मई 2018 में हुआ था पांच महीने के भीतर तेज प्रताप ने ऐश्वर्या पर असभ्य होने का आरोप लगाया और पटना फैमिली कोर्ट में तलाक की अर्जी दे दी । लेकिन ऐश्वर्य का भी अपना पक्ष था जिसने लालू प्रसाद यादव परिवार को कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा । ऐश्वर्या राय ने ससुराल वालों पर मारपीट, यातना और उत्पीड़न के आरोप लगाए । अपनी सास राबड़ी देवी पर तो उन्होंने बहुत गंभीर आरोप लगाए मारना पीटना बाल खींचना घर से बाहर निकाल देना आदि। किसी भी राजनीतिक परिवार के लिए इससे ज्यादा अपमान और फजीहत क्या हो सकती है। लालू प्रसाद यादव और चंद्रिका राय के परिवार एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप लगाते रहे । तेज प्रताप वैसे तो सार्वजनिक रूप से अपने व्यवहार से उपहास का पात्र बनते रहते हैं लेकिन पत्नी ने जब नशा करने , महिलाओं जैसे कपड़े पहनने और ऊट- पटांग हरकते करने के आरोप लगाए तो लालू प्रसाद यादव परिवार के सामने साख का संकट पैदा हो गया। ऐश्वर्य ने परिवार से पूछा कि यदि उनको पता था कि उनका बेटा ऐसा है तो उनका जीवन क्यों बर्बाद किया । तेज प्रताप का निजी जीवन आम जनता के बीच चर्चा का विषय बना हुआ है तो लालू यादव के विरोधी दलों के लिए एक बड़ा मुद्दा।
पति पत्नी का रिश्ता बिगड़ा तो बिगड़ता ही गया दोनों में से कोई भी समझौते के लिए तैयार नहीं कटुता बढती चली गयी। और आग में घी का काम किया तेजप्रताप और अनुष्का यादव की तस्वीरों ने । हालांकि तेज प्रताप ने सोशल मीडिया पर तस्वीरें डाल कर हटा ली और कहा कि उनका अकाउंट हैक कर लिया गया है। ये उनको और उनके परिवार को बदनाम करने की साजिश रची जा रही है । इसी साल मई में ये घटना हुई कहते हैं कमान से छूटा तीर और जुबां से निकली बात कभी वापस नहीं आती। तेज प्रताप का 12 के रिश्ते का कबूलनामा और तस्वीरें लालू प्रसाद यादव के गले की फांस बन गया। लालू प्रसाद यादव राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं उनको पता था कि तेज प्रताप को सार्वजनिक रूप से माफ नहीं किया जा सकता। पुत्र मोह में भले ही दिल को कितनी भी तकलीफ हो जनता के दरबार में विरोधियों के अखाड़े में अपनी और अपनी पार्टी की गरिमा बनाए रखना जरूरी था । लालू ने दिल की नहीं दिमाग की सुनी राजनीतिक नफा नुकसान देखा 24 मई 2025 को तस्वीरें सोशल मीडिया पर आयीं 25 मई 2025 को लालू प्रसाद यादव ने दिल पर पत्थर रख कर तेज प्रताप को 6 साल के लिए राजद से निकाल दिया और परिवार से बेदखल कर दिया।
लालू प्रसाद यादव ने भले ही समाज में अपनी साख बचाने के लिए ये कदम उठाया लेकिन इसको भी उनका राजनीतिक ड्रामा माना जा रहा है। जब विधानसभा चुनाव सिर पर हों तो लालू यादव की मजबूरी हो गयी थी तेज प्रताप के खिलाफ कड़ा कदम उठाना । सोशल मीडिया पर लालू यादव ने लिखा — निजी जीवन में नैतिक मूल्यों की अनदेखी सामाजिक हितों के लिए सामूहिक संघर्ष को कमजोर करती है। ज्येष्ठ पुत्र के कार्यकलाप, सार्वजनिक आचरण और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार हमारे पारिवारिक मूल्यों और परंपराओं के अनुरूप नहीं है अत: उपरोक्त परिस्थितियों के कारण उन्हें पार्टी और परिवार से निष्कासित करता हूं। अब से पार्टी और परिवार में उनकी किसी प्रकार की कोई भूमिका नहीं रहेगी। उन्हें 6 वर्ष के लिए पार्टी से निष्कासित किया जाता है।
