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इंग्लैंड

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विश्व रैंकिंग: 10
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन: विजेता (1966)

खास बात
सालों तक इंग्लैंड का आक्रमण मजाक का विषय रहा है. लेकिन डेनियल स्टरीज, जिन्होंने पिछले सत्र में लिवरपूल की तरफ से खेलते हुए 31 गोल किए थे, के आने से इस मोर्चे पर टीम काफी मजबूत दिखने लगी है. अब स्टार खिलाड़ी वायने रूनी पर से भी कुछ दबाव कम होगा

इंग्लैंड बॉबी चार्लटन की कप्तानी में सन 1966  में विश्व चैम्पियन बना था. फुटबाल के इस वर्ल्ड कप का मेजबान इंग्लैंड ही था. घर में हुए इस कप को जीतने के बाद उसका अपने सबसे पारंपरिक खेल क्रिकेट में धीरे-धीरे रुझान काम होने लगा और शायद इसी वजह से इंग्लैंड दुनिया की सबसे महंगी क्लब फुटबाल प्रतियोगिता का आयोजक बना. आज हम इसे इंग्लिश प्रीमियर लीग या ईपीएल के नाम से जानते हैं. आज भले यह दुनिया की सबसे चर्चित फुटबाल लीग है. लेकिन यह माना जाता है कि लीग के कारण ही इंग्लैंड के घरेलू खिलाड़ी उभर कर नहीं आ पाते.पूरी लीग पिछले एक दशक से विदेशी खिलाड़ियों के कारनामों की गवाह रही है. वहीं इंग्लैंड के लिए यह सूची डेविड बेकहम और वायने रूनी से आगे नहीं जा पाती.  इस विश्व कप में खेल रहे 119 खिलाड़ियों का ईपीएल से सीधा संबंध है.  इस बार इंग्लैंड के कोच हडसन ने पुराने खिलाड़ी छोड़कर नौजवानों पर भरोसा जताया है. वरिष्ठों में वेन रूनी और स्टीवन जेरार्ड भी हैं. इस बार डेनियल स्ट्रीज, रहीम स्टर्लिंग, अलेक्स ओक्स्लेड चेम्बर्लेन और ऐडम ललाना के इंग्लैंड की अग्रणी पंक्ति में होने से फारवर्ड के असरदार रहने की उम्मीद है.

नीदरलैंड्स

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विश्व रैंकिंग: 15
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन : 1974,1978 और 2010 में उपविजेता

खास बात
डच कोच लुइस गाल ने क्वालीफाइंग दौर में 4-3-3 (पिछली पंक्ति 4 खिलाड़ी, मध्य में 3 और अग्रिम पंक्ति में भी 3 खिलाड़ी) वाली रणनीति को बखूबी इस्तेमाल किया था. लेकिन मिडफील्डर केविन स्ट्रूटमैन के चोटिल होने ने उनकी इस रणनीति को अनुपयोगी बना दिया है. अब उनके द्वारा 5-3-2 की रणनीति अपनाने से रोबिन पर्सी और अर्जेन रॉब्बेन को बेहतर प्रदर्शन करने का मौका मिलेगा

दक्षिण अफ्रीका में हुए पिछले विश्व कप फाइनल में नीदरलैंड्स ने स्पेन को अंतिम समय तक कड़ी चुनौती दी थी. लेकिन अतिरिक्त समय में आंद्रेस इनिएस्ता द्वारा किए गए गोल के कारण नीदरलैंड्स 1-0 से हार गया. इस साल नीदरलैंड्स के लिए मुश्किलें अधिक हैं. विद्रोहों और असंतोष के बावजूद भी पूर्व की डच टीमें हमेशा साहसी प्रतिभाओं से भरी रही हैं. आखिरकार उन्होंने ही ‘टोटल फुटबॉल’ का आविष्कार किया था. लेकिन वर्तमान टीम बहुत ही कमजोर नजर आ रही है. चोटिल होने के कारण न तो मिडफील्ड पर केविन स्ट्रूटमैन का जोश पहले जैसा है और न ही राफेल वेन डर वार्ट की आक्रामक गति पहले की तरह है. कागजों पर रोबिन वैन पर्सी, वीजले स्निजडर और  अर्जेन रॉब्बेन की आक्रामक तिकड़ी जरूर घातक नजर आती है. लेकिन 2010 में प्रसिद्ध रहे स्निजडर अब अपनी राह से भटक गए हैं. वैन पर्सी भी बीते समय में मेनचेस्टर यूनाइटेड में चोटिल हुए. ऐसे में बेयर्न म्यूनिख क्लब के खिलाड़ी रॉब्बेन की कारगर फुर्ती ही टीम की सबसे बड़ी ताकत है. लेकिन क्या सिर्फ इसके भरोसे ही नीदरलैंड्स उस ग्रुप में टिक सकता है जहां स्पेन जैसे काबिल दुश्मन और चिली जैसे प्रतिभावान टीमें भी मौजूद हों? इन परिस्थितियों में नीदरलैंड्स पर दांव लगाना घातक हो सकता है.

