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टीबी वाया बीड़ी

जयक्रिस्टोपुर गांव में दिलावर की चुस्ती और फूर्ति देखते ही बनती है. 14-15 साल का दिलावर ठेला चलाते हुए आता है.  बोरा बिछाता है. ठेले पर लाद के लाए बंडलों में से कुछ को खोलता है और सामने बीड़ी के पत्ते और तंबाकू का ढेर लगाकर तराजू से तौलने में व्यस्त हो जाता है. दिलावर आ गया, दिलावर आ गया की सूचना गांव की गलियों में पहुंचती है. दौड़ती-भागती महिलाएं औरबच्चियां एक कॉपी के साथ टोकरीनुमा डाली में बीड़ी लेकर पहुंचने लगती है. दिलावर के साथ बैठा नरूल बीड़ियों को लेता जाता है, टोकरी में रखी कॉपी पर अपने रजिस्टर में कुछ लिखता है. दिलावर से महिलाएं बीड़ी पत्ता औरतंबाकू लेकर विदा होती जाती हैं. आधे घंटे में एक टोकरी बीड़ी पत्ता और तंबाकू तौलकर नन्हा दिलावर तुरंत अपनी दुकान को समेटता है और ठेले को चलाते हुए वहां से विदा हो जाता है. दूसरे गांव के लिए.

जयक्रिस्टोपुर से निकलने के बाद हम भगीरामपुर गांव, अंजना गांव, नया अंजना गांव, चाचकी, इलानी, तारानगर, संग्रामपुर, रहसपुर, चांचपुर आदि गांवों में जाते हैं. अमूमन सभी गांवों में दिलावर की तरह ही कोई न कोई ठेला वाला दिखता है, जो सुबह-सुबह तंबाकू और बीड़ी पत्ते के साथ पहुंचकर उसे देने और बदले में बीड़ी लेने में व्यस्त रहता है. बीड़ी पत्ता मध्यप्रदेश का होता है, तंबाकू गुजरात की और मजदूर पांकुड़ के. ये सारे गांव झारखंड के सीमावर्ती जिले पांकुड़ जिला के गांव हैं. पांकुड़ जिला के सदर प्रखंड के अंतर्गत आनेवाले 128 गांवों में करीब 90 फीसदी गांवों में यह नजारा हर सुबह देखा जा सकता है. ये तमाम गांव बीड़ी गांव हैं. बीड़ी मजदूरों की बसाहट है इन गांवों में. अधिकांश मुस्लिम समुदाय के लोग हैं. यूं भी पांकुड़ जिला केंद्र सरकार की सूची में विशेष अल्पसंख्यक जिले के रूप में ही दर्ज है. 

इन गांवों में अहले सुबह से लेकर रात में सोने तक अधिकांश लोगों की जिंदगी बीड़ी पर हाथ फेरते ही गुजरती है. बीड़ी और इन गांवों के लोगों की जिंदगी की ऐसी गुत्थमगुथाई हो गयी है कि यहां बीड़ी को हटाते हुए एक बड़े समुदाय और एक बड़ी आबादी के सामने अंधकारमय भविष्य का सवाल सामने आता है. यहां जो लड़की बीड़ी नहीं बना सकती, उसकी शादी में भी हजार मुश्किलें आती हैं. जो जितनी तेजी से बीड़ी के पत्तों पर हाथ फेरते हुए उसमें तंबाकू भरेगा और बीड़ी बनायेगा, वह उतना ही काबिल माना जाता है, योग्य भी. इन्हीं गांवों के लोगों ने मिलकर पांकुड़ को बीड़ी का देश का एक प्रमुख हब बनाया है. अकेले पांकुड़ में वैध तौर पर छह बड़ी बीड़ी फैक्टरियां इन्हीं के बुते चलती हैं. बंगाल की पताका बीड़ी फैक्टरी, महराष्ट्र की सीएनआई और सूरती बीड़ी फैक्टरी, मध्यप्रदेश की बालक बीड़ी फैक्टरी और उत्तरप्रदेश की श्याम बीड़ी फैक्टरी. इन वैध फैक्टरियों के अलावा अवैध तौर पर और बिना ब्रांड वाली कितनी फैक्टरियां है, यह सही-सही बताने की स्थिति में कोई नहीं होता. क्योंकि बीड़ी के धंधे में एक बड़ा खेल चलता है, जिससे पार पाने के लिए अवैध फैक्टरियों को चलाने में ही ज्यादा मुनाफा आता है. 20 लाख तक बीड़ी के प्रोडक्शन करनेवाली कंपनियों को न तो कोई टैक्स देना पड़ता है, न किसी खास नियम-कानून के दायरे मे लाया जाता है, सो अवैध की धूम इन दिनों ज्यादा ही मची है. यह जानकारी हमें रामअवतार गुप्ता से मिलती है, जो श्याम बीड़ी फैक्टरी के प्रबंधक हैं और पांकुड़ में ही रहते हैं.

खैर! यह सब तो तकनीकि पेंच की बात हुई,इस इलाके में घूमते हुए असल सवाल दूसरे किस्म के उभरे. एक बड़ा सवाल यह कि आखिर जिन मजदूरों के बुते वैध-अवैध इतनी फैक्ट्रियां पांकुड़ में चलती है और जिनकी वजह से देश के कोने-कोने के बीड़ी व्यापारियों के लिए पांकुड़ पसंदीदा जगह बना हुआ है, उन मजदूरों के हिस्से में इस बीड़ी से क्या आता है? मजदूरी के तौर पर 1100 बीड़ी बनाने पर 75 रुपये मिलते हैं. मजदूरी का यह हिसाब तो एक हजार बीड़ी का होता है लेकिन तंबाकू-पत्ता देने और बीड़ी कलेक्ट करनेवाले बीचौलिये 100 बीड़ी इसलिए ज्यादा रखते हैं ताकि अगर कुछ बीड़ी डैमेज मिले तो उसकी भरपाई की जा सके. हालांकि सच्चाई यह होती है कि डैमेज कंट्रोल के नाम पर लिये जानेवाले 100 ज्यादा बीड़ियों का भी बीचौलिये अलग से कारोबार करते हैं. अब देखें तो एक मजदूर अगर बीड़ी बनाने में बहुत काबिल है, उस्ताद है तो भी अधिक से अधिक हजार बीड़ी से ज्यादा वह दिन भर की मेहनत के बाद नहीं बना पाता. औसतन 500 बीड़ी से ज्यादा कोई नहीं बना पाता. इससे मजदूरी का हिसाब साफ लगाया जा सकता है लेकिन यह तो मजदूरी है, जिसका हिसाब-किताब साफ-साफ दिखता है और लोगों से बात करने पर पता भी चलता है लेकिन बीड़ी मजदूरों को दूसरी सौगात भी वर्षों से मिल रही है, जिसका न कोई लेखा-जोखा है, न जिसके बारे में पता करने का कोई उपक्रम-औजार और मानक.  यह सौगात टीबी जैसी बीमारियों का है, जो तंबाकू के बीच दिन भर का समय गुजारने के बाद इन्हें मिलता तो है लेकिन टीबी से ही मर जाने तक इन्हें पता ही नहीं चल पाता कि आखिर वे अकाल, काल के गाल में किस बीमारी की वजह से समा गये!

आखिर ऐसा क्यों? जब केंद्र की सरकार देश भर में टीबी से लड़ने के लिए डॉट्स जैसे प्रोग्राम चला रही है, जन जागरूकता अभियान चलाने में लगी हुई है और तमाम संसाधनों और सुविधाओं को बहाल किये जाने की बात कर रही है तो टीबी की ज्यादा संभावनावाले इस इलाके में उस बीमारी की जांच के लिए बुनियादी सुविधा तक क्यों नहीं! क्यों जिला अस्पताल छोड़कर कहीं और टीबी बीमारी वाला प्रचार पोस्टर भी नहीं दिखता. न डॉट्स के कार्यकर्ता मिलते हैं न आंगनबाड़ी जैसे केंद्रों पर इसकी सुविधा मिलती है. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार कृपासिंधु बच्चन बताते हैं, यह एक खेल है, जिसे समझना होगा. कोई बीड़ी फैक्टरी नहीं चाहेगा कि इलाके में शिक्षा और स्वास्थ्य के समुचित उपाय हो, क्योंकि दोनों सुविधाएं बहाल हो जाने से फिर बीड़ी के धंधे पर असर पड़ेगा. अगर मजदूरों को पता चलने लगे कि उन्हें टीबी जैसी बीमारी हो रही है तो फिर वे सावधान होने लगेंगे, नयी पीड़ी को जोड़ने से हिचकने लगेंगे, इसलिए दूसरे किस्म के स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए दिखावे के तौर पर अलग से बीड़ी अस्पताल जैसा संस्थान तो खोल दिया गया है लेकिन इस इलाके विशेष के लिए टीबी से पार पाने के लिए अलग से कोई खास इंतजाम नहीं किया जाता, ताकि यह बीमारी रहस्यमयी बीमारी ही बनी रहे!

बच्चन की बातों को पड़ताल करने के लिए हम पांकुड़ के पास बीड़ी मजदूरों के लिए विशेष तौर पर खोले गये बीड़ी अस्पताल के प्रभारी  डॉ सुहैल अख्तर से तस्दीक करते हैं. डॉ अख्तर जिला चिकित्सा पदाधिकारी भी हैं. वह कहते हैं- हमारे इस केंद्र पर बलगम जांच की व्यवस्था अब तक नहीं है न डॉट्स और टीबी की दवाइयों की सुविधा है. इसके लिए हमने जिला उपायुक्त से आग्रह किया तो उसके लिए टेंडर भी हुआ लेकिन अब तक सुविधाएं बहाल नहीं हो सकी है. साथ ही वर्किंग हैंड की भी भारी कमी है. पिछले साल इस अस्पताल में करीब 1350 मरीज जांच कराने आये थे. उनमें से कितने टीबी मरीज रहे होंगे, यह बगैर जांच के बताने की स्थिति में तो डॉ अख्तर नहीं होते लेकिन वह कहते हैं कि हर माज करीब 10 मरीज तो टीबी के आते ही होंगे, ऐसा उनमें पाये जानेवाले लक्षणों को देखकर लगता है.

पूर्व जिला चिकित्सा पदाधिकारी जितेंद्र सिंह भी कहते हैं कि हमारे पास कोई सुविधा नहीं कि बता सकें कि कितने मरीज टीबी से पीड़ित हैं. अधिकांश बुखार, सर्दी, खांसी मलेरिया आदि से पीड़ित होकर आते हैं लेकिन उनमें टीबी के भी मरीज होते हैं, यह उनके लक्षणों से पता चलता है. बीड़ी मजदूरों के लिए बने बीड़ी अस्पताल में सुविधाओं और संसाधनों के अभाव में भले ही टीबी मरीजों के सही-सही आंकड़े नहीं मिल पाते लेकिन जिला यक्ष्मा पदाधिकारी डॉ बीके सिंह के हवाले से बीड़ी जोन में टीबी की भयावहता का एक पक्ष उभरकर सामने आता है. बकौल डॉ बीके सिंह, एक जनवरी 2012 से लेकर 31दिसंबर 2012 तक 1200 से ज्यादा टीबी के मरीज पाये गये हैं, जिनका इलाज फिलहाल जिला सदर अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य उपकेंद्रों में  चल रहा है. जून 2005 से पांकुड़ में टीबी का इलाज शुरू हुआ था. तब से लेकर  अब तक आधिकारिक तौर पर आठ हजार से ज्यादा मरीज चिन्हित किये गये हैं. इतनी संख्या तब है, जब टीबी को लेकर जनजागरूकता अभियान लगभग शून्य दिखता है. प्रचार प्रसार के नाम  24 मार्च को टीबी दिवस के दिन अस्पताल में और कुछ स्कूलों में आयोजन होता है. ग्रामीण क्षेत्रों में उसकी दस्तक तक नहीं पड़ती!

दहशत के चंद घंटों के बीच…

जनवरी की वह सुबह ठीक-ठीक कैसी थी-याद नहीं आ रहा बेशक उस दिन बड़ी ठंढ रही होगी.मगर कुहासा ज्यादा ना रहा होगा क्योंकि हम बहुत पहले तैयार हो गए थे. अब्बा लखनऊ जा रहे थे, शायद चेक-अप के लिए. कार से अम्मी और मैं उनके साथ जा रहे थे. अब्बा की खिदमत के लिए बुद्धू नाम का एक नौकर था. उसे ड्राइविंग आती थी और अब्बा हमेशा उसे अपने साथ ले जाते थे लेकिन अब्बा को खुद कार चलाना पसंद था. पड़ोस में एक पेट्रोल-पंप था, कहीं जाने से पहले वे उस पेट्रोल-पंप पर जरुर जाते . लेकिन उस दिन पहुंचे तो पेट्रोल-पंप बंद मिला.मालिक अभी तक वहीं था, वह कार तक आया और उसी ने खबर सुनायी- किसी ने गांधीजी की हत्या कर दी है.

