Home Blog Page 1408

गति की अति!

दिल्ली के खिड़की एक्टेंशन मामले में आरोपित पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई की मांग को लेकर धरने पर बैठे मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल. फोटो: विकास कुमार

[wzslider autoplay=”true” transition=”‘slide'” info=”true” lightbox=”true”]

महीना एक, विवाद अनेक. कुछ इसी तर्ज पर आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार ने बीती 28 जनवरी को दिल्ली में एक महीने का कार्यकाल पूरा कर लिया. पिछले एक महीने में अरविंद केजरीवाल आंदोलनकारी से ‘नायक’ मुख्यमंत्री बनते हुए अराजक, तानाशाह और न जाने क्या-क्या बन गए. पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक लक्ष्मीनगर से पार्टी विधायक विनोद कुमार बिन्नी जो पार्टी के दिल्ली में सत्ता में आने से पहले उसके एक मात्र जनप्रतिनिधि हुआ करते थे, जिनकी तारीफ करते हुए केजरीवाल और पार्टी के अन्य नेता अघाते नहीं थे, जिनके क्षेत्र में गठित की गई मोहल्ला सभा को पार्टी चुनाव से पहले आदर्श मॉडल के तौर पर प्रचारित करती रही और सत्ता में आने पर इसे पूरी दिल्ली में लागू करने का वायदा भी करती रही वे बिन्नी अब पार्टी से बाहर निकाले जा चुके हैं.

पार्टी के बीते 30 दिनों के लेखे-जोखे और उसकी बनती बिगड़ती तस्वीर को क्रमबद्ध तरीके से देखने- समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे जाना होगा. इसकी शुरुआत आठ दिसंबर के चुनाव परिणाम आने के साथ हुई थी. भाजपा 32 सीटों (अकाली दल की एक सीट शामिल है) के साथ सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी. इसके बावजूद उसने दिल्ली में सरकार बनाने से इंकार कर दिया. पार्टी का आकलन था कि चूंकि बहुमत उसे मिला नहीं है, ऐसे में जोड़-तोड़ करने के बाद ही उसकी सरकार प्रदेश में बन सकेगी. यूपी से लेकर झारखंड आदि में सत्तासीन होने के लिए तमाम नैतिक-अनैतिक तरीके अपना चुकी भाजपा ने अचानक से ही हज पर जाने का मूड बना लिया था. वह अब नौ सौ चूहों की मौत को भूलना चाहती थी. भाजपा ने तय किया कि चूंकि जनता से उसे पूर्ण बहुमत नहीं दिया है सो वह सरकार नहीं बनाएगी. यह सबको पता चल गया कि इस कुर्बानी की स्क्रिप्ट नरेंद्र मोदी ने आगामी लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर लिखी है.

भाजपा का ऐसा आकलन था कि यहां नैतिक दिखने, विधायकों की खरीद-फरोख्त से बचने का फायदा पार्टी को आगामी लोकसभा के चुनाव में मिलेगा. हालांकि यह उसी आप का नतीजा था जिसकी कॉपी भाजपा कर रही थी. बड़े फायदे को ध्यान में रखकर पार्टी ने नैतिकता का चोला ओढ़ लिया. भाजपा के इंकार करने बाद दिल्ली के उप राज्यपाल ने दूसरी सबसे बड़ी पार्टी आप को बुलाया. आप ने भी सरकार बनाने का प्रस्ताव ठुकरा दिया. उनका भी तर्क यही था कि जोड़तोड़ कर वे कोई सरकार नहीं बनाएंगे. इसी बीच बड़ी खबर यह आई कि कांग्रेस अपने आठ विधायकों का समर्थन आप को देने को तैयार है.

आप के प्रस्ताव ठुकराने के बाद से ही चारों तरफ एक माहौल आप के पक्ष में बनने लगा. लोगों की धारणा थी कि आप को मौका नहीं चूकना चाहिए और सरकार बनाने का प्रयास करना चाहिए. हर तबके से ऐसे विचार आने लगे. लोग उस नई पार्टी की नई राजनीति को अपना समर्थन दे चुके थे. वे आप को वह सब कुछ करते हुए देखना चाहते थे जिसका उसने वादा किया था. दैनिक अखबार जनसत्ता के संपादक ओम थानवी की उस समय टिप्पणी थी, ‘केजरीवाल को निर्णय करना होगा. गेंद उनके पाले में है. पता नहीं क्यों अब मुझे लगता है कांग्रेस के दिलासे में छुपा जोखिम उन्हें उठाना चाहिए. जितना कर सकते हो, कर दिखाओ. कहीं नए तेवर की राजनीति और कुछ अलग काम देखने की लोगों की हसरत ही न बुझ जाए.’ थानवी जैसी भावना रखने वाले लोग उस समय दिल्ली और देश में बहुत थे.

उस समय ऐसे लोगों की भी एक बड़ी तादाद थी जो मानते थे कि अरविंद और उनकी टीम चूंकि सरकार चलाने के योग्य नहीं है, उन्हें विश्वास नहीं है कि वे सरकार चला पाएंगे, इस कारण वे सरकार बनाने से पीछे हट रहे हैं. ऐसा मानने वालों में भाजपा और कांग्रेस वालों की बहुतायत थी. कांग्रेस का अपना एक अनुमान यह भी था कि आप ने चुनावी घोषणापत्र में जो वादे कर रखे हैं, उन्हें पूरा कर पाना असंभव है इसलिए उसे आप को जनता के सामने एक्सपोज करने का यही सही मौका लगा. उम्मीदों का बढ़ता दबाव देखकर आप ने जनता की राय लेने की घोषणा की. अरविंद केजरीवाल ने जनता से सरकार बनाने को लेकर राय मांगी. जनता की राय आप की सरकार बनाने के पक्ष में आई. कांग्रेस अपने आठ विधायकों का समर्थन संबंधी पत्र पहले ही उपराज्यपाल के पास पहुंचा चुकी थी सो आप के सरकार बनाने का रास्ता साफ हो गया. दो दिनों बाद राज्यपपाल ने केजरीवाल को बतौर मुख्यमंत्री उनके छह कैबिनेट मंत्रियों के साथ रामलीला मैदान में शपथ दिलाई. अब विधानसभा में पार्टी को विश्वासमत हासिल करना था. जैसा कि सबको उम्मीद थी विधानसभा में भी पार्टी ने विश्वासमत हासिल कर लिया.

यहां से आम आदमी पार्टी की आलोचना का दूसरा और बेहद कड़ा दौर शुरू होता है. पहली आलोचना ही यह रही कि जिस कांग्रेस से न समर्थन लेने और न समर्थन देने की बात केजरीवाल कहते आए थे, आखिरकार उसी कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बना ली. इस मुद्दे को लेकर भाजपा सबसे ज्यादा हमलावर थी. पार्टी का कहना था कि वह शुरू से ही कहती आई थी कि केजरीवाल और उनकी टीम कांग्रेस की ‘बी’ टीम है और उनका एक मात्र उद्देश्य भाजपा को रोकना है. कांग्रेस से समर्थन लेने की बात पर कभी समाप्त न होने वाले विवाद की शुरुआत हो चुकी थी.

सरकार बनाने के साथ ही केजरीवाल सरकार पर चुनावी घोषणापत्र में किए गए वादों को लागू करने का भारी दबाव था. आप ने सत्ता में आते ही वीआईपी कल्चर को खत्म करने के अपने चुनावी वायदे पर तत्काल प्रभाव से अमल किया. मुख्यमंत्री और कैबिनेट ने न सिर्फ लाल बत्ती और सुरक्षा आदि लेने से इंकार कर दिया बल्कि सारे अधिकारियों के लिए लाल बत्ती लगाना मना कर दिया गया. सचिवालय की गाड़ियों से एक झटके में सारी लाल, नीली बत्तियां और सायरन गायब हो गए. अखबारों में ऐसी खबरें आईं जहां आप सरकार के मंत्रियों ने अपने दफ्तर, जिसमें अब तक पूर्व की कांग्रेस सरकार के मंत्री बैठते थे, को जरूरत से अधिक सुविधासंपन्न और विलासिता वाला बताते हुए उसे सामान्य बनाने का काम शुरू किया. इसी संदर्भ में अंग्रेजी अखबार टाइम्स ऑफ इंडिया में एक तस्वीर छपी जिसमें सरकार के शिक्षा मंत्री मनीष सिसोदिया के कमरे से एक कुर्सी को बाहर ले जाया जा रहा था और दूसरी कुर्सी उनके बैठने के लिए लाई जा रही थी. तस्वीर के नीचे लिखा था, ‘मैं आरामदायक कुर्सी पर नहीं बैठना चाहता. इसीलिए सामान्य कुर्सी मंगाई गई है.’ प्रतीकों की राजनीति का यह चरम था.

सरकार के शपथ ग्रहण समारोह में भी केजरीवाल और उनके साथी मेट्रो से शपथ लेने रामलीला मैदान पहुंचे थे. देश में यह पहली बार था जब मुख्यमंत्री और सरकार के मंत्री सार्वजनिक यातायात के साधनों का इस्तेमाल करते हुए शपथ लेने पहुंचे थे. सरकार जनता के बीच यह संदेश देने में सफल रही कि वह कहने के लिए नहीं वरन पूरी तरह से आम आदमी की सरकार है.

लेकिन उसी सरकार के आम से दिखने वाले चेहरे पर पहला प्रश्न उस समय खड़ा हुआ जब यह खबर आई कि सरकार के मंत्रियों को इनोवा गाड़ी दी गई है तथा मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल जो कौशांबी स्थिति अपने घर से दिल्ली आना जाना करते थे उनके रहने और ऑफिस के लिए भगवान दास रोड पर एक-दूसरे से सटे डीडीए के 5-5 कमरे वाले दो ड्यूप्लेक्स घर को चुना गया है. खबर आई कि अरविंद ने भी इसमें शिफ्ट होने पर सहमति जता दी है.  विपक्ष के हाथ में यह खबर हथियार बन गई. पार्टी, सरकार और खासकर केजरीवाल की आलोचना शुरू हो गई. गाड़ी वाले मसले पर आलोचकों का कहना था कि जो लोग मंत्री बनने के लिए मेट्रो से पहुंचे थे और जिन्होंने कहा था कि वे आम लोगों की तरह ही पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफर करेंगे उन्हें एकाएक इनोवा की जरूरत क्यों पड़ गई. क्या मेट्रो से शपथ लेने जाना और आम आदमी की तरह सार्वजनिक परिवहन से सफर करना एक नाटक था? लोगों ने यह तर्क भी दिया कि पार्टी सत्ता में आने से पहले से कहती रही थी कि उसके नेता सरकारी गाड़ी और घर नहीं लेंगे. मनीष सिसोदिया इसके बचाव में सामने आए. उनका कहना था, ‘आप वीआईपी संस्कृति के खिलाफ है लेकिन सरकारी कारें लेने में कुछ भी गलत नहीं है.’ खैर, मनीष सिसोदिया और आप की सफाई के बाद भी मामला तूल पकड़ता गया. खासकर उस सोशल मीडिया पर जहां से पार्टी को जीवनदायी ऑक्सीजन मिलती थी.’

मीडिया और सोशल मीडिया में केजरीवाल निशाने पर आ गए. पहले उन्होंने सरकारी घर लेने से इंकार कर दिया था, लेकिन बाद में उन्होंने 5-5 कमरे वाले दो फ्लैट के लिए हामी भर दी. मीडिया में उन घरों के रंग-रोगन की तस्वीरें भी आईं. अगले तीन दिनों तक यह मामला राजनीतिक चर्चा का केंद्रीय विषय बना रहा. अखबारों से लेकर टीवी और सोशल मीडिया में ऐसी खबरें आने लगीं जिनमें बताया जाने लगा कि अरविंद को मिलने वाले दोनों डुप्लेक्सों को मिला दें तो उसका क्षेत्रफल दिल्ली की पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के बंगले के बराबर निकल आएगा.

चौतरफा दबाव में केजरीवाल ने वह घर लेने से इनकार कर दिया. उनका कहना था, ‘मुझे जनता से काफी संदेश मिले हैं और कुछ करीबियों के फोन भी आए हैं कि मुझे और छोटा घर चाहिए. पार्टी समर्थकों को मेरे लिए दिल्ली सरकार द्वारा तय किए गए आवास से चोट पहुंची है. जब तक मेरे लिए छोटा घर उपलब्ध नहीं हो जाता है, मैं कौशांबी स्थित आवास से ही कामकाज करता रहूंगा.’

जनभावनाओं और लोकप्रियता की राजनीति करने वाली नई-नवेली सरकार के लिए यह पहला झटका था. इस घटना ने एक और सच सामने रखा. सच यह कि आप के छोटे से छोटे कदम की भी बहुत निर्मम समीक्षा होगी, विपक्ष द्वारा भी और मीडिया द्वारा भी. हालांकि एक वर्ग का यह भी मानना था कि अरविंद को घर के मामले में पीछे नहीं हटना चाहिए था. उनके इस कदम से यह बात स्थापित हो गई कि केजरीवाल पॉपुलर मूड के खिलाफ नहीं जा सकते. जबकि सरकार में कई बार आपको ऐसे कदम उठाने पड़ते हैं जो लोकप्रिय राजनीति का हिस्सा नहीं होते लेकिन व्यवस्था और दीर्घकालिक हितों के लिए जरूरी होते हैं. केजरीवाल का सामना उस सच से भी हुआ कि जनभावनाओं की सवारी शेर की सवारी की तरह होती है. इसमें सफलता की जितनी गुंजाइश होती है, पलट कर चोट खाने का खतरा भी उतना ही ज्यादा होता है.

जैसे-तैसे घर और कार का मामला शांत पड़ा तो सरकार की महिला और बाल विकास मंत्री राखी बिडलान विवाद में घिर गईं. उनकी कार पर अज्ञात लोगों द्वारा हमले की खबर आई. पार्टी के लोगों का कहना था कि हमले में राखी को चोट तो नहीं नहीं आई मगर उनकी कार का शीशा टूट गया. एक बार फिर से मुख्यधारा और सोशल मीडिया में चर्चा होने लगी कि कैसे आप के नेताओं पर हमला करने की शुरुआत हो चुकी है. पार्टी के लोग कहते पाए गए कि जनता के बीच रहने और सुरक्षा लेकर न चलने के कारण राखी पर हमला हुआ है. चर्चा शुरू हो गई कि आप के मंत्रियों को न्यूनतम सुरक्षा लेने के बारे में सोचना चाहिए. जो लोग सुरक्षा संबंधी तामझाम के खिलाफ थे वे भी इस बात के पक्षधर होते दिखे.

लेकिन अगले ही दिन संवेदना की यह लहर उलटी दिशा में बहने लगी. पता चला कि राखी पर किसी ने हमला नहीं किया था बल्कि क्रिकेट खेल रहे बच्चों की गेंद उनकी गाड़ी के शीशे से टकरायी थी. इस घटना के तुरंत बाद बच्चे और उसकी मां ने सबके सामने राखी से माफी भी मांग ली थी. लेकिन इसके बावजूद राखी नहीं मानी, वे मंगोलपुरी थाने में शिकायत दर्ज करवाने पहुंच गईं. राखी के पिता पर भी बच्चे के परिवार को अपशब्द कहने के आरोप लगे. बाद में यह खबर भी आई कि बच्चे समेत उसके माता-पिता मंत्री से डरकर अपना घर छोड़कर चले गए हैं. इस खबर ने राखी बिडलान और आप को चौतरफा आलोचना के केंद्र में ला दिया. आरोप लगाए गए कि आप भी राजनीति के उसी घटिया संस्करण को कॉपी कर रही है जिससे लड़ने की वह बात करती रही है. उसके मंत्री सुरक्षा लेने के लिए खुद पर फर्जी हमले की कहानी बना रहे हैं.

आप की नई सरकार का हनीमून पीरियड अभी और कड़वा होना था. राखी बिडलान प्रकरण से पार्टी और सरकार जूझ ही रही थी कि पार्टी के वरिष्ठ नेता कुमार विश्वास के पुराने कवि सम्मेलनों में की गई टिप्पणियां पार्टी के गले की फांस बनने लगीं. दिल्ली विधानसभा में आप की ऐतिहासिक जीत के कुछ समय बाद ही कुमार विश्वास ने इच्छा जाहिर की कि वे कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के खिलाफ अमेठी से चुनाव लड़ना चाहते हैं. इसके बाद अचानक से सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर विश्वास के कवि सम्मेलनों की ऐसी क्लिपिंग्स आनी शुरू हो गईं जो पार्टी के लिए फजीहत का कारण बनने लगीं. 2008 के उनके कवि सम्मेलन का एक वीडियो सामने आया जिसमें विश्वास सिखों और मुसलमानों पर चुटकले कहते दिखाई दिए. क्लिप सामने आने के बाद दिल्ली में आप सरकार को समर्थन दे रहे जदयू के विधायक शोएब इकबाल ने इसकी तीखी आलोचना की और कुमार विश्वास से माफी मांगने और ऐसा ना होने की सूरत में सरकार से समर्थन वापस लेने की बात की. खैर आनन फानन में विश्वास ने ‘आहत’ हुए सभी लोगों से माफी मांग ली. पर यह अंत नहीं था. एक और क्लिप सामने आ गई जिसमें वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की तारीफ करते दिखे. फिर बवाल मचा, इस पर विश्वास ने सफाई देते हुए कहा कि चूंकि मोदी उस कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे इसलिए उन्होंने उस कार्यक्रम में मोदी की तारीफ की थी. यह 2009 का वीडियो था. इसके चंद रोज बाद ही केरल की नर्सों को काली-पीली कहकर उनका अपमान करने वाली विश्वास की एक नई क्लिप सामने आई. वीडियो के सामने आने के बाद विरोध भी शुरू हो गया. एक ओर जहां कांग्रेस के सदस्यों ने आप के केरल ऑफिस पर पथराव और तोड़फोड़ किया, वहीं केरल के मुख्यमंत्री ऊमन चांडी ने भी कुमार विश्वास से माफी की मांग की. इसको लेकर केरल के कई शहरों में विश्वास और पार्टी के खिलाफ प्रदर्शन हुए.

हर दो चार दिन में उनके खिलाफ आ रहे आपत्तिजनक वीडियो के बारे में कुमार विश्वास का कहना है कि यह सबकुछ तभी से शुरू हुआ है जब से उन्होंने अमेठी में राहुल गांधी के खिलाफ चुनाव लड़ने की घोषणा की है. आप के अन्य नेता भी विश्वास से इत्तफाक रखते हैं. मीडिया से बातचीत में विश्वास कहते हैं, ‘ये सारे क्लिप 2008-09 के हैं जिन्हें जानबूझकर और काट-छांट कर दिखाया जा रहा है. अगर ये सब गलत था तो लोग क्यों पिछले चार सालों से उन वीडियो को सामने नहीं ला रहे थे. 19 देशों में मैंने एक लाख घंटे की कविताएं पढ़ी है. विरोधियों को तय करना होगा कि वे मेरे कविता सम्मेलन पर चुनाव लड़ना चाहते हैं या फिर मुद्दों पर.’ अपने बचाव में विश्वास का कहना था कि कवि सम्मेलन में काफी कुछ स्क्रिप्टेड होता है. वहां कही गई बातें उनके अपने विचार नहीं हैं. विश्वास पर हो रहे हमले के दौरान उनकी पार्टी उनके साथ खड़ी रही लेकिन हाल ही में आप से जुड़ी मशहूर नृत्यांगना मल्लिका साराभाई ने उनकी जमकर आलोचना भी की.

मल्लिका ने कुमार विश्वास को एक अपरिपक्व नेता बताते हुए राहुल गांधी पर विश्वास के हमले की भी क्लास ली. साराबाई ने अमेठी में खुद को वहां का नौकर बताने वाले विश्वास के बयान की आलोचना करते हुए कहा, ‘विश्वास खुद फाइव स्टार होटल की सुविधा मांगते हैं. वे बिजनेस क्लास में चलते हैं. अमेठी में उनके साथ 300 कारों का काफिला गया. ऐसे में तो अमेठी की जनता को यह नौकर काफी महंगा पड़ेगा.’  इधर जब पत्रकारों ने विश्वास से मल्लिका के बयान पर प्रतिक्रिया मांगी तो उनका कहना था, ‘मैं जानता नहीं वे कौन हैं और मैं ये भी नहीं जानता कि ये पार्टी में कब आईं. पार्टी में एक करोड़ लोगों को लेना है. जिनको कॉल आई होगी, उनमें से ही एक होंगी. उनका स्वागत है. सब अपनी-अपनी बातें करेंगे मैं किस-किस का जवाब दूंगा.’

यहां से पार्टी और सरकार पर बाहर से हो रहे हमलों के अलावा पार्टी के भीतर ही नेताओं के बीच भी खींचतान शुरू हो गई.

पार्टी इस मामले में डैमेज कंट्रोल का प्रयास कर ही रही थी कि पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने अपने बयानों से एक नए विवाद का सूत्रपात कर दिया. भूषण का यह बयान कश्मीर को लेकर था. उनका कहना था, ‘यह अत्यंत जरूरी है कि हम लोगों के दिलों और मन को जीतें और अलगाव की भावना को उभरने से रोकें. इसके लिए सबसे पहले आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ्स्पा) को हटाने की जरूरत है जो सेना को मानवाधिकार के उल्लंघन के मामलों में छूट प्रदान करता है. आंतरिक सुरक्षा के मामलों में सेना की तैनाती लोगों की मंजूरी के बाद ही होनी चाहिए.’ कश्मीर में सेना की उपस्थिति पर भूषण जनमतसंग्रह कराने की बात कर रहे थे. फिर क्या था. उनका यह बयान जंगल में आग की तरह फैल गया.

भूषण के इस बयान की भाजपा समेत तमाम पार्टियों और समूहों ने पुरजोर निंदा की. पुतले फूंके गए. आप पर देश विरोधी और सेना विरोधी होने के आरोप लगने लगे. पार्टी को समर्थन देने वाले युवाओं का एक बड़ा वर्ग सोशल मीडिया पर कश्मीर पर प्रशांत के बयान के बाद उसकी आलोचना करने लगा. चारों तरफ से दबाव बढ़ता देख पार्टी ने खुद को भूषण के बयान से अलग कर लिया. पार्टी का कहना था कि ये उनका निजी बयान है और पार्टी इससे इत्तेफाक नहीं रखती. लेकिन इस सफाई से भी बात न बनती देख पार्टी ने प्रशांत भूषण को अपना बयान वापस लेने के लिए किसी तरह मनाया. जिसके बाद उनका ये बयान आया है कि जम्मू-कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा है और इस तथ्य को चुनौती नहीं दी जा सकती है.

खैर, कश्मीर मामले पर प्रशांत भूषण और पार्टी की सफाई के बाद भी बात नहीं बनी. एक अनजान से संगठन ‘हिंदू रक्षा दल’ के लोगों ने पार्टी के कौशांबी स्थित दफ्तर पर हमला कर दिया. इस हमले शामिल लोगों की तस्वीरें प्रवीण तोगड़िया, अशोक सिंघल से लेकर अरुण जेटली तक के साथ सोशल मीडिया पर मौजूद हैं. अभी कश्मीर पर बयान को लेकर उठा बवंडर थमा भी नहीं था कि प्रशांत भूषण ने एक नए विवाद को जन्म दे दिया. इस बार उन्होंने नक्सल प्रभावित इलाकों में सुरक्षाबलों की तैनाती को लेकर जनमत संग्रह कराने की वकालत की. फिर से भूषण और आप विरोधियों के निशाने पर आ गए. इस बार भी पार्टी ने खुद को भूषण से अलग कर लिया.

खैर, जिस तरह से एक समस्या के खत्म होने से पहले ही दूसरी समस्या के जन्म देने की परिपाटी आप ने बनाई उसमें पार्टी का हर सदस्य दिलोजान से अपना योगदान देने के लिए आतुर था. केजरीवाल के कानून मंत्री सोमनाथ भारती भी विवादों की इस प्रतियोगिता में पूरे दमखम के साथ कूद पड़े. भारती से जुड़ा पहला विवाद तब सामने आया जब उन्होंने सचिवालय में दिल्ली कोर्ट के सभी जजों की बैठक बुलाने का आदेश अपने सचिव एएस यादव को दिया. सचिव ने ऐसा कर पाने में अपनी असमर्थता जताई. सोमनाथ पर यादव को भला बुरा कहने का आरोप लगा. कानून सचिव एएस यादव ने कानून मंत्री सोमनाथ भारती को कहा था कि न्यायपालिका दिल्ली सरकार के अधीन काम नहीं करती है और हाईकोर्ट ही दिल्ली के कोर्ट के जजों की बैठक बुला सकता है.

