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समान अवसर की कोशिश में यूजीसी

विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा आयोजित करने के लिए लाया गया प्रस्ताव

भिन्न प्रारूपों में एकरूपता प्रदान करने के लिए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) वास्तव में उल्लेखनीय शिक्षा सुधार के रूप में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए एक सामान्य विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) आयोजित करने का एक नया प्रस्ताव लेकर आया है। सभी 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए पहली अनिवार्य आम प्रवेश परीक्षा जुलाई, 2022 के पहले सप्ताह में आयोजित की जाएगी।

सीयूईटी का उद्देश्य समान अवसर प्रदान करना है। उदाहरण के लिए देश के शीर्ष विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए 100 फ़ीसदी तक का कट-ऑफ देखा गया है। कॉलेज में प्रवेश के लिए उच्च कट-ऑफ न केवल अनुचित है, बल्कि कई लोगों के लिए देश छोडक़र विदेश में अपनी उच्च शिक्षा प्राप्त करने का एक कारण भी है। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि देश पहले से ही इतनी प्रतिभाओं को खो रहा है; क्योंकि छात्र उच्च अध्ययन के लिए विदेश जाते हैं और इसका कारण उच्च कट-ऑफ भी शामिल है। इसका अर्थ है कि एक विद्यार्थी, जिसने 90 फ़ीसदी भी हासिल किया है; वह अच्छे कॉलेज में प्रवेश नहीं ले पाएगा। इसका मतलब यह भी है कि अगर कोई पूरी एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ सकता है, तो उसे 90 फ़ीसदी से अधिक अंक मिल सकते हैं और इस तरह बोर्ड परीक्षा वास्तव में बुद्धिमत्ता का पैमाना नहीं थी।

कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट एक कम्प्यूटरीकृत, बहुविकल्पीय परीक्षा होगी और राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जाएगी। परीक्षा के लिए आवेदन विंडो अप्रैल के पहले सप्ताह में खुलेगी। परीक्षा 13 भाषाओं हिन्दी, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, मलयालम, उर्दू, असमिया, बंगाली, पंजाबी, ओडिया और अंग्रेजी में होगी। यूजीसी का कहना है कि सीयूईटी को राज्य या निजी विश्वविद्यालय द्वारा भी अपनाया जा सकता है, जबकि चर्चा पूरी तरह से स्नातक छात्रों पर है, इन परीक्षाओं का उपयोग स्नातकोत्तर प्रवेश के लिए भी किया जाएगा। लेकिन कम से कम 2022-23 में पीजी स्तर के लिए सीयूईटी अनिवार्य नहीं है।

यूजीसी के अध्यक्ष एम जगदीश कुमार का कहना है कि सीयूईटी की शुरुआत का उद्देश्य देश भर के छात्रों के लिए एक समान अवसर प्रदान करना है और साथ ही स्नातक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के दौरान एकरूपता की कमी के कारण उनके द्वारा झेले गये तनाव को कम करना है। उनके मुताबिक, कॉमन यूनिवर्सिटी एंट्रेंस टेस्ट की शुरुआत विद्यार्थी-हित में एक प्रमुख सुधार है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी इस तरह की एक राष्ट्रीय स्तर की प्रवेश परीक्षा शुरू करने की वकालत करती है। विभिन्न विश्वविद्यालयों की पात्रता मानदंड के अलावा कक्षा 12 की बोर्ड परीक्षा के अंकों का छात्रों के प्रवेश पर कोई असर नहीं पड़ेगा। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा वित्त पोषित 45 केंद्रीय विश्वविद्यालय हैं।

यह बताते हुए कि इस क़दम से एकरूपता कैसे आएगी, इसलिए भ्रम को कम करते हुए, यूजीसी के अध्यक्ष ने कहा कि यदि आप देश भर में यूजी प्रवेशों को देखते हैं, ज़रूरी नहीं कि दिल्ली में; तो आप देखते हैं कि वे कई तरीक़ों का उपयोग करते हैं। कुछ विश्वविद्यालय जमा दो (+2) अंकों का उपयोग करते हैं और कुछ विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा आयोजित करते हैं और इससे छात्रों के मन में बहुत तनाव और भ्रम पैदा हो रहा है।

उनके मुताबिक, सीयूईटी शुरू करने के पीछे का विचार छात्रों को एक समान अवसर प्रदान करना है और उन्हें यूजी प्रवेश प्रक्रिया के दौरान होने वाले तनाव से छुटकारा पाने में भी मदद करना है; क्योंकि उन्हें कई प्रवेश परीक्षाएँ करनी होती हैं। उन्होंने कहा कि जब आप बोर्ड परीक्षाओं के अंकों पर विचार करते हैं, तो आप देखते हैं कि बोर्ड की एक बड़ी संख्या है। वे 12वीं कक्षा में अंक कैसे प्रदान करते हैं, इसमें बहुत विविधता है। इसलिए, यह एक समान अवसर प्रदान नहीं कर रहा है। अपनी मातृभाषा या स्थानीय भाषा में पढऩे वालों के लिए एक बड़ा फ़ायदा यह कम्प्यूटर आधारित परीक्षा 13 भाषाओं में आयोजित की जाएगी। प्रवेश परीक्षा का पाठ्यक्रम एनसीईआरटी द्वारा परिभाषित 12वीं कक्षा के पाठ्यक्रम पर आधारित होगा।

 

प्रमुख बिन्दु

1. नया कॉमन यूनिवर्सिटी एजुकेशन टेस्ट (सीयूईटी) जुलाई के पहले सप्ताह में होगा, जब कक्षा 12 की अधिकांश बोर्ड परीक्षाएँ पूरी हो चुकी होंगी। आवेदन प्रक्रिया ऑनलाइन होगी और अप्रैल के पहले सप्ताह में शुरू होगी।

2. परीक्षा कम्प्यूटर आधारित, बहुविकल्पीय परीक्षा होगी, जो प्रौद्योगिकी के मामले में आसान होगी।

3. छात्र अब केवल कक्षा 12 की परीक्षा में उच्चतम अंक प्राप्त करने की कोशिश करने के बजाय सीखने पर अधिक ध्यान केंद्रित करने में सक्षम होंगे।

4. राष्ट्रीय परीक्षण एजेंसी (एनटीए) द्वारा आयोजित की जाने वाली प्रवेश परीक्षा सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए अनिवार्य है और शीर्ष शिक्षा निकाय भी सभी राज्य, डीम्ड-टू-बी और निजी विश्वविद्यालयों से टेस्ट स्कोर का उपयोग करने के लिए कह रहा है। देश भर में स्नातक कार्यक्रमों में प्रवेश के लिए।

5. इसका मसद एक राष्ट्र, एक प्रवेश परीक्षा करके विभिन्न प्रकार की प्रवेश परीक्षाओं को समाप्त करना है।

6. 12वीं कक्षा की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाला कोई भी व्यक्ति सामान्य प्रवेश परीक्षा देने के योग्य है।

7. भले ही विश्वविद्यालयों को सामान्य परीक्षा के आधार पर स्नातक छात्रों को प्रवेश देना होगा, वे पात्रता तय करने में कक्षा 12 के अंकों के लिए न्यूनतम बेंचमार्क निर्धारित करने के लिए स्वतंत्र हैं।

8. इस प्रवेश परीक्षा का पाठ्यक्रम एनसीईआरटी की कक्षा 12 के मॉडल पाठ्यक्रम के अनुरूप होगा।

9. सामान्य परीक्षा के कारण विश्वविद्यालयों की आरक्षण नीति प्रभावित नहीं होगी।

 

प्रतिक्रियाएँ

सामान्य प्रवेश परीक्षा की शुरुआत का विरोध करने वालों ने बताया है कि सीयूईटी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (एनसीईआरटी) के पाठ्यक्रम पर आधारित होगा, जिसका पालन केवल सीबीएसई करता है; और इसलिए यह अन्य बोर्ड के छात्रों को समान अवसर नहीं देगा। कई लोगों ने कहा कि इस तरह के नीतिगत निर्णय से पहले हितधारकों से परामर्श किया जाना चाहिए था। वे बताते हैं कि छात्र केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़ देंगे और इसके बजाय निजी विश्वविद्यालयों को चुनेंगे।

हालाँकि छात्रों के एक बड़े वर्ग का विचार है कि नीति छात्रों के हित में है। क्योंकि सामान्य परीक्षा सभी को बराबर अवसर देगी और सभी छात्रों को मौ$का देगी। निस्संदेह, यूजीसी अध्यक्ष इस बात पर ज़ोर देते हैं कि सीयूईटी अन्तिम बोर्ड परीक्षा से सम्बन्धित मानसिक तनाव को कम करेगा। छात्र पाठ्यपुस्तक सामग्री के पुनरुत्पादन के बजाय अवधारणाओं की स्पष्टता पर ध्यान केंद्रित करेंगे। प्रवेश मानदंड विशुद्ध रूप से विषय की समझ और प्राप्त ज्ञान पर आधारित होगा।

उपराष्ट्रपति का भगवा पक्ष!

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू के शिक्षा में बदलाव में भगवा वाले बयान को लेकर सियासी हलचल तेज़ हो गयी है। बताते चलें हरिद्वार के देव संस्कृति विश्वविद्यालय आयोजित एक कार्यक्रम में उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू ने देश के लोगों से कहा कि वे अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ें और अपनी पहचान पर गर्व करना सीखें। शिक्षा की मैकाले प्रणाली को पूरी तरह से ख़ारिज़ करें। हमें अपनी विरासत, अपनी संस्कृति, अपने पूर्वजों पर गर्व महसूस करना चाहिए और हमें अपनी जड़ों की ओर वापस जाना चाहिए। जितना भी सम्भव हो सके हमें अपने बच्चों को भारतीय भाषाओं की सीखने-सिखाने की प्रेरणा देनी चाहिए। शिक्षा प्रणाली का भारतीयकरण भारत की नयी शिक्षा नीति का केंद्र है। जो मातृभाषाओं को बढ़ावा देने पर बहुत ज़ोर देती है। नायडू ने कहा कि हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप लगता है, इसमें क्या ग़लत है? ‘सर्वे भवन्तु सुखिन: और वसुधैव कुटुम्बकम’ जो हमारे प्राचीन ग्रंथों का दर्शन है। मौज़ूदा समय में भी भारत की विदेश नीति के लिए यही मार्गदर्शक सिद्धांत है, जिसका दुनिया में अपना महत्त्व है।

राज्यसभा सांसद मनोज झा कहना है कि उपराष्ट्रपति को किसी भी रंग में शिक्षा को रंगने की बात ही नहीं करनी चाहिए। अब शिक्षा के नाम पर हरा, लाल और भगवा जैसे शब्दों का इस्तेमाल होने लगा है, जो ग़लत है। क्योंकि जो शिक्षा मौज़ूदा समय में चल रही है, उसमें किसी विशेष रंग का समावेश होगा, तो शिक्षा के लिए तो बिल्कुल ही ठीक नहीं होगा।

