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शिक्षा, मंत्री और सरकार

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इलेस्ट्रेशनः मनीषा यादव

निस्संदेह, पूर्व खेल और युवा मामलों के मंत्री अजय माकन ने जब मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की शैक्षणिक डिग्री पर सवाल उठाया तो वे एक हल्केपन का परिचय दे रहे थे जो मंत्री रह चुके किसी नेता को शोभा नहीं देता. शैक्षणिक डिग्री योग्यता की इकलौती या अंतिम कसौटी नहीं होती, यह ज्ञान सामान्य ज्ञान से ज्यादा की हैसियत नहीं रखता. माकन ने फिर भी लगभग छींटाकशी वाला यह ट्वीट किया जो शायद एक राजनीतिक खीझ भर का मामला था, क्योंकि इसके कोई राजनीतिक फायदे भी नहीं थे.

लेकिन इस धक्के ने एक-दूसरे की डिग्रियां पूछने और उजागर करने का जो खेल शुरू किया, उससे पता चला कि अपनी पढ़ाई-लिखाई का स्तर शायद कभी स्मृति को भी कचोटता रहा होगा, इसलिए 2004 में उन्होंने चुनाव आयोग को अपना हलफनामा देते हुए खुद को बीए पास बताया था. शायद बाद में पकड़े जाने के डर से, या फिर इसे गैरजरूरी मान कर उन्होंने 2014 में असली पढ़ाई-लिखाई का राज खोला और बताया कि वे बीकॉम की पढ़ाई पहले साल से आगे नहीं जारी रख पाईं.

दो हलफनामों के हेरफेर में छोटे-मोटे कानूनों की अवहेलना करने की जो भारतीय आदत है, उसे नजरअंदाज कर दें तो भी शायद यह बहुत बड़ा मामला नहीं है. यानी इसे स्मृति के मानव संसाधन मंत्री बन सकने की योग्यता या अयोग्यता का प्रमाण नहीं माना जा सकता- इससे बस यह पता चलता है कि अपनी वैधानिक या सत्य-निष्ठा में ईरानी कोई आदर्श प्रस्तुत नहीं कर सकतीं जैसे अपनी पढ़ाई-लिखाई से भी नहीं कर सकतीं. इस मामले में भी वे आम भारतीय जनता और नेता जैसी हैं.

लेकिन जो जेन ऑस्टिन से लेकर स्टीव जॉब्स तक के उदाहरण पेश करके बता रहे हैं कि डिग्री से कुछ नहीं होता, वे दरअसल दूसरा सच छुपा रहे हैं. स्मृति ईरानी ने ऑस्टिन या जॉब्स या ऐसा ही कोई और विकट प्रतिभाशाली व्यक्तित्व होने का दूर-दूर तक परिचय नहीं दिया है. वे मंत्रिमंडल में अपनी शैक्षणिक योग्यता या किसी अन्य प्रतिभा या संभावना की वजह से नहीं, प्रधानमंत्री मोदी की निगाह में अपनी हैसियत के चलते मंत्री बनी हैं.

असली सवाल यही है- जो सिर्फ नए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से नहीं, भारत की पूरी राजनीति से पूछा जाना चाहिए. क्या लोकतंत्र को उन्होंने बस संख्या बल से हासिल जीत का पर्याय नहीं बना डाला है और इस वजह से क्या हर जगह उनकी कसौटियां निजी वफादारी या सार्वजनिक हैसियत से ही तय नहीं होती हैं?  केंद्रीय मंत्रिमंडल में राजनाथ सिंह, अरुण जेटली या सुषमा स्वराज से लेकर धारा 370 की बहस छेड़ने वाले राज्यमंत्री जितेंद्र सिंह तक अपने विषयों की जानकारी से नहीं, अपनी हैसियत या वफादारी की वजह से उन जगहों पर हैं, जहां वे रखे गए हैं. बेशक, कुछ मामलों में क्षेत्रीय या दलीय प्रतिनिधित्व की मजबूरियां भी रही हैं, लेकिन अन्यथा मंत्रिमंडल में आने-जाने की कसौटियां बेहद अलग और स्पष्ट हैं और वे राजनीतिक प्राथमिकताओं से ही तय होती हैं.

लेकिन इस नजरिए से देखें तो बदलाव के लिए मिले जनादेश के नाम पर मंत्रियों से 100 दिन का एजेंडा मांगने या कम शासन अधिक प्रशासन जैसे मुहावरे देने के अलावा नरेंद्र मोदी सरकार किसी भी मामले में पुरानी सरकारों से अलग नहीं दिख रही. उल्टे, पहले वित्तमंत्री के रूप में और फिर प्रधानमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने उदारीकरण का जो एजेंडा सेट किया, वह उसे कुछ जोर-शोर से ही बढ़ा रही है. बाजार, निवेश और बड़े पूंजीपति उसकी प्राथमिकताओं में हैं इसलिए उसने वित्त, वाणिज्य और भारी उद्योग जैसे मंत्रालय तो घोषित कर दिए, लेकिन कामगार उसकी सूची से बाहर हैं इसलिए अब तक श्रममंत्री की घोषणा नहीं की. अब तो शक होता है कि श्रम मंत्रालय जैसा कोई महकमा बचेगा भी या नहीं. जहां तक मानव संसाधन जैसे भारी-भरकम शब्द के नीचे दबी हुई शिक्षा का सवाल है, उसको लेकर भी सरकार की सोच में कोई नयापन नहीं दिखता.

जो जेन ऑस्टिन से लेकर स्टीव जॉब्स तक के उदाहरण पेश करके बता रहे हैं कि डिग्री से कुछ नहीं होता, वे दरअसल दूसरा सच छुपा रहे हैं

सच तो यह है कि हमारे समय और समाज में शिक्षा के सवाल सबसे गहरे और उसकी चुनौतियां सबसे तीखी हैं. पूरी की पूरी शिक्षा जैसे बेहतर मनुष्य या नागरिक बनाने की जगह बाजार के लिए प्रबंधक, इंजीनियर और डॉक्टर बनाने को समर्पित है और साहित्य, इतिहास या समाजशास्त्र जैसे मानविकी के तहत आने वाले वे विषय जो सभ्यता और संस्कृति के दूरस्थ आयामों का परिचय देते हैं, उपेक्षित नहीं, बिल्कुल बेदखल हैं.

पिछली सरकार ने कम से कम शिक्षा को बच्चों के बुनियादी अधिकार के तौर पर मान्यता जरूर दी थी, लेकिन प्राथमिक शिक्षा पर निजी पूंजी के लगातार बढ़ते शिकंजे के साथ यह सच्चाई और बड़ी हो रही है कि हमारे समाज की गैरबराबरी हमारे स्कूलों की गैरबराबरी के साथ ही शुरू हो जाती है. इसी तरह उच्च शिक्षा के जो भी लक्ष्य हमने निर्धारित किए हों, वे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और विश्वविद्यालयों के आगे कहीं नहीं टिकते. कुछ प्रमुख प्रबंधकीय और अभियंत्रण संस्थानों के छात्र विदेशों में जाकर आगे की पढ़ाई या नौकरी कर लेते हैं और उसी से हम खुश हो जाते हैं. शोध की स्थिति हमारे यहां बेहद बुरी है.

कोई संजीदा मानव संसाधन मंत्री होता तो शायद वह इन सवालों पर विचार करता. लेकिन क्यों करता? ये सवाल जब सरकार के एजेंडे में प्राथमिक नहीं हैं तो वह उनका बोझ क्यों उठाए? निजी विश्वविद्यालयों की मंजूरी, कुछ आईआईटी-आईआईएम की घोषणाओं और शिक्षा के चैनलों के नाम पर कुछ खिलाड़ियों की गुंजाइश बनाने के अलावा स्मृति ईरानी को करना क्या है जिसके लिए उन्हें अयोग्य करार दिया जा सके? उनके पहले के पढ़े-लिखे मानव संसाधन मंत्रियों ने ही कौन से तीर मारे हैं कि वे या उनके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने लिए किन्हीं नए लक्ष्यों की चुनौती महसूस करें और सोचें कि बदलाव के जिस जनादेश की वे बात कर रहे हैं, उसका असली मतलब क्या है?

फुटबॉल विश्वकप 2014: खिताब का हिसाब

sopan_joshiकोई मुझसे पूछे तो मैं फाइनल में वही दो टीमें देखना चाहूंगा जो 1990 के विश्व कप फाइनल में भिड़ी थीं–जर्मनी और अर्जेंटीना. क्यों? क्योंकि कि वे दुनिया की सबसे अच्छी चार टीमों में से हैं. बाकी दो हैं स्पेन और ब्राजील. जर्मनी और अर्जेंटीना को फाइनल में देखने की मेरी इस इच्छा की एक और वजह भी है. फुटबाल को उसके कर्ता-धर्ता किस तरह चलाते हैं, इस मामले में ये दोनोें देश दुनिया का सबसे बड़ा विरोधाभास हैं. वे इस खेल की दुनिया के दो ध्रुव हैं.

लगभग डेढ़ दशक पहले गर्त में जा चुके जर्मन फुटबाल ने अपनी लय किस तरह वापस पाई यह अब एक मशहूर उदाहरण है. 2000 में यूरोपियन चैंपियनशिप के पहले ही दौर में बाहर होकर जर्मनी फुटबाल में अपने पतन के पाताल में पहुंच गया था. उस पूरे टूर्नामेंट में टीम बस एक ही गोल कर सकी. इसके बाद जर्मन फुटबाल जगत में काफी उथल-पुथल हुई. जर्मनी की फुटबाल एसोसिएशन डायचर फुसबाल बुंड (डीएफबी) में आमूलचूल बदलाव लाए गए. यह इसलिए भी बहुत जरूरी हो गया था कि 2006 का विश्व कप जर्मनी में ही होना था.

तो जर्मनी ने फुटबाल में खुद को संवारने के लिए सरकारी खजाने का मुंह खोल दिया. छोटी-छोटी जगहों पर खेलने के लिए मैदान और दूसरी सुविधाओं की व्यवस्था हुई. युवा प्रशिक्षक तैयार किए गए जिन्होंने युवा प्रतिभाओं को खोजना और तराशना शुरू कर दिया. इसका नतीजा 2010 में दक्षिण अफ्रीका में हुए विश्व कप में दिखा जहां 23 साल के औसत के साथ जर्मनी सबसे नौजवान और आकर्षक टीम थी. इंग्लैंड को 4-1 और अर्जेंटीना को 4-0 के प्रभाशाली अंतर से हराते हुए जर्मनी सेमीफाइनल में पहुंचा जहां उसे भावी चैंपियन स्पेन ने एक रोमांचक मैच में 1-0 से हराया.

फोटो: एएफपी
फोटो: एएफपी

जर्मनी में फुटबाल का ढांचा बाकी जगहों से अलहदा है. इंग्लैंड में होने वाली प्रीमियर लीग नामक लोकप्रिय क्लब फुटबाल सीरीज में आपको अमेरिका, रूस और खाड़ी देशों के मालिक और सैकड़ों करोड़ की बोली लगाकर खरीदे गए विदेशी खिलाड़ी मिलेंगे. लेकिन डीएफबी कॉरपोरेट कंपनियों और विदेशी निवेशकों को फुटबाल क्लब खरीदने की इजाजत नहीं देता. इसलिए वहां के फुटबाल क्लबों पर किसी रोमान अब्राहमोविच या विजय माल्या का नियंत्रण नहीं है. सिर्फ वोल्फबुर्ग और बायर लीफेकुसन जैसे क्लब इसके अपवाद हैं जिन्हें ऑटोमोबाइल कंपनी फोक्सवॉगन और रसायन बाजार के दिग्गज बायर ने बनाया था. हालांकि इन दोनों कंपनियों की भूमिका भी इन क्लबों में एक ट्रस्टी की है. बुंदेसलीगा (जर्मनी में होने वाली फुटबाल लीग) के बाकी दूसरे क्लबों के मालिक स्थानीय सदस्य और समर्थक हैं.

तो कुल मिलाकर जर्मनी ने अपनी फुटबाल में स्थानीय गुणवत्ता और चमक रखी है इसलिए उसकी टीम में भी वहां के समाज जैसी विविधता दिखती है. भले ही विस्फोटक मार्को रोल्स रॉयस घायल हों और विश्व कप में न खेल सकें, लेकिन मारियो गोत्जे, थॉमस म्युलर, मेसुट ओजील और टोनी क्रूस जैसे स्टार और प्रतिभावान खिलाड़ियों से मिलकर बनी मजबूत फौज भला किस दूसरे देश के पास है?

इस सवाल के जवाब में बहुत से लोग अर्जेंटीना का नाम ले सकते हैं. लियोनेल मेसी, सर्जियो एक्वेरो, गोन्जालो हिक्वेन और एंजेल डीमैरिया जैसी प्रतिभाओं के साथ अर्जेंटीना की टीम किसी भी सुरक्षा पंक्ति को भेद सकती है. लेकिन जब बात उसकी अपनी सुरक्षा पंक्ति पर आती है तो यहां वह कमजोर पड़ जाती है. दक्षिण अफ्रीका में हुए पिछले विश्व कप में यह साफ दिखा था. पिछली बार अर्जेंटीना टीम के मैनेजर और दिग्गज डिएगो मैरेडोना ने अपने सबसे अनुभवी और असरदार डिफेंसिव मिडफील्डरों जेवियर जैनेटी और ईस्टबान कैंबियासो को टीम में नहीं लिया था. काफी लोगों ने इस पर हैरानी जताई थी. दरअसल मैरेडोना को लग रहा था कि उनके जादुई स्ट्राइकर ही काफी होंगे. ऐसा नहीं हुआ. शायद ही किसी को ध्यान हो कि 1978 और 86 में अर्जेंटीना के विश्व कप जीतने में डिफेंसिव मिडफील्डर डैनियर पासारेला का भी बहुत अहम योगदान था. ज्यादातर लोग इन विश्व कप विजयों में अर्जेंटीना के शानदार प्रदर्शन के लिए मारियो केंप्स और मैरेडोना को याद करते हैं जिनके गोल अब किंवदंतियों का हिस्सा हैं. लेकिन यह भी सच है कि सुरक्षापंक्ति में अगर पासारेला नहीं होते तो अर्जेंटीना ये दो विश्वकप नहीं जीत सकता था. इस बार अर्जेंटीना की टीम में उन जैसा कोई नहीं है. जैनेटी और कैंबियासो बीती मई में ही रिटायर हो चुके हैं.

देखा जाए तो अर्जेंटीना को फुटबाल का पाकिस्तान कहा जा सकता है. यहां फुटबाल का खेल जिस तरह से चल रहा है उसे देखकर यह सीखा जा सकता है कि किसी लोकप्रिय खेल का प्रशासन किस तरह से नहीं चलाया जाना चाहिए. अर्जेंटीना के फुटबाल प्रशासक जिस तरह काम करते हैं उसे देखकर कोई यह कहेगा कि भारत में बीसीसीआई और पाकिस्तान में पीसीबी तो बहुत अच्छी तरह से चल रहे हैं. बीते एक दशक में अर्जेंटीना में फुटबाल का नियंत्रण अपराधी गैंगों के हाथ में जा चुका है. किसी क्लब ने कोई बड़ा खिलाड़ी खरीदा हो तो कमीशन के रूप में एक रकम उन्हें भी जाती है. स्टेडियम में कितनी सीटें किसको मिलेंगी, यह वे तय करते हैं. कुल मिलाकर माफिया अर्जेंटीना में फुटबाल के माईबाप हैं. जो भी इस स्थिति का विरोध करता है उसे हिंसा झेलनी पड़ती है. उसका खून तक हो जाता है. क्लब समर्थकों के संघ इन अपराधी सिंडीकेटों के बाहुबलियों द्वारा चलाए जाते हैं.

ब्राजील के कई खिलाड़ी घरेलू लीग में भी खेलते हैं. लेकिन अर्जेंटीना में जरा भी प्रतिभा रखने वाले किसी खिलाड़ी के पास देश छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता. जब यूरोप के अलग-अलग क्लबों में खेलने वाले अर्जेंटीना के खिलाड़ी राष्ट्रीय टीम के लिए इकट्ठा होते हैं तो उनमें वह सहज लय और ठोस तालमेल नहीं दिखता जो ब्राजील, स्पेन या जर्मनी के खिलाड़ियों में दिखता है. पासारेला और जैनेटी जैसे सक्षम मुखियाओं की गैरमौजूदगी में अर्जेंटीना की टीम के बड़े अवसर पर बिखरने की आशंका रहती है.

फिर भी अर्जेंटीना के पास शानदार खिलाड़ी तो हैं ही. सबसे बढ़कर तो उसके पास मैसी हैं. किसी टीम में अगर दुनिया का सबसे अच्छा खिलाड़ी खेल रहा हो तो टीम का उत्साह अपने आप ही बढ़ जाता है. बाकी इस बात पर निर्भर करता है कि सुरक्षा पंक्ति की कमजोरी से पार पाने के लिए टीम कोई रणनीति ढूंढ पाती है या नहीं.

