नरेंद्र मोदी का विकास का मॉडल जैसा भी हो, प्रचार का मॉडल बेहद शानदार है. लोगों को उनसे करिश्मे की उम्मीद है, लेकिन खतरा भी यहीं से पैदा होता है
इन दिनों हर तरफ नरेंद्र मोदी के करिश्मे की चर्चा है. हालांकि यह करिश्मा अभी हुआ नहीं है, लेकिन लोगों को इसके होने पर कुछ ऐसा यकीन है जैसे यह किसी निकट भविष्य का नहीं, निपट वर्तमान का सच है. मोदी कइयों की निगाह में अभी से प्रधानमंत्री हो चुके हैं.
दूसरा करिश्मा यह है कि गुजरात में नरेंद्र मोदी ने जो किया, लोग उसको भूलने को तैयार दिख रहे हैं और उसकी जगह वह सबकुछ याद कर रहे हैं जो उन्होंने पता नहीं, किया या नहीं.
गुजरात का जो भी विकास है, वह गुजरातवासियों के अलावा और बहुत सारे लोगों की भी देन है. लेकिन नरेंद्र मोदी का प्रताप यह है कि सबके श्रेय की जमीन हड़पने में वे कामयाब हैं. और यह छुपाने में भी कि इस विकास के बावजूद भारतीय समाज में जो भी आर्थिक-सामाजिक विषमताएं हैं, वे गुजरात के शहरों-गांवों में भी वैसी ही हैं. लोग जैसे मान चुके हैं कि उन्होंने एक बहुत खुशहाल गुजरात बनाया है और पूरे देश को भी ऐसा ही बना डालेंगे. इस लिहाज से गुजरात के विकास का मॉडल जैसा भी हो, उसके प्रचार का मॉडल बेहद शानदार है.
कहा जा सकता है कि संसदीय राजनीति अंततः जनता की मान्यताओं, उसके विश्वासों से ही तय होती है और अगर मोदी यह विश्वास जीतने में कामयाब हैं तो उन्हें प्रधानमंत्री बनने का भी हक है. खुद मोदी यह मान कर चल रहे हैं कि यह विश्वास उन्होंने हासिल कर लिया है. इसीलिए हाल के दिनों में उनके टीवी इंटरव्यू उनका एक बदला हुआ रूप लेकर आते हैं. एक ऐसे नेकदिल, भले नेता का, जो सबकुछ भूलने को तैयार है और सबको साथ लेकर आगे बढ़ने का जज्बा दिखा रहा है.
लेकिन इस नेकदिली में बदलने की भावना कितनी है और राजनीतिक मजबूरियां कितनी यह एक बड़ा सवाल है. राष्ट्रीय राजनीति की पेचीदगियों से दो-चार होते हुए नरेंद्र मोदी को कई बातें समझ में आ गई हैं. एक तो यही कि यहां किसी इकहरी पहचान से काम नहीं चलेगा. यही वजह है कि उन्होंने अचानक नई पहचानें खोजनी और पेश करनी शुरू कर दीं हैं. उन्होंने गुजरात में तीन विधानसभा चुनाव लड़े लेकिन कभी यह राज नहीं खोला कि कभी बचपन में वे चाय भी बेचा करते थे. इस बारे में उनकी स्मृति महज कुछ महीने पहले लौटी. इसी तरह वे अपनी पिछड़ा पहचान को लेकर भी कभी बहुत सजग और उत्साहित नहीं दिखे. लेकिन इन चुनावों में उन्हें भाजपा के पिछड़े चेहरे की तरह पेश किया जा रहा है. अब वे महिलाओं, दलितों और बुनकरों के भी पैरोकार बन रहे हैं.
जाहिर है, यह भारतीय राजनीति का दबाव है जो नरेंद्र मोदी को बदलने पर मजबूर कर रहा है. इस लिहाज से आश्वस्त हुआ जा सकता है कि यदि वे भारत के प्रधानमंत्री बन गए, जिसका उन्होंने खुद को भरोसा-सा दिला रखा है, तो वे अपने सार्वजनिक व्यवहार में बदले हुए नरेंद्र मोदी होंगे. चाहे न चाहे, समरसता की भाषा बोलने वाले और सबके लिए थोड़ी-थोड़ी जगह निकालने वाले.
यानी नरेंद्र मोदी से डरने की जरूरत नहीं है. वे उसी सूरत में प्रधानमंत्री बन पाएंगे जब खुद को बदलेंगे और अगर वे चाहते होंगे कि उनका प्रधानमंत्रित्व दीर्घजीवी हो तो उन्हें अपनी विचारधारा में भी जरूरी फेर-बदल करने होंगे. आखिर जिस देश के वे प्रधानमंत्री बनने जा रहे हैं वह बहुत बड़ा और बड़ी अपेक्षाएं रखने वाला देश है. लेकिन इन अपेक्षाओं के पंख जैसे भी हों, इनके पांव कहां हैं?
नरेंद्र मोदी की जो तथाकथित लहर बताई जा रही है, उसके पीछे बहुत से कारण हैं. सच तो यह है कि 2010 में अन्ना का आंदोलन शुरू होने से पहले भाजपा एक हताश पार्टी थी. टीम अन्ना ने यूपीए के भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाया जिसे मध्यवर्ग का व्यापक समर्थन मिला. बढ़ती हुई महंगाई ने इस आग में घी का काम किया. अब नरेंद्र मोदी के पीछे बड़े पूंजीपतियों का हाथ देखने वाले केजरीवाल तब सिर्फ कांग्रेसी नेताओं का भ्रष्टाचार देख रहे थे. लेकिन टीम अन्ना और उसकी कोख से निकली आम आदमी पार्टी ने जो ऊर्जा और उम्मीद पैदा की, जो आवेग फूंका, वह खुद उन्हें नहीं संभाल सकी. इसी के बाद देश को भ्रष्टाचार से मुक्त कराने नरेंद्र मोदी चले आए. उनके पीछे आरएसएस और भाजपा के दोयम दर्जे के नेताओं का बल था. इस बल के सहारे पहले उन्होंने पार्टी के भीतर के असंतोष को दबाया और फिर विराट प्रचार-उपक्रम के जरिये यह हवा बनाई कि नरेंद्र मोदी आएंगे तो सारे दुख दूर हो जाएंगे.
लेकिन वे अगर आ गए और सारे दुख दूर न हुए तो? खतरा दरअसल यहीं से पैदा होता है. इसके बाद भाजपा समझाना चाहेगी कि देश भर में गुजरात मॉडल लागू करने के रास्ते की बाधाओं को उसी तरह हटाना होगा जैसे गुजरात में हटाया गया. इसके बाद उन तमाम उदार और प्रगतिशील लोकतंत्रवादियों को ठिकाने लगाया जाएगा जो विराट पूंजी और बाजारवाद के खिलाफ हैं.
लेकिन इतने भर से दुख कम नहीं हुए तो? इसके बाद लागू होगा राष्ट्रवाद का वह एजेंडा जिसके आगे बड़े-बड़े दुख छोटे जान पड़ते हैं. चीन और पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात अभी ही की जा रही है. वह न संभव हुआ तो अपने यहां ऐसे तत्वों से निबटा जाएगा जो चीन और पाकिस्तान के साथ दोस्ती भरे रिश्ते रखना चाहते हैं.
अगर यह सब न हो और नरेंद्र मोदी अपने नए अवतार में बिल्कुल लोकतांत्रिक हो जाएं तो सबसे अच्छा. लेकिन इतिहास इसकी तस्दीक नहीं करता. लोकतांत्रिक सरकारों की विफलता से पैदा हताशा को एक मसीहाई मुद्रा के साथ अपने हक में मोड़ते हुए फासीवादी ताकतें ऐसे ही सत्ता पर काबिज होती रही हैं. इसकी कीमत आने वाले वक्तों को चुकानी पड़ती है.
27 अप्रैल की बात है. बिहार के सहरसा में एक चुनावी सभा निबटाकर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मधेपुरा के लिए उड़ान भरी ही थी कि अचानक तेज आंधी चलने लगी. चारों तरफ धूल छा गई. हेलीकॉप्टर डगमगाने लगा. मजबूरी में पायलट को वहीं इमरजेंसी लैंडिंग करनी पड़ी जहां से वह थोड़ी ही देर पहले उड़ा था. इसके बाद नीतीश कुमार को सड़क के रास्ते जाना पड़ा.
परेशान करने वाली कुछ ऐसी ही धूल और आंधी इन दिनों नीतीश कुमार के लिए चुनावी सर्वेक्षणों में छाई हुई है. कई सर्वेक्षण और विश्लेषण बिहार में उनकी पार्टी जदयू को चुका हुआ मान चुके हैं. उनके मुताबिक राज्य में भाजपा की लहर है और जदयू, राजद-कांग्रेस गठबंधन से भी पीछे रहने वाला है.
लेकिन क्या वास्तव में ऐसा है? क्या सच में नीतीश कुमार और जदयू को चुका हुआ मान लिया जाए? इसी से यह सवाल भी उठता है कि अगर इस लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार की पार्टी को करारी शिकस्त मिलती है तो क्या बिहार की राजनीति में भी उनका पराभव शुरू हो जाएगा? क्या अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी वे हाशिये के नेता बन जाएंगे?
इस सवाल को हम कइयों के सामने उछालते हैं. मुख्यतौर पर जदयू, भाजपा और राजद के नेताओं के सामने. जदयू, राजद और भाजपा नेताओं से बात करने का कोई खास मतलब नहीं निकलता. सब रटा-रटाया जवाब देते हैं. एक पंक्ति वाले सवाल का दो-तीन पंक्तियों में संक्षिप्त जवाब. भाजपा खेमे के वाक्य अलग-अलग होते हैं, लेकिन मतलब कुछ ऐसा होता है-‘ अगर-मगर लगाकर काहे पूछ रहे हैं कि अगर नीतीश कुमार की करारी हार हो जाए! वे बुरी तरह हार चुके हैं.’ राजद के नेताओं का जवाब भी कुछ वैसा ही होता है लेकिन वे एक-दो कदम और आगे बढ़कर कहते हैं, ‘ नीतीश कुमार की कहानी खत्म हो चुकी है बिहार में. एक बार फिर राजद की सरकार आने वाली है.’ और इन दोनों के बाद जब जदयू के नेताओं से बात होती है तो वे गुस्से में आ जाते हैं और कहते हैं कि ‘भविष्यवक्ता नहीं बनिए, रिजल्ट आने दीजिए, सब सच सामने आएगा. देख लीजिएगा कि जदयू सबसे बड़ी पार्टी रहेगी.’
चुनाव परिणाम से पहले इस सवाल का जवाब ऐसा ही मिलेगा, इसकी पूरी उम्मीद भी थी. लेकिन चुनाव की घोषणा के बाद से ही राजनीतिक पंडितों के विश्लेषणों, मीडिया हाउसों के सर्वेक्षणों और शहरी चौक-चौराहों पर जमने वाली चौपालों ने जिस तरह का माहौल बना दिया है, उसमें यह सवाल काल्पनिक होते हुए भी राजनीतिक गलियारों में तैर रहा है कि क्या लोकसभा चुनाव में करारी हार के बाद नीतीश कुमार विधानसभा चुनाव में भी हाशिये के नेता बन जाएंगे.
इसका जवाब मुश्किल भी है और आसान भी. आसान उनके लिए, जो एकांगी भाव से पॉपुलर मीडिया और एक मुखर वर्ग द्वारा बनाए गए माहौल के आधार पर बिहार की राजनीति का आकलन कर रहे हैं. वे सीधे कह देते हैं कि बिल्कुल, लोकसभा में हार के बाद नीतीश को बिहार की सत्ता से भी बेदखल होना पड़ेगा और अगले साल होनेवाले विधानसभा चुनाव में भी उन्हें इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ेगी. जो विश्लेषक पॉपुलर मीडिया की बनाई राय और मुखर वर्ग द्वारा बनाए गए माहौल से अलग अपनी राजनीतिक समझ भी रखते हैं और उस आधार पर गहराई से अध्ययन कर पड़ताल करते हैं, वे कहते हैं कि ऐसा कहना अभी संभव नहीं. उनकी मानें तो लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी की हार का मतलब बिहार की राजनीति में भी उनका अंत कतई नहीं माना जाना चाहिए.
दोनों ही तरह के विश्लेषकों की राय को एक सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता. लेकिन लोकसभा चुनाव परिणाम का बिहार की राजनीति पर क्या असर पड़ सकता है, नीतीश कुमार की राजनीति पर कितना प्रतिकूल असर पड़ सकता है, इसके बारे में फटाफट राय बनाने की बजाय बिहार की राजनीति में फिलहाल बने समीकरण देखने होंगे, इतिहास के कुछ पन्ने पलटने होंगे और साथ ही इस बार के लोकसभा चुनाव में तीन प्रमुख दलों जदयू, भाजपा और राजद द्वारा अपनाई गई चुनावी रणनीति को भी देखना-समझना होगा.
कैसी-कैसी मुश्किलें
लोकसभा चुनाव में अगर सच में जदयू को बुरी हार मिली तो क्यों नीतीश कुमार के लिए बिहार में सत्ता को बनाए-बचाए रखना भी मुश्किल हो जाएगा और क्यों वे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में हाशिये की तरफ जा सकते हैं, इसके पीछे कई तर्क एक साथ दिये जाते हैं. लोकसभा चुनाव के नतीजे आने में तो अभी देर है, लेकिन उसके पहले ही कई ऐसी घटनाएं हो चुकी हैं जिनसे नीतीश चक्रव्यूह में घिरते नेता जैसे दिखे और कई बार बेहद कमजोर भी. इस लोकसभा चुनाव में नीतीश की पार्टी अनुमानों-आकलनों के विपरीत जाकर दहाई में भी सीटें लाती है तो भी कुछ चीजें हैं जो उसके लिए विधानसभा चुनाव में परेशानी का सबब होंगी. जैसे हालिया दिनों में पहली बार ऐसा हुआ जब जदयू के भीतर ही नीतीश के खिलाफ बोलने वाले कई नेताओं का उभार हुआ. शिवानंद तिवारी को तो नीतीश ने बाहर का रास्ता दिया दिया, लेकिन कई नेता हैं जो जदयू में रहते हुए ही नीतीश पर निशाना साधते रहे हैं. नीतीश के खासमखास मित्र व राज्य में मंत्री नरेंद्र सिंह से लेकर वृषण पटेल तक उनके खिलाफ बोलते रहे.
रणनीति पासवान (दायें) और उपेंद्र कुशवाहा को साथ करकेमोदीनीत भाजपा ने नीतीश की घेरेबंदी की है. फोटोः पीटीआई
दूसरी अहम घटना पार्टी से निकलनेवाले नेताओं के रूप में हुई. नीतीश ने अपने दल से जितने लोगों को मजबूरी में बाहर निकाला, लगभग उतने ही महत्वपूर्ण नेताओं ने उनका साथ भी छोड़ा. उनकी कैबिनेट में महत्वपूर्ण सहयोगी रहीं दो महिला मंत्रियों का चुनाव के पहले ही साथ छोड़ देना प्रतिकूल संदेश देनेवाला रहा. इनमें एक रेणु कुशवाहा थीं और दूसरी परवीन अमानुल्लाह. नीतीश महिलाओं के मजबूत नेता माने जाते रहे हैं. इस हिसाब से कैबिनेट से दो महिलाओं के एक-एक कर निकल जाने से गलत संदेश गए. उसके बाद नीतीश के खास सिपहसालार रहे रणवीर यादव, जिन्होंने बीते साल एक सभा में हवा में कार्बाइन लहराकर सुर्खियां बटोरी थीं, की पत्नी और जदयू विधायक कृष्णा यादव भी पलटी मारकर राजद के टिकट पर चुनाव लड़ने मैदान में आ गईं. बाहुबली मुन्ना शुक्ला की पत्नी व जदयू विधायक अन्नु शुक्ला ने पिछले लोकसभा चुनाव में वैशाली से जदयू के टिकट पर चुनाव लड़कर राजद के रघुवंश प्रसाद सिंह जैसे नेता को कड़ी चुनौती दी थी. उन्होंने भी इस बार टिकट नहीं मिलने पर वैशाली से निर्दलीय लड़ने का फैसला कर नीतीश कुमार को झटका ही दिया.
इन्हें फुटकर बातें भी कह सकते हैं जिनका चुनाव के पहले होना संभावित भी था. लेकिन बड़े नुकसान के भी कुछ संकेत मिले जिनका असर नीतीश कुमार की राजनीति पर अगले कुछ समय में पड़ेगा. परवीन अमानुल्लाह ने साथ छोड़ा तो इसकी धमक राजधानी पटना और परवीन के विधानसभा क्षेत्र साहेबपुर कमाल तक ही सुनाई पड़ी. (हालांकि एक वर्ग है जो मानता है कि इसका थोड़ा बहुत असर मुस्लिम मतदाताओं पर भी पड़ेगा क्योंकि परवीन अमानुल्ला की एक पहचान सैयद शहाबुद्दीन की बेटी के रूप में भी रही है), लेकिन इससे भी बड़ा नुकसान लोकसभा चुनाव शुरू होने के बाद हुआ जिसका असर पूरे बिहार में माना गया और जिसकी भरपाई करने में नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को वक्त लग सकता है. यह घटना मुस्लिम बहुल किशनगंज संसदीय सीट से जदयू उम्मीदवार अख्तरुल ईमान द्वारा अचानक ही मैदान से हट जाने के रूप में घटित हुई. अख्तरुल हालिया वर्षों में तेज-तर्रार और वाचाल मुस्लिम नेता के तौर पर बिहार में उभरे हैं. वे कुछ माह पहले ही राजद से पलटी मारकर नीतीश कुमार की पार्टी में शामिल हुए थे. लेकिन किशनगंज से टिकट लेकर उन्होंने ऐन वक्त पर चुनाव न लड़ने का फैसला कर डाला. उन्होंने कांग्रेस-राजद गठजोड़ का समर्थन करके संकेत दे दिया कि भाजपा से लड़ने में और दूसरे शब्दों में कहें तो नरेंद्र मोदी को रोकने में लालू यादव और कांग्रेस ही सक्षम पार्टी है, जदयू नहीं. नीतीश कुमार की पार्टी मंे कई लोग हैं जो ऐसा मानते हैं. जदयू के एक राज्यसभा सांसद कहते भी हैं, ‘ईमान प्रकरण से चुनाव में हमें एक बड़ा झटका लगा और बड़े नुकसान की भी गुंजाइश है.’
जानकार मानते हैं कि भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार जिस वोट बैंक के सहारे चुनावी मैदान में उतरे हैं उसमें एक अहम फैक्टर मुस्लिम मतदाताओं का ही है. जदयू को पता है कि अगर इस समूह को उनकी पार्टी नहीं संभाल पाएगी तो फिर लालू प्रसाद को मजबूत होने से रोकना आसान नहीं होगा. कारण यह कि लालू प्रसाद कांग्रेस के साथ मिलकर सांप्रदायिकता से लड़ने वाले और भाजपा को रोकन ेवाले नेता के तौर पर फिर से स्थापित होंगे और इसका असर बिहार की राजनीति पर भी पड़ेगा. बिहार में आगे की राजनीति जारी रखने के लिए भी नीतीश को मुस्लिमों का वोट सहेजना जरूरी होगा क्योंकि इस बार के लोकसभा चुनाव में अचानक ही सवर्णों का एक बड़ा खेमा और विशेषकर भूमिहार जाति उनसे बहुत दूरी बना चुकी है. भूमिहारों का अचानक ही नीतीश से खिसक जाना उनके लिए काफी नुकसानदेह हो सकता है. इसलिए नहीं, क्योंकि भूमिहारों की आबादी बड़ी है बल्कि इसलिए क्योंकि भूमिहारों और यादवों को बिहार की राजनीति में सबसे मुखर जाति माना जाता है. धारणा रही है कि एक राजनीतिक माहौल बनाने में इन दोनों जातियों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है. भूमिहारों और उसके जरिये सवर्णों के एक बड़े समूह का नीतीश से मुंह मोड़ना इसलिए भी बुरा साबित हो सकता है, क्योंकि नीतीश कुमार पर अपने आठ-नौ सालों के कार्यकाल में इस जाति विशेष को तरजीह देने का आरोप भी लगता रहा है. कुरमी को ताज, भूमिहारों को राज जैसे नारे उछाले जाते रहे हैं.
इस तरह देखें तो अगर सच में मुस्लिम मतदाताओं ने इस लोकसभा चुनाव में नीतीश से मुंह मोड़ लिया होगा और सवर्णों का एक खेमा यही पैटर्न अपनाए रखेगा तो आगे के दिनों में जदयू की राह बेहद मुश्किल होती जाएगी. इसकी दूसरी वजह यह भी है कि भाजपा बहुत ही चतुराई से नीतीश के कोर वोट बैंक यानी कोईरी-कुरमी गठजोड़ में से कोईरी मतदाताओं के एक बड़े समूह को भी तोड़ने में एक हद तक सफल रही है. ऐसा उसने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी के नेता उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी से चुनावी गठजोड़ के जरिये किया है.
भाजपा सिर्फ इस समीकरण को तोड़ने में ही सफल नहीं रही बल्कि यह हवा फैलाने में भी कामयाब रही कि नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव में लालू 12-14 प्रतिशत की आबादी वाली यादव जाति के नेता हैं, जबकि नीतीश कुमार 3-4 प्रतिशत की आबादी वाली जाति कुरमी के नेता रह गए हैं. भाजपा इस कोशिश में रही कि लड़ाई राजद और भाजपा के बीच शिफ्ट हो ताकि आगे बिहार की राजनीति करने में आसानी हो. दूसरी ओर लालू प्रसाद यादव इस संदेश को बार-बार फैलाते रहे कि सांप्रदायिकता से लड़ने में वे और उनकी पार्टी ही सक्षम हैं. नीतीश कुमार इन दोनों अफवाहों के बीच फंसे नेता की तरह दिखे और रोजाना चुनावी सभाओं में मंचों से सफाई देते रहे कि प्रोपेगेंडा वार चल रहा है. साथ ही यह भी कहते रहे कि वे लोकसभा चुनाव के बाद किसी भी हाल में भाजपा के साथ नहीं जा सकते. नीतीश इसलिए यह संदेश देते रहे, क्योंकि वे जानते हैं कि भाजपा और राजद यह अफवाह फैलाने में सफल रहे हैं कि नीतीश इस चुनाव के बाद स्थितियों की दुहाई देकर कभी भी भाजपा के साथ जा सकते हैं.
नीतीश कुमार के पुराने सहयोगी रहे पूर्व राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘मैं खुद आश्चर्यचकित हूं. इस तरह का ट्रेंड विकसित होगा बिहार में, ऐसा माहौल बनेगा और नीतीश कुमार की पार्टी की ऐसी हालत होगी…इतना नहीं सोचा था.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘लालू यादव कांग्रेस के साथ जाकर एक बार फिर नए किस्म का सामाजिक समीकरण बनाने में सफल रहे और भाजपा ने घेरेबंदी करके नीतीश के अपने ही वोट बैंक में संेधमारी कर दी. अगर भाजपा और राजद को बड़ी जीत हासिल होती है, जिसकी पूरी संभावना है तो फिर बिहार में नीतीश कुमार के लिए विधानसभा चुनाव में भी बड़ी मुश्किलें होंगी.’ तिवारी समेत कई लोग यह मानते हैं कि इससे एक किस्म का मनोवैज्ञानिक दबाव पड़ेगा और भाजपा-राजद मतदाताओं के मनोविज्ञान को बदलने की कोशिश करेंगे. अगर संयोग से केंद्र में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन जाते हैं या भाजपा की सरकार बन जाती है तो भाजपा के नेता बिहार में यही माहौल बनाएंगे कि केंद्र में जिसकी सरकार है, अगर उसकी ही सरकार राज्य भी में हो तो यह विकास के लिए महत्वपूर्ण होगा. उसके पहले ही नरेंद्र मोदी जैसे नेता यह एलान करके कि अगर वे पीएम बनते हैं तो बिहार पर विशेष ध्यान रखेंगे, नीतीश को उनकी ही बिसात पर मात देने की कोशिश कर चुके हैं. दूसरी ओर लालू प्रसाद यह बताने की कोशिश करेंगे कि जैसे लोकसभा चुनाव में भाजपा से लड़ने में वे और कांग्रेस ही सक्षम रहे, उसी तरह बिहार में भाजपा को रोकना है तो वे ही सक्षम हो सकते हैं. तिवारी कहते हैं, ‘नीतीश सबसे कड़ी चुनौती के दौर से गुजर रहे हैं और सवर्णों का विशेषकर एक जाति विशेष का उनका अचानक साथ छोड़कर जाना यह भी संदेश देगा कि नीतीश का कोई ठोस सामाजिक समीकरण नहीं था.’
नीतीश के दूसरे पूर्व संगी और विधान पार्षद रहे प्रेम कुमार मणि एक चौंकाने वाली संभावना जताते हैं. वे कहते हैं ‘अगर भाजपा की बड़ी जीत हो जाती है तो फिर हो सकता है कि सामाजिक न्याय की दोनों शक्तियां लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक ही खेमे में आ जाएं. दोनों दलों और नेताओं के लिए भाजपा ही चुनौती होगी इसलिए दोनों को साथ आने के लिए स्थितियां भी मजबूर करेंगी.’ मणि आगे कहते हैं, ‘नीतीश कुमार ने यह मान लिया था कि 2009 के लोकसभा चुनाव या 2010 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने सिर्फ अपने बूते इतनी बड़ी जीत हासिल की जबकि दोनों ही बार जीत मूल रूप से भाजपा की थी. नीतीश कुमार की पार्टी के पास अपना कोई संगठन नहीं था, कार्यकर्ता नहीं थे. भाजपा के कार्यकर्ता ही मतदाताओं को बूथ तक लाने का अभियान चलाते रहे. नीतीश कुमार तो महज उत्प्रेरक रहे. भ्रम में पड़कर नीतीश ने खुद को ही मुख्य ताकत मान लिया.’