वहीं कांग्रेस के नेता अमरीश गौतम का कहना है कि शिक्षा को अगर राजनीति से जोड़ा जाएगा, तो इससे न शिक्षा को सही दिशा हासिल होगी और न ही राजनीति को। मौज़ूदा समय में जिस तरह से रंगों के आधार पर राजनीति का चलन बढ़ रहा है, वह देशहित में नहीं है। अब कोई हरे रंग के आधार पर राजनीति कर रहा है, तो कोई भगवा रंग पर, तो कोई नीले रंग पर। वैसे ही देश में कुछ वर्षों से राजनीतिक मिजाज बदला है, जिसमें रंगों को लेकर गाँवों से लेकर शहरों तक राजनीति होने लगी है। यह राजनीति लोगों को विभाजन की ओर ले जा रही है। उनका कहना है कि शिक्षा तो सभी रंगों में रंगी है। उसमें अगर कोई एक रंग चुना जाएगा, बाक़ी रंगों के बिना शिक्षा का कोई महत्त्व नहीं रहेगा।

आम आदमी पार्टी के नेता व डीयू के राजनीति शास्त्र के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति या अन्य कई महत्त्वपूर्ण पद ऐसे हैं, जो संवैधानिक होते हैं। उनका अपना सम्मान है। लेकिन इन पदों पर बैठा कोई भी पदाधिकारी किसी विशेष हित को लेकर कोई बयानबाज़ी करे, तो आलोचना होनी लाज़िमी है। रहा सवाल रंगों का, वो भी शिक्षा के लिए, तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि सरकारें तो आती-जाती रहती हैं। राजनीति में विचारधारा की लड़ाई हो, तर्कों की लड़ाई हो, तो लोगों को लाभ मिलता है। अगर रंगों की बात होगी, तो आज भगवा की बात होगी, कल दूसरे रंग की बात होगी। ऐसे में हम रंगों में उलझ जाएँगे और शिक्षा को काफ़ी पीछे छोड़ देंगे।

तहलका विचार

उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का भगवा पक्ष भारतीय संविधान की निष्पक्षता को नकारता दिखता है। रंग कोई भी बुरा नहीं होता। हर रंग प्रकृति की बहुमूल्य नेमत है और भारतीयता हर रंग से निखरती है। इसीलिए इसकी ख़ूबसूरती लोकतंत्र से सँवरती है। ऐसे में उपराष्ट्रपति का यह कहना कि हम पर शिक्षा का भगवाकरण का आरोप लगता है, इसमें क्या ग़लत है? कहीं-न-कहीं पक्षपात से प्रेरित लगता है। उपराष्ट्रपति का पद एक संवैधानिक प्रतिष्ठा वाला पद है, जिस पर बैठने वाला व्यक्ति समन्वयवादी होना चाहिए। उपराष्ट्रपति एम. वेंकैया नायडू का शिक्षा में भगवा रंग को लाने का पक्ष उचित भले ही न हो; लेकिन लार्ड मैकाले की शिक्षा पद्धति का विरोध सही और अति आवश्यक है। क्योंकि मैकाले की शिक्षा पद्धति भारतीय संस्कृति को नष्ट करने के लिए ही लागू की गयी थी, जिसका सबसे बड़ा उदाहरण हमारे यहाँ खुले कॉन्वेंट स्कूल हैं। लार्ड मैकाले ने अपने पिता को लिखे पत्र में कहा था कि वह भारत में ऐसी शिक्षा पद्धति को लागू करना चाहता है, जिससे यहाँ की संस्कृति और भाषा नष्ट हो जाएँ। कॉन्वेंट स्कूलों की नींव अपने इसी सपने को पूरा करने के लिए लार्ड मैकाले ने डाली और आज बड़े-बड़े लोगों को बच्चे उन्हीं कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ रहे हैं। सरकारी स्कूलों की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त पड़ी है। दिल्ली में इन स्कूलों को कुछ हद तक जीवंत किया गया है। बाक़ी देश में इन स्कूलों की दुर्दशा देखकर साफ़ मालूम होता है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को चौपट करने में सरकारों और राजनेताओं का बड़ा योगदान है। आज इन्हीं नेताओं में ज्यादातर के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। पूँजीपतियों के बच्चे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ते हैं। कॉन्वेंट स्कूल चलाने वाले भी या तो नेता हैं या पूँजीपति। तो विदेशी शिक्षा नीति का ख़ात्मा किसको करना चाहिए? ज़ाहिर है नेताओं और पूँजीपतियों को। सवाल यह है कि उपराष्ट्रपति ने अपने देश की भाषाओं, संस्कृति को जीवित रखने की बात किससे कही? क्या उन्होंने पूँजीपतियों और नेताओं से यह बात कही? नहीं, उन्होंने आम लोगों से यह बात कही, जिनमें पाँच फ़ीसदी लोगों के बच्चे भी शायद ही कॉन्वेंट स्कूलों में हों। हाँ, अंग्रेजी से मोह रखने वाले बहुतायत में होंगे। तो काम किसका है? क्यों नहीं सरकार हिन्दी को राष्ट्रभाषा घोषित कर देती? दुनिया के सैकड़ों देश हैं, जहाँ उसी देश की भाषा में शिक्षा दी जाती है, तो भारत में यह सम्भव क्यों नहीं है। आज कितने सरकारी काम हैं, जो हिन्दी में होते हैं। कई संस्थानों में हिन्दी में काम करने तक की मनाही है। मंत्री अनपढ़ हैं, पर अंग्रेजी से उनका मोह अपार है और इतना कि वे अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में शिक्षा नहीं दिलाते। कई तो सरकारी अध्यापक भी अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाते। क्यों? क्या सरकार को ऐसे लोगों पर यह नियम लागू नहीं करना चाहिए कि उनके बच्चे हर हाल में सरकारी स्कूलों में ही पढ़ेंगे?

 

“तर्क विकसित करने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण थी, जो आजकल आस्था के बादल बन रही है। तर्क विकसित करने के लिए शिक्षा महत्त्वपूर्ण है। भगवा, हरा और लाल महत्त्वपूर्ण नहीं है। शिक्षा को किसी भी रंग से रंगने की ज़रूरत नहीं है। अब तर्क विश्वास से घिर रहा है।’’

                                           मनोज झा

सांसद, राजद

 

“सदियों के औपनिवेशिक शासन ने हमें ख़ुद को एक निम्न जाति के रूप में देखना सिखाया। हमें अपनी संस्कृति, पारम्परिक ज्ञान का तिरस्कार करना सिखाया गया। इसने एक राष्ट्र के रूप में हमारे विकास को धीमा कर दिया। हमारे शिक्षा के माध्यम के रूप में एक विदेशी भाषा को लागू करने से शिक्षा सीमित हो गयी। समाज का एक छोटा वर्ग, शिक्षा के अधिकार से एक बड़ी आबादी को वंचित कर रहा है। हमें अपनी औपनिवेशिक मानसिकता को छोड़ देना चाहिए और अपने बच्चों को अपनी भारतीय पहचान पर गर्व करना सिखाना चाहिए। हमें अधिक से अधिक भारतीय भाषाएँ सीखनी चाहिए और अपनी मातृभाषा से प्रेम करना चाहिए। हम पर शिक्षा का भगवाकरण करने का आरोप है; लेकिन भगवा में क्या ग़लत है? मैं उस दिन का इंतज़ार कर रहा हूँ जब सभी गैजेट नोटिफिकेशन सम्बन्धित राज्य की मातृभाषा में जारी किये जाएँगे। आपकी मातृभाषा आपकी दृष्टि की तरह है, जबकि एक विदेशी भाषा का आपका ज्ञान आपके चश्मे की तरह है।’’

एम. वेंकैया नायडू

उपराष्ट्रपति

योगी के लिए गली-गली में राजनीति

इस बार होली पर योगी समर्थकों ने उनकी जय-जयकार की

उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ के दोबारा मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्हें प्रधानमंत्री के रूप में देखने का सपना देखने वाले अब खुले रूप से उनके समर्थन में उतर रहे हैं। इस बार होली पर योगी आदित्यनाथ के समर्थकों की नारेबाज़ी और जय-जयकार में इसकी झलकी साफ़ दिखी। इस बार शहरों की ही नहीं, बल्कि गाँवों की गलियों में भी यह नज़ारा आम था। गौंटिया गाँव के रामदयाल कहते हैं कि 50 साल से ज़्यादा की उम्र से तो मैं देख रहा हूँ, कभी भी किसी भी पार्टी की जीत पर उसके नाम होली या दीवाली नहीं मनायी गयी। मगर इस बार होली पर ऐसा लग रहा था मानो योगी और मोदी ने ही होली की शुरुआत की हो। यह हमारे नौजवानों की समझ को क्या होता जा रहा है, जो यह भी भूल गये कि हमारे त्योहार हमारी संस्कृति का अटूट हिस्सा हैं, जिनका हमसे लाखों साल पुराना रिश्ता है। भला कोई त्योहार किसी नेता के नाम क्यों किया जाना चाहिए? जबकि इस देश में देवता पूजे जाते हैं; न कि कोई इंसान।

बरेली के सुभाषनगर के रहने वाले विजय शर्मा कहते हैं कि यह बदलाव की हवा है, जो लोगों को प्रभावित कर रही है। यह बात सही है कि त्योहार हमारी संस्कृति में बहुत पहले से हैं; लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कोई व्यक्तित्व इनको प्रभावित नहीं कर सकता। पहले भी लोग किसी-न-किसी से प्रभावित रहे हैं और अबके लोग भी मोदी और योगी से पूर्णत: प्रभावित हैं, इससे किसी को ऐतराज़ क्यों होना चाहिए।

इसी मोहल्ले के जयंत कुमार कहते हैं कि जब राजनीति और राजनेता लोगों के सिर पर सवार होने लगें, तो समझ लो कि पीढिय़ाँ बर्बादी की ओर जा रही हैं। आज अगर लोग अपनी चिन्ता छोडक़र नेताओं की जय-जयकार कर रहे हैं, तो इसका मतलब वे ख़ुद से बर्बाद होना चाहते हैं। यह ग़ुलामी की ही पहचान है। आज जो लोग नेताओं की विजयगाथा गा रहे हैं, उनके लिए नारेबाज़ी कर रहे हैं, ज़मीनी हक़ीक़त में उनके घरों की हालत बहुत बेहतर नहीं मिलेगी। चंद लोग जो राजनीति से बड़ा फ़ायदा उठा रहे हैं, उनके इशारे पर नाचने वाले बहुत समय तक नहीं नाच सकेंगे, अन्त में उन्हें रोटी और दाल के बारे में ही सोचना पड़ेगा। ठीक है कि प्रदेश में योगी की सरकार है, किसी-न-किसी की तो सरकार हर जगह होती ही है; मगर इसका मतलब यह नहीं कि हम भी उनके लिए पागल हो जाएँ। सरकार अपना काम कर रही है, हमें अपना काम करना चाहिए।

