ग़रीबी आदमी से क्या नहीं करा लेती है? फिर चाहे वो शरीर की दुर्दशा कराने का काम हो या अपराध करने का काम हो। महाराष्ट्र के बीड ज़िले में क़रीब 843 गन्ना मज़दूर महिलाओं के गर्भाशय निकाल देने की दिल दहला देने वाली घटना फिर से सामने आयी है। ज़िले में कुछ साल पहले भी ऐसी ही घटना सामने आयी थी। बताया जा रहा है कि ऐसा घिनौना काम 30 से 35 साल के आसपास की उम्र की महिलाओं के साथ किया गया है। यह घिनौना षड्यंत्र इन गन्ना मज़दूर महिलाओं के मासिक पीरियड और गर्भ के समय छुट्टी देने से बचने के लिए किया गया है। ऐसी भी ख़बरें कथित रूप से उड़ रही हैं कि जो महिलाएँ गन्ने के खेतों में दिहाड़ी मज़दूरी करती हैं, उनके साथ शारीरिक शोषण भी उनके मालिक लोग और उनको पैसा देकर इन गंदे कामों को करने की सोच रखने वाले आये दिन करते रहते हैं। पर गन्ना खेत मालिकों और ठेकेदारों का कहना है कि महिलाओं ने अपनी दिहाड़ी के नुक़सान से बचने के लिए काम पर जाने से पहले सर्जरी करवाकर अपने गर्भाशय ख़ुद ही निकलवाये हैं। राज्य स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट में भी ऐसा ही कहा गया है। बीड के मातृ एवं शिशु कल्याण अधिकारी डॉ. सचिन शेकड़े ने बताया है कि गन्ना कटाई से पहले और बाद में महिला मज़दूरों के स्वास्थ्य की बारीक़ी से जाँच की जाती है और उनके स्वास्थ्य कार्ड भी बनाकर दिये जाते हैं।
असल में महिला मज़दूरों और उनके घर वालों की आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं होती है कि वे ऊपर तक पहुँच रख सकें या इन लोगों के ख़िलाफ़ कहीं रिपोर्ट दर्ज कराकर मुक़दमा लड़ सकें। कुछ लोगों ने गुप्त रूप से बताया कि जिन महिलाओं के गर्भाशय निकाले जाते हैं, उनसे और उनके परिवार वालों से मज़दूरी देने का लालच देकर और दबाव बनाकर पहले ही ऐसे दस्तावेज़ों पर हस्ताक्षर करवा लिये जाते हैं या अँगूठे लगवा लिये जाते हैं, जिससे गर्भाशय निकलवाने वालों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न हो सके। वर्ष 2019 में भी बीड ज़िले में गन्ना मज़दूरी करने वाली 25 से 30 साल की 4,605 महिलाओं के गर्भाशय गन्ने की कटाई में बाधा पड़ने से बचने के लिए निकाल दिये गये थे। तब भी इसी तरह के बयान देकर गन्ना मज़दूर महिलाओं से काम कराने वालों को ऐसी ही बयानबाज़ी करके बचा लिया गया था। हालाँकि उस समय इस घटना पर विधानसभा में काफ़ी हंगामा हुआ था और इसकी जाँच भी की गयी थी, जिसमें पाया गया कि दो महिलाएँ गन्ना मज़दूर नहीं थीं, पर उनके गर्भाशय भी निकाल दिये गये थे। राष्ट्रीय महिला आयोग ने भी इस मामले को ज़ोर-शोर से उठाया, पर इस घिनौने अपराध के लिए सज़ा किसी को नहीं मिली।
स्वास्थ्य विभाग का कहना है कि उसकी टीमें 1132 गाँवों में काम कर रही हैं, जिन्होंने गन्ना कटाई करने के लिए 46,231 महिलाओं की जाँच करके उनके स्वास्थ्य कार्ड बनाये हैं। स्वास्थ्य विभाग का ऐसा दावा है कि 15,624 सरकारी डॉक्टरों की सहमति और अनुमति के बाद 279 महिलाओं के गर्भाशय निजी तौर पर निकाले गये हैं। गन्ना मालिकों और ठेकेदारों ने ऐसा कहा है कि जिन महिलाओं के गर्भाशय निकाले गये हैं, उनसे कोई ज़ोर-जबरदस्ती नहीं की गयी है और उनमें ज़्यादातर महिलाओं के बच्चे हैं। इसमें कितनी सच्चाई है? इसकी जाँच स्वास्थ्य विभाग को करनी चाहिए थी; पर स्वास्थ्य अधिकारी तो ख़ुद ही सारा आरोप महिला मज़दूरों पर ही मढ़ रहे हैं, जिन्हें बाहरी दुनियादारी का कुछ पता नहीं है। महाराष्ट्र के कई ज़िलों से भी गन्ने की कटाई करने के लिए बहुत से ग़रीब परिवार बीड ज़िले में हर साल दीपावली के दौरान आते हैं और छ: महीने तक गन्ने की कटाई करने बाद वे दिसंबर से जनवरी तक अपने-अपने घर लौट जाते हैं। बीड ज़िले के ग़रीब मज़दूर परिवार और दूसरे ज़िलों के ग़रीब मज़दूर परिवार गन्ने की कटाई के बाद दूसरी मज़दूरी की तलाश में निकल जाते हैं। इन मज़दूर परिवारों की वार्षिक आय इतनी कम है कि उससे साल भर के गुज़ारे के लिए दो वक़्त की रोटी भी ठीक से नहीं मिल सकती।
बीड ज़िले में गन्ना काटने वाले क़रीब दो लाख मज़दूर बताये जाते हैं, जिनमें 80,000 के क़रीब महिला मज़दूर हैं। ये महिलाएँ अपने घर वालों के साथ हर साल गन्ना कटाई करके गुज़ारा करती हैं। इन मज़दूरों की माली हालत इतनी अच्छी नहीं होती कि पढ़-लिख सकें और अपने बच्चों को पढ़ा-लिखा सकें। इनकी अशिक्षा का फ़ायदा उठाकर ही इन महिला मज़दूरों के गर्भाशय निकलवा दिये जाते हैं और आरोप भी उन्हीं पर लगा दिया जाता है। स्वास्थ्य विभाग की रिपोर्ट कहती है कि इस साल 1,523 महिला मज़दूर गर्भवती हैं और गन्ने की कटाई कर रही हैं।
अहमदाबाद हवाई अड्डे के रनवे-23 से 12 जून को 1:39 बजे उड़ान भरने के कुछ ही सेकेंड बाद जिस तरह एयर इंडिया का विमान एआई-171 अहमदाबाद में ही सिविल अस्पताल के छ: मंज़िला छात्रावास से बुरी तरह टकराया, उससे सब हैरान हैं। सब परेशान हैं कि आख़िर यह कैसे हो गया? ऐसा हादसा भारतीय इतिहास में ही नहीं, दुनिया के इतिहास में नहीं हुआ। विमान के दुर्घटनाग्रस्त होने का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि उसका ज़्यादातर हिस्सा जल गया। दुर्घटना के कारणों की जाँच के लिए भी एक ब्लैक बॉक्स के अलावा कुछ ख़ास नहीं बचा। इस विमान में क्रू मेंबर समेत 242 लोग सवार थे, जिनमें गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री विजय रूपाणि समेत 169 भारतीय, 53 ब्रिटिश नागरिक, सात पुर्तगाली नागरिक, एक कनाडा का नागरिक, दो पायलट, कुछ क्रू मेंबर और कुछ एयर होस्टेस शामिल थीं। लेकिन एक घायल हुए यात्री के अलावा सब मारे गये।
दुर्घटनाएँ होती हैं। लेकिन इस तरह की दुर्घटनाएँ नहीं होतीं। यह दुर्लभ दुर्घटना है, जिसमें असमंजस है। असंभवता है। अनहोनी है। अफ़सोस है। विस्मय है। विह्वलता है। विलाप है। इसके अलावा दुर्घटना को लेकर अनेक अनुमान हैं; लेकिन संदेह भी हैं और सवाल भी हैं। विमान जिस तरह दुर्घटनाग्रस्त हुआ, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। उसे उड़ाने वाले कैप्टन सुमित सभरवाल एक ऐसे पायलट थे, जिनका विमान उड़ाने का अनुभव लगभग 8,200 घंटे का था और उनके सह-पायलट फर्स्ट ऑफिसर क्लाइव कुंदर का विमान उड़ाने का अनुभव भी 1,100 घंटे का था। यह कोई छोटा अनुभव नहीं है। कैप्टन सुमित सभरवाल तो इतने अनुभवी थे कि उनसे पायलटों को ट्रेनिंग देने तक की सेवाएँ ली जाती थीं। विमान भी 11 साल पुराना ही था। इतने पुराने विमानों को उड़ान की दुनिया में लगभग नया ही माना जाता है। विमान में उच्च गुणवत्ता वाला 78,000 लीटर एयर टर्बाइन फ्यूल (एटीएफ) पैराफिन भरा था, जिससे विमान दुर्घटना के समय भयंकर आग लगी। विमान के दोनों इंजन भी ठीक थे। लेकिन फिर भी दोनों ही इंजन एक साथ फेल कैसे हो गये? विमान उड़ते ही सिविल अस्पताल के छात्रावास से कैसे टकरा गया? विमान को बचाने का समय क्यों नहीं मिला? क्या केवल विमान में ही सवार लोग मारे गये? सिविल अस्पताल के छ: मंज़िला छात्रावास में और आसपास भी तो थोड़े-बहुत लोग मरे होंगे? उनका ब्यौरा कौन देगा? पायलट सुमित ने मदद माँगी थी। मदद क्यों नहीं हो सकी? इन सवालों के जवाब हर नि:स्वार्थी समझदार व्यक्ति जानना चाहता है।
एयर इंडिया सरकारी विमानन कम्पनी थी। मौज़ूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकारी संपत्तियों को बेचने की आदत ने लगभग तीन साल पहले नागरिक उड्डयन मंत्रालय के पास मौज़ूद एयर इंडिया की भी 74.9 प्रतिशत हिस्सेदारी टाटा सन्स को 18,000 करोड़ रुपये में बेच दी। एयर इंडिया की शेष 25.1 प्रतिशत हिस्सेदारी सिंगापुर एयरलाइंस के पास है। 12 जून को इस विमान ने अहमदाबाद से लंदन के लिए उड़ान भरी थी। आकाश वत्स नाम के एक शख़्स ने दावा किया है कि वह इसी विमान से दिल्ली से अहमदाबाद गया था, तब विमान में कोई कमी नहीं थी। उसका कहना है कि अगर उसे भी आगे का सफ़र करना होता, तो वह भी जीवित नहीं होता। विमान में खिड़की की तरफ़ बैठे विश्वास कुमार रमेश को गंभीर चोटें तो आयीं; लेकिन उनकी जान बच गयी। उन्होंने कहा है कि विमान के उड़ान भरने के 30 सेकेंड बाद ही तेज़ आवाज़ हुई। कोई कुछ समझ पाता, इससे पहले ही विमान दुर्घटनाग्रस्त हो गया। यह सब बहुत जल्दी हुआ कि जब मैं चोटिल अवस्था में उठा, तो मेरे चारों तरफ़ आग और लाशें थीं। मैं डर गया और वहाँ से लँगड़ाते हुए किसी तरह भागा। मेरे चारों तरफ़ विमान के टुकड़े बिखरे पड़े थे। अचानक लोगों ने मुझे पकड़ लिया और एम्बुलेंस में डालकर अस्पताल ले गये। मैं विंडो सीट पर था। दुर्घटना में विंडो के साथ ही उछलकर गिरा, नहीं तो मैं भी नहीं बच पाता।
कभी-कभी किसी एक शख़्स का बुरा वक़्त हो, तो पूरी नाव डूब जाती है। किसी एक के घर में आग लगती है, तो पूरी बस्ती जल जाती है। यहाँ भी शायद किसी की मौत के लिए सबकी मौत हुई हो! या यह भी हो सकता है कि सबके ही नसीब में इस तरह की दर्दनाक मौत हो। लेकिन ऐसा कहकर इस दर्दनाक दुर्घटना को भुलाया या नज़रअंदाज़ नहीं जा सकता। इस दुर्घटना की निष्पक्ष जाँच होनी चाहिए और सच सामने आना चाहिए।
इस बात भी सामने आनी चाहिए कि जहाँ विमान दुर्घटनाग्रस्त हुआ, वहाँ उस छात्रावास में और उसके आसपास कुल कितने लोगों की मौत हुई? कितना नुक़सान हुआ? इस विमान हादसे के बाद एक केदारनाथ से लौट रहा एक और विमान रुद्रप्रयाग में दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें सात लोग मारे गये। हालाँकि इसमें हम सिवाय शोक व्यक्त करने और मृतकों को श्रद्धांजलि देने के कुछ नहीं कर सकते।
‘तहलका’ परिवार सभी मृतकों को विनम्र श्रद्धांजलि देता है और ईश्वर से कामना करता है कि वे मृतकों के परिजनों को दु:ख सहने की शक्ति प्रदान करें। ओ३म् शान्ति!
