धर्म से हारी राजनीति

कहते हैं पंजाब में धर्म और राजनीति का चोली दामन का साथ रहा है. लेकिन पिछले कुछ सालों में राजनीति ने धर्म से अलग हटकर अपनी एक पहचान स्थापित की. दोनों अलग होकर अपने-अपने रास्ते पर बढ़ते गए. उसी के उदाहरण के तौर पर हम पाते हैं कि शिरोमणि अकाली दल (बादल) इस बार विधानसभा चुनाव में पिछले 46 साल के सत्ता विरोधी चलन को समाप्त करते हुए दोबारा सत्ता में आया. एक पंथिक पार्टी होने के अपने इतिहास के बावजूद  पंथ को पीछे छोड़ते हुए उसने विकास और सुशासन के आधार पर इस बार चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. पूरे चुनाव में पार्टी ने किसी तरह का पंथिक मामला नहीं उठाया. ऐसा लग रहा था मानो अब पंजाब में भावनात्मक और पंथिक राजनीति के दिन पूरे हो गए हैं. लेकिन जल्द ही यह भ्रम टूट गया.

पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के आरोपित बलवंत सिंह राजौना के मामले ने पंजाब की राजनीति और उस राजनीति की रगों में बह रहे धर्म रक्त के प्रभाव और उसके वर्चस्व को भी रेखांकित किया है. जब से राजौना का मामला प्रकाश में आया प्रदेश की पूरी राजनीतिक व्यवस्था एक अंजाने से भय से ग्रसित दिखी. नेता धर्मगुरुओं के फरमानों पर फड़फड़ाते देखे गए.

चंड़ीगढ़ की एक स्थानीय अदालत ने जिस दिन राजौना को फांसी की सजा सुनाई, उसी दिन से ही राज्य में राजौना की फांसी को लेकर छोटे स्तर पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गया था. शुरुआत में इसमें सिर्फ कुछ कट्टर सिख संगठन ही शामिल दिखे लेकिन जैसे-जैसे 31 मार्च का दिन जब पटियाला जेल में बंद राजौना को फांसी दी जानी है, करीब आया वैसे-वैसे पूरे राज्य में मामला फैलता गया.

हाल में गठित हुई प्रदेश की नई सरकार ने इस मामले में शुरुआत में कोई रुचि नहीं दिखाई. लेकिन सिख धर्म की सर्वोच्च संस्था अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी गुरुबचन सिंह के पटियाला जेल में राजौना से मिल कर आने के बाद तो मानो राजनीतिक दलों (खासकर अकाली दल (बादल)) के हाथ पांव फूल गए. राजौना से मिलकर आने के बाद मीडिया से मुखातिब ज्ञानी गुरबचन सिंह ने सरकार और विशेष तौर पर उसके मुखिया प्रकाश सिंह बादल को आदेश देते हुए कहा कि वे राष्ट्रपति से तुरंत मिलें और राजौना की फांसी पर रोक लगाने की मांग करें.

गुरुबचन के इसी बयान के बाद प्रदेश की राजनीति ने हरकत में आने में ही अपनी भलाई समझी. अकाली दल ने अपनी कोर कमिटी की मीटिंग बुलाकर मामले को आगे बढ़ाने अर्थात राजौना की फांसी रुकवाने संबंधी मुहिम की शुरुआत की.  दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस, जिसके मुख्यमंत्री की हत्या का राजौना के ऊपर आरोप है,  शुरु-शुरु में कानून अपना काम करेगा सरीखी बातें करती दिखी.

