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बीएचयू विवाद: महामना ‘ही’ या महामना ‘भी’

BHU2जो बनारसवाले हैं या जिनका बीएचयू से वास्ता है, सिर्फ उनके बीच ही नहीं, बल्कि गैरबनारसियों व गैरबीएचयूवालों के बीच भी इस विश्वविद्यालय को लेकर कई किस्म के किस्से-कहानियां बहुत मशहूर हैं. जैसे कोई कहता है कि इस विश्वविद्यालय की स्थापना जब महामना मदनमोहन मालवीय कर रहे थे, तो भिक्षा मांगते हुए हैदराबाद के निजाम के पास भी पहुंचे और निजाम ने जब जूती दान में दी, तो महामना ने उसकी बोली लगवाई. इसी तरह यह भी किस्सा मशहूर है कि महामना जब विश्वविद्यालय के लिए जमीन दान मांगने काशी के महाराज के पास गए, तो महाराज ने कहा कि जितनी जमीन आप पैदल चलकर नाप सकते हैं, वह सारी आप विश्वविद्यालय के लिए ले सकते हैं. और फिर मालवीय जी ने ऐसा किया. ये किस्से-कहानियां तो हैं ही, इनके अलावा बीएचयू की स्थापना से जुड़े कई ऐसे सच भी हैं, जो इतिहास के पन्नों में जगह पाए बिना ही दफन हो गए, लेकिन इस बार चार फरवरी को जब बीएचयू अपने स्थापना के 100वें साल में प्रवेश करेगा और उस मौके को लेकर जलसों-आयोजनों का दौर शुरू होगा, तो इतिहास में विस्मृत वे पन्ने भी खुलेंगे.

स्वतंत्र अनुसंधानकर्ता तेजकर झा कई वर्षों की मेहनत के बाद बीएचयू की स्थापना से जुड़े कई तथ्यों को समेटते हुए एक किताब लिख रहे हैं. यह किताब बताएगी कि यह विश्वविद्यालय सिर्फ मदनमोहन मालवीय की उद्यमिता, मेहनत और संकल्पों की वजह से वजूद में नहीं आया, बल्कि कई अन्य लोगों की इसमें अहम भूमिका थी, जिनके नाम की चर्चा इस विश्वविद्यालय के स्थापना के साथ कहीं नहीं होती. ऐसे दो अहम लोग हैं- एनी बेसेंट और दरभंगा के नरेश रामेश्वर सिंह. झा बताते हैं कि इस किताब के जरिए मैं मालवीय जी के महत्व को कम नहीं करना चाहता, बल्कि उन लोगों के बारे में बताना चाहता हूं, जो इतने बड़े संस्थान की स्थापना में अहम भूमिका निभाने के बावजूद अनाम-गुमनाम रह गए और जिनकी एक निशानी तक बीएचयू परिसर में नहीं है.

बकौल झा, बीएचयू की आधारशिला चार फरवरी 1916 को रखी गई थी. उसी दिन से सेंट्रल हिंदू कॉलेज में पढ़ाई भी शुरू हो गई थी. झा बताते हैं कि 1902 से 1910 के बीच एक साथ तीन-तीन लोग हिंदू विश्वविद्यालय की स्थापना की कोशिश में लगे हुए थे. एनी बेसेंट, जो पहले से बनारस में हिंदू कॉलेज चला रही थीं, चाहती थीं कि एक हिंदू विश्वविद्यालय हो. इसके लिए इंडिया यूनिवर्सिटी नाम से उन्होंने अंग्रेज सरकार के पास एक प्रस्ताव भी आगे बढ़ाया था, लेकिन उस पर सहमति नहीं बन सकी. मालवीय ने भी 1904 में इसी तरह की परिकल्पना की और बनारस में सनातन हिंदू महासभा नाम से एक संस्था गठित कर एक विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पारित करवाया. इस प्रस्ताव में विश्वविद्यालय का नाम भारतीय विश्वविद्यालय सोचा गया. उसी दौरान दरभंगा के तत्कालीन महाराज रामेश्वर सिंह ने भारत धर्म महामंडल के जरिए शारदा विश्वविद्यालय के नाम से एक विश्वविद्यालय का प्रस्ताव पास करवाया.

22 मार्च 1915 को इंपिरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बीएचयू बिल पेश किया गया. इस बिल को बटलर ने पेश किया. इसके बाद बहस हुई. रामेश्वर सिंह और मालवीय समेत कई लोगों ने भाषण दिए. बहस हुई और विधेयक पारित होकर अधिनियम बन गया

ये तीनों ही लोग बनारस में ही विश्वविद्यालय स्थापित करना चाह रहे थे. तीनों लोग अंग्रेजी शिक्षा से प्रभावित हो रही भारतीय शिक्षा प्रणाली से चिंतित होकर इस दिशा में कदम बढ़ा रहे थे, लेकिन अलग-अलग प्रयासों से तीनों में से किसी को सफलता नहीं मिल रही थी. अंग्रेज सरकार ने तीनों के प्रस्ताव को खारिज कर दिया. बात आगे नहीं बढ़ सकी, तो अप्रैल 1911 में मालवीय और बेसेंट के बीच बैठक हुई. बात हुई कि जब मकसद एक ही है, तो फिर क्यों न एक ही साथ काम किया जाए? बात तय तो हो गई, लेकिन बेसेंट उसके बाद इंग्लैंड चली गईं. हालांकि जब उसी साल सितंबर-अक्टूबर में इंग्लैंड से बेसेंट वापस लौटीं, तो रामेश्वर सिंह के साथ बैठक हुई और फिर तीनों ने साथ मिलकर अंग्रेज सरकार के पास प्रस्ताव आगे बढ़ाया. सवाल उठा, अंग्रेज सरकार से बात कौन करेगा? इसके लिए दरभंगा महाराज के नाम पर सहमति बनी.

एनी बेसेंट की भूमिका बीएचयू की स्थापना में अहम रही है
एनी बेसेंट की भूमिका बीएचयू की स्थापना में अहम रही है

सिंह ने 10 अक्टूबर को उस समय के शिक्षा विभाग के सदस्य या यूं कहें कि शिक्षा विभाग के सर्वेसर्वा हारकोर्ट बटलर को पत्र लिखा कि हम लोग आधुनिक शिक्षा के साथ-साथ भारतीय शिक्षा प्रणाली को भी आगे बढ़ाने के लिए इस तरह के एक विश्वविद्यालय की स्थापना करना चाहते हैं. 12 अक्टूबर को बटलर ने जवाबी चिट्ठी लिखी और चार बिंदुओं का उल्लेख करते हुए हिदायत दी कि ऐसा प्रस्ताव तैयार कीजिए, जो सरकार के तय मानदंडों पर खरा उतरे. यही हुआ. विश्वविद्यालय के लिए सेंट्रल हिंदू कॉलेज को दिखाने की बात तय की गई. 17 अक्टूबर को मेरठ में एक सभा हुई, जिसमें सिंह ने यह घोषणा की कि वे तीनों मिलकर एक विश्वविद्यालय स्थापित करना चाहते हैं और इसके लिए जनता का समर्थन चाहिए. जनता ने उत्साह दिखाया.

उसके बाद 15 दिसंबर 1911 को सोसाइटी फॉर हिंदू यूनिवर्सिटी के नाम से एक संस्था का निबंधन हुआ, जिसके अध्यक्ष रामेश्वर सिंह बनाए गए. उपाध्यक्ष के तौर पर एनी बेसेंट और भगवान दास का नाम रखा गया और सुंदरलाल सचिव बने. एक जनवरी को सिंह ने पहले दानदाता के रूप में पांच लाख रुपये देने की घोषणा की और तीन लाख रुपये उन्होंने तुरंत दिए. खजूरगांव के राजा ने सवा लाख रुपये दान में दिए. इस तरह से चंदा एकत्र करने और दान लेने का अभियान शुरू हुआ. बिहार और बंगाल के जमींदारों और राजाओं से दरभंगा महाराज ने पैसा एकत्र करना आरंभ किया. 17 जनवरी 1912 को कोलकाता के टाउन हॉल में उन्होंने बताया कि इतनी कम अवधि के भीतर ही 38 लाख रुपये एकत्र हो गए हैं.

महाराजा बीकानेर और बीएचयू के सीनेट मेंबर रहे वीए सुंदरम ने साल 1936 में बीएचयू के वास्तविक इतिहास को बदलने की कोशिश की और तब से ही कई नाम विस्मृति के गर्भ में चले गए.

इस काम के लिए 40 अलग-अलग समितियां बनाई गईं कि दान लेने का अभियान आगे बढ़ता रहे. राजे-रजवाड़ों से चंदा लेने के लिए अलग समिति बनी, जिसका जिम्मा खुद रामेश्वर सिंह ने लिया और इसके लिए वह तीन बार देश भ्रमण पर निकले, जिसकी चर्चा उस समय की कई पत्रिकाओं में भी हुई. विश्वविद्यालय के लिए जमीन की बात आई, तो काशी नरेश से कहा गया. काशी नरेश ने तीन अलग-अलग क्षेत्रों का उल्लेख करते हुए कहा कि जो उचित हो, ले लिया जाए. जमीन के चयन के लिए पांच लोगों की समिति बनी. इसके बाद जमीन का चयन हुआ.

22 मार्च 1915 को इंपिरियल लेजिस्लेटिव काउंसिल में बीएचयू बिल पेश किया गया. इस बिल को बटलर ने पेश किया. इसके बाद बहस हुई. रामेश्वर सिंह और मालवीय समेत कई लोगों ने भाषण दिए. बहस हुई और विधेयक पारित होकर अधिनियम बन गया. विश्वविद्यालय की शुरुआत के लिए कई तिथियों का निर्धारण हुआ, लेकिन आखिर में बात चार फरवरी 1916 को वसंत पंचमी का दिन निर्धारित हुआ. आधारशिला रखने लॉर्ड हार्डिंग्स बनारस आए थे. इस समारोह की अध्यक्षता दरभंगा के तत्कालीन महाराज रामेश्वर सिंह ने की थी. जोधपुर के राजा ने धन्यवाद ज्ञापन किया. सर सुंदरलाल पहले चांसलर (वीसी) बनाए गए. जब उनका निधन हुआ, तो स्वामी अय्यर वीसी बने. लेकिन अय्यर शीघ्र ही विश्वविद्यालय छोड़कर चले गए. फिर 1919 में मालवीय इसके वीसी बने और तकरीबन दो दशक तक वीसी रहे.

