Home Blog Page 457

बाजारों में बढ़ती भीड़ चिंता का कारण-डब्ल्यू एच ओ

World Health Organization leaders at a press briefing on COVID-19, held on March 6 at WHO headquarters in Geneva. Here's a look at its history, its mission and its role in the current crisis.

भारत में कोरोना के मामलें जरूर कम हो रहे है।
लेकिन मौतों के आंकड़े हर रोज चौकानें वाले सामने आ
रहे है। वहीं भारत देश में कोरोना की रोकथाम के लिये
तामाम पाबंदियों को लगाया था। लेकिन व्यापारियों के
दाबाव के कारण पाबंदियों को हटा दिया गया है।
जिससे बाजारों में फिर से भीड़ बढ़ने लगी है। जिससे
कोरोना के मामलें और बढ़ने की संभावनाओं को बल
मिल रहा है।बाजारों में बढ़ती भीड़ को देखते हुये विश्व
स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यू एच ओ)ने चिंता व्यक्त करते
हुये आगाह किया है। जिस अंदाज में तामाम पाबंदियों
पर लगी रोक को हटा दिया गया है। वो घातक साबित
हो सकती है। इसलिये जो भी पाबंदियों को लगाया था।
उसको शनैः शनैः खोलना था।बताते चलें देश में लगभग
दो लाख कोरोना के मरीज हर रोज सामने आ रहे है।
जो किसी प्रकार से कम मामलें नहीं कहें जा सकते

है।इस बारे में दिल्ली स्टेट प्रोग्राम आँफीसर
(एनसीसीएचएच) डाँ भरत सागर का कहना है कि
कोरोना का वायरस अभी पूरी तरह से गया नहीं है। गत
तीन दिनों से 8 सौ से अधिक मौतें कोरोना से हो रही
है। जो अपने आप में ज्यादा है। उनका कहना है कि
अगर ऐसा ही सिलसिला चलता रहा है। तो फिर
परिणाम चौकानें वाले साबित होगें।एम्स के कोरोना
विरोधी अभियान के सदस्य डाँ आलोक कुमार का
कहना है कि कोरोना की रोकथाम को लेकर जो गाईड
लाईन बनायी गयी है ।उसको लेकर लोगों में गंभीरता
का अभाव है। सोशल डिस्टेसिंग का पालन नहीं हो रहा
है। दिल्ली जैसे शहर में लोग दिखावे के तौर पर मुंह में
मास्क लगा रहे है। जो कोरोना के बढ़ने कारण हो
सकता है।डाँक्टरों का कहना है कि कोरोना को
जागरूकता से हराया और हटाया जा सकता है।

धनबाद इलाके में खदान के मलबे में दबकर 5 की मौत, अभी कई लापता

झारखंड के निरसा में मंगलवार को तीन खदानों में हुए हादसे में फंसे 12 से ज्यादा लोगों का अभी भी कुछ पता नहीं चल पाया है जबकि प्रशासन ने 5 लोगों के मरने की पुष्टि की है। आशंका जताई गयी है कि मरने वालों की संख्या ज्यादा हो सकती है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने घटना पर गहरा दुख जताते हुए कहा जिला राहत कार्य में जुटा है और घायलों की मदद की जा रही है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक इन खादानों में 15 से ज्यादा लोग थे। इतनी देर खदान में फंसे  रहने के कारण इन लोगों को लेकर चिंता जताई गयी है। निरसा का यह इलाका धनबाद में पड़ता है। निरसा में ईसीएल की गोपीनाथपुर, कापासारा और बीसीसीएल की दहीबाड़ी आउटसोर्सिंग में मंगलवार को यह हादसा तब हुआ जब वहां अवैध खनन का काम चल रहा था।

काम के दौरान मलबे में दबकर कई ग्रामीणों की जान चली गयी। अभी तक प्रशासन ने 5 लोगों के मरने की पुष्टि की है लेकिन काफी लोग अभी भी मलबे में फंसे हैं। बता दें यह खदानें 10 से 20 किलोमीटर के बड़े क्षेत्र के बीच हैं।

हादसे के बाद वहां लोगों की जान बचाने के लिए स्थानीय खदान प्रबंधन पर लापरवाही बरतने के आरोप लगाए गए हैं। स्थानीय विधायक अपर्णा सेनगुप्ता और पूर्व विधायक अरूप चटर्जी के आने के बाद जाकर प्रबंधन ने मलबा हटाने का काम शुरू किया। ग्रामीण भी वहां लगातार जुटे रहे और मदद की।

घटना को लेकर पुलिस ने एफआईआर दर्ज कर ली है। घटना पर जिला खनन अधिकारी से भी रिपोर्ट तलब की गयी है। इस मामले में चूक कैसे हुई, इसे लेकर जांच के आदेश दिए गए हैं।

सुनहरे भविष्य की ओर बढ़ते हुए आत्मनिर्भर भारत का वर्ष 2022-23 का बजट: ओम माथुर

लोकसभा में वित्त वर्ष 2022-23 के लिए बजट केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पेश किया। निर्मला सीतारमण ने केंद्रीय बजट चौथी बार पेश किया है। बजट में डिजिटल करेंसी शुरू करने, आत्मनिर्भर भारत के अंतर्गत 16 लाख नौकरियां, मेक इन इंडिया के तहत 60 लाख नौकरिया समेत अन्य कई बड़े ऐलान भी किए गए है।

भारतीय जनता पार्टी के सांसद और पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष ओम माथुर ने लोक सभा में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा प्रस्तुत वर्ष 2022-2023 के आम बजट की सराहना करते हुए कहा कि, “किसानों की गेहूं और धान की फसल के 2.37 लाख करोड़ रुपये का एमएसपी का भुगतान सीधे 163 लाख किसानों के खातों में किया जायेगा। यह बजट आगामी 25 वर्षों के लिए ब्लूप्रिंट है जो देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देगा।

उन्होंने आगे कहा कि, समावेशी विकास हमारी सरकार की प्राथमिकता है जिसमें धान, खरीफ और रबी फसलों के लिए किसान शामिल है जिसके तहत 1 हजार करोड़ एमएलटी धान की खरीद होने से एक करोड़ से अधिक किसान लाभान्वित होंगे।”

ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों को लाभ

ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में 60 हजार घरों की पीएम आवास योजना के लाभार्थियों के रूप में पहचान की जायेगी। इस योजना के लिए 40 हजार करोड़ रूपये भी दिये जायेंगे जिससे 80 लाख लोगों को घर मिलेगा। साथ ही रक्षा क्षेत्र में 25 प्रतिशत रक्षा रिसर्च के लिए खर्च किया जायेगा। ग्रामीण क्षेत्रों में कार्यरत 2 लाख आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं को अपग्रेड किया जायेगा। मिशन शक्ति, मिशन वात्सल्य, सक्षम आंगनवाड़ी और पोषण 2.0 इन तीनों योजनाओं से महिलाओं और बच्चों को अत्याधिक लाभ मिलेगा।

इंफ्रास्ट्रक्चर को लाभ

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए गए वर्ष 2022-23 बजट में इंफ्रास्ट्रक्चर सेक्टर के लिए 20 हजार करोड़ के कोष की व्यवस्था की गयी है। साथ ही वर्ष 2022 में 5जी नेटवर्क की शुरुआत भी की जायेगी।

इन सबके साथ ही सरकार ने पेयजल की गंभीर समस्या को देखते हुए ‘हर घर, नल से जल’ योजना के लिए वर्ष 2022-23 में 60 हजार करोड़ रुपये आवंटित किया है जिससे की इस योजना से 5.5 करोड़ घरों को जोड़ा जा सकेगा।

एक राष्ट्र एक पंजीकरण

देश में कहीं भी जीवन यापन और व्यवसाय करने में आसानी के लिए ‘एक राष्ट्र एक पंजीकरण’ योजना की शुरुआत की गई है। अगले तीन वर्षों के दौरान बेहतर क्षमता वाली 400 नई जनरेशन की वंदे भारत ट्रेन चलाने की सुविधा भी की गई है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बजट का कोई असर नहीं

उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में केन्द्रीय बजट का कोई खास असर नहीं है। यहां के लोगों का कहना है कि बजट तो लोकलुभावन वाला हर साल पेश किया जाता रहा है। लेकिन धरातल पर उसका लाभ बड़े-बड़े लोगों को ही मिलता है। जिनके कारोबार बड़े है। यहां के लोगों को और किसानों की समस्या जस की तस है। जो समस्या है, उसका समाधान राज्य सरकार के पास ही है। लेकिन समस्या का समाधान कम ही दिख रहा है।

बताते चलें भाजपा की सरकार केन्द्र में है और प्रदेश में है। सो भाजपा के नेता तो बढ़चढ़ कर बजट की तारीफ कर रहे है और देश हित के साथ –साथ सभी वर्ग के लोगों के लिये लाभकारी वाला बजट बता रहे है।वहीं सपा, बसपा और कांग्रेस के लोगों का कहना है कि केन्द्र सरकार ने गरीबों के लिये कोई खास योजनायें नहीं दी है और न ही कोई राहत दी है। जो भी बजट में है वो अमीरों के लिये है। उनका कहना है कि कोरोना काल चल रहा है। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाये चौपट पड़ी है। उस पर सरकार ने कोई खास नहीं किया है।

खैर सत्ता और विपक्ष के आरोप –प्रत्यारोपों को छोड़ दें. तो किसानों और मजदूरों के साथ बेरोजगारों का कहना है कि सरकार आंकड़ों में उलझानें में माहिर है। उत्तर प्रदेश के किसान नेता व किसानों के जमीनी हकीकत जानने वालें गोविन्द दास ने बताया कि ये तो सभी जानते है कि उत्तर प्रदेश सहित पांच राज्यों में विधानसभा के चुनाव है।इसलिहाज से सरकार ने जो राहत और पैकेज देने की बात की है। वो तो ठीक है।

लेकिन कोरोना काल में जिनकी नौकरी गयी है। उनके परिजनों पर क्या बीती है। उस पर सरकार ने कुछ भी नहीं किया है। जिससे जनता में नाराजगी है।उत्तर प्रदेश में किसी भी राजनीतिक दल को  पेश किये गये बजट का कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। क्योंकि बजट से किसी को कोई खास उम्मीद नहीं थी।चुनाव में असल मुद्दा तो बिजली –पानी और सड़क साथ –साथ विकास का है। लेकिन चुनाव आते –आते ये सारे मुद्दे भी गौड़ हो जायेगे। सिर्फ व सिर्फ चुनाव ध्रुवीकरण पर आकर टिकेगा और वही जीत हार का फैसला करेगा। क्योंकि जो मौजूदा हालात में देखने को मिल रहा है।

शहादत की ज्योति

अमर जवान ज्योति के राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में अमर ज्योति के साथ विलय को लेकर बेवजह राजनीतिक विवाद छिड़ गया है। निश्चय ही इंडिया गेट की ज्योति हमारे मानस का हिस्सा बन चुकी थी और वो पीढिय़ाँ इसकी गवाह हैं, जो शूरवीरों को प्रणाम करते हुए बड़ी हुई हैं। इस अमर जवान ज्योति को कभी बुझने नहीं दिया गया। एकीकृत रक्षा स्टाफ प्रमुख एयर मार्शल बलभद्र राधा कृष्ण की अध्यक्षता में एक समारोह में इसे राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में नया स्थान मिला। कुछ समय पहले तक हमारे पास नई दिल्ली में इंडिया गेट के पास एक राष्ट्रीय युद्ध स्मारक और स्मारक की कमी थी। यह हमारे उन सैनिकों के लिए एक श्रद्धांजलि है, जिन्होंने देश की रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी और शान्ति मिशनों और आतंकवाद विरोधी अभियानों में सर्वोच्च बलिदान दिया। यह शहीदों के प्रति कृतज्ञ राष्ट्र की सामूहिक आकांक्षा की परिणति का प्रतिनिधित्व करता है। यह हमारे बहादुरों को श्रद्धांजलि देने के लिए राष्ट्र का प्रतीक है और इसमें हर एक सैनिक का नाम है, जो राष्ट्र की सेवा में शहीद हुए हैं और ज्योति उन सभी वीरों का प्रतिनिधित्व करती है।

इंडिया गेट पर ब्रिटिश-युग का स्मारक सन् 1921 में प्रथम विश्व युद्ध और तीसरे एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में शहीद हुए सैनिकों की याद में बनाया गया था। जबकि अमर जवान ज्योति 26 जनवरी, 1972 से जल रही है। सन् 1971 में पाकिस्तान के साथ युद्ध में शहीद हुए सैनिकों को सम्मानित करने के लिए इंदिरा गाँधी सरकार द्वारा जलायी गयी यह ज्योति उस दिन के युद्ध की ऐतिहासिकता की भी याद दिला रही थी, जो बांग्लादेश के निर्माण के साथ समाप्त हुआ। हालाँकि इंडिया गेट स्मारक पर केवल ब्रिटिश सैनिकों और अधिकारियों सहित 13,218 सैनिकों के नाम अंकित हैं। बेशक इन सैनिकों ने सर्वोच्च बलिदान दिया; लेकिन कर्तव्य की पंक्ति में देश के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले सैनिक बाद में गुमनाम रहे।

इंडिया गेट क्षेत्र में मण्डप के नीचे नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा स्थापित करने के निर्णय की सराहना की जानी चाहिए। क्योंकि इससे नेताजी और भारतीय राष्ट्रीय सेना की विरासत को उसका सही स्थान मिला है। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इंडिया गेट पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के होलोग्राम का अनावरण किया, जिसमें स्वतंत्रता संग्राम के महान् नायक को गाँधी, नेहरू, पटेल और अंबेडकर के समान आसन पर बैठाया गया, तो यह गर्व का क्षण था। नेताजी के होलोग्राम को जल्द ही तराशे पत्थर में बदल दिया जाएगा और यह कृतज्ञ राष्ट्र द्वारा स्वतंत्रता के नायक को श्रद्धांजलि होगी। यह हमारी संस्थाओं और आने वाली पीढिय़ों को राष्ट्रीय कर्तव्य का पाठ याद दिलाता रहेगा।

