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प्रिंस

पिंस अपने पपता के साथ. फोटोः पितेंद्र पसंह चुघ
प्रिंस अपने पिता के साथ. फोटोः जितेंद्र सिंह चुघ
प्रिंस अपने पिता के साथ. फोटोः जितेंद्र सिंह चुघ

2006 में जिस प्रिंस के बारे में पूरा देश जान गया था. आज वह बिल्कुल वैसा ही है जैसे गांव के दूसरे लड़के. हां बस एक अंतर यह है कि इन दूसरे लड़कों में से कोई कभी बोरवेल में नहीं गिरा.

21 जुलाई 2006. हरियाणा में कुरुक्षेत्र जिले के एक छोटे-से गांव हल्देहड़ी में रहने वाला पांच साल का प्रिंस खेतों में घूमते-घूमते 55 फीट गहरे बोरवेल में गिर गया. राहत के लिए स्थानीय स्तर पर हुई शुरुआती नाकाम कोशिशों के बाद सेना को बुलाया गया. पूरे दो दिन के ‘राहत-बचाव कार्य’ के बाद इस बच्चे को बोरवेल से सुरक्षित निकाल लिया गया. यही वे 50 घंटे थे जिनके दौरान प्रिंस नाम के इस बच्चे के बारे में पूरा भारत जान गया. सेना की इस पूरी कार्रवाई की मीडिया में भारी कवरेज का असर ऐसा था कि हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री प्रिंस के गांव पहुंच गए थे और तब तक वहीं रहे थे जब तक उसे गड्ढे से निकाल नहीं लिया गया. इस दौरान उन्होंने घोषणा की थी कि प्रिंस के पिता रामचंद्र को सरकारी नौकरी दी जाएगी. तब प्रिंस के परिवार को तकरीबन आठ लाख रुपये मिले थे. इनमें से दो लाख राज्य सरकार ने दिए थे और पांच लाख मुंबई स्थित एक समाचार चैनल नेे. तकरीबन एक लाख रुपये दूसरे कई लोगों की तरफ से मिले थे.

प्रिंस को बचाए जाने के कई महीनों बाद तक आसपास के गांव से लोग केवल उसे देखने के लिए उसके घर आते रहे. उसे पूजा,जागरण और दूसरे धार्मिक आयोजनों में खास मेहमान के तौर पर बुलाया जाने लगा. हर तरफ प्रिंस की चर्चा थी. लेकिन धीरे-धीरे यह सब थम गया. लोगों का आना-जाना कम हुआ. प्रिंस की पूछ भी कम हो गई. तब और अब के बीच आठ साल का समय निकल चुका है. वह पांच साल का बच्चा अब 12 साल का किशोर हो चुका है. जुलाई वाली घटना और उसके तुरंत बाद की जिंदगी के बारे में प्रिंस कहता है, ‘मुझे ज्यादा कुछ याद नहीं है. हल्का-हल्का याद है.’

हल्देहड़ी के ही रहने वाले जसमिंदर सिंह प्रिंस के बारे में कहते हैं, ‘बचपन में तो बड़ा जिंदादिल था तभी तो गड्ढे में फंसा रहने बाद भी वह डरा नहीं, कोई मानसिक झटका नहीं लगा. हालांकि अब वह थोड़ा शर्मीला हो गया है. ज्यादा बातें नहीं करता. दूसरे लड़कों के साथ ज्यादा खेलता-कूदता भी नहीं है. खेलकूद के समय दूसरे लड़कों को खेलते हुए देखना उसे पसंद है.’

जब प्रिंस को बचाया गया था तब डीएवी स्कूल ने घोषणा की थी कि उसकी आगे की पढ़ाई की जिम्मेदारी संस्थान की रहेगी. शाहाबाद के डीएवी स्कूल में उसका नाम भी लिखाया गया, लेकिन कुछ ही महीनों के बाद उसने यह स्कूल छोड़ दिया. क्यों, पूछने पर उसके पिता रामचंद्र बताते हैं कि वह उस स्कूल के दूसरे बच्चों के साथ और वहां के परिवेश के साथ तालमेल नहीं बिठा पाया. स्कूल के टीचर उसपर दूसरे बच्चों से ज्यादा ध्यान देते थे इसलिए कुछ समय बाद ही उसने जिद पकड़ ली कि वह स्कूल नहीं जाना चाहता. फिलहाल प्रिंस गांव के दूसरे लड़कों की तरह ही पास के समलखा गांव के सीनियर सेकेंडरी स्कूल में पढ़ रहा है. पढ़ने-लिखने में औसत है.

रामचंद्र अपने बेटे के चर्चा में आने से पहले बटाई पर खेती करते थे. आज भी वे वही कर रहे हैं. हालांकि उन्हें उम्मीद थी कि राज्य सरकार ने नौकरी देने की जो बात कही थी उसे अमल में भी लाया जाएगा. लेकिन ऐसा हुआ नहीं. वे बताते हैं, ‘सरकार के इस वादे पर बहुत उम्मीद टिकी थी. नौकरी के लिए मैंने कोशिश भी की. कई महीनों तक सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगाए. वहां के बाबुओं को याद भी कराया कि मुख्यमंत्री ने खुद नौकरी देने की बात कही थी. लेकिन इस सब से कोई फायदा नहीं हुआ.’ सरकारी महकमे से परेशान रामचंद्र वापस अपने गांव के खेतों पर लौट आए.

प्रिंस के परिवारवालों को अब बस सेना से उम्मीद है जिसने वादा किया था कि 18 साल का होने पर उसे सेना में ले लिया जाएगा

इसी बीच प्रिंस की मां कर्मजीत और पिता रामचंद्र अलग हो गए. रामचंद्र ने दूसरी शादी भी कर ली. अपनी पहली पत्नी से अलग होने की वजह के बारे में रामचंद्र बात नहीं करना चाहते. वे केवल इतना कहते हैं, ‘प्रिंस की मां ममता (उनकी दूसरी पत्नी) ही है. कर्मजीत को गए हुए तीन साल से ज्यादा हो चुका है और उसने आजतक कभी फोन करके भी बच्चे का हालचाल नहीं जानना चाहा.’ रामचंद्र अपने लड़के के भविष्य को लेकर थोड़े परेशान भी रहते हैं. वे कहते हैं, ‘परिवार की माली हालत भी बहुत अच्छी नहीं है. हम तो चाहते हैं कि प्रिंस किसी तरह पढ़ाई चालू रखे और जब 18 साल का हो जाए तो सेना में भर्ती हो जाए.’

पिता की बातचीत से यह अंदाजा हो जाता है कि पूरा परिवार अब सेना से मिले उस भरोसे के सहारे ही है जिसमें कहा गया था कि जब प्रिंस 18 साल का हो जाएगा और सेना के मापदंडों पर खरा उतरेगा तो उसे भारतीय सेना में नौकरी दे दी जाएगी.

इसी बातचीत में प्रिंस के पिता उस आठ लाख रुपये के बारे में भी बताते हैं. वे कहते हैं,  ‘पैसे तो बहुत पहले ही खर्च हो गए. उस पैसे से ही हमने चार कमरों का पक्का मकान बनाया और एक मोटरसाइकिल खरीद ली.’  घर के दो कमरों में प्रिंस का परिवार रहता है और बाकी के दो कमरे स्टोर रूम की तरह इस्तेमाल हो रहे हैं. जिस मोटरसाइकिल के बारे में प्रिंस के पिता बता रहे थे उसकी नंबर प्लेट पर लाल रंग से ‘प्रिंस’ लिखा हुआ है.

शबनम मौसी

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‘देश की पहली किन्नर विधायक’. यही शबनम मौसी का एक वाक्य में जीवन-परिचय है. किन्नरों को वोट डालने का अधिकार मिलने के केवल पांच वर्ष बाद ही 1999 में एक निर्दलीय के रूप में भारी मतों से चुनाव जीत कर शबनम मौसी रातों रात राष्ट्रीय फलक पर स्थापित हो गई थीं. मध्य प्रदेश के शहडोल जिले की सोहागपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनकर आई इस विधायक का विधानसभा में एक अलग ही अंदाज होता था. भाषण जोरदार देती थीं और बातें दिलचस्प करती थीं. उस वक्त के मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के हाथों में राखी बांध चुकी थीं और यही सब उनसे अखबारों को चाहिए भी था. कहते हैं अपने विधानसभा क्षेत्र में उन्होंने काम भी काफी करवाया. अफसरों, नेताओं से लड़-झगड़कर, दबंगई कर वे अपने इलाके के लिए सुविधाएं ले आती थीं. दिग्विजय सिंह उनकी तारीफ करते थे और चाहते थे कि वे विरोध में न रहकर उनकी तरफ रहें, लेकिन शबनम बेखौफ रहकर लोगों की चहेती बन रहीं थीं, शानदार राजनीतिक भविष्य की तरफ बढ़ रही थीं.

‘उन दिनों मध्यप्रदेश की राजनीति बुरे दौर से गुजर रही थी. मंत्रियों ने जनता के लिए काम करना बंद कर दिया था. शायद इसलिए लोगों ने सोचा कि नर को देख लिया, नारी को देख लिया, अब किन्नर को देखते हैं.’  शबनम मौसी बताती हैं और हंसती हैं. उन दिनों के राजनीतिक चिंतकों को लगने लगा था कि किन्नरों को समाज और राजनीति में सम्मानजनक स्थान दिलाने में मध्य प्रदेश अग्रणी होने वाला है. इसकी वजह भी थी. शबनम मौसी के जीतने के कुछ वक्त बाद ही चार और किन्नर मध्य प्रदेश की अलग-अलग नगर पालिकाओं  में चुने गए. कमला जान कटनी की महापौर बनीं, मीनाबाई सीहोरा नगरपालिका की अध्यक्ष, हीरा बाई जबलपुर और गुलशन बीना की कॉर्पोरेटर. लोग इन्हें पांच पांडव बुलाने लगे. राजनीति में ऐसे जोरदार प्रवेश के बाद प्रदेश के किन्नरों का आत्मविश्वास बढ़ने लगा और वे नई-नई चीजों में हाथ आजमाने लगे. 2001 में भोपाल में हुई किन्नरों की मिस वर्ल्ड प्रतियोगिता उसी आत्मविश्वास का उदाहरण थी. उसी दौरान शबनम मौसी राष्ट्रीय स्तर पर समाज सेवा भी करने लगीं और जब संयुक्त राष्ट्र संघ ने अपने एड्स विरोधी अभियान के विज्ञापन के लिए उन्हें अकेले भारतीय चेहरे के रूप में चुना तो अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर भी वे पहचानी जाने लगीं.

लेकिन यह शबनम मौसी के विधायक बनने के शुरुआती दिनों की मनोहर कहानी है. कुछ वक्त गुजरने के बाद ही मध्य प्रदेश विधानसभा में उनका मजाक बनाया जाने लगा, जिसमें कांग्रेसी नेता सबसे आगे थे. वे शबनम पर फब्तियां कसते, उनके उठाए सवालों पर हंसते थे और उनके किन्नर होने को बार-बार मुद्दा बनाते थे. शबनम मौसी पर खुद असभ्य व्यवहार के आरोप भी लगने लगे. कहते हैं उन पर कांग्रेस विधायक बिसाहूलाल सिंह की कृपा थी, लेकिन एक बार विधानसभा की लॉबी में दोनों में इस कदर झगड़ा हुआ कि आवाजें सदन तक पहुंचीं. और झगड़ा भी. विवाद इतना बढ़ा कि शबनम मौसी कांग्रेस विधायक के पीछे जूता लेकर दौड़ गईं. इससे एक दिन पहले ही वे प्रदेश सचिवालय पहुंच कर जोरदार हंगामा खड़ा कर चुकी थीं. इस तरह की कुछ और अप्रिय घटनाओं ने उन्हें प्रदेश की विधानसभा में बहिष्कृत-सा कर दिया. उन पर अपहरण गिरोह चलाने का भी आरोप लगा. इन आरोपों और घटनाओं ने शबनम मौसी की लोकप्रियता का क्षेत्रफल और उसका घनत्व काफी कम कर दिया. यह समझ कर वे बीजेपी और कांग्रेस दोनों के करीब जाने की कोशिश करने लगीं लेकिन किसी ने उन्हें हाथ नहीं लगाया. ‘मैं सोनिया गांधी से भी मिली. उन्होंने सहानभूति भी दिखाई लेकिन उस समय के प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष राधा किशन मालवीय और उन जैसे दूसरे कांग्रेसी नेताओं की वजह से मुझे पार्टी में शामिल नहीं किया गया’. आखिरकार, 2003 के विधानसभा चुनावों में वे बुरी तरह हारीं. इन चुनावों में प्रदेश के किन्नरों द्वारा मिलकर बनाई गई पार्टी ‘जीती जिताई पार्टी’ ने मध्य प्रदेश में सौ से ज्यादा किन्नरों को चुनाव में उतारा, और शबनम मौसी सहित सभी हारे. राजनीतिक चिंतक सही सिद्ध नहीं हो सके.

