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टैरिफ-तूफ़ान के बीच भारत स्थिर

– अमेरिका द्वारा टैरिफ लगाने के ऐलान से त्रस्त चीन भारत से चाहता है सहयोग

पिछले दिनों अमेरिका के भारत समेत कई देशों पर टैरिफ लगाने का ऐलान से वैश्विक बाज़ारों में व्यापारिक तूफ़ान-सा आ गया। इस व्यापारिक तूफ़ान के ज़ोर पकड़ने के बाद इस समस्या का सामना करने के लिए भारत अपनी कूटनीति नये सिरे से तैयार कर रहा है। वहीं अमेरिका द्वारा टैरिफ लगाये जाने से त्रस्त चीन नई दिल्ली के साथ शान्ति की पहल कर रहा है। इस सम्बन्ध में गोपाल मिश्रा की रिपोर्ट : –

फोर्ट नॉक्स के प्रसिद्ध स्वर्ण भंडार के समाप्त होने के साथ ही अमेरिकी डॉलर के समक्ष चुनौती प्रत्येक बीतते दिन के साथ बढ़ती जा रही है। यह अत्यधिक संदिग्ध है कि क्या राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प की उच्च-शुल्क व्यवस्था वास्तव में कभी मज़बूत रहे अमेरिकी डॉलर को बचा पाएगी या इसके घटते संसाधनों को आर्थिक विकास को पुन: गति देने की दिशा में पुनर्निर्देशित कर पाएगी। इस बीच इन शुल्कों को लेकर चल रही बयानबाज़ी, जिसे अमेरिकी वित्त मंत्रालय के नेक इरादे वाले; लेकिन यक़ीनन गुमराह अधिकारियों द्वारा परिकल्पित और लागू किया गया है; ने महाद्वीपों के धन प्रबंधकों को अस्थिर करने में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभायी है। वे जानते हैं कि अमेरिकी डॉलर की आत्मा को बीजिंग के लॉकरों में सावधानीपूर्वक सुरक्षित रखा गया है।

जनवरी, 2025 तक चीन के पास लगभग 760.8 बिलियन डॉलर की अमेरिकी ट्रेजरी प्रतिभूतियाँ होंगी, जिससे वह जापान के बाद दूसरा सबसे बड़ा विदेशी धारक बन जाएगा। यह पर्याप्त निवेश अमेरिकी डॉलर की स्थिरता में चीन के निहित स्वार्थ को रेखांकित करता है, जो संभवत: वाशिंगटन के कुछ भोले नीति-निर्माताओं से भी अधिक है। दिलचस्प बात यह है कि यूरोप में वाशिंगटन के क़रीबी सहयोगियों के बीच यह सच्चाई अच्छी तरह से समझी जा चुकी है, जो बीजिंग और नई दिल्ली के साथ अपने वित्तीय हितों को फिर से जोड़ने की तैयारी कर रहे हैं। वे अच्छी तरह जानते हैं कि बढ़ते क़र्ज़ और प्रतिभूति मोचन को पुनर्निर्धारित करने की आवश्यकता के बीच 2024 के अंत तक अमेरिकी ऋण-जीडीपी अनुपात 123 प्रतिशत तक बढ़ गया था।

भारत में अर्थशास्त्रियों के साथ-साथ कॉर्पोरेट जगत भी इस बात से आश्वस्त है कि प्रमुख वैश्विक खिलाड़ियों की तुलना में बहुत छोटी अर्थव्यवस्था होने के बावजूद नई दिल्ली संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा टैरिफ युद्ध शुरू करने के बाद आयी सुनामी का सामना कर सकती है। हालाँकि इसमें कुछ बाधाएँ भी आएँगी। नई दिल्ली के कई अर्थशास्त्रियों के अनुसार, यह संदेहास्पद है कि ट्रम्प प्रशासन ने इस विश्वव्यापी टकराव को शुरू करने से पहले अपना होमवर्क किया था। वैश्विक स्तर पर यह आशंका बढ़ रही है कि ट्रम्प के पूर्ववर्ती और पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जानबूझकर बीजिंग को अच्छे मूड में रखा था; शायद रूस-यूक्रेन युद्ध के परिणामस्वरूप यूरेशिया में ड्रैगन को पूर्ण नियंत्रण देने का वादा भी किया था; लेकिन इस टकराव को शुरू करने का ट्रम्प का फ़ैसला कुछ हद तक मनोरंजक प्रतीत होता है। यह सर्वविदित है कि विश्व बाज़ार में प्रमुख खिलाड़ी चीन, जापान और यूरोपीय संघ हैं।

भारत के मामले में इस टकराव का प्रभाव बहुत महत्त्वपूर्ण नहीं हो सकता है; विशेष रूप से तब, जब वर्तमान में भारत-अमेरिका व्यापार चीन, यूरोपीय संघ और कनाडा की तुलना में बहुत कम है; यदि नगण्य नहीं है। यद्यपि अर्थव्यवस्था कुछ गंभीर झटकों को सहन कर सकती है, फिर भी यह उम्मीद की जाती है कि यह अमेरिका और एशिया में अन्य अमेरिकी सहयोगियों की तुलना में इस तूफ़ान को बेहतर ढंग से झेल लेगी। हालाँकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि भारतीय वस्तुओं पर 26 प्रतिशत टैरिफ लगाये जाने से हमारे निर्यात पर असर पड़ सकता है या इसमें तत्काल गिरावट आ सकती है। यदि ब्रिटेन के पूर्व वित्त मंत्री जिम ओ’नील के हालिया बयान पर विश्वास किया जाए, तो ऐसा प्रतीत होता है कि नये गठबंधनों पर काम किया जा रहा है। उन्होंने कहा है कि बीजिंग के साथ घनिष्ठ व्यापारिक सम्बन्ध उस पुनर्गठन का हिस्सा होना चाहिए, जो ट्रम्प की कामिकेज़ टैरिफ पहल के बाद अपरिहार्य है। गोल्डमैन सैक्स के पूर्व मुख्य अर्थशास्त्री लॉर्ड ओ’नील ने कहा कि जी-7 देश इसमें अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं; लेकिन भारत और चीन को भी इसमें शामिल किया जाना चाहिए। उन्होंने आगे कहा- ‘यह समझना महत्त्वपूर्ण है कि अमेरिका को छोड़कर शेष जी-7 देश सामूहिक रूप से संयुक्त राज्य अमेरिका के समान आकार के हैं। और मैं समझता हूँ कि सबसे समझदारी वाली बात यह होगी कि हम अन्य सदस्यों के साथ अपने बीच व्यापार बाधाओं को कम करने के बारे में गंभीरता से बातचीत करें।’

चीन वास्तव में अमेरिका की तुलना में यूरोपीय संघ को अधिक माल भेजता है और अमेरिका से दूर यह निर्यात बदलाव व्हाइट हाउस में ट्रम्प के पहले कार्यकाल के बाद से तेज़ हो गया है, तब भी जब चीनी निर्यात में कोरोना-सम्बन्धी उछाल को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है। चीन अब अमेरिका को लगभग 440 अरब अमेरिकी डॉलर मूल्य का सामान भेजता है, जबकि यूरोपीय संघ के 27 सदस्यों को उसका निर्यात लगभग 580 अरब अमेरिकी डॉलर है। विश्व अर्थव्यवस्था में इन उथल-पुथल भरे घटनाक्रमों के दौरान ऐसा प्रतीत होता है कि भारत स्थिति पर अधिक प्रभावी प्रतिक्रिया देने की तैयारी कर रहा है। हालाँकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार में ख़राब प्रदर्शन करने वालों को हटाकर कितनी नयी ऊर्जा भर पाते हैं। इस संभावना का संकेत उनके हाल के नागपुर दौरे के दौरान सामने आया, जहाँ उन्होंने कथित तौर पर संघ के दिग्गजों से देश के भीतर और अंतरराष्ट्रीय मंच पर नयी वास्तविकताओं का सामना करने के लिए ख़ुद को पुन: संगठित करने को कहा। हालाँकि इस बयान को राष्ट्रीय मीडिया के लिए विस्तार से नहीं बताया गया, जो मोदी के पिछले कार्यकालों से परिचित दिशा-निर्देशों का पालन करना जारी रखता है; जैसे कि नियमित रूप से भारत के अतीत का महिमामंडन करना या मोदी को केंद्रीय व्यक्ति बनाकर सनातनी आख्यान को बढ़ावा देना।