बीएचयू की आधारशिला चार फरवरी 1916 को रखी गई. लेकिन जो नाम गुमनाम रह गए, उनमें  एनी बेसेंट और नरेश रामेश्वर सिंह हैं
बीएचयू की आधारशिला चार फरवरी 1916 को रखी गई. लेकिन जो नाम गुमनाम रह गए, उनमें एनी बेसेंट और नरेश रामेश्वर सिंह हैं

झा कहते हैं कि विश्वविद्यालय की स्थापना की इस कहानी को दफन कर दिया गया. अगर सिंह ने भूमिका निभाई, जिसके सारे दस्तावेज और साक्ष्य मौजूद हैं, तो उनके नाम को इस तरह क्यों मिटा दिया गया? क्यों विश्वविद्यालय में उनका नाम महज एक दानकर्ता के रूप में एक जगह दिखता है? सिंह की अहम भूमिका से जुड़े दस्तावेजों के बारे में पूछने पर झा कहते हैं, ‘आप यही देखिए न कि जब विश्वविद्यालय बनने की प्रक्रिया चल रही थी, तो अंग्रेज सरकार किसके साथ पत्राचार कर रही थी? जब विश्वविद्यालय का शिलान्यास हुआ, तो बधाई के पत्र किसके नाम आए? झा बताते हैं कि 1914, 1915 और 1916 में लंदन टाइम्स, अमृत बाजार पत्रिका से लेकर स्टेट्समैन जैसे अखबारों में ऐसी रिपोर्ट की भरमार है, जिसमें महाराजा रामेश्वर सिंह के प्रयासों की चर्चा है और विश्वविद्यालय की स्थापना के संदर्भ में विस्तृत रिपोर्ट हैं.

झा कहते हैं कि महाराजा बीकानेर और बीएचयू के सीनेट मेंबर रहे वीए सुंदरम ने साल 1936 में बीएचयू के वास्तविक इतिहास को बदलने की कोशिश की और तब से ही कई नाम विस्मृति के गर्भ में चले गए. बकौल झा,  1936 में विश्वविद्यालय पर एक किताब आई- बीएचयू 1905-1935. इसे सुंदरम ने लिखा और इसकी प्रस्तावना महाराजा बीकानेर ने तैयार की, जो बीएचयू की स्थापना के समय बनी 58 सदस्यों की समिति में भी नहीं थे. इसी किताब ने इतिहास को बदल दिया और मालवीय को उभारकर सबके नामों को गायब कर दिया.

झा साफ करते हैं, ‘मैं यह बात मालवीयजी के प्रति किसी द्वेष से नहीं कह रहा हूं और न ही उनकी क्षमता को कम करके आंक रहा हूं, लेकिन जिस व्यक्ति (दरभंगा महाराज) ने इतनी बड़ी भूमिका निभाई, उसकी चर्चा तक न होना अखरता है.’ झा आगे कहते हैं, ‘बीएचयू के इतिहास में उनके नाम तक की चर्चा न होना या उनके नाम पर एक भवन तक का न होना अजीब लगता है.’ झा इस किताब को संस्थान के 100 साल पूरे होने पर ही लाने की तैयारी में हैं.

ऑल इंडिया बक…द (एआईबी) विवाद

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पिछले हफ्ते चर्चा में रहा गालियों और अश्लीलीलता से भरपूर शो  ‘एआईबी नॉकआउट’ वीडियो को फिलहाल ऑफलाइन कर दिया गया है. एआईबी ग्रुप ने यह कदम सरकारी कार्रवाई के आदेश के बाद उठाया है. कॉमेडी ग्रुप ‘एआईबी’ ने 20 दिसंबर 2014 को मुंबई के एक स्टेडियम में चैरिटी शो का आयोजन किया था. इस शो में एक्टर रणवीर सिंह, अर्जुन कपूर और करण जौहर समेत फिल्मी दुनिया की तमाम बड़ी हस्तियों ने हिस्सा लिया था. कार्यक्रम के दौरान दर्शकों के सामने होस्ट और प्रस्तोताओं ने जमकर गालियों का इस्तेमाल किया था. हाल ही में इस शो का वीडियो को यूट्यूब पर जारी किया गया. शो सोशल मीडिया में तो खूब हिट रहा लेकिन जल्द ही यह कुछ लोगों के निशाने पर आ गया. शो का विरोध करने वालों में सेंसर बोर्ड के सदस्य अशोक पंडित का नाम सबसे ऊपर है. विवाद बढ़ने पर कई संस्थाओं की ओर से एफआईआर दर्ज करवाई गई. अशोक पंडित ने गुस्से में एक के बाद एक कई ट्वीट किए. उन्होंने कहा, ‘वे इस तरह अभद्र भाषा का इस्तेमाल सार्वजनिक रूप से नहीं कर सकते. यह शो पूरी तरह से एबनॉर्मल है.’

विवाद बढ़ने पर महाराष्ट्र सरकार ने वीडियो की जांच करवाने का आदेश दिया है. इसके बाद एआईबी ने विवादित वीडियो को यूट्यूब से हटाने की जानकारी ट्विटर पर जारी की है. ट्वीट कहता है, ‘हम एआईबी नॉकआउट को अभी हटा रहे हैं, जल्द ही इस बारे में और बात करेंगे.’

क्या है एआईबी नॉकआउट
‘एआईबी नॉकआउट’ नाम से 20 दिसंबर 2014 को मुंबई के एक स्टेडियम में स्टैंड अप कॉमेडी का चैरिटी शो आयोजित किया था. इस कार्यक्रम में बॉलीवुड अभिनेता रनवीर सिंह और अर्जून कपूर ने अपनी खूब बेइज्जती कराई. इस दौरान दोनों निर्बाध रूप से गालियों का इस्तेमाल करते रहे. कार्यक्रम में करन जौहर, दीपिका पादुकोने, सोनाक्षी सिन्हा, तन्मय भट्ठ, रोहन जोशी, जी खंबा और आशिष शाक्या जैसे फिल्मी दुनिया के तमाम लोग शामिल थे. दिलचस्प यह है कि निर्माता-निर्देशक करन जौहर यहां अपनी मां के साथ मौजूद थे. अशोक पंडित ने इसी को लेकर करण जौहर पर तीखे कटाक्ष किए हैं. शो के आयोजक एआईबी का दावा है कि इससे जुटाए गए पैसे को चैरिटी में खर्च किया गया है.

महाराष्ट्र सरकार का पक्ष
इस मुद्दे पर गंभीरता दिखाते हुए महाराष्ट्र सरकार के सांस्कृतिक विभाग के मंत्री विनोद तावड़े ने इसकी जांच के आदेश दिए हैं. विनोद तावड़े ने कहा कि महाराष्ट्र सरकार सिर्फ यह पता लगाएगी कि ‘एआईबी रोस्ट’ के लिए उचित मंजूरी प्राप्त की गयी थी या नहीं. तावड़े ने ट्वीट करके कहा कि अगर कानूनी रूप से उन्हें यह शो करने के अऩुमति होगी तो उन्हें नहीं रोका जा सकता.

मनसे भी मैदान में
इस बीच लंबे समय से शांत चल रहे राज ठाकरे और उनकी पार्टी भी इस मामले में कूद पड़ी है. मनसे (महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना) की धमकी आई है कि निर्माता-निर्देशक करण जौहर, अभिनेता अर्जून कपूर और रणवीर सिंह की फिल्मों को वह महाराष्ट्र में तब तक रिलीज नहीं होने देगा जब तक वे ‘बिना शर्त माफी’ नहीं मांगते हैं.

एआईबी का पक्ष
रोस्ट पर हुए विवाद के बाद एआईबी ने सबसे पहले विवादित वीडियों को अपने यूट्यूब चैनल से हटा लिया है. वीडियो तब तक के लिए हटा लिया गया है जब तक की जांच पूरी नहीं हो जाती है. इस वीडियो को यू-ट्यूब पर 28 जनवरी को रिलीज किया गया था. रिलीज के 12 घंटो में ही इसे 10 लाख लोगों ने देखा था. अगले तीन दिन में इस वीडियो को 70 लाख हिट मिले थे. सोशल मीडिया पर इस कार्यक्रम को लेकर दो हिस्से हो गए हैं. एक हिस्सा समर्थकों का और दूसरा विरोध में है.

‘अल्लाह कभी भी औरतों और बच्चों को मारने की इजाजत नहीं देता’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

35 वर्षीय शमशेर अली पुरानी दिल्ली में रिक्शा चलाते हैं. इनका ताल्लुक उत्तर प्रदेश के जिला लखीमपुर खीरी से है. शमशेर का परिवार खीरी में ही रहता है. परिवार में इनके अलावा तीन बच्चे और बीबी है. शमशेर अपने इसी परिवार का पेट भरने के लिए यहां किराए का रिक्शा चलाते हैं. दरियागंज के पास एक मोड़ पर इनसे मुलाकात हुई थी. शमशेर थोड़े परेशान थे. परेशानी की वजह यह थी कि अगर ठीक-ठाक कमाई नहीं हुई तो शाम को रिक्शे का किराया उन्हें अपनी जेब से देना होगा. हर शाम 60 रुपया रिक्शे का किराया जमा कराना होता है.

शमशेर पांचों वक्त के नमाजी नहीं हैं. वो ऐसा चाहते हैं लेकिन काम की वजह से नहीं कर पाते. वो हर दिन की पहली और आखरी नमाज जामा मस्जिद में नियम से पढ़ते हैं. जब शमशेर से दुनिया के तमाम देशों में इस्लाम के नाम पर फैली हुई हिंसा का जिक्र होता है तब वो थोड़ा सकुचाते हुए कहते हैं, ‘कभी-कभार उर्दू के अखबारों में देख लेता हूं. पेशावर में जो बच्चों को मारा गया उसके बारे में मैंने पढ़ा था. बाकी दुनिया के अलग-अलग मुल्कों में क्या हो रहा है इसकी जानकारी नहीं है.’ वो आगे कहते हैं, ‘बच्चों को मार दिया. आप कह रहे हैं कि कई मुल्कों में औरतों को बंधक बना लिया गया. यह सब इस्लाम में तो नहीं है. अल्लाह ऐसा करने के लिए तो नहीं कहता. जो लोग भी ऐसा कर रहे हैं वो गलत कर रहे हैं. अल्लाह, आखिर में इन सब लोगों से हिसाब लेगा. उसकी अदालत से कोई नहीं बच सकता.’

शमशेर अली को दुनियाभर में हो रही घटनाओं की ज्यादा जानकारी नहीं है. वो तहलका से बातचीत इस शर्त के साथ शुरू करते हैं कि अगर बीच में कोई सवारी आई तो वो निकल जाएंगे. एक-एक पैसे के लिए हर रोज लड़ाई लड़नेवाले शमशेर के लिए अपने परिवार का पेट भरना ही जेहाद से कम नहीं है. वो कहते हैं, ‘मैं ज्यादा पढ़ा-लिखा नहीं हूं लेकिन इतना मालूम है कि अल्लाह प्रेम से रहने के लिए कहता है. मार-काट मचाने के लिए नहीं. ये उनका काम होगा जिनका पेट भरा होगा. अगर उन्हें खाने और परिवार पालने के लिए रिक्शा खींचना पड़े तो वो ऐसा कभी नहीं करेंगे.’


