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एक और मिर्चपुर…

खुद पर हुए अन्याय के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रहे भगाणा के दलित परिवार.
खुद पर हुए अन्याय के खिलाफ दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना दे रहे भगाणा के दलित परिवार. फोटोः विकास कुमार

2011 की एक पंजाबी फिल्म है ‘अन्हे घोड़े दा दान’. गुरदयाल सिंह के लिखे एक उपन्यास पर आधारित इस फिल्म का निर्देशन गुरविंदर सिंह ने किया था. इस फिल्म में पंजाब के दलित वर्ग की बेबसी को बड़ी ही संजीदगी और धीरज के साथ दिखाया गया है.

तीन साल पहले की इस फिल्म का ज़िक्र यहां इसलिए क्योंकि हरियाणा के भगाणा गांव के दलित परिवारों से बात करते वक्त उस फिल्म के कई सीन आंखों के सामने दौड़ जाते हैं. ऐसा लगता है कि जैसे वही फिल्म दोबारा देख रहे हैं.

हरियाणा के हिसार जिले से आधे घंटे की दूरी पर भगाणा गांव है. काफी लंबे समय से इस गांव के जाटों ने खाप पंचायत के साथ मिलकर दलितों का सामाजिक बहिष्कार कर रखा है.  पिछले दिनों इस बहिष्कार ने एक कदम आगे बढ़ाते हुए एक ऐसा भयानक रूप लिया जिसने गांव के दलित परिवारों की चार लड़कियों को मुंह ढंककर दिल्ली के जंतर-मंतर पर डेरा डालने को मजबूर कर दिया. 13 से 18 साल की उम्र की इन चार मासूम जिंदगियों का साथ गांव के करीब 100 से भी ज्यादा दलित दे रहे हैं. इनमें महिलाएं और बच्चे भी शामिल हैं.

यहां ‘धरना’ शब्द का इस्तेमाल इसलिए नहीं किया जा रहा है क्योंकि पिछले कुछ समय से इस अलफाज की गंभीरता कम होती जा रही है. शायद इसीलिए भगाणा के इन दलितों की भी कोई सुनवाई नहीं है. चंद अखबारों को छोड़कर ज्यादातर मीडिया ने इनकी तरफ ध्यान देना मुनासिब नहीं समझा है. शायद उनकी नजर में यह भी जंतर मंतर पर दिया जाने वाला ‘बस-एक-और-धरना’ है. ऊपर से यह चुनाव का मौसम भी है. ‘हर हाथ शक्ति’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे सुखद नारों के बीच ऐसी किसी बुरी खबर से क्यों जायका बिगाड़ा जाए?

खैर, पूरा मामला यह है कि 23 मार्च की शाम सात बजे, भगाणा गांव के अलग-अलग दलित परिवारों की चार लड़कियां, शौच के लिए घर से बाहर खेतों की तरफ निकली थीं. इन चारों की उम्र 13 से 18 साल के बीच है. जब काफी देर तक लड़कियां घर वापिस नहीं लौटीं तो परिवार वालों ने उन्हें ढूंढना शुरु किया. अगले दिन मदद के लिए सरपंच का दरवाजा खटखटाया गया लेकिन वहां से भी किसी तरह की सहायता न मिलने के बाद ये लोग हताश होकर वापस लौट गए. थोड़ी ही देर बाद सरपंच का संदेश आया कि इन परिवारों की बेटियां मिल गई हैं और वे सभी भंटिडा में हैं.

24 मार्च की शाम को भटिंडा में अपने परिवार से मिलने के बाद इन लड़कियों ने जो जानकारी दी उसने सबको हिला कर रख दिया. लड़कियों ने बताया कि उन्हें एक सफेद गाड़ी में उठा लिया गया था और फिर उनके साथ 12 लोगों ने सामूहिक बलात्कार किया. इन लड़कियों पर सच न बोलने का काफी दबाव था लेकिन मामले को सामने आने में ज्यादा देर नहीं लगी. जानकारी के मुताबिक डॉक्टरी जांच में दो लड़कियों के साथ बलात्कार की पुष्टि हुई है लेकिन परिजनों का कहना है कि चारों में से किसी को भी नहीं छोड़ा गया. 25 मार्च को सुबह एफआईआर की गई लेकिन केवल पांच ही लोग गिरफ्तार हुए हैं. पीड़ित लड़कियों के परिजनों का आरोप है कि इस काम में सरपंच की मिलीभगत है और जो सात आरोपी फिलहाल बाहर हैं उनमें सरपंच राकेश और उसका चाचा भी शामिल है. लड़कियों के परिवार वालों का कहना है कि जहां सारी रात दौड़-भाग करने के बाद भी उन्हें अपनी बेटियों का पता नहीं चल पाया, वहीं सरपंच ने थोड़ी ही देर में कैसे लड़कियों के ठिकाने का पता लगा लिया.

यही हमारा घर है

भगाणा के जाटों ने दलितों का हुक्का पानी पहले से ही बंद कर रखा है. इस गांव के 135 दलित और पिछड़े परिवार, पिछले दो सालों से अपने बच्चों, महिलाओं और जानवरों के साथ हिसार के मिनी सचिवालय में खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं. गांव की जिन लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ है, वो धानक (अनुसूचित जाति ) जाति की हैं. पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स संस्था ने जो रिपोर्ट तैयार की है उसके अनुसार धानक जाति, दलितों में भी बेहद कमजोर मानी जाती है. दो साल पहले जब जाटों ने गांव में हुए एक विवाद के चलते दलितों का बहिष्कार किया था तब चमार, कुम्हार, खाती जैसी अपेक्षाकृत मजबूत जाति के लोग, हिसार में धरने पर बैठ गए थे. लेकिन धानक जाति के परिवारों ने बहिष्कार के बावूजद गांव में ही रहने का फैसला किया था. इस सामूहिक बलात्कार को धानक जाति के उसी निडर कदम की सजा के रूप में भी कुछ लोग देख रहे हैं.

अब एफआईआर दर्ज कराने की हिम्मत दिखाकर और पांच लोगों को सलाखों के पीछे भेजकर, इन लोगों के लिए गांव में ठहरना अपनी जान को खतरे में डालने से कम नहीं. इसलिए 15 दिनों तक हिसार में डेरा डालने के बाद और हरियाणा सरकार से नाउम्मीदी मिलने के बाद, इन लोगों ने 16 अप्रैल से दिल्ली के जंतर मंतर पर न्याय की गुहार लगानी शुरु कर दी. लेकिन क्या इंसाफ मिलना इतना आसान है? जब ये सवाल बलात्कार की शिकार कुसुम (नाम बदला हुआ) की मां से पूछा गया तो जवाब था – ‘अगर निर्भया को न्याय मिल सकता है, तो हमारी बच्चियों को क्यों नहीं? फर्क बस इतना है कि वो मर गई और हमारी बच्चियों को तो इन पैसे वालों ने जीते जी मार डाला.’ इस बीच वे चारों लड़कियां मुंह ढककर तंबू के एक तरफ सो रही हैं.

वहीं तंबू के दूसरी और कुछ लोग ताश खेलकर वक्त गुजार रहे हैं. वैसे भी एक-दो दिन की बात हो तो समझ में आता है. यहां तो इंतजार लंबा नहीं बहुत लंबा है. ऐसे में अपने घर से दूर किसी टैंट के नीचे समय बिताना आसान बात नहीं है. हिम्मत कभी भी ‘इंसाफ’ और ‘जंग’ जैसे भारी शब्दों का साथ छोड़कर भाग सकती है.

और हां, एक छोटी सी बच्ची किरण भी है जो हर नए आने वाले के साथ दोस्ती गांठ रही है. जब उससे घर लौटने के बारे में पूछते हैं तो वह कहती है – अब यही हमारा घर है.

गांव के 135 दलित और पिछड़े परिवार दो साल से बच्चों, महिलाओं और जानवरों के साथ हिसार के मिनी सचिवालय में खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं.
फोटोः विजय पांडे

सोनिया गांधी कब आएंगी?
कड़ी धूप में जंतर मंतर पर बजने वाले लाउड स्पीकरों के शोर के बीच उन चार लड़कियों में से एक शशि (नाम बदला हुआ) के पिता विजेंद्र बड़ी मासूमियत से मुझसे एक सवाल पूछते हैं ‘ये सोनिया गांधी कब आने वाली हैं? मैं पूछती हूं, ‘कहां?’ ‘अरे वो बाहर गई हुई हैं ना…वो और राहुल गांधी दिल्ली कब वापिस आएंगे? एक बार बस उनसे मिलना हो जाए.’

उनसे मिलकर क्या कहेंगे पूछने पर विजेंद्र कहते हैं ‘हम बस न्याय चाहते हैं. हमारी बस दो ही मांग हैं. सरपंच और बाकी बचे लोगों को गिरफ्तार करो और हमारे लिए कोई और ठिकाने का इंतजाम कर दो. हम वापिस गांव नहीं लौटना चाहते. क्या मुंह लेकर जाएंगे. इज्जत तो चली ही गई है. वहां लौटेंगे तो जो बची-खुची जान है उसे भी वो लोग ले लेंगे.’

‘लेकिन सभी आरोपियों को गिरफ्तार करने के बाद तो गांव लौटने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए?’

इस पर विजेंद्र का जवाब आता है,  ‘वो लोग पैसे वाले हैं. जेल से छूटना उनके लिए बाएं हाथ का खेल है. उसके बाद हमारा क्या होगा ? और कितना डर-डर के जिएंगे? हरियाणा की सरकार से हमें कोई उम्मीद नहीं है. वो तो जाटों का ही साथ देती आ रही है. इसलिए हम यहां आए हैं. केंद्र सरकार से गुहार लगाने.’

बंदूक से पेट नहीं भरता
इंसाफ की इस लड़ाई में पेट के चूहे साथ नहीं देते. लड़ाई लड़ने के लिए पेट भरा होना जरुरी है. इन लोगों के लिए खाने का प्रबंध सर्वसमाज संघर्ष समिति के अध्यक्ष और बसपा नेता वेदपाल तंवर ने किया है. विजेंद्र का कहना है कि सर्वसमाज संघर्ष समिति और वेदपाल की बदौलत ही पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी पड़ी.

वेदपाल सिर्फ भगाणा ही नहीं, मिर्चपुर गांव के सामाजिक बहिष्कार के शिकार दलित परिवारों का भी साथ दे रहे हैं. 2010 में हिसार जिले के ही मिर्चपुर गांव में एक सत्तर साल के दलित और उसकी एक विकलांग बेटी को जिंदा जला दिया गया था. यही नहीं, यहां के अन्य 18 दलितों के घरों को भी फूंक डाला गया था. इस घटना के बाद करीब 100 से भी ज्यादा दलित परिवार मिर्चुपर छोड़कर भाग गए थे. वे सभी पिछले चार सालों से वेदपाल तंवर के हिसार स्थित फॉर्महाउस में ठहरे हुए हैं. सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद हरियाणा सरकार ने मिर्चपर के इन दलितों की सुरक्षा में कुछ कदम तो उठाए हैं लेकिन इससे इन खानाबदोशों के पुनर्वास का मसला अभी भी हल नहीं हो पाया है.

भगाणा के दलितों के पुनर्वास की संभावनाओं के बारे में वेदपाल मिर्चपुर मामले में दिए गए सर्वोच्च न्यायालय के उस वक्तव्य का जिक्र करते हैं जिसमें कहा गया था कि पेट, बंदूक से नहीं भरता. पुनर्वास जरूरी है. लेकिन सर्वोच्च न्यायालय की इस डांट पर अमल करने के लिए सबसे जरूरी है इच्छाशक्ति जो मिर्चपुर और भगाणा जैसे मामलों में नदारद दिखती है.

मैं भी दलित हूं
भगाणा के इन दलितों के लिए किसी के पास वक्त नहीं है इसलिए दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों ने इनकी बात आगे तक पहुंचाने का बीड़ा उठाया है. ऑल इंडिया बैकवर्ड स्टूडेंट फोरम (एआईबीएसएफ) के राष्ट्रीय अध्यक्ष जीतेंद्र यादव बताते हैं कि सदर हिसार के थाना अध्यक्ष ने एफआईआर में से कुछ लोगों के नाम हटा दिए थे इसलिए इनके फोरम की मांग है कि अनुसूचित जाति आयोग, लड़कियों के बयान लेकर मामले की दोबारा जांच करवाए और बाकी आरोपियों को भी गिरफ्तार किया जाए. जीतेंद्र का यह भी कहना है कि जिस तरह के सामाजिक बहिष्कार को ये दलित परिवार अपने गांव में झेल रहे हैं- जैसे, कुएं से पानी निकलाने की मनाही, दुकान से सामान खरीदने की मनाही, जाटों के खेत में काम करने की मनाही, यहां तक की उनकी बहन-बेटियां भी वहां सुरक्षित नहीं हैं ऐसे में इनका भगाणा में लौटना कहां की समझदारी होगी.

