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सिनेमा के सौ साल के उपलक्ष्य में…

फिल्म इतिहास के सौ साल पूरे होने के सुअवसर पर एक सर्वदलीय बैठक बुलाई गई. तय हुआ कि सभी पार्टियों के लोग साथ-साथ एक फिल्म देखेगें. लेकिन तभी एक बुजर्ग नेता ने सुझाव दिया कि चूंकि हमारा देश एक लोकतांत्रिक देश है, इसलिए मुनासिब यही होगा कि सब अपनी-अपनी पसंद की फिल्में देखें. इस सुझाव को सभी दलों ने फौरन मान लिया. सब अपनी-अपनी पसंद की फिल्म देखने निकल पड़े.

अधिकांश नेताओं ने मनी है तो हनी है को देखना पंसद किया. जैसे कि पांचो उंगलियां एक बराबर नहीं होतीं, वैसे ही सब नेता एक-से नहीं होते, इसलिए बहुतेरों ने वह फिल्म न देखकर दूसरी फिल्म अपना सपना मनी मनी  देखी. मगर कुछ खास नेताओं ने खास वजहों से खास फिल्में देखीं. 

लालकृष्ण आडवाणी जी जिस सिनेमाघर में फिल्म देखने गए, इत्तफाक से वहां उन्हें नरेंद्र मोदी मिल गए. उस सिनेमाघर में चल रही फिल्म का नाम था, एक फूल दो माली. दुआ-सलाम करने के बाद दोनों तय करके अलग-अलग सिनेमाघर में फिल्म देखने गए. आडवानी जी ने देखी वह सुबह कभी तो आएगी तो मोदी ने जागते रहो

ए राजा ने गोलमाल रिटर्न तो कलमाड़ी साहब ने खेल खेल में देखी. करुणानिधि जी ने घात देखी, तो जयललिता जी ने प्रतिघात देखी. यूपी के मुख्यमंत्री अखिलेश जी का पापा कहते हैं देखने का मन था, मगर डैडी  देखी, तो मुलायम सिंह जी ने बेटा देखी.

बहिन मायावती ने देखी गीत गाया पत्थरों ने तो ममता दीदी ने अमानुष देखी. रेलमंत्री मुकुल राय जी एक फिल्म देखने जा ही रहे थे कि उनका पीए उनके कान में कुछ फुसफुसा गया. रेलमंत्री का चेहरा चमक गया. रेलमंत्री ने द बर्निंग ट्रेन न देखकर फिर चलती का नाम गाड़ी देखी.

नीतीश जी खिलाड़ी देखने अपने घर से अभी निकले ही थे कि लालू जी को यह बात पता चल गई, उन्होंने झट खिलाडि़यों का खिलाड़ी देख डाली. जब यह बात नीतीश जी को पता चली तो फिर उन्होंने सबसे बड़ा खिलाड़ी देखी.

शरद पवार जी का मूड तो था सौदागर या काला बाजार देखने का, मगर टिकट न मिलने के चलते कॉरपोरेट देखी. वहीं वित्तमंत्री प्रणब दा ने कर्ज तो गृहमंत्री पी चिंदबरम जी ने कागज के फूल देखी. 

फिल्म के चयन को लेकर सबसे ज्यादा अगर कोई कन्फ्यूजन हुआ, तो माननीय दिग्विजय सिंह जी को. उनकी फिल्मों की सूची लंबी थी. दबंग, जीने नहीं दूंगा, झूठ बोले कौवा काटे वगैरह थी, इसलिए वह इतनी दुविधा में पड़ गए कि कोई फिल्म न देख सके.

प्रधानमंत्री जी भी फिल्म देखने की सोच रहे थे. इस बाबत वे सोनिया जी से मिले. ‘मैडम आप कौन-सी देखने जा रही है?’ ‘जो राहुल दिखाने ले जाए!’ ‘ तो कौन सी फिल्म चुनी है राहुल बाबा ने ?’ ‘मत पूछिए मनमोहन जी, एक हो तो बताऊं! उसकी लिस्ट में तो मुगल-ए-आजम, मुकद्दर का सिकंदर, मदर इंडिया न जाने क्या-क्या है! खैर छोडि़ए! आप कौन-सी फिल्म देखने जा रहे हैं?’ ‘सोच रहा हूं कि राजा हरीश्चंद्र देखूं!’ ‘अरे वह तो मूक फिल्म है!’ ‘तो फिर ‘खामोशी’ कैसी रहेगी!’ ‘ आप पर काम का कितना बोझ है! कोई हल्की-फुल्की मनोरंजक फिल्म देखिए न!’ ‘ एक फिल्म और सोची है मैडम! सोचता हूं वही देख लूं …’ ‘हां हां, बताइए न! कौन-सी सोची है?’ मनमोहन जी रुककर बोले, ‘…सिंग इज किंग’. यह सुनते ही सोनिया जी मुस्करा दी. मनमोहन जी शरमा गए. 

-अनूप मणि त्रिपाठी

राजनीति नहीं,‘साध’नीति

भारतीय राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ने ऑर आतंक फैलाने के आरोपित जरनैल सिंह भिंडरावाले को शहीद का दर्जा देना. मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या करने वाले बलवंत सिंह राजौना को जिंदा शहीद का दर्जा देना,  और अब ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान स्वर्ण मंदिर में मारे गए लोगों, जिनमें वे भी शामिल हैं जिन्हें सरकार आतंकवादी का दर्जा देती है, की याद में उसी परिसर में स्मारक का निर्माण करवाना.

पंजाब में हाल के दिनों में कुछ घटनाएं दर्ज की गईं जो ऊपर से देखने में धार्मिक रूप से बेहद संवेदनशील लगती हैं लेकिन गहरी परतों में इनके अब कई राजनीतिक कोण निकलते दिख रहे हैं. सबसे ताजा मामला स्वर्ण मंदिर परिसर में स्मारक बनवाने का है. बाकी मामलों की तरह स्मारक बनवाने के लिए सैद्धांतिक रूप से शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति (एसजीपीसी) ही मुहिम चला रही थी और इस मसले पर राज्य की जनता का प्रतिनिधित्व करने वाली तीनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां कांग्रेस, भाजपा और अकाली दल बयानबाजी से बच रही थीं.

लेकिन धीरे-धीरे यह मसला मीडिया में आने और इसपर से धार्मिक संवेदनशीलता का मुलम्मा कुछ फीका पड़ने के साथ ही पार्टियों ने अपनी राय जतानी शुरू कर दी. कांग्रेस ने जहां इस घटना कड़ी निंदा की वहीं भाजपा ने भी अपनी सहयोगी पार्टी अकाली दल के सामने नाराजगी व्यक्त कर दी. इस मसले का सबसे दिलचस्प पहलू है अकाली दल की चुप्पी. राज्य में कभी पंथिक मामलों की सबसे बड़ी झंडाबरदार रही इस पार्टी ने मीडिया में बस इतना ही कहा कि पार्टी या सरकार का स्वर्ण मंदिर परिसर में स्मारक के निर्माण से कुछ भी लेना-देना नहीं है और यह काम एसजीपीसी कर रही है.जानकार अकाली दल की इस चुप्पी में गहरी राजनीतिक समझ देख रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पिछले कुछ महीनों से पंजाब में जो कुछ हो रहा है वह एक बेहद सोची समझी राजनीति का हिस्सा है. ऐसा माना जा रहा है कि अकाली दल अपनी राजनीति को पुनर्स्थापित और पुनर्परिभाषित कर रहा है. 

पिछले चुनावों में अकाली दल ने विकास और सुशासन को अपना चुनावी नारा बनाया था. इसी के दम पर चुनाव लड़ा और ऐतिहासिक जीत दर्ज की. इसके बीच में एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि अकाली दल जो एक पंथिक पार्टी हुआ करती थी उसने अपने पंथिक चेहरे से जाने अनजाने में दूरी बना ली. लेकिन चुनाव के बाद ऐसा कहा जा रहा था कि मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे सुखबीर सिंह बादल राज्य में फिर से अपनी सरकार बनने से खुश तो थे लेकिन पार्टी के उन नेताओं को नहीं समझा पा रहे थे जो अकाली दल के पंथिक मामले को पीछे छोड़ दिए जाने से कुछ नाराज हैं.  इन नेताओं का कहना है कि इस चुनाव के बाद सिखों में यह संदेश जा रहा है कि पार्टी पंथिक मामलों पर अब लड़ाई से किनारा कर रही है. पंजाब विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफेसर मंजीत सिंह भी अकालियों की इस चिंता से इत्तेफाक रखते हैं, ‘ अकाली दल की जड़ ही पंथिक है. ऐसे में ये उसके अस्तित्व का हिस्सा है. वे कैसे इन सबसे अपने को बहुत अधिक समय तक दूर रख सकते हैं?’ सूत्र बताते हैं कि पार्टी नेतृत्व के सामने ये सारी बातें रखी गईं. इनमें कहा गया कि पार्टी वोटर इस बात से खुश तो हैं कि उनकी पार्टी चुनाव जीत गई लेकिन एक बड़ा तबका पार्टी के अपने इतिहास,जड़ और छवि के साथ समझौता करने से खिन्न है. इसी फीडबैक के आधार पर पार्टी ने एक नया तरीका निकाला. एक नई रणनीति बनाई और उसी का प्रभाव सामने दिखाई दे रहा है. 

जानकार बताते हैं कि पार्टी ने तीन स्तरों पर काम करना शुरू किया है. एक तरफ वह विकास और सुशासन पर फोकस कर रही है तो दूसरी तरफ उसका ध्यान खुद को पंथिक मोर्चे पर मजबूत करने की तरफ भी है. पंथ से जुड़े मामलों पर उसने एसजीपीसी को सक्रिय कर रखा है और सभी मसलों पर नर्म रुख अपनाने की रणनीति अपनाई है. अमृतसर के स्वर्ण मंदिर परिसर में बन रहे स्मारक पर अकाली दल का रुख यही रणनीति है. तीसरी तरफ उसने बाकी तबकों को पार्टी से जोड़ने की मुहिम छेड़ रखी है जो परंपरागत तौर पर पार्टी के वोटर नहीं रहे हैं. इसमें हिंदू और शहरी क्षेत्र के अन्य लोग आदि शामिल हैं. इस तरह अकाली दल एक नए मॉडल पर काम कर रहा है जिससे सबको साधा जा सके. जो विकास और सुशासन चाहते हैं उनको भी और जो कट्टरपंथी हैं उन्हें भी. अकाली दल की इस रणनीति का फायदा उसे मिलता भी दिख रहा है. यह  दल हाल ही हुए नगर निकायों के चुनावों में उम्मीद के विपरीत शहरी क्षेत्रों में सबसे बड़ा दल बनकर उभरा है. अकाली दल को ग्रामीण क्षेत्र की पार्टी माना जाता रहा है लेकिन इन चुनावों ने इस धारणा को भी तोड़ दिया.

पिछले विधानसभा चुनावों में कई हिंदू उम्मीदवारों को टिकट देकर अकाली दल ने खुद को उदारवादी सांचे में ढालने की कोशिश की थी और वे इसमें खासे सफल भी रहे. लेकिन अब वे एक नई रणनीति और नरम रुख के साथ वापस पंथिक मसलों की ओर मुड़ते दिख रहे हैं. वरिष्ठ पत्रकार बलवंत तक्षक मानते हैं कि अकाली दल के पास पंथिक मामले छोड़ना सबसे जोखिम भरी राह है.  वे कहते हैं,’ अकाली इस बात को जानते हैं कि वे चाहें जितना भी विकास और सुशासन का नारा लगा लें लेकिन अगर उन्होंने अपना पंथिक एजेंडा छोड़ा तो वे बचेंगे नहीं. यही कारण है कि वे पिछले कुछ समय में इसको लेकर फिर अति सक्रिय दिख रहे हैं.’

विचार का सूखा और शहरों की डूब

कल तक जो शहर गर्मी और पानी की कमी से परेशान दिखते थे, आज अचानक उनकी सड़कों पर और उनके मकानों में घुटने-घुटने पानी जमा हो जाता है.

हमारे मित्र देवेंद्र का कहना है कि नल निचोड़ने के दिन आ गए हैं. इस मुद्दे पर 10 साल पहले उन्होंने एक बहुत ही सुंदर कार्टून भी बनाया था. कई बार कोई एक कार्टून भी बहुत उथल-पुथल मचा जाता है. लेकिन देवेंद्र के इस कार्टून पर तब किसी राजनेता का ध्यान तक नहीं गया. आज नल निचोड़ने के साथ किसी क्षण नल को डूबो देने के दिन भी आ सकते हैं. थोड़ा-सा पानी गिरता नहीं कि शहरों में एकदम से बाढ़ आ जाती है. हाय-तौबा मच जाती है. कल तक जो शहर गर्मी और पानी की कमी से परेशान दिखते थे, आज अचानक उनकी सड़कों पर और उनके मकानों में घुटने-घुटने पानी जमा हो जाता है. 

