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किसानों की ज़मीनों पर वक़्फ़ बोर्ड की दावेदारी नाजायज़

लातूर के 103 किसानों को उनकी खेती की ज़मीन ख़ाली करने के महाराष्ट्र वक़्फ़ बोर्ड के नोटिस से मचा हड़कंप

के. रवि (दावा)

मस्जिदों के नीचे मंदिरों का चलन भाजपा ने क्या चलाया देश भर में वक़्फ़ बोर्ड ने उन ज़मीनों पर अपनी दावेदारी ठोंक दी है, जो उसने अपनी बतायी हैं। महाराष्ट्र में भी वक़्फ़ बोर्ड ने कई जगह काफ़ी बड़ी-बड़ी ज़मीनों पर अपना अधिकार बताया है। मुंबई से लेकर महाराष्ट्र के गाँवों तक में उसने काफ़ी बड़ी-बड़ी ज़मीनें अपनी बतायी हैं। लेकिन जब वक़्फ़ बोर्ड ने किसानों की ज़मीनों को भी अपना बताया, तो किसानों और तहसील महकमे में अफ़रा-तफ़री मच गयी।

ऐसे ही अधिकार की दावेदारी महाराष्ट्र के लातूर के 103 किसानों की ज़मीन पर वक़्फ़ बोर्ड की सामने आयी। इस दावेदारी ने पूरे लातूर में कोहराम मचा दिया और किसान परिवार अपनी-अपनी ज़मीनों को अपनी दादा-परदादाओं की विरासत बताने के लिए काग़ज़ात दिखाने लगे। वक़्फ़ बोर्ड की दावेदारी वाली किसानों की खेती की यह ज़मीन 300 एकड़ है। किसानों का कहना है कि इस ज़मीन पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी उनके बाप-दादाओं ने खेती की है और उन्हें यह ज़मीन विरासत में मिली हुई है, फिर इस पर किसी का हक़ कैसे हो गया? किसानों ने अपनी ज़मीनों के मालिकाना हक़ के काग़ज़ात और वो नोटिस भी दिखाये हैं, जो वक़्फ़ बोर्ड ने उन्हें भेजे हैं। किसान कहते हैं कि उनके दादाओं-परदादाओं ने 1954, 1955 और 1956 में ये ज़मीनें ख़रीदी थीं, जिसकी रजिस्ट्री और दाख़िल ख़ारिज आदि उनके पास हैं। वे पिछली तीन पीढ़ियों से इस ज़मीन पर खेती कर रहे हैं। फिर भी वक़्फ़ बोर्ड ज़मीन ख़ाली करने के लिए धमका रहा है, जिसके पीछे राजनीतिक ताक़त काम कर रही है।

पहले ऐसी जानकारी सामने आई कि वक़्फ़ बोर्ड ने किसानों को ज़मीन ख़ाली करने का नोटिस भेज दिया। पर बाद में जब महाराष्ट्र वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष समीर क़ाज़ी ने मीडिया को बताया कि वक़्फ़ बोर्ड ने लातूर के किसानों को न कोई नोटिस जारी किया है और न उनकी ज़मीन पर अभी तक कोई दावा किया है। क़ाज़ी ने बताया कि औरंगाबाद के वक़्फ़ ट्रिब्यूनल कोर्ट में किसी व्यक्ति ने दावा किया था, जिस पर मेरे हिसाब से कोर्ट ने किसानों को नोटिस दिया है। हमें इस बारे में मीडिया में आयी ख़बरों से ही पता चला। उन्होंने कहा कि हमने लातूर ज़िले के वक़्फ़ अधिकारी और हमारे मुख्यालय के सुपरिटेंडेंट को शामिल करते हुए एक जाँच टीम गठित की है, जो लातूर जाकर जल्द ही पता करेगी कि असलियत क्या है। टीम की जाँच के बाद ही इस बारे में कुछ कहना उचित होगा। पर एआईएमआईएम के नेता मोहम्मद इस्माइल कह रहे हैं कि किसान वक़्फ़ बोर्ड की जिस ज़मीन पर अपनी दावेदारी कर रहे हैं, वे उसके काग़ज़ दिखाएँ। अगर यह ज़मीन वक़्फ़ की है, तो उसे यह अधिकार है कि वह अपनी ज़मीन वापस लेने के लिए किसानों को नोटिस दे। इसमें कोई बुरी बात नहीं है। कोर्ट देखे कि किसके पास ज़मीनों का मालिकाना हक़ है। अगर वक़्फ़ के रजिस्टर में वह ज़मीन है, तो किसानों को आज नहीं तो कल ज़मीन वापस देनी ही होगी।

महाराष्ट्र अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष प्यारे ज़िया ख़ान ने मीडिया के सामने किसानों की पैरवी करते हुए वक़्फ़ बोर्ड की फटकार लगायी है। उन्होंने पूछा है कि वक़्फ़ बोर्ड के पदाधिकारियों ने अगर किसानों को नोटिस भेजा है, तो उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई की जाएगी। अगर किसानों की ज़मीन पुश्तैनी है तो इसमें वक़्फ़ बोर्ड को दख़ल नहीं देनी चाहिए। इसकी जाँच होगी कि वक़्फ़ बोर्ड ने उनको नोटिस कैसे भेज दिये। महाराष्ट्र अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष प्यारे ज़िया ख़ान ने वक़्फ़ बोर्ड के सीईओ को जल्द ही विस्तृत रिपोर्ट के साथ पूछताछ अपने पास आने का हुक्म दिया है। प्यारे ज़िया ख़ान ने कहा है कि किसानों का पूरा सहयोग किया जाएगा। उनके साथ कोई नाइंसाफ़ी नहीं होगी।

भाजपा का आरोप है कि किसानों की ज़मीन और मंदिरों पर वक़्फ़ बोर्ड जबरन क़ब्ज़ा कर रहा है। उप मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने कहा है कि महायुति सरकार आम जनता की सरकार है। हम किसी के ऊपर भी अन्याय नहीं होने देंगे। इस मामले में शिवसेना (यूबीटी) के विधायक सुनील प्रभु ने लातूर वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष की बात को दोहराया है कि वक़्फ़ बोर्ड ने किसानों की किसी ज़मीन पर अपने अधिकार को लेकर कोई नोटिस नहीं भेजा है। वक़्फ़ ट्रिब्यूनल कोर्ट ने औरंगाबाद के कोर्ट में 103 किसानों की ज़मीन पर दावा करते हुए याचिका दायर की है, जिसकी संख्या 17/2024 है। कोर्ट ने किसानों को नोटिस जारी किया है, जिससे गाँव के लोग परेशान हैं।

इधर, केंद्र सरकार ने वक़्फ़ बोर्ड क़ानून में क़रीब 40 बदलाव करने की योजना बनायी थी। बीते मानसून सत्र में 08 अगस्त, 2024 को लोकसभा में वक़्फ़ विधेयक भी केंद्र सरकार ने पेश किया था, जिसका विरोध कांग्रेस समेत कई विपक्षी दलों किया और इस बिल को मुस्लिम विरोधी बताया था। इसके बाद लोकसभा में बिना किसी चर्चा के यह बिल 31 सदस्यों (21 लोकसभा सदस्यों और 10 राज्यसभा सदस्यों) वाली ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी (जेपीसी) को भेज दिया गया। जेसीपी को सभी हितधारकों से चर्चा करके इसी शीतकालीन सत्र में रिपोर्ट पेश करनी थी। जेपीसी की 28 नवंबर, 2024 तक क़रीब आठ बैठकें हो चुकी हैं, जिसके बाद उसे 2025 के बजट सत्र के अंतिम दिन तक रिपोर्ट पेश करने को कहा गया है। सुना तो यह है कि महाराष्ट्र वक़्फ़ बोर्ड के अध्यक्ष समीर क़ाज़ी के भाजपा के बड़े-बड़े नेताओं से अच्छे सम्बन्ध हैं, जिसके सुबूत के तौर पर उनके भाजपा नेताओं के साथ गूगल जैसी साइट्स पर फोटो भी देखे जा सकते हैं।