प्रधानमंत्री ने उचित अवलोकन किया कि नेताजी जिस मान्यता के हक़दार थे, जिससे उन्हें अन्य कई महान् हस्तियों के योगदान की तरह ही वंचित कर दिया गया था और उन्हें मिटाने की कोशिश की गयी थी; उन्हें मिलना चाहिए। अब इन ग़लतियों को ठीक किया जा रहा है। विपक्ष ने शाश्वत् ज्योति को स्थानांतरित करने के निर्णय को इतिहास मिटाने जैसा बताया, जबकि केंद्र ने अपने जवाबी हमले में विपक्ष पर दशकों तक सत्ता में रहने के बावजूद राष्ट्रीय युद्ध स्मारक नहीं बनाने का आरोप लगाया। लेकिन इस तरह के समावेशी मुद्दे पर राजनीति करने के बजाय हमें अपने सशस्त्र बलों को सलाम करना चाहिए और अनन्त लौ को जलने देना चाहिए।

चरणजीत आहुजा

जीत की जद्दोजहद

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव में जी-जान से जुटे सियासी दल

देश में चुनावी बुख़ार चढ़ चुका है। चुनाव वाले राज्य तो ख़ैर चुनावी रंग में डूबे ही हैं; लेकिन जिन राज्यों में चुनाव नहीं हो रहे हैं, वहाँ भी इन राज्यों, ख़ासकर उत्तर प्रदेश और पंजाब को लेकर नुक्कड़ की आम लोगों की महफ़िलों में सम्भावित नतीजों और उनके 2024 के लोकसभा चुनाव पर असर की चर्चा हर कोई कर रहा है। उत्तर प्रदेश को देश की सत्ता का गेटवे (द्वार) माना जाता है, लिहाज़ा वहाँ जनता क्या फ़ैसला करेगी? यह बहुत महत्त्वपूर्ण होगा। फ़िलहाल सभी राजनीतिक दल जीत के लिए जी-जान एक किये हुए हैं। आख़िर यह चुनाव कई नेताओं के भविष्य का फ़ैसला करेंगे। विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की रिपोर्ट :- 

सन् 2017 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के मुक़ाबले भाजपा के लिए इस बार के चुनाव उत्तर प्रदेश में बड़ी चुनौती हो सकते हैं। क्यों? क्योंकि उन दोनों चुनावों में भाजपा चुनाव का नैरेटिव तैयार करने में सफल रही थी; लेकिन इस बार नहीं कर पायी है। इस दौरान भाजपा के पिछड़े वर्ग के एक दर्ज़न से ज़्यादा विधायक-मंत्री उसका साथ छोडक़र सपा में जा चुके हैं। किसानों का एक बड़ा वर्ग भाजपा से रूठा बैठा है। यही नहीं, पिछले विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले इस बार उसके विरोधी कहीं ज़्यादा मज़बूती से चुनाव मैदान में डटे हैं, ख़ासकर सपा और कांग्रेस।

उत्तर प्रदेश की ज़मीनी हक़ीक़त से ज़ाहिर होता है कि योगी सरकार के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी माहौल भी है। ऐसे हालात में भी भाजपा उत्तर प्रदेश में इस चुनाव में भी 300 सीटें जीतने का दावा कर रही है और कह रही है कि चंद विधायकों के जाने से उसकी चुनावी सम्भावनाओं पर कोई असर नहीं पड़ेगा, क्योंकि योगी सरकार ने जनकल्याण के काफ़ी काम किये हैं। लेकिन पिछले पाँच साल में यह पहला ऐसा चुनाव है, जो भाजपा के लिए बहुत आसान नहीं दिख रहा है। बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि अपनी हार से बचने के लिए चुनाव के नज़दीक भाजपा बहुत चतुराई से कोई और बड़ा मुद्दा खड़ा करके चुनाव का रूख़ अपने पक्ष में करने की फिर कोशिश कर सकती है।

सन् 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा ने नोटबंदी को पूरी सफलता से अपना चुनावी नारा बना लिया था। यह एक ऐसा पक्ष था, जो उसने बहुत चतुराई से चुना था। नोटबंदी से उसने बसपा और सपा जैसे विरोधियों को जहाँ आर्थिक झटका दिया, वहीं जनता में यह सन्देश देने में सफल रही कि प्रधानमंत्री मोदी का यह क़दम देश में भ्रष्टचार की कमर तोड़ देगा। लेकिन नोटबंदी से देश में कोई बेहतर बदलाव नहीं हुआ। उलटे जनता ने असंख्य मुश्किलें झेलीं और छोटे-मोटे काम-धन्धे करने वालों की कमर टूट गयी।

जनता में सन् 2018 के आख़िर तक नोटबंदी के शिगूफ़े का असर पूरी तरह ख़त्म हो चुका था और भाजपा इसे अपने ख़िलाफ़ देखने लगी थी। लिहाज़ा चिन्तित भाजपा ने 2019 का लोकसभा चुनाव आते-आते पुलवामा और बालाकोट के ज़रिये देशभक्ति का नया नैरेटिव स्थापित कर दिया। उसने इसे इतनी चतुराई से भुनाया कि लगातार दूसरे लोकसभा चुनाव में उसके अपने बूते बहुतमत ही हासिल नहीं किया, बल्कि 300 के पार सीटें जीतने में भी सफल रही। निश्चित ही यह मोदी सरकार के 2014-2019 के बीच किये कामों से ज़्यादा लोगों की देशभक्ति की भावना का करिश्मा था। यह आरोप लगाया जाता रहा है कि जनवरी के शुरू में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पंजाब दौरे के दौरान एक पुल पर फँसने के मसले को भी भाजपा ने उत्तर प्रदेश के चुनाव में भुनाने की कोशिश की थी। इस घटना को इस रूप में पेश करने की कोशिश की गयी कि यह प्रधानमंत्री को शारीरिक नुक़सान पहुँचाने की कोशिश थी। भाजपा के नेताओं ने देश भर में प्रधानमंत्री मोदी के लिए महामृत्युंजय यज्ञ और पत्रकार वार्ता करके एक माहौल बनाने की पूरी कोशिश की। गोदी मीडिया ने भी अपनी पूरी ताक़त झोंक दी। लेकिन भाजपा और गोदी मीडिया का प्रधानमंत्री मोदी को नुक़सान पहुँचाने की कोशिश वाला आरोप कामयाब नहीं हुआ; और न ही यह आरोप जनता के लगे उतरा। कुल मिलाकर भाजपा इसे भी चुनाव जीतने का नैरेटिव तैयार करने में नाकाम हो गयी। हर बार चुनाव से पहले जनभावना अपने पक्ष में करने के नये-नये नैरेटिव तैयार करने की ये बेचैन कोशिशें बताती हैं कि भाजपा अब उत्तर प्रदेश चुनाव में ख़ुद को असुरक्षित महसूस कर रही है।

कोरोना की दूसरी लहर में उत्तर प्रदेश में जैसी हालत हुई, उससे लोगों में अभी तक ग़ुस्सा है। इससे मुख्यमंत्री योगी की शासन क्षमता पर ढेरों सवाल उठे हैं। उत्तर प्रदेश की नदियों में जिस तरह कोरोना से मरने वालों के शव तैरते मिले, उसने भाजपा और योगी दोनों की छवि को जबरदस्त नुक़सान पहुँचाया है। उसकी भरपाई अभी तक नहीं हो पायी थी कि चुनाव की घोषणा के बीच फिर कोरोना-माइक्रॉन का हमला होने से लोगों में फिर चिन्ता पसर गयी है। सरकार चुनावों में व्यस्त है और महामारी के मामले बढ़ते जा रहे हैं।

भाजपा के जनवरी के पहले पखबाड़े जिस राजनीतिक घटनाक्रम ने सबसे ज़्यादा विचलित किया, वह उसके एक दर्ज़न से ज़्यादा पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के विधायकों का पार्टी से टूट जाना था। पिछले पाँच सालों में हुए चुनावों, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में, पिछड़े वर्ग के लोग भाजपा के लिए बड़ी ताक़त रहे हैं। ऐसा नहीं कि इन दर्ज़न भर विधायकों के जाने से उसके पास पिछड़े वर्ग के विधायक ही नहीं बचे हैं। भाजपा पिछड़ा वर्ग को अपने साथ बनाये रखने के लिए कितनी चिन्तित है, यह भाजपा के विधानसभा चुनाव के लिए तय उम्मीदवारों की संख्या से ज़ाहिर हो जाता है। भाजपा ने पहली सूचियों में तो पिछड़ों की संख्या उतनी नहीं रखी लेकिन दर्ज़न भर विधायकों की बग़ावत के बाद चौथी लिस्ट में उसने 85 उम्मीदवारों में 49 पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग के हैं। लिस्ट में 85 में से 30 पिछड़ा वर्ग के हैं। यहाँ यह बताना दिलचस्प होगा कि अखिलेश प्रसाद यादव की पिछली सरकार में पिछड़ा वर्ग के मंत्रियों की संख्या 31.9 फ़ीसदी थी, जबकि योगी सरकार में यह 35.1 फ़ीसदी है। हालाँकि इसके बावजूद पिछड़ा वर्ग में भाजपा के प्रति इस बात को लेकर नाराज़गी है और उनका आरोप है कि योगी सरकार में सिर्फ़ एक ही वर्ग को महत्त्व मिला है और पिछड़ा वर्ग के मंत्रियों को ताक़त नहीं दी गयी है। यही आरोप लगते हुए स्वामी प्रसाद मौर्या और उनके समर्थक विधायक भाजपा छोडक़र सपा में शामिल हुए।

भाजपा ने पिछड़े वर्ग की चिन्ता में ही हाल में ऐच्छिक सेवानिवृत्ति योजना (वीआरएस) लेने वाले आईपीएस अधिकारी असिम अरुण को भाजपा में शामिल करके उन्हें कन्नौज सदर सुरक्षित सीट से टिकट दिया गया है। भाजपा ने चौथी सूची में जिन 85 उम्मीदवारों के नाम घोषित किये हैं उन सीटों पर पिछले चुनाव में 73 सीटें जीती थीं। बाद में चार विधायक सपा में चले गये और बाकी बचे 69 में 13 के टिकट काटकर पार्टी ने 56 को फिर मैदान में उतारा है। जहाँ तक अन्य की बात है, उनमें 15 ठाकुरों, 14 ब्राह्मणों, चार वैश्यों और तीन पंजाबियों को टिकट दिया है। वैसे पिछड़ा वर्ग में भी भाजपा का फोकस लोधी, कुर्मी, मौर्या, कुशवाहा और शाक्य पर रहा है।

दल बदल से चिन्तित नहीं भाजपा!

वैसे दर्ज़न भर पिछड़े विधायकों के जाने से भाजपा विचलित नहीं है। पार्टी का कहना है कि उसके पास पिछड़े समुदायों के पर्याप्त वरिष्ठ नेता हैं और पार्टी को राज्य में आगामी चुनावों में उसे 300 सीटों को पार करने का पक्का भरोसा है। हाल में भाजपा की तरफ़ से इस तरह के बयान आये हैं, जिनमें पार्टी ने कहा कि स्वामी प्रसाद मौर्य और सपा में जाने वाले अन्य नेताओं को पता था कि उनके टिकट काट दिये जाएँगे। पार्टी ने यह भी कहा था कि वह विधानसभा चुनावों में अपने सांसदों को उम्मीदवार नहीं बनाएगी। पार्टी ने एकाध अपवाद को छोडक़र परिवार में एक से अधिक सदस्यों को टिकट देने से बचने की भी कोशिश की है। पार्टी में कई सांसद अपने बच्चों के लिए टिकट चाहते थे। रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह जैसे अपवाद को छोड़ दें, तो पार्टी ने दावा किया है कि उसने योग्यता के आधार पर टिकट देने की कोशिश की है। हाल के विधायकों के दल बदल के बाद गृह मंत्री और भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह भी 21 जनवरी को उत्तर प्रदेश दौरे पर गये। उन्होंने वहाँ हालात को जानने की कोशिश की और अपने नेताओं को नयी स्थितियों के आधार पर आगे बढऩे का मंत्र दिया।

अमित शाह के उत्तर प्रदेश दौरे से ऐन पहले भाजपा ने मुलायम सिंह यादव की बहू अपर्णा यादव को पार्टी में शामिल किया और अनुप्रिया पटेल के अपना दल से गठबंधन को अन्तिम रूप दिया। पार्टी का संजय निषाद की पार्टी के साथ भी गठबंधन है। पिछड़ा वर्ग को ध्यान में रखकर ही पार्टी यह सब कर रही है, ताकि चुनाव में पिछड़ा वर्ग और दलित वर्ग में सही सन्देश जाए। भाजपा को पहले दो चरणों में पिछले चुनाव में अपने प्रदर्शन को दोहराने का भरोसा है, जब उसने 2017 के चुनाव में 83 विधानसभा सीटें मिली थीं।

भाजपा से नाराज़ हैं किसान

किसान अभी तक भाजपा से नाराज़ हैं। कुछ ऐसे वीडियो अब सामने आ रहे हैं, जिसमें यह दिखता है कि वोट माँगने गये भाजपा के प्रत्याशियों को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में लोग खदेड़ रहे हैं। इन घटनाओं से यह संकेत मिलते हैं कि किसानों को साधना इस चुनाव में भाजपा के लिए सबसे मुश्किल काम है। इसके अलावा लखीमपुर की घटना, जिसमें मोदी सरकार में राज्यमंत्री और भाजपा नेता के बेटे के पाँच किसानों को बेरहमी से अपनी गाड़ी के नीचे कुचल देने की घटना से किसान ही नहीं, दूसरे लोगों में नाराज़गी है।

उनका मानना है कि यह घटना ज़ाहिर करती है कि भाजपा के नेता अहंकार में इतने अंधे हो चुके हैं कि इंसानों की ज़िन्दगी को भी वे कुछ नहीं समझते। ऊपर से इन किसानों को कुचलने वाले बेटे के केंद्रीय मंत्री पिता ठसके से अपने पद पर बने हुए हैं, जबकि कांग्रेस समेत पूरा विपक्ष उनको मंत्रिमंडल से बाहर करने की माँग करता रहा है। केंद्रीय गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा और 12 अन्य लोगों पर आरोप है कि उसने लखीमपुर खीरी में चार किसानों और एक पत्रकार को गाडिय़ों से रौंदकर मार दिया। आशीष मिश्रा इस मामले के मुख्य अभियुक्त है। किसानों की भाजपा के प्रति इस नाराज़गी को चुनाव में भुनाने के इरादे से ही समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश प्रसाद यादव ने हाल में एक मंच सजाकर लखीमपुर खीरी घटना में गम्भीर घायल हुए तेजिंदर विर्क को साथ लेकर ‘अन्न संकल्प’ किया। विर्क उत्तराखण्ड के रहने वाले हैं और तराई किसान संगठन के अध्यक्ष हैं। लखीमपुर खीरी में किसान आन्दोलन के दौरान वे काफ़ी सक्रिय रहे थे। हालाँकि कई किसान नेताओं का यह भी कहना है कि यह नहीं कहा जा सकता कि सभी किसान विर्क के कहे मुताबिक, सपा का ही समर्थन करेंगे।