कानून के जानकारों ने कानून सचिव के समर्थन और सोमनाथ की अज्ञानता पर जमकर भड़ास निकाली. जैसे-तैसे यह मामला निपटा. लेकिन इसके निपटते ही भारती के पिटारे से एक नया विवाद निकल पड़ा. साल 2013 के अगस्त महीने में सीबीआई के स्पेशल जज ने एक मामले में सुनवाई के दौरान सबूतों से छेड़छाड़ करने को लेकर भारती को फटकार लगाई थी. जैसे ही यह मामला मीडिया की नजरों में आया भाजपा समेत तमाम विरोधियों ने इसे हाथों हाथ लपक लिया. उनकी पार्टी इस विवाद को सुलझाने की कोशिशों में लगी हुई थी. ऐसे कठिन समय में भारती ने विवादों की हैट्रिक लगाते हुए मामले को एक तरह से क्लाइमैक्स पर पहुंचा दिया. घटना सोमनाथ के विधानसभा क्षेत्र में आने वाले खिड़की एक्सटेंशन से जुड़ी थी.

इस विवाद को लेकर सोमनाथ का कहना यह था कि पिछले कई महीनों से खिड़की एक्सेंटशन के लोग वहां रह रहे अफ्रीकी नागरिकों की हरकतों से परेशान थे. क्षेत्रवासियों का कहना था कि इन विदेशी नागरिकों में से कई ऐसे हैं जो यहां ड्रग्स और सेक्स रैकेट चलाते हैं. इसकी शिकायत उन्होंने कई बार स्थानीय पुलिस थाने से लेकर पुलिस कमिश्नर तक से की थी, लेकिन इस पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. 15 जनवरी की रात को खिड़की निवासियों ने भारती से एक शिकायत की कि एक घर में ड्रग्स और जिस्मफरोशी से जुडे लोग मौजूद हैं. उन्हें पुलिस के हाथों गिरफ्तार कराया जाना चाहिए. भारती के मुताबिक वे मुहल्लेवालों और अपने समर्थकों के साथ चिन्हित घर की तरफ चल पड़े. रास्ते में उन्होंने पुलिस को फोन किया तथा वहां रास्ते में मौजूद एक पीसीआर वैन को भी अपने साथ ले गए. उस घर के सामने पहुंचकर पुलिस के सामने ही भारती के समर्थकों ने एक व्यक्ति को फर्जी कस्टमर बनाकर उस घर में भेजा जहां जिस्मफरोशी करने वालों के होने की बात कही गई थी. वापस आकर उसने बताया कि हां, भीतर सेक्स रैकेट से जुड़े लोग हैं जो उससे पैसे की मांग कर रहे हैं. भारती का कहना है कि यह पूरी बात पुलिस को बताई गई और उनसे उस घर पर छापा मारकर उन लोगों को गिरफ्तार करने को कहा गया. लेकिन पुलिस ने किसी भी तरह की कार्रवाई करने से इंकार कर दिया. पुलिस का कहना था कि वह बिना वारंट के न तो उस घर को घेर सकती है और न ही किसी को गिरफ्तार कर सकती है. सोमनाथ के मुताबिक पुलिस के सामने ही ड्रग्स और देह व्यापार का प्रमाण मौजूद था लेकिन पुलिसवाले जानबूझकर कोई कार्रवाई नहीं कर रहे थे. थोड़ी देर बाद पुलिस वहां से निकल गई. इस घटना से जुड़ा एक वीडियो भी लोगों ने देखा जिसमें भारती पुलिस के एक अधिकारी को कार्रवाई करने के लिए कह रहे थे लेकिन वह उन्हें उनकी सीमा में रहने की नसीहत देता रहा.

भारती पर ये आरोप लगा कि सोमनाथ और उनके समर्थकों ने महिलाओं के साथ आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग किया. यह भी कि उन्होंने एक महिला को शौचालय तक नहीं जाने दिया और उसे सबके सामने पेशाब करने पर मजबूर किया. महिलाओं ने आरोप लगाया है कि मंत्री और उनके साथ मौजूद लोगों ने न केवल उनके साथियों के साथ मारपीट की बल्कि उन्हें घंटों गाड़ी में बंधक बनाए रखा. युगांडा की दो लड़कियों ने उनका जबरन मेडिकल करवाने और उन्हें प्रताड़ित करने की लिखित में शिकायत की. इस घटना ने दिल्ली पुलिस और पखवाड़े भर पहले ही सत्ता में आई आम आदमी पार्टी के बीच एक बड़ी लड़ाई का रास्ता तैयार कर दिया.

कुछ इसी तरह का मामला दिल्ली के सागरपुर इलाके में भी सामने आया. महिला एवं बाल विकास मंत्री राखी बिडलान का आरोप था कि एक दहेज पीड़िता को ससुराल वालों ने जलाकर मार डाला लेकिन पुलिस आरोपियों को गिरफ्तार करने की बजाय उन्हें बचाने का काम कर रही है. राखी का आरोप था कि वे उस महिला जिसे ससुराल वाले दहेज को लेकर बहुत पहले से प्रताड़ित कर रहे थे, की फरियाद लेकर कई बार पुलिस अधिकारियों से मिल चुकी थीं. लेकिन पुलिस ने ससुराल वालों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की और अंततः ससुराल वालों ने पीड़िता को जलाकर मार डाला.

पार्टी अपनी लगातार हो रही छीछालेदर से न सिर्फ त्रस्त थी बल्कि उसे इस बात का भी अहसास हो रहा था कि अगर ऐसे ही पुलिस वाले उनके मंत्रियों को अपमानित करेंगे तो वे किस मुंह और मनोबल के साथ काम करेंगे. जाहिर सी बात है पार्टी के भीतर इस पर राय बनने लगी कि कुछ करना जरूरी है. इसी बीच एक विदेशी महिला के साथ बलात्कार का मामला भी सामने आया. उसके साथ नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास दिनदहाड़े सामूहिक बलात्कार हुआ.

आप ने तीनों विवादों को एक साथ जोड़ते हुए हमलावर मुद्रा अख्तियार कर ली. पार्टी की तरफ से कहा जाने लगा कि जब दिल्ली पुलिस का एसएचओ मंत्री की बात नहीं सुनता तो वह आम आदमी के साथ कैसा बर्ताव करता होगा. आप ने दिल्ली पुलिस के खिलाफ मोर्चा खोल दिया. पार्टी को वह सूत्र मिल गया था जिसके जरिए वह अब तक लगातार हो रही फजीहत से बचने और हमलावर होने का खतरा उठा सकती थी. आप ने तीनों मामलों से जुड़े कुल पांच पुलिस अधिकारियों को सस्पेंड करने या ट्रांसफर करने की मांग रखी. दिल्ली पुलिस को राज्य सरकार के अधीन लाने की बात पार्टी पहले ही पार्टी अपने चुनावी घोषणापत्र में कर चुकी थी. पार्टी को यह मुद्दा तो उठाना ही था लेकिन यह मौका इतना जल्दी आ जाएगा इसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी. पार्टी ने अपने अपमान को दिल्ली की आम जनता के अपमान से  जोड़ दिया.

पांच पुलिस वालों को सस्पेंड कराने का महाअभियान शुरु हो गया. पहले पार्टी नेता इसे लेकर दिल्ली के पुलिस कमिश्नर के पास गए. कमिश्नर ने जिम्मेदार पुलिस वालों पर जांच रिपोर्ट आने से पहले कार्रवाई करने से इंकार कर दिया. पार्टी नेता उसके बाद गृहमंत्री से जाकर मिले. वहां भी उन्हें निराशा हाथ लगी. दोनों जगहों से ना में जवाब मिलने के बाद अरविंद केजरीवाल भड़क गए. अब वे खुद को पहले से ज्यादा अपमानित महसूस कर रहे थे. मामला अब न्याय-अन्याय से ज्यादा आत्मसम्मान और अहं का बन गया था. ऐसी हालत में पार्टी ने अपने सबसे आजमाए हुए नुस्खे पर अमल किया.

आप के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘पुलिस व्यव्स्था को दुरुस्त करने से ज्यादा मामला आत्मसम्मान का था. लोग हमें देख रहे थे. कार्यकर्ता हमें देख रहे थे. वे देख रहे थे कि हम पुलिस के सामने कितने निरीह और लाचार हैं. कोई हमारी नहीं सुन रहा और एक सामान्य सा पुलिसकर्मी हमारे मंत्री को धमका रहा था. अगर मुख्यमंत्री तीन एचएचओ का ट्रांसफर नहीं करा सकता तो फिर ऐसे मुख्यमंत्री की हैसियत क्या रहेगी. आप बताइए ऐसी सरकार को कौन गंभीरता से लेगा?  आप ने इस सोच की रोशनी में अनशन को आखिरी विकल्प माना.’

हालांकि रेल भवन के सामने अरविंद और उनकी सरकार के धरने को लेकर एक वर्ग  मानता है कि अरविंद को अपने पद और प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए औपचारिक तरीके से अपनी बात रखनी चाहिए थी. पार्टी के कई नेता भी इस राय से सहमत थे लेकिन वे साथ में परिस्थिति का हवाला भी देते हैं. उनका मानना है कि अगर सामान्य परिस्थिति होती तो शायद उन्हीं औपचारिक तरीकों का प्रयोग किया जाता जिनकी बात आलोचक कर रहे हैं. लेकिन चूंकि मामला सरकार के अपमान और उसके इकबाल से जुड़ा था इसलिए मजबूरन पार्टी को आक्रामक होना पड़ा. राजनीतिक विश्लेषक पुष्पेश पंत भी इस विचार से समहत दिखते हैं. वे कहते हैं, ‘यह बेहद शर्मनाक है कि दिल्ली के मुख्यमंत्री को एक एसएचओ अपमानित करे. मुझे यह बात बहुत अजीब लगती है जब लोग कहते हैं कि सरकार चलाने का यह कोई तरीका नहीं है. क्या सरकार चलाने का तरीका वो है जैसे लालू ने बिहार में सरकार चलाई या अब मुलायम यूपी और ममता बंगाल में चला रही हैं?’

पार्टी में मतभेद
सरकार बनने के बाद से ही एक तरफ जहां पार्टी और सरकार अलग-अलग विवादों, समस्याओं और चुनौतियों से जूझ रहे हैं वहीं पार्टी नेताओं में आपसी विवाद और मतभिन्नता भी एक बड़ा मुद्दा बनता जा रहा है. कुमार विश्वास और मल्लिका साराभाई के बीच का विवाद हो या फिर पार्टी के संस्थापक सदस्यों में से एक रहे विनोद कुमार बिन्नी के पार्टी नेतृत्व पर उठाए गए सवाल,  जबसे पार्टी सत्ता में आई है तबसे इसकी अनुशासन की डोर लगातार कमजोर होती दिखाई दे रही है. जानकार लोग इसे सत्ता में आने का स्वाभाविक दोष मान रहे हैं. ऐसे में स्वाभाविक है कि कुछ लोग नेतृत्व से नाराज होते भी दिखाई दें.

दिल्ली में ऐतिहासिक प्रदर्शन के बाद से ही पार्टी से जुड़ने को बेताब लोगों की लाइन लगी हुई है. एक तरफ जेएनयू में प्रोफेसर और पिछले 40 सालों से वामपंथी संगठन सीपीआई के सदस्य रहे कमल मित्र चिनॉय आप ज्वाइन कर रहे हैं तो वहीं खुले मार्केट के पैरोकार और देश में सस्ती विमान सेवा मुहैया कराने वाले एयर डक्कन के संस्थापक कैप्टन गोपीनाथ भी पार्टी की नाव पर सवार हो गए हैं. इनके साथ ही देश की बड़ी आईटी कंपनी इंफोफिस के बोर्ड मेंबर रहे बालाकृष्णन, बैंकर और रॉयल बैंक ऑफ स्कॉटलैंड (आरबीएस) की पूर्व सीईओ और अध्यक्ष मीरा सान्याल, पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री के पोते आदर्श शास्त्री और लेखिका एवं आंदोलन के समय से ही टीम केजरीवाल की आलोचक रही अरुंधति रॉय की मां ने भी आप का दामन थाम लिया है.

यानी हर तरह के लोग पिछले एक महीने में पार्टी से जुड़े हैं. कई जानकारों की मानें तो यह स्वाभाविक है कि जितनी विविधता वाले लोग पार्टी में शामिल होंगे उतनी ही मतभिन्नता भी दिखाई देगी. इसका नमूना तब दिखा जब  केजरीवाल ने खुदरा बाजार में एफडीआई का विरोध किया तो कैप्टन गोपीनाथ ने इसे गलत बताया. ऐसे में यह संभावना प्रबल है कि आने वाले समय में पार्टी के भीतर खींचतान और बढ़ेगी. एक साक्षात्कार में इस सवाल का जवाब देते हुए केजरीवाल कहते हैं, ‘बिलकुल बढ़ेगी. जब समाज में विविधता है तो पार्टी में भी होगी. यह पार्टी शिवजी की बारात की तरह है. इसमें आपको हर तरह के लोग दिखाई देंगे.’

बड़ी संख्या में पार्टी से जुड़ रहे लोगों के कारण जहां एक तरफ पार्टी का विस्तार हो रहा है तो वहीं कुछ नई चिंताएं भी देखने को मिल रही हैं. तहलका ने इस दौरान पार्टी के कई पुराने  कार्यकर्ताओं से बात की. आंदोलन के शुरुआती दौर से ही साथ रहे कुछ कार्यकर्ताओं में अपनी पार्टी के प्रति कुछ नाराजगी दिखाई देती है.

सूरजभान आरके पुरम में पार्टी के एक कार्यकर्ता हैं. पार्टी बनने के बाद से ही वे अपनी विधानसभा में सक्रिय थे, लेकिन अब वे कुछ मायूस हैं. कहते हैं, ‘अब शायद पार्टी को हमारी जरूरत नहीं रही. दिल्ली का चुनाव जीतने के बाद बड़ी संख्या में नए लोग पार्टी से जुड़े हैं. वरिष्ठ नेता नए लोगों को ही ज्यादा तवज्जो दे रहे हैं. हम तो नींव के पत्थरों जैसे चुपचाप पार्टी को मजबूत करने के लिए जमीन में धंस गए.’ आरके पुरम से चुनाव लड़ी शाजिया इल्मी पर आरोप लगाते हुए वे कहते हैं, ‘मैडम को जिताने के लिए हम लोगों ने दिन-रात एक कर दिया. दुर्भाग्य से वे 326 वोटों से हार गई. बस फिर क्या था. वे अपनी हार का ठीकरा हमारे ही सर फोड़ रही हैं. हम लोगों को पार्टी की हर गतिविधि से दूर रखने की कोशिश की जा रही है. मेरे जैसे सैकड़ों लोग इस विधानसभा में हैं.’ कुछ कार्यकर्ता ऐसे भी हैं जो आरोप लगाते हैं कि पूरी पार्टी चार दोस्तों अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, संजय सिंह और कुमार विश्वास के हाथों में सिमट गई है. यही चारों सबकुछ तय कर रहे हैं.

लोकसभा चुनाव और हड़बड़ी
दिल्ली विधानसभा के उत्साहजनक नतीजों के बाद से ही आप राष्ट्रीय पार्टी बनने के लिए बेताब है. पार्टी के नेताओं ने कई बार ऐलान किया कि पार्टी आगामी लोकसभा चुनाव पूरे देश में  लड़ेगी. पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक उनकी मंशा लगभग 300 सीटों पर किस्मत आजमाने की है. पार्टी के इस कदम को सराहने वाले और इसे जरुरी बताने वाले लोगों की कमी नहीं है. ऐसे लोग आम आदमी पार्टी को बदलाव का विकल्प मानते हैं. दिल्ली की जनता ने यह साबित करके दिखाया है. पार्टी नेता योगेंद्र यादव भी कहते हैं, ‘पूरा देश बदलाव चाहता है. ऐसे में हम पीछे नहीं हट सकते.’

लेकिन पार्टी की इस मंशा के आलोचक भी कम नहीं हैं. आलोचकों की नजर में आप बहुत हड़बड़ी में है. ऐसे लोग आप को ‘आधी छोड़ पूरी को धावे, आधी मिले न पूरी पावे’ वाली कहावत के चश्मे से देख रहे हैं जो कि कुछ हद तक सही भी है. पार्टी को पहले दिल्ली में खुद को साबित करने पर ध्यान लगाना चाहिए था क्योंकि उन्होंने पहाड़ सरीखे जो वायदे किए हैं उन्हें पूरा करना असंभव तो नहीं लेकिन ऐसा करने के लिए कड़ी मेहनत और समय दोनों की दरकार होगी. दिल्ली में बेहतर काम करके पार्टी एक उदाहरण प्रस्तुत कर सकती थी. लेकिन ऐसा न करके पार्टी जो अभी देश के ज्यादातर हिस्सों में ठीक से अपने पैरों पर खड़ी भी नहीं हो सकी है, पूरे देश में सत्तासीन होने का सपना देख रही है. सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटी के आदित्य निगम कहते हैं, ‘पार्टी क्षमता से ज्यादा तेज गति से दौड़ रही है. उसने खुद के लिए असंभव लक्ष्य और समयसीमा तय कर रखी है.’

फिलहाल आम आदमी पार्टी लोकसभा चुनावों में चमत्कार करने को लेकर उत्साहित है. देश भर से लोगों को जोड़ने के लिए वह मुफ्त सदस्यता का एक बड़ा अभियान ‘मैं भी आम आदमी’ चला रही है. इसके तहत उसने 26 जनवरी तक एक करोड़ लोगों को पार्टी से जोड़ने का लक्ष्य तय किया था. पार्टी नेता गोपाल राय के मुताबिक पार्टी अपने इस लक्ष्य में सफल हुई है और अब तक उससे कुल एक करोड़ पांच लाख लोग जुड़ चुके हैं. हालांकि पार्टी की इस मेंबरशिप ड्राइव की प्रामाणिकता पर कुछ सवाल भी खड़े हुए हैं. पार्टी से जुड़ने वाले नामों में बराक ओबामा, जवाहर लाल नेहरु, मार्क जुकरबर्ग, अटल बिहारी बाजपेयी, इंदिरा गांधी, नरेंद्र मोदी से लेकर राहुल गांधी तक के नाम शामिल हैं. इस हिसाब से अगर देखें तो यह पूरा अभियान ही संदेह के घेरे में आता है.

ये सारी घटनाएं सिर्फ पिछले एक महीने के दौरान घटी हैं. आप के एक महीने के कार्यकाल का हर दिन किसी न किसी विवाद के नाम रहा है. इसने पार्टी की छवि को गंभीर नुकसान पहुंचाया है. पार्टी के कुछ नेता भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि पिछले एक महीने में पार्टी नेताओं और सरकार से उपजे विवादों ने लोगों के बीच में पार्टी की मजबूत स्थिति को चोट पहुंचाई है. हालांकि यह कहना जल्दबाजी होगी कि जनता का विश्वास पूरी तरह से टूट चुका है. पार्टी को लेकर लोगों के मन में उठ रहे सवालों का प्रत्यक्ष उदाहरण पार्टी को मिल रहे ऑनलाइन चंदे में तेजी से आई गिरावट भी है. मसलन दो जनवरी को जहां पार्टी को 50 लाख रु का चंदा मिला था वहीं 16 जनवरी तक आते-आते यह रकम गिरकर एक लाख 60 हजार पर सिमट गई. पार्टी के नेता भी डोनेशन में आई गिरावट को इस दौरान पैदा हुए विवादों से जोड़कर देखते हैं.

जो काम किया
विवादों से भरे-पूरे पिछले एक महीने के कार्यकाल में आप के नाम कई उपलब्धियां भी दर्ज हैं. इस दौरान सरकार ने वीआईपी कल्चर खत्म करने, बिजली के रेट कम करने, 700 लीटर प्रतिदिन मुफ्त पानी देने, बिजली कंपनियों का कैग ऑडिट करने, रैन बसेरों का विस्तार करने जैसे कई जनहित के निर्णय लिए हैं.  कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाने वाले केजरीवाल लगातार यह आलोचना झेल रहे हैं कि वे जानबूझकर कांग्रेस शासन के दौरान हुई गड़बड़ियों की जांच नहीं करा रहे हैं. हालांकि केजरीवाल ने खुद ही कॉमनवेल्थ गेम्स तथा दिल्ली जल बोर्ड से जुड़े मामलों पर कार्रवाई करने का इशारा किया. एक साक्षात्कार में अरविंद कहते हैं, ‘मैं दोनों मामलों की फाइल खुद ही देख रहा हूं. जल्द ही कांग्रेस को इस बात का अफसोस होगा कि उसने क्यों हमारा समर्थन किया. इन मामलों में नेता से लेकर अधिकारी किसी को नहीं छोड़ा जाएगा.’ आदित्य निगम कहते हैं, ‘यह पहली बार हो रहा है कि किसी पार्टी ने आकर यथास्थिति को तोड़ने की कोशिश की है.’

यह भी एक तथ्य है कि पार्टी और सरकार से जुड़े विवादों के शोर में सरकार की उपलब्धियां कहीं खो सी गई लगती हैं. मीडिया से बातचीत में केजरीवाल अपनी पीड़ा जाहिर करते हैं, ‘पिछले 20 दिनों में हमने जितना काम किया है वह ऐतिहासिक है. लेकिन फिर भी हमारी आलोचना हो रही है. दिल्ली के साथ ही बाकी चार राज्यों में बनी सरकारों से कोई नहीं पूछता कि उन्होंने पिछले 20 दिनों क्या किया है.’ अरविंद कहते हैं कि ऐसा पहली बार हो रहा है जब देश के लोगों ने चुनावी घोषणापत्र को गंभीरता से लिया है. यह हमारी कामयाबी है.

आलोचनाओं के साथ आप का चोली दामन का साथ रहा है. आंदोलन के समय में उनकी इस बात के लिए आलोचना होती थी कि वे सड़क पर कानून बनाना चाहते हैं. तब दूसरी राजनीतिक पार्टियों का कहना था कि कानून बनाना है तो वे राजनीति में क्यों नहीं आते. केजरीवाला राजनीति में आए तो नेताओं का एक वर्ग उनका यह कहकर आलोचना करने लगा कि ये लोग सत्ता के भूखे है, इनकी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं हैं. चुनाव में उन्होंने प्रत्याशी चयन के लिए नया तरीका निकाला तो पार्टियों ने मजाक उड़ाया कि ऐसे चुनाव नहीं लड़े जाते. चुनाव परिणाम आए तो वह भाजपा जिसके पास सबसे अधिक सीटें आई थीं वह सरकार बनाने से पीछे हट गई और भाजपा के नेता उल्टे आप पर आरोप लगाने लगे कि वह सरकार बनाने से भाग रही है. जैसे ही आप ने सरकार बनाई तो वही भाजपा के लोग इस बात की आलोचना करने लगे कि कांग्रेस से समर्थन क्यों लिया. प्रदेश में बलात्कार होने पर लोग सरकार को घेर रहे हैं लेकिन वहीं सरकार जब सुरक्षा के लिए जिम्मेदार पुलिस को जवाबदेह बनाने के लिए घेर रही है तो उसकी आलोचना हो रही है. पार्टी से नए-नए जुड़े कमल मित्र चिनॉय तहलका से बातचीत में बताते हैं कि पार्टी के लोगों और विधायकों को विधिवत प्रशिक्षण की जरूरत है. वे कहते हैं, ‘यही 1922 में चौरी चौरा में हुआ था जिसके कारण महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया था. हमें इससे सीख लेनी होगी.’

पार्टी के चाणक्य कहे जाने वाले योगेंद्र यादव को पार्टी और सरकार के सामने मौजूद चुनौतियों का भान है. वे कहते हैं, ‘हर सुबह उठने के बाद यह एहसास और गहरा होता है कि जूता कितना बड़ा है और हमारा पांव कितना छोटा.’

भले ही अभी जूते और पांव का मेल ठीक से नहीं बैठ रहा हो, लेकिन आम आदमी पार्टी के सामने इस अधूरे संयोजन के साथ ही ठीक से कदम बढ़ाने की चुनौती है.

‘महिलाओं पर अंगुली उठाना हमेशा से आसान रहा है’

Patralekhaa
पत्रलेखा, मॉडल अभिनेत्री (24 वर्ष)

क्या अभिनय का ख्वाब बचपन से ही था?
मैं शिलॉन्ग में पली लेकिन मेरी स्कूली शिक्षा बेंगलुरु के बिशप कॉटन कान्वेंट स्कूल में हुई. बोर्डिंग के दिनों में हम पढ़ाई के अलावा तमाम गतिविधियों में हिस्सा लेते थे और मेरा उनकी ओर तगड़ा झुकाव हो गया. इसमें खेल और ड्रामा शामिल थे. लेकिन कभी भी मैंने यह नहीं सोचा कि मैं मॉडल या अभिनेत्री बनूंगी.

तो बॉलीवुड में कैसे आना हुआ?
मेरे परिवार का झुकाव शिक्षा की ओर था. मैं ग्रेजुएशन की पढ़ाई के लिए मुंबई चली गई और चार्टड अकाउंटेंट बनने की योजना बनाने लगी. उसी दौरान मैंने विज्ञापनों में काम शुरू किया. जल्दी ही मुझे कास्टिंग डायरेक्टर्स के फोन आने लगे कि मैं ऑडीशन दूं. लेकिन मैं फिल्मों में पूरी तैयारी से आना चाहती थी. मैंने दो साल का ब्रेक लिया और कॉलेज की शिक्षा पूरी की. इस बीच मैंने  तमाम अप्रेंटिश और वर्कशॉप आदि किए. जब मुझमें आत्मविश्वास आ गया तो मैंने फिल्मों के लिए ऑडीशन देना शुरू किया. इस तरह मुझे सिटीलाइट्स में काम मिला.

