आलोचना की रस्म

cultureसन 1980 के बाद बदलते समय में साहित्य का मिजाज भी बदला है और इस बदलाव के चलते रचनाओं ने हमें आश्वस्त भी किया है क्योंकि जो अनजाने लोग थे. उनकी पहचान इस रूप में बनी है कि उनकी कलम ने दस्तक दी. यूं तो 2014 में आकर हमें मिली-जुली साहित्यक आवाजें आज भी सुनाई देती हैं जिन्होंने नए प्रतिमान गढ़े थे. यथार्थ और कला का समीचीन संगम हमारे सामने खुलता जाता है. दूधनाथ सिंह की ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे’ , उदय प्रकाश की ‘तिरिछ’ और चंद्रकिशोर जायसवाल की कहानी ‘नकबेसर कागा ले भागा’ अपनी अलग-अलग छटा में हमें प्रभावित करती हैं तो उपन्यासों में डूब, सूखा बरगद, सात आसमान, कलिकथा वाया बायपास जैसे उपन्यासों को पाठकों ने पढ़ा और सराहा. एक उपन्यास ‘मुझे चांद चाहिए’ अपनी तरह का अनूठा रहा था उन दिनों से आज तक.

मेरी बात यहां आलोचना से संबंधित है, इसलिए कहना चाहूंगी कि रचना के बाद ही आलोचना की भूमिका शुरू होती है. पुराने समय से आजतक आलोचकों के नामों से बनी श्रृंखला में वे ही गण्यमान हो पाते हैं जिन्होंने रचनाओं के लिए वकील की नहीं, जज की भूमिका निभाई है. बेशक अपनी योग्यता और क्षमता के स्तर को निर्धारित किया है. साहित्य में यह मान्यता बनी हुई है कि आलोचक की कृपा पर रचना का उठना और गिरना निर्भर करता है.

मुझे साहित्य जगत में चली आ रही मान्यता पर शक होता है. ‘मुझे चांद चाहिए’ इसका अप्रतिम उदाहरण है. चांद चाहने वाली लड़की (सिलविल) वर्षा वशिष्ठ शाहजहांपुर से निकलकर दिल्ली के नाट्य विद्यालय में आती है और अभिनय की प्रतिभा पर सवार होकर मुंबई की फिल्म नगरी पर छा जाती है. वर्षा वशिष्ठ की इस कथा पर समीक्षक दांतों तले उंगली दबाकर रह गए. उनकी अब तक की प्रिय रही नायिकाओं के छक्के छूटने लगे. आलोचकों के खेमों में खलबली थी कि इस नायिका को किस खांचे में फिट बिठायें? आलोचक तो फिर आलोचक होते हैं. अपनी धुन और जिद के स्वामी, वर्षा वशिष्ठ को नकली स्त्री घोषित कर डाला. यह आलोचना की अवसन्न अवस्था थी. अपने होश में स्त्री चरित्रों को लेकर हमारे समीक्षकों को ‘मित्रो मरजानी’ की मित्रावंती याद थीं जिसने देहभाषा को साहित्य के दरमियान परिभाषित किया. ‘आपका बंटी’ की शकुन भुलाने वाली महिला नहीं है, जिसने पति से तलाक लेने की हिम्मत दिखाई.

‘चितकोबरा’ को भी याद कर लिया गया जिसके यौनिक वर्णन की चर्चा रही. हमारे मन में सवाल यह भी है कि इन नायिकाओं के आचरण को देखकर क्या समीक्षक विचलित नहीं हुए थे? बेशक विचलित हुए थे लेकिन इन्हीं नायिकाओं ने उस विचलन को संभाल लिया क्योंकि उपन्यासों में चरित्रगत विचलन से बचने बचाने की युक्तियां भी नत्थी थीं. मिसाल के तौर पर ‘मित्रो’ का अंतिम चरण में अपनी मां के यहां लौट जाता, शकुन साहिबा का अपने दूसरे विवाह के आगे कंधे डाल देना और चितकोबरा की नायिका का संबंध अपने ही पति से होना.

