Home Blog Page 475

महाराष्ट्र में उलटफेर

एकनाथ शिंदे बने मुख्यमंत्री और फडणवीस उप मुख्यमंत्री

यह 01 दिसंबर, 2019 की बात है। जगह थी महाराष्ट्र की विधानसभा। चुनाव के नतीजों के बाद शिवसेना ने कांग्रेस और शरद पवार की एनसीपी के साथ मिलाकर सरकार बना ली। इसके बाद विपक्ष के नेता बने देवेंद्र फडणवीस ने कहा था- ‘मेरा पानी उतरता देख, मेरे किनारे पर घर मत बना लेना। मैं समंदर हूँ, लौटकर वापस आऊँगा।’

ठीक ढाई साल बाद फडणवीस लौट आये, लेकिन अलग अंदाज़ में। इस बार ख़ुद मुख्यमंत्री नहीं, उप मुख्यमंत्री बने, वो भी भाजपा आलाकमान के फ़रमान के दबाव में। उद्धव से टूटे विधायकों के नेता एकनाथ संभाजी शिंदे को भाजपा ने मुख्यमंत्री बना दिया और जब फडणवीस की नाराज़गी की जानकारी लगी, तो उन्हें उप मुख्यमंत्री बनने का दिल्ली से फ़रमान जारी कर दिया गया, वह भी मीडिया के ज़रिये। निश्चित ही महाराष्ट्र में शिंदे और फडणवीस के रूप में सत्ता के दो केंद्र भी बन गये हैं।

फडणवीस ने 30 जून की शाम शिंदे के साथ राज्यपाल को जब सरकार बनाने के दावे का पत्र सौंपा तब तक यही लग रहा था कि फडणवीस मुख्यमंत्री होंगे; लेकिन इसके बाद पत्रकार सम्मेलन में शिंदे के नये मुख्यमंत्री होने की जानकारी देकर उन्होंने सबको चौंका दिया। साथ ही यह भी कहा कि वे सरकार में शामिल नहीं होंगे। यह कहते हुए उनके चेहरे से कहीं उदासी झलक रही थी और नाराज़गी भी। तय हो गया कि अकेले शिंदे मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे। फडणवीस के नाराज़ होने की $खबर फैलने लगी थी। कहा जाता है कि उन्हें सुबह ही आलाकमान ने निर्देश दिया था कि वह उप मुख्यमंत्री बनें; लेकिन फडणवीस इसके लिए तैयार नहीं थे। जब फडणवीस ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कहा कि शिंदे मुख्यमंत्री बनेंगे और वह ख़ुद सरकार से बाहर रहेंगे, तो इसके एक घंटे के भीतर भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने लाइव मीडिया के सामने आकर घोषणा कर दी कि पार्टी ने फडणवीस को निर्देश दिया है कि वह सरकार में शामिल हों और उप मुख्यमंत्री बनें।

गृहमंत्री और वरिष्ठ नेता अमित शाह ने इसके बाद ट्वीट कर बताया कि फडणवीस इसके लिए तैयार हो गये हैं। ज़ाहिर है फडणवीस पर दबाव बना दिया गया। इसके बाद राजभवन में दो घंटे से शपथ ग्रहण के लिए लगी दो कुर्सियों की जगह तीन कर दी गयीं। 7:30 बजे जब शपथ हुई, तो फडणवीस को शिंदे के बाद शपथ लेनी पड़ी।
ज़ाहिर है फडणवीस ने अपने लिए जो मेहनत की थी, उसका असली फल शिंदे के हिस्से आया और मुख्यमंत्री रह चुके फडणवीस को पार्टी के दबाव में उप मुख्यमंत्री का पद स्वीकार करना पड़ा। शिंदे की शपथ होते ही प्रधानमंत्री मोदी ने उन्हें मुख्यमंत्री की बधाई वाला ट्वीट किया। उधर ऐन शपथ के समय शिंदे की ट्वीटर तस्वीर बदल गयी और उन्होंने बाला साहब ठाकरे के पैरों के पास बैठी अपनी तस्वीर लगा दी। शायद यह संकेत देने के लिए कि बालासाहेब के असली वारिस ख़ुद वह और उनके नेतृत्व वाली शिवसेना है! एक बात साफ़ है कि भाजपा को शिंदे के साथ वाले सभी सेना विधायकों के साथ होने को लेकर अभी भी पूरा भरोसा नहीं है। यह चर्चा रही है कि शिंदे के साथ जाने वाले आधे विधायक वो हैं, जिनके ख़िलाफ़ ईडी ने केस खोल रखे थे और उन्हें दबाव में शिंदे (भाजपा) के साथ जाना पड़ा।

शिंदे ने 30 जून की शाम मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के बाद कहा- ‘भाजपा ने बड़ा दिल दिखाया है। मुझ जैसे छोटे कार्यकर्ता को इतना बड़ा पद देने के लिए प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, जे.पी. नड्डा और फडणवीस का आभार।’

शिंदे को मुख्यमंत्री बनाकर भाजपा नेतृत्व ने उद्धव के लिए उनकी पार्टी के भीतर ही चुनौतियों के कई दरवाज़े ज़रूर खोल दिये हैं। ज़ाहिर है नयी सरकार अगले ढाई साल में कई दिलचस्प दौर देखेगी। उद्धव के पास फ़िलहाल उन 16 विधायकों और संगठन का कमोवेश पूरा ढाँचा है, जो विपरीत परिस्थिति में भी अपने नेता के साथ खड़े रहे। शिवसेना संगठन में 12 नेता, 30 उप-नेता, 5 सचिव, एक मुख्य प्रवक्ता और 10 प्रवक्ता में से अधिकांश उनके साथ हैं। उद्धव के बाद 12 नेता में से 11, कुल 30 उप-नेताओं में गुलाबराव पाटिल, तानाजी सावंत, यशवंत जाधव उद्धव को छोड़ बाक़ी सभी, पाँचों सचिव, मुख्य प्रवक्ता राज्यसभा सदस्य संजय राउत, 10 प्रवक्ताओं में विधायक प्रताप सरनाईक को छोड़ अन्य सभी, 18 में से श्रीकांत शिंदे, भावना गवली उद्धव को छोड़ अन्य सभी उद्धव के साथ हैं।

सर्वोच्च न्यायालय में इस मामले की 11 जुलाई की सुनवाई अभी होनी है, जबकि उद्धव गुट ने शिंदे सरकार के विश्वास मत के ख़िलाफ़ सर्वोच्च न्यायालय में जो याचिका दी, उस पर भी उसी दिन सुनवाई होगी। फ़िलहाल लोग भाजपा से पूछ रहे हैं कि अब किस राज्य का नंबर है?

सत्ता की शतरंज पर महाराष्ट्र में सियासी ड्रामा

एक पत्रकार होने के नाते किसी भी राजनीतिक चाल या झूठ या किसी भी जाति या दल विशेष का पक्ष न लेते हुए सिर्फ़ सच्चाई का आकलन करके उसे एक आईने के रूप में समाज के सामने रखना ही हमारा कर्तव्य होता है। हालाँकि किसी पत्रकार या बुद्धिजीवी के लिखे का सही आकलन निष्पक्ष ही करते हैं कि उसने सही लिखा या ग़लत। महाराष्ट्र की सत्ता में जो तूफ़ान आया, उसमें कई तरह की अफ़वाहें और सच्चाइयाँ लेखों के टुकड़ों के रूप में पल-पल उड़ती रहीं। देश की जनता, ख़ासतौर पर महाराष्ट्र की जनता इस तमाशे को बड़े ग़ौर से देखती रही।

ज्ञात हो कि महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सत्ता पर पहले भी कई बार पासा फेंका जा चुका है; लेकिन इस बार वे (सरकार गिराने के इच्छुक) सफल हो ही गये। दरअसल यह एक राजनीतिक खेल है, जो महाराष्ट्र की महाविकास अघाड़ी सरकार के गठन के बाद से चल रहा था। आज राजनीतिक अपरिपक्वता का ढोंग करना भी उतना ही अपरिपक्व खेल है। सवाल यह है कि इस खेल के पीछे कौन है? दिल्ली की ताक़त? या पैसे की ताक़त है? कुछ लोग पूछ रहे हैं कि क्या यह एक राज्य विशेष की ज़रूरत है, जहाँ शिवसेना के विधायकों को सबसे पहले रखा गया था? सबसे अहम सवाल यह है कि क्या शिवसेना में भाजपा विद्रोह की राह देख रही था? वैसे लोग यह मान रहे हैं मायानगरी मुम्बई समेत महाराष्ट्र बड़ा और कमायी वाला राज्य है, जो मराठा शासन से ही शाही माना जाता है। यही वजह है कि जोड़ी नंबर वन इस राज्य पर शुरू से ही क़ब्ज़ा करने का सपना देखती रही है, और चाहती है कि उनका यह सपना हमेशा के लिए साकार हो जाए। इसलिए यह एक राजनीतिक षड्यंत्र माना जा रहा है। लेकिन ज़मीनी स्तर पर लोगों के मन में क्या है? इस बात को समझने की कोशिश न भाजपा कर रही है और न ही उसके समर्थन का राग अलापने वाले विधायक।

समझने की बात यह है कि आज भले ही यह लड़ाई हिन्दुत्व के नाम पर हो रही है; लेकिन यह शुद्ध रूप से हिन्दू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे के विचारों का विद्रोह ही है। अब अगर कोई हिन्दुत्व के नाम पर कोहराम मचाकर यह सब कर रहा है, तो यह जनता के साथ शुद्ध रूप से धोखा है। इस घटना में कोई यह न देखे कि शिवसेना टूट-फूट गयी है या तितर-बितर हो गयी है। क्योंकि भाजपा ने इस मामले में बिना कुछ बोले गोटियाँ अपने हक़ में कर लीं, वह भी आख़िर तक यह दिखाकर कि वह कुछ नहीं कर रही है। इस बीच शिवसेना के बाग़ी विधायक भी गुवाहाटी (असम) में रहे। हालाँकि शिवसेना से बाग़ी विधायकों की नाराज़गी का कोई ठोस कारण दिखा। किसी विधायक या मंत्री को पहले क्या मिलता था? और बाद में क्या मिला? या आगे क्या मिलेगा? एकनाथ शिंदे कोई इतने मज़बूत नेता नहीं हैं कि बिना किसी की शह के बग़ावत करने की हिम्मत करते। लेकिन शह मिली, तो वह पूरी कोशिश में हैं कि वह महाराष्ट्र के नाथ बन जाएँ। हालाँकि यह सम्भव नहीं है। भाजपा चाहती थी कि सिंदूर लगाने के लिए एक पत्थर चाहिए, और वह मिल गया। वैसे भाजपा पहले ही पाँच राज्यों में इसी तरह की तिकड़मबाज़ी से सत्ता हासिल कर चुकी है। अगर महाराष्ट्र में ऐसा होता है, तो यह छठा राज्य होगा। हालाँकि इससे पहले एक बार इसी तरह की कोशिश राजस्थान में हो चुकी है; लेकिन वहाँ के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने सरकार गिराने वाले तथाकथित चाणक्यों को जिस तरह पटखनी दी, उसे शायद ही वो भुला पाए।

ख़ैर, महाराष्ट्र में सरकार गिराने को ऑपरेशन लोटस कहा जा रहा है। कहा जा रहा है कि ऑपरेशन लोटस का मक़सद सिर्फ़ सरकार हथियाना ही नहीं था, बल्कि शिवसेना पर भी क़ब्ज़ा करना भी है। ऑपरेशन लोटस के बारे में कहा जा रहा है कि इसकी कुल लागत 2,500 करोड़ रुपये से 3,000 करोड़ रुपये के बीच बतायी गयी। इसमें विधायकों की ख़रीद-फ़रोख़्त और उनकी मेहमाननवाज़ी से लेकर बिचौलियों तक का बजट शामिल था। बेशक इस लागत को गम्भीरता से लेने का जनता के पास कोई ख़ास कारण नहीं है, क्योंकि कुछ लोगों को लगेगा कि यह सब हवा-हवाई बातें हैं। लेकिन भाजपा स्वयं ही कहती है कि वह दुनिया की सबसे बड़ी और अमीर राजनीतिक पार्टी है। ज़ाहिर है कि सत्ता हाथ में हो, तो यह कोई बड़ी रक़म नहीं है, क्योंकि सत्ता में आने के बाद इतना पैसा रातों-रात मुम्बई से ही वसूल किया जा सकता है।

