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‘ मैं पांच और 10 रु के टिकट बेचकर अपने चुनाव प्रचार के लिए खर्च जुटा रहा हूं’

के अर्केश। 60 ।
के अर्केश। 60 । पूर्व डीआईजी, सीआरपीएफ। चिक्कबल्लापुर, कर्नाटक
के अर्केश. उम्र-60.
के अर्केश. उम्र-60 वर्ष. पूर्व डीआईजी, सीआरपीएफ. चिक्कबल्लापुर, कर्नाटक. फोटोः केपीएन

मैं एक निम्नमध्यवर्गीय परिवार से ताल्लुख रखता हूं. मैं 37 साल पुलिस सेवा में रहा हूं. उससे पहले मैं लेक्चरर और सामाजिक कार्यकर्ता हुआ करता था. जब भूमि सुधार लागू हुए तो मैंने कर्नाटक में किराएदारों को संगठित करने का काम किया था. पुलिस में रहते हुए मैं पूर्वोत्तर, पंजाब और कश्मीर में उग्रवादियों से लड़ा हूं और दंडकारण्य इलाके में नक्सलियों से भी. मैंने देश के अलग-अलग हिस्सों में सांप्रदायिक हिस्सा को भी काबू किया है.

कानून तोड़ने वाले तो आसानी से पहचाने जा सकते हैं. लेकिन देश में कई राजनेता भी हैं जो सम्माननीय हैं, लेकिन अपराधों में संलिप्त हैं. भ्रष्ट राजनेताओं और भ्रष्ट नौकरशाहों में एक गुपचुप सहमति बनी हुई है. मैंने आम आदमी पार्टी को चुना क्योंकि इसने भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई छेड़ी.

हमारे यहां पानी अहम मुद्दा है. यह एक शुष्क जलवायु वाला इलाका है जहां कुछ नलकूप तो 1200 फीट गहरे हो गए हैं, लेकिन उनमें से कुछ ही हैं जिनमें वास्तव में पानी आता है. किसान पानी की कमी से त्रस्त हैं और राजनेता उनसे वादा कर रहे हैं कि पश्चिमी घाट में बहने वाली एक नदी का पानी उन तक पहुंचाया जाएगा और यह पानी का एक स्थायी स्रोत होगा. इसे नेत्रवती डाइवर्जन प्रोजेक्ट नाम दिया गया है.

इससे पहले भी कई बार पंप, सुरंग और नहरों के जरिये पश्चिमी घाट से पानी लाने के वादे किए गए थे. लेकिन वे वादे के वादे ही रहे.

विकास किसी भी तरह का हो, उसके कुछ असर होते हैं. हमें देखना पड़ेगा कि उसके कितने बुरे असर हैं और कितने अच्छे. पहले इस बात का आकलन हो कि ऐसे पानी लाने का पश्चिमी घाट के पर्यावरण पर कोई बुरा असर न हो. इस समस्या के व्यावहारिक हल भी हैं, लेकिन राजनेताओं और नौकरशाहों ने कभी उन पर गंभीरता नहीं दिखाई. मोइली ने सिंचाई परियोजना की किसी तकनीकी समझ के बिना ही इस परियोजना का वादा कर दिया. इसे आसान भाषा में धोखा कहा जाता है.

किसानों को फायदा मिले, इसे सुनिश्चित करने के कई रास्ते हैं. उदाहरण के लिए हम इस्राइल के किसानों से काफी कुछ सीख सकते हैं जिन्होंने किसानी के क्षेत्र में कई ऐसी ईजाद की हैं जिससे बहुत कम पानी में ही बहुत अच्छी खेती की जा सकती है. अगर वे ऐसा कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं?

मुझे दिख रहा है कि लोग अब बदलाव चाहते हैं. मैं पांच और 10 रु के टिकट बेचकर अपना प्रचार अभियान चला रहा हूं. लोगों को समझ में आ रहा है कि प्रचार के लिए नेता को पैसे देना बेहतर है बजाय इसके कि वह नेता पैसे देकर उनका वोट खरीदे.

(जी विष्णु से बातचीत पर आधारित)

‘हम जैसे लोगों को लोकसभा जाकर कानून बदलने होंगे’

दयामणि बरला. उम्र-44 वर्ष. सामाजिक कार्यकर्ता. खूंटी, झारखंड
दयामणि बरला. उम्र-44 वर्ष.
सामाजिक कार्यकर्ता. खूंटी, झारखंड. फोटोः राजेश कुमार

सारी जिंदगी मैं समाज सेवा के काम में रही हूं. झारखंड में जनता के लिए काम करने के चलते मेरा हमेशा सरकार, माफिया और बड़ी कॉरपोरेट कंपनियों से सीधा टकराव हुआ है. व्यवस्था में बदलाव की जरूरत है और इस बदलाव के लिए आपको व्यवस्था के भीतर ही दाखिल होना होगा अब समय आ गया है कि हम जैसे लोग जो जनता के लिए काम करते हैं, न सिर्फ वह काम जारी रखें बल्कि लोकसभा में भी जाएं और वहां ऐसे कानून बदलें जो आदिवासियों का हक मारने के लिए इस्तेमाल किए जा रहे हैं.

आज हर तरफ विकास की बात होती है. लेकिन इन कथित विकास परियोजनाओं में ऊपर से लेकर नीचे तक भ्रष्टाचार का बोलबाला है. अगर एक कुआं बनने के लिए तीन-चार लाख रु आते हैं तो उनमें से योजना तक सिर्फ डेढ़ लाख रु ही पहुंचते हैं. बाकी स्थानीय पार्टी कार्यकर्ता, जिला कलेक्टर, विधायक और संबंधित मंत्री खा जाते हैं. आधे से ज्यादा पैसा तो भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ जा रहा है. आदिवासियों का हक मारा जा रहा है.

सरकार के लिए विकास का मतलब है किसानों और आदिवासियों को विश्वास में लिए बिना राज्य के संसाधनों का दोहन करना. जब स्थानीय लोग विरोध करते हैं तो उन पर माओवादी होने का ठप्पा लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाता है.

विकास का मतलब झारखंड में एम्स या आईआईटी क्यों नहीं है? क्यों वहां आज भी एक टीचर के भरोसे स्कूल चल रहा है? वहां कोई कृषि केंद्र क्यों नहीं है? जरूरत इस बात की है कि ऐसे विकास पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो टिकाऊ हो और जिससे स्थानीय समाज को भी फायदा हो.

मैं विकास की एक ऐसी व्यवस्था बनाना चाहूंगी जो 40 फीसदी आरक्षित वनभूमि का फायदा उठाकर चले. ऐसे लघु उद्योग क्यों नहीं हो सकते जिनके लिए कच्चा माल जंगल से आए. ऐसी फैक्ट्रियां बनाकर हम नौजवानों को हथियारों से दूर कर सकते हैं और शांति बहाल कर सकते हैं. लेकिन ऐसे विकास के बारे में कोई बात नहीं करना चाहता क्योंकि बड़े उद्योगों के साथ डील करके तो करोड़ों कमाने की व्यवस्था हो जाती है.

(अवलोक लांगर से बातचीत पर आधारित)

‘ हम एक राजनीतिक क्रांति ला रहे हैं और लोग इसकी अहमियत समझते हैं’

हाबंग पेंग. उम्र- 56 वर्ष. पूर्व सूचना आयुक्त. अरुणाचल पश्चिम
हाबंग पेंग. उम्र- 56  पूर्व सूचना आयुक्त. अरुणाचल पश्चिम

मैं आम आदमी पार्टी से इसलिए जुड़ा क्योंकि मैं देश को बदलना चाहता हूं. अच्छे लोग राजनीति में नहीं आ रहे. सभी स्तरों पर भयंकर कुशासन है. देश को कॉरपोरेट कंपनियों ने चलाना शुरू कर दिया है. जब मैं सूचना आयुक्त था तो मेरा सामना काफी भ्रष्टाचार से हुआ. जब अरविंद केजरीवाल ने मुझे आप में आने का आमंत्रण दिया तो मैं तुरंत राजी हो गया. इस तरह मैं आप का संस्थापक सदस्य बना.

पार्टी को पूर्वोत्तर में अच्छा समर्थन मिल रहा है. लोग हमारी विचारधारा पसंद कर रहे हैं. हम एक राजनीतिक क्रांति कर रहे हैं और लोग इसकी अहमियत समझते हैं. असम में हमारे आठ उम्मीदवार हैं. मणिपुर और त्रिपुरा में दो-दो और मिजोरम, मेघालय और सिक्किम में एक-एक. अरुणाचल से मैं आप का अकेला उम्मीदवार हूं. मैं आपको आश्वस्त करता हूं हम पूर्वोत्तर से आप का कोई न कोई प्रतिनिधि संसद में भेजेंगे. कांग्रेस और भाजपा के कुशासन के चलते पूर्वोत्तर के लोग खुद को अलग-अलग महसूस कर रहे हैं. चीनी सीमा पर काफी काम हुआ है. अच्छी सड़कें और बुनियादी सुविधाएं वहां आई हैं. हमारी सरकार को यहां भी ऐसा करना चाहिए था. पूरे पूर्वोत्तर में सड़कों की हालत बहुत खराब है. आखिर में एक दिन पूर्वोत्तर मुख्यधारा के भारत का हिस्सा बनेगा और ऐसा होने में आप की महत्वपूर्ण भूमिका होगी.

जी विष्णु से बातचीत पर आधारित

चुनावी रण के समीकरण

मुख्यमंत्री रनशंक (बाएं) के सामने हैं
UK
हरीश रावत की पत्नी रेणुका हरिद्वार सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री निशांक(बाएं) के सामने हैं.

लोकसभा चुनाव की रोशनी में उत्तराखंड के राजनीतिक भविष्य को लेकर दो मुख्य सवाल हवा में तैर रहे हैं. पहला, चुनाव में सत्तारूढ़ कांग्रेस का क्या होगा? दूसरा, चुनाव के बाद सूबे की राजनीति का ऊंट किस करवट बैठेगा? कांग्रेस की निगाहें मुख्यमंत्री हरीश रावत पर हैं. रावत दोहरे दबाव में हैं. वे ठीक ऐसे वक्त में चुनाव का सामना कर रहे हैं जब उन्हें चारधाम यात्रा शुरू होने से पहले सड़कों का निर्माण कराने का वादा भी पूरा करना है. दोनों ही चुनौतियां साथ-साथ कदमताल कर रही हैं. दो मई से चार धाम यात्रा शुरू होनी है और सात मई को सूबे में मतदान होना है. इसलिए मुख्यमंत्री को भी दोनों ही मोर्चों पर बराबर कदमताल करनी पड़ रही है. आपदा से अंदर ही अंदर सुलग रही नाराजगी कांग्रेस की बड़ी चिंता का कारण मानी जा रही है. प्रत्याशी उतारे जाने से पूर्व रावत पहले चरण का प्रचार करके लौटे हैं. वे करीब 20 से ज्यादा चुनावी सभाएं कर चुके हैं. उनके चेहरे पर पसरी चिंता बता रही है कि आपदा प्रभावित इलाकों की रिपोर्ट सही नहीं है. अपनी इस चिंता और खीझ को वे छुपा नहीं पा रहे हैं. इसीलिए उनकी नाराजगी मीडिया के लोगों पर फूट रही है. 16 अप्रैल को मुख्यमंत्री बीजापुर गेस्ट हाउस स्थित अपने अस्थायी आवास पर जब मीडियाकर्मियों से मुखातिब हुए तो उनके तेवरों से साफ जाहिर हो रहा था कि आपदाग्रस्त इलाकों की रिपोर्टिंग को लेकर वे नाखुश हैं. तीखी से तीखी बात को नरमी से और द्विअर्थी संवादों में कह जाने वाले हरीश रावत बोले, ‘डेंजर और सेंसेटिव में फर्क करना जानिए. मैं ब्लंट नहीं हूं. क्या मुझे ब्लंट होना पड़ेगा.’