गर्मी के दिनों में देश में पानी की क़िल्लत अक्सर अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बनती हैं और इस गंभीर मुद्दे पर सत्तारूढ़ सरकारों व विपक्षी दलों के बीच आरोप-प्रत्यारोप भी सुनने को मिलते हैं। जल-संकट एक गंभीर मुद्दा है। भारत दुनिया का ऐसा देश है, जहाँ सबसे अधिक आबादी रहती है। विश्व बैंक के अनुसार, भारत में दुनिया की 18 प्रतिशत आबादी रहती है। लेकिन लगभग चार प्रतिशत लोगों के लिए पर्याप्त जल-संसाधन हैं। भारत दुनिया में भूजल का सबसे अधिक दोहन करता है। यह मात्रा दुनिया के दूसरे और तीसरे सबसे बड़े भूजल दोहनकर्ता (चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका) के संयुक्त दोहन से भी अधिक है।
भारत में भूजल का 80 प्रतिशत भाग सिंचाई में उपयोग किया जाता है। 12 प्रतिशत भाग उद्योगों द्वारा इस्तेमाल किया जाता है और शेष आठ प्रतिशत ही पेयजल के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2030 तक देश में जल की माँग उपलब्ध आपूर्ति की तुलना में दोगुनी हो जाएगी। संयुक्त राष्ट्र की एक नवीनतम रिपोर्ट बताती है कि भारत जल-संकट से सबसे अधिक प्रभावित होगा। भारत के 30 शहर 2050 तक गंभीर जल-संकट श्रेणी में आ जाएँगे और विश्व के 2.4 अरब लोग प्रभावित होंगे। पानी, स्वच्छता की कमी से हर साल चार लाख लोगों की जान जाती है। जल-संकट की इस तस्वीर को बड़ा करने पर पता चलता है कि विश्व जल-संकट का सामना कर रहा है। अनुमान है कि 2030 तक जल की वैश्विक माँग सतत आपूर्ति से 40 प्रतिशत अधिक हो जाएगी। यानी माँग और आपूर्ति के बीच 40 प्रतिषत का फ़ासला एक बहुत बड़ी चुनौती है।
विश्व आर्थिक मंच की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार, 2040 तक हर चौथा बच्चा जल-संकट वाले क्षेत्रों में रहेगा। इससे न केवल स्वास्थ्य प्रभावित होगा, बल्कि पोषण और शिक्षा जैसे मूलभूत अधिकारों से भी बच्चे वंचित रह सकते हैं। यही नहीं, 2050 तक 2.4 करोड़ बच्चे कुपोषण का शिकार हो सकते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार, प्राकृतिक आपदाओं, समुद्र का जल-स्तर बढ़ने जैसे कारणों से दुनिया में 1.2 अरब लोग 2050 तक पलायन को विवश हो सकते हैं। ग़ौरतलब है कि पलायन करने वाली आबादी को कई तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे-भाषा, बोली, रोज़गार, संस्कृति, बच्चों का स्कूल में दाख़िला आदि। ग्लोबल वार्मिंग व प्रदूषण से वर्ष 1900 से अब तक दुनिया भर के 20 प्रतिशत जल-स्रोत सूख गये हैं। दरअसल, जल हमारे जीवन की महत्त्वपूर्ण ज़रूरत है। भोजन हो या कपड़े अथवा हमारे द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली ऊर्जा हो, उनमें पानी का उपयोग होता है। प्रकृति ने पानी के कई स्रोत मानव को दिये; लेकिन जलवायु परिवर्तन और धरती पर बढ़ती आबादी, जल भंडारण के प्रति उदासीनता, मानव द्वारा अत्यधिक दोहन आदि के चलते दुनिया जल-संकट का सामना कर रही है।’
ग्लोबल कमीशन ऑन द इकोनॉमिक्स ऑफ वाटर’ के कार्यकारी निदेशक और संस्थापक हेंक ओविक कहते हैं- ‘यह उन सभी चीज़ों को कमज़ोर कर रहा है, जिन्हें हम हासिल करना चाहते हैं। अगर हम इसे सही तरीक़े से नहीं कर पाये, तो सभी के लिए खाद्य-सुरक्षा और जीडीपी पर इसका बहुत बड़ा असर होगा।’
दरअसल, स्वास्थ्य और आजीविका को बनाये रखने, अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाने और पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करने के लिए सही समय पर सही गुणवत्ता वाला पर्याप्त पानी चाहिए। जल आपूर्ति की कमी को शीर्ष पाँच जोखिमों के रूप में पहचानने वाले देशों की संख्या 2024 में सात से बढ़कर 2025 में 27 हो गयी है। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2010 में संयुक्त राष्ट्र ने सुरक्षित स्वच्छ पेयजल एवं स्वच्छता के अधिकार को मानवाधिकार के रूप में मान्यता दी। सतत् विकास लक्ष्य-6 का लक्ष्य 2030 तक सभी के लिए स्वच्छ पानी और स्वच्छता सुनिश्चित करना है।
अहम सवाल यह है कि क्या हम यह लक्ष्य हासिल कर पाएँगे? सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए केवल पाँच साल शेष हैं; पर दुनिया के देश इन्हें हासिल करने में बहुत पीछे हैं। हाल ही में अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) ने चेतावनी दी है कि विश्व के लिए 2030 तक सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करना असंभव होता जा रहा है; क्योंकि वित्त-पोषण की ज़रूरतें कई देशों की वास्तविक क्षमता से कहीं अधिक हैं, जिससे व्यापक आर्थिक असंतुलन का ख़तरा बढ़ रहा है। आईएमएफ ने हाल ही में 06 जून को एक बयान में कहा था- ‘2020 से लगातार झटकों ने दीर्घकालिक संरचनात्मक चुनौतियों को और बढ़ा दिया है। इससे कम आय वाले और कमज़ोर देशों पर सबसे ज़्यादा असर पड़ा है। अब देखना है कि भारत समेत दुनिया भर के देश सतत् विकास लक्ष्य-6 को क्या हासिल कर पाएँगे?
उत्तर प्रदेश की राजनीति दलितों और पिछड़ों के इर्द-गिर्द ही घूमती है, जिसकी वजह है उनकी संख्या। चाहे वो भाजपा हो, चाहे कांग्रेस हो, चाहे सपा हो, चाहे बसपा हो या फिर चाहे दूसरी कोई भी पार्टी हो, सबको पता है कि पिछड़ों का वोट तो मिल भी जाएगा। लेकिन दलितों, ख़ासतौर पर जाटव समाज का वोट किसी को आसानी से नहीं मिलेगा, जो उत्तर प्रदेश में दलितों में सबसे ज़्यादा हैं। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में 20 फ़ीसदी दलित हैं, और अभी यह कहा जाता है कि 21 फ़ीसदी से ज़्यादा दलित वोटर हैं। इस वोटर में जाटव समाज 40 फ़ीसदी से भी ज़्यादा हिस्सेदारी जनसंख्या के हिसाब से रखता है, जो पहले मायावती का और बाद में उसका कुछ हिस्सा चंद्रशेखर आज़ाद रावण का कोर वोट बैंक बन चुका है। उत्तर प्रदेश का चुनाव जीतने के लिए तक़रीबन हर पार्टी की कोशिश रहती है कि किसी भी प्रकार से उसे दलित वोटरों की सपोर्ट मिल जाए, जिससे चुनाव जीता जा सके। लेकिन अब इस दलित वोटर पर दो दलित नेताओं या कहें कि दो दलित पार्टियों के बीच घमासान मचा हुआ है।
दरअसल, आकाश आनंद को चौथी बार लॉन्च करने के बाद बसपा सुप्रीमो मायावती की आँख की किरकिरी बने चंद्रशेखर आज़ाद को क्या मायावती ने वास्तव में बरसाती मेंढक कह दिया? और इसी पर चंद्रशेखर ने पलटवार करते हुए पूछा कि बसपा प्रमुख मायावती की क्या मजबूरी है कि इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ रहा?
