Home Blog Page 45

प्रधानमंत्री मोदी ने किया जेड मोड़ सुरंग का उद्घाटन

सोनमर्ग  : प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सोमवार को जम्मू-कश्मीर के सोनमर्ग इलाके में जेड-मोड़ सुरंग का उद्घाटन किया। जेड-मोड सुरंग का उद्घाटन करने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुरंग का निरीक्षण किया। इस दौरान एलजी मनोज सिन्हा, सीएम उमर अब्दुल्ला और केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी भी मौजूद रहे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सुरंग के निर्माण कार्य से जुड़ी टीम से बातचीत की, जिसमें टीम ने सुरंग के निर्माण की प्रक्रिया और इससे संबंधित चुनौतियों के बारे में पीएम मोदी को जानकारी दी। टीम ने बताया कि इस परियोजना में कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, लेकिन इन सबके बावजूद सुरंग का निर्माण सफलतापूर्वक पूरा किया गया। यह सुरंग श्रीनगर-सोनमर्ग मार्ग पर स्थित है जो जम्मू-कश्मीर के क्षेत्रीय विकास और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने के लिहाज से बेहद अहम है।

श्रीनगर-लेह हाइवे पर गगनगीर से सोनमर्ग के बीच पहले 1 घंटे से ज्यादा समय लगता था। इस टनल के कारण अब यह दूरी 15 मिनट में पूरी हो सकेगी। इसके अलावा गाड़ियों की स्पीड भी 30 किमी/घंटा से बढ़कर 70 किमी/घंटा हो जाएगी। दुर्गम पहाड़ी वाले इस इलाके को क्रॉस करने में पहले 3 से 4 घंटे का समय लगता था। अब यह दूरी मात्र 45 मिनट में पूरी होगी।

6.5 किलोमीटर लंबी यह सुरंग श्रीनगर और सोनमर्ग के बीच यात्रा को सुगम बनाएगी। इसके खुलने से इस मार्ग पर सभी मौसमों में यातायात की सुविधा होगी और पहले की तरह सर्दियों में बंद होने वाली सड़क साल भर खुली रहेगी। उम्मीद है कि सुरंग के निर्माण से सोनमर्ग क्षेत्र में पर्यटन को भी बढ़ावा मिलेगा। सोनमर्ग, जो पहले सर्दियों में यातायात की बाधाओं का सामना करता था, अब पर्यटकों के लिए एक आकर्षक गंतव्य बन सकता है।

करीब 12 किलोमीटर लंबी इस परियोजना का निर्माण 2,700 करोड़ रुपये से अधिक की लागत से किया गया है। इसमें 6.4 किलोमीटर लंबी सोनमर्ग मुख्य सुरंग, एक निकास सुरंग और पहुंच मार्ग शामिल हैं। समुद्र तल से 8,650 फीट की ऊंचाई पर स्थित यह पुल लेह के रास्ते श्रीनगर और सोनमर्ग के बीच सभी मौसम में संपर्क बढ़ाएगा। यह लद्दाख क्षेत्र में सुरक्षित और निर्बाध पहुंच सुनिश्चित करेगा।

जेड मोड़ सुरंग में इंटेलिजेंट ट्रैफिक मैनेजमेंट सिस्टम लगाया गया है, जिससे ट्रैफिक को नियंत्रित करना आसान हो जाएगा। इसके साथ ही डेडिकेटेड एस्केप टनल के जरिए ट्रैफिक को सुगम बनाया जाएगा।

भारतीय शेयर बाजार 1048 अंक लुढ़का, निवेशकों के 12 लाख करोड़ रुपए स्वाहा

मुंबई  : भारतीय शेयर बाजार नकारात्मक संकेतों के बीच सोमवार को 1 प्रतिशत से ज्यादा की गिरावट के साथ बंद हुए। बाजार पर मजबूत अमेरिकी रोजगार डेटा का प्रभाव भी रहा, जो 2025 में ब्याज दरों में कम कटौती का संकेत देता है। बाजार में गिरावट के दूसरे कारणों में क्रूड ऑयल की बढ़ती कीमतें, रुपये में कमजोरी और विदेशी पूंजी आउटफ्लो शामिल हैं। बाजार में आई गिरावट से निवेशकों को करीब 12 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ।

कारोबार के अंत में रियलिटी, पीएसयू बैंक, मेटल, ऑटो और फार्मा सेक्टर में भारी बिकवाली देखी गई। रियलिटी सेक्टर 6 फीसदी से अधिक की गिरावट के साथ लाल निशान में बंद हुआ। सेंसेक्स 1,048.90 अंक या 1.36 फीसदी की गिरावट के साथ 76,330.01 पर बंद हुआ और निफ्टी 345.55 अंक या 1.47 फीसदी की गिरावट के साथ 23,085.95 पर बंद हुआ।

जानकारों के अनुसार, वैश्विक बाजारों में भारी बिकवाली देखी गई, जिससे घरेलू बाजारों में भी इसी तरह की प्रतिक्रिया देखने को मिली, क्योंकि मजबूत अमेरिकी पेरोल डेटा ने 2025 में कम दरों में कटौती का संकेत दिया। इससे डॉलर मजबूत हुआ, बॉन्ड यील्ड में बढ़ोतरी हुई और उभरते बाजार कम आकर्षक हो गए।

एलकेपी सिक्योरिटीज के रूपक दे ने कहा, “निफ्टी के महत्वपूर्ण स्तरों को पार करने के कारण बियर हावी रहे। डेली चार्ट पर सूचकांक अपने पिछले स्विंग लो से नीचे फिसल गया, जो बढ़ती मंदी का संकेत है। हालांकि, निफ्टी ने 23,000 अंक के स्तर को बनाए रखा, जो एक महत्वपूर्ण स्तर बना हुआ है। अगर निफ्टी अगले कुछ दिनों में 23,000 से ऊपर बना रहता है, तो यह संभावित सुधार का संकेत दे सकता है। इसके विपरीत, इस स्तर से नीचे एक निर्णायक गिरावट एक गहरे सुधार को ट्रिगर कर सकती है।”

निफ्टी बैंक 692.90 अंक या 1.42 प्रतिशत की गिरावट के साथ 48,041.25 पर बंद हुआ। निफ्टी मिडकैप 100 इंडेक्स 2,195.35 अंक या 4.02 प्रतिशत की गिरावट के साथ 52,390.4 पर बंद हुआ। निफ्टी स्मॉलकैप 100 इंडेक्स 723.45 अंक या 4.10 प्रतिशत की गिरावट के साथ 16,922.10 पर बंद हुआ।

सेंसेक्स पैक में जोमैटो, पावर ग्रिड, टाटा स्टील, एनटीपीसी, टाटा मोटर्स, टेक महिंद्रा, एमएंडएम, एशियन पेंट्स, सन फार्मा, टेक महिंद्रा, एलएंडटी, एसबीआई, बजाज फाइनेंस, एचडीएफसी बैंक और आईसीआईसीआई बैंक टॉप लूजर्स रहे। जबकि, एक्सिस बैंक, टीसीएस, इंडसइंड बैंक और हिंदुस्तान यूनिलीवर लिमिटेड टॉप गेनर्स रहे।

एफआईआई लगातार छठे दिन शुद्ध विक्रेता बने रहे, क्योंकि उन्होंने 10 जनवरी को 2,254.68 करोड़ रुपये की इक्विटी बेची, दूसरी ओर घरेलू संस्थागत ने 3,961.92 करोड़ रुपये की इक्विटी खरीदी।

