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गांधी एक सोच, एक विचार.

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निराला

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आज 30 जनवरी है. आज ही के दिन 1948 में गांधी का शरीर दुनिया से विदा हुआ था. आज ही के दिन कुछ लोगों ने गांधी को मारकर खुद को शूरवीरों की श्रेणी में शामिल करवाने की कोशिश की थी और एक गलतफहमी की पराकाष्ठा पर पहुंचे थे कि अगर वे गांधी को मार देंगे तो उनके विचारों का असर भी खत्म हो जाएगा. लेकिन समय ने उनकी सोच को गलत साबित किया. गांधी देश की परिधि लांघ दुनिया के कई दूसरे मुल्कों के लिए भी अंधेरे समय से पार पाने के लिए एक रोशनी, एक उम्मीद का मॉडल बनते गए. दुनिया में गांधी के तेजी से फैले प्रभाव का एक असर इस साल देखने को मिल रहा है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने अब गांधी की शहादत दिवस को हर साल मनाने का फैसला किया है. संयुक्त राष्ट्र संघ के स्थायी देश भारत को वह भाव देने को तैयार नहीं लेकिन गांधी से वे प्रभावित हैं. क्यों! यह एक सवाल है, जवाब किसी ग्रंथ, पुस्तकों में तलाशने की जरूरत नहीं. अपने आस-पास नजर दौड़ाइए, रोजाना जवाब मिलेगा. एक ओर दुनिया गांधी के सिद्धांतों में मुश्किलों से पार पाने की राह खोज रही है, दूसरी ओर गांधी का खुद का देश भारत उन्हें जयंती-पुण्यतिथि में समेटने की कोशिश में लगा हुआ है. बहरहाल, यह सवाल पेंच भरा है, इसके फेरे में पड़े बगैर इस बार गांधी की शहादत दिवस पर उन्हें हम परंपरानुसार याद नहीं करना चाहते.

परंपरानुसार किसी चीज को याद करना धीरे-धीरे उसे जड़ बना देता है और फिर एक बार जो चीज जड़ हो जाए उसे गतिशील बनाना इतना आसान नहीं होता. हम यह नहीं बताना चाहते कि गांधी कौन थे, उनका जन्म कब-कहां हुआ था, वे बैरिस्टरी की पढ़ाई करने के बाद राष्ट्रसेवी कैसे बन गए, उनका नाम महात्मा कैसे पड़ा, किसने उन्हें नंगा फकीर कहा, उन्होंने किन-किन आंदोलनों का नेतृत्व किया, उनकी जान किसने ली, क्यों ली… आदि-आदि. आज गांधी को हम दूसरे रूप में याद करने की कोशिश कर रहे हैं. उनके लिखे दो पत्रों के जरिए निजी जीवन के गांधी को देखने की कोशिश कर रहे हैं कि अपनी पत्नी कस्तूरबा के गांधी कैसे थे. वे बा को कितना प्रेम करते थे और उनके प्रेम का स्तर और स्वरूप क्या था, यह एक पत्र से पता चलेगा, जिसे यहां प्रकाशित कर रहे हैं. और अपने बेटे मणिलाल के गांधी कैसे थे, यह प्रिटोरिया जेल से बेटे को लिखे पत्र से पता चलता है.

गांधी सिर्फ दुनिया को ही उपदेश नहीं देते थे, अपने घर में भी वे महात्मा की तरह ही थे. मनु बहन, जो उनके साथ हमेशा रहा करती थीं और गांधी जिनके लिए मां के समान थे, उनके एक संस्मरणात्मक लेख को पढ़ते हुए हम जानेंगे कि गांधी रोजमर्रा की जिंदगी में बारीकियों को बरतकर ही महात्मा या राष्ट्रपिता बने थे. गांधी देश की राजनीतिक व्यवस्था में एक आखिरी उम्मीद की तरह थे और उनके सामने कोई कुछ भी कह सकता था, यह महान समाजवादी नेता सूर्यनारायण सिंह के एक पत्र से साफ जाहिर होता है, जिसे हम प्रकाशित कर रहे हैं. और इन सबके साथ मशहूर पर्यावरणविद अनुपम मिश्र का एक सदाबहार आलेख, जो दो साल पहले तहलका के लिए लिखा गया था लेकिन आज भी उसकी ताजगी और प्रासंगिकता उसी तरह बनी हुई है. 

गांधी की पुण्यतिथि पर तहलका के इस खास संपादकीय आयोजन का एकमात्र मकसद है कि भटकाव के इस दौर में गांधी को अधिक से अधिक रूपों में जानने की कोशिश करना. पूंजीवाद का क्रूर रूप देखने के बाद गांधी का आर्थिक फॉर्मूला उम्मीद दिखा रहा है. प्रेम और रिश्तों का भी तकनीकीकरण होने के इस युग में गांधी के प्रेम को जानना सुकून देता है. असहमति के लिए घटते स्पेस के दौर में गांधी का विराट व्यक्तित्व उम्मीद जगाता है कि सहमति के विवेक के साथ समाज में असहमति का साहस जरूर होना चाहिए. अब भी गांधी ही देश में एकमात्र प्रतीक हैं, जिनके नाम पर देश राख से भी चिंगारी की तरह उठ खड़ा होता है. अन्ना के आंदोलन को पूरे देश ने देखा. वर्षों बाद अन्ना ने राह दिखाई तो अब गांधीवादी तरीके से आंदोलनों की गति तेज हो रही है. इस मायने में यह सुकून देने वाला दौर भी है.

आलेख

अनुपम मिश्र:सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा

चौधरी मोहम्मद नईम:दहशत के चंद घंटों के बीच…

पत्र

कस्तूरबा गांधी के नाम महात्मा गांधी का पत्र 

पुत्र मणिलाल गांधी के नाम महात्मा गांधी का पत्र

जेल से एक समाजवादी नेता का महात्मा गांधी को पत्र

किताब से अंश

“सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा” से

“बापू-मेरी मां” से

रिपोर्ट

गांधी के आदि अनुयायी

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा

आत्मकथाएं कौन लोग लिखते हैं? जो लोग कुछ अच्छे कामों के कारण समाज का प्यार पाते हैं या फिर जो बुरे कामों के कारण बदनाम हो जाते हैं. एक तीसरी श्रेणी ऐसे लोगों की भी है जो दूसरों की कुछ पोलपट्टी खोल सकने वाले पदों पर रहे होंगे. तीनों तरह के लोगों में राजनेता, अभिनेता, तानाशाह, पत्रकार, साहित्यकार, मंजे हुए या पिटे हुए खिलाड़ी, उद्योगपति और उच्च अधिकारी शामिल हैं.

आत्मकथा लोग अक्सर जीवन के उतार पर पहुंचकर लिखते हैं. अच्छे बुरे कामों का तेल तब तक खत्म हो चलता है, तब ऐसे लोगों की आत्मकथा थोड़ा और तेल जुटा देती है. ज्यादातर मामलों में ऐसे दीए बुझने से पहले थोड़े समय के लिए भभक कर जल उठते है. अखबारों में इनके विवादास्पद लेख छपते हैं, टीवी पर बहस होती है. फिर सब खत्म हो जाता है.

आत्मकथाओं के इस ढेर से अलग है गांधीजी की आत्मकथा जो अधूरी होते हुए भी पूरा सच बयान करती है. इसका शीर्षक बड़ा अटपटा है – सत्य के साथ मेरे प्रयोग अथवा आत्मकथा. यहां सत्य के प्रयोग का वर्णन मुख्य था. इसलिए नाम में भी उसे आगे रखा गया आत्मकथा को पीछे. निकट के साथियों के खूब आग्रह करने पर गांधीजी ने आत्मकथा लिखना तय किया. शुरू तो किया लिखना, लेकिन उन्हीं के शब्दों में ‘फुलस्केप का एक पन्ना भी पूरा नहीं हो पाया था कि इतने में बंबई में ज्वाला प्रकट हुई औऱ मेरा शुरू किया हुआ काम अधूरा रह गया.’

ये बात 1921 की है. उसके बाद गांधी जी की व्यस्तता दिनोंदिन बढ़ती ही गई. बीच में उन्हें गिरफ्तार करके यरवदा जेल, पुणे में रखा गया. पर गांधीजी के पास वक्त कहां था. उनके बारे में कहा जाने लगा था कि ये व्यक्ति अपने समय का मालिक था, अपनी घड़ी का गुलाम था, समय का एकदम पाबंद. अपनी कुटिया में साधरणजनों से लेकर ऊंचे दर्जे के नेताओं से दिनभर मिलते, हर दिन अनगिनत पत्र, नोट लिखते. एक हाथ लिखते-लिखते थक जाता तो दूसरे से भी लिखने का अभ्यास कर डाला था.

ये वो दौर था जब गांधीजी देश को एक नई भूमिका के लिए तैयार करने में दिन-रात लगे हुए थे. अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उनके पास अख़बार भी थे जिनके लिए हर हफ्ते कुछ न कुछ लिखना होता था. हल निकाला गांधीजी ने ‘तो फिर क्यों न आत्मकथा लिखूं।’ इस तरह ये विचित्र कथा मूल गुजराती में 29 नवंबर 1925 से 3 फरवरी 1929 तक नवजीवन अख़बार में साप्ताहिक रूप से छपी. फिर अंग्रेज़ी अनुवाद 3 दिसंबर 1925 से 7 फरवरी 1929 तक ‘यंग इंडिया’ के अंको में छपा.

हिंदी पुस्तक के रूप में सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली ने इसे सबसे पहले सन् 1928 में प्रकाशित किया. लेकिन गांधीजी की तमाम रचनाओं का कॉपीराइट रखने वाला नवजीवन ट्रस्ट हिंदी संस्करण पहली बार 1957 में छाप सका. इन तीन भाषाओं में इस पुस्तक की करीब 14,56,000 प्रतियां पाठकों तक पहुंची है. इसके अलावा तमिल, कन्नड़, मराठी, तेलगू, उड़िया, असमी, बंगला और उर्दू में इसकी करीब पांच लाख प्रतियां छप चुकी हैं. सत्य के इस विचित्र प्रयोग को दुनिया की तमाम दूसरी भाषाओं में भी अनूदित किया जा चुका है. अंग्रेज़ी में यहां भी छपी और विदेशों में भी. फिर स्पेनी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, इतावली, जर्मन, पोलिस स्विस, तुर्की के अलावा अरबी भाषा में भी इसका अच्छा स्वागत हुआ है. चीनी, जापानी और तिब्बती भाषाओं में भी इसके संस्करण हैं.

कोई 80 वर्षों से लगातार पाठकों को लुभा रही इस आत्मकथा में ऐसा क्या है? सच पूछा जाय तो इसमें गांधीजी की कहानी तो बस सूत्र के रूप में चलती है. मुख्य तो उस धागे में पिरोये गए उनके सत्य के प्रयोग हैं. खुद गांधीजी के शब्दों में ‘मुझे आत्मकथा कहां लिखनी है?  मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के साथ मैंने जो प्रयोग किए हैं उनकी कथा लिखनी है.’ इस आत्मकथा में ब्रितानी राज, कांग्रेस, हिंदू-मुसलमान या दक्षिण अफ्रीका के दौरे में वहां के शासकों के खिलाफ रत्ती भर ज़हर नहीं मिलेगा, जो है वह है सत्य, अमृत जिसके कारण उन्हें इस गंदी से गंदी राजनीति में भी बहुत कुछ कर जाने की शक्ति मिली. इसमें तो उन्होंने अपने दोषों का भी वर्णन किया है.

आत्मकथा में गांधीजी के विभिन्न सत्याग्रहों और संघर्षों का वर्णन भी है. वो लिखते हैं “सत्याग्रह में संघर्ष व्यक्तियों अथवा पक्षों के बीच नहीं माना जाता, सत्य और असत्य, सही और गलत के बीच माना जाता है.”  ऐसे मौकों पर अपने हिस्से की सच्चाई को नहीं, पूरी सच्चाई को ठीक से पकड़ लो और उसके सहारे झूठ को, असत्य को पराजित करने के काम में लग जाओ. उन्ही के शब्दों में ‘इस तरह न कोई जीतता है, न कोई विजेता होता है. किसी को भी ऐसा नहीं लगता कि हम हार गए, हमने कुछ खो दिया है या हमारा अपमान हो गया है.’

गांधीजी ने इस आत्मकथा में 1921 तक का ही वर्णन किया है. पर यह उनकी कहानी का अंत नहीं है. यह आत्मकथा हमें बताती है कि चम्पारण सत्याग्रह में गांधीजी ने नील की खेती को लेकर अंग्रेजों के अत्याचारों में कैसे सत्य को पकड़ा और फिर अंत तक उसे पकड़े रहे. ‘नील का धब्बा’ नामक शीर्षक से लिखा यह अंश इस बात को बताता है कि गांधीजी ने ये मामला यूं ही नहीं उठा लिया था. एक पक्ष था अत्याचार करने वाले अंग्रेजों का तो  दूसरा था भोले-भाले किसानों का. तीसरा पक्ष ऐसे प्रसिद्ध वकीलों का था जो इन गरीब किसानों के मुकदमें

लड़ते थे. गांधीजी लिखते हैं “इन भोले किसानों से मेहनताना सभी लेते थे, त्यागी होते हुए भी ब्रजकिशोर बाबू या राजेंद्र बाबू मेहनताना लेने में संकोच नहीं रखते थे. उनकी दलील यह थी कि पेशे के काम में मेहनताना न लें तो घर का खर्च नहीं चल सकता और हम लोगों की मदद भी नहीं कर सकते. उनके मेहनताने तथा बंगाल और बिहार के बैरिस्टरों को दिए जाने वाले मेहनताने के कल्पना में न आ सकने वाले आंकड़े सुनकर मैं दंग रह गया.”

सारी बात जान लेने के बाद गांधीजी की पहली राय थी “अब ये मुकदमें लड़ना तो हमें बंद ही कर देना चाहिए. जो रैयत इतनी कुचली हुई हो जहां सब इतने भयभीत रहते हों, वहां कचहरियों के जरिए थोड़े ही इलाज हो सकता है. लोगों का डर निकालना उनके रोग की असली दवा है. यह तिनकठिया प्रथा (जबरन नील की खेती) न जाय, तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते.”