बेटा तेज प्रताप यादव उनकी फजीहत करवा ही चुका है अब बेटी रोहिणी आचार्य भी बागी हो गयी है वो अपने उस पिता से भी नाराज हो गयी जिनकी जान बचाने के लिए उन्होंने अपनी किडनी दी थी । रोहिणी आचार्य लालू प्रसाद यादव की सबसे बड़ी बेटी मीसा भारती से छोटी हैं कहा जाए तो परिवार की दूसरे नंबर की बेटी हैं । रोहिणी की नाराजगी उस समय सामने आयी जब उन्होंने अपने सोशल मीडिया एकाउंट पर पिछले महीने सितंबर में परिवार के कई सदस्यों को अनफोलो कर दिया जिसमें पिता लालू यादव और भाई तेजस्वी यादव भी शामिल थे । लालू यादव परिवार प्रदेश तो क्या पूरे देश में एक बड़ा रूतबा रखते हैं उनके परिवार की हर गतिविधी खबर बनती है । और जब चुनावी मौसम चल रहा हो तो हर बात पर विपक्षी , मीडिया और विरोध पैनी नजर रखते हैं।
रोहिणी आचार्य के तीखे और बागी तेवर परिवार के लिए मुश्किलें तो विरोधी दलों के लिए सियासी रूप से भुनाने का एक मौका लेकर आया। रोहिणी ने राजद के राज्ससभा सांसद संजय यादव के सिर ठीकरा फोड़ा । रोहिणी को आपत्ति इस बात पर थी कि उनके भाई तेजस्वी यादव की वोट अधिकार यात्रा के रथ पर संजय यादव क्यों फ्रंट सीट पर बैठे जबकि परिवार के किसी सदस्य को इस सीट पर बैठना चाहिए था । रोहिणी का ये विरोध . ही नहीं सामने आया इसका ब्लू प्रिंट लंबे समय से लिखा जा रहा था ये तो बस प्रेशर रीलिज करने का एक मौका था उनके लिए। निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि घर के भीतर संजय यादव के बढते प्रभाव और दखल को लेकर जरूर तू तू मैं होती रही होगी। जब मामला रोहिणी की बर्दाशत से बाहर हो गया होगा तो उनका गुस्सा फट पड़ा। दरअसल 2024 में बिहार की सारण लोकसभा सीट से 2024 में भाजपा उम्मीदवार राजीव प्रताप रूडी से चुनाव हार चुकी रोहिणी अब विधानसभा चुनाव लड़ना चाहती थी लेकिन उनको टिकट देने से मना कर दिया गया। लेकिन रोहिणी ने सोशल मीडिया पर कहा कि ये मात्र अफवाहें हैं उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा नहीं है उनके लिए आत्म सम्मान बहुत महत्व रखता है ।
रोहिणी आचार्य ने जब परिवार के भीतर चल रही खींचतान को सोशल मीडिया पर उजागर किया तो पिता लालू यादव ने चुप्पी साध ली। भाई तेजस्वी यादव नें अपने सोशल मीडिया पर रोहिणी यादव को अपनी सम्माननीय बड़ी बहन बताया और कहा कि रोहिणी को लोग गलत समझ रहे हैं । रोहिणी ने अपने तीखे तेवर बरकरार रखे रोहिणी ने अपने परिवार, राजद और बिहार के लोगों को अपने त्याग की याद दिलायी। उन्होंने लिखा – जो लोग अपनी जान हथेली पर रखते हैं उनमें त्याग करने का बड़े से बड़ा जज्बा होता है । निडरता , निर्भिकता और आत्म सम्मान उनकी रगों में बहता है । कहना ना होगा कि यहां रोहिणी अपने परिवार और पार्टी को याद दिला रही थी कि 2022 में सिंगापुर में बीमार पिता को अपनी किडनी दे कर उसने पिता को नया जीवन दिया था। संजय यादव तेजस्वी यादव की आंख नाक कान बने हुए हैं राजनीतिक मीडिया सलाहकार बने हुए हैं सोशल मीडिया भी वही देखते हैं । लालू के दोबारा जेल जाने