उधर, ब्राजील को इस मोर्चे पर चिंतित होने की जरूरत नहीं है. कप्तान थिएगो सिल्वा के रूप में उसके पास अंतर्राष्ट्रीय फुटबाल का शायद सबसे बढ़िया सेंटर बैक है. दुनिया का ध्यान भले ही नेमार-ऑस्कर-फ्रेड-हल्क के आक्रमण से सजी उसकी फॉरवर्ड लाइन पर हो, लेकिन यह नहीं भूलना चाहिए कि ब्राजील के पास पाउलिनो, लुई गुस्ताव और रैमायर्स के रूप में सेंट्रल मिडफील्डरों की एक शानदार फौज है. ये ऐसे खिलाड़ी हैं जो जरूरत के हिसाब से सुरक्षा और आक्रमण, दोनों में ताकत जोड़ सकते हैं. इसके अलावा ब्राजील के पास डैनी एल्विस और मार्सेलो भी हैं जो शायद दुनिया के सर्वश्रेष्ठ आक्रामक फुल बैक हैं. इस तरह देखें तो आक्रमण के लिहाज से ब्राजील की टीम दूसरी टीमों से ज्यादा ताकतवर है.

इसके उलट स्पेन के पास सबसे बढ़िया संतुलन है. कंट्रोल, क्रिएशन, पजेशन और टैंकलिंग, हर लिहाज से स्पेनिश टीम मजबूत है. कंट्रोल के मोर्चे पर उनके पास जैवी मार्टिनेज, सर्गियो बस्क्वेट्स और जाबी अलोंसो हैं. क्रिएटिविटी के लिहाज से एंड्रेस इनिएस्टा, जुआन माटा, डेविड सिल्वा और कोक का कोई सानी नहीं. शावी हैर्नांडिस के रूप में उनके पास दुनिया का सबसे प्रभावशाली मिडफील्डर है. शावी की क्षमताओं का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि स्पेन के पास ऊंचे दर्जे वाले मिडफील्डरों का भंडार है, लेकिन विश्व कप के लिए चुना गया 34 साल के शावी को. उनकी टक्कर के सिर्फ इटली के आंद्रिया पिर्लो हैं जो 2006 के विश्व कप फाइनल में मैन ऑफ द मैच थे. वही मैच जिसमें फ्रांस के स्टार खिलाड़ी जिनेदिन जिडान को उनके कुख्यात हेड बट के कारण रेड कार्ड दिखाकर मैच से बाहर कर दिया गया था. अगर शावी ने 2010 में स्पेन को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाई थी तो पिर्लो 2006 में इटली की विश्वकप जीत के सूत्रधार थे. पिर्लो भी अब 34 के हो चुके हैं और यह उनके अनुभव और क्षमता का ही कमाल है कि उन्हें कहीं ज्यादा युवा और चुस्त खिलाड़ियों पर वरीयता मिली है.

इससे एक अहम संकेत मिलता है. विश्व कप का खिताब अपनी झोली में डालने के लिए किसी भी टीम को प्रभावी मिडफील्डरों की भी जरूरत होगी, न कि सिर्फ सुर्खियों में छाए रहने वाले फॉरवर्डों की. बल्कि स्पेन और जर्मनी तो शायद ही पारंपरिक फॉरवर्ड का इस्तेमाल करें. सी फाब्रेगास और गोत्जे जैसे खिलाड़ी शायद इस बार फॉल्स नाइन वाली भूमिका में होंगे. पिछले कुछ सालों के दौरान चलन में आई इस भूमिका के तहत खिलाड़ी की पोजीशन तो फॉरवर्ड या स्ट्राइकर की होती है, लेकिन उसका खेल एक हमलावर मिडफील्डर जैसा होता है. लियोनेल मेसी सबसे मशहूर फॉल्स नाइन हैं.

चार शीर्ष टीमों के अलावा इस बार नीदरलैंडस से भी काफी उम्मीदें लगाई जा रही हैं. पहले ही मैच में विश्व चैंपियन स्पेन को 5-1 से रौंदकर उसने आगाज भी उम्मीदों के हिसाब से ही किया है. बेल्जियम के बारे में भी कहा जा रहा है कि उसकी अब तक की सर्वश्रेष्ठ टीम मैदान में है. वैसे भी इस दौर को बेल्जियन फुटबाल का स्वर्णिम दौर कहा जा रहा है. कोएशिया भी कोई चमत्कार कर सकती है जिसके पास लूका मोड्रिक के रूप में शावी या पिर्लो का सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी है. इसके अलावा इटली, फ्रांस और जापान पर भी सबकी नजर रहेगी. विश्व कप में हर बार किसी अफ्रीकी टीम का कमाल भी दिखता है. यह बात अलग है कि दूसरे दौर में उसकी वह लय बरकरार नहीं रह पाती. दरअसल अभी तक सिर्फ आठ टीमें ही विश्व कप जीत सकी हैं तो उसका एक कारण है और वह यह है कि खिताब जीतने के लिए खेल के एक स्तर तक पहुंचना होता है. ब्राजील अगर पांच बार विश्व कप जीता है तो इसकी वजह उसकी पूर्व प्रतिष्ठा नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ उसके खेल का निरंतर श्रेष्ठ स्तर है.

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इन नदियों का उद्गम भी ‘गोमुख’ होता…

स्वणर्रेखा नदी. सभी फोटोः अनुपमा
स्वर्णरेखा नदी. सभी फोटोः अनुपमा
स्वर्णरेखा नदी. सभी फोटोः अनुपमा

झारखंड की जीवनरेखा मानी जाने वाली स्वर्ण रेखा नदी के उद्गम को लेकर जितने मुंह उतने किस्से हैं. यह नदी एक हकीकत है लेकिन इस हकीकत की स्थापना पूरी तरह मिथकों के हवाले है. कोई इसे अर्जुन के बाण से फूटा महाभारतकालीन जल का सोता कहता है तो कोई इसे भीम के ससुराल से जुड़ा बताता है.

स्वर्ण रेखा और उसके आसपास के इलाके को मिथकीय इतिहास से जोड़ने की शुरुआत करते हैं राजेंद्र साधु बाबा. वह बताते हैं, ‘यहां से थोड़ी दूर पर हरही गांव है जहां भीम का ससुराल था. भीम और हिडिम्बा के पुत्र घटोत्कच का जन्म भी यहीं हुआ था.’ इससे पहले कि बाबा अपनी बात के पक्ष में कोई तर्क दें, बसंत चौधरी एक दूसरे किस्से के साथ अवतरित होते हैं. उनके मुताबिक महाभारत में वर्णित एकचक्रा नगरी नाम ही अपभ्रंश होकर अब नगड़ी हो गया है. तीसरे सज्जन विजय केसरी हमें चारों तरफ फैले खेतों के बीच एक कुएं के पास ले जाते हुए बताते हैं कि यह रानीचुआं है. अज्ञातवास के समय के पांडव पास के गांव में ही रुके थे, जिसका नाम अब पांडु है. एक दिन कि बात है, द्रौपदी को तेज प्यास लगी. अर्जुन ने धरती में बाण मारा तो जलस्रोत फूट पड़ा. द्रौपदी की प्यास बुझ गयी लेकिन बाण का प्रहार इतना तेज था कि उससे एक अविरल धारा ही बहने लगी, जो कालांतर में स्वर्णरेखा नदी बन गई.

ये सारे किस्से-कहानियां झारखंड की राजधानी रांची से करीब 20-25 किलोमीटर दूर नगड़ी में सुनाये जा रहे थे. स्वर्णरेखा नदी इसी इलाके से निकलती है. ये सारे मिथ क्यों गढ़े गए होंगे, यह अलग शोध का विषय है लेकिन विजय केसरी द्वारा दिखाया गया रानीचुआं कुआं मिथक नहीं प्रतीत होता. वह सच है. बहुत संभव है कि झारखंड की जीवन रेखा कही जाने वाली इस नदी को अपेक्षित पहचान न मिल पाने की कोफ्त में ही यहां के रहवासियों ने धीरे-धीरे मिथकीय किस्सों के जरिये अपनी पहचान बनानी शुरू कर दी हो.

स्वर्णरेखा नदी के उस उद्गम स्रोत को देखने के बाद एकबारगी विश्वास नहीं होता कि यह विशाल नदी एक सोते से निकलती होगी, जिसे बांध कर एक कुएं का रूप दे दिया गया है. राजेंद्र साधु बाबा जैसे लोग बार-बार कहते हैं कि आप यकीन कीजिए, यह साधारण कुआं नहीं है, यहां से जो पानी निकलता हुआ आप देख रही हैं, ठीक वैसा ही जलप्रवाह आप तपती गरमी से लेकर भीषण अकाल के क्षणों में भी देख सकती हैं. कुएं से पानी की अविरल धारा तो निकलती हुई दिखती है लेकिन कुछ दूरी के बाद ही वह तालाब के रूप में दिखती है. स्वामी विवेकानंद ग्रामीण विकास संस्थान से जुड़े वार्ड पार्षद प्रदीप कहते हैं कि बहुत दुविधा में रहने की जरूरत नहीं, आप आगे चलिए तो शायद आपको यकीन होगा कि नदी ऐसे भी निकलती है. वे आगे पांडु, भौरोटोली, बंघिया, डोकाटोली आदि गांवों में ले जाते हैं और फिर पिस्का बगान नामक एक जगह पर तालाब से नदी की शक्ल में निकलती धारा को बहते हुए दिखाते हैं. प्रदीप कहते हैं कि यहीं से यह नदी बन गई है और यहां के बाद इसकी पहचान भी बदलती है. बताया जाता है कि स्वर्णरेखा का असली नाम सुवर्णरेखा है. यानी वह नदी जो अपने बहाव में सोने को लिए बहती है. स्वर्णरेखा झारखंड के इस छोटे से गांव से निकलकर ओडिशा और पश्चिम बंगाल होती हुई गंगा में मिले बिना ही सीधी समुद्र में जाकर मिल जाती है. इस नदी का सोने से संबंध है, यह नदी के किनारे बसे गावों, या कोल्हान के इलाके में जाकर देखा जा सकता है, जहां आज भी कई गांवों के लोगों का पेशा ही स्वर्णरेखा नदी के किनारे मिट्टी-बालू से सोना निकालना है. किसी जमाने में छोटानागपुर इलाके के आदिवासी समुदाय के लोगों की जिंदगी का बेहद अहम हिस्सा रही स्वर्ण रेखा नदी की कुल लंबाई 395 किलोमीटर से अधिक है. खनन क्षेत्रों से गुजरने के कारण इस नदी में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया है और इस वजह से इस नदी में रहने वाले जलीय जीवों की स्थिति बेहद खराब हो चली है.

स्वर्ण रेखा नदी की कुल लंबाई 395 किलोमीटर से अधिक है. खनन क्षेत्रों से गुजरने के कारण इस नदी में प्रदूषण का स्तर काफी बढ़ गया है

स्वर्णरेखा के उद्गम व नदी की धारा को आगे देखकर हम वापस नगड़ी आते हैं, जहां हमारी मुलाकात रंथू महतो से होती है. रंथू कहते हैं कि यह सिर्फ स्वर्णरेखा का इलाका नहीं है. जाइए पास में ही एक और नदी है, झारखंड की दूसरी महत्वपूर्ण नदी कोयल भी यहीं पास से ही निकलती है. तपती दुपहरी में जब हम वहां पहुंचते हैं तो हमें कोई नहीं मिलता सिवाए संजय उरांव के. हम कोयल का उद्गम स्रोत ढूंढने के लिए घंटों भटकते रहे होते अगर हमें संजय न मिलते. संजय से यह पूछने पर कि इस गांव में ही कोयल का उद्गम स्रोत है, वह कहां है? वे हंसते हुए कहते हैं- वह आपके सामने तो कटकनचुआं है, वही तो कोयल का उद्गम स्रोत रहा है. कोयल भी झारखंड की एक अहम और पलामू इलाके की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदी है. संजय कहते हैं कि जिस पत्थर पर अभी आप बैठी थी, वह साधारण पत्थर नहीं, वहीं से तो कोयल निकलती है. मिट्टी की दरारों के बीच पड़े पत्थरों के दो पाट और सामने एक सूखे तालाब को देखकर हमें अहसास तो होता है कि यह कभी एक अहम जलस्रोत रहा होगा लेकिन तब भी यह यकीन नहीं होता कि यहां से कोयल जैसी बड़ी नदी निकलती होगी. स्वर्णरेखा के उद्गम रानीचुआं कुआं से तो पानी का प्रवाह भी दिखता है लेकिन कटकनचुआं के आसपास एक बूंद पानी भी न देखकर विश्वास नहीं होता. तभी रंथू महतो, जिन्होंने कटकनचुआं के बारे में बताया था, आते हैं और कहते हैं कि अभी बरसात का महीना नहीं है, इसलिए हम कोई यकीन तो नहीं दिला सकते. इसके लिए आपको हमारे इलाके के बुजुर्गों की बातों पर ही यकीन करना होगा, क्योंकि नदी के उद्गम स्रोत को स्थापित करने या विकसित करने का अब तक कोई काम नहीं हो सका है लेकिन यह हर कोई जानता है कि पांच दशक पहले तक इन दो पत्थरों के बीच जो स्रोत देख रही हैं, उसमें जब लंबे बासों को जोड़ कर डाला जाता था तो वह सीधे स्वर्णरेखा के उद्गम स्रोत रानीचुआं में निकलता था. यानी दोनों नदियों का एक जुड़ाव है. रानीचुआं से पूरब की ओर जो धार फूट जाती है, वह स्वर्णरेखा का रूप ले लेती है और इस कटकन चुआं से जो उत्तर की ओर धार फूटती थी, वह कोयल नदी का रूप ले लेती है.

स्वर्णरेखा नदी के उद्गम स्थल के निकट स्थित एक शिव मंदिर को स्वर्णरेखा महादेव के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है
स्वर्णरेखा नदी के उद्गम स्थल के निकट स्थित एक शिव मंदिर को स्वर्णरेखा महादेव के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है

स्वर्णरेखा नदी के उदगम स्रोत के पास एक प्रवेश द्वार और एक शिलापट्ट भी दिखता है लेकिन कोयल नदी के उद्गम स्रोत के पास तो पहचान बताने की कोई कवायद तक नहीं दिखती, जिससे यह पता चले कि झारखंड की एक अहम नदी यहीं से निकलती है. हमारे मन में यह सवाल आता है कि आखिर इतनी महत्वपूर्ण जगह की इस तरह उपेक्षा क्यों? रंथू कहते हैं कि स्वर्णरेखा नगड़ी बाजार से सटा हुआ इलाका है, इसलिए वहां के लोगों ने एक मंदिर बनाकर, हर साल संक्रांति में मेला लगाना शुरू किया. राजनीतिक दलों को इसमें एक अवसर भी नजर आया और एक गेट बनवा दिया गया लेकिन कोयल नदी तो बिलकुल एक गांव से निकलती है, जहां कोई सालाना आयोजन नहीं होता. रंथू कहते हैं कि यहां से कुछ ही किलोमीटर आगे जाने पर झारखंड की तीसरी महत्वपूर्ण नदी कारो भी निकलती है. बकौल रंथू, ‘आप स्वर्णरेखा का उद्गम देखने के बाद कोयल के उद्गम तो आ भी गईं लेकिन कारो नदी कहां से निकलती है, यह देखने भी कोई नहीं जाता, क्योंकि कई सालों से इस इलाके को नक्सलियों का गढ़ माना जाता है, जहां डर से कोई देखने भी जाना नहीं चाहता.’

कोयल झारखंड की दूसरी अहम और पलामू इलाके की जीवन रेखा मानी जाने वाली नदी है, लेकिन सरकारी और राजनीतिक उपेक्षा के चलते इसका महत्व न के बराबर है

रंथू की बात के बीच में ही संजय उरांव कहते हैं, ‘ऐसा इलाका किसी दूसरी जगह होता तो आज उसकी महत्ता देश भर में जानी जाती लेकिन अबतक तो यह इलाका झारखंड में ही पहचान नहीं बना सका है. आगे भविष्य में यह इलाका किस रूप में विकसित होगा, इसका कोई ठोस खाका तैयार नहीं हो पाया है. इस बाबत नदियों के विशेषज्ञ दिनेश मिश्र कहते हैं कि अमरकंटक (म.प्र.) से सोन, नर्मदा, और महानदी तथा मानसरोवर से गंगा, ब्रह्मपुत्र, घाघरा और सतलज जैसी नदियां निकलती हैं और उनका विशेष महत्व है पर यह सब सरकारी व राजनीतिक उपेक्षा का ही परिणाम है. हालांकि गांव के लोगों को छोटी से छोटी कवायदों में भी बड़ी उम्मीद  दिखती है. स्वर्णरेखा क्षेत्र विकास मंच के प्रमख तपेश्वर केसरी कहते हैं कि अभी झारखंड राज्य प्रदूषण नियंत्रण परिषद के अध्यक्ष मणिशंकर ने कहा है कि स्वर्णरेखा उद्गम क्षेत्र का महत्व फिर से स्थापित हो, इसके लिए पहले 20 एकड़ जमीन में वृक्षारोपण का काम होगा. केसरी कहते हैं कि कुछ तो हो, वरना 2004 में ही इसे विकसित किए जाने का प्रस्ताव आया था, 2006 में घोषणा भी हुई थी, उसके बाद सौंदर्यीकरण के नाम पर एक तालाब बनवा दिया गया, एक द्वार बन गया और उसके बाद इसे भूला दिया गया. विधानसभा में पूर्व विधायक सरयू राय ने इसके विकास के संदर्भ में विधान सभा में सवाल भी उठाए लेकिन कुछ भी परिणाम नहीं निकला. जबकि यदि इस इलाके को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाए तो यह झारखंड के लिए गंगोत्री के समान ही महत्वपूर्ण होगा और आमदनी के नए स्रोत भी खुलेंगे.

