Home Blog Page 1375

कनहर कथा

kanhar_sammelan

कई बार सच्चाई कहानियों से ज्यादा फैंटेसी समेटे होती है. कनहर बांध परियोजना भी ऐसी ही सच्चाई है. इस सच्चाई के एक छोर पर अधर में लटकी एक बांध परियोजना है और दूसरे छोर पर एक लाख के करीब आदिवासी ग्रामीण आबादी है. यह बांध परियोजना उत्तर प्रदेश के सोनभद्र जिले में बहने वाली कनहर नदी पर प्रस्तावित है. आज नए सिरे से यह परियोजना गांव, जंगल और पहाड़ के लिए डूब का संदेश लेकर आई है.

कनहर सोन की सहायक नदी है. सोनभद्र जिला उत्तर प्रदेश का सबसे बड़ा जिला है, इसका क्षेत्रफल 6788 वर्ग किलोमीटर है जिसका 3792.86 वर्ग किलोमीटर इलाका जंगल से घिरा है. सोनभद्र की सीमाएं उत्तर पूर्व में बिहार से, पूर्व में झारखंड से, दक्षिण में छत्तीसगढ़ और पश्चिम में मध्यप्रदेश तथा उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर तथा चंदौली जिलों से मिलती है. सोनभद्र  की 70 फीसदी आबादी आदिवासी है जिसमें गोंड, करवार, पन्निका, भुईयां, बइगा, चेरों, घासिया, धरकार और धौनार आते हैं. अधिकतर ग्रामीण आदिवासी अपनी जीविका के लिए जंगलों पर निर्भर हैं, वे जंगल से तेंदूपत्ता, शहद, सूखी लकड़ियां और जड़ी-बूटियां इकट्ठा कर उन्हें बाजार में बेचते हैं. कुछ के पास छोटी जोतें भी हैं जो ज्यादातर चावल और कभी-कभी सब्जियां पैदा करते हैं. इस इलाके में रहने वाले बहुत से आदिवासियों को रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट के अनुच्छेद 4 तथा अनुच्छेद 20 ने उनकी जमीन और वनाधिकार से वंचित कर रखा है. रिजर्व फॉरेस्ट एक्ट की वजह से बहुत से लोगों पर फर्जी मुकदमे लाद दिए गए हैं. यह कहानी एक अलग रिपोर्ट की मांग करती है.

सोनभद्र जिला भारत के विकास के उस मॉडल का शिकार है जिसे आजादी के बाद अपनाया गया. पूरा सोनभद्र औद्योगिक प्रदूषण और विस्थापन की मार से दो-चार है. अध्ययन बताते हैं कि सोनभद्र का पानी जहरीला हो चुका है और हवा प्रदूषित. इसी सोनभद्र में विस्थापन की एक नई कहानी लिखने की तैयारी कर रहा है कनहर बांध. कनहर बहुद्देशीय परियोजना की कहानी शुरू होती है छह जनवरी 1976 से जब उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने इस परियोजना का शिलान्यास किया था. कनहर नदी पर बनने वाली इस परियोजना का असर उत्तर प्रदेश के सोनभद्र, छत्तीसगढ़ के सरगुजा और झारखंड के गढ़वा जिले पर पड़ना था. एक अनुमान के मुताबिक तैयार होने के बाद इसका जलक्षेत्र 2000 वर्ग किलोमीटर का होगा और तीन राज्यों के करीब 80 गांव इसके प्रभाव क्षेत्र में आएंगे. इसी अनुमान के मुताबिक तकरीबन एक लाख ग्रामीण-आदिवासी आबादी हमेशा के लिए अपनी पुश्तैनी जमीनों से उजड़ जाएगी.

कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितंबर 1976 में केंद्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारंभिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आंकी गई. 1979 में इसे 55 करोड़ रुपये के साथ नए सिरे से तकनीकी अनुमति मिली. मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ), बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच पानी और डूब क्षेत्र को लेकर चलने वाले विवाद को नजरंदाज करके परियोजना को अनुमति दी गई और अंततः उसकी लागत 69 करोड़ रुपये बताई गई. तीनों ही प्रदेशों के पर्यावरण मंत्रालयों ने इस इलाके में होने वाले भयानक नुकसान की आशंका को नजरंदाज किया और कोई भी ऐसा विस्तृत सर्वेक्षण नहीं किया जो परियोजना द्वारा पर्यावरण और आबादी पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों का ठीक-ठाक आकलन करता हो. एक शुरुआती अध्ययन के अनुसार यह अनुमान लगाया गया कि तकरीबन एक लाख पेड़, 2500 कच्चे घर, 200 पक्के घर, 500 कुएं, करीब 30 स्कूल और कुछ अन्य इमारतें डूब क्षेत्र में आएंगी. आज यह आकंड़े और बढ़ गए होंगे. इस बांध परियोजना से होने वाले विस्थापन के विरुद्ध शुरू हुए कनहर बचाओ आंदोलन के सक्रिय आदिवासी नेता विश्वनाथ खरवार बताते हैं कि परियोजना के शिलान्यास के बाद एक एकड़ का 22 सौ रुपये की दर से मुआवजा दिया गया था. लेकिन जैसा कि दावा किया गया था जमीन के बदले जमीन किसी को नहीं दी गई. परियोजना पर जो भी थोड़ा बहुत काम हुआ उसमें बाहर से मजदूर बुलाए गए और स्थानीय लोगों को मजदूर के लायक भी नहीं समझा गया.

कनहर बहुद्देशीय परियोजना को सितंबर 1976 में केंद्रीय जल आयोग की अनुमति मिली और इसकी प्रारंभिक अनुमानित लागत 27 करोड़ रुपये आंकी गई

1976 में पहले शिलान्यास के बाद साल दर साल कनहर की कहानी नाटकीय होती गई. नियमित अंतराल के बाद काम शुरू होता, फिर बंद हो जाता. यहां कभी भी लगातार काम नहीं चला. सिंचाई विभाग और लोक निर्माण विभाग के दस्तावेज देखने पर पता चलता है कि पैसे का खर्च लगातार दिखाया जाता रहा. 1984 में काम रुक गया और सूत्र यह बताते हैं कि उसका पैसा दिल्ली में होने वाले एशियाई खेलों की तरफ स्थानांतरित कर दिया गया. 1989 में पुन: काम शुरू हुआ और 16 परिवार उजाड़ दिए गए. इसके बाद दो दशक से ज्यादा या तो काम बंद रहा या छिटपुट कामकाज होता रहा. कनहर बांध की साइट पर जाकर देखा जा सकता है कि करोड़ों रुपये के यंत्र यूं ही धूप-धूल और मिट्टी में बर्बाद हो रहे हैं. लेकिन इस नाटक में कई और मोड़ आने बाकी थे. इस रुकी हुई परियोजना के लिए एक नया शिलान्यास उत्तर प्रदेश की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती ने 15 जनवरी 2011 को किया. काम फिर भी शुरू नहीं हो सका. कनहर बांध के स्पिल वे का निर्माण कार्य शुरू करने के लिए एक नया शिलान्यास सिंचाई एवं बाढ़ नियंत्रण मंत्री शिवपाल सिंह यादव द्वारा सात नवंबर 2012 को हुआ. शिलान्यास दर शिलान्यास चलता रहता है  लेकिन काम शुरू नहीं होता और गांव वालों के सिर पर तलवार हमेशा लटकती रहती है. बजट बनता है, पैसा खर्च होता है और लोग अर्ध विस्थापन में जीने को बाध्य रहते हैं.

इस हाल से तंग आकर ग्राम स्वराज समिति की पहलकदमी पर आदिवासी किसानों ने सन 2000 में कनहर बचाओ आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन का उद्देश्य था कनहर बांध से होने वाले पर्यावरण विनाश और विस्थापन के खिलाफ व्यापक जनगोलबंदी करना. कनहर बचाओ आंदोलन के जरिए ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध को नकार दिया. ग्राम स्वराज समिति के संयोजक वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता महेषानंद कहते हैं, ‘सन 1976 में शुरू की गई यह परियोजना 1984 में परित्यक्त कर दी गई. आज 30 साल बाद बिना किसी नई अनुमति या अध्ययन के उसे फिर से शुरू करने का क्या औचित्य है? यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि परियोजना के आरंभ होने से पहले सरकार ने अधिसूचना जारी कर भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया शुरू की थी किंतु 1984 में योजना के परित्यक्त हो जाने के बाद अधिग्रहण की प्रक्रिया स्वतः ही समाप्त हो जाती है.’

केवल इतना ही नहीं बल्कि अधिग्रहित जमीनों पर उसके मालिक ही काबिज रहे. वह इस जमीन पर खेती करते रहे और उसका कर्ज भरते रहे और कुछ लोगों ने इस जमीन के आधार पर कर्ज भी लिया. इस सबका रिकॉर्ड राजस्व विभाग की फाइलों में दर्ज है. यानी अधिग्रहण के बाद भी जमीन की मिल्कियत किसानों के पास ही रही. इस संबंध में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि यदि भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया किसी कारण से समाप्त हो जाती है तो चाहे उस व्यक्ति ने मुआवजा ले भी रखा हो तो भी भूमि अधिग्रहण कानून 1894 की धारा 48 (3) के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति की जो मानसिक व आर्थिक क्षति पहुंची है इसके लिए सरकार उसे मुआवजा देने के लिए बाध्य है. इन्हीं सब आधारों पर डूब क्षेत्र में आने वाली सोनभद्र की सभी ग्राम सभाओं ने कनहर बांध के विरोध में पहले ही प्रस्ताव पारित कर रखा है. इन सभी ग्राम सभाओं ने अपने प्रधानों के माध्यम से इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका (697043/2011) भी दायर कर रखी है.

कनहर बचाओ आंदोलन से जुड़े पीयूसीएल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं वरिष्ठ अधिवक्ता रवि किरन जैन कहते हैं, ‘कनहर बांध सिर्फ गैर कानूनी ही नहीं बल्कि असंवैधानिक भी है. 73वें संविधान संशोधन के बाद अब ग्राम सभाएं उतनी ही महत्वपूर्ण संस्थाएं बन गई हैं जितनी की संसद या विधानसभाएं हैं. यानी कनहर क्षेत्र में भूमि सुधार, खेती के विकास या सिंचाई से संबंधित योजनाएं अगर बननी हैं तो यह ग्राम सभाओं के अधिकार क्षेत्र में हैं. ये योजनाएं अब ग्राम सभाएं बनाएंगी न कि केंद्र या राज्य सरकार उन पर लादेंगी. वास्तविकता यह है कि प्रभावित होने वाले गांव की ग्राम सभाओं ने सर्वसम्मति से बांध को नकार दिया है. उत्तर प्रदेश सरकार को नियामगिरी के अनुभव से सबक लेना चाहिए.’ इस लिहाज से देखा जाय तो यह परियोजना गांव के संवैधानिक आधिकारों को चुनौती देना है. केवल इतना ही नहीं है इन क्षेत्रों में लगातार पंचायत चुनाव होते रहे हैं. पंचायतें निर्माण एवं विकास कार्य करती रही हैं और यहां मनरेगा जैसी योजनाएं भी लागू हैं.

इन स्थितियों को नजरअंदाज करके स्थानीय प्रशासन ने विधायक रुबी प्रसाद की अध्यक्षता में पुनर्वास एवं पुनर्स्थापना के मसले पर ग्रामीणों की सभा बुलाई. 16 जून 2014 को आयोजित इस सभा में हजारों लोग मौजूद थे. मंच पर आकर सभी ग्रामीण आदिवासियों ने कनहर बांध के विरोध में बात रखी. यहां वक्ताओं में वे ग्राम प्रधान भी मौजूद थे जिन्होंने बांध के विरोध में प्रस्ताव पारित कर रखा है. अंत में मुख्यमंत्री को संबोधित एक ज्ञापन भी प्रशासन को सौंपा गया, लेकिन जब इस सभा की कार्यवाही की रपट प्रधानों के पास पहुंची तो वे चकित रह गए. इसमें सिर्फ सरकारी अधिकारी एवं विधायक के वक्तव्य थे. जनता के विरोध को उसमें जगह ही नहीं दी गई थी. इससे पता चलता है कि प्रशासन एवं सरकार एक कृत्रिम सहमति बनाने की कोशिश कर रही है.

फिलहाल सोनभद्र में टकराव की स्थिति है. प्रशासन अभी कुछ कहना नहीं चाहता. कनहर बचाओ आंदोलन की ओर से कई जगह परियोजना प्रस्ताव की प्रतियां जलाने का कार्यक्रम प्रस्तावित किया गया है. कहनर बांध की कहानी जारी है. तीन शिलान्यास, करोड़ों रुपये, विस्थापन की आशंका और सोनभद्र का पहले से ही घबराया हुआ पर्यावरण अपनी जगह कायम है. वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता ओडी सिंह कहते हैं कि इस परियोजना की अगर कायदे से जांच हो तो एक बहुत बड़ा आर्थिक घोटाला सामने आ सकता है.

महाराष्ट्र: घोटालों की पाठशाला

फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल

एक भव्य इमारत के सामने फैली हरी घासवाले मैदान में गुलाबी और नीले रंग की स्कूली ड्रेस पहने कुछ बच्चे  खेल रहे हैं. इमारत पर लिखा है ‘शासकीय प्राथमिक व माध्यमिक आश्रमशाला’. यह चित्र महाराष्ट्र के आदिवासी विकास विभाग की सूचना पुस्तिका का मुखपृष्ठ है. इस पुस्तिका के माध्यम से हमें एक आदर्श आश्रमशाला का परिचय मिलता है. लेकिन महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में चल रही इन आश्रमशालाओं की जमीनी हकीकत सूचना पुस्तिका के मुख्यपृष्ठ से एकदम परे है. साल 2001 से 2013 के दौरान इन आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की जान जा चुकी है, कुछ की मामूली तबीयत ख़राब होने से और कुछ की सांप-बिच्छू के काटने से. हर बार इन आदिवासी बच्चों की मृत्यु का मुख्य कारण आश्रमशालाओं में बुनियादी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी को बताया जाता है. आदिवासियों के हित की लड़ाई लड़ने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं का कहना है कि सालाना 300 करोड़ रुपये का बजट होने के बावजूद भी आदिवासी बच्चों के लिए बनी इन आवासीय आश्रमशालाओं की हालत जर्जर है. स्कूल इमारतों की खस्ता हालत, घटिया स्तर का भोजन और यौन शोषण की घटनाएं यहां रोजमर्रा का किस्सा बन चुकी हैं.

जुलाई 2012 में गोंदिया जिले के मक्कड़घोड़ा क्षेत्र की एक आश्रमशाला में जमीन पर सो रहे छह बच्चों को सांप ने काट लिया. इनमें से दो बच्चों की मौत हो गई. शाला में पलंगों की कमी के चलते ये बच्चे जमीन पर सोने को मजबूर थे. इस आश्रमशाला की कुल क्षमता 384 है, इनमें से 150 बच्चे पलंगों के आभाव में जमीन पर सोते हैं.

दिसंबर 2012 में नासिक जिले की एक आश्रमशाला के प्रांगण में एक 18 वर्षीय आदिवासी बालिका के सामूहिक बलात्कार का मामला सामने आया था, जिसके बाद शाला में कार्यरत अधीक्षक समेत 15 लोगों को निलंबित कर दिया गया था. ये सभी 15 आरोपित कर्मचारी ड्यूटी के वक्त आश्रमशाला से नदारद थे, जबकि नियमों के अनुसार बच्चों की सुरक्षा के लिहाज से अधीक्षक को स्थायी रूप से आश्रमशाला में रहना चाहिए.

जनवरी 2009 में पालघर जिले के गोवडे नामक गांव की एक आश्रमशाला में 15 वर्षीय बालिका के गर्भवती होने का मामला उजागर हुआ था. बाद में पता चला कि शाला अधीक्षक ने आदिवासी छात्रा की पारिवारिक समस्याओं को सुलझाने का लालच देकर उसका यौन शोषण किया था.

इन आश्रमशालाओं की वास्तविकता से रूबरू होने के लिए तहलका ने महाराष्ट्र के आदिवासी बहुल नंदुरबार जिले का दौरा किया. आदिवासी जनसंख्या के हिसाब से नंदुरबार महाराष्ट्र का सबसे बड़ा जिला है, यहां की 70 फीसदी आबादी आदिवासी है, इस जिले में भील, तडवी और पावरा समुदाय के आदिवासियों की बहुलता है.

सतपुड़ा पर्वत श्रृंखला के बीच स्थित अक्कलकुवा तहसील के दहेल गांव की एक आश्रमशाला का नजारा विचित्र था. 14 नवंबर की सुबह करीब साढ़े दस बजे 12 साल की दो लड़कियां उस झोपड़ीनुमा इमारत के एक कमरे के फर्श पर झाड़ू लगा रही थीं. लगभग 350 वर्ग फीट के कमरे के कोनों में लोहे के छोटे बक्से पड़े हुए थे, दीवारों पर दो ब्लैकबोर्ड लगे हुए थे. कमरे की बाहरी दीवार पर प्रदेश और जिले के नक्शे के साथ साथ हिन्दू देवी सरस्वती का धूमिल सा चित्र टंगा हुआ था,  और कमरे के दरवाजे के ठीक ऊपर आदिवासी विकास विभाग का लोगों देखा जा सकता था. ठीक सामने की झोपड़ी के बाहर छोटी उम्र के कुछ लड़के फटे, मैले ,बदरंग कपड़ो में, जो कि स्कूल का यूनिफार्म था,  बैठे हुए दिखते है. वे आपस में कुछ बातचीत कर रहे थे. पास ही की झोपड़ी में 5-6 नौजवान एक चारपायी पर बैठे हुए थे. निरक्षरता के मामले में पूरे महाराष्ट्र में अक्कलकुवा पहले स्थान पर है. चारपायी पर बैठे नौजवानों में से एक ने अपना परिचय देते हुए कहा, ‘मेरा नाम राम्या वसावे है. मैं यहां पर अस्थायी शिक्षक की हैसियत से काम करता हूं.’ वे आगे बताते हैं,’हम लोग प्रधानाध्यापक का इंतजार कर रहे हैं, उनके आने के बाद हम बाल दिवस मनायेंगे.’

फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल

वसावे बताते हैं कि दहेल आश्रमशाला में 340 आदिवासी छात्र रहते और पढ़ते हैं.यहां पहली से सातवीं तक की कक्षाएं लगती हैं. 340 विद्यार्थियों में से 280 विद्यार्थी यहीं रहते हैं और बाकी गांव में रहते हैं. उन्होंने बताया, ‘लड़के और लड़कियों के लिए अलग-अलग रहने की व्यवस्था है, बच्चों के रहने के लिए यहां तीन भवन हैं. इनमें से 190 लड़कियां हैं जो दो भवनों में रहती हैं, बाकी बचे हुए एक भवन में  90 लड़के रहते हैं.’

साल 2001 से 2013 के दौरान इन आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की जान जा चुकी है, कुछ की मामूली तबीयत खराब होने से और कइयों की सांप-बिच्छू के काटने से

दहेल की इस आश्रमशाला के भूगोल को समझा जाए तो कुल चार झोपड़ियां नजर आती हैं. इनमें से तीन को स्कूल और बोर्डिंग दोनों के लिए इस्तेमाल किया जाता है और बची हुई एक झोपड़ी में विद्यार्थियों के लिए भोजन बनाया जाता है. सबसे बड़ी झोपड़ी में तीन कमरे हैं, इनमें से एक कमरे में कक्षाएं भी लगती है और विद्यार्थी भी रहते हैं और बाकी दो कमरों का उपयोग दफ्तर और भंडारगृह के रूप में होता है. गौरतलब है कि 280 बच्चों के लिए आश्रमशाला में 350 वर्ग फीट के पांच कमरे हैं, जिसका मतलब छह से 14 साल के करीबन 50-60 बच्चों को 350 वर्ग फीट के एक कमरे में रखा जाता है. यह हालत सिर्फ दहेल की आश्रमशाला की ही नहीं बल्कि प्रदेश भर की ज्यादातर आश्रमशालाओं की यही दुर्दशा है.

आदिवासी विकास विभाग के नियमों के अनुसार एक आश्रमशाला में भलीभांति निर्मित एक भवन होना चाहिए जिसका विद्यालय और विद्यार्थी आवास के तौर पर इस्तेमाल किया जा सके. एक कंप्यूटर सेंटर होना चाहिए, एक प्रधानाध्यापक और अधीक्षक समेत विभिन्न विषयों के लिए विशेष शिक्षक होने चाहिए. बच्चों को नियमित रूप से अंडे, दूध, फल, सब्जी, रोटी, चावल, दाल युक्त पौष्टिक आहार मिलना चाहिए. स्वास्थ्य संबंधित सेवाएं मिलनी चाहिए, हर तीन महीने में चिकित्सकीय जांच होनी चाहिए. स्कूल यूनिफॉर्म, किताबें, सोने के लिए गद्दे, चादरें, छात्र-छात्राओं के रहने के लिए अलग-अलग आवासीय परिसर होना चाहिए. अलग शौचालय इत्यादि जैसी व्यवस्थाएं होना अनिवार्य हैं.

लेकिन दहेल की आश्रमशाला में बिजली और पानी जैसी बुनियादी व्यवस्था तक नहीं है, अलग शौचालय और कंप्यूटर सेंटर तो बहुत दूर की बात है. इस आश्रमशाला में अगर कुछ है तो वह कुछ अंधियारे कमरे जहां स्टील के बक्से पड़े हैं. इनमें यहां रहने वाले आदिवासी बच्चे अपना सामान रखते हैं, कुछ ब्लैक बोर्ड्स हैं और मुश्किल से तीन-चार फीट लम्बे रेक्सिन के कवर से बने कुछ तकियेनुमा गद्दे जिनका इस्तेमाल यहां के बच्चे बिस्तर के रूप में करते हैं.