बता दें कि सन् 1954 में तत्कालीन सरकार ने वक़्फ़ बोर्ड को ज़मीन लेने, उसे बेचने का अधिकार दिया था। आज देश की सबसे बड़ी और ताक़तवर मुस्लिम संस्था वक़्फ़ बोर्ड है। अभी देश में क़रीब 32 वक़्फ़ बोर्ड हैं, जिनके पास क़रीब नौ लाख एकड़ से ज़्यादा ज़मीन है, जो देश की राजधानी दिल्ली से क़रीब 2.5 गुना से ज़्यादा है। अभी के समय में रेलवे और रक्षा मंत्रालय के बाद सबसे ज़्यादा ज़मीन वक़्फ़ बोर्ड के पास है। आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू ने अपने राज्य में वक़्फ़ बोर्ड को ही भंग कर दिया है।

लूट और मुख़ालिफ़त का दौर

‘यथा राजा, तथा प्रजा’ अर्थात् जैसा राजा होगा, वैसी ही प्रजा होगी। संस्कृत की यह कहावत शत्-प्रतिशत तो सही नहीं मानी जा सकती; लेकिन यह सच है कि ज़्यादातर प्रजा पर अपने जन-प्रतिनिधियों, विशेषकर सरकार के नेतृत्वकर्ताओं के बर्ताव का गहरा असर पड़ता है। इसका सही अर्थ यह निकाला जा सकता है कि अगर राजा बुद्धू होगा, तो ज़्यादातर प्रजा भी बुद्धू हो जाएगी। अगर राजा विद्वान होगा, तो बड़ी संख्या में देश की प्रजा भी ज्ञान हासिल करने की ओर अग्रसर होगी। अगर राजा चोर होगा, तो प्रजा में चोरों की संख्या बढ़ने लगेगी। राजा हत्यारा या हिंसक होगा, तो प्रजा में भी हत्यारों और हिंसकों की संख्या बढ़ने लगेगी। इसके विपरीत एक नियम यह भी लागू होता है कि अगर राजा प्रजा के ख़िलाफ़ कोई क़दम उठाएगा और उसकी आजीविका छीनने के प्रयास करेगा या प्रजा के प्रति किसी तरह का हिंसक व्यवहार करेगा, तो प्रजा भी पहले मुख़ालिफ़त करेगी और बाद में हिंसा का रास्ता ही चुनेगी।

भारत में इसकी शुरुआत हो चुकी है। यहाँ प्रजा में सत्ता की मुख़ालिफ़त करने वालों के साथ-साथ हिंसकों की संख्या भी तेज़ी से बढ़ती जा रही है। हिंसकों में सबसे बड़ी संख्या धर्मों के चक्करों में फँसे कट्टरपंथियों की है। इनकी उन्मादी भीड़ सरकारों की इच्छानुसार काम करती दिखती है। लेकिन बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी के अलावा किसानों और जवानों पर हमलों ने भी जनता से लेकर किसानों और जवानों तक को बग़ावती बनाने का काम किया है। अपने अधिकारों के लिए आन्दोलन करने वाले किसानों पर हमले, उनकी बेक़द्री और जवानों की सुरक्षा में सेंध, उनकी बेक़द्री जैसे मुद्दों ने देश में एक अलग ही माहौल खड़ा किया है। सरकार की मर्ज़ी के कर्मचारियों को जबरन रिटायरमेंट देने, उन्हें बर्ख़ास्त करने और पुरानी पेंशन योजना को पूरी तरह से हटा देने से सरकारी कर्मचारियों में नाराज़गी अलग से है। सैनिक भी इससे परेशान हैं। अब तो स्थिति यह आ चुकी है कि आधी-अधूरी सुविधाओं और लगातार ड्यूटी के आदेशों का पालन करने को मजबूर किये जाने के चलते उत्तर प्रदेश के प्रांतीय सशस्‍त्र बल- प्रोविंशियल आर्म्ड कांस्टेबुलरी (पीएसी) के जवानों ने कुंभ में सुरक्षा के लिए तैनाती से मना कर दिया। पहले जवानों ने अपने अधिकारियों के सामने अपनी समस्याएँ रखी थीं, जिन्हें अनसुना करते हुए पीएसी अधिकारियों ने सरकार के आदेश का पालन करते हुए अपने अधीनस्थ पीएसी जवानों को महाकुंभ में तैनात होने का आदेश दे दिया। अपनी कई समस्याओं से जूझ रहे पीएसी जवान इस आदेश से काफ़ी नाराज़ हुए और बग़ावत पर उतर आये। अपने अधिकारियों के आदेश मानने से मना करने को बग़ावत की शुरुआत समझें, तो यह सरकार के लिए चिन्ता की बात है। आज़ाद भारत में ऐसा दूसरी बार हुआ है, जब जवानों ने अपने ही अधिकारियों का आदेश मानने से मना कर दिया हो।

असल में यह लूट और मुख़ालिफ़त का दौर है। कुछ लोग देश की जनता को दोनों हाथों से लूटने में लगे हैं, तो इस लूट से पीड़ित और कुछ न्यायप्रिय लोग इसकी मुख़ालिफ़त कर रहे हैं। यह लूट कई तरह से हो रही है और मुख़ालिफ़त भी कई तरह से हो रही है। लूट में राजनीतिक इच्छा शक्ति है और मुख़ालिफ़त लोगों की मजबूरी है। कई बार भ्रष्टाचार के ऐसे मामले सामने हैं, जिनमें सरकार में बैठे नुमाइंदों के दामन भी दाग़दार नज़र आये हैं। हाल ही में अमेरिका में ठेके लेने के लिए अडाणी समूह द्वारा रिश्वत देने से लेकर इलेक्टोरल बॉन्ड में भी यही सब दिखा। पूँजीपतियों का क़र्ज़ माफ़ करने, देश के लाखों करोड़ रुपये लेकर बड़ी संख्या में व्यापारियों के विदेश भाग जाने, सत्ताधारियों द्वारा भ्रष्टाचारियों के साथ मिलकर भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने जैसे कितने ही मामले अब तक सामने आ चुके हैं।

यह भारत की विडंबना ही है कि बड़े-बड़े भ्रष्टाचारों के ज़रिये इतनी बड़ी-बड़ी लूटों को अंजाम देकर भी सरकारों में बैठे नुमाइंदे ख़ुद को सबसे बड़ा ईमानदार घोषित करते हैं और अपेक्षा करते हैं कि उनके ज़ुल्म की शिकार जनता पालतू जानवरों की तरह मूक रहे। अगर किसी समूह या समाज के कुछ लोग सरकारों की जन-विरोधी नीतियों की मुख़ालिफ़त करते हैं, तो उन्हें पुलिस और सेना के जवानों से प्रताड़ित करवाया जाता है। पिछले चार साल से किसानों के साथ यही सब तो हो रहा है। सरकारों की मनमानियाँ जनता के लिए मुसीबतों के पहाड़ खड़े करती जाती हैं। यह तब होता है, जब सरकारें अपने कर्तव्य भूलकर प्रजा के मूल अधिकारों का हनन तो करती ही हैं, प्रजा पर टैक्स का बोझ भी बढ़ाती जाती हैं। ज़रूरत से ज़्यादा टैक्स वसूलना, महँगाई के चलते प्रजा की बचत न हो पाना, देश पर क़र्ज़ बढ़ना, यह सब भ्रष्टाचार के चलते ही होता है। सरकारें प्रजा की मुख़ालिफ़त को अपराध मानती हैं। लेकिन उन्हें यह भी समझना चाहिए कि देश के विकास के लिए दिये गये प्रजा के योगदान में लूट मचाना भी तो अपराध है, जिसे क़ानूनी चुप्पी तो बढ़ावा देती ही है, प्रजा भी खुली मुख़ालिफ़त न करके कहीं-न-कहीं बढ़ावा ही देती है। इसलिए प्रजा की समस्याएँ कभी कम नहीं होतीं।