बरेली से सटे भिटौरा गाँव के मास्टर श्याम प्रसाद कहते हैं कि जब शिक्षा का अभाव होगा, तो यही होगा। दो साल से कोरोना-काल में जिस तरह पढ़ाई को पलीता लगा है, यह उसका असर है कि अब युवा पढ़ाई की चर्चा छोडक़र राजनीति की चर्चा करते दिख रहे हैं। हमारे ज़माने में यह उम्र अपने परिवार के काम में हाथ बँटाने और पढऩे की होती थी, उस समय अगर हम बड़ों के सामने चौपालों में बैठते थे, तो वो हमसे सवाल पूछते थे। जब कभी गाँव के दो-चार साथ पढऩे वाले बच्चे इकट्ठा होते थे, तो किताबों से बाहर की चर्चा तक नहीं होती थी। उसका नतीजा यह था कि अधिकतर बच्चे बड़े होकर सरकारी नौकर हो गये। अब न तो सरकारी नौकरियाँ हैं, न वो पढ़ाई है और न बच्चे अपने माँ-बाप से डरते हैं। घर में कितनी भी परेशानी हो, बच्चे बाहर यह दिखाना चाहते हैं कि उनके पास कोई कमी नहीं है।

बहुत बच्चे पढ़ाई की उम्र में ही नशा करने लगे हैं। त्योहारों पर तो इस संख्या का अंदाज़ा भी लग जाता है, बाक़ी समय वे छिपकर नशा करते हैं और माँ-बाप उनसे कुछ कहें, तो घरों से भाग जाते हैं। घर के काम में वे बच्चे ही हाथ बँटाते हैं, जो इन बातों को समझते हैं। सरकार को बच्चों की पढ़ाई को जल्द-से-जल्द सुचारू करना चाहिए, ताकि यह पीढ़ी और न भटक सके। शिक्षा ही इंसान को सभ्य बनाती है, अन्यथा तो इंसान भी एक पशु ही है।

जो भी हो, जब से प्रदेश में भापजा की प्रचंड जीत हुई है और योगी आदित्यनाथ दोबारा मुख्यमंत्री बने हैं, तबसे हर जगह ऐसे युवाओं, बच्चों और बड़ों की संख्या काफ़ी दिख रही है, जो योगी का गुणगान करते नहीं थक रहे। यह वो लोग हैं, जो योगी आदित्यनाथ को अभी से अपना भावी प्रधानमंत्री मानने लगे हैं।

हालाँकि इस भीड़ में वो लोग भी हैं, उनमें काफ़ी संख्या उनकी भी है, जो योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री तो देखना चाहते हैं, मगर प्रधानमंत्री के रूप में केवल और केवल नरेंद्र मोदी को ही पसन्द करते है। कई बार इन दोनों पक्षों के लोगों में इस मामले में मतभेद इस हद तक सामने आ जाते हैं कि बातचीत बहस में बदल जाती है। लेकिन अन्त में इस बात पर सहमति भी बनती दिखती है कि नरेंद्र मोदी के सेवानिवृत्ति के बाद प्रधानमंत्री आख़िरकार योगी ही बनेंगे। यह एक ऐसी राजनीतिक चिंगारी भडक़ी है, जिसे लेकर गली-गली में अब चर्चा होती दिख जाती है। योगी का जुनून लोगों के सिर पर इस क़दर सवार है कि इस होली में उनके चेहरे वाले मुखौटे लगाये रैलियाँ निकाली गयीं, कुछ लोग मोदी के मुखड़े में ही पहले की तरह दिखे। इन लोगों का मानना है कि मोदी बड़े भाई हैं, तो योगी छोटे भाई। यह बात तबसे ज़्यादा मान्य हो रही है, जबसे नरेंद्र मोदी को योगी आदित्यनाथ का हाथ पकडक़र ऊँचा किये हुए वाले पोस्टर जगह जगह चस्पा दिखायी दिये हैं।

इस बार की होली में होली की परम्परा के गीतों की जगह ज़्यादातर ऐसे गाने भी बजाये गये, जो योगी और मोदी के गुणगान में बनाये गये। इनमें ‘जो राम को लाए हैं, हम उनको लाएँगे’, ‘यूपी में बाबा’, ‘बुलडोजर बाबा’, ‘योगी जी-जोगी जी’, ‘योगीरा सारारारा, मोदीरा सारारारा’ जैसे गाने ख़ूब चले।

यह उत्तर प्रदेश की नयी हवा है, जो संकेत देती है कि राजनीति में अब उसी का गुणगान होगा, जो शक्तिशाली होगा। साथ ही इस बात का भी इससे संकेत मिलता है कि राजनीति से अब कोई अछूता नहीं रह सकेगा। जो लोग राजनीति से दूर-दूर रहते हैं, उन्हें भी कभी-कभार बहस का हिस्सा बनते देखने से इस बात को दृढ़ता से कहा जा सकता है। इस प्रकार उत्तर प्रदेश के शहरों और गाँवों की गली-गली इन दिनों राजनीतिक चर्चाओं से गरम दिखती है।

कमुआ के नंदराम मास्टर कहते हैं कि राजनीति गली-गली में होने लगे, तो इसके दो ही मतलब हैं, या तो समाज पतन की ओर जा रहा है या फिर राजनीति में कोई बड़ा बदलाव होने वाला है। इन दिनों जो उत्तर प्रदेश में हो रहा है, उससे यह अंदाज़ा लगाना बहुत मुश्किल है कि इन दोनों में से भविष्य में क्या होने वाला है, मगर कुछ-न-कुछ ज़रूर होना है। या तो दोनों ही काम एक साथ होंगे। वैसे दोनों के ही संकेत ज़्यादा दिखते हैं; क्योंकि आज के युवाओं के ज्ञान की जाँच करो, तो उनकी राजनीतिक समझ बहुत उथली और खोखली नज़र आती है। स्वामी विवेकानंद जी किसी देश की तरक़्क़ी और पतन का सबसे बड़ा साधन उसके युवाओं को मानते थे। यह बात पूरी तरह सत्य भी है। और आज के युवा किधर जा रहे हैं, यह हम सब अच्छी तरह जानते हैं।

बदलाव ज़रूरी है, बदलाव नहीं होगा, तो तरक़्क़ी के नये रास्ते नहीं खुलेंगे। लेकिन बदलाव बहते हुए पानी की तरह होना चाहिए, न कि रुके हुए पानी की तरह। क्योंकि बहता हुआ पानी ही स्वच्छ होता है, ठहरा हुआ पानी तो कुछ ही दिन में बदबू मारने लगता है। राजनीति में भी बदलाव होना चाहिए। पर वो सही दिशा में हो, तभी विकास होगा। अन्यथा राजनीति में अगर दिशाहीन बदलाव होगा, तो वह लोगों को दिशाहीन कर देगा।

अभ्रक की चमक में खो रहा बचपन

झारखण्ड की ग़रीब बच्ची ने अपना और लाखों लोगों का दर्द बयाँ करके सरकार और प्रशासन को दिखाया आईना

इन दिनों एक बच्ची का रोज़ी-रोटी की परेशानी को बयान करने वाला वीडियो पूरे देश में वायरल हो रहा है। ‘हम क्या प्रधानमंत्री की बेटी हैं, जो कष्ट नहीं होगा। हम ढीबरा चुनकर अपना पेट पालते और पढ़ते-लिखते हैं। क्या केवल एसपी-डीसी के बच्चे ही पढ़-लिखकर अफ़सर बनेंगे? और मज़दूर के बच्चे अनपढ़ रहकर अपना भविष्य ख़राब करेंगे?’ -ये चंद वाक्य छठी कक्षा की एक ग़रीब बच्ची के हैं, जो अभ्रक के अवशेष बीनकर अपने परिवार के भरण-पोषण में मदद करती है।

इस नौ वर्षीय बच्ची का नाम शमा परवीन है। वह झारखण्ड के कोडरमा ज़िले के ढोढ़ाकोला पंचायत के ढोढ़ाकोला गाँव की रहने वाली है। पिता का नाम कलीम अंसारी है। परिवार ढिबरा (अभ्रक से निकले स्क्रैप) चुनकर भरण-पोषण करता है। शमा की तीन बहनें हैं, जबकि एक भाई है। बड़ी बहन चाँदनी परवीन है। वह 10वीं कक्षा में पढ़ती है। दूसरी बहन रौशन परवीन है, जो सातवीं की छात्रा है। जबकि शमा परवीन और उजाला परवीन जुड़वाँ हैं। दोनों बग़ल के सरकारी स्कूल की छठी कक्षा में पढ़ती हैं। छोटे भाई का नाम रेहान है। बच्ची के माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं हैं; लेकिन पढ़ाई का महत्त्व जानते हैं। अपने बच्चों को मज़दूरी करके पढ़ाते हैं। शमा परवीन पढ़ाई में अच्छी है। वह इन दिनों झारखण्ड के कोडरमा ज़िले में चले ढिबरा आन्दोलन की हिस्सा बनी हुई थी। इस आन्दोलन को कवर करने जब मीडिया यहाँ पहुँची, तो शमा परवीन ने बेबाक़ी से उसके सामने अपनी बात रखी। उसने पूरे तंत्र को कठघरे में खड़ा कर दिया।

शमा परवीन की उम्र में आमतौर पर बच्चे खेल-कूद में व्यस्त रहते हैं। उन्हें प्रशासनिक महकमों का ज्ञान भी सही तरीक़े से नहीं होता। लेकिन शमा के साथ ऐसा नहीं है। लिहाज़ा बातचीत में उसका ग़ुस्सा फूटता है। शमा परवीन से जब पूछा गया कि क्या ज़िले के डीसी (उपायुक्त) ने बातचीत के लिए नहीं बुलाया है? तो उसका जवाब था- ‘अरे, डीसी क्या बुलाएँगे? वह तो बग़ल से गुज़र गये। हम लोग चिल्लाते रह गये। उन्होंने गाड़ी का शीशा उतारकर देखा भी नहीं। ढिबरा कारोबार पर रोक के कारण हमारे जैसे कई बच्चों की पढ़ाई छूट गयी है। परिवार के सामने भूखों मरने की स्थिति पैदा हो गयी है। मेरे पापा पर झूठा केस किया गया है। मेरे अंकल पर झूठा केस किया गया है। मेरे पापा ने एसपी को दो बार आवेदन दिया है; लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई। यदि यह केस नहीं उठाया गया, तो हम लोग भी रोड जाम करेंगे और गिरफ़्तारी देंगे।’

