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पहलगाम आतंकी हमला: पर्यटकों को निशाना बनाकर की गई क्रूर वारदात, 27 से अधिक की मौत

मनप्रीत सिंह

श्रीनगर: जम्मू-कश्मीर के अनंतनाग जिले के पहलगाम में मंगलवार दोपहर हुए आतंकी हमले में 27 से अधिक लोगों की मौत हो गई। मृतकों में एक इजरायली और एक इटालियन नागरिक भी शामिल हैं, जो घाटी की प्राकृतिक सुंदरता देखने आए थे। आतंकियों ने पर्यटकों के नाम और धर्म पूछकर उन्हें कलमा पढ़ने के लिए मजबूर किया, जिसके बाद गोलीबारी कर दी। यह घटना बैसरन घाटी के ऊपरी इलाके में घटी, जहाँ पर्यटक घोड़ों पर सवारी करते हुए पहुँच रहे थे। 

*हमले की रणनीति और पृष्ठभूमि* 

सुरक्षा एजेंसियों के अनुसार, आतंकियों ने पुलिस वर्दी पहनकर हमला किया और 1 से 7 अप्रैल के बीच पहलगाम के होटलों की रेकी की थी। स्थानीय लोगों की मदद से उन्होंने पर्यटकों के बड़े समूह को निशाना बनाया। हमले का मकसद कश्मीर में पर्यटन को नुकसान पहुँचाना और साम्प्रदायिक तनाव बढ़ाना था। गर्मियों के मौसम में यहाँ पर्यटकों की संख्या बढ़ जाती है, जिसे आतंकी अपने हित में इस्तेमाल करना चाहते हैं। 

*राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रतिक्रियाएँ* 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, जो सऊदी अरब के दौरे पर हैं, ने गृह मंत्री अमित शाह को तुरंत पहलगाम पहुँचने का निर्देश दिया। शाह ने दिल्ली में आईबी प्रमुख, सेना और सीआरपीएफ अधिकारियों के साथ उच्चस्तरीय बैठक की, जिसमें उपराज्यपाल मनोज सिन्हा भी वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए शामिल हुए। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने हमले को “हाल के वर्षों में सबसे भयानक” बताया और घटनास्थल का दौरा किया। 

*राजनीतिक दलों ने जताई निंदा* 

– *भाजपा नेता तरुण चुघ*: “धर्म के आधार पर निशाना बनाना मानवता के खिलाफ अपराध।” 

– *कांग्रेस नेता दीपेंद्र हुड्डा*: “आतंकियों को मुंहतोड़ जवाब दिया जाए।” 

– *PDP नेता इल्तिजा मुफ्ती*: “दिल्ली बैठे लोग कश्मीर की जमीनी हकीकत नहीं समझते।” 

– *शिवसेना नेता प्रियंका चतुर्वेदी*: “पाकिस्तानी सेना को सबक सिखाया जाए।” 

*जाँच और सुरक्षा अद्यतन* 

राष्ट्रीय जाँच एजेंसी (NIA) की एक टीम 23 अप्रैल को घटनास्थल पहुँचेगी। सेना ने जंगलों में स्पेशल ऑपरेशन शुरू कर दिया है। अनंतनाग पुलिस ने लापता पर्यटकों के लिए हेल्पलाइन नंबर (9596777669, 01932225870) जारी किए हैं। 

*अंतरराष्ट्रीय संदर्भ* 

यह हमला ऐसे समय में हुआ है जब अमेरिकी उपराष्ट्रपति जेडी वेंस भारत दौरे पर हैं और पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल आसिफ मुनीर ने हाल ही में भारत के खिलाफ धमकीभरे बयान दिए थे। विश्लेषकों का मानना है कि यह हमला अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की छवि धूमिल करने की साजिश का हिस्सा है। 

*पीड़ित परिवारों के लिए सहायता* 

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अन्य नेताओं ने पीड़ित परिवारों के प्रति संवेदना जताई। गुजरात के भावनगर का एक पर्यटक विनोद भट्ट इस हमले में घायल हुआ है, जिसकी स्थिति स्थिर बताई जा रही है। सरकार ने मृतकों के परिजनों को मुआवजे और चिकित्सा सहायता का आश्वासन दिया है।

आरएसएस के नक्श-ए-कदम पर राहुलगांधी ?

