मूल पर महाभारत

उत्तराखंड में सरकार द्वारा विधानसभा में दिया गया एक आश्वासन उत्तराखंड में एक नए टकराव के लिए चिंगारी साबित हो सकता है. पिछले दिनों संसदीय कार्य मंत्री इंदिरा हृदयेश ने विधान सभा में बयान दिया कि राज्य बनने के दिन नौ नवंबर 2000 से जो भी व्यक्ति उत्तराखंड में रह रहा है वह यहां का मूल निवासी है. मंत्री ने सदन को बताया कि इस संबंध में जल्दी ही शासनादेश जारी किया जाएगा. इस निर्णय से रोजगार और संसाधनों पर अधिकार को लेकर राज्य में एक नए संघर्ष की आशंका पैदा हो गई है. एक वर्ग इसे राज्य के मूल निवासियों और सबसे ज्यादा आरक्षित वर्गों के हक पर डाके की तरह देख रहा है.

दरअसल नैनीताल उच्च न्यायालय ने अगस्त 2012 में एक वैसा ही फैसला दिया था जिस तरह का शासनादेश जारी करने की बात उत्तराखंड सरकार ने कही है. अदालत ने अपना निर्णय राज्य में लंबे समय से रह रहे आरक्षित वर्ग के लोगों को जाति प्रमाण पत्र जारी करने से संबधित कई याचिकाओं का निस्तारण करते हुए दिया था. इसका मतलब यह है कि अगर कोई व्यक्ति मूल रूप से किसी दूसरे प्रदेश का है, लेकिन नौ नवंबर, 2000 से पहले से वह उत्तराखंड में रह रहा है तो वह राज्य का मूल निवासी और इस नाते उन सारे अधिकारों का हकदार है जो राज्य के मूल निवासी के लिए बने हैं. राज्य सचिवालय में तैनात अनुसूचित जाति के एक अधिकारी  कहते हैं, ‘इस मामले में सभी याचिकाकर्ता आरक्षित वर्ग के थे. यानी यदि यह निर्णय लागू होता है तो इसका सबसे अधिक नुकसान आरक्षित वर्ग के बेरोजगारों को उठाना पड़ेगा.’ वे बताते हैं कि सबसे अधिक नुकसान धुर पहाड़ी जिलों के अनुसूचित जाति के लोगों को होगा जो पहले ही हर दौड़ में पीछे चल रहे थे. अब उन्हें अपने से कहीं आगे जा चुके और बाहर से उत्तराखंड आए अनुसूचित जाति के युवकों से मुकाबला करना होगा.

गौरतलब है कि दो दशक पहले उत्तराखंड राज्य आंदोलन भड़कने की असली वजह अलग राज्य निर्माण की मांग से अधिक रोजगार की लड़ाई थी. तब पिछड़ी जातियों की कम जनसंख्या होने के बावजूद तत्कालीन उत्तर प्रदेश के इस पहाड़ी क्षेत्र में पिछड़ी जातियों  के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया था. उस दौर में भी आंदोलन की धुरी कर्मचारी संगठन, महिलाएं ,भूतपूर्व सैनिक और छात्र ही बने थे. भाजपा नेता और पूर्व राज्य आंदोलनकारी रवींद्र जुगरान कहते हैं, ‘मूल निवास मामले में राज्य सरकार ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर संविधान और उच्चतम न्यायालय के आदेशों की अवहेलना की है.’

तब पिछड़ी जातियों की कम जनसंख्या होने के बावजूद तत्कालीन उत्तर प्रदेश के इस पहाड़ी क्षेत्र में पिछड़ी जातियों  के लिए 27 फीसदी आरक्षण लागू कर दिया गया था.

हालांकि हरिद्वार के पूर्व विधायक अमरीश कुमार ऐसा नहीं मानते. अमरीश कुमार उन नेताओं में से एक हैं जिनका मानना है कि उत्तराखंड बनने के दिन से जो व्यक्ति उत्तराखंड में रहता है वह यहां का निवासी है और यदि उस व्यक्ति की जाति यहां किसी भी आरक्षित वर्ग की सूची में दर्ज है तो उसे यहां जाति प्रमाण पत्र जारी किया जाना चाहिए. कुमार कहते हैं, ‘जब उच्च न्यायालय ने भी यही कहा है तो फिर सरकार इन प्रमाण पत्रों को जारी क्यों नहीं कर रही?’

उच्च न्यायालय नैनीताल में दायर 13 याचिकाओं के याचिकाकर्ता उत्तराखंड में लंबी अवधि से रह रहे थे. मूल रूप से उत्तर प्रदेश के ये लोग उत्तराखंड से अनुसूचित जाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के जाति प्रमाण पत्र इस आधार पर मांग रहे थे कि वे या उनका परिवार 15 से अधिक सालों से उत्तराखंड में निवास कर रहा है.