इस मामले में तहलका ने जब अनुसूचित जाति आयोग के सदस्य ईश्वर सिंह से संपर्क किया तो उनका कहना था कि घटना के अगले दिन ही एसपी और दो डीएसपी को समन भेजकर पूरी रिपोर्ट मंगवाई गई थी. डॉक्टरी जांच में केवल दो लड़कियों के बलात्कार की पुष्टि हुई है जिन्हें एक लाख बीस हजार का कुल मुआवजा भी हाथों-हाथ दे दिया गया था. इसके बाद जंतर-मंतर आने का औचित्य समझ के बाहर है.

ईश्वर सिंह के मुताबिक इस पूरे मामले का राजनीतिकरण हो रहा है और पुनर्वास और बलात्कार का मामला दो अलग-अलग मसले हैं. इन्हें जोड़कर न देखा जाए. वहीं एआईबीएसएफ के अध्यक्ष जीतेंद्र यादव ऐसा मानने से इंकार करते हैं. उनका कहना है कि लड़कियों के साथ हुआ बलात्कार, भगाणा के दलितों को गांव से निकाल बाहर करने और उन्हें सबक सिखाने की मंशा से ही किया गया है इसलिए दोनों बातों को अलग-अलग करके देखना, मामले में आयोग की बेरूखी का सबूत है.

27 अप्रैल को जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र, इन चार पीड़ित लड़कियों और उनके परिवार के साथ केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे के घर का घेराव करने पहुंचे जहां काफी इंतजार के बाद कुछ लोगों को गृहमंत्री से मिलने का मौका मिला. उन्हें आश्वासन दिया गया कि चिट्ठी लिखकर हरियाणा सरकार से जल्द से जल्द कार्रवाई करने की मांग की जाएगी. गृहमंत्री ने कहा कि वे खुद भी दलित हैं और इस दर्द को समझते हैं. लेकिन ये मामला राज्य सरकार का है और केंद्र सरकार इसमें ज्यादा दखलअंदाजी नहीं कर सकती. 2012 में केंद्रीय गृहमंत्री का पद हासिल करने के बाद सुशील कुमार शिंदे ने यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को धन्यवाद दिया था कि उन्होंने एक ‘दलित’ को गृहमंत्रालय जैसी गंभीर जिम्मेदारी सौंपी है. उन्हीं ‘दलित’ गृहमंत्री के टूटे-फूटे आश्वासन के साथ ही भगाणा का यह काफिला वापिस जंतर मंतर के अपने डेरे पर लौट आता है और वे चारों लड़कियां एक बार फिर अपने ढके हुए मुंह को और अच्छे से ढककर सोने की तैयारी करने लगती हैं.

फिलहाल इन परिवारों का वर्तमान और भविष्य अधर में है. अगर नेताओं और आयोग के दिलासे के साथ ये गांव लौट भी जाएं तो इनका हाल क्या होगा किसी से छुपा नहीं है. अगर यह भी मान लिया जाए कि केवल दो लड़कियों के साथ ही बलात्कार हुआ है और दिए गए एक लाख बीस हजार के मुआवजे के साथ इन्हें गांव लौट जाना चाहिए, तब भी इनकी सही-सलामती की गारंटी कौन लेता है? ऐसे में कोई सही राहत नहीं मिलने पर सड़कों पर रहना इनकी मजबूरी हो जाती है.

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न्याय दो या प्राण लो
इतिहासविद रामचंद्र गुहा ने अपनी किताब ‘इंडिया आफ्टर गांधी’ (गांधी के बाद का भारत) में 1949 की एक घटना का जिक्र किया है जिसमें दिल्ली के आसपास के गांव में बसे दलितों को जाटों ने इसलिए निकाल बाहर कर दिया था क्योंकि कल तक जो उनके जानवरों को चराते थे, आजादी के बाद उनमें बराबर खड़े होकर वोट डालने की हिम्मत आ गई थी. विरोध में गांव के दलितों ने दिल्ली के महात्मा गांधी स्मारक पर भूख हड़ताल की थी और कई गांधीवादी नेताओं और कैबिनेट मंत्रियों का ध्यान अपनी तरफ खींचा था.

लेकिन उस वक्त आजादी नई-नई मिली थी इसलिए जोश भी नया था. यह 2014 है. इस वक्त नेताओं का ध्यान चुनाव में लगा हुआ है. दूसरी तरफ क्रिकेट का सबसे बड़ा महाकुंभ आईपीएल चल रहा है और ये दोनों काफी नहीं थे कि बॉलीवुड के आयफा अवार्ड्स को भी अभी ही शुरु होना था. मीडिया इन सबको कवर करने में मसरूफ है. इतने जरूरी कार्यक्रमों के बीच में इन बेसहारा दलितों की सुनवाई के लिए फुर्सत किसे है.

जंतर मंतर पर शाम का समय है. विजेंद्र टैंट के बाहर लगे एक बोर्ड को बड़ी तन्मयता के साथ ठीक करने में लगे हैं. ऐसे कि जैसे वह बोर्ड अगर थोड़ी देर के लिए भी दिल्ली की नजरों से ओझल हुआ तो उनकी बात नहीं बन पाएगी. बोर्ड पर लिखा है – न्याय दो या प्राण लो.

‘साहित्य को विमर्शों में घटाकर नहीं देखा जा सकता’

kadharआपकी कविता की शुरुआत किस माहौल में हुई?
जब मैंने लिखना शुरू किया तब देश आजाद हो रहा था. वह घटना हमारे पूरे सामाजिक जीवन को प्रभावित करने जा रही थी और उसने ऐसा किया भी. उसके बाद के लगभग एक दशक यानी लगभग 1960 तक, जिसे हम नेहरू काल भी कह सकते हैं, उसमें हम लोग थोड़ी उम्मीद के साथ चलते रहे. लेकिन चीन-भारत संघर्ष एक बड़ी घटना थी जिसने हमारे पूरे सोच को प्रभावित किया. बहुत सारे हवाई किले, जो नेताओं ने बनाए थे, वे टूट गए. मैं पंडित नेहरू को इस बात के लिए साधुवाद दूंगा कि चीन के आक्रमण के बाद उन्होंने स्वीकार किया कि हम कल्पना-लोक में रह रहे थे. उसके बाद का दौर तो अनेक प्रकार की घटनाओं का दौर रहा, राजनीतिक स्तर भी और सामाजिक स्तर पर भी और उससे हिंदी-कविता जुड़ती गई. हिंदी-कविता प्रत्यक्षत:- नक्सल आंदोलन से जुड़ी क्योंकि कुछ कवि ऐसे थे, जो बाकायदा उस विचारधारा को न सिर्फ मानते थे बल्कि सक्रिय रूप से उसमें भाग लेने का भी प्रयास कर  रहे थे. बड़े-बड़े बांध बने, लोगों का उजड़ना शुरू हुआ. यह कुछ ऐसी घटनाएं थीं, जो उस समय उतनी भयावह नहीं लगती थीं. मेरे जैसे लोगों को उस समय लगता था कि विकास की कुछ कीमत तो होगी ही. लेकिन अब लगता है कि विकास शब्द को पुनर्परिभाषित करने की जरूरत है.

विकास के इस छलावे को हिंदी कविता ने किस प्रकार से पहचाना और उसका साहित्य के उस दौर पर क्या प्रभाव पड़ा?
विकास की इन विसंगतियों को हिंदी-कविता में उस दौर के दो लोगों ने देखा. सबसे पहले मुक्तिबोध ने. उनकी कविताएं बड़ी शक्तिशाली थीं. भाषा भी अद्भुत थी. उनकी भाषा से लगता था कि जैसे उन्होंने कल-कारखानों की भाषा को समाविष्ट कर लिया हो कविता में. उन्होंने उस भाषा में बहुत ही अद्भुत कविताओं का सृजन किया. आजादी के बाद हिंदी-कविता में पहला बड़ा परिवर्तन मुक्तिबोध ही लाए. उसके बाद धूमिल इसमें शामिल हो गए. धूमिल मेरे लिए एक विस्मयजनक कवि हैं. मैंने उनकी आरंभिक कविताएं भी पढ़ीं और सुनी थीं. उनमें कहीं ऐसे किसी विलक्षण कवि का कोई चिन्ह नहीं दिखाई देता था, जैसे बाद में वे हो गए. समय के साथ उनकी कविता में एक अद्भुत विकास हुआ. इतनी बड़ी छलांग वे इस वजह से लगा सके कि समय उसके पीछे अपना काम कर रहा था. वे समय को समझने वाले कवि थे. उन्होंने समय को पकड़ा और हमारे सामने एकदम से धूमिल का नया व्यक्तित्व उभरा. उन्होंने समाज को झकझोरकर रख दिया.

प्रारंभ में आपने केवल गीत लिखे? इसका कोई विशेष कारण था? बाद में आपने गीत लिखना क्यों छोड़ दिया?
मैंने अपनी कविता की यात्रा गीतों से शुरू की थी. उसका कारण यह था कि मैं लोक-गीतों से बहुत प्रभावित था. गांव से आया था, इसलिए लोक-गीतों की गूंज मेरे भीतर थी. गीतों में जो लयात्मकता थी, वह मुझे बहुत प्रभावित करती थी. गांव का माहौल भी मुझे खींचता था. खेत, पगडंडियां, नदी और गांव का पूरा परिवेश मेरे साथ जुड़ा हुआ था. जब मैं गांव छोड़कर बनारस आया तो वह भी एक बड़े गांव की तरह ही लगा, लेकिन फिर भी वह एक शहर था. वहां आकर गांव के प्रति मेरे भीतर आकर्षण बढ़ा. उस बोध अथवा उस नए अनुभव के भीतर से सबसे पहले मेरे गीत पैदा हुए और मैंने कुछ गीत लिखे. मुझे एक बात बहुत जल्दी ही समझ में आ गई कि सिर्फ गीतों से काम नहीं चलने वाला. मुझे तत्कालीन गीतों की एक रूढ़ि पसंद नहीं थी कि गीत की जो पहली पंक्ति होती है वह बाद की सारी पंक्ति यों को डिक्टेट करती है. यह मुझे सही नहीं लगता था इसीलिए मैं गीतों से हट गया.

आपने हिंदी-कविता का एक नया स्वरूप गढ़ा और उसे एक नई दिशा दी. इसके मूल में क्या है अर्थात यह सब कैसे हुआ?
कविता का कोई नया ढांचा गढ़ने की मेरी इच्छा नहीं थी. मुझे यह जरूर लगता था कि प्रगतिशील धारा की जो दिशा थी, कविता का उससे थोड़ा अलग स्वरूप बने. मैं नई कविता की धारा में तो शामिल नहीं था. मैं देख रहा था कि दूसरी तरफ क्या हो रहा है. नई कविता ने जो कुछ भी हमें दिया था, मैं उसे भी साथ लेकर चलना चाहता था. यह मेरा सौभाग्य था कि मैं लंबे समय तक शहर से परे रहा. गांव की बात नहीं कर रहा हूं. एमए तथा पीएचडी करने के बाद मुझे छोटे से कस्बे में नौकरी मिली, जो गांव की तरह ही था. वहां मैं 13-14 साल रहा. मैंने वहां लोगों को करीब से देखा. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को बुलाया था एक बार मैंने वहां और उनको उस इलाके में ले गया था. अगर मैं उनके साथ न गया होता तो भारत का असली चेहरा न देखा होता. उन दृश्यों की विद्रूपता ने मुझे कविता के स्वप्ररूप के बारे में दोबारा सोचने पर विवश किया.

आज की कविता पर आरोप लगाया जाता है कि वह प्रभावहीन है, पाठकों में रुचि नहीं जाग्रत करती और उनकी स्मृति में ज्यादा दिन टिकने योग्य नहीं है?
जो कविताएं एक खास तरह की बोल-चाल की लय में लिखी जाती हैं, लोगों को उनसे जुड़ने में कठिनाई नहीं होती है. जब तक पाठक या श्रोता कविता को अपनी आवाज में रिक्रिएट नहीं करेगा, तब तक वह उससे जुड़ेगा नहीं. अभी कुछ दिन पहले जेएनयू की एक गोष्ठी, में कोई सज्जन मेरी एक कविता के बारे में कुछ बोल रहे थे. उन्होंने मेरी कविता ‘पानी की प्रार्थना’ उद्धृत की. वे वहां जिस तरह से उसे पढ़ रहे थे, उससे उस कविता का जरा-सा भी संप्रेषण नहीं हो रहा था. कविता को कविता की तरह पढ़ने की कला भी सिखाई जानी चाहिए. यह कवियों का काम भी है. उन्हें स्कूल व कॉलेजों में जाना चाहिए और क्लास में कविताएं पढ़कर सुनानी चाहिए. जब बच्चे आज की कविता की लय से जुड़ेंगे तभी जाकर वे आज की कविता की संवेदना से, उसके परिवेश से जुड़ पाएंगे. तभी कविता और समान्यजन के बीच की दूरी कम हो पाएगी.