स्पेन

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विश्व रैंकिंग: 1
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन : 2010 (विजेता)

खास बात
डिएगो कोस्टा जैसा बेहतरीन स्ट्राइकर स्पेन की इस टीम में दूसरा नहीं है. जहां फर्नान्डो टोरेस और डेविड विला अपनी पुरानी शैली में लौटने के लिए संघर्ष कर रहे हैं वहीं कोस्टा उस टीम को बहुत मजबूती देंगे जो प्रतिभाशाली मिल्फील्डरों से भरी हुई है

‘टिकी-टाका अब अप्रासंगिक हो चुकी है.’ यह घोषणा कुछ फुटबॉल पंडितों ने तब की थी जब 2013 में हुए कन्फेडरेशन कप के फाइनल में ब्राजील ने स्पेन को 3-0 से हराया था. ‘टिकी-टाका’ वह विधा है जिसमें खिलाड़ी फुटबॉल को छोटी-छोटी दूरी पर पास करते हुए उस पर कब्जा बनाए रखते हैं. ‘टिकी-टाका’ के अप्रासंगिक होने की बातों को तब और बल मिला जब बार्सिलोना क्लब की देश-विदेश में हार हुई. बार्सिलोना क्लब स्पेन की राष्ट्रीय टीम से सबसे ज्यादा मेल खाता है और टीम की सबसे बेहतरीन प्रतिभा भी इसी क्लब से आती है. लचर रणनीति से इतर स्पेन को कई अन्य कारणों से भी कमजोर माना जा रहा है. एक समय में विश्व के सबसे बेहतरीन पासर समझे जाने वाले जवी हर्नान्देज अब अपनी ही एक कमजोर परछाईं जैसे दिखते हैं. फर्नान्डो टोरेस और डेविड विला दोनों ही अब अपनी ‘एक्सपाइरी डेट’ पार कर चुके हैं. तो क्या वर्तमान विश्व-विजेताओं को अब विश्व कप को अलविदा कह देना चाहिए? नहीं. गोल कीपर के रूप में इकर क्यासिलास और सेंटर-बैक में सर्गियो रामोस और गेरार्ड पिक के होने से बचाव हमेशा की तरह ही मजबूत नजर आता है. जबी अलोंसो और सर्गियो बस्क्वेट्स आज भी बैक-फोर को रक्षण देने में सबसे ज्यादा माहिर हैं. इनके अलावा आंद्रेस इनिएस्ता जैसा नौजवान भी है जो बातों से नहीं बल्कि अपने पैरों से जवाब देने में विश्वास रखता है. स्पेन के मिडफील्ड से ब्राजील में हर टीम के कोच को ईर्ष्या जरूर होगी. यदि ‘टिकी-टाका’ असफल भी होती है तो कोच विसेंट डेल बॉस्क के पास चक्रव्यूह तोड़ने के लिए डिएगो कोस्टा को उतारने का सौभाग्य भी है.

कैमरून

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विश्व रैंकिंग: 56
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन : अंतिम आठ (1990)

खास बात
बार्सिलोना के लिए खेलते समय टीम के मिडफील्डर एलेक्स सान्ग की छवि एक रक्षात्मक मिडफील्डर की थी लेकिन अब उनसे उम्मीद की जा रही है कि अपने देश के लिए वे बड़ी भूमिका निभाएंगे. कोच वॉकर फिंक को उनके ऊपर जबर्दस्त भरोसा है