 इससे ज्यादा उसे पता नहीं था.

अब्बा ने कार वापस घुमा ली. चेहरा तन गया, मैंने इससे पहले उनको इतना गुमसुम नहीं देखा था.जितनी देर घर पहुंचने में लगे,कार में उन चंद लम्हों तक एकदम चुप्पी रही.उतरते ही शायद उस दिन कार गैराज में रख दी गई.उस दिन सबकुछ बड़ा अटपटा हो रहा था.घर में दाखिल होते ही अब्बा ने बाहर के सारे दरवाजे बंद करके कुंडी चढ़ा दी. उन्होंने सबको घर के अंदर रहने का हुक्म सुनाया- घर के एकदम बीच वाले कमरों में. हाजत से फारिग ना होना हो तो हमें भीतर की दोनों अंगनाइयों में भी आने की इजाजत नहीं थी. घर में सिर्फ अब्बा की आवाज सुनाई दे रही थी-  बाकी लोग कुछ कहना हो तो फुसफुसा के बोल रहे थे.

अब्बा शिकार के बड़े शौकीन थे, खासकर जाड़ों में जल-मुर्गाबियों के. उनके पास तीन शॉटगन थे और एक राइफल, एक रिवाल्वर भी था. बरसों पहले पुश्तनी जायदाद के मामले में जान पर बन आई थी तभी खरीदा था उन्होंने वह रिवाल्वर. उन्होंने तीनों हथियारों को पेटी से निकालकर तख्त पर रखा, अपने हाथों से जांच के देखा और गोली भर दी.एक बंदूक बुद्धू को दे गई. तबतक बंदूकों को लेकर मेरा कोई तजुर्बा नहीं था- मुर्गाबियों के शिकार पर मैं अब्बा के साथ जाता तो वे मुझे इतना होशियार नहीं मानते कि  हाथों में बंदूक थमा दें. इसलिए, मैं इस वक्त उनके किसी काम का नहीं था.

अब्बा और बुद्धू हाथों में बंदूक लेकर घर की औरतों के साथ थे–अम्मा, दादी, दाइयां (इनमें बुद्धू की बीवी भी थी) और फिर बच्चे- मेरी तीन बहनें और बुद्धू के ढेर सारे बच्चे. अब्बा शाह दरवाजे पर मुस्तैद थे, बुद्धू भीतर की अंगनाई में किसी शिकारी के से चौकन्नेपन के साथ टहल लगा रहा था. बाहर, पिछवाड़े की तरफ हमारा चौकीदार भगवानदीन, तेल चुपड़ी और लोहे की टोप वाली लाठी लेकर दरवाजे के नजदीक के एक पेड़ के पास मोर्चा लेने को  तैयार था. ओसारे की तरफ हमारा खानसामा सज्जाद एकदम इसी तैयारी के साथ दूसरे दरवाजे के पास एक झाड़ी में घात लगाये बैठा था.

पेट्रोल-पंप पर पहली बार जब खबर मिली तो मैं भी लगभग उतना ही भयभीत था जितना मेरे अब्बा-अम्मी. लेकिन अब, घर में, मेरी बदहवाशी की बड़ी वजह थी उनके चेहरे से झांकने वाली दहशतIमैंने पहले कभी अब्बा को ऐसी सूरत में ना देखा था.मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि बात-बात पर तुनक उठने वाले मेरे अब्बा जो अपने ऊंचे ओहदे और उस ओहदे से जुड़ी ताकत को लेकर एकदम निश्चिंत रहते थे, अचानक इतने असहाय और भयभीत हो उठेंगे. आखिर, उनके पास तीन गांवों की जमींदारी थी, खान साहब का ओहदा भी मिला हुआ था, फिर वे ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट और स्पेशल रेलवे मैजिस्ट्रेट भी थे. बंद दरवाजों के पीछे पसरे नीम-अंधेरे में अपने आप को टोहता मैं दहशत में था. यही हालत, अम्मा, बहनों और बाकी सबकी थी यहां तक कि दादी को भी अंदर बुला लिया गया था- अमूमन जाड़े के दिनों में वे रसोई से लगते बरामदे में रहती थीं. कुछ देर बाद उन्होंने मुझे अपने बगल में बैठा लिया, मैं उनका दुलरुआ था- खुद को साधे हुए वे लगातार प्रार्थनाएं बुदबुदा रही थीं.

कोई दो घंटे का अरसा गुजरा होगा (क्या सचमुच ही इतना वक्त बीत गया था?) तभी हमें सुना कि लाऊडस्पीकर पर कुछ ऐलान किया जा रहा है. आवाज लगातार पास आते जा रही थी लेकिन दरवाजों के अंदर शब्द साफ सुनाई नहीं पड़ रहे थे. अपने कानों से टोह लेते हम भय से सिकुड़े जा रहे थे. आखिर को अब्बा ने एक दरवाजा खोला और बाहर निकले.  वे बारजे पर खड़े होकर ऐलान सुनने लगे, खुले हुए हिस्से से हमारी फिक्रमंद आंखे उनपर टिकी हुई थीं.अचानक वे गाली बकने लगे- पहले कभी हमने उन्हें इतने जोर से और इतनी भद्दी गालियां देते ना सुना था. वे बारजे पर धूप में पूरे तैश के साथ खड़े थे. उनको पुराने अंदाज में देखकर हमारे हवाश थोड़े दुरुस्त हुए. साहस बटारकर मैंने बगल का एक दरवाजा खोला और बरामदे में आ गया. मेरे पीछे, दरवाजे के पास अम्मा और बहनें आ जुटीं. पुलिस या फिर फौज की कोई जीप या ट्रक रहा होगा.लाऊडस्पीकर इसी पर लगा था और कोई बार-बार ऐलान सुना रहा था. काश, मुझे ठीक-ठीक वही शब्द अब याद होते,लेकिन याद नहीं आ रहा. लेकिन उन लफ्जों का असर मुझे याद रह गया है – तुरंत भीतर तक उतर जाने वाली राहत का भाव. उन लफ्जों को सुनकर हमने चोरी-छिपे एक-दूसरे को मुस्करा कर देखा क्योंकि उन्हीं लफ्जों से हमने जाना कि (गांधी की) हत्या करने वाला एक हिन्दू है- कोई मुसलमान नहीं, बल्कि एक हिन्दू. जकड़ लेने वाली उस दहशत को अब हम पहचान सकते थे और राहत की वजह को भी. उस वक्त मेरी दादी ने बिल्कुल यही किया था. हमने सुना वह अल्लाह का शुक्रिया कर रही थी कि गांधी का हत्यारा एक हिन्दू निकला, अल्लाह की मेहर कि हत्यारा कोई मुसलमान नहीं था.

जल्दी ही हमारी जिन्दगी रोज के ढर्रे पर आ गई. अचानक चंद रोज तक बंद रहने के बाद स्कूल फिर से खुल गया. एक अबूझ अंतर यही दीख रहा था कि हमारे भूगोल के शिक्षक नहीं आ रहे. वे आरएसएस की स्थानीय शाखा के नेता थे. उन्हें कुछ हफ्तों के लिए हिरासत में रखा गया, फिर छोड़ दिया गया. अब्बा का मर्ज जल्दी ही जाहिर हो उठा और फिर अक्तूबर की एक रात इसी मर्ज ने उनकी जान ली. उनकी मौत से मेरी खुद की जिन्दगी भी बुनियादी तौर पर बदल गई. घर में अब अकेला मर्द मैं ही था,अम्मा पर्दे में रहती थीं, इसलिए अब घर में मुझे ही मुखिया के रुप में देखा जाने लगा, लेकिन यही चलन था और इसी की उम्मीद की जा रही थी. कुछ साल बाद सरकार ने जमींदारी खत्म कर दी और हमारी जीविका का बड़ा जरिया जाता रहा- लेकिन यही भी अपेक्षित था. चाहे थोड़े छोटे पैमाने पर मगर हम अब भी अपनी सफेदपोशी बरकरार रख पा रहे थे. मुकामी तौर पर रसूखदारों के बीच चली आ रही छोटाई-बड़ाई में फर्क पडा था लेकिन अब भी हमारी उनसे जान-पहचान थी और इससे भी बड़ी बात यह कि वे भी हमें अपना मान रहे थे.

नई बात यह हुई कि धीरे-धीरे हमने जाना कि जनवरी के उस दिन जो दहशत हमारी हड्डियों में उतर गयी थी और लगा कि जल्दी खत्म भी हो गयी है, दरअसल हमें छोड़कर कभी नहीं गयी.

(उपर्युक्त सामग्री का चयन और अनुवाद चंदन श्रीवास्तव ने किया है. वे सीएसडीएस की एक परियोजना www.im4change.org के लिए काम करते हैं और उनके आलेख समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं)

नंबर दो अब हुए नंबर दो

कांग्रेस पार्टी पर नेहरू-गांधी परिवार के दखल को लगभग एक सदी होने को है. इस दौरान किसी न किसी रूप में परिवार का जुड़ाव कांग्रेस पार्टी से रहा है. 1919 में राहुल गांधी के परनाना जवाहरलाल नेहरू के पिता मोतीलाल नेहरू पहली बार अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष चुने गए थे. उसके बाद से अब तक यह परिवार कभी भी पार्टी से अलग नहीं हुआ है. जवाहरलाल नेहरू जब 1929 में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे तब उन्हें यह जिम्मेदारी उनके पिता से ही स्थानांतरित हुई थी. राहुल के हालिया अभिषेक और जवाहरलाल नेहरू के अध्यक्ष चुने जाने की स्थितियों में एक अद्भुत साम्य है. पिता मोतीलाल नेहरू ने जवाहर को अध्यक्ष बनाने के लिए महात्मा गांधीजी को जो पत्र लिखा था उसका मजमून यही था कि अब नेतृत्व पर युवाओं के अधिकार को और ज्यादा समय तक रोका नहीं जाना चाहिए. तब जवाहर 27 वर्ष के थे. गांधीजी ने उनके नाम पर अपनी मुहर लगा दी. आज जब राहुल गांधी को कांग्रेस पार्टी में नंबर दो (यह तथ्य सर्वविदित है कि नंबर एक की कुर्सी भी उनके ही परिवार में है) की उपाधि दी गई है तब उनकी प्रोन्नति के लिए सबसे बड़ा तर्क उनका ‘युवा’ होना ही दिया जा रहा है. यह घटना एक सदी के दौरान कांग्रेसी संस्कृति में आए बदलाव की भी तस्वीर है. तब जवाहरलाल नेहरू बाकायदा लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव जीतकर कांग्रेस अध्यक्ष बने थे जबकि राहुल गांधी की प्रोन्नति शुद्ध रूप से एक नियुक्ति है. उन्हें कोई चुनावी बाधा पार करने की जरूरत नहीं है.

विपक्ष इसे दुर्गुण मानता है, कांग्रेसी प्रकाश पुंज. लेकिन इतना तय है कि इस एक नियुक्ति से कांग्रेसी कैडर में उत्साह का संचार हुआ है. 2009 के आम चुनावों में मिली अविश्वसनीय सफलता के बाद से कांग्रेस का झोला सफलताओं से रिक्त ही रहा है. इस दौरान उसके खाते में जितनी नकारात्मक सुर्खियां आई हैं उतनी सरकारों और सत्ताधारी दलों को दसियों साल में भी मयस्सर नहीं होतीं – 2जी घोटाला, सीडब्ल्यूजी घोटाला, कोल घोटाला, अन्ना आंदोलन, वाड्रा मामला, बलात्कार विरोधी प्रदर्शन आदि ने केंद्र सरकार को लगातार पिछले पांव पर रखा है. इसमें अगर कांग्रेस की चुनावी असफलताओं को भी जोड़ दें तो कांग्रेस पिछले तीन साल को एक दु:स्वप्न की तरह याद रखेगी. ऐसे अंधेरे में राहुल का ‘पुनरोदय’ हतोत्साहित कांग्रेस संगठन में तात्कालिक तौर पर एक नई ऊर्जा का संचार करने में सफल रहा है. उनके उपाध्यक्षीय भाषण ने कुछ महत्वपूर्ण नब्जों को टटोला है, कुछ जरूरी कलपुर्जों की मरम्मत की बात कही है लेकिन वे इनके ऐसा होने के पीछे के कारणों पर बात करने से साफ कन्नी काट गए. उन्होंने और भी कई बेहद जरूरी चर्चाओं को छुआ तक नहीं. ये वे जरूरी चर्चाएं हैं जिनसे निकट भविष्य में पार्टी का और उपाध्यक्ष होने के नाते राहुल का सामना होना बिल्कुल तय है.

