‘किसी शहर का चरित्र खोजना है तो उसके जन में बसे किस्से-कहानियों में खोजा जाए.’ लखनऊ के संदर्भ में कही गई अमृतलाल नागर की ये पंक्ति इस शहर के मूल चरित्र की पहचान करने में बेहद सहायक है. खुद नागर जी का सम्पूर्ण साहित्य लखनऊ के ऐसे ही बेशुमार किस्से-कहानियां अपने अंतस में समेटे हुए है. अगर उन्हीं की राह चलते हुए लखनऊ को तलाशा जाए तो हम ऐसी कई कहानियों से मदद पा सकते हैं जो कि लखनवी समाज में पीढ़ियों से रची-बसी हैं. जैसे कि इस शहर में कोई नवाब हुआ करते थे जिन्होंने अंग्रेजों को गिरफ्तारी दे दी, लेकिन भागे नहीं, इसलिए क्योंकि उन्हें कोई जूता पहनाने वाला नहीं था और खुद जूता पहनना उनकी शान के खिलाफ था. हालांकि ऐतिहासिक रूप से गलत होने के बावजूद ये किस्सा लखनऊ के समाज में गहरे बसे स्वाभिमान और किसी हद तक सामंती प्रवृत्ति को रेखांकित तो करता ही है.
वैसे किस्से-कहानियां सिर्फ नवाबी के दायरे में ही नहीं सीमित, इसके बाहर भी बेशुमार हैं. महज कुछ दशक पहले तक नक्खास में वजीरू मियां का चाय का होटल हुआ करता था. जहां शेरो-अदब की महफिलें सजा करती थीं. होटल के अपने तय ग्राहक थे. अगर कोई नया ग्राहक पहुंच गया और चाय के लिए अधीर हुआ तो वजीरू मियां विशिष्ट लखनवी अंदाज़ में उससे कह देते- देखिए जनाब ! सब्र कीजिए, या फिर नक्खास में और भी दुकानें हैं. आपके पास तो पैसे हैं, आपको कोई भी चाय पिला देगा, इन हज़रात को चाय कौन पूछेगा, ये सब हमारे बाकीदार हैं. बाकीदारों को लेकर भी शिष्टाचार का ये आलम और कहां होगा.
इतिहास शहर के शानदार अतीत का एक गवाह छोटा इमामबाड़ा
इसी सिलसिले का एक आखिरी किस्सा कुछ यूं है कि एक साहब बम्बई से लखनऊ घूमने आए. जूतियां खरीदने की गरज से वे नज़ीराबाद जा पहुंचे. किसी दुकान पर एक जोड़ी पसंद आई. लेकिन दुकान की हालत देखकर और खुद से मुखातिब नौकर के हालात देखकर उन्हें लगा कि जूतियों की पैकिंग शायद वहां ठीक तरह से न हो पाए. लिहाजा उन्होंने नौकर से कहा- सुनो, इसको बराबर से पैक करना. इस पर दुकान के मुलाज़िम ने कहा- शहज़ादे, आप इतने बेचैन न होइए. अभी तो बेटी बाप के घर है, जब आप तक बेसलीका पहुंचे तब गिला कीजिएगा. ये है लखनवी अंदाज़, जो कि पढ़े-लिखों से लेकर अनपढ़ों तक और अमीरों से लेकर गरीबों तक एक सा फैला है. इस तरह के तमाम किस्से लखनऊ में बिखरे पड़े हैं, जो आपको बता देंगें, कि लखनऊ क्या है.
दरअसल लखनऊ अपने आप में वो अफसाना है कि जितना सुनते जाइए उतना ही दिलचस्प होता जाता है. जो भी इसका बयान सुनाता है, एक नई दास्तान सुनाता है. एक शहर, जिसका खयाल आते ही जहन में तहज़ीब की शमाएं रोशन हो उठती हैं. जिसका जिक्र छिड़ते ही दिल की गलियां गुलशन हो उठती हैं. जिसका नाम लेकर आशिक अहदे वफा करते हैं, सुखन-नवाज़ जिसके होने का शुक्र अदा करते हैं. क्या इतनी खूबियों से भरपूर मकाम सिर्फ एक अदद शहर हो सकता है ?
दरअसल लखनऊ वो तिलिस्म है जिसमें कैद हुआ शख्स कभी आज़ाद नहीं होना चाहता. जो दुर्भाग्य के कारण यहां से निकल भी जाते हैं वो अपनी आंखों में लखनऊ के मंजर लिए भटकते हैं और इसकी यादों को अपने कलेजे से हरदम लगाए रहते हैं. वाजिद अली शाह के हवाले से इतिहास गवाह रहा है कि ऐसे दीवाने जहां भी जाते हैं एक नया लखनऊ बसा देते हैं. लखनऊ वाले कहीं भी रहें लखनवी आदाब कभी नहीं भुलाते. पुरखों से विरासत में मिले तहज़ीब के लबालब खजाने को कैसे दोगुना-चौगुना करना है, ये उन्हें खूब आता है. अपने अंदाज़-ए-बयां से वे दुश्मन को भी अपना दीवाना बना सकते हैं. जीवन में कितनी भी कड़वाहट क्यों न हो लखनऊ वालों की जुबान पर इसका असर कभी नहीं दिखेगा. लखनऊ वाले जानते हैं कि बीमार से ये पूछना कि क्या आपके दुश्मनों की तबीयत नासाज है, ये सिर्फ एक जुमला नहीं है, बीमारी की रामबाण दवा है. हिंदुस्तान ने अपनी साम्प्रदायिक एकता की जान इस शहर में समोई हुई है. फिरकापरस्ती आज भी इस शहर में आते हुए शर्माती है. नज़ाकत लखनऊ की पहचान है. हिंदुस्तान का ऐसा कौन-सा दूसरा शहर है, जहां ककड़ी को ककड़ी कहने से महज इसलिए गुरेज किया जाता हो क्योंकि ककड़ी शब्द कानों को कुछ कर्कश लगता है या फिर शरीफे को शरीफा कहकर इनके दाम कभी पूछे-बताए न गए हों क्योंकि इसमें शरीफ लोगों की रुसवाई होती है, अगर ये पूछा जाए कि शरीफों के क्या दाम हैं ?
इस बे-मिसाल बा-कमाल शहर की लोक मान्यताएं हमें बताती हैं कि कभी ये भगवान राम के छोटे भाई लक्ष्मण का शहर हुआ करता था. नाम था लक्ष्मणपुर, जो बाद में घिसते-घिसते लखनऊ हो गया. इतिहास हमें बताता है कि इस शहर ने अपनी आंखों से यहां कई-कई हुकूमतों को आते और जाते देखा है. लेकिन ये भी सच है कि लखनऊ के इतिहास का सबसे लोकप्रिय हिस्सा नवाबी और उसके बाद के कालखण्ड में लिखा गया है. खासकर सन 1775 से. जब आसिफुद्दौला अवध के नवाब बने और लखनऊ अवध सूबे की राजधानी बना. आसिफुद्दौला के जमाने से लखनऊ में नवाबी के जो जलवे शुरू हुए वो आखिरी नवाब वाजिद अली शाह के दौर तक कायम रहे. इसी दौर में लखनवी तहज़ीब की धूम पूरी दुनिया में फैली और लखनऊ कला, साहित्य एवं संस्कृति के गढ़ के तौर पर पहचाना जाने लगा. जब अंग्रेज़ों ने 1856 में वाजिद अली शाह को अपदस्थ करके कलकत्ता के पास मटियाबुर्ज़ में कैद कर दिया तो लखनऊ में नवाबी का अध्याय समाप्त हो गया. इसके अगले ही साल 1857 में लखनऊ बेगम हज़रत महल के नेतृत्व में भारत के पहले स्वतंत्रता संग्राम का और उसके बाद अंग्रेज़ों के भीषण दमन का साक्षी भी बना. 1857 के मुक्ति संग्राम से लेकर 1947 में देश को आज़ादी मिलने तक लखनऊ आज़ादी की लड़ाई का एक प्रमुख केंद्र बना रहा. 1916 और 1936 के अति महत्वपूर्ण कांग्रेस अधिवेशन यहीं हुए. खिलाफत आंदोलन का गढ़ लखनऊ ही था. गांधी और नेहरू एक-दूसरे से पहली बार लखनऊ में ही मिले और प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कांफ्रेंस भी लखनऊ में ही हुई. कुल मिलाकर लखनऊ का इतिहास इतना समृद्ध है कि अक्सर कुछ लोग कहते हैं कि लखनऊ जो भी था अपने अतीत में था और वो लखनऊ अब गए दिनों का किस्सा हो गया. लेकिन ऐसा वही कहते हैं जिन्होंने लखनऊ को सिर्फ इतिहास की किताबों में पढ़ा है. आज के लखनऊ को नहीं देखा.
इस बे-मिसाल शहर की लोक-मान्यताएं हमें बताती हैं कि कभी ये भगवान राम के भाई लक्ष्मण का शहर लक्ष्मणपुर था, जो बाद में घिसते-घिसते लखनऊ हो गया
सच तो ये है कि समय के साथ ये शहर अपने क्षेत्रफल को चाहे जितना बड़ा कर ले इसका सांस्कृतिक गुरुत्व-केंद्र अटल रहता है. इतना बड़ा दिल दुनिया के बहुत कम शहरों के पास होता है कि हर आने वाले को अपना बना ले और खुद को उसका बना दे. असल में लखनऊ को नए लखनऊ और पुराने लखनऊ के खांचों में बांटने वाले भी वही हैं, जो इस शहर के संस्कारों से अछूते रह गए हैं. लखनऊ सिर्फ एक है और वो कभी नया या पुराना नहीं हो सकता, क्योंकि लखनऊ एक शहर का नहीं बल्कि एक संस्कृति का नाम है. इसीलिए चाहे पुराना कॉफी हाउस हो या नव-निर्मित ज़ायका, जनपथ हो या मरीन ड्राइव, दोनों ही जगह आपको एक ही सूरज से रोशन मिलेगी जिसका नाम लखनऊ है. लखनऊ वाले तो लखनऊ की मिट्टी के हर ज़र्रे को अपनी ज़िंदगी का आफताब समझते हैं. इसीलिए चौक की गलियों में चहल कदमी करते हुए उन्हें गेसु-ए-जानां के खम सुलझाने जैसा लुत्फ आता है, तो गोमती नगर की चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर भी वे उसी तरह आवारगी करते हैं जैसे बाद-ए-सबा किसी चमन से होकर गुजरती है.
वास्तव में लखनऊ अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को दिल से लगाए हुए अपने समय से कदम मिला रहा है. जिस तरह हर दिन व्यक्ति के कपड़े बदलने मात्र से उसकी आत्मा में कोई परिवर्तन नहीं होता, उसी तरह समय के अनुसार इस शहर में हुए तमाम बाहरी परिवर्तनों के बाद भी लखनऊ की रूह और उसके किरदार में जरा भी तब्दीली नहीं हुई है. लखनऊ अगर बदला भी है तो बेहतरी के लिए बदला है. आज यहां दस से ज्यादा विश्वविद्यालय हैं, तीस से ज्यादा इंजीनियरिंग और मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट हैं, आधा दर्ज़न से ज्यादा केंद्रीय शोध संस्थान हैं, बहुत से अत्याधुनिक अस्पताल हैं, ढेर सारे बेहतरीन डिग्री कॉलेज हैं और कई उम्दा स्कूल हैं. निजी कंपनियों की शहर में आमद से यहां रोज़गार के अवसर भी बढ़े हैं.
इसी तरह से सुंदर सांस्कृतिक केंद्रों, व्यवस्थित प्रेक्षागृहों, चमचमाते बाज़ारों, मल्टीप्लेक्स, शॉपिंग मॉल, डिस्कोथेक-बार और एम्यूजमेंट सेंटर, क्लबों और खूबसूरत पार्कों की भी कमी नहीं है. दिलचस्प बात ये भी है कि चौक जैसे रिवायती इलाके में भी पांच से ज्यादा पूल और बिलियर्ड्स प्वाइंट हैं जो कि खचाखच भरे रहते हैं.
पढ़ने-लिखने के शौकीन इस शहर में पुस्तकालय पहले भी थे, लेकिन दिल्ली मुंबई की तर्ज पर अब लखनऊ में भी 300 स्टोरीज डॉट कॉम जैसे बेहतरीन ऑनलाइन पुस्तकालय हैं जो न सिर्फ घर बैठे आपको आपकी मनपसंद किताबें पहुंचा रहे हैं बल्कि आपके बच्चों में पठन-पाठन की आदतें विकसित करने के लिए भी काम कर रहे हैं. आज शहर से कई सारी प्रतिष्ठित पत्रिकाएं और लगभग सारे बड़े अखबार निकल रहे हैं. शहर अभी भी हिंदी-उर्दू के बड़े नामों का गढ़ है. साथ ही यहां युवाओं के द्वारा रोज नए बुक क्लब और लिटरेरी सोसाइटी शुरू हो रहीं हैं. रेजीडेंसी जैसी ऐतिहासिक जगह पर भी सुबह-सुबह युवाओं द्वारा ‘बेवजह मॉर्निंग’ जैसा ताजगी भरा आयोजन किया जा रहा है. यहां एक नहीं बल्कि दो-दो भव्य लिटरेचर फेस्टिवल होते हैं जिनमें देश-दुनिया के बड़े साहित्यकार लखनऊ शिरकत करते हैं. इस तरह से नए दौर के लखनऊ में आज वो सब कुछ है जो यहां पहले कभी नहीं था.
अच्छी बात ये है कि नए दौर में होने के बावजूद गुजिश्ता दौर से भी इसने अपनी नातेदारी निभाए रखी है. संक्रमण काल से गुजर रहे किसी भी समाज के लिए ये बहुत कठिन काम होता है. लेकिन असल में लखनऊ को लखनऊ उसकी समन्वय की असीम क्षमता ही बनाती है. ये इसी शहर में हो सकता है कि एक ही वक्त में एक ही तरह के लोगों के द्वारा टुंडे के कबाब और बाजपेयी पूड़ी भंडार की पूड़ियां भी लंबी लाइन में लगकर खरीदीं जाएं और सहारा गंज के फूड कोर्ट में पास्ता या सिज़लर खरीदने के लिए भी गदर मचा रहे. मीर-ओ-गालिब पर भी गाहे-गाहे तब्सरा होता रहे और अमीश त्रिपाठी की भी पुरसिश होती रहे. वे बेगम अख्तर के मुरीद भी रहें और शकीरा के दीवाने भी. हज़रतगंज में ‘गंजिंग’ करने के भी शौकीन हों, तो नक्खास में इतवारी बाजार में भी तफरीह करते मिलें. चौक वाले चिकन के कुरते भी उन पर उतने ही फबते हों जितने प्रोवोग से लिए पश्चिमी परिधान. जहां गोमतीनगर, जानकीपुरम, एल्डिको और आशियाना में भी उतनी ही लखनवियत हो जितनी कश्मीरी मोहल्ले, शीश महल, राजा बाजार या सआदतगंज में मिलती है.
लखनवी तहज़ीब पर अक्सर ही अभिजात्य और जनविरोधी होने का आरोप लगता है, क्योंकि नफासत की आड़ में वह अवधी लोक संस्कृति से मुंह फेर लेती है
इन जैसी तमाम खुशगवार मिसालों के बावजूद अगर हमें वास्तव में लखनऊ के समन्वयकारी चरित्र को सलीके से समझना है तो यहां के सामाजिक ताने-बाने में गुंथी मिसालों को मद्दे नजर रखना चाहिए. जैसे अगर यहां झाऊ लाल का बनवाया इमामबाड़ा है, तो जनाबे आलिया का बनवाया हनुमान मंदिर भी है. पड़ाइन की बनवाई मस्जिद है, तो आसफुद्दौला का अता किया कल्याण गिरि मंदिर भी है. ये वो शहर है जहां मुसलमान बड़े मंगल पर हलवा-पूड़ी बटवाते हैं, जमघट पर पतंग उड़ाते हैं, होली में रंग खेलते हैं, कृष्ण जी की बारात में शामिल होते हैं, तो हिंदू मुहर्रम में अजादारी करते हैं, सबीले लगवातें हैं और रमज़ान में सहरी के लिए जगाते हैं, बल्कि इफ्तारी का इंतज़ाम भी करते हैं. ये रिवायतें तब से पूरी आबो ताब के साथ कायम हैं जबसे राजा झाऊलाल कर्बला की ज़ियारत के लिए इराक जाया करते थे और वाजिद अली शाह जोगिया चोले में कन्हैया बना करते थे. इसीलिए यहां अब तक हमको लोगों की जुबान पर वाजिद अली शाह की लिखी गई गणेश हनुमान स्तुतियां भी मिल जाती हैं और नानक चंद नानक के लिखे मर्सिए भी.
लखनऊ की एक मकबूलियत इसके दस्तरखान की वजह से भी है. शाकाहार के शौकीनों के लिए यहां पूड़ी-सब्जी, खस्ता-कचौड़ी, छोले-भटूरे, चाट, पानी के बताशे और बंद-मक्खन जैसे बेशुमार नज़राने हैं तो नॉनवेज का तो गढ़ ही लखनऊ है. दर्जनों तरह के कबाब लखनऊ से मंसूब हैं, साथ ही सैकड़ों तरह के और पकवान भी. टुण्डे कबाबी, रहीम की नहारी, नौशीजान और इदरीस की बिरयानी जैसी जगहें खाने-पीने के शौकीनों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं. यहां एक बात बता देना जरूरी है कि एक मुद्दत तक लखनऊ में बिरयानी को जानवरों की गिज़ा कहा जाता रहा. और पुलाव को उस पर तरजीह दी जाती रही, लेकिन आज दमपुख्त लखनवी बिरयानी भी यहां खूब खाई जाती है. अब्दुल हलीम शरर ने अपनी किताब गुजिश्ता लखनऊ में दोनों के बारीक अंतर को इस तरह समझाया है- ‘देहली में बिरयानी का खास रिवाज है. मगर लखनऊ की नफासत ने पुलाव को उस पर तरजीह दी. आवाम की नज़र में दोनों करीब-करीब एक ही हैं, मगर बिरयानी में मसाले की ज्यादती से सालन मिले हुए चावलों की शान पैदा हो जाती है, पुलाव के मुकाबिल बिरयानी नफासत पसंद लोगों की नज़र में बहुत ही लद्धड़ और बदनुमा गिज़ा है.’
लखनऊ की इन खूबियों के बावजूद अगर किसी बयान में सिर्फ खूबियां ही बताई जाएं तो ये बयान अधूरा ही कहा जाएगा. ये भी सच है कि अपनी तमाम खूबियों के बावजूद इस शहर के स्वभाव में कई ऐसी बातें हैं जिन्हें किसी भी नज़र से तहज़ीब के दायरे में नहीं रखा जा सकता. यहां हिंदू-मुस्लिम दंगे नहीं होते लेकिन बहरहाल दंगे तो हर साल होते ही हैं. यूं तो ये शहर ‘पहले आप’ के लिए मशहूर है लेकिन ये भी सच है कि बाहर वालों से मिलते समय लखनऊ वाले अपने शहर को लेकर एक सुपीरियॉरिटी कॉम्पलेक्स में घिरे रहते हैं. ऊपरी दिखावे में विश्वास रखते हैं और एक खास किस्म की आत्म-मुग्धता और विशिष्टता बोध के मारे भी होते हैं, जिस वजह से लखनवी तहज़ीब पर अक्सर ही सीमित वर्ग की सामंती, अभिजात्य, प्रतिगामी और जनविरोधी सभ्यता होने का आरोप भी लगता है, क्योंकि नफासत की आड़ में वह सहज-सरल अवधी लोक संस्कृति से मुंह फेरकर खड़ी हो जाती है. इसी वजह से अवध के कई चेतनाशील लोगों ने ही लखनवी तहज़ीब को कटघरे में खड़ा किया है. जिसके संकेत हमें रमई काका, कुंवर नारायन और रफीक शादानी तक की कविताओं में खूब मिल जाएंगें. दूसरों की ऐबजोई और मज़ाक उड़ाने और नीचा समझने में उन्हें खास लुत्फ मिलता है. मीर-तकी-मीर भी लखनऊ वालों के इस हमले से बच नहीं पाए थे, यही वजह है कि लखनऊ में लंबा वक्त गुज़ारने के बाद भी उन्हें लखनऊ कभी पसंद नहीं आया. एक बड़े शायर यगाना चंगेज़ी को भी अदब-नवाज़ कहे जाने वाले लखनऊ ने जिस तरह ज़लील किया वो लखनऊ के लिए कभी न मिटाया जा सकने वाला कलंक है. बात सिर्फ ये थी कि यगाना की शाइरी लखनऊ वालों को पसंद नहीं आती थी. मजाज़ लखनवी ने भी एक सर्द रात यहीं के एक शराबखाने की छत पर दम तोड़ दिया, लेकिन उनको बचाने के लिए कोई नहीं था. अभी कुछ वक्त पहले इस अहद के कबीर कहे जाने वाले शायर अदम गोंडवी लखनऊ में मदद की बाट जोहते हुए दुनिया को अलविदा कह गए, लेकिन एक और मरते हुए के लिए भी ये शहर अपनी धीमी चाल को तेज़ नहीं कर सका.
आप किसी भी लखनवी से इन कमियों का ज़िक्र कीजिए वह सर झुकाकर अपनी शर्मिंदगी का इज़हार करेगा, लेकिन साथ ही साथ लखनवी अंदाज़ में ये कहकर आपको लाजवाब भी कर देगा कि आप सेर भर बेर लेते हैं तो पाव भर गुठलियां भी आती हैं न?
गीता (बदला हुआ नाम) की शादी को चार साल हो गए थे, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी. गीता और उनके पति की इकलौती चाहत यही थी कि उनका एक बच्चा हो. दोनों ने गाइनी सर्जन से संपर्क किया तो पता चला कि गीता की फैलोपियन ट्यूब में ट्यूबरकुलर इंफेक्शन है, जिसकी वजह से वह गर्भधारण नहीं कर सकतीं.
