परिवारवाद-वंशवाद से त्रस्त जनतंत्र

फ्रेडरिक नीत्शे लिखते हैं- ‘यंत्रणा झेलने वाले के लिए इससे ज़्यादा नशीली ख़ुशी और क्या हो सकती है कि अपनी यातना की ओर से आँखें बन्द कर ले और अपने आपको भूल जाए।’ भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी यंत्रणाओं में से एक परिवारवाद-वंशवाद है। यह एक सर्वसुलभ तथ्य होते हुए जन-सामान्य में गम्भीर चर्चा के केंद्र में नहीं होती। संसद में अपने भाषण के पश्चात् प्रधानमंत्री मोदी ने एक बार फिर भाजपा संसदीय दल की बैठक में परिवारवाद की आलोचना की, जिसके बाद इस पर एक बार फिर विमर्श जारी है। भ्रष्टाचार के विविध रूपों में से एक परिवारवाद और वंशवाद, मूलत: राजनीतिक एवं नैतिक भ्रष्टाचार है। दूसरे शब्दों में इसे प्राचीन राजतंत्र-कुलीनतंत्र का आधुनिक, परिष्कृत रूप कहा जा सकता है। यह दुनिया का सबसे निकृष्टतम कोटि का आरक्षण है। परिवारवाद आधुनिक राजनीतिक प्रगतिशीलता एवं लोकतंत्र के विरुद्ध एक कलंकित अवधारणा है। आधुनिक भारतीय राजनीति में यह एक प्रकार का संगठित अभिजात्य वर्गीय अपराध बन गया है, जिसमें अपराधी तो फल-फूल रहे हैं, पर सज़ा जनता भुगत रही है। इसके विरुद्ध न कोई क़ानून हैं, न कोई अपील और न ही दलील।

कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी हो या उत्तर से लेकर दक्षिण तक सारे क्षेत्रीय दल, परिवारवाद के दुर्दम्य रोग से ग्रसित हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि इसमें ‘पार्टी विद् डिफरेंस’ भाजपा एवं ‘प्रगतिशीलता के प्रतिनिधि’ वाम दल भी शामिल हैं, जिन्हें सामान्यत: इस दोष से मुक्त माना जाता रहा है। अब तक भाजपा एवं वाम दलों को छोडक़र सभी राजनीतिक दल परिवारवाद को लेकर निरंतर निशाने पर रहे हैं और आलोचना झेलते रहे हैं। किन्तु जिस भाजपा द्वारा राजनीतिक सुचिता पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया जाता है, वह भी पारिवारवाद की दलदल में किसी से कम नहीं धँसी है। ऐसा ही कुछ वामपंथी दलों के साथ भी है। भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का यह कहना कि ‘वह परिवारवाद को प्रश्रय नहीं दे रहा है।’ यह एक निरा असत्य है, जिसे स्वीकार करना कठिन है। भाजपा के इस दावे की पड़ताल के लिए उसके नेतृत्व वर्ग पर एक नज़र डालते हैं। राजस्थान में भाजपा नेता विजयाराजे सिंधिया की बेटी वसुंधरा राजे सिंधिया मुख्यमंत्री रही हैं, तो उनकी दूसरी बेटी यशोधरा राजे सिंधिया शिवराज सिंह चौहान के मंत्रिमंडल में मंत्री बनीं। वसुंधरा राजे के बेटे दुष्यंत सिंह भाजपा से सांसद हैं। इसी परिवार के कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया के बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया केंद्र सरकार में मंत्री हैं। छत्तीसगढ़ के पूर्व मुख्यमंत्री रमन सिंह के बेटे सांसद रहे, तो उत्तर प्रदेश से पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के बेटे सांसद हैं और पोता विधायक। चर्चा में रही अपर्णा यादव की भाजपा में पाँव-पुजाई सिर्फ़ एक परिवार विशेष की सदस्य होने के नाते ही हो रही थी। बिहार से रविशंकर प्रसाद के पिता ठाकुर प्रसाद जनसंघ के बड़े नेता थे और बिहार में संविद (संयुक्त विधायक दल) सरकार में मंत्री भी थे।