पांच बातें जो उन्होंने कहीं
1. उन्होंने कहा, ‘ताकत का विकेंद्रीकरण करने की जरूरत है. आम लोगों के हित-अहित का फैसला कुछ मुट्ठी भर और गैरजवाबदेह लोगों के हाथ में नहीं दिया जा सकता. हमारी प्रशासनिक व्यवस्था अतीत में कहीं अटकी हुई है. लोगों की अपेक्षाएं बढ़ गई हैं. यह व्यवस्था आम लोगों को ताकत देने के बजाय उन्हें दबाती है.’ गैरजवाबदेही की सबसे बड़ी मिसाल क्या स्वयं राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ही नहीं कहा जा सकता है? यह तथ्य सर्वविदित है कि सत्ता में कोई सीधी भागीदारी न होने के बावजूद सरकार में सिर्फ उन्हीं की चलती है और बदले में उनकी कोई सीधी जवाबदेही नहीं है. दूसरा मुद्दा सत्ता के विकेंद्रीकरण का है. पिछले आठ साल से राहुल राजनीति में हैं. इस दौरान वे युवा कांग्रेस और एनएसयूआई का कामकाज देखते रहे हैं. लेकिन इन दोनों संगठनों की दशा में अब तक कोई बड़ा लोकतांत्रिक सुधार नहीं दिखाई देता. यहां अब भी सारे निर्णय पहले की तरह ऊपर से थोपे जाने या कुछ चुनिंदा लोगों द्वारा लिए जाने का चलन है. राहुल गांधी की कोशिशों के बावजूद एनएसयूआई अपना प्रभाव क्षेत्र बढ़ाने में असफल रही है. युवा कांग्रेस में उन्होंने लोकतांत्रिक तरीके से चुनाव की प्रणाली विकसित की थी पर उनके जाने के बाद से ही स्थितियां बेहद खराब हुई हैं. हाल ही में हरियाणा में यूथ कांग्रेस के चुनावों में भयंकर गड़बड़ी सामने आई थी. साल 2009 में उत्तराखंड के राज्य कांग्रेस सदस्यता अभियान के दौरान नेताओं ने अपने रिश्तेदारों को प्रदेश और जिला कांग्रेस समितियों में पहुंचाने के लिए सदस्यता फॉर्मों में जमकर हेरफेर की. राहुल लोगों की बढ़ी हुई अपेक्षाओं की बात तो करते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि जब-जब दलितों औऱ युवाओं ने उनसे कोई अपेक्षा की तो उन्होंने उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरने के लिए उनके घर सोने या सिरे से गायब होने के अलावा और क्या किया. अगर पिछले विधानसभा चुनाव की बात की जाए तो वे अपने क्षेत्र अमेठी की ही जनता की अपेक्षाओं पर खरा उतरते ही नहीं दिखते.

2. उन्होंने कहा, ‘हम आज नेतृत्व के विकास पर ध्यान नहीं देते. आज से पांच-छह साल बाद ऐसी बात होनी चाहिए. पहले फोटो हुआ करती थी कांग्रेस पार्टी की. नेहरू, पटेल, आजाद जैसे बड़े कद के नेता हुआ करते थे. उनमें से कोई भी देश का पीएम बन सकता था. हमें हर प्रदेश में ऐसे 40-50 नेता तैयार करने हैं. हर जिले, हर ब्लॉक में ऐसे नेता होने चाहिए. ‘समस्या यह है कि जो बात वे कह रहे हैं उनकी पार्टी बार-बार इसके विपरीत आचरण करती रही है. जब तक पार्टी में जरूरी लोकतंत्र स्थापित नहीं होगा इतने सारे नेता कैसे पैदा हो सकते हैं? मौजूदा राजनीति की सच्चाई यह है कि राज्यों में कोई भी ऐसा कद्दावर नेता दिल्ली में बैठे नेतृत्व को स्वीकार्य नहीं है जो बाद में उनके लिए ही खतरा बन जाए. आंध्र प्रदेश में हमने देखा कि पार्टी ने किस तरह से जगन मोहन को किनारे लगा दिया. ज्यादा पीछे न जाकर हाल के उत्तराखंड विधानसभा के नतीजों पर नजर डालें तो इसी कांग्रेस पार्टी ने राज्य के कद्दावर नेता हरीश रावत को किनारे लगा कर राजनीति के नौनिहाल विजय बहुगुणा को राज्य की कमान थमा दी. जबकि वे राज्य की राजनीति में कहीं से भी स्टेकहोल्डर नहीं थे. लिहाजा इस मुद्दे पर राहुल को जुबानी जमाखर्च से आगे बढ़ना बड़ी चुनौती होगी.

एक सिरे से देखने पर यह बहुत साहसिक लगता है कि कोई नेता अपनी कमियों को स्वीकार करके बदलाव की बात कर रहा है. मगर कुछ लोग राजनीति की शब्दावली में  इसे ‘विरोध की भावना पर सवारी करना’ कहते हैं.

3. उन्होंने कहा, ‘जमीन पर हमारा कार्यकर्ता काम करता है. यहां हमारे जिलाध्यक्ष, ब्लॉक अध्यक्ष बैठे हैं. टिकट देते समय उनसे पूछा नहीं जाता. ऊपर से निर्णय ले लिया जाता है. होता क्या है कि दूसरे दल के लोग आखिरी समय में पार्टी में आ जाते हैं, टिकट पा जाते हैं, चुनाव हार जाते है और वापस चले जाते हैं. कांग्रेस कार्यकर्ता की इज्जत होनी चाहिए.’ यह समझना बहुत मुश्किल है कि राहुल किस ‘ऊपर’ की बात कर रहे हैं. उनके अलावा ऊपर कौन है? इस विरोधाभास को हाल के एक उदाहरण से समझना आसान है. उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी का पुनर्गठन किया गया. निर्मल खत्री प्रदेश अध्यक्ष बनाए गए. एक तो निर्मल खत्री राज्य के तीन प्रमुख जातिगत समीकरणों (ब्राह्मण, यादव ठाकुर) में से किसी में भी फिट नहीं बैठते लिहाजा इस नियुक्ति से सबके साथ स्वयं खत्रीजी को भी आश्चर्य हुआ होगा. ऊपर से पहली बार पार्टी ने जिला और प्रदेश कांग्रेस कमेटियों के इतर एक नई जोनल व्यवस्था लागू कर दी है. पूरे प्रदेश को आठ जोन में बांटकर उनके जोनल इंचार्ज दिल्ली से नियुक्त कर दिए गए हैं. यह विचित्र विरोधाभास है, एक तरफ वे कह रहे हैं कि ऊपर से आने वाले का सम्मान नहीं होगा दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश  जैसे महत्वपूर्ण राज्य में दिल्ली से भेजे गए जोनल इंचार्ज 2014 के लोकसभा उम्मीदवारों का फैसला करेंगे. फलस्वरूप प्रदेश कमेटी शोभामात्र बनकर रह गई है. इस नई व्यवस्था से पैदा हुई दुविधा को दूर करने के लिए निर्मल खत्री को बयान देना पड़ा कि जोन प्रमुख अलग इकाई के रूप में काम नहीं करेंगे बल्कि उन्हें भी एक टीम के रूप में काम करना होगा. राहुल कह रहे थे कि दूसरी पार्टियों से आए लोगों को टिकट दे दिया जाता है. सच यह है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा का चुनाव उन्हीं के नेतृत्व में लड़ा गया था और पार्टी ने 25 फीसदी टिकट सपा-बसपा कार्यकर्ताओं को दिया था.

4. उन्होंने कहा, ‘हम ज्ञान का सम्मान नहीं करते, हम सिर्फ पद का सम्मान करते हैं. आप कितने विद्वान हैं यह मायने नहीं रखता, अगर आपके पास कोई पद नहीं है तो आप किसी लायक नहीं है.’ राहुल गांधी ने यहां एक गंभीर नब्ज पर हाथ रखा है. स्वयं उनकी माता सोनिया गांधी ने पद ठुकराने के मामले में एक मिसाल कायम की है. राहुल ने भी इस मामले में जल्दबाजी नहीं दिखाई है. लेकिन पद पर ज्ञान की सत्ता वे कैसे स्थापित करेंगे इसका कोई रास्ता उन्होंने नहीं दिखाया है. मणिशंकर अय्यर जैसा नेता सरकार से बाहर है. जयपाल रेड्डी जैसों का मंत्रालय पूंजीपतियों के दबाव में बदल दिया जाता है. दूसरी बात यह कि वे किस ज्ञान की बात कर रहे हैं- किताबी ज्ञान जिससे मनमोहन सिंह ताल्लुक रखते हैं या फिर व्यावहारिक ज्ञान जिसका सरोकार भारत से हो. विरोधाभास यहां भी है. 

5. उन्होंने कहा, ‘मैं सब कुछ नहीं जानता हूं. दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं है जो सब कुछ जानता है. मैं कहना चाहता हूं कि जहां से भी जानकारी मिलेगी मैं उसे ढंूढ़ूंगा. मैं आपसे पूछूंगा आपसे सीखूंगा.’ राहुल की नियुक्ति युवा राजनीति के हल्ले में हुई है. ऐसे में एक खतरा यह भी है कि बदलाव की तेज चाल पुराने कांग्रेसियों में बेचैनी का भाव भर सकती है. साथ ही यह दिखाना भी जरूरी है कि उनमें सीखने की प्रवृत्ति है. लिहाजा राहुल ने बिल्कुल सही बिंदु पर अपनी बात समाप्त की है.

उपर्युक्त बातों का क्या निष्कर्ष है? एक तो यह कि राहुल ने आत्ममंथन की प्रवृत्ति दिखाई है. एक सिरे से देखने पर यह बहुत साहसिक लगता है कि कोई नेता अपनी कमियों को स्वीकार करके बदलाव की बात कर रहा है. मगर कुछ लोग राजनीति की शब्दावली में  इसे ‘विरोध की भावना पर सवारी करना’ कहते हैं. यानी सामने वाला सवाल उठाए उससे पहले अपनी कमियों को स्वीकार कर अपने खिलाफ बनी हवा को अपने प्रति सहानुभूति में बदलने की कोशिश करना. राहुल गांधी और उनके प्रबंधकों को पता है कि देश का मिजाज उनके विरुद्ध है. वरिष्ठ राजनीतिक चिंतक योगेंद्र यादव के शब्दों में, ‘अतीत में राजनेता एंटी इन्कमबेंसी की सवारी करते रहे हैं. कई बार यह सफल भी रहा है. पर इसके लिए काल, समय और दशाएं बहुत विशिष्ट होनी चाहिए. दुर्भाग्य से राहुल गांधी के लिए स्थितियां फिलहाल विशिष्ट नहीं हैं. हालांकि अवसर उनके पास कई बार थे पर तब वे पूरी तरह असफल रहे. अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के समय वे जंतर मंतर या रामलीला मैदान जाकर ऐसा कर सकते थे. रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ जब भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे थे तब वो एक पहल कर सकते थे. पर वे चूक गए.’

पांच मुद्दे जो उन्होंने छुए ही नहीं
1. सिर्फ एक महीने पहले दिल्ली की सड़कों पर युवाओं का एक रेला निकल पड़ा था. 23 वर्षीया एक लड़की के साथ सामूहिक बलात्कार की घटना ने दिल्ली समेत पूरे देश में विरोध की हवा चला दी थी. दस दिन तक लोग राजपथ पर विरोध प्रदर्शन करते रहे थे. मनमोहन सिंह सरकार के सामने अन्ना आंदोलन के शांत होने के बाद यह सबसे बड़ी चुनौती पेश आई थी. इस आंदोलन के दबाव में सरकार ने कई कदम भी उठाए हैं. लेकिन राहुल गांधी ने इतनी बड़ी घटना का अपने पहले उपाध्यक्षीय भाषण में जिक्र करना तक मुनासिब नहीं समझा. इससे उस आशंका को बल मिलता है जिसके मुताबिक राहुल गांधी जटिल मसलों पर चुप्पी साध लेते हैं.

2. इसी साल के अंत में पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने हैं. ये राज्य हैं-मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, दिल्ली और मिजोरम. ये चुनाव एकदम लोकसभा चुनावों की देहरी पर होने हैं. आम चुनावों की दिशा बहुत कुछ इन राज्यों के चुनाव परिणामों पर निर्भर करेगी. इनमें से दो कांग्रेस के पास हैं, दो भाजपा के पास. लेकिन इतनी महत्वपूर्ण राजनीतिक चुनौती का उन्होंने कोई जिक्र तक करना मुनासिब नहीं समझा. उपाध्यक्ष के तौर पर राहुल की पहली राजनीतिक परीक्षा यही चुनाव होगी.

3.2009 में यूपीए-2 अगर सत्ता में वापस लौटा तो इसके पीछे आंध्र प्रदेश की भूमिका सबसे बड़ी थी. इस सूबे ने कांग्रेस को 30 से ज्यादा लोकसभा सांसद दिए थे. दुर्भाग्य से कांग्रेस का यह दिव्य पुंज फिलहाल ध्वस्त नजर आ रहा है. जगन मोहन के रूप में एक ताकतवर हिस्सा पार्टी से अलग हो चुका है. तेलंगाना का मुद्दा पार्टी में 2009 से ही लटका है. लोकसभा चुनाव से पहले इस पर कोई निर्णय लेना ही पड़ेगा. लेकिन राहुल गांधी ने इतने महत्वपूर्ण मसले पर भी अपने विचार दर्ज नहीं करवाए.

