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‘लोकतांत्रिक मूल्यों पर भारत के मुसलमानों का विश्वास कमजोर है’

सभी धर्म उदार, मानवीय और सहिष्णु होते हैं. लेकिन समय-समय पर धर्म के आधार पर राजनीति करने वाले तत्व या धर्म के आधार पर सत्ता में बने रहने या सत्ता प्राप्त करने का प्रयास करनेवाले धर्म को आक्रामक बना देते हैं. धर्म की आड़ में राजनीति होती है. यदि फ्रांस या संसार के अन्य भागों में मुसलिम आतंकवादियों की हिंसक गतिविधियों के आधार पर इस्लाम को हिंसक धर्म मान लिया जाए , तो प्रश्न यह उठ खड़ा होगा कि इस्लाम के अतिरिक्त जिन धर्मों की आड़ में राजनीतिक स्वार्थ पूरे करने के लिए हिंसा का सहारा लिया गया क्या वे हिंसक धर्म नहीं कहे जाएंगे?

इतिहास बताता है कि बौद्ध धर्म के माननेवाले दूसरे धर्मों और विश्वासों के प्रति उदार और सहिष्णु नहीं थे. सम्राट अशोक (304-232 ई.पू.) ने 18,000 जैनियों की हत्या करा दी थी क्योंकि किसी ने एक चित्र बनाया था जिसमें महात्मा बुद्ध को महावीर के चरणों को स्पर्श करते दिखाया गया था. क्या इस आधार पर बौद्ध धर्म को हिंसक धर्म कहा जा सकता है? या कालांतर बौद्ध धर्म के माननेवालों पर अत्याचार करनेवालों के धर्म को हिंसक धर्म कहा जा सकता है?

पिछले वर्षों के दौरान म्यांमार और श्रीलंका में मुस्लिम समुदाय के विरुद्ध की गयी हिंसा में लगभग 250 मुसलमान मारे गये थे. यह हिंसा बौद्धों ने की थी. क्या इस आधार पर कहा जाए कि बौद्ध धर्म हिंसक धर्म है. इसका सीधा अभिप्राय है कि धर्म हिंसक या अहिंसक नहीं होता.

धर्मों का उदय प्राय: समाज और देश की भलाई और मानवीय मूल्यों की स्थापना के लिए होता है. धर्म के आधार पर लोग संगठित होते हैं. संगठन सत्ता में आने के लिए राजनीति में प्रवेश करते हैं. इस तरह धर्म राजनीति का हिस्सा बन जाते हैं. फिर सत्ता में बने रहने के लिए ये संगठन वही करते हैं, जो सत्ताएं करती हैं. हर प्रकार के नैतिक और अनैतिक तरीके से सत्ता में बने रहना.

इस्लामी दुनिया में फैली हिंसा का कोई संबंध इस्लाम धर्म से नहीं, बल्कि मुसलिम धर्म की राजनीति और विश्व राजनीति से है. इसमें क्या संदेह हो सकता है कि विश्व की बड़ी शक्तियों ने अपना प्रभुत्व बनाये रखने और दूसरे देशों के संसाधनों पर अधिकार जमाये रखने के लिए धार्मिक कट्टरता को भड़काया है. तालिबान को एक समय में दी जानेवाली अमेरिकी सहायता इसका उदाहरण है.

पेरिस से लेकर पेशावर तक फैली हिंसा के कारणों पर बात करना जरूरी है. पाकिस्तान की हिंसा मुख्य रूप से दो मुस्लिम समुदायों के आपसी विवाद की पैदाइश है. इनमें से एक समुदाय को एक बड़े मुस्लिम देश का समर्थन प्राप्त है और दूसरे को एक अन्य देश से पूरी मदद मिलती है. यह प्रभुत्व की लड़ाई है, जिसमें दो मुस्लिम पंथ एक-दूसरे के सामने खड़े हैं. इनमें से एक देश को बड़े पूंजीवादी देशों का समर्थन प्राप्त है. पाकिस्तान में दूसरे प्रकार की धार्मिक हिंसा का आधार भी इस्लाम के विभिन्न पंथों के बीच प्रभुत्व की लड़ाई ही है.