अखिलेश यादव ने अन्न संकल्प के दौरान कहा कि आख़िर किसानों के संघर्ष ने केंद्र सरकार को झुका दिया। उनके मुताबिक, वोटों के लिए भाजपा ने तीनों कृषि क़ानून वापस लिए। किसानों को लुभाने के लिए यादव ने कहा कि सपा अन्न संकल्प लेती है कि जिन्होंने किसान पर अत्याचार और अन्याय किया है, उनको हराएँगे और हटाएँगे। ख़ुद विर्क कह चुके हैं कि किसानों का एकमात्र मक़सद भाजपा को हराना है। सपा को समर्थन पर विर्क कहते हैं कि चूँकि वही इस समय भाजपा को हराने की स्थिति में है, उसे समर्थन दिया जाएगा।

हालाँकि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस पर एक ट्वीट के ज़रिये तंज किया और कहा कि दंगाइयों, अपराधियों और आतंकवादियों का हाथ थामने वाले लोग आज अन्नदाताओं के शुभ-चिन्तक होने का नाटक कर रहे हैं। किसान जानते हैं कि मौसम से भी ज़्यादा नुक़सान किसानों को उनके (अखिलेश यादव) के शासनकाल के दंगों के कारण हुआ। वे अन्नदाता प्रेमी नहीं जिन्ना प्रेमी हैं।

भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव के मतदान की शुरुआत पश्चिमी उत्तर प्रदेश से होनी है, जो किसानों का मज़बूत गढ़ है। तीन कृषि क़ानून वापस लेने के बावजूद किसानों का ग़ुस्सा ठंडा नहीं हुआ है। इसका एक कारण यह भी है कि भाजपा नेता आज भी किसानों के प्रति उपहास वाली भाषा का इस्तेमाल करते हैं। वे उन्हें दंगाई और ख़ालिस्तानी कहने से भी नहीं हिचकते। ऐसे में यह तो तय है कि किसानों का बड़ा वर्ग भाजपा के ख़िलाफ़ जा सकता है। वैसे हाल में भारतीय किसान यूनियन के अध्यक्ष राकेश टिकैत के बड़े भाई नरेश टिकैत का एक बयान ख़ूब वायरल हुआ था, जिसमें वे सपा-रालोद गठबंधन के एक उम्मीदवार को समर्थन की बात कर रहे थे। हालाँकि बाद में उन्होंने यह कहा कि वे किसी राजनीतिक विशेष के समर्थन में नहीं हैं। नरेश टिकैत का यह बयान रालोद नेता जयंत चौधरी के नरेश टिकैत का हालचाल जानने के लिए अस्पताल जाने के कुछ दिन बाद आया था। शायद इस शिष्टाचार के उपकार में ही नरेश ने यह बात कही हो। रालोद किसान आन्दोलन में सक्रिय रही थी और जाट उनके समर्थक माने जाते हैं। लिहाज़ा रालोद इस चुनाव में ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतकर सरकार बनाने की प्रभावी भूमिका में आना चाहती है।

हाल में केंद्रीय मंत्री और मुज़फ़्फ़रनगर से भाजपा सांसद संजीव बालियान की मुज़फ़्फ़रनगर में नरेश टिकैत से मुलाक़ात भी ख़ासी चर्चा में रही थी। हालाँकि राकेश टिकैत जिस तरह सख़्ती से भाजपा का विरोध कर रहे हैं उसे देखते यह कम ही सम्भावना है कि यह किसान नेता परदे के पीछे कोई खेल करेगा। राकेश लगातार किसानों की माँगों पर अटल हैं और भाजपा पर हमले कर रहे हैं।

वैसे देखा जाये तो लखीमपुर खीरी घटना में कांग्रेस सपा से कहीं ज़्यादा सक्रिय रही थी। प्रियंका गाँधी और राहुल गाँधी दोनों लखीमपुर जाकर पीडि़त किसानों और पत्रकार के परिवार से मिले थे। भले सपा अब किसानों को सक्रिय दिख रही हो, कांग्रेस ने लगातार किसानों के हक़ में आवाज़ उठायी है। ऐसे में भला प्रियंका गाँधी कहाँ पीछे रहने वाली हैं। वे लखीमपुर काण्ड और किसानों के मुद्दे को ज़िन्दा रखने की पुरज़ोर कोशिश कर रही हैं।

कांग्रेस लखीमपुर काण्ड में जान गँवाने वाले पत्रकार रमन कश्यप के भाई पवन कश्यप को पार्टी में शामिल कर चुकी है। किसान भी यह मानते हैं कि प्रियंका गाँधी ने अक्टूबर की घटना के बाद पार्टी की पूरी राजनीतिक ताक़त लखीमपुर के पीडि़त किसानों को इंसाफ़ के लिए लगायी है, लिहाज़ा उनके योगदान को नहीं भुलाया जा सकता। देखना दिलचस्प होगा कि किसान किस रूप में किस स्तर पर प्रियंका गाँधी और कांग्रेस का समर्थन करते हैं। कांग्रेस को लेकर फ़िलहाल तो यही माना जाता है कि पिछले कई साल के सूखे के बाद इस बार प्रदेश में उसकी सीटें बढ़ सकती हैं। पार्टी नेता मानते हैं कि यदि कांग्रेस 30 या उससे ज़्यादा सीटें जीत जाती है, तो सरकार बनाने में उसकी भूमिका अहम हो सकता है। ख़ुद प्रियंका गाँधी कह चुकी हैं कि भाजपा के अलावा किसी भी अन्य दल का समर्थन पार्टी ले सकती है। अर्थात् ज़रूरत पड़ी, तो समर्थन किया भी जा सकता है। ज़ाहिर है सपा के लिए यह संकेत है। यह भी देखा गया है कि पिछले कुछ समय से सपा प्रमुख अखिलेश यादव कांग्रेस और इसके नेतृत्व के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल रहे।

किसान नेता राकेश टिकैत भी कह चुके हैं कि विपक्ष का मज़बूत होना बहुत ज़रूरी है। भारतीय किसान यूनियन के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष राजवीर सिंह जादौन ने भी हल में कहा था कि लड़ाई सरकार (योगी सरकार) से थी और कौन सी सरकार किसानों की हितैषी है, यह किसान अच्छे से जानते हैं। ज़ाहिर है बुंदेलखण्ड में किसानों की समस्या योगी सरकार और भाजपा के लिए संकट बनी हुई है। तीसरे चरण में जिन 16 ज़िलों की 59 विधानसभा सीटों पर वोट पड़ेंगे, उनमें बुंदेलखण्ड के माधौगढ़, कालपी, उरई, बबीना, झांसी नगर, मऊरानीपुर, गरौठा, ललितपुर, मेहरोनी, हमीरपुर, महोबा और चरखारी शामिल हैं। बुंदेलखण्ड के इलाक़े में पिछले चुनाव में भाजपा ने 19 की 19 सीटें अच्छे अन्तर से जीती थीं। हालाँकि अब किसानों की नाराज़गी और अन्ना पशु जैसे मुद्दे उसके गले की फाँस बन सकते हैं।

जहाँ तक बसपा की बात है वह इस चुनाव में ठंडी दिख रही है। बसपा नेता मायावती लोगों से यह अपील कर रही हैं कि लोग कांग्रेस को वोट न दें, क्योंकि उसकी नेता (प्रियंका गाँधी) ने ख़ुद को पहले मुख्यमंत्री पद की दौड़ में बताया और कुछ घंटे में ही अपना बयान बदल लिया, जिससे साफ़ है कि कांग्रेस की हालत पतली है। वैसे मायावती का यह बयान इसलिए आया माना जा रहा है कि क्योंकि उत्तर प्रदेश चुनाव में कांग्रेस बसपा से आगे निकलती दिख रही है। बसपा न किसानों की आवाज़ बन पायी है, न अन्य वर्गों की। ऐसे में उसके सामने सचमुच इस चुनाव में गम्भीर संकट की स्थिति है।

उत्तर प्रदेश पर पैनी नज़र

उत्तर प्रदेश केंद्र की राजनीति के लिए बहुत अहम है। उत्तर प्रदेश देश की राजनीति में एक राज्य भर नहीं है, बल्कि दिल्ली जाने का गेटवे है। यही कारण है भाजपा से लेकर कांग्रेस, सपा तक सभी अपना अधिकतम इस चुनाव में झोंक रहे हैं। इनमें भाजपा और कांग्रेस विधानसभा के अलावा दिल्ली की राजनीति को भी ध्यान में रखे हैं। सपा का पहला फोकस फ़िलहाल ज़रूर विधानसभा पर है। भाजपा को पता है कि साल 2024 के चुनाव में यदि सत्ता में वापसी करनी है, तो उत्तर प्रदेश पर क़ब्ज़ा बरक़रार रखना होगा। दिलचस्प यह है कि विपक्षी दल, किसान और अन्य भाजपा विरोधी मानते हैं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में रोकना बहुत ज़रूरी है, ताकि साल 2024 में दिल्ली का उसका रास्ता मुश्किल कर दिया जाये। हालाँकि भाजपा भरोसा कर रही है कि विधानसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में भले उसकी सीटें घट जाएँ, सरकार वहीं बनाएगी।

सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के लोकसभा चुनाव में 300 के पार जाने का एक बड़ा कारण उत्तर प्रदेश में उसकी बादशाहत बरक़रार रहना था। हालाँकि सच यह भी है कि सन् 2014 और सन् 2019 के लोकसभा चुनावों और सन् 2017 के विधानसभा चुनाव के मुक़ाबले इस 2022 के विधानसभा चुनाव के ज़मीनी हालात में काफ़ी अन्तर है। भाजपा की लोकप्रियता आज उस स्तर नहीं। केंद्र में पिछले क़रीब ढाई साल के एनडीए शासन में कई ऐसी चीज़ें हुई हैं, जो भाजपा के ख़िलाफ़ कही जा सकती हैं। दूसरे इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा के सामने योगी सरकार की ऐंटी-इंकम्बैंसी की चुनौती भी है। ऐसे में उसे इस विधानसभा चुनाव में पिछले चुनावों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा मेहनत करनी पड़ रही है। नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के एक नेता ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा कि यह सच है कि हमें उत्तर प्रदेश में पिछले विधानसभा चुनाव जैसा जन-समर्थन शायद न मिले; लेकिन हमारे प्रधानमंत्री का करिश्मा अभी बरक़रार है। वोट उनके नाम पर पड़ेंगे और हम बहुमत लायक सीटें जुटा लेंगे।

ऐसा नहीं हैं कि भाजपा को उत्तर प्रदेश में अपनी ज़मीनी हक़ीक़त पता नहीं है। उसे मालूम है कि इस बार राह उतनी आसान नहीं है। लिहाज़ा वो मुद्दों का चयन ध्रुवीकरण के हिसाब से कर रही है। ‘लाल टोपी वालों के लिए रेड अलर्ट’ वाले प्रधानमंत्री मोदी के चुनावी प्रचार वाले जुमले से लेकर भाजपा के नेता चुनाव में धार्मिक मुद्दों को बनाये रखने से उसकी चिन्ता तो उजागर होती ही है।

गोरखपुर में योगी की मुश्किलें

भाजपा में योगी आदित्यनाथ भले मुख्यमंत्री हैं और उन्हें ही भाजपा की सरकार बनने की स्थिति में मुख्यमंत्री बनना तय माना जाता है; लेकिन एक बात में उनकी भी भाजपा में नहीं चली। पार्टी के कुछ बड़े नेताओं के मुताबिक, योगी इस बार का चुनाव गोरखपुर से नहीं लडऩा चाहते थे। वह अयोध्या या मथुरा से चुनाव लडऩे के इच्छुक थे। लेकिन भाजपा आलाकमान ने उनकी सीट नहीं बदली। इसके क्या मायने हैं? भाजपा के ही कुछ नेताओं की मानें, तो गोरखपुर में योगी संकट में पड़ सकते हैं। वहाँ समीकरण योगी के बहुत ज़्यादा पक्ष में नहीं हैं और अपनी सीट जीतने के लिए उन्हें काफ़ी मेहनत करनी होगी।

ऐसे में सवाल उठता है कि क्या भाजपा में योगी को कमज़ोर करने की कोशिश हो रही है? और यह भी सवाल है कि उन्हें कमज़ोर करने की कोशिश कर कौन रहा है? योगी इस विधानसभा चुनाव में भले मुख्यमंत्री पद के भाजपा के अघोषित उम्मीदवार हों, उनका नाम पार्टी में बहुत लोग भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में लेते हैं। ऐसे में यह सवाल तो उठता है कि क्या योगी को भाजपा के बीच ही रोकने की कोशिश हो रही है?