मोदी 3.0 में एन2 ट्विस्ट

नई दिल्ली के राजनीतिक हलक़ों में इस बात पर आम सहमति है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी नवीनीकृत धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक छवि के साथ अस्पष्ट अतीत से जुड़े रहने के बजाय समकालीन विश्व, और विशेष रूप से भारत के समक्ष उपस्थित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करके कहीं अधिक प्रभावी भूमिका निभाएँगे। अमेरिका में भारत की कूटनीतिक पहुँच को लगे झटके का श्रेय विदेश मंत्री एस. जयशंकर को दिया जा रहा है, जो पूर्व सिविल सेवक हैं और अब विदेश मंत्रालय में राजनीतिक भूमिका में आ गये हैं। फिर भी मोदी को यह सलाह दी जा रही है कि वे सिविल सेवकों को कैबिनेट मंत्री के रूप में नियुक्त करना जारी रखें, क्योंकि वे न केवल आज्ञाकारी हैं, बल्कि सत्तारूढ़ भाजपा के भीतर उनकी राजनीतिक स्थिति को चुनौती देने की भी संभावना नहीं रखते हैं, जो अब वर्तमान सरकार में केवल गठबंधन सहयोगी तक सीमित हो गयी है।

यह भी कहा जा रहा है कि अपने नये अवतार में देश के सर्वोच्च कार्यकारी पद पर आसीन मोदी से भाजपा नेता के रूप में अपने पिछले कार्यकालों की तुलना में काफ़ी अधिक मुखर होने की उम्मीद है। वह वर्तमान में एनडीए गठबंधन का नेतृत्व कर रहे हैं, जिसे दो अनुभवी राजनीतिक दिग्गजों द्वारा चुपचाप सहायता दी जा रही है; बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडू। नीतीश कुमार, जिन्हें प्यार से सुशासन बाबू या सुशासन का प्रतीक कहा जाता है; ने जाति-संवेदनशील अपने राज्य में जटिल मुस्लिम-यादव सामाजिक गठबंधन की चुनौतियों का डटकर सामना किया है। इसी तरह नायडू, जो विखंडित आंध्र प्रदेश में सत्ता में लौटे हैं; जो अब तटीय आंध्र और तेलंगाना के बीच विभाजित है। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण क़दम से अच्छी तरह वाक़िफ़ हैं, जिसके कारण पहले राज्य का विभाजन हुआ था।

दक्कन के जाने-माने राजनीतिक नेताओं के अनुसार, सोनिया से चिन्तित रहने वाले नायडू चाहते हैं कि मोदी को एन2 टैग के साथ मोदी 3.0 के रूप में पुन: लॉन्च किया जाए, जो धर्मनिरपेक्ष रुझान का संकेत देता है। एन2 नीतीश और नायडू के समर्थन का प्रतीक है, जो अब मोदी को मिल रहा है। अनुमान है कि यह गठबंधन मोदी को दक्षिण भारत में अपनी राजनीतिक उपस्थिति को फिर से स्थापित करने में सक्षम बना सकता है, साथ ही संयुक्त राज्य अमेरिका में तेलुगु प्रवासियों से समर्थन भी प्राप्त कर सकता है, जिनमें से कई ट्रम्प प्रशासन में महत्त्वपूर्ण पदों पर हैं।

जब कूटनीतिक दाँव पड़ गया उलटा

विदेश मंत्री एस. जयशंकर और अमेरिकी विदेश मंत्री मार्को रूबियो के बीच 07 अप्रैल को हुई वार्ता के 24 घंटे के भीतर भारत ने एक और कूटनीतिक चूक देखी, जिसके दौरान दोनों इस बात पर सहमत हुए थे कि जल्द ही एक द्विपक्षीय व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किये जाएँगे। हालाँकि इसके बाद अमेरिकी प्रशासन ने भारतीय वस्तुओं पर 26 प्रतिशत पारस्परिक टैरिफ लगाने का निर्णय लिया, जो 09 अप्रैल से प्रभावी होगा। ऐसा माना जाता है कि शायद रूबियो के साथ जयशंकर की निकटता को दर्शाने के एक बचकाने प्रयास में, जिसे साउथ ब्लॉक में कई लोग अनावश्यक मानते हैं; भारतीय विदेश कार्यालय ने एक आकस्मिक आदान-प्रदान को एक गंभीर कूटनीतिक जुड़ाव के रूप में पेश किया। एक पूर्व भारतीय राजनयिक ने इस लेखक को बताया कि 20 जनवरी को ट्रम्प के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए व्हाइट हाउस का निमंत्रण प्राप्त करने में जयशंकर की विफलता के बाद से उनकी छवि को फिर से बनाने के प्रयास में मीडिया में चुनिंदा रूप से अप्रासंगिक या ग़ैर-महत्त्वपूर्ण अपडेट को प्रमुखता दी गयी है।

इससे पहले भारतीय कूटनीति की तब आलोचना हुई थी, जब वाशिंगटन स्थित राजनयिक मिशन यह सुनिश्चित करने में विफल रहा था कि वापस भेजे जा रहे अवैध भारतीय प्रवासियों को हथकड़ी लगाने से बचाया जाए। इसके बजाय जयशंकर ने राज्यसभा को बताया कि अमेरिकी अधिकारी केवल अपनी मानक संचालन प्रक्रिया (एसओपी) का पालन कर रहे हैं। विदेश मामलों के एक वरिष्ठ विद्वान को हाल ही में यह टिप्पणी करते हुए सुना गया कि ‘हमारे सज्जन विदेश मंत्री जल्द ही अमेरिकी प्रशासन के एक और एसओपी के रूप में भारतीय वस्तुओं पर भारी टैरिफ वृद्धि को उचित ठहरा सकते हैं।’ विद्वान ने कहा कि भारत को यह समझना होगा कि अमेरिका में घरेलू आय में अचानक गिरावट आने के कारण भारतीय उत्पादों के ख़रीदार कम हो सकते हैं।

सामने आएँगी वाशिंगटन की ग़लतियाँ

शास्त्रीय अर्थशास्त्री संयुक्त राज्य अमेरिका में चल रहे आर्थिक संकट की व्याख्या इस रूप में करते हैं कि यह धीरे-धीरे विश्व के अधिकांश भाग को अपनी चपेट में ले रहा है। उनका मानना है कि इसकी जड़ें सोवियत संघ के बाद के युग में विशेषकर 1990 के दशक के बाद विभिन्न क्षेत्रों में छेड़े गये अनावश्यक युद्धों में निहित हैं। वे आगे तर्क देते हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था की ज़मीनी चुनौतियों का समाधान करने के बजाय उत्तरोत्तर प्रशासनों ने देश के विनिर्माण का अधिकांश कार्य चीन को आउटसोर्स कर दिया, जबकि महाद्वीपों के बीच संघर्षों को बढ़ावा देने के लिए रक्षा-औद्योगिक शक्ति पर निर्भरता बनाये रखी। 2021 के आँकड़ों के अनुसार, संयुक्त राज्य अमेरिका ने अपने कुल माल का 14.6 प्रतिशत, यानी 413.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आयात चीन से किया। अभी तक यह ख़ुलासा नहीं किया गया है कि अमेरिकी कम्पनियाँ अन्य बाज़ारों में कितना निर्यात करती हैं।