राज्य बनने से पहले उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र के निवासियों को मूल निवास का प्रमाण पत्र जारी होता था. इस प्रमाण पत्र की जरूरत ज्यादातर सेना या पुलिस में भर्ती के समय होती थी क्योंकि पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को लंबाई में छूट मिलती थी. तत्कालीन उत्तर प्रदेश में पर्वतीय क्षेत्र के निवासियों को शैक्षिक रूप से पिछड़ा मानते हुए मेडिकल या इंजीनियरिंग कॉलेजों में आरक्षण मिलता था. इस प्रमाण पत्र का इस्तेमाल छात्र कॉलेजों में प्रवेश लेते समय आरक्षण का लाभ लेने के लिए भी करते थे.

कई सालों तक चली उत्तराखंड राज्य निर्माण की सुगबुगाहट के दौरान अलग राज्य में पैदा होने वाली सरकारी नौकरियों की सुविधा और मूल निवासियों को भविष्य में मिलने वाली सुविधाओं के लिए हजारों की संख्या में राशन कार्ड और वोटर प्रमाण पत्र बनाए गए थे. राज्य के गठन की घोषणा अक्टूबर, 2000 में हो गई थी और राज्य का निर्माण नौ नवंबर, 2000 को हुआ. राज्य बनने के बाद महत्वपूर्ण पदों पर रहे एक अधिकारी बताते हैं ,‘नवोदित राज्य की सुविधाओं को पाने के खेल में प्रॉपर्टी डीलरों से लेकर रोजगार की चाह रखने वालों तक ने यहां का निवासी बनने का पूरा इंतजाम कर लिया था.’  राज्य गठन के बाद मूल निवास के कारण कई बार विवाद हुआ. यह विवाद हरिद्वार, ऊधमसिंह नगर और देहरादून के मैदानी हिस्सों में अधिक होता था. बार-बार उठते विवाद के कारण सरकार ने मूल निवास से अधिक स्थायी निवास प्रमाण पत्र को प्रचलित किया. 20 नवंबर, 2001 को स्थायी निवास प्रमाण पत्र दिए जाने के संबंध में जारी शासनादेश के अनुसार स्थायी निवास प्रमाण पत्र की पात्रता यह है कि व्यक्ति उत्तराखंड का सद्भाविक निवासी यानी बोनाफाइड रेजिडेंट होना चाहिए.

सद्भाविक निवासी होने की शर्त यह थी कि या तो उसके पूर्वज उत्तराखंड में निवास कर रहे हों या फिर वह 15 सालों से उत्तराखंड में रह रहा हो. उत्तराखंड मूल के उन व्यक्तियों को भी यह प्रमाण पत्र जारी किया जा सकता है जो रोजगार के लिए राज्य से बाहर रह रहे हों. राज्य अपनी और केंद्र सरकार की सेवा में उत्तराखंड में रहने वाले कर्मचारियों को भी स्थायी निवास प्रमाण पत्र जारी करने लगा. स्थायी निवास प्रमाण पत्र की जरूरत राज्य के कॉलेजोंं में राज्य के छात्रों के लिए तय 85 फीसदी सीटों को भरने या राज्य के रोजगार कार्यालयों में नाम दर्ज करवाने में होती है. राज्य में तृतीय श्रेणी की सेवाओं के लिए रोजगार कार्यालय में नाम दर्ज होना आवश्यक है.
स्थायी निवास प्रमाण पत्र का शासनादेश जारी होने के बाद राज्य के समाज कल्याण विभाग ने 2003 में जाति प्रमाण पत्र जारी करने के लिए एक नया शासनादेश निकाला. इसके अनुसार राज्य में आरक्षित वर्ग का जाति प्रमाण पत्र यहां के मूल निवासियों को ही जारी किया जा सकता है. इससे एक बार फिर मूल निवास बनाम स्थायी निवास का विवाद खड़ा हो गया. जाति प्रमाण पत्र जारी करने से पहले इस बात की तहकीकात कर ली जाती थी कि प्रमाण पत्र मांगने वाले व्यक्ति का पैतृक राज्य उत्तराखंड ही है. फिर भी इन शासनादेशों के दुरुपयोग की शिकायतें आती रहीं. बाद में राज्य सरकार ने जाति प्रमाण पत्र जारी करते समय अतिरिक्त सावधानी बरते जाने के लिए दो और आदेश जारी किए. 2007 में राज्य सरकार ने जाति प्रमाण पत्र के संदिग्ध मामलों के निर्धारण के लिए जिला स्तरीय और राज्य स्तरीय समितियों का गठन किया.

