न्यायिक नियुक्ति का धनचक्कर

उत्तर प्रदेश में मायावती के राज में भ्रष्टाचार ने किस कदर पैर जमाया है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सूबे के वरिष्ठ अधिकारी नियुक्ति से पहले जजों तक से रिश्वत मांगने से परहेज नहीं करतेे. प्रदेश में अतिरिक्त जिला न्यायाधीश के पद के लिए चयनित गगन गीत कौर ने आरोप लगाया है कि उच्च न्यायालय द्वारा नियुक्ति की कई सिफारिशों के बावजूद राज्य के आला अधिकारियों ने नियुक्ति के लिए उनसे रिश्वत की मांग की. गगन गीत पंजाब एवं हरियाणा हाई कोर्ट की सहायक महाधिवक्ता भी रह चुकी हैं. उन्होंने इन अधिकारियों को रिश्वत देने से मना कर दिया. कई दरवाजे खटखटाने के बाद भी जब कुछ नहीं हुआ तो कौर ने पिछले ही माह अपनी सीट सरेंडर कर दी. उनका कहना था कि वे भ्रष्ट बनकर न्याय की कुर्सी तक नहीं पहुंचना चाहतीं. गगन गीत ने राज्य नियुक्ति विभाग के प्रमुख सचिव कुंवर फतेह बहादुर, संयुक्त सचिव युगेश्वर राम मिश्रा और अनु सचिव (अंडर सेक्रेटरी) सुनील कुमार पर रिश्वत मांगने का आरोप लगाते हुए राष्ट्रपति, भारत के मुख्य न्यायाधीश और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के समक्ष शिकायत भी दर्ज कराई है.

दरअसल, आज यह मामला जिस मोड़ पर है वहां तक के सफर की शुरुआत 2009 में हुई थी. उस साल उत्तर प्रदेश में अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए आवेदन मांगे गए थे. इसके लिए जो विज्ञापन इलाहाबाद उच्च न्यायालय की ओर से जारी किया गया था उसमें साफ तौर पर उल्लेख था कि सामान्य वर्ग की कुल 24 में से पांच सीटों पर महिलाओं की नियुक्ति होगी. उत्तर प्रदेश में हायर ज्यूडीशियल सर्विस में महिलाओं के लिए 20 फीसदी आरक्षण का प्रावधान है. इस संबंध में 26 फरवरी, 1999 को तब के उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव सुधीर कुमार द्वारा एक अधिसूचना जारी की गई थी. इसी आधार पर सामान्य वर्ग की 24 सीटों में से पांच पर महिलाओं की नियुक्ति की जानी थी.

लेकिन साक्षात्कार तक पहुंचने वाली सामान्य वर्ग की महिलाओं की संख्या केवल चार रही. इनमें  गगन गीत कौर भी थीं. सरकार के नियमों के मुताबिक इन चारों का चयन हो जाना चाहिए था. लेकिन 12 जनवरी, 2010 को जो अंतिम परिणाम आया उसके मुताबिक सामान्य वर्ग में से सिर्फ तीन महिलाएं ही चुनी गईं और इनकी दो सीटें पुरुष उम्मीदवारों को दे दी गई थीं. देखा जाए तो यह राज्य सरकार के खुद के नियमों का ही उल्लंघन था. इसके बाद गगन गीत कौर ने इसकी शिकायत इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से की और उनके सामने 24 जनवरी, 2010 को अपना पक्ष रखा. वे उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश के पास भी अपना मामला लेकर गईं और उनके सामने भी अपनी बात 10 फरवरी, 2010 को रखी. जब इस मामले में कोई कार्रवाई नहीं हुई तो उन्होंने 20 मार्च, 2010 को भारत के राष्ट्रपति के पास भी अपने साथ हुई नाइंसाफी की शिकायत की.

इसके बाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय के चयन और नियुक्ति रजिस्ट्रार राजीव कुमार त्रिपाठी ने उत्तर प्रदेश के नियुक्ति विभाग के अनु सचिव सुनील कुमार को 1 सितंबर, 2010 को एक पत्र लिखकर बताया, ‘गगन गीत कौर की नियुक्ति के मामले पर चयन और नियुक्ति समिति ने 26 अगस्त, 2010 को विचार किया और समिति ने उनके नाम की सिफारिश चयन के लिए की है.’ कौर की नियुक्ति प्रक्रिया आगे बढ़ाने के लिए एक बार फिर इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने एक पत्र 5 मई, 2011 को सूबे के नियुक्ति विभाग को लिखा. इस बार यह पत्र नियुक्ति विभाग के प्रधान सचिव कुंवर फतेह बहादुर को लिखा गया. इसमें कहा गया, ‘पूर्ण कोर्ट ने गगनगीत कौर की नियुक्ति के मामले पर विचार किया और यह निष्कर्ष निकाला कि 2009 में आयोजित परीक्षा में 20 फीसदी महिला आरक्षण कोटे के तहत चौथी महिला उम्मीदवार के तौर पर कौर की नियुक्ति की सिफारिश राज्य सरकार को की जाए.’ पत्र में यह भी लिखा था कि सरकार की तरफ से कौर की नियुक्ति का आदेश जारी किया जाए और इसकी एक प्रति इलाहाबाद उच्च न्यायालय को जल्द से जल्द भेजी जाए.