आश्रमशालाएं बिजली-पानी की बुनियादी सुविधाओं से वंचित हैं, अलग शौचालय और कंप्यूटर तो दूर की बात है. बच्चे सीलन भरे अंधियारे कमरों में रहने को मजबूर हैं

फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल

जब यहां पढ़ने वाले बच्चों से बात की गई तो समझ में आया की इन बच्चों के भोजन पर जो लाखों रुपये खर्च हो रहे हैं वह सिर्फ सरकारी फाइलों तक ही सीमित हैं, क्योंकि यहां रह रहे बच्चों को ढंग से तीन वक्त का खाना भी नसीब नहीं होता है. 13 साल की कपिल (बदला हुआ नाम), जो की सातवीं कक्षा में पढ़ती हैं, झिझकते हुए कहती हैं, ‘हमें सुबह सात बजे नाश्ता मिलता है, दस बजे दोपहर का खाना और शाम को छह बजे रात का खाना मिलता है, इसके बाद हमें कुछ नहीं दिया जाता, तीनों समय हमें पोहा और खिचड़ी दिया जाता है.” जब उससे पूछा गया कि क्या उन्हें यहां दूध या चाय दी जाती है तो वह सीधे न में जवाब देती है.

छठवी कक्षा में पढ़ रहीं 12 वर्षीय सुनीता (बदला हुआ नाम) कहती हैं , ‘यहां स्नानघर और शौचालय की कोई व्यवस्था नहीं हैं, हम सभी को नहाने या शौच के लिए नदी पर जाना पड़ता है.’ दहेल की इस आश्रमशाला में शौचालय के नाम पर बिना छत की , ईंट की दो दीवारें खड़ी हैं.

जब दोनों छात्राओं से पूछा गया कि क्या वे बाल दिवस मनाएंगी, तो दोनों ने गर्दन हिलाते हुए न में इशारा किया.

आश्रमशालाओं का सालाना बजट 300 करोड़ का है लेकिन इस बजट का एक-तिहाई हिस्सा ही इनकी देखरेख पर खर्च होता है, बाकी नई आश्रमशालाओं के निर्माण में खर्च हो रहा है

कुछ और बच्चों से बातचीत करने पर पता चलता है कि आश्रमशाला में स्वास्थ्य सुविधा जैसी को सुविधा उपलब्ध नहीं हैं. बच्चों की नियमित तौर पर होने वाली अनिवार्य चिकत्सकीय जांच भी कभी नहीं होती है. और इन सबसे हटकर जब विद्यालय के मुख्य मकसद यानी पढ़ाई-लिखाई पर बात की गई तो एक और कड़वी हकीकत से सामना हुआ. छात्रों ने बताया कि प्रधानाध्यापक पिछले एक महीने से आश्रमशाला नहीं आये हैं और अधीक्षक सुबह आकर शाम को अपने घर लौट जाते हैं. गौरतलब है कि, नियमों के अनुसार आश्रमशालाओं में कार्यरत अधीक्षक को आश्रमशाला में प्रवास करना चाहिए. बच्चों की देखभाल और उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी अधीक्षक पर होती है.

इस बात की पुष्टि वहां मौजूद कुछ दूसरे शिक्षकों से करने की कोशिश की गई तो उन्होंने दबी जुबान में स्वीकार किया, ‘यह बात सही है कि प्रधानाध्यापक नहीं आ रहे हैं और अधीक्षक अपने घर चले जाते हैं, लेकिन हम उन्हें कुछ नहीं बोल सकते. हम तो दैनिक वेतन पर हैं 56 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से हमें पैसे मिलते हैं. वे लोग तो स्थायी कर्मचारी हैं उनकी तनख्वाह 35,000 रुपये से ऊपर है. वे हमें कभी भी बाहर का रास्ता दिखा सकते हैं.’

जब उनसे पूछा गया कि अधीक्षक की गैर मौजूदगी में रात को बच्चों का ध्यान कौन रखता है, तब एक शिक्षक ने नाम ना बताने की शर्त पर कहा, ‘अधीक्षक ने मेहनताने पर एक चौकीदार रखा है जो रात को आश्रमशाला में रहता है.’

दहेल आश्रमशाला में बच्चों के लिए भोजन बनाने वाली आशा वलवी शिकायत करती हैं, ‘जून में हमारी नियुक्ति के बाद से ही हमें तनख्वाह नहीं मिली है, न ही हमें यह बताया गया कि कितने पैसे मिलेंगे, पता नहीं अब कब तनख्वाह मिलेगी.’

क्षेत्र की बाकी आश्रमशालाएं भी इसी तरह की दुर्दशा की शिकार हैं. सरी गांव की आश्रमशाला का जायजा लेते वक्त जब वहां के प्रधानाध्यापक केपी तड़वी से बातचीत करने की कोशिश की गई तो वे उत्तेजित होकर बोले, ‘न यहां पानी है, न बिजली है. पानी पीने के लिए भी बच्चों को एक किलोमीटर दूर जाना पड़ता है. पहाड़ पर बनी सडकों की हालत भी जर्जर है. नेता भी यहां तभी आते हैं जब उन्हें आदिवासियों के वोटों की जरूरत पड़ती है. मैं खुद भी आदिवासी हूं, बचपन से यहीं हूं पर आज तक कुछ भी अच्छा नहीं हुआ ऊपर से हमारे ऊपर लांछन लगा दिया जाता है कि  हम नक्सल हैं.’

सरी स्थित आश्रमशाला में 400 आदिवासी बच्चे पढ़ते हैं, यहां पहली से दसवी तक कक्षाएं लगती हैं. ये बच्चे भी बिना किसी सुविधा के इस आश्रमशाला के छोटे और गंदे कमरो में रहते हैं. सरी आश्रमशाला की अधीक्षक अनीता वसावे बताती हैं, ‘बरसात के समय यहां की स्थिति और भी खराब हो जाती है, छत से पानी टपकता रहता है, बिजली नहीं रहती. इसके चलते विद्यार्थियों और शिक्षकों को भारी मुसीबत का सामना करना पड़ता है. मानसून के बाद बिजली तो आती है लेकिन 15 दिन में एक बार.

आश्रमशालाओं में शौचालयों के अभाव के चलते जब लड़कियां नहाने के लिए नदियों पर जाती हैं तो गांव के मनचले उन्हें अक्सर परेशान करते हैं

फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल

वे कहती हैं, ‘यहां बाथरूम-टॉयलेट कुछ नहीं है. लड़की-लड़के सभी को नहाने इत्यादि के लिए नदी पर जाना पड़ता है. यह बेहद असुरक्षित तरीका है लेकिन क्या कर सकते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है.’

पिछले आठ वर्षों से यहां काम कर रहे एक अस्थायी कर्मचारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘मोटी तनख्वाह मिलने के बावजूद भी स्थायी कर्मचारी ड्यूटी पर नहीं आते, कानूनन उन्हें तीन साल तक एक आश्रमशाला में काम करना पड़ता है, लेकिन वह एक-डेढ़ साल काम करके यहां से निकल जाते हैं. इन शिक्षकों का इस तरह का रवैया बच्चों की पढ़ाई के लिए बहुत नुकसानदेह है.’

गौरतलब है कि आश्रमशाला में कार्यरत स्थायी शिक्षकों को 35,000 से 56,000 रुपये प्रति माह तक वेतन मिलता है, वहीं दूसरी ओर अस्थायी शिक्षकों को एक दिहाड़ी मजदूर की तरह घंटे के हिसाब से वेतन दिया जाता है, इन शिक्षकों को 56 रुपये प्रति घंटे के

हिसाब से पैसे मिलते हैं और आम तौर पर ये अस्थायी शिक्षक पांच घण्टे काम करते हैं.

मोलगी गांव की पश्चिम खानदेश भील सेवा मंडल प्राथमिक व माध्यमिक आश्रमशाला का दफ्तर तो अच्छा नजर आता है, यहां पर बच्चों की संख्या 504 है, एक कंप्यूटर सेंटर भी है लेकिन बच्चों के रहने की व्यवस्था यहां भी दहेल और सरी की तरह ही दयनीय है. सरकारी सहायता प्राप्त यह आश्रमशाला इलाके के प्रभावशाली नेता सुहास नटावडकर के निजी ट्रस्ट द्वारा संचालित होती है. यहां के प्रधानाध्यापक वीएच चौधरी ने बताया कि उन्हें सरकार से सालाना 33 लाख रुपये की आर्थिक मदद मिलती है, यह बेहद कम है. वे कहते हैं, ‘आश्रमशाला को सुचारु रूप से चलाने के लिए और पैसे की जरुरत है.’ जब उनसे आश्रमशाला की दयनीय अवस्था के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘नए भवन का निर्माण करने की योजना चल रही है लेकिन कुछ कानूनी कारणों से काम शुरू नहीं हो पा रहा है.’

स्थायी शिक्षकों को 35,000 से 56,000 रुपये प्रति माह वेतन मिलता है, जबकि अस्थायी शिक्षकों को दिहाड़ी मजदूर की तरह 56 रुपये प्रति घंटे के हिसाब से पैसा मिलता है

नंदुरबार की शहादा तहसील की शासकीय आश्रमशाला भी मोलगी गांव की आश्रमशाला से मेल खाती है, फर्क इतना भर है कि इसके अगल बगल का माहौल थोड़ा शहरी है. शाला की रसोई के पास कूड़े का ढेर और गंदगी का साम्राज्य नजर आता है. पढ़ाई का आलम यह है कि यहां दसवीं कक्षा के बच्चे अंग्रेजी के मामूली शब्द जैसे शुगर और एलीफेंट जैसे सामान्य शब्द भी नहीं पढ़ सकते. यह तब है जबकि अंग्रेजी भाषा आश्रमशालाओं के पाठ्यक्रम का हिस्सा है. यहां के प्रधान अध्यापक आरओ भरारी कहते हैं, ‘हमारी आश्रमशाला निर्माणाधीन है इसलिए अभी आश्रमशाला किराये की इमारत में चल रही है. इसी वजह से यहां की हालत ऐसी है, पैसों की कमी के चलते हम पिछले छह महीनों से किराया भी नहीं दे पाये हैं.’

लोक संघर्ष मोर्चा की महासचिव प्रतिभा शिंदे पिछले 21 वर्षों से नंदुरबार जिले में आदिवासियों के विकास और उनके हक की लड़ाई लड़ रही हैं. वे बताती हैं, ‘सरकारी आश्रमशालाओं का कोई बुनियादी ढांचा नहीं है. शिक्षक सिर्फ नाम के लिए यहां पढ़ाने आते हैं और स्थायी शिक्षक जिनकी मोटी तनख्वाह है वह तो ड्यूटी से अक्सर नदारद ही रहते हैं.’ वे आगे बताती हैं, ‘सरकारी सहायता प्राप्त आश्रमशालाएं अधिकतर नेताओं और उनके रिश्तेदारों की जागीर बन चुकी है. ये नेता सभी पार्टियों से आते हैं. इनके लिए आश्रमशालाएं एक व्यवसाय हैं. शालाओं में जितने बच्चे होते उससे ज्यादा बच्चे इनके रजिस्टर में दर्ज होते हैं. ये गलत आंकड़े दिखाकर सरकार से पैसा ऐंठते हैं.’

फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल

शिंदे के मुताबिक बच्चों की सुरक्षा इन आश्रमशालाओं की प्राथमिकता में कहीं नहीं आता. कई बार तो ऐसा होता है कि रात को अधीक्षक बच्चों को बाहर से बंद करके अपने घर चले जाते हैं, छोटे बच्चे जिनको रात को शौच जाना होता है बाहर नहीं जा पाते और कमरों में शौच कर देते हैं और अगले दिन जब अधीक्षक आता है तो ना सिर्फ वह बच्चों को मारता-पीटता है बल्कि उन्हीं से सफाई भी करवाता है. आश्रमशालाओं में शौचालयों के अभाव के चलते जब लड़कियां नहाने के लिए नदियों पर जाती हैं तो अक्सर गांव के मनचले उन्हें परेशान करते हैं.

लोक संघर्ष मोर्चा के एक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए शिंदे बताती हैं कि तलोदा, अक्कलकुवा, धाडगांव और शहादा, नंदुरबार जिले की चार तहसीलें हैं. इनमें से शहादा को छोड़कर बाकी तीन कुपोषित इलाकों की श्रेणी में आती हैं. हर साल इन तहसीलों के गांवों की 70 प्रतिशत आबादी (बच्चों सहित ) काम और भोजन की तलाश में दूसरे शहरों में जाती है. ये लोग छह से सात महीने दूसरे शहरों में रहते हैं. जब इतने लम्बे समय के लिए इतनी बड़ी आबादी बाहर रहती है तो फिर कैसे इन आश्रमशालाओं में 400-500 बच्चे पूरा-पूरा साल पढ़ रहे हैं. इन शालाओं के अधिकारी और नेता बच्चों के गलत आंकड़े दिखाकर सरकार से अनुदान ले रहे हैं. वे कहती हैं, ‘इन शालाओं में भ्रष्टाचार चरम पर है, उत्तर महाराष्ट्र की सभी आश्रमशालाओं को बंद कराने के लिए जल्द ही हम एक आंदोलन करने वाले हैं.’

एक स्थानीय आदिवासी कार्यकर्ता सुमित्रा वसावे ने बताती हैं कि  पिछले साल धड़गांव तहसील के रोशमाल गांव की एक आश्रमशाला का दसवीं कक्षा का परिणाम शून्य प्रतिशत आया था, सभी विद्यार्थी फेल हो गए थे. उन्होंने बताया कि इस आश्रमशाला के अगल बगल शराब की बहुत सारी भट्टियां हैं और शिक्षक भी शाला में शराब पीकर पहुंच जाते थे.

जब तहलका ने आदिवासी विकास विभाग प्रकल्प अधिकारी शुक्राचार्य दुधाड़ से उनके तलोदा स्थित दफ्तर में बात की तो उन्होंने बताया, ‘तलोदा में 62 आश्रमशालाएं हैं, जिसमें से 40 सरकारी हैं और बाकी सरकारी सहायता प्राप्त (निजी संस्थाओं द्वारा संचालित ). औसतन एक आश्रमशाला पर सालाना एक करोड़ रुपये खर्च किये जाते हैं. आदिवासी विकास विभाग आश्रमशालाओं को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा हैं. बाकी प्रदेशों के मुकाबले हमारा काम अच्छा है.’

महाराष्ट्र में आदिवासी विकास विभाग के 24 प्रकल्प हैं, जिनमे से 11 प्रकल्पों को संवेदनशील बताया गया है. इन संवेदनशील प्रकल्पों में तलोदा, जवाहर, पांढरकवड़ा, अहेरी, गढ़चिरोली, भामरागढ़, नासिक, कलवन, डहाणु, धारणी और किनवट का नाम आता है. विभाग के नियमों के अनुसार इन इलाकों में प्रकल्प अधिकारी आईएएस दर्जे का होना चाहिए और उसका कार्यकाल कम से कम तीन वर्ष का होना चाहिए. लेकिन प्लानिंग कमीशन के पूर्व सदस्य जयंत पाटिल की समिति की रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 1982 से लेकर अब तक इन संवेदनशील क्षेत्रों में सिर्फ पांच आईएएस अधिकारियों की पोस्टिंग हुई और इन पांचों का कुल कार्यकाल मिलाकर भी तीन वर्षों से कम रहा है. जयंत पाटिल समिति की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में छह से 14 वर्ष की आयुवर्ग में 19 प्रतिशत आदिवासी बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं, इनमें से सात प्रतिशत बच्चे महाराष्ट्र से हैं.

प्रदेश में आश्रमशालाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए कुछ सामाजिक कार्यकर्ता इनको बंद कराने की मांग कर रहे हैं. नागपुर में सक्रिय विदर्भ जन आंदोलन समिति के नेता किशोर तिवारी उनमें से एक हैं. साल 2012 में तिवारी द्वारा मुंबई हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एमएस शाह को प्रदेश में आश्रमशालाओं की जर्जर स्थिति पर लिखा गया पत्र जनहित याचिका में तब्दील हो गया था. इसके आधार पर कोर्ट ने तत्कालीन महाराष्ट्र सरकार को आश्रमशालाओं की स्थिति पर हलफनामा पेश करने का नोटिस जारी कर दिया था.

तिवारी कहते है, ‘आश्रमशालाओं के नाम पर राजनेता करोड़ों रुपये खा रहे हैं, जबकि बच्चों का कुछ भला नहीं हो रहा है इसलिए इन आश्रमशालाओं को बंद कर देना चाहिए. इसकी बजाय सरकार को आधुनिक सुविधाओं से लैस हॉस्टल इन आदिवासी बच्चों के लिए हर तहसील में खोलने चाहिए. इन आदिवासी बच्चों को दूसरे बच्चों के साथ अच्छे स्कूलों में तालीम मिलनी चाहिए जिससे इनका भविष्य सुरक्षित हो सके.’ तिवारी के अनुसार इस समस्या का मूल कारण है आदिवासी विकास के लिए घोषित निधि का दूसरे विभागों में बंट जाना.

फोटोः प्रतीक गोयल
फोटोः प्रतीक गोयल

इस पूरे गड़बड़झाले पर तहलका ने आदिवासी विकास विभाग आयुक्त संजीव कुमार से बात की तो उन्होंने बताया कि महाराष्ट्र में कुल 1108 आश्रमशालाएं हैं. इनमें से 552 सरकारी हैं और बाकी सरकारी सहायता प्राप्त हैं. कुमार कहते हैं, ‘हमें पता है कि आश्रमशालाओं की हालत खराब है लेकिन हम इसे ठीक करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं. शालाओं में शिक्षकों की कमी है इसलिए हम 647 नए शिक्षकों की भर्ती कर रहे हैं जो कि अगले एक-दो हफ्ते में प्रदेश भर की आश्रमशालाओं में नियुक्त कर दिए जाएंगे.’

एक रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र से 1794 कंप्यूटर, 299 प्रिंटर और 299 टेबलों के लिए दस करोड़ रुपये की मंजूरी के बावजूद सिर्फ 166 कंप्यूटर ही आश्रमशालाओं के लिए खरीदे गए

आश्रमशालाओं के लिए सरकार ने लगभग 300 करोड़ रुपये का सालाना बजट तय किया है. कुमार मानते हैं कि यह बजट पर्याप्त है लेकिन इस बजट का दो-तिहाई हिस्सा नई आश्रमशालाओं के निर्माण में खर्च किया जा रहा है जिसकी वजह से पुरानी शालाओं के संचालन में रुराकवटें आ रही हैं. आदिवासी विकास विभाग के मुताबिक आदिवासियों के विकास के लिए आदिवासी उप योजना के तहत 4968 करोड़ रुपये के बजट का प्रावधान है. इसमें से छह प्रतिशत हिस्सा आश्रमशालाओं के लिए निर्धारित है.

फरवरी 2014 में हेमानंद बिस्वाल के नेतृत्व में स्टैंडिंग कमिटी ऑन सोशल जस्टिस एंड एम्पावरमेंट ने लोकसभा में अपनी एक रिपोर्ट पेश की थी. इस रिपोर्ट के तहत साल 2001 से 2013 के दौरान महाराष्ट्र में चल रही आश्रमशालाओं में 793 बच्चों की सांप-बिच्छू के काटने और मामूली बिमारियों के चलते मौत हुई थी. नासिक संभाग में सबसे ज्यादा 393 मौतों का मामला सामने आया था. इनमें से 116 बच्चों की मौत नंदुरबार जिले की तलोदा तहसील में हुई थी.

आश्रमशाला योजना के नियमों के अनुसार मृत बच्चों के परिजनों को मुआवजे के तौर पर 15,000 रुपये मिलने चाहिए, लेकिन कमेटी के अनुसार 340 परिवारों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया. नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक की 2013 की रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में आश्रमशालाओं के निरीक्षण में कमियां थी और ऑडिट रिपोर्ट में भी इन खामियों की तरफ इशारा किया गया था. इसके पूर्व 2005 में बनी परफॉरमेंस ऑडिट की रिपोर्ट में कहा गया है कि महाराष्ट्र सरकार ने 1953-54 में शुरू हुई आश्रमशाला योजना का कभी कोई मूल्यांकन नहीं किया. 2005 में आई इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया था कि 1999 से 2004 तक किसी भी आश्रमशाला में बच्चों की चिकित्सकीय जांच भी नहीं हुई. जबकि नियमानुसार एक साल में ऐसी चार जांचें होनी चाहिए थीं. रिपोर्ट के मुताबिक केंद्र से 1794 कंप्यूटर, 299 प्रिंटर और 299 टेबलों के लिए दस करोड़ रुपये की मंजूरी के बावजूद 166 कंप्यूटर ही आश्रमशालाओं के लिए खरीदे गए.

गढ़चिरोली जिले में आदिवासियों के हित की लड़ाई लड़नेवाले लालसू सोमा कहते हैं, ‘शिक्षक इस इलाके की आश्रमशालाओं में आदिवासी बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते. आश्रमशालाओं में बुनियादी ढांचा भी नहीं है, एक ही शिक्षक सारे विषय पढ़ाता है, यह किस तरह की पाठशाला  है.’ सोमा बिनागुंडा गांव (महाराष्ट्र की सीमा से लगे अबूझमाड़ इलाके का एक गांव ) का उदाहरण देते हुए कहते हैं, ‘इस इलाके के बच्चे आश्रमशाला में सिर्फ दो रोटी खाने के लिए जाते हैं, क्योंकि यहां कुपोषण बड़ी समस्या है.’

जब तहलका ने महाराष्ट्र के आदिवासी विकास मंत्री विष्णु सावरा से इन तमाम मुद्दों पर चर्चा की तो वे बोले, ‘मुझे आश्रमशाला की समस्याओं का अंदाजा है. अगले हफ्ते मैं इसका पूरा जायजा लूंगा और इससे संबंधित समस्याओं को सुलझाने के लिए ठोस कदम उठाऊंगा.’ आदिवासी विकास मंत्री के रूप में यह सावरा का दूसरा कार्यकाल है, इसके पूर्व वे सेना-भाजपा सरकार में भी मंत्री रह चुके हैं.