पुनजीर्वन? कांग्रेस केसाथ गठजोड़ लालू प्रसाद यादव को नया जीवन दे सकता है. फोटोः एपी
शिवानंद तिवारी या प्रेम कुमार मणि, लगभग एक भाव में ही बात करते हैं. दोनों की बातों को पूरी तरह से खारिज भी नहीं किया जा सकता. लेकिन इसके इतर दूसरे तर्क भी दिए जा रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘ नीतीश के लिए कड़ी चुनौती जरूर है, लेकिन अभी से सीटों की घोषणा करना ठीक नहीं. हां, यह जरूर होगा कि नीतीश कुमार जितने कमजोर होंगे, लालू प्रसाद यादव उतने ही मजबूत होंगे. सामाजिक न्याय की धारा में विश्वास करने वाले मतदाता तुरंत नीतीश से छिटककर भाजपा के पाले में नहीं चले जाएंगे बल्कि वे कांग्रेस या राजद के साथ जाना चाहेंगे.
सबके अपने तर्क होते हैं और ये सारे तर्क चुनाव के बाद परिणाम आने के बाद की संभावनाएं बताते हैं. वैसे नीतीश के लिए एक दूसरी मुश्किल तो चुनाव के फौरन बाद ही खड़ी हो सकती है. उनके जो विधायक बगावत करके लोकसभा चुनाव लड़ रहे हैं उन्हें चुनाव बाद पार्टी की साख के लिए निष्कासित करना होगा. अगर ऐसा हुआ तो सरकार के तुरंत अल्पमत में भी आ जाने का खतरा होगा. भाजपा और लालू प्रसाद यादव अगर मजबूत होते हैं तो इन दोनों दलों का दांव तुरंत विधानसभा में विश्वासमत पेश करने का होगा. इस बार विश्वास मत में पास हो जाना नीतीश के लिए उतना आसान नहीं होगा. कांग्रेस लोकसभा चुनाव राजद के साथ लड़ रही है, लेकिन वह विधानसभा में नीतीश को समर्थन दिए हुए है. लोकसभा चुनाव बाद लालू को अगर अपेक्षित सफलता मिलती है तो वे तुरंत कांग्रेस पर समर्थन वापसी का दबाव बनाएंगे. भाजपा को अगर अपार सफलता मिलती है तो वह भी चाहेगी कि नीतीश कुमार की सरकार गिरे ताकि जदयू में भगदड़ की स्थिति बने और नीतीश कुमार एक साल और सरकार में बने रहकर नई घोषणाओं के जरिये खुद को और अपनी पार्टी को मजबूत न कर सकें.
यह सब संभावनाएं चुनाव के बाद की हैं जो वर्तमान विश्लेषणों, आकलनों, अनुमानों, सर्वेक्षणों आदि को सच मान लेने और आने वाले परिणाम के बाद की स्थितियां बयां करती हैं. लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सच में यह सब आसानी से होगा और लोकसभा चुनाव में नीतीश करारी हार का सामना करेंगे. और अगर करारी हार का सामना करेंगे तो फिर बिहार में भी औंधे मुंह गिरेंगे?
शायद यह इतना आसान नहीं होगा. दरअसल बिहार के राजनीतिक इतिहास में ऐसे कई पन्ने हैं जो बताते हैं कि यहां की जनता लोकसभा और विधानसभा चुनाव में बड़ा फर्क करती रही है.
क्यों नीतीश को चुका बताना संभव नहीं?
कई जानकारों के मुताबिक पहली बात तो यह है कि बिहार में सीटों का आकलन अब तक सिर्फ मीडिया द्वारा बनाए गए माहौल के आधार पर किया जा रहा है. जातीय गणित और सामाजिक समीकरण क्या कहते रहे हैं, क्या कह रहे हैं, इस पर बहुत बात नहीं की जा रही. दूसरी बात यह है कि अगर नीतीश कुमार की सीटें कम होती ही हैं तो वह पहले से ही तय-सा भी है, क्योंकि वह तब भी होना संभावित था, जब वे भाजपा के साथ मिलकर लड़ते. वजह साफ है. 2009 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार और भाजपा ने साथ मिलकर बिहार की 40 लोकसभा सीटों में से 32 पर जीत हासिल की थी. यानी 80 प्रतिशत सीटों पर इन दोनों पार्टियों ने कब्जा जमाया था. उसमें भी 40 में से 20 सीटों पर जदयू को जीत हासिल हुई थी. यानि आधी सीटों पर. यह नीतीश कुमार की पार्टी के लिए करिश्माई जीत थी. एक तरह से यह सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन का संभावित चरम भी था. एक बार चरम पर पहुंचने के बाद स्वाभाविक उतार का दौर आता है. इसलिए यह भाजपा के विपक्ष में गए बिना भी बहुत हद तक संभव था कि नीतीश कुमार 20 सीटों के आंकड़े से नीचे उतरते.
अब सवाल यह है कि आखिर नीतीश की पार्टी कितनी सीटों पर सिमटेगी. इसका जवाब इतना आसान नहीं और न ही जितनी आसानी से अनुमान लगाकर नीतीश के ध्वस्त होने की भविष्यवाणी की जा रही है, वह सही है. लेकिन अगर ऐसा हुआ भी और नीतीश कुमार की बड़ी हार हो भी जाती है तो भी क्या उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि अगले साल विधानसभा चुनाव में भी उनकी हालत पतली रहेगी? इसका सीधा सा जवाब यह है कि ऐसा तो कतई नहीं कहा जा सकता. वर्तमान स्थितियों के अनुसार भी और इतिहास को देखकर भी.
मौजूदा हालात देखें तो व्यक्तित्व के आधार पर नीतीश बिहार में सबसे कद्दावर नेता हैं. बिहार के चार-पांच प्रमुख नेताओं में कोई अभी वैसा नहीं दिखता जिसकी राज्य में अपनी एक खास छवि हो और जिसे राज्य का राजपाट चलाने के लिए संभावनाओं से भरा नेता माना जाए. भाजपा के नेता और राज्य के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी भाजपा की ओर से बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार हो सकते हैं. लेकिन बेदाग नेता होते हुए भी उनकी अपील पूरे राज्य में नहीं मानी जाती. राजद मुखिया लालू प्रसाद यादव खुद चुनाव लड़ने से वंचित हो चुके नेता हैं और इस बार के लोकसभा चुनाव में अपनी पत्नी राबड़ी देवी और बेटी मीसा भारती के जरिये अपना राजनीतिक भविष्य संवारने की कोशिश में हैं. मीसा को पाटलीपुत्र से उतारने की कीमत वे रामकृपाल जैसे नेता को खोकर चुका चुके हैं. राबड़ी को सारण से चुनावी मैदान में उतारकर वे अपने ही दल में विरोध का स्वर झेल चुके हैं. राबड़ी बीते विधानसभा चुनाव में भी सारण से ही सटे दो यादव बहुल विधानसभा क्षेत्रों राघवपुर और सोनपुर से मैदान में उतरी थीं, लेकिन दोनों जगहों से हार गईं. जाहिर सी बात है कि जब लालू प्रसाद को अपनी बेटी और पत्नी को चुनाव मैदान में उतारने से ही पार्टी के अंदर बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी तो अपनी जगह उन्हें बिहार के मुख्यमंत्री के तौर पर प्रोजेक्ट करने की भी सोचेंगे तो पहले उनकी पार्टी में ही बवाल मचेगा. दूसरा, बिहार अब शायद उस प्रयोग के लिए आसानी से तैयार नहीं होगा.
इन दोनों बड़े दलों के बाद रामविलास पासवान, उपेंद्र कुशवाहा आदि जैसे नेता बचते हैं. लेकिन जानकारों के मुताबिक अब उनमें वह संभावना नहीं दिखती. ऐसे में बिहार में मुख्यमंत्री पद के लिए नीतीश कुमार ही पहली पसंद के तौर पर बने रहेंगे. वैसे यह बात भाजपा भी जानती है कि लोकसभा में भले ही नरेंद्र मोदी की लहर के भरोसे वह अधिक सीटें हासिल कर ले, लेकिन विधानसभा में नीतीश कुमार का विरोध करना और राज्य के मुख्यमंत्री पद के लिए विकल्प के तौर पर किसी दूसरे नाम की चर्चा करना इतना आसान नहीं होगा. शायद इसीलिए सुशील मोदी जैसे नेता लोकसभा चुनाव शुरू होने के पहले से ही यह कहते रहे हैं कि बिहार की जनता समझदार है. वह लोकसभा में मोदी को चुनेगी, नीतीश कुमार बिहार के लिए ठीक हैं.
यह तो फिर भी बिहार में अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में व्यक्तित्व के आधार पर लड़ी जाने वाली लड़ाई का अनुमान हुआ. उससे इतर इतिहास के पन्ने पलटकर देखें तो नीतीश की पार्टी की लोकसभा चुनाव में बुरी हार हो भी जाए तो इसका मतलब यह नहीं है कि विधानसभा चुनाव में भी उन्हें इतनी आसानी से खारिज कर दिया जाए. इतिहास में बहुत पीछे गए बगैर हालिया दो लोकसभा चुनावों और उसके आगे पीछे हुए विधानसभा चुनावों का ट्रेंड देखें तो दूसरे संकेत मिलते हैं.
2004 के ही लोकसभा चुनाव की बात करें तो लालू प्रसाद यादव की पार्टी राजद, रामविलास पासवान की पार्टी लोजपा और कांग्रेस ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था. तीनों मिलकर बिहार की 40 में से 29 सीटों पर कब्जा जमाने में सफल हुए थे. राजद को 22, लोजपा को चार और कांग्रेस को तीन सीटें मिली थी. यानी लालू प्रसाद बहुत मजबूत होकर उभरे थे. लेकिन अगले ही साल फरवरी 2005 में जब विधानसभा का चुनाव हुआ तो वही लालू प्रसाद भारी नुकसान का सामना करते हुए 75 सीटों पर ही सिमट गए. फिर उसी साल नवंबर में जब दुबारा विधानसभा चुनाव हुआ तो लालू यादव की पार्टी और गिरते हुए 52 सीटों तक आ गई.
2009 के लोकसभा चुनाव आते-आते लालू यादव की पार्टी चार सांसदों वाली पार्टी हो गई, लोजपा सांसदविहीन पार्टी बन गई और कांग्रेस तीन से दो पर आ गई.
2009 के लोकसभा चुनाव में तो ऐसे नतीजे आए,, लेकिन कुछ ही महीने बाद जब बिहार में करीब 19 सीटों पर विधानसभा चुनाव हुए तो लालू प्रसाद का अचानक उभार हुआ. नीतीश कुमार की पार्टी की करारी हार हुई. उसके अगले ही साल 2010 में विधानसभा चुनाव का मौका आया. चुनावी विश्लेषक और पंडित फिर से उप चुनाव के नतीजों का हवाला देते हुए यह भविष्यवाणी करने लगे कि इस बार नीतीश कुमार की पार्टी की करारी हार होनेवाली है. लेकिन हुआ उल्टा. उपचुनाव में करारी हार का सामना कर चुके नीतीश कुमार, उनकी पार्टी और साथ में भाजपा ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की. चुनावी पंडितों का विश्लेषण एक सिरे से धराशायी हो गया.
कुछ ऐसा ही 1994 में हुए एक संसदीय उपचुनाव के बाद हुआ था. 1994 में बिहार की वैशाली सीट पर किशोरी सिन्हा जनता दल की उम्मीदवार बनी थीं. वे कोई मामूली उम्मीदवार नहीं थीं. बिहार के सबसे चर्चित व बड़े रसूख वाले कांग्रेसी परिवार की बहू थीं. बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा की बहू, बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा की पत्नी, निखिल कुमार की मां. लालू तब उफानी दिनों में थे, लेकिन जनता दल की उम्मीदवार किशोरी सिन्हा तब एक निर्दलीय प्रत्याशी आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद से चुनाव हार गई थीं. उस समय के चुनावी विश्लेषकों के विश्लेषण अब भी अखबारों के पन्नों में दर्ज हैं. एक संसदीय सीट पर लालू प्रसाद की पार्टी की हार के बाद पूरे बिहार में माहौल बनाने की कोशिश हुई कि अब लालू प्रसाद के राज का अंत होगा. 1995 में बिहार में विधानसभा चुनाव होना था. चुनाव हुआ. लालू ने तब के अविभाजित बिहार की 324 सीटों में से 167 सीटें जीतकर तमाम अनुमानों और आकलनों को ध्वस्त कर दिया था. लेकिन विधानसभा चुनाव में ऐसा प्रदर्शन करने वाले वही लालू प्रसाद यादव जब 1999 में लोकसभा चुनाव हुआ तो अविभाजित बिहार की 54 लोकसभा सीटों में से सात पर सिमट गए थे.
मतलब साफ है कि बिहार की राजनीति में लोकसभा चुनाव के आधार पर विधानसभा चुनाव की परिणति और विधानसभा चुनाव के आधार पर लोकसभा में प्रदर्शन के अनुमान पिछले दो दशक से लगातार ध्वस्त होते आ रहे हैं. इसलिए बिना चुनाव परिणाम आए अभी से ही लोकसभा चुनाव में नीतीश की करारी हार की घोषणा और उसके बाद बिहार में भी हाशिये के नेता बन जाने का पूर्वानुमान शायद एकांगी भाव से की जा रही व्याख्या है और हड़बड़ी में सतही विश्लेषण जैसा भी.
छत्तीसगढ़ के सर्वाधिक नक्सल प्रभावित जिले दंतेवाड़ा के जिला पुलिस अधीक्षक नरेंद्र खरे ने पिछले दिनों एक बयान दिया कि अब माओवादियों से गोली से नहीं बल्कि बोली से बात होगी. जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बस्तर में राजनीतिक सभा करने आए तो उन्होंने भी खरे की बात को अपने शब्दों में आगे बढ़ाया कि मरना-मारना अब बहुत हो गया, अब नक्सली बंदूक छोड़ हल थाम लें. राज्य के मुख्य सचिव विवेक ढांड भी धुर नक्सल प्रभावित इलाकों में जाकर बैठक ले रहे हैं. ये कुछ ऐसे संकेत हैं जिनसे छत्तीसगढ़ सरकार की नक्सलवाद विरोधी नीति में एक व्यापक बदलाव के संकेत मिल रहे हैं.
अप्रैल, 2010 में ताड़मेटला में तब तक के सबसे बड़े नक्सल हमले में 76 जवानों की मौत के बाद दंतेवाड़ा ने पूरे देश का ध्यान अपनी ओर खींचा था. केंद्र सरकार को भी दंतेवाड़ा में हुए इस हत्याकांड के बाद मानना पड़ा था कि नक्सलवाद केवल राज्यों की नहीं बल्कि राष्ट्र की समस्या है. तब नक्सलवाद से अपने दम पर जूझ रहे राज्यों के लिए केंद्र स्तर पर एकीकृत योजना बनाने की कसरत शुरू हुई थी. इसी कड़ी में तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम ने दो बार छत्तीसगढ़ आकर नक्सल रणनीति की दिशा तय करने के लिए बैठकें भी ली थीं. अब एक बार फिर बस्तर से ही माओवाद के खात्मे के लिए दिशा और दशा तय की जा रही है. यह दशा और दिशा क्या होगी यह जानने के पहले दंतेवाड़ा एसपी नरेंद्र खरे के पूरे बयान पर गौर फरमाना जरूरी है. खरे का कहना है कि पुलिस का पूरा जोर अब नक्सलियों की आत्मसमर्पण की नीति को बेहतर बनाने पर होगा और वर्ष 2014 में पुलिस माओवादियों को आत्मसमर्पण के लिए प्रेरित करेगी. खरे यह भी कहते हैं कि छत्तीसगढ़ सरकार आंध्र प्रदेश की तर्ज पर आत्मसमर्पण नीति को और बेहतर बनाने पर विचार कर रही है.
इसी कड़ी में जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी बस्तर आए तो उन्होंने सबसे पहले माओवादियों से बंदूक छोड़ने की अपील की. उन्होंने बस्तर से लेकर झारखंड़ के लोहरदगा तक हर सभा में यही कहा कि मरने-मारने का समय चला गया है. अब नक्सलियों के हाथों में बंदूक नहीं हल होना चाहिए. मोदी ने इस बात पर जोर दिया कि नक्सल प्रभावित इलाकों का विकास उनकी प्राथमिकता में शामिल है. मोदी ने जगदलपुर में माओवादियों से अपील करते हुए नारा दिया, ‘सबके साथ सबका विकास.’
नक्सलियों पर मोदी का बयान आया और उसके बाद से ही छत्तीसगढ़ की नक्सल नीति में तेजी से परिवर्तन के संकेत मिलना भी शुरू हो गए हैं. शुरुआत हुई प्रदेश के नए नवेले मुख्य सचिव विवेक ढांड की धुर नक्सल प्रभावित जिलों दंतेवाड़ा और सुकमा में बैठकों से. इनमें राज्य के वरिष्ठ आईएएस अफसर भी उनके साथ थे. ढांड ने स्थानीय अफसरों से मिलकर वहां की कठिनाइयों को भी जाना. यहां यह भी ध्यान देने लायक बात है कि तीन साल पहले राज्य सरकार ने सभी विभागों के सचिवों से बस्तर में महीने में एक रात बिताने को कहा था मगर यह नियम जमीनी हकीकत नहीं बन पाया. बस्तर को सिर्फ पुलिस के भरोसे छोड़ दिया गया था. लेकिन अब मुख्य सचिव की कोशिशों के बाद हालात बदलने की दिशा में गंभीर कोशिश दिख रही है.
वहीं पुलिस मुख्यालय (पीएचक्यू) ने भी छत्तीसगढ़ में नक्सलियों को आत्म-समर्पण के लिए प्रोत्साहित करने के लिए नई तैयारी शुरू कर दी है. उच्च पदस्थ पुलिस सूत्रों की मानें तो पीएचक्यू नक्सलियों की आत्मसमर्पण नीति में बड़ा बदलाव करने जा रहा है. बदलाव के पहले चरण में पति-पत्नी नक्सलियों के एक साथ समर्पण करने पर उनको ढाई लाख रुपये तत्काल देने की तैयारी की जा रही है. यह धनराशि नक्सली दंपति को अपना नया जीवन शुरू करने के लिए दी जाएगी. एडीजी नक्सल ऑपरेशन आरके विज का कहना है, ‘ आत्मसमर्पण करने के बाद नक्सलियों के सामने सबसे बड़ी समस्या नया जीवन शुरू करने की होती है. इस समय सबसे ज्यादा आर्थिक संकट सामने आता है जिससे कई बार नक्सली दोबारा जंगल की राह पकड़ लेते हैं. इसलिए इस बार हमारा फोकस उनकी आर्थिक स्थिति पर है ताकि वे दोबारा हिंसा का रास्ता न अपनाएं.’
दरअसल बीते सालों में छत्तीसगढ़ में बंदूक छोड़कर मुख्य धारा में शामिल होने वाले माओवादियों की संख्या काफी निराशाजनक रही है. वहीं दूसरी ओर आंध्र प्रदेश में आत्मसमर्पण करने वाले माओवादियों की संख्या छत्तीसगढ़ की तुलना में काफी ज्यादा है. वहां नक्सलियों को आत्मसमर्पण करने पर काफी बेहतर मुआवजा और नौकरी दी जाती है. जबकि छत्तीसगढ़ में आकर्षक व प्रभावी नीति न होने से पिछले दस साल में एक भी बड़े नक्सली ने आत्मसमर्पण नहीं किया है. सूबे में हथियारों के हिसाब से समर्पण की कीमत तय की जाती है. इसमें एलएमजी के साथ समर्पण करने वाले नक्सली को 4.50 लाख रुपए दिए जाते हैं. वहीं एके 47 के साथ 3 लाख रुपये, एसलआर के साथ 1.50 लाख, थ्री नॉट थ्री के साथ 75 हजार, 12 बोर की बंदूक के साथ 30 हजार दिए जाते हैं. यह राशि भी लंबी प्रक्रिया के बाद मिल पाती है. जबकि ओडिशा और आंध्र प्रदेश में समर्पण के साथ ही मुआवजे की राशि प्रदान की जाती है. पुनर्वास नीति के तहत उन्हें तत्काल मकान दिया जाता है या नौकरी दी जाती है. इन राज्यों में गिरफ्तारी या एनकांउटर का खतरा नहीं रहता.
फिलहाल राज्य सरकार ने आत्मसमर्पण करने वाले नक्सलियों के लिए अलग-अलग पदों के हिसाब से अलग-अलग इनाम घोषित कर रखा है. यदि सेंट्रल कमेटी का सचिव आत्मसमर्पण करता है तो इनाम की राशि 12 लाख रुपये होती है. वहीं सेंट्रल मिलेट्री कमीशन प्रमुख के लिए 10 लाख, पोलित ब्यूरो सदस्य के लिए सात लाख, स्टेट कमेटी सदस्य के लिए तीन लाख, पब्लिकेशन कमेटी के सदस्य के लिए दो लाख, एरिया कमेटी सचिव के लिए 1.5 लाख, अन्य एरिया कमेटी सचिव के लिए 1 लाख, एलओसी कमांडर को समर्पण पर 50 हजार रुपये की राशि दी जाती है. छत्तीसगढ़ में वर्ष 2004 के बाद मुआवजा राशि नहीं बढ़ाई गई है. इस बारे में प्रदेश के गृहमंत्री रामसेवक पैकरा कहते हैं, ‘नक्सलवाद राष्ट्रीय मुद्दा है. इस पर व्यापकता से विचार किए जाने की जरूरत है. दूसरी महत्वपूर्ण बात है कि माओवादी हिंसा की काट विकास है. ऐसे में नक्सल प्रभावित सभी राज्यों को मिल बैठकर इस समस्या पर समग्र नीति बनाने की जरुरत है. जिसकी दिशा में काम शुरू हो चुका है. अलग-अलग राज्यों में माओवादियों को लेकर अलग-अलग नीति का होना भी परेशानी को बढ़ाने का ही काम कर रहा है. इसलिए केंद्र में अपनी सरकार आने पर हमारी कोशिश होगी कि नक्सलवाद को लेकर देश में एकीकृत नीति बनाने की दिशा में पहल हो.’
स्वामी अग्निवेश की राय इस बारे में अलहदा है. वे मानते हैं, ‘ यदि संविधान में उल्लेखित अधिकारों को सही तरीके से आदिवासियों तक पहुंचा दिया जाए तो इस समस्या का हल बगैर किसी कसरत के निकल आएगा. यदि नक्सल प्रभावित इलाकों में शांति चाहिए तो सबसे पहले जेलों में बंद निरपराध आदिवासियों को छोड़ना होगा. दूसरा यह कि पांचवी और छटी अनुसूची को लेकर जल्द निर्णय लेना होगा. ग्राम सभाओं को अधिकार देने होंगे. लेकिन दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ सरकार ने ऐसे कई मौके गवाएं हैं. जब वह आगे बढ़कर इस समस्या का जड़ से समाधान कर सकती थी. फिलहाल भी भाजपा की ऐसी कोई इच्छाशक्ति नहीं दिखती.’
फोटोः विनय शर्मा
इस वक्त छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद के आरोप में बंद कुछ लोगों की रिहाई की दिशा में भी तेजी दिखाई देने लगी है. नक्सलियों की रिहाई के लिए बनाई गई उच्च स्तरीय समिति की अध्यक्ष निर्मला बुच बताती हैं, ‘ हमने करीब 150 सिफारिशें की हैं. इनमें जमानत के वक्त राज्य सरकार किसी प्रकार की आपत्ति नहीं करेगी. हमारी समिति की सिफारिश के कारण कई नक्सलियों को जमानत भी मिली है. हमने नक्सलियों के सभी मामलों की समीक्षा की है. हम लगातार बैठक कर रहे हैं. चुनाव शुरु होने के पहले भी हमने बैठक ली थी. चुनाव खत्म होते ही हमारी एक बैठक होनी है.’ निर्मला बुच मध्य प्रदेश की मुख्य सचिव भी रह चुकी हैं. वर्ष 2012 में नक्सलियों ने तत्कालीन सुकमा कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन को अगवा कर लिया था. उन्हें छोड़ने के बदले नक्सलियों ने जेलों में बंद अपने साथियों की रिहाई की शर्त रखी थी. इसी के जवाब में बुच की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति बनाई गई थी. इसमें राज्य के मुख्य सचिव, प्रमुख सचिव गृह और डीजीपी को सदस्य बनाया गया था. निर्मला बुच सरकार की तरफ से नक्सलियों के मध्यस्थों से बात भी कर रही थीं.
इस समय राज्य की जेलों में (जिनमें पांच केंद्रीय कारागार भी शामिल हैं) तकरीबन 1400 ऐसे आरोपित या सजायाफ्ता बंदी हैं, जिनपर नक्सली होने या नक्सली समर्थक होने का आरोप है. जेल सूत्रों की मानें तो इनमें कट्टर नक्सली कम, जन मिलिशिया और संघम सदस्य ज्यादा हैं. आंकड़ों पर नजर डालें तो जगदलपुर जेल में नक्सली मामलों के 332 विचाराधीन कैदी बंद हैं. साथ ही यहां 25 सजायाफ्ता कैदी भी रखे गए हैं. दंतेवाड़ा जेल में नक्सली मामलों के करीब 350 विचाराधीन कैदी बंद हैं. कांकेर जेल में नक्सली मामलों के करीब 250 और दुर्ग जेल में तकरीबन 100 विचाराधीन कैदी बंद हैं. अंबिकापुर जेल में लगभग 100 और रायपुर में 150 कैदी हैं, जो नक्सली होने के आरोप में बंद हैं.
बहरहाल एनडीए की सरकार केंद्र में बने या न बने छत्तीसगढ़ में इस बहाने शुरू हुई कवायदों से यह जरूर स्पष्ट हो रहा है कि नक्सलवाद पर बनी सरकारी नीति आनेवाले समय में बड़े बदलाव से गुजरने वाली है.