इस्लामी दुनिया में फैली हिंसा का कोई संबंध इस्लाम धर्म से नहीं बल्कि मुसलिम धर्म की राजनीति और विश्व राजनीति से है. विश्व की बड़ी शक्तियों ने धार्मिक कट्टरता को भड़काया है

आतंकी संगठन हथियार और पैसा कहां से पाते हैं? तालिबान या दूसरे आतंकी वे हथियार नहीं बना सकते, जिनका वे इस्तेमाल करते हैं. वे हथियार विकसित और धनवान देशों में ही बनते हैं. सवाल यह है कि आधुनिक हथियार आतंकियों तक कैसे पहुंच जाते हैं? आतंकी कहां से ऐसे साधन जुटाते हैं कि महंगे हथियार खरीद सकें? आतंकियों को कौन पैसा देता है? गरीब देशों के पास इतना धन नहीं है और संसार के सभी धनवान मुस्लिम देश अमेरिका के प्रभाव में हैं. बड़े मुसलिम देशों का व्यापार, मुख्य रूप से तेल का व्यापार अमेरिकी-यूरोपीय कंपनियों के पास हैं. अरब क्षेत्र के सभी बड़े धनवान अमेरिकी गठबंधन का हिस्सा हैं. यही देश आतंकी संगठनों को धन देते हैं तो आतंकवाद को अधिक गहराई से समझने की आवश्यकता है.

आधुनिक विचारों और शासन पद्धति से मुसलमान बहुत ज्यादा परिचित नहीं हैं. मेरा मानना है कि विश्व के मुसलमान और विशेष रूप से भारत-पाक के सामान्य मुसलमान ज्यादा पढ़े-लिखे या आधुनिक विचारों से संपन्न नहीं हैं. लोकतांत्रिक विचारों पर उनका विश्वास नहीं है, लेकिन वे हिंसक और आतंकी नहीं हैं. लोकतांत्रिक विचारों पर उनका विश्वास होना चाहिए, लेकिन वे सामंती विचारों को अधिक स्वीकार करते हैं.

भारत में इस समय एक दक्षिणपंथी सरकार है, लेकिन यह समझदार और चतुर सरकार है. भारत में बहुत प्रभावशाली और सटीक तरीके से अल्पसंख्यकों के प्रति विरोध और तिरस्कार की भावना फैलाई जा रही है. इसका पता भी मुसलमानों को नहीं चल रहा है. समय आने पर यह दूषित प्रचार वैसे ही काम करेगा, जैसा गुजरात में हुआ था. मुसलमान भारतीय जनतंत्र में अपना स्थान बना पाने में सक्षम नहीं हैं. सुदूर इराक और सीरिया की घटनाओं से भारतीय मुसलमान इसलिए जुड़ रहे हैं क्योंकि वे अपने यथार्थ से परिचित नहीं हैं. भावुक और अनपढ़ हैं. खिलाफत आंदोलन जैसे विदेशी आंदोलनों ने उन्हें सुदूर मुस्लिम देशों और समस्याओं से जोड़ने का काम किया है.

भारतीय मुसलमानों में समाज सुधार आंदोलन सर सैयद अहमद के शिक्षा आंदोलन के बाद आगे नहीं बढ़ सका. हालांकि यह बात उत्तर भारतीय मुसलमानों के संदर्भ में ही कही जा सकती है. दक्षिण भारतीय मुसलमान बिल्कुल भिन्न हैं. उत्तर भारत के मुसलमान पाकिस्तान बन जाने और पढ़े-लिखे मुसलमानों के पाकिस्तान चले जाने के बाद मध्यवर्ग विहीन हो गए थे. अब जो मध्यवर्ग बना है वह स्वार्थी, धर्मांध और विभाजित है. भारत में मुसलमानों के लिए यह बहुत कठिन समय है. अपनी अज्ञानता के कारण वे उसे पहचान नहीं पा रहे हैं.

भारतीय मुसलमान देश के बड़े सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों से जुड़कर ही आगे बढ़ सकते हैं. अलगाव, कट्टरता और अशिक्षा उनका सबसे बड़ा दुश्मन है.