छठी कक्षा में पढऩे वाली इस बच्ची की पीड़ा पूरे झारखण्ड के लिए एक थप्पड़ के समान है। उसने एक ऐसी हक़ीक़त बयाँ की है, जो झारखण्ड के ग़रीबों के साथ होता रहा है।

परवीन का अकेले का दर्द नहीं

मासूम बच्ची शमा परवीन ने कैमरे के सामने जो कुछ कहा, वह उसका अकेले का दर्द नहीं है। इस बच्ची ने न केवल सरकारी तंत्र को आईना दिखाया है, बल्कि उसकी बातों से साफ़ हो जाता है कि वातानुकूलित (एसी) कमरों में बैठकर नीतियाँ बनाने से झारखण्ड कभी भी आगे नहीं बढ़ सकता। शमा परवीन तो ढिबरा कारोबार पर लगायी गयी रोक के ख़िलाफ़ कोडरमा में चल रहे आन्दोलन की एक प्रतीक मात्र थी। उसकी बातें अंतर्मन तक को झकझोरती हैं। इस लडक़ी की बातों ने समाज के उस वर्ग की पीड़ा को सामने रखा है, जो दो जून की रोटी के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। वह वर्ग न भीख माँगकर गुजारा करना चाहता है, न हेराफेरी और अपराध में लिप्त होना चाहता है। इस वर्ग को सरकारी सुविधाएँ भी उपलब्ध नहीं हैं। यह वर्ग अपनी मेहनत से अपना और परिवार का गुज़ारा करना चाहता है, ताकि उसके बच्चों का भविष्य सुरक्षित हो सके। लेकिन सरकारी अधिकारियों को यही वर्ग सबसे अधिक चुभता है। इसलिए अकसर प्रशासनिक प्रताडऩा का शिकार यही वर्ग बनता है; जैसे शमा परवीन के पिता और चाचा बने हैं।

क्या है ढिबरा?

ढिबरा अभ्रक का अवशेष (स्क्रैप) है। पहले जब इस इलाक़े में लगभग 600 अभ्रक खदानें थीं, तो अभ्रक निकालने के बाद स्क्रैप को फेंक दिया जाता था। अब उसी से अभ्रक के छोटे टुकड़े चुनकर बेचे जा रहे हैं। इसे ढिबरा कहा जाता है। इसे चुनकर अभ्रक फैक्ट्री में बेचा जाता है। जहाँ परिष्कृत कर इसे पाउडर बनाया जाता है। वहाँ से देश-विदेश तक कारोबार चलता है।

रोज़ी-रोटी का सवाल

झारखण्ड का कोडरमा ज़िला ही नहीं, बल्कि कोडरमा संसदीय क्षेत्र के कोडरमा और गिरिडीह इलाक़े की एक बड़ी आबादी ढिबरा चुनकर गुज़र-बसर करती है। ढिबरा चुनने वाले मज़दूरों को भले ही बहुत कम राशि मिलती हो; लेकिन यह कारोबार लाखों का है। पिछले लगभग छ: महीने से प्रशासन ने ढिबरा यानी अभ्रक स्क्रैप के चुनने, इसके परिवहन और बेचने पर रोक लगा दी थी, जिससे ज़िले के जंगली इलाकों में बसे दर्जनों गाँवों के हज़ारों परिवार ढिबरा चुनकर बेच नहीं पा रहे हैं। कई गाँवों में रोज़ी-रोटी का यही एकमात्र ज़रिया है। कई गाँवों में दो जून की रोटी के लिए मज़दूर ढिबरा पर आश्रित हैं। क्षेत्र के अधिकांश लोग ढिबरा चुनकर अपने परिवार का भरण-पोषण करते हैं। बच्चों को पढ़ाते हैं। इस इलाक़े में साल में एक बार धान की खेती होने के बाद लोग कमाने के लिए दूसरे प्रदेश चले जाते हैं या फिर ढिबरा पर आश्रित रहते हैं। उनके समक्ष रोज़ी-रोटी के लाले पड़े हैं। इस व्यवसाय पर रोक से लगभग दो लाख की आबादी प्रभावित होगी।

मजबूरी में आन्दोलन

प्रशासन ने ढिबरा चुनने वालों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करके उन पर कर्इ मुक़दमे कर दिये हैं। इसके विरोध में आन्दोलन शुरू हुआ। ढिबरा मज़दूर परिवार के साथ धरने पर बैठ गये। ढिबरा स्क्रैप मज़दूर संघ के ज़िलाध्यक्ष कृष्णा सिंह घटवार ने कहा कि क्षेत्र के ग्रामीण और जंगली इलाक़ों में रहने वाले हज़ारों लोगों के जीविकोपार्जन का एकमात्र साधन जंगलों से ढिबरा चुना जाना रहा है। इस पर रोक लगा दिये जाने के कारण ग्रामीणों के समक्ष रोज़ी-रोटी की समस्या खड़ी हो गयी। काम के अभाव में यहाँ के लोग दूसरी जगहों पर पलायन करने के लिए मजबूर हैं। संघ ने प्रशासन से ढिबरा चुनने वालों पर की जा रही कार्रवाई को बन्द करने की माँग की थी; मगर इसे अनसुना कर दिया गया।

विधानसभा में उठा मामला

झारखण्ड विधानसभा का बजट सत्र चल रहा, जो 25 मार्च को समाप्त हुआ। शमा परवीन का वीडियो वायरल होने के बाद यह मामला विधानसभा सदन में गूँजा। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन ने आश्वासन दिया कि ढिबरा मज़दूरों को लेकर सरकार गम्भीर है। व्यवस्था को दुरुस्त किया जा रहा है। ढिबरा आन्दोलन फ़िलहाल शान्त हो गया है। ढिबरा मज़दूरों को काम करने की अनुमति मिल गयी है। लेकिन शमा परवीन ने जो सवाल उठाये हैं, वे बेहद गम्भीर हैं। एक ग़रीब बच्ची ने जिस तरह से व्यवस्था पर सवाल खड़े किये हैं, उन पर सरकार को सोचने और बेहतरी की दिशा में क़दम उठाने की ज़रूरत है। केवल ढिबरा चुनने की अनुमति देकर आन्दोलन शान्त करना ही समस्या का हल नहीं है। शमा परवीन बातचीत में कहती हैं कि वह आईएएस बनना चाहती हैं। ग़रीबों के लिए कुछ करना चाहती हैं। उस बच्ची की तरह ही कई तेज़तर्रार अन्य बच्चियाँ भी हैं। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को ध्यान से देखकर उस पर सोचने की ज़रूरत है। सरकार और प्रशासन को ऐसी बच्चियों के भविष्य के लिए ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है, जिससे अभ्रक की चमक की तरह इस तरह की बच्चियों का भविष्य चमक सके।

अब 19 किलो का कमर्शियल एलपीजी सिलेंडर 250 रुपये हुआ महंगा

महंगाई का सिलसिला जारी है। अब शुक्रवार को लोगों को एक ओर झटका देते हुए 19 किलो के कमर्शियल एलपीजी सिलेंडर के दाम सीधे 250 रूपये बढ़ा दिए गए हैं। बढ़ौतरी के बाद इसकी कीमत 2253 रुपये प्रति सिलेंडर (दिल्ली में) हो गयी है।

घरेलू गैस सिलेंडर के दामों में कोई बढ़ोतरी नहीं की गई है। कमर्शियल सिलेंडर की कीमत में वृद्धि के साथ ही राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में 19 किलो सिलेंडर की कीमत 2,253 रुपये प्रति यूनिट हो गई है।

कोलकाता में एक सिलेंडर की कीमत 2,351 रुपये, मुंबई 2,205 रुपये और चेन्नई में इसकी कीमत 2,406 रुपये हो गई है। याद रहे इससे पहले 22 मार्च को, घरेलू रसोई गैस एलपीजी की दरों में बढ़तोरी की गई थी और इसके दाम 50 रुपये प्रति सिलेंडर बढ़ा दिए गए थे।

बता दें राष्ट्रीय राजधानी में 14.2 किलोग्राम के एलपीजी सिलेंडर की कीमत 949.50 रुपये है जबकि कुछ जगहों पर एक सिलेंडर की कीमत 1,000 रुपये तक है।

आज से जीएसटी, पीएफ, टैक्स, बैंक नियम सहित कई बदलाव

नए वित्त वर्ष (आज) से देश में कुछ बड़े बदलाव लागू हो रहे हैं। इनमें आम आदमी को प्रभावित करने वाला सबसे बड़ा यह है कि अब पीएफ खाते में सालाना 2.5 लाख रूपये से ज्यादा जमा होने पर ब्याज आय पर टैक्‍स लगेगा। सरकारी कर्मचारियों के जीपीएफ के खाते में टैक्स फ्री जमा की सीमा 5 लाख रुपये सालाना रखा गयी है।  इसके अलावा टैक्स, बैंकों के नियम, जीएसटी सहित कई क्षेत्रों में बदलाव हुए हैं या नए नियम लागू हो गए हैं।

घर खरीदना भी अब थोड़ा महंगा हो रहा है। घर खरीदने वालों को केंद्र सरकार पहली धारा 80ईईए के तहत टैक्स छूट का लाभ मिलना बंद हो रहा है। पोस्ट आफिस की लघु बचत योजना में निवेश करने वालों के लिए बड़े बदलाव हो रहे हैं। पहली अप्रैल से पोस्ट ऑफिस मंथली इनकम स्कीम, टर्म डिपॉजिट अकाउंट्स और सीनियर सिटीजन सेविंग्स स्कीम के ब्याज का पैसा बचत खाते में ही मिलेगा। पोस्ट ऑफिस जाकर कैश में ब्याज का पैसा नहीं लिया जा सकेगा।

केंद्रीय अप्रत्यक्ष कर और सीमा शुल्क बोर्ड ने जीएसटी के तहत ई-चालान जारी करने के लिए टर्नओवर की लिमिट को पहले तय लिमिट 50 करोड़ रुपये से कम करके 20 करोड़ रुपये कर दिया है।

अब सेविंग खाते से लिंक करा लेने पर ब्याज की राशि इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से ट्रांसफर हो जाएगी। बता दें कि सरकार ने एमआईएस, एससीएसएस, टाइम डिपॉजिट खातों के मामले में मासिक, त्रैमासिक और सालाना ब्याज जमा करने के लिए बचत खाते के उपयोग को आवश्यक कर दिया है।

इसके अलावा आज से सरकार ने मौजूदा पीएफ अकाउंट को दो भागों में बांट दिया है, जिस पर अब टैक्स भी लगेगा। अब ईपीएफ अकाउंट में 2.5 लाख की राशि तक टैक्स फ्री योगदान का कैप लगाया जा रहा है। अगर इससे ज्यादा योगदान हुआ तो ब्याज आय पर टैक्स लगेगा। वहीं, सरकारी कर्मचारियों के जीपीएफ में टैक्स फ्री योगदान की सीमा 5 लाख रुपये सालाना रखी गयी। है