कांग्रेस सांसद राहुल गांधी का सपना है कि कांग्रेस को फिर से ‘महान’ बनाया जाए। वह जल्दबाजी में नहीं हैं और पार्टी को पुनर्जीवित करने के लिए दशकों तक काम करने को तैयार हैं क्योंकि वह चाहते हैं कि पार्टी वैचारिक रूप से प्रतिबद्ध हो। वह चाहते हैं कि कांग्रेस सेवा दल एक कैडर आधारित संगठन हो और भाजपा के आरएसएस को कांग्रेस का जवाब हो। राहुल ने अपने शुरुआती दिनों में पार्टी के अग्रणी संगठनों – सेवा दल, भारतीय युवा कांग्रेस और भारतीय राष्ट्रीय छात्र संघ (एनएसयूआई) का पुनर्गठन करने की कोशिश की। आखिरकार, सेवा दल की स्थापना भी नारायण सुब्बाराव हार्डिकर ने 1923 में की थी और इसलिए, ‘आरएसएस सेवा दल से दो साल छोटा है।’ इसके पहले अध्यक्ष पं. जवाहरलाल नेहरू थे। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी भी इस पद पर रहे।

राहुल उसी भावना को पुनर्जीवित करना चाहते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में सेवा दल ने शायद अपनी जगह खो दी है। पार्टी अब इसे जिला इकाइयों के माध्यम से पुनर्जीवित करना चाहती है ताकि इसके माध्यम से प्रमुख निर्णय लिए जा सकें और कैडर निर्माण को मजबूत किया जा सके। संभावित परिवर्तन उस प्रणाली से जुड़ा है जो 1960 के दशक में एआईसीसी के अ​स्तित्व में आने से पहले लागू थी।

कांग्रेस भले ही अपनी राजनीतिक प्रधानता के लिए 750 से अधिक जिला कांग्रेस कमेटी (डीसीसी) को पुनर्जीवित और मजबूत करने का सहारा ले रही हो, लेकिन सबक बड़ी कीमत चुकाकर सीखा गया है। हालांकि, यह कहना आसान है, करना मुश्किल है क्योंकि डीसीसी को शक्ति देने से एआईसीसी से डीसीसी तक शक्ति के केंद्रीकरण की प्रक्रिया उलट जाएगी। एक समय था जब उम्मीदवारों के चयन में डीसीसी का हुक्म चलता था और कोई भी राष्ट्रीय नेता उनकी सिफारिशों को वीटो नहीं कर सकता था। अब यह एक मृगतृष्णा प्रतीत होती है और हमें 2026 में आने वाले राज्य विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी के नवीनतम गुब्बारे का पहला परीक्षण देखने के लिए इंतजार करना होगा।

बसपा को मरणासन क्यों बना रही हैं मायावती?

राजनीतिक विश्लेषक इस बात से हैरान हैं कि मायावती अपनी ही पार्टी को मरणासन बनाकर उसका मृत्युलेख क्यों लिख रही हैं? वे यह मानने को तैयार नहीं हैं कि मायावती बहुजन समाज पार्टी को इसलिए खत्म कर रही हैं क्योंकि उनके भाई आनंद कुमार और पार्टी पर प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी के केस चल रहे हैं। यह व्यापक रूप से माना जाता है कि मायावती बहुत दबाव में हैं क्योंकि उन्हें कथित भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रही ईडी और अन्य केंद्रीय सरकारी एजेंसियों द्वारा कार्रवाई का डर है। लेकिन मायावती के भाई के खिलाफ मामला 2009 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए के शासनकाल में दर्ज किया गया था।

तब से गंगा में बहुत पानी बह चुका है और यह हमेशा की तरह अदालतों में उलझा हुआ है, कई सालों तक किसी ने उनके बारे में सुना तक नहीं। यह भी एक रहस्य है कि 2007 में अपने दम पर यूपी जीतने के बाद, 2012 से बसपा का पतन कैसे शुरू हो गया और आज पार्टी के पास लोकसभा में एक भी सांसद नहीं है तथा यूपी में मात्र एक विधायक है, जो योगी आदित्यनाथ की आभा में कहीं नजर तक नहीं आता।

यह तर्क दिया जाता है कि वर्ष 2014 से 30 से अधिक विपक्षी नेताओं के ​खिलाफ भ्रष्टाचार की जांच की जा रही हैं और कई के भाजपा में शामिल होने के बाद मामले ‘सुलझ गए’, कुछ को राहत मिल गई और बाकी अदालतों में अटके हुए हैं। इन 30 राजनेताओं में से 10 कांग्रेस से हैं; एनसीपी और शिवसेना से 4-4; तृणमूल कांग्रेस से 3; तेदेपा से 2; और सपा, वाईएसआरसीपी और अन्य से एक-एक।

फिर भी, यह समझना मुश्किल है कि आनंद कुमार के खिलाफ ईडी के केस के कारण, मायावती अपनी पार्टी को निष्क्रियता की ओर बढ़ा रही हैं, दलित मतदाताओं में आ रही गिरावट को रोकने का कोई प्रयास नहीं कर रही हैं और जानबूझकर इस वोट बैंक को भाजपा के हाथों में जाने दे रही हैं।

जल्दबाजी में निष्कासन और फिर वापसी से उन्होंने यह धारणा और मजबूत कर दी है कि वह पार्टी को पुनर्जीवित करने की इच्छुक नहीं हैं। हालांकि उन्होंने नेताओं को बैठकों में धन इकट्ठा करने से रोक दिया है और रिश्तेदारों को पद देने से मना कर दिया है, फिर भी बसपा की गिरावट जारी है। वह हाशिये पर एक मामूली खिलाड़ी क्यों बनी रहना चाहती हैं? रहस्य बरकरार है!