गांधीजी चम्पारण की इस भयानक समस्या को देखने-समझने बस दो दिनों के लिए आए थे पर सत्य के प्रयोग ऐसे ही नहीं होते. उन्होंने यहां आकर जो देखा उससे उन्हें लगा “ये काम तो दो साल भी ले सकता है. इतना समय लगे तो भी मैं देने को तैयार हूं.” सत्य के प्रयोग भत्ते लेने से नहीं चलते. गांधीजी ने सभी प्रसिद्ध वकीलों का मेहनताना खत्म करवाया. खुद पेशे से वकील होते हुए भी उनसे कहा कि “इस बड़े काम में आपकी वकालत की योग्यता का थोड़ा ही उपयोग होगा. आप जैसों से तो मैं मुहर्रिर और दुभाषिए का काम चाहूंगा.” ये भी कहा कि वकील का धंधा अनिश्चित काल के लिए छोड़ देना पड़ेगा. जेल जाने की भी तैयारी रखें.

उधर गांधीजी ने हजारो किसानों से जो बात की उसमें भी सच्चाई का पूरा ध्यान रखा. हर किसान का बयान लेते समय, अंग्रेजों के खिलाफ शिकायत लिखवाते समय एक अच्छे वकील की तरह जिरह की जाती थी. जिस किसी भी शिकायत में झूठ या अतिश्योक्ति की गंध आती उस मामले को वहीं छोड़ दिया जाता था. झूठ के पुलिंदों के सहारे सच की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. गांधीजी का सच, गांधीजी के राम, दो पक्षों के बीच कैसा मजबूत सेतु बन जाता था- ऐसे अनेक प्रयोगों से भरी पड़ी है ये आत्मकथा. इसमें 1921 तक का ही वर्णन है इसके बाद गांधीजी का जीवन और भी सार्वजनिक होता गया. उन्हीं के शब्दों में “शायद ही कोई ऐसी चीज हो जिसे लोग न जानते हों.” इसलिए यहां आकर वे पाठकों से विदा लेते हैं. जिस सत्य के आग्रह पर उन्होंने आत्मकथा लिखना शुरू किया था, उसे इन सब विवरणों के बाद वे और भी गहरे उतर कर लिखते है “सत्य को जैसा मैंने देखा है, जिस मार्ग को देखा है उसे बताने का मैंने सतत प्रयत्न किया है. क्योंकि मैंने यह माना है कि उससे सत्य और अहिंसा के विषय में अधिक आस्था उत्पन्न होगी.”

पूरे सच की ये अधूरी कथा ज़हर से घुली इस दुनिया में दूध से धुली है इसीलिए आज 80 सालों बाद भी खामोशी से तहलका मचा रही है.

(गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से सम्बद्ध अनुपम मिश्र स्वयं एक कालजयी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब के लेखक हैं.)

सत्य के प्रयोग अथवा आत्मकथा

आत्मकथाएं कौन लोग लिखते हैं? जो लोग कुछ अच्छे कामों के कारण समाज का प्यार पाते हैं या फिर जो बुरे कामों के कारण बदनाम हो जाते हैं. एक तीसरी श्रेणी ऐसे लोगों की भी है जो दूसरों की कुछ पोलपट्टी खोल सकने वाले पदों पर रहे होंगे. तीनों तरह के लोगों में राजनेता, अभिनेता, तानाशाह, पत्रकार, साहित्यकार, मंजे हुए या पिटे हुए खिलाड़ी, उद्योगपति और उच्च अधिकारी शामिल हैं.

आत्मकथा लोग अक्सर जीवन के उतार पर पहुंचकर लिखते हैं. अच्छे बुरे कामों का तेल तब तक खत्म हो चलता है, तब ऐसे लोगों की आत्मकथा थोड़ा और तेल जुटा देती है. ज्यादातर मामलों में ऐसे दीए बुझने से पहले थोड़े समय के लिए भभक कर जल उठते है. अखबारों में इनके विवादास्पद लेख छपते हैं, टीवी पर बहस होती है. फिर सब खत्म हो जाता है.

आत्मकथाओं के इस ढेर से अलग है गांधीजी की आत्मकथा जो अधूरी होते हुए भी पूरा सच बयान करती है. इसका शीर्षक बड़ा अटपटा है – सत्य के साथ मेरे प्रयोग अथवा आत्मकथा. यहां सत्य के प्रयोग का वर्णन मुख्य था. इसलिए नाम में भी उसे आगे रखा गया आत्मकथा को पीछे. निकट के साथियों के खूब आग्रह करने पर गांधीजी ने आत्मकथा लिखना तय किया. शुरू तो किया लिखना, लेकिन उन्हीं के शब्दों में ‘फुलस्केप का एक पन्ना भी पूरा नहीं हो पाया था कि इतने में बंबई में ज्वाला प्रकट हुई औऱ मेरा शुरू किया हुआ काम अधूरा रह गया.’

ये बात 1921 की है. उसके बाद गांधी जी की व्यस्तता दिनोंदिन बढ़ती ही गई. बीच में उन्हें गिरफ्तार करके यरवदा जेल, पुणे में रखा गया. पर गांधीजी के पास वक्त कहां था. उनके बारे में कहा जाने लगा था कि ये व्यक्ति अपने समय का मालिक था, अपनी घड़ी का गुलाम था, समय का एकदम पाबंद. अपनी कुटिया में साधरणजनों से लेकर ऊंचे दर्जे के नेताओं से दिनभर मिलते, हर दिन अनगिनत पत्र, नोट लिखते. एक हाथ लिखते-लिखते थक जाता तो दूसरे से भी लिखने का अभ्यास कर डाला था.

ये वो दौर था जब गांधीजी देश को एक नई भूमिका के लिए तैयार करने में दिन-रात लगे हुए थे. अपनी बात लोगों तक पहुंचाने के लिए उनके पास अख़बार भी थे जिनके लिए हर हफ्ते कुछ न कुछ लिखना होता था. हल निकाला गांधीजी ने ‘तो फिर क्यों न आत्मकथा लिखूं।’ इस तरह ये विचित्र कथा मूल गुजराती में 29 नवंबर 1925 से 3 फरवरी 1929 तक नवजीवन अख़बार में साप्ताहिक रूप से छपी. फिर अंग्रेज़ी अनुवाद 3 दिसंबर 1925 से 7 फरवरी 1929 तक ‘यंग इंडिया’ के अंको में छपा.

हिंदी पुस्तक के रूप में सस्ता साहित्य मंडल, दिल्ली ने इसे सबसे पहले सन् 1928 में प्रकाशित किया. लेकिन गांधीजी की तमाम रचनाओं का कॉपीराइट रखने वाला नवजीवन ट्रस्ट हिंदी संस्करण पहली बार 1957 में छाप सका. इन तीन भाषाओं में इस पुस्तक की करीब 14,56,000 प्रतियां पाठकों तक पहुंची है. इसके अलावा तमिल, कन्नड़, मराठी, तेलगू, उड़िया, असमी, बंगला और उर्दू में इसकी करीब पांच लाख प्रतियां छप चुकी हैं. सत्य के इस विचित्र प्रयोग को दुनिया की तमाम दूसरी भाषाओं में भी अनूदित किया जा चुका है. अंग्रेज़ी में यहां भी छपी और विदेशों में भी. फिर स्पेनी, पुर्तगाली, फ्रांसीसी, इतावली, जर्मन, पोलिस स्विस, तुर्की के अलावा अरबी भाषा में भी इसका अच्छा स्वागत हुआ है. चीनी, जापानी और तिब्बती भाषाओं में भी इसके संस्करण हैं.

कोई 80 वर्षों से लगातार पाठकों को लुभा रही इस आत्मकथा में ऐसा क्या है? सच पूछा जाय तो इसमें गांधीजी की कहानी तो बस सूत्र के रूप में चलती है. मुख्य तो उस धागे में पिरोये गए उनके सत्य के प्रयोग हैं. खुद गांधीजी के शब्दों में ‘मुझे आत्मकथा कहां लिखनी है?  मुझे तो आत्मकथा के बहाने सत्य के साथ मैंने जो प्रयोग किए हैं उनकी कथा लिखनी है.’ इस आत्मकथा में ब्रितानी राज, कांग्रेस, हिंदू-मुसलमान या दक्षिण अफ्रीका के दौरे में वहां के शासकों के खिलाफ रत्ती भर ज़हर नहीं मिलेगा, जो है वह है सत्य, अमृत जिसके कारण उन्हें इस गंदी से गंदी राजनीति में भी बहुत कुछ कर जाने की शक्ति मिली. इसमें तो उन्होंने अपने दोषों का भी वर्णन किया है.

आत्मकथा में गांधीजी के विभिन्न सत्याग्रहों और संघर्षों का वर्णन भी है. वो लिखते हैं “सत्याग्रह में संघर्ष व्यक्तियों अथवा पक्षों के बीच नहीं माना जाता, सत्य और असत्य, सही और गलत के बीच माना जाता है.”  ऐसे मौकों पर अपने हिस्से की सच्चाई को नहीं, पूरी सच्चाई को ठीक से पकड़ लो और उसके सहारे झूठ को, असत्य को पराजित करने के काम में लग जाओ. उन्ही के शब्दों में ‘इस तरह न कोई जीतता है, न कोई विजेता होता है. किसी को भी ऐसा नहीं लगता कि हम हार गए, हमने कुछ खो दिया है या हमारा अपमान हो गया है.’

गांधीजी ने इस आत्मकथा में 1921 तक का ही वर्णन किया है. पर यह उनकी कहानी का अंत नहीं है. यह आत्मकथा हमें बताती है कि चम्पारण सत्याग्रह में गांधीजी ने नील की खेती को लेकर अंग्रेजों के अत्याचारों में कैसे सत्य को पकड़ा और फिर अंत तक उसे पकड़े रहे. ‘नील का धब्बा’ नामक शीर्षक से लिखा यह अंश इस बात को बताता है कि गांधीजी ने ये मामला यूं ही नहीं उठा लिया था. एक पक्ष था अत्याचार करने वाले अंग्रेजों का तो  दूसरा था भोले-भाले किसानों का. तीसरा पक्ष ऐसे प्रसिद्ध वकीलों का था जो इन गरीब किसानों के मुकदमें

लड़ते थे. गांधीजी लिखते हैं “इन भोले किसानों से मेहनताना सभी लेते थे, त्यागी होते हुए भी ब्रजकिशोर बाबू या राजेंद्र बाबू मेहनताना लेने में संकोच नहीं रखते थे. उनकी दलील यह थी कि पेशे के काम में मेहनताना न लें तो घर का खर्च नहीं चल सकता और हम लोगों की मदद भी नहीं कर सकते. उनके मेहनताने तथा बंगाल और बिहार के बैरिस्टरों को दिए जाने वाले मेहनताने के कल्पना में न आ सकने वाले आंकड़े सुनकर मैं दंग रह गया.”

सारी बात जान लेने के बाद गांधीजी की पहली राय थी “अब ये मुकदमें लड़ना तो हमें बंद ही कर देना चाहिए. जो रैयत इतनी कुचली हुई हो जहां सब इतने भयभीत रहते हों, वहां कचहरियों के जरिए थोड़े ही इलाज हो सकता है. लोगों का डर निकालना उनके रोग की असली दवा है. यह तिनकठिया प्रथा (जबरन नील की खेती) न जाय, तब तक हम चैन से नहीं बैठ सकते.”

गांधीजी चम्पारण की इस भयानक समस्या को देखने-समझने बस दो दिनों के लिए आए थे पर सत्य के प्रयोग ऐसे ही नहीं होते. उन्होंने यहां आकर जो देखा उससे उन्हें लगा “ये काम तो दो साल भी ले सकता है. इतना समय लगे तो भी मैं देने को तैयार हूं.” सत्य के प्रयोग भत्ते लेने से नहीं चलते. गांधीजी ने सभी प्रसिद्ध वकीलों का मेहनताना खत्म करवाया. खुद पेशे से वकील होते हुए भी उनसे कहा कि “इस बड़े काम में आपकी वकालत की योग्यता का थोड़ा ही उपयोग होगा. आप जैसों से तो मैं मुहर्रिर और दुभाषिए का काम चाहूंगा.” ये भी कहा कि वकील का धंधा अनिश्चित काल के लिए छोड़ देना पड़ेगा. जेल जाने की भी तैयारी रखें.

उधर गांधीजी ने हजारो किसानों से जो बात की उसमें भी सच्चाई का पूरा ध्यान रखा. हर किसान का बयान लेते समय, अंग्रेजों के खिलाफ शिकायत लिखवाते समय एक अच्छे वकील की तरह जिरह की जाती थी. जिस किसी भी शिकायत में झूठ या अतिश्योक्ति की गंध आती उस मामले को वहीं छोड़ दिया जाता था. झूठ के पुलिंदों के सहारे सच की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. गांधीजी का सच, गांधीजी के राम, दो पक्षों के बीच कैसा मजबूत सेतु बन जाता था- ऐसे अनेक प्रयोगों से भरी पड़ी है ये आत्मकथा. इसमें 1921 तक का ही वर्णन है इसके बाद गांधीजी का जीवन और भी सार्वजनिक होता गया. उन्हीं के शब्दों में “शायद ही कोई ऐसी चीज हो जिसे लोग न जानते हों.” इसलिए यहां आकर वे पाठकों से विदा लेते हैं. जिस सत्य के आग्रह पर उन्होंने आत्मकथा लिखना शुरू किया था, उसे इन सब विवरणों के बाद वे और भी गहरे उतर कर लिखते है “सत्य को जैसा मैंने देखा है, जिस मार्ग को देखा है उसे बताने का मैंने सतत प्रयत्न किया है. क्योंकि मैंने यह माना है कि उससे सत्य और अहिंसा के विषय में अधिक आस्था उत्पन्न होगी.”

पूरे सच की ये अधूरी कथा ज़हर से घुली इस दुनिया में दूध से धुली है इसीलिए आज 80 सालों बाद भी खामोशी से तहलका मचा रही है.

(गांधी शान्ति प्रतिष्ठान से सम्बद्ध अनुपम मिश्र स्वयं एक कालजयी पुस्तक आज भी खरे हैं तालाब के लेखक हैं.)