इसके बाद गीता ने करीब एक साल तक इलाज कराया, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ. फिर उनकी गाइनी ने उन्हें आइवीएफ (इन विट्रो फर्टिलाइजेशन – एक तरह का कृत्रिम गर्भाधान) कराने की सलाह दी. दंपत्ति ने इस बारे में रिसर्च की, जिसमें उन्हें पता चला कि आइवीएफ क्लीनिक सिर्फ दो बार ही आइवीएफ करवाने की सलाह देते हैं. सारी खोजबीन के बाद गीता और उनके पति नई दिल्ली के एक इनफर्टिलिटी क्लीनिक में गए और वहां पर ट्रीटमेंट शुरू हुआ. गीता और उनके पति ने दो बार कोशिश की, लेकिन दोनों बार नाकामयाब रहे. इस प्रक्रिया में उनके दो लाख से ज्यादा रुपये खर्च हो गए, लेकिन इसका फायदा कुछ नहीं हुआ.
इससे गीता और उनके पति को बहुत धक्का लगा. गीता बताती हैं, ‘डॉक्टरों ने हमसे कहा था कि इससे हमारे सपने पूरे हो जाएंगे, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. हमारे सपने बिखर गए.’ गीता और उनके पति की तरह हजारों नि:संतान दंपत्ति संतान की चाहत में ऐसे क्लीनिकों के झांसे में आ जाते हैं, जिनका मकसद ग्राहकों से पैसा ऐंठना होता है. ग्राहकों को आकर्षित करने के लिए वे ऐसे सफल मामलों का हवाला देते हैं, जिनमें दिखावा ज्यादा और सच्चाई कम होती है.
आइवीएफ क्लीनिक तेजी से बढ़ रहे हैं क्योंकि सेरोगेसी का कारोबार काफी मुनाफे का सौदा है
आइवीएफ क्लीनिक के अंडरवर्ल्ड में आपका स्वागत है, जहां पर बच्चे का लालच देकर आपसे पैसे ऐंठे जाएंगे. आज पूरे देश में आइवीएफ तकनीक का बोलबाला है. इससे संबंधित विज्ञापन आपको जगह-जगह देखने को मिल जाएंगे, जिनमें इस बात का दावा किया गया होगा कि अब नि:संतान दंपत्तियों को निराश होने की जरूरत नहीं है, अब वे आइवीएफ तकनीक की मदद से संतान सुख पा सकते हैं. इन विज्ञापनों को पढ़कर संतान की चाहत लिए दंपत्ति जब वहां जाते हैं, तो बदले में उन्हें निराशा ही मिलती है.
जिस तरह संतान की चाहत रखनेवाले दंपत्ति होते हैं, ठीक उसी तरह एग डोनेट करनेवाले भी होते हैं, जो कुछ पैसों के लिए में एग बैंक को एग डोनेट करते हैं. अभी हाल ही में इसी मसले पर विकी डोनर नाम से एक फिल्म भी आई थी, जिसमें एग डोनेशन के इसी कारोबार का एक दूसरा पहलू दिखाया गया था. विज्ञान कहता है कि महिलाओं में हर महीने एग डेवलप होते हैं, जो गर्भधारण के लिए जरूरी होते हैं और ये हजारों की संख्या में होते हैं, जो बेकार हो जाते हैं, ऐसी ही बातें सुनाकर एग बैंकवाले अशिक्षित महिलाओं को एग डोनेट करने के लिए फुसलाते हैं. अगर ये कहें कि अब ऐसी महिलाओं के साथ एग्सप्लॉयटेशन (कोख का शोषण) हो रहा है, तो गलत नहीं होगा. अपनी सेहत की चिंता किए बगैर ये औरतें बिना किसी स्वास्थ्य जांच के एग डोनेट करती हैं, परिणामस्वरूप कई लाइलाज बीमारियों का शिकार हो जाती हैं.
अवैध तरीके से चलनेवाला आइवीएफ का व्यवसाय बड़ी तेजी से पूरे भारत में फैल रहा है. कई मायनों में यह कारोबार अनैतिक भी कहा जा सकता है, क्योंकि यह अवैध सेरोगेसी के व्यापार को बढ़ावा दे रहा है. संयुक्त राष्ट्र की एक टीम ने साल 2012 में इस बारे में एक सर्वेक्षण किया था, जिसके मुताबिक भारत में इससे संबंधित बाजार 40 करोड़ डॉलर का है. इसमें छोटे से लेकर बड़े स्तर तक के लोग जुड़े हुए हैं. एजेंट जरूरतमंदों को थोड़े पैसे का लालच देकर उनसे एग लेते हैं और फिर उस एग को जरूरतमंद दंपत्तियों को लाखों रुपये में बेचते हैं.
आइवीएफ की सफलता की दर काफी कम है. जिन लोगों को बच्चे का सपना दिखाया जाता है, उनमें से कुछ लोगों की ही चाहत पूरी हो पाती है, अधिकांश लोगों के हाथ निराशा ही लगती है
इस कारोबार पर तहलका ने जो पड़ताल की, उससे पता चलता है कि आइवीएफ का यह धंधा इंसानी लालच की एक जीती-जागती मिसाल है. इसके जरिए कुछ लोगों का गिरोह नि:संतान परिवारों की भावनाओं से खेल रहा है. समस्या यह है कि जो लोग संतान की चाहत रखते हैं, उनकी इच्छा फिर भी पूरी नहीं हो रही है. क्लीनिक उनकी भावनाओं पर अपने धंधे की उड़ान भर रहे हैं. आइवीएफ की सफलता की दर काफी कम है. जिन लोगों को बच्चे का सपना दिखाया जाता है, उनमें से कुछ लोगों की ही चाहत पूरी हो पाती है, अधिकांश लोगों के हाथ निराशा ही लगती है.
[box] भारत बन सकता है दुनिया का सेरोगेसी कैपिटल
सेरोगेसी से जुड़ी औरतों के स्वास्थ्य के प्रति चिंतित लोगों और चिकित्सा जगत के बीच चल रहा द्वंद्व जल्द ही खत्म होे सकता है. केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय की ओर से संसद के मौजूदा शीतकालीन सत्र में इस बारे में एक विधेयक- असिस्टेड रीप्रोडक्टिव टेक्नोलॉजीज रेगुलेशन बिल पेश किया जानेवाला है. इस विधेयक के कानून का रूप ले लेने के बाद भारत दुनिया का सरोगेसी कैपिटल बन सकता है.
साल 2008 में उच्चतम न्यायालय ने यह टिप्पणी की थी कि कॉमर्शियल सेरोगेसी ने व्यवसाय का रूप ले लिया है, क्योंकि अमीर परिवार अपने घरों में टेस्ट ट्यूब संतानों की किलकारियां सुनना चाहते हैं और गरीब औरतें कुछ पैसों के बदले अपनी कोख किराए पर दे रही हैं. उसी साल इस विधेयक का मसौदा तैयार किया गया, ताकि इस बाजार का नियमन किया जा सके.
इस विधेयक को 2010 और 2013 में संशोधित किया गया, लेकिन इन दोनों ही विधेयकों में आशय स्पष्ट था. यह विधेयक कुछ सुरक्षा शर्तों के साथ सेरोगेसी और एग डोनेशन को अनुमति देता है, लेकिन इन कामों से जुड़ी चिकित्सा प्रक्रियाओं के संभावित दुष्परिणामों को देखते हुए महिला स्वास्थ्य विशेषज्ञ इन शर्तों को सुरक्षित नहीं मानते.
अठारहवें विधि आयोग ने साल 2008 में बने इस विधेयक के मूल रूप का विश्लेषण किया था और यह टिप्पणी की थी- ‘भारत में कोख किराए पर है, जो विदेशियों के लिए बच्चे पैदा करती है और भारतीय सेरोगेट माताओं के लिए डॉलर.’ कॉमर्शियल सेरोगेसी का विरोध करते हुए आयोग ने व्यावसायिक उद्देश्यों के लिए सेरोगसी पर रोक लगाने का सुझाव दिया था.
इस विधेयक के कानून का रूप ले लेने के बाद भारत यूक्रेन, जॉर्जिया और थाइलैंड जैसे देशों की सूची में शामिल हो जाएगा, जहां इसकी अनुमति है. इस विधेयक को उचित ठहराते हुए केंद्र सरकार ने तर्क दिया था कि भारतीय परिवारों के लिए वंश परंपरा काफी अहम होती है. तहलका ने आयुर्वेदिक और यूनानी डॉक्टरों के अलावा बांझपन उपचार से जुड़े केंद्रों के अधिकारियों से जो बातचीत की, उससे भी यह संकेत मिला िक नवविवाहित जोड़ों पर बच्चे के लिए परिवार और समाज की ओर से बराबर दबाव बनाया जाता है. इस संदर्भ में गृह मंत्रालय ने दिशा-निर्देश जारी किया कि केवल विपरीतलिंगी विवाहित जोड़े ही आइवीएफ का इस्तेमाल कर सकते हैं. इस दिशा-निर्देश के तहत सिंगल विमेन, गे और लेस्बियन जोड़ों को इस तकनीक का इस्तेमाल करने से मना किया गया है.
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इतना ही नहीं, अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए ये लोग एग डोनर की सेहत की भी अनदेखी करते हैं. सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हजारों औरतें इनकी लच्छेदार बातों में आकर थोड़े से पैसों के लिए एग डोनेट करने को तैयार हो जाती हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञों का मानना है कि एग डोनेट करने के बाद सेहत को जो नुकसान होता है, उसका पता एकदम से तो नहीं चलता, लेकिन इसका असर कुछ दिनों बाद दिखना शुरू हो जाता है. मोटे तौर पर एक अनुमान है कि उचित सावधानी अपनाए बगैर एग डोनेशन करने की वजह से लगभग 40 से 45 हजार औरतें गंभीर बीमारियों का शिकार हो चुकी हैं.
दिल्ली के कापसहेड़ा की रहनेवाली विमलेश देवी ने अपने आपको बड़ा भाग्यशाली समझा, जब उन्हें ऐसा मौका मिला. उनके पड़ोसियों की आंखें खुली की खुली रह गईं, जब उन्होंने देखा कि उनके पति राजेश, सिक्योरिटी गार्ड का काम करनेवाले, ने नई बाइक खरीद ली. उसके बाद जल्दी ही उनके छोटे से घर में सुख-सुविधा की सारी चीजें भर गईं. फिर पड़ोसियों को पता चला कि 25 वर्षीया विमलेश की इस समृद्धि की वजह उनका सेरोगेट मदर बनना है.
विमलेश की छोटी उम्र में ही शादी हो गई थी. चार बच्चे होने के बाद उनके पति की मौत हो गई. उसके बाद उनकी मां ने उनकी शादी राजेश से करवा दी, लेकिन उनकी आर्थिक स्थिति खराब ही बनी रही. उसके बाद एक एजेंट ने उन्हें आसानी से पैसे कमाने का लालच देकर एग डोनेट करने के लिए राजी कर लिया. विमलेश और उनकी एक करीबी रिश्तेदार एक एजेंट के जरिए एग डोनेट करने लगीं, जो इससे मिले पैसों में से अपना हिस्सा भी लेता था.
दो बार एग डोनेट करने के बाद विमलेश की जिंदगी में जैकपॉट तब लगा, जब उन्हें सेरोगेट मदर बनने का मौका मिला. इससे उन्हें तीन लाख रुपये मिले. जब बच्चा हो गया, तो उन्हें पैसे मिल गए. इस तरह विमलेश को पैसों का चस्का लग गया. यह बात और है कि एक पैन कार्ड थमा कर उनके पति ने उन्हें यह झांसा दे दिया था कि यह उनके उस खाते का डेबिट कार्ड है, जिसमें उनके पैसे जमा हैं. भले ही उनके साथ यह ठगी हो गई हो, लेकिन अब उनकी तरक्की हो गई थी. वह अब साधारण एग डोनर से एजेंट बन गई थीं. विमलेश अब अपने पड़ोस की महिलाओं को जल्दी पैसे कमाने के लिए एग डोनेट करने के लिए उत्साहित करने लगीं.
विमलेश की यह कहानी ईशानी दत्ता के वृत्तचित्र वॉम्ब्स ऑन रेंट (किराए पर कोख) में दिखाई गई उन चुनिंदा कहानियों में से एक है, जो देश के शहरी इलाकों में चल रही धोखाधड़ी और शोषण की गाथा पेश करती हैं.
कभी-कभी एग डोनेट करनेवाली महिला से संकोचशील सेरोगेट मदर और फिर चालाक एजेंट बनने तक की विमलेश की कहानी इस कारोबार में शामिल लालच और धोखाधड़ी को बखूबी बयान करती है.
[box] खुशियां दिलाने के वादों का कारोबार
डॉक्टर गोपीनाथन ने 1996 में दो लाख रुपये लगाकर केरल के इडप्पल में सीआइएमएआर इनफर्टिलिटी क्लीनिक खोला था. आज वह 150 करोड़ रुपये के चिकित्सा व्यवसायी बन गए हैं. उनके इनफर्टिलिटी क्लीनिक और अस्पताल केरल, तमिलनाडु के साथ-साथ संयुक्त अरब अमीरात में भी हैं.
इस हॉस्पिटल चेन पर गलत तरीके से काम करने के कई आरोप हैं, लेकिन इसके बावजूद यह बांझपन के उपचार के नाम पर अभी भी फल-फूल रहा है. तहलका की जांच में यह बात सामने आई कि इनकी आमदनी का मुख्य स्रोत एग डोनेट करनेवाले लोग हैं, जो झारखंड, उड़ीसा, पूर्वोत्तर के राज्यों और नेपाल से लाए जाते हैं.
इसके अलावा सीआइएमएआर की ओर से सरोगेट माताओं के लिए कोच्चि के काडावान्त्रा में अस्पताल चलाया जा रहा है. जब तहलका ने एग डोनेट करनेवालों, उनको दिए जानेवाले पैसों और उनकी स्वास्थ्य सुरक्षा के बारे में पूछताछ की, तो अस्पताल के अधिकारियों ने बताया कि ये सारी चीजें हमारे बिचौलिए निपटाते हैं. इस तरह काफी सहजता से अस्पताल ने इसकी पूरी जिम्मेदारी इन बिचौलियों पर डाल दी. दुख की बात यह है कि ऐसे सारे केंद्रों की यही कहानी है.
केरल दरअसल बांझपन उपचार कारोबार का एक केंद्र बन चुका है. विदेशों में रहनेवाले केरल के लोगों के अलावा अरब देशों से भी लोग यहां पर इस काम के लिए आते हैं.
क्लीनिक पर यह आरोप लगते रहे हैं कि अधिक से अधिक पैसे वसूलने के लिए यह आइवीएफ उपचार की अवधि को जरूरत से अधिक खींचने की कोशिश करता है. हालांकि इस अनैतिक कारोबार में अकेले यही लोग नहीं लगे हैं. ग्राहकों में आइवीएफ उपचार के बारे में जानकारी के अभाव की वजह से यह कारोबार जोरों से फल-फूल रहा है.
जब कोई एग या सीमेन डोनेट करना चाहता है, तो उसके लिए बहुत सारे नियमों का पालन करना होता है. इसमें कई चिकित्सा जांच भी शामिल होती हैं, लेकिन कोई भी क्लीनिक इन दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करते हैं. कुछ मामलों में ग्राहकों से डॉक्टर यह वादा करते हैं कि वे बड़ी जाति के पुरुष, खास तौर पर ब्राह्मण का स्पर्म मुहैया कराएंगे. इसके लिए ये लोग ग्राहक से भारी कीमत वसूलते हैं, जबकि सच्चाई यह है कि स्पर्म किसी भी पुरुष से एकत्र कर लिया जाता है.
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तहलका की जांच में पता चला है कि कापसहेड़ा की अधिकांश महिलाएं आज विमलेश की कहानी दोहराना चाहती हैं. हालांकि इन महिलाओं को इसकी पूरी प्रक्रिया नहीं पता, लेकिन उनमें भी अपने पति पर निर्भर रहे बगैर कम समय में ज्यादा पैसा कमाने की चाहत पैदा हो गई है. दूसरी ओर विमलेश अपना खुद का बच्चा पैदा नहीं करना चाहती हैं क्योंकि ऐसे में वह फिर से सेरोगेट मदर नहीं बन पाएंगी.
हमारी जांच में यह पता चला कि इस पूरे धंधे में काफी प्रभावशाली समूह लगे हैं, जिनमें चिकित्सक और एजेंट शामिल हैं. बेहतर जिंदगी का भुलावा और थोड़े से पैसों का लालच देकर औरतों के शरीर और स्वास्थ्य के साथ चल रहा यह खिलवाड़ भयावह है. और जब ये औरतें इस कारोबार में एजेंट की भूमिका में उतर जाती हैं, तब तो वे इस दुष्चक्र के लिए आपूर्ति करने का हिस्सा ही बन जाती हैं.
हमारे देश में विमलेश जैसी हजारों युवतियां हैं, जो एग डोनेशन और सेरोगेसी के इस धंधे में उतरकर अपनी सेहत के साथ खिलवाड़ कर रही हैं. अपनी जरूरतों और वित्तीय समस्याओं से जूझ रही ये महिलाएं जब इस तरह के मौके पाती हैं, तो उन्हें यथार्थ से पीछा छुड़ाकर आगे बढ़ने का यह जरिया आसान लगने लगता है.
किसी भी नई तकनीक और उपचार प्रक्रिया की ही तरह आइवीएफ को भी नि:संतान दंपत्तियों के लिए एक वरदान की तरह माना जाता है, लेकिन इस उद्योग में चल रहे अवैध तरीकों की वजह से हजारों निर्दोष जानें खतरे में पड़ रही हैं. पता चला है कि हजारों महिला एग डोनर स्वास्थ्य से जुड़ी गंभीर विसंगतियों से जूझ रही हैं.
जब एग डोनेट करने वाली ये औरतें इस कारोबार में एजेंट की भूमिका में उतर जाती हैं, तब तो वे इस दुष्चक्र के लिए आपूर्ति करने का हिस्सा ही बन जाती हैं
महानगरों से लेकर छोटे-छोटे कस्बों तक आपको आइवीएफ क्लीनिक के होर्डिंग लटके मिल जाएंगे, लेकिन देशभर में बड़ी संख्या में ऐसे क्लीनिक खुल जाने के बावजूद आइवीएफ प्रक्रिया के बारे में समझ विकसित नहीं हो सकी है. औरतों और स्वास्थ्य से संबंधित मसलों पर काम करनेवाली संस्था समा के आंकड़ों के मुताबिक बेहद कम समय में आइवीएफ क्लीनिकों की संख्या 500 से बढ़कर 2500 तक पहुंच गई है. इनकी संख्या में अचानक हुई यह बढ़ोतरी समाधान पेश करने के बजाय समस्याएं बढ़ानेवाली साबित हो रही है.
आइवीएफ उद्योग का कारोबार काफी तेजी से बढ़ रहा है. कुछ समय पहले की एक रिपोर्ट के मुताबिक यह कारोबार बीस हजार करोड़ रुपये सालाना के आंकड़े तक पहुंच चुका है. शोषण से की जानेवाली यह मोटी आमदनी मुख्य रूप से उन डॉक्टरों और दलालों की जेब में जा रही है, जो भारत के प्रेगनेंसी टूरिज्म इंडस्ट्री में योगदान कर रहे हैं. सुसंस्कृत शब्दों में कहे जानेवाले स्वास्थ्य पर्यटन का यह एक भयावह संस्करण है.
एग डोनेशन ग्रामीण इलाकों में पैसे कमाने का आसान जरिया बन गया है
बांझपन के उपचार के नाम पर डॉक्टर ही इस शोषण के मुख्य कर्ताधर्ता हैं. यही वजह है कि बहुत सारे स्त्रीरोग विशेषज्ञ आइवीएफ डिप्लोमा कर इस धंधे को अपनाने को आतुर हैं. यह पूरी तरह से चिकित्सा के सभी नैतिक नियमों के खिलाफ है क्योंकि पैसे कमाने के लिए यहां सभी नियम-कानूनों को ताक पर रख दिया जाता है.
मेडिकल एंथ्रोपॉलिजिस्ट डॉक्टर सुनीता रेड्डी का कहना है, ‘भारत में बांझपन की समस्या से जुड़े अधिकांश विशेषज्ञ दरअसल स्त्रीरोग विशेषज्ञ हैं. कुछ सालों तक प्रैक्टिस करने के बाद ये कुछ मूलभूत कलाएं सीख लेते हैं और महानगरों या छोटे शहरों में क्लीनिक खोल लेते हैं.’
दलाल मुख्य रूप से गांवों को ही अपना निशाना बनाते हैं, क्योंकि वे एग डोनर के तौर पर गांवों की औरतों को शिकार बनाते हैं. दलाल लोग अमीर नि:संतान दंपत्तियों से मोटी रकम वसूलते हैं, लेकिन अपने एग डोनेट करनेवाली इन औरतों को काफी कम पैसे देते हैं.
बांझपन के उपचार के नाम पर डॉक्टर ही इस शोषण के मुख्य कर्ताधर्ता हैं. यही वजह है कि बहुत सारे स्त्रीरोग विशेषज्ञ आइवीएफ डिप्लोमा कर इस धंधे को अपनाने को आतुर हैं
सच तो यह है कि बांझपन के उपचार से जुड़ी इन प्रक्रियाओं का मुख्य उद्देश्य पैसे कमाना होता है. उन्हें इस बात से कोई लेना-देना नहीं होता है कि एग डोनेट करनेवाली महिलाओं की सेहत खराब हो रही है या फिर आइवीएफ करानेवाले जोड़े को संतान का सुख मिल रहा है या नहीं. जब नि:संतान दंपत्ति बच्चे की चाह में डॉक्टर से आइवीएफ इलाज के लिए संपर्क करते हैं, तो वे इसके लिए उनके सामने मोटी रकम की मांग रख देते हैं. उसके बाद धोखाधड़ी के तरीके अपनाकर और दंपत्तियों में जानकारी के अभाव का फायदा उठाकर ये डॉक्टर उन लोगों से और अधिक रकम वसूलते हैं. हालांकि डॉक्टरों का यह दावा होता है कि वे एग डोनेट करनेवालों को अच्छी-खासी राशि देते हैं, जबकि सच यह है कि इन लोगों को केवल बीस-पच्चीस हजार रुपये ही दिए जाते हैं. बाकी का सारा पैसा डॉक्टर और एजेंट के जेब में जाता है.
