धोखाधड़ी से डॉक्टरी

 

यदि आपका बच्चा पढ़ने में कमजोर हो, 10वीं या 12वीं थर्ड डिवीजन में पास हुआ हो, आप उसे डॉक्टर बनाना चाहते हों लेकिन यह भी समझते हों कि वह मेडिकल की प्रवेश परीक्षा में पास नहीं हो पाएगा तो चिंता न करें. आपका यह सपना पूरा हो सकता है.

यह फर्जी डॉक्टर बनाने वाले किसी संस्थान का विज्ञापन लग सकता है. लेकिन उत्तराखंड के दोनों सरकारी मेडिकल कॉलेजों का कोई विज्ञापन बने तो वह भी कुछ ऐसा ही होगा. अपनी पड़ताल में तहलका के हाथ जो जानकारियां लगीं वे साफ इशारा करती हैं कि यहां पढ़ रहे छात्रों का एक बड़ा हिस्सा ऐसा है जो प्रतिभा नहीं बल्कि जुगाड़ के बल पर यहां आया है. कई छात्र ऐसे हैं जिनका स्कूली शिक्षा का रिकॉर्ड दयनीय है, लेकिन ये न सिर्फ इन कॉलेजों में प्रवेश पा गए बल्कि प्रवेश परीक्षा की लिस्ट में अव्वल भी आए. तहलका की  पड़ताल यह संकेत भी देती है कि यह गोरखधंधा इन कॉलजों की शुरुआत से ही चल रहा है. इस पूरे मामले में सबसे ज्यादा हैरानी और चिंता की बात यह है कि फर्जीवाड़े का पैमाना इतना बड़ा होने पर भी सरकार ने अब तक किसी उच्च स्तरीय जांच की घोषणा नहीं की है. जो जांच चल रही है और जिस हिसाब से चल रही है उससे लगता नहीं कि सरकार को इस गोरखधंधे के असली खिलाड़ियों को पकड़ने और उन्हें दंडित करने में कोई दिलचस्पी है.

उत्तराखंड में केवल दो सरकारी मेडिकल कॉलेज हैं.  एक हल्द्वानी और दूसरा श्रीनगर नाम के कस्बे में. 200 की क्षमता वाले इन कॉलेजों में हर साल 170 छात्रों का चयन उत्तराखंड सरकार द्वारा तय एजेंसी प्रदेश स्तरीय मेडिकल परीक्षा के माध्यम से करती है. बाकी छात्र आॅल इंडिया पीएमटी परीक्षा के जरिए चुनकर आते हैं. प्रवेश परीक्षा कराने वाली एजेंसी का चयन चिकित्सा स्वास्थ्य विभाग करता है.

बताया जाता है कि यह घोटाला तब खुला जब हल्द्वानी स्थित मेडिकल कॉलेज के प्रधानाचार्य को शक हुआ कि प्रवेश परीक्षा पास करके आ रहे छात्रों का एक बड़ा हिस्सा शैक्षणिक प्रतिभा के मामले में उस स्तर का नहीं है जैसा होना चाहिए. इसके बाद जांच हुई तो 17 छात्र ऐसे निकले जिन्होंने फर्जीवाड़ा करके प्रवेश परीक्षा पास की थी. फिलहाल स्थिति यह है कि ऐसे 33 छात्र मेडिकल कॉलेजों से निकाले जा चुके हैं. इनमें से 16  श्रीनगर (गढ़वाल) स्थित मेडिकल कॉलेज में थे. इनमें दो छात्राएं भी हैं. इन्हें 2011 में हुई राज्य पीएमटी परीक्षा के जरिये प्रवेश मिला था. इन सभी के खिलाफ संगीन धाराओं में मुकदमे भी दर्ज कर लिए गए हैं. आरोप यह है कि इनकी जगह किसी और ने प्रवेश परीक्षा दी थी इसलिए प्रवेश परीक्षा के दिन ली गई इनके अंगूठे की छाप और मेडिकल कॉलेज में प्रवेश के समय ली गई  अंगूठे की छाप अलग-अलग निकली. छात्रों की बर्खास्तगी का फैसला फॉरेंसिक जांच के नतीजों के आधार पर लिया गया. इनके अलावा श्रीनगर मेडिकल कॉलेज के  40 और छात्र भी शक के दायरे में हैं. ये भी 2011 बैच के हैं. इसी बैच के हल्द्वानी में पढ़ रहे दर्जनों छात्रों पर भी शक की तलवार लटक रही है. ये ऐसे छात्र हैं जिनके अंगूठे के निशान स्पष्ट नहीं हैं और इसलिए इनके मामले में चल रही फॉरेंसिक जांच अभी खत्म नहीं हो पाई है.