"ऐसी गंदगीमें काँग्रेसकी बैठक अधिक दिनों तक जारी रहती, तो आवश्य बीमारी फैल जाती…"

हिंदुस्तान पहुंचने पर थोड़ा समय मैंने घूमने-फिरनेमें बिताया. यह 1901 का जमाना था. उस सालकी काँग्रेस कलकत्तेमें होने वाली थी. दीनाशा एदलजी वाच्छा उसके अध्यक्ष थे. मुझे काँग्रेसमें तो जाना था ही. काँग्रेसका यह मेरा पहला अनुभव था.

बम्बईसे जिस गाड़ीमें सर फिरोजशाह मेहता रवाना हुए उसीमें मैं भी गया था. मुझे उनसे दक्षिण अफ्रिकाके बारेमें बातें करनी थीं. उनके डिब्बेमें एक स्टेशन तक जानेकी मुझे अनुमति मिली थी. उन्होंने तो खास सलूनका प्रबंध किया था. उनके शाही खर्च और ठाठ-बाटसे मैं परिचित था. जिस स्टेशन पर उनके डिब्बेमें जानेकी मुझे अनुमति मिली थी, उस स्टेशन पर मैं उसमें पहुंचा. उस समय उनके डिब्बेमें तबके दीनशाजी और तबके चिमनलाल सेतलवाड़ बैठे थे. उनके साथ राजनीतिक चर्चा चल रही थी. मुझे देखकर सर फिरोजशाह बोले, “गांधी, तुम्हारा काम पार न पड़ेगा. तुम जो कहोगे सो प्रस्ताव तो हम पास कर देंगे, पर अपने देशमें ही हमें कौनसे अधिकार मिलते हैं? मैं तो मानता हूं कि जब तक अपने देशमें हमें सत्ता नहीं मिलती, तब तक उपनिवेशोंमें तुम्हारी स्थिति सुधर नहीं सकती”

मैं तो सुनकर दंग ही रह गया. सर जिमनलालने हां-में-हां मिलायी. दीनशाने मेरी ओर दयार्द्रा दृष्टिसे देखा. मैंने समझाने का कुछ प्रयत्न किया, परंतु बम्बई के बेताजके बादशाहको मेरे समान आदमी क्या समझा सकता था? मैंने इतनेसे ही संतोष माना कि मुझे काँग्रेसमें प्रस्ताव पेश करने दिया जाएगा.

सर दीनशा वाच्छा मेरा उत्साह बढ़ानेके लिए बोले, “गांधी, प्रस्ताव लिखकर मुझे बताना भला!” मैंने उनका उपकार माना. दूसरे स्टेशन पर ज्यों ही गाड़ी खड़ी हुई, मैं भागा और अपने डिब्बेमें घुस गया.

हम कलकत्ते पहुंचे. अध्यक्ष आदि नेताओंको नागरिक धूमधाम से ले गए. मैंने किसी स्वयंसेवक से पूछा, “मुझे कहां जाना चाहिए?” वह मुझे रिपन कॉलेज ले गया. वहां बहुतसे प्रतिनिधि ठहराये गए थे. मेरे सौभाग्यसे जिस विभागमें मैं था, उसी में लोकमान्य तिलक भी ठहरे हुए थे. मुझे याद पड़ता है कि वो एक दिन बाद पहुंचे थे. जहां लोकमान्य हों वहां छोटा-सा दरबार तो लग ही जाता था. मैं चित्रकार होता , तो जिस खटिया पर वो बैठे थे, उसका चित्र खींच देता. उस जगह का और उसकी बैठकीका आज भी मुझे इतना स्पष्ट स्मरण है. उनसे मिलने आनेवाले अनगिनत लोगोंमें से मुझे एक ही का नाम अब याद है-‘अमृतबाजार पत्रिका’ के मोतीबाबू. उन दोनोंका खिलखिलाकर हंसना और राज्य कार्यकर्ताओंके अन्यायके विषयमें उनकी बात भूलने योग्य नहीं है.

लेकिन वहांकी व्यवस्था को थोड़ा देखें.

स्वयंसेवक एक-दूसरेसे टकराते रहते थे. जो काम जिसे सौंपा जाता, वह स्वयं उसे नहीं करता था. वह तुरंत दूसरेको पुकारता था. दूसरा तीसरेको. बेचारा प्रतिनिधि  तो न तीनमें होता, न तेरहमें.

मैंने अनेक स्वयंसेवकोंसे दोस्ती की. उनसे दक्षिण अफ्रीकाकी कुछ बातें कीं. इससे वे जरा शरमिंदा हुए. मैंने उन्हें सेवाका मर्म  समझानेका प्रयत्न किया. वे कुछ समझे. पर सेवा की अभिरुचि कुकुरमुत्तेकी तरह बातकी बातमें तो उत्पन्न नहीं होती. उसके लिए इच्छा चाहिए और बादमें अभ्यास. इन भोले और भले स्वयंसेवकोंमें इच्छा तो बहुत थी, पर तालीम और अभ्यास वे कहांसे पाते? काँग्रेस सालमें तीन दिनके लिए इकट्ठा होकर फिर सो जाती थी. सालमें तीन दिनकी तालीमसे कितना सीखा जा सकता था?

जैसे स्वयंसेवक थे, वैसे ही प्रतिनिधि थे. उन्हें भी इतने ही दिनोंकी तालीम मिलती थी. वे अपने हाथसे अपना  कोई भी काम न करते थे. सब बातों में उनके हुक्म छूटते रहते थे. ‘स्वयंसेवक, यह लाओ; स्वयंसेवक, वह लाओ’ चला ही करता था.

अखा भगत(गुजरताके एक भक्तकवि. इन्होंने अपने एक छप्पयमें छुआछूतको ‘आभडछेट अदकेरो अंग’ कहकर उसका विरोध किया है और कहा है कि हिंदू धर्ममें अस्पृश्यताके लिए कोई स्थान नहीं है)  के ‘अदकेरा अंग’-‘अतिरिक्त अंग’ का भी ठीकठीक अनुभव हुआ. छुआछूत को मानने वाले वहां बहुत थे. द्राविड़ी रसोई बिलकुल अलग थी. उन प्रतिनिधियों को तो ‘दृष्टिदोष’ भी लगता था! उनके लिए कॉलेजके अहातेमें चटाइयोंका रसोईघर बनाया गया था. उसमें धुआं इतना रहता था कि आदमीका दम घुट जाए. खाना-पीना सब उसीके अंदर. रसोईघर क्या था, एक तिजोरी थी. वह कहींसे भी खुला न था.

मुझे यह वर्णधर्म उलटा लगा. काँग्रेसमें आनेवाले प्रतिनिधि जब इतनी छुआछूत रखते हैं, तो उन्हें भेजनेवाले लोग कितनी रखते होंगे? इस प्रकारका त्रैराशिक लगानेसे जो उत्तर मिला, उस पर मैंने एक लंबी सांस ली.

गंदगीकी हद नहीं थी. चारों तरफ पानी ही पानी फैला था. पाखाने कम थे. उनकी दुर्गंधकी याद आज भी मुझे हैरान करती है. मैंने एक स्वयंसेवकको यह सब दिखाया. उसने साफ इनकार करते हुए कहा, “यह तो भंगीका काम है.” मैंने झाडू मांगा. वह मेरा मुंह ताकता रहा. मैंने झाडू खोज निकाला. पाखाना साफ किया. पर यह तो मेरी अपनी सुविधाके लिए हुआ. भीड़ इतनी ज्यादा थी और पाखाना इतने कम थे कि हर बारके उपयोगके बाद उनकी सफाई होनी जरूरी थी. यह मेरी शक्ति के बाहरकी बात थी. इसलिए मैंने अपने लायक सुविधा करके संतोष माना. मैंने यह देखा कि दूसरों को यह गंदगी जरा भी अखरती न थी.

पर बात यहीं खतम नहीं होती. रातके समय कोई-कोई तो कमरेके सामनेवाले बरामदेमें ही निबट लेते थे. सवेरे स्वयंदेवकोंको मैंने मैला दिखाया. कोई साफ करनेको तैयार नहीं था. उसे साफ करने का सम्मान भी मैंने ही प्राप्त किया. यद्दपि अब इन बातोंमें बहुत सुधार हो गया है, फिर भी अविचारी प्रतिनिधि अब तक काँग्रेसके शिबिरको जहां-तहां मलत्याग करके गंदा करते हैं और सब स्वयंसेवक उसे साफ करनेके लिए तैयार नहीं होते. 

मैंने देखा कि अगर ऐसी गंदगीमें काँग्रेसकी बैठक अधिक दिनों तक जारी रहती, तो आवश्य बीमारी फैल जाती.

(“सत्यके प्रयोग अथवा आत्मकथा” के भाग तीन के ‘देश में’ चैप्टर से)

मनुबहन की नजर में उनकी मां गांधी

 

30 मार्च 1947 को पूज्य बापू पहले-पहल लॉर्ड माउंटबेटन से मिलने जा रहे थे. नोवाखली और बिहार के ऐक्य यज्ञ में पड़ने के बाद यह पहला सफर था. वायसराय की ओर से सूचना तो यह थी कि बापू हवाई जहाज से दिल्ली पहुंचे. मगर बापू ने यह कहकर हवाई जहाज में जाने से इंकार किया कि, ‘‘जिस वाहन में करोड़ों गरीब सफर नहीं कर सकते, उसमें मैं कैसे बैठ सकता हूं?’’ और निश्चय किया कि ‘‘ मेरा काम तो रेल से भी अच्छी तरह से चल जाता है. मैं रेल से ही आउंगा.’’

गर्मी बहुत थी. सहन नहीं की जा सकती थी. 24 घंटे का रास्ता था. फिर हर स्टेशन पर राष्ट्र के पिता के दर्शन के लिए हजारों की भींड़ जमती थी. पर बापू को इन सब तकलीफों की फिकर ही कहां थी. उन्होंने मुझे बुलाया और कहने लगेः-

‘‘ देखो, इस यज्ञ में अकेले ही तुम मेरे साथ हो. यज्ञ में लगने के बाद यह पहली बार मैं दिल्ली जा रहा हूं. नोवाखली जाते वक्त मैंने निश्चित किया था कि वहीं ‘ करना या मरना’. और इसीलिए सब साथियों को अलग कर दिया था. सिर्फ तुम्हें मैंने अपने यज्ञ में शामिल होने दिया. लेकिन तुम्हें मैं नहीं छोड़ सकता, न तुम ही यह चाहती हो. इसीलिए तुम्हें मेरे साथ जाना है. सामान कम से कम लेना और छोटे से छोटा तीसरे दरजे का एक डब्बा पसंद कर लेना. मगर देखना, इसमें तुम्हारी कड़ी परीक्षा है, खयाल रखना!’’

मैंने सामान तो कम से कम लिया, मगर डब्बा पसंद करते समय खयाल हुआ कि हर स्टेशन पर दर्शन करनेवालों की भींड़ के कारण बापू घड़ी भर भी आराम नहीं ले पायेंगे. फिर हरिजन फंड भी मुझे गिनना पड़ेगा और उसकी आवाज होगी. इसलिए मैंने दो भाग वाला एक डब्बा पसंद किया. एक में सामान रख लिया, दूसरे में बापू के सोने- बैठने का इंतजाम कर दिया.

पटने से दिल्ली की गाड़ी सुबह 09.30 को चलती थी. बापू और मैं 09.25 को स्टेशन पर आये. वहां लोगों की भींड़ बहुत थी. फिर भी हम गाड़ी पर चढ़ गये. बापू तो ठहरे मिनट-मिनट का उपयोग करनेवाले. उन्होंने पांच मिनट में ही हरिजन फंड इकट्ठा कर लिया. 09.30 को गाड़ी रवाना हुई.

गर्मी के दिनों में बापू दस बजे भोजन करते थे. मैं सब तैयारियां करने के लिए डब्बे के दूसरे हिस्से में गयी. थोड़ी देर के बाद बापूजी के पास आयी. बापूजी लिखने में लगे थे. मुझे पूछने लगे- ‘‘कहां थी?’’

मैंने कहा-‘‘ यहां खाना तैयार कर रही थी.’’. तब उन्होंने खिड़की के बाहर नजर डालकर उन्होंने मुझे देखने को कहा. मुझे भी जरा सा खयाल हो आया कि मेरी कुछ न कुछ भूल हो गयी है. मैंने बाहर देखा तो मुझे लोग लटके हुए दिखायी दिये.

मीठी-सी झिड़की देकर बापू मुझसे कहने लगे-‘‘ क्या इस दूसरे कमरे के लिए तुमने कहा था?’’ मैंने कहा-‘‘ जी हां. मेरा खयाल था कि अगर इसी कमरे में मैं अपना काम करूं, बरतन मलूं, स्टोव पर दूध गरम करूं, तो आपको तकलीफ होगी. इसलिए मैंने दो कमरे का डब्बा लिया.’’

बापूजी कहने लगे- ‘‘ कितनी कमजोर दलील है. इसी का नाम है अंधा प्रेम. तुम जानती हो न कि मेरी तकलीफ बचाने के लिए हवाई जहाज का उपयोग करने से इंकार करने के बाद स्पेशल रेलगाड़ी से सफर करने की सूचना दी गयी थी. लेकिन एक स्पेशल ट्रेन के पीछे कितनी गाड़ियां रूकें और हजारों का खर्च हो जाये, यह मुझसे कैसे सहा जाये? मैं तो बड़ा लोभी हूं. आज तो तुमने सिर्फ दूसरा कमरा ही मांगा, लेकिन अगर सलून भी मांगती तो वह भी तुझे मिल जाता. मगर क्या यह तुम्हें शोभा देता? तुम्हारा रेल का यह दूसरा कमरा मांगना सलून मांगने के बराबर है. मैं जानता हूं कि तुम मेरे प्रति अत्यंत प्रेम की वजह से यह सब करती हो. लेकिन मुझे ता तुम्हें उपर चढ़ाना है. नीचे नहीं गिराना है. तुम्हें भी यह समझ लेना चाहिए. और अगर तुम समझती हो तो मैं इधर कह रहा हूं और उधर तुम्हारी आंखों से पानी बह रहा है, वह नहीं बहना चाहिए. अब इन बातों का प्रायश्चित यही है कि तुम सब सामान इस कमरे में ले लो और अगले स्टेशन पर स्टेशन मास्टर को मेरे पास बुलाना.’’