रमेश पुरी आईडीएसस के नये सेक्रेटरी जनरल नियुक्त

नई दिल्ली : रमेश कुमार पुरी को भारत में प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग की अग्रणी संस्था इंडियन डायरेक्ट सैलिंग एसोसिएशन (आईडीएसए ) का नया सेक्रेटरी जनरल नियुक्त किया गया है।

श्री पुरी, एसोसिएशन की समस्त गतिविधियों एवं कार्यकलापों की देखरेख करने के अलावा, इसके परिकल्पित लक्ष्यों, उदेश्यों और मिशन का भी नेतृत्व करेंगे। भारत सरकार में 34 वर्षों से अधिक के विशिष्ट सेवाकाल के दौरान श्री पुरी ने अनेक मंत्रालयों और विभागों में विभिन्न पदों पर रहते हुये महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई हैं।

भारत सरकार के उद्योग और आंतरिक व्यापाीर संवर्धन विभाग (डीपीआईआईटी) से संयुक्त निदेशक पद                             

से सेवानिवृत श्री पुरी नीति निर्माण, कार्यक्रम प्रबंधन और अनुसंधान-संचालित अध्ययन में विशेषज्ञता रखते हैं। इस पद पर रहते हुये उन्होंने कई अन्य महत्वपूर्ण पहलों के अलावा प्रस्तावित ई-कॉमर्स नीति और राष्ट्रीय खुदरा व्यापार नीति निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। उनका व्यापक अनुभव प्रत्यक्ष बिक्री उद्योग के विकास और इससे जुड़े मुद्दों में महत्वपूर्ण साबित होगा।

एचएमपीवी वायरस को लेकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने कहा हालात पर हमारी नजर

नई दिल्ली :  चीन से शुरू हुआ HMPV वायरस अब अपने पैर पसार रहा है। भारत में भी इस वायरस के 6 केस सामने आ चुके है। वहीं एचएमपीवी वायरस को लेकर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने जानकारी देते हुए कहा है कि यह कोई नया वायरस नहीं है और इससे घबराने की जरूरत नहीं है। नड्डा ने कहा कि देशवासियों को इससे घबराने की जरुरत नहीं है। 

नड्डा ने कहा कि सरकार हालात पर नजर बनाए हुए हैं। नड्डा ने कहा स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है कि HMPV कोई नया वायरस नहीं है। इसकी पहली बार पहचान 2001 में हुई थी और यह कई वर्षों से पूरी दुनिया में फैल रहा है। HMPV सांस के माध्यम से हवा के माध्यम से फैलता है। यह सभी आयु वर्ग के लोगों को प्रभावित कर सकता है। यह वायरस सर्दियों और शुरुआती वसंत के महीनों में अधिक फैलता है।

स्वास्थ्य मंत्री ने कहा कि चीन में HMPV के मामलों की हालिया रिपोर्टों के बाद स्वास्थ्य मंत्रालय, ICMR और राष्ट्रीय रोग नियंत्रण केंद्र चीन के साथ-साथ पड़ोसी देशों में स्थिति पर कड़ी नजर बनाए हुए हैं। उन्होंने कहा कि WHO ने भी स्थिति का संज्ञान लिया है और जल्द ही अपनी रिपोर्ट हमारे साथ साझा करेगा। उन्होंने कहा कि ICMR ने श्वसन वायरस के उपलब्ध आंकड़ों की समीक्षा की है और भारत में किसी भी सामान्य श्वसन वायरल रोगजनकों यानी इन्फ्लूएंजा जैसी बीमारी (ILI) या गंभीर तीव्र श्वसन बीमारी (SARI) के मामलों में कोई असामान्य वृद्धि नहीं नहीं देखा गई है।

दिल्ली में अलर्ट
दिल्ली के स्वास्थ्य मंत्री सौरभ भारद्वाज ने स्वास्थ्य और एफई विभाग को दिल्ली में पूरी व्यवस्था करने का निर्देश दिया है। उन्होंने कहा कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की सलाह के अनुसार सभी अस्पतालों को श्वसन संबंधी बीमारी में किसी भी संभावित वृद्धि से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार रहना चाहिए। साथ ही स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण विभाग को राजधानी में तैयारियों के बारे में समय पर अपडेट हासिल करने के लिए केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के संपर्क में रहना चाहिए।

दिल्ली के स्वास्थ्य अधिकारियों ने ‘ह्यूमन मेटान्यूमोवायरस (एचएमपीवी)’ और श्वास संबंधी अन्य संक्रमण से जुड़ी संभावित स्वास्थ्य चुनौतियों के सिलसिले में तैयारी सुनिश्चित करने के लिए परामर्श जारी किया. एक बयान के अनुसार, महानिदेशक (स्वास्थ्य सेवाएं) डॉ. वंदना बग्गा ने दिल्ली में सांस संबंधी बीमारियों से निपटने की तैयारियों पर चर्चा करने के लिए मुख्य जिला चिकित्सा अधिकारियों और आईडीएसपी के राज्य कार्यक्रम अधिकारी के साथ बैठक की.

एचएमपीवी को लेकर डरने की जरूरत नहीं

महाराष्ट्र के स्वास्थ्य मंत्री प्रकाश अबिटकर ने कहा है कि देश में पाए जाने वाले एचएमपीवी मरीजों को लेकर स्वास्थ्य विभाग जल्द ही अगले दो दिनों में एक बैठक करेगा। सोशल मीडिया और आ रही खबरों से कई गलतफहमियां पैदा हो रही हैं, लेकिन डरने की जरूरत नहीं है। नागरिकों को अपना ख्याल रखने की सलाह दी गई है। स्वास्थ्य विभाग ने कहा कि नागरिकों को संक्रामक रोगों के संबंध में स्वास्थ्य विभाग द्वारा जारी दिशा-निर्देशों का सख्ती से पालन करना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्री ने ये भी कहा कि मुख्यमंत्री और स्वास्थ्य विभाग स्थिति पर नजर बनाये हुए हैं।

बता दें कि इस संक्रमण के अब तक 6 मामले सामने आ चुके हैं। HMPV के 6 मामले सामने आ चुके हैं। इससे पहले दो मामले बेंगलुरु, एक मामला गुजरात और एक पश्चिम बंगाल से सामने आ चुका है। बच्चों की उम्र एक साल से कम है और तीनों की स्थिति स्थिर बनी हुई है। एक को तो अस्पताल से डिस्चार्ज किया जा चुका है। तीनों बच्चों के परिजनों का कोई यात्रा संपर्क और इतिहास नहीं देखा गया है।

नक्सलियों ने सेना के वाहन को आईईडी ब्लास्ट से उड़ाया, 9 जवान शहीद

छत्तीसगढ़ के नक्सल प्रभावित बीजापुर जिले में सोमवार को नक्सलियों ने एक बड़ी वारदात को अंजाम दिया। नक्सलियों ने संयुक्त ऑपरेशन से लौट रहे जवानों के वाहन को आईईडी ब्लास्ट से उड़ा दिया। इस घटना में नौ जवान शहीद हुए हैं। नक्सल प्रभावित कुटरू से बेदरे मार्ग पर करकेली के पास नक्सलियों द्वारा जवानों से भरे पिकअप वाहन को ब्लास्ट कर उड़ा दिया। इस हमले में अब तक नौ जवानों के शहीद होने की पुष्टि एडीजी नक्सल ऑपरेशन विवेकानंद सिन्हा ने की है।