पर 2012 से संजय यादव बिहार में डेरा डाले हुए हैं जबकि वे हरियाणा के रहने वाले हैं । तेज प्रताप और पार्टी दोनों पर उनकी पकड़ बनी हुई है । परिवार को इससे आपत्ति है तेज प्रताप और रोहिणी आचार्य ने संजय यादव के खिलाफ बिगुल फूंक दिया है । तेज प्रताप ने साफ कह दिया है जो भी उनकी बहन को परेशान करेगा उस पर उनका सुदर्शन चक्र चलेगा । भाई बहिन की बागी जोड़ी बिहार की राजनीति को कैसे प्रभावित करती है ये चुनाव परिणाम बताएंगे। फिलहाल लालू परिवार में सब कुछ ठीक नहीं है ।
पूरा देश 14 नवंबर का बेसब्री से इंतेज़ार कर रहा है। बिहार में लालू यादव का जंगलराज लौटेगा या नीतीश बाबू का चटपटा करामाती ठेला अपनी जगह टिका रहेगा? बिहार के चुनावी नतीजों से देश की राजनीति प्रभावित हो सकती है। इस वक्त तेजस्वी यादव महागठबंधन के कप्तान बने हुए हैं, खूब सपने दिखा रहे हैं, लॉलीपॉप बांट रहे हैं। नीतीश कुमार अपनी उपलब्धियों की गाथा सुना रहे हैं। प्रशांत किशोर अपने को किंग मेकर की भूमिका में देख रहे हैं। उधर राहुल गांधी जूनियर पार्टनर के रूप में महा गठबंधन को सत्ता में देखने के मंसूबे बना रहे हैं। ये बात तो सही है कि नीतीश राज में बिहार में विकास की रफ्तार यूपी जैसी नहीं रही है, अभी भी औद्योगिक समृद्धि के दरवाजे नहीं खुले हैं, लेकिन आंकड़ों का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट है कि दिशा और गति संतोषजनक है। लालू यादव, रावड़ी देवी, तेजस्वी यादव, ने कुल 18 वर्षों तक सत्ता सुख भोगा, खूब सुर्खियां बटोरीं, परिवार वाद को खूब सींचा। बीस साल पहले का बिहार एक ऐसा प्रदेश था, जिसका नाम “जंगलराज” से जुड़ गया था। अपराध, भ्रष्टाचार और ठहरी हुई अर्थव्यवस्था की मार ने इसे निराशा के अंधकार में धकेल दिया था। पर अब, नवंबर 2025 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले, बिहार अपनी इस कहानी को पूरी तरह पलटने के मोड़ पर है।
2005 में बिहार का सकल राज्य घरेलू उत्पाद ₹75,608 करोड़ था और आधे से ज्यादा लोग गरीबी की रेखा से नीचे जी रहे थे। उस वक्त सड़कों, बिजली और शिक्षा जैसी बुनियादी सुविधाएं न के बराबर थीं। प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत का लगभग एक-तिहाई थी और साक्षरता दर भी बहुत कम, खासकर महिला साक्षरता। लेकिन तब से अब तक नीतीश कुमार के नेतृत्व में बिहार ने अभूतपूर्व बदलाव की राह पकड़ी है। आज बिहार का GSDP लगभग ₹11 लाख करोड़ तक पहुँचने वाला है, प्रति व्यक्ति आय में भारी वृद्धि हुई है, और गरीबी दर में काफी कमी आई है। साक्षरता दर बढ़कर 74.3% हो गई है, महिला साक्षरता दोगुनी से अधिक हो गई है। बुनियादी ढांचे में सुधार हुआ है, ग्रामीण सड़कों और बिजली का विस्तार हुआ है, और जीवन स्तर में उल्लेखनीय सुधार दिख रहा है। यह सब अचानक नहीं हुआ। 2005 में नीतीश कुमार ने कानून-व्यवस्था सुधार को प्राथमिकता दी और लालू-राबड़ी के जंगलराज युग का अंत किया। अपहरण और हिंसक अपराध कम हुए, जिससे निवेश और विकास को बढ़ावा मिला। सरकार ने योजनाओं के जरिए खासकर लड़कियों की शिक्षा पर ध्यान दिया और ग्रामीण इलाकों को जोड़ने वाली सड़कों का नेटवर्क बनाया। कोविड-19 के बाद मजदूरों की वापसी और विनिर्माण में प्रोत्साहन ने आर्थिक रफ्तार को और ऊंचाई दी।