सिटीलाइट्स में आपकी भूमिका काफी सघन है. इसके लिए क्या तैयारी करनी पड़ी?
मैंने राखी की भूमिका निभाई है जो राजस्थान के एक गांव की रहने वाली है. यह भूमिका मेरे निजी जीवन से एकदम उलट थी. उसकी मनःस्थिति को समझने के लिए हंसल सर ने हमें तीन सप्ताह के लिए राजस्थान के पाली गांव में भेजा. हमने वहां स्थानीय लोगों के साथ वक्त बिताया और उनके रहन सहन तथा बोली-भाषा पर ध्यान दिया.

कहा गया कि आपको यह भूमिका राजकुमार राव से रिश्ते के कारण मिली है. आप इसे लैंगिक भेदभाव मानती हैं?
बिल्कुल. महिलाओं पर अंगुली उठाना हमेशा से आसान रहा है. आपने कितनी बार ऐसा देखा है कि किसी अभिनेता को वरिष्ठ अभिनेत्री के साथ करियर शुरू करने पर कठघरे में खड़ा किया गया हो? लेकिन मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार थी और मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. लोगों ने यह तक ध्यान नहीं दिया कि इस भूमिका के लिए मैंने छह बार ऑडीशन दिया लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि मैंने अच्छा काम किया है. हंसल मेहता और मुकेश भट्ट जैसे फिल्मकार किसी को इसलिए काम नहीं देते कि वह फिल्म के नायक की गर्लफ्रैंड है.

क्या आप फिल्म की रिलीज से पहले घबराई हुई हैं?
नहीं मैं आत्मविश्वास से भरी हुई हूं. व्यक्तिगत तौर पर कहूं तो मुझे घर पर खाली बैठने से डर लगता है. मैं अपने संघर्ष भरे दो सालों की बहुत कद्र करती हूं. मैं उन्हें दोबारा नहीं जीना चाहती

‘नॉस्टेल्जिया और स्मृति में फर्क है’

 

himanshu

आपकी कहानियों की तरह इस उपन्यास में भी त्रासद विडम्बनाओं, विद्रूपताओं पर हंसने की प्रवृत्ति स्पष्ट तौर पर दिखती है. बार-बार ये प्रवृत्ति कहां से आती है?  क्या आप इसे सायास अपनी शैली के बतौर लाते हैं?
मैं और बहुत से लोग इस तरह सोचते हैं कि बहुत गंभीर बात को अगर आप बिल्कुल गंभीर मुद्रा में कहेंगे तो शायद वो अपना असर कम कर देती है. मैं कोशिश करता हूं कि बहुत गंभीर मुद्दों को भी जीवन के छोटे-छोटे अनुभवों से हल्के-फुल्के ढंग से पेश किया जाए लेकिन इसमें खतरा भी है कि कहीं आप प्रवाह में न बह जाएं. इसमें संतुलन रखना पड़ता है कि कहीं ऐसा न हो कि आपका हलका-फुलका लहजा आपकी गंभीरता पर भारी पड़ जाए या आपकी गंभीरता जीवन के रस पर भारी पड़ जाए. किसी भी दुख को अगर आप एकदम दुखी मुद्रा में, दुखी स्वर से चुनौती देंगे तो शायद आप उससे जीत नहीं पाएंगे. उसको पराजित करने का तरीका यह भी होता है कि आप उसकी औकात कम कर दें.

असल जिंदगी में आप बेहद कम बोलने वाले, चुनिंदा दोस्त बनाने वाले, देर में खुलने वाले आदमी के बतौर जाने जाते हैं. जबकि आपके पात्र बेहद शरारती, हंसोड़ और बतरस से भरे हुए दिखाई देते हैं तो इस विरोधाभास की तह में क्या है?
मैं सोचता हूं कि किसी भी आदमी के अंदर सिर्फ एक मिजाज का आदमी नहीं होता है. हो सकता है कि सरसरी तौर पर देखने पर वो एक ही रंगवाला लगे लेकिन उसके अंदर विभिन्न रंग, विभिन्न धाराएं और विभिन्न छवियां होती हैं. अब ये अलग बात है कि हम अपने सामाजिक जीवन में अपने लिए एक तरह की मुद्रा तय कर लेते हैं. लेकिन असल में जैसे जिंदगी, यथार्थ और इंसान तरह-तरह के रंगों से निर्मित होता है वैसे ही पात्र भी होते हैं. इसलिए आप देखेंगे कि मेरी रचनाओं में पात्र में जहां हास्य ज्यादा बढ़ने लगता है, खिलंदड़पन बढ़ता जा रहा होता है ठीक उसी वक्त आपको मिलेगा कि वह सीधे कविता के धरातल पर चला जाता है या विडम्बना के तनाव को दर्ज करने लगता है. और अपनी बात करूं तो ऐसा कतई नहीं है कि मैं हंसोड़ नहीं हूं बस इतना जरूर है कि मैं अपने करतब और अपने बारे में खुद बहुत ज्यादा बोलना पसंद नहीं करता.

इस उपन्यास में जगह-जगह पात्र खुद आकर अपना पक्ष रखते हैं. इस युक्ति के प्रयोग के पीछे क्या वजह थी?
इसकी जरूरत इसलिए पड़ी क्योंकि मुझे लगता है और आज ये मान्य धारणा है कि किसी भी चीज का सिर्फ एक ही पाठ नहीं होता. आप उसको एक नजरिए से देख रहे हैं कोई दूसरा दूसरे नजरिए से देख सकता है और ये यथार्थ को गड़बड़ नहीं करते हैं बल्कि किसी चीज के एक से ज्यादा पाठ यथार्थ को स्पष्ट करने में मदद ही पहुंचाते हैं, और उसे विस्तार भी देते हैं. इसके अलावा उपन्यास को स्फीति- शब्दों की फिजूलखर्ची से बचाने के लिए भी मुझे ऐसा करना पड़ा. जैसे अगर मैं ऐसा न करता तो किसी एक चीज के अलग-अलग डायमेंशन्स को दिखाने के लिए अलग अध्याय रचने पड़ते.

bookइस उपन्यास में एक अत्यंत महत्वपूर्ण पात्र है चाचा जिसका इस तथाकथित विकास से मोहभंग हो चुका है और वो आत्मनिर्वासन चुनता है, क्या आप मानते हैं कि जिस व्यवस्था में हम जी रहे हैं वहां हर संवेदनशील या रियलाइजेशन रखने वाले व्यक्ति की नियति चाचा बन जाना ही है?
चाचा बनना हर व्यक्ति की नियति नहीं है. उत्तर पूंजीवाद की दौड़ में सब दौड़ रहे हैं, सबको इसका फायदा लेना है. इस अंधी दौड़ का नकार चाचा का अपना चयन है. उसके मुताबिक वह इसे बदल नहीं सकता लेकिन वह ये अहसास कराना चाहता है कि इस धरती पर कोई एक ऐसा भी है जो इसके अधिपत्य को स्वीकार नहीं करता. ये व्यवस्था से मुक्ति का रास्ता नहीं है. इस चरित्र के जरिए प्रतिरोध की चेतना दिखलाना मेरा उतना मकसद नहीं था जितना उस पीड़ा को दिखाना था जो आधुनिकता, विकास द्वारा किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को अकेला, निहत्था कर दिए जाने से पैदा होती है. अकेले किया गया कोई प्रतिरोध बड़ा सामाजिक परिवर्तन नहीं कर सकता. चूंकि इस व्यवस्था और आधुनिकता-पूंजीवाद का प्रतिरोध करने के लिए हमारे समाज में व्यापक रूप से कोई एकजुटता नहीं दिखाई पड़ रही है ऐसे में जो इसे नकारता है उसकी नियति हो सकती है कि वो चाचा जैसा हो जाए.

आधुनिकता और विकास को लेकर जो सवाल उपन्यास में उठाए गए हैं, गांधी ने भी उन सवालों को अपने ढंग से उठाया था तो क्या उपन्यास को रचते समय गांधी कहीं जेहन में थे?
निश्चित रूप से गांधी मेरे दिमाग में थे और इसीलिए एक अध्याय का शीर्षक बतर्ज हिन्द स्वराज है. वो पुस्तक भी एक तरह से इसी आधुनिकता की आलोचना थी. इसीलिए उस अध्याय का फॉर्मेट भी हिन्द स्वराज की तरह ही रखा गया है. इस अध्याय में विचार के स्तर पर, दर्शन के स्तर पर और सौन्दर्य चेतना के स्तर पर आधुनिकता को समस्याग्रस्त करने की कोशिश मैंने की है.

आप हमेशा कहते रहे हैं कि आप अपनी राजनीतिक चेतना या अपने विचारों की अभिव्यक्ति के लिए रचना नहीं करता. फिर इस अध्याय में जब पात्रों के बीच आधुनिकता, विकास और समाज जैसे मुद्दों को लेकर गंभीर बहस हो रही है क्या तब भी आपकी अपनी सोच रचना में नहीं आई?
मैं अपने विचार चरित्रों पर नहीं लादता. ऐसा भी नहीं है कि लेखक के विचार रचना में आते नहीं हैं. लेकिन उन विचारों को चरित्र और यथार्थ नियंत्रित करते हैं. बुरा तब होता है जब चरित्र और यथार्थ को विचार अपने हिसाब से नियंत्रित करने लगे. ऐसा नहीं है कि विचार कोई रचना विरोधी चीज होती है लेकिन अगर विचार यथार्थ से बाहर तैरता दिखाई देगा या उसकी संवेदना को डैमेज करेगा तो मैं उसे एक रचना विरोधी कार्रवाई मानता हूं.

उपन्यास में एक जगह बिना नाम लिए पासिंग रेफरेंस के तौर पर नरेन्द्र मोदी का जिक्र आया है जबकि कई प्रसंगों में बहुत से नेताओं का बकायदा नाम आया है तो मोदी से गुरेज की क्या वजह थी?
मैं मोदी पर लिखने के लिए रचना नहीं कर रहा था. मुझे पुनरुत्थानवाद, आधुनिकता और विकास का जो स्वीकृत मॉडल है उसकी गहराई में जाकर उसे देखने और प्रकट करने का प्रयास करना था. दूसरे जो नाम यहां आए हैं वो लेखक की तरफ से एक वर्णन की शक्ल में आते हैं, जबकि मोदी वाली बात एक पात्र के कथन में आई है और वहां वही वाक्य रचना मेरे हिसाब से ठीक है. अगर मुझे मोदी को लेकर संकोच होता तो मैं वो बात ही न कहता. दरअसल मैं लाउड मुहावरे में बात नहीं करना चाहता.

इस उपन्यास में बीसवी सदी की कई ऐतिहासिक घटनाओं का जिक्र है, कुछ आंकड़े भी हैं. इन सब पर लिखने के लिए कैसी तैयारी करनी पड़ी?
इस उपन्यास के लिए मैंने थोड़ा बहुत शोध किया है. अध्ययन भी. इसके अलावा सुल्तानपुर जनपद के गजेटियर के पन्ने भी पलटे हैं.

निर्वासन में आपने जाति, एवं स्त्री संबंधी प्रश्नों को भी सूक्ष्मता से उठाया है, अगर हिंदी के समकालीन परिदृश्य की बात करें तो इसमें अस्मिता के विमर्शों का हासिल क्या रहा?
हासिल क्या रहा इस पर कुछ कहने के बजाए ये कहना चाहूंगा कि मेरे विचार से मुक्ति की कोई लड़ाई अकेले नहीं हो सकती. दलित या स्त्री की मुक्ति के स्वप्न के पीछे अगर पूरे समाज की मुक्ति का स्वप्न नहीं होगा, तो आपकी मुक्ति की लड़ाई इकहरी होगी और देर-सबेर उसे असफल हो जाना है. साहित्य में जब विमर्श आते हैं तो चुनौती ये होती है कि विचार आपकी संवेदना, अनुभव और यथार्थ का हिस्सा बनकर सामने आएं. अस्मितावादी विमर्श के मामले में भी यही चीज महत्वपूर्ण है. जहां विचार आपमें इनबिल्ट होता है और आपकी संवेदना तथा भावबोध के साथ घुला हुआ आता है वहां तो अच्छी रचना होती है, लेकिन अगर आपकी प्रतिज्ञा रचनात्मकता और संवेदना न होकर अपने अस्मितावाद की नारेबाजी है तो रचना बेहतर नहीं होगी.

निर्वासन में बेशुमार किस्से आते हैं, इमरजेंसी के किस्से, गोसाईगंज के बसने के किस्से, चाचा भतीजे के किस्से… ये आपने खुद गढ़े हैं या लोक से उधार लिए हैं या हकीकत हैं और इन्हें कहानी में ढालना कितना मुश्किल होता है? 
ऐसा नहीं है कि किस्से और कहानी का निर्धारण दो स्वतंत्र चीजे हैं. कई बार कहानी के निर्धारण की प्रक्रिया में किस्से उपजते हैं. जिन किस्सों का आप जिक्र कर रहे हैं उनमें प्राय: मेरी गढ़ंत है, लेकिन यह इसीलिए संभव हो सके हैं क्योंकि लोक में ऐसे किस्सों की समृद्ध परंपरा है. किस्सों के मामले में मैंने यह एहतियात जरूर बरती है कि वे हकीकत लगें. दरअसल आप कह सकते हैं कि इन किस्सों में आधी हकीकत आधा फसाना है.

निर्वासन के साथ-साथ एक और चीज जिससे इस उपन्यास के पात्र जूझते नजर आते हैं वो है नॉस्टेल्जिया. आप इसकी उपस्थिति उपन्यास में किस तरह देखते हैं?
नॉस्टेल्जिया और स्मृति में फर्क है. ये उपन्यास नॉस्टेल्जिया में फंसता नहीं है बल्कि उसका विखण्डन करता है. स्मृति यथार्थ की नाभि होती है और वह वर्तमान की व्याख्या में मददगार होती है. जबकि नॉस्टेल्जिया में अतीत का मोह होता है. आप देखेंगे कि उपन्यास के दो प्रमुख पात्र सूर्यकांत और गौरी अपने अतीत को लेकर ‘क्रिटिकल’ हैं साथ ही उसको लेकर विक्षोभ से भरे हुए हैं. सूर्यकांत जब न सिर्फ घर के लोगों द्वारा दिए गए सामानों का थैला ट्रेन से बाहर फेंक देता है तो वह एक तरह से नॉस्टेल्जिया से मोहभंग और उससे उबरने का प्रयास है.

अकलियत का अकाल

Muslim
ग्राफिक: हिमांशु भट्ट

सोलहवें लोकसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं. अब नतीजों की चीरफाड़ का समय है. ज्यादातर चुनावों की तरह इस बार भी कई रिकॉर्ड बने हैं, कई चमत्कार हुए हैं. तीस साल बाद किसी दल को पूरी तरह से बहुमत मिला है. आजादी के बाद पहली बार किसी गैर कांग्रेसी दल को पूर्ण बहुमत मिला है. पहली बार देश का चुनाव कमोबेश अमेरिका की तर्ज पर व्यक्ति-केंद्रित होकर लड़ा गया है.

इन तमाम विशेषताओं के बीच एक अनियमितता भी देखने को मिल रही है. मुसलिम आबादी की तुलना में लोकसभा में उसका प्रतिनिधित्व सबसे निचले पायदान पर पहुंच गया है. मात्र 22 मुसलिम सांसद इस बार चुनकर लोकसभा पहुंच सके हैं. और 24 राज्यों से एक भी मुसलमान सांसद नहीं चुना गया है. इनमें उत्तर प्रदेश जैसा बड़ा सूबा भी शामिल है जहां मुसलिम आबादी 19 प्रतिशत के आस-पास है.

सीएसडीएस के एक सर्वे के मुताबिक देश में 87 सीटें ऐसी हैं जिन पर मुसलिम आबादी निर्णायक संख्या में है. इन सीटों पर मुसलिम आबादी का प्रतिशत 25 से 50 तक है. इस बार इनमें से 45 सीटें भाजपा के खाते में आईं हैं. निर्णायक मुसलिम मतों वाली इन सीटों पर यह भाजपा का अब तक का सबसे बेहतरीन प्रदर्शन है. 2009 में भाजपा ने इन 87 में से सिर्फ 24 सीटें जीती थीं.

मुसलिम प्रभाव वाली 87 सीटों का एक बड़ा हिस्सा – 27 सीटें – उत्तर प्रदेश से आता है. भाजपा ने इन सारी सीटों पर जीत हासिल की है. ऐसा कैसे हो सकता है कि जिस उत्तर प्रदेश ने 2012 के विधानसभा चुनाव में अब तक की सबसे बड़ी संख्या में मुसलमान विधायक – 42 -भेजे थे वह दो साल के भीतर ही एक भी मुसलमान सांसद को संसद में नहीं भेजना चाहता. इनमें रामपुर और संभल की लोकसभा सीटें भी है जहां मुसलिम आबादी 50 प्रतिशत के आस-पास है.

इसी तरह से असम की चौदह में से सात सीटें मुसलिम प्रभुत्व वाली हैं. इनमें तीन सीटें भाजपा ने जीती हैं. आंध्र प्रदेश में भी भाजपा और सहयोगी टीडीपी ने झंडा गाड़ा है. सिर्फ हैदराबाद में एमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी अपना किला बचा पाए हैं. महाराष्ट्र में भी यही हालत है.

सिर्फ बंगाल ऐसा राज्य है जहां भाजपा अपना कोई प्रभाव छोड़ने में नाकाम रही है. यहां की 42 में से 19 सीटों पर काफी मुसलिम आबादी है और यहां से कुल आठ मुसलिम सांसद लोकसभा पहुंचे हैं. दूसरा नंबर बिहार का है, यहां से चार मुसलिम सांसद लोकसभा में पहुंचे हैं.

2009 की लोकसभा की बात करें तो इसमें कुल 30 मुसलमान सांसद थे. मुसलिम प्रतिनिधित्व के लिहाज से सबसे बढ़िया आंकड़ा 1980 में था तब लोकसभा में कुल 49 मुसलमान सांसद  थे. आम तौर पर लोकसभा में मुसलिम प्रतिनिधित्व का आंकड़ा 25 से 30 के बीच ही रहता आया है जो कि देश की 14 फीसदी मुसलिम आबादी के लिहाज से संतोषजनक नहीं है. लेकिन इस बार यह आंकड़ा अपनी निचली सीमा से भी तीन सीट नीचे पहुंच गया. इस बार के आंकड़ों का महत्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि देश में पहली बार किसी दक्षिणपंथी रुझान वाली पार्टी को स्पष्ट बहुमत मिला है. मुंबई स्थित रोजनामा राष्ट्रीय सहारा के वरिष्ठ पत्रकार और महाराष्ट्र मुसलिम ओबीसी मूवमेंट के संस्थापक हसन कमाल कहते हैं, ‘कांग्रेस और दूसरी गैर भाजपा पार्टियों के वे तमाम उम्मीदवार भी इस चुनाव में हारे हैं जो मुसलमान नहीं हैं. भाजपा का तो यह पहले से ही स्टैंड रहा है कि वे मुसलमानों को टिकट नहीं देते लिहाजा उन्हें दोष नहीं दिया जाना चाहिए. यह सेक्युलर पार्टियों की अपनी नाकामी है.’

नतीजों का विश्लेषण करने पर मोटा-मोटी दो-तीन बातें उभरती हैं. पहली, यह बहुसंख्यकवाद का वोट है. दूसरी, हो सकता है कि मुसलमान अब केवल उस सेक्युलर बोगी का हिस्सा नहीं रहना चाहता जो उसे सिर्फ भाजपा से डरा कर अपने पाले में खीचती रही है. तीसरी, जरूरत से ज्यादा ‘सेक्युलर’ विकल्पों ने मुसलिम मतदाता को भ्रम में डाल दिया और वोटों का बंटवारा हो गया. मुसलिम समुदाय के पढ़े-लिखे और जानकार लोगों से बातचीत में ये सारी ही वजहें कहीं न कहीं खराब प्रदर्शन की वजह बताई जा रही हैं.

बहुसंख्यकवाद का वोट
ऊपरी तौर पर यह वजह महत्वपूर्ण दिखती है. वरिष्ठ अधिवक्ता और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के सदस्य जफरयाब जिलानी कहते हैं, ‘अपने तौर पर मुसलमान यहां कभी भी चुनाव नहीं जीत सकता. मुसलमान यहां इसलिए जीतता रहा है क्योंकि बड़ी संख्या में उसे हिंदुओं के सेक्युलर तबके का वोट मिलता रहा है. उस सेक्युलर हिंदू वोट का शिफ्ट बड़ी संख्या में इस बार मोदी की ओर हुआ है. इसकी वजह यह रही कि कांग्रेस या सपा जैसी पार्टियों को अपनी जमीनी हकीकत का अंदाजा ही नहीं था.’

नतीजे साफ बयान करते हैं कि भाजपा को इस बार अपने परंपरागत वोटों के अलावा उन हिंदुओं का वोट भी मिला है जो अब तक किसी न किसी जातिगत या क्षेत्रीय पहचान से बंधे हुए थे. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और मायावती का सफाया इसका सबसे बड़ा प्रमाण है. यही बात बिहार में भी दिखी जहां लालू प्रसाद यादव और नितीश कुमार जैसे ओबीसी-मुसलिम राजनीति करने वाले नेताओं की लुटिया डूब गई. नरेंद्र मोदी की सबसे बड़ी सफलता यही रही कि उन्होंने परंपरागत दलित-पिछड़ा वोटों को भी उनकी पुरानी पहचान से बाहर निकालते हुए सबको उनकी एक दूसरी व्यापक पहचान (हिंदू) से जोड़ दिया.

वरिष्ठ साहित्यकार असगर वजाहत इस तरह के तबकों के मोदी और भाजपा से जुड़ाव पर कहते हैं, ‘अगर मोदी ने बहुसंख्यक तबके को गोलबंद किया है तो यह मुद्दों और नीतियों के आधार पर किया है. उन्होंने मंदिर या धर्म के नाम पर वोट नहीं मांगा था. उन्होंने विकास के नाम पर वोट मांगा था. अब समय बदल चुका है. भारतीय राजनीति को अब हिंदू-मुसलमान की बजाय नीतियों के आधार पर बांटना चाहिए. देखना होगा कि यह सरकार अल्पसंख्यकों के प्रति किस तरह की नीतियां अख्तियार करती है. जो पार्टियां मुसलमानों की रहनुमा रही हैं उन्होंने मुसलमानों का कौन सा भला कर दिया है.’

अगर हम चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी और उनके सहयोगियों की गतिविधियों पर नजर डालें तो उनमें एक जबर्दस्त रणनीतिक चतुराई दिखाई देती है. उनकी पूरी रणनीति ही बहुसंख्यक वोटों को अपने पाले में खींच लाने की रही. असम में नरेंद्र मोदी का बंगाली घुसपैठियों पर दिया गया बयान हो या फिर मुजफ्फरनगर में अमित शाह का बदले वाला बयान हो, मंशा बहुसंख्यक वोटों को गोलबंद करने की ही थी. नरेंद्र मोदी ने ज्यादातर समय खुद को विकास पुरुष के दावे तक सीमित रखा लेकिन उनके सहयोगी अमित शाह, गिरिराज सिंह और प्रवीण तोगड़िया जैसे नेता यदाकदा हिंदूवादी लाइन पर विचार रखते रहे. महत्वपूर्ण बात यह रही कि नरेंद्र मोदी ने न तो खुद को इन बयानों से अलग करने की कोशिश की और न ही इन बयानों की निंदा की. मशहूर उर्दू शायर मुनव्वर राणा कहते हैं, ‘नरेंद्र मोदी के लीडर बनने का छुपा हुआ संदेश था हिंदुत्व.’ राणा इसके साथ ही इस चुनाव में नाममात्र के मुसलिम प्रतिनिधित्व की एक और वजह बताते हैं, ‘मुसलमानों का सबसे ज्यादा नुकसान उनके उल्मा और आलिम कर रहे हैं. उन्होंने अपने फायदे के लिए पूरी कौम में बिखराव पैदा कर दिया है. आप देखिए कि वे कहते है कि जो भाजपा को हरा रहा हो उसे वोट दें. अब किसे पता कि कौन हार रहा है और कौन जीत रहा है. इससे मुसलमान बुरी तरह भ्रमित हुआ है. इन उल्माओं को अपनी गिरेबान में झांकना चाहिए और राजनीति से दूर रहना चाहिए. मस्जिदों के बाहर राजनीति में इनका क्या काम है. मुसलमान राजनीतिक रूप से काफी समझदार हंै.’