मैं तो थरथर कांप रही थी. सामान तो हटाया मगर मुझे बापू की फिकर बनी ही रही कि अब क्या होगा? कैसे होगा? दूसरे, यह फिकर थी कि कई बार बापू दूसरों की ऐसी छोटी भूलों को अपनी ही समझकर उनके लिए उपवास करते हैं, वैसे ही कहीं इसके लिए भी एकाध बार का भोजन न छोड़ दें. इसके अलावा घर के सब काम- पढ़ना, लिखना, मिट्टी के लेप लगाना, कातना, मुझे पढ़ाना- जैसे घर में, वैसे ही ट्रेन में भी होते थे!

आखिर स्टेशन आया. बापू ने स्टेशन मास्टर को बुलाया और कहने लगे-‘‘ यह लड़की मेरी पोती है. बेचारी भोलीभाली है. शायद वह अभी मुझे समझी नहीं, इसलिए उनसे दो कमरे पसंद किये. इसमें इसका दोष नहीं, मेरा ही दोष है. क्योंकि मेरे शिक्षण में कुछ अधूरापन रह गया होगा. अब उसका प्रायश्चित तो हमदोनों को करना ही होगा. हमने दूसरा कमरा खाली कर दिया है. जो लोग गाड़ी पर लटक रहे हैं, उनके लिए इस कमरे का उपयोग कीजिए, तभी मेरा दुख कम होगा.’’

स्टेशन मास्टर ने बहुत मिन्नतें कीं पर बापूजी कहां माननेवाले थे? स्टेशन मास्टर ने तो यहां तक कहा कि उन लोगों के लिए मैं दूसरा डब्बा जुड़वा देता हूं. बापू ने कहा- ‘‘ हां दूसरा डब्बा तो जुड़वा ही दीजिए, मगर इस कमरे का भी इस्तेमाल कीजिए. जिस चीज की हमें जरूरत न हो, वह ज्यादा मिल सकती हो तो भी उसका उपयोग करने में हिंसा है. मिलनेवाली सहूलियतों का उपयोग करवाकर आप क्या इस लड़की को बिगाड़ना चाहते हैं?’’ 

बेचारे स्टेशन मास्टर शर्मिंदा हो गये. उन्हें बापू का कहना मानना पड़ा.

बापू तो सारे हिंदुस्तान के पिता ठहरे. वे आराम से बैठें और उनके बच्चे लटकते हुए सफर करें, यह उनसे कैसे सहा जाता. इससे लटकते हुए लोगों को जगह मिली और मुझे अमूल्य सबक मिला कि जो सहूलियतें मिल सकती हैं, उनमें से भी कम से कम अपने उपयोग में लेनी चाहिए. उस समय वह झिड़की कड़ी तो मालूम हुई थी लेकिन आज उसकी कीमत मेरी जीवन में लगायी नहीं जा सकती. बापू ने ऐसे बारिकी भरे अहिंसा पालन से अपने जीवन को गढ़ा था. और उसमें जो थोड़ा भी फायदा उठाने का मौका मुझे मिला, वह सारी उम्र मेेरे साथ रहेगा. 

प्रस्तुतिः अनुपमा

 

गांधीजी द्वारा अपने पुत्र मणिलाल गांधी को लिखा गया पत्र.

प्रिटोरिया जेल

25 मार्च, 1909

प्रिय पुत्र 

प्रतिमास एक पत्र लिखने और एक पत्र प्राप्त करने और का अधिकार मुझे मिला है. अब मैं पत्र लिखूं कैसे? मिस्टर रीच का, मिस्टर पोलक का और तुम्हारा खयाल मुझे बारी-बारी से आया लेकिन मैंने तुम्हें ही लिखना पसंद किया. क्योंकि पढ़ने के समय मुझे तुम्हारा ही ध्यान बराबर रहता था.

मेरे बारे में तुम जरा भी चिंता मत करना. विशेष कुछ कहने का अधिकार मुझे नहीं है. मैं पूर्ण रूप से शांति में हूं. 

आशा है कि बा अच्छी हो गयी होंगी. मुझे मालूम है कि तुम्हारे पत्र यहां कुछ आये हैं, लेकिन वे मुझे नहीं दिये गये. फिर भी डिप्टी गवर्नर की उदारता से मुझे मालूम हुआ कि बा के स्वास्थ्य में सुधार हो रहा है. क्या वे फिर से चलने-फिरने लगी? बा और तुमलोग सबेरे दूध के साथ साबुदाना ले रहे होगे. 

और अब कुछ तुम्हारे बारे में कहना चाहूंगा. तुम कैसे हो?तुम पर जो जिम्मेवारी मैंने डाली है, तुम उसके सर्वथा योग्य हो और आनंद से उसे निभा रहे होगे, मुझे ऐसी आशा है. मैं जानता हूं कि तुम्हें अपनी शिक्षा के प्रति असंतोष है. जेल में मैंने यहां खूब पढ़ा है. इससे मैं यह समझा हूं कि केवल अक्षर ज्ञान ही शिक्षा नहीं है. सभी शिक्षा तो चरित्र निर्माण और कर्तव्य का बोध है.यदि यह दृष्टिकोण सही है तो मेरे विचार से बिल्कुल ठीक है तो तुम सही शिक्षा प्राप्त कर रहे हो. आजकल तुम्हें अपनी बीमार मां की सेवा का अवसर मिला है. रामदास और देवदास को भी तुम संभाल रहे हो. यदि यह काम अच्छी तरह और आनंद से तुम करते हो तो तुम्हारी आधी शिक्षा तो इसी के द्वारा पूरी हो जाती है.

संसार में तीन बातें बड़ी महत्वपूर्ण हैं. इसको प्राप्त कर तुम संसार के किसी भी कोने में जाओगे तो अपना निर्वाह कर सकोगे. ये तीन बातें हैं- अपनी आत्मा का, अपने आप का और ईश्वर का ज्ञान प्राप्त करना. इसका मतलब यह नहीं कि तुम्हें अक्षर ज्ञान नहीं मिलेगा लेकिन तुम उसी की चिंता करो, यह मैं नहीं चाहता. इसके लिए तुम्हारे पास अभी बहुत समय है.

इतना तो याद रखना कि अब से हमें गरीबी में रहना है. जितना अधिक मैं विचार करना हूं, उतना ही मुझे लगता है कि गरीबी में ही सुख है.अमीरी की तुलना में गरीबी अधिक सुखद है. 

खेत में घास और गड्ढे खोदने में पूरा समय देना. भविष्य में अपना जीवन निर्वाह उसी से करना है. मेरी इच्छा है कि अपने परिवार में तुम एक योग्य किसान बनो. सभी औजारों को साफ और सुव्यवस्थित रखना. अक्षर ज्ञान में गणित और संस्कृत पर पूरा ध्यान देना. भविष्य में संस्कृत तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध होगी. ये दोनों विषय बड़ी उम्र में सीखना कठिन है. संगीत में भी बराबर रुचि रखना. हिंदी, गुजराती और अंगरेजी के चुने हुए भजनों एवं कविताओं का एक संग्रह तैयार करना चाहिए. वर्ष के अंत में तुम्हें अपना यह संग्रह बहुत मूल्यवान प्रतीत होगा. काम की अधिकता से मनुष्य को घबराना नहीं चाहिए कि यह कैसे और पहले क्या करूं? शांत चित्त से विचारपूर्वक तुमने यदि सदगुणों को प्राप्त करने की चेष्टा की तो वे तुम्हारे लिए बहुत उपयोगी मूल्यवान प्रमाणित होंगे. तुमसे मुझे यही आशा है कि घर के लिए जो भी तुम खर्च करते होगे, उसका पैसे-पैसे का हिसाब रखते होगे.

मुझे यह भी आशा है कि तुम रोज शाम को नियमपूर्वक प्रार्थना करते होगे और रविवार को श्री वेस्ट के यहां भी प्रार्थना में जाते होगे. सूर्योदय से पहले प्रार्थना करना बहुत ही अच्छा है. प्रयत्नपूर्वक एवं निश्चित समय पर ही प्रार्थना करनी चाहिए. यह नियमितता तुम्हें अपने जीवन में आगे चलकर बहुत सहायक सिद्ध होगी.

इस पत्र को पढ़कर, अच्छी तरह समझ लेने के बाद मुझे जवाब देना. जवाब जितना लंबा चाहो, उतना लिख सकते हो. अंत में मैं अपने प्रेम सहित यह पत्र समाप्त करता हूं. 

तुम्हारा पिता

मोहनदास

"अच्छे से खाना खाओगी तो ठीक हो जाओगी…"

 

 

दिनांक- 09/11/1908

कस्तूरबा,

तुम्हारी तबीयत के बारे में श्रीधीर ने आज तार भेजा है, मेरा दिल चूर-चूर हो रहा है. लेकिन तुम्हारी चाकरी करने के लिए आ सकूं, ऐसी हालत नहीं है. सत्याग्रह की लड़ाई में मैंने सबकुछ लगा दिया है. मैं वहां आ ही नहीं सकता. जुर्माना भरूं तभी आ सकता हूं और जुर्माना तो हरगिज नहीं दिया जा सकता.

तुम हिम्मत बांधे रखना. अच्छे से खाना खाओगी तो ठीक हो जाओगी. फिर भी मेरी बदकिस्मती से तुम जाओगी ही. अगर ऐसा होगा तो मैं तुमको इतना ही लिखता हूं कि तुम जुदाई में, पर मेरे जीते जी, चल बसोगी तो मेरी बात न होगी. मेरा प्यार तुम पर इतना है कि मरने पर भी तुम मेरे मन में हमेशा जिंदा रहोगी. यह मैं तुमको पूरे विश्वास से कहता हूं.

अगर तुम्हारा जाना ही हुआ, तो तुम्हारे बाद मैं दूसरी स्त्री नहीं करनेवाला हूं. यह मैंने तुम्हें पहले भी एक-दो बार कहा है. तुम ईश्वर पर यकीन रखकर प्राण छोड़ना. तुम मरोगी तो वह भी सत्याग्रह का एक अंग होगा. मेरी लड़ाई सिर्फ राजनीतिक नहीं है, बल्कि धर्म की लड़ाई है.यानि बहुत ही पवित्र लड़ाई है. इसमें मर भी जाये तो क्या और जीते रहें तो भी क्या? तुम भी ऐसा ही मानकर अपने मन में थोड़ा भी बुरा भाव नहीं लाओगी, ऐसी मुझे उम्मीद है, तुमसे यही कामना है.

गांधी

स्रोतः लव लेटर्स, प्रकाश पंडित.

प्रस्तुति- अनुपमा.

"बापू! आदर्श क्या जमीन पर उतर कर इतना घिनौना होता है"

 

पूज्य बापू,

सादर प्रणाम.

दरभंगा जिले की आज जैसी स्थिति है, कांग्रेसी मंत्रीमंडल में आज जो यहां दमन चक्र चल रहा है, जमींदार और सरकारी कर्मचारियों का गठबंधन जनता और कार्यकर्ताओं पर जिस तरह जुल्म ढ़ा रहा है, आज इसकी ओर कोई आंख उठाकर देखने वाला नजर नहीं आता. चारों ओर अंधकार ही अंधकार है. गवर्नरी शासन में यहां आज की तरह के दमन और जुल्म होते तो इसके विरुद्ध प्रांत के राष्ट्रीय अखबारों के कालम के कालम मोटे अक्षरों से भर दिए गए होते और हमारे नेताओं की भी आवाज इसके विरुद्ध उठी होती, जैसा कि सदा आज के पहले हुआ करता था. लेकिन आज कांग्रेसी मंत्रिमंडल में जहां प्रांतीय राष्ट्रीय अखबारों ने अपना मुंह बंद कर रखा है, हमारे कांग्रेसी नेताओं को भी इस ओर देखने और सोचने की फुर्सत नहीं, जिला कांग्रेस कमिटियों का हाल तो और भी बदतर है. चुनाव की धांधली के कारण आज ऐसे लोग चोटी पर हैं जिन्हें जिला के जन जीवन का भयंकर अकल्याण भी विचलित नहीं करता, ऐसे समय में अगर हमे किसी से उम्मीद है तो वह आप ही हो सकते हैं, जिसने सदा सत्य और न्याय के लिए अपनी जान बाजी पर रखी है. 

गत मार्च से ही इस जिले के अधिकारियों का दमन चक्र हम समाजवादी कार्यकर्ताओं पर चलने लगा, लेकिन अब तो इस क्रूर दमन चक्र का शिकार हम समाजवादियों से प्रभावित किसान मजदूर भी होने लग गए हैं. गत मार्च में जबकि जिले भर में भीषण अन्न संकट प्रारंभ हो गया था, जिले के कोने-कोने में भूखी जनता दाने-दाने को तरस रही थी, चोर बाजार खूब गर्म था और जगह-जगह से भुखमरी की खबरें भी आने लगी थीं तो हमलोगों ने दरभंगा और मधुबनी में भुक्खड़ों के प्रदर्शन का आयोजन किया. सभा करके, जुलूस निकालकर अधिकारियों का ध्यान अन्न संकट की ओर आकृष्ट करने की कोशिश की, पर नतीज उल्ट हुआ. मर्ज के सही इलाज के बजाय सरकार ने दमन नीति को अख्तियार किया. कुछ दिनों की चुप्पी के बाद ही न जाने किस गुप्त मंत्रणा की प्रेरणा से जिला के अधिकारियों ने वार करना प्रारंभ किया. हमारे साथियों को ‘बिहार मेंटीनेंस ऑफ पब्लिक आर्डर एक्ट’ का शिकार बनाया जाने लगा. जिस कानून का निर्माण प्रांत में हिंदू-मुसलमान दंगा रोकने के लिए हुआ था, उसका उपयोग धड़ल्ले के साथ किसान-मजदूरों की सभाओं और रैलियों को रोकने के लिए किया जाने लगा. समाजवादी कार्यकर्ताओं को भी, जिन्होंने दंगा रोकने के लिए खून पसीना एक कर दिया और जिनके सफल प्रयास का लिखित प्रमाण पत्र भी कलक्टर ने दिया, इस कानून की जाल में फंसाया जाने लगा.