पिछले दो दशकों में पूरे विश्व के सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक संरचना में व्यापक बदलाव आया है, भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है? इस परिवर्तन का कविता पर किस तरह का प्रभाव पड़ता देख रहे हैं?
मैं कोई आर्थिक विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन 1990 के बाद के विकास को मैं काफी हद तक दुर्भाग्यापूर्ण मानता हूं. सोवियत संघ का विघटन भी विश्व व्यापार संगठन जैसी संस्था बनने के पीछे एक बड़ा कारण रहा है. दुर्भाग्यपूर्ण यह भी है कि जो महान प्रयोग वहां हो रहा था, वह विघटित हो गया. इस विघटन ने ही विश्व में वर्तमान परिस्थितियों के पैदा होने का मौका दिया. इसके पहले सरकार में उदारीकरण शब्द का नाम भी नहीं था. हिंदी का सबसे अनुदार शब्द है, उदारीकरण. किसके प्रति है यह उदारता ? हमें किसके प्रति उदार होना चाहिए ? हम उसके प्रति ही उदार हो रहे हैं, जो दिन-रात बढ़ रहा है. मैं इसे बड़ी चुनौती मानता हूं. कवि इससे टकरा तो रहा है, अनेक प्रकार के प्रयास कर रहा है और इस पर चोट भी कर रहा है. आप नए कवियों की कविताएं पढ़े तो आपको उनमें इस पर चोट करने वाली पंक्तियां जरूर मिलेंगी.

हिंदी-कविता में 1990 के बाद तेजी से स्त्री-विमर्श, दलित-विमर्श व हाशिए पर पड़े मानव-समूहों की चिंताएं उभरी हैं. आप इन विभिन्न विमर्शों के उभार को तथा उन पर केंद्रित साहित्यिक आलोचना को किस तरह देखते हैं?
मैं इन सारे विमर्शों को 1990 के बाद के सामाजिक-राजनीतिक परिवर्तनों से जोड़कर देखना चाहूंगा. ये सब अपना-अपना हक मांग रहे हैं, जो उचित है. यह लोकतंत्र का विकास है. लोकतंत्र का जिस तरह का विकास राजनीतिक व्यवस्था कर रही है और जो संसद व कार्यपालिका के माध्यम से सामने आ रहा है, वह शंकित करता है. उसके भीतर से जो असंतोष पैदा हो रहा है, उसी असंतोष की उपज हैं ये सारे आंदोलन. मैं इन्हें इसी स्वरूप में देखता हूं और इन विमर्शों का काफी हद तक स्वागत करता हूं. लेकिन साहित्य को विमर्शों में घटाकर नहीं देखा जा सकता. उस पैमाने पर हम साहित्य का मूल्यांकन कर ही नहीं सकते. यह आदिवासी कविता है, इसलिए अच्छी है, यह पैमाना ठीक नहीं. चूंकि यह अच्छी कविता है, इसलिए अच्छी कविता है, यही पैमाना उचित होगा.

दलित-विमर्श की दृष्टि से गद्य-साहित्य की अपेक्षा हिंदी-कविता पीछे रही है. आप इसका कोई विशेष कारण पाते हैं?
दलित लेखक सीधे अपनी वे बातें कहते हैं, जिनसे हम इतने परिचित नहीं हैं. मैं अपने गांव में उन लोगों को देखा करता था, जो पशुओं का चमड़ा निकालने का काम करते थे. जब मैं उनके पास मरा हुआ पशु लेकर जाता था तो यही समझाता था कि वे चमड़े को निकालकर उससे जूते या अन्य सामान बनाते होंगे. बाद में तुलसीराम की आत्मकथा में पढ़ा कि वे उस मरे हुए पशु का मांस भी निकालकर मोहल्ले में बांटते थे और वह खाया जाता था. यह मेरे लिए शर्म से जमीन में गड़ जाने वाला झटका था. यह झटका देने वाली सचाई मुझे उनकी आत्मकथा से ही पता चली. ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानियां भी बड़े अच्छे रूप में सामने आईं. उनकी कविताओं ने भी अच्छा योगदान दिया है. मैं इसे विमर्श नहीं कहूंगा. केवल एक प्रवृत्ति मानूंगा. यह साहित्य की धारा का हिस्सा है, इसे विमर्श कहकर घटाया नहीं जा सकता. मैं यह जरूर कहूंगा कि मराठी दलित कविता ने अब स्थिर राह पा ली है और वह अपनी पूरी कविता की परंपरा को, जो दलितों ने नहीं लिखी है, समझने की कोशिश कर रही है. ऐसा हिंदी की दलित-कविता के साथ नहीं हुआ. शायद आगे कभी हो.

स्त्री-विमर्श आज की कविता के केंद्र में है. समाज में स्त्रियों की समस्याओं के प्रति काफी जागरूकता भी आयी है. आपकी क्या धारणा है?
स्त्री भी हमारे समाज में दलितों की तरह भयातीत थी. अब वह मुक्त होने की कोशिश कर रही है. लेकिन अभी भी तमाम सामाजिक वर्जनाएं हैं जो काम कर रही हैं. इसके अनेक भेद-उपभेद हैं. जब समाज में जनतांत्रिक चेतना पैदा हुई तो उन्हें भी लगा कि उनके भी कुछ हक हैं, अधिकार हैं. वे अपने अधिकारों से वंचित हैं. यह अधिकार की चेतना उनके भीतर प्रबल होती जा रही है. संपत्ति में अधिकार, परिवार में अधिकार, कार्य-क्षेत्र में अधिकार, समाज व राजनीति में अधिकार आदि-आदि. स्त्रियों ने समाज की विसंगतियों के बारे में काफी कुछ लिखा है. कई स्त्री रचनाकारों ने बहुत अच्छी कविताएं लिखी हैं. कहानियां तथा उपन्यास भी लिखे जा रहे हैं.

कुछ लोग कहते हैं कि आपने कविताओं में स्त्री-विमर्श को उतना स्थान नहीं दिया, जितना आज के समय की अपेक्षा है.
हो सकता है कि मेरे अपने सामाजिक परिवेश की सीमा होने के कारण ऐसा हुआ हो. मैं कोशिश यही करता हूं कि इन सरोकारों पर निरंतर विचार करूं. मेरी रचनाओं में दलित-प्रश्नों पर काफी ध्यान गया है. स्त्रियां मेरे यहां शोषिता-प्रताड़िता के रूप में कम आई हैं. लेकिन अन्य विविध रूपों में स्त्रियां भी मेरी रचनाओं में कई जगह आई हैं. ‘एक प्रेम कविता को पढ़कर’ कविता में स्त्री का एक बड़ा ही मार्मिक पक्ष सामने आया है. ‘नमक’ कविता भी स्त्री-पुरुष संबंधों पर केंद्रित है. मेरी कविताओं में मां के रूप में अनेक स्त्रियां आई हैं, क्योंकि मैं मां को स्त्री का एक बहुत ही महत्वपूर्ण रूप मानता हूं. मेरी कविताओं में मजदूर स्त्री का भी वर्णन है. स्त्री का केवल मध्यमवर्गीय रूप ही महत्वपूर्ण नहीं है.

कविता में विचार का होना कितना जरूरी है? आप इसकी अभिव्यक्ति के लिए किसी विचारधारा या वाद से जुड़े होने को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं?
विचारधारा अलग चीज है, विचार अलग. विचारधारा को मैं छद्म-चेतना मानता हूं. विचार छद्म-चेतना नहीं है. विचार गलत हो सकता है, लेकिन वह छद्म है या धोखा है, ऐसा नहीं हो सकता. विचार कविता की अनिवार्यता है, केवल भाव कविता नहीं बन सकता. कविता के भाव में विचार हमेशा शामिल रहता है. बिना विचार के प्रगाढ़ भाव-बोध पैदा ही नहीं हो सकता. यदि होगा भी तो वह भावुकता में परिवर्तित हो जाएगा. भाव का अर्थ भावुकता नहीं है. भाव में विचार भी शामिल रहता है लेकिन आपको यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि हर कवि अपने ढंग से सोचता है, अपने विचार रखने की कोशिश करता है. मुक्तिबोध ने भी यही किया. अज्ञेय ने भी किया. आप उनके विचारों को अस्वीकार करने के लिए स्वतंत्र हैं. मैं विचारधारा या किसी वाद का समर्थन नहीं करता, क्योंकि सभी विचारधाराओं की सीमाएं होती है. कई संगठन बार जरूरी रचनात्मक आजादी नहीं दे पाते. पार्टियां नहीं दे पातीं. इसलिए पार्टी, संगठन, वाद, इन सबसे मुक्त होकर ही चलना चाहिए.

हमारा लोकतंत्र एक जटिल दौर से गुजर रहा है, जहां लोग एक बड़ा परिवर्तन चाहते हैं लेकिन उनकी सोच को समुचित नेतृत्व नहीं मिल पा रहा. आप इसे किस दिशा में जाता देख रहे हैं?
यह निश्चित ही चिंता का विषय है कि आज देश में कोई बड़ा आंदोलन क्यों नहीं उठ रहा ? हम केवल चुनाव तक ही सीमित होकर क्यों रह गए हैं. इस ढीले-ढाले जनतंत्र का क्या होगा, जो अपनी सारी शक्ति अंतत: तथाकथित चुनाव से ही अर्जित करता है. मैं चुनाव का विरोध नहीं कर रहा हूं, किंतु संकट यही है कि वह पूरी तरह से जनता के विचारों को प्रतिबिंबित नहीं कर पाता है. उसका जो भी परिणाम आता है, वह कैसे आता है, यह सभी लोग जानते हैं. मैं समझता हूं कि मनुष्य को स्वतंत्र रूप से सोचने के लिए अनुकूल परिस्थितियां हमें बनानी पड़ेंगी. इसमें कवि, लेखक, कलाकार अग्रणी भूमिका निभा सकते हैं. मैं अग्रिम दस्ते में नहीं हूं क्योंकि मैं बीते हुए समय का आदमी हूं. लेकिन एक बीते हुए समय के आदमी की तरह आने वाले समय की एक धमक सुनना चाहता हूं.

पेश है चुनावी मौसम का हाल

इलेस्ट्रेशनः मनीषा यादव

गर्मी का मौसम चल रहा है. इसी बीच चुनाव भी पड़ गया है यानी सिर मुंडाते ही ओले पड़ने जैसी बात हो गई. गर्मी का मौसम चुनावी मौसम में तब्दील हो गया है. इस मौसम का हाल बताने में मौसम विभाग को पसीने आ रहे हैं. अंदरखाने की बात है कि इस मौसम की जानकारी देने में मौसम विभाग के मिजाज पूरी तरह से बिगड़ गए हैं. इसलिए पेश है नये-नये वोटर बने एक युवा वोटर की ओर से चुनावी मौसम का मोटा-मोटी हाल-

आसमान आशंकित, बादल बदहवास हैं, बिजली की बत्ती गुल है, क्योंकि वे सर्वथा अप्रत्याशित दृश्य देख रहे हैं. वे देख रहे हैं कि प्रत्याशी गरज रहे हैं, कड़क रहे हैं, बरस रहे हैं. अजब छटा छाई है. धूप निकली है, मगर बारिश जारी है. कहीं स्याही बरस रही है, तो कहीं अंडे, कहीं थप्पड़ तो कहीं डंडे.

इस चुनावी मौसम में सूरज की पूरी तरह से घिघ्घी बंध गई है. उसके तेवर उम्मीदवारों की त्यौरियों के सामने ढीले हैं. सूरज की किरणें बस्तियों में बाद में पहुंच पाती हैं, नेताओं की टोली पहले आ धमकती है. सूरज से ज्यादा (बाई गॉड!) नेताओं के कुर्ते चमक रहे है. चिडि़यों से ज्यादा उनके चमचे चहक रहे हैं. वोऽ वोऽ वोऽ टऽ टऽ टऽ… वोऽ वोऽ… टऽ …

गर्मी के शबाब में आश्चर्यजनक उछाल देखा जा रहा है. वह दिनोंदिन निखरती चली जा रही है. स्पष्ट है, इसमें देश की भौगोलिक स्थिति का कोई हाथ नहीं है. इस स्थिति के लिए जिम्मेदार चुनाव में खडे़ होने वाले नेताओं के मुख हैं. जो आजकल हर पल वोटरों के उन्मुख हैं. अब तो दिन और रात दोनों तप रहे हैं. आम गर्मी के कारण नहीं नेताओं के भाषण के कारण पक रहे हैं.

जुबानी पारा तेजी से चढ़ रहा है, मर्यादा का पारा उतनी ही तेजी से लुढ़क रहा है. आरोपों की आंधियां प्रचंड चल रही हैं. रुक-रुक कर नहीं लगातार. थपड़ ही थपड़, प्रहार ही प्रहार. रह-रहकर जो आचार संहिता के तंबू उखाड़े जा रही हैं. चुनाव आयोग अधिकतम और न्यूनतम वेग दर्ज करने में अपने को असमर्थ पा रहा है, क्योंकि हर क्षण आंधियों का वेग एक नया रिकार्ड बना रहा है.