मुख्यमंत्री की यह चिंता क्या वाकई चारधाम यात्रा को लेकर है? या फिर चुनाव में आपदा से उपजे हालात ने उन्हें बेचैन कर दिया है? माजरा जो भी हो, लेकिन कांग्रेस को यह भय तो सता ही रहा है कि पिछले बरस आई प्राकृतिक आपदा कहीं राजनैतिक आपदा में न बदल जाए. तमाम उपायों के बावजूद आपदा के घावों से रिसता दर्द सरकार और पार्टी दोनों का संकट बना है. ये लोक सभा चुनाव रावत के लिए अग्निपरीक्षा सरीखे हैं. सूबे की पांच लोक सभा सीटों में से दो पर उनकी प्रतिष्ठा सीधे-सीधे दांव पर लगी है. वे हरिद्वार से सांसद हैं. इस सीट पर उनकी पत्नी रेणुका रावत चुनाव लड़ रही हैं. उन्हें चुनाव में हरीश रावत का बोया काटना हैं. ये चुनाव रेणुका की हार या जीत ही नहीं केंद्रीय मंत्री और सांसद के तौर पर हरीश रावत के कामकाज का जनादेश भी होगा. उधर, अल्मोड़ा उनकी जन्म भूमि है. इस सीट पर वे चार मर्तबा सांसद रह चुके हैं. इस लिहाज से उन पर इस सीट से कांग्रेस को जिताने का भी दबाव है. अल्मोड़ा से उनके सिपहसालार और मौजूदा सांसद प्रदीप टम्टा मैदान में हैं.

हालांकि रावत कह चुके हैं कि उन पर पांचों सीटें जिताने का जिम्मा है. लेकिन हरिद्वार और अल्मोड़ा को उनके राजनीतिक भविष्य से जोड़कर देखा जा रहा है. इस बात का इल्म शायद उनको भी है. तमाम मौकों पर वह संकेत कर चुके हैं कि लोकसभा चुनाव के नतीजे सूबे का भावी भविष्य तय करेंगे. दरअसल, नतीजों की उम्मीद में ही कांग्रेस आलाकमान ने उन्हें उत्तराखंड की कमान सौंपी है. रावत के जेहन में भी कांग्रेस के युवराज की यह हिदायत ‘नसीहत नहीं नतीजे’ हर पल तैर रही होगी. यही वजह है कि मुख्यमंत्री बनने के दिन से उन्हें दम लेने का समय नहीं है. आचार संहिता लागू होने से पहले तक वे लोक लुभावन घोषणाओं में जुटे रहे और अब उन्हें चुनावी दौरों से फुरसत नहीं मिल रही.

उनकी इसी तेजी ने खुद को ‘कम्फर्ट जोन’ में मान रही भाजपा को ‘एक्टिव मोड’ में ला दिया है. सूबे में नेतृत्व परिवर्तन की कवायद से पहले पार्टी पांचों सीटें अपनी जेब में मानकर चल रही थी. लेकिन अब उसे अपनी रणनीति में बदलाव करने पड़ रहे हैं. उसकी गंभीरता का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि चुनाव में उसने तीन-तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों को उतार दिया है. गढ़वाल सीट पर मेजर जनरल(सेनि) बीसी खंडूड़ी मैदान में हैं. हरिद्वार में रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ और नैनीताल से भगत सिंह कोश्यारी.

गढ़वाल खंडूड़ी की पारंपरिक सीट है. कांग्रेस का प्रत्याशी घोषित होने तक भाजपा यहां जीत पक्की मानकर चल रही थी. लेकिन उसके अपने ही सिपाही और मौजूदा सांसद सतपाल महाराज ने उसे झटका दे दिया. महाराज ने पहले तो समर में उतरने से मना कर दिया था, लेकिन जब पार्टी ने दबाव बनाया तो वे भाजपा के चुनावी रथ पर सवार हो गए. महाराज के साथ आने से भाजपा का उत्साह स्वाभाविक है. गढ़वाल सीट पर महाराज का असर है. इस संसदीय क्षेत्र के 14 विधायकों में से 10 सीधे-सीधे महाराज कैंप के माने जाते हैं. इनमें एक महाराज की धर्मपत्नी अमृता रावत भी हैं. महाराज के पार्टी छोड़ने के बाद ये सभी बेशक कांग्रेस में अपनी निष्ठा जता चुके हैं, मगर जानकार मानते हैं कि चुनाव में कुछ भी हो सकता है.

उधर, महाराज की विदाई के बाद कांग्रेस कई दिनों तक किंकर्तव्यविमूढ़ रही. जब तक कांग्रेस ने इस सीट पर अपना प्रत्याशी नहीं उतारा, भाजपा खंडूड़ी की एकतरफा जीत को लेकर आश्वस्त थी. पार्टी नेता दम भरते दिखे कि वे जनरल की जीत का नहीं बल्कि जीत की ‘लीड’ का हिसाब लगा रहे हैं. मगर कांग्रेस ने अपने पत्ते खोले तो अब भाजपा में हलचल शुरू हो गई है. पूर्व सैन्य अफसर की टक्कर में कांग्रेस ने सैनिक कल्याण मंत्री डॉ. हरक सिंह रावत को मैदान में उतारा है. छवि और धाक के मामले में हरक जनरल के आस-पास भी न हों, पर जोड़तोड़ की राजनीति के वे खिलाड़ी हैं. 2012 में वे रूद्रप्रयाग विधान सभा से चुनाव जीतकर इसका नमूना पेश कर चुके हैं. तब वे डोईवाला से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे थे, लेकिन कांग्रेस की खेमेबाजी के चलते उन्हें ऐन चुनाव से पहले रूद्रप्रयाग का टिकट थमा दिया गया था. तब भी हरक चुनाव जीत गए. माना जा रहा है कि यह चुनाव हरक के लिए संभावनाओं के दरवाजे खोल रहा है. जानकारों के मुताबिक उनके मन में ये कसक हमेशा रही है कि गढ़वाल में वे ठाकुर नेताओं के एक क्षत्रप के तौर पर पहचाने जाएं. महाराज के रहते ये मुमकिन नहीं था. लेकिन अब यह ‘चांस’ बन रहा है. हरक समर्थकों का मानना है कि चुनाव में अगर वे कोई करिश्मा कर गए तो क्षत्रप के तौर पर स्थापित हो जाएंगे. इसीलिए वे समर में खंडूड़ी को ‘वाक ओवर’ देने के कतई मूड में नहीं हैं. उन्होंने सैन्य बहुल इस सीट पर मेजर जनरल की टक्कर में दो-दो जनरलों को अपने साथ ले लिया है. एक दौर में महाराज और खंडूड़ी के खासमखास रहे लेफ्टिनेंट जनरल टीपीएस रावत हरक के साथ खड़े हैं. दो महीने आम आदमी पार्टी में रहने के बाद वे खंडूड़ी को हराने के लिए कांग्रेस में शामिल हुए हैं. उनके साथ लेफ्टिनेंट जनरल गंभीर सिंह नेगी भी हैं जिन्हें गढ़वाल सीट पर उतारने का इरादा पार्टी ने अंतिम क्षणों में बदल दिया था. हरक ने भाजपा के तीन पूर्व विधायकों, केदार सिंह फोनिया, अनिल नौटियाल और जीएल शाह को भी अपने साथ मिला लिया है. भाजपा से निष्कासित ये तीनों नाम खंडूड़ी विरोधी खेमे के हैं.

मगर भाजपा की मानें तो यह सारी जोड़तोड़ लीड के अंतर को तो कम कर सकती है, लेकिन कांग्रेस की तयशुदा हार को नहीं बदल सकती. भाजपा प्रवक्ता प्रकाश सुमन ध्यानी कहते हैं,‘ कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती खुद कांग्रेस है. वह पहले अपनी अंतर्कलह से ही निपट ले. उत्तराखंड का इतिहास राष्ट्रीय धारा में बहने का रहा है. समूचे राष्ट्र में मोदी लहर चल रही है. इस आंधी से कांग्रेस को कोई नहीं बचा सकता.’

साफ है कि इन चुनाव को भाजपा मोदी लहर पर केंद्रित कर देना चाहती है. मगर मोदी लहर के असर को कांग्रेस मानने को तैयार नहीं. मुख्यमंत्री हरीश रावत कहते हैं,‘उत्तराखंड में सिर्फ विकास की लहर है. जनता तरक्की चाहती है. सुनियोजित तरीके से जनता का ध्यान मुद्दों से हटाकर व्यक्ति विशेष पर केंद्रित करने की नाकाम कोशिश हो रही है.’

दो चिर प्रतिद्वंदी दलों के बीच सिमटी इस चुनावी जंग में तीसरे विकल्प के तौर पर आम आदमी पार्टी, यूकेडी व वामपंथियों का साझा मोर्चा अपनी-अपनी सामर्थ्य के हिसाब से मैदान में है. मगर उनसे दिल्ली सरीखे करिश्मे की उम्मीद नहीं की जा सकती. मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस में है और हर सीट पर दोनों दलों की अलग-अलग चुनौतियां हैं. नेतृत्व परिवर्तन के बाद विजय बहुगुणा और हरीश रावत की भूमिकाएं बदल जाने के बाद इसका असर टिहरी सीट पर पड़ सकता है. जहां खड़े होकर रावत कभी बहुगुणा पर निशाने साधते थे, वहां आज बहुगुणा हैं.  रावत चाहते थे कि टिहरी सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री विजय बहुगुणा चुनाव लड़ें, लेकिन बहुगुणा ने पत्नी की बीमारी का बहाना बना दिया. वे अपने बेटे साकेत के लिए टिकट के जुगाड़ में लगे रहे. बेटे का टिकट फाइनल होने के बाद बहुगुणा देहरादून में डेरा डाल चुके हैं. उपचुनाव में हार के बाद साकेत टिहरी सीट पर खासे सक्रिय रहे हैं, लेकिन सत्ता से पिता की विदाई के बाद उनके लिए टिहरी का समर आसान नहीं रह गया है जहां भाजपा ने शाही परिवार की माला राज्यलक्ष्मी शाह को फिर से मैदान में उतारा है.

तीर्थनगरी हरिद्वार में मुख्यमंत्री की पत्नी रेणुका और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक के मैदान में होने से हरिद्वार हॉट सीट बन गई है. निशंक अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं. वे कहते हैं,‘मैंने क्षेत्र में काम किया है. मुस्लिम समुदाय में भी मुझे समर्थन मिल रहा है. मेरे पक्ष में लहर नहीं जुनून है.’