इंटरनेट बिन सून

मनोचिकित्सकों की माने तो सोशल मीडिया से जुड़ाव के कारण लोग निजी और सार्वजनिक जीवन में फर्क करना भी भूल गए हैं.
मनोचिकित्सकों की माने तो सोशल मीडिया से जुड़ाव के कारण लोग निजी और सार्वजनिक जीवन में फर्क करना भी भूल गए हैं.

30 साल के रितेश दिल्ली में रहते हैं और एक निजी कंपनी में अकाउंटेंट हैं. इनके पास स्मार्ट फोन है जो कि हाई स्पीड इंटरनेट से जुड़ा हुआ है. रितेश के दिन की शुरुआत स्मार्ट फोन पर मैसेज पढ़ने से होती है फिर वह फेसबुक पर नए अपडेट देखते हैं. ट्वीटर के ट्रेंडिंग टॉपिक्स पर भी नजर मारते हैं. इसके बाद वाट्स अप या दूसरे किसी चैटिंग ऐप के जरिए अपने दोस्तों से हाय-हैलो करते हैं. इसके बाद वह जल्दी से तैयार होकर अपने दफ्तर के लिए निकल जाते हैं. रितेश अपने दफ्तर तक की दूरी अमूमन मैट्रो या ऑटो से तय करते हैं और इस दौरान भी वह अपने मोबाईल पर व्यस्त रहते हैं. दफ्तर के काम से जब भी उन्हें थोड़ी फुर्सत मिलती है तो वह फिर से एक बार अपने मोबाईल या सिस्टम की मदद से सोशल मीडिया की दुनिया में दाखिल हो जाते हैं. रात में देर रात तक ऑनलाइन रहते हैं.  सोने से पहले रितेश अपना मोबाईल अपने बगल में ही रखकर सोते हैं. अगर मोबाईल उनसे दूर रहे तो उन्हें नींद आने में दिक्कत होती है.

बंगलुरू में रहनेवाले राहुल खन्ना और उनकी पत्नी अपने 18 वर्षीय बेटे को लेकर थोेड़ा परेशान हैं. इनका बेटा आजकल इंटरनेट और सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर हद से ज्यादा समय बिता रहा है. इस वजह से वह पढ़ाई में लगातार पीछे होता जा रहा है. सुबह नाश्ते की टेबल से लेकर रात में सोने के बिस्तर तक वो अपने फोन और लैपटॉप की मदद से इंटरनेट की दुनिया में रहता है. बेटे की इस आदत को रोकने की मंशा से एक दिन खन्ना दंपति ने घर का वाईफाई बंद कर दिया और उसे बताया कि वाईफाई खराब हो गया है. इसके बाद उनका बेटा उदास हो गया और दिन भर अपने कमरे में पड़ा रहा. राहुल अपने बेटे की एक मनोचिकित्सक से कांउसलिंग करवा रहे हैं.

यह घटना पिछले साल अक्टूबर की है. महाराष्ट्र के परभानी में रहनेवाली और कॉलेज में पढ़नेवाली एक लड़की ने आत्महत्या कर ली. लड़की अपने माता-पिता के साथ रहती थी. मरने से पहले उसने एक छोटा-सा सुसाईड नोट लिखा था जिसमे उसने इस बात का जिक्र किया था कि उसके माता-पिता उसे फेसबुक के इस्तेमाल से रोकते थे और इसी वजह से वो आत्महत्या कर रही है. लड़की ने अपने सुसाईड नोट में लिखा था, ‘क्या फेसबुक इतना खराब है? मैं इस तरह की पाबंदियों के साथ घर में नहीं रह सकती क्योंकि मैं फेसबुक के बिना जिंदा नहीं रह सकती हूं.’

जून 2013 में मुंबई की लोकल ट्रेन से एक 16 वर्षीय छात्रा गिर गई जिससे उसकी मौत हो गई. बताया गया कि गेट के पास खड़े होकर वो अपने मोबाईल में व्यस्त थी.

मई 2014 गुड़गांव में 12वीं की एक छात्रा ने इस वजह से आत्महत्या कर ली क्योंकि उसकी स्कूल टीचर ने उसे क्लास में बैठकर फेसबुक इस्तेमाल करते हुए पकड़ लिया था और आगे से ऐसा न करने की हिदायत दी थी.

ये पांचो मामले लगातार बदल रहे भारत की तस्वीर हैं और एक बड़ी आबादी का प्रतिनिधित्व भी करते हैं. इनकी ठीक-ठीक संख्या किसी को नहीं मालूम लेकिन देश के डॉक्टर इन्हें बीमार मानते हैं. मनोचिकित्सकों के मुताबिक ऐसी समस्या से जूझ रहे लोगों को असल में इंटरनेट की लत पड़ चुकी है और यह लत इन ‘बीमारों’ के लिए उतनी ही खतरनाक है जितनी कि शराब, बीड़ी या सिगरेट की लत. मोबाईल एसोसिएशन ऑफ इंडिया और आई.एम.आर.बी इंटरनेशनल ने मिलकर ‘भारत में इंटरनेट-2014’ के नाम से एक सर्वेक्षण किया है. इस सर्वे के मुताबिक फिलहाल देश में करीब तीस करोड़ लोगों तक इंटरनेट की पहुंच है. इसी रिपोर्ट से यह जानकारी भी मिलती है कि शहरी इलाकों में इंटरनेट का इस्तेमाल करनेवालों में से 93 फीसदी लोगों के लिए इंटरनेट पर सबसे पहली जरूरत चैटिंग करना, सर्च करना और सोशल मीडिया पर सक्रिय रहना है.

भारत के शहरों में रहनेवाले करीब उन्नीस करोड़ लोग इंटरनेट का इस्तेमाल कर रहे हैं. इन लोगों में से अधिकतर लोगों के बारे में कहा जा सकता है कि वे ऑनलाइन दुनिया में भी बसते हैं. इनकी सक्रियता वास्तविक दुनिया के मुकाबले ऑनलाइन की आभासी दुनिया में ज्यादा रहती है. अभी तक यह बात हल्के-फुल्के ढंग से कही जाती थी. लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है. देश के डॉक्टर इस समस्या को लेकर गंभीर हैं. बंगलुरू में इंटरनेट और सोशल मीडिया के बीमार लोगों के इलाज के लिए एक केंद्र खुल चुका है. यह देश का पहला ऐसा केंद्र है जहां सोशल मीडिया और इंटरनेट की लत से जूझ रहे लोगों का इलाज हो रहा है, उनकी काउंसलिंग हो रही है और लोग स्वस्थ भी हो रहे हैं.

डॉक्टरों में इंटरनेट के फैलाव को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है. उनका मानना है कि इसकी वजह से युवाओं की एक ऐसी फौज तैयार हो रही है जो मानसिक तौर पर बीमार है

बंगलुरू स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज (निमहांस) ने इस सेंटर की शुरुआत की है. निमहांस ने बंगलुरू के करीब 400 युवकों के ऊपर एक सर्वे किया. इस सर्वे में हर आय वर्ग के युवकों को शामिल किया गया जो नतीजे सामने आए वह बेहद चौंकानेवाले थे. 70 प्रतिशत लोगों को इंटरनेट और सोशल मीडिया के बिना समय बिताने में दिक्कत आ रही थी. एक सवाल यह उठता है कि ऐसे कौन से लक्षण हैं जिनके आधार पर यह जाना जा सके कि किसी व्यक्ति को इंटरनेट या सोशल मीडिया की लत लग चुकी है या फलां व्यक्ति सामान्य इंटरनेट यूजर है? इस सवाल के जवाब में निमहांस के मनोचिकित्सक डॉ. मनोज शर्मा कहते हैं, ‘हम कई तरह के टेस्ट करते हैं. हाव-भाव की निगरानी करते हैं. इनमें सबसे महत्वपूर्ण है, व्यक्ति में चार ‘सी’ की खोज करना. इनमें से पहला सी है ‘क्रेविंग’ इसका मतलब यह है कि व्यक्ति में सोशल मीडिया को लेकर कितनी बेचैनी है. उसे इसकी कितनी आदत है. दूसरा है ‘कंट्रोल’ यानी कि जब वह इंटरनेट या किसी सोशल मीडिया पर होता है तो उसका अपने-आप पर कंट्रोल है या नहीं. इस दौरान कुछ लोगों को समय का अंदाजा ही नहीं होता. तीसरा ‘सी’ है कंपल्शन. मतलब अगर आपको इंटरनेट पर जाने की या सोशल मीडिया पर एक्टिव होने की जरूरत न भी हो तो भी आप ऐसा करते हैं और आखिरी है, कॉन्सीक्वेंसेज यानी कि बाकी तीन ‘सी’ की वजह से व्यक्ति को कितना और क्या-क्या नुकसान हो रहा है.’

निमहांस की टीम ने जब इन चार ‘सी’ के आधार पर बंगलुरू के 400 युवकों को परखा तो उनमें से ज्यादातर फेल हो गए और इंटरनेट के नशे के शिकार पाए गए. इसी से मिलता-जुलता एक अध्ययन 2014 में टाटा कंसल्टेंसी ने भी किया है. इस सर्वे में करीब-करीब 71 फीसदी लोगों ने अपने स्मार्ट फोन को अपना पसंदीदा गैजेट बताया है. यह सर्वे देश के 12 शहरों के करीब-करीब 1200 छात्रों पर किया गया था. एक तरफ स्मार्ट फोन सस्ते हो रहे हैं. ज्यादा से ज्यादा लोग सूचना के क्षेत्र में आई क्रांति का हिस्सा बन रहे हैं वहीं देश के डॉक्टरों में इस बात को लेकर चिंता बढ़ती जा रही है कि इस फैलाव के साथ बच्चों और युवाओं की एक ऐसी फौज तैयार हो रही है जो मानसिक तौर पर बीमार है. इस फौज को इंटरनेट के बिना सब कुछ सूना-सूना सा लगता है. ये लोग अपनी आभासी दुनिया से बाहर निकलकर वास्तवकि दुनिया में चहलकदमी नहीं करना चाहते.

अभी तक जो थोड़े-बहुत आंकड़े और नतीजे सामने आए हैं उनसे यह पता चलता है कि इस लत के शिकार लोगों में एक समय के बाद अवसाद, सर दर्द, नींद न आना, पढ़ाई-लिखाई में मन न लगना, शारीरिक विकास का सही से न हो पाना और दिमागी विकास का भी रुक जाना जैसे लक्षण दिखते हैं. एक सवाल यह भी है कि इंटरनेट या सोशल मीडिया की आदत व्यक्ति को लगती कैसे है. क्यों कोई व्यक्ति अपने आस-पास मौजूद वास्तविक लोगों की बजाय दूर-दराज के लोगों से ज्यादा लगाव महसूस करने लगता है. दिल्ली में कैक्टस लिली नामक संस्था चलाने -वाली और ऐसी समस्याओं का सामना कर रहे परिवारों को परामर्श देने वालीं मंजू छाबड़ा इस सवाल के बारे में कहती हैं, ‘इस समस्या की जड़ में शहरी रहन-सहन और उसके तौर-तरीके हैं. एकल परिवारों में रहनेवालों के आस-पास इतने लोग नहीं होते जिनसे हंस-बोल सकें. हर व्यक्ति अपने आप में व्यस्त है. आज के हर परिवार में अमूमन तीन-चार सदस्य होते हैं. बच्चे और माता-पिता. बस यही परिवार है. हर कोई अपने काम में व्यस्त है. पति और पत्नी दफ्तर जाते हैं. बच्चे या तो दाई के हवाले होते हैं या प्ले स्कूल में होते हैं. इस तरह से न तो बच्चों की परवरिश हो पाती है और न ही पति-पत्नी की परवरिश बतौर माता-पिता हो पाती है.’

मंजू छाबड़ा के मुताबिक आजकल के परिवारों में हर किसी की अपनी परेशानी है. ऐसे में अगर बच्चे किसी वीडियो गेम या स्मार्ट फोन के लिए जिद करते हैं तो पति-पत्नी लिए सबसे आसान तरीका यही है कि उन्हें जो चाहिए वह फौरन दे दिया जाए. किसी को समझाने की फुर्सत नहीं है. ऐसे माहौल में बच्चों को समझ में आता है कि उन्हें जो चाहिए सब मिल जाएगा. इसका इंटरनेट की लत से कोई सीधा संबंध है? इस सवाल पर छाबड़ा बताती हैं, ‘शुरुआत तो यहीं से होती है. मां-बाप ने पहले बच्चे को चुप रखने के लिए खुद ही उसे उन चीजों से जोड़ दिया जहां सब कुछ चमत्कारिक है. रोमांच से भरपूर है. भले वहां जो भी है वह सब आभासी है. इससे बच्चे को तो आदत पड़ेगी ही. वो कुछ दिनों के बाद स्मार्ट फोन या इंटरनेट के बिना रहने की सोच भी नहीं पाता. वह फुटबॉल भी वीडियो गेम पर ही खेलता है और लिखता भी वहीं पर है.’ शहरों के कामकाजी मां-बाप के लिए यह और बड़ी समस्या बन गया है. अक्सर दोनों दफ्तर जाते हैं. अगर इनमे से कोई एक दफ्तर नहीं भी जाता है तो वह कहीं न कहीं व्यस्त रहता है. यह शहरी जीवन का दुष्प्रभाव है जहां खाली रहना बुरा माना जाता है. जाहिर है दोनों के काम की अपनी-अपनी परेशानियां हैं, अपने-अपने तनाव हैं. दोनों में से किसी के पास इतना समय नहीं है कि वे एक- दूसरे को समझने-समझाने की हद तक बात करें. इस एक वजह से बहुत हद तक संभव है कि दोनों काफी देर तक इंटरनेट पर किसी अनजान चेहरे से चैट करते हों. या इंटरनेट पर ही किसी और तरह के टाइम पास से जुड़े हुए हों. तहलका से बातचीत में छावड़ा एक और बात बताती हैं कि जो लोग इंटरनेट के माध्यम से चैट करने के आदी हो जाते हैं वे बाहरी दुनिया के लोगों से कम बातचीत करते हैं. कहने का मतलब कि जो हमसे-आपसे कम बात करते हैं. जो वास्तविक दुनिया में बहुत चुप-चुप रहते हैं वैसे लोग इंटरनेट की मदद से अनजान लोगों से बातचीत करने में ज्यादा रूचि रखते हैं. और ऐसे लोग किसी भी आयु वर्ग में मिल सकते हैं. इस बारे में मुंबई स्थित लीलावती अस्पताल से जुड़ी क्लिनिकल साईकोलॉजिस्ट और साईकोथेरिपिस्ट बरखा चुलानी का मानना है कि हम वास्तविक और आभासी दुनिया के बीच का फर्क भूलते जा रहे हैं और इसी वजह से यह दिक्कत आ रही है. वो कहती हैं, ‘हम देख रहे हैं कि लोग अब निजी और सार्वजनिक जीवन को बांटने -वाली उस मोटी लकीर को देख नहीं पा रहे हैं और वे सोशल मीडिया को लेकर जुनूनी हो गए हैं.’

लोग अब अपने वास्तविक जीवन में भी फेसबुक की तरह ‘लाइक’ बटन ढूंढ़ रहे हैं. लोग अब बहुत खुश होते हैं, दुखी होते हैं, खुद को अकेला महसूस करते हैं और यहां तक कि आत्महत्या जैसे विचारों को अपने परिवार या दोस्तों के साथ साझा नहीं करते बल्कि अपने ‘फेसबुक दोस्तों’ और ट्विटर  ‘फॉलोअर्स’ के साथ साझा करते हैं. यह बात उन ट्वीट और स्टेटस अपडेट में खासतौर पर दिखती है, जो आत्महत्या के विचार को दर्शाते हैं. इनसे काफी हद तक व्यक्ति की मनोदशा समझी जा सकती है. ऐसे कुछ भाव हैं, ‘निराश’, ‘अपमानित महसूस कर रहा/रही हूं’, ‘सब खत्म हो गया’ या ‘अंदर से अकेला महसूस होना’ आदि.

मनोचिकित्सकों की माने तो सोशल मीडिया से जुड़ाव के कारण लोग निजी और सार्वजनिक जीवन में फर्क करना भी भूल गए हैं. लोग पहले की तुलना में ज्यादा खुलकर बोलने लगे हैं. सार्वजनिक मामलों में खुलकर बोलना, गलत का विरोध करना और उसके लिए सोशल नेटवर्किंग साईट पर खुलकर लिखने-बोलने में कोई बुराई नहीं है बल्कि यही तो इस माध्यम की असली ताकत है. लेकिन जैसे ही यह उन्मुक्तता निजी जिंदगी में घुसती है वैसे ही परेशानी शुरू हो जाती है और कई बार यह परेशानी इतनी बड़ी हो जाती है कि इसकी वजह से भयंकर घटनाएं घट जाती हैं.

यह समस्या बड़ी होती जा रही है लिहाजा इसके इलाज की तरफ लोगों का ध्यान तेजी से गया है. कैसे इंटरनेट और सोशल मीडिया का इस्तेमाल करते हुए भी उसके दुष्प्रभावों से बचा जा सकता है? ऐसे कौन से जतन किए जाएं कि इंटरनेट का  केवल सकारात्मक उपयोग होता रहे. इस बारे में ज्यादातर चिकित्सक एक मत हैं. चिकित्सक मानते हैं कि हर बीमारी की तरह इसके लिए भी इलाज की बजाय बचाव पर ध्यान देना चाहिए. इंटरनेट से, फोन से उतना ही संपर्क रखा जाए जितनी जरूरत हो. ऑनलाइन गेम खेलने से बचना चाहिए. बच्चों को तो जहां तक हो सके बाहर पार्क में खेलने और दूसरे बच्चों से मिलने देना चाहिए. जो लोग आपस में साथ रह रहे हैं उन्हें इस बात का ख्याल रखना चाहिए कि वह दूसरों के लिए एक-एक दिन को खास बनाएं जिससे की सुबह उठते ही इंटरनेट पर जाने, चैट करने या वीडियो गेम खेलने की जरूरत महसूस ही न हो. डॉक्टरी सलाह के इतर लगभग साल भर पहले देश के जानेमाने अर्थशास्त्री, नोबल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने भी इंटरनेट पर ज्यादा समय बितानेवालों को एक सलाह दी थी. जयपुर में आयोजित होनेवाले साहित्य मेले में बोलते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था, ‘इंटरनेट आपकी सहायता कर सकता है लेकिन आपको किताबें ज्यादा से ज्यादा पढ़नी चाहिए.’

सितारा देवी: ओझल सितारा…

सितारा देवी (8 नवंबर, 1920 - 24 नवंबर, 2014)
सितारा देवी (8 नवंबर, 1920 – 24 नवंबर, 2014)

94 की उम्र में अपने निधन से पहले वह लंबे समय से बीमारियों से जूझ रही थीं. सितारा देवी ने हिंदी सिने जगत में कथक का न केवल प्रवेश कराया बल्कि उसे एक अलग पहचान भी दिलाई. उनको याद करने के कई बहाने हैं. दिलों पर राज करना एक ऐसा मुहावरा है जो शायद सितारा देवी के लिए ही बना होगा. यही वजह है कि न्यूयॉर्क शहर से लेकर नौगांव जैसी छोटी जगह तक उनके अनगिनत चाहने वाले हैं. इसका श्रेय उनकी वाक् कला को जाता है जिसकी मदद से वह कहीं भी दर्शकों से तत्काल रिश्ता कायम कर लेती थीं. शायद यह काबिलियत उनमें बचे बनारसीपन से आई होगी. वह बनारस के एक ऐसे परिवार से ताल्लुक रखती थीं जिसका काम ही किस्सागोई करना था.

यही वजह है कि सितारा देवी की पूरी शख्सियत में यह गुण शामिल था. कभी वह अपने नृत्य में किस्सागोई करतीं तो कभी दूसरों के अफसानों में उनके किस्से होते. उर्दू अदब की जानी पहचानी शख्सियत सआदत हसन मंटो कहते थे कि सितारा के नाच में लखनवी नजाकत नदारद है. मंटो कहते, ‘वह औरत नहीं, एक तूफान है, एक ऐसा तूफान जो सिर्फ एक मर्तबा आके नहीं टलता, बार-बार आता है.’ मंटो सच ही तो कहते थे. कोलकाता के आयोजन में सितारा देवी बिना रुके लगातार 12 घंटे तक नाचती रहीं. इतना ही नहीं मुंबई में भी वह कई बार लगातार 8-9 घंटे तक नृत्य करती रहीं. यकीनन वह ऊर्जा की खान थीं.

उनके पिता सुखदेव महाराज ने जब सितारा देवी को कथक सिखाना शुरू किया तो उनके पड़ोसियों ने सख्त आपत्ति दर्ज कराई. उनको अपने पड़ोस के घर से आ रही घुंघरुओं की खन-खन कतई नामंजूर थी. लेकिन सुखदेव महाराज नहीं माने. उनको ब्राह्मण बिरादरी से बाहर कर देने तक की बातें हुईं लेकिन वह अड़े रहे. सुखदेव महाराज खुद नेपाल के राजपरिवार में बतौर शाही नर्तक काम करते थे. अगर वह उस समय लोगों के विरोध और उनकी जिद के आगे झुक गए होते तो शायद हमें कथक में तांडव और लास्य का वह मेल देखने को न मिलता जो सितारा देवी ने खुद से ईजाद किया था.

लोगों की जिद के आगे न झुकने और उनकी परवाह न करने को सितारा ने अपने जीवन का मूल मंत्र बना लिया था. उनके लिए जीवन का एक ही सत्य था और वह था कथक नृत्य. कथक को लेकर उनका लगाव और उस नृत्य पर उनकी पकड़ ऐसी थी कि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर ने उनको नृत्य सम्राज्ञिनी की उपाधि दी थी.