इस सबका दोष नालियों की सफाई से लेकर प्लास्टिक के कचरे तक पर मढ़ा जाता है. एक-दूसरे पर आरोप लगाए जाते हैं, लेकिन हर साल शहरों की बाढ़ बरसात से पहले ही आने लगती है. फिर बरसात की बाढ़ का तो कहना ही क्या! दो-चार चीजें एक-दूसरे के साथ जुड़ जाएं तो मुंबई जैसा बड़ा शहर जुलाई के किसी हफ्ते में पूरे सात दिन के लिए तैर जाता है और डूब जाता है. इंद्र को वर्षा का देवता माना जाता है. पुरानी संस्कृति में उनका एक नाम ‘पुरंदर’ भी है. पुरंदर का मतलब पुरों को तोड़ने वाला भी होता है. पुर का मतलब गढ़ और शहर भी होता है. गढ़ अक्सर शहर में ही होते थे. इंद्र का बाढ़ से संबंधित एक किस्सा बहु-प्रचारित है और वह गोवर्धन से जुड़ा हुआ है. वह किस्सा गांव की बाढ़ का वर्णन करता है जिसमें गोपाल कृष्ण ने अपनी छिंगली से गोवर्द्घन पर्वत को उठाकर कई गांवों को डूबने से बचा लिया था. लेकिन शहरों पर जब इंद्र का कहर टूटता है तो कोई गोपालक उन शहरों को बचाने के लिए आगे नहीं आ पाते.पुरंदर बहुत पुराना नाम है और इससे लगता है कि उन दिनों भी हमारे शहर बहुत व्यवस्थित रूप से नहीं बसे थे. शहर की बसावट अच्छे ढंग से की जाए, उस पर गिरने वाले पानी को ठीक से रोकने का प्रबंध हो. पानी के ठीक से बह जाने का प्यार भरा रास्ता हो तो यहां वर्षा का पानी तालाबों में भर जाएगा और बचा हिस्सा आगे चला जाएगा. 

अब हम ऐसा होने नहीं देते. जमीन की कीमत हमारे शहरों में आसमान तक पहुंचा दी गई है, इसलिए आकाश से गिरने वाला पानी जब शहर की इस जमीन पर उतरता है तो उसकी पिछली याद मिटती नहीं. हमारे इन सारे शहरों में बड़े-बड़े कई-कई तालाब हुआ करते थे. आज जमीन की कीमत के बहाने हमने इन सबको कचरे से पाटकर सोने के दाम में बेच दिया और अब इन्हीं इलाकों में पानी दौड़ा चला आ रहा है. कहा जाता है कि जब सौ साल पहले अंग्रेजों ने दिल्ली को राजधानी बनाया तो यहां छोटे-बड़े कोई 800 तालाब थे. शायद आज मुश्किल से आठ तालाब बचे हों. बाकी के नाम सरकारी फाइलों में भी नहीं मिलते हैं. जो हाल दिल्ली का है, वही बाकी सारी जगहों का. इन तालाबों के मिटने के कारण शहर में पानी की कमी होना अब पुरानी बात हो गई है. उसका हल हमारी सरकारों ने सौ-सौ, दो-दो सौ किलोमीटर दूर से किसी और के हिस्से का पानी इन शहरों में चुराकर लाने की योजनाएं बनाकर कर लिया है जो बड़े लोकतांत्रिक तरीके से पास करवा ली गई हैं. 

लेकिन या तो इन सरकारों ने इंद्र को बताया नहीं या इंद्र ने इनकी बात सुनी नहीं, इसलिए वे हमारे इन शहरों पर उतना ही पानी गिराए चले जा रहे हैं जितना कुछ हजार साल पहले गिराते रहे होंगे. इसलिए पहले पानी की कमी, अकाल और उससे निपट भी नहीं पाए कि बाढ़ का दौड़ा चला आना– जब तरह-तरह के राजनीतिक घोटालों के बीच इन घटनाओं को प्राकृतिक आपदा कहकर छुटकारा पाने का घोटाला चलता जा रहा है. l

‘भरोसा दोनों तरफ से होता है’

 

मैं शायद कुछ और लिखता परंतु इसी बीच आमिर खान का सत्यमेव जयते का डॉक्टरों पर प्रोग्राम देख लिया तो यह लेख लिखना जरूरी लगा. नहीं, मैं डॉक्टरों की तरफ से कोई सफाई, आरोप या धमकी देने का काम नहीं करूंगा. मेरा मानना है कि आमिर ने अर्धसत्य दिखाया. सत्य का दूसरा पक्ष तब तक पूरा नहीं होता है जब तक आप मेरा यह लेख न पढ़ लें. 

डॉक्टर और मरीज के बीच भरोसे का ही संबंध है. यह भरोसा ही है जो डॉक्टर को ताकत देता है और मरीज को हिम्मत. आमिर ने इस भरोसे के टूटने की बात कही और पूरी ईमानदारी से कही. ऐसे प्रोग्रामों से अच्छे डॉक्टरों को न तो चिंता करनी चाहिए, न शिकायत. परंतु क्या बात इतनी ही सरल है? क्या खलनायक इतने ही हैं?  क्या डॉक्टर ही पूरी तरह से इस अराजकता के जिम्मेदार हैं? क्या मरीज के व्यवहार और गलत अपेक्षाओ से चालाक किस्म के चंद धंधेबाज डॉक्टरों को वह मौका नहीं मिल रहा जिसके रहते अच्छे डॉक्टरों पर भी छींटें आ रही हैं? पिछले 38 वर्षों से मैं डॉक्टरी कर रहा हूं. मरीजों का मेरे ऊपर ऐसा भरोसा रहा है जो लगातार मुझे सतर्क रखता है. इस अनुभव के निचोड़ से मैं यहां कुछ बातें लिख रहा हूं. मरीज के तौर पर हम आप अपने डॉक्टर से बड़ी उम्मीद करते हैं, पर वह भी कुछ उम्मीद आपसे करता है. मैं एक डॉक्टर के तौर पर मरीज का भरोसा तोड़ने वाली उन बातों का जिक्र करूंगा जिन पर मरीज का ही नियंत्रण है. तो मेरी शिकायतें और सलाहें ये हैं

इलाज तथा बीमारी की वास्तविकता और सीमाएं समझें: न जाने क्यों कदाचित मीडिया तथा धंधेबाज डॉक्टरों के विज्ञापनी हथकंडों के कारण यह भ्रम खड़ा हो गया है कि आधुनिक चिकित्सा पद्धति के पास अब हर परेशानी का उत्तर है. मैं विनम्रतापूर्वक बताना चाहूंगा कि स्थिति प्रायः इसके ठीक विपरीत हैं. हर इलाज की सीमाएं हैं जो मरीज की उम्र, आनुवंशिकता और इसके अन्य रोगों से तय होती है. बाईपास सर्जरी छह माह पहले ही हुई थी और एकदम ईमानदारी से बहुत बढि़या की गई थी परंतु छह माह बाद ही हार्ट अटैक हो सकता है. यह इस मर्ज के इलाज की सीमा है. एन्जियोप्लास्टी के अगले दिन ही हार्टअटैक हो गया साहब. दो लाख ले लिए और काम ऐसा किया! पर यह होना संभव है. कार के रिपेयर में और डॉक्टरी इलाज में यही अंतर है. डॉक्टर आम तौर पर ये सीमाएं बताते नहीं या तो व्यस्त रहने के कारण या अपना मरीज डरकर भाग न जाए यह सोचकर. पर वास्तविकता यही है. कई जांचें और इलाज ऐसे हैं जो स्थापित नहीं हैं परंतु माना जाता है कि ये काम करेंगे : इनके विषय में हर डॉक्टर की राय अलग-अलग हो सकती है. आपका डॉक्टर कुछ औैर कहे तथा दूसरा कुछ औैर. तो आप परेशान हो जाते हैं कि जरूर दोनों में एक तो झूठा है. दोनों अपने अनुभव से बता रहे हैं, जिस पर भरोसा हो उसकी बात मानें. 

कृपया इंटरनेट से अपनी बीमारी तथा इलाज न समझें :  जैसे कि इंटरनेट से हवाई जहाज चलाने के बार में कुछ जानकारी प्राप्त करके पायलट के सिर पर खडे़ नहीं हो जाते कि हवाई जहाज को ऐसे नहीं ऐसे चलाओ, ठीक यही बात डॉक्टरी पर भी लागू होती है. ब्रह्मांड से उतरा यह इंटरनेटी ज्ञान लेकर बहुत-से मरीज मेरे पास भी आते हैं. कहते हैं कि सर आपने मेरा यह टेस्ट तो कराया ही नहीं जबकि इंटरनेट पर साफ लिखा है कि माइग्रेन में सीटी स्केन तो. काश कि मेडिकल सांइस इतनी सरल और सीधी होती तथा आपका शरीर और इसकी व्याधियां ऐसे गणित के फॉर्मूले जैसी होतीं. तब तो हर कोई कंप्यूटर में बीमारी का डाटा डालकर इलाज कर लेता. मानव शरीर, इसका मन, बीमारियों के कारण तथा उनकी जड़ यह सब तो अभी एक कुहासे में हैं. डॉक्टर इसी कुहासे या धुंध में रास्ता तलाशते है. तो कृपया इंटरनेट को देखकर इस मशीन को खोलने का प्रयास न करें, न ही करवाएं वरना आपके पुर्जे ऐसे बिखर सकते हैं कि कोई डॉक्टर बटोर भी नहीं पाएगा. 

मेडिकल शॉपिंग न करें : अर्थात रोज डॉक्टर न बदलें. यह आशा न करें कि दस दिन में ठीक होने वाली बीमारी दो दिन में ठीक करने वाला डॉक्टर मिल जाएगा, जितने डाक्टरों की राय लेंगे उतने ही भ्रम में पडें़गे. यह न करें कि ऊटी या दिल्ली घूमने निकले थे परंतु वहां एक डॉक्टर का बड़ा नाम सुना तो उसे दिखाने भी चल दिए. अपने डॉक्टर पर भरोसा रखें.

बीमारी रातोंरात ठीक होने की जिद न करें :  दस्त एक रोज में रुक जाए औैर खांसी दो दिन के इलाज के बाद भी क्यों नहीं रुक रही, डॉक्टर साहब? यह सब न करें. आपकी जिद में, मरीज किसी और डॉक्टर के पास भाग न जाए, इस चिंता में कई बार डॉक्टर फिर कुछ ऐसी दवाएं न दे दे जो तुरंत तो आराम दे परंतु लंबे समय में नुकसानदायक साबित हो सकती है. हर बीमारी का एक नैसर्गिक कोर्स होता है. माना कि आप जल्दी में होंगे पर बीमारी के इलाज में कोई शार्टकट नहीं होता. 

संदेशों से खेती न करें : मेरे पास ऐसे मरीज भी आते हैं जो एकाध ईसीजी, फाइल या एक्स-रे लाते हैं और बताते हैं कि मरीज तो ग्वालियर में है पर आप यह देखकर सलाह दें कि हम उनका क्या करें. याद रखें कि जब तक डॉक्टर ने मरीज को नहीं देखा है तब तक उसकी राय बेहद अधूरी तथा अविश्वसनीय होती है.

अपने डॉक्टर से कुछ भी न छिपाएं तथा अपनी गलत आदतों को अंडरप्ले न करें : डाॅक्टर को सब बताएं. दारू, सिगरेट, लड़कियों से नाजायज संबंध, मानसिक चिंताएं, डर आदि आपकी बीमारी के कारण भी हो सकते हैं या डॉक्टर के इलाज में बाधा पहुंचा सकते हैं या ठीक से डॉक्टर के पूछने पर भी यदि न बताया जाए तो डॉक्टर गलत डायग्नोसिस भी कर सकता है. डाक्टर पर भरोसा रखें, वह जो भी पूछे ठीक से बताएं. तंबाकू तो बस जरा सा ही खा लेते हैं, दारू तो बस दोस्त मिल जाते हैं तो हो जाती है जैसे वाक्य बोलकर अंडरप्ले न करें. ऊपर कही गई बातों के अलावा और भी बातें हैं पर फिर किसी मौके पर. 

 

‘सामाजिक और सांस्कृतिक वैमनस्य क्रांति की वजह बना’

मध्य प्रदेश के मंदसौर से लोकसभा सांसद  मीनाक्षी नटराजन की पहचान बगैर किसी शोर-शराबे के काम करने वाले युवा नेता की है. उनके बारे में यह भी माना जाता है कि वे राहुल गांधी की टीम का अहम हिस्सा हैं. बीते दिनों उस वक्त वे विवादों में घिरती नजर आईं जब उन्होंने मीडिया पर नियंत्रण के लिए एक निजी विधेयक संसद में पेश किया. 39 साल की सादगी पसंद मीनाक्षी की सामाजिक और राजनीतिक सक्रियता नई तो नहीं है लेकिन हाल में उन्होंने बतौर लेखिका दस्तक देने का काम अपनी दो खंडों की पुस्तक ‘1857: भारतीय परिप्रेक्ष्य’ के जरिए किया. इस किताब में 1857 की क्रांति और इससे जुड़े तथ्यों का विश्लेषण एक अलग दृष्टि से भारतीय परिप्रेक्ष्य में किया गया है. यह किताब इस बात को विस्तार से समझाती है कि कैसे 1857 की क्रांति ने भारत को राष्ट्र राज्य की अवधारणा के करीब लाने में अपनी भूमिका निभाई और देश के एक बड़े हिस्से को एक सूत्र में बांधा. इस किताब में 1857 की क्रांति और इस क्रांति तक पहुंचने के पूरे रास्ते से जुड़ी छोटी-बड़ी घटनाओं से परिचित कराते हुए एक स्पष्ट तस्वीर खींचने की कोशिश की गई है. किताब में उस दौर की समस्याओं के साथ उनके समाधान की बेचैनी भी दिखती है. मीनाक्षी का अंदाज-ए-बयां इतना सहज है कि पढ़ते वक्त कहीं भी बोझ या अटकाव महसूस नहीं होता. वैसे तो 1857 पर ढेरों किताबें लिखी गई हैं लेकिन हिंदी में अब भी इनकी संख्या मामूली ही कही जा सकती है. मीनाक्षी की इस कोशिश को उस कमी को दूर करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण योगदान के तौर पर देखा जाना चाहिए. किताब के बहाने इतिहास और वर्तमान समय के मौजूं सवालों पर मीनाक्षी से हिमांशु शेखर की बातचीत.