बहुसंख्यक वोटों के ध्रुवीकरण के पीछे एक और बड़ी वजह जो उभर कर सामने आ रही है वह है कथित सेक्युलर पार्टियों में मुसलिम वोटों के लिए मची होड़. इस होड़ ने बहुसंख्यक तबके में यह संदेश दिया कि सारी पार्टियां सिर्फ मुसलमानों के लिए काम कर रही हैं. यह धारणा कांग्रेस, जेडीयू और सपा जैसी पार्टियों के चुनाव अभियानों से भी मजबूत हुई. चुपचाप रहते हुए भाजपा ने इस सोच का जमकर दोहन किया. खुद नरेंद्र मोदी बार-बार एक बात कहकर लोगों को संदेश देते रहे कि ‘जस्टिस फॉर ऑल अपीजमेंट फॉर नन’ यानी सबको न्याय पर तुष्टिकरण किसी का नहीं. हसन कमाल के शब्दों में, ‘यह संदेश बार-बार जा रहा है कि गैर भाजपा पार्टियां मुसलमानों की मिजाजपुर्सी कर रही हैं लेकिन असलियत यह है कि मुसलमानों की दशा उनके समय में लगातार खराब हुई है. मुसलमानों को इस कुचक्र से बाहर निकलना होगा.’

muslim
फोटो: विकास कुमार

मुसलमान कथित सेक्युलर पार्टियों से ऊब गया?
अच्छी खासी मुसलिम आबादी के बावजूद मुसलिम प्रतिनिधियों के लोकसभा में न पहुंच पाने के पीछे एक दूसरा कयास भी लग रहा है. कयास यह कि मुसलमान मतदाता इतना परिपक्व हो चुका है कि उसे अब केवल जुबानी जमाखर्च करने वाले गैर भाजपा दलों पर भरोसा नहीं रहा है. देश के बाकी मतदाताओं की तरह ही वह भी जवाबदेही और बदलाव चाहता है. हालांकि इस मसले पर ज्यादातर मुसलिम बुद्धिजीवियों और विचारकों में दोफाड़ है. असगर वजाहत कहते हैं, ‘मुसलमानों में भी युवा मतदाताओं की संख्या बढ़ी है. ये युवक परंपरागत धार्मिक राजनीति से आजाद हो गए हैं. उनमें यह भावना आ गई है कि धार्मिक उल्मा अजीब-अजीब पार्टियों के पक्ष में अपीलें करके अपना उल्लू सीधा करते हैं. उन्हें लगने लगा है कि यह धार्मिक नेतृत्व आज के माहौल में उन्हें आगे नहीं ले जा सकता. देने के नाम पर ये पार्टियां हमेशा मुसलमानों को उर्दू-फारसी युनिवर्सिटी जैसे झुनझुने थमाती हैं. आज का मुसलमान फारसी पढ़कर क्या करेगा.’

इतनी ही मजबूत राय इसके विरोध में भी है. मुनव्वर राणा कहते हैं, ‘हो सकता है मुसलमानों का एकाध फीसदी वोट भाजपा को मिला हो पर यह ज्यादा नहीं हो सकता. यह बात सही है कि मुसलमानों में अपने उल्माओं को लेकर एक किस्म की नाराजगी है. आप देखिए कि उनकी लाख अपीलों के बावजूद वे सारी पार्टियां हारी हैं जिनके पक्ष में इन्होंने अपीलें की थी. हुआ यह है कि मुसलमानों का वोट बुरी तरह से बंट गया है इस बार.’

भाजपा को मुसलिम वोट न मिलने का समर्थन जफरयाब जिलानी भी करते हैं. उनके मुताबिक कुछेक सीटों पर जरूर ऐसा हो सकता है. जैसे लखनऊ की सीट है, वहां जितने बड़े अंतर से राजनाथ सिंह जीते हैं उसे देखते हुए यह विश्वास करना लाजिमी है कि कुछ मुसलमानों ने उन्हें वोट दिया है. पर लखनऊ में ऐसा लंबे समय से होता आया है. यहां के मुसलमान अटल बिहारी वाजपेयी को वोट देते रहे हैं. ये ज्यादातर शिया वोटर हैं जो भाजपा को वोट देते हैं. सुन्नी समुदाय आज भी भाजपा से उतना ही दूर है जितना पहले हुआ करता था.

मुसलमानों को लेकर अब तक एक धारणा रही है कि मुसलमान टैक्टिकल वोटिंग करता है. यानी जो उम्मीदवार भाजपा को हराने की कूवत रखता है उसे वह एकमुश्त वोट देता है. यह धारणा भी बुरी तरह से छिन्न-भिन्न हुई है. इसका एक सबूत उन सीटों से भी मिलता है जहां सपा, बसपा या कांग्रेस को मिले वोट से कहीं ज्यादा मुसलिम मतदाता हैं. इनमें ज्यादातर सीटें उत्तर प्रदेश की हैं. पीलीभीत, आजमगढ़, बिजनौर, कैराना, अमरोहा, बलरामपुर, बहराइच, बाराबंकी, लखनऊ और घोसी जैसी सीटों को इस श्रेणी में रखा जा सकता है.

[box]

  • 2014 में मुसलिम सांसद – 22 (सबसे कम)
  • 2009 में मुसलिम सासंद- 30
  • 1980 में मुसलिम सांसद – 49 (सर्वाधिक)
  • 2014 में 24 राज्यों से एक भी मुसलिम नुमाइंदा नहीं है
  • 22 सांसद 6 राज्यों से चुनकर आए हैं
  • पहली बार एक भी मुसलमान उत्तर प्रदेश से संसद में नहीं पहुंचा जहां मुसलिम आबादी 19 फीसदी है
  • 2014 में पश्चिम बंगाल से चुने गए मुसलिम सांसद – 8
  • बिहार से से चुने गए मुसलिम सांसद – 4
  • देश में मुसलिम प्रभाव वाली सीटें – 87
  • 87 में से भाजपा द्वारा जीती गईं सीटें – 45
  • इन 87 में से 27 सीटें उत्तर प्रदेश में हैं और सारी सीटें भाजपा के खाते में गई हैं

[/box]

एक सांप्रदायिक बनाम अनेक धर्म निरपेक्ष
मुसलिम वोटों के जिस बंटवारे की बात मुनव्वर राणा इस कथा में कर चुके हैं वह उत्तर प्रदेश की कई सीटों के नतीजों में झलकती है. मसलन संभल और रामपुर ऐसी सीटें है जहां मुसलिम वोटरों की संख्या लगभग 50 फीसदी है लेकिन इन सीटों पर भी भाजपा जीत गई है. यहां एक साथ सपा, भाजपा और कांग्रेस ने मुसलिम उम्मीदवार मैदान में उतार दिये जिसका नतीजा हम आज लोकसभा में सबसे कम मुसलिम नुमाइंदगी के रूप मे देख रहे हैं.़

पूरे चुनावों के दौरान गैर भाजपा दलों में मुसलिम वोटों की जमकर मारामारी देखने को मिली. कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने चुनाव के पहले चरण से ठीक पहले गुपचुप तरीके से जामा मसजिद के शाही इमाम से मुलाकात की और उनसे कांग्रेस के पक्ष  में फतवा जारी करवा लिया. हालांकि यह बात जगजाहिर है कि इन फतवों का मुसलिम बिरादरी पर कोई असर नहीं पड़ता. इसके बावजूद राजनीतिक पार्टियां सांकेतिक महत्व के इन हथकंडों को इस्तेमाल करने से नहीं चूकीं. कांग्रेस पार्टी दिखावे के सारे काम तो करती रही पर वास्तव में उसे जमीनी हालात का अंदाजा ही नहीं था. दिल्ली स्थित जामिया मिलिया विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. मुशीरुल हसन कहते हैं, ‘कांग्रेस की अपनी नाकामी बहुत बड़ी रही. उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगे, उनके पास जनता के सामने रखने को एक कायदे का नेता तक नहीं था, मनमोहन सिंह की छवि एक कमजोर नेता की रही. कांग्रेस में लीडरशिप की पोजीशन बिल्कुल खाली थी. ऐसे में लोगों को लगा कि शायद मोदी ही सबसे बढ़िया नेता है.’

जो काम सोनिया गांधी राष्ट्रीय स्तर पर कर रही थीं क्षेत्रीय पार्टियां अपने प्रदेशों में वही फार्मूला अख्तियार कर रहीं थी. उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह ने भी स्थानीय उल्माओं की पूरी फौज सपा के पक्ष में अपील करने के लिए लगा रखी थी. सूबे की एक और अहम सियासी पार्टी बसपा ने भी भरसक मुसलमानों को लुभाने की कोशिशें की थी. बरेली के प्रमुख मुसलिम धर्मगुरु मौलाना तसलीम रजा खान ने बसपा के पक्ष में फतवा जारी कर मुसलमानों से वोट मांगा था. इसकी प्रतिक्रिया में एक अन्य मौलाना मन्नन रजा खान ने मुसलमानों से कांग्रेस के पक्ष में वोटिंग की अपील जारी कर दी थी. इन कारनामों से मुसलमानों में कोई राजनीतिक चेतना आई हो या नहीं पर दुविधा का माहौल जरूर बन गया जिसका नतीजा दूसरे रूप में सामने आया. बहुसंख्यक हिंदू वर्ग जो आमतौर पर जातिगत पहचान को चुनावों में प्राथमिकता देता आया है वह खुद को हिंदू के रूप में देखने लगा. इस भावना को उभारने में नरेंद्र मोदी की लहर ने भी अपना योगदान दिया. पत्रकार और समाजसेवी शीबा असलम फहमी कहती हैं, ‘यह ठीक ही हुआ कि ज्यादातर मुसलिम उम्मीदवार हार गए. आजम खान से लेकर सलमान खुर्शीद तक सिर्फ लाल बत्ती और टोकनिज्म की राजनीति करते आ रहे थे. मुसलमानों का तो इनसे कभी कोई भला हुआ नहीं आज तक. भाजपा से जब हमें कोई उम्मीद नहीं है तब हो सकता है खुद को साबित करने के लिए वो हमारे हित में कहीं बेहतर फैसले कर सकें.’

सपा, बसपा और कांग्रेस के अलावा इस चुनाव में एक नया फैक्टर आम आदमी पार्टी के रूप में भी उभर कर सामने आया. इसने मुसलमानों की दुविधा का दायरा और फैलाने का काम किया है. सीट दर सीट वोटिंग पैटर्न पर एक नजर डालने पर हम पाते हैं कि कुछ हिस्सों में आम आदमी पार्टी को मुसलमानों का जबर्दस्त समर्थन प्राप्त हुआ है. बनारस की सीट इसका एक उदाहरण है. यहां से अरविंद केजरीवाल, नरेंद्र मोदी की आंधी में भी दो लाख से ऊपर वोट पाने में कामयाब रहे. इसी तरह से दिल्ली की सातों सीटों का ट्रेंड बताता है कि मुसलमानों का अच्छा खासा वोट आप के हिस्से में आया है. यहां की सातों सीटों पर आप दूसरे स्थान पर रही है.

यथार्थ के धरातल से जितना कटी राजनीतिक पार्टियां थीं उतनी ही दूर मुसलिम सामाजिक संस्थाएं भी थीं. जमाते-इस्लामी का किस्सा बेहद दिलचस्प है. इसने चुनाव से पहले बाकायदा घोषणा की थी कि इनके वालंटियर देश की एक-एक सीट पर सर्वे का काम कर रहे हैं और इन्हें हर सीट से उस उम्मीदवार की जानकारी है जो भाजपा को हराने में सक्षम है. आखिरी समय में जमात ने मुसलमानों को इन उम्मीदवारों के नाम बताने की बात कही थी ताकि वे एकमुश्त वोटिंग करके नरेंद्र मोदी को हरा सकें. नतीजे आने के बाद साफ हुआ कि सूबा दर सूबा मुसलिम प्रतिनिधित्व से साफ हो गया. न जाने कौन-सी जमीन पर जमात के लोग सर्वेक्षण कर रहे थे. ऐसा ही एक दिलचस्प किस्सा मुसलिमों के बरेलवी संप्रदाय का है. चुनाव से पहले बरेलवी धारा के प्रमुख ने अपने हजारों समर्थकों के साथ दिल्ली के इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में एक जलसा आयोजित किया था. इस जलसे में उन्होंने मुसलमानों से नोटा पर वोट देने की अपील जारी की थी. उनका दावा था कि अब मुसलमान सिस्टम के साथ अपनी नाराजगी को जाहिर करने के लिए नोटा को एक बड़ा हथियार बनाएगा. नतीजे आने के बाद जो तस्वीर उभरी है उसमें मुसलिम इलाकों में सबसे कम नोटा दबाने के आंकड़े सामने आ रहे हैं.

मुसलमानों के लिए इन नतीजों के संदेश क्या हैं? असगर वजाहत कहते हैं, ‘मुसलमान ही मुसलमान का भला कर सकता है यह बात बिल्कुल गलत है. बिल्कुल उसी तरह जैसे जरूरी नहीं कि हिंदू ही हिंदू का भला करे.’ जफरयाब जिलानी इस बात को थोड़ा और आगे ले जाते हैं, ‘संसद में कोई मुसलिम नेता मुसलिमों के हित की आवाज नहीं उठाता. हमारी आवाज तो सेक्युलर हिंदू नेता ही उठाते आए हैं. एक ओवैसी को छोड़कर दूसरा कोई भी मुसलमान नेता संसद में बोलता ही नहीं. मुसलमान की बात तो लालू, मुलायम, लेफ्ट और कांग्रेस के नेता ही करते हैं. इसलिए इस नतीजे से मुसलमानों को कोई चिंता नहीं करनी चाहिए.’

यह बात सच है कि बिना किसी का कामकाज देखे उसके बारे में राय नहीं बनानी चाहिए, इस लिहाज से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी आकलन छह माह से साल भर के उनके कामकाज के बाद ही हो सकता है. लेकिन यह भी उतना ही सच है कि इस नतीजे के संभावित खतरे भी हैं. पहला खतरा तो यही है कि अगर किसी को यह अहसास हो जाए कि बहुसंख्यक उसके साथ है तो उसके भीतर अल्पसंख्यकों को नजरअंदाज करने की भावना भी आ सकती है.

इसके साथ-साथ खतरा भाजपा के उग्र समर्थकों से भी है. इस जीत की खुशी में कहीं समर्थक बेकाबू न हो जाएं. कर्नाटक के बीजापुर में भाजपा की जीत की खुशी मना रहे कार्यकर्ताओं के मुसलिम समुदाय के साथ टकराव की खबर आ चुकी है. इन घटनाओं पर शुरुआत में ही लगाम लगाने की चुनौती रहेगी. प्रो. मुशीरुल हसन बताते हैं, ‘सबसे बड़ा खतरा यह है कि पहली बार देश में एक बहुसंख्यक वोटबैंक खड़ा होने की आहट है. अगर ऐसा हुआ तो हिंदुस्तान के लिए बहुत शर्म की बात होगी. यह बहुलतावाद का मजाक होगा. अल्पसंख्यक इसके नतीजे में पूरी तरह से अलग-थलग हो जाएगा. हमें उग्र बहुसंख्यकवाद का सामना करना पड़ सकता है.’

इस नतीजे का एक और दुष्प्रभाव मुसलिम समुदाय के ऊपर पड़ सकता है. एक बार फिर से मुसलिमों में फैली हताशा का फायदा समुदाय के बीच मौजूद कट्टरपंथी-रूढ़िवादी तत्व उठा सकते हैं. उल्मा और मौलवी बड़ी आसानी से अपनी स्थिति को मजबूत कर सकते हैं. रूढ़िवादी वर्ग मुसलमानों के उस उदारवादी धड़े को हाशिए पर पहुंचा सकता है जो खुद को भारत के उस विचार से जोड़ता है जो पंथनिरपेक्ष और सबको बराबरी का हक देता है. आज भी मुसलमानों की एक बड़ी आबादी इन्हीं उल्माओं और मौलवियों के असर में है. ये वे लोग हैं जो हिंदुओं का डर दिखाकर मुसलमानों को बरगला सकते हैं. मुनव्वर राणा एक गहरी बात से इस कयास को विराम देते हैं, ‘हम इसलिए यहां सुरक्षित नहीं है कि यहां हमारी सरकारें हैं. हम यहां इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि हम 80 करोड़ हिंदुओं की निगरानी में रहते हैं. हम इसलिए सुरक्षित हैं क्योंकि यहां का 80 करोड़ हिंदू सेक्युलर और सहिष्णु है.’

उम्मीद है यह बात सेक्युलर बनाम कम्युनल राजनीति करने वाली सियासी तंजीमों को भी समझ आएगी.

क्या वजह है कि देश में मकान मालिक और किराएदार का संबंध सनातन बैरी जैसा हो गया है?

सभी फोटोः विकास कुमार

गूगल पर यदि ‘किराएदार’ टाइप किया जाए तो लगभग 50 हजार परिणाम सामने आते हैं. इनमें पहला किराएदार शब्द का अंग्रेजी मतलब बताता है. बाकी लगभग सभी परिणाम किराएदार और मकान मालिक के विवादों से संबंधित होते हैं.

भारतीय शहरों के अधिकतर लोग कभी न कभी मकान मालिक और किराएदार होने के अनुभव से गुजरते हैं. इसके बावजूद भी यह रिश्ता ऐसा बन चुका है जिसमें संवाद की कम और विवाद की गुंजाइश ज्यादा हो गई है. महानगरों में तो ज्यादातर स्थिति यह है कि मकान मालिक कमरा देने से पहले बातचीत की शुरुआत ही किराएदार को अपराधी मानते हुए करते हैं. इसके बाद वे अपने होने वाले किराएदार की पड़ताल ठीक वैसे ही करते हैं जैसे किसी लड़की का पिता अपने होने वाले दामाद की करता है. यदि बात बन जाए तो किराएदार को लगभग उतने ही दस्तावेज और प्रमाणपत्र पेश करने होते हैं जितने किसी सरकारी नौकरी के आवेदन पर किये जाते हैं. इसके बाद जब किराएदार मकान में रहना शुरू कर दे तो भी दोनों पक्ष एक-दूसरे पर संदेह बनाए रखते हैं. किराएदार को हर महीने शक होता है कि मकान मालिक ने उससे बिजली-पानी का ज्यादा पैसा वसूल कर उसे लूट लिया है. दूसरी तरफ यदि किराया चुकाने में एक दिन की भी देरी हुई तो मकान मालिक यह मान लेता है कि किराएदार के इरादे ठीक नहीं हैं. इस पर वह पहले ही दिन किराएदार को टोकता है जिसे किराएदार अपना अपमान मान बैठता है. अधिकतर झगड़े यहीं से शुरू होते हैं.

किराएदार की शुरूआती जांच करने की सलाह तो हर राज्य की पुलिस सुरक्षा कारणों से देती है. लेकिन इसके बाद भी मकान मालिक क्यों किराएदार को हमेशा संदेह से ही देखते हैं? क्यों किराया चुकाने में एक दिन की भी देरी मकान मालिकों को बैचैन कर देती है? क्यों मकान मालिक अपने किराएदार के साथ कानूनी एग्रीमेंट करने के बावजूद भी आश्वस्त नहीं हो पाते? इन सभी सवालों के जवाब तलाशने के लिए उन अनुभवों को समझना जरूरी है जो पिछले 60-70 साल में देशभर के मकान मालिकों को हुए हैं. इन्हें समझने की शुरुआत दिल्ली से ही करते हैं.

1
दिल्ली के चांदनी चौक इलाके में एक एकड़ पर बनी एक विशाल हवेली है. इस हवेली को लगभग डेढ़ सौ साल पहले राय लाला छुन्नामल ने बनवाया था. राय छुन्नामल उस दौर में दिल्ली के सबसे अमीर व्यक्ति थे. कहा जाता है कि दिल्ली की पहली मोटर कार और टेलीफोन भी उन्होंने ही खरीदा था. राय छुन्नामल की हवेली में आज उनकी सातवीं पीढ़ी रहती है. लेकिन उनके पास इस हवेली का सिर्फ 20 प्रतिशत हिस्सा ही है. हवेली की निचली मंजिल पर 130 दुकानें हैं. इन्हें लगभग 40-50 साल पहले व्यापारियों को किराए पर दिया गया था. तब एक दुकान का किराया 75 रुपये प्रतिमाह तय हुआ था. इसके बाद से आज तक दिल्ली में लगभग सब कुछ बदल गया. दिल्ली का क्षेत्रफल बढ़ा, जनसंख्या बढ़ी, बाजार बढ़ा और साथ ही व्यापार भी बढ़ा. लेकिन इन दुकानों का किराया आज भी 75 रुपये प्रतिमाह ही है. राय छुन्नामल के वारिस और इस हवेली के मालिक अनिल प्रसाद बताते हैं, ‘इस इलाके में आज दुकान डेढ़ सौ रुपये वर्ग फुट की दर से किराए पर मिलती है. इस तरह से हमारी एक दुकान का किराया लगभग 15 हजार रुपये प्रतिमाह होना चाहिए. लेकिन हमारी तो 130 दुकानों का कुल किराया मिलाकर भी लगभग नौ हजार महीना ही आता है.’  प्रसाद आगे बताते हैं, ‘दुकानदार न तो दुकान खाली करते हैं और न ही किराया बढ़ाकर देते हैं. इस तरह से ये दुकानें हमारी होते हुए भी हमारी नहीं हैं.’

यह स्थिति सिर्फ अनिल कुमार की ही नहीं बल्कि देशभर के लाखों लोगों की है. पंजाब के मोगा जिले में रहने वाले हितेश गुप्ता की शहर के सर्राफा बाजार में आठ दुकानें हैं. इन दुकानों को उनके दादा ने लगभग 30 साल पहले किराए पर दिया था. दुकानों की वर्तमान कीमत लगभग तीन करोड़ रुपये है लेकिन इन सभी दुकानों का कुल किराया 2400 रुपये प्रति महीना आता है. हितेश बताते हैं, ‘पिछले कई साल से हम अपनी दुकानें खाली करवाने के लिए मुकदमे लड़ रहे हैं. अभी न जाने कितने साल इसमें और लगेंगे.’

हितेश गुप्ता, अनिल प्रसाद और उन जैसे लाखों लोगों की लाचारी का मूल कारण यह है कि किराएदारों को ‘किराया नियंत्रण कानून’ के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त है. यह कानून देश की आजादी के बाद लगभग सभी राज्यों में लागू किया गया था. उस वक्त विभाजन के कारण बड़ी सख्या में लोगों का पलायन हुआ था. ऐसे में लाखों लोग अपना बसा-बसाया घर और कारोबार छोड़कर देश में शरणार्थी बनकर पहुंचे थे. इन्हीं लोगों की मदद के लिए किराया नियंत्रण कानून बनाया गया था. हालांकि हर राज्य के किराया नियंत्रण कानून का स्वरूप अलग था लेकिन इसका मूल उद्देश्य किराएदारों के हितों की रक्षा करना था. यह कानून मकान मालिकों को ज्यादा किराया वसूलने और किराएदार को जबरन निकालने से प्रतिबंधित करता था.

दिल्ली में यह कानून 1958 में लाया गया. इसका नाम था ‘दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम 1958’. शुरुआती दौर में यह कानून किराएदारों का शोषण रोकने में तो सफल साबित हुआ लेकिन धीरे-धीरे मकान मालिकों के शोषण का सबसे बड़ा कारण भी बन गया. इस कानून की सबसे बड़ी कमी यह रही कि इसमें वक्त के साथ संशोधन नहीं किए गए. इसमें मुख्य संशोधन इसके लागू होने के लगभग 30 साल बाद हुआ. 1988 में इस कानून में दो मुख्य बदलाव किए गए. एक, 3500 रुपये प्रतिमाह से ज्यादा किराया चुकाने वाले किराएदारों को इस कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया और दूसरा हर तीन साल में 10 प्रतिशत तक किराया बढ़ाए जाने की व्यवस्था की गई.

लेकिन इन बदलावों से भी मकान मालिकों की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. किराया बढ़ाने पर शुरू से ही रोक के कारण पुराने किराएदार 1988 में भी 3500 से कम किराया ही चुका रहे थे. इसलिए लगभग सभी किराएदार इस संशोधन के बाद भी संरक्षित ही रहे. 90 के दशक तक यह बात नीति-निर्माताओं को भी स्पष्ट हो चुकी थी कि किराया नियंत्रण अधिनियम पर रोक लगाना अनिवार्य है. इस दिशा में काम करते हुए 1995 में भारत सरकार ने एक बड़ा कदम उठाया. संसद में 1995 में ‘दिल्ली किराया अधिनियम’ पास कर दिया. इस अधिनियम में मकान मालिकों के हितों को देखते हुए बाजार भाव पर किराया तय करने और जरूरत पड़ने पर किराएदार को बेदखल करने के भी प्रावधान थे. इस नए कानून को अगस्त, 1995 में राष्ट्रपति की सहमति भी मिल चुकी थी और बस केंद्र सरकार को एक तिथि तय करते हुए इसे लागू करना था. लेकिन दिल्ली के लाखों किराएदारों और व्यापारियों ने इसका जबरदस्त विरोध किया. इस विरोध के चलते केंद्र सरकार नए कानून को राष्ट्रपति की सहमति के बावजूद भी लागू नहीं कर सकी. अंततः पिछले साल 1995 के उस कानून को वापस लेने का फैसला सरकार ने कर लिया जो कभी लागू ही नहीं हो पाया. दूसरी तरफ 1958 का वह कानून आज भी मौजूद है जिसे लगभग बीस साल पहले ही संसद ने बाबा आदम के जमाने का मानते हुए समाप्त करने का फैसला बहुमत से लिया था. इतने सालों तक इस कानून की मौजूदगी ने आज स्थिति को और भी भयावह बना दिया है.

