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ग्रामीण स्वास्थ्य की रीढ़, सम्मान की प्यासी आशा वालंटियर्स

आशा बन रही निराशा!

बृज खंडेलवाल द्वारा

पिछले माह केंद्रीय स्वास्थ मंत्री जेपी नड्डा ने राज्य सभा में आशा वालंटियर्स के महत्वपूर्ण योगदान को सराहते हुए वायदा किया कि उनका मंत्रालय वेतन सुधार की मांगों पर विचार करेगा और ज्यादा सहूलियतें मुहैया कराएगा।

सालों से ये वायदे हो रहे हैं, मगर एक्शन नहीं हो रहा है। लगभग दो दशकों से, भारत की ‘आशा’ कार्यकर्ताएँ ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ की हड्डी बनी हुई हैं, एक ऐसी फौज जो चुपचाप मगर दृढ़ता से दूरदराज के गाँवों और औपचारिक चिकित्सा सेवाओं के बीच एक सेतु का काम कर रही है।

2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत शुरू हुई, दस लाख महिलाओं की यह सेना, माँ और बच्चे की सेहत में ज़बरदस्त सुधार ला रही है, परिवार नियोजन, टीका करन व अन्य सरकारी हेल्थ स्कीम्स आशा वालंटियर्स के जरिए ही लोगों तक पहुंचती हैं।

लेकिन अफसोस,  कि आशा ताइयां कम तनख्वाह, बिना नौकरी की सुरक्षा और कम सम्मान के साथ मुश्किल हालात में काम कर रही हैं। कोविड-19 महामारी ने इनके ज़रूरी रोल को उजागर किया, जब उन्होंने घर-घर जाकर स्क्रीनिंग और टीकाकरण अभियान चलाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, पर कभी-कभार मिलने वाली तारीफ से आगे, इन फ्रंटलाइन वॉरियर्स को सिस्टम की अनदेखी का सामना करना पड़ता है।

अगर भारत यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज हासिल करने के बारे में गंभीर है, तो उसे ‘आशा’ कार्यक्रम में फौरन सुधार करना चाहिए, अपने सबसे ज़रूरी हेल्थकेयर वर्कर्स के लिए सही तनख्वाह, बेहतर काम करने के हालात और सम्मान तय करना चाहिए।

एक रिटायर्ड आशा वॉलंटियर ने बताया कि ऑफिशियली “वॉलंटियर” के तौर पर मानी जाने वाली ‘आशा’ वर्कर्स को औपचारिक नौकरी के फायदे नहीं मिलते, कोई फिक्स तनख्वाह, पेंशन, हेल्थ इंश्योरेंस या मैटरनिटी लीव नहीं। उनके परफॉरमेंस पर आधारित इंसेंटिव से उनकी कमाई औसतन ₹5,000 से ₹10,000 प्रति माह होती है, जो गुज़ारे के लिए बहुत कम है, भुगतान में अक्सर देरी होती है, जिससे कई लोगों को एक्स्ट्रा काम करना पड़ता है।

सोचिए,  ‘आशा’ कार्यकर्ता लगभग 30 काम एक साथ करती हैं, टीकाकरण अभियान से लेकर मातृ स्वास्थ्य परामर्श तक, अक्सर हफ्ते में 20+ घंटे काम करती हैं। कई लोग बिना ट्रांसपोर्ट अलाउंस, पीपीई किट या बेसिक मेडिकल सप्लाई के हर दिन कई मील पैदल चलते हैं। उन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, जिससे वे फाइनेंशियली कमज़ोर हो जाती हैं, कई लोगों ने सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) और मेडिकल ऑफिसर्स से खराब बर्ताव की शिकायत की है, जिसमें बहुत कम कंस्ट्रक्टिव सुपरविज़न है। महिला ‘आशा’ वर्कर्स को घरेलू झगड़ों का सामना करना पड़ता है, कुछ को तो उनके काम के लिए तलाक की धमकी भी दी जाती है, ऊँची जाति के परिवार अक्सर उन्हें एंट्री देने से मना कर देते हैं, जिससे हेल्थ सर्विस में रुकावट आती है।

अनियमित अपस्किलिंग प्रोग्राम्स की वजह से मेंटल हेल्थ, डिजीज मॉनिटरिंग और इमरजेंसी केयर में नॉलेज की कमी बनी हुई है। इन मुश्किलों के बावजूद, ‘आशा’ कार्यकर्ताओं ने माँ और बच्चे की मृत्यु दर में कमी, टीकाकरण दरों में बढ़ोतरी, टीबी और एचआईवी के बारे में जागरूकता में सुधार, मानसिक स्वास्थ्य सहायता देने और हेल्थ रिकॉर्ड्स का डिजिटलीकरण जैसे क्षेत्रों में ज़रूरी रोल निभाया है। उनका गहरा कम्युनिटी ट्रस्ट लास्ट माइल हेल्थकेयर डिलीवरी को सुनिश्चित करता है, चाहे महामारी हो, बाढ़ हो या रेगुलर मैटरनिटी केयर, फिर भी, उनके बलिदानों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

आशा कार्यकर्ताओं को पावरफुल बनाने के लिए, एक्सपर्ट्स ने ढेरों सुझाव ऑलरेडी सरकार को दे रखे हैं।  इंसेंटिव-बेस्ड पेमेंट्स को फिक्स तनख्वाह (कम से कम ₹15,000/माह) + परफॉरमेंस बोनस के साथ बदलना, पेंशन, हेल्थ इंश्योरेंस और मैटरनिटी बेनिफिट्स देना, ट्रांसपोर्ट अलाउंस, स्मार्टफोन, पीपीई किट और हेल्थ सेंटर्स पर आराम करने की जगह देना, देरी और भ्रष्टाचार से बचने के लिए पेमेंट्स को आसान बनाना, मेंटल हेल्थ, एनसीडी और इमरजेंसी रिस्पांस में रेगुलर स्किल डेवलपमेंट करना, ‘आशा’ को असिस्टेंट नर्स या पब्लिक हेल्थ वर्कर के रूप में सर्टिफाई करने के लिए मेडिकल कॉलेजों के साथ ब्रिज कोर्स करना, ऊँची हेल्थ सर्विस रोल में प्रमोशन के क्लियर रास्ते बनाना, जाति और लिंग के आधार पर रुकावटों के लिए सख्त भेदभाव विरोधी नीतियाँ बनाना, घरेलू झगड़ों को कम करने के लिए फैमिली सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम चलाना, और मुख्य मेडिकल ड्यूटीज पर ध्यान देने के लिए नॉन-हेल्थ कामों को कम करना ज़रूरी है। ₹49,269 करोड़ के बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर सेस फंड को आंशिक रूप से ‘आशा’ वेलफेयर को सपोर्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने पहले ही बेहतर तनख्वाह स्ट्रक्चर का ट्रायल शुरू कर दिया है, इन मॉडलों को नेशनल लेवल पर लागू किया जाना चाहिए।

 ‘आशा’ कार्यकर्ता “वॉलंटियर” नहीं हैं, वे ज़रूरी हेल्थ सर्विस प्रोफेशनल हैं। अगर भारत वाकई अपनी रूरल हेल्थ सिस्टम को वैल्यू देता है, तो यह दिखावटी सेवा से आगे बढ़ने और उन्हें वह सम्मान, तनख्वाह और सपोर्ट देने का वक्त है जिसकी वे हकदार हैं। उनकी लगातार सर्विस ने लाखों लोगों की जान बचाई है, अब, सिस्टम को उन्हें थकान और अनदेखी से बचाना चाहिए, ‘आशा’ कार्यकर्ताओं को

 पावरफुल बनाएँ, वरना रूरल हेल्थ सर्विस को टूटते हुए देखें, अभी एक्शन लेने का वक्त है।