संघीय सरकार और संघीय संसाधनों से वित्त पोषित संस्थानों में बड़े पैमाने पर छँटनी के कारण अमेरिकी उपभोक्ताओं की क्रय शक्ति में काफ़ी गिरावट आयी है। ग़ैर-ज़रूरी सामान, विशेषकर ऊँची क़ीमत पर ख़रीदने में उनकी हिचकिचाहट समझ में आती है। ट्रम्प द्वारा लगाये गये टैरिफ में औसतन 1.9 प्रतिशत की कमी की जाएगी, जिसके परिणामस्वरूप 2025 में प्रति अमेरिकी परिवार पर औसतन 1,900 अमेरिकी डॉलर से अधिक की कर वृद्धि होगी। 04 अप्रैल तक चीन, कनाडा और यूरोपीय संघ ने जवाबी टैरिफ की घोषणा की है या लागू किया है, जिससे संयुक्त रूप से 330 बिलियन अमेरिकी डॉलर के अमेरिकी निर्यात प्रभावित होंगे। इन लगाये गये और धमकी भरे उपायों से अमेरिकी जीडीपी में अतिरिक्त 0.1 प्रतिशत की कमी आने का अनुमान है। 2025 में ट्रम्प टैरिफ से संघीय कर राजस्व में 258.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर या जीडीपी का 0.85 प्रतिशत की वृद्धि होने की उम्मीद है; जो 1982 के बाद से सबसे बड़ी कर वृद्धि होगी। उल्लेखनीय बात यह है कि ये शुल्क राष्ट्रपति जॉर्ज एच.डब्ल्यू. बुश, बिल क्लिंटन और बराक ओबामा के कार्यकाल में लागू की गयी कर वृद्धि से अधिक हैं।

भारत के प्रति चीन के उत्साहपूर्ण रुख़ की वजह

ऐसा प्रतीत होता है कि ट्रम्प के टैरिफ आक्रमण के प्रभाव को कम करने के लिए चीन की रणनीति के रडार पर भारत तेज़ी से आ रहा है। भारतीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को हाल ही में भेजे गये पत्र में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार के 75 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रतीकात्मक टैंगो का प्रस्ताव रखते हुए शान्ति की पहल की है। यह उल्लेख किया जा सकता है कि टैंगो एक जीवंत दक्षिण अमेरिकी नृत्य है, जिसमें एक मज़बूत लय होती है, जिसे दो साथी एक-दूसरे को कसकर पकड़कर करते हैं; शायद यह वास्तविक सम्बन्ध का एक रूपक है। शी जिनपिंग ने आगे कहा कि ‘दोनों देशों के लिए पारस्परिक उपलब्धि के भागीदार बनना और ड्रैगन-हाथी टैंगो को साकार करना, सही विकल्प है।’ उन्होंने आगे कहा- ‘जो दोनों देशों और उनके लोगों के मौलिक हितों की पूरी तरह से पूर्ति करता है।’

बीजिंग स्पष्ट रूप से व्यापक आकर्षण के लिए आक्रामक रुख़ अपना रहा है तथा वह अपने निर्यात को अमेरिका से हटाकर अधिक ग्रहणशील स्थानों की ओर ले जाने का प्रयास कर रहा है, जबकि वाशिंगटन नये व्यापार अवरोध लगा रहा है। इस वर्ष के प्रारंभ में अमेरिकी प्रशासन द्वारा लगाया गया टैरिफ 20 प्रतिशत था; लेकिन पिछले सप्ताह इसे दोगुना से भी अधिक बढ़ाकर 54 प्रतिशत कर दिया गया, जिससे प्रभावी औसत दर 65 प्रतिशत तक पहुँच गयी; जिससे चीनी आयात की लागत इतनी बढ़ गयी कि कई विश्लेषक इसे अप्रतिस्पर्धी मानते हैं। बीजिंग की प्रतिक्रिया त्वरित थी। वित्तीय बाज़ारों में उथल-पुथल मच गयी, क्योंकि चीन के वित्त मंत्रालय ने घोषणा की कि वह 10 अप्रैल से सभी अमेरिकी वस्तुओं पर टैरिफ बढ़ाकर जवाबी कार्रवाई करेगा।

अमेरिका द्वारा नयी टैरिफ योजना पर अपने निर्णय को 90 दिनों के लिए स्थगित रखने तथा चीनी वस्तुओं पर टैरिफ को 104 प्रतिशत पर बरक़रार रखने के विलंबित निर्णय से ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका-चीन के बीच पूर्ण पैमाने पर टकराव की स्थिति उत्पन्न हो गयी है। ज़ाहिर है निवेशकों की भावनाएँ चिन्ताजनक हो गयी हैं। व्यापार युद्ध बढ़ने के साथ ही अमेरिका में संभावित मंदी की आशंकाएँ भी बढ़ रही हैं, क्योंकि कम्पनियाँ इस तूफ़ान से बचने के लिए निवेश कम करने और नौकरियों में कटौती करने लगी हैं।

भारत के लिए खुल सकते हैं निर्यात के रास्ते

अमेरिका द्वारा नयी टैरिफ योजना पर अपने निर्णय को 90 दिनों तक स्थगित रखने तथा चीनी वस्तुओं पर टैरिफ को 104 प्रतिशत पर बरक़रार रखने के निर्णय से ऐसा प्रतीत होता है कि अमेरिका-चीन के बीच पूर्ण पैमाने पर टकराव शुरू हो गया है। इस बीच अमेरिकी ट्रेजरी सचिव स्कॉट बेसेन्ट ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीसी) को चेतावनी देते हुए कहा है कि टैरिफ बढ़ाने का उसका निर्णय एक बड़ी ग़लती है; विशेष रूप से चीन के साथ अमेरिका के भारी व्यापार घाटे के संदर्भ में। संयुक्त राष्ट्र कॉमट्रेड डेटाबेस के अनुसार, 2023 में चीन ने 165 बिलियन अमेरिकी डॉलर मूल्य का सामान आयात किया, जबकि अमेरिका को उसका निर्यात 502 बिलियन अमेरिकी डॉलर था; जो कि आयात से तीन गुना अधिक है।

चीन को छोड़कर अधिकांश देशों के लिए पारस्परिक टैरिफ को रोकने के ट्रम्प के फ़ैसले का अमेरिकी शेयर सूचकांक पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा है। 11 अप्रैल को डॉव लगभग 3,000 अंक ऊपर चढ़ गया, जबकि नैस्डैक 12.1 प्रतिशत ऊपर चला गया। अमेरिकी राष्ट्रपति ने मीडिया के समक्ष दोहराया कि देश की व्यापारिक साझेदारियाँ टिकाऊ नहीं हैं। इससे पहले कैनबरा में ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बानीस ने मई में होने वाले देश के आम चुनावों से कुछ सप्ताह पहले ट्रम्प की टैरिफ योजना के ख़िलाफ़ हाथ मिलाने के चीनी राजदूत शियाओ कियान के प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया था।

इस बीच चीनी अधिकारियों ने इंटरनेट प्लेटफार्मों पर निगरानी कड़ी कर दी है तथा ग्रेट फायरवॉल के माध्यम से नियंत्रण को मज़बूत किया है। इसके साथ ही सोशल मीडिया पर टैरिफ से सम्बन्धित सामग्री पर नियंत्रण बढ़ा दिया गया है। वेइबो पर हैशटैग और टैरिफ या 104 जैसे शब्दों की खोज कथित तौर पर प्रतिबंधित कर दी गयी है, तथा पेजों पर त्रुटि संदेश दिखायी दे रहे हैं। आलोचना को टालने के स्पष्ट प्रयास में सरकारी प्रसारक सीसीटीवी ने वेइबो का उपयोग करके अमेरिकी टैरिफ को अण्डों जैसी रोज़मर्रा की वस्तुओं की कमी से जोड़ दिया है। सेंसरशिप का दायरा वीचैट तक भी पहुँच गया है, जहाँ अमेरिकी टैरिफ के आर्थिक प्रभाव को कमतर आँकने वाले पोस्ट चुपचाप प्रसारित किये जा रहे हैं।

बीजिंग स्थित वकील पैंग जिउलिन, जिनके वेइबो अकाउंट पर 10.5 मिलियन से अधिक फॉलोअर्स हैं; ने आगाह किया है कि यदि चीन ने 104 प्रतिशत टैरिफ लगाने के अमेरिकी निर्णय पर प्रतिक्रिया व्यक्त की, तो अमेरिकी ख़रीदार चीनी उत्पाद ख़रीदना बंद कर देंगे और जल्द ही उनका स्थान भारत और वियतनाम के निर्यात द्वारा ले लिया जाएगा।

टैरिफ़ बढ़ा; लेकिन आगे बढ़ती रही बी.वाई.डी.