साथ ही आज से एक्सिस बैंक ने मिनिमम बैलेंस की सीमा 10 हजार से बढ़ाकर 12 हजार रुपये कर दी है। एक्सिस बैंक की वेबसाइट पर दी गई जानकारी के मुताबिक अब चार ही फ्री ट्रांजैक्शन होंगे। वहीं, नए वित्त वर्ष में पंजाब नेशनल बैंक पीपीएस  लागू करने जा रहा है। चार अप्रैल से 10 लाख और उससे अधिक के चेक के लिए वेरिफिकेशन जरूरी होगा।

इसके अलावा म्यूचुअल फंड में निवेश के नियम में भी आज से बदलाव हो रहा है। बदलाव के मुताबिक पहली अप्रैल से म्‍यूचुअल फंड में निवेश करने के लिए ग्राहक सिर्फ यूपीआई या नेट बैंकिंग के जरिये ही पेमेंट कर सकेगा।

परिवारवाद-वंशवाद से त्रस्त जनतंत्र

फ्रेडरिक नीत्शे लिखते हैं- ‘यंत्रणा झेलने वाले के लिए इससे ज़्यादा नशीली ख़ुशी और क्या हो सकती है कि अपनी यातना की ओर से आँखें बन्द कर ले और अपने आपको भूल जाए।’ भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी यंत्रणाओं में से एक परिवारवाद-वंशवाद है। यह एक सर्वसुलभ तथ्य होते हुए जन-सामान्य में गम्भीर चर्चा के केंद्र में नहीं होती। संसद में अपने भाषण के पश्चात् प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर भाजपा संसदीय दल की बैठक में परिवारवाद की आलोचना की, जिसके बाद इस पर एक बार फिर विमर्श जारी है। भ्रष्टाचार के विविध रूपों में से एक परिवारवाद और वंशवाद, मूलत: राजनीतिक एवं नैतिक भ्रष्टाचार है। दूसरे शब्दों में इसे प्राचीन राजतंत्र-कुलीनतंत्र का आधुनिक, परिष्कृत रूप कहा जा सकता है। यह दुनिया का सबसे निकृष्टतम कोटि का आरक्षण है। परिवारवाद आधुनिक राजनीतिक प्रगतिशीलता एवं लोकतंत्र के विरुद्ध एक कलंकित अवधारणा है। आधुनिक भारतीय राजनीति में यह एक प्रकार का संगठित अभिजात्य वर्गीय अपराध बन गया है, जिसमें अपराधी तो फल-फूल रहे हैं, पर सज़ा जनता भुगत रही है। इसके विरुद्ध न कोई क़ानून हैं, न कोई अपील और न ही दलील।

कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी हो या उत्तर से लेकर दक्षिण तक सारे क्षेत्रीय दल, परिवारवाद के दुर्दम्य रोग से ग्रसित हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि इसमें ‘पार्टी विद् डिफरेंस’ भाजपा एवं ‘प्रगतिशीलता के प्रतिनिधि’ वाम दल भी शामिल हैं, जिन्हें सामान्यत: इस दोष से मुक्त माना जाता रहा है। अब तक भाजपा एवं वाम दलों को छोडक़र सभी राजनीतिक दल परिवारवाद को लेकर निरंतर निशाने पर रहे हैं और आलोचना झेलते रहे हैं। किन्तु जिस भाजपा द्वारा राजनीतिक सुचिता पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है, वह भी पारिवारवाद की दलदल में किसी से कम नहीं धँसी है। ऐसा ही कुछ वामपंथी दलों के साथ भी है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का यह कहना कि ‘वह परिवारवाद को प्रश्रय नहीं दे रहा है।’ यह एक निरा असत्य है, जिसे स्वीकार करना कठिन है। भाजपा के इस दावे की पड़ताल के लिए उसके नेतृत्व वर्ग पर एक नज़र डालते हैं। राजस्थान में भाजपा नेता विजयाराजे सिंधिया की बेटी वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री रही हैं, तो उनकी दूसरी बेटी यशोधरा राजे सिंधिया शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में मंत्री बनीं। वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह भाजपा से सांसद हैं। इसी परिवार के कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र सरकार में मंत्री हैं। छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे सांसद रहे, तो उत्तर प्रदेश से पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे सांसद हैं और पोता विधायक। चर्चा में रही अपर्णा यादव की भाजपा में पाँव-पुजाई सिर्फ़ एक परिवार विशेष की सदस्य होने के नाते ही हो रही थी। बिहार से रविशंकर प्रसाद के पिता ठाकुर प्रसाद जनसंघ के बड़े नेता थे और बिहार में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार में मंत्री भी थे।

इसी तरह महाराष्ट्र से वर्तमान ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल के पिता वेद प्रकाश गोयल भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन सांसद हैं। गोपीनाथ मुंडे की एक बेटी पंकजा मुंडे महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थीं और दूसरी प्रीतम मुंडे सांसद हैं। झारखण्ड से वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे यशवंत सिन्हा के पुत्र जयंत सिन्हा मोदी कैबिनेट में मंत्री रहे। हिमाचल प्रदेश से प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर केंद्र सरकार में मंत्री हैं। गृहमंत्री अमित शाह का बेटा बीसीसीआई में उच्च पद पर है। साहिब सिंह वर्मा का बेटा सांसद है। स्वामी प्रसाद मौर्य के बेटे-बेटी भी राजनीति में हैं। ये सिर्फ़ चंद चर्चित उदाहरण हैं। वास्तविकता यह है कि भाजपा परिवारवाद के ख़िलाफ़ जिस मुहिम पर निकली है, ख़ुद उसमें आकंठ डूबी है। स्वयं को कॉडर आधारित पार्टी  के जयघोष के आवरण में परिवारवाद को संरक्षण देने में पार्टी किसी भी अन्य दल से पीछे नहीं है। सन् 2014 से वंशवाद और परिवारवाद को जितनी तरजीह भाजपा में मिली है, उतनी पहले कभी नहीं थी। आश्चर्य है कि इसके बावजूद प्रधानमंत्री कौन-से परिवारवाद को रोकने और समाप्त करने की बात कर रहे थे? यह समझना कठिन है।

अब वाम दलों को ही लें, वे भी सिद्धांतों को ताक पर रखकर भाई-भतीजावाद के पोषण में लगे हुए हैं। उन्होंने भले ही राजनीति में परिवारवाद को प्रश्रय न दिया हो, किन्तु विभिन्न अकादमिक संस्थानों, वज़ीफ़ों, फेलोशिप आदि में अपने सगे-सम्बन्धियों की घुसपैठ कराने के साथ ही साहित्यिक संस्थानों, किसी एडवाइजरी बोर्ड आदि में समायोजित (एडजस्ट) कराने के में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। केरल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। केरल सरकार में प्रत्येक मंत्री 20 से अधिक लोगों को ‘क्वो टर्मिनस’ के आधार पर नियुक्त करता है, जो दो साल की सेवा के बाद पेंशन के हक़दार हो जाते हैं। इसके बाद वह समूह अपने पदों से इस्तीफ़ा दे देता है और दूसरे समूह की नियुक्ति होती है। एक कार्यकाल में प्रत्येक मंत्री औसतन 45-50 लोगों को नियुक्त करता है, जिन्हें सरकार से पेंशन मिलती है। केरल में मंत्रियों के निजी कर्मचारियों के लिए पेंशन सन् 1994 से प्रभाव में है। इस तरह जनता के पैसे को सरकार खुले हाथों से अपने लोगों में बाँट रही थी।

हाल ही में मीडिया द्वारा इस मामले को प्रकाश में लाये जाने पर उच्चतम न्यायालय ने इस पर संज्ञान लिया। न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की बेंच ने 14 मार्च, 2022 को पिनराई विजयन सरकार को फटकार लगाते हुए कहा- ‘आप एकमात्र राज्य हैं, जहाँ लोगों को दो साल के लिए नियुक्त किया जाता है और उन्हें आजीवन पेंशन दी जाती है। राज्य के पास बहुत पैसा है, यह अधिकारियों को बताएँ।’

स्पष्ट है कि राजनीति में परिवारवाद कितना विकृत है, जिससे न कोई दल बचा है, न कोई सरकार। वंशवादी उत्पादों की सबसे बड़ी ख़ामी सिद्धांतहीनता एवं नैतिकतारहित होना है। चूँकि चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए ये लोग समझते हैं कि सत्ता और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन उनका नैसर्गिक अधिकार है। इसलिए ये किसी भी दल या सिद्धांत के सगे नहीं होते। इन्हें सिर्फ़ सत्ता-भोग का आकर्षण है। जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता अनुकूल स्थिति देख भाजपा में चले आये। रीता जोशी खुलेआम अपने बेटे के लिए टिकट माँग रही थीं और उसके लिए ऐसे पद छोडऩे की पेशकश कर रही थीं जैसे स्वतंत्रता आन्दोलन में गाँधी जी की पुकार पर पदों का त्याग चल रहा हो। जबकि यह त्याग नहीं, लोकतंत्र का खुला अपमान था। टिकट न मिलने पर उनके बेटे का अचानक स्वाभिमान जाग जाना और सपा में चले जाना, निरा अवसरवाद है। सहसा पं. प्रेम बरेलवी के शेर का स्मरण हो आया-

‘‘बेच देते हैं अपना ईमाँ तक,

लोग कितने ग़रीब होते हैं?’’