नया शैक्षणिक सत्र शुरू होते ही प्राइवेट स्कूलों द्वारा सालाना लूट प्रारंभ

राष्ट्रीय उगाही उत्सव, पापा से फादर परेशां

बृज खंडेलवाल द्वारा

“जिन दिनों हम St पीटर में पढ़ते थे, हम पांच भाई जो अलग अलग क्लासों में थे, एक ही किताब से पढ़ लेते थे, वर्षों रेडिएंट रीडर, रेन की ग्रामर, इतिहास और भूगोल आदि विषयों की किताबें बदली नहीं गईं, हॉस्पिटल रोड पर सेकंड हैंड किताबें मिल जाती थीं। यूनिफॉर्म भी बस एक, खाकी, जूते भी एक काले डेली पोलिश करके चमकाते थे, अब तो बस हर साल का यही रोना, धंधे के चक्कर में सब कुछ बदल जाता है,” ये वेदना थी 1950 के दशक के पढ़े ताऊ जी प्रेम नाथ की।

स्थानीय पेरेंट्स के संगठनों ने आवाज जरूर उठाई है, लेकिन कोई सुनने वाला नहीं। साथ में ये धौंस, सरकारी स्कूल में क्यों नहीं पढ़ाते।

नई क्लास के लिए प्रमोट हुए बच्चों के लिए नया शैक्षणिक सत्र आमतौर पर उम्मीद और प्रगति का समय होता है, लेकिन भारत में यह अभिभावकों के लिए एक सोची-समझी लूट का सीजन बन गया है। आगरा इस संगठित शोषण का एक स्पष्ट उदाहरण है, जहां निजी स्कूल शिक्षा के नाम पर भारी रकम वसूलने की कला में माहिर हो गए हैं। यह केवल स्थानीय समस्या नहीं है, बल्कि पूरे देश में फैला एक गंभीर संकट है, जिस पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।

रिटायर्ड शिक्षक सीमा कहती हैं, “आगरा सहित कई शहरों में हर साल यह लूटपाट जबरन किताबें, स्टेशनरी, यूनिफॉर्म और जूते तयशुदा दुकानों से ऊंचे दामों पर खरीदवाने से शुरू होती है। यह अनैतिक प्रथा स्कूलों और प्रकाशकों के भ्रष्ट गठजोड़ का नतीजा है। प्रकाशक अक्सर स्कूलों को 50% से अधिक की छूट देते हैं, लेकिन यह लाभ अभिभावकों तक नहीं पहुंचता। इसके बजाय, स्कूल इस मार्जिन को अपनी कमाई का जरिया बना लेते हैं, जिससे शिक्षा एक मुनाफाखोर उद्योग बन गई है।”

राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) की हालिया रिपोर्टों में दिल्ली, मुंबई और बेंगलुरु में भी ऐसे ही शोषण के मामलों का खुलासा हुआ है, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह समस्या पूरे देश में फैली हुई है।

“कस्टम स्कूल किट” और अनिवार्य लोगो प्रिंटेड आइटम्स, बैग, बेल्ट, टाई, यूनिफॉर्म, स्पोर्ट्स शोज एंड टी शर्ट्स, ने अभिभावकों की आर्थिक परेशानी और बढ़ा दी है। इन किटों में महंगे और गैर-जरूरी सामान शामिल होते हैं, जिन्हें एकरूपता और गुणवत्ता नियंत्रण के नाम पर थोपा जाता है। हकीकत में, यह केवल एक और पैसा कमाने की चाल है, जिससे मध्यम और निम्न आय वर्ग के परिवारों पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ता है, गुप्ताजी ने बताया।

ऑल इंडिया पेरेंट्स एसोसिएशन (AIPA) के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि इन जबरन वसूली की वजह से वार्षिक शिक्षा खर्च औसतन 30% तक बढ़ जाता है, जिससे कई परिवारों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुश्किल हो जाती है।

यूनिफॉर्म और जूते, जिन्हें स्कूलों द्वारा विशेष दुकानों से खरीदने के लिए मजबूर किया जाता है, शोषण का एक और जरिया हैं। ये दुकानदार स्कूलों के साथ सांठगांठ करके कम गुणवत्ता वाले उत्पाद ऊंची कीमतों पर बेचते हैं। पारदर्शिता और निगरानी की कमी के कारण यह लूटपाट बेरोकटोक जारी है। कई अभिभावकों ने शिकायत की है कि इन दुकानों से खरीदी गई वस्तुएं टिकाऊ नहीं होतीं और उनकी गुणवत्ता भी खराब होती है।

सामाजिक कार्यकर्ता जगन प्रसाद कहते हैं कि “इस शोषण को रोकने में प्रशासन की निष्क्रियता एक बड़ी बाधा है। आगरा के ज़िलाधिकारी और अन्य सरकारी अधिकारी इस पर कार्रवाई करने में विफल रहे हैं, जिससे स्कूलों को खुली छूट मिल गई है। केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा बोर्ड (CBSE) और राज्य शिक्षा बोर्डों ने ऐसे शोषण के खिलाफ दिशानिर्देश जारी किए हैं, लेकिन उनका पालन सख्ती से नहीं किया जाता। NCPCR ने कड़ी निगरानी और दंड की सिफारिश की है, लेकिन क्रियान्वयन की गति धीमी है।”

इस आर्थिक शोषण का असर केवल पैसों तक सीमित नहीं है, बल्कि यह अभिभावकों में डर और लाचारी की भावना पैदा करता है। वे डर के कारण आवाज उठाने से कतराते हैं, क्योंकि उन्हें अपने बच्चों के साथ भेदभाव का डर सताता है। इस डर के कारण स्कूल बिना किसी जवाबदेही के मनमानी करते रहते हैं, अभिभावक तिवारीजी पीड़ा व्यक्त करते हैं।

विभिन्न माता-पिता संघों की रिपोर्ट से पता चला है कि ज्यादातर अभिभावक खुद को असहाय महसूस करते हैं और इन संस्थागत शोषण के सामने झुकने के लिए मजबूर होते हैं।

इस देशव्यापी उगाही रैकेट को खत्म करने के लिए  सरकार को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि स्कूल अभिभावकों को किसी विशेष विक्रेता से सामान खरीदने के लिए बाध्य न करें। स्कूलों को एक पारदर्शी सूची जारी करनी चाहिए जिससे अभिभावकों को स्वतंत्र रूप से खरीदारी करने का विकल्प मिले।

शिक्षाविद डॉ विद्या चौधरी कहती हैं कि स्कूलों और विक्रेताओं के बीच होने वाले वित्तीय लेन-देन की अनिवार्य रूप से जानकारी सार्वजनिक की जानी चाहिए। स्कूलों का नियमित ऑडिट होना चाहिए और दोषी पाए जाने वाले संस्थानों पर कड़ी सजा दी जानी चाहिए।

कुछ पेरेंट्स चाहते हैं कि  शिकायत दर्ज कराने के लिए गुमनाम हेल्पलाइन और ऑनलाइन पोर्टल बनाए जाने चाहिए। अभिभावक संघों को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए ताकि वे अपने अधिकारों के लिए लड़ सकें।

बिहार के शिक्षा शास्त्री डॉ अजय कुमार सिंह के मुताबिक ” प्रकाशकों द्वारा स्कूलों को दी जाने वाली छूट का पूरा लाभ अभिभावकों को मिलना चाहिए, और इसके लिए स्पष्ट दस्तावेजी प्रमाण उपलब्ध कराया जाना चाहिए।”

इससे भी ज्यादा जरूरी है  शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत एक राष्ट्रीय निकाय स्थापित किया जाना चाहिए, जो निजी स्कूलों के कार्यों की निगरानी और नियंत्रण करे।