मगर हरिद्वार के चुनावी समीकरण काफी उलझे हुए हैं. इस सीट पर मुस्लिम व दलित वोटों की तादाद 35 फीसदी से भी अधिक है. इस वोट बैंक पर बसपा की नजर है. बसपा ने मुस्लिम प्रत्याशी हाजी इस्लाम को उतारा है. बसपा जितना बेहतर प्रदर्शन करेगी, उसका सियासी नुकसान कांग्रेस को होगा. यही वजह है कि कांग्रेस का भी पूरा फोकस इसी वोट बैंक पर है. निशंक के लिए सबसे बड़ी चुनौती भितरघात को ‘मैनेज’ करने की भी है. उनकी घेराबंदी के लिए कांग्रेस त्रिपाठी अयोग की जांच रिपोर्ट का जिन्न बोतल से बाहर निकाल सकती है. मुख्यमंत्री इसका संकेत कर चुके हैं. फिलहाल पार्टी में बहुचर्चित महाकुंभ और स्टर्डिया घोटाले का ब्रहमास्त्र छोड़ने के सियासी नफे-नुकसान को लेकर मंथन चल रहा है.

नैनीताल और अल्मोड़ा (सुरक्षित) में भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच ही माना जा रहा है. नैनीताल में कांग्रेस ने दो बार के सांसद केसी सिंह बाबा पर फिर से दांव खेला है. भाजपा के भगत सिंह कोश्यारी उनके सामने हैं. अल्मोड़ा में भाजपा के अजय टम्टा और निवर्तमान सांसद प्रदीप टम्टा के बीच मुकाबला है. सारे क्षत्रपों के मैदान में होने से युद्ध में अकेले पड़े टम्टा मोदी लहर के सहारे चुनावी वैतरणी पार कर लेना चाहते हैं.

भाजपा की निगाह लोक सभा चुनाव के बाद के हालात पर भी लगी है. ये चुनाव सूबे में राजनीतिक आपदा की आहट भी दे रहे हैं. जानकारों का मानना है कि दिल्ली में तख्ता पलटा तो उसकी आंच उत्तराखंड पर आएगी. सहयोगियों के समर्थन पर टिकी रावत सरकार की यही सबसे बड़ी बेचैनी है.

राजनीति में कितनी संस्कृति?

इन दिनों दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र- यानी हमारा देश- अपनी नई सरकार चुन रहा है. बदलाव, विकास, सांप्रदायिकता, भ्रष्टाचार, महंगाई, सड़क, बिजली, पानी रोजगार, अधिकार, सुरक्षा – ऐसे न जाने कितने सारे मुद्दे हैं जिनको लेकर राजनीतिक दल और नेता जनता को तरह-तरह के आश्वासन दे रहे हैं. एक व्यावसायिक अनुबंध के तहत रचे और तैयार किए गए गीत के सहारे देश को न झुकने देने, न बिकने देने की सौगंध खाई और दिलाई जा रही है.

लोकतंत्र के इस पूरे शोर में लेकिन साहित्य और संस्कृति कहां है? क्या किसी भी राजनीतिक दल के पास उसका कोई साहित्यिक या सांस्कृतिक एजेंडा है? कभी भारतीय जनता पार्टी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की बात करती थी, लेकिन तब भी उसके आशय सांस्कृतिक नहीं हुआ करते थे और अब तो लगता है कि इस पुराने नारे से भी उसने मुक्ति पा ली है. किसी भी दूसरे दल के पास- जिनमें सैफई महोत्सव कराने वाले समाजवादी शामिल हों या बदलाव की बात करने वाली आम आदमी पार्टी- संस्कृति को लेकर कोई सोच नहीं दिखाई पड़ती. देश में सबसे व्यापक सांगठनिक आधार वाली कांग्रेस के घोषणापत्र में भी संस्कृति के नाम पर कुछ नहीं है. सबसे वैचारिक माने जाने वाले वाम दलों के अपने साहित्यिक-सांस्कृतिक संगठन तो हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि वामपक्ष के नीति नियंताओं को इन संगठनों की कोई खास जरूरत नहीं है- उनके सांस्कृतिक उद्यमों की तो कतई नहीं. वाम को बंगाल से अपदस्थ करने वाली तृणमूल कांग्रेस ने शुरू में कुछ लेखकों-संस्कृतिकर्मियों को लेकर जो संवेदनशीलता दिखाई थी, उसका एक तरह से विलोप हो चुका है. यही हाल दक्षिण भारत के राजनीतिक दलों का है.

लेकिन सवाल है, राजनीति की इस लड़ाई में साहित्य और संस्कृति मुद्दा क्यों हो? क्या कविता और कहानी का सवाल रोटी और रोजगार के सवाल से बड़ा है? क्या नृत्य या नाटक विकास या सांप्रदायिकता की चुनौतियों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं? या क्या हिंदी या किसी भी भारतीय भाषा का कोई लेखक हिंदी फिल्मों में काम कर रहे किसी मामूली से अभिनेता के मुकाबले भी कहीं ज्यादा असर रखता है? या क्या किसी हिंदी लेखक या संस्कृतिकर्मी ने ऐसे सामूहिक प्रयत्न किए हैं कि वे ऐसी व्यापक अपील पैदा कर सकें जिनसे मजबूर होकर भारतीय लोकतंत्र उन्हें उनका दाय दे? कुछ सहमतनुमा आयोजनों को छोड़ दें तो क्या लेखकों और संस्कृतिकर्मियों ने सांप्रदाकिता के विरुद्ध या सामाजिक न्याय के पक्ष में या फिर सामाजिक-लैंगिक या आर्थिक बराबरी के लिए ऐसी कोई लड़ाई छेड़ी है जिसे देश की जनता याद रखे और साहित्यकारों को अपना प्रतिनिधि माने? कम से कम हिंदी के संदर्भ में- क्या यह सच नहीं है कि उसका लेखक अपने समाज का एक बेचेहरा प्राणी है जिसे कोई नहीं पहचानता?  और क्या अपनी ऐसी उपेक्षित हैसियत के लिए खुद वह भी ज़िम्मेदार नहीं है?

ये बड़े निर्मम सवाल हैं जो एक तरह से लेखक और संस्कृतिकर्मी को कठघरे में खड़ा करते हैं. लेकिन किसी भी समाज को संस्कृतिकर्मियों की जरूरत हो या न हो, संस्कृति की जरूरत होती है. समाज किसी कवि या कथाकार को मान्यता दे या न दे, वह अपने भीतर कोई कविता या कथा अगर बचाकर नहीं रख पाता तो वह एक बेजान समाज होता है. आखिर समाज-संस्कृति या सभ्यता का सफर हमारी स्मृति के संचय का भी सफर है- उन कथाओं और कविताओं का भी जिन्होंने समाज विज्ञान के किसी भी दूसरे अनुशासन के मुकाबले अपने समाज का कहीं ज्यादा सच्चा और मानवीय अभिलेख तैयार किया और किसी भी दूसरे शास्त्र के मुकाबले सभ्यता को कहीं ज़्यादा साफ रोशनी दिखाई- सिर्फ जीत में ही नहीं, पराजय में भी उसका साथ दिया और सिर्फ रोशनी में ही नहीं, बल्कि रोशनी से ज्यादा अंधेरे में उसे उसकी दुविधाओं, उसके द्वंद्वों और उसकी शक्ति से उसका परिचय कराया. अगर यह कविता और कहानी नहीं होती, थपकियां देकर सुलाने वाली लोरियां नहीं होतीं, आवाज़ देकर जगाने वाले गीत नहीं होते, हमें अपनी विडंबनाओं से आंख मिलाना सिखाने वाली कथाएं नहीं होतीं तो हम रोशनी की मरीचिका और विकास की अनिद्रा में भटकते कहीं ज्यादा हिंसक और पशुवत समाज होते.

दुर्भाग्य से आज हम धीरे-धीरे ऐसे ही समाज में बदलते जा रहे हैं- ऐसे स्मृतिविहीन समाज में जिसके  लिए विकास का मतलब चिकनी-चौड़ी सड़कें, चमचमाते मॉल और बहुमंजिला इमारतें भर हैं. हम यह भी सोचने को तैयार नहीं हैं कि यह विकास किन शर्तों पर आ रहा है, किन वर्गों द्वारा लाया जा रहा है और अंततः कैसे वह हमें एक आक्रामक, सरोकारविपन्न और आत्महीन उपभोक्ता समाज में बदल कर छोड़ दे रहा है. इस समाज में श्रेष्ठता की एकमात्र कसौटी कारोबारी किस्म की सफलता है और आगे बढ़ने की आपाधापी में सबकुछ को छोड़ सकने की, हर किसी को छल सकने की कुशलता है. यही वजह है कि लड़ाई चाहे सांप्रदायिकता के खिलाफ हो या सामाजिक न्याय के पक्ष में, भ्रष्टाचार के खिलाफ हो या पारदर्शिता के पक्ष में- वह सिर्फ राजनीतिक नारों में बदल कर रह जा रही है, वह धरातल पर न लड़ी जा रही है, न उसे लड़ने का कोई इरादा दिख रहा है. सिर्फ साधनों और सफलता के पीछे भागते ऐसे बेजान और विपन्न समाज जब अपनी मुक्ति की राह खोजते हैं तो वे बस किसी मसीहा का इंतजार करते हैं जो दरअसल सबसे पहले उन लोगों को कुचलता है जिन्होंने उसका रास्ता बनाया है. यह भी इन दिनों हम होता हुआ देख रहे हैं.

बेशक, ऐसा समाज सिर्फ राजनीति ने नहीं, हमने भी बनाया है. हमारे राजनीतिक नारों में दिखाई पड़ने वाला खोखलापन, हमारे राजनीतिक आश्वासनों में झलक पड़ने वाली बेईमानी शायद इसलिए भी है कि हमने शब्दों का अवमूल्यन कर डाला है, कला को बाजार के हवाले कर दिया है और मुक्तिबोध के शब्दों में ऐसे ‘कीर्ति व्यवसायी’ हो गए हैं जिनके लिए कविता-कहानी या कोई भी साहित्यिक उद्यम अपने लिए छोटे लाभ अर्जित करने का जरिया भर रह गए हैं.

लेकिन राजनीति और साहित्य के बीच घटती इस दूरी का, लोकतंत्र के महापर्व में वास्तविक संस्कृति की अनुपस्थिति का खामियाजा सिर्फ लेखकों और संस्कृतिकर्मियों को नहीं, पूरे समाज को भुगतना पड़ेगा. राजनीति के एजेंडे पर संस्कृति हो और वह सच्चे अर्थों में हो, यह जरूरी है. क्योंकि ऐसा कोई सांस्कृतिक एजेंडा होगा और उसको देखने की मजबूरी होगी तभी यह बात समझ में आएगी कि लोगों के होने का क्या मतलब होता है, उनकी खुशहाली की परिभाषा क्या होती है और कैसे हम विकास के इस्पाती बियावानों में भटकते जानवरों की तरह नहीं, मनुष्य की तरह एक स्वस्थ समाज की कल्पना और कामना कर सकते हैं. सवाल है, राजनीति यह एजेंडा लाएगी क्यों? यह काम तो अंततः संस्कृति के मोर्चे पर ही करना होगा- आखिर हमारे एक पुरखे ने ही कहा है कि साहित्य समाज के आगे जलने वाली मशाल है.