यहीं से शबनम मौसी के राजनीतिक जीवन के पटाक्षेप की शुरुआत हुई. उनके साथ उस तरह के लोग भी नहीं थे जो दम लगा के कह सकें, ‘अभी न परदा गिराओ कि ठहरो, दास्तान अभी और भी है’. 2005 में हालांकि उन पर बनी आशुतोष राणा अभिनीत फिल्म ‘शबनम मौसी’ आई, लेकिन कुछ वक्त की त्वरित प्रसिद्धि के अलावा वह मौसी को कुछ नहीं दे पाई. राजनीति में हाशिए पर पहुंच चुकी शबनम मौसी ने फिर हर मौजूदा राजनीतिक पार्टी के दरवाजे की सांकल बजाना शुरू किया. 2008 में दरवाजा खोला लालू प्रसाद यादव की आरजेडी ने जिसकी तरफ से शबनम 2008 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों में खड़ी हुई और एक बार फिर बुरी तरह हारीं. ‘लालू चीटर है, हमको चीट किया. चुनाव में कैंपेन करने तक नहीं आया’, हारने के बाद ऐसा कहकर शबनम मौसी ने लालू की पार्टी छोड़ दी. चार साल बाद 2012 में उन्होंने मध्य प्रदेश भी छोड़ा और उत्तर प्रदेश के कानपुर कैंट क्षेत्र से ‘राष्ट्रीय विकलांग पार्टी’ की तरफ से चुनाव लड़ा. इससे पहले कि इसे आप उनकी राजनीतिक जीवटता समझें, आगे पढ़िए. 1999 की वह स्टार विधायक जो सोहागपुर सीट 18 हजार मतों से जीती थी, उतने मत जितने उस वक्त के कांग्रेस और बीजेपी उम्मीदवारों के मिलाकर भी नहीं थे, उसको 2012 में सिर्फ 118 वोट मिले. पूछने पर कहती हैं, ‘अब मुझे यह तो पता नहीं है कि मुझे कानपुर में कितने वोट मिले, लेकिन मौका मिला तो मैं अगला चुनाव भी जरूर लडूंगी’. अगला विधानसभा चुनाव वे कहां से लड़ेंगी और किस पार्टी की तरफ से, उन्हें अभी इसकी अनुभूति नहीं हुई है.

‘मैं सोनिया गांधी से भी मिली. उन्होंने सहानभूति भी दिखाई लेकिन प्रदेश कांग्रेस नेताओं की वजह से मुझे पार्टी में शामिल नहीं किया गया’

1955 की मुंबई में एक पुलिस अफसर के यहां जन्मी शबनम मौसी का जन्म का नाम चंद्र प्रकाश था लेकिन परिवार ने नकारा, तो पालन-पोषण आदिवासी परिवार में हुआ. आठवीं तक पढ़ी शबनम मौसी जीविका की तलाश में बंबईया फिल्म इंडस्ट्री का हिस्सा भी बनीं. उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ भी फिल्म की और राजेश खन्ना के साथ भी. अमर अकबर एंथोनी, जनता का हवलदार, कुंवारा बाप. बाद में वे मध्य प्रदेश आ गईं और समाज सेवा करने लगीं. यहीं से राजनीति में आईं. कहते हैं उन्हें 14 भाषाओं का ज्ञान है. अंग्रेजी का तो जरूर है, यह पता चलता है क्योंकि बातचीत में वे ‘आई एम बिजी राइट नाऊ’ बार-बार कहने में काफी रुचि लेती हैं. वैसे आजकल उनकी व्यस्तता मध्य प्रदेश स्थित अनूपपुर के मंदिरों में शाम को प्रभु की आरती करना, भजन गाना, समाज सेवा करना (उनके अनुसार), और जब कभी किन्नरों को लेकर कोई राष्ट्रीय खबर बने, तो अपने फोन बजने का इंतजार करना है. हमारे टीवी न्यूज चैनल उन्हें इसी सिलसिले में फोन करते हैं, कभी थर्ड जेंडर की मान्यता पर तो कभी मध्य प्रदेश सरकार के किन्नरों को नौकरी देने के लिए डेटाबेस बनाने और एक बोर्ड का गठन करने पर बाइट लेने के लिए, फोनो लेने के लिए.

कुछ समाज जिम्मेदार है और कुछ वे खुद कि आज हिंदुस्तान की पहली किन्नर विधायक शबनम मौसी हाशिए पर बैठी हैं, समाज में अपनी जगह तलाश रहीं हैं, पुराने दिनों की यादों में अपना आज गुजार रही हैं.

असीम त्रिवेदी

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फोटोः विकास कुमार

‘मैं भी अन्ना, तू भी अन्ना, अब तो सारा देश है अन्ना.’ साल 2011 में यह नारा लगभग सारे देश में गूंज उठा था. अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ देश के लाखों लोग ‘अन्ना’ हो गए थे. जनलोकपाल कानून की मांग का यह आंदोलन 2012 तक देश के कोने-कोने में फैल गया था. रैलियों, भूख हड़तालों और प्रदर्शनों के साथ ही पोस्टर, बैनर, लेख, कविताएं, कार्टून और कई अन्य माध्यमों से भी लोग भ्रष्टाचार का विरोध करने लगे थे. इसी बीच मुंबई में इस आंदोलन से जुड़े एक युवक को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया. आरोप उन कार्टूनों का नतीजा था तो इस युवक ने बनाए थे. इस गिरफ्तारी की खबर फैलते ही देश भर में इसका विरोध होने लगा. नौ सितंबर, 2012 को मुंबई पुलिस को इस युवक को बांद्रा कोर्ट में पेश करना था. स्थानीय आंदोलनकारियों के साथ ही इस घटना के सीधे प्रसारण के लिए कई समाचार चैनल कोर्ट के बाहर मौजूद थे. इसी बीच मुंबई पुलिस इस युवक को लेकर वहां पहुंची. काला कुर्ता पहने लंबे बाल और बढ़ी हुई दाढ़ी वाला यह 24 साल का युवा पुलिस के घेरे के बीच ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे लगाता हुआ कोर्ट में पेश हुआ. इसी क्रांतिकारी अंदाज में देश की जनता ने पहली बार असीम त्रिवेदी नाम के इस युवा को देखा. असीम देशभर की सुर्खियों में आने के साथ ही आंदोलन के मुख्य चेहरों में से एक बन गया.

कार्टून बनाने के लिए हुई असीम की गिरफ्तारी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला माना गया. सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश और प्रेस परिषद के अध्यक्ष जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने असीम पर लगे देशद्रोह के आरोपों की खुलकर निंदा की. इस बीच असीम ने भी जमानत लेने से इंकार कर दिया. इसके बाद दिल्ली से लेकर महाराष्ट्र तक असीम के समर्थन में लोग प्रदर्शन करने लगे. महाराष्ट्र उच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से असीम को दो दिन बाद जेल से रिहा किया गया. उन पर लगे देशद्रोह के आरोप भी सरकार को वापस लेने पड़े. अब तक असीम एक चर्चित चेहरा बन चुके थे. लेकिन उन्हें समाचार चैनलों के दर्शकों से इतर भी पहचान मिलना अभी बाकी था. यह पहचान उनको मिली मशहूर टीवी शो ‘बिग बॉस’ से. रिहाई के कुछ समय बाद ही असीम ‘बिग बॉस-6’ में शामिल हुए और इस शो के माध्यम से घर-घर तक पहुंच गए.

2012 में बिग बॉस से निकलने के बाद से असीम सुर्खियों से गायब हैं. उनको पहचान तब मिली थी जब वे मुंबई से देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तार हुए थे. लेकिन असलियत में असीम अपने काम से अपनी पहचान पहले ही बना चुके थे. 2004 में स्कूल की पढ़ाई पूरी करने के बाद असीम आईआईटी की तैयारी कर रहे थे. वे बताते हैं, ‘मैं तैयारी कर तो रहा था लेकिन मन इंजीनियर बनने का नहीं था. मैं पत्रिका निकालना चाहता था. इसके लिए मैंने कई तरह की पत्रिकाओं को देखना-पढ़ना शुरू किया. तभी मुझे बीवी सत्यमूर्ति की एक किताब मिली. यह कार्टूनों पर थी. यहीं से मेरा शौक जागा और मैंने कार्टून बनाना शुरू किया. मैं पत्रिका तो नहीं निकाल सका लेकिन मैंने बतौर कार्टूनिस्ट काम शुरू कर दिया.’

कुछ समय तक अखबारों और स्वतंत्र रूप से काम करने के बाद असीम ने अपने कुछ साथियों के साथ मिलकर एक ऑनलाइन पोर्टल शुरू कर दिया. ‘दखलंदाजी’ नाम से शुरू हुए इस पोर्टल में जल्द ही देश के कई हिस्सों के लोग जुड़ गए और इसमें नियमितरूप से लिखने लगे. यहां से असीम की एक टीम तैयार हो गई. 2011 में जब अन्ना आंदोलन शुरू हुआ तो असीम अपनी इसी टीम के साथ दिल्ली पहुंच गए. ‘इंडिया अगेंस्ट करप्शन’ के बैनर तले चल रहे अन्ना आंदोलन को मजबूती देने के लिए असीम ने अपने साथियों के साथ मिलकर ‘कार्टून अगेंस्ट करप्शन’ शुरू किया. यह एक ऐसा मंच था जिसमें देश भर के लोग कार्टूनों के माध्यम से भ्रष्टाचार का विरोध करते थे. ‘कार्टून अगेंस्ट करप्शन’ की एक वेबसाइट भी असीम ने बनाई और भ्रष्टाचार विरोधी कई कार्टून इस वेबसाइट में दर्शाए. इनमें से कुछ कार्टून ऐसे थे जिन्हें कुछ लोगों ने इसलिए आपत्तिजनक माना कि उनमें राष्ट्रीय प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ था. मुंबई में एक अधिवक्ता ने इस संबंध में शिकायत दर्ज की जिसके बाद ‘कार्टून अगेंस्ट करप्शन’ को मुंबई क्राइम ब्रांच ने प्रतिबंधित कर दिया. इसी शिकायत पर आगे चलकर असीम की गिरफ्तारी भी हुई थी.