आपकी किताब का नाम है- 1857: भारतीय परिप्रेक्ष्य. क्रांति के दस्तावेजीकरण में ‘भारतीय परिप्रेक्ष्य’ से आपका क्या तात्पर्य है?

भारतीय परिप्रेक्ष्य से मेरा तात्पर्य उस समय की पृष्ठभूमि को समझने से है. सबसे पहले तो यह कि उस वक्त के आर्थिक शोषण से सामाजिक और सांस्कृतिक वैमनस्य उपजा. यह उस क्रांति की बड़ी वजह थी. सिर्फ चर्बी वाले कारतूस की वजह से उपजे प्रतिरोध से उस क्रांति को जोड़कर देखना उचित नहीं है, क्योंकि  1857 की क्रांति के लिए लंबी तैयारी के कई प्रमाण मिलते हैं. मिसाल के तौर पर, हजीमुल्ला और नाना साहब की तथाकथित तीर्थ यात्रा अलग-अलग कैंट क्षेत्र में हुई. इस यात्रा के दौरान ये दोनों अलग-अलग छावनियों में गए. इसके अलावा दोनों ने एक तारीख तय की. उस दौरान पत्र व्यवहार भी तैयारी को ही दिखाते हैं. संदेश के प्रचार-प्रसार के लिए लोक कला का इस्तेमाल किया गया. इन तैयारियों  के बारे में अलग-अलग जगह लिखा जरूर गया है लेकिन उसे समग्रता में कभी नहीं देखा गया. यही वजह है कि उसे एक क्रांति के रूप में न देखकर सिर्फ चर्बी वाले कारतूस से उपजे प्रतिरोध के तौर पर देखा जाता है. इसे मैं न्यायसंगत नहीं समझती. 

 इस किताब से आप कैसा विमर्श शुरू होने की उम्मीद कर रही हैं?

इस किताब पर काम करते हुए दो बातें मेरे मन में बिल्कुल साफ थीं. एक बात तो यह कि हम उस वक्त को बिल्कुल सही ढंग से समझें. हमें यह भी समझना चाहिए कि बहुत समय के बाद 1857 एक ऐसा वक्त था जब देश के एक बड़े हिस्से ने एक राष्ट्र के रूप में सोचा था और एक केंद्रीकृत नेतृत्व के साथ इस लड़ाई को आगे बढ़ाया. यही वजह है कि उस दौरान देश के अलग-अलग हिस्सों में सामाजिक सद्भाव देखने को मिलता है. समाज को इन बातों को आज के परिप्रेक्ष्य से जोड़कर देखना चाहिए. हम एक बहुलतावादी समाज में रह रहे हों तब यह और भी जरूरी हो जाता है. आज भी अगर हम कोई आर्थिक फैसला करें तो उसके दूरगामी परिणामों पर व्यापकता से सोचना चाहिए.   

इतिहासकारों का एक वर्ग ऐसा है जो यह मानता है कि अगर अंग्रेजों ने रेल और डाक जैसे बुनियादी ढांचों को विकसित नहीं किया होता तो भारत की तरक्की की राह में कहीं अधिक रोड़े होते. आपकी प्रतिक्रिया चाहूंगा?

हमें यह समझना होगा कि सोलहवीं सदी से लेकर अठारहवीं सदी के बीच ब्रिटेन में जो औद्योगिक क्रांति हुई उसके पीछे का अर्थ तंत्र क्या था. यह सिर्फ मैं नहीं कह रही हूं. विलियम डिगबाई ने एक किताब लिखी है ‘प्रॉस्पेरस ब्रिटिश इंडिया’. इसमें उन्होंने उस दौरान जो भी बड़े खोजें हुईं उसके पीछे के अर्थ तंत्र क्या थे, समझाया है. उपनिवेशों के आर्थिक और सामाजिक शोषण की वजह से ब्रिटेन में हजारों करोड़ रुपया पहुंच रहा था. इसका निवेश उन्होंने वैज्ञानिक खोजों में किया और शोध को मुकम्मल नतीजे पर पहुंचाने में सफलता अर्जित की. इसलिए मेरा मानना है कि भारत के शोषण और लूट के जरिए जो पैसा ब्रिटेन पहुंचा अगर वह नहीं पहुंचा होता तो उनकी औद्योगिक क्रांति सफल नहीं होती और अगर होती भी तो वह बहुत धीमी गति से चलती. यह बात दादा भाई नौरोजी ने भी लिखी है. दूसरी बात यह है कि तरक्की का एक माहौल होता है. एक समय अरब के लोगों ने पूरी दुनिया को अपने कब्जे में ले लिया था और उस दौरान अरबवासियों ने गणित और खगोलविज्ञान का बहुत विकास किया. अलग-अलग समय पर अलग-अलग देश को ऐसा माहौल मिलता है जिसमें वह विकसित होता है. जब अंग्रेज यहां आए तो उस दौर को भारत की संस्कृति का संध्या काल कहा जाता था. उस समय भी राजा जय सिंह जयपुर में बैठकर जंतर-मंतर बना रहे थे. उस वक्त भी टीपू सुल्तान तोपें बना रहे थे. इसका मतलब यह हुआ कि वैज्ञानिक अविष्कार और खोज के प्रक्रिया में कोई कमी नहीं थी. अंग्रेजों ने हमारे जहाजरानी उद्योग, कपड़ा उद्योग और कारीगरी को बेरहमी से कुचला. इन पर अलग-अलग कर लगाए गए. मैं यह नहीं कह रही कि अगर अंग्रेजों ने ऐसा नहीं किया होता तो हम एकदम से चांद पर होते. लेकिन इतना जरूर है कि अगर अंग्रेजों ने इतनी बेरहमी नहीं दिखाई होती तो हम विकास के दूसरे पायदान पर जरूर होते. जवाहर लाल नेहरू ने ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ में इस बात का उल्लेख किया है कि अगर अंग्रेज हमें बुनियादी ढांचा विकसित करके आधुनिक बनाने का काम नहीं करते तो भी दुनिया भर में जो तरक्की की हवा चल रही थी हम उससे अलग नहीं रहते. हो सकता है कि हम वह काम दस साल बाद करते. इन सबके बावजूद मैं मानती हूं कि उस वक्त की हमारी जो सामाजिक, सांस्कृतिक और राष्ट्रीय सुस्ती थी उसको उन्होंने खंगालने का काम जरूर किया. इसकी एक उपलब्धि यह है कि जिस अंग्रेजी शिक्षा के जरिए लॉर्ड मैकाले भारत के लोगों को क्लर्क बनाना चाहते थे उसी अंग्रेजी शिक्षा ने भारत को क्रांतिकारी नायक भी दिए. उन्होंने जो रेल का ढांचा विकसित किया उससे आवागमन में सुविधा हुई और इसने अलग-अलग समय के आंदोलनों को बल दिया.

 

आपने किताब में लिखा है कि 1857 के बाद भारत में लंबे समय तक कोई क्रांति नहीं हुई. क्या इसकी वजह यह है कि भारतीय समाज शोषण, उत्पीड़न और अन्याय को जीवन का हिस्सा मान लेता है?

 

1857 और उसके बाद अंग्रेजों ने व्यापक हिंसा को अंजाम दिया. इस भयानक और क्रूर हिंसा की वजह से कुछ समय तक सशस्त्र क्रांति नहीं हुई. लेकिन हमें यह भी समझना होगा कि उसके बाद भी छोटे-छोटे जनजातीय आंदोलन होते रहे. हालांकि, इसका एक केंद्रीकृत स्वरूप नहीं बन पाया. इस दौरान जो एक आधुनिक वर्ग तैयार हुआ उसने हमारे समाज की भीतरी सामाजिक जड़ता को तोड़ने की कोशिश की? यह बहुत जरूरी था. ज्योतिबा फूले से लेकर आंबेडकर तक ने सामाजिक समता की लड़ाई लड़ी. इसके बगैर आजादी हासिल करने का कोई मतलब नहीं था. क्योंकि आजादी के बाद भी अगर आबादी के एक बड़े वर्ग का शोषण खुद उसी का समाज करता रहे तो फिर ऐसी आजादी का क्या मतलब. इसी शोषण की समाप्ति के लिए ही महात्मा गांधी ने आजादी दिलाई. सामाजिक तंद्रा को टूटने में काफी वक्त लगा. 1857 के बाद अंग्रेजों की दोहरी नीति सीधे टकराव से बचकर राज करने की रही जिसकी वजह से भी क्रांति होने में काफी देरी हुई. गांधी जी ने स्वराज की बात की. 1857 के बाद का आंदोलन सिर्फ अंग्रेजों को भगाने के लिए नहीं बल्कि खुद की आजादी के लिए भी था. वह कारगर रहा है और उसने देश को एक नया स्वरूप प्रदान किया.

1857 और 1947 के कई मुद्दे अब भी बरकरार हैं. तो क्या हम किसी और नई क्रांति की ओर बढ़ रहे हैं?

एक परिवर्तनशील समाज में संघर्ष तो रोज होंगे. अमेरिका में आज भी श्वेत और अश्वेत का भेद पूरी तरह से मिटा नहीं है. इसको लेकर वहां रोज संघर्ष हो रहा है. संघर्ष तो हमें रोज करना होगा ताकि हमारा समाज एक ऐसे स्तर पर पहुंच सके जहां समानता हो. इस लक्ष्य को हासिल किए बगैर कोई चैन से बैठ नहीं सकता. 

आपने विज्ञान में डिग्री ली फिर इतिहास में कैसे दिलचस्पी जगी?

विज्ञान आपको व्यवस्थित सोच के लिए प्रेरित करता है. विज्ञान आपको वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चीजों के अन्वेषण की प्रेरणा देता है. इतिहास लेखन एक कठिन कार्य है. इसका अनुभव मुझे लेखन के दौरान ही हुआ. पहले मुझे लगता था कि यह काम आसानी से हो सकता है. आप घटनाओं को लेकर प्रामाणिक सामग्री तो एकत्रित कर सकते हैं लेकिन फिर उसका अध्ययन करना, उसको सूक्ष्मता से समझना और बिल्कुल निरपेक्ष भाव से उसको लिखना बहुत जरूरी होता है. मेरी समझ से इन तीनों चीजों के लिए वैज्ञानिक तरीका अपनाना बेहद जरूरी है. इसलिए विज्ञान की पढ़ाई और इतिहास लेखन को मैं अलग-अलग करके नहीं देखती. विज्ञान की पढ़ाई जरूर की लेकिन इतिहास मेरी रुचि का विषय रहा है.  

पिछले कुछ सालों के दौरान यह देखा गया है कि हिंदी पट्टी के नेता भी अंग्रेजी में लिखते हैं. भले ही वे हिंदी क्षेत्र से चुनकर आते हों लेकिन उनकी विमर्श की भाषा अंग्रेजी होती है. आपकी पढ़ाई कॉन्वेंट स्कूल में हुई है लेकिन जब पुस्तक लिखने के लिए हिंदी भाषा का चयन कर रही थीं तब आपके दिमाग में क्या चल रहा था?

मैं मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र की रहने वाली हूं और ऐसा माना जाता है कि वहां के लोग हिंदी में ही सोच सकते हैं. मन की भाषा आज भी हमारे लिए हिंदी है. अगर मुझे अंग्रेजी में कोई डॉक्यूमेंट तैयार करना होता है तो आज भी मैं उसे पहले हिंदी में तैयार करती हूं. अगर अंग्रेजी में भी मैं कुछ पढ़ती हूं तो उसे हिंदी में समझने का प्रयत्न करती हूं. इन्हीं वजहों से मैंने यह किताब हिंदी में ही लिखने का फैसला किया.

बतौर लेखिका आपकी आगे की क्या योजनाएं हैं?

मेरी इच्छा तो है कि इस किताब में जहां बात खत्म हुई उससे आगे की घटनाओं यानी 1857 से 1947 के बीच की घटनाओं पर किताब लिखूं. इसके लिए कोई निश्चित समय सीमा आपको मैं नहीं बता सकती क्योंकि इन कामों में काफी वक्त लगता है. लेकिन मेरी इच्छा है कि आने वाले दिनों में मैं इस योजना पर काम शुरू करुं.

 

‘आखिर लड़कर भी मैं उन्हें समझा तो नहीं पाया’

जालंधर से दिल्ली आने वाली सुपर एक्सप्रेस सुबह आठ बजे यमुनानगर स्टेशन पर पहुंची थी. यहां से दिल्ली के लिए अगली ट्रेन रात ग्यारह बजे थी, इसलिए मैंने सुबह वाली यह ट्रेन पकड़ने का फैसला किया था. ट्रेन आई और दो मिनट के ठहराव के बाद दिल्ली की ओर बढ़ गई. मेरी यात्रा अचानक ही तय हुई थी, इसलिए मेरे पास रिजर्वेशन नहीं था. तो मैंने साधारण दर्जे का टिकट लिया और चढ़ गया एसी चेयरकार में. यह सोचकर कि टीटी से बात करके एकाध सीट का जुगाड़ कर लूंगा. संयोग से ट्रेन के आगे बढ़ते ही टीटी मुझे दिख गया. मैंने उससे एक सीट का आग्रह किया. जवाब में उसने अपने ठेठ हरियाणवी होने का सबूत दिया, ‘मेरे आगे-पीछे ना घूम. जाके पीछे खड़ा हो जा. अभी कोई सीट ना है. देवबंद के बाद पता चलेगी.’ 

