Home Blog Page 155

लाल सलाम का बेरंग सिनेमा : रेड अलर्ट

फिल्म   : रेड अलर्ट
निर्देशक : अनंत महादेवन
कलाकार : सुनील शेट्टी, सीमा बिस्वास, समीरा रेड्डी

आप सुनील शेट्टी से इससे ज्यादा की उम्मीद नहीं कर सकते और करते हैं तो यह शुद्ध अत्याचार ही होगा. उनके चेहरे पर इतने जटिल भाव एक साथ थे और अगर आपको उनके कृत्रिम-सी बेवकूफी वाले किरदार पर हंसी आती है तो यह उनका नहीं, कहानी और डायलॉग लिखने वाले लोगों का दोष है. नक्सलियों की जिंदगी पर बनी इस फिल्म में गुस्से, प्रतिशोध, दुख या क्रांति का एक भी डायलॉग ऐसा नहीं जो आपको जरा भी परेशान करे और इसीलिए इतना खूबसूरत जंगल और बढ़िया सिनेमेटोग्राफी बिल्कुल बेकार चली गई है. न ही कोई बड़ा तनाव या दुविधा है. कुछ वर्षों से फिल्मों में कंक्रीट के जंगल देखने की आदत पड़ने के बाद यह सच्चा जंगल आपको देर तक याद रहता है और यही इस फिल्म की एक सफलता है. नसीरुद्दीन शाह ने न जाने क्यों एक छोटा-सा रोल किया है और वे इतने सतही डायलॉग बोलते हैं कि उनकी दमदार एक्टिंग ओढ़ी हुई लगने लगती है. सीमा बिस्वास ही हैं जो उस कमजोरी में से भी अपना मजबूत रास्ता बना लेती हैं.

बेवकूफियां बहुत हैं. एक लड़की, जिससे रात भर पुलिसवालों ने बलात्कार किया है, उसे छुड़ाकर लाने के बाद हीरो उससे पूछता है कि उसे बंद क्यों किया गया था. चूंकि निर्देशक को दर्शकों को कहानी बताने का यही एक तरीका पता है, इसलिए वह अपनी व्यथा सुनाती है और एक-दो मिनट बाद मुस्कुराते हुए पूछती है कि ‘क्या तुम्हारी शादी हो गई?’ हीरो शर्मा जाता है क्योंकि उसकी जिन भाग्यश्री से शादी हुई है उनके पास बच्चों की फीस के पैसे और खाने को अनाज नहीं है, लेकिन वे हर रात सज-धज कर गजरा लगाकर सो रही होती हैं और अपने हर दृश्य में एक ही भाव से रात को लौटे पति का स्वागत करती हैं. सुनील शेट्टी एलान करते हैं कि अब फलां आदमी को मारना ही होगा और फिर उसे मारने का लंबा दृश्य आता है.

फिल्म राजनीतिक रूप से जंगल में अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ रहे लोगों के साथ है और अच्छी बात यह है कि उसके पास इसके लिए तर्क हैं. वह इतनी हिम्मत करती है कि पुलिस को आदिवासी गांवों में अत्याचार करते दिखा सके और नक्सलियों को किसी स्कूल में छिपे पुलिसवालों पर हमला करने से पहले बच्चों को बाहर निकालने की फिक्र करते हुए दिखा सके. मुख्यधारा की कोई फिल्म यह कहानी चुनकर उसका विद्रोही संस्करण दिखा रही हो, इस मल्टीप्लेक्सीय समय में यही बहुत है. हां, फिल्म उस दुनिया और पूरी लड़ाई को उसी रूप में जानती है जिस रूप में रोज अखबार पढ़ने वाला कोई भी आदमी जानता होगा. उससे गहरी एक भी परत नहीं. लेकिन फिल्म अंत में बदलाव के लिए नया रास्ता चुनने के संदेश की घुट्टी पिलाने की कोशिश करती है और अपने मूल रास्ते से भटककर अंधेरे में खो जाती है. शायद सुख-शांति से रिलीज हो पाने के लिए यह जरूरी भी रहा हो. 

जूते कहां उतारे थे…

उड़ान पिछले 16 साल में पहली ऐसी भारतीय फिल्म है जिसे कांस फिल्म महोत्सव की प्रतियोगी श्रेणी में दिखाने के लिए चुना गया. छोटे बजट की इस बड़ी फिल्म के बारे में बता रहे हैं गौरव सोलंकी

यह छोटे बजट की एक फिल्म की मजबूरी भी कही जा सकती है, लेकिन यदि बड़े होर्डिंग या टीवी पर आने वाले ट्रेलरों की फ्रीक्वेंसी आपके लिए फिल्म का स्तर पूरी तरह तय नहीं करते तो कई वजहें हैं कि आप इसे साल की कुछ बड़ी फिल्मों में से एक मान लें

34 साल के विक्रमादित्य मोटवाने चुप रहना ही पसंद करते हैं. वे चाहते हैं कि इंटरव्यू के सवाल उन्हें भेज दिए जाएं और वे लिखकर जवाब दें. इसी तरह उनका काम भी अपनी तारीफों के पुल पहले नहीं बांधता और अपने देखे जाने का इंतज़ार करता है. पिछले कई महीनों से हमारी इंद्रियों पर चाहे-अनचाहे बरस रहे काइट्स, राजनीति और रावण के प्रमोशन के उलट उनकी पहली फिल्म ‘उड़ान’ के पास इसीलिए एक सभ्य खामोशी है. यह छोटे बजट की एक फिल्म की मजबूरी भी कही जा सकती है, लेकिन यदि बड़े होर्डिंग या टीवी पर आने वाले ट्रेलरों की फ्रीक्वेंसी आपके लिए फिल्म का स्तर पूरी तरह तय नहीं करते तो कई वजहें हैं कि आप इसे साल की कुछ बड़ी फिल्मों में से एक मान लें.

उड़ान पिछले 16 साल में पहली ऐसी भारतीय फिल्म है, जिसे कांस फिल्म महोत्सव की ‘अन सर्टेन रिगार्ड’ श्रेणी में दिखाने के लिए चुना गया. यह कांस की प्रतियोगी श्रेणी है जिसमें दुनिया भर की मौलिक और अलग फिल्में ही चुनी जाती हैं. निर्देशक विक्रमादित्य ने जब ‘उड़ान’ का आइडिया 2003 में अनुराग कश्यप को सुनाया था तो अनुराग ने कहा था कि इसे मेरे सिवा कोई प्रोड्यूस नहीं कर सकता. यह मजाक था पर बाद में मजाक नहीं रहा. उड़ान साल दर साल स्थगित होती रही. दोनों ‘देव डी’ लिखने के दौरान साथ थे और तब तक उड़ान को कोई निर्माता नहीं मिला था. ‘देव डी’ के बाद अनुराग एक बड़े दर्शक-वर्ग के बीच पहचाने जाने लगे थे और इसलिए परिस्थितियां पहले से कुछ सहज हो गई थीं. अनुराग ने तय किया कि वे ही इसके निर्माता बनेंगे, क्योंकि यह कहीं न कहीं जिस तरह विक्रमादित्य की कहानी थी, उसी तरह अनुराग की भी थी. 

उड़ान सोलह-सत्रह साल के एक लड़के की कहानी है जो बोर्डिंग में आठ साल गुजारने के बाद अपने घर लौटता है. जमशेदपुर के अपने घर में उसे ऐसे पिता के साथ रहना है जो ‘पापा’ की बजाय ‘सर’ कहलवाना पसंद करते हैं. बॉलीवुड में जहां पिता-पुत्र के रिश्ते की कहानियां गिनी-चुनी हैं वहीं किशोर मन की कहानियां भी. आप हिंदी फिल्मों की लिस्ट को छानेंगे तो किशोर कहानियों के नाम पर ‘मेरा पहला-पहला प्यार’ जैसी प्रेम-कहानियां दिखेंगी जो परंपरागत प्रेम-कहानियों से सिर्फ इसलिए अलग हैं क्योंकि उनके नायक-नायिका कॉलेज की बजाय स्कूल में पढ़ते हैं या फिर ‘एक छोटी-सी लव स्टोरी’. यह अपनी महत्वाकांक्षाओं के अपमान को हर समय अपने माथे पर रखकर भीतर की सतह पर जमते जाने वाले आक्रोश की कहानी है. कुछ नायकीय नहीं, वही सादी कहानी जो उस उम्र में हममें से बहुत लोग जीते हैं. यही सादगी ‘उड़ान’ की सबसे बड़ी खासियत है. यह उस प्रक्रिया की रिकॉर्डिंग है जिसमें एक लड़का आदमी बनता है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि विक्रमादित्य ने इस प्रक्रिया के सेक्सुअल पहलू को जान-बूझकर छोड़ दिया है.
विक्रमादित्य संजय लीला भंसाली के सहायक भी रहे. ‘हम दिल दे चुके सनम’ के ‘आंखों की गुस्ताखियां’ का खूबसूरत सांग डायरेक्शन देखकर ही अनुराग ने उन्हें ‘पांच’ के एक गाने के निर्देशन के लिए चुना था. विक्रमादित्य से पूछा जाए कि उन पर भंसाली का ज्यादा प्रभाव रहा या अनुराग का तो वे कहते हैं, ‘मैंने सारी फिल्ममेकिंग भंसाली से ही सीखी. अनुराग से मैंने तुरंत काम करना सीखा. वे तीन दिन में एक स्क्रिप्ट पूरी कर लेते हैं और फिर चौथे दिन उसे शूट करना चाहते हैं. वे कहते हैं कि आप किसी आइडिया को ज्यादा सोचेंगे तो उसे खराब कर देंगे.’

‘आमिर’ के बाद ‘उड़ान’ जैसी अनूठी फिल्म प्रोड्यूस करने वाले अनुराग कश्यप के लिए भी यह खुद का नया और उतना ही भला अवतार है. अनुराग खुद अपनी गर्वीली और साथ ही मासूम मुस्कुराहट के साथ कहते हैं, ‘मैं सच में बहुत अच्छा निर्माता हूं. मैं कभी शूटिंग पर नहीं जाता और एडिट से पहले फिल्म नहीं देखता.’ शायद वे अपने निर्देशकों को उस दखल से बचाना चाहते हैं जिससे वे बार-बार जूझते रहे.

‘उड़ान’ का नायक कविताएं लिखता है और उसकी एक कविता उन नंगे पैरों के बारे में है जो भूल गए हैं कि उन्होंने जूते कहां उतारे थे. 16 जुलाई को रिलीज हई ‘उड़ान’ कुछ भूली तो नहीं है, लेकिन फिर भी सितारों और भव्य प्रचार के बिना उसके पैर नंगे हैं और विक्रमादित्य नहीं चाहते कि कांस की वजह से उनकी सादी-सरल फिल्म पर कला फिल्म होने का अपशकुनी ठप्पा लग जाए.    

न्यूजरूम से पीपली लाइव तक

अनुषा रिजवी और महमूद फारूकी को लगता था कि आज की हिंदी फिल्में असल भारतीय समाज से कटी हुई हैं. इसलिए उन्होंने खुद एक कोशिश की जिसका नतीजा है पीपली लाइव. गौरव जैन की रिपोर्ट 

इस साल सनडांस फिल्मोत्सव जहां फिल्म पीपली लाइव प्रतियोगिता श्रेणी में शामिल होने वाली पहली भारतीय फिल्म बनी में एक अमेरिकी किसान फिल्म की निर्देशक अनुषा रिजवी के पास आया और पूछने लगा, ‘उस बकरी का नाम क्या था?’ रिजवी को ध्यान ही नहीं आया तो उन्होंने तुरंत ही एक नाम ईजाद करके उसे बता दिया. वह किसान बोला, ‘दरअसल मेरे पास भी एक बकरी है और मुझे फिल्म पूरी तरह से समझ में आई है. हम छोटे किसानों की जिंदगी में यही सब तो होता है.’

जब अनुषा और महमूद किसी निर्माता की तलाश में पहली बार मुंबई आए थे तो सईद मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसी हस्तियों ने उनसे कहा था कि यह शहर साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं हैदिन-ब-दिन सुर्खियां बटोर रही पीपली लाइव एक बदकिस्मत किसान नत्था और उसके भाई बुधिया की कहानी है जो पीपली नाम के एक गांव में रहते हैं. कर्ज के चलते वे अपनी जमीन गंवाने ही वाले होते हैं कि एक नेता उन्हें खुदकुशी करने की सलाह देता है ताकि उन्हें सरकार से मुआवजे की रकम मिल जाए. भावी आत्महत्या की खबर फैलने लगती है और नेताओं, न्यूज चैनलों सहित हर कोई पीपली की तरफ दौड़ पड़ता है. आमिर खान द्वारा निर्मित इस फिल्म की शूटिंग मध्य प्रदेश के बिडवई में हुई है. 13 अगस्त को भारत में रिलीज हो रही पीपली लाइव का प्रदर्शन बर्लिन फिल्म महोत्सव 2010 में भी हो चुका है.