‘मुझे चांद चाहिए’ की वर्षा वशिष्ठ खुद को निशाने पर रखती है क्योंकि घर-परिवार और समाज की परंपराओं को धो-फींचकर घर की खपरैल पर सूखने डाल जाती है और बिन ब्याही मां बनती है. ‘उफ! चांद चाहने वाली लड़की, तू कहने के लिए नहीं करने के लिए बनी है!’ समीक्षा जगत में अंधेरा सा छा गया. लेकिन साहित्य में किसी कृति को स्थापित या विस्थापित करने के लिए माना गया आलोचक अपनी शक्ति को नापता-मांपता हुआ उठा और वर्षा वशिष्ठ को संघर्ष विहीन, रेड कारपेटिड नायिका घोषित कर डाला. अब यह अलग बात है कि समीक्षक डाल-डाल तो पाठक पात-पात.

क्रूर आलोचकीय असहमतियों के बावजूद उपन्यास के संस्करण दर संस्करण छपते चले गए. और थोड़े ही दिन बाद इसका ठीक उल्टा ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ के साथ हुआ. समीक्षकों के बड़े महान तबके के हिसाब से यह उपन्यास साहित्य जगत की अपूर्व घटना थी लेकिन पाठकों ने इसका जरा-सा भी असर नहीं लिया. राजेंद्र यादव के शब्दों में यह किताब ‘पुस्तकालय संस्करण’ थी.

दो उदाहरण देकर मैं समीक्षकों की समझ पर सवाल खड़े करना नहीं चाहती बल्कि पाठकों के लिए साहित्य का क्या रूप हो या साहित्य से उनका नाता क्या है,   यह दिखाना चाहती हूं. समीक्षा के जरिए किताब आने की सूचना अवश्य मिल जाती है लेकिन वह पाठक भी पैदा करे यह जरूरी नहीं. कई बार तो लगता है कि समीक्षक अरुचिकर किताबों की ओर इशारा करता है जिससे पाठक बिदक सकता है. आलोचक की विश्वसनीयता धूमिल पड़ती है. कारण यह भी है कि वह एक ही विचारधारा से विभिन्न समुदायों और समाजों पर आलोचकीय नतीजे चस्पा करता जाता है. जबकि जरूरी यह है कि वह निष्पक्षता के साथ रचना में आए संदर्भों के बीच से कुछ गुणात्मक खोजने-तलाशने का दायित्व निभाए. और ऐसा हुआ भी है कि रचना को अपने खारिजनामें के बाद कोई सुधी समीक्षक मिला है, जिसने अपनी तर्कबुद्धि से वहां सार्थकता सिद्ध की है. महाश्वेता देवी के लेखन के साथ ऐसा ही गुजरा जब मान्यवर समीक्षकों ने चुप्पी साध ली थी.

ग्राम आधारित रचना हो या सबअल्टर्न अध्ययन का दायरा, दमित वर्ग के बीच आलोचक अपने नजरिए को कुलीनतावाद से नहीं बचा पाता फिर यह दुचित्ती नीति सही-गलत के फैसले पर अपनी प्रमाणिकता कैसे सिद्ध करेगी? इसी तरह स्त्री के लिए आलोचक का रवइया न चाहते हुए भी रह रहकर जब सामंती होने लगता है तब आलोचक के औजारों का पुरानापन बुरी तरह खटकता है. समय बदला कलम बदली, पुरुषों की लेखनी से स्त्री की कथा ने आजादी पायी. यह ख्याल समीक्षकों के जेहन में रहे तो कुछ नया हो. यह नया ही तो हुआ है कि जिन ग्रामीण स्त्रियों के बारे में लिखकर पुरुष लेखक अपने लेखन को समग्रता की सार्थकता से सजा लेते थे, वह बंट गया है.