मायावती ने जबसे अपने भतीजे आकाश आनंद को पार्टी में अपने बाद के सबसे बड़े चेहरे के रूप में एक बार फिर एंट्री दी है, तबसे उन्हें न सिर्फ़ पार्टी के भविष्य की चिन्ता सताने लगी है, बल्कि आकाश आनंद के भविष्य की भी चिन्ता सताने लगी है और वह चाहती हैं कि जिस प्रकार से उत्तर प्रदेश में दलित वोटों पर उनका एकछत्र राज रहा है, उसी प्रकार से आकाश आनंद को भी दलित वोटर अपना इकलौता नेता मानें और उन्हीं को सबसे ज़्यादा सपोर्ट करें। लेकिन इस मामले में ज़मीन से उठकर राजनीति में आये एडवोकेट चंद्रशेखर आज़ाद रावण एक रोड़े की तरह उनके आड़े आते दिख रहे हैं। क्योंकि चंद्रशेखर आज़ाद रावण न सिर्फ़ संघर्ष करके ज़मीन से उठे हुए नेता हैं, बल्कि वो अब नगीना से सांसद भी हैं।
दरअसल, उत्तर प्रदेश की राजनीति में दलित वोटरों पर प्रभाव को लेकर बहुजन समाज पार्टी और आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) यानी चंद्रशेखर आज़ाद के बीच तल्ख़ियाँ बढ़ती जा रही हैं। अपने सोशल मीडिया अकाउंट एक्स पर जब मायावती ने चंद्रशेखर आज़ाद का नाम लिये बिना ही बरसाती मेंढक जैसे शब्द का इस्तेमाल किया और भाजपा, कांग्रेस और सपा के इशारों पर चलने वाला बताया, तो चंद्रशेखर आज़ाद ने जवाब देते हुए कहा कि यह पोस्ट उनके लिए नहीं, बल्कि मीडिया के लिए थी। लेकिन लखनऊ में उन्होंने आकाश आनंद पर तंज़ कसते हुए यह भी कहा कि जितना मेरे ऊपर हमला होगा, मेरी पार्टी उतनी मज़बूत होगी। दरअसल, जिस प्रकार से मायावती ख़ुद को दलितों का मसीहा मानती हैं और यह दावा करती हैं कि उनकी पार्टी यानी बसपा ही दलितों के हितों में काम करने वाली पार्टी है और उनकी पार्टी कांशीराम तथा अंबेडकर के उसूलों पर चलने वाली पार्टी है।
मायावती और चंद्रशेखर आज़ाद भले ही तक़रीबन एक-दूसरे के प्रतिद्वंद्वी बन चुके हैं और दोनों की नज़र दलितों पर है; लेकिन किसी ने भी अभी तक किसी का नाम नहीं लिया है। मायावती ने चंद्रशेखर पर हमला करते हुए तीन ट्वीट किये, तो सबसे पहले ट्वीट में उन्होंने अपने भतीजे आकाश आनंद को दलित समाज का सच्चा हितैषी बताते हुए उनकी तारीफ़ की और कहा है कि उन्हें दूसरे नेताओं की तरफ़ देखने की कोई ज़रूरत नहीं है। वहीं दूसरे ट्वीट में उन्होंने चंद्रशेखर का नाम लिये बिना कोसा है और तीसरे ट्वीट में मेंढक जैसे शब्द तक का इस्तेमाल किया है। सवाल यह है कि क्या आकाश आनंद को चौथी बार लॉन्च करने के बाद बसपा प्रमुख मायावती की आँख की किरकिरी बने चंद्रशेखर आज़ाद को मायावती ने वास्तव में बरसाती मेंढक कह दिया? और इसी पर चंद्रशेखर ने पलटवार करते हुए पूछा कि बसपा प्रमुख मायावती की क्या मजबूरी है कि इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है?
सभी जानते हैं कि मायावती को कांशीराम से बसपा की बाग़डोर विरासत में मिली है और चंद्रशेखर आज़ाद रावण को किसी की विरासत नहीं मिली है, बल्कि उन्होंने अपने दम पर लोगों का विश्वास जीता है और वह सिर्फ़ दलितों की ही नहीं, बल्कि सभी वर्ग के पीड़ितों के साथ खड़े दिखते हैं, जिसके चलते उन्हें नगीना में न सिर्फ़ दलितों ने, बल्कि दूसरी जातियों के वोटरों ने भी समर्थन देकर भारी वोटों से 2024 के लोकसभा चुनाव में जिताकर संसद तक पहुँचाया। वहीं मायावती की पार्टी बसपा को पिछले 30 साल में सबसे बुरे दौर से गुज़रना पड़ रहा है, जिसके पास एक विधायक के अलावा कोई चुना हुआ जनप्रतिनिधि नहीं है।
हैरत की बात है कि साल 1989 में जब बसपा ने पहला लोकसभा चुनाव लड़ा था, तब भी उसके चार सांसद चुने गये थे। लेकिन साल 2014 के बाद से बसपा की संसद में एंट्री नहीं हो सकी है और न ही उसकी स्थिति उत्तर प्रदेश में विपक्ष जितनी रह पायी है। कहा जा सकता है कि उत्तर प्रदेश की छोटी-छोटी पार्टियों, मसलन रालोद, सुभाषपा, निषाद पार्टी, अपना दल और आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) से भी कम चुने हुए प्रतिनिधियों वाली स्थिति बसपा की रह गयी है। साल 2007 में उत्तर प्रदेश में सरकार बनाने वाली बसपा और तीन बार प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं मायावती के राजनीतिक करियर का क्रमिक पतन कैसे हुआ? क्यों हुआ? और किसके चलते हुआ? ये सब बताने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन यह कहा जा सकता है कि मायावती अब एक बार फिर से अपना सहारा देकर अपने भतीजे को मज़बूत करना चाहती हैं और पार्टी को फिर से मज़बूती देकर अपने भतीजे आकाश आनंद के हाथ में उत्तर प्रदेश के साथ-साथ देश भर के दलितों की बाग़डोर सौंपना चाहती हैं। क्योंकि साल 2007 में उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी ने 206 सीटें जीती थीं और 30.5 फ़ीसदी वोट हासिल किये थे। लेकिन साल 2012 में उन्हें अखिलेश ने हरा दिया और साल 2017 में भाजपा ने दोनों को हरा दिया और इस बार उनकी सीटें महज़ 19 ही रह गयीं, जो कि 2012 में 80 थीं। 2012 के विधानसभा चुनावों में हार के बाद बसपा का ग्राफ लगातार नीचे गिरता जा रहा है और पिछले 2024 के लोकसभा चुनावों में उसे एक भी सीट नहीं मिली थी।
वहीं चंद्रशेखर आज़ाद ने नगीना की बसपा की लोकसभा सीट छीन ली; जबकि चुनाव प्रचार में भी आकाश आनंद ने चंद्रशेखर को लेकर तीखे बयान दिये थे। लेकिन अब यह लड़ाई और तेज़ हो गयी है। अब आगामी 2027 के विधानसभा चुनावी संग्राम में देखना होगा कि उत्तर प्रदेश के दलित वोटर किसकी तरफ़ ज़्यादा झुकाव रखते हैं?
हालाँकि अब मायावती को समझ आ चुका है कि दलित वोटरों को वापस से मनाना होगा, जिसमें चंद्रशेखर आज़ाद एक मज़बूत चुनौती बने हुए हैं। क्योंकि एक तो उन्होंने अपनी पार्टी में कांशीराम का नाम जोड़ दिया है और दूसरा वह अब खुलकर कहने लगे हैं कि सिर्फ़ उन्हीं की पार्टी है, जो दलितों के साथ खड़ी है और अंबेडकर और कांशीराम के विचारों पर चलती है। उन्होंने मायावती के ख़िलाफ़ पहले कभी नहीं बोला था और अब भी नहीं बोलते हैं; लेकिन मायावती को घेरना शुरू ज़रूर कर दिया है। मायावती भी उनका घेराव ज़ोरदार तरीक़े से कर रही हैं।
मायावती अपने भतीजे आकाश आनंद के राजनीतिक करियर को इस तरह सुरक्षित करना चाहती हैं, जिससे वह पार्टी को न सिर्फ़ दोबारा से मज़बूत कर सकें, बल्कि अपने दम पर एक ऐसी पहचान बन जाएँ, जिससे उन्हें देश में हर दलित पहचाने और उनका समर्थन करे। हालाँकि यह मुमकिन नहीं है; क्योंकि आकाश आनंद को ऐसे समय मायावती राजनीति में वापस लेकर आयी हैं, जब उत्तर प्रदेश में दलित शासन नहीं है और न ही दलितों का वो विश्वास अब बसपा पर क़ायम है, जो विश्वास कांशीराम ने जीता था और मायावती ने भी एक टाइम पर जीता था।
बहरहाल, उत्तर प्रदेश की सियासत में दलित वोटरों पर प्रभाव को लेकर बहुजन समाज पार्टी और आज़ाद समाज पार्टी (कांशीराम) यानी चंद्रशेखर आज़ाद के बीच तल्ख़ियाँ बढ़ती जा रहीं हैं। और इन तल्ख़ियों के साथ-साथ चंद्रशेखर आज़ाद का क़द भी बढ़ता जा रहा है। नगीना सांसद चंद्रशेखर आज़ाद अपना ख़ुद का राजनीतिक मैदान तैयार कर रहे हैं, जहाँ वह दलितों के सहारे अपना राजनीतिक क़द बड़ा कर सकें और दलितों की इकलौती आवाज़ बन सकें। मायावती को पहले से ही चंद्रशेखर आज़ाद रावण कहीं-न-कहीं खटक ही रहे थे; लेकिन अब और खटकने लगे हैं। अब उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव साल 2027 में होने हैं, जिसकी तैयारी उत्तर प्रदेश में हर पार्टी अभी से कर रही है। देखना होगा कि मायावती के भतीजे आकाश आनंद और चंद्रशेखर आज़ाद में से कौन-सा दलित नेता किस पर भारी पड़ने वाला है और उत्तर प्रदेश के दलित वोटरों की रेल के इंजन का असली ड्राइवर कौन होगा?