बता दें कि मुम्बई में नगर निगम के चुनाव में सिर्फ़ दो महीने से भी कम समय है। मुम्बई नगर निगम का चुनाव अब तक शिवसेना का समीकरण रहा है। इसलिए शिवसेना, भाजपा, कांग्रेस और एनसीपी को कुछ ही घंटों में अपने फ़ैसले ख़ुद लेने होंगे। क्योंकि सरकार बचने या गिरने की ख़बर कब आ जाए, किसी को कुछ नहीं पता। आज के शिवसेना में विद्रोह करने और महाराष्ट्र को सत्ता बदलाव के नाम पर मैं वापस आऊँगा की सोच वाले देवेंद्र फडणवीस के पक्ष में जन समर्थन का कोई सवाल ही नहीं है। एक साधारण राजनीति का ज्ञान रखने वाले भी आज निश्चित रूप से जानते हैं कि इस राजनीति का असली मास्टरमाइंड कौन है? भले ही एकनाथ शिंदे और देवेंद्र फडणवीस की दोस्ती समृद्धि मार्ग भ्रष्टाचार तक क्यों न परिचित हो। लेकिन बात बिगडऩे की कहानी सिर्फ़ इतनी है कि इस समृद्धि मार्ग के भ्रष्टाचार की फाइल खोलने की शिवसेना कोशिश कर रही थी, उस समय एकनाथ शिंदे कैबिनेट मंत्री थे।

राजनीतिक हलक़ों में कहा जाता है कि एकनाथ शिंदे की शक्ति और धन समानांतर रूप से बढ़ गये थे, इसलिए ईडी वास्तव में उनके लिए एक समस्या बन चुकी थी। लेकिन उनके पीछे खड़े 35 से 40 विधायकों का क्या? एकनाथ शिंदे पूर्व मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और शरद पवार से नाख़ुश थे और अब भी हैं। इसी को ध्यान में रखते हुए भाजपा ने उनके ढाई साल के वित्तीय बैकलॉग को भर दिया और शिंदे को विद्रोहियों के नेता के रूप में छोड़कर उनके पीछे विधायकों खड़ा कर दिया। इनमें से ज़्यादातर विधायक ग्रामीण क्षेत्रों से हैं; और उनके ठाणे निर्वाचन क्षेत्र से चुने गये एकनाथ शिंदे के पीछे खड़े होने का कोई और कारण नहीं है।
बेशक यह पहली बार नहीं है, जब शिवसेना में इस तरह का विद्रोह हुआ हो। छगन भुजबल, नारायण राणे, गणेश नाईक, राज ठाकरे, ये सभी नेता शिवसेना से विद्रोह कर बाहर चले गये। उसके बाद भी विधायकों की संख्या का हिसाब लगाया गया और शिवसेना डटी रही। स्थापित रही। लेकिन अब ढाई साल बाद इन एकनाथ शिंदे और उनके पीछे खड़े बाग़ी विधायक हिन्दू हृदय सम्राट बालासाहेब ठाकरे के सिपाही बनकर जागे, इसका क्या मतलब है?

ध्यान रहे कि पिछले कार्यकाल में राज्य में शिवसेना-भाजपा की सरकार थी, जिसमें शिंदे कैबिनेट मंत्री थे। शिंदे एक बार के मध्यस्थ हैं, जो आज भाजपा का हिस्सा बन गये हैं। उनका आरोप है कि गठबंधन सरकार में हमारा काम नहीं हो रहा है। लेकिन सवाल यह है कि अगर शिवसेना उनके कहने पर या दबाव में आकर भाजपा से साथ सरकार बना भी लेती है, तो भी तो महाराष्ट्र को एक गठबंधन सरकार ही मिलेगी; तब उनका काम कैसे होगा? ऐसा कहने वाले विधायक कि फिर से बालासाहेब के हिन्दुत्व के लिए भाजपा के साथ गठबंधन ज़रूरी है, आख़िर वे क्या सिद्ध करना चाहते हैं। उद्धव ठाकरे भी भाजपा के साथ फिर से गठबंधन करने के लिए तैयार नहीं हैं। कहा जा रहा है कि भाजपा ने इस बीचौलिये (शिंदे) को अपना बना डाला, वह भी गर्दन मरोड़ देने वाला ईडी के भूत का डर दिखाकर। बाक़ी बड़े-बड़े वादे और आश्वासन की कला भाजपा माहिर है, जिसमें शिकार आ ही जाते हैं।

अगर शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे (बाल ठाकरे) होते, तो यह नंबर नहीं आता। अभी भी बहुत लोगों को लग रहा है कि उद्धव ठाकरे और राकांपा सुप्रीमो शरद पवार रिमोट कंट्रोल से अपनी पार्टी की कमान सँभाल सकते हैं। क्योंकि वह (शरद पंवार) राजनीति में परिपक्व हैं और शिंदे व फणनवीस अपरिवक्व। राज ठाकरे, गणेश नाईक, नारायण राणे भी ऐसा ही सपना लेकर उछले थे। लेकिन आज वे कहाँ हैं? सवाल यह भी है कि अगर एकनाथ शिंदे बालासाहेब ठाकरे के सिपाही हैं, तो वह महाराष्ट्र छोड़कर सूरत और गुवाहाटी में क्यों भटक रहे हैं? लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि अगर कल हक़ीक़त सदन में मतदान का समय आता है, तो क्या ये 35 से 40 विधायक अपने विद्रोह पर अडिग रह सकेंगे? कुछ लोग कह रहे हैं कि कुछ भी हो अब कमान भाजपा को ही मिलेगी। ऐसे में आज भाजपा के शीर्ष नेता सोच सकते हैं कि वे शिवसेना को तोडऩे में कामयाब हो गये हैं। शिव सेना के हिन्दू मत को अपने वश में करने में सफल रहे। लेकिन हिन्दुओं का मत है कि यह महाराष्ट्र है, जो शिवसैनिकों का है। विधायकों का नहीं। यहाँ देशद्रोहियों को माफ़ करने की कोई परम्परा नहीं है। उद्धव ठाकरे ने अभी तो सिर्फ़ वर्षा बांगला छोड़ा है और उन पर फूलों की बारिश हो रही है। लेकिन कल क्या होगा, जब नगरपालिका चुनाव में वह मुम्बई वालों के सामने जाएँगे? उससे भी पहले जब भविष्य में इन बागियों की अग्नि परीक्षा होगी, तो एकनाथ शिंदे क्या करेंगे? फ़िलहाल एकनाथ शिंदे बाला साहेब के नाम पर खेल करके हुए नयी अलग पार्टी की घोषणा कर चुके हैं और नाटक जारी है। बहरहाल, संजय राउत बोले, तो उनके ख़िलाफ़ ईडी का समन पहुँच गया।

उत्तर प्रदेश में सपा और पंजाब में आप को झटका

उप चुनाव के नतीजों ने पलटे राजनीति के कई समीकरण

तीन महीने पहले पंजाब में विधानसभा के चुनाव में बम्पर जीत हासिल करने वाली आम आदमी पार्टी (आप) की संगरूर लोकसभा सीट पर हार उसकी फ़ज़ीहत करवा गयी है। उधर उत्तर प्रदेश की रामपुर और आजमगढ़ सीट, जिन्हें समाजवादी पार्टी और उसके क़द्दावर नेता आजम ख़ान का गढ़ माना जाता रहा है; में भाजपा की जीत अखिलेश यादव की क्षमताओं पर सवाल लगाती दिख रही है। उप चुनाव के बाक़ी नतीजे सम्भावित ही माने जाएँगे; लेकिन इसके बावजूद नतीजों के कई निहितार्थ हैं।

पंजाब की संगरूर सीट से जीते सिमरनजीत सिंह मान अकाली दल (अमृतसर) के सर्वेसर्वा हैं और ख़ालिस्तान के समर्थक हैं। पूर्व आईपीएस अधिकारी मान खुले रूप से पंजाब को स्वायतता की माँग करते रहे हैं और सन् 1984 के ऑपरेशन ब्लू स्टार में मारे गये जनरैल सिंह भिंडरावाले की विचारधारा के समर्थक हैं। वे पहले भी दो बार सांसद रहे हैं और उन्होंने सन् 1984 के सिख दंगों के विरोध में जब नौकरी छोड़ी थी, तब वे पंजाब पुलिस में अधिकारी थे।

पंजाब की लोकसभा सीट गँवाने से आम आदमी पार्टी की लोकसभा में उपस्थिति ख़त्म हो गयी है। मुख्यमंत्री भगवंत मान के विधानसभा के लिए चुने जाने ख़ाली हुई थी। इस तरह यह व्यक्तिगत रूप से मान की भी हार है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी के नेता भले सार्वजनिक रूप से न कहें, उनमें यह धारणा बन रही है कि पार्टी प्रमुख अरविन्द केजरीवाल का पंजाब के मामलों में कथित अनावश्यक हस्तक्षेप और मुख्यमंत्री मान को ख़ुद से कम आँकना जनता में $गलत सन्देश दे रहा है। यही चलता रहा तो पार्टी और मान की परेशानियाँ बढ़ेंगी, क्योंकि पंजाब अलग तासीर वाला राज्य है।

त्रिपुरा में चार में से तीन सीटें जीतकर भाजपा ने अपनी पैठ बरक़रार रखी है। चौथी सीट राज्य की दूसरी बड़ी पार्टी कांग्रेस के खाते में गयी है। झारखण्ड की इकलौती सीट भी कांग्रेस ने ही जीती। वैसे छ: राज्यों की सात विधानसभा और तीन लोकसभा सीटों पर चुनाव हुआ था। उत्तर प्रदेश की दोनों लोकसभा सीटों पर भाजपा, आंध्र में विधानसभा सीट पर वाईएसआरसी और दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने जीत दर्ज की। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की जीत इस बात का संकेत है कि केजरीवाल का जादू बरक़रार है। वहीं कांग्रेस के लिए चिन्तन का समय है, जो महज़ 2,014 वोट लेकर तीसरे स्थान पर रही।

उत्तर प्रदेश से नतीजा दिलचस्प रहा और सपा प्रमुख अखिलेश यादव के लिए यह चिन्ता का विषय हो सकता है। उत्तर प्रदेश में भाजपा के अब 64 (एनडीए के 66) सांसद हो गये हैं। उत्तर प्रदेश के नतीजे से ज़ाहिर होता है कि एक नेता के तौर पर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अपनी पैठ मज़बूत करने में सफल रहे हैं, अन्यथा दिग्गज आजम ख़ान के गढ़ रामपुर में सपा को हराना आसान काम नहीं था; जहाँ बहुत कोशिश करके भी भाजपा पिछले चुनाव में अपनी प्रत्याशी जया प्रदा को नहीं जितवा पायी थी। उत्तर प्रदेश के नतीजे से ज़ाहिर है कि कांग्रेस वहाँ अपनी ज़मीन तैयार करने में नाकाम रही है।

सपा के अखिलेश के लिए भी यह नतीजे बड़ा झटका है, क्योंकि ख़ुद उनके भाई धर्मेंद्र यादव अखिलेश की ख़ाली हुई आजमगढ़ की सीट से पार्टी प्रत्याशी थे और हार गये। भले आजम ख़ान ने आरोप लगाया कि चुनाव में धाँधली की गयी, सच यह भी है कि सपा के लिए यह हार चोट पहुँचाने वाली है। ऐसा लगता है कि बसपा का वोट भी भाजपा को हस्तांतरित (ट्रांसफर) हुआ।

किसके हिस्से, कितनी सीटें?
 लोकसभा : भाजपा 2, अकाली दल (अमृतसर) 1 सीट।
 विधानसभा : भाजपा 3, कांग्रेस 2, आप 1, वाईएसआरसी 1 सीट।

बड़े पैमाने पर होती है कछुओं की तस्करी

पेट की भूख और पैसा कमाने की हवस ने इंसान को इतना निर्दयी बना दिया है कि बेज़ुबान जानवरों की तस्करी से लेकर उनकी हत्या तक उसके लिए एक खेल बन चुका है। तस्करी और हत्या के चलते आज दुनिया में कई जानवर विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें हर तरह के जानवर हैं, जिनमें कछुआ बेहद दुर्लभ और सीधा सरीसृप प्राणी है। कछुओं के पालने के शौक़ीनों का मानना है कि वास्तु दोष ठीक करने और पैसा कमाने के लिए वे कछुआ पालते हैं। हालाँकि इस पर प्रतिबंध है। लेकिन इससे इतर कछुए का मांस खाने वालों की संख्या भी बहुत बड़ी है। भारत में नट, कंजड़ और जंगली जातियों के अलावा आदिवासी तथा कुछ मांसाहारी प्रदेशों के लोगों का प्रिय मांसाहार कछुआ है। इसके अलावा विदेशों में बहुत लोग भी कछुए का मांस और उसके चिप्स खाना बहुत पसन्द करते हैं। यही वजह है कि कछुओं की माँग विकट है, जो तस्करी को बढ़ावा देती है। हालाँकि भारत में यह ग़ैर-क़ानूनी है।