34 वर्षीया अनुषा और फिल्म के सहनिर्देशक उनके 39 वर्षीय पति महमूद फारुकी का फ्लैट दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय से कुछ ही दूरी पर है. आठ साल पहले हुई उनकी शादी दो अलग-अलग धाराओं के मिलने जैसी घटना थी. फारूकी इसका खास तौर पर जिक्र करते हैं कि वे गोरखपुर के पुरबिया हैं जबकि अनुषा पश्चिमी उत्तर प्रदेश से ताल्लुक रखती हैं, वे सुन्नी मुसलमान हैं और अनुषा शिया, उनके परिवार में कस्बाई संस्कृति रची-बसी है जबकि अनुषा जमींदारी वाले माहौल में पली-बढ़ी हैं.

थिएटर और समाचार चैनल में काम करने के बाद फिल्म बनाने की कैसे सूझी, यह पूछने पर महमूद बताते हैं कि पांच साल पहले अचानक ही अनुषा बेडरूम से बाहर निकलीं और एलान कर दिया कि उन्हें एक आइडिया मिल गया है. पिछले कुछ समय से वे कई संभावित आइडियों को अपने रजिस्टर में लिख रही थीं. उन्होंने किसान आत्महत्याओं पर एक टीवी कार्यक्रम देखा था जिसके बाद उन्हें यह विचार आया था. अनुषा कहती हैं, ‘मैं इससे हैरान थी कि मुआवजा मरने के बाद दिया जा रहा है. यानी अहमियत लाश की है, जिंदा आदमी की नहीं.’

अनुषा को एक बार में ही सूझ गया था कि कहानी क्या होगी और उसे किस तरह दिखाया जाएगा. यह भी कि बुधिया का रोल रघुबीर यादव को ही करना चाहिए. कहानी लिखने और इसे सही जगह तक पहुंचाने में उन्हें एक साल लग गया. 2006 में आमिर खान ने इसमें दिलचस्पी दिखाई और 2009 में कॉन्ट्रेक्ट साइन हुआ.

आमिर खान कह रहे हैं कि पीपली लाइव अंतर्राष्ट्रीय बाजार के लिए उनका पहला प्रोडक्शन है. मगर अनुषा और महमूद कहते हैं कि उन्होंने फिल्म बनाते हुए पहले उन दर्शकों के बारे में सोचा था जो मल्टीप्लेक्स तक नहीं जा सकते. महमूद कहते हैं, ‘मल्टीप्लेक्सों ने आम जनता को अछूत बना दिया है. ए बी सी सेंटर जैसी चीजें तो खत्म ही हो गईं. यही वजह कि बड़ी फिल्में यूपी जैसे राज्यों में पैसा नहीं कमा पातीं. हम पीपली को उन लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं. इस देश में वास्तविक कहानियों और चरित्रों पर फिल्में बन सकती हैं. ये उन लोगों को दिखाई जा सकती हैं और लोग भी इन्हें पसंद करेंगे.’ अनुषा को भी लगता है कि ज्यादातर फिल्में वास्तविक भारत की संवेदना से नहीं जुड़तीं. वे कहती हैं, ‘हम अंग्रेजी सोच के साथ अंग्रेजी फिल्में बना रहे हैं और उनका हिंदी में अनुवाद करने की कोशिश कर रहे हैं.’

आमिर खान ने यह भी कहा है कि अपनी पहली ही फिल्म से अनुषा दूसरे निर्देशकों के लिए जलन का सबब बन सकती हैं. अनुषा के मित्र और थिएटर में काम कर रहे हिमांशु त्यागी कहते हैं, ‘थिएटर से आए ज्यादातर निर्देशक अपनी फिल्मों में कुछ कहना चाहते हैं और पीपली में भी आप यह देख सकते हैं.’ मीडिया में इसे किसानों की दशा पर व्यंग्य कहा जा रहा है, मगर अनुषा कहती हैं, ‘मैंने इसे जान-बूझकर व्यंग्य नहीं बनाया था. हकीकत ही ऐसी है. यह अतिशयोक्ति नहीं है.’ वे कहती हैं कि अगर नत्था किसान की बजाय कोई बुनकर या कुम्हार होता तब भी फिल्म यही असर छोड़ती क्योंकि अहम बात भारत के शहर और गांव के बीच की खाई को दिखाना था.

अनुषा और महमूद दिबाकर बनर्जी, अनुराग कश्यप और विशाल भारद्वाज जैसे नए फिल्मकारों के प्रशंसक हैं. हालांकि उन्हें लगता है कि आज की ज्यादातर फिल्में अपने समाज से कटी हुई हैं और उनमें उस परिपक्वता का 20वां हिस्सा भी नहीं है जो 70 के दशक के सिनेमा में दिखती थी. महमूद कहते हैं, ‘हम उस स्तर के आसपास भी नहीं हैं जब विजय तेंदुलकर ने मंथन के लिए संवाद लिखे थे.’

जब अनुषा और महमूद किसी निर्माता की तलाश में पहली बार मुंबई आए थे तो सईद मिर्जा और नसीरुद्दीन शाह जैसी हस्तियों ने उनसे कहा था कि यह शहर साहित्य में दिलचस्पी रखने वाले लोगों के लिए नहीं है. महमूद कहते हैं, ’70 और 80 के दशक में अगर आपके पास पैसा नहीं होता था तो भी आपको इज्जत मिलती थी. लेकिन अब ऐसा नहीं है. अब ऐसा कोई नहीं है जो कहे कि कोई बात नहीं. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता. और मीडिया भी इस मानसिकता के लिए तमाम दूसरी चीजों जितना ही जिम्मेदार है.’
अनुषा अब फिर से दिल्ली में हैं. फिलहाल वे किसी नए प्रोजेक्ट पर काम नहीं कर रहीं. उधर, महमूद 1857 की क्रांति पर लिखी गई अपनी पहली किताब निकालने की तैयारी कर रहे हैं. उन्हें अपने संघर्ष के दौर वाले वे दिन अब भी याद हैं जब उनके पास कपड़े खरीदने और कभी-कभी तो खाने तक के पैसे नहीं होते थे. अनुषा कहती हैं, ‘हम शिद्दत से यह फिल्म बनाना चाहते थे, इसलिए हम इसे वीडियो पर भी बना लेते.’ 

ऑक्टोपसी चंगुल में चैनल

स्पेन ने फुटबॉल विश्वकप भले ही कलात्मक और बेहतर खेल के कारण जीता हो लेकिन अपने खबरिया चैनल इसका श्रेय उसे देने के लिए तैयार नहीं हैं. चैनलों की मानें तो स्पेन की जीत का असली क्रेडिट पॉल नाम के एक ऑक्टोपस को जाता है जिसने मैच से पहले ही उसकी ‘भविष्यवाणी’ कर दी थी. चैनलों के मुताबिक इस बार फुटबॉल विश्वकप का असली हीरो ऑक्टोपस पॉल है जिसने कई प्रमुख मैचों के बारे में बिलकुल सटीक ‘भविष्यवाणियां’ की. खासकर जर्मनी के मैचों और सेमीफाइनल और फ़ाइनल मैच के नतीजों को लेकर की गई उसकी सभी सात ‘भविष्यवाणियां’ सही निकलीं.

ऑक्टोपस पॉल टीवी की पैदाइश है, यह समझने के लिए आपको रॉकेट विज्ञानी होने की जरूरत नहीं

बस, अपने खबरिया चैनलों को और क्या चाहिए था? तेज तारों, तीन देवियों, ग्रहों-ग्रहणों, नक्षत्रों, ज्योतिषियों और बाबाओं से अटे पड़े चैनलों पर ‘बाबा’ ऑक्टोपस पॉल को छाते देर नहीं लगी. उसके अहर्निश महिमागान में कोई चैनल पीछे नहीं रहा. आश्चर्य नहीं कि नियमित और प्राइम टाइम बुलेटिनों से लेकर आधा घंटे के विशेष कार्यक्रमों में जितना समय फुटबॉल विश्वकप के मैचों  की रिपोर्टों को मिला, उससे कम एयरटाइम ऑक्टोपस पॉल के करिश्माई खेल को नहीं मिला. कुछ इस हद तक कि मैच सिर्फ औपचारिकता मात्र रह गए जो पॉल की भविष्यवाणी को सही साबित करने के लिए हो रहे हों.               

जाहिर है कि ऐसा करते हुए खबरिया चैनलों ने सामान्य बुद्धि, तर्क और विवेक को ताक पर रख दिया. हालांकि इसमें कोई नई बात नहीं है लेकिन चैनल ऑक्टोपस पॉल के चंगुल में जिस तरह से फंसे उससे साफ है कि तर्क और बुद्धि से उनकी दुश्मनी अब काफी पुरानी और गहरी हो चुकी है. अफसोस की बात यह है कि चैनलों के इस अतार्किक और बुद्धिविरोधी रवैए का असर फुटबॉल विश्वकप के मैचों की रिपोर्टिंग पर भी पड़े बिना नहीं रह पाया. अधिकांश हिंदी खबरिया चैनलों की फुटबॉल विश्वकप में वैसी दिलचस्पी नहीं थी, जैसी क्रिकेट के ऐरे-गैरे चैंपियनशिप को लेकर दिखती है. रही-सही कसर ऑक्टोपस पॉल ने निकाल दी. चैनलों ने काफी हद तक कमजोर रिपोर्टिंग की भरपाई ऑक्टोपस पॉल के चमत्कारों को दिखाकर पूरी करने की कोशिश की.

नतीजा, एक ऐसा तमाशा जिसने फुटबॉल जैसे शानदार खेल के विश्वकप को काफी हद तक मजाक में बदल दिया. वैसे, टीवी ने फुटबॉल ही नहीं, लगभग सभी खेलों को पहले ही तमाशे में बदल दिया है जहां खेल अब सिर्फ खेल नहीं रह गए हैं. वे टीवी के लिए खेले जाते हैं. आश्चर्य नहीं कि उनमें खेलों की सामूहिकता, सहभागिता और  मैत्रीपूर्ण प्रतिस्पर्धा की भावना की बजाय तमाशे, तड़क-भड़क और उन्माद का बोलबाला बढ़ गया है. यह टीवी के स्वभाव के अनुकूल है क्योंकि उसकी दिलचस्पी खेल से ज्यादा खेल के तमाशे और उसकी नाटकीयता में है. ऐसे में, अंधविश्वास और टोने-टोटके कहां पीछे रहने वाले थे.

असल में, ऑक्टोपस पॉल टीवी की रचना या पैदाइश है. यह समझने के लिए आपको रॉकेट विज्ञानी होने की जरूरत नहीं है. हैरानी की बात नहीं है कि सिर्फ भारत ही नहीं, यूरोप और दुनिया के अधिकांश देशों में मीडिया में ऑक्टोपस पॉल छाया रहा. टीवी चैनलों को ऑक्टोपस पॉल इसलिए चाहिए कि वह अपनी नाटकीयता से अधिक से अधिक दर्शक खींचता है. चैनल को दर्शक चाहिए. इसलिए कि चैनलों की टीआरपी दर्शकों की संख्या पर निर्भर करती है. टीआरपी से विज्ञापन आता है और विज्ञापन से मुनाफा होता है. चैनलों को मुनाफा चाहिए और मुनाफे के लिए जरूरी है कि दर्शकों को ऑक्टोपसी चंगुल में फंसाए रहा जाए, चाहे वह अंधविश्वासों का ही क्यों न हो.

सवाल है कि दर्शक इन्हें क्यों देखते हैं? इसके मुख्यतः दो कारण हैं. पहला यह कि इनमें एक खास तरह का अनोखापन या अजीबोगरीबपन है. आम तौर पर  अजीबोगरीब चीजें ध्यान खींचती हैं. इसीलिए चैनलों पर अजीबोगरीब चीजें खूब दिखाई जाती हैं. कुछ खबरिया चैनल तो इसी विधा के विशेषज्ञ हो गए हैं. ऑक्टोपस अपने आप में काफी अजीबोगरीब जीव है, ऊपर से अगर उसे भविष्यवक्ता बना दिया जाए तो उत्सुकता स्वाभाविक है. दूसरा कारण ज्यादा महत्वपूर्ण और गहरा है. ऑक्टोपस पॉल एक आदमी के अंदर बैठे अनजान के भय, आशंकाओं और चिंताओं को भुनाने के लिए पैदा होता है, उसी पर पलता और फलता-फूलता है. ज्योतिष और भविष्यवाणियों का जन्म भी इसी ‘अनजान के भय’ से हुआ है. ज्योतिष और उसकी भविष्यवाणियां लोगों को कुछ हद तक इसी ‘अनजान के भय’ से राहत देने का आभास पैदा करती हैं.