एक वर्ग का मानना है कि राजौना के फैसले के बाद उन लोगों के अभियान को जरूर बल मिलेगा जो अफजल गुरू के लिए भी माफी की मांग कर रहे हैं

विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष एवं वरिष्ठ कांग्रेसी नेता बलराम जाखड़ के पुत्र सुनील जाखड़ ने राजौना को माफी दिए जाने संबंधी मुद्दे पर शुरुआत में कानून की दुहाई दी. लेकिन जैसे ही मामले ने धार्मिक और भावनात्मक रंग लिया वैसे ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कैप्टन अमरिंदर सिंह ने पार्टी की तरफ से एक पत्र जारी कर कहा कि प्रदेश कांग्रेस राजौना को माफी दिए जाने की मांग का समर्थन करती है. यहां तक कि बेअंत सिंह के परिवारवालों ने बयान देकर राजौना को माफी दिए जाने पर कोई आपत्ति न होने की बात की. इस पूरे मामले पर भाजपा का ही रुख अलग रहा जिसने कानून प्रक्रिया में हस्तक्षेप नहीं करने की बात की. इस मामले में एक तरफ धर्म का प्रदेश की राजनीति पर वर्चस्व स्थापित होते दिखा तो दूसरी तरफ पूरे मामले में एक संवैधानिक संकट भी खड़ा होते दिखाई दिया.

यह स्थिति तब पैदा हुई जब पटियाला जेल अधीक्षक लखविंदर सिंह जाखड़ ने कई कानूनी अड़चनों का हवाला देते हुए चंडीगढ़ की उस स्थानीय अदालत का फैसला मानने से इनकार कर दिया जिसमें उसने राजौना को 31 मार्च को फांसी देने की बात की थी. कोर्ट ने दो बार अपना आदेश जेल अधीक्षक को भेजा और दोनों बार अधीक्षक ने उसे वापस लौटा दिया. अधीक्षक को अदालत ने अवमानना का नोटिस भी जारी किया. लेकिन अधीक्षक का कहना था, ‘हम नोटिस का जवाब देंगे, लेकिन राजौना को फांसी नहीं.’
अधीक्षक ने मामले को लेकर हाई कोर्ट में अपील करने की बात कही. कोर्ट और जेल अधीक्षक के बीच के विवाद ने एक नई बहस को जन्म दिया. सवाल उठने लगे कि क्या कोई कार्यपालिका अदालत का आदेश लागू करने से इनकार कर सकती है. जानकारों का मानना है कि पंजाब का यह उदाहरण भविष्य में अन्य राज्यों तथा संस्थाओं के लिए नज़ीर बन सकता है. अगर ऐसा हुआ तो अराजकता की स्थिति उत्पन्न होते देर नहीं लगेगी और फिर न्याय के शासन का स्थान ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’ में बदल जाएगा. चूंकि न्यायालयों के पास कानून का पालन कराने या उसे लागू कराने के लिए कोई बल नहीं है ऐसे में न्यायालय का जो फैसला राज्यों के खिलाफ होगा उसे लागू करने में वे वर्तमान उदाहरण का सहारा ले सकते हैं.

इस पूरे मामले का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष यह रहा है कि जिस बलवंत सिंह राजौना की फांसी की सजा को माफ करवाने के लिए प्रदेश के विभिन्न धार्मिक और राजनीतिक संस्थाओं के प्रमुख लगे थे वह खुद माफी नहीं चाहता था.  राजौना को जब चंडीगढ़ की स्थानीय अदालत ने फांसी की सजा सुनाई तो उसने इसके खिलाफ अपील करने से साफ इंकार कर दिया. उसने कहा कि उसने जो किया उसकी पूरी जिम्मेदारी वह लेता है. उसने यह भी कहा कि वह आगे इस मामले में कोई अपील नहीं करना चाहता, उसे सजा मंजूर है. वहीं दूसरी तरफ मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में सह-अभियुक्त जगतार सिंह हवारा जिसे अदालत ने राजौना के साथ ही फांसी की सजा सुनाई थी, ने इस फैसले के खिलाफ हाई कोर्ट में अपील की और अदालत ने उसकी सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया. कानून के जानकार बताते हैं कि अगर राजौना ने अपनी फांसी के खिलाफ अपील की होती तो उसकी सजा भी उम्रकैद में बदल गई होती.