कैमरून का विश्व कप से पत्ता लगभग कट चुका था. बोनस को लेकर कैमरून के खिलाड़ियों और फुटबॉल अधिकारियों के बीच पैदा हुआ विवाद इतना बढ़ गया कि हालात बेकाबू हो गए. खिलाड़ियों ने धमकी दे डाली थी कि अगर उनकी मांगे नहीं मानी गईं तो वे विश्व कप से वाकआउट करेंगे. खैर समय रहते अधिकारियों ने खिलाड़ियों की मांगें मान लीं. कैमरून अफ्रीका की अकेली टीम है जिसने सात बार विश्व कप के लिए क्वालीफाई किया है. कैमरून के विश्व कप अभियान का शिखर 1990 में आया था जब टीम क्वार्टरफाइनल में जगह बनाने में सफल रही थी. लेकिन इंग्लैंड के हाथों क्वार्टरफाइनल में उसे मात खानी पड़ी और उसका अभियान खत्म हो गया था. इस विश्व कप में कैमरून की उम्मीदें स्ट्राइकर सैमुएल इटो के ऊपर टिकी हुई हैं जिन्हें दुनिया के प्रतिष्ठित रियल मैड्रिड, बार्सिलोना और चेल्सी जैसे क्लबों में खेलने का अनुभव है. मध्य और पिछली पंक्ति में खेलने के लिए कैमरून के पास जोएल मातिप और निकोलस एनकूलू की जोड़ी है. इसके अलावा भी कैमरून के पास मिडफील्ड में खेलने वाले कुछ शानदार खिलाड़ियों का समूह है जो किसी भी विपक्ष को परेशानी में डालने में सक्षम है. टीम के कोच वॉकर फिंक परंपरागत 4-3-3 संरचना में खेलने के हिमायती हैं क्योंकि इस संरचना में उनके मुख्य स्ट्राइकर इटो और सहयोगी स्ट्राइकर विंसेंट अबूबकर सबसे ज्यादा प्रभावी सिद्ध होते हैं. इसके अलावा टीम के पास फॉरवर्ड लाइन या अग्रिम पंक्ति में खेलने के लिए फैब्रिस ओलिंगा का विकल्प भी मौजूद है जिन्हें ला लीगा में खेलने का अनुभव है.

कोलंबिया

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विश्व रैंकिंग: 8
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन : 1990 (राउंड ऑफ 16)

खास बात
अर्जेंटीना और जर्मनी का प्रबंधन देख चुके जोस पेकेरमैन पिछले तीन दशकों में पहले गैर-कोलंबियाई कोच हैं. यदि वे अपने मिडफील्ड और डिफेन्स में सही तालमेल बना सके तो कोलंबिया क्वार्टर फाइनल में जगह बना सकता है. यह भी मुमकिन है कि विश्व कप घरेलू महाद्वीप में ही होने के कारण कोलंबिया और भी आगे पहुंच जाए

कोलंबिया की समस्या यह है कि तमान बड़े सितारों के बावजूद भी यह टीम कभी अपनी उम्मीदों पर खरी नहीं उतर पाई. इटली में हुआ 1990 का विश्व कप जरूर कोलंबिया के लिए एक अपवाद रहा है. तब यह टीम दूसरे राउंड तक पहुंची थी. लेकिन उस वक्त भी कोलंबिया को लगभग अपने जितनी ही प्रसिद्ध कैमरून की टीम से हार मिली थी. इस अविस्मरणीय मैच में रॉजर मिला ने गोलकीपर रेने हिगुइटा के पैरों के नीचे से गेंद को चुराते हुए गोल दाग दिया था. इसके अलावा कोलंबिया की टीम तब भी चर्चा में आई थी जब टीम के डिफेंडर आंद्रेस एस्कोबार की गोली मार कर इसीलिए हत्या कर दी गई थी क्योंकि उन्होंने 1994 में अमरीका में अपनी ही टीम पर गोल कर दिया था. बाद में फॉस्टिनो एस्प्रिला जैसे बड़े नाम भी इस टीम से जुड़े लेकिन तब भी टीम को निराशा ही हाथ लगी. इस बार कोच जोस पेकेरमैन अनुभवी और युवा खिलाडियों की मिली-जुली टीम के साथ आए हैं. मिडफील्डर जेम्स रोड्रिग्स और जुआन काउड्राडो टीम के स्ट्राइकरों के लिए सही मौके पैदा कर सकते हैं. पेकेरमैन ‘4-2-2’ की रणनीति के तहत अपने दो मिडफील्डरों को विस्तृत दूरी पर खिलाने की योजना बना रहे हैं. हालांकि इस रणनीति से यह खतरा है कि इससे मध्य क्षेत्र खाली हो जाता है और सामने वाली टीम आसानी से पलटवार कर सकती है. लेकिन कोलंबिया के पास सबसे अच्छा मौका रक्षण में नहीं बल्कि आक्रमण में ही है. और पेकेरमैन यह अच्छे से जानते हैं.