जब गगन गीत कौर ने उत्तर प्रदेश के नियुक्ति विभाग के अधिकारियों से अपना नियुक्ति पत्र जारी करने के लिए संपर्क साधा तो अधिकारियों ने उनसे रिश्वत की मांग शुरू कर दी. तहलका से बातचीत में कौर कहती हैं, ‘अधिकारियों से नियुक्ति पत्र के बारे में बात करने पर पता चला कि उच्च न्यायालय से जो चिट्ठी आई है उसे 20 दिनों तक दबाकर रखा गया. मैंने जब इसका कारण जानना चाहा तो चढ़ावा चढ़ाने यानी रिश्वत की मांग की गई. मैंने इसे मानने से इनकार कर दिया. सुनील कुमार ने नियुक्ति पत्र जारी करने के बदले मुझसे लाखों रुपये की मांग की.’

कौर ने इसकी शिकायत करते हुए 31 मई, 2011 को भारत के मुख्य न्यायाधीश और इलाहाबाद उच्च न्यायालय को पत्र लिखा. इसमें उन्होंने बताया, ‘मेरी फाइल को नियुक्ति विभाग के अनु सचिव सिर्फ इसलिए लटकाए हुए हैं कि उनकी रिश्वत की मांग मैं पूरी नहीं कर रही हूं. सुनील कुमार ने कहा कि जब तक मेरी मांगों को पूरा नहीं किया जाएगा तब तक वे अनावश्यक रोड़े अटकाते रहेंगे और फाइल रोके रहेंगे. कुमार ने तो यह भी कहा कि उन्हें मेरी नियुक्ति से संबंधित उच्च न्यायालय से कोई पत्र ही नहीं मिला है. उन्होंने यहां तक कहा कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जिस पत्र की बात मैं कर रही हूं, वह फर्जी है.’

अब सवाल यह उठता है कि भले ही अनाधिकारिक तौर पर कौर की फाइल रोकने की वजह रिश्वत की मांग को नहीं पूरा किया जाना रहा हो लेकिन इसके लिए आधिकारिक वजह क्या बताई जा रही थी? इसके जवाब में कौर कहती हैं, ‘इन अधिकारियों ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को आधिकारिक वजह यह बताई कि जितनी सीटों के लिए विज्ञापन निकला था उतनी सीटें परीक्षा परिणाम के आधार पर भरी जा चुकी हैं. इसलिए वे नई नियुक्ति को मंजूरी नहीं दे सकते.’ नियुक्ति पत्र नहीं जारी करने की यह वजह बताते हुए नियुक्ति विभाग ने 17 जून, 2011 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय को पत्र लिखा था.

गगन गीत कौर ने सीट यह कहते हुए सरेंडर कर दी कि वह भ्रष्ट बनकर न्याय देने वाली कुर्सी तक नहीं पहुंचना चाहती हैं

उत्तर प्रदेश नियुक्ति विभाग की आपत्तियों को खारिज करते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 13 जुलाई, 2011 को फिर एक पत्र सुनील कुमार के पास भेजा. इसमें साफ-साफ कहा गया था, ‘कौर की नियुक्ति की सिफारिश सरकार के 20 फीसदी महिला आरक्षण की नीति के आधार पर की गई है और यह 2009 में आयोजित चयन प्रक्रिया का ही हिस्सा है. कौर की नियुक्ति उस पद पर की जा रही है जिसके लिए रिक्ति उस अंतराल में पैदा हुई जब रिक्तियों की गणना की गई थी और इसके लिए विज्ञापन प्रकाशित किया गया था. कौर की नियुक्ति की सिफारिश अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति या अन्य किसी वर्ग के खाली पद पर नहीं की जा रही बल्कि सामान्य वर्ग के उम्मीदवार के तौर पर की जा रही है.’