फिर भी, बिहार कई सामाजिक और आर्थिक चुनौतियों से जूझ रहा है। राज्य की कम आय, बेरोजगारी, और जाति-धर्म के जटिल समीकरण इसे निरंतर विकास की राह में बाधित करते हैं। 2025 के विधानसभा चुनाव इस लिहाज से निर्णायक हैं कि क्या बिहार अपनी प्रगति को जारी रखेगा या फिर पुराने संकटों के गर्त में लौट जाएगा। नीतीश कुमार और एनडीए ने अपनी सरकार में सतत विकास का रिकॉर्ड पेश किया है, जबकि विपक्षी दल आरजेडी सामाजिक न्याय का वादा लेकर सामने है पर उसका जंगलराज का दौर भी लोगों के जेहन में है। नए दल भी खास तौर पर प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी, विकल्प की पेशकश कर रहे हैं, जिससे चुनाव और भी दिलचस्प बन गया है। बिहार में यू पी के जैसे ध्रुवीकरण की रेखाएं स्पष्ट नहीं हैं। नीतीश कुमार की पार्टी को मुस्लिम वोट्स भी मिलते रहे हैं, जबकि भाजपा धार्मिक मुद्दों को दरकिनार करके सिर्फ विकास के लक्ष्यों पर फोकस कर रही है। सत्ताधारी जद यू अपने को सेकुलर पार्टी कहती है। शुरुआत में लगा था प्रशांत किशोर बिहार की राजनीति में भूचाल लाएंगे, एक नए तरह की वोटर मैनेजमेंट, अपील और युवाओं को आकर्षित करने वाली मुहिम के इंजन बनेंगे। लेकिन अब लग रहा है कि ज्यादा दाल नहीं गल रही है, यानी अब वो पुराने, घिसे पिटे समीकरणों के सहारे ही जोर आजमाइश करेंगे। बिहार का एवरेज वोटर विश्वास करने लगा है कि सही नेतृत्व और अच्छे प्रशासन से निराशा को विकास में बदला जा सकता है। इस बार मतदाता के सामने एक साफ विकल्प है—क्या वे विकास के रास्ते पर कायम रहेंगे या फिर अतीत की भूलों को दोहराएंगे। हर वोट इस चुनाव की दिशा तय करेगा। संकेत मिल रहे हैं कि वोट कटवा पार्टीज को कोई विशेष तबुज्जोह नहीं मिलेगी। अधिकांश वोटर देश की मुख्यधारा से ही जुड़ना चाह रहा है।
ग्रामीण क्षेत्र में ज्यादातर बच्चे होली के आस पास पैदा होते, शहरों में मानसून बेबीज़ होते हैं।
जैसे ही पेड़ों की पत्तियाँ पीली होकर ज़मीन पर गिरने लगती हैं, भारत में केक काटने का सीज़न शुरू हो जाता है। जी हाँ, सितंबर से अक्टूबर के बीच देशभर में जन्मदिनों की झड़ी लग जाती है। ऐसा लगता है जैसे कैलेंडर ने भी तय कर लिया हो कि ये दो महीने सिर्फ़ “हैप्पी बर्थडे” गाने के लिए आरक्षित हैं। अब ज़रा नाम सुनिए — अमिताभ बच्चन, रेखा, शबाना आज़मी, प्रभास, करीना कपूर, लता मंगेशकर, आशा पारेख, रणबीर कपूर, नरेंद्र मोदी, मोहन भागवत, ए.पी.जे. अब्दुल कलाम, लाल बहादुर शास्त्री, महात्मा गांधी… सब के सब इसी अवधि में जन्मे हैं। यानी अगर आपका जन्मदिन सितंबर या अक्टूबर में है, तो आप किसी न किसी ‘लीजेंड क्लब’ का हिस्सा हैं। लेकिन सवाल उठता है — ऐसा क्यों है? क्या सितारे कुछ खास स्थिति में होते हैं? या फिर इसका रिश्ता हमारे अपने “सांस्कृतिक कैलेंडर” से है? ज्योतिषी का डेटा, प्रशासन की गोलाई और 10/10 का जादू एक ऑनलाइन ज्योतिष मंच के मुताबिक, उनके पास 3 करोड़ से अधिक लोगों का डेटा है और उनमें सबसे ज़्यादा जन्म 10 अक्टूबर को दर्ज हैं। 10/10 – कितना सुंदर और याद रखने लायक नंबर है।