इन सबके बावजूद मूल निवास बनाम स्थायी निवास प्रमाण पत्र और पैतृक रूप से राज्य में न रहने वालों को जाति प्रमाण पत्र जारी किया जाना हरिद्वार और उधम सिंह नगर में विवाद का मुद्दा रहा. सरकार द्वारा न सुलझने पर ये मामले उच्च न्यायालय पहुंचे. अदालत ने कहा कि स्थायी निवास और जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाने के संबध में जारी इन सभी शासनादेशों में राज्य सरकार ने सद्भाविक निवासी, मूल निवासी, स्थायी निवासी, वास्तविक निवासी, स्थायी रूप से रहने वाला जैसे शब्द ठीक से परिभाषित नहीं किए हैं और इन शब्दों के अर्थ और शर्तें इतनी लचीली हैं कि एक शब्द दूसरे की सीमा में अतिक्रमण करता है. जाति प्रमाण पत्र जारी करने की पूर्व की अन्य शर्तों के अलावा उच्च न्यायालय ने कहा कि चूंकि उत्तर प्रदेश से अलग होने से पहले राज्य के नागरिक के एक हिस्से से दूसरे हिस्से में जाने पर भी उसे जाति प्रमाण पत्र जारी होता था इसलिए उत्तर प्रदेश के अलग होने से पहले (9 नवंबर, 2000) वहां से उत्तराखंड के हिस्सों में आकर स्थायी रूप से रहने वाले लोगों को जाति प्रमाण पत्र जारी किए जाने चाहिए, बशर्ते वह जाति उत्तराखंड में अनुसूचित जाति, जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग में आती हो. यानी राज्य बनने के दिन से यहां रह रहे हर नागरिक को उत्तराखंड का निवासी मान लिया जाए.

इस फैसले के अपने पेंच हैं. प्रशासनिक सेवा परीक्षाओं की तैयारी कर रहे प्रदीप पंत बताते हैं, ‘उत्तराखंड में प्रशासनिक सेवाओं से लेकर ज्यादातर ठीक-ठाक नौकरियों में सामान्य वर्ग के अधिकांश पदों पर राज्य से बाहर के लोगों का ही चयन हो रहा है.’ उनके मुताबिक राज्य बनने के बाद राज्य का शैक्षिक स्तर इतना खराब हुआ है कि राज्य के युवा बाहरी माहौल में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले युवाओं के सामने टिक नहीं पा रहे हैं. पंत बताते हैं, ‘अब इस निर्णय के बाद आरक्षित वर्गों में भी बाहरी लोगों की भर्ती होगी.’

उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक के अनुसार उत्तर प्रदेश के लिए तय 65 अनुसूचित जातियों और पांच अनुसूचित जनजातियों को उत्तराखंड में भी ज्यों का त्यों अनुसूचित जाति या जनजाति मान लिया गया है.

उत्तराखंड में उत्तर प्रदेश पुनर्गठन विधेयक के अनुसार उत्तर प्रदेश के लिए तय 65 अनुसूचित जातियों और पांच अनुसूचित जनजातियों को उत्तराखंड में भी ज्यों का त्यों अनुसूचित जाति या जनजाति मान लिया गया है. राज्य सचिवालय में तैनात एक सचिव बताते हैं, ‘दोनों राज्यों की सूची में समानता होने से जाति प्रमाण पत्र के दुरुपयोग के मामले बढ़ सकते हैं.’ इसके अलावा राज्य में 73 ओबीसी यानी अन्य पिछड़ी जातियां तय हैं. इस वर्ग की सबसे अधिक जनसंख्या हरिद्वार और उधमसिंह नगर जिलों में है. इन जिलों के लोगों को आशंका है कि उत्तर प्रदेश से लगे जिलों के लोग आसानी से जाति प्रमाण पत्र बना कर उनके हिस्से की नौकरियों पर डाका डालेंगे. इन आशंकाओं के बावजूद अभी तक अनुसूचित जाति-जनजाति या पिछड़े वर्ग के संगठनों से इस निर्णय के विरोध में कोई आवाज नहीं आई है. ऐसे एक संगठन के नेता दबी जबान में कहते हैं, ‘दरअसल इस विवाद में पड़ कर हम प्रमोशन में आरक्षण आंदोलन की एकजुटता को तोड़ना नहीं चाहते.’

राज्य आंदोलनकारी मंच के नेता जगमोहन नेगी कहते हैं, ‘इस तरह के निर्णय लागू करने वाले नेता बताएं कि यदि यहां के रोजगारों और संसाधनों की लूट ही करानी थी तो अलग राज्य उत्तराखंड क्यों बनाया.’ माकपा (माले) के गढ़वाल सचिव इंद्रेश मैखुरी का मानना है कि इससे राज्य बनने का औचित्य ही समाप्त हो जाएगा.’ इसके जवाब में अंबरीश कुमार कहते हैं, ‘हमारा प्रयास है कि हम दोनों पहचानों (उत्तराखंडी और भारतीय ) में समन्वय करें. यदि क्षेत्रवाद और राष्ट्रवाद में टकराव होगा तो देश बंटेगा.’ राज्य में प्रमुख विपक्षी दल भाजपा ने विधानसभा में तो सरकार के इस बयान का कोई विरोध नहीं किया लेकिन उसके नेताओं ने सदन से बाहर बयान दिए कि इस मुद्दे पर सदन में चर्चा होनी चाहिए. वहीं, उत्तराखंड क्रांति दल के अध्यक्ष त्रिवेंद्र पंवार ने इस निर्णय को उच्च न्यायालय में ही चुनौती दी है. मुद्दा समय रहते नहीं सुलझाया गया तो राज्य सरकार के लिए यह चिंता का सबब बन सकता है.