नंदी शिंदे, वरुण और ओवैसी नहीं हैं

दो महत्वपूर्ण लोगों के बयानों की बात करते हैं. एक देश के गृहमंत्री हैं. दूसरे देश और दुनिया के जाने-माने समाजशास्त्री और विचारक.

एक का बयान राजनीतिक फायदे के लिए दिया गया ऐसा बयान था जो खुद पर ही भारी पड़ता दिखा तो, लेकिन इससे ज्यादा कुछ हुआ नहीं. दूसरेका बयान एक अनौपचारिक-सी जनता के सामने किन्हीं संदर्भों में दिया गया एक ऐसा व्यंग्यात्मक कथन था जिसका फायदा हर राजनीतिक पार्टी, राजनेता और राजनीति करने वाले गैर-राजनीतिक संगठन उठाने की कोशिश कर रहे हैं.

सुशील कुमार शिंदे देश के गृहमंत्री हैं, सोनिया गांधी के कृपापात्र हैं और दलित भी हैं इसलिए विपक्षी दल और मीडिया आदि उनका बाल भी बांका करने की स्थिति में नहीं थे. कुछ हुआ भी नहीं. आशीष नंदी जाने-माने तो हैं लेकिन उतने ताकतवर और देश की राजनीति में तमाम मौकों पर धुरी की तरह इस्तेमाल हो सकने लायक दलित या पिछड़े समुदाय से भी नहीं हैं. वे अपने खिलाफ पुलिस द्वारा मामला दर्ज किए जाने के बाद कई समाचार चैनलों आदि के जरिए अपना बचाव करते, माफी मांगते, पुलिस से बचते घूम रहे हैं.

अब ठीक से इन दोनों बयानों और इनके गुण-दोषों को परखने का प्रयास करते हैं.

सुशील कुमार शिंदे ने कांग्रेस के जयपुर चिंतन शिविर में पिछले सप्ताह कहा कि भारतीय जनता पार्टी और उसका मातृ-संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ देश में आतंकवादियों के लिए प्रशिक्षण शिविर चला रहे हैं और देश का गृहमंत्री होने के नाते उनके पास इस बात के पुख्ता प्रमाण हैं. लेकिन देश के गृहमंत्री होने का सबसे बड़ा कर्तव्य केवल ठोस सबूत जुटाना और उनके बारे में बताना नहीं बल्कि उन पर समय रहते उचित कार्रवाई करना भी है. लेकिन गृहमंत्री तो गृहमंत्री ठहरे, वे कुछ भी कहने को ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लें तो कोई क्या करे.मगर यह केवल अपने कर्तव्य से मुंह चुराना भर भी नहीं है. यह सीधे-सीधे खुद और अपनी पार्टी को अल्पसंख्यक समुदाय का सबसे बड़ा हितैषी दिखाने की कोशिश करते दिखने की कोशिश भी हो सकती है. राहुल गांधी जब औपचारिक तौर पर पार्टी में नंबर दो नहीं थे तब दिग्विजय सिंह ने कुछ-कुछ इसी तरह के बयान देकर खुद को कांग्रेसी युवराज का दायां-बायां बनाया था. अब तो पार्टी में समय ही राहुल गांधी का आ चुका है. तो फिर शिंदे अपने नेता और गृहमंत्री होने के आधार को मजबूत करने के लिए इस तरह की कोशिश क्यों न करें?

फोटो: शैलेंद्र पांडेय

दूसरी तरफ आशीष नंदी जयपुर साहित्य उत्सव नाम के एक ऐसे मंच पर बैठे थे जो हर तरह के विचारों के आदान-प्रदान के लिए शुरुआत से ही मशहूर रहा है. एक चर्चा के दौरान तरुण तेजपाल ने कहा कि भ्रष्टाचार भी समानता लाने का काम कर सकता है. इस पर आशीष नंदी का कहना था कि यह कहना थोड़ा असम्मानित और अश्लील हो सकता है मगर सच यह है कि ज्यादातर भ्रष्टाचार करने वाले आज पिछड़े, दलित और आदिवासी समुदाय के दिखाई पड़ते हैं. जब तक ऐसा हो रहा है मैं हमारे गणतंत्र को लेकर आशान्वित हूं.

जो लोग आशीष नंदी को पहले से सुनते-पढ़ते-जानते रहे हैं या जिन्होंने जयपुर में ही उन्हें संदर्भ सहित, उनके कथन में छिपे तमाम विरोधाभासों और व्यंग्यात्मकता आदि के साथ समझा होगा वे जानते होंगे कि नंदी के कहने का सीधा-सीधा मतलब क्या था. वे कहना चाहते थे कि बड़े-बड़े पदों पर बैठे तथाकथित उच्च जातियों के लोग भ्रष्टाचार की कला में पारंगत हैं और ऐसा करने के उनके पास इतने और ऐसे मौके मौजूद हैं कि उनके पकड़े जाने की संभावनाएं छोटे और सीधे तरीकों से भ्रष्टाचार में लिप्त होने वाले पिछड़े समुदाय के लोगों की अपेक्षा काफी कम हैं. चूंकि पिछड़े समुदाय के लोगों को अब भी एक इज्जतदार और मूलभूत सुविधाओं वाला जीवन जीने के मौके हमारी व्यवस्था ठीक से नहीं दे पा रही है, इसलिए भ्रष्टाचार को नंदी आशा की निगाहों से देखते हैं और तरुण तेजपाल समानता ला सकने वाले एक उपकरण के रूप में. वे समाज को एक समाजशास्त्री और लेखक की निगाहों से देख रहे थे न कि लिखे हुए कानून के काले-सफेद हर्फों के चश्मे से.

मगर आशीष नंदी की सोच और उनके कहे के मर्म को समझने की जरूरत और समय न तो हेडलाइनों के भरोसे जीने वाले ज्यादातर मीडिया को है और न ही इस मीडिया के भरोसे जीने वाले उन तमाम लोगों को जो पानी पी-पीकर आज आशीष नंदी को दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का विरोधी बता रहे हैं.

वे राजनेता और व्यवस्था के पाये, जो अकबरुद्दीन ओवैसी और वरुण गांधी के हद दर्जे के सांप्रदायिक और भड़काऊ भाषणों पर और स्वर्ण मंदिर परिसर में आतंकियों के लिए स्मारक बनाने की घोषणा पर कुछ बोलने से भी
परहेज कर रहे थे, अब अपने मौनव्रत से बाहर आ गए हैं.