कछुओं की पूरी दुनिया में 225 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। इनमें से अकेले भारत में क़रीब 20 फ़ीसदी यानी क़रीब 55 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। हालाँकि समुद्री कछुओं का जीवन नदियों और तालाबों में पाये जाने वाले कछुओं से ज़्यादा सुरक्षित होता है। यही वजह है कि समुद्री कछुओं की आयु और वज़न दोनों ही ज़्यादा हो जाते हैं। क़रीब 200 साल की औसत आयु वाले कछुओं को अगर सुरक्षित जीने दिया जाए, तो वे 300 साल से भी अधिक जीवित रह सकते हैं। कछुए मानव फ्रेंडली होते हैं, यही वजह है कि लोग इसे आसानी से पकड़ लेते हैं।

हाल ही में मध्य प्रदेश के भिंड ज़िले के एंडोरी थाना क्षेत्र की पुलिस ने भारतीय कछुओं की दुर्भल प्रजाति के नौ कछुओं के साथ दो तस्करों को गिरफ़्तार किया था। पुलिस ने सभी कछुए वन विभाग को सौंप दिये। गिरफ़्तार लोगों ने बताया था कि वे इन कछुओं को दतिया के एक तस्कर को 35,000 रुपये में बेचने जा रहे थे। इससे पहले आगरा में रेलवे स्टेशन के पास एक 25 किलो का दुर्लभ कछुआ एक बोरी में बन्द मिला, जो रस्सी से बुरी तरह बँधा हुआ था। इस कछुए को वाइल्ड लाइफ एसओएस की टीम ने अपने क़ब्ज़े में लेते वक़्त बताया कि यह कछुआ एक दुर्लभ प्रजाति का कछुआ है, जो कि दक्षिण एशिया में मीठे पानी में रहता है। इसी साल अप्रैल के महीने में एसटीएफ की टीम ने अंतरराज्यीय कछुआ तस्कर ठाकुरगंज के राजकुमार उर्फ़ कल्लू को पारा इलाक़े में गिरफ़्तार किया था। एसटीएफ टीम ने बताया था कि इस कुख्यात तस्कर के क़ब्ज़े से 160 कछुए बरामद किये गये। कल्लू इन कछुओं को पश्चिम बंगाल में बेचने वाला था। इसके अलावा क़रीब एक महीने पहले कछुओं का मांस बेचने के तीन आरोपियों को वन विभाग ने गिरफ़्तार किया था। वन विभाग के मुताबिक, ये आरोपी इसी साल 18 मार्च को एक कछुए का मांस बेच चुके थे।

तस्करी के आँकड़े
भारत में कछुओं की तस्करी पर प्रतिबंध के बावजूद इस मूक प्राणी की तस्करी बड़े पैमाने पर होती है। हालाँकि कछुओं की तस्करी के सही-सही आँकड़े न तो सरकार के पास हैं, न ही वन विभाग के पास और न ही वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया के पास ही हैं। भारतीय स्टार कछुओं की सुरक्षा के लिए साल 2019 में इनके अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। इस साल इन्हें भारत, श्रीलंका, बांग्लादेश और सेनेगल के प्रयासों से यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑन इंटरनेशनल ट्रेड इन एन्डैन्जर्ड स्पीशीज ऑफ वाइल्ड फाउना एंड फ्लोरा या सीआईटीईएस के परिशिष्ट-ढ्ढ में जोड़ा गया। इससे पहले भारतीय स्टार कछुआ को परिशिष्ट-ढ्ढढ्ढ में रखा गया था, जिसका अर्थ है कि निर्यात परमिट के साथ कछुओं के विनियमित व्यापार की अनुमति थी। लेकिन सीआईटीईएस व्यापार डाटाबेस के मुताबिक, जंगलों से एकत्र किये गये भारतीय स्टार कछुओं के वाणिज्यिक निर्यात के लिए भारत, श्रीलंका और पाकिस्तान द्वारा सन् 1999 से कोई परमिट जारी नहीं किया गया है। इसके बाद भी भारतीय स्टार कछुओं की तस्करी पर कोई रोक नहीं लग पायी है। एक रिपोर्ट बताती है कि सन् 2017 में भारत, श्रीलंका, कंबोडिया, मलेशिया, सिंगापुर और थाईलैंड से तस्करों से 6,040 भारतीय स्टार कछुए ज़ब्त किये गये। वहीं सन् 2014 में कहा गया कि आंध्र प्रदेश के एक ही क्षेत्र से 55,000 से ज़्यादा भारतीय स्टार कछुओं को अवैध तरीक़े से जमा किया गया था।

चंबल नदी के किनारे के क्षेत्र को अभ्यारण्य घोषित करने के बाद सन् 1980 से सन् 2018 तक केवल इटावा ज़िले से पुलिस, एसटीएफ व वन्य विभाग समेत अन्य एजेंसियों द्वारा 100 से ज़्यादा तस्करों गिरफ़्तार करके एक लाख संरक्षित कछुए बरामद करने का रिकॉर्ड है। इतना ही नहीं पिछले दो साल में पुलिस, वन विभाग और एसटीएफ द्वारा इटावा से 20 और तस्करों को गिरफ़्तार किया गया है, जिनके पास से 12,000 से ज़्यादा कछुए बरामद किये जा चुके हैं। उत्तर प्रदेश एसटीएफ ने सिर्फ़ साल 2018 में ही इटावा क्षेत्र से तस्करों से 2489 संरक्षित कछुए और 171 किलो कछुओं की कैनोपी (पीठ वाला हिस्सा) बरामद किया था।
वाइल्डलाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया के आँकड़े बताते हैं कि उसने सन् 2012 में भारत में कुल 1,968 भारतीय स्टार कछुओं को ज़ब्त किया गया। वहीं सन् 2013 में 1,059 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2014 में 2,197 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2015 में 1,986 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2016 में 907 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2017 में 4258 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2018 में 5971 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2019 में 1474 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2020 में 478 भारतीय स्टार कछुए, सन् 2021 में 3,099 भारतीय स्टार कछुए और इस साल यानी 2022 में अप्रैल तक क़रीब 1,498 भारतीय स्टार कछुए पुलिस और वाइल्ड लाइफ प्रोटेक्शन सोसायटी ऑफ इंडिया ने ज़ब्त किये थे। सन् 2016 के एक शोध में पाया गया कि भारतीय स्टार कछुओं का व्यापार दूसरे कछुओं के मुक़ाबले सबसे अधिक अवैध व्यापार होता है। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने भारतीय स्टार कछुओं को अधिक संवेदनशील सरीसृप की श्रेणी में वर्गीकृत किया है और लुप्तप्राय प्रजातियों की रेड लिस्ट से सिर्फ़ एक पायदान नीचे रखा है।

लाखों तक में बिकते हैं कछुए
कछुओं की तस्करी उन्हें पालने से लेकर उनका मांस बेचने, उनकी पीठ का ऊपरी हिस्सा संरक्षित करने, दवाएँ बनाने और ताक़त बढ़ाने आदि के चलते होती है। भारत में कछुए आसानी से मिल जाते हैं, जिसके चलते यहाँ कछुओं के तस्करों की संख्या बहुत अधिक है। तस्कर इन्हें बोरों में भरकर पश्चिम बंगाल और दूसरे राज्यों को भेजते हैं। वहाँ से विदेशों में भी इनकी सप्लाई होती है। कछुओं की तस्करी से आमदनी का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि इनकी तस्करी के लिए लग्जरी गाडिय़ों तक का इस्तेमाल तस्कर करते हैं। इसकी वजह यह है कि एक कछुए की क़ीमत 50 रुपये से लेकर एक लाख या इससे ऊपर तक हो सकती है। हालाँकि कछुए का मूल्य उसकी प्रजाति पर निर्भर करता है। चीन सबसे ज़्यादा कछुओं को मारने वाला देश है, जहाँ मांस और कैनोपी के लिए हर साल क़रीब 73,000 कछुए मार दिये जाते हैं। यह टॉरट्वाइज इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट में कहा गया है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि चीन कई देशों से क़ानूनी और ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से कछुए आयात करता है। वाइल्ड लाइफ क्राइम कंट्रोल ब्यूरो (डब्ल्यूसीसीबी) की साइबर विंग के मुताबिक, जबसे इंटरनेट और सोशल मीडिया का चलन शुरू हुआ, इनकी भूमिका वन्य जीवों की तस्करी में विलेन की हो चुकी है, क्योंकि इनके ज़रिये वन्य जीवों का सौदा आसानी से होने लगा है; क्योंकि तस्करों की जमात सोशल मीडिया के ज़रिये ही सौदा करती है। वन्यजीव संरक्षण चैरिटी एवं वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट ऑफ इंडिया के मुताबिक, कछुओं को रखना आसान होता है और इनकी उम्र भी लम्बी होती है। लोग इन्हें भाग्योदय का जीव मानते हैं, इसलिए भी पालते हैं। लेकिन चोरी से ही इन्हें पाला जाता है।

तस्करी रोकने के लिए क़ानून और सज़ा
सन् 1979 में भारत सरकार ने कछुओं को बचाने की मुहिम शुरू की थी। इसके लिए सरकार ने चंबल नदी के उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक फैले तक़रीबन 425 किलोमीटर तट से सटे हुए सभी इला$कों को राष्ट्रीय चंबल अभ्यारण्य घोषित किया था। चंबल नदी का सबसे बड़ा हिस्सा उत्तर प्रदेश के आगरा और इटावा के हिस्से में आता है, जिसके चलते इटावा कछुओं की अंतरराष्ट्रीय तस्करी का गढ़ बन चुका है।

वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 की अनुसूची-ढ्ढङ्क के तहत कछुआ भी दूसरे वन्य जीवों की तरह ही संरक्षित है। कछुओं की तस्करी करने वाले व्यक्ति के ख़िलाफ़ आपराधिक मुक़दमा, सज़ा के अलावा उस पर ज़ुर्माना लगाया जाता है। इस मामले में तस्करों के ख़िलाफ़ वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम-1972 की धारा-02 की उपधारा (1), (5), (16), (20) और (37) धारा 09, 40, 48 व 51 के तहत कार्रवाई की जा सकती है। इसके अलावा वन अपराध प्रकरण क्रमांक 744/32 क़ायम किया जा सकता है।

देशद्रोह की असंगत परिभाषा

देश के युवा सरकार की अग्निपथ योजना को लेकर काफ़ी आन्दोलित एवं आक्रोशित रहे। अग्निपथ योजना उचित है या अनुचित? इसका विश्लेषण लगातार चल रहा है। भारत हमेशा से प्रबुद्ध राष्ट्र रहा है। वह इस विमर्श को एक सही निर्णय तक लेकर जाएगा। किन्तु समर्थन एवं विरोध के संघर्ष के मध्य पिछले वर्षों में अनुत्तरित रहे एक मूल प्रश्न पर विचार करना ज़रूरी है। देश में एक नयी रवायत (नैरेटिव) चल पड़ी है। हर विरोध, जो वर्तमान सत्ताधारी दल के विरुद्ध है; उसे राष्ट्रद्रोह साबित करने का प्रयास किया जा रहा है। सत्ता से असहमति देशद्रोह नहीं हो सकता। कोई भी दल या सरकार राष्ट्र का पर्याय नहीं बन सकती।

वर्तमान सरकार के कई ऐसे कार्य हैं, जिनसे असहमति ही नहीं, बल्कि कड़ा प्रतिवाद दर्ज कराया जाना चाहिए। यहाँ अन्य मसलों को छोड़ सिर्फ़ रोज़गार की बातें करें, तो वर्ष 2021 में सरकारी सेवाओं में सभी स्तरों पर क़रीब 60 लाख रिक्तियाँ थीं। इसमें केंद्र सरकार के अंतर्गत नौ लाख से अधिक, पुलिस में 5.5 लाख, प्राथमिक विद्यालयों में 8.5 लाख, पीएसयू बैंकों में दो लाख से अधिक रिक्तियाँ होने का अनुमान था। लेकिन सरकार ने रोज़गार प्रदान करने को तरजीह नहीं दी। सरकार कोरोना प्रसार का तर्क दे सकती है; लेकिन तब भी चुनावों का तो निर्बाध संचालन होता रहा। वो क्यों नहीं रुके?