इस कानून के असली मकसद को ध्यान में रखे बिना ही, इसकी आड़ में नागरिक स्वतंत्रता का अपहण होने लगा. गांव-गांव में 144 धारा लागू कर सभी प्रकार की सभाओं और जुलूसों पर रोक लगा दी गई. इसी अभियोग में हमारे चुने हुए साथी गिरफ्तार कर जेल में बंद कर दिए गए. फलत: इस अनुचित गिरफ्तारी के विरोध में गत 18 अप्रैल को जिला के अनगिनत किसान मजदूरों ने, जिनमे हिंदू-मुसलमान, औरत मर्द सभी शामिल थे, अत्यंत उत्साह के साथ शांतिमय प्रदर्शन में भाग लिया. इस जिले के प्रदर्शनों में यह पहला मौका था जबकि लोगों ने हजारों की तादाद में हिंदू-मुसलमानों को एक साथ देखा. इतने पर भी सरकार ने इन प्रदर्शनकारियों पर दंगा फैलाने का इल्जाम लगाकर हजारों मर्द और औरतों को लाठियों से पुलिस द्वारा पिटवाया. लारियों में भर-भर कर लोगों को दूर चौरों में फिंकवाया. ठीक 1931 का दृश्य आंखों के सामने उतर आया था. इस तरह के जुल्म किसी भी सरकार के लिए शर्म की बात हो सकती है. सबसे उत्तेजना देने वाली बात तो यह हुई कि  औरतों पर बेरहमी के साथ लाठियां चलाई गई, उन्हें सड़कों पर घसीटा गया और भद्दी-भद्दी गालियां भी दी गई. राष्ट्रिय झंडों को फाड़कर उनसे जूते पोंछे गए और इस सिलसिले में उस दिन 97 व्यक्तियों को गिरफ्तार क जेल में बंद कर दिया गया.

इधर जमींदारी टूटने की चर्चा होने के समय से ही जमींदार किस तरह किसानों को बटाई जमीन से बेदखल करने पर तुले हुए हैं, इसकी जानकारी आपको प्रांतीय किसान सभा के सभापति पं रामानंद मिश्र जी के पत्र से हुई होगी. जहां किसान अपने कानूनी हक को छोड़ना नहीं चाहते, वहां जमींदार लठैतों और किराये के गुंडों के जरिय जबर्दस्ती उन्हें जमीन से बेदखल करने की चेष्टा करते हैं. साथ ही उन किसानों को मुकदमे से लाद देते हैं. जमींदारों के पास रुपए हैं. वे आसानी से इसका उपयोग कर फायदा उठा सकते हैं. इसके अतिरिक्त जमाने में ओर से छोर तक व्याप्त मंहगाई और अभाव ने धनियों के सुखों को भी कुछ काम कर दिया है, इसका असर अफसरों के दिमाग पर बड़ा गहरा है. जो सब दिन से दुखी था, उसके दुख की प्रतिक्रिया तो स्वाभाविक हो गई है, लेकिन जो सदा सुखी था, उसका थोड़ा दुख भी गंभीर प्रतिक्रिया उत्पन्न कर देता है. जमींदार की औरतें अपने पीने के लिए खुद कुएं से पानी भरें, इतना ही हममें से एक समुदाय को द्रवित कर देता है, लेकिन जो औरतें दूसरों के लिए भी अपने बचपन, जवानी और बुढ़ापे भर पानी भरती रहतीं हैं, किसी को नहीं खलता. फिर किसान और मजदूरों में थोड़ी चेतना आ रही है. इससे उन्हें ईर्ष्या होती है. खासकर दरभंगा के सबडीवीजन के एसडीओ का तो यही कहना है कि किसान आंदोलन हम जिस तरह भी होगा दबा कर ही छोड़ेंगे, यही हमें ऊपर से इंसट्रक्शन मिला है. किसानों और किसान कार्यकर्ताओं को परेशान करने के लिए सैकड़ों झूठे मुकदमे अभी जिला भर में उन पर चल रहे हैं, और उस पर से और भी नए-नए मुकदमे गढ़े जा रहे हैं. इन धांधलियों के चलते जिला भर के किसान जिस तरह से तबाह किए जा रहे हैं, उनमें से दो-चार का नमूने के तौर पर उल्लेख कर देना अनुपयुक्त न होगा. 

जगदीशपुर, थाना बहेड़ा, दरभंगा में सन 1939 ईस्वी में ही किसानों ने अपने हकों की लड़ाई की, गोलियां खाई, पंचायती हुई और तत्कालिन जिलाधिकारी ने किसानों की जमीन किसानों को दिला दी. अब किसनों की उन जमीनों को जमींदार दखल करना चाहते हैं, दर्जनों मुकदमे किसानों को तबाह करने के लिए चलाए गए, गोलियों की धमकियां दी गई, लेकिन किसानों के संगठन के आगे जमींदार को मुलायम पड़ना पड़ा. पंचायती के जिम्मे सभी मामले सुपुर्द करने की बात तय हुई. तीन पंच चुने गए. लेकिन एसडीओ बी. चौधरी के आते ही सारा मामला पलट गया. गुप्त मशविरा के बाद जमींदार ने दरख्वास्त किया कि केस का ट्रायल आन मेरिट हो. फिर क्या था? 107 की धार में किसानों से तुरंत ही लगभग डेढ़ लाख का मुचलका मांगा गया. किसानों को पकड़कर जेल में बंद कर दिया गया और उनकी गैरहाजिरी में ही उनके घरों को लूटा जाता, बिना वजन किए ही हर प्रकार का गल्ला उठा लिया जाता और सामानों की सूची भी नहीं दी जाती है. जमींदारों को साथ ले पुलिस अफसर लोगों के घरों में घुस कर उन्हें लुटते और किसानों को आतंकित कर परेशान करने की कोशिश करते हैं. कानूनी कार्यवाई भी इस प्रकार की जाती है कि कानून के बाहर के काम भी उसमें समा सकें. इस तरह की कार्यवाई समूचे जिले में की जा रही है. जिन किसान कार्यकर्ताओं को पकड़ा गया, उन्हें उसी जमींदार बाबू जटाशंकर चौधरी, जिन्होंने सन 1942 ईस्वी में कांग्रेस के श्राद्ध के उपलक्ष्य में भोज का आयोजन किया था, के यहां 24 घंटे तक बिना दाना-पानी दिए कैदी की हैसियत में कोठरी में बंद रखा और खाना मांगने पर दारोगा ने उन्हें लाठियां दी. ऐसा इसलिए किया गया जिससे किसान कार्यकर्ता का आम किसानों से असर कम हो जाए और जमींदारों का रोब उन पर छा जाए.

अटहर और इलमास नगर के भी इससे मिलते-जुलते किस्से हैं. अटहर का खूनी जमींदार जिसने 25 मार्च को एक किसान के बच्चे का चुपके से खून कर डाला, आज मजे में घूमता है, लेकिन सदर दरभंगा के एसडीओ बी. चौधरी ने वहां के किसानों को 107 धारा में जेल में बंद कर दिया है. यहां तक कि एसडीओ ने ऐसे आदमियों को भी जेल में बंद कर दिया है जिसमें दो को केवल देखने मात्र से जिलाधिकारी ने छोड़ देने का वचन दे दिया. हालांकि वे अभी तक छोड़े नहीं जा सके हैं. उनमें से एक तो दोनों आंख का अंधा है और बरसों से इस तरह सुजा हुआ है कि आसानी से चल फिर भी नहीं सकता.

खानपुर, बिक्रमपुर और उससे मिले-जुले दूसरे गांवों में एसडीओ ने 144 धारा लागू कर दी है. मिलिटरी पोस्टिंग है, किसान पीटे गए हैं और सैकड़ों की तादाद में उनकी गिरफ्तारियां हुई हैं और खुद एसडीओ की देख-रेख में किसानों की फसलों को जोत कर बर्बाद कर दिया गया है, ऐसी हालत में, मैं वहां एसडीओ के फैसले के विरुद्ध किसानों को यह सलाह देने गया कि…लेकिन मेरे वहां पहां पहुंचते ही समस्तीपुर एसडीओ बाबू बलराम सिंह भी पहुंचे और उन्होंने मुझे सभा करने का अपराधी बताया. मैंने उन्हें बताया कि सभा करने की बात तो सोलह आने गलत है. इस पर उनकी भवें तन गईं और उन्होंने मुझसे पूछा-एम आई एरेस्ट देन! यह सवाल मुझे बेतुका लगा, मैंने  कहा-दैट मे बी बेस्ट नोन टू योर सेल्फ. बस, मुझे लारी पर सवार होने के लिए मजबूर किया गया और किराए की मेरी कार वहीं पड़ी रही. मुझे ही नहीं, मुझे खाना खिलाने वाले साथी को भी गिरफ्तार किया गया और आज मैं सी क्लास क्रिमनल की जिंदगी व्यतीत कर रहा हूं. क्या यही वो हुकूमत है, जिसके लिए आज सोलह साल वर्षों से कांग्रेस  के एक ईमान्दार सिपाही की हैसियत से लड़ता आया हूं. क्या यह सच नहीं कि जो कुत्ते हमारा मांस नोच कर आज तक मोटे हुए, आज भी मैं उनका शिकार हूं और पहले जहां दुश्मनों की छ्त्र-छाया में वे ऐसा करते थे, आज यह सब हमारे दोस्तों के इशारे पर हो रहा है.

बापू! आदर्श क्या जमीन पर उतर कर इतना घिनौना होता है, जिससे नफरत पैदा हो जाए? आप आशा के आखिरी धागे हैं जिसके टूटते ही उस भयंकर विस्फोट की संभावना मालूम पड़ती है जो बरसों के साथी और मित्र को एक दूसरे का जानी दुश्मन बना देगा. एक के हाथ में सरकारी संगीनें हैं और दूसरे के तलहत्थी पर हजार बार मातृभूमि पर चढ़ाया हुआ उच्छिष्ट सा.

आपका

सूर्यनारायण

(फाइल नं. 6.7.1947. राज्य अभिलेखागार)

देस हुआ बेगाना

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वैसे तो महज बेघर होना ही अपने आप में बहुत बड़ा अभिशाप है, लेकिन उन लाखों लोगों पर क्या बीतती होगी जिनको इस देश में तकरीबन आधी सदी रहने के बाद भी देश का नागरिक तक नहीं माना जाता. उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड और नेपाल की सीमा से लगे कई गांव हैं जिनमें रहने वाले लोग देखने में तो आम हिंदुस्तानियों जैसे ही लगते हैं लेकिन तकनीकी तौर पर वे अब भी देश के नागरिक नहीं हैं.

लाखों लोगों की जिंदगी से जुड़े इस मसले की जड़ें करीब 50 साल पीछे जाती हैं. 1963 में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) में उथल-पुथल मचनी शुरू हुई तो तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इन लोगों को भारत बुलाकर बसाने का सिलसिला शुरू किया. बांग्लादेश के खुलना, फरीदपुर, ढाका, चटगांव आदि जिलों से आकर हजारों परिवार उत्तर प्रदेश के पीलीभीत और उत्तराखंड के ऊधमसिंह नगर जिलों में बसे. लेकिन आज इन एक लाख से अधिक परिवारों में से बमुश्किल 15-20 हजार के पास ही भारतीय नागरिकता है.

नागरिकता न मिलने से इनकी जिंदगी में कई तरह के दुख हैं. बंगाली समुदाय के इन परिवारों के युवकों को न तो सरकारी नौकरी ही मिल पा रही है और न ही दूसरी अन्य सुविधाएं. हां, लोकसभा और विधानसभा चुनाव के वक्त अचानक नेताओं को इनका ध्यान आता है और उस दौरान इनकी नागरिकता के मुद्दे पर जमकर राजनीतिक रोटियां सेकी जाती हैं. कारण स्पष्ट है. इनके पास नागरिकता भले ही नहीं हो लेकिन मतदाता सूची में इनका नाम है. इनका मतदाता पहचान पत्र बना हुआ है. वैसे तो निर्वाचन आयोग का नियम है कि वही व्यक्ति चुनाव में हिस्सा ले सकता है जो भारत का नागरिक हो. लेकिन यहां यह नियम शायद लागू नहीं होता. लाखों की संख्या में मौजूद इन लोगों के पास भारत की नागरिकता तो नहीं है लेकिन वे चुनाव में वोट जरूर डालते हैं. उनका नाम वोटर लिस्ट में तो है ही, निर्वाचन आयोग की ओर से जारी किया गया पहचान पत्र भी उनके पास है. पूरे बंगाली समुदाय की यही चीज नेताओं व राजनीतिक पार्टियों को लुभाने का काम करती हैं. राजनेताओं और भ्रष्ट अधिकारियों की मिलीभगत से लोग राशन कार्ड, वोटर आईडी और ड्राइविंग लाइसेंस जैसे दस्तावेज बड़ी आसानी से बना लेते हैं.

[box]‘स्थानीय नेता बंगाली परिवारों का नागरिकता प्रमाण पत्र बनवाने के लिए भले ही तत्पर न दिखते हों पर वोटर कार्ड बनवाने में उनकी प्रमुख भूमिका होती है'[/box]

स्थानीय पत्रकार महबूब मियां बताते हैं, ‘स्थानीय नेता बंगाली परिवारों का नागरिकता प्रमाण पत्र बनवाने के लिए भले ही तत्पर न दिखते हों पर वोटर लिस्ट में नाम जुड़वाने से लेकर वोटर कार्ड बनवाने तक में उनकी प्रमुख भूमिका होती है. इसके लिए नेता अधिकारियों पर दबाव बनाने से लेकर सारे दूसरे हथकंडे तक अपनाते हैं. लेकिन जैसे ही चुनाव खत्म होते हैं नागरिकता और इनकी सुविधाओं व जरूरतों का मुद्दा नेताओं की प्राथमिकता से कोसों दूर चला जाता है.’