असीम को गिरफ्तारी से पहले ही ‘करेज इन एडिटोरियल कार्टूनिंग अवॉर्ड’ के लिए भी चुन लिया गया था. यह अवॉर्ड उनको सीरिया के उस मशहूर कार्टूनिस्ट अली फर्जत के साथ दिया गया जिन्हें टाइम पत्रिका ने दुनिया के सौ सबसे प्रभावशाली लोगों की सूची में भी शामिल किया था. 2012 की शुरुआत में जब ‘कार्टून अगेंस्ट करप्शन’ पर प्रतिबंध लगा तो असीम ने इसके खिलाफ ‘सेव योर वॉइस’ नाम से एक अभियान शुरू किया. इस अभियान में असीम के बचपन के दोस्त आलोक दीक्षित भी उनके साथ थे. आलोक आज एसिड अटैक से प्रभावित लोगों के लिए चलाए जा रहे अभियान ‘स्टॉप एसिड अटैक’ की शुरुआत करने के लिए भी जाने जाते हैं.  असीम बताते हैं, ‘मेरी गिरफ्तारी के बाद बहुत-सी चीजें बदल गईं. मुझे भले ही बड़े स्तर पर पहचान मिली लेकिन हमारा अभियान कमजोर हो गया. अब शायद उस तरह से अभियान चलाना संभव नहीं है जैसे हमने शुरुआती दौर में चलाया था.’ अपनी आगे की योजनाओं के बारे में वे कहते हैं, ‘हम लोग एक साप्ताहिक पत्रिका निकालने पर विचार कर रहे हैं. यह पूरी तरह से कार्टूनों को ही समर्पित होगी. हम एक ऐसा मंच तैयार करना चाहते हैं जो कार्टूनिस्ट को खुलकर मौका दे.’

कार्टून पत्रिका की तैयारियों के अलावा असीम दिल्ली के कटवारिया सराय में एक कैफे भी चला रहे हैं. ‘द न्यूज कैफे’ नाम के इस कैफे की टैगलाइन है ‘चाय,कॉफी और खबरें.’ इस कैफे को किसी समाचार चैनल के न्यूजरूम की शक्ल देने की कोशिश की गई है. कैफे की दीवारों पर हिंदी, अंग्रेजी और विभिन्न क्षेत्रीय भाषाओं के अखबारों के साथ ही देश की कई प्रतिष्ठित पत्रिकाएं लगाई गई हैं. इनके अलावा चैनलों की ‘ओबी वैन’ और आईडी वाले माइकों के कई कृत्रिम मॉडल यहां बनाए गए हैं. कैफे में आने वाले लोगों के लिए यहां कई उपन्यास भी रखे गए हैं. इस कैफे के अलावा असीम कटवारिया सराय में ही ‘नवरस’ नाम का एक रेस्टोरेंट भी चला रहे हैं. इन दिनों अपना अधिकतर समय कैफे में लगाने वाले असीम आगे के बारे में बताते हैं ‘मैं जिंदगी को एक यात्रा की तरह देखता हूं जिसमें कई पड़ाव आते हैं. कार्टून अगेंस्ट करप्शन, बिग बॉस, सेव योर वॉइस ये सभी एक पड़ाव थे. ऐसे ही और भी कई पड़ाव आगे आएंगे जिनका मुझे इन्तजार भी है. एक्टिविज्म भी जारी रहेगा लेकिन अब तरीके शायद पहले से अलग होंगे.’

बुधिया सिंह

अपनी कोच ुपधविता पांडा के साथ बुधिया धसंह

 

अपनी कोच रुपन्विता पांडा के साथ बुधिया सिंह.
अपनी कोच रुपन्विता पांडा के साथ बुधिया सिंह.

यदि किसी की उम्र महज आठ साल हो और उसके इतने सालों को ही एक फिल्म बनाने लायक समझा जाए तो कहा जा सकता है कि उस बच्चे ने दूध के दांत टूटने के पहले ही बड़े-बड़े उतार-चढ़ाव देख लिए हैं. फिल्म भी कोई ऐसी-वैसी नहीं बल्कि जिसे अपनी श्रेणी में दुनिया की दस सर्वश्रेष्ठ डॉक्यूमेंटरी फिल्मों में शुमार किया गया हो. ब्रिटेन की निर्देशक गेम्मा अटवाल की ‘मैराथन बॉय’ को 2011 में धावकों पर बनी दुनिया की दस सर्वश्रेष्ठ फिल्मों में शामिल किया गया था. इस फिल्म के साथ एक रिकॉर्ड यह भी था कि इसे दुनिया के सबसे नन्हे धावक बुधिया सिंह की जिंदगी पर बनाया गया.

‘मैराथन बॉय’ जब 2010 में रिलीज होकर सुर्खियां बटोर रही थी तो उस समय तक भुवनेश्वर की सलिया साही झुग्गी झोपड़ी से निकलकर पूरे भारत में नाम कमानेवाला बुधिया गुमनामी में खो चुका था. अटवाल अपनी फिल्म के बारे में कहती हैं, ‘ बुधिया के जीवन की उतार चढ़ाव भरी कहानी उम्मीदों व अवसरों की टेक पर आगे बढ़ती है और लालच, भ्रष्टाचार और बिखरते सपनों पर खत्म होती है.’

अटवाल की बात कुछ हद तक बिल्कुल सही है. चार साल के बुधिया के बारे में 2005 में जब पहली बार यह पता चला कि वह लगातार कई किलोमीटर तक दौड़ सकता है तो मीडिया के लिए यह खबर आठवें आश्चर्य के स्तर की थी. उसे वैसे चलाया भी गया. खबर यह भी आई कि वह एक बार लगातार सात घंटे तक दौड़ता रहा और उसने एक दिन तकरीबन 48 किलोमीटर की दूरी तय कर ली. मतलब चार साल का एक लड़का मैराथन (42 किमी) से ज्यादा दूरी दौड़ रहा था! सिलसिला यहां आकर रुका नहीं. यह भी कहा जा रहा था कि वह इतनी कम उम्र में 40 से ज्यादा बार मैराथन दौड़ के बराबर दूरी तय कर चुका है. ऐसा राज्य जो राष्ट्रीय स्तर पर कम ही चर्चा में रहता हो, के लिए यह बच्चा उड़िया अस्मिता का प्रतीक बन गया. बुधिया सिंह सार्वजनिक कार्यक्रमों में मुख्य अतिथि बनकर जाने लगा. वह कुछ गाने के वीडियों में भी आया और ये उडि़याभाषी वीडियो रिकॉर्ड तोड़ बिके. इस पूरे घटनाचक्र की एक और खासबात थी. यहां बुधिया अकेले नहीं था. उसके साथ नायक का दर्जा बिरंची दास को भी मिला जो इस नन्हे धावक के स्वघोषित कोच थे.

स्थानीय जूडो कोच बिरंची को बुधिया मिलने की कहानी भी कम रोचक नहीं है. कहा जाता है कि बुधिया के पिता का देहांत होने के बाद उसकी मां सुकांति सिंह के लिए अपने इस सबसे छोटे बेटे और तीन बेटियों का पालन पोषण बहुत मुश्किल हो गया. ऐसे में उन्होंने कुछ रुपयों के बदले एक व्यक्ति को बुधिया सौंप दिया. बाद में बिरंची ने इस व्यक्ति से बुधिया को अपने संरक्षण में ले लिया. हालांकि बहुत सारे स्थानीय पत्रकार इस कहानी को झूठा बताते हैं. उनके मुताबिक सुकांति सिंह ने ही बिरंची को बुधिया दिया था. 2005 के बाद से इस गुरु-शिष्य की जोड़ी लगातार चर्चा में आती रही.

इन्हीं दिनों भारत की उड़नपरी पीटी ऊषा भी भुवनेश्वर पहुंची. उनसे जब यहां किसी ने बुधिया के बारे में सवाल पूछा तो उनका कहना था कि वे इस बच्चे की सेहत को लेकर चिंतित हैं क्योंकि उसे बार-बार लंबी दूरी तक दौड़ाया जा रहा है और इससे उसकी सेहत पर गंभीर स्थायी प्रभाव पड़ेगा. इस बयान ने उन बाल अधिकार संगठनों को प्राणवायु दे दी जो शुरू से बुधिया की मैराथन दौड़ का विरोध कर रहे थे. इन संगठनों का मानना था कि पैसे और ख्याति के लिए इस बच्चे का शोषण किया जा रहा है. लेकिन उस समय बुधिया के पक्ष में जिस तरह का माहौल था, उड़ीसा सरकार भी इस मसले पर कुछ कहने से कतरा रही थी. इसी समय बिरंची दास ने घोषणा कर दी कि बुधिया पुरी से लेकर भुवनेश्वर तक 65 किमी की दूरी तय करेगा. मई में आयोजन की तारीख भी तय हो गई. लेकिन इस बार यह इतना आसान नहीं था. बाल अधिकार संगठनों की मांग का समर्थन करते हुए उड़ीसा सरकार की खेल मंत्री प्रमिला मलिक ने कहा कि सरकार इस आयोजन के पक्ष में नहीं है. मलिक का कहना था, ‘ यदि बुधिया को कुछ हो जाता है तो उसकी जवाबदेही आखिरकार सरकार की होगी.’

राज्य सरकार के महिला और बाल विकास विभाग ने आयोजन के पहले पांच डॉक्टरों की टीम गठित कर दी थी. इसकी जिम्मेदारी थी कि वह जांच कर बताए कि बुधिया के शरीर पर इतनी लंबी दौड़ का क्या असर पड़ा.  मई, 2006 में दौड़ के आयोजन वाले दिन भुवनेश्वर से लेकर पुरी तक मीडियाकर्मियों का बड़ा हुजूम था. उस दिन नियत समय पर चिलचिलाती धूप में बुधिया ने पुरी से दौड़ना शुरू किया और मीडिया के ही मुताबिक वह बिना रुके लगातार सात घंटे तक दौड़ता रहा. हालांकि इस कारनामे पर भी कई लोग सवाल उठाते हैं. जगतसिंहपुर जिले के निवासी और वर्तमान में इग्नू के दिल्ली केंद्र में पढ़ाई कर रहे ज्ञानी डोम बताते हैं, ‘ मैं और मेरे कई परिचित उस समय वहीं थे. मीडिया ने इस बात को कभी नहीं दिखाया कि बुधिया उस पूरी दौड़ में कई बार बीच में रुका और एकाध बार तो बेहोशी की हालत में आ गया था. हालांकि उस कड़ी धूप में साढ़े चार साल की उम्र का बच्चा इतना भी कर ले तो उसकी चर्चा होनी चाहिए. पर वह रिकॉर्ड वाली बात सही नहीं है.’

बुधिया बीती फरवरी में 12 साल का हो गया है और नियमों के मुताबिक वह इस साल से आधिकारिक प्रतियोगिताओं हिस्सा ले पाएगा

बुधिया के भुवनेश्वर पहुंचने पर डॉक्टरों की टीम ने उसका चिकित्सकीय परीक्षण किया था. इस समिति के नतीजे ही वे आधार बने जिनके बाद राज्य सरकार ने बुधिया के लंबी दूरी वाली दौड़ पर प्रतिबंध लगा दिया. डॉक्टरों का कहना था कि इस दौड़ से बुधिया का शरीर अति थकावट वाली स्थिति में आ गया है और उसके हृदय पर अत्यधिक दबाव पड़ा है. उन्होंने चेतावनी भी दी कि यदि वह इतनी लंबी दूरी की दौड़ जारी रखता है तो उसकी जिंदगी खतरे में पड़ सकती है. बिरंची दास के लिए सरकार के इस फैसले का कोई मायने नहीं था. अभी-भी वे बुधिया को प्रशिक्षण दे रहे थे और उन्हें उम्मीद थी कि उनके शिष्य का जादू अभी और चलेगा. साल 2007 बिरंची और बुधिया दोनों के लिए अति नाटकीय ढंग से निर्णायक साबित हुआ. बिरंची दास ने इस साल फिर एक घोषणा की. उन्होंने कहा कि अब बुधिया लगातार पैदल चलकर 300 किमी की दूरी तय करेगा. भुवनेश्वर की जिस सड़क पर यह आयोजन होना था उस दिन वहां पुलिस के दर्जनों जवान बैरीकेड लगाकर तैनात थे. बुधिया जैसे ही कुछ कदम चला उन्होंने इस नन्हे खिलाड़ी,  उसके कोच और कुछ लोगों की भीड़ को रोक लिया. समाचार चैनलों के लिए यह दृश्य उस दिन का सबसे बड़ा दृश्य बन गया जिसमें पुलिस बुधिया को उस भीड़ से लगभग छीनते हुए अपने साथ ले जा रही थी. बुधिया के जीवन का यह आखिरी सार्वजनिक आयोजन था और संयोग से उसके कोच बिरंची दास का भी.