मुंबई आने के बाद उन्होंने कुछ ही फिल्मों में काम किया था जब उनका फिल्मों से मोहभंग होना शुरू हो गया. लेकिन वह कभी भी फिल्मी सर्किल से बाहर नहीं हुईं. तमाम फिल्मी कलाकारों से उनकी दोस्ती थी और वह उनके साथ नजर आ जाया करती थीं. कम ही लोगों को पता होगा कि मधुबाला और माला सिन्हा समेत उस दौर की अनेक अभिनेत्रियों को कथक का प्रशिक्षण सितारा देवी ने ही दिया था.

सितारा देवी सही समय पर सही सम्मान न दिए जाने से क्षुब्ध भी रहा करती थीं बहुत बाद में दिए गए पद्म सम्मान को उन्होंने यह कहकर ठुकरा दिया था कि अब इसे देने का कोई मतलब नहीं रह गया.

सितारा देवी में इस कदर उदारता भरी हुई थी कि उनके सामने किसी चीज की तारीफ किए जाने पर वह झट उसे सामने वाले को भेंट कर दिया करतीं. एक दफा जब बिरजू महाराज के चाचा शंभू महाराज ने सितारा देवी के हीरे के हार की तारीफ की तो उन्होंने यह कहते हुए वह उन्हें भेंट कर दिया कि महाराज यह आपसे अच्छा थोड़े न है!

महज 11 की उम्र में बनारस छोड़ देने वाली सितारा देवी अपने अंतिम समय में बनारस जाना चाहती थीं लेकिन उनकी यह ख्वाहिश पूरी न हो सकी. हजारों-लाखों की आंखों की सितारा देवी अब खुद सितारा बन चुकी हैं. इस बार कभी जो जोर से बिजली कड़के तो आसमान की ओर गौर से देखिएगा. शायद आपको सितारा देवी की एक झलक मिल जाए!

लीग में लीद

राहत मुदगल समममि ने आईसीसी के मुमिया एन श्रीमनवासन को मैच मिमससंग आरोपों में दोषी नहीं पाया, िोटोः एपी
राहत: मुदगल समिति ने आईसीसी के मुखिया एन श्रीनिवासन को मैच फीक्सिंग के आरोपों में दोषी नहीं पाया, फोटो: एपी
राहत: मुदगल समिति ने आईसीसी के मुखिया एन श्रीनिवासन को मैच फीक्सिंग के आरोपों में दोषी नहीं पाया, फोटो: एपी

आईपीएल में भ्रष्टाचार पर जस्टिस मुकुल मुदगल की रिपोर्ट आ चुकी है लेकिन जैसा कि सोचा जा रहा था, इसने भ्रष्टाचार को एक हद तक उजागर तो किया लेकिन गोल-गोल तरीके से. सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपनी तरह का 29 पृष्ठ वाला यह दस्तावेज अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट संघ (आईसीसी) के मुखिया एन श्रीनिवासन के लिए राहत भरा साबित हुआ है. हालांकि उनके दामाद गुरुनाथ मयप्पन और साथ ही लीग के सीओओ सुंदर रमन को मुदगल रिपोर्ट ने अज्ञात सट्टेबाजों से संबंध रखने के लिए दोषी ठहराया है. पहले माना जा रहा था कि रिपोर्ट जेंटलमैन्स गेम कहे जाने वाले इस खेल की गंदगी उजागर करते हुए कुछ साफ-साफ निष्कर्ष देगी. इस लिहाज से रिपोर्ट कुछ हद तक निराश करने वाली है. फिर भी आईपीएल के लिए यह एक ऐसा मौका है जिसका लाभ उठाकर वह अपने चारों ओर छाए अविश्वास के माहौल और शंकाओं को दूर कर सकता है. फिर से इस रिपोर्ट की बात करें तो अभी इससे तीन सबसे महत्वपूर्ण बातें सामने आई हैं. क्रिकेट प्रबंधन के सबसे ताकतवर व्यक्ति श्रीनिवासन साफ-साफ बच गए हैं.  मयप्पन और राजस्थान रॉयल्स के मालिक राज कुंद्रा को सट्टेबाजी में लिप्त पाया गया है. तीसरी बात यह है कि रमन सटोरियों के संपर्क सूत्रों से ‘एक सीजन में आठ बार मिले’ थे. आईपीएल के सीओओ (चीफ ऑपरेटिंग ऑफिसर) ने यह बात मानी है कि वे एक व्यक्ति के संपर्क में थे लेकिन उन्हें यह नहीं पता था कि उसके सटोरियों से संबंध हैं. इस रिपोर्ट के बाद ऐसा लग रहा है कि इसने क्रिकेट के इन संदिग्ध सामंतों को और अड़ियल बना दिया है. ये नाम उजागर होने के बाद तुरंत ही स्पष्टीकरण दिया गया था कि रमन के खिलाफ कोई सख्त कार्रवाई नहीं होने जा रही है. रमन को श्रीनिवासन का दाहिना हाथ माना जाता है. दूसरी तरफ सट्टेबाजी और मैच फिक्सिंग के आरोपों से मुक्त होने के बाद श्रीनिवासन को अब कोई खतरा नहीं है. रिपोर्ट के निष्कर्ष उन्हें उनकी महत्वाकांक्षा पूरी करने यानी बीसीसीआई का मुखिया बनाने में मददगार साबित होंगे. रिपोर्ट में यह जरूर कहा गया है कि उन्होंने आईपीएल के ‘कोड ऑफ कंडक्ट’ का उल्लंघन किया था लेकिन यह बहुत ही हल्का आरोप है और तकनीकी गलती मानकर इसे ज्यादा तूल नहीं दिया गया. आईपीएल में चल रहे गड़बड़झालों को उजागर करने के लिए जब मुदगल समिति गठित की गई थी तब से मयप्पन के सट्टेबाजी में शामिल होने की बात कही जा रही थी. अपनी अंतरिम रिपोर्ट से इतर इस बार की रिपोर्ट में श्रीनिवासन के दामाद के बारे में कहा गया है कि वह लीग आयोजन के समय चेन्नई सुपरकिंग्स का अधिकारी था. आईपीएल के कोड ऑफ कंडक्ट के प्रावधानों के हिसाब से यदि कोई भी फ्रेंचाइजी, उसका मालिक या कंपनी, लीग की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाने वाले कामों में लिप्त पाए जाते हैं तो उस टीम को आईपीएल से बाहर किया जा सकता है.

असल खिलाड़ी: मुदगल समिति की रिपोर्ट में गुरुनाथ मयप्पन का नाम आने के बाद उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया है
असल खिलाड़ी: मुदगल समिति की रिपोर्ट में गुरुनाथ मयप्पन का नाम आने के बाद उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया है

यह बात बेहद दिलचस्प है कि कई नियमों का उल्लंघन, जिनमें मयप्पन और कुंद्रा द्वारा सटोरियों को सूचना पहुंचाना भी शामिल है, को आईसीसी की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई ने कार्रवाई लायक आरोप नहीं माना था. इस इकाई ने मैच फिक्सिंग के आरोपों की जांच के बाद रमन के खिलाफ कार्रवाई की बात जरूर कही थी लेकिन यह स्पष्ट नहीं किया कि कार्रवाई क्या होनी चाहिए.

[box]

किसने क्या किया

आईपीएल के कुछ बड़े ‘खिलाड़ियों’ का नाम मुदगल समिति की रिपोर्ट में आया है.

एन श्रीनिवासन

जस्टिस मुदगल समिति की रिपोर्ट कहती है कि श्रीनिवासन मैच फिक्सिंग में शामिल नहीं थे. उन्होंने जांच प्रभावित करने का काम भी नहीं किया. लेकिन उनकी जानकारी में यह बात थी कि कुछ खिला़ड़ियों (जिनके नाम उन्हें नहीं पता थे) ने आईपीएल के कोड ऑफ कंडक्ट का उल्लंघन किया है.

सुंदर रमन

आईपीएल के पिछले सीजन में सुंदर रमन की सटोरियों के एक संपर्क सूत्र से आठ बार मुलाकात या बात हुई थी. उन्हें पहले से यह जानकारी थी कि गुरुनाथ मयप्पन और राज कुंद्रा सट्टेबाजी में शामिल थे लेकिन उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की.

गुरुनाथ मयप्पन

समिति ने माना है कि मयप्पन चेन्नई सुपरकिंग्स से आधिकारिक रूप से जुड़े हुए थे और आईपीएल के दौरान सट्टेबाजी में शामिल रहे हैं.

राज कुंद्रा

सटोरियों से संपर्क थे. एक दिलचस्प तथ्य यह है कि राजस्थान पुलिस ने कुंद्रा के खिलाफ इस मामले की जांच बीच में ही रोक दी थी. कुंद्रा का एक दोस्त, जो जानामाना सट्टेबाज है, ने माना है कि उसने कुंद्रा की तरफ से कई बार सट्टे में दांव लगाए थे.

[/box]

असल खिलाड़ी: मुदगल समिति की रिपोर्ट में राज कुंद्रा का नाम आने के बाद उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया है
असल खिलाड़ी: मुदगल समिति की रिपोर्ट में राज कुंद्रा का नाम आने के बाद उनके भविष्य पर प्रश्नचिह्न लग गया है.

आईपीएल मैच फिक्सिंग मामले का खुलासा पिछले साल मई में हुआ था. उसके तुरंत बाद श्रीसंत सहित तीन खिलाड़ियों को मुंबई पुलिस ने हिरासत में ले लिया था. इस मामले में दूसरी बड़ी गिरफ्तारी मयप्पन की हुई थी. मयप्पन की गिरफ्तारी के बाद लगातार ये खबरें आने लगी थीं कि वे चेन्नई सुपरकिंग्स से आधिकारिक रूप से नहीं जुड़ें हैं. यह एक तरह से मयप्पन को बचाने का जनसंपर्क अभियान था. लेकिन मुदगल समिति की जांच में पहले यही बात साफ हुई कि मयप्पन टीम से आधिकारिक रूप से जुड़े थे. अंतरिम रिपोर्ट के पहले समिति के सदस्य और वरिष्ठ वकील निलय दत्ता मयप्पन के खिलाफ और सबूत जुटाना चाहते थे जबकि बाकी सदस्यों के हिसाब से उनके पास पर्याप्त सबूत थे. तब समिति एकराय नहीं थी. इस बार ऐसा नहीं है. फिर भी यह देखना होगा कि वर्तमान कानूनी प्रावधानों के तहत आरोपित लोगों के खिलाफ क्या प्रभावी कार्रवाई संभव होगी.

समिति की रिपोर्ट आने के साथ ही बीसीसीआई ने रमन को बचाने की कोशिश शुरू कर दी है. इस बारे में बीसीसीआई का कहना है कि रमन ने पहले ही इस मामले में आईसीसी की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई से हस्तक्षेप की मांग की थी. सटोरियों के संपर्क सूत्रों से उनकी आठ मुलाकातों पर भी पर्दा डालने की कोशिश हो रही हैं.

एक आम क्रिकेट प्रेमी की नजर से देखें तो आईपीएल में जो कुछ चल रहा है और जांच से जो कुछ निकल रहा है वह किसी पहेली से कम नहीं है. जो लोग लीग के रोजाना के कामकाज पर नजर रखते हैं वे उन रास्तों और अवसरों को खत्म नहीं कर पा रहे जिनसे होकर भ्रष्टाचार फल-फूल रहा है. ऐसे में एक सवाल अब भी अनुत्तरित है- क्या आईपीएल के आयोजनकर्ता भ्रष्टाचार के खिलाफ एक साथ हैं? शायद नहीं और इस ‘शायद’ की वजह सबसे ऊपर से शुरू होती है. इंडिया सीमेंट्स कंपनी के मालिक श्रीनिवासन का बीसीसीआई का मुखिया बनना मुदगल समिति की अंतरिम रिपोर्ट के हिसाब से ‘हितों में टकराव’ का मामला था. चेन्नई सुपरकिंग्स का मालिकाना हक इंडिया सीमेंट्स के पास ही है. हितों के टकराव की बात मयप्पन का नाम सामने आने के बाद और स्पष्ट हुई. समिति की रिपोर्ट आने के बाद यह बात साबित हो चुकी है. मयप्पन सट्टेबाजी में शामिल रहे हैं और उन्होंने टीम की जानकारी भी सटोरियों को मुहैया करवाई थी. लेकिन शुरुआत में इन्हीं आरोपों पर श्रीनिवासन का कहना था कि मयप्पन तो बस एक ‘जुनूनी क्रिकेट प्रशंसक’ हैं. फिर मयप्पन को चेन्नई सुपरकिंग्स से अलग दिखाने की कोशिशें शुरू हुईं पर आखिरकार मुदगल समिति ने इन सब कोशिशों पर पानी फेर दिया. कहा जा रहा है कि यह सब फ्रेंचाइजी बचाने के लिए किया जा रहा था.

इस पूरे प्रकरण से यह बात फिर से खुलकर सामने आई है कि बीसीसीआई ने आईपीएल टीम की फ्रेंचाइजी लेने के जो नियम बनाए हैं उनमें कई झोल हैं और भविष्य में ऐसी और घटनाएं सामने आ सकती हैं. एक प्रोफेशनल लीग की कमान नाकाबिल लोगों के हाथों में है. चेन्नई सुपरकिंग्स के ‘प्रिंसिपल’ रहे मयप्पन को तो अपने कारगुजारियों का नतीजा भुगतना ही होगा, अभी तक चर्चा से दूर रहे कुंद्रा का भविष्य भी अब उतना सुरक्षित नहीं है. कुंद्रा के बारे में बड़ा मजेदार तथ्य है कि जब आईपीएल में सट्टेबाजी की बात सामने आई तब वे यह कहते सुने गए थे कि उन्हें तो मालूम ही नहीं था कि भारत में सट्टेबाजी गैरकानूनी है. कुंद्रा की इस  अदा को चाहे क्रिकेट के प्रति उनका ‘जुनून’ कही जाए या उनकी ‘मासूमियत’ लेकिन वे कार्रवाई से बच नहीं पाएंगे.

मुदगल समिति की रिपोर्ट सामने आने के बाद एक सवाल यह भी उठ रहा है कि आखिर बीसीसीआई बीते पंद्रह सालों से कुंभकर्णी नींद मे क्यों सो रही थी. आज से डेढ़ दशक पहले सीबीआई जांच में दक्षिण अफ्रीका के पूर्व कप्तान हैंसी क्रोन्ये और कुछ भारतीय खिलाड़ियों की मैच फिक्सिंग में भूमिका सामने आई थी. उसके बाद भी बोर्ड की भ्रष्टाचार निरोधक इकाई कोई ऐसा तंत्र विकसित नहीं कर पाई जिससे क्रिकेट की छवि धूमिल करने वाली घटनाओं की पुनरावृत्ति रोकी जा सके. यही वजह है कि क्रिकेट को एक बड़ा ब्रांड बनाने के लिए शुरू की गई आईपीएल लगातार उसकी बदनामी की वजह बनती जा रही है.

[box]

raman_prabhavक्रिकेट पर रमन प्रभाव

क्या आईपीएल के सीईओ सुंदर रमन क्रिकेट पर अपना असर बरकरार रख पाएंगे?

यह आईपीएल शुरू होने की कुछ महीने पहले की बात है. 2008 में आईपीएल की वजह से क्रिकेट हर दिन चर्चा में आ रहा था. यह भी पहली बार हो रहा था कि कोई क्रिकेट खिलाड़ी नहीं बल्कि एक खेल मैनेजर अखबारों की सुर्खियां बटोर रहा था. आईपीएल के चेयरमैन और कमिशनर ललित मोदी क्रिकेट के उभरते हुए सितारे बन चुके थे. इन्हीं दिनों रमन की मोदी से मुलाकात हुई थी. माइंडशेयर नाम की एक मीडिया कंपनी (जो विज्ञापनों के लिए इलेक्टॉनिक या प्रिंट मीडिया में जगह खरीदने का काम करती है) के सीईओ रमन ने आईपीएल कमिश्नर के सामने प्रेजेंटेशन दिया. मोदी रमन से बहुत प्रभावित हुए. मोदी विज्ञापन जगत के इस रणनीतिकार को आईपीएल में ले आए. इसे रमन की काबलियत ही माना जाएगा कि जब मोदी विवादों से घिरे और उन्हें आईपीएल से बाहर होना पड़ा तब भी उन्होंने अपनी जगह बनाए रखी. यही नहीं वे मोदी की जगह पर भी आ गए. श्रीनिवासन रमन की प्रतिभा से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने रमन को आईसीसी की व्यावसायिक शाखा में भी जगह दे दी. कहा जाता है कि आईपीएल सहित भारत में होने वाले हर टूर्नामेंट की कॉमेंट्री टीम का फैसला रमन ही लेते हैं. इसके जरिए उन्होंने पूर्व क्रिकेट खिलाड़ियों से मजबूत संबंध बनाए हैं और उनकी स्वीकार्यता क्रिकेट के हर स्तर पर है. यह भी कहा जाता है कि वे श्रीनिवासन के सबसे विश्वासपात्र हैं. मुदगल समिति में नाम आने से उनके लिए खतरे की घंटी तो बज गई है लेकिन अभी भी उनका भविष्य इस पर निर्भर है कि बीसीसीआई का कमान संभालने वाले लोग क्या चाहते हैं.

[/box]

उत्तर प्रदेश: स्टांप ड्यूटी घोटाला

 

फोटोः एपी
फोटोः एपी

उत्तर प्रदेश में रियल इस्टेट कंपनियों, प्रशासनिक अधिकारियों और राजस्व विभाग के कर्मचारियों का एक गठजोड़ संगठित तरीके से कानूनी पेचीदगियों का फायदा उठाते हुए मोटा पैसा बना रहा है और राजकोष को करोड़ों रुपये का चूना लगा रहा है. यह मामला संपत्ति कर विभाग से जुड़ा है.

राज्य में भू-माफिया कृषि योग्य जमीनों को उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन एवं भूमि सुधार कानून 1950 (यूपीजेडएएलआर) के तहत खरीदते हैं. इसके बाद तत्काल उस भूमि का लैंड यूज कृषि से बदलवा कर आबादी भूमि में करवाया जाता है. यह काम संपत्ति विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से होता है. लैंड यूज बदलने के बाद इस भूमि को आवासीय क्षेत्र के रूप में विकसित किया जाता है. इसके बाद एक बार फिर से इसका लैंड यूज आबादी की जमीन से कृषि योग्य भूमि में बदलवा दिया जाता है. इसके बाद इसे बाजार भाव पर बेचा जाता है. इस तरह से कृषि भूमि की बिक्री पर सिर्फ चार प्रतिशत स्टांप ड्यूटी भरनी पड़ती है. जबकि आबादी के रूप में रजिस्टर भूमि पर न्यूनतम सात प्रतिशत स्टांप ड्यूटी अदा करनी पड़ती है.

इस घोटाले के अलावा रियल इस्टेट कंपनियां एक और गड़बड़ी में लिप्त हैं. वे अपने हिस्से का संपत्ति कर भी नहीं चुका रही हैं. एक बार किसी जमीन का लैंड यूज कृषि से आबादी में परिवर्तित हो जाने के बाद वह भूमि संपत्ति कर के दायरे से बाहर हो जाती है. उत्तर प्रदेश में पांच लाख तक की जमीनों की खरीद-फरोख्त स्टांप ड्यूटी से मुक्त है.

मथुरा की एक रियल इस्टेट कंपनी ने इस घोटाले से पर्दा हटाने का काम किया है. कंपनी ने अपने क्षेत्र के उपजिलाधिकारी के खिलाफ राज्य के लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा के यहां शिकायत दर्ज करवाई. जल्द ही लोकायुक्त ने स्टांप ड्यूटी को धता बताकर राजस्व विभाग को कृषि योग्य भूमि की खरीद-फरोक्त में लगाई जा रही जबर्दस्त चपत की जानकारी प्रदेश सरकार को दी. यह पूरा गिरोह राजस्व विभाग के अधिकारियों, जिले और तहसील के प्रशासनिक अधिकारी और कंपनियों की आपसी मिलीभगत से फल-फूल रहा है.

मथुरा की सदर तहसील के तहसीलदार ने एक रियल इस्टेट कंपनी की याचिका पर कार्रवाई करते हुए तेहरा गांव की चार हेक्टेयर जमीन का लैंड यूज बदल कर पहले उसे कृषि से आवासीय कर दिया. यह दिसंबर 2008 की घटना है. यह आदेश यूपीजेडएएलआर की धारा 143 के तहत पास किया गया. 2013 में मथुरा विकास प्राधिकरण ने इस भूमि के ऊपर एक बहुमंजिला आवासीय योजना को विकसित करने की संस्तुति दी.

भूमि का लगभग आधा हिस्सा खाली छोड़ दिया गया. बाद में कंपनी ने उसी कोर्ट में शेष बचे हुए 2.3 हेक्टेयर भूमि के टुकड़े का लैंड यूज एकबार फिर से आबादी से बदल कर कृषि योग्य करने की याचिका दायर कर दी. यह याचिका यूपीजेडएएलआर की धारा 144 के तहत दायर की गई थी.

संबंधित लेखपाल और कानूनगो से रिपोर्ट मंगाकर तहसीलदार ने लैंड यूज बदलने का आदेश पारित कर दिया. पिछले दिसंबर महीने में कंपनी ने इस कृषि योग्य भूमि को दिल्ली की एक रियल इस्टेट कंपनी के हाथों चार करोड़ रुपये में बेच दिया. इस पूरे लेन देन में राज्य सरकार को स्टांप ड्यूटी का नुकसान हुआ और आयकर विभाग को इस सौदे से होने वाले 30 प्रतिशत कैपिटल गेन का नुकसान हुआ. इस तरह से लैंड यूज परिवर्तित करना अपने आप में एक अपराध है. इस पूरी कवायद का एकमात्र मकसद स्टांप ड्यूटी बचाना था क्योंकि कृषि योग्य भूमि पर लगने वाली स्टंप ड्यूटी आबादी वाली भूमि के मुकाबले बहुत कम होता है.