मगर आलोचक फतवा जारी करने से नहीं हिचकते, ‘गांव की कोई युवती बिना बलात्कार हुए गर्भवती हो जाए और उत्पीड़ित न हो तो उसकी विद्रोही मुद्रा का तर्क क्या है? विवाह संस्था के बाहर रहकर गर्भधारण का अधिकार उसे नहीं. दूसरी स्त्री पति-पुत्र-सास-ससुर के भरे-पूरे संयुक्त परिवार में रहते हुए प्रेम का अधिकार चाहती है- यह देह राग ही है. ये पात्र यौन संबंधों के शरणागत हैं. आर्थिक मुक्ति की चाह से मुक्त.’ इस टिप्पणी पर सवाल उठता है कि बलात्कार होना चाहिए. तभी बिन पति की स्त्री के गर्भ को क्षमा किया जाएगा? विधवा स्त्री  की अपनी इच्छा से हुआ शिशु सामाजिक अपराध रहा है तो क्या अब भी रहेगा? वैसे लोग गर्भवती विधवा के उत्पीड़न में कोई कोर-कसर नहीं उठा रखते. क्या स्त्री का प्रेम देह राग ही होता है? कितनी उथली समझदारी है कि प्रेम राग को देह राग का फतवा देना? संदर्भों को खोलने की बजाय संदर्भों को काटने के उपक्रम को हम स्वस्थ समीक्षा कहेंगे क्या? समीक्षकों की सूचना के लिए है यह कि किसान स्त्रियां दिहाड़ी पर काम नहीं किया करतीं और न वे महिने की पगार पर अपना श्रम बेचती हैं. उनका प्राप्य कागज के नोट नहीं, खेतों की फसलें होती हैं. और घर के द्वार पर बंधे गाय-भैंस जैसे जानवर उनकी पूंजी होते हैं. आज उनकी आर्थिक मुक्ति के साधन यही हैं, हक के साथ. इस बात पर आलोचक गौर करें या न करें, गांव कस्बों के पाठक अच्छी तरह समझ लेते हैं. इसी पाठकीय समझ पर आलोचकों की धोबी पछाड़ों के बावजूद ग्राम केंद्रित साहित्य अपनी पैठ बनाता जाता है.

यह भी सोचने का विषय है कि जो लेखक समाज की विद्रूपताओं से भीषण संघर्ष करता हुआ इबारत रचता है, घटाटोप अंधेरों को चीरकर उजाले की राह बनाता है, वह आलोचक के सामने कंधे क्यों डाल देता है? केवल इसलिए कि उसे आलोचक की मेहरबानी चाहिए? कैसी खाम ख्याली है यह भी. पिछले दिनों का वाकया मुझे ही नहीं बहुत से लोगों को याद होगा जब एक युवा लेखिका की रचना को किस-किस आलोचक ने अपनी कलम कृपा से धन्य-धन्य नहीं किया था. राजेंद्र यादव के साथ वयोवृद्ध समीक्षकों के बयान नत्थी थे. किताब श्री नामवर जी के लिखित वक्त्व्य से सजाकर भव्य समारोह में रखी गई थी. तीन-तीन लोकार्पण हुए, बला लोग दिल खोलकर बोले, लेकिन अब उस किताब का अता-पता कहां हैं? हम बधाई देते तब तक तो सब कुछ खत्म हो गया. यह उदाहरण है गैर जिम्मेदार समीक्षा का.

साहित्य में यह गोरखधंधा है. देखा यह भी गया है कि समीक्षक जब-जब कमजोर पडे़गा वह लेखक के लिए दहशत पैदा करने लगेगा. तब हमें निराला और रेणु के तेवर अपनाने होंगे जिन्होंने साहित्य को किसी का निजी किला या गढ़ नहीं माना. हमें यह भी जानना होगा कि ऐसे किले और गढ़ों से जो ऐलान आते हैं वे या तो लेखक को सूली पर चढ़ा देते हैं या पोदीने के पेड़ पर.