ब्राजील

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विश्व रैंकिंग : 3
सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन : विजेता (1958, 62, 70, 94, 2002)

खास बात
ऐसा देखा गया है कि फुटबॉल विश्व कप में घरेलू टीमें हमेशा से बढ़िया प्रदर्शन करती आई हैं. ब्राजील जैसी प्रतिभाओं से भरी टीम के लिए यह सोने पे सुहागा वाली स्थिति है. इस अनुकूल माहौल में अपने हजारों प्रशंसकों से घिरी ब्राजील की टीम फाइनल जीतने की बड़ी दावेदार है

ब्राजील 64 साल से इस मौके के इंतजार में था, 16 जुलाई 1950 को रियो डी जेनेरो के माराकाना स्टेडियम में उरुग्वे के हाथों फाइनल हारने के बाद से ही. उस हार का सदमा ब्राजील के जेहन में आज तक कायम है. इस दौरान विदेशी जमीन पर मिली पांच खिताबी जीत भी उस घाव को भर नहीं पाईं. ब्राजील जब क्रोएशिया के खिलाफ अपने खिताबी अभियान की शुरुआत कर रहा था तब वह सदमा सबके अवचेतन में कहीं न कहीं मौजूद था. लेकिन कोच लुई फेलिप स्कोलारी ने एक ऐसी टीम गढ़ी है जो उस सदमे से उबर कर अपना मनोबल कायम रख पाने में सक्षम है. स्कोलारी पहले भी विश्व कप विजेता टीम का हिस्सा रह चुके हैं. उन्हीं की निगरानी में रोनाल्डो, रोनाल्डीन्हो से सजी ब्राजीली टीम ने 2002 का खिताब अपने नाम किया था. मौजूदा टीम में जबर्दस्त प्रतिभा है. समस्या सिर्फ एक स्तर पर है टीम के बीच आपसी तालमेल थोड़ा कमजोर है. डिफेंड करने के लिए ब्राजील के पास दुनिया के सबसे बेहतरीन खिलाड़ियों का पूल है. थियागो सिल्वा और ताजादम डेविड लुइज का नाम दुनिया के सर्वश्रेष्ठ डिफेंडरों में आता है. ब्राजील की पहचान रही है उसका अभेद्य डिफेंस. इस श्रेणी में दानी एल्विस और मार्सेलो का नाम भी लिया जा सकता है. यही बात पॉलिन्हो और लुइज गुस्लाव के बारे में भी कही जा सकती है. इसके अलावा ऑस्कर भी हैं जिन पर कोच स्कोलारी को पूरा भरोसा है. लेकिन टीम का सबसे उदीयमान सितारा है नेमार. हालांकि यह खिलाड़ी अब तक लॉयोनेल मेसी या रोनाल्डो जितनी बड़ी शख्सियत तो नहीं बन सका है लेकिन उम्मीद है कि यह विश्व कप उन्हें उस कतार में शामिल करवा देगा. क्रोएशिया के खिलाफ दो गोल करके उन्होंने इस दिशा में कदम भी बढ़ा दिया है.

मेल और खेल

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फाईल फोटो
फाईल फोटो

बिहार की राजनीति एक बार फिर उस मुहाने पर खड़ी है जहां एक तरफ संभावनाओं के नये द्वार खुलते दिख रहे हैं तो दूसरी ओर विडंबनाओं के दोहराव की आहट भी मिल रही है. देखा जाए तो पिछले एक साल के दौरान राज्य की राजनीति का ध्रुव लगातार खिसका है. इस बदलाव के केंद्र में सत्ताधारी जदयू के मुखिया नीतीश कुमार हैं. करीब 18 साल पहले नीतीश ने लालू प्रसाद यादव के विरोध के नाम पर भाजपा से हाथ मिलाया था. अब भाजपा से अलगाव करने और दुश्मनी बढ़ा लेने के बाद नीतीश ने उन्हीं लालू प्रसाद का साथ मांगा है. मकसद है राज्यसभा चुनाव में अपनी फजीहत रोकना. दरअसल जदयू के कुछ बागी विधायकों ने नीतीश के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है. राज्यसभा चुनाव में बागियों ने दो सीटों पर अपने उम्मीदवार भी उतार दिए हैं. नीतीश को डर है कि अगर बागियों को भाजपा का समर्थन मिल गया और उनके कुछ विधायकों ने क्रॉस वोटिंग कर दी तो नतीजे उनकी फजीहत करा सकते हैं. यही वजह है कि उन्हें लालू प्रसाद में उम्मीद की किरण दिख रही है.