हवेली की निचली मंजिल पर 130 दुकानें हैं. एक दुकान का किराया 15000 होना चाहिए. लेकिन सभी दुकानों का किराया मात्र नौ हजार ही आता है

किराया नियंत्रण कानून के कारण मकान मालिकों पर हो रहे अत्याचार के सबसे बड़े उदाहरण दिल्ली के कनॉट प्लेस में देखे जा सकते हैं. इस इलाके के डी ब्लॉक में ‘एंबेसी’ नाम का एक मशहूर रेस्टोरेंट है. यह जगह 1948 में कराची से आये दो साथियों ने किराए पर ली थी. आज इस रेस्टोरेंट के ग्राहकों की सूची में कई दूतावास, सर्वोच्च न्यायालय, दिल्ली उच्च न्यायालय, मुख्यमंत्री कार्यालय और कई बहुराष्ट्रीय कंपनियां शामिल हैं. इस रेस्टोरेंट की प्रतिदिन की बिक्री लाखों में आंकी जाती है. 2500 वर्ग फुट पर बना यह रेस्टोरेंट उस जगह स्थित है जो केन्द्रीय भवन अनुसंधान संस्थान (सीबीआरई) की रिपोर्ट के अनुसार दुनिया की दस सबसे मंहगी व्यवसायिक जगहों में से एक है. इस सबके बावजूद भी इस पूरे रेस्टोरेंट का मासिक किराया मात्र 312 रुपये है. रेस्टोरेंट को किराए पर दी गई इस संपत्ति के असली मालिक आत्मा राम प्रोपर्टीज के प्रबंध निदेशक सीएम चड्ढा हैं. उनकी इस पूरे इलाके में और भी कई संपत्तियां हैं जिनमें से ज्यादातर इसी हालत में हैं. कनॉट प्लेस का सिंधिया हाउस भी आत्मा राम प्रोपर्टीज का ही है. आज इसका लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा किराया नियंत्रण कानून के चलते किराएदारों के कब्जे में है. एक ओर जहां इस इलाके में जानी-मानी फास्ट फूड चेन केएफसी 5,000 वर्ग फुट जगह का दस लाख रुपये प्रतिमाह से ज्यादा किराया चुका रही है वहीं इसके ठीक साथ में 8,800 वर्ग फुट जगह का किराया ‘अलाइड मोटर्स’ द्वारा मात्र 1800 रुपये दिया जाता है. आत्मा राम प्रोपर्टीज के अधिवक्ता अमित सेठी बताते हैं, ‘एंबेसी रेस्टोरेंट और अलाइड मोटर्स जैसे किराएदार लाखों रुपये का टैक्स जमा करते हैं. इनका एक साल का टर्नओवर करोड़ों में है. इसके बावजूद भी इन लोगों को किराया नियंत्रण कानून का संरक्षण मिला हुआ है और ये कौड़ियों के भाव किराया चुका रहे हैं. इन संपत्तियों के लिए हमने इस साल डेढ़ करोड़ रुपये हाउस टैक्स के तौर पर जमा किए हैं.’

2009 में दिल्ली में हाउस टैक्स संबंधी नई नियमावली बनाई गई है. इस नियमावली के बनने के बाद से हाउस टैक्स संपत्ति के क्षेत्रफल के अनुसार तय किया जाता है. पहले यह संपत्ति से मिलने वाले किराए पर निर्धारित किया जाता था. अधिवक्ता अमित सेठी बताते हैं, ‘आत्मा राम प्रोपर्टीज को इस साल पांच करोड़ रुपये बतौर टैक्स जमा करने का नोटिस आया है. जिस संपत्ति के लिए यह टैक्स भरना है उसमें रहने वाले किराएदारों में से कोई तीन सौ रुपये महीने किराया देता है तो कोई चार सौ. हालांकि टैक्स संबंधी नियमावली में यह लिखा गया है कि यदि टैक्स किराए की कुल राशि से ज्यादा होगा तो वह किराएदार को चुकाना होगा. लेकिन किराएदार इसे नहीं चुकाते. वे कहते हैं कि टैक्स पहले मालिक चुकाए और फिर हमसे बकाए के तौर पर वसूल कर ले.’

2
मकान मालिकों के लिए किराया नियंत्रण कानूनों का दुखद पहलू यह भी है कि कई सरकारी संस्थाएं भी इस कानून की आड़ में उनको लूट रही हैं. चांदनी चौक के अनिल प्रसाद की लगभग छह हजार वर्ग फुट की एक संपत्ति पर पंजाब नेशनल बैंक का कब्जा है. इस संपत्ति के किराए के तौर पर बैंक उन्हें मात्र 124 रुपये प्रतिमाह देता है. वे बताते हैं ‘मेरी उस संपत्ति से लगभग 50 मीटर की दूरी पर ‘देना’ बैंक ने भी एक उतनी ही बड़ी संपत्ति किराए पर ली है. ‘देना’ बैंक इसके लिए ढाई लाख रुपये महीने का किराया दे रहा है.’ अनिल प्रसाद अपना स्वयं का व्यवसाय चलाने के लिए कोटला मुबारकपुर में पौने दो लाख रुपये महीने का किराया दे रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पीएनबी के पास मेरी जो संपत्ति है वह पिछले पांच साल से खाली है. बैंक ने सिर्फ उस पर अपना ताला लगा कर छोड़ दिया है. अब मैंने न्यायालय से अपील की है कि मुझे अपना व्यवसाय चलाने के लिए वह संपत्ति चाहिए. मैं अपनी संपत्ति होते हुए भी लाखों रुपये किराए के रूप में चुका रहा हूं.’

सरकारी और सार्वजानिक क्षेत्र की कई संस्थाएं ऐसी हैं जो इस कानून की आड़ में नाम-मात्र का किराया चुका कर लोगों की संपत्तियों पर कब्जा जमाए बैठी हैं. दिल्ली के जनपथ इलाके में ही भारतीय जीवन बीमा निगम 346 रुपये के किराये पर, यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस लिमिटेड 733 रुपये के किराए पर और कनॉट प्लेस में दिल्ली परिवहन निगम 627 रुपये का मासिक किराया देकर 16 हजार वर्ग फुट जगह पर कब्जा किए हुए है.

साल 2005 में भारत सरकार ने शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए ‘जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन’ (जेएनएनयूआरएम) शुरू किया था. शहरी क्षेत्रों के विकास के लिए इतना बड़ा अभियान इससे पहले पूरे विश्व में कहीं नहीं चलाया गया था. इस मिशन के तहत शहरी क्षेत्रों में सात आवश्यक सुधार तय किए गए थे. इनमें से एक किराया नियंत्रण कानूनों में सुधार करना भी था. जेएनएनयूआरएम के अंतर्गत प्रत्येक राज्य का केंद्र सरकार के साथ एक अनुबंध हुआ था. इस अनुबंध में वह समय सीमा भी तय की गई थी जिसके अंदर राज्यों को अपने किराया कानूनों को सुधारना था. इस अनुबंध के कुछ समय बाद सरकार ने कहा कि देश के 12 राज्यों ने किराया कानूनों में जरूरी बदलाव कर लिए हैं. दिल्ली की एक स्वयं सेवी संस्था ‘पीआईएल वाच ग्रुप’ ने इस मिशन और इसके तहत हुए किराया कानूनों की अलग से पड़ताल करके एक रिपोर्ट प्रकाशित की है. इस रिपोर्ट में बताया गया कि जेएनएनयूआरएम के शुरू होने के बाद से किसी एक भी राज्य में किराया कानूनों में सुधार नहीं हुआ है. इस रिर्पोर्ट के अनुसार ‘पांच राज्यों में कभी किराया नियंत्रण कानून थे ही नहीं. पश्चिम बंगाल, राजस्थान और कर्नाटक में जेएनएनयूआरएम के अस्तित्व में आने से पहले ही किराया नियंत्रण कानूनों में सुधार हो चुका था. 20 राज्यों ने इन कानूनों में सुधार का वादा किया गया था लेकिन वे सभी इसमें विफल रहे. अन्य तीन राज्यों ने सुधार का वादा तक नहीं किया. इनमें से एक दिल्ली भी था.’

फास्ट फूड चेन केएफसी 5000 वर्ग फुट जगह का किराया 10 लाख से ज्यादा देता है वहीं अलाइड मोटर्स 8,800 वर्ग फुट का मात्र 1800 रुपये ही देता है

संस्था की संस्थापक सदस्य शोभा अग्रवाल बताती हैं, ‘जेएनएनयूआरएम के तहत अरबों रुपये बांटे गए. अनुबंध में यह साफ लिखा था कि राज्यों को पैसों की अगली किस्त तभी दी जाएगी जब वे अपने कानूनों में निर्धारित सुधार कर लेंगे. किसी भी राज्य ने यह शर्त पूरी नहीं की. इसके बावजूद भी उन्हें पैसा दिया गया. हमने इस संबंध में सभी संबंधित अधिकारियों को शिकायत भेजी थी.’

शोभा अग्रवाल ने दिल्ली किराया अधिनियम 1958 की संवैधानिक मान्यता को चुनौती देते हुए एक याचिका भी दाखिल की है. तीन जुलाई को इस याचिका पर दिल्ली उच्च न्यायालय में अंतिम बहस होनी है. ‘यह कानून संविधान के अनुछेद 14, अनुछेद 19(1) (जी) और अनुछेद 21 में दिए गए मौलिक अधिकारों का हनन करता है. दिल्ली में इस संबंध में तीन अलग-अलग कानून हैं. कानून सबके लिए एक समान होने चाहिए’ शोभा अग्रवाल बताती हैं, ‘इस कानून के अंतर्गत वे ही लोग आते हैं जिनका किराया 3500 रुपये से कम है. यह पैमाना आज खरा नहीं है. इससे यह भी सुनिश्चित नहीं होता कि किराएदार गरीब व्यक्ति है. कई करोड़पति भी इस पैमाने के कारण किराया नियंत्रण का दुरूपयोग कर रहे हैं.’

शोभा अग्रवाल ने किराया कानून को चुनौती देने वाली यह याचिका 2010 में दाखिल की थी. वे बताती हैं कि उस वक्त दिल्ली उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने उनकी याचिका को एक लंबित मामले से जोड़ते हुए अपने न्यायालय में पेश करने को कहा. इस पर उन्हें कुछ संदेह हुआ. उन्होंने न्यायाधीश के बारे में जानकारी जुटाना शुरू किया. इसमें उन्होंने पाया कि वह न्यायाधीश स्वयं भी एक ऐसी संपत्ति में किराएदार हैं जो कि किराया नियंत्रण कानून के अंतर्गत आती है. अपनी जानकारियों को मजबूत करने के बाद उन्होंने न्यायालय से अपील की कि यह मामला किसी अन्य न्यायाधीश के सामने रखा जाए ताकि मामले में निष्पक्ष सुनवाई हो. इसके बाद यह याचिका एक अन्य न्यायाधीश की अदालत में पेश की गई.

बीस साल पहले जिस कानून को समाप्त करने का फैसला संसद ने लिया था वह आज तक जीवित क्यों है इस सवाल पर शोभा अग्रवाल बताती हैं, ‘इस कानून के समाप्त होने पर निश्चित तौर से वे लोग विरोध करेंगे जो इतने साल से इसका नाजायज फायदा उठा रहे हैं.’ किराया नियंत्रण कानून का समर्थन करने वाले अधिकतर लोग यह तर्क देते हैं कि यदि यह कानून समाप्त हुआ तो लाखों लोगों को अपने घर या व्यवसाय से बेदखल कर दिया जाएगा. इसके जवाब में शोभा कहती हैं, ‘यह एक भ्रमित करने वाला तर्क है. आज स्थिति ऐसी है कि अधिकतर किराएदार संपन्न हैं. इस कानून को समाप्त करने की मांग इसलिए नहीं है कि किराएदारों को बेघर किया जा सके. हमारी मांग सिर्फ यह है कि कम से कम मकान के असली हकदारों को उनकी सही कीमत तो मिले. आज कई मकान मालिक ऐसे भी हैं जिनकी माली हालत बहुत खराब है और उनकी करोड़ों की संपत्ति किराया नियंत्रण की भेंट चढ़ रही है.’ पुरानी दिल्ली के प्रवीण चंद जैन उन्हीं में से एक हैं. प्रवीण चंद की उम्र 69 साल है. उनके जवान बेटे की मौत हो चुकी है और अब वे अकेले ही रहते हैं. करोल बाग के पास गौशाला मार्ग पर उनकी पुश्तैनी इमारत है जिसमें लगभग 40 किराएदार रहते हैं. प्रवीण बताते हैं, ‘मेरे 40 किराएदारों का कुल मिलाकर महीने का 450 रुपये किराया है. वो भी लेने जाओ तो मुझसे भिखारियों जैसा बर्ताव करते हैं.’

‘उन्हें इस साल पांच करोड़ रुपये टैक्स जमा करने का नोटिस आया है. लेकिन किराएदारों में से कोई तीन सौ रुपया किराया देता है तो कोई चार सौ’

दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम से जूझ रहे लोगों की समस्या के समाधान पर जब भी दोनों पक्षों में बात होती है ‘पगड़ी’ के मुद्दे पर विवाद फंस जाता है. किराएदारों का कहना है कि आज से कई साल पहले जब वे मकान या दुकान में रहने आए थे तो उन्होंने मकान मालिक को ‘पगड़ी’ दी थी. ‘पगड़ी’ उस रकम को कहा जाता था जो किराएदार एकमुश्त मकान मालिक को देता था. उनके अनुसार यदि ‘पगड़ी’ में दी गई रकम की तुलना आज से करें तो वो लगभग संपत्ति की कीमत के बराबर ही होती है. लेकिन ‘पगड़ी’ देने का कोई भी सबूत किसी भी किराएदार के पास नहीं है. शोभा अग्रवाल कहती हैं, ‘कई संपत्तियां सरकारी विभागों के पास किराए पर हैं. यदि ‘पगड़ी’ देकर ही मकान या दुकान दी जाती थी तो ये विभाग किराएदार कैसे बन गए. सरकारी विभाग तो अवैध ‘पगड़ी’ देकर किराएदार नहीं बन सकता.’ शोभा आगे बताती हैं कि उस जमाने में भी संपत्ति दो तरीकों से बेचीं जाती थीं. एक सेल डीड के माध्यम से और दूसरा पॉवर ऑफ अटॉर्नी के माध्यम से. यदि ‘पगड़ी’ की रकम संपत्ति के बराबर ही थी तो इनमें से कुछ भी क्यों नहीं किया गया.

सदर बाजार व्यापारी संघ के अध्यक्ष प्रवीण कुमार आनंद पगड़ी के बारे कहते हैं, ‘यदि कुछ लोगों ने पगड़ी दी भी थी तो इतने सालों से नाम-मात्र का किराया देकर वे लोग पगड़ी की रकम भी वसूल कर चुके हैं. ये साफ दिखाई देता है कि जो किराया वे आज दे रहे हैं वह नाजायज है. कानून में बदलाव होना चाहिए. पुराने किराएदारों को खाली करने को न कहा जाए लेकिन किराया तो बाजार के हिसाब से बढ़ना ही चाहिए.’ आम तौर पर किराएदारों के पक्ष में रहने वाले बंगाली मार्केट व्यापारी संघ के महासचिव प्रमोद गुप्ता बताते हैं, ‘इस कानून को तो समाप्त होना ही चाहिए. ये तो साफ तौर से मकान मालिकों के साथ नाइंसाफी है. लेकिन नए कानून में किराएदारों के हित भी ध्यान में रखे जाएं. इन लोगों ने ये दुकानें तब किराए पर ली थी जब आस-पास सब जंगल था. इन्हीं की मेहनत से बाजार बना और संपत्ति की कीमत बढ़ी है. तो किराया बढ़ाया जाए लेकिन पुराने किराएदारों के लिए इसे बाजार के भाव से कम ही तय किया जाए.’

chhanu-mal-ki-haweli-in-oldकुछ राज्यों में किराया नियंत्रण कानूनों को सुधारने की दिशा में काम हुए भी हैं. अधिवक्ता अमित सेठी बताते हैं, ‘महाराष्ट्र में कानून में संशोधन हो चुका है. इसके बाद से यदि कहीं भी सरकारी विभाग किराए पर थे तो उन्हें इस कानून की श्रेणी से बाहर कर दिया गया है. साथ ही यह भी फैसला लिया गया है कि यदि कोई निजी कंपनी किराएदार है और उसकी पेड अप कैपिटल एक करोड़ या उससे ज्यादा है तो वह किराया नियंत्रण कानून के अंतर्गत नहीं आएगी.’

महाराष्ट्र में हुए इन बदलावों से अधिवक्ता अमित सेठी तो संतुष्ट नजर आते हैं लेकिन शोभा अग्रवाल का नजरिया अलग है. उनका मानना है कि किराया नियंत्रण कानून होना ही नहीं चाहिए. ‘हर क्षेत्र का उदारीकारण हुआ है. आज चीनी और तेल के दाम भी बाजार तय करता है. इन पर सरकार कोई नियंत्रण नहीं रखती. और किराया नियंत्रण के नाम पर लोगों की निजी संपत्तियों को नियंत्रित करती है’ शोभा आगे बताती हैं, ‘कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को पूरा करने के लिए सरकार को अपने नागरिकों की हर व्यवस्था का ध्यान रखना चाहिए. लेकिन कुछ नागरिकों का भला करने के लिए कुछ अन्य नागरिकों का शोषण नहीं किया जा सकता. सरकार को यदि किराए में छूट देनी है तो सरकारी भवनों पर छूट दे. एक नागरिक की निजी संपत्ति पर सरकार किस अधिकार से किसी को भी छूट दे सकती है?’

किराएदार और मकान मालिक की इस सालों पुरानी लड़ाई का एक सबसे घातक पहलू और भी है. ऐसी विवादास्पद इमारतों की मरम्मत न तो किराएदार करता है और न ही मकान मालिक. देश भर में ऐसी इमारतों के गिरने और उनसें कई लोगों के जान गंवाने की खबरें कई बार सुनने को मिलती हैं. लेकिन कुछ लोगों ने इसमें भी समस्या का समाधान ढूंढ लिया है. विवादास्पद इमारतों की आसानी से अच्छी कीमत नहीं मिलती. ऐसे में कई मकान मालिक भूमाफियाओं को अपनी इमारत बेच देते हैं. यहां से उन्हें तुलनात्मक रूप में बेहतर दाम मिल जाते हैं. ये भूमाफिया पहले से ही जर्जर इमारतों को जबरन तुड़वा देते हैं और जमीन पर नए भवन बना लेते हैं. कुछ मकान मालिकों ने इससे थोड़ा अलग तरीका भी अपनाया है. वे अपनी इमारत को बैंक में गिरवी रख देते हैं. फिर जानबूझ कर बैंक के पैसे नहीं चुकाते. इस पर बैंक इमारत को अपने कब्जे में ले लेता है. इसके बाद कई बार जब बैंक किराएदारों को बेदखल कर बिल्डिंग की नीलामी करवाते हैं तो असली मालिक ही अपने लोगों के जरिए वापस इसे खरीद लेते हैं.

दिल्ली के जनपथ इलाके में एलआईसी 346 रुपये और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस 733 रुपये किराया देकर हजारों वर्ग फुट जगह पर कब्जा किए हुए हैं

विश्व के लगभग 40 देशों में किराया नियंत्रण कानून मौजूद हैं. हालांकि इनका स्वरुप सभी देशों में अलग है लेकिन इसके दुष्परिणाम लगभग सभी जगह देखे गए हैं. स्वीडन के प्रख्यात अर्थशास्त्री असर लिंडबेक ने इसीलिए किराया नियंत्रण के बारे में कहा है कि ‘किसी शहर को बर्बाद करने के लिए बमबारी के अलावा यदि कोई दूसरा काबिल तरीका है तो वह किराये का नियंत्रण है.’

ताजपोशी के बाद

फोटो साभारः हिंदुस्तान टाइम्स
फोटो साभारः हिंदुस्तान टाइम्स
फोटो साभारः हिंदुस्तान टाइम्स

26 मई को नरेंद्र मोदी के भारत के प्रधानमंत्री पद की शपथ लेने के साथ भारतीय राजनीति में एक और बदलाव की शुरुआत हुई. जो बदलाव ढूंढने में दिलचस्पी रखते हैं उन्हें यह तभी दिख गया होगा जब मोदी नई दिल्ली में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे. अपने सामान्य अंदाज से थोड़ा अलग जाते हुए उन्होंने पूरी बांह का कुरता पहना हुआ था और उसके ऊपर नेहरू जैकेट. मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में लगभग सभी पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्ष मौजूद थे. लेकिन यह तो एक छोटा सा बदवाल था. उस दिन समारोह के स्वरूप से लेकर कैबिनेट में मंत्रियों के चुनाव तक हर गतिविधि में वह दिखा जिसे अक्सर ही मोदी के साथ जोड़कर देखा जाता है–हर काम को करने का अपना एक अलग अंदाज.

इसकी उम्मीद शायद ही किसी ने की होगी कि मोदी अपने शपथ ग्रहण समारोह में सार्क नेताओं को आमंत्रित करेंगे. उनमें भी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को. आखिर पिछले ही साल तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने इस्लामाबाद में शरीफ के शपथ ग्रहण समारोह का आमंत्रण ठुकरा दिया था. उससे पिछले साल जब तत्कालीन प्रधानमंत्री आसिफ अली जरदारी अजमेर शरीफ आए थे और सिंह ने उन्हें दोपहर के खाने का न्यौता दिया था तो भाजपा ने प्रधानमंत्री पर तीखा हमला किया था. पाकिस्तान के प्रति राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, शिव सेना और भाजपा के कट्टरपंथी धड़े के नेताओं की भावनाएं आज भी वैसी ही हैं. लेकिन मोदी ने साफ कर दिया कि वे सिर्फ अपने हिसाब से काम करते हैं. अपनी मित्र जयललिता और सहयोगी पार्टी एमडीएमके के विरोध की परवाह न करते हुए उन्होंने श्रीलंका के राष्ट्रपति महिंदा राजपक्षे को भी न्यौता भेजा. यह उनकी जीत की धमक का ही नतीजा था कि भले ही न्यौता सिर्फ हफ्ते भर पहले ही मिला हो, लेकिन लगभग सारे ही सार्क देशों के मुखिया 26 मई को नई दिल्ली आए. बांग्लादेश से शेख हसीना विदेश दौरे पर होने के चलते नहीं आ सकीं, लेकिन उन्होंने सुनिश्चित किया कि बांग्लादेश संसद के अध्यक्ष इस मौके पर मौजूद हों.

मोदी का सबको चौंकाने का सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ. सहयोगी तेलुगू देशम पार्टी, शिवसेना और लोक जनशक्ति पार्टी में भले ही सीटों का अच्छा खासा अंतर रहा हो, तीनों को मंत्रिमंडल में सिर्फ एक ही सीट मिली. शिव सेना के अनंत गीते को भारी उद्योग मंत्रालय मिला जिसे उतना अहम नहीं माना जाता. गीते ने मंत्रालय का कार्यभार देरी से संभालकर इस पर अपनी नाराजगी भी जाहिर कर दी, लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ा. यह माना जा रहा है कि बजट सत्र के दौरान जब मोदी अपने मंत्रालय का विस्तार करेंगे तो शायद तेलुगू देशम पार्टी और शिव सेना को कम से कम एक मंत्रालय और मिल जाए.

कई तब भी हैरान हुए जब मोदी के मंत्रिमंडल में उन राज्यों को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला जहां भाजपा ने विपक्ष का सूपड़ा साफ कर दिया है. राजस्थान में भाजपा ने सभी 25 लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की, लेकिन राज्य से मंत्रिमंडल में सिर्फ निहाल चंद के रूप में एक चेहरा है. झारखंड, उड़ीसा, असम और अरुणाचल प्रदेश से भी मंत्रिमंडल में एक ही चेहरा है जबकि पश्चिमी बंगाल में नई जिंदगी पा चुकी भाजपा को कोई प्रतिनिधित्व नहीं मिला. साफ था कि मोदी ने उन राज्यों को तरजीह दी जहां निकट भविष्य में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं. महाराष्ट्र में इसी साल विधानसभा चुनाव होने हैं. वहां से छह मंत्री कैबिनेट में हैं. बिहार में चुनाव अगले साल हैं. वहां से पांच मंत्री हैं. इस मामले में सबसे बड़ा आंकड़ा उत्तर प्रदेश का रहा जहां से नौ मंत्री कैबिनेट में हैं. उत्तर प्रदेश में 2017 में विधानसभा चुनाव होने हैं.