नक्सलियों ने इस वारदात को उस वक्त अंजाम दिया, जब संयुक्त ऑपरेशन पार्टी ऑपरेशन कर वापस लौट रही थी। तभी दोपहर के लगभग दो बजे बीजापुर जिले के थाना कुटरू के अंतर्गत अंबेली गांव के पास नक्सिलयों ने आईईडी ब्लास्ट कर सुरक्षा बलों के वाहन को उड़ा दिया। इसमें दंतेवाड़ा डीआरजी के आठ जवान और एक ड्राइवर की मौत हो गई।

इस घटना पर छत्तीसगढ़ के सीएम विष्णु देव साय ने संवेदना व्यक्त किया है। उन्होंने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, “बीजापुर जिले के कुटरू में नक्सलियों द्वारा किए गए आईईडी ब्लास्ट में आठ जवानों सहित वाहन चालक के शहीद होने की खबर अत्यंत दुःखद है। मेरी संवेदनाएं शहीदों के परिजनों के साथ हैं। ईश्वर से शहीद जवानों की आत्मा की शांति और शोकाकुल परिजनों को संबल प्रदान करने की प्रार्थना करता हूं। बस्तर में चल रहे नक्सल उन्मूलन अभियान से नक्सली हताश हैं और विचलित होकर ऐसी कायराना हरकतों को अंजाम दे रहे हैं। जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी, नक्सलवाद के खात्मे के लिए हमारी यह लड़ाई मजबूती से जारी रहेगी।”

वहीं बीजापुर आईईडी ब्लास्ट पर डिप्टी सीएम अरुण साव ने कहा कि यह बहुत दुर्भाग्यपूर्ण घटना है। मैं सभी जवानों को श्रद्धांजलि देता हूं। यह नक्सलियों की कायरतापूर्ण हरकत है। हमारे जवानों का बलिदान व्यर्थ नहीं दिया जाएगा। इस कायराना हरकत का जवाब दिया जाएगा। हमारी सरकार का संकल्प 2026 तक बस्तर को नक्सल मुक्त करने का है, जिसमें हम सफल होंगे।

कांग्रेस नेता और छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने एक्स पर लिखा, “बीजापुर से आ रही खबर बेहद दुखद है। बीजापुर के कुटरू में माओवादियों ने आईईडी ब्लास्ट कर सुरक्षाबलों के वाहन को उड़ा द‍िया। इस दुखद घटना में हमारे आठ जवान और एक वाहन चालक के शहीद होने की सूचना है। हम सब शहीदों को अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं और उनकी शहादत को कोटि-कोटि सलाम करते हैं। लोकतंत्र विरोधी ताकतों के खिलाफ हम सब एकजुट हैं।”

भारत में मिले HMPV वायरस के 2 केस, चिकित्सा अनुसंधान परिषद ने की पुष्टि

नई दिल्ली : चीन में तेजी से फैल रहे HMPV वायरस ने अब भारत में भी दस्तक दे दी है। कर्नाटक में इस वायरस के दो मामलों की पुष्टि हुई है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR) ने इस बात की जानकारी दी है।

कर्नाटक में 8 महीने का एक बच्चा और तीन महीने की एक बच्ची इस वायरस से संक्रमित पाई गई हैं। दोनों बच्चों को बुखार की शिकायत के बाद अस्पताल में भर्ती कराया गया था। तीन महीने की बच्ची को इलाज के बाद अस्पताल से छुट्टी दे दी गई है, जबकि 8 महीने के बच्चे का इलाज अभी जारी है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय इस मामले को गंभीरता से ले रहा है और स्थिति पर नजर रखे हुए है। ICMR ने भी कहा है कि वह किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार है।

कर्नाटक के स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि उनकी प्रयोगशाला में नमूने की जांच नहीं हुई है। निजी अस्पताल की रिपोर्ट में यह सामने आया है। स्ट्रेन को लेकर जानकारी नहीं है। नमूने को सरकारी प्रयोगशाला में भेजा गया है। वहीं सरकार ने वायरस को लेकर अलर्ट जारी किया है। सतर्कता बरती जा रही है। बता दें, चीन में HMPV वायरस बहुत तेजी से फैल रहा है। कई शहरों में इमरजेंसी घोषित कर दी गई है और अस्पतालों में मरीजों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है। खासकर बच्चों और बुजुर्गों में इस वायरस का प्रकोप ज्यादा देखा जा रहा है।

क्या है HMPV वायरस ?
HMPV (Human Metapneumovirus) एक सांस की बीमारी पैदा करने वाला वायरस है। इसके लक्षणों में बुखार, खांसी, नाक बहना, गले में खराश आदि शामिल हैं। ज्यादातर मामलों में यह वायरस हल्का होता है और खुद ही ठीक हो जाता है, लेकिन कुछ मामलों में यह गंभीर भी हो सकता है। यह वायरस संक्रमित व्यक्ति के खांसने या छींकने से निकलने वाली बूंदों के माध्यम से फैलता है।

आगरा घराने की अनसुनी विरासत: विलुप्त होती शास्त्रीय संगीत की धरोहर

बृज खंडेलवाल

कुछ दिन पहले दक्षिण भारत में आयोजित एक शास्त्रीय संगीत कार्यक्रम में एक विद्वान ने मुझसे प्रश्न किया, “आगरा घराने की वर्तमान स्थिति क्या है, और कौन इसे संजो रहा है?” मेरा उत्तर अज्ञानता और असहायता के बोझ से दबा हुआ था। यह प्रश्न एक बड़ी चिंता की ओर इशारा करता है—हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत, विशेष रूप से आगरा घराना, आधुनिक समय में कैसे उपेक्षित हो रहा है।

आज की तेज़ रफ़्तार जिंदगी और तात्कालिक संतुष्टि की चाह ने युवा पीढ़ी को बॉलीवुड म्यूजिक, रैप, रीमिक्स और पंजाबी पॉप जैसे त्वरित पहचान दिलाने वाले संगीत की ओर खींच लिया है। इस बदलाव के कारण गहरी संगीत परंपराओं, जैसे आगरा घराने, के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। धैर्य, एकाग्रता और समर्पण की आवश्यकता को समझने वाले कम होते जा रहे हैं। परिणामस्वरूप, आगरा घराना, जो कभी अपनी बोल्ड और जटिल शैली के लिए मशहूर था, अब गुमनामी में खो रहा है।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत की कभी जीवंत प्रतिध्वनियाँ, विशेष रूप से प्रतिष्ठित आगरा घराना, उसी शहर में गुमनामी में खोती जा रही हैं जहाँ ये  इस क्षेत्र की समृद्ध संगीत विरासत का प्रतीक था। समर्पित संरक्षकों और उत्साही शिष्यों की अनुपस्थिति में, यह सदियों पुरानी परंपरा अब विलुप्त होने के कगार पर है। अपनी शक्तिशाली गायन तकनीकों और भावनात्मक रूप से भावपूर्ण प्रस्तुतियों के साथ आगरा घराने को फैयाज खान और विलायत हुसैन खान जैसे दिग्गज उस्तादों ने पोषित किया। फिर भी, आज, यह मान्यता और समर्थन की कमी से जूझ रहा है।  युवा पीढ़ी, क्षणभंगुर वैश्विक रुझानों से मोहित होकर, संगीत परंपरा के इस खजाने से काफी हद तक अनजान बनी हुई है। इसे पुनर्जीवित करने और संरक्षित करने के लिए तत्काल प्रयासों के बिना – त्यौहारों, वित्तपोषण और संस्थागत समर्थन के माध्यम से – आगरा घराना लुप्त होने का जोखिम उठाता है, एक ऐसे शहर में सांस्कृतिक शून्यता छोड़ता है जो कभी अपने भावपूर्ण ताल से गूंजता था।