कौर कहती हैं, ‘इसके बाद भी राज्य के नियुक्ति विभाग के अधिकारियों ने मुझसे कुंवर फतेह बहादुर के नाम पर पैसे की मांग शुरू कर दी.’ तंग आकर कौर ने सितंबर में सूचना के अधिकार का इस्तेमाल करके अपनी फाइल से संबंधित नोटिंग हासिल करने के लिए आवेदन कर दिया. कौर कहती हैं कि तब से लेकर अब तक छह महीने हो गए हैं लेकिन जवाब के नाम पर बस इतना बताया गया है कि आपके आवेदन का निरीक्षण किया जा रहा है. मामले में एक पेंच यह भी है कि नियुक्ति विभाग के जनसंपर्क अधिकारी भी वही सुनील कुमार हैं जिन पर पैसे मांगने का आरोप कौर लगा रही हैं. कौर का कहना है कि इसी वजह से उनके सूचना के अधिकार के तहत किए गए आवेदन का भी जवाब नहीं मिल रहा.

तकरीबन दो साल की भागदौड़ और अदालत से लेकर उत्तर प्रदेश के नियुक्ति विभाग के अधिकारियों के चक्कर काटने के बाद अंततः 23 जनवरी, 2012 को कौर ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को एक पत्र लिखकर अपनी सीट सरेंडर कर दी. उन्होंने अपने पत्र में लिखा, ‘2009 में आयोजित परीक्षा के तहत नियुक्ति का मैं अपना दावा वापस ले रही हूं क्योंकि रिश्वत देकर न्यायिक व्यवस्था का अंग बनना मेरे सिद्धांतों के खिलाफ है. पहले मुझसे सुनील कुमार ने पैसे मांगे, जिसकी जानकारी मैंने आपको पिछले पत्र में दी थी. इसके बाद कुंवर फतेह बहादुर सिंह की तरफ से नियुक्ति विभाग के संयुक्त सचिव युगेश्वर मिश्रा ने पैसे मांगे.’ गगन गीत कहती हैं, ‘मिश्रा ने सम्मानित शब्दों का इस्तेमाल करते हुए कुंवर फतेह बहादुर के लिए वित्तीय सहयोग की मांग की. मिश्रा ने कहा कि आपको नियुक्ति पत्र तभी जारी हो सकता है जब आप वित्तीय सहयोग के लिए तैयार हो जाएंगी. दिलचस्प बात यह है कि खुद मिश्रा ने ही यह जानकारी दी कि कुंवर फतेह बहादुर ने सुनील कुमार को मुख्य निर्वाचन अधिकारी के कार्यालय में तैनात कराया है इसलिए आपको कोई दिक्कत नहीं होगी और आपका सारा काम हो जाएगा.’ कौर कहती हैं, ‘भले ही मैंने अपनी सीट सरेंडर कर दी हो लेकिन भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ लड़ती रहूंगी. अगला कदम मैं इलाहाबाद उच्च न्यायालय का जवाब आने के बाद तय करुंगी. उच्च न्यायालय की वकील होने के बावजूद अगर मैं भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई से बीच में हटी तो आम लोग तो भ्रष्टाचार के खिलाफ मुंह खोलने का हौसला भी नहीं जुटा पाएंगे.’ हाल ही में चुनाव आयोग के हस्तक्षेप के बाद कुंवर फतेह बहादुर को गृह विभाग के प्रमुख सचिव पद से हटाया गया. लेकिन वे अभी भी नियुक्ति विभाग के प्रमुख सचिव हैं. इस मामले में तहलका ने कुंवर फतेह बहादुर का पक्ष जानने के लिए कई बार उनसे संपर्क करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया.

इलाहाबाद उच्च न्यायालय को भेजे पत्र में कौर ने भ्रष्टाचार के आरोपों के अलावा जो लिखा है वह बेहद महत्वपूर्ण है. उन्होंने लिखा है, ‘मुझे लगता है कि मैं जीती जंग हार गई हूं. लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि मैंने अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया. मैं गैरकानूनी तरीकों का इस्तेमाल करके न्याय व्यवस्था का अंग नहीं बनना चाहती क्योंकि अगर मैं ऐसा करूंगी तो यह मेरे पेशे के साथ न्याय नहीं होगा. मैं भ्रष्ट सरकारी अधिकारियों को गैरकानूनी ढंग से पैसे देकर जज बनने की बजाय स्वतंत्र तौर पर वकालत ही करना चाहूंगी. मैं यह लड़ाई हार भले ही गई हूं लेकिन मुझे खुशी इस बात की है कि मैं भ्रष्ट होने से बच गई. मुझे पता है कि मैं अकेले इस भ्रष्ट व्यवस्था को नहीं बदल सकती लेकिन अपना दावा वापस लेकर मैं भ्रष्ट अधिकारियों को यह संदेश जरूर दे सकती हूं कि न्यायिक पद खरीद-बिक्री के लिए नहीं हैं.’