‘कुछ लोग हमारे मुल्क में भी जहर का कारोबार कर रहे हैं’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

शमीम अहमद 50 साल के होनेवाले हैं. वो अपने परिवार के साथ उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में रहते हैं. वहां इनकी साईकल रिपेयरिंग की दुकान है. अपने छोटे भाई से मिलने के लिए वे दिल्ली आए हुए हैं. पुरानी दिल्ली की एक सड़क पर संयोग से शमीम साहब से मुलाकात होती है. उन्हें उसी रात वापस रामपुर लौटना था. पान खाने और सफेद कुर्ता-पजामा पहनने के शौकीन शमीम अहमद पांच वक्त के नमाजी हैं. बकौल इनके यह हर मुसलमान के लिए जरूरी है. हालांकि वो यह भी कहते हैं कि अल्लाह रहम दिलवाला है. वो कठोर नहीं है. वो नमाज में भी जरुरतमंदों को छूट देता है. जब शमीम अहमद से जानने की कोशिश की गई कि जो लोग रहम दिल अल्लाह के नाम पर लोगों का खून बहा रहे हैं उन्हें वो किस तरह से देखते हैं तो वे इस बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहते. वो केवल इतना भर कहते हैं कि ये भटके हुए लोग हैं जिन्हें सही रास्ते पर लाए जाने की जरूरत है. असल में ये लोग इस्लाम का मतलब ही नहीं जानते. इन्हें अल्लाह ठीक करेगा. इनसे इनकी तबाही का हिसाब भी अल्लाह ही लेगा. इन्हें सबक भी वही देगा. बातचीत में शमीम अहमद इस बात के लिए अल्लाह का शुक्रिया अदा करते हैं कि वो हिंदुस्तान में हैं. उनकी नस्लें इस मिलनसार मुल्क में हैं. वो कहते हैं, ‘मैंने दुनिया तो नहीं देखी लेकिन फिर भी मुझे लगता है कि हिंदुस्तान दुनिया में सबसे अच्छी जगहों में से एक है. यहां मुसलमान और गैर मुसलमान सब एक साथ मजे से रहते हैं. मैं रामपुर में कई हिन्दू शादियों में बतौर मेहमान जाता हूं और उन्हें भी अपनी हर दावत में बुलाता हूं. इससे अच्छी बात क्या हो सकती है कि सबलोग एक साथ बिना किसी शिकायत और लड़ाई-झगड़े के रहें.’ शमीम अहमद को यह इल्म है कि हाल के दिनों में  मुजफ्फरनगर और मुजफ्फरपुर जैसी जगहों पर क्या हुआ है. शायद इसी वजह से वो बातचीत के आखिर में जोड़ते हैं, ‘जहर से मौतें होती हैं. फसलें आबाद नहीं होतीं. आजकल कुछ लोग हमारे मुल्क में भी जहर का कारोबार कर रहे हैं.’


‘ये लोग तो अल्लाह से ही बगावत ठाने बैठे हैं’

फोटोः विकास कुमार
फोटोः विकास कुमार

मोहम्मद हामिद अपने परिवार के साथ दिल्ली के मिंटो रोड इलाके में रहते हैं. नियम से पांचों वक्त की नमाज पढ़ते हैं. जामा मस्जिद के गेट नंबर एक से थोड़ी दूरी पर एक पीपल के पेड़ के नीच रोज अपनी खानदानी दवाईयों की रेहड़ी लगाते हैं. जड़ी-बूटियों से दवा बनाते हैं, इनका दावा है कि इनकी दवाई से हर तरह का दर्द ठीक हो सकता है. हामिद साहब अल्लाह का इस बात के लिए शुक्रिया अदा करते हैं कि उनके पास एक परिवार है. जितना कमाते हैं उससे उनके परिवार का रहना-खाना हो जाता है. हामिद साहब की दिलचस्पी रोजाना की उठापटक और खबरों में भी रहती है. वो पूरी दुनिया में इस्लाम की जानिब से हो रही घटनाओं पर नजर रखते हैं. इस सवाल के जवाब में कि आखिर क्यों कुछ लोग धर्म का नाम लेकर आतंक और खून-खराबे के खेल में लगे हुए हैं, वो कहते हैं, ‘उन्हें इंसान नहीं कहा जा सकता. जालिम हैं, हत्यारे हैं. इन्सान वो हैं जो अल्लाह की बनाई हुई दुनिया को सहेजता है, उसे खूबसूरत बनाता है. प्रेम से रहता है और दूसरों को भी प्रेम से रहना सिखाता है. ये लोग तो अल्लाह से ही बगावत ठाने बैठे हैं. उसकी बनाई दुनिया को ही तबाह कर रहे है. इन्हें मैं मुसलमान तो क्या इंसान भी नहीं मानता.’

वो आगे कहते हैं, ‘इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं ये सारे लोग. इस्लाम बच्चों को मारने के लिए नहीं कहता. इस्लाम किसी को मारने का हुक्म नहीं देता. ये लोग अपने फायदे के लिए, अपनी हुकूमत के लिए, अपनी सत्ता के लिए अल्लाह को बदनाम कर रहे हैं.’ बकौल हामिद साहब एक आम मुसलमान के लिए ईमान और नमाज सबसे ज्यादा जरूरी है. वो हमसे बात करते हुए साफ करते हैं कि बिना ईमान और बिना नमाज के कोई मुसलमान नहीं हो सकता और जो लोग अल्लाह की बनाई इस सुंदर दुनिया को बम-बारूद से नाश करने में लगे हुए हैं, उन्हें मुसलमान मानना ही बंद कर देना चाहिए.

इस्लाम और इल्जाम?

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

मध्यकाल के अंधकारपूर्ण दौर में दो धर्मों के बीच लंबी लड़ाई चली थी. इतिहास में यह लड़ाई क्रूसेड या होली वॉर के नाम से दर्ज है. इस युद्ध को लेकर कई ऐतिहासिक मान्यताएं हैं, इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं. एक विचार कहता है कि यह पूरब में रोमन कैथलिक चर्च के विस्तार की कोशिशों का नतीजा था. रोमन कैथलिक चर्च इस युद्ध के जरिए जेरुसलम और उसके आसपास मौजूद पवित्र ईसाई स्थलों पर कब्जा करना चाहता था. एक मत यह भी है कि होली वॉर दरअसल इस्लाम के हिंसक विस्तार को रोकने की गरज से यूरोपीय देशों ने शुरू किया गया था, जिसका नेतृत्व रोमन कैथलिक चर्च ने किया था. सन 1050 से लेकर 1295 के दरम्यान लगभग ढाई सौ सालों तक दुनिया की दो धार्मिक सभ्यताएं निरंतर खून-खराबे में लिप्त रहीं. अंततः यह लड़ाई समाप्त हो गई. ईसाईयत ने खुद को यूरोप में सीमित कर लिया, इस्लाम अरब और यूरोप की सीमाओं तक जाकर रुक गया. वह लड़ाई भले ही खत्म हो गई थी, लेकिन उसकी जड़ें कहीं न कहीं शेष रह गईं. इन लड़ाइयों का केंद्र धर्म था.

आज एक बार फिर से दुनिया कमोबेश उन्हीं स्थितियाें में खड़ी है, जहां अलग-अलग धर्म अामने-सामने हैं. इस्लाम का एक उग्र चेहरा दुनिया के सामने देखने को मिल रहा है. आज की समस्या यह है कि क्रूसेड काल के विपरीत आज अब यह टकराव सिर्फ ईसाईयत और इस्लाम का नहीं रह गया है. जो सोच और धारणाएं बन रही हैं, उनमें इस्लाम आज बाकी दुनिया के दूसरे धर्मों और पंथों के साथ टकराव की हालत में दिखता है. यही नहीं विरोधी इस तर्क पर भी आते हैं कि खुद इस्लाम का अपने ही भीतर दूसरे विचारों से टकराव चल रहा है. इस्लामी आतंकवाद और इस्लाम के भीतर अतिवाद जैसी सोच पिछले कुछ दशकों में पूरी दुनिया में धड़ल्ले से चल निकली हैं. सिडनी में हमले हो रहे हैं, भारत में हमले हो रहे हैं, पेरिस में हमले हो रहे हैं, बाली, इंडोनेशिया में यही स्थिति है, यूरोप और अमेरिका भी इसकी चपेट में हैं.

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‘बीमारियों की गलतफहमियां और गलतफहमियों की बीमारी’

मनीषा यादव
मनीषा यादव
मनीषा यादव

 

यूं तो गलतफहमियों के अंतहीन सिलसिले का नाम ही जिंदगी है, लेकिन कुछ गलतफहमियां आपकी जिंदगी पर भारी पड़ सकती हैं. ये गलतफहमियां स्वास्थ्य तथा बीमारियों को लेकर हैं. ऐसा भी नहीं है कि ये गंवार, जाहिल और अनपढ़ व्यक्तियों की गलतफहमियां हैं. नहीं, हम यहां जिन भ्रमों की बात करेंगे वे ढेरों पढ़े-लिखे लोगों में भी उतनी ही शिद्दत से व्याप्त हैं. एक बार को अनपढ़ तो शायद हमारे समझाने से समझ जाएं परंतु पढ़े-लिखे तथाकथित समझदारों को सही रास्ता दिखाना नामुमकिन है. ज्ञान की भी अंधविश्वासनुमा सीमाएं होती हैं. आज हम कुछ बेहद प्रचलित गलतफहमियों को दूर करने की नादान कोशिश करके देखते हैं. गलतफहमियां ये हैं :

1. कि बाइपास सर्जरी का मतलब अमृत छकने जैसा है : आजकल कई दिल के रोगियों की बाइपास सर्जरी हो जाती है. यह काफी सामान्य-सी घटना हो गई है आजकल. छाती खोलकर दिखा देते हैं कि हमारी भी हुई है. उसी छाती को ठोककर यह भी कह डालते हैं कि अब हमें हार्ट अटैक का कोई डर नहीं बचा क्योंकि हमने तो यह (बाइपास सर्जरी) कराके दिल में एकदम नई नलियां डलवा ली हैं. भैय्या, ऐसी गलतफहमी न पालें. डॉक्टर बताए या शायद न बताए, यह बात मेडिकल विज्ञान में भी सर्वसहमति से स्वीकृत है कि कुछ बेहद जटिल किस्म की स्थितियों के सिवाय (जैसे बांयी मुख्य नली का बंद होना) बाइपास सर्जरी से आपकी उम्र नहीं बढ़ती. यह केवल एक राहत देनेवाली विधि

मात्र है. बस. जो  ‘बाइपास ग्राफ्ट’ लगाए जाते हैं, वे तुरंत से लगाकर, कुछ माह या कुछ साल बाद ही बेकार हो सकते हैं.

इन बाइपास ग्राफ्टों की एक छोटी-सी उम्र होती है जिसे बढ़ाने की जिम्मेदारी मूलत: मरीज की है. यदि वह बाइपास के बाद भी डॉक्टर की बताई दवाएं लेगा, परहेज करेगा, बताए गए व्यायाम आदि करेगा तो ग्राफ्ट लंबे चलेंगे. नहीं करेगा तो ये नलियां कभी भी बंद हो सकती हैं. दोबारा, तिबारा हार्ट अटैक भी हो सकते हैं. तब यह न मान लें कि हमारा तो ऑपरेशन ही डॉक्टर ने गड़बड़ कर दिया था वरना हमारे चाचा जी का तो ऐसा बढ़िया हुआ था कि पंद्रह साल से आज तक बढ़िया चल रहे हैं. कभी चाचा जी से पूछिए तो सही बात पता चलेगी. आप सर्जरी के बाद से दवाएं लेते नहीं, तंबाकू लेना आपने बंद नहीं किया, बिस्तर पर लौंदे की तरह पड़े रहते हैं- और सोचते हैं कि सारी जिम्मेदारी बाइपास सर्जरी ही उठा लेगी- तो यह गलत सोचते हैं. यह कोई ‘फिक्सडिपोजिट स्कीम’ नहीं है कि एक बार बड़ी रकम जमा करके जीवन-भर उसका ब्याज खाएंगे. स्वास्थ्य तो रोज कमाना पड़ता है.