तहलका की जांच में पता चला है कि एग डोनेट करनेवाले ज्यादातर लोग अशिक्षित होते हैं. कई तो ऐसे होते हैं, जिन्हें यह भी पता नहीं होता कि पैसे गिनते कैसे हैं. इस संबंध में जेएनयू के सोशल मेडिसिन डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर डॉक्टर प्राचीन घोडाजकर का कहना है, ‘पूरी जानकारी अच्छी तरह से देकर सहमति नहीं लिया जाना बड़ी चिंता का विषय है. बहुत सारी औरतें, जिनसे एग डोनेट करने के लिए संपर्क किया जाता है, आर्थिक और सामाजिक रूप से पिछड़ी पृष्ठभूमि की होती हैं.’
एग डोनेशन की प्रक्रिया की बात करें तो एग के प्रोडक्शन की फ्रीक्वेंसी में वक्त की काफी अहम भूमिका होती है, लेकिन पैसे के लालच में एजेंट और डॉक्टर इस बात की परवाह नहीं करते और अपना एग डोनेट करनेवालों के लिए जरूरी चिकित्सा जांच कराए बगैर उनका लगातार शोषण करते रहते हैं. इसकी वजह से एग डोनेट करनेवालों की सेहत पर बुरा असर पड़ता है. दरअसल कई ऐसे मामले पाए गए हैं जिनमें महिलाओं ने एक महीने में आठ बार अपने एग डोनेट किए.
एग के उत्पादन की क्षमता को बढ़ाने के लिए हार्मोन्स के इंजेक्शन के भारी डोज और दवाएं एग डोनेट करनेवालों को दी जाती हैं. इस पूरे अमानवीय उपचार के बाद इनसे दवाओं के नाम पर 15 से 20 हजार रुपये वसूल लिए जाते हैं ताकि वे इन प्रक्रियाओं के दुष्प्रभावों से बच सकें.
उस वक्त न तो दलाल और न ही डॉक्टर, कोई भी इन्हें दुष्प्रभावों से बचाने में मदद नहीं करता. नतीजतन ये गरीब औरतें धीरे-धीरे कोमा में चली जाती हैं या फिर मौत की शिकार हो जाती हैं.
महाराष्ट्र में राजनीतिक उथल-पुथल थम चुकी है. भारतीय जनता पार्टी के अकेले सरकार बनाने के लगभग डेढ़ महीने बाद अब शिवसेना उनके साथ आ गई है और प्रदेश में इन दोनों के गठबंधनवाली सरकार बन चुकी है. लेकिन अलगाव के इस छोटे दौर में शिवसेना की वह फजीहत हुई, जिसकी उसने शायद ही कल्पना की हो.
बदले हुए राजनीतिक समीकरणों के बीच अपनी कमजोर स्थिति को स्वीकार करने में शिवसेना को कुछ वक्त लगा. इसकी वजह से आखिरकार वह भाजपा के साथ सरकार में शामिल तो हो गई, लेकिन उसे न तो उपमुख्यमंत्री का पद मिला और न ही गृह मंत्रालय. परिस्थितियां कुछ ऐसी बदलीं कि शिवसेना को भाजपा के साथ आने के लिए मजबूर होना पड़ा. शिवसेना की धमक और इसके संस्थापक बाल ठाकरे की हनक को याद करें, तो शिवसेना के लिए यह अप्रत्याशित है. विधानसभा चुनावों के दौरान घटी घटनाओं और जानकारों की राय से अगर शिवसेना की मौजूदा स्थिति के बारे में कोई तस्वीर बनानी हो तो यही तस्वीर उभरती है कि, एक तो बदली हुई स्थितियों में अपनी कमजोर स्थिति का आकलन करने में उनसे गंभीर चूक हुई और दूसरी बात, उन्होंने इस दौरान राजनीतिक अपरिपक्वता की भी कई मिसालें पेश कीं, मसलन चुनाव प्रचार के दौरान प्रधानमंत्री के पिताजी को निशाना बनाना या फिर आदित्य ठाकरे जैसे अनुभवहीन युवा को सीटों के बंटवारे की जिम्मेदारी सौंपना आदि.
पिछले लगभग पांच दशकों के दौरान महाराष्ट्र की राजनीति में ठाकरे परिवार एक तरफ रहा है, तो प्रदेश की बाकी राजनीति एक तरफ. इसकी वजह रही है बाल ठाकरे की छवि और शिवसेना का रोचक इतिहास.
बाल ठाकरे, जिन्हें उनके चाहनेवाले बालासाहेब या सिर्फ साहेब कहकर संबोधित करते थे, का जन्म 23 जनवरी 1927 को पुणे में एक चंद्रसेनीय कायस्थ परिवार में हुआ था. उनके पिता प्रबोधनकार ठाकरे का मूल नाम केशव सीताराम ठाकरे था, लेकिन उनकी पत्रिका ‘प्रबोधन’ की बदौलत उन्हें यह उपनाम दिया गया था. वह समाज सुधारक ज्योतिबा फूले के अनुयायी थे और जातिवाद, बाल विवाह, दहेज प्रथा और दकियानूसी परंपराओं के खिलाफ संघर्षरत थे. वह संयुक्त महाराष्ट्र समिति के संस्थापक सदस्यों में थे और मुंबई व बेलगाम के महाराष्ट्र में समावेश की पैरवी करते थे. इस तरह बाल ठाकरे को सामाजिक मूल्य उनके पिता से विरासत में मिले थे.
भारत में जन्मे ब्रिटिश मूल के लेखक विलियम मेकपीस ठाकरे से प्रबोधनकार ठाकरे इतने प्रभावित थे कि उन्होंने अपने उपनाम ठाकरे की अंग्रेजी में स्पेलिंग विलियम की स्पेलिंग से बदल ली जो आज तक चल रही है. यह बात और है कि उन्हीं के बेटे बाल ठाकरे ने बाद में अंग्रजों के दिए गए नाम बॉम्बे को बदलकर मुंबई कर दिया.
बाल ठाकरे, मार्मिक और शिवसेना
बाल ठाकरे ने अपने करियर की शुरुआत ‘फ्री प्रेस जर्नल’ अखबार में कार्टूनिस्ट के तौर पर की थी. साल 1959 में उन्होंने वहां से इस्तीफा दे दिया और व्यंग्य चित्रों की एक साप्ताहिक पत्रिका निकालने के बारे में अपने पिता से चर्चा की, जिसके बाद अगस्त 1960 में ‘मार्मिक’ पत्रिका का जन्म हुआ. किसे पता था कि आनेवाले दिनों में यही पत्रिका बाल ठाकरे को कार्टूनिस्ट से नेता बनानेवाली थी.
मार्मिक के जरिए ठाकरे ने मराठी लोगों के अधिकारों की लड़ाई शुरू की, साथ ही मुंबई में गुजरातियों, मारवाड़ियों और दक्षिण भारतीयों के मुंबई में बढ़ते प्रभाव के खिलाफ अभियान चलाया. मार्मिक में उन्होंने यह मसला उठाया कि दूसरे राज्यों से मुंबई आए लोगों के पास नौकरी है, लेकिन स्थानीय लोग नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं. कई बार महाराष्ट्र की विभिन्न संस्थाओं में कार्यरत ऐसे अधिकारियों के नामों की सूची पत्रिका में छापी जाती थी, जो दूसरे राज्यों से थे. एक बार उन्होंने सरकारी और निजी अस्पतालों में कार्यरत गैर-मराठी डॉक्टरों के नामों की सूची छापी और मुद्दा उठाया कि स्थानीय मराठी लोगों को नौकरी नहीं दी जा रही है. 5 जून 1966 को उन्होंने मार्मिक में शिवसेना स्थापित करने की घोषणा की और लिखा, ‘हम दक्षिण भारतीयों (यंडू-गंडू) के हमलों का जवाब देंगे.’ गौरतलब है कि उस समय मुंबई के सरकारी और निजी दफ्तरों में काफी संख्या में दक्षिण भारतीय लोग कार्यरत थे.
इसके बाद 19 जून 1966 को शिवसेना की स्थापना की गई. फिर 23 अक्टूबर को मार्मिक में यह घोषणा जारी की गई कि 30 अक्टूबर 1966 को दादर के शिवाजी पार्क में शिवसेना की सभा होने वाली है और सभी स्वाभिमानी मराठी बंधुओं से प्रार्थना है कि वे सभा में शामिल हो कर खुद के ही प्रदेश में हो रही अपनी अवेहलना को समाप्त करने के लिए आगे आएं. बाल ठाकरे के इस आह्वान का जोरदार स्वागत हुआ. शिवसेना की पहली सभा में शामिल होने के लिए बड़ी संख्या में लोग शिवाजी पार्क पहुंचे. खुद ठाकरे को भी यह उम्मीद नहीं थी कि शिवाजी पार्क लोगों से खचाखच भर जाएगा.
बाल ठाकरे की लोकप्रियता की एक बड़ी वजह उनकी बात करने की शैली थी. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक कुमार सप्तऋषि, जिनके बाल ठाकरे से निजी संबंध थे, बताते हैं, ‘बालासाहेब एक बेहतरीन कार्टूनिस्ट थे, वह जब बोलते भी थे, चित्रशैली में बोलते थे. एक बार उन्होंने एक वरिष्ठ राजनेता को मेंढक कह दिया था. जब उनसे पूछा गया कि आपने ऐसा क्यों कहा, तो उन्होंने जवाब दिया, यह राजनैतिक दल बदलते रहते हैं, इधर से उधर कूदते रहते हैं. जब मैं इन्हें देखता हूं, तो मुझे मेंढक दिखाई देता है.’
शिवसेना के गठन के बाद से इसका एजेंडा बदलता रहा है. पहले उन्होंने दक्षिण भारतीयों का विरोध किया, फिर वामपंथियों का, फिर उत्तर भारतीयों का
महाराष्ट्र के तत्कालीन कांग्रेसी मुख्यमंत्री वसंत राव नाईक का समर्थन बाल ठाकरे को प्राप्त था. इसकी वजह थी कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियनों का बढ़ता प्रभाव. नाईक चाहते थे कि ठाकरे शिवसेना के जरिए कम्युनिस्टों पर नकेल कसें. साल 1967 के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस ने वीके कृष्ण मेनन को उत्तर पूर्व मुंबई से टिकट देने से मना कर दिया. माना जाता है कि गैर-मराठी होने की वजह से उनका टिकट काट दिया गया था. इसके बाद मेनन ने इस सीट से निर्दलीय के तौर पर चुनाव लड़ा, लेकिन शिवसेना की मदद लेते हुए मराठियों के मुद्दे को हवा देकर कांग्रेस ने उनको हरा दिया. इसके बाद शिवसेना की लोकप्रियता में काफी बढ़ोतरी हुई.
पुराने दिनों को याद करते हुए सप्तऋषि बताते हैं, ‘बालासाहेब का शिवसैनिकों से आत्मीय रिश्ता था. वह खुद चालों में जाया करते थे, लोगों से मिलते थे, उनकी परेशानियां पूछते थे. आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए वह उन्हें प्रोत्साहित करते थे. बालासाहेब जात-पांत में यकीन नहीं रखते थे. वह शिवसैनिकों से बस वफादारी और आदेशपालन की उम्मीद रखते थे.
साल 1975 में जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल घोषित कर दिया, तब ठाकरे ने मार्मिक में आपातकाल के समर्थन में एक संपादकीय लिखा. माना जाता है कि मार्मिक में छपे संपादकीय ने शिवसेना को प्रतिबंधित होने से बचा लिया था.
शिवसेना के गठन के बाद से कई बार इसका एजेंडा बदल चुका है. पहले उन्होंने दक्षिण भारतीयों का विरोध किया, फिर वामपंथियों का, उसके बाद उत्तर भारतीयों का. अस्सी के दशक में शिवसेना हिंदुत्व के एजेंडे को लेकर आगे बढ़ी, जिसके समर्थन में नवंबर 1987 में मार्मिक में एक संपादकीय भी लिखा गया था.
राज ठाकरे की एक न चली ऐसा कहा जाता है कि बाल ठाकरे की असली विरासत के हकदार उनके भतीजे राज ठाकरे थे, लेकिन उन्होंने शिवसेना की जिम्मेदारी अपने सबसे छोटे बेटे उद्धव ठाकरे को दे दी. बाल ठाकरे का यह कदम कई राजनीतिक विश्लेषकों की सोच के विपरीत था. वरिष्ठ पत्रकार महेश विजापुरकर कहते हैं, ‘प्रमोद महाजन सोचते थे कि राज ठाकरे शिवसेना की कमान संभालेंगे, क्योंकि उनका व्यक्तित्व भी अपने चाचा की तरह करिश्माई है, लेकिन कमान आई उद्धव ठाकरे के हाथ.’
इसके बाद 2005 में राज ठाकरे ने शिवसेना से इस्तीफा दे दिया और 2006 में अपनी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) बना ली. गौरतलब है कि राज ठाकरे का काम करने का तरीका और उनकी भाषण शैली अपने चाचा बाल ठाकरे जैसी है, जबकि उद्धव शांत स्वभाव के हैं.
बाल ठाकरे की ही तरह राज ठाकरे भी एक कार्टूनिस्ट हैं और वे खुद भी मार्मिक में कार्टून बनाया करते थे. उनकी ही तरह राज ठाकरे ने भी दूसरे राज्यों से मुंबई आने -वाले लोगों के खिलाफ अभियान चलाया, लेकिन वह कभी भी उस तरह का जादू नहीं जगा पाए, जिसके लिए बाल ठाकरे जाने जाते थे. लगभग चार दशकों तक बाल ठाकरे का मुंबई पर इतना वर्चस्व था कि उनके एक इशारे पर पूरा मुंबई शहर थम जाता था. 2009 के विधानसभा चुनाव में मनसे ने 13 सीटों पर जीत दर्ज की थी, लेकिन 2014 के विधानसभा चुनाव में उसे महज एक सीट पर जीत मिली.
फोटोः तहलका अर्काइव
पिता की विरासत और उद्धव
बाल ठाकरे के सबसे छोटे बेटे उद्धव ठाकरे शुरुआती दौर में शिवसेना के मुखपत्र सामना का कामकाज संभालते थे. 2003 में उन्हें शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया गया था. 2004 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना-भाजपा की हार के बाद नारायण राणे ने उनके खिलाफ बगावत के सुर बुलंद कर दिए और शिवसेना से इस्तीफा देकर कांग्रेस में शामिल हो गए.
बाल ठाकरे के सबसे बड़े बेटे बिंदुमाधव की 1996 में एक सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गई थी. उनके मंझले बेटे जयदेव ठाकरे परिवार से अलग रहते हैं. जयदेव ठाकरे ने अपने पिता बाल ठाकरे की वसीयत को लेकर कोर्ट में मुकदमा दायर किया हुआ है. उनका कहना है कि वसीयत गलत है. वसीयत के मुताबिक अधिकांश संपत्ति उद्धव ठाकरे के नाम पर है, जबकि जयदेव और उनके बड़े भाई बिंदुमाधव की पत्नी के नाम वसीयत के मुताबिक कुछ भी नहीं दिया गया है.
बाल ठाकरे की ही तरह राज भी एक कार्टूनिस्ट हैं. उनकी शैली भी वैसी ही है, लेकिन वह कभी भी बाल ठाकरे जैसा जादू नहीं जगा पाए
नवंबर 2012 में बाल ठाकरे का निधन हो गया. उनके निधन के लगभग दो महीने बाद जनवरी 2013 में उद्धव ठाकरे शिवसेना के प्रमुख बने. सप्तऋषि कहते हैं, ‘उद्धव ठाकरे राजनीति में नहीं आना चाहते थे, लेकिन उनका चुनाव बालासाहेब ने बहुत सोच-समझकर किया. जरूरी नहीं है कि पार्टी चलाने के लिए हर वक्त उग्रता ही काम आए. उद्धव पार्टी को चलाने के लिए काबिल व्यक्ति हैं, लोग भले ही उन्हें कम आंकें. इस चुनाव में अकेले दम पर 63 सीटें जीतकर उन्होंने अपनी काबिलियत साबित कर दी है.’
ठाकरे परिवार की अगली पीढ़ी से उद्धव ठाकरे के 24 वर्षीय पुत्र आदित्य ठाकरे की राजनीतिक पारी शिवसेना की युवा शाखा ‘युवा सेना’ के अध्यक्ष के रूप में शुरू हो चुकी है. 2010 में शिवसेना की दशहरा रैली में बाल ठाकरे ने उनका परिचय युवा सेना के अध्यक्ष के रूप में शिवसैनिकों से कराया था. इस बार विधानसभा चुनाव से पहले पिता उद्धव ने उन्हें और बड़ी जिम्मेदारी दे दी.
चुनाव से पहले भाजपा के साथ सीटों के बंटवारे के बारे में चर्चा की जिम्मेदारी उद्धव ने आदित्य को दी थी. उनके इस कदम का भाजपा के वरिष्ठ नेता एकनाथ खड़से ने विरोध भी जताया था. उन्होंने कहा था, ‘सीटों की चर्चा के लिए सेना को किसी वरिष्ठ नेता को भेजना चाहिए था न कि आदित्य ठाकरे को.’ आदित्य का नाम साल 2010 में विवादों में तब आया था, जब उन्होंने लेखक रोहिंटन मिस्त्री की किताब ‘सच अ लॉन्ग जर्नी’ को मुंबई यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम से निकलवा दिया था. उनका मानना था कि किताब में मराठियों और शिवसेना का अपमान किया गया है. अपने चार वर्षों के करियर में आदित्य ठाकरे का ध्यान युवाओं और शहरी मुद्दों पर केंद्रित रहा है.
भाजपा-सेना और विधानसभा चुनाव
पच्चीस वर्षों तक एक-दूसरे का साथ निभाने वाली भाजपा और शिवसेना विधानसभा चुनावों में सीटों के बंटवारे को लेकर एक-दूसरे से अलग हो गई थीं. हालांकि इस बारे में केवल अटकलें ही लगाई जा सकती हैं कि विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा और शिवसेना के बीच अलगाव जैसी स्थिति आने पर बाल ठाकरे क्या करते। वरिष्ठ पत्रकार महेश विजापुरकर कहते हैं, ‘बाल ठाकरे इस उथल-पुथल को उद्धव ठाकरे से कुछ अलग तरह से हल करते, यह सिर्फ एक अनुमान है. बालासाहेब के फैसले अप्रत्याशित होते थे, इसलिए यह कह पाना मुश्किल है कि वे क्या करते.
भाजपा और सेना का गठबंधन 1988 से चल रहा है. विजापुरकर बताते हैं, ‘1988 में भाजपा-सेना की एक बैठक के दौरान भूतपूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था, “हमारे पास बुद्धिबल है, आपके पास भुजबल है, हो जाए समझौता.” वाजपेयी की इस पेशकश को बाल ठाकरे ठुकरा नहीं सके थे.’ इसके अलावा प्रमोद महाजन और बाल ठाकरे के बीच के आत्मीय संबंधों के चलते भी दोनों दल एक-दूसरे के साथ आए.
भाजपा तब से सेना पर निर्भर थी. शिवसेना के बिना भाजपा के बंद भी कामयाब नहीं होते थे. इसके अलावा दोनों दलों के बीच गठबंधन की वजह से भाजपा के मतदाताओं को बहुत सारी सीटों पर शिवसेना को ही वोट देना पड़ता था, लेकिन इस बार स्थितियां बदल गईं. भाजपा के मतदाता को पहली बार अपने दल को वोट देने का विकल्प मिला और उसने अपनी इच्छानुसार वोट डाला.
विजापुरकर मानते हैं कि शिवसेना की स्थिति कमजोर हुई है, वरना शिवसेना के कद्दावर नेता पहली बार चुनाव लड़ रहे उम्मीदवारों से नहीं हारते. इस बार शिवसेना के दिग्गज सुभाष देसाई भाजपा की विद्या ठाकुर से हार गए. हालांकि विजापुरकर यह भी मानते हैं कि भाजपा और मनसे के साथ मुकाबला करते हुए उद्धव ठाकरे अपनी पार्टी को जिस तरह 63 सीटें जिताकर लाए हैं, वह भी बाल ठाकरे के बगैर, यह छोटी बात नहीं है. उन्होंने सेना की छवि को थोड़ा सौम्य बनाने की कोशिश की है.
मोदी से मुलाकात से आपकी राजनीति में क्या बदलाव आए हैं?
हमें चुनाव के नतीजों का इंतजार करना चाहिए और यह देखना चाहिए कि हमारी पार्टी का प्रदर्शन कैसा रहता है. इसी से पता चलेगा कि मोदी साहब के साथ मेरी मुलाकात फायदेमंद साबित हुई है या नुकसानदेह. मेरे समर्थक इस मुलाकात से खुश हैं. प्रधानमंत्री के साथ मेरी मुलाकात ने मुफ्ती और अब्दुल्ला को नाराज किया है. उस मुलाकात के बाद मुझे जो बराबरी का मौका मिला है उससे वे दुखी हैं. इससे पहले वे आसानी से मुझे आतंकवादी करार दे देते थे और इस बात ने प्रशासनिक और सुरक्षा मशीनरी को मेरे खिलाफ कर दिया. अब वे मेरे साथ वह सब नहीं कर सकते जो पहले करते थे. प्रधानमंत्री के साथ हुई मुलाकात ने मेरे प्रति विरोध की भावना को खत्म कर दिया है. एक वक्त था जब अपनी पत्नी के वीजा के लिए मैंने तत्कालीन गृहमंत्री पी चिदंबरम से मिलना चाहा था और मेरा अनुरोध दो साल तक लंबित रहा. नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस को उम्मीद नहीं थी कि अब ऐसा होगा. यह बात उनके भीतर असुरक्षा पैदा कर रही है.