स्वर्णरेखा उद्गम स्थल के नाम पर एक तालाब व एक द्वारा बनाकर किसी तरह खानापूर्ति की गई है.
स्वर्णरेखा उद्गम स्थल के नाम पर एक तालाब व एक द्वारा बनाकर किसी तरह खानापूर्ति की गई है.

पिछले कुछ सालों से झारखंड की दो महत्वपूर्ण नदियों पर काम करने वाले पूर्व विधायक सरयू राय कहते हैं कि स्वर्णरेखा हो या दामोदर, दोनों नदियों का संपूर्णता में अस्तित्व ही दांव पर लगा हुआ है तो उद्गम की बात क्या की जाए. झारखंड में औद्योगिक घरानों और पढ़े-लिखे लोगों ने मिलकर किस्तों में नदियों को खत्म होने के मुहाने पर पहुंचाया है. बात जहां तक स्वर्णरेखा नदी के उद्गम स्थल रानीचुआं की है तो वहां तो हमलोगों ने वैज्ञानियों से अध्ययन भी कराया है, जिसका निष्कर्ष था कि रानीचुआं से निकलने वाला जल क्षारीय है जबकि उसके पास से ही अम्लीय जल निकलता है और पास में ही दोनों मिलते हैं और उसके बाद जो धार निकलती है, उस पानी का पीएच वैल्यू सात होता है, यानी शुद्ध पानी. उस स्थल को सरकार कभी पर्यटन स्थल बनाने की बात करती है तो कभी कुछ और, जबकि ऐसा कुछ भी करने की जरूरत नहीं है. वहां पेड़ लगाए जाएं और उसे अविरल बहने दिया जाए, तभी नदी का उद्गम स्रोत बचा रह सकता है, वरना स्रोत ही सूख जाएगा तो आगे तो नदी कचरे और गंदगी का ढेर ढोने को अभिशप्त हो ही गई है.

कभी नदी उद्गम स्थल का विकास होगा, लोगों को विश्वास है भी और नहीं भी लेकिन अपनी ओर से सबने कोशिशें जारी रखी हैं. कोयल और कारो के उद्गम का तो हाल बेहाल है लेकिन बड़ी नदी स्वर्णरेखा का उद्गम स्थल रानीचुआं अपनी पहचान बनाए रखे, उसकी महता कायम रहे, इसके लिए वहां छोटी-छोटी कई कोशिशें दिखती हैं. वहां पास में बने एक मंदिर में राजेंद्र साधु बाबा दिन-रात लगे रहते हैं ताकि वह मंदिर स्वर्णरेखा महादेव के तौर पर स्थापित हो. राजकुमार केसरी जैसे लोग रोज अहले सुबह रानीचुआं में नहाकर पूजा-पाठ करने पहुंचते हैं और फिर अपने धंधे में लग जाते हैं. यह जलस्रोत बना रहे, इसके लिए किसी ने रानीचुआं के पास छोटा-सा शिवलिंग भी रख दिया है. गांधी के अनुयायी टाना भगतों ने जनेऊ के धागों को बांधने के साथ रानीचुआं के आसपास सफेद झंडा भी लगा दिया है.

देखना है कि निजी तौर पर अंजाम दी जा रही ये छोटी-मोटी कोशिशें रंग लाती हैं या अपने उद्गम से जुड़े किस्सों की तरह ये नदियां भी मिथक में बदली जाएंगी.

दिल का इन्वटटर- ‘पेसमेकर’

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

आजकल हम यत्र-तत्र सुना करते हैं कि फलाने साहब को ‘पेसमेकर’ लगाना पड़ा. बड़ा भ्रम है ‘पेसमेकर’ के बारे में. कई अफवाहें हैं. जैसे यह कि पेस-मेकर में भी इकॉनामी और डीलक्स मॉडल हैं जो आदमी की हैसियत के हिसाब से ऑफर किए जाते हैं. यह बात अर्धसत्य है. सच है कि पेसमेकर तीस-चालीस हजार से शुरू होकर लाखों में हो सकते हैं पर उनका चुनाव आपकी हैसियत से ज्यादा आपकी बीमारी के हिसाब से करना पड़ता है. ऐसे ही आपके अनेक प्रश्नों का समाधान हो सके इसके लिए मैं पेस-मेकर के बारे में कुछ बुनियादी बातें आपसे साझा करूंगा.

वैसे, यह जान लें कि पेसमेकर तथा इससे जुड़ी कार्डियोलॉजी की बीमारियों में इतनी ज्यादा तकनीकी विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है कि अब, धीरे-धीरे कई कार्डियोलॉजिस्ट केवल इससे जुड़े काम ही करते हैं जिसे हम इलेक्ट्रोफिसियोलॉजी कहते हैं. मेरा सौभाग्य है कि कई वर्षों तक स्वयं मैंने, कई सौ मरीजों में पेसमेकर लगाए हैं तथा बाद में उनको देखता भी रहा हूं. उन मरीजों को मैं जो भी समझाता था, उनकी जो जिज्ञासाएं होती थीं उनके आधार पर ही यह लेख लिख रहा हूं.

हम कुछ बेहद महत्वपूर्ण प्रश्नों के जवाब पहले दे लें फिर आगे बढ़ेंगे.

(प्रश्न एक) पेसमेकर क्या है? क्या काम है इसका?
इसे आप दिल की ‘इमर्जेन्सी लाइट’ या ‘इन्वर्टर’ जैसा समझें. दिल का अपना एक करंट होता है. दिल में जो करंट पैदा होता है (इसका लड़कियों को देखकर दिल में पैदा होने वाले करंट से कोई लेना-देना नहीं है), इस करंट के पूरे दिल में वितरण की एक व्यवस्था भी ईश्वर ने बनाई है. यदि करंट बनाने का सिस्टम गड़बड़ करे, या करंट बने परंतु वितरण में कहीं रुकावट रहे, तो दिल का काम गड़बड़ या ठप्प हो सकता है. घर में बिजली चली जाए तो उतनी देर के लिए इन्वर्टर या  इमर्जेन्सी लाइट काम आती है न? ऐसा ही काम पेसमेकर करता है. जिन मरीजों के दिल में करंट बनने, या करंट के ठीक से प्रवाहित होने में गड़बड़ी होती है, उनके दिल को करंट ठीक से पहुंचता रहे, इसका काम यह पेसमेकर करेगा. याद रहे कि दिल में इस करंट का सतत प्रवाह जीवन के लिए अत्यंत जरूरी है. दिल की हर धड़कन इसी करंट से पैदा होती है. दिल यदि एक मिनट में सत्तर अस्सी बार धड़कता है तो इसके लिए दिल में सत्तर अस्सी बार यह करंट न केवल पूरे वोल्टेज पर बनना चाहिए बल्कि इसे उतनी ही बार पूरे दिल में बिना रुकावट के पहुंचना भी चाहिए. यदि न पहुंचे, तो यह जानलेवा हो सकता है. इसी संकट के समय ‘पेसमेकर’ काम आएगा.

(प्रश्न दो) दिल का यह बिजलीघर कैसे काम करता है? इसमें पेसमेकर कहां काम आएगा?
दिल मांसपेशियों का बना एक ऐसा पंप है जो जिंदगीभर, बिना एक पल रुके चलता रहता है. दिल हर मिनट में सत्तर-अस्सी बाद धड़कता है. इस तरह हर धड़कन पर यह पंप, शरीर में पर्याप्त खून डालता है. जिससे जीवन चलता है. हर धड़कन के लिए दिल के कारखाने को बिजली चाहिए. इसके लिए दिल का अपना बिजलीघर तथा वितरण के तार हैं जो दिल की पूरी बस्ती में सब तरफ फैले हुए हैं. यहां दिल में निरंतर बिजली बनती और प्रवाहित होती रहती है. हमारी हर धड़कन इसी करंट की मोहताज है. यदि यह करंट न मिले तो हमारी धड़कनें अनियमित हो सकती हैं, रुक भी सकती हैं. जो थोड़ी देर को भी ये रुक जाएं तो चक्कर आ सकते हैं, हम गिर सकते हैं. बेहोश हो सकते हैं. यहां तक कि मर भी सकते हैं क्योंकि उतनी देर तक दिल खून पंप करना बंद कर देगा. यदि इस स्थिति में पहले से पेसमेकर लगा हो तो वह धड़कन बंद होने पर स्वत: चल पड़ेगा.

(प्रश्न तीन) दिल में करंट का यह सिस्टम आखिर क्या है?
दिल में दो तरह की बीमारियां सुनी होंगी आपने. एक तो हार्ट अटैक जो खून की नलियों में प्रवाह रुक जाने के कारण होता है. दूसरी दिल के वॉल्व वगैरह सिकुड़ जाने या लीक करने के कारण जो रक्त प्रवाह में बाधा पहुंचा कर दिल पर अतिरिक्त बोझ डालते हैं. एक तीसरी बीमारी भी होती है. पेसमेकर इस तीसरी तरह की बीमारी का ही इलाज है. यह बीमारी न तो दिल की खून की नलियों की खराबी से संबंधित है, न ही वॉल्व की या मांसपेशियों की. यह दिल के घर की बिजली चले जाने का मामला है. यानी सब कुछ होने के बाद भी दिल का काम नहीं चलता. मान लें कि घर में टीवी हो, पर लाइट ही न आए तो? वह नहीं चलेगा. दिल में भी सब बढ़िया हो पर करंट की गड़बड़ हो तो? दिल की यही तीसरी तरह की बीमारी होती है जहां पेसमेकर काम आता है. पेसमेकर इस स्थिति में दिल को बिजली देता है.

‘पेसमेकर तीस-चालीस हजार से शुरू होकर लाखों में हो सकते हैं पर उनका चुनाव आपकी हैसियत से ज्यादा आपकी बीमारी के हिसाब से करना पड़ता है’

(प्रश्न चार) दिल के ‘करंट सिस्टम’ में क्या खराबियां हो सकती हैं?
एक तो यही हो सकता है कि करंट ठीक से न बने. या ज्यादा बने जल्दी-जल्दी बने और तेज धड़कनों की बीमारी हो जाए. या कभी बेहद ही धीमा बने, दिल इतना धीमे चले कि थकान लगे, चक्कर आएं. फिर एक ही मरीज में कभी तो तेज हो, कभी धीमें बने- यह भी हो सकता है. इन सबको हम ‘सिक साइनस सिंड्रोम’ कहते हैं. वह करंट बनाने वाला ‘सायनस नोड’ ही बीमार हो गया. इस स्थिति का इलाज पेसमेकर लगाकर होता है. एक स्थिति यह हो सकती है कि दिल में करंट तो बने पर वह सारे दिल तक न पहुंच पाए. करंट के प्रवाह में इस रुकावट को हार्ट ब्लॉक कहते हैं. कितनी ज्यादा रुकावट है, उसी हिसाब से इसे फर्स्ट डिग्री, सेकंड डिग्री और कंप्लीट हार्ट ब्लॉक कहते हैं. यह इमरजेंसी की स्थिति होती है. जितना करंट बने उसका आधा ही पहुंचे या बिल्कुल भी न पहुंचे यह भी हो सकता है. तब आदमी अचानक मर भी सकता है.

इन सारी समस्याओं का इलाज एक ही है कि दिल में पेसमेकर लगा दिया जाए. जिस तरह इनवर्टर की अपनी सीमाएं होती हैं, पेसमेकर की भी होती हैं. पेसमेकर के बारे में अन्य बातें अगली बार.

मोदी के बहाने भारत पर निशाने

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भारत के ‘कथित लोकतंत्र’ और उसकी ‘धर्मनिरपेक्षता’ की बखिया उधेड़ना यूरोप के मीडिया का आज से नहीं, हमेशा से ही शौक व परमधर्म, दोनों रहा है. लोकसभा के चुनाव-परिणाम और ‘हिंदू राष्ट्रवादी’ नरेंद्र मोदी की ‘भूस्खलन’ विजय पर वह धर्मपालन से भला कैसे चूक सकता था. चाहे ब्रिटेन हो या जर्मनी, स्पेन हो या इटली, हर जगह अखबारों में जो कुछ लिखा या टेलीविजन पर दिखाया गया, वह काफी हद तक ‘हिंदू राष्ट्रवादी’, ‘मुस्लिम विरोधी’ और  दोनों के मेल से  भारत को ‘शक्तिशाली’ बनाने जैसे घिसे-पिटे पूर्वाग्रहों से ही भरपूर रहा.

निष्पक्ष पत्रकारिता का स्वघोषित दिनकर यूरोपीय मीडिया पहले तो 16 मई आने तक सोता रहा. तब तक चुनावों की कोई चर्चा ही नहीं थी. लेकिन मतगणना के आंकड़ों ने उसे चौंका दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने भले ही कह दिया कि मोदी अमेरिका आएं, हम उनका स्वागत करेंगे, लेकिन यूरोपीय मीडिया अपनी प्रसिद्धि को सार्थक सिद्ध करते हुए मोदी को ‘हिंदू राष्ट्रवादी’, ‘चाय पिलाने वाला’ और ‘कसाई’ करार देने में एकजुट हो गया.

बात भारत पर राज कर चुके ब्रिटेन से शुरू करते हैं. अपेक्षाकृत उदारवादी ‘गार्डियन’ ने ‘नरेंद्र मोदीः बदलते भारत का विवादास्पद मूर्तरूप’ शीर्षक के साथ लिखा, ‘सरल शुरुआत, तापसिक शैली और हिंदू राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा ने भाजपा के इस मुख्य प्रत्याशी को विजयी बना दिया.’ इसी अखबार के ऑनलाइन (इंटरनेट) संस्करण में कहा गया, ‘इतनी बड़ी जीत से कुछ तो अंतरराष्ट्रीय चिंता होगी ही. मोदी ध्रुवीकरण करने वाले एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन पर आलोचक सांप्रदायिक पूर्वाग्रहों और अधिनायकवादी रुझानों के आरोप लगाते हैं. जनादेश इतना प्रबल है कि वे बिना सहयोगियों के अपनी कार्यसूची खुद ही तय कर सकते हैं.’ उधर, ब्रिटेन में दक्षिणपंथी झुकाव वाले ‘डेली मेल’ की उपहास-भरी टिप्पणी थी, ‘दुनिया के सबसे बड़े चुनाव के बाद, कभी चाय पिलाने वाला एक लड़का, गांधी-वंश के दशकों लंबे राज का अंत कर भारत  के प्रधानमंत्री-पद की सत्ता समेटने जा रहा है.’ स्मरणीय है कि भारत में चल रहे चुनावों की उपेक्षा कर रहे पश्चिमी मीडिया की चुप्पी पर ब्रिटिश कॉमेडियन और और व्यंग्यकार जॉन ऑलिवर ने अपने एक टेलीविजन कार्यक्रम में कहा था, ‘पिछली बार जब आपने चाय पिलाने वाले एक भारतीय लड़के की रंक से राजा बन जाने की कहानी सुनी थी (फिल्म स्लमडॉग मिलियनेयर), तब आपने उसे कमबख्त ऑस्कर (पुरस्कार) तक दे दिया था.’ नरेंद्र मोदी का जीवन-परिचय देते हुए उन्होंने कहा कि वे भी कभी सड़क पर चाय पिलाया करते थे, आज भारत का प्रधानमंत्री बनने की राह पर हैं. ऑलिवर का कहना था, ‘यह बहुत बड़ी बात है कि भारत में यह संभव है, पर (पश्चिम के मीडिया के लिए) इतनी बड़ी फिर भी नहीं कि उसकी यहां कोई चर्चा होती.’

ब्रिटेन के ही ‘द टेलीग्राफ’ का मोदी  के बारे में कहना था, ‘भारतीय संदर्भ में भूस्खलन जैसी उनकी विजय और कांग्रेस पार्टी का सफाया इंदिरा गांधी के बाद उन्हें देश का सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री बना देते हैं. वे सबसे विवादास्पद भी रहेंगे. हालांकि श्रीमती गांधी ही एकमात्र ऐसी नेता रही हैं जिन्होंने 1975 में आपात-स्थिति लगा कर भारत में लोकतंत्र को खतरे में डाला था.’ टेलीग्राफ का मानना है कि मोदी अपनी विदेशनीति में ‘हिंदुत्व’ और ‘स्वदेशी’ के सिद्धांत को अपनाते हुए विदेशी निवेश के प्रति अनुदार रुख अपना सकते हैं. लेकिन, भ्रष्टाचार से लड़ने के प्रश्न पर सहयोगी पार्टियों को साथ लेकर चलने की मनमोहन सिंह जैसी विवशता उनके सामने नहीं होगी. हां, उन्हें इस बात से कुढ़न जरूर हो सकती है कि ‘प्रधानमंत्री के तौर पर उन्हें दूसरों से कहने का अधिकार तो होगा, पर गुजरात के मुख्यमंत्री की तरह किसी को जमीन या कारोबार का लाइसेंस देने का अधिकार नहीं होगा.’