ऐसा भी नहीं है कि दुश्वारियां केवल उन्हीं परिवारों के लिए हैं जिनके पास नागरिकता नहीं है बल्कि सरकारी उपेक्षा के कारण वे परिवार भी परेशान हैं जिनके पास नागरिकता है. सरकार ने सन 1964 में पीलीभीत व ऊधमसिंह नगर की सीमा पर शारदा नदी के किनारे इन परिवारों को बसाना शुरू किया था. उस समय जिन परिवारों को भारत सरकार की ओर से नागरिकता दी गई थी उनमें से प्रत्येक परिवार को भरण-पोषण के लिए पांच-पांच एकड़ जमीन, एक जोड़ी बैल, खेती के लिए बीज, जंगल में रहने के कारण जान-माल की सुरक्षा के लिए बंदूकों के लाइसेंस सहित जरूरी राशन तक उपलब्ध कराया गया था. यह सिलसिला कुछ माह तक चला जब तक कि नागरिकता पाए परिवार खुद अपने खेतों में अनाज नहीं उगाने लगे. लेकिन इन परिवारों की खुशियां क्षणिक थीं. 1989 में शारदा नदी में आई भयंकर बाढ़ के कारण पीलीभीत जिले के रमनगरा, गभिया सहराई, कुतिया कबर सहित कई गांवों की खेती योग्य वह जमीन जो सरकार की ओर से आवंटित हुई थी, नदी में ही समा गई. इन गांवों की तो खेती गई लेकिन प्रकृति की सबसे अधिक मार गुन्हान गांव पर पड़ी. करीब 3000 की आबादी वाला यह गांव पूरा ही नदी में समा गया. गुन्हान के लोगों को शारदा नदी व शारदा बैराज के बीच स्थित सिंचाई विभाग की जमीन पर अस्थायी रूप से करीब 23 साल पूर्व बसाया गया था. ये आज भी वहीं रहने को मजबूर हैं. 80 साल के बुजुर्ग जगदीश कहते हैं, ‘अस्थायी रूप से जगह देते समय प्रशासन की ओर से कहा गया था कि कुछ समय बाद सबको स्थायी जगह रहने को दी जाएगी लेकिन वह दिन कभी नहीं आया.’

जिन लोगों के पास नागरिकता नहीं है, उनकी परेशानियों का तो कोई पारावार ही नहीं है. 70 साल के हरीपद मांझी तकरीबन 22 साल की उम्र में बांग्लादेश के खुलना जिले से आए थे. वहां के हालात ऐसे थे कि पत्नी व बच्चों की जान बचा कर खाली हाथ ही भागना पड़ा. वे बताते हैं, ‘सरकार ने सबसे पहले मध्य प्रदेश के माना कैंप में रखा. माना कैंप पहाड़ पर था जहां पर खेतीबाड़ी संभव नहीं थी. लिहाजा दो साल बाद परिवार सहित पश्चिम बंगाल के सुंदरबन चले गए. वहां  छह-सात महीने ही रहे थे कि समस्याएं शुरू हो गईं. स्थानीय लोगों ने वहां से हटने का दबाव बनाना शुरू कर दिया.’ वे आगे बताते हैं कि स्थानीय निवासियों का विरोध अभी शांत भी नहीं हो पाया था कि एक दिन पुलिसवालों ने आकर बंगाली समुदाय की झोपड़ियों में आग लगा दी. झोपड़ियां जलाने के बाद भी जब लोग नहीं हटे तो पुलिसवालों ने पिटाई करके सबको भगा दिया. मांझी कहते हैं, सुंदरबन से बेघर होने के बाद कई परिवार पीलीभीत आ गए. यहां आने के बाद भी विपत्तियों ने साथ नहीं छोड़ा. न तो परिवार पालने के लिए जमीन मिली और न ही वे सरकारी सुविधाएं जो उस समय सरकार दे रही थी.’ हरीपद मांझी के पास नागरिकता भले ही नहीं है लेकिन सरकारी कर्मचारियों ने उनका राशन कार्ड जरूर बना दिया है. घास-फूस की झोपड़ी में रहने वाले हरीपद का राशन कार्ड सरकारी कर्मचारियों ने बनाया भी तो गरीबी रेखा से ऊपर का. लिहाजा हरीपद के दो बेटे दिल्ली में सिलाई करके परिवार का पेट पाल रहे हैं.

[box]अपना सब कुछ छोड़कर एक बेहतर जिंदगी की आस में भारत आए ये परिवार एक बार फिर उसी स्थिति में पहुंच गए हैं जिसमें वे बांग्लादेश छोड़ते वक्त थे[/box]

वहीं ऊधमसिंह नगर के नारायण नगर में रहने वाले 61 साल के सुरेन हलधर बांग्लादेश के फरीदपुर जिले से अपने मां-बाप के साथ बेहतर जिंदगी की चाह लिए 1964 में हिंदुस्तान आए थे. लेकिन दिक्कतें खत्म होने के बजाय बढ़ती गईं. सुरेन हलधर के बेटे अधिर बताते हैं, ‘यहां आने के बाद सरकार की ओर से सबसे पहले पश्चिम बंगाल के मालदा जिले में रोका गया. वहां कुछ दिन रहने के बाद सरकार की ओर से रुद्रपुर कैंप भेजा गया. ‘रुद्रपुर कैंप से जमीन देने की बात कह कर उन्हें नारायणनगर भेजा गया लेकिन यहां न तो जमीन मिली और न ही नागरिकता. उनके मुताबिक सरकार की ओर से बीपीएल कार्ड बनाया गया था लेकिन कुछ माह पूर्व कार्ड यह कहते हुए निरस्त कर दिया गया कि नागरिकता का प्रमाण पत्र नहीं है. नागरिकता न होने के बावजूद बीपीएल कार्ड के आधार पर उन्हें सरकार की ओर से इंदिरा आवास आवंटित किया गया लेकिन उसके लिए भी महज 27 हजार रुपये ही अधिकारियों की ओर से दिए गए. परिवार का पेट पालने के लिए अधिर घर में ही एक छोटी-सी परचून की दुकान चलाते हैं. घर के पास स्थित वन विभाग की जमीन पर ही उनका पूरा मकान बना है. वे हमेशा इस डर में जीते हैं कि पता नहीं कब वन विभाग उन्हें बेघर कर दे. परिवार के छह लोगों का पेट पालने के लिए दुकान जब छोटी पड़ने लगी तो तीन बेटों ने मजदूरी करने के लिए गुजरात का रास्ता पकड़ लिया.

अपना सब कुछ बांग्लादेश में छोड़ कर एक बेहतर जिंदगी जीने की आस लगाए हिंदुस्तान आए ये परिवार एक बार फिर उसी स्थिति में पहुंच गए हैं जिसमें वे यहां आते वक्त थे. रमनगरा के भूदेव दास बताते हैं, ‘सबसे बड़ी विडंबना यह है कि बाढ़ के बाद पानी जब कम हुआ तो नदी की कटान के कारण पूरी जमीन नदी में समा गई लेकिन कुछ साल बाद जब नदी ने अपना रास्ता फिर बदला तो जो खेत नदी में गए थे वो फिर से बाहर आ गए. किसान जब अपनी जमीनों पर दोबारा खेती करने गए तो वन विभाग ने उन्हें रोक दिया.’  वन विभाग का तर्क है कि जो जमीन नदी की कटान के बाद निकली है वह उसकी है. भूदेव कहते हैं, ‘जमीन होने के बावजूद सैकड़ों की संख्या में ये परिवार भूमिहीन होकर दरबदर की ठोकरें खा रहे हैं. जमीन जाने के बाद इन परिवारों के सामने सबसे बड़ी समस्या परिवार का पेट पालने की है. बच्चों का पेट पालने की जुगाड़ में कहीं बाहर प्राइवेट नौकरी करने जाते भी हैं तो जैसे ही लोगों को पता चलता है कि ये बांग्लादेश से हिंदुस्तान में रहने आए हैं तो इन्हें शक की निगाह से देखा जाता है.’

अब इन लोगों ने अपने हक की लड़ाई शुरू की है. जमीन की लड़ाई लड़ रहे स्थानीय युवक विवेक बताते हैं, ‘सिंचाई विभाग की 1,171 एकड़ जमीन यहां खाली पड़ी थी. काफी प्रयास के बाद यह जमीन राजस्व विभाग को स्थानांतरित हो गई ताकि उन परिवारों को दी जा सके जिनकी जमीनें नदी में समा गई हैं. राजस्व विभाग को मिली जमीन से बंगाली परिवारों को सरकार की ओर से पट्टों का आवंटन शुरू हुआ ही था कि तहसील का एक कर्मचारी आवंटन के खिलाफ कोर्ट चला गया.’ कोर्ट ने यथास्थिति बनाए रखने का निर्देश दे दिया, जिसके बाद से पूरा मामला कोर्ट में ही विचाराधीन है.

पढ़ाई के लिए इन परिवारों के बच्चों को प्रशासन की ओर से अस्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र जारी किया जाता है. लेकिन यह भी आसानी से हासिल नहीं होता. दसवीं का छात्र राहुल बताता है कि पिछले साल उसे बोर्ड परीक्षा का फॉर्म भरने के लिए अस्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र बनवाना था जिसे हासिल करने के लिए उसने अपने गांव से लेकर तहसील मुख्यालय पूरनपुर, जो करीब 35 किलोमीटर दूर है, तक के चक्कर लगाए. वह बताता है, ‘चार चक्कर लगाए, लेकिन प्रमाण पत्र नहीं बन सका. बिना प्रमाण पत्र के बोर्ड का फार्म भरने के कारण निरस्त कर दिया गया’. इस तरह की स्थिति का सामना हर साल हजारों छात्र-छात्राओं को करना होता है.

लालफीताशाही ने यहां के निवासियों की पूरी जिंदगी को मखौल में तब्दील कर दिया है. पैसा खर्च करके युवक पहले तो स्थायी निवास प्रमाण पत्र बनवाते हैं उसके बाद पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस आदि वे सभी जरूरी कागजात बनवा लेते हैं जिन्हें बनवाने के लिए भारतीय नागरिकता अनिवार्य है. एक-दो नहीं बल्कि हजारों की संख्या में युवकों ने नागरिकता न होने के बावजूद अपना ड्राइविंग लाइसेंस व पैनकार्ड बनवा लिया है. इन कागजात के सहारे युवक नौकरी में भी अपना भाग्य आजमाते हैं. लेकिन अस्थायी निवास प्रमाण पत्र होने के कारण उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया जाता है क्योंकि इन प्रमाण पत्रों में साफ-साफ लिखा होता है कि यह शैक्षिक संस्थान में प्रवेश के लिए है, न कि नागरिकता के लिए.

नागरिकता का मामला सिटिजनशिप एक्ट 1955 में वर्णित है तथा यह केंद्र सरकार के अधिकार क्षेत्र का विषय है. साफ है कि नागरिकता का मामला भले ही भारत सरकार का हो लेकिन बिना नागरिकता के ही कई परिवार भारत सरकार की योजनाओं का लाभ उठा रहे हैं. भारत सरकार की महत्वाकांक्षी योजना इंदिरा आवास का लाभ सरकारी कर्मचारियों को चंद रुपये देकर बंगाली समुदाय के लोग बड़ी आसानी से उठा लेते हैं. इसका प्रमाण बंगाली कालोनियों में जाकर आसानी से देखने को मिलता है, जहां एक-दो नहीं बल्कि कई कमरे इंदिरा आवास की सरकारी मदद से बने देखने को मिलते हैं.

बंगाली समुदाय के लाखों लोगों की इस बदहाली पर पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी कहते हैं, ‘बांग्लादेश में हालात खराब होने पर मेरी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने हिंदू परिवारों को यहां बुला कर बसाने का काम शुरू किया था जो बखूबी हुआ. जो लोग शुरू में आ गए, उन्हें तो नागरिकता मिल गई लेकिन 1964 के बाद आगे के 15 सालों तक बंगाली परिवारों का पलायन होता रहा. समस्या इसलिए है कि सभी परिवार एक साथ नहीं आ पाए. जो बाद में आए नागरिकता की समस्या उन्हीं के लिए है.’ वे आगे कहते हैं, संसद में हमने कई बार इस मुद्दे को उठाया है, लेकिन केंद्र सरकार इस पर ध्यान ही नहीं दे रही, क्योंकि नागरिकता का मामला केंद्र सरकार का है. गृहमंत्री से भी मुलाकात की लेकिन समस्या का हल नहीं निकल सका.’

कैसे मिलती है नागरिकता

भारत की नागरिकता का जिक्र संविधान के अनुच्छेद पांच से 11 में है. इसमें नागरिकता के लिए जिन शर्तों का उल्लेख है उनमें एक प्रावधान नैचरलाइजेशन का भी है. इसके मुताबिक ऐसा कोई भी विदेशी व्यक्ति भारत की नागरिकता प्राप्त कर सकता है जो 12 साल से देश में रह रहा हो. यह जरूरी है कि आवेदक 14 साल की अवधि में कुल 11 साल के लिए भारत में रहा हो और आवेदन से पहले उसने 12 महीने का समय भारत में बिताया हो.

व्यथा कथा 1: दीपक बाड़ोई

बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) के फरीदपुर जिले के बनगांव से आए दीपक बाड़ोई जीप चलाकर अपनी विधवा मां, पत्नी तथा बच्चों का पेट पाल रहे हैं. दीपक बताते हैं, ‘जीप चलाने के लिए ड्राइविंग लाइसेंस की आवश्यकता थी, लिहाजा आरटीओ कार्यालय में कुछ रुपये देकर उसे भी हासिल कर लिया.’ इतना ही नहीं, दीपक के पास राशन कार्ड के साथ-साथ चुनाव के लिए फोटो पहचान पत्र भी है जो उनकी नागरिकता को साबित करता है. इसके बावजूद उनके पास स्थायी नागरिकता आज तक नहीं है.

दीपक बताते हैं, ‘2005 में हाईस्कूल का फार्म भरने के लिए अस्थायी नागरिकता प्रमाण पत्र बनवाना था जो 400 रुपये खर्च करने के बाद बना.’ बांग्लादेश से आने के बाद सरकार की ओर से दीपक के परिवार को मध्य प्रदेश के माना कैंप में रखा गया. कैंप में रहने के लिए भारत सरकार के पुनर्वास मंत्रालय की ओर से कार्ड जारी किया गया. दीपक की बुजुर्ग मां सुचित्रा बताती हैं, ‘कैंप के पास पहाड़ पर कुछ जमीन भी आवंटित हुई लेकिन वह खेती के योग्य नहीं थी, इसलिए 1975 में परिवार को लेकर पीलीभीत आ गए. यहां आने के बाद सरकार की ओर से जारी कार्ड के आधार पर नागरिकता हासिल करने का प्रयास शुरू किया लेकिन सफलता नहीं मिली.’ नागरिकता न होने के कारण उन्हें पीलीभीत में सरकार की ओर से न तो खेत ही आवंटित हुआ और न ही दूसरी अन्य सुविधाएं मिलीं. 1964 में पुनर्वास मंत्रालय की ओर से उन्हें जारी कार्ड भी अब जर्जर अवस्था में पहुंच गया है जिसे अपने कलेजे से लगा कर सुचित्रा और दीपक नागरिकता की आस में अधिकारियों की चौखट पर भटकते रहते हैं.