अगर चुनाव में बढ़िया प्रदर्शन के बाद भाजपा आपको मुख्यमंत्री बनाने की पेशकश करती है तो आप क्या करेंगे?
मैं उनसे कहूंगा कि मैं बहुत सामान्य-सा आदमी हूं, मैं मुख्यमंत्री बनूंगा, लेकिन मैं सत्ता में आने के लिए वे सारे काम नहीं करूंगा जो अब्दुल्ला और मुफ्ती ने किया. मैं उनसे कहूंगा कि आइए मिलकर राज्य के सभी तीन क्षेत्रों के विकास के लिए काम करते हैं. लेकिन मैं राज्य के हित और अपनी राजनीति के साथ समझौता नहीं करूंगा. और जो लोग मुझ पर इल्जाम लगाते हैं कि मैं भाजपा के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा हूं, वे पहले अपने अंदर झांककर देखें कि उन्होंने सत्ता के लिए क्या-क्या किया है.
मैं मोदी साहब से कुछ मिनट के लिए मिला और मुफ्ती साहब चेतावनी दे रहे हैं कि अनुच्छेद 370 को खतरा है. मेरी मीडिया से यही शिकायत है कि कोई भी अनुच्छेद 370 हटाने की बात नहीं कर रहा है. राज्य की राजनीति में जो गिरावट आई है उसके लिए मुफ्ती जिम्मेदार नहीं हैं? क्या उमर अब्दुल्ला का परिवार इस बर्बादी में शामिल नहीं था? तो फिर मीडिया उन्हें अनुच्छेद 370 के रक्षक के तौर पर क्यों पेश कर रही है? अगर अनुच्छेद 370 कोई 10 मंजिला इमारत थी, तो आज वह महज एक मंजिला रह गई है. ये पार्टियां केवल डर पैदा कर रही हैं. कुछ लोग भयभीत भी हैं. उनको पता ही नहीं है कि दरअसल डरने की बात है भी या नहीं. मुफ्ती और अब्दुल्ला इस हालत के लिए जिम्मेदार हैं.
आपकी राजनीति क्या है? अलगाववाद को छोड़कर मुख्यधारा की राजनीति में आने के बाद भी लोगों को साफ समझ में नहीं आ रहा है. कश्मीर समस्या के हल के लिए आपने जो ‘अचीवेबल नेशनहुड’ का फार्मूला तय किया था, उसी के हिसाब से राजनीति करेंगे?
जी हां मैं ‘अचीवेबल नेशनहुड’ से प्रभावित रहूंगा.बल्कि इसके हर शब्द से. लेकिन मुझे यह भी पता है कि उसमें लिखे शब्द ईश्वर के लिखे नहीं हैं. मेरी इच्छा है कि एक बहस शुरू हो. एक बार बहस पैदा हो जाए तो फिर हम आम सहमति से हल निकाल सकते हैं. ‘अचीवेबल नेशनहुड’ के आर्थिक पहलू एक सभ्य समाज के लिए बेहद व्यावहारिक हैं. हमें खुद को अंदर और बाहर से आर्थिक तौर पर आजाद करना होगा. मैं लोगों का आर्थिक सशक्तीकरण चाहता हूं. मेरा तात्पर्य है, केंद्र हमें आर्थिक रियायतें दे न कि खैरात. जहां तक बात राज्य के राजनीतिक सशक्तीकरण की है, तो हम केंद्र और राज्य के बीच सत्ता में साझेदारी के समझौते और राज्य की संपन्नता के बारे में बात कर रहे हैं. मेरा मानना है कि राज्य में संपन्नता और सक्षमता होनी चाहिए. मैं आंतरिक स्वायत्तता की बात नहीं कर रहा हूं.
आपकी पत्नी आस्मा जो जम्मू कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) के संस्थापक अमानुल्ला खां की बेटी और एक पाकिस्तानी नागरिक हैं, मोदी के साथ आपकी मुलाकात पर उनकी क्या प्रतिक्रिया रही?
वह मुझसे क्या कहेंगी? उनके अपने प्रधानमंत्री मोदी से मिलते हैं. प्रधानमंत्री से मिलना कोई पाप नहीं है. मुफ्ती भी उनसे मिलते हैं, अब्दुल्ला भी मिलते हैं और उनको इसमें कोई शर्म नहीं है. इसका असर उनकी राजनीति पर नहीं दिखता.
इस चुनाव में आपको लेकर जो विवाद उठे हैं उन्हें देखते हुए क्या आप अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं?
जी हां, मैं डर महसूस करता हूं. इस चुनाव से पहले कभी मुझे लेकर इतनी नकारात्मक बातचीत नहीं हुई. मैं हमेशा अपने समर्थकों के बीच रहा. कुछ भी हो सकता है. कुछ खुफिया खबरें भी हैं. यही वजह है कि मैंने कम से कम प्रचार अभियान के दिनों में जैमर लगाने का अनुरोध किया था लेकिन वह मिल नहीं सका.
बर्धमान में दो अक्टूबर को हुए धमाके के बाद उत्तर-पूर्व भारत में सक्रिय सभी जेहादी समूहों की गतिविधियां आंतरिक सुरक्षा के लिए नई परेशानी बनकर प्रकट हुए हैं. पश्चिम बंगाल के बर्धमान जिले के खागरगढ़ गांव में स्थित एक घर में हुए विस्फोट के बाद बंगाल से लेकर असम तक कई संदिग्ध लोगों को गिरफ्तार किया गया. पकड़े गये सभी लोगों का संबंध बांग्लादेश के प्रतिबंधित संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन से बताया जा रहा है.
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने बर्धमान मामले की जांच में पाया कि असम के कई क्षेत्रों में इस्लामी आतंकियों ने पनाह ले रखी है. असम में जेहादी तत्वों को बढ़ानेवाले प्रमुख संदिग्ध शाहनूर आलम समेत कई लोगों की गिरफ्तारियां हुई हंै. जबकि दो अन्य संदिग्धों को लगभग दो महीने तक फरार रहने के बाद पकड़ा गया है. ऐसा पहली बार हुआ जब दिल्ली से दूर गुवहाटी में केंद्रीय गृहमंत्री ने सभी राज्यों के डीजीपी और आईजीपी के साथ राष्ट्रीय सुरक्षा के मसले पर बैठक की. गुवाहाटी को इस बैठक के लिए चुनकर शायद गृह मंत्रालय पूर्वोत्तर राज्यों में आंतकवाद को बढ़ावा देनेवाले समूहों को कड़ा संदेश देना चाहता है.
इस बैठक में सुरक्षा मामलों के सभी शीर्ष अधिकारियों ने हिस्सा लिया. इस कॉन्फ्रेंस में सभी राज्यों के डीजीपी, आईजीपी, संघशासित प्रदेश और सभी अर्ध सैनिक बलों (बीएसएफ, डीसीपीडब्लू, एनसीआरबी, एनएचआरसी) के प्रमुख शामिल हुए. सूत्रों के हवाले से आ रही जानकारी के मुताबिक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर बैठक को गुवाहाटी में कराए जाने का निर्णय लिया गया. पीएम ने गृह मंत्रालय को दिए निर्देश में स्पष्ट किया है कि देश के सभी हिस्सों में इस तरह के कार्यक्रम होते रहने चाहिए. इसके जरिए पिछड़े और दूर-दराज के इलाकों तक पहुंचने की कोशिश है. गुवाहाटी हमेशा से उग्रवादी गतिविधियों के कारण भी चर्चा में रहा है. अब जब गुवाहाटी आतंकवाद के संभावित केंद्र के रूप में सामने आ रहा है, तब केंद्र सरकार ने इस इलाके में सुरक्षा प्रमुखों की बैठक करके चरमपंथियों को एक संदेश देने की कोशिश की है. मौजूदा सरकार आतंकी समूहों को यह संदेश भी देना चाहती है कि पिछली सरकार के उलट यह सरकार किसी सूरत में आतंकी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं करेगी और उनसे सख्ती से निपटेगी.
दो दिनों के कॉन्फ्रेंस की शुरुआत गृहमंत्री राजनाथ सिंह के उद्घाटन भाषण से हुई. इस मौके पर राजनाथ सिंह ने ईराक में सक्रिय आतंकवादी संगठन आईएसआईएस को लेकर चिंता जाहिर की और कहा देश की सुरक्षा के लिए यह बड़ा खतरा है. उन्होंने कहा, ‘इस्लामिक स्टेट को हम खतरनाक चुनौती मानते हैं. हमारे देश में भी कुछ युवा उनके विचार से प्रभावित हो रहे हैं.’ साथ ही उन्होंने अलगाववादी ताकतों को यह संदेश भी दिया कि देश की एकता और अखंडता के लिए सभी देशवासी संगठित हैं. उन्होंने कहा कि देश की आजादी के लिए मुसलमानों ने भी उसी तरह त्याग किया है, जैसे हिंदुओं ने. अलकायदा जैसे संगठन अपने इरादों में कभी कामयाब नहीं हो सकते, लेकिन इन संगठनों से जुड़े खतरे को हम नजरअंदाज नहीं कर सकते.
असम का इस्तेमाल घुसपैठियों ने पश्चिम बंगाल तक पहुंचने के लिए एक सुरक्षित रास्ते के रूप में किया है. एनआईए के अनुसार कुछ गैर सरकारी संगठनों ने असम में बांग्लादेश के प्रतिबंधित संगठन जमात-उल-मुजाहिदीन को असम में अपना बेस स्थापित करने में मदद की. जांच एजेंसी के राडार पर ऐसे कम से कम आठ एनजीओ हैं. इन संगठनों ने प्रत्यक्ष तौर पर जमात-उल-मुजाहिदीन को अपनी स्थिति मजबूत करने में सहायता की. जमात-उल-मुजाहिदीन ने दो चरणों में इस ऑपरेशन को अंजाम दिया. खुफिया विभाग की जानकारी के मुताबिक पिछले चार सालों के दौरान लगभग 180 घुसपैठिए भारत आए हैं. असम के मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी स्वीकार किया है कि अलकायदा असम के जमीन पर अपना संगठन बनाने की कोशिश कर रहा है.
असम के रास्ते घुसपैठिए पश्चिम बंगाल तक सुरक्षित पहुंच जाते हैं. एनआईए के अनुसार कुछ गैर सरकारी संगठन इसमें जमात-उल-मुजाहिदीन का सहयोग कर रहे हैं
शाहनूर आलम के एनआईए और असम पुलिस के हत्थे चढ़ने के बाद कई चौंकानेवाली जानकारियां सामने आई हैं. आलम की पत्नी सुजिना बेगम भी उसके साथ ही पकड़ी गई थी. आलम जमात-उल-मुजाहिदीन के वित्तीय मामलों का प्रमुख था. बेगम की ट्रेनिंग बंगाल के सिमुलिया मदरसे में हुई थी. अपने पति की ही तरह सुजिना बेगम भी संगठन की गतिविधियों में सक्रिय थी. उसका काम मुख्य रूप से असम में महिलाओं के बीच जेहाद की भावना मजबूत करना था. इस काम के लिए उसे खास तौर पर एक ही महीने में तीन बार ट्रेनिंग भी दी गई थी. साथ ही उसके साथ राज्य की कुछ और महिलाओं को भी मदरसे में इसी तरह की ट्रेनिंग दी गई. असम के आतंकी संगठनों का संपर्क पिछले कई सालों से बांग्लादेश के आतंकी संगठनों खास तौर पर हरकत-उल-जिहादी इस्लामी के साथ है. इसी सहयोग के बदौलत हैदराबाद में हुजी-बी शाहिद बिलाल के नेतृत्व में अपना संगठन कायम करने में सफल हो सका.
गुवहाटी के प्रतिष्ठित पत्रकार राजीव भट्टाचार्य बताते हैं, ‘केंद्र सरकार असम की राजधानी में कॉन्फ्रेंस कर अलगाववादियों और आतंकी सगठनों को कड़ा संदेश देना चाहती है. इस बैठक के जरिये सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि पूर्वोत्तर के राज्य सरकार की प्राथमिकता में हैं.’ असम के पूर्व डीजीपी हरे कृष्ण डेका का कहना है कि इस कॉन्फ्रेंस के गुवहाटी में होने के पीछे कई तर्क हैं. सबसे प्रमुख बात यह है कि पूरे देश में सुरक्षा की दृष्टी से यह संवेदनशील और महत्वपूर्ण क्षेत्र है.
सरकार के मुताबिक आतंक का नया रूप जिहादी आतंकवाद है. पुलिस के आधुनिकीकरण की मांग के साथ सभी राज्यों के पुलिस प्रमुख एक बात पर एकमत दिखे कि देश में नये तरह के आतंक का स्वरूप उभर रहा है. राज्यों के डीजीपी के साथ हुई बैठक में एक बात स्पष्ट हो गई कि देश की सुरक्षा के लिए चिंता अब नक्सलवाद के अलावा बांग्लादेश के रास्ते आ सकनेवाला आतंकवाद भी है. धर्म के नाम पर फैल रहा यह जहर धीरे-धीरे पूरी दुनिया पर अपना असर दिखा रहा है और इतना तय है कि भारत भी इससे अछूता नहीं रहेगा.
वह शायद तितली ही थी. तितली जैसी खूबसूरत. तितली की ही तरह उड़ती थी. कभी इधर फुदक कर बैठती तो कभी उधर. रंग-बिरंगी तितलियों जैसे ही उसके सपने रंग-बिरंगें थे. सपने थे कि उससे कई बार रूठे, लेकिन उसने तितली जैसी अपनी सोच नहीं बदली. तितली तो ऊंची उड़ान भर नहीं सकती थी. लेकिन उसके सपनों में ऊंची उड़ाने आती थीं. उड़ने के लिए वह कई बार तितली से चील बन जाती थी. घोसले से अपना निवाला खींच लाने वाली शिकारी निगाहों के साथ. असल में वह चील बनना नहीं चाहती थी. वह तितली ही रहना चाहती थी. दमकते और महकते रंग-बिरंगे फूलों के बगीचों को ही अपना रैन बसेरा बनाना चाहती थी. लेकिन उसे तितली नहीं रहने दिया गया और वह चील बन गई. दिलचस्प यह था कि उसने चील के गुणों को अपनाया दुर्गणों को नहीं. चील की तरह कभी उसने अपने भाई-बंधुओं को अपना निवाला नहीं बनाया. कई बार उसे इस बात पर असमंजस भी होता था कि आखिर वह चील है या कि तितली. इस द्वंद्व के बावजूद वह चील में तितली बनी रही. तितली. सिर्फ तितली.
उस दिन की सुबह कुछ अजीब सी थी. सोफिया स्कूल की हवा में उदासी भी थी और खुशी का आलम भी. जनवरी के दिन थे. सूरज तो पूरब से निकला था. लेकिन कोहरे के बीच में उसकी चमक धुंधला सी गई थी. किरणें तो उससे फूटी थीं लेकिन बादलों को चीरने का उनमें शायद माद्दा नहीं था. घंटी बज चुकी थी. एसेम्बली के लिए बच्चे मैदान में एकत्रित हो गए थे. अधिकांश बच्चों ने अपने वजन से अधिक ऊनी कपडे़ पहन रखे थे. कुछेक बच्चों के पास ठंड से लड़ने वाले पर्याप्त स्वेटर और जैकेट नहीं थे. ऐसे बच्चों के गालों पर गुलाबी चमक साफ दिख रही थी. शायद ठंड से उनके गाल जल गए थे. वे दांत किटकिटाकर ठंड से लड़ने की अधूरी लड़ाई लड़ रहे थे. कहने को तो सोफिया स्कूल इंटरनेशनल स्कूल था. लेकिन गरीब बच्चों को यहां दलितों की ही तरह देखा जाता था. स्कूल में ये बच्चे कोढ़ में खाज की तरह थे. स्कूल मैनेजमेंट को गरीब बच्चों को लेना अनिवार्य था, क्योंकि वे सरकारी जमीनों में बने थे और तमाम अनाप-सनाप सुविधाएं लेते थे. लेकिन मैनेजमेंट गरीब कोटे से आने वाले छात्रों के साथ वह हर बदसलूकी करता था, जिससे वह अपनानित हों और खीज कर घर बैठ जाएं. कई बच्चे तो घर बैठ भी जाते थे. लेकिन कुछ बच्चे पूरी ढिठाई के साथ जमे रहते थे. वे यह मान लेते थे कि अच्छे स्कूल में पढ़ने के लिए यदि वे पैसे नहीं दे सकते हैं तो उन्हें अपमान से उसकी कीमत चुकानी ही होगी. ऐसे ही बच्चों में एक था उदय प्रकाश.
बात छूट न जाए खुशी और उदासी की. असल में उस दिन बच्चों को अपने मन का ब्रेकफास्ट लाने की उनकी तान्या मैम ने छूट दी थी. वजह थी उनका क्लास में आखिरी दिन होना. स्कूल में घर से खाने-पीने का सामान लाने की मनाही थी. स्कूल में ही उन्हें कांटीनेंटल से लेकर देसी हर तरह का खाना-नाश्ता मिलता था. खाने के नाम पर मैनेजमेंट मोटी फीस वसूलता था. उस दिन सैंडविचेस, चिप्स, चाकलेट, केक्स, पास्ता वगैरह-वगैरह सब कुछ मेनू में था. सबकी अपनी-अपनी पसंद का. यहां बात जरूर बता देना चाहिए कि गरीब बच्चों के हिस्से स्कूल से मिलने वाले खाने का एक टुकड़ा भी नहीं आता था. वे अपनी रूखी-सूखी घर से लाते थे. बच्चों के लिए दुख की बात यह थी कि अब अगली क्लास में उनकी तान्या मैम उनके साथ नहीं रहेंगी. इसलिए बच्चों के चेहरों में एक अजब सी उदासी थी. पहली कक्षा के इतने छोटे बच्चे भी सामूहिक रूप से उदास हो सकते हैं किसी के लिए, यह यहां देखने की बात थी. उदासी और खुशी के बीच क्लास रूम में जबर्दस्त पार्टी हुई. सबने मिलकर खाया-पीया. नो लड़ाई-झगड़ा. पार्टी के बाद सभी बच्चे स्कूल बस में बैठ कर स्पोर्ट कामप्लेक्स गए. वहां फोटो सेशन होना था. बस में सभी बच्चे तान्या मैम के साथ सीट साझा करना चाहते थे. लेकिन तान्या मैम तो अकेली थी सबके साथ बैठ नहीं सकती थीं. बच्चे आपस में तान्या मैम के साथ बैठने के लिए बस में गुत्थम-गुत्था हो गए. तभी तान्या मैम जोर से चीखीं- ‘तुम सब इस तरह से करोगे तो मैं बस से उतर जाऊंगी और फोटो भी नहीं खिचवाऊंगी.’
इस चीख के साथ ही बच्चे एक-एक करके अपनी सीटों में चुपचाप जा बैठे. तान्या मैम ने तय किया कि वह सारन्या के साथ बैठेंगी. सारन्या तान्या मैम पर अपना अधिकार समझती थी. तान्या की असल चेप थी सारन्या. जहां-जहां तान्या मैम वहां-वहां सारन्या. अपनी छोटी से छोटी बात वह तान्या मैम को बता देती थी. सारन्या देखने में भी बिल्कुल गुड़िया सी थी. तान्या मैम भी किसी गुड़िया से कम नहीं लगती थीं. छोटे कद की गोल-मटोल. खिला-खिला रंग. गालों में डिंपल. और काटन के रंग-बिरंगे एथनिक कपड़ों की शौकीन. टिच-विच रहने वाली. दिल्ली में यह उनके करियर की पहली नौकरी थी. उनकी उम्र कोई ज्यादा नहीं थी. स्कूल में सभी टीचर उन्हें बच्चा टीचर समझते थे. वजह थी कि अधिकांश टीचरों की उम्र चालीस के आसपास थी या फिर उससे ज्यादा. उपदेश देना तो उनका बनता था. कुछ अधेड़ टीचरें भी थीं, जो शायद टीचिंग को नौकरी से ज्यादा कुछ नहीं समझती थीं. कम उम्र की होने के चलते हर टीचर तान्या मैम को उपदेश दे कर चलते बनता था. वैसे थी वह बेहद होशियार. मौके की नजाकत के चलते ही वह टीचरों के मुंह नहीं लगती थी. वह तर्कों के साथ पलटवार कर सकती थी, लेकिन नौकरी कच्ची होने के चलते वह ऐसा नहीं करती थी. वैसे वह चाह ले तो किसी की भी ऐसी-तैसी करने में पूरी सक्षम थी. अतीत के कारनामे उनके बेहद हैरतंगेज और खतरनाक रहे हैं. उनके कारनामों पर आगे कहीं.
सारन्या को किसी ने कभी चुप बैठे नहीं देखा था. चुलबुली. शैतानों की नानी. उस दिन वह तान्या मैम के पास बस चलने के बाद काफी देर तक चुप बैठी रही. मौका देख कर उसने तान्या मैम के गालों में हाथ फेरते हुए हवा में एक किस उछाल दिया. फिर धीरे से बोली- ‘मैम आप गुस्सा न करो तो मैं एप्पल जूस पी लूं.’
