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'यह वह छत्तीसगढ़ तो नहीं जिससे मुझे इतना गहरा लगाव रहा है'

आज, एक तरफ मैं बहुत खुश हूं और राहत की सांस ले रही हूं कि इस कठिन परीक्षा का यह हिस्सा लगभग समाप्त हो गया है. वहीं दूसरी ओर मैं बहुत बेचैन भी हूं- हमने देखा है कि राज्य का व्यवहार कितना शत्रुतापूर्ण रहा है. लेकिन हमने जिस तरह का जीवन बिताया है, न तो उसके बारे में कोई अफसोस है और न ही कुछ खो देने का एहसास. अब कम घटनापूर्ण और कम भयानक जीवन की आकांक्षा है. खैर, कुल मिलाकर यह मजेदार अनुभव रहा. बढ़िया जीवन रहा है.
बिनायक और मैंने छत्तीसगढ़ को अपना बहुत कुछ दिया है- जब इस राज्य के लिए किसी ने कुछ लिखना शुरू भी नहीं किया था उससे पहले से हम यहां काम कर रहे हैं. शोधार्थी या पत्रकार जो भी यहां आते वे सबसे पहले हमसे ही मिलते थे.

मेरा जन्म 1951 में हुआ था. मेरे पिता सेना में डॉक्टर थे, इसलिए हर तीन साल पर हमारा बसेरा बदल जाता था. हम हर जगह रहे: मैंने फरीदकोट में पंजाबी माध्यम के एक स्कूल से अपनी पढ़ाई की शुरुआत की. उसके बाद बहुत वक्त जबलपुर में गुजरा और आखिर में शिलांग में मेरी स्कूलिंग खत्म हुई. कलकत्ता के लेडी ब्रेबॉन कॉलेज में इतिहास की पढ़ाई करने के बाद अंग्रेजी में जबलपुर से एमए किया. यहीं मेरे माता-पिता बस गए. इतिहास की पढ़ाई बहुत काम की साबित हुई, इसने मेरे हर काम को एक खासनजरिया दिया. साहित्य तो मजे के लिए था. मैंने दो अमेरिकी कवियों फ़्रॉस्ट और डिकिंसन को खूब पढ़ा. फिर मैंने कुछ असल जिंदगी और सचमुच के लोगों के बारे में पढ़ना चाहा, इसलिए मैंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से समाजशास्त्र में एमफिल और पीएचडी की. मैंने 1984 में जो पीएचडी थीसिस जमा की थी वह भारत में घटते लिंगानुपात पर हुए शुरुआती शोधों में से एक था. यह 1901 से 1981 तक की भारत की जनगणना पर आधारित था.

‘ पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेरे मन में गहरी असुरक्षा का भाव रहा है लेकिन इनके बाद भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी’

बिनायक के पिता भी सेना में डॉक्टर थे और हमारा परिवार अकसर एक-दूसरे से मिलता रहता था. हम बचपन में जरूर मिले होंगे लेकिन सही मायने में हमारी मुलाकात युवावस्था में जबलपुर में हुई. एक व्यक्ति के तौर पर बिनायक बहुत आकर्षक तो हैं ही, उनका व्यक्तित्व भी उतना ही प्रभावशाली है. वयस्क होने पर जब मैं उनसे पहली बार मिली तो वे बहुत मृदुभाषी और नम्र लगे थे. मैंने जल्दी ही यह महसूस कर लिया कि वे एक लोकतांत्रिक व्यक्ति हैं, जिनके साथ रहा जा सकता है. वे न तो जिद्दी लगे, न ही पुरुष सत्ता के पक्षधर. उनके साथ कोई भी आगे बढ़ सकता था. मुझे उनके साथ सहज होने में ज्यादा वक्त नहीं लगा. उन दिनों हम एक-दूसरे को चिट्ठियां लिखा करते थे और ट्रंक कॉल बुक करके आपस में बात करते थे. 21 वर्ष की छोटी उम्र में शादी कर लेना अजीब तो लगा, लेकिन हमने महसूस किया था कि हम अपनी जिंदगी साथ मिलकर, साथ रहकर बनाना चाहते थे.

मेरी छोटी बहन की मृत्यु क्रॉन की बीमारी की वजह से 13 वर्ष की अवस्था में ही जबलपुर में हो गई थी. ऐसी घटना एक मध्यवर्गीय परिवार को सदमे में डाल देती है. मेरे कोई और भाई-बहन भी नहीं थे और उसकी मृत्यु ने हमें बुरी तरह झकझोर दिया था. मेरी और बिनायक की दादी के कुल 8-9 बच्चे थे और दोनों ने ही उनमें से एक या दो खोया था, लेकिन हमारे माता-पिता की पीढ़ी के लिए यह वैसा नहीं था. अब सोचने पर मुझे लगता है कि शायद मेरे एक हिस्से ने सोचा होगा कि शादी करके इन सब चीजों से पार पा लिया जाए.

तमिलनाडु के वेल्लोर में बिनायक ने जब रेसिडेंसी का प्रशिक्षण शुरू किया, तब मैंने पहली बार चेन्नई में समंदर देखा था. यह हैरान कर देने वाला नजारा था. मैंने वहां के एक स्कूल में दो साल के लिए अंग्रेजी पढ़ाई जो बहुत मजेदार अनुभव था, हालांकि मैंने इसके लिए कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया था. सारे उम्मीदवारों में उन्होंने मुझे बस इसलिए तरजीह दी थी कि उन्हें लगा कि तमिल नहीं जानने की वजह से मैं अधिक गंभीरता से पढ़ाऊंगी. बिनायक और मैं दोनों साथ ही 1978 में दिल्ली के जेएनयू में पीएचडी के लिए गए, लेकिन वे वहां टिक नहीं सके क्योंकि वे जमीनी काम करने के लिए व्यग्र थे. उनके पास एक तो शोध के लिए जरूरी धैर्य नहीं था और दूसरा सीनियर फैकल्टी से भी उनकी खटपट थी. आखिरकार उन्होंने साल भर के भीतर ही यूनिवर्सिटी छोड़ दी जबकि मैं वहां टिकी रही.

‘ बहुत सारे बुद्धिजीवी हमसे मिलने आते थे. हमें एहसास था कि हम एक दीर्घकालिक और समतावादी समाज बनाने की प्रक्रिया में शामिल हैं. छत्तीसगढ़ी समाज ऊर्जा से भरा हुआ था’

दिल्ली में मैं बहुत सारी चीजों से रूबरू हुई, इनमें से सबसे अहम था महिला आंदोलन का अनुभव. मानुषी और सहेली जैसे समूह थे. आपातकाल तब खत्म ही हुआ था. नोआम चोम्स्की और एबी वाजपेयी के रूप में हमें बेहतरीन वक्ता मिले. इस वक्त का मुझ पर बहुत प्रभाव पड़ा. आईसीसीआर (भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद) द्वारा वुमन स्टडीज के लिए स्कॉलरशिप हासिल करने वाली मैं पहली छात्र थी. बाद में इसी के संबंध में मैंने होशंगाबाद में फील्ड वर्क करना शुरू किया था. बिनायक छत्तीसगढ़ के दल्ली-राजहरा जहां खदान की दो परियोजनाएं शुरू होनी थीं, में अस्पताल बनाना चाहते थे. यहां वे 1981 से काम कर रहे थे. मैंने 1984 में उनके साथ फुल-टाइम काम करना शुरू कर दिया. छत्तीसगढ़ी भाषा और वहां की सभ्यता को मैं बिनायक की तुलना में ज्यादा आसानी से समझने लगी थी. भाषाओं में मैं हमेशा से अच्छी रही हूं.

वह जगह और दौर, दोनों बहुत लुभावने थे. मैं हमेशा नये रिश्ते और नयी जगहों को तलाशने में आगे रही हूं. जोखिम उठाना मुझे अच्छा लगता है. तब ऐसा लगता था मानो सारी दुनिया छत्तीसगढ़ की तरफ उमड़ रही हो और सारे  झोलेवाले भाई वहीं बस गए हों. यह एक सामाजिक अनुभव था. बहुत सारे बुद्धिजीवी हमसे मिलने आते थे. हमें एहसास था कि हम एक दीर्घकालिक और समतावादी समाज बनाने की प्रक्रिया में शामिल हैं. छत्तीसगढ़ी समाज ऊर्जा से भरा हुआ था. मध्य प्रदेश, जहां मैं पली बढ़ी, में तब भी घूंघट और लिंगभेद कायम थे. मुझे छत्तीसगढ़ से प्यार हो गया. यहां की औरतें प्रेरणास्रोत थीं. वे बहुत मजबूत और सुलझी हुई थीं. यहां मजदूर यूनियन में 5,000 महिला सदस्य थीं. मैंने दुर्गा बाई जैसी महिलाओं को दोस्त बनाया जो खदानों में काम करती थीं और किसी लिहाज से पुरुषों से कमतर नहीं थीं. वहां लोगों का संगठन भी जबर्दस्त था.

सही वक्त पर सही जगह होने के मामले में मैं बहुत भाग्यशाली रही हूं. ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में सभी वर्गों के लोगों से मेरे अच्छी मित्रता रही है. मैं अपने दोस्तों के पास जाकर उनके पेड़ से पके हुए सेब तोड़ सकती हूं क्योंकि मुझे उसके पकने का सही समय मालूम है. ग्रामीण भारत में रहना चुनौतियों से भरा है जैसे शौचालयों का न होना, लेकिन ये सब मामूली दिक्कतंे हैं. अब जैसे-जैसे उम्र बढ़ रही है और गठिया की शिकार हो रही हूं, नयी दिक्कतें दिख रही हैं. तब मुझे लिखने के लिए बिजली की जरूरत थी क्योंकि मुझे हमेशा बच्चों के सो जाने के बाद रात में लिखने की आदत थी.

मेरे और बिनायक के बीच एक लड़ाई थी. जब 1984 में मैं दल्ली-राजहरा में रहने आई थी, वे एक मजदूर परिवार के साथ रह रहे थे. मैं इसे रहने के स्थायी तरीके के बतौर स्वीकार नहीं कर सकती थी- मैं इस तरह नहीं रहना चाहती थी. वह परिवार हमें बहुत चाहता था, लेकिन आप किसी और के घर में अनिश्चितकाल के लिए नहीं रह सकते हैं. आखिरकार हमने एक फ्लैट में रहना शुरू किया. बिनायक बहुत जुनूनी हैं लेकिन वे कई बार आगे की चीजें नहीं सोचते. मैं उनसे अधिक सचेत रहती हूं, और आगे की सोचकर चलती हूं.

1988 में हम रायपुर चले गए जहां मैंने लोगों के विकास पर केंद्रित एनजीओ ‘रूपांतर’ शुरू किया. नगरी-सिहावा क्षेत्र के गोंड और कमर जनजातियों के साथ मिलकर हमने काम शुरू किया, जो बांध परियोजनाओं की वजह से विस्थापित होकर जंगल में रहने को विवश थे. वहां कोई स्कूल, कोई सामाजिक संस्था नहीं थी. बिनायक स्वास्थ्य से जुड़े कार्यों में रहते जबकि मैं बच्चों के लिए पढ़ाई-लिखाई की तैयारियां करती. वह समाज बहुत ही सहयोगी रुख वाला था. कमर जनजाति के बच्चे शिक्षा के बदले कुछ न कुछ बनाकर देने की पेशकश करते थे. आदिवासी समुदाय का चीजों को देखने का नजरिया बिलकुल अलग था लेकिन उनमें उत्साह देश के दूसरे हिस्सों के लोगों से कम नहीं था. और उनमें एकता थी. शोध करने, लिखने और परामर्श देने का मेरा काम जारी रहा. मैंने दो किताबें लिखीं : वुमन पार्टिसिपेशन इन पीपल्स स्ट्रगल और माइग्रेंट वुमन ऑफ छत्तीसगढ़. वर्ष 2004 से ही मैं वर्धा (महाराष्ट्र) के महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय में हिंदी माध्यम में वुमन स्टडीज पढ़ाने के लिए जाती रहती थी और 2006 में मैं वहीं रहने भी लगी. बिनायक छत्तीसगढ़ में ही रहे जहां माहौल गरम होता जा रहा था, लोकतांत्रिक जगह लगातार सिकुड़ रही थी. 2005 में सलवा जुडुम अस्तित्व में आ चुका था और यह सब सहज नहीं था. वक्त बदला है. हमारी बेटियों का जीवन हमसे बिलकुल अलग है. प्रणिता चेन्नई में सिनेमेटोग्राफर है जबकि अपराजिता मुंबई में बीए कर रही है. वे अपनी जिंदगी अपने हिसाब से बनाएंगी.

छत्तीसगढ़ मेरे लिए हमेशा प्यारा रहा है. यहां के लोग बहुत ही जीवंत हैं प्रेम और तलाक जैसे मुद्दों पर उनका आधुनिक नजरिया आकर्षित करता है. लेकिन यहां सार्वजनिक चर्चा मायूस करने वाली रही है. इनमें अज्ञानता और अहंकार का मिला-जुला रूप दिखता है जो बहुत घातक है. छत्तीसगढ़ी मीडिया यहां के स्थानीय लोगों की बड़ी सोच को नहीं दिखाता. इसका दृष्टिकोण बिलकुल संकुचित है. पिछले वर्ष 24 दिसंबर की सुबह जब बिनायक को उम्र कैद की सजा सुनाई गई थी तो मुझे इस पर यकीन नहीं हुआ. मुझे लगा कि यह सच नहीं हो सकता. लेकिन फिर मुझे लगा कि जब लोग 10-20 साल बाद इस केस का विश्लेषण करेंगे तो सच सामने आ जाएगा. बाद में जब मेरा नाम भी कोर्ट में घसीटा गया तो मुझे खुद का अस्तित्व भी खतरे में दिख रहा था. मुझे बुरे सपने आते थे, माइग्रेन से मैं परेशान थी. ऐसा दौर भी आया जब मैंने पांच-पांच रातें लगातार बिना सोए गुजार दीं. इस सबके बावजूद मुझे अपने बच्चों के साथ एक तथाकथित सामान्य कामकाजी जीवन जीना था.

पिछले कुछ वर्षों के दौरान मेरे मन में गहरी असुरक्षा का भाव रहा है, लेकिन इनके बाद भी मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी थी. मुझे हमारे सही होने का दृढ़ विश्वास था. सच हमारे पक्ष में था. और वकील, मीडिया का एक खास हिस्सा, पुराने दोस्त और हमारा परिवार, ये सब हमारे साथ रहे. लोगांे का समर्थन तो था ही. मैं फ़्रॉस्ट और डिकिंसन को पढ़ती रही और दोस्तों को भी इसमें भागीदार बनाती रही. मैं कभी हार मानने जैसा महसूस नहीं करती थी. मैं अभी भी अमन की तलाश में हूं लेकिन इसमें वक्त लगेगा. 2007 से पहले मेरा ध्यान छत्तीसगढ़ और वहां के महत्वपूर्ण मुद्दों जैसे विस्थापन आदि पर हुआ करता था. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में मैंने संवैधानिक मूल्यों वाले व्यापक फलक केे मुद्दों को भी देखा-समझा है. संविधान कई वादे करता है, लेकिन इसके द्वारा दिए गए ज्यादातर अधिकारों की जड़ें जमीन पर नहीं दिखतीं.

बौद्धिक और स्थानिक दोनों ही दृष्टिकोण से चीजों को देखने का मेरा नज़रिया अब बड़ा हुआ है. मैंने भारत की इस विषमता को भी अच्छे से समझा है कि यह ‘एक भारत’ नहीं है. चाहे मीडिया हो, अदालतें हों या फिर सरकार हो, सब बंटे हुए हैं. हमारे जीवन में राज्य की भूमिका पर दोबारा बहस होनी चाहिए. हम जितने लोकतांत्रिक तरीके से यह बहस करेंगे, हमारा भविष्य उतना ही अच्छा होगा. उदाहरण के लिए अगर अन्ना हजारे की राजनीति को किनारे भी रखकर देखिए तो लोकपाल बिल को कितना भारी समर्थन मिला.

इन कठिन वर्षों ने मुझे विश्वास भी दिया और अनिश्चितता भी. बहुतों पर से मेरा भरोसा उठा. अब जब भी मैं किसी से मिलती हूं तो उसे परखती हूं और उसी हिसाब से उससे बात करती हूं. मेरे लिए यह भी बहुत तकलीफदेह है कि मुझे यह नहीं पता कि मेरा घर अब कहां है. इस सदमे से अब तक मैं नहीं उबर पाई हूं कि मैं विस्थापित हूं, अब खुद को किसी स्थान विशेष का नहीं बता सकती.