क्या आप बच पाएगी ?

जहां कांशीराम ने मायावती को झुग्गी-झोपड़ियों में देखा था, तो वहीं अरविंद केजरीवाल भी सुंदर नगरी से आए थे, जो दिल्ली के बाहरी इलाके में स्थित एक झुग्गी-झोपड़ी है, जहां उन्होंने अपने एनजीओ ‘परिवर्तन’ के जरिए खुद को एक सिविल सर्वेंट से बदलकर पारदर्शिता कार्यकर्ता के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया। लेकिन इन दो दशकों की यात्रा के दौरान वे 2025 में शीश महल में पहुंच गए, जिसने उनकी पार्टी को दिल्ली में पतन की राह पर ला खड़ा किया। यह एक क्लासिक केस स्टडी है क्योंकि लोगों के जीवन और समय में परिवर्तन लाने के बजाय लोगों ने एक परिवर्तित आदमी को देखा। इसके कारण दिल्ली में आम आदमी पार्टी (आप) की हार हुई जो विनाशकारी थी। यह दिल तोड़ने वाला है क्योंकि लाखों लोग उम्मीद कर रहे हैं कि कभी न कभी तो देश की राजनीति बदलेगी। केजरीवाल ने जो किया वह भारत को भ्रष्टाचार मुक्त देश देखने के सपने की मौत के समान है और आप के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिया है। अगर आप अजेय थी, 2020 में लगातार दूसरी बार जीत हासिल की और कांग्रेस के जबड़े से पंजाब को छीन लिया और अकालियों को खत्म कर दिया, तो इसका पतन भी उतनी ही तेजी से हो रहा है और गौरव फीका पड़ रहा है। केजरीवाल शायद आत्ममंथन करने के लिए हाइबरनेशन में चले गए हैं कि उन्होंने क्या-क्या गलतियां कर दीं। लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है क्योंकि वह उस शानदार जीवनशैली से बाहर निकलने को तैयार नहीं हैं जिसके वह अब आदी हो चुके हैं। वह बड़े काफिले के साथ यात्रा करते हैं और एक साधारण अपार्टमेंट में रहने से इनकार करते हैं तथा आप के लिए जगह बनाने को तैयार नहीं हैं। पार्टी में दरारें दिखाई दे रही हैं और केजरीवाल ने दिल्ली में हार के बाद पंजाब को अपना ‘पहला घर’ बनाकर एक और गलती कर दी है। इसने पार्टी के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लगा दिए हैं।

पोप फ्रांसिस का देहांत, वेटिकन सिटी में ली अंतिम सांस

लंबे समय से बीमार पोप फ्रांसिस का वेटिकन सिटी में देहांत हो गया है। निमोनिया की शिकायत पर फ्रांसिस पिछले दिनों अस्पताल में भर्ती हुए थे। पॉप फ्रांसिस के मौत की खबर वेटिकन सिटी से दी गई है। 88 साल के फ्रांसिस ने एक दिन पहले ही अमेरिका के उपराष्ट्रपति जेडी वेंस से मुलाकात की थी।

पोप फ्रांसिस लंबे समय से बीमार चल रहे थे। लगभग एक महीने तक अस्पताल में इलाज कराने के बाद पोप 24 मार्च को अपने निवास स्थान कासा सांता मार्टा लौटे थे। अस्पताल से लौटने पर उन्होंने बड़ी संख्या में अस्पताल के बाहर जमा हुए लोगों को आशीर्वाद दिया था। सार्वजनिक रूप से पोप को देखने के बाद लोग काफी खुश दिखे थे और जयकारे भी लगाए थे।

पोप फ्रांसिस का जन्म 17 दिसंबर 1936 को अर्जेंटीना के ब्यूनस आयर्स में हुआ था। उनका असली नाम जॉर्ज मारियो बर्गोग्लियो था। उन्होंने 13 मार्च 2013 को पोप का पद संभाला था। वह लैटिन अमेरिका से आने वाले पहले पोप थे। पोप फ्रांसिस ने अपने कार्यकाल में चर्च में सुधारों को बढ़ावा दिया। उनको अपने मानवीय क्षेत्र में किए कामों के लिए भी जाना गया। पोप फ्रांसिस अर्जेंटीना के एक जेसुइट पादरी थे। उन्हें पोप बेनेडिक्ट सोलहवें का उत्तराधिकारी चुना गया था। पोप फ्रांसिस बीते 1000 साल में पहले ऐसे इंसान थे जो गैर-यूरोपीय होते हुए भी कैथोलिक धर्म के सर्वोच्च पद पर पहुंचे।

महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ी हलचल- फिर एकसाथ आ सकते हैं उद्धव और राज ठाकरे

महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ी हलचल देखने को मिल रही है। खबर ये है कि महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) प्रमुख राज ठाकरे और शिवसेना (यूबीटी) प्रमुख उद्धव ठाकरे ने शनिवार को महाराष्ट्र और मराठी लोगों के हितों के लिए अपने बीच मतभेदों को भुलाकर एकजुट होने की इच्छा जताई है। राज ठाकरे ने अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे को साथ आने का प्रस्ताव दिया है।

मनसे प्रमुख ने कहा है कि महाराष्ट्र और मराठियों के अस्तित्व के आगे उद्धव और उनके झगड़े बहुत छोटे हैं। महाराष्ट्र बहुत बड़ा है। उनके लिए उद्धव के साथ आना और साथ में रहना कोई मुश्किल काम नहीं हैं। राज ठाकरे ने ये बात फिल्म निर्देशक महेश मांजरेकर के साथ किए पॉडकास्ट के दौरान कही। राज ठाकरे ने उद्धव ठाकरे को साथ आने का प्रस्ताव देते हुए अपनी तरफ से ये साफ कर दिया कि उद्धव के साथ आने में उनको कोई परेशानी नहीं है। महाराष्ट्र के लिए दोनों एक साथ आ सकते हैं।

राज ठाकरे के साथ आने के प्रस्ताव पर उद्धव ठाकरे का भी बयान सामने आया है। उद्धव का कहना है कि उनकी तरफ से कोई झगड़ा नहीं था। महाराष्ट्र के हित के लिए वे साथ आने को तैयार हैं। उद्धव ठाकरे भी भाई राज ठाकरे के प्रस्ताव से सहमत दिखाई दे हैं। उन्होंने मिलकर काम करने के संकेत दिए हैं। उद्धव ने कहा कि महाराष्ट्र की भलाई के लिए वह छोटे-मोटे झगड़ों को छोड़कर आगे बढ़ने के लिए तैयार हैं। उन्होंने कहा कि अगर हमने सही फैसला लिया होता तो हम केंद्र और राज्य में सरकार बना सकते थे। पहले उनके साथ जाओ, फिर उनका विरोध करो, फिर एडजस्टमेंट करो, इससे काम नहीं चलेगा, सिर्फ महाराष्ट्र का भविष्य, फिर जो बीच में आएगा, उसका मैं स्वागत नहीं करूंगा। बता दें कि राज ने शिवसेना में उद्धव को उत्तराधिकारी घोषित करने के बाद 27 नवंबर 2005 को पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। इसके बाद अपनी पार्टी ‘महाराष्ट्र नव निर्माण सेना’ बनाई थी। तब दोनों के बीच रिश्ते अच्छे नहीं रहे।

क्या भारत की न्यायपालिका एक “गैर-निर्वाचित सुपर विधायिका” बन चुकी है?

न्यायिक अतिक्रमण या फिर मज़बूरी की दख़लअंदाज़ी ?

ब्रज खंडेलवाल  द्वारा

हाल के दिनों में भारत की उच्च न्यायपालिका के फ़ैसलों और टिप्पणियों ने एक ख़तरनाक रुझान पैदा कर दिया है। अदालतें कानून की व्याख्या करने की बजाय, अब नैतिकता के फ़तवे देने लगी हैं, समाज को सुधारने का दावा करने लगी हैं, और यहाँ तक कि सरकार को चलाने के तरीके भी बताने लगी हैं।

क्या यह न्यायिक सक्रियता है या फिर साफ़-साफ़ न्यायिक अतिक्रमण? उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने  इसी मुद्दे पर सवाल उठाए हैं, और उनकी चिंता बिल्कुल वाजिब है। 

पूछ रहा है पूरा इंडिया। अदालतों की बढ़ती हुई दख़ल: क्या यह जायज़ है?

अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु राज्य बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल केस में एक ऐतिहासिक फ़ैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल किसी बिल पर एक महीने के अंदर फ़ैसला नहीं करता है, तो वह बिल अपने-आप पास माना जाएगा। राष्ट्रपति के लिए यह समय सीमा तीन महीने रखी गई। यह फ़ैसला अनुच्छेद 142 के तहत दिया गया, जो कोर्ट को “पूर्ण न्याय” देने का अधिकार देता है। 

लेकिन सवाल यह है: क्या अदालतों को यह अधिकार है कि वे संविधान में लिखे हुए नियमों को बदल दें? राज्यपाल और राष्ट्रपति के पास संविधान द्वारा दी गई विवेकाधीन शक्तियाँ हैं। अगर अदालतें उन्हें समय सीमा देने लगेंगी, तो फिर संविधान का मतलब ही क्या रह जाएगा? 