2007 में ही एकबार फिर मीडिया में ये गुरु शिष्य दिखाई दिए लेकिन एक साथ नहीं. बुधिया की मां ने बिरंची पर आरोप लगाए कि वे उनके बेटे को प्रताड़ना देते थे. अपनी मां की बात सही साबित करते हुए बुधिया ने भी अपने शरीर पर मारपीट और जलाने के कई निशान दिखाए. बिरंची दास उस एक ही दिन में सबसे बड़े खलनायक बन गए और आखिरकार पुलिस ने उनपर केस दर्जकर उन्हें हिरासत में ले लिया. बिरंची दास की इस घटना के ठीक एक साल बाद ही हत्या हो गई हो गई थी. हालांकि इसका बुधिया सिंह से कोई लेना देना नहीं था. इधर बुधिया को राज्य सरकार ने भुवनेश्वर स्थित कलिंग स्टेडियम स्पोर्टस हॉस्टल में भर्ती कर दिया. वह आज भी  यहीं है और डीएवी स्कूल में सातवीं का छात्र है. आज आठ साल पहले के एक नन्हे धावक और सरकारी हॉस्टल के किशोरवय में पहुंच रहे लड़के के जीवन में कई बदलाव आ चुके हैं. सबसे बड़ा तो यही कि अब वह लंबी दूरी की दौड़ में हिस्सा नहीं लेता. बुधिया की कोच रूपन्विता पांडा बताती हैं, ‘ भारतीय एथलेटिक्स संघ के नियमों के मुताबिक कम से कम 14 साल का बच्चा ही लंबी दौड़, जो 600 मीटर की होती है, में भाग ले सकता है. जबकि बुधिया तो 12 साल का ही है.’  बुधिया की मां सुकांति सिंह जो कुछ साल पहले तक दो वक्त के खाने के लिए मोहताज थीं आज कलिंग इंस्टीट्यूट ऑफ इंडस्ट्रियल टेक्नालॉजी में सफाई कर्मचारी हैं. सुकांति को अपने बेटे के हॉस्टल से बस एक दिक्कत है कि वहां उनके बेटे को ठीक खाना नहीं मिलता. रूपन्विता इसपर कहती हैं, ‘ हम यहां वैज्ञानिक तरीके से बच्चों को प्रशिक्षण देते हैं. बच्चों की डाइट भी उसी का हिस्सा है लेकिन आम लोग इसको नहीं समझते.’

आज बुधिया हॉस्टल में कबड्डी से लेकर बास्केटबॉल तक सभी खेल खेलता है. हालांकि जिस खेल उसे भविष्य का सबसे बड़ा सितारा समझा जा रहा था उसमें वह पीछे है

आज बुधिया हॉस्टल में कबड्डी से लेकर बास्केटबॉल तक सभी खेल खेलता है. हालांकि जिस खेल में उसे भविष्य का सबसे बड़ा सितारा समझा जा रहा था उसमें वह पीछे है. हॉस्टल के एक कर्मचारी नाम न बताने की शर्त पर जानकारी देते हैं, ‘ बुधिया अपने ही साथ के लड़कों से दौड़ में हार जाता है. स्पीड नहीं है उसमें.’  हालांकि रूपन्विता इससे चिंतित नहीं हैं. वे कहती हैं, ‘ बुधिया की सबसे खास बात है कि वह बिना थके बहुत देर तक दौड़ सकता है. हम उस पर बहुत अधिक दबाव डाले बिना उसकी शारीरिक क्षमता बढ़ा रहे हैं. लंबी दूरी की दौड़ में वह अच्छा प्रदर्शन कर सकता है.’

बुधिया इस साल फरवरी में 12 साल का हो गया है. अब वह आधिकारिक रूप से अंतरस्कूल स्पर्धाओं में भाग ले सकता है. इस साल के अंत तक उसका नाम ऐसी प्रतियोगिताओं के लिए भेजा जाएगा. गेम्मा अटवाल की ‘बिखरते सपनों’ वाली बात के विपरीत रूपन्विता को अपने इस छात्र से बहुत उम्मीदें हैं और हमें भी.

एक डॉक्टर की आत्म ’हत्या’

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मध्य प्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) की भर्ती परीक्षाओं में हुई धांधली का ओर-छोर कहां है अभी तक इसका कुछ पता नहीं लेकिन एक नए घटनाक्रम ने इसकी गुत्थी और उलझा दी है. दरअसल बीते चार जून को नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज, जबलपुर के प्रभारी डीन डॉ डीके साकल्ये ने कथिततौर पर आत्महत्या कर ली थी. वे अपने कॉलेज में फर्जी तरीके से पीएमटी (प्री मेडीकल परीक्षा) परीक्षा पास कर पढ़ रहे छात्रों की जांच कर रहे थे और उनकी जांच के आधार पर तकरीबन 80 विद्यार्थियों को कॉलेज से निष्कासित किया गया था. मध्य प्रदेश में पीएमटी परीक्षा का आयोजन व्यापमं ही करता है और इस लिहाज से उनकी मृत्यु के पीछे साजिश देखी जा रही है.

चार जून को सुबह 7.30 बजे डॉ साकल्ये का शव बुरी तरह जली हुई अवस्था में अपने घर के बरामदे में पाया गया था. वे कॉलेज परिसर में ही बने क्वार्टर में  रहते थे. घटना वाले दिन उनकी पत्नी भक्ति साकल्ये सुबह की सैर के लिए गईं थी. कुछ देर बाद जब वे घर आईं तो उन्होंने पाया डॉ. साकल्ये बरामदे में बेसुध पड़े हैं. उनका शरीर बुरी तरह जला हुआ था. उन्हें तुरंत ही कॉलेज के आपातकालीन चिकित्सा विभाग में ले जाया गया जहां डॉक्टरों ने जांच के बाद कहा कि डॉ साकल्ये पहले ही मृत्यु हो चुकी थी.

पुलिस को मौके से पांच लीटर की एक केरोसिन की कुप्पी (जिसमें साढ़े तीन लीटर केरोसिन बचा हुआ था), माचिस, बाल्टी और रबर की चप्पल बरामद हुई थी. पोस्टमार्टम रिपार्ट आने के पहले और बाद में भी पुलिस इसे महज आत्महत्या ही बता रही है. हालांकि मौके से कोई सुसाइड नोट बरामद नहीं किया गया. डॉ साकल्ये की आत्महत्या पर इसलिए भी सवाल उठ रहे हैं क्योंकि पोस्टमार्टम के वक्त उनका विसरा (शरीर के अंदरूनी अंगों के नमूने) भी सुरक्षित नहीं रखा गया. यदि ऐसा होता तो इस बात की जांच और पुख्ता तरीके से हो सकती थी कि उनकी मृत्यु किन परिस्थितियों में हुई. हालांकि पुलिस अपने आत्महत्या वाले नतीजे से इतर कुछ भी सोचने को तैयार नहीं है.

डॉ साकल्ये की कथित आत्महत्या पर संदेह करने की सिर्फ यही वजहें नहीं हैं. इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व राष्ट्रीय उपाध्यक्ष डॉ. अरविंद जैन तहलका को बताते हैं, ‘ पूरा मामला बेहद संदेहास्पद है. कोई भी फॉरेंसिक एक्सपर्ट आत्मदाह जैसी कठिन और दर्दनाक मौत नहीं चुन सकता क्योंकि इसमें असहनीय पीड़ा तो होती ही है, साथ ही मौत की कोई निश्चित गारंटी भी नहीं होती.’  भक्ति साकल्ये का कहना है वे घटना के बीस मिनट पहले तक अपने पति के साथ थीं. इस आधार पर डॉ जैन तर्क देते हैं कि केवल 20 मिनट के भीतर ही कोई 98 फीसदी जलकर नहीं मर जाता. वे अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ डॉ साकल्ये के शरीर पर गहराई तक जलने के निशान नहीं थे. यही नहीं उनकी पीठ भी नहीं जली थी. चमड़ी की रंगत देखकर भी नहीं कहा जा सकता था कि वे 98 फीसदी जले हैं.’  डॉ जैन आरोप लगाते हुए कहते हैं, ‘ घटनास्थल पर मौजूद साक्ष्य किसी और ही दिशा में इशारा कर रहे हैं. जहां डॉ साकल्ये जले, वहां फर्श पर कोई निशान नहीं पड़ा. न तो मिट्टी के तेल का, न ही जलने का. यह कैसे मुमकिन है? उनका विसरा भी संरक्षित नहीं किया गया. पुलिस ने पूरे मामले को आनन फानन में निपटा दिया. मौके से फिंगर प्रिंट नहीं लिए गए. उनकी त्वचा का रासायनिक विश्लेषण भी नहीं किया गया. ‘

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अनसुलझे सवाल

  • डॉ साकल्ये कॉलेज में फॉरेंसिक साइंस के विभागाध्यक्ष भी थे. वे आराम से मौत को गले लगाने के कई तरीके जानते थे. फारेंसिंक साइंस लैब में ही सौ से अधिक प्रकार के जहर रखे होते हैं. जैसे आर्सेनिक. जो किसी भी मनुष्य की जान केवल 30 सेकंड में ले सकता है. इसके बाद भी उन्होंने अपने शरीर पर केरोसिन डालकर दर्दनाक मौत क्यों चुनी?
  • डॉक्टरों का कहना है कि उन्होंने अपने चिकित्सकीय जीवन में इस तरह का जलने का केस पहली बार देखा है. घटना स्थल पर मौजूद साक्ष्यों को सुरक्षित क्यों नहीं किया गया?
  • वे कालेज में व्यापमं घोटाले की जांच कमेटी के सदस्य भी थे. डॉ साकल्ये के प्रभारी डीन बनते ही अभी तक कुल 93 फर्जी विद्यार्थियों को कॉलेज से बाहर निकाला गया. क्या उनपर यह कार्रवाई न करने का दबाव था?
  • उनकी पत्नी के अनुसार वे 20 दिनों से छुट्टी पर थे और किसी दबाव के कारण डिप्रेशन में थे. इसकी क्या वजह थी?

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वहीं जबलपुर के पुलिस अधीक्षक हरिनारायणचारी मिश्र ने इन सब बातों को खारिज करते हुए कहते हैं कि पोस्टमार्टम के बाद स्पष्ट हो चुका है कि यह आत्महत्या का ही मामला है. साथ ही वे जानकारी देते हैं, ‘ अब तक कोई सुसाइड नोट बरामद नहीं किया गया. आत्महत्या का कोई स्पष्ट कारण भी सामने नहीं आ पाया है. पर पोस्टमार्टम से साफ है कि यह हत्या नहीं है. हम उनसे संबंधित लोगों से पूछताछ कर रहे हैं ताकि आत्महत्या की वजह सामने आ सके. जहां तक विसरा सुरक्षित रखने का प्रश्न है तो पुलिस केवल अनुरोध ही कर सकती है. विसरा रखना है या नहीं, यह पोस्टमार्टम करने वाले डॉक्टर और फोरेंसिक एक्सपर्ट ही तय करते हैं. वैसे हमने पांच अनुभवी और वरिष्ठ चिकित्सकों की टीम से पोस्टमार्टम करवाया था.’