साथ ही सरकारी नियुक्तियों का स्वरूप भी दिनोंदिन संविदात्मक होता जा रहा है। सन् 2014 में संविदा कर्मचारी 43 फ़ीसदी थे, जिनका आँकड़ा 2018 तक 59 फ़ीसदी तक जा पहुँचा। पिछले छ: वर्षों में रेलवे में तृतीय एवं चतुर्थ श्रेणी के 72,000 पद समाप्त कर दिये गये हैं। यही नहीं, अब एनसीआर जोन के 10,000 पदों के साथ ही देश भर के 50 फ़ीसदी ग़ैर-संरक्षा पदों को समाप्त करने की तैयारी है। अब रोज़गार से सम्बन्धित भ्रष्टाचार कों देखें। सन् 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के दौरान भाजपा ने सपा सरकार में राज्य लोक सेवा आयोग की नियुक्तियों में होने वाले भ्रष्टाचार को ख़ूब ज़ोर-शोर से उछाला और इसकी सीबीआई जाँच कराने और दोषियों को दण्डित करने का वादा किया था। लेकिन पाँच वर्षों से अधिक समय बाद भी कोई परिणाम नहीं निकला। न ही दोषियों की गिरफ़्तारियाँ हुईं, न ही धाँधली वाली नियुक्तियाँ रद्द की गयीं। बल्कि सत्ता में आने के बाद भाजपा सरकार ने लोकसेवा आयोग में पारदर्शिता को और कम किया है। सन् 2019 के बाद से परीक्षाओं की अन्तिम उत्तर कुंजी जारी करना रोक दिया गया है। ऐसे और भी गड़बड़झाले हैं, जिन पर एक लम्बी चर्चा की जा सकती है।

भाजपा के सिद्धांतों एवं कार्यों में बड़ा अन्तर दिखता है, जो पार्टी स्वदेशी तथा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के नारे के साथ सत्ता में आयी वही प्राथमिक विद्यालयों में मातृभाषा को बढ़ावा देने के बजाय अंग्रेजी माध्यम के विद्यालय खोलने में लगी है। सन् 2018 में प्रदेश में लगभग 5,000 अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों की शुरुआत हुई। एक तरफ़ा तो हिन्दी उद्धार की बातें चल रही हैं और दूसरी ओर प्राथमिक स्तर से बच्चों को विदेशी भाषा के माध्यम से शिक्षा देना शुरू कर दिया है। यह विरोधाभास समझना कठिन है। सरकार का तर्क था कि अभिभावक अंग्रेजी भाषा में पढ़ाई चाहते हैं। लेकिन इसमें ग़लती माता-पिता की नहीं है। उन्हें पता है कि इस देश में सरकारी स्तर पर हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं को कितनी हेय दृष्टि से देखा जाता रहा है।

इसका सबसे बेहतर उदाहरण संघ लोक सेवा आयोग है। एक समय देश के धुर देहाती क्षेत्रों के हिन्दी समेत अन्य भारतीय भाषाओं में शिक्षित बच्चे इस प्रतिष्ठित परीक्षा में सफल होते थे। किन्तु आज परिस्थितियाँ एकदम विपरीत हैं। यूपीएससी 2015 और 2016 की परीक्षा में हिन्दी माध्यम वालों की सफलता-दर क़रीब 4-5 फ़ीसदी, 2017 और 2018 में 2-3 फ़ीसदी के बीच पहुँच गयी। सन् 2020 के परिणाम में चयनित हिन्दी माध्यम वालों की संख्या महज़ 25-30 के बीच थी। वहीं हिन्दी माध्यम का टॉपर को 200 से भी नीचे की रैंक पर रखा गया। इन सबकी शुरुआत सीसैट और मुख्य परीक्षा के पाठ्यक्रम में बदलाव के साथ हुई, जो आंग्ल भाषा में शिक्षित विद्यार्थियों के अनुकूल था। सन् 2014 में जब सीसैट के विरोध में परीक्षार्थी आन्दोलन कर रहे थे, तब भी नौकरशाहों एवं पत्रकारों का एक वर्ग उन्हें राष्ट्रशत्रु साबित करने में लगा था। उस आन्दोलन का हिस्सा होने के नाते मुझे याद है कि पुलिस ने अनावश्यक ही बर्बरता से छात्रों को पीटा था। कइयों पर विभिन्न धाराओं में मुक़दमे दर्ज किये गये थे; जबकि उस आन्दोलन के दौरान हमारा क़ुसूर सिर्फ़ इतना ही था कि हम सीसैट की समाप्ति और भारतीय भाषाओं के परीक्षार्थियों के विरुद्ध होने वाले अन्याय का विरोध कर रहे थे। सच्चाई यह है कि शिक्षा और भारतीय भाषाओं के विकास को प्रति उदासीन सत्ता में बैठे सम्भ्रांत वर्ग की अपने हितों के अनुकूल अंग्रेजियत के दबदबे के प्रसार में मौन सहमति है।

अब वर्तमान हिंसक प्रदर्शनों की ओर लौटें, तो दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से आन्दोलनरत युवाओं को कांग्रेस, सपा या पीएफआई का एजेंट एवं देशविरोधी बताया जा रहा है। यह तर्क कि हिंसा में गिरफ़्तार कई युवाओं की उम्र 25 के ऊपर है, अर्थात् वे सेना में भर्ती करने की आयु पार कर चुके हैं, निहायत ही मूर्खतापूर्ण हैं। सम्पूर्ण क्रान्ति आन्दोलन युवाओं का आन्दोलन माना जाता था; लेकिन उसका नेतृत्व 75 साल की आयु के जे.पी. ने किया था। जिन युवाओं के लिए अवसर सिकुड़ गये या जिनका भविष्य अधर में आ गया है, उनके माँ-बाप या भाई-बहिन अगर सड़कों पर आ जाएँ, तो आप यह गणना करेंगे कि चूँकि उनकी उम्र सेना भर्ती के योग्य नहीं है, इसलिए वे देशद्रोही है? अगर ऐसा कहें, तो इससे ज़्यादा मूर्खतापूर्ण तर्क और कोई हो ही नहीं सकता। राष्ट्रद्रोह जैसे शब्द को इतने ओछे तरीक़े से प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए। किसी नेता या सरकार का विरोध राष्ट्रद्रोह नहीं हो सकता।
राष्ट्र एवं किसी व्यक्ति को समानार्थक सिद्ध करने का परिणाम यह देश आपातकाल के दौर में भुगत चुका है। अथवा यह कहने की कोशिश की जा रही हैं कि सरकार की योजनाओं की किसी योजना से जिस वर्ग का नुक़सान हो रहा हो, सिर्फ़ वही विरोध आन्दोलन में शामिल हो। अगर अग्निपथ विरोधी युवाओं को देशद्रोही कहा जा सकता है, तो अग्निवीरों को अपने ऑफिस में चौकीदार रखने जैसी असंवेदनशील बात करने वाले कैलाश विजयवर्गीय जैसे नेताओं को समाजद्रोही तो कहा ही जा सकता है।

ऐसा नहीं है कि इन तर्कों को देश का आम जनमानस नहीं समझ रहा है, फिर भी वह इन आरोपों पर चुप्पी साध ले रहा है। इसकी वजह है सरकार एवं भाजपा विरोधी पक्ष का ग़ैर-ज़िम्मेदार वर्ग। देश में कई ऐसे नेता, तथाकथित बुद्धिजीवी, लेखक और पत्रकार हैं, जिन्होंने सरकार के अंधविरोध में आलोचना के लिए कई बार निर्धारित मानक भी ध्वस्त कर दिये हैं। इनमें से कई तो विदेशों में जाकर देश के ख़िलाफ़ा बोलकर उन्हें आतंरिक मसलों में हस्तक्षेप के लिए आमंत्रित कर रहे हैं।

उदाहरणस्वरूप, सपा नेता आजम ख़ान ने सन् 2015 में दादरी कांड के समय संयुक्त राष्ट्र को पत्र लिखकर हस्तक्षेप की माँग की थी। सन् 2018 में कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर पाकिस्तान जाकर मोदी सरकार को हटाने के लिए मदद माँग रहे थे। इसके अतिरिक्त देश का एक बड़ा वर्ग अपने धार्मिक पूर्वाग्रहों से बाहर आने को तैयार ही नहीं है। वह अपने पंथीय विषयों के अलावा कुछ और सोच ही नहीं पा रहा है। आये दिन जुमे की नमाज़ के बाद हो रही पत्थरबाज़ी एवं उपद्रव ने देश भर में अराजकता में एक नया आयाम जोड़ दिया है। अभी अग्निपथ के विरोध में झारखण्ड के कांग्रेस विधायक इरफ़ान अंसारी देश को ख़ून से लथपथ करने की धमकी दे रहे थे।
वास्तव में ऐसे लोगों ने अपने असन्तुलित एवं ग़ैर-ज़िम्मेदाराना विरोध में भाजपा सरकार को देश का पर्याय बना दिया है। इन्होंने किसी दल की सरकार एवं राष्ट्र-विरोध के मध्य के अन्तर को समाप्त कर दिया। नतीजतन सत्ताधारी दल और उसकी सरकार को भी अपने विरोधियों को देशद्रोहियों के रूप में प्रचारित करने का अवसर मिल गया है। इस नकारात्मक को ठीक करने की ज़िम्मेदारी विपक्ष पर थी। उसे रचनात्मक विरोध की ओर बढऩा था; लेकिन इसके विपरीत विपक्ष का रवैया असन्तुलित ही रहा। इसी का परिणाम है कि अब सरकार विरोधी उठने वाली हर आवाज़ को उसी साँचे में डालकर देखा जाने लगा है।

अग्निपथ विरोधी प्रदर्शनकरियों को सरकार का विरोध करते हुए राष्ट्र को नुक़सान नहीं करना चाहिए था। किसी भी विरोध-प्रदर्शन में थोड़ी-बहुत उत्तेजना सामान्य बात हो सकती है, किन्तु सुनियोजित ढंग से हिंसा व अराजकता फैलाना, सरकारी कर्मचारियों और पुलिस पर हमले, सार्वजनिक एवं निजी सम्पत्तियों को हानि पहुँचाना या उन्हें जलाना उचित नहीं है। उन्हें समझना होगा कि जो सम्पत्तियाँ वे जला रहे हैं, वह उनकी अपनी सम्पत्ति भी है। इसकी भरपाई भी इस राष्ट्र को ही करनी है। वे किसी विदेशी सत्ता से नहीं लड़ रहे हैं। उनका आक्रोश अपने देश के सत्ताधारी वर्ग के विरुद्ध है, न कि देश के। अपने लोगों के ख़िलाफ़ा प्रदर्शन-विरोध किया जा सकता है; लेकिन हिंसात्मक गतिविधियों के माहौल से देश आम जनजीवन को बाधित करने को किसी भी तरीक़े से न्यायोचित नहीं ठहराया जा सकता। यह किसी और देश में होता, तो समझा जा सकता था; लेकिन आप एक प्राचीन सभ्यता के प्रतिनिधि हैं। आपके पास इतिहास की धरोहर, धर्म एवं मर्यादाओं का निक्षेप है। आप सनातन परम्परा के उत्तराधिकारी हैं। आप उस देश के नागरिक हैं, जिसके राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी हैं। जिन्हें सच्चिदानंद सिन्हा ‘निहत्था पैगंबर’ कहते हैं। आप उस गाँधीवाद के प्रवर्तक राष्ट्र में पैदा हुए हैं, जिसने साम्राज्यवादी विदेशियों के विरुद्ध भी अहिंसावादी सत्याग्रह किया था। आपातकाल के दौर में लोकनायक जे.पी. ने दिखाया कि सरकार के दमन के ख़िलाफ़ा भी मौन कितनी बड़ी क्रान्ति ला सकता है। अत: न्यासधारी युवाओं के हाथों इस न्यास का अपभंग नहीं होना चाहिए।

अगर युवाओं का सरकार की किसी योजना के प्रति विरोध है, तो उससे उन्हें हिंसा के आवरण में डालकर कलुषित करने के बजाय अहिंसक होकर दृढ़तापूर्वक बिना समझौतावादी रवैया अपनाये अपनी माँगों पर डटे रहना चाहिए। फ्रेडरिक नीत्शे लिखते हैं- ‘साहस अच्छाई है। तुम्हें लोग निर्दय कहते हैं; मैं मानता हूँ। तुम यह हो; क्योंकि तुम्हारा दिल साफ़ा है।‘

युवाओं को अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए सरकारों से राष्ट्रभक्ति का प्रमाण-पत्र लेने की आवश्यकता नहीं है। लोकतंत्र में उनकी भी उतनी ही भागीदारी है, जितनी सत्ताधारी वर्ग की है। यहाँ सभी समान हैं। जैसा कि कहते हैं कि जम्हूरियत में लोगों को तौला नहीं, बल्कि गिना जाता है। हालाँकि सरकार इस योजना पर पीछे नहीं हटी और भर्तियाँ शुरू हो चुकी हैं।

सत्ता को हमेशा अपने सर्वशक्तिमान होने का भ्रम होता है। इसी भावना के कारण वह अपने हर निर्णय को उचित समझती है। गोर्की लिखते हैं- ‘सत्य दया से अधिक महत्त्व रखता है।‘ इसलिए ये दयापूर्ण घोषणाएँ करवाने के बजाय सरकार को इसे वापस लेना चाहिए था। क्योंकि हर बार ख़ुद को सही और दूसरों को ग़लत मानने की समझ बहुत सारी समस्याएँ पैदा कर सकती है।

(लेखक शोध छात्र एवं राजनीति के जानकार हैं। उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)

युवतियों का पीछा करती दहशत

कॉलेज और स्कूलों के बाहर आवारा और सनकी युवकों का चक्कर लगाना पुलिस प्रशासन को तब तक नहीं दिखता, जब तक कोई वारदात न हो जाए। कानोडिया कॉलेज की एक छात्रा के साथ आख़िर ऐसा हो ही गया। पीछा करने वालों से तंग महारानी कॉलेज की छात्राएँ भी रोष में हैं। वहाँ की छात्राओं ने कहा- ‘हम महारानी कॉलेज की अन्तिम वर्ष की छात्राएँ हैं। पिछले छ: महीने से मोहम्मद यूसुफ़ नामक शख़्स कॉलेज के बाहर खड़ा होकर अश्लील हरकतें कर रहा था। हरकतें भी ऐसी घिनौनी कि छात्राओं को अपनी शर्म से अपनी नज़रें बचाकर बचकर निकलना पड़े। हमने कॉलेज प्राचार्य और कुलपति तक से शिकायत की; लेकिन सभी अनसुना कर गये। उनका कहना है कि घटना कॉलेज के बाहर की है, हम क्या करें?’