इस भूमि की कीमत 26.5 करोड़ रुपये थी जिस पर करीब 1.85 करोड़ रुपये स्टांप ड्यूटी अदा करनी थी. जबकि इस पूरे लेन देन में 28 लाख रुपये की स्टांप ड्यूटी अदा की गई. राज्य सरकार को स्टांप ड्यूटी में करीब 1.58 करोड़ का नुकसान हुआ. इसी प्रकार 26.5 करोड़ पर आयकर विभाग का कैपिटल गेन करीब 6.75 करोड़ रुपये होता है. इस प्रकार केंद्र और राज्य सरकार को एक ही सौदे में करीब नौ करोड़ रुपये का नुकसान हुआ.

लोकायुक्त की जांच में मथुरा के तत्कालीन जिलाधिकारी विशाल चौहान ने स्टांप ड्यूटी में की गई धांधली की पुष्टि की है. जांच के पश्चात स्टांप विभाग के अतिरिक्त पुलिस निदेशक ने भी इस बात की पुष्टि की है कि उक्त भूमि का पहले आवासीय उद्देश्य से इस्तेमाल किया गया, उस पर बहुमंजिला आवासीय योजना विकसित की गई और इसके बाद एक बार फिर से उसका लैंड यूज आवासीय से बदल कर कृषि करने का मकसद सिर्फ स्टांप ड्यूटी की चोरी करना था.

वर्ष 2013-14 के दौरान उत्तर प्रदेश सरकार को स्टांप और पंजीकरण विभाग द्वारा 10,000 करोड़ रुपये से थोड़ा ज्यादा राजस्व की प्राप्ति हुई थी. इसमें तीन करोड़ से ज्यादा की भूमि और अन्य संपत्तियों की खरीद फरोख्त हुई थी. वर्ष 2014-15  में सरकार ने स्टांप और पंजीकरण विभाग के लिए 12,722 करोड़ रुपये राजस्व की प्राप्ति का लक्ष्य निर्धारित किया है. मौजूदा वित्त वर्ष के लिए उत्तर प्रदेश सरकार का कुल राजस्व आय का लक्ष्य 81,000 करोड़ रुपये है.

लोकायुक्त एनके मेहरोत्रा बताते हैं, ‘मथुरा मामले की जांच में जो तथ्य सामने आएं हैं, वह तो इस पूरे घोटाले का बहुत छोटा सा हिस्सा है. यह नेटवर्क पूरे प्रदेश में बड़े पैमाने पर काम कर रहा है.’ वे आगे बताते हैं, ‘जहां तक मेरी जानकारी है स्टांप ड्यूटी में चोरी का कारोबार सूबे के पांच बड़े जिलों में धड़ल्ले से चल रहा है. लेकिन मैं इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर सकता क्योंकि मेरे पास इन जिलों से कोई शिकायत नहीं आई है. अगर मैं अपने स्तर पर जिले के प्रशासनिक अधिकारियों को कोई निर्देश जारी भी करता हूं तो कंपनियां हाईकोर्ट में इसे चुनौती देकर इस पर स्टे ले लेंगी.’

लोकायुक्त के मुताबिक स्टांप ड्यूटी में चोरी का कारोबार सूबे के पांच बड़े जिलों में धड़ल्ले से चल रहा है. बिल्डर इसके जरिए सरकार को करोड़ो रुपए का चूना लगे रहे हैं

मथुरा जिले से शिकायत मिलने के बाद लोकायुक्तने दूसरे जिलों के जिलाधिकारियों से भी इस संबंध में रिपोर्ट मांगी है कि क्या वहां भी इस तरह की गड़बड़ी चल रही है. सभी जिलों के जिलाधिकारियों ने अपने यहां राजस्व विभाग के अधिकारियों और रियल इस्टेट कंपनियों की मिलीभगत से स्टांप ड्यूटी की खुलेआम हो रही चोरी की बात स्वीकार की है.

‘लैंड यूज में फेरबदल करके स्टांप ड्यूटी में चोरी करना कोई नई बात नहीं है,’ स्टांप एवं रजिस्ट्रेशन विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं. ‘यह धांधली पिछले एक दशक से जारी है, लेकिन सरकार इस गड़बड़ी से निपटने का कोई पुख्ता तरीका आज तक नहीं खोज सकी है. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि स्टांप एवं पंजीकरण विभाग के अधिकारियों की मिलीभगत से यह काम हो रहा है लेकिन वे तब तक अकेले इस काम को अंजाम नहीं दे सकते जब तक कि इसमें राजस्व विभाग के लोग शामिल नहीं हों. क्योंकि अंतत: वे ही भूमि के रिकॉर्ड में फेरबदल करने का काम करते हैं.’

‘भूमि की जांच रेवेन्यु रिकॉर्ड कीपर और राजस्व अधीक्षक द्वारा की जाती है. वे ही किसी भूमि को कृषि अथवा आवासीय होने का प्रमाणपत्र देते हैं. इसी रिपोर्ट के आधार पर भूमि का रजिस्ट्रेशन होता है. जो घोटाला मथुरा में सामने आया है वह तो कुछ भी नहीं है. यहां एक भारी-भरकम नेटवर्क है जो पूरे राज्य में संगठित तरीके से काम कर रहा है. सिर्फ एक साल के भीतर यह नेटवर्क सैंकड़ों करोड़ रुपये का चूना केंद्र और राज्य सरकार को लगा रहा है.’

2007-08 से अब तक सिर्फ मथुरा में ही इस तरह के 32 मामले सामने आ चुके हैं जिसमें लैंड यूज को पहले कृषि से आवासीय में बदला गया और बाद में उसे फिर से कृषि में तब्दील कर दिया गया. अगर जिले के संबंधित अधिकारियों ने यूपीजेडएएलआर की धारा 144 के तहत ये बदलाव नहीं किए होते तो राज्य सरकार के खाते में चार करोड़ रुपये का अतिरिक्त राजस्व आया होता. अब तक राज्य सरकार ने इन 32 मामलों में कोई भी कर्रवाई नहीं की है. लोकायुक्त भी खुद को इस मामले में अक्षम पाते हैं क्योंकि न तो किसी ने उनके पास शिकायत दर्ज करवाई है न ही राज्य सरकार ने इस मामले की जांच उनके सुपुर्द की है.

एक अध्ययन के मकसद से लोकायुक्त ने पिछले दो सालों के दौरान गौतम बुद्ध नगर, लखनऊ, आगरा, कानपुर, बाराबंकी और गाजियाबाद के जिलाधिकारियों से पिछले दो सालों के दौरान लैंड यूज में किए गए बदलावों की सूचना मांगी थी.

  • गाजियाबाद के जिलाधिकारी ने स्वीकार किया कि लैंड यूज में बदलाव के जरिए स्टांप ड्यूटी में 7.15 करोड़ रुपये का नुकसान राज्य सरकार को हुआ है.
  • कानपुर में लैंड यूज में बदलाव के कुल 32 मामले सामने आए हैं. इस बदलाव से सूबे को करीब तीन करोड़ रुपये के राजस्व का नुकसान हुआ है.
  • आगरा के जिलाधिकारी ने बताया कि पिछले दो सालों के दौरान लैंड यूज में बदलाव के कुल छह मामले सामने आए हैं. इससे राजस्व को करीब 4 लाख रुपये का घाटा हुआ है.
  • बीते दो सालों के दौरान बाराबंकी जिले में लैंड यूज में बदलाव के कुल 17 मामले सामने आए. इसमें राज्य सरकार को करीब 75 लाख रुपये के राजस्व का नुकसान बताया गया.

राज्य सरकार को भेजी गई अपनी रिपोर्ट में लोकायुक्त ने पिछले पांच सालों के दौरान हुए इस तरह के सभी भूमि सौदों की जांच की सिफारिश की है. अपनी जांच में उन्होंने कहा है कि इस जांच की जिम्मेदारी राजस्व बोर्ड के चेयरमैन या उसके किसी सदस्य को सौंपी जानी चाहिए. साथ ही रिपोर्ट उन अधिकारियों के लिए कठोर दंड की मांग भी करती हैं जिन्होंने लैंड यूज बदल कर राजकोष को नुकसान पहुंचाया है.

डल में कमल

 भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कश्मीर में अपनी पार्टी के नेताओं के साथ, फोटोः मीर इमरान
भाजपा अध्यक्ष अमित शाह कश्मीर में अपनी पार्टी के नेताओं के साथ, फोटोः मीर इमरान

हाल के दिनों में कश्मीर के पूर्व पृथकतावादी नेता सज्जाद लोन की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात बड़ी चर्चा में रही. लोन कश्मीर के उन पृथकतावादियों में से रहे हैं जिन्हें भाजपा कुछ समय पहले तक देशद्रोही और पाकिस्तानी एजेंट जैसे विशेषणों से नवाजती रही है. इनसे मिलना और चाय-पानी तो दूर, भाजपा के लिए इनसे बातचीत करना भी देशद्रोह की श्रेणी में आता था. खैर, लोन प्रधानमंत्री मोदी से मिले और मोदी प्रेम में कुछ ऐसे रंगे कि बड़े से बड़ा मोदी समर्थक झेंप जाए. लोन ने कहा कि मोदी उन्हें उनके बड़े भाई की तरह लगे. लोन अपनी मुलाकात के बारे में बताते हैं, ‘ऐसा लग रहा था मानों मैं प्रधानमंत्री हूं और अपने बड़े भाई से बात कर रहा हूं.’

गद्दारी के आरोपों से गलबहियां तक का यह सफर भाजपा की रणनीति में आए बदलाव और उसकी नई व्यूह रचना का संकेत है. 25 नवंबर से शुरू होने जा रहे जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों के लिए भाजपा ने बिल्कुल अलग तरीके की व्यूह रचना की है. भाजपा इस बार डल झील में कमल खिलाने को लेकर हद दर्जे तक बेचैन है.

कुछ समय पहले ही पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने प्रदेश के विधानसभा चुनावों को लेकर टिप्पणी की थी कि इस बार चुनाव में पीडीपी का मुकाबला भाजपा से है. जिस राज्य की आधी से ज्यादा सीटों पर भाजपा का कोई नामलेवा नहीं था उस प्रदेश में अगर भाजपा ने यह हैसियत बना ली है कि पीडीपी जैसी पार्टी नेशनल कॉंफ्रेंस और कांग्रेस की बजाय उसे अपना मुख्य प्रतिद्वंदी मानने लगी है तो इससे जम्मू-कश्मीर में भाजपा की बढ़ी हुई सियासी ताकत का पता चलता है.

जम्मू कश्मीर के राजनीतिक रंगमंच पर भाजपा का सितारा हाल फिलहाल में बड़ी तेजी से चमका है. इसके पीछे एक बड़ी वजह पिछले लोकसभा चुनाव में उसे मिली सफलता है. पार्टी पिछले चुनाव में प्रदेश की 6 लोकसभा सीटों में से तीन पर भगवा फहराने में कामयाब रही. लद्दाख की लोकसभा सीट तो उसने अपने राजनीतिक इतिहास में पहली बार जीती है. इन सीटों की जीत से ज्यादा जिस तथ्य से उसकी आंखों में चमक आई है वह है जम्मू क्षेत्र की 37 विधानसभा क्षेत्रों में से 30 पर वह पहले नंबर पर रही. इसी तरह जिस लद्दाख लोकसभा की सीट भाजपा ने पहली बार जीती है उस संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत आने वाली चार विधानसभा सीटों में तीन पर वो पहले नंबर पर रही. कुल मिलाकर देखें तो पिछले विधानसभा चुनाव में जो पार्टी 11 सीटें जीत पायी थी वह इस बार 33 विधानसभा क्षेत्रों में सबसे आगे दिख रही है.

भाजपा देश के दूसरे हिस्सों  में रहने वाले कश्मीरी पंडितों को प्रोत्साहित कर रही है कि वे चुनाव के समय राज्य में आकर उसके पक्ष में मतदान करें

भाजपा को इस विधानसभा चुनाव में कुछ कर दिखाने की प्रेरणा इन्हीं आकड़ों से मिली है. पार्टी आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर एक व्यापक रणनीति बनाकर काम कर रही है. जम्मू के भाजपा नेता दिवाकर शर्मा कहते हैं, ‘हमारी रणनीति बहुत साफ है. हमें जम्मू और लद्दाख की कुल 41 सीटों को हर हाल में जीतना है. हम ऐसा करने में सफल होंगे. इस बार चूकने का कोई मौका नहीं है. जनता ने लोकसभा चुनावों में बता दिया है कि वह किससे साथ है. कश्मीर घाटी में स्थिति थोड़ी अलग है लेकिन हम वहां भी इस बार अपना खाता जरूर खोलेंगे.’

लोकसभा चुनाव के परिणामों का पार्टी पर कितना गहरा असर पड़ा है वो इस बात से भी जाहिर होता है कि अचानक से भाजपा ने जम्मू-कश्मीर में अगला मुख्यमंत्री किसी हिंदू को बनाने का दांव चल दिया है. हिंदू मुख्यमंत्री का कार्ड जम्मू क्षेत्र में भाजपा के पक्ष में ध्रुवीकरण की बड़ी वजह बन सकता है. कुछ समय पहले ही जम्मू क्षेत्र में एक रैली को संबोधित करते हुए पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने कहा, ‘अगली बार इस प्रदेश का मुख्यमंत्री भाजपा का होगा. आप लोग एक बार सोच कर तो देखिए अगर हमने एक भाजपा कार्यकर्ता को यहां का मुख्यमंत्री बना दिया तो पूरी दुनिया में उसका कितना बड़ा संदेश जाएगा. हमें इस बार यह कर दिखाना है.’

केंद्र में भाजपा सरकार बनने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चार बार जम्मू कश्मीर के दौरे पर जा चुके हैं. लगभग इतनी बार ही अमित शाह भी प्रदेश का दौरा कर चुके हैं. इन हाई प्रोफाइल दौरों से भाजपा के कैडर में चुनाव से पहले जरूरी उत्साह का माहौल बन गया है. दिवाकर कहते हैं, ‘ पहले भी पार्टी यहां चुनाव लड़ती थी लेकिन इश तरह की आक्रामकता नहीं थी. कोई मजाक में भी नहीं सोचता था कि प्रदेश में भाजपा का सीएम होगा. लेकिन इस बार हमारे मन में इसके अलावा कोई सोच नहीं है.’

भाजपा मिशन 44 प्लस को लेकर कितनी गंभीर है इस बात का पता उन मीडिया रिपोर्ट्स से भी चलता है जिसमें बताया गया है कि भाजपा जम्मू कश्मीर से पलायन करके देश के अन्य हिस्सों में रह रहे कश्मीरी पंडितों की सूची तैयार कर रही है. उन्हें पार्टी से जोड़ने और अगले चुनाव में जम्मू कश्मीर आकर भाजपा के लिए वोट करने के लिए प्रोत्साहित कर रही है. कश्मीरी पंडितों को अपने पाले में लाने की भाजपा की रणनीति से कांग्रेस भी दबाव में है. कांग्रेस कोटे से राज्य सरकार में मंत्री श्यामलाल ने बयान देकर जम्मू कश्मीर का अगला मुख्यमंत्री किसी हिंदू को बनाने की मंशा जाहिर की है.

हालांकि इस उत्साह के बीच ऐसे लोग भी हैं जो भाजपा के प्रयास को दुस्साहस करार देते हैं. प्रदेश के वरिष्ठ पत्रकार खालिद अख्तर कहते हैं, ‘यह सही है कि भाजपा ने लोकसभा में अच्छा प्रदर्शन किया. एसेंबली सेग्मेंट्स में उसे अच्छी सफलता मिली लेकिन अपना मुख्यमंत्री बनाने की बात करना थोड़ा ज्यादा हो गया. उसके पास कश्मीर और लद्दाख में एक भी विधायक नहीं है. यह अमित शाह की तरफ से कार्यकर्ताओं में जोश भरने के लिए छोड़ा गया शिगूफा हो सकता है. भाजपा यह कोशिश जरूर कर सकती है कि उसके बिना राज्य में किसी की सरकार न बनने पाए.’

इस बीच भाजपा का चुनाव अभियान बहुत आक्रामक तरीके से चल रहा है. पार्टी को सत्ता के करीब पहुंचाने के लिए संघ परिवार भी पूरा जोर लगा रहा है. संघ के एक पदाधिकारी कहते हैं, ‘यह गलत बात है कि हम भाजपा के लिए काम कर रहे हैं. संघ का तो बहुत पहले से यहां काम चल रहा है. अब जाकर यह लोगों की नजर में आया है.’

सूत्र बताते हैं कि संघ जम्मू कश्मीर और खासकर जम्मू के इलाके में लोकसभा चुनाव से दो साल पहले ही अपने मिशन में लग गया था. भाजपा कार्यकर्ताओं से अधिक लोगों को उसके पक्ष में खड़ा करने का काम संघ के स्वंयसेवकों ने किया. कांग्रेस को हिंदू विरोधी ठहराते हुए प्रदेश की हिंदू आबादी को भाजपा से जुड़ने के लिए लगातार प्रेरित किया गया. जम्मू क्षेत्र के गांवों में संघ के प्रचारकों का पिछले दो साल से लगातार दौरा और कैंप चल रहा है. खालिद कहते हैं, ‘ जम्मू इलाके में संघ बहुत लंबे समय से काम कर रहा है. संघ की सालों की मेहनत का इस बार लोकसभा चुनाव में भाजपा को फायदा मिला. धीरे-धीरे ये लोग घाटी की तरफ भी आ रहे हैं. यहां इन्होंने प्रॉक्सी नामों से तमाम सहायता संगठन और एनजीओ खड़े कर लिए हैं.’

कश्मीर के लोगों के बीच भाजपा की पैठ बनाने की कोशिश का एक संकेत इस बात से भी मिलता है कि जिस धारा 370 को हटाने को लेकर वह हमेशा मुखर रहती है उस पर अब पार्टी में कोई बात ही नहीं करता. पार्टी का कहना है कि विधानसभा चुनाव के घोषणापत्र में यह मुद्दा शामिल नहीं होगा. इसी तरह लद्दाख क्षेत्र में भी पार्टी ने बौद्धों को जोड़ने का बड़ा प्रोजेक्ट चलाया है. वहां शिया मुसलमानों और बौद्धों के बीच हुए टकराव का फायदा उठाकर संघ ने अपनी एक जगह बना ली है.

कुछ समय पहले ही पाकिस्तान की तरफ से बॉर्डर के इलाकों में जारी भारी फायरिंग से बड़ी संख्य़ा में लोग विस्थापित हुए थे. ऐसा पहली बार था कि इन इलाकों में संघ ने अपना राहत शिविर खोला. उन इलाकों में उसकी तरफ से कई राहत शिविर चलाए जा रहे हैं. इन शिविरों में लोगों के रहने से लेकर उनके खाने-पीने और इलाज का इंतजाम किया गया. संघ का एक और अनुषंगिक संगठन वीएचपी मुस्लिम बहुल इलाकों में हिंदू धार्मिक स्थलों  के जीर्णोद्धार और यात्राओं का अलग मोर्चा खोले हुए है. कुछ समय पहले ही उसने पूंछ जिले के मंडी क्षेत्र में बुद्ध अमरनाथ यात्रा की शुरुआत की है. 1990 में आतंकवाद के चरम पर यह यात्रा बंद हो गई थी.

जम्मू-कश्मीर में भाजपा को मिली मजबूती के पीछे उन तमाम नेताओं का भी हाथ है जो दूसरी पार्टियां छोड़कर भाजपा में शामिल हुए हैं. पीडीपी नेता हाजी ताज मोहम्मद खान, पीडीपी की युवा शाखा के प्रदेश महासचिव शौकत जावेद, पूर्व नेशलन कॉन्फ्रेंस नेता मोहम्मद शफी भट्ट की बेटी हिना भट्ट, राजौरी से वरिष्ठ नेता चौधरी तालिब हुसैन समेत तमाम नेता आज भाजपा का झंडा उठाए हुए हैं. हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता कर्ण सिंह के पुत्र और जम्मू कश्मीर रियासत के आखिरी राजा हरी सिंह के पोते अजातशत्रु ने भी भाजपा का दामन थाम लिया है.

दूसरी पार्टियों के नेताओं और कार्यकर्ताओं के अलावा भाजपा हर उस शख्स को अपने पाले में लाने और चुनाव में उसका इस्तेमाल करने की कोशिश कर रही जो राज्य में थोड़ा बहुत भी असर रखते है. सूत्र बताते हैं कि हाल ही में भाजपा नेताओं ने कृषि मंत्री गुलाम हसन मीर, पूर्व मंत्री हाकिम यासीन आदि से भी भाजपा की मदद करने को कहा है. इस सूची में सबसे चौंकाना वाला नाम इंजीनियर राशिद का है. राशिद वो नेता हैं जो प्रदेश के चुनावों में भाग लेते हुए भी प्रदेश में अलगाववाद की अलख जगाए हुए हैं. अफजल गुरु की फांसी के बाद विधानसभा से लेकर सड़क पर बवाल मचाने वालों में वो सबसे आगे थे. सूत्र बताते हैं कि भाजपा सीपीएम के जनरल सेकेट्री मोहम्मद युसूफ तारागामी के भी संपर्क में है. इसी तरह पार्टी प्रदेश के तमाम निर्दलीय नेताओं और जम्मू कश्मीर सेव पार्टी, तहरीके ए हक, पीपल्स रिपब्लिक पार्टी जैसी छोटी पार्टियों को भी अपने पाले में लाने की कोशिश कर रही है. इन छोटे दलों से टैक्टिकल अंडरस्टैंडिंग करके पार्टी घाटी में अपनी संभावनाओं को मजबूत करने में लगी हुई है. इसके अलावा प्रदेश के धर्मगुरूओं समेत समाज के अलग अलग क्षेत्र में काम करने वालों लोगों से भी वो मेलजोल बढ़ाने की लगातार कोशिशें जारी हैं. इतने व्यापक स्तर पर पहली बार भाजपा जम्मू कश्मीर का चुनाव लड़ने जा रही है, क्या नतीजे भी इतने ही चमत्कारिक होंगे?            l

खाई में सीबीआई

 

दांव पर प्रतिष्ठा सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2जी जांच से अलग किए गए रंजीत सिन्हा और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण
दांव पर प्रतिष्ठा सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2जी जांच से अलग किए गए रंजीत सिन्हा और वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण

छह महीने पुरानी बात है. प्रधानमंत्री पद पर नरेंद्र मोदी की ताजपोशी के अगले दिन यानी 27 मई को एक खबर आई जो बहुत चर्चा में रही. यह खबर प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव की नियुक्ति को लेकर थी. खबर के मुताबिक इस पद पर भारतीय दूरसंचार नियामक आयोग (ट्राई) के पूर्व चेयरमैन नृपेंद्र मिश्र को नियुक्त करने की बात चल रही थी. लेकिन उनकी नियुक्ति में एक बड़ी कानूनी बाधा थी. दरअसल नृपेंद्र मिश्र जिस ट्राई के मुखिया के पद से रिटायर हुए थे उसके प्रावधान कहते थे कि ट्राई का अध्यक्ष या सदस्य रह चुका व्यक्ति रिटायर होने के बाद कोई अन्य सरकारी पद ग्रहण नहीं कर सकता है. लेकिन नृपेंद्र मिश्र के प्रति नरेंद्र मोदी का अनुराग कुछ ऐसा था कि वे हर हाल में उन्हें अपना प्रमुख सचिव बनाना चाहते थे. ऐसे में केंद्र सरकार ने अध्यादेश लाकर ट्राई के प्रावधानों में संशोधन किया और उनकी नियुक्ति का रास्ता साफ कर दिया. आज नृपेंद्र मिश्र पीएमओ के सबसे ताकतवर अधिकारी हैं.