भारत में 200 मिलियन से अधिक मुसलमान रहते हैं। फिर भी 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बाद से यहाँ धार्मिक तनाव बना हुआ है। हाल के वर्षों में एक नया और परेशान करने वाला पहलू सामने आया है- सांप्रदायिक टेलीविजन बहसों का उदय। संवाद के नाम पर टीवी समाचार चैनल नियमित रूप से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच टकराव का मंचन करते हैं, जिसमें अक्सर धार्मिक हस्तियाँ और राजनीतिक प्रवक्ता स्टूडियो की मेज़ों पर चिल्लाते हुए दिखायी देते हैं। इन कार्यक्रमों को तर्कसंगत बहस के रूप में प्रस्तुत किया जाता है; लेकिन वास्तव में ये आमतौर पर आक्रोश के तमाशे में तब्दील हो जाती हैं। रचनात्मक चर्चा को प्रोत्साहित करने के बजाय ये बहसें उकसाने के लिए रची गयी प्रतीत होती हैं। आलोचकों का तर्क है कि इस तरह के कार्यक्रम एक बड़े राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति करते हैं- सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काना और राष्ट्रवादी आख्यानों को मज़बूत करना; जो सत्तारूढ़ पार्टी के हितों से मेल खाते हैं। बदले में नेटवर्क को उच्च टीआरपी प्राप्त होती है और उसके साथ-साथ अधिक विज्ञापन राजस्व भी।
‘तहलका’ की इस बार की आवरण कथा- ‘हिंदू-मुस्लिम डिबेट फिक्स?’ इस परेशान करने वाली प्रवृत्ति पर प्रकाश डालती है। एक काल्पनिक समाचार चैनल खोलने वाले के प्रतिनिधि बनकर ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर ने कई मुस्लिम मौलवियों से संपर्क किया और उन्हें टीवी बहसों में आने का प्रस्ताव दिया। पड़ताल से पता चलता है कि इनमें से कई तथाकथित बहसें सावधानीपूर्वक तैयार की जाती हैं, जिनकी पटकथा राजनीतिक एजेंडे, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और मीडिया समूहों के वित्तीय हितों को पूरा करने के लिए लिखी जाती है।
पैनलिस्टों को अक्सर चरम रुख़ अपनाने, टकराव बढ़ाने तथा अधिकतम नाटकीयता के लिए अपने विरोधियों का अपमान करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। बदले में उन्हें क्षणिक प्रसिद्धि और आर्थिक पुरस्कार प्राप्त होते हैं। कथित तौर पर तटस्थ संचालक (मॉडरेटर) से दूर एंकर दर्शकों की संख्या बढ़ाने के लिए भड़काऊ बयानबाज़ी को प्रोत्साहित करते हैं। इसके परिणाम बहुत गंभीर हैं। कुछ पूर्व पैनलिस्टों ने मनोवैज्ञानिक संकट और सार्वजनिक अपमान का हवाला देते हुए इसमें भाग लेने से ख़ुद को अलग कर लिया है। तमाशा संस्कृति का यह उदय न केवल सांप्रदायिक विभाजन को गहरा करता है, बल्कि हाशिये पर पड़े समुदायों की वास्तविक और ज़रूरी चिन्ताओं को भी महत्त्वहीन बना देता है। स्टूडियो की चमकदार रोशनी से परे इसके परिणाम दु:खद हैं।
हाल के वर्षों में अल्पसंख्यक समुदायों के सदस्यों को निराधार आरोपों के आधार पर भीड़ द्वारा मार डाला गया है। उनके व्यवसायों का बहिष्कार किया जाता है। उनके घरों को बुलडोज़र से ध्वस्त कर दिया जाता है और उनके धार्मिक स्थलों पर हमले किये जाते हैं। इन टेलीविजन चैनलों पर षड्यंत्र के सिद्धांतों, जैसे- लव जिहाद या मुसलमानों द्वारा हिंदुओं से अधिक प्रजनन करने के मिथकों को बढ़ावा मिलता है। लेकिन आँकड़े एक अलग कहानी बताते हैं; मुस्लिम प्रजनन दर सन् 1992 की 4.4 से घटकर सन् 2020 में 2.3 रह गयी है। विडंबना यह है कि यह समुदाय आबादी का लगभग 15 प्रतिशत है, फिर भी संसदीय सीटों में पाँच प्रतिशत से भी कम पर उसका क़ब्ज़ा है। लोकतंत्र में मीडिया की भूमिका निगरानीकर्ता की है, माचिस की तीली की नहीं। जब टेलीविजन पर प्रसारित बहसें सुनियोजित युद्धक्षेत्र बन जाती हैं, तो वे पत्रकारिता के मूल सार को धोखा देती हैं। वे सूचना नहीं देते, वे भड़काते हैं। वे सत्ता को चुनौती नहीं देते, वे उसको रटते हैं।
हमारी विशेष जाँच टीम (एसआईटी) की रिपोर्ट ऐसे समय में आयी है, जब देश अभी भी अहमदाबाद में हुए चौंकाने वाले विमान हादसे से उबर नहीं पाया है। भारत, जो विश्व के सबसे तेज़ी से बढ़ते विमानन बाज़ारों में से एक है; अब कठिन सवालों का सामना कर रहा है। विमान दुर्घटना जाँच ब्यूरो को बोइंग 787 ड्रीमलाइनर दुर्घटना के लिए जवाब देना होगा, जिसमें यात्रियों, चालक दल और ज़मीन पर मौज़ूद नागरिकों की जान चली गयी। चाहे आसमान में हो या स्क्रीन पर, निगरानी और जवाबदेही वैकल्पिक नहीं हो सकती।
– पूरी तरह सुनियोजित होती हैं टीवी चैनलों की डिबेट्स!
इंट्रो- कुछ वर्षों से टीवी चैनलों की टीआरपी भले ही बढ़ी हो; लेकिन कई बड़े पत्रकारों की न सिर्फ़ इज़्ज़त कम हुई है, बल्कि उन्हें ज़्यादातर लोग गोदी पत्रकार और चैनलों को गोदी मीडिया कहने लगे हैं। हालाँकि इसके पीछे का फ़र्ज़ीवाड़ा भी कई बार सामने आ चुका है। लेकिन चैनल और उनमें काम करने वाले पत्रकार टीआरपी के लिए बड़ी बेशर्मी से किसी भी हद से गुज़रने को तैयार रहते हैं। इन चैनलों ने ख़बरें दिखाने की जगह ख़बरों और मुद्दों को टीवी पर ज़्यादातर समय बहस (डिबेट) का हिस्सा बना दिया है। लेकिन इनके द्वारा लगातार आयोजित इन बहसों में समाज में नफ़रत, अज्ञान फैलाने और सच छिपाने का षड्यंत्र होता है, जिसके पीछे टीआरपी बढ़ाकर पैसा कमाने का खेल होता है। ‘तहलका’ ने अपनी इस पड़ताल में पता लगाया है कि कैसे हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसें अक्सर राजनीतिक एजेंडे, व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा और वित्तीय लाभ के लालच से प्रेरित होकर लिखी और मंचित की जाती हैं। पढ़िए, तहलका एसआईटी की यह पड़ताल :-
‘एक प्रमुख राष्ट्रीय समाचार चैनल के समाचार निर्देशक ने एक बार मुझे टीवी पर बहस के लिए बुलाया। और क्योंकि मैं एक मुसलमान हूँ; उन्होंने मुझसे उस रात प्रसारित होने वाले अपने शो (डिबेट – बहस) में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस का समर्थन करने को कहा, ताकि साप्ताहिक दर्शकों की संख्या और टेलीविजन रेटिंग प्वाइंट्स (टीआरपी) में बढ़ोतरी हो सके। मैंने मना कर दिया।’ – जावेद-उल हसन क़ासमी (बदला हुआ नाम) ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को बताया।
‘एक अन्य अवसर पर मैं एक अलग शीर्ष समाचार चैनल के लिए एक बहस पैनल में था। शो के दौरान चैनल के प्रमुख सितारों में से एक एंकर ने मुझे और मेरे हिंदू सह-पैनलिस्ट को प्रभाव पैदा करने के लिए एक-दूसरे पर चिल्लाना शुरू करने के लिए कहा। हम दोनों ने मना कर दिया।’ -जावेद ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया।
‘मैं पिछले 12 वर्षों से लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीय समाचार टीवी चैनलों पर वाद-विवाद कार्यक्रमों में भाग लेता रहा हूँ। मैं अच्छी तरह जानता हूँ कि इन बहसों का प्रबंधन कैसे किया जाता है। अगर हम चैनल की इच्छा के अनुसार काम करते हैं, तो हमें अच्छा भुगतान किया जाता है।’ -शादाब अली (बदला हुआ नाम) ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया।
‘एक मुसलमान होने के नाते अगर चैनल कहता है, तो मुझे ऑन-एयर साथी मुस्लिम पैनलिस्टों पर हमला करने में कोई समस्या नहीं है। ये बहसें पहले से लिखी होती हैं।’ -शादाब ने आगे रिपोर्टर को बताया।
‘मेरा मित्र, जो एक मौलवी है; वर्षों से राष्ट्रीय समाचार चैनलों पर हिंदू-मुस्लिम बहसों का नियमित चेहरा रहा है। इन्हीं वाद-विवादों से उन्हें सारी संपत्ति- पैसा, दिल्ली में दो मकान और यहाँ तक कि सरकारी नौकरी भी मिली। यह उनके टीवी कार्यक्रमों के कारण ही था कि एक राजनीतिक दल ने लोकसभा चुनाव के दौरान उनसे संपर्क किया और उन्हें अच्छा पैसा दिया।’ -मुश्ताक़ ख़ान (बदला हुआ नाम) ने ‘तहलका’ के अंडरकवर रिपोर्टर को बताया।