2009 में यूपीए-2 अगर सत्ता में वापस लौटा तो इसके पीछे आंध्र प्रदेश की भूमिका सबसे बड़ी थी.4. राजनीति में जुमला है: दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश और बिहार से होकर जाता है. लोकसभा की 545 में से 120 सीटें इन्हीं दो राज्यों से आती हैं. यानी लगभग 22 फीसदी सीटें. 2009 में कांग्रेस की सत्ता वापसी की एक वजह उत्तर प्रदेश में मिली अविश्वसनीय सफलता भी थी. पर आज इन दोनों ही राज्यों में कांग्रेस की हालत पतली है. दोनों राज्यों की सत्ता से कांग्रेस को बाहर हुए अब दो दशक से ज्यादा बीत चुके हैं. राहुल गांधी यहां भी चूक गए. इन दोनों राज्यों की बैसाखी के बगैर कांग्रेस 2014 का संग्राम फतह नहीं कर सकती. लेकिन राहुल के भाषण में इस स्थिति को सुधारने या कोई वैकल्पिक रास्ता तलाशने का विचार लुप्त है.

5. इस वर्ष में आर्थिक विकास की दर पिछले एक दशक के दौरान सबसे कम रही है. संस्थागत विदेशी निवेश औंधे मुंह गिर पड़ा है. आर्थिक मोर्चे पर मंदी का प्रभाव है. बीते एक दशक से जगमगा रही भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले दो साल के दौरान गर्तोन्मुखी रही है. लेकिन राहुल गांधी ने अपने बयान में इस विषय को पूरी तरह से अछूत माना है.

निष्कर्ष यह है कि राहुल गांधी का भाषण भावनात्मक बुनियाद पर खड़ा किया गया था, इसमें राजनीतिक बयान का सर्वथा अभाव है. इसके अभाव में राहुल नेता तो बन सकते हैं, ‘राजनेता’ (स्टेट्समैन) नहीं.             
अपने उपाध्यक्षीय भाषण में राहुल ने कुछ महत्वपूर्ण नब्जों को टटोला है, कुछ जरूरी कलपुर्जों की मरम्मत की बात कही है लेकिन साथ ही कुछ बहुत जरूरी चर्चाओं को वे गोल कर गए हैं
राहुल एंटी इंकमबेंसी की लहर पर आगे बढ़ना चाहते हैं. लेकिन राहुल के लिए समय और दशाएं ठीक नहीं हैं. अन्ना आंदोलन या फिर रॉबर्ट वाड्रा के खिलाफ लगे आरोप के समय वे ऐसा कर सकते थे

‘बुलाया जाएगा तो हम फिर से आएंगे’

भारतीय नाट्य विद्यालय (एनएसडी) के सालाना जलसे भारतीय रंग महोत्सव (भारंगम) में इस बार मशहूर अफसानानिगार सआदत हसन मंटो पर विशेष प्रस्तुतियां दी जानी थीं. इसके लिए पाकिस्तान से दो नाट्य समूह अपनी प्रस्तुतियां लेकर आए थे. लेकिन शो से ऐन पहले एनएसडी ने सुरक्षा कारणों का हवाला देते हुए उनको नाटक नहीं करने दिया. अजोका की निर्देशक मदीहा गौहर से पूजा सिंह की बातचीत.

एनएसडी ने आपका नाटक क्यों नहीं होने दिया? आपको इस बारे में किसने और क्या बताया?
दिल्ली से पहले जयपुर में हमारा शो होना था. 16 जनवरी को शो से ठीक दो घंटे पहले हमारे पास एनएसडी प्रशासन का फोन आया. कहा गया कि सुरक्षा कारणों से शो रद्द कर दिया गया है और हम दिल्ली पहुंच जाएं, अब वहां यह शो होगा. हम दिल्ली आ गए. लेकिन यहां भी प्रस्तुति से ठीक पहले बताया गया कि सीमा पर चल रहे तनाव की वजह से सुरक्षा संबंधी दिक्कतें पैदा हो सकती हैं. इसलिए बेहतर यही है कि इस नाटक का मंचन न किया जाए. मुझे समझ में नहीं आया कि एक ग्रुप जो कला प्रेमियों के बीच अपनी प्रस्तुति देने आया है, उसे किसी से क्या खतरा हो सकता है.

अचानक यह जानकर झटका लगा होगा?
जाहिर है हमें बहुत अफसोस और हैरानी हुई कि बिना किसी ठोस वजह के शो को इस तरह अचानक क्यों कैंसिल कर दिया गया. और फिर यह मंटो पर आधारित नाटक था. वही मंटों जिनके दोनों मुल्कों में अनगिनत चाहने वाले हैं. उनका नाटक कैंसिल करना आपसी भाईचारे और मुहब्बत की भावना का मजाक उड़ाना और उस रवायत को बढ़ावा देना था जिसके खिलाफ वह ताउम्र कलम चलाते रहे. हम पिछले 25 साल से भारत के अलग-अलग हिस्सों में परफार्म कर रहे हैं. हमने 26/11 के हमले के बाद मुंबई में नाटक किया था, हम श्रीनगर जैसे संवेदनशील शहर में नाटक कर चुके हैं. हम यह तसव्वुर भी नहीं कर सकते थे कि अचानक इसे कैंसिल कर दिया जाएगा. और एक ऐसी वजह पर जिसके बारे में किसी को ठोस मालुमात नहीं हैं. आखिर एलओसी पर हुआ क्या है, उसकी जांच तो अभी चल ही रही थी. बहरहाल जो भी हुआ अच्छा नहीं हुआ. मैं इसकी भर्त्सना
करती हूं.

दोनों देशों में जो मौजूदा तनाव है उसे लेकर एक कलाकार के रूप में आपका क्या नजरिया है?
मुझे तो कहीं कोई तनाव नहीं नजर आया. मैं दिल्ली की सड़कों पर पैदल घूमती हूं, ठीक अपने मुल्क की तरह और आपको बताऊं कि मैं यहां लाहौर से अधिक सुरक्षित महसूस करती हूं क्योंकि हमारे यहां हालात वाकई खराब हैं. यह तनाव वाली बात पूरी तरह मीडिया की गढ़ी हुई है. रही बात नाटक रद्द होने की व तीखी बयानबाजी की तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी व शिवसेना जैसे दलों ने सरकार पर दबाव डाला और वह झुक गई. अगर सरकार वाकई खुद को सेक्युलर मानती है तो उसे गलत दबाव के आगे झुकना नहीं चाहिए था.

आपके मन में ठीक इस वक्त क्या चल रहा है? दुख है? गुस्सा है? या और कुछ.
गुस्से से ज्यादा दुख है क्योंकि मैं अरसे से मैं हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच अमन-चैन कायम करने के प्रयासों में भी लगी हुई हूं. लेकिन बीच-बीच में ऐसी घटनाएं घट जाती हैं जो हमारी सारी मेहनत, सारे किए-कराए पर पानी फेर देती हैं. हम एक कदम आगे बढ़ने के बजाय दस कदम पीछे हो जाते हैं. अभी इंडियन हॉकी लीग से भी पाकिस्तानी हॉकी प्लेयर्स को बिना खेले वापस लौटना पड़ा. तो यह भेदभाव की, अलगाव की भावना हमें कहीं नहीं ले जाएगी. हमें इस बात को गांठ बांध लेना होगा कि शांति कायम करने में आपसी बातचीत और कला के आदान-प्रदान की अहम भूमिका है. हम लोग समय-समय पर भारतीय कला समूहों को बुलाते रहते हैं जिससे दोनों मुल्कों में अमन का पैगाम दे सकें. थियेटर के जरिये यह काम बहुत अच्छी तरह किया जा सकता है. यह दोनों देशों के संबंधों में सुधार का अहम जरिया है क्योंकि हमारी कला की विरासत साझा है.

यह जो कला को राजनीति से जोड़ने की कोशिश हो रही है, इसका विरोध किस तरह होना चाहिए?
ऐसे हालात में जब कोई गड़बड़ी होने की आशंका नजर आए तो यकीनन देश की सिविल सोसाइटी को आगे आना चाहिए. यह उनकी जिम्मेदारी है. मुझे लगता है कि यह यहां की सिविल सोसाइटी की जिम्मेदारी है. उनको आगे आना चाहिए. देखिए कि उनकी मदद से ही बाद में दो जगह इस नाटक का आयोजन संभव हो पाया. हम तो मेहमान हैं हम यहां भला क्या कर सकते हैं? बल्कि पाकिस्तान जाने पर हमें मुश्किलों का सामना करना होगा. वहां हमारा विरोध होगा. कहा जाएगा कि और जाइए भारत, बेइज्जत होने. वहां हमारी आलोचना होगी. दोनों जगह ऐसे लोग सक्रिय हैं जो चाहते हैं कि शांति स्थापित न हो सके. लेकिन मैं स्पष्ट कर दूं कि अगर दोबारा यहां आने का न्योता मिला तो मैं बिना कोई गिला या शिकवा किए तुरंत चली आऊंगी. आखिर यहां हमें प्यार करने वाले इतने सारे लोग हैं.

पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर हिंदुस्तान में बहुत दीवानगी है, बहुत प्यार है. पाकिस्तान में भारतीय कलाकारों को लेकर कैसी सोच है?
इतनी दीवानगी है कि आप सोच भी नहीं सकतीं. सिनेमा घरों में हिंदी फिल्में लगती हैं और हाउसफुल चलती हैं. उनकी बदौलत हमारे यहां की यंग जनरेशन हिंदुस्तानी रवायतें सीख रही है, यहां के तौर-तरीकों से परिचित हो रही है. सलमान खान, शाहरुख खान और लता जी तो इतने पॉपुलर हैं कि उसका अंदाजा भी नहीं लगाया जा सकता. और भी तमाम कलाकारों के फैन बड़ी संख्या में मौजूद हैं.

पाकिस्तान में थियेटर की क्या हालत है? अवाम के स्तर पर उसकी पॉपुलैरिटी और गवर्नमेंट सपोर्ट कैसा है?
यहां और वहां में फर्क तो है. पाकिस्तान में थियेटर के हालात उतने अच्छे नहीं हैं जितने अच्छे हिंदुस्तान में हैं. मैं देखती हूं यहां अलग-अलग तरह के आर्ट को सरकार का भरपूर समर्थन हासिल है, जबकि हमारे यहां सरकारी सपोर्ट एकदम न के बराबर है. अजोका पाकिस्तान में बेहद पॉपलुर है. अब तो वहां के अंदरूनी हालात ऐसे हो गए हैं कि हम लाहौर के बाहर उतना परफार्म नहीं कर पा रहे हैं. लेकिन फिर भी जहां-जहां हमारी प्रस्तुतियां होती है वहां-वहां लोग बहुत सराहना करते हैं. फिर भी संक्षेप में कहूं तो हमारे यहां थियेटर के हालात बहुत अच्छे नहीं हैं.

आप अजोका ग्रुप की सब कुछ हैं. पाक में थियेटर में दूसरी औरतें कितनी सक्रिय हैं? वहां उनको लोग किस नजर से देखते हैं?
पाकिस्तान हो या हिंदुस्तान, थियेटर में लड़कियों की मौजूदगी कम ही है. मेरे ख्याल से तो दोनों ही जगह थियेटर में बड़ी हिम्मती लड़कियां ही काम करती हैं. मुझे लगता है कि यह पूरे दक्षिण एशिया की स्थिति है. हां, थियेटर के आगे जहां और भी है. सामाजिक स्थिति की बात की जाए तो हमारे यहां हालात थोड़ा ज्यादा खराब हैं. वहां कानूनी तौर पर भी औरतों के साथ कुछ ज्यादा ही भेदभाव होता है.

दोनों देशों में कला के स्तर पर और अधिक सहयोग कैसे बढ़ाया जा सकता है?
दो मुल्कों की रिलेशनशिप को नार्मल बनाने का सबसे अच्छा जरिया है रचनात्मक आदान-प्रदान में इजाफा करना. इसमें खेल, संगीत, थियेटर समेत सभी तरह के कला माध्यम शामिल हैं. इसके लिए सबसे पहले जरूरत इस बात की है कि वीजा नियमों को अधिक आसान बना दिया जाए ताकि सीमा के इस पार से उस पार आना-जाना आसान हो सके. इससे यह होगा कि लोग जितना एक-दूसरे को जानेंगे गलतफहमियां अपने आप दूर होंगी.

नंदी शिंदे, वरुण और ओवैसी नहीं हैं

दो महत्वपूर्ण लोगों के बयानों की बात करते हैं. एक देश के गृहमंत्री हैं. दूसरे देश और दुनिया के जाने-माने समाजशास्त्री और विचारक.