पलटी से पलटा पासा

अख्तरुल के फैसले से जद (यू) किशनगंज लोकसभा सीट बिना लड़े ही हार गया है.
अख्तरुल के फैसले से जद (यू) ककशनगंज
लोकसभा सीट बिना लड़े ही हार गया है.

15 अप्रैल को 16वीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव का अहम दिन था. 17 अप्रैल को संपन्न हुए दूसरे चरण के मतदान के लिए सार्वजनिक तौर पर प्रचार करने का आखिरी दिन. बिहार में नीतीश कुमार, लालू प्रसाद यादव, नरेंद्र मोदी, राजनाथ सिंह जैसे तमाम दिग्गज एक- दूसरे पर वाकप्रहार करने में लगे हुए थे कि शाम तक एक बड़ी खबर ने सभी खबरों को दरकिनार कर दिया. जद(यू) के किशनगंज प्रत्याशी अख्तरुल ईमान ने घोषणा कर दी कि वे चुनाव नहीं लड़ेंगे. ईमान ने यह घोषणा तब की जब किशनगंज में नाम वापस लेने की आखिरी तिथि भी गुजर चुकी थी.

ईमान के इस फैसले से बिहार के सियासी गलियारे में भूचाल-सा आ गया. मुस्लिम मतों को एकीकृत करने में लगे लालू यादव के लिए यह खबर खुशियों की सौगात लेकर आई. उधर, अतिपिछड़े और महादलितों के बाद मुस्लिम समुदाय के मतों पर ही उम्मीद टिकाए नीतीश कुमार की पार्टी लिए खबर अंदर तक हिला देनेवाली थी. कांग्रेस की खुशी स्वाभाविक थी, क्योंकि ईमान ने अपनी उम्मीदवारी कांग्रेस प्रत्याशी व किशनगंज के मौजूदा सांसद और कांग्रेस नेता असरारुल हक के लिए ही छोड़ी थी. अपने बयान में उन्होंने कहा, ‘आरएसएस के इशारे पर भाजपा सीमांचल के इलाके में नफरत की सियासत करना चाहती है. गुजरात के दंगाइयों को हम यहां पांव नहीं पसारने देना चाहते, इसलिए यह फैसला लिए.’

एक तो वैसे ही कई सर्वे बता रहे हैं कि बिहार में नीतीश कुमार का जादू बिखर रहा है. तिस पर जद(यू) के लिए यह झटका कोढ़ में खाज की तरह आया है. अख्तरुल ईमान कोई बड़े नेता तो नहीं, लेकिन हालिया वर्षों में अपने तेज-तर्रार बयानों और सीमांचल इलाके में मुसलमानों की गोलबंदी करने की वजह से वे चर्चित नेता के तौर पर उभरे थे. किशनगंज से लोकसभा चुनाव में प्रत्याशी बनने के पहले तक वे राजद के विधायक थे. वे उन विधायकों के गुट में शामिल थे जिन्होंने हाल ही में एक ही दिन सामूहिक तौर पर राजद से नाता तोड़ लिया था. अब अख्तरुल द्वारा किशनगंज पर अपना दावा छोड़ देने और अपने साथ-साथ जद(यू) को भी आत्मसमर्पण करवा देने के बाद सियासी गलियारे में यही सवाल प्रमुखता से उठ रहे हैं कि आखिर उन्होंने ऐसा क्यों किया.

इस मुद्दे पर विभिन्न दलों के नेताओं ने अपने-अपने हिसाब से बयान दिए. लेकिन नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव की ओर से कोई ठोस बयान तुरंत नहीं आए. वजहें कई रही होंगी, लेकिन एक प्रमुख वजह यह मानी गई कि लालू ने नीतीश कुमार की बिछाई बिसात पर ही उन्हें मात दे दी. चुनाव के पहले राजद से अख्तरुल समेत नौ नेताओं को अपने पाले में करने की कोशिश कर जद(यू) ने राजद को औंधे मुंह गिराने की कोशिश की थी.कहा जा रहा है कि अब अख्तरुल ने बीच चुनाव में नीतीश की उम्मीदों पर पानी फेरा है तो यह अख्तरुल के विश्वासघात का मामला कम है और लालू द्वारा हिसाब-किताब बराबर करने का मामला ज्यादा.

सवाल यह है कि उनके ऐसा करने से किसे सबसे ज्यादा फायदा होगा और किसे नुकसान. बिहार में करीब 16 प्रतिशत मुस्लिम मतदाता हैं. इस समूह पर भाजपा को छोड़कर सबकी नजर है. लालू प्रसाद का मुसलमानों के बीच पुराना आधार रहा है. नीतीश कुमार मुसलमानों के बीच नये चैंपियन बने हैं. कांग्रेस को इस बार मुसलमानों का वोट अपेक्षाकृत आसानी से मिलने की बात कही जा रही है क्योंकि अल्पसंख्यक समुदाय में यह धारणा साफ तौर पर बनी है कि अगर दिल्ली के तख्त पर नरेंद्र मोदी को रोकना है तो उसमें सबसे ज्यादा कारगर कांग्रेस ही होगी.

जानकारों के मुताबिक बिहार में सबसे सघन मुस्लिम आबादी (69 फीसदी) वाले संसदीय क्षेत्र किशनगंज से अख्तरुल का दावेदारी छोड़ना जद(यू) को नुकसान पहुंचाएगा. दरअसल इससे सीमांचल की दूसरी सीटों पर भी यह साफ संदेश गया है कि नीतीश कुमार नहीं बल्कि राजद-कांग्रेस नरेंद्र मोदी को रोकने में सक्षम है. अख्तरुल के इस फैसले से खुश होकर भी भाजपा मायूस है. इसकी वजह यह है कि इस बार किशनगंज की सीट पर दो मजबूत मुस्लिम उम्मीदवारों के रहने से उसे हिंदू मतों के ध्रुवीकरण और पार्टी प्रत्याशी दिलीप जायसवाल की जीत की उम्मीद थी, लेकिन अख्तरुल के इस दांव से भाजपा के लिए समीकरण बदल गए हैं.

इस बार राजद और जद(यू), दोनों ही पार्टियों ने लोकसभा चुनाव में मुसलमानों को अपने पक्ष में करने के लिए सबसे बड़ा दांव खेला है. नीतीश कुमार की पार्टी जद(यू) ने इस बार भाजपा से अलगाव के बाद अप्रत्याशित तौर पर मुस्लिम प्रत्याशियों की संख्या में वृद्धि की है. उसने बिहार में पांच मुस्लिम प्रत्याशियों को मैदान में उतारा है. राजद ने जद(यू) को भी पछाड़ते हुए छह प्रत्याशियों को टिकट दिया है. भाजपा और लोजपा ने एक-एक मुस्लिम प्रत्याशी मैदान में उतारा है और राजद से समझौते के बाद 12 सीटों पर चुनाव लड़ रही कांग्रेस ने सिर्फ एक मुस्लिम प्रत्याशी असरारुल हक को ही टिकट दिया है जो मौजूदा सांसद हैं–उसी किशनगंज से, जहां मुस्लिमों की आबादी सर्वाधिक है और जहां जद(यू) के उम्मीदवार अख्तरुल ईमान ने उन्हें समर्थन दे दिया है. पिछले लोकसभा चुनाव में किशनगंज की सीट पर भाजपा ने जद(यू) को चुनाव लड़ने दिया था. लेकिन जीती कांग्रेस जबकि जद(यू) पर वहां मुस्लिम तुष्टिकरण के आरोप भी लगे थे.

कोण कई लड़ाई वही

 अर्जुन मुंडा और दूसरे नेताओं के साथ विघतवरण महतो.
अर्जुन मुंडा और दूसरे नेताओं के साथ विघतवरण महतो.

झारखंड के कई नेताओं के मन में इस बात की कसक रहती है और वे अक्सर शिकायत भी करते रहते हैं कि पड़ोस का बिहार, बिहार की राजनीति, बिहार के नेता तो हमेशा चर्चा में रहते हैं, लेकिन झारखंड की राजनीति की थाह उस तरह से नहीं ली जाती. यहां की राजनीति पर तभी बात होती है, जब सत्ता का परिवर्तन होता है. वैसे उनकी बात एक बड़ी हद तक सही ही है. इस बार के लोकसभा चुनाव में भी झारखंड का कुछ-कुछ वैसा ही हाल है. बिहार की राजनीति में क्या हो रहा है, उसकी खबरें रोज मिर्च-मसाले के साथ आ रही हैं, लेकिन पड़ोस के झारखंड की राजनीति में क्या हो रहा है, इस पर न कहीं कोई ज्यादा चर्चा है न बात जबकि झारखंड में भी घटनाएं कोई कम नहीं घट रहीं.

14 संसदीय सीटों वाले झारखंड में राजनीतिक लड़ाई बिहार से कम दिलचस्प स्थिति में नहीं है. फिलहाल लगभग आधी सीटों पर भाजपा का कब्जा है. पार्टी अपने इस पुराने गढ़ को न सिर्फ बचाना चाहती है, बल्कि और मजबूत करना चाहती है इसलिए आरएसएस के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले की ऊर्जा यहां लगी हुई है और उनके दिशा-निर्देश में संघ परिवार की पूरी ताकत भी. यहां तीन सीटों को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है. इनमें एक जमशेदपुर की है, दूसरी हजारीबाग की और तीसरी राजधानी रांची की. जमशेदपुर वह सीट रही है जहां से भाजपा के सांसद राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा हुआ करते थे. लेकिन उनके द्वारा सीट खाली करने पर वहां डॉ अजय कुमार का कब्जा हो गया, जो पूर्व आईपीएस अधिकारी थे और बाबूलाल मरांडी की पार्टी झारखंड विकास मोर्चा से चुनाव लड़कर विजयी हुए थे. भाजपा किसी भी तरह से यह सीट वापस चाहती है और इसके लिए मुंडा पर चुनाव लड़ने का दबाव भी था. लेकिन बताया जा रहा है कि राज्य में आगामी दिनों में विधानसभा चुनाव की संभावना को देखते हुए अर्जुन मुंडा किसी भी तरह राज्य की राजनीति से अलग होकर सांसद बनकर अपनी संभावनाओं के द्वार को बंद नहीं करना चाहते थे इसलिए वे वहां से चुनाव लड़ने को तैयार नहीं हुए. मुंडा की जगह वहां भाजपा ने विद्युतवरण महतो को उम्मीदवार बनाया है जो हाल ही में झारखंड मुक्ति मोर्चा का दामन छोड़ भाजपा में शामिल हुए थे. इसे लेकर भाजपा में नाराजगी भी है लेकिन अर्जुन मुंडा की पसंद के उम्मीदवार होने की वजह से खुलेआम विरोध नहीं हो रहा. दूसरी महत्वपूर्ण सीट हजारीबाग है जहां से भाजपा के वरिष्ठ नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा चुनाव जीतते रहे हैं. इस बार उन्होंने अपने बेटे जयंत सिन्हा को उम्मीदवार बना दिया है. जयंत अपने पिता की विरासत संभालते हुए आसानी से जीत हासिल कर लेंगे, कहना मुश्किल है क्योंकि वहां उनका इस बार मुकाबला कांग्रेस के चर्चित व युवा विधायक सौरव नारायण सिंह से हो रहा है जो हजारीबाग के राजघराने से ताल्लुक रखते हैं. साथ ही जयंत की टक्कर भाजपा के ही पूर्व विधायक रहे लोकनाथ महतो से भी है. लोकनाथ इस चुनाव में आजसू पार्टी से चुनावी मैदान में हैं.

