अभयारण्य से भयभीत

तथाकथित ‘विकास’ के लिए लोगों की बेदखली और विस्थापन देश में अब उतनी नयी खबर नहीं हैं. इसमें नियम कानूनों को ताक पर रखना भी उतनी ही पुरानी परंपरा हो चुकी है. लेकिन छत्तीसगढ़ के एक अभयारण्य बारनवापारा से ग्रामीणों को विस्थापित करने के लिए जिस तरह नक्सलवाद की आड़ लेने से लेकर केंद्र सरकार द्वारा जबरन जमीन अधिग्रहण तक की बातें कही जा रही हैं, वह अभूतपूर्व है.

बारनवापारा अभयारण्य राजधानी रायपुर से महज सवा सौ किलोमीटर दूर है. यूं तो यहां के सभी 22 गांव अब-तब में उजड़ने वाले हैं लेकिन वन विभाग ने फिलहाल रामपुर, लाटादादर और नवापारा गांव के लगभग दो हजार लोगों को नयी जगह बसाने का लक्ष्य रखा है. विभाग को यह लगता है कि अभयारण्य की सीमा के भीतर होने वाली मानव हलचल वहां विचरण करने वाले जानवरों के लिए खतरनाक साबित हो रही है. जबकि गांववाले मानते हैं कि जानवरों और वनवासियों का आसपास रहना एक सतत प्रक्रिया है. दशकों से इस इलाके में रह रहे ग्रामीणों का कहना है कि वे जानवरों से डरते हैं तो जानवर भी एक अज्ञात भय के चलते उनसे दूरी बनाकर चलते हैं. इस तरह के पारस्परिक संबंध ने यहां वनजीवन और जनजीवन दोनों को पनपने में मदद की. वन विभाग वालों ने जब यह तय कर लिया कि अब गांवों को उजाड़ना ही है तब इस बात के लिए दबाव डाला गया कि ग्रामीण यह लिखकर दें कि जानवर फसलों को नुकसान पहुंचा  रहे हैं. हालांकि ग्रामीण थोड़े-बहुत नुकसान की बात स्वीकार करते हुए इस बात पर जोर देते हैं कि वे भी जंगल का उपयोग करते हैं ऐसे में फसल का थोड़ा बहुत नुकसान इतना बड़ा मसला नहीं है जिसके लिए उन्हें विस्थापित किया जाए. वन अधिकारों पर काम करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता गौतम बंधोपाध्याय जानवर और मनुष्य के सह-अस्तित्व को खतरनाक साबित करने वाले खेल में एक साजिश देखते हैं. वे कहते हैं, ‘ जंगल में विचरण करने वाले जानवरों के असली पहरेदार वन महकमे की ओर से तैनात किए जाने वाले वनरक्षक नहीं बल्कि वनवासी होते हैं. जब पहरेदारों को जंगल से खदेड़ दिया जाएगा तो फिर यह आसानी से सोचा जा सकता है कि जंगल के जानवरों के साथ किस तरह का सुलूक होने वाला है.’ 

जेसीबी मशीन ने यहां के चरागाह को तबाह कर दिया है. विस्थापित हो रहे लोगों को इसके बाद अपने पशु भी बेचने पड़ रहे हैं

अनुसूचित जनजाति और अन्य परंपरागत वन निवासी ( वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम 2006 / नियमावली 2008 में यह स्पष्ट उल्लिखित है कि अभयारण्य के भीतर मौजूद गांवों को किसी एक जगह से दूसरी जगह पर तब ही स्थानांतरित किया जाएगा जब इलाके में खास तरह का संकट कायम होगा. लेकिन बारनवापारा अभ्यारण्य में किस तरह संकट कायम है इसकी कोई प्रामाणिक रिपोर्ट वन विभाग के पास उपलब्ध नहीं है. बाघों की गणना का काम करने वाली संस्था वाइल्ड लाइफ ट्रस्ट आफ इंडिया ( डब्ल्यूटीआई ) ने तो कुछ समय पहले यह माना था कि बारनवापारा अभयारण्य में बाघों की मौजूदगी के कोई निशान नहीं मिला है. तहलका से चर्चा में रायपुर के वनमंडलाधिकारी एसडी बडगैय्या भी यह स्वीकार करते हैं कि बाघों का अस्तित्व मिट चुका है. जब अभयारण्य में बाघों की मौजूदगी ही नहीं है तो फिर ऐसा क्या है जिसकी वजह से गांववालों को उजाड़ा जा रहा है. इस सवाल पर विभाग के अधिकारी कहते हैं कि इलाके में नक्सलवादियों की हलचल बढ़ गई है. सरकार को लगता है कि यदि अभयारण्य से गांव खाली करा लिए जाएंगे तो ग्रामीणों की तरफ से नक्सलियों को दी जाने वाली पनाह पर रोक लग जाएगी. हालांकि नक्सलियों को पनाह देने के मामले में वन अफसरों की शंका को ग्रामीण पूरी तरह से निर्मूल मानते हैं. ग्रामीण बताते हैं कि उनके इलाके में कभी नक्सली उन्होंने देखे ही नहीं. तो फिर उन्हें पनाह देने का सवाल  बेमानी है. वैसे बारनवापारा में नक्सलियों की मौजूदगी है या नहीं इसे लेकर कई तरह के दावे-प्रतिदावे सामने आते रहे हैं. लगभग दो साल पहले प्रदेश की पुलिस को नवागांव, सोनाखान, राजादेवरी, अचानकपुर और अमरूआ (इसी इलाके के गांव) में नक्सलियों के सक्रिय होने की सूचना मिली थी. नक्सलियों की दस्तक को आधार मानकर एसटीएफ ने 2010 में पड़कीपाली जंगल में एक कथित मुठभेड़ में आठ अज्ञात लोगों को मौत के घाट उतारा था. बाद में सभी ‘अज्ञात’ नक्सली करार दिए गए. इन मृत व्यक्तियों के कभी नक्सली होने की पुष्टि नहीं हो पाई. रामपुर, लाटादादर और नवापारा गांव के रहवासियों से चर्चा करने पर पता चलता है कि विस्थापन के मसले पर वे ढेर सारे किंतु- परंतु से घिरे हुए हैं. तहलका से चर्चा में ग्रामीण बताते हैं कि जब गांवों को उजाड़ने की योजना बनाई गई थी तब वन विभाग के अफसरों ने यह कहकर डराया-धमकाया था कि यदि सीधे तरीके से गांव खाली नहीं किया जाएगा तो केंद्र सरकार किसी भी दिन जमीन पर कब्जा जमा लेगी. 