चार सदी पुराने आगरा घराने के अंतिम प्रतिष्ठित प्रतिनिधि, उस्ताद अकील अहमद साहब ने किसी भी तरफ से  कोई समर्थन न मिलने के कारण गरीबी में जीवन व्यतीत किया। अभी कोई भी ऐसा नहीं है जो आगरा घराने को अन्य धाराओं से अलग करने वाली सूक्ष्म बारीकियों और विविधताओं के बारे में एक भावुक गायक को प्रशिक्षित कर सके। लेकिन संगीत शिक्षकों का कहना है कि पुरानी परंपराओं को संरक्षित किया जाना चाहिए क्योंकि वे हमारी संगीत विरासत का हिस्सा हैं। केवल जब हम पुराने घराने के संगीत को सीखते हैं और शास्त्रीय धाराओं में अच्छी पकड़ रखते हैं, तो हम संगीत के अन्य रूपों में अच्छा कर सकते हैं। युवा पॉप संगीत धाराओं की ओर बढ़ रहे हैं जो न तो आत्मा को संतुष्ट करती हैं और न ही इंद्रियों को सुकून देती हैं। 

हालाँकि आगरा घराना आगरा में लोकप्रिय नहीं था, लेकिन पूरे भारत में इसके संरक्षक थे और कई शास्त्रीय गायक इसे जीवित रख रहे थे।  “आगरा घराना अभी मरा नहीं है। इसके प्रशंसक और संरक्षक हर जगह हैं। लेकिन आगरा के लोग समृद्ध परंपरा को संरक्षित करने और बढ़ावा देने के लिए कष्ट नहीं उठा रहे हैं, जो वास्तव में दुखद है,” कहती हैं डॉ ज्योति खंडेलवाल, निदेशक, नृत्य ज्योति कथक केंद्र।

आगरा घराने का जन्म शमरंग और सासरंग के प्रयासों से हुआ, जो मुगल सम्राट अकबर के शासनकाल के दौरान रहने वाले दो राजपूत पुरुष थे। बाद में मुगल दरबार में गाने के लिए दोनों ने इस्लाम धर्म अपना लिया। माना जाता है कि वे ग्वालियर के मियां तानसेन के रिश्तेदार थे। उस्ताद फैयाज खान ने बाद में आवाज के उतार-चढ़ाव और आलाप (हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायन का गैर-मीटर वाला प्रारंभिक खंड) और बंदिश (बीट्स के चक्र में शब्दों के साथ तय की गई मधुर रचना) के लयबद्ध पैटर्न के माध्यम से संगीत के रूप में कई बारीकियों को पेश किया। उस्ताद को उचित आगरा घराने की स्थापना का श्रेय दिया जाता है। संगीत का यह स्कूल राग के मधुर पहलू पर जोर देता है और अलंकरण से परिपूर्ण है। इस स्कूल के प्रसिद्ध गायकों में शराफत हुसैन खान, उस्ताद विलायत हुसैन खान ‘अग्रवाले’, लताफत हुसैन खान, यूनुस हुसैन, विजय किचलू, ज्योत्सना भोले, दीपाली नाग और सुमति मुताटकर। उस्ताद फैयाज खान द्वारा प्रशिक्षित एक प्रसिद्ध स्वतंत्र गायक के एल सहगल थे। आगरा घराने की अद्वितीय बहुमुखी प्रतिभा को दर्शाते हुए इन गायकों ने ध्रुपद और ख्याल के अलावा ठुमरी, दादरा, होरी और टप्पा जैसी गायन की विभिन्न शैलियों का अभ्यास और पोषण किया है।

अंतर राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त संगीतज्ञ डॉ सदानंद ब्रह्मभट्ट बताते हैं कि ‘घराना’ शब्द द्योतक है, किसी भी राग को प्रदर्शित करने के विशिष्ट तरीके (जिसे गायकी कहते हैं) से । कलाकारों में इसे अपने परिवार तक ही सीमित रखने का चलन इसलिए था ताकि कोई और इसे सीख न ले ।और उनकी गायकी अपने परिवार तक ही सीमित रहे । ऐसा चलन वर्षों चला ।

वर्षों से संगीत साधना में लगे विद्वान पंडित ब्रह्मभट्ट कहते हैं  कि राग भैरव के स्वर सभी घरानों में एक जैसे हैं जो वर्षों से गाये जा रहे हैं परंतु इन्हें प्रस्तुत करने की गायकी में भिन्नता है । यह अंतर अत्यंत सूक्ष्म होता है जिसे एक समझदार कलाकार ही समझ सकता है ।

आजकल रिकॉर्डिंग का ज़माना है सभी लोग एक दूसरे को सुनते हैं तो अब यह उतना प्रासंगिक नहीं रहा । क्योंकि किसी घराने की गायकी चाहे वो ग्वालियर, दिल्ली, रामपुर, सहसवान, किराना, बनारस अथवा आगरा घराना हो, को आत्मसात करना एक दीर्घकालिक साधना एवं प्रक्रिया है जिसमें कमी आई है । अब किसी से एक दो राग सीखने से ही लोग उसे उस घराने का गायक कह देते हैं । इस शैली के प्रथम गायक नायक गोपाल (नौहर बानी के संस्थापक) के वंशज सुजान दास को अकबर ने इस्लाम अपनाने तथा हज करने के लिए कहा । जिससे वे हाजी सुजान ख़ान कहलाए ।हाजी सुजान खां को आगरा घराने का प्रवर्तक माना जाता है । इस घराने के प्रमुख गायक फ़ैयाज़ खां हुए जो अपनी 1932 में आगरा छोड़कर बड़ौदा चले गए । उनके बाद बशीर ख़ान और उनके दो पुत्र अक़ील अहमद ख़ान एवं शब्बीर अहमद खाँ ने इसे जारी रखा । इनके परिवार नाज़िम अहमद खाँ कोलकाता चले गए उनके पुत्र वसीम अहमद आईटीसी कोलकाता में हैं ।

“फैयाज खा साहब के बड़ौदा जाने के बाद आगरा में तब ग्वालियर घराने के तीन गुरु पंडित गोपाल लक्ष्मण गुणे जी ( मेरे गुरु जी) पंडित रघुनाथ तलेगाँवकर जी, पंडित सीताराम व्यवहारे जी पधारे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत का प्रचार -प्रसार किया और कई शिष्यों को सिखाया । आजकल आगरा में इन तीनों विभूतियों के ही अर्थात् ग्वालियर की गायकी के सिखाए लोग हैं ।

आगरा में निवास करने वालों में आगरा की गायकी सीखने वालों में वर्णाली बोस है जो यहाँ रहती बाक़ी वर्तमान में आगरा घराने के प्रमुख गायकों के नाम इस प्रकार हैं- पं अरुण कशालकर जी(पुणे) , वसीम अहमद ख़ान (कोलकाता), अदिति कैकिनी उपाध्याय, भारती प्रताप इत्यादि कलाकार आगरा घराने के हैं ।”

संगीत विशेषज्ञ मानते हैं कि आगरा विश्वविद्यालय को आगे बढ़कर “आगरा घराने” को संरक्षित करने के लिए ठोस कदम उठाने चाहिए।