लेकिन सबसे दिलचस्प मुकाबला तो राजधानी रांची की सीट पर है. यहां लड़ाई बहुकोणीय है. भारतीय जनता पार्टी के उम्मीदवार रामटहल चौधरी हैं, जो पूर्व में कई बार सांसद रह चुके हैं. भाजपा से ही टिकट की उम्मीद पूर्व आइपीएस अधिकारी अमिताभ चौधरी लगाये हुए थे. कुछ माह पहले जब नरेंद्र मोदी की सभा हुई थी तो उसकी तैयारी में नरेंद्र मोदी के पक्ष में उन्होंने अपने होर्डिंग-पोस्टर आदि भी लगाए थे, लेकिन ऐन वक्त पर भाजपा ने उन्हें टिकट नहीं दिया तो वे बाबूलाल मरांडी की पार्टी झाविमो का दामन थामकर चुनाव मैदान में उतरे हैं. कांग्रेस के वर्तमान सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री सुबोधकांत सहाय भी रांची से ही मैदान में हैं. हाल में कई वजहों से उनकी लोकप्रियता का ग्राफ गिरा है इसलिए बताया जाता है कि उनके नाम पर नैया पार होने की उम्मीद उनकी अपनी पार्टी कांग्रेस को भी नहीं थी, लेकिन रांची संसदीय सीट से ही राज्य के पूर्व उप मुख्यमंत्री और आजसू पार्टी के मुखिया सुदेश महतो के उतर जाने से सुबोध की मुश्किलें कुछ कम हुई हैं. माना जा रहा है कि महतो कुरमियों के नेता हैं और रांची संसदीय सीट के अंतर्गत आनेवाली दो विधानसभा सीटों पर उनकी पार्टी का कब्जा है, इसलिए वे जो भी वोट काटेंगे भाजपा के खाते से ही काटेंगे. यह भी कहा जा रहा है कि सुदेश खुद की जीत से ज्यादा भाजपा उम्मीदवार रामटहल की हार के लिए चुनाव लड़ रहे हैं. रांची और आसपास के इलाके में रामटहल की पहचान भी भाजपा नेता के साथ ही कुरमियों के नेता के तौर पर है और सुदेश हालिया वर्षों में उभर रहे कुरमियों के सबसे बड़े नेता हैं. सुदेश जानते हैं कि यदि रामटहल इस बार चुनाव हार जाते हैं तो संभवतः वे राजनीति से आउट हो जाएंगे और उसके बाद फिर उन्हें कुरमियों का सर्वमान्य व सबसे बड़े नेता के तौर पर स्थापित होने में सहूलियत मिलेगी. कांग्रेस के लिए एक मुश्किल रांची से ही सटे मांडर विधानसभा के विधायक और राज्य के पूर्व मंत्री व चर्चित आदिवासी नेता बंधु तिर्की का तृणमुल कांग्रेस का उम्मीदवार बनकर मैदान में उतरना भी है. बंधु की पकड़ आदिवासी वोटों पर ठीक-ठाक मानी जाती है और उसमें भी विशेषकर ईसाई मतों पर उनकी गहरी पकड़ है इसलिए वे कांग्रेस का वोट भी काटेंगे, ऐसा माना जा रहा है. आम आदमी पार्टी ने यहां मुस्लिम उम्मीदवार उतारकर कांग्रेस के लिए एक और मुश्किल पैदा की है. इस तरह राजधानी रांची में कोई नहीं कह पा रहा कि ऊंट किस करवट बैठेगा.

समर्थकों के साथ कांग्रेस प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय
समर्थकों के साथ कांग्रेस प्रत्याशी सुबोधकांत सहाय

इन सबके बीच झारखंड में सबसे कांटे की टक्कर इस बार झारखंड में संथाल परगना इलाके की प्रमुख सीट दुमका पर है. यहां से दो आदिवासी दिग्गज नेता आमने-सामने हैं. एक तरफ आदिवासियों के सबसे चर्चित नेता,झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रमुख और राज्य के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के पिता शिबू सोरेन हैं तो दूसरी तरफ झारखंड विकास मोर्चा के प्रमुख व राज्य के पहले मुख्यमंत्री बाबूलाल मरांडी. संथाल परगना आदिवासी बहुल इलाका है और झामुमो का गढ़ माना जाता है. बताया जा रहा है कि बाबूलाल मरांडी ने यहां से चुनाव लड़ने का फैसला कर एक तरह से जोखिम लिया है, लेकिन इसके पीछे उनका बड़ा मकसद भी है. हालिया दिनों में भाजपा ने भी तेजी से संथाल परगना में अपने आधार का विस्तार किया है. बाबूलाल जानते हैं कि अगर वे शिबू सोरेन को परास्त कर देंगे तो इसका संदेश पूरे राज्य में जाएगा और आदिवासियों के नये बड़े नेता के तौर पर उन्हें स्थापित होने में सहूलियत होगी. बाबूलाल मरांडी पहले भी शिबू पर जीत हासिल कर चुके हैं, लेकिन तब वे भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेता हुआ करते थे.

लड़ाई और भी कई सीटों पर दिलचस्प है. राज्य में एक सीट ऐसी भी है, जहां भाकपा माले की स्थिति काफी अच्छी मानी जा रही है. कोडरमा सीट से भाकपा माले के प्रत्याशी राजकुमार यादव मैदान में हैं.राजकुमार कई बार यहां चुनाव लड़ चुके हैं और हमेशा मजबूत उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे हैं. इस बार उनकी स्थिति अच्छी होने से उनके पक्ष में संभावना की बात भी कही जा रही है.

झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्य में सरकार बनाने और बचाने के एवज में अधिकांश सीटें कांग्रेस को दे दी हैं इसलिए उसके पास अपने सबसे बड़े नेता शिबू सोरेन की प्रतिष्ठा बचाने के अलावा बहुत कुछ बड़ा नहीं है. लेकिन कांग्रेस की परीक्षा इस राज्य में इसलिए होनी है, क्योंकि राज्य बनाने का श्रेय लेने के बाद से भाजपा उतार-चढ़ाव के बावजूद इस गढ़ में मजबूत स्थिति में रही है.

कुल मिलाकर इस चुनाव में खोने-पाने की मुख्य लड़ाई कांग्रेस और भाजपा ही लड़ रही है. बीच में इन दोनों पार्टियों के एकाधिकार और मजबूत वर्चस्व को तोड़ने के लिए झामुमो, आजसू, झाविमो समेत कई पार्टियां मजबूती से दस्तक दे रही हैं.

मोदी के बाद, गुजरात…

modiदेश की बड़ी आबादी इन दिनों गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने, न बनने को लेकर चर्चा में मशगूल है. गुजरात में भी मोदी के पीएम बनने, न बनने की चर्चा तो है, लेकिन वहां की राजनीतिक चर्चाओं में एक और सवाल पर खूब बहस हो रही है. सवाल यह है कि अगर मोदी प्रधानमंत्री बनने में सफल हो जाते हैं तो फिर गुजरात की कमान किसके हाथों में होगी?  मोदी के बाद कौन मुख्यमंत्री होगा?

मोदी के बाद मुख्यमंत्री बनने की कतार में वैसे तो कई नेता हैं, लेकिन इनमें सबसे आगे हैं प्रदेश की राजस्व मंत्री आनंदीबेन पटेल. गुजरात में इस बात की भी चर्चा जोरों पर है कि कैसे पिछले कुछ समय से मोदी ने भी आनंदी को अपने उत्तराधिकारी के तौर पर तैयार किया है. नौकरशाही और प्रशासन पर अपनी बेहद मजबूत पकड़ रखने और सक्षम प्रशासक की छवि वाली आनंदी बेन फिलहाल राजस्व, सूखा राहत, भूमि सुधार, शहरी विकास सहित कई विभागों की जिम्मेदारी संभाल रही हैं. वे गुजरात में 1998 से लेकर आज तक लगातार कैबिनेट मंत्री रही हैं. राज्य के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक देवेंद्र पटेल कहते हैं, ‘मोदी के बाद आनंदी बेन के ही मुख्यमंत्री बनने की सबसे अधिक संभावना है. वे वरिष्ठ तो हैं ही साथ में मोदी की विश्वासपात्र भी हैं.’

संघ के दिनों से मोदी की बेहद करीबी रहीं आनंदीबेन उस उथलपुथल के दौर में भी मोदी के साथ रहीं जब उनको 1986 में केशुभाई पटेल और तत्कालीन संगठन मंत्री संजय जोशी के कारण गुजरात से बाहर जाना पड़ा. मोदी के इस बुरे राजनीतिक दौर में अमित शाह की तरह आनंदी बेन गुजरात में मोदी की वापसी के लिए फील्डिंग सजाती रहीं. मोदी के हर उतार-चढ़ाव वाले समय में वे उनके साथ रहीं.दोनों के बीच इतने घनिष्ठ संबंध हैं कि आनंदी बेन पटेल के पति मफतलाल पटेल, जिनसे वे पिछले 25 सालों से अलग रह रही हैं, ने कई बार पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संघ के वरिष्ठ नेताओं को ऐसी चिट्ठियां भेजीं जिनमें उन्होंने मोदी पर आरोप लगाया कि मोदी ने उनकी पत्नी को उनसे छीन लिया है. उनका आरोप था कि उनकी पत्नी मोदी के प्रभाव की इस कदर शिकार हैं कि उन्हें अपने पति की चिंता नहीं है. अपनी चिट्ठियों में मफतलाल इन नेताओं से हस्तक्षेप करके मोदी के कब्जे से आनंदी को निकालने की विनती करते. इन चिट्ठियों के साथ ही राज्य में समय-समय पर तमाम पोस्टर-बैनर और हैंडबिल भी इसी विषय पर कई बार दिखाई दिए.

तेजतर्रार वक्ता आनंदी बेन के पक्ष में जाने वाली कई बातों में मोदी के बेहद करीबी और प्रदेश के पूर्व गृह राज्य मंत्री अमित शाह का राज्य से बाहर जाना भी शामिल है. जानकार बताते हैं कि मोदी के निकटतम होने की होड़ में इन दोनों का शीत युद्ध चलता रहता था. लेकिन अब शाह बतौर यूपी का प्रभारी बनकर प्रदेश से बाहर आ चुके हैं और इस बात की तरफ सूत्र भी इशारा करते हैं कि मोदी के केंद्र में आने की स्थिति में वे मोदी के साथ केंद्र में ही रहेंगे. ऐसे में अब गुजरात में आनंदी बेन के पास खुला मैदान है. एबीपी न्यूज से जुड़े प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार बृजेश सिंह कहते हैं, ‘अगर अमित शाह प्रदेश में होते तो फिर आनंदी के लिए रास्ता बेहद कठिन हो जाता. लेकिन शाह के बाहर होने की स्थिति में तो अब उनके सामने कोई चुनौती नहीं है.’