नया शैक्षणिक सत्र उम्मीद और अवसरों का प्रतीक होना चाहिए, न कि आर्थिक संकट का कारण। सरकार, शिक्षा बोर्ड और स्कूल प्रशासन को मिलकर इस समस्या का समाधान करना होगा, सामाजिक कार्यकर्ता मुक्ता गुप्ता कहती हैं। साथ ही सरकारी स्कूलों का स्तर भी सुधारना होगा। समतावादी सोच के आधार पर गरीब अमीर स्कूल्स के बीच भेदभाव समाप्त होना चाहिए। फीसों पर भी नियंत्रण होना चाहिए।

मौजूदा स्थिति एक राष्ट्रीय कलंक है, जो शिक्षा के मौलिक अधिकार को कमजोर कर रही है। अब समय आ गया है कि इस शोषणकारी व्यवस्था को खत्म किया जाए और शिक्षा की गरिमा को बहाल किया जाए।

सरकार ने बढ़ाई एक्साइज ड्यूटी, बढ़ेंगी पेट्रोल-डीजल की कीमतें

वाहनचालकों के लिए अहम खबर सामने आ रही है। खबर यह है कि पेट्रोल डीजल की कीमतों में बढ़ोतरी होना तय है क्योंकि सरकार ने एक्साइज ड्यूटी बढ़ाने का ऐलान किया है। सरकार ने पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क 2 रुपये प्रति लीटर बढ़ाया है। इससे पेट्रोल-डीजल के दाम 2 रुपए बढ़ जाएंगे।

दिल्ली में अभी पेट्रोल 94 रुपए, डीजल 87 रुपए लीटर बिक रहा है। नए दाम रात 12 बजे से लागू होंगे। अभी सरकार पेट्रोल पर 19.90 रुपए लीटर और डीजल पर 15.80 रुपए लीटर वसूल रही है। इस बढ़ोतरी के बाद पेट्रोल पर 21.90 रुपए लीटर और डीजल पर 17.80 रुपए लीटर एक्साइज ड्यूटी लगेगी। पेट्रोल-डीजल की बढ़ी हुई कीमत से दूसरी चीजें भी महंगी हो सकती हैं।

कॉमेडियन कुणाल कामरा ने किया बॉम्बे हाईकोर्ट का रुख

मुंबई: मशहूर स्टैंड-अप कॉमेडियन कुणाल कामरा ने अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द कराने के लिए बॉम्बे हाई कोर्ट का रुख किया है। यह एफआईआर मुंबई के खार पुलिस स्टेशन में दर्ज की गई थी, जिसमें कामरा पर महाराष्ट्र के डिप्टी सीएम एकनाथ शिंदे के खिलाफ आपत्तिजनक टिप्पणी करने का आरोप है। कामरा की ओर से यह याचिका सीनियर वकील नवरोज सेरवाई और वकील अश्विन थूल द्वारा बॉम्बे हाई कोर्ट की जस्टिस सारंग कोतवाल और एसएम मोदक की पीठ के समक्ष पेश की जाएगी।

यह विवाद पिछले महीने उस समय शुरू हुआ जब कुणाल कामरा ने अपने एक स्टैंड-अप शो के दौरान एकनाथ शिंदे के राजनीतिक करियर पर व्यंग्य किया। उन्होंने एक बॉलीवुड गाने की पैरोडी तैयार कर शिंदे द्वारा 2022 में उद्धव ठाकरे के खिलाफ बगावत और महा विकास आघाड़ी सरकार गिराने की घटना पर कटाक्ष किया था।

कामरा ने 23 मार्च 2025 को इस शो का वीडियो अपने यूट्यूब चैनल और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर पोस्ट किया, जो देखते ही देखते वायरल हो गया। इसके अगले ही दिन, यानी 24 मार्च को, शिंदे गुट के शिवसैनिकों ने खार इलाके में स्थित हैबिटेट कॉमेडी क्लब और होटल यूनिकॉन्टिनेंटल में जमकर तोड़फोड़ की, जहां यह शो रिकॉर्ड किया गया था।

शिवसेना कार्यकर्ताओं ने आरोप लगाया कि कामरा ने एकनाथ शिंदे का अपमान किया है और उनकी गिरफ्तारी की मांग की। इस मामले में खार पुलिस स्टेशन में आईपीसी की धारा 356(2) (मानहानि) के तहत केस दर्ज किया गया और कुणाल कामरा को तीन बार समन जारी किए गए। हालांकि, कामरा 5 अप्रैल को पूछताछ के लिए पेश नहीं हुए। इस मामले में केवल मुंबई ही नहीं, बल्कि जलगांव के मेयर, नासिक के एक होटल व्यवसायी और एक व्यापारी ने भी कामरा के खिलाफ अलग-अलग शिकायतें दर्ज करवाई हैं।

दिल्ली में  एक सिरफिरे युवक ने चाकू से एक युवती पर जानलेवा हमला

दिल्ली कैंट के किवरी पैलेस मैन रोड पर रविवार रात एक दिल दहलाने वाली घटना सामने आई। एक सिरफिरे युवक ने चाकू से एक युवती पर जानलेवा हमला कर दिया। इसके बाद उसने खुद को भी चाकू मारकर गंभीर रूप से घायल कर लिया। पुलिस ने मौके पर पहुंचकर दोनों को अस्पताल में भर्ती कराया, जहां उनकी हालत नाजुक बताई जा रही है। पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है।

पुलिस के अनुसार, उन्हें रात करीब 11 बजे एक पीसीआर कॉल मिली, जिसमें राहगीरों ने एक युवती और एक युवक को खून से लथपथ हालत में पड़े होने की सूचना दी। मौके पर पहुंचने पर पुलिस ने देखा कि फुटपाथ पर खून फैला हुआ था। युवती के गले और शरीर के अन्य हिस्सों से खून बह रहा था, जिसे राहगीरों ने कपड़े से बांधने की कोशिश की थी। पास ही में एक युवक भी गंभीर रूप से घायल पड़ा था, जिसने कथित तौर पर युवती पर हमला करने के बाद खुद को भी चाकू मार लिया था। घटनास्थल पर खून से सना चाकू बरामद हुआ है। पुलिस ने फोरेंसिक टीम की मदद से मौके से अन्य सबूत भी जुटाए हैं।

पुलिस सूत्रों ने प्रारंभिक जांच के आधार पर बताया कि यह घटना प्रेम प्रसंग से जुड़ी हुई प्रतीत होती है। जांच में सामने आया है कि आरोपी और पीड़िता के बीच कुछ समय से विवाद चल रहा था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, युवक चीखता-चिल्लाता हुआ युवती के पास पहुंचा और बिना किसी चेतावनी के उस पर चाकू से हमला कर दिया। युवती के गले पर वार होते ही वह जमीन पर गिर पड़ी। इसके बाद युवक ने खुद के सीने और शरीर के अन्य हिस्सों पर भी कई बार चाकू से वार कर खुद को गंभीर रूप से घायल कर लिया।

पुलिस ने दोनों के पास से मिले मोबाइल फोन के जरिए उनके परिवारों को सूचित कर दिया है और उनसे पूछताछ कर रही है। पुलिस ने आरोपी के खिलाफ हत्या के प्रयास का मामला दर्ज कर लिया है और आगे की जांच जारी है। इस घटना से इलाके में दहशत का माहौल है। पुलिस सीसीटीवी फुटेज और गवाहों के बयानों के आधार पर मामले की तह तक जाने की कोशिश कर रही है।