समझना मुश्किल है कि उस छत्तीसगढ़ का क्या हुआ जिससे मैं प्यार करती थी. इस जगह के लिए मेरे मन में बहुत ममता थी. मुझे अब भी यहां के लोगों से प्यार है, लेकिन अब यह राज्य पहले से अलग है. हमारे साथ जो भी हो रहा था उसे अखबार वाले चटखारे ले-लेकर हेडलाइनों में छाप रहे थे. दुर्भावनाओं के ऐसे कई उदाहरण मुझे दिखे. मैंने रायपुर में बिनायक को फांसी पर चढ़ाने की मांग करने वाले पोस्टर देखे. ये वह छत्तीसगढ़ नहीं है, जिसे मैं प्यार करती थी. मैं उम्मीद करती हूं कि मैं उस छत्तीसगढ़ को दुबारा ढूंढ़ सकूं.

आज भी बिनायक के अंदर मौजूद लोकतांत्रिक व्यक्ति के लिए मेरे मन में सम्मान है. पिछले वर्ष 24 दिसंबर को जब मैंने सुना कि उन्हें उम्रकैद की सजा सुनाई गई है तो मैंने महसूस किया कि अभी बहुत कुछ था जो हम आपस में बांट सकते थे, बहुत कुछ था जो मैं उन्हें कहना चाहती थी पर नहीं कह पाई. हमारे पास एक-दूसरे के साथ मिलकर अभी देखने-जानने के लिए बहुत सारी चीजें हैं और मैं इसकी राह देख रही हूं.

(इलिना सेन चर्चित मानवाधिकार कार्यकर्ता बिनायक सेन की पत्नी हैं. यह लेख गौरव जैन से उनकी बातचीत पर आधारित है)

डाकू गब्बरा सिंह : पं नेहरू के जन्मदिन का तोहफा

फिल्म शोले में गब्बर सिंह का किरदार और यह डायलॉग कि जब पचास-पचास कोस दूर कोई बच्चा रोता है तो उसकी मां कहती है… वास्तव में उस असली गब्बर या गब्बरा सिंह से प्रेरित था जिसका चंबल में पचास के दशक में आतंक था. गब्बरा (गब्बर सिंह के साथी अपने सरदार को इसी नाम से पुकारते थे) का जन्म मध्य प्रदेश के भिंड में एक गरीब गुज्जर परिवार में हुआ था और बीस साल की उम्र में वह कुख्यात डाकू कल्याण सिंह के गुट में शामिल हुआ. लेकिन जल्दी ही उसने खुद अपना गुट बना लिया. चंबल में अपनी धाक जमाने के लिए गब्बरा ने कई गांवों में बेवजह हत्याएं की, अपहरण किए और ताबड़तोड़ डकैतियां कीं. गब्बरा ने अपना आतंक कायम करने के लिए एक और रणनीति अपनाई. कहा जाता है कि वह ग्रामीणों को पकड़कर उनकी नाक काट देता था और उसने अपने जीवनकाल में दर्जनों लोगों की नाक काटी थी. इन घटनाओं का असर यह हुआ कि इस डाकू का नाम चंबल के साथ-साथ दिल्ली में केंद्र सरकार के लिए भी क्रूरता का पर्याय बन गया और तब प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने खुद मध्य प्रदेश पुलिस प्रमुख केएफ रुस्तम को इस डकैत का सफाया करने की योजना पर काम करने को कहा था.

कहा जाता है कि 1957 में गब्बरा ने एक गांव के 22 बच्चों को लाइन में खड़ा करके सिर्फ इसलिए गोली मार दी थी कि उसे शक था कि गांव के लोग उसकी मुखबिरी करते हैं. इस डकैत पर राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश की तत्कालीन सरकारों ने कुल पचास हजार का इनाम घोषित किया था.

इस डकैत के आतंक का अंत 1959 में हुआ जब मध्य प्रदेश पुलिस के एक विशेष दस्ते ने एक मुठभेड़ में उसे मार दिया. यह मुठभेड़ 13 नवंबर को हुई थी और इसकी सूचना देते हुए रुस्तम ने नेहरू को संदेश दिया था कि यह उनके जन्मदिन का तोहफा है.                              

पवन वर्मा

पहले हमाम, अब सरेआम

धृतराष्ट्र की आज्ञा पाकर संजय ने आंखों देखा हाल बताना शुरू किया-

‘महाराज, कदाचित देश के गौरव की रक्षा हेतु एक लाडो ने निर्वस्त्र होने की घोषणा कर दी है. बस शर्त यह है कि भारत विश्वकप जीत जाए. ‘फिर!’ धृतराष्ट्र ने उत्सुकता से पूछा. ‘महाराज, उस लाडो के त्याग-समर्पण के प्रताप से भारत विश्वकप जीत भी गया.’
धृतराष्ट्र बोले, ‘उस लाडो के विषय में बताओ.’ ‘उसके बारे में क्या बताऊं? कल तक तो उसे कोई जानता भी न था.’ धृतराष्ट्र गुस्से से बोले, ‘अरे मूर्ख, क्या वह निर्वस्त्र हुई?’ ‘नहीं महाराज.’ संजय के बोल में उदासी के स्वर थे. ‘फिर उसने ऐसा क्यों कहा?’ ‘क्योंकि महाराज, भारतवर्ष इस समय में नंगई जोरो पर है. नंगई को देशभक्ति का पर्याय बना दिया जा रहा है. इस समय दृश्य यह है कि चमकने के लिए अच्छे से अच्छे नंगे होने को तैयार बैठे हैं. और मजे की बात यह कि नंगे होने की वे भी घोषणा कर रहे है जिनका वस्त्र पहनना न पहनना एक बराबर ही है.’ इतना कह कर संजय हंसने लगे. घृतराष्ट्र को बात पूरी तरह से समझ में नहीं आई. बोले, ‘संजय वह सब तो ठीक है, परंतु कोई इस प्रकार से ऐसे खुल्लमखुल्ला निर्वस्त्र होने की घोषणा क्यों करेगा?’ ‘महाराज, इसके दो प्रमुख कारण हैं. पहला, नंगई इतनी बढ़ गई है कि अब कइयों को लगता है कि यह फैशन नहीं अपनी संस्कृति है. दूसरा, मीडिया को अपने हाथों का खिलौना बनाकर खेलने के लिए.’ ‘तुम्हारा दूसरा कारण मैं समझा नहीं! सविस्तार बताओ संजय’, घृतराष्ट्र ने अपनी दाढ़ी खुजलाते हुए कहा.

‘महाराज, आज भारत में टीआरपी नाम का एक जीव पैदा हो गया है. यह जो न करवाए कम है.’ धृतराष्ट्र को संजय की बात रोचक लगी, बोले, ‘संजय, उदाहरण सहित व्याख्या करो.’ संजय चहकते हुए बोले, ‘महाराज, जैसे आप कहिए कि अर्जुन ने तो मछली की आंख की पुतली पर निशाना लगया था, जबकि आप चींटी या मक्खी के आंख की पुतली का निशाना लगा सकते हंै.’ ‘संजय वाणी पर संयम रखो. तुम जानते हो कि मैं देख नहीं सकता हूं.’ धृतराष्ट्र  ने संजय को डांट लगाई. संजय अपनी सफाई में बोले, ‘महाराज, मैं तो एक दृष्टांत दे रहा था बस. महाराज, यही मीडिया फिर आपकी बात को यह कहते हुए चौबीसों घंटा दिखाएगा कि महाराज सुर्खियों में आने के लिए ऐसा कह रहे है.’ ‘कमाल है, मालूम है तब भी दिखाएगा!’ धृतराष्ट्र ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा. ‘जी महाराज, यह है कमाल टीआरपी के कीड़े का.’

धृतराष्ट्र ने जम्हाई लेते हुए बोले, ‘इस प्रकरण को यहीं छोड़ो. कुछ और बताओ!’ संजय थोड़ी देर सोचने के बाद बोले, ‘महाराज, जिस लाडो ने सरेआम स्वयं को निर्वस्त्र करने को कहा था, अब उसका करियर सफलता की राह पर कुलांचें भर रहा है.’ धृतराष्ट्र चौंक कर बोले, ‘संजय, ऐसे कैसे सिर्फ नंगे होने की बात करके कोई रातो-रात ही पूनम की चांद की तरह इस देश के आसमान पर चमक सकता है?’ संजय मुस्कुराते हुए बोले, ‘नेत्र पा जाने भर से क्या दृष्टि भी मिल जाती है महाराज?’ धृतराष्ट्र ने संजय की पीठ थपथपाई और शयनकक्ष की ओर चल पडे़. जाते-जाते बोले, ‘तुम्हारा आंखों देखा हाल सुनकर, सच कहूं तो आज जीवन में पहली बार मुझे अपने न देख पाने पर अफसोस नहीं हो रहा है. प्रतीत होता है कि देश में दिनों-दिन आंखवाले तो बढ़ते जा रहे है, पंरतु दृष्टिवालों का लोप होता जा रहा है.’

– अनूप मणि त्रिपाठी

जिसने धारावाहिकों का चेहरा बदल दिया

2001 में क्योंकि सास भी कभी बहू थी  के मिहिर विरानी की मौत हो गई. एक टीवी धारावाहिक में किसी किरदार की मौत कोई बहुत बड़ी घटना नहीं होनी चाहिए थी, लेकिन यह थी. देश भर में महिलाओें ने रो-रोकर भावनाओं का सैलाब ला दिया. अभिनेता अमर उपाध्याय, जो धारावाहिक में मिहिर की भूमिका में थे, को अनगिनत फोन आए यह पता करने के लिए कि क्या वे जिंदा हैं. इसके बाद जो हुआ वह भारतीय टीवी मनोरंजन उद्योग की फिर एक नयी घटना बन गई. मांग और आपूर्ति वाला नियम यहां लागू हुआ और धारावाहिक में मिहिर का पुनर्जन्म हो गया. उस समय आम दर्शकों के लिए बस यही राहत की बात थी कि वे अपना पसंदीदा किरदार दुबारा देख रहे थे. उधर, टीवी मनोरंजन उद्योग इस बात पर जश्न मना रहा था कि भारतीय मध्यवर्ग पर उसकी खासी पकड़ बन चुुकी है. और इन हलचलों के लिए जिम्मेदार और क्योंकि सास भी… के पटकथा लेखक राजेश जोशी को इस बात का एहसास हो चला था कि वे मिहिर के पुनर्जन्म के जरिए टीवी धारावाहिकों का एक नया दौर शुरू कर रहे हैं. जोशी के लिए बदलाव की यह घड़ी संयोग से मिली सफलता भर नहीं थी. उसके बाद उन्होंने कसौटी जिंदगी की, कुसुम, कोई अपना सा  और बंदिनी लिखा.

अपने कांदीवली स्थित घर में चमड़े की आराम कुर्सी पर बैठे जोशी फिलहाल पवित्र रिश्ता के साथ एक बार फिर नये नियम लिख रहे हैं. अपने भुलेश्वर में बिताए चॉल के दिनों से प्रेरित होकर गरीब युगल की प्रेम कहानी. इसमें न भव्य सेट हैं, न भड़कीले कपड़े और न ही रईस परिवार फिर भी आज इसकी टीआरपी सर्वाधिक 6.1 है.  इंडियन नेशनल थिएटर के सह-संस्थापक मनसुख जोशी के 50 वर्षीय बेटे ने कभी सोचा भी नहीं था कि वे धारावाहिक लेखक बनेंगे. जोशी बताते हैं, ‘घर में लेखन के लिए माहौल था लेकिन मैं एक फार्मा कंपनी के साथ काम कर रहा था.’ इसी बीच अगस्त, 1999 में एक कार दुर्घटना ने उन्हें तीन महीने के लिए बिस्तर पर ला दिया. यही वह वक्त था जब उन्होंने लिखने की शुरुआत की और क्योंकि सास भी… के लेखक बन गए. उस दौर को याद करते हुए जोशी कहते हैं, ‘विपुल मेहता, जो क्योंकि… में मेरे  लेखक थे, ने सुझाव दिया कि मैं लेखन में अपना हाथ आजमाऊं. मेरे पास करने के लिए कोई और काम नहीं था, इसलिए मैंने हां कर दी. मैंने फैसला किया कि मैं कामयाब हुआ तो लेखन जारी रखूंगा, और सफल रहा.’

मेरे धारावाहिकों की तरह ही मेरा परिवार के लिए भी सख्त नैतिक नियम है. अगर मेरा बेटा कभी लिव-इन-रिलेशनशिप में रहना चाहेगा तो मैं उसे अपनी जिंदगी से बेदखल कर दूंगा

जोशी की कामयाबी को आसानी से समझा जा सकता है. वे एक ऐसे लेखक हैं जो सादे संवादों में यकीन रखते हैं. उनके लिखे धारावाहिकों में संयुक्त परिवार होते हैं. उनके अपने गुजराती बैकग्राउंड से प्रेरित और उनके केंद्रीय महिला पात्र- विनम्र लेकिन मजबूत, सख्त लेकिन प्यार करने वाले- उनकी अपनी मां और पत्नी जैसे. ‘मेरे घर में मेरी मां का दबदबा था. वे हमें मारती थीं लेकिन प्यार भी करती थीं. जब मैं युवा था तो अपनी मां के पूर्वाभासों पर विश्वास रखता था, अब अपनी पत्नी के. मैं अकसर वही करता हूं जो वह कहती है’, मुस्कुराते हुए राजेश बताते हैं, ‘यह स्वाभाविक है कि मेरे चरित्र उनसे मिलते-जुलते होते हैं. लोगों को कहानी में थोड़े झटके चाहिए होते हैं. जरूरी नहीं कि वे हमेशा जनता को पसंद ही आएं. परंतु लेखकों को प्रयोग करने ही पड़ते हैं. पवित्र रिश्ता में मुख्य चरि­त्र शादी करते हैं, तलाक लेते हैं और फिर शादी करते हैं. एक चरित्र अपना करियर बनाने के लिए गर्भपात करवाती है. मैं समय के साथ चलता हूं.’

बातचीत के दौरान यहीं एक विरोधाभास धीरे से जगह बनाता दिखता है. राजेश आजज के समय की महत्वाकांक्षी मध्यवर्गीय महिला की प्रशंसा करते हैं, साथ यह भी चाहते हैं कि वह एक आदर्श बहू के गुण तुलसी या अर्चना से ग्रहण कर ले. तो क्या वे उन्हें स्कैंडल में फंसाकर ही प्रगतिशील दिखाना चाहते हैं. राजेश कहते हैं, ‘मेरे किरदार अपनी सच्चाई खुद बोलते हैं.’ और जब आप इस आधार पर उनसे जुड़ी अपनी सोच बदलने ही वाले होते हैं तो वे कहते हैं, ‘मेरा मतलब है वे आधुनिक और पारंपरिक दोनों हो सकते हैं.’ एक और बात जो राजेश की कहानियों को कामयाब बनाती है वह है उनके किरदारों का अच्छे और बुरे के बीच मौजूद एक बारीख रेखा पर आगे बढ़ना.

बातचीत के बीच में ही उनका 22 साल का बेटा इस कमरे में दाखिल होता है. यहां राजेश कुछ समय के लिए लेखक से तुरंत पिता की भूमिका में आ जाते हैं और उसे जेबखर्च के लिए कुछ रु देते हैं. उसके जाने के बाद वे कहते हैं,  ‘मेरे धारावाहिकों की तरह ही मैंने अपने परिवार के लिए भी सख्त नैतिक नियम बनाए हैं. अगर मेरा बेटा लिव-इन-रिलेशनशिप में रहना चाहेगा तो मैं उसे अपनी जिंदगी से बेदखल कर दूंगा, क्योंकि वह लड़की के प्रति प्रतिबद्ध नहीं होगा. मेरी पत्नी ने जब मुझसे शादी की तब मैं 60 रु महीना कमाता था, और अब छह अंकों में. आज वह मेरी आत्मा है, जीवन है. मैं चाहता हूं मेरा बेटा भी किसी के लिए ऐसा ही महसूस करे.’

रिश्तों के अलावा कर्म और भगवान में आस्था राजेश के धारावाहिकों के दो मजबूत स्तंभ हैं. परंतु यहां वे फिर हमें आश्चर्यचकित करते हैं. वे पिछले कई महीनों से मंदिर नहीं गए हैं. ‘भगवान हर जगह है. जब आप अपनी मां से आर्शीवाद लेते हो तो वह भगवान का रूप हो जाती है. और कर्म की तो निश्चित ही अपनी महत्ता है. मैंने कई साल पहले एक व्यक्ति से कुछ पैसे लिए थे और उसे लौटाना भूल गया. हाल ही में , मैंने उसे उस रकम का पांच गुना लौटाया है!’ राजेश के धारावाहिकों से स्टार बन चुके कलाकार भी उनका शुक्रिया अदा करना नहीं भूलते हैं. पवित्र रिश्ता के सुशांत सिंह राजपूत कहते हैं, ‘मानव का किरदार तो मेरे लिए एक पैमाने के समान हो गया है. मैं हमेशा उसके हैंगओवर में रहता हूं.’ विडंबना देखिए कि हाल ही में वे मुंबई में एक झगड़े में फंस गए जो अखबारों की उन सुर्खियों केे साथ खत्म हुआ कि सुशांत मानव जैसे तो बिलकुल नही हैं.

ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि एकता कपूर, जैसा कि हमने सुना है बड़ी साहसी और मजबूत महिला हैं, कैसे अर्चना और जोशी की दूसरी आत्मत्यागी नायिकाओं जैसे चरित्रों वाली महिलाओं के लिए राजी हो जाती हैं. जोशी कहते हैं, ‘एकता को पता है कि महिलाओं के कई आयाम होते हैं. उनमें अर्चना जैसा कुछ नहीं है परंतु वे जानती हैं अर्चना हमारे समाज में मौजूद है. वे मध्यवर्गीय समाज के आकलन में बड़ी दक्ष हंै. एकता एक व्यवसायिक महिला हैं, इसलिए उनको मजबूत होना होगा. लेकिन अर्चना कोमल हो सकती है.’ राजेश हाल ही में लेखक से निर्माता भी बन गए हैं. वे जी चैनल पर प्रसारित संस्कार लक्ष्मी  के साथ इस नयी भूमिका में हैं. यह धारावाहिक एक सुंदर महिला की कहानी है जो अपने पति के धनी परिवार के साथ मुंबई आती है और हरेक सदस्य को अच्छे संस्कार सिखाना चाहती है. अगर इस धारावाहिक के बारे में लोगों की राय है कि यह क्योंकि… का ही नया ट्रीटमेंट है तो जोशी इसकी परवाह नहीं करते. वे कहते हैं, ‘मैं यह साबित करना चाहता हूं कि जो लड़किया जींस पहनती हैं उनमें भी नैतिकता हो सकती है. संस्कारी होने का मतलब यह नहीं है कि वे अपना सिर ढककर रहें. इसका मतलब है सबको खुश रखना. मेरे दूसरे शो की तरह यह धारावाहिक भी जल्दी ही टेलीविजन की दुनिया में एक नया बदलाव लाएगा.’  

विजय का विश्वास

1971, लॉर्ड्स का मैदान. भारत-बनाम इंग्लैंड टेस्ट. पहली पारी में इंग्लैंड पर बढ़त लेने के बाद भारत को दूसरी पारी में जीतने के लिए 38 रन चाहिए थे. दो विकेट उसके हाथ में थे जिनमें फॉर्म में चल रहे एकनाथ सोल्कर भी थे. याद नहीं कि कमेंटेटर कौन था पर बेंगलुरू में अपने मर्फी रेडियो सेट के आसपास बैठे हम लोगों को उसने सूचना दी कि बारिश शुरू हो गई है. हमारे यहां हजारों लोगों ने सड़कों पर निकल कर खुशियां मनानी शुरू कर दीं. जनता इंद्र देवता से प्रार्थना कर रही थी कि बारिश जारी रहे. हमारी मुराद पूरी हुई. मैच बारिश में धुल गया. अगले दिन अखबारों ने एक कार्टून प्रकाशित किया जिसमें लंदन में एक बस ड्राइवर बस चलाने से इनकार कर रहा था क्योंकि उस बस का रूट नंबर 38 था. हमें यह देखकर मजा आया. हार टल जाने की वजह से हमारे चेहरे खिल उठे थे. वह दौर ऐसा था कि हार से बच जाना ही सबसे बड़ी जीत थी.

इसके कई साल बाद तक भी हालात ऐसे रहे. मुझे याद है कि ऐसे ही किसी एक मैच में ड्रेसिंग रूम में बैठे कप्तान अजित वाडेकर नाचे तो नहीं पर उन्होंने बारिश का शुक्रिया जरूर अदा किया था. खिलाड़ियों, मीडिया और प्रशंसकों, सभी का मानना था कि अगर बारिश नहीं होती तो भारत हार जाता. चार दशक बाद लगता है जैसे एक चक्र पूरा हो चुका है. इस विश्वकप के फाइनल में 31 रन पर अपने दो सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज गंवाने के बाद 70 का दौर देख चुके हमारी पीढ़ी के लोग जहां हार तय मान बैठे थे वहीं टीवी के सामने डटी नौजवान पीढ़ी का हाल इससे बिलकुल उलट था. मेरे बेटे ने तो शर्त लगाते हुए कहा कि भारत न सिर्फ जीतेगा बल्कि बेहद आसानी से जीतेगा. मेरा बेटा तेंदुलकर के जमाने का क्रिकेट प्रशंसक है- आत्मविश्वास से ओत-प्रोत और अपनी क्रिकेट टीम में पूरा भरोसा रखने वाला. वह अपने उस पिता से बिलकुल जुदा है जिसके जेहन में अनिश्चितता और मौके पर आकर चूक जाने की तमाम यादें भरी पड़ी हैं. संभावनाओं के बावजूद मौके पर ढह जाने की यादें.

भारतीय क्रिकेट से ज्यादा क्रिकेटरों के मुरीद हैं. किसी रणजी ट्रॉफी मैच में दर्शकों की उपस्थिति ही देख लीजिए

सवाल उठता है कि क्या वास्तव में वह युग बीत गया है. वह युग जब अच्छी स्थिति में होने के बावजूद मन में हार का डर बैठा रहता था.  वह दौर जब प्रशंसकों के मन में उम्मीदों की जगह चिंता हावी रहती थी, जब ऐसा होता था कि 10 ओवर में 10 रन बनाने हों और 10 विकेट हाथ में हों तो भी यह डर बना रहता था कि ये लोग कुछ न कुछ गड़बड़ कर ही देंगे.
1932 में भारत ने पहला टेस्ट मैच खेला था. इंग्लैंड के खिलाफ खेलते हुए उसने पहले आधे घंटे में ही 19 रन पर इंग्लैंड के तीन विकेट गिरा दिए थे. बावजूद इसके उन्होंने इंग्लैंड को खुद पर हावी होने का मौका दिया और नतीजा यह निकला कि भारत 158 रनों से हार गया. इसके अगले 20 साल में एक पीढ़ी आकर चली भी गई लेकिन भारत के खाते में कोई जीत दर्ज नहीं हुई. इस दौरान सीके नायडू, मोहम्मद निसार, अमर सिंह, विजय मर्चेंट जैसे कुछ खिलाड़ियों ने व्यक्तिगत प्रदर्शन के जरिए जरूर चमक बिखेरी लेकिन टीम की उपलब्धियों के नाम पर दिखाने के लिए कुछ नहीं था.

यह ऐसा दौर था जब प्रशंसकों की उम्मीदें छोटी हुआ करती थीं- ‘हे भगवान, मर्चेंट का पचासा बनवा दो’ या ‘सीके को कुछ छक्के मार लेने दो’. पचासे बन गए, छक्के लग गए और प्रशंसक खुश. भारतीय जीतने की उम्मीद ही नहीं रखते थे. मकसद ज्यादा से ज्यादा यही होता था कि हार सम्मानजनक हो. कभी-कभी वह भी मयस्सर नहीं होती थी. मैनचेस्टर में हुए एक टेस्ट में फ्रेड ट्रूमैन और एलेक बेडसर की जोड़ी ने एक ही दिन में भारतीय टीम को दो बार निपटा दिया था. पहली बार 58 और दूसरी बार 98 के स्कोर पर. सुनील गावस्कर नाम की अद्वितीय प्रतिभा के आगमन के साथ स्थितियां बदलनी शुरू हुईं. हम उन मैचों को ड्रॉ करवाने के स्वप्न देखने लगे थे जिन्हें हम अतीत में आसानी से हार जाते थे.
अब हम तीसरे चरण में हैं. तेंदुलकर युग में. हम एक ऐसा मुल्क बन चुके हैं जिसे खुद पर यकीन है. हार की चिंता की जगह जीत के भरोसे ने ले ली है. आज हमारी चिंता जीत के अंतराल को लेकर रहती है.  ऐसा नहीं कि हम हारते नहीं. कभी-कभी हम हारते भी हैं, लेकिन अब जीत के प्रति हमारे मन में एक विश्वास होता है. अब इसी विश्वकप को लीजिए. टूर्नामेंट शुरू होने से पहले ही भारत इसका दावेदार था और उसने विश्वकप जीता भी.

सुनील गावस्कर जिन 125 टेस्ट मैचों में खेले उनमें से भारत को 23 मैचों में जीत मिली. लेकिन ड्रॉ मैचों का आंकड़ा रहा 68 मैच यानी 54 फीसदी. यही हाल एकदिवसीय मैचों के मोर्चे पर भी था. 1983 के विश्वकप में भारत के उदय के बावजूद गावस्कर द्वारा खेले गए 108 एकदिवसीय मैचों में पराजयों की संख्या विजयों से ज्यादा थी. तेंदुलकर ने सब बदल दिया. टेस्ट मैचों में उनकी हार-जीत का आंकड़ा 61-46 है और एकदिवसीय मैचों में 230-195. उनके बाद क्रिकेटरों की एक पूरी पीढ़ी तैयार हो चुकी है जिसके हिस्से में सकारात्मक उपलब्धियां अधिक हैं. महेंद्र सिंह धोनी कहते हैं कि उन्होंने 2003 के विश्वकप फाइनल में तेंदुलकर के आउट होने के बाद टीवी बंद कर दिया था. जैसे तेंदुलकर को बैटिंग करते हुए देखना राष्ट्रीय जुनून है उसी तरह उनके आउट होने पर टेलीविजन बंद कर देना भी कुछ समय पहले तक राष्ट्रीय परंपरा का हिस्सा हुआ करता था. 

साहस के साथ हार स्वीकारने से लेकर सम्मानजनक ड्रॉ और अब अवश्यंभावी जीत तक के इस मुकाम तक पहुंचने के लिए भारतीय क्रिकेट ने एक लंबी यात्रा तय की है. 2003 के विश्वकप फाइनल में हारने वाली भारतीय टीम मौजूदा विजेता टीम से बेहतर थी. लेकिन तब तक इस महत्वपूर्ण मनोवैज्ञानिक बाधा को न तो खिलाड़ी पार कर पाए थे और न ही उनके प्रशंसक.
भारत में क्रिकेट का प्रशंसक होने का परंपरागत मतलब रहा है तनाव, दबाव और आशंका से जूझना. ऐसा सिर्फ तीन ही बार हुआ कि जिस मैच में अपने युग के महानतम बल्लेबाज गावस्कर ने शतक बनाया उसी मैच में महानतम मैच जिताऊ गेंदबाज बीएस चंद्रशेखर ने भी एक पारी में पांच विकेट लिए हों. यानी वह सामूहिक प्रदर्शन दुर्लभता से ही देखने को मिला जो किसी टीम को अजेय बनाता है. इसलिए प्रशंसक टोटकों की शरण लेते रहे. कोई जीत की मनौती पूरी होने पर बाल मुंडवाता तो कोई शाकाहारी बन जाता. जैसे-जैसे क्रिकेट में बदलाव हुए हैं उसी तरह से प्रशंसकों में भी परिवर्तन आए हैं. भारतीय प्रशंसकों के बारे में यह बात बार-बार कही जाती रही है कि वे क्रिकेट की बजाय क्रिकेटरों के मुरीद हैं. रणजी ट्रॉफी मैचों में दर्शकों की उपस्थिति से आप इसका अंदाजा आसानी से लगा सकते हैं. दर्शक दीर्घा में तीन आदमी और एक कुत्ता बस यही उपस्थिति होती है और कभी-कभी एक आदमी जब कुत्ते को टहलाने के लिए निकल जाता है तो दर्शकों की संख्या में अचानक 50 फीसदी की गिरावट आ जाती है.
जिस दौर में गुंडप्पा विश्वनाथ बल्लेबाजी की नयी परिभाषा लिख रहे थे उस समय स्थानीय लीग मैचों में भी उनकी बल्लेबाजी देखने के लिए लोगों का हुजूम उमड़ पड़ता था. मुझे याद है कि एक टेनिस बॉल मैच में उनकी बल्लेबाजी देखने के लिए मैंने साइकिल उधार ली और लंबी दूरी तय करके मैच देखने पहुंचा. वहां जाकर मुझे पता चला कि वे मैच खेल नहीं रहे थे बल्कि मैच के मुख्य अतिथि थे. लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा.

उस दौर में प्रशंसकों के लिए कोई गारंटी नहीं थी. अनिश्चितता अकसर बेहद निराशाजनक होती थी. उन दिनों प्रशंसक हर तरह के टोटकों और मनौतियों का सहारा भले ही लेते थे मगर अंदर ही अंदर सबको यह एहसास होता था कि वे हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं.
तेंदुलकर और धोनी ने उस सोच को धो दिया है. चिंता भरी धुकधुकी से आत्मविश्वास के मौजूदा दौर तक पहुंचने तक तीन चरणों का यह सफर तय करने में कई दशक लगे हैं. हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि अब भारत सभी मैच जीतेगा, लेकिन यह जरूर है कि प्रशंसकों को जीत की खुशियां मनाने के लिए अब पहले जितना नहीं तरसना पड़ेगा.  

मीठे सुरों की माटी

पहली बार धारवाड़ जाते हुए कुछ-कुछ वैसा ही महसूस होता है जैसे हम पहली बार ताजमहल देखने आगरा जा रहे हों. ऐसा इसलिए कि कर्नाटक के इस इलाके का ताल्लुक जिन नामों से जुड़ता है वे न सिर्फ असाधारण हैं बल्कि कई मायनों में भारतीय शास्त्रीय संगीत की दुनिया के शिखर भी. शायद यही वजह है कि यहां जाते हुए एक उत्सुकतामिश्रित रोमांच की अनुभूति होती है.

धारवाड़ कर्नाटक के उत्तरी हिस्से में स्थित जिला है. धारवाड़ उस कस्बे का नाम भी है जो जिला मुख्यालय है. पहली नजर में देखने पर इसमें कुछ भी खास नहीं लगता. ऑटोरिक्शा, भीड़भाड़ और असली धारवाड़ पेड़ा बेचने का दावा करती मिठाइयों की अनगिनत दुकानों से मिलकर जो दृश्य बनता है वह देश के किसी दूसरे आम कस्बे जैसा ही लगता है. इसलिए अगर संगीत का कोई शौकीन यह सोचकर धारवाड़ आया हो कि यहां की हर गली से किराना, ग्वालियर और जयपुर घराने की गायकी में डूबी सुरलहरियां निकल रही होंगी तो पहली नजर में उसे निराशा ही हाथ लगेगी.

आखिर कर्नाटक जैसे धुर दक्षिण प्रदेश का यह इलाका कर्नाटकी संगीत के बजाय हिंदुस्तानी संगीत की धारा का गढ़ कैसे बना

लेकिन यहां ठीक-ठाक वक्त गुजारने और कई लोगों से बातचीत के बाद हमारे दिमाग में उस सवाल के जवाब का एक खाका-सा बनता है जिसने संगीत के मुरीदों की कई पीढ़ियों का दिमाग खूब मथा है. सवाल यह कि आखिर धारवाड़ की मिट्टी में ऐसा क्या है कि यहां से शास्त्रीय संगीत की दुनिया के इतने सारे दिग्गज निकले. सवाई गंधर्व, बसवराज राजगुरु, भीमसेन जोशी, मल्लिकार्जुन मंसूर, गंगूबाई हंगल, कुमार गंधर्व, पुट्टराज गवई सहित तमाम ऐसी हस्तियां हैं जिनका नाता यहां से जुड़ता है. भौगोलिक नक्शे पर भले ही इस जगह की अहमियत एक बिंदु से ज्यादा कुछ न हो मगर शास्त्रीय संगीत के मानचित्र पर धारवाड़ की महत्ता इतनी है कि इसे शास्त्रीय संगीत जगत की राजधानी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी.

इस इलाके की खासियत इस मायने में भी है कि उत्तर प्रदेश के रामपुर या प. बंगाल के बिष्णुपुर की तरह यह सिर्फ संगीत के इतिहास का हिस्सा होकर नहीं रह गया है. यहां का वर्तमान आज भी भविष्य के दिग्गजों को तैयार करने की प्रक्रिया में व्यस्त लगता है. यहीं के वेंकटेश कुमार, कैवल्य कुमार गौरव, जयतीर्थ मेवुंडी, कुमार मरदुर आज देश में शास्त्रीय संगीत के उभरते नामों में से हैं. सबसे पहला सवाल तो मन में यही आता है कि आखिर कर्नाटक जैसे धुर दक्षिण प्रदेश का यह इलाका कर्नाटकी संगीत की बजाय हिंदुस्तानी संगीत की धारा का गढ़ कैसे बना. दरअसल कर्नाटक का यह उत्तरी हिस्सा कभी बांबे प्रेसीडेंसी और बंबई राज्य का हिस्सा हुआ करता था. फिर 1956 में जब राज्यों का पुनर्गठन हुआ तो इसे कर्नाटक में मिला दिया गया. मल्लिकार्जुन मंसूर के बेटे और गायक राजशेखर मंसूर कहते हैं, ‘सांस्कृतिक रूप से देखा जाए तो उत्तरी कर्नाटक के लोग आज भी महाराष्ट्र के लोगों की तरह हैं. कर्नाटक का हिस्सा हो जाने के बावजूद हिंदुस्तानी संगीत में उनकी दिलचस्पी कम नहीं हुई है.’