एक का बयान राजनीतिक फायदे के लिए दिया गया ऐसा बयान था जो खुद पर ही भारी पड़ता दिखा तो, लेकिन इससे ज्यादा कुछ हुआ नहीं. दूसरेका बयान एक अनौपचारिक-सी जनता के सामने किन्हीं संदर्भों में दिया गया एक ऐसा व्यंग्यात्मक कथन था जिसका फायदा हर राजनीतिक पार्टी, राजनेता और राजनीति करने वाले गैर-राजनीतिक संगठन उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

सुशील कुमार शिंदे देश के गृहमंत्री हैं, सोनिया गांधी के कृपापात्र हैं और दलित भी हैं इसलिए विपक्षी दल और मीडिया आदि उनका बाल भी बांका करने की स्थिति में नहीं थे. कुछ हुआ भी नहीं. आशीष नंदी जाने-माने तो हैं लेकिन उतने ताकतवर और देश की राजनीति में तमाम मौकों पर धुरी की तरह इस्तेमाल हो सकने लायक दलित या पिछड़े समुदाय से भी नहीं हैं. वे अपने खिलाफ पुलिस द्वारा मामला दर्ज किए जाने के बाद कई समाचार चैनलों आदि के जरिए अपना बचाव करते, माफी मांगते, पुलिस से बचते घूम रहे हैं.

अब ठीक से इन दोनों बयानों और इनके गुण-दोषों को परखने का प्रयास करते हैं.

सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में पिछले सप्ताह कहा कि भारतीय जनता पार्टी और उसका मातृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश में आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं और देश का गृहमंत्री होने के नाते उनके पास इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं. लेकिन देश के गृहमंत्री होने का सबसे बड़ा कर्तव्य केवल ठोस सबूत जुटाना और उनके बारे में बताना नहीं बल्कि उन पर समय रहते उचित कार्रवाई करना भी है. लेकिन गृहमंत्री तो गृहमंत्री ठहरे, वे कुछ भी कहने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लें तो कोई क्या करे.मगर यह केवल अपने कर्तव्य से मुंह चुराना भर भी नहीं है. यह सीधे-सीधे खुद और अपनी पार्टी को अल्पसंख्यक समुदाय का सबसे बड़ा हितैषी दिखाने की कोशिश करते दिखने की कोशिश भी हो सकती है. राहुल गांधी जब औपचारिक तौर पर पार्टी में नंबर दो नहीं थे तब दिग्विजय सिंह ने कुछ-कुछ इसी तरह के बयान देकर खुद को कांग्रेसी युवराज का दायां-बायां बनाया था. अब तो पार्टी में समय ही राहुल गांधी का आ चुका है. तो फिर शिंदे अपने नेता और गृहमंत्री होने के आधार को मजबूत करने के लिए इस तरह की कोशिश क्यों न करें?

फोटो: शैलेंद्र पांडेय

दूसरी तरफ आशीष नंदी जयपुर साहित्य उत्सव नाम के एक ऐसे मंच पर बैठे थे जो हर तरह के विचारों के आदान-प्रदान के लिए शुरुआत से ही मशहूर रहा है. एक चर्चा के दौरान तरुण तेजपाल ने कहा कि भ्रष्टाचार भी समानता लाने का काम कर सकता है. इस पर आशीष नंदी का कहना था कि यह कहना थोड़ा असम्मानित और अश्लील हो सकता है मगर सच यह है कि ज्यादातर भ्रष्टाचार करने वाले आज पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय के दिखाई पड़ते हैं. जब तक ऐसा हो रहा है मैं हमारे गणतंत्र को लेकर आशान्वित हूं.

जो लोग आशीष नंदी को पहले से सुनते-पढ़ते-जानते रहे हैं या जिन्होंने जयपुर में ही उन्हें संदर्भ सहित, उनके कथन में छिपे तमाम विरोधाभासों और व्यंग्यात्मकता आदि के साथ समझा होगा वे जानते होंगे कि नंदी के कहने का सीधा-सीधा मतलब क्या था. वे कहना चाहते थे कि बड़े-बड़े पदों पर बैठे तथाकथित उच्च जातियों के लोग भ्रष्टाचार की कला में पारंगत हैं और ऐसा करने के उनके पास इतने और ऐसे मौके मौजूद हैं कि उनके पकड़े जाने की संभावनाएं छोटे और सीधे तरीकों से भ्रष्टाचार में लिप्त होने वाले पिछड़े समुदाय के लोगों की अपेक्षा काफी कम हैं. चूंकि पिछड़े समुदाय के लोगों को अब भी एक इज्जतदार और मूलभूत सुविधाओं वाला जीवन जीने के मौके हमारी व्यवस्था ठीक से नहीं दे पा रही है, इसलिए भ्रष्टाचार को नंदी आशा की निगाहों से देखते हैं और तरुण तेजपाल समानता ला सकने वाले एक उपकरण के रूप में. वे समाज को एक समाजशास्त्री और लेखक की निगाहों से देख रहे थे न कि लिखे हुए कानून के काले-सफेद हर्फों के चश्मे से.

मगर आशीष नंदी की सोच और उनके कहे के मर्म को समझने की जरूरत और समय न तो हेडलाइनों के भरोसे जीने वाले ज्यादातर मीडिया को है और न ही इस मीडिया के भरोसे जीने वाले उन तमाम लोगों को जो पानी पी-पीकर आज आशीष नंदी को दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का विरोधी बता रहे हैं.

वे राजनेता और व्यवस्था के पाये, जो अकबरुद्दीन ओवैसी और वरुण गांधी के हद दर्जे के सांप्रदायिक और भड़काऊ भाषणों पर और स्वर्ण मंदिर परिसर में आतंकियों के लिए स्मारक बनाने की घोषणा पर कुछ बोलने से भी
परहेज कर रहे थे, अब अपने मौनव्रत से बाहर आ गए हैं.    

नवीन सूरिंजे के बहाने

 कन्नड़ न्यूज चैनल- कस्तूरी के रिपोर्टर नवीन सूरिंजे पिछले तीन महीने से जेल में हैं. उन्होंने मंगलूर में एक निजी हालीडे-होम में जन्मदिन की पार्टी मना रहे युवा लड़के-लड़कियों के एक समूह पर हमला करने और उन्हें बेइज्जत करने वाले हिंदू जागरण वेदिके के 50 से ज्यादा कार्यकर्ताओं की गुंडागर्दी को कैमरे में कैद करके उसे चैनल पर दिखाया था. इस कारण मजबूरी में पुलिस को नैतिकता के उन 43 ठेकेदारों को गिरफ्तार करना पड़ा. लेकिन सूरिंजे को इस गलतीकी सजा यह मिली कि पुलिस ने उन्हें इस मामले में 44वां अभियुक्त बना दिया. उन पर आरोप लगाया गया कि वे भी इस साजिश में शामिल थे क्योंकि पूर्व जानकारी के बावजूद सूरिंजे ने पुलिस को इसकी जानकारी नहीं दी. यही नहीं, मंगलूर पुलिस ने सूरिंजे पर वे सभी आरोप लगा दिए जो इस शर्मनाक घटना के लिए जिम्मेदार संगठन और उसके 43 लंपटों पर लगाए गए हैं. हालांकि इनमें से कई आरोप कर्नाटक उच्च न्यायालय ने हटा दिए हैं, लेकिन उसने सूरिंजे को यह कहते हुए जमानत देने से इनकार कर दिया है कि उन्होंने पूर्व जानकारी के बावजूद पुलिस को इसकी सूचना क्यों नहीं 

बचाव में सूरिंजे का कहना है कि उन्हें इस घटना की सूचना पहले से नहीं थी. उन्हें उस इलाके के एक नागरिक से इसकी जानकारी मिली. उन्होंने मंगलूर के पुलिस कमिश्नर और स्थानीय सब-इंस्पेक्टर को फोन किया था लेकिन उन दोनों ने फोन नहीं उठाया और न कॉल-बैक किया. इस घटना के दौरान हिंदू जागरण वेदिके के लंपटों की तादाद इतनी अधिक थी कि वे उन्हें रोकने में सक्षम नहीं थे और उस स्थिति में इस गुंडागर्दी का पर्दाफाश करने के लिए उसकी रिकॉर्डिंग के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं था. 

साफ है कि यह सिर्फ सूरिंजे का मामला नहीं है. इससे पत्रकारिता के कई बुनियादी सवाल जुड़े हैं.

यह सफाई न पुलिस ने मानी और न ही कर्नाटक उच्च न्यायालय ने. ध्यान रहे कि यह मामला गुवाहाटी की उस शर्मनाक घटना के बाद सामने आया है जिसमें रात में एक पब से बाहर निकल रही एक युवा लड़की के कपड़े फाड़ने और उसके साथ दुर्व्यवहार करने वाले लफंगों-गुंडों को प्रोत्साहित करने और उसकी साजिश रचने वालों में एक स्थानीय चैनल का रिपोर्टर भी शामिल पाया गया था. यह टीवी पत्रकारिता के लिए न सिर्फ गहरे शर्म और कलंक का मामला था बल्कि इसने टीआरपी के लिए चैनलों में सनसनीखेज खबरेंगढ़ने की आपराधिक साजिश रचने तक पहुंच जाने की खतरनाक प्रवृत्ति को उजागर किया था.

पर क्या गुवाहाटी और मंगलूर के मामले एक ही तरह के हैं? रिपोर्टों के मुताबिक, सूरिंजे को वास्तव में गुंडागर्दी के पर्दाफाश की सजा मिली है. पहले के तमाम मामलों की तरह इस बार भी ये गुंडे बच निकलते, लेकिन सूरिंजे की रिपोर्टिंग से ही यह मामला राष्ट्रीय मीडिया में आया और  दबाव में मंगलूर पुलिस को उन गुंडों के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी.

पीयूसीएल की एक रिपोर्ट के मुताबिक, अकेले दक्षिण कन्नड़ा जिले में 2007 से अब तक नैतिक पुलिसिंगके नाम पर मारपीट, दुर्व्यवहार और अपमानित करने के 140 मामले सामने आए हैं. लेकिन पिछले साल जुलाई की इस घटना को छोड़कर बाकी किसी मामले में दोषी पकड़े नहीं गए. ऐसे मामलों को सामने लाने और दोषियों की पहचान करने में मदद करने वाले सूरिंजे जैसे पत्रकारों को ही फंसाने की कोशिश की जाएगी तो कितने पत्रकार यह जोखिम उठाएंगे? सवाल यह भी है कि क्या पत्रकारों को ऐसे सभी मामलों की पूर्व सूचना पुलिस को देनी चाहिए? लेकिन पुलिस खुद राजनीतिक कारणों से कार्रवाई करने में अक्षम हो और उसकी अपराधियों से परोक्ष सहमति हो तो पत्रकार क्या करे? क्या पत्रकार पुलिस का एजेंट है या उसका काम सच्चाई को सामने लाना है? अगर पत्रकारों ने ऐसी सूचनाएं पहले पुलिस को देने लगें तो कितने लोग उन्हें सूचनाएं देंगे? क्या यह सच नहीं कई बार पुलिस से निराश लोग पत्रकारों को सूचनाएं देते हैं?

 

मजबूरी के नाथ

यह बात कम लोगों को ही मालूम है कि नितिन गडकरी को पहली दफा भाजपा अध्यक्ष बनवाने में पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी की अहम भूमिका रही थी. 2009 में संघ ने दिल्ली के डी-4 यानी सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, वैंकैया नायडू और अनंत कुमार को पार्टी की कमान सौंपने से साफ तौर पर मना कर दिया था. उस वक्त जो नाम अंतिम तौर पर चले उनमें से गडकरी पर मुहर लगाने का काम आडवाणी ने ही किया था.
जब गडकरी पार्टी में आए तो उन्हें शुरुआत में ही इस डी-4 से कई मोर्चों पर मात खानी पड़ी थी. तब पार्टी की जो नई कार्यकारिणी बनी उसमें ऐसे लोगों को शामिल किया गया जो दिल्ली की राजनीति में पहले से स्थापित ‘राष्ट्रीय नेताओं’ के करीबी थे. इनमें से किसी का अपने-अपने राज्यों में कोई खास जनाधार नहीं था. यही एक ऐसी कमजोर कड़ी थी जिसे आधार बनाकर गडकरी ने इन लोगों से स्वतंत्र होकर निर्णय लेने की शुरुआत की. लेकिन गडकरी को नाकाम बनाने का जो खेल डी-4 और उनके कई भरोसेमंद कर रहे थे उसके बारे में आम धारणा यह रही कि इसे आडवाणी का संरक्षण प्राप्त है. धीरे-धीरे स्थिति इतनी बिगड़ती चली गई कि 2012 में मुंबई में हुई पार्टी कार्यकारिणी को बीच में ही छोड़कर आडवाणी और स्वराज दिल्ली वापस आ गए. मिला-जुला कर स्थिति यह हो गई कि कभी गडकरी के नाम पर मुहर लगाने वाले आडवाणी उनके खिलाफ खड़े हो गए.
इसके बावजूद गडकरी का रास्ता साफ माना जा रहा था क्योंकि उनके पक्ष में संघ खड़ा था. हालांकि, संघ में कुछ लोग गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने को लेकर सवाल उठा रहे थे लेकिन जो लोग वहां फैसला करते हैं, वे गडकरी के साथ थे. गडकरी को दूसरा कार्यकाल देने की पूरी तैयारी हो गई थी. पार्टी के  संविधान में संशोधन करवा लिया गया था. आधे से अधिक राज्य इकाइयों के चुनाव करवा भी लिए गए थे. यहां तक कि जिस दिन गडकरी को दोबारा अध्यक्ष चुने जाने की औपचारिकता पूरी होनी थी उस दिन के लिए प्रदेश इकाइयों के पदाधिकारियों को दिल्ली भी बुला लिया गया था. गडकरी को बधाई देने वाले होर्डिंग तक तैयार हो गए थे.
इन तैयारियों के बीच अचानक टीवी चैनलों पर यह खबर चलने लगी कि गडकरी की पूर्ति समूह की कंपनियों पर आयकर के छापे पड़ रहे हैं. इसके बाद पार्टी के वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा और महेश जेठमलानी की वजह से यह माहौल बना कि यदि  जरूरत पड़ी तो इस पद के लिए चुनाव होगा. तेजी से बदलते इस घटनाक्रम के बीच जब इस संवाददाता ने पार्टी के एक सचिव से वस्तुस्थिति जाननी चाही तो उनका सीधा जवाब था, ‘नहीं-नहीं, कोई दिक्कत नहीं है. ये सब नाटक तो पहले भी हुए हैं. गडकरी का दोबारा अध्यक्ष बनना तय है. थोड़ी देर बाद रविशंकर प्रसाद प्रेस वार्ता करके स्थिति साफ करेंगे.’