डिब्बे की ज्यादातर सीटें खाली थीं, पर मैंने किसी सीट पर बैठने के बजाय पहले स्थिति साफ कर लेनी चाही. एक साथी यात्री ने बताया कि ज्यादातर सीटें सहारनपुर और देवबंद में जाकर भरती हैं. फिर भी मैंने किसी सीट पर बैठने के बजाय टीटी के कहे अनुसार डिब्बे के आखिर में खड़ा होकर इंतजार करने का फैसला किया. खड़े-खड़े मेरी नजर एक परिवार पर पड़ी. दो संभ्रांत महिलाएं थीं. दोनों आपस में बहनें लग रही थीं. जींस और टीशर्ट पहने हुए. उम्र 25 से 30 रही होगी. करीब पांच साल का एक बच्चा भी उनके साथ था. तीन लोगों का यह परिवार तीन सीटों पर बैठकर यात्रा कर रहा था. 

लेकिन मेरा ध्यान उस परिवार की तरफ खींचा था एक लड़की ने जो उनकी सीट के ठीक बगल में खड़ी थी. पीली सलवार-कमीज पहने साधारण चेहरे-मोहरे वाली एक सांवली-सी लड़की. वह एक सीट पर बैठी हुई थी जिसे बाद में आए एक यात्री ने अपनी सीट बता कर खड़ा कर दिया था. इसलिए अब वह उन दोनों महिलाओं के पास जाकर खड़ी हो गई थी. थोड़ी देर बाद उनमें से एक महिला अपनी सीट से उठी, इधर-उधर नजर दौड़ाई और थोड़ी दूर पर खाली पड़ी एक सीट पर उस बच्ची को बैठने का इशारा कर दिया. लड़की गई और उस सीट पर बैठ गई. तब तक मुझे यह बात समझ आ चुकी थी कि यह लड़की इन्हीं लोगों के साथ है और शायद उनकी नौकर है. थोड़ी देर में सहारनपुर आ गया. खूब सारे लोग चढ़े. वह लड़की एक बार फिर से विस्थापित होकर अपनी मालकिन के पास जाकर खड़ी हो गई. 

जब मैं रुका तो महिला बोली, ‘आप अपना काम कीजिए. चिल्लाने की जरूरत नहीं है’

मैं अभी भी टीटी के कहे मुताबिक देवबंद में सीट पाने की इच्छा मन में लिए डिब्बे के कोने में खड़ा था. पर अब मेरा ध्यान उस लड़की पर ठहर गया था जिसे बार-बार सीट से उठना पड़ रहा था. इस बार दूसरी महिला उठी. उड़ती निगाहों से उन्होंने डब्बे का मुआयना किया. थोड़ी दूर पर दो सीटें अब भी खाली थीं. सो मैडम ने उस लड़की को उन्हीं सीटों पर आसन जमाने का इशारा कर दिया. लड़की जाकर बैठ गई. इस बीच बच्चा जो थोड़ा चंचल था, बार-बार अपनी सीट से भागता और वह लड़की उसे पकड़ने के लिए भागती. तब तक देवबंद आ गया. यहां भी कुछ यात्री चढ़े. नतीजा लड़की का एक बार फिर से विस्थापन हो गया.  

इस बीच अपनी सीट के जुगाड़ के लिए मैं एक बार फिर टीटी की शरण में पहुंचा. टीटी महोदय ने मुजफ्फरनगर में सीट नंबर 38 मुझे अलॉट कर दी. बदले में अतिरिक्त किराया और फाइन जोड़कर उन्होंने मेरे लिए नया टिकट बना दिया. मैं बेसब्री से मुजफ्फरनगर का इंतजार करने लगा. एक बार फिर मेरा ध्यान लड़की की तरफ गया. वह फिर से उन महिलाओं के पास पास खड़ी थी. मुजफ्फरनगर भी आ गया. जैसे ही सीट खाली हुई महिला ने एक बार फिर से उस लड़की को खाली सीट पर बैठने का इशारा कर दिया. संयोग से वह मुझे अलॉट हुई सीट थी. मैं अपनी सीट पर पहुंचा. पर पीछे से उनमें से एक महिला बार-बार लड़की से कहे जा रही थी, ‘बैठी रहो, उठना मत.’ उस लड़की की स्थिति हास्यास्पद थी. मैं उसे हटने के लिए कह रहा था और उसकी मालकिन उसे बैठे रहने के लिए. 

स्थिति भांप कर मैंने लड़की के बजाय उस महिला से मुखातिब होने का फैसला किया. गुस्सा भी आ ही रहा था सो एक सांस में भड़ास निकाल दी, ‘मत उठने का क्या मतलब है? दूसरे की सीट पर बैठ कर जाएंगी क्या? नौकरानी रखने का शौक है, उसके लिए एक टिकट खरीदने का नहीं. अपने तीनों की टिकटें खरीदने की याद थी, इसके लिए क्यों नहीं खरीदा? इसे एक सीट से दूसरी सीट पर कुदा क्यों रही हो? और इसे छोटे बच्चे के साथ बिठाने में क्या परेशानी है?’ जब मैं रुका तो दूसरी महिला बोली, ‘आप अपना काम कीजिए. चिल्लाने की जरूरत नहीं है.’ मैंने वही किया यानी अपनी सीट से उस बेचारी लड़की को उठाया, खुद बैठ गया. दूसरी महिला को बात थोड़ी समझ में आ गई थी. उसने अपनी छोटी बहन को चुप कराया पर तब भी अपने बेटे के साथ उन्होंने लड़की को नहीं बिठाया. मेरठ आ गया. यहां कुछ सीटें और खाली हो गईं, लड़की का एक बार फिर से पुनर्वास हो गया.रास्ते भर एक घटना मेरे दिमाग को फेंटती रही. दिल्ली में द्वारका का वह डॉक्टर जोड़ा जिसने एक हफ्ते तक अपनी नौकरानी को घर में बंद करके बैंकॉक का सफर करने में कतई शर्म महसूस नहीं की थी. मैं सोच रहा था कि पैसे और इंसानियत के बीच यह कैसा व्युत्क्रमानुपाती संबंध हो गया है.हम दिल्ली पहुंच गए. सब अपने-अपने रास्ते चले गए. मुझे पछतावे ने घेर लिया- उस लड़की को बैठे ही रहने देता तो क्या फर्क पड़ जाता? आखिर लड़कर भी मैं उसकी मालकिन को तो कुछ समझा नहीं पाया.                                    

‘सफदर हाशमी हमेशा किसी मोहल्ले में थोड़े से लोगों के बीच मारे जाते हैं’

‘शंघाई’ ऐसी फिल्मों में से है, जो बहुत से लोगों को सिर्फ इसीलिए बुरी लग जाती है कि वह क्यों उन्हें झकझोरती है, उनकी आरामदेह अंधी-बहरी दुनिया में क्यों नहीं उन्हें आराम से रहने देती, जिसमें वे सुबह जगें, नाश्ता करें, काम पर जाते हुए एफएम सुनें जिसमें कोई आरजे उन्हें बताए कि वैलेंटाइन वीक में उन्हें क्या करना चाहिए, किसी सिग्नल पर कोई बच्चा आकर उनकी कार के शीशे को पोंछते हुए पैसे मांगे तो उसे दुत्कारते हुए अपने पास बैठे सहकर्मी को बताएं कि कैसे भिखारियों का पूरा माफिया है. फिर ऑफिस पहुंचें और वे काम करें जिनके बारे में उन्हें ठीक से नहीं पता कि किसके लिए कर रहे हैं और क्यों कर रहे हैं, थककर बड़ी-सी गाड़ी में अकेले लौटें – ट्रैफिक को कोसते हुए, टीवी देखते हुए हंसें रोएं और वीकेंड पर उम्मीद करें कि जब किसी बड़े रेस्तरां से पिज्जा खाकर निकलें तो एक मल्टीप्लेक्स में ऐसी कोई फिल्म उनका इंतजार कर रही हो, जो उनकी सारी कुंठाओं, निराशाओं, पराजयों को जादू से चूसकर उनके जिस्म और आत्मा से बाहर निकाल दे. फिल्म ही उनकी रखैल बने, उनकी नौकर, उनका जोकर. 

लेकिन तब भी एक समय तक पलायन का पर्याय बन चुके हिंदी सिनेमा में ‘शंघाई’ का सच कहने का मुस्कुराता हुआ हौसला हम सबका हौसला बढ़ाने वाला है. इसीलिए हम उसके निर्देशक दिबाकर बनर्जी, उनकी सह-लेखिका उर्मि जुवेकर और उन सब नींव की ईंटों से मिलना चाहते हैं जो इस विचार को अंदर की बेचैनी से परदे तक लेकर आए हैं. हम लालबाग की एक इमारत की पहली मंजिल पर स्थित दिबाकर बनर्जी प्रोडक्शंस के दफ़्तर पहुंचते हैं. यहां कभी एक पुर्तगाली चर्च हुआ करता था. यहीं हम घुंघराले बालों वाली वंदना कटारिया से मिलते हैं, जो फिल्म की प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और जिन्हें ‘ओए लकी..’ के लिए फिल्मफेयर मिल चुका है. कम बोलने वाले जुल्फी सहायक प्रोडक्शन डिजाइनर हैं और वे और वंदना हमें फिल्म के जोगी के स्टूडियो-कम-घर के सेट के बारे में बताते हैं, जो 110 साल पुरानी एक इमारत में बनाया गया था जो स्क्रिप्ट के हिसाब से आदर्श थी. उन्हें अपना सेट बनाने के लिए उसकी एक दीवार तोड़नी थी. यह फिल्म को प्रामाणिक बनाए रखने की उनकी जिद ही थी कि वह दीवार तोड़ी गई और उस घर की हर चीज अपने मुताबिक बनाई गई, भले ही इस दौरान हर दीवार हिलती रही हो. हम फिल्म के कार्यकारी निर्माता वसीम खान से मिलते हैं, जिनके पास अपने कैमरा उपकरण बनाकर और बहुत सारे नए और सस्ते तरीकों से, दंगे जैसे मुश्किल दृश्यों को शूट करने के बारे में बताने को इतना कुछ है जो बताता है कि बड़ी फिल्म बड़े बजट की नहीं, बड़े दिमाग की मोहताज होती है. 

 ‘ दरअसल हम बौनों का समाज चाहते हैं. ताकि हम सब सुरक्षित रहें कि हम सब चार फुटिया हैं, कोई छ: फुट का नहीं है ’

इसके बाद मैं उर्मि और दिबाकर बचते हैं. यूं तो हमें ‘शंघाई’ और उसके विचार पर ही बात करनी थी, लेकिन एक घंटे बाद हम पाते हैं कि हम महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह से लेकर सफदर हाशमी और उड़ीसा के जलते हुए मिशनरियों तक पहुंच गए हैं, हम ‘घिसे हुए कॉरपोरेट क्लास’ के लिए भी परेशान होते हैं और एक बुलबुले में रहने की आदत पाल चुके हम सब के लिए भी. यह बातचीत एक फिल्म की बात के अलावा यह समझने की भी कोशिश है कि हम सब किधर जा रहे हैं. मैं इसमें कम से कम दखल देता हूं और उर्मि और दिबाकर को बात करने देता हूं कि ‘शंघाई’ कैसे बनी, और कैसे वे ऐसे बने कि ‘शंघाई’ बनाएं. 

दिबाकर : ‘ओए लकी’ के समय से ही मैं ‘ऑल द प्रेजिडेंट्स मैन’ और ‘ज़ी’ जैसा कुछ बनाना चाहता था. उर्मि नॉवल पढ़ चुकी थी. मैंने तब तक नहीं पढ़ा था. 

उर्मि: डेढ़ साल पहले हमने लिखना शुरू किया. हमारा पहला ड्राफ्ट बहुत खराब-सा था. क्योंकि उसमें सब कुछ बहुत स्पष्ट था, सारी राजनीति. उसे देख कर लगा कि ये करना नहीं है हमें. 

दिबाकर : वो क्यों लगा? मैं इंटरव्यू लूंगा. 

उर्मि: वो इसलिए लगा कि…कहानी वही होती है, लेकिन जिस तरह से आप उसे कहते हो, उसी से वो बदलती है. पहला ड्राफ्ट बहुत इवेंटफुल था, लेकिन कहानी नहीं थी. 

दिबाकर: दो तरह की कहानियां होती हैं. एक आपको बताती हैं- व्हॉट! – (आंखें बड़ी-बड़ी करके फुसफुसाते हुए) ओह्हह! उसका ब्रदर इन लॉ मर्डरर है! दूसरी होती हैं – हाऊ कहानियां. कि कैसे हुआ. तो ‘हाऊ’ कहानी मुझे सुपीरियर लगती हैं.  तो पहले हमने व्हॉट कहानी लिखी थी. ‘क्या’ तो बड़ी क्लीशेड-सी स्टोरी होती है – (स्वर में दिल्ली वाली हैरत और आनंद) ओ बेटा जी, ट्विस्ट आ गया! तो मैंने जब अपना ड्राफ्ट लिखने के बाद उसे देखा तो थूSSका! उस ‘क्या’ की कहानी में भी सब फेक ट्विस्ट आ रहे थे.