इसके अलावा इस इलाके की संगीत विरासत का एक बड़ा श्रेय मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वाडियार (चतुर्थ) को भी जाता है. महाराजा हिंदुस्तानी संगीत के बहुत बड़े कद्रदान थे. वे उत्तर भारत में रह रहे संगीतकारों को न्यौता भेजकर उन्हें अपने दरबार में गाने के लिए आमंत्रित करते. इन संगीतकारों में से कई ऐसे थे जो अपनी यात्रा के दौरान धारवाड़ में भी ठहरते जहां लोग उनकी प्रस्तुतियों को सुनने के लिए बड़ी संख्या में जमा होते. राजशेखर कहते हैं, ‘लोग कुछ दिन और रुकने के लिए उन्हें मनाते. बैठकों और महफिलों का दौर चलता.’
19वीं सदी की शुरुआत में मैसूर दरबार में आने वाले ऐसे ही मेहमानों में से एक थे किराना घराने के दिग्गज उस्ताद अब्दुल करीम खान. किराना दरअसल कैराना का अपभ्रंश है जो उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले में स्थित उस गांव का नाम है जहां के खान मूल रूप से रहने वाले थे. उनके एक भाई धारवाड़ में रहते थे, इसलिए मैसूर आते-आते हुए रास्ते में धारवाड़ में वक्त बिताना उनके लिए और भी स्वाभाविक था. ऐसे ही एक प्रवास में उनसे मिलने रामभाऊ कुंडगोलकर नाम का एक बालक आया. पास के ही कुंडगोल नाम के एक गांव में रहने वाले इस बालक की इच्छा खान से संगीत सीखने की थी. यह मुलाकात ऐतिहासिक साबित हुई. बताते हैं कि जब लड़के ने भैरवी पर आधारित रचना हम जमुना के तीर सुनाई (जिसके बारे में कहा जाता है कि उसे खान से अच्छा कोई नहीं गा सकता था), तो वे दंग रह गए और उन्होंने लड़के को अपना शागिर्द बनाना स्वीकार कर लिया. कुंडगोलकर बाद में सवाई गंधर्व के नाम से मशहूर हुए जिन्होंने दुनिया को गंगूबाई हंगल, बसवराज राजगुरु और भीमसेन जोशी जैसे शिष्य दिए. अब्दुल करीब खान से शुरू हुई इस परंपरा का असर यह भी हुआ कि धारवाड़ आज भी किराना घराने का गढ़ बना हुआ है. मौजूदा पीढ़ी में देखें तो कैवल्य कुमार गौरव और जयतीर्थ मेवुंडी इस परंपरा के सशक्त प्रतिनिधि दिखते हैं.

धारवाड़ की एक अहम खासियत यह भी है कि किराना घराने के अलावा यहां ग्वालियर और जयपुर घराने भी खूब फले-फूले 

लेकिन कमाल देखिए कि किराना घराने की धमक के बावजूद ऐसा नहीं हुआ कि धारवाड़ की पहचान सिर्फ इसकी वजह से बनी हो. छोटे-से इस इलाके में ग्वालियर और जयपुर घराने भी उतनी ही अच्छी तरह से फले-फूले हैं. दूसरी जगहों पर हिंदुस्तानी संगीत में भले ही आज भी संकीर्णताओं से भरी होड़ देखने को मिलती हो पर धारवाड़ इससे अछूता रहा है. यहां रह चुके या रहने वाले सभी संगीतकार इस पर एकराय हैं कि यहां किसी एक का बोलबाला नहीं है. न ही यहां कोई दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करता है. किराना घराने के सदस्य भले ही अपने दिग्गजों के वजन के आधार पर खुद को दूसरों से बेहतर कहने की स्थिति में हों मगर कितना भी कुरेदने पर वे दूसरे घरानों के बारे में कुछ भी ऐसा नहीं कहते जो उन्हें कमतर ठहराता सा लगे. ग्वालियर और जयपुर, दोनों घरानों के पास भी अपने-अपने क्षेत्र के दिग्गज हैं. कुमार गंधर्व और पुट्टराज गवई ग्वालियर घराने के हैं तो जयपुर घराने के पास मल्लिकार्जुन मंसूर की महान विरासत है. कुमार गंधर्व ने बाद में धारवाड़ छोड़ दिया था और मध्य प्रदेश के देवास में जाकर रहने लगे थे क्योंकि इस जगह की आबोहवा उनकी दमे की बीमारी के ज्यादा अनुकूल थी.

उधर, मंसूर अपनी आखिरी सांस तक धारवाड़ में ही रहे. वे इसी नाम के एक गांव में जन्मे थे और अपने शुरुआती दिनों में कन्नड़ थिएटर में सक्रिय रहे थे. आज यह बात सुनकर हैरानी हो सकती है मगर 1920 और 30 के दशक में हिंदुस्तानी संगीत कन्नड़ थिएटर का अहम हिस्सा होता था. राजशेखर मंसूर कहते हैं, ‘नाटक में भाग लेने के लिए किसी भी अभिनेता को पहले हिंदुस्तानी शास्त्रीय गायकी सीखनी पड़ती थी.’ उन दिनों बहुत-सी थिएटर कंपनियां हुआ करती थीं और सवाई गंधर्व जैसे संगीतकारों की बड़ी संख्या थी, जिनकी नियमित आमदनी का स्रोत यही थिएटर थे. कन्नड़ थिएटर आज भी हिंदुस्तानी संगीत पर निर्भर है मगर उसके अच्छे दिन अब अतीत का किस्सा हो गए हैं.’ राजशेखर बताते हैं, ‘मंचीय कला का दौर अब जा चुका है. शायद इसलिए क्योंकि मनोरंजन के अब कई दूसरे माध्यम उपलब्ध हैं.’
ऑल इंडिया रेडियो के धारवाड़ स्टेशन के पास बना मंसूर का घर अब म्यूजियम बन चुका है. यहीं उनकी समाधि है और वह तानपुरा और हारमोनियम भी जिस पर कभी उनकी उंगलियां दौड़ा करती थीं. राजशेखर के मुताबिक मंसूर धारवाड़ छोड़कर नहीं गए क्योंकि एक तो उन्हें यहां पुणे या मुंबई जैसे व्यावसायिक शहरों के मुकाबले अपूर्व शांति का अनुभव होता था और दूसरे वे बहुत धार्मिक व्यक्ति थे. हर साल वे यहां के मुरुगा मठ में गायन प्रस्तुति के रूप में अपनी सेवा देते थे. बहुत दिनों तक मठ से दूर रहने पर उन्हें असहजता महसूस होती थी. राजशेखर बताते हैं, ‘उनकी जिंदगी का एक बड़ा हिस्सा मठ के इर्द-गिर्द ही घूमता रहा.’

धारवाड़ का इतिहास देखें तो यहां रहने वाले संगीतकारों को कभी भी करियर के लिए यह जगह छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी

धारवाड़ में आपको ऐसे कई मठ या आश्रम मिल जाएंगे. इनमें कई ऐसे हैं जिन्होंने संगीत की शिक्षा और उसके प्रचार-प्रसार में अहम भूमिका निभाई. इनमें से भी सबसे महत्वपूर्ण काम रहा गडग स्थित वीरेश्वर पुण्याश्रम का जिसे पुट्टराज गवई चलाते थे. हालांकि प्रतिभा के मामले में उतना ही संपन्न होने के बावजूद राष्ट्रीय स्तर पर उनकी चर्चा उतनी नहीं हुई जितनी धारवाड़ के दूसरे दिग्गजों की, मगर इस इलाके में उनकी लोकप्रियता का आलम यह था कि पिछले ही साल जब उनका देहावसान हुआ तो लाखों लोग उन्हें श्रद्धांजलि देने के लिए उमड़ पड़े थे. गायिकी के साथ-साथ उनकी वायलिन, तबला, वीणा पर भी गजब की पकड़ थी और जिन लोगों ने उन्हें हारमोनियम पर गाते सुना है वे दावा करते हैं कि भारत में उन जैसा कोई दूसरा नहीं हुआ. वे हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत, दोनों में महारत रखने वाले पंचाक्षरा गवई के शिष्य थे और धार्मिक संस्था होने के बावजूद उनका आश्रम गरीब बच्चों की संगीत शिक्षा के लिए समर्पित रहा. इसकी शुरुआत गरीब नेत्रहीन बच्चों को संगीत प्रशिक्षण देने के उद्देश्य से हुई थी मगर बाद में इसके दरवाजे सभी गरीब बच्चों के लिए खोल दिए गए. गवई के शिष्यों में सबसे ज्यादा चर्चित नाम वेंकटेश कुमार बताते हैं, ‘गुरू जी की कोशिशों का ही कमाल है कि आपको इलाके के हर गांव में एक संगीतकार मिल जाएगा.’ आश्रम के तहत अब एक स्कूल और कॉलेज चल रहा है और यहां 1,000 छात्र रहते हैं. वीरेश्वर पुण्याश्रम की राह पर ही कालकेरी संगीत विद्यालय भी चल रहा है. कालकेरी नामक जगह पर स्थित इस संगीत विद्यालय तक धारवाड़ से आधे घंटे की दूरी तय करके पहुंचा जा सकता है. यह संस्था इस मायने में अनोखी है कि यहां संगीत की कक्षाएं सुबह आठ बजे से शुरू हो जाती हैं और 11 बजे तक चलती हैं. हर छात्र के लिए इनमें आना अनिवार्य है. जोर गायकी पर ही नहीं है. छात्र बांसुरी, तबला, वायलिन और सितार जैसे विकल्प भी चुन सकते हैं.

हम यहां सुबह साढ़े आठ बजे पहुंचते हैं. पहाड़ियों पर मिट्टी की बहुत सी कुटियाएं बनी हुई हैं. दूर से ही हमें जौनपुरी राग की तानें सुनाई देती हैं. स्कूल के अहाते में पहुंचते ही हमें करीब 20 बच्चों का एक समूह दिखाई देता है जो तीन ताल में एक द्रुत बंदिश गा रहे हैं. पास ही एक दूसरी कुटिया में वायलिन की एक कक्षा चल रही है. शिक्षक बीएस मथ हैं जो वीरेश्वर पुण्याश्रम के पूर्व छात्र हैं. वे बताते हैं कि 11 बजे संगीत की कक्षाएं खत्म हो जाती हैं और छात्रों की पढ़ाई का आम रुटीन शुरू हो जाता है. स्कूल धारवाड़ के एक दूसरे स्कूल से संबद्ध है जिससे यहां के छात्र कर्नाटक बोर्ड की परीक्षाएं दे सकते हैं. यह आधुनिक गुरुकुल का एक आदर्श उदाहरण है. संगीत भी और पढ़ाई भी.
लेकिन एक नया गुरुकुल इन जगहों से बिलकुल अलग है. यह इसी साल पांच मार्च को गंगूबाई हंगल की स्मृति में खुला है. कई एकड़ में फैले इस गुरुकुल में मिट्टी की सादगी की जगह शीशे और स्टील की भव्यता है. कर्नाटक सरकार ने इसे हर साल एक करोड़ रुपयों की वित्तीय सहायता देने का भी एलान किया है. गंगूबाई हंगल के पोते मनोज हंगल जो  इस प्रोजेक्ट के कर्ताधर्ता भी हैं,  से इसका विवरण सुनकर थोड़ी निराशा सी होती है. वे हमसे टोटल एरिया, कार पार्किंग एरिया और लैंडस्केपिंग जैसी चीजों का जिक्र करते हैं. वे यह भी बताते हैं कि इसके उदघाटन में कितने कैबिनेट मंत्री आने वाले हैं. कैबिनेट मंत्री वास्तव में आए और उनकी हरकतें ऐसी थीं कि जानी-मानी गायिका किशोरी अमोनकर बीच में ही कार्यक्रम छोड़कर जाने लगीं और मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा को उन्हें मनाना पड़ा. हालांकि यह देखकर थोड़ी राहत महसूस होती है कि इस सबके बीच संगीत की महत्ता बची हुई है. 36 छात्रों के लिए यहां रहने की सुविधा होगी और उनके सारे खर्चे ही गुरुकुल उठाएगा. प्रभा अत्रे और एन राजम जैसे गुरु भी यहां होंगे.

इस तरह का संस्थान देखकर लगता है कि धारवाड़ एक नये रूप में व्यावसायिकता से भी जुड़ रहा है. हालांकि इसका इतिहास देखें तो इसे इसकी चिंता करने की जरूरत नहीं है. धारवाड़ में रहने वाले संगीतकारों को कभी करियर के लिए इस जगह को छोड़ने की जरूरत नहीं पड़ी. गंगूबाई हंगल हों या मल्लिकार्जुन मंसूर, किसी के बारे में यह नहीं कहा जा सकता है कि अगर उन्होंने धारवाड़ छोड़ दिया होता तो उनका कद इससे ज्यादा ऊंचा होता. यह बात आज के संगीतकारों पर भी उतनी ही सटीक बैठती है. वेंकटेश कुमार हों चाहे कैवल्य कुमार गौरव, सभी व्यस्त कलाकार हैं.

दरअसल धारवाड़ की खासियत यही है कि आपको संगीत की उत्तम शिक्षा तो मिलती ही है साथ ही बहुत समझदार श्रोता भी मिलते हैं. इसलिए यहां पनपने वाली प्रतिभाएं कद और प्रचार जैसी चीजों के बारे में बहुत बाद में सोचती हैं. इन प्रतिभाओं के जमीन से जुड़े रहने की एक वजह यह भी है कि उनका रहना और सीखना ऐसे समकक्षों के बीच होता है जो उतने ही प्रतिभाशाली होते हैं. संगीत यहां एक आम चीज है. धारवाड़ में भले ही इतने दिग्गज पैदा हुए हों मगर यहां कोई अभिजात भावना नहीं दिखती. संगीतकार आज भी अपने समकालीनों को सुनने जाते हैं और अच्छी प्रस्तुति पर खूब दाद देते हैं.

यानी धारवाड़ का अतीत जितना गौरवशाली है और उसका वर्तमान उतना ही आश्वस्तकारी.                         

असंगति का संगीत

मई, 1995 की एक दोपहर को सामाजिक कार्यकर्ता हिमांशु ठक्कर अपने वकीलों प्रशांत और शांति भूषण के साथ सर्वोच्च न्यायालय में बैठे हुए थे. उनसे जरा-सी दूरी पर मुख्य न्यायाधीश एएस आनंद एक ऐसा फैसला सुना रहे थे जो पूर्वी गुजरात के कम से कम पचास हजार लोगों की जिंदगी से जुड़ा हुआ था. यह फैसला 25 हजार करोड़ की लागत से नर्मदा नदी पर बनने वाले बांध को लेकर दसियों सालों से चल रहे आंदोलन को भी एक नयी दिशा देने वाला था. फैसला यह था कि सरदार सरोवर बांध के निर्माण को तब तक रोक दिया जाए जब तक इससे प्रभावित और विस्थापित हर व्यक्ति का पुनर्वास न हो जाए. यह नर्मदा बचाओ आंदोलन (एनबीए) को मिली पहली कानूनी जीत थी.

लेकिन ठक्कर इस फैसले से ज्यादा खुश नहीं थे. ‘यह सीधा स्टे ऑर्डर नहीं है’, उनकी शिकायत थी’ और अदालत ने बांध पर तीन मीटर की दीवार बनाने की भी इजाजत दे दी है.’ यह सुनकर शांति भूषण की मुस्कान गायब हो गई. वे बोले, ‘हमें इतनी बड़ी जीत मिली है और तुम खुश नहीं हो. तुम कार्यकर्ता लोग कभी खुश नहीं हो सकते.’ यह किस्सा सुनाते हुए ठक्कर बताते हैं कि उनके मन में तब आगे की लंबी लड़ाई के विचार आ-जा रहे थे. उनकी चिंता गलत नहीं थी क्योंकि शीर्ष अदालत के इस आदेश का पालन उस साल के अंत में तब जाकर हुआ जब एनबीए के कार्यकर्ताओं ने नर्मदा नदी के आसपास के इलाकों से दिल्ली की ओर कूच कर दिया. ‘इससे उस कानूनी जीत का महत्व जरा भी कम नहीं होता है’, ठक्कर कहते हैं.