इतनी प्यारी रिक्वेस्ट के आगे तान्या मैम न ना कर सकीं. उन्होंने हां में अपना सिर हिला दिया. तान्या ने अपने बैग से एप्पल जूस निकाला और चोरी-चोरी शिप करने लगी. बस के दूसरी ओर सीट पर बैठी सुप्रिया गुलाटी को यह नागुजार लगा. वह अंदर से सुलग उठी. वैसे तो वह तत्कालिक प्रतिक्रिया दे सकती थी. लेकिन बात को मन में लेकर बैठ गई. ऐसे मामलों में वह किसी की परवाह नहीं करती थी. एक बार तो उसने स्कूल की एकेडमिक हेड इशीता पास्ता को पेपर वेट खींच कर मार दिया था. उस इशीता पास्ता को जिससे पूरा स्कूल थरथराता है. उनका गुनाह सिर्फ इतना था कि उन्होंने अपने ऑफिस में सुप्रिया के गाल प्यार से थपथपा दिए थे.
बस स्पोर्टस कामप्लेक्स पहुंच चुकी थी. मैडम तान्या सबसे पहले बस से नीचे उतरी और एक-एक कर बच्चों को उतारने लगीं. तभी सारन्या अपने नन्हें हाथों में अपना और मैडम का बैग लिए उतरी. तिरछी नजरों से उसने पहले मैडम को देखा. कुछ-कुछ तुतलाते हुए लाड़ से बोली- ‘आप भी मैम कितनी भुलक्कड़ हो कि अपना बैग ही सीट पर छोड़ आईं. अगर मैं न होती तो बैग कोई चुरा लेता.’
इस पर तान्या मैम मुस्करा दीं और उसके नन्हे हाथों से उन्होंने बैग ले लिया. सारन्या की इस अदा पर तान्या मैम को दुलार आ गया और उन्होंने उसे गोद में उठा लिया. सारन्या को मैम की गोद में देख कर सुप्रिया अंदर से भभक पड़ी. वह कुछ हरकत करती की उससे पहले सारे बच्चे फोटो सेशन के लिए कामप्लेक्स में बने एक स्टेज पर की ओर बढ़ गए. तान्या मैम ने लंबाई के हिसाब से बच्चों का जमाना शुरू किया, ताकि किसी बच्चे का फोटो में चेहरा न छिप जाए. सुप्रिया की लंबाई कुछ बच्चों से ज्यादा थी. नतीजतन उसे दूसरी पंक्ति में दाहिने ओर जगह मिली. उसने देखा कि मैम की चहेती सारन्या पहली पंक्ति में बीचों बीच खड़ी है. अब सुप्रिया के गुस्से की कोई सीमा नहीं रही. वैसे भी कोई कैसे सोचता है, क्या करता है, क्या बोलता है, वह इन सबसे बेपरवाह थी. वह क्लास में भी अकेले रहने वाली लड़की थी. दूसरे बच्चे उससे दूरी बना कर ही चलते थे. वह आवाज, सुंगध, स्पर्श, प्यार, घूरने आदि किसी बात पर रिएक्ट कर सकती थी. उसे दुनिया के हर शख्स से संवाद में मुश्किल होती थी. अपने माता-पिता से भी. उसकी अपनी दुनिया थी या फिर यूं कहा जा सकता है कि वह उसमें बचपन से जकड़ी हुई थी. असल में सुप्रिया ऑटिज्म नामक बीमारी से ग्रस्त थी. ऑटिज्म एक प्रकार का न्यूरो बिहैविरल डिसआर्डर है. इसके लक्षण तीन-चार साल की उम्र से दिखने लगते है. आसपास के बच्चे जब खेलकूद में लगे रहते थे, तो सुप्रिया अपनी दुनिया में खोई रहती थी. उसे खिलौनों से भी नफरत थी. उसने कीमती से कीमती खिलौनों को कबाड़ बना दिया था.
सुप्रिया को असमाजिकता का दौरा पड़ा. वह अपने से बाहर हो गई. पंक्ति को तोड़ते हुए वह सीधे फोटोग्राफर के पास पहुंची और उसके कैमरे की बेल्ट से लटक गई. वैसे तान्या मैम और बच्चे उसकी ऐसी हरकतों से वाकिफ थे, तो तमाशा को सबने तमाशा न समझा. तान्या मैम सारन्या की ही तरह सुप्रिया का भी बहुत ख्याल रखती थी. उन्होंने सुप्रिया को काबू करने की कोशिश की, लेकिन वह काबू नहीं हुई. अंतत: वह फोटो शूट में शामिल नहीं हुई. उसके बिना ही फोटो शूट हुआ. तान्या मैम को इस बात से बहुत दुख हुआ. वह स्कूल लौटते हुए बस से लेकर क्लास तक उसके साथ रहीं. उसे दुलारा-पुचकारा. वह तब जा कर शांत हुई, जब तान्या मैम ने सायोना के कैमरे उसे उसके साथ फोटो खिंचवाई.
लंच ब्रेक की घंटी बज चुकी थी. पार्टी तो पहले ही हो चुकी थी, तो सबके पेट फुल थे. बच्चे अपने-अपने कैमरे से मैम के साथ फोटो खिंचवाने लगे. तभी उदय प्रकाश ने अपने टिफिन से केक का एक टुकड़ा निकाला. बीते कल उसका जन्मदिन था. वैसे तो हर बच्चे के जन्मदिन पर क्लास में हैप्पी बर्थडे मनाया जाता था. जिस बच्चे का जन्मदिन होता था, वह बच्चा अपने घर से सबके लिए कुछ न कुछ गिफ्ट लाता था. और केक भी कटता था. लेकिन उदय प्रकाश के पिता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वह क्लास की इस रस्म को पूरा कर सकते. वे एक सामान्य से चौकीदार की नौकरी करते थे और कल्लन साहब की कोठी के आउट हाउस मे रहते थे. कल्लन साहब नेक दिल इंसान थे. उन्हीं की बदौलत उदय प्रकाश को सोफिया इंटरनेशनल में एडमीशन मिल गया था. पिता तो पिता ठहरे. वे उदय प्रकाश का मन नहीं दुखाना चाहते थे. इसीलिए उन्होंने उदय प्रकाश का मन रखने के लिए अपने घर में ही एक छोटा सा केक कटवा दिया था, ताकि उसे दुख न हो. उसी केक का एक टुकड़ा वह अपनी गुरू मैम के लिए लाया था. शायद गुरू दक्षिणा के तौर पर. सहमे हुए उसने केक का टुकड़ा मैम की तरफ यह कहते हुए बढ़ाया- ‘मैम इनकार मत करियेगा. बडे़ दिल से लाया हूं. कल मेरा जन्मदिन था. खाने से इंकार करेंगी तो मैं तो नाराज नहीं होऊंगा ये केक नाराज हो जायेगा.’
तान्या मैम इमोशनल हो गईं उसकी इस बात पर. उन्होंने कहा- ‘ये तो मैं खा ही लूंगी पर तुमने कल क्यों नहीं बताया कि तुम्हारा जन्मदिन था. हम सब मिलकर मनाते. चलो कोई बात नहीं आज हम सेलीब्रेट करेंगे तुम्हारा जन्मदिन. बिलेटेड़ हैप्पी बर्थ डे.’
प्यार भरी फटकार उदय प्रकाश को सुनाने के बाद तान्या मैम ने कैंटीन से सैंडविच और चाकलेट मंगवाए. और धूमधाम से उदय प्रकाश का जन्मदिन मनाया. जो बच्चे उदय प्रकाश को अपने से अलग मानते थे, उन्होंने भी उसे विश किया. असल में इस तरह के स्कूलों में नव कुबेर के बच्चे पढ़ते हैं. उनकी दुनिया अमीरी और गरीबी में बंटी होती है. उनके विकास की पहली अंतिम शर्त भेदभाव होती है. ऐसा उनके परिवार के लोग सिखाते हैं. ऐसी बात उन्हें सिखाई जाती है, जो उनके निश्छल मन में होती ही नहीं है. ये गंदा है वो गंदा है, यहां से चीजें शुरू होती है. तान्या मैम ने उनके मनों में उदय प्रकाश के प्रति हमदर्दी पैदा करके इस खाई को पाटने की कोशिश की. लेकिन वे जिस समाज में रहते हैं, क्या वे इस सबक को याद रख पायेंगे. याद रखने की कोशिश भी करें ये तो भी शायद ये ज्ञान की ऊंची इंटरनेशनल दुकानें उन्हें ऐसा न करने दें. आखिर गंदा है पर धंधा जो ठहरा.
अब विदाई का समय आ गया था. बच्चों को पता था कि उनका आज इस क्लास में आखिरी दिन है. तान्या मैम अब अगले क्लास में उन्हें नहीं मिलने वाली हैं. बच्चों की आंखें भर आईं थीं. नंदनी ने तान्या मैम को अपने हाथों से बनाया एक चित्र भेंट किया. उस चित्र में रंग बिरंगें फूल थे. उसमें एक तितली भी थी. उसमें लिखा था- ‘आई लव यू तान्या मैम…’
विश्लेषण, आकलन, अनुमान और इधर-उधर से उधार-साभार लेकर बात आगे बढ़ाने से पहले हालिया दिनों में बिहार में घटित कुछ घटनाओं पर नजर डालते हैं. इनका संबंध दलितों के साथ लगातार बढ़ रही ज्यादती से है. इनको लेकर आए दिन राजनीति गर्माती है, कुछ आयोजन जैसी गतिविधियां होती हैं, कुछ बयानों का टकराव होता है और फिर सब शांत हो जाता है. शुरुआत बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के अपने जिले गया में 25 सितंबर को हुई घटना से करते हैं. उस दिन पुरागांव के सौ से अधिक महादलित अपना घर-गांव छोड़कर दूसरे गांव की ओर पलायन कर गए. वजह थी प्राथमिक कृषि साख समिति (पैक्स) के चुनाव के चक्कर में हुई एक हत्या. हत्या के खिलाफ आवाज बुलंद करने के जवाब में महादलितों को इलाके के सवर्ण दबंगों द्वारा सामूहिक तौर पर जान से मार दिये जाने की धमकी दी जाने लगी. उम्मीद थी कि मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पुरागांव का दौरा करेंगे. वे बात-बेबात गया जाते रहते हैं, लेकिन इस घटना के बाद उन्होंने घटनास्थल का दौरा करने की जरूरत नहीं समझी. प्रशासन अपने स्तर पर समझा-बुझाकर पुरागांव के महादलितों को फिर से गांव में वापस ले आया. बात आयी-गयी हो गई. इस घटना के पीड़ित सुनील कहते हैं, ‘आज भी मुख्य आरोपी गुड्डू शर्मा गांव में आता-जाता रहता है लेकिन पुलिस उसे गिरफ्तार नहीं कर रही है.’
इसके बाद दो बड़ी घटनाएं बिहार के चर्चित जिला भोजपुर यानी आरा में घटित हुईं. आठ अक्टूबर को सिकरहट्टा थाना के कुरमुरी गांव में छह दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ. महिलाएं गरीब दलित परिवार की थीं. कबाड़ बेचने का काम करती थीं. अपने काम के सिलसिले में वे सवर्णों के मुहल्ले में थीं. मोल-तोल करने के बहाने दबंगों ने उन महिलाओं को रोक लिया. फिर उनके साथ सामूहिक बलात्कार किया. आरोपियों में सबसे प्रमुख नाम रणबीर सेना से संबद्ध रहे नीलनिधि सिंह का सामने आया. घटना के 24 घंटे बाद पुलिस ने एफआईआर दर्ज की. एफआईआर फाइलों में सिमटकर रह गई. मुख्यमंत्री का बयान भी आया कि मामले में त्वरित कार्रवाई हो, पीिड़तों को रोजगार मिले, फास्ट ट्रैक कोर्ट में मामला निपटाया जाय. भाषणबाजी के स्तर पर बहुत कुछ हुआ लेकिन उस थानेदार पर कोई कार्रवाई नहीं हुई, जिसके इलाके में इतनी बर्बर घटना हुई और कायदे से जिस पर सबसे पहले कार्रवाई होनी चाहिए थी. बेचैनी और भय का आलम यह है कि इस घटना की पीड़िताएं और उनका परिवार अब इस मामले में मीडिया से कोई बात तक नहीं करना चाहता. वे सीधे इनकार कर देते हैं. वे इस बात की भी चर्चा करने को तैयार नहीं हैं कि उनके ऊपर किसी तरह का दबाव आदि तो नहीं है.
गया में 25 सितंबर को पुरा गांव के सौ से अधिक महादलित सवर्णों की धमकी पर अपना गांव छोड़ गए, आठ अक्टूबर को सिकरहट्टा में छह दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ
इसके अगले महीने यानी नवंबर में आरा में ही एक और घटना घटी. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आरा के दौरे पर थे. वे अपनी राजनीतिक यात्रा पर निकले थे. वहां पार्टी के कुछ छात्र नेता नीतीश के मंच पर चढ़ने की कोशिश में पुलिस के हाथों पीटे गए. वे छात्र नेता पुलिस को देख लेने की धमकी देते हैं, पुलिस उन्हें पीटती है. इस मामले को मुख्यमंत्री ने पूरी गंभीरता से लिया. बलात्कारवाली घटना में चुप रहनेवाली सरकार ने इस मामले में एसपी और डीएसपी का ट्रांसफर कर दिया. दलित महिलाओं के बलात्कार के मामले में एक दरोगा तक नहीं हटाया जा सका, लेकिन दबंग छात्रों के मामले में सरकार पूरी तरह से सक्रिय हो गई.
आरा और गया की घटना तो फिर भी सुर्खियों में आ गई थी, लेकिन लगभग उसी दौरान नवादा जिले में घटी एक घटना को अखबारों में जगह नसीब नहीं हुई. नवादा में एक दलित परिवार के यहां शादी में नाच-गाने का आयोजन किया गया था. इलाके के दबंगों का मान इस बात से आहत हो गया कि कोई दलित नाच-गाना कैसे करा सकता है. दलितों को धमकी दी जाने लगी, लिहाजा भयभीत दलित परिवार गांव छोड़कर एक स्कूल में शरण लेने को मजबूर हो गए. इन घटनाओं के दरम्यान ही राजधानी पटना से सटे बिहटा में भी एक घटना सामने आई. वहां इंटर कॉलेज में पढ़नेवाली एक महादलित लड़की के साथ पास ही के गांव दिलावरपुर के कुछ सवर्ण लड़कों ने बलात्कार किया.
घटनाएं यहीं नहीं रुकीं. रोहतास जिले के काराकाट क्षेत्र के मोहनपुर की एक घटना भी इसी समय चर्चा में आई. मोहनपुर में साईं राम नाम के 14 वर्षीय नाबालिग दलित बच्चे को एक सवर्ण ने इसलिए जलाकर मार दिया क्योंकि बच्चे की बकरी उसके खेत में चरने चली गई थी. मृतक साईं राम के पिता जीउत राम से बात होती है तो वे बिलखने लगते हैं. बड़ी मुश्किल से उनके मुंह से आवाज निकलती है, ‘मुझे नहीं मालूम की मेरे बेटे की हत्या का केस कहां तक पहुंचा है, मैंने पता भी नहीं किया, किसी ने बताया भी नहीं.’ वे आगे कहते हैं, ‘अभी केस से ज्यादा बड़ी चुनौती आगे की जिंदगी है. मेरा वही एक बेटा था जो काम लायक था, अगले महीने वह 14 साल का हो जाता. एक और बेटा है लेकिन वो दिमागी रूप से थोड़ा कमजोर है.’ जीउत राम बताते हैं कि उनके बेटे की मौत के बाद उनके यहां नेताओं की लाइन लग गई थी. लोगों ने उनसे कई वादे भी किए थे, लेकिन चंद दिनों में ही वे सारी बातें भूल गए. जीउत राम को बेटे की मौत के मुआवजे में 28,000 रुपए का एक चेक भर मिला है. और भी कई चीजों का वादा किया गया था, लेकिन अभी भी वे वादे ही बने हुए हैं. इसमें मुफ्त राशन, नौकरी और भूमि जैसे कई वादे थे. अब उनके यहां कोई झांकने भी नहीं आता. बेटे की मौत के बाद जब मामला पुलिस में पहुंचा था, तब दबंग आरोपितों की तरफ से उन्हें धमकियां दी जाने लगीं थी. यह पूछने पर कि क्या उन्हें अभी भी धमकियां मिल रही हैं, जीउत राम कहते हैं, अभी तो रुक गया है लेकिन आगे का क्या पता.
साईं राम की दुर्दशा का अंत यहीं नहीं हुआ. अंतिम संस्कार के लिए उसे छह फुट जमीन भी मयस्सर नहीं हुई, मजबूरन उसे सड़क के किनारे ही दफनाना पड़ा.
ऐसी ही कई और छोटी-बड़ी खबरें इन दिनों बिहार की दैनिक बहसों के केंद्र में हैं. इन घटनाओं पर प्रशासन में किसी तरह कि बेचैनी या चेतना का संचार होता नहीं दिख रहा. राज्य के महादलित मुख्यमंत्री इन घटनाओं के इतर अपने अटपटे बयानों के लिए हर दिन सुर्खियां बटोर रहे हैं. उनके हालिया कुछ बयान ध्यान देने लायक हैं- दलित, महादलित, कुछ अतिपिछड़े ही मूलवासी हैं, बाकी विदेशी हैं… मैं पहले दलित का बेटा हूं, उसके बाद मुख्यमंत्री… राजा हम, राज भी हमारा होगा… मेरे पिता बंधुआ थे, मैं भी बंधुआ, किसी तरह पढ़ा… लुढ़कते-लुढ़कते सीएम बन गया, ठोकर खाते-खाते एक दिन पीएम भी बन जाउंगा… मुझे कोई समझाए नहीं, मैं किसी से कम ज्ञानी नहीं, टूट जाऊंगा लेकिन झुकूंगा नहीं, रैदास, वाल्मिकी की कृपा से सीएम बना हूं… नीतीश भगवान हैं, मेरे घर में भगवान नहीं नीतीश की तस्वीर लगी है… उनके ये बयान सुर्खियां बटोरते हैं और शायद इसी वजह से उनकी अपनी जाति के साथ हो रहे अत्याचार कहीं दबकर रह जाते हैं.
मुख्यमंत्री के ऐसे बयानों पर बवाल मचना स्वाभाविक है. बवाल होता भी है. विपक्ष के नेता कम घेरते हैं, अपने ही दल यानी जदयूवाले मांझी को ज्यादा घेरने लगते हैं. जदयू के विधायक अनंत सिंह मुख्यमंत्री को रांची के पागलखाने में भरती करने की बात कह चुके हैं और फिर भी पार्टी में बने हुए हैं, जदयू के वरिष्ठ नेता केसी त्यागी मांझी को जबान संभालकर बोलने की नसीहत दे चुके हैं, मुन्ना शाही के मुताबिक मांझी का दिमागी संतुलन खो गया है, जदयू के ही दबंग विधायक सुनील पांडेय कहते हैं कि नीतीश को जनादेश मिला था, मांझी को नहीं. ये सभी बयान एक-दूसरे से टकराते रहते हैं और नीतीश कुमार की चुप्पी बनी रहती है. उनके नए सहयोगी बेबाक लालू प्रसाद यादव भी अनपेक्षित रूप से इन विवादों पर चुप्पी साधे रहते हैं. मजेदार बात है कि उनके बयान के बचाव में रामविलास पासवान और भाजपा के लोग यदाकदा खड़े दिखते हैं.
मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी पूर्वी चंपारण के रघुनाथपुर बड़गंगा के एक महादलित टोले मेंं. फोटो: सुजीत
यह तमाम घटनाएं तीन माह से भी कम समय के भीतर घटित हुई हैं. सितंबर के अंत से लेकर नवंबर के दौरान. नवंबर के आखिरी दिनों में बिहार के मीडिया में यह माहौल था कि अब तो हद हो चुकी है इसलिए नीतीश कुमार अब मांझी को हटाएंगे और खुद मुख्यमंत्री बन जाएंगे. मीडिया अनुभव की बजाय अनुमानों पर दांव लगा रही थी. ऐसा कुछ नहीं हुआ, अनुमान गलत साबित हुए. नवंबर के आखिरी में काफी दिनों बाद मांझी बुझे मन से नीतीश कुमार से मिलने पहुंच गए. घंटे भर साथ रहने के बाद दोनों नेता अंदर से मुस्कुराते हुए बाहर निकले. मीडिया की अटकलें गलत सिद्ध हुईं.
मीडिया अपनी अटकलों के फेर में कुछ जरूरी बातों को नजरअंदाज करता रहा है. वहां इस बात पर विचार नहीं हो रहा है कि क्या बिहार में दलितों के साथ घट रही सारी घटनाएं महज मांझी के सीएम बनने की वजह से हो रही है या इसकी पृष्ठभूमि कुछ और है. मीडिया यह भी नहीं बताता कि बिहार में ऐसी घटनाओं के घट जाने और फिर उसे हाशिये पर धकेल दिये जाने का सिलसिला न जाने कितने सालों से चल रहा है. फारबिसगंज में पसमांदा मुसमलानों के मार दिये जाने की घटना, नालंदा में एक नाई महिला के गुप्तांग में नाखून काटनेवाला चाकू घुसा देने का मामला, डुमरांव स्टेशन पर एक लड़की के साथ सरेआम सामूहिक बलात्कार की घटना, शेखपुरा में प्रेम करने के जुर्म में एक दलित बच्चे को दबंगों द्वारा सरेआम फांसी पर लटका देने का मामला. ये तमाम घटनाएं हमारे इसी दौर की बानगी हैं. इन तमाम घटनाओं को भूलकर मीडिया लगातार यह माहौल बनाने में लगी हुई है कि यह जो मांझी हैं, जब से सीएम बने हैं, राज्य को संभाल नहीं पा रहे, कानून व्यवस्था कंट्रोल में नहीं है, इसलिए ऐसी घटनाएं हो रही हैं. जाहिर है मीडिया की अपनी एक सीमा है, इसलिए वह तह तक कारणों पर विचार करने में अपना समय नहीं लगाती. वह घटनाओं के दूसरे पहलू को समझने में नाकाम सिद्ध हो रही है कि अगर मांझी के आने के बाद से ही इस तरह की घटनाएं बढ़ी हैं तो कहीं यह सामाजिक स्तर पर एक दलित के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद एक बड़े तबके में उपजे असंतोष, घबराहट, तिलमिलाहट और बेचैनी का परिणाम तो नहीं है?