तीन दिन के भारत दौरे पर आ रहे हैं श्री लंका के राष्ट्रपति 

नयी दिल्ली , श्रीलंका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति अनुरा कुमारा दिसानायके तीन दिन के आधिकारिक दौरे पर भारत आ रहे हैं । भारतीय विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने बताया कि राष्ट्रपति दिसानायके 15 दिसंबर को भारत पहुंच रहे हैं और 17 को श्रीलंका लौट जायेंगे । जायसवाल ने बताया कि वे राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु और प्रधानमंत्री मोदी से मिलेंगे । प्रधानमंत्री मोदी के साथ द्विपक्षीय वार्ता में आपसी हित के क्षेत्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों पर बात करेंगे । उनकी इस यात्रा से दोनों देशों के बीच आपसी लाभ और बहुमुखी सहयोग और मजबूत होगा । दिसानायके नयी दिल्‍ली में आयोजित होने वाले एक बिजनेस कार्यक्रम में हिस्सा लेंगे। वे सुप्रसिद्ध बौद्ध तीर्थ स्थल बोधगया जायेंगे । अक्टूबर में अपनी श्री लंका यात्रा के दौरान भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर श्रीलंका के राष्ट्रपति को भारत आने का न्यौता दे कर आए थे । चुनाव जीतने के बाद अनुरा कुमारा दिसानायके की ये पहली विदेश यात्रा है ।

अनुरा कुमारा दिसानायके ने 23 सितंबर 2024 को श्री लंका मेंके राष्ट्रपति का पद संभाला था । बाद में उन्होने संसद भंग कर दी। पिछले महीने हुए संसदीय चुनावों में उनकी पार्टी नेशनल पीपुल्स पावर 60 फीसदी से ज्यादा मतों के साथ चुनाव जीती थी । इससे पहले श्री लंका आर्थिक और सामाजिक उथल पुथल से गुजरा था । दो साल पहले दिवालिया घोषित कर दिया गया था और बाद में तख्तापलट भी हुआ । पिछले महीने हुए चुनावों से श्री लंका में स्थिरता आयी है । भारत और श्रीलंका के आपसी संबंध अच्छे रहे हैं । दोनों देशों के बीच समुद्री संबंध बहुत अच्छे हैं हिंद महासागर में श्रीलंका भारत का सबसे निकटतम पड़ोसी देश है ।

रणधीर जायसवाल ने बताया कि श्री लंका प्रधानमंत्री मोदी की सागर ( सिक्योरिटी एंड ग्रोथ फॉर ऑल इन रीजन ) का अहम हिस्सा है । वैसे भी श्रीलंका भारत की पडोसी पहले विदेश नीति में महत्वपूर्ण स्थान रखता है ।

भारत के खिलाफ दुष्प्रचार कर रहा है कनाडा का मीडिया

विशेष संवाददाता

नयी दिल्ली ,कनाडा का मीडिया भारत की छवि खराब करने के लिए लगातार दुष्प्रचार कर रहा है । हाल ही में वीजा देने को लेकर भारत के खिलाफ गलत प्रचार किया जा रहा है । भारत सरकार को ये पूरा अधिकार है कि वो किसको वीजा दे । जो भारत की क्षेत्रीय अखंडता को कमजोर करते हैं उनको वीजा न देने का भारत को पूरा अधिकार है । विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने साप्ताहिक संवाददाता सम्मेलन में एक प्रश्न के उत्तर में कनाडा के मीडिया को भारत विरोधी बताया । दरअसल कनाडा के मीडिया में हाल ही में एक खबरें छप रही हैं कि— “वीजा देने के बहाने नयी दिल्ली ओटावा के आंतरिक मामलों में दखल दे रही है । कुछ सिखों को इसलिए वीजा नहीं दिया गया कि वे भारत की अखंडता के खिलाफ अभियान चला रहे हैं”। रणधीर जायसवाल ने कनाडा के मीडिया में छप रही इन खबरों का जोरदार खंडन करते हुए कहा कि किसको वीजा देना है किसको नहीं भारत का संप्रभुता अधिकार है । कनाडा का मीडिया इस बारे में जिस तकरह की खबरें छाप रहा है वो भारत के संप्रभुता मामलों में विदेशी दखल है ।

रणधीर जायसवाल ने कहा कि पिछले सप्ताह कनाडा में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई जिसमें तीन भारतीय छात्रों की हिंसा में हत्या कर दी गयी । इस हादसे से भारत को बहुत दुख पहुंचा है । ओटावा में भारत का दूतावास टोरेंटो और वेंकूवर में हमारे वाणिज्य दूतावास इस मामले में हर संभव मदद कर रहे हैं । संतप्त परिवारों को हमने अपनी संवेदनाएं भेजी हैं ।

राज्यसभा में तीसरा सप्ताह भी चढा हंगामें और स्थगन की भेंट

नयी दिल्ली : संसद के शीतकालीन सत्र के तीसरे सप्ताह में भी राज्यसभा में कोई काम नहीं हो पाया। जबकि लोकसभा पिछले दो दिन से ठीक से चल रही है और विधेयक भी पारित किए जा रहे हैं । नौ दिसंबर तक अडानी – सोरोस को लेकर सत्ता पक्ष और विपक्ष में जो घमासान चल रहा था दस दिसंबर से उसको एक नया मोड़ मिल गया । विपक्ष के 60 सांसदों ने राज्यसभा के सभापति जगदीप धनखड़ के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव नोटिस राज्यसभा के महासचिव को दे दिया । उसके बाद से तो दोनों पक्षों के बीच बिल्कुल तलवारें खिंच गयी है । दोनों पक्ष वैल के पास आ कर एक दूसरे के खिलाफ नारेबाजी और गैर संवैधानिक भाषा का प्रयोग करते हैं। बारह बजे से पहले ही सदन सोमवार तक के लिए स्थगित कर दिया गया ।

तीसरे सप्ताह के अंतिम दिन शुक्रवार को भी सभापति और नेता प्रतिपक्ष मल्लिकार्जुन खरगे के बीच काफी कहा सुनी हुई ।सभापति ने कहा कि वे किसी से नहीं डरते किसान के बेटे हैं देश के लिए मर मिट जायेंगे। धनखड़ ने खरगे को बातचीत के लिए अपने चैंबर में आमंत्रित करते हुए कहा कि वे सदन में पैदा हुए गतिरोध को तोड़ना चाहते हैं । दोनों के बीच बातचीत से ही समाधान का रास्ता निकलेगा। इस पर खरगे ने कहा कि जो सभापति मेरा सम्मान नहीं करता मैं उसका सम्मान नहीं कर सकता ।सदन का माहौल शुक्रवार को भी बहुत तनावपूर्ण रहा । दरअसल  सत्ता पक्ष के चार सांसदों राधा मोहन अग्रवाल , सुरेंद्र नागर , नीरज शेखर और किरण चौधरी ने प्वाइंट ऑफ ऑर्डर की अनुमति लेकर सभापति के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव की बात मीडिया में ले जाने अराजक और अभद्र भाषा का प्रयोग सोशल मीडिया में करने पर आपत्ति जतायी । राधा मोहन ने कहा कि राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का सम्मान न करना कांग्रेस की पुरानी परंपरा है । पंडित नेहरू भी देश के प्रथम राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद का सम्मान नहीं करते थे । सोशल मीडिया में नेता प्रतिपक्ष द्वारा सभापति पर लगाए गए  10 आरोपी को राधा मोहन अग्रवाल ने 10 जनपथ की चाटुकारिता बताया । उन्होंने कहा 82 साल की उम्र में खरगे चाटुकारिता की सभी हदें पार कर रहे हैं । दरअसल पूरी कांग्रेस पार्टी को संविधान पर ही विश्वास नहीं है । राधा मोहन अग्रवाल ने अविश्वास प्रस्ताव पर हस्ताक्षर करने वाले 60 सांसदों के खिलाफ विशेषाधिकार हनन नोटिस दिया ।  भाजपा सांसद सुरेंद्र नागर ने कहा कि सभापति एक गरीब किसान के घर पैदा हुए उनका उपराष्ट्रपति पद पर पहुंचना कांग्रेस की किसान , दलित और ओबीसी विरोधी मानसिकता को पसंद नहीं  रहा है । भूतपूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के बेटे नीरज शेखर ने कहा इनको किसान के बेटे के आगे बढ़ने पर तकलीफ है ये चाहते हैं बस एक परिवार ही आगे बढ़े । किरण चौधरी ने भी जगदीप धनखड़ का बचाव करते हुए कहा कि विपक्ष ने केवल उपराष्ट्रपति का अपमान नहीं किया बल्कि पूरी किसान बिरादरी का अपमान किया है । पूरा देश देख रहा है कि ये क्या नौटंकी कर रहे हैं ।