दोनों कॉलेजों का मकसद यह था कि गरीब परिवारों से ताल्लुक रखने वाली प्रतिभाएं भी डॉक्टर बन सकें. पर हुआ उल्टा. यानी यह बड़ी नीतिगत असफलता भी है

2011 के बैच में जब इतनी बड़ी संख्या में फर्जीवाड़ा करके आए छात्र पकड़े गए तो श्रीनगर मेडिकल काॅलेज ने फैसला किया कि साल 2010 की परीक्षा के जरिए यहां प्रवेश पाने वाले 89 छात्रों की भी जांच करवाई जाए. कॉलेज ने उस साल प्रवेश परीक्षा कराने वाली एजेंसी उत्तराखंड तकनीकी विश्वविद्यालय को लिखा कि वह परीक्षा कक्ष में ली गई इन छात्र की अंगूठे की छाप भेजे. लेकिन कोई जवाब नहीं आया. छह बार रिमाइंडर देने के बावजूद स्थिति यही रही. कई महीने बाद विश्वविद्यालय ने मेडिकल कॉलेज से ही कॉलेज में प्रवेश के समय ली गई छात्रों के अंगूठे की छाप अपने पास मंगवाई. बताया गया कि विश्वविद्यालय खुद जांच करवाना चाहता है. लेकिन महीनों बीत गए और मसला वहीं का वहीं है. यानी आगे बढ़ने की कोई इच्छा नहीं.

वैसे इसकी पूरी कोशिश हुई थी कि दाखिले के दो साल बाद होने वाली जांच में भी छात्रों को संदेह का लाभ मिल जाए. प्रवेश परीक्षा के समय परीक्षा कक्ष में लिए गए अंगूठे के निशानों के नीचे परीक्षा कक्ष निरीक्षक के हस्ताक्षर नहीं थे. इनके अलावा छात्रों के विवरणों में कई गलतियां भी थीं. यही हाल मेडिकल काॅलेज का भी था. यहां भी प्रवेश देते समय लिए गए अंगूठों के निशानों की पुष्टि करने वाले विश्वविद्यालय के किसी भी अधिकारी के हस्ताक्षर मौजूद नहीं हैं. एक प्राध्यापक बताते हैं, ‘परीक्षा प्रक्रिया में इस तरह की गलतियां जान-बूझ कर किसी गिरोह को मदद करने के लिए की गई होंगी.’ गौरतलब है कि तकनीकी विश्वविद्यालय पहले भी कई गलत वजहों से सुर्खियों में रहा है.

2011 में फर्जी ढंग से प्रवेश पाने वाले इतने सारे छात्र पकड़े गए. प्रवेश परीक्षा के पीछे एक रैकेट सक्रिय है, ऐसी खबरें तो बहुत पहले से ही उड़ रही थीं. इसके बावजूद हैरानी की बात है कि उत्तराखंड शासन ने कभी भी मेडिकल कॉलेजों से यह नहीं कहा कि पुराने बैचों के छात्रों की भी जांच की जाए. गौरतलब है कि पिछले पांच साल के दौरान राज्य में मेडिकल चिकित्सा विभाग ज्यादातर मुख्यमंत्रियों के पास ही रहा है.

इस घोटाले के बारे में न सरकार में कोई कुछ बोलने को तैयार है और न ही मेडिकल कॉलेज या परीक्षा कराने वाली एजेंसी का कोई अधिकारी इस मसले पर कुछ कहना चाहता है. एक जांच अधिकारी बताते हैं, ‘पहली नजर में ही ज्यादातर छात्र फर्जी दिखते हैं , लेकिन परीक्षा आयोजित कराने वालों ने हर स्तर पर ऐसी गलतियां की हैं कि उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर निकाले गए छात्रों को भी अदालत में फर्जी साबित करना मुश्किल होगा.’