मीडिया का अपनी सीमाएं हैं लेकिन बिहार के राजनीतिक दायरों में भी ये सारे सवाल महत्वपूर्ण नहीं बन पाते. यह सवाल नहीं उठता कि आखिर क्या वजह रही कि भाजपा और जदयू का गठबंधन टूटने के बाद ही ऐसी घटनाएं बिहार में एकबारगी से बढ़ गई हैं? ये सवाल अनुत्तरित हैं.
मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद अचानक से दलितों के साथ भेदभाव की घटनाएं बढ़ गई है. दिन-ब-दिन दलितों के साथ हो रहे अत्याचार का रिश्ता राजनीति के शीर्ष पर हुए बदलाव से भी है
नवंबर बीतने के बाद दिसंबर महीने में घटित कुछ राजनीतिक घटनाएं दलितों पर हो रहे अत्याचारों पर हो रही नग्न राजनीति का इशारा करती हैं. छह दिसंबर को हर साल पटना में बड़े पैमाने पर काला दिवस मनाने की परंपरा रही थी, बाबरी ध्वंस के विरोध में, लेकिन इस बार छह दिसंबर को पटना में काला दिवस नहीं मना. इस बार सिर्फ बाबा साहब भीम राव अंबेडकर की पुण्यतिथि का आयोजन बड़े पैमाने पर हुआ. गौरतलब है कि इन आयोजनों में हिस्सा लेनेवाले वही सत्ताधारी लोग हैं जिन पर दलितों की सुरक्षा की जिम्मेदारी है. लेकिन वे लोग घटनाओं पर मुंह बंद रखकर आयोजनों के जरिए एक नए किस्म की राजनीति कर रहे हैं. दलितों के भयादोहन की राजनीति. समय बदल चुका है, अब काला दिवस मनाकर कोई खतरा उठाने को तैयार नहीं है, इससे हिंदुत्व के जगने का खतरा है, जबकि बाबा साहब के नाम पर दलितों को अपने पक्ष में एकजुट करना आसान है.
बहरहाल, काला दिवस नहीं मना, लेकिन उसी दिन एक बड़े सरकारी आयोजन में मुख्यमंत्री मांझी और नीतीश एक साथ शामिल हुए. हाल के दिनों में कई आयोजनों में नीतीश कुमार, मांझी की वजह से कन्नी काटते रहे हैं. लेकिन छह दिसंबर के आयोजन में वे पहुंचे. इस कार्यक्रम में नीतीश का थोड़ा विरोध भी हुआ. नीतीश का विरोध कर रहे टोलासेवकों को देखकर मुख्यमंत्री मांझी मुस्कराते रहे. इस कार्यक्रम में उन्होंने महादलितों के लिए योजनाओं की झड़ी लगा दी. अंबेडकर फाउंडेशन खोलने से लेकर टोलासेवकों को दस हजार रुपये प्रति माह देने का वायदा और साठ साल तक काम करने का वचन उन्होंने वहीं दे दिया. नीतीश-मांझी के इस सम्मेलन से इतर उसी दिन पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में शूद्र एकता सम्मेलन भी आयोजित किया गया था, जिसमें भाजपा छोड़ सभी दलों के दलित नेता शामिल हुए.
अंबेडकर की पुण्यतिथि के पहले चंद्रवंशी समाज जरासंध की जयंती भी मना चुका है और चंद्रवंशी समाज के एक भाजपायी नेता प्रेम कुमार को मुख्यमंत्री बनाने की मांग कर चुका है. अंबेडकर की पुण्यतिथि के बाद पटना की सड़कों पर पाटलीपुत्र के सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के राज्यारोहरण समारोह के बड़े-बड़े पोस्टर भी प्रकट हो चुके हैं. जरासंध को चंद्रवंशियों ने याद किया तो चंद्रगुप्त मौर्य को कुशवाहा समाज याद कर रहा है. विशेष प्रयोजनवाली आयोजन की ये खबरें सुर्खियों में आती रही इस दौरान. इसी दौरान नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए यात्रा पर निकले नीतीश कुमार की नयी यात्रा भी खूब सुर्खियों में रही. नीतीश की यात्रा के साथ ही विपक्ष के नेता सुशील मोदी द्वारा नीतीश कुमार से रोजाना एक सवाल पूछने का सिलसिला भी चर्चा में रहा. इस तरह हर रोज नये विषय चर्चा में आते जा रहे हैं और इन्हीं तीन महीनों के दौरान राज्य में दलितों के साथ घटित चार बड़ी घटनाएं भुला दी गईं.
भोजपुर के सिकरहट्टा में छह लड़कियों के साथ हुए सामूहिक बलात्कार के बाद आरोपितों के कपड़ों की फॉरेंसिक जांच करती टीम, फोटोः प्रशांत रवि
बेपरवाह बिहार की सियासत आजकल ऐसे ही उबड़-खाबड़ रास्ते पर चल रही है, इसमें बड़ी से बड़ी घटनाएं राजनीतिक बयानबाजी के बीच में गुम हो जा रही हैं और यह सवाल अनुत्तरित रह जाता है कि मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद एकबारगी से बिहार में दलितों के साथ भेदभाव की घटनाओं की बाढ़ क्यों आ गई है. क्या दिन-ब-दिन दलितों के साथ हो रहे अत्याचार का रिश्ता राजनीति के शीर्ष पर हुए बदलाव से है, समाज के निचले पायदान पर इस बदलाव को लकर कोई असहजता पैदा हो गई है. सवाल कई और भी हैं मसलन क्या भाजपा और जदयू के अलगाव के बाद बिहार में ऐसी घटनाओं में तेजी आयी है या इस तरह की घटनाएं पहले से ही जारी थीं. सवालों के बीच एक आशंका यह भी पैदा हुई है कि क्या पिछले साल जब बिहार में मीयांपुर, लक्ष्मणपुर बाथे और नगरीकांड के अभियुक्तों को बरी किया गया, तो उसके परिणाम स्वरूप सामंती तबके का मन बढ़ा और ऐसी घटनाओ में तेजी आ गई. इसी तरह की मनबढ़ई की आशंका दो साल पहले, जब रणवीर सेना सुप्रीमो ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या हुई और उनके शव को पटना लाया गया, तब भी देखने को मिली थी. मुखिया के समर्थकों को पटना में गुंडागर्दी की छूट दी गयी. इससे शायद एक वर्ग का मन बढ़ा और वे अनियंत्रित हो गए हैं. जानकारों के मुताबिक हाल के दिनों में दलितों के साथ बढ़ी भेदभाव की घटनाओं का एक सूत्र पिछले लोकसभा चुनाव के नतीजों से भी जुड़ता है. नीतीश कुमार की पार्टी जदयू की चुनावों में हुई करारी हार के बाद भाजपा समर्थक सवर्ण तबका लंबे समय बाद बिहार में खुद को राजनीतिक रूप से मजबूत स्थिति में पा रहा है. इसके नतीजे में ऐसी घटनाएं ज्यादा तेजी से घटने लगी हैं.
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‘बिहार की नब्ज है पुरागांव’
जैसे पूरे पतीले के चावल का अंदाजा एक चावल को छूकर मिल जाता है वैसे ही पुरागांव की घटना से बिहार की जातिगत वैमनस्यता का अंदाजा लगाया जा सकता है. बीते सितंबर माह में गया जिले का पुरागांव रातोंरात चर्चा में आ गया था. यह मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के गृह जिले का एक गांव है. खबर आई थी कि दंबगों ने यहां इस कदर दहशत का माहौल बनाया कि गांव के लगभग सौ महादलित परिवार यहां से पलायन कर गए. चार सौ घरों की इस बस्ती में इतने ही दलित परिवार थे, और लगभग सारे के सारे गांव से निकल गए. मामला यह था कि वहां स्थानीय स्तर पर पैक्स का चुनाव हो रहा था. इस चुनाव में एक ओर सवर्ण जाति का उमीदवार था, तो दूसरी ओर गांव के ही मुसहर समुदाय का युवक वकील मांझी भी चुनाव लड़ रहा था. वकील मांझी के बड़े भाई अर्जुन मांझी अपने भाई के पक्ष में प्रचार कर रहे थे. यह बात गांव के सवर्णों को हजम नहीं हुई. इस रंजिश में अर्जुन मांझी की हत्या कर दी गई. अर्जुन मांझी की हत्या का मामला पुलिस तक पहुंचा तो गांव के दबंगों ने महादलितों को धमकाना शुरू कर दिया. रणबीर सेना की तर्ज पर दलितों के नरसंहार की धमकियां दी जाने लगीं. भयभीत दलितों ने कोई उपाय न देख सामूहिक रूप से गांव छोड़ने का फैसला किया. गांव छोड़कर सभी परिवारों ने टेकारी नामक जगह पर शरणार्थीयों की तरह डेरा डाल दिया. जल्द ही खबर फैलने लगी. बात बढ़ी तो जिला प्रशासन ने आनन-फानन में महादलितों को गांव वापस ले जाने की प्रक्रिया शुरू की. मुख्यमंत्री मांझी के बयान आने लगे, हालांकि उन्होंने पुरागांव जाने की जहमत नहीं उठाई.
अर्जुन मांझी की पत्नी राम प्यारी देवी को पांच लाख का मुआवजा मिला, हर महीने पेंशन देने की घोषणा भी की गई और गांव के दलितों की स्थिति सुधारने का वादा भी किया गया. अब तक 26 भूमिहीनों को पर्चा बांटा जा चुका है. दर्जन भर से अधिक पुलिस के जवान गांव में डेरा जमाए हुए हंै, पुलिस पोस्ट स्थापित करने की योजना भी है. छह आरोपी समर्पण कर चुके हैं, लेकिन मुख्य आरोपी गुड्डू शर्मा अभी भी फरार है. गांववालों का कहना है कि पुलिस गुड्डू को पकड़ना ही नहीं चाहती. इस मामले को लेकर आंदोलन करनेवाले सतीश, जो कि खुद भी अपने परिवार के साथ टेकारी पलायन कर गए थे, कहते हैं, ‘सब जानते हैं कि गुड्डू शर्मा रोज रात में आता है. अब भी रोज धमकाता है, लेकिन पुलिस उसे नहीं पकड़ रही है.’ वे आगे कहते हैं, ‘हमारी सुरक्षा के ढेरों वायदे किए गए थे, लेकिन सारे वायदे दो माह में ही फाइलों में दफन होकर रह गए हैं.’ दलितों के साथ पुरा गांव में हो रही ज्यादती का यह पहला मामला नहीं है. अर्जुन मांझी के बड़े भाई राम स्वरूप मांझी का पिछले कई सालों से कोई अता-पता नहीं है. उनका भी यही अपराध था कि वो दबंगों के खिलाफ मुखिया का चुनाव लड़ना चाहते थे. उनका अपहरण कर लिया गया. लोग मान चुके हैं कि राम स्वरूप को सवर्णों ने मार दिया होगा.
पुरा के बाद हम आरा जिले के चर्चित पूरीमारी बलात्कार कांड की स्थिति जानना चाहते हैं. वहां प्रशासनिक महकमे से कोरासा जवाब मिलता है- ‘गवाही चल रही है. पीड़ित गवाही दे चुके हैं. कुल छप्पन की गवाही हो चुकी है. अब बचाव पक्ष की गवाही चल रही है. छह में से पांच पीड़ितों को नौकरी मिल चुकी है. जब फैसला आएगा तो आपको पता चल जाएगा. वैसे यह मामला पुराना हो चुका है.’ इस मामले की पीड़िताएं अब इस मामले पर मीडिया से कोई बात नहीं करना चाहती हैं.
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जानकारों की एक राय यह भी है कि एक दलित मुख्यमंत्री पद पर बैठा है जिसकी प्रतिक्रिया में निचले स्तर पर ताकतवर जातियां अराजक होकर ऐसी गतिविधियों को अंजाम दे रही हैं. हो सकता है कि जानकारों की राय सही हो, यह भी हो सकता है कि ये सारी वजहें एक साथ इन घटनाओं के लिए जिम्मेदार हों, लेकिन बिहार की राजनीति में न तो अब ऐसे सवाल सत्ता के लिए महत्वपूर्ण रह गये हैं, न विपक्ष के लिए. राजनीति से जुड़े लोग इन सवालों पर कन्नी काटते हैं ज्यादा ईमानदार जवाब के लिए सियासत से इतर लोगों को ढूंढ़ना पड़ता है. लेकिन किसी के जवाब या बयान के पहले आंकड़ों के जरिये घटनाओं को समझना जरूरी है.
आंकड़े गवाही दे रहे हैं कि बिहार में दलितों के खिलाफ अत्याचार की घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं. 2002 से 2005 के बीच दलित उत्पीड़न के 5,538 मामले दर्ज हुए थे. 2006 से 2009 के बीच यह संख्या बढ़कर 9,052 पर पहुंच गई. 2012 का आंकड़ा बताता है कि 4,950 घटनाएं इस एक साल के दौरान घटीं. इनमें 191 बलात्कार की घटनाएं थीं. यह संख्या घटती-बढ़ती रहती है. जब हम जनवरी 2013 के बाद के आंकड़ों पर नजर डालते हैं तब हमें समझ आता है कि यह अचानक से अपने चरम की ओर बढ़ने लगी हैं. जनवरी 2014 से अगस्त 2014 के बीच दलितों के खिलाफ अत्याचार के 10,681 मामले दर्ज हुए हैं. इनमें 91 हत्या के हैं. समाजशास्त्री डॉ. एस नारायण के पास इसका एक अलग तर्क है. वे कहते हैं, ‘स्वाभाविक तौर पर जीतन राम मांझी के सीएम बनने के बाद एक बड़े तबके में बेचैनी है और वह अराजक हुआ है, लेकिन बिहार की इन घटनाओं को सिर्फ मांझी फेज से जोड़कर देखने की जरूरत नहीं.’
एक मांझी को केंद्र में रखकर बिहार की राजनीति हो रही है और मीडिया भी उसी में उलझा हुआ है या यूं कहें कि मीडिया लोगों को उसी में उलझा रहा है. साल 2013 में बिहार में 580 चुने हुए जनप्रतिनिधियों की हत्या हुई, उसमें 60 प्रतिशत के करीब दलित-महादलित जातियों से थे. इस पर ज्यादा चर्चा नहीं हुई. उस दौरान नीतीश कुमार मुख्यमंत्री थे और भाजपा उनकी सहयोगी थी. डॉ. नारायण कहते हैं, ‘ऊपरी तौर पर सियासी समीकरण बिठाने के लिए तमाम बयान दिये जा रहे हैं और उसमें ही बिहार की राजनीति उलझ गई है, जमीनी स्तर पर और लंबे समय तक महादलितों का लाभ हो, इसके लिए कुछ नहीं हो रहा है, बिहार में यह देखना महत्वपूर्ण है.’ वे आगे बताते हैं, ‘मांझी आज जो बयान दे रहे हैं, उसके आगे-पीछे भी दलितों की राजनीति और उनके विकास को समझना होगा. मांझी कोई एकबारगी से राजनीति में नहीं आये हैं. पिछले तीन दशक से राजनीति में हैं और कई महकमों के मंत्री रहे हैं. मांझी के साथ ही आठ और विधायक अभी महादलित समुदाय से आते हैं. इतने वर्षों में मांझी ने या किसी और महादलित नेता ने क्या कभी महादलितों के लिए समग्रता में विकास की कोई योजना बनायी. इससे आप समझ सकते हैं कि व्यक्तिगत सियासत को चमकाने के लिए महादलितों पर ज्यादा बात हो रही है, उनके विकास की बातें अभी भी हाशिये पर हैं.’
दलितों में चेतना आई है, वे प्रतिरोध कर रहे हैं. इसके विरोध में यथास्थितिवादी शक्तियां भी सक्रिय हो गई हैं, जो दलितों के खिलाफ अपने विरोध और प्रहार को लगातार तेज कर रही हैं
डॉ. नारायण की ही बातों को बिहार के मशहूर समाजशास्त्री एमएन कर्ण भी आगे बढ़ाते हैं. वे कहते हैं, ‘बेशक जीतन राम मांझी के सीएम बनने के बाद महादलितों में चेतना पैदा हुई है और उनमें उत्साह पैदा हुआ है लेकिन जो राजनीति में हो रहा है वह सब वोटबैंक को ध्यान में रखकर हो रहा है. बिहार सरकार ही बताये कि क्या उसके पास महादलितों की सामाजिक-शैक्षणिक स्थिति के सही-सही आंकड़े हैं. जवाब मिलेगा नहीं.’ राज्य अनुसूचित जाति आयोग के सदस्य बबन रावत बिहार में दलितों और महादलितों पर बढ़ रही अत्याचार की घटनाओं की विवेचना अलग तरीके से करते हैं. वे कहते हैं कि दलितों पर अगर जुल्म बढ़े हैं, तो इससे यह साफ होता है कि दलित समाज अब मरा हुआ समाज नहीं रह गया है. कोई भी हमला जिंदा समाज पर होता है. इसलिए यह दलितों के सशक्तिकरण का ही एक पैमाना है.
जितने लोगों से बात होती है उतने मत सामने आते हैं. एएन सिन्हा इंस्टीटयू्ट ऑफ सोशल साइंस के निदेशक डॉ. डीएम दिवाकर मानते हैं कि आज बिहार में एक दलित मुख्यमंत्री हैं जो लगातार दलितों को जगने का आह्वान कर रहा है और इससे दलितों के उत्साह और विश्वास की वृद्धि हुई है. प्रतिरोध स्वरूप उन पर जुल्म भी बढ़ रहे हैं क्योंकि सदियों से जो समाज उन्हें नीची निगाह से देखता आया है वह दलितों के इस सशक्तिकरण को पचा नहीं पा रहा है. राज्य अनुसूचित जाति आयोग के ही एक और सदस्य विद्यानंद विकल मानते हैं कि यह सब इसलिए हो रहा है ताकि राज्य में अराजक स्थिति बने और लोगों में यह संदेश जाए कि एक दलित मुख्यमंत्री राज्य नहीं चला सकता और फिर अगले कुछ साल तक दलितों को फिर से मुख्यमंत्री पद पर नहीं बिठाया जा सके. विकल के अपने तर्क हैं और हो सकता है इसका भी सच्चाई से कुछ वास्ता हो. लेकिन इन घटनाओं और दलितों से जुड़े असल सवालों पर फिर भी कोई बात नहीं कर रहा.
जीतन राम मांझी दलितों की अस्मिता को उभारकर अगले विधानसभा चुनाव तक मजबूत वोटबैंक खड़ा करना चाहते हैं. नीतीश कुमार इस पूरी हलचल पर चुप्पी साधकर महादलित, अतिपिछड़ा, मुसलमान, कुरमी और यादव का एक नया समीकरण पनपते देख रहे हैं जिसमें अगला चुनाव जिताने की पूरी कूवत है. भाजपा सवर्णों की पार्टी बन चुकी है और वह साथ में कुशवाहा, बनिया, पासवान आदि को मिला लेने के बाद कुछ अतिपिछड़ों को अपने पाले में कर राजनीति को आगे बढ़ा रही है. इस बीच दलितों से जुड़े, महादलितों से जुड़े हुए कई सवाल ऐसे हैं, जिनके जवाब मांगे जाने चाहिए. मुख्यमंत्री मांझी से भी, नीतीश कुमार से भी और भाजपा से भी. मांझी महादलितों को पांच डिसमिल जमीन देने और आवासीय विद्यालयों में दलित छात्र-छात्राओं की संख्या बढ़ाने की रचनात्मक राजनीति करना चाह रहे हैं, जबकि भाकपा माले के राज्य सचिव कुणाल जैसे लोग दलितों से जुड़े जमीनी सवाल उठा रहे हैं. कुणाल कहते हैं कि जब खुलकर जाति की राजनीति ही हो रही है तो क्यों नहीं मांझीजी बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार जमीन का बंटवारा कर रहे हैं. आखिर बंदोपाध्याय कमिटी की रिपोर्ट तो नीतीश कुमार ने ही तैयार करवाई है और स्थायी विकास या भला चाहनेवालों को इससे क्या दिक्कत हो सकती है.
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‘यह सवर्ण बनाम दलित नहीं, पिछड़ा बनाम दलित की लड़ाई है’
प्रेम कुमार मणि
यूं तो बिहार में पहचान की राजनीति का दौर कई वर्षों से चल रहा है, लेकिन इन दिनों यह द्वंद्व-दुविधा से गुजरते हुए टकराव के मुहाने पर पहुंच गई है. कई वर्षों से पिछड़े नेता पहचान की राजनीति को चमका रहे थे, स्वाभाविक तौर पर अब उनके बाद उनके नीचेवालों की ही बारी थी.
इसी कड़ी में इन दिनों बिहार के मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी जो बोल रहे हैं, उस पर बवाल मचाया जा रहा है. उनकी बातों पर बहस की जरूरत है, लेकिन कोई बहस के लिए तैयार नहीं है. मांझी जो बोल रहे हैं या जो कर रहे हैं, उससे यह साफ झलक रहा है कि वह नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की तुलना में ज्यादा सचेत नेता हैं. वह बार-बार दलित, महादलित, कुछ अतिपिछड़ों और आदिवासियों पर ही जोर दे रहे हैं. कभी उन्होंने समग्रता में पिछड़ी जातियों को एक समूह के तौर पर रखकर बात नहीं की. उन्होंने पिछले दिनों जब सवर्णों और अन्य को बाहरी कहा, तो यह भी कहा कि आदिवासी, दलित और कुछ पिछड़ी जातियां ही मूलवासी हैं.