यह संभवतः पहला मौका है, जब नीतीश कुमार को उन लालू प्रसाद का साथ मांगना पड़ा है जिनके वे धुर विरोधी हुआ करते थे. यह भी दिलचस्प है कि हाल ही में लोकसभा चुनाव के बाद जब नीतीश ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था तो लालू प्रसाद की पार्टी राजद ने उन्हें समर्थन दिया था. लेकिन तब नीतीश का भाव ऐसा था कि उन्हें इस समर्थन में कोई दिलचस्पी नहीं है. अब लालू प्रसाद के पास मौका आया है कि वे बिहार की राजनीतिक बिसात पर चारों खाने चित्त होने के बाद भी विजयी भाव का प्रदर्शन कर सकें या कुछ माह पहले नीतीश कुमार की पार्टी द्वारा राजद में तोड़-फोड़ कर उसे कमजोर करने की कवायद का बदला भी ले सकें. और कुछ नहीं तो जुबानी तरीके से ही सही.

लेकिन लालू प्रसाद ऐसा नहीं कर रहे हैं. वे संभलकर बोल रहे हैं. उन्होंने सिर्फ इतना भर कहा है कि नीतीश कुमार की पार्टी में आग लगी हुई है तो उन्हें दमकल बनाकर बुला रहे हैं. दरअसल जितने मजबूर नीतीश हैं या उनकी पार्टी है, उससे ज्यादा मजबूर फिलहाल लालू हैं. वे जानते हैं कि फिलहाल यह मौका नीतीश से हिसाब-किताब बराबर करने का नहीं है. जैसे नीतीश को भाजपा का डर सता रहा है उसी तरह लालू भी डरे हुए हैं. नीतीश जानते हैं कि इस माहौल में राज्य की प्रमुख विपक्षी पार्टी भाजपा चाहेगी कि वह तटस्थ होकर खेल बनाए-बिगाड़े और फिर राज्य की सरकार गिर जाए तो वह मोदी लहर की सवारी करके सत्ता में आ जाए. यही डर लालू प्रसाद को भी है. लालू प्रसाद भी जानते हैं कि अभी राज्य में स्थिति उनके अनुकूल नहीं है. दोनों की मजबूरी एक-सी है. दोनों के सामने दुश्मन भी अब एक है, इसलिए संभव है कि राज्यसभा चुनाव में दोनों साथ हो जाएं. राज्यसभा में लेने-देनेवाला साथ अगले विधानसभा चुनाव तक के साथ में बदलेगा, यह कहना अभी जल्दबाजी है. न नीतीश कुछ खुलकर बोल रहे हैं न लालू. भाजपा दोनों ही स्थितियों में अपना फायदा देख रही है. उसके नेताओं को लगता है कि अगर लालू ने राज्यसभा चुनाव में जदयू का साथ नहीं दिया तो जदयू का बंटाधार तय है. और अगर साथ दे दिया तो भी उसे आगे की राजनीति करने में सहूलियत होगी.

भाजपा चाहती है कि लालू और नीतीश साथ आएं. इससे उसे यादव विरोधी और कुरमी विरोधी पिछड़ी जातियों का एक समूह तैयार करने में आसानी होगी

दअरसल भाजपा को लगता है कि लालू प्रसाद और नीतीश कुमार का साथ मिलना उसके लिए विधानसभा चुनाव में विटामिन का काम करेगा. नीतीश जब सत्ता में आए थे तो कहा गया कि यह लालू के राजपाट से मुक्ति की कामना का परिणाम तो था ही, राज्य में पिछड़े समूह में भी यादव विरोधी जातियों का एक समूह बन जाने से भी नीतीश के लिए सत्ता पाना आसान हो गया था. लालू प्रसाद और राबड़ी देवी ने पारी बदलकर 15 सालों तक बिहार में शासन किया. इतने सालों के लालू शासन की वजह से पिछड़ी जातियों में भी यादव एक अलग समूह में सिमट गए थे. लालू प्रसाद मुख्यतः उसी समूह-भर के नेता के रूप में सिमटने लगे. नीतीश कुमार भी पिछले आठ सालों से सत्ता में हैं और यह माना जाता रहा है कि इतने सालों के राजपाट के बाद बिहार के पिछड़ों में कुरमी विरोधी जातियों की भी लामबंदी हुई है. इसका ही नतीजा हुआ कि भाजपा ने जब उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता को लोकसभा चुनाव में उछाला तो नीतीश के बने-बनाए समीकरण ध्वस्त हो गए. कुरमी से अधिक आबादी रखनेवाला कुशवाहा समुदाय अपनी जाति से उभरे एक नेता यानि उपेंद्र कुशवाहा के साथ चला गया या उस बहाने भाजपा के साथ भी.