जगह-जगह आश्वासनों के भारी वायुदाब देखने को मिल रहे हैं. जिसे हवाई पुल बहुत आसानी से झेल रहे हैं. कहीं-कहीं शिकायतों के निम्नवायुदाब के क्षेत्र भी हैं. जिसके चलते हवा का रुख अचानक बदल भी सकता है. इस मौसम में एक अजब ‘हवा’ की चर्चा चहुंओर हो रही है, इसके वावजूद वोटर का दम घुट-सा रहा है.

घर से बाहर निकलने वालों के लिए चेतावनी- कृपया जब तक अतिआवश्यक न हो, घर से न निकलें. अगर निकलना ही पडे़ तो मुंह और आंखों को अच्छी तरह से ढंक लें. रैलियों के रेले में खूब धूल उड़ रही है और मतदाताओं के आंखों में पड़ रही है. इसलिए आंखे मींचने से कान में तेल डालना अच्छा है. बाहर धूल फांकने से घर में पड़े रहना अच्छा है.

मौसम का पूर्वानुमान- आने वाले करीब एक माह तक मौसम ऐसे ही बना रहेगा.  सोमवार से इतवार आपके सप्ताह के हर वार में उम्मीदवार होंगे. वादों के बादल आंशिकरूप से छाए रहेंगे. झूठ की उमस और बढे़गी. आरोप-प्रात्यारोपों की बौछारें और तेज हो सकती हैं. और सबसे खास बात है कि सितारे अभी कुछ दिनों तक जमीन पर नजर आएंगे. मतदाताओं की आंखों की नमी के बढ़ने के चलते उन्हें गर्मी का एहसास ज्यादा होगा. प्रचार थमने के बाद फौरी राहत मिलने के आसार हैं. चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद मौसम अचानक से करवट बदलेगा.  मौसम सामान्य हो जाएगा.  जो नेता आज जगराते कर रहे हैं, वे चादर तान कर सोएंगे. और जो मतदाता आज पूजे जा रहे हैं, वे करवट बदल-बदल कर रोएंगे. अगले पांच सालों के मौसम का पूर्वानुमान अभी से लगाना जितना मुश्किल है, वहीं जनता की हालत का पूर्वानुमान लगाना उतना ही आसान है. चुनावी मौसम आते हैं, चले जाते हैं, मगर देश का मौसम कमोबेश एक-सा रहता है, बदलता ही नहीं कमबख्त!

‘ जब मैं सरकारी नौकरी करते हुए नहीं झुका तो चुनाव जीतने पर तो और भी बेहतर काम करूंगा’

बाबा हरदेव सिंह। 66 । पूर्व आईएएस अधिकारी। मैनपुरी, उत्तर प्रदेश फोटोः प्रमोद अधिकारी
बाबा हरदेव सिंह. उम्र-66 वर्ष.  पूर्व आईएएस अधिकारी. मैनपुरी, उत्तर प्रदेश.  फोटोः प्रमोद अधिकारी
बाबा हरदेव सिंह. उम्र-66. पूर्व आईएएस अधिकारी. मैनपुरी, उत्तर प्रदेश. फोटोः प्रमोद अधिकारी

राजनीति में बाहुबल और पैसे का इस्तेमाल आम बात हो चुका है. राजनीति आम लोगों की मदद का हथियार थी, लेकिन अब यह धंधा बन चुकी है. इसके लिए हम भी दोषी हैं जो जब यह हो रहा था तो इसे किनारे खड़े होकर देख रहे थे. लेकिन अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के बाद सब बदल गया. यह साफ हो गया कि हमें अपनी नौकरियों से ऊपर उठकर सोचना होगा, खुद खड़ा होना होगा और राजनीति में आ चुकी इस गंदगी के खिलाफ लड़ना होगा.

मैं समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव के खिलाफ लड़ रहा हूं. मेरी लड़ाई मैनपुरी के लोगों के लिए है. इसे शहर कहते हैं, लेकिन भ्रष्टाचार और विकास की कमी के चलते स्थानीय प्रेस की भाषा में कहें तो मैनपुरी अब भी एक बड़े गांव जैसा है. बुनियादी सुविधाओं की भारी कमी है. निजी मैनेजमेंट कॉलेज नहीं हैं. अच्छे अस्पताल नहीं हैं. न ही ट्रेन कनेक्टिविटी है. हैरानी की बात यह है कि पिछले 25 साल से यहां एक ही परिवार चुनाव जीतता आ रहा है. अगर उन्होंने ये मुद्दे उठाए होते तो कुछ तो हो जाता. कम से कम एक इंटरसिटी ट्रेन ही चल जाती. दुख की बात यह है कि तंबाकू के इस्तेमाल की वजह से होने वाले कैंसर के मरीजों की संख्या के मामले में मैनपुरी पहले नंबर पर है, लेकिन यहां किसी अस्पताल में कैंसर के इलाज की कोई यूनिट नहीं. कोई इन मुद्दों पर लोगों को जागरूक नहीं कर रहा. यह स्थिति बदलनी चाहिए. मैनपुरी में यह हाल है कि आज भी यहां डीएम और एसपी लोगों से खुद को जी हुजूर और जी सरकार कहलवाते हैं जबकि असल में वे जनता के सेवक हैं.

यही वजह है कि जिन लोगों को देश की फिक्र है उन्होंने अपनी नौकरियां छोड़ दी हैं. घर छोड़ दिया है. आराम की जिंदगी छोड़ दी है. वे कह रहे हैं कि बहुत हो चुका. अब लोग राजनीति में करियर बनाने नहीं, लोगों की सेवा करने के लिए आ रहे हैं.

अपनी नौकरी के दौरान मैं राजनीतिक वर्ग और व्यवस्था में व्याप्त भ्रष्टाचार से लड़ता रहा. अगर मैं सरकारी अधिकारी रहते हुए ऐसा कर सकता था तो मुझे यकीन है कि अगर मैं चुना गया तो यह काम और भी अच्छे तरीके से कर पाऊंगा. अगर आप ईमानदार हैं, अगर आपको कोई खरीद नहीं सकता और अगर आपकी जनता के लिए काम करने की इच्छा है तो पूरा सिस्टम ठीक हो जाएगा. मुझे यह भी यकीन है कि अगर हम देश में बदलाव लाना चाहते हैं तो हमें जड़ से शुरुआत करनी होगी. बुनियादी स्तर पर ठीक किए बिना इसे राष्ट्रीय स्तर पर ठीक नहीं किया जा सकता.

(अवलोक लांगर से बातचीत पर आधारित.)

पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए…

anil
हिंदी हिनेमा के संगीत के शुरुआती दौर के सबसे प्रयोगधर्मी संगीतकारों की सूची तैयार की जाए
तो अनिल विश्वास का नाम शीर्ष पर होगा.

अनिल विश्वास हिंदी फिल्म संगीत के पुरोधा के रूप में जाने जाते हैं. बोलती फिल्मों का दौर जब से आरंभ हुआ और उसमें गीत-संगीत के आगमन का रोचक इतिहास बस बनना शुरू ही हुआ था, उस समय अनिल विश्वास जैसे संगीतकार को बेहद प्रमुखता से संगीत के आधुनिक प्रणेता के रूप में आदर मिला.

शुरुआती दिनों में, जो कि उन्नीसवीं शताब्दी का चौथा दशक था, उस समय संगीत के बिल्कुल आरंभिक संगीतकारों में जिन लोगों को जाना जाता है, उनमें प्रमुख रूप से हम फिरोजशाह मिस्त्री, मास्टर अली बक्श, जद्दनबाई, लल्लूभाई नायक, प्राणसुख नायक, बृजलाल वर्मा, वजीर खां, सुंदर दास भाटिया, गाविंद राव टेंबे, केशवराव भोले, झंडे खां, बन्ने खां, राम गोपाल पांडे, सुरेश बाबू माणे आदि को याद कर सकते हैं.

इन आरंभिक संगीतकारों के योगदान पर विकसित होने वाले हिंदी फिल्म संगीत को बाद में एक से बढ़कर एक मूर्धन्य कलाकार सुलभ हुए. इन संगीतकारों का बहुत हद तक ऐतिहासिक महत्व भी है क्योंकि इनमें से बहुतेरे ऐसे लोग थे, जिन्होंने सिनेमा की दुनिया में पहली बार कोई नई चीज रची थी जैसे फिरोज शाह मिस्त्री को पहली बोलती फिल्म आलमआरा (1931) के संगीतकार के रूप में जाना जाता है या फिर जद्दनबाई (प्रसिद्ध अभिनेत्री नरगिस की मां) को पहली महिला संगीतकार होने का गौरव प्राप्त हुआ, जब उन्होंने अपनी ही निर्मित फिल्म तलाश-ए-हक (1935) में संगीत दिया. इसी तरह वजीर खां और नागर दास नायक ने सैय्यद आगा हसन अमानत द्वारा लखनऊ के आखिरी कलाप्रिय नवाब वाजिदअली शाह के लिए लिखे इंद्र सभा पर बनी इसी नाम की फिल्म (1932) के लिए संगीत दिया. पूना के मशहूर प्रभात स्टूडियों न कुछ बड़े संगीतकारों को पैदा किया, जिसमें गोविंद राव टेंबे का नाम प्रमुख है. टेंबे ने अयोध्या का राजा, जलती निशानी, माया मछिंद्र (1932), सैरंध्री (1933), मंजरी (1934), उषा, राजमुकुट (1935) जैसी मशहूर ऐतिहासिक, वेशभूषा प्रधान फिल्मों के लिए संगीत दिया. ऐसे बहुतेरे संगीतकार हैं, जिनके माध्यम से 1931 से लेकर 1940 तक लगभग एक दशक का चित्रपट संगीत अपने जन्म से विकसित होने का एक रोचक सफर तय करता है. इन संगीतकारों की चर्चा भी इस अर्थ में प्रासंगिक है कि हम अनिल विश्वास के सांगीतिक योगदान का जो विश्लेषण करने जा रहे हैं, उनका समय भी इसी दशक के मध्य में आरंभ होता है. वैसे तो अनिल विश्वास सबसे पहले बंबई 1934 में आए, जब वे कुमार मूवीटोन के साथ जुड़े, मगर एक स्वतंत्र संगीतकार के रूप में उनकी पहली फिल्म ईस्टर्न आर्ट्स की हीरेन बोस निर्देशित धर्म की देवी (1935) से माना जाता है.

अनगिनत आरंभिक संगीतकारों की जमात में अनिल विश्वास के साथ जिन संगीतकारों का नाम उल्लेखनीय रूप से चालीस के दशक में उभरा, उनमें हम आर.सी. बोराल, पंकज मलिक, तिमिर बरन, के.सी. डे, रफीक गजनवी, एच.सी. बाली, शांतिकुमार देसाई, मास्टर कृष्णराव, अशोक घोष, सरस्वती देवी, ज्ञान दत्त एवं रामचंद्र पाल का नाम ले सकते हैं. इनमें से अधिकांश न सिर्फ लोकप्रिय और सफल संगीत निर्देशक रहे हैं, बल्कि इस अर्थ में भी आज नए सिरे से विश्लेषण के लिए जरूरी नाम हैं कि इनके हिस्से में कुछ ऐसी ऐतिहासिक फिल्मों के साथ जुड़ने का सौभाग्य प्राप्त है, जिनमें कुंदन लाल सहगल जैसे महान गायक और अभिनेता की तमाम फिल्मों के अलावा सोहराब मोदी, पृथ्वीराज कपूर, सआदत हसन मंटो, शांता हुबलीकर, देविका रानी, अख्तरीबाई फैजाबादी, पी.सी बरुआ, जिया सरहदी, चंद्र मोहन, दुर्गा खोटे, जोहरा सहगल, उदय शंकर, शांता आप्टे, कवि प्रदीप, उस्ताद अलाउद्दीन खां, नसीम बानो एवं वहीदन बाई जैसे फनकार किसी न किसी भूमिका में मौजूद थे. कहने का तात्पर्य यह है कि हिंदी फिल्मों का यह बिल्कुल आरंभिक बनने-बनने वाला वह दौर है, जब उपर्युक्त उल्लिखित ढेरों ऐसे ऐतिहासिक किरदार सक्रिय नजर आते हैं, जिन्होंने विभिन्न विधाओं में अपनी कला का परचम फहराया हुआ है. इनमें सभी शीर्ष स्तर के कलाकार रहे हैं, जो अभिनय, गायन, पटकथा, गीत व संवाद लेखन के साथ-साथ निर्माण व निर्देशन के स्तर पर भी समादृत रहे.