व्यथा कथा 2: धीरेंद्र विश्वास

पीलीभीत जिले में रमनगरा के रहने वाले 24 साल के धीरेंद्र विश्वास के परिवार की एक पूरी पीढ़ी का जीवन बिना नागरिकता के ही गुजर गया है. ग्रैजुएट धीरेंद्र बताते हैं कि 2008 में एसएसबी में सिपाहियों की जगह निकली. इसमें बताया गया था कि बॉर्डर एरिया के युवकों को इसमें वरीयता दी जाएगी. धीरेंद्र का गांव रमनगरा भी नेपाल की सीमा से लगा हुआ है लिहाजा उन्होंने भी अपना फॉर्म भर दिया. फॉर्म के साथ उन्होंने पहचान पत्र के रूप में राशन कार्ड, पैन कार्ड, बैंक पास बुक की फोटो कॉपी और अस्थायी निवास प्रमाण पत्र  लगाया. इतना सब होने के बावजूद धीरेंद्र का फॉर्म यह कहते हुए रद्द कर दिया गया कि उनके पास भारतीय नागरिकता ही नहीं है.

धीरेंद्र बताते हैं कि सिर्फ एसएसबी में ही नहीं बल्कि कई सरकारी नौकरियों में रुपये खर्च करके फॉर्म आदि भरने के बाद लेकिन हर बार उनका फॉर्म नागरिकता के अभाव में रद्द कर दिया गया. थक हार कर धीरेंद्र घर बैठ गए. परिवार का पेट पालने की जिम्मेदारी उन पर ही है, लिहाजा उन्होंने गांव में ही एक छोटी-सी परचून की दुकान खोल ली है.

कच्ची कॉलोनी पक्का फायदा

कोहरे और धुंध भरी दिसंबर की एक सर्द शाम. दिल्ली के शाहीन बाग इलाके का नजारा ऐसा है मानो कोई भयानक भूकंप यहां सब कुछ तबाह कर गया हो. हाड़ जमाने वाली ठंड में कांपते सैकड़ों परिवार अपने उजड़े मकानों और बिखरे सामान के बीच जमीन पर बैठे हैं. लगभग 500 परिवारों का यह समूह दिल्ली की उस बहुसंख्यक प्रवासी आबादी का हिस्सा है जो देश के दूसरे राज्यों से काम की तलाश में इस शहर तक पहुंचती है और फिर यहीं की होकर रह जाती है. ये 500 परिवार पिछले 10-12 साल से यहां रह रहे हैं जहां आज बर्बादी का मंजर दिख रहा है. यह प्रलय किसी प्राकृतिक आपदा के कारण नहीं बल्कि दिल्ली सरकार की अवैध बस्तियों को हटाने की मुहिम का नतीजा है. बिना कोई नोटिस दिए ही बीती तीन दिसंबर को दिल्ली सरकार द्वारा यहां बने लगभग 500 घर तोड़ दिए गए, जबकि यहां के लोगों की मानें तो 2010 में सरकार ने उनसे यह वादा किया था कि उनकी बस्ती को नियमित कर दिया जाएगा.

इसी बस्ती में रहने वाले 30 वर्षीय दिलबर कुछ कूड़ा इकट्ठा करके उसे जला रहे हैं. उन्होंने अपने दोनों बच्चों को इस आग की गर्माहट के पास बैठा दिया है. दिलबर लगभग आठ साल पहले असम से यहां आए थे. तब से ही वे कूड़ा बेचने का काम कर रहे हैं. वे बताते हैं कि इस इलाके में अपने रहने लायक जगह पाने के लिए उन्होंने पुलिस को 5,000 रु दिए थे. दिलबर कहते हैं, ‘अब भी मैं हर महीने 500 रु पुलिसवालों को देता हूं.’
पुलिस को नियमित रूप से पैसा देने वालों में दिलबर अकेले नहीं हैं. यहां रहने वाले लगभग सभी परिवार पुलिस को हर महीने 500 से 700 रु दिया करते थे. अब उस पुलिस ने इन परिवारों पर इतना रहम जरूर किया है कि रात होने पर इन्हें झुग्गी लगाने की अनुमति दे दी है. लेकिन साथ ही यह निर्देश भी दिए हैं कि सुबह होते ही ये लोग अपनी झुग्गियां हटा लें. पुलिस के इन निर्देशों के अनुसार ही ये लोग इस भीषण ठंड में बस थोड़ा और अंधेरा हो जाने के इंतजार में बैठे हैं ताकि रात बिताने लायक अपनी झुग्गी बना सकें.

झुग्गी बस्तियों का तोड़ा जाना दिल्ली के लिए कोई नई बात नहीं, लेकिन तीन दिसंबर के दिन जब इस बस्ती को तोड़ा जा रहा था तो उस वक्त यहीं से कुछ किलोमीटर की दूरी पर कई अवैध निर्माण कार्य प्रगति पर थे. अब भी हैं. दरअसल दिल्ली में बड़े बिल्डरों और रसूखदार लोगों द्वारा अवैध कॉलोनियों में बहुमंजिला इमारतें लगातार बनाई जा रही हैं और सरकार उन्हें सिर्फ अनदेखा ही नहीं कर रही बल्कि अपनी मौन सहमति देकर उनका समर्थन भी कर रही है. 2010 में हुए राष्ट्रमंडल खेलों के चलते जब दिल्ली को सुंदर बनाने के लिए एक तरफ तीन लाख से ज्यादा झुग्गीवालों को बेघर करके उनकी झुग्गियां ध्वस्त की गईं तो उस वक्त भी अवैध कॉलोनियों में लाखों की कीमत वाले भवन बन रहे थे और बिक रहे थे.

कानूनी तौर पर देखा जाए तो अवैध कॉलोनियों का निर्माण भी उतना ही गलत है जितना कि झुग्गी-झोपड़ियों का. लेकिन इन दोनों में एक मूल फर्क यह है कि जहां झुग्गियों को पहली नजर में ही पहचान कर अवैध घोषित किया जा सकता है वहीं अनधिकृत कॉलोनियों को एक नजर में पहचानना मुश्किल होता है. इसके अलावा दिल्ली आने वाले पर्यटकों की नजर में भी अनधिकृत कॉलोनियां वैसे नहीं अखरा करतीं जैसे ये झुग्गियां अखरती हैं और दिल्ली सरकार को शर्मसार करती हैं. अनधिकृत कॉलोनियों का आलम यह है कि पूर्व में कई ऐसी कॉलोनियों को नियमित करने के बाद भी दिल्ली की लगभग 50 लाख आबादी इन्हीं में रह रही है.

दिल्ली में आज 1,639 अनधिकृत कॉलोनियां हैं. इनमें रहने वाली शहर की एक-चौथाई आबादी यहां की राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है

यह समस्या कितनी पुरानी है इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि जब 1957 में दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) का गठन हुआ तब भी दिल्ली में कई ऐसी कॉलोनियां मौजूद थीं. 1962-63 में पहली बार 103 अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित किया गया. इसके बाद भी इन कॉलोनियों के बसने का सिलसिला लगातार जारी रहा और 1977 में फिर से 567 अनधिकृत कॉलोनियों को नियमित करने की घोषणा कर दी गई. लगभग 670 कॉलोनियों को नियमित करने के बाद भी आज दिल्ली में सरकारी आंकड़ों के ही मुताबिक 1,639 अनधिकृत कॉलोनियां मौजूद हैं. दिल्ली की लगभग एक-चौथाई आबादी इन्हीं बस्तियों में रह रही है जो स्वाभाविक तौर पर यहां की राजनीति को बड़े पैमाने पर प्रभावित करती है. उदाहरण के लिए, शीला दीक्षित सरकार ने 2008 के विधानसभा चुनावों से ठीक दो महीने पहले यह घोषणा की थी कि यदि कांग्रेस तीसरी बार सत्ता में आती है तो इन कॉलोनियों को नियमित कर दिया जाएगा. सरकार द्वारा उस वक्त इनमें से अधिकतर बस्तियों को नियमितीकरण के अस्थायी प्रमाण पत्र भी बांटे गए. जानकारों का मानना है कि कांग्रेस की जीत के पीछे यही सबसे बड़ा कारण बना क्योंकि यह पहला मौका था जब इन अनधिकृत बस्तियों में रहने वाले लाखों लोगों को नियमितीकरण से संबंधित कोई सरकारी प्रमाण पत्र प्राप्त हुआ हो.

कांग्रेस का यह दांव सफल रहा और वह लगातार तीसरी बार दिल्ली की सत्ता हासिल करने में सफल हो गई. लेकिन 2008 से चार साल बीत जाने तक भी इस संबंध में सरकार द्वारा कोई कदम नहीं उठाया गया. जब कुछ महीनों पहले हुए निकाय चुनावों में कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा और अगले विधान सभा चुनाव भी नजदीक आने लगे तो दिल्ली सरकार को एक बार फिर से अपने ब्रह्मास्त्र की याद आई और सितंबर में उसने 895 बस्तियों को नियमित करने की घोषणा करके इनकी सूची जारी कर दी. तुगलकाबाद इलाके की रेसिडेंट वेलफेयर असोसिएशन के उपाध्यक्ष सोमवीर चौधरी कहते हैं, ‘नियमितीकरण की ये घोषणाएं मात्र राजनीतिक चाल हैं. दिल्ली के हर क्षेत्र में खुले आम अवैध निर्माण कार्य हो रहा है और सरकार उस पर कोई भी रोक नहीं लगाती. इस अवैध निर्माण से पुलिस से लेकर पार्षद और विधायक तक की मोटी कमाई होती है, इसलिए अनधिकृत बस्तियां अस्तित्व में आती हैं. फिर जब लाखों लोग यहां बस जाते हैं तो सरकार इनके नियमितीकरण को ही मुद्दा बनाकर लंबे समय तक राजनीतिक लाभ लेती है.’

यानी दिल्ली की एक-चौथाई आबादी का निवास बन चुकी इन अनधिकृत बस्तियों का अस्तित्व कोई एक रात का नतीजा नहीं है. यह निरंतर होने वाली प्रक्रिया है. रोजगार की तलाश में अन्य राज्यों से दिल्ली आकर बसने वालों की संख्या बहुत अधिक रही है. दिल्ली सरकार इन सभी प्रवासियों को रहने लायक मकान देने में हमेशा से विफल रही. ऐसे में भूमाफियाओं ने निजी और सरकारी दोनों ही जमीनों पर भवन बनाकर बेचने का काम शुरू किया. स्थानीय नेताओं ने अपना वोट बैंक बढ़ाने के लिए इन भूमाफियाओं को संरक्षण दिया और लोग इन बस्तियों में बसते चले गए. दिल्ली के नामी आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल कहते हैं, ‘बेईमानी के इस काम में लोक प्राधिकारियों की बड़ी ही ईमानदार साझेदारी है. इन बस्तियों को बसाकर नेताओं ने अपने राजनीतिक हित साधे हैं तो अधिकारियों ने आर्थिक मुनाफा कमाया है.’ चांदनी चौक इलाके का उदाहरण देते हुए सुभाष बताते हैं, ‘एक बार एक इंजीनियर ने इन सभी अवैध निर्माण कार्यों पर रोक लगा दी थी. उन इंजीनियर साहब को लोग मुल्ला जी के नाम से जानते थे. जब भूमाफिया कई बार रिश्वत की पेशकश से भी मुल्ला जी को नहीं खरीद पाए तो उन पर जानलेवा हमला करवाया गया. उनकी हालत इतनी नाजुक हो गई कि उन्हें लंबे समय तक अस्पताल में रहना पड़ा. इस बीच किसी नए इंजीनियर को प्रतिनियुक्त कर दिया गया और अवैध निर्माण का धंधा फिर से शुरू हो गया. इससे आप अंदाजा लगा सकते हैं कि कैसे इन भूमाफियाओं को हर तरफ से संरक्षण मिला हुआ है.’

सूचना के अधिकार के तहत मिली जानकारी बताती है कि हाल ही में नियमित की गई 895 अनधिकृत बस्तियों में से 583 बस्तियां सरकारी भूमि पर कब्जा करके बनाई गई हैं. जाहिर है कि जब इन बस्तियों को बनाया जा रहा था तो स्थानीय प्रशासन के संज्ञान में भी यह बात जरूर रही होगी. चौधरी बताते हैं, ‘ऐसे निर्माण कार्यों में दिल्ली नगर निगम, स्थानीय पुलिस, पार्षद, विधायक और जिलाधिकारी तक की मिलीभगत होती है. पार्षद की तो कमाई का सबसे बड़ा साधन ही यह अवैध निर्माण होते हैं. इसी कमाई के दम पर तो पार्षद जैसे छोटे-से चुनाव में भी प्रत्याशी करोड़ों रुपये खर्च करने से नहीं हिचकते.’ चौधरी आगे बताते हैं, ‘किसी भी अवैध निर्माण पर पार्षद और अन्य लोगों तक उनका हिस्सा पहुंचा दिया जाता है. यदि कोई निर्माण बिना इनको पैसे दिए हो रहा हो तो पार्षद तक उसके चेले यह खबर पहुंचा देते हैं. पार्षद फिर इंजीनियर और स्थानीय पुलिस को बुला कर अवैध निर्माण करने वाले को धमकाते हैं और अपना हिस्सा वसूल लेते हैं. निर्माण करने वाले भी यह पैसा चुपचाप दे दिया करते हैं क्योंकि उनको पता होता है कि यह गैरकानूनी काम बिना पैसे दिए नहीं हो सकता.’