बाइपास ग्राफ्ट बंद न होने पाएं इसके लिए दवाएं लें, परहेज करें, व्यायाम करें. याद रखें कि बाइपास सर्जरी एक अस्थायी हल मात्र है.

2. कि ब्लड प्रेशर की दवाएं चालू या बंद की जा सकती हैं : उच्च रक्तचाप, जिसे हाई बीपी भी कहते हंै, उससे ज्यादा भ्रम शायद ही किसी अन्य बीमारी के बारे में पाए जाते हों! हर आदमी को गलतफहमी है कि उसे इस बीमारी का सब पता है. कुछ गलतफहमियां जो आम हैं, वे इस प्रकार हैं:

ब्लड प्रेशर बढ़ा था, फिर दवाइयां भी लीं तो बीपी ठीक आ गया, फिर हमने दवाइयां बंद कर दीं. क्यों? क्योंकि जितनी बार भी चेक कराया, बीपी ठीक ही आता रहा. अब बीपी ठीक है, तो दवाएं क्यों लेना?

‘यदि मरीज बाइपास के बाद डॉक्टर की बताई दवाएं, परहेज और बताए गए व्यायाम आदि नहीं करेगा तो नलियां कभी भी बंद हो सकती हैं’

यह सोच ही गलत है. बीपी तो एक बार ज्यादा हुआ, तो दवाएं तो जीवन-भर नियमित खानी ही पड़ेंगी. जब तक गोलियां खाएंगे तभी तक बीपी कंट्रोल में रहेगा. दस साल दवाएं खाने के बाद यदि दवाएं दो दिन के लिए भी बंद करेंगे, तो बीपी वापस बढ़ जाएगा. बीपी इस बात का लिहाज नहीं करता कि आप पहले दस साल दवाएं खा चुके हैं तो आपको कोई कंसेशन दे दे!

ऐसे मरीज भी हैं जो दावा करते हैं कि उनको तो पता चल जाता है कि आज उनका बीपी बढ़ा है और अभी बीपी ठीक है. कैसे? ‘बस, फील हो जाता है साहब.’ ये लोग फीलिंग के हिसाब से दवाएं लेते हैं. जब लगता है कि आज ज्यादा बीपी होना चाहिए, तो दवाएं ले लेते हैं. बस. न तो रिकॉर्ड कराने की झंझट, न रोज दवाएं लेने की. इनको मेरी सलाह है कि खुद को झांसा न दें. जान लें कि फील करने का ऐसा कोई भी तरीका नहीं है जिससे आपको पता लग सके कि आपका बीपी कैसा है? इसे रिकॉर्ड ही करवाना पड़ता है. यदि इस तरह से बीपी की दवाएं लेंगे तो किसी दिन लकवा हो जाएगा या धीरे-धीरे गुर्दे खराब हो जाएंगे.

3. कि हम तो योगा करते हैं सो व्यायाम करना आवश्यक नहीं : व्यायाम को लेकर बड़े भ्रम हैं. कुछ लोग तो कोई व्यायाम मात्र इसीलिए नहीं करते क्योंकि तय ही नहीं कर पाते कि सर, हम कौन-सा व्यायाम करें? कुछ लोग इसलिए घूमने, जॉगिंग करते या अन्य व्यायाम नहीं करते क्योंकि वे अनुलोम-विलोम आदि योगा करते हैं. कुछ लोग सुबह टाइम न मिलने के कारण, और फिर किसी भी टाइम व्यायाम नहीं करते क्योंकि घूमना सुबह का ही कहाता है, तो कुछ लोग इसीलिए व्यायाम नहीं करते क्योंकि ‘दिन भर नौकरी में ही इतनी दौड़-भाग हो जाती है सर कि हमारा तो वहीं व्यायाम हो जाता है.’

योगा बेहद लाभप्रद है पर वॉकिंग, जॉगिंग, तैरने, साइकिलिंग का पर्याय नहीं बन सकता. ऐसे ही टुकड़ों-टुकड़ों में दिन-भर भागते दौड़ते रहें तो यह व्यायाम नहीं होता. दिन-भर सक्रिय रहें, यह अच्छा है. काम की जगह पर चलना पड़ता है, चलें. लिफ्ट की जगह सीढ़ियां चढ़े. यहां से वहां पैदल जाएं. पास की मार्केट या दोस्त के पास पैदल ही जाएं. पर इन सारी गतिविधियों को व्यायाम न मान लें. व्यायाम इन सबसे अलग करना होगा. व्यायाम के लिए आधा घंटा निकालें. दिन-भर शारीरिक रूप से सक्रिय रहें. योगा भी करें. बस, इतना याद रखें कि तीनों बातें अलग हैं. इनमें से कोई एक कर रहे हैं, तो और चीजें छोड़ी जा सकती हैं, ऐसा कतई नहीं है.

मेरी गलतफहमी यह थी कि गलतफहमियों की बात एक कॉलम में निबट जाएगी. अब लगता है कि यह फसाना लंबा चलेगा. तो अगली बार पीलिया, टाइफाइड, मधुमेह आदि के बारे में व्याप्त गलतफहमियों की बात की जाएगी.

‘यों तो नोई चलेगी’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

आप लाख सफाइयां देते फिरें कि शार्ली हेब्दो के 11 पत्रकारों के नरसंहार की एक खास पृष्ठभूमि है. कोई भी मुसलमान अपने पैगंबर का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकता. यह बात मुसलमानों की समझ में तो आ जाएगी, मगर इस दुनिया में 75 फीसद गैर-मुस्लिम भी तो हैं. उनमें से कितनों को पकड़-पकड़कर आप समझाएंगे कि असल में बात यह है… चलिए शार्ली हेब्दो के कार्टूनिस्टों को तो रसूल की तौहीन के जुर्म में मारा गया. बाकी चार यहूदी पेरिस के सुपरमार्केट में किस तौहीन के बदले मार दिए गए? हां, डेनमार्क के एक अखबार ने ऐसे ही अपमानजनक कार्टून छापे थे जो किसी भी मुसलमान को गुस्सा दिलाने के लिए काफी थे. मगर ये गुस्सा भी तो मुसलमानों ने खुद पर ही निकाला और इसके नतीजे में 20 मुसलमान प्रदर्शनकारी दुनिया के अलहदा हिस्सों में मारे गए.

हां, शार्ली हेब्दो में भी ऐसे ही कार्टून छपते हैं, हां एक जर्मन पत्रिका ने भी ऐसा ही किया, हां पश्चिम में कोई भी संता-बंता थोड़े समय बाद ऐसी ही हरकत कर देता है और आइंदा भी करता रहेगा. तो आप चिढ़ते रहेंगे और वो आपको चिढ़ाते रहेंगे. उपाय क्या है? जो भी ऐसी हरकत करे उसे मार डालो! तो क्या आप किसी गैर-मुस्लिम से भी महान, आदरणीय, पवित्र इस्लामी शख्सियत के लिए उतनी ही समानता की उम्मीद रखते हैं, जितना सम्मान एक मुसलमान अपने पैगंबर और उनके सहाबियों को देता है. और अगर कोई गैर मुस्लिम ऐसा न करे तो उसे भी वही सजा मिले जो एक धर्मत्यागी के लिए है. अगर इतना ही सम्मान करना है तो फिर गैर-मुस्लिम मुसलमान ही क्यों नहीं हो जाते. भला इससे बड़ा अपमान क्या होगा कि हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर मक्का की एक बुढिया रोजाना गली से गुजरते समय गंदगी फेंकती थी. और जब एक दिन उसने आप पर कचरा नहीं फेंका तो उन्होंने लोगों से दरयाफ्त की. लोगों ने बताया कि वह बीमार है. ऐसे में जब वह उसका हाल पूछने उसके घर पहुंचे तो वह बुढ़िया आपके पैरों में गिर गई और आपने उसे गले से लगा लिया. यह किस्सा हर मुसलमान बच्चे को मुंहजबानी याद है, लेकिन सवाल यह है कि इस किस्से से किसने सीखा और क्या सीखा?

कहा जाता है कि ये मुठ्ठी-भर लोग हैं जो इस्लाम को बदनाम कर रहे हैं. अधिकांश मुसलमानों का इनकी करतूतों से कोई लेना-देना नहीं है. हालांकि यह बात ठीक है लेकिन विश्व के अधिकांश गैर-मुसलिमों को यह जाने क्यों हजम नहीं हो रही. जो यह बात मान भी लेते हैं वे भी कहते हैं कि मुसलिम समुदाय इन मुठ्ठी-भरों के सामने इतना बेबस क्यों है? आप अपने धर्म की छवि बिगाड़नेवालों को इस्लाम के दायरे से निकालने का ऐलान क्यों नहीं करते? हालांकि वे आतंकवादी तो आपको कबका इस्लाम से निकाल बाहर कर चुके हैं. पेरिस में तो सिर्फ 17 व्यक्तियों की हत्या के विरोध में 30 लाख लोग सड़कों पर आ गए. मुसलमान देशों खासतौर पर पाकिस्तान, अफगानिस्तान, इराक और सीरिया में तो हजारों स्त्री, पुरुष और बच्चे इस हिंसा का हर दिन निशाना बनते हैं, खानदान के खानदान उजड़ गए, क्या कभी उनके खिलाफ किसी मुसलमान देश के किसी शहर में पिछले 15 वर्ष में किसी दिन एक लाख लोग भी सड़क पर उतरे?