हालांकि अहमदाबाद के मोहनीबा कन्या विद्यालय की इस पूर्व प्रधानाध्यापिका को कुछ चीजें पीछे भी धकेलती दिखती हैं जैसे उनका सख्त मिजाज. साफ सुथरी छवि वाली आनंदी बेन अपने सख्त व्यवहार के कारण काफी चर्चित रहती हैं. भाजपा के एक स्थानीय नेता कहते हैं, ‘उनके इस स्वभाव के कारण जहां प्रदेश की नौकरशाही उनके सामने शीर्षासन की मुद्रा में रहती है, वहीं कार्यकर्ता उनसे खफा रहते हैं. उनकी पहचान एक ऐसे नेता के रूप में है जिससे कार्यकर्ता कोई सिफारिश लगाने के लिए भी घबराते हैं. अनुचित सिफारिश लेकर जाने पर पूर्व में वे कई कार्यकर्ताओं को डांट-फटकार कर अपने कार्यालय से बाहर निकाल चुकी हैं. वे बाकी नेताओं की तरह पार्टी कार्यकर्ताओं के साथ घुलती-मिलती नहीं है. ’  बृजेश सिंह कहते हैं, ‘ यह सही है कि आनंदी बेन कार्यकर्ताओं के बीच अलोकप्रिय हैं. लेकिन पिछले कुछ समय से उन्हें मोदी के उत्तराधिकारी के रूप में जरूर प्रोजेक्ट किया जा रहा है. पिछले कुछ सालों में प्रदेश में मोदी के अलावा किसी नेता की अलग पहचान बनी या बनाई गई है तो वे आनंदी बेन ही हैं. बिना मोदी की तस्वीर के गुजरात में शायद ही कोई होर्डिंग ऐसा दिखाई दे जिसमें प्रदेश के किसी और नेता या मंत्री की तस्वीर हो. लेकिन कुछ समय में आनंदी ही ऐसी नेता बनकर उभरी हैं जिनकी अकेली तस्वीर के साथ कई होर्डिंग्स विभिन्न क्षेत्रों में देखे जा सकते हैं.’

कार्यकर्ताओं से कटे होने या उनके बीच अलोकप्रिय होने के अलावा आनंदी के बारे में ये भी कहा जाता है कि उनका राज्य में कोई जमीनी आधार नहीं है. पटेल कहते हैं, ‘ ऐसा लोग कहते हैं कि वे कार्यकर्ताओं के बीच लोकप्रिय नहीं है, उनका मास बेस नहीं है. लेकिन इस तथ्य का आप क्या करेंगे कि पिछला चुनाव आनंदी ने एक लाख से ज्यादा मतों से जीता था.’

नितिन पटेल
मुख्यमंत्री पद की दावेदारी में आनंदी बेन के बाद दूसरा नाम प्रदेश के 56 वर्षीय वित्त मंत्री नितिन पटेल का है. हाल ही में नितिन उस समय खास तौर पर गुजरात में चर्चा में आए जब मोदी की अनुपस्थिति में उन्होंने दो बार कैबिनेट की बैठक ली. यह मोदी के गुजरात के 12 साल के कार्यकाल में पहली बार था कि मोदी के अलावा किसी और ने कैबिनेट की बैठक ली हो. मोदी द्वारा सरकार के प्रवक्ता बनाए गए और शासन में औपचारिक तौर पर नंबर दो का स्थान रखने वाले नितिन को राजनीति और प्रशासन का काफी अनुभव है. गुजरात में भाजपा की 1995 में बनने वाली पहली सरकार में बतौर स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री काम करने वाले नितिन 2002-2007 को छोड़कर 1990 से ही राज्य विधानसभा के लगातार सदस्य हैं. फिलहाल उनके पास वित्त, स्वास्थ्य एवं चिकित्सा शिक्षा, परिवार कल्याण और परिवहन विभाग की कमान है. उनका राज्य की सबसे ताकतवर लॉबी तेल उत्पादकों पर काफी प्रभाव माना जाता है. प्रदेश के पटेल मतदाताओं के बीच अच्छी पकड़ रखने वाले नितिन पार्टी कार्यकर्ताओं में भी काफी लोकप्रिय हैं. साथ ही संघ के भी वे काफी चहेते रहे हैं. एक कमजोरी उनमें यही बताई जाती है कि पटेल समुदाय के बाहर उनकी खास पकड़ नहीं है.

सौरभ पटेल
प्रदेश के 54 वर्षीय ऊर्जा मंत्री सौरभ पटेल वह चेहरा हैं जो गुजरात में आने वाले विदेशी निवेशों का सूत्रधार माना जाता है. बेहद चर्चित और गुजरात सरकार के सबसे बड़े ब्रांड वाइब्रेंट गुजरात समिट को शुरू करने और उसके सफलता पूर्वक संचालन का श्रेय सौरभ को ही दिया जाता है. गुजरात के जिस बिजली क्षेत्र का मोदी पूरे देश में बखान करना नहीं भूलते उसमें क्रांतिकारी सुधार का श्रेय भी उन्हें दिया जाता है. गुजरात की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मार्केटिंग और विदेशी निवेश को राज्य में लाने की जिम्मेदारी संभालने वाले सौरभ पटेल हाल में अंबानी कनेक्शन के कारण काफी चर्चा में रहे.

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अमेरिका से एमबीए की पढ़ाई करने वाले सौरभ शुरू से ही मोदी के वफादार रहे हैं. 1998 से राज्य विधानसभा के सदस्य रहे सौरभ 2001 में केशुभाई पटेल के हाथों से राज्य की सत्ता जाने के बाद से ही मोदी कैबिनेट में हैं. विभिन्न मंत्रालयों के मंत्री रहे पटेल का राजनीतिक रसूख मोदी के बढ़ते कद के साथ बढ़ता गया. 2012 के विधानसभा चुनावों के बाद राज्य मंत्री से पदोन्नति देकर कैबिनेट मंत्री बनाए गए सौरभ धीरूभाई अंबानी के बड़े भाई रमणीकभाई अंबानी के दामाद हैं. वर्तमान में उनके पास ऊर्जा और पेट्रोकेमिकल, खदान एवं खनिज, कुटीर उद्योग, नमक उद्योग, प्रिंटिंग, स्टेशनरी, योजना, पर्यटन, नागरिक विमानन तथा श्रम एवं रोजगार विभाग की जिम्मेदारी है.

गुजरात में पटेल की प्रशासनिक क्षमता की तारीफ करने वालों की कमी नहीं है. लेकिन कहा जाता है कि प्रदेश की राजनीति पर उनकी कोई पकड़ नहीं है. कार्यकर्ताओं से लेकर आम जनता के बीच उनका कोई आधार नहीं है. देवेंद्र कहते हैं, ‘सौरभ की प्रशासन पर पकड़ बहुत अच्छी है लेकिन जमीनी आधार न होने के कारण इनके सीएम बनने की संभावना अभी तो धुंधली ही दिखाई देती है’.

वजूभाई वाला
संभावितों की लिस्ट में गुजरात विधानसभा के अध्यक्ष 75 वर्षीय वजूभाई वाला का नाम भी है. गुजरात विधानसभा में अभी तक सबसे अधिक बार बजट पेश करने का रिकॉर्ड (14 बार) बनाने वाले पूर्व वित्त मंत्री वजूभाई को 2012 में बनी भाजपा सरकार में वित्त मंत्री की जगह विधानसभा अध्यक्ष बना दिया गया. जब 2001 में मोदी गुजरात वापस आए और यहां आकर उन्होंने चुनाव लड़ने के लिए सीट खोजनी शुरू की तो वजूभाई ही वह विधायक थे जिन्होंने अपनी राजकोट विधानसभा सीट मोदी के लिए छोड़ी. दूसरे शब्दों में कहें तो वे भी लंबे समय से मोदी के वफादार रहे हैं. वजूभाई के एक करीबी नेता कहते हैं, ‘वजूभाई का मोदी भाई बहुत सम्मान करते हैं. वे उनके विश्वासपात्रों की सूची में हैं. यहां सबसे वरिष्ठ भी हैं. ऐसे में उनकी संभावना तो बनती ही है ’ प्रदेश के सौराष्ट्र क्षेत्र में अच्छी पकड़ रखने वाले वजूभाई की सीएम बनने की संभावना पर चर्चा करते हुए ब्रजेश कहते हैं, ‘ वजूभाई के पक्ष में बड़ी बात यह है कि उनकी स्वीकार्यता सबसे अधिक है. वे सबसे सीनियर हैं. सबसे बड़ी बात यह कि वे बहुत महत्वाकांक्षी नहीं हैं. ऐसे में वे मोदी के लिए फिट बैठते हैं.’

हालाकि 70 पार कर चुके वजूभाई की उम्र उनकी राह का सबसे बड़ा रोड़ा दिखाई देती है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘ उम्र एक फैक्टर तो है ही तभी तो पार्टी ने उन्हें मंत्री की जगह विधानसभा अध्यक्ष बनाया है. ’

बदले समीकरण कभी पुरुषोत्तम रूपाला भी मोदी के करीबी माने जाते थे
बदले समीकरण कभी पुरुषोत्तम रूपाला भी मोदी के करीबी माने जाते थे

भाजपा के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष पुरुषोत्तम रूपाला का नाम भी हवा में तैर रहा है. हालांकि एक वर्ग उनकी संभावना को खारिज करता है. देवेंद्र कहते हैं, ‘ भले ही सौराष्ट्र क्षेत्र के कुछ पटेलों के बीच उनकी पकड़ है  लेकिन रूपाला की कोई संभावना नहीं है. बहुत पहले ही ये महाशय मोदी की गुड बुक्स से बाहर हो चुके हैं.’

हालांकि अंत समय में इन नामों के अलावा किसी और नाम के पहले मुख्यमंत्री जुड़ जाने की भी संभावना से लोग इंकार नहीं करते. ब्रजेश कहते हैं, ‘मोदी का इतिहास लोगों को चौंकाने से भरा हुआ है. ऐसे में अंत समय में कोई नया व्यक्ति सीन में आता है तो उस पर हैरानी नहीं होनी चाहिए. ’

लेकिन क्या गुजरात के ये नेता सीएम की कुर्सी पर बैठने को लेकर कोई सार्वजनिक तैयारी करते हुए दिखाई दे रहे हैं ? देवेंद्र कहते हैं, ‘किसी नेता में ये हिम्मत नहीं है कि वह सरेआम सीएम बनने की अपनी इच्छा को सार्वजनिक करे. जिसने भी किया उसका करियर तो वहीं खत्म हो जाएगा है. यही कारण है कि पर्दे के पीछे ही प्लानिंग चल रही है.’