उप राष्ट्रपति जगदीप धनखड़  ने सही कहा आज कुछ जज ऐसे हैं जो कानून बनाते हैं, सरकार चलाते हैं, और संसद से ऊपर हो गए हैं… लेकिन उन पर कोई कानून लागू नहीं होता!

यह कोई मामूली बात नहीं है। अगर अदालतें ऐसे फ़ैसले देती रहीं, तो एक दिन लोकतंत्र की बुनियाद ही हिल जाएगी।  वरिष्ठ अधिवक्ता कहते हैं, अदालतें अब “उपदेशक” भी बन गई हैं।

सिर्फ़ कानूनी फ़ैसले ही नहीं, अब तो जज महोदय समाज को नैतिकता का पाठ भी पढ़ाने लगे हैं। कुछ वक़्त पहले दिल्ली हाईकोर्ट के एक जज के घर से जली हुई नोटें मिलने का मामला सामने आया। सुप्रीम कोर्ट ने इसकी जाँच शुरू की। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह अदालत का काम है? क्या पुलिस और प्रशासन इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं? 

इसी तरह, पहले भी अदालतों ने यौन संबंध, लव जिहाद, बलात्कार, पोर्नोग्राफी,  शादी-ब्याह, धर्म, और संस्कृति पर अपनी राय थोपने की कोशिश की है। कुछ लोग इसे “प्रगतिशील” कहते हैं, लेकिन असल में यह लोकतंत्र के लिए ख़तरा है। अगर जज ही सब कुछ तय करेंगे, तो फिर जनता द्वारा चुने हुए नेताओं की क्या भूमिका रह जाएगी? 

NJAC केस: जब अदालत ने खुद को संसद से ऊपर रख लिया

2015 में संसद ने NJAC (नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट्स कमीशन) बनाने के लिए एक कानून पास किया था। इसका मक़सद था कि जजों की नियुक्ति में पारदर्शिता लाई जाए। लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को ही रद्द कर दिया और कहा कि जजों की नियुक्ति का अधिकार सिर्फ़ “कॉलेजियम सिस्टम” के पास रहेगा। 

यह फ़ैसला संसद की अवमानना थी। धनखड़ ने ठीक ही कहा कि यह एक “अलोकतांत्रिक वीटो” था। अगर न्यायपालिका खुद को संसद और सरकार से ऊपर समझने लगे, तो फिर लोकतंत्र का क्या होगा? 

अदालतों को अपनी हद और मर्यादाएं मालूम होनी चाहिए, कहते हैं विधि जानकार। न्याय की देवी की आंखों पर पट्टी बंधे होने का कुछ तो अर्थ है।  न्यायपालिका का काम कानून का पालन करवाना है, न कि खुद कानून बनाना या सरकार चलाना। अगर जज लगातार नैतिक उपदेश देते रहेंगे, सरकार के काम में दख़ल देते रहेंगे, और संसद के फ़ैसलों को रद्द करते रहेंगे, तो एक दिन लोकतंत्र की जगह “जजतंत्र” (Judiciary की हुकूमत) आ जाएगी। 

धनखड़ की चेतावनी गंभीरता से लेने की ज़रूरत है:  “जब एक संस्था दूसरी संस्था के काम में दख़ल देती है, तो यह संविधान के लिए ख़तरा है।”

भारत को फ़िलॉसफर किंग्स (दार्शनिक राजाओं) की नहीं, बल्कि ऐसे जजों की ज़रूरत है जो संविधान की मर्यादा को समझें, लोकतंत्र का सम्मान करें, और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग न करें। वरना, आने वाला वक़्त भारतीय लोकतंत्र के लिए बहुत मुश्किल लेकर आएगा।  हमें फैसला लेना होगा कि अदालतें कानून की व्याख्या करें या फिर देश चलाएँ?