इसी तरह महाराष्ट्र से वर्तमान ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल के पिता वेद प्रकाश गोयल भी अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में मंत्री थे। प्रमोद महाजन की बेटी पूनम महाजन सांसद हैं। गोपीनाथ मुंडे की एक बेटी पंकजा मुंडे महाराष्ट्र सरकार में मंत्री थीं और दूसरी प्रीतम मुंडे सांसद हैं। झारखण्ड से वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे यशवंत सिन्हा के पुत्र जयंत सिन्हा मोदी कैबिनेट में मंत्री रहे। हिमाचल प्रदेश से प्रेम कुमार धूमल के बेटे अनुराग ठाकुर केंद्र सरकार में मंत्री हैं। गृहमंत्री अमित शाह का बेटा बीसीसीआई में उच्च पद पर है। साहिब सिंह वर्मा का बेटा सांसद है। स्वामी प्रसाद मौर्य के बेटे-बेटी भी राजनीति में हैं। ये सिर्फ़ चंद चर्चित उदाहरण हैं। वास्तविकता यह है कि भाजपा परिवारवाद के ख़िलाफ़ जिस मुहिम पर निकली है, ख़ुद उसमें आकंठ डूबी है। स्वयं को कॉडर आधारित पार्टी  के जयघोष के आवरण में परिवारवाद को संरक्षण देने में पार्टी किसी भी अन्य दल से पीछे नहीं है। सन् 2014 से वंशवाद और परिवारवाद को जितनी तरजीह भाजपा में मिली है, उतनी पहले कभी नहीं थी। आश्चर्य है कि इसके बावजूद प्रधानमंत्री कौन-से परिवारवाद को रोकने और समाप्त करने की बात कर रहे थे? यह समझना कठिन है।

अब वाम दलों को ही लें, वे भी सिद्धांतों को ताक पर रखकर भाई-भतीजावाद के पोषण में लगे हुए हैं। उन्होंने भले ही राजनीति में परिवारवाद को प्रश्रय न दिया हो, किन्तु विभिन्न अकादमिक संस्थानों, वज़ीफ़ों, फेलोशिप आदि में अपने सगे-सम्बन्धियों की घुसपैठ कराने के साथ ही साहित्यिक संस्थानों, किसी एडवाइजरी बोर्ड आदि में समायोजित (एडजस्ट) कराने के में कोई क़सर नहीं छोड़ी है। केरल इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। केरल सरकार में प्रत्येक मंत्री 20 से अधिक लोगों को ‘क्वो टर्मिनस’ के आधार पर नियुक्त करता है, जो दो साल की सेवा के बाद पेंशन के हक़दार हो जाते हैं। इसके बाद वह समूह अपने पदों से इस्तीफ़ा दे देता है और दूसरे समूह की नियुक्ति होती है। एक कार्यकाल में प्रत्येक मंत्री औसतन 45-50 लोगों को नियुक्त करता है, जिन्हें सरकार से पेंशन मिलती है। केरल में मंत्रियों के निजी कर्मचारियों के लिए पेंशन सन् 1994 से प्रभाव में है। इस तरह जनता के पैसे को सरकार खुले हाथों से अपने लोगों में बाँट रही थी।

हाल ही में मीडिया द्वारा इस मामले को प्रकाश में लाये जाने पर उच्चतम न्यायालय ने इस पर संज्ञान लिया। न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नज़ीर और न्यायमूर्ति कृष्ण मुरारी की बेंच ने 14 मार्च, 2022 को पिनराई विजयन सरकार को फटकार लगाते हुए कहा- ‘आप एकमात्र राज्य हैं, जहाँ लोगों को दो साल के लिए नियुक्त किया जाता है और उन्हें आजीवन पेंशन दी जाती है। राज्य के पास बहुत पैसा है, यह अधिकारियों को बताएँ।’

स्पष्ट है कि राजनीति में परिवारवाद कितना विकृत है, जिससे न कोई दल बचा है, न कोई सरकार। वंशवादी उत्पादों की सबसे बड़ी ख़ामी सिद्धांतहीनता एवं नैतिकतारहित होना है। चूँकि चाँदी का चम्मच लेकर पैदा हुए ये लोग समझते हैं कि सत्ता और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन उनका नैसर्गिक अधिकार है। इसलिए ये किसी भी दल या सिद्धांत के सगे नहीं होते। इन्हें सिर्फ़ सत्ता-भोग का आकर्षण है। जितिन प्रसाद, ज्योतिरादित्य सिंधिया जैसे नेता अनुकूल स्थिति देख भाजपा में चले आये। रीता जोशी खुलेआम अपने बेटे के लिए टिकट माँग रही थीं और उसके लिए ऐसे पद छोडऩे की पेशकश कर रही थीं जैसे स्वतंत्रता आन्दोलन में गाँधी जी की पुकार पर पदों का त्याग चल रहा हो। जबकि यह त्याग नहीं, लोकतंत्र का खुला अपमान था। टिकट न मिलने पर उनके बेटे का अचानक स्वाभिमान जाग जाना और सपा में चले जाना, निरा अवसरवाद है। सहसा पं. प्रेम बरेलवी के शेर का स्मरण हो आया-