हाल के वर्षों में लगभग सभी समाचार चैनलों पर हिंदू-मुस्लिम बहसों (डिबेट्स) में तेज़ी से वृद्धि हुई है। यह प्रवृत्ति मौज़ूदा केंद्र सरकार के 11 वर्ष पूरे होने पर भी जारी हैं। शाम 5:00 बजे से रात 11:00 बजे के बीच किसी भी समाचार चैनल पर नज़र डालें, तो आप दो समुदायों (हिन्दू-मुस्लिम) के धार्मिक नेताओं को टीवी स्टूडियो में एक-दूसरे पर चिल्लाते हुए देखेंगे। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि इस प्रवृत्ति का उद्देश्य हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण को मज़बूत करना है, जबकि समाचार चैनल टीआरपी में बढ़ोतरी का लाभ ले रहे हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में ये हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसें विषाक्त हो गयी हैं। टीवी चैनलों पर आने वाली ख़बरें, जिन पर कभी चर्चा हुआ करती थी; अब उन्हें लेकर सड़कों पर झगड़े होने लगे हैं। पूरे भारत में ऐसे कई उदाहरण हैं, जहाँ टीवी पैनलिस्टों के बीच भी लाइव प्रसारण के दौरान थप्पड़ और लात-घूँसे चल चुके हैं। अब केवल धार्मिक नेताओं के बीच ही पर्दे पर टकराव नहीं रह गया है, बल्कि राजनीतिक दलों के प्रवक्ताओं के बीच भी मारपीट होने लगी है। ज़ी न्यूज़ द्वारा आयोजित एक बहस के दौरान भाजपा के गौरव भाटिया और समाजवादी पार्टी के अनुराग भदौरिया एक-दूसरे को धक्का देते देखे गये।
2020 में कांग्रेस प्रवक्ता राजीव त्यागी की दु:खद मौत को कौन भूल सकता है? 52 वर्षीय त्यागी को आजतक टीवी चैनल पर दिवंगत रोहित सरदाना द्वारा आयोजित वाद-विवाद कार्यक्रम ‘दंगल’ में आने के कुछ ही देर बाद दिल का दौरा पड़ा था। बहस के दौरान त्यागी स्पष्ट रूप से असहज दिखायी दिये; वह बेचैन हो गये और फिर हाँफने लगे। शो के आधे घंटे के भीतर ही उनकी मौत हो गयी। हालाँकि 12 अगस्त, 2020 को हुई बहस से हृदयाघात को जोड़ने के लिए कोई चिकित्सीय साक्ष्य नहीं है। लेकिन इस घटना ने इन आक्रामक प्रारूपों के प्रतिभागियों पर पड़ने वाले भावनात्मक प्रभाव के बारे में गंभीर सवाल उठाये हैं।
पूर्व सांसद और वरिष्ठ आरएसएस नेता प्रोफेसर राकेश सिन्हा एक बार तब सुर्ख़ियों में आये थे, जब उन्होंने ख़ुलासा किया था कि एक प्रमुख समाचार चैनल के एंकर ने उन्हें टेलीविजन पर बहस के दौरान एक मुस्लिम व्यक्ति के ख़िलाफ़ अपमानजनक भाषा का इस्तेमाल करने के लिए कहा था। सिन्हा के अनुसार, एंकर ने सुझाव दिया था कि मुस्लिम पैनलिस्ट की दाढ़ी और टोपी का मज़ाक़ उड़ाने से बहस हिट हो जाएगी। इसके बाद सिन्हा ने उस चैनल पर आना बंद कर दिया।
‘तहलका’ से बात करते हुए कई पैनलिस्टों ने बताया कि वे टीवी बहसों की विषाक्त संस्कृति के कारण तनावग्रस्त और अपमानित महसूस कर रहे हैं। आगरा के प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान और कभी समाचार पैनल पर नियमित अतिथि रहे रियासत अली ने इन बहसों में भाग लेना पूरी तरह बंद कर दिया है और कहा है कि ये बहसें विषाक्त और अपमानजनक हैं। आगरा के ही मौलाना उज़ैर आलम ने भी इसी तरह की भावना व्यक्त की। टेलीविजन चैनलों पर लंबे समय से बहसों को शोरगुल में बदलने के लिए आलोचना की जाती रही है। इन टीवी शो में गरमागरम बहस, गाली-गलौज और यहाँ तक कि हाथापाई भी आम बात हो गयी है। लेकिन क्या ये टकराव वास्तविक हैं या टीआरपी के लिए स्क्रिप्टेड? इसका पता लगाने के लिए ‘तहलका’ ने एक बहुप्रतीक्षित और विशेष अंडरकवर पड़ताल शुरू की, जिस पर लंबे समय से चर्चा होती रही है; लेकिन इस तरह से कभी पड़ताल नहीं की गयी।
हमारे (तहलका के) स्टिंग ऑपरेशन के एक भाग के रूप में हमने (तहलका रिपोर्टर ने) एक नये टीवी चैनल के प्रतिनिधि के रूप में ख़ुद को प्रस्तुत किया। ‘तहलका’ रिपोर्टर ने कई मुस्लिम धार्मिक नेताओं से फ़र्ज़ी प्रस्ताव लेकर संपर्क किया और दावा किया कि हमारा मित्र (काल्पनिक) एक नया टीवी चैनल शुरू कर रहा है और हमें हिंदू-मुस्लिम बहस के लिए पैनलिस्टों की आवश्यकता है। इनमें से पहली बातचीत में ‘तहलका’ रिपोर्टर ने आगरा के शादाब अली (बदला हुआ नाम) से बात की। रिपोर्टर ने उनसे खुलकर कहा कि हमारा चैनल टीआरपी के लिए कुछ भी कर सकता है। शादाब ने भरोसा दिलाया कि वह हमें (रिपोर्टर को) निराश नहीं करेंगे। निम्नलिखित बातचीत में ‘तहलका’ रिपोर्टर ने शादाब से टीवी बहसों के बारे में उनके अनुभव के बारे में पूछा। चर्चा से पता चलता है कि प्रतिभागियों को अक्सर अपनी बात रखने के लिए गहन तैयारी करनी पड़ती है और कभी-कभी ज़ोरदार, आक्रामक भाषण देना पड़ता है। शादाब ने पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी तत्परता का अपना परिचय देते हुए इस काम में अपनी दक्षता बताने पर ज़ोर दिया।
रिपोर्टर : अभी तक आपने किस सब्जेक्ट पर डिबेट किया हुआ है?
शादाब : मैंने बताया ना! कोई भी सब्जेक्ट हो।
रिपोर्टर : हमारे एक दोस्त का नया टीवी चैनल आ रहा है। वो मुझे कह रहे थे कि ऐसे लोग बताओ, जो टीवी डिबेट में आ सकते हैं। टीवी डिबेट में आपको मालूम ही है, क्या होता है? …चीखा-चिल्लाई।
शादाब : वो सब हमें मालूम है। आपकी दुआ से इन सब चीज़ों के आदी हो चुके हैं। बाक़ी कभी-कभी ऐसी स्थिति आती है कि टीवी डिबेट के चैनल वाले बोलते हैं, …आपको बड़ा फोर्सफुली (प्रबलता से) बात करनी है। मतलब, अपनी बात को पूरी तैयारी से रखना है। …चाहे वो विरोध में हो या पक्ष में। काफ़ी तजुर्बा है इन बातों का।
रिपोर्टर : मतलब, चीखा-चिल्लाई कर लेंगे आप टीवी डिबेट में?
शादाब : अजी साहेब! बिलकुल, सिर्फ़ चीखना-चिल्लाना नहीं, तर्क पर होती है बात; …जिस सब्जेक्ट पर डिबेट हो रही है, तो पूरी तैयारी के साथ बैठते हैं।
इस ख़ुलासे वाली बातचीत में ‘तहलका’ रिपोर्टर ने एक संदेहयुक्त अनुरोध करते हुए शादाब से कहा कि वह चैनल के एजेंडे के आधार पर भाजपा या कांग्रेस जैसे राजनीतिक दलों की आलोचना करें। शादाब ने आत्मविश्वास के साथ शान्ति से जवाब दिया और ऐसे संपादकीय दबावों से निपटने में अपने लंबे अनुभव का हवाला दिया। उनका कहना है कि उन्हें पता है कि मीडिया की कहानियाँ किस तरह गढ़ी जाती हैं। इसलिए वह अपेक्षाओं के अनुरूप चलने के लिए सहमत हैं।
रिपोर्टर : कई बार चैनल बोलता है, हमारे हिसाब से चीज़ें हों।
शादाब : हाँ; मैं वही बात कह रहा हूँ। …चैनल वाले की जो पॉलिसी होती है, उसको भी मैनेज किया जाता है।
रिपोर्टर : जैसे कि टीवी चैनल वाले कहते हैं कि मुसलमान आदमी आये और बीजेपी को गाली दे?
शादाब : तो हाँ, ये सब पॉसिबिलिटी है; …या कांग्रेस को गाली दे। …देखिए, ऐसा है आपकी दुआ से क़रीब 10-12 साल का ये एक्सपीरियंस है। और कोई ऐसा चैनल नहीं है, …न्यूज 18 हो या ज़ी टीवी हो या फिर एबीपी; …इन सब पर मैंने लाइव और रिकॉर्डिंग दोनों तरीक़े से काम किया है।
इस स्पष्ट बातचीत में शादाब ने खुले तौर पर स्वीकार किया कि टीवी बहसों में उनकी उपस्थिति चैनलों की अपेक्षाओं पर निर्भर करती है। वह बताते हैं कि भुगतान सिद्धांतों से नहीं, बल्कि प्रदर्शन से जुड़ा होता है। यहाँ तक कि वह एक टीवी बहस में भाजपा सांसद संबित पात्रा के साथ हुई तीखी नोकझोंक का विवरण भी साझा करते हैं। इससे मीडिया जगत की एक ऐसी तस्वीर उभरकर सामने आती है, जहाँ चीख-पुकार मची रहती है और अक्सर स्क्रिप्ट के साथ वफ़ादारी भी बदल जाती है।
रिपोर्टर : कभी झड़क-पड़क हुई है आपकी?