लेकिन कुछ ही घंटों के अंदर मुंबई में एक अहम बैठक हुई जिसमें यह निर्णय ले लिया गया कि भाजपा अब आगे का सफर गडकरी के नेतृत्व में नहीं बल्कि राजनाथ सिंह के नेतृत्व में तय करेगी. मुंबई की बैठक में गडकरी, आडवाणी और संघ की तरफ से भैयाजी जोशी और सुरेश सोनी शामिल हुए. भाजपा में जो चर्चा चल रही है उसके मुताबिक इस बैठक की पृष्ठभूमि तैयार करने का काम पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने किया था. इस नेता का नाम भी आखिर तक अध्यक्ष पद के लिए चल रहा था. कहा जा रहा है कि पार्टी के इसी वरिष्ठ नेता ने भारत सरकार के एक मंत्री से बात करके यह सुनिश्चित करवाया कि चुनाव के ठीक एक दिन पहले गडकरी की कंपनियों तक आयकर अधिकारी पहुंचें. गडकरी को कमजोर करना या यों कहें कि विपक्षी दल की आपसी फूट का फायदा भला कौन सत्ताधारी दल नहीं उठाना चाहेगा! यह रहस्य तो बाद में खुला कि जिसे खबरिया चैनल आयकर का छापा बताकर प्रसारित कर रहे थे वह तो आयकर का सर्वेक्षण था. लेकिन इन तकनीकी बातों में न तो आडवाणी जाना चाहते थे और न ही संघ यह साहस दिखा पाया कि इन खबरों के बीच भी वह अपने फैसले पर कायम रहे.

यह फॉर्मूला भी सुझाया गया कि अभी गडकरी को अध्यक्ष बनने दिया जाए और कुछ दिनों के बाद गडकरी खुद इस्तीफा दे देंगे

मुंबई में जो बैठक हुई उसमें गडकरी ने इन तकनीकी बातों को उठाया और खुद को पाक-साफ बताया. लेकिन आडवाणी उनके नाम पर तैयार नहीं थे. यह फॉर्मूला भी सुझाया गया कि अभी गडकरी को अध्यक्ष बनने दिया जाए और कुछ दिनों के बाद गडकरी खुद यह कहते हुए इस्तीफा दे देंगे कि जब तक वे जांच में निर्दोष नहीं साबित हो जाते तब तक वे इस पद से दूर रहेंगे. ऐसे में पार्टी का कामकाज चलाने के लिए एक कार्यकारी अध्यक्ष नियुक्त कर लिया जाएगा. लेकिन आडवाणी के रवैये की वजह से कार्यकारी अध्यक्ष वाला फार्मूला आगे नहीं बढ़ पाया. आडवाणी बार-बार संघ के पदाधिकारियों को समझाते रहे कि अगर वे गडकरी पर अड़े रहे तो यशवंत सिन्हा चुनाव लड़ेंगे और इससे संघ और पार्टी की और अधिक किरकिरी होगी. आडवाणी यह संकेत भी दे रहे थे कि ऐसी स्थिति में उनके सामने यशवंत सिन्हा को समर्थन देने के अलावा और कोई विकल्प नहीं बचेगा. इस स्थिति में संघ के पदाधिकारियों को इस बात के लिए तैयार होना पड़ा कि दूसरे विकल्पों पर विचार किया जाए.

आडवाणी जो नाम सबसे प्रमुखता से नए अध्यक्ष के तौर पर आगे कर रहे थे, जानकारों के मुताबिक भाजपा के उसी वरिष्ठ नेता पर गडकरी को शक था कि उन्होंने भारत सरकार के एक प्रमुख मंत्री से बात करके यह सब करवाया है. अब अड़ने की बारी गडकरी की थी. फिर तीन नाम अंतिम तौर पर विचार करने के लिए तय किए गए – मुरली मनोहर जोशी, वैंकैया नायडू और राजनाथ सिंह. इनमें से वैंकैया नायडू तो डी-4 की वजह से बाहर हो गए. जोशी पर भी संघ का वही उम्र वाला फाॅर्मूला लागू होता है जिसे आधार बनाकर आडवाणी को सलाहकार की भूमिका में सीमित कर दिया गया है. इसके बाद राजनाथ सिंह का नाम गडकरी ने प्रस्तावित किया और सुरेश सोनी और भैयाजी जोशी सहमत हो गए. मजबूरी में आडवाणी को भी तैयार होना पड़ा.

अगले दिन राजनाथ सिंह को औपचारिक तौर पर एक बार फिर से पार्टी की कमान सौंप दी गई. इसी दिन गडकरी के दिल्ली के आवास पर लोगों की भारी भीड़ लगी. इन लोगों में कई अलग-अलग राज्यों से आए हुए लोग थे. संदेश साफ था कि भाजपा नेताओं को मालूम है कि गडकरी संघ के नुमाइंदे हैं और भले ही वे अध्यक्ष नहीं बन पाए हों लेकिन उन्हें चुका हुआ नहीं माना जा सकता. यह चर्चा भी चलने लगी कि क्लीन चिट मिलते ही गडकरी की वापसी बतौर अध्यक्ष एक बार फिर से हो सकती है क्योंकि राजनाथ सिंह की पहचान एक ऐसे नेता की नहीं है जो संघ की तरफ से मिलने वाले निर्देशों की अनदेखी कर दे.

अब सवाल यह उठता है कि क्या राजनाथ सिंह पार्टी को केंद्र की सत्ता में वापस लाने में मददगार साबित होंगे. जिस दिन राजनाथ सिंह को अध्यक्ष बनाया गया, उस दिन की टीवी रिपोर्टिंग को अगर किसी ने देखा हो तो उसे याद होगा कि खबरिया चैनलों के तमाम पत्रकार राजनाथ सिंह की तमाम खूबियों को गिनाते हुए यह बताने में लगे थे भाजपा ने कितना बड़ा मास्टर स्ट्रोक खेला है. अंग्रेजी की एक बड़ी पत्रकार ने तो उन्हें प्रधानमंत्री पद का दावेदार भी बता दिया. कोई राजनाथ को गठबंधन की राजनीति का महारथी बता रहा था तो कोई उन्हें कुशल प्रशासक बताते हुए उत्तर प्रदेश के उनके मुख्यमंत्रित्व काल के किस्से सुना रहा था. लेकिन कोई यह सवाल नहीं उठा रहा था कि अगर राजनाथ सिंह इतने ही योग्य थे तो उन्हें 2009 में पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से हटाया क्यों गया था.

इसी सवाल के जरिए अगर राजनाथ सिंह के प्रदर्शन को समझने की कोशिश करें तो उनकी क्षमताओं का अंदाजा लगता है. इससे धुंधली ही सही लेकिन एक तस्वीर उभरती है कि आगे वे कितने प्रभावी साबित होंगे. 2004 में भाजपा की हार के बाद आडवाणी पार्टी अध्यक्ष बने थे. लेकिन पाकिस्तान में मुहम्मद अली जिन्ना की मजार पर उन्होंने जो बातें कहीं उसने वक्त से पहले ही अध्यक्ष पद से उनकी विदाई करवा दी. उस वक्त वाजपेयी भी सक्रिय थे और प्रमोद महाजन पार्टी में एक बड़ी ताकत थे. परिस्थितियां ऐसी बनीं कि संघ को भी अपने हिसाब का एक आदमी चाहिए था और महाजन को भी एक ऐसा व्यक्ति चाहिए था जो उनके लिए खतरा न बन सके. राजनाथ सिंह दोनों पक्षों को मुफीद लगे. इसके छह महीने के अंदर ही प्रमोद महाजन की असमय मौत हो गई और राजनाथ सिंह का कद बड़ा लगने लगा.

बतौर भाजपा अध्यक्ष अगर राजनाथ सिंह का पहला कार्यकाल देखें तो पता चलता है कि वे कामयाबी के आस-पास भी नहीं रहे. उनके समय में सक्षम नेताओं का पार्टी छोड़ने का सिलसिला काफी तेज हुआ. झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी ने पार्टी छोड़ी. उस वक्त उन्होंने जो पत्र सार्वजनिक किया उससे पता चला कि राजनाथ सिंह ने उन्हें किस तरह से परेशान किया. राजनाथ के पहले कार्यकाल में पार्टी में झगड़ा और गुटबाजी सतह पर दिखने लगी. यह साफ-साफ दिखने लगा कि फलां नेता इस खेमे का है तो फलां नेता उस खेमे का है. 2007 में जब राजस्थान में विधानसभा चुनाव हुए तो उसमें जिन उम्मीदवारों को वहां की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने टिकट दिए उनमें से ज्यादातर जीते लेकिन जिन लोगों को टिकट राजनाथ सिंह ने दिए उनमें से ज्यादातर को हार का मुंह देखना पड़ा. उस वक्त तो भाजपा में लोग यह भी कह रहे थे कि स्वभाव से अंधविश्वासी राजनाथ सिंह ने हर वैसा काम किया जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि वसुंधरा राजे की सरकार दोबारा राजस्थान में नहीं बने. राजनाथ सिंह ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को पार्टी के दो महत्वपूर्ण पदों से हटाकर उनके भी पर कतरने की भरसक कोशिश की. उनके ही समय में पार्टी का बीजू जनता दल के साथ लंबे समय से चला आ रहा गठबंधन भी टूट गया.

अगर चुनावी नतीजों को ही आधार बनाएं तो उस मामले में भी राजनाथ सिंह अपने पहले कार्यकाल में नाकामयाब ही साबित हुए हैं. उनके अध्यक्ष रहते उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव 2007 में हुए. इसमें पार्टी के विधायकों की संख्या 88 से घटकर 51 रह गई. इससे पहले 2002 में जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए थे तो उस वक्त राजनाथ सिंह प्रदेश के मुख्यमंत्री थे. लेकिन उनके नेतृत्व में लड़े गए चुनाव में भाजपा 176 से सिमटकर 88 सीटों पर पहुंच गई थी. 2009 में भाजपा ने लोकसभा चुनाव राजनाथ सिंह के नेतृत्व में लड़ा, लेकिन इसमें भी पार्टी की सीटों की संख्या 2004 के 138 के मुकाबले घटकर 116 रह गई. राजनाथ की अगुवाई में लड़े गए 2009 के लोकसभा चुनाव में भाजपा का मत प्रतिशत 2004 के 22.16 प्रतिशत के मुकाबले घटकर 18.80 प्रतिशत रह गया था.

चुनावी राजनीति और संगठन चलाने के मोर्चे पर राजनाथ की नाकामी ने ही 2009 में उनकी विदाई करवाई थी, लेकिन किसी नए को अवसर देने के बजाय अपने एक नाकाम मोहरे को दोबारा मौका देकर भाजपा और संघ ने यह साबित किया है कि या तो उसके पास विकल्प नहीं है या फिर वे विकल्पों पर गौर नहीं करना चाहते. ऐसे में अगर कांग्रेसी नेता राजनाथ के अध्यक्ष बनने पर खुशी जाहिर करते हुए यह सोच रहे हैं कि अब एक बार फिर से कांग्रेस सत्ता में वापस आ जाएगी तो इसे उनका अतिआत्मविश्वास नहीं कहा जा सकता. सियासी गलियारों में इस बात से हर कोई वाकिफ है कि अपनी गाजियाबाद सीट निकालने के लिए राजनाथ सिंह ने पूरे पश्चिमी उत्तर प्रदेश में वैसे भाजपा उम्मीदवारों को खड़ा किया जिनसे चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवारों को किसी तरह की मुश्किल न हो. यही वजह है कि भाजपा और भाजपा के बाहर राजनाथ सिंह को अवसरवाद की राजनीति का धुरंधर माना जाता है.