अनिल विश्वास के करियर में किस्मत मील का पत्थर मानी जाती है. इस फिल्म की अपार सफलता तक पहुंचने से पूर्व अनिल विश्वास ने आरंभिक सफलता का स्वाद जिन फिल्मों के माध्यम से चखा था, उन्हें व्यापक तौर पर वैसी स्वीकृति नहीं मिल पाई थी, जिस तरह वह किस्मत के सभी गीतों को हासिल हुई. इस फिल्म से पूर्व उनके द्वारा संगीतबद्ध कुछ महत्वपूर्ण गाने ही आज याद किए जाते हैं, जो कि उन फिल्मों की थोड़ी-बहुत लोकप्रियता का भी आधार बन सके. इनमें प्रमुख रूप से भारत की बेटी (1935) का ‘तेरे पूजन को भगवान बना मन मंदिर आलीशान’, मनमोहन (1936) का ‘तुम्ही ने मुझको प्रेम सिखाया’, ग्रामोफोन सिंगर (1938) का ‘मैं तेरे गले की माला’, हमारी बात (1943) का ‘बादल सा निकल चला यह दल मतवाला रे’, ‘मैं उनकी बन जाऊं रे’, बसंत (1942) का ‘कांटा लागा रे साजनवा मोसे राह चली न जाए’ एवं नैया (1947) का ‘सावन भादों नैन हमारे बरस रहे दिन रात’ जैसे गीत सुनने में उतने ही ताजे और कर्णप्रिय लगते हैं.

किस्मत इस अर्थ में भी संगीत की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण फिल्म है कि इसमें पहली बार अनिल विश्वास ने अपनी चिर-परिचित शैली में कुछ नवीनता पैदा करते हुए सारे ही गानों को अलग-अलग शैली में संगीतबद्ध किया था. हालांकि किस्मत से पहले उन्होंने बॉम्बे टॉकीज के लिए देविका रानी के अत्यधिक इसरार पर बसंत के गानों की भी सारी धुनें  तैयार की थीं, जो बाद में बेहद लोकप्रिय हुईं, परंतु नेशनल स्टूडियो के साथ अनिल विश्वास के अनुबंध के चलते फिल्म के क्रेडिट्स एवं पब्लिसिटी में कहीं भी उनका नाम बतौर संगीतकार नहीं गया. इस फिल्म के क्रेडिट्स में उनके बहनोई और प्रसिद्ध बांसुरी वादक पन्नालाल घोष का नाम दिया गया, जिन्होंने फिल्म में ऑर्केस्ट्रेशन का काम संभाला और पार्श्व-संगीत भी तैयार किया था.

किस्मत के संगीत-निर्माण की कथा भी अत्यंत दिलचस्प है, जो संगीत-प्रेमियों के बीच प्रसिद्ध भी रही है तथा जिसे फिल्म अध्येता शरद दत्त ने अनिल विश्वास की जीवन-यात्रा पर अपनी पुस्तक में विस्तार से चर्चा की है. किस्मत के निर्माता शशधर मुखर्जी को बॉम्बे टॉकीज में जितनी तनख्वाह मिलती थी, उसकी दोगुनी राशि पर देविका रानी ने अनिल विश्वास को अपने बैनर के लिए संगीत निर्देशक के बतौर अनुबंधित कर लिया था. बस यही एक ऐसा कारण था, जिसने भीतर ही भीतर बॉम्बे टॉकीज में असंतोष का स्वर उभार दिया था. इसमें एक गुट ऐसा था, जो शशधर मुखर्जी के प्रति संवेदनशील रुख रखते हुए अनिल विश्वास को हर हाल में तंग करके नीचा दिखाने पर तुला हुआ था. इसी कारण किस्मत के संगीत निर्माण में बहुतेरी दिक्कतें भी आईं, जिन्हें अनिल विश्वास ने पूरे धैर्य के साथ झेलते हुए न सिर्फ अपना काम पूरा किया वरन उस गुट के कवि प्रदीप को भी जीवन भर के लिए मित्र बना डाला. शरद दत्त की पुस्तक में इस बात की चर्चा स्वयं अनिल विश्वास ने की है, जो यहां ज्यों की ज्यों प्रस्तुत हैः

imgप्रदीप जी एक गाना लिखकर लाए, ‘धीरे-धीरे आ रे बादल, धीरे-धीरे जा/ मेरा बुलबुल सो रहा है, शोरगुल न मचा.’ यह सात मात्रा का गाना था और कहानी की जो सिचुएशन थी उसमें सात मात्रा का गाना अनुकूल नहीं बैठता था. वहां तो एक तरह की लोरी चाहिए थी, साथ ही प्रेम का भाव चाहिए था- यानी दोनों का मिला-जुला रूप और वह तभी हो सकता था, जब गाना आठ मात्रा का हो. मैंने सोचा कि इसमें क्या! किसी एक नोट पर खड़ा हो जाऊंगा, किसी एक सुर पर, तो एक मात्रा मिल जाएगी. इस तरह मैंने सात मात्रा के गाने को आठ मात्रा का बना दिया. प्रदीप जी सुनकर खुद हैरान रह गए थे. प्रदीप जी आखिर कवि थे और साथ ही एक अच्छे गायक भी. इस गाने की कंपोजीशन सुनकर वह मेरे दोस्त बन गए. उनका कहना था कि इस गाने में ऐसा चमत्कार अनिल विश्वास के अलावा और कोई  पैदा नहीं कर सकता था. कुछ साल पहले महाराष्ट्र सरकार द्वारा मुझे सम्मानित किया गया, तो वहां उन्होंने स्वीकार किया था, सार्वजनिक रूप से यह बात कही थी कि अनिल विश्वास को नीचा दिखाने में मैंने कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी थी. मैंने इन्हें सात मात्रा का गाना बनाकर दिया, लेकिन इन्होंने उसे आठ मात्रा का बना दिया. बस, तभी से मैं इनका मुरीद हो गया.

इस घटना के जरिए हम देखते हैं कि कला की उदात्तता में अहं और  ईर्ष्या जैसे भाव तिरोहित हो जाते हैं तथा दूसरे के प्रति अविश्वास का व्यवहार रखने वाला व्यक्ति भी गहरी दोस्ती के बंधन में बंध जाता है. यहीं इस गीत की सांगीतिक चर्चा करना भी समीचीन होगा, जो शायद फिल्म के सबसे मधुरतम गानों में से एक रहा है. पूरा गीत सुनने में जिस तरह सहज ढंग से शांति का भाव रचते हुए भी उसमें गजब ढंग से रूमानियत की सृष्टि करता है, वह देखना विस्मयकारी है. फिल्म में यह गीत अमीरबाई कर्नाटकी और अरुण कुमार ने गाया है. इस गीत के इंटरल्यूड्स (मध्यवर्ती-संगीत) को संगीतकार ने इतनी दक्षता के साथ अंडरटोन में विकसित होने दिया है कि अरुण कुमार और अमीरबाई कर्नाटकी की आवाज की कशिश को लोरी की सी भावभूमि में बेहद सुंदर ढंग का प्रवाह मिला है. सीटी (ह्विस्लिंग) का भी पहला प्रयोग शायद इसी गीत के माध्यम से सामने आता है. इसका इस्तेमाल गाने की कंपोजीशन में मस्ती के भाव को व्यक्त करने के लिए किया गया था. पर्दे पर इसका इस्तेमाल नायक अशोक कुमार द्वारा दर्शाया गया है, जबकि मूल रूप से गीत की रिकॉर्डिंग में उसे एक म्यूजीशियन ने अंजाम दिया था. यह गीत रागों के सरताज भैरवी एवं एक ताल में बेहद उत्कृष्टता के साथ निबद्ध किया गया था. आज भी, इस गीत की खूबसूरती सुनते ही बनती है. इस गीत के निर्माण के लगभग पचास वर्ष बाद, अमीरबाई कर्नाटकी के प्रति अपनी श्रद्धांजलि व्यक्त करते समय लता मंगेशकर ने भी इसे अपने एल्बम श्रद्धांजलि भाग-दो में ठीक उसी धुन पर गाया था, जो कि इस गीत की अमरता और लोकप्रियता क समकालीन अर्थों में भी उजागर करता है.

ठीक इसी तरह फिल्म का सबसे बेहतरीन गाना पारुल घोष की आवाज में ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए’ था. पारुल घोष ने अधिकांश गाने अनिल विश्वास के संगीत निर्देशन में ही गाए हैं. चूंकि वे संगीतकार की अपनी बहन भी थीं, इस कारण भी संगीत को लेकर दोनों के बीच मैत्री और आपसी रिश्तों की ऐसी खनकदार उपस्थिति मयस्सर रही होगी, जिसके चलते पारुल घोष और अनिल विश्वास की जुगलबंदी ने कुछ अत्यंत अमर गीतों की रचना की. किस्मत के अलावा पारुल घोष ने हमारी बात, ज्वार-भाटा, पहली नजर, मिलन और बसंत में अनेक यादगार गीत गाए. ‘पपीहा रे’ मूलतः बंगाल की कीर्तन शैली पर आधारित ऐसा गाना था, जिसमें लोक-संगीत की छाया भी दिखाई पड़ती है. हमें ‘पपीहा रे’ जैसे गीतों को विश्लेषित करते समय इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि अनिल विश्वास का संगीतकार बंगाल के लोक-संगीत से प्रभावित होने के साथ-साथ नजरूल गीति एवं रवींद्र संगीत के भी अत्यंत निकट था. स्वयं अनिल विश्वास ने यह स्वीकारा है कि बसंत का एक गीत ‘हुआ क्या कुसूर जो हमसे हो दूर’ को नजरूल गीति पर आधारित करके उन्होंने रचा था.

‘पपीहा रे’ में जिस बंगाल शैली की कीर्तन पद्धति की प्रयोग अनिल विश्वास ने किया है, उसके मूल में करुणा का स्वर है. ये कीर्तन अक्सर प्रभु और भक्त के आपसी रिश्ते को पुकार देने की कोशिश में रचे जाते हैं, जिनमें चैतन्य महाप्रभु की कथाओं को आधार बनाकर ढेरों मार्मिक आख्यान कीर्तन में ढलकर लोकधुनों पर प्रचलित किए जाते हैं. ऐसी ही किसी कथा की धुन को पारुल घोष का अप्रतिम स्वर सुलभ हुआ है, जिसमें सैक्सोफोन और बांसुरी का बेहद रोचक इस्तेमाल भी किया गया है. इस गीत में पुरुष स्वर स्वयं कवि प्रदीप का था.

किस्मत फिल्म ने संगीतकार अनिल विश्वास को अपार ख्याति दिलाई व उनके लिए किस्मत के दरवाजे वाकई खुल गए.
किस्मत फिल्म ने संगीतकार अनिल विश्वास को अपार ख्याति दिलाई व उनके लिए किस्मत के दरवाजे वाकई खुल गए.

‘पपीहा रे’ की ही तरह एक दूसरी जमीन पर अमीरबाई कर्नाटकी का गाया बेहद सुंदर भजन ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया’ भी फिल्म का एक लाजवाब पहलू है. यह कम लोग जानते होंगे कि किस्मत से पूर्व अमीरबाई कर्नाटकी ने चंद फिल्मों में भी अभिनय किया था और उन फिल्मों में अपने गाने स्वयं गाए थे. वे उन दिनों की चर्चित अभिनेत्री गौहर कर्नाटकी की बहन थी. यह वाकया भी अनिल विश्वास के खाते में दर्ज हो पाया है कि सबसे पहले अमीरबाई की आवाज, की विशिष्टता को उन्होंने पहचानकर किस्मत के सभी प्रमुख छह गानों के लिए अनुबंधित किया. इस फिल्म से उनकी किस्मत का सितारा ऐसा बुलंद हुआ कि वे चालीस के दशक की सबसे संभावनाशील और महत्वपूर्ण स्त्री आवाज बनकर उभर सकीं. ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया’ में भी अनिल विश्वास बंगाल के उसी लोकसंगीत के आश्रय में डूबते हैं, जिसके गहरे तल में बाऊल लोगों के कीर्तन का बेजोड़ संसार बसा हुआ है. अमीरबाई की आवाज में इस भजन को सुनते हुए अनिल विश्वास द्वारा ही संगीतबद्ध कुछ और भजन भी याद आते हैं, जो उनकी इस खास शैली के प्रति सिद्धहस्त को बयां करते हैं. उदाहरण के तौर पर, ‘बांके बिहारी भूल न जाना’(जागीदार), ‘प्रभु चरणों में दीप जलाओ मन मंदिर उजियाला हो’ (ज्वार-भाटा), ‘दो ऐसे वरदान प्रभु मेरे सपने सच हो जाएं’ (चार आंखें), ‘राम रस बरसे रे मन चातक क्यों तरसे’ (महात्मा कबीर), ‘मैया-मैया बोले बाल कन्हैया’ (सौतेला भाई) एवं ‘बुद्धं शरणं गच्छामि’ (अंगुलिमाल) को याद किया जा सकता है.