श्रीनगर में धारा 370 के समर्थन में होता एक प्रदर्शन. फोटोः एएफपी
भाजपा ने अपने घोषणापत्र में जम्मू-कश्मीर से धारा 370 हटाने की बात क्या की यह विवादास्पद मुद्दा एक बार फिर गर्म हो गया. अलग-अलग पार्टियों ने अपने-अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से इसे लेकर बयानबाजी शुरू कर दी. गौरतलब है कि यह धारा भारतीय गणतंत्र में जम्मू-कश्मीर को एक विशेष दर्जा देती है. 1947 में विभाजन के समय जम्मू-कश्मीर के राजा हरि सिंह पहले आजाद रहना चाहते थे, लेकिन बाद में वे भारत में विलय के लिए राजी हो गए. जम्मू-कश्मीर में पहली अंतरिम सरकार बनाने वाले नेशनल कॉफ्रेंस के नेता शेख अब्दुल्ला ने भारतीय संविधान सभा से बाहर रहने की पेशकश की थी. इसके बाद भारतीय संविधान में धारा 370 का प्रावधान हुआ जिसमें जम्मू-कश्मीर को विशेष अधिकार दिए गए. 1951 में राज्य को संविधान सभा अलग से बुलाने की अनुमति दी गई. , 1956 में इस संविधान का काम पूरा हुआ और 26 जनवरी, 1957 को राज्य में यह विशेष संविधान लागू कर दिया गया. इसके प्रावधानों के मुताबिक संसद जम्मू-कश्मीर के लिए रक्षा, विदेश मामले और संचार जैसे विषयों पर कानून बना सकती है, लेकिन किसी अन्य विषय से जुड़ा कानून वह राज्य सरकार की हामी के बिना लागू नहीं कर सकती. इसी विशेष दर्जें के कारण जम्मू-कश्मीर पर संविधान की धारा 356 लागू नहीं होती जिसमें कोई संवैधानिक संकट पैदा होने पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है. इसी दर्जे के कारण 1976 का शहरी भूमि कानून जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होता जिसके अनुसार भारतीय नागरिक को विशेष अधिकार प्राप्त राज्यों के अलावा भारत में कहीं भी भूमि खरीदने का अधिकार है. यानी भारत के दूसरे राज्यों के लोग जम्मू-कश्मीर में जमीन नहीं खरीद सकते. भारतीय संविधान की धारा 360 जिसमें देश में वित्तीय आपातकाल लगाने का प्रावधान है, वह भी जम्मू-कश्मीर पर लागू नहीं होती. यही वजह है कि लंबे समय से इस धारा पर अलग-अलग दलों का अलग-अलग रुख रहा है.
लेकिन देखा जाए तो राजनीतिक रोटियां सेंकने के अलावा ऐसे रुख का कोई खास मकसद नहीं. इसकी वजह यह है कि अमल के हिसाब से देखें तो बीते 67 सालों के दरम्यान धारा 370 का वजूद काफी हद तक खत्म हो चुका है. हाल ही में एक अखबार में प्रकाशित अपने लेख में चर्चित अर्थशास्त्री और जम्मू-कश्मीर सरकार के सलाहकार रहे हसीब द्रबू का कहना था कि अपने आज के स्वरूप में धारा 370 एक छाया से ज्यादा कुछ नहीं है. उन्होंने इसकी तुलना भूसे से की जिसमें से बीज काफी पहले अलग हो चुका हो.
अपने लेख में द्रबू धारा 370 के तहत ऐसे दस विशेषाधिकार गिनाते हैं जो जम्मू-कश्मीर को एक स्वायत्त इकाई बनाते हैं और जिनका बीते समय के दौरान क्षरण हुआ है. इनमें जम्मू-कश्मीर के लिए एक अलग संविधान से लेकर एक अलग झंडा, भारत के बाकी हिस्सों से यहां आने वालों के लिए एक दाखिला परमिट की अनिवार्यता, राज्य का अपना राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री यहां तक कि अपनी मुद्रा भी शामिल है. द्रबू बताते हैं कि कैसे ये सारे अधिकार राष्ट्रपति के आदेश या जम्मू-कश्मीर और भारत के संविधान में हुए संशोधनों के चलते खत्म हो गए हैं.
द्रबू कहते हैं कि भारत के राष्ट्रपति द्वारा जारी किए गए कई संवैधानिक आदेशों ने जम्मू-कश्मीर के संविधान की शक्तियों को खत्म कर दिया है. वे लिखते हैं, ‘इसकी 395 धाराओं में से 260 ऐसी हैं जिन्हें भारतीय संविधान की धाराओं ने निरस्त कर दिया है. बाकी 135 धाराएं भारतीय संविधान से ही मेल खाती हैं.’ द्रबू आगे कहते हैं कि जम्मू-कश्मीर के संविधान की शक्ति को जिस चीज ने सबसे ज्यादा चोट पहुंचाई वह था इस संविधान के विषय में जारी हुआ दूसरा संशोधन आदेश. उनके मुताबिक 1975 में आए इस आदेश ने राज्य के विधानमंडल से राज्यपाल की नियुक्ति और चुनाव आयोग के गठन जैसे अहम मुद्दों पर राज्य के संविधान में संशोधन करने का अधिकार भी छीन लिया.
धारा 370 पर भाजपा के रुख से घाटी में राजनीतिक पार्टियां भी सक्रिय हो गई हैं. उनका कहना है कि किसी भी हाल में यह धारा बहाल रखी जाएगी. उधर, अलगाववादी कह रहे हैं कि उनका इससे कोई मतलब नहीं है जबकि सिविल सोसायटी का तर्क है कि इस धारा में अब बचाने के लिए खास कुछ नहीं बचा है.
भाजपा के अपना घोषणापत्र जारी करते ही जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का कहना था कि धारा 370 हटाने से कश्मीर के साथ भारत का संवैधानिक रिश्ता खतरे में पड़ जाएगा. उनका कहना था, ‘जहां तक धारा 370 हटाने का सवाल है तो यह जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के पूरे सवाल पर फिर से बहस के बिना नहीं किया जा सकता. अगर भाजपा फिर से इस सवाल को जिंदा करना चाहती है तो हम इस मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार हैं.’ पीडीपी नेता मुफ्ती मोहम्मद सईद ने भी कुछ ऐसी ही चेतावनी देते हुए कहा, ‘धारा 370 राज्य और बाकी देश के बीच संवैधानिक संबंध की व्यवस्था देती है और इस संबंध के आधार से जुड़े सवालों पर बात किए बिना इसे खत्म नहीं किया जा सकता. उन्होंने कहा कि धारा 370 पर कोई सौदेबाजी नहीं हो सकती और जो लोग इसे हटाने की बात कर रहे हैं उन्हें राज्य की संवैधानिक स्थिति का पता नहीं है और वे लोग देश को गुमराह कर रहे हैं.’
लेकिन संविधान विशेषज्ञों का मानना है कि इस धारा में से वे प्रावधान काफी पहले ही निकल चुके हैं जो इसे प्रभावी बनाते थे और जम्मू-कश्मीर को भारत में एक विशेष दर्जा देते थे. अपनी किताब अ कॉन्स्टियूशनल हिस्ट्री ऑफ जम्मू एंड कश्मीर में एजी नूरानी पूर्व गृह मंत्री और अंतरिम प्रधानमंत्री रहे गुलजारी लाल नंदा का हवाला देते हैं जिन्होंने धारा 370 को एक छिलका बताया था. ‘आप इसे रखें या नहीं, सच यही है कि इसके भीतर का माल पूरी तरह निकाला जा चुका है. इसमें अब कुछ नहीं बचा.’ नूरानी के मुताबिक नंदा ने धारा 370 को एक ऐसा सुराख कहा था जिसने जम्मू-कश्मीर के संविधान में संशोधनों और वहां केंद्रीय कानूनों के क्रियान्वयन को आसान कर दिया. संविधान में संशोधन की सामान्य प्रक्रिया बहुत कड़ी शर्तों वाली होती है, लेकिन धारा 370 में संशोधन की प्रक्रिया बहुत सरल है. ऐसा राष्ट्रपति के आदेश से किया जा सकता है.
तो क्या अब इस धारा में कुछ भी ऐसा नहीं जो जम्मू-कश्मीर के लिए इसे अहम बनाता हो. नेशनल कॉन्फ्रेंस के वरिष्ठ नेता मोहम्मद शफी कहते हैं, ‘सब कुछ खत्म नहीं हुआ है. यह धारा अब भी कुछ अर्थों में जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा देती है.’ शफी ही राज्य की ऑटोनमी रिपोर्ट के सूत्रधार हैं जो जम्मू-कश्मीर की उस स्वायत्तता की बहाली की मांग करती है जो अब वजूद में नहीं है. 1999 में इस रिपोर्ट पर राज्य विधानसभा ने बहुमत से एक प्रस्ताव पारित किया था जिसे तत्कालीन एनडीए सरकार ने खारिज कर दिया था. शफी कहते हैं, ‘धारा 370 अब भी जम्मू-कश्मीर और नई दिल्ली के बीच के संबंध को निर्धारित करती है और इसे हटाने या इसमें सुधार करने का फैसला राज्य की संविधान सभा की सहमति के बाद ही किया जा सकता है जिसका वजूद 1957 में खत्म हो गया था. इसलिए कोई भी सुधार तभी हो सकता है जब एक और संविधान सभा बनाई जाए और उसे इस मुद्दे पर बहस की इजाजत मिले. अगर ऐसा हुआ तो राज्य के भारत में विलय जैसे बड़े सवाल भी परिदृश्य में आएंगे.’
पीडीपी के वरिष्ठ नेता नईम अख्तर कहते हैं, ‘धारा 370 अब भी एक चारदीवारी की तरह है. केंद्र अब भी अपने किसी कानून को राज्य की सूची में नहीं ला सकता जब तक कि उस पर राज्य सरकार की सहमति न हो. हालांकि इस धारा की वास्तविक अहमियत अब ज्यादा प्रतीकात्मक ही है. यह कश्मीर को स्थानीय पहचान का अहसास देती है और यह आभास भी कि इस पहचान की रक्षा करने के लिए एक संवैधानिक बचाव है.’ अख्तर भाजपा से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की इस बात को खारिज करते हैं कि धारा 370 की वजह से राज्य का विकास रुका. वे कहते हैं, ‘जम्मू-कश्मीर सामाजिक सुधार के लिहाज से ऐतिहासिक विधेयक पारित करने में दूसरे राज्यों से आगे रहा है. आरटीआई को ही लीजिए. 2004 में हमने इसे पारित किया. केंद्र से पहले. इसी तरह 2003 में ही हम जवाबदेही कमीशन बनाकर ऐसा करने वाला पहला राज्य बन चुके थे. राज्य का मुख्यमंत्री भी इसके अधीन है. केंद्र में तो अब लोकपाल विधेयक पारित हुआ है. और आप क्रांतिकारी भूमि सुधारों को कैसे भूल सकते हैं? यह इसलिए संभव हुआ कि जम्मू-कश्मीर के पास एक अलग संविधान था. देश के दूसरे हिस्सों की तरह कश्मीर से किसानों की खुदकुशी की खबरें नहीं आ रहीं तो ऐसा इन सुधारों के चलते ही हुआ है.’
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सिमटती धारा
अपने मूल रूप में धारा 370 में प्रावधान था कि सुरक्षा, विदेश मामले, वित्त और संचार को छोड़कर किसी विषय से जुड़ा कानून जम्मू-कश्मीर में लागू करने से पहले संसद को राज्य सरकार से सहमति लेनी होगी. लेकिन अब जम्मू-कश्मीर को स्वायत्त दर्जा देने वाले ऐसे प्रावधान खत्म कर दिए गए हैं.
जम्मू-कश्मीर के पास अपना संविधान है, लेकिन उसे अब यह अधिकार नहीं कि वह इसमें कोई संशोधन कर सके.
जम्मू-कश्मीर के संविधान में सदर-ए-रियासत (राज्य के मुखिया जिसे राज्य का ही विधानमंडल चुनता था) और प्रधानमंत्री की व्यवस्था थी. अब इसे राज्यपाल और मुख्यमंत्री से बदल दिया गया है.
जम्मू-कश्मीर के पास अपना एक राष्ट्रीय ध्वज होता था. राष्ट्रीय शब्द को अब हटा दिया गया है और इसे सरकारी झंडा कर दिया गया है.
मूल रूप में धारा 370 में जम्मू-कश्मीर के लोग भारत के नागरिक नहीं थे. अब हैं. पहले देश के दूसरे हिस्सों के नागरिकों को जम्मू-कश्मीर जाने के लिए परमिट लेना होता था. सामान भी वहां एक कस्टम बैरियर से होकर जाता था. अब ये व्यवस्था खत्म कर दी गई है.
जम्मू-कश्मीर के लोगों पर भी अब देश की एकता और अखंडता को बनाए रखने की अनिवार्यता है.
जम्मू-कश्मीर को लेकर संसद उन्हीं विषयों पर कानून बना सकती थी जो केंद्रीय सूची में आते हैं. अब ऐसा नहीं है.
सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार क्षेत्र पहले सिर्फ धारा 131 तक सीमित था जो केंद्र और राज्यों के बीच विवाद से संबंधित है. अब सर्वोच्च अदालत न सिर्फ राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानूनों की समीक्षा कर सकती है बल्कि राज्य सरकार द्वारा लिए गए किसी प्रशासनिक कदम की न्यायिक समीक्षा भी कर सकती है.
टकराव पूवीर् यूक्रेन में एक टैंक पर रूस
का झंडा लहराकर गश्त करते रूस
समथर्क,
पूर्वी यूक्रेन में एक टैंक पर रूस का झंडा लहराकर गश्त करते रूस समर्थक
यूक्रेन की अंतरिम सकार के अमेरिका-भक्त प्रधानमंत्री अर्सेनी यात्सेन्युक शनिवार 26 अप्रैल के दिन इटली की राजधानी रोम में थे. पत्रकारों को संबोधित करते हुए मात्र 39 साल के यात्सेन्युक ने आरोप लगाया, ‘रूसी युद्धक विमानों ने पिछली रात यूक्रेनी वायुसीमा का सात बार अतिक्रमण किया है. यूक्रेन को युद्ध शुरू करने के लिए भड़काना ही इसका एकमात्र उद्देश्य हो सकता है.’ कुछ देर पहले अमेरिकी रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता स्टीवन वॉरन ने भी यही आरोप लगाया था. यह बताने का कष्ट दोनों में से किसी ने नहीं किया कि रूसी विमान कब और कहां यूक्रेनी वायुसीमा के भीतर घुसे थे. यात्सेन्युक यह कहने से भी नहीं चूके कि रूस यूक्रेन पर कब्जा करना और ‘तीसरा विश्वयुद्ध छेड़ देना चाहता है.’ आरोपों की गहमा-गहमी वाले उसी दिन अमेरिका, जर्मनी, फ्रांस, इटली और ब्रिटेन के प्रमुखों ने एक टेलीफोन-सम्मेलन के माध्यम से रूस के विरुद्ध नए प्रतिबंध लगाने का भी निर्णय किया. ये प्रतिबंध यथासंभव 28 अप्रैल से लागू हो जाने थे.
एक ही सप्ताह पहले, 17 अप्रैल को जेनेवा में रूस, अमेरिका और यूक्रेन के विदेश मंत्रियों तथा यूरोपीय संघ की विदेशनीति प्रभारी कैथरीन ऐश्टन के बीच वार्ता हुई थी. घंटों चली इस चार-पक्षीय बातचीत में आशा के विपरीत कुछ ऐसे कदम तय हुए थे, जिनसे लग रहा था कि अब स्थिति बेहतर बनेगी. यूक्रेन की और दुनिया भर की जनता राहत की सांस ले सकेगी. हालांकि सब को आश्चर्य हुआ था कि ‘जेनेवा घोषणा’ के नाम से प्रचारित इस सहमति को पत्रकारों के सामने अमेरिकी और रूसी विदेशमंत्री ने साथ मिल कर नहीं, बल्कि अलग-अलग पेश किया. इस सहमति में, जो कोई औपचारिक समझौता नहीं है, यूक्रेन में तनावों को घटाने और नागरिक सुरक्षा को बढ़ाने के लिए आवश्यक कदमों को बताते हुए कहा गया हैः
सभी पक्ष हर तरह के बलप्रयोग, डराने-धमकाने और उकसावों से दूर रहेंगे.
सभी हथियारबंद अवैध गिरोहों (ग्रुपों) को निहत्था किया जाएगा. अवैध कब्जों वाले भवन उनके कानूनी मालिकों को लौटाए जाएंगे. यूक्रेनी शहरों और गांवों में अवैध कब्जों के अधीन सड़कों, मैदानों और सार्वजनिक स्थानों को खाली कराया जाएगा.
ऐसे प्रदर्शनकारी, जो अपने हथियार डाल देंगे और अपने कब्जे वाले मकानों को खाली कर देंगे, क्षमादान के अधिकारी होंगे, बशर्ते कि उन्होंने कोई गंभीर अपराध नहीं किए हैं.
इस घोषणा को अगले दिनों में लागू करने के दौरान जहां भी आवश्यक हो, वहां ‘यूरोपीय सुरक्षा और सहयोग संगठन ‘(ओएससीई) के पर्यवेक्षक यूक्रेनी अधिकारियों के साथ सहयोग करेंगे. अमेरिका, यूरोपीय संघ और रूस इस काम में सहयोग देने और अपने पर्यवेक्षक उपलब्ध कराते हुए इसे सफल बनाने का वचन देते हैं.
(यूक्रेनी) संविधान-रचना की पूर्वघोषित प्रक्रिया पारदर्शी होगी और किसी को उससे बाहर नहीं रखा जाएगा. इसके लिए यूक्रेन के सभी अंचलों और राजनीतिक निकायों के बीच व्यापक राष्ट्रीय संवाद तथा सार्वजनिक टीका-टिप्पणियों और सुझावों की संभावना उपलब्ध कराई जाएगी.
असहमतिपू्र्ण सहमति हैरानी की बात यही नहीं थी कि अमेरिका और रूस के विदेशमंत्री एकसाथ पत्रकारों के समक्ष नहीं आए, दोनों ने अपनी सहमति की अलग-अलग असहमतिपूर्ण व्याख्या की. सबसे पहले रूसी विदेशमंत्री लावरोव आए. उन्होंने कहा कि सहमति यूक्रेन के ‘सभी अंचलों के सभी सशस्त्र गिरोहों को निहत्था करने पर हुई है.’ घोषणा की लिखित शब्दावली में ‘सभी अंचल’ लिखा तो नहीं मिलता, लेकिन उसमें लिखे ‘सभी हथियारबंद अवैध गिरोहों’ का तर्कसंगत मतलब यही होना चाहिए कि हथियारबंद गिरोह चाहे जहां हों, चाहे जिस अंचल में हों और चाहे जिस पक्ष के समर्थक या विरोधी हों, उन्हें निहत्था किया जाएगा. यानी, राजधानी किएव के मैदान-चौक पर अब भी डेरा डाले या उसके आस-पास के भवनों पर अब भी अधिकार जमाए उन हथियारबंद लोगों को भी निहत्था किया जाएगा, जो पश्चिमी देशों के भक्त व इस समय की अंतरिम सरकार के समर्थक हैं. यह हो नहीं सकता कि रूसी पक्ष तो रूस समर्थकों को निहत्था करना मान ले, किंतु रूस-विरोधियों को हथियार रखने की छूट दे दे.
लेकिन, अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन केरी यूरोपीय संघ की विदेश नीति प्रभारी कैथरीन ऐश्टन के साथ जब पत्रकारों के सामने आए तो वे यही पट्टी पढ़ाते लगे कि सहमति पू्र्वी यूक्रेन के रूस समर्थक सशस्त्र लोगों के हथियार छीनने पर ही हुई है. उन्होंने इस बात का कोई जिक्र नहीं किया कि किएव में अड्डा जमाए हथियारबंद गिरोहों का क्या होगा. जेनेवा घोषणा के पहले दिन से ही अमेरिका रट लगाए हुए है कि रूस पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषी पृथकतावादियों पर लगाम लगा कर उनके कब्जे वाले भवनों को खाली कराए, जबकि रूस कह रहा है कि यही काम यूक्रेनी अंतरिम सरकार पहले अपनी राजधानी में तो कर दिखाए. यूक्रेन की अंतरिम सरकार भी इस घोषणा के बाद से ऐसा ही व्यवाहर कर रही है, मानो उसे केवल पूर्वी अंचलों के रूस-समर्थक विद्रोहियों के ही हथियार छीनने और उनके होश ठिकाने लगाने हैं. सरकार ने एक बार भी यह नहीं बताया कि उसने राजधानी किएव में अब तक क्या किया है.
दंगाइयों की सरकार
उल्लेखनीय है कि 21 फरवरी से सत्तारूढ़ यूक्रेन की वर्तमान अंतरिम सरकार दंगाई प्रदर्शनकारियों के उन संगठनों व राजनीतिक पर्टियों की मिली-जुली सरकार है, जो अंशतः घोर-दक्षिणपंथी और नस्लवादी हैं. यूक्रेन को यूरोपीय संघ और अमेरिकी नेतृत्व वाले पश्चिमी सैन्य-संगठन नाटो का सदस्य बनाना उनका ध्येय है. नवंबर 2013 से ही प्रदर्शनकारी राजधानी किएव के उस भव्य मैदान-चौक पर अड्डा जमाए बैठे हैं, जिसके चारों ओर सरकारी मंत्रालय, कार्यालय और व्यापारिक प्रतिष्ठान हैं. उनके अनवरत हिंसक प्रदर्शनों, धरनों और कब्जा-अभियानों से हार मानकर देश के निर्वाचित राष्ट्रपति विक्तोर यानुकोविच को 21 फरवरी की ही रात आनन-फानन में भागना पड़ा. राष्ट्रपति के भागते ही प्रदर्शनकारियों और संसद की कुछ विपक्षी पार्टियों के नेताओं ने मिल कर उसी रात सत्ता हथिया ली. यूक्रेन को रूसी प्रभावक्षेत्र से बाहर निकालने के लिए व्याकुल अमेरिका और यूरोपीय संघ की तभी से बांछें खिल गई हैं. उन्हें अपनी मनोकामना पूरी होती लग रही है.
337 वर्षों तक सोवियत संघ का अभिन्न अंग रहने के बाद यूक्रेन 1991 में एक स्वतंत्र देश बना था. बताया जाता है कि स्वतंत्र यूक्रेन को अपनी तरफ खींचने के प्रचार-अभियानों और राजनीतिक हेराफेरियों पर अमेरिका तभी से कम से कम पांच अरब डॉलर बहा चुका है. खुद यूक्रेन में स्थित सुविज्ञ सूत्रों से (लेखक को) पता चला है कि किएव में धरना देने वाले प्रदर्शनकारियों और दंगाइयों को, उनके जोश-खरोश और योगदान के अनुसार, प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन 100 से 500 डॉलर तक दिए गए हैं. देश में जहां-जहां रूस विरोधी प्रदर्शन होते हैं, अमेरिका या उसके मित्र देशों के पैसों के बल पर होते हैं. एक सूत्र का तो यह भी कहना है कि पूर्वी यूक्रेन के दोनबास क्षेत्र में रहने वाले रूसी-भाषियों की ओर से जो रूस-समर्थक प्रदर्शन चल रहे व कब्जा-अभियान हो रहे हैं, उनके लिए भी पैसा अमेरिका से ही आता है. अमेरिका यह पैसा अपने यहां रहने वाले रूसी करोड़पतियों के माध्यम से भेजता है, ताकि उसका अपना नाम सामने न आ सके और वह इस पैसे को रूस के मत्थे मढ़ कर उसके विरुद्ध प्रतिबंधों का औचित्य सिद्ध कर सके.
जेनेवा वार्ता के बाद अमेरिका और रूस के विदेशमंत्री
किएव की यात्रा के लिए लगा तांता
यह बात बहुत दूर की कौड़ी जरूर लगती है, पर रूस को नीचा दिखाने और उसकी अर्थव्यवस्था चौपट करने पर तुले अमेरिका और उसकी कठपुतली यूक्रेनी सरकार के लिए सब कुछ संभव है. दोनों ने मिल कर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन पर पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषियों को उकसाने और उन्हें हथियार दे कर यूक्रेन के मामलों में हस्तक्षेप करने के आरोपों की झड़ी लगा रखी है. सीमापार रूसी सैनिकों के जमाव पर वे ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ वाली गुहार लगा रहे हैं. जबकि तथ्य यह है कि किएव में रूस-विरोधी प्रदर्शन शुरू होने के पहले ही दिन से लेकर अब तक — केवल राष्ट्रपति ओबामा को छोड़ कर– उपराष्ट्रपति जो बाइडन और विदेशमंत्री जॉन केरी सहित अमेरिका के सभी प्रमुख नेता, मंत्री, सेनेटर, धन्नासेठ किएव के फेरे लगा चुके हैं– कुछ तो कई बार. यही हाल यूरोपीय संघ वाले देशों के नेताओं का भी है. पैसे भी खूब लुटाए जा रहे हैं. यह सब दखलंदाजी नहीं तो क्या कोई तीर्थ यात्रा और धार्मिक चढ़ावा है? कोई रूसी नेता या मंत्री तो वहां अभी तक देखने में नहींआया!
यही नहीं, स्वयं यूक्रेनी सरकार के परम शुभचिंतक जर्मनी के सार्वजनिक प्रसारण नेटवर्क ‘एआरडी’ की एक साहसिक खोजपूर्ण टेलीविजन रिपोर्ट से इस बीच यह भी सिद्ध हो चुका है कि किएव के मैदान-चौक पर यानुकोविच-विरोधी उग्र प्रदर्शनों के अंतिम दिनों में वहां हुई गोलीबारी में 100 से अधिक जो लोग मारे गए, उनमें बहुत से ऐसे भी प्रदर्शनकारी थे, जो उन गोलियों से मारे गए, जो पास के होटल ‘उक्राइने’ (यूक्रेन) पर कब्जा जमाए हथियारबंद प्रदर्शनकारियों के ही एक गिरोह ने छिपकर चलाईं. यानी, प्रदर्शनकारियों के ही एक गुट ने अहिंसक प्रदर्शनकारियों पर गोलियां चलाईं. लेकिन, न तो अमेरिका इन लोगों की धरपकड़ की मांग कर रहा है और न अंतरिम सरकार ने ही मामले की सही छानबीन में कभी दिलचस्पी दिखाई. उसने सरकारी वकील की एक दिखावटी जांच द्वारा रूसी गुप्तचर सेवा को दोषी बता कर अपने हाथ झाड़ लिए. कोई नहीं जानना चाहता कि गोली चलाने वाले लोग कौन थे और उन्हें मशीनगनें भला कहां से मिलीं.