संघ के पदाधिकारियों को रेलवे स्टेशन से लाने से लेकर उन्हें हर जगह ले जाने और फिर वापस छोड़ने तक का काम राजनाथ सिंह खुद किया करते थेराजनीति में राजनाथ के उभार का श्रेय काफी हद तक कल्याण सिंह को जाता है. कल्याण सिंह जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे उस वक्त उन्होंने ही अपने मंत्रिमंडल में राजनाथ सिंह को मंत्री बनाया था. 1991 में मुख्यमंत्री बनते ही कल्याण सिंह अपने पूरे मंत्रिमंडल के साथ अयोध्या गए थे, और वहां जाकर यह वादा किया था कि राम मंदिर यहीं बनाएंगे तो जो लोग वहां गए थे उनमें राजनाथ सिंह भी शामिल थे. वे उस वक्त शिक्षा मंत्री थे. लेकिन जब वे प्रदेश के मुख्यमंत्री बने और फिर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष तो अपने उस वादे को भूल गए जिस पर सवार होकर उन्होंने सियासत में अपनी लंबी पारी की बुनियाद रखी थी. 1991 में वे शिक्षा मंत्री बनाए गए थे लेकिन मंत्री रहते हुए भी वे 1993 में लखनऊ की मोहना सीट से चुनाव नहीं जीत पाए. लेकिन संघ के हर बड़े पदाधिकारी के लखनऊ दौरे से संबंधित हर छोटी-बड़ी सुविधाओं का खयाल रखने वाले राजनाथ ने संघ के पदाधिकारियों से ऐसे संबंध बनाए कि 1994 में उन्हें राज्यसभा भेज दिया गया. उस समय उत्तर प्रदेश की राजनीति में सक्रिय रहे लोग बताते हैं कि संघ के पदाधिकारियों को रेलवे स्टेशन से लाने से लेकर उन्हें हर जगह ले जाने और फिर वापस छोड़ने तक का काम राजनाथ सिंह खुद किया करते थे. जब राजनाथ सिंह दिल्ली आए तो उन्होंने अपने राजनीतिक गुरु कल्याण सिंह के खिलाफ केंद्रीय नेतृत्व को भड़काना शुरू किया. उस वक्त प्रदेश अध्यक्ष कलराज मिश्र थे और कल्याण सिंह के साथ उनकी बन नहीं रही थी. ऐसे में 1997 में राजनाथ सिंह को प्रदेश भाजपा की कमान सौंप दी गई.

राजनाथ सिंह के साथ उस वक्त भाजपा में काम कर रहे एक नेता कहते हैं, ‘1999 में जब कल्याण सिंह को हटाकर रामप्रकाश गुप्त को उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया गया तो उनके बारे में भी राजनाथ सिंह ने यह प्रचारित करना शुरू कर दिया कि वे अपने अधिकारियों और सहयोगियों का ही नाम भूल जाते हैं.’ संघ ने भी राजनाथ का समर्थन किया और 2000 में उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बना दिया गया. इसके बाद से उत्तर प्रदेश में भाजपा चुनाव दर चुनाव नीचे जा रही है. राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में राजनाथ के पहले कार्यकाल में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. इस बार क्या वे जो अब तक जाने-अनजाने कर चुके हैं उससे कुछ अलग करेंगे? इस सवाल का जवाब कोई साफ हां में देता नहीं दिखाई देता.   

असहमति को भी आशीष दें

आशीष नंदी उन समकालीन समाजशास्त्रियों में रहे हैं जिनके यहां भारतीय समाज की विविधताओं और विडंबनाओं की अचूक समझ मिलती है. उन्हें पढ़ते-सुनते हुए जितने जवाब मिलते हैं, उससे ज्यादा सवाल मिलते हैं. नंदी कोई ऐसा सपाट वक्तव्य दे सकते हैं जो अपने आशयों में दलित विरोधी हो, यह मानना बहुत सारे लोगों के लिए मुश्किल है. जयपुर के साहित्यिक समारोह में दिए गए उनके जिस वक्तव्य पर विवाद हुआ है, निस्संदेह उसमें कुछ बातें दलित और पिछड़ा विरोधी लगती हैं, लेकिन सिर्फ इसी आधार पर हम आशीष नंदी को दलितों और पिछड़ों का विरोधी साबित करने पर तुल जाएंगे तो यह समझ नहीं पाएंगे कि दरअसल उनकी कुल मुराद क्या थी और कहां-कहां उनके वक्तव्य से असहमति होनी चाहिए. 

नंदी का बयान और उनकी सफाई पढ़ते हुए साफ होता है कि हमेशा की तरह उन्होंने एक विडंबनामूलक सच्चाई पर ही उंगली रखी है. वे भारतीय समाज में भ्रष्टाचार को एक तरह की संतुलनकारी शक्ति मानते हैं. यानी उनके मुताबिक हमारी राजनीतिक, सामाजिक या आर्थिक व्यवस्था सबको बराबरी के अवसर नहीं देती. जो कमजोर और छूटे हुए हैं, वे कमजोर और छूटे रहने को अभिशप्त हैं, बशर्ते वे इस व्यवस्था के बाहर जाकर अपने लिए अवसर और साधन न जुटाएं. यहां भ्रष्टाचार पिछड़ों और दलितों को अगड़ों के मुकाबले खड़े होने का अवसर देता है. नंदी यह नहीं कहते कि सवर्ण या साधनसंपन्न लोग भ्रष्ट नहीं हैं. वे बस यह जोड़ते हैं कि उनके भ्रष्टाचार में कई बारीक आयाम जुड़ गए हैं. वे गलत तरीकों से एक-दूसरे की मदद करते हैं, लेकिन इसे भ्रष्टाचार में शामिल करने को तैयार नहीं होते. नंदी यहां तक कहते हैं कि एक भ्रष्टाचारविहीन समाज भारत में किसी तानाशाही व्यवस्था में ही संभव है, लेकिन यह व्यवस्था फिर बराबरी के मौके नहीं देगी.

इस मामले में बीजेपी-बीएसपी-कांग्रेस एक हैं. क्या इसलिए कि बिना किसी वैचारिक बहस के, तुष्टीकरण की आम सहमति सबको रास आती है?

इस कोण से देखें तो सतह पर जो बयान पहली नजर में दलित या पिछड़ा विरोधी लगता है, वह कुछ गहराई में उनके पक्ष में दिया गया बयान नजर आता है- या कम से कम इसमें यह वास्तविक चिंता शामिल दिखती है कि हमारे समाज में बराबरी का जो सबसे जरूरी और बड़ा एजेंडा है वह कैसे पूरा हो. हालांकि उनके इस पूरे वक्तव्य में कम से कम दो बातें ऐसी हैं जो किसी संवेदनशील बुद्धिजीवी को उनकी सख्त आलोचना के लिए मजबूर करती हैं. जब वे कहते हैं कि सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पिछड़ों, दलितों और आदिवासियों के यहां दिखता है तो यह न तथ्यसंगत लगता है न तर्कसंगत. उल्टे सच्चाई इसके खिलाफ दिखती है. सरकारी-गैरसरकारी और काॅरपोरेट दुनिया में भ्रष्टाचार का जो विराट उद्योग चल रहा है और जिसकी कमाई स्विस बैंकों के नामी-बेनामी खातों से लेकर तमाम शहरों में बन रही नई रिहाइशों की अट्टालिकाओं में निवेश के नाम पर जमा हो रही है, उसमें बड़ा हिस्सा अगड़ों का भी है. इसी तरह जब वे बंगाल के भ्रष्टाचार मुक्त होने का दावा करते हुए यह याद दिलाते हैं कि वहां पिछले 100 साल में पिछड़े और दलित सत्ता में नहीं रहे तो लगता है कि वे भ्रष्टाचार के उन रूपों को भूले जा रहे हैं जिनकी चर्चा खुद अपने वक्तव्य में उन्होंने की है.

लेकिन ये बातें एतराज के लायक हो सकती हैं, निंदा या भर्त्सना के लायक भी किसी को लग सकती हैं. मगर क्या इसके लिए एससी-एसटी ऐक्ट लगाकर आशीष नंदी को जेल में बंद कर दिया जाना चाहिए?  घनघोर बौद्धिक दारिद्रय की शिकार मुख्यधारा की भारतीय राजनीति से जुड़े नेता मोटे तौर पर यही मांग कर रहे हैं. इस मामले में बीजेपी-बीएसपी-कांग्रेस एक हैं. क्या इसलिए कि वे पिछड़ों और दलितों से इतनी हमदर्दी रखती हैं कि उनके बारे में एक अनर्गल शब्द भी नहीं सुन सकतीं? या इसलिए कि बिना किसी वैचारिक बहस के, तुष्टीकरण की आम सहमति सबको रास आती है और इसीलिए दलितों, पिछड़ों, मुसलमानों, हिंदुत्ववादियों- किसी के विरुद्ध दिया गया कोई भी वक्तव्य किसी की गिरफ्तारी का सबब बन सकता है?  यह इत्तिफाक नहीं है कि जयपुर के साहित्यिक समारोह पर विवाद की यह तीसरी छाया है- पहली छाया मुस्लिम कट्टरपंथियों की थी जिन्हें यह गवारा नहीं था कि सलमान रुश्दी की किताब सैटेनिक वर्सेज के अंश पढ़ने वाले लेखक कार्यक्रम में आएं, दूसरी छाया उन भगवा कट्टरपंथियों की थी जिन्हें पाकिस्तान के साथ ताजा तनाव के दौर में पाकिस्तान से लेखकों का भारत आना मंजूर नहीं था.

दरअसल बड़ा संकट यही है. आप बाल ठाकरे के शोक में डूबे शिवसैनिकों के उत्पात पर बोलें तो जेल में डाल दिए जाएंगे, आप ममता बनर्जी का मज़ाक बनाएं तो आपको पुलिस उठाकर ले जाएगी, आप मुस्लिम कट्टरपंथ के खिलाफ बोलें तो सलमान रुश्दी और तसलीमा नसरीन हो जाएंगे, आप सरकारी दमन तंत्र के खिलाफ बोलें तो आप विनायक सेन बना दिए जाएंगे और आप दलितों और पिछड़ों के खिलाफ बोल गए तो आशीष नंदी जैसा सलूक झेलेंगे. इससे पहले अपने एक और लेख की वजह से नंदी नरेंद्र मोदी के समर्थकों का गुस्सा और उनके मुकदमे झेल चुके हैं.

ये सारे उदाहरण बताते हैं कि हमारे सार्वजनिक जीवन में ऐसे सूक्ष्म या तहदार विमर्श की गुंजाइश ही जैसे नहीं बची है जिसमें किसी मुद्दे पर बहस हो, असहमति हो और अपनी असहमति को कायम और स्थापित करने का राजनीतिक साहस हो. जो है सो खानों में बंटा है- इस पार या उस पार खड़ा किए जाने को अभिशप्त.

यह एक खतरनाक स्थिति है जो वैचारिक गतिशीलता को तोड़ती है और जड़ विचारों को स्थापित करती है. हम नंदी से सहमत हों या नहीं, उन्हें अपनी बात कहने का हक है. इसके लिए उन्हें किसी के दबाव में आने की जरूरत नहीं है. और यह सिर्फ उनके हक के लिए नहीं, हमारी विचारशीलता के लिए भी जरूरी है.

दहशत के चंद घंटों के बीच…

जनवरी की वह सुबह ठीक-ठीक कैसी थी-याद नहीं आ रहा I बेशक उस दिन बड़ी ठंढ रही होगी.मगर कुहासा ज्यादा ना रहा होगा क्योंकि हम बहुत पहले तैयार हो गए थे. अब्बा लखनऊ जा रहे थे, शायद चेक-अप के लिए. कार से अम्मी और मैं उनके साथ जा रहे थे. अब्बा की खिदमत के लिए बुद्धू नाम का एक नौकर था. उसे ड्राइविंग आती थी और अब्बा हमेशा उसे अपने साथ ले जाते थे लेकिन अब्बा को खुद कार चलाना पसंद था. पड़ोस में एक पेट्रोल-पंप था, कहीं जाने से पहले वे उस पेट्रोल-पंप पर जरुर जाते . लेकिन उस दिन पहुंचे तो पेट्रोल-पंप बंद मिला.मालिक अभी तक वहीं था, वह कार तक आया और उसी ने खबर सुनायी- किसी ने गांधीजी की हत्या कर दी है. 

इससे ज्यादा उसे पता नहीं था. 