भाजपा के नेता चाहते हैं कि किसी तरह लालू प्रसाद और नीतीश कुमार एक साथ आएं. इससे उन्हें यादव विरोधी और कुरमी विरोधी पिछड़ी जातियों का एक समूह तैयार करने में आसानी होगी. चूंकि अगले विधानसभा चुनाव के लिए नीतीश कुमार ने यह घोषणा पहले ही कर दी है कि जीतन राम मांझी ‘टेंपररी’ सीएम हैं, अगला चुनाव उनके ही नाम पर, उनके ही नेतृत्व में लड़ा जाएगा, इसलिए भाजपा की नजर महादलितों पर भी होगी. भाजपा नेताओं को लगता है कि वे अपने पूरे तंत्र के जरिए इस बात का प्रचार करने में सफल रहेंगे कि नीतीश ने उनके समूह के नेता को सिर्फ इस्तेमाल भर किया. भाजपा महादलित के मुकाबले अतिपिछड़े समूह से एक-दो नेताओं को आगे बढ़ाने की योजना पर भी अभी से ही काम कर रही है. पार्टी सवर्ण जातियों, पिछड़ों में वैश्यों व कुशवाहाओं को अपने पाले में मानकर चल रही है. अब वह किसी तरह अतिपिछड़ों का गठजोड़ तोड़ना चाहती है. नीतीश और लालू प्रसाद के मिलन से उसके लिए यह आसान हो सकता है. राजनीतिक जानकारों के मुताबिक भाजपा यह संदेश देने की कोशिश करेगी कि 23 साल तक यादव और कुरमी ही सत्ता में रहे, भविष्य में भी ये सत्ता अपने पास ही रखना चाहते हैं और अतिपिछड़ों को सिर्फ एक समूह बनाकर रखना चाहते हैं.

पार्टी की उम्मीदें और कारणों से भी हैं. केंद्र में उसकी सरकार है. भाजपा नेताओं ने अपना एक विशेष एजेंडा तैयार किया है जिसे वे नरेंद्र मोदी के जरिए बिहार में लागू करवाना चाहते हैं. कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न तक दिलवाने तक की मांग बिहार भाजपा के नेताओं ने की है, ऐसी सूचना मिल रही है. और सबसे बड़ी बात भाजपाइयों को यह दिख रही है कि आखिर जब नीतीश, लालू का साथ किसी भी रूप में लेंगे तो वे लड़ाई किस औजार से लड़ेंगे. सुशासन की बात करेंगे तो भाजपाई उसमें सहयोगी रहे हैं. अलगाव के बाद भाजपा सत्ता में रही नहीं कि उसके राजकाज पर नीतीश कुमार टिप्पणी कर सकें. इसके उलट यह जरूर संभावना बन रही है कि भाजपाई इस बात का प्रयास जोरशोर से करेंगे कि जिस कुशासन से मुक्ति का सपना दिखाकर बिहार में नीतीश कुमार को सत्ता मिली थी, कुशासन के उसी मॉडल का साथ लेकर या देकर वे फिर से किसी तरह सत्ता पाना चाह रहे हैं, विकास या सुशासन इनके एजेंडे में अब प्राथमिकता के तौर पर नहीं रहा. भाजपा यह भी बताना चाहेगी कि केंद्र में उसकी सरकार है, बिहार में भी रहेगी तो विकास की गति और तेज हो सकती है. भाजपा को इस तर्क से एक आधार मिलेगा जिसका वह फायदा उठाने की फिराक में भी है.