मुख्यमंत्री पद के इन दावेदारों से लेकर प्रदेश भाजपा के सभी नेताओं और कार्यकर्ताओं को पता है कि होगा वही जो मोदी चाहेंगे. देवेंद्र कहते हैं, ‘गुजरात के मामले में वही कहावत फिट बैठती है कि न खाता न बही जो मोदी कहें वही सही. मोदी जिसे चाहेंगे सीएम के पद पर वही बैठेगा और इस निर्णय को सभी को खुशी-खुशी मानना होगा.’

कुछ लोग यह भी दावा करते हैं कि मोदी के दिल्ली जाने की स्थिति में भी गुजरात भाजपा या प्रदेश सरकार में कोई बदलाव नहीं आने वाला. गुजरात में भाजपा और सरकार वैसे ही चलेगी जैसा मोदी चलाते आए हैं. जानकार बताते हैं कि दिल्ली जाने के बाद भी मोदी ही गुजरात का रिमोट कंट्रोल होंगे.  गुजरात में यह चर्चा भी बेहद गर्म है कि शायद मोदी तब तक किसी और को गुजरात का मुखिया नहीं बनने देंगे जब तक वे प्रधानमंत्री नहीं बन जाते या फिर केंद्र में किसी और बड़े पद पर काबिज नहीं हो जाते. अपनी व्यवस्था होने के बाद ही वे किसी और के बारे में सोचेंगे.

गुजरात भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष आईके जडेजा नेतृत्व के प्रश्न पर कहते हैं, ‘अभी तो यह हमारे यहां चर्चा का प्रश्न भी नहीं है. समय आएगा तो विधायकों और शीर्ष नेतृत्व से चर्चा करके फैसला लिया जाएगा.’

लेकिन क्या मोदी के चुनाव प्रचार में व्यस्त होने और पार्टी की तरफ से पीएम पद का दावेदार बन जाने के बाद क्या उन्हें किसी और को मुख्यमंत्री पद की जिम्मेदारी नहीं सौंप देनी चाहिए ? जडेजा कहते हैं, ‘इसकी जरूरत नहीं है. प्रदेश के मुखिया की भूमिका मोदी भाई बखूबी निभा रहे हैं. वे भले ही चुनाव प्रचार के लिए देश में कहीं भी हों लेकिन रात को वे वापस गुजरात चले आते हैं. यहां आकर राज्य सरकार का काम निपटाते हैं. ’

अनारक्षित सीट, ‘आरक्षित’ चुनौती

सतनामी समुदाय के लोगों का सम्मेलन. फोटो: विनय शर्मा
सतनामी समुदाय के लोगों का सम्मेलन. फोटो: विनय शर्मा

छत्तीसगढ़ की 11 लोकसभा सीटों पर  259 उम्मीदवार किस्मत आजमा रहे हैं. इनमें से तकरीबन 200 उम्मीदवार ऐसे हैं जो जीतने के लिए नहीं बल्कि चुनाव परिणामों को प्रभावित करने के लिए मैदान में उतारे गए हैं. कहा जा रहा है कि इन उम्मीदवारों को वर्ग विशेष का वोट बैंक प्रभावित करने के लिए प्रायोजितरूप से चुनावी मैदान में उतारा गया है. इस तरह से लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के लिए कई समीकरण बनाए और बिगाड़े जा रहे हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में ऐसा ही एक समीकरण सामान्य श्रेणी के उम्मीदवारों के लिए नई चुनौती बनकर उभर रहा है. यह चुनौती दे रहे हैं सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ रहे दलित और आदिवासी उम्मीदवार. वे भले ही जीत हासिल ना कर पाएं लेकिन अपने समुदाय विशेष के वोट बैंक को जरूर प्रभावित कर रहे हैं.

पिछले साल छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव नतीजे तय करने में ऐसा ही एक राजनीतिक दल अखिल भारतीय सतनाम सेना काफी असरदार साबित हुआ था. अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाले सतनामी वर्ग का प्रतिनिधि होने का दावा करने वाले इस राजनीतिक दल का गठन चुनाव के कुछ महीने पहले ही हुआ था.

राज्य में सतनामी समुदाय के चार धाम हैं. सबसे बड़ा गिरोधपुरी है. इसके बाद आगमन, भंडारपुरी और खपरी आते हैं. गिरोधपुरी और आगमन धाम के प्रमुख विजय गुरु हैं  जिनका समुदाय पर सबसे ज्यादा प्रभाव है. जबकि अखिल भारतीय सतनाम सेना का गठन करने वाले गुरु बालदास भंडारपुरी धाम के मुखिया हैं. भले ही गुरु बालदास का राजनीतिक दल अभी नया हो लेकिन उनकी राजनीतिक सक्रियता नई नहीं है. वे राज्य सरकार की नीतियों का विरोध करते रहे हैं.

पिछले साल के आखिर में हुए विधानसभा चुनाव नतीजों पर जाएं तो स्पष्ट होता है कि अखिल भारतीय सतनाम सेना की वजह से राज्य की दस सीटों पर कांग्रेस को हार का मुंह देखना पड़ा. दस सीटों का यह आंकड़ा इसलिए महत्वपूर्ण है कि भाजपा (49 सीट) और कांग्रेस (39 सीट) को मिली कुल सीटों का अंतर भी इतना ही है. इन्हीं दस सीटों के अंतर के कारण भाजपा ने तीसरी बार छत्तीसगढ़ में सरकार बनाई है. सबसे दिलचस्प बात यह है कि ये दस सीटें सतनामी बहुल सीटें थीं, जहां सतनाम सेना ने अपने उम्मीदवार उताकर कांग्रेस की जीत का सपना चूर-चूर कर दिया. विधानसभा चुनाव में सतनाम सेना ने कुल 90 सीटों में से 21 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. इन 21 सीटों पर केवल 2 सीटें ही अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सीटें थी और शेष सामान्य श्रेणी में थीं. सतनाम सेना के उम्मीदवारों के कारण सबसे ज्यादा दिक्कत कांग्रेस और बसपा को झेलनी पड़ी. वहीं दूसरी तरफ भाजपा (जिससे सतनामी समाज आरक्षण कटौती के कारण नाराज चल रहा था) को जीत हासिल हो गई. मुंगेली में सतनाम सेना के उम्मीदवार रामकुमार टंडन ने कांग्रेस उम्मीदवार चंद्रभान बारमाते के 2,304 वोट काटे, रही-सही कसर नोटा (नन ऑफ अबव) (5,025 वोट) ने पूरी कर दी. जबकि बारमाते केवल 2,045 वोट से भाजपा उम्मीदवार पुन्नूलाल मोहिले से चुनाव हार गए. कवर्धा सीट पर भी सतनाम सेना ने 2,858 वोट काटे. यही कारण रहा कि कांग्रेस के दिग्गज उम्मीदवार मोहम्मद अकबर महज 2,558 वोट से भाजपा के नए नवेले अशोक साहू से चुनाव में पराजित हो गए. फिलहाल सेना ने लोकसभा चुनाव में भी पांच सामान्य सीटों पर अपने उम्मीदवार खड़े करके कांग्रेस का खेल बिगाड़ने की तैयारी कर ली है.

यदि हम चुनावों खड़े हो रहे सामान्य उम्मीदवारों के सामने आ रही इस चुनौती के मूल की तरफ की देखें तो उसे हम देश के संविधान में पाते हैं. संविधान में किसी धर्म विशेष के लिए सीट को आरक्षित करने की पद्धति को नहीं अपनाया गया है. लेकिन जनसंख्या के अनुपात के आधार पर अनुसूचित जाति या जनजाति के लिए सीटें आरक्षित की गई हैं. 1932 में महात्मा गांधी और डॉ भीमराव अंबेडकर के बीच पूना संधि के बाद देश में अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए सीटों के आरक्षण की व्यवस्था बनी थी. दलितों को राजनीतिक तौर पर एकजुट करने के लिए डॉ अंबेडकर ने 1936 में इंडिपेंडेट लेबर पार्टी का गठन किया. जिसने 1937 में हुए सेंट्रल लेजिस्लेटिव चुनाव में 15 सीटें भी जीतीं. बाद में उन्होंने ऑल इंडिया शेड्यूल कास्ट फेडरेशन भी बनाया.

सतनाम सेना का गठन करने वाले गुरु बालदास.
सतनाम सेना का गठन करने वाले गुरु बालदास.

देश में फिलहाल 20 ऐसे दल हैं, जो अपने नामों में अंबेडकर, शोषित, दलित या रिपब्लिकन जैसे शब्दों का इस्तेमाल कर दलित या आदिवासी वर्ग के कल्याण का दावा करते हैं. चाहे मायावती के नेतृत्व वाली बसपा हो, रामविलास पासवान की लोजपा या पीए संगमा की नेशनल पीपुल्स पार्टी, रामदास आठवले की आरपीआई सभी पार्टियां दलित वर्ग को अपने पाले में खड़ा करने की कोशिश में लगी रहती हैं. आंकडों में बात करें तो हिंदुस्तान की कुल 543 लोकसभा सीटों में अनुसूचित जाति के लिए 79 और अनुसूचित जनजाति के लिए 42 सीटें आरक्षित हैं. शेष 422 सामान्य सीटें हैं. वर्तमान नियमों के हिसाब से आरक्षित सीट से सामान्य वर्ग का कोई उम्मीदवार नहीं लड़ सकता. लेकिन सामान्य सीट से किसी अनुसूचित जाति या जनजाति के उम्मीदवार के चुनाव लड़ने पर कोई पाबंदी नहीं है. गडबड़झाले की शुरुआत यहीं से होती है. संविधान की इसी छूट के कारण अमूमन देश की हर तीसरी सीट पर दलित और आदिवासी वर्ग के उम्मीदवार भी चुनाव लड़ रहे होते हैं. इससे उस सीट पर किसी विशेष जाति या समुदाय का वोट बैंक सीधे तौर पर प्रभावित होता है. इसका खामियाजा सामान्य श्रेणी के उम्मीदवार उठाते हैं क्योंकि कई बार जीत और हार का अंतर महज कुछ ही वोटों का होता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण भी हम छत्तीसगढ़ से ही ले सकते हैं. बीते साल हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का गढ़ कहलाने वाली लोरमी सीट भाजपा प्रत्याशी तोखन साहू महज 6,241 वोटों से जीते हैं. इस अनारक्षित सीट पर साहू को 52,302 वोट मिले. वहीं इलाके में अच्छी पकड़ रखने वाले कांग्रेस उम्मीदवार धरमजीत सिंह को 46,061 वोट पाने के बाद भी शिकस्त का सामना करना पड़ा. दरअसल धरमजीत सिंह के विजय रथ को अनुसूचित जाति वर्ग (सतनामी समुदाय) के उम्मीदवार गुरु सोमेश ने रोक दिया. चुनाव परिणाम में तीसरे स्थान पर रहे अखिल भारतीय सतनाम सेना के उम्मीदवार सोमेश को 16,649 वोट मिले. यह संख्या जीत-हार के अंतर से काफी ज्यादा है. सोमेश ने जो वोट काटे वे सतनामी (दलित) समुदाय के थे और इन्हें कांग्रेस का परंपरागत वोटर माना जाता है. चूंकि सोमेश खुद सतनामी थे इसलिए उनके समुदाय ने कांग्रेस के बजाय उन्हें ही वोट देना वाजिब समझा.