खबरिया चैनल हर आदमी के अंदर बैठे इसी ‘अनजान के भय’ का दोहन करते हैं. ऑक्टोपस पॉल भी इसी दोहन के मकसद से भविष्यवक्ता बना दिया गया. हैरानी नहीं होगी, अगर जल्दी ही अपने खबरिया चैनल कोई देशी तोता, बिल्ली, बंदर, गाय या हाथी खोज लाएं. 

यहां से कश्मीर को देखिए

हाल के दिनों में श्रीनगर की सड़कों पर दिखने वाला पथराव क्या सिर्फ पेशेवर पत्थरबाज़ों का काम था? सुरक्षा बलों द्वारा सुलभ कराए गए किन्हीं ऑडियो टेपों की मार्फत टीवी चैनलों और अख़बारों ने यही बताया और साबित किया. हो सकता है, इसमें सच्चाई हो. श्रीनगर में पिछले दिनों चल रहे हंगामे में कुछ ऐसे ही पेशेवर पत्थरबाज़ों की भूमिका भी रही हो जो सीमा के उस पार या इस पार बैठे लोगों के इशारे पर यह धंधा कर रहे होंगे.

शेख अब्दुल्ला ने जब कश्मीर घाटी में भूमि सुधार लागू किए तो इसका ज्यादा नुकसान हिंदू जमींदारों को हुआ क्योंकि ज़मीन उनके पास थी

लेकिन क्या कश्मीर का सारा गुस्सा प्रायोजित है? क्या यह प्रचार भी प्रायोजित है कि इन्हीं कुछ दिनों में सुरक्षा बलों की गोलियों से राज्य में 15 लोगों की मौत हुई? इन प्रदर्शनों के बीच छत पर खड़ी एक महिला को कोई भटकी हुई गोली लगी, ट्यूशन पढ़कर लौट रहे एक लड़के की खोपड़ी एक प्लास्टिक की गोली से फटी और सुरक्षा बलों ने तीन युवकों को घर में घुसकर गोली मारी. ये वे घटनाएं हैं जिनकी पुष्टि राज्य के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला भी कर रहे हैं और विपक्ष की नेता महबूबा मुफ़्ती भी.

बहरहाल, टीवी पर कश्मीर के इन प्रदर्शनों को देखते हुए और इनके प्रायोजित या स्वतःस्फूर्त होने की बहस से गुजरते हुए मुझे संजय काक द्वारा कश्मीर पर बनाई गई डॉक्युमेंटरी जश्ने आज़ादी की याद आई. उस डॉक्युमेंटरी में बहुत-कुछ है- एक तरफ आजादी के जुलूसों में बदलती मय्यतें हैं तो दूसरी तरफ स्वाधीनता दिवस समारोह मनाते सरकारी प्रतिष्ठान. बीच में वे सुरक्षा बल भी, जो आम लोगों के बीच रेडियो बांट रहे हैं और उऩसे एक रिश्ता कायम करने की कोशिश कर रहे हैं.

पूरी फिल्म में जिस चीज़ ने सबसे ज़्यादा मेरा ध्यान खींचा, वह यह कि जब भी कश्मीर की सड़कों पर कोई जुलूस निकलता या कोई मय्यत गुजरती, अचानक पूरे माहौल में जैसे बिजली पैदा हो जाती. सड़कों पर चीख-चीखकर नारे लगाते लोग दिखते, रोती और छाती पीटती महिलाएं मिलतीं और भिंचे हुए जबड़ों के साथ मुट्ठियां उछालते नौजवान नजर आते, जो जैसे स्क्रीन के बाहर चले आने को बेताब हों. दूसरी तरफ जब भी कोई सरकारी आयोजन नज़र आता, हवा भारी-सी लगती, सड़कें सूनी दिखतीं, कुर्सियां खाली नज़र आतीं, उदास, भावहीन चेहरे ताली बजाते- जैसे यह आयोजन लोगों पर थोपा जा रहा हो.

कश्मीर का असंतोष एक स्तर पर देश में चल रहे कई दूसरे असंतोषों की तरह भारतीय राष्ट्र राज्य की नाकामी का भी नतीजा है

इस लिहाज से देखें तो कश्मीर में पथराव और प्रदर्शन जितने नियोजित-प्रायोजित हैं, शांति उससे कहीं ज़्यादा नियोजित और प्रायोजित है. आखिर इस शांति के लिए सात लाख सिपाही वहां तैनात किए गए हैं. जब संगीनों के सहारे शांति कायम की जाती है तो उसका यही हाल होता है. एक हल्का-सा गुस्सा इस शांति की सीवन को उधेड़ डालता है और 20 साल बाद भी सेना को सड़कों पर फ्लैग मार्च करने की नौबत आती है. दरअसल, आज की तारीख में कश्मीर एक टभकता हुआ घाव है- जब तक उसपर रूई के फाहे होते हैं, जब तक कोई मरहम होता है, उस घाव की तकलीफ मालूम नहीं होती, लेकिन जैसे ही कोई उसे छूता और दबाता है तो जैसे कश्मीर का सारा जिस्म ऐंठने लगता है.

सवाल है, ऐसा क्यों हुआ. 1978 में प्रकाशित सलमान रुश्दी के उपन्यास मिडनाइट्स चिल्ड्रेन का बूढ़ा कश्मीरी मल्लाह बोलता है कि कश्मीरी डरपोक होते हैं. कश्मीरी के हाथ में एक बंदूक दो तो वह तुम्हें थमा देगा. आज कश्मीरियों के बारे में यह नहीं कहा जा सकता. तो इस कश्मीर ने बंदूक चलाना और क़त्ल करना कब सीख लिया? आखिर ऐसा क्या हुआ कि सन अस्सी के बाद कश्मीर के पुराने बाशिंदे राज्य छोड़कर भागने को मजबूर हुए और कश्मीर में एक नई बंदूक संस्कृति का उदय हुआ जिसे दिल्ली से वजह और इस्लामाबाद से मदद मिलती रही?

इन सवालों के जवाब आसान नहीं हैं. इनकी ऐतिहासिक व्याख्याओं के कई स्तर हैं. इनमें उतरें तो कश्मीर की सदियों से चली आ रही साझा विरासत का यह पहलू भी सामने आएगा कि उन सदियों में शोषक कोई और थे, शोषित कोई और. फिर यह बात भी खुलेगी कि मूलतः प्रगतिशील रुझानों वाले शेख अब्दुल्ला ने जब कश्मीर घाटी में भूमि सुधार लागू किए तो इसका ज्यादा नुकसान हिंदू जमींदारों को हुआ क्योंकि ज़मीन उनके पास थी. जम्मू के जमींदारों को यह डर भी था कि ये सुधार उन
तक न पहुंचें.

बहरहाल भारत के विभाजन ने कश्मीर के राजनीतिक हालात और दुश्वार किए. कश्मीर का भारत के साथ आना भारत के धर्मनिरपेक्ष राज्य की पुष्टि था, अगर पाकिस्तान के साथ जाता तो धर्म के आधार पर विभाजन को जायज़ ठहराता. रामचंद्र गुहा की किताब इंडिया आफ्टर गांधी का अध्याय सिक्योरिंग कश्मीर बताता है कि उन दिनों कश्मीर के सबसे बड़े नेता रहे शेख अब्दुल्ला को पाकिस्तान के साथ जाना अनैतिक लगता था और कश्मीर की आज़ादी का खयाल अव्यावहारिक. वे मानते थे कि भारत में अगर सांप्रदायिकता को दफन कर दिया जाए तो कश्मीर का भविष्य भारत के साथ सुरक्षित है. दुर्भाग्य से इसी सांप्रदायिक विचारधारा ने सबसे ज्यादा कश्मीर मांगा और इस बात की परवाह किए बिना मांगा कि इसकी वजह से कश्मीरी उससे और दूर होता जाएगा, बिदकता जाएगा. वाकई कश्मीर की यह फांस इसी वजह से बड़ी होती गई और दिल्ली की राजनीतिक चूकों ने वहां अलगाववाद की एक ऐसी गांठ बनाई जो अब तक मरने का नाम नहीं ले रही.

सवाल है, अब हम क्या करें. क्या कश्मीर को हमेशा बंदूक के दम पर अपने पांवों के नीचे रखें? अगर वह शांति से रहने को तैयार हो तो उसे रोटी और रोज़गार दें, उसको राहत और रियायत के नाम पर लाखों-करोड़ों की रिश्वत दें वरना उसके सीने में संगीन भोंकें? जाहिर है, यह काम न उचित है और न ही व्यावहारिक. कश्मीर को अगर भारतीय राष्ट्र राज्य के जिस्म का सहज और संवेद्य हिस्सा बनाना है तो इलाज के नाम पर कसी हुई वे बड़ी-बड़ी पट्टियां हटानी होंगी जिनकी वजह से उसका हिलना-डुलना मुश्किल होता है और सहज रक्त संचार भी प्रभावित होता है.

लेकिन अगर इसके बाद भी कश्मीर न माने तो क्या करें? क्या उसे आज़ाद करके उसके हाल पर छोड़ दें? आखिर एक तर्क यह तो कहता है कि हर आदमी को अपना देश चुनने का हक है और अगर कश्मीरी अलग रहना चाहते हैं तो उन्हें भी यह अधिकार देना चाहिए. आखिर अब भी कश्मीर में भारत और पाकिस्तान से अलग एक स्वतंत्र कश्मीर की बात सबसे लोकप्रिय अपील पैदा करती है.
लेकिन मामला इतना सरल नहीं है. सिर्फ इसलिए नहीं कि कश्मीर की आजादी भारत की धर्मनिरपेक्षता पर एक चोट होगी और हमारी सुरक्षा से जुड़ी चुनौतियां और भी जटिल होंगी. यह हक़ीक़त हो भी तो इसमें स्वार्थ की बू आती है. लेकिन ज़्यादा सच्ची बात यह है कि कश्मीर क्या चाहता है, यह समझने की कोशिश किसी ने की ही नहीं. बल्कि एक स्तर पर यह सिर्फ कश्मीर का मामला नहीं है. दरअसल किसी भी आधुनिक और तरक्कीपसंद कौम को रोटी, इज्ज़त और इंसाफ़ चाहिए. यह अगर एक राष्ट्र के दायरे में रहकर मिलते हैं तो ठीक, और अगर उससे बाहर जाकर हासिल होते हैं तो भी ठीक. इस नई समझ और संवेदना का ही असर है कि दुनिया भर में सरहदें धुंधली पड़ी हैं, राष्ट्र राज्यों का लौह परदा गिरा है और बीसवीं सदी में आपस में बुरी तरह लड़ने वाले यूरोपीय देश अब एक सिक्का चला रहे हैं.

यह सिर्फ इत्तिफाक नहीं है कि दुनिया के जिन देशों में राष्ट्रवाद अपने सबसे प्रबल रूपों में बचा है वे सबसे पिछड़े देश भी हैं. अपनी मजहबी और नस्ली लड़ाइयों में डूबा पूरा का पूरा दक्षिण एशिया इसका सबसे बड़ा सबूत है. इस लिहाज से देखें तो यह राष्ट्र राज्य के झड़कर गिरने का मौसम है. राष्ट्र अपनी भूमिका को जितना सिकोड़ेगा, वह नागरिकों को उतने ही अधिकार, उतनी ही आजादी देगा. दुर्भाग्य से भारतीय राष्ट्र राज्य आर्थिक स्तर पर तो अपनी भूमिका खत्म कर रहा है, लेकिन राजनीतिक और प्रशासनिक स्तर पर यह काम करने को तैयार नहीं.