कुछ जिद, कुछ ख्वाहिश

imgरचनाकार अगर एक्टिविस्ट भी हो तो उसकी रचनाओं की धार अलग नजर आती है. गीता गैरोला के कविता संग्रह नूपीलान की मायरा पायबी (स्त्री युद्ध की जलती मशालें) की कविताएं इस बात का सटीक उदाहरण हैं. इरोम शर्मिला के साथ-साथ देश और दुनिया की तमाम संघर्षरत महिलाओं को समर्पित इन कविताओं के जरिए कवयित्री चुप्पी और आवाज के बीच एक पुल कायम करना चाहती हैं. शायद इसीलिए बोल की लब आजाद हैं तेरे शीर्षक वाली कविता में वह कहती हैं-

बोलने की कीमत चुकानी होगी/ न बोलने की कीमत भी देनी ही होगी/ तब तय करें/ बोल कर मरना सार्थक है/ या बिना बोले.

संग्रह में प्रकाशित 95 कविताओं को पढ़ते हुए स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष को एकदम अलग-अलग ढंग से रेखांकित किया जा सकता है. ये कविताएं महिलाओं के रोजमर्रा के जीवन से जुड़े संघर्षों की कविताएं हैं. एक बानगी देखिए-

बस बनाना ही है/ एक घर लाल खपरैलों वाला/ नन्हा सा-मुच्ची सा/ जिसकी खिड़की खुलती हो/ घने बांस के जंगल में/ जहां चहलकदमी करते हों/ गुच्छे के गुच्छे बुरांश.

उत्तराखंड के शराबबंदी आंदोलन, जल जंगल जमीन के हक की लड़ाई लड़ चुकी तथा उत्तराखंड राज्य के गठन के लिए चले आंदोलन का हिस्सा रही गीता गैरोला की कविताओं का मूल स्वर स्त्री है. यह स्त्री कहीं बेटी है, कहीं प्रेमिका, कहीं घरेलू स्त्री तो कहीं वह इरोम शर्मिला के प्रतीक के जरिये न केवल उनके अदम्य संघर्ष को अपना नैतिक समर्थन देती हैं बल्कि उसके जरिये एक नए बदलाव की आकांक्षा भी पालती हैं.

उनकी कविताओं में स्त्रियां तो हैं ही. इसके अलावा पहाड़, जंगल, आंतरिक द्वंद्व से लेकर दंतेवाड़ा और गोधरा तक कवयित्री की चिंताओं में शामिल हैं. रही बात हमारे आसपास की दुनिया की तो यह कहना होगा कि दुनिया का कारोबार तो चलता ही रहता है आप उस पर ध्यान दें अथवा न दें लेकिन अगर आप उसे एक संवेदनशील स्त्री की नजर से देखना चाहते हैं तो इस संग्रह को अवश्य पढ़ा जाना चाहिए.

Fifi World Cup 2014

There is something special about this bunch of Belgians. After falling to eventual champions Brazil in the second round of the 2002 World Cup, Belgium failed to even make the trip to Germany in 2006 and South Africa in 2010. In the 12-year hiatus, the country has managed to produce a crop of exciting players who look destined for great things. Of course, many of them are already household names in their respective clubs. Thibaut Courtois’ stunning saves were instrumental in Atletico Madrid’s La Liga triumph. Vincent Kompany was the rock in the Manchester City defence and led the team to Premier League nirvana. Eden Hazard was the best player at Chelsea. The common complaint has been that they seldom replicate their club form for country. But they qualified in style, topping a group that contained the likes of Croatia, Serbia and Scotland. Coach Marc Wilmots has a problem of plenty, but the injury to striker Christian Benteke and the lack of natural full-backs are causes for worry. However, a midfield that has the quality of Axel Witsel as well as the trickery of Kevin de Bryune and Adnan Januzaj make Belgium the dark horses.

चिंतन के सिर पर ठीकरा

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

कल तक सत्तारूढ़ होकर जिनका दिल बाग बाग था, आज उनके हाथों से सत्ता की बागडोर पूरी तरह से छूट चुकी थी. ऐसा क्यों हुआ इसकी वजह को इस चिंतन शिविर में खोजा जाना था. सब महारथी आ चुके थे सिवा आलाकमान के.

आलाकमान के सबसे विश्वासपात्र जिन्हें आदरपूर्वक सब दद्दा कहते थे, ने चिंतन शिविर की कमान अपने हाथों में ली और कुर्सी पर पोज बदलते हुए बोले, ‘हम अपनी बात पहुंचा नहीं पाए…’ यह बोल कर उन्होंने कुर्सी पर अपने बैठने के पोज को एक बार फिर बदला. चिंतन शिविर में थोड़ी देर शांति छाई रही. जो जिसके पास बैठा था, वह वहीं से अपने निकट बैठे चिंतन के लिए आए चिंतक से मिलकर चिंतन करने लगा. अर्थात एक चिंतन शिवर में कई चिंतन शिविर हो गए.