मांझी इतिहास के छात्र रहे हैं, वह इंजीनियरिंग के छात्र नहीं हैं. उन्हें अतीत की समझ है, इसीलिए वह भविष्य की राजनीति का संकेत दे रहे हैं. बिहार में मांझी के पहले भी दो दलित मुख्यमंत्री बने थे. भोला पासवान शास्त्री और रामसुंदर दास. दोनों ही मजबूरी में बनाए गए थे, कठपुतली की तरह. दोनों ने कमोबेश कठपुतली की ही तरह काम भी किया. नीतीश कुमार की मंशा भी मांझी को कठपुतली की ही तरह चलाने की थी, लेकिन मांझी वैसे नहीं रह सके.
मांझी ने राजनीति का एक नया अध्याय शुरू कर दिया है और खुद ही एक बड़ी परिघटना बन गए हैं. उत्तर प्रदेश में जिस तरह से कांशीराम ने बैकवर्ड और दलित राजनीति को दो अलग छोरों पर ला खड़ा किया था, बिहार में मांझी भी वही काम कर रहे हैं.
भले ही आज इसे सतही तौर पर सवर्ण बनाम दलित राजनीति के घेरे में रखकर देखने की कोशिश हो रही है, लेकिन यह उचित नहीं है. मांझी का विरोध करनेवाले सिर्फ सवर्ण नहीं हैं और मांझी भी इस बात को समझ रहे हैं. इसीलिए वे बार-बार कह भी रहे हैं कि वह जिसे समझाना चाहते हैं, वह वर्ग उनकी बातों को अच्छी तरह से समझ रहा है. केसी त्यागी, शरद यादव, अनंत सिंह जैसे नेता लगातार मांझी का विरोध कर रहे हैं, लेकिन मांझी अपनी लय में हैं.
दूसरी ओर नीतीश समझ चुके हैं कि साल 1966 का इतिहास फिर से दुहराया जा रहा है. 1966 में इंदिरा गांधी को गूंगी गुड़िया समझकर प्रधानमंत्री बनाया गया था, लेकिन उस गूंगी गुड़िया ने भारतीय राजनीति में सबकी जुबान बंद कर दी थी. मांझी भी उसी राह पर हैं. अब बिहार की राजनीति दो खाने में बंटकर होगी. एक ओर दलित राजनीति, दूसरी ओर अपर बैकवर्ड पॉलिटिक्स. जो सवर्ण हैं, वे भी अपना ठिकाना तलाशेंगे. उनके लिए अपर बैकवर्ड से ज्यादा आरामदेह ठिकाना मांझी वाला होगा. चुनाव के पहले बहुत सारे सवर्ण नेता भाजपा में जाने की कोशिश करेंगे. भाजपा की एक सीमा होगी, वह सबको नहीं ले पाएगी. ऐसे में जो लोग बचेंगे, वे मांझी के नेतृत्व को स्वीकार करेंगे.
पहले उत्तर प्रदेश में यह देखा जा चुका है कि मुलायम से उकताया हुआ समूह मायावती के नेतृत्व में आ गया था, विशेषकर सवर्ण समूह. बिहार में भी वैसा ही होगा. अपर बैकवर्ड क्लास का राज पिछले तीन दशक से है. उससे उकताये हुए लोग नए नेतृत्व की तलाश करेंगे. उनका प्रतिनिधित्व अब मांझी करेंगे. आइडेंटिटी पॉलिटिक्स के इस दौर में मांझी बिहार में चैंपियन नेता बन चुके हैं. इस मायने में वह लालू और नीतीश को पीछे छोड़ चुके हैं.
मांझी की समझदारी पर भी गौर करना होगा. वह कभी किसी जाति के खिलाफ नहीं बोलते. वह सिर्फ दलित, आदिवासियों व अतिपिछड़ों के कुछ खास समूहों के पक्ष में बोल रहे हैं. वह सबसे तालमेल बिठाकर चल रहे हैं. वह केंद्र की भी प्रशंसा दिल खोलकर करते हैं और नीतीश का भी गुणगान करते हैं. वह बखूबी समझते हैं कि बिहार की राजनीति में आगे क्या होनेवाला है और उसके लिए उन्हें किस राह पर चलना चाहिए.
लेखक राजनेता व राजनीतिक विश्लेषक हैं. उनके विचार निराला से बातचीत पर आधारित हैं.
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बंदोपाध्याय कमेटी की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार में 21 लाख एकड़ जमीन है. यहां 17 लाख लोग भूमिहीन हैं. छह लाख लोगों के पास घर बनाने के लिए भी जमीन नहीं है. घोषणा ही करनी थी या कुछ करना ही था तो वही करते कि बंदोपाध्याय के बताये रास्ते के अनुसार 21 लाख एकड़ जमीन को गरीबों, दलितों, महादलितों, भूमिहीनों, घरहीनों के बीच बांट देते. महादलितों से जुड़ा एक अहम मुद्दा मुजफ्फरपुर, सीतामढ़ी और खुद मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के इलाके, गया से भी है, जहां हर साल दर्जनों बच्चे सुविधा, जागरूकता के अभाव में इंसेफलाइटिस की वजह से मर जाते हैं, जो बच जाते हैं वे जीवनभर विकलांग बने रहते हैं. अब तक ना तो नीतीश कुमार-भाजपा की सरकार की ओर से इस पर कोई ठोस पहल हुई थी और न ही जीतन राम मांझी की ओर से इस पर बात हुई है.
एक सवाल सीतामढ़ी के टेम्हुआ गांव का भी है, जहां कालाजार से 50 के करीब दलितों की मौत हुई है. सवाल तो यह भी है कि बिहार में जो अराजक स्थिति उत्पन्न हुई है, उसमें सबसे ज्यादा भूमिका हाल के वर्षों में नीतीश कुमार और भाजपा सरकार की ही देन रही है. नीतीश कुमार की सरकार ने ही अमीरदास आयोग को रिपोर्ट तैयार कर देने के बाद भंग कर दिया था, जिस अमीरदास आयोग की रिपोर्ट से इस बात का खुलासा होना था कि नब्बे के दशक में बिहार में हुए नरसंहारों में रणबीर सेना के जरिए राजनीतिक दलों के लोगों ने शामिल होकर तमाम कुकृत्य किए थे. इसका एक उदाहरण हाल के दिनों में दिखा, जब भाजपा के कोटे से केंद्र में मंत्री बने गिरिराज सिंह के बारे में (मानवाधिकार आयोग के आईजी अमिताभ दास) ने यह रिपोर्ट दी कि गिरिराज सिंह के संबंध रणबीर सेना से रहे हैं. गिरिराज सिंह मंत्री बन चुके हैं, माना जा रहा है कि अब अमिताभ दास को इसकी सजा मिलेगी.
मांझी के इर्द-गिर्द घूम रही राजनीति के चक्र में बिहार के सामयिक सवाल गायब हो चले हैं. अभी चुनाव में दस माह बाकी हैं लेकिन चुनावी जंग अभी से सिर चढ़ने लगी है. मांझी के बयान को बार-बार सवर्ण बनाम दलित नेता के रूप में दिखाने की कोशिश हो रही है. प्रेमकुमार मणि जैसे राजनीतिक विश्लेषक व नेता बार-बार बता रहे हैं कि सत्ता के शीर्ष की राजनीति से तो सवर्ण कई साल पहले ही आउट हो चुके हैं. दरअसल यह लड़ाई अब पिछड़ा बनाम दलित की लड़ाई हो चुकी है. मणि की बातें इस नए टकराव की तरफ इशारा करती हैं. मांझी अपनी बातों में कभी पिछड़ों की बात नहीं करते. वे बार-बार दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक और अतिपिछड़ा समूह की वकालत करते हैं. पिछड़े नेता ऊर्जा लगाये हुए हैं कि मांझी जिस नये राजनीतिक समूह का निर्माण कर रहे हैं, उसमें किसी तरह पिछड़ों को भी शामिल कर लें, लेकिन मांझी अपनी धुन में हैं. शायद वे जानते हैं कि पिछड़ों से दलितों को अलगकर ही वे आगे भी चैंपियन नेता बने रह सकते हैं, इसलिए वे बार-बार दुहरा रहे हैं कि दलितों की आबादी 22 प्रतिशत है. मुसलमान 16 प्रतिशत. बस यही मिल जाए तो किसी की जरूरत नहीं. मांझी खुद तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि वे ठेके-पट्टे में पिछड़ों को आरक्षण देने के पक्ष में नहीं हैं, वे दलितों के लिए और विशेषकर महादलितों के लिए आरक्षण चाहते हैं. मांझी तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि लालू यादव दलितों के हितैषी नेता नहीं हैं. मांझी तहलका से बातचीत में कह चुके हैं कि समय बतायेगा कि किसके नेतृत्व में चुनाव होगा. मांझी अपनी सारी बातें कह चुके हैं, कही हुई बातों के अनुसार ही राजनीति कर रहे हैं. वे नीतीश को भगवान भी कहते हैं, नरेंद्र मोदी को शानदार-जानदार प्रधानमंत्री भी कहते हैं. वे सत्ता की सियासत को साधने में ऊर्जा लगाये हुए हैं, दलितों की अस्मिता को उभारकर, लेकिन दलितों के मूल सवालों से मुंह चुराकर.
सन 1980 के बाद बदलते समय में साहित्य का मिजाज भी बदला है और इस बदलाव के चलते रचनाओं ने हमें आश्वस्त भी किया है क्योंकि जो अनजाने लोग थे. उनकी पहचान इस रूप में बनी है कि उनकी कलम ने दस्तक दी. यूं तो 2014 में आकर हमें मिली-जुली साहित्यक आवाजें आज भी सुनाई देती हैं जिन्होंने नए प्रतिमान गढ़े थे. यथार्थ और कला का समीचीन संगम हमारे सामने खुलता जाता है. दूधनाथ सिंह की ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ , उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’ और चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी ‘नकबेसर कागा ले भागा’ अपनी अलग-अलग छटा में हमें प्रभावित करती हैं तो उपन्यासों में डूब, सूखा बरगद, सात आसमान, कलिकथा वाया बायपास जैसे उपन्यासों को पाठकों ने पढ़ा और सराहा. एक उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ अपनी तरह का अनूठा रहा था उन दिनों से आज तक.
मेरी बात यहां आलोचना से संबंधित है, इसलिए कहना चाहूंगी कि रचना के बाद ही आलोचना की भूमिका शुरू होती है. पुराने समय से आजतक आलोचकों के नामों से बनी श्रृंखला में वे ही गण्यमान हो पाते हैं जिन्होंने रचनाओं के लिए वकील की नहीं, जज की भूमिका निभाई है. बेशक अपनी योग्यता और क्षमता के स्तर को निर्धारित किया है. साहित्य में यह मान्यता बनी हुई है कि आलोचक की कृपा पर रचना का उठना और गिरना निर्भर करता है.
मुझे साहित्य जगत में चली आ रही मान्यता पर शक होता है. ‘मुझे चांद चाहिए’ इसका अप्रतिम उदाहरण है. चांद चाहने वाली लड़की (सिलविल) वर्षा वशिष्ठ शाहजहांपुर से निकलकर दिल्ली के नाट्य विद्यालय में आती है और अभिनय की प्रतिभा पर सवार होकर मुंबई की फिल्म नगरी पर छा जाती है. वर्षा वशिष्ठ की इस कथा पर समीक्षक दांतों तले उंगली दबाकर रह गए. उनकी अब तक की प्रिय रही नायिकाओं के छक्के छूटने लगे. आलोचकों के खेमों में खलबली थी कि इस नायिका को किस खांचे में फिट बिठायें? आलोचक तो फिर आलोचक होते हैं. अपनी धुन और जिद के स्वामी, वर्षा वशिष्ठ को नकली स्त्री घोषित कर डाला. यह आलोचना की अवसन्न अवस्था थी. अपने होश में स्त्री चरित्रों को लेकर हमारे समीक्षकों को ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रावंती याद थीं जिसने देहभाषा को साहित्य के दरमियान परिभाषित किया. ‘आपका बंटी’ की शकुन भुलाने वाली महिला नहीं है, जिसने पति से तलाक लेने की हिम्मत दिखाई.
‘चितकोबरा’ को भी याद कर लिया गया जिसके यौनिक वर्णन की चर्चा रही. हमारे मन में सवाल यह भी है कि इन नायिकाओं के आचरण को देखकर क्या समीक्षक विचलित नहीं हुए थे? बेशक विचलित हुए थे लेकिन इन्हीं नायिकाओं ने उस विचलन को संभाल लिया क्योंकि उपन्यासों में चरित्रगत विचलन से बचने बचाने की युक्तियां भी नत्थी थीं. मिसाल के तौर पर ‘मित्रो’ का अंतिम चरण में अपनी मां के यहां लौट जाता, शकुन साहिबा का अपने दूसरे विवाह के आगे कंधे डाल देना और चितकोबरा की नायिका का संबंध अपने ही पति से होना.
‘मुझे चांद चाहिए’ की वर्षा वशिष्ठ खुद को निशाने पर रखती है क्योंकि घर-परिवार और समाज की परंपराओं को धो-फींचकर घर की खपरैल पर सूखने डाल जाती है और बिन ब्याही मां बनती है. ‘उफ! चांद चाहने वाली लड़की, तू कहने के लिए नहीं करने के लिए बनी है!’ समीक्षा जगत में अंधेरा सा छा गया. लेकिन साहित्य में किसी कृति को स्थापित या विस्थापित करने के लिए माना गया आलोचक अपनी शक्ति को नापता-मांपता हुआ उठा और वर्षा वशिष्ठ को संघर्ष विहीन, रेड कारपेटिड नायिका घोषित कर डाला. अब यह अलग बात है कि समीक्षक डाल-डाल तो पाठक पात-पात.
क्रूर आलोचकीय असहमतियों के बावजूद उपन्यास के संस्करण दर संस्करण छपते चले गए. और थोड़े ही दिन बाद इसका ठीक उल्टा ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के साथ हुआ. समीक्षकों के बड़े महान तबके के हिसाब से यह उपन्यास साहित्य जगत की अपूर्व घटना थी लेकिन पाठकों ने इसका जरा-सा भी असर नहीं लिया. राजेंद्र यादव के शब्दों में यह किताब ‘पुस्तकालय संस्करण’ थी.
दो उदाहरण देकर मैं समीक्षकों की समझ पर सवाल खड़े करना नहीं चाहती बल्कि पाठकों के लिए साहित्य का क्या रूप हो या साहित्य से उनका नाता क्या है, यह दिखाना चाहती हूं. समीक्षा के जरिए किताब आने की सूचना अवश्य मिल जाती है लेकिन वह पाठक भी पैदा करे यह जरूरी नहीं. कई बार तो लगता है कि समीक्षक अरुचिकर किताबों की ओर इशारा करता है जिससे पाठक बिदक सकता है. आलोचक की विश्वसनीयता धूमिल पड़ती है. कारण यह भी है कि वह एक ही विचारधारा से विभिन्न समुदायों और समाजों पर आलोचकीय नतीजे चस्पा करता जाता है. जबकि जरूरी यह है कि वह निष्पक्षता के साथ रचना में आए संदर्भों के बीच से कुछ गुणात्मक खोजने-तलाशने का दायित्व निभाए. और ऐसा हुआ भी है कि रचना को अपने खारिजनामें के बाद कोई सुधी समीक्षक मिला है, जिसने अपनी तर्कबुद्धि से वहां सार्थकता सिद्ध की है. महाश्वेता देवी के लेखन के साथ ऐसा ही गुजरा जब मान्यवर समीक्षकों ने चुप्पी साध ली थी.
ग्राम आधारित रचना हो या सबअल्टर्न अध्ययन का दायरा, दमित वर्ग के बीच आलोचक अपने नजरिए को कुलीनतावाद से नहीं बचा पाता फिर यह दुचित्ती नीति सही-गलत के फैसले पर अपनी प्रमाणिकता कैसे सिद्ध करेगी? इसी तरह स्त्री के लिए आलोचक का रवइया न चाहते हुए भी रह रहकर जब सामंती होने लगता है तब आलोचक के औजारों का पुरानापन बुरी तरह खटकता है. समय बदला कलम बदली, पुरुषों की लेखनी से स्त्री की कथा ने आजादी पायी. यह ख्याल समीक्षकों के जेहन में रहे तो कुछ नया हो. यह नया ही तो हुआ है कि जिन ग्रामीण स्त्रियों के बारे में लिखकर पुरुष लेखक अपने लेखन को समग्रता की सार्थकता से सजा लेते थे, वह बंट गया है.
मगर आलोचक फतवा जारी करने से नहीं हिचकते, ‘गांव की कोई युवती बिना बलात्कार हुए गर्भवती हो जाए और उत्पीड़ित न हो तो उसकी विद्रोही मुद्रा का तर्क क्या है? विवाह संस्था के बाहर रहकर गर्भधारण का अधिकार उसे नहीं. दूसरी स्त्री पति-पुत्र-सास-ससुर के भरे-पूरे संयुक्त परिवार में रहते हुए प्रेम का अधिकार चाहती है- यह देह राग ही है. ये पात्र यौन संबंधों के शरणागत हैं. आर्थिक मुक्ति की चाह से मुक्त.’ इस टिप्पणी पर सवाल उठता है कि बलात्कार होना चाहिए. तभी बिन पति की स्त्री के गर्भ को क्षमा किया जाएगा? विधवा स्त्री की अपनी इच्छा से हुआ शिशु सामाजिक अपराध रहा है तो क्या अब भी रहेगा? वैसे लोग गर्भवती विधवा के उत्पीड़न में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखते. क्या स्त्री का प्रेम देह राग ही होता है? कितनी उथली समझदारी है कि प्रेम राग को देह राग का फतवा देना? संदर्भों को खोलने की बजाय संदर्भों को काटने के उपक्रम को हम स्वस्थ समीक्षा कहेंगे क्या? समीक्षकों की सूचना के लिए है यह कि किसान स्त्रियां दिहाड़ी पर काम नहीं किया करतीं और न वे महिने की पगार पर अपना श्रम बेचती हैं. उनका प्राप्य कागज के नोट नहीं, खेतों की फसलें होती हैं. और घर के द्वार पर बंधे गाय-भैंस जैसे जानवर उनकी पूंजी होते हैं. आज उनकी आर्थिक मुक्ति के साधन यही हैं, हक के साथ. इस बात पर आलोचक गौर करें या न करें, गांव कस्बों के पाठक अच्छी तरह समझ लेते हैं. इसी पाठकीय समझ पर आलोचकों की धोबी पछाड़ों के बावजूद ग्राम केंद्रित साहित्य अपनी पैठ बनाता जाता है.
यह भी सोचने का विषय है कि जो लेखक समाज की विद्रूपताओं से भीषण संघर्ष करता हुआ इबारत रचता है, घटाटोप अंधेरों को चीरकर उजाले की राह बनाता है, वह आलोचक के सामने कंधे क्यों डाल देता है? केवल इसलिए कि उसे आलोचक की मेहरबानी चाहिए? कैसी खाम ख्याली है यह भी. पिछले दिनों का वाकया मुझे ही नहीं बहुत से लोगों को याद होगा जब एक युवा लेखिका की रचना को किस-किस आलोचक ने अपनी कलम कृपा से धन्य-धन्य नहीं किया था. राजेंद्र यादव के साथ वयोवृद्ध समीक्षकों के बयान नत्थी थे. किताब श्री नामवर जी के लिखित वक्त्व्य से सजाकर भव्य समारोह में रखी गई थी. तीन-तीन लोकार्पण हुए, बला लोग दिल खोलकर बोले, लेकिन अब उस किताब का अता-पता कहां हैं? हम बधाई देते तब तक तो सब कुछ खत्म हो गया. यह उदाहरण है गैर जिम्मेदार समीक्षा का.
साहित्य में यह गोरखधंधा है. देखा यह भी गया है कि समीक्षक जब-जब कमजोर पडे़गा वह लेखक के लिए दहशत पैदा करने लगेगा. तब हमें निराला और रेणु के तेवर अपनाने होंगे जिन्होंने साहित्य को किसी का निजी किला या गढ़ नहीं माना. हमें यह भी जानना होगा कि ऐसे किले और गढ़ों से जो ऐलान आते हैं वे या तो लेखक को सूली पर चढ़ा देते हैं या पोदीने के पेड़ पर.
कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी वरिष्ठ विदुषी लेखिकाएं इसी दहशत के हवाले होकर झिझकती ठिठकती रही हों. हौसला करके निकलीं और तौबा-तौबा करके लौटीं. राजेंद्र यादव ने लिखा है, ‘उपन्यासों की प्रबुद्ध सुशिक्षित विचारवान और व्यक्तित्व सम्पन्न नायिकाएं उसी परम्परागत बलिदान और त्याग के रास्ते का वरण करती हैं, मानो ‘नारी मुक्ति’ के आंदोलनों को मुंह चिढ़ाती हुई वे उन्हें नकारने के लिए ठीक उलटी दिशा में चल पड़ती हैं. एक शहीदी ‘संकल्प दृढ़ता’ के साथ घुटन और पुराने मूल्यों के चुनाव को कहा जा रहा है, नई नारी की अपनी चेतना.’