भाजपा सांसदों का प्वाइंट ऑफ ऑर्डर की अनुमति और बोलने का समय दिए जाने पर खरगे ने कड़ी आपत्ति जतायी । उन्होंने सभापति से कहा कि भाजपा सांसद बार बार मेरा नाम लेकर अपमान कर रहे हैं और आप चुपचाप सुन रहे हैं । आप केवल सत्ता पक्ष के सांसदों को समय देकर संविधान के खिलाफ जा रहे हैं । टीएमसी सांसद डेरेक ओ ब्रायन खरगे के समर्थन में उनकी सीट तक पहुंच गए ।डीएमके सांसद त्रिची शिवा और आम आदमी पार्टी ,सांसद संजय सिंह ने केवल सत्ता पक्ष के सांसदों को बोलने का मौका देने के लिए सभापति की आलोचना की ।

मंदिर-मस्जिद से जुड़ा नया केस कोर्ट में नहीं होगा दर्ज, सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक

नई दिल्ली : सुप्रीम कोर्ट में गुरुवार को पूजास्थल कानून (प्लेसेज ऑफ वर्शिप एक्ट-1991) को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई हुई। चीफ जस्टिस ऑफ इंडिया संजीव खन्ना ने कहा कि जब तक हम इस मामले पर सुनवाई कर रहे हैं, तब तक देश में धार्मिक स्थलों को लेकर कोई नया मामला दाखिल नहीं किया जाएगा।

केंद्र सरकार को 4 हफ्ते का दिया समय
एक्ट के खिलाफ CPI-M, इंडियन मुस्लिम लीग, NCP शरद पवार, राजद एमपी मनोज कुमार झा समेत 6 पार्टियों ने याचिका लगाई है। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि केंद्र सरकार 4 हफ्ते में अपना पक्ष रखे। सीजेआई ने कहा कि इस मामले की अगली सुनवाई तक मंदिर-मस्जिद से जुड़ी किसी भी नए मुकदमे को दर्ज नहीं किया जाएगा। इस याचिका पर चीफ जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस संजय कुमार और जस्टिस के वी विश्वनाथन की स्पेशल बेंच ने इस मामले पर सुनवाई की। सुप्रीम कोर्ट ने याचिकाओं के एक समूह में हलफनामा दायर करने को कहा है, जो किसी पूजा स्थल पर पुर्ण दावा करने या 15 अगस्त,1947 को प्रचलित स्वरूप में बदलाव की मांग करने के लिए मुकदमा दायर करने पर रोक लगाता है।

कोई अदालत इस पर सर्वे का आदेश दें
कोर्ट का कहना है कि पूजा स्थल एक्ट को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई और उनका निपटारा होने तक देश में कोई और मुकदमा दर्ज नहीं किया जा सकता है। कोर्ट ने ये भी कहा है कि निचली अदालट कोई भी इस पर प्रभावी या अंतिम आदेश न दें। सर्वे का भी आदेश न दें।

क्या है वर्शिप एक्ट ?
संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 के तहत धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के अंतर्गत नागरिकों को अपने धर्म को मानने और उसका पालन करने की स्वतंत्रता प्राप्त है। यह कानून इसी अधिकार के तहत किसी भी धार्मिक स्थल को एक धर्म से दूसरे धर्म में बदलने पर बैन लगाता है। प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट कानून सभी धार्मिक स्थलों पर लागू होता है। यानी हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई या किसी भी धर्मस्थल को दूसरे धर्म में नहीं बदला जा सकता। कानून में यह प्रावधान भी है कि धार्मिक स्थल में बदलाव को लेकर अगर कोई कानूनी विवाद होता है, तो फैसला देते समय 15 अगस्त 1947 की स्थिति पर विचार किया जाएगा।

इस एक्ट के खिलाफ याचिकाकर्ता की ओर से पेश हुए वकील राजू रामचंद्रन ने कहा कि अलग-अलग कोर्ट में 10 सूट दाखिल हुए हैं। इनमें आगे की सुनवाई पर रोक लगाए जाने की जरूरत है। केंद्र सरकार ने इस मांग का विरोध किया। सुप्रीम ने मथुरा का मामला जिक्र करते हुए कहा कि यह मामला और दो अन्य सूट पहले से ही कोर्ट के सामने लंबित है।

जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने य़ाचिकाओं के खिलाफ दायर किया केस
जमीयत उलेमा-ए-हिंद ने इन याचिकाओं के खिलाफ याचिका दायर की है। जमीयत का तर्क है कि एक्ट के खिलाफ याचिकाओं पर विचार करने से पूरे देश में मस्जिदों के खिलाफ मुकदमों की बाढ़ आ जाएगी। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड और ज्ञानवापी मस्जिद का रखरखाव करने वाली अंजुमन इंतजामिया मस्जिद मैनेजमेंट कमेटी ने भी इन याचिकाओं को खारिज करने की मांग की है।

सरकार का बड़ा फैसला,‘एक देश-एक चुनाव’ विधेयक को मोदी कैबिनेट की मंजूरी

नई दिल्ली :  मोदी कैबिनेट ने गुरुवार को वन नेशन वन इलेक्शन को मंजूरी दे दी है। जानकारी के अनुसार अब संसद में जल्द ही इसे पेश भी किया जा सकता है। सूत्रों ने बताया कि केंद्र सरकार यह विधेयक संसद के इसी शीतकालीन सत्र में ही ला सकती है।

कैबिनेट एक देश एक चुनाव पर बनी रामनाथ कोविंद समिति की रिपोर्ट को स्वीकार कर चुकी है। सरकार चाहती है कि इस बिल पर आम राय बने। सभी हितधारकों से विस्तृत चर्चा हो। जेपीसी सभी राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों से चर्चा करेगी। इसके साथ ही सभी राज्य विधानसभाओं के स्पीकरों को भी बुलाया जा सकता है। देश भर के प्रबुद्ध लोगों के साथ ही आम लोगों की राय भी ली जाएगी। एक देश एक चुनाव के फायदों, उसे करने के तरीकों पर विस्तार से बात होगी। सरकार को उम्मीद है कि इस बिल पर आम राय बनेगी।

मोदी सरकार इस बिल को लेकर लगातार सक्रिय रही है। सरकार ने सितंबर 2023 में इस महत्वाकांक्षी योजना पर आगे बढ़ने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अगुवाई में एक समिति का गठन किया था। कोविंद समिति ने अप्रैल-मई में हुए लोकसभा चुनाव की घोषणा से ठीक पहले मार्च में सरकार को अपनी सिफारिश सौंपी थी। केंद्र सरकार ने कुछ समय पहले समिति की सिफारिशों को स्वीकार कर लिया था। रिपोर्ट में 2 चरणों में चुनाव कराने की सिफारिश की गई थी। समिति ने पहले चरण के तहत लोकसभा और विधानसभा चुनाव कराने की सिफारिश की है। जबकि दूसरे चरण में स्थानीय निकाय के लिए चुनाव कराए जाने की सिफारिश की गई है।