ब्रिटेन और यूरोपीय संघ द्वारा चीनी ऑटोमोबाइल पर लगाये गये उच्च टैरिफ के बावजूद दुनिया की सबसे लोकप्रिय इलेक्ट्रिक कारें बी.वाई.डी. (बिल्ड योर ड्रीम) से भरी शिप पहले ही रॉटरडैम, ब्रिस्टल, ब्रेमर हेवन और फ्लशिंग सहित प्रमुख यूरोपीय बंदरगाहों पर पहुँच चुकी हैं। इसके अतिरिक्त 5,000 इलेक्ट्रिक वाहनों की खेप चीन के शेनझेन से नीदरलैंड के फ्लशिंग और जर्मनी के ब्रेमर हेवन तक भेजने के लिए तैयार की जा रही है। बी.वाई.डी. के चांगझू संयंत्र से यंताई, शानदोंग से ब्रिस्टल और रॉटरडैम के लिए 5,000 अन्य कारों के रवाना होने की उम्मीद है। हाल ही में वाशिंगटन द्वारा शुरू किये गये टैरिफ युद्ध के बीच बी.वाई.डी. बेड़ा, जो पहले ही एलोन मस्क की टेस्ला से आगे निकल चुका है; यूरोप में अपनी विजय पताका गाड़ने के लिए तैयार दिखायी देता है।

फिर हिन्दू राष्ट्र बनेगा नेपाल?

बहुत कम लोगों को मालूम होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (संघ) जितना भारत में सक्रिय रहता है, उतनी ही उसकी सक्रियता नेपाल में भी है। और भी दिलचस्प सच्चाई यह है कि संघ नेपाल के राजनीतिक नेतृत्व के मुक़ाबले वहाँ की राजशाही के ज़्यादा निकट है। नेपाल में चूँकि राजशाही की सक्रियता अचानक बढ़ गयी है और राजनीतिक नेतृत्व से उसकी टकराव जैसी स्थिति बन रही है, ऐसे में भारत की भी गहरी नज़र वहाँ के घटनाक्रम पर है। आईने में दो सवाल हैं। पहला यह कि क्या नेपाल की जनता लोकशाही से विमुख हो रही है और दोबारा उसकी नज़र राजशाही पर है? जो नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र बनाने की माँग कर रही है। दूसरा सवाल यह है कि यदि नेपाल में स्थिति बदलती है, तो क्या भारत किसी भूमिका में रहेगा? साल 2008 में नेपाल में राजशाही के अंत के बाद यह पहली बार है कि वहाँ के पूर्व राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह जब 09 मार्च को पोखरा से काठमांडू पहुँचे, तो उनके स्वागत के लिए हज़ारों की भीड़ जमा हो गयी। यह आश्चर्यजनक था; क्योंकि राजा हाल के वर्षों में बहुत कम ही सार्वजनिक रूप से दिखते रहे हैं।

पिछले एक महीने में राजा ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह एक से ज़्यादा बार जनता के बीच पहुँचे हैं, जो उनकी सक्रियता को ज़ाहिर करता है। और भी दिलचस्प यह है कि यह सक्रियता राजनीतिक सक्रियता दिख रही है। उन्होंने इस दौरान नेपाल को फिर से हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की माँग की है। नेपाल राजशाही के समय तक घोषित हिन्दू राष्ट्र था। निश्चित ही नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था राजा की सक्रियता से परेशान होगी। नेपाल में राजा के सक्रिय होने और उनके दोबारा नेपाल में राजतंत्र को जीवित करने की मंशा को इसलिए भी बल मिल रहा है; क्योंकि नेपाल की स्थिति हाल के वर्षों में ख़राब हुई है। वहाँ की अर्थव्यवस्था बदहाल हुई है।

नेपाल की जनता राजनीतिक सत्ता से अप्रसन्न है। एक तो नेपाल में राजनीतिक अस्थिरता बहुत ज़्यादा है, दूसरे बेरोज़गारी और महँगाई जैसे मुद्दे जनता को बेचैन कर रहे हैं। नेपाल की स्थिति देखने से लगता है कि जनता का राजनीतिक सत्ता (लोकशाही) से मोह भंग हो रहा है। वे परिवर्तन चाहते हैं और राजशाही को इसमें अपनी वापसी का रास्ता दिख रहा है। राजा ज्ञानेंद्र जनता की इस नब्ज़ को पकड़ रहे हैं और उन्होंने अपने सक्रियता बढ़ा दी है। राजा ज्ञानेंद्र अलवत्ता हाल के वर्षों में सक्रिय नहीं रहे थे। साल 2008 के बाद वे सार्वजानिक रूप से बहुत ही कम दिखे थे। अब उनके जाने के स्थानों पर जिस तरह भीड़ उमड़ रही है उससे संकेत मिलता है कि जनता उनसे कुछ उम्मीद कर रही है।

नेपाल में बदलते घटनाक्रम पर भारत की ही नहीं, चीन की भी नज़र है। यह माना जाता है कि हाल के वर्षों में चीन ने नेपाल में अपनी भूमिका को काफ़ी बढ़ाया है और राजनीतिक नेतृत्व के बीच उसकी सक्रियता और प्रभाव साफ़ तौर पर दिखे हैं। चीन ने नेपाल की परियोजनाओं में हिस्सेदारी बढ़ायी है और आर्थिक मदद के ज़रिये नेपाल को अपने साथ खड़ा करने की रणनीति अपनायी है। चीन ने यही रणनीति श्रीलंका, मालदीव और भूटान के लिए भी रखी है जिसके पीछे उसकी मंशा इन देशों को भारत से दूर ले जाने की रही है। श्रीलंका और मालदीव भारत से समुद्री सीमा साझा करते हैं, जबकि अन्य भूमि सीमा के रूप में। बहुत-से विशेषज्ञ मानते हैं कि आर्थिक मदद से इन देशों को क़ज़र्दार बनाकर चीन ने उन पर अपनी पकड़ क़ायम कर ली है। पाकिस्तान पहले से ही चीन का रणनीतिक साझेदार रहा है।

नेपाल आर्थिक रूप से कमज़ोर ट्रैक पर चलता रहा है। यही कारण है कि देश की जनता में असंतोष पनप रहा है। वहाँ बेरोज़गारों की क़तार लम्बी हुई है और आर्थिक विकास पर भी ब्रेक लगा है। हाल के वर्षों में नेपाल-भारत सीमा पर तनाव भी देखने को मिला है और जानकार इसके पीछे चीन को मानते हैं। यह भी सामने आया है कि भारत से लगती सीमा पर नेपाल के हिस्से में चीन ने कुछ निर्माण किये हैं। नेपाल इससे मन करता रहा है; लेकिन हाल के महीनों में ऐसे दस्तावेज़ और प्रमाण सामने आये हैं, जिनसे पता चलता है कि चीन ने नेपाल में निर्माण किये हैं और इनका मक़सद भारत पर नज़र रखना है।