इस पूरे घटनाक्रम से एक बात साफ होती है कि सरकार यदि चाहे तो संवैधानिक पदों पर लोगों को नियुक्त करने या हटाने के रास्ते में आनेवाली कानूनी अड़चनों से आसानी से निपट सकती है. सरकार के सामने एक बार फिर इसी तरह की स्थिति उत्पन्न थी लेकिन इस बार सरकार ने एकदम जुदा रवैया अपनाया. वह कानूनी दिक्कतों का हवाला देकर इस मामले से पल्ला झाड़ गई. यह मामला देश की सबसे बड़ी जांच एजेंसी मानी जाने वाली सीबीआई से जुड़ा था. फिलहाल सुप्रीम कोर्ट के कठोर रुख और एक्टिविस्ट अधिवक्ता प्रशांत भूषण की याचिकाओं के चलते इस संस्था और उसके मुखिया की प्रतिष्ठा धूमिल हुई है.

सुप्रीम कोर्ट ने बीते 20 नवंबर को सीबीआई के मुखिया रंजीत सिन्हा के आचरण को उनके पद की मर्यादा के अनुरूप न पाने के कारण उन्हें 2जी मामले की जांच से अलग होने का आदेश दिया था. सुप्रीम कोर्ट की इस कार्रवाई को जानकार कई मायनों में असाधारण और ऐतिहासिक मानते हैं. इस आदेश के आधार पर एक तबका सीबीआई प्रमुख के इस्तीफे की मांग करने लगा. लेकिन केंद्र सरकार दूसरी दलील दे रही है. उसका कहना है कि सीबीआई निदेशक का पद एक निश्चित समय सीमा के लिए होता है इसलिए वह इस मामले में कुछ नहीं कर सकती. इस तरह से केंद्र सरकार उनके रिटायरमेंट का इंतजार करती रही. हालांकि जिस दिन सुप्रीम कोर्ट ने सिन्हा को 2जी मामले से हटाने का आदेश दिया तब उनके कार्यकाल के सिर्फ बारह दिन शेष रह गए थे. लिहाजा उनके इस्तीफा देने या न देने का कोई बहुत महत्व बचता नहीं है. लेकिन नैतिकता की अपनी परिभाषा है जिसे इस देश में हर व्यक्ति अपने हिसाब से तय करता है. बड़े-बड़े घोटालों में फंसनेवाले राजनेता भी बिना किसी झिझक के अपने पदों और मंत्रालयों से चिपके रहते हैं. इस लिहाज से नैतिकता अपना अर्थ खो चुकी है वरना सिन्हा स्वयं ही पदमुक्त हो जाते.

नृपेंद्र मिश्रा की तर्ज पर ही सरकार सुप्रीम कोर्ट के कड़े बयान के बाद सीबीआई निदेशक के खिलाफ कोई कार्रवाई कर सकती थी. लेकिन सरकार ने ऐसा नहीं किया. इस रिपोर्ट के पाठकों तक पहुंचने से पहले शायद वे सेवानिवृत हो चुके होंगे, लेकिन केंद्र सरकार की जवाबदेही फिर भी बनी रहेगी. सुप्रीम कोर्ट का आदेश आने से लेकर रंजीत सिन्हा के रिटायर होने तक इन 12 दिनों की छोटी-सी समयावधि में इतना कुछ घटित हो चुका है, जिससे भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की मंशा पर सवाल उठाये जा सकते हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता और आम आदमी पार्टी के नेता प्रशांत भूषण ने इसी साल दो सितंबर को सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की थी. इस याचिका में उन्होंने सीबीआई प्रमुख रंजीत सिन्हा पर 2जी स्पेक्ट्रम घोटाले के आरोपितों से सांठगांठ का आरोप लगाया था. गैर सरकारी संगठन सेंटर फॅर पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन की तरफ से दायर की गई याचिका में अदालत को बताया गया कि पिछले एक साल के दौरान अनिल अंबानी के स्वामित्ववाले रिलायंस ग्रुप के दो अधिकारियों सहित कई ऐसे लोगों ने सीबीआई प्रमुख से उनके घर पर मुलाकात की है. अपने आरोपों के पक्ष में प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के सामने रंजीत सिन्हा के दो जनपथ स्थित सरकारी आवास की एक विजिटर्स डायरी बतौर सबूत पेश की थी. इस डायरी में उन लोगों के नाम, घर आने की तारीख, आने-जाने का समय और उनकी गाड़ियों के नंबर आदि दर्ज थे जो उनसे मिलने पहुंचे थे. 2जी घोटाले में जांच का सामना कर रहे ऐसे अधिकारियों के साथ सीबीआई प्रमुख की मुलाकात को अनैतिक बताते हुए प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट से मांग की थी कि सिन्हा को इस मामले की जांच से अलग कर दिया जाना चाहिए. इसी याचिका पर सुनवाई करने के बाद 20 नवंबर को सुप्रीम कोर्ट ने सिन्हा को 2जी मामले की जांच से हटने का आदेश दिया था. अदालत ने इस घटना को पूरी संस्था की विश्वसनीयता के लिए चिंताजनक बताया.

राष्ट्रीय सहारा अखबार के समूह संपादक रणविजय सिंह कहते हैं, ‘सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद सिन्हा को या तो इस्तीफा दे देना चाहिए था या फिर छुट्टी पर चले जाना चाहिए था. लेकिन ऐसा कुछ भी उन्होंने नहीं किया.’ इस मामले में रणविजय सरकार की मंशा को और बड़ा खतरा मानते हैं, ‘अदालत की कठोर टिप्पणी के बाद सरकार को एक संदेश देना चाहिए था लेकिन वह ऐसा करने में नाकाम रही.’ इस मामले में मीडिया से बात करते हुए याचिकाकर्ता प्रशांत भूषण का कहना था कि सिन्हा के हटने से सीबीआई की गिरती साख को बचाने में मदद मिलेगी और इस संस्था के प्रति लोगों के गिरते विश्वास को बहाल किया जा सकेगा.’  2जी और कोयला घोटाले के आरोपितों के साथ सीबीआई निदेशक की मुलाकातों का खुलासा होने के कुछ ही दिन बाद सीएसडीएस के संपादक और राजनीतिक विश्लेषक अभय कुमार दुबे ने भी कुछ ऐसी ही राय जाहिर की थी. तहलका से बातचीत में उनका कहना था, ‘यह सरकार की परीक्षा होगी कि वह इस मामले पर क्या रुख अपनाती है, क्योंकि यह मामला प्रथम दृष्टया कई तरह की आशंकाओं को जन्म देती है.’

सीबीआई की धूमिल प्रतिष्ठा में जितना योगदान उसके मुखिया का है उससे ज्यादा उस व्यवस्था का है जो लंबे समय से इस संस्था की बांह तोड़ती-मरोड़ती रही है

हालांकि इस पूरे प्रकरण पर रंजीत सिन्हा के बचाव के अपने तर्क हैं. वे कहते हैं, ‘मैं कोर्ट के आदेश का पालन करते हुए इस जांच से हट रहा हूं. लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं है क्योंकि कोर्ट ने मेरे खिलाफ व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं कहा है.’ थोड़ा अतीत में झांके तो रंजीत सिन्हा का पूरा करियर कई तरह के विवादों से भरा रहा है. साल 2012 में सीबीआई के निदेशक के रूप में इनका दो साल का कार्यकाल भी इसी कड़ी का हिस्सा है. सबसे बड़ा विवाद उनकी नियुक्ति को लेकर ही था. तत्कालीन यूपीए सरकार ने सेंट्रल विजिलेंस कमीशन की आपत्तियों को दरकिनार करते हुए उन्हें सीबीआई निदेशक पद पर नियुक्त किया था. उस वक्त विपक्ष में रहनेवाली भारतीय जनता पार्टी ने सिन्हा की नियुक्ति का विरोध भी किया था. प्रख्यात वकील और आम आदमी पार्टी के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ चुके एचएस फूल्का कहते हैं, ‘आम आदमी पार्टी ने सिन्हा की नियुक्ति का उसी वक्त विरोध किया था, जब केंद्र सरकार उन्हें सीबीआई निदेशक बनाने का फैसला ले रही थी. हमारी आशंका सही साबित हुई है.’ इस मामले से इतर भी कई ऐसी चीजें हंै जिनमें सिन्हा की भूमिका विवादित रही है.

एक मामला इसी साल अप्रैल महीने के आखिरी दिनों का है. 2जी मामले में आरोपी और पूर्व दूरसंचार मंत्री दयानिधि मारन तथा उनके भाई के खिलाफ सीबीआई, एयरसेल-मैक्सिस सौदे में हुई गड़बड़ियों की जांच कर रही थी. यह बात सामने आ रही थी कि सीबीआई के पास मारन और उनके भाई के खिलाफ पुख्ता सबूत थे. सीबीआई उनके खिलाफ आरोपपत्र तैयार करने की प्रक्रिया में थी. इसी बीच सीबीआई प्रमुख का एक बयान आया कि मारन बंधुओं के खिलाफ पर्याप्त सबूत नहीं हैं, लिहाजा उन्हें इस मामले में आरोपी बनाना मुश्किल होगा. यह बयान मामले  की जांच कर रहे अधिकारियों के बयान से विरोधाभास पैदा कर रहे थे. जांच अधिकारियों तथा सीबीआई मुखिया के इन विरोधाभासी बयानों के बाद इस मामले को अटॅर्नी जनरल के पास भेज दिया गया. तब तक देश में आम चुनावों का परिणाम सामने आ चुका था और एनडीए को बहुमत मिल चुका था. ऐसे में अटॅर्नी जनरल ने नई सरकार को इस पर फैसला लेने की बात कह कर अपनी राय देने से इंकार कर दिया. नई सरकार बन जाने के बाद नये अटॅर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने सीबीआई के जांच अधिकारियों की बात को सही माना और राय दी कि मारन बंधुओं के खिलाफ मुकदमा चलाने के लिए सीबीआई के पास पर्याप्त सबूत हैं. रोहतगी के इस बयान ने सीबीआई प्रमुख की स्थिति को कमजोर किया. सीबीआई ने इस मामले में मारन बंधुओं को आरोपी बनाते हुए आरोप पत्र दायर कर दिया है.

विवादों से सिन्हा का नाता 2014 के लोकसभा चुनावों के दौरान भी रहा. कथित तौर पर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले वे चारा घोटाले से जुड़े तीन मामलों में लालू के खिलाफ आरोप हटवाना चाहते थे. उनका तर्क था कि इन तीनों मामलों में भी लालू के खिलाफ वही सारे सबूत हैं जिनके आधार पर लालू एक मामले में पहले ही पांच साल की सजा भोग रहे हैं. इस मामले में भी सीबीआई के एक अधिकारी ने उनकी राय के विपरीत विचार दिए. बाद में सॉलीसिटर जनरल ने राय दी कि इस बात का फैसला ट्रायल कोर्ट के हाथों में छोड़ दिया जाना चाहिए. जब वे बिहार में डीआईजी के पद पर थे तब भी चारा घोटाले की जांच में लालू यादव को मदद के आरोपों उन पर लगे थे. उस समय लालू बिहार के मुख्यमंत्री थे और सिन्हा पटना में सीबीआइ के डीआइजी थे. लालू के पक्ष में रिपोर्ट तैयार करने के आरोप में तब पटना हाई कोर्ट ने सिन्हा को जांच से हटाने का आदेश दिया था.

विवादों से सिन्हा का नाता लंबा रहा है लेकिन पिछले साल अप्रैल में हुए कोयला घोटाले की स्टेटस रिपोर्ट के लीक होने का मामला उल्लेखनीय है. इस मामले की सुनवाई के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को ‘पिंजरे में बंद तोता’ की उपमा से नवाजा. तब सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में सीबीआई कोयला आवंटन घोटाले की जांच कर रही थी. इसी दौरान कोर्ट ने सीबीआई से इस मामले की स्टेटस रिपोर्ट जमा करने को कहा. कायदे के मुताबिक सीबीआई को यह रिपोर्ट सीधे सुप्रीम कोर्ट को दिखानी चाहिए थी, लेकिन  ऐसा न करके इस रिपोर्ट को कानून मंत्री अश्विनी कुमार के साथ ही कोयला मंत्रालय के अधिकारियों को न सिर्फ दिखाने की बात अदालत में स्वीकार की बल्कि  उन्होंने सरकार के निर्देश पर इनमें बदलाव भी किए. सीबीआई प्रमुख के इस कदम को बेहद गंभीर और गलत माना गया. सीबीआई के पूर्व निदेशक त्रिनाथ मिश्रा ने तब सीबीआई के आचरण को गलत बताते हुए कहा था, ‘स्टेटस रिपोर्ट देखने के लिए कानून मंत्रालय द्वारा सीबीआई के अधिकारियों को अपने कार्यालय में बुलाया गया, यह गलत परंपरा की शुरुआत है.’

सीबीआई की लगातार गिरती प्रतिष्ठा में जितना योगदान उसके मुखिया का है उससे कहीं ज्यादा योगदान उस राजनीतिक व्यवस्था का है जो लंबे समय से इस संस्था की बांह तोड़ती-मरोड़ती आ रही है. सुप्रीम कोर्ट द्वारा 2जी घोटाले की जांच से हटाए जाने का दाग ताउम्र रंजीत सिन्हा के साथ रहेगा लेकिन उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि मौजूदा माहौल में इस संस्था से उठ चुके विश्वास की बहाली का जिम्मा जिन लोगों के ऊपर है वे भी किसी तरह की उम्मीद नहीं जगाते हैं.

चूक गए तो चुक गए

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

‘यहां जितने विधायक बैठे हैं. मैं उन सभी से हाथ जोड़कर कहूंगा कि घमंड में कभी मत आना. अहंकार मत करना. आज हम लोगों ने भाजपा और कांग्रेसवालों का अहंकार तोड़ा है. कल कहीं ऐसा न हो कि किसी आम आदमी को खड़ा होकर हमारा अहंकार तोड़ना पड़े. ऐसा न हो कि जिस चीज को बदलने हम चले थे कहीं हम उसी का हिस्सा हो जाएं.’

यह उस भाषण का हिस्सा है जो अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव परिणाम आने के बाद जंतर-मंतर पर पार्टी के सभी विधायकों और समर्थकों को संबोधित करते हुए दिया था. आम आदमी पार्टी (आप) के राष्ट्रीय संयोजक की इस हिदायत का उनके विधायकों, नेताओं और खुद उन्होंने कितना पालन किया यह तो वही बेहतर बता सकते हैं, लेकिन जो पार्टी पिछले विधानसभा चुनाव में सफलता के सातवें आसमान पर थी वह आज अपने सियासी अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष करती दिख रही है.

पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव में पार्टी को 28 सीटें और 29 फीसदी वोट मिले थे. लेकिन 2014 लोकसभा चुनाव में पार्टी को दिल्ली से एक भी सीट हासिल नहीं हुई. हालांकि उसका वोट प्रतिशत जरूर बढ़कर 32.92 फीसदी पर पहुंच गया. सबसे ज्यादा जिस बात ने पार्टी के माथे पर चिंता की लकीर खींची वह थी कि भाजपा विधानसभा की कुल 70 सीटों में से 60 पर सबसे आगे रही.

एक बार फिर से दिल्ली में विधानसभा चुनाव का रास्ता साफ हो चुका है. सभी पार्टियां अपनी व्यूह रचना में जुट गई हैं. एक तरफ कांग्रेस है जो लगता है मानो हार के अंतहीन सफर पर निकल चुकी है वहीं भाजपा लोकसभा चुनाव और उसके बाद हुए महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनाव में अपना जलवा दिखाने के बाद एक-एक कर सभी राज्यों में कमल खिलाने की आक्रामक फिराक में है. महाराष्ट्र और हरियाणा की तर्ज पर भाजपा दिल्ली में भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘करिश्मे’ के सहारे चुनावी वैतरणी पार करने की योजना पर आगे बढ़ रही है.

आप के लिए यह चुनाव बाकी पार्टियों की तरह सिर्फ एक चुनाव-भर नहीं है. यह उसके लिए करो या मरो वाला चुनाव है. ऐसा माना जा रहा है कि आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम ‘आप’ का राजनीतिक भविष्य तय करेंगे.

फोटोः विजय पांडे
फोटोः विजय पांडे

‘आप’ के साथ कितने आम आदमी?

‘आप’ के लिए यह चुनाव उसके अस्तित्व की लड़ाई है. यह खतरा उस पार्टी के सामने है जिससे लोगों का जुड़ाव स्वस्फूर्त था. इनमें सबसे बड़ी तादाद युवाओं की थी. ऐसे भी बहुत से लोग थे जो पार्टी के सदस्य नहीं बने लेकिन उसके कट्टर समर्थक थे. वे अरविंद और आप के खिलाफ एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं थे और उन्हें भारत की तमाम समस्याओं का शर्तिया इलाज बताते थे. देश के एक बड़े तबके में आशा व उम्मीद का संचार पार्टी और उसके नेता अरविंद ने किया था. इस आशा, उत्साह और समर्थन का असर पिछले दिल्ली विधानसभा चुनाव में तब दिखा जब तमाम राजनीतिक सर्वेक्षणों को झूठलाते हुए पार्टी विधानसभा की 28 सीटों पर जीती. कई सीटों पर वह मामूली अंतर से हारी. आम आदमी पार्टी अब फिर चुनावी मैदान में उतरने जा रही है लेकिन साल-भर पहलेवाली ताकत अब उसके पास नहीं है. पार्टी की हालत बिगड़ने की शुरुआत तो 49 दिन की सरकार से त्यागपत्र देने के बाद ही शुरू हो गई थी लेकिन बीते लोकसभा चुनाव के बुरे प्रदर्शन ने आग में घी का काम किया. आम चुनाव में हार के बाद बड़ी संख्या में कार्यकर्ताओं ने पार्टी से मुंह मोड़ लिया. यह वे लोग थे जो अन्ना-अरविंद आंदोलन के समय से ही इस मुहिम से जुड़े और बाद में आम आदमी पार्टी के पक्के समर्थक बन गए. पार्टी की जान यही स्वयंसेवक या वॉलेंटियर थे. लेकिन आज इन लोगों में वह उत्साह दिखाई नहीं देता. जिन कार्यकर्ताओं से पार्टी और अरविंद की तारीफ के सिवाय कुछ सुनाई नहीं देता था उनके मन में आज गुस्सा और पीड़ा है.

पार्टी के भीतर के लोग बताते हैं कि लोकसभा चुनाव के बाद लगभग 30 से 40 फीसदी के करीब कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. निराशा और नाउम्मीदी को इस तथ्य से भी समझा जा सकता है. कुछ मीडिया रिपोर्टों में यह भी दावा किया गया है कि पार्टी में 3.50 लाख वॉलेंटियर की तुलना में अब केवल 50 हजार ही बचे हैं. दिल्ली में ही 15 हजार शुरुआती कार्यकर्ताओं में से आधे से अधिक पार्टी छोड़कर जा चुके हैं. जो अभी पार्टी के साथ हैं उनमें से लगभग 80 फीसदी से अधिक ने पूरा समय पार्टी के लिए देना बंद कर दिया है.

आईआईटी दिल्ली में पढ़ रहे और पार्टी से जुड़े प्रिंस कहते हैं, ‘पहले लगता था कि हर दिन कोई न कोई परिवर्तन हो रहा है. मंजिल बहुत पास दिख रही थी. लेकिन लोकसभा में भयानक हार के बाद ज्यादातर कार्यकर्ताओं के मन में यह बात घर कर गई कि आगे लड़ाई बहुत लंबी होनेवाली है. पार्टी को शून्य से शुरूआत करनी है. सफलता कब तक मिलेगी पता नहीं. इसमें 2, 5, 10 साल लगेंगे या उससे भी अधिक पता नहीं. ऐसे में कई कार्यकर्ता जो अपनी नौकरी या पढ़ाई छोड़कर आए थे वे वापस चले गए हैं.’ प्रिंस ने पिछले विधानसभा चुनाव के समय दिल्ली के कई इलाकों में पार्टी के लिए प्रचार किया था. वे घर-घर जाकर लोगों को आम आदमी पार्टी से जोड़ने का काम कर रहे थे लेकिन इस बार ऐसा नहीं है. प्रिंस पार्टी से जुड़े जरूर हैं लेकिन अब उनकी प्राथमिकता अपनी इंजीरियरिंग की पढ़ाई है.