कश्मीर का असंतोष एक स्तर पर देश में चल रहे कई दूसरे असंतोषों की तरह भारतीय राष्ट्र राज्य की नाकामी का भी नतीजा है. लेकिन अगर इस राज्य के बाहर जाकर कश्मीर एक नया राष्ट्र राज्य बनाएगा तब भी कश्मीरी खुशहाल होंगे, यह गारंटी नहीं दी जा सकती. क्योंकि तब वहां नई तरह की जटिलताएं होंगी, नए राजनीतिक समीकरण होंगे, कहीं ज्यादा मुश्किल हालात होंगे और अंततः राष्ट्र राज्य की अपनी ज्यादतियां होंगी. यह बात कश्मीर को समझनी होगी और भारत को भी. कश्मीर का दूर जाना भारत में वे दरारें और बड़ी करेगा जो सांप्रदायिक राजनीति पैदा करती रही हैं.

लेकिन सवाल फिर वहीं आकर टिक जाता है- हम कश्मीर का क्या करें, उसके संकट का क्या हल हो. इस सवाल का जवाब फिलहाल इतना ही हो सकता है कि उससे हम हमदर्दी से पेश आएं, बंदूक कम चलाएं बात ज्यादा सुनें. कश्मीरियों को यह महसूस होना चाहिए कि उनके साथ दगा नहीं हो रहा. अगर यह एहसास पैदा हुआ तो वह कश्मीर को आर्थिक पैकेज के नाम पर दी जा रही रिश्वत से ज्यादा बड़ी राहत साबित होगा. फिर सीमा पार के उकसावों से निपटना भी आसान होगा, पाकिस्तान से शांति की बातचीत आगे बढ़ाना भी और पाक अधिकृत कश्मीर के बंधन खोलना भी.

इन सबके लिए बड़ी पहल जम्हूरियत के हामी कश्मीरी नेताओं को ही करनी होगी. लेकिन क्या आपस में ही बुरी तरह उलझे हुए ये नेता यह कर पाएंगे? हमारे पास इंतज़ार, उम्मीद और दुआओं के अलावा कोई रास्ता नहीं है.  

'दुविधाएं और सुविधाएं'

शायद हिंदी के किसी भी साहित्य विशेषांक के लिए यह पहला प्रयास होगा कि इस अंक में हमने विभिन्न प्रकाशकों, साहित्यकारों और समालोचकों आदि से अनुरोध करके, उनसे बात करके तमाम तरह की सर्वेक्षणनुमा जानकारियां भी संकलित की हैंएक समाचार पत्रिका – वह भी पाक्षिक – द्वारा साहित्य विशेषांक निकालने की अपनी ही दुविधाएं हैं. इस विशेषांक का विचार तो काफी पहले बन गया था मगर इसके बनते ही तहलका के उत्तर प्रदेश-उत्तराखंड संस्करण की योजना भी बन गई. विशेषांक को आपाधापी में निकालने से इसके साथ अनचाहे अन्याय का खतरा तो था ही साथ ही नए संस्करण के लांच हो जाने के बाद यह और भी ज्यादा लोगों तक पहुंच सकेगा ऐसा लालच भी था. हमें इसका प्रकाशन टालना पड़ा.

इसके बाद कई बार हम इस संस्करण को निकालने की योजना के अंतिम चरण में पहुंचे और ठिठके क्योंकि उसी दौरान देश में कुछ बेहद महत्वपूर्ण घटित हो गया था. उदाहरण के तौर पर, इससे पहले हम इस निर्णय पर पहुंचे ही थे कि दंतेवाड़ा में नक्सलियों ने 76 जवानों की हत्या कर दी. एक समाचार पत्रिका होने के धर्म की पूर्ति के लिए साहित्य विशेषांक को थोड़े समय के लिए स्थगित करने के अलावा कोई और चारा ही नहीं था.

हाल ही में भोपाल त्रासदी पर आए अदालत के फैसले और उस पर उठे विवाद ने हमें एक बार फिर धर्मसंकट में धकेल दिया. किंतु अंत में यह सोचकर कि एक तो हम अपने पाठकों से पिछले अंक में इस विशेषांक का वादा कर चुके हैं; दूसरा भोपाल त्रासदी के बारे में हम पहले भी कई रपटें छाप चुके हैं और तीसरा पानी के बुलबुलों सी क्षण में मिटने को उठती खबरों वाले इस दौर में न्याय की ऐसी लड़ाइयों से जुड़ी खबरों की एकसाथ भीड़ लगना ही नहीं बल्कि उनका समय-समय पर आते रहना भी ज़रूरी है, हम इस विशेषांक को बिना और विलंब किए छापने के निर्णय पर पहुंच गए.

मगर सोचें तो समाचार पत्रिका के साहित्य विशेषांक के अपने कुछ फायदे भी हैं. इस अंक में न केवल दस्तावेज़ और अन्यान्य जैसी बहुपयोगी श्रेणियां मौजूद हैं बल्कि इसे लोकतांत्रिक और सर्वसमावेशी बनाने की ओर भी विशेष ध्यान रखा गया है: इसमें अनुभवी दिग्गजों को समुचित सम्मान देते हुए साहित्यिक संभावनाओं के नए संकेतों का भी उतनी ही गर्मजोशी से स्वागत किया गया है; अंक में यह सोच साफ नज़र आती है कि साहित्य की साधना के केंद्र दिल्ली या कुछेक बड़े-मझोले शहर ही नहीं हैं. जहां इसमें स्वयं प्रकाश जी और काशीनाथ जी जैसे साहित्य के मूर्धन्य और प्रसून जोशी और जावेद अख्तर जैसे प्रचलित संस्कृति के ख्यातिनाम स्तंभ हैं वहीं दुर्ग के कैलाश बनवासी और दरभंगा के मनोज कुमार झा सरीखी अपेक्षाकृत कम जाने-पहचाने शहरों की प्रतिभाएं भी हैं; इसमें अंग्रेजी के प्रख्यात रचनाकार रस्किन बॉन्ड की रचना – जो उन्होंने खास तौर पर तहलका के लिए लिखी थी – को भी शामिल किया गया है.

इसके अलावा हालांकि यह बहुत सोचा-समझा नहीं है मगर शायद यह तहलका की मूल प्रवृत्ति से ही उपजा होगा कि हमारी ओर से इस अंक में लिखने के लिए महिला रचनाकारों को भी पर्याप्त संख्या में आमंत्रित किया गया था जिनमें से कई की रचनाएं इसमें शामिल हैं.

शायद हिंदी के किसी भी साहित्य विशेषांक के लिए यह पहला प्रयास होगा कि इस अंक में हमने विभिन्न प्रकाशकों, साहित्यकारों और समालोचकों आदि से अनुरोध करके, उनसे बात करके तमाम तरह की सर्वेक्षणनुमा जानकारियां भी संकलित की हैं. इससे न केवल यह अंक और भी ज्यादा पठनीय और रोचक बनेगा बल्कि पाठकों की जानकारी को कुछ और समृद्ध कर उन्हें लाभान्वित करेगा, ऐसी तहलका में हम सभी को उम्मीद है.

हमारे इस प्रयास का स्वरूप हिंदी के वरिष्ठ रचनाकार भगवानदास मोरवाल जी के नि:स्वार्थ सहयोग के बिना ऐसा हो ही नहीं सकता था. उनका आभार.

यहां तहलका में मेरे सहयोगी और विलक्षण लेखन प्रतिभा गौरव सोलंकी का उल्लेख करना भी आवश्यक है जिनका इस विशेषांक के संपादन में उतना ही योगदान है जितना कि मेरा.

अंत में अन्य समाचार पत्रिकाओं के कुछ रोचक और कुछ उत्तेजक (विचारोत्तेजक नहीं) विशेषांकों वाले इस दौर में ‘पठन-पाठन’ जैसे गंभीर आयोजनों की कितनी प्रासंगिकता है, इसे तय करने का अधिकार आपका है. इस अधिकार से लिखी आपकी प्रतिक्रियाओं का हमें इंतज़ार रहेगा. 

संजय दुबे, वरिष्ठ संपादक

न्याय के विचार पर एक नई नजर : न्याय का स्वरूप

पुस्तक : न्याय का स्वरूप (लेख संग्रह)
लेखक  : अमर्त्य सेन
कीमत  :425 रुपए
प्रकाशक: राजपाल एंड संस

डॉ अमर्त्य सेन अर्थशास्त्रीय अध्ययन के लिए ही नहीं जाने जाते बल्कि उनके सामाजिक सरोकार भी दुनिया को अलग-अलग प्रसंगों में आकृष्ट करते रहे हैं. उनके अर्थशास्त्र की परिधि में वे तमाम मुद्दे स्वयं आ जाते हैं जो न सिर्फ मनुष्य मात्र को किसी भी तौर से प्रभावित करते हैं बल्कि सामाजिक अध्ययन के विभिन्न पहलुओं को समझने में भी सहायक होते हैं.

दरअसल, दर्शन के प्रति सेन का लगाव उनकी दृष्टि को एक ऐसी ऊंचाई देता है जहां से वे मनुष्य की अनिष्टकारी शक्तियों की कार्यपद्धति को बारीकी से समझते-समझाते दिखते हैं. गरीबी, अकाल और मनुष्य की सभ्यता के विकास का ही वे अध्ययन नहीं करते, वे वहां तक जाते हैं जहां अलग-अलग परिवेश में जी रहे मनुष्य के प्रति विभिन्न स्तरों पर अन्याय हो रहा है.
इन दिनों अमेरिका के हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में दर्शन और अर्थशास्त्र के प्रोफेसर सेन की हाल ही में प्रकाशित नई किताब ‘द आइडिया ऑफ जस्टिस’ इसकी एक और मिसाल है जिसका हिंदी अनुवाद ‘न्याय का स्वरूप’ नाम से प्रकाशित हुआ है. अनुवाद भवानीशंकर बागला ने किया है.

किताब में सेन न्याय की अवधारणा और अन्याय के विभिन्न स्वरूपों की विस्तृत व्याख्या केवल तथ्यात्मक आधार पर नहीं करते बल्कि इस क्रम में उस करुणा तक भी जाते हैं जो उनके आशयों को केवल सामाजिक अध्ययन बनने से बचाती है. दुनिया की सारी कृतियां किसी न किसी रूप में न्याय और अन्याय को ही परिभाषित करती रही हैं. इस क्रम में सेन की इस कृति को देखा जाना चाहिए जो हमें न्याय के प्रति अपनी अवधारणा को अद्यतन करने में सहायता पहुंचाती है.

अपने प्राक्कथन की शुरुआत ही सेन चार्ल्स डिकेंस के उपन्यास ‘ग्रेट एक्सपेक्टेशंस’ के उल्लेख से करते हैं और अन्याय के अहसास की चर्चा करते हैं. यह जो ‘अहसास’ का उल्लेख है वह उनके अध्ययन को अधिक अर्थवान, अधिक मानवीय और अधिक प्रासंगिक बनाता है. सेन इस निष्कर्ष तक हमें ले जाते हैं कि यह अहसास ही है जो अन्याय के खिलाफ आवाज बुलंद करने को तैयार करता है.
उन्होंने स्पष्ट किया है कि इस कृति का क्या उद्देश्य है- ‘हम किस प्रकार अन्याय को कम करते हुए न्याय का संवर्धन कर सकते हैं.’ सेन किसी भी सिद्धांत या मत को अंतिम मानने से परहेज करते हैं और कहते हैं, ‘हम न्याय की अन्वेषणा किसी भी विधि से करने का प्रयास करते रहें पर मानव जीवन में यह अन्वेषणा कभी समाप्त नहीं हो सकती.’

इस तरह एक नई सोच के साथ यह कृति अन्याय के विरुद्ध एक सार्थक आवाज उठाती है और न्याय की एक नई व्यवस्था की रूपरेखा प्रस्तुत करती है. भारतीय समाज के लिए यह और भी प्रासंगिक है क्योंकि यहां खाप पंचायतों का अस्तित्व अब भी है जो इज्जत के नाम पर किसी की हत्या तक के फरमान जारी कर देती हैं तो कहीं कोई पंचायत किसी महिला को डायन कहकर प्रताड़ित करने से गुरेज नहीं करती. यह किताब मानवाधिकार के परिप्रेक्ष्य में न्याय की व्याख्या  है.