बेशक नेपाल में आज से 17 साल पहले 2008 में लोकतंत्र ने दस्तक दे दे थी; लेकिन यह अभी भी वहाँ शैशवकाल में दिखता है। हाल के वर्षों में वहाँ लगातार राजनीतिक अस्थिरता रही है और बार-बार नेतृत्व परिवर्तन हुआ है। इसका असर अर्थव्यवस्था पर पड़ा है। नेपाल की अर्थव्यवस्था (जीडीपी) को लेकर वैसे तो विश्व बैंक के अनुमान बहुत चिन्ता जगाने वाले नहीं हैं; लेकिन हालात बहुत अच्छे भी नहीं हैं। विश्व बैंक के मुताबिक, नेपाल की अर्थव्यवस्था 2025 में 4.5 फ़ीसदी बढ़ने की संभावना है, जो पिछले माली साल में 3.9 फ़ीसदी थी। हालाँकि इसे व्यापक मामले में बहुत बेहतर नहीं कहा जा सकता है। यदि विश्व बैंक के अनुमान सही साबित होते हैं, तो 2025 के आख़िर तक नेपाल की जीडीपी 42.96 बिलियन यूएस डॉलर होने की उम्मीद है। नेपाल का विदेशी क़र्ज़ 2024 के आख़िर तक 10.5 अरब डॉलर था।

अब धीरे-धीरे नेपाल में राजशाही और लोकशाही के बीच तनाव बढ़ रहा है। हाल में तो वहाँ दोनों के समर्थकों के बीच हिंसक झड़पें भी देखने को मिली हैं। काठमांडू में इन झड़पों में दो लोगों की जान जाने से साफ़ संकेत मिलते हैं कि नेपाल में आने वाले समय में राजनीतिक तनाव और बढ़ेगा। हाल के समय में नेपाल के कुछ इलाक़ों, ख़ासकर मैदानी और मधेस के इलाक़ों में हिन्दू-मुस्लिम विवाद भी बढ़े हैं और दोनों समुदायों में हिंसा जैसी स्थिति भी बनी है। बहुत-से लोग नेपाल में इसके पीछे संघ की सक्रियता को देखते हैं। मधेश जैसे क्षेत्र में संघ ने अपना आधार मज़बूत किया है। बहुत दिलचस्प बात है कि संघ के राजाओं को विश्व हिन्दू सम्राट की उपाधि से सम्मानित करता रहा है। संघ नेपाल के राजा के हिन्दू होने के कारण वहाँ के राज-व्यवस्था को हिंदू राष्ट्र के रूप में व्याख्यायित करता रहा है। भारत के हिन्दू राष्ट्र होने की संघ की परिकल्पना किसी से छिपी नहीं है।

नेपाल का इतिहास काफ़ी पुराना है। वहाँ 1768 से राजतंत्र था; लेकिन 2008 में देश में लोकतंत्र की स्थापना हुई और संसदीय प्रणाली के लागू होने के बाद देश के हिन्दू राष्ट्र के रूप में होने की पहचान ख़त्म हो गयी। राजा बीरेंद्र बीर विक्रम शाह की राजशाही जब थी, तब वह भारत और चीन के बीच संतुलन की नीति पर चलते थे। नेपाल में अस्सी के दशक में लोकतंत्र के आन्दोलन की आहूति पड़ी। वहाँ काम कर रहे राजनीतिक दलों ने देश में लोकशाही स्थापित करने और संविधान में सुधार का आन्दोलन शुरू किया। हालाँकि नेपाल में जब 1980 में एक जनमत संग्रह हुआ तो 45 फ़ीसदी लोगों ने राजतंत्र की जगह लोकतंत्र के हक़ में मत दिया। जनमत संग्रह के इस नतीजे ने राजशाही के भीतर हलचल पैदा कर दी और राजनीतिक कार्यकर्ताओं की गिरफ़्तारी का सिलसिला शुरू हो गया।

जनता के बीच इसका अच्छा संकेत नहीं गया। राजशाही पर दबाव बनने लगा और आख़िर नब्बे के दशक का आगाज़ राजनीतिक दलों को छूट मिलने से हुआ। राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह ने संसदीय राजशाही घोषित करके जनप्रतिनिधियों की सरकार गठित करने की राह हमवार कर दी। लेकिन नेपाल में इसके बाद अस्थिरता और हिंसा का दौर शुरू हो गया। के.पी. भट्टराई सरकार स्थितियों को सँभालने में अक्षम साबित हुई और नेपाल गृहयुद्ध की दलदल में धँस गया। यही समय था, जब माओवादी काफ़ी ताक़तवर हो गये थे और 2006 तक क़रीब 10 साल देश के राजनीतिक दलों और माओवादियों के बीच हिंसा का दौर चला। एक अनुमान के मुताबिक, इस हिंसा में क़रीब 17 से 18 हज़ार लोगों की जान चली गयी। इस हिंसा के दौर में ही राजशाही में भी हिंसा की बड़ी घटना हुई साल 2001 में, जिसमें राजमहल के भीतर राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह के पूरे परिवार की हत्या कर दी गयी। नेपाल की जनता ने राजा बीरेंद्र के भाई ज्ञानेंद्र बीर बिक्रम शाह को इस क़त्ल-ओ-ग़ारत का ज़िम्मेदार माना, जो अब नये राजा बन चुके थे। लेकिन ज्ञानेंद्र कमज़ोर शासक साबित हुए और उन्होंने जल्दी ही घुटने टेकते हुए राजनीतिक आन्दोलन का सामना न करते हुए 2008 में इस्तीफ़ा दे दिया और नेपाल हिन्दू राष्ट्र से धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बन गया और पाँच साल के बाद देश का नया संविधान बन गया। अब यही राजा ज्ञानेंद्र नेपाल में राजशाही को बहाल करने के आन्दोलन के अगुआ बनने की कोशिश में हैं। देश में हिंसा का नया दौर शुरू होने के संकेत मिल रहे हैं। राजनीति और राजशाही के बीच टकराव का यह दौर क्या गुल खिलाएगा, अभी कहा नहीं जा सकता। लेकिन जनता भी बँट गयी है। एक धड़े में बड़ी संख्या में वे लोग हैं, जो राजशाही वापस लाने और नेपाल को फिर हिन्दू राष्ट्र घोषित करने की राजा ज्ञानेंद्र की माँग के साथ खड़े दिखते हैं।

संघ-मोदी का मन किसने मिलाया?

अरुण कुमार के बारे में सुना है? पूर्वी दिल्ली की झिलमिल कॉलोनी में जन्मे, वे 18 साल की उम्र में संघ के प्रचारक (पूर्णकालिक कार्यकर्ता) बन गये और 2021 में भाजपा के साथ समन्वयक बने। यह एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती कृष्ण गोपाल की ज़िम्मेदारी सँभाली है, जिनके अधीन संघ ने अपने राजनीतिक विंग पर नियंत्रण खोना शुरू कर दिया था।

भाजपा अधिक मुखर हो गयी थी और प्रमुख मुद्दों पर परामर्श कम हो गया था। भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा के यह कहने के बाद कि संगठन सक्षम है और उसे राजनीतिक समर्थन के लिए अपने मूल निकाय यानी संघ पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है; सम्बन्ध और ख़राब हो गये। संघ नेतृत्व ने चेतावनी दी; लेकिन भाजपा अपने ही रास्ते पर चलती रही और उसने ‘अबकी बार 400 पार’ का लक्ष्य रखा; लेकिन 2024 के लोकसभा चुनावों में केवल 240 सीटों पर सिमट गयी।

यह धैर्य का खेल था और अरुण कुमार ने उस केमिस्ट्री को फिर से स्थापित करने में अहम भूमिका निभायी जिसे नज़रअंदाज़ कर दिया गया था। संघ फिर से सक्रिय हो गया और भाजपा ने हरियाणा, महाराष्ट्र और दिल्ली के विधानसभा चुनावों में इतिहास रच दिया।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक क़दम आगे बढ़ने का फ़ैसला लिया और दिल्ली में मराठी साहित्य सम्मेलन में संघ की जमकर तारीफ़ की। बाद में लेक्स फ्रीडमैन के पॉडकास्ट पर बोलते हुए मोदी ने कहा कि संघ की वजह से उन्हें जीवन का उद्देश्य मिला है। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रधानमंत्री के तौर पर नागपुर में संघ मुख्यालय का ऐतिहासिक दौरा किया। उन्होंने संघ प्रमुख मोहन भागवत की भी प्रशंसा की।