ऐसे में सवाल उठ रहा है कि ऐसा व्यक्ति जिसके पास अपनी सजा को उम्र कैद में बदलवाने का कानूनी विकल्प मौजूद है लेकिन वह फिर भी फांसी पर चढ़ना चाहता है, उस व्यक्ति को लेकर इतनी बेचैनी कहां तक उचित है. राजौना ने न केवल माफी संबंधी किसी भी तरह की मांग भारतीय राज्य के सामने करने से साफ इनकार दिया बल्कि उसने यहां तक कहा कि उसे भारतीय राज्य एवं संविधान पर कोई विश्वास नहीं और किसी को उसके लिए माफी की भीख मांगने की जरूरत नहीं है. यहां तक कि राजौना ने उन विभिन्न राजनीतिक दलों के उन लोगों की आलोचना भी की जो उसे माफी दिलाने को लेकर अभियान चलाए हुए थे. शिरोमणि अकाली दल (बादल) जिसके मुखिया प्रकाश सिंह बादल के राष्ट्रपति से मिलने के बाद राजौना की फांसी पर रोक लगी है, उन्हीं बादल को राजौना ने काफी भला बुरा कहा.

ऐसा माना जा रहा है कि राजौना को फांसी की सजा पर रोक लगाकर केंद्र सरकार ने बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है. पिछले कुछ समय में कई अपराधियों की इसी आधार पर सजा माफ करवाने की कोशिश की गई है कि अगर सजा दी गई तो शांति व्यवस्था प्रभावित हो सकती है. अफजल गुरु का उदाहरण हमारे सामने है जिसको लेकर जम्मू कश्मीर की विधानसभा में आए दिन बवाल होता रहता है. वहां एक वर्ग ऐसा है जिसका तर्क है कि अफजल को फांसी की सजा से माफी दी जानी चाहिए. क्योंकि अगर उसे फांसी पर लटकाया गया तो राज्य में अमन चैन प्रभावित हो सकता है. इसी आशय से संबंधित एक प्रस्ताव भी वहां की विधानसभा में पास कराने का प्रयास किया गया. एक वर्ग का मानना है कि राजौना के फैसले के बाद उन लोगों के अभियान को जरूर बल मिलेगा जो अफजल के लिए भी माफी की मांग कर रहे हैं. तमिलनाडु की विधानसभा ने राजीव गांधी के हत्यारों को माफी देने संबंधी प्रस्ताव को पहले ही पारित कर दिया है. बाकी मामलों और राजौना के मामले में एक बड़ा अंतर यह है कि अन्य मामलों में अपराधियों के मामले विभिन्न न्यायिक प्रक्रियाओं से गुजर कर अंतिम पड़ाव अर्थात राष्ट्रपति के पास पहुंचे हैं. यानी उन्होंने पूरी न्यायिक प्रक्रिया का पालन किया. लेकिन राजौना के मामले में ऐसा नहीं है. राजौना ने पहली अदालत के फैसले के बाद आगे अपील करने से ही इनकार कर दिया. जिस माफीनामे की अर्जी पर विचार करने हेतु स्वीकारते हुए राष्ट्रपति ने फांसी पर अनिश्चितकाल के लिए रोक लगा दी है उस माफी का आवेदन भी राजौना ने नहीं पेश किया है बल्कि उसकी जगह दूसरे लोगों ने माफी की अर्जी राष्ट्रपति को दी है.

यह मामला इस मायने में बहुत खास है कि इसमें जो कुछ भी हो रहा है, चाहे राष्ट्रपति के पास दया याचिका लेकर जाना, या फिर पुलिस अधीक्षक का हाईकोर्ट में निचली अदालत के फांसी संबंधी निर्णय को चुनौती देना. यह सबकुछ न तो बलवंत सिंह राजौना कर रहा है और न ही उसकी इस मामले में कोई लिखित सहमति है. यहां तक कि उसने उसे लेकर चलाई जा रही माफी संबंधी प्रक्रिया का विरोध करते हुए बार-बार आगे अपील न करने (राष्ट्रपति के सामने भी नहीं) की बात कही है. ऐसे में यह मामला कानूनी रूप से और अधिक जटिल बन जाता है.

कुल मिलाकर इस वाकये ने यह पुरानी बहस फिर जिंदा कर दी है कि भावना बड़ी है या कानून. अहम बात यह भी है कि इस मामले ने न सिर्फ व्यवस्था का खोखलापन दिखाया है बल्कि राजनीति पर धर्म का वर्चस्व फिर से स्थापित भी किया है.