‘खतरा बाहर से नहीं अंदर से है’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
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कोई भी धर्म अपने मूल स्वरूप में कभी कट्टर नहीं होता है. हां, धर्म को माननेवाले जरूर कट्टर अथवा उदार हो सकते हैं. लिहाजा यह बात जाहिर है कि समस्या धर्म नहीं बल्कि लोगों का वह मानस है जो हर चीज को अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए इस्तेमाल करना चाहता है. कुरान में कहा गया है- ‘हर एक अपनी रुचि के अनुसार काम करता है, कौन सही रास्ते पर है यह केवल तुम्हारा परमेश्वर ही जानता है.’ (17.84)

गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा है, ‘जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी’.

इस्लाम का मूल शब्द सलम है जिसका अर्थ ही समर्पण और शांति है. अगर हम ऐतिहासिक संदर्भ लें तो यह समझने में कठिनाई नहीं होगी कि अरब लोगों में इस्लाम के पहले से हिंसा और अतिवाद को सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त थी और इस्लाम इन बुराइयों को समाप्त करने का आंदोलन था, जिसके कारण अरब समाज में बड़ा बदलाव आया भी.

लेकिन यह भी ऐतिहासिक तथ्य है कि अरबों में जो प्रतिक्रियावादी ताकतें थीं, उन्होंने पैगंबर साहब के अवसान के 30 साल बाद ही पूरी व्यवस्था पर फिर से कब्जा कर लिया और इस्लाम से पहले की जाहिली परंपराओं को फिर से जिंदा कर दिया. इसके नतीजे में हिंसा और अतिवाद की संस्कृति पुनर्जीवित होने लगी और अगले 20 साल के अंदर स्वयं पैगंबर साहब के परिवार के हर पुरुष सदस्य की करबला के मैदान में निर्मम हत्या कर दी गई. यही नहीं, उनके परिवार की महिलाओं के सर से चादरें छीनकर उन्हें कूफे से दमिश्क का सफर ऊंटों की नंगी पीठ पर कराया गया.

इस्लाम में सुधारवादी आंदोलन से ज्यादा जरूरी है आगे बढ़ने की सोच. आगे बढ़ना किसी भी व्यक्ति और समूह के जीवंत बने रहने के लिए सबसे जरूरी है

जहां तक बात पेरिस से लेकर पेशावर तक एक के बाद एक हो रहे टकरावों की है तो इस बारे में मैं यही कह सकता हूं कि इस्लाम का नाम लेकर कुछ लोग क्या करते हैं, यह वह जानें या अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए उनको प्रोत्साहन देनेवाले जाने. इस तरह के मामलों में इस्लामी विचारधारा का रेखांकन करने का अधिकार केवल कुरान का है जो स्पष्ट शब्दों में कहता है-

‘और आखरित का घर उनके लिए है जो न तो धरती पर अपनी बड़ाई चाहते हैं और न ही फसाद पैदा करते हैं. अच्छा परिणाम तो अंतत: उनके लिये है, जिनको प्रभु का बोध है.’ (28.83)

कुरान की इस आयत से यह एकदम स्पष्ट है कि जमीन पर अपना आधिपत्य स्थापित करने के प्रयास और अपने स्वार्थ के लिए हिंसा और मारकाट या टकराव, यह सब कार्य धर्म की मूल आत्मा पर आघात हैं.

इस्लाम से पहले अरब समाज में कबायली व्यवस्था थी, पैगंबर साहब ने उसकी जगह जो व्यवस्था बनाई उसमें हुकूमत बनाने के लिए नागरिकों की सहमति (बैयत) तथा हुकूमत चलाने के लिए परामर्श (शीरा) का प्रावधान किया. सहमति तथा परामर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था के अनिवार्य अंग हैं. इसके साथ-साथ कुरान मानवीय प्रतिष्ठा तथा समता का हुक्म भी देता है. यही बात आज के लोकतंत्र के आधारभूत सिद्धांत हैं. इसलिए समस्या तालमेल की नहीं बल्कि यह है कि मुस्लिम देशों में जो बादशाहतें या तानाशाही की व्यवस्थाएं चला रही हैं, वो गैर इस्लामी हैं, सवाल उन्हें वापस लोकतंत्र पर लाने का है.