‘‘बेच देते हैं अपना ईमाँ तक,

लोग कितने ग़रीब होते हैं?’’

वास्तव में यह ग़रीबी नैतिकता की है। सिद्धांतों की है। जनभावनाओं के प्रति सम्मान की है। वंशवाद एक अहंकार का भाव पैदा करता है। इस भाव के कारण ही किसी सरकार या पार्टी का पतन होता है। राष्ट्रीय लोकदल और सपा को देख लीजिए। सबसे आश्चर्यजनक तथा विध्वंसक पहलू पिछड़ा एवं दलितवाद की राजनीति करने वाले नेताओं और दलों का घोर परिवारवादी-वंशवादी चरित्र है। स्वतंत्र भारत में राजनीतिक वंशवाद की प्रणेता कांग्रेस थी। जवाहरलाल नेहरू ने इस विष बीज का रोपण करके राजनीति को दूषित करने की शुरुआत की। किन्तु डॉ. लोहिया के ग़ैर-कांग्रेसवाद के नारे के साथ उभरे तथाकथित पिछड़े वर्ग के नेताओं ने इस कांग्रेसी दुर्गुण को बड़ी रुचि के साथ अपनाया। होना तो यह चाहिए था कि वे अन्य नीतिगत विरोधों के साथ इस कांग्रेसी दुर्गुण को भी समाप्त करने का प्रयास करते, परन्तु उन्होंने तो उसे और दृढ़ता के साथ स्वीकार किया। वे जो राजनीति में कुलीनतंत्र के विरुद्ध पिछड़े, वंचित एवं शोषित तबक़े के उत्थान के संघर्ष के भावनाओं के ज्वार से सत्ता में ऊपर आये, वे ही सबसे ज़्यादा अपने परिवार को राजनीति में स्थापित करने में लग गये। थोड़ा स्पष्ट कहें, तो क्षेत्रीय दलों, जिनमें ज़्यादातर ने पिछड़ों एवं दलितों के नाम पर अपनी राजनीति चमकायी; ने सबसे ज़्यादा धोखा अपने ही समाज को दिया है।

भावनात्मक जातिवादी गोलबंदी से उभरे नेताओं ने अपनी-अपनी जातियों में परिवार के बाहर नेतृत्व उभार का न सिर्फ़ दमन किया है, बल्कि उनके विकास को बन्धक बना लिया है। एक तरह से उन्होंने अपनी जाति को अपना ग़ुलाम बना रखा है। अब पूर्व सपा अध्यक्ष मुलायम सिंह एवं राजद अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव को ही लें। पहले इन्होंने अपनी जाति के ‘उत्थान के नारे’ से प्राप्त समर्थन से राजनीति में शीर्ष स्थान हासिल किया; लेकिन अब ये नेता चाहते हैं कि उनकी जाति के लोग उनके बेटों एवं परिवार को भी पालकी में बैठाकर विधानसभा एवं संसद तक पहुँचाएँ। अन्य उदाहरण देखिए, निषाद पार्टी के संजय निषाद ख़ुद एमएलसी, बेटा सरवन विधायक और बड़ा बेटा प्रवीण सांसद है। ऐसे उदाहरणों की भी सूची लम्बी है। जब तथाकथित पिछड़ा और दलित वर्ग अपने ही दलों और नेताओं से सत्ता में भागीदारी की माँग करता है, तो इन्हें या तो चुप कराने का प्रयास होता है अथवा हासिये पर धकेलने की कोशिश होती है। और अगर उससे भी काम न चले, तो इन्हें तुरन्त तथा कथित सवर्ण वर्ग का एजेंट और अपनी जाति का दुश्मन घोषित कर दिया जाता है। साथ ही जातिगत गोलबंदी हेतु आरक्षण में हिस्सेदारी बढ़ाने की माँग और तथाकथित सवर्ण वर्ग के प्रति विष वमन का अमोघ ब्रह्मास्त्र तो है ही। किन्तु पिछड़े और दलित तबक़े के युवाओं को यह समझना होगा कि उनकी योग्यता के असली शत्रु वही सह-जातीय नेता हैं, जिन्हें वे अब तक मसीहा मानते आये हैं।