डॉ डीके साकल्ये हरदा (मध्य प्रदेश का एक जिला) के रहने वाले थे. उनकी पत्नि भक्ति घरेलू महिला हैं और उनका एक पुत्र रंजन बंगलुरू में इंजीनियर है. रंजन का कहना है, ‘ मेरे पिता आत्महत्या का रास्ता चुनने वाले इंसान नहीं थे. वैसे भी वे आत्महत्या क्यों करेंगे? इसकी कोई वजह तो होनी चाहिए.’

डॉ साकल्ये को अक्टूबर, 2013 में ही कॉलेज का प्रभारी डीन बनाया गया था. मध्य प्रदेश के नेता प्रतिपक्ष सत्यदेव कटारे का कहना है, ‘ डॉ डीके साकल्ये ने कई फर्जी विद्यार्थियों को बाहर का रास्ता दिखाया था. उनके पास व्यापमं फर्जीवाड़े के कई सबूत थे ऐसे में इस मामले में उनकी गवाही बहुत महत्वपूर्ण थी.’

पिछले कुछ दिनों में कांग्रेस पार्टी के साथ-साथ इंडियन मेडिकल एसोसिएशन, जूनियर डॉक्टर्स एसोसिएशन समेत कई चिकित्सकों ने राज्य सरकार से मामले की सीबीआई जांच करवाने की मांग की थी. फिलहाल राज्य सरकार इसके लिए तैयार भी हो गई है. इससे पहले राज्य सरकार व्यापमं घोटाले की सीबीआई जांच से इनकार कर चुकी है ऐसे में डॉ साकल्ये की कथित आत्महत्या की सीबीआई जांच से हो सकता है इस घोटाले के और कुछ नए आयाम पता चलें.

केजरीवाल इतनी जल्दी में क्यों हैं?

--------पिछले कुछ दिनों से आम आदमी पार्टी के बार-बार बयान आ रहे हैं कि दिल्ली की विधान सभा भंग होनी चाहिए और तुरंत चुनाव कराए जाने चाहिए. अपनी मांग को लेकर वे हाल ही में दिल्ली के उपराज्यपाल से भी मिले. इस पर पार्टी ने अदालत में एक याचिका भी दायर की हुई है और तीन अगस्त को जंतर-मंतर पर एक रैली भी आयोजित की गई.  उसके नेताओं के व्यवहार से भी लग रहा है कि वे बड़ी जल्दी में हैं.

लेकिन वे इतनी जल्दी में क्यों हैं?

ऊपर से देखने में तो लगता है कि यदि आप को चुनावों के लिए थोड़ा समय मिल जाता है तो यह उसके लिए अच्छा ही होगा क्योंकि लोकसभा चुनाव के बाद उसकी हालत थोड़ी खराब है, उसके पास संसाधनों की कमी है, कार्यकर्ताओं का मनोबल काफी नीचे है और लगातार संघर्षों से वे कुछ थक भी चुके हैं.

लेकिन सतह को जरा खुरचें तो कई ऐसी वजहें हैं जो आम आदमी पार्टी को ऐसा करने के लिए मजबूर कर रही हैं. पहली तो यही कि आप के शीर्ष नेतृत्व को लगता है कि यदि चुनाव जल्दी न हुए तो कहीं उनके विधायकों में से कुछ को भाजपा अपने पाले में न कर ले. ऐसा होने की आशंका लोकसभा चुनाव के तुरंत बाद बहुत ज्यादा थी. उस वक्त पार्टी में पूरी तरह से निराशा का माहौल था और विधायक दुबारा चुनाव में जाने को लेकर हर तरह की आशंकाओं से घिरे हुए थे. अब इस तरह की आशंकाएं उस परिमाण में न भी हों तो भी इतनी तो हैं ही कि हर दो-चार दिन में आप नेतृत्व की नींद उड़ाती रहे.

दूसरी चिंता आप को कांग्रेस के विधायकों के भाजपा में मिल जाने को लेकर भी है. उन्हें लगता है कि इस समय उससे कहीं ज्यादा निराशा का माहौल कांग्रेस में है और उसके कुछ विधायक भाजपा में शामिल हो ही जाते अगर आप इसे लेकर हाल ही में जबर्दस्त हो-हल्ला न मचाती. आगे ऐसा नहीं होगा इसकी कोई गारंटी नहीं है.

अब अगर चुनाव थोड़ा देर से होते हैं तो इस तरह की आशंकाएं पहले से कई गुना ज्यादा बढ़ सकती है. आप को लगता है कि अभी भाजपा उसकी पार्टी में या फिर कांग्रेस में तोड़-फोड़ इसलिए नहीं कर रही है क्योंकि दो राज्यों –हरियाणा और महाराष्ट्र – में इसी साल चुनाव होने हैं और इसका असर वहां के चुनावों पर पड़ सकता है. चूंकि ये चुनाव लोकसभा चुनावों के बाद होने वाले पहले चुनाव हैं और अमित शाह के अध्यक्षीय जीवन के भी इसलिए भाजपा इनसे पहले अपनी छवि खराब करने का जोखिम नहीं उठाना चाहती. एक बार चुनाव हो गए तो भाजपा हो सकता है कि अपनी हिचक को उठाकर खूंटी पर टांग दे. उस हालत में अगर भाजपा ने किसी तरह की तोड़ा-फोड़ी करके सरकार बना ली तो फिर केंद्र में भी उसकी मजबूत सरकार होने की स्थिति में उसका समय से पहले गिरना बड़ा मुश्किल होगा. ऐसे में दिल्ली में चार साल का इंतजार आम आदमी पार्टी के लिए बड़े संकट पैदा कर सकता है. दिल्ली के अलावा पंजाब में भी आप के लिए थोड़ी संभावनाओं का जन्म हुआ है लेकिन वहां पर भी चुनाव होने में अभी तीन साल का समय है.

एक और समस्या आप के सामने यह भी हो सकती है कि तहलका की ही एक रिपोर्ट के मुताबिक उसके कार्यकर्ताओं ने पिछले दिनों बड़ी संख्या में उसका साथ छोड़ा है. ऐसे में सालों तक संघर्ष के लिए हजारों कार्यकर्ताओं को जोड़े रखना उसके लिए आसान नहीं होगा. ये सब मिली-जुली वजहें ही हैं कि कांग्रेस की मदद से फिर से सरकार बनाने की असफल कोशिश करने के बाद अब आप जल्द से जल्द चुनाव कराने के लिए ऐड़ी-चोटी का जोर लगा रही है.

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सबसे बड़ी चुनौती

बड़ा इम्तिहान

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हिंदी फिल्म का मशहूर गीत, ‘जिंदगी इम्तहान  लेती है’ इन दिनों उत्तराखंड के मुख्यमंत्री हरीश रावत पर मौजूं है. सूबे की बागडोर थामने के रोज से ही वे परीक्षाओं से गुजर रहे हैं, लेकिन अब जो परीक्षा उनके सामने है, वह अब तक की तमाम परीक्षाओं से कठिन और निर्णायक मानी जा रही है. इसका नतीजा उनके राजनीतिक  भविष्य की इबारत लिखेगा. यह परीक्षा है सूबे में तीन विधान सभा सीटों पर पर तय हो चुके उपचुनाव की. 21 जुलाई को होने जा रहे इस चुनाव के जरिए रावत को मुख्यमंत्री बने रहने के लिए अपनी सीट तो जीतनी ही है,  सत्ता पर मजबूत पकड़ बनाने के लिए बाकी सीटें भी हासिल करनी हैं.

मगर यह इतना आसान नहीं है. दरअसल गैरसैंण में विधानसभा सत्र निपटाने तक हालात मुख्यमंत्री के अनुकूल माने जा रहे थे. देहरादून लौटने तक प्रदेश कांग्रेस की कमान उनके सिपहसालार किशोर उपाध्याय के हाथों मेंं आ चुकी थी. लोकसभा चुनाव की हार के बाद जहां समूची कांग्रेस सदमे में थी, रावत सियासी चौसर पर मोहरें बिछा रहे थे. उनकी हर चाल मनमाफिक पड़ रही थी. यह उनकी सियासी चाल का ही नतीजा था कि उनके वफादार विधायक हरीश धामी ने धारचूला से उनके लिए सीट खाली कर दी, जबकि पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा नेता डॉ रमेश पोखरियाल निशंक के सांसद चुने जाने के बाद डोईवाला सीट खाली थी. लेकिन रावत एक तीर से दो निशाने साधने की फिराक में थे. सियासी हवाओं में चर्चा तैर रही थी कि वे डोईवाला और धारचूला से चुनाव लड़ेंगे. इसके लिए डोईवाला में हरीश समर्थकों की टीम उतार दी गई थी.लेकिन तभी हेलीकॉप्टर में हुए एक हादसे ने उनकी रफ्तार पर मानों ब्रेक लगा दिए. गर्दन में लगे झटके के चलते हुई तकलीफ ने उन्हें दिल्ली के अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) पहुंचा दिया. तकरीबन दो हफ्ते से रावत सूबे की सियासत को एम्स से ही कंट्रोल करने की कोशिश कर रहे हैं. नियति ने ऐसी पलटी मारी है कि जिन मंत्रियों को उन्होंने एक महीने तक विभागों के लिए तरसाए रखा, उन्हीं मंत्रियों को अब उन्हें शासन के कामकाज का जिम्मा बांटना पड़ रहा है. वरिष्ठ काबीना मंत्री डॉ इंदिरा हृदयेश उनकी अनुपस्थिति में महत्वपूर्ण मामलों को देख रही हैं. इंदिरा कहती हैं, ‘मुख्यमंत्री को आराम की सलाह दी गई है. इसमें एक महीना भी लग सकता है. ऐसे में मुझे शासन के मसलों को देखने के लिए कहा गया है.’

बहरहाल, इंदिरा सचिवालय के चौथे तल पर बैठ कर रोजाना आला अधिकारियों की बैठक ले रही हैं. लेकिन इसके बावजूद संवैधानिक तौर पर वे शासकीय कार्यों में निर्णय लेने के लिए अधिकृत नहीं हैं. पूर्व आईएएस अफसर एसएस पांगती कहते हैं, ‘संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि मुख्यमंत्री की जगह किसी मंत्री को जिम्मा सौंप दिया जाए. ऐसे हालात में वरिष्ठ सदस्य को मुख्यमंत्री पद की बाकायदा शपथ दिलाकर जिम्मेदारी तय की जाती है.’

मगर उत्तराखंड में यह मुमकिन नहीं. मुख्यमंत्री की कुर्सी हरीश रावत ने बड़ी मुश्किल से हासिल की है. इसके लिए उन्हें लंबा इंतजार करना पड़ा है. सत्तारूढ़ कांग्रेस के जो हालात हैं उनमें ‘विश्वास’ के लिए कोई जगह नहीं दिखती. मुख्यमंत्री की कुर्सी से हटाए जाने के बाद विजय बहुगुणा समर्थक भी रावत की घेराबंदी में जुटे हैं. वे रावत को उन्हीं की चाल से जवाब देना चाहते हैं. यह खेमा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर उपाध्याय की ताजपोशी से नाराज हैं. कैबिनेट के दबंग मंत्री डॉ हरक सिंह रावत के इस बयान कि उपाध्याय को अध्यक्ष बनाए जाने से पार्टी के एक बड़े तबके में नाराजगी है, ने साफ कर दिया है कि कांग्रेस के भीतर सबकुछ ठीक नहीं है. हरक ने मुख्यमंत्री के डोईवाला और धारचूला से चुनाव लड़ने की संभावनाओं पर भी सवाल उठाए. उनके इस बयान के तीन दिन बाद ही कांग्रेस आलाकमान से तीन सीटों के लिए उम्मीदवारों की सूची जारी हुई. इस सूची के मुताबिक हरीश रावत  को धारचूला से उम्मीदवार बनाया गया है. डोईवाला से पार्टी ने तिवारी सरकार में कैबिनेट मंत्री रहे हीरा सिंह बिष्ट को उतारा है. बिष्ट डोईवाला से 2012 में बेहद कम अंतर से चुनाव हार गए थे. कांग्रेस संगठन से जुड़े सूत्रों की मानें तो सीएम बेशक एम्स में  भर्ती हैं लेकिन प्रदेश के सियासी हालात पर पैनी नजर रखे हुए हैं. सूत्रों का कहना है कि अस्पताल में भर्ती होने  तक सीएम का डोईवाला से चुनाव लड़ने का पक्का मन था. लेकिन विरोधी खेमे के मंसूबों को भांप कर रणनीति बदल दी गई. डोईवाला की जगह अब सोमेश्वर सीट पर फोकस किया गया है. वहां भाजपा छोड़कर कांग्रेस में लौटी रेखा आर्य पर दांव खेला जा रहा है. टिकट फाइनल होने से एक दिन पहले ही आर्य को पार्टी में लाया गया. उनकी एंट्री एम्स में मुख्यमंत्री की मौजूदगी में हुई. लोकसभा का टिकट काटे जाने से आर्य भाजपा से नाराज थीं. कांग्रेस ने इसका फायदा उठाया.