“डेटा बताता है कि कुल 2,81,76,320 कुंडलियों में से 1,40,091 लोग 10 अक्टूबर को जन्मे थे, यानी लगभग 0.5%। दूसरे नंबर पर आता है 15 अगस्त — हमारा स्वतंत्रता दिवस — जिस दिन 1,26,958 लोगों का जन्म बताया गया।”
कारण? “दिसंबर में शादी का सीज़न,” श्री पांडे जी कहते हैं, “और नौ महीने बाद? अक्टूबर में बच्चे।”
लॉजिक में दम है — दिसंबर की बैंड-बाजे वाली रातों का नतीजा अगले अक्टूबर में शिशु रूप में प्रकट होता है। लेकिन ठहरिए — ये कोई राष्ट्रीय सर्वे नहीं, बल्कि ज्योतिष ज्ञानियों का कहना है। यानी जो लोग कुंडली बनवाने आए, वही नमूना हैं। ऊपर से, भारत में 1980 के दशक तक जन्म तिथि दर्ज करना कोई सटीक विज्ञान नहीं था। कई जगह स्कूल दाखिलों के लिए माता-पिता “गोल तारीखें” दे देते थे — 1, 10, या 15 तारीख — ताकि याद रखना आसान रहे।इसलिए 10 अक्टूबर (10/10) जैसी तिथियाँ “डिफ़ॉल्ट बर्थडे” बन गईं। प्रशासनिक सुविधा और ज्योतिषीय रोमांस का शानदार संगम।
असली कहानी: मॉनसून बेबीज़ और विंटर मैरिज़ अब बात करते हैं असली, वैज्ञानिक डेटा की।
राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5, 2019–21) के मुताबिक, सितंबर भारत का “जन्मों का सुपरहिट महीना” है — साल के कुल जन्मों का लगभग 9.3% इसी महीने होते हैं। अगर अगस्त से नवंबर तक का पीरियड देखें, तो ये आँकड़ा 37% तक पहुँच जाता है। एक जनसांख्यिकी एक्सपर्ट बताती हैं, “भारत का विवाह सीज़न नवंबर से फरवरी के बीच होता है। और नौ महीने बाद — बूम! — सितंबर–अक्टूबर में जन्मों की लहर।” इसलिए अगर किसी की शादी दिसंबर में हुई है, तो अक्टूबर में घर में नए सदस्य के आने की पूरी संभावना है। यानी साफ़-साफ़ गणित: Winter Marriages = Monsoon Babies। इसके विपरीत, गर्मियों की तपिश में गर्भधारण कम होता है, इसलिए मार्च–अप्रैल में जन्म दर भी घट जाती है। प्रकृति का अपना फैमिली प्लानिंग डिपार्टमेंट। स्कूल एडमिशन और ‘कट-ऑफ बेबीज़’ एक और दिलचस्प फैक्टर है — स्कूल एडमिशन।भारत में शैक्षणिक वर्ष का कटऑफ आमतौर पर 31 मार्च होता है। कई शहरी माता-पिता अब “प्लान्ड पैरेंटहुड” अपनाते हैं — ताकि बच्चा अप्रैल–जून में जन्म ले और स्कूल में समय पर एडमिशन पा सके। इसलिए शहरों में एक छोटा सा बेबी पीक मार्च से जून के बीच भी देखा जाता है। कह सकते हैं — कुछ बच्चे संस्कारों की वजह से पैदा होते हैं, कुछ एडमिशन शेड्यूल की वजह से।
यह ट्रेंड सिर्फ़ भारत में नहीं। दुनिया भर में ऐसा होता है। अमेरिका में, सोशल सिक्योरिटी डेटा के मुताबिक, 9 सितंबर सबसे आम जन्मदिन है — क्रिसमस और न्यू ईयर के हॉलिडे रोमांस का असर!यानि “लव इज इन द एयर” दिसंबर में, और नतीजे दिखते हैं अगले सितंबर में।
डेटा की दिक्कतें और भविष्य की दिशा
भारत में अब भी करीब 20% बच्चों का जन्म औपचारिक रूप से पंजीकृत नहीं होता। इसलिए कई जगहों पर जन्म तिथि “अनुमान” पर आधारित होती है। नतीजा: स्कूलों में उम्र गड़बड़, दस्तावेज़ों में उलझन, और शोधकर्ताओं के सिर में दर्द! अच्छी बात यह है कि आधार और डिजिटल रिकॉर्डिंग जैसी पहलें अब इस अंतराल को भर रही हैं। जन्म सिर्फ़ तारीख़ नहीं, एक कहानी है। तो अब जब कोई कहे कि “10 अक्टूबर को मेरा जन्मदिन है”, तो समझ लीजिए — ये या तो नियति का कमाल है, या सरकारी गोलाई का नमूना। लेकिन असली विजेता है सितंबर, जो भारतीय कैलेंडर का सबसे नटखट, सबसे प्रजननशील महीना साबित हुआ है।