एक दु:खद पहलू यह भी है कि वंशवाद के कारण नेपथ्य में धकेले गये नेता भी इस दुष्परम्परा के पोषण में लगे हैं। शरद पवार एवं पी.ए. संगमा, जिन्होंने इसी परिवारवाद के विरुद्ध कांग्रेस छोड़ी, ख़ुद अपने दल के गठन के बाद परिवारवाद से परे नहीं देख पाये। भाजपा का वर्तमान शीर्ष नेतृत्व भी इसी सूची में है। प्रधानमंत्री मोदी, जो स्वयं अपने संघर्षों से ऊपर उठे हैं; आज ख़ुद अपने आभामंडल में भाजपा नेताओं के परिवारवाद को संरक्षण दे रहे हैं। कुल मिलाकर भारतीय राजनीति को परिवारवाद का कोढ़ बुरी तरह क्षतिग्रस्त कर चुका है। इसने देश के राजनीतिक-सामाजिक जीवन के सभी पहलुओं को विषाक्त कर रखा है। लेकिन सबसे ज़्यादा नुक़सान इसके राजनीति में अतिव्यापन (ओवरलैपिंग) से है, क्योंकि राजनीति ही देश की दशा-दिशा का निर्धारण करती है। साथ ही आज अगर भाजपा के समक्ष एक मज़बूत विपक्ष नहीं खड़ा हैं, तो उसकी बड़ी वजह वंशवाद की अयोग्यता है। हालाँकि इस देश में कुछ अनुकरणीय आदर्शवादी भी रहे हैं। जननायक कर्पूरी ठाकुर, जिनके बेटे रामनाथ ठाकुर को जब जनता पार्टी ने टिकट दे दिया था, तो उन्होंने अपना नाम वापस ले लिया, ताकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति पदस्थ हो। बीजू पटनायक के जीवित रहते परिवार का कोई भी व्यक्ति राजनीति में नहीं आया। उनके निधन के बाद ही नवीन पटनायक ने बीजू जनता दल का गठन किया। बसपा के संस्थापक कांशीराम इस मामले में एक अप्रतिम उदाहरण हैं, जिन्होंने परिवारवाद को एकदम ही नकार दिया। उनका मानना था कि सार्वजनिक जीवन में आने के बाद देश भर का दलित, वंचित और शोषित तबक़ा ही अब उनका परिवार है।

कांशीराम ने सार्वजनिक रूप से अपने परिवार से सम्बन्ध तोडऩे, जीवन भर अपना मकान न बनाने, सम्पत्ति अर्जित न करने और पद-प्रतिष्ठा का मोह छोडऩे की घोषणा की थी एवं आजीवन उन्होंने इस व्रत का पालन किया। यहाँ तक कि अपने पिता और परिजनों के मृत्यु समाचार सुनने के बाद भी वह कभी घर वापस नहीं गये। इस वक़्त जदयू एवं बीजद ऐसे क्षेत्रीय दल हैं, जिन्होंने अब तक शीर्ष स्तर पर वंशवाद को तरजीह नहीं दी है, इसके लिए नीतीश कुमार एवं नवीन पटनायक साधुवाद के पात्र हैं। स्वयं भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी एवं मुरली मनोहर जोशी जैसे पुराने नेता, जिन्होंने क्षमता होते हुए भी अपने परिवार को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की। आज भले की हम आधुनिक लोकतंत्र होने का दम भरते हों, पर परिवारवाद की विकरालता और वंशवाद के प्रति मोह हमारे लोकतान्त्रिक पिछड़ेपन का सूचक है। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या इस लोकतंत्र की जड़ों में पैबस्त हो चुके इस कर्क रोग के लिए मात्र राजनीतिज्ञ ही ज़िम्मेदार हैं। इसके बजाय यह प्रश्न देश की जनता से पूछा जाना चाहिए कि क्या वह 21वीं सदी में आज़ादी के 70 दशकों से भी अधिक समय बीतने के बाद भी वह व्यक्ति पूजन के भ्रम से नहीं निकल पायी, जिसके विषय में बाबा साहब आंबेडकर ने सन् 1940 के दशक से ही सचेत करना शुरू कर दिया था।