टेलीग्राफ का मानना है कि मोदी अपनी विदेशनीति में ‘हिंदुत्व’ और ‘स्वदेशी’ का सिद्धांत अपनाते हुए विदेशी निवेश के प्रति अनुदार रुख अपना सकते हैं 

‘टेलीग्राफ’ के ही ऑनलाइन संस्करण में 16 मई को प्रकाशित अपने एक लेख में, जाने-माने पत्रकार और अब भाजपा के प्रवक्ता एमजे अकबर ने कुछ ऐसी बातें कहीं जिन्हें पश्चिम ही नहीं, भारत का मीडिया भी देखना-सुनना नहीं चाहताः ‘मोदी की चुनावी विजय कोई लहर नहीं, क्रांति है. उसने भारत को  पिछली सदी की राजनीति से ऊपर उठा दिया है और गांधी-वंश के सामंती राज से मुक्ति दिला दी है.’ अकबर का कहना है कि चुनाव को दलगत या संप्रदायगत भावनाओं से प्रेरित बताना ‘बकवास’ है. वह ‘एक नए भारत के लिए सभी भारतीयों की जीत है.’ वह अल्पसंख्यकों को बहलाने-फुसलाने का, सत्ता और भ्रष्टाचार के बीच ‘साझेदारी’ का भी अंत है. मतदान के विश्लेषण दिखाते हैं कि ‘राजस्थान के 30 प्रतिशत मुसलमानों ने नरेंद्र मोदी के समर्थन में मतदान किया. भारी मात्रा में मुस्लिम वोटों के बिना उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों में विपक्ष का इस तरह सफाया नहीं हो सकता था.’ मुसलमानों को सिर्फ इसलिए नौकरी-धंधा नहीं मिल सकता कि वे मुसलमान हैं, बल्कि इसीलिए मिल पाएगा कि वे भी इस देश के ‘बराबरी के नागरिक हैं.’

अब बात जर्मनी की. भारत में ब्रिटेन को यूरोप का चाहे जितना पर्याय माना जाए, यूरोप में तूती तो जर्मनी की ही बोलती है. जनबल और धनबल से वही यूरोप का सबसे बड़ा देश है. जर्मनी का मीडिया भारत के प्रति कटुता में उससे भी निष्ठुर कसाई है, जितना वह नरेंद्र मोदी को बताता है. जर्मनी के सबसे बड़े सार्वजनिक रेडियो और टीवी प्रसारण नेटवर्क ‘एआरडी’ के टेलीविजन समाचारों में, 16 मई को नई दिल्ली संवाददाता की जो वीडियो-रिपोर्ट प्रसारित की गई, उसका मुख्य संदेश था, ‘मोदी हिंदू राष्ट्रवादी हैं. इस्लाम के प्रति अपनी नापसंदगी को उन्होंने कभी छिपाया भी नहीं. देश के 15 प्रतिशत मुसलमान थर-थर कांप रहे हैं. इसाई और सभी दूसरे अल्पसंख्यक भी सहमे हुए हैं.’

जर्मनी के सबसे प्रसिद्ध दैनिक ‘फ्रांकफुर्टर अल्गेमाइने त्साइटुंग’ के सिंगापुर संवाददाता ने नई दिल्ली से अपनी रिपोर्ट को शीर्षक दिया, ‘मोदी और हिंदुओं के प्रतिशोधी.’ मुसलमानों के डर को 1933 के जर्मनी में हिटलर द्वारा सत्ता हथियाने के साथ जोड़ते हुए – यानी मोदी को एक तरह से भारत का भावी हिटलर बताते हुए – संवाददाता ने लिखा, ‘भय के तीन अक्षर हैं आर एस एस…. टाइम्स ऑफ इंडिया ने देश के भावी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को नरम फासिस्ट बताया और एक ऐसा कार्टून छापा है, जिसमें भाजपा-अध्यक्ष उन्हें आरएसएस के सचेतक दिखा रहे हैं. हिंदू राष्ट्रवादी भाजपा की यह जीत गांवों के उन धूलभरे मैदानों पर लड़ी गई है जहां आरएसएस अपने समर्थकों से पौ फटते ही कवायद करवाता है. उग्रवादी हिंदू धर्म के हिंदुत्व-लड़ाकों के बिना मोदी की कभी जीत नहीं हो पाती.’

जर्मनी के चौथे सबसे बड़े शहर कोलोन से प्रकाशित होने वाले प्रतिष्ठित दैनिक ‘क्यौल्नर श्टाट अनत्साइगर’ ने भी टाइम्स ऑफ इंडिया वाले उद्धरण की ही आड़ लेकर यही व्यंग्य कसा कि ‘विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र ने चुनावों में ‘नरम फासिज्म’ को चुना है. अनेक विविधताओं वाले इस भीमकाय राष्ट्र ने… सहिष्णुता की अपनी परंपरा को उठाकर फेंक दिया है. उसने धार्मिक-राष्ट्रवादी विचारधारा वाले एक ऐसे आदमी को सत्ता के शिखर पर चढ़ा दिया है, जो मुसलमानों और इसाइयों सहित सभी अल्पसंख्यकों पर हिंदूवाद की मुहर लगा देना चाहता है… मोदी लोकतंत्रवादी कतई नहीं हैं.’ भारत में कहावत है, ‘कहां राजा भोज और कहां गंगू तेली.’ इस रिपोर्ट का शीर्षक था, ‘चाय पिलाने वाला बना भारत का शक्ति-पुरुष.’ यानी, लेखक यही कहना चाहता है कि भारत में जब गंगू तेली भी राजा भोज बनने लगेंगे, तो उनकी रीति-नीति भी तुच्छ व संकीर्ण नहीं तो और क्या होगी!

म्युनिख से प्रकाशित होने वाले राष्ट्रीय महत्व के जर्मन दैनिक ‘ज्युुइडडोएचे त्साइटुंग’ की समझ से मोदी की जीत का प्रमुख कारण यह था कि ‘लोग मोदी को गुजरात का जादूगर मान बैठे हैं… कुछ लोग उनके नाम से सहम जाते हैं, उनकी तानाशाही शैली से आतंकित हो जाते हैं. लेकिन बहुत से भारतीय देश के ठहराव को दूर करने के लिए ठीक ऐसे ही कठोर कर्मठ हाथ की उत्कट कामना करते हैं.

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विश्वमंच पर नया हैवीवेट बॉक्सर
इसी जीत को एक दूसरे दृष्टिकोण से देखते हुए बर्लिन के दैनिक ‘देयर टागेसश्पीगल’ का मत था, ‘मोदी के रूप में… एक नया हैवीवेट (बॉक्सर) विश्वमंच पर अवतरित हो रहा है. अभी कुछ ही समय पहले तक वे अछूत थे, तिरस्कृत थे. अमेरिका सहित पश्चिमी देश उन्हें अपने यहां आने तक नहीं दे रहे थे… लेकिन लोगों ने उन्हें इसलिए नहीं चुना कि लोग भारत में हिंदू-तानाशाही चाहते हैं, बल्कि इसलिए कि मोदी अर्थव्यवस्था में तेजी लाएं. दस साल पहले तक भारत और चीन का नाम एक ही सांस में लिया जाता था… लेकिन, कांग्रेस सरकार ने मौका गंवा दिया… (सोनिया) गांधी की पार्टी को अब उसी का बिल मिला है.’

ऐसा लगता है कि सोनिया गांधी की जन्मभूमि इटली के मीडिया ने भारत में सत्तापलट को विशेष गंभीरता से नहीं लिया. अधिकतर ने समाचार एजेंसियों से मिली खबरों से ही काम चला लिया. प्रमुख दैनिक ‘ला रेपुब्लीका’ ने 17 मई को नई दिल्ली स्थित संवाददाता की रिपोर्ट छापी. इसमें उसने अपने आप को जनता के मूड, नई दिल्ली पहुंचने पर नरेंद्र मोदी के जोशीले स्वागत और भारत के प्रमुख अंग्रेजी दैनिकों के शीर्षकों तक ही सीमित रखा. सोनिया गांधी का नाम केवल एक बार इन शब्दों के साथ आता है कि चुनाव-परिणाम के ‘दूसरे दिन भारतीय प्रेस मोदी की शानदार विजय के लिए विशेषणों की झड़ी लगाने और सोनिया गांधी की कांग्रेस पार्टी की पराजय रेखांकित करने में कोई कंजूसी नहीं दिखा रही है.’

टेलीग्राफ का मानना है कि मोदी अपनी विदेशनीति में ‘हिंदुत्व’ और ‘स्वदेशी’ का सिद्धांत अपनाते हुए विदेशी निवेश के प्रति अनुदार रुख अपना सकते हैं 

‘यह एक ऐतिहासिक क्षण है’
फ्रांस में व्यापक बिक्री वाले ‘ले फिगारो’ ने 16 मई के अपने ऑनलाइन संस्करण में चुनाव-परिणाम का सकारात्मक विश्लेषण किया. शीर्षक था ‘भारत ने राष्ट्रवादी हिंदू को चुना.’ फिगारो के मत में ‘यह एक ऐतिहासिक क्षण है. भारत प्रबुद्ध है कि वह अपने इतिहास का एक नया पृष्ठ लिख रहा है. 30 सालों में पहली बार मतदाताओं ने किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत दिया है. राष्ट्रवादी दक्षिणपंथ इससे पहले कभी इस ऊंचाई तक पहुंच नहीं पाया था… सुधारों को पंगु बनाने वाले कोई ढुलमुल गठबंधन अब नहीं बनेंगे.’ फिगारो  इस बदलाव की जड़ दस करोड़ नए युवा मतदाताओं, जाति-धर्म को पीछे छोड़कर आगे बढ़ने की उनकी उत्कंठाओं और गुजरात की सड़कों पर कभी चाय पिला चुके नरेंद्र मोदी के दृढ़संकल्पी व्यक्तित्व में देखता है. फिगारो का कहना था ‘इस देश (भारत) में जहां कांग्रेस हमेशा धर्मनिरपेक्षता की माला जपती रही है, पर धार्मिक अल्पसंख्यकों का समर्थन पाने के लिए उन्हें ललचाती-फुसलाती रही है, यह एक क्रांति है.’

स्पेन के प्रमुख दैनिक ‘एल पाइस’ ने भी चुनवा-परिणाम का विश्लेषण करते हुए लिखा कि हिंदू राष्ट्रवादी नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक विजय  ‘कांग्रेस पार्टी और गांधी परिवार की ऐतिहासिक हार भी है.’ लेकिन, यदि व्यक्तिगत हार-जीत से हट कर देखा जाए तो ‘यह उन पार्टियों की तुलना में आशा और विकास की जीत है, जो हौवा खड़ा करने में लगी थीं कि मोदी आए तो धार्मिक टकराव और बढ़ेंगे.’

‘भारत में विपक्ष को मिला पूर्ण बहुमत’ शीर्षक से नीदरलैंड के प्रमुख दैनिक ‘अल्खमेन दागब्लाद’ ने अपने आप को चुनाव परिणाम के मुख्य आंकड़े देने और यह कहने तक ही सीमित रखा कि भारत में भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी गहरी और व्यापक हैं कि मोदी तो क्या, कोई भी नेता भ्रष्टाचार का उन्मूलन नहीं कर सकता.

यह ‘हिंदू धर्म’ कहां से टपक पड़ा?
यूरोपीय ऑनलाइन फोरमों और अखबारों के नाम पाठकों के पत्रों में लोकसभा चुनाव की जो चर्चा रही, उसमें ऐसी प्रतिक्रियाएं कम नहीं थीं जिनमें शिकायत की गई थी कि छह सप्ताहों से इतने बड़े चुनाव चल रहे थे, और हमें अब बताया जा रहा है ! यह भी कहा गया कि पश्चिमी मीडिया चीन या अमेरिका की हर बुराई में भी अच्छाई देखता है, जबकि भारत की हर अच्छाई में भी बुराई ही ढूंढता है. एक पाठक की टिप्पणी थी, ‘हमारा मीडिया तो हमेशा यही कहता रहा है कि इस दुनिया में केवल तीन ही ‘विश्व धर्म’ हैं- ईसाइयत, इस्लाम और यहूदी. यह ‘हिंदू धर्म’ कब और कहां से टपक पड़ा? कहीं मोदी के पार्टी वाले हिंदू ही पाकिस्तान, अफगानिस्तान, सीरिया और अब नाइजीरिया में भी मार-काट तो नहीं कर रहे?’

एक दूसरे पाठक ने लिखा, ‘हमारे यहां भी कुछ लाख मुसलमान हैं. हमारी सरकारें भी उन्हें वास्तविक या संभावित आतंकवादी मानकर उन पर कड़ी नजर रखती हैं. धर-पकड़ करती व रोक-टोक लगाती हैं. हमारे सैनिक उन्हें मारने अफगानिस्तान या अफ्रीका तक जाते हैं. फिर, भारत को लेकर इतना शोर क्यों? जर्मनी में भी तो अपने नाम में क्रिश्चन (इसाई) शब्द जोड़ने और इसाई धार्मिक झुकाव रखने वाली दो दक्षिणपंथी पार्टियां लगभग हमेशा से शासन में रही हैं, आज भी हैं. लेकिन उन्हें तो कोई ‘इसाई राष्ट्रवादी’ नहीं कहता! मीडिया भारत पर जो आरोप लगाता है- जातीय या धार्मिक भेदभाव, गरीबी- अमीरी, अर्थिक ठहराव या भ्रष्टाचार के- वे सब हमारे यहां भी तो मौजूद हैं. नहीं है, तो चाय बेचने वाला कोई लड़का, जो किसी यूरोपीय देश का राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री बन पाया हो. पश्चिम के सीने पर सांप लोटने का कहीं यही तो कारण नहीं है?’

विडंबना तो यह है कि भारत के संसदीय चुनावों में भाजपा की विजय से विचलित यूरोप के जिन देशों में भारत के कथित हिंदू राष्ट्रवादी झुकाव की सबसे मुखर निंदा-आलोचना हो रही है, 25 मई को समाप्त हुए यूरोपीय संसद के चुनावों में उन्हीं देशों में घोर दक्षिणपंथी राष्ट्रवादियों को ही भारी सफलता भी मिली है.  फ्रांस की नस्लवादी और इस्लाम-विरोधी ‘फ्रों नश्योनाल’ (राष्ट्रीय मोर्चा) तो देश की सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी है, जबकि पेरिस में समाजवादियों की सरकार है. ब्रिटेन, इटली, स्पेन, डेनमार्क, जर्मनी इत्यादि में भी विदेशी अप्रवासियों और इस्लाम-विरोधी पार्टियों को मिले समर्थन में उल्लेखनीय से लेकर भारी बढ़ोतरी हुई है. तब भी, इन देशों का मीडिया यही कहता फिरेगा कि यह सब हमारे इसाई धर्म से प्रेरित कोई राष्ट्रवादी उभार नहीं, राष्ट्रीय या संघीय स्तर की आर्थिक-सामाजिक कठिनाइयों को अभिव्यक्त करता एक क्षणिक उबाल भर है, जो कल नहीं रहेगा, क्योंकि सच्चा लोकतंत्र तो हम ही हैं.’

‘इन नतीजों का अर्थ यह नहीं कि हम असफल हुए’

विजय पांडे
विजय पांडे
विजय पांडे

क्या दिल्ली में मिली जीत के बाद ‘आप’ अति आत्मविश्वास से भर गई थी जिसके चलते पार्टी ने लोकसभा चुनाव में 434 सीटों पर चुनाव लड़ने का फैसला कर लिया? क्या आज आपको लगता है कि यदि पार्टी ने कुछ चुनिंदा सीटों पर चुनाव लड़कर उन्हीं पर ध्यान दिया होता तो प्रदर्शन और बेहतर हो सकता था?
‘आप’ को उसके पहले आम चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर असफल करार दिए जाने की बात पर सवाल खड़े किए जाने चाहिए. यदि आप भारत के चुनावी इतिहास पर नजर डालें तो पता चलेगा कि तमाम पार्टियों की शुरुआत ठीक ऐसे ही हुई है. भाजपा को 1984 के अपने पहले चुनाव में दो से ज्यादा सीटें नहीं मिली थीं. जब बसपा ने अपना पहला चुनाव लड़ा तब उन्हें दो प्रतिशत वोटों के साथ तीन सीटें मिली थीं. चुनावों में किसी पार्टी की सफल शुरुआत ऐसे ही होती है. आप की उपस्थिति पूरे देश में होती है, आपको ठीक-ठाक वोट मिलते हैं, पार्टी को स्थानीय नेता मिलते हैं और पूरे देश में आपकी पार्टी के कार्यकर्ता होते हैं. इस चुनाव में हमें ये सब मिला. इस लिहाज से मुझे नहीं लगता कि हमारी बुरी शुरुआत थी.

हालांकि सबकुछ बढ़िया हो ऐसा नहीं कहा जा सकता. जैसे दिल्ली में हमें पिछले चुनाव की तुलना में ज्यादा वोट तो मिले लेकिन भाजपा और हमारे बीच वोटों का अंतर अब बढ़ गया है. बनारस से चुनाव हारना भी एक झटका रहा. हरियाणा में सीट मिलने की उम्मीद थी लेकिन हम कोई सीट नहीं जीत पाए. फिर भी पंजाब में चार लोकसभा सीटों पर मिली सफलता हमारे लिए खासी महत्वपूर्ण रही क्योंकि किसी नई पार्टी के लिए दो प्रदेशों में संभावित विकल्प के रूप में उभरना छोटी शुरुआत नहीं है.