संघ परिवार के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि अरुण कुमार ने मोदी के साथ व्यक्तिगत सम्बन्ध विकसित कर लिये थे, क्योंकि उन्होंने दिल्ली, हरियाणा और जम्मू-कश्मीर में प्रचारक के तौर पर भी काम किया था, जब मोदी इन राज्यों के मामलों को सँभाल रहे थे। अरुण कुमार की अतिरिक्त योग्यता यह है कि वह कश्मीर मामलों के विशेषज्ञ हैं। बताया जाता है कि अनुच्छेद-370 को हटाने के सम्बन्ध में सरकार की जम्मू-कश्मीर नीति तैयार करने में उन्होंने अहम भूमिका निभायी थी। अरुण कुमार की सबसे बड़ी चुनौती भाजपा के नये अध्यक्ष की तलाश है, जो एक साल से अटकी हुई है; क्योंकि आदमी ऐसा चाहिए, जिस पर संघ और मोदी दोनों को भरोसा हो।

मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में पार्टी ने राज्य के गरीब और आदिवासी समाज के अधिकारों की रक्षा का लिया संकल्प

रांची : झामुमो का दो दिवसीय केंद्रीय महाधिवेशन की शुरुआत सोमवार को रांची में हुई।  मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अगुवाई में पार्टी ने राज्य के गरीब और आदिवासी समाज के अधिकारों की रक्षा का संकल्प लिया।

झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष एवं मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की अगुवाई में पार्टी ने राज्य के गरीब और आदिवासी समाज के अधिकारों की रक्षा का संकल्प लिया। महाधिवेशन में पार्टी की108पन्नों की सांगठनिक रिपोर्ट पेश की गई।

महाधिवेशन में यह भी तय हुआ कि पार्टी पंचायत से लेकर लोकसभा तक हर स्तर पर भाजपा की असमानता और लोकतंत्र विरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ेगी। झारखंड मुक्ति मोर्चा के राष्ट्रीय महासचिव सुप्रियो भट्टाचार्य ने कहा वक्फ कानून हमलोग राज्य में लागू नहीं होने देंगे। झामुमो ने आदिवासी और मूलवासी समुदाय के भूमि अधिकारों की बात दोहराई। पार्टी ने‘जल,जंगल,जमीन’पर समुदाय के अधिकार को फिर से रेखांकित किया और भूमि वापसी अधिनियम बनाने,जंगल में रहने वालों को स्थायी पट्टा देने और परिसीमन के विरोध का ऐलान किया। पार्टी ने कहा कि प्रस्तावित परिसीमन की आड़ में जनजातियों के राजनीतिक प्रतिनिधित्व को कम करने की साजिश रची जा रही है।

राज्यसभा सांसद डॉ. सरफराज अहमद ने कहा वक्फ संशोधन अधिनियम पर विरोध जताते हुए महाधिवेशन में कहा गया कि इससे अल्पसंख्यकों के अधिकारों का हनन हो रहा है।  भूमि राज्य का विषय है,लेकिन केंद्र ने वक्फ संशोधन से पहले राज्य से सलाह नहीं ली। धर्म और जाति के नाम पर वातावरण बनाया जा रहा है। झारखंड में इसे लागू नहीं किया जाना चाहिए।

मुर्शिदाबाद हिंसा पर योगी आदित्यनाथ का हमला,”दंगाइयों का इलाज सिर्फ डंडा है”

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद में हुई हिंसा पर तीखा बयान देते हुए कहा है कि देश में अशांति फैलाने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई की आवश्यकता है। उन्होंने साफ शब्दों में कहा कि “लातों के भूत बातों से नहीं मानते, दंगाइयों का इलाज केवल डंडे से ही संभव है।” हरदोई में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने पश्चिम बंगाल की वर्तमान स्थिति पर चिंता जताई और राज्य सरकार की चुप्पी पर भी सवाल खड़े किए।

सीएम योगी ने कहा, “पूरा मुर्शिदाबाद पिछले एक हफ्ते से जल रहा है। लोग भय में जी रहे हैं, लेकिन सरकार चुप है। वहां के मुख्यमंत्री मौन साधे हुए हैं। दंगाइयों को ‘शांति दूत’ कहा जा रहा है। ये कैसी राजनीति है?”

उन्होंने आगे कहा, “बांग्लादेश में जो कुछ हो रहा है, उसका समर्थन यहां बैठे कुछ लोग कर रहे हैं। अगर किसी को बांग्लादेश इतना पसंद है तो वह भारत में बोझ बनने की बजाय वहीं चला जाए। देश की मिट्टी को अपमानित करने वालों के लिए यहां कोई जगह नहीं होनी चाहिए।”

सीएम योगी ने समाजवादी पार्टी पर भी निशाना साधा और कहा, “जब देश में दंगे होते हैं, ये लोग मौन हो जाते हैं। न तो किसी हिंसा की निंदा करते हैं और न ही पीड़ितों के पक्ष में खड़े होते हैं। इनकी राजनीति केवल तुष्टिकरण की है।”

योगी आदित्यनाथ ने 2017 से पहले के उत्तर प्रदेश का भी हवाला दिया, जब प्रदेश में अक्सर दंगे हुआ करते थे। उन्होंने कहा, “हमने यूपी में कानून का राज स्थापित किया है। आज कोई दंगा नहीं कर सकता, क्योंकि उन्हें पता है कि योगी का डंडा तैयार है।”

मुख्यमंत्री ने पश्चिम बंगाल हाईकोर्ट का आभार व्यक्त करते हुए कहा कि “मैं धन्यवाद दूंगा माननीय उच्च न्यायालय को, जिन्होंने राज्य में केंद्रीय बलों की तैनाती का आदेश देकर वहां के अल्पसंख्यक हिंदुओं की सुरक्षा सुनिश्चित करने की पहल की।”

इस तीखे बयान से एक बार फिर स्पष्ट हो गया है कि योगी आदित्यनाथ दंगाइयों और देशद्रोही मानसिकता वालों के खिलाफ किसी भी तरह की नरमी बरतने के पक्ष में नहीं हैं। उनका यह रुख उनके समर्थकों के बीच खूब सराहा जा रहा है, वहीं विपक्षी दल इसे राजनीति से प्रेरित बयान बता रहे हैं।

प्रधानमंत्री मोदी ने हिसार-अयोध्या फ्लाइट को दिखाई हरी झंडी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हिसार को पहले एयरपोर्ट की सौगात दी। उन्होंने एयरपोर्ट से हिसार-अयोध्या फ्लाइट को हरी झंडी दिखाई और बटन दबाकर नए टर्मिनल का शिलान्यास भी किया। हरियाणावासियों को इस शुभ दिन की बधाई देते हुए उन्होंने कहा, “यह शुरुआत हरियाणा के विकास को नई ऊंचाइयों पर लेकर जाएगी।”

पीएम मोदी ने कहा, आज हरियाणा से अयोध्या धाम के लिए फ्लाइट शुरू हुई है। यानी अब श्रीकृष्ण जी की पावन भूमि हरियाणा, श्रीराम जी की भूमि से सीधी जुड़ गई है। बहुत जल्द यहां से दूसरे शहरों के लिए भी उड़ानें शुरू होंगी। आज हिसार एयरपोर्ट की नई टर्मिनल बिल्डिंग का शिलान्यास भी हुआ है। यह शुरुआत हरियाणा के विकास को नई ऊंचाइयों पर लेकर जाएगी। हरियाणा के लोगों को इस नई शुरुआत के लिए ढेर सारी बधाई देता हूं। मेरा आपसे वादा रहा है कि हवाई चप्पल पहनने वाला भी हवाई जहाज में उड़ेगा।