उर्मि : दिबाकर और मैं बार-बार ये भी सवाल कर रहे थे कि हम कर क्या रहे हैं. जो हमारे आसपास हो रहा है, उस पर कैसे रिएक्ट कर रहे हैं हम. दिबाकर की सारी फिल्मों में यह दरअसल उसकी कहानी है, जिस पर असर हो रहा है और जो उस पर रिएक्ट करेगा. साथ ही मेरे लिए यह बहुत महत्वपूर्ण रहा कि कुछ लोग बदलाव लाने की कोशिश क्यों करते हैं? आपके फादर को मारा नहीं है, आपकी बहन का भरे चौराहे पर नंगा करके रेप नहीं किया गया. तब आप क्या करेंगे? इसीलिए फिल्म न्याय की कहानी है, न कि बदले की. न्याय बौद्धिक है, जबकि बदला इमोशनल है. मैं इसके लिए दिबाकर को क्रेडिट देती हूं क्योंकि ये सारी चीजें स्क्रिप्ट में नहीं थंीं, इमोशनलीं थी, सबटेक्स्ट में थी. 

गौरव : कोई ख़ास तरीका रहता है इस तरह सबटेक्स्ट ऐड करने का? 

दिबाकर : इसका काफी फूहड़ तरीका होता है. सारे निर्देशक अपने पसंदीदा सीन, चाहे फिल्म कोई भी हो, अपने एक पिटारे में रखते हैं, और कहीं भी मौका और जगह देखकर उसे घुसाने की कोशिश करते हैं. ये निर्देशक के श्याणेपन पे डिपेंड करता है कि वह किस तरह अदृश्य रूप से इसे सीन में घुसा दे और उसी सीन में घुसाए, जहां पर इसका मतलब है. 

उर्मि : क्योंकि शंघाई को प्लॉट नहीं बताना था. वह दो बिंदुओं पर हमला करती है. एक न्याय की बात, कि आप प्रूव कैसे करोगे? बदला नहीं लेना है तो प्रूव तो करना पड़ेगा. और प्रूव करने के दौरान आप पर क्या बीतती है? और वो बीतनी वो नहीं थी हमारी, कि दो पड़ोसी हंस रहे हैं, आपकी नौकरी चली गई, आपकी बिजली बंद कर दी. वो नहीं, वो कि बस आप हो अपने साथ. 

गौरव : एक कमी मुझे लगती है कि डॉक्टर अहमदी जितना बड़ा किरदार है, उसका असर उतना दिख नहीं पाता. ‘ज़ी’ में वह किरदार ज़्यादा पब्लिक से जुड़ा लगता है, उसके मरने से पहले उसके विरोध और समर्थन में ज़्यादा भीड़ होती है..

दिबाकर : ज़ी में वो डेमीगॉड है. हमारे यहां कोई डेमीगॉड है नहीं. अन्ना हजारे भी कोई बड़ी चीज नहीं है. हमको मौका मिलते ही हम उसे नीचे कर देते हैं. हम बौनों का समाज चाहते हैं. ताकि हम सब सुरक्षित रहें कि हम सब चार फुटिया हैं, कोई छ: फुट का नहीं है. मुझे अहमदी करिश्माई नहीं लगते. उनके पीछे बहुत लोग हैं, लेकिन वो महात्मा गांधी नहीं हैं. 

उर्मि : और कोई हो भी, तो हम आज के टाइम में नहीं मानते. मेधा पाटकर भी सीआईए की एजेंट, अरुंधती रॉय भी सीआईए या चीन की एजेंट. 

दिबाकर : जैसे फिल्म में हो रहा है, मेधा पाटकर के साथ कुछ हो, तो हूबहू यही प्रतिक्रिया होगी हमारे यहां. अगर आप सफदर हाशमी की मौत देखें या ऐसा ही कुछ देखें, तो ये अचानक यहीं पे इसी तरह मोहल्ले के बीच में होती हैं. दस हजार की भीड़ में कभी कोई नहीं मारता. जब सफ़दर हाशमी मरते हैं, या उड़ीसा में जैसे मिशनरी मरे थे, उन्हें बच्चों के साथ जला दिया था, इस तरह की हत्याएं 300-400 लोगों के बीच होती हैं. 

दिबाकर : उर्मि, हमें आपकी पूरी प्रोसेस की बात करनी चाहिए. कहां असंतुष्ट थीं आप, कहां संतुष्ट थीं, हर चीज तक…असल ख़ून, पसीने, आंसुओं तक ले जाइए इन्हें.. 

उर्मि : जब पहले दो ड्राफ़्ट हुए, तो न ये एक सोशल क्रिटिक था, न अच्छा ड्रामा था. एक बात से दिबाकर बहुत कतराता है कि उसके लिए सेंटीमेंट और इमोशन का बड़ा इश्यू है. कि कोई ऐसे उदास बैठा है और 500 वॉयलिन बज रहे हैं, तो आप सेंटीमेंटली लोगों को मजबूर कर रहे हो बुरा मानने के लिए. 

दिबाकर : रामायण और रामचरितमानस में यही फर्क है. मेरे हिसाब से रामायण एक क्लासिक कहानी है जो स्पष्ट रूप से बताई गई है कि ये बंदा, इसने इसको मारा, इसे फॉलो करो, इसे नहीं करो. रामचरितमानस में राम जी के बचपन को लेकर इतना रुलाओ, इतना रिझाओ दर्शकों को, कि वे भावनाओं से लहूलुहान हो जाएं. उसके बाद कहानी अपने आप आगे चल पड़ेगी. दोनों के बीच यही सेंटीमेंटेलिटी का फर्क है. शंघाई इमोशनल कहानी है लेकिन इसमें किसी किरदार को इमोशनली मेकअप नहीं किया गया. मेरे को सेंटीमेंटल नहीं करना. ट्रू इमोशनल करना है. 

उर्मि : इस संतुलन को पाने में बहुत देर लगी. मेरे ख़याल से शूट से बस एक महीने पहले ही यह पूरा हुआ. जब हम गोआ गए थे आखिरी ड्राफ्ट करने के लिए. 

दिबाकर : कॉरपोरेट क्लास जो है ना, सबसे ज्यादा घिसा हुआ क्लास है. उनको किसी चीज का कुछ फर्क नहीं पड़ता. लेकिन उसी सबसे ज्यादा मैसेज मिले मुझे, कि हम फिल्म देख कर हिल गए. अब तक मेरी किसी फिल्म को ऐसी प्रतिक्रिया नहीं मिली थी. मैं चार गुना उत्साहित हूं अब. 

उर्मि : दरअसल गुस्सा था हमारे मन में. ये किसी बड़ी चीज की कहानी नहीं है. यह उन रोज़मर्रा के चुनावों की कहानी है, जो हम करते हैं अपनी जिंदगियों में. हमने कूल होने के चक्कर में वे छोटे छोटे चुनाव करने बन्द कर दिए हैं. कुछ हो गया है कि हमने ऐसे रहना स्वीकार कर लिया है कि आपके पड़ोसी न हों. 

‘मैंने किसी को देखा ही नहीं सौ प्रतिशत ठीक रहकर जीतते. जो सबसे बड़ी हस्तियां होती हैं, उनमें ग्रे का बड़ा हेल्दी मिश्रण होता है’

मैं जब बड़ी हुई थी, तब ऐसा नहीं था. हम अपनी दुनिया का हिस्सा थे. मुझे याद है, गणपति के टाइम पे ये था ही कि आप कुछ प्ले करो, बच्चों को लेके कुछ करो. और ये फिल्मों की नकल नहीं होता था. तरह तरह के कॉम्पीटिशन होते थे. आज जब मैं उसी जगह वापस जाती हूं लोग मिलते नहीं हैं एक दूसरे से. और जहां मिलते भी हैं, वहां हिंदी फिल्म के गाने पर नाचते हैं. तो मैं समझने की कोशिश कर रही हूं कि यह क्यों हुआ, कैसे हुआ. हममें असहाय मोड बहुत ज्यादा है. और अन्ना हजारे के साथ खड़े होकर लड़ने से कुछ नहीं होगा. हर दिन आपको सही चीजें चुननी होंगी. और ये किया जा सकता है.  

गौरव : आईबीपी को यानी कॉरपोरेट के इस विकास को ख़त्म करने की, या बदलने की, फिल्म कहीं बात नहीं करती.. 

उर्मि : विकास बहुत जटिल मुद्दा है. मैंने भूटान में देखा, जहां कोई विकास नहीं है, कुछ नहीं बदलेगा. सारे लोग वही कपड़े पहनेंगे. वो उनका ग्रॉस नैशनल हैप्पिनेस का कोशेंट है. तो वहां के बच्चे टीवी देखते हैं, लेकिन उन्हें पुराने कपड़े पहनने पड़ रहे हैं. शिक्षा नहीं है. तो यह भी कोई रास्ता नहीं है कि विकास ही न हो. लेकिन किसकी प्रगति, किसका देश, यह सवाल है. 

दिबाकर : वो फिल्म जब बनेगी ना, उसे जेनुइनली सड़क पर जाकर दिखाना पड़ेगा. राजनीति को सड़क पर बहुत लोग दिखा चुके, इसलिए हमने अलग मनोवैज्ञानिक ढंग से दिखाया. लेकिन कॉरपोरेट को सीधा अंकुश के लेवल पे बिल्कुल सच दिखाना पड़ेगा. क्योंकि कॉरपोरेट वालों को तो वो सब दिखाकर कोई फायदा नहीं है. उन्हें तो सब पता है और वो तो उसी का खा रहे हैं. इसलिए वह सिंगल स्क्रीन वालों को दिखाना पड़ेगा. मेरे दिमाग में ये बहुत दिन से घूम रहा है. 

गौरव : दिबाकर, आपके किरदार आखिर में किसी चतुराई से जीतते हैं. यह परंपरागत नायक से अलग तरीका है कि सिर्फ परंपरागत रूप से अच्छा रहने से कुछ नहीं होगा. क्या यही एक तरीका बचा है इस व्यवस्था से पार पाने का? 

दिबाकर : मैंने किसी को देखा ही नहीं सौ प्रतिशत ठीक रहकर जीतते. और यह होना भी नहीं चाहिए. जब गांधी जी ही..पैंतरा चलते थे, राजनीति की चाल होती थी ना? अगर आप गांधीजी के ऊपर लिखे गए लॉर्ड इरविन के मेमोज देखें तो वे मेमोज पे मेमोज लगातार लिखे जा रहे हैं कि इस बदमाश को अंडरएस्टिमेट मत करो, ये गुजराती बनिया, श्याणा, बहुत काइयां है..तो इरविन के हिसाब से तो गांधीजी बहुत श्याणे हैं, बहुत ग्रे कैरेक्टर हैं. तो जो सबसे बड़ी हस्तियां होती हैं, उनमें ग्रे का बड़ा हेल्दी मिश्रण होता है. 

उर्मि : और देवता तो कोई है नहीं. जो अरुणा की पूरी लाइन है, वो तो पूरी फिल्म को लेकर होती है- सबको देवता चाहिए, मरने और मारने के लिए.

दिबाकर : हम एक को चुन लेते हैं. कि इसको देवता बनाएंगे. उसको बनना पड़ेगा. तभी कुछ लोग जानबूझकर बन जाते हैं. और जो भी आसुरिक होता है, वह छिपकर करते हैं फिर. 

गौरव : फिल्म की शुरुआत में जो कालिख पोतने का सीन है, बहुत स्लो मोशन में, वह बाद में आया या स्क्रिप्ट में था? 

दिबाकर : इस पर बहुत बहस हुई थी. शुरू में उर्मि इसके खिलाफ़ थीं. लेकिन ये मेरा पसंदीदा सीक्वेंस था. शूट करने के बाद मुझे लगा कि ये सीन एक्स्ट्रा है. ये दिखा रहा है कि देखो…, मैं कितना अच्छा डायरेक्टर हूं, स्लो मोशन में मुंह काला करते दिखा रहा हूं. तब मैंने उसे काट दिया और फिर पूरे ग्रुप को दिखाया. मैंने ऐसे 3-4 बार काटने की कोशिश की और हर बार ग्रुप ने कहा कि नहीं, यह होना चाहिए. 

उर्मि : जिस समय में हम रह रहे हैं, यह उसकी बेहद व्यक्तिगत हिंसा है. एक खून वाली हिंसा होती है, एक होती है आपके ज़मीर पे, आपके विचारों पर.

दिबाकर : मैं अपनी जिंदगी का कीमती लम्हा बताता हूं किसी फिल्म का..पाथेर पांचाली में अपु की मां है..वह खाना-वाना खाके..जैसे ही कांसे के कटोरे से दूध पीने लगी, इन्दी ठाकरुन, बूढ़ी औरत, जो उनके घर में आश्रित है..वो उसके सामने आकर मुंह खोलकर बैठ गई कि मेरे को भी दे दो. वैसे तो ये कॉमिक सीन है. और तब, अपु की मां दूध पीती जाती है..और उस बूढ़ी औरत का चेहरा छोटा होता जाता है..और जो लालच है ना..और दूध की धार कटोरे के दोनों तरफ से उसके होठों से बह रही है..यह बहुत डराने वाला है. मेरे लिए वह हिंसा बहुत बड़ी हिंसा है. 

जो बचेगा वह रचेगा कैसे

‘मैं ही हूं अश्वत्थामा, जिसे नर या कुंजर / मारा जाना है/ हर युद्ध में! /मैं ही हूं ट्रैजेडी का देवता दिओनिसस / मैं ही अपोलो! / सीनेट के द्वार खटखटाता हुआ / चीखता हूं मैं/ संभलो, अभी भी समय है!/ सीनेट बेख़बर है / सीनेट के सामने समस्या है / एक अरब डॉलर हथियारों के लिए कम हैं या ज़्यादा हैं.’ 