लोकसभा चुनाव के नतीजों से आपकी पार्टी को क्या सकारात्मक संदेश मिले और आप उनके आधार पर आगे की तैयारी कैसे कर रहे हैं?
पार्टी को अब देश के कोने-कोने में पहचाना जाने लगा है. 100 सीटों पर हमने कोई उम्मीदवार खड़ा नहीं किया था लेकिन शुरुआत करने के लिए 434 का आंकड़ा भी बुरा नहीं है. अब हमारी पार्टी को ज्यादा लोग जानने लगे हैं, अरविंद केजरीवाल और ‘आप’ का चुनाव चिह्न दूर-दूर तक पहुंच चुका है. ज्यादातर पार्टियों के लिए ये उपलब्धियां हासिल करने में भी एक दशक लग जाता है. आज देश में कितनी पार्टियां होंगी जो हमारे बराबर कार्यकर्ता होने का दावा कर सकें. हमने चुनाव में वे सवाल उठाए जिनपर पहले कभी बात नहीं होती थी.  ‘आप’ ने पूंजीवादी व्यवस्था के भीतर भाई-भतीजावाद, स्वराज और राजनीतिक विकेंद्रीकरण को एक मुद्दा बना दिया. हमने पार्टी डोनेशन के लिए एक पारदर्शी व्यवस्था विकसित की. हालांकि पार्टी को पर्याप्त फंड नहीं मिला लेकिन हमने जो राजनीति की उसमें कालेधन की कोई भूमिका नहीं रही. वोट बैंक की अपेक्षा हमने अपने समर्थकों की संख्या बढ़ाई है. हर एक वोट जो हमें मिला उसके पीछे चार लोग ऐसे भी  थे जिन्होंने हमें वोट देने के बारे में सोचा, कहा कि हम अच्छे लोग हैं. हो सकता है अगली बार वे हमें वोट दें. इसके साथ ही हम एक अन्य राज्य, पंजाब में एक विकल्प की तरह उभरे. ये कुछ बातें हमारे लिए चुनाव के सकारात्मक संदेश हैं. इनके आधार पर ही पार्टी को आगे बढ़ना है.

अब हमें धैर्य रखने की जरूरत है. हमारा संगठन अब एक स्तर तक पहुंच चुका है. इसे बनाए रखने और इससे आगे बढ़ने की जरूरत है. हमें छोटे-छोटे कदमों से आगे बढ़ना है.

पिछले काफी समय से ‘आप’ लगातार चुनाव में व्यस्त रही. फिलहाल कुछ खाली समय आपके पास है तो क्या आपकी योजना इसका उपयोग पार्टी संगठन को मजबूत करने या कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण देने के लिए करने की है?
अब हमारी यही चुनौती है. अभी कुछ और राज्य हैं जहां आने वाले दिनों में चुनाव होंगे. हमें वहां ध्यान देना होगा. लेकिन देश में बाकी जगहों पर हम संगठन मजबूत करने के लिए ध्यान दे सकते हैं जिससे कि नीतिगत विषयों पर हमारी और स्पष्ट समझ बन सके. कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण और  स्थानीय स्तर से लेकर ऊपर तक संगठन को मजबूत करने के लिए काम करना होगा. आप कह सकते हैं कि यह समय हमारे लिए चुनौती भी है और और एक अवसर भी.

‘आप’ के चुनाव अभियान का मॉडल बहुत नया और दिलचस्प था. फिर गड़बड़ियां आखिर कहां हुईं? उम्मीदवारों के चयन में या प्रचार की रणनीति में.
मैच हारने के बाद सबसे बुरी बात यह होती है कि आप अपने सभी कामों को गलत मान लें. कहें कि बॉलिंग, बैटिंग, फील्डिंग सब बेकार था और कैप्टन भी सही नहीं था. यह किसी मैच का सबसे खराब विश्लेषण है. विश्लेषण बहुत सावधानीपूर्वक होना चाहिए.

सबसे महत्वपूर्ण बात जो इस चुनाव में हमारे खिलाफ गई कि इससे पहले हमने लोकसभा चुनाव नहीं लड़ा था; हमारे पास बाकियों की तरह संसाधन नहीं थे, संगठन उतना मजबूत नहीं था. दूसरी बात यह भी रही कि पूरे देश में भाजपा और नरेंद्र मोदी के पक्ष में एक लहर थी. इन बातों के अलावा मुझे नहीं लगता किसी और बात से हमारा प्रदर्शन प्रभावित हुआ हो.

‘ आप ‘ ने फंडिग के लिए पारदर्शी तंत्र बनाया है, जहां आप चंदा देने वालों की पहचान और चंदे की रकम दोनों उजागर करते हैं. लेकिन इस समय पार्टी में ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जो भविष्य में फंडिंग के लिए चिंतित हैं? इसपर आप क्या सोचते हैं?
मैं भी कुछ हद तक चिंतित हूं. दरअसल हमने इसके लिए एक खुला तंत्र बनाया है. इसका एक नुकसान यह है कि जो लोग आपको चंदा दे रहे हैं उनकी पहचानकर उन्हें आसानी से निशाना बनाया जा सकता है. इसका हमें लोकसभा चुनाव में तो नुकसान हुआ ही, आगे भी हो सकता है हमें उतना फंड न मिल पाए. यह एक मुश्किल स्थिति है जिससे हमें निपटना है. फिर भी मैं यह कहना चाहता हूं कि हमने वैध पैसे से पार्टी चलाने का मॉडल विकसित किया है. इसे बदलने का हमारा कोई इरादा नहीं है क्योंकि तब बाकी पार्टियों और ‘आप’ में कोई अंतर नहीं रह जाएगा.

जहां तक कार्यकर्ताओं की बात है तो जो लोग अभी पार्टी से जुड़े हैं, वे कुछ अलग प्रवृत्ति के लोग हैं; उन्होंने कुर्बानियां दी हैं, जब तक उन्हें लगेगा कि पार्टी सही दिशा में काम कर रही वे हमसे जुड़े रहेंगे और उनकी संख्या भी बढ़ेगी.

क्या आपको लगता है कि दिल्ली विधानसभा और हालिया लोकसभा चुनाव में ‘आप’ की उपस्थिति ने कई चीजें बदल दी हैं. दूसरी पार्टियों को अपनी चुनाव रणनीति बदलनी पड़ी खासकर उम्मीदवारों के चयन पर उन्हें ज्याद मेहनत करनी पड़ी.
हम राजनीति में सीटें जीतने या सरकार बनाने के लिए नहीं आए हैं. हम प्रधानमंत्री बनने-बनवाने के खेल में भी शामिल नहीं हैं. आम आदमी पार्टी राजनीति के परंपरागत ढर्रे को बदलने के लिए है. मैं यह दावा नहीं करता कि हम ऐसा करने में पूरी तरह सक्षम रहे हैं लेकिन छोटी ही सही कई मोर्चों पर इसकी शुरुआत हो गई है. हमने पार्टियों को मजबूर कर दिया कि वे भ्रष्टाचार पर बात करें और दागी उम्मीदवारों को टिकट देना उनके लिए मुश्किल हो जाए. मुझे किसी ने बताया है कि राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी अपने घोषणापत्र में भ्रष्टाचार मुक्त महाराष्ट्र का वादा करने जा रही है. इसे भी मैं ‘आप’ की एक सफलता मानता हूं. हमने एक शुरुआत की है, रास्ता बनाया है लेकिन अभी हमें लंबा सफर तय करना है.

कई लोग दिल्ली में आपकी सरकार द्वारा इस्तीफा दिए जाने से नाराज और निराश हुए थे. इसके बारे में आपको क्या कहना है?
राजनीति में हमें जनता से अपने कामों पर प्रतिक्रियाएं मिलती हैं और आम लोगों का मानना है कि दिल्ली में हमारी सरकार का इस्तीफा एक गलती थी. हम उस समय ऐसा नहीं सोच रहे थे. मुझे लगता है शायद जिस तरह से हमने फैसला लिया वह गलती थी. मुख्यमंत्री को इस्तीफा देने से पहले लोगों की राय जाननी थी और लोगों की राय उस समय यह थी कि सरकार को काम करते रहना चाहिए. राजनीति में आपको लोगों की राय का सम्मान करना ही चाहिए. मैं कहूंगा कि हमें बहुत ही कड़ी प्रतिक्रिया लोगों से मिली और अब हम वापस उनके पास जाएंगे.

दो देश, एक सच, दो पहलू

एक तसवीर, दो चेहरेभारत में पढ़ाई जाने वाली इततहास की तकताबों में गांधी नायक हैं और तजन्ना खलनायक जबतक पातकस्तान में उल्टा है
एक तसवीर, दो चेहरे भारत में पढ़ाई जाने वाली इततहास की तकताबों में गांधी नायक हैं और तजन्ना खलनायक जबतक पातकस्तान में उल्टा है

दागिस्तान के मशहूर कवि अबू तालिब की एक बेहद प्रसिद्ध उक्ति है, ‘अगर तुम अतीत पर पिस्तौल से गोली चलाओगे तो भविष्य तुमपर तोप से गोले दागेगा.’ इसमें कोई शक नहीं कि इतिहास केवल विजेताओं का होता है. यानी इतिहास में, हारने वाले का स्थान विजेता की मर्जी से तय होता है, लेकिन अबू तालिब की बात हमें इतिहास के साथ छेड़छाड़ के खतरों से आगाह करती है.

इस तरह देखें तो भारत और पाकिस्तान के युवाओं का एक समूह दोनों देशों के इतिहास की लिखाई में नजर आने वाले विरोधाभासों को उजागर करते हुए इस उपमहाद्वीप का भविष्य सुरक्षित करने की कोशिश में लगा है. द हिस्ट्री प्रोजेक्ट के नाम से की जा रही इस कवायद का मकसद इसके सहसंस्थापक कासिम असलम के मुताबिक यह है कि दोनों देशों की मौजूदा पीढ़ी जाने कि साझा इतिहास की अहम घटनाओं को दूसरा मुल्क किस तरह देखता है. वह इतिहास को खुली नजर के साथ देखे, उस पर बहस करे. यह किताबों की एक सीरीज को बच्चों तक पहुंचाकर किया जा रहा है. एक समाचार वेबसाइट में बात करते हुए असलम कहते हैं, ‘हम भावनाएं नहीं भड़काना चाहते. हम चाहते हैं कि बच्चे जिसे सच मानते हैं उसे लेकर उनके मन में सवाल उठें.’  द हिस्ट्री प्रोजेक्ट के नाम के साथ ही आ रही इन किताबों का लक्ष्य 12-15 साल के बच्चे हैं और भारत और पाकिस्तान के कई स्कूलों में इसकी पहली कड़ी पहुंच भी चुकी है.

भारत और पाकिस्तान का विभाजन विश्व इतिहास में मानवीय विस्थापन की सबसे बड़ी घटनाओं में से एक है. एक ऐसी घटना जहां अंतत: दोनों ही पक्षों के हाथ पराजय लगी. दोनों देशों के पास एक साझा अतीत, साझी विरासत थी, लेकिन आम लोगों के स्तर पर संपर्क कम होते जाने और राजनयिक रिश्तों में आई कटुता ने उनके आपसी रिश्ते को तो प्रभावित किया ही, उनके बीच की खाई इतिहास लेखन में भी नजर आने लगी. ऐसे में दोनों देशों के कुछ युवाओं ने जबरन किसी निष्कर्ष पर पहुंचे बिना इस इतिहास के दो संस्करणों के विरोधाभास नई पीढ़ी तक लाने का बीड़ा उठाया है.

इतने वर्षों बाद इतिहास की इन घटनाओं को इस तरह सामने लाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसलिए क्योंकि साझा इतिहास की एक ही घटना को दोनों देशों के इतिहासकारों ने अलग-अलग दृष्टिकोण अपनाते हुए लिखा है. इस इतिहास लेखन में निजी सोच कुछ इस कदर हावी हो गई है कि कई बार घटनाओं का ब्योरा ही पूरी तरह बदल गया है. उदाहरण के लिए कश्मीर के मसले पर एक देश की इतिहास की किताबें कहती हैं कि 1947 में कश्मीर के तत्कालीन शासक महाराज हरि सिंह ने भारत और पाकिस्तान में विलय न करने की मंशा जताई. पाकिस्तान के सशस्त्र घुसपैठियों ने कश्मीर पर हमला किया और तब हरि सिंह ने भारत में शामिल होने संबंधी संधि पर हस्ताक्षर किए जिसके बदले भारतीय सेना को कश्मीर की रक्षा के लिए रवाना किया गया. वहीं दूसरे देश की किताबों के मुताबिक हरि सिंह ने कश्मीर में मुस्लिमों का नरसंहार शुरू कर दिया. तकरीबन 200, 000 लोगों ने पश्चिमोत्तर सीमांत प्रांत के लड़ाकों की मदद से कश्मीर के बड़े हिस्से को आजाद कराने में कामयाबी हासिल की. इसके बाद हरि सिंह ने मजबूरी में भारत का रुख किया.

पुनललेखन द तहस्ट्री प्रोजेक्ट की टीम के सदस्यों की इच्छा है तक इततहास से पक्पाती ब्योरे दूर तकए जा सकें
पुनललेखन द तहस्ट्री प्रोजेक्ट की टीम के सदस्यों की इच्छा है तक इततहास से पक्पाती ब्योरे दूर तकए जा सकें

साफ है कि पहला उदाहरण जहां एक भारतीय किताब से लिया गया है वहीं दूसरा उदाहरण पाकिस्तानी किताब का है. क्या वाकई कश्मीर के इतिहास का यह अंतिम सच है या फिर हमारी आने वाली नस्लें ऐसे ही टुकड़ा-टुकड़ा अधूरे सच को हकीकत मान कर जीने के लिए अभिशप्त हैं?

दोनों देशों की साझी विरासत में बिखरे पड़े इतिहास के ऐसे कई उदाहरणों को एक साथ रखने वाले इस प्रोजेक्ट पर दोनों देशों के कई युवा छात्र स्वयंसेवक और संपादक की भूमिका निभा रहे हैं. उन्होंने अपनी किताब में इतिहास की घटनाओं के बारे मंे दोनों देशों के संस्करणों को जस का तस अगल-बगल रख दिया है ताकि पाठकों को इनके विरोधाभास का आभास हो सके. इस परियोजना की शुरुआत तीन पाकिस्तानी छात्रों- कासिम असलम, अयाज अहमद और जोया सिद्दीकी ने की थी और उनकी पहली किताब अप्रैल 2013 में प्रकाशित हुई. दूसरी किताब का जिम्मा इस टीम के तीन भारतीय सदस्यों अनिल, बरकत और लावण्या ने उठाया है. हिस्ट्री प्रोजेक्ट-2 नामक इस किताब में समकालीन इतिहास के छह प्रमुख व्यक्तित्वों, गांधी, जवाहरलाल नेहरू, लोकमान्य तिलक, मुहम्मद अली जिन्ना, सर सैयद अहमद खान तथा मोहम्मद इकबाल के व्यक्तिव का दोनों पक्षों द्वारा किया गया आकलन पेश किया जाएगा.

इतिहास के इस साझा लेखन के बीज कुछ समय पहले अमेरिका के सीड्स ऑफ पीस अंतरराष्ट्रीय शिविर में बोए गए . इस शिविर में उन देशों के किशोरों को एक-दूसरे से रूबरू कराया जाता है जिनके आपसी संबंध ठीक नहीं होते. इस शिविर में अन्य देशों के युवा जहां खेलकूद, एक-दूसरे की संस्कृति और परंपराओं को समझने में लगे रहते थे वहीं भारत और पाकिस्तान के इन बच्चों का ध्यान अपने साझा अतीत पर अटक गया. आपसी बातचीत से उन्हें पता चला कि इतिहास की एक ही घटना के कितने अलग-अलग रूप उनको पढ़ाए गए हैं. जाहिर है दोनों सच नहीं हो सकते. बस यहीं से शुरुआत हुई द हिस्ट्री प्रोजेक्ट की.

लेकिन इस शुरुआत से एक महत्वपूर्ण सवाल जुड़ा हुआ है. क्या यह परियोजना दोनों देशों में इतिहास लेखन और साझा इतिहास से जुड़े तथ्यों के प्रस्तुतिकरण को लेकर किसी नई बहस को जन्म दे पाएगी? दूसरे शब्दों में कहा जाए तो इस परियोजना का हासिल क्या होगा? प्रोजेक्ट की भारतीय टीम के सदस्यों में से एक अनिल जॉर्ज कहते हैं, ‘हमारा मानना है कि युवाओं को अधिकार है कि वे तस्वीर का दूसरा पहलू देख सकें. खासतौर पर तब यह और आवश्यक हो जाता है जब मसला उनके अतीत से जुड़ा हो.’ वे कहते हैं कि वे सीमा के आर-पार तथ्यों में व्याप्त बदलाव को देखकर दंग रह गए. इतिहास लेखन हमारे और आपके जैसे लोगों ने ही किया है ऐसे में उनके लेखन में निजी नजरिया दाखिल हो गया हो, इसकी पूरी आशंका है.

भारत और पाकिस्तान की साझी विरासत में बिखरे पड़े इतिहास को उनके व्यापक संदर्भों के साथ पेश करने का बीड़ा उठाया है ‘द हिस्ट्री प्रोजेक्ट’ ने

बीते साल प्रकाशित इस परियोजना की पहली पुस्तक में पाकिस्तान तथा भारत में हाईस्कूल स्तर पर पढ़ाई जाने  वाली इतिहास की किताबों से सन 1857 से 1947 तक की 16 बड़ी घटनाओं के ब्योरे लिए गए. इसमें प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष और भारत और पाकिस्तान का बंटवारा शामिल थे. इस किताब को तैयार करने के लिए नौ पाकिस्तानी तथा तीन भारतीय किताबों से तथ्य जुटाए गए. जब दोनों देशों की ओर से वर्णित तथ्यों को आमने-सामने रखकर देखा गया तो उनमें इतना अधिक अंतर था कि पढ़ने वाले दंग रह गए.  एक घटना के दो विरोधाभासी संस्करण तो थे ही, कई घटनाएं ऐसी भी थीं जिनका जिक्र एक देश के इतिहास में है जबकि दूसरे में वे पूरी तरह गायब हैं. जैसे 1930 में शुरू किया गया महात्मा गांधी का सविनय अवज्ञा आंदोलन पाकिस्तान में पढ़ाई जा रही किताबों में सिरे से नदारद है.