किसानों में बढ़ रहा रोष

योगेश

पंजाब सरकार ने आन्दोलन कर रहे किसानों को खनोरी और शंभू बॉर्डर से हटा दिया है। जागरूक किसान कह रहे हैं कि पंजाब सरकार ने केंद्र सरकार के मन का काम करके किसानों के साथ अन्याय किया है। खनोरी बॉर्डर पर पिछले 13 महीने से आन्दोलन पर बैठे किसानों के साथ यह बर्ताव उचित नहीं है। पंजाब पुलिस ने 19 मार्च को आमरण अनशन पर बैठे भारतीय किसान यूनियन (एकता सिद्धूपुर – ग़ैर राजनीतिक) के किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल के साथ-साथ 100 से ज़्यादा किसानों को गिरफ़्तार कर लिया गया। किसानों की गिरफ़्तारी ने पूरे देश के किसानों में आक्रोश तो भरा है; लेकिन आगे बढ़कर आन्दोलन के लिए अब कोई तैयार नहीं दिखता। सुप्रीम कोर्ट ने किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल का इलाज कराने के पंजाब सरकार को आदेश दिये थे। लेकिन पंजाब सरकार ने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया, जिससे पूरे देश में आक्रोश है। जो पार्टियाँ किसानों पर अत्याचार को लेकर केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ कुछ नहीं बोल रही थीं, अब वो आप सरकार के ख़िलाफ़ बोल रही हैं। किसानों में भी पंजाब सरकार के ख़िलाफ़ रोष है।

बता दें कि 19 मार्च को केंद्र सरकार और किसानों के बीच बातचीत होनी तय थी। लेकिन केंद्र सरकार ने किसानों को साथ धोखा करते हुए बातचीत की जगह उन्हें गिरफ़्तार करवा दिया। पंजाब सरकार ने 19 मार्च को किसानों की गिरफ़्तारी करके जिस तरह 20-21 तारीख़ तक आन्दोलन पर बैठे किसानों के टैंटों को बुलडोज़र से तोड़कर हटाया, उसकी चर्चा अब किसानों में है। चर्चा यह भी है कि आम आदमी पार्टी की जो सरकार किसानों का समर्थन कर रही थी उसने ऐसा किसके दबाव में किया? पंजाब में सरकार की इस कार्रवाई का विरोध हो रहा है। हरियाणा-पंजाब का खनोरी बॉर्डर खोलने से पहले शंभू बॉर्डर खुलवा दिया गया था। पंजाब पुलिस की कार्रवाई से पहले हरियाणा पुलिस ने 20 मार्च को बैरिकेडिंग हटा ली थी। 405 दिन बाद शंभू टोल प्लाजा पर फिर से टोल वसूला जाने लगा है।

405 दिन के आन्दोलन में 42 किसान शहीद हुए और 115 किसान घायल हुए। दो पुलिसकर्मियों की भी इस दौरान मौत हुई। किसानों की गिरफ़्तारी को लेकर भारतीय किसान यूनियन (दोआबा) के अध्यक्ष गुरमुख सिंह ने पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में याचिका दायर कर दी है। याचिका में कहा गया है कि किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल को उनका स्वास्थ अच्छा न होने के बाद भी बिना कोई नोटिस दिये और बिना कारण बताये गिरफ़्तार कर लिया गया। पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट ने याचिका पर सुनवाई करते हुए पंजाब सरकार को नोटिस जारी करके इस मामले की स्टेटस रिपोर्ट माँगी थी, जिसका जवाब पंजाब सरकार ने दायर कर दिया है।

किसानों के टैंटों पर बुलडोज़र चलाने की पंजाब सरकार की कार्रवाई को भारतीय किसान यूनियन (ग़ैर राजनीतिक – टिकैत) के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत ने ग़लत ठहराते हुए कहा है कि भारत सरकार पूँजीपतियों के दबाव में काम कर रही है। किसान किसी राजनीतिक दल के साथ नहीं हैं। राकेश टिकैत ने पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान से आग्रह किया कि वह किसानों से बातचीत करके उनकी माँगों पर ध्यान दें। किसानों का आन्दोलन भारत सरकार की किसानों के लिए बनायी नीतियों के ख़िलाफ़ है। न्यूनतम समर्थन मूल्य और दूसरी किसानों की माँगों को मानने की जगह जिस तरीक़े से 20-21 मार्च की दरमियानी रात किसानों के टैंटों पर बुलडोज़र चलाया गया, वो ग़लत है। अब किसान पंजाब के 17 ज़िलों में धरना-प्रदर्शन करेंगे। इस तरह किसान आन्दोलन को ख़त्म करने पर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि हम सच्चाई से अनजान नहीं हैं। कुछ लोग किसानों की शिकायतों का निपटारा ही नहीं करना चाहते हैं।

बता दें कि किसानों की माँगें जायज़ हैं और केंद्र सरकार ने किसानों को आश्वासन के बाद भी किसानों की माँगों को पूरा नहीं किया है। 2020 में कोरोना-काल में हुई तालाबंदी के दौरान तीन काले कृषि क़ानून लाकर केंद्र सरकार ने किसानों को आन्दोलन करने को विवश किया था। आन्दोलन के दौरान किसानों पर ख़ूब अत्याचार किये गये और उन पर पुलिस के अलावा अराजक तत्त्वों से भी हमले करवाये गये; लेकिन अराजक तत्त्वों पर कार्रवाई करने और पुलिस को रोकने की जगह केंद्र सरकार ने किसानों के ख़िलाफ़ ही कार्रवाई की। सैकड़ों किसानों को जेल भेजा, उनके रास्ते रोके। किसानों की हत्या करने वालों को बाइज़्ज़त बरी करवाया और अगर कोई जेल गया भी, तो उसे जमानत मिल गयी। लेकिन किसानों को अभी तक राहत नहीं मिली है। अब तक लगभग 800 किसान शहीद हो चुके हैं। जब-जब किसानों ने दिल्ली कूट करना चाहा, तब-तब उन पर हमले किये गये। किसानों ने इसका प्रतिकार तो किया; लेकिन पुलिस पर हमला नहीं किया। निहत्थे किसानों पर गोलीबारी करायी गयी, डंडे चलवाये गये और ट्रैक्टरों समेत उनके महँगे-महँगे वाहन तोड़े गये। इसके बाद भी किसान चुपचाप आन्दोलन कर रहे थे और केंद्र सरकार से बातचीत करके समझौते के लिए तैयार थे। किसानों ने हर बार केंद्र सरकार को बातचीत का मौक़ा दिया। केंद्र सरकार ने किसानों की कोई माँग नहीं मानी और आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए किसानों के प्रति दुश्मनों जैसा बर्ताव किया।

शंभू और खनौरी बॉर्डर पर पुलिस की कार्रवाई से नाराज़ किसानों और मज़दूरों ने 21 मार्च से ही सड़कों पर उतरकर सरकार के ख़िलाफ़ विरोध शुरू कर दिया था। हरियाणा और पंजाब के किसानों के अलावा राजस्थान और उत्तर प्रदेश के किसानों ने केंद्र सरकार, हरियाणा सरकार और पंजाब सरकार के ख़िलाफ़ नारेबाज़ी करके विरोध जताया है। शहीद भगत सिंह यूनियन और संयुक्त किसान मज़दूर इंकलाब यूनियन के बैनर तले किसानों ने पंजाब सरकार के पुतले फूँककर रोष जताया है। इस कार्रवाई से भाजपा और उसकी सरकारों पर फूटने वाला किसानों का ग़ुस्सा आप और उसकी पंजाब सरकार पर फूट पड़ा है। पंजाब में मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस ने भी विधानसभा में बजट सत्र के पहले ही दिन ख़ूब हंगामा किया और जय जवान-जय किसान के नारे लगाए। विधानसभा में पंजाब सरकार के साथ पंजाब के राज्यपाल गुलाब चंद कटारिया का विरोध उनके अभिभाषण के दौरान हुआ। खनोरी बॉर्डर पर से बिना नोटिस के ग़लत तरीक़े से किसानों को हटाये जाने से बॉर्डर तो ख़ाली हो गया, किसान अगर दोबारा सड़कों पर उतर आये, तो पंजाब सरकार की मुश्किलें बढ़ जाएँगी।

 किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल की गिरफ़्तारी को लेकर किसानों में तो विकट नाराज़गी है ही, आम लोगों में भी नाराज़गी है। किसान और मज़दूर सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठा रहे हैं। उत्तर प्रदेश के किसानों में इस बात की चर्चा है कि पंजाब सरकार केंद्र सरकार से मिलकर काम कर रही है। किसान नेता जगजीत सिंह डल्लेवाल को उनका स्वास्थ्य ख़राब होने का हवाला देकर गिरफ़्तार करके जालंधर स्थित पंजाब आयुर्विज्ञान संस्थान ले जाया गया था। बाद में उन्हें जालंधर के पीडब्ल्यूडी रेस्ट हाउस में भेज दिया गया। उनसे किसी को मिलने नहीं दिया जा रहा है।

किसान आन्दोलन को इस तरह ख़त्म करने को लेकर पंजाब सरकार और पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान दोनों के ख़िलाफ़ पंजाब और हरियाणा में प्रदर्शन हो रहे हैं। हरियाणा में ख़ास पंचायतों में इसका विरोध हो रहा है। सभी कहने लगे हैं कि पंजाब सरकार और आप पार्टी अपने कौल से मुकर गयी है। उसने किसानों का साथ देने का वादा किया था; लेकिन उसने भाजपा की किसान विरोधी रणनीति पर चलते हुए केंद्र सरकार के मंसूबों को अंजाम दिया है। सवाल उठ रहे हैं कि पंजाब सरकार ने किसानों के ख़िलाफ़ इतना बड़ा क़दम क्यों उठाया? क्या पंजाब सरकार पर ऐसा करने के लिए केंद्र सरकार ने कोई दबाव बनाया? केंद्र सरकार ने किसानों से बातचीत करके किसानों की समस्याओं का हल निकालने का जो वादा किया था, वो उसने पूरा नहीं किया। पंजाब सरकार ने किसानों को बीच में धोखा दे दिया। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की तौहीन की है, तो पंजाब सरकार ने विरोध-प्रदर्शन के संवैधानिक अधिकार पर हमला किया है। सवाल यह है कि आख़िर सरकारें किसानों की समस्याओं और उनके दर्द को क्यों नहीं समझना चाहतीं?

बता दें कि किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य के अंतर्गत आने वाली फ़सलों पर स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के आधार पर सी2 प्लस 50 प्रतिशत न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग कर रहे हैं, जो केंद्र सरकार नहीं दे रही है। सरकार जिस हिसाब से ए2, ए2 प्लस एफएल, सी2 फार्मूला लगाकर किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य दे रही है, उससे किसानों को घाटा हो रहा है। किसान नेताओं का कहना है कि किसान स्वामीनाथन आयोग की सिफ़ारिश के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य के साथ-साथ अन्य 12 शर्तें माँग के तौर पर केंद्र सरकार के सामने रख रहे हैं। इन माँगों में आन्दोलन के दौरान किसानों के ख़िलाफ़ दर्ज किये मुक़दमों की वापसी, गिरफ़्तार किसानों की रिहाई, शहीद किसानों को मुआवज़ा, किसानों की ख़राब होने वाली फ़सलों पर पूरी बीमा राशि, किसानों की हत्या करने वालों को सज़ा, किसानों को सब्सिडी पर बिजली, मंडियों में किसानों की फ़सलों की बिना किसी परेशानी के ख़रीद, किसान परिवारों का बीमा और अन्य कुछ माँगें हैं। केंद्र सरकार स्वामीनाथन आयोग के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य, उनकी क़ानूनी गारंटी और दूसरी कई माँगों को नहीं मान रही है। सरकार किसानों की इस लाचारी का फ़ायदा उठा रही है कि पूरे देश के किसान एकजुट होकर आन्दोलन नहीं कर रहे हैं। पूरे देश के किसान अगर दोबारा एकजुट होकर 2020-21 की तरह या उससे बड़ा आन्दोलन करें, तो केंद्र सरकार को घुटने टेकने ही होंगे।

तबाही को निमंत्रण

पंडित प्रेम बरेलवी

म्यांमार में भूकंप ने हज़ारों लोगों की जान ले ली, लाखों लोगों को बर्बाद कर दिया और अरबों की संपत्ति तहस-नहस कर दी। प्रकृति से खिलवाड़ का ख़ामियाज़ा इंसान को कितनी भयंकर मौत का दर्द झेलकर चुकाना पड़ता है, इसका इस दु:खद तबाही से बड़ा उदाहरण आज दूसरा कोई नहीं है। फिर भी इंसान अपनी हरकतों से बाज़ नहीं आ रहा है। बहुत-से लोग महज़ चार दिन की अपनी इस एक ज़िन्दगी में ख़ुशियाँ भरने के लिए दूसरों की ख़ुशियाँ छीनने में लगे हैं। दुनिया पर शासन करने के लिए तबाहियों के इंतज़ामात में लगे हुए हैं। सत्ता और धन के नशे में इतने मदमस्त हैं कि उन्हें पाप भी पाप नहीं लगता।

युद्ध, दंगे, अपराध, अकड़, षड्यंत्र, पाखंड, राजनीति, कुकर्म, अधर्म, धूर्तता, नफ़रत आदि सब वे ख़तरनाक हथियार हैं, जिन्हें चंद स्वार्थी इंसानों ने अपने सुख के लिए ईज़ाद किया है। लोगों की जेब काटने से लेकर जंगलों और पहाड़ों के कटान तक ऐसे ही स्वार्थी लोगों का हाथ है। ये लोग अपने अपराधी चेहरों को छिपाने के लिए झूठ और दिखावे के मुखौटे लगाये घूमते हैं। अहंकार ऐसे लोगों की वह नस है, जिसे छूते ही उनका क्रोध जाग जाता है। सत्ता और पैसे की ताक़त के दम पर यह हिमाक़त करने का प्रयास करने वाले को किसी भी आरोप में फँसा दिया जाता है। उनकी हत्या करवा दी जाती है। मगर जब मामला टक्कर का हो, तो ये लोग कसमसाकर रह जाते हैं।

मौज़ूदा केंद्र सरकार में शीर्ष पर बैठे कुछ लोग इसी कसमसाहट के दौर से गुज़र रहे हैं। हिंडनबर्ग से जैसे-तैसे छुटकारा पाने वाली केंद्र सरकार और उसकी पार्टी भाजपा की नींद अब एलन मस्क की जनरेटिव आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस (एक्सएआई) की चैटबॉट ग्रोक ने उड़ा रखी है। हालात यहाँ तक पहुँच गये हैं कि दोनों ने एक-दूसरे के ख़िलाफ़ मुक़दमे दर्ज करा दिये हैं। केंद्र सरकार की शक्तियों का इस्तेमाल करके सत्तासीन भाजपा नेता ग्रोक का मुँह बंद करना चाहते हैं। मुँह न बंद करने पर उन्होंने ग्रोक को ही बंद कराने के प्रयास शुरू कर दिये हैं। हालाँकि वे ऐसा करने में अभी तक पूरी तरह नाकाम हैं, तो उन्होंने सरकार, प्रधानमंत्री, गृह मंत्री, भाजपा, संघ के बारे में सवाल पूछने वाले भारतीयों को ही धमका डाला। सवाल पूछे, तो सज़ा होगी। ग्रोक और केंद्र सरकार के बीच बढ़ी इस तनातनी में भाजपा के सत्तासीन नेता ग्रोक से नहीं निपट सके, तो सवाल पूछने वालों के कान ऐंठने पर आमादा हैं।

इस बीच कुणाल कामरा ने भाजपा नेताओं की दु:खती रगों को छू लिया है। जैसे ही पूरी भाजपा लॉबी कुणाल कामरा के पीछे पड़ी कि उनके ख़िलाफ़ कई आपराधिक मामले दर्ज करा दिये। कुणाल को आतंकवादी कहा जाने लगा। कुणाल को अपनी अग्रिम जमानत करानी पड़ी। इस बीच सर्वोच्च न्यायालय ने सांसद इमरान प्रतापगढ़ी के ख़िलाफ़ दर्ज एफआईआर मामले में लोगों के मौलिक अधिकारों और उनकी स्वतंत्रता को लेकर केंद्र सरकार को नसीहत दी है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हमारा संविधान लागू होने के 75 साल बाद भी प्रवर्तन तंत्र या तो इस महत्त्वपूर्ण मौलिक अधिकार से अनजान है या इसकी परवाह नहीं करता। साहित्य, जिसमें कविता, नाटक, फिल्में, स्टेज शो, स्टैंड-अप कॉमेडी, व्यंग्य और कला शामिल हैं; मानव जीवन को और अधिक सार्थक बनाते हैं। न्यायालय भारत के संविधान के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को बनाये रखने और लागू करने के लिए बाध्य हैं। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले ने कुणाल कामरा, विपक्षी नेताओं और ग्रोक से सवाल पूछने वालों को राहत पहुँचायी है। लेकिन क्या भारत में लोकतंत्रिक मूल्यों की सत्ता के नशे में चूर नेताओं को परवाह है?