यह बात गले से आसानी से नहीं उतरती। लेकिन भाजपा के ही भीतर यह चर्चा तक रही है कि पार्टी के ही कुछ लोग योगी को बम्पर बहुमत से इस चुनाव में जीता हुआ नहीं नहीं देखना चाहते; क्योंकि इससे उनकी स्थिति भाजपा के भीतर बहुत मज़बूत हो जाएगी और वह भविष्य के लिए प्रधानमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार के रूप में उभरेंगे।

याद करें तो सन् 2017 में हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी यह स्थिति बनी थी, जब पार्टी के मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार प्रेम कुमार धूमल हमीरपुर हलक़े से चुनाव लडऩा चाहते थे। लेकिन पार्टी आलाकमान ने उन्हें सुजानपुर से लडऩे का फ़रमान जारी कर दिया। नतीजा यह रहा कि धूमल मुख्यमंत्री उम्मीदवार होते हुए भी चुनाव में हार गये, जबकि उनकी वजह से ही भाजपा को चुनाव में 44 सीटें मिली थीं। ऐसी स्थिति अब उत्तर प्रदेश में भी दिख रही हैं, जहाँ योगी न चाहते हुए भी गोरखपुर से चुनाव मैदान में हैं।

हालाँकि पार्टी के रणनीतिकारों का मानना है कि मुख्यमंत्री योगी गोरखपुर से लड़ेंगे, तो इसका लाभ पार्टी को पूर्वांचल की सभी सीटों पर मिलेगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि गोरखपुर में योगी का अपना मज़बूत प्रचार तंत्र है, क्योंकि वे यहाँ से पाँच बार सांसद रहे हैं। योगी की हिन्‍दू युवा वाहिनी भी योगी के लिए ज़मीन पर बहुत मज़बूती से काम करती है। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक आज़ाद समाज पार्टी (एएसपी) ने अपने प्रमुख चंद्रशेखर आज़ाद को योगी के ख़िलाफ़ उम्मीदवार घोषित किया है, जबकि चर्चा है कि सपा यहाँ किसी ब्राह्मण को टिकट दे सकती है। कांग्रेस और बसपा ने भी उम्मीदवार घोषित नहीं किये हैं। पिछली बार योगी विधान परिषद् के रास्ते से सदन में आये थे, जबकि अब वह मैदान में हैं।

कांग्रेस की कोशिश

जहाँ तक कांग्रेस की बात है, तो उसकी प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी महिलाओं और युवाओं पर फोकस कर रही हैं। बिहार में रेलवे भर्ती के नतीजों में धाँधली के आरोपों के बाद जिस तरह युवा सडक़ों पर उतरे और उसका असर यह रिपोर्ट लिखे जाने तक उत्तर प्रदेश में भी दिखने लगा था और इस चुनावी राज्य में भी बेरोज़गारी का मुद्दा ज़ोर पकड़ता है, तो कांग्रेस को उम्मीद है कि प्रियंका गाँधी की मेहनत इसे वोटों में तब्दील कर सकती है।

प्रियंका गाँधी को यदि कांग्रेस मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित कर देती है तो यह इस चुनाव का सबसे बड़ा आकर्षण बन सकता है। ख़ुद प्रियंका ने एक साक्षात्कार में इस बाबत पूछने पर जब यह कहा कि और कौन चेहरा दिखता है आपको? तो इसके बाद कई कयास लगने शुरू हो गये। कांग्रेस उन्हें चुनाव से पहले मुख्यमंत्री पद का चेहरा घोषित करेगी या नहीं, कहना अभी कठिन है। लेकिन राजनीतिक हलक़ों में माना जाता है कि यदि कांग्रेस इतनी हिम्मत करती है, तो राजनीतिक रिस्क के बावजूद यह चतुराई भरा फ़ैसला होगा। क्योंकि अकेले यह बात अन्तिम समय में भी चुनाव का नैरेटिव बदलने की क्षमता रखती है।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस की कमज़ोरी सांगठनिक ढाँचे का लचर होना है। थोड़ा भी मज़बूत होता, तो कांग्रेस इस चुनाव में हाल के दो वर्षों में व्यवस्था के प्रति उभरी युवाओं की नाराज़गी और महिलाओं के वोटों को अपनी तरफ़ मोड़ सकती थी। कांग्रेस ही उत्तर प्रदेश में एक ऐसा राजनीतिक दल है, जो भाजपा के हिन्दू वोट बैंक तक को अपनी तरफ़ खींचने की क्षमता रखता है। सपा से लेकर बसपा तक एक ख़ास वोट बैंक में बँधे हुए दल हैं; लेकिन कांग्रेस उत्तर प्रदेश सभी वर्गों से वोट खींचने के क्षमता रखती है। चाहे ब्राह्मण हों, मुस्लिम हों, पिछड़े हों या दलित। सभी एक समय कांग्रेस का मज़बूत वोट बैंक रहे हैं। हालाँकि इसके बावजूद कांग्रेस ही एक ऐसा दल है, जो इस चुनाव में अभी भी अपनी सीटों की संख्या को आश्चर्यजनक रूप में बढ़ा सकता है।

कांग्रेस की कोशिश उत्तर प्रदेश में ख़ुद को ज़मीन से उठाकर एक राजनीतिक दल के रूप में प्रासांगिक स्थिति में लाने की है। आज से कुछ महीने पहले तक उत्तर प्रदेश में कांग्रेस कोई चर्चा नहीं होती थी; लेकिन आज कांग्रेस की चर्चा है। मीडिया में भी और जनता में भी। इसे प्रियंका गाँधी की मेहनत का ही नतीजा कहा जा सकता है।

प्रियंका ने उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए बाक़ायदा युवाओं का विशेष घोषणा-पत्र जारी किया है। ख़ुद कांग्रेस नेता राहुल गाँधी और उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी ने दिल्ली में कांग्रेस मुख्यालय में इसे जारी किया था। इसमें कांग्रेस ने अपनी सरकार बनने की स्थिति में आठ लाख सरकारी पद महिलाओं के लिए रखने और कुल 20 लाख लोगों को नौकरी देने का वादा किया है। कांग्रेस ने यह भी कहा है कि वह चुनाव प्रचार में कोई नकारात्मक बात नहीं करेगी और सिर्फ़ जनता के मुद्दों पर ही चुनाव लड़ेगी। घोषणा-पत्र में कांग्रेस ने 20 लाख नौकरियाँ देने का वादा किया है। इनमें से आठ लाख नौकरियाँ महिलाओं को दी जाएँगी और 1.5 लाख प्राथमिक शिक्षकों की भर्ती की जाएगी। प्रियंका गाँधी का कहना है कि कांग्रेस ने यह घोषणा-पत्र बनाने से पहले युवाओं से उनकी समस्याएँ समझने की कोशिश की है। उन्होंने ऐलान किया कि किसी भी नौकरी के लिए आवेदन शुल्क नहीं लिया जाएगा।

प्रियंका गाँधी की घोषणाओं के मुताबिक, कांग्रेस सत्ता में आने पर आठ लाख सरकारी पद महिलाओं के लिए देगी जबकि कुल 20 लाख लोगों को नौकरी देंगे। परीक्षार्थियों के लिए रेल और बस यात्रा मुफ़्त होगी। स्टार्टअप्स के लिए 5,000 करोड़ रुपये का फंड रखा जाएगा। एक लाख प्रधानाध्यापकों की नियुक्ति की जाएगी। उत्तर प्रदेश के सभी कॉलेजों में प्लेसमेंट सेल का गठन किया जाएगा। मुफ़्त वाईफाई और लाइब्रेरी जैसी सुविधाएँ दी जाएँगी। हर साल यूथ फेस्टिवल आयोजित होंगे और नशामुक्ति के लिए बड़ा क़दम उठाये जाएँगे। युवा घोषणा-पत्र जारी करने के मौक़े पर प्रियंका गाँधी ने कहा कि भर्ती विधान को बनाने के लिए हमारे कार्यकर्ताओं ने ज़िले-ज़िले जाकर युवाओं से बात की है। उन्होंने पेपर लीक होने पर कड़ी सज़ा का प्रावधान रखने की बात की है।

प्रियंका ने कहा कि कांग्रेस ने तय किया है कि वह उत्तर प्रदेश चुनाव में किसी तरह की ग़ैर मुद्दा बहस नहीं करेगी। सिर्फ़ जनता की बात की जाएगी। जनता के लिए ही यह वादे हैं। राहुल गाँधी ने इस मौक़े पर कहा कि वर्तमान केंद्र और राज्य (उत्तर प्रदेश) सरकार ने युवाओं को रोजगार देने के लिए कुछ नहीं किया। कांग्रेस अपना वादा पूरा करेगी।

सपा की ताक़त

सपा की ताक़त यह है कि उसका संगठन ज़मीन पर मज़बूत है। यादवों के वोट की राजनीति करती रही सपा अखिलेश यादव के नेतृत्व में इस बार दलितों और पिछड़ों को भी साथ जोडऩे की कोशिश में दिखी है। हालाँकि इससे जब पार्टी के भीतर यादव वर्ग की नाराज़गी का अहसास उन्हें हुआ तो अखिलेश को कहना पड़ा कि अब वे भाजपा से किसी और को सपा में नहीं लेंगे। लेकिन, इसमें कोई दो-राय नहीं कि सपा भाजपा को कड़ी टक्कर देती दिख रही है। इन स्थितियों में कोई बदलाव चुनाव तक कांग्रेस या बसपा कर पाएँगे, इसकी फ़िलहाल बहुत कम सम्भावना है।

सपा चुनाव की बाद की स्थिति को लेकर उम्मीद के तेज़ दौड़ते घोड़े पर सवार है। उसे लग रहा है कि चुनावी माहौल में अचानक कोई बड़ा बदलाव नहीं हुआ, तो वह सरकार बनाने की स्थिति में आ सकती है। उसका अपना फीडबैक भी कि अगले 10 दिन में कोई बड़ी घटना नहीं हुई तो सपा भाजपा को बराबर टक्कर दे रही है और कांग्रेस भी पहले से ज़्यादा सीटें जीतने की स्थिति में दिख रही है।

सपा का अपना अनुमान है कि फ़िलहाल उसे कांग्रेस नेतृत्व ज़्यादा नहीं बोलना है। हो सकता है चुनाव नतीजों के बाद कांग्रेस उसके सरकार बनाने के काम आये। जहाँ तक बसपा की बात है, इस चुनाव में वह बहुत असमंजस की स्थिति में दिखी है। उसे अपने वोट बैंक पर भरोसा है; लेकिन यह कितनी सीटें बसपा को दिला देगा? सरकार बनाने की बात तो दूर है, बसपा में यह चिन्ता है कि कहीं सीटें जीतने में कांग्रेस उससे आगे न निकल जाए। उत्तर प्रदेश में इस बार कांग्रेस की चर्चा बसपा से ज़्यादा हो रही है, यह बात बसपा नेताओं से लेकर ख़ुद मायावती भी समझ रही हैं। लिहाज़ा उन्होंने कांग्रेस को वोट कटवा पार्टी बताकर उसका वजन काम करने की कोशिश की। कितनी सफलता उन्हें इसमें मिली, यह तो नतीजों से ही ज़ाहिर होगा।

पंजाब में चुनाव की बेला में ईडी के छापे

पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी के भतीजे पर प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की छापेमारी राजनीतिक चर्चा का कारण बन गये। कांग्रेस ने इस पर ग़ुस्सा जताया और इसे सरकारी एजेंसी का दुरुपयोग बताते हुए भाजपा पर हमला किया। लेकिन चुनाव में ख़ुद भाजपा की स्थिति इस सरहदी सूबे में कोई ख़ास अच्छी नहीं। कांग्रेस का आरोप है कि केंद्र में भाजपा सरकार के ईडी के ज़रिये यह छापे देश के एकमात्र दलित मुख्यमंत्री को परेशान करने की कोशिश है; लेकिन जनता इसका जवाब देगी। हालाँकि भाजपा का कहना है कि भ्रष्टचार को जाति से जोडऩा कांग्रेस के इरादों को साफ़ करता है।

कांग्रेस ने इन छापों के बाद आरोप लगाया कि ईडी का मतलब भाजपा का चुनाव विभाग है। कांग्रेस के प्रमुख प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा कि भाजपा पूर्वाग्रह से ग्रस्त होकर काम कर रही है और देश में एकमात्र दलित मुख्यमंत्री सरदार चरणजीत सिंह चन्नी से बदला ले रही है। कांग्रेस का मामले को दलित बनाना इस कारण से है, क्योंकि सूबे में 32 फ़ीसदी के क़रीब आबादी है। चन्नी के मुख्यमंत्री बनने से इस वर्ग में ख़ुशी है, कांग्रेस को यह लगता है।

प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने जो छापे मारे वह रेत खनन से सम्बन्धित धन शोधन (मनी लॉन्ड्रिंग) से जुड़े हैं। ईडी ने पंजाब के मुख्यमंत्री के भतीजे भूपिंदर सिंह हनी के 10 अलग-अलग ठिकानों पर छापेमारी की। ईडी की टीम ने इस दौरान किसी को घर से निकलने की इजाज़त नहीं दी, जैसा कि वो ऐसे छापों के दौरान करती ही है। बाद में यह ख़बर आयी कि ईडी ने मुख्यमंत्री के भतीजे भूपिंदर सिंह के लुधियाना स्थित ठिकाने पर छापेमारी में क़रीब चार करोड़ रुपये बरामद किये। इसके अलावा लुधियाना में ही एक अन्य व्यक्ति संजीव कुमार के ठिकाने से दो करोड़ रुपये मिले। इस छापेमारी का नतीजा यह निकला कि आम आदमी पार्टी, जो पंजाब के इस चुनाव में कांग्रेस की मुख्य प्रतिद्वंद्वी दिख रही है, को कांग्रेस पर हमला करने का अवसर मिल गया। हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि ऐन चुनाव के मौक़े पर ईडी या किसी भी एजेंसी की इस तरह के छापों पर सवाल उठते हैं और इन्हें राजनीति से जोडक़र देखा जाता है। हाल के महीनों में यह देखा गया है कि ईडी और सीबीआई का राजनीति मक़सद के लिए जमकर इस्तेमाल किया गया है। पंजाब में चुनाव सर्वे जो कह रहे हों, फ़िलहाल मुक़ाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी में है, जिसमें कांग्रेस कुछ आगे दिखती है। बाक़ी सभी तीसरे नंबर की लड़ाई लड़ रहे हैं, जिसमें भाजपा भी शामिल है।

उत्तराखण्ड की स्थिति

उत्तराखण्ड विधानसभा चुनाव के मुहाने पर दलबदल का बड़ा खेल देख रहा है। भाजपा के नेता कांग्रेस में आ रहे, कांग्रेस के भाजपा में जा रहे। चुनाव के नज़दीक यह एक रिवाज़-सा है। हालाँकि इससे नतीजों को लेकर कोई कयास लगा पाना मुश्किल होता है। बंगाल में यह सबने देखा था, जहाँ चुनाव से पहले टीएमसी के कई नेता ममता बनर्जी का साथ छोडक़र भाजपा में जा मिले थे। लेकिन जब नतीजे आये, तो ममता बनर्जी (टीएमसी) की सीटें पिछली बार से ज़्यादा हो गयी थीं।