मथुरा में यमुना किनारे शाम ढल रही है। आरती की घंटियाँ बज रही हैं, अगरबत्तियाँ जल रही हैं, पुजारी मंत्रोच्चार कर रहे हैं, और सैकड़ों श्रद्धालु पवित्रता व मोक्ष की कामना में एकत्र हैं। लेकिन गेंदा फूलों की महक के उस पार एक कड़वी हक़ीक़त है—प्लास्टिक कचरा यमुना में तैर रहा है, रासायनिक झाग डरावने अंदाज़ में चमक रहे हैं, और यह नदी — जो करोड़ों लोगों की जीवनरेखा है — उपेक्षा के बोझ तले कराह रही है। यही दृश्य गंगा, कावेरी, नर्मदा के किनारों पर देखने को मिल सकते हैं। नदियों की दुर्दशा सिर्फ एक पर्यावरणीय गिरावट की कहानी नहीं है; यह एक निर्णायक मोड़ है। अब लड़ाई केवल सफ़ाई अभियान या जागरूकता रैलियों की नहीं, बल्कि अस्तित्व, इंसाफ़ और एक इंक़लाबी सोच की है —मंदिरों की तरह नदियों को भी कानूनी अधिकार देने की ज़रूरत की लड़ाई है।
पर्यावरणविद् डॉ. देवाशीष भट्टाचार्य कहते हैं, “भारत की नदियाँ, जिन्हें कभी देवियों के रूप में पूजा गया, आज इतिहास के सबसे बड़े संकट से गुज़र रही हैं। गंगा, यमुना और अन्य जलधाराएँ अब ज़हर से भरी नसों में बदल चुकी हैं — बिना उपचार के नालों का पानी, फ़ैक्टरी का मल, रेत माफ़िया की लूट और बाँधों की अंधी दौड़ ने इन्हें बेहाल कर दिया है। त्योहारों में जिन पवित्र जलों का सम्मान किया जाता है, वही जल अब प्लास्टिक बोतलों, कीटाणुओं और ज़हरीले रसायनों से भर चुका है। सरकार की करोड़ों की योजनाएँ, जैसे ‘नमामि गंगे’, बस घोषणाएँ रह गई हैं — प्रदूषण बढ़ता जा रहा है और तथाकथित ‘विकास’ के नाम पर नदियाँ दम तोड़ रही हैं।” दुनिया के कई देशों में अब हालात बदल रहे हैं। इक्वाडोर, कोलंबिया और न्यूज़ीलैंड ने अपनी नदियों और प्रकृति को कानूनी अधिकार दे दिए हैं। न्यूज़ीलैंड की व्हांगानुई नदी को अब एक जीवित इकाई के रूप में मान्यता मिली है — यानी अगर कोई नदी को नुक़सान पहुँचाए, तो उसे इंसान को नुक़सान पहुँचाने के बराबर माना जाएगा। भारत ने भी 2017 में एक ऐतिहासिक कोशिश की थी, जब उत्तराखंड हाईकोर्ट ने गंगा और यमुना को “कानूनी व्यक्ति” घोषित किया था — जिन्हें सुरक्षा, पुनर्जीवन और न्याय पाने का अधिकार हो। मगर जल्द ही राजनीतिक हिचकिचाहट और कानूनी पेचों ने इस आदेश को ठंडे बस्ते में डाल दिया। अगर यह व्यवस्था लागू होती, तो नदियाँ अपने प्रदूषकों पर मुकदमा दायर कर सकतीं, और पर्यावरण की कहानी कुछ और होती।
फ्रेंड्स ऑफ वृंदावन के संयोजक जगन्नाथ पोद्दार कहते हैं, “स्थिति बेहद गंभीर है। गंगा बेसिन भारत की एक-चौथाई भूमि को सींचता है, 40 करोड़ लोगों और अनगिनत जीवों को पोषण देता है। यह किसानों, मछुआरों, और दुर्लभ जीव जैसे गंगा डॉल्फिन और घड़ियाल के जीवन से जुड़ा है। मगर अब बाँधों ने ऊपरी प्रवाह को सुखा दिया है, और निचले इलाकों में नालों व रसायनों ने यमुना को ज़हरीला बना दिया है।” रेत खनन, नदियों को जोड़ने की योजनाएँ (जैसे केन-बेतवा प्रोजेक्ट), और बेपरवाह जलमार्ग विकास ने नदी किनारों को खोखला कर दिया है। जलवायु परिवर्तन ने संकट को और बढ़ा दिया है — गंगोत्री ग्लेशियर हर साल 22 मीटर सिकुड़ रहा है, जो दो दशक पहले की तुलना में दुगुनी तेज़ी है। इससे न केवल जैव विविधता बल्कि खेती, स्वास्थ्य और भारत की सांस्कृतिक आत्मा भी ख़तरे में है, कहते हैं बायो डायवर्सिटी विशेषज्ञ डॉ. मुकुल पंड्या।