प्रधानमंत्री ने एक आंकड़े की जुबानी आम लोगों की हवाई यात्रा की कहानी सुनाई। उन्होंने कहा, बीते दस सालों में करोड़ों भारतीयों ने जीवन में पहली बार हवाई सफर किया है। हमने वहां भी नए एयरपोर्ट बनाए, जहां कभी अच्छे रेलवे स्टेशन तक नहीं थे। 2014 से पहले देश में 74 एयरपोर्ट थे, 70 साल में 74। आज देश में एयरपोर्ट की संख्या 150 के पार हो गई है।

पीएम मोदी ने अंबेडकर जयंती के खास अवसर पर लोगों को बधाई देते हुए कहा, आज का दिन हम सभी के लिए, पूरे देश के लिए और खासकर दलित, पीड़ित, वंचित, शोषित के लिए बहुत महत्वपूर्ण दिन है। उनके जीवन में ये दूसरी दिवाली है। आज संविधान निर्माता बाबा साहेब अंबेडकर की जयंती है। उनका जीवन, उनका संघर्ष, उनका संदेश हमारी सरकार की 11 साल की यात्रा का प्रेरणा स्तंभ बना है। हर दिन, हर फैसला, हर नीति, बाबा साहेब अंबेडकर को समर्पित है।

इससे पहले पीएम मोदी ने हिसार से अपने पुराने रिश्ते का जिक्र किया। बोले, “खाटे जवान, खाटे खिलाड़ी, और थारा भाईचारा जो है हरियाणा की पहचान। हिसार से मेरी इतनी यादें जुड़ी हुई हैं। जब भाजपा ने मुझे हरियाणा की जिम्मेदारी दी थी, तो यहां अनेक साथियों के साथ मैंने लंबे समय तक काम किया। इन सभी साथियों के परिश्रम ने बीजेपी की हरियाणा में नींव को मजबूत किया है।

फ्लाइट लैंड करते ही पायलट की हालत बिगड़ी, कुछ देर बाद माैत

एयर इंडिया के फ्लाइट के पायलट की संदिग्ध परिस्थितियों में माैत हो गई। पायलट ने अभी फ्लाइट लैंड करवाई ही थी कि कुछ देर बाद ही वह उल्टियां करने लगा। पायलट को अस्पताल ले जाया गया, जहां डॉक्टर्स ने उसे मृत घोषित कर दिया। पायलट का नाम अरमान है।

अरमान की उम्र 28 साल थी और हाल ही में उसकी शादी हुई थी। साथी कर्मचारियों ने बताया कि लैंडिंग के बाद पायलट ने कॉकपिट में उल्टी की थी और फिर एयरलाइन के डिस्पैच ऑफिस में कार्डियक अरेस्ट से उसकी मौत हो गई। Air India Express ने अपने बयान में कहा, “हम अपने एक बेहद कुशल और सम्मानित सहकर्मी को खोने के कारण गहरे शोक में हैं. यह हमारे लिए एक अत्यंत दुखद क्षण है, हमारी संवेदनाएं उनके परिवार के साथ हैं।

ओलंपिक में 128 साल बाद क्रिकेट की वापसी

लॉज एंजिल्स में होने वाले ओलंपिक 2028 में क्रिकेट खेल को भी शामिल किया जाएगा। पुरुष और महिला दोनों कैटगरी में 6-6 टीमें हिस्सा लेंगी, जिनमें गोल्ड मेडल जीतने के लिए टक्कर होगी। हर टीम 15 सदस्यीय स्क्वाड का चयन कर सकती है क्योंकि पुरुष और महिलाओं दोनों में 90–90 खिलाड़ियों का कोटा आवंटित किया गया है। खेलों के महाकुंभ ओलंपिक में क्रिकेट का खेल टी20 फॉर्मेट में खेला जाएगा। 128 साल बाद ओलंपिक में क्रिकेट की वापसी है। अंतर्राष्ट्रीय क्रिकेट परिषद (ICC) के अंतर्गत 12 फुल मेंबर नेशन हैं, जबकि 90 से अधिक देश एसोसिएट मेंबर के रूप में T20 क्रिकेट खेलते हैं।

संयुक्त राज्य अमेरिका के मेजबान होने के नाते खेलों में सीधे क्वालिफिकेशन पाने की संभावना के साथ, बची हुई टीमों में से सिर्फ 5 टीमें ही खेलों में जगह बना पाएंगी। अगर अमेरिका की टीम मेजबान होने के नाते सीधे क्वालीफाई करती है तो ओलंपिक खेल 2028 के क्रिकेट टूर्नामेंट में क्वालीफिकेशन के लिए पांच स्थान खाली रह जाएंगे। ऐसे में रैंकिंग के आधार पर टीमों का क्वालीफिकेशन हुआ तो पाकिस्तान का पत्ता साफ हो सकता है। मेंस टी20 रैकिंग में फिलहाल भारत, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, न्यूजीलैंड और वेस्टइंडीज दुनिया कि टॉप-5 टीम हैं। पाकिस्तान 7वें और साउथ अफ्रीका छठे स्थान पर है। वूमेंस टी20 टीम रैकिंग में भारत, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका पहले पांच स्थानों पर हैं

मुंबई आतंकी हमले के आरोपी तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत प्रत्यर्पित किया

मुंबई आतंकी हमले के आरोपी तहव्वुर राणा को अमेरिका से भारत प्रत्यर्पित किया जा रहा है। उसके भारत में कदम रखने से पहले लोगों की प्रतिक्रिया आनी शुरू हो गई है। 26/11 अटैक के एक हीरो ने कहा, ‘भारत को उसे आतंकी कसाब की तरह खास जेल, बिरयानी या और सुविधाएं देने की कोई जरूरत नहीं है। ये बात मोहम्मद तौफीक ने बोली है।

मुंबई में एक ‘चाय वाले’ हैं, जिन्हें ‘छोटू’ उर्फ मोहम्मद तौफीक के नाम से जाना जाता है। उन्हें मुंबई आतंकी हमले 26/11 के हीरो के तौर पर पहचान मिली है। मोहम्मद तौफीक ने हमलों में कई लोगों की जान बचाई थी।

मोहम्मद तौफीक ने कहा कि भारत को तहव्वुर राणा को जेल में खास सेल, बिरयानी और वैसी सुविधाएं देने की कोई जरूरत नहीं है। उन्होंने मांग की कि आतंकवादियों से निपटने के लिए अलग कानून होने चाहिए। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि उन्हें 2-3 महीने में फांसी हो जाए। बता दें राणा पर 2008 के मुंबई आतंकी हमलों में शामिल होने का आरोप है। हमले में सैकड़ों निर्दोष लोग मारे गए थे। अब भारत में तहव्वुर पर मुकदमा चलाया जाएगा।

सात अप्रैल को संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय ने तहव्वुर राणा की भारत में उसके प्रत्यर्पण पर रोक लगाने की याचिका को खारिज कर दिया। राणा ने 20 मार्च, 2025 को मुख्य न्यायाधीश रॉबर्ट्स के समक्ष एक आपातकालीन आवेदन दायर किया, जिसमें उसके प्रत्यर्पण पर रोक लगाने की मांग की गई। सात अप्रैल को जारी सुप्रीम कोर्ट के आदेश में कहा गया, ‘मुख्य न्यायाधीश को संबोधित और न्यायालय को संदर्भित स्थगन के लिए आवेदन अस्वीकार किया जाता है।

26 नवंबर 2008 को हुआ था आतंकी हमला
मुंबई अपराध शाखा के अनुसार, राणा के खिलाफ आपराधिक साजिश का मामला नवंबर 2008 के घातक हमलों के बाद दिल्ली में एनआईए द्वारा दर्ज किया गया था, जिसमें 160 से अधिक लोग मारे गए थे।

ग्रामीण स्वास्थ्य की रीढ़, सम्मान की प्यासी आशा वालंटियर्स

आशा बन रही निराशा!