सत्ता के नशे में चूर नेताओं ने सवालों के तीरों और प्रकृति के प्रकोप को हमेशा शासन करने की चाह में ख़ुद ही आमंत्रित किया है। उन्होंने मरते दम तक सत्ता पर आसीन रहने के लिए लोगों के अधिकारों और प्रकृति का हनन करके अपनी ताक़त को बढ़ाने का काम किया है। लेकिन वे भूल गये कि जब तबाही होती है, तो अमीर-ग़रीब नहीं देखती। जो भी उसकी चपेट में आता है, या तो मारा जाता है या तबाह हो जाता है। फिर दूसरों को लूटकर इतना धन इकट्ठा करने का क्या फ़ायदा? और इसकी ज़रूरत भी क्या है? इस एक ज़िन्दगी के लिए आख़िर दूसरों को लूटकर अमीर बनने के बाद अगर नींद नहीं आये और लोगों के सवाल सारा सुख-चैन हराम कर दें, तो इस सबका अर्थ क्या? कहावत है- खिसियानी बिल्ली खम्भा नोचे। लेकिन इंसान जब खिसियाता है, तो वह दूसरों के बाल नोचना चाहता है। यह काम वे लोग पहले करते हैं, जो ग़लत होते हैं।

आज के दौर में सब एक-दूसरे के बाल नोचने में ही लगे हुए हैं। जो जितना ज़्यादा धूर्त और चालाक है, दूसरे के बाल नोचने में उतना ही कुशल है। इस मामले में ग्रोक को भी कम नहीं समझा जाना चाहिए। भविष्य में इंसानों की ज़िन्दगी में तबाही लाने वालों में से आर्टिफिसियल इंटेलीजेंस भी एक ख़तरनाक हथियार साबित होगा। यह आज चंद ग़लत नेताओं के बाल नोचकर जनता को ख़ुश कर रहा है, तो सिर्फ़ इसलिए, क्योंकि उसे जनता को मानसिक रूप से अपना ग़ुलाम बनाना है।

धर्म का सही अर्थ समझने की ज़रूरत

– प्रधानमंत्री मोदी से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक कह चुके हैं कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने की पद्धति है

एक बार एक इंटरव्यू में देश के प्रधानमंत्री मोदी ने साफ़-साफ़ कहा था कि हिन्दू कोई धर्म नहीं है। उन्होंने कहा था कि ‘हिन्दू कोई रिलीजन नहीं, वे ऑफ लाइफ है। सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के अनुसार, हिन्दू कोई धर्म नहीं, जीने की पद्धति है। इस देश में हमारे ही सब लोग हैं। हम सुप्रीम कोर्ट के जजमेंट के हिसाब से चलते हैं। और उसमें न बौद्ध को एतराज़ है, न सिख को एतराज़ है। इतना ही नहीं, आज भी केरल में हमारे ईसाई संप्रदाय से लोग हैं, जो इसी प्रकार से जीवन जीते हैं।’

जब पत्रकार ने सवाल किया कि आपके मेनिफेस्टो में तो हिन्दुओं की बात है? तब नरेंद्र मोदी ने जवाब दिया- ‘वो सुप्रीम कोर्ट के हिसाब से हम वे ऑफ लाइफ के हिसाब से करते हैं, रिलीजन के हिसाब से नहीं करते। हम मानने को तैयार नहीं हैं कि हिन्दू कोई धर्म है।’ तब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री हुआ करते थे और केंद्र की सत्ता में आने की तैयारी कर रहे थे। फिर प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने कनाडा में भी यही कहा था कि हिन्दू कोई धर्म नहीं, बल्कि जीवन जीने की एक पद्धति है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी कहा था कि मुसलमानों का विरोध करने वाले हिन्दू नहीं हो सकते। हिन्दू तो जीओ और जीने दो के हिसाब से चलते हैं। विश्व को भाईचारे की भावना सिखाते हैं। यह अलग बात है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी पूरी भाजपा टीम और यहाँ तक कि संघ देश में हिन्दू-मुस्लिम की राजनीति करके ही आज सत्ता में हैं।

देश के सुप्रीम कोर्ट ने फरवरी, 2023 में भाजपा के अश्विनी उपाध्याय द्वारा दायर याचिका को ख़ारिज करते हुए कहा था कि ‘हिन्दू धर्म नहीं, बल्कि यह जीवन जीने का एक तरीक़ा है। इसमें कोई कट्टरता नहीं है। न्यायमूर्ति के.एम. जोसेफ और न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना की पीठ ने कहा था कि भारत क़ानून के शासन, धर्मनिरपेक्षता और संविधानवाद से बँधा हुआ है। कोई भी देश अतीत का क़ैदी बनकर नहीं रह सकता। न्यायमूर्ति जोसेफ का मानना है कि उपाध्याय की याचिका से और अधिक वैमनस्य पैदा होगा, क्योंकि वह एक ख़ास समुदाय को निशाना बना रहे थे।

न्यायमूर्ति नागरत्ना ने साफ़ कहा था कि ‘हिन्दू धर्म जीवन जीने का एक तरीक़ा है। इसकी वजह से भारत ने सभी को आत्मसात किया है। इसकी वजह से हम एक साथ रह पा रहे हैं। अंग्रेजों की फूट डालो और राज करो की नीति ने विभाजन पैदा किया। हमें उस स्थिति में वापस नहीं आना चाहिए।’ उन्होंने याचिका ख़ारिज करते हुए कहा था कि ‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष देश है। कोई भी देश अतीत का क़ैदी नहीं रह सकता किसी भी देश का इतिहास वर्तमान और भविष्य की पीढ़ियों को इस हद तक परेशान नहीं कर सकता कि आने वाली पीढ़ियाँ अतीत की क़ैदी बन जाएँ।’

साल 2016 में सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश टी.एस. ठाकुर की अध्यक्षता वाली पीठ ने 1995 के फ़ैसले पर पुनर्विचार न करने का फ़ैसला किया था। पीठ का ध्यान एक अलग मुद्दे पर था कि क्या किसी धार्मिक नेता द्वारा किसी विशेष पार्टी को वोट देने की अपील जनप्रतिनिधित्व अधिनियम की धारा-123 के तहत चुनावी कदाचार के बराबर है, और उसने हिन्दुत्व के अर्थ के बारे में व्यापक बहस में नहीं उलझने का फ़ैसला किया? उस समय हिन्दुत्व को फिर से परिभाषित करने और चुनावों में इसके इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाने की कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ की याचिका को भी ख़ारिज कर दिया गया था। तक़रीबन दो साल पहले ही 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने फिर से पुष्टि की कि हिन्दुत्व एक जीवन-शैली है, इसकी समावेशी प्रकृति पर ज़ोर देते हुए और यह कहते हुए कि हिन्दू धर्म में कोई कट्टरता नहीं है। न्यायालय ने ऐतिहासिक स्थानों के लिए नामकरण आयोग स्थापित करने की याचिका ख़ारिज करते हुए यह टिप्पणी की थी, जिसमें विविध संस्कृतियों को आत्मसात करने में हिन्दू धर्म की भूमिका पर प्रकाश डाला गया। जबकि याची को सन् 1995 के आदेश की अपेक्षा थी। दरअसल, सुप्रीम कोर्ट ने साल 2023 में आगे बढ़कर अपने रुख़ को मज़बूत तरीक़े से पुष्टि के साथ जीवन के तरीक़े की व्याख्या को मज़बूत किया गया है, जो लगभग तीन दशकों से एक सुसंगत न्यायिक दृष्टिकोण को दर्शाता है।