हरीश रावत को धारचूला से  चुनाव लड़ना है. कांग्रेस उनकी जीत को लेकर आश्वस्त है. लेकिन सीएम की निगाहें डोईवाला और सोमेश्वर पर ही लगी हैं. दोनों सीटों पर जीत उनकी स्थिति मजबूत करेगी. अभी कांग्रेस पार्टी के 32 विधायक हैं. सरकार बसपा के तीन, यूकेडी के एक और तीन निर्दलीय विधायकों के समर्थन से चल रही है. उपचुनाव में तीनों सीटें मिलने से कांग्रेस बहुमत से सिर्फ एक सीट दूर रह जाएगी. बेशक तब भी सरकार गठबंधन के सहयोग से चले, लेकिन उस सूरत में रावत के पास खुलकर निर्णय लेने की आजादी रहेगी.

ये उपचुनाव नये नवेले प्रदेश अध्यक्ष बने किशोर उपाध्याय के रणनीतिक कौशल की भी परीक्षा माने जा रहे हैं. यही वजह है कि विरोधियों की तगड़ी घेराबंदी के बावजूद वे अपना पूरा फोकस उपचुनाव पर केंद्रित किए हुए हैं. वे जानते हैं कि चुनाव में पार्टी को कामयाबी मिलने की स्थिति में उन्हें इसका दोहरा लाभ मिलेगा. इसीलिए वे किसी तरह की अनावश्यक बयानबाजी से भी परहेज कर रहे हैं. एकजुटता उनका सूत्रवाक्य बन चुका है. वे जहां जा रहे हैं, एकजुटता की ही बातें कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘पार्टी में उत्साह लौट रहा है. त्रिस्तरीय पंचायत चुनाव में भाजपा मोदी के ‘हैंगओवर’ से बाहर आ गई है और उसके अधिकांश प्रत्याशी चुनाव हार गए हैं. साफ है कि उपचुनाव में भाजपा की डगर आसान नहीं होगी. पार्टी की स्थिति इस कदर खराब है कि कई-कई दावेदारों के चलते वह अभी तक प्रत्याशी ही तय नहीं कर पाई है. कांग्रेस तीनों सीटों पर जीत दर्ज करेगी.’

लेकिन प्रदेश भाजपा के अध्यक्ष तीरथ सिंह रावत, उपाध्याय की बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. टिकटों के ऐलान में हो रही देरी को वे सांगठनिक प्रक्रिया का हिस्सा बताते हैं. इसके अलावा एक ही सीट पर कई-कई दावेदारों के नाम सामने आने को भी वे पार्टी के पक्ष में बताते हैं. उनका कहना है कि जीत की संभावनाओं को देखते हुए ही पार्टी में चुनाव लड़ने के लिए ज्यादा नाम सामने आ रहे हैं.

कुल मिलाकर सूबे का सियासी परिदृश्य लोक सभा चुनाव के ठीक उल्टा है. तब भाजपा ने अपने प्रत्याशी पहले ही उतार दिए थे, लेकिन इस बार वह इस मामले में कांग्रेस से पिछड़ गई है. हालांकि असली हार-जीत तो उपचुनाव के नतीजों से ही तय होनी है.

चैनलों का ‘ओमेर्ता कोड’

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मनीषा यादव

वैसे तो न्यूज चैनल हर छोटी-बड़ी घटना और मुद्दे को रिपोर्ट करने, उसे ‘खींचने और तानने’ और उसपर ‘बड़ी/महाबहस’ करने को तैयार रहते हैं लेकिन उनके लिए एक विषय/मुद्दा अभी भी ‘टैबू’ बना हुआ है जिसपर रिपोर्ट करने और चर्चा करने पर चैनलों में अघोषित पाबंदी-सी लगी हुई है. वह विषय है: चैनलों में काम करनेवाले पत्रकारों खासकर महिला पत्रकारों और उनकी कामकाज की परिस्थितियां, सेवाशर्तें और न्यूजरूम का माहौल. इससे संबंधित किसी घटना/मुद्दे पर चैनलों की चुप्पी और आपसी एकता हैरान करनेवाली होती है.

ताजा उदाहरण है- ‘इंडिया टीवी’ की एंकर तनु शर्मा की आत्महत्या की कोशिश का मामला. एंकर तनु शर्मा ने बाकायदा फेसबुक पर स्टेट्स अपडेट करके चैनल के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों पर परेशान और उत्पीड़ित करने का आरोप लगाते हुए चैनल के दफ्तर में जहर खाकर आत्महत्या की कोशिश की. शुक्र है कि वे बच गईं और पुलिस चैनल के कुछ अधिकारियों पर आत्महत्या के लिए उकसाने का मामला दर्ज करके छानबीन कर रही है. चैनल का सफाई में कहना है कि तनु शर्मा ने खुद को परेशान करने की कभी कोई शिकायत किसी वरिष्ठ अधिकारी या चैनल की यौन उत्पीड़न समिति को नहीं कराई और उनके आरोप झूठे और मनगढंत हैं.

इस प्रकरण में सच क्या है, यह पता करना मुश्किल है. इसकी वजह यह है कि इस मामले की पड़ताल और उसे फालो-अप करना तो दूर, किसी न्यूज चैनल ने इसे रिपोर्ट करने लायक तक नहीं माना. चैनलों के लिए यह टिकर पर चलने लायक खबर भी नहीं बन पाई. सवाल यह है कि बिना स्वतंत्र रिपोर्टिंग, छानबीन और फालो-अप के इस मामले का सच कैसे सामने आएगा. हालांकि अगले दिन कुछ अखबारों ने इस घटना की संक्षिप्त रिपोर्ट छापी, लेकिन चैनलों की चुप्पी चुभनेवाली थी. आखिर उन्हीं दिनों न्यूज चैनलों पर प्रीति जिंटा-नेस वाडिया मामले की 24×7 रिपोर्टिंग हो रही थी और ऐसे सभी मामलों की रिपोर्टिंग में चैनलों की सक्रियता और उत्साह देखते ही बनती है.

यही नहीं, चैनलों का दावा रहा है कि महिलाओं के उत्पीड़न और परेशान करने के कई मामलों में उनकी सक्रियता के कारण ही पीड़ितों को न्याय मिल पाया. फिर चैनलों ने तनु शर्मा की आत्महत्या की कोशिश के मामले को रिपोर्ट करने लायक क्यों नहीं माना?  कहीं यह चैनलों के प्रबंधन के एक सामूहिक अपराध में शामिल होने के कारण बने ‘ओमेर्ता कोड’ का नतीजा तो नहीं है जिसमें अघोषित सहमति के आधार पर कोई चैनल, दूसरे चैनल के अंदरूनी हालात/घटनाओं की रिपोर्ट नहीं करता है? कहीं इसके पीछे यह डर तो नहीं है कि आज अगर इस मामले को रिपोर्ट किया तो कल उनके यहां भी ऐसे ही मामलों की रिपोर्ट होने लगेगी और चैनलों के सुनहरे पर्दों के पीछे छिपे दमघोंटू माहौल और पत्रकारों खासकर महिला पत्रकारों के कामकाज की बदतर परिस्थितियों और सेवाशर्तों की सच्चाई सामने आ जाएगी? आखिर इसके अलावा तनु शर्मा-इंडिया टीवी मामले की रिपोर्ट न करने का और क्या कारण हो सकता है? यह कोई पहला मामला नहीं है जब चैनलों ने अपने अंदर की ‘खबरों’ को अनदेखा किया है. कुछ महीनों पहले चैनलों ने नेटवर्क-18 /टीवी-18 से 350 से ज्यादा पत्रकारों/कार्मिकों की छंटनी पर चुप्पी साध ली थी.

इसी तरह अखबारों में कार्यरत पत्रकारों को मजीठिया वेतन आयोग की सिफारिशों के मुताबिक वेतन न देने के बारे में अनगिनत शिकायतों की रिपोर्ट आपको किसी अखबार/चैनल में नहीं दिखाई देगी. शायद कॉरपोरेट न्यूज मीडिया के अंदर लागू इस ‘ओमेर्ता कोड’ से बने दमघोंटू माहौल, कामकाज की बदतर परिस्थितियों और कहीं कोई सुनवाई नहीं होने के कारण हताशा में तनु शर्मा को आत्महत्या की कोशिश जैसा चरम कदम उठाना पड़ा. लेकिन अफसोस! यह भी चैनलों के ‘ओमेर्ता कोड’ को तोड़ने में नाकाम रहा. लगता है कि चैनल किसी मौत का इंतजार कर रहे हैं.

‘गंदे कंबल में इंसानियत की गर्माहट मिली’

मनीषा यादव

यह बात वर्ष 2002 की है. मैंने नवोदय विद्यालय से 12वीं की परीक्षा दी थी और परिणाम की प्रतीक्षा कर रहा था. वह दौर कुछ ऐसा था कि मेरी उम्र का हर बच्चा या तो डॉक्टर या फिर इंजीनियर बनना चाहता था. मेरे जो गिनेचुने शौक थे उनमें घुमक्कड़ी भी शाामिल थी. यही वजह है कि जब मुझे मेडिकल की अखिल भारतीय परीक्षा में आवेदन करने का मौका मिला तो मैंने चुपके से परीक्षा केंद्र का विकल्प देहरादून भर दिया. प्रवेश पत्र आया तो घर पर सब लोग चौंक गए लेकिन किया ही क्या जा सकता था. पिताजी ने मुझसे कहा कि मुझे परीक्षा देने अकेले ही जाना होगा. मुझे तो मुंहमांगी मुराद मिल गई.

निर्धारित दिन मैं लखनऊ से ट्रेन पकड़कर देहरादून पहुंचा और होटल में ठहर गया. रातभर आराम करने के बाद सुबह परीक्षा देने निकला तो मेरी दो और लोगों से दोस्ती हो गई. परीक्षा खत्म होने के बाद हम आपस में मिले तो घूमने की योजना बनी. वापसी की ट्रेन का आरक्षण दूसरे दिन का था. उस समय तक मैं मसूरी नहीं गया था. मैंने उनके सामने मसूरी घूमने का प्रस्ताव रखा लेकिन दोनों साथियों ने पैसों की कमी की बात कहकर मना कर दिया. उनका प्रस्ताव देहरादून के आस-पास घूमने का ही था. पैसे मेरे पास भी कम ही थे पर मसूरी घूमने की हसरत तो थी ही.