किस्मत में एक वह गीत भी था, जिसे अमीरबाई कर्नाटकी ने बेहद सुंदर ढंग से गाया है. गीत के बोल हैं ‘घर-घर में दीवाली है, मेरे घर में अंधेरा’. इस गीत से संबंधित एक रोचक तथ्य यह भी है कि कवि प्रदीप इस गीत के लिए पूरे बावन अंतरे लिख लाए थे, जिसमें हर अंतरे का भाव अलग-अलग था. यह संगीतकार के लिए ऐसी चुनौती थी, जिसे कुछ मिनट के गीत में तब्दील करना काफी मुश्किल-भरा काम था. अनिल विश्वास का तर्क था कि एक ही बहर की बावन पंक्तियों का वे किस तरह गाना बना पाएंगे, जिसमें न तो स्थायी है, न अंतरा, न संचारी और न ही आभोग. मगर इस गीत को भी तीन हिस्सों में बांटकर और तीन विभिन्न मनोभूमियों की परिस्थिति में विकसित करते हुए संगीतकार ने संगीतबद्ध कर डाला. तीनों हिस्सों की रचना भी उनके भावों के अनुकूल ही की गई थी. मसलन, शुरुआत शांत रस में होते हुए, बीच का टुकड़ा पूरी तरह पीड़ा में डूबा हुआ और अंतिम छंद में आते हुए गीत की परिणति आनंद के सृजन में होती है. अब इन्हीं तीन मनःस्थितियों के अनुकूल अनिल विश्वास ने लय का पैटर्न तीन टुकड़ों में विभाजित कर दिया. आज भी अमीरबाई की गायिकी में अत्यंत कुशलता से उतार-चढ़ाव के साथ ‘घर-घर में दीवाली है’ को सुनना प्रीतिकर लगता है. यह भी माना जाता है कि इस तरह की शैली जिसमें शास्त्रीय ढंग से स्थायी, अंतरा, संचारी, आभोग के अनुसार गीत ढाला जाता है, अनिल विश्वास से पहले संगीतकार मास्टर गुलाम हैदर की परंपरा से आई है. हालांकि रवींद्र संगीत एवं आख्यानपरक कथा-गायन की परंपरा में भी ऐसा ही ढांचा अक्सर प्रयोग में लाया जाता रहा है.

फिल्म के सबसे मशहूर और ऐतिहासिक गीत, जिसके कारण किस्मत आज भी याद की जाती है, एक देशभक्ति गीत था. कवि प्रदीप के द्वारा लिखा ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है’ को शायद ही कोई संगीत-प्रेमी और सिने-अध्येता आज भी भुला पाया होगा. गीत पूरी तरह ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ बगावती तेवर में रची गई अत्यंत ओजपूर्ण रचना है. इसकी शब्दावली को ध्यानपूर्वक सुनकर यह महसूस किया जा सकता है कि 1943 में किस तरह भारतवासियों ने अपने को रोमांचित और कर्त्तव्यबोध से भरा हुआ पाया होगा, जब अमीरबाई कर्नाटकी और अन्य सामूहिक स्वरों के साथ यह गीत चित्रपट पर अभिनेत्री मुमताज शांति के माध्यम से व्यक्त हुआ. इस गीत की एक दिलचस्प बात यह भी है कि बीच-बीच में आने वाले ‘दूर हटो, दूर हटो, दूर हटो ऐ दुनियावालो, हिंदुस्तान हमारा है’ में नारे की शक्ल में आने वाली ओजपूर्ण अनेकों पुरुष आवाजें स्वयं संगीतकार अनिल विश्वास, गीतकार कवि प्रदीप और पार्श्वगायक अरुण कुमार की थीं. रेकॉर्डिंग के बाद फिल्म के पर्दे तक पहुंचते-पहुंचते यह गीत एक इतिहास बन गया, जिसका असर यह हुआ कि सिनेमाघरों में यह गाना शुरू होते ही दर्शक उत्तेजित हो जाते थे और कुर्सियों पर खड़े होकर नाचने लगते थे. ब्रिटिश शासन को ललकारने वाला यह पहला गाना था. देशभक्तिपूर्ण गीतों में इसका अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, जिसकी तुलना किसी भी दूसरे गीत से नहीं की जा सकती. इस फिल्म के पांच वर्ष बाद बॉम्बे टॉकीज की ही एक अन्य फिल्म मजबूर के लिए 1948 में गुलाम हैदर ने लता मंगेशकर और मुकेश की आवाज में ऐसा ही एक शाहकार गीत रचा था, जिसके बोल हैं ‘अब डरने की कोई बात नहीं, अंगरेजी छोरा चला गया’. इसके बाद बहुतेरे ऐसे गीतों की झड़ी लग गई, जिसे संगीत और गीत दोनों ने ही मिलकर अविस्मरणीय बनाया. आपको भी ऐसे बहुतेरे गाने याद होंगे, जिनमें से कुछ एक को यहां याद करना, शायद समीचीन होगा- ‘दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल’, ‘आओ बच्चों तुम्हें दिखाएं झांकी हिंदुस्तान की’ (जागृति), ‘मेरा रंग दे बसंती चोला’ (शहीद), ‘इंसाफ की डगर पर बच्चों दिखाओ चल के’ (गंगा जमुना), ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं’ (लीडर), ‘नन्हा-मुन्ना राही दूं दिश का सिपाही हूं’ (सन ऑफ इंडिया), ‘कर चले  हम फिदा जान-ओ-तन साथियों’(हकीकत) एवं ‘मेरे देश की धरती सोना उगले’ (उपकार) जैसे अप्रतिम देश-प्रेम में पगे मार्मिक गीत.

किस्मत के अन्य दो गाने ‘हम ऐसी किस्मत को क्या करें’ एवं ‘तेरे दुख के दिन फिरेंगे’ भी असरदार थे और इनमें भी अनिल विश्वास के संगीत का कोमल स्पर्श सहज ही महसूस होता है. मगर किस्मत आज भी जिस कारण ऐतिहासिक रूप से याद की जाती है, उसमें प्रमुख रूप से ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए’, ‘धीरे-धीरे आ रे बादल’, ‘अब तेरे सिवा कौन मेरा कृष्ण कन्हैया’, ‘घर-घर में दीवाली है’ तथा ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है’ का स्वर्णिम योगदान शामिल है. किस्मत जिस दौर में आई, वह समय आजादी के लिए संघर्षरत करोड़ों भारतवासियों का वह संक्रमण काल भी है, जहां आजादी बस मिलने-मिलने को थी. दबे पांव हमारे स्वतंत्रता सेनानियों  के आंदोलनों के बहाने हमारे पास आ रही थी. साथ ही वह समय सांस्कृतिक रूप से संगीत, कला, सिनेमा और साहित्य के लिए ऐसा संघर्ष का समय भी था, जहां हर विधा के लोग अपने-अपने ढंग से एक नए स्वाधीन भारत का स्वप्न बुन रहे थे. उसी समय उसी दौर में स्थापित और सक्रिय ढेरों ऐसे संगठनों की भी अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका बननी शुरू हुई थी, जिसने अपने ढंग से एक स्वतंत्रचेता युग के सूत्रपात की आधारशिला रखी थी. प्रगतिशील लेखक संघ, इंडियन पीपुल थिएटर, बॉम्बे टॉकीज, सरस्वती प्रेस एवं तमाम स्वयंसेवी संस्थाओं एवं अखबारों के दफ्तरों में एक ऐसी मुहिम रचनात्मक रूप से लगातार रची जा रही थी, जिसकी गहराई में कहीं धरती के लाल, नीचा नगर, अछूत कन्या, पड़ोसी, दुनिया न माने एवं किस्मत जैसी फिल्मों का निर्माण भी हो रहा था. इसी नवोन्मेष की पुकार ने जहां भारत में एक नव-जागरण का स्वर मुखरित किया, वहीं वह भारतीय फिल्मों की दुनिया में भी क्रांतिकारी परिवर्तन लेकर आया, जिसके तहत हिंदी सिनेमा भी अपने ढंग से कुछ सार्थक और स्थायी महत्व का रच सका.

ऐसे में, इतनी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के क्रांतिकारी माहौल में फिल्म संगीत की दुनिया में भी अगर अनिल विश्वास जैसे अप्रतिम किरदारों ने कुछ अत्यंत रससिक्त, अर्थपूर्ण और लालित्य के स्तर पर बेहद रोचक किस्म का आस्वाद रचा, तो उसके लिए हमें उनका आभारी होना चाहिए. यह याद करना ही रोमांचित कर देता है कि हम आजादी की पुकार को स्वर देता हुआ 1943 में यदि किस्मत के माध्यम से ‘दूर हटो ऐ दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है’ को पा सके हैं, तो ठीक उसी समय संस्कृति का एक दूसरा अध्याय रचता हुआ ‘पपीहा रे मेरे पिया से कहियो जाए’ को भी अपनी गौरवशाली विरासत का हिस्सा बना पाए हैं.

यह आलेख हाल ही में प्रकाशित हुई किताब ‘हमसफर: हिंदी सिनेमा आैर संगीत’ से लिया गया है.

अलाना एफएम, फलानी पार्टी !

इलेस्ट्रेशनः मनीषा यादव
इलेस्ट्रेशनः मनीषा यादव

हिमेश रेशमिया का एक कालजयी गीत है. ‘मन का रेडियो बजने दे जरा.’ चुनावों के मौसम में मन की बात करना हालांकि बेमानी-सा है क्योंकि पहले तो यह सामान्य ज्ञान है कि आपके मन की किसी को पड़ी नहीं है, दूसरे क्योंकि प्रवचनी सुषमा स्वराज चुनावी हर्फो में सच कह ही चुकी हैं, ‘चुनाव के आखिर में गिनती मनों की नहीं, मतों की होती है’. इसलिए जरूरी है कि तन-मन से ज्यादा धन-बल-शस्त्र-शत्रु-बदलाव-क्रांति-लहर-विकास-रोजगार-जाति जैसे शब्दों से वाक्य-विन्यास करें क्योंकि यही शब्द मतों की हर-हर गंगे हैं, डांस आफ डेमोक्रेसी में समां बांधने वाला संगीत है. इन्हीं में सब्जबाग दिखाने की ईश्वरीय शक्ति है. 2014 के इन आम चुनावों में वैसे भी सब्जबाग, ईश्वर और सोशल मीडिया ही परम सत्य है.

कुछ साल पहले का परम सत्य अलग था. तब चुनावों में राजनीतिक रैलियों का कोई विकल्प नहीं था. वही यथार्थ होता था और वहीं पर युद्ध समाप्त होता था. अब कई मैदान हैं जहां लड़ना है. टीवी अखबार तो थे भी, हैं भी लेकिन अब सोशल मीडिया के आक्रमण रूपी आगमन ने पार्टियों में ई-कार्यसेवकों की फौज खड़ी कर दी है. आप किसी रैली को तमाशे की ही तरह देखने चले गए और रात को जब लौटकर फेसबुक खोला तो पता चला आप उस पार्टी के पेज पर ऐसे टंगे हैं जैसे दशक पुराने उत्साही समर्थक हों. संवाद स्थापित करने वाले इन सब चतुर साधनों के बीच सीधा-साधा रेडियो कहीं पीछे छुप गया है. जैसे पुराने कपड़ों के ढेर के नीचे बचपन में दबा रह जाता था. और हम पृथ्वी का चक्कर लगाने में लगने वाली तेजी से पूरे घर में घूमते हुए उस मन के रेडियो को ढूंढ़ते थे और थोड़ी देर बाद थकने के बाद उसे भूलकर टीवी के सामने पालतीं मार बैठ जाते थे. आज भी वही हाल है. चुनाव प्रचार में रेडियो सबसे पीछे खड़ा एक हलका वार है.

आंकड़े आप से लेकिन अलग तरह से बात करते हैं. वे कहते हैं कि देश में तकरीबन 16 करोड़ लोग रेडियो सुनते हैं और जहां पिछले आम चुनावों में पार्टियों ने अपने एडवरटाइजिंग बजट का सिर्फ 2 से 5 प्रतिशत रेडियो एडवरटाइजिंग पर खर्च किया था, इस बार वही पार्टियां 10 से 15 प्रतिशत का खर्चा रेडियो पर कर रही हैं. देश के अलग-अलग शहरों के रेडियो जॉकी आंकड़े देते हैं कि इस चुनावी मौसम में दिल्ली जैसे बड़े शहरों में 10 सेकंड के रेडियो विज्ञापन की कीमत 1,000 रुपये से शुरू होती है और जबलपुर-जयपुर जैसे शहरों में तकरीबन 300 रुपए से. लेकिन चुनाव के दौर में आंकड़ों के फेर में कम ही पड़ना चाहिए. ये वह दौर होता है जब हमारी जनसंख्या के 0.01 प्रतिशत का सेंपल साइज लेकर ‘सभी’ पूरे देश की सारी नब्जों को बिल्कुल सटीक पकड़ते हुए देश का सबसे बड़ा ओपिनियन पोल कराने का दावा करते हैं, और एक परिणाम के साथ दूसरा परिणाम मुफ्त बांटते हैं. इसके बाद एक शख्स की लहर बनती है, लहर जिसे फिर बवंडर बनाने पर काम शुरू होता है.