परियोजना के संपादक अपने शोध कार्य के लिए भारत में सीबीएसई और आईसीएसई तथा पाकिस्तान में कैंब्रिज प्रकाशन तथा पंजाब बोर्ड द्वारा कक्षा सात से 10 तक पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबों की मदद ले रहे हैं. ये किताबें इस लिहाज से महत्वपूर्ण हैं कि छोटी उम्र में हासिल किया गया ज्ञान ही भविष्य में किसी व्यक्ति के सोचने समझने की क्षमताओं को आकार देता है. ऐसे में अगर द हिस्ट्री प्रोजेक्ट की किताबों को पढ़कर कोई बच्चा अपने ही इतिहास ज्ञान को नए सिरे से खंगालता है तो यही इस परियोजना की सबसे बड़ी सफलता होगी.

इसमें कोई शक नहीं कि बच्चों को पढ़ाए जाने वाले इतिहास की किताबों में राष्ट्रवाद की भावना प्रबल होती है. यहां तक कि कई दफा तो वे स्थापित तथ्यों के साथ छेड़छाड़ करने से भी नहीं चूकते. मिसाल के तौर पर भारतीय इतिहास की किताबों में मुहम्मद अली जिन्ना के शुरुआत में मुसलिमों-हिंदुओं के बीच एकता का समर्थक होने का जिक्र है लेकिन उनमें इस बारे में कोई खास जानकारी नहीं मिलती है कि आखिर क्यों उन्होंने अपना रुख बदल दिया और मुसलमानों के लिए अलग मुल्क की मांग पर अड़ गए. पाकिस्तानी किताबें यह बताती हैं कि कांग्रेस में हिंदुओं के वर्चस्व और मुसलिम अल्पसंख्यकों के लिए पैदा हो रही चुनौती इसकी वजह थी.

टीम के सदस्यों का कहना है कि यह कतई महत्वपूर्ण नहीं है कि बच्चे इन किताबों को पढ़कर भारत अथवा पाकिस्तान के इतिहास के बारे में कोई राय कायम करें. सबसे जरूरी यह है कि इसे पढ़कर उनके भीतर विचार की एक प्रक्रिया की शुरुआत हो और वे कथित रूप से स्थापित किए गए उन तथ्यों पर संदेह करना शुरू करें जो उन्हें भ्रामक लगते हैं. अपने भीतर पैदा किया गया यह खलल, उन्हें अधिक सजग और जानकार नागरिक के रूप में विकसित करेगा, जो राष्ट्र के विकास में दूसरों के मुकाबले अधिक बेहतर हस्तक्षेप कर सकेंगे.

केजरीवाल बनाम चैनल

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

आप पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल और न्यूज चैनलों/मीडिया के बीच जंग दिन पर दिन तीखी और तेज होती जा रही है. कभी खुली और कभी छिपी इस जंग के ताजा राउंड का गोला केजरीवाल ने दागा है. नागपुर में धन संग्रह के लिए आयोजित एक डिनर कार्यक्रम के दौरान केजरीवाल ने मीडिया पर बिका होने (पेड मीडिया) और मोदी का भोंपू बनने का आरोप लगाते हुए जांच कराने और दोषियों को जेल भेजने की बात क्या कही, ऐसा लगा जैसे किसी मधुमक्खी का छत्ता छेड़ दिया हो. आरोपों से बौखलाए चैनल केजरीवाल पर टूट पड़े.

न्यूज मीडिया खासकर चैनलों की आक्रामकता देखने लायक थी. चैनलों में एक सुर से केजरीवाल को तानाशाह, उनके बयान को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमला और लोकतंत्र विरोधी साबित करने से लेकर सुर्खियों में बने रहने के लिए सस्ते स्टंट करनेवाला और प्रचार का भूखा नेता साबित करने की होड़ सी लग गई. चैनलों ने केजरीवाल के आरोपों को खारिज करते हुए जिस तरह से उनकी चौतरफा पिटाई शुरू कर दी, उससे ऐसा लग रहा था जैसे न्यूज मीडिया में कुछ भी गड़बड़ नहीं है और सब कुछ अच्छा चल रहा है.

नतीजा, ‘सूप तो सूप, चलनी भी बोले जिसमें बहत्तर छेद’ की तर्ज वे चैनल कुछ ज्यादा ही सक्रिय हो गए जिनपर पेड न्यूज और पूर्वाग्रहपूर्ण रिपोर्टिंग करने के आरोप लगते रहे हैं. कोयला घोटाले में फंसे एक बड़े औद्योगिक समूह से ‘खबर’ फिक्स करने के बदले में पैसे मांगने के आरोपी एक संपादक और उनके चैनल ने केजरीवाल की ‘पोल खोल’ अभियान को दुगुने जोश के साथ दिखाना शुरू कर दिया. यहां तक कि एक टैब्लायड चैनल के मालिक-संपादक बुखार और खराब गले के बावजूद ‘पत्रकारिता के महान धर्म’ का पालन करने के ‘पवित्र उद्देश्य’ के साथ केजरीवाल के ‘झूठ और धोखे’ का पर्दाफाश करने के लिए मैदान में कूद पड़े.  यही नहीं, एडिटर्स गिल्ड ने केजरीवाल के बयान की भर्त्सना की और न्यूज चैनलों के संगठन- न्यूज ब्राडकास्टर्स एसोशियेशन (एनबीए) ने तो धमकी देते हुए कहा कि अगर केजरीवाल ने न्यूज मीडिया खासकर चैनलों पर अनर्गल आरोप लगाने बंद नहीं किये तो उनकी कवरेज बंद कर दी जाएगी.

इसमें शक नहीं कि मीडिया के बारे में केजरीवाल के बयान के लहजे, भाषा और भाव में बहुत कुछ आपत्तिजनक था. यह भी सच है कि केजरीवाल में अपनी आलोचना सुनने को लेकर अत्यधिक असहिष्णुता है और उसपर उनकी प्रतिक्रिया अक्सर असंयत और तिरस्कार से भरी होती है.

लेकिन क्या केजरीवाल के बयान पर चैनलों की प्रतिक्रिया भी अतिरेकपूर्ण, असंतुलित और जरूरत से ज्यादा आक्रामक नहीं थी? दूसरे, क्या केजरीवाल के आरोपों में कोई तथ्य नहीं है? यह किसी से छुपा नहीं है कि यह न्यूज मीडिया का पेड न्यूज और नीरा राडिया काल है. यह भी कि न्यूज मीडिया में बड़ी कारपोरेट पूंजी की घुसपैठ एक तथ्य है और उसका एक एजेंडा भी है. लेकिन इस हंगामे में इसे ‘पोल खोलने’ और उसपर चर्चा-बहस करने लायक नहीं समझा गया बल्कि अगर किसी ने उसे उठाने की कोशिश की तो उसे चुप करा दिया गया.

इसलिए सवाल उठ रहे हैं कि केजरीवाल के बयान पर चैनलों की अतिरेक भरी और आक्रामक प्रतिक्रिया कहीं न्यूज मीडिया के अपने अंडरवर्ल्ड पर पर्दा डालने की कोशिश तो नहीं थी? न्यूज मीडिया इन सवालों से जितना मुंह चुराने और परोक्ष रूप से अपनी काली बिल्लियों को बचाने की कोशिश करेगा, उतनी ही शिद्दत के साथ वे उसका पीछा करेंगे. केजरीवाल को न्यूज मीडिया की यह कमजोर नस मालूम है और उसे भुनाने के लिए वे गाहे-बगाहे मीडिया पर हमले करते रहेंगे. आखिर केजरीवाल का मकसद भी न्यूज मीडिया की गड़बड़ियों को दूर करना नहीं बल्कि उससे अधिक से अधिक प्रचार हासिल करना और सुर्खियों में बने रहना भर है.

जांच की आंच

कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सहित कई छोटे-बड़े नेता इस नक्सल हमले में मारे गए थे.
कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष सहित कई छोटे-बड़े नेता इस नक्सल हमले में मारे गए थे. फोटो: विनय शर्मा

केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार के बनने के साथ ही मीडिया और राजनीतिक हलकों में नई सरकार व उसके एजेंडे की बातें जोरशोर से चल रही हैं लेकिन छत्तीसगढ़ में एक अलग ही मामला सबका ध्यान खींच रहा है. पिछले दिनों स्थानीय मीडिया में खबर आई कि मई, 2013 में झीरम घाटी में कांग्रेस काफिले पर नक्सल हमले की जांच कर रही राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अपनी जांच खत्म कर ली है. यह भी कहा गया कि एजेंसी ने हमले के पीछे राजनीतिक साजिश को एक सिरे से खारिज कर दिया है. हालांकि एनआईए ने तुरंत ही इन सारी खबरों का खंडन कर दिया. एजेंसी ने यह भी स्पष्ट किया कि अभी तक की जांच में किसी भी साजिश की संभावना को खारिज नहीं किया गया है. इसके बाद से छत्तीसगढ़ के राजनीतिक हलकों में खलबली मची हुई है और इनके केंद्र में एक बार फिर कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अजीत जोगी आ गए हैं.

अब तक झीरम घाटी हमले को मात्र सुरक्षा में चूक मानते रहे मुख्यमंत्री रमन सिंह भी चाहते हैं कि 25 मई, 2013 को झीरम घाटी में हुए कांग्रेस नेताओं के हत्याकांड की सूक्ष्मता से जांच की जाए. वे कहते हैं, ‘शुरू से ही इस मामले में कई आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे हैं. यदि ऐसा है तो सच निकलकर सामने आना चाहिए. छत्तीसगढ़ के लोगों के मन में यह बात है कि कहीं यह हमला साजिश तो नहीं था.’ चूंकि इस मामले में पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी पर शुरू से उंगलियां उठी हैं इसलिए रमन सिंह के बयानों को जोगी पर निशाना साधने की कोशिश समझा जा रहा है. हालांकि भाजपा से ज्यादा खुद कांग्रेस के नेताओं ने पूर्व मुख्यमंत्री की भूमिका पर सवाल उठाए थे. ऐसे में माना जा रहा है एनआईए आने वाले दिनों में इस हमले को लेकर जोगी की भूमिका की जांच करेगी. आखिर ऐसा क्यों है कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं पर नक्सल हमले के मामले में शुरू से कांग्रेस के एक नेता पर ही उंगलियां उठ रही हैं? यह जानने के लिए उस नक्सल हमले की घटना पर एक नजर डालना जरूरी है.

25 मई, 2013 को दरभा ब्लॉक की झीरम घाटी में नक्सलियों ने परिवर्तन यात्रा के तहत वहां से गुजर रहे कांग्रेस नेताओं के काफिले पर हमला कर 30 कांग्रेस नेताओं को मौत की नींद सुला दिया था. इसमें तत्कालीन प्रदेश अध्यक्ष नंदकुमार पटेल से लेकर सलवा जुडूम शुरू करवाने में केंद्रीय भूमिका निभाने वाले महेंद्र कर्मा, पूर्व केंद्रीय मंत्री वीसी शुक्ल और कई छोटे-बड़े कांग्रेसी नेता शामिल थे. यहां याद रखने वाली बात यह भी है कि जिस वक्त प्रदेश में कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा निकल रही थी उसी वक्त मुख्यमंत्री रमन सिंह अपनी विकास यात्रा पर थे. विकास यात्रा भी धुर नक्सल इलाकों से गुजरी लेकिन मुख्यमंत्री की सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता होने के कारण कोई अप्रिय घटना नहीं घट पाई. वहीं कांग्रेस नेताओं का आरोप है कि परिवर्तन यात्रा को कोई सुरक्षा मुहैया नहीं कराई गई थी. जिसका फायदा उठाते हुए नक्सलियों ने इस जघन्य हत्याकांड को अंजाम दिया था. हालांकि भाजपा सरकार पर यह आरोप जल्दी ही ठंडा पड़ गया और कांग्रेस के ही एक बड़े नेता यानी अजीत जोगी पर साजिश का आरोप लगाया जाने लगा था.

जोगी खुद सुकमा में हुई उस अंतिम सभा में मौजूद थे जो हत्याकांड के पहले हुई थी. लेकिन वे उस सभा में हैलीकॉप्टर से पहुंचे और उसी से वापस रायपुर आ गए. जबकि शेष नेता सड़क मार्ग से दरभा की अगली सभा के लिए जाते वक्त नक्सल हमले का शिकार हो गए. तभी से जोगी शक के दायरे में आए. इसकी एक बड़ी वजह पुलिस के इंटेलिजेंस विभाग के दस्तावेज हैं. इनमें बार-बार पुलिस को यह सूचना दी जा रही थी कि जगदलपुर के दरभा, सुकमा के थाना दोरनापाल, तोंगपाल, दंतेवाड़ा में नक्सलियों का जमावड़ा बड़ी संख्या में हो रहा है. कहने का आशय यह है कि सरकार के साथ ही पूर्व मुख्यमंत्री होने के नाते जोगी को भी अपने स्तर इस इन बातों की सूचना होगी.

19 मार्च, 2013 को पुलिस मुख्यालय से जारी एक पत्र में साफ उल्लेख किया गया था कि जगदलपुर के दरभा इलाके में 100 से 150 नक्सली मौजूद हैं. 10 अप्रैल, 2013 को पुलिस मुख्यालय को इटेंलिजेंस की सूचना मिली थी कि कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा, पूर्व सलवा जुडूम नेता विक्रम मंडावी और अजय सिंह को मारने के लिए नक्सलियों ने तीन एक्शन टीम का गठन किया था. उनके सुरक्षा कर्मियों को भी विशेष सतर्कता बरतने के निर्देश दिए गए थे. 17 अप्रैल को एक बार फिर पुलिस के गोपनीय पत्र में चेताया गया था कि माओवादियों ने कांग्रेस नेता महेंद्र कर्मा और राजकुमार तामो को मारने के लिए स्मॉल एक्शन टीम बनाई है. जिसका दायित्व माओवादी मिलिट्री कंपनी नंबर 02 के पार्टी प्लाटून सदस्य राकेश को सौंपा गया है. इस तरह की कई सूचनाएं पुलिस को मिल रही थी. लेकिन इतनी सूचनाओं के बाद भी बस्तर यात्रा पर निकले कांग्रेस नेता मारे गए केवल अजीत जोगी हत्याकांड के पहले रायपुर सुरक्षित पहुंच गए.

इस मामले में जोगी समर्थक कोंटा विधायक कवासी लखमा पर भी कई आरोप लगे थे. झीरम घाटी हमले में लखमा पार्टी के एकमात्र ऐसे चर्चित नेता रहे जिन्हें नक्सलियों ने बगैर कोई नुकसान पहुंचाए छोड़ दिया था. जबकि उनके साथ मौजूद नंदकुमार पटेल, उनके बेटे दिनेश, महेंद्र कर्मा, वीसी शुक्ल समेत कई नेता नक्सलवादियों की गोलियों का शिकार बने थे. इसके बाद कवासी लखमा को लेकर एक नहीं कई विवाद खड़े हो गए.

कई कांग्रेस नेताओं का आरोप था कि कांग्रेस नेता अपना रास्ता बदलना चाहते थे लेकिन कवासी इसी रास्ते से आगे बढ़ने को लेकर अड़ गए थे. परिवर्तन यात्रा के तयशुदा कार्यक्रम में आखिरी समय में जो बदलाव किया गया था वह भी कई सवाल खड़े कर रहा है. निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार कांग्रेस विधायक कवासी लखमा के विधानसभा क्षेत्र कोंटा के तहत आने वाले सुकमा में 22 मई को सभा रखी गई थी. इस दिन केवल यही एक कार्यक्रम तय था. लेकिन बाद में मूल कार्यक्रम में दो बड़े बदलाव किए गए. पहला यह कि सुकमा की 22 मई को होने वाली सभा 25 मई को कर दी गई. दूसरा सुकमा के साथ ही एक और सभा दरभा में भी रख दी गई. उसी दिन नेताओं को सुकमा से दरभा जाते वक्त नक्सलियों ने अपना शिकार बनाया. इन्हीं कारणों से इस हत्याकांड को राजनीतिक षडयंत्र से जोड़कर देखा जाने लगा. चूंकि कवासी लखमा कांग्रेस में जोगी गुट के समर्थक हैं इसलिए हत्याकांड के तार जोगी से जोड़े जाने लगे. घटना के दो दिन बाद ही यानी 27 मई, 2013 को इसकी जांच एनआईए को सौंप दी गई थी. इन सभी आरोपों और जांच पर अजीत जोगी का कहना है, ‘जो असत्य को हथियार बनाता है, वह कभी सफल नहीं होता. इतना जरूर है कि पूरे मामले की सूक्ष्म जांच होनी चाहिए. फिलहाल एनआईए नक्सलियों की भूमिका की जांच कर रही है. उन्हें गिरफ्तार भी किया जा रहा है’.

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सवालों के घेरे में अजीत जोगी (ऊपर ) और उनके करीबी माने जाने वाले नेता कवासी लखमा (नीचे ) पर घटना के बाद से ही आरोप लग रहे हैं.

झीरम घाटी हत्याकांड की पड़ताल कर रही एनआईए ने अभी किसी राजनेता को क्लीन चिट नहीं दी है. आठ माओवादियों को गिरफ्तार करने और 27 के खिलाफ गिरफ्तारी वारंट जारी करने के साथ एजेंसी की जांच अभी जारी है.