प्रशांत भूषण का रिकॉर्ड देखें तो पता चलता है कि उनकी वजह से पिछले एक दशक के दौरान मीडिया को कई बड़ी खबरें मिली हैं

तब से लेकर अब तक 55 वर्षीय प्रशांत भूषण दिल्ली उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में नागरिक अधिकारों से जुड़े 500 से ज्यादा केस लड़ चुके हैं. उनके पिता और पूर्व कानून मंत्री शांति भूषण हालांकि मूलतः व्यावसायिक मामलों के धुरंधर वकील हैं लेकिन वे भी समय-समय पर भ्रष्टाचार और सत्ता के दुरुपयोग के जनहित से जुड़े मुद्दों की लड़ाई लड़ते रहे हैं. अगर थोड़ा कम करके कहा जाए तो देश भर में चल रहे सैकड़ों आंदोलनों को जब भी अन्याय या सरकार की अनदेखी के खिलाफ कानूनी मदद की जरूरत पड़ी तो पिता-पुत्र की यह जोड़ी हमेशा उनकी मदद के लिए मौजूद रही. यदि थोड़ा उदारतापूर्वक कहा जाए तो न्यायिक सक्रियता वाले आज के दौर में ये दोनों शख्सियतें राज्य और केंद्र की राजनीति पर इतना प्रभाव डालने लगी हैं जितना अब तक कोई भी गैरराजनीतिक व्यक्ति नहीं डाल सका है.

इस रास्ते पर चलते हुए उनके कई दुश्मन भी बने. मगर इसी राह ने उन्हें ऐसे कई दोस्तों का समूह भी दिया जो उनके विश्वासों और उनकी लड़ाइयों में यकीन रखते हैं. इस छोटे-से समूह को आप सिविल सोसायटी, दिल्ली का बौद्धिक कुलीन समाज या फिर अन्याय के खिलाफ सामूहिक रूप से लड़ने वाला एक व्यवस्था विरोधी बल भी कह सकते हैं. इस समूह की कोशिश होती है कि सरकार जो नीतियां बनाए उसके केंद्र में मुख्य रूप से देश के आम लोग हों. कार्यकर्ता और वकील दोनों भूमिकाओं में खड़ी भूषण जोड़ी इस समूह का एक अभिन्न हिस्सा है.  

पिछले कुछ हफ्तों से शांति और प्रशांत भूषण एक ऐसे असंतोष से जूझ रहे हैं जो कुछ-कुछ 16 साल पहले नर्मदा पर हुए फैसले वाली उस घटना की याद दिलाता है. उन पर हमला उनके दुश्मनों की तरफ से ही नहीं हो रहा बल्कि उनकी राह के साथी भी उन पर सवाल उठा रहे हैं. भ्रष्टाचार को काबू करने के मकसद से बनने वाले लोकपाल विधेयक का प्रारूप तय करने के लिए बनी संयुक्त समिति का सदस्य बनने के बाद से ही पिता-पुत्र की इस जोड़ी पर कई तरह के आरोप लग रहे हैं. कोई उन्हें सत्ता का भूखा बता रहा है तो कोई भ्रष्ट और कोई घमंडी. नोएडा स्थित अपने ऑफिस में बैठे प्रशांत भूषण कहते हैं, ‘कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी ऐंड रिफॉर्म से पहले मेरी किसी भी अभियान में इतनी अहम भागीदारी नहीं रही.’ उनके मुताबिक उन्हें यकीन था कि न्यायपालिका में फैले भ्रष्टाचार से निपटने के लिए लोकपाल निश्चित रूप से एक कारगर हथियार होगा और इसलिए उन्होंने इस अभियान में खुद ही एक सक्रिय भूमिका निभाने की जिम्मेदारी ली. कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े के साथ मिलकर प्रशांत ने इस विधेयक का सिविल सोसायटी संस्करण तैयार किया जिसकी एक तबके द्वारा यह कहकर आलोचना की जा रही है कि इसमें जरूरत से ज्यादा ही शक्ति का केंद्रीकरण हो रहा है और यह लोकतंत्रविरोधी है.

पूंजीवादी मॉडल में यकीन रखने वाले शांति इस व्यवस्था को काफी आदर्श मानते हैं

भूषण परिवार के एक सदस्य बताते हैं कि पहले-पहल प्रशांत विधेयक का प्रारूप तैयार करने वाली समिति में शामिल नहीं होना चाहते थे. उनका मानना था कि इससे ऐसा लगेगा कि सिविल सोसायटी के प्रतिनिधित्व का 40 फीसदी हिस्सा तो पिता-पुत्र ने ही घेर लिया है, बल्कि उनका परिवार तो छुट्टियां मनाने अलास्का जाने की तैयारी में था जिसकी योजना आखिरी वक्त में टालनी पड़ी.
प्रशांत अब तक कई महत्वपूर्ण मुकदमे लड़ चुके हैं. 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाला, नीरा राडिया टेप, बिनायक सेन राष्ट्रदोह मामला, एनरॉन, अरुंधति राय द्वारा अदालत की अवमानना, सूचना का अधिकार याचिका, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना में भ्रष्टाचार, पन्ना मुक्ता ऑयलफील्ड और जजों द्वारा अपनी संपत्ति की घोषणा की मांग इनमें शामिल हैं. उनके इस रिकॉर्ड पर नजर डालें तो पता चलता है कि उनकी वजह से पिछले एक दशक के दौरान मीडिया को कई बड़ी खबरें मिली हैं. लेकिन पिछले कुछ हफ्तों के दौरान वही मीडिया उनके खिलाफ खड़ा दिखा है.

पिछले ही पखवाड़े एक दिन करीब 60 पत्रकार दिल्ली के प्रेस क्लब के एक हॉल में जमा थे. इनमें से ज्यादातर बेमौसम में अचानक हुई बरसात से भीग गए थे. हॉल में हो रहे शोर और धक्का-मुक्की के बीच प्रशांत ने वहां प्रवेश किया. आरटीआई कार्यकर्ता अरविंद केजरीवाल भी उनके साथ थे. इससे एक दिन पहले ही लोकपाल समिति की पहली बैठक हुई थी. प्रशांत इसके सदस्य तथा उनके पिता इसके सहअध्यक्ष हैं. उन्होंने अपनी बात शुरू की, ‘आप सभी को पता है कि एक सीडी की कॉपियां बांटी जा रही हैं जिसमें कथित रूप से मेरे पिता, अमर सिंह और मुलायम सिंह के बीच हुई बातचीत है…’ यह सीडी अज्ञात सूत्रों द्वारा इंडियन एक्सप्रेस अखबार को दी गई थी. इसमें जो कथित बातचीत थी उसमें अमर सिंह फोन पर मुलायम सिंह यादव को बता रहे हैं कि शांति भूषण उनके साथ ही बैठे हैं और वे चार करोड़ रु में अपने बेटे प्रशांत से सुप्रीम कोर्ट के एक जज को मैनेज करवा सकते हैं. जिस जज की बात की गई थी वह उस खंडपीठ की अध्यक्षता कर रहा था जिसने 2006 के अमर सिंह टेप मामले और 2जी लाइसेंसों को चुनौती देने वाले मामले पर अपना निर्णय सुरक्षित रखा है. इन दोनों ही मामलों में प्रशांत भूषण वकील हैं. जैसे ही सीडी की खबर मीडिया में आई, संदेहों और आरोपों का सिलसिला शुरू हो गया. शांति भूषण ने कहा कि वे आज तक अमर सिंह से कभी नहीं मिले हैं. प्रशांत ने आरोप लगाया कि लोकपाल कानून का प्रारूप तय करने की प्रक्रिया को पटरी से उतारने के लिए सरकार की अगुआई में यह साजिश हो रही है. दो दिन में ही पिता-पुत्र की यह जोड़ी सवालों के घेरे में आ गई. धारणा तथ्यों पर भारी पड़ गई.

प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रशांत ने कहा कि सीडी फर्जी है और इसमें छेड़छाड़ की गई है. उन्होंने यह भी कहा कि भले ही सिंह और यादव की आवाज असली लगती है मगर बातचीत के टुकड़े 2006 वाले टेपों से उठाए गए हैं. प्रशांत के मुताबिक उनके दो बेटों ने सिंह और यादव की आवाज के नमूनों के लिए पूरी रात जागकर 2006 के वे टेप सुने और पाया कि 2011 की सीडी में भी वही लाइनें इस्तेमाल की गई हैं. यह कहते हुए उनके चेहरे पर सुकून दिख रहा था. उन्हें लग रहा था कि वे लड़ाई जीत गए. मगर ऐसा नहीं था. उनकी तरफ सवाल उछलने लगे. पहला सवाल तो यही था कि जो वे कह रहे हैं उस पर क्यों यकीन किया जाए.
‘क्योंकि मेरे पास फॉरिंसिक विशेषज्ञों की रिपोर्ट है’, प्रशांत का जवाब था. ‘लेकिन ऐसा भी तो हो सकता है कि जिन लोगों को आपने पैसे दिए हों वे झूठ बोल रहे हों?’ ‘अगर कोई नेता खुद टेस्ट करवाता और दावा करता कि सीडी के साथ छेड़छाड़ की गई है तो क्या आप उसे बेगुनाही का ठोस सबूत मान लेते?’ ‘क्या आप अमर सिंह पर यकीन कर लेंगे? तो हम आप पर भरोसा कैसे कर लें?’
सवाल कई थे और प्रशांत बार-बार यही कह पाए कि उनके पास सबूत है. इसके बाद विषय बदल गया. कॉन्फ्रेंस खत्म होने के बाद जब वे हॉल से बाहर निकले तो उनके चेहरे पर परेशानी के भाव साफ नजर आ रहे थे. अपनी बेदाग ईमानदारी को हथियार बनाकर पिछले 25 साल में सौम्य व्यवहार वाले इस वकील ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो हमलावर अभियान चलाया था और प्रतिष्ठा अर्जित की थी, मीडिया ने उन्हें इसकी क्षणभंगुरता का क्रूर एहसास करवा दिया था.

नोएडा प्लॉट मामले की सच्चाई उन ब्योरों में है जिन पर गौर नहीं किया गया

अपने नोएडा स्थित घर में शांति भूषण सीडी विवाद की बात करने पर अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देते हैं. ठहाका लगाते हुए वे कहते हैं, ‘चलिए मान लेते हैं कि मैं अपने एक साथी एक्स के साथ हुई सारी बातचीत रिकॉर्ड कर लेता हूं. इसके बाद में मनमोहन सिंह के सारे भाषणों और साक्षात्कारों के रिकॉर्ड लेता हूं. इसके बाद मेरी सीडी कुछ ऐसी होगी.’
मनमोहन- आप क्या कर रहे हैं?
एक्स- मैं एक सुंदर लड़की के साथ नहा रहा हूं.
मनमोहन-बहुत अच्छा. मैं भी आ जाऊं क्या?

एक बार फिर जोर से हंसते हुए पूर्व कानून मंत्री भूषण कहते हैं, ‘कुछ भी बनाया जा सकता है. अब आप क्या यकीन करेंगे कि हमारे प्रधानमंत्री ऐसा कर सकते हैं?’ उनके चेहरे पर इस बात का रत्ती भर भी डर नहीं दिखता कि जिंदगी भर की प्रतिष्ठा एक रात में उड़ सकती है. हालांकि प्रशांत और शांति भूषण का नाम आम तौर पर एक साथ और एक इकाई की तरह ही लिया जाता है, लेकिन ये दोनों ही बिलकुल अलग-अलग तरह के व्यक्तित्व हैं. प्रशांत अपने पिता को खांटी पूंजीवादी कहते हैं जिन्हें बांध, खदानें और सेज जैसी चीजें पसंद हैं. उधर शांति भूषण कहते हैं कि उनके वामपंथी बेटे को सभी नेताओं से नफरत है जबकि वे मानते हैं कि इस सब के बाद भी कांग्रेस देश में मौजूद सबसे बेहतर पार्टी है. शांति भूषण का मानना है कि उचित और न्यायपूर्ण पुनर्वास व मुआवजे के साथ विकास परियोजनाओं के लिए जमीन ली जा सकती है भले ही ऐसा जमीन मालिक की सहमति के बिना करना पड़े. वे काफी उत्साहित हैं कि उन्होंने अपने बेटे की मर्जी के खिलाफ टाटा नैनो खरीदी और यह बताते हुए भी उनके चेहरे पर बहुत रोमांच झलकता है कि कोका कोला के खिलाफ केस लड़ने के बाद प्रशांत द्वारा इस पेय पर घर में प्रतिबंध लगाने के बावजूद उनके पोते कभी-कभी चुपचाप इसे लाते हैं और इसका मजा लेते हैं.

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से पीएचडी कर रहे प्रशांत के बड़े बेटे मानव बताते हैं कि उनके दादा को अगर मुक्त बाजार व्यवस्था में इतना अधिक विश्वास है तो इसकी वजह यह है कि इससे स्वत: होने वाले लाभ को उन्होंने अपने घर में देखा है. बताया जाता है कि शांति भूषण ने अपने घर और दफ्तर में काम करने वाले कई कर्मचारियों को आठ से दस लाख रु के बीच ब्याजमुक्त कर्ज दिया है और उनके बच्चों की स्कूली शिक्षा में मदद की है. उनका विश्वास है कि अगर आर्थिक समृद्धि का फायदा कम सक्षम तबके तक अपने आप पहुंचने की घटना उनके घर में हो सकती है तो पूरे देश में भी ऐसा हो सकता है. मानव कहते हैं, ‘मेरे पिता और दादा हर समय तीखी बहस करते रहते हैं. मुझे लगता है कि हमारे यहां डाइनिंग टेबल इसी काम के लिए बनी है.’ अपनी आत्मकथा में शांति लिखते हैं कि वे किस तरह से पूरे घर में पिता के पीछे-पीछे तब तक बहस करते हुए घूमते रहते थे जब तक वे बहस में जीत नहीं जाते थे. प्रशांत भी आज ठीक ऐसा ही करते हैं.

प्रशांत जहां जनहित याचिकाओं के विशेषज्ञ हैं वहीं उनके पिता ने अपने छह दशक लंबे करियर का ज्यादातर हिस्सा बड़ी-बड़ी कंपनियों की पैरोकारी करते हुए बिताया है. शांति भूषण के बारे में कहा जाता है कि वे हर बार अदालत में जाने के लिए दो से चार लाख रु के बीच फीस लेते हैं. हालांकि प्रशांत के तर्कों के बाद जब वे किसी मुद्दे से सहमत हो जाते हैं तो वे जनहित से जुड़े मामले भी लड़ते हैं. हालांकि यह बात भी है कि प्रशांत को अप्रत्यक्ष रूप से शांति भूषण जैसा पिता होने का फायदा भी मिलता है. वे भी इस बात को मानते हैं उन्हें बाकी दुनियावी चीजों के मोर्चे पर ज्यादा चिंता करने की जरूरत नहीं है. इस तरह से देखा जाए तो वित्तीय और सामाजिक सुरक्षा का फायदा उठाकर अपने काम को अपने से कम सक्षम लोगों के लिए केंद्रित करने का यह फैसला उनका अपना था. 

लेकिन जनहित के लिए काम करने के इस फैसले का मतलब था ऐसे मामले हाथ में लेना जिनका मकसद व्यक्तिगत हित से आगे जाता हो. इस राह में सामाजिक कार्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में मौजूद उनके दोस्त हमेशा उनके काम आए. समय-समय पर उन्होंने अपने पिता की भी मदद ली. नर्मदा बचाओ आंदोलन वाला मामला इसका उदाहरण है. मेधा पाटकर याद करती हैं, ‘प्रशांत स्वाभाविक रूप से हमारे आंदोलन को समझते थे मगर शांति हमसे बिलकुल भी सहमत नहीं थे.’ लेकिन उनके नर्मदा घाटी आने के बाद स्थिति बदल गई. शांति भूषण ने पहले-पहले तो कार्यकर्ताओं को उनके लिए ठीक से इंतजाम न करने के लिए झाड़ पिलाई मगर कई आदिवासियों से मिलने के बाद उन्होंने पाटकर से कहा, ‘मैं अब तक दिमाग से काम कर रहा था. अब मैं दिल और दिमाग से करूंगा.’ आंदोलन के कार्यकर्ताओं के लिए यह एक उम्मीद जगाने वाला क्षण था.