शादाब : ख़ूब हुई है। …संबित पात्रा से ही हुई है, ताज महल वाली डिबेट में; …आप कहेंगे, तो मैं आपको भेज दूँगा..(बहस की क्लिप)।
रिपोर्टर : ये पैसा भी देते हैं या नहीं?
शादाब : एक-दो ने दिया, बाक़ी ने नहीं।
रिपोर्टर : कितना दिया आपको?
शादाब : किसी ने 3,000 (रुपये) किसी ने 2,000 (रुपये)। …आप क्या करवाएँगे हमारे लिए? …सबसे बड़ी बात होती है, जो परफॉर्मेंस पर डिपेंड करती है। …भाई! चैनल के हिसाब से हम परफॉर्मेंस देंगे, तो उसी हिसाब से पेमेंट (भुगतान) होता है। …बहुत बार स्थिति ऐसी आती है कि चैनल वाले गाड़ी भेजकर बुला लेते हैं नोएडा इत्यादि में। …आगरा में कई डिबेट्स में हमारा भी नाम था।
इस ख़ुलासे भरी बातचीत के बीच शादाब ने ‘तहलका’ रिपोर्टर को बताया कि किस तरह अनेक टीवी बहसें पहले से तय होती हैं। टीवी चैनल पहले से तय कर लेते हैं कि किसे लक्षित किया जाना चाहिए और पैनलिस्टों को इस आधार पर भुगतान किया जाता है कि वे कितना अच्छा प्रदर्शन करते हैं और उनकी अपेक्षाओं को पूरा करते हैं। जिस मुद्दे पर खुली चर्चा होनी चाहिए, वह एक प्रबंधित कार्य में बदल जाता है, जहाँ समाचार अक्सर पटकथा-बद्ध नौटंकी के आगे मुद्दे पीछे छूट जाते हैं।
रिपोर्टर : ये सब बिजनेस का चक्कर होता है, …टीवी डिबेट भी?
शादाब : हाँ; मुझे मालूम है। मैं भी जानता हूँ। और बाक़ायदा अच्छा पेमेंट करते हैं; …बस आप उनके मानकों पर खरे उतरें।
रिपोर्टर : तो मैच फिक्सिंग करते हैं ये टीवी डिबेट वाले?
शादाब : बिलकुल। बता देते हैं, तुम्हें इस पर अटैक करना है, ये है। …मैं अपने मुँह से अपनी बड़ी करूँ, तो अच्छा नहीं रहेगा। अब आपके दोस्त, जो न्यूज चैनल खोल रहे हैं और अगर वो हमको मौक़ा देते हैं, तो हमारी परफॉर्मेंस पर डिपेंड करेगा।
इस दिलचस्प बातचीत में शादाब से पूछा गया कि यदि चैनल उनसे ऐसा करने को कहे, तो क्या वह किसी मुस्लिम साथी का अपमान करेंगे? बिना किसी हिचकिचाहट के वह इस बात से सहमत होते हैं और बताते हैं कि इस तरह की झड़पें अब टीवी पर आम बात हो गयी हैं। शादाब के अनुसार, चैनल मुसलमानों को एक-दूसरे पर हमला करते हुए दिखाना पसंद करते हैं। इससे बाहरी आवाज़ों की आवश्यकता के बिना ही एक कहानी तैयार हो जाती है। शादाब ने कहना चाहा कि अब टीवी चैनल्स पर बहस कम, तयशुदा तमाशा अधिक होता है।
रिपोर्टर : अच्छा; अगर कोई मुसलमान को मुसलमान से लड़वाये, गाली-गलौज करवाये, तो कर लोगे?
शादाब : अरे, आप उससे इत्मिनान रखिए। …कहने से कोई फ़ायदा नहीं है। एक तो ऐसा होता है कि करेंट (मौज़ूदा समय) में जो सिचुएशन (परिस्थिति) मिल रही है, उसको हैंडल करना है आपको। …क्योंकि वहाँ कोई सवाल खड़ा कर दिया, तो हाज़िर जवाबी इतनी होनी चाहिए आपके पास कि उसको आप जवाब दे सकें।
रिपोर्टर : लेकिन कोई कहे कि मुसलमान को गाली देना है, तो क्या दे दोगे?
शादाब : अरे, तो चैनल्स पर देते नहीं हैं गाली? भाई! मुसलमान मुसलमान को गाली दे, उसके पीछे भी लॉजिक (तर्क) होता है ना कुछ! …भाई! मैं अगर उसको क्रिटिसाइज (आलोचना) करता हूँ, तो मेरे पास होना भी तो चाहिए कुछ मसाला। …भाई! टीवी चैनल पर यही तो चल रहा है। …मुसलमान को मुसलमान से भिड़वा दो और कह दो मुसलमान ही मुसलमान की काट कर रहा है। ये भी है ना! …किसी ग़ैर-मुस्लिम को करने की ज़रूरत नहीं है। ये भी एक तरीक़ा है मीडिया का।
इसके बाद ‘तहलका’ रिपोर्टर ने जावेद-उल-हसन क़ासमी (बदला हुआ नाम) से संपर्क किया, जो कई वर्षों से हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसों में एक जाना-पहचाना चेहरा हैं। जावेद ने एक घटना साझा की, जिसमें एक प्रसिद्ध टीवी एंकर ने उन्हें और एक हिंदू सह-पैनलिस्ट को लाइव शो के दौरान ज़ोरदार नाटकीय लड़ाई करने के लिए कहा। दोनों ने यह कहते हुए मना कर दिया कि इस तरह के व्यवहार का गंभीर चर्चा में कोई स्थान नहीं है। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि मना करने के बाद भी उन्हें उसी चैनल पर कई और शो के लिए बुलाया गया।
जावेद : XXXX कह रहा था मुझे और XXXXX से, कि डिबेट ऐसे करना इस बार कि डिबेट करते-करते खड़े हो जाना…।
रिपोर्टर : सब्जेक्ट क्या था डिबेट का?
जावेद : हिंदू-मुस्लिम ही होगा; …पुरानी बात है। कह रहा था- एक-दूसरे के ऊपर खड़े हो जाना। …लाइव प्रोग्राम था।
रिपोर्टर : आपने क्या कहा?
जावेद : क्यूँ खड़ा होऊँगा? …मना कर दिया। कभी भी ऐसे थोड़ी कर सकते हैं।
रिपोर्टर : XXXXX ने भी मना किया?
जावेद : मना किया। …हमने ग़ौर ही नहीं किया, उसकी बातों को।
रिपोर्टर : उसके बाद आपको बुलाया भी नहीं होगा टीवी डिबेट में?
जावेद : अरे, 50 बार बुलाया है। …क्या बात कह रहे हो!
रिपोर्टर : उसके बाद भी?
जावेद : 50 बार, …ऐसे क्यूँ? उनको डिबेट करने वाले नहीं मिल रहे।
अब जावेद ने ‘तहलका’ रिपोर्टर के सामने एक चौंकाने वाला क्षण को साझा करते हुए कहा कि एक प्रसिद्ध समाचार चैनल के वरिष्ठ व्यक्ति ने टीवी पर बहस के दौरान पूछा कि क्या वह विवाद पैदा करने के लिए आईएसआईएस का समर्थन करेंगे? जावेद ने कहा कि उन्होंने इसका नकारात्मक जवाब दिया। उन्होंने बताया कि इस तरह के अनुरोध के पीछे असली उद्देश्य टीआरपी बढ़ाना है, न कि ईमानदारी से जानकारी देना या चर्चा करना।
रिपोर्टर : XXXX ने भी तो आपको बोला था कुछ XXXXX में?
जावेद : XXXX तो तीन-चार बार फोन किया था। उसका जो कोऑर्डिनेटर है, उसने बोला था कि आप जो आईएसआईएस का फ़तवा वाला आया था …आसाम का; हाँ तो फेवर (समर्थन) में बोलने के लिए, फेवर करेंगे आईएसआईएस का? मैंने कहा था- फेवर क्यूँ करूँगा? जो बात सच होगी, वो कहूँगा।
रिपोर्टर : XXXXX ने कही थी ये बात?
जावेद : XXXXX ने कहा था। वो तो मेरे पास उस वक़्त रिकॉर्ड नहीं था। …कुछ नहीं, उनको बस डिबेट को हिट कराना है। अपने नंबर को आगे बढ़ाना है; …बस और कोई मक़सद नहीं।
इस पड़ताल के दौरान ‘तहलका’ रिपोर्टर की मुलाक़ात नोएडा में सुहैल सिद्दीक़ (बदला हुआ नाम) से हुई, जो कभी किसी टीवी डिबेट में नहीं दिखे। लेकिन जैसा कि रिपोर्टर ने उनसे टीवी डिबेट के राज़ उगलवाने के लिए उनसे काल्पनिक रूप से कहा कि क्या वह जल्द ही लॉन्च होने वाले समाचार चैनल में शामिल होने के इच्छुक हैं? तो सुहैल ने कहा कि उन्हें बोलने में आनंद आता है और वे धार्मिक और सामाजिक, दोनों विषयों पर चर्चा करने के लिए तैयार रहते हैं। हालाँकि सिद्दीक़ जानते हैं कि बहस शोरगुल भरी हो सकती है, फिर भी वह ख़ुद इसका अनुभव करने के लिए उत्सुक दिखे।
रिपोर्टर : एक चीज़ बताइए, डिबेट का शौक़ है आपको?
सिद्दीक़ : शौक़ तो है। बोलने का अंदाज़, बात सही होनी चाहिए ना! …बस बात ये है। अभी हम बैठे नहीं हैं; कहीं गये नहीं है।
रिपोर्टर : तो शौक़ है, कभी-न-कभी तो पहली बार होगा?
सिद्दीक़ : घर से भी हो जाएगी बात फोन पर?