एनआईए ने पिछले एक साल में अब तक की अपनी इंवेस्टिगेशन के दौरान पाया है कि झीरम घाटी हत्याकांड में 100 माओवादी शामिल थे. इनमें नक्सलियों के शीर्षस्थ नेताओं के नाम भी शामिल हैं.  एजेंसी ने हमले में शामिल नक्सलियों को पकड़ने का काम पुलिस अधीक्षकों को दिया है. इन्हें नक्सलियों के नाम, पते, पोजीशन समेत कई महत्वपूर्ण जानकारियां दी गई हैं. लेकिन बावजूद इसके एजेंसी अभी इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंची है कि इस हृदयविदारक हत्याकांड में राजनीतिक संलिप्तता थी या नहीं. एनआईए के आईजी संजीव सिंह तहलका को जानकारी देते हैं, ‘जिस दिन जांच समाप्त हो जाएगी हम कोर्ट में चार्जशीट फाइल कर देंगे. स्थानीय मीडिया में एनआईए द्वारा गृहमंत्रालय को रिपोर्ट सौंपने वाली जो भी बातें चल रही हैं वे सब गलत हैं. न हमने कोई रिपोर्ट सौंपी है न ही भविष्य में हमें कोई रिपोर्ट किसी को देनी है. हम सीधे चार्जशीट फाइल करेंगे.’ मीडिया में आई इन खबरों कि जांच में राजनीतिक साजिश की संभावना को एनआईए ने खारिज कर दिया है, पर बात बढ़ाते हुए संजीव कहते हैं, ‘फिलहाल हमने किसी स्थिति से इंकार नहीं किया है. कई बिंदुओं पर जांच होना अभी बाकी है.’

आने वाले दिनों में इस घटना के चश्मदीद रहे कुछ कांग्रेसी नेताओं के बयान एनआईए के सामने होने हैं. वीसी शुक्ल के प्रवक्ता रहे दौलत रोहड़ा भी इन गवाहों में शामिल हैं. वे बताते हैं, ‘ मुझे 26 जून, 2013 को एनआईए की तरफ से फोन आया था कि मेरी गवाही ली जानी है, लेकिन उसके बाद बयान के लिए कोई बुलावा नहीं आया.’

इस घटना को राजनीतिक साजिश बताने वालों में सबसे मुखर स्वर महेंद्र कर्मा के पुत्र दीपक कर्मा और नंदकुमार पटेल के बेटे उमेश पटेल के रहे हैं. दीपक कहते हैं कि उन्होंने इस संबंध में एनआईए को कुछ दस्तावेज भी सौंपे हैं. कर्मा घटना की सीबीआई जांच की मांग कर रहे हैं. इसके लिए उन्होंने कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी से फोन पर बात कर मदद करने का आग्रह किया है.

इस पूरे मामले पर गौर करने लायक एक बात यह भी है कि राज्य के मुख्यमंत्री रमन सिंह और राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी ने यूपीए सरकार के कार्यकाल के आखिर तक चुप्पी साधे रखी थी. अब केंद्र में भाजपा सरकार आते ही

एजेंसी का जिन्न बोतल से बाहर निकलकर राज्य की राजनीति में हलचल मचाने लगा है. ऐसे में एनआईए की आगे की जांच में कुछ बड़े नेताओं के नाम आते हैं तो कमोबेश शांत रहने वाली छत्तीसगढ़ की राजनीति में भूचाल जैसे हालात बन जाएंगे.

गुरबत में गूजर

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सभी तस्वीरें: प्रदीप सती

ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ 1857 में हुए पहले घोषित विद्रोह के तीन दशक से भी पहले वह लगभग 1820 के आसपास का दौर था. सहारनपुर और देहरादून के बीच स्थित घने जंगलों में कलवा नाम का एक खूंखार गूजर रहता था. उसका भय इतना ज्यादा था कि उस पूरे इलाके में तैनात अंग्रेज टुकड़ियां भी उससे बहुत खौफ खाती थीं. अंग्रेजों को अपना पक्का दुश्मन मानने वाला कलवा गूजर उन्हें अपनी जमीन से खदेड़ने का ऐलान भी कर चुका था. अन्य गूजरों को संगठित करके उसने कई बार अंग्रेज सिपाहियों पर धावा भी बोला. लेकिन अंग्रेजों की अपार ताकत अंतत: उस पर भारी पड़ी. अपने लगभग 200 साथियों के साथ वह मारा गया. उसके मारे जाने से अंग्रेज इतने खुश थे कि तब उन्होंने कलवा का सिर काट कर देहरादून की जेल के बाहर टांग दिया था.

लगभग 200 साल पहले का यह घटनाक्रम अंग्रेज लेखक जीआरसी विलियम्स की किताब मेम्वार ऑफ देहरादून में कुछ इसी तरह से दर्ज है. इस किताब के अंश बताते हैं कि अंग्रेजों से अपनी जमीन को बचाने के लिए कलवा और उसके साथियों ने कैसे अपनी जान की बाजी तक लगा दी थी. लेकिन तब शायद ही कलवा या उसके साथियों को इसका भान रहा होगा कि अंग्रेजी राज के खत्म हो जाने के बाद जो नया निजाम आएगा वह भी उनके समुदाय के प्रति उपेक्षा का ही भाव रखेगा. आज भी जंगलों में रह रहे वन गूजरों के साथ भले ही ‘सिर काट कर टांग देने’ जैसा बर्ताव न किया जा रहा हो, लेकिन इतने लंबे कालखंड के बाद भी उनके सिर पर एक अदद छत का मयस्सर न हो पाना उनके लिए किसी त्रासदी से कम नहीं है. उत्तराखंड और उत्तर प्रदेश की सीमा से लगे राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में आने वाले जंगलों में रह रहे ये वन गूजर आज भी उसी आदिम दौर में रहने को अभिशप्त हैं जब इंसान के पास जंगल में रहने के सिवा कोई दूसरा चारा ही नहीं होता था. शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर ये गूजर हर उस सुविधा से वंचित हैं जिसे बेहतर जीवन स्तर की न्यूनतम शर्त कहा जा सकता है. इनकी जीवनचर्या आज भी घास पत्ती लाने और जानवरों को पालने तक ही सिमटी हुई है. घासफूस से बनी झोपड़ियों में रहते हुए इन पर एक तरफ जंगली जानवरों का खतरा हमेशा बना रहता है तो दूसरी तरफ कड़े वन कानूनों के चलते अक्सर वन विभाग का निशाना भी इन्हीं वन गूजरों की तरफ रहता है. दो साल पहले राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के सामने अपना दुखड़ा सुनाते हुए वन गूजरों ने अपनी दारुण दशा का जो वर्णन किया था उसको सुनकर आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह की टिप्पणी थी कि, ‘आजादी के इतने सालों बाद भी इतने बड़े समुदाय को समाज की मुख्यधारा से विमुख करने का काम किसी भी सरकार के लिए लानत का विषय है.’

इन गूजरों की मांग है कि सरकार जल्द से जल्द इन्हें भी उसी तरह कहीं स्थायी रूप से बसाए जैसे कि उसने राजाजी उद्यान के अंदर रहने वाले दूसरे गूजर परिवारों को बसाया है. इसके अलावा ये गूजर खुद के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा भी चाहते हैं जैसा उनके समुदाय के लोगों को पड़ोसी राज्य हिमाचल और जम्मू-कश्मीर में मिला है. दरअसल इस उद्यान के अंदर रहने वाले 1300 से अधिक परिवारों को सरकार ने 1998 तक पुनर्वासित कर दिया था. लेकिन बाकी रह गए परिवारों के पुनर्वास की योजना को वह ‘कोल्ड स्टोर’ से बाहर ही नहीं निकाल पाई. इस बारे में सरकार का ताजा रवैया इतना गैरजिम्मेदाराना है कि उसे यह तक नहीं मालूम कि फिलवक्त इस पार्क के अंदर रह रहे वन गूजरों के परिवारों की ठीक-ठीक संख्या कितनी है. इस बारे में पूछे जाने पर उत्तराखंड के प्रमुख वन संरक्षक एसएस शर्मा का यही कहना था कि इन गूजरों के पुनर्वास को लेकर नए सिरे से योजना बनाई जा रही है. अलग-अलग अनुमानों के मुताबिक उत्तराखंड के अलग-अलग वनप्रभागों में इस समय 9000 के करीब गूजर रह रहे हैं.

शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी बुनियादी जरूरतों से कोसों दूर ये गूजर हर उस सुविधा से वंचित हैं जिसे बेहतर जीवन स्तर की न्यूनतम शर्त कहा जा सकता है

इस सबके बीच 1998 तक पुनर्वासित हो चुके वनगूजर जहां धीरे-धीरे ही सही मुख्यधारा की ओर कुछ कदम बढ़ा चुके हैं, वहीं जंगलों में रहने को मजबूर इन गूजरों के हिस्से में अभी भी लंबा इंतजार ही है. वन गूजरों के हितों को लेकर काम करने वाली गैर सरकारी संस्था रूरल लिटिगेशन एंड एनटाइटलमेंट केंद्र (रूलक) के अध्यक्ष अवधेश कौशल कहते हैं, ‘इसे विसंगति ही कहा जाना चाहिए कि समाज की मुख्यधारा से बहुत पहले से ही कटे हुए ये गूजर परिवार अब अपनी ही बिरादरी वाले पुनर्वासित गूजरों से भी कई मायनों में पिछड़ चुके हैं. ऐसे में इनके पुनर्वास को लेकर की जा रही देरी इन्हें और भी पीछे धकेल देगी’ पुनर्वासित गूजरों की बस्तियों और जंगल में रहने वाले गूजरों के डेरों (झोपड़ी) का सूरतेहाल देखने पर साफ पता चलता है कि पुनर्वास हो जाने और पुनर्वास न हो पाने के चलते एक ही समुदाय के इन लोगों के जीवनस्तर के बीच एक ऐसी लकीर खिंच चुकी है जो लगातार लंबी होती जा रही है.

उत्तराखंड की राजधानी देहरादून से तकरीबन 25 किलोमीटर दूर मोहंड नामक एक जगह है. चारों तरफ से वनों से घिरा यह इलाका जिस राजाजी राष्ट्रीय उद्यान से सटा हुआ है उसी के भीतर वन गूजरों के परिवार कई पीढि़यों से रहते आए हैं. जंगल की तरफ आगे बढ़ने पर उनकी घासफूस की खूबसूरत झोपड़ियां एक-एक करके दिखने लगती हैं. लेकिन इन झोपड़ियों के पास पहुंचने के बाद जो दिखता है उससे इस खूबसूरती का सारा भ्रम एक ही झटके में बिखर जाता है. ऐसी ही एक झोपड़ी में टूटे-फूटे बर्तनों और इधर-उधर बिखरे सामानों के बीच बची-खुची रह गई थोड़ी सी जगह में कई सारे लोगों के रहने का इंतजाम किसी शरणार्थी शिविर सा लगता है. झोपड़ी के पिछली तरफ कुछ बच्चे खेल रहे हैं. तीन से लेकर लगभग 12 साल तक की उम्र वाले इन बच्चों के चेहरों पर पसरी हुई बेफिक्री कहीं से भी यह आभास नहीं करा रही कि अपने भविष्य को लेकर इनके मन में किसी तरह की कोई चिंता होगी.

लेकिन इस चिंता का आभास तब होता है जब 70 साल के अली खान चारपाई से उठ कर हमसे बातचीत करने लगते हैं. इन बच्चों की तरफ इशारा करके वे कहते हैं, ‘अपने बचपन के दिनों में मैं भी इसी तरह बेफिक्री से खेला कूदा करता था. तब मुझे भी नहीं मालूम था कि आने वाला कल कैसा होगा. लेकिन गुमनामी में पूरी जिंदगी जी लेने के बाद आज जब इन बच्चों का भविष्य सोचता हूं तो डर जाता हूं.’ बात आगे बढ़ाते हुए वे कहते हैं, ‘जागरूकता के अभाव मंे हम तो पढ़ाई लिखाई से वंचित रहे ही, और अब हमारी यह नई पीढ़ी भी शिक्षा के हक से पूरी तरह महरूम है. ऐसे में यह सोचकर ही दिमाग सुन्न हो जाता है कि इनका भविष्य क्या होगा.’ इन बच्चों के स्कूल नहीं जाने का कारण पूछे जाने पर उनका जवाब आता है, ‘स्कूल तो तब जाएंगे जब स्कूल नाम की कोई चीज होगी.’

दरअसल राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के अंदर रहने वाले जितने भी गूजर परिवार हैं, उनके बच्चों के लिए एक भी सरकारी स्कूल इस इलाके में नहीं है. हालांकि स्वयंसेवी संस्था रूलक द्वारा मोहंड में जरूर एक जूनियर हाई स्कूल खोला गया है, लेकिन सभी गूजर परिवारों के लिए वहां तक पहुंच पाना संभव नहीं है. यही वजह है कि गूजरों की यह सबसे नई पीढ़ी भी अभी तक अनपढ़ ही है. इस स्कूल के प्रधानाचार्य नौशाद मोहम्मद कहते हैं, ‘वन गूजरों के जो परिवार राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के बहुत अंदर स्थित डेरों में रहते हैं उनके बच्चों का स्कूल में पहुंच पाना तब तक असंभव है जब तक कि इन परिवारों को पार्क से बाहर नहीं बसाया जाता.’ इस इलाके के वन गूजरों के एक नेता इरशान कहते हैं, ‘अगर वक्त पर हमारा भी पुनर्वास कर दिया जाता तो हमारी यह नई पीढ़ी कुछ पढ़ लिख लेती, लेकिन मालिक जाने ऐसा कब हो सकेगा.’

हरिद्वार शहर से तकरीबन 15 किलोमीटर दूर पथरी नाम की एक जगह है. वन गूजरों के 512 परिवारों को पुनर्वास योजना के तहत यहीं बसाया गया है. इस इलाके में जाते ही वन गूजरों के रहन-सहन की एक दूसरी ही तस्वीर नजर आती है. जंगलों में बने वन गूजरों के घरों के मुकाबले अच्छी तरह व्यवस्थित और ठीक-ठाक सफाई वाले यहां के घरों में अलग-अलग कामकाज में व्यस्त पुरुष और महिलाओं को देख कर ऊर्जा से लबाबल एक हलचल इस पूरी बस्ती में साफ नजर आती है. गूजर बस्ती के शुरू होते ही प्राइमरी स्कूल और जूनियर हाईस्कूल की इमारतें दिखती हैं जिन पर ‘शिक्षार्थ आइए’ और ‘विद्या धनं सर्वधनम् प्रधानम्’ के नारे लिखे हुए हैं. यहां के प्रधान गुलाम मुस्तफा बताते हैं कि उनकी बस्ती के दो बच्चे इन स्कूलों से निकल कर इंजीनियरिंग का कोर्स कर रहे हैं. खुद मुस्तफा की दो बेटियां इन स्कूलों से पढ़ कर इसी बस्ती के स्कूलों में अध्यापक बन चुकी हैं. वे कहते हैं, ‘वन गूजरों को अब समझ में आने लगा है कि बेहतर जीवनस्तर के लिए शिक्षा की अहमियत कितनी है.’ इस बस्ती में वन गूजरों को बसाने के वक्त गूजरों के प्रत्येक परिवार को खेती के लिए अलग से दो-दो हेक्टेयर जमीन भी दी गई थी. इस जमीन में गन्ना और मक्का जैसी नकदी फसलें उगाकर ये गूजर अपनी आमदनी के स्रोतों में भी इजाफा कर चुके हैं. चिलचिलाती धूप के बावजूद अपने खेत में हल चला रहे 55 साल के गूजर इमरान कहते हैं, जंगलों में रहते तो सिर्फ दूध ही बेच रहे होते, लेकिन अब हमारे पास रोजगार के कई और विकल्प भी हैं.

जिनका पुनर्वास हुआ है उनकी जिंदगी थोड़ी बेहतर हुई है. खेती के लिए मिली जमीन और स्कूल जैसी सुविधाओं ने कुछ हद तक उनका जीवन बदला है

हालांकि गूजरों को बसाने का यह काम भी कई अनियमितताओं से भरा रहा है. पथरी में उनके लिए बनाये गए मकानों, शौचालयों और कैटल शैडों के निर्माण तक में भारी गड़बड़ियां उजागर हो चुकी हैं. पथरी में उन्हें बसाये जाने की बाबत गूजरों से किसी भी तरह की सहमति नहीं ली गई थी. इसके अलावा सुरक्षा की दृष्टि से कई बातों को नजरंदाज किए जाने की बातें भी सामने आई थीं. अवधेश कौशल कहते हैं, ‘तब इस जमीन के दलदली होने की बात भी हुई थी, लेकिन सरकार ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया.’ इसी जमीन पर 2006 में गूजरों के साथ ही उनके पशुओं के लिए अस्पताल बनाया गया था. बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो चुका यह अस्पताल इस जमीन के दलदली होने की पुष्टि कर चुका है. गुलाम मुस्तफा बताते हैं, ‘इस बिल्डिंग में बैठने के लिए कोई भी डॉक्टर तैयार नहीं हुआ क्योंकि सभी जानते थे कि यह कभी भी धंस सकती है.’ इसके अलावा पुनर्वास योजना के तहत गूजरों के लिए बनाए जाने वाले शौचालयों, तथा कैटल शैडों का भी अभी शत-प्रतिशत आवंटन होना बाकी है. इस सबसे बड़ी बात यह है कि इन गूजरों को पुनर्वासित किए जाने के इतने सालों के बाद भी जमीन पर इन्हें मालिकाना हक अभी तक नहीं दिया गया है. गुलाम मुस्तफा कहते हैं, ‘हमें आवंटित की गई जमीनों के पट्टे जब तक हमारे नाम नहीं किए जाते तब तक हमारे मन में कई तरह की शंकाएं बनी रहेंगी.’