सुप्रीम कोर्ट का अगले आदेश तक वक्फ में कोई नई नियुक्ति नहीं, सरकार को 7 दिन की मोहलत

वक्फ कानून को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई है। कोर्ट ने केंद्र सरकार को जवाब देने के लिए 7 दिन का समय दिया है। इसके साथ ही कोर्ट ने कहा है कि वक्फ संपत्ति में कोई बदलाव नहीं होगा। यानी वक्फ की स्थिति जैसी है वैसी ही रहेगी। वक्फ कानून के खिलाफ 70 से ज्यादा याचिकाएं कोर्ट में दायर की गई है।

इस मामले की अगली सुनवाई 5 मई को होगी। सरकार की ओर से सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता दलील दे रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि फिलहाल वक्फ बोर्ड और काउंसिल में कोई नियुक्ति न हो। इसपर तुषार मेहता ने कहा कि सरकार अभी नियुक्ति नहीं करने वाली है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि उसने कहा था कि कानून में कुछ सकारात्मक बातें हैं और इस पर पूरी तरह रोक नहीं लगाई जा सकती। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि वह नहीं चाहता कि मौजूदा स्थिति में कोई बदलाव हो। सरकार के जवाब तक यथास्थिति बनी रहेगी। इसके साथ ही अगले आदेश तक नई नियुक्तियां भी नहीं होगी।

सीजेआई संजीव खन्ना ने कहा कि सरकार 7 दिनों के भीतर जवाब दाखिल करे और उस पर प्रतिउत्तर अगले 5 दिनों के भीतर दाखिल किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि हम फैसला नहीं दे रहे। यह तो अंतरिम आदेश होगा। सीजेआई ने कहा कि हमारे सामने जो स्थिति है उसके आधार पर हम आगे बढ़ रहे हैं। हम नहीं चाहते कि स्थिति पूरी तरह से बदल जाए। हम एक्ट पर रोक नहीं लगा रहे हैं।

सुरक्षित-असुरक्षित लोग

कुछ लोग जब सत्ता के सुरक्षा के कवच में आ जाते हैं, तो उन्हें दूसरों की जान लेने में बड़ा आनंद आता है। लेकिन ऐसे लोग नहीं जानते कि उनका यह शौक़ एक दिन उन्हें भी ले डूबेगा। आख़िर मौत से कौन बच सका है। जो लोग दूसरों को पीड़ा देकर यह सोचते हैं कि अगला जन्म किसने देखा है? उन्हें शायद नहीं मालूम कि ऐसे लोगों को वही पीड़ा सहने के लिए संसार में वापस आना पड़ता है, जो पीड़ा वे दूसरों को दे रहे हैं। यह बात उन लोगों को भले ही नहीं पता हो, जो लोग अपने सुख के लिए दूसरों को पीड़ा पहुँचाते हैं या वे ऐसा विश्वास न करते हों; लेकिन ऐसे ज़ालिम कड़ी सुरक्षा में रहते हुए भी हमेशा डरे हुए रहते हैं। इसलिए ये लोग धर्म और दूसरों की रक्षा के दिखावे की आड़ में अत्याचार करते हैं। ग़रीबों, किसानों को ग़रीबी से निकालने का जुमला, वन्यजीव संरक्षण और गोरक्षा जैसे मुद्दे इसके सबसे सटीक; लेकिन क्रूरतम उदाहरण हैं।

हैदराबाद में 400 एकड़ में फैले कांचा गाजीबोवली जंगल को काटने की हिम्मत करने वाले क्रूर शासकों और माफ़ियाओं ने जो दर्द उस जंगल में रहने वाले निरीह मूक प्राणियों को दिया है, उसकी जिसकी निंदा की जाए, उतनी कम है। वन्यजीवों की दुर्दशा पर तरस जिनको आया, उन्होंने इस पाप-कृत्य की निंदा की। हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय एवं अन्य विद्यालयों, महाविद्यालयों के विद्यार्थियों के अतिरिक्त आम लोगों ने इसके विरुद्ध आवाज़ उठायी। भला हो सर्वोच्च न्यायालय का, जिसने इन लोगों के विरोध एवं मूक वन्य-प्राणियों के दर्द को समझा और जंगल के कटान पर रोक लगा दी। लेकिन क्या जंगल काटने, वन्यजीवों की हत्या करने और लोगों पर अत्याचार करने वाले इस बात को समझेंगे कि वे अपराध कर रहे हैं? कैसे समझेंगे? उन्हें क़ानून या प्रकृति से सज़ा नहीं मिल रही है। दयालु लोग कहते हैं कि लोग इतने कट्टर और हिंसक कैसे हो सकते हैं? इसका भी सीधा जवाब यही है कि ऐसे लोगों को तत्काल सज़ा नहीं मिल पाती है, इसलिए वे कट्टर और हिंसक हो जाते हैं। 

ऐसे लोगों में यह कट्टरता, क्रूरता और ज़्यादा सुख पाने की आकांक्षा के वेग के साथ आती है। ये लोग अपने स्वार्थ साधने के लिए सिर्फ़ मूक और असहाय प्राणियों को ही दु:ख नहीं देते। निर्बल लोगों को भी दु:ख देते हैं। देश भर में फैली अराजकता और अत्याचार की घटनाएँ इसकी गवाह हैं। निरंकुश सत्ता के मोह और सत्ता का संरक्षण के लिए जो लोग निर्दोषों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनका ख़ून बहा रहे हैं, उन्हें डर इतना है कि अगर उनसे कोई सवाल कर दे, तो उनकी बेचैनी देखने लायक होती है। देश में कई पत्रकारों, लेखकों, समाजसेवियों और बुद्धिजीवियों की हत्याएँ करवा देना या उन्हें अपराधी साबित करके प्रताड़ित करना अब देश की सत्तात्मक-प्रथा बन चुकी है। स्थिति यहाँ तक आ पहुँची है कि अब सवाल पूछने पर भी लगभग पाबंदी लग चुकी है।