छात्राओं ने कहा कि पिछले दो दिन से यह शख़्स कॉलेज के टोंक रोड वाले गेट पर आकर कार रोक लेता और जबरन छात्राओं को कार में बैठने के लिए कहता। छात्राओं ने उसे सबक़ सिखाने की ठानी। उसकी हरकतों का वीडियो बनाया और पुलिस तक पहुँचाया। लेकिन पुलिस ने आपराधिक सोच वाले इस युवक को केवल शान्ति भंग में गिरफ़्तार किया। कोई सख़्त कार्रवाई नहीं की। पुलिस मौक़े पर तक नहीं गयी। वीडियो देने के बावजूद पुलिस ने एफआईआर की बजाय केवल शिकायत दर्ज की। जबकि मामला तो पॉक्सो एक्ट और आईपीसी की धारा-354 में मामला दर्ज किया जाना चाहिए था। पुलिस की मनमानी यहीं नहीं रुकी। एफआईआर में पुलिस ने घटना 3 जून की मानी है और अपराध की जानकारी 5 जून सुबह 10:45 पर मिलने का उल्लेख किया। जबकि बेहूदा हरकत के बारे में पुलिस को छात्राओं ने 3 जून को ही शिकायत और वीडियो सौंप दिया था।

पढ़ाई, नौकरी या अन्य किसी काम के लिए बाहर निकल रही लड़कियाँ, महिलाओं की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी समाज के मर्दों की है। उन्हें महिलाओं की रक्षा करनी चाहिए; लेकिन वे ही उनके साथ छेड़़छाड़ कर रहे हैं। लड़कियाँ शिकायत भी करती हैं, तो उन्हें नसीहत देकर दबा दिया जाता है। कभी उनके कपड़ों पर, तो कभी उनके व्यवहार पर उँगली उठायी जाती है।

एक निजी कॉलेज की छात्रा का भी दर्द छलका। उसने कहा- ‘मैं निजी कॉलेज में अन्तिम वर्ष की छात्रा हूँ। कॉलेज बस से आती-जाती हूँ। अभी हफ़्ते भर पहले की बात है। सुबह 10:30 बजे कॉलेज जा रही थी। अजमेरी गेट पर बस ठसाठस भर गयी। मेरे पीछे एक 30-32 साल का आदमी खड़ा था। जैसे ही बस चली। उसने भीड और बस के ब्रेक लगने का फ़ायदा उठाकर मुझे यहाँ-वहाँ छूना शुरू कर दिया। मैंने विरोध किया और कहा कि पीछे हटकर सीधे खड़े रहो। फिर भी वह नहीं माना, बल्कि जवाब दिया कि भीड़ है। वह क्या करे? कहीं जगह नहीं है। मुझे सलाह भी दे दी कि इतनी दिक़्क़त है, तो बस में सफ़र न करूँ। आस-पास खड़े लोग भी इसे सुन और देख रहे थे। किसी ने साथ नहीं दिया।’

एक अन्य छात्रा ने बताया कि ‘क्लास ख़त्म होने के बाद मैं अपनी स्कूटी से घर जा रही थी। राजस्थान विश्वविद्यालय के सामने वो रोड पर एक बाइक पर तीन लड़के मेरे पास से गुज़रे। उन्होंने अचानक मुझ पर हाथ मारा और गंदी टिप्पणियाँ कीं। मैं कुछ समझती उससे पहले वे गंदे इशारे करते हुए निकल गये। मैं बाइक का नंबर भी पूरा नहीं देख पायी। पास ही पुलिस स्टेशन था। वहाँ गयी, तो उन्होंने मामला दर्ज किया; लेकिन उसमें भी बाइक का नंबर माँगते रहे। मैंने अपने साथ हुई पूरा घटना बता दी। पुलिस ने कुछ नहीं किया। कुछ महीने बाद पुलिस ने मुझे ही फोन करके कहा कि आप आकर लिखकर दे दो कि आगे कोई कार्रवाई नहीं चाहतीं। परेशान होकर मैंने लिख दिया।

पीछा, प्यार और हत्या
यह एक चौंकाने वाली घटना है। विष्णु नामक ने गरिमा को सबसे पहले जयपुर के ज्योति नगर में देखा। जयपुर में रहकर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी कर रहा धोलपुर का रहने वाला 20 वर्षीय विष्णु उसे देखते ही लट्टू हो गया। झूंझनू ज़िले के नवलगढ़ की रहने वाली गरिमा की बीएससी फाइनल की छात्रा थी और कानोडिया कॉलेज में रहकर पढ़ाई कर रही थी। विष्णु उसका पीछा करने लगा। उसी बस में सफ़र करने लगा, जिसमें वह जाती थी। पहले तो गरिमा उसके प्रति उदासीन रही; लेकिन जल्दी ही दोनों में प्रेम प्रसंग पनप गया। दो साल से दोनों प्यार की परवाज़ भर रहे थे। एक दिन गरिमा जब आदर्श नगर इलाक़े के वैदिक कॉलेज 10:00 बजे जब परीक्षा देकर बाहर निकली, तो विष्णु ने अपनी जेब से चाक़ू निकालकर गरिमा के गले और हाथ पर वार कर दिया। हमलावर विष्णु ने चाक़ू से उसका गला काट दिया। लहूलुहान हालत में गरिमा सड़क पर गिर गयी। जब हत्यारे विष्णु ने लोगों को अपनी ओर आते देखा, तो जेब से देसी कट्टा (तमंचा) निकाला और गरिमा को तीन गोलियाँ मार दीं।
दरअसल कुछ दिनों से गरिमा ने विष्णु से बातचीत करनी बन्द कर दी थी। गरिमा किसी और को पसन्द कर रही थी। इसी के चलते विष्णु वहशी हो गया और हत्या पर आमादा हो गया। गरिमा के परिजनों का कहना था कि हमें पता ही नहीं चला कि गरिमा किसी प्यार प्रपंच में पड़ गयी है। हमें पता होता, तो हम ऐसा होने ही नहीं देते। गरिमा की बहन उनकी हाँ-में-हाँ मिलाते हुए कहती है कि शायद गरिमा को डर था कि उसकी आज़ादी छिन जाएगी?

अपराध मनोविज्ञानी दिलीप भार्गव कहते हैं- ‘लगातार पीछा करना और लड़की को रिझाने की कोशिश करना, संकेत देता है कि एक बलात्कारी और हत्यारा जन्म ले चुका है। पीछा करने वाले को हत्या करने का कोई अफ़सोस नहीं होता; क्योंकि वो मानता है कि लड़की अगर उसकी नहीं हो पायी, तो वह उसे किसी की नहीं होने देगा।
फेसबुक के इस युग में लगातार पीछा करने के नये और ख़तरनाक आयाम पैदा हो चुके हैं। पीछा करने, घटिया एसएमएस भेजने और देर रात फोन करने के अलावा ठुकराये गये प्रेमी पीडि़ता के फ़र्ज़ी साइबर प्रोफाइल बना देते हैं और उसकी निजी जानकारियाँ शादी के प्रस्ताव के साथ प्रकाशित कर देते हैं। हर रोज़ घटित इस तरह की घटनाओं को समझें, तो कोई महिला सुरक्षित नज़र नहीं आती। सीकर में विदाई की रस्म के दौरान बोखलाये प्रेमी ने दुल्हन बनी लड़की को गोली मार दी। इंद्राज कोमल को पत्र लिखता था कि वह इस अहसास के साथ जीता था कि कोमल उससे प्यार करती है।’

मनोचिकित्सकों का कहना है कि अत्यंत तीव्र भावनाएँ लम्बे समय तक बनी रहती हैं, तो एक सनकी जुनून पैदा कर देती हैं, जो विफलता और हताशा सनक और क्रोध में बदल जाती हैं। देश में एसिड अटेक की बढ़ती घटनाएँ भी इसी सनक का नतीजा हैं। सूत्रों की मानें, तो हर साल देश में लगभग 250 एसिड अटेक के मामले सामने आ रहे हैं। महिलाओं के प्रति ऑनलाइन दुव्र्यवहार ओर उत्पीडऩ की बढ़ती घटनाओं के परिणामस्वरूप लड़कियाँ सोशल मीडिया प्लेटफार्म छोड़ रही हैं। बॉडी शेमिंग और यौन हिंसा के ख़तरों के कारण 30 फ़ीसदी लड़कियों ने सोशल मीडिया से दूरी बना ली है।

मनोचिकित्सकों का कहना है कि ये हमले शारीरिक नहीं होते। लेकिन ये लड़कियों की अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए ख़तरा होते हैं। सोशल मीडिया पर कपल चैलेंज हैसटैग से 30 लाख से ज़्यादा पोस्ट ने प्राइवेसी के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है। जयपुर के साइबर सुरक्षा विषेशज्ञ आयुश भारद्वाज कहते हैं कि इससे इमेज मार्किंग का ख़तरा बन रहा है और यह लड़कियों की सुरक्षा के लिए बेहद ख़तरनाक है।

दहला गया हत्याकांड
राजस्थान में उदयपुर के धान मंडी इलाक़े में रहने वाले एक दर्ज़ी कन्हैयालाल की 28 जून को जिस दरिंदगी से हत्या की गयी, उसने पूरे देश को दहला दिया। हत्या का जो तरी$का अपनाया उसने देश को ग़ुस्से से भर दिया। बाइक पर आये दो मुस्लिम युवकों ने यह हत्या तब की, जब वह उनमें से एक का नाप ले रहा था। हथियार से कन्हैया पर सात वार किये गये, जिससे उसकी मौत हो गयी। भाजपा नेता नुपुर शर्मा के बयान का समर्थन करने को इस हत्या का कारण बताया गया। यही नहीं हत्यारों ने हत्या का वीडियो भी वायरल कर दिया। हत्या के बाद से शहर में तनाव फैल गया। लोग सड़कों पर उतर आये। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने लोगों से शान्ति बनाये रखने की अपील की और कहा कि हत्या में शामिल दो आरोपियों को गिरफ़्तार कर लिया गया है। उन्होंने नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया से बात भी की। मुख्यमंत्री ने कहा कि दोषी को बख़्शा नहीं जाएगा। घटना के बाद एक एएसआई को लापरवाही के आरोप में निलंबित कर दिया गया। पूरे राजस्थान में धारा-144 लगायी गयी। हत्या की जाँच के लिए सरकार ने एनआईए टीम भेजी, जिसने जाँच शुरू कर दी, ताकि पता लगाया जा सके कि घटना के पीछे कोई संगठन तो नहीं। कन्हैया के ख़िलाफ़ 10 जून को एक रिपोर्ट दर्ज हुई थी, जिसमें कहा गया था कि पैगंबर मोहम्मद पर जो आपत्तिजनक टिप्पणी की गयी थी, उसे उसने आगे प्रचारित किया है। उसे बाद में बेल मिल गयी थी और उसने अपनी जान को ख़तरा बताया था। हालाँकि पुलिस के मुताबिक, दोनों पक्षों में समझौता हो गया था। फ़िलहाल मामले की जाँच जारी है।

घट रहा ख़रीफ़ की फ़सलों का रक़बा

उत्तर प्रदेश गेहूँ, धान, गन्ना, दाल, तिलहन, मूँगफली, मक्का और सब्ज़ियों की फ़सलों के लिए जाना जाता है। मगर इनमें से कई फ़सलों की तरफ़ से किसानों का मोह भंग होता दिख रहा है। इसके कई कारण हैं, जिन पर विस्तार से चर्चा करेंगे। इन दिनों की अगर बात करें, तो ये ख़रीफ़ की फ़सलों के दिन हैं। ख़रीफ़ की फ़सलें बारिश के मौसम में होती हैं, इस मौसम में ज़ायद की फ़सलें पकती हैं।