संगम विहार भी दिल्ली की एक ऐसी ही अनधिकृत बस्ती है. इसे एशिया की सबसे बड़ी अनधिकृत बस्ती भी कहा जाता है. यहां रहने वाले आम आदमी पार्टी के युवा कार्यकर्ता राहुल बताते हैं, ‘इन बस्तियों में रहने वाले लोगों की कोई भी गलती नहीं है. इन लोगों ने तो अपनी कमाई खर्च करके मकान खरीदे हैं. यदि गलती है तो उन भूमाफियाओं की है जिन्होंने यहां भवन बनाए हैं और बेच रहे हैं.’ अनधिकृत बस्तियों में मकान और जमीन का दाम अपेक्षाकृत कम होता है जिसके चलते आम आदमी यहां आसानी से बस जाता है. पश्चिमी दिल्ली में स्थित ‘भाग्य विहार’ नामक एक अनधिकृत बस्ती में रहने वाले अजीत कुमार सिन्हा बताते हैं, ‘मैं रेलवे में तृतीय श्रेणी का कर्मचारी था. सरकारी वेतन से मैंने तीन बच्चों को पढ़ा-लिखा कर अपने पैरों पर खड़ा होने लायक बनाया. इसके बाद मेरी हैसियत नहीं थी कि मैं दिल्ली में घर भी खरीद सकूं. ऐसे में बस यहीं मुझे घर बनाने लायक जमीन मिल रही थी तो 1999 में मैंने इस बस्ती में 90 हजार रु में 100 गज जमीन खरीद ली.’ भाग्य विहार नामक इस बस्ती को इस बार भी नियमित नहीं किया गया है, लेकिन यहां के लोगों की मानें तो उनको नियमितीकरण की कोई ज्यादा आवश्यकता भी नहीं है. नियमितीकरण का लाभ यह है कि ये लोग अपनी जमीन की रजिस्ट्री करवा सकें, उस पर लोन ले सकें और उसे आसानी से बेच सकें. इसके अलावा सड़क, बिजली, पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी नियमित बस्तियों को ही उपलब्ध करवाई जाती हैं. लेकिन दिल्ली की अधिकतर अनधिकृत बस्तियों में सभी मूलभूत सुविधाएं निजी कंपनियों द्वारा आसानी से प्रदान की जा रही हैं. और जहां तक जमीन और मकान बेचने का सवाल है तो यह काम भी मुख्तारनामों द्वारा आसानी से पूरा कर लिया जाता है. भाग्य विहार निवासी विजय कुमार कहते हैं, ‘बस्ती के नियमित होने पर हमें कई तरह के टैक्स भी देने होंगे जिनसे आज हम बचे हुए हैं. इसके अलावा जमीन की रजिस्ट्री पर भी बहुत ज्यादा खर्च होगा.’ इस बस्ती के कुछ लोगों को यह डर जरूर है कि यदि कभी कोई सख्त प्रशासक आया तो इनके घर तोड़े भी जा सकते हैं, लेकिन अधिकतर लोग इससे बेफिक्र हैं और मानते हैं कि चाहे जो भी हो उनके घर टूटेंगे नहीं. यहीं के एक निवासी नारायण देदाश बताते हैं कि दो महीने पहले ही जब वे किसी काम से दिल्ली सचिवालय गए थे तो अनधिकृत कॉलोनी प्रकोष्ठ के उपसचिव ने उनसे कहा, ‘इस बात की तो मैं गारंटी देता हूं कि तुम्हारे घर कोई भी नहीं तोड़ सकता. इसलिए निश्चिंत रहो और अब क्योंकि चुनाव आने वाले हैं तो अपने पार्षद और विधायक को पकड़ो और जितना भी काम कॉलोनी में करवा सकते हो करवा लो.’

अनधिकृत बस्तियों में अधिकतर जगह सड़क और बाकी मूलभूत सुविधाओं संबंधी कार्य क्षेत्रीय विधायक द्वारा अपने निजी खर्च से ही करवाए गए हैं. हालांकि 1998 में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा इन बस्तियों में मूलभूत सुविधाएं प्रदान करने की अनुमति दी गई है लेकिन संगम विहार जैसी कई अनधिकृत बस्तियों में तो लोग इतने बेतरतीब तरीकों से बस चुके हैं कि यहां अब सारी सुविधाएं प्रदान करना लगभग असंभव ही हो चुका है. यहां की सड़कें इतनी संकरी हैं कि रोज घंटों जाम लगना यहां अब आम बात हो गई है. पानी की निकासी की भी कोई व्यवस्था यहां नहीं है और जिस तरह से यहां मकान बन चुके हैं उनमें अब भविष्य में भी यह व्यवस्था कर पाना मुमकिन नहीं लगता. इस अव्यवस्थित बस्ती के बीच ही एक आलीशान ‘हमदर्द पब्लिक स्कूल’ भी है जिसके मुख्य द्वार से अंदर प्रवेश करते ही यह विश्वास नहीं होता कि हम अब भी संगम विहार जैसी अव्यवस्थित अनधिकृत बस्ती में ही हैं. कई एकड़ में फैला यह भव्य स्कूल इस अनधिकृत बस्ती में सालों से चलाया जा रहा है. यहां आज लगभग 2,500 बच्चे पढ़ रहे हैं. नियमों के अनुसार अनधिकृत बस्ती में बने स्कूल को मान्यता नहीं दी जा सकती, लेकिन जब तहलका ने स्कूल की प्रधानाचार्या जाकिया माजिद सिद्दिकी से इस संबंध में बात की तो उनका कहना था, ‘मैं तो कुछ समय पहले ही इस स्कूल में आई हूं, इसलिए इस बारे में ज्यादा बता नहीं सकती.’

‘ऐसी बस्तियों को नियमित करके सरकार अवैध निर्माण करने वालों को प्रोत्साहन दे रही है. कायदे से तो अनधिकृत निर्माणों को तोड़ दिया जाना चाहिएसंगम विहार में पानी की भी भारी किल्लत है. निजी कंपनियों द्वारा प्रदान किए जाने वाले पानी का खर्च यहां के अधिकतर निवासी नहीं उठा सकते जिसके चलते उन्हें सरकारी पानी के टैंकरों पर निर्भर रहना पड़ता है. ऐसे में जब भी पानी का टैंकर बस्ती में आता है तो लोग उस पर टूट पड़ते हैं और यह अक्सर आपसी झगड़ों का कारण भी बनता है. लेकिन हमदर्द स्कूल की प्रधानाचार्या बताती हैं कि स्कूल के पास अपने पंप होने के चलते उन्हें पानी की भी कोई समस्या नहीं है. साथ ही वे कहती हैं, ‘इस जगह के नियमित होने या न होने से स्कूल किसी भी तरह से प्रभवित नहीं होता.’

दिल्ली की महंगी और आलीशान अनधिकृत बस्तियों के निवासी भी इस बात से बेफिक्र ही नजर आते हैं कि यह अवैध निर्माण कभी टूट भी सकता है. छत्तरपुर एक्सटेंशन की एक ऐसी ही आलीशान अनधिकृत कॉलोनी में रहने वाली एक महिला नाम न छपने की शर्त पर कहती हैं, ‘हमने यह नया घर 70 लाख रुपये में इसी साल खरीदा है. इतना पैसा हमने इसीलिए लगाया है क्योंकि आज नहीं तो कल यह कॉलोनी भी नियमित हो ही जाएगी. तोड़ने की ताकत तो किसी में नहीं है. अगर दिल्ली के सभी अवैध निर्माणों को सरकार तोड़ने लगी तो आधी से ज्यादा दिल्ली बेघर हो जाएगी और लगभग पूरी दिल्ली खंडहर.’ इस आलीशान कॉलोनी में भी पानी निजी कंपनियों द्वारा उपलब्ध करवा दिया जाता है और यहां के लोग इतने संपन्न भी हैं कि यह खर्च आसानी से उठा सकें. पार्किंग की समस्या वैसे तो पूरी दिल्ली में है लेकिन इस अनधिकृत कॉलोनी में बिल्डरों द्वारा भवन के साथ ही पार्किंग की भी जगह उपलब्ध करवाई जा रही है. इन महिला ने जो घर 70 लाख रु में खरीदा है, उतना ही बड़ा घर दिल्ली की किसी अधिकृत कॉलोनी में आज शायद करोड़ों की कीमत का होगा. इसलिए भी लोग बड़ी संख्या में इन अनधिकृत कॉलोनियों में बस रहे हैं.

दिल्ली की लगभग सभी अनधिकृत कॉलोनियों में प्रॉपर्टी डीलरों की भरमार है जो खुलेआम इन अनधिकृत भवनों को बेच रहे हैं. पुराने भवनों से लेकर नवनिर्मित मकानों तक हर तरह के भवन यहां आसानी से उपलब्ध करवा दिए जाते हैं. नियमितीकरण के जो पैमाने सरकार द्वारा तय किए गए थे उनमें एक शर्त यह भी थी कि 2007 से पहले हो चुके निर्माण कार्यों को ही नियमित किया जाएगा. लेकिन 2007 के बाद भी इन बस्तियों में कई निर्माण कार्य किए गए हैं और आज भी जारी हैं. तहलका ने कई संबंधित अधिकारियों से बात करने की कोशिश की लेकिन कोई भी इस बारे में कुछ बात करने के लिए तैयार नहीं कि आखिर इन अवैध निर्माणों पर कोई भी रोक क्यों नहीं लग रही है. सूचना के अधिकार के तहत इस संबंध में पूछने पर शहरी विकास विभाग के सूचना अधिकारी बताते हैं कि अनधिकृत कॉलोनी प्रकोष्ठ में इन निर्माण कार्यों से संबंधित कोई भी सूचना उपलब्ध नहीं है. ओखला विधानसभा क्षेत्र में हो रहे निर्माण कार्यों के बारे में वहां के विधायक आसिफ मोहम्मद खान कहते हैं, ‘मेरा विधानसभा क्षेत्र ही अकेला नहीं है. अवैध निर्माण की समस्या तो पूरे दिल्ली में ही है. इसमें सबसे ज्यादा दोष दिल्ली पुलिस का है जो कि स्वयं अवैध निर्माण के धंधे में संलिप्त है. इन निर्माण कार्यों पर रोक तभी लग सकती है जब पुलिस को इस मामले से बिल्कुल अलग किया जाए और यह कार्य पूर्ण रूप से दिल्ली नगर निगम और दिल्ली विकास प्राधिकरण ही देखे. जो लोग बस चुके हैं, उनको तो हटाया जाना अब संभव नहीं है लेकिन आगे के लिए ऐसे निर्माणों पर रोक लगनी चाहिए.’ उधर, कुछ का मानना है कि अनधिकृत बस्तियों को नियमित करना अवैध कार्य करने वालों को पुरस्कृत करने जैसा ही है. आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष अग्रवाल कहते हैं, ‘इन्हें नियमित करके सरकार अवैध निर्माण करने वालों को प्रोत्साहन दे रही है. कायदे से तो अनधिकृत निर्माण तोड़े जाने चाहिए ताकि लोग खुद भी ऐसी किसी भी जगह संपत्ति खरीदने से डरें. लेकिन वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में यह संभव नहीं है क्योंकि दिल्ली का मुख्य वोट बैंक तो इन्हीं बस्तियों में बसता है और कोई भी सरकार उसे खोने का जोखिम नहीं उठा सकती’.

एक अहम सवाल यह भी है कि क्या इन बस्तियों को नियमित करने से यहां के निवासियों की जिंदगी में भी कोई बदलाव आएगा. 1977 में नियमित की गई बस्तियों में से कई ऐसी हैं जहां आज तक सभी सुविधाएं प्रदान नहीं की जा सकी हैं. इसके साथ ही अनधिकृत बस्तियों में बने भवनों के खसरा नंबर ढूंढ़ने में भी राजस्व विभाग को कई दिक्कतें आ रही हैं जिस कारण इन लोगों को आज भी जमीन या भवनों पर स्वामित्व का अधिकार नहीं दिया जा सका है. सरकार के पास फिलहाल बहुस्वामित्व वाले भवनों के पंजीकरण की भी कोई नीति मौजूद नहीं है, जबकि अनधिकृत बस्तियों में बने अधिकतर भवन ऐसे ही हैं जिन पर एक से ज्यादा लोगों का स्वामित्व है. इन तमाम बातों के कारण कई लोग नियमितीकरण की हालिया घोषणा को सिर्फ एक राजनीतिक चाल मान रहे हैं. हालांकि इन कॉलोनियों में बसने वाली दिल्ली की लगभग एक-चौथाई जनता सरकार के इस एलान से बेहद खुश है. आखिर सवाल अपने ही घर पर स्वामित्व के अधिकार का है तो खुश होना बनता भी है. लेकिन इस घोषणा के बाद भी लगभग 744 अनधिकृत बस्तियां सरकारी आंकड़ों के अनुसार दिल्ली में मौजूद हैं और जिस तेजी से नए निर्माण हो रहे हैं यह संख्या भविष्य में और ज्यादा होगी. वैसे देखा जाए तो इन अवैध बस्तियों से हर किसी को फायदा ही हुआ है. सरकारी जमीनों पर कब्जा करके भूमाफियाओं को मुनाफा हुआ, उन पर निर्माण की मौन अनुमति देने पर लोक प्राधिकारियों ने भी मोटा मुनाफा कमाया, जो लोग इन बस्तियों में बस गए और बस रहे हैं उन्हें भी सस्ते दामों पर देश की राजधानी में घर मिल गया और फिर बार-बार नियमितीकरण का लालच देकर नेताओं का वोट बैंक भी बढ़ता ही गया.

इस लिहाज से दिल्ली की ये अनधिकृत बस्तियां सोने के अंडे देने वाली मुर्गी साबित हुई हैं और आज भी हो रही हैं. ऐसे में समझना मुश्किल नहीं कि क्यों इन पर रोक नहीं लग रही. फिर जब कभी सरकार को यह दिखाना होता है कि वह अवैध निर्माण और अतिक्रमण के प्रति गंभीर है तो शाहीनबाग की ही तरह कुछ गरीबों की झुग्गियां तोड़ दी जाती हैं. और वैसे भी कोई सरकार क्यों इन बड़े अवैध निर्माणों को रुकवाकर अपना ही चौतरफा नुकसान करेगी? कहावत है न कि सोने के अंडे देने वाली मुर्गी को मारा नहीं करते.