गैर-ज़रूरी आक्षेप

शिवेन्द्र राणा

आजकल संसद इतिहास की विवेचना का नया मंच बन गयी है। अतीत के स्वर्ण युग एवं उसकी व्यथा-कथा, दोनों से सुपरिचित होना राष्ट्रीय समाज के वर्तमान एवं भावी जीवन के लिए एक उम्दा तरकीब है। अतीत को चित्त एवं अवचेतन मन में जागृत रहना ही चाहिए, ताकि वर्तमान को निर्देशित तथा भविष्य को आकार देने हेतु सुयोग्य तर्कों का आधार उपलब्ध रहे। किन्तु यह प्रक्रिया तब संकट में पड़ सकती है, जब इतिहास मानस-चेतन पर पूर्णत: अच्छादित होने लगे। तब उपरोक्त प्रक्रिया वर्तमान को तो भ्रमित करेगी ही, भविष्य को भी संकटपूर्ण स्थिति में डालेगी।

उदाहरणस्वरूप, चूँकि इस्लाम ने मध्ययुग में अपने धार्मिक उन्माद में भारत की संस्कृति एवं सभ्यता का ध्वंस किया है; इस सोच के आधार पर चलायमान युग की प्रतिशोधात्मक गतिविधियाँ अनावश्यक संकट पैदा करेंगी। और कर भी रही हैं, जिसका दुष्परिणाम इस्लामिक मतावलम्बियों के बढ़ते विघटनवादी मनोवृत्ति के प्रसार के रूप में जम्हूरियत को भुगतना पड़ेगा, और भुगतना पड़ भी रहा है। इसी प्रकार बिहार की जनता कभी इस पूरे खित्ते पर क़ाबिज़ मगध साम्राज्य के स्वर्णिम कालखण्ड के दूरस्थ अतीत से परे देखेगी, तो उसे अपने आज में ग़रीबी, बेरोज़गारी, वंचना, असमानता का संकट दिखेगा, जो अपने इतिहास की विरुद्धावलियाँ सुनाने से तो दूर नहीं होगा। संकट वर्तमान में उपस्थित है, तो उसका समाधान भी आज को ही ढूँढना होगा। किन्तु दुर्भाग्यपूर्ण रूप से आज भारतीय राजनीति में इतिहास के औचित्य पर ऐसी ही विचित्र स्थिति पैदा हो गयी है, जो उसके विमर्श के औचित्य को व्यापक रूप से प्रभावित भी कर रही है। इतना कि अब यह विमर्श देश के संसदीय पटल तक खिंच आया है। इन दिनों विपक्ष के आरोपों और सवालों के समक्ष सत्ता पक्ष उसके पुराने शासन-काल के इतिहास के उदाहरणों से जवाब दे रहा है और अपने शासनादेशों को उचित ठहरा रहा है। इस चक्कर में धर्म स्थल खोदने से लेकर संग्रहालय तक खोजे जा रहे हैं। नेहरू-इंदिरा के शासकीय आदेशों से लेकर उनके निजी पत्र तक निकाले जा रहे हैं। यह सब राजनीति की फ़ौरी पेशबंदी एवं वैचारिक उठापटक के निमित्त तो औचित्यपूर्ण हो सकता है; लेकिन लोकतांत्रिक प्रगति के लिए सर्वथा औचित्यहीन ही प्रतीत होता है।

कल तक कहा जा रहा था कि चुनावी नारों द्वारा देश को आदर्श लोकतांत्रिक राज्य बनाने की उम्मीद पर जनता से सत्ता प्राप्त की गयी। और आज वैचारिक भटकाव का आलम यह है कि जम्हूरियत की मुख्य बहस इतिहास की खुदाई पर केंद्रित हो गयी है। जबकि सरकार एवं विपक्ष दोनों को यह समझ नहीं आ रहा कि इतिहास पर शोध आधारित विमर्श के लिए उचित निर्धारित स्थान विश्वविद्यालय और दूसरे शोध संस्थान हैं, संसद नहीं। असल में इस देश में एक बड़ा संकट यह है कि अक्सर संस्थाओं का उपयोग उस कार्य के लिए नहीं होता, जिसके निमित्त वे अस्तित्व में आयी हैं। और यही समस्या राजनीतिक और धार्मिक नेताओं की है। वे वही काम नहीं करते, जिसके लिए उनका निर्वाचन हुआ है। जैसे कि पादरी, मुल्ले-मौलवी एवं बाबा-शंकराचार्य आदि धार्मिक-पंथीय चेतना एवं समाज के नैतिक उत्थान के लिए प्रयास के बजाय टीवी-ग्लैमर और राजनीति में घुसे हुए अपना बाज़ार चमकाने में लगे हैं और ऐसे ही संसद में जनकल्याण के लिए निर्वाचित नेताओं के इतिहास एवं व्यक्तिगत जीवन पर संभाषण हो रहे हैं।

आचार्य चाणक्य के अनुसार, ‘शासन का उद्देश्य सर्व समाज और देश के कल्याण के अतिरिक्त अच्छे प्रबंधन यानी सुशासन स्थापित करना होना चाहिए।’ लेकिन भारत में आदर्श राज्य केवल शब्द-आडंबर में ही सन्निहित दिखता है। यहाँ विकासशील एवं औपनिवेशिकता के धक्के से धूल-धूसरित हुए भारत को संगतहीन बौद्धिक जुगाली और कोरी बकवास में ही विकसित और विश्वगुरु बनाया जाता है। और यही इस जनतंत्र का दुर्भाग्य है। कहने का आशय यह है कि देश की राजनीति में जितनी ऊर्जा भाषणबाज़ी में अब तक बर्बाद हुई है, उसका आधा हिस्सा भी व्यावहारिक कार्यरूप में दिखता, तो देश अब तक सच में विश्वगुरु और विकसित होने के नज़दीक होता। कांग्रेस सरकार ग़रीबी हटाओ के नारे लगाते हुए संविधान पर ही संकट थोप गयी; और वर्तमान भाजपा सरकार, जो लंबे समय से अपनी बड़ी-बड़ी योजनादारी की बयानी दावेदारी से ही नहीं उबर पा रही थी कि अब इतिहास की अनर्थक विवेचना में लग गयी है। उसकी यह इतिहास की चर्चा की अतिशयता कहीं वर्तमान के संकट को धूमिल न कर दे, यह अंदेशा प्रबल है।

वर्तमान में विमर्श के विषय- संविदा की नौकरियों का अनिश्चित संकट, बढ़ता निजीकरण, वक़्फ़ बोर्ड की दादागीरी, सिविल सेवा से लेकर पुलिस, रेलवे एवं एसएससी की परीक्षाओं में बढ़ती धाँधली, सरकारी संस्थानों में फैलते अनाचार, नौकरशाही की बढ़ती प्रशासनिक गुंडागर्दी, भारत से यूरोप में प्रति वर्ष बढ़ते पलायन आदि होने चाहिए थे। आज संसदीय बहस का विषय होना चाहिए था कि एक साधारण कांस्टेबल के पास करोड़ों की संपत्ति कैसे आयी? क्या प्रशासनिक तंत्र इस चरम स्तर पर भ्रष्टाचार में लिप्त है? आज भारत से प्रति वर्ष अरबों डॉलर विदेश में पढ़ रहे बच्चों के लिए उनके परिवारों द्वारा भेजे जा रहे हैं। इस सम्बन्ध में सवाल यह है कि क्या हमारा ख़ुद का शैक्षणिक तंत्र इस आर्थिक नुक़सान को रोकने और स्वयं विश्व स्तर की शिक्षा प्रदान करने में आज भी असमर्थ है? लेकिन इसके विपरीत संसद में इतिहास-दर्शन के ज्ञान का भुलावा जनता को दिया जा रहा है। इतिहास ज़रूरी है; लेकिन वर्तमान की क़ीमत पर नहीं। हालाँकि संसद में होने वाला यह अनर्गल प्रलाप किसी पक्ष-विपक्ष की राजनीतिक धोखाधड़ी ही नहीं, बल्कि इनके व्यावहारिक रवैये का नमूना भी है। असल में सत्ता पक्ष संसद को इतिहास की विवेचना में इसलिए बाँध सकने में सक्षम हुआ है; क्योंकि विपक्ष के पास वर्तमान की बेहतरी की कोई तरतीब ही नहीं है। और जब विपक्ष जनता के सामने वर्तमान की कोई उपयुक्त उम्मीद न पैदा करे, तो सत्ता पक्ष के लिए इतिहास के भुलावे देना सहज होता है।