दिल्ली के वसंत विहार में पार्टी के लिए पिछले डेढ़ साल से वॉलेंटियर का काम कर रहे अनुराग राय बताते हैं, ‘मैंने बीटेक फर्स्ट ईयर की पढ़ाई छोड़कर पार्टी के लिए काम करना शुरू किया था. परिवार के लोग मेरे इस फैसले से बहुत नाराज थे. उनका कहना था कि मुझे पहले बीटेक पूरा करना चाहिए. मैं नहीं माना. पिछले एक साल तक पार्टी के लिए बिना कुछ सोचे काम करता रहा लेकिन लोकसभा में जिस तरह से पार्टी ने गलत लोगों को टिकट दिया. कार्यकर्ताओं की सुनवाई खत्म हुई. आंतरिक लोकतंत्र और पारदर्शिता का जिस तरह से मजाक बनाया गया उससे मैं बहुत दुखी हुआ. मैंने पार्टी छोड़ दी. अब फिर से अपनी बीटेक की पढ़ाई शुरू करने की तैयारी कर रहा हूं. इस बीच घरवाले उस खबर की कतरनें सैकड़ों बार दिखा चुके हैं जिनमें लिखा है कि अरविंद केजरीवाल की बेटी का आईआईटी में सलेक्शन हो गया है. घरवाले यह कहते हुए कोसते हैं कि देखो तुम बीटेक की पढ़ाई छोड़कर क्रांति कर रहे थे वहीं तुम्हारे नेताजी की बेटी आईआईटी में दाखिले की तैयारी कर रही थी.’ पार्टी कार्यकर्ता चंद्रभान कहते हैं, ‘ऐसे कार्यकर्ताओं की अब बड़ी तादाद है जो नौकरी के साथ पार्टी के लिए जितना बन पड़ता है उतना कर रहे हैं पर पार्टी के लिए फुलटाइम काम करनेवाले पार्टी में तेजी से कम हुए हैं.’

‘आप’ के समर्थकों का एक बड़ा तबका उस समय हैरान रह गया जब अरविंद केजरीवाल ने कहा कि वे दिल्ली चुनाव में नरेंद्र मोदी को निशाना नहीं बनाएंगे

पार्टी कार्यकर्ता बताते हैं कि अरविंद के मुख्यमंत्री पद छोड़ने का सबसे अधिक खामियाजा कार्यकर्ताओं को ही भुगतना पड़ा. चांदनी चौक में पार्टी के लिए काम कर चुके अनुपम कहते हैं, ‘कार्यकर्ता ही जमीन पर लोगों के बीच में था. जो लोग अरविंद के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देने के निर्णय से खफा थे उन्होंने कार्यकर्ताओं पर ही गुस्सा निकालना शुरू कर दिया. इस कारण से भी कई कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर चले गए. कौन हर रोज सुबह-शाम लोगों की गालियां सुनता. जिस निर्णय में आपका कोई रोल नहीं है उसके लिए कोई आपको कोसे तो बुरा लगना स्वभाविक है.’ ऐसी राय रखनेवाले अनुपम अकेले नहीं हैं. दिल्ली के ही मालवीय नगर में पार्टी का काम देखनेवाले एक कार्यकर्ता कहते हैं, ‘अरविंद जी को चंद रैलियों और कार्यक्रर्मों में इस सवाल का जवाब देना पड़ा तो वे कहते नजर आए कि उनसे गलती हो गई. आगे ऐसा नहीं करेंगे. अब आप कल्पना कीजिए कि जो कार्यकर्ता जनता के बीच 24 घंटे रहता है उसकी क्या फजीहत हुई होगी.’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

दिल्ली विधानसभा चुनाव में सफलता के बाद आम आदमी पार्टी से जुड़नेवाले छोटे-बड़े तमाम स्तर के लोगों की बाढ़ आ गई थी. कार्यकर्ताओं का मानना कि इससे पार्टी को बहुत नुकसान पहुंचा. प्रिंस इसकी वजह बताते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव के बाद और लोकसभा चुनाव के समय एक बड़ी तादाद में लोग पार्टी से जुड़े. एकाएक नए नेताओं की पार्टी में बाढ़ आ गई. ऐसे में धीरे-धीरे पुराने कार्यकर्ताओं की पूछ कम होती गई और नए लोग तवज्जो पाते गए.’ चंद्रभान एक उदाहरण देते हैं, ‘दिल्ली विधानसभा चुनाव के कुछ समय पहले शाजिया इल्मी रेवाड़ी से अपनी दोस्त अंजना मेहता को ले आईं. उनके साथ उनके अपने लोग आए थे. अंजना ने यहां आकर आरके पुरम के कार्यकर्ताओं को परेशान करना शुरू कर दिया. यहां पूरी टीम को उन्होंने तहस-नहस कर दिया.’

लोक बिन तंत्र !

आम आदमी पार्टी से जुड़े कई लोग उसके भीतर खत्म हो रहे लोकतांत्रिक स्पेस का सवाल भी उठाते हैं. पार्टी के एक कार्यकर्ता रमेश पाराशर कहते हैं, ‘जो अरविंद स्वराज की बात करते हैं उन्होंने खुद पार्टी में इसका पालन नहीं किया. स्थिति यह है कि अगर कोई किसी गलत चीज का विरोध करता है या प्रश्न करता है तो अरविंद कहने लगते हैं कि वह लालची है. उसे टिकट चाहिए था. नहीं मिला तो विरोध करने लगा. जिस तरह आप मायावती पर प्रश्न उठाकर बसपा में नहीं रह सकते. वैसे ही अरविंद पर प्रश्न उठाकर आप पार्टी में नहीं रह सकते. जिन लोगों ने भी अरविंद की कार्यप्रणाली पर प्रश्न उठाया है उन्हें गद्दार, कांग्रेस-भाजपा का एजेंट, टिकट का लालची और न जाने क्या-क्या कहा गया है. योगेंद्र यादव का उदाहरण देते हुए वे अपनी बात पर जोर देते हैं, ‘अरविंद की सुप्रीमोवाली कार्यशैली पर उन्होंने प्रश्न क्या उठाया आपने देखा होगा कैसे मनीष सिसोदिया ने उन्हें हड़कानेवाला पत्र भेज दिया. ये तो योगेंद्र यादव थे जो बच गए.’ पार्टी के भीतर सिकुड़ते लोकतंत्र की चर्चा करते हुए एक कार्यकर्ता बताते हैं कि कुछ दिन पहले ही लोकसभा चुनाव में हार के बाद भविष्य की रणनीति तैयार करने के लिए दिल्ली के कॉन्स्टीट्यूशन क्लब में पार्टी की बैठक हुई थी. वहां जैसे ही कार्यकर्ताओं ने अपनी बात रखनी शुरू की वैसे ही नेताओं ने उन्हें बोलने से रोक दिया. कहा कि आप लोग अपनी बात लिखकर दे दीजिए. वे पार्टी के इस कदम को खुद उसके मूल्यों के खिलाफ बताते हुए कहते हैं, ‘वे चाहते थे कि आप अपनी बात लिखकर दें ताकि उसे कूड़े के ढेर में फेंका जा सके. वे सवाल का सामना नहीं कर सकते.’  पार्टी के पुराने कार्यकर्ताओं में से एक लोकेश आरके पुरम विधानसभा क्षेत्र में पार्टी का काम देखते रहे हैं. वे पार्टी के अपने आदर्शों से भटकने की बात पर दुखी हैं. लोकेश के मुताबिक, ‘हमने नियम बनाया था कि सही और सच्चे लोगों को लोकतांत्रिक प्रक्रिया, मतलब स्थानीय जनता और कार्यकर्ताओं की राय के आधार पर टिकट देंगे. प्रत्याशियों के चयन की एक पूरी प्रक्रिया बनाई गई थी. लेकिन लोकसभा चुनाव में पार्टी ने खुद अपने आदर्शों की हत्या कर दी. पैसे और रसूखवालों के हाथों में टिकट दिया गया. यही काम अब दिल्ली विधानसभा में भी किया जा रहा है.’ पार्टी का काम छोड़कर अपनी रोजाना की जिंदगी में व्यस्त हो चुके लोकेश अपनी बात आगे बढ़ाते हैं, ‘ पहले लगता था कि हम देश के लिए काम कर रहे हैं. हर आदमी इसी सोच के साथ जुड़ा था. अब तो आप भी भाजपा-कांग्रेस जैसी एक अन्य पार्टी बन गई.’

पश्चिम बंगाल में तो लोकसभा चुनाव की हार से निराश आम आदमी पार्टी की पूरी की पूरी इकाई भाजपा में शामिल हो गई

कार्यकर्ताओं के इसी असंतोष का नतीजा अवाम (आप वॉलंटियर्स एक्शन मंच) के रूप में निकल कर सामने आया है. संगठन के कर्ताधर्ताओं का कहना है कि उनका उद्देश्य आम आदमी पार्टी में स्वराज की स्थापना करना और अरविंद केजरीवाल की तानाशाही रोकना है. हाल ही में पार्टी के संस्थापक सदस्य शांति भूषण ने भी अवाम के काम को सही ठहराते हुए उसके गठन को जरूरी बताया था.

कभी जो जान देने और पार्टी के लिए कुछ भी करने को तैयार रहते थे उन लोगों की इन असहमतियों और नाराजगी के बोझ से आज आम आदमी पार्टी दबी हुई दिखती है. ऐसे में पार्टी किस मनःस्थिति में काम कर रही होगी ये समझा जा सकता है. इसी दबाव, तनाव और घाव के साथ वह विधानसभा चुनावों की तैयारी में जुटी है. आगामी विधानसभा चुनाव के मद्देनजर पार्टी अब फिर से वॉलेंटियर्स को लेकर संवेदनशील होती दिख रही है. हाल ही में कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए अरविंद ने उनसे माफी मांगी और कहा कि हो सकता है पार्टी ने पिछले कुछ फैसलों में वॉलेटियर्स की राय नहीं ली लेकिन अब ऐसा नहीं होगा. पार्टी की जुझारू कार्यकर्ता रहीं दिवंगत संतोष कोली के भाई और सीमापुरी से विधायक धर्मेंद्र कोली अपने नेता की इस बात को पार्टी के लिए बहुत सकारात्मक मानते हैं, ‘ यह बता पाना तो बहुत मुश्किल है कि आज कितने वॉलंटियर पार्टी के साथ सक्रिय रूप से जुड़े हैं लेकिन अरविंद के माफी मांगने के बाद कार्यकर्ताओं का उत्साह बढ़ा है.’

इस सकारात्मकता का असर चुनाव परिणाम आने के बाद ही पता चलेगा लेकिन जानकार मानते हैं कि लोकसभा चुनावों में हार के बाद बड़ी संख्या में कार्यकर्ता पार्टी छोड़कर गए हैं. ऐसे में आगामी दिल्ली विधानसभा चुनाव में भी आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन आशानुरूप नहीं रहा तो बचेखुचे कार्यकर्ता भी पार्टी का साथ छोड़ सकते हैं. वे इसके लिए बंगाल का उदाहरण देते हैं. यहां लोकसभा चुनाव के बाद आप की पूरी की पूरी इकाई भाजपा में समा गई.

जन-धन का संकट

आम आदमी पार्टी के लिए चुनौती सिर्फ मानव संसाधन के मोर्चे पर ही नहीं है. लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद से पार्टी को प्रतिदिन मिलनेवाले चंदे पर भी बहुत बुरा असर पड़ा है. जिस पार्टी को पिछली दिल्ली विधानसभा के समय प्रतिदिन लगभग 30 लाख रुपये के करीब चंदा मिलता था वह लोकसभा चुनाव के बाद कुछ हजार रुपये प्रतिदिन पर सिमट गया. हालांकि जब से पार्टी दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए हरकत में आई है तब से चंदे में बढ़ोतरी जरूर हुई है. लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव से तुलना करें तो चंदे की रकम ढलान पर जा रही है. पार्टी के एक नेता अनौपचारिक बातचीत में यह बात मानते हुए बताते हैं कि अबकी बार चुनाव के लिए पैसा कम पड़ जाएगा. वे यह भी कहते हैं कि हरियाणा और महाराष्ट्र का चुनाव न लड़ने के पीछे एक बड़ा कारण आम आदमी पार्टी के पास पर्याप्त फंड न होना था. पार्टी के संचालन से जुड़ी एक सबसे बड़ी आशंका साझा करते हुए वे कहते हैं, ‘ अगर हम चुनाव नहीं जीते तो बहुत मुश्किल हो सकती है. पार्टी में इस बात पर भरोसा करनेवाला कोई नहीं है कि फिर आम लोग हमारी आर्थिक मदद करेंगे. यह आर्थिक संकट पार्टी के अस्तित्व पर सवाल खड़े कर सकता है.’ जानकार मानते हैं कि अगर आगामी विधानसभा चुनाव पार्टी जीतने में सफल नहीं रही तो उसके लिए अगले पांच साल तक अपना मनोबल बनाए रखना आसान नहीं होगा. चूंकि पार्टी का दिल्ली के बाहर कोई खास जनाधार नहीं है. संगठन और नेता भी नहीं हैं. ऐसे में आनेवाले सालों में बाकी राज्यों में होनेवाले विधानसभा चुनावों में उसके कोई खास करतब दिखाने की उम्मीद बनती नहीं है.

‘आप’स की लड़ाई

आप के साथ एक बड़ी चुनौती अपने नेताओं को लेकर भी है. जैसा देखने में आया कि लोकसभा मे पार्टी के बुरे प्रदर्शन के बाद एक-दूसरे को भला बुरा कहने का दौर शुरु हो गया. जूतमपैजार इस ताकत के साथ हुई कि घर की बात मोहल्ले या कहें पूरे शहर में फैल गई. एक दूसरे को भेजे गए निजी मेल सार्वजनिक हुए या करवाए गए. मनीष सिसोदिया और योगेंद्र यादव के बीच का विवाद इसका उदाहरण है. पार्टी के संस्थापक सदस्य रहे नवीन जयहिंद की योगेंद्र से तू-तू मैं-मैं को भी इसमें शामिल किया जा सकता है. ‘सारे इकट्ठे हो जाओ’ का नारा देने वाले अरविंद से ही पार्टी के लोग दूर होते दिखे. पार्टी का प्रमुख चेहरा रहीं शाजिया इल्मी झाडू को तिलांजली देने के बाद आज भाजपा का झाडू उठाए घूम रही हैं. उनके अलावा एसपी उदयकुमार, अंजली दमानिया, दिल्ली विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष एमएस धीर, पूर्व विधायक विनोद कुमार बिन्नी, संस्थापक सदस्य रहे अश्विनी उपाध्याय समेत करीब दर्जन भर से अधिक बड़े चेहरे पार्टी छोड़ चुके हैं. इनमें से कई भाजपा में शामिल हुए हैं. सूत्र बताते हैं कि आनेवाले दिनों में भाजपा ज्वाइन करने वाले नेताओं की तादाद और बढ़ने की संभावना है. पार्टी छोड़कर जाने वाले लोगों में कोई आंतरिक लोकतंत्र की कमी का मुद्दा बनाया तो कोई उसके राह से भटकने का. इस बीच आप के भीतर से ही ‘बाप (भारतीय आम आदमी परिवार)’ और ‘गाप (गरीब आदमी पार्टी)’ जैसे राजनीतिक दल दिल्ली में अस्तित्व में आ गए हैं. ऐसे में इस संभावना को काफी बल मिलता है कि अगर पार्टी आगामी विधानसभा में अच्छा प्रदर्शन नहीं करती है तो पार्टी से बाहर जानेवालों का तांता लग सकता है.

दिल्ली विधानसभा में पार्टी हर कीमत पर जीत दर्ज करना चाहती है. पार्टी की यह मजबूरी इस बात से भी पता चलती है कि उसके लिए जो मुद्दे पिछले चुनाव में प्रमुखता थे वे इस बार एक सिरे से गायब हैं. जिस जनलोकपाल को लेकर पूरा अन्ना आंदोलन हुआ और उसी जनलोकपाल को पास कराने में असफल रहने के कारण अरविंद ने सीएम पद से इस्तीफा दिया वह इस बार चुनावी मुहिम से गायब है. विरोधी इसे अरविंद की सुविधानुसार यू-टर्न लेने की आदत से जोड़ते हैं.  जनलोकपाल या और मुद्दे छोड़ दें तो अरविंद ने उन्हें ऐसा कहने के कम अवसर नहीं दिए. आगामी विधानसभा चुनाव को ही देखें तो अब केजरीवाल नरेंद्र मोदी पर हमला करने से बच रहे हैं. वह नेता जो साल-भर पहले नरेंद्र मोदी का नाम लेकर उन्हें अंबानी का दलाल बताने से लेकर तमाम तरह के आरोप लगाते नहीं थकता था, भारतीय लोकतंत्र के लिए खतरा मानते हुए उसे पटखनी देने बनारस पहुंच गया, उस नेता का मोदी के प्रति ‘हृदय परिवर्तन’ हैरान करनेवाला है. बीते दिनों हैरानी और हंगामा उस समय और बढ़ता दिखा जब पार्टी की वेबसाइट पर एक फोटो लगाया गया. इसमें एक सर्वे का हवाला देते हुए लिखा था, ‘मोदी फॉर पीएम, केजरीवाल फॉर सीएम’. यह पोस्टर उस सर्वे का नतीजा था जो आप ने दिल्ली में किया था. उस सर्वे में पार्टी का दावा था कि दिल्ली की जनता मोदी को पीएम के तौर पर चाहती है और दिल्ली के सीएम के रूप में उसकी पसंद केजरीवाल हैं.

आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर भाजपा की वही रणनीति है जिसको उसने हरियाणा और महाराष्ट्र में अपनाया. यानी पार्टी किसी स्थानीय नेता के बजाय मोदी के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ेगी. ऐसे में यह मानना स्वाभाविक था कि मुकाबला मोदी बनाम केजरीवाल का होनेवाला है, केजरीवाल मोदी पर हमला करने और उन्हें घेरने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेंगे. लेकिन पार्टी के समर्थकों के साथ ही आम जनता उस समय हैरान रह गई जब अरविंद का बयान आया कि वे चुनाव में मोदी पर कोई प्रहार नहीं करेंगे क्योंकि चुनाव विधानसभा का हो रहा है और मोदी मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं हैं. अरविंद के इस तर्क को जनता अभी तक गले नहीं उतार पाई है. सोशल मीडिया से लेकर तमाम गली-नुक्कड़ों पर चर्चा है कि अरविंद मोदी से डर रहे हैं इसलिए बच रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि अरविंद कहीं न कहीं इस बात को स्वीकार कर चुके हैं कि युवा और मध्यम वर्ग के बीच मोदी का जादू सिर चढ़कर बोल रहा है और उनके खिलाफ कुछ भी बोलना इस वर्ग की नाराजगी को न्यौता देना है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने आप के बैकफुट पर होने का सिर्फ यही उदाहरण नहीं है.  कुछ समय पहले ही मोदी सरकार द्वारा शुरू किए गए स्वच्छ भारत अभियान में आप ने भी बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया. यहां तक तो सब ठीक था लेकिन स्वच्छता अभियान के लिए पार्टी ने सोशल मीडिया पर जो पोस्टर जारी किया उसमें एक तरफ अरविंद थे तो दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी. मोदी को लेकर आप के बदले रुख और इन गतिविधियों को लेकर उसके कट्टर समर्थकों में भी नाराजगी है. पार्टी के एक समर्थक विजय गौतम कहते हैं, ‘मैं इस बात से हैरान हूं कि हम मोदी को घेरना कैसे बंद कर सकते हैं. हमें तो कांग्रेस, भाजपा और मोदी का विकल्प बनना था. इस देश में एक नई राजनीति शुरू करनी थी. हमें उस राजनीति से नफरत है जो मोदी की पहचान है. अब ऐसे में अगर पार्टी मोदी का गुणगान करेगी तो फिर हमारे जैसे लोग यहां नहीं रह पाएंगे.’ पार्टी के नेता अरविंद की इस रणनीति को पार्टी के खिलाफ जाता हुआ देखते हैं. एक वरिष्ठ नेता नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘मोदी पर हमला करने से बचने का हमें फायदा नहीं बल्कि बहुत नुकसान ही होनेवाला है. टीवीवाले तो पहले से चलाने लगे हैं कि मोदी से डर गए अरविंद. हमें यह समझना होगा कि हमारा वोटर वही है जो कांग्रेस और भाजपा से ऊब चुका है. लोग हमें दोनों पार्टियों के विकल्प के रूप में देखते थे. हमें वह विकल्प बने रहना है वरना हम खत्म हो जाएंगे.’

इन चुनौतियों के बीच भी आम आदमी पार्टी ने आगामी विधानसभा चुनाव में सबसे पहले सक्रिय होकर नाम के लिए ही सही एक बढ़त जरूर बनाई है. अरविंद केजरीवाल जहां दिल्ली के विभिन्न इलाकों में कई सभाओं को संबोधित कर चुके हैं वहीं उनकी पार्टी की दिल्ली डायलॉग से लेकर कुछ अन्य कार्यक्रमों के माध्यम से लोगों को जोड़ने की मुहिम चल रही है. पार्टी ने इस बीच कई मोर्चों का भी गठन किया है. जैसे अल्पसंख्यक मोर्चा, व्यापारी मोर्चा, छात्र मोर्चा आदि. पिछले दो-तीन महीने में पार्टी की गतिविधियों में एक तेजी दिखी है. उसके कार्यक्रमों में ‘समर्थकों’ की संख्या में इजाफा जरूर हुआ है लेकिन इसके कारण कुछ और हैं. पार्टी के एक पूर्व कार्यकर्ता कहते हैं, ‘पहले आम जनता एक कॉल पर पूरे जंतर-मंतर को भर देती थी. वह स्वस्फूर्त था. आज यह जनता हमारे कार्यक्रमों से गायब है. अब लोगों को जुटाया जा रहा है. अब दिल्ली में कोई कार्यक्रम होता है तो लोगों को आसपास के इलाकों जैसे हरियाणा और नोएडा से लाया जाता है.’