आंकड़ों से इतर रेडियो की खूबी यह है कि ये वहां पहुंचता है जहां टीवी और सोशल मीडिया नहीं पहुंच पाता. मोची की दुकान पर, रेहड़ी पर, गन्ने के मधुशाला रस वाले कोनों पर, पंद्रह का नींबू पानी बेचने वाले हाथ ठेलों पर, गांवों में, टीवी की डिजिटल क्रांति से दूर घरों में. शहरों में अपर होता जा रहा मिडिल क्लास इसे कार में सुनता है. दफ्तर और घर के बीच रोज छोटे-छोटे सफर करने वाले लोग रास्ते, बस और मेट्रो में. एक बड़ा शहरी तबका रेडियो सिर्फ और सिर्फ तभी सुनता है जब वह नाई की दुकान पर बैठा होता है. कुछ शहरी लोगों की जिंदगी का यह एक अहम पुराना हिस्सा है तो काफी लोगों की जिंदगी का यह बिल्कुल भी हिस्सा नहीं है. जिन लोगों के पास संचार और मनोरंजन के दूसरे विकल्प हैं उनके लिए राजनैतिक पार्टियां अपने चुनावी एडवरटाइजिंग बजट का 80 फीसदी पैसा खर्च करती हैं. लेकिन वे लोग, जो जनसंख्या में एक बड़ी भागीदारी रखते हैं, और सिर्फ रेडियो तक अपनी पहुंच, क्या उनकी राजनीतिक समझ को रेडियो प्रभावित कर पाता है?

जवाब ‘ना’ की तरफ ज्यादा झुकता है लेकिन उसे ‘हैंस प्रूव्ड’ करने से पहले रेडियो को लेकर की जा रही चुनावी प्रचार की कोशिशों पर लिखना जरूरी है. पिछले चुनावों से ज्यादा ध्यान, वक्त और पैसा इस बार रेडियो पर विज्ञापन और जिंगल्स के लिए खर्च हुआ है, साफ सुनाई देता है. भाजपा अपनी मार्केटिंग में आगे है, ये भी साफ है. मोदी सबको नमस्कार कर भारत के भाग्य को बदलने के लिए वोट मांग रहे हैं. सौगंध खा रहे हैं. ‘शासक बहुत देख लिए आपने, एक सेवक को मौका देकर देखिए’ और ‘मैं आपको भरोसा देता हूं, आपके सपनों को पूरा करने के लिए मैं कोई कसर नहीं छोडूंगा’ की रटंतू विद्यार्थियों-सी रट से रेडियो पटा पड़ा है. सारे नेताओं ने अपने-अपने वोटरों की नप्ती कर ली है जिनके आधार पर बड़ी-बड़ी कंपनियां विज्ञापन, नारे और जिंगल्स बना रही हैं और रेडियो जॉकी भी इन्हें गानों से ज्यादा सुना रहे हैं. क्योंकि उन्हें भरोसा है, अच्छे दिन आने वाले हैं.

लेकिन रेडियो पर आने वाले विज्ञापनों के अच्छे दिन कब आएंगे, कह नहीं सकते. रेडियो मिर्ची से जुड़े आरजे रूपक के अनुसार, ‘रेडियो पर क्रिएटिविटी एक चैलेंज है. बजट की समस्या तो है ही लेकिन चुनावी विज्ञापन देने वाली पार्टियां सिर्फ अपनी बात जनता तक पहुंचाने में दिलचस्पी रखती है, उन्हें क्रिएटिविटी से कम ही मतलब होता है.’  रेडियो पर हमेशा से ही खराब स्तर के विज्ञापनों का बोलबाला रहा है. इस बार चुनाव प्रचार के रेडियो विज्ञापन भी उसी काई में लिपटे हुए हैं. पहले भी रहे हैं, लेकिन चूंकि इस बार पैसा बरसात की मुफ्त बौछारों-सा बहा है तो उम्मीद थी कि चुनावी विज्ञापन भी कोका-कोला विज्ञापनों के स्तर के तो होंगे ही. लेकिन ज्यादातर या तो टीवी पर आने वाले विज्ञापनों के आडियो ट्रैक भर हैं या फिर किसी चिरकुट कवि की मीटर पर चढ़ी आढ़ी-टेढ़ी नज्म. यह तो अच्छा हुआ कि चुनावों की इस ऋतु में गुलजार को दादा साहेब फालके सम्मान मिला और इस बहाने रेडियो ने गुलजार के गीत सुनाकर इन चुनावी विज्ञापनों से कुछ राहत दे दी. उसी दौरान यह खयाल भी आया कि काश चुनाव प्रचार भी गुलजारमय हो सकते! नफासत से, अदब से, बेअदब हुए बिना पार्टियां प्रचार करतीं. कोई पार्टी अपने प्रचार में 116 चांद की रातों का वादा करती, कोई कहती मैंने तेरे लिए ही सात रंग के सपने चुने हैं. कोई खाली बोर दोपहरों का ही मेनिफेस्टो में जिक्र कर देता, कोई आंखों को वीजा नहीं लगता जैसी गंभीर बात ही कह देता. कोई विज्ञापन भमीरी (झींगुर की आवाज के लिए प्रयुक्त शब्द) पढ़ने के बाद के सन्नाटों को समेट पाता, कोई तिल को तिल रहने देता, पहाड़ नहीं बनाता. लेकिन इस मुश्किल समय में, समय जो सदैव से मुश्किल रहा है, चुनाव रूमानी नहीं होते. उनमें कविता नहीं होती. वे तो प्रसून जोशी को भी साधारण कर देते हैं. और साधारण को असाधारण बताते जाते हैं. तब तक जब तक हम उन्हें प्रधानमंत्री नहीं बना देते.

लेकिन अगर आप चुनाव और उनके प्रचार में कविता नहीं ढूंढते तो गंभीरता तो अवश्य ही ढूंढ़ते होंगे. मगर सरकारी उदासीनता ने रेडियो को कम अधिकार देकर उसे सिर्फ चुनावी विज्ञापनों और जिंगल्स तक ही सीमित कर दिया है. एक माध्यम जिसकी पहुंच सर्वाधिक होनी थी, उसकी हानि हो चुकी है. हमारे यहां रेडियो पर चुनावी बहस नहीं होती, नेता इंटरव्यू नहीं देते, गवर्नेंस पर बात नहीं करते, और यह सब अमेरिका जैसे अनेको देशों में होता रहा है. एक मशहूर आरजे के मुताबिक, ‘आज के वक्त में आप कट कर नहीं रह सकते. सारी दुनिया पॉलिटिकल मुद्दों पर बात कर ही रही है लेकिन हम नहीं कर सकते. अजीब तो है, लेकिन नियम है, मानना पड़ता है.’ दिल्ली के एक दूसरे मशहूर एफएम के आरजे अपने गुस्से को छिपाते नहीं है, ‘यह समझ नहीं आता कि मुझे नेता के बारे में बात करने की इजाजत नहीं है लेकिन उस नेता को मेरे चैनल पर अपना ही विज्ञापन देने की इजाजत है. क्यों भाई? और अगर मैंने कभी गलती से भी कुछ राजनैतिक बात रेडियो पर कर दी तो उसी वक्त मुझे नोटिस देकर निकाल दिया जाएगा. खतरनाक तानाशाही है रेडियो में.’ विज्ञापन और जिंगल्स के अलावा रेडियो अगर चुनाव के लिए कुछ करता है तो चुनाव आयोग से करार, जिसके बाद रेडियो जॉकी महीने भर लोगों को वोट डालने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं. 92.7 बिग एफएम, भोपाल स्टेशन से जुड़े आरजे रवि इस करनी से खुश भी हैं, ‘हम लोग पिछले कुछ वक्त से हर एक घंटे में सुनने वाले को याद दिलाते हैं कि सीधी उंगली का उपयोग इस बार आपको जरूर करना है. बहुत मेहनत कर रहे हैं इसपर हम इस बार.’ लेकिन यह इसलिए होता है क्योंकि वोट करने के लिए जागरूकता लाना सोसाइटी में ‘कूल’ है अब. समाज सेवा की नई पीआर एक्सरसाइज. इसके अलावा कभी-भी कोई भी रेडियो जॉकी चुनाव से जुड़ी समझदारी भरी बात करता हुआ नहीं मिलता. हिंदुस्तान में आज भी रेडियो सिर्फ भूले-बिसरे गीत सुनाने वाला ही माध्यम है. गंभीरता उसकी फ्रीक्वेंसी नहीं है.

हालांकि रेडियो ने इतना तो कर ही दिया है कि रेहड़ी पर मूंगफली बेचने वाले मंगतू की मूंगफली के साथ मोदी भी बिक रहे हैं. लेकिन बस इतना ही. समाज की चेतना जागृति में कमर्शियल रेडियो का कोई योगदान नहीं है.

हिमेश रेशमिया का एक और कालजयी गीत है. जिंदगी जैसे एक रेडियो, अलग-अलग धुन सुनाती है. आपको दो बार उनका नाम पढ़कर और उसके आगे दो बार ही कालजयी आता देखकर क्रोध अवश्य आ रहा होगा, लेकिन आप यह तो मानेंगे ही न कि ‘हम मोदी जी को लाने वाले हैं, अच्छे दिन आने वाले हैं’ गीत की तुलना अगर आप हिमेश के इन गीतों से करेंगे तो हिमेश को मोदी से आगे ही पाएंगे!

‘हमें अपनी जमीन, अपना पानी और अपनी हवा वापस चाहिए’

सारा जोजफ । 68 । लेखिका। त्रिसूर, केरल
सारा जोजफ । 68 । लेखिका। त्रिसूर, केरल
सारा जोजफ. उम्र- 68 वर्ष.  लेखिका. त्रिसूर, केरल
सारा जोजफ. उम्र- 68 वर्ष . लेखिका. त्रिसूर, केरल

मैं एक लेखिका हूं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मैं कभी किसी राजनीतिक पार्टी का हिस्सा बनूंगी या कोई चुनाव लड़ूंगी. लेकिन पिछले कुछ सालों को देखें तो दुनिया भर में जनआंदोलनों की एक लहर चल रही है. विरोध करने और अपने अधिकारों के लिए लोग सड़कों पर निकले हैं. मुझे लगता है कि यही भावना भारत में भी दिखी जब भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लाखों युवा अन्ना हजारे के साथ हो गए और उस आंदोलन से अरविंद केजरीवाल की पार्टी उभरी.

मुझे लगता है कि लोग आज बेबस हैं और देश की कमान फिर अपने हाथ लेने के लिए हमें कुछ करना होगा. इसलिए मैं आम आदमी पार्टी से जुड़ी. मेरे लिए फंडिंग पर पार्टी की पारदर्शिता बहुत महत्वपूर्ण है. मुझे विश्वास है कि यह पारदर्शी व्यवस्था जारी रहेगी. नहीं तो मैं पार्टी में नहीं रहूंगी.

राष्ट्रीय मुद्दों पर भी ध्यान देना जरूरी है तो स्थानीय मुद्दों की भी उतनी ही बात होनी चाहिए. आज हमारे देश को कॉरपोरेट चला रहे हैं. उन्होंने भ्रष्टाचार के जरिये राजनीतिक वर्ग को खरीद लिया है. हमें अपनी जमीन, अपना पानी और अपनी हवा वापस चाहिए.

स्थानीय स्तर पर देखें तो त्रिसूर में बहुत सी समस्याएं हैं. यहां पर्याप्त विकास नहीं हुआ है. लोग आज भी बुनियादी जरूरतों के लिए संघर्ष कर रहे हैं. पेयजल की समस्या तो है ही, सफाई भी एक अहम मुद्दा है.

मुझे पता है कि अगर मैं चुन ली गई तो मुझे इस व्यवस्था से ही काफी चुनौतियां मिलेंगी. लेकिन अब कोई विकल्प नहीं है. अगर हमें अपना देश वापस चाहिए तो हमें लड़ना ही होगा. अगर आप सत्ता में आती है तो हम देश में एक जादुई बदलाव देखेंगे क्योंकि आजादी के 67 साल बाद हमारे पास अपने देश को एक मजबूत लोकतंत्र बनाने का अवसर होगा.

जो व्यवस्था हमारे सत्ताधारी प्रतिनिधि चला रहे हैं वह जनता के खिलाफ है. बहुत से लोग हैं जिन्हें कोई उम्मीद नहीं दिखती. यही वजह है कि वे वोट देने से बचते हैं. उन्हें कोई अच्छा विकल्प दिखता ही नहीं.

आप उम्मीद लेकर आई है. हम भ्रष्टाचार के खिलाफ हैं और पारदर्शिता के समर्थक. दूसरे क्षेत्रों में काम करने वाले लोग जो पहले राजनीति के प्रति अनिच्छुक थे उनको धीरे-धीरे आप में उम्मीद दिख रही है और वे हमारा समर्थन कर रहे हैं.