प्रशांत के एक पुराने मित्र उनकी उस खासियत के बारे में बताते हैं जो अकसर प्रशांत की ताकत रही है मगर कभी-कभी कमजोरी भी. यह खासियत है अपनी सोच को लेकर बिलकुल निश्चित होना. वे हर नजरिये को सुन लेते हैं मगर अपने नजरिये से जरा भी दायें-बायें नहीं हटते. फिर भले ही ये अपने परिचितों को कोका कोला पीने से रोकने का मामला हो या फिर न्यायालय की अवमानना का जोखिम मोल लेते हुए आठ मुख्य न्यायाधीशों पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए शपथपत्र दाखिल करने का. सिर्फ दो ही मोर्चे ऐसे हैं जहां पिता-पुत्र के बीच कोई टकराव नहीं होता. एक, जिसे परिवार पक्की बनिया कृपणता कहता है. शांति बड़े गर्व से वे कुरते पहनते हैं जो कभी फट गए थे और जिन्हें पहले उनकी पत्नी (जो अब इस दुनिया में नहीं हैं) सी दिया करती थीं. अब यह काम टेलर करता है. वे कहते हैं, ‘आदमी की दौलत कमाने से नहीं बल्कि बचाने से बनती है. अगर आपको अपनी आमदनी में से आधा बचाना हो तो आप अनुशासित हो जाते हैं.’ उधर, प्रशांत की मितव्ययिता का संबंध शायद उनकी विचारधारा से ज्यादा है क्योंकि उनके ही मुताबिक अगर आप बस में यात्रा करने का एहसास भूल जाते हैं तो आप उन लोगों को भी भूल जाते हैं जो अकसर बसों से ही यात्रा करते हैं.

पिता और पुत्र इस पर भी एकराय हैं कि जिस व्यवस्था के लिए वे काम करते हैं, यानी न्यायपालिका, वह लोकतंत्र का ऐसा स्तंभ है जिस पर जवाबदेही सबसे कम है. 1970 के दशक में शुरू किए गए अपने कैंपेन फॉर ज्यूडिशियल अकाउंटेबिलिटी ऐंड रिफॉर्म के जरिए उनका मकसद है कि जजों और मुख्य न्यायाधीशों के लिए भी नैतिकता और पारदर्शिता के वही नियम हों जो विधायिका और कार्यपालिका के लिए होते हैं. शांति भूषण तो आठ मुख्य न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार का खुलासा करते प्रशांत भूषण के शपथपत्रों का समर्थन करके लगभग जेल ही चले गए थे. बिना किसी डर के वे उन्हीं अदालतों में उन्हीं जजों के सामने पैरवी करने जाते हैं जिन पर वे सवाल उठा रहे होते हैं. 

लेकिन इतनी उपलब्धियों के बावजूद उन्होंने शायद ही सोचा हो कि उनकी निष्ठा भी एक दिन सवालों के घेरे में होगी. प्रशांत और शांति भूषण को अपने दोस्तों से अब वैसा अंधसमर्थन नहीं मिल रहा जैसा पहले मिला करता था. अरुंधति राय कहती हैं, ‘लोकपाल विधेयक के लिए हुए हालिया आंदोलन को लेकर मेरे कुछ गंभीर एतराज हैं लेकिन प्रशांत की व्यक्तिगत ईमानदारी पर मुझे पूरा भरोसा है.’ सामाजिक कार्यकर्ता शबनम हाशमी कहती हैं, ‘मैं उनसे इसलिए नाराज हूं कि  उन्होंने बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर जैसी सांप्रदायिक हस्तियों को इस मंच पर आने दिया.’ मजदूर किसान शक्ति संगठन की संस्थापक अरुणा राय भी कह चुकी हैं कि इस विधेयक की प्रकृति खतरनाक रूप से केंद्रीकृत है.    

आरोप तब और भी तेज हुए जब उन्हें विधेयक का प्रारूप तय करने के लिए बनी संयुक्त समिति में शामिल किया गया. कहा जाने लगा कि उन्हें मनमाने तरीके से रखा गया और इसका आधार और कुछ नहीं बल्कि सिर्फ अन्ना हजारे की जिद और पिता-पुत्र का बेदाग रिकॉर्ड था. हालांकि समिति में ही शामिल केजरीवाल अब भी कहते हैं कि यह बस कीचड़ उछालो अभियान है जिसका मकसद भ्रष्टाचार के खिलाफ इस लड़ाई को कमजोर करना है. प्रशांत जहां आग बुझाने की कोशिश कर रहे हैं वहीं शांति भूषण को इसकी कोई परवाह नहीं है. उनका दावा है कि यह उनकी साफ अंतरात्मा से उपजा अात्मविश्वास है. उन्होंने कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह पर मानहानि का दावा भी ठोका है. सिंह ने इलाहाबाद में एक मकान के सौदे में भूषण पर स्टांप ड्यूटी की चोरी का आरोप लगाया था. सिंह ने लोकपाल समिति से उनके इस्तीफे की मांग भी की थी. मानहानि के नोटिस में एडवोकेट कामिनी जायसवाल ने कहा कि 70 साल तक भूषण परिवार इलाहाबाद के इस घर में रह रहा था जिसमें किराये की शर्तों के तहत 140 रु महीना किराया दिया जा रहा था. 1966 में शांति भूषण और मकान मालिक के बीच एक समझौता हुआ जिसमें तब के बाजार भाव के मुताबिक मकान को एक लाख रु में भूषण को बेचने की बात तय हुई. मगर जब मकान की 99 साल की लीज का नवीनीकरण हुआ तो यह संपत्ति फ्रीहोल्ड हो गई और मकान मालिक ने इसे भूषण को बेचने से इनकार कर दिया. सन 2000 में मामला इलाहाबाद सिविल कोर्ट में गया. 2010 में एक समझौता हुआ जिसके मुताबिक  मकान मालिक संपत्ति का एक तिहाई हिस्सा रख सकता था और शांति इसका दो तिहाई हिस्सा एक लाख रु में खरीद सकते थे. शांति कहते हैं, ‘मेरे हिस्से में मकान का वह हिस्सा है जहां मेरे पिता रहते थे, जहां मेरा बचपन बीता. इसलिए मुझे इससे इतना लगाव था.’

मीडिया के बड़े हिस्से में यह जानकारी आई कि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा भूषण को स्टांप ड्यूटी की चोरी के मामले में दिया गया नोटिस लोकपाल विवाद के पहले का है, इसलिए इसे लांछन लगाने की कोशिश नहीं माना जा सकता. लेकिन हमेशा की तरह सच्चाई ब्योरों में छिपी हुई है. इस मामले में भी भूषण की गलती नहीं थी. यह सच है कि उन्हें लोकपाल विवाद के पहले एक नोटिस मिला था. लेकिन पांच फरवरी को उन्हें मिला यह नोटिस स्टांप ड्यूटी की चोरी के बारे में नहीं, स्टांप ड्यूटी तय करने के बारे में था. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि यह नोटिस सितंबर, 2010 में भूषण द्वारा स्टांप कलेक्टर को दिए गए एक प्रार्थनापत्र के जवाब में आया था, जिसमें स्टांप ड्यूटी निर्धारित करने की अपील की गई थी. नोटिस में मामले की सुनवाई के लिए 22 अप्रैल की तारीख तय की गई थी.

इसी बीच कांग्रेसी नेता दिग्विजय सिंह ने भूषण पर आरोप लगाया कि उन्होंने 1.33 करोड़ रुपयों की स्टांप ड्यूटी बचाई है. उसी दिन स्टांप ड्यूटी कलेक्टर ने 1.33 करोड़ रुपयों का उल्लेख करते हुए एक रिमाइंडर नोटिस जारी किया. भूषण के अनुसार फरवरी के नोटिस में रुपयों का कोई जिक्र नहीं था. सुनवाई की तारीख भी बदलकर 22 अप्रैल की जगह 28 अप्रैल कर दी गई. भूषण का कहना है कि उन्हें यह नोटिस तब मिला जब उनका वकील 22 अप्रैल को पेश होने के लिए पहुंचा. उनका सवाल है कि जब उन्हें ही नोटिस नहीं मिला था तो इसके बारे में दिग्विजय सिंह को जानकारी कैसे मिली. कुछ ऐसा ही नोएडा प्लॉट मामले में भी हुआ जिसमें पूर्व एडिशनल सॉलिसिटर जनरल विकास सिंह के वक्तव्य और मीडिया द्वारा की गई उसकी व्याख्या से बहुत-सी गलत जानकारियां फैलीं. जैसे यह कि शांति और उनके बेटे जयंत भूषण को नोएडा अथॉरिटी ने 2009 में करोड़ों रु के प्लॉट 35 लाख रु में आवंटित कर दिए. सिंह भी उसी योजना के तहत प्लॉट के लिए अभ्यर्थी थे. उन्होंने मीडिया को बताया कि प्लॉटों के आवंटन की प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई और इसके खिलाफ उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दायर की है. घटनाओं की तेज रफ्तार और टीवी पर दिए जा रहे बयानों और उनके जवाबों के बीच यह पता लगाना मुश्किल है कि इसकी जड़ क्या थी. लेकिन जल्दी ही इसे सच्चाई की तरह स्वीकार कर लिया गया कि भूषण परिवार को 15-20 करोड़ के प्लॉट महज 35 लाख में मिले. जो किसी को नहीं पता था या किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई वह यह था कि सिंह की याचिका कोई जनहित याचिका नहीं थी. अपनी याचिका में उन्होंने शिकायत की है कि उनको आवंटित प्लॉट खराब लोकेशन (सेक्टर 162) पर है, जबकि कुछ ‘पसंदीदा व्यक्तियों’ को दिल्ली के ज्यादा करीब पड़ने वाली जगहों पर प्लॉट मिले हैं. उन्होंने यह भी अपील की कि यदि उन्हें बेहतर प्लॉट नहीं दिया जाता तो सारे आवंटन रद्द कर दिए जाएं और प्लॉटों की नीलामी हो. साफ है कि याचिका पर हाेने वाले निर्णय से सिंह के हित जुड़े हुए थे. इसलिए इसे जनहित याचिका नहीं माना जा सकता, जैसा कि चर्चा हो रही थी.

सिंह ने अपनी याचिका 13 अप्रैल को दाखिल की थी, यानी भूषण के लोकपाल बिल का मसौदा तैयार करने के लिए बनी कमेटी में नामित होने के बाद. इतना ही नहीं, 16 अप्रैल को उनकी याचिका खारिज हो गई थी. जब 20 अप्रैल को उन्होंने यह बखेड़ा खड़ा किया तो उन्होंने मीडिया को नहीं बताया कि उनकी याचिका खारिज हो चुकी है. जब उनसे पूछा गया तो अपने बचाव में उन्होंने कहा कि अपनी याचिका खारिज होने का निर्णय उन्हें तब तक नहीं मिला था. मीडिया ने अपनी तरफ से मान लिया कि ‘पसंदीदा व्यक्ति’ भूषण ही थे. जबकि भूषण को उसी प्लॉट के एक किलोमीटर के दायरे के भीतर ही प्लॉट मिले हैं जिसे सिंह ने खराब लोकेशन बताया है. ध्यान देने की बात यह है कि भूषण ने सिंह से 19 महीने पहले प्लॉट के लिए आवेदन किया था, लेकिन उन्हें सिंह के साथ ही और उतने ही दाम पर (3,500 रु प्रति वर्गमीटर) प्लॉट दिए गए. इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि भूषण ने अखबार में छपे विज्ञापन के आधार पर आवेदन किया था. कई लोग पूछ सकते हैं कि क्या यह जमीन लेने में हितों का टकराव नहीं हुआ क्योंकि जयंत भूषण मायावती मूर्ति मामले में उत्तर प्रदेश सरकार के खिलाफ और प्रशांत भूषण व शांति भूषण ताज कॉरिडोर मामले में मायावती के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे हैं. हितों का टकराव इसलिए नहीं संभव था कि मुख्यमंत्री मायावती के पास इस आवंटन में कोई विशेषाधिकार नहीं था. भूषण को पहले आवेदन देने के बावजूद सिंह के साथ ही प्लॉट मिले. लेकिन जिस बात के चलते यह पूरा हंगामा हुआ, उसका तो अब भी पता नहीं लग सका कि भूषण को ही ‘पसंदीदा व्यक्ति’ कैसे मान लिया गया. जब सिंह खुद ही अपने प्लॉट का मूल्य अदा किए गए पैसे से कम मानते हैं तो उसी इलाके में भूषण को आवंटित प्लॉटों की कीमत 20-25 करोड़ रु कैसे मान ली गई? भूषण 20-25 करोड़ रु के प्लॉट सिर्फ 35 लाख में पा गए, इस प्रचार की जगह सच्चाई यह है कि हर प्लॉट की कीमत 3.67 करोड़ रु है और 90 वर्षों के लिए 9.18 लाख रु सालाना लीज का किराया है. कुछ मीडिया रिपोर्टों के मुताबिक सिंह ने जोर देकर कहा था कि भूषण ने सिर्फ 35 लाख रु अदा किए, जबकि भूषण ने स्पष्ट किया है कि वे अब तक 83 लाख रु अदा कर चुके हैं. बाकी पैसा 16 किस्तों में ब्याज सहित अदा किया जाना है.        

संदेह के घेरे में अप्रत्याशित सफलता

यह बात कहीं और की होती तो आई-गई रह जाती. पर ऐसा नहीं था. यह घटना प्रदेश के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के सामने की है. दिन सोमवार, 11 अप्रैल, 2010. उस दिन जनता के दरबार में मुख्यमंत्री जनता की शिकायतों से रूबरू हो रहे थे. अचानक खुशबू रानी नाम की लड़की उनके समक्ष हाजिर हुई और रोते-चिल्लाते कहने लगी कि इंजीनियरिंग की तैयारी कराने वाले संस्थान सुपर-30 ने उससे दस हजार रुपये लिए हैं और फिर उससे अतिरिक्त पांच हजार रुपयों की मांग की जा रही है. फिर यह कि वह गरीब है इसलिए और पैसे नहीं दे सकी जिसके कारण उसे वहां से निकाल दिया गया. इस अप्रत्याशित घटना के बारे में सुनकर मुख्यमंत्री सन्न रह गए. उन्होंने कहा कि सरकार के पास इस तरह का कोई फंड नहीं कि वह निजी कोचिंग संस्थान की फीस अदा करे. लेकिन उस लड़की की रुलाई देखकर नीतीश ने अपने अधिकारियों से कहा कि उस लड़की के लिए चंदा करके पांच हजार रुपये ताकि वह अपनी कोचिंग कर सके. उसी दिन बाद में मुख्यमंत्री ने अपनी साप्ताहिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी इस बात का उल्लेख किया.

क्या गरीबों को मुफ्त कोचिंग देने का दावा करने वाला सुपर-30 अपनी प्रसिद्धि की आड़ में छात्रों से पैसे भी वसूलता है

यह ध्यान देने की बात है कि सुपर-30 आईआईटी की प्रवेश परीक्षा में 30 गरीब छात्रों को मुफ्त कोचिंग के साथ खाने और ठहरने की भी व्यवस्था करता है. और पिछले तीन वर्षों से इस संस्थान का दावा रहा है कि उसके 30 के 30 छात्र आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफल हो जाते हैं. चूंकि खुशबू का मामला उस सुपर-30 से जुड़ा था जिसके काम की सराहना अंतरराष्ट्रीय स्तर पर होती है और उसे इस काम के लिए अनेक बार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत भी किया गया है, इसलिए उसके आरोप को गंभीरता से लिया गया. हालांकि खुशबू अचानक जनता दरबार से बाहर चली गई और उसके बारे में अधिक जानकारी किसी को नहीं मिल सकी. यहां तक कि जनता दरबार के अधिकारियों द्वारा भी उसके बारे में कुछ खास जानकारी नहीं दी गई. पर खुशबू द्वारा उठाया गया सवाल अपने आप में महत्वपूर्ण था कि क्या गरीबों के लिए मुफ्त कोचिंग की व्यवस्था करने का दावा करने वाला सुपर-30 अपनी प्रसिद्धि की आड़ में छात्रों से पैसे भी वसूलता है.
इसके अलावा कुछेक बार इस संस्थान के शत-प्रतिशत सफलता के दावों पर भी सवाल उठे हैं. लेकिन अपनी विराट छवि और प्रसिद्धि के कारण सुपर-30 पर इन आरोपों का ज्यादा असर नहीं हुआ.

इन्हीं सवालों के मद्देनजर तहलका ने अपने स्तर पर इस मामले की तहकीकात करने की कोशिश की ताकि यह पता चल सके कि सुपर-30 के दावे की सच्चाई क्या है. इसके लिए तहलका ने दो स्तर पर काम करना शुरू किया. पहला यह कि सुपर-30 के संचालक आनंद कुमार से उनके यहां पढ़ने वाले छात्रों की लिस्ट मांगी जाए. और दूसरा इस बात की पड़ताल की जाए कि जिन छात्रों को सुपर-30 अपना बताता रहा है, क्या वे वास्तव में उसके ही छात्र रहे हैं.