हिंदी को युद्धों और साम्राज्यों की व्यर्थता से जुड़ी कुछ सबसे अच्छी कविताएं देने वाले कवि श्रीकांत वर्मा का बेटा अभिषेक वर्मा इन दिनों हथियारों की दलाली के आरोप में अपनी पत्नी के साथ पुलिस की हिरासत में है. क्या श्रीकांत वर्मा ने कभी सोचा होगा कि उनका बेटा एक ऐसे संदिग्ध पेशे में जाएगा जिसका प्रतिरोध जीवन भर उनकी कविता करती रही? चाहें तो कह सकते हैं कि उन्होंने अपनी जिंंदगी जी थी और उनका बेटा अपनी जी रहा है. फिर यह पिता और पुत्र के बीच का मामला है जिसमें कवि को घसीटा नहीं जाना चाहिए. लेकिन यह विडंबना फिर भी अलक्षित नहीं रह जाती कि श्रीकांत वर्मा जैसे संवेदनशील और समर्थ कवि की विरासत इतनी कमजोर क्यों निकली कि वह अपने पुत्र को भी छू नहीं पाई.  इस विडंबना की पड़ताल में उतरें तो हमें कई और विडंबनाएं दिखाई पड़ती हैं जो शायद बताती हैं कि विरासत का सवाल इतना इकहरा नहीं होता, वह कई स्तरों पर चुपचाप बनता चलता है. क्या श्रीकांत वर्मा के मामले में भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा? यह एक निर्मम प्रश्न है, लेकिन पूछा जाना जरूरी है कि क्या कविता को उन्होंने अपने सत्ता विमर्श की सीढ़ी भी नहीं बना लिया था. कविता से वे पत्रकारिता तक पहुंचे और पत्रकारिता से राजनीति तक. वे इंदिरा गांधी के करीबी लोगों में बताए जाते थे और कांग्रेस के महासचिव तक बने. जाहिर है, सत्ता और शक्ति का एक खेल कवि को लुभाता-भरमाता रहा. यह सच है कि कविता को उन्होंने कभी छोड़ा नहीं, अपने राजनीतिक सौदों और समझौतों के बीच वे अपनी विवशताओं का मगध रचते रहे. लेकिन शायद यह सत्ता की, शक्ति की, हैसियत की विरासत थी जो श्रीकांत वर्मा से अभिषेक वर्मा तक गई. इस लिहाज से हम कह सकते हैं कि अंततः श्रीकांत वर्मा ने जीवन में जो कुछ किया, वह जीवन के स्थूल संबंधों में उनके सबसे करीबियों तक गया. शायद उन्हीं के रहते बने संबंध और संपर्क होंगे जिन्होंने अभिषेक वर्मा को उसके भविष्य का रास्ता दिखाया होगा. 

दुर्भाग्य से हममें से बहुत सारे लोग अपनी विरासत के साथ फिर वही अनजाना या सयाना खिलवाड़ कर रहे हैं जो श्रीकांत वर्मा ने किया

या क्या पता, जिसे हम अभिषेक वर्मा का भटकाव कह रहे हैं, शायद उसका सयानापन पिता-पुत्र और परिवार को पहले से समझ में आ गया हो. आखिर कुछ दिनों की जेल और कुछ मुकदमों के बावजूद अभिषेक वर्मा एक साधनसंपन्न शख्स है जो दुनिया भर में घूमता है, वह हिंदी के कई बीहड़ कवियों के लाचार बेटों के मुकाबले- जिन्हें जिंदगी कहीं ज्यादा निर्ममता से पीस रही है- खुशकिस्मत है कि अंततः एक दिन छूट जाएगा और किन्हीं बैंकों में रखे अपने पैसे निकाल कर एक अश्लील और अय्याश जिंदगी का सुख भोगता रहेगा. लेकिन एक तरह से यह कविता की विफलता ही है- शायद उस तरह के संवेदनशील जीवन की भी जिसकी हम कामना करते हैं. हममें से बहुत सारे लोग, जो ज़िंदगी को उसकी तरलता और सरलता के साथ जीना चाहते हैं, जो अपने बहुत सारे अभावों या बहुत सारी विफलताओं के बावजूद इस बात से खुश रहते हैं कि उन्होंने समझौते नहीं किए या किसी गर्हित मूल्यहीनता के शिकार नहीं हुए, क्या इस तरह की निर्लज्ज धृष्टता से भरी जिंदगी जीना चाहेंगे? हम जो लिखते-पढ़ते हैं, जो रचते-गुनते हैं, आखिर उसका मकसद क्या होता है? बस इतना ही कि जिंंदगी को उसकी स्थूलताओं के पार जाकर समझने की कोशिश करें, उसकी ढेर सारी छिपी हुई परतों को खोजें, उससे निकलने वाले रंगों से विस्मित और प्रमुदित हों, उसकी विडंबनाओं को भी पहचानें- जानें कि न्याय और बराबरी के बिना एक सुंदर दुनिया की कल्पना नहीं की जा सकती. अगर कविता और साहित्य अगर इतना भर मूल्यबोध हमें नहीं देते तो फिर वे व्यर्थ ही नहीं हो जाते, शक्ति और प्रदर्शन के हथियारों में और उनकी सौदागरी में बदल जाते हैं. फिर श्रीकांत वर्मा और अभिषेक वर्मा का फर्क मिट जाता है. 

लेकिन कविता बची रहती है. वह अपने कवि से छिटक कर दूर खड़ी हो जाती है. या फिर वह अपने उस कवि को धो-पोंछ कर निकालती है जो सफलता की गर्द में और सत्ता की चमक-दमक में कहीं खो गया था. श्रीकांत वर्मा के साथ शायद यही हो रहा है. जिस कविता को लिखकर वे जीवन भर अपने से दूर करते रहे, वही अब उनकी कीर्ति का कवच बनी हुई है. लेकिन इससे श्रीकांत वर्मा की निजी विडंबना कम नहीं होती- एक कवि और व्यक्ति के तौर पर उनकी वह विफलता जो साकार रूप में अभिषेक वर्मा के तौर पर हम सबके सामने है. दुर्भाग्य से हममें से बहुत सारे लोग ऐसे हैं जिनके लिए कविता- या वृहत्तर अर्थों में साहित्य- के सरोकार लगातार सत्ता और शक्ति के विमर्श में बदलते जा रहे हैं. यह अपनी विरासत के साथ फिर वही अनजाना या सयाना खिलवाड़ है जो श्रीकांत वर्मा ने किया. 

इसकी कुछ परिणतियां अब स्पष्ट हैं. लेकिन इसके बहुत सारे नतीजों से हम बेखबर हैं- क्या पता हमारी कविता भी हमारी जी हुई जिंदगी का मोल चुकाती हो? वह उतनी संवेदनसंकुल और प्राणवान न रह पाती हो जितनी हो सकती थी? क्या जिदंगी का अधूरापन हमारी कविताओं में भी दाखिल नहीं हो जाता है? लेकिन हम समझने को तैयार नहीं होते, श्रीकांत वर्मा भी कहां समझ पाए. जो रचा उसी से बचते रहे, यह लिखने के बावजूद कि जो बचेगा वह रचेगा कैसे? और बच कर रचेगा तो उसकी परिणति क्या होगी- यह उनकी विरासत का एक स्थूल रूप बता रहा है.

वासेपुर लाइव

यह महज संयोग था. धनबाद में प्राइवेट टैक्सी स्टैंड पहुंचते ही सबसे पहले नईम खान ही ‘टैक्सी-टैक्सी’ कहते हुए मिलते हैं. लगभग 70 साल के बुजुर्ग. नईम मियां से किराये का मोल-भाव शुरू करने के पहले ही मैं उन्हें बताती हूं  कि मुझे कुछ और जगहों के बाद अंत में वासेपुर जाना है. वे खुश होकर कहते हैं, ‘हमारे घर ही चलना है तो किराये को लेकर क्या मोल-भाव करना. जो सही लगे, दे दीजिएगा.’ कार में बैठते ही उनसे परिचय होता है. वे कहते हैं, ’40 साल पहले बिहार के वैशाली जिले से यहां आ गया था. वासेपुर में ही जिंदगी गुजार दी. वासेपुर में किराये के एक कमरे के मकान में रहकर अच्छे से जिंदगी गुजार रहा हूं. धनबाद के दूसरे हिस्से में घुमाते हुए नईम मियां अपने मोहल्ले वासेपुर की आबोहवा और वहां के बाशिंदों की तस्वीर  खूबसूरती से खींचते हैं. मैं बीच में ही नईम की बात काटते हुए कहती हूं कि आप तो अपने मोहल्ले को जन्नत की तरह पेश कर रहे हैं लेकिन आपके मोहल्ले पर तो फिल्म बनी है- ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर.’ हंसते हुए कहते हैं, ‘मैंने भी सुना है. आप खुद चल के देखिए. फिर आपसे ही जानना चाहूंगा कि हमारे मोहल्ले में गैंग वालों की परछाईं ज्यादा मजबूत है या शराफत ज्यादा दूर तक फैली हुई है.’

नईम मियां की अंबेसडर कार धनबाद के ओवरब्रिज से उतरते ही भीड़-भाड़ में फंसने लगती है. थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर नईम बताते हैं कि यहां से भूली रोड शुरू हो रही है. भूली रोड में हम आगे बढ़ते चलेंगे, दोनों ओर वासेपुर ही वासेपुर होगा. भूली मतलब बड़ी आबादी वाला धनबाद का एक व्यस्त कोल एरिया. थोड़ी देर में हम वासेपुर के व्यस्ततम इलाके नूरी मस्जिद के पास पहुंचते हैं. गाड़ी वहीं रुकती है. 

शाम ढल रही है. बाजार में गहमागहमी का नजारा है. पहली मुलाकात साजिया से होती है. वह ग्रैजुएट होने के बाद प्राइवेट नौकरी कर रही हैं. साजिया को गैंग्स ऑफ वासेपुर के बारे में पता है. कहती हैं, ‘वासेपुर में गैंग्स की छाया देखने आई हैं तो निराशा हाथ लगेगी, क्योंकि यहां क्रीम ज्यादा रहते हैं, क्रिमिनल नहीं.’ साजिया कहती हैं, ‘वैसे आप यह जरूर देख लीजिएगा कि यहां स्कूल नहीं है. हॉस्पिटल नहीं है. कॉलेज नहीं है.’ साजिया के साथ सदफ भी होती हैं. वे पेशे से पत्रकार हैं. सदफ कहती हैं, ‘सरकारी आंकडे़ के हिसाब से यहां की आबादी करीब डेढ़ लाख से अधिक है. गैरसरकारी आंकड़ों के मुताबिक वासेपुर की आबादी तीन लाख से भी ज्यादा है. यहां लड़कियां पढ़ने को आतुर रहती हैं. यही वजह है कि स्कूलों में नामांकन के लिए मारामारी मची रहती है.’  

सदफ और साजिया जैसी तस्वीर मेरी आंखों के आगे खींचती हैं, वही सब मुझे देखने को मिलता है. इस इलाके में एक भी सरकारी अस्पताल नहीं है. यहां कोई सरकारी स्कूल नहीं है. सभी स्कूल अनुदानों पर चलते हैं. यहां एक इंटर कॉलेज है- अबुल कय्यूम अंसारी मेमोरियल इंटर कॉलेज, गफ्फार कॉलोनी. हां, यहां तीन दर्जन से ज्यादा मदरसे जरूर चलते हैं.  बताया जाता है कि लगभग 500 से अधिक यतीम बच्चों को मदरसों में शिक्षा मिल रही है. 

इस इलाके में अस्पतालों के नाम पर एक निजी अस्पताल सारा पोली क्लीनिक है. इसके संचालक डॉ मासूम आलम से मुलाकात के दौरान वे खुद ही ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ की चर्चा छेड़ते हैं, ‘अनुराग कश्यप ने कहा है कि यहां अवैध कारोबारी रहते हैं. मैं उनसे पूछना चाहता हूं कि 0.1 प्रतिशत लोगों के कारण वे कैसे पूरे मोहल्ले को सर्टिफिकेट जारी कर रहे हैं.’ यहां के निवासियों ने बड़ी उपलब्धियां हासिल की हैं. मिसाल के तौर एस. एहतेशामुल हक (पूर्व स्वास्थ्य सचिव), जावेद महमूद (इंडियन रेलवे सर्विस), साहब सिद्दीकी (रजिस्ट्रार), नज्मा खलीम (प्रोफेसर), महबूब (डीएसपी). इस साल एक लड़की को आईआईटी जैसी प्रतिष्ठित संस्था में दाखिला मिला है. अबू इमरान ने आईएएस की परीक्षा में बाजी मारी है. मैं खुद डॉक्टर हूं. क्या हम सब अवैध लोग हैं?’

वासेपुर में दर्जन भर लोगों से मुलाकात होती है. सभी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ पर बात करते हैं. कई नाराज दिखते हैं. मुख्य चिंता यह कि वासेपुर अल्पसंख्यकों का मोहल्ला है. मोहल्ले की बदनामी होगी तब शहर के दूसरे शरीफ माने जाने वाले मोहल्लों के लोग अपने बेटे-बेटियों की शादी यहां नहीं करना चाहेंगे. यहां के बच्चे कहीं पढ़ने जाएंगे तो उसे भी वासेपुरवाला मानकर संदेह के नजरिये से देखा जाएगा. उन्हें मानसिक प्रताड़ना झेलनी होगी. 