इन गांवों के विस्थापितों को जिन दूसरे इलाकों में बसाने की बात हो रही है वहां भी बिना किसी योजना के काम चल रहा है. इस सिलसिले में विरोध होने पर प्रशासन कई ग्रामीणों को कानून तोड़ने की धमकी देकर चुप रहने की सलाह दे चुका है. कुछ दिनों पहले ही इलाके के पिथौरा ब्लॉक के भतकुंदा में रहने वाले ग्रामीण बेनूलाल पटेल पर शासकीय कार्य में बाधा डालने के आरोप में जुर्म दर्ज किया गया है. वे बताते हैं, ‘जब बारनवापारा के 22 गांवों के विस्थापन की तैयारियों से पिथौरा ब्लाक के अन्य 35 गांवों में गौचर और निस्तारी योग्य जमीन के प्रभावित हो जाने का खतरा मंडराने लगा तब हमने लामबंद होकर विरोध जताया, लेकिन इस विरोध का नतीजा यह हुआ कि उन्हें सरकारी काम में बाधा पहुंचाने का आरोपी ठहरा दिया गया.’ रामपुर इलाके के एक ग्रामीण उत्तम साहू बताते हैं कि वन विभाग ने गांव को खाली करने के लिए प्रत्येक परिवार को मकान के साथ-साथ खेती योग्य जमीन और राजस्व पट्टा देने का आश्वासन दिया था लेकिन फिलहाल गांववालों को वनग्राम की कच्ची झोपड़ियों से पक्के वनग्राम में ही स्थानांतरित करने पर जोर दिया जा रहा है. इसी ग्राम के गजाधर, सपनो, भीम और मयाराम का भी कहना था कि वन महकमे ने उन्हें वन अधिकार अधिनियम के तहत दिए जाने वाले पट्टे का झुनझुना ही थमाया है. इस अस्थायी पट्टे से न तो वे लोन ले सकते हैं और न ही जरूरत के खास मौकों पर जमीन बेची जा सकती है. लाटादादर गांव के श्याम, सत्यानंद और विद्याधर भी स्थायी पट्टा मिलने के बाद ही गांव छोड़ने की बात करते हैं जबकि इस गांव के लोगों को जिस चैनडीपा गांव के सामने बसाया जा रहा है वह इलाका न केवल 45 किलोमीटर दूर हैं बल्कि एक तरह से बंजर ही है. कुछ अरसा पहले यहां वन विभाग ने सागौन के पेड़ों के साथ-साथ बांस की रोपणी लगाई थी, लेकिन वहां न तो पेड़ पनपे और न ही रोपणी विकसित हो पाई. अलबत्ता इस बंजर जमीन से कुछ दूरी पर एक चरागाह जरूर था जहां घास उगती थी. इस घास को भी अब जेसीबी मशीनों ने रौंद डाला है. चरागाह के खत्म होने से इन ग्रामीणों के सामने एक और नया संकट पैदा हो गया है. ज्यादातर लोग अब अपने पशु बेच रहे हैं. चैनडीपा में रहने वाली एक महिला रामबती कहती है, ‘चारा खत्म हो गया तो जानवरों को क्या खिलाएंगे? अब तो उन्हें बेचना ही पड़ेगा.’ इसी गांव के अभिमन्यु पटेल भी बताते हैं, ‘ कभी हमारे गांव की एक हजार की आबादी के पीछे तीन सौ से ज्यादा पालतू मवेशी थे लेकिन अब ग्रामीणों के पास महज 70 जानवर मौजूद हैं. नया रामपुर के बिजेमाल गांव में रहने वाले ग्रामीणों का दर्द भी कुछ इसी तरह का है. यहां के रहवासी भी मानते हैं कि उनका पशुधन एक तरह से खत्म हो गया है. जंगल और जानवरों के सहअस्तित्व पर जीवन बिता रहे लोगों के लिए फिलहाल भयाक्रांत होने की कई वजहें है और दुर्भाग्य से उनके सच होने की पूरी आशंकाएं भी.