‘धोबी पर बस न चले तो गधे के कान ऐंठे’
स्वयं आज भी अपनी नाक के नीचे बैठे हथियारबंद प्रदर्शनकारियों और सरकारी भवनों के कब्जाधारियों पर उंगली उठाने में असमर्थ अंतरिम सरकार ने, जेनेवा वार्ताओं के एक ही दिन पहले, ‘धोबी पर बस न चले, तो गधे के कान ऐंठे’ वाली कहावत को चरितार्थ करता एक ‘आतंकवाद-विरोधी’ सैनिक अभियान छेड़ा. पूर्वी यूक्रेन में दोन्येत्स्क क्षेत्र के रूस-समर्थक विद्रोहियों को निहत्था करने और लगभग एक दर्जन शहरों व कस्बों में उनके कब्जे वाले सरकारी भवनों को खाली कराने के लिए टैंक-सवार सैनिक रवाना किए गए. लेकिन, पहले छह टैंक जैसे ही क्रामातोर्स्क नाम के कस्बे में पहुंचे, सैनिकों ने अपने टैंकों पर रूसी झंडे फहरा दिए. कुछ स्थानीय निवासी अपनी आंखों पर विश्वास नहीं कर पा रहे थे, तो कुछ उनके साथ मिल कर खुशियां मनाने लगे. ‘किएव ने हमें भुला दिया है,’ इन सैनिकों ने कहा, ‘हमें हफ्तों से ठीक से खाना तक नहीं मिला है.’ उन्होंने बताया कि वे यूक्रेनी वायुसेना की 25 वीं ब्रिगेड के सैनिक हैं और पहलू बदलकर अब रूस-समर्थक विद्रोहियों के साथ मिल गए हैं. 15 किलोमीटर दूर के करीब एक लाख जनसंख्या वाले स्लाव्यांस्क में जब वे पहुंचे तो उनका और भी जोरदार स्वागत हुआ. सैनिक भी दिग्भ्रमित हैं. लगभग एक दशक से चल रही क्रांतियों-प्रतिक्रांतियों और राजनीतिक उठा-पटक के कारण सेना और पुलिस का मनोबल रसातल में पहुंच गया है.
किएव के दंगाइयों की हू-बहू नकल
अपनी नाक इस बुरी तरह कटने के बाद किएव की अंतरिम सरकार ने उसी सप्ताहांत पड़ रहे ईस्टर त्यौहार के बहाने से अपना अभियान रोक दिया. पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषी विद्रोही भी धरना देने, सड़कों पर और सरकारी भवनों के सामने बाधाएं खड़ी करने और उन पर कब्जा जमा लेने के हूबहू वही कारगर तरीके अपना रहे हैं, जो यूक्रेन के रूस-विरोधी प्रदर्शनकारी राजधानी किएव में भारी सफलता के साथ दिखा चुके हैं. उनकी मांग अपने क्षेत्र का रूस में विलय करने से अधिक इस बात को लेकर है कि यूक्रेन को एक संघात्मक शासन-व्यवस्था वाला देश बनाने के लिए जनमतसंग्रह कराया जाए, रूसी भाषा की प्रधानता वाले पूर्वी तथा दक्षिणपूर्वी यूक्रेन को सच्चे स्वायत्तशासी अधिकार दिए जाएं. लेकिन यूक्रेन की अंतरिम कठपुतली सरकार और उसके यूरोपीय-अमेरिकी सूत्रधार यही रट लगाए हुए हैं कि पूर्वी यूक्रेन के रूसी-भाषी रूस के चाटुकार पृथकतावादी हैं जिनके जरिये रूस अपना विस्तार करना और यूक्रेन को अपनी मुठ्ठी में कसे रखना चाहता है.
पश्चिम का रामबाण तर्क
पश्चिमी देश इस बात में कोई बुराई नहीं देखते कि वे स्वयं भी तो यूक्रेन को अपनी मुठ्ठी में कसना चाहते हैं. रूस का तो वह फिर भी तीन सदियों तक हिस्सा रहा है जबकि जर्मनी, फ्रांस या अमेरिका से तो उसका कुछ भी लेना-देना नहीं है. ऐसी आपत्तियों पर पश्चिम का सबसे रामबाण तर्क होता है– हम लोकतंत्र हैं. मानो लोकतंत्र होना सदा-सर्वदा सच्चा और सही होने का ऐसा जन्मसिद्ध एकाधिकार है, जो केवल अमेरिका और उसके पिट्ठुओं की बपौती है. उन्हीं के पास यह जानने की दैवदृष्टि भी है कि कौन सच्चा लोकतंत्र है और कौन नहीं.
चारपक्षीय जेनेवा वार्ताओं के बाद यूक्रेन की अंतरिम सरकार ने देश के पूर्वी भाग के रूस-समर्थकों के विरुद्ध अपना कथित ‘आतंकवाद-विरोधी’ अभियान फिर से छेड़ दिया है. पहले ही दिन एक हेलीकॉप्टर मार गिराया गया जबकि स्लाव्यांस्क के पास गोलियों की बौछार से क्षतिग्रस्त एक अंतोनोव-30 परिवहन विमान जैसे-तैसे उतरने में सफल रहा. किएव की सरकार अपने सुरक्षाबलों की निष्ठा पर क्योंकि अब भी पूरा विश्वास नहीं कर सकती, इसलिए वह अमेरिका के माध्यम से रूस पर दबाव डलवा रही है कि रूस अपने समर्थकों को अनुशासित करे. अमेरिका ने रूस के विरुद्ध प्रतिबंधों का विस्तार करने के साथ-साथ रूस से लगी सीमा वाले पोलैंड, एस्तोनिया, लातविया और लिथुआनिया में अपने 600 अतिरिक्त सैनिक भेजने और इन देशों की हवाई निगरानी बढ़ा देने की घोषणा की है.
पर्यवेक्षक पकड़े गए
‘यूरोपीय सुरक्षा एवं सहयोग संगठन’ की ओर से उसके ‘स्पेशल मॉनिटरिंग मिशन’ (विशेष पर्यवेक्षण मिशन) के करीब 140 पर्वेक्षक वैसे तो पहले से ही यूक्रेन में तैनात हैं और अपनी रिपोर्टें संगठन के सभी देशों के पास भेजते रहते हैं. लेकिन, यूक्रेनी सरकार ने देश के पूर्वी हिस्से की टोह लेने के लिए एक और दल ‘मिलटरी वेरिफिकेशन टीम’ (सैनिक सत्यापन टीम) के कुछ सदस्यों को भी संभवतः अलग से बुला रखा है.
जर्मन सेना ‘बुंडेसवेयर’ के नेतृत्व में गठित इस टीम के एक दर्जन सदस्यों को स्लाव्यांस्क के रूसियों की जनमिलिशिया ने 26 अप्रैल को बंदी बना लिया. वे किसी वर्दी में नहीं थे, बल्कि सामान्य कपड़े पहने हुए थे. उन में से चार जर्मनी के हैं, बाकी यूक्रेन, चेक गणराज्य, डेनमार्क, स्वीडन और पोलैंड के बताए जाते हैं. 27 अप्रैल को उन्हें मीडिया के सामने पेश करने के बाद स्वीडिश बंदी को मधुमेह का रोगी होने कारण रिहा कर दिया गया. स्लाव्यांस्क के स्वघोषित मेयर व्याचेस्लाव पोनोमार्येव ने उन पर ‘नाटो के भेदिये’ होने का आरोप लगाया और कहा कि उन्हें यूक्रेनी सरकार द्वारा बंदी बनाए गए रूसी-भाषी जनमिलिशिया के सदस्यों के साथ अदला-बदली से ही रिहाई मिल सकती है. रूसी विदेशमंत्रालय ने आश्वासन दिया है कि विदेशी बंदियों को शीघ्र ही छुड़ाने की हर संभव कोशिश की जायेगी.
मीडिया में पुतिन की अत्यधिक आलोचना एक तरह से उनका हित ही कर रही है.
रूसी सैनिक-जमाव
उधर अमेरिका उपग्रहों से ली गई पुरानी तस्वीरों के माध्यम से सिद्ध करने में लगा है कि रूस ने यूक्रेनी सीमा के पास 40 से 50 हजार सैनिक जमा कर रखे हैं, जो किसी भी समय सीमा पार कर सकते हैं. लेकिन, मॉस्को में पैदा हुए और वहीं पढ़े-लिखे सैन्य-विशेषज्ञ अलेक्सांदर गोल्त्स का कहना है कि वे बीती फरवरी से ही वहां हैं पर यूक्रेन पर कब्जा करने के लिए कतई पर्याप्त नहीं हैं. पुतिन के आलोचक गोल्त्स ने एक जर्मन दैनिक से कहा कि यह सैन्यबल छाताधारी (पैराशूट) सैनिकों तथा थल सेना की 3-4 विशिष्ट इकाइयों को मिला कर बने एक त्वरित हस्तक्षेप बल के आदिरूप (प्रोटोटाइप) जैसा है और यूक्रेन के किसी प्रादेशिक भूभाग तक को हड़पने के योग्य नहीं हैं. यूक्रेन में ‘यदि कोई नई सीमा खींचनी है, तो कम से कम एक लाख जवानों की जरूरत पड़ेगी. यदि हम सारी बातों को विवेकसम्मत ढंग से सोचें, तो यूक्रेन पर आक्रमण का आदेश संभव नहीं लगता,’ गोल्त्स का कहना है. उन्होंने याद दिलाया कि अमेरिका सहित संसार का कोई भी देश नागरिक जनता के प्रतिरोध पर कभी विजय प्राप्त नहीं कर पाया. इसे पुतिन भी जानते हैं.
अमेरिका-भक्तों के माथे पर शिकन
दूसरी ओर राष्ट्रपति बराक ओबामा रूस को ईंट का जवाब पत्थर से देने की कुछ ऐसी उतावली में लगते हैं कि अमेरिका के सबसे विश्वस्त जर्मनी जैसे भक्तों के माथे पर भी शिकन पड़ने लगी है कि वे आखिर चाहते क्या हैं. 25 अप्रैल को अमेरिकी विदेशमंत्री जॉन केरी ने जी-7 के सभी देशों के सरकार प्रमुखों को फोन कर हड़काया कि ‘सात दिनों से रूस सही दिशा में कोई ठोस कदम उठाने से मना कर रहा है.’ उन्होंने सभी सात देशों को मजबूर कर दिया कि वे एक साझी घोषणा में रूस से कहें कि वह हफ्ते भर के अंदर पूर्वी यूक्रेन के रूस समर्थकों की नकेल कसे, वरना बहुत बुरा होगा. लेकिन, यूक्रेन की अंतरिम सरकार से कोई आग्रह, कोई अपील नहीं की गई. इसी से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि यूक्रेन-संकट को, जिसे यूरोपीय संघ और अमेरिका ने ही मिल कर पैदा किया, किसी संभावित युद्ध तक ले जाने में दिलचस्पी और उतावली किस की है.
स्थिति यह हो गई है कि पश्चिमी सरकारें और सारे मीडिया मिलकर रूसी राष्ट्रपति के विरुद्ध एक स्वर में जितना अधिक प्रलाप कर रहे हैं, आम जनता का उनके ऊपर से विश्वास उतना ही उठता जा रहा है. कम से कम जर्मनी में तो यही देखने में आ रहा है. पत्र-पत्रिकाओं में छपने वाले पाठक-पत्रों और वेबसाइटों पर छपने वाली पाठकों की टिप्पणियों में उन लोगों का पलड़ा काफी भारी है, जो पश्चिमी सरकारों के इरादों के प्रति शंका और राष्ट्रपति पुतिन के प्रति समझ दिखा रहे हैं. मीडिया वाले हैरान हैं और नेता परेशान. इन प्रतिक्रियाओं में ऐसे बहुत सारे तथ्यों का उल्लेख मिलता है, जो और सरकारें तो छिपाती ही हैं, मीडिया वाले भी दबा देते हैं.
राजकुमार ताड़मालीअब चालीस के हो चुके हैं. ताड़ी के मौसम में पेड़ से ताड़ी उतारने का काम करते हैं. बीस साल पहले इसी धंधे ने उनका एक सपना लगभग छीन लिया था. सपना हेलीकॉप्टर देखने का. 1993 में आजमगढ़ से 12 किलोमीटर दूर जहानागंज बाजार में मुलायम सिंह यादव आने वाले थे, हेलीकॉप्टर से. मुलायम अपनी नवगठित समाजवादी पार्टी का जनाधार बढ़ाने के लिए गांव-गांव का दौरा कर रहे थे. इसी क्रम में जहानागंज बाजार में भी उनकी जनसभा होनी थी. छोटे से बाजार में उस समय तक किसी ने भी हेलीकॉप्टर नहीं देखा था. सबकी तरह ही तब उन्नीस साल के राजकुमार भी मुलायम सिंह और हेलीकॉप्टर को देखने की इच्छा रखते थे. राजकुमार की दिक्कत यह थी कि उनके पास ताड़ी भरी दो लभनी (ताड़ी निकालने वाला मिट्टी का बर्तन) थीं. बाजार में उनका कोई स्थायी ठिकाना नहीं था. इसी बीच हेलीकॉप्टर की आवाज आई और पूरे बाजार में अफरा-तफरी मच गई. सारे लोग रैली-स्थल की ओर भागने लगे. थोड़ी ही देर में पूरे बाजार में सन्नाटा पसर गया. लेकिन राजकुमार ताड़ी की वजह से फंसे रह गए. बाजार की एक महिला ने आकर उनसे पूछा कि बाबू तुम हेलीकॉप्टर देखने नहीं गए. राजकुमार ने मन मसोस कर बताया कि ताड़ी साथ में है. उस महिला ने उनकी ताड़ी अपने घर में रखवा कर उन्हें हेलीकॉप्टर देख आने के लिए कहा. राजकुमार भागते हुए रैली स्थल पर पहुंचे थे. इस तरह हेलीकॉप्टर देखने की उनकी इच्छा पूरी हो गई और वे मुलायम सिंह के अनन्य भक्त बन गए.
राजकुमार अब भी ताड़ी बेचते हैं. पर अब पेड़ से ताड़ी कम उतरती है तो कभी-कभी पानी मिलाकर भी काम चला लेते हैं. ताड़ी में पानी की तरह ही राजकुमार का मुलायम प्रेम भी अब उतना गाढ़ा नहीं रहा. मुलायम सिंह एक बार फिर से आजमगढ़ में हैं. वे यहीं से चुनाव लड़ रहे हैं. पर राजकुमार इस बार उन्हें देखने नहीं गए. वजह पूछने पर वे बड़ा दिलचस्प उत्तर देते हैं, ‘हेलीकॉप्टर भी देख लेहली औ मुलायम के भी देख लेहली. बीस साल से खाली मुलायमै हेलीकॉप्टर पर बैठत हौवैं. केहु दूसर ना बैठल अब तक.’ (हेलीकॉप्टर भी देख लिए और मुलायम को भी. बीस साल से केवल मुलायम ही हेलीकॉप्टर पर बैठे हैं. किसी दूसरे को मौका नहीं मिल रहा.) ताड़माली उत्तर प्रदेश की अन्य पिछड़ा वर्ग की सौतेली श्रेणी में आते हैं. यहां पिछड़ों के नाम पर यादवों का वर्चस्व है.
1993 से मुलायम सिंह आजमगढ़ से अपने चुनावी अभियान का श्रीगणेश करते आएं हैं. इस बार स्थिति अलग है. इस बार वे स्वयं आजमगढ़ सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ रहे हैं. आजमगढ़ से चुनाव लड़ने का फैसला मुलायम सिंह ने आखिरी समय में किया है. वे खुद इसकी वजह बताते हैं, ‘अगर नरेंद्र मोदी बनारस से चुनाव नहीं लड़ते तो मुझे आजमगढ़ नहीं आना पड़ता.’ जाहिर सी बात है कि मोदी के बनारस आने से पूर्वांचल की 32 सीटों का समीकरण बदल गया है. भाजपा बनारस इकाई के विधि प्रकोष्ठ के अध्यक्ष दीपक मिश्रा कहते हैं, ‘पिछले दो लोकसभा चुनाव में पूर्वांचल में हमारी स्थिति दयनीय हो गई थी. लेकिन मोदी जी के आने से यह बदलाव आया है कि हर सीट पर हम पहले या दूसरे नंबर की लड़ाई में आ गए हैं.’ यह वही स्थिति है जिसको खत्म करने के लिए मुलायम सिंह ने आजमगढ़ का रुख किया है. पर मुलायम के इस कदम का पूर्वांचल की बाकी सीटों पर कोई असर पड़ता दिख नहीं रहा है. इसके विपरीत आजमगढ़ की सीट भी उनके लिए आसान साबित नहीं हो रही है. ‘माई’ का फार्मूला उनके गले की फांस बन गया है. उनके खिलाफ दो मुसलमान और एक यादव खड़ा है और तीनों की अपने इलाकों में अच्छी-खासी पैठ है.
लंबे समय से आजमगढ़ समेत पूर्वांचल का इलाका समाजवाद का गढ़ रहा है. सन सतहत्तर में यहां की जनता ने तत्कालीन केंद्रीय इस्पात मंत्री और इंदिरा कैबिनेट का अहम हिस्सा रहे चंद्रजीत यादव को हराकर जनता पार्टी के रामनरेश यादव को संसद भेजा था. इसके बाद से कांग्रेस यहां कभी उबर नहीं पायी. हालांकि बाद में मुलायम सिंह यादव के समाजवादी नेता बनने के बाद समाजवाद का दायरा दो समुदायों – यादव और मुसलिम – के बीच सिमट गया. समाजवाद का गढ़ यह अभी भी है लेकिन अब यह गढ़ समाजवादी विचारधारा की वजह से नहीं बल्कि धार्मिक ध्रुवीकरण और यादव मतदाताओं की बड़ी जनसंख्या के कारण है.
मुलायम सिंह के आजमगढ़ आने से पहले तक इस सीट पर कई खेल हुए थे. पहले राज्य के वरिष्ठ मंत्री बलराम यादव ने लोकसभा का टिकट ठुकराया, उसके बाद हवलदार यादव को उम्मीदवार घोषित किया गया था. उसके भी थोड़ा पहले जाएं तो मुलायम सिंह के दूसरे पुत्र प्रतीक यादव को आजमगढ़ से लड़ाने के लिए तथाकथित सपा कार्यकर्ताओं का एक झुंड धरना-प्रदर्शन तक कर चुका है. लेकिन आजमगढ़ में सपा की स्थिति का भान नेताजी समेत सबको था. पहले नंबर का नतीजा भविष्य के गर्भ में था लेकिन तीसरे स्थान पर समाजवादी पार्टी का आना तय था. इसकी वजहें बेहद सीधी-सपाट थीं. मुजफ्फरनगर का दंगा और पिछले ढाई साल के दौरान समाजवादी पार्टी का कामकाज.
इतिहास ने मुलायम सिंह और अखिलेश यादव को एक अवसर दिया था. इतना बड़ा बहुमत अब तक प्रदेश में किसी पार्टी को नसीब नहीं हुआ था. यह परिवर्तन की आकांक्षा वाला मत था. यह मत अखिलेश यादव के रूप में एक नए खून को था. यह मत नई राजनीति को था, यह मत महत्वाकांक्षी युवाओं का था. लेकिन इस चीज को समझने में समाजवादी पार्टी और मुलायम सिंह यादव बुरी तरह से चूक गए. अखिलेश यादव सरकार का चेहरा बने और पीछे से मुलायम सिंह यादव ने इस सरकार को उन्हीं तौर-तरीकों से चलाने की कोशिश की जिनका इस्तेमाल वे पिछले बीस सालों से करते आ रहे थे. जातिवाद को बढ़ावा देकर, पंथवाद को बढ़ावा देकर, कानून व्यवस्था की दुर्गति करके. लगा कि सपा ने 2007 की करारी हार से कोई सबक ही नहीं सीखा. नतीजा सामने था, ढाई साल में ढाई सौ सांप्रदायिक और जातीय दंगे. यह गृहमंत्रालय की ताजा रिपोर्ट है. इसी में मुजफ्फरनगर का दंगा भी शामिल है. उत्तर प्रदेश ने ऐसा भयावह दंगा पिछले दो दशकों में पहली बार देखा. इस दंगे के पीड़ितों में एक बड़ी संख्या मुसलमानों की है. वही मुसलमान जिसके सहारे मुलायम सिंह ने माई का जिताऊ फार्मूला तैयार किया था. बात सिर्फ दंगों तक ही सीमित नहीं रही. इसके बाद स्वयं मुलायम सिंह यादव और उनकी पार्टी के नेताओं ने ऐसे-ऐसे बयान दिए जिससे मुसलमानों का मन उनके प्रति और खट्टा होता गया.
जोरदार अभिनंदन मुलायम धिंह के नामांकन के बाद आजमगढ़ में धनकला रोडशो. फोटोः प्रमोद अधिकारी
आजमगढ़ से मुलायम सिंह के चुनाव लड़ने की घोषणा के वक्त राजनीतिक हलकों में इस बात पर एकराय थी कि नेताजी ने इस चुनाव का मास्टर स्ट्रोक खेला है. संभावना व्यक्त की जाने लगी थी कि उनके इस कदम से पूर्वांचल में मोदी के उभार को रोकने में कामयाबी मिलेगी. सपा की आजमगढ़ इकाई के वरिष्ठ नेता शादाब अहमद कहते हैं, ‘आज मुजफ्फरनगर से बड़ा मुद्दा मोदी को रोकना है. नेताजी के आजमगढ़ आने से मुसलमानों में एक उम्मीद पैदा हुई है.’ हालांकि निजी बातचीत में कुछ दूसरे सपा नेताओं की चिंता सामने आ जाती है. उन्हें इस बात का गहराई से अहसास है कि मुलायम सिंह का रास्ता आसान नहीं है. आजमगढ़ से मुलायम सिंह का सिर्फ जीतना ही महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि उनके कद के हिसाब से जीत का अंतर होना भी जरूरी है. जो लोग सिर्फ मुलायम सिंह के कद और जातिगत समीकरण पर अपनी उम्मीदें टिकाए बैठे है चुनाव के नतीजे उन्हें चौंका सकते हैं. शहर के प्रतिष्ठित शिब्ली कॉलेज में समाजशास्त्र विभाग के अध्यक्ष जहूर अहमद बताते हैं, ‘इस शहर का मिजाज हमेशा से एंटी एस्टैबिलिशमेंट वाला रहा है. यह बात इस बार मुलायम सिंह के खिलाफ जा सकती है. मुजफ्फरनगर भी उनके लिए चिंता का सबब होना चाहिए. हालांकि उनके आने से छिटका हुआ मुसलिम वोट कुछ हद तक सपा के पक्ष में गोलबंद हुआ है.’
आंकड़े सपा के पक्ष में हैं. जिले की दस में से नौ विधानसभा सीटें सपा के पास हैं. पांच विधायक अखिलेश यादव की सरकार में मंत्री हैं. पर एक सीट जो सपा के हाथ में नहीं है वही मुलायम सिंह के लिए चिंता का सबब है. मुबारकपुर विधानसभा सीट से बसपा के विधायक शाह आलम उर्फ गुड्डू जमाली मुलायम सिंह के गले की फांस बन गए हैं. जमाली 2012 के विधानसभा चुनाव में सारी सपा लहर को धता बताकर बसपा के टिकट पर चुनाव जीते थे. इलाके के बड़े व्यापारियों में शुमार जमाली को बसपा ने इस बार लोकसभा का उम्मीदवार बनाया है. जमाली को बसपा के दलित वोट बैंक (2.5 लाख) के अलावा बड़ी संख्या में मुसलिम वोटों का आसरा है. यह वह मुसलिम वोट है जो किसी भी कीमत पर मुजफ्फरनगर और तमाम दूसरे दंगों को भूलने के लिए तैयार नहीं है. सपा के एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘मुसलमानों में नाराजगी इतनी ज्यादा है कि मुलायम सिंह लाख कोशिश कर लें पर चालीस फीसदी मुसलिम वोट दूसरी पार्टियों को जाएगा ही.’ अपने समुदाय से मिल रहे समर्थन का अहसास गुड्डू जमाली के समर्थकों को भी है. उनके एक नजदीकी साथी कहते हैं, ‘या तो हम जीतेंगे या रमाकांत. मुलायम सिंह को हर हाल में हारना होगा.’ रमाकांत यादव भाजपा के लोकसभा उम्मीदवार और यहां के वर्तमान सासंद हैं.
मुलायम सिंह के सामने हालत कोढ़ में खाज वाली है. एक अन्य मुसलिम नेता राष्ट्रीय उल्मा काउंसिल के राष्ट्रीय अध्यक्ष मौलाना आमिर रशादी भी मुलायम सिंह के खिलाफ मैदान में उतर गए हैं. उल्मा काउंसिल का जन्म 2008 में दिल्ली के बटला हाउस में हुए एनकाउंटर के विरोध में हुआ था. उस मुठभेड़ में जिले के संजरपुर गांव के तीन लड़कों को पुलिस ने मार गिराया था. पुलिस का दावा था कि ये लड़के दिल्ली में हुए सीरियल बम धमाकों में लिप्त थे. इसी बटला हाउस की छाया में 2009 के लोकसभा चुनाव हुए थे जिसमें पहली बार राष्ट्रीय उल्मा काउंसिल ने आजमगढ़ और आसपास की सीटों से अपने उम्मीदवार उतारे थे. तब आजमगढ़ सीट से उल्मा काउंसिल ने शहर के मशहूर डॉक्टर जावेद को मैदान में उतारा था. डॉ. जावेद का बेटा भी बटला हाउस मुठभेड़ में मारा गया था. भावुकता के उस उफान में उल्मा काउंसिल को 60,000 वोट मिले थे. और पहली बार इस जिले में भाजपा का कमल खिला था. जितने वोट काउंसिल को मिले थे लगभग उतने ही वोट से रमाकांत यादव चुनाव जीते थे. अब वही उल्मा काउंसिल एक बार फिर से मुलायम सिंह की राह में खड़ी है. हालांकि स्थानीय सपा नेता और प्रदेश सरकार में राज्यमंत्री नफीस अहमद उन्हें सिरे से खारिज करते हैं, ‘मुसलमान रशादी पर रत्ती भर विश्वास नहीं करता है. मौलाना भटक गए हैं. उनके लिए मुसलमानों का कोई महत्व नहीं है बस अपनी महत्वाकांक्षा के लिए वे राजनीति कर रहे हैं.’
आजमगढ़ की फिजाओं में ये हवा फैली हुई है कि मौलाना रशादी मुलायम सिंह के साथ सौदा करके चुनाव से हट सकते हैं. रिहाई मंच के एक नेता के मुताबिक रशादी ने मुलायम सिंह के सामने महासचिव पद की मांग रखी है. स्वयं मौलाना इस बात की तस्दीक करते हैं कि सपा और बसपा के लोग उनके संपर्क में हैं, साथ ही वे किसी भी तरह की सौदेबाजी से इनकार करते हैं, ‘हम टिकाऊ हैं, बिकाऊ नहीं है. मुलायम सिंह को आजमगढ़ से बैरंग वापस भेजना हमारा मकसद है.’ एक बात तय दिख रही है कि अगर मौलाना दम भरकर आजमगढ़ का चुनाव लड़ जाते हैं तो जो मुसलमान वोट 2009 में दो हिस्सों में बंटा था वह इस बार तीन हिस्सों में बंट जाएगा. भाजपा को इसी बंटवारे और मोदी लहर का भरोसा है.