यह बात ठीक है कि अगर कोई हिंदू, ईसाई या यहूदी आतंकवाद फैलाए तो कोई नहीं कहता कि यह धार्मिक आतंकवाद है. कहा जाता है कि यह किसी रामलाल, जॉनसन या कोहेन नाम के बदमिजाज का निजी काम है. लेकिन किसी मुहम्मद अली का नाम सुनते ही घंटियां बज जाती हैं. देखो-देखो ये मुसलमान है, ये इस्लामी आतंकवादी है. हां यही हो रहा है. मगर क्यों हो रहा है? भले ही अल कायदा के बनने के पीछे कितना भी जायज-नाजायज गुस्सा हो, लेकिन 9/11 की घटना के बाद अल कायदा ने जिस तरह से अंतरराष्ट्रीय स्तर अपने पांव फैलाए हैं उससे इस धारणा को बल मिला है. हां, हिंदू आतंकवादी भी हैं, लेकिन आज तक कोई हिंदू आतंकवादी पश्चिम छोड़िए, पाकिस्तान तक में नहीं फटा. यहूदी आतंकी भी हैं लेकिन उनका आतंक  फिलहाल इजरायल और फिलीस्तीन से बाहर नहीं उबलता. अमेरिकी ईसाई टोरंटो में नहीं, ओकलाहोमा में बम फोड़ रहा है और नार्वेजियन पागल सिडनी में लोगों को बंधक नहीं बना रहा है, बल्कि वह ओस्लो के नजदीक ही 70 से अधिक बेगुनाह लोगों का नरसंहार कर रहा है. किसी हिंदू, ईसाई या यहूदी आतंकवादी ने यह नारा नहीं लगाया कि वह पूरी दुनिया को हिंदू, यहूदी और ईसाई बनाकर दम लेगा. अगर गैर-मुसलिम समुदाय समझ रहा है कि यह सब इस्लाम के नाम पर हो रहा है तो इसकी बड़ी वजह इस्लामी नजरिये से दुश्मनी नहीं बल्कि यह है कि एक उजबक अश्काबाद की बजाय इस्लामाबाद में फट रहा है. एक अल्जीरियन अपने मुल्क में मुसलमान और पेरिस में यहूदी मार रहा है. कोई सऊदी राजधानी रियाद को छोड़कर न्यूयॉर्क में विमान टकरा रहा है. किसी का काशाब्लांका में बस नहीं चल रहा है तो वह मैड्रिड में ट्रेन उड़ा रहा है. अफगानी तालिब जलालाबाद में भी बारूदी जैकेट फाड़ रहा है और सीरिया में भी लड़ रहा है. पाकिस्तानी क्वेटा में शियाओं का संहार कर रहा है और मुंबई में भी घुस जा रहा है. ब्रिटेन में ही पैदा होनेवाला ब्रैडफोर्ड का एक लड़का लंदन ट्यूब ट्रेन में भी विस्फोट कर रहा है और आईएसआईएस की तरफ से इराक में यजीदियों का अपहरण भी कर रहा है.

मुसलिम समुदाय इन मुठ्ठी-भरों के सामने बेबस क्यों है? धर्म की छवि बिगाड़ने वालों को इस्लाम से बाहर क्यों नहीं करते? जबकि वे आतंकी तो कबका सबको इस्लाम से खारिज कर चुके हैं

जिस जमाने में फिलिस्तीनी गुरिल्ले विमान अपहरण कर रहे थे, तब किसी ने नहीं कहा कि ये इस्लामिक आतंकवादी हैं. जब अल्जीरियन फ्रांस से अपनी आजादी के लिए लड़ रहे थे तब उन्हें मुसलमान आतंकी नहीं बल्कि अल्जीरियन मुक्तिवादी पुकारा गया. कश्मीर में लड़नेवाले भारत सरकार की नजर में भले ही आतंकवादी रहे हों, लेकिन क्या बाकी दुनिया भी हुर्रियत कांफ्रेंस को इस्लामिक अतिवादी समूह कहती है? पेरिस में मुसलमान आतंकवादी अहमद कुलिबाई ने मुसलमान अधिकारी अहमद मिरावत को फुटपाथ पर मारा. कौसर मार्केट के एक मुसलमान मुलाजिम लिसान बेथली ने यहूदी ग्राहकों को कोल्ड स्टोरेज में बंद करके क्यों बचाया? पेरिस हमले के बाद हुए प्रदर्शन में मुसलिमों के नाम की तख्ती भी बहुत से गैर-मुस्लिम प्रदर्शनकारियों के हाथ में क्यों थी? इसका मतलब यह हुआ कि हर मुसलमान के सींग नहीं होते. कहा जाता है कि मुसलमानों में अतिवाद इसलिए बढ़ रहा है क्योंकि पश्चिमी साम्राज्य ने उत्तरी अफ्रीका और मध्यपूर्व, खासतौर पर फिलीस्तीन के साथ ऐतिहासिक अन्याय किया है. जिसका सबसे बड़ा उदाहरण इजरायल की पैदाइश है. पश्चिम का ऐसा अंधेर ही अतिवादी गुटों के लिए ऑक्सीजन बना है. हां, अन्याय हुआ है, लेकिन लड़ाई जालिमों से होनी चाहिए. आम मुसलमान और गैर-मुस्लिम लोगों को किस न्याय के तहत मारा जा रहा है? धोबी पर बस नहीं चल रहा है, तो गधे के कान क्यों मरोड़े जा रहे हैं? अगर यही ठीक है तो फिर तमाम काले अफ्रीका को बंदूकें लेकर पश्चिम पर चढ़ जाना चाहिए. उनसे ज्यादा राजनीतिक, आर्थिक, भौगोलिक और ऐतिहासिक अन्याय तो किसी के साथ नहीं हुआ और आज तक हो रहा है. लेकिन सिवाय बोको हराम और सोमालिया के अल सहाब गुट के शायद सभी अफ्रीकियों ने बेगैरती का कैप्सूल खा रखा है. लैटिन (दक्षिणी) अमेरिका को तो यूएसए को धमाकों से हिला देना चाहिए, क्योंकि वॉशिंगटन से ज्यादा पिछले 100 सालों में उसका रक्त किसी ने नहीं चूसा. सैकड़ों बोस्नियाई मुसलमानों को बम बांधकर रूस में उधम मचा देना चाहिए क्योंकि सर्ब हत्यारों का सबसे बड़ा समर्थक यह मरदूद रूस ही तो था. लेबनानी हिज्बुुल्ला के शिया समर्थकों को हर यूरोपीय राजधानी में बारूद से भरे ट्रक भेज देने चाहिए.

मगर ऐसा तो नहीं हो रहा. लगभग पांच साल पहले जब मैं दिल्ली से चंडीगढ़ जा रहा था तो गुड़गांव से आगे हाईवे पर मैंने पिछले विश्वयुद्घ के जमाने की एक खटारा बस देखी जिसके पीछे से काला धुंआ निकल रहा था. बस के पीछे लिखा हुआ था- यों तो नोई चलेगी. जब तक तमाम सोचने-समझनेवाले मुसलमान अपनी सरकारों को मजबूर नहीं करेंगे कि वे एक-दूसरे को घूरने और नीचा दिखाने के बजाय असल दुश्मन को पहचानें, तब तक यों तो नोई चलेगी.

‘मुसलमानों ने अपने दरवाजे बंद कर लिए हैं’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
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यह एक सच्चाई है कि आज दुनियाभर में मुसलमान बहुत कठिन समय से गुजर रहे हैं. यह कठिनाई, राजनीतिक भी है, आर्थिक भी है, सामाजिक भी है और धर्म को लेकर भी है. जो अतिवाद आज हमें दुनिया के कुछ हिस्सों में नजर आ रहा है वह पिछले 50-60 साल की देन है. लोग यह सवाल नहीं करते कि अफगानिस्तान के बामियान में जिस बुद्घ को तालिबानों ने बम से उड़ाया था वह 1400 साल से तो मौजूद था. किसी मुसलमान, बाबर या नादिरशाह ने उसे नहीं तोड़ा. इसी तरह इराक में आज जो चर्च तोड़े जा रहे हैं वो वहां ईसा के काल से यानी करीब 2000 साल से मौजूद थे. वहां भी तो मुसलमान 1400 साल से लगातार शासन में हैं, उन्होंने तो नहीं तोड़े चर्च. आज जो अतिवादी सोच आई है वह केवल चर्च या मंदिर नहीं तोड़ रही है, वह पहले दरगाहें और मस्जिदें तोड़ रही है. उन मुसलमानों को मार रही है जो उनसे इत्तेफाक नहीं रखते. हमारे पास जो आंकड़े मौजूद हैं वे बताते हैं कि आतंकवाद से मारे जानेवाले 98 फीसद मुसलमान हैं. उनसे लड़ने वाले भी मुसलमान हैं. आईएसआईएस से लड़नेवाले, तालिबान का मुकाबला करनेवाले भी तो मुसलमान ही हैं.

सच यह है कि आज खुद इस्लाम के अंदर बहुत बड़ा संघर्ष चल रहा है. यह विचारधारा का युद्घ है जो अतिवादी और उदार विचारधारा वालों के बीच चल रहा है. लेकिन यह युद्घ नया नहीं है. पैगंबर हजरत मुहम्मद साहब के जमाने में यह शुरू हुआ था. यह कभी शिया-सुन्नी टकराव के रूप में सामने आया तो कभी अरब-गैर अरब के रूप में. इस लड़ाई में कभी उदार तो कभी अतिवादियों का पलड़ा भारी हो जाता है, लेकिन अगर 1400 साल के पूरे इतिहास को देखें तो इसमें कम से कम 1200 साल उदारवादियों का ही पलड़ा भारी रहा है. हां, जब इस्लाम संकट में आता है, जब उसका पतन होता है तब अतिवादी ताकतें हावी हो जाती हैं. पिछले सौ साल में जब अंग्रेजों ने पूरे मध्य-पूर्व पर कब्जा कर लिया, तुर्की की बादशाहत को खत्म कर दिया, तेल जैसे-जैसे यूरोप और अमेरिका के लिए अहम हुआ, उन्होंने अरब देशों में अपने पिट्ठू बिठाने शुरू कर दिए. वो चाहे सऊदी अरब के बादशाह हों, मिस्र के होस्नी मुबारक हों या खाड़ी में बैठे हुए शेख हों, ये सब अपने हित और पश्चिमी हित के लिए काम करते हैं. वहां की जनता में जो आक्रोश पैदा हुआ वह न केवल अपने शासकों के प्रति था बल्कि अमेरिका और यूरोप के प्रति भी था. तो आज हम जो लड़ाई देख रहे हैं वह केवल धार्मिक लड़ाई नहीं है वह राजनीतिक भी है.

एक सच और है. यह जो इस्लामिक आतंकवाद है वह आज से 20 साल पहले नहीं था. जिस वक्त श्रीलंका में आत्मघाती बम बन रहे थे उस वक्त इस्लाम में ऐसा नहीं था. यह तब आया जब अफगानिस्तान पर तत्कालीन सोवियत संघ ने कब्जा किया. अमेरिका ने उससे निपटने के लिए यहां के मुस्लिमों को भड़काया कि यहां कम्युनिस्ट आ रहे हैं, अब तुम्हारा देश खतरे में है. उन्होंने तालिबों को यानी विद्यार्थियों को हथियार देकर लड़ने के लिए उकसाया. तो यह उसकी पैदा की हुई समस्या है. अमेरिका ने ही ईरान को ठिकाने लगाने के लिए इराक को उकसाया. ईरान-इराक के बीच जंग हुई जिसमें इराक को बहुत नुकसान उठाना पड़ा. इराक ने अपना घाटा पूरा करने के लिए कुवैत पर हमला किया तब कुवैत को बचाने के नाम पर अमेरिका ने पूरे इराक को तहस-नहस कर दिया. सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए वहां के शियाओं को उकसाया गया कि सद्दाम सुन्नी है उससे छुटकारा पाओ. उसके बाद गद्दाफी को खत्म करने के लिए लीबिया में अरब और गैर-अरब को लड़ाया. सीरिया में राष्ट्रपति शिया है जबकि बहुसंख्य जनता सुन्नी है. तो इस सुन्नी समुदाय को हथियार देकर उकसाया कि शिया राष्ट्रपति को हटाओ. यही सुन्नी आज आईएसआईएस के आतंकवादी हैं और पूरे मध्य पूर्व में फैल रहे हैं. मैं यह नहीं कहता कि आतंकवाद को जायज ठहराने के लिए इसे बहाना बनाया जाय. आतंकवाद, आतंकवाद है और उसकी किसी भी धर्म में कोई जगह नहीं है. पेरिस, पेशावर, इराक, सीरिया में जो आतंकवाद का नंगा नाच है, अब समय आ गया है कि मुस्लिम समुदाय बहुमत से उसके खिलाफ उठ खड़ा हो.