अब्बा ने कार वापस घुमा ली. चेहरा तन गया, मैंने इससे पहले उनको इतना गुमसुम नहीं देखा था.जितनी देर घर पहुंचने में लगे,कार में उन चंद लम्हों तक एकदम चुप्पी रही.उतरते ही शायद उस दिन कार गैराज में रख दी गई.उस दिन सबकुछ बड़ा अटपटा हो रहा था.घर में दाखिल होते ही अब्बा ने बाहर के सारे दरवाजे बंद करके कुंडी चढ़ा दी. उन्होंने सबको घर के अंदर रहने का हुक्म सुनाया- घर के एकदम बीच वाले कमरों में. हाजत से फारिग ना होना हो तो हमें भीतर की दोनों अंगनाइयों में भी आने की इजाजत नहीं थी. घर में सिर्फ अब्बा की आवाज सुनाई दे रही थी-  बाकी लोग कुछ कहना हो तो फुसफुसा के बोल रहे थे. 

अब्बा शिकार के बड़े शौकीन थे, खासकर जाड़ों में जल-मुर्गाबियों के. उनके पास तीन शॉटगन थे और एक राइफल, एक रिवाल्वर भी था. बरसों पहले पुश्तनी जायदाद के मामले में जान पर बन आई थी तभी खरीदा था उन्होंने वह रिवाल्वर. उन्होंने तीनों हथियारों को पेटी से निकालकर तख्त पर रखा, अपने हाथों से जांच के देखा और गोली भर दी.एक बंदूक बुद्धू को दे गई. तबतक बंदूकों को लेकर मेरा कोई तजुर्बा नहीं था- मुर्गाबियों के शिकार पर मैं अब्बा के साथ जाता तो वे मुझे इतना होशियार नहीं मानते कि  हाथों में बंदूक थमा दें. इसलिए, मैं इस वक्त उनके किसी काम का नहीं था. 

अब्बा और बुद्धू हाथों में बंदूक लेकर घर की औरतों के साथ थे–अम्मा, दादी, दाइयां (इनमें बुद्धू की बीवी भी थी) और फिर बच्चे- मेरी तीन बहनें और बुद्धू के ढेर सारे बच्चे. अब्बा शाह दरवाजे पर मुस्तैद थे, बुद्धू भीतर की अंगनाई में किसी शिकारी के से चौकन्नेपन के साथ टहल लगा रहा था. बाहर, पिछवाड़े की तरफ हमारा चौकीदार भगवानदीन, तेल चुपड़ी और लोहे की टोप वाली लाठी लेकर दरवाजे के नजदीक के एक पेड़ के पास मोर्चा लेने को  तैयार था. ओसारे की तरफ हमारा खानसामा सज्जाद एकदम इसी तैयारी के साथ दूसरे दरवाजे के पास एक झाड़ी में घात लगाये बैठा था. 

पेट्रोल-पंप पर पहली बार जब खबर मिली तो मैं भी लगभग उतना ही भयभीत था जितना मेरे अब्बा-अम्मी. लेकिन अब, घर में, मेरी बदहवाशी की बड़ी वजह थी उनके चेहरे से झांकने वाली दहशतIमैंने पहले कभी अब्बा को ऐसी सूरत में ना देखा था.मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि बात-बात पर तुनक उठने वाले मेरे अब्बा जो अपने ऊंचे ओहदे और उस ओहदे से जुड़ी ताकत को लेकर एकदम निश्चिंत रहते थे, अचानक इतने असहाय और भयभीत हो उठेंगे. आखिर, उनके पास तीन गांवों की जमींदारी थी, खान साहब का ओहदा भी मिला हुआ था, फिर वे ऑनरेरी मैजिस्ट्रेट और स्पेशल रेलवे मैजिस्ट्रेट भी थे. बंद दरवाजों के पीछे पसरे नीम-अंधेरे में अपने आप को टोहता मैं दहशत में था. यही हालत, अम्मा, बहनों और बाकी सबकी थी यहां तक कि दादी को भी अंदर बुला लिया गया था- अमूमन जाड़े के दिनों में वे रसोई से लगते बरामदे में रहती थीं. कुछ देर बाद उन्होंने मुझे अपने बगल में बैठा लिया, मैं उनका दुलरुआ था- खुद को साधे हुए वे लगातार प्रार्थनाएं बुदबुदा रही थीं. 

कोई दो घंटे का अरसा गुजरा होगा (क्या सचमुच ही इतना वक्त बीत गया था?) तभी हमें सुना कि लाऊडस्पीकर पर कुछ एलान किया जा रहा है. आवाज लगातार पास आते जा रही थी लेकिन दरवाजों के अंदर शब्द साफ सुनाई नहीं पड़ रहे थे. अपने कानों से टोह लेते हम भय से सिकुड़े जा रहे थे. आखिर को अब्बा ने एक दरवाजा खोला और बाहर निकले.  वे बारजे पर खड़े होकर ऐलान सुनने लगे, खुली हुए हिस्से से हमारी फिक्रमंद आंखे उनपर टिकी हुई थीं.अचानक वे गाली बकने लगे- पहले कभी हमने उन्हें इतने जोर से और इतनी भद्दी गालियां देते ना सुना था. वे बारजे पर धूप में पूरे तैश के साथ खड़े थे. उनको पुराने अंदाज में देखकर हमारे हवाश थोड़े दुरुस्त हुए. साहस बटारकर मैंने बगल का एक दरवाजा खोला और बरामदे में आ गया. मेरे पीछे, दरवाजे के पास अम्मा और बहनें आ जुटीं. पुलिस या फिर फौज की कोई जीप या ट्रक रहा होगा.लाऊडस्पीकर इसी पर लगा था और कोई बार-बार ऐलान सुना रहा था. काश, मुझे ठीक-ठीक वही शब्द अब याद होते,लेकिन याद नहीं आ रहा. लेकिन उन लफ्जों का असर मुझे याद रह गया है – तुरंत भीतर तक उतर जाने वाली राहत का भाव. उन लफ्जों को सुनकर हमने चोरी-छिपे एक-दूसरे को मुस्करा कर देखा क्योंकि उन्हीं लफ्जों से हमने जाना कि (गांधी की) हत्या करने वाला एक हिन्दू है- कोई मुसलमान नहीं, बल्कि एक हिन्दू. जकड़ लेने वाली उस दहशत को अब हम पहचान सकते थे और राहत की वजह को भी. उस वक्त मेरी दादी ने बिल्कुल यही किया था. हमने सुना वह अल्लाह का शुक्रिया कर रही थी कि गांधी का हत्यारा एक हिन्दू निकला, अल्लाह की मेहर कि हत्यारा कोई मुसलमान नहीं था.

जल्दी ही हमारी जिन्दगी रोज के ढर्रे पर आ गई. अचानक चंद रोज तक बंद रहने के बाद स्कूल फिर से खुल गया. एक अबूझ अंतर यही दीख रहा था कि हमारे भूगोल के शिक्षक नहीं आ रहे. वे आरएसएस की स्थानीय शाखा के नेता थे. उन्हें कुछ हफ्तों के लिए हिरासत में रखा गया, फिर छोड़ दिया गया. अब्बा का मर्ज जल्दी ही जाहिर हो उठा और फिर अक्तूबर की एक रात इसी मर्ज ने उनकी जान ली. उनकी मौत से मेरी खुद की जिन्दगी भी बुनियादी तौर पर बदल गई. घर में अब अकेला मर्द मैं ही था,अम्मा पर्दे में रहती थीं, इसलिए अब घर में मुझे ही मुखिया के रुप में देखा जाने लगा, लेकिन यही चलन था और इसी की उम्मीद की जा रही थी. कुछ साल बाद सरकार ने जमींदारी खत्म कर दी और हमारी जीविका का बड़ा जरिया जाता रहा- लेकिन यही भी अपेक्षित था. चाहे थोड़े छोटे पैमाने पर मगर हम अब भी अपनी सफेदपोशी बरकरार रख पा रहे थे. मुकामी तौर पर रसूखदारों के बीच चली आ रही छोटाई-बड़ाई में फर्क पडा था लेकिन अब भी हमारी उनसे जान-पहचान थी और इससे भी बड़ी बात यह कि वे भी हमें अपना मान रहे थे. 

नई बात यह हुई कि धीरे-धीरे हमने जाना कि जनवरी के उस दिन जो दहशत हमारी हड्डियों में उतर गया था और लगा कि जल्दी खत्म भी हो गया, दरअसल हमें छोड़कर कभी नहीं गया.

(उपर्युक्त सामग्री का चयन और अनुवाद चंदन श्रीवास्तव ने किया है. वे सीएसडीएस की एक परियोजना im4change के लिए काम करते हैं और उनके आलेख समय-समय पर पत्र-पत्रिकाओं में छपते रहते हैं)

अप्रत्याशित प्रत्याशी

PMवी बालाकृष्णन अगर चुनाव नहीं लड़ रहे होते तो शायद इंफोसिस के अगले मुखिया होते. सॉफ्टवेयर इंजीनियर रवि कृष्ण रेड्डी अमेरिका में अपनी शानदार नौकरी छोड़कर इसलिए भारत चले आए कि अपने समाज में कोई सकारात्मक बदलाव ला सकें. बैंकिंग क्षेत्र में शीर्ष पदों पर रहीं मीरा सान्याल ने राजनीति में शून्य से शुरुआत की है तो चर्चित मलयाली लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता सारा जोजफ को लगता है कि चुनाव लड़ना उनके जैसे लोगों के लिए अनिवार्य हो गया है.

कुछ समय पहले तक सोचना भी मुश्किल था कि ऐसे लोग भी राजनीति में आएंगे और चुनावी मैदान में ताल ठोकेंगे. आज उनकी सूची बहुत लंबी है. कोई सॉफ्टवेयर इंजीनियर है तो कोई वकील, सामाजिक कार्यकर्ता, पूर्व सरकारी अधिकारी, लेखक या फिर पत्रकार. सबका यही मानना है कि देश को जो व्यवस्था चला रही है उसमें बहुत सी खामियां हैं और सिर्फ ड्राइंग रूम बैठकर इसकी आलोचना करने से बेहतर है कि इस व्यवस्था में दाखिल होकर इसे सुधारा जाए.

अपने-अपने क्षेत्रों में ये सभी अपनी उपलब्धियों के लिए चर्चित रहे हैं. लेकिन क्या राजनीति में भी वे ऐसा ही प्रदर्शन कर पाएंगे? या उनका नौसिखियापन उन्हें ले डूबेगा? क्या वे इतने ही पारदर्शी और ईमानदार बने रह पाएंगे और इसके बावजूद उस व्यवस्था में बचे रह पाएंगे जो बड़ी हद तक पैसे और बाहुबल पर ही निर्भर हो चली है? इन सवालों का जवाब तो समय ही दे सकता है. तब तक ऐसे 10 उम्मीदवारों के बारे में उनकी ही जुबानी कि क्यों इन दिनों वे सड़कों और गलियों की धूल छानते फिर रहे हैं.


hardev singh


‘ जब मैं सरकारी नौकरी करते हुए नहीं झुका तो चुनाव जीतने पर तो और भी बेहतर काम करूंगा’

बाबा हरदेव सिंह।  66 ।

पूर्व आईएएस अधिकारी। मैनपुरी, उत्तर प्रदेश


habang pang
‘ हम एक राजनीतिक क्रांति ला रहे हैं और लोग इसकी अहमियत समझते हैं’

हाबंग पेंग ।  56 ।

पूर्व सूचना आयुक्त। अरुणाचल पश्चिम


Dayamani
‘हम जैसे लोगों को लोकसभा जाकर कानून बदलने होंगे’

दयामणि बरला ।  44 ।

सामाजिक कार्यकर्ता। खूंटी, झारखंड


K Arkesh
‘ मैं पांच और 10 रु के टिकट बेचकर अपने चुनाव प्रचार के लिए खर्च जुटा रहा हूं’

के अर्केश। 60 ।

पूर्व डीआईजी, सीआरपीएफ। चिक्कबल्लापुर, कर्नाटक


HS fulka
‘ नेताओं ने प्रशासन को पंगु बना दिया है’

एचएस फुल्का ।  58 ।

वकील। लुधियाना, पंजाब


Meera Sanyaal
‘ईमानदारी से  देशसेवा करने की इच्छा रखने वाले लोगों के पास भी अब एक विकल्प है’ 

मीरा सान्याल । 53 ।

पूर्व सीईओ, आरबीएस। मुंबई दक्षिण


Rajmohan Gandhi
‘बाहरी होना हमें दूसरों पर एक स्पष्ट बढ़त देता है’

राजमोहन गांधी । 79 ।

लेखक, शिक्षाविद्।पूर्वी दिल्ली


Ravi Krishna Reddy
‘लोग जाति और संप्रदाय की राजनीति से तंग आ चुके हैं’

रवि कृष्ण रेड्डी । 39 ।

सॉफ्टवेयर इंजीनियर। बैंगलोर रूरल


B Balakrishanan
‘हम पैसे, बाहुबल और जाति वाली राजनीति बदलने आए हैं’

वी बालाकृष्णन । 49 ।

पूर्व सीएफओ, इंफोसिस। बैंगलोर सेंट्ल


Sara Joseph
‘हमें अपनी जमीन, अपना पानी और अपनी हवा वापस चाहिए’

सारा जोजफ । 68 ।

लेखिका। त्रिसूर, केरल