उत्तराखण्ड में भाजपा के ख़िलाफ़ यह बात थी कि उसने अकेले पिछले साल कम समय में तीन मुख्यमंत्री बदल दिये, जिसका विपरीत असर इस पहाड़ी राज्य में सीधे विकास के कामों पर पड़ा। जनता में भी भाजपा के प्रति नाराज़गी दिखायी दी है। हालाँकि भाजपा ने अपने सबसे ज़्यादा भरोसे के चेहरे प्रधानमंत्री मोदी पर भरोसा करते हुए उम्मीद रखी है कि भले पिछली बार से सीटें कम हो जाएँ, सरकार उसकी ही बनेगी। हालाँकि निष्पक्ष राजनीतिक टिप्पणीकारों की सुनें तो यह संकेत मिलता है कि चुनाव तक कांग्रेस ने वर्तमान माहौल $कायम रखा तो वह भाजपा को झटका दे सकती है।

राज्य में भाजपा को अपनी सरकार के ख़िलाफ़ जनता के बीच बने सत्ता विरोधी रूख़ से बचने के लिए मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी के चेहरे पर भरोसा है। उत्तराखण्ड ऐसा राज्य है, जहाँ पिछले 21 साल में 11 मुख्यमंत्री बन चुके हैं। यही नहीं दिवंगत नारायण दत्त तिवारी अकेले ऐसे मुख्यमंत्री हैं, जिन्होंने पाँच साल का अपना कार्यकाल पूरा किया है। इस चुनाव में धामी यदि भाजपा को जिता पाते हैं, तो यह कमाल ही कहलाएगा।

कांग्रेस की चुनाव पतवार दिग्गज और अनुभवी नेता हरीश रावत के हाथ है। चुनाव रणनीति में वह माहिर माने जाते हैं। हाल में हरक सिंह रावत कांग्रेस में शामिल। कांग्रेस में जाने से पहले ही उन्होंने दावा किया कि चुनाव के बाद कांग्रेस बम्पर बहुमत के साथ सत्ता में आ रही है। हालाँकि तब तक भाजपा उन्हें मंत्रिमंडल और पार्टी से बाहर कर चुकी थी। लेकिन इसके बावजूद उत्तराखण्ड में कांग्रेस के बढ़ते ग्राफ से इन्कार नहीं किया जा सकता। भाजपा को निश्चित ही पहाड़ी राज्य में चुनाव की बड़ी चुनौती है। अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी उत्तराखण्ड में दाँव लगा रही है। अभी तक की स्थिति यही है कि पार्टी के नाम पर न सही, उम्मीदवारों के चेहरों पर पड़े वोट एकाध सीट उसे दिला सकते हैं। लेकिन जो भी वोट आम आदमी पार्टी लेगी, वह कांग्रेस का नुक़सान होगा; क्योंकि यह सभी वोट सत्ता के विरोध के पडऩे वाले वोट होंगे, जो आम आदमी पार्टी के न होने पर कांग्रेस को मिलते।

गोवा के हालात

गोवा में इस बार आम आदमी पार्टी ने भंडारी समुदाय के अमित पालेकर को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर सभी राजनीतिक दलों को रक्षात्मक करने की रणनीति बुनी है। दलबदल का खेल गोवा में भी इधर से उधर जाने का चल रहा है। आज की तारीख़ में गोवा में बहुकोणीय लड़ाई है। वहाँ विपक्ष अलग-अलग दिशाओं में दिख रहा है और बँटा हुआ है। विपक्ष की कोशिश भाजपा को सत्ता से बाहर करने की है। भाजपा पिछले 10 साल से गोवा में सत्ता में है।

कांग्रेस भाजपा से सत्ता छीनने की कोशिश कर रही है; लेकिन चुनाव में आम आदमी पार्टी और टीएमसी के आने से स्थिति दिलचस्प हो गयी है। कांग्रेस का अभी भी दावा है कि वही है, जो भाजपा और टीएमसी, आम आदमी पार्टी, राकांपा-शिवसेना के लिए सबसे बड़ी चुनौती है। गठबंधन की कांग्रेस की कोशिश फ़िलहाल सिरे नहीं चढ़ी है।

भाजपा प्रमोद सावंत को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुकी है। कांग्रेस के पास दिगंबर कामत जैसे दिग्गज नेता हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में 40 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा को सबसे ज़्यादा 32.48 फ़ीसदी वोट और 13 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को 28.35 फ़ीसदी वोट के साथ 17 सीटें मिले थीं। इस तरह कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी थी। महाराष्ट्रवादी गोमांतक पार्टी (एमजीपी), जिससे कांग्रेस को 11.27 फ़ीसदी वोट के साथ तीन सीटें मिली थीं। क़रीब 11.12 फ़ीसदी वोट के साथ तीन निर्दलीय भी जीते थे।

मणिपुर के समीकरण

मणिपुर की 60 विधानसभा सीटों के लिए दो चरणों में 27 फरवरी और 3 मार्च को मतदान होना है। भाजपा के नेतृत्व वाली गठबंधन सरकार का नेनृत्व मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह कर रहे हैं और सरकार दोहराने की लड़ाई लड़ रहे हैं। पिछले चुनाव की बात करें तो 2017 में कांग्रेस को 28 सीटें, भाजपा को 21 सीटें, एनपीएफ और को चार-चार, एलजेपी और तृणमूल को एक-एक और निर्दलीय को भी एक ही सीट मिली थी। इस बार चुनाव से पहले ही टीएमसी ने ख़ुद को तीसरी ताक़त के रूप में स्थापित करने के लिए कांग्रेस जैसे दल में सेंधमारी की है।

इस समय भाजपा के साथ एनपीएफ, एनपीपी और एलजेपी सहयोगी हैं। वर्तमान स्थिति यह है कि विधानसभा में भाजपा के 28, कांग्रेस के 15, एनपीपी और एनपीएफ के चार-चार, टीएमसी और तृणमूल की एक और निर्दलीय भी एक है, जबकि सात विधानसभा सीटें रिक्त पड़ी हैं।

अफ्सपा को हटाने की माँग पूरे प्रदेश में सबसे बड़ा मुद्दा है, जबकि स्थानीय मुद्दे भी हैं। कांग्रेस पिछले चुनाव में मिली 28 सीटों जैसा प्रदर्शन दोहराना चाहती है। लेकिन हाल में उसके कई विधायक भाजपा में चले गये। इस कड़ुवे अनुभव से गुज़री कांग्रेस इस बार विधानसभा चुनाव के लिए प्रत्याशी बनाये गये लोगों से वफ़ादारी की शपथ ले रही है। पार्टी सभी प्रत्याशियों से वादा ले रही है कि वे चुनाव के बाद भी पार्टी के प्रति वफ़ादार रहेंगे। सन् 2017 में कांग्रेस के जितने विधायक जीते थे, उनमें से तक़रीबन आधे (42 फ़ीसदी) विधायक पिछले साढ़े चार साल में पार्टी छोड़ चुके हैं।

फ़िलहाल चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही मुक़ाबला है। टीएमसी और स्थानीय राजनीतिक दल भी पूरी कोशिश कर रहे हैं कि ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतकर बँटे जनादेश की स्थिति में सरकार बनाने में भूमिका निभा सकें।

बड़े ख़तरे का संकेत है यू्क्रेन-रूस का तनाव

दोनों देशों की सीमा पर हथियारबन्द सैनिकों की बड़े पैमाने पर तैनाती के बीच बढ़ रही गहमागहमी

यूके्रन में तनाव बढ़ रहा है। रूस ने उसकी सीमा पर क़रीब एक लाख अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित सैनिक तैनात कर दिये हैं और अमेरिका लगातार रूस को यूक्रेन पर किसी भी तरह की कार्रवाई के ख़िलाफ़ चेता रहा है। अमेरिका अपने मित्र देश यूक्रेन को हथियारों की सप्लाई करता रहा है। अब अमेरिका ने अपने कई जंगी जहाज़ और हथियार यूक्रेन भेजे हैं। रक्षा जानकार यूक्रेन और रूस के बीच गम्भीर रूप से उभर रहे इस तनाव को दुनिया की शान्ति के लिए बड़े ख़तरे का संकेत मान रहे हैं। वैसे रूस ने बार-बार कहा है कि वह यूक्रेन पर हमले का इरादा नहीं रखता; लेकिन अमेरिका की ख़ुफ़िया रिपोर्ट बताती हैं कि फरवरी में रूस यूक्रेन पर आक्रमण कर सकता है। नाटो ने हाल में कहा था कि उसने पूर्वी यूरोप के इलाक़े में युद्धपोत और लड़ाकू विमानों को तैनात कर अपने दस्तों को हाई अलर्ट पर रहने को कहा है।

अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने हाल में कहा था कि अमेरिका यूक्रेन में सेना नहीं भेजेगा। हालाँकि जो गम्भीर बात उन्होंने कही वह यह है कि अगर रूस सीमा के पास तैनात किये गये अपने अनुमानित एक लाख सैनिकों के साथ यूक्रेन पर हमला करता है, तो यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद से अब तक का सबसे बड़ा सैन्य आक्रमण होगा। बाइडेन ने कहा कि अगर रूस ऐसा करता है, तो इससे दुनिया बदल जाएगी। अमेरिकी सेनाएँ यूक्रेन नहीं जाएँगी।

दरअसल रूस और यूक्रेन के बीच तनाव सन् 2014 में ही शुरू हो गया था, जब रूस ने यूक्रेन पर हमला करके उसके क्रीमिया प्रायद्वीप पर क़ब्ज़ा जमा लिया था। रूसी सेना का तब यूक्रेन की सेना ने साहस से मुक़ाबला किया था; लेकिन उसे हार का मुँह देखना पड़ी थी। इस हमले के बाद क्रीमिया में रूस समर्थक विद्रोहियों और यू्के्रनी सेना के बीच जारी जंग में अब तक क़रीब 15,000 लोगों की जान जा चुकी है। दोनों के बीच तनाव बना हुआ है जो अब काफ़ी गम्भीर रूख़ अख़्तियार कर गया है।

अमेरिका यूक्रेन की खुले तौर पर मदद कर रहा है। दोनों देशों के बीच इस तनाव के चलते नाटो और पश्चिमी देश सक्रिय हैं। यूक्रेन को युद्ध की किसी भी स्थिति में मज़बूत करने की मंशा से ख़ुद अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ब्रिटेन, स्वीडन और तुर्की आदि ने यूक्रेन को हथियारों सप्लाई करने शुरू कर दिये हैं। हालाँकि चुप रूस भी नहीं बैठा है और उसने हाल के दिनों में यूक्रेन की सीमा पर विमानभेदी (एंटी एयरक्राफ्ट) मिसाइल, टैंक, तोप, सशस्त्र वाहन (आम्र्ड व्हीकल) के अलावा क़रीब एक लाख सैनिकों की फ़ौज खड़ी कर दी है। चिन्ता की बात यह है कि रूस और अमेरिका के बीच इस मसले को हल करने और तनाव ख़त्म करने के लिए प्रयास नाकाम साबित हुए हैं।

जनवरी के दूसरे पखबाड़े अमेरिका ने यूक्रेन में अपना दूतावास $खाली कर दिया और  ब्रिटेन ने भी कीव स्थित अपने दूतावास के ज़्यादातर कर्मियों को वापस बुला लिया है। बहुत से रक्षा विशेषज्ञ इन स्थितियों को देखते आशंका जाता रहे हैं कि अगर यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस कोई कार्रवाई करता है, तो इससे पूरे पूर्वी यूरोप में युद्ध के हालत बन जाएँगे।

आक्रामक क्यों है रूस?

रूस यूक्रेन पर यूरोपीय संघ से अपने रिश्तों ख़त्म करने पर ज़ोर दे रहा है। सन् 2014 के बाद से यूक्रेन अमेरिकी नेतृत्व वाले सैन्य संगठन नाटो का सदस्य बनने की कोशिश कर रहा है। रूस इसे अपनी सुरक्षा के लिए ख़तरा मानता है; क्योंकि उसे भय है कि इससे नाटो की उसकी सीमा तक पहुँच हो जाएगी। रूस को लगता है कि यूक्रेन के कारण ही अमेरिकी सेना और उसके सहयोगी देश, जो रूस को पसन्द नहीं करते, रूस की सीमा तक पहुँच बना रहे हैं। हालाँकि जनवरी के आख़िर में पेंटागन के एक प्रवक्ता ने यह साफ़ कर दिया कि रूस को यूक्रेन के नाटो का सदस्य बनने की कोशिशों का विरोध करने का कोई अधिकार नहीं है। प्रवक्ता ने कहा कि अमेरिका यूक्रेन के नाटो का सदस्य बनने का समर्थन करता है।

अमेरिकी सेना के अधिकारी हाल के सैलून में लगातार यूक्रेन के दौरे करते रहे हैं। यहाँ तक कि अमेरिकी सैनिक यूक्रेन-रूस की सीमा पर भी स्पॉट किये गये हैं। रूस और यूक्रेन की सेनाओं के बीच इस तनाव के कारण रक्षा जानकार यूरेशिया क्षेत्र में बड़े सैनिक टकराव की आशंका जाता रहे हैं। ज़ाहिर है दोनों के बीच युद्ध हुआ तो यह सिर्फ़ रूस और यूक्रेन के बीच तक सीमित नहीं रहेगा और किसी बड़े युद्ध में भी बदल सकता है। अभी तक तो ऐसा नहीं दिख रहा कि यूक्रेन और रूस सुलह का कोई रास्ता अपनाएँगे। दुनिया भर की नज़र इस पर लगी है कि अगर युद्ध हुआ, तो आख़िर होगा क्या?