एक अकेले मुलायम सिंह की जान आजमगढ़ में कई मोर्चों पर फंसी हुई है. भाजपा ने फिर से रमाकांत यादव को टिकट देकर उनके दूसरे स्थायी स्तंभ (यादव) को ढहाने की भी तैयारी कर रखी है. यादव वोटों में पड़ रही दरार सपा की एक और चिंता है. यह बात स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है कि युवा यादव वोटरों में मोदी के प्रति रुझान है. साथ ही हाल के कुछ दिनों में आजमगढ़ और आस-पास के जिलों में यादवों के बीच उपजाति का भी विचार तेजी से सामने आया है. जानकारों का कहना है कि इसके पीछे संघ की प्रोपैगैंडा मशीनरी काम कर रही है. इसका मकसद यादव वोटों को दो फाड़ करना है. विचार यह है कि यादवों की दो उपजातियां हैं ग्वाला और ढंढ़ोर. कहानी इस तरह से फैलाई गई है कि आजमगढ़ समेत पूर्वांचल के ज्यादातर यादव ग्वाला हैं जो कि अन्य यादवों से श्रेष्ठ हैं. शहर के सिविल लाइन चौराहे पर स्थिति गोयल कैफे में बैठे कुछ युवाओं को 23 वर्षीय अनिल यादव बड़े गर्व के साथ यह कहानी सुनाते हैं ‘हम लोग ग्वाला अहीर हैं, मुलायम सिंह ढंढ़ोर हैं.’ अनिल से बात करने पर पता चलता है कि उन्हें भी श्रेष्ठता की यह कहानी हाल ही में पता चली है. मुलायम सिंह और उनके रणनीतिकारों को इस नए यथार्थ से भी जूझना है. चुनावों में इसके प्रभाव को लेकर कुछ भी कह पाना नामुमकिन है.
इन तमाम झंझावातों के बावजूद राजनीतिक पंडितों की राय है कि नतीजे आने से पहले मुलायम सिंह को खारिज करना या उनके बारे में कोई भविष्यवाणी करना समझदारी नहीं होगी. अखाड़े में चरखा दांव के महारथी रहे मुलायम सिंह यादव ने राजनीति में भी कई बार चरखा दांव से अपने विरोधियों को ठिकाने लगाया है. 1989 में वीपी सिंह के समर्थन से उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री बने मुलायम सिंह ने 1990 में वीपी सिंह को छोड़ चंद्रशेखर का हाथ पकड़ कर अपनी सरकार बचा लेने का कारनामा किया था. 1992 उन्होंने चंद्रशेखर का भी साथ छोड़ दिया और अपनी खुद की समाजवादी पार्टी बना ली. 1998 में मुलायम सिंह के चरखा दांव की शिकार सोनिया गांधी भी हो चुकी हैं. तब राजग की सरकार गिरने पर सोनिया गांधी के प्रधानमंत्री बनने की प्रबल संभावना थी, मुलायम सिंह ने भी उन्हें समर्थन का आश्वासन दिया था लेकिन अंत समय में सोनिया के विदेशी मूल को बहाना बनाकर वे समर्थन देने से पीछे हट गए. सोनिया देखती रह गईं. इसी तरह 2012 में उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के मुद्दे पर ममता बनर्जी को गच्चा दे दिया था.
पिछले कुछ दिनों के दौरान अगर हम मुलायम सिंह यादव की राजनीतिक गतिविधियों और उनके बयानों पर ध्यान दें तो पाते हैं कि एक बार फिर से वे राजनीति का चरखा दांव चल रहे हैं. सीधी भाषा में कहें तो वे साम-दाम-दंड-भेद सबका इस्तेमाल कर रहे हैं. बुलंदशहर में जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने शिक्षामित्रों को सीधे-सीधे धमका दिया, ‘हमारी सरकार ने आप लोगों के लिए तमाम सहूलियतें दी हैं. अब आप हमें वोट दीजिए वरना चुनाव के बाद सारी सुविधाएं वापस ले ली जाएंगी.’ मुरादाबाद में वे एक कदम और आगे चले गए, ‘लड़के हैं गलती हो जाती है. रेप के मामले में फांसी दी जाएगी? बंबई में तीन लड़कों को फांसी दे दी गई है. हम इसे खत्म करेंगे.’
दरअसल मुलायम सिंह को अहसास है कि प्रधानमंत्री बनने का उनका यह आखिरी अवसर था और उत्तर प्रदेश सरकार के कारनामों ने उनकी संभावना को बुरी तरह से पलीता लगाया है. हताशा और निराशा की हालत में आजमगढ़ में दिया गया उनका पिछला बयान काबिले गौर है, ‘युवाओं को आपने बहुत कुछ दिया है. उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया है. हमें भी तो दिल्ली में कुछ बना दो. मुझे प्रधानमंत्री कब बनाओगे?’ मुलायम ने यह बयान 24 अप्रैल को आजमगढ़ में अपना पर्चा दाखिल करने के बाद जनसभा में दिया था. वे किसी निरीह की तरह गुहार लगा रहे थे. इससे कुछ ही क्षण पहले का घटनाक्रम ध्यान देने लायक है. मुलायम सिंह अपना भाषण खत्म करके जा चुके थे. जनता का हुजूम आईटीआई मैदान से बाहर निकलने लगा था. तभी अचानक से एक बार फिर से मुलायम सिंह की आवाज माइक पर गूंजी. भीड़ वापस मैदान की तरफ मुड़ गई. इस मौके पर मुलायम सिंह ने यह गुहार लगाई. इसका जनता के ऊपर कुछ असर भी देखने को मिला. भीड़ से निकल रहे लोगों में इस बात पर चर्चा हो रही थी कि इतना बड़ा नेता कुछ मांग रहा है तो उन्हें विचार करना चाहिए.
जिस पार्टी ने 2012 में चमत्कृत करने वाली सफलता हासिल की थी वह अचानक ही रसातल में क्यों पहुंच गई? मुलायम सिंह जैसे नेता को गिड़गिड़ाने की नौबत क्यों आई? जितनी सीटें विधानसभा चुनाव में सपा को मिली थीं उनके हिसाब से सपा का आंकड़ा लोकसभा में चालीस सीटों के पार जाता दिख रहा था. लेकिन मुलायम सिंह जैसा पका हुआ नेता भी उस जनमत को पढ़ने में नाकाम रहा. जहूर साहब के शब्दों में, ‘मुलायम सिंह ये नहीं समझ पाए कि ये जवाबदेही का वोट है. आज का वोटर नेताओं को दूसरा मौका देने को कतई तैयार नहीं है. शायद मुलायम सिंह को यह बात अब समझ आ जाए.’
बीते ढाई सालों का सपा शासन दंगों, लैपटॉप और बेरोजगारी भत्ता जैसी चीजों के लिए जाना जाएगा. दिक्कत यह हुई कि दंगे और कानून व्यवस्था लैपटॉप और बेरोजगारी पर भारी दिख रहे हैं. भाजपा ने समय के साथ बदलते हुए अपनी हांडी को डेवलपमेंट, सुशासन में लपेट दिया है जबकि मुलायम सिंह अपनी हांड़ी को उसी रूप में चढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं. ध्रुवीकरण और भयादोहन की राजनीति वाली हांडी. चौरासी कोसी से लेकर मुजफ्फरनगर की नाकामी मुलायम सिंह से आजमगढ़ में बड़ी कीमत वसूल रही है. बहुत संभव है कि येन-केन प्रकारेण मुलायम आजमगढ़ का चुनाव जीत जाएं लेकिन उन्हें इस बात का गहराई से अहसास हो जाएगा कि उनके मार्के वाली राजनीति के दिन अब लद चुके हैं.
मुश्किल भारी बफर्भारी के बीच केदारनाथ के लिए रास्ता बनाने की जदोजहद जारी है
उत्तराखंड के लिए मई का पहला हफ्ता दो कारणों से बेहद महत्वपूर्ण है. एक, प्रदेश की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान होने हैं और दूसरा, चार धाम यात्रा शुरू होनी है. प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस इन दोनों ही मोर्चों पर विफलता के मुहाने पर खड़ी है. लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की तैयारियां बेहद कमजोर हैं तो चार धाम यात्रा के लिए उसकी सरकार की तैयारियां जर्जर हालत में हैं. पिछले साल 16-17 जून को उत्तराखंड के पहाड़ों पर पानी कहर बनकर टूटा था. इसमें दर्जनों गांव, सैकड़ों भवन और हजारों लोगों का अस्तित्व हमेशा के लिए मिट गया. इस आपदा का सबसे ज्यादा प्रभाव केदारनाथ इलाके में हुआ था. केदारनाथ मंदिर तो सुरक्षित रहा लेकिन इसके आसपास और मंदाकनी घाटी में सैकड़ों किलोमीटर तक सब कुछ तबाह हो गया. दर्शन करने आए हजारों यात्रियों की मौत हो गई और हजारों लापता हुए. आशंका जताई जा रही थी कि यात्रा शायद अब दो-तीन साल तक संभव नहीं होगी. हालांकि कुछ महीनों बाद ही केदारनाथ मंदिर में दोबारा से पूजा शुरू कर दी गई, लेकिन यह औपचारिकता मात्र ही थी. श्रद्धालुओं का मंदिर तक पहुंच पाना असंभव था. सभी मोटर और पैदल मार्ग ध्वस्त हो चुके थे. ऐसे में मंदिर समिति के कुछ लोगों और पुजारियों को हवाई मार्ग से मंदिर तक पहुंचाया गया और पूजा शुरू हुई.
इस आपदा में हजारों स्थानीय लोग बेघर हुए और सैकड़ों गांवों के सभी संपर्क मार्ग टूट गए. ऐसे में सरकार की दो महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं थीं. एक, प्रभावित लोगों का पुनर्वास और दूसरा, प्रभावित क्षेत्रों का पुनर्निर्माण. लेकिन सरकार ने एक तीसरे ही विकल्प को अपनी प्राथमिकता बनाया. वह था किसी भी तरह केदारनाथ यात्रा को जल्द से जल्द दोबारा शुरू करना. उत्तराखंड में सात मई को लोकसभा के लिए मतदान होना है. इससे तीन दिन पहले ही चार मई को केदारनाथ यात्रा शुरू हो रही है. चुनाव प्रचार में यात्रा के शुरू होने को एक उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है. सरकार यह संदेश देना चाहती है कि उसने इतने कम समय में ही इतनी भीषण आपदा से निपट कर चार धाम यात्रा को सुचारू कर दिया है. लेकिन हकीकत यह है कि हजारों प्रभावित लोगों के पुनर्वास और उनकी मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके वह दूसरे हजारों लोगों को एक खतरनाक यात्रा का निमंत्रण दे रही है. Read More>>
बीते साल की भयावह आपदा और उससे हुई अकल्पनीय क्षति के बाद उत्तराखंड सरकार ने दावे तो बहुत किए मगर एक साल बाद हाल बड़ी हद तक वही ढाक के तीन पात जैसा दिखता है
केदारघाटी समेत उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय इलाकों में बीते साल जो प्राकृतिक आपदा आई थी उसके असर की भयावहता के लिए आपदा प्रबंधन तंत्र को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना गया था. इसने संकट को भांपने में शुरुआती चूक तो की ही, बचाव और राहत के मोर्चे पर भी यह बुरी तरह पस्त पड़ गया था. इस भयानक आपदा को हुए अब साल भर होने को है. केदारनाथ सहित उत्तराखंड के चारों धामों की यात्रा शुरू होने वाली है. इसलिए सरकार और खास तौर पर उसके आपदा प्रबंधन तंत्र की तैयारियों की तरफ निगाहें टिकना स्वाभाविक है. उम्मीद की जा रही है कि इतनी बड़ी आपदा से सबक सीखकर प्रदेश सरकार का आपदा प्रबंधन विभाग अब पहले से बेहतर तरीके से तैयार होगा.
लेकिन सरकार ने जो कदम उठाए हैं उन्हें देखते हुए यह उम्मीद धुंधली पड़ने लगती है. बेशक अब तक सरकार ने आपदा से निपटने को लेकर फौरी तौर पर बहुत सारी अस्थाई व्यवस्थाएं बना ली हैं, लेकिन जिन स्थाई और दूरगामी उपायों की सबसे अधिक जरूरत पिछली आपदा से भी पहले से बताई जा रही थी, उनको लेकर न तो अभी कोई शुरुआत ही हो सकी है और न ही निकट भविष्य में ऐसी कोई संभावना नजर आती है. जानकारों का मानना है कि पिछली आपदा से सबक लेने की बात कहते हुए अब तक जितने भी नए कदम उठाए गए हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनसे यात्रा की कामचलाऊ व्यवस्था तो हो सकती है, लेकिन दूरगामी नजरिए से उनकी सफलता को लेकर ठोस दावे नहीं किए जा सकते. Read More>>
केदारघाटी समेत उत्तराखंड के तमाम पर्वतीय इलाकों में बीते साल जो प्राकृतिक आपदा आई थी उसके असर की भयावहता के लिए आपदा प्रबंधन तंत्र को भी काफी हद तक जिम्मेदार माना गया था. इसने संकट को भांपने में शुरुआती चूक तो की ही, बचाव और राहत के मोर्चे पर भी यह बुरी तरह पस्त पड़ गया था. इस भयानक आपदा को हुए अब साल भर होने को है. केदारनाथ सहित उत्तराखंड के चारों धामों की यात्रा शुरू होने वाली है. इसलिए सरकार और खास तौर पर उसके आपदा प्रबंधन तंत्र की तैयारियों की तरफ निगाहें टिकना स्वाभाविक है. उम्मीद की जा रही है कि इतनी बड़ी आपदा से सबक सीखकर प्रदेश सरकार का आपदा प्रबंधन विभाग अब पहले से बेहतर तरीके से तैयार होगा.
लेकिन सरकार ने जो कदम उठाए हैं उन्हें देखते हुए यह उम्मीद धुंधली पड़ने लगती है. बेशक अब तक सरकार ने आपदा से निपटने को लेकर फौरी तौर पर बहुत सारी अस्थाई व्यवस्थाएं बना ली हैं, लेकिन जिन स्थाई और दूरगामी उपायों की सबसे अधिक जरूरत पिछली आपदा से भी पहले से बताई जा रही थी, उनको लेकर न तो अभी कोई शुरुआत ही हो सकी है और न ही निकट भविष्य में ऐसी कोई संभावना नजर आती है. जानकारों का मानना है कि पिछली आपदा से सबक लेने की बात कहते हुए अब तक जितने भी नए कदम उठाए गए हैं, उनमें से अधिकांश ऐसे हैं जिनसे यात्रा की कामचलाऊ व्यवस्था तो हो सकती है, लेकिन दूरगामी नजरिए से उनकी सफलता को लेकर ठोस दावे नहीं किए जा सकते.
इस निष्कर्ष के विस्तार में जाने से पहले यह जानना जरूरी है कि आपदा प्रबंधन की संभावित चुनौतियों से निपटने को लेकर राज्य सरकार ने अब तक क्या-क्या कदम उठाए हैं.
पिछले साल केदारनाथ समेत सभी चार धामों में आपदा से प्रभावित लोगों की सटीक संख्या का अनुमान नहीं लग पाया था. इसकी एक मात्र वजह यात्रियों का पंजीकरण नहीं होना था. लेकिन इस बार सरकार ने पंजीकरण व्यवस्था शुरू करके यह गलती सुधार ली है. आपात स्थितियों में पुलिस विभाग तथा सेना के साथ तालमेल स्थापित करने की दिशा में भी आपदा प्रबंधन विभाग ने चहलकदमी शुरू कर दी है. सरकार के मुताबिक अकेले चारधाम यात्रा मार्गों पर ही 61 अस्थायी पुलिस चौकियों के साथ 83 आपदा प्रबंधन केंद्र भी खोले जा रहे हैं. इसके अलावा बड़ी संख्या में सिविल पुलिस और पीएसी की चार कंपनियों को भी यात्रा मार्गों पर तैनात किया जा रहा है. जल पुलिस और गोताखोरों के अलावा पर्यटन पुलिस की तैनाती भी विभिन्न स्थानों पर की जा रही है. अलग-अलग विभागों में की गई ये तैनातियां पिछले साल के मुकाबले इस बार कहीं अधिक बताई जा रही हैं. अपर पुलिस महानिदेशक कानून-व्यवस्था रामसिंह मीणा के मुताबिक आपदा से निपटने के लिए पुलिस की भूमिका को महत्वपूर्ण मानते हुए इस बार गौरीकुंड से केदारनाथ तक छह जगहों पर अस्थाई चौकियां भी बनाई गई हैं. इनमें से एक तो पिछले साल आए जलजले के स्रोत यानी चौराबीड़ी तालाब के पास ही बनाई गई है जो किसी भी तरह के संभावित खतरे की जानकारी निचले इलाकों तक पहुंचाने का काम करेगी. इसके साथ ही यात्रा मार्गों पर किसी भी आपात स्थिति से निपटने के लिए राज्य सरकार ने इस बार राज्य आपदा बल का गठन भी किया है. इस दल की प्रमुख भूमिका भी आपदा प्रबंधन के इर्दगिर्द ही बुनी गई है. एनडीआरएफ की तर्ज पर प्रदेश में एसडीआरएफ (स्टेट डिजास्टर रिलीफ फोर्स ) का गठन भी किया गया है. इस फोर्स के जवानों को यात्रा मार्गों पर यात्रियों की मदद के लिए लगाया गया है. इसके अलावा गौरीकुंड से केदारनाथ तक के पैदल रास्ते को ठीक करने के लिए पुलिस के साथ उत्तरकाशी स्थित नेहरू पर्वतारोहण संस्थान (एनआईएम) की एक संयुक्त टास्क फोर्स गठित की गई है. हवाई सेवाओं को विस्तार देने के क्रम में भी इस बार गौरीकुंड से केदारनाथ तक पांच जगहों पर हेलीपैड बनाए जाने की बात भी कही गई. इन हेलीपैडों के निर्माण का काम भी लगातार जारी है. सरकारी दावों के मुताबिक केदारनाथ धाम में 500 लोगों के रहने के लिए टेंट की व्यवस्था भी की जा चुकी है. तीर्थ यात्रियों व पर्यटकों के लिए राज्य पर्यटन विकास परिषद के देहरादून स्थित मुख्यालय में कंट्रोल रूम स्थापित किए जाने के साथ ही केदारनाथ में संचार सेवा दुरुस्त रखने के लिए आवश्यक काम भी शुरू किए जा रहे हैं. सरकार ने आपात स्थितियों को देखते हुए गौरीकुंड, लिंचौली और केदारनाथ में डाक्टरों की तैनाती की बात भी कही है. इस सबके अलावा बहुत से दूसरे कामों को भी वह आपदा प्रबंधन की दिशा में अपनी उपलब्धि बता रही है. मुख्यमंत्री हरीश रावत का कहना है कि राज्य सरकार केदारनाथ और बद्रीनाथ में पुननिर्माण कार्यों पर अब तक लगभग 500 करोड़ रुपये खर्च कर चुकी है. कुछ ही दिन पहले केदार घाटी का दौरा कर चुके मुख्य सचिव सुभाष कुमार भी यात्रा तैयारियों को लेकर संतोष जता चुके हैं.
लेकिन लाख दावों के बावजूद कई जगहों पर जमीनी वास्तविकता कुछ और ही तस्वीर दिखा रही है. जानकारों का मानना है कि इसके लिए आपदा प्रबंधन विभाग को फौरी इंतजामों की बजाय स्थाई उपायों पर जोर देना चाहिए था क्योंकि सरकार द्वारा किए गए अधिकतर काम मौसम के रहमोकरम पर ही रहने वाले हैं. जिन स्थाई उपायों की बात यहां की जा रही है उनमें यात्रा मार्गों पर चेतावनी प्रणाली विकसित करने, आपदा राहत संबंधित प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलाने तथा पुनर्वास की प्रक्रिया को महत्वपूर्ण माना जा रहा है.
पिछले साल केदारनाथ में आई आपदा के बाद बड़े पैमाने पर हुई जन हानि का एक अहम कारण आपदा प्रबंधन विभाग तथा मौसम विभाग के बीच तालमेल की कमी न होना बताया गया था. मौसम विभाग द्वारा दी गई भारी बारिश की चेतावनी तथा यात्रा को कुछ दिन के लिए रोक देने के सुझाव को तब सरकार ने कोई भाव नहीं दिया था. बाद में प्रदेश सरकार ने इस बात को स्वीकार भी किया. सामंजस्य की कमी की बात केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने भी साफ तौर पर मानी थी. बहरहाल इसके बाद भी मौसम विभाग ने प्रदेश में अलग-अलग स्थानों पर मौसम संबंधी जानकारियां देने के लिए रडार लगाने का सुझाव सरकार को सौंपा. विजय बहगुणा के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने इस प्रस्ताव पर सहमति जताते हुए इन रडारों को लगाने की बात भी कही. पिछले साल अगस्त में तहलका से बात करते हुए बहुगुणा का कहना था कि दो महीने के भीतर इस दिशा में काम शुरू कर दिया जाएगा. आठ महीने बीत चुके हैं. बहुगुणा की विदाई के बाद उत्तराखंड में एक और मुख्यमंत्री की ताजपोशी हो चुकी है. लेकिन रडारों का कोई अतापता नहीं है. इस बारे में पूछे जाने पर आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण केंद्र के निदेषक पीयूष रौतेला का कहना था कि यह मामला मौसम विभाग और केंद्र के बीच का है लिहाजा वे इस पर कुछ भी नहीं कह सकते. हालांकि उन्होंने माना कि ये रडार अभी तक नहीं लगाए गए हैं. प्रदेश के मौसम विभाग के निदेशक आनंद शर्मा का इस बारे में कहना था कि उनके विभाग द्वारा बहुत पहले ही यह प्रस्ताव भेजा जा चुका था और इसके आगे वे कुछ नहीं कर सकते.
दावे और हकीकत
दावा– चारधाम यात्रा क्षेत्रों के साथ ही आपदा संभावित इलाकों में चेतावनी प्रणाली को तेज बनाने के लिए रडार लगाए जाएंगे.
हकीकत– इस तरह के रडारों की अभी तक प्रतीक्षा है
दावा– सरकार मशीनरी का पूरा जोर चारधाम यात्रा मार्गों की मरम्मत पर. 30 अप्रैल तक सारी व्यवस्थाएं दुरुस्त होने का दावा.
हकीकत– रुद्रप्रयाग से सोनप्रयाग तक केदारनाथ राजमार्ग कई स्थानों पर जोखिम भरा. मलबा साफ करने और डामरीकरण का काम जारी. ऋषिकेश-बदरीनाथ मार्ग में कई जगहों पर भूस्खलन और हिमखंड टूटने के चलते यातायात लगातार प्रभावित.
दावा– सोनप्रयाग में 2000 वाहनों की पार्किंग, यात्रा पड़ावों पर श्रद्धालुओं के लिए भोजन -आवास, सुरक्षा और किसी भी स्थिति से निबटने के उपाय.
हकीकत– सोनप्रयाग में नदी और सड़क के बीच बेहद कम फासला. बारिश बढ़ने की स्थिति में सड़क टूटने और मलबा बढ़ने से वाहनों के फंसने की आशंका
दावा– यात्रा पड़ावों समेत स्थाई जगहों पर मेडिकल सुविधाएं सुधारी जाएंगी.
हकीकत– यात्रा मार्गों पर स्वास्थ्य सुविधाएं पटरी से उतरी हुई हंै. रास्ते में पड़ने वाले अधिकांश स्वास्थ्य केंद्रों में पर्याप्त डॉक्टर नहीं
दरअसल पर्वतीय क्षेत्रों में आधुनित तकनीक वाले रडार लगाए जाने बेहद जरूरी हैं ताकि अचानक आने वाली आपदाओं की स्थितियों को समय रहते काबू किया जा सके. इस सबके बीच रडार लगाने की बात कह कर भूल जाने वाली सरकार इस बार यात्रा पर आने वालों को मोबाइल एसएमएस के जरिए मौसम की जानकारी देने की बात कह रही है. लेकिन इस तरीके पर इसलिए भी संदेह उठ रहा है कि पिछले साल भारी बरसात के बाद बहुत सारे मोबाइल टावर ढह गए थे. तब समूची केदार घाटी की संपर्क व्यवस्था बुरी तरह चरमरा गई थी. वरिष्ठ पत्रकार जय सिंह रावत कहते हैं, ‘आपदा से निपटने को लेकर सरकारों की प्राथमिकता हमेशा से ही कामचलाऊ रही है. पहाड़ों में बादल फटने और भूस्खलन जैसी अचानक होने वाली घटनाओं में हर साल सैकड़ों जानें जाती हैं. ऐसे में रडार प्रणाली विकसित करने पर जोर दिया जाना चाहिए था ताकि लोगों को समय रहते चेताया जा सके.’
हालांकि इस बार सरकार मौसम विभाग के पूर्वानुमानों और भविष्यवाणियों को लेकर संजीदा होने की बात कह रही है. आनंद शर्मा का कहना था कि पिछली आपदा के बाद आपदा प्रबंधन तंत्र के अधिकारियों ने प्रदेश के मौसम विभाग से बैठकों के जरिए संवाद भी कायम किया है. लेकिन इसके बाद भी यह कहना मुश्किल है कि सब कुछ ठीक हो जाएगा क्योंकि मौसम विभाग द्वारा दी जाने वाली चेतावनियों को फौरन लोगों तक पहुंचाने के लिए अभी भी उतने प्रभावी साधन नहीं हैं. ऐसे में चारधाम यात्रा से पहले अगर मौसम का मिजाज थोड़ा भी बिगड़ा तो यह सवाल फिर उठेगा कि मौसम के पूर्वानुमान के लिए जरूरी एहतियात क्यों नहीं बरती गई? यानी इस तरह देखा जाए तो यह बहस पिछली आपदा के बाद उठे सवालों पर ही वापस लौट आएगी.