हीगेल के अनुसार, ‘स्वतंत्रता के विकास का तात्पर्य चेतना का विकास है।’ हीगेल ने इसको नैतिक बुद्धि का प्रसार कहा है, जो सामाजिक सम्बन्धों का बाहर रूप धारण करते हैं। यही सामाजिक सम्बन्ध राष्ट्र के रूप में परिणत होते हैं। अत: राष्ट्र नैतिक बुद्धि की ही सर्वोच्च अभिव्यक्ति है। अगर इस कसौटी पर देखें, तो इस देश में स्वतंत्रता का वास्तविक विकास हुआ ही नहीं है; क्योंकि आम जनता की चेतना अभी भी अविकसित अवस्था में है। अत: अगर राष्ट्र के रूप में हम भ्रष्ट देश के रूप में गिने जाते हैं, तो उसकी वजह यही है, क्योंकि हमारी नैतिक बुद्धि भ्रष्ट है। हम अपने ओछे स्वार्थों से बाहर निकल ही नहीं पाये हैं। यूरोपीय देशों के मुक़ाबले भारत को लोकतांत्रिक गणराज्य बनने में 250 साल से भी अधिक का समय लगा। आम भारतीय जनता, जो कभी राजा-महाराजाओं, तुर्कों, मुगलों और अंग्रेजों के जूतों के नीचे पिसती आयी थी; को बड़े लम्बे संघर्षों के बाद लोकतंत्र की खुली हवा में साँस लेने का अवसर मिला; लेकिन जनता उसका सम्मान करना नहीं जानती। जम्हूरियत में जनता ही सर्वोच्च है। वह एक मतदान से ही देश की पूरी सत्ता को पलट सकती है। लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि इस देश का आम जनमानस सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने निजी स्वार्थों के लिए जी रहा है। इस नाते उसे नेताओं को कोसने का बिल्कुल भी नैतिक अधिकार नहीं है। यह नेता उन्हीं के मतों के बूते सत्ता पाते हैं। भ्रष्टाचार फैलाते हैं। अपने परिवार को आगे बढ़ाते हैं, और वंशवाद की कालिख लोकतंत्र के मुँह पर पोतते रहते हैं। यह सब आम जनता के मत से ही सम्भव होता है। लेकिन जब जनता मत का ही ग़लत उपयोग करती है, फिर उसे किसी के ऊपर उँगली उठाने का क्या नैतिक अधिकार है? सच्चिदानंद सिन्हा लिखते हैं- ‘…क्योंकि धर्म के प्रारम्भिक लक्षणों में से एक लक्ष्य औपचारिक रूप से उन मानवीय अभियानों पर रोक लगाना भी रहा है, जो सामाजिक संस्कृति को ध्वस्त करने वाले होते हैं।’ -(निहत्था पैगंबर, पृष्ठ-60)।

इस समय जन सामान्य को धर्म राजनीति के इन परजीवियों को नोंच फेंकना चाहिए। अब जनता यह भी नहीं कह सकती कि उसे न कहने का अधिकार नहीं है। वह बूथ तक जाकर नोटा के माध्यम से अपना आक्रोश जता सकती है। इस मामले में किसी भी राजनीतिक दल या नेताओं से उम्मीद करना निरी मूर्खता होगी। हाँ, निर्वाचन आयोग ज़रूर मदद कर सकता है। देश का लोकतंत्र इस स्थिति में है कि उसे अब ‘राइट टू रिजेक्ट’ का अधिकार मिलना चाहिए। सूफ़ी संत इब्न-उल-अरबी कहते हैं- ‘उम्मीद से पहले य$कीन की ज़रूरत होती है।’ जनता को इस परिवारवाद-वंशवाद के इस कोढ़ से निजात पाने की उम्मीद से पहले अपने उचित-अनुचित के मनोभावों के निर्णय पर यक़ीन करना होगा, तत्पश्चात् ही वह स्वयं अपने यथेष्ठ की सिद्धि कर सकेगी।

(लेखक इतिहास और राजनीति के जानकार हैं और उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)