वास्तव में यह ग़रीबी नैतिकता की है। सिद्धांतों की है। जनभावनाओं के प्रति सम्मान की है। वंशवाद एक अहंकार का भाव पैदा करता है। इस भाव के कारण ही किसी सरकार या पार्टी का पतन होता है। राष्ट्रीय लोकदल और सपा को देख लीजिए। सबसे आश्चर्यजनक तथा विध्वंसक पहलू पिछड़ा एवं दलितवाद की राजनीति करने वाले नेताओं और दलों का घोर परिवारवादी-वंशवादी चरित्र है। स्वतंत्र भारत में राजनीतिक वंशवाद की प्रणेता कांग्रेस थी। जवाहरलाल नेहरू ने इस विष बीज का रोपण करके राजनीति को दूषित करने की शुरुआत की। किन्तु डॉ. लोहिया के ग़ैर-कांग्रेसवाद के नारे के साथ उभरे तथाकथित पिछड़े वर्ग के नेताओं ने इस कांग्रेसी दुर्गुण को बड़ी रुचि के साथ अपनाया। होना तो यह चाहिए था कि वे अन्य नीतिगत विरोधों के साथ इस कांग्रेसी दुर्गुण को भी समाप्त करने का प्रयास करते, परन्तु उन्होंने तो उसे और दृढ़ता के साथ स्वीकार किया। वे जो राजनीति में कुलीनतंत्र के विरुद्ध पिछड़े, वंचित एवं शोषित तबक़े के उत्थान के संघर्ष के भावनाओं के ज्वार से सत्ता में ऊपर आये, वे ही सबसे ज़्यादा अपने परिवार को राजनीति में स्थापित करने में लग गये। थोड़ा स्पष्ट कहें, तो क्षेत्रीय दलों, जिनमें ज़्यादातर ने पिछड़ों एवं दलितों के नाम पर अपनी राजनीति चमकायी; ने सबसे ज़्यादा धोखा अपने ही समाज को दिया है।

भावनात्मक जातिवादी गोलबंदी से उभरे नेताओं ने अपनी-अपनी जातियों में परिवार के बाहर नेतृत्व उभार का न सिर्फ़ दमन किया है, बल्कि उनके विकास को बन्धक बना लिया है। एक तरह से उन्होंने अपनी जाति को अपना ग़ुलाम बना रखा है। अब पूर्व सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह एवं राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को ही लें। पहले इन्होंने अपनी जाति के ‘उत्थान के नारे’ से प्राप्त समर्थन से राजनीति में शीर्ष स्थान हासिल किया; लेकिन अब ये नेता चाहते हैं कि उनकी जाति के लोग उनके बेटों एवं परिवार को भी पालकी में बैठाकर विधानसभा एवं संसद तक पहुँचाएँ। अन्य उदाहरण देखिए, निषाद पार्टी के संजय निषाद ख़ुद एमएलसी, बेटा सरवन विधायक और बड़ा बेटा प्रवीण सांसद है। ऐसे उदाहरणों की भी सूची लम्बी है। जब तथाकथित पिछड़ा और दलित वर्ग अपने ही दलों और नेताओं से सत्ता में भागीदारी की माँग करता है, तो इन्हें या तो चुप कराने का प्रयास होता है अथवा हासिये पर धकेलने की कोशिश होती है। और अगर उससे भी काम न चले, तो इन्हें तुरन्त तथा कथित सवर्ण वर्ग का एजेंट और अपनी जाति का दुश्मन घोषित कर दिया जाता है। साथ ही जातिगत गोलबंदी हेतु आरक्षण में हिस्सेदारी बढ़ाने की माँग और तथाकथित सवर्ण वर्ग के प्रति विष वमन का अमोघ ब्रह्मास्त्र तो है ही। किन्तु पिछड़े और दलित तबक़े के युवाओं को यह समझना होगा कि उनकी योग्यता के असली शत्रु वही सह-जातीय नेता हैं, जिन्हें वे अब तक मसीहा मानते आये हैं।

एक दु:खद पहलू यह भी है कि वंशवाद के कारण नेपथ्य में धकेले गये नेता भी इस दुष्परम्परा के पोषण में लगे हैं। शरद पवार एवं पी.ए. संगमा, जिन्होंने इसी परिवारवाद के विरुद्ध कांग्रेस छोड़ी, ख़ुद अपने दल के गठन के बाद परिवारवाद से परे नहीं देख पाये। भाजपा का वर्तमान शीर्ष नेतृत्व भी इसी सूची में है। प्रधानमंत्री मोदी, जो स्वयं अपने संघर्षों से ऊपर उठे हैं; आज ख़ुद अपने आभामंडल में भाजपा नेताओं के परिवारवाद को संरक्षण दे रहे हैं। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति को परिवारवाद का कोढ़ बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर चुका है। इसने देश के राजनीतिक-सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं को विषाक्त कर रखा है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुक़सान इसके राजनीति में अतिव्यापन (ओवरलैपिंग) से है, क्योंकि राजनीति ही देश की दशा-दिशा का निर्धारण करती है। साथ ही आज अगर भाजपा के समक्ष एक मज़बूत विपक्ष नहीं खड़ा हैं, तो उसकी बड़ी वजह वंशवाद की अयोग्यता है। हालाँकि इस देश में कुछ अनुकरणीय आदर्शवादी भी रहे हैं। जननायक कर्पूरी ठाकुर, जिनके बेटे रामनाथ ठाकुर को जब जनता पार्टी ने टिकट दे दिया था, तो उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया, ताकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति पदस्थ हो। बीजू पटनायक के जीवित रहते परिवार का कोई भी व्यक्ति राजनीति में नहीं आया। उनके निधन के बाद ही नवीन पटनायक ने बीजू जनता दल का गठन किया। बसपा के संस्थापक कांशीराम इस मामले में एक अप्रतिम उदाहरण हैं, जिन्होंने परिवारवाद को एकदम ही नकार दिया। उनका मानना था कि सार्वजनिक जीवन में आने के बाद देश भर का दलित, वंचित और शोषित तबक़ा ही अब उनका परिवार है।

कांशीराम ने सार्वजनिक रूप से अपने परिवार से सम्बन्ध तोडऩे, जीवन भर अपना मकान न बनाने, सम्पत्ति अर्जित न करने और पद-प्रतिष्ठा का मोह छोडऩे की घोषणा की थी एवं आजीवन उन्होंने इस व्रत का पालन किया। यहाँ तक कि अपने पिता और परिजनों के मृत्यु समाचार सुनने के बाद भी वह कभी घर वापस नहीं गये। इस वक़्त जदयू एवं बीजद ऐसे क्षेत्रीय दल हैं, जिन्होंने अब तक शीर्ष स्तर पर वंशवाद को तरजीह नहीं दी है, इसके लिए नीतीश कुमार एवं नवीन पटनायक साधुवाद के पात्र हैं। स्वयं भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी जैसे पुराने नेता, जिन्होंने क्षमता होते हुए भी अपने परिवार को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की। आज भले की हम आधुनिक लोकतंत्र होने का दम भरते हों, पर परिवारवाद की विकरालता और वंशवाद के प्रति मोह हमारे लोकतान्त्रिक पिछड़ेपन का सूचक है। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या इस लोकतंत्र की जड़ों में पैबस्त हो चुके इस कर्क रोग के लिए मात्र राजनीतिज्ञ ही ज़िम्मेदार हैं। इसके बजाय यह प्रश्न देश की जनता से पूछा जाना चाहिए कि क्या वह 21वीं सदी में आज़ादी के 70 दशकों से भी अधिक समय बीतने के बाद भी वह व्यक्ति पूजन के भ्रम से नहीं निकल पायी, जिसके विषय में बाबा साहब आंबेडकर ने सन् 1940 के दशक से ही सचेत करना शुरू कर दिया था।

हीगेल के अनुसार, ‘स्वतंत्रता के विकास का तात्पर्य चेतना का विकास है।’ हीगेल ने इसको नैतिक बुद्धि का प्रसार कहा है, जो सामाजिक सम्बन्धों का बाहर रूप धारण करते हैं। यही सामाजिक सम्बन्ध राष्ट्र के रूप में परिणत होते हैं। अत: राष्ट्र नैतिक बुद्धि की ही सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। अगर इस कसौटी पर देखें, तो इस देश में स्वतंत्रता का वास्तविक विकास हुआ ही नहीं है; क्योंकि आम जनता की चेतना अभी भी अविकसित अवस्था में है। अत: अगर राष्ट्र के रूप में हम भ्रष्ट देश के रूप में गिने जाते हैं, तो उसकी वजह यही है, क्योंकि हमारी नैतिक बुद्धि भ्रष्ट है। हम अपने ओछे स्वार्थों से बाहर निकल ही नहीं पाये हैं। यूरोपीय देशों के मुक़ाबले भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनने में 250 साल से भी अधिक का समय लगा। आम भारतीय जनता, जो कभी राजा-महाराजाओं, तुर्कों, मुगलों और अंग्रेजों के जूतों के नीचे पिसती आयी थी; को बड़े लम्बे संघर्षों के बाद लोकतंत्र की खुली हवा में साँस लेने का अवसर मिला; लेकिन जनता उसका सम्मान करना नहीं जानती। जम्हूरियत में जनता ही सर्वोच्च है। वह एक मतदान से ही देश की पूरी सत्ता को पलट सकती है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश का आम जनमानस सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने निजी स्वार्थों के लिए जी रहा है। इस नाते उसे नेताओं को कोसने का बिल्कुल भी नैतिक अधिकार नहीं है। यह नेता उन्हीं के मतों के बूते सत्ता पाते हैं। भ्रष्टाचार फैलाते हैं। अपने परिवार को आगे बढ़ाते हैं, और वंशवाद की कालिख लोकतंत्र के मुँह पर पोतते रहते हैं। यह सब आम जनता के मत से ही सम्भव होता है। लेकिन जब जनता मत का ही ग़लत उपयोग करती है, फिर उसे किसी के ऊपर उँगली उठाने का क्या नैतिक अधिकार है? सच्चिदानंद सिन्हा लिखते हैं- ‘…क्योंकि धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों में से एक लक्ष्य औपचारिक रूप से उन मानवीय अभियानों पर रोक लगाना भी रहा है, जो सामाजिक संस्कृति को ध्वस्त करने वाले होते हैं।’ -(निहत्था पैगंबर, पृष्ठ-60)।

इस समय जन सामान्य को धर्म राजनीति के इन परजीवियों को नोंच फेंकना चाहिए। अब जनता यह भी नहीं कह सकती कि उसे न कहने का अधिकार नहीं है। वह बूथ तक जाकर नोटा के माध्यम से अपना आक्रोश जता सकती है। इस मामले में किसी भी राजनीतिक दल या नेताओं से उम्मीद करना निरी मूर्खता होगी। हाँ, निर्वाचन आयोग ज़रूर मदद कर सकता है। देश का लोकतंत्र इस स्थिति में है कि उसे अब ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार मिलना चाहिए। सूफ़ी संत इब्न-उल-अरबी कहते हैं- ‘उम्मीद से पहले य$कीन की ज़रूरत होती है।’ जनता को इस परिवारवाद-वंशवाद के इस कोढ़ से निजात पाने की उम्मीद से पहले अपने उचित-अनुचित के मनोभावों के निर्णय पर यक़ीन करना होगा, तत्पश्चात् ही वह स्वयं अपने यथेष्ठ की सिद्धि कर सकेगी।

(लेखक इतिहास और राजनीति के जानकार हैं और उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)

कोरोना के नये वेरिएंट की आहट

कोरोना वायरस के मामले फिर बढऩे की दुनिया भर में आशंका को लेकर लोगों में फिर से भय का माहौल देखा जा रहा है। कोरोना के नये वेरिएंट के यू-टर्न लेने से डॉक्टरों ने चिन्ता व्यक्त करते हुए सचेत किया है कि अगर जरा-सी लापरवाही हुई, तो चौथी लहर आ सकती है। क्योंकि कोरोना की चौथी लहर जून में आने की सम्भावना पहले ही आईआईटी के एक शोध में जतायी जा चुकी है।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि चीन, दक्षिण कोरिया सहित यूरोप में आने वाले कोरोना के नये वेरिएंट से तो लगता है कि केंद्र सरकार को अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर अभी से सघन जाँच अभियान तेज़ कर देना चाहिए। क्योंकि अब तो कोरोना वायरस के मामले चीन के अलावा अन्य किसी देश से भी आ सकते हैं। ऐसे में अभी सचेत व सावधान रहने की ज़रूरत है, ताकि आने वाली मुसीबत को रोका जा सके।