2014 में बीजेपी ने गंगा को अविरल और निर्मल बनाने के वादे किए थे, लेकिन आज हालत पहले से बदतर है। राष्ट्रीय गंगा परिषद की ज़रूरी बैठकें तक नहीं हो पाई हैं। पर्यावरण संरक्षण अधिनियम जैसे क़ानून आर्थिक प्राथमिकताओं के आगे बेमायने साबित हो रहे हैं। नदियों के बारे में जानकारी रखने वाले प्रोफेसर पारसनाथ चौधरी कहते हैं, “अगर नदियों को अधिकार दिए जाएँ तो इसका मतलब होगा — उनके बहने का, साफ़ रहने का, जीवों को पोषित करने का और अपनी सांस्कृतिक पहचान बनाए रखने का हक़ देना। नदियों के अपने संरक्षक हों, जो प्रदूषकों पर मुकदमा करें, हर्जाना माँगें, और पुनर्जीवन योजनाओं की निगरानी करें।” सच्ची संरक्षकता तभी संभव है जब इसमें सिर्फ़ सरकारी अफ़सर नहीं, बल्कि मछुआरे, किसान, स्थानीय समुदाय, परंपरागत रक्षक, और सिविल सोसायटी भी शामिल हों — जैसे न्यूज़ीलैंड में माओरी समुदाय की भूमिका है। एक स्वतंत्र संस्था, जो राजनीतिक दबाव से मुक्त हो, पूरे नदी तंत्र — हिमालय से डेल्टा तक — की निगरानी करे, यही असली रास्ता है। लेकिन केवल कानूनी अधिकार काफी नहीं। हमें समाज और संस्कृति में बदलाव लाना होगा — नदियों को रिश्तेदार की तरह, न कि संसाधन की तरह देखना होगा। राजनीतिक दलों को घोषणाओं से आगे बढ़कर नदियों के अधिकारों को अपने संकल्पों में शामिल करना होगा। अगर हमने अब भी नहीं सुना, तो हमारी नदियाँ भी उन प्राचीन सभ्यताओं की तरह लुप्त हो जाएँगी जो अपने जलस्रोतों के साथ मिट गईं। नदियों को बोलने और न्याय माँगने का अधिकार देना, शायद हमारे पर्यावरण और आत्मा — दोनों को फिर से जीवित करने की आख़िरी उम्मीद है।
“वो ख़त जो ज़िंदगी थे…” कभी वो दिन थे जब डाकिए की साइकिल की घंटी पूरे मोहल्ले में उम्मीद जगाती थी। हर घर में कोई न कोई बेसब्री से उस ख़ाकी कपड़ों वाले फ़रिश्ते का इंतज़ार करता था — जो अपने थैले में सिर्फ़ चिट्ठियाँ नहीं, जज़्बात लेकर आता था। गली के मोड़ पर जैसे ही साइकिल की झलक दिखती, किसी बूढ़ी अम्मा का दिल धक-धक करने लगता —”पता नहीं, बेटा पंजाब से चिट्ठी भेजा होगा या नहीं…” किसी बाप की आँखें दरवाज़े पर टिकी रहतीं, कि शायद नौकरी की दरख़्वास्त का जवाब आज आए। किसी प्रेमिका की हथेलियाँ काँपतीं, जब वो नीले लिफ़ाफ़े में लिखी वो इत्र-सनी पंक्तियाँ पढ़ती — “तुम्हारे बिना, दिन जैसे अधूरे हैं…” और वो लड़का, जो हर रोज़ पोस्टमैन के कदमों की आहट पहचान गया था, उसी उम्मीद में गेट के पास बैठा रहता कि आज शायद उसका जवाब आएगा। सीमा पर खड़ा सिपाही भी हर हफ़्ते उस चिट्ठी का इंतज़ार करता था, जिसमें लिखा होता —”हम सब ठीक हैं, बस तुम अपनी फ़िक्र रखना…” वो काग़ज़ की महक में घर की रसोई, माँ की दुआ, और प्रेमिका की साँसें तक महसूस कर लेता। पोस्टकार्ड, इनलैंड लेटर, वो टेढ़ी-मेढ़ी लिखावटें —हर लफ़्ज़ में एक रिश्ता धड़कता था। कभी किसी चिट्ठी से आँसू झरते, कभी किसी से हँसी के फूल खिलते। अब न वो पोस्टमैन की घंटी सुनाई देती है, न वो इंतज़ार का रोमांच। ईमेल्स हैं, मैसेज हैं, मगर वो एहसास नहीं। वो ख़त खोले जाते तो काग़ज़ की चरमराहट में भी प्यार की आवाज़ आती थी।