अभिज्ञात

दूरसंचार की घातक मार

मानकों से परे जाकर आम आदमी के स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसी चिंताओं को दरकिनार कर  कदम-कदम पर उग आए मोबाइल फोन टावरों द्वारा फैलाए जा रहे एक अदृश्य प्रदूषण पर तहलका का सर्वेक्षण और अतुल चौरसिया की रिपोर्ट 

लगभग महीने भर पहले दिल्ली में तहलका द्वारा  करवाया गया ईएमआर (इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन) सर्वेक्षण देश के किसी महानगर में इतने बड़े पैमाने पर हुआ अपनी तरह का पहला ऐसा सर्वेक्षण था. इसके नतीजे बेहद चिंतनीय और आंख खोलने वाले भी थे. सर्वे में उजागर हुआ कि प्रगति और आधुनिकता के प्रतीक बन जगह-जगह फफूंद-कुकुरमुत्तों की तरह उग आए मोबाइल फोन टावर आज दबे-छुपे हमारे स्वास्थ्य के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी खतरे का सबब बन गए हैं. गर्भवती स्त्रियों पर ईएमआर के विपरीत प्रभाव पड़ने की आशंकाएं तमाम अमेरिकी चिकित्सा जर्नलों में आ चुकी हैं और शोध में लंबे समय तक इसके  सीधे संपर्क में रहने वाले पक्षियों की रिहाइश और अंडों पर विपरीत प्रभाव पड़ते पाया गया है. दिल्ली के नतीजों ने बताया कि यहां की 80 फीसदी आबादी सीधे तौर पर ईएमआर के खतरे का सामना कर रही है. महज 20 फीसदी लोग इसकी जद से बाहर हैं और इसमें भी अधिकतर वे लोग और इलाके हैं जिन्हें वीवीआईपी माना और कहा जाता है.

मधुमक्खी, गौरैया और रेडिएशन

इलेक्ट्रोमैग्नेटिक रेडिएशन के पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव महज बौद्धिक जुगाली नहीं रह गए हैं. इसका प्रभाव जीवन के विभिन्न स्वरूपों और उसकी कार्यप्रणाली पर पड़ता है. शोध में यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि उच्च आवृत्ति वाली तरंगों के सीधे संपर्क में आने वाले पेड़ तरंगों को विद्युत तरंगों में परिवर्तित कर देते हैं जो सीधे मिट्टी में चली जाती हैं. इससे मिट्टी की इलेक्ट्रिकल कंडक्टिविटी और पीएच मान बदल जाते हैं.
यूनिवर्सिटी ऑफ लीड्स के एक अध्ययन में पता चला है कि इंगलैंड और हॉलैंड में 1980 से अब तक मधुमक्खियों के 80 फीसदी पर्यावास (छत्ते) खत्म हो चुके हैं जबकि फ्लोरिडा में 2007-2008 के दौरान मधुमक्खियों के 35 फीसदी छत्ते गायब हो गए. हाल ही में एक भारतीय वैज्ञानिक वीपी शर्मा ने अपने पीएचडी शोध के दौरान पाया कि ईएमआर के सीधे संपर्क में रहने वाले छत्तों में रानी मक्खी के अंडे देने की दर में गंभीर गिरावट आई है. उन्हें मधुमक्खियों के पराग इकट्ठा करने और वापस छत्ते में लौटने की प्रक्रिया में भी भारी गड़बड़ी देखने को मिली. आज मैं ये मानने को विवश हूं कि मधुमक्खियों के छत्तों में आ रही गिरावट ईएमआर की वजह से ही है. ऐसा नहीं है कि सिर्फ मधुमक्खियां ही इसका शिकार हो रही हैं, गौरैया को याद कीजिए. कितने दिन पहले उसने आपके घर, आंगन या बालकनी में अपना घोंसला बनाया था. याद नहीं आएगा. देखते ही देखते ये चिड़िया हमारे आस-पास से विलुप्त-सी हो गई है. कीटनाशक, रहन-सहन में बदलाव, गाड़ियों की बढ़ती संख्या जैसे तमाम कारण गिनाए जा सकते हैं, लेकिन पूरी दुनिया में एकाएक विलुप्त होने के कगार पर पहुंच गई इस चिड़िया के साथ एक ही घटना जुड़ती है, दुनिया भर में देखते ही देखते खड़े हो गए सेलफोन टावर और ईएमआर.

तहलका के दिल्ली सर्वेक्षण में सामने आए चिंताजनक आंकड़ों को संज्ञान में लेते हुए दिल्ली हाई कोर्ट ने इसकी पड़ताल करने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति का गठन किया है. यह पैनल सेलफोन टावरों से होने वाले रेडिएशन के अस्वास्थ्यकर प्रभावों के साथ ही इससे जुड़े विरोधाभासी पहलुओं की भी जांच करेगा. इस समिति को तीन महीनों के भीतर अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपनी है.
तहलका को ईएमआर सर्वेक्षण का विचार पहली दफा दिल्ली में रहने वाले 46 वर्षीय उद्योगपति रेहान दस्तूर से मुलाकात के बाद आया. रेहान ने अपना पहला मोबाइल फोन अक्टूबर 1997 में एयरटेल द्वारा दिल्ली की पहली मोबाइल सेवा शुरू करने से पंद्रह दिन पहले ही खरीद लिया था. उस वक्त जब मोबाइल फोन की दरें 18 रुपए प्रति मिनट हुआ करती थीं, रेहान घंटों मोबाइल पर बातें किया करते थे. जल्द ही इसका दुष्प्रभाव भी देखने को मिला. तीन साल बाद 2000 में रेहान जबर्दस्त लकवे के शिकार हो गए. जांच में अपोलो अस्पताल के डॉक्टरों ने पाया कि ईएमआर ने उनके कान और तंत्रिका तंत्र के साथ ही मस्तिष्क की कोशिकाओं को भी बुरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिया है. आज रेहान का शरीर ईएमआर नापने का चलता-फिरता उपकरण बन गया है. रेहान कहते हैं, ‘अगर आप मेरी आंख पर पट्टी बांधकर मुझे शहर में घुमाएं तो भी मैं मोबाइल फोन टावर के पास से गुजरते हुए बता सकता हूं कि यहां टावर है. टावर से निकलने वाली तरंगें मेरी तंत्रिकाओं से टकरा कर एक प्रकार का स्पंदन पैदा करती हैं.’

हम सामान्यत: दो प्रकार के रेडिएशन से पिरचित हैं. एक, न्यूक्लियर रेडिएशन जिसके बारे में हम हिरोशिमा, नागासाकी से लेकर हाल ही में दिल्ली में  कोबाल्ट-60 से हुई मौत के संदर्भ में पढ़ते-सुनते रहे हैं. इस प्रकार का रेडिएशन आयोनाइजेशन आधारित प्रक्रिया होती है जिसमें शरीर पर तुरंत ही विनाशकारी प्रभाव पड़ने और दिखने लगते हैं. आयोनाइजेशन रेडिएशन का दुष्प्रभाव व्यक्ति के डीएनए पर होता है जिसके नतीजे लंबे अरसेे तक अपना असर बनाए रहते हैं.

टेलीफोन टावर से निकलने वाला ईएमआर दूसरी तरह का रेडिएशन है जिसमें शरीर पर पड़ने वाला दुष्प्रभाव लंबे अंतराल के बाद सामने आता है. यह व्यक्ति के डीएनए पर कोई असर नहीं डालता.  विशेषज्ञों के मुताबिक ईएमआर धीमे जहर की तरह है. सिरदर्द, थकान और चिड़चिड़ापन इसके प्रारंभिक लक्षण हैं और लंबे अंतराल के बाद इसके नतीजे कैंसर और ब्रेन ट्यूमर के रूप में भी सामने
आ सकते हैं.

सेलफोन टावर से खतरे की सबसे बड़ी वजह यह है कि ये रिहाइशी इलाकों में लगे हुए हैं जबकि इन्हें इनसे दूर होना चाहिए; एंटेना की ऊंचाई सुरक्षित मानकों से नीचे होती है जबकि इन्हें पर्याप्त ऊंचाई पर होना चाहिए; इनकी संख्या बहुत अधिक है जबकि काफी कम संख्या से ही काम चल सकता है.

हमारे यहां ईएमआर से जुड़े खतरों के मद्देनजर अपनाई जाने वाली एहतियात मुख्य रूप से जर्मनी में पंजीकृत गैर सरकारी संस्था इंटरनेशनल कमीशन ऑन नॉन आयोनाइजिंग रेडिएशन प्रोटेक्शन (आईसीआईएनआरपी) के मानकों पर आधारित है. भारत में ईएमआर के खतरों का परीक्षण कर रही कंपनी कोजेंट ईएमआर सॉल्यूशन (जिसके साथ मिलकर तहलका ईएमआर सर्वेक्षण कर रहा है) ने भी इन्हीं मानकों के आधार पर हमारे यहां ईएमआर की सुरक्षित सीमा 600 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर (मिलीवाट) निर्धारित की है. 601 से 1,000 मिलीवाट का दायरा बॉर्डरलाइन माना गया है यानी यह खतरे के आसपास है. 1,001 से 4,000 मिलीवाट खतरे वाला क्षेत्र है जबकि 4,000 मिलीवाट से ऊपर को गंभीर संकट वाले क्षेत्र में शामिल किया गया है.

दिल्ली में मिले गंभीर आंकड़ों के बाद तहलका और  कोजेंट का अगला पड़ाव स्वप्ननगरी मुंबई था जहां के आंकड़े और भी चौंकाने वाले रहे. मसलन, गंभीर संकट वाले इलाकों की संख्या यहां दिल्ली के मुकाबले कहीं ज्यादा थी. मुंबई के लगभग 65 फीसदी इलाके गंभीर संकट के दायरे में पाए गए  और  सुरक्षित और बॉर्डरलाइन इलाके 10 फीसदी से भीकम निकले.

इन गंभीर आंकड़ों के सामने आने के बाद तहलका ने अपने सर्वेक्षण का दायरा और व्यापक करने का फैसला किया जिसके तहत मंझले दर्जे के शहरों को इसमें शामिल करने की योजना बनाई गई. देश के इन इलाको में रहने वाले लोग सूचना क्रांति की मखमली चादर में छिपे दुर्गुणों की क्या कीमत चुका रहे हैं यह जानना भी बेहद जरूरी लगा. सो तहलका ने लखनऊ से लेकर बनारस और आगरा से लेकर देहरादून तक मोबाइल फोन कंपनियों द्वारा फैलाए जा रहे अदृश्य विकिरण प्रदूषण का सच जानने का फैसला किया. इसके नतीजे भी दिल्ली-मुंबई की तरह ही चौंकाने वाले निकले. बिजली, स्वास्थ्य, शिक्षा, और सड़क जैसे विकास के पैमाने पर भले ही ये शहर दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों से काफी पीछे खड़े दिखते हों लेकिन ईएमआर प्रदूषण के मामले में ये कदम-दर-कदम इनका मुकाबला करते मिले.

आगे के कुछ पन्नों पर अलग-अलग शहरो में की गई पड़ताल के आंकड़े होंगे और साथ ही होंगी उनसे पैदा हो सकने वाली समस्याएं, बचाव के उपाय और ईएमआर संबंधित शोध के साथ इससे जुड़े तमाम छोटे-बड़े पहलू.

लखनऊ

लखनऊ के प्रतिष्ठित छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय के रेडियोथेरेपी विभाग के प्रमुख प्रो मोहनचंद्र पंत कहते हैं, ‘2003 में कई अमेरिकी स्वास्थ्य जर्नलों में इस तरह की खबरें आईं कि दुनिया भर में ब्रेन ट्यूमर के मामले तेजी से बढ़े हैं. इसकी वजहों पर विचार के दौरान हाल के समय में आए प्रमुख बदलावों पर ध्यान केंद्रित किया गया. लगभग सभी जर्नलों की एक राय थी कि बीते दो दशकों के दौरान सबसे बड़े बदलाव का प्रतीक रहे हैं मोबाइल फोन और उसके टावर. इसमें भी एक दिलचस्प तथ्य यह उभरकर सामने आया कि मस्तिष्क के उस हिस्से में ट्यूमर के मामले कहीं ज्यादा सामने आ रहे थे जिस तरफ वाले कान से फोन लगाकर लोग बातें किया करते हैं. इसने हमारा ध्यान ईएमआर से होने वाले रेडिएशन की तरफ खींचा. दिलचस्प तथ्य यह है कि हमारे यहां भी उसी तरह के नतीजे सामने आए हैं. हालांकि अभी तक ईएमआर से इसका सीधा संबंध स्थापित नहीं हुआ है, लेकिन तमाम शोध और स्थितियां इसी ओर इशारा करती हैं.’

डॉ. पंत ने यह लंबा-चौड़ा बयान उन आंकड़ों के सामने रखे जाने के बाद दिया जिन्हें तहलका ने लखनऊ शहर के अलग-अलग स्थानों से इकट्ठा किया था. लखनऊ के हालात चौंकाने वाले हैं. शहर के 15 फीसदी इलाके ईएमआर के गंभीर संकट वाले दायरे में आते हैं जिसका मतलब यह है कि इन इलाकों में ईएमआर का स्तर 4,000 मिलीवाट से अधिक है. 

यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि जिन इलाकों में ईएमआर का स्तर 4,000 मिलीवाट से अधिक है वे शहर के सबसे भीड़-भाड़ वाले इलाके हैं. लखनऊ का मुख्य चारबाग रेलवे स्टेशन गंभीर संकट वाले इसी क्षेत्र में आता है. यहां आने-जाने वालों का तांता कभी टूटता ही नहीं है. स्टेशन के मुख्य भवन के साथ ही आसपास स्थित सभी घरों की छतों पर सेल टावर लगे हुए हैं. यहां ईएमआर का स्तर इतना अधिक था कि इसे नापने के लिए इस्तेमाल होने वाला उपकरण हाई फ्रीक्वेंसी एनलाइज़र चालू करते ही क्रैश हो गया. शहर का एक और पॉश इलाका है गोमतीनगर का पत्रकारपुरम चौराहा. यहां भी सर्वेक्षण गंभीर संकट की स्थितियों की ओर इशारा करता है. ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण पुराने लखनऊ का चौक इलाका भी आम भाषा में कहें तो मानो ईएमआर से खचाखच भरा हुआ है. यहां की घनी आबादी, पतली गलियां, भीड़-भाड़ भरे पुराने लखनऊ के बाज़ार और हर दिन आने वाले कामगारों का हुजूम इस संकट को और विषम बना रहे हैं.

शहर के दूसरे बाजारों, रिहाइशी और वीआईपी इलाकों में भी स्थितियां कमोबेश ऐसी ही हैं. तहलका के सर्वेक्षण में 30 फीसदी से ज्यादा इलाके असुरक्षित दायरे में पाए गए. इनमें छत्रपति शाहूजी महाराज चिकित्सा विश्वविद्यालय, प्रदेश सचिवालय, बापू भवन, संजय गांधी परास्नातक चिकित्सा विज्ञान संस्थान (पीजीआई) से लेकर सेंट फ्रांसिस स्कूल तक शामिल हैं. इन इलाकों में ईएमआर का स्तर 1,000 से 4,000 मिलीवाट तक है. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार में एम्स के विकल्प के रूप में मशहूर पीजीआई के मुख्य द्वार पर ईएमआर का स्तर 1,524 मिलीवाट था जबकि परिसर के भीतर यह बढ़कर 1,880 तक हो गया था. शहर के कुछ प्रतिष्ठित इलाकों में भी ईएमआर का स्तर असुरक्षित सीमा में है जिनमें हाई कोर्ट की पीठ और जिलाधिकारी कार्यालय भी शामिल हैं. यहां ईएमआर 1530 मिलीवाट तक है.

सर्वेक्षण के तीसरे स्तर में वे इलाके हैं जहां रेडिएशन का स्तर बॉर्डरलाइन यानी कगार पर है.  प्रदेश की सत्ता की धुरी 5 कालीदास मार्ग यानी मुख्यमंत्री मायावती के निवास स्थान के आसपास रेडिएशन 930 मिलीवाट था. इसी तरह समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव के आवास 6 विक्रमादित्य मार्ग पर भी रेडिएशन 960 मिलीवाट यानी असुरक्षित होने की कगार पर ही पाया गया. जिन इलाकों में तहलका ने ईएमआर सर्वे किया उनमें से लगभग 20 फीसदी की जनता विकिरण के इसी बॉर्डरलाइन इलाके में रहती है. शहर के सबसे पुराने और ऐतिहासिक बाजारों में शुमार हजरतगंज चौराहा भी इसी दायरे में आता है. 

सर्वेक्षण में एक और महत्वपूर्ण बात यह सामने आई कि शहर के ऐतिहासिक महत्व वाले लगभग सभी स्थानों पर रेडिएशन का स्तर सुरक्षित दायरे में है. बड़ा इमामबाड़ा और रूमी दरवाजा ईएमआर के लिहाज से शहर के सबसे सुरक्षित इलाके हैं. यहां इसका स्तर 115 और 120 मिलीवाट तक है. प्रदेश के राज्यपाल बीएल जोशी के निवास स्थान राजभवन के पास भी यह 223 मिलीवाट के सुरक्षित स्तर पर है. सहारा शहर के आसपास का इलाका भी सुरक्षित दायरे में ही पाया गया. प्रदेश की शीर्ष पंचायत विधानसभा भवन के मुख्य द्वार पर भी रेडिएशन 580 मिलीवाट यानी सुरक्षित सीमा के भीतर ही था.

बनारस

बनारस में हमारे सर्वेक्षण की शुरुआत ही हाहाकारी तरीके से हुई. जिन तीन जगहों पर हमने पहले-पहल एचएफ एनालाइज़र लगाया उन सभी जगहों पर एनालाइज़र क्रैश कर गया यानी इन स्थानों पर रेडिएशन का स्तर 4,000 मिलीवाट की सीमा से पार था. रही-सही कसर सारनाथ के पास चाय की दुकान पर बैठे सुजीत कुमार ने हमारा ज्ञानवर्धन करके पूरी कर दी. मंदिरों और गलियों के इतर अगर इस शहर की किसी और पहचान की बात की जाए तो वह है अध्यात्म और शांति की खोज में पश्चिम से खेप की खेप आनेवाली विदेशियों की जमात. ये लोग यहां स्थानीय लोगों के बीच उन्हीं के घरों में रहते हैं. यह एक अलग किस्म की अर्थव्यवस्था है जिसमें स्थानीय लोगों को फायदा हो जाता है और विदेशियों का काम उनके हिसाब से सस्ते में निपट जाता है.

सुजीत कुमार कहते हैं, ‘बनारस में पश्चिमी देशों से  आए लोग स्थानीय लोगों के घरों में रहते हैं जबकि सारनाथ के आस-पास के इलाकों में चीन, जापान जैसे बौद्ध धर्म से प्रभावित देशों के नागरिक स्थानीय लोगों के घरों में रहते हैं. मगर बीते चार-पांच सालों से यहां आने वाले पर्यटकों में एक खास बात देखने को यह मिल रही है कि यह उन घरों के आस-पास रहना ही नहीं चाहते जहां सेलफोन टावर लगे हुए हैं.’ इस बातचीत के बाद जब हमने पूरे दिन में इकट्ठा किए आंकड़ों का विश्लेषण करना शुरू किया तो हमारी आंखें खुली-की-खुली रह गईं. यहां के हालात मुंबई की तरह गंभीर होने का संकेत देते हैं. अगर गंभीर संकट और असुरक्षित क्षेत्रों की बात बनारसी लहजे में ही करें तो शिव की नगरी के 65 फीसदी इलाके और यहां के निवासी भांग-धतूरे की बजाय ईएमआर के नशे में जी रहे हैं. इनमें सिगरा स्थित आईपी मॉल, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, कैंट रेलवे स्टेशन और पाण्डेयपुर नई बस्ती स्थित नवजीवन अस्पताल के आसपास रेडिएशन का स्तर गंभीर संकट के दायरे में पाया गया. यानी यहां रेडिशन का स्तर 4,000 मिलीवाट के पार गंभीर संकट के क्षेत्र में अपना डेरा डाले हुए है. इसके अतिरिक्त भी शहर के ज्यादातर इलाको में रेडिएशन का स्तर असुरक्षित सीमा में ही पाया गया. कुबेर कांप्लेक्स, रथयात्रा, दुर्गाकुंड, नई सड़क, बांस फाटक, गदौलिया चौराहा, लहुराबीर से लेकर बीएचयू मुख्य द्वार तक सभी जगहों पर रेडिएशन का स्तर असुरक्षित सीमा में है. इन क्षेत्रों में औसतन ईएमआर 1,075 से 1,500 मिलीवाट के बीच पाया गया. काशी विश्वनाथ मंदिर के मुख्य द्वार पर भी रेडिएशन स्तर 1,088 मिलीवाट था. ये शहर के वे इलाके हैं जो व्यावसायिक और धार्मिक गतिविधियों के केंद्र हैं. इसके अलावा शहर की भीड़ और घनी आबादी वाली बसावट को देखते हुए रेडिएशन का असुरक्षित स्तर चिंता का विषय है.

बनारस में सिर्फ दो जगहें ऐसी मिलीं जो कगार पर यानी खतरे की सीमा के आस-पास थींं. ये हैं पहड़िया कॉलोनी और वाराणसी छावनी इलाके में स्थित जेएचवी मॉल जहां इन दिनों शहर के नौजवान दिल्ली मार्का बनारस बनाने में लगे हुए हैं. रेडिएशन के प्रकोप से सुरक्षित इलाकों की बात करें तो पूरे शहर में ऐसे करीब 25 फीसदी क्षेत्र ही हैं. इसमें सबसे महत्वपूर्ण दो स्थल हैं, अस्सी घाट और सारनाथ बौद्ध स्तूप. ये दोनों ही जगहें विदेशियों की आमद से गुलजार रहती हैं और यहां रेडिएशन 30 और 280 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर है. इसी तरह दशाश्वमेध घाट और बीएचयू कैंपस में भी रेडिएशन का स्तर सुरक्षित सीमा में है. शहर भर में असुरक्षित स्तर की बात करते हुए जब हम संकट मोचन मंदिर पहुंचे तो वहां सुरक्षित स्तर पाकर हैरानी हुई. अब तक चुपचाप हमारी बातें सुन रहे हमारी गाड़ी के ड्राइवर त्रिपाठी जी कहते हैं, ‘सब बजरंग बली की कृपा है. यहां कौन प्रदूषण फैला सकता है.’

सेहत पर असर

ईएमआर के दुष्परिणाम अल्पकालिक और दीर्घकालिक हो सकते हैं. आज सिरदर्द कल ब्रेन ट्यूमर की शक्ल ले सकता है

1. शुरुआती पेसमेकर की कार्यप्रणाली को नुकसान पहुंचा सकता है.

2. इसका मरीज पर घातक असर हो सकता है तीन वर्ष बाद भूख न लगना, अनिद्रा, सिरदर्द और थोड़े समय के लिए याददाश्त चले जाना

3. 4-5 साल बाद टिनिटस, मांसपेशियों में अकड़न, दृष्टिदोष, चर्मरोग

5. 5-10 साल बाद शुक्राणुओं की संख्या में कमी, हृदय एवं सांस संबंधी तकलीफें

6. 8-10 साल बाद तंत्रिकाओं में स्पंदन, ब्रेन ट्यूमर, ल्यूकीमिया

आगरा

लखनऊ के मिले-जुले और बनारस के एकतरफा असुरक्षित आंकड़ों के बाद रेडिएशन को लेकर आगरा के प्रति कोई तस्वीर नहीं बन पा रही थी. इसी उधेड़बुन के बीच आगरा में सर्वेक्षण की शुरुआत की गई. बार-बार चौंकाने वाली भारतीय नगरों की कला से आगरा ने एक बार फिर रूबरू करवाया. आश्चर्यजनक रूप से आगरा में सिर्फ दो स्थान ऐसे मिले जहां स्थितियां गंभीर संकट में फंसी हुई हैं. इनमें से एक सदर बाजार का इलाका है और दूसरा यहां का अदालती परिसर यानी दीवानी कचहरी. यहां अहम बात यह है कि ये दोनों ही जगहें भीड़-भाड़ और गतिविधियों के लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हैं. एक जगह पूरे जिले से लोग अपना झगड़ा निपटाने के लिए जुटते हैं तो दूसरी जगह शहर के संपन्न तबके की आमद हमेशा बनी रहती है.

हमारे द्वारा सर्वेक्षण किए गए इलाकों में से आगरा में असुरक्षित सीमा के दायरे में करीब 38 फीसदी इलाके आते हैं. लखनऊ और बनारस की तुलना में देखे तो आगरा गंभीर संकट वाले क्षेत्रों के साथ ही असुरक्षित सीमा के मामले में भी कुछ हद तक बचा हुआ है. हालांकि इसी असुरक्षित दायरे में शहर के ऐतिहासिक महत्व वाले इलाके आते हैं, शहर का सबसे बड़ा मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल आता है, और शहर की व्यवस्था का संचालन करने वाली संस्थाओं के कार्यालय भी.