लोकसभा चुनाव में अपनी पार्टी के उम्मीदवारों के बारे में बात करते हुए अखिल भारतीय सतनाम सेना के राष्ट्रीय महासचिव लखमू सतनामी तहलका को बताते हैं, ‘पूरे प्रदेश में 70 से 80 लाख सतनामी निवास करते हैं. छत्तीसगढ़ में हमने पांच प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं. जिन लोकसभा सीटों पर हमने अपने उम्मीदवार उतारे हैं वे भी सतनामी बहुल सीटें हैं. अब यह अलग बात है कि वे अनारक्षित हैं.’  लखमू सतनामी जिन पांच क्षेत्रों रायपुर, बिलासपुर, कोरबा, दुर्ग और राजनांदगांव की बात कर रहे हैं, वे सभी सामान्य लोकसभा सीट हैं. दिलचस्प बात है कि सेना ने अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित प्रदेश की एकमात्र जांजगीर चांपा से भी पहले प्रत्याशी घोषित किया था लेकिन बाद में उसे मुकाबले से हटा लिया. लेकिन ऐसा क्यों हुआ? इसका कोई ठोस जवाब लखमू सतनामी के पास नहीं है. लखमू कहते हैं कि जांजगीर चांपा से खड़े सारे उम्मीदवार उनके ही समुदाय के हैं इसलिए उनकी पार्टी ने उन्हें चुनौती देना ठीक नहीं समझा. जबकि महासमुंद सीट से घोषित हुमन बंजारे के नाम वापस लेने के बारे में लखमू कहते हैं, ‘ उन्होंने दबाव में आकर अपना नाम वापस ले लिया.’ किसने दबाव बनाया? यह पूछने पर वे कहते हैं, ‘ छोड़िए ना, सबको तो पता है. हमारे साथ धोखा हो गया. अब अगली बार हम ऐसी परिस्थितियों के लिए सतर्क रहेंगे.’  ध्यान देने वाली बात है कि महासमुंद से कांग्रेस ने अजीत जोगी को टिकट दिया है. राज्य में जोगी और सतनामी समुदाय एक दूसरे के पूरक माने जाते हैं. ऐसे में सतनाम सेना के उम्मीदवार हुमन बंजारे का नाम वापस लेना, इस बात का इशारा करता है कि उन्होंने जोगी के समर्थन में हथियार डाल दिए. यदि ऐसा नहीं होता तो जोगी के लिए मुश्किल हो सकती थी क्योंकि महासमुंद सीट पर सतनामियों की अच्छी-खासी (15 फीसदी) आबादी निवास करती है.

छत्तीसगढ़ में ज्यादातर नेता अनारक्षित सीटों पर आरक्षित वर्ग के उम्मीदवारों के खड़े होने को एक समस्या की तरह देखते हैं. भाजपा की प्रदेश उपाध्यक्ष प्रभा दुबे कहती हैं ‘जब संविधान के तहत अनुसूचित जाति और जनजाति के उम्मीदवारों के लिए सीट आरक्षित की गई हैं तो उन्हें इस तरह सामान्य सीट से चुनाव नहीं लड़ना चाहिए. इससे उम्मीदवार से नाता रखने वाले समुदाय अपना वोट जाति के आधार पर देकर परिणामों को प्रभावित करते हैं. बात एक या दो सीट की हो या महज संयोग की हो तब तो ठीक है. लेकिन योजनाबद्ध तरीके से अनारक्षित सीटों से आरक्षित जातियों का चुनाव लड़ना पूरी प्रक्रिया को प्रभावित करता है.’ वहीं कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता रविंद्र शुक्ला कहते हैं, ‘ इस पर कुछ कहना ठीक नहीं होगा. लेकिन इतना जरूर है कि यह स्वस्थ लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है.’

हालांकि नेता इस मसले पर चाहे जो सोचें चुनाव आयोग की इसपर स्पष्ट और तटस्थ राय है. छत्तीसगढ़ के मुख्य निर्वाचन पदाधिकारी सुनील कुजूर कहते हैं, ‘चुनाव आयोग ने हर सीट को लेकर अपनी परिभाषा तय कर रखी है. ऐसे में यदि सामान्य सीट से कोई दलित या आदिवासी उम्मीदवार चुनाव लड़ते हैं तो इसमें हम क्या कर सकते हैं. यह तो राजनीतिक दलों या उम्मीदवारों पर निर्भर करता है कि वे सामान्य सीट से किसे टिकट दे रहे हैं.’

छोटे फिल्मकारों की बड़ी उड़ान

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रचनात्मकता बहुत बड़े अवसरों की मोहताज नहीं होती. वह सीमित संसाधनों में भी अपनी छाप छोड़ जाती है. बीती सात और आठ अप्रैल को राजधानी नई दिल्ली के ईस्ट ऑफ कैलाश स्थित आर्या ऑडिटोरियम में फर्स्ट फ्रेम अंतरराष्ट्रीय छात्र फिल्म महोत्सव के दौरान युवा फिल्मकारों की बनाई फिल्मों ने एक बार फिर इस बात को साबित किया. इस बार इस महोत्सव में आठ देशों के अलग-अलग मीडिया संस्थानों से 130 फिल्में आई थीं जिनमें से चुनिंदा फिल्मों को आखिरी दौर के लिए चुना गया. इन फिल्मों के कथ्यों की नवीनता तथा प्रस्तुतिकरण के अंदाज ने दर्शकों तथा निर्णायकों का मन मोह लिया.

इस फिल्म महोत्सव को देखते हुए हमारे समय के जानेमाने फिल्मकार अनुराग कश्यप की एक बात बार-बार याद आती रही. उन्होंने बाजार के दबाव और जनपक्षधर सिनेमा बनाने से जुड़े एक सवाल के जवाब में कहा था कि ‘जिस दिन फिल्म बनाने के साधन यानी रील और कैमरा कलम और कागज की तरह सस्ते हो जाएंगे, मैं भी एकदम अपने मन की फिल्में बनाना शुरू कर दूंगा, जिनमें किसी का हस्तक्षेप नहीं होगा.’ यह बात 100 फीसदी सच है कि बाजार के संसाधनों का इस्तेमाल करते हुए आप उसके दबाव से बच नहीं सकते हैं लेकिन यहीं पर फर्स्ट फ्रेम जैसे छोटे-छोटे आयोजन एक सार्थक हस्तक्षेप करते हैं और एक विकल्प के रूप में हमारे सामने आते हैं. ये युवाओं को प्रेरित करते हैं. अगर आप में लगन है तो आप एक साधारण कैमरे और यहां तक कि अपने स्मार्ट फोन के कैमरे के जरिए भी दुनिया के सामने अपना नजरिया पेश कर सकते हैं. स्पष्ट है कि बड़ी रचना करने के लिए महंगी कलम नहीं बल्कि बड़ी दृष्टि की आवश्यकता होती है.

मसलन अंतरराष्ट्रीय वृत्त चित्र श्रेणी में प्रथम पुरस्कार पाने वाली अजय कनौजिया की फिल्म घुमंतु, वास्तव में शादीपुर डिपो के निकट स्थित झुग्गी बस्ती कठपुतली कॉलोनी की कहानी कहती है. इस कॉलोनी में कठपुतली कलाकार, सपेरे, नट-नटिनी, बंदर-भालू नचाने जैसे पारंपरिक मनोरंजक व्यवसायों से जुड़े लोग रहते हैं. फिल्म सांस्कृतिक बदलाव के इस दौर में इन कलाकारों पर उपजे पहचान के संकट और इनकी रिहाइश से जुड़ी अनिश्चितता को बखूबी पेश करती है.

इसी तरह नेशनल स्कूल स्टूडेंट फिल्म श्रेणी में पहला पुरस्कार पाने वाली अमृतेंदु रॉय की फिल्म फुटबॉल बेहद आम लगने वाला लेकिन जरूरी सवाल उठाती है. प्रतिस्पर्धा के इस दौर में जहां हर बच्चे को पढ़ाई में अव्वल आने की होड़ में झोंक दिया जाता है वहां बच्चों के पास अपना मनपसंद खेल खेलने तक का वक्त नहीं है.

1नई दिल्ली स्थित मधुबाला इंस्टीट्यूट ऑफ कम्युनिकेशंस ऐंड इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा आयोजित समारोह का यह छठा संस्करण कई मायनों में न केवल पूर्ववर्ती संस्करणों से अलग था बल्कि खास भी था. एक तो इस समारोह में पहली बार बड़े पैमाने पर अंतरराष्ट्रीय भागीदारी सुनिश्चित की गई वहीं दूसरी ओर कोलंबो अंतरराष्ट्रीय छात्र फिल्म महोत्सव इस समारोह का फेस्टिवल पार्टनर बना. इसके तहत दोनों देशों के फिल्म प्रेमियों को लगातार पांच दिनों तक दिल्ली और कोलंबों में फिल्मों का एकसाथ लुत्फ लेने का मौका मिला. इसके अलावा फर्स्ट फ्रेम देश का पहला ऐसा छात्र फिल्म महोत्सव बन गया जिसे क्राउडफंड (आम जनता से पैसे जुटाकर आयोजन) किया गया. फिल्मोत्सव के छठे संस्करण की यूट्यूब पर लाइव स्ट्रीमिंग भी की गई. इतना ही नहीं फर्स्ट फ्रेम लाईव सर्किल और टॉक-शाप जैसे नए प्रयोग भी किए गए. इस वर्ष निर्णायक मंडल में एम्मी तथा बाफ्टा अवार्ड के निर्णायक मंडल के सदस्य रह चुके माइक बेरी जैसे दिग्गज शामिल थे, जिनके अनुभव युवा फिल्मकारों के लिए खासी अहमियत रखते हैं.

फर्स्ट फ्रेम 2014 में बेस्ट नेशनल फिक्शन श्रेणी में क्रिस्टो टॉमी की फिल्म कनयाका को पहला पुरस्कार दिया गया. वहीं कचरा बीनने वालों के जीवन पर केंद्रित स्मृति सिंह की फिल्म दिस फिल्थी लाइफ को सर्वश्रेष्ठ राष्ट्रीय वृत्तचित्र का पुरस्कार दिया गया.

इस फिल्म महोत्सव की निदेशिका प्रोफेसर एम बी जुल्का ने समारोह के महत्व को रेखांकित करते हुए बताया कि अब तक आयोजित कुल छह संस्करणों के दौरान 500 से अधिक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय फिल्मों का मंचन किया जा चुका है. इस तरह यह उभरते फिल्मकारों के लिए अपनी क्षमताओं को दुनिया के समाने लाने का एक विशिष्ट अवसर है.

इसमें कोई दो राय नहीं कि फर्स्ट फ्रेम जैसे फिल्म महोत्सव युवाओं को अपने हुनर को उजागर करने का अवसर देते हैं. यही नहीं, इनके जरिए वे प्रतिष्ठित फिल्मकारों तथा अन्य हस्तियों के संपर्क में भी आते हैं जो उनके अनुभव के दायरे को वह आयाम देते हैं जो भविष्य में उनके काम आता है.