रिपोर्टर : हाँ; घर से भी हो जाएगी। …आप सिद्दीक़ अब एक बात बताओ कि किस टॉपिक पर आप आराम से बात कर सकते हो? …उसी में बुलाएँ फिर आपको।
सिद्दीक़ : बात ये है कि अभी तक तो हम गये नहीं हैं। …बात दीन (धर्म) की भी होगी, दुनिया की भी होती है उसमें। ख़िलाफ़ भी बोलना पड़ता है, हो-हल्ला भी होता है। ..,इसलिए अभी गये ही नहीं हैं। जब जाएँगे, तब पता चलेगा।
अब सुहैल सिद्दीक़ से ‘तहलका’ रिपोर्टर ने कहा कि चैनल उन्हें पहले ही बता देगा कि टीवी डिबेट के दौरान उन्हें क्या बोलना है। सुहैल सिद्दीक़ इस व्यवस्था से सहमत होकर कहते हैं कि वह इसके अनुसार तैयारी करेंगे।
रिपोर्टर : नहीं, मौज़ू (विषय) आपको पहले ही बता दिया जाएगा।
सिद्दीक़ : अच्छा।
रिपोर्टर : जैसे मैं आपको एग्जांपल (उदाहरण) दे रहा हूँ। समझो कि जामा मस्जिद है, इसका कोई सर्वे का मामला चल रहा है; कोर्ट का कोई डायरेक्शन (निर्देश) आया। …उस पर डिबेट हुई। आपको हमारे यहाँ से कॉल आएगा, चैनल वाला आपको बता देगा कि आपको ये बोलना है। …वो फिक्स कर देगा कि आपको ये बोलना है, जिस पर आप बताइए।
सिद्दीक़ : हाँ; …मुताला (गहराई से विचार) करना पड़ेगा मस्जिद का।
अब ‘तहलका’ रिपोर्टर ने पड़ताल को आगे बढ़ाते हुए दिल्ली में मुश्ताक़ ख़ान (बदला हुआ नाम) से मुलाक़ात की। इस बार मामला टीवी चैनलों द्वारा बहस फिक्स करने का नहीं, बल्कि मामला एक मौलवी का है, जिसने इन बहसों से धन कमाया है। मुश्ताक़ ने बताया कि उनके दोस्त, जो दशकों से हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसों में दिखायी देते रहे हैं; को सन् 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक राजनीतिक पार्टी ने संपर्क किया था। मुश्ताक़ के अनुसार, उनके मित्र ने पार्टी से प्राप्त धनराशि का उपयोग दिल्ली में दो मकान ख़रीदने में किया, जबकि उन्हें इस लेन-देन के बारे में पूरी तरह से अँधेरे में रखा गया। मुश्ताक़ का कहना है कि एक ही कमरे में रहने और क़रीब रहने के बावजूद उन्हें लेन-देन के बारे में बाद में पता चला।
रिपोर्टर : जो उन्होंने घर बनाया, लोकसभा के इलेक्शन में बना लिया; …2009 के इलेक्शन (चुनाव) में XXXX ज़िन्दा थे। उन्होंने पैसे दिये इन्होंने बना लिया। …उसमें आप भी तो साथ थे, आपको क्यूँ नहीं दिये पैसे?
मुश्ताक़ : मुझे लेकर गये ही नहीं। …अब वो तो वही जानें।
रिपोर्टर : बिलकुल नहीं दिये?
मुश्ताक़ : बिलकुल नहीं जनाब।
रिपोर्टर : आप मुझसे तो इतनी बार नाराज़ हो जाते हो, उनसे नाराज़गी नहीं हुई आपको?
मुश्ताक़ : नहीं; मैं पहले कभी नाराज़ हुआ होऊँगा आपसे, जो रीज़न (कारण) हुए होंगे। …वो मुझे बताया ही नहीं इन्होंने कि इनकी सौदेबाज़ी हो रही है।
रिपोर्टर : आप तो इनके साथ ही रहते थे, …एक ही कमरे में?
मुश्ताक़ : वो बात तो पहले हो चुकी होगी। …हमें कहाँ बताया।
रिपोर्टर : आपको कब पता चला कि XXXX को पेमेंट हो गयी?
मुश्ताक़ : जब आपने बताया।
रिपोर्टर : मुझे तो आपने बताया?
मुश्ताक़ : तो मुझे फिर बाद में बताया होगा, जब घर ले लिया।
इस भाग में मुश्ताक़ ख़ान ने ख़ुलासा किया है कि उनके दोस्त को 2009 के लोकसभा चुनावों के दौरान एक राजनीतिक पार्टी से 15 लाख रुपये मिले थे और उसने उस पैसे का इस्तेमाल घर ख़रीदने में किया था। उनका यह भी मानना है कि समूह के अन्य लोगों को इससे भी अधिक धनराशि मिली होगी, संभवत: कुल मिलाकर लगभग एक करोड़ रुपये। मुश्ताक़ का कहना है कि उन्हें उस समय कुछ पता नहीं था और बाद में ही उन्हें इस बारे में पता चला। हालाँकि उन्होंने कहा कि उनके मन में किसी के लिए कोई कटु भावना नहीं है।
रिपोर्टर : कितना पेमेंट हुआ होगा XXXX साहेब को?
मुश्ताक़ : ये तीन लोग थे। …इनके पीछे जो और लोग थे, उनको भी मिला है। मुझे लग रहा है चार लोग थे। इनको शायद कम मिला हो, पर जो आगे वाले थे, उनको शायद ज़्यादा मिला हो। मुझे मालूम है कि इनकी बैक पर कुछ लोग थे और जिन्होंने इनको आगे बढ़ाया था।
रिपोर्टर : XXXX साहेब को?
मुश्ताक़ : जी।
रिपोर्टर : पैसा कितना मिला था टोटल (कुल)?
मुश्ताक़ : 15 लाख मिला था।
रिपोर्टर : अकेले इनको, … XXXX साहेब को?
मुश्ताक़ : जी।
रिपोर्टर : औरों को?
मुश्ताक़ : उनको ज़्यादा मिला होगा। …मुझे लगता है कि एक करोड़ लिया होगा। XXXXX ने दिया होगा। चार-पाँच में डिस्ट्रीब्यूट हुआ (बँटा) होगा।
रिपोर्टर : XXXXX मतलब, XXXX पार्टी से मिला होगा इनको, तो कम मिला फिर?
मुश्ताक़ : जो मिला होगा, ले लिया होगा।
रिपोर्टर : मगर इन्होंने 15 में घर तो ख़रीद लिया?
मुश्ताक़ : बिलकुल।
रिपोर्टर : 2009 में 15 की क़ीमत बहुत ज़्यादा थी?
मुश्ताक़ : बहुत ज़्यादा।
रिपोर्टर : आपको भनक भी नहीं लगी?
मुश्ताक़ : मैं बाख़ुदा बता रहा हूँ।
रिपोर्टर : आपको जब बताया, तो बुरा नहीं लगा?
मुश्ताक़ : कर क्या सकता हूँ?
अब मुश्ताक़ ख़ान ने स्वीकार किया है कि उसके दोस्त ने न केवल टीवी बहसों के माध्यम से पैसा कमाया, बल्कि इस दौरान बनाये गये सम्बन्धों का उपयोग करके सरकारी नौकरी भी हासिल की। यद्यपि मुश्ताक़ उनके क़रीबी थे, फिर भी उन्होंने अपने दोस्त के लाभ लेने पर सवाल नहीं उठाया; क्योंकि उन्हें डर था कि इससे उनके रिश्ते ख़राब हो सकते हैं।
रिपोर्टर : इन्होंने टीवी डिबेट में आकर, … XXXX साहेब ने पहले तो अपना घर बनाया…?
मुश्ताक़ : अपनी सलाहियत (योग्यता) है।
रिपोर्टर : नहीं, आपकी इनसे इनती गहरी दोस्ती है, आप इनसे बात कर सकते हैं; …तो आपको पूछना चाहिए था कि जब 15 लाख मिले, तो हमारा भी फ़ायदा कराते?