उत्तराखंड में रडार लगाने की मांग नई नहीं है. 2008 में केंद्र सरकार ने अमेरिका के वेदर डिटेक्शन सिस्टम्स से बारह-बारह करोड़ रुपए में 12 डॉपलर रडार खरीदे थे. इनका मकसद आपदा के बारे में पहले से चेतावनी देने वाले संकेतों को मजबूत करना था. इनमें से दो रडार उत्तराखंड के लिए स्वीकृत किए गए थे. लेकिन नैनीताल और मसूरी में लगने वाले इन रडारों के लिए राज्य सरकार जमीन तक नहीं दे सकी.
इसके अलावा सरकार आपदा राहत कार्यों को लेकर दिए जाने वाले प्रशिक्षण कार्यक्रमों को लेकर भी लगातार सवालों के घेरे में है. दरअसल पिछले साल आपदा राहत कार्यों में लगे एनडीआरएफ के जवानों के सामने पहाड़ की भौगोलिक परिस्थितियां बड़ी चुनौती बनकर खड़ी हो गई थीं. तब इस फोर्स के नौ जवानों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी थी. 2011-12 की कैग की रिपोर्ट में भी यह बात सामने आई थी कि एनडीआरएफ के जवानों को पहाड़ी इलाकों में राहत कार्यों का उतना अनुभव नहीं है. इसके बाद आपदा वाली परिस्थितियों से निपटने को लेकर आपदा प्रबंधन विभाग ने स्थानीय लोगों को प्रशिक्षण देने की बात कही. विभाग का कहना था कि स्थानीय लोगों को ट्रेनिंग देकर उन्हें भविष्य की योजनाओं में भी शामिल किया जाएगा. इसके लिए सरकार ने आपदा प्रभावित क्षेत्रों के हर गांव में 10 या उससे अधिक युवकों को आपदा से निपटने को प्रशिक्षित करने की योजना बनाई.
लेकिन इस योजना का क्या हुआ? पता चला कि पिछले साल आपदा प्रबंधन विभाग द्वारा राहत कार्यों का प्रशिक्षण पाने वाले व्यक्तियों में बहुत बड़ी संख्या में ऐसे नाम शामिल थे जिन्होंने या तो अभी तक जन्म भी नहीं लिया था या जिनकी उम्र 80 वर्ष से अधिक थी. विभाग की वेबसाइट पर योजना के तहत प्रशिक्षण पाने वालों में कुछ की जन्मतिथि वर्ष 2014 की दिखाई गई थी, तो कुछ को 1947 से भी पहले पैदा हुआ बताया गया था. लेकिन जब तक यह मामला तूल पकड़ता विभाग ने अपनी वेबसाइट से इस सूची को ही गायब कर दिया. विभागीय अधिकारियों ने इसे लिपिकीय भूल बता कर औपचारिकता भी निभा दी थी. कारण चाहे जो भी रहे हों, इससे एक बात तो साफ मालूम पड़ती है कि प्रदेश का आपदा प्रबंधन विभाग किस कदर हड़बड़ी में काम कर रहा है. हालांकि विभाग द्वारा इस बार स्थानीय लोगों को सटीक प्रशिक्षण देने के दावे फिर से किए गए हैं लेकिन इन दावों की हकीकत क्या होगी यह कहना मुश्किल है.
प्रशिक्षण कार्यक्रमों से आगे की बात करें तो उत्तराखंड में आपदा संभावित इलाकों का उचित पुनर्वास ही आपदा से निपटने का सबसे अहम और कारगर उपाय है. लेकिन पिछले साल 16 जून को आई प्रलय के बाद राहत और बचाव कार्यों को अंजाम देने में ही सरकार को दो महीने का वक्त लग गया था. ऐसे में पुनर्वास को लेकर उसकी रफ्तार का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है. इस दिशा में काम करने के उद्देश्य से प्रदेश में आपदा प्रबंधन विभाग के साथ ही आपदा प्रबंधन एवं न्यूनीकरण इकाई का गठन भी किया गया है. इस इकाई ने राज्य के तकरीबन दो सौ गांवों को भूस्खलन की दृष्टि से संवेदनशील घोषित किया था. लेकिन आपदा के मुहाने पर बसे लोगों को सुरक्षित जगहों पर बसाने को लेकर इसने भी अब तक किसी कारगर योजना को अंजाम नहीं दिया है. पीयूष रौतेला का कहना था कि इस बारे में अभी कुछ भी ठोस पहल नहीं हो पाई है. यानी व्यवस्था हाथ पर हाथ धरे बैठी है. 11वीं और 12वीं पंचवर्षीय योजना में भी उत्तराखंड के खतरनाक गांवों की पहचान कर वहां एहतियाती कदम उठाने की बात की गई थी. लेकिन इसके बाद भी विस्थापन और पुनर्वास को लेकर मामला ढाक के तीन पात वाला ही है.
फोटोः राहुल कोटियाल
आंकड़े और घटनाएं बताती हैं कि जब-जब राज्य में आपदा आई, तब-तब आपदा नियंत्रण के मोर्चे पर सरकार लगभग बेबस खड़ी रही. मानसरोवर यात्रा के पड़ाव मालपा से लेकर उत्तरकाशी और ऊखीमठ के बाद पिछले साल केदारनाथ की आपदा तक पहाड़ों में कई दुर्घटनाएं दर्ज हो चुकी हैं. लेकिन पुनर्वास पर सरकारी उदासीनता से लाचार प्रदेश के बहुत से इलाकों के लोग अब भी खतरनाक स्थितियों में रहने को मजबूर हैं. पिछले साल आई आपदा के बाद भी बहुत सारे प्रभावित इलाकों में लोगों ने फिर से उन्हीं जगहों पर रहना शुरू कर दिया है. अकेले केदारनाथ घाटी में ही अगस्त्यमुनि से लेकर गौरीकुंड तक दर्जनभर से अधिक इलाके ऐसे हैं. इसके अलावा श्रीनगर शहर के शक्तिविहार इलाके के लोगों ने भी अपने उन्हीं मकानों को फिर से आसरा बना लिया है जो पिछले साल की तबाही से गले-गले तक मलबे में डूब गए थे. यहां के लोगों का साफ कहना था कि उनके पास ऐसा करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं है. ऐसे में यदि इस बार या फिर भविष्य में कभी भी कोई अनहोनी होती है तो इन लोगों की सुरक्षा को लेकर कुछ भी ठोस कवायद अभी तक धरातल पर देखने को नहीं मिली है.
आपदा प्रबंधन की दिशा में सरकार की एक अहम जिम्मेदारी यातायात व्यवस्था को सुचारु बनाए रखना भी है. आंकड़े बताते हैं कि उत्तराखंड में हर साल सड़क हादसों में जान गंवाने वालों की संख्या सैकड़ों में रहती है. इनमें पहाड़ी से चट्टान गिरने से लेकर वाहनों के खाई में समा जाने तक के मामले सामने आते रहते हैं. लेकिन आपदा प्रबंधन विभाग के पास अभी तक इन हादसों से निपटने को लेकर कोई ठोस रणनीति नहीं है. केदारनाथ यात्रा के संदर्भ में सड़क निर्माण की क्या हालत है यह पिछली रिपोर्ट बता चुकी है.
सड़कों के क्षतिग्रस्त होने की स्थिति में केदारनाथ जाने वाले यात्रियों को सुरक्षित स्थानों तक पहुंचाने के लिए सरकार हेलीकाप्टर व्यवस्था को सबसे बड़ा हथियार मान रही है. इसके लिए सोनप्रयाग से लेकर केदारनाथ के बीच छह स्थानों गौरीकुंड, गौरीगांव, छोटा लिंचोली, बड़ा लिंचोली, केदारनाथ बेस कैंप तथा केदारनाथ मंदिर के पास हेलीपैड का निर्माण भी किया जा रहा है. सरकार का कहना है कि आपदा की स्थिति में यात्रियों को लाने और ले जाने में इन हैलीपैडों से काफी मदद मिलेगी. लेकिन पिछले दिनों इस दावे की पोल तब खुलती दिखी जब इन छह जगहों में से एक जगह लिंचोली में बने हैलीपैड पर हेलीकाप्टर नहीं उतर पाया. यह हेलीकाप्टर केदारनाथ में खाद्यान सामग्री लेकर जाने वाला था. ऐसे में आपात परिस्थितियों में ये हैलीपैड किस हद तक कारगर साबित होंगे, समझा जा सकता है.
सड़कों की मरम्मत को लकेर पूछे जाने वाले सवालों पर सरकार के कई अधिकारी अक्सर इसे केंद्र का मामला बता कर सवाल से ही बचते नजर आते रहे हैं. इसके अलावा खराब मौसम भी एक ऐसी शाश्वत समस्या है जो आपदा प्रबंधन तथा खोजी अभियानों के लिहाज से दिक्कत पैदा कर सकती है. आपदा के बाद इसकी बानगी पिछले साल तब भी देखने को मिल चुकी है जब केदार घाटी में ड्यूटी के दौरान नदी की तेज धारा में बह गए एक उप जिलाधिकारी को ढूंढने में सरकार का बचाव अभियान पूरी तरह असफल रहा था. इस अभियान में पुलिस, बीएसएफ और गोता खोरों की संयुक्त टीमें लगी हुई थीं.
केंद्र सरकार ने राज्य सरकार को आपदा प्रबंधन तथा पुननिर्माण संबंधी कार्यों के लिए तीन साल में तीन चरणों में 7700 करोड़ रु की मदद दी है. इसके अलावा अन्य राज्यों की सरकारों, विभिन्न संगठनों तथा लोगों की तरफ से भी तकरीबन 300 करोड़ रुपये सरकार को मिले हैं. ऐसे में यदि सरकार आपदा प्रबंधन के स्थाई उपायों को लेकर पैसों की कमी की बात करती है, तो शायद ही यह किसी के गले उतरने वाला तर्क होगा. और अगर वह स्थाई उपायों के बजाय फौरी समाधानों की तरफ ही ज्यादा जोर रखती है तब तो उसकी मंशा पर संदेह न करने की कोई वजह नहीं बचती.
सरकार गौरीकुंड से केदारनाथ तक की तैयारियों के दम पर आपदा प्रबंधन के अपने उपायों को चाक चौबंद बता रही है. ऐसे में मौसम की मेहरबानी के चलते यदि इस बार की यात्रा ठीक-ठाक पूरी हो भी जाती है तब भी प्रदेश के आपदा प्रबंधन तंत्र के सामने कुछ अहम सवाल बने रहेंगे. चेतावनी प्रणाली, प्रभावी प्रशिक्षण कार्यक्रम तथा पुनर्वास के पक्के इंतजामों वाले ये महत्वपूर्ण सवाल अभी भी जवाब की प्रतीक्षा में हैं.
ऐसा दो वजहों से हो सकता है. यदि भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) को सरकार बनाने के लिए जरूरी सीटें न मिलें. और दूसरी, यदि राजग के वर्तमान सदस्यों की कुल सीटें इतनी हों कि उन्हें सरकार बनाने के लिए अन्य कई पार्टियों के समर्थन की दरकार हो. तब हो सकता है कि विवादित छवि के चलते मोदी को समर्थन देने वाली पार्टियां भाजपा को उतनी आसानी से न मिलें. ऐसे में भाजपा मोदी के स्थान पर प्रधानमंत्री पद के लिए किसी और का नाम आगे बढ़ा सकती है.
सवाल उठता है कि तब मोदी की राजनीति में फिर क्या बचेगा? क्या उसके बाद भी मोदी उतने ही आक्रामक और प्रभावशाली रह जाएंगे जितने वे आज हैं? क्या प्रधानमंत्री नहीं बन पाने की स्थिति में नरेंद्र मोदी वापस गुजरात चले जाएंगे? या वे राष्ट्रीय राजनीति में अपने लिए एक नई भूमिका तलाशेंगे? उनके प्रतिद्वंद्वियों, समर्थकों, पार्टी और उद्योग जगत के लिए तब किस तरह की परिस्थितियां जन्म ले सकती हैं?
जानकारों का एक वर्ग मानता है कि अगर मोदी इस बार प्रधानमंत्री नहीं बन पाते हैं तो फिर यह उनके राजनीतिक जीवन का बेहद मुश्किल समय होगा. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘2009 लोकसभा की हार से आडवाणी जी अभी तक उबर नहीं पाए. ऐसे में अगर मोदी इस बार प्रधानमंत्री नहीं बने तो फिर उनका भविष्य अंधकारमय ही नजर आता है. अगले पांच सालों में काफी कुछ बदल जाएगा.’
अगर 16 मई के बाद मोदी के लिए अच्छे दिन नहीं आए तो उनके राजनीतिक करियर पर ग्रहण लगने के विचार से राजनीति के वरिष्ठ जानकार शरत प्रधान भी सहमत नजर आते हैं, ‘वर्तमान चुनावी परिदृश्य को देखते हुए यह लगता तो नहीं है कि मोदी का रथ रुकने वाला है. लेकिन मोदी इस बार प्रधानमंत्री नहीं बने तो उनका पूरा राजनीतिक करियर खतरे में आ जाएगा. जिस तरह की चौतरफा हाइप उन्होंने बना रखी है, ऐसे में अगर वे प्रधानमंत्री नहीं बन पाते हैं तो किसी लायक नहीं बचेंगे. ’
एक तरफ जहां प्रधानमंत्री न बन पाने की स्थिति में मोदी के राजनीतिक जीवन पर ग्रहण लगने की बात की जा रही है, वहीं दिल्ली से लेकर गुजरात तक के राजनीतिक हलकों में इस बात की भी चर्चा है कि पीएम न बन पाने की स्थिति में मोदी वापस गुजरात चले जाएंगे. और वहां मुख्यमंत्री बनें रहेंगे. ऐसा सोचने के पीछे बड़ा कारण यह है कि मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री का पद अभी तक छोड़ा नहीं है. गुजरात भाजपा के एक नेता कहते हैं, ‘मोदी जी ने मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफा नहीं दिया है. ऐसे में यह क्यों माना जाए कि वे पीएम नहीं बनें तो सीएम भी नहीं रहेंगे. वे अभी सीएम तो हैं ही. इसमें गलत क्या है? ’
विभिन्न राजनीतिक बहसों में अब इस बात की भी चर्चा है कि यदि मोदी के नेतृत्व में सरकार बनने की कोई संभावना न हो लेकिन एनडीए अपने पुराने साथियों या अन्य पार्टियों के साथ सरकार बनाने की स्थिति में आ सकता हो तो ऐसे में क्या होगा? क्या ऐसे में भाजपा के लिए मोदी के स्थान पर किसी और को प्रधानमंत्री बनाना आसान होगा?
रशीद इस संभावना में कई पेंच देखते हैं, वे कहते हैं, ‘अगर ऐसा होता है तो बगावत की सूरत तैयार हो जाएगी. पूरा चुनाव पार्टी ने मोदी के नेतृत्व में उनके नाम पर लड़ा है. ऐसे में जितने भी सांसद जीत कर आएंगे वे सभी मोदी के नाम पर ही आएंगे, ऐसे में वे मोदी के अलावा किसी और को वे शायद ही स्वीकार करें.’ हालांकि टाइम्स ऑफ इंडिया के पूर्व संपादक दिलीप पडगांवकर मोदी के अलावा भाजपा से किसी और के प्रधानमंत्री बनने की संभावना से इंकार नहीं करते. वे कहते हैं, ‘ मोदी बहुत व्यावहारिक राजनेता हैं. अगर उस आदमी को लगा कि वो तो पीएम नहीं बन सकता लेकिन किसी और के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बन सकती है. तो फिर वो खुद आगे बढ़कर किसी और को प्रधानमंत्री बनाने का प्रस्ताव दे सकता है. ऐसे में सोनिया-मनमोहन जैसा सिस्टम विकसित होने की संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता. जिसमें प्रधानमंत्री एक रबर स्टैंप की तरह काम करे और सोनिया की तरह मोदी असल सत्ता का केंद्र बने रहें.’
शरत प्रधान भी पडगांवकर की बात से सहमत से लगते हैं जब वे कहते हैं, ‘ इतना माहौल बनाने के बाद केंद्र की राजनीति में न आकर राज्य में वापस जाना मोदी के लिए एक बेहद शर्मनाक घटना होगी. ऐसे में यह भी संभव है कि मोदी भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाएं.’
हालांकि भाजपा नेताओं से बात करने पर वे ऐसी किसी भी संभावना से इंकार करते हैं. भाजपा के एक उपाध्यक्ष कहते हैं, ‘एक चीज आप समझ लीजिए, मोदी जी अगर प्रधानमंत्री नहीं बने तो वे किसी और को भी बनने नहीं देंगे. या तो वो पीएम बनेंगे या पार्टी विपक्ष में बैठेगी, जिसमें वे नेता प्रतिपक्ष बनकर शासन करने वाले की नाक में दम कर देंगे. वे ऐसे आदमी नहीं हैं कि अगर खुद पीएम नहीं बन पाए तो किसी और का नाम आगे बढ़ा दें. ’
राजनीति को देखने समझने वालों का एक तबका ऐसा भी है जो पूरी तरह से इस बात को स्वीकार कर चुका है कि मोदी का अब सिर्फ शपथग्रहण होना बाकी है. ऐसे ही लोगों का प्रतिनिधित्व गुजरात के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक देवेंद्र पटेल करते हैं. वे कहते हैं, ‘मोदी का प्रधानमंत्री बनना 100 फीसदी तय है. भाजपा अपने दम पर बहुमत के आंकड़े को छू लेगी.’
हालांकि देवेंद्र पटेल के इस आशावाद पर प्रश्न उठाने वालों की कमी नहीं है. वरिष्ठ पत्रकार अजय बोस कहते हैं, ‘ भाजपा के भीतर ही ये बात शुरू हो चुकी है कि पार्टी की हालत उतनी भी ठीक नहीं है जितना ढिंढोरा पीटा जा रहा है. ऐसी चर्चा हो रही है कि आंकड़ा 170-180 के पार नहीं जा पाएगा. ऐसे में मोदी के पीएम बनने की संभावना पर प्रश्न बना हुआ है.’
अजय यह राय भी रखते हैं कि अगर मोदी पीएम नहीं बने तो वे ऐसा नहीं करेंगे कि अपना बोरिया बिस्तर बांधकर अमित शाह के साथ गुजरात चले जाएं. वे कहते हैं, ‘ये आदमी यहीं दिल्ली में रहेगा लेकिन पहले की तरह आक्रामक और प्रभावशाली नहीं रह पाएगा. क्योंकि जैसे ही आक्रामक होने की वे कोशिश करेंगे भाजपा के नेता उनसे पूछ बैठेंगे कि तुमने तो कहा था कि तुम्हारी सूनामी चल रही है. 300 सीट लेकर आओगे. कहां गईं वे सीटें?’
भाजपा के नेताओं और मुख्यमंत्रियों पर असर मोदी के प्रधानमंत्री न बन पाने की स्थिति में भाजपा के मुख्यमंत्रियों के और मजबूत होने की संभावना भी जताई जा रही है. रशीद कहते हैं, ‘मोदी अगर पीएम नहीं बने तो जाहिर सी बात है उनके साथी मुख्यमंत्री मजबूत होंगे. मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान जैसे नेता और मजबूती से चमक के साथ उभरेंगे.’
भाजपा के मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान तीन बार मुख्यमंत्री बनने के साथ ही लालकृष्ण आडवाणी के करीबी होने के कारण भी चर्चा में रहे हैं. आडवाणी ने पूर्व में कई बार न सिर्फ मोदी और शिवराज की तुलना की है बल्कि कई बार भाजपा के लौहपुरुष ने सार्वजनिक मंच से शिवराज सिंह के काम को मोदी से बेहतर भी ठहराया है. पिछले साल भाजपा के संसदीय बोर्ड में मोदी और चौहान को शामिल करने की चर्चाएं गर्म थीं. हालांकि अंत में सिर्फ मोदी को बोर्ड का सदस्य बनाया गया. ऐसा भी कहा गया कि लालकृष्ण आडवाणी शिवराज को बोर्ड में शामिल करने के पक्षधर थे. मोदी के पीएम न बनने की स्थिति में आडवाणी के समर्थन से शिवराज के और मजबूत होने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.
शिवराज के साथ ही भाजपा के अन्य मुख्यमंत्रियों- छत्तीसगढ के रमन सिंह, राजस्थान की वसुंधरा राजे, गोवा के मनोहर पार्रिकर आदि के भाजपा में और ऊपर उठने के आसार बनेंगे.
मुख्यमंत्रियों के अलावा भाजपा के अन्य दूसरी पंक्ति के नेताओं जैसे सुषमा स्वराज आदि की स्थिति भी मजबूत होगी जिन पर मोदी उदय के बाद अंधकार छाया हुआ है. भारतीय जनता पार्टी जो फिलहाल इतनी अधिक मोदी केंद्रित हो गई है कि चर्चाओं में उसे लोग मोदी जनता पार्टी बुला रहे हैं. उस पार्टी के अन्य नेता मोदी के सीन से हटने की स्थिति में न सिर्फ राहत की सांस लेंगे बल्कि सभी के सामने उम्मीदों का एक नया रास्ता खुलेगा.
राजनाथ सिंह
मोदी के पीएम न बनने की स्थिति में भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह के लिए छींका फूट जाने की प्रबल संभावना जताई जा रही है. अमित शाह को अगर छोड़ दें तो मोदी के प्रति वफादारी दिखाने के मामले में राजनाथ सिंह का स्थान सबसे ऊपर है. कहा जा रहा है कि इस वफादारी के पीछे राजनाथ सिंह का अपना यह गणित है कि अगर किसी कारण से मोदी पीएम नहीं बन पाते हैं और भाजपा में किसी और के प्रधानमंत्री बनने की संभावना पैदा होती है तो मोदी उनका नाम आगे बढ़ा देंगे. इस वजह से राजनाथ सिंह पिछले कई महीनों से मोदी के कहे अनुसार सबकुछ कर रहे हैं. मोदी की हर बात का समर्थन करने, उनकी हर इच्छा का पालन करने से लेकर राजनाथ ने हर संभव तरीके से मोदी को यह समझाना चाहा है कि कैसे उनके खुद के अलावा कोई और उन्हें पीएम देखने को बेकरार है तो वह सिर्फ राजनाथ ही हैं. भाजपा के बाकी अन्य नेताओं से जहां समय-समय पर मोदी को प्रतिद्वंदिता की बू आती रहती है, वहीं राजनाथ सिंह ने तमाम ऐसे जतन किए हैं जिससे मोदी को उनसे किसी तरह की प्रतिद्वंद्विता का अहसास न हो.
भाजपा के कुछ नेता भी बातचीत में इस बात को स्वीकार करते हैं कि कैसे मोदी के पीएम न बनने की स्थिति में रेस में सबसे आगे राजनाथ ही होंगे. शरत कहते हैं, ‘राजनाथ ये सोच रहे हैं कि मोदी के न बन पाने की स्थिति में उनका नंबर आ जाएगा. क्योंकि सहयोगियो को राजनाथ से कोई आपत्ति नहीं होगी. उनकी कट्टर हिंदूवादी नेता की छवि भी नहीं है, पिछले कुछ समय से खुद को वाजपेयी जैसा दिखाने का उनका प्रयास भी जारी है. संघ से संबंध भी ठीक हैं. ऐसे में मोदी की तरफ से हरी झंडी मिलने के बाद राजनाथ का राजयोग चमक सकता है.’
फोटोः विकास कुमार
लालकृष्ण आडवाणी
पिछले कुछ समय में भाजपा में मोदी का किसी नेता से सबसे अधिक संघर्ष रहा तो वह उनके राजनीतिक गुरु रहे लालकृष्ण आडवाणी ही हैं. गुरु और शिष्य के बीच तल्खी का आलम यह रहा कि जिस गोवा की भाजपा कार्यकारिणी की बैठक में मोदी को लोकसभा चुनावों के लिए चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाया जाना था, उसमें आडवाणी शामिल तक नहीं हुए. पार्टी ने कहा कि आडवाणी जी की तबीयत खराब है इसलिए वे बैठक में नहीं आए, उन्होंने मोदी जी को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनने पर शुभकामना दी है. लेकिन पार्टी का यह झूठ उस समय सामने आ गया जब अगले ही दिन आडवाणी ने पार्टी के सभी पदों से न सिर्फ इस्तीफा दे दिया बल्कि यह आरोप भी लगाया कि कैसे पार्टी के अधिकतर नेता इस समय अपने निजी एजेंडे के तहत काम कर रहे हैं.
खैर, कई दिनों की मान-मनुहार और संघ के हस्तक्षेप के बाद उन्होंने इस्तीफा वापस ले लिया. उसके बाद जब दिल्ली के भाजपा दफ्तर में मोदी को भाजपा का पीएम उम्मीदवार घोषित किया गया तो उस कार्यक्रम से भी आडवाणी दूर रहे. हाल के दिनों में मोदी और उनकी टीम चाहती थी कि आडवाणी लोकसभा छोड़ राज्यसभा को अपना ठिकाना बनाएं लेकिन वयोवृद्ध आडवाणी लोकसभा चुनाव लड़ने पर अड़ गए. यह मामला निपटा तो अगला विवाद लोकसभा सीट को लेकर खड़ा हो गया. आडवाणी भोपाल से लड़ना चाहते थे क्योंकि उन्हें संदेह था कि कहीं उनका शिष्य गांधीनगर से लड़ने पर उनकी हार की साजिश न रच दे. खैर पार्टी ने आडवाणी की नहीं सुनी और उन्हें गांधीनगर से ही संतोष करना पड़ा.
लौहपुरूष कहे जाने वाले आडवाणी के भीतर 2009 में प्रधानमंत्री न बन पाने का मलाल तो है ही साथ में किसी तरह एक बार पीएम बन जाने की उनकी ख्वाहिश भी किसी से छुपी नहीं है. ऐसे में अगर मोदी प्रधानमंत्री बनने से चूकते हैं तो क्या आडवाणी का प्रधानमंत्री बनने का सपना परवान चढ़ सकता है?
राजनीतिक उठापठक को समझने वाले लोगों का आकलन है कि मोदी के न बन पाने की स्थिति में अगर किसी और भाजपा नेता की पीएम बनने की संभावना बनती है तो उसमें लालकृष्ण आडवाणी सबसे आगे हैं. अजय बोस कहते हैं, ‘आडवाणी भाजपा, यहां तक कि भारतीय राजनीति में भी, सबसे वरिष्ठ, अनुभवी और सक्रिय नेता हैं. सुलझे हुए व्यक्ति हैं, साथ में मॉडरेट भी हैं. उनके कद का कोई दूसरा सक्रिय राजनीति में नहीं है. सभी से उनके संबंध अच्छे हैं. यहां तक कि गांधी परिवार तक से उनके संबंध मधुर हैं. ऐसे में मोदी के बाद की स्थिति में वे सबसे मजबूत दावेदार हैं.’