समीक्षा के जरिए किताब आने की सूचना मिल जाती है लेकिन वह पाठक भी पैदा करे यह जरूरी नहीं. कई बार समीक्षक अरुचिकर किताबों की ओर इशारा करता है
औरत की साहसिक कर्मशीलता को झेलने का दमखम परिवार में नहीं होता लेकिन क्या समीक्षक भी पारिवाकि रुग्ण मानसिकता का पक्षधर हो जाता है? बस यही देखकर तकलीफ होती है. क्या समीक्षक मेरे इस मत से सहमत होंगे कि संघर्ष छोड़कर लौट जाना ही था तो संषर्ष का अर्थ क्या रहा? इस सवाल को दरकिनार करते हुए सन 1990 से पहले और कुछ बाद की साहित्यक नायिकाएं अपनी लेखिकाओं के हाथ लौट जाने के लिए अभिशप्त रहीं. इन रचनाकारों पर कौन से कहे-अनकहे दबाव थे? मशहूर कृति ‘मित्रों मरजानी’ की मितरावंती की बेबाक आवाज की टंकार कर्मभूमि पर उतरते ही अवरुद्ध क्यों हो गई? जंग की जमीन से पांव उखड़कर मायके की ओर मुड़ गए. लगभग क्षमायाचना के साथ यह लौटना कि जो कुछ बोला-झांसा वह तो एक वेश्या की बेटी (मित्रो) के बोल वचन थे. कुलीन लोगों का इससे क्या लेना देना. यही हाल ‘आपका बंटी’ उपन्यास का रहा. तलाकनामा पेश करने वाली बहादुर नायिका शकुन आर्थिक स्वावलम्बिनी भी रही, ओहदा भी शानदार था प्रिंसीपल साहिबा का. मगर विवाह संस्था ने उस स्त्री को दोबारा अपने दलदल में घसीट लिया. दूसरे पति के साथ रहे या बंटी को लेकर चली जाए? इस दुविधा में शकुन ने पति का घर चुना. बंटी के साथ अपना स्वाभिमान भी त्याग दिया. स्त्री के लिए जैसे विवाह की समस्या, सुख-सुविधा का रूप हो. कई उपन्यास इन्ही गुत्थियों में उलझ कर बदलाव के फैसले नहीं दे सके. मगर इन कथा रचनाओं में समीक्षकों की भरपूर प्रशंसा का दबाव रचनाकार पर सबसे बड़ा बोझ होता है. ऐसे दबावों से जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक स्त्री भी मुक्त नहीं हो सकेगी.
आज तो ऐसी तमाम रचनाओं के पुनर्पाठ की जरूरत है जो समीक्षा/ आलोचना के गलत निर्णयों के नीचे दबी पड़ी हैं. पुनर्पाठ के जरिए ही हम जानेंगे कि जिस घटना को हमने उत्सर्ग, त्याग और बलिदान माना है, वह पितृसत्ता की खुशी के लिए की गई आत्महत्याएं और हत्याएं थीं, राजा-महाराजाओं के लिए वफादारी थी या खालिस गुलामी? प्रेम के अधिकार पर सदा स्त्री को कंगाल रखा गया या तबाह किया गया?
आप की मूल पहचान कवियत्री के रूप में है. लेकिन आपने अन्य विधाओं में भी रचना की है. विभिन्न विधाओं के रचनाकर्म में क्या फर्क देखती हैं?
यूं तो सारी विधाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं. हर विधा का अपना मूल स्वभाव होता है. लेकिन सबके भीतर कहीं न कहीं कविता छिपी होती है. जैसे कि आप हर समय उदास नहीं रह सकते, उसी तरह हर समय खुश भी नहीं रह सकते. एक जैसा जीवन नहीं जी सकते. उसी तरह दूसरी विधाओं में जाना अच्छा लगता है, लेकिन सुकून और मन की खुशी कविता में ही मिलती है. रही बात रचना कर्म में फर्क की तो सारी विधाओं के आपस में जुडे़ होने के बाद भी रचना कर्म में बहुत फर्क होता है.
आपने बाल नाटकों पर भी काम किया है. एक तो नाटक वैसे ही कम लिखे जा रहे हैं उस पर भी बच्चों के लिए लिखना? इसमें क्या कुछ चुनौतियां पेश आईं.
मैंने बाल नाटक नहीं लिखे. नाट्य रूपांतर किए हैं. रंगकर्म सामूहिक विधा है. कहानी को कैसे नाटक में बदला जाए, उसके मूल स्वभाव से छेड़छाड़ किए बिना, निश्चित ही यह चुनौतीपूर्ण है. विभा मिश्र के साथ मैंने काफी थिएटर किया. मंच से परे के सभी कार्यों में उनके साथ मेरी सहभागिता होती थी. विभा मिश्र ने बच्चों के लिए काफी थिएटर किया. उसी दौरान मैंने काफी नाट्य लेखन किया. अब विभा मिश्र के न होने से मेरे रंग लेखन की यात्रा भी ठहर गई है.
आजकल बच्चों के लिए लिखना कम होता जा रहा है. खासतौर पर स्थापित साहित्यकार बच्चों के लिए लगभग नहीं लिखते हैं. इसके पीछे क्या कारण देखती हैं?
इसके बारे में और इसके कारणों के बारे में कुछ भी कहना अभी मेरे लिए संभव नहीं है.
मैंने कहीं आपका वक्तव्य पढ़ा था कि ‘मुझे इस पार या उस पार का जीवन अच्छा लगता है.’ इसकी थोड़ा व्याख्या करें.
इसकी व्याख्या करना तो बड़ा मुश्किल है. दरअसल मुझे बीच का रास्ता अच्छा नहीं लगता. मध्यमवर्गीय जीवन से जाने क्यों मुझे चिढ़ होती है. या तो सब कुछ हो, या फिर कुछ भी न हो. एक जैसा जीवन, एक-सी दिनचर्या, हर समय सुरक्षा के कवच की चिंता और समृद्धि के कुचक्र में उलझे रहना. कुल मिलाकर उधार की समृद्धि से तंगहाली अच्छी.
तमाम नए पुराने रचनाकार इन दिनों सोशल मीडिया पर बेहद सक्रिय हैं. वह पाठक-लेखक संवाद का एक बेहद लोकतांत्रिक मंच बनकर उभरा है. आप कम सक्रिय हैं. ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं है. बस… मैं कमेंट ज्यादा नहीं करती और पोस्ट भी नहीं लगाती. धीरे-धीरे मैं उसके साथ फ्रेंडली होने की कोशिश कर रही हूं. मैं सोशल मीडिया के महत्व को नकारती नहीं हूं. लेकिन हर समय उसी में उलझे रहना भी नहीं चाहती. वैसे बाकी दूसरों को पढ़ती भी हूं, सुनती भी हूं.
इस बीच अचानक हिंदी साहित्य जगत में कवियों की बाढ़-सी आ गई है. एक के बाद एक नए संग्रह आ रहे हैं. कुछ आलोचकों ने इसे अच्छी कविता का संकट काल कहा है. आप इस नए रुझान को किस तरह देखती हैं?
मैं इस नए रूझान को पूरी उम्मीद से देखती हूं और मुझे कहीं भी इस तरह का संकट काल नजर नहीं आता. कविता का संकट काल यह नहीं है कि किताबें छप रही हैं, बल्कि कविता, साहित्य या कहें कि जीवन का संकट काल हमारी सामाजिक मुखरता और हस्तक्षेप का न होना है.
पिता आपके रचनाकर्म में बार-बार आते हैं. आपने पिता को केंद्र में रखकर कविताएं रची हैं. आपका उपन्यास एक कस्बे के नोट्स भी पिता और पुत्र के रिश्तों पर केंद्रित है.
वह इसलिए कि मेरे जीवन पर पिता का बहुत प्रभाव है. बचपन से ही मैं पिता के बहुत निकट रही. उनके संग साथ रही. हर बात उनसे कहती रही. मैंने कभी भी, कोई भी बात अच्छी या बुरी उनसे छिपाई नहीं. मैंने पिता से विपरीत परिस्थितयों में भी जीवन और समय को अपने अनुकूल करना सीखा. और उपन्यास सिर्फ पिता और पुत्र के रिश्ते पर ही केन्द्रित नहीं है बल्कि उसमें तो और भी रिश्ते हैं.
एक कस्बे के नोट्स में पिता और मां की छवियों में जबरदस्त विरोधाभास है. एक ओर आत्मनिर्भर बनाते वरदान सरीखे पिता तो दूसरी ओर पितृसत्ता की पोषक मां. हालांकि यह रचनाकार का विशेषाधिकार है लेकिन मैं यह पूछने की धृष्टता कर रही हूं कि क्या ऐसा चित्रण सायास है?
नहीं यह सायास बिल्कुल नहीं है. उपन्यास में जीवन अपने ठोस रूप में है. उसमें पितृसत्ता की पोषक अकेली मां नहीं है बल्कि पिता को छोड़कर और दूसरे स्त्री-पुरुष भी हैं.
आपकी कविताओं में जबरदस्त वैविध्य है. वहां कभी स्मृतियों का घना आयतन नजर आता है, कभी घर की छोटी-छोटी चीजें कविता का विषय बनती हैं. आपकी कविताओं के स्त्री विमर्श में वर्गीय और लैंगिक चेतना अलहदा दृष्टिकोण लेकर प्रकट होती है.
अगर आपको मेरी रचनाएं विविधतापूर्ण लगती हैं तो यह मेरे लिए बहुत खुशी की बात है. रही बात कविताओं के स्त्री विमर्श में वर्गीय और लैंगिक चेतना का नजरिया दूसरों से अलग होने की तो शायद यह इसलिए है क्योंकि जीवन में भी ऐसा ही है. मैं जीवन और रचना के बीच कोई फांक महसूस नहीं करती.
हाल ही में आपको स्त्री लेखन का शैलप्रिया सम्मान देने की घोषणा की गई है. देश में स्त्री लेखन की मौजूदा धारा को लेकर आपकी क्या राय है?
मैं लेखन में किसी भी तरह के बंटवारे के विरूद्ध हूं. यूं भी अस्मिता के प्रश्न, जीवन के मूलभूत प्रश्नों के लिए रोड़ा बनते हैं. वे हमें भटकाते हैं और लड़ाई को शुरू होने से पहले ही खत्म करने की कोशिश करते हैं.
दिसंबर के पहले हप्ते में देश के अलग-अलग इलाकों के तमाम जनसंगठन एक मंच के तले अपनी मांगों को लेकर जंतर-मंतर पर एकत्रित हुए. इस महाजुटान का मकसद केंद्र में बनी एक अतिशक्तिशाली सरकार को अनियंत्रित होने से रोकना और जन सरोकार से जुड़े मसलों पर सरकार को कायम रखना है
बचपन में दूरदर्शन पर देखी गई गणतंत्र दिवस की झांकी भला किसे याद नहीं होगी? देश के अलग-अलग प्रांतों, अलग-अलग हिस्सों की वह रंगबिरंगी झांकी जिसमें सबकुछ बहुत खुशहाल और हरा-भरा नजर आता है. मानो अगर कहीं स्वर्ग है तो बस यहीं है. लेकिन इसे देखने वाले भी जानते हैं कि यह सच नहीं है. दिसंबर की दो तारीख की सुबह जब हम राजधानी के प्रख्यात धरना स्थल जंतर-मंतर पहुंचे तो लगा मानों वहां भी पूरा देश ही उतर आया है. अपनी-अपनी बोली-बानी लिए बिहार, राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और झारखंड सब वहां आ जुटे थे. जो बात उसे गणतंत्र दिवस से अलग बना रही थी वह थी झांकी और खुशियों की कमी.
सुनहरी झांकी के बजाय पूरा जंतर-मंतर नारों से गूंज रहा था. अबकी बार, मोदी सरकार की तर्ज पर अबकी बार, हमारा अधिकार के नारे लग रहे थे. नारेबाजी और प्रदर्शन के बीच लोगों में गजब की एकता और तालमेल नजर आ रही थी. सब एकजुट थे क्योंकि सबके दिलों में चुभन एक सी थी. लोगों के हाथ में प्ले कार्ड लहरा रहे थे. जिनमें कोई जल, जंगल, जमीन पर अपने अधिकार के लिए दुखी था तो कोई और नरेगा में किए जा रहे बदलाव को लेकर असंतुष्ट. इस जुटाव के पीछे मुख्य तौर पर चार जनसंगठनों की भूमिका थी- जनआन्दोलनों का राष्ट्रीय समंवय (एनएपीएम), राष्ट्रीय रोजगार अधिकार मोर्चा, पेंशन परिषद और रोजी रोटी अधिकार अभियान. इन संगठनों ने इसी साल अगस्त में तय किया था कि जन संगठनों का एक साक्षा मंच हो.
भीड़ में सबसे आगे की कतार में बैठे एक शख्स का नाम अर्जुन सिंह है, वे अपने कई साथियों के साथ राजस्थान से आए हैं. पचास की उम्र में पहुंच चुके सिंह से जब सवाल किया जाता है कि वे 400 किमी का सफर तय करके यहां क्यों आए हैं तो वे कहते हैं, ‘जब पेट पर मार पड़ने वाली हो तो शरीर के बाकी अंगों को समय रहते हरकत में आ जाना चाहिए. अगर जो ऐसा न किया जाए तो सारा शरीर बेकार हो जाएगा क्योंकि पेट भरेगा, तभी शरीर चलेगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘हम गांव में रहते हैं. वहां यहां की तरह हर दिन काम तो होता नहीं है. खेती का काम भी कम ही होता है. पूरा देश जानता है कि राजस्थान के लोगों को नरेगा से कितना फायदा मिला है. नरेगा जैसी योजना को और बढ़ाने की जरुरत है लेकिन यह सरकार उल्टे उस योजना पर कैंची चलाने की बात कर रही है. जिन योजनाओं से हमारा पेट भरता है उनपर कैंची चल जाए और जिनके पास थोड़ी बहुत जमीन है उसे उनसे लेकर बाकी का काम भी तमाम कर दिया जाए.’
अर्जुन सिंह की बात अभी खत्म हुई ही थी कि बिहार के मोतिहारी से आए 30 वर्षीय कुंदन पटेल बोल उठते हैं, ‘बिहार में नरेगा का काम ठप है. काम के लिए पूछते हैं तो पता चलता है कि केंद्र से फंड ही नहीं मिल रहा है. सरकारी दुकान से मिलने वाले तेल-राशन के बदले पैसा देने की बात हो रही है. गरीब के पेट में रोटी जाने का जुगाड़ नहीं है और बैंक अकाउंट खुलवा रहे हैं. क्या करेंगे बैंक अकाउंट का? भुख लगेगी तो चाटेंगे क्या?’ कुंदन अपने इलाके के एक कॉलेज से स्नातक की पढ़ाई कर रहे हैं. बटाई पर खेती करते हैं और कॉलेज की पढ़ाई करते हैं. कुंदन उन युवाओं में से हैं जो खेती करके अपने जीवन और पढ़ाई को बड़ी मुश्किल से चला पा रहे हैं. इनके परिवार के कई लोग नरेगा से काम पाते रहे हैं. इनके घर में जन वितरण प्रणाली की सरकारी दूकान से चीनी और केरोसिन का तेल आता है और अब उन्हें डर लग रहा है कि कोटे की दुकान से मिलने वाला सामान बंद हो जाएगा और उसके बदले कुछ नगद पैसे पकड़ा दिए जाएंगे. नरेगा का काम पहले ही ठप है और अब सरकार जो बदलाव इस कानून में करने जा रही है उनसे इनके परिवार की आय का एक स्रोत भी बंद हो जाएगा.
बिहार के कुंदन और राजस्थान के अर्जुन सिंह की तरह यहां हजारों लोग हैं जिनकी लगभग-लगभग यही आशंकाएं हैं. ये लोग अपनी इन्हीं आशंकाओं को खत्म करने और केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को यह याद दिलाने के लिए यहां आए हैं कि भूख लगने पर पैसे नहीं, अन्न खाया जाता है. यहां इकट्ठा हुए कई लोग यह पूछते हैं कि जब सरकार हमारे बगल के सरकारी अस्पताल में आजतक दवाई नहीं पहुंचा सकी तो इसका भरोसा कैसे किया जाए कि वो सभी योजनाओं के बदले नकद पैसा अकाउंट में पहुंचा देगी? इनलोगों की चिंता और सरकार के प्रति इनकी शंकाओं ने ही इस बड़े प्रदर्शन की नींव रखी है.
विकास कुमार
सामाजिक कार्यकर्ता निखिल डे अपनी बातचीत में उन आशंकाओं को एक साथ जोड़ते हैं जिसकी वजह से यह साझा मंच बना और यह प्रदर्शन हुआ. वो कहते हैं, ‘केंद्र में नरेन्द्र मोदी की सरकार है. यह सरकार सत्ता में आई तो अच्छे दिनों के वायदे के साथ है लेकिन आते ही इसने अपने असल इरादे साफ कर दिए. नरेगा में बदलाव करने के प्रस्ताव दिए जाने लगे हैं. इस योजना को देश के कुछ जिलों तक सीमित कर देने का प्रस्ताव है. सूचना के अधिकार को लोगों के लिए और मुश्किल बनाने के बारे में विचार हो रहा है. लोगों की जमीन का अधिग्रहण आसानी से कैसे हो इसके लिए उपाये खोजे जा रहे हैं. असल में यह सरकार एक तरफ से कई हर जन कल्याण योजना को बंद या कमजोर करना चाह रही है. तो ऐसे में जन संगठनों की जिम्मेदारी बनती है कि वो एक जगह आएं. सरकार को चेतावनी दें कि वो जो-जो करना चाह रही है वैसा होने नहीं दिया जाएगा और यह प्रदर्शन इसी दिशा में पहली कोशिश है.’
हालांकि यह मंच अभी अपनी शुरुआती अवस्था में है और इसका कोई एक नाम भी अभी तय नहीं हुआ है. लेकिन निखिल डे की बातों से यह आभास मिलता है कि मजबूत सरकार और कमजोर विपक्ष की स्थिति में यह मंच भविष्य में एक नियंत्रक की भूमिका अख्तियार कर सकता है. मोर्चे के ढांचागत विकास की प्रक्रिया जारी है. विभिन्न संगठनों के प्रमुखों के मुताबिक अगर सरकार मनमाने तरीके से काम करती रही तो उनके संगठन इस साझे मंच से सरकार के खिलाफ देश भर में इसी तर्ज पर धरना-प्रदर्शन करते रहेंगे.
चूंकि मंच अभी भी गठन की प्रक्रिया में है इसलिए स्पष्ट तौर पर इनकी मांगों की कोई सूची सामने नहीं आई लेकिन बातचीत में जो चिंताएं उभर रहीं है उनके मुताबिक नरेगा से लेकर भूमि अधिग्रहण और श्रम कानूनों पर सरकार की तिरछी नजर से इन संगठनों के भीतर एक किस्म की आशंका व्याप्त है जो आगे चलकर इनकी मांगों में परिवर्तित हो सकती है. बहुत कुछ आगे केंद्र सरकार के रुख पर भी निर्भर करेगा. एक विशेषता यह भी थी कि प्रदर्शन में शामिल लोग अलग-अलग राज्य से आए थे और उनकी अपनी-अपनी समस्याएं हैं. एक मुददे पर सभी संगठनों की एक राय थी कि केंद्र की सरकार का मौजूदा रुख निजी कंपनियों के हित में जाता दिख रहा है. सरकार एक-एक कर जन कल्याण की सभी योजनाओं को या तो बंद करना चाहती है या उसे कमजोर करना चाह रही है.
यहां इकट्ठा हुए लोगों की भारी संख्या इस बात की उम्मीद जगाती हैं कि केंद्र सरकार के लिए इन्हें अनदेखा करके फैसले लेना आसान नहीं होगा लेकिन ऐसे साझे मंच और प्रयास को लेकर एक ऐसी चिन्ता भी है जिसका निवारण उनलोगों को करना है जो इसका नेतृत्व कर रहे हैं. चिन्ता यह है कि क्या इतने सारे जनसंगठन लंबे समय तक एक मंच पर और एक साथ रह पाएंगे? इस बात की पूरी संभावना है कि आपसी मतभेद की वजह से फिलहाल आपस में मंच साझा कर रहे जनसेवी और सामाजिक कार्यकर्ता बाद में अलग-अलग राह चले जाएं.
इस चिंता को जब बिहार से आए वरिष्ठ अधिवक्ता और सामाजिक कार्यकर्ता आशीष रंजन के सामने रखा गया तो उन्होंने इसे खारिज कर दिया. आशीष उन लोगों में से एक हैं जिनके प्रयास से करीब 30 जनवादी संगठनों का यह मंच अस्तित्व में आ सका है. वो कहते हैं, ‘देखिए, अभी-अभी तो सब लोगों के प्रयास से एक साझे मंच का निर्माण हुआ है. अभी तो इस मंच का कोई नाम भी नहीं रखा जा सका है. सो अभी से इस बारे में कुछ कहना या अंदाजा लगाना सही नहीं होगा.’ वो आगे कहते हैं, ‘यह मंच लोगों का है. यहां कोई नेता नहीं है. किसी का अपना कोई हित नहीं है. सारे लोग अलग-अलग मुद्दों की लड़ाई लड़ रहे हैं सो इस वजह से ऐसा होना तो नहीं चाहिए. अगर ऐसा होता है तो जनता नेतृत्व करने वालों से हिसाब मांगेगी. लोग इतनी दूर फिर कभी नहीं आएंगे. जंतर-मंतर आने के लिए न तो चन्दा देंगे और न ही झोली फैलाकर चन्दा जुटाएंगे.’
नर्मादा बचाओ आंदोलन से जुड़ी सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर इस साझे मंच को मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरुरत बताती हैं. उनके शब्दों में, ‘यह सरकार बनी तो है देश की बहुसंख्य गरीब जनता के वोट से लेकिन काम कर रही है प्राईवेट कंपनियों के लिए. मेक इन इंडिया के लिए ये लोग देश के बचे खुचे श्रम कानून को खत्म कर देंगे. सरकार एक मिनट में, अदानी को कई करोड़ का कर्ज दे देती है लेकिन आमलोगों का बैंक अकाउंट खुलवाने का ढोल पीटती है. सामने कंपनी की सरकार है अगर ऐसे में हम सब एक साथ नहीं आएंगे तो टिक नहीं पाएंगे.’ इस प्रदर्शन में जन संगठनों ने जो हुंकार भरी है वो केंद्र सरकार की नीतिओं पर कितना असर डालेगी और यह साझा मंच कब तक एक पूर्ण बहुमत वाली सरकार के सामने टिका रहेगा इसका जवाब जल्द ही मिलने लगेगा. फिर भी इतना साफ है कि सरकार के लिए उस आवाज को, जो गांव की पगडंडी से चलकर देश की संसद के पास तक पहुंची है, अनसुना कर पाना मुश्किल होगा.