मुश्ताक़ : उससे क्या होता? …ताल्लुक़ात (सम्बन्ध) ही ख़राब हो जाते।
रिपोर्टर : भाई! कुछ भी हो, …. XXXX साहेब ने ग़ज़ब फ़ायदा उठाया।
मुश्ताक़ : ये तो है। …और ये नौकरी भी इनको इसी बुनियाद पर मिली है। ऊँचे ताल्लुक़ बनाकर भी इंसान सोचता है, कहीं-न-कहीं फ़ायदा होगा…।
पिछले कुछ वर्षों में टीवी पर होने वाली बहसों, विशेषकर हिंदू-मुस्लिम बहसों ने अपने लिए एक बुरा नाम कमाया है। कुछ लोगों का कहना है कि इससे प्रतिभागियों के मानसिक स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है। जो कोई भी इन बहसों में नियमित रूप से शामिल होता है, वह तनाव महसूस करता है। हालाँकि अलग-अलग लोग उस तनाव पर अलग-अलग प्रतिक्रिया करते हैं। कुछ लोगों ने तो स्वयं को अधिकांश टीवी बहसों से भी दूर कर लिया है। ‘तहलका’ ने इस पड़ताल के दौरान जिन लोगों से बात की, उनके अनुसार टीवी पर होने वाली बहसें अक्सर तयशुदा मैचों की तरह लगती हैं, जहाँ मेहमान (गेस्ट) अभद्र भाषा का प्रयोग करते हैं। लड़ते हैं या गर्मजोशी से भरी बहस करते हैं। हिंदू-मुस्लिम टीवी बहसों पर ‘तहलका’ की इस पड़ताल से, जो पहले कभी नहीं की गयी थी; पता चला कि मेहमानों से अक्सर विशिष्ट रुख़ अपनाने के लिए कहा जाता है। इस बहस ने उन छोटे-मोटे मुस्लिम मौलवियों को भी बेनक़ाब कर दिया है, जिन्होंने इन फ़र्ज़ी बहसों के ज़रिये प्रसिद्धि और धन अर्जित किया है। अंतत: यह निष्कर्ष निकलता है कि ऐसी टीवी चर्चाएँ नैतिकता और प्रामाणिकता पर गंभीर प्रश्न उठाती हैं।
नई दिल्ली ,16 जून- रक्षा मंत्रालय के तहत काम कर रही रक्षा साइबर एजेंसी ने आज एक विशेष साइबर सुरक्षा अभ्यास ‘साइबर सुरक्षा’ की शुरुआत की। यह अभ्यास 16 जून से 27 जून तक चलेगा। इसका उद्देश्य देश की साइबर सुरक्षा क्षमताओं को मजबूत करना और संभावित साइबर खतरों से निपटने के लिए विभिन्न एजेंसियों को तैयार करना है।
यह अभ्यास मुख्यालय एकीकृत रक्षा स्टाफ के निर्देशन में हो रहा है, जिसमें 100 से अधिक प्रतिभागी हिस्सा ले रहे हैं। ये प्रतिभागी देश की प्रमुख रक्षा व साइबर एजेंसियों से जुड़े हुए हैं।
इस बहु-चरणीय अभ्यास में वास्तविक साइबर हमलों जैसी स्थितियों तेयार की जायेगी ।
प्रतिभागियों को सुरक्षित साइबर व्यवहार अपनाने और तेज निर्णय लेने की क्षमता का अभ्यास कराया जाएगा। गेम आधारित चुनौतीपूर्ण वातावरण में अभ्यास को रोचक और व्यावहारिक बनाया गया है।
इस अभ्यास का एक खास पहलू यह है कि इसमें केवल तकनीकी विशेषज्ञ ही नहीं, बल्कि मुख्य सूचना सुरक्षा अधिकारियों (CISO) के लिए भी एक विशेष सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है। इस सम्मेलन में साइबर सुरक्षा के क्षेत्र के विशेषज्ञों द्वारा व्याख्यान दिए जाएंगे और एक टेबल-टॉप अभ्यास के माध्यम से नेतृत्व क्षमता को परखा जाएगा।
रक्षा साइबर एजेंसी ने जानकारी दी कि इस तरह के अभ्यास नियमित रूप से आयोजित किए जाएंगे ताकि सभी स्तरों पर साइबर सुरक्षा के प्रति सजगता बनी रहे और एक सुरक्षा-प्रथम संस्कृति विकसित की जा सके।
नई दिल्ली- रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भर भारत की ओर एक और कदम बढ़ाते हुए गोवा शिपयार्ड लिमिटेड (GSL) ने भारतीय तटरक्षक बल के लिए निर्मित पांचवीं फास्ट पेट्रोल वेसल (FPV) ‘अचल’ का सोमवार को भव्य जलावतरण किया। यह पोत आठ एफपीवी की श्रृंखला में से पांचवां है, जिसे गोवा में आयोजित समारोह में कविता हरबोला ने लॉन्च किया। इस मौके पर कोस्ट गार्ड के वेस्टर्न सीबोर्ड के कमांडर और अतिरिक्त महानिदेशक अनिल कुमार हरबोला भी उपस्थित थे।
अचल’ को 60 प्रतिशत से अधिक स्वदेशी उपकरणों और संसाधनों के साथ डिजाइन और निर्मित किया गया है। यह पोत 52 मीटर लंबा, 8 मीटर चौड़ा है और इसका वजन करीब 320 टन है। यह सीपीपी आधारित आधुनिक प्रणोदन प्रणाली से युक्त है, जिससे यह 27 नॉट (लगभग 50 किमी/घंटा) की रफ्तार तक पहुँच सकता है।
अचल’ का निर्माण विशेष रूप से समुद्री निगरानी, गश्त, तटीय क्षेत्रों की सुरक्षा और द्वीपों की निगरानी जैसे कार्यों के लिए किया गया है। यह पोत भारत की ऑफशोर परिसंपत्तियों की रक्षा में अहम भूमिका निभाएगा।
473 करोड़ रुपये की लागत से बन रही इस पूरी परियोजना ने स्थानीय स्तर पर रोजगार के अवसर बढ़ाए हैं और MSME सेक्टर को भी नई ऊर्जा दी है। शिपयार्ड से जुड़ी कई फैक्ट्रियों में उत्पादन गतिविधियों को बल मिला है।
जलावतरण समारोह में GSL के चेयरमैन एवं मैनेजिंग डायरेक्टर श्री ब्रजेश कुमार उपाध्याय, भारतीय नौसेना, तटरक्षक बल और शिपयार्ड के कई वरिष्ठ अधिकारी शामिल हुए।
नई दिल्ली,जून 14 – एयर इंडिया की अहमदाबाद से लंदन जा रही फ्लाइट AI-171 की दुर्घटना को लेकर केंद्र सरकार ने गंभीर रुख अपनाते हुए एक उच्चस्तरीय जांच समिति के गठन की घोषणा की है। इस समिति की अध्यक्षता केंद्रीय गृह सचिव करेंगे और यह समिति तीन महीने के भीतर अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपेगी।
शनिवार को नागर विमानन मंत्री किंजरापु राम मोहन नायडू ने एक संवाददाता सम्मेलन में यह जानकारी दी। उन्होंने स्पष्ट किया कि कमेटी द्वारा सुझाए गए सभी सुधारात्मक उपायों को पूरी तरह लागू किया जाएगा, ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाएं दोहराई न जाएं।
मंत्री नायडू ने कहा, “इस हादसे को लेकर जितने भी दृष्टिकोण सामने आए हैं, सभी की गहनता से जांच की जाएगी। यह केवल तकनीकी कारणों की जांच तक सीमित नहीं रहेगी, बल्कि सभी संभावित पहलुओं—तकनीक, मानवीय भूल, प्रोटोकॉल, और विमान रख-रखाव की प्रक्रियाएं—को ध्यान में रखते हुए समग्र जांच होगी।”
उन्होंने बताया कि इस जांच में नागर विमानन महानिदेशालय (DGCA), विमान दुर्घटना जांच ब्यूरो (AAIB), विमान निर्माता बोइंग, और अन्य अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ एजेंसियां पहले ही जुट चुकी हैं।
हादसे के दौरान विमान का ब्लैक बॉक्स सुरक्षित बरामद कर लिया गया है। विमान दुर्घटना जांच ब्यूरो इसकी डिकोडिंग कर रहा है, जिससे हादसे की वास्तविक वजहों का पता चल सकेगा। जांच टीम को ब्लैक बॉक्स से फ्लाइट डेटा और कॉकपिट वॉयस रिकॉर्डिंग मिलेंगी, जो घटना के समय विमान की स्थिति और क्रू की बातचीत को स्पष्ट करेंगी।
मंत्री नायडू ने बताया कि हादसे की सूचना मिलते ही पूरे नागर विमानन मंत्रालय के साथ गुजरात सरकार, डीजीसीए और अन्य एजेंसियां सक्रिय हो गई थीं। आग पर जल्द काबू पाया गया और मलबा हटाने का कार्य युद्धस्तर पर शुरू किया गया। सभी एजेंसियों ने आपसी समन्वय से त्वरित कार्रवाई करते हुए जनहानि को और बढ़ने से रोका।
मंत्री ने कहा कि मारे गए यात्रियों के परिजनों को सरकार हरसंभव नैतिक और प्रशासनिक सहयोग दे रही है। शवों की पहचान के लिए डीएनए टेस्ट कराए जा रहे हैं और पहचान होते ही उन्हें परिजनों को सौंप दिया जाएगा।
उन्होंने पीड़ित परिवारों के प्रति गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए कहा, “पिछले दो दिन बेहद कठिन रहे हैं। यह हादसा केवल एक विमान दुर्घटना नहीं थी, बल्कि इसने पूरे देश को झकझोर दिया है।”
मंत्री नायडू ने मीडिया से जांच प्रक्रिया में सहयोग करने का आग्रह करते हुए कहा कि “जैसे ही जांच समिति अपनी रिपोर्ट सौंपेगी, हम उसके आधार पर मौजूदा सुरक्षा मानकों और प्रोटोकॉल को और अधिक मजबूत करेंगे। हमारा उद्देश्य स्पष्ट है—ऐसे हादसे दोबारा न हों।”
उन्होंने कहा कि सरकार केवल जवाबदेही तय नहीं करेगी, बल्कि प्रभावी ढांचे में बदलाव लाकर हर यात्री की सुरक्षा सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस कदम उठाएगी।
अंजलि भाटिया, नई दिल्ली , 14 जून – केरल के तट के पास समुद्र में संकट में फंसे सिंगापुर के कंटेनर जहाज एमवी वान हाई(MV Wan Hai) 503 को भारतीय तटरक्षक बल (ICG) ने भारतीय नौसेना और वायुसेना के सहयोग से सुरक्षित बचा लिया। इस जहाज में आग लगी थी और वह धीरे-धीरे तट की ओर बह रहा था। समय पर कार्रवाई नहीं होती तो यह एक बड़ा पर्यावरणीय संकट बन सकता था।कई दिनों से तटरक्षक बल जहाज को समुद्र में रोके हुए था। 13 जून को मौसम अचानक बिगड़ गया और तेज हवाओं के कारण जहाज किनारे की ओर बढ़ने लगा। तभी नौसेना ने कोच्चि से सी किंग हेलीकॉप्टर भेजा।
खराब मौसम के बावजूद हेलीकॉप्टर ने बहादुरी से काम करते हुए जहाज पर सेल्वेज टीम को उतारा।टीम ने जहाज को 600 मीटर लंबी रस्सी से समुद्री टगबोट ‘ऑफशोर वॉरियर’ से जोड़ दिया। इसके बाद जहाज को धीरे-धीरे खींचकर 35 नॉटिकल मील दूर ले जाया गया।जहाज में अब केवल थोड़ा बहुत धुआं और कुछ गर्म स्थान (हॉटस्पॉट) बचे हैं। आईसीजी(ICG) के तीन गश्ती पोत मौके पर मौजूद हैं और लगातार निगरानी कर रहे हैं।अतिरिक्त फायर फाइटिंग टग्स भी रास्ते में हैं ताकि कोई खतरा न रह जाए।तटरक्षक बल और नौवहन महानिदेशालय (DG Shipping) ने मिलकर यह फैसला किया है कि जब तक जहाज के मालिक कोई फैसला नहीं लेते, उसे कम से कम 50 नॉटिकल मील दूर समुद्र में ही रखा जाएगा।समंदर में जलते हुए जहाज का किनारे की ओर आना तटीय इलाकों के लिए खतरनाक हो सकता था। अगर जहाज का ईंधन या कोई रसायन समुद्र में फैलता, तो यह समुद्री जीवों और पर्यावरण को भारी नुकसान पहुंचा सकता था।