‘गठबंधन के लोगों के लिए बूढ़ा और सक्रिय राजनीति के अंत की तरफ पहुंच चुका राजनेता ज्यादा मुफीद होता है. ऐसे व्यक्ति से अपना काम कराना और उससे निपटना बेहद आसाना हो जाता है’ आडवाणी के रेस में आगे होने की एक और वजह का उल्लेख करते हुए अजय बोस कहते हैं, ‘अटल जी गठबंधन के लोगों को इसीलिए पसंद थे. वे अपना राजनीतिक जीवन जी चुके थे. चला-चली के समय में परायों से भी प्रेम ही किया जाता है. ऐसे आदमी के बारे में माना जाता है कि वे नुकसान नहीं पहुंचाएगा.’
लेकिन क्या संघ और भाजपा के नेता इसके लिए तैयार होंगे? बोस कहते हैं, संघ तो इनके नाम पर तैयार नहीं होगा हालांकि भाजपा के नेता मजबूरन उनके कद के कारण दबाव में साथ देते नजर आएंगे.
संघ
मोदी को लेकर संघ में शुरु से ही एक तबका ऐसा था जो उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने के खिलाफ था. मोदी की खिलाफत करने वाले इस तबके की संघ में अच्छी खासी तादाद है. मोदी का विरोध करने वाले इस वर्ग का मानना था कि मोदी ने गुजरात में 12 साल के अपने मुख्यमंत्रित्वकाल में संघ को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया. मोदी के कार्यकाल में संघ के कार्यकर्ताओं पर गुजरात पुलिस ने खूब लाठियां भांजी, किसी तरह की सुविधा उन्हें स्वंयसेवक रहे मुख्यमंत्री के कार्यकाल में नहीं मिली और संघ की विचारधारा के खिलाफ जाते हुए न सिर्फ मोदी ने पूरी सत्ता अपने हाथों में ले ली बल्कि संगठन से भी वे बड़े हो गए. ऐसा व्यक्ति अगर प्रधानमंत्री बनता है तो वह संघ के साथ पूरे देश में वही दोहराएगा जो उसने गुजरात में किया है. इस तबके के विरोध के बावजूद पॉपुलर मूड को भांपते हुए संघ ने मोदी को पीएम पद का प्रत्याशी बनाने के लिए हरी झंडी दे दी.
अब ऐसी स्थिति में अगर 16 मई को परिणाम आने के बाद मोदी पीएम नहीं बन पाते हैं तो इसका संघ पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
शरत कहते हैं, ‘ ये तो साफ है कि मोदी को संघ नापसंद करता है. ऐसे में मोदी के पीएम न बनने पर उसे किसी तरह का कष्ट नहीं होगा.’
संघ के नेता और पांचजन्य के पूर्व संपादक बदलेव शर्मा कहते हैं, ‘संघ पर इस बात का रत्तीभर भी कोई असर नहीं पड़ेगा कि मोदी पीएम बनते हैं या नहीं. या भाजपा की सरकार आती है या नहीं. संघ सत्ता से संचालित नहीं होता है. संघ के काम पर कोई असर नहीं होगा. संघ पिछले 80 सालों से काम कर रहा है. इतने वर्षों में तो विरोधी ताकतें ही सत्ता पर काबिज रही हैं. ’
हालांकि सूत्र बताते हैं कि मोदी के रेस से बाहर होने की स्थिति में संघ राजनाथ सिंह या नितिन गड़करी का नाम आगे बढ़ा सकता है.
फोटोः विकास कुमार
मोदी समर्थक भाजपा कार्यकर्ता
वे भाजपा के कार्यकर्ता ही थे जिनके दबाव में पार्टी को मोदी को प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाना पड़ा. मोदी के प्रत्याशी घोषित होने के बाद से अभी तक भाजपा कार्यकर्ताओं की सक्रियता चरम पर है. सोशल मीडिया से लेकर जमीन पर फैले ये कार्यकर्ता ही मोदी की असली ताकत हैं. ऐसे में अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि मोदी पीएम नहीं बन पाएंगे तो इस पर इन कार्यकर्ताओं-समर्थकों की क्या प्रतिक्रिया होगी.
भाजपा कार्यकर्ता और मोदी चालीसा लिखने वाले मेरठ के रमेश जायसवाल कहते हैं, ‘हम तो इसकी कल्पना ही नहीं कर सकते. ऐसा हुआ तो लोग पागल हो जाएंगे. मोदी के अलावा किसी और को प्रधानमंत्री बनाया तो कार्यकर्ता बगावत कर देंगे. हम कार्यकर्ता किसी और को पीएम नहीं बनने देंगे. आप मेरी बात मानिए पार्टी टूट जाएगी. लोग प्रत्याशियों को नहीं बल्कि मोदी को वोट कर रहे हैं. ऐसे में इसे बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है. मोदी के अलावा किसी और को कार्यकर्ता स्वीकार नहीं करेगा.’
शरत कहते हैं, ‘ये सही ही है कि कार्यकर्ताओं में मोदी को लेकर भाव है लेकिन एक सीमा के बाद कार्यकर्ता की चलती नहीं है. अगर ऊपर बैठे लोग निर्णय कर लेंगे तो बेचारे कार्यकर्ता के पास उसे मानने के अलावा कोई और चारा नहीं होगा.’
राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग)
मोदी के प्रधानमंत्री नहीं बनने का राजग पर क्या प्रभाव पड़ेगा ? क्या उसका विस्तार होगा ? क्या और पार्टियां भाजपा से जुडेंगी? क्या वे पार्टियां राजग में वापस आएंगी जो मोदी के कारण उससे दूर जा चुकी हैं? क्या ममता और नीतीश मोदी के सीन से बाहर होने की स्थिति में फिर से राजग का दामन थाम सकते हैं?
जानकार इस बात को स्वीकार करते हैं कि मोदी के सीन से बाहर होने की स्थिति में एनडीए के पुराने साथी भाजपा के प्रति जरूर कुछ नरमी बरत सकते हैं. शरत प्रधान कहते हैं, ‘इसकी पूरी संभावना है कि मोदी के फ्रेम से बाहर होने की स्थिति में एनडीए से बाहर चल रहे दल उसकी तरफ फिर से हाथ बढ़ाएं. ऐसे में एनडीए के विस्तार होने और उसके फिर से मजबूत होने की संभावना बनती है.’
हालांकि जनता दल यूनाइटेड (जदयू) के वरिष्ठ नेता और प्रवक्ता केसी त्यागी ऐसी किसी भी संभावना से इंकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘अटल बिहारी वाजपेयी और जॉर्ज फर्नाडिंस के बीच जो लिखित समझौता हुआ था वो खत्म हो गया है. भाजपा ने अपने घोषणापत्र में इस बार राममंदिर, धारा 370 और समान नागरिक संहिता को शामिल किया है. पूरे चुनाव को भाजपा ने सांप्रदायिक बना दिया है. इस भाजपा से हमारा कोई रिश्ता नहीं हो सकता. ’
लेकिन अगर भाजपा मोदी की जगह किसी और को पीएम बनाने की बात करती है तो क्या जदयू उसका समर्थन करेगी? त्यागी कहते हैं, ‘हम किसी भी सूरत में भाजपा को सपोर्ट नहीं करेंगे. सिर्फ मोदी ही नहीं हमें लगता है कि पूरी भाजपा अब सांप्रदायिक हो चुकी है. ऐसे में चुनाव परिणाम आने के बाद पार्टी किसी को आगे करे, हम उसका समर्थन नहीं करेंगे. चाहें वो राजनाथ सिंह हों या फिर लालकृष्ण आडवाणी’
फोटोः एएफपी
अर्थव्यवस्था
नरेंद्र मोदी के प्रति व्यापार जगत की दीवानगी किसी से छिपी नहीं है. जब भाजपा में मोदी की पहचान गुजरात के मुख्यमंत्री तक ही सीमित थी और उनको राष्ट्रीय स्तर पर लाने की कोई सुगबुगाहट तक नहीं थी, तभी देश के प्रमुख उद्योगपतियों ने उन्हें भारत के लिए जरूरी घोषित कर दिया था. रतन टाटा, अंबानी बंधु, अडानी, नारायणमूर्ति से लेकर न जाने कितने छोटे-बड़े उद्योगपति हैं जिन्होंने मोदी के गुजरात में किए गए काम की न खूब न प्रशंसा की बल्कि उसे भारत के लिए मॉडल भी बताया. उद्योगपतियों की तरफ से कहा गया कि मोदी को भारत का प्रधानमंत्री होना चाहिए. ऐसा होने पर जिस तरह का विकास उन्होंने गुजरात में किया है, जिस तरह से उद्योग-धंधे गुजरात में दिन दूनी, रात चौगुनी तरक्की कर रहे हैं, वैसा ही पूरे देश में होगा. यह भी कहा जा सकता है कि मोदी को पहले पीएम के तौर पर प्रोजेक्ट करने का काम उद्योगपतियों ने ही किया.
हाल के महीनों में चुनावी सर्वेक्षणों में भाजपा की जीत और मोदी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाएं चरम पर पहुंच जाने के बाद भारतीय बाजार भी अपने चमक के सबसे ऊपरी पायदान पर है.
पिछले छह महीनों में भारत में विदेशी संस्थागत निवेश एक लाख 16 हजार करोड़ पहुंच चुका है. वहीं पिछले 23 अप्रैल को सेंसेक्स ने भी अपने इतिहास की सबसे ऊंची छलांग लगाई और 22913 के आंकड़े को छू लिया. निफ्टी भी 6862 के ऐतिहासिक ऊंचाई को छू पाने में सफल रहा.
मार्केट के कई जानकारों का ऐसा मानना है कि शेयर बाजार और निवेश की यह गुलाबी तस्वीर सिर्फ इस कारण से है कि मार्केट को पक्का विश्वास है कि मोदी 16 मई के बाद पीएम बनने वाले हैं. इस उम्मीद के कारण ही बाजार इस तरह बेहतर प्रदर्शन कर रहा है.
ऐसे में प्रश्न उठता है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री नहीं बन पाते हैं तो फिर बाजार की इस गुलाबी तस्वीर का रंग क्या होगा ?
बाजार के जानकार अभय शाह कहते हैं, ‘ देखिए मोदी के आने की उम्मीद में ही बाजार लहलहाता हुआ दिखाई दे रहा है. हालांकि जमीन पर कुछ हुआ नहीं है लेकिन सेंसेक्स, जो अर्थव्यवस्था का दर्पण होता है, बता रहा है कि मोदी के आने का अर्थतंत्र कितना बेसब्री से इंतजार कर रहा है. अगर किसी कारण से मोदी नहीं आ पाते हैं तो बाजार का चेहरा फिर से पीला पड़ जाएगा. अर्थव्यस्था के रिवाइवल की जो उम्मीद जगी थी वो खत्म हो जाएगी.’
बाजार को जानने वाले लोग बताते हैं कि मोदी के पीएम न बनने की स्थिति में कुछ समय तक सेंसेक्स आदि में भारी गिरावट देखी जाएगी. जैसे सेंसेक्स जो 22913 तक पहुंचा है वह 17 हजार पर आ सकता है. मोदी के पीएम न बनने की खबर पर बाजार बेहद नाकारात्मक प्रतिक्रिया देगा. बाजार को थोड़े समय के लिए गंभीर झटका लगेगा क्योंकि वह यह मान कर बैठा है कि अच्छे दिन आने वाले हैं क्योंकि मोदी आने वाले हैं. ’
शाह कहते हैं, ‘ मोदी की सरकार नहीं बनने की स्थिति में काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करेगा कि फिर किसकी सरकार बनती है. अगर तीसरा मोर्चा आया जिसमें 10 प्रधानमंत्री के दावेदार होंगे या फिर कांग्रेस आई तो फिर बाजार गर्त में चला जाएगा.’
लेकिन अगर मोदी की जगह भाजपा का ही कोई और पीएम बनता है तब की स्थिति में क्या होगा?
इस सवाल का जवाब देते हुए अर्थशास्त्री भरत झुनझुनवाला कहते हैं, ‘ बाजार के गुलजार होने का कारण सिर्फ मोदी नहीं है. इसका बड़ा कारण सत्ता परिवर्तन की संभावना है. ऐसे में अगर मोदी पीएम नहीं बनते हैं और भाजपा से कोई और प्रधानमंत्री बनता है, तो उस स्थिति में भी बाजार की चमक बनी रहेगी. मोदी के न होने का कोई खास असर नहीं होगा. बाजार को एक स्थाई और प्रो मार्केट वाली सरकार चाहिए.
भारी बर्फबारी के बीच केदारनाथ के लिए रास्ता बनाने की जदोजहद जारी है.
उत्तराखंड के लिए मई का पहला हफ्ता दो कारणों से बेहद महत्वपूर्ण है. एक, प्रदेश की पांचों लोकसभा सीटों पर मतदान होने हैं और दूसरा, चार धाम यात्रा शुरू होनी है. प्रदेश में सत्तासीन कांग्रेस इन दोनों ही मोर्चों पर विफलता के मुहाने पर खड़ी है. लोकसभा चुनावों के लिए पार्टी की तैयारियां बेहद कमजोर हैं तो चार धाम यात्रा के लिए उसकी सरकार की तैयारियां जर्जर हालत में हैं. पिछले साल 16-17 जून को उत्तराखंड के पहाड़ों पर पानी कहर बनकर टूटा था. इसमें दर्जनों गांव, सैकड़ों भवन और हजारों लोगों का अस्तित्व हमेशा के लिए मिट गया. इस आपदा का सबसे ज्यादा प्रभाव केदारनाथ इलाके में हुआ था. केदारनाथ मंदिर तो सुरक्षित रहा लेकिन इसके आसपास और मंदाकनी घाटी में सैकड़ों किलोमीटर तक सब कुछ तबाह हो गया. दर्शन करने आए हजारों यात्रियों की मौत हो गई और हजारों लापता हुए. आशंका जताई जा रही थी कि यात्रा शायद अब दो-तीन साल तक संभव नहीं होगी. हालांकि कुछ महीनों बाद ही केदारनाथ मंदिर में दोबारा से पूजा शुरू कर दी गई, लेकिन यह औपचारिकता मात्र ही थी. श्रद्धालुओं का मंदिर तक पहुंच पाना असंभव था. सभी मोटर और पैदल मार्ग ध्वस्त हो चुके थे. ऐसे में मंदिर समिति के कुछ लोगों और पुजारियों को हवाई मार्ग से मंदिर तक पहुंचाया गया और पूजा शुरू हुई.
इस आपदा में हजारों स्थानीय लोग बेघर हुए और सैकड़ों गांवों के सभी संपर्क मार्ग टूट गए. ऐसे में सरकार की दो महत्वपूर्ण प्राथमिकताएं थीं. एक, प्रभावित लोगों का पुनर्वास और दूसरा, प्रभावित क्षेत्रों का पुनर्निर्माण. लेकिन सरकार ने एक तीसरे ही विकल्प को अपनी प्राथमिकता बनाया. वह था किसी भी तरह केदारनाथ यात्रा को जल्द से जल्द दोबारा शुरू करना. उत्तराखंड में सात मई को लोकसभा के लिए मतदान होना है. इससे तीन दिन पहले ही चार मई को केदारनाथ यात्रा शुरू हो रही है. चुनाव प्रचार में यात्रा के शुरू होने को एक उपलब्धि के तौर पर पेश किया जा रहा है. सरकार यह संदेश देना चाहती है कि उसने इतने कम समय में ही इतनी भीषण आपदा से निपट कर चार धाम यात्रा को सुचारू कर दिया है. लेकिन हकीकत यह है कि हजारों प्रभावित लोगों के पुनर्वास और उनकी मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके वह दूसरे हजारों लोगों को एक खतरनाक यात्रा का निमंत्रण दे रही है.
केदारनाथ यात्रा के शुरू होने से एक हफ्ता पहले तहलका ने पूरे यात्रा मार्ग का दौरा किया. हमने देखा कि पूरा रास्ता कदम-कदम पर सरकार की असफलताओं की गवाही देता है. इससे साफ लगता है कि इस यात्रा को सुचारु बनाने का यह दावा एक खतरनाक चुनावी स्टंट ही है.
पिछले साल आई आपदा से अब तक 10 महीने से ज्यादा का समय बीत चुका है. इस दौरान प्रभावित लोगों और क्षेत्रों की स्थितियां सुधारने के लिए सभी समीकरण अनुकूल थे. प्रदेश और केंद्र दोनों जगह एक ही पार्टी यानी कांग्रेस की सरकार थी, आपदाग्रस्त क्षेत्र सहित प्रदेश के पांच में से चार सांसद कांग्रेस के ही थे, वर्तमान मुख्यमंत्री हरीश रावत उस वक्त केंद्रीय जल संसाधन मंत्री थे, सरकारी और गैर-सरकारी स्रोतों से आया अरबों रुपये का राजस्व था और साथ ही लाखों लोग स्वयंसेवक बनकर सरकार की हर संभव मदद को उतर आए थे.
इस सबके बावजूद भी सरकार ने स्थानीय लोगों और यात्रा की तैयारियों को जिस स्थिति में छोड़ दिया है उसे यात्रा मार्ग के अनुसार ही देखते हैं.
उत्तराखंड में चार धाम यात्रा का पहला और शुरूआती पड़ाव ऋषिकेश माना जाता है. यहां तक यात्री रेल और हवाई जहाज के माध्यम से भी पहुंचते हैं. इससे आगे का पहाड़ी सफर यात्रियों को सड़क से ही तय करना होता है. ऋषिकेश से केदारनाथ की दूरी लगभग 225 किलोमीटर है. पिछली आपदा से सबक लेते हुए उत्तराखंड पर्यटन विभाग ने इस साल ऋषिकेश में यात्रियों के पंजीकरण की व्यवस्था शुरू की है. पंजीकरण न होने के कारण ही पिछले साल राहत कार्यों में लगी टीमों के पास ऐसा कोई आंकड़ा नहीं था जिससे वह जरूरतमंद लोगों की संख्या का अनुमान लगा सकें. लापता और मृतकों की संख्या का भी इसी कारण कोई पता नहीं लग सका था. पर्यटन विभाग के अपर निदेशक एके द्विवेदी बताते हैं, ‘ऋषिकेश में यात्रियों के बायोमेट्रिक रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था शुरू की गई है. इसके अलावा यात्रा मार्ग पर जगह-जगह सत्यापन केंद्र बनाए जा रहे हैं. सत्यापन होने पर ही यात्रियों को दर्शन के लिए जाने दिया जाएगा.’ पंजीकरण और सत्यापन का यह काम दक्षिण भारत की एक संस्था को सौंपा गया है. ‘त्रिलोक सेक्युरिटी सिस्टम्स’ नाम की यह संस्था वैष्णो देवी, तिरुपति और अजमेर की दरगाह शरीफ समेत कई बड़े धार्मिक स्थलों पर भी पंजीकरण का काम करती है. संस्था के प्रबंध निदेशक रविचंद बताते हैं, ‘उत्तराखंड में हमारे 15 केंद्र होंगे. इनमें से पांच मोबाइल केंद्र होंगे जो अलग-अलग जगहों पर जाकर भी पंजीकरण और सत्यापन का काम करेंगे. इसके लिए अभी हमारे लगभग 120 लोग वहां काम कर रहे हैं.’ यह संस्था अपने काम के लिए न तो उत्तराखंड सरकार से और न ही यात्रियों से कोई शुल्क लेती है. इस बारे में रविचंद बताते हैं, ‘पंजीकरण के समय हम हर यात्री को एक कार्ड (प्रवेश पत्र) देते हैं. इसी में यात्रियों की सारी जानकारियां दर्ज होती हैं. इसके पिछली तरफ हम विज्ञापन छापते हैं. यह विज्ञापन भी व्यापारिक नहीं होते बल्कि केंद्रीय मंत्रालयों के सामाजिक विज्ञापन होते हैं. इसी से हमारी वित्तीय जरूरतें भी पूरी हो जाती हैं.’
ऋषिकेश में यात्रियों का पंजीकरण होते देखकर यात्रा की शुरुआत में एक सुखद एहसास होता है. लगता है कि यात्रा की व्यवस्थाएं सुधारने की दिशा में सरकार ने काम किए हैं. हालांकि इसमें सरकार का कोई खास योगदान नहीं है. यह संस्था स्वयं ही पंजीकरण का प्रस्ताव लेकर उत्तराखंड सरकार के पास आई थी और प्रदेश सरकार को बिना कोई पैसा खर्च किए ही यह सुविधा मिल गई है. ऋषिकेश से कुछ आगे बढ़ने पर भी यह सुखद एहसास बना रहता है. लगभग 15 किलोमीटर दूर बसे शिवपुरी इलाके में आपदा का कोई प्रभाव नहीं दिखता. यहां आज भी पुरानी रौनक बरकरार है. सड़क से नीचे गंगा बहती है और उसके चौड़े-चौड़े किनारों पर कई व्यावसायिक टेंट लगे हैं. चमचमाती सफेद रेत पर बने टेंट, उनके बाहर वॉलीबाल खेलते देशी-विदेशी यात्री और नदी की बलखाती धारा में हो रही राफ्टिंग. शिवपुरी से लगभग 20 किलोमीटर आगे कौडियाला तक यात्रा मार्ग के निचली तरफ ऐसे ही रोमांचक दृश्य मिलते हैं. इन मोहक दृश्यों के कारण सड़क की टूटी-फूटी हालत और बीच-बीच में पहाड़ों से पत्थर गिरने पर भी यात्रियों का ध्यान अब तक नहीं जाता.
जिस तरह फौरी तौर पर सड़कों का काम किया गया है उससे साफ है कि ये ज्यादा समय तक सहेरे नहीं रहेगी. ऐसे में जगह-जगह यात्रियों के फंसने की आशंका है. फोटोः राहुल कोटियाल
केदारनाथ यात्रा मार्ग पर ऋषिकेश के बाद पहला बड़ा पड़ाव आता है श्रीनगर. ऋषिकेश से लगभग 100 किलोमीटर दूर बसे इस नगर में आपदा का पहला बड़ा सबूत मिलता है. शहर की शुरुआत में ही सड़क से लगी आईटीआई की इमारत यात्रियों को पिछले साल की आपदा का पहला किस्सा सुनाती है. इस इमारत की एक मंजिल आज भी रेत के नीचे दफन है. श्रीनगर में सरकारी भवनों के अलावा लगभग 70 घरों में नदी का पानी और मलवा भर गया था. इन भवनों का सारा सामान इस रेत के नीचे ही दफन होकर बर्बाद हो गया. इस पर तत्कालीन मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा लोगों को सुझाव दे रहे थे कि ‘घरों में रेत भर गई है तो निकालो और बेचो.’ सरकार की उदासीनता के चलते अंत में लोगों ने अपने-अपने घरों से खुद ही मलवा साफ करवाया. सरकारी भवन आज भी वैसे ही मलवे में दबे पड़े हैं. आईटीआई की दुमंजिला इमारत की आज बस एक ही मंजिल जमीन से ऊपर है. इसमें पढ़ने वाले छात्रों के लिए जहां वैकल्पिक व्यवस्था की गई है वहां कुल उतने कमरे भी नहीं हैं जितनी इस परिसर में इमारतें थी. इस आईटीआई परिसर के बिलकुल साथ में हो रहा एक निर्माण कार्य भी अपनी ओर ध्यान खींचता है. नदी के साथ आए मलवे को साफ करने की जगह उसी के ऊपर एक भव्य इमारत खड़ी की जा रही है. आपदा के बाद इस क्षेत्र में किसी भी तरह के निर्माण पर रोक लगा दी गई थी. इसके बावजूद भी यह इमारत राष्ट्रीय प्रोद्योगिकी संस्थान (एनआईटी) के लिए बनाई जा रही है. श्रीनगर निवासी सामाजिक कार्यकर्ता मानव बिष्ट बताते हैं, ‘एनआईटी की यह इमारत दस करोड़ की लागत से बनाई जा रही है. सरकार का तर्क है कि यह प्री फैब्रिकेटेड इमारत है लिहाजा इसे जरूरत पड़ने पर किसी दूसरे स्थान तक सुरक्षित पहुंचाया जा सकता है. लेकिन यह क्षेत्र सुरक्षित नहीं है और इस आपदा में यह प्रत्यक्ष देखा भी जा चुका है. ऐसे में 10 करोड़ रुपये इस असुरक्षित निर्माण पर खर्च करने का क्या औचित्य है?’ मानव बिष्ट का अपना घर भी इस आपदा में पूरी तरह रेत में दब चुका है. श्रीनगर में अब एक मात्र वे ही हैं जिन्होंने अभी तक घर से मलवा नहीं हटाया. अपने घर की हालत दिखाते हुए वे कहते हैं, ‘घर का सारा सामान और मेरे दो दुपहिया वाहन इस मलवे के नीचे दफन हैं. मैंने घर इसलिए साफ नहीं करवाया क्योंकि मैं स्थायी समाधान की मांग कर रहा हूं. यह क्षेत्र अब सुरक्षित नहीं है. सरकार को इस क्षेत्र के प्रभावित लोगों का विस्थापन करना चाहिए.’ बिष्ट आगे बताते हैं, ‘श्रीनगर की जल विद्युत परियोजनाएं यहां के लोगों के लिए अभिशाप बनीं. ये सारा मलवा जो लोगों के घरों में भर गया था वह यहां बिजली परियोजना बना रही जीवीके कंपनी द्वारा डंप किया गया मलवा था. इस तबाही के लिए ये परियोजनाएं सीधे तौर से जिम्मेदार हैं.’
कई रिपोर्टों के मुताबिक उत्तराखंड विश्व के उन क्षेत्रों में से एक है जहां जल विद्युत परियोजनाओं का घनत्व सबसे ज्यादा है. बीती आपदा के बाद यह बहस तेज हो गई थी कि ये परियोजनाएं भी आपदा का एक कारण हैं. एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए पिछले साल 13 अगस्त को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को इस संदर्भ में जांच निर्देश दिए. इस पर मंत्रालय ने एक 11 सदस्यीय टीम का गठन किया था. 28 अप्रैल 2014 को इस टीम ने सर्वोच्च न्यायालय में अपनी रिपोर्ट पेश की है. इसमें पहली बार यह बात आधिकारिक तौर से कही गई है कि ये परियोजनाएं भी आपदा का एक कारण हैं और इनसे पर्यावरण को कई खतरे हैं. रिपोर्ट में उत्तराखंड की कई परियोजनाओं की अनुमति निरस्त करने की भी संस्तुति की गई है.