आखिर में मैंने अकेले जाने का निश्चय किया. सोचा की शाम तक लौट आऊंगा. सिर्फ आने-जाने का खर्च लगेगा. फिर मैंने तुरंत बस पकड़ ली और मसूरी पहुंच गया. मसूरी पहुंचकर मैं वहां की सुंदरता और मनोरम दृश्य देखने में व्यस्त हो गया. माल रोड घूमने में काफी समय निकल गया. वहां घूमते हुए मैंने समय पर ध्यान ही न दिया. जब हल्का सा अंधेरा हुआ तो मैंने वापस लौटने का निश्चय किया. मैं बस स्टॉप पर पहुंचा तो पता चला कि अंतिम बस आधे घंटे पहले ही जा चुकी. मौसम खराब होने के चलते कोई टैक्सी भी नहीं मिल रही थी. काफी पूछ-ताछ के बाद भी कोई जुगाड़ न हो सका. आखिरकार मैंने रात मसूरी में ही बिताने का निश्चय किया. रात में वहां रुकने के लिए होटल लेना जरूरी था. मैंने अपने जेब के पैसों का हिसाब लगाया तो लगा कि कोई सस्ता होटल लिया जा सकता है सुबह वापस देहरादून लौट चलेंगे. मैं माल रोड पर होटल खोजने निकल पड़ा. काफी खोजने के बाद भी किसी होटल में जगह न मिली. सभी सस्ते होटल फुल थे. जिनमंे कमरे खाली थे वहां रुकने का खर्च काफी महंगा था. काफी मशक्कत के बाद मैंने रात ऐसे ही सड़क पर घूमटहल कर बिताने का इरादा बनाया. मुझे मसूरी की रात की जीवनशैली का अंदाजा न था. मैं माल रोड पर इधर से उधर चक्कर लगाने लगा. लेकिन थोड़ी देर में मौसम और बिगड़ने लगा. बूंदा-बांदी और तेज हवाएं चलने लगीं. थोड़ी देर में ही सड़कों पर सन्नाटा हो गया. मैंने भीगने से बचने के लिए नजर दौड़ाई तो रोप-वे सेंटर के बगल में थोड़ी सी जगह दिखी जो बारिश और हवा से बचा सकती थी. मैं भाग कर वहां पहुंचा तो देखा कि एक शख्स पहले से ही वहां पर था. उसके कपड़े काफी गंदे थे और उसने खुद को ठंड से बचाने के लिए एक गंदा सा कंबल ओढ़ रखा था. मैं वहां पहुंच कर खड़ा हो गया. पर बार-बार मेरी नजर उधर जाती और उसका मैला-कुचैला रूप देख मैं असहज हो जाता. आखिर मैंने वहां से कुछ दूर एक दूसरी दुकान के नीचे रुकने का निश्चय किया. मैं भाग कर वहां पहुंच तो गया पर फिर समझ में आया कि वहां बारिश से तो बचा जा सकता था लेकिन तेज हवाएं वहां सीधे लग रही थीं. एक बार फिर मैंने वापस उसी स्थान पर जाने की सोची पर फिर उसकी गंदगी का ख्याल करके वहीं बेंच पर लेट गया. अब तक ठंड काफी बढ़ चुकी थी. वह व्यक्ति मुझे चुपचाप देख रहा था. मैंने बैग से चादर निकाली, और उसी में खुद को लपेट लिया. पर उस ठंड में यह नाकाफी था. मैं अपनी आंखें बंद कर लेट गया. मुझे कब नींद आई पता नहीं.

‘मैं वहां पहुंचा, देखा कि एक बंदा पहले से ही वहां पर था. उसके कपड़े गंदे थे और उसने ठंड से बचने के लिए एक गंदा सा कंबल ओढ़ा था’

सुबह नींद खुली तो देखता हूं, वही गंदा कंबल मेरे ऊपर पड़ा था और बेंच से कुछ दूरी पर कुछ लकड़ियां जली थीं. कंबल हटाते ही सर्द हवा के झोंके से पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गई. मैंने सामने रोप-वे की तरफ नजर डाली तो वहां उस व्यक्ति का कोई पता नहीं था. कुछ दूर एक दुकानदार से पूछने पर पता चला कि मैं रात में ठंड से कांप रहा था. यह देखकर उस व्यक्ति ने अपना कंबल मुझपर डाल दिया और आस-पास से लकड़ियां इकट्ठी करके जला दीं. सुबह की ठंड से अंदाजा लगाया जा सकता था की रात में क्या हालत रही होगी. आस-पास उस व्यक्ति का कोई पता नहीं था. मुझे देहरादून लौटना था. दोपहर बाद ट्रेन थी. मैंने कंबल वहीं रख दिया जहां पहली बार उसे देखा था और खुद बस में बैठ गया. बस में मेरे दिमाग में यही चल रहा था कि अगर उसने मुझे ठंड से बचाने का इंतजाम न किया होता तो मेरी क्या हालत होती?

इतने सालों बाद भी जब कभी सर्दियों में देर रात ऑफिस से निकलता हूं तो सड़क किनारे ठंड से कंपकंपाते लोगों को देखकर उस अनजान मददगार के प्रति मन आभार से भर जाता है.

(कौशलेंद्र विक्रम लेखक पत्रकार हैं और लखनऊ में रहते हैं)

बड़े भाई का ‘बिगब्रदर-पन’

जबकि पूण् एक संयुक्त प्रेस कॉन्फ्रेंस में अमेरिकी िा£‍परत बिाक ओबामा औि जमि्न चांसलि अंगेला मेकि्ल
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अमेरिकी स्वाधीनता दिवस हर वर्ष चार जुलाई को बर्लिन में भी प्रमुखता के साथ मनाया जाता है. इस बार भी मनाया गया. लेकिन, जर्मनी में अमेरिकी राजदूत जॉन इमर्सन इस बार जब स्वाधीनता दिवस के समारोह में पहुंचे तो कुछ घबराए हुए-से थे. अपने भाषण में इस बार वे जर्मन-अमेरिकी संबंधों की मधुरता में कुछ ज्यादा ही चाशनी घोलते लगे. हुआ यह था कि कुछ ही घंटे पहले उन्हें जर्मन विदेश मंत्रालय में बुलाया गया था. मंत्रालय के राज्यसचिव स्तेफान श्टाइनलाइन ने उन्हें सूचित किया कि जर्मनी की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के एक ऐसे कर्मचारी को गिरफ्तार किया गया है, जिस पर अमेरिका के लिए जासूसी करने का शक है. उसके साथ संपर्क अमेरिकी दूतावास के माध्यम से किया गया था. मित्र देशों के बीच यह अच्छी बात नहीं है. जर्मन सरकार चाहती है कि मामले की त्वरित जांच में अमेरिकी दूतावास पूरा सहयोग प्रदान करे.

मार्कुस आर नाम के ‘बीएनडी’ के इस 31 वर्षीय गिरफ्तार कर्मचारी पर शक है कि उसने अमेरिकी जासूसों को कम से कम 218  गोपनीय दस्तावेज दिए हैं. कुछ दस्तावेज तो उस संसदीय जांच-समिति के लिए थे जो दुनियाभर के इलेक्ट्रॉनिक दूरसंचार (इंटरनेट, ईमेल, फैक्स और टेलीफोन) की आहट ले रही अमेरिकी गुप्तचर सेवा ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी’  (नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी एनएसए) की जर्मनी में चल रही गतिविधियों का आयाम जानने के लिए गठित की गई हंै.

एडवर्ड स्नोडन की भूमिका
इन गतिविधियों का पता पिछले वर्ष तब चला था, जब ‘एनएसए’ का ही एक भेदिया एडवर्ड स्नोडन ढेर सारे गोपनीय दस्तावेजों की नकल (कॉपी) उतार गायब हो गया था और हंगकांग के रास्ते से मॉस्को पहुंचा था. वहां एक साल की अस्थाई शरण मिलते ही ये दस्तावेज प्रकाशन के लिए उसने अमेरिका और यूरोप के कुछ चुने हुए अखबारों एवं पत्रिकाओं को दिए थे. संसदीय जांच समिति और जर्मनी की विपक्षी पार्टियां विस्तृत पूछताछ के लिए स्नोडन को जर्मनी बुलाना चाहती हैं, लेकिन अमेरिका के तुष्टीकरण के लिए प्रयत्नशील जर्मन सरकार इसकी अनुमति नहीं दे रही.

बड़े भाई अमेरिका के किसी राजदूत को विदेश मंत्रालय में बुलाकर राजनयिक विरोध-प्रदर्शन जर्मनी के लिए बहुत ही अनहोनी बात है. जर्मनी तो वह देश है जहां के नेता अनन्य कृतज्ञताभाव से कहते नहीं थकते कि उनका देश अमेरिका का सदा ऋणी रहेगा. अमेरिकी हथियारों और सैनिकों के बिना द्वितीय विश्वयुद्ध के मित्र-राष्ट्रों की विजय और जर्मनी में हिटलर की फासिस्ट तानाशाही का अंत संभव ही नहीं हो सका होता. अमेरिकी सहायता व संरक्षण के बिना विभाजित जर्मनी के पश्चिमी भाग में लोकतंत्र की स्थापना, युद्ध से खंडहर बन गए देश का पुनर्निर्माण,  1960-70 वाले दशक में ‘आर्थिक चत्मकार’ और बर्लिन-दीवार गिरने के बाद 1990 में पूर्वी और पश्चिमी जर्मनी का शांतिपूर्ण एकीकरण भी संभव नहीं हो पाया होता. यही नेता आज कहने पर विवश हैं कि ‘बस, अब बहुत हो गया!’

जर्मन वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ के अध्यक्ष गेरहार्ड शिंडलर ने अमेरिकी गुप्तचरी संबंधी  संसदीय जांच समिति को बताया कि मार्कुस आर संभवतः दो वर्षों से अपने विभाग के गोपनीय दस्तावेज चोरी-छिपे घर ले जाकर उन्हें स्कैन करता और एक अमेरिकी गुप्तचर एजेंट को देता रहा है. क्योंकि ऐसे और भी विश्वासघाती हो सकते हैं, इसलिए उनका पता लगाने के लिए ‘बीएनडी’ के लगभग सभी छह हजार कर्मचारियों के कार्यकलापों की अब जांच की जा रही है. जर्मन गुप्तचर सेवाएं अब तक यही मान कर चल रही थीं कि केवल रूसी या चीनी जासूस ही इस तरह के दस्तावेज पाने को लालायित रहते हैं, अमेरिकी नहीं.

ऐसा भी नहीं है कि जर्मन वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ अमेरिका की ‘एनएसए’, ‘सीआईए’ या किसी अन्य गुप्तचर एजेंसी की प्रतिस्पर्धी या प्रतिद्वंद्वी है. सच तो यह है कि इन सभी सेवाओं की आपस में मिलीभगत भी है. तब भी, ‘बीएनडी’ में सेंध लगाने की इस घटना से उड़ी धूल बैठी भी नहीं थी कि सप्ताह भर के भीतर ही एक और समाचार आया–जर्मन रक्षा मंत्रालय का एक असैनिक कर्मचारी भी अमेरिका की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘सीआईए’ को गोपनीय जानकारियां देता रहा है.

अमेरिका जासूसी की हर विधा को एक ऐसा सधा हुआ अस्त्र मानता है, जिसके इस्तेमाल में उसे अपनों-परायों या शत्रु-मित्र के बीच कोई भेद स्वीकार्य नहीं

एक ही सप्ताह के भीतर जर्मन भूमि पर अमेरिकी जासूसी के दो-दो सनसनीखेज़ समाचारों से खलबली मच गई. जनता व नेताओं को लगने लगा, मानो देश के कोने-कोने में अमेरिकी जासूस बैठे हुए हैं. यह दूसरा समाचार जर्मन रक्षा मंत्रालय के एक ऐसे कर्मचारी से संबंधित था जो पहले सर्बिया का एक प्रदेश रहे और अब स्वतंत्र देश बन गए कोसोवो में तैनात ‘केफोर’ शांतिसेना का राजनीतिक परामर्शदाता रह चुका है. वहां उसे अपने ही समवर्ती एक ऐसे अमेरिकी परामर्शदाता से अक्सर मिलना-जुलना होता था जो कोसोवो में गुप्तचर सेवा सहित एक नया प्रशासनिक ढांचा खड़ा करने में हाथ बंटा रहा था. 2010 से दोनों कई बार तुर्की व अन्य देशों में भी मिलते-जुलते रहे हैं. उनके बीच संपर्क बने रहने का सुराग ‘बीएनडी’ के मार्कुस आर की गिरफ्तारी से ही मिला बताया जाता है.