दरअसल साल 1995 में देश के सुप्रीम कोर्ट ने मनोहर जोशी बनाम एन.बी. पाटिल के मामले में एक महत्त्वपूर्ण निर्णय जारी किया था। यह मामला तब उठा, जब बॉम्बे हाई कोर्ट ने मनोहर जोशी सहित नौ भाजपा उम्मीदवारों का चुनाव रद्द कर दिया था, क्योंकि उन्होंने 1992-93 के मुंबई दंगों के बाद हिन्दू राज्य बनाने के लिए वोट माँगे थे। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट ने इस निर्णय को पलटते हुए कहा कि ‘हिन्दुत्व अथवा हिन्दू धर्म उपमहाद्वीप में लोगों की जीवन-शैली और मन की स्थिति है, न कि धर्म।’ इसका मतलब यह था कि चुनावों में हिन्दुत्व या हिन्दू धर्म की अपील करना जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 के तहत भ्रष्ट आचरण नहीं माना जाता है, जो धार्मिक आधार पर प्रचार करने पर रोक लगाता है। इस फ़ैसले के राजनीतिक निहितार्थ थे; क्योंकि इसने भाजपा जैसी पार्टियों को धार्मिक पहचान के बजाय सांस्कृतिक और जीवनशैली पहचान के रूप में हिन्दुत्व का उपयोग करके प्रचार करने की अनुमति दी। हालाँकि यह विवादास्पद रहा है, आलोचकों का तर्क है कि इसने भारत के धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों को कमज़ोर किया है। पिछले कुछ वर्षों में इस फ़ैसले पर बहस होती रही है, जिसके कारण इसकी दोबारा जाँच की माँग उठती रही है।

यह खंड 1995 के न्यायालय के आदेश के बारे याचिकाकर्ता के प्रश्न का व्यापक विश्लेषण प्रदान करता है, जिसमें कहा गया है कि हिन्दू धर्म जीवन जीने का एक तरीक़ा है, जो क़ानूनी निर्णयों, समाचार रिपोर्ट्स और विद्वानों के संदर्भों में व्यापक शोध पर आधारित है। विश्लेषण का उद्देश्य सभी प्रासंगिक विवरणों को शामिल करना है, जिससे पाठकों को विषय के क़ानूनी, राजनीतिक और सांस्कृतिक आयामों में रुचि रखने वालों के लिए पूरी समझ सुनिश्चित हो सके।

बहरहाल साल 1995 का निर्णय मनोहर जोशी बनाम एन.बी. पाटिल मामले में था, जिसकी सुनवाई न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा के नेतृत्व में भारत के सुप्रीम कोर्ट की तीन न्यायाधीशों की पीठ ने की थी। इसके अलावा हाई कोर्ट ने फ़ैसला सुनाया था कि जोशी का अभियान के दौरान दिया गया बयान- ‘पहला हिन्दू राज्य महाराष्ट्र में स्थापित किया जाएगा; यह धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों का उल्लंघन करता है और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 की धारा-123(3) के तहत एक भ्रष्ट आचरण का गठन करता है, जो धर्म के आधार पर वोट के लिए अपील करने पर रोक लगाता है।’

हालाँकि सुप्रीम कोर्ट ने 11 दिसंबर, 1995 को इस फ़ैसले को पलट दिया था, जिसमें एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया गया कि ‘हिन्दुत्व अथवा हिन्दू धर्म उपमहाद्वीप में लोगों की जीवन-शैली और मन की स्थिति है, न कि धर्म।’ यह व्याख्या महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इसने अदालत को यह तर्क देने की अनुमति दी कि हिन्दुत्व की अपील करना धार्मिक प्रचार के बराबर नहीं है, जिससे जोशी का चुनाव बरक़रार रहा। इस फ़ैसले का संदर्भ भारतीय क़ानून में दिया जा सकता है। हालाँकि पूर्ण पाठ तक सीधे पहुँच के लिए क़ानूनी डेटाबेस की आवश्यकता हो सकती है। रही हिन्दुत्व को धर्म को रूप में प्रचार करके चुनाव जीतने की बात, तो यह चलन आज भी बंद नहीं हुआ है। कई पार्टियों के नेता, ख़ासतौर पर भाजपा नेता और प्रधानमंत्री मोदी भले ही ये नहीं मानते हों कि हिन्दू कोई धर्म है; लेकिन अपनी राजनीतिक रोटियाँ आज भी हिन्दू धर्म के नाम पर ही सेंकते नज़र आते हैं। हिन्दुओं को ख़तरे में बताकर, हिन्दू को धर्म बताकर उसे भी ख़तरे में बताकर चुनावों में प्रचार करते हैं। और जब कहीं दंगा-फ़साद हो, तो फिर उन्हीं हिन्दू युवाओं को मरने-कटने के लिए आगे कर दिया जाता है। आज तक जितने भी हिन्दू-मुस्लिम दंगे हुए हैं, उनमें से ज़्यादादर दंगे राजनीति से प्रेरित निकले हैं। ऐसा नहीं है कि दूसरे धर्मों के लोग कुछ कम हैं; लेकिन सनातन धर्म, जिसे वैदिक धर्म भी कहते हैं; को हिन्दू धर्म बताकर लोगों को गुमराह करने की राजनीति किसी भी हाल में उचित नहीं है।

बहरहाल, हिन्दू को धर्म न मानने को लेकर न्यायालयों का तर्क इस समझ पर आधारित था कि हिन्दुत्व धर्म एक अवधारणा के रूप में केवल धार्मिक प्रथाओं से परे एक व्यापक सांस्कृतिक और सामाजिक ढाँचे को समाहित करता है। इसे भारतीय उपमहाद्वीप की विविध परंपराओं, रीति-रिवाज़ों और दर्शन को प्रतिबिंबित करने वाले जीवन के तरीक़े के रूप में वर्णित किया गया था। इस व्याख्या को ऐतिहासिक और अकादमिक विचारों के साथ संरेखित करने के रूप में देखा गया था, जैसे कि ब्रिटिश इतिहासकार मोनियर विलियम्स द्वारा जिन्होंने हिन्दू धर्म को अपनी पुस्तक धार्मिक विचार और भारत में जीवन में पंथों और सिद्धांतों का एक जटिल समूह के रूप में वर्णित किया था।

इस निर्णय का चुनावी राजनीति पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ा, विशेष रूप से भाजपा जैसी पार्टियों पर; जिन्होंने हिन्दुत्व को एक वैचारिक ढाँचे के रूप में अपनाया और उसका फ़ायदा उठाया। इसने राजनीतिक अभियानों को हिन्दुत्व को एक सांस्कृतिक पहचान के रूप में लागू करने में सक्षम बनाया, जो धार्मिक अभियान के रूप में वर्गीकृत किये बिना संभावित रूप से मतदाता की भावना को प्रभावित करता है। इसलिए आज हम सबको यानी हर धर्म और वर्ग क लोगों को धर्म का सही अर्थ समझने की ज़रूरत है।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं।)