नेशनल मेडिकल फोरम के चेयरमैन डॉक्टर प्रेम अग्रवाल का कहना है कि कोरोना के जन्मदाता चीन और यूरोपीय देशों में डेल्टा, ओमिक्रॉन के सब वेरिएंट बीए-2 के साथ दक्षिण कोरिया में कोरोना के नये वेरिएंट में बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। इससे माना जा रहा है कि दुनिया में कोरोना की चौथी लहर आ सकती है। ऐसे में ज़रा भी लापरवाही घातक हो सकती है। इसलिए बचाव के लिए जारी दिशा-निर्देशों का पालन करना ही होगा। क्योंकि भारत में कोरोना को पैर पसारने में देर नहीं लगती है। मैक्स अस्पताल साकेत के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि पहले कोरोना वायरस, फिर डेल्टा और फिर ओमिक्रॉन आया। उसके बाद मामले कम होने लगे थे, जिससे लगा कि कोरोना लगभग ख़त्म होने के कगार पर है। लेकिन अब फिर से नये वेरिएंट ने चिन्ता बढ़ा दी है। ऐसे में कोरोना को हल्के में नहीं लेना चाहिए। हृदय, लीवर, किडनी और न्यूरो से जुड़ी बीमारियों से पीडि़त मरीज़ों को नियमित स्वास्थ्य जाँचें करानी चाहिए।

इधर बूस्टर डोज को लेकर छिड़ी बहस पर एम्स के डॉक्टर आलोक कुमार का कहना है कि कोरोना को लेकर अभी सावधानी ही ज़रूरी है। इस समय सर्दी-जुकाम और बुख़ार को भी हल्के में नहीं लेना चाहिए। बूस्टर डोज को लेकर जो माहौल बनाया जा रहा है, वो ठीक नहीं है। टीकाकरण पर सरकार को ज़ोर देना चाहिए।

दिल्ली मेडिकल काउंसिल (डीएमसी) के वाइस प्रेसिडेंट डॉक्टर नरेश गोयल का कहना है कि इन दिनों देश में कोरोना का जौ हौवा बनाया जा रहा है, वह ठीक नहीं है। कोरोना पर भारत में क़ाबू पाया जा चुका है। रही बूस्टर की बात, तो क्योंकि अभी प्रीकॉशन के तौर पर 60 साल से अधिक आयु वालों को ही बूस्टर डोज की अनुमति दी गयी है। डॉक्टर दिव्यांग देव गोस्वामी का कहना है कि अमेरिका, ब्रिटेन सहित कई देश अपने नागरिकों को तीनों $खुराकें दे चुके हैं। इन देशों में कोरोना के बढ़ते मामलों के मद्देनज़र वैक्सीन की अतिरिक्त चौथी ख़ुराक की अनुमति भी दी गयी है। लेकिन भारत में जनवरी, 2022 में 60 साल से अधिक उम्र के गम्भीर कोरोना मरीज़ और पैरामेडिकल कर्मचारियों को अतिरिक्त ख़ुराक के रूप में बूस्टर डोज देने की बात की है। लेकिन देश में अब बूस्टर डोज की अनुमति की ज़रूरत है, क्योंकि कोरोना टीके की शुरुआती दो ख़ुराकों से मिलने वाली रोग प्रतिरोधक क्षमता छ: से आठ महीने में कमज़ोर होने लगती है। ऐसे में उम्र ने देखकर हर उस व्यक्ति को बूस्टर ख़ुराक देनी चाहिए, जिसे ज़रूरत है। चाहे वह गम्भीर बीमारी से पीडि़त हो। विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना सलाना संकट बन गया है। हमारे पास वैक्सीनेशन और जागरूकता के अलावा और कोई उपाय नहीं है। ऐसे में सरकार को देश में कोरोना विरोधी संसाधनों को बढ़ाना चाहिए। हमारे देश के कई नामचीन अस्पतालों में स्वास्थ्य व्यवस्थाएँ बेहद कमज़ोर हालत में हैं। जागरूकता के अभाव में आज भी लोग टीका नहीं लगवा रहे हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह उन लोगों को चिह्नित करे, जो कोरोना को हल्के में ले रहे हैं और टीका नहीं लगवा रहे हैं। विशेषज्ञों ने हैरानी जताते हुए कहा कि बीए-2 वायरस को लेकर सरकार लापरवाही बरत रही है। लगातार विदेशों से आने वालों की कोरोना जाँच होनी चाहिए, जो फ़िलहाल नहीं हो रही है। बाज़ारों में अधिक भीड़ पर रोक लगनी चाहिए। एम्स और मौलाना आज़ाद मेडिकल कॉलेज के संक्रमण विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना वायरस के नाम पर हो रहे शोध से हम किसी मुकाम पर नहीं पहुँचे हैं। यही वजह है कि नये-नये वेरिएंट आ रहे हैं। ऐसे में हमें सावधानी के साथ टीकाकरण और बूस्टर डोज के सहारे ही अपना बचाव करना होगा।

राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस पर विशेष मातृत्व रक्षा में नाकामी हमारा दुर्भाग्य

दुनिया में माँ को ईश्वर के बाद सबसे ऊँचा दर्जा दिया गया है। क्योंकि नया जीवन देने के लिए माँ जिस पीड़ा से गुज़रती है और मौत के मुँह से लौटकर आती है, वह असहनीय होती है। इसीलिए कहा जाता है कि माँ का क़र्ज़ स्वयं भगवान भी नहीं उतार पाये हैं। लेकिन बावजूद इसके दुनिया में लाखों माँओं की दुर्दशा आज हो रही है। हमारा देश भी इससे अछूता नहीं है। आँकड़े बताते हैं कि हमारे देश में हर साल हज़ारों माताओं की मौत असमय हो जाती है। इन मौतों को रोकने के लिए सरकार द्वारा कई योजनाएँ चलायी जाती हैं, लेकिन फिर भी मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा है। देश में हर साल महात्मा गाँधी की पत्नी कस्तूरबा गाँधी की जयंती पर 11 अप्रैल को राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस मनाया जाता है। यह राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस व्हाइट रिबन एलायंस इंडिया (डब्ल्यूआरएआई) द्वारा गर्भवती महिलाओं की उचित देखभाल और प्रसव सम्बन्धी जागरूकता फैलाने के उद्देश्य शुरू की गयी एक पहल है।

ख़ास बात यह है कि भारत दुनिया का ऐसा पहला देश है, जिसने सामाजिक रूप से राष्ट्रीय सुरक्षित मातृत्व दिवस की घोषणा की। लेकिन हैरानी की बात यह है कि गर्भावस्था, प्रसव और प्रसव बाद महिलाओं को अधिकतम स्वास्थ्य सेवा सुनिश्चित करने के लिए डब्ल्यूआरएआई द्वारा हर साल पूरे देश में मातृत्व की सुरक्षा के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाया जाता है, बावजूद इसके गर्भवती महिलाओं की मौत के आँकड़े चौंकाने वाले हैं।

गर्भवती महिलाओं की मौत के कारण

दुनिया में कब और किसकी मौत हो जाए इस बारे में कोई कुछ नहीं कह सकता। डॉक्टरों को भगवान कहा जाता है, लेकिन वह भी मरीज़ के इलाज के समय भगवान पर ही सब छोड़ देता है। फिर भी अगर किसी की मौत कम उम्र में हो, तो उसे असमय मौत ही कहा जाता है। गर्भवती महिलाओं की मौतों को भी इसी श्रेणी में रखा जाता है। लेकिन सवाल यह है कि आख़िर बड़ी तादाद में गर्भवती महिलाओं की मौत होती क्यों है? इस सवाल का सही जवाब तो कोई नहीं बता सकता, लेकिन इसके कई कारण हैं।

ख़ून की कमी और कुपोषण

हमारे देश में क़रीब 70 फ़ीसदी महिलाएँ कुपोषण की शिकार हैं, जिसके चलते उनमें ख़ून की कमी है यानी एनीमिया की शिकार हैं। इसके चलते जब वे माँ बनती हैं, तो या तो बीच में ही या प्रसव के दौरान कई महिलाओं की मौत हो जाती है। इसकी एक बड़ी वजह गर्भधारण करने के बाद उन्हें पौष्टिक आहार नहीं मिलना भी है। गर्भवती महिलाओं की प्रसव के दौरान मौत की एक वजह चिन्ता भी है। दूसरी वजह प्रसव के दौरान अत्यधिक ख़ून बह जाना भी है। इसे डॉक्टरी की भाषा में पीपीएच भी कहा जाता है।

कम उम्र में मौत की वजह

हैरानी की बात है कि आज विज्ञान की प्रगति का युग है और इसके बावजूद पाँच साल की बच्चियों तक के माँ बनने के मामले सामने आये हैं। हालाँकि ऐसे मामले बहुत ही कम देखे गये हैं, लेकिन इससे पता चलता है कि दुनिया में महिलाओं को हवसी मर्दों की नज़र किसी भी उम्र में बर्बाद करने से नहीं चूकती। किशोरियों के तो गर्भवती होने के हज़ारों मामले हर साल दुनिया में सामने आते हैं। ऐसे मामले दुनिया के हर देश में देखे गये हैं, जो केवल अनपढ़ और ग़रीब तबक़े के लोगों में ही नहीं, बल्कि पढ़े लिखे सम्भ्रांत लोगों में भी सामने आते हैं। यूरोप के देशों में तो हर साल हज़ारों मामले कम उम्र में माँ बनने के सामने आते हैं।

एक रिपोर्ट की मानें तो किशोरियों में मौत का सबसे बड़ा कारण कम उम्र में माँ बनना है। सेव द चिल्ड्रन संस्था की रिपोर्ट से पता चलता है कि दुनिया में हर साल 10 लाख किशोर माँओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। अगर कोई लडक़ी 18 साल से पहले माँ बनती है, तो बच्चे के मरने की भी आशंका ज़्यादा रहती है। रिपोर्ट की मानें तो भारत में 15 से 19 साल के बीच की 47 फ़ीसदी लड़कियों का वज़न सामान्य से कम है, वहीं 56 फ़ीसदी महिलाएँ एनीमिया की शिकार हैं। इसी प्रकार भारत में क़रीब 20 फ़ीसदी से ज़्यादा लड़कियों की शादी आज भी किशोरावस्था में कर दी जाती है। गर्भावस्था के दौरान पूरी जाँचें न कराना भी माँओं की मौत की एक बड़ी वजह है। एक आकलन के अनुसार देश में जितनी महिलाएँ गर्भवती होती हैं, उनमें से आधी महिलाएँ ही जाँचें कराती हैं।