तहलका ने 2011 की राज्यस्तरीय मेडिकल मेरिट सूची के पहले 30 अभ्यर्थियों की जांच की. इन 30 में  से  केवल 21 ने ही  राज्य के मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लिया था. जांच के बाद इन 21 टॉपर छात्रों में से 12 यानी करीब 60 फीसदी छात्र निकाले जा चुके हैं. चार और छात्र शक के दायरे में हैं. ये वही हैं जिनके अंगूठे की छाप अस्पष्ट है. तहलका ने निकाले गए और संदेह का लाभ ले रहे इन 16 छात्रों के हाईस्कूल और इंटरमीडिएट के अंकों की खोज-बीन की तो पाया ये सभी छात्र इन दोनों परीक्षाओं में द्वितीय श्रेणी में पास हुए थे. इन टॉपर  21 छात्रों में से केवल पांच यानी 25 फीसदी छात्र ही ऐसे थे जिन्हें हाई-स्कूल और इंटरमीडिएट की परीक्षा में 80 प्रतिशत के पास या उससे ऊपर अंक मिले थे. इन पांच प्रतिभाशाली छात्रों को अंगूठे की जांच में कोई परेशानी नहीं हुई. तहलका को पता चला कि 2011 में जो 33 छात्र निकाले गए उनमें से इक्का-दुक्का ही ऐसे हैं जो हाई स्कूल या इंटर की परीक्षा में प्रथम श्रेणी से पास हुए हैं.

तहलका ने 2011 से पहले के वर्षों में दाखिला लेने छात्रों की भी पड़ताल की. इनके हाई स्कूल व इंटरमीडिएट परीक्षा के रिकॉर्ड, मेडिकल प्रवेश परीक्षा की मेरिट और मेडिकल काॅलेज में इनके प्रदर्शन पर गौर किया जाए तो फर्जीवाड़ा खुद-ब-खुद बोलता है. उदाहरण के तौर पर, साल 2009 में श्रीनगर मेडिकल काॅलेज में प्रवेश पाने वाले एक छात्र के हाईस्कूल की परीक्षा केवल 39.20 प्रतिशत अंक थे. यह छात्र इंटरमीडिएट की परीक्षा 58.80 प्रतिशत अंकों के साथ पास हुआ. लेकिन मेडिकल प्रवेश परीक्षा में उसकी 58वीं रैंक थी जिसे बहुत अच्छा कहा जाता है. हमने मेडिकल काॅलेज की परीक्षाओं में इस छात्र के प्रदर्शन की जांच की. पता चला कि प्रवेश परीक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन करने वाला यह ‘प्रतिभाशाली’ छात्र दो विषयों की परीक्षा में हाजिरी कम होने के कारण नहीं बैठ पाया और जिन दो विषयों की परीक्षा में वह वैठा, उन दोनों ही में वह फेल हो गया.

ऐसे और भी कई उदाहरण हैं. इसी बैच में हाई-स्कूल की परीक्षा 38.10 और इंटर की परीक्षा 55.80 फीसदी अंक के साथ पास करने वाला एक छात्र मेडिकल प्रवेश परीक्षा में 79वीं रैंक लाया. लेकिन अब उसकी कहानी भी खराब है. प्रवेश परीक्षा में इतना बढ़िया प्रदर्शन करने वाले ये छात्र अभी पहले ही वर्ष की परीक्षा पास करने के लिए जूझ रहे हैं, जबकि इन्हें तीसरे वर्ष में होना चाहिए था. दूसरी ओर इसी बैच में हाईस्कूल व इंटर की परीक्षाओं में 80 से लेकर 90 फीसदी अंक लाने वाली चारु जखवाल और इशिता गुप्ता की रैंक प्रवेश परीक्षा में 128 व 149 आई थी. यह रैंक पहले दो उदाहरणों से काफी पीछे है. प्रवेश परीक्षा में काफी पीछे रहने के बावजूद ये छात्राएं मेडिकल काॅलेज की परीक्षाओं में टॉपर हैं.