जर्मनी के दो सार्वजनिक रेडियो-टीवी केंद्रों ‘एनडीआर’ और ‘डब्ल्यूडीआर’ तथा म्युनिक से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘ज्युइडडोएचे त्साइटुंग’ की एक मिली-जुली खोज से पता चला कि ‘बीएनडी’ और रक्षा मंत्रालय वाले दोनों मामलों के बीच आपसी संबंध है. जर्मनी की आंतरिक गुप्तचर सेवा ‘संघीय संविधानरक्षा कार्यालय’ (बीएफवी) को काफी समय से संदेह था कि रक्षा मंत्रालय में कहीं कोई रूसी भेदिया बैठा हुआ है. इस आशय का एक गुमनाम पत्र उसके हाथ लगा था, पर कोई ठोस सुराग मिल नहीं रहा था.’बीएफवी’ ने अंततः देश की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘बीएनडी’ से पूछा कि कहीं उस के पास तो कोई जानकारी नहीं है. इस अनुरोध वाला पत्र उसी मार्कुस आर की मेज पर पहुंचा, जिसे चार जुलाई को गिरफ्तार कर लिया गया है. उसने यह पत्र चोरी-छिपे म्युनिक स्थित रूसी वाणिज्य दूतावास के पास पहुंचा दिया था. वह शायद सोच रहा था कि पत्र पाते ही रूसी अनुमान लगा लेंगे कि वह कितने काम का आदमी है. हो सकता है कि वे भी उसे अपना भेदिया बना लें! रूसियों के साथ संवाद की सुविधा के लिए मार्कुस आर ने एक अलग ईमेल-पता भी बना लिया था. महीनों लंबी छानबीन के बाद यही ईमेल पता मार्कुस आर की गिरफ्तारी का सुराग बना.

गिरफ्तारी के बाद मार्कुस आर ने जर्मनी के संघीय अभियोजकों को उस समय आश्चर्य में डाल दिया, जब उसने बताया कि वह रूस के लिए नहीं, बल्कि 2012 से अमेरिका के लिए जासूसी कर रहा था. अमेरिकी दूतावास से भी उसने अपनी ही पहल पर ईमेल द्वारा ही संपर्क साधा था. उस समय ‘क्रेग’ नाम के जिस व्यक्ति ने उससे बात की, उसका कहना था कि अमेरिका के काम की हर तरह की सूचना में उसे दिलचस्पी है. पहली दो मुलाकातों में ‘क्रेग’ ने दस-दस हजार यूरो (लगभग आठ लाख रुपये) और तीसरी मुलाकात में केवल पांच हजार यूरो (चार लाख रुपये) दिये थे. मार्कुस ‘बीएनडी’ से मिलने वाले अपने वेतन से खुश नहीं था. रूसियों से भी उसे अच्छी कमाई की आशा थी. लेकिन, तब वह सन्न रह गया, जब एक दिन किसी रूसी के बदले उसने जर्मन ‘संविधानरक्षा कार्यालय’ से आए व्यक्तियों को अपने सामने खड़ा पाया.

मार्कुस की गिरफ्तारी के पांच ही दिन बाद, नौ जुलाई को जर्मनी के संघीय अभियोजन कार्यालय ने बताया कि रक्षा मंत्रालय के एक कर्मचारी की भी अमेरिका के लिए जासूसी के संदेह में जांच चल रही है. इस जांच के आधार पर देश की गुप्तचर संस्थाओं पर नजर रखने वाली संसदीय निगरानी समिति के अध्यक्ष क्लेमेंस बिनिंगर का कहना था कि इस कर्मचारी के बारे में प्रथम संकेत अगस्त 2010 में मिले थे, पर ठोस प्रमाण अभी तक नहीं मिल पाए हैं, इसलिए वह हिरासत में नहीं है.

रक्षा मंत्रालय में भी अमेरिकी भेदिया छिपा होने की बात इतनी गंभीर समझी गई कि चांसलर अंगेला मेर्कल की अनुपस्थिति में–वे चीन की औपचारिक यात्रा पर थीं– जर्मनी के गृह एवं रक्षा मंत्रियों तथा चांसलर कार्यलय के प्रमुख ने मिल कर निर्णय लिया कि बर्लिन के अमेरिकी दूतावास में ‘सीआईए’ प्रमुख जॉन ब्रेनन को निष्कासित कर दिया जाना चाहिए. ब्रेनन को ‘चीफ ऑफ स्टेशन’ के तौर पर राजनयिक निरापदता (इम्यूनिटी) मिली हुई है. इस कारण न तो उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता था, न ही उन्हें ‘अवांछित व्यक्ति’ घोषित कर अमेरिका से पंगा मोल लिया जा सकता था.

राजनयिक भूकंप
यही सब सोच कर जल्द ही एक कदम पीछे हटाते हुए कहा गया कि जर्मनी चाहता है कि ब्रेनन स्वयं स्वदेश लौट जाएं. तब भी, यह निर्णय एक राजनयिक भूकंप के समान था. अमेरिका ने भी अपनी नाराजगी जताते हुए उसे इसी अर्थ में लिया. राष्ट्रपति भवन के प्रवक्ता ने कहा कि जर्मनी को चाहिए था कि वह बात सार्वजनिक करने के बदले ”कूटनीतिक चैनलों” का उपयोग करता.

जर्मन रक्षा मंत्रालय वाले संदिग्ध व्यक्ति के विषय में कहा जा रहा है कि अगस्त 2010 में उसके बारे में गुमनाम संकेत मिलने के बाद से जर्मनी की सैनिक गुप्तचर सेवा ‘एमआरडी’  उस पर नजर रखे हुए थी. वह 15-16 बार तुर्की की संक्षिप्त यात्राएं कर चुका है. समझा जाता है कि वहां वह अमरीकी एजेंटों से मिलता रहा है. इससे पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि वह तुर्की में शायद रूसी एजेंटों से मिलता है. उसके कंप्यूटर इत्यादि जब्त कर लिए गए हैं, पर उसे तुरंत गिरफ्तार नहीं किया गया.

एक दर्जन से अधिक भेदिये
मानो चांसलर सहित पूरे देश की वर्षों से चल रही इलेक्ट्रॉनिक जासूसी और एक ही सप्ताह में दो जीते-जागते जासूसों की धर-पकड़ पर्याप्त न हो, जर्मनी के सर्वाधिक बिक्री वाले सनसनी-पसंद अखबार ‘बिल्ड’ ने 13 जुलाई को लिखा कि जर्मनी के कम से कम चार मंत्रालयों के एक दर्जन से अधिक कर्मचारी अमेरिका की वैदेशिक गुप्तचर सेवा ‘सीआईए’ के लिए काम कर रहे हैं. रक्षा, वित्त, गृह और विकास-सहायता मंत्रालयों में बैठे ये घर के भेदी वर्षों से ‘सीआईए’ की सेवा कर रहे बताए गए हैं. ‘बिल्ड’ के अनुसार, जर्मन  अधिकारियों को जब से पता चला है कि अमेरिका बड़े पैमाने पर जर्मन भूमि पर भी जासूसी कर रहा है, तबसे इन भेदियों को निर्देश देने वाले अमरिकी एजेंट उनसे जर्मनी के बाहर वियेना, वार्सा या प्राग में मिलते हैं.

जर्मन सरकार का माथा तो पिछले साल एडवर्ड स्नोडन द्वारा उड़ाए गए दस्तावेजों के प्रकाशन के समय से ही ठनक रहा था. लेकिन, कुछ तो अमेरिका के प्रति इतिहासजन्य कृतज्ञता के बोध से और कुछ उसकी सत्ता और महत्ता के भय से– सरकार अमेरिका की ठकुरसुहाती करने और जनभावना को बरगलाने में ही लगी रही. अमेरिका से यही कहती रही कि हम तो तुम्हारे अपने ही हैं, कम से कम हमारे साथ तो वही व्यवहार मत करो, जो ईरान, सूडान या उत्तर कोरिया के साथ होता है. उसने बहुत अनुनय-विनय की कि अमेरिका उसके साथ भी वैसा ही एक ‘जासूसी-नहीं’ (नो स्पायिंग) समझौता कर ले, जैसा उसने आंग्लवंशी व अंग्रेजी-मातृभाषी कैनडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड से कर रखा है. लेकिन, अमेरिका टस से मस नहीं हुआ. केवल इतना ही आश्वासन दिया कि चांसलर मेर्कल का मोबाइल अब नहीं सुना जाएगा.

अमेरिका को समझाना टेढ़ी खीर
चांसलर मेर्कल ने चीन से लौटने के बाद और फुटबॉल विश्वकप के फाइनल में जर्मन टीम का साथ देने के लिए ब्राजील जाने से ठीक पहले प्रमुख जर्मन टेलीविजन चैनल ‘जेडडीएफ’ के साथ एक भेंटवार्ता में कहा कि अमेरिका वालों को यह समझाना टेढ़ी खीर है कि ‘वे अपनी गुप्तचर सेवाओं के काम का ढर्रा बदलें…तब भी हम कहते रहेंगे कि कहां हम उन से मतभेद रखते हैं.’ मेर्कल ने कहा कि सब कुछ होने के बावजूद ”हम (अमेरिका के साथ) साझेदारीपूर्ण सहयोग करते रहेंगे.”  चीन में उन के मुंह से निकल गया था कि ‘बस, अब बहुत हो गया!’ उल्लेखनीय है कि यूक्रेन-संकट पर तो चांसलर मेर्कल और राष्ट्रपति ओबामा अक्सर एक-दूसरे को फोन कर लिया करते थे. पर, जर्मनी को परेशान कर रहे जासूसी कांड पर, जुलाई के मध्य तक, दोनों के बीच कोई फोन वार्ता नहीं हुई. रविवार, 13 जुलाई को, ऑस्ट्रिया की राजधानी वियेना में अमेरिका और जर्मनी के विदेशमंत्रियों के बीच इस विषय पर पहली बार उच्चस्तरीय संवाद जरूर हुआ. परिणाम ढाक के तीन पात जैसा ही रहा.

दरअसल अमेरिका आतंकवाद से अपनी लड़ाई में जासूसी की हर विधा को एक ऐसा सधा हुआ अस्त्र मानता है, जिसके इस्तेमाल में उसे अपनों-परायों या शत्रु-मित्र के बीच कोई भेद स्वीकार्य नहीं है. पश्चिमी जगत का यह मुखिया इस बीच 100 साल पहले की रूसी समाजवादी क्रांति के प्रणेता लेनिन के इस सिद्धांत का कायल बन गया लगता है कि ‘भरोसा करना ठीक है, लेकिन निगरानी रखना उससे बेहतर है.’ उसे अब याद नहीं कि कभी वही लेनिन के इस सिद्धांत की खिल्ली उड़ाया करता था. वह भूल रहा है कि जासूसी के औचित्य के पक्ष में गढ़ा गया, अविश्वास को विश्वास पर वरीयता देने वाला यह लेनिनवादी सिद्धांत ही ढाई दशक पूर्व सोवियत संघ और उस के समूचे पूर्वी गुट को ले डूबा. सोवियत संघ भी एक महाशक्ति हुआ करता था. अमेरिका भी एक महाशक्ति है. कौन जाने, उस का भी कभी यही हाल हो!!