देश में प्रसूताओं की मृत्यु दर

हमारे देश में गर्भवती माताओं के लिए आँगनबाड़ी से लेकर कई सरकारी योजनाएँ लागू हैं, बावजूद इसके 290 गर्भवती महिलाओं में कम-से-कम एक महिला की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मानें तो भारत में हर साल 35 हज़ार गर्भवती महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान हो जाती है, जो कि दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा आँकड़ा है। हालाँकि हमारे देश में गर्भवती महिलाओं की मौत में पहले से काफ़ी सुधार हुआ है। लेकिन कोई हैरानी नहीं होगी, यदि एक बार फिर गर्भवती महिलाओं की मौत का आँकड़ा बढऩे लगे, क्योंकि पिछले दो साल के दौरान देश में भुखमरी के आँकड़े बढ़े हैं। इसी प्रकार बच्चों की मृत्यु दर में भी भारत में पहले से सुधार हुआ है। लेकिन इस दावे को पुष्ट नहीं माना जा सकता, क्योंकि साल 2020 में उत्तर प्रदेश और बिहार में एक बुख़ार से सैकड़ों बच्चे मरे थे। उसके बाद 2021 में उत्तर प्रदेश में फिर एक बुख़ार के चलते दर्ज़नों बच्चे मरे थे। इतना ही नहीं, कोरोना की तीसरी लहर में भी काफ़ी बच्चों की मौत हुई।

भारत सरकार की एक योजना प्रधानमंत्री मातृत्व सुरक्षा अभियान भी गर्भवती महिलाओं की सुरक्षा के लिए काम करती है, लेकिन गर्भवती महिलाओं की सुरक्षा में यह योजना नाकाम साबित हुई है, क्योंकि इससे गर्भवती माताओं और नवजातों की सुरक्षा बहुत बेहतर नहीं हो सकी है।

क्या करना चाहिए?

महिलाओं की सुरक्षा के लिए, ख़ासकर जब वे गर्भवती हों, तो उनकी सुरक्षा के लिए उनके स्वास्थ्य की जाँचों के साथ-साथ उनके पोषण का पूरा इंतज़ाम सही तरीक़े से होना चाहिए। इसके अलावा उनके प्रसव की समुचित व्यवस्था सरकारी अस्पतालों में होनी चाहिए। देखा गया है कि कई बार गर्भवती महिलाओं की सडक़ पर, बसों और ट्रेनों में प्रसव हुआ है, जबकि कई प्रसव पीड़ा से परेशान महिलाओं की अस्पतालों में समय पर इलाज न मिलने पर मौत हो जाती है। अगर कहीं महिलाओं को डॉक्टर इस अवस्था में देखते भी हैं, तो उनमें अधिकतर सीजर या बड़ा ऑपरेशन कर डालते हैं। इस मामले में अधिकतर डॉक्टर माँ और बच्चे में से या तो एक को बचाने की बात करते हैं, या फिर सुरक्षा की गारंटी ही नहीं लेते। प्राइवेट अस्पतालों में तो प्रसव कराने के बजाय ऑपरेशन करने को कमायी का ज़रिया बना रखा है। इसके लिए कई डॉक्टर तो महिलाओं को गर्भावस्था में आराम (बेड रेस्ट) की सलाह भी दे डालते हैं, ताकि महिलाएँ प्राकृतिक तरीक़े से बच्चे को जन्म न दे सकें और अस्पतालों का ठगी का धंधा चलता रहे।

महिला विशेषज्ञ डॉक्टर परेश कहते हैं कि गर्भवती महिलाओं की मौत के कई कारण होते हैं। इनमें समय पर सही देखरेख की कमी, सही इलाज की कमी, खानपान की कमी और अनुभवी डॉक्टरों की कमी है। वहीं जनरल फिजिशियन डॉक्टर मनीष कहते हैं कि अधिकतर गर्भवती महिलाओं की मौत किसी-न-किसी ग़लती की वजह से होती है। इस ओर सरकार को ध्यान देना चाहिए। साथ ही लोगों को भी जागरूक होने की ज़रूरत है। बार-बार गर्भपात और बच्चे पैदा करने से भी मौत के आँकड़े बढ़ते हैं।

सद्भाव से ही होगा उद्धार

यह सच है कि हर इंसान दुनिया में अकेला आया है और अकेला ही जाएगा। लेकिन यह अधूरा सच है। दुनिया में जब कोई बच्चा जन्म लेता है, तो उसी क्षण और भी कई बच्चे भी जन्मते हैं। इसी प्रकार जब कोई इंसान मरता है, तो उसी क्षण और भी कई लोगों की मौत होती है। यह अलग बात हो सकती है कि जन्मने और मरने की घटनाएँ एक स्थान पर नहीं होती हों। फ़र्क़ यह है कि सबके शरीर अलग-अलग होने के चलते सबके अहसास, अनुभव, अनुमान, तौर-तरीक़े भी अलग-अलग ही होते हैं। इसीलिए हम एक-दूसरे की संवेदनाओं को तो समझ सकते हैं; लेकिन एक पर जो बीत रही हो, वह दूसरा अपने ऊपर नहीं ले सकता; चाहे कितना भी क़रीबी क्यों न हो।

कहने का अर्थ यह है कि कोई इंसान उसी क्रिया से पूर्णतया वाक़िफ़ हो सकता है, जो उसके शरीर में हो रही हो। दूसरे पर बीतने वाली क्रियाओं का दूसरा इंसान केवल अहसास ही कर सकता है। मसलन अगर कोई भूखा है, तो दूसरे इंसान को उसकी भूख का अहसास तो हो सकता है; लेकिन उसकी भूख उस दूसरे इंसान को नहीं लग सकती, जब तक कि वह स्वयं भूखा न हो। लेकिन यह सच है कि आख़िरकार भूख तो उसे भी लगती ही है। इसी तरह सुख-दु:ख, ख़ुशी-ग़म और अन्य कई चीज़ें भी हर इंसान पर नाज़िल होती हैं। इसके अलावा सांसारिक जीवन में कोई भी अकेले अपने दम पर जी नहीं सकता। उसे अपने आसपास के लोगों से कई तरह के सम्बन्ध रखने ही पड़ेंगे। किसी के साथ मिलकर रहने का, किसी के साथ मिलकर काम करने का, किसी के साथ दोस्ती रखने का, किसी के साथ चीज़ों के लेन-देन का। कुल मिलाकर इंसान स्वार्थ के सहारे ही सही, पर एक-दूसरे से जुड़े हैं। यही वजह है कि इंसान बस्तियों में रहते हैं। एक सभ्य और सुरक्षित समाज की इस स्थापना को बनाये रखने के लिए इन रिश्तों को जोड़े रखने की अति आवश्यकता है। इसीलिए गुणीजन इंसानियत और सद्भाव की वकालत करते हैं, जो रहनी भी चाहिए। सद्भाव के बग़ैर अपना तथा अपनों का न तो कोई भला सोच सकता है और न सोच सकता है। अगर कोई इंसान किसी इंसान से या परिवार से या समुदाय से या समाज से नफ़रत करता है, तो उसे अपने विचारों के लोगों से या समाज से या समुदाय से सद्भाव रखना ही पड़ेगा। इसी वजह से लोगों में कई तरह के मतभेद दिखायी देते हैं। इनमें दो भाग स्पष्ट नज़र आते हैं- अच्छे लोग और बुरे लोग।

इतिहास गवाह है कि बुरे लोग ज़्यादातर समय दुनिया पर हावी रहते हैं। लेकिन यह एक बड़ा सच है कि दुनिया में अगर सब सुरक्षित हैं, तो यह उन लोगों की वजह से ही सम्भव है, जो अच्छे हैं और इंसानियत के पैरोकार हैं। क्योंकि बुरे लोग तो उत्पाती होते हैं और कभी भी मरने-मारने पर आमादा रहते हैं। अगर इंसानियत के पैरोकार मध्यस्ता न करें, तो ये लोग कभी भी लडक़र मर जाएँगे। इस बार होली पर दो तस्वीरें देखने को मिलीं। एक तस्वीर में ‘दि कश्मीर फाइल्स’ जैसी फ़िल्म के सहारे देश को नफ़रती आग में झोंकने पर आमादा लोग दिखे और दूसरी तस्वीर में उत्तर प्रदेश के देवाशरीफ़ में मुसलमान होली मनाते दिखे। वहाँ बिना किसी ऐतराज़ के जितनी सिद्दत से मुस्लिम होली मनाते हैं, वह तस्वीर देखते ही बनती है। यह तस्वीर उन लोगों को शर्मिंदा करने के लिए काफ़ी है, जो मज़हबों की आड़ लेकर नफ़रतें फैलाने की घिनौनी हरकत करने में लगे हैं। वैसे देवाशरीफ़ में सदियों से होली मनायी जाती है। वहाँ एक दरगाह है, जहाँ सभी मज़हबों के लोग एक अपनी फ़रियाद लेकर माथा टेंकने जाते हैं। देश में कई ऐसे स्थान हैं, जहाँ इस तरह की एकता देखने को मिलती है। कश्मीर में पंडितों पर हुए ज़ुल्म का समर्थन नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि वह काम भी नफ़रत के पैरोकारों और इंसानियत के दुश्मनों ने ही किया। लेकिन सच तो यह है कि ऐसी कलुषित घटनाओं से इतिहास भरा पड़ा है और कहीं-न-कहीं हर समुदाय के लोगों पर इस तरह के ज़ुल्म हुए हैं।

तो क्या हम उन काले अध्यायों को फिर से उजागर करके एक बार फिर से लडक़र मरें? इससे क्या हासिल होगा? बेहतर यह हो कि सरकार पीडि़तों के साथ आगे से अन्याय न होने दे। अगर किसी ने किसी की कभी हत्या कर दी हो, तो क्या मारे गये व्यक्ति की तरफ़ से रुदाली रोना रोकर उसका समाधान किया जा सकता है? इसका समाधान शान्ति स्थापित करके ही हो सकता है। इससे भी सन्तुष्टि न मिले, तो दोषी को सज़ा देनी चाहिए या फिर पीडि़तों के ज़ख्मों पर मरहम लगाना चाहिए। अगर मृतक की किसी पीढ़ी को भडक़ाया जाएगा, तो उसका परिणाम तो ख़ून-ख़राबा ही होगा। क्योंकि नफ़रत से तो बर्बादी और मातम ही पसरेंगे। उद्धार तो सद्भाव से ही होगा। मशहूर शायर मरहूम राहत इंदौरी का एक शेर है :-

लगेगी आग तो आएँगे कई घर ज़द में,

यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है।’