अब नेहरू-इंदिरा की अतीत की ग़लतियों या सत्ता पक्ष के शब्दों में- ‘संविधान-विरोधी कृत्यों’ को कोसकर वर्तमान की असफलताओं का परिमार्जन तो नहीं हो सकता। और न ही अतीत की उनकी कमियों की आड़ में आज की सत्ता उन्मादी कार्य कर सकती है। अक्सर सत्ता का उन्माद सरकारों और नेताओं को अपने ध्येय-पथ से विचलित कर अहंकार की ओर मोड़ देता है और तंत्र के सहयोग से जन-विरोधी बना देता है। इसका ख़ामियाज़ा जनतंत्र को भुगतना पड़ता है। नेहरू परिवार ने अपनी राजनीतिक यात्रा में जो ग़लतियाँ कीं, उनका दण्ड उनकी राजनीतिक विरासत और उनकी पार्टी भुगत रही है। क्या भाजपाई उसी रास्ते के पथिक होना चाहते हैं और स्वयं की बहुमत की श्रेष्ठता के अभिमान में अपनी पार्टी और उसकी लोकतांत्रिक विरासत को आलोचना की ओर धकेल देना चाहते हैं? आख़िर कब तक वर्तमान की कमज़ोरियों एवं ख़ामियों का प्रतिशोध अतीत से लिया जाता रहेगा।

सवाल फिर भी वही हैं कि क्या अतीत की सरकारों की ग़लतियाँ गिनाकर इनके शासन की ख़ामियाँ ढक जाएँगी? क्या पूर्व के राजनेताओं की भूलें, उनके संविधान की मर्यादा के विरुद्ध किये गये कृत्य वर्तमान सत्ता को उसी कुमार्ग के अनुसरण का औचित्य सिद्ध करेंगे? क्या आये दिन की लफ़्फ़ाज़ियों से शासन के सूत्र दुरुस्त हो जाएँगे? इन सभी प्रश्नों के नकारात्मक जवाब शासन की उस अवधारणा को खंडित कर रहे हैं, जिन्हें वर्तमान के आदर्श राज्य एवं शासन के रूप में प्रचारित किया जा रहा है।

जो अतीत में बीत चुका है, वही इतिहास है। जो आज है या आगे आने वाला है, वह अभी इतिहास नहीं है। और राष्ट्र का अभीष्ट आदर्श इतिहास से नहीं, वरन् वर्तमान की राजनीति, नीतिशास्त्र एवं सामाजिक नियमों से तय होगा। सेबाइन के कहते हैं- ‘आदर्श राज्य के निर्माण के लिए आदर्श सामग्रियों की ही आवश्यकता होगी। यह राजनीतिज्ञों एवं विधि निर्माताओं का कर्तव्य है कि वे अपनी आदर्श राजनीतिक रचना के लिए उपयुक्त साधन एवं सामग्रियाँ एकत्रित करें। क्योंकि वे ही आदर्श राज्य के निर्माता हैं।’

एक दूसरे पक्ष के रूप में ध्यात्वय है कि संसद की प्रति मिनट की कार्यवाही में 2.5 लाख रुपये ख़र्च हो रहे हैं, जो घंटे के हिसाब से डेढ़ करोड़ होते हैं। और जनता की यह गाढ़ी कमायी इतिहास वाचन के लिए नहीं, बल्कि वर्तमान की सुव्यवस्था की चर्चा पर व्यय हो, तो नैतिक रूप से चर्चा अधिक स्वीकार्य होगी। सत्य तो यह है कि अतीत के विश्वगुरु भारत की लाक्षणिक, अलंकारिक परिभाषाओं एवं आत्ममुग्धता की अभिव्यंजनाओं के पीछे अभाव, असमता, ग़रीबी, बेरोज़गारी से जूझता एक पददलित भारत भी है, जो इन असमय, औचित्यहीन बहसों में कहीं पीछे छूटा जा रहा है। इसकी वंचना का निवारण लोकतांत्रिक भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए थी, वह तो अतृप्त क्षुधा के मौन के साथ इतिहास की ज्ञान मीमांसा सुनने को मजबूर है।

असल में जब कोई सत्ता अतीत को नकारात्मक रूप से कुरेदती है, तो इसके पीछे उसकी अपनी आंतरिक कमज़ोरियों पर आवरण डालने और वर्तमान की स्व-श्रेष्ठता का अहंकार दिखाने की मंशा होती है। पिछले दिनों पुणे में एक कार्यक्रम में वर्तमान संघ प्रमुख मोहन भागवत ने परोक्ष रूप से सत्ता पक्ष को चेताते एवं आमजन की वैचारिक शंका को व्यक्त करते हुए कहा- ‘सभी को लगता है समाज में सब कुछ ग़लत हो रहा है। लेकिन हर नकारात्मक पहलू के लिए समाज में 40 गुना ज़्यादा अच्छी और शानदार सेवा की जा रही है।’ हो सकता है कि भागवत के कथन में सत्यता हो; क्योंकि जनता के बीच नकारात्मक प्रसार एवं अच्छी सेवा का निरपेक्ष मूल्याँकन व्यक्तिगत रूप से भी निर्धारित किया जा सकता है। लेकिन उल्लेखनीय रूप से उन्होंने सरकार को एक बेहतरीन सलाह देते हुए यह भी कहा- ‘इंसान पहले सुपरमैन, फिर देवता और उसके बाद भगवान बनना चाहता है। व्यक्ति को अहंकार से दूर रहना चाहिए। नहीं तो वह गड्ढे में गिर सकता है।’ उम्मीद है कि सत्ता पक्ष उनकी सलाह सुनने और उसके अनुरूप आचरण प्रदर्शित करने में रुचि लेगा।

18 साल से कम उम्र के बच्चे बिना पैरेंट्स की मंजूरी के नहीं चला पाएंगे सोशल मीडिया

नई दिल्ली : केंद्र सरकार ने लंबे समय से प्रतीक्षित डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण नियमों का मसौदा जारी कर दिया है। इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने ‘डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट’ का मसौदा जारी किया है। गौरतलब है कि सरकार ने इस कानून को अगस्त 2023 में संसद में पेश किया था। सरकार ने इस मसौदे पर जनता से 18 फरवरी 2025 तक अपनी राय मांगी है। डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट पर प्रतिक्रिया MyGov.in के माध्यम से दी जा सकेगी। प्राप्त प्रतिक्रिया के बाद सरकार इस पर विचार करेगी।

डिजिटल पर्सनल डेटा प्रोटेक्शन एक्ट के मसौदे के अनुसार, भविष्य में 18 साल से कम उम्र के बच्चों के लिए सोशल मीडिया अकाउंट चलाना कठिन हो जाएगा। मसौदे में यह प्रावधान है कि यदि कोई 18 साल से कम उम्र का नाबालिग सोशल मीडिया अकाउंट खोलता है, तो इसके लिए माता-पिता की मंजूरी अनिवार्य होगी। यह मसौदा बच्चों और दिव्यांग व्यक्तियों के व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के लिए कड़े कदम उठाने पर जोर देता है।