इसके साथ आपको ये भी बता दें कि एक देश एक चुनाव (वन नेशन, वन इलेक्शन) एक ऐसा प्रस्ताव है, जिसके तहत भारत में लोकसभा और राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने की बात की गई है। यह बीजेपी के मेनिफेस्टो के कुछ जरूरी लक्ष्यों में भी शामिल है। चुनावों को एक साथ कराने का प्रस्ताव रखने का यह कारण है कि इससे चुनावों में होने वाले खर्च में कमी हो सकती है।

हरियाणा सरकार ने तय की सेवाओं की समय-सीमा 

सेवा का अधिकार अधिनियम के तहत गुरुग्राम और फरीदाबाद महानगर विकास प्राधिकरणों की 16-16 सेवाएं की गईं अधिसूचित

हरियाणा सरकार द्वारा सेवा का अधिकार अधिनियम-2014 के तहत गुरुग्राम महानगर विकास प्राधिकरण और फरीदाबाद महानगर विकास प्राधिकरण की 16-16 सेवाएं अधिसूचित की गई हैं।

इस मामले में मुख्य सचिव डॉ. विवेक जोशी द्वारा जारी की गई एक अधिसूचना के अनुसार, इन दोनों महानगर विकास प्राधिकरणों के क्षेत्र के भीतर स्थित इकाइयों के लिए सी.एल.यू. की अनुमति (सरकार की सक्षमता को छोड़कर) 60 दिनों में और प्राधिकरणों द्वारा सी.एल.यू. अनुमति प्राप्त स्थलों की भवन योजनाओं की स्वीकृति 90 दिनों में दी जाएगी। ऑक्यूपेशन सर्टिफिकेट बिना किसी अपराध के मामलों में 60 दिनों और अन्य मामलों में 90 दिनों में जारी किया जाएगा।

पंजाब अनुसूचित सड़क और नियंत्रित क्षेत्र अनियमित विकास प्रतिबंध अधिनियम-1963 के उपबंधों के अधीन ईंट-भट्ठों और चारकोल भट्ठों के लाइसेंस 30 दिनों में जारी किए जाएंगे। नए जलापूर्ति कनेक्शन, सीवरेज और ड्रेनेज कनेक्शन (थोक और औद्योगिक कनेक्शन) 12 दिनों में प्रदान किए जाएंगे। जल निकास के नए कनेक्शन भी 12 दिनों में जारी किए जाएंगे, जबकि पानी का रिसाव और पाइप ओवरफ्लो की समस्याएं तीन दिनों में हल की जाएंगी। मुख्य सीवर लाइन के मेनहोल पर ब्लॉकेज या ओवरफ्लो को सात दिनों में ठीक किया जाएगा।

इन दोनों प्राधिकरणों की पम्पिंग मशीनरी, इलेक्ट्रिक, वायरिंग, वितरण प्रणाली आदि में खराबी जैसी छोटी-मोटी समस्याओं के कारण जलापूर्ति बहाली तीन दिनों में की जाएगी। अनुपचारित जल की कमी, ट्रांसफार्मर जलना, एच.टी./एल.टी. लाइनों में खराबी आदि बड़ी समस्याओं के चलते जलापूर्ति बहाली छः दिनों में जबकि ट्रांसफार्मर जलना, एच.टी. / एल.टी. लाइनों में खराबी, मुख्य जलापूर्ति लाइन में रिसाव आदि के कारण जलापूर्ति बहाली 10 दिनों में की जाएगी। इसी प्रकार पानी और सीवर का डुप्लीकेट बिल तीन दिनों में जारी किया जाएगा तथा बिलों में त्रुटियों का सुधार 10 दिनों में किया जाएगा।

प्राकृतिक गैस पाइपलाइन बिछाने, संचार बुनियादी ढांचे और सम्बन्धित स्थापना, बिजली लाइन और स्वास्थ्य सेवाओं आदि के लिए राइट ऑफ वे की अनुमति 60 दिनों में दी जाएगी। दोनों महानगर विकास प्राधिकरणों की इन सेवाओं के लिए पदनामित अधिकारी, शिकायतों के निवारण के लिए प्रथम और द्वितीय अपीलीय अधिकारी भी नामित किए गए हैं।

नाबार्ड के दावे और ग्रामीणों की हक़ीक़त

– राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक ने अपनी रिपोर्ट में ग्रामीणों की आय और बचत में बढ़ोतरी का किया है दावा

योगेश

राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) ने अपने अखिल भारतीय ग्रामीण वित्तीय समावेशन सर्वेक्षण (एनएएफआईएस) 2021-22 में गाँव के लोगों की वार्षिक आय 9.5 प्रतिशत बढ़ने का दावा किया है। नाबार्ड ने रिपोर्ट में बताया है कि गाँवों में रहने वाले लोगों की औसत आय वित्त वर्ष 2016-17 में 8,059 रुपये महीने की थी और यह औसत आय वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 12,698 रुपये महीना हो गयी है। पाँच साल के औसत में ग्रामीण लोगों की आय में यह वृद्धि 57.6 प्रतिशत है, जो हर साल 9.5 प्रतिशत के हिसाब से बढ़ी है। नाबार्ड ने ग्रामीण लोगों की आय में इस वृद्धि को चक्रवृद्धि वार्षिक वृद्धि दर का संकेत बताया है।

इस दौरान बचत में भी वृद्धि देखी गयी है। इसके अलावा नाबार्ड ने यह भी बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में ग्रामीण लोगों की हर साल की औसत घरेलू बचत 13,209 रुपये हुई है, जबकि वित्त वर्ष 2016-17 में ग्रामीण लोगों की हर साल की औसत घरेलू बचत 9,104 रुपये ही थी। नाबार्ड ने रिपोर्ट में बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में 66 प्रतिशत ग्रामीण परिवारों की बचत की सूचना के आधार पर यह साफ़ है कि ग्रामीण लोगों की आय बढ़ी है। लेकिन नाबार्ड की रिपोर्ट में ग्रामीण लोगों पर क़ज़र् बढ़ने के अलावा उनका ख़र्चा बढ़ने की भी बात कही है। नाबार्ड की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में 47.4 प्रतिशत क़ज़र् था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 52 प्रतिशत हो गया है। इसी तरह ग्रामीणों का औसत घरेलू ख़र्च वित्त वर्ष 2016-17 में 6,646 रुपये महीना था, जो वित्त वर्ष 2021-22 में बढ़कर 11,262 रुपये महीना हो गया। नाबार्ड ने बताया है कि ग्रामीणों का ख़र्च खाद्य पदार्थों पर चार प्रतिशत घटा है, जबकि अन्य चीज़ों पर बढ़ा है। नाबार्ड ने बताया है कि ग्रामीण परिवारों में कम-से-कम एक सदस्य का बीमा कराने वालों की संख्या भी अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है। नाबार्ड की रिपोर्ट में बताया गया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में बीमा कराने वालों की संख्या 25.5 प्रतिशत थी, जो वित्त वर्ष 2021-22 में 80.3 प्रतिशत हो गयी।

नाबार्ड की रिपोर्ट में ग्रामीणों की आय बढ़ी हुई दिखायी ज़रूर गयी है, पर गाँवों में बसने वाले लोगों की आय का अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि उन्हें गाँवों के ही कुछ पैसे वाले लोगों से 10 से 12 प्रतिशत ब्याज पर क़ज़र् उठाना पड़ता है। कई ग्रामीणों ने बताया कि उनकी आय नहीं बढ़ी है, उन्हें तो हर दिन एक-एक पैसे के लिए दि$क्क़तों का ही सामना करना पड़ता है।