कहीं ऐसा तो नहीं कि हमारी वरिष्ठ विदुषी लेखिकाएं इसी दहशत के हवाले होकर झिझकती ठिठकती रही हों. हौसला करके निकलीं और तौबा-तौबा करके लौटीं. राजेंद्र यादव ने लिखा है, ‘उपन्यासों की प्रबुद्ध सुशिक्षित विचारवान और व्यक्तित्व सम्पन्न नायिकाएं उसी परम्परागत बलिदान और त्याग के रास्ते का वरण करती हैं, मानो ‘नारी मुक्ति’ के आंदोलनों को मुंह चिढ़ाती हुई वे उन्हें नकारने के लिए ठीक उलटी दिशा में चल पड़ती हैं. एक शहीदी ‘संकल्प दृढ़ता’ के साथ घुटन और पुराने मूल्यों के चुनाव को कहा जा रहा है, नई नारी की अपनी चेतना.’

समीक्षा के जरिए किताब आने की सूचना मिल जाती है लेकिन वह पाठक भी पैदा करे यह जरूरी नहीं. कई बार समीक्षक अरुचिकर किताबों की ओर इशारा करता है

औरत की साहसिक कर्मशीलता को झेलने का दमखम परिवार में नहीं होता लेकिन क्या समीक्षक भी पारिवाकि रुग्ण मानसिकता का पक्षधर हो जाता है? बस यही देखकर तकलीफ होती है. क्या समीक्षक मेरे इस मत से सहमत होंगे कि संघर्ष छोड़कर लौट जाना ही था तो संषर्ष का अर्थ क्या रहा? इस सवाल को दरकिनार करते हुए सन 1990 से पहले और कुछ बाद की साहित्यक नायिकाएं अपनी लेखिकाओं के हाथ लौट जाने के लिए  अभिशप्त रहीं. इन रचनाकारों पर कौन से कहे-अनकहे दबाव थे? मशहूर कृति ‘मित्रों मरजानी’ की मितरावंती की बेबाक आवाज की टंकार कर्मभूमि पर उतरते ही अवरुद्ध क्यों हो गई? जंग की जमीन से पांव उखड़कर मायके की ओर मुड़ गए. लगभग क्षमायाचना के साथ यह लौटना कि जो कुछ बोला-झांसा वह तो एक वेश्या की बेटी (मित्रो) के बोल वचन थे. कुलीन लोगों का इससे क्या लेना देना. यही हाल ‘आपका बंटी’ उपन्यास का रहा. तलाकनामा पेश करने वाली बहादुर नायिका शकुन आर्थिक स्वावलम्बिनी भी रही, ओहदा भी शानदार था प्रिंसीपल साहिबा का. मगर विवाह संस्था ने उस स्त्री को दोबारा अपने दलदल में घसीट लिया. दूसरे पति के साथ रहे या बंटी को लेकर चली जाए? इस दुविधा में शकुन ने पति का घर चुना. बंटी के साथ अपना स्वाभिमान भी त्याग दिया. स्त्री के लिए जैसे विवाह की समस्या, सुख-सुविधा का रूप हो. कई उपन्यास इन्ही गुत्थियों में उलझ कर बदलाव के फैसले नहीं दे सके. मगर इन कथा रचनाओं में समीक्षकों की भरपूर प्रशंसा का दबाव रचनाकार पर सबसे बड़ा बोझ होता है. ऐसे दबावों से जब तक मुक्ति नहीं मिलेगी तब तक स्त्री भी मुक्त नहीं हो सकेगी.

आज तो ऐसी तमाम रचनाओं के पुनर्पाठ की जरूरत है जो समीक्षा/ आलोचना के गलत निर्णयों के नीचे दबी पड़ी हैं. पुनर्पाठ के जरिए ही हम जानेंगे कि जिस घटना को हमने उत्सर्ग, त्याग और बलिदान माना है, वह पितृसत्ता की खुशी के लिए की गई आत्महत्याएं और हत्याएं थीं, राजा-महाराजाओं के लिए वफादारी थी या खालिस गुलामी? प्रेम के अधिकार पर सदा स्त्री को कंगाल रखा गया या तबाह किया गया?