25 मई, 2011 को आईआईटी प्रवेश परीक्षा के परिणाम घोषित होंगे. इसलिए हमने आनंद कुमार से पहले ही उनके उन तीस छात्रों की लिस्ट मांगी जो उनके संस्थान के छात्र रहते हुए 2011 में आईआईटी प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए थे. तहलका ने यह लिस्ट इसलिए मांगी ताकि रिजल्ट के बाद संस्थान के दावे की हकीकत का पता चल सके, लेकिन आनंद ने इस लिस्ट को सार्वजनिक करने से साफ मना कर दिया. आनंद के इनकार के बाद इस आरोप को सहज ही बल मिलता है कि उनके संस्थान का शत-प्रतिशत सफलता का दावा पूरी तरह सच नहीं है. ऐसा इसलिए कि परिणाम घोषित हो जाने के बाद वे चाहे जो दावा करें उसकी प्रमाणिकता संदेह के घेरे में रहती है क्योंकि कोचिंगों के बाजार में सफल छात्रों की खूब खरीद-फरोख्त होती है ताकि उन्हें अपना बतलाकर ब्रांडिंग की जाए. एक निजी कोचिंग संस्थान के संचालक विकास राही भी इस बात पर सहमति जताते हुए कहते हैं, ‘हां, ऐसा खेल कोचिंग की दुनिया में खूब चलता है.’ इस मामले में तहलका को विश्वस्त सूत्रों से भी इस तरह की जानकारी मिली है जो यह साबित करती है कि कोचिंग की दुनिया में अपना नाम चमकाने के लिए इस तरह के धंधे खूब चलते हैं.

सुपर-30 ने जिन सफल छात्रों को पिछले दो-तीन वर्षों में अपना बताया उनमें से कई एक अन्य संस्थान में भी पढ़ते थे

इसी क्रम में तहलका को कुछ ऐसे दस्तावेज भी मिले हैं जो यह साबित करते हैं कि सुपर-30 ने जिन सफल छात्रों को पिछले दो-तीन वर्षों में अपने संस्थान का छात्र बताया था उनमें से कइयों ने एक अन्य संस्थान में भी कोचिंग ली थी. 2008 की आईआईटी प्रवेश परीक्षा में आयुषी, सैयद सौजाब मुरतजा और राहुल मयंक भी सफल हुए थे. सुपर-30 ने इन्हें भी अपना छात्र बताया था. पर दूसरी तरफ सच्चाई यह है कि इन तीनों छात्रों ने आई-डिजायर नामक कोचिंग संस्थान की उपस्थिति पंजी में नियमित रूप से अपने हस्ताक्षर किए थे और कोचिंग ली थी. 2007 के अगस्त, सितंबर, अक्टूबर और दिसंबर की अनेक तिथियों में इन छात्रों के उपस्थिति पंजी पर हस्ताक्षर दर्ज हैं. यहां ध्यान देने की बात है कि आई-डिजायर आईआईटी में अध्ययन करने वाले छात्रों द्वारा शुरू किया गया संस्थान था जिसमें प्रतिभाशाली छात्रों को मुफ्त कोचिंग देने की व्यवस्था थी. इस संस्थान में अपनी निःशुल्क सेवा दे चुके गणित के शिक्षक विकास राही भरे मन से कहते हैं, ‘मैं उस दिन बहुत सदमे में था जिस दिन सुपर-30 हमारे यहां पढ़े छात्रों को भी अपना छात्र बता रहा था.’ 

2008 के आईआईटी परिणाम घोषित होने के बाद सुपर-30 के संचालक आनंद कुमार और इससे अभिभावक के तौर पर जुड़े आईपीएस अधिकारी अभयानंद ने साफ कहा था कि आयुषी, सैयद सौजाब मुरतजा और राहुल मयंक सुपर-30 के ही छात्र थे. हालांकि इस संबंध में तहलका ने पड़ताल करने के बाद जब आनंद कुमार से पिछले दिनों बात की तो उन्होंने स्वीकार करते हुए कहा, ‘हो सकता है ये छात्र किसी अन्य संस्थान में भी पढ़े हों क्योंकि एक छात्र अनेक कोचिंग संस्थानों में पढ़ते हैं, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है.’ यहां सवाल यह उठता है कि अगर सुपर-30 के अलावा कोई दूसरा संस्थान भी किसी छात्र की योग्यता को निखारता है तो उसकी कामयाबी का श्रेय सिर्फ सुपर-30 को कैसे दिया जा सकता है.

­­सुपर-30 की अवधारणा एक ऐसे सपने को साकार करने की परिकल्पना पर आधारित थी जिसके तहत समाज के वंचित समाज की स्थिति मजबूत की जा सके. इसी मकसद से अभयानंद और आनंद ने मिलकर इसकी शुरुआत की. अभयानंद बड़े पुलिस अधिकारी तो हैं ही , वे एक प्रतिभाशाली छात्र भी रहे हैं. अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक अभयानंद और गणितज्ञ आनंद कुमार पहले से एक-दूसरे के साथ थे और आईआईटी के लिए प्रतिभाओं को निखार रहे थे. इसके लिए पहले से आनंद के पास रामानुजम स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स जैसा व्यावसायिक कोचिंग संस्थान था. अभयानंद और आनंद की जोड़ी ने अपने उसी सपने को साकार करने के लिए सुपर 30 की स्थापना 2002 में की थी. जैसा कि अभयानंद कहते हैं, ‘हमने यह तय किया कि हम कम से कम ऐसे तीस छात्रों को अनेक स्तर पर कठिनतम जांच के बाद चुनें जो आर्थिक और सामाजिक रूप से वंचित तो हों पर अवसर और संसाधनों की कमी के कारण सफल नहीं हो पाते. चुने गए इन तीस बच्चों को एक ऐसे माहौल में रखा जाए जो पठन-पाठन और प्रतियोगिता के लिए कारगर हो. उन्हें मुफ्त में कोचिंग के साथ खाने और रहने की व्यवस्था भी मुफ्त में की जाए. इसके लिए आवश्यक आर्थिक व दीगर संसाधन रामानुजम स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स से प्राप्त होने वाली लाखों रुपयों की आमदनी के एक सीमित हिस्से से जुटाना था.’ इस बात की पुष्टि खुद आनंद भी करते हुए कहते हैं, ‘मैंने रामानुजम स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स से प्राप्त आय से ही सुपर-30 को निखारने का बीड़ा उठाया.’  अभयानंद और आनंद की इस कोशिश को काफी सराहना मिली. सामाजिक उत्तरदायित्व के निर्वाह की उम्मीद में शुरू किया गया यह प्रयास सफल होने लगा. और प्रथम साल में ही सुपर-30 ने अपनी भारी सफलता का दावा किया. मीडिया ने इस कथित कामयाबी को सिर-आंखों पर लिया और तारीफ के पुल बांधे. 2002-03 में सुपर-30 के दावे के अनुसार तीस में से 18 छात्र आईआईटी जेईई में सफल हुए. 2004-5 में 30 में से 22 और 2005-6 में सुपर-30 ने अपने 30 में से 26 छात्रों के सफल होने के नये कीर्तिमान का दावा किया. सुपर-30 के उन दावों को सही माना जाए तो वास्तव में यह बहुत बड़ी उपलब्धि थी. और जाहिर है इस सफलता के आधार पर प्रसिद्धि भी इसके कदम चूम रही थी. 

‘हमें कैसी भी बाहरी आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं करनी थी. इससे हमारे मिशन के हाईजैक होने का खतरा होता’

लेकिन अंतरराष्ट्रीय ख्याति के साथ-साथ विवादों से उसका नाता करीब-करीब एक ही समय 2007 से शुरू होता है. जहां इस वर्ष सुपर-30 ने 30 में से 28 छात्रों के सफल होने का दावा किया वहीं एक अन्य कोचिंग संस्थान ने प्रणव प्रिंस नाम के उस छात्र को अपने कोचिंग संस्थान का बता दिया जिसे सुपर-30 ने पहले अपना छात्र घोषित कर रखा था. इस विवाद के बाद आनंद और अभयानंद ने आनन-फानन में सुपर-30 को बंद करने की घोषणा तक कर दी. हालांकि जल्दी ही इस घोषणा को वापस लिया गया और सुपर-30 का वजूद बना रहा. पर दोनों तरफ से शुरू हुआ वाद-विवाद चलता रहा. विवाद और प्रसिद्धि के इसी दौर (2008) में भारत की दिग्गज कारोबारी कंपनी रिलायंस ने आनंद और अभयानंद को ’24 रियल हीरोज’ की लिस्ट में शामिल किया. कंपनी ने दोनों को मुंबई में स्मृतिचिह्न के साथ पांच-पांच लाख रुपयों के चेक दिए. अभयानंद ने यह चेक लेने से इनकार कर दिया, पर आनंद ने ले लिया. अभयानंद बताते हैं, ‘यही वे दो प्वाइंट थे (प्रणव प्रिंस का मामला और निजी कंपनी से पुरस्कार में पांच लाख रुपये लेना) जिसने मुझे सुपर-30 के साथ बने रहने पर पुनर्विचार करने को मजबूर किया.’ अभयानंद आगे बताते हैं, ‘हमने पहले से यह तय कर रखा था कि हमें किसी भी तरह की बाहरी आर्थिक सहायता स्वीकार नहीं करनी क्योंकि इससे हमारे मिशन के हाईजैक होने का खतरा होगा. चूंकि आनंद ने रिलायंस से पैसे ले लिए, इसलिए मैंने खुद को सुपर-30 से अलग कर लिया.’

2009 और 2010 दोनों साल सुपर-30 ने 30 में 30 छात्रों की सफलता की घोषणा की. विवाद फिर बढ़े पर अंतरराष्ट्रीय प्रसिद्धि भी इसे इन्हीं वर्षों में मिली. टाइम पत्रिका ने सुपर-30 को एशिया का सर्वश्रेष्ठ शिक्षण संस्थान घोषित किया तो न्यूज वीक ने इसे दुनिया के चार उन्नत स्कूलों में से एक का दर्जा दिया. डिस्कवरी और अलजजीरा ने इस पर डॉक्युमेंट्री बनाई.

आईआईटी प्रवेश परीक्षा में सफलता के बढ़ते दावों के बीच 2007 में जक्कनपुर की तंग गलियों में चलने वाला सुपर-30 कंकड़बाग में चलने वाले आनंद के रामानुजम स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स के कैंपस में आ गया जहां पहले से ही एक से डेढ़ हजार छात्र दस-दस हजार रुपये देकर पढ़ाई करते थे. आरोप लगने लगे कि सुपर-30 के सभी तीस सफल छात्रों में रामानुजम स्कूल ऑफ मैथेमेटिक्स के छात्रों को भी शामिल कर लिया जाता है. ये आरोप भी लगे कि इसी तरह कुछ बाहरी छात्रों को भी प्रलोभन देकर अपना छात्र बता दिया जाता है. इस संबंध में अभयानंद कहते हैं, ‘इन आरोपों में मुझे सच्चाई लगती थी, पर मैंने इसकी छानबीन इसलिए नहीं की कि मैं इस कोचिंग के अकैडमिक पार्ट तक ही सीमित था और मेरे पास दूसरे किसी काम के लिए समय भी नहीं था.’ लेकिन छात्र-अधिकारों के लिए लड़ने वाले सामाजिक संगठन स्टूडेंट आॅक्सीजन मूवमेंट के संयोजक बिनोद सिंह अभयानंद को भी आनंद जितना दोषी मानते हैं. वे कहते हैं, ‘विवाद अभयानंद के समय में शुरू हुआ था, इसलिए उन्हें संदेहों से बाहर नहीं रखा जा सकता.’

सुपर-30 द्वारा अपने छात्रों का नाम न बतलाना उसके दावे और उसकी नीयत दोनों पर प्रश्नचिह्न लगाता है.

सुपर-30 की कहानी एक छात्र की जुबानी

किसी संस्था या संगठन की सच्चाई जानने के लिए उसके अंदर के सूत्र काफी महत्वपूर्ण होते हैं. इसलिए तहलका सुपर-30 की भीतर की हकीकत जानने के लिए एक ऐसे छात्र तक पहुंचा जिसने सुपर-30 के मौजूदा सत्र में पढ़ाई की और 2011 की आईआईटी प्रवेश परीक्षा में शामिल हुआ. इस छात्र ने तहलका से इस शर्त पर बातचीत की कि उसका नाम गुप्त रखा जाएगा. इसलिए हम यहां उस छात्र का बदला हुआ नाम इस्तेमाल कर रहे हैं. 

अमित उज्जवल ने सुपर-30 से कोचिंग की है. वे इस बार यानी 2011 की आईआईटी प्रवेश परीक्षा में शामिल हुए थे. अमित बताते हैं, सुपर-30 की प्रवेश परीक्षा काफी कठिन थी. पर आपको यह जानकर हैरत होगी कि इस परीक्षा में 30 की बजाय 60 छात्रों का चयन किया गया था. इस जांच परीक्षा के बाद सुपर-30 ने एक दूसरी प्रवेश परीक्षा का आयोजन किया था. इसके लिए अलग से फाॅर्म भरवाया गया जो आईआईटी के लिए नहीं था. यह इंजीनियरिंग की दूसरी प्रवेश परीक्षाओं के लिए था. इस प्रवेश परीक्षा के बाद सुपर-30 ने फिर 60 छात्रों का चयन किया. इस प्रकार सुपर-30 ने कुल 120 छात्रों का चयन किया. और जब कोचिंग शुरू हुई तो इसमें सभी 120 छात्रों को शामिल करके पढ़ाई कराई जाने लगी.’  उज्जवल आगे बताते हुए कहते हैं, ‘यह सच है कि सुपर-30 के इस 120 छात्रों की टीम में अधिकतर छात्र बहुत प्रतिभाशाली थे. इनमें शायद ही कुछ बच्चे ऐसे होंगे जिनकी प्रतिभा को कम कर आंका जा सके. अकसर हम लोगों की क्लास शाम में लगाई जाती थी. जब हम सुपर-30 में नहीं पढ़ते थो तो हमें यह जानकारी थी कि यहां सिर्फ 30 छात्रों का ही चयन होता है. पर यहां तो स्थिति बिलकुल अलग थी और यहां 30 की बजाय 120 छात्र पढ़ते थे.’ उज्जवल कहते हैं, ‘मुझे यह बात खलती थी कि सौ या उससे भी ज्यादा की भीड़ में पढ़ने से हम कई बार चीजों को समझ नहीं पाते थे. यही कारण है कि हमें कभी-कभी प्रोजेक्टर स्क्रीन पर पढ़ाया जाता था.’

एक घटना का उल्लेख करते हुए उज्जवल कुछ मायूस हो जाते हैं और सवाल खड़ा करते हैं कि कभी-कभी वहां कुछ छात्रों के साथ भेदभाव भी बरता जाता था. वे बताते हैं, ‘एक बार किसी संस्था (जिसका नाम उन्हें याद नहीं) की तरफ से पुरस्कार देने की घोषणा की गई. उस संस्था ने 30 छात्रों को पार्कर पेन दिया. यह स्पष्ट था कि 30 कलम सिर्फ 30 छात्रों को ही मिलती, इसलिए 120 में से 30 छात्रों को दिया गया.’ वे बताते हैं कि यह इसलिए किया गया क्योंकि दुनिया जानती है कि सुपर-30 में सिर्फ 30 छात्र ही पढ़ते हैं. इसलिए तीस से ज्यादा बच्चों को पुरस्कृत करने का मतलब हुआ कि दुनिया के सामने यह स्वीकार करना कि सुपर-30 में 30 से ज्यादा छात्र हैं. लेकिन यह पूछने पर कि जो 30 छात्र सबसे ज्यादा प्रतिभाशाली थे उन्हें ही पुरस्कृत किया गया होगा, उज्जवल कहते हैं, ‘अगर ऐसा है तो वे सुपर-30 में 30 छात्र होने का दावा क्यों करते हैं? साफ बताते कि उनके यहां 120 छात्र पढ़ते हैं.’

साक्षात्कार

‘मैं रिजल्ट से पहले अपने छात्रों के नाम नहीं बताऊंगा’

सुपर-30 और रामानुजम कोचिंग संस्थान के संचालक आनंद कुमार से इर्शादुल हक की बातचीत के मुख्य अंश

सुपर-30 पर ऐसे आरोप लगते हैं कि आईआईटी प्रवेश परीक्षा में उसकी सफलता के दावे झूठे हैं.

ऐसा बिलकुल नहीं है. 2004 से लेकर 2010 तक के सभी परीक्षा परिणाम आपके सामने हैं. क्या हमारा यह दावा भी गलत है कि सब्जी बेचने वाले अनुपम के बेटे ने भी आईआईटी कर लिया?

आप अपने 30 छात्रों के नाम परिणाम घोषित होने से पहले सार्वजनिक क्यों नहीं करते?