हम मंजर इमाम साहब से मिलते हैं. वे देश के जाने-माने उर्दू साहित्यकार हैं. वे कई राष्ट्रीय सम्मान पा चुके हैं. वे मोहल्ले का इतिहास बताते हैं. वे कहते हैं कि वासे साहब के नाम पर इस मोहल्ले का नाम वासेपुर पड़ा. करीब छह दशक पहले यह नामकरण हुआ. वासे साहब और जब्बार साहब, दो भाई थे. बड़े ठेकेदार थे. काफी प्रतिष्ठा थी उनकी. उनके जीते जी ही उनके नाम पर मोहल्ले का नाम वासेपुर कर दिया गया था. उनकी कोई संतान नहीं थी. मंजर साहब भी ‘गैंग्स ऑफ वासेपुर’ पर अपनी बात कहते हैं, ‘कोयला माफियाओं के कारनामे दिखाने के लिए मोहल्ले का नाम लिया जाना सही नहीं है.’ वासे साहब के बारे में नईम मियां भी बताते हैं कि उन्होंने ही सबसे पहले डेढ़-दो सौ परिवारों को लाकर बसाया था. फिर तेजी से इस मोहल्ले का फैलाव होता गया और आज यह धनबाद का सबसे बड़ा मोहल्ला है. वासेपुर में हर कोई एक से बढ़कर एक बात बताता है. पता चलता है कि यहां छिनैती, रेप, चोरी, छेड़खानी जैसी घटनाएं कभी नहीं होतीं. लेकिन जब धनबाद में कोई घटना होती है तो कह दिया जाता है- अपराधियों को वासेपुर की राह भागते हुए देखा गया है. शंकर मिष्ठान्न भंडार वाले रिंकू पूछते हैं, ‘वासेपुर तो मुख्य सड़क के दोनों ओर बसा है. इस रास्ते तो किसी मोहल्ले में जाया जा सकता है, फिर वासेपुर को बदनाम क्यों किया जाता है?’

हम यह जानना चाहते थे कि फहीम खान और शबीर खान का जो गैंग्सवार मशहूर रहा है, उसकी हकीकत क्या है. यह हमें जावेद खान बताते हैं. वासेपुर वासी जावेद भाजपा अल्पसंख्यक प्रकोष्ठ के जिला अध्यक्ष हैं. इन दिनों गैंग्स ऑफ वासेपुर फिल्म के बहाने वे धनबाद में चर्चा के केंद्र में बने हुए हैं. जावेद ने फिल्म टाइटल से ‘वासेपुर’ हटाने के लिए अनुराग कश्यप को लीगल नोटिस भिजवाया था. पीआईएल दर्ज करने की बात कही है. बकौल जावेद, ‘फिल्म में जो दिखाना हो दिखाए लेकिन वासेपुर का नाम हटाना होगा. हमने यूट्यूब पर फिल्म का प्रोमो देखा है. डकैती, बकैती, लौंडियाबाजी जैसे शब्दों के साथ भद्दी-भद्दी गालियों का जमकर प्रयोग हुआ है. महिलाओं के साथ जो संवाद हैं और गाने हैं, वैसा तो वासेपुर सपने में भी नहीं सोच सकता.’ वासेपुर में फहीम खान का ही सबसे बड़ा मार्केटिंग कांपलेक्स अभी खड़ा हुआ है. जावेद से हमारी बात वहीं होती है. वे कहते हैं, ‘यह सच है कि यहां फहीम बॉस और सबीर खान की आपसी लड़ाई का इतिहास है. उनकी लड़ाई में कई लाशें भी गिरी हैं लेकिन मोहल्ले वाले इन दोनों के गैंगवार में कभी शामिल नहीं हुए. फहीम और शबीर दोनों दोस्त हुआ करते थे. मोहल्ले के विकास के लिए दोनों ने साथ मिलकर सोसाइटी भी बनाई थी. एक अध्यक्ष बना था, दूसरा सचिव. बाद में दोनों में विवाद हुआ. दोनों रेलवे ठेकेदारी में लग गए. फिर एक-दूसरे के खून के प्यासे हो गए, जो आज तक जारी है. शबीर फिलहाल जमानत पर जेल से बाहर हैं, लेकिन वासेपुर में नहीं हैं. फहीम हजारीबाग जेल में हैं.  यहां बीपी सिन्हा, सूरजदेव सिंह, सुरेश सिंह जैसे कोयला व्यापारियों की हत्या हुई है. सूरजदेव सिंह और सुरेश सिंह का गैंगवार ही देश भर में ख्यात है. उनकी कहानी दिखाने के लिए बीच में वासेपुर को क्यों लाया गया? वार्ड पार्षद रेहाना भी फिल्म के नाम को लेकर नाराजगी जताती हैं. वह एक लाइन में कहती हैं, ‘जो फिल्म बनाया है, फिल्म बनाने वाले से पूछिएगा कि उनकी फिल्म का नाम सुनने के बाद हमसे रोटी-बेटी का संबंध कौन निबाहेगा.’ कई लोग और कई बातें कहना चाहते हैं. हम विदा लेते हैं. 

तुरंत गैंग्स ऑफ वासेपुर की स्क्रिप्ट लिखने वाले जिशान कादरी से फोन से बात होती है. पूछती हूं कि आपके लोग तो बहुत नाराज हैं. कादरी कहते हैं, ‘वासेपुर के लोग नाराज नहीं हैं, जिन्हें चर्चित होने की ख्वाहिश है, वे नाराजगी को उकसा रहे हैं.’ कादरी आगे कहते हैं, ‘मैं भी वासेपुर का ही हूं अपने मोहल्ले को मैं कम प्यार नहीं करता, क्यों बदनाम करना चाहूंगा उसे?’ कादरी से लंबी बातचीत होती है. हम धनबाद स्टेशन पहुंच चुके होते हैं. अब आखिरी में फिर नईम मियां का सवाल, ‘कैसा लगा हमारा वासेपुर, बताइए न! नईम धीरे से कहते हैं, ‘मैंने आपको बताया नहीं. मेरा बेटा भी इंजीनियर है. वासेपुर के किराये वाले एक कमरे में रहकर ही पढ़ा था.’

प्रश्नोत्तर:‘भला मैं ‘वासेपुर’ को क्यों बदनाम करूंगा’

गैंग्स ऑफ वासेपुर के स्क्रिप्ट राइटर जिशान कादरी वासेपुर के ही हैं. उन्होंने फिल्म में अभिनय भी किया है. उनसे अनुपमा की बातचीत:

 

फिल्म का नाम गैंग्स ऑफ वासेपुर होने की वजह से आपके मोहल्लेवाले ही नाराज हैं.

 फिल्म में वासेपुर का सिर्फ नाम भर लिया गया है. कहानी धनबाद के कोयला माफियाओं की है. वैसे वासेपुर के आम लोग नाराज नहीं हैं. कुछ लोग अपना नाम चमकाने के लिए लोगों को उलटा-सीधा समझा रहे हैं. मैं वासेपुर का ही रहनेवाला हूं. मेरे मां-पिताजी वहीं रहते हैं. मुझे अपने मोहल्ले से बहुत प्यार है. भला मैं क्यों मोहल्ले को बदनाम करना चाहूंगा?

आपसे मोहल्ले के किसी आदमी ने यह नहीं कहा कि जिशान तुम ये क्या कर रहे हो?

हां, 12 जून, 2012 को वासेपुर से एक आदमी का फोन मुझे आया. वे मुझे तकरीबन 15 मिनट तक धमकाते रहे. हालांकि मोहल्ले के ज्यादातर लोगों ने मेरी हौसला अफजाई ही की है. वासेपुर तो वर्षों से उपेक्षा का दंश झेलते-झेलते बदनाम हो चुका है. बैंकवाले वहां के लोगों को लोन नहीं देते क्योंकि वासेपुर गैंगस्टरों का इलाका कभी रहा है. मैं तो वासेपुर के जरिए कस्बाई यथार्थ को बताने की कोशिश कर रहा हूं. सच है कि इस देश में कई वासेपुर हैं.

अपने मोहल्ले पर फिल्म बनाने का खयाल कैसे आया?

मैं सिनेमा में जाना चाहता था. कई बार ऑडिशन दिए लेकिन हर बार असफल रहा. लेखन में मेरी रुचि रही है इसलिए मैंने सोचा कि क्यों नहीं अपने मोहल्ले की ही बात लिखूं. वहां ऐसा प्लॉट मौजूद है जिस पर लिखा जाना मुझे जरूरी लगा. मैंने यह कहानी हंसल मेहता को भी बताई. उन्हें पसंद आई. पर फिल्म बनाने के बारे में उन्होंने चुप्पी साध ली. मुझे लगा कि अनुराग कश्यप से बात करनी चाहिए. कहानी सुनते ही उन्होंने फिल्म बनाने के लिए आश्वस्त कर दिया. अभिनय का शौक था, इसलिए मैंने अपने रोल की भी बात की. वे तुरंत मान गए. यह बहुत खतरनाक लोगों की कहानी है और इस खानदानी लड़ाई में कई लोग खत्म हो चुके हैं. आज भी वहां तनाव बरकरार है. मैंने इस माहौल को बचपन से ही जिया है इसलिए इसे बहुत डूबकर शब्दों में उतारने की कोशिश की है.

क्या फिल्म में आपके मोहल्ले के दो मशहूर गैंगस्टर फहीम खान और शबीर खान की आपसी लड़ाई की कहानी की झलक भी है.

थोड़ी कहानी तो उनकी है. हालांकि उन दोनों ने आपसी लड़ाई में मोहल्लेवालों को कभी नहीं घसीटा. यह धनबाद और देश के दूसरे हिस्से के कोयला माफियाओं की हकीकत है, वासेपुर से इसका बहुत लेना-देना नहीं.

तो क्या फिल्म रिलीज होने के बाद अपने वासेपुर में आ रहे हैं?

वासेपुर में तो मेरी आत्मा बसती है. मेरे मम्मी-पापा वहीं रहते हैं. अपने घर आने के लिए तारीख क्या तय करना. जब जी में आएगा, चला आऊंगा. वहां जाकर अपने दोस्तों से मिलना, नुक्कड़ पर चाय पीना, गप्पें मारना सबसे अच्छा लगता है. अब दूसरी फिल्म ‘बिजली’ की कहानी लिखने में लगा हूं. यह भी हकीकत पर आधारित है. फुर्सत पाते ही तरोताजा होने वासेपुर चला जाऊंगा.                    

जाएं तो जाएं कहां?

पुलिस का आरोप है कि सिकलीगर सिख तस्करों और आतंकवादियों को हथियार बनाकर दे रहे हैं. सिकलीगरों का कहना है कि तीन सदी पहले उन्होंने देश की रक्षा के लिए हथियार बनाना शुरू किया था, इसके अलावा उन्हें कुछ और नहीं आता और सरकार उन्हें मुख्यधारा से जोड़ने को तैयार नहीं. क्या है सच? प्रियंका दुबे की रिपोर्ट.

पाचोरी गांव की कहानी खालसा पंथ के उन लोगों की व्यथा है जिनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह के कहने पर देश की रक्षा के लिए हथियार बनाने शुरू किए थे. तीन सदियों बाद भी वे देश की मुख्यधारा में वापसी के लिए तरस रहे हैं. सिकलीगर सिख नाम का यह समुदाय शिक्षा और विकास से दूर सतपुड़ा की पहाड़ियों के जंगली कोनों में बसे दूर-दराज के गांवों में छिप कर जीवन बिताने को मजबूर है.

इस कहानी की शुरुआत मध्य प्रदेश के दक्षिण पिश्चमी छोर पर बुरहानपुर जिले की आदिवासी पट्टी में बसी खकनार तहसील से होती है. तहसील के मुख्य मार्ग पर बने एकमात्र पेट्रोल पंप के ठीक पीछे से सतपुड़ा की पहाड़ियों के लिए एक आधा कच्चा रास्ता निकलता है. इस पर 26 किलोमीटर आगे, घने जंगल और घाटियां पार करने के बाद सतपुड़ा की चोटियों पर बसा पचोरी गांव नजर आता है. गांव के करीब 100 परिवारों में सिकलीगर सिख समुदाय के कुल 500 लोग रहते हैं. पिछले 46 साल से सतपुड़ा की इन पहाड़ियों पर रह रहे ये सभी सिकलीगर सिख लोहे से देसी कट्टे, रिवॉल्वर, और सेल्फ लोडिंग रायफल (एसएलआर) जैसे कई खतरनाक औजार बनाने में माहिर हैं. पीढ़ियों से कच्चे लोहे को अचूक बंदूकों में बदल कर अपनी जीविका चलाने वाला यह समुदाय सामाजिक उपेक्षा का शिकार तो था ही, अब यह राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों के निशाने पर भी आ गया है. मध्य प्रदेश पुलिस के इंटेलीजेंस विभाग की मानें तो प्रदेश के आदिवासी इलाकों से बड़ी संख्या में बरामद किए जा रहे गैर-लाइसेंसी देसी कट्टों के निर्माण में सिकलीगरों की महत्वपूर्ण भूमिका है. गौरतलब है कि पिछले दो साल में हुई तमाम सिकलीगर सिखों की गिरफ्तारियों के दौरान प्रदेश पुलिस ने पहली बार कहा है कि ये लोग अवैध हथियार बनाकर उन्हें हथियार तस्करों और आतंकवादी समूहों को उपलब्ध करवाते हैं. मध्य प्रदेश एटीएस (एंटी टेरर स्क्वाड) का मानना है कि जून, 2011 के दौरान राज्य से गिरफ्तार किए गए कुल 18 सिमी सदस्यों से बरामद किये गए देसी कट्टे और रिवॉल्वर भी सिकलीगरों द्वारा ही बनाए गए हैं. 