हालांकि मंत्रियों का चुनाव उतना अप्रत्याशित नहीं था. बुजुर्ग नेताओं के बारे में काफी हद तक साफ हो गया था कि उन्हें मंत्रिमंडल में जगह नहीं मिलेगी. ऐसा होता तो मोदी को खुलकर अपना काम करने में दिक्कत होती. इसलिए ऐसे नेताओं के साथ औपचारिक मुलाकातें करके ही काम चला लिया गया. मोदी ने बिना किसी बड़ी दिक्कत के इस दुविधा से पार पा लिया कि लाल कृष्ण आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी जैसे वरिष्ठों को मंत्रिमंडल में कौन सी जिम्मेदारी दी जाए.

मोदी ने जिस तरह गुजरात में अमित शाह को अपना सबसे बड़ा विश्वासपात्र चुना था, उसी तरह उन्होंने केंद्र में अरुण जेटली पर सबसे ज्यादा भरोसा जताया है. जेटली को वित्त और रक्षा जैसे दो भारी-भरकम मंत्रालय दिए गए हैं. हालांकि गृहमंत्रालय पाने के चलते कैबिनेट में राजनाथ सिंह दूसरे स्थान पर आते हैं लेकिन वास्तव में नंबर दो कौन है यह औपचारिक रूप से तब साफ होगा जब मोदी अपने पहले विदेश दौरे पर जाएंगे.

मोदी ने अपने उन विश्वस्त और वफादार सहयोगियों को पुरस्कृत किया है जो मिशन 272 प्लस की उनकी लड़ाई में उनके साथ सबसे मजबूती से खड़े रहे. पीयुष गोयल, प्रकाश जावड़ेकर, निर्मला सीतारमन और स्मृति ईरानी समाचार चैनलों पर लगातार और मजबूती से मोदी का पक्ष रखते रहे थे. धर्मेंद्र प्रधान को बिहार में भाजपा के शानदार प्रदर्शन का ईनाम मिला.

कैबिनेट में मंत्रालयों का बंटवारा जिस तरह से हुआ है उससे मोदी ने यह भी साफ संदेश दे दिया है कि जिस तरह गुजरात में वे सुपर सीएम थे, केंद्र में भी वे सुपर पीएम रहेंगे. आर्थिक मामलों से जुड़े जो भी अहम मंत्रालय हैं उन्हें जूनियर मंत्रियों के सुपुर्द किया गया है. जैसे गोयल को ऊर्जा और कोयला मंत्रालय मिला है तो प्रधान को तेल एवं गैस और जावड़ेकर को सूचना एवं प्रसारण और पर्यावरण. संदेश साफ है कि इन विभागों को एक तरह से मोदी ही चलाएंगे.

कैबिनेट के गठन से पहले ही कयास लगने लगे थे कि कामकाज प्रभावी तरीके से हो, इसके लिए मोदी कुछ मंत्रालयों को मिलाकर एक कर देंगे या एक ही क्षेत्र से ताल्लुक रखने वाले अलग-अलग मंत्रालयों की जिम्मेदारी एक ही व्यक्ति को दे देंगे. ऐसा ही हुआ भी. कॉरपोरेट मामलों के मंत्रालय को वित्त मंत्रालय के साथ मिला दिया गया. इसी तरह विदेश मामले और प्रवासी भारतीय मंत्रालय को भी मिलाकर इसका जिम्मा सुषमा स्वराज को दिया गया. वेंकैय्यानायडू को शहरी विकास और आवास एवं गरीबी उन्मूलन मंत्रालय मिले जबकि गोपीनाथ मुंडे को ग्रामीण विकास, पंचायती राज, पेयजल और सफाई. सड़क परिवहन और राजमार्ग मंत्रालय को मिलाकर इनकी जिम्मेदारी नितिन गडकरी को दी गई. पीयुष गोयल को ऊर्जा, कोयला और गैरपारंपरिक ऊर्जा स्रोतों के मंत्रालय का जिम्मा मिला. इससे उम्मीद जग रही है कि पिछली सरकार की तरह अलग-अलग मंत्रालयों के बीच टकराव देखने को नहीं मिलेगा. ऐसी कोशिशें पहले भी हुई थीं. मसलन 80 के दशक में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने शिक्षा, युवा मामले और खेल मंत्रालयों को मिलाकर मानव संसाधन मंत्रालय बना दिया था. गठबंधन सरकारों के आने के बाद मंत्रालयों को तोड़कर नए-नए मंत्रालय बनाने का काम हुआ, क्योंकि प्रधानमंत्री को सहयोगी पार्टियों को उनकी ताकत के हिसाब से मंत्रिपद देकर संतुष्ट करना होता था. इसका नुकसान यह होता है कि कई मंत्रियों का अलग-अलग रुख व्यापक तरीके से कोई फैसला लेने में आड़े आने लगता है. जैसे ऊर्जा से संबंधित अलग-अलग मंत्रालयों के होने से एक व्यापक ऊर्जा नीति बनने में दिक्कत होती है,  क्योंकि अलग-अलग मंत्री और उनके विभाग अपने-अपने अधिकार क्षेत्र को बचाए रखने के लिए टकराने लगते हैं और बात आखिर में प्रधानमंत्री के पास जाती है. यानी जो मामला एक मंत्रालय के स्तर पर हल हो सकता था, वह प्रधानमंत्री के स्तर पर जाता है और वहां प्रधानमंत्री को तमाम मंत्रियों के अहम की संतुष्टि करनी होती है. उम्मीद की जा रही है कि अब यह स्थिति बदलेगी.

हालांकि मंत्रालयों के मेल का यह खेल आलोचना का भी शिकार हुआ. वित्त और रक्षा मंत्रालय या सूचना एवं प्रसार और पर्यावरण मंत्रालय एक ही व्यक्ति को देना कइयों के पल्ले नहीं पड़ा. हो सकता है और जैसा कि जेटली ने भी 27 मई को कहा कि मोदी अब भी अपने हिसाब के रक्षामंत्री के नाम पर विचार कर रहे हों. लेकिन कई लोगों का मानना है कि पर्यावरण मंत्रालय शिव सेना के सुरेश प्रभु या भाजपा की ही मेनका गांधी को दिया जा सकता था जो अतीत में भी इन मंत्रालयों की जिम्मेदारी संभाल चुके हैं.

इसका एक मतलब यह हो सकता है कि मोदी, इन मंत्रालयों पर भी अप्रत्यक्ष रूप से अपना नियंत्रण रखना चाहते हैं. एक पूर्णकालिक रक्षा मंत्री का मतलब होता कि सुषमा की तरह एक और असंतुष्ट को कैबिनेट के शीर्ष में लाना. अपने विश्वासपात्र जेटली के जरिये मोदी रक्षा मंत्रालय को तब तक अप्रत्यक्ष रूप से खुद चला सकते हैं जब तक उन्हें अपने हिसाब का कोई विकल्प नहीं मिलता.

पर्यावरण मंत्रालय के मामले में तो यह बात और भी साफ दिखती है. निवेश की उम्मीद कर रहे उद्योग जगत को मोदी से बहुत उम्मीदें हैं. उसे आशा है कि मोदी पर्यावरण मंजूरी की प्रक्रिया को तेज करेंगे और सात अरब डॉलर से भी ज्यादा लागत की लंबित परियोजनाओं की राह सुगम करेंगे. इस मोर्चे पर अच्छा प्रदर्शन करने के लिए नई सरकार को पर्यावरण से जुड़ी कई कानूनी अड़चनों से पार पाना होगा जिसके लिए प्रधानमंत्री कार्यालय इस मंत्रालय पर अपना नियंत्रण चाहता है. मंत्रालय का पदभार संभालने के बाद प्रकाश जावड़ेकर ने कहा भी कि विकास और पर्यावरण संरक्षण में कोई विरोधाभास नहीं है.

हालांकि इतने से ही बात नहीं बनने वाली. सरकार में आदिवासी मामलों का मंत्रालय भी है जिसकी कमान जुआल ओराम के हाथ में है. इस मंत्रालय को वाजपेयी सरकार ने बनाया था और ओराम 1999 से लेकर 2004 तक इसकी जिम्मेदारी भी संभाल चुके हैं. उनकी पहचान अपने निर्वाचन क्षेत्र सुंदरगढ़ में पॉस्को के प्रस्तावित खनन का विरोध करने वाले आदिवासी नेता की रही है. उनका बयान भी आया है कि खनन की इजाजत तभी मिलनी चाहिए जब यह आदिवासियों के हित में हो. लेकिन यह देखना दिलचस्प होगा कि यह फैसला वे करते हैं कि प्रधानमंत्री कार्यालय.

मोदी ने कम-से-कम गवर्नमेंट और ज्यादा-से-ज्यादा गवर्नेंस का नारा दिया है. यह आखिरकार इस पर निर्भर करेगा कि कार्यक्षमता के लिए चर्चित मोदी खुद की इस क्षमता को कितना बढ़ा पाते हैं. मोदी के बारे में कहा जाता है कि वे दिन में 18 घंटे काम करते हैं. बहुत से लोगों का मानना है कि गुजरात का प्रशासन बड़ी हद तक उन्होंने अपने दम पर ही चलाया. लेकिन भारत गुजरात से बड़ा और कहीं ज्यादा विविधता और विषमता से भरा है. इसके लिए मोदी को विकेंद्रीकरण करना ही होगा. वे सब कुछ अपने या अपने एक दो मंत्रिमंडलीय सहयोगियों के हाथ में नहीं रख सकते. प्रशासकीय निर्णयों में भागीदारी बढ़ाने से उनकी राह तो आसान होगी ही, यह धारणा भी गलत साबित होगी कि उनका रवैय्या किसी तानाशाह सा है.

क्या गांधी परिवार के बिना कांग्रेस का कोई वजूद संभव है?

फोटोः शैलेन्द्र पाण्डेय

बीते लोकसभा चुनाव की बात है. प्रचार के लिए कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी गुजरात के दाहोद लोकसभा क्षेत्र में पहुंचे थे. देवगढ़ बरिया नाम की एक जगह पर उनकी रैली थी. आयोजन शुरू हुआ. राहुल गांधी मंच पर बैठे थे. इससे थोड़ी ही दूर एक महिला एसपीजी से गुहार लगा रही थी कि उसे मंच पर जाने दिया जाए. वह सुरक्षाकर्मियों को बता रही थी कि उसका नाम  डॉ. प्रभा किशोर ताविआड़ है और वह दाहोद से कांग्रेस की लोकसभा प्रत्याशी है जिसके पक्ष में राहुल चुनाव प्रचार करने आए हैं. लेकिन एसपीजी ने महिला को मंच पर जाने नहीं दिया. रैली खत्म हुई. उसके बाद जब राहुल गांधी अपने हेलिकॉप्टर की तरफ बढ़ रहे थे तो प्रभा राहुल से मिलने के लिए दौड़ती हुईं उनकी ओर बढ़ीं. वे राहुल तक पहुंचतीं तब तक राहुल अपने उड़नखटोले में बैठ गए. प्रभा न राहुल से मिल पाईं और न राहुल यह जान पाए कि वे यहां दाहोद में किस प्रत्याशी के चुनाव प्रचार में आए थे.

यह एक छोटा-सा उदाहरण है, जो कांग्रेस पार्टी और राहुल गांधी के बारे में बहुत कुछ बताता है. इससे पता चलता है कि कैसे लोकसभा चुनाव में जनता ने कांग्रेस को जो फैसला सुनाया है, वह उसकी सच्ची हकदार थी.

कांग्रेस के राजनीतिक इतिहास की यह सबसे बड़ी हार है. 12 राज्यों में उसका खाता तक नहीं खुला. उसके 16 में से 13 कैबिनेट मंत्री चुनाव हार गए. किसी भी राज्य में पार्टी दहाई का आंकड़ा नहीं छू पाई. इस बार का 19.3 फीसदी उसे अब तक मिला सबसे कम मत प्रतिशत है. 1999 में 114 सीटों के साथ अपना तब तक का सबसे खराब प्रदर्शन करने वाली पार्टी इस बार 44 सीटों पर सिमट गई.

चुनाव परिणाम आने के बाद से ही कांग्रेस पार्टी के भीतर घमासान मचा हुआ है. हर नेता के पास पार्टी की हार का अपना ‘सॉलिड’ कारण मौजूद है. हार के कारणों के लिए शुरू हुए निर्मम पोस्टमॉर्टम से गांधी परिवार भी बच नहीं पाया है. पार्टी के भीतर ही तमाम ऐसे लोग हैं जो गंभीरता के साथ कहते हैं कि इस बार की हार पहले गांधी परिवार की हार है, फिर पार्टी की. हार के लिए परिवार को जिम्मेदार मानने वालों का तर्क है कि पार्टी और सरकार, दोनों की कमान परिवार के हाथ में ही थी, उन छिटपुट मौकों के अलावा जब मनमोहन सिंह ने यह जताने की कोशिश की कि इस देश में प्रधानमंत्री है और वह 10 जनपथ के रिमोट से संचालित नहीं होता. यानी कुछेक अपवादों के इतर सरकार की पिछले 10 सालों की छवि ऐसी ही रही है कि वह गांधी परिवार की इच्छाओं से संचालित होती है. लोकसभा चुनाव प्रचार की कमान पूरी तरह से परिवार के हाथ में ही रही. प्रचार के दौरान जो भी पोस्टर लगे उसमें राहुल ही यह कहते दिखाई दिए कि ‘मैं नहीं हम’, लेकिन पोस्टर का भाव मैं और सिर्फ मैं वाला ही था. जिस सरकार के काम पर जनादेश मांगने कांग्रेस पार्टी चुनावों में जा रही थी उस सरकार के किसी भी मंत्री की तस्वीर चुनावी इश्तहारों में नहीं थी. सबकुछ राहुलमय ही था. जो प्रधानमंत्री पिछले 10 सालों से शासन कर रहा था उसने इस चुनाव में कहां-कहां प्रचार किया, यह पता करने के लिए पहले माथा खपाना पड़ेगा और उसके बाद रैलियों और सभाओं की संख्याओं को उंगलियों पर गिना जा सकेगा.

तो ऐसी स्थिति में जो चुनाव परिणाम आया है उसे अगर पार्टी के भीतर लोग तेरा तुझको अर्पण की तर्ज पर गांधी परिवार को समर्पित कर रहे हैं तो इसमें कुछ गलत दिखाई नहीं देता. लोकसभा चुनाव में करारी शिकस्त मिलने के बाद पार्टी नेतृत्व पर सवाल उठाने वाली ताकतों ने भी तेजी से सर उठाया है. इसे साहस कहें या बहुत लंबे समय से मन में पल रहा गुस्सा कि पार्टी के नेता यह बताने लगे हैं कि कमी कहां रह गई, किसने गलती की आदि. मिलिंद देवड़ा ने राहुल के सलाहकारों पर प्रश्न उठाकर एक तरह से राहुल पर ही सवाल खड़ा कर दिया तो दूसरी तरफ प्रिया दत्त ने भी पार्टी के प्रचार अभियान में नुक्स निकालने में कमी नहीं रखी. असम में पार्टी की करारी हार के बाद तरूण गोगोई ने सोनिया गांधी को इस्तीफा सौंपा जिसे सोनिया ने खारिज कर दिया. सोनिया के इस्तीफा खारिज करने संबंधी निर्णय का असम में पार्टी के कई विधायकों ने सरेआम विरोध किया. चुनाव के बाद से शायद ही कोई दिन ऐसा गुजरा हो जिस दिन कांग्रेस के किसी नेता ने सार्वजनिक रूप से पार्टी की चुनावी रणनीति की आलोचना न की हो.

इसी से कुछ स्वाभाविक सवाल पैदा होते हैं. जब परिवार के कारण पार्टी की यह फजीहत हुई है तो फिर हार का ठीकरा परिवार के सिर क्यों न फोड़ा जाए? अगर पार्टी को इस चुनावी त्रासदी तक परिवार ने पहुंचाया है तो फिर पार्टी परिवार से खुद को अलग क्यों न कर ले? क्यों न वह एक ऐसी पार्टी बन जाए जो गांधी परिवार के रिमोट से संचालित नहीं होती?  क्या समय आ गया है जब पार्टी को परिवार से कह देना चाहिए कि अब बस, वह किसी गांधी के इशारे पर नहीं चलेगी? लोकतंत्र में नेता वही होता है जिसके साथ जनता हो. चुनाव नतीजों ने साफ किया है कि जनता कांग्रेस नेतृत्व के साथ नहीं है. तो क्या अब नेतृत्व के लिए कांग्रेस गांधी परिवार से बाहर देखने की कोशिश या हिम्मत करेगी?

साभार फोटोः आइएएनएस
साभार फोटोः आइएएनएस

इन सारे सवालों का जवाब एक सवाल में ही छिपा है. सवाल यह कि क्या गांधी परिवार से अलग कांग्रेस पार्टी का का कोई वजूद संभव है?

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक अजय बोस इससे इनकार करते हैं. वे कहते हैं, ‘कांग्रेस पार्टी गांधी परिवार की घरेलू कंपनी की तरह है. यह इंदिरा गांधी वाली कांग्रेस पार्टी है. परिवार के बिना कांग्रेस का अपना कोई अस्तित्व नहीं बचेगा. अगर कभी गांधी परिवार पार्टी से दूर हुआ तो पार्टी बचेगी ही नहीं. सारे नेता एक दूसरे से लड़कर खत्म हो जाएंगे.’  अपनी बात को विस्तार देते हुए बोस वर्तमान कांग्रेस की तुलना कुछ अन्य पार्टियों से करते हुए कहते हैं, ‘ वर्तमान कांग्रेस सपा, डीएमके और टीएमसी जैसी पार्टियों की तरह ही है जिनका अपने सुप्रीमो के इतर कोई अस्तित्व नहीं है. पार्टी एक पल के लिए परिवार से बाहर नहीं सोच सकती.’

जानकारों का मानना है कि आज कांग्रेस पार्टी का जो ढांचा है उसे देखते हुए पार्टी को परिवार से अलग करना असंभव है. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘पार्टी से अगर आप सोनिया जी, राहुल जी को अलग करेंगे तो फिर उसके पास बचेगा क्या. वह बिखर जाएगी. यह प्रयोग पहले हो चुका है जब 1996 और 1998 के बीच पार्टी ने दो अध्यक्षों को हड़बड़ी में बदल दिया. उसका क्या नतीजा निकला सभी को पता है. पार्टी के लिए परिवार ऑक्सीजन की तरह है. ’

‘पार्टी अपने अस्तित्व के लिए परिवार पर निर्भर है. तो दूसरी तरफ परिवार भी अपने अस्तित्व के लिए पार्टी पर आश्रित है. साथ रहना दोनों की मजबूरी है’

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘अब पार्टी से परिवार या परिवार से पार्टी के अलग होने की संभावना नहीं है. एक दौर में परिवार पार्टी से अलग हो चुका है. सीताराम केसरी के उस दौर में पार्टी खत्म होने की स्थिति में आ गई थी.’ राजनीतिक टिप्पणीकार नीरजा चौधरी गिरिजाशंकर की बात को आगे बढ़ाते हुए कहती हैं, ‘परिवार के हटते ही पार्टी अनगिनत गुटों में बंट जाएगी. पार्टी के लिए परिवार का सबसे बड़ा महत्व यह है कि उसने उसे इकट्ठा रखा है.’ कांग्रेस पार्टी को बेहद करीब से जानने वाले राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई पार्टी और परिवार के संबंधों की चर्चा करते हुए कहते हैं, ‘पार्टी नीचे से लेकर ऊपर तक पूरी तरह से परिवार पर आश्रित है. यह संबंध दोतरफा है. पार्टी अपने अस्तित्व के लिए परिवार पर निर्भर है तो दूसरी तरफ परिवार भी अपने अस्तित्व के लिए पार्टी पर आश्रित है. साथ रहना दोनों की मजबूरी है.’

कांग्रेस का इतिहास बताता है कि जब कभी वह कमजोर हुई, उसके नेताओं ने उसका साथ छोड़ने में देर नहीं की. 1988 में लोकसभा चुनावों से ठीक पहले वीपी सिंह पार्टी से बाहर निकल गए और उन्होंने जनता दल का गठन किया. 1991 से 96 के बीच जब नरसिम्हा राव कांग्रेस सरकार के मुखिया थे तो अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी, माधवराव सिंधिया, चिदंबरम और ममता बनर्जी ने पार्टी से बाहर निकलकर अपनी अलग राजनीति की शुरुआत की. 1998 में सोनिया गांधी के अध्यक्ष पद संभालने के बाद 1999 में उनके विदेशी मूल के मुद्दे को लेकर शरद पवार, तारिक अनवर और पीए संगमा जैसे नेताओं ने पार्टी से बाहर निकलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया. पार्टी पर नजर रखने वाले इस बात की संभावना जरूर जताते हैं कि आने वाले समय में कुछ लोग कांग्रेस का दामन छोड़ सकते हैं. लेकिन पार्टी में अब ऐसे कद्दावर नेता न के बराबर बचे हैं जो बाहर निकलकर अपनी अलग राजनीतिक शुरुआत कर सकें. ऐसे में ये नेता दूसरे दलों का रुख जरूर कर सकते हैं.

सोनिया गांधी ने अपने बाद राहुल गांधी के लिए नेतृत्व का रास्ता तैयार करने की कोशिश की, लेकिन राहुल राजनीति में पूरी तरह से नाकामयाब होते दिखते हैं

पार्टी के नेता पार्टी के लिए परिवार के महत्व की चर्चा करते हुए कहते हैं कि जब-जब कांग्रेस परिवार से दूर हुई है, वह खत्म होने के करीब होती गई है. वे उदाहरण देते हैं कि कैसे सीताराम केसरी के जमाने में पार्टी बिखराव की स्थिति में पहुंच गई थी और कैसे सोनिया ने आकर पार्टी को संभाला था. नहीं तो पार्टी खत्म हो गई होती. खैर, इस तरह पार्टी और परिवार के संबंधों पर पार्टी के अंदर और बाहर लोगों से चर्चा करने पर यह बात निकल कर आती है कि कैसे परिवार के साथ बने रहना ही कांग्रेस के हित में है. तो सवाल उठता है कि जब पार्टी के पास परिवार से दूर जाने का कोई विकल्प नहीं है तो फिर भविष्य में खुद को स्थापित करने के लिए उसके पास विकल्प क्या बचता है.

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि यही कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है. हार तो अस्थाई है, लेकिन पार्टी के सामने नेतृत्व की जो समस्या खड़ी है उसे उसका कोई स्थायी समाधान दिखाई नहीं देता. दिक्कत इसलिए भी है क्योंकि कांग्रेस का नेतृत्व गांधी परिवार के दायरे में ही निर्धारित होना है.

यह प्रश्न गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि सोनिया गांधी ने अपने बाद राहुल गांधी के लिए नेतृत्व का रास्ता तैयार करने की कोशिश की, लेकिन वे चुनावी राजनीति में पूरी तरह से नाकामयाब होते दिखाई देते हैं. हाल के लोकसभा चुनाव परिणामों के अलावा पूर्व में कई राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में हुई पार्टी की हार ने राहुल के नेतृत्व और उनकी क्षमताओं पर गंभीर प्रश्न खड़ा किया है. राहुल के बारे में कहा जाने लगा है कि उन्हें राजनीति में रुचि नहीं है. वे एक अनिच्छुक राजनेता हैं. नीरजा कहती हैं, ‘राहुल के राजनीतिक करियर को देखने से पता चलता है जैसे उनसे कोई जबर्दस्ती राजनीति करा रहा है. वे बेमन से काम करते हुए दिखाई देते हैं.’

बीते चुनाव में ही राहुल की सक्रियता को लेकर तमाम सवाल उठाए गए. पार्टी के अंदर के नेताओं का यह कहना था कि उन्हें खुद नहीं पता होता था कि राहुल कब देश में हंै और कब विदेश में. चुनाव प्रचार के दौरान भी उनकी विदेश यात्राएं जारी रहीं. राहुल के संसदीय रिकॉर्ड पर नजर डालें तो पता चलता है कि पिछली लोकसभा में सदन में उनकी उपस्थिति सांसदों के औसत 70 फीसदी की तुलना में 43 फीसदी थी. पूरे कार्यकाल में राहुल ने कोई प्रश्न नहीं पूछा था.

राहुल की सीमाओं की चर्चा करते हुए रशीद कहते हैं, ‘राहुल को उपाध्यक्ष बनाकर और अपने बाद पार्टी की बागडोर संभालने वाले का संदेश देकर सोनिया गांधी ने भी गलती की. राहुल क्या हैं? उनकी क्षमताएं क्या हैं ? यह किसी को पता नहीं था. सोनिया को उन्हें यूपीए 2 में मंत्री बनाना चाहिए था. लेकिन दिक्कत यह रही कि पार्टी में सत्ता को लेकर सभी सोनिया की तरह ही त्यागी हो गए. जिम्मेदारी के बगैर सत्ता का स्वाद चखने की बीमारी फैल गई. 2009 में खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राहुल को मंत्री बनाने का प्रस्ताव दिया था जिसे राहुल ने नकार दिया.’