बृज खंडेलवाल द्वारा

पिछले माह केंद्रीय स्वास्थ मंत्री जेपी नड्डा ने राज्य सभा में आशा वालंटियर्स के महत्वपूर्ण योगदान को सराहते हुए वायदा किया कि उनका मंत्रालय वेतन सुधार की मांगों पर विचार करेगा और ज्यादा सहूलियतें मुहैया कराएगा।

सालों से ये वायदे हो रहे हैं, मगर एक्शन नहीं हो रहा है। लगभग दो दशकों से, भारत की ‘आशा’ कार्यकर्ताएँ ग्रामीण स्वास्थ्य सेवा की रीढ़ की हड्डी बनी हुई हैं, एक ऐसी फौज जो चुपचाप मगर दृढ़ता से दूरदराज के गाँवों और औपचारिक चिकित्सा सेवाओं के बीच एक सेतु का काम कर रही है।

2005 में राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत शुरू हुई, दस लाख महिलाओं की यह सेना, माँ और बच्चे की सेहत में ज़बरदस्त सुधार ला रही है, परिवार नियोजन, टीका करन व अन्य सरकारी हेल्थ स्कीम्स आशा वालंटियर्स के जरिए ही लोगों तक पहुंचती हैं।

लेकिन अफसोस,  कि आशा ताइयां कम तनख्वाह, बिना नौकरी की सुरक्षा और कम सम्मान के साथ मुश्किल हालात में काम कर रही हैं। कोविड-19 महामारी ने इनके ज़रूरी रोल को उजागर किया, जब उन्होंने घर-घर जाकर स्क्रीनिंग और टीकाकरण अभियान चलाने के लिए अपनी जान जोखिम में डाली, पर कभी-कभार मिलने वाली तारीफ से आगे, इन फ्रंटलाइन वॉरियर्स को सिस्टम की अनदेखी का सामना करना पड़ता है।

अगर भारत यूनिवर्सल हेल्थ कवरेज हासिल करने के बारे में गंभीर है, तो उसे ‘आशा’ कार्यक्रम में फौरन सुधार करना चाहिए, अपने सबसे ज़रूरी हेल्थकेयर वर्कर्स के लिए सही तनख्वाह, बेहतर काम करने के हालात और सम्मान तय करना चाहिए।

एक रिटायर्ड आशा वॉलंटियर ने बताया कि ऑफिशियली “वॉलंटियर” के तौर पर मानी जाने वाली ‘आशा’ वर्कर्स को औपचारिक नौकरी के फायदे नहीं मिलते, कोई फिक्स तनख्वाह, पेंशन, हेल्थ इंश्योरेंस या मैटरनिटी लीव नहीं। उनके परफॉरमेंस पर आधारित इंसेंटिव से उनकी कमाई औसतन ₹5,000 से ₹10,000 प्रति माह होती है, जो गुज़ारे के लिए बहुत कम है, भुगतान में अक्सर देरी होती है, जिससे कई लोगों को एक्स्ट्रा काम करना पड़ता है।

सोचिए,  ‘आशा’ कार्यकर्ता लगभग 30 काम एक साथ करती हैं, टीकाकरण अभियान से लेकर मातृ स्वास्थ्य परामर्श तक, अक्सर हफ्ते में 20+ घंटे काम करती हैं। कई लोग बिना ट्रांसपोर्ट अलाउंस, पीपीई किट या बेसिक मेडिकल सप्लाई के हर दिन कई मील पैदल चलते हैं। उन्हें कभी भी हटाया जा सकता है, जिससे वे फाइनेंशियली कमज़ोर हो जाती हैं, कई लोगों ने सहायक नर्स दाइयों (एएनएम) और मेडिकल ऑफिसर्स से खराब बर्ताव की शिकायत की है, जिसमें बहुत कम कंस्ट्रक्टिव सुपरविज़न है। महिला ‘आशा’ वर्कर्स को घरेलू झगड़ों का सामना करना पड़ता है, कुछ को तो उनके काम के लिए तलाक की धमकी भी दी जाती है, ऊँची जाति के परिवार अक्सर उन्हें एंट्री देने से मना कर देते हैं, जिससे हेल्थ सर्विस में रुकावट आती है।

अनियमित अपस्किलिंग प्रोग्राम्स की वजह से मेंटल हेल्थ, डिजीज मॉनिटरिंग और इमरजेंसी केयर में नॉलेज की कमी बनी हुई है। इन मुश्किलों के बावजूद, ‘आशा’ कार्यकर्ताओं ने माँ और बच्चे की मृत्यु दर में कमी, टीकाकरण दरों में बढ़ोतरी, टीबी और एचआईवी के बारे में जागरूकता में सुधार, मानसिक स्वास्थ्य सहायता देने और हेल्थ रिकॉर्ड्स का डिजिटलीकरण जैसे क्षेत्रों में ज़रूरी रोल निभाया है। उनका गहरा कम्युनिटी ट्रस्ट लास्ट माइल हेल्थकेयर डिलीवरी को सुनिश्चित करता है, चाहे महामारी हो, बाढ़ हो या रेगुलर मैटरनिटी केयर, फिर भी, उनके बलिदानों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

आशा कार्यकर्ताओं को पावरफुल बनाने के लिए, एक्सपर्ट्स ने ढेरों सुझाव ऑलरेडी सरकार को दे रखे हैं।  इंसेंटिव-बेस्ड पेमेंट्स को फिक्स तनख्वाह (कम से कम ₹15,000/माह) + परफॉरमेंस बोनस के साथ बदलना, पेंशन, हेल्थ इंश्योरेंस और मैटरनिटी बेनिफिट्स देना, ट्रांसपोर्ट अलाउंस, स्मार्टफोन, पीपीई किट और हेल्थ सेंटर्स पर आराम करने की जगह देना, देरी और भ्रष्टाचार से बचने के लिए पेमेंट्स को आसान बनाना, मेंटल हेल्थ, एनसीडी और इमरजेंसी रिस्पांस में रेगुलर स्किल डेवलपमेंट करना, ‘आशा’ को असिस्टेंट नर्स या पब्लिक हेल्थ वर्कर के रूप में सर्टिफाई करने के लिए मेडिकल कॉलेजों के साथ ब्रिज कोर्स करना, ऊँची हेल्थ सर्विस रोल में प्रमोशन के क्लियर रास्ते बनाना, जाति और लिंग के आधार पर रुकावटों के लिए सख्त भेदभाव विरोधी नीतियाँ बनाना, घरेलू झगड़ों को कम करने के लिए फैमिली सेंसिटाइजेशन प्रोग्राम चलाना, और मुख्य मेडिकल ड्यूटीज पर ध्यान देने के लिए नॉन-हेल्थ कामों को कम करना ज़रूरी है। ₹49,269 करोड़ के बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन वर्कर्स वेलफेयर सेस फंड को आंशिक रूप से ‘आशा’ वेलफेयर को सपोर्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने पहले ही बेहतर तनख्वाह स्ट्रक्चर का ट्रायल शुरू कर दिया है, इन मॉडलों को नेशनल लेवल पर लागू किया जाना चाहिए।

 ‘आशा’ कार्यकर्ता “वॉलंटियर” नहीं हैं, वे ज़रूरी हेल्थ सर्विस प्रोफेशनल हैं। अगर भारत वाकई अपनी रूरल हेल्थ सिस्टम को वैल्यू देता है, तो यह दिखावटी सेवा से आगे बढ़ने और उन्हें वह सम्मान, तनख्वाह और सपोर्ट देने का वक्त है जिसकी वे हकदार हैं। उनकी लगातार सर्विस ने लाखों लोगों की जान बचाई है, अब, सिस्टम को उन्हें थकान और अनदेखी से बचाना चाहिए, ‘आशा’ कार्यकर्ताओं को

 पावरफुल बनाएँ, वरना रूरल हेल्थ सर्विस को टूटते हुए देखें, अभी एक्शन लेने का वक्त है।