ओंकार नाम के एक ग्रामीण ने बताया कि उनके पास न तो ज़्यादा खेती है और न ही कोई रोज़गार है। तीन बच्चों की पढ़ाई और पालने का ख़र्च बहुत ज़्यादा है। मज़दूरी कभी-कभी मिल जाती है, जिससे गुज़ारा भी नहीं हो पता। मोहन स्वरूप नाम के एक किसान ने बताया कि उनकी सात बीघा खेती है, पर गुज़ारा नहीं हो पाता। बेटी की शादी में क़ज़र् लिया था, चार साल हो गये और अभी क़ज़र् नहीं चुका पाया है। एक बेटा है, जो बाहर रहकर फैक्ट्री में नौकरी करता है, पर उसकी उतनी तन$ख्वाह नहीं है कि वो हमारी मदद कर सके। कुछ लोगों को छोड़कर दूसरे ज़्यादातर ग्रामीणों की भी कुछ ऐसी ही दशा है।

हमारा देश एक कृषि प्रधान देश होने के बाद भी किसानों का जीवन-यापन आसान नहीं है। खेती पर निर्भर किसानों और मज़दूरों की आर्थिक दशा बहुत अच्छी नहीं है। गाँवों में संख्या भी उन्हीं की ज़्यादा है। हमारे देश के सभी राज्यों में ज़्यादातर किसानों और मज़दूरों की स्थिति बहुत दयनीय है। उनकी आय उनके ख़र्च से बहुत कम है। किसानों को हर दिन आय नहीं होती है। सब्ज़ियाँ उगाने वाले किसानों को भी सप्ताह या महीने में ही कुछ पैसा देखने को मिलता है। लेकिन खेती में लागत हर दिन लगती है। बुवाई, बीज, खाद, पानी, दवाई, जुताई, निकाई, गुड़ाई, ढुलाई, कटाई और बाज़ार में फ़सलें बेचने जाने तक किसान को पैसा ख़र्च करना पड़ता है। साथ ही खेती में हर दिन परिश्रम की ज़रूरत रहती है, जो किसान परिवार ख़ुद ही ज़्यादातर करता रहता है। महँगाई और लागत बढ़ने के हिसाब से किसानों की आय नहीं बढ़ी है, दोगुनी आय की तो बात ही नहीं है। लेकिन नेशनल बैंक फॉर एग्रीकल्चर ऐंड रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) के ऑल इंडिया रूरल फाइनेंशियल इन्क्लूजन सर्वे 2021-22 में ऐसा ही दिखाया गया है। ये सर्वे धरातल पर कितने सही हैं और हुए हैं कि नहीं, इस बारे में नाबार्ड ही बेहतर जाने। ग्रामीणों तो बता रहे हैं कि उनकी आय नहीं बढ़ी है, जितनी आय बढ़ी है, उससे ज़्यादा ख़र्चे बढ़े हैं।

नाबार्ड ने बताया है कि देश में सबसे ज़्यादा आय पंजाब के किसानों की है, जहाँ का हर किसान परिवार हर महीने औसतन 31,433 रुपये कमाता है। इसके बाद हरियाणा के किसान परिवारों की आय दूसरे नंबर पर है, जहाँ हर किसान परिवार की औसत आय 25,655 रुपये महीने तक है। केरल भी किसान परिवारों की आय में आगे है, जहाँ हर किसान परिवार की आय 22,757 रुपये महीना है। वहीं देश के सबसे बड़े राज्‍य उत्तर प्रदेश में किसान परिवारों की औसत आय 10,847 रुपये महीना ही है। देश में सबसे कम आय बिहार के किसानों की है, जहाँ हर किसान परिवार 9,252 रुपये महीने की ही औसत आय पर गुज़ारा कर रहा है। नाबार्ड ने बताया है कि वित्त वर्ष 2016-17 में 18 राज्यों के किसान परिवारों की औसत आय 10,000 रुपये महीने से भी कमा थी। नाबार्ड ने बताया है कि उत्तर प्रदेश में पाँच वर्षों में किसान परिवारों की आय 63 प्रतिशत बढ़ी है। वित्त वर्ष 2016-17 में उत्तर प्रदेश में कृषि परिवारों की औसत आय 6,668 रुपये महीने ही थी। दूसरी तरफ़ नाबार्ड ने अपने सर्वेक्षण एनएफएमएस में बताया है कि वित्त वर्ष 2021-22 में ग्रामीण लोगों पर क़ज़र् वित्त वर्ष 2016-17 की अपेक्षा 47.4 प्रतिशत बढ़ गया है। नाबार्ड ने बताया है कि वित्त वर्ष 2024-25 में बैंकों ने कृषि क़ज़र् का रिकॉर्डतोड़ वितरण किया है, पर यह क़ज़र् 20 ट्रिलियन रुपये के लक्ष्य के साथ अस्थिर बना हुआ है। अब नाबार्ड पूरे देश में विभिन्न पायलट एसोसिएट्स को लागू कर रहा है, जिसमें वह कृषि क़ज़र् के कारोबार में तेज़ी करेगा और इसके लिए नाबार्ड रिजर्व बैंक की इकाई भारतीय रिजर्व बैंक की भागीदारी लेकर सहायता लेगा। नाबार्ड ने क्लाइमेट स्ट्रेटेजी 2030 तैयार की है, जिसमें हमारे देश की हरित आधारभूत ज़रूरतों को पूरा करने का उद्देश्य है। लेकिन ग्रामीणों को क़ज़र् की व्यवस्था करने के अलावा ग्रामीण विकास में नाबार्ड का कोई योगदान ऐसा नहीं है, जिससे किसानों की आर्थिक मज़बूती बढ़ सके।

यहाँ किसानों को जान लेना चाहिए कि नाबार्ड सीधे व्यक्तिगत रूप से किसानों को सीधे क़ज़र् कभी नहीं देता है। उसने ग्रामीण और सहकारी बैंकों के द्वारा ही किसानों को क़ज़र् देने का काम किया है। वह वित्तीय संस्थानों और ग्रामीण क्षेत्रों से जुड़े बैंकों को ही वित्तीय मदद देता है, जिसे नाबार्ड द्वारा लिये जाने वाले ब्याज से ज़्यादा पर बैंक उठाते हैं। इससे किसानों पर नाबार्ड का नहीं, बैंकों का दबाव रहता है। नाबार्ड ने वित्त वर्ष 2023-24 के दौरान झारखण्ड के विकास के लिए 6,200 करोड़ रुपये का क़ज़र् देने की पेशकश की थी। हर राज्य को नाबार्ड क़ज़र् देने का काम करता है, जिससे ग्रामीणों पर क़ज़र् बढ़ता जा रहा है। हमारे देश में घनी आबादी वाले ग्रामीण इलाक़ों में कृषि और कृषि आधारित उद्योग जलवायु पर निर्भर हैं। इससे किसानों को फ़सलों की मनचाही उपज नहीं मिल पाती। इसके अलावा किसानों को फ़सलों का सही मूल्य नहीं मिल पता। इन सबके चलते ज़्यादातर किसान समय पर बैंक का क़ज़र् नहीं उतार पाते हैं और क़ज़र्दार होते चले जाते हैं।