इन परियोजनाओं का पहले भी समय-समय पर विरोध होता रहा है. श्रीनगर में जीवीके कंपनी द्वारा बनाई जा रही परियोजना का तब सबसे ज्यादा विरोध हुआ था जब स्थानीय धारी देवी मंदिर के इस परियोजना से डूबने की बात सामने आई. यह मंदिर श्रीनगर से लगभग 13 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है और यहां के लोगों की आस्था का केंद्र है. जीवीके कंपनी ने मंदिर के पास ही एक ऊंचा मंच तैयार कर मंदिर को वहां स्थापित करने की बात कही थी. स्थानीय लोगों ने इसका जमकर विरोध किया और मंदिर नहीं हटने दिया था. श्रीनगर निवासी प्रमोद बेलवाल बताते हैं, ‘आपदा के दौरान जब पानी बढ़ने लगा तो जीवीके कंपनी ने बांध की सुरंगों को नहीं खोला. उन्होंने नदी का पानी बढ़ने दिया और लोगों को डराया कि मंदिर डूबने वाला है. आपदा की आड़ लेकर कंपनी ने मंदिर को अपने बनाए मंच के ऊपर स्थापित करवा लिया. इसके बाद जो पानी नदी में भर गया था उसे एक साथ ही छोड़ दिया. इस कारण श्रीनगर में नुकसान कई गुना बढ़ गया.’
यात्रा मार्ग पर श्रीनगर से कुछ ही आगे बढ़ने पर सिरोबगड़ नामक इलाका पड़ता है. इस इलाके में खड़ा एक दैत्य रुपी पहाड़ पिछले कई साल से यात्रा में बाधा उत्पन्न करता है. यह पहाड़ हर साल टूटता है और कई बार तो पूरी सड़क ही इससे धंस जाती है. सरकार के पास आज तक इसका कोई इलाज नहीं है. इस समस्या से निपटने के नाम पर बस यहां एक छोटा-सा मंदिर बना दिया गया है. यात्री भले ही सिरोबगड़ में हर साल फंसते हों, लेकिन सरकार आस्था का सहारा लेकर इस बाधा को अपनी जिम्मेदारियों समेत लांघ चुकी है.
यहां से कुछ आगे बढ़ने पर आपदा के निशान और गाढे होते जाते हैं. रुद्रप्रयाग में नदी से काफी ऊपर बने भवन भी टूट कर लटकते हुए दिखाई पड़ते हैं. सड़क जगह-जगह पर अब भी इस तरह से कटी हुई है कि किसी भी पल पूरी धंस जाए. हालांकि स्थानीय लोग बताते हैं कि जब से राज्य में नेतृत्व परिवर्तन हुआ है और हरीश रावत मुख्यमंत्री बने हैं तब से सड़कों का काम बहुत तेजी से हो रहा है. यह काम प्रदेश के लोक निर्माण विभाग द्वारा किया जा रहा है. विभाग के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘अनुमति देरी से मिलने के कारण कुछ जगह निर्माण कार्यों में देरी हुई है. कई जगह यह तय नहीं हो पा रहा था कि काम सीमा सड़क संगठन द्वारा किया जाना है या लोक निर्माण विभाग द्वारा.’ इस मुद्दे पर स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ता अजेंद्र अजय कहते हैं, ‘सरकार की प्राथमिकता यह नहीं थी कि काम जल्द से जल्द हो. इनकी प्राथमिकता यह थी कि काम कौन-सा संगठन करे. लोक निर्माण विभाग द्वारा काम किए जाने पर आसानी से इनका कमीशन तय हो जाता है.’
आपदा के बाद वर्ल्ड बैंक की वित्तीय मदद से ‘उत्तराखंड डिजास्टर रिकवरी प्रोजेक्ट’ बनाया गया था. इसका मुख्य उद्देश्य था आपदा प्रभावित इलाकों में पुनर्निर्माण करना. लेकिन इसकी स्थिति यह है कि इसके तहत आज तक एक भी काम नहीं हुआ है. इस प्रोजेक्ट के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘मैं पिछले लंबे समय से केदारनाथ सड़क मार्ग पर काम कर रहा हूं. अभी हमारी प्राथमिकता यही है. जहां तक इस प्रोजेक्ट का सवाल है तो इसमें अभी तक तीन अनुबंध ही हुए हैं. क्रियान्वयन के स्तर पर अभी तक इसमें कुछ भी नहीं हो पाया है. लेकिन अब काम तेजी से चल रहा है.’ श्रीवास्तव आगे बताते हैं, ‘इस बार जिस तेजी से काम हो रहा है वह सच में तारीफ के काबिल है. इससे पहले यदि कहीं भी काम होता था तो ज्यादा से ज्यादा कुछ जूनियर इंजीनियरों को ही मौके पर भेजा जाता था. लेकिन इस बार सभी बड़े अधिकारी न सिर्फ मौके पर जा रहे हैं बल्कि कई-कई दिनों वहीं रह भी रहे हैं.’ हालिया दिनों में सड़क निर्माण में आई इस तेजी के बारे में अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार से स्टेटस रिपोर्ट मांगी थी. 28 अप्रैल तक सरकार को यह रिपोर्ट कोर्ट में पेश करनी थी. सिर्फ इसी डर से काम में यह तेजी देखी जा रही है.’
रुद्रप्रयाग में मंदाकनी और अलकनंदा नदी का संगम है. यहां से केदारनाथ जाने के लिए मंदाकनी के साथ-साथ ही उसकी विपरीत दिशा में बढ़ना होता है. यहीं से उस कोहराम के निशान भी दिखने लगते हैं जो पिछले साल मंदाकनी ने अपनी पूरी घाटी में मचाया था. शहर की भीड़ से निजात दिलाने वाला बाईपास का पुल आपदा के दौरान बह गया था और आज तक भी नहीं बन सका है. रुद्रप्रयाग से कुछ ही आगे बढ़ने पर अगस्त्यमुनि कस्बा है. यहां और इससे ऊपर केदारनाथ तक मंदाकनी ने अपने आस-पास बसे किसी को भी नहीं छोड़ा है. यहां से केदारनाथ की दूरी अभी लगभग 80 किलोमीटर है. इतनी लंबी दूरी में नदी के पास बसे सभी लोगों को मंदाकनी ने पिछले साल बर्बाद कर दिया था. सैकड़ों मकान पूरी तरह से ध्वस्त हो गए, हजारों आंशिक रूप से क्षतिग्रस्त हुए, सैकड़ों गांवों और इलाकों के पुल टूट गए और कई सड़कें नदी में समा गई थी. इन सड़कों को फिलहाल तो बना लिया गया है, लेकिन उन्हें लंबे समय बनाए रखने की मंशा कहीं नजर नहीं आती. सड़क धंसने के कारण जिन जगहों पर टूट चुकी थी वहां कोई स्थाई उपाय किए बिना ही सड़क निर्माण किया जा रहा है. वाडिया हिमालय भूविज्ञान संस्थान के डॉक्टर डीपी डोभाल बताते हैं, ‘जिस तरह से फौरी तौर पर सड़कों को बनाने का काम किया गया है उससे साफ है कि सड़कें ज्यादा समय तक सही नहीं रहेंगी.’ ऐसी स्थिति में यात्रा के दौरान जगह-जगह यात्रियों के फंसने की आशंका है.’
अगस्त्यमुनि से कुछ ही आगे चंद्रापुरी है. इस इलाके में बसे कई लोगों के मकान और खेत आपदा में बह गए थे. इन लोगों के पुनर्वास का सरकार तो कोई इंतजाम नहीं कर सकी, लेकिन कई गैर सरकारी संस्थाएं इस काम के लिए जरूर सामने आईं. लेकिन इन संस्थाओं द्वारा भी सही पात्रों तक मदद नहीं पहुंच सकी है. देहरादून स्थित बलूनी कोचिंग क्लासेस ने इस क्षेत्र के एक प्रभावित परिवार को प्रीफैब्रिकेटेड घर बना कर दिया था. इसके लिए बलूनी क्लासेस ने 1.60 लाख रुपये दान किए. ये घर अंजना देवी के लिए बनाया गया था. लेकिन हकीकत यह है कि अंजना देवी का अपना घर सुरक्षित है और वे अपने पुराने घर में ही रहती हैं. उन्होंने दान में मिले इस प्रीफैब्रिकेटेड घर को किराए पर चढा दिया है. अंजना देवी ने अपने ही गांव के एक हरिजन परिवार को यह घर किराए पर दिया है. मजदूरी करने वाले सुरेंद्र लाल अपने परिवार के साथ इस घर में 600 रुपये महीने के किराए पर रह रहे हैं. सुरेंद्र लाल इस आपदा में अपना घर और जमीन सबकुछ गंवा चुके हैं. तहलका ने जब इस संबंध में बलूनी क्लासेस से संपर्क किया तो विपिन बलूनी का कहना था, ‘हमने कुछ पहचान के लोगों के कहने पर अंजना देवी को घर बना कर दिया था. अगर उन्होंने वे घर किसी अन्य प्रभावित को किराए पर दिया है तो यह बहुत गलत है. इससे तो अच्छा होता कि हम पांच-पांच हजार रुपये कई सारे प्रभावित लोगों में बांट देते. कम से कम कुछ लोगों का एक महीने का राशन तो उससे आ ही जाता.’
चंद्रापुरी में ही सरकारी पैसों की बंदरबांट का भी बेजोड़ नमूना मिलता है. नदी के दूसरी तरफ बसे इस गांव का सड़क से संपर्क टूट चुका था. इसे स्थापित करने के लिए लोक निर्माण विभाग ने 17 लाख रुपये की लागत से एक ट्रॉली लगाई है. लकड़ी की बड़ी यह छोटी सी ट्रॉली आज नदी के बीचो-बीच झूल रही है. रस्सियां बांध कर हाथ से खींची जाने वाली इस ट्रॉली की असल लागत इससे कहीं कम होगी, यह साफ दिखता है. अजेंद्र अजय बताते हैं, ‘इतने पैसों में तो चंद्रापुरी में एक मजबूत पुल बनाया जा सकता था. लेकिन सरकारी विभागों के ऐसे दोयम दर्जे के काम की इस क्षेत्र में भरमार है.’ अजय आगे बताते हैं, ‘विजय नगर में पुल बह जाने के बाद एक व्यक्ति ने नौ लाख रुपये दिए थे. लेकिन इतने पैसे खर्च करके जो पुल बनाया गया वह आपदा के बाद की पहली ही बरसात में बह गया था.’
हजारों लोगों के पुनर्वास और उनकी मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज करके सरकार दूसरे हजारों लोगों को एक खतरनाक यात्रा का निमंत्रण दे रही है. फोटो: राहुल कोटियाल
चंद्रापुरी से लगभग 12 किलोमीटर आगे बसा सेमी गांव आपदा से सबसे प्रभावित गांवों में से एक है. नदी से काफी ऊपर होने के बाद भी यहां भारी नुकसान हुआ है. भूस्खलन के चलते इस गांव के 14 घर पूरी तरह से जमींदोज हो गए और पांच अन्य घर गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हुए. इन सभी लोगों को सरकार ने दो-दो लाख रुपये मुआवजे के तौर पर दिए. लेकिन इनके पास सर छुपाने को कोई आसरा नहीं था. ऐसे में रेडक्रॉस सोसाइटी द्वारा दिए टेंटों में इन परिवारों ने कई महीने गुजारे. इसके कुछ समय बाद ऑक्सफेम संस्था द्वारा इन परिवारों को प्रीफैब्रिकेटेड घर बनाने की सामग्री दी गई थी. इसी सामग्री से बनाए गए एक घर में रह रहे शिवानंद बताते हैं, ‘पहले हमसे कहा गया कि सरकार स्वयं हमें घर बना कर देगी. लेकिन जब काफी समय तक सरकार ने कोई काम नहीं किया तो हमने खुद ही ये प्रीफैब्रिकेटेड घर बनाए हैं. आपदा के बाद हमने पांच लाख रुपये कर्ज लेकर यह जमीन ली है जहां घर बनाने की सोची थी. लेकिन अब सरकार इस जमीन पर भी निर्माण करने से इनकार कर रही है. अब तो हम दोहरी मार झेल रहे हैं. अपना घर तो टूट ही गया साथ ही जो जमीन ली वहां भी कुछ नहीं बना सकते.’
सेमी गांव के अन्य प्रभावित लोग भी शिवानंद की ही तरह अब अधर में लटके हुए हैं. सरकार ने इस क्षेत्र को संवेदनशील घोषित किया है और यहां निर्माण से इनकार कर दिया है. लेकिन यहां रह रहे लोगों के पुनर्वास की सरकार के पास कोई नीति नहीं है. इसी गांव के संतुष्टि गेस्ट हाउस के मालिक बचन सिंह बर्तवाल की भी पिछली आपदा के दौरान मृत्यु हो गई थी. आपदा में उनका उनका गेस्ट हाउस काफी हद तक टूट गया था. उनकी बेटी जया बर्तवाल बताती हैं, ‘हमने दो साल पहले ही यह गेस्ट हाउस 30 लाख रुपये कर्ज लेकर बनवाया था. अभी लाखों का कर्ज हम पर बकाया है. पिता जी की तबीयत पहले से ही खराब थी. आपदा में जब गेस्ट हाउस टूटा तो उन्हें बहुत सदमा लगा. इसके बाद उन्होंने खाना-पीना भी छोड़ दिया. एक महीने बाद ही उनकी मौत हो गई. हमें सरकार से पूरे गेस्ट हाउस के बदले चार लाख रुपये का मुआवजा मिला है.’ आपदा के प्रभाव का अपना दुखद अनुभव सुनाते हुए जया कहती हैं ‘हम अब अपने ही घर में सुरक्षित नहीं हैं. लेकिन अब जाएं कहां?’ सेमी गांव में चुनाव प्रचार करती एक गाड़ी जब ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का नारा देती है तो जया के चेहरे पर रोष और पीड़ा के भाव और भी बढ़ जाते हैं.
केदारनाथ यात्रा मार्ग पर सड़क के दोनों तरफ बसा ये गांव तबाही की पूरी दास्तां कहता है. इसके आगे के सफर में तबाही और यात्रा मार्ग दोनों की ही तस्वीर और भी भयावह होती जाती है. कुछ ही आगे चलकर खाट गांव आता है. यहां सड़क के ऊपर बना प्राथमिक विद्यालय टूट कर सड़क की तरफ झूल रहा है. आपदा के बाद कुछ महीनों तक तो इस स्कूल को एक गेस्ट हाउस में चलाया गया लेकिन उसके बाद इसे फिर यहीं शुरू कर दिया गया है. गांव के कई लोग इस संबंध में शिक्षा विभाग को ज्ञापन सौंप चुके हैं लेकिन इस पर अब तक कोई सुनवाई नहीं हुई है. यह आलम तब है जब दो साल पहले ही प्रदेश एक ऐसी ही दुर्भाग्यपूर्ण घटना की गवाही दे चुका है. दो साल पहले बागेश्वर जिले के एक स्कूल में 18 बच्चों की पहाड़ गिरने से मौत हो गई थी. टूटने को आतुर यह प्राथमिक विद्यालय फिलहाल सरकार की प्राथमिकता नहीं है.
खाट से कुछ आगे बढ़ने पर ही यात्रा मार्ग से एक रास्ता कालीमठ की तरफ जाता है. इस मार्ग पर भी आपदा का जबरदस्त असर हुआ था. यहां तीन दर्जन से ज्यादा पुल बह गए थे और कई भवन क्षतिग्रस्त हुए थे. इस पूरे क्षेत्र में बीएसएफ ने पुनर्निर्माण का काम किया है. कमांडेंट राजकुमार नेगी बताते हैं, ‘इस पूरे क्षेत्र को बीएसएफ ने गोद लिया था. हमारी 110 लोगों की टीम कालीमठ रवाना हुई थी. यहां हमने स्कूल के पुनर्निर्माण से लेकर गांवों को सड़क से जोड़ने तक सभी कार्य किए हैं.’ कालीमठ वाले इस क्षेत्र में बीएसएफ द्वारा एक मोटर ट्रॉली भी लगाई गई है. कम लागत में स्थायी व्यवस्था के जो गिने-चुने काम आपदा के बाद हुए हैं उनमें से कालीमठ क्षेत्र एक उदाहरण है.
यात्रा मार्ग पर वापस लौटें तो अगला पड़ाव गुप्तकाशी आता है. यह इलाका उत्तराखंड आपदा प्रभावितों की राजधानी जैसा बन चुका है. फाटा निवासी अवतार सिंह राणा बताते हैं, ‘आसपास के सैकड़ों बेघर लोग गुप्तकाशी में शरण लेकर रह रहे हैं. सरकार द्वारा लोगों को तीन-चार हजार रुपये प्रतिमाह किराया दिया जा रहा है. कई परिवार तो सिर्फ इसी के सहारे गुजर कर रहे हैं.’ गुप्तकाशी से आगे बढ़ने पर ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि केदारनाथ यात्रा को सिर्फ कुछ ही दिन शेष हैं. अवतार सिंह राणा बताते हैं, ‘हर साल अब तक यहां के सभी होटलों में नया पेंट हो जाता था. फाटा से लेकर गौरीकुंड तक पूरा बाजार एकदम ऐसा लगता था जैसे सभी भवन नए बने हों. इस बार किसी ने भी अपने होटल में काम नहीं करवाया है.’ फाटा बाजार के सभी होटलों में ताले लगे हैं और उन्हें देख कर लगता है जैसे वे बरसों से ऐसे ही बंद पड़े हों. एक गैर सरकारी संस्था हेल्प एज इंडिया का अस्पताल जरूर नया जैसा दिखता है. फाटा में स्थित इस अस्पताल में क्षेत्रीय लोगों को कई सुविधाएं दी जा रही हैं. संस्था के प्रोजेक्ट मैनेजर शशि भूषण उनियाल बताते हैं, ‘दिसंबर के बाद से हम लोग 3,500 से ज्यादा लोगों को थेरैपी दे चुके हैं. हमारे अस्पताल में दो एमबीबीएस, एक थेरेपिस्ट और एक रेडियोलोजिस्ट की व्यवस्था है.’ इस क्षेत्र के लगभग सभी सरकारी अस्पताल जहां सिर्फ फार्मासिस्टों के भरोसे हैं वहां इस गैर सरकारी संस्था का अस्पताल रेगिस्तान में नखलिस्तान जैसी अनुभूति कराता है.
फाटा से आगे रामपुर और सीतापुर भी बेजान और सूने नजर आते हैं. यहां तक आते-आते यात्रा मार्ग भी अब साहसिक पर्यटन मार्ग में तब्दील हो जाता है. अपना जीवन किसी जांबाज चालक के भरोसे सौंपकर सोनप्रयाग तक पहुंचने पर अचानक एक मेला जैसा दिखाई पड़ता है. यात्रा से पहले लगा ये मेला देश भर के मजदूरों का है. प्रदेश में लोक निर्माण विभाग की सभी 47 इकाइयों से मजदूरों को यहां बुलाया गया है. हरिद्वार से आए लोक निर्माण विभाग के मजदूर श्याम लाल बताते हैं, ‘मुझे नौकरी करते हुए 31 साल हो चुके हैं. यह पहली बार ही हुआ है जब किसी पहाड़ी इलाके में मुझे भेजा गया हो. यहां हमें सांस लेने और चलने में भी दिक्कत आ रही है. ज्यादातर मजदूर बीमार पड़ गए हैं. हमने इतनी ठंड में कभी काम नहीं किया.’ विभागों के अलावा दिहाड़ी मजदूर भी देश भर से यहां बुलाए गए हैं. लेकिन मजदूरों के इस मेले के बाद भी यहां कोई भी स्थायी काम नहीं हुआ है. सोनप्रयाग में जो सड़क पहले थी वह पूरी तरह से टूट चुकी है. यह सड़क नदी से काफी ऊपर थी. अब जो नई सड़क यहां बनाई गई है वह नदी के काफी नजदीक है. ऐसे में इस सड़क का बरसात में बने रहने का विश्वास इसे बनाने वालों को भी नहीं है. सोनप्रयाग का जो मुख्य पुल बनाया गया है उसकी हालत बेहद नाजुक है. स्थानीय निवासी अवतार सिंह राणा बताते हैं, ‘यह पुल इस तरह से बना है कि पहली बरसात भी झेल पाना इसके लिए बहुत मुश्किल है.’ सरकार भी इस पुल की हालत से वाकिफ है. इसीलिए वैकल्पिक तौर से सोनप्रयाग से ही केदारनाथ का पैदल मार्ग तैयार किया जा रहा है. यह पैदल मार्ग पहले गौरीकुंड से था. पिछले साल तक 14 किलोमीटर का यह पैदल मार्ग अब लगभग 22 किलोमीटर का हो चुका है. इस पर भी यदि पैदल यात्रा सोनप्रयाग से ही शुरू करनी पड़े तो यह 25 किलोमीटर से ज्यादा की हो जाती है.
सोनप्रयाग से गौरीकुंड तक अभी मोटर मार्ग बन भी नहीं सका है. सीमा सड़क संगठन इसके लिए जमकर मेहनत कर रहा है लेकिन उसका भी मानना है कि इसमें महीने भर समय अभी और लग सकता है. यहां की स्थिति ऐसी है कि पिछले साल केदारनाथ यात्रा में आई कई गाड़ियां अब तक यहीं फंसी पड़ी हैं. पहाड़ों से पत्थर लगातार गिर रहे हैं. बीते 12 अप्रैल को सीमा सड़क संगठन के एक मजदूर का पत्थर गिरने के कारण पैर कट गया. इस मजदूर को श्रीनगर अस्पताल में भर्ती कराया गया है. गौरीकुंड तक सड़क बनने में अभी लगभग एक किलोमीटर तक और पहाड़ काटा जाना बाकी है. गौरीकुंड गांव के प्रधान पति गोपाल गोस्वामी बताते हैं, ‘बरसात के लिए न तो ये रास्ता सही है और न ही सोनप्रयाग का पुल. हम लोग कई बार अधिकारियों से मिले और कहा कि सोनप्रयाग से जो पैदल मार्ग है उसी के पास से मोटर मार्ग भी बनाया जाए. वह नदी से काफी ऊपर था इसलिए सुरक्षित था. लेकिन हमारी किसी ने नहीं सुनी. अब तो हम खुद भी लंबे समय से देहरादून में ही रहते हैं.’ गोपाल के पिता गौरीकुंड प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे. 31 मार्च 2014 को वे रिटायर हो गए और तब से इस स्कूल में कोई भी शिक्षक नहीं है. बिना शिक्षक का गौरीकुंड प्राथमिक विद्यालय तब से ही बंद पड़ा है.
गौरीकुंड से ऊपर का पैदल मार्ग भी अब पहले जैसा बिलकुल नहीं है. इस रास्ते में पड़ने वाला सबसे बड़ा पड़ाव रामबाड़ा पिछली आपदा में पूरी तरह से गायब हो चुका है. यात्रियों के ठहरने की व्यवस्था भी चरमरा गई है. बद्री-केदार मंदिर समिति के अध्यक्ष गणेश गोदियाल बताते हैं, ‘मंदिर समिति का काम वैसे तो पूजा से ही संबंधित है जो कि हमने पिछले साल ही शुरू कर दी थी. लेकिन इस साल हालात देखते हुए हमने और व्यवस्थाएं भी की हैं. इस बार 500 लोगों के दो जत्थों को ही एक दिन में केदारनाथ भेजा जाएगा. सभी लोग क्योंकि एक ही दिन में वापस नहीं लौट पाएंगे इसलिए उनके रुकने की व्यवस्था मंदिर में भी की गई है. मंदिर के प्रवचन हॉल में लगभग 200 पलंग लगवाए जा रहे हैं.’ पैदल मार्ग की स्थिति पूछने पर गोदियाल कहते हैं, ‘उस पर भी काम लगभग हो ही चुका है. मैं दरअसल चुनाव प्रचार में व्यस्त हूं तो आपको इससे ज्यादा जानकारी नहीं दे पाऊंगा.’ पैदल मार्ग का काम पूरा होने में मौसम एक चुनौती बना हुआ है. लिनचौली नामक पड़ाव से ऊपर का रास्ता बर्फबारी के कारण पूरा नहीं हो सका है. यहां से केदारनाथ तक की दूरी करीब पांच किलोमीटर है. लोक निर्माण विभाग के मुख्य अभियन्ता केके श्रीवास्तव बताते हैं, ‘केदारनाथ में बर्फ होना समस्या नहीं है. बर्फ तो यहां इस मौसम में हमेशा ही होती है. यदि बर्फ नहीं होती तब यह जरूर चिंता का विषय था. यहां काम अच्छा हुआ है. हम प्रचार करने की जगह चुपचाप अपना काम करने में विश्वास रखते हैं. प्रदेश का लगभग 70 से 80 प्रतिशत काम लोक निर्माण विभाग ने ही किया है.’
इस बीच यह भी खबरें आ रही हैं कि केदारनाथ जाने वाले सभी यात्रियों को लिनचोली से मुफ्त हवाई यात्रा करवाई जाएगी. हालांकि चुनाव आचार संहिता के चलते इसकी खुली घोषणा नहीं हुई है, लेकिन मुख्यमंत्री कुछ सभाओं में ऐसा बोल चुके हैं. ऐसा इसलिए भी हो सकता है कि पैदल मार्ग पूरा न होने कारण हवाई यात्रा मुफ्त कराना सरकार की मजबूरी बन गई हो.
इन परिस्थितियों में भी फिलहाल केदारनाथ यात्रा का मतदान से तीन दिन पहले शुरू होना तय है. गोपाल गोस्वामी कहते हैं, ‘इस बार यात्रा में श्रद्धालु कम और तमाशा देखने वाले लोग ज्यादा आएंगे. ऐसे लोग जिन्हें ये देखना है कि आखिर पिछले साल आपदा में क्या हुआ था.’
गोस्वामी की बात पर यदि यकीन करें तो इतना निश्चित ही कहा जा सकता है कि इस यात्रा में श्रद्धालुओं को उनके केदार बाबा के दर्शन करवाने की तैयारी भले ही कमजोर हो, लेकिन आपदा के अवशेष देखने वालों के लिए यहां भरपूर सामग्री मौजूद है.