आज जो अतिवादी सोच आई है वह केवल चर्च या मंदिर नहीं तोड़ रही है, वह पहले दरगाहें और मस्जिदें तोड़ रही है. उन मुसलमानों को मार रही है जो उनसे इत्तेफाक नहीं रखते

एक और बात यह है कि जैसे-जैसे मुसलमान खतरे में आया, उसने इस्लाम के खतरे में पड़ने का नारा लगाया. इसके साथ ही उन्होंने अपने दरवाजे बाहरी विचारों के लिए बंद कर लिए. जब दरवाजे बंद हो जाते हैं, तो अंदर की हवा सड़ने लगती है. मुसलमानों के साथ भी यही हुआ. उनमें बदलाव आना बंद हो गया. पूरी दुनिया में मुसलमानों की सोच रुके हुए पानी और हवा की तरह सड़ रही है. अब समय आ गया है कि इस्लाम में बदलाव लाया जाए. कुरान में बदलाव संभव नहीं, लेकिन समय के हिसाब से उसकी व्याख्या में बदलाव किया जाना चाहिए. मौलाना अबुल कलाम आजाद ने कहा था कि जो कुरान और इस्लाम का आलिम है उसके पास चिकित्सक की तरह एक ही बीमारी के कई इलाज होते हैं. यानी आलिम वह है जो इस्लाम के बारे में लोगों की सोच के हिसाब से उसकी व्याख्या करे. उसी इस्लाम में जेहाद की अवधारणा है. जेहाद दो तरह का है, जेहादे अकबर और जेहादे असगर. जेहादे अकबर यानी बड़ा जेहाद यानी खुद में बदलाव लाना. दूसरा जेहाद यानी जेहादे असगर कहता है कि जब आप पर हमला हो तो अपने बचाव के लिए हथियार उठाओ. हमला करना जेहाद नहीं है, बचाव करना जेहाद है.

हिंदुस्तान में जो इस्लाम है उसने बीते 1000 सालों में हिंदू सभ्यता को पूरी तरह अपने अंदर समा लिया है. भारत में संगीत धर्म के साथ जुड़ा हुआ है तो भारतीय मुसलमान ने कव्वाली अपना ली. रामलीला का एक रूप ताजिया आ गया, पूजास्थल की तरह हमारे यहां दरगाह आ गई. भारतीय मुसलमान के शादी-विवाह सब स्थानीय हो गए. केरल का मुसलमान एकदम केरल के दूसरे लोगों की तरह ही रहता है. इसी तरह बंगाल का मुसलमान उतना बंगाली नहीं है जितना बांग्लादेश का मुसलमान है. भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे अधिक मुसलमान बंगाली बोलते हैं. इसी तरह पाकिस्तान में बहुसंख्यक मुसलमान पंजाबी बोलते हैं. लेकिन एक धारणा बना दी गई है कि मुसलमानों की भाषा उर्दू है.

भारत के मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता 15 फीसदी आबादी की वजह से नहीं आती बल्कि 80-85 फीसदी आबादी की वजह से कायम होती है

लेकिन भारत की मिट्टी में आतंकवाद नहीं पनपा यह हमारे मुल्क की खासियत है. कुछ लड़के बहककर आईएसआईएस में शामिल होने गए थे, लेकिन वे भी वापस आने लगे हैं. जहां तक बात बहकने की है तो कोई भी बहक सकता है. पंजाब में सिख बहके थे एक जमाने में. इसी तरह कश्मीर में कितने लंबे समय से अस्थिरता जारी है, लेकिन क्या देश के अन्य इलाकों से कोई मुसलमान कश्मीर गया उनके साथ लड़ने? अफगानिस्तान से हमारे इतने करीबी संबंध हैं लेकिन क्या हमारे यहां से कभी कोई वहां तालिबान और मुजाहिदीन के साथ मिलकर लड़ने गया? जवाब है नहीं. जो लोग आपको आज आईएसआईएस से प्रभावित नजर आ रहे हैं वो इंटरनेट से प्रभावित पढ़े-लिखे लोग हैं. मैं दावे से कह सकता हूं कि मदरसे में पढ़नेवाला मुसलमान कभी आतंकवादी नहीं बन सकता है क्योंकि मदरसे में भारतीयता कूट-कूटकर भरी है. आजादी के दौर में भी सभी मदरसों ने महात्मा गांधी का साथ दिया था और जिन्ना का विरोध किया था. महात्मा गांधी जब कहते थे कि वे रामराज्य लाना चाहते हैं तो कोई मुसलमान इस बात का विरोध नहीं करता था. ऐसा इसलिए क्योंकि उनका रामराज्य शेर और बकरी को एक घाट पर पानी पिलानेवाला रामराज्य था, जबकि आरएसएस जब राम का नाम लेती है तो वह दरअसल शेर से बकरी को लड़ाने की बात करती है. महात्मा गांधी के साथ वंदे मातरम कहने में किसी को दिक्कत नहीं थी लेकिन कोई आकर मुझसे यह कहे कि हिंदुस्तान में रहना है तो वंदे मातरम कहना है, तब मैं इस जबर्दस्ती की खिलाफत में नहीं कहूंगा. किसी बात को कौन कह रहा है, कैसे कह रहा है यह बात मायने रखती है. भारत के मुसलमान के पास वोट के रूप में एक ताकत है जिसके जरिये वह अपना गुस्सा, अपनी अहमियत जाहिर कर देता है. भारत में मुसलमानों को जो आजादी मिली है वह भारत की ताकत है. इतनी आजादी उनको दुनिया के किसी अन्य देश में नहीं है, सऊदी अरब में भी नहीं. यह आजादी और यह धर्मरिनपेक्षता भी यूरोप की देन नहीं है बल्कि यह अशोक महान और अकबर महान की सबको साथ लेकर चलने की नीति से पैदा हुई है. अकबर का सुलहकुल ही आज की धर्मनिरपेक्षता की बुनियाद है. सुलहकुल का अर्थ था सबको साथ लेकर चलना. आज अगर भारत में कट्टरपंथ नहीं पनप सकता तो इसके लिए भारत की धर्मनिरपेक्षता जिम्मेदार है. और यह धर्मनिरपेक्षता मुस्लिमों की वजह से नहीं बल्कि हिंदुओं की वजह से है. भारत के मुसलमानों को यह बात समझनी चाहिए कि धर्मनिरपेक्षता 15 फीसदी आबादी की वजह से नहीं बल्कि 80-85 फीसदी आबादी की वजह से कायम होती है.

जिस दिन भारत धर्मनिरपेक्ष नहीं रहेगा उस दिन केवल मुसलमान नहीं बरबाद होगा, बल्कि पूरा भारत बर्बाद होगा. कट्टरवादी इस्लाम की उम्र बहुत छोटी है. दुनिया में हर जगह लोग अल कायदा, आईएसआईएस और तालिबानी संस्करण वाले इस्लाम का विरोध कर रहे हैं. एक मिथ को और तोड़ना होगा. लोग अरब को ही इस्लाम समझते हैं. जबकि सबसे अधिक मुसलमान इंडोनेशिया में हैं उसके बाद भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, चीन आदि का नंबर आता है. इन देशों से अधिक कट्टरता अरब में है. इस तरह कहा जा सकता है कि यह कट्टरपंथ इस्लामिक नहीं है, बल्कि अरबी है. पाकिस्तान में भी केवल सीमावर्ती इलाकों में ही तालिबान सक्रिय है. लेकिन इसके साथ-साथ मैं यह जरूर कहूंगा कि मुसलमानों को भी अपनी सोच में बदलाव लाते हुए अपने धर्म की सुंदर चीजों को, बेहतरीन चीजों को बाहर लाने की आवश्यकता है.

‘अरब देशों ने इस्लाम को हिंसक रूप दे रखा है’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
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पाकिस्तान के पश्चिमी शहर पेशावर में 16 दिसंबर को सेना के एक स्कूल पर हमलाकर आतंकवादियों ने अपनी ताकत का प्रदर्शन किया और साथ ही पाकिस्तानी सेना के उन दावों को मटियामेट कर दिया कि उन्होंने अशांत कबायली इलाकों में व्यापक स्तर पर अभियान चलाकर आतंकवाद और चरमपंथ की कमर तोड़ दी है. उनका सैंकड़ों चरमपंथियों को गिरफ्तार करने का दावा भी हवा हो गया.

2013 के आम चुनावों में कामयाबी के बाद नवाज शरीफ ने जब सत्ता संभाली थी, तब उन्होंने आतंकवाद और चरमपंथ को जड़ से उखाड़ फेंकने का संकल्प सबसे पहले लिया था. उनकी इसी नीति के मद्देनजर फैसला लिया गया था कि तालिबान और दूसरे चरमपंथियों के साथ बातचीत की प्रक्रिया शुरू की जाय. बातचीत शुरु हुई, लेकिन कुछ महीने चलने के बाद नाकाम हो गई, इसकी उम्मीद भी की जा रही थी. बातचीत में नाकामी के बाद जून 2014 में पाकिस्तानी सेना ने कबायली इलाकों, उत्तर वजीरिस्तान और दक्षिण वजीरिस्तान में व्यापक स्तर पर सैन्य अभियान शुरू कर दिया जो आज तक चल रहा है. सेना के तमाम बड़े अभियानों के बावजूद आतंकवाद अपने चरम पर है और बीच-बीच में पेशावर जैसे खतरनाक हमले भी जारी हैं.

इन हमलों से पाकिस्तानी सेना की खूब बदनामी भी हुई और हर बार उसने आतकंवाद को समूल खत्म करने का दावा भी किया. इस तरह के संकल्प पाकिस्तानी सेना ने कई बार लिए हैं,  लेकिन आतंकवाद कम होने की बजाय दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है. आतंकवाद और चरमपंथ को लेकर जो पाकिस्तानी सेना की नीति है उसमें कोई बदलाव नहीं आया है, लेकिन उस नीति को लागू करने के तरीके जरूर बदलते रहे हैं. अफगानिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति हामिद करजई ने कुछ दिन पहले एक इंटरव्यू में कहा था कि पाकिस्तान चरमपंथ को हथियार के तौर पर इस्लेमाल करना बंद कर दे और जब यह बंद होगा तो इस क्षेत्र में हालात खुद ब खुद बेहतर हों जाएंगे. हामिद करजई का इशारा पाकिस्तानी सेना की उस नीति की तरफ है जिससे अफगनिस्तान को काफी नुकसान हो रहा है. यही वजह है कि पेशावर से पेरिस तक आतकंवाद फैला हुआ है और पाकिस्तान इसका केंद्र न होते हुए भी किसी न किसी तरह से इसका हिस्सा हमेशा बना हुआ है.