पार्टी के नेता मानते हैं कि उनकी राह में सबसे बड़ी बाधा उस छवि से निपटना जिसके तहत ये प्रचारित किया गया है कि पार्टी को जब सरकार चलाने की जिम्मेवारी मिली तो वह 49 दिनों में ही भाग खड़ी हुई. आम आदमी पार्टी की छवि पर बट्टा लगानेवाली यह घटना सबसे ज्यादा उसके खिलाफ गई है. लेकिन इस बीच कुछ और छोटी-छोटी मोटी घटनाएं भी रहीं जिन्होंने पार्टी की साख को धीरे-धीरे ही सही पर स्थायी नुकसान पहुंचाया है. पहले घर लेने से मना करके अरविंद के घर लेने की बात हो या उनके मंत्रियों के गाड़ी लेने की बात. प्रगतिशीलता का दावा करनेवाली पार्टी के एक नेता संतोष मालवीय के अफ्रीकी स्त्रियों के साथ कथित बदतमीजी की बात हो या समलैंगिकता पर पार्टी का रुख. योगेंद्र यादव का खुद को सलीम बताना, बनारस जाकर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ने की बात हो या बॉंन्ड भरने से मना कर जेल जाना और फिर चंद दिनों में ही बॉन्ड भरने के लिए तैयार हो जाने की बात. इन सभी घटनाओं के कारण आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल की छवि एक तबके के मन में एक नौटंकी और गैरजिम्मेदार पार्टी की बनी है. पिछले छह महीने में पार्टी ने क्या सीखा है और जनता के मन में कितनी जगह फिर से वह बना पाई है इसका सटीक आकलन तो चुनाव परिणाम ही बताएंगे. हालांकि अभी तक आए सर्वे पार्टी के लिए अच्छे दिनों की तरफ इशारा नहीं कर रहे हैं. लेकिन एक बात काफी हद तक तय है कि अगर इस चुनाव में पार्टी को जनता का आशीर्वाद नहीं मिला तो यह पार्टी के अस्तित्व के साथ ही अरविंद केजरीवाल के राजनीतिक भविष्य पर बड़ा सवाल खड़ा हो जाएगा. हालांकि पार्टी के वरिष्ठ नेता योगेंद्र यादव इन सब बातों के बावजूद आशान्वित दिखते हैं. उनका मानना है कि हरियाणा और महाराष्ट्र में लोग बदलाव चाहते थे और उनके पास भाजपा के अलावा कोई विकल्प नहीं था जबकि दिल्ली की जनता के पास आप नामक विकल्प हैं. वे कहते हैं, ‘लोग 49 दिन की सरकार छोड़ने की सजा हमें दे चुके हैं. लोकसभा में हम उसी वजह से हारे. लेकिन किसी अपराध की दो बार सजा तो नहीं हो सकती!

‘मोदी के नेतृत्व में भाजपा इंदिरा की कांग्रेस जैसी हो जाएगी’

के एन गोविंदाचार्य ।71। पूर्व प्रचारक (संघ)
के एन गोविंदाचार्य ।71। पूर्व प्रचारक (संघ)

नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बने छह महीने बीत गए हैं. आप उनके प्रदर्शन को कैसे देखते हैं?
जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी के बाद नरेंद्र मोदी ने खुद को सबसे मेहनती प्रधानमंत्री साबित किया है. वह सर्वाधिक सक्रिय भी हैं. उन्होंने ये दो गुण दिखाए हैं. हालांकि उन्हें केंद्र में शासन के तौर-तरीके सीखने हैं. अब उनको नौकरशाही को थामने और फिर गतिशील बनाने के दुरूह काम को अंजाम देना पड़ रहा है. ऐसा इसलिए है क्योंकि पूरी व्यवस्था अपनी प्रकृति में यथास्थितिवादी, निष्क्रिय, भ्रष्ट और असंवेदनशील है. नौकर से लेकर सचिव स्तर तक के सभी कर्मचारी अपनी जिम्मेदारियों को दूसरे के सिर डालने को ही अपने बचाव का सर्वश्रेष्ठ तरीका मानते हैं. इसकी वजह से अनिर्णय का माहौल बनता है जो कि नौकरशाही का एक और गुण है. नई सोच तो बहुत दूर की कौड़ी है. ऐसे में अब मोदी को शासन के इस पहलू का सामना करना पड़ रहा है. यह देखना रोचक होगा कि वह इसका सामना कैसे करते हैं.

इसी तरह, आज आप मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह को या फिर पार्टी और सरकार को अलग-अलग करके नहीं देख सकते. फिलहाल वे सब एकमएक हैं. और भविष्य में भी यही क्रम जारी रहेगा क्योंकि शाह को उनसे अलग करके नहीं देख जाएगा. वह मोदी का साया बने रहेंगे.

उन्हें अभी अपनी छाप छोड़नी है. ऐसे माहौल में किसी देवकांत बरुआ के उभर आने की आशंका प्रबल हो जाती है. (बरुआ कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष थे, उन्होंने इंडिया इज इंदिरा, इंदिरा इज इंडिया की प्रसिद्ध उक्ति दी थी). इस तरह का एक ही व्यक्ति पूरी प्रतिष्ठा को धूलधूसरित करने के लिए पर्याप्त है. यह देखना दिलचस्प होगा कि वे इन तमाम पहलुओं से कैसे निपटते हैं.

प्रधानमंत्री की कारोबार समर्थक छवि और उनकी सरकार की कुछ हालिया घोषणाओं, खासतौर पर काले धन से जुड़ी घोषणा को लेकर आप क्या सोचते हैं?
सरकार के इरादों पर किसी तरह का सवाल उठाए बिना मैं कहना चाहूंगा कि सरकार को इन मसलों में और तेजी लानी चाहिए. केवल इच्छा व्यक्त करने से हालात नहीं बदलेंगे, केवल सवाल खड़े करना पर्याप्त नहीं है, उन सवालों के साथ बदलाव के कदम भी उठाने होंगे. राजनीति और कारोबारियों के बारे में हाल ही में मुरली मनोहर जोशी ने भी अपनी राय व्यक्ति की है और मैं उनकी राय से सहमत हूं कि मुकेश अंबानी (रिलायंस इंडस्ट्रीज के चेयरमैन) का प्रधानमंत्री की पीठ पर हाथ रखना पार्टी कैडर के लिए अच्छा संदेश नहीं है. इससे कैडरों के आत्मसम्मान को ठेस पहुंची है.

मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि इस पार्टी में नानाजी देशमुख (भारतीय जनसंघ के संस्थापक) जैसे लोग थे जिनके उद्योगपतियों से मधुर रिश्ते थे लेकिन किसी को उनसे ऐसी नजदीकी हासिल नहीं थी और उनके रहते किसी उद्योगपति को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता तक नहीं दी गई. लेकिन पिछले 20 सालों में कारोबारी घरानों ने अपने कुछ अधिकारियों-पूर्वअधिकारियों के लिए राज्यसभा सीट तक हासिल कर ली हैं. राजनीतिक शक्ति और पैसे की ताकत का यह गठजोड़ निश्चित तौर पर नीति निर्धारण को प्रभावित करेगा. इस माहौल में राजनीतिक दलों के लिए ऐसे कदम उठाना मुश्किल होगा जो कारोबारी घरानों के हित के खिलाफ हों. सरकार चला रहे लोगों को इसकी पूरी जानकारी रहनी चाहिए और उन्हें इस बारे में सतर्कता बरतनी चाहिए. एक तरफ मोदी कहते हैं कि काले धन की एक-एक पाई वापस लाई जाएगी, क्योंकि वह गरीबों का पैसा है और दूसरी तरफ उनके कारोबारी घरानों से मेलजोल की तस्वीरंे दिखती हैं जो कि आपस में विरोधाभासी हैं.

कुछ लोग मोदी को तानाशाही प्रकृति का मानते हैं. आप उनकी प्रशासनिक शैली को कैसे देखते हैं?
मोदी बेहद चतुराई से काम कर रहे हैं. कहा जा सकता है कि वह छवि, संदेश, संकेत और राजनीति के मामले में बेहद सधे हुए व्यक्ति हैं. उनकी बराबरी कोई नहीं कर सकता है. उनके जैसा करने के लिए एक समुचित ढांचा, तकनीक और संसाधनों की आवश्यकता होगी. उनमें वे सारे गुण हैं क्योंकि उनका नाता भाजपा और संघ परिवार से रहा है. ऐसे में वह उन तीनों कारकों को मिलाने में सक्षम हैं और यही उनकी काबीलियत है. हमें यह मानना होगा. लेकिन इन बातों को जमीनी स्तर पर उपलब्धियों में बदलना होगा. ऊपर मैंने नौकरशाही को लेकर जो बात कही उसका संबंध इसी से है.

कांग्रेस परेशानी में है. मीडिया का एक धड़ा सरकार की आलोचना करता नहीं नजर आ रहा है. न्यायपालिका में सुधार की आवश्यकता है. इन हालात में आपको क्या लगता है कि विपक्ष की सही भूमिका कौन अदा कर सकता है?
विपक्षी राजनीतिक दल अपनी जिम्मेदारी निभाने में विफल रहे हैं. उनकी अपनी स्थिति खराब है. वे अपनी हार को पचा नहीं पा रहे हैं, वे इस हकीकत को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं कि पार्टी को नए सिरे से खड़ा करने का समय है, उन्हें यह भी पता नहीं है कि यह काम कैसे होगा. उन्हें भी समझ नहीं आ रहा है कि भविष्य की राजनीति क्या होनी चाहिए. विपक्ष तो नजर ही नहीं आ रहा है. मीडिया की बात की जाए तो उसने नई सरकार का आकलन करने या उसकी आलोचना करने के पहले उसे समय देकर सही काम किया है. मुझे लगता है कि मीडिया का काम निष्पक्ष है. जहां तक न्यायपालिका की बात है तो उसने खुलकर काले धन समेत कई विषयों पर कड़ी टिप्पणियां की हैं. वह पर्याप्त मुखर और आक्रामक रही है. मुझे लगता है कि मीडिया और न्यायपालिका अपनी भूमिका निभा रहे हैं. लेकिन विपक्ष के बारे में यह बात नहीं कही जा सकती है.

क्या आम आदमी पार्टी (आप) सरकार के बजाय विपक्ष की भूमिका में अधिक प्रभावी साबित हो सकती है?
उनको लोगों के हितों का संरक्षण करने और उनको आगे बढ़ाने के लिए और अधिक कौशल की आवश्यकता पड़ेगी. जहां तक मुझे लगता है कि आप की अप्रत्याशित सफलता के लिए जनता के मन में तत्कालीन शासन के प्रति व्याप्त निराशा अधिक बड़ी वजह थी. ऐसा उन्होंने खुद भी महसूस किया होगा. उनको खुद को एक राजनीतिक दल के रूप में विकसित करना होगा. उनका आंदोलन सफल जरूर रहा लेकिन उसमें मजबूती नहीं थी. ऐसे में धीमे-धीमे आगे बढ़ने की नीति अधिक बेहतर होती लेकिन अपना आकलन तो वही बेहतर कर सकते हैं.

क्या महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा-शिवसेना का अलगाव टाला जा सकता था?
मुझे लगता है कि मोदी आक्रामक किस्म की राजनीति कर रहे हैं. इसके लिए उनको मिला भारी बहुमत जिम्मेदार है. अमृतसर में नवजोत सिंह सिद्घू को किनारे कर दिया गया, ये किसने किया? भाजपा को उस वक्त यह बात किसी तरह स्वीकार करनी पड़ी. शिवसेना की बात करें तो वहां ऐसा मामला नहीं था लेकिन इस अलगाव की वजह से शिवसेना से जुड़ी हकीकत में बदलाव आया है. अगर भाजपा की बात करें तो उनकी ज्यादा सीट की मांग गलत नहीं थी. शिवसेना ने उस वक्त सही राजनीति नहीं की. यह उसकी गलती है. इसे भाजपा पर थोपा नहीं जा सकता है.

आप भाजपा और शिवसेना के रिश्तों को फिलहाल किस दिशा में जाता देख रहे हैं?
शिवसेना को भी इससे सबक मिलेगा. कोशिशें तो हमेशा की जाती हैं लेकिन जरूरी नहीं कि कोशिश का सही परिणाम ही निकले. मुझे नहीं लगता है कि भाजपा गठबंधन नहीं चाहती या फिर वह दंभी हो गई है. ऐसा कहना गलत होगा. उसे निभाना दोनों पक्षों की जिम्मेदारी है, किसी एक की नहीं. उन्हें समझदारी से काम लेना चाहिए और जमीनी हकीकत में आ रहे बदलाव को समझना चाहिए. ऐसा भी नहीं है कि सबकुछ खत्म हो गया है. उन्हें यह समझना होगा कि यह एक निरंतर प्रक्रिया है. मुझे डर इस बात का है कि राजनीति जनकेंद्रित, नेतृत्व आधारित, मुद्दा आधारित अथवा व्यक्तित्व आधारित होने के बजाय सत्ताकेंद्रित होती जा रही है. राजनीति का अर्थ केवल सरकार या प्रशासन नहीं है. उसका संबंध उस दिशा से है जिसकी ओर देश को अग्रसर होना चाहिए और जिसमें राज्य को अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए. यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप राज्य की भूमिका को कैसे देखते हैं. केवल चुनाव जीतना या आंकड़े जुटा लेना ही सबकुछ नहीं होता. राज्य से उम्मीद की जाती है कि वह उन लोगों की रक्षा करे जो अपनी रक्षा खुद नहीं कर सकते. सभी पक्षों को और अधिक संवेदनशीलता से काम लेना चाहिए. इसमें सत्ताधारी दल भी शामिल है. बाजारवाद के इस युग में गरीबों और वंचितों के मुद्दों को और अधिक उठाया जाना चाहिए और राज्य को चाहिए कि वह उनके पक्ष में खड़ा हो. उसे यह धारणा नहीं बनने देनी चाहिए कि वह कारोबारियों के साथ खड़ी है.

कारोबारियों से मेलजोल: बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से का मानना है कि पार्टी के कैडर मुकेश अंबानी को प्रधानमंत्री मोदी की पीठ थपथपाते देखकर आहत होते हैं
कारोबारियों से मेलजोल: बौद्धिक वर्ग के एक हिस्से का मानना है कि पार्टी के कैडर मुकेश अंबानी को प्रधानमंत्री मोदी की पीठ थपथपाते देखकर आहत होते हैं

महाराष्ट्र से आई अनुशासनहीनता की कुछ खबरों ने भाजपा को शर्मिंदा किया है…
ऐसा ही होगा. अगर पार्टी केवल चुनावी मशीन में परिवर्तित हो जाए, वह कार्यकर्ताओं की पार्टी न रहकर सत्ताकांक्षियों की पार्टी हो जाए और समग्र विकास के बजाय चुनावी जीत उसका मानक बन जाए तो यह सब तो होना ही है.

सरकार ने आर्थिक मोर्चे पर कुछ कदम उठाए हैं लेकिन ऐसा माना जा रहा है कि देश को अधिक सुधारों की आवश्यकता है और वह भी तेज गति से.
अगले बजट में स्थिति स्पष्ट हो जाएगी क्योंकि पिछला बजट तो केवल पिछली सरकार के अंतरिम बजट का ही विस्तार था. इसमें कोई नया विचार शामिल नहीं था. अगले बजट में निश्चित तौर पर भाजपा की वैचारिक छाप होगी. तब तक हमें आर्थिक विषयों पर इंतजार करना होगा. इसके अलावा देखा जाए तो भूमि अधिग्रहण विधेयक में संशोधन का मसला है, जिसे सरकार संसद के शीतकालीन सत्र में पेश कर सकती है. उसके बाद कुछ नेताओं के खिलाफ फास्ट ट्रैक सुनवाई का मसला है. इन सब में देरी हो रही है. इन मसलों पर मेरी राय है कि लोगों के धैर्य की परीक्षा एक सीमा से अधिक नहीं लेनी चाहिए. छह महीने का समय न बहुत कम होता है और न बहुत ज्यादा, लेकिन सरकार को खुद को देश के गरीब आदमी के करीबी के रूप में पेश करना चाहिए. यह धारणा तो है कि कुछ मसलों पर सरकार देश की आम जनता के करीब है लेकिन यह जुड़ाव नीतिगत स्तर पर भी नजर आना चाहिए. उदाहरण के लिए गोकशी पर प्रतिबंध केवल भावनात्मक मसला नहीं है बल्कि उसका संबंध आर्थिक और पर्यावरण संबंधी मुद्दों से भी है. यह हमारे विकास मॉडल से भी ताल्लुक रखता है. ब्रीडिंग केंद्रों की स्थापना आवश्यक है. कुछ सदी पहले तक पालतू पशुओं और मनुष्यों का अनुपात सात के मुकाबले एक था. आजादी के वक्त यह अनुपात एक-एक हो गया. अब यह उलट गया है, आज प्रति सात मनुष्यों पर एक पालतू पशु है. यह स्थिति बहुत चिंतनीय है. इसका देश के स्वास्थ्य पर असर पड़ेगा और बच्चों में कुपोषण को बढ़ावा मिलेगा. यह अनुपात अगर आगे और बिगड़ा तो हालात और अधिक खराब होंगे. सरकार गोमांस और चारे के निर्यात पर प्रतिबंध जैसे कदम उठा सकती है. ये कदम समस्याओं के निदान में मददगार साबित हो सकते हैं. मैं पालतू पशुओं के मामले में सरकार को एक मेमो जारी करना चाहता हूं. खासतौर पर गायों और उनकी संततियों के मामले में. विकास का ट्रिकल डाऊन मॉडल विफल हो चुका है. ऐसे में बदलाव आवश्यक है. अब यह सरकार क्या कुछ नया करती है यह नए बजट में देखा जाना है.

संभव है कि सरकार भावनात्मक तौर पर भारतोन्मुखी हो, लेकिन मेरा मानना है कि सरकार के गरीब समर्थक रुझान को प्रकट करने के लिए अभी काफी कुछ किया जाना बाकी है. ऐसा करने के क्रम में केवल बातों से काम नहीं चलेगा बल्कि इसके लिए प्रतिबद्धता की जरूरत पड़ेगी. असफल हो चुके ट्रिकल डाउन सिद्धांत पर आधारित अर्थव्यवस्था की बजाय पर्यावरण केंद्रित विकास पर ध्यान देना होगा. ट्रिकल डाऊन सिद्धांत पर हद से ज्यादा निर्भरता उन लोगों के लिए नुकसानदेह साबित हो सकती है जो प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर हैं. उनकी आजीविका पर संकट खड़ा हो जाएगा. ऐसे में समाज के उस तबके के लोगों से संवेदनशीलता और मेलजोल जरूरी है न कि निवेशक सम्मेलन. ट्रिकल डाऊन के विफल विचार को व्यवहार में अपनाने के बजाय उन्हें पर्यावास केंद्रित विकास की ओर रुख करना चाहिए. ट्रिकल डाऊन पर अतिरिक्त निर्भरता का खामियाजा भी उठाना पड़ सकता है क्योंकि यह असमानता और गरीबी को जन्म देती है. समावेशी विकास और सशक्तिकरण करना आवश्यक है. यह काम समाज के पिछड़े तबकों की सक्रिय भागीदारी से ही संभव होगा. सरकार के सभी अंगों को इसके लिए कठिन प्रयास करना होगा. स्मार्ट शहरों को लेकर काफी चर्चा हो रही है लेकिन उनके बनने से सैकड़ों की संख्या में गांव या तो तबाह हो जाएंगे या प्रभावित होंगे. क्या ऐसे में स्मार्ट सिटी प्राथमिकता में होने चाहिए?

लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी जैसे भाजपा के दिग्गजों को किनारे लगा दिया गया है. क्या उनसे थोड़ा अलग व्यवहार किया जा सकता था?
अगर चुनावी राजनीति की परिपाटी देखें तो जो कुछ हुआ वह सही था लेकिन अगर राजनीति को समग्रता में देखा जाए तो कुछ अन्य विकल्प मौजूद थे. लेकिन उनका जिक्र करने का कोई फायदा नहीं है.

कुछ लोगों ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) और आधार के भविष्य को लेकर चिंता जताई है. ये दोनों योजनाएं पिछली सरकार ने शुरू की थीं. आप इस मसले पर क्या सोचते हैं?
निरंतरता और बदलाव को एकसाथ मिलाना होता है. जैसा कि हम सुनते आए हैं- पुरानी चीजें बेहतर होती हैं लेकिन यह जरूरी नहीं कि हर नई चीज भी श्रेष्ठ हो. ऐसे में बदलाव और निरंतरता को साथ-साथ चलना होगा. मनरेगा में तमाम सुधारों की आवश्यकता है लेकिन भूमि अधिग्रहण विधेयक में बदलाव कहीं अधिक आवश्यक हैं ताकि कृषि भूमि तथा पशुओं, पक्षियों और जीवों की आजीविकावाली जमीन को संरक्षण दिया जा सके. जल, जमीन, जंगल और जानवरों के हित भी मानवों के समान ही अहमियतवाले होने चाहिए. मुझे लगता है कि अगर विकास को मनुष्य केंद्रित से पर्यावास केंद्रित बनाया जाए तो हालात बेहतर हो सकते हैं.

सरकार की विदेश नीति के बारे में क्या सोचते हैं?
यह सरकार अभी सीखने की प्रक्रिया में है और उसे विदेश नीति की जड़ें समझने में थोड़ा और वक्त लगेगा. मेरे ख्याल से रूस के साथ हमारे बेहतर राजनयिक और आर्थिक संबंध होने चाहिए क्योंकि वह अतीत में हमारा नैसर्गिक भौगोलिक सहयोगी रहा है. चीन दुश्मन नहीं लेकिन प्रतिस्पर्धी हो सकता है. लेकिन हमें यह देखना होगा कि यह प्रतिस्पर्धा कितनी स्वस्थ्य रहती है.