पार्टी के एक राज्य सभा सदस्य कहते हैं, ‘ मंत्री बनकर  अगर राहुल ने प्रशासनिक और नेतृत्व क्षमता हासिल कर ली होती और तब वे कुछ कहते तो लोगों को उनकी बातों पर भरोसा होता. लेकिन वे एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाई दिए जिसका अनुभव धेले के बराबर नहीं है, लेकिन बातें वह बड़ी-बड़ी करता है’.

ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी में कई नेता हैं जो कुछ यही बात कहते हैं. उत्तर प्रदेश के हरदोई में पार्टी के शहर अध्यक्ष शशिभूषण शुक्ला उर्फ शोले कहते हैं, ‘दिक्क्त अब यह है कि कि पार्टी कार्यकर्ता भी राहुल जी को परिपक्व नहीं मानता. पार्टी में सक्रिय होने के बाद से उन्होंने जो भी फैसले लिए हैं उनमें से किसी एक भी फैसले से पार्टी का भला नहीं हुआ. एनएसयूआई और यूथ कांग्रेस में उन्होंने ऐसा परिवर्तन किया कि दोनों संगठन अखाड़ा बन गए. लोग वहां एक दूसरे से सिरफुटौव्वल कर रहे हैं.’ मई, 2011 में भट्टा परसौल में किसान आंदोलन, 2012 के यूपी विधानसभा चुनावों में सक्रियता के साथ प्रचार, दलितों के घर खाना खाने जाना, ओडिशा के नियामगिरी में जाकर आदिवासियों से यह कहना कि मैं आपका सिपाही हूं, ये कुछ ऐसे गिने चुने तारे हैं जिनसे राहुल के 10 साल के राजनीतिक करियर का अंधकार में डूबा आकाश कुछ चमक देख पाता है. यह भी उल्लेखनीय है कि भले ही 10 साल के अपने कार्यकाल में राहुल कुछ उल्लेखनीय न कर पाए हों लेकिन पार्टी में उनका कद बढ़ता चला गया.

‘राहुल को नुकसान पहुंचाने में प्रियंका की भी भूमिका रही है. बाहर आकर प्रियंका ने अपने भाई को मजबूत करने की जगह और कमजोर किया है’

हालांकि पार्टी के कुछ नेता याद दिलाते हैं कि पिछले लोकसभा चुनाव में उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जो 21 सीटें मिलीं थीं उसमें राहुल गांधी का भी बड़ा योगदान है. उत्तर प्रदेश में पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष निर्मल खत्री कहते हैं, ‘राहुल के बारे में बात करते समय लोग इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उन्होंने यूपी के चुनावों में कितना पसीना बहाया. कितनी कड़ी मेहनत की थी. परिणाम उसके अनुरूप नहीं आए, लेकिन आप उनकी मेहनत पर प्रश्न नहीं उठा सकते’

कुछ समय पहले दिल्ली के तालकटोरा स्टेडियम में कांग्रेस का एक सम्मेलन था. उसमें राहुल गांधी के भाषण की काफी चर्चा हुई थी. लेकिन राहुल अपने बारे मंे उस तरह की चर्चा को आगे नहीं बढ़ा सके. हां, वे अपने अजीबोगरीब बयानों के कारण जरूर चर्चा में रहे. चाहे गरीबी को मानसिक अवस्था बताने वाली बात हो या फिर यूपी चुनावों में सैम पित्रौदा को बढ़ई बताने वाला बयान हो या भारत को मधुमक्खी का छत्ता बताने संबंधी उनका कथन, उनकी ज्यादातर बातों पर विरोधी चुटकी लेते देखे गए.

राहुल की सीमाओं की चर्चा करते हुए बोस कहते हैं, ‘राहुल की सबसे बड़ी दिक्कत यह रही है कि उनकी राजनीतिक शुरुआत ही पार्टी के सत्ता में रहने के दौर में हुई. दूसरी बात यह कि वे लगातार सत्ता में रहे, लेकिन हमेशा कहते रहे कि पूरी व्यवस्था खराब है, सब बदलना होगा जबकि उनकी अपनी पार्टी की सरकार थी. बहुत से ऐसे मौके आए जब वे आम जनता और युवाओं से जुड़ सकते थे, लेकिन वे पीछे रहे. जैसे अन्ना आंदोलन और निर्भया बलात्कार प्रकरण के समय जब युवा सड़कों पर थे तो राहुल गांधी कहीं दिखाई नहीं दिए. निर्भया के समय यह नारा भी चला था कि सारे युवा यहां हैं, राहुल गांधी कहां है.’ कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता कहते हैं, ‘आम कांग्रेसी राहुल के नेतृत्व में भरोसा खो चुका है. लेकिन सोनिया जी अगर पुत्रमोह में उन्हें मौका देना चाहती हैं तो फिर कांग्रेस का भगवान ही मालिक है.  राहुल ईमानदार हैं. उनकी स्वच्छ छवि है, लेकिन बुद्धि, विवेक और नेतृत्व क्षमता भी तो कोई चीज होती है. इसके बिना आदमी घर का नेतृत्व नहीं कर सकता देश का क्या करेगा. स्थिति यह है कि फोर्ब्स पत्रिका ने लिखा है कि राहुल गांधी भारत के पूर्व भविष्य के प्रधानमंत्री हैं.’

हालांकि गिरिजाशंकर राहुल गांधी को खारिज करने की सोच पर प्रश्न उठाते हैं. वे कहते हैं, ‘राहुल को कांग्रेस ने आधे अधूरे मन से आगे किया. पार्टी ने खुद भ्रम की स्थिति पैदा की. जनता भी इससे भ्रमित हुई.’ वे भाजपा का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘मान लीजिए भाजपा ने मोदी को चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर छोड़ दिया होता तो क्या वे उतना ही असर डालते जितना उन्होंने पीएम प्रत्याशी बनने के बाद डाला. जनता को पता था कि वह किसे किस पद के लिए चुन रही है. लेकिन इधर राहुल को प्रचार समिति का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने छोड़ दिया. पार्टी खुद अनिर्णय की स्थिति में थी कि राहुल को पीएम पद के लिए प्रोजेक्ट करे या नहीं. राहुल पर खुद उसे ही भरोसा नहीं था तो फिर वह जनता से कैसे निर्णय की उम्मीद कर सकती थी. राहुल पर फैसला तब दिया जा सकता था जब राहुल के नाम पर चुनाव लड़ा गया होता ’

कांग्रेस के भीतर ही राहुल की कोर टीम को लेकर किस तरह का गुस्सा उबल रहा था यह चुनाव के बाद नेताओं के बयानों से सामने आ गया. इन नेताओं के बयानों को अगर ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि उनकी नाराजगी का असली निशाना राहुल गांधी ही हैं. मिलिंद ने कहा कि सलाह देने वाले पार्टी की बुरी गत के लिए जिम्मेदार हैं ही, साथ में वे भी उतना ही इस हार के लिए जिम्मेदार हैं जो इनसे सलाह ले रहे थे.’ पार्टी के तमाम नेता आज पार्टी के उन तमाम गैरराजनीतिक लोगों को कोस रहे हैं जो राहुल गांधी को सलाह देने का काम किया करते थे.  कार्यकर्ता राहुल और उनकी टीम को कैसे देखता है उसकी एक बानगी देखिए, शशिभूषण कहते हैं, ‘राहुल जी को जनता अपरिपक्व मानती है. उनके सलाहकार भी वैसे ही हैं. जिन लोगों को राजनीतिक का क, ख, ग, घ नहीं आता उन्होंने फैसला लेना शुरु कर दिया. ’ पार्टी के एक वरिष्ठ नेता राहुल गांधी पर चुटकी लेते हुए कहते हैं, ‘पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों के परिणाम सामने आने के बाद राहुल ने कहा था कि वे पार्टी को कुछ ऐसे बदलेंगे कि जिसकी आप कल्पना भी नहीं कर सकते. उन्होंने लोकसभा में यह करके दिखा दिया.’

रशीद कहते हैं, ‘दिक्कत यह भी रही कि राहुल जयराम रमेश और अपनी टीम के साथ मिलकर चुनाव लड़ने और जीतने की जगह संस्थाएं मजबूत करने के कार्य में लग गए थे. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘राहुल जी एक्सपेरिमेंट करने लगे. वे ऐसे सलाहकारों से घिर गए जिनका जमीनी राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं था. मोहन गोपाल, जयराम रमेश, मधुसूदन मिस्त्री, कनिष्क सिंह, दीप पॉल जैसे लोगों ने उन्हें गुमराह करने का काम किया. राहुल को हरा चश्मा पहनाकर वे कहते रहे कि देखिए, चारों तरफ हरा ही हरा है. जिस प्राइमरी चुनाव की शुरुआत राहुल ने की उसके माध्यम से चुने गए सारे प्रत्याशी चुनाव हार गए. स्थिति यह थी कि पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को राहुल से मिलने के लिए टीम के नए लड़कों से समय लेना पड़ता था. उन्होंने पार्टी को एक ट्रेनिंग ग्राउंड बना दिया.’

राहुल पर कांग्रेस के नेता ही कथनी और करनी में भेद करने का आरोप लगाते हैं. पार्टी के एक पूर्व सांसद कहते हैं, ‘आप राहुल जी के कामों को ध्यान से देखेंगे तो आपको कथनी और करनी का भेद पता चल जाएगा. जैसे पहले उन्होंने कहा कि दूसरी पार्टी से आने वालों को कांग्रेसी कार्यकर्ताओं पर तवज्जो नहीं दी जाएगी.  लेकिन छत्तीसगढ़ में चुनाव से 10 दिन पहले पार्टी में आई करुणा शुक्ला को पार्टी ने टिकट दे दिया. मध्य प्रदेश में भाजपा मंत्री विजय शाह के भाई अजय शाह प्रत्याशी नामित होने के बाद पार्टी में आए. राहुल ने भ्रष्ट नेताओं को बचाने वाला अध्यादेश फाड़कर पहले प्रधानमंत्री को अपमानित किया और फिर लालू प्रसाद यादव से हाथ मिला लिया. भ्रष्टों का विरोध करते रहे लेकिन अशोक च्वहाण को टिकट देने से नहीं चूके.’

रशीद कहते हैं, ‘स्थिति यह हो गई कि पार्टी बीच में कहीं फंसी दिखाई देने लगी. न राहुल के कारण पार्टी में कोई बदलाव आया. न कोई नयापन महसूस हुआ और न ही पार्टी पारंपरिक राजनीति के रास्ते पर ही आगे बढ़ सकी.’ जानकार बताते हैं कि नेतृत्व के दो केंद्रों के कारण भी पार्टी का कबाड़ा हुआ. एक तरफ सोनिया गांधी की कांग्रेस थी तो दूसरी तरफ हर चीज में बदलाव को आतुर राहुल गांधी थे.

‘न राहुल के कारण पार्टी में कोई बदलाव आया. न कोई नयापन महसूस हुआ और न ही पार्टी पारंपरिक राजनीति के रास्ते पर ही आगे बढ़ सकी’

रशीद कहते हैं, ‘सोनिया कांग्रेस और राहुल कांग्रेस के बीच का अंतर ही वर्तमान में कांग्रेस की असल समस्या है. दोनों के काम करने में बहुत अंतर है. दोनों समूहों में रस्साकशी जारी है. उन्हें तय करना होगा कि आगे की राह सोनिया कांग्रेस के नेतृत्व में तय करनी है या राहुल कांग्रेस के. दोनों मां-बेटे के बीच वैसे तो सब ठीक है लेकिन दोनों के बीच कार्यात्मक संबंध ठीक नहीं है. ठीक ऐसा ही यूपी में अखिलेश यादव और मुलायम सिंह यादव और पंजाब में बड़े बादल और छोटे बादल के बीच है.’ पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘राहुल जी को सोनिया जी से राजनीति सीखनी होगी. वे कोई भी निर्णय लेने से पहले पार्टी के सभी बुजुर्ग से लेकर युवा नेताओं तक का ख्याल रखती थीं. यह नहीं कि आप सीनियर हैं तो अब आपकी पार्टी में कोई जरूरत नहीं है. खाली युवा जोश से कुछ नहीं होगा. होश भी चाहिए तभी काम बनेगा.’

कांग्रेस की आंतरिक राजनीति को करीब से जानने वाले बताते हैं कि कैसे जबसे राहुल गांधी ने पार्टी में आमूलचूल बदलाव लाने संबंधी अपने प्रयोग शुरु किए तभी से वे पार्टी के पुराने नेताओं के निशाने पर हैं. यूथ कांग्रेस के एक नेता कहते हैं, ‘पुराने नेताओं के भीतर राहुल जी के प्रयोग से हमेशा डर समाया रहता है. उन्हें लगता है कि यह आदमी कोई ऐसा प्रयोग न कर दे कि वही लोग बाहर हो जाएं.’ गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘राहुल पार्टी में सालों से बने यथास्थितिवाद को बदलना चाहते हैं. यही कारण है कि पुराने नेता उनसे खार खाए बैठे हैं.’

जानकारों का एक वर्ग मानता है कि राहुल के खिलाफ कुछ उसी तरह का सिंडिकेट काम कर रहा है जो इंदिरा गांधी के समय में उनके खिलाफ पार्टी में रहते हुए षड़यंत्र रचता था. यह तबका नहीं चाहता कि राहुल सफल हों. लेकिन वे सिंडिकेट है कौन?  गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘यह सिंडिकेट वही हैं जो सोनिया के साथ वाले हैं. सोनिया यथास्थितिवाद को बदलना नहीं चाहती हैं इसलिए वे इनसे खुश हंै लेकिन राहुल से असहज हैं.’

priyanka-gandhi

तो सवाल उठता है कि अगर राहुल गांधी का नेतृत्व पार्टी को कहीं आगे ले जाता नहीं दिखता तो फिर पार्टी के पास विकल्प क्या बचता है?

पिछले कुछ सालों में जितनी तेजी से राहुल गांधी की सीमाएं सामने आती गई हैं उतनी ही तेजी से पार्टी और कार्यकर्ताओं के एक धड़े के बीच से प्रियंका गांधी का नाम उछलता रहा है. अपनी राजनीति को भाई और मां की लोकसभा सीटों तक सीमित रखने वाली प्रियंका को पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी देने की मांग बहुत पहले से उठ रही है. हाल ही में पूर्व मंत्री और वरिष्ठ नेता केवी थॉमस ने प्रियंका को पार्टी में बड़ी भूमिका देने की वकालत की. बड़ी तादात में कांग्रेसियों का ऐसा मानना है कि पार्टी के पास अब आखिरी पत्ता प्रियंका गांधी ही हैं. ऐसे में अस्तित्व के संकट से गुजर रही पार्टी को संजीवनी देने के लिए सोनिया गांधी को प्रियंका को आगे लाना चाहिए. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘ पार्टी को स्पष्ट रूप से तय करना होगा कि उसका नेतृत्व कौन करेगा. सोनिया, राहुल और प्रियंका के कॉकटेल ने ही तो पार्टी का सारा खेल खराब किया है. राहुल को नुकसान पहुंचाने में प्रियंका की भी भूमिका रही है. बाहर आकर प्रियंका ने अपने भाई को मजबूत करने की जगह और कमजोर किया है.’

गिरिजाशंकर अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैंैं, ‘चुनाव में अगर पार्टी एक साथ कई चेहरों को लेकर उतरती है तो मामला प्रभावशील नहीं रह पाता. इस चुनाव में कांग्रेस ने यही किया है. एक तरफ उसने राहुल को उतारा तो दूसरी तरफ प्रियंका भी मोदी से दो-दो हाथ करने लगीं. पता चला कि कार्यकर्ता राहुल को छोड़कर चुनाव के बीच में प्रियंका को नेतृत्व सौंपने की मांग करने लगा. इस कारण से भी पार्टी की बुरी गत हुई.’ रशीद भी मानते हैं कि राहुल के रहते हुए अगर पार्टी ने प्रियंका को आगे किया तो पार्टी की समस्या और बढ़ेगी.  बकौल गिरिजाशंकर, ‘कांग्रेस का रिवाइवल परिवार के माध्यम से ही होगा. हां, उन्हें यह तय करना होगा कि उन तीनों में से पार्टी का नेतृत्व कौन करेगा.’

 ‘बिलकुल नहीं. किसी और को अगर आगे लाया गया तो पार्टी उसे स्वीकार नहीं करेगी. राहुल गांधी पहले विकल्प हैं और प्रियंका गांधी आखिरी’

एक तरफ जहां प्रियंका को जिम्मेदारी देने की बात की जा रही है वहीं यह तथ्य भी रेखांकित करना जरूरी है कि जिन प्रियंका से पार्टी के दुर्दिनों को दूर करने की उम्मीद की जा रही है उन्हीं प्रियंका के रायबरेली और अमेठी की सीटों पर किए गए आक्रामक चुनाव प्रचार के बावजूद दोनों सीटों पर 2009 के मुकाबले कांग्रेस की जीत का अंतर इस बार काफी घटा है. अमेठी में तो राहुल की जीत का अंतर पिछली बार के तीन लाख वोटों के आंकड़े से गिरकर एक लाख पर आ गया. जानकार मानते हैं कि यह सही है कि प्रियंका राहुल की तुलना में न सिर्फ एक अच्छी वक्ता हैं बल्कि लोगों से जुड़ते हुए भी दिखाई देती हैं, लेकिन वे कितनी अच्छी नेता हैं इसकी परीक्षा होना अभी बाकी है.

लेकिन क्या पार्टी का नेतृत्व गांधी परिवार के बाहर किसी और के संभालने की संभावना है ? नीरजा कहती हैं, ‘बिलकुल नहीं. किसी और को अगर आगे लाया गया तो पार्टी उसे स्वीकार नहीं करेगी. राहुल पहले विकल्प हैं और प्रियंका आखिरी.’

कांग्रेस के लिए चुनौती इसलिए भी और गंभीर हो जाती है कि देश में चुनावों की शैली कुछ वैसी ही होती जा रही है जैसी अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की होती है. यानी राष्ट्रीय स्तर पर आपको एक ऐसा नेता चाहिए जो आम जनता से जुड़ सके. अपनी बात लोगों तक पहुंचा सके. पूरी पार्टी का प्रतिनिधित्व कर सके. बोस कहते हैं, ‘पार्टी बहुत लंबे समय तक अनिश्चितता की स्थिति में नहीं रह सकती है. उसे चुनना होगा. राहुल या प्रियंका.’ वे एक और बात की तरफ इशारा करते हुए कहते हैं, ‘अगर पार्टी ने इन दोनों में से किसी को चुन भी लिया तब भी उसकी समस्या खत्म नहीं होगी क्योंकि चाहे राहुल हों या प्रियंका, दोनों ही फुल टाइम राजनेता नहीं हंै. उन्हें थोड़ा राजनीति करनी है, फिर विदेश भी घूमना है. परिवार को भी देखना है. और भी कई शौक हैं. ऐसे में वे कैसे मोदी जैसे राजनेता का मुकाबला कर पाएंगे जो 24 घंटे राजनीति में ही डूबा रहता है. इन दोनों को यह भी फैसला करना होगा कि क्या वे पूरी तरह से खुद को राजनीति में झोंकने के लिए तैयार हैं या नहीं.

कांग्रेस के सामने नेतृत्व के सवाल के साथ ही उसके संगठन के ढांचे के कमजोर होने का सवाल भी मुंह बाए खड़ा है. लोकसभा चुनाव में भयानक हार के बाद से ही पार्टी की सेहत सुधारने को लेकर पार्टी के अंदर से लेकर बाहर तक तमाम सुझाव सामने आने लगे हैं. पार्टी में सुधार के लिए जरूरी कदमों की मीडिया से चर्चा करते हुए मणिशंकर अय्यर कहते हैं, ‘पार्टी में सुधार के लिए हमें विशेष रूप से दो दस्तावेजों पर ध्यान देना सबसे जरूरी है. पहला- 1990 में पार्टी को लोकतांत्रिक बनाने के लिए उमाशंकर दीक्षित द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट जिसे उस साल पार्टी ने स्वीकार किया था. वह रिपोर्ट आज तक लागू नहीं हुई. उस रिपोर्ट को लागू करने की जरूरत है. दूसरा- 1999 में तैयार हुई आत्मनिरीक्षण संबंधी रिपोर्ट जिसे 2000 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी (सीडब्ल्यूसी) ने स्वीकार किया था. उसे भी आज तक लागू नहीं किया गया. उसके सुझावों को पार्टी में लागू करने की आवश्यकता है.’ सीडब्ल्यूसी में विशेष आमंत्रित सदस्य अनिल शास्त्री ने भी हाल ही में कहा कि पार्टी को ‘गंभीर आत्ममंथन की जरूरत है लेकिन निश्चित तौर पर पहले की तरह नहीं जिसमें आत्ममंथन से निकले सुझावों को कभी लागू नहीं किया गया.’

फोटोः विकास कुमार

कांग्रेस संगठन में सुधार के लिए तमाम नेता सबसे पहले सीडब्ल्यूसी में सुधार की जरूरत पर बल देते हैं. पार्टी के वरिष्ठ नेता और सांसद कमलनाथ ने भी हाल ही में सीडब्ल्यूसी में बड़ा परिवर्तन करने की वकालत की. सीडब्ल्यूसी पार्टी की सबसे शक्तिशाली इकाई है जहां से सारे बड़े निर्णय लिए जाते हैं. लेकिन उसके सदस्यों का एक तरफ सालों से चुनाव नहीं हुआ तो दूसरी तरफ वह पार्टी के राज्य सभा में नामित सदस्यों से भरी पड़ी है.

कमलनाथ के अनुसार कांग्रेस की स्थिति सुधारने के लिए सबसे पहले जरूरत है कि वर्किंग कमिटी का चुनाव किया जाए. वे कहते हैं, ‘पहले एक निर्वाचित वर्किंग कमिटी बनाई जानी चाहिए. लेकिन पार्टी में कई ऐसे नेता हंै जो इसका विरोध करते हैं. चुनाव होने लगे तो फिर ऐसे लोगों को संरक्षण मिलना बंद हो जाएगा. देश की राजनीति पिछले पांच सालों में काफी बदल चुकी है. कांग्रेस को भी बदली परिस्थिति में खुद को बदलना होगा. हमें पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र को और मजबूत करने की जरूरत है.’

पार्टी से जुड़े सूत्र बताते हैं कि संरक्षण की बीमारी ने ऊपर से लेकर नीचे तक पार्टी को जकड़ रखा है. अभी स्थिति यह है कि आप काबिल हों या न हों, मेहनती हों या नहीं, लेकिन अगर आपको चापलूसी आती है तो फिर आपको पार्टी में आगे बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता. शायद चापलूसी की उसी संस्कृति का उदाहरण था जब तत्कालीन विदेश मंत्री सलमान खुर्शीद ने सोनिया गांधी को पूरे देश की मां करार दे दिया. पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘आप वर्किंग कमिटी को देख लीजिए उसमें से कितने लोग चुनाव जीते हैं या जीतने का दम रखते हैं. 22 में से 10 सदस्य नॉमिनेटेड हैं. मोहन प्रकाश जैसे लोग जिनके पास चार से अधिक राज्यों का प्रभार रहा है वे देश की किसी भी सीट से चुनाव नहीं जीत सकते. राज्य के मुख्यमंत्री इसके मेंबर नहीं हंै. कमलनाथ नौ बार लोकसभा जीते हैं, लेकिन वे इसके सदस्य नहीं हैं. यह तमाशा नहीं तो और क्या है.’

हालांकि पार्टी में ही कमलनाथ से इत्तफाक न रखने वाले लोग भी हैं कांग्रेस वर्किंग कमिटी के सदस्य और वरिष्ठ नेता वीरेंद्र सिंह कहते हैं, ‘यह सुनने में जरूर अच्छा लग सकता है लेकिन क्या संरक्षण देने का काम कमलनाथ नहीं करते हैं? मैं जब मध्य प्रदेश का प्रभारी था तो उन्होंने खुद मुझसे लोगों को टिकट देने कि सिफारिश की थी. राजनीति में बिना संरक्षण के काम हो ही नहीं सकता. दिक्कत संरक्षण में नहीं है, दिक्कत इस बात से है कि जिसे आप संरक्षण देकर टिकट दिलवाते हो उसकी हार की जिम्मेदारी भी आपको लेनी होगी. हां, आंतरिक लोकतंत्र को मजबूत करने की बात सही है. सही को सही और गलत को गलत कहने का अधिकार कार्यकर्ताओं को मिलना चाहिए.’ वीरेंद्र आगे कहते हैं, ‘पार्टी में ऊपर से नीचे तक सर्जरी की जरूरत है. इस चुनाव में हमारा कार्यकर्ता निरुत्साहित था. पार्टी से आम जनता का जुड़ाव न के बराबर हो गया है. यह तो 130 साल पुरानी पार्टी है इसलिए बच गई वरना तो कब की खत्म हो गई होती.’