पेशावर स्कूल में तालिबानी आतंलियों िा हमिा
पेशावर स्कूल में तालिबानी आतंलियों िा हमिा

दुनिया का सबसे बड़ा आतंकवादी ओसामा बिन लादेन पाकिस्तान में मारा गया, अल कायदा के सबसे खतरनाक आतंकवादी पाकिस्तान से गिरफ्तार हुए और दुनिया में जहां कहीं भी आतंकवादी हमले हुए उसकी कड़ियां कहीं न कहीं पाकिस्तान से जरूर जुड़ीं. हाल ही में पाकिस्तान सरकार ने तालिबान से बातचीत शुरू की थी, हालांकि वह बातचीत नाकाम हो गई, लेकिन उस दौरान तालिबान के करीब 30 अहम कमांडरों को रिहा किया गया था. बाद में खबरें आईं कि वही तालिबानी कमांडर सीरिया भेजे गए और उसी दौरान पाकिस्तान को चार सौ करोड़ रुपये सऊदी अरब से मिले. सरकार ने बताया कि प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को सऊदी अरब के बादशाह ने देश चलाने के लिए यह तोहफा दिया है. बात बिल्कुल स्पष्ट है कि चार सौ करोड़ रुपये करीब 30 कमांडरों के बदले में मिले थे. ये कालीन के नीचे छिपाई गई वो स्थितियां है जिन्हें आम जनता जानती-समझती नहीं है. लेकिन इसका नतीजा हम सबके सामने हैं. पेशावर से पेरिस तक टकराव के हालात दिनोंदिन बदतर होते जा रहे हैं.

इन परिस्थितियों के मद्देनजर सबके मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर इस्लाम धर्म में ही इतना चरमपंथ क्यों है. क्या यह सिर्फ मिथ है या इसमें कोई सच्चाई भी है? और क्या इस्लाम का लोकतंत्र से तालमेल नहीं बैठता? बात यह है कि इस्लाम ताकत के जोर पर फैला, इसके लिए खतरनाक युद्ध हुए, बहुत सारा नुकसान हुआ और काफी लोग मारे भी गए, तब जाकर इसकी बुनियाद पड़ी और यह फैलता गया. इस्लाम का इतिहास लड़ाई और युद्ध से शुरू होता है. अब दो विचारधाराएं हैं, एक का मानना है कि इस्लाम को और फैलाने की जरूरत है और इसके लिए ताकत यानी जेहाद ही एकमात्र जरिया है. जैसा इस्लाम का इतिहास हमें बताता है. दूसरी विचारधारा के माननेवाले कहते हैं कि इस्लाम शांति का धर्म है और इसको प्यार, मोहब्बत और हुसुन-ओ-इखलाक से फैलाया जाना चाहिए. बदकिस्मती से इस विचार को माननेवालों की संख्या बहुत ही कम है. इसकी वजह से पूरी दुनिया में इस्लामी अतिवाद के मसले बढ़ते जा रहे हैं.

इस्लाम में दो धाराएं टकरा रही हैं. एक का मानना है कि इस्लाम को और फैलाने की जरूरत है और जेहाद ही एकमात्र जरिया है. दूसरी धारा का मानना है कि इस्लाम शांति का धर्म है

जहां तक इस सवाल का संबंध है कि क्या इस्लाम का लोकतंत्र जैसी आधुनिक शासन पद्धति से तालमेल बैठ सकता है. इसका यही जवाब है कि इस्लाम का लोकतंत्र से साथ अच्छा तालमेल बैठ सकता है लेकिन बिठाया नहीं जाता है. इसकी वहज यह है, कि दुनिया में सुन्नी इस्लाम का असर बहुत ज्यादा है और इसके माननेवाले भी ज्यादा हैं. इसका प्रचार करनेवाले और प्रचार में मदद करनेवाले अरब देश हैं जहां आज भी लोकतंत्र नहीं, बल्कि बादशाहत कायम है. इसमें सऊदी अरब और संयुक्त अरब इमरात की बड़ी भूमिका है और यही देश इस्लाम में सुधार की सबसे बड़ी रुकावट हैं. हालांकि इस समय इस्लाम में सुधार की बहुत जरूरत है, लेकिन इस्लाम में सुधार इन अरब देशों की बादशाहतों के लिए बड़ा खतरा है. इस डर की वजह से इन अरब देशों ने धर्म को हिंसक रूप दे रखा है. खबरों और खुफिया सूचनाओं में यह बात बार-बार सामने आती है कि पाकिस्तानी चरमपंथी संगठनों को सऊदी अरब और अन्य देशों से भारी पैसा मिलता है और उसी के दम पर वो जेहाद करते हैं.

मौजूदा समय में यही अरब देश भारत में हिंसक इस्लाम के लिए मोटा निवेश कर रहे हैं क्योंकि मुसलमानों की संख्या के लिहाज से भारत बहुत बड़ा देश है. हालांकि उन्हें इस काम में कोई खास कामयाबी मिलती नहीं दिख रही है. हाल-फिलहाल में ऐसी खबरें भी आईं कि सीरिया, इराक और अन्य मुस्लिम देशों में हुई घटनाओं से भारत के युवा अपने आपको जोड़ रहे हैं. इसको रोकने के लिए भारत सरकार को समय रहते चेतना होगा और साथ ही दुनिया को इस मुसीबत से बचाने के लिए अहम भूमिका निभानी पड़ेगी. इसका सबसे बढ़िया तरीका है देश में धर्म निरपेक्ष बुनियादों को मजबूत किया जाए, उन उसूलों पर आगे बढ़ा जाय. भारत शायद दुनिया का एकमात्र देश है जहां सभी धर्मों और जातियों के लोग सदियों से आबाद है, और साथ मिलकर रहते हैं. इसलिए किसी भी धर्म में चरमपंथ भारत के लिए नुकसानदेह साबित होगा. देश के कामकाज में अगर धर्म का सहारा लिया जाएगा तो उसे नुकसान होगा और पाकिस्तान इस समय भारत के सामने इसका सबसे बड़ा उदहारण है. अगर भारत में रामराज्य के स्वर उठेंगे तो सबसे पहले इसका असर मुसलिम युवाओं पर पड़ेगा. इसकी प्रतिक्रिया भारत जैसे देश के लिए नुकसानदेह होगी. अगर यहां भी इस्लाम का वह हिंसक रूप घर कर गया तो कई दूसरे देश लुके-छिपे इनकी मदद को आतुर हो जाएंगे. इसलिए भारत सरकार को सतर्क रहना होगा, इस्लामी मदरसों में सुधार करना होगा और धर्म निरपेक्ष मूल्यों पर टिके रहना होगा. यह सिर्फ भारत का मसला नहीं है, बल्कि भारत के जरिए पूरे दक्षिण एशिया को बचाना है.

‘आजादियों की गुलामी’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम

आज ही राष्ट्रपति बराक ओबामा भारत से सीधे सऊद परिवार के कार्यक्रम में शामिल होने सऊदी अरब निकले हैं. अमेरिका का सऊद-परिवार से बड़ा खास रिश्ता है. उसी ठग सऊद परिवार से जो अरब-अफ्रीका-दक्षिण एशिया में पेट्रो-डॉलर के जरिये अपनी तमाम नाजायज औलादों से इस पूरे भूभाग को जहन्नुम बनाए हुए है. सिर्फ इसलिए की कहीं उसके मालिकों का शस्त्र-उद्योग मंदी का शिकार न हो जाए और यहां की अवाम पूंजीवाद के उन मोहरों को अपदस्थ न कर दे जो सऊदी अरब से लेकर पाकिस्तान तक हुक्मरान बने बैठे हैं. लेकिन ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता’ वाले इस दौर में भी कोई माई का लाल अमेरिका और यूरोप से यह सवाल नहीं पूछता कि मानवाधिकार, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, क्रांति, नास्तिकता, नारीवाद जैसे महान सिद्धांत सऊदी अरब के मामले में निलंबित अवस्था में ही पड़े रहेंगे क्या? और हर तरह की आजादियों के चैंपियन अमेरिका का सबसे ‘घनिष्टतम सहयोगी’ सऊदी अरब आखिर कब तक गैर जवाबदेही काल में मौज करेगा? सऊदी अरब की खड़ी की गई अवैध फौजों की हरकतों पर जवाबदेही क्या उन निरीह सेक्युलर सहिष्णु मुसलमानों की ही बनती है जो शर्ली हेब्दो हत्याकांड की सबसे पहले निंदा करते हैं. लेकिन साथ ही उन्हें ये भी जरूरी लगता है की अश्लील कार्टूनों के जरिये उनके पैगंबर का उपहास न उड़ाया जाए.

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार या ‘फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन’ संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा कुल जमा सत्तर-पिछत्तर साल पहले, दुनिया के समक्ष लाया गया सिद्धांत है. ये प्रबोधन काल में पैदा हुई वैयक्तिक स्वतंत्रताओं के सबसे परिष्कृत सिद्धांतों में से एक है. यानी यूरोप में मध्यकाल से शुरू हुए पुनर्जागरण से लेकर लोकतांत्रिक व औद्योगिक क्रांतियों के दौर में हुए सघन सामाजिक आत्ममंथन, वैज्ञानिक उपलब्धियों और प्रगतिशीलता के सिद्धांतों के चरम बिंदु पर पहुंचकर हासिल, वो उसूल जिसको पाने में यूरोप की छह से ज़्यादा सदियां खर्च हुईं और जिसका सत है ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स-1948’.

इसमें यह भी याद रखना होगा की यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया समेत कोई ऐसा पश्चिमी राष्ट्र नहीं है जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सम्पूर्ण रूप से दी गयी हो. खुद यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स-1948′ भी किंतु-परंतु से मुक्त न हो कर इनसे लदा-फंदा है. यानी कुछ अभिव्यक्तियां ऐसी हैं जो संयुक्त राष्ट्र संघ को भी नामंज़ूर हैं. इसी के साथ पश्चिम के सभी राष्ट्र-राज्यों के अपने-अपने संविधानों में भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीम या परम सिद्धांत न होकर कई किंतु-परंतु में लिपटा हुआ है. खुद भारत का संविधान, जिसे एक प्रोग्रेसिव, दूरअंदेश और आधुनिकता का वाहक-दस्तावेज माना जाता है, उसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार असीम परम-सिद्धांत न हो कर कुछ जरूरी सावधानियों से लैस है.