(अवलोक लांगर से बातचीत पर आधारित)

‘लोग जाति और संप्रदाय की राजनीति से तंग आ चुके हैं’

रवि कृष्ण रेड्डी. उम्र-39. सॉफ्टवेयर इंजीनियर. बैंगलोर रूरल. फोटोः बैंगलोर न्यूज फोटोज
रवि कृष्ण रेड्डी. उम्र- 39. सॉफ्टवेयर इंजीनियर. बैंगलोर रूरल.
फोटोः बैंगलोर न्यूज फोटोज

मैं मूल रूप से अनेकल तालुक के बोम्मासांद्रा गांव का रहने वाला हूं. मेरा परिवार किसानी का काम करता था. मेरी पढ़ाई-लिखाई कन्नड़ माध्यम के एक स्कूल में हुई. सॉफ्टवेयर इंजीनियरिंग करने के बावजूद कन्नड़ साहित्य हमेशा मेरी जिंदगी से जुड़ा रहा. अमेरिका में रहने के बावजूद मैं अपनी जड़ों से जुड़ा रहा. सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में नौकरी मिलने के बाद 2000 में मैं अमेरिका चला गया था. कैलीफोर्निया में रहने के बावजूद 2003 तक मेरी कन्नड़ भाषा के लेखक के तौर पर थोड़ी पहचान बन गई थी.

2010 में मैं अमेरिका से वापस आया. मकसद था कर्नाटक के समाज और राजनीति में कोई सार्थक दखल देना. शुरुआत करने के बाद हमने भू अधिसूचना रद्द करने के एक मामले में भाजपा नेता बीएस येद्दियुरप्पा के खिलाफ एक मामला दायर किया. हमने विक्रांत कर्नाटक नाम का एक प्रकाशन भी शुरू किया. मैं बैंगलोर में स्थानीय निकाय का चुनाव भी लड़ चुका हूं. मुझे लगा कि आप उन लोगों के लिए सबसे बढ़िया विकल्प है जो जाति और समुदाय की राजनीति से तंग आ चुके हैं.

कर्नाटक में चुनावों के नतीजे लगभग पूरी तरह से जाति के समीकरणों पर निर्भर करते हैं. हमारा यकीन है कि हम एक नई परंपरा शुरू करेंगे. कांग्रेस हो या भाजपा या फिर जद (से), इन पार्टियों में सभी लोग या तो सांप्रदायिक हैं या जातिवादी या फिर भ्रष्ट. अगर आप 2012 के विधानसभा चुनावों के नतीजे देखें तो वोक्कालिगा समुदाय ने जद (से) का समर्थन नहीं किया जैसी संभावना जताई जा रही थी. उधर, लिंगायत समुदाय ने येद्दियुरप्पा को समर्थन नहीं दिया जिनकी पार्टी केजेपी सिर्फ छह सीटें जीत सकीं. इसका मतलब यह है कि लोग जाति को लेकर उतने आग्रही नहीं है जिनता राजनीतिक पार्टियां हमें बताती हैं.

दूसरी पार्टियों की तरह हमारे पास न तो पैसे की ताकत है न एसी गाड़ियां. हम दानदाताओं पर निर्भर हैं. निश्चित रूप से यह थकाने वाला अनुभव है लेकिन मैं इसके लिए तैयार हूं. भूलिए नहीं कि मैं एक गांव से ताल्लुक रखता हूं. मेरे निर्वाचन क्षेत्र में किसानों की बहुत सी दिक्कतें हैं. भूजल, रेशम की खेती की बेहतरी और किसानों को न्यूनतम समर्थन कुछ ऐसे अहम मुद्दे हैं जिन पर मैं ध्यान केंद्रित कर रहा हूं. राष्ट्रीय राजनीति में भ्रष्टाचार बड़ा मुद्दा है और उसका असर यहां भी देखा जा सकता है. आप एक बड़ी राजनीतिक ताकत बनने जा रही है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती.

(जी विष्णु से बातचीत पर आधारित)

‘बाहरी होना हमें दूसरों पर एक स्पष्ट बढ़त देता है’

राजमोहन गांधी. उम्र- 79. लेखक, शिक्षाविद्. पूर्वी दिल्ली
राजमोहन गांधी. उम्र-79.
लेखक, शिक्षाविद्. पूर्वी दिल्ली. फोटोः पुष्कर व्यास

मेरा फैसला यह था कि मैं राजनीति में नहीं जाऊंगा. मैंने सोचा था कि यह जो अप्रत्याशित और असाधारण आंदोलन (लोकपाल आंदोलन) है, मैं उसे समर्थन दूंगा. फिर मैंने सोचा कि लाखों युवा इसमें शामिल हैं और मैं सिर्फ किनारे खड़ा देख रहा हूं. हालांकि अपने अकादमिक जीवन से मैं खुश था फिर भी मैं जानता था कि मैं आखिर में इस धारा में शामिल हो ही जाऊंगा.

आप ने यह धारणा बना दी है कि कोई भी, कहीं भी, किसी भी बड़ी राजनीतिक पार्टी से जुड़े बिना और किसी बड़े वोट बैंक के बगैर राजनीति में दाखिल हो सकता है. यह समझ बढ़ रही है कि हां, किसी और क्षेत्र में काम करने के बावजूद भी आप राजनीति में दाखिल हो सकते हैं और न सिर्फ दाखिल हो सकते हैं बल्कि जीत भी सकते हैं.

जहां तक मुद्दों की बात है तो भ्रष्टाचार सिर्फ राष्ट्रीय मुद्दा नहीं है, बल्कि एक स्थानीय मुद्दा भी है. शिक्षा की गुणवत्ता की बात हो, अस्पतालों या बुनियादी सुविधाओं की दुर्दशा या फिर रोजमर्रा की जिंदगी में होने वाली तकलीफें, भ्रष्टाचार की मार सबसे ज्यादा आम आदमी पर ही पड़ती है.

मेरे चुनाव क्षेत्र पूर्वी दिल्ली में बुनियादी ढांचे की बदहाली और झुग्गी झोपड़ी कालोनियों के नारकीय हालात, दो ऐसे मुद्दे हैं जिन पर तत्काल कुछ करने की जरूरत है. अगर मैं जीता तो प्रभावी बदलाव लाने के लिए मैं एमसीडी, डीडीए सहित दिल्ली की तमाम प्रशासकीय इकाइयों के साथ मिलकर काम करूंगा.

हालांकि मुझे लगता है कि यह दो कारकों पर निर्भर करेगा. पहला यह कि आप अगली सरकार का हिस्सा होगी या नहीं या फिर मैं विपक्ष में बैठूंगा. दोनों ही स्थितियों में मेरी भूमिका अलग होगी, लेकिन हर स्थिति में बुनियादी ढांचे से जुड़ी समस्याओं पर समग्रता से ध्यान देना होगा.

दूसरा कारक यह है कि सुधारों की हमारी जो महत्वाकांक्षी योजना है, उसमें विपक्ष के अड़ंगा लगाने की पूरी संभावना है. इसके बावजूद हम अपना काम करते रहेंगे.

आज कांग्रेस से लोग निराश हैं. भाजपा के प्रति एक अनिश्चितता का माहौल है. ऐसे में मुझे लगता है कि राजनीतिक व्यवस्था में बाहरी होना एक ऐसा तथ्य है जो हमें दूसरों पर बढ़त देता है. दोनों मुख्य पार्टियों की सरकारों का रिकॉर्ड अच्छा नहीं रहा है जबकि हमने 49 दिन की अपनी सरकार में प्रशासन के मोर्चे पर अच्छा काम किया है.

हमारा एक भी मंत्री या विधायक ऐसा नहीं है जिसने सरकार में रहते हुए किसी से एक भी रुपया मांगा हो और इस दावे को अब तक किसी ने भी नहीं झुठलाया है. पिछले कुछ सालों के दौरान कौन सी राज्य सरकार है जो ऐसा दावा करने की स्थिति में हो? इसलिए दिल्ली में अगला मौका मिलने या राष्ट्रीय स्तर पर कोई अवसर मिलने के बाद यही वह आधार है जिसे हमें बचाना होगा और उस पर अपनी इमारत खड़ी करनी होगी. अगर हमने अपनी यह प्रतिष्ठा गंवा दी तो यह हमारे लिए बहुत बुरा होगा.

(अवलोक लांगर से बातचीत पर आधारित)

‘ईमानदारी से देशसेवा करने की इच्छा रखने वाले लोगों के पास भी अब एक विकल्प है’

मीरा सान्याल । 53 । पूर्व सीईओ, आरबीएस। मुंबई दक्षिण
मीरा सान्याल । 53 । पूर्व सीईओ, आरबीएस। मुंबई दक्षिण
मीरा सान्याल. उम्र-53. पूर्व सीईओ, आरबीएस. मुंबई दक्षिण
मीरा सान्याल. उम्र- 53. पूर्व सीईओ, आरबीएस. मुंबई दक्षिण

अपनी जिंदगी में अब तक ज्यादातर मेरा काम नीतिगत मामलों से ही जुड़ा रहा है. हालांकि मैं बैंकिंग क्षेत्र में थी, लेकिन मैंने सरकार, योजना आयोग और रिजर्व बैंक के साथ कई श्वेत पत्रों पर काम किया है. मैं अपनी जिंदगी के उस दौर का आनंद ले रही थी. लेकिन 2008 में मुंबई में हुए आतंकी हमले ने मुझे बदल दिया. मुझे लगा कि हममें से बहुत से लोग जो हो रहा है उसका ठीक से  विश्लेषण किए बिना सिर्फ हर चीज की आलोचना किए जा रहे हैं. घर पर बैठकर व्यवस्था की बुराई करने में हम लोगों का कोई सानी नहीं. मुझे लगा कि कम से कम मेरे लिए तो वक्त आ गया है कि सिर्फ आलोचना करने से आगे जाकर कुछ किया जाए.

यही वजह है कि मैं 2009 के आम चुनाव में लड़ी थी. यह मेरी जिंदगी के सबसे अच्छे तजुर्बों में एक था. मैं चुनाव हार गई, लेकिन मैंने बहुत कुछ सीखा. उसी समय मुझे महसूस हो गया था कि बाकी जिंदगी मुझे यही करना है. आम आदमी पार्टी ने सच्चे संवाद का एक मंच तैयार किया है. अगर हम ऐसा विकास चाहते हैं जिसमें सबकी भागीदारी हो और जिसका लाभ सबको मिले तो इसके लिए हमें सबकी बात सुननी होगी. आप ने मेधा पाटकर और मुझे जैसे लोगों को साथ लाने और एक-दूसरे से बात करने का काम किया है. हम लोग चाहते हैं कि काम के अवसर भी बढ़ें और उसके साथ पर्यावरण भी सुरक्षित रहे. विकास के लिए आम आदमी पार्टी की यही नीति है. हमारा प्रचार जाति और वर्ग के आधार पर नहीं हो रहा है. हम उन मुद्दों की बात कर रहे हैं जो जाति, वर्ग, धर्म और भाषा से परे जाकर हम सबको प्रभावित करते हैं. समस्याएं दो हैं—भ्रष्टाचार और अक्षम प्रशासन. हममें से कइयों को लगता है कि भारत एक अहम मोड़ पर पहुंच गया है और अक्षम प्रशासन देश का भविष्य चौपट कर रहा है. अब तक हम भी यही मानते थे कि फिलहाल राजनीतिक परिस्थितियों में हमारे पास ले देकर वही पुराने विकल्प हैं. 2009 में जब मैंने चुनाव लड़ने का फैसला किया तो कॉरपोरेट जगत में मेरे कई दोस्त थे जिन्होंने मुझसे कहा कि वे भी राजनीति में आना चाहते हैं. पर उन्हें लगता था कि इसमें बहुत ही ज्यादा गंदगी है. आप ने एक विकल्प पेश किया है. इसने उन बुद्धिमान लोगों को एक रास्ता दिया है जो ईमानदारी और आदर्शों के बूते देश की सेवा करना चाहते हैं. इसलिए इसके जरिये अच्छे लोग राजनीति में आ रहे हैं. मुझे यकीन है कि जिन बहुत से लोगों ने अतीत में वोट नहीं दिया है वे इस बार जरूर अपने अधिकार का इस्तेमाल करेंगे.

अपने चुनाव क्षेत्र में मैं दो चीजें कर रही हूं—सफाई यात्रा और स्वराज बैठक. हम लोकल ट्रेन में सवार हो जाते हैं, हर स्टेशन पर उतरते हैं और वहां सफाई करते हैं. हम अपने निर्वाचन क्षेत्र में पैदल घूमते हैं और चलते-चलते झाड़ू लगाते हैं. हम लोगों से जुड़ रहे हैं. हम यहां व्यवस्था की सफाई करने आए हैं और इसके जरिये हम यही दिखाते हैं.

जो मुद्दे हैं उनमें से एक अहम मुद्दा यह है कि लोगों के लिए सस्ते मकान की व्यवस्था कैसे हो जिससे वे इज्जत की जिंदगी जी सकें. मुद्दा यह भी है कि उद्यमशीलता को प्रोत्साहित करने वाला माहौल कैसे बने. इसमें लालफीताशाही को खत्म करना, प्रक्रियाओं को सरल बनाना और भ्रष्टाचारियों को दंडित करना शामिल है.

दरअसल लोग भ्रष्टाचार को लेकर गुस्से में हैं और स्वच्छ प्रशासन की उम्मीद कर रहे हैं. ऐसे प्रशासन में मेरे हिसाब से छह बुनियादी चीजें होनी चाहिए—सुरक्षा, स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, अच्छी सड़कें और बिजली.

(जी विष्णु से बातचीत पर आधारित)