‘हमारे लोगों को इस काम के सिवा कुछ नहीं आता. हम हजारों अर्जियां दे चुके हैं, पर सरकार ने हमें मुख्यधारा से जोड़ने की कभी कोई कोशिश नहीं की’

जून, 2011 में खंडवा जिले से 10 सिमी संदिग्धों की गिरफ्तारी के तुरंत बाद खंडवा से सटे बुरहानपुर के सिकलीगर डेरों पर पुलिस ने धावा बोल दिया था. इस दौरान राज्य में बसे सिकलीगर डेरों के प्रदेश अध्यक्ष सरदार प्रेम सिंह पटवा के बेटे जसपाल सिंह को भी हत्या और आतंकवादियों के सहयोग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. तहलका से बातचीत में प्रेम सिंह कहते हैं, “हमारा प्रमुख विरोध हमारे बच्चों को आतंकवादियों का सहयोगी घोषित करने के खिलाफ है. हम अपने देश के लिए जान देने वाले खालसा सिख हैं, हम आतंकवादियों की मदद कैसे कर सकते हैं? वे आर्म्स एक्ट से जुड़े आरोप लगा सकते हैं क्योंकि हम हथियार बनाते हैं पर हथियार बनाने का यह काम भी हमने इसी देश की रक्षा के लिए शुरू किया था.’ पचोरी गांव के सिकलीगर सिखों की पुलिसिया गिरफ्तारियों का सिलसिला नया नहीं है. 2002 में पड़े एक चर्चित छापे में स्थानीय पुलिस ने पचोरी के पांच सिकलीगरों को गिरफ्तार किया था. इनमें गांव के गुरुद्वारे के पुजारी भी शामिल थे. इस छापे में गिरफ्तार हुए सिकलीगरों में से एक अतीक सिंह का आरोप है कि अपना रिकॉर्ड चमकाने के लिए कई बार पुलिस उनके समाज के लोगों को झूठे मामलों में फंसा देती है. वे कहते हैं, “2002 की रेड के दौरान तो पुलिस यहां भेस बदलकर खुद खरीददार बनकर आई. हम लोग इतने अनपढ़ और पिछड़े हैं कि पुलिस को पहचान ही नहीं पाए. हम गरीब थे और हमें अपना माल बेचकर पैसा चाहिए था, इसीलिए हमने सौदा तय कर लिया. बस उसी वक्त पुलिस ने हमसे मार-पीट शुरू कर दी  और सामने से आ रहे हमारे गुरुद्वारे के पुजारी ज्ञानी तकदीर सिंह और ज्ञानी दीवान सिंह को गिरफ्तार कर लिया’. अपने धर्मगुरुओं की गिरफ़्तारी से नाराज़ सिकलीगरों ने इस पुलिस ऑपेरशन का काफी विरोध  भी किया था पर इस मामले में अभी तक गुरुद्वारे के पुजारियों समेत कुल पांच सिकलीगरों पर आर्म्स एक्ट के तहत अदालती कार्रवाई चल रही है. अपने लोगों की लगातार हो रही गिरफ्तारियों से परेशान पाचोरी के सभी सिकलीगरों ने इस घटना के कुछ ही महीनों बाद, मई 2003 में मध्य प्रदेश सरकार के सामने आत्मसमर्पण कर दिया था. 

सिकलीगरों से बातचीत के बाद यह भी लगता है कि इस समुदाय को आजीविका के लिए किसी दूसरे काम के साथ जोड़ने की जरूरत है. प्रेम सिंह कहते हैं, ‘हमारे लोगों को इस काम के सिवा कुछ नहीं आता. हम हजारों अर्जियां दे चुके हैं पर सरकार ने हमें मुख्यधारा से जोड़ने की कभी कोई कोशिश नहीं की. तो अपने बच्चों का पेट पालने के लिए हमें मजबूरी में हथियार बनाने ही पड़ते हैं.’ मध्य प्रदेश हाई कोर्ट के आदेश के बाद जसपाल सिंह पर आतंकवादी समूहों से जुड़े रहने से संबंधित सभी आरोप हटा लिए गए हैं. पर प्रेम सिंह के लिए यह सिर्फ एक पुरानी लड़ाई की नई शुरुआत है. बातचीत के दौरान पाचोरी गांव के सभी परिवार मुख्य चौपाल के आस-पास इकठ्ठा हो चुके हैं. गांव के बच्चों की ओर इशारा करते हुए प्रेम सिंह कहते हैं, ‘हम नहीं चाहते कि हमारी अगली पीढ़ी भी हथियार बनाए. आप खुद ही देखिए, इस कानूनी लड़ाई के बाद भी मेरे बेटे को जिला बदर घोषित कर दिया है और उस पर 302 अभी भी लगी हुई है. जबकि सिकलीगर किसी भी तरह के हिंसक अपराध में कभी शामिल नहीं रहे. हमने सिर्फ हथियार बनाए और जिसने भी खरीदना चाहा, उसे बेच दिए. सिर्फ इसलिए क्योंकि हमें सिर्फ यही काम आता है’. बुरहानपुर के सिकलीगर सिख पिछले एक दशक से खुद को सरकार से समाज की मुख्यधारा से जोड़ने की गुहार लगा रहे हैं. पर प्रवासी भारतीयों के अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रमों में ‘मेहनतकश पंजाबी सिखों’ की तारीफों में कसीदे पढ़ने वाला भारतीय राजनीतिक और प्रशासनिक अमला जंगली पहाड़ियों के अंधेरे गांवों में जीवन बिताने को मजबूर इन उपेक्षित सिखों के प्रति उदासीन ही रहा है. 

पाचोरीके सिकलीगरों की जड़ें टटोलने पर पता चलता है कि 1966 में महाराष्ट्र से विस्थापित होकर बुरहानपुर आए इन लोगों को 1968 में मध्य प्रदेश सरकार ने पाचोरी की पहाड़ी पर तात्कालिक रूप से रहने की कानूनी ऑडर-शीट सौंप दी थी. पिछले 46 साल से मुख्य शहरी सड़क से कुल 26 किलोमीटर दूर सतपुड़ा के जंगलों में रहने वाले ये सिकलीगर सिख आज भी अपने गांव में बिजली और साफ पानी आने का इंतजार कर रहे हैं. पिछले दो दशकों से बुरहानपुर के जंगलों की वन सुरक्षा समिति के अध्यक्ष रहे जतन सिंह का कहना है कि पूरे गांव के आत्मसमर्पण करने के बाद भी उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. प्रशासनिक उदासीनता को सिकलीगरों के हथियार व्यापार का मुख्य कारण बताते हुए वे कहते हैं, ‘हमारे गांव को संवेदनशील क्षेत्र घोषित कर दिया है और पुलिस बार-बार हमारे लोगों को पकड़ कर ले जाती है. हम हथियार डालकर आत्मसमर्पण कर चुके हैं और कब से अपने पुनर्वास की मांग कर रहे हैं. पर सरकार ने हमारी कोई सुध नहीं ली. अगर सरकार हमें किसी दूसरे रोजगार में लगवाकर हमारे बच्चों की पढ़ाई-लिखाई सुनिश्चित करती तो हम कब के इस दुष्चक्र से बाहर आ चुके होते, पर कोई रास्ता नहीं होने पर हमें पेट भरने के लिए हथियार बनाकर बेचने ही पड़ते हैं’.   

सिकलीगर सिखों की यह कहानी सिर्फ बुरहानपुर के पचोरी गांव तक सीमित नहीं है. अन्य पिछड़ी जनजाति के अंतर्गत आने वाले इस खालसा पंथ की भारत में कुल जनसंख्या लगभग 50 लाख है. इस आबादी का एक बड़ा वर्ग घरेलू इस्तेमाल में आने वाली लोहे की वस्तुएं बनाने का व्यापार करता है. कुछ ही लोग हैं जो लोहे के हथियार बना कर बेचते हैं. मिट्टी की भट्टी पर लोहे से देसी कट्टों से लेकर दुनाली-रायफल तक बना लेने वाले ऐसे ही लगभग 5,000 सिकलीगर मध्य प्रदेश के चार जिलों में रहते हैं. खरगोन, बुरहानपुर, बड़वानी और धार जैसे आदिवासी जिलों में रहने वाले इस हथियार-निर्माता सिख समुदाय का साक्षरता स्तर दशकों से शून्य पर है. पाचोरी के सबसे बुजुुर्ग निवासियों में से एक रेवल सिंह जुनेजा बताते हैं कि शिक्षा और रोजगार के अभाव के साथ-साथ अब उनका समाज सामाजिक रूप से बहिष्कृत भी होता जा रहा है. वे कहते हैं, ‘हमारे बच्चे शहर में जाकर पढ़ना चाहते हैं. पर गांव से बाहर कोई उन्हें स्वीकार नहीं करता. पहले तो हथियार बनाने की ही बात थी. अब तो हमें मुसलिम आतंकवादियों से जुड़ा हुआ बताया जाने लगा है. हम अगर मुख्यधारा से जुड़ना भी चाहें तो कैसे जुडें़? धीरे-धीरे सभी लोग हमें भी अपराधी मानने लगे हैं और शायद अब मुख्यधारा में हमारे लिए जगह भी नहीं है.’ लेकिन मध्य प्रदेश पुलिस के अनुसार सिकलीगर सिख राज्य में तेजी से फैल रही अवैध हथियारों की तस्करी के प्रमुख कारण हैं. फरवरी, 2012 में इंदौर में हुई सिकलीगर बहादुर सिंह की गिरफ्तारी इसका सबसे ताजा उदाहरण है. मूलतः बड़वानी जिले के पलसूद गांव  के निवासी बहादुर सिंह  को इंदौर पुलिस ने 28  फ़रवरी 2012 को अवैध कट्टों की तस्करी के आरोप में गिरफ्तार किया. बताया जाता है कि पूछताछ के दौरान बहादुर ने कहा कि बेचे गए हथियारों की असल संख्या तो याद नहीं पर वह अब तक हजारों की संख्या में हथियार बनाकर राजस्थान से सटे जिलों में बेचता रहा है. अगस्त 2011 में खरगोन जिले से गुरुदेव सिंह और गुरुबक्श सिंह नामक दो सिकलीगर सिखों को 11 देसी कट्टों की अवैध खरीद-फरोख्त के लिए गिरफ्तार किया गया था. 

पुलिस की मानें तो हथियारों का यह धंधा इनके लिए आसानी से पैसा कमाने का जरिया हो गया है इसलिए ये लोग इसे छोड़ना नहीं चाहते

सिकलीगरों की गिरफ्तारियों के साथ-साथ उनके पुनर्वास के लिए सुधार कार्यक्रम शुरू करने वाले बुरहानपुर पुलिस अधीक्षक अविनाश शर्मा बताते हैं कि सिकलीगरों को यह खुद भी मालूम नहीं होता कि उनके द्वारा बनाए गए हथियार कहां जाते हैं. वे कहते हैं, ‘यह लोग कहते जरूर हैं कि इनका पुनर्वास किया जाए , पर जब भी हम इन्हें किसी दूसरे व्यवसाय से जोड़ने की कोशिश करते हैं ये वापस हथियार बनाना शुरू कर देते हैं. दरअसल यह धंधा इनके लिए आसानी से पैसा कमाने का जरिया हो गया है इसलिए ये लोग इसे छोड़ना नहीं चाहते. लगभग 250 रूपये की लगत से बना एक देसी कट्टा ये अवैध बाजार में पांच से 10 हजार में बेच देते हैं. उसके बाद उस हथियार का इस्तेमाल किसी आतंकवादी ने किया या किसी चोर ने, इससे उनका कोई सरोकार नहीं होता. और इनके हथियार इतने बिचौलियों से होते हुए अपने ग्राहकों तक पहुचंते हैं कि ज्यादातर मामलों में उनके असली निर्माता को ट्रेस कर पाना असंभव हो जाता है.’ सिकलीगर सिखों के पुनर्वास योजनाओं के बारे में वे बताते हैं कि सिकलीगरों की वर्तमान स्थिति का पता लगाने के लिए प्रभावित जिलों में सर्वे किए जा रहे हैं. शुरूआती नतीजों के बारे में बताते हुए वे आगे कहते हैं, ‘कई जगह हमने देखा की नाबालिग बच्चे भी हथियार बनाना सीख रहे हैं.’ 

पुलिस और प्रशासन के तमाम दावों से इतर, सिकलीगरों का कहना है कि सरकार ने कभी उनकी समस्याओं को गंभीरता से नहीं लिया. पाचोरी के धुंधले आकाश में इन प्रशासनिक चर्चाओं से दूर गुरुद्वारे के पुजारी ज्ञानी तकदीर सिंह मुख्यमंत्री के नाम लिखी उनकी एक पुरानी चिट्ठी दिखाते हैं. वे कहते हैं कि उनके द्वरा प्रशासन को लिखी गयी बीसियों चिट्ठियों का कभी जवाब नहीं आया. टूटे-फूटे वाक्यों में लिखी इस अर्जी की एक पुरानी प्रति तहलका को सौंपते हुए वे कहते हैं, ‘हम लोग तो इतने अनपढ़ हैं कि अपनी बात भी ठीक से नहीं कह सकते. और यह देश आखिर हमें किस बात की सजा दे रहा है? गुरुगोविंद सिंह के आदेश पर, इस देश को विदेशी घुसपैठियों से बचाने के लिए हमने हथियार बनाना शुरू किया. इसके सिवा सिकलीगर कभी किसी अापराधिक गतिविधि में शामिल नहीं रहे. जिस समाज को बचाने के लिए हमने अपनी पीढ़ियों का रास्ता बदल दिया, वही समाज आज हमें स्मगलरों और हत्यारों के साथ खड़ा कर रहा है’. पाचोरी छोड़ते वक्त भारत के इस भूले बिसरे खालसा पंथ के बच्चे गांव के अंतिम छोर तक हमारे साथ चलते हैं. वे सब पढ़ना चाहते हैं. उन्हें अपने लिए शिक्षा का इंतजार है और सिकलीगर समुदाय को एक बेहतर भविष्य का.