ताज महोत्सव सहित आगरा में होने वाले बड़े-बड़े सांस्कृतिक कार्यक्रमों के आयोजित किए जाने की जगह सूर सदन – जो आगरा नगर निगम के मुख्यालय के पड़ोस में स्थित है – के आसपास रेडिएशन का स्तर 1,374 मिलीवाट के असुरक्षित दायरे में था. यही हालात मशहूर भगवान टाकीज चौराहे पर भी हैं. मेडिकल कॉलेज के पास स्थित किनारी बाजार में रेडिएशन 1,014 मिलीवाट था. इसी तरह शम्साबाद स्थित राजेश्वर मंदिर के पास की रिहाइशी कॉलोनी में ईएमआर 1,048 मिलीवाट के स्तर पर था. इन जगहों पर स्थितियां खराब होने की वजह है यहां छोटे-बड़े ढेर सारे मोबाइल टावरों का जाल-सा बिछा होना. शहर के प्रतिष्ठित एसएन मेडिकल कॉलेज परिसर और मैटरनिटी केंद्र के पास भी रेडिएशन 1,421 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर के स्तर पर पाया गया.

कैंट स्थित रेलवे स्टेशन और सिकंदरा के आसपास का इलाका असुरक्षित सीमा के कगार पर है. इन  जगहों पर ईएमआर 630 और 923 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर तक है. अगर सुरक्षित क्षेत्रों की बात करें तो आगरा अकेला ऐसा शहर है जहां ये असुरक्षित क्षेत्रों के करीब-करीब बराबर हैं यानी शहर के करीब 38 फीसदी इलाके अभी भी ईएमआर की चपेट में आने से बचे हुए हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है जगप्रसिद्ध ताजमहल जहां रेडिएशन का स्तर महज 43 मिलीवाट है. इसी तरह फतेहाबाद रोड स्थित टीडीआई मॉल, राजा मंडी और लाल किला के आसपास के इलाके भी अभी सुरक्षित सीमा में हैं. आगरा के जिलाधिकारी कार्यालय के आसपास के इलाके भी सुरक्षित दायरे में हैं. लखनऊ और बनारस की तुलना में देखें तो आगरा में अभी स्थिति कुछ हद तक नियंत्रण में है.

देहरादून

उत्तर प्रदेश के बाद बारी उत्तराखंड की थी. यहां तहलका ने देहरादून को सर्वेक्षण के लिए चुना. देहरादून के आंकड़े लखनऊ, वाराणसी और आगरा सर्वेक्षण में मिले आंकड़ों के विपरीत कहानी बयान करते हैं. लिहाजा हमने देहरादून की कथा उल्टी दिशा शुरू करने का फैसला किया यानी गंभीर संकट वाले इलाकों की बजाय सुरक्षित सीमा वाले क्षेत्रों से. देहरादून पहला ऐसा शहर था जहां सुरक्षित सीमा में आने वाले क्षेत्र 45 फीसदी थे, आधे से थोड़ा ही कम. हालांकि देहरादून की पहचान और इसके अतीत को देखते हुए यह आंकड़ा कम ही है, पर बाकी शहरों के मुकाबले स्थिति कुछ हद तक संतोषजनक है. मुख्यमंत्री आवास, भारतीय सैन्य अकादमी, ओएनजीसी भवन, प्रदेश सचिवालय और राज्यपाल निवास जैसे ज्यादातर महत्वपूर्ण स्थानों पर ईएमआर का स्तर 185 से 35 मिलीवाट के बीच ही पाया गया. यहां एक बात गौर करने वाली है कि मुख्यमंत्री आवास के पास ही यमुना कॉलोनी स्थित है. वीआईपी इलाका होने की वजह से इसके स्वरूप में ज्यादा बदलाव नहीं आया है. वेलहम स्कूल के आसपास का इलाका भी सुरक्षित दायरे में हैं, महज 49 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर. यह शहर का पुराना और काफी हरा-भरा इलाका है जो अपेक्षाकृत शांत रहता है.  विधानसभा भवन और शहर के प्रतिष्ठित दून हॉस्पिटल के आस-पास भी रेडिएशन का स्तर सुरक्षित सीमा में ही पाया गया.

असुरक्षित सीमा के कगार पर खड़ी जगहों की बात करें तो श्री महंत इंद्रेश अस्पताल, घंटाघर और पुलिस मुख्यालय प्रमुख हैं. घंटाघर को देहरादून का दिल माना जाता है. यहां रेडिएशन का स्तर 957 मिलीवाट था. घंटाघर से सटे हुए ही राजपुर रोड और पल्टन बाजार जैसे व्यस्त बाजार भी हैं.

हमारे द्वारा सर्वेक्षित इलाकों में देहरादून के गंभीर संकट वाले और असुरक्षित क्षेत्रों को एक साथ रखें तो ये करीब 40 फीसदी के आसपास हैं. इनमें गंभीर संकट वाले क्षेत्र महज 3 हैं. इनमें धर्मपुर स्थित नेहरू कॉलोनी और दर्शनलाल चौक के इलाके आते हैं जो कि आबादी और बसाहट के लिहाज से बेहद घने और भीड़-भाड़ वाले इलाके है. लालपुल, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टिट्यूट, किशन नगर चौक, बिरला कॉम्प्लेक्स, सर्वे चौक आदि ऐसे नाम हैं जो शहर में दैनिक गतिविधियों के केंद्र हैं. रेडिएशन के लिहाज से ये इलाके असुरक्षित सीमा में हैं यानी यहां पर ईएमआर 1,000 से 4,000 मिलीवाट प्रति वर्ग मीटर के बीच है. सर्वे चौक की बात करें तो इसके आसपास ही डीएवी और डीबीएस कॉलेज हैं. सर्वे चौक पर आंकड़े इकट्ठा करने के दौरान पास ही बड़ी उत्सुकता से सारी गतिविधि पर नजर रख रहे सुरेश नौटियाल को जब पता चला कि हम यहां सेलफोन टावर से होने वाले रेडिएशन की जांच कर रहे हैं तो वे अपनी नाराजगी छिपा नहीं सके, ‘डिस्कवरी चैनल पर भी टावरों से निकलने वाली तरंगों के नुकसान के बारे में दिखाया जाता है. अमेरिका में तो रिहाइशी इलाकों, अस्पतालों, स्कूलों, बाजारों के आसपास इनके लगाने की मनाही है. पर हमारे यहां न तो सरकार को चिंता है न मोबाइल कंपनियों को.’

हाल ही में दिल्ली नगर निगम ने अपने अधिकार क्षेत्र में खड़े अवैध टावरों को सील करना शुरू किया था. यहां इस घालमेल को साफ समझने की जरूरत है कि दिल्ली नगर निगम की कार्रवाई स्वास्थ्यगत चिंताओं से कतई जुड़ी नहीं है. ऊपर से ये कार्रवाइयां भी एक हल्ले में शुरू होकर दूसरे हल्ले में दम तोड़ देती हैं क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर में कॉर्पोरेट की आर्थिक भुजाएं कानून और सरकार के लंबे-लंबे हाथों से कहीं बड़ी हो चुकी हैं. ‘दिल की बात दिन रात’ वाले दावे रेहान दस्तूर और इस अदृश्य प्रदूषण की मार झेल रहे उनके जैसे तमाम लोगों के लिए नहीं बने हैं. अपना योगदान पूरा कर फिलहाल वे कीमत चुका रहे हैं. इधर दुनिया को मुट्ठी में करने के सपने दिनों दिन और मजबूत होते जा रहे हैं.

आम का कौन मर्द-ए-मैंदा है…

यों तो वो एक आम आदमी हैं. लेकिन आम होते हुए भी वो बेहद खास हैं. खास इसलिए कि उनके लिए आम महज आम नहीं, खासुल खास हैं. आम उनकी इबादत हैं. आम उनका सपना है, जुनून हैं, आम उनकी दिल की धड़कन हैं. दिमाग की हलचल हैं. असल में आम उनकी जिन्दगी हैं. 1957 से उनके लिए जिन्दगी में जो चीज सबसे बढ़कर है वो है आम. आम की इसी दीवानगी के चलते कुछ लोग उन्हें आम इंसान कहते हैं तो कुछ उन्हें आम का दीवाना. कुछ तो उन्हें आम का खब्ती तक कहने में भी नहीं चूकते हालांकि उनकी इसी खब्त ने उन्हें पद्मश्री बना डाला है और उनकी जुबान को इतना मीठा कि गोया सारे बागों का रस उसी में धुल गया हो.

सचिन कलीमुल्ला द्वारा विकसित आम की एक ऐसी नई नस्ल है जिसे वे क्रिकेट के बादशाह सचिन तेंदुलकर को समर्पित कर चुके हैं. नौ साल से वे इस खास नस्ल को तैयार करने में जुटे थे

आधी सदी से भी ज्यादा समय से आम की काश्तकारी करते करते कलीमुल्लाह खान आम के डाक्टर भी बन चुके हैं और इंजीनियर भी. अपनी नर्सरी में एक पेड़ पर कलमें बांध कर 300 से ज्यादा किस्म के आम पैदा करके बना उनका अपना अनूठा रिकार्ड आज उनके ही दूसरे कारनामों में कहीं खो चुका है. 72 साल की उम्र में भी लखनऊ के करीब के मलीहाबाद कस्बे के हाजी कलीमुल्लाह खान की आम के प्रति दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है. आधी सदी से भी ज्यादा समय से आम की काश्तकारी करते करते कलीमुल्लाह खान आम के डाक्टर भी बन चुके हैं और इंजीनियर भी. अपनी नर्सरी में एक पेड़ पर कलमें बांध कर 300 से ज्यादा किस्म के आम पैदा करके बना उनका अपना अनूठा रिकार्ड आज उनके ही दूसरे कारनामों में कहीं खो चुका है.

कलीमुल्लाह खान का सबसे नया कारनामा है सचिन. सचिन उनके द्वारा विकसित आम की एक ऐसी नई नस्ल है जिसे वे क्रिकेट के बादशाह सचिन तेंदुलकर को समर्पित कर चुके हैं. नौ साल से वे इसको तैयार करने में जुटे थे. इस साल पहली बार इसमें फल आया तो उन्होंने इसका नाम सार्वजनिक कर दिया. लगभग 800 ग्राम तक आकार वाले इस आम की गुठली बहुत छोटी है, गूदा बेहद स्वादिष्ट और यह देखने में भी बहुत सुन्दर है.

कलीमुल्लाह खेलों के शौकीन हैं इसलिए उनके पास इस खास आम को सचिन नाम देने के पीछे भी एक खास वजह है. वे कहते हैं हमारा सचिन तेंदुलकर ऐसा है कि पूरी दुनिया में उसका एक अलग मुकाम है. वो एक अजूबा है और जो बात उसमें है वो किसी दूसरे में नहीं. ठीक इसी तरह हमारा ये जो सचिन आम है वो भी सबसे अलग है. अपने रंग स्वाद आकार और वजन से यह पूरी दुनिया में वैसा ही नाम कमाएगा जैसा सचिन तेंदुलकर ने कमाया है. हर जानदार चीज को एक दिन चले जाना है. हम भी नहीं रहेंगे. लेकिन फल-फूलों की नस्लें हमेशा रहेंगी. इस सचिन आम के जरिए हमारे सचिन का नाम रहती दुनिया तक बना रहे ऐसी हमारी ख्वाहिश है.

इसे पेटेंट करवाने के साथ ही उन्होंने सचिन तेंदुलकर को मलीहाबाद आने का न्योता भी भेजा है. सचिन के खाने के लिए भी वो इस आम को भिजवाना चाहते हैं. आम की कई दर्जन नस्लें विकसित कर चुके कलीमुल्लाह अब एक ब्रांड नेम बन चुके हैं. उनकी नर्सरी की पौध में उनके नाम की गारंटी जो जुड़ी होती है. सचिन के चर्चा में आ जाने के बाद कलीमुल्लाह खुश तो बहुत हैं मगर उन्हें थोड़ा अफसोस भी है. अफसोस इस बात का कि वे अब तक महात्मा गांधी के नाम से आम की नस्ल विकसित नहीं कर पाए. वे कहते हैं, हम ठहरे काश्तकार आदमी पॉलिटिक्स- वालिटिक्स हम कुछ जानते नहीं. लेकिन हमें सबसे पहले महात्मा गांधी के नाम पर बापू के नाम से एक नए आम का नाम रखना था. गांधी जी ने हमको गुलामी से आजाद करवाया था. हमसे बड़ी गलती हो गई. कलीमुल्लाह की तमन्ना पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के नाम से भी आम की एक नस्ल बनाने की है. मुल्क से उनकी मोहब्बत का आलम यह है कि 80 के दशक में सऊदी अरब के एक शेख ने उन्हें वजन के बराबर सोना देने के एवज में वहीं रहकर आम के बागान लगाने का ऑफर दिया था. मगर कलीमुल्लाह ने अपनी मिट्टी की मोहब्बत में उसे भी ठुकरा दिया.