चिंतन शिविर एक- ‘झटका तो हम सबको लगा है, मगर दद्दा को कुछ ज्यादा जोर से लगा है! बेचारे ठीक से बैठ नहीं पा रहे हैं. पोज पर पोज बदले जा रहे हैं.’ ‘नहीं ऐसी बात नहीं है, उन्हें बवासीर की शिकायत है न इसलिए.’ ‘अरे कभी पता नहीं चला..’ ‘जब तक सत्ता में थे तब तक कांटों का ताज सिर पर था न!’

चिंतन शिविर दो- ‘दद्दा ने कहा, हम अपनी बात पहुंचा नहीं पाए. मैं समझ ही नहीं पा रहा हूं कि क्या बात पहुंचानी थी!’ ‘अपनी उपलब्धियों को… अच्छाइयों को… और किसको!’ ‘हूंउ, घर-घर हमारे उम्मीदवार पहुंच गए, मगर हमारी बात नहीं पहुंची! कमाल करते हो!’

चिंतन शिविर तीन- ‘विरोधियों ने जबरदस्त प्रचार किया…’ ‘उनकी मार्केटिंग अच्छी रही, यहीं हम मात खा गए.’ ‘भईया आज मार्केटिंग का ही जमाना है, मार्केटिंग अच्छी हो तो कूड़ा भी सोने के भाव बेचा जा सकता है…’ ‘मैं तो पहले ही कह रहा था कि विज्ञापन एजेंसी बदल लो, मगर मेरी किसी ने सुनी ही नहीं! अब भुगतो!’ ‘विज्ञापन एजेंसी की अक्षमता के कारण ही हमारी यह दुर्गति हुई है! पता नहीं किस अनाड़ी ने ठेका दे दिया था इसको!’ ‘कमीशन खाया होगा सालों ने!’

चिंतन शिविर चार- ‘सही कहते है ज्ञानी लोग, जनता जनार्दन होती है!’ ‘हां कहेंगे क्यों नहीं… आपकी सांसदी जो बच गई!’ ‘और तुम्हारी जमानत तक जब्त हो गई.’ ‘खूब मजा लिजिए!’ ‘बुरा मत मानो यार!  नर हो न निराशा करो मन को…’ ‘नर हो न निराशा करो… कहना आसान है. क्या आपको मालूम नहीं, बिना कुर्सी के हम खर (गधा) हैंै निरा खर.’

एक बार फिर शिविर में आलाकमान के विश्वासपात्र की कंपकंपाती आवाज सुनाई दी, ‘हम अपनी बात पहुंचा नहीं पाए..’ यह सुनते ही सारे चिंतकों के मुंह हाथी की सूंढ़ की तरह लटक गए. तभी एक संदेशवाहक चिंतन शिविर में प्रकट हुआ. और प्रकट होते ही उसने एक अप्रत्याशित खबर चिंतकों को सुनाई, ‘साथियों! यहां चिंतन शिविर में आने से पहले आलाकमान ने खूब चिंतन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि उन्हें इस्तीफा दे देना चाहिए. यह विचार आते ही फौरन उन्होंने अपने आपको इस्तीफा प्रस्तुत कर दिया.’

यह खबर सुनते ही चिंतन शिवर में रोना-पीटना शुरू हो गया. कुछ अपने बाल नोचने लगे. कुछ अपने कपड़े फाड़ने लगे. दृश्य कुछ ऐसा बन पड़ा लगा कि अभी ही सारे चिंतक मारे चिंता के मर जाएंगे. स्थिति को भांपते हुए संदेशवाहक त्वरित गति से बोला, ‘धैर्य रखें! अभी आप सबके सामने मैं अपूर्ण सूचना प्रेषित कर पाया हूं. अत: आप से अनुरोध है कि कृपया आगे की सूचना सुन लें.’ सारे चिंतकों की सांसे थम गई.

संदेशवाहक उवाचा, ‘इस्तीफा देने के बाद आलाकमान ने पुन: घोर चिंतन किया और उसके पश्चात इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इस्तीफा देना किसी बात का हल नहीं. अत: उन्होंने अपना इस्तीफा अपने आप से वापस ले लिया.’

यह खबर सुनते ही चिंतकों की जान में जान आई और उन्होंने पुन: पूरे जी जान से चिंतन शिविर में चिंतन करना शुरू कर दिया.