प्रतिक्रिया का खुलासा नहीं किया जाएगा
डिजिटल पर्सनल ड्राफ्ट रूल्स मसौदे के तहत डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड, बोर्ड के चेयरपर्सन और अन्य सदस्यों की सेवा शर्तों को लेकर स्पष्टता आने की उम्मीद है। अधिसूचना जारी करते हुए इलेक्ट्रॉनिक्स एंड इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी मंत्रालय ने कहा कि मसौदे पर मिलने वाली प्रतिक्रिया का खुलासा नहीं किया जाएगा।

डेटा उल्लंघन पर संस्थाओं को देनी होगी जानकारी
नियमों के अनुसार, यदि किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत डेटा का उल्लंघन होता है, तो सोशल मीडिया एंटिटी, वित्तीय संस्थान या वेबसाइट जैसी संस्थाओं को उस व्यक्ति को इसकी जानकारी देनी होगी। इतना ही नहीं, संस्थाओं को उल्लंघन की प्रकृति, समय और स्थान का विवरण भी साझा करना होगा। संस्थाओं को यह भी बताना होगा कि उल्लंघन के क्या परिणाम हो सकते हैं और इससे बचने के क्या उपाय हैं।

संस्थाओं को डिजिटल टोकन का करना होगा इस्तेमाल
डिजिटल पर्सनल ड्राफ्ट रूल्स मसौदे के अनुसार, जो संस्थाएँ व्यक्तिगत डेटा को एकत्र करने और संभालने की जिम्मेदारी लेती हैं, उन्हें नाबालिग बच्चों के डेटा को प्रबंधित करने से पहले उनके माता-पिता की अनुमति लेना आवश्यक होगा। सहमति की पुष्टि के लिए संस्थाओं को डिजिटल टोकन का इस्तेमाल करना होगा। इसका मतलब है कि यदि कोई 18 वर्ष से कम आयु में सोशल मीडिया अकाउंट खोलता है, तो अब संस्था को उस बच्चे के माता-पिता की अनुमति लेना अनिवार्य होगा।

शैक्षणिक संस्थाओं और बाल कल्याण संगठनों के लिए नियमों में छूट
मसौदे में शैक्षणिक संस्थाओं और बाल कल्याण संगठनों के लिए नियमों में छूट का प्रावधान भी किया गया है। मसौदे में यह भी कहा गया है कि कंसेंट मैनेजरों के लिए डेटा प्रोटेक्शन बोर्ड के साथ पंजीकरण किया जाएगा, जिसका नेटवर्थ कम से कम 12 करोड़ रुपये होना चाहिए।

उत्तर प्रदेश में निर्धन बच्चों की शिक्षा पर कुठाराघात

देश की सबसे बड़ी जनसंख्या वाले राज्य उत्तर प्रदेश में राम राज्य की परिकल्पना के मध्य धरातल की सच्चाई को समझ पाना हर किसी के लिए आसान नहीं है। इसका प्रमुख कारण यह है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनके समर्थक जिस व्यवस्था को राम राज्य बता रहे हैं उस व्यवस्था में अपराध महँगाई, बेरोज़गारी, अराजकता, प्रशासनिक मनमानी बढ़ने के साथ साथ अब अशिक्षा भी बढ़ रही है। कहा जाता है कि शिक्षा एक ऐसा प्रकाश है, जिसमें कोई व्यक्ति नहा ले, तो उसका जीवन स्तर ऊँचा हो जाता है। मगर रोज़गार न मिलने पर पढ़े-लिखे लोग भी निर्धनता में जीवन व्यतीत करने को विवश होते हैं।

सेवानिवृत्त अध्यापक बलवंत सिंह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश में बेरोज़गारी तो बढ़ ही रही है, अशिक्षा भी बढ़ रही है। स्थानीय स्तर पर दृष्टि घुमाने पर देखने में आया कि कोरोना काल से अनेक निर्धन परिवारों के बच्चों की शिक्षा बाधित हुई है। इसके अतिरिक्त निर्धन परिवारों के अधिकांश बच्चों की शिक्षा का सामान्य स्तर भी प्राथमिक शिक्षा से लेकर माध्यमिक शिक्षा तक ही अधिक सीमित है। निजी विद्यालयों में शिक्षा प्राप्त करने से ग्रामीण क्षेत्र के 60 प्रतिशत बच्चे वंचित हैं। सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर अत्यधिक निम्न है एवं वर्ष में सरकारी विद्यालयों की छुट्टियाँ भी सबसे अधिक रहती हैं। इसके अतिरिक्त कभी अध्यापक तो कभी विद्यार्थी छुट्टियाँ लेते रहते हैं। सरकारी विद्यालयों में विद्यार्थियों पर विद्यालय आने का पहले जैसा दबाव भी अब नहीं रहता है। पहले यदि कोई विद्यार्थी अकारण अनुपस्थित हो जाता था, तब कक्षा के कुछ बच्चे उसे घर से पकड़कर लाते थे। अध्यापकों का भय विद्यार्थियों में रहता था। अब अध्यापक बच्चों को न मार सकते हैं एवं न पढ़ने का उन पर अधिक दबाव बना सकते हैं। सरकार ने क़ानून ही ऐसा बना दिया है। निजी विद्यालयों में अपने बच्चों को पढ़ा पाना सबके वश की बात नहीं है।

बंद हो रहे सरकारी विद्यालय

उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग के सूत्रों से बीते दिनों मिली एक जानकारी ने शिक्षा की ज्योति जलाने वालों को झटका दिया था। जानकारी यह थी कि उत्तर प्रदेश सरकार स्वयं ही प्रदेश के 27,764 सरकारी विद्यालयों को बंद करेगी। सरकार का यह निर्णय उन बच्चों पर सबसे बड़ा कुठाराघात है, जो निर्धन परिवारों से आते हैं। ऐसा कहा गया है कि शिक्षा विभाग अगले शैक्षणिक सत्र के आरंभ होने से पहले ही प्रदेश के 27,764 विद्यालयों में ताले जड़ देगा। इतनी बड़ी संख्या में सरकारी विद्यालयों में ताले लगाने के पीछे उत्तर प्रदेश सरकार का तर्क है कि विद्यार्थियों की घटती संख्या के कारण इन विद्यालयों को बंद किया जा रहा है। इसके लिए कुछ दिन पहले ही शिक्षा विभाग के महानिदेशक ने एक समीक्षा बैठक में इसके लिए सभी जनपदों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों को निर्देश दे दिये हैं।