अमेरिकी रक्षा विभाग के मुख्यालय पेंटागन ने अमेरिका और यूरोप में मौज़ूद अपने क़रीब 8,500 सैनिकों को अलर्ट पर रखा है। अगर ज़रूरत पड़ी, तो इन्हें नाटो की पूर्वी यूरोपीय सीमा पर तैनात किया जाएगा। इस तरफ़ एस्टोनिया, लातविया, लिथुआनिया, पोलैंड, चेक रिपब्लिक, हंगरी, रोमानिया और बुल्गारिया आते हैं। ये वो देश हैं, जो सन् 1989 के बाद नाटो में शामिल हुए। रूस हमला करने की योजना से इन्कार करता है; लेकिन नाटो और अमेरिका की गतिविधियों को मौज़ूदा तनाव का कारण बताता है। रूस का नाटो पर विस्तारवादी रूख़ अपनाने का भी आरोप है। बाइडेन की चेतावनियों का रूस पर कोई असर नहीं दिखा है। रूस साफ़ कह चुका है कि वह इनका सामना करने को तैयार है। काला सागर में भी रूसी युद्धपोत लगातार गश्त कर रहे हैं। रूसी नौसेना ने उत्तरी बेड़ा (नॉर्थ फ्लीट) से छ: युद्धपोत भूमध्य सागर की ओर भेजे हैं। रूसी नौसेना की पूर्वी बेड़े के भी कई जंगी जहाज़ भूमध्य सागर की ओर बढ़ रहे हैं। रूस ने अपनी सेना को पूर्वी इलाक़ों से हटाकर दोस्त देश बेलारूस में तैनात किया है। बेलारूस में इनकी तैनाती यूक्रेन की सीमा से मात्र 20 मील दूर है, जिससे तनाव का अनुमान लगाया जा सकता है।

इस समय नाटो के क़रीब 4,000 सैनिक एस्टोनिया, लिथुआनिया, लातिविया और पोलैंड में मौज़ूद हैं। इनके पास तोप, वायु रक्षा प्रणाली, ख़ुफ़िया और निगरानी इकाई (इंटेलिजेंस ऐंड सर्विलांस यूनिट) तक हैं। हालाँकि जवाबी कार्रवाई कैसी हो? इसे लेकर नाटो सदस्यों के बीच मतभेद हैं। मौज़ूदा तनाव के बावजूद 26 जनवरी को रूसी नेता व्लादिमीर पुतिन की इटली की कुछ सबसे बड़ी कम्पनियों के प्रमुखों से मुलाक़ात हुई है। रूस-यूक्रेन के बीच बढ़ते तनाव के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन पश्चिमी देशों से एकता बनाये रखने की अपील कर चुके हैं। उन्होंने कहा कि अभी बहुत ज़रूरी है कि पश्चिमी देशों में एका बना रहे। रूसी आक्रामकता से निपटने में हमारी एकता बहुत प्रभावी साबित होगी। फ्रांस के राष्ट्रपति इमानुएल माक्रों ने जनवरी के आख़िर में पुतिन के साथ टेलिफोन पर बात की है। तनाव के बीच यूक्रेन का शीर्ष नेतृत्व अपने नागरिकों से शान्ति बनाये रखने और परेशान न होने की लगातार अपील कर रहा है। यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की 25 जनवरी को टीवी पर अपने नागरिकों को सम्बोधित कर चुके हैं। इसमें उन्होंने कहा कि स्थितियाँ ठीक नहीं हैं और हम भी किसी ग़लतफ़हमी नहीं हैं। हालात सामान्य नहीं हैं; लेकिन अभी उम्मीद बची है। अपने शरीर को कोरोना से बचाइए। दिमाग़ को झूठ से बचाइए, और अपने दिल को दहशत से बचाइए।

अर्थ-व्यवस्था पर तनाव का असर

रूस और यूक्रेन के बीच इस तनाव से दुनिया भर के शेयर बाज़ार मंदी की गिरफ़्त में आ रहे हैं। यहाँ तक कि भारत में बीएसई और निफ्टी का सेंसेक्स में हाल के हफ़्तों में कई बार गिरावट दर्ज कर चुका है। जनवरी के तीसरे हफ़्ते दुनिया के 45 देशों में शेयर बाज़ारों पर नज़र रखने वाला एमएससीआई वल्र्ड इक्विटी इंडेक्स 0.78 फ़ीसदी गिरावट पर था। नैस्डैक, डाउ जोन्स और एसपीएक्स भी कई बार डावाँडोल दिखे हैं। बाज़ार में गिरावट का यह सिलसिला यूक्रेन को लेकर रूस और अमेरिका के बीच पनपे तनाव से शुरू हुआ था। भारत का रूस और अमेरिका दोनों से क़रीबी और व्यापारिक सम्बन्ध हैं और जंग की स्थिति में उस पर जबरदस्त आर्थिक दबाव बन जाएगा। जंग की स्थिति में भारत पर कूटनीतिक दबाव तो बढ़ेगा ही, न चाहते हुए भी उसे दोनों देशों के तनाव का ख़ामियाज़ा भुगतना पड़ेगा; क्योंकि युद्ध कारोबार को बुरी तरह प्रभावित कर सकता है। जानकारों के मुताबिक, रूस-यूक्रेन में जंग छिड़ी, तो इसका असर उन दिनों तक सीमित न रहकर सीधे यूरोप पर असर डालेगा। यहाँ तक कि यह टकराव अमेरिका और रूस की सैन्य महाशक्तियों को आमने-सामने खड़ा कर सकता है। इसका सबसे बड़ा असर वैश्विक अर्थ-व्यवस्था पर पड़ेगा। कोरोना और अन्य कारणों से पहले ही ख़राब हालत में पहुँच चुकी अर्थ-व्यवस्था और बर्बाद हो सकती है। इसके अलावा संकट के दौर से गुज़र रहे कच्चे तेल, ऊर्जा बाज़ार और वैश्विक व्यापारिक परिवहन क्षेत्र और बुरे दिन देखने को मजबूर हो सकते हैं।

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन चेतावनी दे चुके हैं कि यूक्रेन पर रूस के हमले की स्थिति में उनका देश रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा सकता है। अमेरिका पहले भी क्रीमिया पर क़ब्ज़े के बाद रूस पर प्रतिबन्ध लगा चुका है। यूक्रेन पर बढ़ते तनाव के बीच अमेरिका ने हाल में एक से ज़्यादा बार रूस पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगाने की चेतावनी दी है। बाइडेन यह तक कह चुके हैं कि इस बार के प्रतिबन्ध पहले से ज़्यादा विस्तृत और गम्भीर होंगे। याद करें, तो ज़ाहिर होता है कि अमेरिका विदेशी राष्ट्राध्यक्षों ऐसे प्रतिबन्ध पहले भी लगा चुका है। वेनेजुएला के राष्ट्रपति निकोलस मादुरो, सीरिया के तानाशाह बशर अल-असद और लीबिया के मुअम्मर गद्दाफ़ी अमेरिका के व्यक्तिगत आर्थिक प्रतिबन्ध झेल चुके हैं।

दोस्त बने दुश्मन 

यह दिलचस्प बात है कि यूक्रेन पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा था। क़रीब 30 साल पहले सोवियत संघ के विघटन के वक़्त वह रूस से अलग हुआ। यूक्रेन के हिस्से में सोवियत संघ के ज़माने के कई महत्त्वपूर्ण स्थल, बंदरगाह और सैन्य निर्माण ईकाइयाँ आयी थीं। उसके बाद के दो दशक से भी ज़्यादा तक यूक्रेन रूस का दोस्त रहा। दोनों के बहुत बेहतर रिश्ते थे। हालाँकि सन् 2014 में विक्टर यानुकोविच के राष्ट्रपति पद से अपदस्थ होने के बाद यूक्रेन में रूस विरोधी सरकार आने से उसके रूसी भाषी क्षेत्रों में अस्थिरता पैदा हुई। क्रीमिया में बढ़ते यूक्रेन विरोधी विद्रोह को आधार बनाकर रूस ने सन् 2014 में ही क्रीमिया पर हमला करके उस पर क़ब्ज़ा कर लिया। इसके बाद दोनों देशों के बीच गम्भीर तनाव बन गया, जो आज तक जारी है। इस तनाव के कारण अब तक हज़ारों लोगों की जान जा चुकी है।

बजट में मध्यम वर्ग को राहत न देने से चुनाव में नुकसान की भाजपा नेताओं को आशंका

विधानसभा चुनाव के नजदीक लोकलुभावन बजट न आने से भाजपा नेताओं, खासकर चुनावी राज्यों वाले नेताओं, को निराशा हुई है। पांच राज्यों में चुनाव के मौके पर बजट होने से उन्हें उम्मीद थी कि आम आदमी को राहत की घोषणा होगी, जिससे पार्टी को चुनाव में लाभ होगा। लेकिन ऐसा नहीं होने से उन्हें लगता है कि चुनाव में आम वर्ग से पार्टी को शायद उतना समर्थन नहीं मिल सके।

बजट में आयकर स्लैब में कोई परिवर्तन न होने से मध्यमवर्ग को बहुत झटका लगा है। उन्हें पक्की उम्मीद थी कि सरकार स्लैब में उन्हें राहत देगी। आयकर स्लैब बढ़ती तो मध्यमवर्ग को बड़ी राहत होती। इसमें बड़ी बात यह भी है कि देश में मध्यमवर्ग आबादी का बड़ा हिस्सा है। ऐसे में उसे राहत मिलती तो पार्टी को कम से कम इस चुनाव में तो लाभ मिल सकता था।

जानकारों का कहना है कि इस बजट से सबसे बड़ी निराशा मध्यमवर्ग को ही हुई है। मध्यमवर्ग हाल के सालों में चुनावों में भाजपा का समर्थन करता रहा है। ऐसे में बजट से उसकी निराशा भाजपा जो नुकसान में ही रखेगी। उनका कहना है कि मध्यमवर्ग को इस बजट से बड़ी राहतों की उम्मीद सरकार से थी।

उत्तर प्रदेश के एक वरिष्ठ भाजपा नेता ने इस संवाददाता से बातचीत में नाम जाहिर न करने की शर्त पर कहा कि ‘केंद्र सरकार ने चुनाव को देखकर बजट नहीं रखा यह अच्छी बात है। लेकिन इसके यह मायने कि बजट में कुछ नहीं है। सरकार ने युवाओं को 60 लाख रोजगार की बात कही है। हाँ, जनता जरूर उम्मीद करती है कि उसे ज्यादा से ज्यादा राहत मिले। यदि मध्यमवर्ग को और राहत मिलती तो निश्चित ही इसका फायदा चुनाव में होता।’

किसानों को भी बजट में कोई राहत नहीं मिली है। किसानों ने एक महीना पहले ही  सरकार के भरोसे के बाद अपना एक साल पुराना आंदोलन स्थगित किया था। किसानों के लिए जो घोषणाएं की गयी हैं, उनमें एमएसपी का पैसा सीधे खाते में डालने की बात की गयी है।

किसान संघर्ष समिति के अध्यक्ष राकेश टिकैत ने कहा – ‘आम बजट में मोदी सरकार  ने एमएसपी का बजट पिछले साल के मुकाबले कम कर दिया है। पिछले बजट (2021-22) के बजट में एमएसपी की खरीदी पर बजट 2,48,000 करोड़ रूपये था जिसे 2022-23 के बजट में घटाकर 2,37,000 करोड़ रूपये कर दिया गया है। टिकैत ने कहा – ‘यह भी सिर्फ़ धान और गेहूं की खरीदी के लिए है। इसे लगता है कि सरकार दूसरी फसलों की एमएसपी पर खरीदी करना ही नहीं चाहती।’

टिकैत का यह भी कहना है कि ‘किसानों की आय दोगुनी करने, सम्मान निधि, दो करोड़ रोजगार देने और एमएसपी, खाद-बीज, डीजल और कीटनाशक पर कोई राहत नहीं दी गयी है। उन्होंने कहा कि इससे जाहिर होता है कि सरकार किसानों के साथ धोखा कर रही है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव के अलावा पंजाब और उत्तराखंड में भी किसानों का बड़ा रोल रहेगा। ऐसे में बजट में किसानों को राहत नहीं मिलने से भाजपा को चुनावी नुकसान से इंकार नहीं किया जा सकता। उत्तर प्रदेश की पश्चिम पट्टी में किसानों का वोट हर चुनाव में मायने रखता रहा है। इस बार किसान आंदोलन तो हुआ ही है, लखीमपुर खीरी में 4 किसानों के कथित तौर पर भाजपा नेता और केंद्रीय मंत्री के बेटे की कार के नीचे कुचले जाने के बाद किसानों में काफी गुस्सा है। अब देखना दिलचस्प होगा कि जनता चुनाव में क्या फैसला करती है।

राष्ट्रीय धरोहरों से छेड़छाड़ क्यों?

Hologram of the statue of Netaji Subhas Chandra Bose unveiled by the PM, on the occasion of the Parakram Diwas celebrations, at India Gate, in New Delhi on January 23, 2022.

मोदी सरकार ने ऐतिहासिक अमर जवान ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की ज्योति में कर दिया विलीन

राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के ऐतिहासिक इंडिया गेट पर पिछले क़रीब पाँच दशकों से जल रही अमर जवान ज्योति से छेड़छाड़ करना, जगह बदलना या उसको बुझा देना कितना उचित है? यह ख़बर आज देश में चर्चा का विषय बनी हुई है। सन् 1971 में भारत और पाकिस्तान के बीच हुए युद्ध और बांग्लादेश की आज़ादी के लिए शहीद हुए 3,000 भारतीय सैनिकों की याद में तात्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने 26 जनवरी, 1972 में इस अखण्ड ज्योति को प्रज्ज्वलित किया था। इस अमर जवान ज्योति की शाश्वत लौ (ज्योति) को प्रज्ज्वलित की थी।

हालाँकि पिछले क़रीब पाँच दशक से जल रही यह अमर जवान ज्योति देश की आज़ादी के बाद सन् 1947 से लेकर अब तक शहीद हुए क़रीब 25,000 वीर जवानों के सम्मान में जल रही थी। लेकिन इस जीत के 50 साल बाद मोदी सरकार ने उस लौ को वहाँ से हटाकर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में जल रही लौ में विलीन कर दिया है। कुछ लोग प्रधानमंत्री मोदी के इस निर्णय को ग़ैर-वाजिब कहकर इसका विरोध कर रहे हैं।