जिस कार्यकर्ता के निरुत्साहित होने की बात वीरेंद्र कह रहे हैं उस कार्यकर्ता की स्थिति यह हो गई थी कि वह अपनी सरकार के खिलाफ गुस्से से भरा बैठा था. शशिभूषण कहते हैं, ‘ हमारी अपनी सरकार में ही कार्यकर्ताओं की कोई सुनवाई नहीं थी. मंत्री लोग हम लोगों को नौकर की तरह ट्रीट करते थे. जब कार्यकर्ता ही सरकार से प्रसन्न नहीं था तो वह आम लोगों से आपकी तारीफ क्या करेगा?’

एक तरफ जहां पार्टी केंद्रीय संगठन को दुरुस्त करने पर चर्चा कर रही है वहीं पार्टी के भीतर से ही इस बात को लेकर आवाज उठनी शुरु हो गई है कि कैसे पार्टी ने अपने कर्मों से सभी राज्यों में अपने संगठन को मरणासन्न अवस्था में पहुंचा दिया है. कांग्रेस पर हमेशा यह आरोप लगता रहा है कि वह पिछले कई दशकों से राज्य में मजबूत नेतृत्व उभरने से रोकती आई है. इस सोच के साथ कि भविष्य में राज्यों में मजबूती से उभरता कोई नेता उसे चुनौती न दे सके. इंदिरा गांधी के बारे में यह बात मशहूर थी कि वे जब कोई पौधा लगाती हैं तो कुछ समय बाद उसे उखाड़कर देखती हैं कि कहीं पौधे की जड़ें बड़ी तो नहीं हो गईं.

इंदिरा गांधी के बारे में यह बात मशहूर थी कि वे जब कोई पौधा लगाती हैं तो कुछ समय बाद उसे उखाड़कर देखती हैं कि कहीं पौधे की जड़ें बड़ी तो नहीं हो गईं

राज्य संगठन के साथ कांग्रेस का क्या बर्ताव है, इसका एक उदाहरण 2012 में देखने को मिला. मौका हिमाचल प्रदेश के विधानसभा चुनावों का था. चुनाव के दो महीने पहले तक कांग्रेस यह तय नहीं कर पा रही थी कि वह प्रदेश में किसके नेतृत्व में चुनाव लड़े. ऐसा नहीं था कि उसके पास कोई नेता नहीं था. प्रदेश कांग्रेस के नेताओं में सबसे वरिष्ठ और अनुभवी (पांच बार मुख्यमंत्री ) वीरभद्र सिंह उसके पास थे जिनके बारे में किसी को शक नहीं था कि पूरे हिमाचल में सर्वाधिक लोकप्रिय कांग्रेसी नेता वही हैं. लेकिन जड़ नापकर नेता को नापने की अपनी मानसिकता के तहत पार्टी वीरभद्र के नेतृत्व में चुनाव लड़ने से बचती रही. आखिर में जब वीरभद्र ने पार्टी छोड़ने की तैयारी कर ली और अगले दिन वे एनसीपी में जाने वाले थे कि सोनिया ने उन्हें पार्टी की तरफ से मुख्यमंत्री का उम्मीदवार बनकर शिमला जाने को कहा. खैर, वीरभद्र मान गए. चुनाव में पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई.

हर राज्य में कांग्रेस की यही कहानी है. पार्टी ने हर जगह से मजबूत और लोकप्रिय नेताओं का एक तरफ सफाया किया तो दूसरी तरफ चापलूसों को लगातार बढ़ाती रही. जानकार उत्तराखंड का उदाहरण भी देते हैं कि कैसे प्रदेश मेंे पिछले विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद विधायकों की पसंद और स्थानीय स्तर पर लोकप्रिय नेता हरीश रावत को मुख्यमंत्री बनाने की जगह पार्टी ने विजय बहुगुणा के हाथ कमान सौंप दी.

कांग्रेस के अंदर से ही नेतृत्व की इस रणनीति के खिलाफ आवाजें उठने लगी हैं. हाल ही में पार्टी के वरिष्ठ नेता कमलनाथ ने कहा कि दिल्ली से बैठकर 10 लोग पूरे देश में पार्टी को संचालित नहीं कर सकते. हमें प्रदेश की राजनीति को राज्यों के ऊपर छोड़ना होगा. दिल्ली से बैठकर उसे नियंत्रित करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए.

रशीद किदवई आंध्र प्रदेश का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘2004 और 2009 में कांग्रेस को यहां 30 से ज्यादा सीटें मिली थीं. लेकिन राजशेखर रेड्डी की मौत के बाद वह ऐसे फिसली कि फिर संभल नहीं पाई. कांग्रेस के पास अन्य राज्यों में भी ताकतवर नेताओं का अभाव है. ज्यादातर राज्यों में उसके पास बड़े कद का कोई नेता नहीं बचा है.’

फोटो: विकास कुमार

पार्टी का भविष्य क्या रूप लेता है यह तो आने वाला समय ही बताएगा, लेकिन जानकारों का एक तबका इस बात को मानता है कि जब तक पार्टी इस सोच के सहारे चलेगी कि चाहे जो हो जाए गांधी परिवार के किसी व्यक्ति से कोई प्रश्न नहीं पूछा जा सकता, वह हर तरह के मूल्यांकन के बाहर है और परिवार कभी गलत हो ही नहीं सकता तब तक पार्टी की स्थिति पूरी तरह से सुधरने की कोई गुंजाइश नहीं.

उधर, पार्टी नेताओं के साथ ही राजनीतिक पंडितों के एक बड़े तबके का मानना है कि अभी कांग्रेस का मर्सिया नहीं लिखा जा सकता. बोस कहते हैं, ‘आपातकाल के बाद भी ऐसे ही हुआ था. 77 में इंदिरा गांधी की हार के बाद के बाद लोग कहने लगे थे कि अब तो कांग्रेस खत्म हो गई. कोई उस समय कांग्रेस की वापसी के बारे में सोच नहीं सकता था. लेकिन 80 में इंदिरा ने फिर से जोरदार वापसी की.’

जितनी जरूरत संगठन को मजबूत करने की है उतनी ही इस बात की भी कि गांधी परिवार खुद अपने राजनीतिक तौर-तरीकों में तब्दीली लाए

खैर, कांग्रेस को एक तरफ जहां नेतृत्व से लेकर संगठन के तमाम मसलों पर काम करने की जरूरत है वहीं उसे सहयोगियों को लेकर भी चिंतित होने की आवश्यकता है. चुनाव में पार्टी उस महामारी की तरह फैल गई थी जिसके संपर्क में जो दल आया उसका सफाया हो गया. मायावती ने अपनी पार्टी की बुरी गत के लिए भी कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया. मायावती का कहना था कि लोगों ने उन्हें यूपीए को समर्थन करने की सजा दी है. ऐसे में पार्टी को उस छवि को भी तोड़ना होगा जिससे यह संदेश जा रहा है कि कांग्रेस से जो जुड़ता दिखेगा उसका हश्र भी कांग्रेस जैसा ही होगा. पार्टी और परिवार के शुभचिंतक इस बात की तरफ भी इशारा करते हैं कि जितनी जरूरत नेतृत्व के प्रश्न को हल करने और संगठन को मजबूत करने की है उतनी ही इस बात की भी है कि गांधी परिवार खुद अपने राजनीतिक तौर तरीकों में तब्दीली लाए. पिछली सरकार में मंत्री रह चुके एक नेता कहते हैं, ‘परिवार को पार्टी को गुलाम समझने और और उसे रिमोट से संचालित करने की मानसिकता से बाहर आना होगा. इस चुनाव में जनता ने हमारे खिलाफ इसलिए भी वोट किया क्योंकि उसने देखा कि कैसे प्रधानमंत्री एक परिवार के आगे दीन-हीन बना हुआ था और पार्टी नेतृत्व राष्ट्रीय सलाहकार परिषद के माध्यम से सरकार की नकेल कसता रहता था.’

पार्टी के ही एक अन्य नेता कहते हैं, ‘पिछले 10 सालों में ऐसा संदेश गया मानो प्रधानमंत्री कांग्रेस परिवार की नौकरी कर रहा हो. इससे जनता के बीच गलत मैसेज गया. गांधी परिवार उसे अंग्रेजों की तरह दिखाई देने लगा. प्रधानमंत्री के उस बयान ने भी कोढ़ में खाज का काम किया जिसमें उन्होंने कहा था ‘मैं राहुल जी के नेतृत्व में काम करने को तैयार हूं.’

शिक्षण नहीं प्रशिक्षण जरूरी

esmirti-eraniहमारा संविधान कहता है कि संसद सदस्य वही बन सकता है जो देश का नागरिक हो, राज्यसभा सदस्य बनने के लिए 30 साल और लोकसभा के लिए 25 साल से ज्यादा उम्र का हो.

जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के मुताबिक सांसद बनने की इच्छा रखने वाले व्यक्ति का देश के किसी चुनाव क्षेत्र में मतदाता होना जरूरी है. इसके अलावा किसी भी पुरुष या महिला को संसद सदस्य बनने के लिए कोई और योग्यता नहीं चाहिए. किसी के सांसद बनने या न बनने से उसकी शिक्षा का कोई लेना-देना नहीं है और किसी भी व्यक्ति के मंत्री बनने के लिए उसका सिर्फ सांसद होना ही जरूरी है.

इसका मतलब स्मृति ईरानी के 12वीं पास होकर मानव संसाधन विकास मंत्री या शिक्षामंत्री बनने में कुछ भी गलत नहीं होना चाहिए. वे देश की नागरिक हैं, मतदाता के रूप में मुंबई की वर्सोवा विधानसभा में पंजीकृत हैं और 38 साल की होकर पिछले तीन सालों से राज्यसभा की सांसद भी हैं.

कुछ लोग -जिनमें से ज्यादातर कांग्रेसी हैं – कह रहे हैं कि वे मंत्री तो हो सकती हैं लेकिन केवल 12वीं तक पढ़ी होने के बावजूद, देश की शिक्षामंत्री कैसे हो सकती हैं. इसके जवाब में स्मृति की तरफदारी करने वाले तरह-तरह के तर्क दे रहे हैं. इनमें से एक सवालनुमा तर्क यह है कि ऐसी बातें करने वाले ज्यादातर नेताओं की नेता सोनिया गांधी खुद कितनी पढ़ी हैं. दूसरा, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर भी तो ज्यादा नहीं पढ़े थे लेकिन देश के सबसे अनूठे विश्वविद्यालय विश्व-भारती की स्थापना उन्होंने ही की थी.

भाजपा नेता उमा भारती की बात सही है. सोनिया गांधी ज्यादा से ज्यादा हमारे देश की बारहवीं कक्षा के बराबर ही पढ़ी होंगी. या इससे एकाध साल ज्यादा. उन्होंने ट्यूरिन से तीन साल का अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा का कोर्स किया है. इस कोर्स के खत्म होते वक्त वे मात्र साढ़े सत्रह साल की ही थीं इसलिए यह कमोबेश हमारी बारहवीं कक्षा के बराबर ही रहा होगा. इसके बाद उन्होंने कैंब्रिज से एक साल का अंग्रेजी का एक कोर्स और किया जहां उनकी मुलाकात राजीव गांधी से हुई.

स्मृति के तरफदारों की यह बात भी सही है कि गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने भी कोई खास औपचारिक शिक्षा नहीं ली थी. लेकिन उतना ही सही यह भी है कि सन 1939 में विश्व-भारती की स्थापना से कोई 26 साल पहले ही वे साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किए जा चुके थे. इस सम्मान को पाने वाले वे यूरोप से बाहर के पहले व्यक्ति थे.

उमा भारती यदि चाहतीं तो सोनिया की जगह अपना उदाहरण भी दे सकती थीं. वे खुद भी पांचवीं कक्षा तक ही पढ़ी होने के बावजूद तीसरी बार कैबिनेट मंत्री बनी हैं. वे अकाली दल के कोटे से मंत्री बनीं हरसिमरत बादल का नाम भी ले सकती थीं. हरसिमरत ने दसवीं के बाद एक डिप्लोमा किया है जो शायद बारहवीं के बराबर ही होगा. लेकिन आज की राजनीति में दूसरे की लकीर को छोटा करके ही अपनी लकीर को बड़ा दिखाने का रिवाज है. अजय माकन भी तो यही कर रहे थे जब वे स्मृति की कम शिक्षा का ढिंढोरा पीट रहे थे.

यहां उमा भारती के संदर्भ में यह कहना भी जरूरी है कि वे सीधे काबीना मंत्री नहीं बनीं थीं. सन 2000 में पहली बार कैबिनेट रैंक की खेलमंत्री बनने से पहले वे दो अलग-अलग विभागों में बतौर राज्यमंत्री काम कर चुकी थीं. और हरसिमरत बादल को भी पहली बार खाद्य प्रसंस्करण मंत्रालय जैसा अपेक्षाकृत हल्का विभाग ही मिला है.

बस यहीं से स्मृति के मामले में थोड़ा अगर-मगर की गुंजाइश निकलने लगती है. ठीक है कि मंत्री बनने के लिए क्लर्क जैसा शिक्षित होना जरूरी नहीं है और मंत्रालय का ज्यादा कामकाज तो बाबू ही संभालते हैं, लेकिन पहले थोड़ा प्रशिक्षित होने में क्या बुराई है? यानी कि शुरुआत में स्मृति को मानव संसाधन विकास मंत्रालय में ही उपमंत्री या राज्यमंत्री या किसी कम महत्वपूर्ण विभाग में स्वतंत्र प्रभार वाला राज्यमंत्री या काबीना मंत्री भी तो बनाया जा सकता था.

यहां एक बात और. उनकी पार्टी और समर्थक चाहे कुछ भी कहें लेकिन वे खुद भी शिक्षित होने को महत्वपूर्ण मानती हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो खुद को ज्यादा पढ़ा-लिखा दिखाने के लिए चुनाव आयोग को दिए शपथपत्र में अपनी अधिकतम शैक्षणिक योग्यता बीकॉम पार्ट-1 क्यों लिखतीं. जब बी कॉम प्रथम वर्ष के होने न होने का कोई मतलब ही नहीं है तो उन्होंने शपथपत्र में सीधा-सीधा 12वीं कक्षा ही क्यों नहीं लिखवा दिया.

लेकिन लोचा एक और यह भी है कि उन्होंने चुनाव आयोग को ही 2004 में दिए एक अन्य शपथपत्र में अपनी शैक्षणिक योग्यता बी कॉम प्रथम वर्ष की जगह बीए लिखवाई थी. यह अपने राजनीति के शुरुआती नासमझ दौर में संकोचवश की गई या टाइपिंग की मामूली भूल भी हो सकती है. लेकिन जब आप इतने बड़े पद पर बैठ कर करोड़ों का भविष्य निर्धारित करने की अवस्था में हों तो राई जैसी चीजों का पहाड़ बनना भी तय ही है.

कहां से लाए हो ये आग, भक्क से जला है दिल

फिल्म » सिटीलाइट्स
फिल्म » सिटीलाइट्स
निर्देशक» हंसल मेहता
लेखक » रितेश शाह, सीन एलिस
कलाकार » राजकुमार राव, पत्रलेखा, मानव कौल

हम सभी विस्थापित आत्माएं हैं. मजबूरी में या फिर मर्जी से प्रवासी बनकर टूटे शरीर की आत्माएं. आत्माएं घाव छुपा लेती हैं, शरीर उन्हें अनुभव बना खुद पर सजा लेता है. छूटे हुए बिस्तरों के अनुभव, दड़बों जैसे कमरों के, खिड़की-रोशनदान न होने के, कोनों के, उन कोनों को बार-बार चुनने की मजबूरी से आई थकान के अनुभव. सिटीलाइट्स के नायक और उसके परिवार का विस्थापन लेकिन हमारा नहीं है, हमने उसे देखा-सुना-पढ़ा बहुत है, भोगा नहीं है. यह बात फिल्म की कहानी भी जानती है कि सिर्फ भोग ही मीठा होता है, भोगना कोई नहीं चाहता, इसलिए वह फिल्म को नायक और उसके परिवार के दर्द का ‘ज्ञान का पीठ’ नहीं बनाती, एक सस्पेंस और थ्रिलर बुनती है जो जमीनी है और जहां सही-गलत की हरियाली से दूर बंजर जमीन पर खड़ी मजबूर-जरूरतमंद जिंदगी अपने लिए गए फैसलों के साथ सीना ठोके खड़ी है, उसे ‘दुनिया का सच’ बतला रही है, और उसकी आवाज में शोर भी नहीं है.

शोर करती मुंबई में राजकुमार पत्रलेखा और अपनी बेटी संग राजस्थान के एक गांव से आते हैं, वही कमाने जिसके लिए हम सब बड़े शहरों में जाते हैं. वहां उन्हें मानव कौल मिलते हैं, और फिल्म बेबस जिंदगियों पर ठिठकती हुई, जिंदगी के सपनों को पूरा करने के लिए गैर-कानूनी रफ्तार पकड़ती है, क्योंकि जिंदगी ज्यादा दिन साथ नहीं रहती, उसका भी घर है, उसे भी वहां जाकर सोना है. हमारी इन्हीं महत्वाकांक्षाओं और लालच को परदा देती हंसल मेहता की सिटीलाइट्स की भाषा ‘शाहिद’ वाली ही है. वे उससे भटके नहीं हैं. वही कैमरा है जो उतना ही दृश्यों को काला रखता है जितनी उस वक्त जिंदगी काली होती है. और वे ही अभिनेता नायक हैं जो अभिनेता पर किरदार की जीत के हकदार हैं. राजकुमार राव. वे किरदार ऐसे बनते हैं जैसे रूप बदलने की ऐयारी जानते हो. फिल्म में वे कमाल हैं, अभी यही शब्द हमारे पास हैं. उनकी पत्नी बनी पत्रलेखा पहली फिल्म के हिसाब से अच्छा करती हैं, कुछ दृश्यों में तो बेहद अच्छा, बस शहरी नेलपेंट नहीं उतारतीं, जिसकी चमक आंखों में चुभती है. मानव कौल के बारे में हम लोग कम बात करते हैं, और ये गलत है. हमें उनके बारे में लिखना चाहिए, ढेर सारी बातें करनी चाहिए क्योंकि वे अपने रंगमंच का रंग फिल्मों में प्यार भरी नफासत से भरते हैं. जो उन्हें नहीं जानते उनके लिए सिटीलाइट्स मानव कौल की खोज है. वे जिन हिस्सों में राजकुमार से भी बेहतर हैं, वे हिस्से फिल्म के बेहतरीन हिस्सों में आते हैं. दोनों ही, राजकुमार और मानव, अपने-अपने रंग में डूबे हुए दो पहाड़ी झरने हैं, फिल्म की अलहदा पहचान हैं.

सिटीलाइट्स की सबसे अच्छी बात है कि वो बाहर-गांव की एक फिल्म (मेट्रो मनीला) की कहानी पर हिंदुस्तानी पैरहन सलीके से चढ़ाती है. वह भट्ट प्रभाव में आकर विदेशी कहानी पर आधारित सिटीलाइट्स को ‘साया’ नहीं बनाती, राजकुमार को जॉन अब्राहम और हंसल मेहता को पुराने अनुराग बसु भी नहीं. हंसल फिल्म में चुटकुला तक अपना रखते हैं. वड़ा-पाव संग पारले-जी का डिनर, पत्रलेखा का पब में वाक-इन इंटरव्यू, राजकुमार का नशे में पत्रलेखा से नाचने को कहना, ऐसे कई चुभते दृश्य देसी निर्देशक-लेखक के अपने हैं.

फिल्म की भूख भी सच्ची है और उसकी उठती हूक भी, उसका लालच भी और उसकी आग भी, जो हमारा दिल भक्क से जलाती है. इस आग को हंसल कहां से लाए हैं, पता नहीं, लेकिन खालिस लाए हैं.

‘वह धन्यवाद किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को शर्मिंदगी महसूस कराने के लिए काफी था’

ell
मनीषा यादव

टेलीविजन पर पर्यटन मंत्रालय का अतिथि देवो भव का अर्थ समझाने वाला आमिर खान का विज्ञापन देखते ही मुझे एक वाकया याद आ जाता है. आप कहीं भी जाइए, अच्छी खासी संख्या में ऐसे लोग मिल जाएंगे जो बात-बात पर सरकार को कोसते रहते हैं कि उसने देश की नाक कटवा दी… यह कर दिया… वह कर दिया वगैरह. पता नहीं लोगों को यह क्यों समझ में नहीं आता कि देश की नुमाइंदगी केवल सरकार ही नहीं करती बल्कि हमारे और आप जैसे आम लोगों से ही देश बनता है. हम जो भी करते हैं, हमारी हर गतिविधि, हर काम, देश में आए विदेशियों के समक्ष क्रमश: हमारी और देश की एक छवि बनाता है.

यह बात दिल्ली में हुए राष्ट्रमंडल खेलों की शुरुआत से कुछ पहले की है. उन दिनों शहर में विदेशी पर्यटकों की आवाजाही कुछ ज्यादा ही थी. मेट्रो के जिस कोच में भी नजर डालो कोई न कोई विदेशी नागरिक सफर करता दिख ही जाता था. उस समय मैं पत्रकारिता की पढ़ाई कर रहा था. कॉलेज आना-जाना मेट्रो से ही होता था. अन्य दिनों की तरह उस दिन भी मैं आनंद विहार से राजीव चौक की ओर जाने वाली मेट्रो में सवार था. मेरी मंजिल अभी दूर थी और मैं हमेशा की तरह एक कोने में खड़ा उपन्यास पढ़ता हुआ सफर कर रहा था. चूंकि मैं पत्रकारिता का विद्यार्थी था इसलिए दो यात्रियों की बातचीत ने मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा. वे राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारियों में दिल्ली सरकार की नाकामी पर बात कर रहे थे. यह मुद्दा उस वक्त गर्म था इसलिए अन्य यात्री भी बातचीत में शरीक हो गए.

कहने की जरूरत नहीं कि बातचीत के केंद्र में देश की कथित नाक ही थी जो सरकार की हरकतों के कारण कट रही थी. यह चिंता सबको खाये जा रही थी. राजीव चौक आया और डिब्बे में भीड़ थोड़ी कम हुई. मुझे सीट मिल गई थी और फिक्रमंद यात्रियों का समूह मेरे सामने ही खड़ा था. थोड़ी दूरी पर तीन विदेशी नागरिक भी खड़े थे और अपने हाथों में लिए सामान के साथ भीड़ भरे डिब्बे में किसी तरह संतुलन बनाने की कोशिश कर रहे थे. शायद वह लोग राजीव चौक से ही गाड़ी में चढ़े थे. मेरा स्टेशन आने वाला था और वे विदेशी पर्यटक सामान के साथ खासे परेशान हो रहे थे. मेरी नजर उनमें से एक यात्री से मिली और मैंने आंखों से ही उसे इशारा किया कि मैं उठ रहा हूं और वह आकर मेरी सीट पर बैठ जाए. हो सकता है यह मेट्रो में हो रही उद्घोषणा का असर हो जो लगातार आग्रह कर रही थी कि अगर आपके आसपास कोई जरूरतमंद है तो उसे सीट अवश्य दें. अभी उनमें से एक पर्यटक मेरी सीट तक पहुंच पाता उससे पहले ही मेरा उठना भांपकर देश के लिए फिक्रमंद यात्रियों में से एक लपक कर उस सीट पर बैठ गया. यकीनन उसने उस विदेशी यात्री को सीट की ओर बढ़ते देख लिया था और इसीलिए उसने इतनी फुर्ती दिखाई कि पल भर को मैं भी कुछ समझ नहीं पाया. मुझे बहुत गुस्सा आया लेकिन इससे पहले कि मैं देश की नाक को लेकर फिक्र में डूबे उन सज्जन से उलझता, उस विदेशी यात्री ने टूटी-फूटी अंग्रेजी में मुझे धन्यवाद किया और विवाद करने से मना किया. वह धन्यवाद किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को शर्मिंदगी का अहसास कराने के लिए काफी था.

मैं उन फिक्रमंद श्रीमान से पूछना चाहता था कि व्यक्तिगत स्तर पर सरकार को कोसने के अलावा हम देश के लिए खुद क्या कर सकते हैं? मैं उनसे कहना चाहता था कि आपका स्टेशन तो ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे में आ जाएगा और आप उठकर चले जाएंगे लेकिन आपने और आपके जैसे लाखों लोगों की ऐसी ही हरकतों की वजह से विदेशी पर्यटक हमारे प्रति नकारात्मक छवि लेकर जाते हैं. अगर इस छवि को तोड़ना है तो सरकार की कमियां गिनने से काम नहीं चलेगा, बल्कि हमें शुरुआत करनी होगी.

लेकिन ये सारी बातें मेरे मन में ही रह गईं. मेरा स्टेशन आ गया था और मुझे उतरना पड़ा. काश मैं उन लोगों से ये सारी बातें कह पाया होता. कम से कम भविष्य के लिए एक संभावना तो पैदा होती.

(लेखक मीडिया से जुड़े हैं और दिल्ली में रहते हैं)

(इस स्तंभ के लिए अपने अनुभव hindi@tehelka.com या कार्यालय के पते पर भेजें)