बेसिक शिक्षा विभाग के आधिकारिक सूत्र कहते हैं कि 50 से कम विद्यार्थियों की संख्या वाले विद्यालयों को बंद करके उन विद्यार्थियों को निकट के दूसरे विद्यालयों में प्रवेश दिया जाएगा। इस सम्बन्ध में 14 नवंबर तक बेसिक शिक्षा अधिकारियों को विद्यालयों में विद्यार्थियों की संख्या एवं किन-किन विद्यालयों के विद्यार्थियों को स्थानांतरित करना है, इसकी पूरी विवरणी बनाकर उत्तर प्रदेश सरकार को सौंपने का आदेश था; मगर कहा जा रहा है कि अभी सरकार ने इसकी जानकारी साझा नहीं की है कि शिक्षा अधिकारियों ने उसे विद्यालयों एवं उनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की विवरणी सौंपी है कि नहीं। इन विद्यालयों को बंद करने को लेकर कांग्रेस पार्टी से सांसद प्रियंका गाँधी एवं अन्य विपक्षी नेताओं ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ एवं उनकी शासन व्यवस्था पर निशाना साधा था। जन-सामान्य से लेकर राजनीतिक स्तर पर विद्यालयों के बंद करने प्रश्न पर सभी ने इसे अनुचित एवं मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की अज्ञानता का परिणाम ही बताया। मास्टर नंदराम कहते हैं कि योगी सरकार को विद्यालयों में घटती विद्यार्थियों की संख्या पर चिन्ता करते हुए उसे बढ़ाने के लिए प्रयास करने चाहिए थे। इसके लिए विद्यालयों में पढ़ाई का स्तर, विद्यालयों में प्राथमिक सुविधाओं एवं अध्यापकों की नियुक्ति पर कार्य किया जाना चाहिए था। मगर पहले शिक्षा का स्तर गिराकर विद्यालयों को बंद किया जा रहा है; क्योंकि निजी विद्यालयों से लाखों रुपये महीने की कमायी करने वाले उनके व्यापारी मालिक सरकार एवं शिक्षा अधिकारियों को रिश्वत देते हैं। बीते 10 वर्षों में निजी विद्यालयों की संख्या दोगुनी से अधिक हो चुकी है। इसके विपरीत सरकारी विद्यालयों की संख्या घट रही है। ऐसा करके सरकार निर्धनों से शिक्षा का अधिकार छीनने का कार्य ही कर रही है।

योगी-राज में घटे विद्यालय

उत्तर प्रदेश में शिक्षा की अलख जगाने एवं उत्तर प्रदेश में राम राज्य स्थापित करने का दंभ भरने वाले मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के शासन का विश्लेषण करने पर दृश्य अलग ही दिखेगा। नित्य सामने आने वाले समाचार अपराध की कई घटनाओं के गवाह होते हैं। बुलडोज़र का भय, महँगाई, बेरोज़गारी एवं असुरक्षा की भावना में बढ़ोतरी की भी गवाही ये समाचार देते दिखते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में भी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने क्रांति लाने की जगह उसे ठप किया है। प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तर प्रदेश में वर्ष 2001 में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 88,927 थी। अगले 13 वर्षों के उपरांत वर्ष 2014 में उत्तर प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 1,54,982 थी। इसके अगले वर्ष 2015 में 774 प्राथमिक विद्यालय बढ़े एवं इनकी कुल संख्या 1,55,756 हो गयी। वर्ष 2017 में उत्तर प्रदेश की सत्ता मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हाथ में आ गयी। योगी आदित्यनाथ के शासन के पाँच वर्ष बाद वर्ष 2022 में प्रदेश में प्राथमिक विद्यालयों की संख्या घटकर 1,37,024 रह गयी थी। अर्थात् मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पाँच वर्ष के शासनकाल में सरकारी प्राथमिक विद्यालयों की संख्या 18,732 कम हुई है। अब उन्होंने 27,764 विद्यालयों को बंद करने का निर्णय फिर ले लिया है। इसका अर्थ यह हुआ कि अगले वर्ष उत्तर प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों की संख्या घटकर मात्र 1,09,260 रह जाएगी। इस प्रकार मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के आठ वर्ष शासनकाल में कुल 46,496 प्राथमिक बंद हो जाएँगे।

बजट में ढिंढोरा

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार शिक्षा का बजट जब-जब प्रस्तुत करती है, तो उनके शिक्षा मंत्रियों के भाषणों से ऐसा लगता है कि मानों दुनिया की सबसे अच्छी शिक्षा व्यवस्था उत्तर प्रदेश में ही है। मगर जब धरातल पर इसकी पड़ताल की जाती है तो दृश्य अलग ही दिखता है। स्नातकोत्तर की छात्रा सरिता (बदला हुआ नाम) कहती हैं कि उन्होंने चार वर्ष पूर्व जब 12वीं की बोर्ड परीक्षा 72 प्रतिशत अंकों से पास की थी, तो उन्हें आशा थी कि प्रदेश की सरकार द्वारा 12वीं पास करने वाली छात्राओं को मिलने वाले नोटपैड में से एक मिलेगा; मगर उन्हें आज तक कोई नोटपैड नहीं मिला है।

वित्त वर्ष 2024-25 के लिए भी उत्तर प्रदेश सरकार ने सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले कक्षा आठ तक के 2,00,00,000 से अधिक छात्र-छात्राओं को नि:शुल्क स्वेटर एवं जूते-मोजे उपलब्ध कराने के लिए 650 करोड़ रुपये एवं किताबें रखने के लिए स्कूल बैग वितरित करने के लिए 350 करोड़ रुपये का बजट पारित किया था। सर्दियाँ भी आ गयीं; मगर सभी विद्यार्थियों पर न तो सरकारी बैग दिखते हैं एवं न ही सरकार की ओर से मिले हुए स्वेटर ही दिखते हैं। इसी प्रकार उत्तर प्रदेश सरकार ने इस बजट में अलाभित समूहों एवं निर्धन वर्ग के 2,00,000 से अधिक बच्चों को वित्त वर्ष 2024-25 में विद्यालयों में प्रवेश दिलाने का लक्ष्य पूरा करने के लिए 255 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तावित किया था; मगर ग्रामीण क्षेत्रों में अनेक बच्चे विद्यालय नहीं जाते हैं। इसके अतिरिक्त प्रदेश सरकार ने कायाकल्प योजना के तहत भी इस वित्त वर्ष के लिए 1,000 करोड़ रुपये का बजट एवं ग्राम पंचायतों में डिजिटल पुस्तकालय स्थापित करने के लिए 300 करोड़ रुपये का बजट प्रस्तावित किया था। मगर एकाध उदाहरण को छोड़ दें, तो दोनों में से एक भी कार्य धरातल पर फलीभूत होता दृष्टिगोचर नहीं हुआ। ऐसी अनेक घोषणाएँ शिक्षा क्षेत्र में उत्तर प्रदेश सरकार हर वर्ष करती रहती है; मगर दूसरी ओर वह शिक्षा के इन मंदिरों को बंद करती जा रही है, जिन्हें प्रदेश के नौनिहालों का जीवन प्रकाशित करने के लिए पिछली सरकारों ने बनाया है।

अच्छी नहीं विद्यालयों की स्थिति

उत्तर प्रदेश के अधिकांश विद्यालय दुर्दशाग्रस्त दिखायी देते हैं। अनेक विद्यालयों में कुछ वर्ष पूर्व बच्चों की कक्षाएँ सुसज्जित हुआ करती थीं। विद्यालयों के मैदान हरे-भरे हुआ करते थे, अब उन विद्यालयों की रंगत समाप्त होती जा रही है। कई विद्यालय जर्जर हो चुके हैं। इन विद्यालयों में बैठने की व्यवस्था तो दूर पेयजल एवं शौच की भी उचित व्यवस्था नहीं है। वर्षा में कई विद्यालय जलाशय बन जाते हैं। बीते दिनों सहारनपुर के वार्ड संख्या 66 के विद्यालय के सामने बिजली तारों का जाल विद्यार्थियों के प्राण संकट में डाले हुए हैं। कई विद्यालयों के बच्चे कीचड़ में होकर विद्यालयों तक का मार्ग तय करते हैं। कई विद्यालयों में मिलने वाले मिड-डे मील की गुणवत्ता भी अच्छी नहीं है। उत्तर प्रदेश सरकार हर वर्ष विद्यालयों का बजट प्रस्तुत तो करती है; मगर ऐसा लगता है कि यह बजट केवल सुनाने के लिए होता है अथवा बजट का अधिकांश भाग भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जाता है।