ग़ौरतलब है कि अमर जवान ज्योति की जगह बदलने का निर्णय इसका फ़ैसला प्रधानमंत्री मोदी ने सन् 2019 में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक के उद्घाटन के वक़्त लिया था। प्रधानमंत्री मोदी अपने कई अनोखे और सख़्त निर्णय के लिए जाने जाते हैं। हालाँकि कई लोगों का मानना यह भी है कि उनका इतिहास को बदलना देश के लिए उचित नहीं है। इसके अलावा बहुत-से लोग सम्मान के साथ उन्हें अपना अगुवा मानते हुए इस काम को भी सम्पूर्ण देशवासियों के लिए काम करने की बात कह रहे हैं। वहीं विपक्षी दलों के नेताओं का कहना है कि मौज़ूदा कुछ वर्षों में मोदी सरकार द्वारा ऐसे कई काम हुए हैं, जिससे जनता में असुरक्षा, आपसी मतभेद और सरकार के प्रति अविश्वास की भावना पैदा हुई है। इन कामों में ऐतिहासिक से छेड़छाड़ करना, नोटबन्दी करना, जीएसटी लगाना, तीन कृषि क़ानून लेकर आना, बड़े पैमाने पर दर्ज़नों अमीरों द्वारा बैंकों का पैसा लेकर भागना, देश में महँगाई व बेरोज़गारी का बढऩा, महामारी आने पर तालाबन्दी करना देशवासियों के बेहद कड़ुवे अनुभव रहे हैं, जिससे देश की अर्थ-व्यवस्था बेहद ख़राब हुई है। विपक्षियों का मानना है कि इस सबके बावजूद सरकार ने सेंट्रल विस्टा (केंद्रीय योजना) जैसी महँगी योजना की शुरुआत अत्यधिक आवश्यक काम बताकर तब की है, जब इसकी हाल-फ़िलहाल कोई ख़ास ज़रूरत ही नहीं थी। अब इसी सरकार ने लगभग 50 साल से लगातार शहीदों के सम्मान में जल रही अमर जवान ज्योति को इंडिया गेट से हटाकर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक ले जाकर उसे इस स्मारक की ज्योति में विलीन कर दिया। सरकार में मंत्रियों समेत कुछ लोगों ने इसका समर्थन किया है, तो कुछ ने विरोध किया है। वहीं अधिकतर लोग इस पर चुप्पी साधे हुए हैं।

बहरहाल यह इन दिनों चर्चा का एक बड़ा और गरम मुद्दा है। दरअसल अमर जवान ज्योति और इंडिया गेट से न केवल लोगों की भावनाएँ जुड़ी हैं, बल्कि वे यहाँ और कुछ न होने के बावजूद हर दिन सैकड़ों की संख्या में जुटते रहे हैं, जहाँ कि अब उनका प्रवेश बिल्कुल बन्द कर दिया गया है। अब अमर जवान ज्योति इंडिया गेट की जगह उसके पास स्थित राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में जल रही ज्योति के साथ मिलकर जल रही है। इसे बुझाने जितना अपराध मानकर इस पर बहस छिड़ गयी है कि मौज़ूदा मोदी सरकार आज़ादी से लेकर 2014 तक का पूरा-का-पूरा इतिहास मिटाकर 2014 में सत्ता में आने के बाद से नया इतिहास लिखने की कोशिश कर रही है। हालाँकि एक बात यह भी है कि प्रधानमत्री मोदी के इस फ़ैसले का लोग स्वागत भी कर रहे हैं कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की 125वीं जयंती पर इंडिया गेट पर उनकी प्रतिमा लगेगी। इससे पहले सरकार ने यह भी फ़ैसला किया था कि अब गणतंत्र दिवस समारोह नेताजी के जन्मदिन 23 जनवरी से शुरू होकर 30 जनवरी महात्मा गाँधी की हत्या वाले दिन तक मनाया जाएगा। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की प्रतिमा को भारत के सबसे बड़े प्रतीकों में से एक इंडिया गेट पर लगाने के निहितार्थ कुछ भी हों और उन पर शायद तीखी बहस ज़रूर होगी; लेकिन लोग इसका विरोध नहीं करेंगे। वरिष्ठ पत्रकार और इतिहास के जानकार विवेक शुक्ला बताते हैं कि राजधानी में उनकी पहली प्रतिमा लुटियंस दिल्ली की बजाय लाल क़िले के पास 23 जनवरी, 1975 को एडवर्ड पार्क में ही लग गयी थी। वहाँ पर नेताजी की मूर्ति लगने के बाद एडवर्ड पार्क का नाम सुभाष पार्क कर दिया गया था। ग़ौरतलब है कि सुभाष पार्क में लगी मूर्ति में नेताजी सुभाष चंद्र बोस अपने इंडियन नेशनल आर्मी के साथियों के साथ हैं। उसका अनावरण तब के उप राष्ट्रपति बी.डी. जत्ती ने किया था। इस मूर्ति को यहाँ पर स्थापित करने में कम-से-कम 10 दिन लगे थे। मूर्ति लगने के कई दिनों के बाद तक दिल्ली में रहने वाले कई लोगों को इसके सामने हाथ जोडक़र खड़े रहते देखा जा सकता था। दरअसल जबसे सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट की शुरुआत हुई है, मौज़ूदा मोदी सरकार ने लोगों के ज़ेहन में बसे इंडिया गेट पर निर्माण की धुन में ख़ुदार्इ शुरू करा रखी है, जिसके चलते यहाँ हर तरफ़ धूल-ही-धूल दिखायी देती है। इससे इंडिया गेट की तस्वीर कितनी बदलेगी? बिगड़ेगी या सँभलेगी? यह तो हम नहीं कह सकते। लेकिन यह तो निश्चित है कि आने वाले समय में इंडिया गेट वाली ज़मीन पर आम लोगों के क़दम शायद ही पड़ें। क्योंकि यह जगह प्रधानमंत्री आवास और उप राष्ट्रपति आवास के अधीन जा सकती है।

अगर अमर जवान ज्योति की बात करें, तो यह बात समझने की ज़रूरत ज़्यादा है कि विपक्ष का यह आरोप कितना सही है कि मौज़ूदा सरकार वास्तव में शहीदों का अपमान कर रही है? क्या मोदी सरकार ने यह क़दम भी दूसरे कई ग़ैर-ज़रूरी क़दमों की तरह ही अन्यथा ही आगे की ओर बढ़ाया है? इसे जानने-समझने के लिए इन कामों के पीछे मोदी सरकार की नीयत को समझना होगा। इन दिनों सोशल मीडिया पर अमर जवान ज्योति को लेकर चल रही बहस और रस्साकसी की ओर भी ध्यान देने पर पता जलता है कि एक बड़ा तबक़ा इसे न केवल सैनिकों का अपमान बता रहा है, बल्कि इसे मोदी सरकार का एक और ग़ैर-ज़रूरी क़दम बताने में लगा है। इस तबक़े का कहना है कि इससे बेहतर होता कि मोदी सरकार अमर जवान ज्योति के आसपास की इंडिया गेट की ज़मीन पर हरियाली बढ़ाती; वहाँ बने सरोवर का पुनुरुद्धार करती और लोगों के लिए आकर्षक बनाती। विपक्षी दल के नेताओं ने मोदी सरकार के इस क़दम का पुरज़ोर विरोध किया है। वहीं सत्ताधारी भाजपा और उसके समर्थकों का आरोप है कि राहुल गाँधी समेत विरोध करने वाले तमाम नेता अमर जवान ज्योति की स्थानांतरण को लेकर झूठा प्रचार कर रहे हैं।

सरकार का कहना है कि उसे इस बात का बहुत सन्तोष है कि इंडिया गेट पर अमर जवान ज्योति की शाश्वत् ज्योति को राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में मिला दिया गया। अमर जवान ज्योति की लौ को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियाँ फैल रही हैं, जबकि अमर जवान ज्योति की लौ बुझ नहीं रही है, बल्कि इसे राष्ट्रीय युद्ध स्मारक की ज्योति में विलीन किया गया है। सरकार का कहना है कि यह देखना अजीब था कि अमर जवान ज्योति की लौ ने सन् 1971 और अन्य युद्धों के शहीदों को श्रद्धांजलि दी; लेकिन उनका कोई नाम वहाँ मौज़ूद नहीं है। इंडिया गेट पर अंकित नाम केवल कुछ शहीदों के हैं, जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध और एंग्लो-अफ़ग़ान युद्ध में अंग्रेजों के लिए लड़ाई लड़ी थी और इस प्रकार यह हमारे औपनिवेशिक अतीत का प्रतीक है। सन् 1971 और उसके पहले और बाद के युद्धों सहित सभी युद्धों के सभी भारतीय शहीदों के नाम राष्ट्रीय युद्ध स्मारक में रखे गये हैं। इसलिए वहाँ शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करना एक सच्ची श्रद्धांजलि है। सरकार ने पिछली सरकारों पर राष्ट्रीय युद्ध स्मारक न बनाने के लिए भी ताना कसा।

बता दें कि इंडिया गेट स्मारक ब्रिटिश सरकार के समय सन् 1921 में बना था। ब्रिटिश हुकूमत ने इस इंडिया गेट का निर्माण सन् 1914 से सन् 1921 के बीच ब्रिटिश भारतीय सैनिकों के शहीद होने पर उनकी याद में बनाया था, जहाँ क़रीब 13,000 से अधिक ब्रिटिश और भारतीय सैनिकों के नाम अंकित हैं। इंडिया गेट की अधाराशिला ड्यूक ऑफ कनॉट ने रखी थी। वही इंडिया गेट का डिजाइन इडविन लुटियन ने बनाया था। इंडिया गेट पर पूरे साल चौबीसों घंटे जलने वाली इस अमर जवान ज्योति पर लगा थलसेना, वायुसेना और नौसेना के जवान तैनात रहते हैं। सन् 1972 में इसके उद्घाटन के बाद से ही हर साल 26 जनवरी को गणतंत्र दिवस परेड से पहले प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और तीनों भारतीय सेनाओं के प्रमुख अमर जवान ज्योति पर शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते रहे हैं।

मौज़ूदा सरकार ने सन् 2019 में राष्ट्रीय युद्ध स्मारक का निर्माण कराया, जो अच्छी बात है। लेकिन सन् 2020 से ही गणतंत्र दिवस के अवसर पर अमर जवान ज्योति की जगह राष्ट्रीय युद्ध स्मारक पर श्रद्धांजलि देने की प्रथा शुरू हुई, जिसका विरोध भी हुआ था। अब अमर जवान ज्योति को यहाँ की ज्योति में विलीन कर दिया गया। इसके अलावा इस बार बीटिंग रिट्रीट में महात्मा गाँधी की मनपसन्द धुन ‘अबाइड विद् मी’ नहीं बजायी जाएगी। इससे पहले प्रधानमंत्री मोदी की अगुवाई वाली केंद्र सरकार ने ऐतिहासिक जलियांवाला बाग़ का पुनरुद्धार कर दिया; जिसकी देश-विदेश में ख़ूब निंदा हुई। इस महत्त्वपूर्ण शहीद स्थल को पर्यटन स्थल बनाने की सरकार की कोशिश को लेकर सरकार की काफ़ी आलोचना होने के बावजूद उस पर इसका कोई असर नहीं हुआ। मेरा मानना है कि ऐतिहासिक चीज़ें का अपना एक अलग महत्त्व होता है। इंडिया गेट एक ऐसी राष्ट्रीय धरोहर है, जहाँ हर साल लाखों की तादाद में आने वाले विदेशी पर्यटक और देश के लोग आते-जाते रहे हैं। अमर जवान ज्योति की वजह से लोग यहाँ नतमस्तक हो जाते थे। हालाँकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आगे भी पूरा देश नतमस्तक है, और रहेगा। उनकी प्रतिमा लगना भी अच्छी बात है। लेकिन यह काम दूसरे तरीक़े से भी किया जा सकता था। केवल ऐतिहासिक चीज़ें से छेड़छाड़ करके अगर सरकार यह सोचती है कि इससे देश का सिर गर्व से ऊँचा होगा, तो यह एक बड़ी भूल ही मानी जाएगी। मेरा मानना है कि बड़ा उत्तरदायित्व सँभालने वाले किसी व्यक्तिको सनक से निर्णय लेने के बजाय जनहित और देशहित के पहलू को देखते हुए निर्णय लेने चाहिए।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

इस आम बजट में सरकार से उम्मीदें और सम्भावनाएँ

The Union Minister for Finance and Corporate Affairs, Smt. Nirmala Sitharaman arrives at Parliament House to present the General Budget 2019-20, in New Delhi on February 01, 2020. The Minister of State for Finance and Corporate Affairs, Shri Anurag Singh Thakur is also seen.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 1 फरवरी को अपने कार्यकाल का चौथा आम बजट पेश कर चुकी हैं। पिछला आम बजट कुछ-कुछ राहत भरा, तो ज़्यादातर निराश करने वाला रहा। सरकार की कई योजनाओं और वादों के पूरा न होने से लोग नाराज़ हैं। सरकार भी इस बात को समझ रही है और आगामी चुनावों में जीत दर्ज करने के लिए वह सम्भवत: इस बार लोगों को ख़ुश करने वाला बजट पेश करे। पत्रिका के आने के समय बजट आपके सामने होगा। इसी बजट को लेकर प्रस्तुत है मंजू मिश्रा का पूर्वानुमान :-

वित्त वर्ष 2022-23 के लिए केंद्र सरकार 1 फरवरी को संसद में पेश आम बजट से लोगों को अनेक उम्मीदें हैं। उनके अनुसार यह बजट आमजन के लिए राहत भरा हो सकता है; क्योंकि केंद्र सरकार अब देश के आम लोगों की नाराज़गी को समझ चुकी है और उसे कुछ राहत देने की कोशिश करेगी। कोरोना महामारी की तीसरी लहर में पेश होने वाले इस बजट से लोगों को भी उम्मीदें हैं और वे चाहते हैं कि स्वास्थ्य, शिक्षा व रोज़गार पर सरकार विशेष ध्यान दे। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण यह चौथा बजट को पेश करेंगी। वित्तीय मामलों के जानकार उम्मीद कर रहे हैं कि यह बजट माँग और रोज़गार को बढ़ावा देने वाला तो होगा ही, कोरोना महामारी के दौर में स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त करने वाला भी होना चाहिए। स्वास्थ्य स्थितियाँ ख़राब होने से लोगों के ख़र्चों में बढ़ोतरी होने के चलते आकस्मिक फंड बनाने की ज़रूरत महसूस की जा रही है और सरकार से उम्मीद है कि वह स्वास्थ्य बजट में यह प्रावधान भी करेगी। बीते वित्त वर्ष में जहाँ नौकरीपेशा लोगों की जेब पर अतिरिक्त बोझ पड़ा है, वहीं उनकी आमदनी भी घटी है, जबकि बहुतों की नौकरी भी चली गयी है। ऐसे में रोज़गार की बढ़ती अनिश्चितता को ख़त्म करते हुए सरकार रोज़गार के संसाधनों को फिर से सुचारू करने का कोई रास्ता निकालेगी, ऐसी उम्मीद इस आम बजट में आम लोग कर रहे हैं। इसके अलावा लोगों के साथ-साथ व्यापारी वर्ग अनाप-शनाप बढ़े कर (टैक्स) से राहत भी चाहते हैं, जो कि पिछले सात साल में बेतरतीब तरीक़े से बढ़ा है। शिक्षा को लेकर पूरे देश में एक चिन्ता की लहर दौड़ गयी है और लोग केंद्र सरकार से बच्चों के भविष्य को लेकर सवाल कर रहे हैं। इसके अलावा इस बजट में सरकार एमएसएमई, ऊर्जा, आधारभूत ढाँचे और तकनीक पर ध्यान दे सकती है। लेकिन अभी यह कोई नहीं कह सकता कि केंद्र सरकार में वित्त मंत्री अपने बजट पिटारे में से कितनी राहत देंगी और कितनी आफ़त? फिर भी कोरोना महामारी की मौज़ूदा परिस्थितियों में आम लोगों, व्यापारियों और निवेशकों की अगले वित्त वर्ष 2022-23 के बजट से बड़ी उम्मीदें हैं।