खेती किसानी का सर्वेक्षण करने पर पता चलता है कि ख़रीफ़ की फ़सलों का रक़बा कम होता जा रहा है। कहने का तात्पर्य यह है कि किसान भाई ख़रीफ़ की कुछ फ़सलें पहले की अपेक्षा कम करते जा रहे हैं। सरकार, कृषि अनुसंधान केंद्र, वैज्ञानिक तथा कृषि विशेषज्ञ इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रहे हैं। बड़ी जोत के किसान ओम प्रकाश कहते हैं कि किसान सदैव पाँच बातों को देखकर खेती करता है। एक तो यह कि उस कौन-सी फ़सल से उसे लाभ होगा, परन्तु समस्या यह है कि इस बात का ज्ञान कम ही किसानों को होता है। दूसरी बात यह कि किस फ़सल को पशुओं से कम हानि होगी। तीसरी बात यह कि किस फ़सल में कम लागत आएगी।
चौथी बात यह कि किस फ़सल से उसे नक़द आमदनी होगी। पाँचवीं बात यह कि किस फ़सल को ज़्यादा लोग उगा रहे हैं। यही अधिकतर किसानों की सबसे बड़ी ग़लती होती है कि वे वही फ़सलें अधिक बोते हैं, जो अधिक बोयी जाती हैं। किसानों को बाज़ार में माँग तथा भाव के आधार पर खेती करनी चाहिए। जो किसान ऐसा करते हैं, वे हर साल लाखों रुपये खेती से कमा लेते हैं। युवा किसान ओमवीर सिंह कहते हैं कि किसानों को फ़सल चक्र के आधार पर खेती करनी चाहिए, ताकि उन्हें खेतों से एक ही बार में दोहरा लाभ प्राप्त हो सके। कुल मिलाकर मामला ख़रीफ़ की फ़सलों का रक़बा घटने का है। इनमें कौन-कौन सी फ़सलें शामिल हैं, कृषि विशेषज्ञ इरफ़ान ने इस बारे में विस्तार से बताया।

धान की फ़सल
इरफ़ान कहते हैं कि बड़ी संख्या में उत्तर प्रदेश के किसान धान की फ़सल उगाते हैं। परन्तु पिछले डेढ़-दो दशक से दो समस्याएँ देखने को मिल रही हैं। एक समस्या यह है कि किसानों ने अधिक पैदावार के लालच में अच्छे व स्वादिष्ट धान की बुवाई कम कर दी है। परन्तु वे भूल रहे हैं कि कम पानी से उगने वाले सस्ते बीजों की बुवाई से धान तो ख़राब पैदा होता ही है, साथ ही उसके दाम भी अच्छे नहीं मिल पाते।

इस मामले में किसानों को बीज भण्डार वाले दुकानदार ठगते व गुमराह करते रहते हैं। दूसरी समस्या यह है कि पहले से किसानों ने धान की खेती कम करनी शुरू कर दी है। इसका कारण यह है कि किसानों को धान से उतनी आमदनी नहीं हो पाती, जितनी इस फ़सल की लागत है। अत: वे धान की जगह ज़ायद की फ़सलों को ख़रीफ़ में भी रख लेते हैं, नहीं तो गन्ना आदि ज़्यादा उगाते हैं।

मक्का, ज्वार व बाजरे की खेती
मक्का, ज्वार व बाजरे की खेती भी उत्तर प्रदेश में पहले की अपेक्षा कम होने लगी है। किसान ओम प्रकाश कहते हैं कि आज से 25-30 साल पहले तक मक्का, ज्वार तथा बाजरे की खेती उत्तर प्रदेश में बहुत होती थी। इसकी वजह यह थी कि लोग इन फ़सलों को अनाज के तौर पर उगाते थे। मगर अब किसान इन फ़सलों को बहुत कम उगा रहे हैं। इसके पीछे कई कारण हैं, जिनमें प्रमुख कारण आवारा पशुओं से इन फ़सलों की रक्षा करने में किसानों असमर्थ हैं।

दूसरी प्रमुख समस्या चोरों से फ़सलों को बचाना है। ओम प्रकाश कहते हैं कि मैं ख़ुद मक्का की खेती करता हूँ। परन्तु रखवाली के बावजूद हर रोज़ पाँच-दस भुट्टे लोग तोड़ लेते हैं। एक बात यह भी है कि मक्का के साथ-साथ ज्वार तथा बाजरा की माँग बाज़ार में कम हो चुकी है। इसका एक कारण यह भी है कि लोगों को इन अनाजों की गुणवत्ता व इनके लाभ की जानकारी कम है। कम पैदावार के चलते ये तीनों अनाज आज बहुत महँगे हैं। अत: अगर किसान इन्हें उगाता है और रखवाली करने में सक्षम है, तो उसे घाटा तो नहीं होगा।

हिमाचल में चुनावी हलचल तेज़

यह पहली बार है, जब किसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क़रीब दो सप्ताह के अंतराल में हिमाचल प्रदेश के दो दौरे किये हैं। पहला 31 मई को और फिर दूसरा 16 जून को। उनके राज्य में ये दौरे एक तरह से भाजपा के चुनाव अभियान का श्रीगणेश ही हैं। प्रदेश में विधानसभा चुनाव इसी साल के आख़िर में होना है। पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रेम कुमार धूमल ने दावा किया है कि भाजपा पिछले 35 साल के दौरान पार्टी की सरकार को कभी नहीं दोहराने के सिद्धांत को तोड़ते हुए जीत हासिल करेगी। कुल मिलाकर मोदी के दौरों से प्रदेश में राजनीति गरमा गयी है। अनिल मनोचा की रिपोर्ट :-

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का 31 मई को हिमाचल प्रदेश में भव्य स्वागत किया गया। वह केंद्र में भाजपा सरकार की आठवीं वर्षगाँठ मनाने के लिए शिमला में आयोजित पार्टी के एक रोड शो में आये थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुरानी बातें याद करते हुए राज्य में, विशेष रूप से शिमला में बिताये समय को याद किया। यहाँ यह ध्यान देने वाली बात है कि मोदी नब्बे के दशक में कुछ साल हिमाचल के भाजपा प्रभारी रहे थे। क़रीब एक पखवाड़े में हिमाचल के अपने 16 जून के दूसरे दौरे पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धर्मशाला में एक रोड शो का नेतृत्व किया। इसके ज़रिये पार्टी ने चुनावी रूप से महत्त्वपूर्ण कांगड़ा क्षेत्र में चुनाव अभियान की शुरुआत की। मोदी, मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर के साथ एक किलोमीटर लम्बे रोड शो को कवर करते हुए भाजपा कार्यकर्ताओं और स्थानीय लोगों की बड़ी उपस्थिति के बीच फूलों से लदी खुली जीप में रहे।

भाजपा, जिसका लक्ष्य पहाड़ी राज्य में मिशन रिपीट का है; कांगड़ा पर ध्यान केंद्रित कर रही है। क्योंकि यह 68 सदस्यीय राज्य विधानसभा में लगभग एक-चौथाई विधायकों को भेजती है। कांगड़ा में अधिकतम सीटें जीतने वाली पार्टी आमतौर पर राज्य में सरकार बनाती है।

जीत का भरोसा

हमीरपुर में ‘तहलका’ से बातचीत में धूमल ने कहा कि वह पिछले 45 साल से पार्टी के अनुशासित कार्यकर्ता हैं और एक सैनिक के रूप में पार्टी के इशारे पर सब कुछ करेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जनता प्यार करती है और देवभूमि में भाजपा फिर से सरकार बनाएगी। मोदी का दौरा ऐसे समय में हो रहा है, जब अरविंद केजरीवाल की अगुवाई वाली आम आदमी पार्टी भी पड़ोसी राज्य पंजाब में अपनी चुनावी सफलता से उत्साहित होकर हिमाचल में पैर जमाने की कोशिश कर रही है। दिलचस्प बात है कि पहली बार दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने हाल ही में इस पहाड़ी राज्य के तीन दौरे किये हैं। उधर प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद प्रतिभा सिंह भी लगातार दौरे कर रही हैं, ताकि भाजपा को सत्ता से बाहर करके सरकार बनायी जा सके। वैसे परम्परागत रूप से हिमाचल में केवल दो ध्रुवीय मुक़ाबले हाल के दशकों में देखे गये हैं।

हालाँकि पिछली बार हिमाचल प्रदेश में लोकतांत्रिक मोर्चा था, जिसे 4-5 फ़ीसदी वोट मिले थे। उससे पहले पंडित सुख राम की पार्टी थी, जिसे क़रीब छ: फ़ीसदी वोट मिले थे। जब बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने हिमाचल में प्रवेश करने की कोशिश की, तो पार्टी प्रमुख मायावती ने एक भाषण में मतदाताओं से अपनी पार्टी को एक मौक़ा देने की अपील की। लोगों ने चुनावों में उन्हें पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया और बसपा केवल एक सीट जीत सकी। बाद में वह राज्य की राजनीति से दूर हो गयी। राज्य में पहली बार सन् 1998 में गठबंधन सरकार देखी गयी थी, जब दिवंगत सुख राम की तरफ़ से शुरू की गयी हिमाचल विकास कांग्रेस ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था।

हिमाचल के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर का दावा है कि राज्य ने अधिकांश सामाजिक विकास संकेतकों पर अच्छा प्रदर्शन किया है। क़रीब 83 फ़ीसदी साक्षरता दर के साथ यह देश के सबसे अधिक साक्षर राज्यों में से एक है। इसने प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में सुधार करने में भी काफ़ी अच्छा प्रदर्शन किया है। हिमाचल में शत्-प्रतिशत विद्युतीकरण और एक अच्छा सड़क नेटवर्क है। हालाँकि इस साल के अन्त में चुनाव में जाने पर भाजपा के लिए बहुत कुछ दाँव पर लगा है, क्योंकि भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जगत प्रकाश नड्डा और केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर हिमाचल से ही हैं। पिछले 35 साल में हिमाचल के मतदाताओं ने कभी भी सरकार नहीं दोहरायी है। प्रतिभा सिंह को प्रदेश अध्यक्ष बनाये जाने के बाद से कांग्रेस पूरी ताक़त से तैयारी कर है। उन्होंने कहा- ‘वीरभद्र सिंह से किसी की तुलना नहीं की जा सकती और उनके जैसा नेतृत्व और शासन कोई नहीं दे पाएगा। हम उनके पदचिह्नों पर चलेंगे। प्रदेश की राजनीति में आप जैसी पार्टियों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारा मुक़ाबला सिर्फ़ भाजपा के साथ है।’

कांग्रेस एक पारदर्शिता अधिनियम का वादा कर रही है, जिसके तहत जनप्रतिनिधि और सरकारी कर्मचारी हर साल सम्पत्ति का $खुलासा करेंगे। इसमें यह भी कहा गया है कि यह एक ज़िम्मेदारी अधिनियम लाएगी, जिसमें अधिकारियों और सरकारी कर्मचारियों को सेवाओं की गुणवत्ता के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाएगा। सरकारी कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना का पुनरुद्धार भी कांग्रेस के एजेंडे में है। प्रतिभा सिंह ने शिमला में अपने आवास होली लॉज में ‘तहलका’ को बताया कि कांग्रेस पार्टी के घोषणा-पत्र में इसे शामिल करने के लिए कुछ पूर्व मुख्य सचिवों के साथ चर्चा की है। उन्होंने अग्निपथ योजना, जिसके ख़िलाफ़ ख़ूब विरोध-प्रदर्शन चले; पर कटाक्ष किया और इसे बड़ी ग़लती बताया।

उन्होंने जलापूर्ति योजना पर सार्वजनिक धन के कथित दुरुपयोग की भी आलोचना की। उनका आरोप कि पानी नहीं है। पानी की आपूर्ति करने वाली करोड़ों की पाइपलाइन बेकार पड़ी है। प्रतिभा ने कहा कि यह ठीक है कि वह एक राज परिवार से ताल्लुक़ रखती हैं; लेकिन आम लोगों की समस्याओं को समझती हैं। वह कांग्रेस के टिकट के दावेदारों से मिल रही हैं, ताकि उनकी बात सुनी जा सके और कांग्रेस के भीतर किसी भी तरह के अंदरूनी कलह को रोका जा सके। उन्होंने कहा कि जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए प्रधानमंत्री को कुछ बड़ी घोषणाएँ करनी चाहिए थीं। उन्होंने भाजपा पर सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी का ईडी के बहाने उत्पीडऩ करने का आरोप लगाते हुए कहा कि केंद्र की ताक़त पर वह प्रतिशोध की राजनीति कर रही है।