लेकिन राजाजी उद्यान के जंगलों में रहने वाले गूजरों के मुकाबले देखा जाए तो इतनी सारी दिक्कतों के बाद भी यह बस्ती हर नजरिए से उनसे बीस है. इस बात को स्वीकार करते हुए यहां के कई लोग मानते हैं कि जंगल से बाहर आकर यहां बसना उनके जीवन की दशा और दिशा को बदलने वाला कदम रहा है.

गूजरों के जीवन स्तर की इन दो तस्वीरों का सूरतेहाल समझने के बाद इस बात की पड़ताल जरूरी हो जाती है कि आखिर ऐसी कौन-सी वजहें हैं कि पुनर्वास का लाभ सभी गूजरों के हिस्से में नहीं आ पाया. इस सवाल का जवाब समझने के लिए गूजरों के वनों में रहने से लेकर उन्हें वनों से बाहर बसाने तक के घटनाक्रम पर एक सरसरी नजर डालना जरूरी है.

अपने घुमंतू स्वभाव के लिए जाने जाने वाले वन गूजर कई पीढ़ियों से जंगलों में ही रहते आए हैं. जानवरों को पालना और दूध बेचकर अपनी जरूरत की बाकी चीजों का इंतजाम करना लंबे समय से इनकी जीवनचर्या रही है. कहा जाता है कि चारागाहों की तलाश में यहां से वहां भटकते कई गूजर परिवार सहारनपुर से लेकर देहरादून और रामनगर तक फैले जंगलों में भी पहुंच गए. अब यह इलाका जिम कार्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है. गर्मियों के मौसम में पानी और चारे की किल्लत को देखते हुए ये वन गूजर उत्तराखंड (तब उत्तर प्रदेश) तथा हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी इलाकों की तरफ चले जाते थे. कुछ वक्त वहां बिताने के बाद फिर से वापस इन्हीं जंगलों में रह कर ये अपना जीवन यापन करते थे. अंग्रेजी राज से आजादी के बाद तक भी कई सालों तक यह क्रम ऐसे ही चलता रहा. इस बीच देश और दुनिया में तरक्की की नई-नई इबारतें लिखी जा रही थीं. लेकिन इस सबसे बेपरवाह वन गूजर अपनी ही दुनिया में मस्त थे. तब तक न तो सरकारों ने कभी इनको मुख्यधारा में लाने के लिए कोई प्रयास किया और न ही खुद गूजरों ने ही इस दिशा में कोई दिलचस्पी दिखाई. 73 साल के वन गूजर मोहम्मद यूसुफ कहते हैं, ‘हमें तब जंगलों में ही सारा जहान नजर आता था. इसकी सबसे बड़ी वजह यह थी कि एक तो हम अनपढ़ थे और दूसरा कोई भी यह बताने वाला नहीं था जंगलों से बाहर की दुनिया इससे बेहतर है.’

गूजरों के पुनर्वास का काम भी कई अनियमितताओं से भरा रहा है. मकानों,और कैटल शैडों के निर्माण में भारी गड़बड़ियां उजागर हो चुकी हैं

इस बीच पर्यावरण संरक्षण को लेकर दुनियाभर में जागरूकता जोर पकड़ रही थी. भारत सरकार भी वनों को संरक्षित करने के कार्यक्रम बनाने लगी. तब यह विचार प्रमुखता से सामने आया कि वनों की सुरक्षा के लिए आबादी को जंगलों से बाहर किया जाना सबसे जरूरी है. यह 70 के दशक के शुरुआती दौर की बात है. तब पहली बार विस्थापन के नजरिए से सरकार का ध्यान वन गूजरों की तरफ गया. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा गूजरों के विस्थापन के लिए बनाई गई कार्य योजना में इस सबका जिक्र किया गया है. इस दस्तावेज के मुताबिक वन गूजरों को सुनियोजित तरीके से बसाने का पहला प्रयास 1975 में किया गया था. इसके लिए गूजरों को जंगलों के बीच ही इस तरह से जमीन आवंटित किए जाने का विचार रखा गया, जिससे कि जंगल भी संरक्षित रह सकें और गूजरों को भी ज्यादा परेशानी न उठानी पड़े. लेकिन यह प्रयास सफल नहीं हो सका. इसके बाद 1979 में गूजरों को जंगल से बाहर बसाने की पहल की गई. इस बार प्रत्येक गूजर परिवार को मकान बनाने के लिए 500 वर्ग मीटर तथा खेती के लिए एक हैक्टेयर जमीन देने का प्रावधान रखा गया. लेकिन इस पर गूजर सहमत नहीं हुए. उनका कहना था कि इतनी कम जमीन में न तो उनके जानवरों के लिए चारा होगा और न ही वे अपना पुश्तैनी काम छोड़ कर कोई दूसरा काम कर सकते हैं. पथरी रेंज में पुनर्वासित किए गए गूजरों में से एक शमशेर कहते हैं, ‘इतनी कम जमीन से अपना और अपने जानवरों का गुजारा कैसे किया जा सकता था? इसके अलावा गूजरों को कोई दूसरा काम भी नहीं आता था. इसलिए हमारे बड़े बुजुर्गों ने एक स्वर में इस प्रस्ताव का विरोध कर दिया.’ इसके दो साल बाद 1981 में गढ़वाल मंडल के गूजर परिवारों को जंगल से दूर बसाने की योजना बनाई गई. इसके लिए 50 हेक्टेयर जमीन की जरूरत थी. लेकिन तब सरकार इतनी जमीन नहीं ढूंढ़ पाई और यह मामला भी ठंडे बस्ते में चला गया.

इस बीच राजाजी राष्ट्रीय उद्यान की घोषणा हो जाने से देहरादून तथा सहारनपुर के बीच स्थित जंगल का बड़ा हिस्सा इसमें शामिल हो चुका था, लिहाजा इस परिधि में आने वाले गूजरों को उद्यान से बाहर करना अपरिहार्य हो गया. इसके लिए 1885 में प्रमुख वन सचिव उत्तरप्रदेश की अध्यक्षता में एक बैठक हुई, जिसमें निर्णय किया गया कि इन गूजरों के पुनर्वास के लिए योजना बनाई जाए. इसके बाद सरकार ने हरिद्वार जिले की पथरी रेंज में 512 गूजर परिवारों को बसाने का फैसला किया. इस योजना के तहत प्रत्येक परिवार के लिए दो कमरे, रसोई, नहाने का कमरा, शौचालय, स्टोर रूम तथा जानवरों को बांधने के लिए कैटल शेड बनाने का प्रावधान रखा गया. इस बीच शुरुआती आनाकानी के बाद कुछ गूजर परिवारों ने जंगल छोड़ कर पथरी में पुनर्वासित होने की दिलचस्पी दिखा दी. पिछले दो बार से इस बस्ती के प्रधान चुने जा रहे गुलाम मुस्तफा का परिवार भी इनमें से एक था. वे कहते हैं, ‘जिंदगी भर जंगलों में रहने के बाद हमें इतना समझ में आ चुका था कि अब भी अगर जंगल से बाहर नहीं आ पाए तो आने वाली पीढियों की बर्बादी तय है.’ वे बताते हैं कि देखा-देखी में दूसरे गूजर परिवार भी धीरे-धीरे जंगल छोड़ने लगे. इस बीच धीरे-धीरे गूजर परिवारों की संख्या 512 से कहीं ज्यादा हो गई. 1998 में की गई गणना के बाद केवल राजाजी उद्यान की परिधि में आने वाले गूजर परिवारों की संख्या ही 1390 तक पहुंच गई. लिहाजा इन परिवारों को भी बसाये जाने का काम शुरू हो गया. इन परिवारों को बसाये जाने के लिए पथरी में और जमीन नहीं थी इसलिए 613 परिवारों को पथरी की तर्ज पर ही हरिद्वार जिले में स्थित एक दूसरे स्थान गेंडीखत्ता में बसा दिया गया. इस तरह गूजरों के 1125 परिवारों का पुनर्वास इन दो जगहों पर कर दिया गया.

लेकिन 1998 के बाद गूजरों के पुनर्वास कार्यक्रम पर मानो ब्रेक-सा लग गया जबकि इस बीच राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में रहने वाले वन गूजरों की संख्या में भारी बढ़ोतरी हो चुकी थी. पथरी और गैंडीखत्ता में बसाये गए वन गूजरों के बाद भी गूजरों का एक बड़ा तबका विस्थापन की परिधि से बाहर रह गया. इसकी एक बड़ी वजह यही थी कि इन दो जगहों पर उन्हीं वन गूजरों का विस्थापन किया गया, जिनकी गणना 1998 में की गई थी. जबकि सरकार की तरफ से अंतिम गणना 2009 में की गई. इस गणना के बाद अकेले हरिद्वार के चीला वन प्रभाग में ही 228 गूजर परिवार ऐसे थे जिनका विस्थापन नहीं हो सका था. इसके अलावा दूसरे वनप्रभागों में भी गूजर परिवारों की अच्छी खासी संख्या मौजूद थी. लेकिन 1998 में हुए पुनर्वास कार्यक्रम के बाद सरकार ने अपना यह अभियान रोक दिया और जंगलों में रहने वाले गूजरों के परिवार लगातार उपेक्षित होने लगे.

‘ हमें आवंटित की गई जमीनों के पट्टे जब तक हमारे नाम नहीं किए जाते तब तक हमारे मन में कई तरह की शंकाएं बनी रहेंगी ‘ 

इस बीच कड़े वन कानून जंगल में रहने वाले वन गूजरों को मुश्किलों को लगातार बढ़ाते जा रहे थे. साथ ही शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार जैसी चिंताएं भी गूजरों के लिए मुश्किलों का पहाड़ बनाने में लगी हुई थीं. इस सबके बीच रूलक संस्था ने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष वजाहत हबीबुल्लाह को पत्र लिख कर उन्हें गूजरों की समस्या बताई. इसके बाद 16 मार्च, 2012 को देहरादून में आयोजित एक सम्मेलन में शिरकत करते हुए राष्ट्रीय अल्पसंख्यक आयोग के अध्यक्ष हबीबुल्लाह वन गूजरों से रूबरू हुए. उन्होंने गूजरों से उद्यान में ही रहने या फिर पुनर्वास किए जाने की स्थिति में उनकी राय मांगी, जिस पर सभी वन गूजरों ने एक स्वर में जंगलों से बाहर आने की इच्छा जताते हुए अपने लिए उचित पुनर्वास की मांग की.

अवधेश कौशल कहते हैं, ‘जिन गूजरों का पुनर्वास हो चुका है उनके जीवन स्तर में आए परिवर्तन से सीख लेते हुए इन गूजरों को भी समझ में आने लगा था कि जंगलों से बाहर आकर ही उनकी भावी पीढि़यां समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकती हैं.’ गूजरों की राय जान लेने के बाद हबीबुल्लाह ने तीन अप्रैल 2012 को उत्तराखंड सरकार को एक पत्र लिखा. पत्र में उन्होंने सरकार से इन गूजरों का फौरन पुनर्वास करने और इनको अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने पर विचार करने की बात लिखी. इस पत्र की एक प्रतिलिपि भारत सरकार के जनजातीय कार्य एवं पंचायती राज मंत्रालय को भी भेजी गई थी जिसके बाद इस मंत्रालय ने भी उत्तराखंड सरकार से उचित कदम उठाने को कहा. इस पत्र के मिलने के लगभग एक साल बाद मई, 2013 में उत्तराखंड के तत्कालीन मुख्यमंत्री विजयय बहुगुणा ने वनगूजरों के पुनर्वास के लिए एक उच्च स्तरीय कमेटी बनाने की बात कही. मुख्य सचिव की अध्यक्षता में बनने वाली इस कमेटी को दो महीने में एक रिपोर्ट बनाने को कहा गया. इस रिपोर्ट में गूजरों के पुनर्वास समेत उन्हें विकास की मुख्यधारा में लाए जाने समेत कई जरूरी पहलुओं को शामिल किया जाना था. इससे अलावा वन गूजरों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिए जाने पर उचित फैसला लेने की बात भी मुख्यमंत्री ने कही. लेकिन इसके बाद एक लंबा दौर यूं ही बीत गया. सरकार के बयानों और आश्वासनों से थक चुके गूजरों ने इसके बाद भी सरकार पर दबाव बनाना जारी रखा. इस बारे में चीला रेंज के गूजर नेता इरशाद बताते हैं, ‘विभिन्न संगठनों एवं मंचों के जरिए हम लगातार सरकार पर दबाव बनाते रहे और अपनी मांग को लेकर अडिग बने रहे.’

इस बीच अल्पसंख्यक आयोग तथा केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय भी गूजरों के विस्थापन को लेकर चल रही हीलाहवाली पर चिंता जता चुका था. इसके बाद सरकार ने नवंबर, 2013 में राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में रह रहे वन गूजरों के 228 परिवारों के पुनर्वास को मंजूरी देते हुए एक शासनादेश जारी कर दिया. इस शासनादेश में इन परिवारों को हरिद्वार वन प्रभाग स्थित खानपुर रेंज के शाहमंसूर आरक्षित वन में बसाए जाने की बात कही गई. उस वक्त के अपर सचिव वन एवं पर्यावरण मनोज चंद्रन का कहना था कि इन गूजरों को एक माह में प्लॉट आवंटित कर फोटोयुक्त लैमिनेटड पहचान पत्र व कब्जा प्रमाण पत्र मुहैया करा दिया जाएगा. इस शासनादेश के बाद वनगूजरों के साथ ही पर्यावरण संरक्षण की दिशा में काम कर रहे लोगों की उम्मीदों को एक बार फिर से पंख लग गए.

उत्तराखंड में वन गूजरों की एक बड़ी आबादी आज भी जंगलों में रहती है और दुग्ध बेचकर अपना गुजारा करती है.

लेकिन इस सबके बाद भी गूजरों के पुनर्वास का मुद्दा वहीं रह गया. इस दिशा में चल रही कार्रवाई का सबसे ताजा सूरते हाल तो सरकार की मंशा पर कई तरह के सवाल खड़ा करता नजर आता है. बात इसी साल 22 मार्च की है. मुख्य सचिव की अध्यक्षता में वन विभाग के अधिकारियों की एक प्रमुख बैठक हुई. इस बैठक का एकमात्र उद्देश्य राजाजी राष्ट्रीय उद्यान में बचे रह गए वन गूजरों के परिवारों के पुनर्वास को लेकर निर्णय करना था. लेकिन इस बैठक से निकले नतीजे की जानकारी तो दूर की बात है, यह तक पता नहीं लग सका कि बैठक में किन बातों पर चर्चा की गई.

2013 में उत्तराखंड सरकार ने राजाजी नेशनल पार्क में रह रहे वन गूजरों के 228 परिवारों के पुनर्वास के लिए शासनादेश भी जारी किया, लेकिन गाड़ी फिर अटक गई

इस बारे में सूचना के अधिकार के तहत किए गए एक आवेदन के जवाब में वन विभाग ने जो बताया वह तो हैरान करने वाला है. पीपल फॉर एनिमल संस्था की कार्यकर्ता गौरी मौलेखी द्वारा मांगी गई इस सूचना पर वन एवं पर्यावरण अनुभाग के साथ ही वन विभाग ने अपने जवाब में कहा कि वन गूजरों को लेकर हुई बैठक का कार्यवृत्त मुख्य सचिव कार्यालय तथा वन विभाग के स्तर से तैयार किया जाना था, लेकिन दोनों ही स्तर पर इस दिशा में कोई कार्रवाई नहीं की गई. इस जवाब का सीधा मतलब यह था कि विभाग ने वन गूजरों के पुनर्वास को लेकर उस बैठक में कुछ भी नहीं किया. वन विभाग के इस जवाब से प्रदेश के राज्य सूचना आयोग ने भी खासी नाराजगी जताई थी. गौरी मौलेखी द्वारा आयोग का दरवाजा खटखटाए जाने के बाद इस मामले की सुनवाई कर रहे सूचना आयुक्त प्रभात डबराल ने कड़ी टिप्पणी करते हुए इसे ‘स्वस्थ प्रशासन के लिहाज से बेहद निराशजनक’ माना.

बहरहाल राजाजी राष्ट्रीय पार्क में रह रहे वन गूजरों के पुनर्वास का मामला पूरी तरह से सरकारी उदासीनता की भेंट चढा हुआ है. यह भी तय है कि अगले कुछ दिनों में भी सरकार का जोर पंचायत चुनावों और विधानसभा के उपचुनावों की तरफ ही लगा रहेगा. इस बीच तहलका द्वारा पूछे जाने पर वन विभाग के उच्च अधिकारी फिर से एक नई योजना बनाने की बात कर चुके हैं. वन विभाग के इस जवाब का आशय यही है कि फिलहाल इन वन गूजरों को जंगलों में ही रहना होगा. बेशक कई लोग इसे वन गूजरों की नियति कह सकते हैं लेकिन मोहंड के पास स्थित जंगल में रहने वाले 78 साल के बुजुर्ग वन गूजर मोहम्मद आलम के शब्दों में कहें तो यह मसला नियति का नहीं बल्कि नीयत का है.