स्वास्थ्य क्षेत्र को लेकर उम्मीदें

आम बजट से पहले एसोचैम ने एक सर्वे किया, जिसमें हिस्सा लेने वाले 47 फ़ीसदी लोगों ने माना कि 2022-23 के बजट में स्वास्थ्य सरकार की प्राथमिकता में रहेगा। वहीं हमने जब लोगों से बात की तो अधिकतर लोगों ने सरकार के पिछले स्वास्थ्य बजट पर असन्तुष्टि और नाराज़गी भी जतायी है। उनका कहना है कि सरकार ने लोगों को कहीं का नहीं छोड़ा है। एक तरफ़ महामारी की मार पर पड़ रही है, तो दूसरी तरफ़ वे हर तरह से बर्बाद हो रहे हैं और सरकार को चुनाव जीतने के अलावा कोई दूसरी चिन्ता नहीं है।

दिल्ली स्थित द्वारिका में एक निजी अस्पताल में सेवाएँ देने वाले डॉ. मनीष कुमार कहते हैं कि हमारे देश में स्वास्थ्य सेवाएँ उतनी अच्छी नहीं हैं, जितनी कि होनी चाहिए। सरकार को स्वास्थ्य सेवाओं पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि देश में बीमारियों से लाखों असमय मौतों से लोगों की रक्षा की जा सके। डॉ. मनीष कुमार कहते हैं कि कोरोना महामारी में जिस तरह सरकारी अस्पतालों की अव्यवस्था की पोल खुलकर सामने आयी है, उससे सरकार को सीख लेने के साथ-साथ स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की ज़रूरत है।

बता दें कि वित्त वर्ष 2021-22 में स्वास्थ्य और ख़ुशहाली में 2,23,846 करोड़ रुपये का बजट रखा गया था। इसमें कोरोना टीकों के लिए 35,000 करोड़ रुपये भी शामिल थे। कोरोना अब भी चरम पर है और इसके लिए स्वास्थ्य बजट बढ़ाने की दरकार है। इसके अवाला इस बजट में प्रधानमंत्री आत्‍मनिर्भर स्‍वस्‍थ भारत योजना के लिए छ: वर्ष में 64,180 करोड़ रुपये ख़र्च करने का भी प्रावधान रखा गया था। पिछले बजट में कुछ ऐसी स्वास्थ्य योजनाएँ भी आम बजट में शामिल थीं, जो अभी तक पूरी नहीं हुई हैं। मसलन, 17,788 ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों और 11,024 शहरी स्वास्थ्य और कल्याण केंद्रों का निर्माण करना। चार वायरोलॉजी के लिए चार क्षेत्रीय राष्ट्रीय संस्थानों का  निर्माण। 15 स्वास्थ्य आपात ऑपरेशन केंद्रों और दो मोबाइल अस्‍पतालों का निर्माण। सभी ज़िलों में एकीकृत सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रयोगशालाओं और 11 राज्‍यों में 33,82 ब्लॉक सार्वजनिक स्वास्थ्य इकाइयों का निर्माण। 602 ज़िलों और 12 केंद्रीय संस्थानों में क्रिटिकल केयर अस्पताल ब्लॉक स्थापना। राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र की पाँच क्षेत्रीय शाखाओं और 20 महानगर स्वास्थ्य निगरानी इकाइयों को मज़बूत करना। 17 नयी सार्वजनिक स्वास्थ्य इकाइयों को चालू करना। 33 मौज़ूदा सार्वजनिक स्वास्थ्य इकाइयों को मज़बूत करना। इसमें से कितना काम हुआ है, इसका अभी तक कोई रिपोर्टकार्ड सरकार ने पेश नहीं किया है। देखना यह है कि केंद्र सरकार इस बार स्वास्थ्य बजट कितना लाती है?

कर में राहत की चाह

पिछले पाँच साल से लगातार बढ़ रहे कर (टैक्स) में क्या सरकार कोई छूट देगी? यह सवाल आज हर व्यापारी और आम आदमी का है। क्योंकि पिछले दो साल से कोरोना वायरस के फैलने के बावजूद कर में बढ़ोतरी ने व्यापार की कमर तोड़ी है, जिसके चलते व्यापारी सरकार से लगातार कर कम करने की माँग कर रहे हैं। इसी 1 जनवरी से केंद्र सरकार ने कुछ चीज़ें पर नया टैक्स लगाया था, जबकि कुछ पर बढ़ाया था। व्यापारियों की माँग पर कुछ चीज़ें पर कर नहीं बढ़ाया गया। अब यह माना जा रहा है कि सरकार अनुच्छेद-80(सी) के तहत निवेश पर कर छूट का दायरा बढ़ा सकती है, जिससे न सिर्फ़ आम निवेशकों को लाभ होगा, बल्कि घरेलू निवेश का लक्ष्य हासिल करने में भी मदद मिलेगी। नितिन कामथ ने कहा है कि सरकार को बजट में सिक्योरिटी ट्रांजेक्‍शन टैक्स (एसटीटी) को घटाना चाहिए। लेन-देन (ट्रांजैक्शन) की ऊँची लागत से ट्रेडर्स को भारी नुक़सान हो रहा है।

बता दें कि जीएसटी लागू करते समय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि एक देश एक कर से व्यापारियों और लोगों को राहत मिलेगी। लेकिन सच्चाई यह है कि जबसे जीएसटी लागू हुई है, तबसे व्यापारियों की भी आफ़त बढ़ी है और आम आदमी की भी। इसलिए इस बार व्यापारी और आम लोग चाहते हैं कि सरकार कर कम करे।

क्या शिक्षा बजट बढ़ेगा?

कोरोना महामारी के चलते पिछले दो साल से ठप पड़ी शिक्षा व्यवस्था को फिर से सुचारू करने की सरकार से लोग उम्मीद कर रहे हैं। सरकार भी इस बात को जानती है, इसलिए इस बार शिक्षा क्षेत्र में कुछ अच्छा होने की उम्मीद कर सकते हैं। शिक्षाविदों की माँग है कि शिक्षा बजट जीडीपी का कम-से-कम छ: फ़ीसदी होना चाहिए। इसके अलावा सरकार को स्कूल-कॉलेज खोलने और ऑनलाइन शिक्षा की समुचित व्यवस्था भी करनी चाहिए। इसमें इंटरनेट कनेक्टिविटी और अफोर्डेबल पाँच फ़ीसदी डिवाइसेस उपलब्‍ध कराना सरकार का दायित्व है। लेकिन सवाल यह भी है कि इस केंद्र सरकार ने पाठ्य सामग्री को भी कर के दायरे में ला दिया है, साथ ही बजट में भी कटौती की है। तो क्या इस बार सरकार शिक्षा बजट को दुरुस्त करेगी? लोगों का कहना है कि शिक्षा क्षेत्र का चौपट होना देश और मौज़ूदा पीढ़ी दोनों के लिए बहुत घातक है और सरकार इस ओर से बिल्कुल निश्चिंत होकर आँखें मूंदे बैठी है।

बेरोज़गारी हो कम

पिछले कुछ वर्षों से देश में रोज़गार का संकट गहराया है और पिछलो दो साल में सबसे ज़्यादा नौकरियाँ लोगों ने गँवायी हैं। सरकार हर चुनाव में युवाओं को रोज़गार देने का वादा करती है, मगर दे नहीं पाती। मौज़ूदा केंद्र सरकार की छवि इस मामले में काफ़ी ख़राब है। यह बात सरकार को भी पता है कि रोज़गार की स्थिति ख़राब होने से देश का युवा वर्ग उससे बेहद नाराज़ है। ऐसे में हो सकता है कि इस आम बजट में सरकार कुछ ऐसा करे, जिससे युवाओं का रूख़ उसके प्रति कुछ नरम हो। उम्मीद है कि इस आम बजट में वित्त मंत्री रोज़गार पैदा करने पर विशेष ध्यान देंगी। हालाँकि रोज़गार सृजन पर सरकार के अपने दावे हैं। लेकिन उनमें कितनी सच्चाई है? यह बात बढ़ती बेरोज़गारी से जगज़ाहिर होती है। आँकड़े बताते हैं कि जनवरी, 2020 में देश में बेरोज़गारी दर 7.2 फ़ीसदी थी, जो मार्च 2020 में 23.5 फ़ीसदी और अप्रैल 2020 में 22 फ़ीसदी हो गयी थी। हालाँकि बाद में इसे कुछ कम दिखाया गया। लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त यह है कि रोज़गार लगातार कम हुए हैं, जिससे एक बड़ी तादाद में लोग बेरोज़गार हैं। अब कोरोना की तीसरी लहर अपने चरम पर है और दिसंबर, 2021 में देश में बेरोज़गारी दर फिर पिछले चार महीनों के उच्चतम स्तर पर पहुँच गयी है। इसलिए सरकार के पास 2022-23 के आम बजट में उद्योगों और रोज़गार को बचाने की कोशिश करनी चाहिए, जिसका वादा प्रधानमंत्री बहुत पहले ही कर चुके हैं।

कृषि क्षेत्र में सुधार की ज़रूरत

कृषि क्षेत्र में सुधार की हमारे देश में सबसे ज़्यादा ज़रूरत है। किसान आन्दोलन के बीच सरकार ने कृषि क़ानूनों को लेकर कई बार कहा था कि ये किसानों के जीवन स्तर और कृषि क्षेत्र में सुधार के लिए हैं। लेकिन बाद में सरकार ने माफ़ी भी माँगी। प्रधानमंत्री किसानों की आय 2022 तक दोगुनी करने का वादा कर चुके हैं। साल 2022 भी शुरू हो गया; लेकिन न तो कृषि क्षेत्र में सुधार की कोई उम्मीद दिख रही है और न ही किसानों की आय दोगुनी होने के आसार नज़र आ रहे हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि इस आम बजट में वह कृषि क्षेत्र के बजट को बढ़ाकर कुछ ऐसे मूलभूत सुधार करे, जिससे कृषि और किसानों की दशा में ज़मीनी स्तर पर सुधार हो। क्योंकि हमारे कृषि प्रधान देश में कृषि पर ही ज़्यादातर क्षेत्र निर्भर हैं।

बता दें कि वित्त वर्ष 2021-22 में सरकार ने अनुमानित 148.30 हज़ार करोड़ रुपये के कृषि बजट का प्रावधान रखा था, जो कि देश की कुल आबादी में कृषि क्षेत्र पर 70 फ़ीसदी निर्भरता के हिसाब से बहुत कम रहा। सरकार को इसे बढ़ाकर कम-से-कम तीन गुना करना चाहिए। इस बार सरकार से किसान भी बुरी तरह नाराज़ हैं। ऐसे में हो सकता है कि सरकार किसानों को ख़ुश करने के लिए कृषि बजट में भी बढ़ोतरी करे।

वृद्धावस्था पेंशन का बजट भी बढ़े

सन् 2021 में देश में वृद्ध लोगों की संख्या लगभग 1.31 करोड़ थी। माना जा रहा है कि कोरोना-काल में युवा मृत्युदर में बढ़ोतरी होने से वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ रही है, जो साल 2041 तक 2.39 करोड़ तक हो जाएगी। इसके अलावा आने वाले समय में सेवानिवृत्ति पेंशन लेने वालों की संख्या भी आने वाले समय में धीरे-धीरे बढ़ेगी। ऐसे में सरकार को वृद्धावस्था पेंशन के बजट को बढ़ाना चाहिए। साथ ही निराश्रित वृद्धों के लिए भी बजट बढ़ाने की आवश्यकता है। इसके अलावा मौज़ूदा दौर में बढ़ती महँगाई के हिसाब से भी वृद्धावस्था पेंशन में बढ़ोतरी होनी चाहिए।

बात दूसरे क्षेत्रों की

एक अनुमान के मुताबिक, वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान जीडीपी के नौ फ़ीसदी रहने की उम्मीद है। यह भी अनुमान जताया जा रहा है कि अगर जीडीपी इस स्तर पर भी रही, तो अगले नौ साल में रोज़गार दर में आठ फ़ीसदी की वृद्धि हो सकेगी। ऐसे में सरकार को जीडीपी की वृद्धि दर को ऊँचा करने की ज़रूरत है, जिसके लिए उद्योगों, कम्पनियों और छोटे व्यापार के साथ-साथ कृषि क्षेत्र को बढ़ावा देने की ज़रूरत है। यदि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण 2022-23 के बजट में विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग), अचल सम्पत्ति (रियल एस्टेट), कृषि, खाद्य प्रसंस्करण (फूड प्रोसेसिंग), फुटकर (रिटेल) और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों पर ख़ास ध्यान देती हैं, तो उम्मीद है कि साल 2030 तक भारतीय जीडीपी में चार लाख करोड़ डॉलर की बढ़ोतरी हो जाएगी।

पिछले कुछ साल से इन सभी क्षेत्रों में मंदी छायी है, जिससे देश को एक बड़ा नुक़सान लगातार उठाना पड़ रहा है। इसके अलावा महँगाई, ग़रीबी और भुखमरी से भी निपटने की ज़रूरत है, जिसके लिए कर में राहत देना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। साथ ही रेलवे और दूसरे सरकारी क्षेत्रों को मज़बूत करने की ज़रूरत है, जिससे उन्हें निजी हाथों में देने से बचा जा सके। अन्यथा हालात सँभालना मुश्किल होगा और आने वाले समय में लोगों की परेशानियाँ बढ़ेंगी।