हैरानी स्वाभाविक ही है कि पढ़ाई में हमेशा फिसड्डी रहने वाले सारे छात्र अचानक जिंदगी में एक परीक्षा यानी मेडिकल प्रवेश परीक्षा में बेहतरीन प्रदर्शन कर जाएं. इस बैच में दोनों काॅलेजों में दर्जनों ऐसे छात्र हैं जिन्हें हाईस्कूल और इंटर की परीक्षाओं में प्रथम श्रेणी भी नहीं मिली पर मेडिकल प्रवेश परीक्षा की मेरिट सूची में ये सभी अव्वल स्थान पर रहे. अब ये सभी छात्र मेडिकल काॅलेज में पढ़ाई में फिसड्डी हैं. कॉलेज के एक प्रोफेसर बताते हैं, ‘ये किसी तरह घिसटते-घिसटते 8- 10 सालों में एमबीबीएस पास कर ही लेंगे. फिर सरकार को इन्हें जब नौकरी देनी ही है तो फिर भला इन्हें क्या चिंता?’

मेडिकल कॉलेजों में फर्जी प्रवेश कराने वाला रैकेट और डॉक्टर बनने की हसरत रखने वाले प्रत्याशी उत्तराखंड में कितने बेखौफ होकर काम कर रहे थे इसका एक उदाहरण देखिए. साल 2008 में हरिपाल नाम के एक छात्र को हल्द्वानी मेडिकल कॉलेज में निष्कासित कर दिया गया था. इस छात्र ने उत्तराखंड राज्य का गलत मूल निवास प्रमाण पत्र बनाकर दाखिला लिया था. लेकिन यही हरिपाल एक बार फिर 2011 में परीक्षा देकर श्रीनगर स्थित राज्य के दूसरे मेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने में सफल रहा. यहां भी हरिपाल अंगूठे की जांच में पकड़ा गया और बाहर हो गया. हल्द्वानी कॉलेज में पकड़े जाने पर हरिपाल के शैक्षिक प्रमाण पत्र वहीं जब्त कर लिए गए थे. अब सवाल उठता है कि फिर उसने किन शैक्षिक प्रमाण पत्रों के आधार पर प्रवेश लिया. हरिपाल की 2008 में 48वीं रैंक थी. 2011 में मेडिकल प्रवेश परीक्षा में 180वें स्थान पर आए हरिपाल के प्रमाणपत्र बताते हैं कि उसने हाईस्कूल की परीक्षा 49 और इंटरमीडिएट परीक्षा 59 फीसदी अंकों के साथ पास की है.

 

इसकी पूरी कोशिश हुई है कि जांच में भी छात्रों को संदेह का लाभ मिल जाए. देखा जाए तो प्रवेश परीक्षा से लेकर दाखिले की प्रक्रिया तक कई गड़बड़ियां हैं

 

मेडिकल कॉलेज, तकनीकी विश्वविद्यालय और उत्तराखंड शासन का इस फर्जीवाड़े के प्रति जो रुख है और पुलिस की जांच जिस गति से चल रही है उसे देखकर अंदाजा हो जाता है कि उत्तराखंड में काम कर रहे इस गिरोह की जड़ें बहुत गहरी हैं. सूत्र बताते हैं कि इस गिरोह की पैठ शासन से लेकर कॉलेज तक और पेपर आयोजित कराने वाली एजेंसी से लेकर मेडिकल कॉलेजों तक हर स्तर पर है. यह गिरोह उन छात्रों को अपनी गिरफ्त में लेता है जो कई सालों से कोचिंग कर रहे हैं. डॉक्टर बनने की चाहत रखने वाली धनी मां-बाप की जो संतानें मेहनत से प्रवेश परीक्षा नहीं निकाल सकतीं उन्हें लालच देने का काम होता है. इस सारी प्रक्रिया में कोचिंग कराने वाले संस्थानों की भूमिका भी संदेहास्पद है. देहरादून के एक कोचिंग संस्थान ने तो अपने विज्ञापनों में अभी भी शान के साथ उन छात्रों की फोटो और नाम छापे हुए हैं जो 2011 में मेरिट में आए लेकिन फर्जीवाड़ा पकड़े जाने पर जिन्हें बाद में निकाल दिया गया.