लोकसभा की मंजूरी के बाद वक्फ विधेयक राज्यसभा में पेश किया जाएगा

लोकसभा ने बुधवार रात वक्फ संशोधन विधेयक को बहुमत से पारित कर दिया। विधेयक के पक्ष में 288 और विरोध में 232 वोट पड़े। सभी विपक्षी संशोधन प्रस्ताव ध्वनिमत से खारिज कर दिए गए। विधेयक पर करीब 12 घंटे लंबी चर्चा हुई, जिसके बाद यह अब राज्यसभा में पेश किया जाएगा।

अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री किरेन रिजिजू ने बताया कि इस विधेयक का उद्देश्य वक्फ संपत्तियों के बेहतर प्रबंधन के लिए पुराने कानून में सुधार करना है, न कि किसी धर्म में हस्तक्षेप करना। उन्होंने विवादास्पद धारा 40 को हटाने की बात कही, जिसके तहत वक्फ बोर्ड किसी भी संपत्ति को वक्फ घोषित कर सकता था और केवल न्यायाधिकरण में चुनौती दी जा सकती थी।

विपक्षी सांसद एन.के. प्रेमचंद्रन ने बोर्ड में गैर-मुस्लिम सदस्य शामिल करने का प्रस्ताव रखा, जो वोटिंग में खारिज हो गया। विपक्ष ने विधेयक को असंवैधानिक बताया, जिस पर रिजिजू ने जवाब दिया कि जब 1954 से यह कानून अस्तित्व में है, तो उसमें सुधार असंवैधानिक नहीं हो सकता।

गृह मंत्री अमित शाह ने चर्चा के दौरान विपक्ष पर तुष्टीकरण की राजनीति का आरोप लगाया और कहा कि वक्फ बोर्ड को सरकारी संपत्तियों पर अधिकार देने की यह नीति अब नहीं चलेगी। उन्होंने 2013 में यूपीए सरकार द्वारा किए गए संशोधन को अराजकता फैलाने वाला बताया और कहा कि सरकार अब कठोर कानून बना रही है।

बढ़ती गर्मी के लिए ज़िम्मेदार कौन?

एक तरफ़ मौसम विभाग ने 2025 में भी सामान्य से अधिक गर्मी रहने का अनुमान जताया है, तो दूसरी तरफ़ एक नये अध्ययन में सामने आया है कि भारत बढ़ती गर्मी के ख़तरों के लिए तैयार नहीं है। यह अध्ययन दिल्ली स्थित शोध संगठन ‘सस्टेनेबल फ्यूचर्स कोलैबोरेटिव’ ने किया है। इस अध्ययन में नौ शहर- बेंगलूरु, दिल्ली, फ़रीदाबाद, ग्वालियर, कोटा, लुधियाना, मेरठ, मुंबई और सूरत हैं। इन नौ शहरों में 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत की शहरी आबादी का 11 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बसता है। और यह शहर गर्मी के लिहाज़ से देश के सबसे अधिक जोखिम वाले शहरों में से कुछ हैं।

इस अध्ययन का विश्लेषण चरम लू के हालात से निपटने की सरकारी कार्यक्रमों व नज़रिये पर सवाल उठाता है। आम जनता को जागृत करता है कि उनकी सरकारें वास्तव में जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए क्या कर रही हैं। विश्लेषण में कहा गया है कि जिन शहरों में सर्वेक्षण किया गया है, वो शहर गर्मी की लहरों के लिए तात्कालिक उपायों पर ध्यान केंद्रित करते हैं, न कि दीर्घकालिक उपायों पर।

दीर्घकालिक उपायों के नहीं किये जाने से लू से होने वाली मौतों की आशंका अधिक है। सर्वे में भाग लेने वाले 26 प्रतिशत अधिकारियों ने माना कि हीट एक्शन प्लान में आपदा प्रबंधन व अन्य विभागों का तालमेल नहीं बन पाता। 16 प्रतिशत अधिकारियों के लिए लू (हीटवेव) की समस्या प्राथमिकता सूची में ही नहीं है। 14 प्रतिशत अधिकारियों को गर्मी या लू कोई ख़ास समस्या ही नहीं लगती।

ग़ौरतलब है कि 2024 इतिहास का सबसे अधिक लू दिनों वाना साल रहा। इस दौरान देशभर में 41,789 लोगों को लू लगी, जिनमें से 143 की मौत हो गयी। दरअसल अल्पकालिक उपाय जीवन रक्षक उपाय हैं और दीर्घकालिक उपाय स्वास्थ्य प्रणालियों को बेहतर बनाने तथा जलवायु परिवर्तन के मौज़ूदा व भावी दुष्प्रभावों को कम करने के लिए पर्यावरणीय क़दम उठाने पर केंद्रित हैं।

हाल ही में एक संसदीय पैनल ने राज्यसभा में पेश अपनी रिपोर्ट में केंद्र सरकार को अपनी आपदा प्रबंधन रणनीति का विस्तार करके उसमें हीटवेव जैसे ‘नये और उभरते ख़तरों’ को शामिल करने की सिफ़ारिश की है। इसके अलावा इसने अधिसूचित आपदाओं की सूची की आवधिक समीक्षा और अद्यतन के लिए एक औपचारिक तंत्र स्थापित करने की सिफ़ारिश की है।

वर्तमान में राष्ट्रीय आपदा प्रतिक्रिया कोष (एनडीआरएफ) और राज्य आपदा प्रतिक्रिया कोष (एसडीआरएफ) सहायता के लिए पात्र आपदाओं की अधिसूचित सूची में चक्रवात, सूखा, भूकंप, आग, बाढ़, सुनामी, ओलावृष्टि, भूस्खलन, हिमस्खलन, बादल फटना, कीब हमले, पाला और शीत लहरें शामिल हैं। बेशक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में लू को आपदा प्रबंधन रणनीति में शामिल करने की सिफ़ारिश कर दी है; लेकिन इसके सामानंतर यह सवाल भी उठता है कि पर्यावरण संरक्षण में वन के महत्त्व को देखते हुए हक़ीक़त में सरकार इस मुद्दे पर कितनी संजीदा है।

सरकार की भारत वन स्थिति रिपोर्ट-2023 के अनुसार, भारत की 25 प्रतिशत भूमि जंगलों या पेड़ों से ढकी हुई है। देश में वर्ष 2021 में अंतिम आकलन के बाद 1,445.81 वर्ग किलोमीटर वन एवं वृक्ष में वृद्धि हुई है।

सरकारी रिपोर्ट्स अक्सर आँकड़े पेश करती हैं, उसके साथ-साथ जनता से बहुत अहम बिंदु छिपाने का भी काम करती हैं। यही इस रिपोर्ट से भी लगता है। विकास के दबाव में वनों का कटना, संरक्षण के लिए संसाधनों की कमी पर चिन्ता नहीं नज़र आती। हाईवे, पहाड़ों को काटकर सुंरगों का निर्माण, आर्थिक विकास के लिए पर्यावरण संरक्षण नीतियों की अनदेखी का सिलसिला थमता नज़र नहीं आता।

वन संरक्षण अधिनियम-1980 और वन अधिकार अधिनियम-2006 का कार्यान्वयन भी पूरी भावना के साथ नहीं हो रहा है। सरकार को वनों की स्थिरता बनाये रखने के लिए अति गंभीर होने की ज़रूरत है। वनों का कटान से जैव विविधता को भी ख़तरा है।

बढ़ती आबादी के लिए बस्तियों की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पेड़ काटे जाते हैं, आर्थिक तरक़्क़ी के लिए जंगल ख़त्म किये जा रहे हैं। और गर्मी के मौसम में यह मुद्दा एक बार फिर प्रासंगिक हो उठा है कि पर्यावरण संरक्षण के प्रति सरकार को अति सचेत व सक्रिय होने की ज़रूरत है, ताकि चरम लू के प्रकोप से लोगों व धरती को बचाया जा सके।