उसका स्वाद सबसे अलग था और फकीर के पास आने वालों के जरिए उस आम की शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई. धीरे-धीरे उस लंगड़े फकीर के नाम पर उस आम का नाम ही लंगड़ा पड़ गया

लखनऊ के आस पास की मिट्टी और आबोहवा आम के लिए खास है. उत्तर भारत का सबसे प्रसिद्व दशहरी आम काकोरी के पास दशहरी गांव से ही सारी दुनिया में मशहूर हुआ. दशहरी गांव में दशहरी आम का सबसे पुराना पहला पेड़ अब भी फल दे रहा है. इस पेड़ पर कभी अवध में नवाबों के खानदान का मालिकाना हक था. तब फलों के मौसम में इस पेड़ पर जाल डाल दिया जाता था. पेड़ से फल कोई चुरा न ले इसके लिए उस पर पहरा बैठा दिया जाता था. उन दिनों अगर ये दशहरी आम किसी को तोहफे में भेजा भी जाता था तो उसमें छेद कर दिया जाता था ताकि कोई और उसके बीज से नया पेड़ न बना ले. मलीहाबाद के एक पठान जमींदार ईसा खान ने लगभग डेढ़ सौ साल पहले नवाबों के एक पासी गुडै़ते की मदद से इसका एक पेड़ हासिल किया और फिर मलीहाबाद से फैलकर दशहरी ने सारी दुनिया में अपना सिक्का जमा दिया. आज भी मलीहाबाद के गांवों मे बड़े बूढ़ों की जुबान से दशहरी को लेकर तरह तरह के किस्से सुनने को मिल जाते हैं.

मलीहाबाद के इलाके में ही आम की एक और लाजवाब नस्ल चौसा विकसित हुई. संडीला के पास एक गांव है चौसा. वहां एक बार एक जिलेदार ने अपने दौरे के दौरान गांव के एक पेड़ का आम खाया. खास स्वाद और खुशबू के कारण उसे यह आम बहुत पसन्द आया. उसने गांव वालों से उसका एक पेड़ हासिल कर लिया और बाद में नवाब सण्डीला को इसकी खबर दी. फिर नवाब सण्डीला के जरिए चैसा की नस्ल कई जगह फैल गई.

आम की कई और किस्मों के नामकरण के भी अलग-अलग किस्से हैं. आम की एक और जाएकेदार नस्ल लंगड़ा के लिए कहा जाता है कि बनारस के एक लंगड़े फकीर के घर के पिछवाड़े में आम का एक पेड़ उगा था. उसका स्वाद सबसे अलग था और फकीर के पास आने वालों के जरिए उस आम की शोहरत दूर-दूर तक पहुंच गई. धीरे-धीरे उस लंगड़े फकीर के नाम पर उस आम का नाम ही लंगड़ा पड़ गया. इसी तरह बिहार में भागलपुर के एक गांव में फजली नाम की एक औरत के घर पैदा हुए एक और खास आम का नाम उसी औरत के कारण फजली पड़ गया.

भारतीय जनमानस में अनेक किस्से कहानियों से जुड़े आम की जन्मभूमि भी मूलतः पूर्वी भारत में असम बांग्लादेश व म्यांमार मानी जाती है. भारत से ही आम पूरी दुनिया में फैला. चौथी-पांचवी सदी में बौद्ध धर्म प्रचारकों के साथ आम मलेशिया और पूर्वी एशिया के देशों तक पहुंचा. पारसी लोग 10वीं सदी में इसे पूर्वी अफ्रीका ले गए. पुर्तगाली 16वीं सदी में इसे ब्राजील ले गए. वहीं से यह वेस्ट इंण्डीज व मैक्सिको पहुंचा. अमेरिका में यह सन् 1861 में पहली बार उगाया गया. आम का अंग्रेजी नाम मैंगो एक मलयालम शब्द मंगा से विकसित हुआ है. पुर्तगालियों ने इस शब्द को अपनाया और 1510 में पहली बार पोर्तुगीज में आम के लिए मैंगा शब्द लिखा गया जो अंग्रेजी में मैंगो हो गया.

बारे आमों का कुछ बयां हो जाए  

ख़ामां नख़्ले रतबफ़िशां हो जाए

भारत में रामायण- महाभारत जैसे पौराणिक ग्रंथों में आम का उल्लेख मिलता है. इस बात का भी जिक्र मिलता है कि सन् 327 ईसा पूर्व में सिकन्दर के सैनिकों ने सिंधु घाटी में आम के पेड़ देखे थे. हुएनसांग ने भी आम का जिक्र किया है और इब्नबतूता के विवरणों में तो कच्चे आम का अचार बनाने और पके आम को चूस कर अथवा काट कर खाने का उल्लेख मिलता है. मुगल बादशाहों को भी आम बहुत प्रिय था. कहा जाता है कि अकबर ने दरभंगा में एक लाख आम के पेड़ लगवाए थे. मुगलवंश के संस्थापक जलालुद्दीन बाबर को भी आम पंसद थे. बाबरनामा में जिक्र है कि आम अच्छे हों तो बहुत ही बढ़िया होते हैं पर बहुत खाओ तो थोडे़ से ही बढ़िया वाले मिलेंगे. अक्सर कच्ची केरियां तोड़ लेते हैं और पाल डाल कर पकाते हैं. गदरी केरियों का कातीक (मुरब्बा) लाजवाब बनता है. शीरे में भी अच्छा रहता है. कुल मिलाकर यहां का सबसे बढ़िया फल यही है. कुछ लोग तो सरदे के सिवा किसी और फल को इसके आगे कुछ मानते ही नहीं.

भारत आज भी आम की पैदावार के मामले में दुनिया में सरताज है. पूरी दुनिया में हर साल लगभग साढ़े तीन करोड़ टन आम पैदा होता है. इसमें से करीब डेढ़ करोड़ टन अकेले भारत में होता है. भारत के बाद क्रमशः चीन मैक्सिको थाइलैण्ड और पाकिस्तान का स्थान आता है. यूरोप में स्पेन में सबसे अधिक आम होता है और वहां का आम अपनी खास तीखी महक के कारण अलग पहचाना जाता है. अफ्रीकी देशों के आम के रंग बेहद आकर्षक होते हैं.

जिस तरह आम को फलों का राजा कहा जाता है उसी तरह दशहरी को आमों का राजा माना जाता है. दशहरी के दीवानों की भारत के बाहर भी कमी नहीं है. इसलिए अब इसका निर्यात भी बढ़ रहा है. मलीहाबाद के आस पास के इलाके के लिए तो दशहरी उपर वाले की सबसे बड़ी नियामत है. इस पूरे इलाके की अर्थव्यवस्था शादी-ब्याह उत्सव. खरीदादारी और तमाम खुशियां सब कुछ दशहरी की फसल के अच्छे- बुरे होने से जुड़ी हैं. आम इस पूरे इलाके के लिए खुशियों की बहार हैं. गालिब ने कहीं आम की तारीफ में कहा था.

     बारे आमों का कुछ बयां हो जाए 
     ख़ामां नख़्ले रतबफ़िशां हो जाए

     आम का कौन मर्द-ए-मैंदा है
     समर-ओ-शाख गुवे-ओ-चैंगा है 

मलीहाबाद में जन्मे क्रान्तिकारी शायर जोश मलीहाबादी भी हिन्दुस्तान छोड़ते समय मलीहाबाद के आमों को भुला नहीं पाए थे –    

आम के बागों में जब बरसात होगी पुरखरोश 
    मेरी फुरकत में लहू रोएगी चश्मे मय फरामोश
    रस की बूदें जब उड़ा देंगी गुलिस्तानों के होश
    कुंज-ए-रंगी में पुकारेंगी हवांए जोश-जोश
    सुन के मेरा नाम मौसम गम जदा हो जाएगा
    एक महशर सा महफिल में गुलिस्तांये बयां हो जाएगा 
    ए मलीहाबाद के रंगीं गुलिस्तां अलविदा.

नए जमाने के जानदार शायर गुलजार ने तो एक कविता में आम के दरख्त के बहाने जिन्दगी का पूरा फलसफा ही कह डाला है-

    मोड़ पर देखा है वो बूढ़ा इक आम का पेड़ कभी 
    मेरा वाकिफ है, बहुत सालों से मैं जानता हूं.
    सुबह से काट रहे हैं वो कमेटी वाले 
    मोड़ तक जाने की हिम्मत नहीं होती मुझको

लेकिन आम के बागों की सेहत दुरूस्त रखने के लिए बूढ़े पेड़ों का विछोह भी जरूरी है. आम के इनसाइक्लोपीडिया कलीमुल्लाह मानते हैं कि आज आम की सबसे बड़ी बीमारी सबसे बड़ी समस्या इनका घनाव है. वे कहते हैं, आज बागों में आम के पेडों के बीच दूरी बढ़ा दी जाए, बीच के पेड़ काट दिए जाएं तो हर पेड़ का दायरा फैलेगा और पेड़ चैड़ाई में जितना फैलेगा उतना ही उसमें ज्यादा जान होगी, उतनी ही ज्यादा पैदावार होगी. इसलिए कटाई और छटाई जरूरी है. कभी मलीहाबाद के आम के बागों में आम की दावतें हुआ करती थीं. शेरो शायरी की महफिलें सजा करती थीं.  डालों पे झूले पड़ते थे. परिन्दे चहका करते थे और जिन्दगी में सचमुच बहार आ जाती थी . बदलते जमाने की रफ्तार में बाग तो बरकरार हैं मगर बहार नदारत हो गई है. फिर भी जिस किसी को आम की प्यास बुझाने का कोई उपाय ढूंढ़ना हो और आम की असली लज्जत का मजा लेना हो, उसे आम के दिनों में मलीहाबाद का एक चक्कर तो जरूर लगाना चाहिए.

 

'मौजूदा दौर में लेखकों के बीच लेखन का जिक्र कम हो रहा है'

आपकी पसंदीदा लेखन शैली क्या है?

उपन्यास मुझे बहुत प्रिय है. दुनिया भर के उपन्यास मुझे पसंद हैं. इसके अलावा यात्रा वृत्तांत और आत्मकथाएं बहुत पसंद हैं.

अभी क्या पढ़ रहे हैं?

उग्र जी की आत्मकथा अपनी खबर मैंने पढ़ी. यह मुझे बहुत दिलचस्प लगी. भाषा और कथ्य के लिहाज से यह अनूठी किताब है. साथ ही मार्क्वेज का हंड्रेड ईयर्स ऑफ सॉलिट्यूड भी हाल में पढ़ा है.

वे रचनाएं या लेखक जिन्हें आप बेहद पसंद करते हों?

नागार्जुन, फैज, शमशेर और केदारनाथ अग्रवाल मुझे बहुत प्रिय हैं. शमशेर मुझे शाम को याद आते हैं, नागार्जुन कड़ी धूप में और अग्रवाल बादलों के छाने पर. गालिब, निराला, मराठी के विंदा करंदीकर, पंजाबी के सुरजीत पातर, मलयालम के शंकर पिल्लै, उड़िया के रमाकांत रथ और कश्मीरी के रहमान राही भी पसंद हैं.

कोई जरूरी रचना जिसपर नजर नहीं गई हो?

जो लोग पढ़ते हैं, वे रचनाओं का आपस में जिक्र भी करते हैं. दुनिया की दूसरी भाषाओं में एकदम नया कवि भी एकदम पुराने कवियों का जिक्र करता है. लेकिन मौजूदा दौर में लेखकों के बीच लेखन का जिक्र कम हो रहा है. हिंदी में बहती गंगा (शिव प्रसाद रुद्र ‘काशिकेय’) और माटी की मूरतें (रामवृक्ष बेनीपुरी) अच्छी किताबें हैं, पर इनकी चर्चा नहीं होती.

कोई रचना जो बेवजह मशहूर हो गई हो?

कोई भी रचना बेवजह मशहूर नहीं होती. कुछ लोग होते हैं जो उसे चाहते हैं और अगर वे प्रभावशाली हुए तो रचना मशहूर हो जाती है. लेखन में विभिन्न आंदोलनों के जरिए भी कुछ किताबें चर्चा में आती हैं, लेकिन आखिर वही बचता है जो बचने लायक रहता है.

पढ़ने की परंपरा कायम रहे, इसके लिए क्या किया जाना चाहिए?

हिंदी में प्रकाशक बड़े आत्ममुग्ध हैं. पैसे से अलग होकर उन्हें पाठकों तक ठेले पर किताबें ले जाने के बारे में सोचना होगा.

रेयाज उल हक