वर्ष 2007 में कुछ निजी कोचिंग संस्थानों ने काफी बखेड़ा खड़ा कर दिया था. वे हमारे बच्चों को अपने कोचिंग संस्थान के बच्चे बताने लगे थे. इसलिए हम इस तरह के विवादों में नहीं पड़ना चाहते.

इसमें विवाद कैसा. आप रिजल्ट से पहले सिर्फ इतना बता दीजिए कि वे कौन-से छात्र हैं जिन्हें आपने पिछले साल कोचिंग दी है.

हम पहले इसकी घोषणा कर देंगे तो निजी कोचिंग संस्थान उन बच्चों को बहला-फुसलाकर या पैसों का लालच देकर अपना छात्र बनाने का खेल करेंगे. वे पहले ऐसा कर चुके हैं. आप 25 मई का इंतजार करिए. उस दिन हमारे सभी बच्चे रहेंगे. आप उस दिन उनसे जो चाहें पूछ लें, जो चाहे बात कर लें. सारी सच्चाई उस दिन आपके सामने होगी.

लेकिन निजी कोचिंग संस्थान तो परिणाम आने के बाद भी आपके सफल छात्रों को अपना बता सकते हैं. तब आपके पास कौन-से साक्ष्य होंगे?

अब जिनको जो कहना है कहें. जिनको जो आरोप लगाना है लगाएं. मीडिया को जो लिखना है लिखे. हम परीक्षा परिणाम के पहले कुछ भी नहीं बताएंगे. हम समाज के लिए करते हैं, इसका फैसला समाज ही करेगा. हम पहले से शोर मचाना नहीं चाहते.

आप तहलका को अपने 30 छात्रों की लिस्ट दे दें. हम इन नामों को परिणाम घोषित होने के पहले सार्वजनिक नहीं करेंगे. रिजल्ट आने के बाद तहलका दुनिया को बताएगा कि आनंद के दावे की सच्चाई क्या है.

नहीं.. नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते कि किसी एक मीडिया को दें और दूसरे को नहीं दें. हां, अगली बार यानी 2012 से हम पूरी तरह तैयार रहेंगे और पहले ही इन नामों की घोषणा करेंगे.

अभयानंद भी  अनेक सुपर-30 कोचिंग चला रहे हैं और उन्होंने अपने छात्रों के नामों की पहले ही घोषणा कर दी है.

अभयानंद जी हमारे अभिभावक जैसे हैं. मैं उनका बहुत सम्मान करता हूं. इसलिए मैं उनके संबंध में कुछ नहीं बोलना चाहता.

जनता दरबार में पहुंची खुशबू रानी के मुताबिक उनसे सुपर-30 के लिए 10,000 रुपये लिए गए थे. बाकी 5,000 रु नहीं देने पर उन्हें बाहर कर दिया गया.

मुख्यमंत्री सचिवालय से मुझे भी फोन आया था. मैंने उन्हें बताया था कि वह लड़की हमारे पास आए तो हम उससे बात करें. उस दिन से मैं उसके फोन का इंतजार कर रहा हूं. वह नहीं आई.

सुपर-30 के छात्रों को सारी सुविधाएं मुफ्त मिलती हैं तो खुशबू के आरोपों से क्या समझा जाए?

मुझे उसकी असलियत पर ही संदेह है. हमारे विरोधी उसे हमारे खिलाफ इस्तेमाल कर रहे हैं.

कनीमोरी के साथ सौतेला व्यवहार

यह करुणानिधि की दूसरी पत्नी दयालु अम्मल की भाषाई अयोग्यता है या फिर दिल्ली और तमिलनाडु के राजनीतिक पारे को बर्दाश्त से बाहर ले जाने की उनकी क्षमता, जिसके चलते दिल्ली की विशेष अदालत में पेश की गई पूरक चार्जशीट से उनका नाम नदारद है?

पूर्व टेलीकॉम मंत्री ए राजा की तरह ही राज्यसभा सांसद एमके कनीमोरी की बलि भी दयालु अम्मल को बचाने के लिए की जा रही जोड़-तोड़ के चलते दी गई हो सकती है. दयालु तमिलनाडु के उपमुख्यमंत्री एमके स्टालिन और केंद्रीय रसायन व उर्वरक मंत्री एमके अलागिरी की मां हैं. जबकि कनीमोरी रजति अम्मल की बेटी हैं जिन्हें तमिलनाडु में करुणानिधि की संगिनी कहा जाता है. चार्जशीट में दयालु अम्मल का नाम आने का मतलब था जबर्दस्त पारिवारिक उठापटक और डीएमके व कांग्रेस के रिश्तों में स्थायी दरार पड़ जाना.

सीबीआई चार्जशीट के अनुसार ‘कलैनार टीवी में कनीमोरी का 20 प्रतिशत हिस्सा था और उसके संचालन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी. उन्होंने 2009 में राजा को फिर से टेलीकॉम मंत्री बनवाने के लिए डीएमके मुख्यालय और मध्यस्थों के बीच सक्रिय भूमिका निभाई.

ऐसा लगता है कि सीबीआई ने अपनी पूरक चार्जशीट के जरिए इसी संतुलन को साधने की कोशिश की है. चूंकि दयालु अम्मल की कलैनार टीवी में 60 प्रतिशत की हिस्सेदारी है, इसलिए उन्हें आरोपित बनाया जाना चाहिए था. लेकिन कहानी को एक अजीबोगरीब मोड़ देते हुए सीबीआई ने उन्हें सिर्फ गवाह बनाया है. सीबीआई चार्जशीट में कहा गया है,  ‘27 जुलाई, 2007 को हुई बोर्ड की मीटिंग में उन्होंने साफ-साफ कहा था कि अपनी बढ़ती हुई उम्र, बिगड़ते स्वास्थ्य और तमिल के अलावा कोई और भाषा न समझ पाने के चलते उनसे यह उम्मीद नहीं की जानी चाहिए कि वे कंपनी के काम-काज पर ध्यान दे पाएंगी. वे सिर्फ कानूनी जरूरतों को पूरा करने के लिए मीटिंग में मौजूद रहा करेंगी.’

लेकिन कनीमोरी के मामले में ऐसी रियायतें नहीं दिखाई पड़तीं. सीबीआई चार्जशीट के अनुसार ‘कलैनार टीवी में कनीमोरी का 20 प्रतिशत हिस्सा था और उसके संचालन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी. उन्होंने 2009 में राजा को फिर से टेलीकॉम मंत्री बनवाने के लिए डीएमके मुख्यालय और मध्यस्थों के बीच सक्रिय भूमिका निभाई. इससे राजा और कनीमोरी के बीच गहरे संबंधों का पता चलता है.’ चार्जशीट में आगे कहा गया है कि जांच से साबित हो जाता है कि एक आपराधिक साजिश के तहत आरोपित राजा, शरद कुमार और कनीमोरी को डीबी ग्रुप की कंपनियों के खातों से अवैध रूप से शहिद बलवा और विनोद गोयनका द्वारा 200 करोड़ रुपये दिए गए. इसके बदले में राजा ने स्वान टेलीकॉम को कई तरह से लाभ पहुंचाया.
कयास लगाए जा रहे थे कि यदि दयालु अम्मल और कनीमोरी के खिलाफ चार्जशीट दाखिल की गई तो डीएमके केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर का रुख कर सकता है. विपक्षी पार्टियों ने इस गड़बड़झाले पर निशाना साधा है. भाजपा प्रवक्ता निर्मला सीतारमन का कहना है, ‘हमें पता है कि इस पूरे मामले की निगरानी सुप्रीम कोर्ट कर रहा है, लेकिन इसे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि 2जी घोटाले से लाभ लेने वाली कंपनी में 60 फीसदी हिस्सा रखने वालों को बाहर रखा गया है और 20 प्रतिशत हिस्सा रखने वालों पर आरोप लगाया गया है. सक्रिय और निष्क्रिय हिस्सेदारी में कानून कोई अंतर नहीं करता. किसी को तो बताना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है.’ माकपा के तमिलनाडु राज्य सचिव टी पांडियन कहते हैं, ‘यह सबको पता है कि 2जी घोटाले से मुख्य रूप से करुणानिधि के परिवार ने लाभ उठाया है. यह किसी एक या दो की बात नहीं, पूरा परिवार इसमें शामिल है.’

इस बीच डीएमके कनीमोरी को आरोपित बनाए जाने के मामले को बहुत तूल नहीं दे रही है. पार्टी नेता टीकेएस एलांगोवन के मुताबिक, ‘आरोप साबित ही नहीं किए जा सकते क्योंकि कलैनार टीवी द्वारा लिया गया पैसा कर्ज के तौर पर था. चैनल ने यह कर्ज ब्याज सहित चुकता कर दिया था. डीएमके को पूरा विश्वास है कि जांच पूूरी होने पर राजा और कनीमोरी दोनों बेदाग निकलेंगें.’

कनीमोरी पर आपराधिक षड्यंत्र का आरोप है, इसलिए जांचकर्ताओं के करीबी सूत्र 6 मई को उनकी गिरफ्तारी की संभावना से इनकार नहीं कर रहे हैं. अगर ट्रायल कोर्ट कनीमोरी की जमानत याचिका रद्द कर देती है ताे राजधानी दिल्ली का राजनीतिक पारा कुछ और  डिग्री चढ़ने वाला है.

‘कृपया हमारे भरोसे ही न बैठे रहें’

चिकित्सा विज्ञान में नित नयी खोजों की चर्चा मीडिया में भी डटकर होती है. जब से कॉरपोरेट अस्पतालों ने देश के सुदूर कस्बों तक कैंपों, एजेंटों तथा ‘एग्रेसिव मार्केटिंग’ के जरिए अपनी उपस्थिति दर्ज की है, तबसे बहुतों को यह भ्रम हो गया है कि अब चिकित्सा विज्ञान के पास हर बीमारी का इलाज आ गया है और उसके हाथ अमृतघट लग गया है. लोग सोचते हैं कि वे दिन हवा हुए जब मौत के सामने अमीर तथा गरीब बराबर हुआ करते थे – अब वे सुनहरे दिन आ गए हैं जब चिकित्सा विज्ञान के ‘महामृत्युंजय जाप के विशेषज्ञ’ पुजारियों को पैसा चढ़ाकर अमृत प्रसाद खरीदा जा सकता है. चिकित्सा विज्ञान का क्षेत्र एंजियोप्लास्टी, बाइपास सर्जरी, गामा नाइफ, अंग प्रत्यारोपण, बोनमैरो ट्रांसप्लांटेशन, इम्यूनोग्लोबिन्स ऑटोइम्यूनिटी की दवाइयां, स्टेम सेल थिरेपी, जीन थिरेपी से लेकर नित नयी, और-और महंगी एंटीबायटिक्स की ऐसी चकाचौंध में लिपटा है कि सामान्य जन की आंखें चौंधिया गई हैं. वह सारे परिदृश्य पर मात्र इस कारण भरोसा कर रहा है कि इतनी रोशनी में कुछ भी छिपा थोड़े ही है… 

पर याद रहे कि चकाचौंध का भी अपना अंधेरा होता है और ज्यादा रोशनी भी अंधा बना सकती है. यह जान लें कि इतनी खोजों के बाद भी चिकित्सा की स्थिति आइंस्टीन की भांति ही है जो मानते थे कि वे सागर के अन्वेषण में निकले तो हैं पर अभी सागर तट की रेत की सीपियों-शंखों को ही समझने में लगे हैं. मानव शरीर को जानने का किस्सा अभी अंधों द्वारा हाथी को टटोलने के किस्से की तरह न भी चल रहा हो, पर है उसके आसपास का ही. हम इस भ्रम में न पड़ें कि अब हर चीज का इलाज डॉक्टरों के पास है. इसी भ्रम के कारण हम अस्सी-नब्बे वर्ष के बूढ़े की मौत पर भी अस्पताल में हंगामा मचा देते हैं, एंजियोप्लास्टी के बाद भी हार्ट-अटैक हो जाने पर डॉक्टरों को गालियां देते हैं तथा यह संवाद बोलते रहते हैं कि डाक्टर साहब, आप पैसे की चिंता मत करो, बस ठीक कर दो.

चिकित्सा विज्ञान के गणित में दो जमा दो चार से लेकर जीरो तक कुछ भी हो सकता है.

कुछ बातें याद रखें. ज्यादातर बीमारियों में जो इलाज उपलब्ध हैं वे क्योर या जड़ से बीमारी हटाने वाले नहीं हैं बल्कि तकलीफ से निजात देने वाले ही हैं. मैं कुछ बेहद पॉपुलर इलाजों का उदाहरण दूंगा. एंजियोप्लास्टी को लें. इसकी सीमाएं हैं जो प्रायः समझाई नहीं जातीं. ‘बाइपास सर्जरी’ का उदाहरण भी वही है. ज्यादातर हार्ट अटैक के मरीजों या उनके रिश्तेदारों को यह लगता है कि एंजियोप्लास्टी या बाईपास कराने से हार्ट अटैक ठीक हो गया. उनकी इस गलतफहमी को कोई दूर भी नहीं करता. कोई भी यह यह नहीं बता रहा कि एंजियोप्लास्टी तथा बाइपास केवल तात्कालिक समाधान हैं. एंजियोप्लास्टी या बाईपास के बाद भी हार्ट अटैक से जुड़ी चीजें तो आपके साथ ही रहती हैं. आपका शरीर वही रहता है. आपका मन वही रहता है. जेनेटिक्स वही रहती है. इसीलिए एंजियोप्लास्टी भी बाद में बंद हो सकती है. बाइपास के ग्राफ्ट ऑपरेशन के तुरंत बाद भी बंद हो सकते हैं. अभी भी हार्ट अटैक का इलाज उससे बचाव में ही है. खान-पान, व्यायाम, मानसिक शांति, कोलेस्ट्राल कम करने वाली दवाइयां- इनसे ही आपकी आयु बढ़ेगी. आज तक चिकित्सा विज्ञान ने कभी यह नहीं कहा है कि बाइपास सर्जरी या एंजियोप्लास्टी से आयु बढ़ जाएगी. यह बात डॉक्टर इसलिए नहीं बता पाता कि वह अपने ही पेट में लात कैसे मार सकता है?

एंटीबायटिक्स को लेकर तो बहुत बड़ा कार्निवाल या उत्सव-सा चल रहा है चिकित्सा विज्ञान मेंे. डब्ल्यूएचओ ने इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए इस वर्ष की थीम ही यही रखी है कि एंटीबायटिक्स को एहतियात से नहीं बरतोगे तो ये काम करना बंद कर देंगी. अभी लोगों को यह खुशफहमी है कि हमारे पास हर इन्फेक्शन से लड़ने के लिये कारगर औषधियां हैं. मेडिकल साइंस से ऐसी गलत उम्मीदें न पाली जाएं. एक जमाने में प्लेग या हैजा की महामारी आती थी और हजारों मर जाते थे. टीबी लाइलाज  थी और लाखों मरते थे. बाद में उनकी दवाएं (एंटीबायटिक्स) आ गईं तो ये बीमारियां लगभग बच्चों का खेल हो गईं. परंतु धीरे धीरे हम पुनः उसी तरफ जा रहे हैं जहां दवाइयां काम नहीं करेंगी क्योंकि जीवाणु उनके अत्यधिक प्रयोग के कारण रेसिस्टेंट हो रहे हैं. तब? ये महामारियां पुनः आकर हजारों को साफ कर सकती हैं. और अकेली एंटीबायटिक तो वैसे भी असर नहीं करती. बूढ़े, कमजोर, कुपोषित, अन्य बीमारियों से ग्रसित आदमी के इन्फेक्शन में ये दवायें काम नहीं कर पातीं. ये अंततः आपके शरीर को रोग से लड़ने में सहायता भर करती हैं. हथियार हैं यह. चलाना शरीर को है. एंटीबायटिक्स को लेकर कोई खुशफहमी न पालें. लगभग यही हाल उन सारी खोजों का है जो चिकित्सा विज्ञान ने की हैं. सभी बेहद महंगी हैं. सभी में बहुत खर्चीली जांचें, दवाइयां लगती हैं. प्रायः सभी में सौ प्रतिशत की क्या पचास प्रतिशत की भी गारंटी नहीं होती.

तो क्या हम यह मानें कि चिकित्सा विज्ञान में जो हो रहा है, वह फालतू का तमाशा है? नहीं, नहीं. मेरे लेख का यह संदेश कतई न लें. मैं कहने की कोशिश कर रहा हूं कि बहुत बड़ी तथा गलत आशाएं पालकर डॉक्टर के पास न जाएं. हर इलाज की सीमा है. चिकित्सा विज्ञान के गणित में दो में दो जोड़ो तो उत्तर चार से लेकर जीरो तक कुछ भी हो सकता है. संदेश यह है कि अपना शरीर संभालकर रखें. अपने बुजुर्गों की सीख की तरफ लौटें. खान-पान, व्यायाम आदि का खयाल करें. बचाव ही इलाज है.