आरटीआई के जवाब नहीं मिलते। संसद में सवाल पूछने पर किसी भी सांसद के ख़िलाफ़ एक पूरी जमात खड़ी हो जाती है। देश और देशवासियों के हित में बात करने वाले सत्ता पक्ष के सांसदों को तो चुभते ही हैं, संवैधानिक पदों पर बैठे सभापतियों को भी दुश्मन नज़र आते हैं। अब तो संसद में डिजिटल व्यक्तिगत डेटा की सुरक्षा के नाम पर केंद्र  सरकार ने डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम-2025 (डीपीडीपी एक्ट-2025) का मसौदा भी तैयार कर लिया है। यह मसौदा डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम-2023 (डीपीडीपी एक्ट-2023) को लागू करने के लिए तैयार किया गया है, जिसके तहत देश में लोगों के व्यक्तिगत डिजिटल डेटा को संरक्षित करने के लिए बनाया गया है। लेकिन क्या इससे आम आदमी का डेटा संरक्षित हो सकेगा?

साइबर अपराधी आज आम आदमी से लेकर ख़ास लोगों तक का डेटा उड़ा रहे हैं। उनके इस कृत्य में तमाम सोशल मीडिया ऐप उनकी मदद कर रहे हैं या ख़ुद इसमें शामिल मिले हैं। लेकिन यही डिजिटल व्यक्तिगत डेटा संरक्षण अधिनियम से सत्ता में सुरक्षित बैठे लोगों के डेटा की सुरक्षा करेगा और यह सुनिश्चित करेगा कि इन लोगों से कोई सवाल न पूछे। इससे इन लोगों के काले कारनामों का ख़ुलासा नहीं हो सकेगा। चुनावों के ज़रिये चुने हुए लोग, संवैधानिक पदों पर आसीन लोग, अधिकारी सब सुरक्षित किये जाने की चाल है, जिससे उनके गिरेबान में कोई झाँक न सके। जो झाँकने की कोशिश करेगा, उसे सज़ा मिलेगी।

देश में लोकतंत्र का यह सबसे क्रूर स्वरूप है कि देश का एक नागरिक दूसरे नागरिक को मार सकता है। अत्याचार कर सकता है। इसकी संपत्ति छीन सकता है। भ्रष्टाचार कर सकता है। लेकिन उच्च पदों पर पहुँचे लोगों की ग़लतियों, उनके भ्रष्टाचार, उनकी निरंकुशता को लेकर कोई सवाल तक नहीं कर सकता। जानकारी नहीं माँग सकता। जाँच एजेंसियाँ भी दोहरी नीति के तहत कार्रवाई करने का निर्णय लेती हैं। ऐसे में डेटा संरक्षण का यह स्वरूप लोकतंत्र नहीं निरंकुश-तंत्र की जड़ें मज़बूत करेगा, जो निर्बल बहुसंख्यक लोगों को ग़ुलामी की बेड़ियों में जकड़ने का प्रयास है। समझिए, इस क़ानून से सुरक्षा किसकी होगी?

टैरिफ : झटका या अवसर

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के टैरिफ पर अचानक यू-टर्न ने वैश्विक आर्थिक व्यवस्था को गहरा झटका दिया है। चीन को छोड़कर अन्य सभी देशों पर व्यापक पारस्परिक शुल्क को रोकने का उनका निर्णय एक दुर्लभ रियायत है। लेकिन यह उस अस्थिरता को भी रेखांकित करता है, जो ट्रम्प की व्यापार नीति को परिभाषित करती है। भारत के लिए यह क्षण चुनौती भरा भी है और एक अवसर के रूप में भी। अपने दूसरे कार्यकाल में ट्रम्प ने वैश्विक आर्थिक अनिश्चितता को फिर से भड़का दिया, जिससे शेयर बाज़ारों और वास्तविक अर्थव्यवस्था में दीर्घकालिक निर्णय बाधित हो गये। इस व्यवधान की भयावहता स्पष्ट रूप से स्वाभाविक है, क्योंकि जापान का निक्केई 7.83 प्रतिशत गिरा, हॉन्गकॉन्ग का हैंगसेंग 13.22 प्रतिशत गिरा और भारत का सेंसेक्स एक ही दिन में 2.95 प्रतिशत गिर गया। 01 जनवरी से अब तक सेंसेक्स में 6.84 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी है और यह सितंबर 2024 के अपने शिखर 85,978.25 से लगभग 15 प्रतिशत नीचे है।