ऐसे में अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, कार्टून जैसी व्यंग्यात्मक और उपहास के लिए इस्तेमाल होनेवाली अभिव्यक्ति की शैली को उस समाज के मूल्यों से भिड़ा देना, जिस समाज ने अभी आत्म-मंथन के मुहाने पर सिर्फ पहला कदम रखा है, न सिर्फ शरारतपूर्ण है, बल्कि उस समाज के प्रगतिशीलों और आधुनिकों को असमंजस और ग्लानि से भरना है. इसलिए संयुक्त राष्ट्र संघ के दबाव में एशिया और अफ्रीका के देशों द्वारा ‘यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ़ ह्यूमन राइट्स-1948’ पर सरकारों की मोहर लगना एक बात है और इनके अवाम के मन-मस्तिष्क में इन सिद्धांतों को उतरना बिल्कुल दूसरी बात है या कहें कि टेढ़ी खीर है.

इस कड़ी में याद रखना होगा की यही पश्चिम राष्ट्रों का वह गिरोह है जिसने 70 और 80 के दशक में पाकिस्तान, ईरान, अफगानिस्तान, इराक, मिस्र, इंडोनेशिया सहित तमाम एशियाई देशों में उदार, आधुनिक और सेक्युलर शासकों का तख्ता पलट करवाकर अपने पिट्ठू गद्दीनशीन करवाए थे. इन पिट्ठुओं ने अवाम के बीच वैधता पाने के लिए अल्लाहमियां का एजेंट बन धार्मिक कट्टरवादी अनुकूलन का सहारा लिया. मोसद्दिक, भुट्टो, नजीबुल्लाह जैसे अवामी सेक्युलर शासकों को मौत के घाट उतारकर अमेरिकी पिट्ठुओं को धार्मिक कट्टरता के सहारे लाचार अवाम पर थोपने का अपराधी पश्चिम, अब जेहादियों, तालिबानों, ‘इस्लामिक-स्टेट’ से आतंकवाद के खिलाफ युद्ध लड़ने का ढोंग कर रहा है.

ऐसे सियासी चक्रव्यूह में घिरे और पश्चिम की नफरत के शिकार समाजों में इस्राइल-अमरीका-यूरोप द्वारा पैगंबर साहब का वस्त्रहीन अश्लील, बेइज्जत करता हुआ कार्टून बनाकर अगर कोई प्रगतिशीलता लाने का सपना देख रहा है तो उसने इसके नतीजों पर भी गौर किया होगा. दशकों से पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण के शिकार और भ्रष्ट राजतन्त्र से आजिज नौजवान जब फिदायीन बन खुद को उड़ा सकते हैं तो पेशावर-पेरिस में दूसरों को मारकर, मर भी सकते हैं. जो खुद मरने ही आया है उसे आप कौन-सी सजा दे देंगे?

भारत का संविधान, जिसे एक प्रोग्रेसिव और आधुनिकता का वाहक-दस्तावेज माना जाता है, उसमें भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार  कुछ जरूरी सावधानियों से लैस है

लेकिन मसला तो ये है की एशिया-अफ्रीका के समाजों में धर्म की सियासत को सहिष्णु, सुधारवादी और सहनशील बनाने में लगे उदारवादी, आधुनिक लोग कैसे अपनी मुहिम जारी रखें? जो शार्ली हेब्दो अपने पन्नों पर यहूद-मुखालिफत और इस पर कार्टून की इजाजत नहीं देता उसी शार्ली हेब्दो के मुहम्मद साहब पर बनाए अश्लील कार्टून का लिबरल-मॉडरेट मुसलमान समर्थन करें? ये कैसा इम्तेहान है? आखिर ये धर्म के मूल में आस्था रखनेवाले लोग हैं. इनको अल्लाह और उसके पैगम्बर पर भरोसा है. ये उस मुल्ला वर्ग के विरोधी हैं जिन्होंने धर्म की डरावनी और जड़ व्याख्याएं करके समाज को अपना गुलाम बनाया और तालिबान, बोको हरम, इस्लामिक-स्टेट जैसे संगठनो को विश्वसनीयता प्रदान की. मेरा दावा है की पेशावर-पेरिस काण्ड करनेवाले अपराधी किसी न किसी सिद्धांतकारी उलेमा-गिरोह के प्रभाव में हैं, लेकिन मीडिया, पश्चिम जगत और सिविल सोसाइटी उधर से आंख मूंद लेता है.

खैर, 1990 के बाद से जब दुनिया भर में साम्यवादी व्यवस्थाएं खत्म हुईं, तभी से ऐसे भस्मासुर पैदा किए गए जिनको दिखाकर हथियार उद्योग को सरसब्ज रखा जा सके. तेल के कुओं पर अवैध कब्जा, हथियार मंडी पर कब्जा, और दुनियाभर के बाजारों पर कब्जा जिन्हें हर हाल में चाहिए उन्हें कट्टरवाद और धार्मिक श्रेष्ठतावाद की खेती करनी ही है.

लेकिन हमें शिकायत उस सिविल सोसाइटी, मीडिया और प्रगतिशीलता से है जो आजादी विरोधी फतवों पर तो फिक्रमंद होती है, लेकिन जब शिक्षित-प्रशिक्षित आम मुसलमानों को किराए पर मकान नहीं मिलता तो आंखें मूंद लेती है. जो शर्ली हेब्दो के कार्टून का समर्थन करती है पर बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के कार्टून में आहत भावनाओं की कद्र करती है, जो प्रोफेसर आशीष नंदी से दलितों के प्रति नस्लवादी बयान के लिए माफी मंगवाती है पर प्रवीण तोगड़िया के मुसलमानों को बेइज्जत करनेवाले सैकड़ों बयानों पर दूसरी तरफ देखने लगती है, जो असम के नरसंहारों को तो सामान्य अपराध मानती है पर पेशावर के नरसंहार को इस्लामी कृत्य मानती है, जो उपराष्ट्रपति डॉ हामिद अंसारी के प्रोटोकॉल के पालन को देशद्रोह कहनेवालों से सवाल तक नहीं करती.

सियासी सहीपने के आग्रहों से आजिज आ कर एक मुसलमान ने ‘Muslim iCondemn app’ बना लिया है, जिसे रोज मोबाइल फोन में क्लिक करके दुनिया के किसी भी कोने में मुसलमान द्वारा किए गए अपराध की निंदा कर हम भी जवाबदेही से मुक्त हो जाएंगे. बाकी तो जैसा अमेरिका बहादुर तय करे.

‘कुछ लोग इस्लाम को हार की तरफ धकेल रहे हैं’

जिंदगी और मौत के बीच का अंतर मैं अपने पेशे में हर रोज देखती हूं. पेशे से डॉक्टर हूं और धर्म से मुसलमान. एक इंसान की जिंदगी की अहमियत बहुत करीब से जाना और समझा है मैंने. इस पेशे में होना और इसको ईमानदारी के साथ निभाना दो अलग बातें हैं. अलग इसलिए क्योंकि इसमें होने के लिए मैं दुनिया के दिए हुए ज्ञान की आभारी हूं, लेकिन इसको ईमानदारी से निभाने का श्रेय मैं अपने धर्म को देती हूं.

संसार में हर व्यक्ति अपनी सोच के कारण दूसरों से अलग है, यह सोच उसे उसके परिवार और धर्म से मिली होती है. समय के साथ ही व्यक्तिगत सोच, सही और गलत का फैसला करने की क्षमता पैदा होती है. मेरे लिए मुसलमान होना सिर्फ पांच समय नमाज पढ़ना, जकात देना या हज करनाभर नहीं है, बल्कि मेरे लिए मेरी सोच का सही होना, एक सही मुसलमान होने की पहचान है. अगर मैं अपने धर्म का हर तरह पालन करूं, लेकिन साथ ही दूसरों के लिए मन में बुरे भाव रखूं और दुख पहुचाऊं तो यह सही नहीं होगा, न मैं अच्छी इंसान न सही मुसलमान. बड़े दुख और आश्चर्य का अनुभव होता है आज यह देखकर कि एक इंसान दूसरे इंसान की जान की कीमत भूल जाता है.

हर किसी को अपनी बात रखने का हक है पर इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं कि आप उससे असहमत हों तो उसकी जान ले लें

धर्म के नाम पर जो लोग हत्याएं करते हैं उनकी निंदा करने के लिए शब्द किसी भी भाषा में कम पड़ेंगे. जीवन अमूल्य है, फिर चाहे वह किसी गरीब का हो, अमीर का, हिन्दू का, ईसाई का हो या मुसलमान का. और फिर जब जीवन देनेवाला ईश्वर है तो उसको छीनने का अधिकार भी केवल ईश्वर को ही है.  यह बात समझ से बाहर है कि एक-दूसरे को मौत के घाट उतारने वाले यह अतिवादी कौन-सा मकसद पूरा करना चाहते हैं. ये भूल चुके हैं कि अपनी बात को सही या दूसरों की बात को गलत ठहराने के लिए हजारों लोगों की जान लेना नाजायज है. मैं एक मुसलमान हूं, जहां तक मैंने अपने धर्म को जाना और समझा है, इस्लाम में किसी भी व्यक्ति को किसी का भी जीवन छीनने का हक नहीं है. मेरे ख्याल से दूसरे धर्म भी इसकी इजाजत नहीं देते. इस्लाम कहता है कि जिस शख्स ने किसी एक भी बेगुनाह को कत्ल किया उसने पूरी इंसानियत का कत्ल किया है. इसी तरह जिसने किसी एक इंसान की जिंदगी बचायी है उसने पूरी इंसानियत को बचा लिया है. मेरी समझ से यह कोई अलग ही धर्म है जो सिर्फ अपने निजी मकसद के लिए कुछ लोगों ने खड़ा कर लिया है. इस दुनिया में हर किसी को अपनी बात रखने का हक है पर इसका यह अर्थ बिलकुल नहीं कि आप जिससे असहमत हों उसकी जान ले लें.

हर सुबह जब मैं अपने घर से निकलकर अस्पताल पहुंचती हूं तो कभी यह नहीं सोचती कि मेरा धर्म क्या है और जो मरीज मेरे पास आया है उसका धर्म क्या है. क्योंकि मेरे लिए वह केवल एक मरीज है, जो अपनी परेशानी लेकर मेरे पास आया है.  मेरी पूरी कोशिश उसके दुख के निवारण की होती है. अपने अस्पताल में मैं 99 फीसदी गैर-मुसलमानों के साथ काम करती हूं. और उन गैर-मजहब के लोगों से मेरी जो बातचीत हुई, उससे मैंने जाना कि बाकी लोग भी मेरे जैसी सामान्य सोच ही रखते हैं. यह लोग बिलकुल मेरी तरह हैं, मेरी सोच वाले, इंसानियत को मानने वाले. हाल ही में पेरिस में शार्ली हेब्दो पर जो हमला हुआ या उससे पहले पाकिस्तान में सैंकड़ों मासूम स्कूली बच्चों की दरिंदगी के साथ हत्या की गई, यह और इस जैसी हर घटना की सिर्फ निंदा ही की जा सकती है. इस्लाम की आड़ में ऐसा करने की इजाजत किसी को नहीं है. अगर इन हत्याओं के लिए जिम्मेदार लोग यह मानते हैं कि इस तरह के हमले करने में इस्लाम की जीत है, तो यह उनका भ्रम है.  सच्चाई तो यह है कि यह इस्लाम की हार है.