उद्योगपति कभी नहीं चाहते कि ग्रामीण लोग ख़ुशहाल हों और वो छोटे-छोटे कृषि सम्बन्धी उद्योग भी चला सकें। अगर ऐसा होता है, तो उद्यमियों की बढ़ी हुई आय घटने लगेगी और उन्हें अमीरी पर ख़तरा मँडराता दिखने लगता है। इसलिए ग्रामीण क्षेत्रों को उद्यमों से दूर रखने की भी साज़िश होती है, जिससे ग्रामीण लोग आत्मनिर्भर न बन सकें। नाबार्ड ने यह ज़रूर कह दिया है कि वह ग्रामीण लोगों की आय बढ़ते देख रहा है और नाबार्ड इसमें अपना योगदान भी दिखा रहा है, पर ग्रामीणों की आय धरातल जितनी बढ़ी है, उससे ज़्यादा उनका ख़र्च बढ़ा है। ग्रामीण क्षेत्रों में अगर ख़ुशहाली आयी भी है, तो उसके पीछे घर में किसी-न-किसी सदस्य को बाहर रहकर नौकरी करके या फिर व्यापार करना है। इसमें नाबार्ड की कोई ख़ास पहल नहीं मानी जा सकती। नाबार्ड 2024-25 में पोलैंड में सोशल बैंक जारी करने की योजना बना रहा है; पर हमारे देश के कई राज्यों में किसान और मज़दूर क़ज़र् में भी डूब रहे हैं। किसानों के क़ज़र् को माफ़ करने का काम भी नहीं हो रहा है। उचित एमएसपी के इंतज़ार में आज भी किसान हैं और उन्हें इसके लिए कई वर्षों से केंद्र सरकार से संघर्ष करना पड़ रहा है। नाबार्ड ने ग्रामीण परिवारों की आय बढ़ने के दो साल पहले के आँकड़े इस साल दिये हैं। लेकिन ग्रामीणों की समस्याओं और आर्थिक तंगी को लेकर अभी सच बाहर नहीं आया है। ग्रामीण युवाओं के पास रोज़गार की कमी है, जिसे लेकर नाबार्ड को बताना चाहिए था। अभी ग्रामीणों को सरकार की काफ़ी मदद की ज़रूरत है, जिससे उनका जीवन स्तर ऊँचा उठ सके और वे ख़ुशहाल हो सकें।

भारत में हत्या, आत्महत्या और इच्छामृत्यु की वास्तविकता

भारत में ग़रीबी और भुखमरी से मरने पर किसी भी ज़िम्मेदार व्यक्ति को सज़ा देने का कोई विकल्प नहीं है। सरकारें अपनी इच्छा से ऐसे मामलों में मुआवज़ा दे सकती हैं। लेकिन आत्महत्या की कोशिश करने पर सज़ा का प्रावधान है। हालाँकि ज़्यादातर मामले तब सामने आते हैं, जब कोई आत्महत्या कर लेता है। आत्महत्या की कोशिश के भी बहुत-से मामले आये दिन होते हैं; लेकिन ऐसे मामले वहीं के वहीं रफ़ा-दफ़ा कर दिये जाते हैं और ऐसी कोशिश करने वाले सज़ा से बच जाते हैं। इसी आत्महत्या की कोशिश को कोई अगर क़ानूनी तरीक़े से कोई अंजाम देना चाहे, तो उसे इच्छामृत्यु कहते हैं।

छत्तीसगढ़ के भरतपुर सोनहत स्थित बदरा गाँव के रहने वाले एक 43 वर्षीय शंकर यादव नाम के बीमार युवक ने छत्तीसगढ़ सरकार के स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल और भरतपुर सोनहत की भाजपा विधायक रेणुका सिंह को पत्र लिखकर राज्य की भाजपा सरकार से इच्छा मृत्यु की माँग की है। शंकर यादव ने पत्र में लिखा है कि उसे लंबे समय से फाइलेरिया नाम की गंभीर बीमारी है, जिसके इलाज में उसकी ज़मीन बिककर लग गयी। उसकी माँ बोल नहीं सकती और काम करके उसका इलाज करा रही है। इसलिए राज्य सरकार उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त दे या फिर उसका इलाज कराए। हालाँकि इच्छामृत्यु की इजाज़त देने का अधिकार किसी भी सरकार को नहीं है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइंस के मुताबिक, इच्छामृत्यु की इजाज़त तब दी जा सकती है, जब इच्छामृत्यु की माँग करने वाला व्यक्ति ख़ुद ही गंभीर बीमारी से पीड़ित हो और वह अपनी इच्छा से मृत्यु चाहता हो। लेकिन इसकी जानकारी उसके परिवार वालों को भी हो और डॉक्टरों की टीम कह दे कि मरीज़ नहीं बच सकेगा। या मरीज़ लंबे समय से कोमा में हो और डॉक्टर उसे बचाने में नाकाम हों। मरीज़ की लाइलाज बीमारी या कोमा में उसके होने पर ही ऐसा किया जा सकता है। लेकिन फिर भी डॉक्टर यह लिखकर दें कि मरीज़ ने अपनी इच्छा से मृत्यु का अनुरोध किया है।

भारत में इच्छामृत्यु का संविधान में वैसे तो कोई प्रावधान नहीं है और न ही संसद ने अभी तक ऐसा कोई प्रावधान संविधान में जोड़ा है; लेकिन इच्छामृत्यु के लिए कोर्ट जाया जा सकता है। अभी तक के भारत के इतिहास में सुप्रीम कोर्ट ने 09 मार्च, 2018 को हरीश नाम के एक युवक को उसके पिता की याचिका पर इच्छामृत्यु की मंज़ूरी दी है। समय कोर्ट के पाँच जजों की बेंच ने इस मामले में कहा था कि संविधान के अनुच्छेद-21 के तहत जिस तरह व्यक्ति को जीने का अधिकार है, उसी तरह गरिमा से मरने का अधिकार भी है। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस युवक की गंभीर बीमारी के चलते उसे निष्क्रिय इच्छामृत्यु (पैसिव यूथेनेशिया) को मंज़ूरी दी थी, जिसके तहत युवक का इलाज बंद किया गया था, जिससे वो मर सके। हालाँकि इस मामले में फ़ैसला सुनाते वक्त सुप्रीम कोर्ट ने साफ़ कहा था कि आत्महत्या का प्रयास करने वालों को आईपीसी की धारा-309 के तहत सज़ा देने का प्रावधान किया गया है और इच्छामृत्यु को भी आत्महत्या का प्रयास ही माना जाता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अनुच्छेद-21 के अंतर्गत जीने के अधिकार में किसी को ख़ुद की इच्छा से मृत्यु का अधिकार शामिल नहीं है। हालाँकि फिर भी इच्छामृत्यु को स्वैच्छिक, ग़ैर-स्वैच्छिक और अनैच्छिक जैसे तीन भागों में बाँटा गया है। लेकिन किसी को इच्छामृत्यु सक्रिय और निष्क्रिय, दो ही रूपों में दिये जाने का प्रावधान माना गया है। अभी तक भारत में किसी को सक्रिय इच्छामृत्यु नहीं दी गयी है। क्योंकि सक्रिय इच्छामृत्यु में मरीज़ को सीधे मौत दी जाती है, जबकि निष्क्रिय इच्छामृत्यु में उसका इलाज बंद कर दिया जाता है, वेंटिलेटर सपोर्ट हटा ली जाती है। भारत में सक्रिय इच्छामृत्यु अवैध है और यह आईपीसी की धारा-302 या 304 के तहत अपराध है। हालाँकि सुप्रीम कोर्ट संसद से इस मामले में क़ानून बनाने को कह चुका है।