एक मायने में देखा जाए तो यह एक बड़ी नीतिगत असफलता भी है. 2008 में श्रीनगर में मेडिकल कॉलेज के उद्घाटन के समय तत्कालीन मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी ने वादा किया था कि इससे आस-पास के पहाड़ी जिलों के प्रतिभाशाली छात्र यहां मेडिकल की पढ़ाई करके इन दुर्गम क्षेत्रों की सेवा करेंगे. परंतु हुआ उल्टा. शुरुआती वर्षों में यहां प्रवेश लेने वाले छात्रों में से उंगली पर गिनने लायक छात्र ही इन जिलों के थे. पहले तीन सालों तक शक के दायरे में आने वाले अधिकांश छात्र ऊधमसिंह नगर, हरिद्वार और देहरादून के थे. इस बात के फैलने पर इस गिरोह ने अब पहाड़ी जिलों में भी अपना शिकार खोजना शुरू कर दिया था. पिछले साल निष्कासित 33 छात्रों में से चार-पांच छात्र ही इन पहाड़ी जिलों के निवासी हैं.

काॅलेजों से निष्कासित मुन्ना भाइयों के अभिभावकों की चिंता है कि अब उनके बच्चे घर से बाहर निकलने की स्थिति में नहीं हैं. उधर, ऐसे सैकड़ों प्रतिभावान छात्र-छात्राएं भी हैं जो स्कूल में अच्छा प्रदर्शन करने और जी-तोड़ तैयारी के बाद भी मेडिकल प्रवेश परीक्षा पास नहीं कर पाने के कारण अवसादग्रस्त हो गए हैं. इनके अभिभावकों में से कई ने कर्ज लेकर इन्हें कोचिंग कराई है. फर्जी छात्रों के प्रवेश परीक्षा में निकलने के कारण इन मेधावी बच्चों का समय बर्बाद हुआ और इनके अभिभावकों का पैसा व्यर्थ गया. सवाल यह भी है कि धीरे-धीरे राज्य की मेडिकल सेवा में प्रवेश करने वाले ये मुन्ना भाई गरीबों का कैसा इलाज करेंगे.

वक्त के साथ बदले तरीके

80 के दशक में मेडिकल प्रवेश परीक्षा का पेपर बाहर भेज कर हल कराया जाता था. यह सुविधा बहुत सीमित छात्रों को मिल पाती थी. समय के साथ फर्जीवाड़े के तरीके भी बदले हैं.  अब सारी परीक्षा और हर छात्र को परीक्षा में पास कराने का ठेका एक ही गैंग का होता है. यह गिरोह फॉर्म भराने से लेकर काउंसलिंग से आगे बढ़ाने तक का ठेका लेता है. परीक्षार्थी के बदले कोई और परीक्षा देता है. परीक्षा देने वाले युवक-युवतियों को देश के नामी मेडिकल काॅलेजों का छात्र बताया जाता है. लेकिन हकीकत यह है कि गैंग के ये सदस्य साधारण साइंस पढ़े होते हैं. विशेषज्ञों का मानना है कि इतनी बड़ी संख्या में प्रतिभाशाली छात्रों का मिलना असंभव है. एक साल तक मेडिकल की पढ़ाई के साथ प्रवेश परीक्षा में बढ़िया नतीजे देना भी आसान नहीं है इसलिए अधिक संभावना यह है कि रैकेट की पहुंच प्रवेश परीक्षा के पेपर तक होती होगी. गिरोह के सदस्य  छात्र की हैसियत के हिसाब से उससे पैसा वसूलते हैं. 10 से लेकर 25 लाख तक का सौदा होता है. कोई एडवांस नहीं. लिखित परीक्षा के बाद काउंसलिंग के समय पैसा लेकर छात्र का प्रवेश पत्र वापस किया जाता है. इसके बाद की जिम्मेदारी रैकेट की बजाय प्रवेश लेने वाले छात्र की होती है. सारा पैसा गिरोह के मुखिया के पास पहुंचता है और वही सबको बांटता है.(महिपाल कुंवर और गरिमा सिंह के सहयोग से)