सत्तारूढ़ भाजपा और विपक्षी कांग्रेस हमीरपुर, कांगड़ा और मंडी की जनसभाओं में केजरीवाल के निशाने पर रहीं। वह अपनी रैलियों और बातचीत में राजनीतिक भ्रष्टाचार, स्कूलों में शिक्षकों की कमी, ख़राब स्वास्थ्य सुविधाओं, बेरोज़गारी और बढ़ती महँगाई के मुद्दों को प्रमुखता से उठाते हैं। उनका कहना है कि हिमाचल की जनता ने कांग्रेस को 30 साल और भाजपा को 20 साल तक वोट दिये, अब उन्हें मौक़ा दे। ग़ौरतलब है कि बड़ी आबादी न होने के बावजूद देश में पाँचवें पायदान पर हिमाचल में बेरोज़गारी दर बहुत ज़्यादा है। हिमाचल की राजनीति पर नज़र रखने वाले राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि आम आदमी पार्टी के लिए प्रभाव जमाना इतना आसान नहीं होगा। आम आदमी पार्टी के लिए हिमाचल का रास्ता बाधाओं से भरा है, क्योंकि राज्य के केंद्र में हमेशा से दो दल कांग्रेस और भाजपा ही रहे हैं।

अतीत में भी कई राजनीतिक दलों ने प्रदेश में पैर जमाने की कोशिश की; लेकिन सफल नहीं हुए। क्योंकि लोगों ने हमेशा कांग्रेस और भाजपा पर ही भरोसा किया है। पंजाब और हिमाचल की सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकताएँ भी काफ़ी अलग हैं। लिहाज़ा आम आदमी पार्टी को यहाँ आसानी से सत्ता हासिल नहीं होगी।

मुसीबतों की आहट

हमारे यहाँ एक कहावत है कि जब विपत्ति आती है, तो हर तरफ़ से आती है। लेकिन हम सब तो अच्छे दिनों का इंतज़ार कर रहे हैं; क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिन्दुस्तान में अच्छे दिन लाने का वादा किया है। सन् 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले का उनका यह वादा उनके आठ साल से ज़्यादा प्रधानमंत्री रहने के बाद अभी तक तो फलीभूत होता दिखायी नहीं दे रहा है; लेकिन शायद आगे फलीभूत हो जाए। मुमकिन है कि प्रधानमंत्री मोदी इसके लिए प्रयासरत हों भी; लेकिन अब जो कुछ घटित हो रहा है, उससे लगता है कि प्रधानमंत्री की लाख कोशिशों के बावजूद अच्छे दिनों की जगह बुरे दिनों यानी मुसीबतों के दिन आने की आहट लगातार सुनायी दे रही है, जिसकी आवाज़ दिन-ब-दिन तेज़ होती जा रही है और लोगों को भयभीत-सा करती जा रही है।

मैं उन लोगों से सहमत नहीं हूँ, जो प्रधानमंत्री के ख़िलाफ़ अनर्गल बातों, अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं और उन्हें अनाप-शनाप बोलते हैं। लेकिन एक पत्रकार होने के नाते यह ज़रूर कहूँगा कि देश में जो कुछ हो रहा है, उसे रोकना प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार के हाथ में है। आज जिस तरह से देश भर में उपद्रव और आपदाओं की बाढ़-सी आयी हुई है, उसके लिए कुछ ज़िम्मेदारियाँ सरकार को लेनी ही चाहिए। सीधा सवाल यह है कि केंद्र सरकार को क्या ज़रूरत है ऐसी योजनाएँ लाने की, जिनसे देश के लोगों में आक्रोश और असन्तोष पैदा हो? क्या पिछले दिनों लागू की गयी अग्निपथ योजना की कोई माँग की जा रही थी? बिना सोच-विचार और मंथन किये बिना इसे लाने की क्या ज़रूरत थी? हालाँकि लोगों का मानना है कि प्रधानमंत्री मोदी ने अब तक कई ऐसी योजनाएँ लॉन्च की हैं, जो कामयाब दिखी हैं; लेकिन उनमें अधिकतर तो फेल ही हुई हैं। जबकि इन योजनाओं का परिणाम बहुत बेहतर हो सकता था, अगर वो परवान चढ़ती तो। गुजरात मॉडल के सपने से लेकर नोटबंदी, स्टार्टअप, मेक इन इंडिया, मेड इन इंडिया, जीएसटी, प्रधानमंत्री मुद्रा योजना, जनधन योजना, उज्ज्वला योजना, आयुष्मान भारत योजना, प्रधानमंत्री ग़रीब कल्याण अन्न योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना, बुलेट ट्रेन योजना, स्मार्ट सिटी, स्मार्ट गाँव, स्वच्छ भारत अभियान और हर आदमी को पक्का घर तक में बहुत कम में सफलता मिली है, जबकि इनमें से अधिकतर परियोजनाएँ काफ़ी हद तक या पूरी तरह असफल हुई हैं। अगर उज्ज्वला योजना को ही लें, तो हर ग़रीब को सिलेंडर देने का क्या फ़ायदा निकला, जब उनमें से एक बड़ा तबक़ा उन सिलेंडरों को भराने में असमर्थ है। शौचालय जैसी योजना में ख़ूब गड़बड़ी हुई। जिन लोगों के शौचालय बने हैं, उनके बिना अच्छी पहुँच या बिना रिश्वत के नहीं बने। पहुँच और रिश्वत की ताक़त यह रही कि जिन लोगों के शौचालय पहले से ही बने हुए थे, उन्हें भी पैसा दिलाया गया। वहीं जिनकी पहुँच नहीं थी या जो रिश्वत नहीं दे सके, ऐसे कई लोगों को एक ईंट का पैसा भी नहीं मिला। प्रधानमंत्री की पक्के मकान वाली योजना में भी घोटाले की ख़बरें अक्सर मिलती रहती हैं। हालाँकि किसान निधि का पैसा ज़रूर किसानों के खाते में पहुँच रहा है; लेकिन सब किसानों को इसका फ़ायदा मिल रहा हो, ऐसा भी नहीं है। कहने का मतलब यह है कि कुछ योजनाओं पर तो काम हुआ है और उनका फ़ायदा भी लोगों को मिला है; लेकिन कई योजनाएँ सरकारी फाइलों में धूल फाँक रही हैं। काले धन की अब कोई चर्चा नहीं होती। कश्मीर में आतंकवाद की ख़बरें लगातार बढ़ रही है।

ग़ौरतलब है कि चीन द्वारा हमारी सीमा में घुसपैठ की ख़बरों के बावजूद इसका कहीं ज़िक्र तक नहीं है। यह केंद्र सरकार की बड़ी कमज़ोरी और विफलता की ओर इशारा करती है। चीन की इस प्रकार की धृष्टता के बावजूद उसकी कई कम्पनियों को हिन्दुस्तान में काम देना, उसके सामान की बिक्री पर प्रतिबंध का कोई रास्ता नहीं निकालना सरकार को सवालों के कठघरे में खड़ा करती है। कई सरकारी संस्थाएँ धीरे-धीरे निजी हाथों में जा रही हैं और देश में हिन्दू-मुस्लिम चल रहा है। आज भी सैकड़ों गाँव विकास की राह देख रहे हैं। गाँव से कुछ लोग जो शहरों में छोटी-मोटी नौकरी करके गुज़ारा करते थे, आज उनमें से बहुत-से अपने घरों में बैठे हुए हैं। क्योंकि कोरोना-काल में जिनकी नौकरी चली गयी, उनमें से 100 फ़ीसदी को अभी तक नौकरी नहीं मिल पायी है। देश में तमाम क्षेत्रों में नौकरियाँ बढऩे के बजाय लगातार घट रही हैं। जिन लोगों की नौकरी चल रही है, उनमें से ज़्यादातर को शर्तों पर काम करना पड़ रहा है।

गाँव के लोगों में एक डर-सा बैठ गया है कि उनके जो बच्चे पढ़-लिखकर सरकारी या निजी नौकरी में जाने की सोच रहे थे, उनके भविष्य का क्या होगा? आज देश में लाखों उच्च शिक्षा प्राप्त नौजवान नौकरी के लिए परेशान हैं। जो भर्तियाँ हुई भी हैं, उनमें ग्रामीण क्षेत्रों से आये किसान पुत्रों और कामगारों के युवाओं का चयन न के बराबर ही हुआ है। सवाल यह है कि ऐसे बच्चे जिनकी सरकारी नौकरी में जाने की उम्र कोरोना और दूसरे कारणों से निकल चुकी है, वे अब क्या करेंगे? देश में लाखों बच्चे नौकरी की लालसा में समय पर शादी नहीं करते। उनकी चाहत रहती है कि जब उनकी नौकरी लग जाएगी, तब वे शादी करेंगे। आज लाखों बच्चे देश के अन्दर ऐसे हैं, जो 25 से 38-40 की उम्र तक के हो चले हैं और शादी नहीं की है। आँकड़ों के मुताबिक, इसी के चलते हर साल क़रीब 13 फ़ीसदी युवा आत्महत्या कर लेते हैं। अगर देखा जाए, तो यह आत्महत्या का आँकड़ा इतना बड़ा है कि इतनी मौतें तो सड़क दुर्घटना से भी नहीं होती हैं।

ज़ाहिर है कि सरकारी एजेंसियों सीबीआई, ईडी, चुनाव आयोग, अदालतों और पुलिस के दुरुपयोग के आरोप सत्ताधारी दल यानी सरकार पर पहले भी लगते रहे हैं। लेकिन आज तो हाल यह है कि अगर कोई प्रधानमंत्री या उनकी सरकार, गृह मंत्री अथवा किसी प्रदेश के मुख्यमंत्री के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता है, तो उस पर देशद्रोह या राजद्रोह का मुक़दमा लगा दिया जाता है। पुलिस प्रशासन भी उसको तंग करने में पीछे नहीं रहता। कई बार तो उस पर अराजक तत्त्वों द्वारा हमले कर दिये जाते हैं।

जानकारों का मानना है कि सरकार की विमुद्रीकरण की योजना भी लगभग असफल रही है। देश में व्यवसायी जीएसटी से परेशान हैं। ख़राब विदेशनीति के चलते हिन्दुस्तान की छवि विदेशों में पहले से कितनी कमज़ोर हुई है। इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि प्रधानमंत्री की सैकड़ों विदेशी यात्राओं के बावजूद विदेशी निवेश और विदेशी मुद्राकोष लगातार घट रहा है। पेट्रोल, डीजल की ऊँची दरों ने आम आदमी की कमर तोड़कर रख दी है। बुनियादी मुद्दों पर न काम हो रहा है और न ही उनका ज़िक्र करने को सरकार तैयार है। कोरोना-काल में न केवल पढ़ाई ठप हुई है, बल्कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई का स्तर भी गिरा है। सरकार की नकारात्मकता यह है कि उसने सोची-समझी रणनीति के तहत राष्ट्रीय मुद्दों पर से लोगों का ध्यान हटाने की हर सम्भव कोशिश की है। मीडिया का स्तर मोदी की केंद्र सरकार में इस क़दर गिरा है कि लोग उसे खुलेआम गोदी मीडिया कहने लगे हैं।

ग़ौरतलब बात यह है कि ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस बात का ढोल लगातार पीटते रहते हैं कि पिछले 70 साल में देश में कुछ नहीं हुआ। जबकि उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले 70 साल में भाजपा की ख़ुद की यानी एनडीए की और भाजपा समर्थित जनता दल की भी सरकारें केंद्र में रही हैं। वहीं उत्तर प्रदेश में तो लम्बे समय तक भाजपा ने शासन किया है। मध्य प्रदेश, हरियाणा, उत्तराखण्ड, हिमाचल, राजस्थान, मणिपुर, महाराष्ट्र और बिहार में भी भाजपा की सरकार रही हैं। गुजरात में तो पिछले दो दशक के क़रीब से भाजपा की ही सरकार रही है। इसके बावजूद केवल प्रचार तंत्र का इस्तेमाल करके सरकार ने मोटा पैसा विज्ञापनों पर ख़र्च किया है, वह भी यह साबित करने में कि यह सरकार अब तक की सरकारों में सबसे अच्छी है। इसके बावजूद लोगों में यह बात बैठी है कि इस सरकार ने उनकी कमर जिस तरह तोड़ी है, उस तरह ब्रिटिश सरकार यानी अंग्रेजी हुकूमत ने भी नहीं तोड़ी होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह नहीं भूलना चाहिए कि आज जिन सरकारी सम्पत्तियों और संस्थाओं को वह निजी हाथों में दे रहे हैं, वो सब पहले की सरकारों ने ही बनायी हैं। क्योंकि सन् 1947 में जब हिन्दुस्तान आज़ाद हुआ था, तो यहाँ खाने भर को अनाज भी पैदा नहीं होता था। लेकिन आज हाल यह है कि ख़ुद प्रधानमंत्री मोदी कहते हैं कि भारत पूरी दुनिया का पेट भर सकता है। देश की समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए भाजपा नेताओं और उनके मित्रों के स्वामित्व वाले टीवी चैनल हिन्दू-मुस्लिम, राष्ट्रवादी-राष्ट्रविरोधी, भारत-पाकिस्तान पर बहस छेडऩे से बाज़ नहीं आ रहे हैं।

बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वादा किया था कि वह साल 2025 तक हिन्दुस्तान की जीडीपी को पाँच ट्रिलियन डॉलर यानी 5,00,000 करोड़ डॉलर की बना देंगे। फिर तालाबंदी के दौरान यह माना गया कि साल 2025 तक देश की जीडीपी 2,60,000 करोड़ डॉलर पर पहुँच जाएगी। लेकिन आज के हालात देखकर लगता है कि आने वाले समय में देश की जीडीपी और कमज़ोर ही होगी। क्योंकि साल 2014 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता सँभाली थी, तब हिन्दुस्तान की जीडीपी उच्च स्तर यानी 7-8 फ़ीसदी के आसपास थी। लेकिन साल 2019-20 की चौथी तिमाही के दौरान जीडीपी 3.1 फ़ीसदी पर आ गयी, जिसमें गिरावट जारी है।

रिसर्च के मुताबिक, साल 2021 से अब तक क़रीब 2.5 करोड़ से ज़्यादा लोग नौकरी गँवा चुके हैं। वहीं क़रीब 7.5 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा पर पहुँच चुके हैं। बड़ी बात यह है कि इनमें से क़रीब एक-तिहाई लोग मध्यम वर्ग के पायदान से फिसलकर ग़रीबी रेखा पर पहुँचे हैं। इस पर प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्री जल्द ही अमृतकाल मनाने के सपने दिखा रहे हैं, क्या इस तरह देश कभी अमृतकाल मना सकेगा? मुझे तो लगता है कि आज हिन्दुस्तान में जो कुछ हो रहा है, उससे अच्छे दिन तो दूर बल्कि बुरे दिनों की आहट ज़्यादा सुनायी दे रही है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)

संथाल के विकास पर सियासी घमासान

देश के सबसे पिछड़े इलाक़ों में शुमार झारखण्ड का संथाल परगना इलाक़ा है। आदिवासी बहुल यह इलाक़ा हमेशा राजनीतिक दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण रहा है। राज्य गठन के बाद अब तक छ: मुख्यमंत्री बने हैं। इनमें से मौज़ूदा मुख्यमंत्री समेत तीन मुख्यमंत्री संथाल ने ही दिये हैं। यह क्षेत्र राज्य के गठन के पहले से लेकर अब तक सियासत का गढ़ रहा है। पिछले कुछ वर्षों से यह विकास का भी गढ़ बन रहा है। इस पर अब राज्य की नहीं, पूरे देश की भी नज़र पड़ रही है। पिछले एक दशक में संथाल परगना के विकास की जो योजनाएँ बनायी गयीं, एक-एक कर धरातल पर उतर रही हैं। चाहे वो केंद्र सरकार की देन हों या फिर राज्य सरकार की।
विकास ने संथाल परगना के लोगों को नयी पहचान दी है। लेकिन विडम्बना यह है कि झारखण्ड जैसे पिछड़े राज्य में विकास पर भी राजनीति हो रही है। दरअसल संथाल परगना का राजनीतिक परिदृश्य ही कुछ इस तरह का है। सियासत के तीनों प्रमुख खिलाडिय़ों (भाजपा, कांग्रेस और झामुमो) में योजनाओं का श्रेय लेने की होड़ और आपसी खींचतान ने राष्ट्रीय स्तर पर राज्य को हास्य का पात्र भी बनाया। साथ ही विकास योजना को बढ़ाने में कई अवरोध भी आये। अब एक बार फिर संथाल परगना का उदय राष्ट्रीय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय फलक पर होने वाला है। यहाँ हवाई अड्डा बनकर तैयार है। इस महीने हवाई सेवा शुरू होने वाली है। क्षेत्र की जनता यह उम्मीद तो रखती ही है कि अब कम-से-कम विकास को लेकर सियासत नहीं हो, जिससे विकास की बात दब जाए और सियासत की बात उभरकर सामने आये, देश-दुनिया में झारखण्ड परिहास का पात्र बने।

सौग़ातों पर लगा दाग़
संथाल परगना पर हर दल का फोकस रहा है। भाजपा, कांग्रेस या झामुमो या फिर कोई अन्य दल संथाल परगना क्षेत्र को नकार नहीं सकता है। इस क्षेत्र को झामुमो का गढ़ भी माना जाता है। झामुमो गढ़ बचाने, तो भाजपा उसका किला ढहाने की फ़िराक़ में लगी रहती है। इसके लिए हर तरह के प्रयास होते हैं। इस बात में कोई सन्देह नहीं कि झारखण्ड की पूर्ववर्ती रघुवर सरकार ने संथाल के विकास की नयी कहानी लिखी। अपने कार्यकाल में पूर्व मुख्यमंत्री रघुवर दास ने संथाल परगना का 135 बार दौरा किया, जो राज्य के किसी दूसरे इलाक़े से कई गुणा अधिक था। दूसरी तरफ़ सरकार बनने के बाद मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने भी क्षेत्र पर फोकस कर रखा है। यही कारण है, पिछले चंद वर्षों में संथाल परगना क्षेत्र को कई सौग़ातें मिलीं। देवघर में एम्स की स्थापना हुई। ओपीडी शुरू हो गया है। जल्द ही अस्पताल भी पूरी तरह चालू होगा।

आज़ादी के 70 साल बाद गोड्डा क्षेत्र तक रेलवे लाइन पहुँची और गोड्डा से दिल्ली रेल सेवा शुरू हुई। साहिबगंज में बंदरगाह का निर्माण हुआ। इन सब विकास योजनाओं के साथ सियासी घमासान भी हुआ। गोड्डा से रेल सेवा शुरू करने के मौक़े पर भाजपा सांसद निशिकांत दुबे और कांग्रेस विधायक प्रदीप यादव आपस में भिड़ गये। हाथापाई तक की नौबत आयी। एम्स के उद्घाटन के मौक़े पर भी केंद्र और राज्य के बीच खींचतान चर्चा में रही। नतीजा यह हुआ कि विकास योजना में देर हुई और $खुशी पर सियासत भारी पड़ गयी। हुआ यह कि राष्ट्रीय स्तर तक विकास के बढ़ते क़दम की बात कम और सियासत की बात अधिक चर्चा में रही, जो जनता का मन खट्टा कर गयी।
उड़ान की तैयारी संथाल परगना जैसा पिछड़ा क्षेत्र अब आसमाँ में उड़ान भरने की तैयारी में है। बाबा नगरी देवघर से जुलाई महीने में हवाई सेवा शुरू हो रही है। झारखण्ड की रांची के बाद दूसरा देवघर हवाई अड्डा बन कर तैयार है। उम्मीद है कि श्रावणी मेले में देवघर आने वाले शिव भक्त नयी हवाई सेवा का आनंद उठा सकेंगे। देवघर हवाई अड्डा पर 8 जून, 2022 को विमान के टेक ऑफ और लैंडिंग की ट्रायल हुई। इंडिगो की पहली फ्लाइट कोलकाता से उड़ान भरकर देवघर हवाई अड्डा पहुँची। इंडिगो की 180 सीटों वाली 320-ए फ्लाइट ने तीन बार टेक ऑफ और लैंडिंग की। सवा घंटे तक ट्रायल के दौरान दिल्ली, कोलकाता और रांची के कई विमानन अफ़सर मुस्तैद रहे। अफ़सरों ने ई-कैटेगरी समेत 320 फैमिली और 737 बोइंग विमान के सभी कैटेगरी से सम्बन्धित सभी पहलुओं का ट्रायल किया। देवघर एटीसी से एक साथ दिल्ली, मुम्बई और बेंगलूरु को कनेक्ट कर दिया गया। इसके बाद रनवे पर लैंडिंग और टेक ऑफ की हरी झंडी मिल गयी। हवाई अड्डा अथॉरिटी ने हवाई अड्डे को अपने अधीन ले लिया है। एयर ट्रैफिक कंट्रोल, रनवे और ऑपरेशन से जुड़ी सारी तैयारियाँ हो चुकी हैं। बाबा धाम का श्रावणी मेला 14 जुलाई से शुरू हो रहा, जो 12 अगस्त तक चलेगा। उम्मीद है कि इससे पहले हवाई अड्डा का उद्घाटन हो जाएगा। यहाँ 180 यात्री वाली एयरलाइंस का आना शुरू हो जाएगा।

प्रधानमंत्री मोदी करेंगे उद्घाटन
देवघर हवाई अड्डा का शिलान्यास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 24 मई, 2018 को ऑनलाइन किया था। इस हवाई अड्डा की लम्बाई 2.5 किलोमीटर है। रनवे की चौड़ाई 45 मीटर है। इसके बाद प्लैंक एरिया है। हवाई अड्डा 653.75 एकड़ में फैला है। टर्मिनल बिल्डिंग 4,000 वर्ग मीटर में फैला है, जहाँ 180 यात्रियों के बैठने की व्यवस्था है। इसके निर्माण पर 401.34 करोड़ रुपये $खर्च किये गये हैं।

टर्मिनल पर बाबा बैद्यनाथ मन्दिर के गुम्बद की आकृति उकेरी गयी है। यहाँ आने वाले यात्रियों को बाबा मन्दिर के स्वरूप का दर्शन हवाई अड्डा पर ही हो जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देवघर हवाई अड्डे का उद्घाटन 7 जुलाई को करेंगे। हालाँकि इसकी अभी आधिकारिक घोषणा नहीं की गयी है; लेकिन हर स्तर पर इसकी तैयारियाँ चल रही हैं। हवाई अड्डा पर विमानों का परिचालन शुरू होने के साथ देवघर शहर देश के कई प्रमुख शहरों से सीधे जुड़ जाएगा। यहाँ से दिल्ली, मुम्बई, बेंगलूरु और रांची के लिए विमान सेवा शुरू होगी।

अब न हो कोई विवाद
देश की लोकतांत्रिक प्रणाली में केंद्र और राज्य का रिश्ता अत्यधिक संवेदनशील होता है। झारखण्ड जैसे छोटे राज्यों के लिए तो और भी जटिलताएँ सामने आती रहती हैं। क्योंकि बड़ी योजनाओं के लिए हमेशा केंद्र का मुँह देखना होता है। केंद्र सरकार से अपेक्षा की जाती है कि वह पूर्वाग्रह और निजी तल्ख़ी को त्याग कर संरक्षक की भूमिका निभाएगी।

वहीं, राज्य सरकार से उम्मीद रहती है कि वह केंद्र सरकार को स्थानीय स्तर पर मदद पहुँचाएगी, जिसमें किसी तरह की राजनीति नहीं हो। इस सामंजस्य को बनाने में क्षेत्र के जनप्रतिनिधियों की भूमिका अहम होती है। झारखण्ड में अन्य विकास कार्यों में विवाद की तरह देवघर हवाई अड्डा निर्माण भी विवाद से अछूता नहीं रहा है। जिस वजह से निर्धारित समय से योजना देर से चल रही। लगभग छ: महीने से सब हो जाने के बाद भी विमान सेवा शुरू नहीं हो पायी। भूमि अधिग्रहण, एप्रोच रोड आदि के निर्माण में विवाद सामने आ चुका है। यहाँ तक कि एप्रोच रोड निर्माण को लेकर न्यायालय का हस्तक्षेप भी हो चुका है।
जनता उम्मीद रखती है कि अब उद्घाटन को लेकर कोई विवाद नहीं हो, जिससे उनकी $खुशी की गूँज राष्ट्रीय स्तर तक जाए। क्योंकि पूर्व में देवघर एम्स और गोड्डा रेल सेवा के उद्घाटन मौक़े पर जो हुआ, वह जगव्यापी है। साथ ही जनता की नज़र संथाल की एक और बड़ी योजना पर है। संथाल के साहिबगंज और बिहार के मनिहारी के बीच गंगा नदी पर पुल बन रहा है। इस पुल के निर्माण से संथाल ही नहीं, पूरे झारखण्ड का परिदृश्य बदल जाएगा। झारखण्ड पूर्वोत्तर से सीधे जुड़ जाएगा। नेपाल की दूरी कम हो जाएगी। असम, बांग्लादेश, बिहार, नेपाल से झारखण्ड की दूरी कम हो जाएगी। व्यापार और रोज़गार के मार्ग खुलेंगे। पुल का निर्माण कार्य पहले से ही तय समय से देर से चल रहा है। अब इसमें देर न हो और योजना धरातल पर उतरे, यह चाहत तो है ही।