यह भी जान लेना ज़रूरी है कि क़ानूनी रूप से किसी को फाँसी देने को इच्छामृत्यु नहीं माना गया है। महाभारत में भीष्म पितामह की इच्छामृत्यु से लेकर ऋषि-मुनियों की इच्छामृत्यु के कई उदाहरण मिलते हैं; लेकिन अब भारत में इसके लिए सबसे पहली शर्त है कि इच्छामृत्यु चाहने वाला व्यक्ति गंभीर रूप से लाइलाज बीमारी का शिकार हो और डॉक्टर उसे बचाने से मना कर चुके हों। इसके बाद भी उसे इच्छामृत्यु की इजाज़त तभी दी जा सकती है, जब उसके अलावा उसके परिवार वालों और इलाज करने वाले डॉक्टरों की पूर्ण सहमति हो, उसके बाद ही कोर्ट इस पर विचार कर सकते हैं। हालाँकि इच्छामृत्यु में किसी एक डॉक्टर की सहमति के कोई मायने नहीं हैं। हालाँकि आज भी न जाने कितने ही लालची डॉक्टर चोरी-छिपे बचाये जा सकने वाले मरीज़ों तक को मौत की नींद सुला देते हैं। आज बिना कोर्ट की इजाज़त के कई डॉक्टर गंभीर मरीज़ों को सक्रिय मौत के लिए परिवार वालों को सौंपकर बोल देते हैं कि अब इनकी सेवा कर लो, इलाज का कोई फ़ायदा नहीं। भारत में गंभीर बीमारी से पीड़ित 1,000 मरीज़ों में सात मरीज़ों को आज ऐसी ही मौत दी जाती है; लेकिन क़ानून इसमें कोई हस्तक्षेप नहीं करता है। और इस हत्या से बचने के लिए उनके पास सबसे आसान तरीक़ा मरीज़ के परिवार वालों से ऐसे बॉन्ड पर साइन करा लेना है, जिस पर साफ़-साफ़ लिखा होता है कि मरीज़ की हालत सीरियस है और इलाज के दौरान उसकी मौत की ज़िम्मेदारी अस्पताल, डॉक्टर और अस्पताल के किसी स्टाफ की नहीं होगी। आत्महत्या के मामले में भी यही होता है कि आत्महत्या करने वाले इच्छामृत्यु माँगने की जगह सीधे आत्महत्या कर लेते हैं और ज़्यादातर मामलों में ऐसे लोगों को इस जघन्य अपराध के लिए उकसाने वाले या इसके लिए ज़िम्मेदार लोग बच जाते हैं। इसी वजह से भारत में इच्छामृत्यु की भले ही इजाज़त न हो; लेकिन हत्याएँ और आत्महत्याएँ $खूब होती हैं।

भारत में इच्छामृत्यु की इजाज़त न होने के चलते ही छत्तीसगढ़ के मरीज़ शंकर यादव के पत्र के बाद उनकी 17 साल पुरानी फाइलेरिया बीमारी के इलाज के छत्तीसगढ़ के स्वास्थ्य मंत्री श्याम बिहारी जायसवाल ने स्वास्थ्य अधिकारियों और प्रशासनिक अधिकारियों को निर्देश दिये हैं कि वे मरीज़ की हर संभव मदद करें। लेकिन सवाल यह है कि आज भी भारत में लाखों ऐसे लोग हैं, जो गंभीर बीमारी से पीड़ित हैं और भगवान से प्रार्थना करते हैं कि या तो वे ठीक हो जाएँ या उन्हें मौत आ जाए। किसी ऐसे मरीज़ को क़रीब से देखने और उसका दर्द सुनने पर मन दु:खी हो जाता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या मरीज़ों से पैसा लूटने के लिए इलाज को असाध्य बना देने वाले डॉक्टरों को कभी किसी मरीज़ की तकलीफ़ और पैसे की परेशानी के मद्देनज़र उस पर दया आती है? इसका जवाब न या हाँ में भी मिल सकता है; लेकिन ज़्यादातर मामलों में जवाब न ही होगा। क्योंकि मरीज़ों को बचाने के नाम पर लूट का जो खेल भारत के निजी अस्पतालों में चल रहा है, न तो उसे अपराध की श्रेणी में रखा गया है और न ही डॉक्टरों द्वारा मरीज़ों को लापरवाही, ग़लत इलाज या पैसे के लिए मार देने के किसी मामले में कोई सज़ा ही मिलती है। यही वजह है कि दूसरा भगवान कहे जाने वाले डॉक्टर्स में काफ़ी बड़ी संख्या ऐसे डॉक्टर्स की है, जो मरीज़ों की जान से ज़्यादा अपनी फीस और दूसरे चार्जेज की परवाह करते हैं और अपना पैसा वसूलने के लिए मरीज़ों और उनके परिजनों के साथ क्रूरतम व्यवहार करते हैं।

पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने ही अशोक राणा और निर्मला देवी नाम के दंपति की अपने बेटे के लिए इच्छामृत्यु की अपील ठुकरा दी थी। इस बुजुर्ग दंपति का 30 साल का इकलौता बेटा क़रीब 11 साल से कोमा में है और उसे नाक में नली डालकर खाना-पीना दिया जाता है। डॉक्टर मरीज़ की हालत में सुधार से इनकार कर रहे हैं और बुजुर्ग दंपति इलाज कराते-कराते कंगाल हो चुके हैं। बुजुर्ग दंपति ने सुप्रीम कोर्ट से अपने बेटे की नाक से खाना देने वाली राइल्स ट्यूब हटाने की इजाज़त माँगी थी, जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत में निष्क्रिय इच्छा मृत्यु की ही इजाज़त है, जिसके दायरे में राइल्स ट्यूब का हटाना नहीं आता है। क्योंकि राइल्स ट्यूब मेडिकल सपोर्ट नहीं है। सुप्रीम कोर्ट का मतलब है कि किसी को खाना न देकर तड़पा-तड़पाकर मार देना सक्रिय मौत यानी इच्छा-मृत्यु देने के बराबर है, जो कि एक अपराध है। भारत में गंभीर और लाइलाज बीमारी के मामले में सुप्रीम कोर्ट सिर्फ़ इलाज सपोर्ट हटाने की इजाज़त दे चुका है और भविष्य में भी शायद वो ऐसे मामलों में इसकी इजाज़त दे, जो कि निष्क्रिय इच्छामृत्यु के दायरे में आता है। लेकिन सवाल यह है कि फिर भारत में भूख से तड़प-तड़पकर मर जाने वालों के लिए किसी सरकार या प्रशासन की ज़िम्मेदारी तय क्यों नहीं की गयी है? बहुत पहले क़रीब 42 साल तक कोमा में रहने पर भी मुंबई की बलात्कार पीड़ित नर्स अरुणा शानबाग को सुप्रीम कोर्ट ने 07 मार्च, 2011 को निष्क्रिय इच्छामृत्यु की इजाज़त नहीं दी थी; जबकि उनका अपराधी बहुत पहले ही महज़ सात साल की सज़ा काटकर जेल से छूट गया था।

मौज़ूदा केंद्र सरकार ने सन् 2016 में मेडिकल ट्रीटमेंट ऑफ टर्मिनली इल पेशेंट विधेयक-2016 यानी प्रोटेक्शन ऑफ पेशेंट ऐंड मेडिकल प्रैक्टिशनर बिल-2016 तैयार किया था, जिसमें निष्क्रिय इच्छामृत्यु की बात तो की गयी; लेकिन लिविंग विल शब्द का कहीं उल्लेख नहीं किया गया। आत्महत्याएँ रोकने के लिए भी केंद्र सरकार न तो कोई ठोस कठोर क़ानून बना पायी है और न ही इसके लिए ज़िम्मेदार लोगों की सज़ा बढ़ा पायी है। लोगों को आत्महत्या के लिए मजबूर करने के पीछे कहीं-न-कहीं सरकार की योजनाओं का भी हाथ है। भुखमरी, बेरोज़गारी, क़ज़र् और नशा ऐसी ही समस्याएँ हैं, जिनके चलते हर साल लाखों लोग आत्महत्या के रास्ते मौत की नींद सो जाते हैं। लेकिन ऐसी मौतें रोकने के लिए क़ानूनी रूप से कोई प्रतिबंध नहीं लग सका है। यही वजह है कि आत्महत्या के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। अगर भारत में इच्छामृत्यु माँगने की इजाज़त पीड़ितों को होती, तो काफ़ी लोगों को आत्महत्या करने से रोका जा सकता था। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की पिछली रिपोर्ट्स को अगर आधार मानें, तो यह साफ़ हो जाएगा कि भारत में आत्महत्या के मामले दो से चार प्रतिशत सालाना के हिसाब से लगातार बढ़ रहे हैं। इसके अलावा सज़ा के अभाव या सज़ा कम होने के चलते हत्याओं का सिलसिला भी नहीं थम रहा है। लाइलाज बीमारी से परेशान लोगों को इच्छामृत्यु की इजाज़त न देने वाले भारत में हत्याओं और आत्महत्याओं को इस तरह बढ़ावा ही मिल रहा है, जिस पर किसी का ध्यान तक नहीं जा रहा है।