‘तहलका’ की आवरण कथा- ‘टैरिफ-तूफ़ान के बीच भारत स्थिर’ इस उथल-पुथल को दर्शाती है तथा यह भी बताती है कि भारत इससे कैसे निपट रहा है। जैसे-जैसे व्यापारिक अस्थिरता का तूफ़ान तेज़ होता जा रहा है, भारत ख़ुद को दो महाशक्तियों के बीच कूटनीतिक रूप से संतुलित करते हुए पा रहा है। वहीं चीन ट्रम्प के 125 प्रतिशत टैरिफ के दबाव में दो सबसे बड़े विकासशील देशों के बीच एकजुटता की अपील के साथ नई दिल्ली तक पहुँच रहा है। ट्रम्प द्वारा भारत और यूरोपीय संघ सहित 59 देशों के लिए 10 प्रतिशत से अधिक टैरिफ को अस्थायी रूप से निलंबित करना एक रणनीतिक क़दम है। यह व्यापार सौदों पर बातचीत करने के लिए 90 दिनों का समय प्रदान करता है; शायद यह इस बात की स्वीकृति है कि अमेरिका को फिर से महान् बनाओ के एजेंडे को आगे बढ़ाते हुए वैश्विक व्यापार युद्ध छेड़ना टिकाऊ नहीं हो सकता है। इसके बजाय ट्रम्प ने चीन पर अपनी शक्ति केंद्रित करने का निर्णय लिया है, जो अब अमेरिकी टैरिफ का ख़ामियाज़ा भुगत रहा है। वैश्विक टकराव से चीन के साथ द्विपक्षीय लड़ाई की ओर यह बदलाव अभूतपूर्व है। लेकिन यह बहुत कुछ कहता है; यहाँ तक ​​कि ट्रम्प को भी अहसास हो गया है कि आधी दुनिया को नाराज़ करना आर्थिक और कूटनीतिक रूप से उलटा पड़ सकता है।

भारत के लिए यह विराम एक रणनीतिक अवसर प्रस्तुत करता है। आवेगपूर्ण तरीक़े से जवाबी कार्यवाही करने के प्रलोभन का प्रतिरोध करके तथा इसके बजाय दीर्घकालिक रणनीति अपनाकर नई दिल्ली ने स्वयं को एक व्यावहारिक खिलाड़ी के रूप में स्थापित किया है। अब उसे अमेरिका के साथ द्विपक्षीय व्यापार को 2.5 गुना बढ़ाने के अपने सपने को साकार करने का लक्ष्य सुनिश्चित करना चाहिए। सकारात्मक पक्ष यह है कि टैरिफ में राहत से विदेशी पोर्टफोलियो प्रवाह को बढ़ावा मिल सकता है और रुपया मज़बूत हो सकता है। इसके साथ ही तरलता में आसानी हो सकती है और ब्याज दरों में कमी आ सकती है। हालाँकि आगे का रास्ता जोखिम भरा भी है। लम्बे समय से चल रहे अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध से वैश्विक मूल्य श्रृंखलाओं के बाधित होने का ख़तरा है, और भारत को अपने बाज़ारों में आने वाले सस्ती चीन की वस्तुओं की बाढ़ से सावधान रहना होगा। यद्यपि चीन की पहल मैत्रीपूर्ण प्रतीत हो सकती है, फिर भी भारत को सावधानी से क़दम उठाना होगा। बीजिंग की एकजुटता की अचानक इच्छा साझा मूल्यों को बढ़ावा देने से ज़्यादा उसके रणनीतिक स्वार्थ को लक्षित करती है, जो कि वह फ़िलहाल अपनी अटकी के चलते छुपा रहा है। भारत की सबसे अच्छी प्रतिक्रिया सतर्क भागीदारी में निहित है। इसलिए भारत को अमेरिका के साथ इस कूटनीतिक अवसर का लाभ उठाना चाहिए और अपने घरेलू बाज़ारों की सुरक्षा करते हुए तेज़ी से खंडित हो रहे विश्व में एक विश्वसनीय, नियम-आधारित आर्थिक साझेदार के रूप में अपनी स्थिति को बनाये रखना चाहिए।

ट्रम्प के टैरिफ सम्बन्धी उतार-चढ़ाव ने भले ही बाज़ारों को हिलाकर रख दिया हो; लेकिन भारत के लिए यह आर्थिक शासन-कौशल की भी परीक्षा है। भारत के लिए अगले 90 दिन निर्णायक हो सकते हैं; न केवल व्यापार के लिए, बल्कि विकसित हो रही वैश्विक व्यवस्था में अपनी भूमिका के लिए भी।