आज की डिजिटल दुनिया में, वो ख़त, वो इंतज़ार, और वो डाकिया —बस दिल के किसी पुराने संदूक में रखी, एक मीठी, पुरानी याद बन गए हैं… डिजिटल दौर में, जब हर बात “seen” और “delivered” के बीच सिमट गई है, उस पुराने खत और पोस्टकार्ड की याद दिल में कसक बनकर रह गई है। चिट्ठियों का दौर एक रूमानी ज़माना था।बॉलीवुड ने भी इस मोहब्बत को अमर कर दिया। “डाकिया डाक लाया” (पलकों की छाँव में, 1977) में गूंजती खुशी, “चिट्ठी आई है” (नाम, 1986) में बिछड़न का दर्द, “संदेसे आते हैं” (बॉर्डर, 1997) में देशप्रेम की व्यथा, और “ये मेरा प्रेम पत्र पढ़ कर” (संगम, 1964) में रूमानी इज़हार — ये सब गाने सिर्फ़ गीत नहीं, उस दौर के जज़्बात का दस्तावेज़ हैं। अगर पीछे झांकें तो डाक व्यवस्था का इतिहास भी उतना ही दिलचस्प है। बाबर के ज़माने में घोड़े और संदेशवाहक राजाओं के हुक्म लेकर दौड़ते थे। फिर शेरशाह सूरी ने डाक चौकियाँ बनाईं, जहाँ हर कुछ मील पर संदेश रुककर अगले धावक को सौंपा जाता था। अकबर के दौर में यह व्यवस्था और संगठित हुई — यह हिंदुस्तान का पहला “नेटवर्क” था, जो जुड़ाव का प्रतीक था। अंग्रेज़ आए तो उन्होंने इस पर अपनी मुहर लगा दी। 1774 में वॉरेन हेस्टिंग्स ने कोलकाता में पहला जनरल पोस्ट ऑफिस खोला। फिर सिंध डाक नामक पहला डाक टिकट 1852 में जारी हुआ — और 1854 में क्वीन विक्टोरिया की तस्वीर वाले टिकट पूरे भारत में चलन में आए। रेलों के साथ जब डाक जुड़ी, तो चिट्ठियाँ पहले से तेज़ पहुंचने लगीं। मगर भावनाओं की रफ़्तार तब भी वही थी — धीमी, सधी और सच्ची। आज भारत डाक सेवा (India Post) दुनिया का सबसे बड़ा नेटवर्क है, 1.5 लाख से ज़्यादा डाकघरों के साथ। उसने खुद को समय के साथ ढाला — स्पीड पोस्ट (1986), PIN कोड प्रणाली (1972), India Post Payments Bank (2018) — सब नई सोच के प्रतीक हैं। लेकिन धीरे-धीरे डाकघर का चरित्र बदल गया। अब वहाँ न चिट्ठियाँ हैं, न इंतज़ार। बस पार्सल, ई-कॉमर्स डिलीवरी, और कुछ औपचारिक कागज़ात। 1990 के दशक में जब निजी कूरियर कंपनियाँ — DTDC, Blue Dart, FedEx — आईं, तो उन्होंने स्पीड, ट्रैकिंग और सर्विस में सरकारी डाक को पीछे छोड़ दिया। और फिर आया मोबाइल, ईमेल, वॉट्सऐप का युग — जहाँ संदेश पलभर में पहुंचता है, मगर एहसास कहीं खो जाता है।
2013 में टेलीग्राम सेवा बंद हो गई, और अब पोस्ट कार्ड भी विलुप्तप्राय हैं। पैसा UPI से भेजा जाता है, न कि मनीऑर्डर से। सब कुछ तेज़ हो गया है, पर रिश्ता ठंडा। तकनीक ने दूरी मिटाई, पर दिलों के बीच का फासला बढ़ा दिया। अब कोई खत नहीं खोलता, कोई सुगंधित लिफ़ाफ़ा नहीं सूंघता, और कोई काग़ज़ के कोने में “तुम्हारा” लिखकर मुस्कुराता नहीं। फिर भी — जब कभी पुरानी अलमारी में पीली पड़ी चिट्ठियाँ मिल जाती हैं, तो वो दिल को फिर उसी बीते ज़माने में ले जाती हैं, जहाँ एक शब्द की कीमत होती थी, एक लिफ़ाफ़ा ज़िंदगी का दस्तावेज़ बन जाता था।