एक वजह ये भी है कि अलग-अलग विचारधाराओं में राजनीति के चलते टकराव की संभावना पैदा हो जाती है. लेकिन धर्म और धार्मिक जीवन में इसके लिए कोई स्थान नहीं है. हमारी परम्पराओं में कहा गया है कि, ‘दया धर्मस्य जन्मभूमि’ अर्थात दया से धर्म पैदा होता है, कुरान का हर अध्याय दयानिधि और करुणानिधि अल्लाह के नाम से शुरू होता है. इसके बावजूद अगर टकराव होता है, तो इसके लिए धर्म को दोष नहीं दिया जा सकता. अपने वर्चस्व के लिए झगड़ा अधर्म है, यह जिहाद नहीं बल्कि फसाद है और कानून इससे निपटे यही बेहतर तरीका है.

अगर टकराव हो रहा है तो इसके लिए धर्म दोषी नहीं है. अपने वर्चस्व के लिए झगड़ा अधर्म है, यह जेहाद नहीं बल्कि फसाद है और कानून इससे निपटे यही बेहतर तरीका है

अक्सर इस्लाम में सुधारवादी आंदोलनों की कमी की बात भी उठती रहती है पर मेरे ख्याल से मामला सुधार का नहीं, बल्कि आगे बढ़ने का है. आगे बढ़ना किसी भी व्यक्ति और समूह के जीवंत बने रहने के लिए सबसे जरूरी है. इसी में परिवर्तन निहित है. लेकिन जो बदलना नहीं चाहते यह उनकी अपनी पसंद का मामला है. जीवंतता अनिवार्य है- इस विषय पर भी कुरान का फैसला स्पष्ट है-

‘अगर तुम आगे नहीं बढ़ोगे तो खुदा तुम को तकलीफ भरा अजाब देगा और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को ले आयेगा.’ (9.39)

अगर बात खतरे की हो तो चाहे वह मुसलिम हो या गैर मुसलिम किसी को भी खतरा बाहर से नहीं होता खतरा हमेशा खुद से या अंदर से आता है. कुरान में कहा गया है-

‘ए आस्था रखनेवालों स्वयं अपनी चिंता करो, अगर तुम खुद सही रास्ते पर हो तो जो भटक गया है वह तुम्हें नुकसान पहुंचा ही नहीं सकता.’ (5.105)

‘फ्रांस में हुआ हमला कुरान और नबी के उपदेशों के खिलाफ है’

हाल ही में फ्रांस की एक पत्रिका शार्ली हेब्दो के दफ्तर पर हुए जानलेवा हमले के बाद एक बार फिर से यह चर्चा शुरू हो गई है कि इस्लाम एक निहायत ही जालिम और खूनपसंद मजहब है, इस्लाम को माननेवाले यानी मुसलमान खून के प्यासे हैं, हैवान हैं. आज के दौर में इस्लामी अतिवाद एक हकीकत बन गया है और इस हकीकत के चलते ही आम लोगों के मन में यह बात घर कर गई है कि इस्लाम हिंसा को बढ़ावा देता है. इन तास्सुरात को हवा इस हकीकत से भी मिलती है कि मुसलमानों का एक तबका इस तरह के हमलों की हिमायत भी करता है. इस तरह की कार्रवाइयां करनेवाले लोग यह दावा भी करते हैं के वो इस्लाम की हिफाजत कर रहे हैं.

हकीकत यह है कि वह शिद्दत पसंद इस्लाम की गलत तरीके से व्याख्या कर रहे हैं और हिंसा के जरिए वे लोग इस्लाम की हिफाजत नहीं, बल्कि उसकी बदनामी कर रहे हैं. लेकिन इन लोगों को इस बात का अंदाजा नहीं है और न ही इस्लामी दर्स व तालीम का जरा भी इल्म है.

यह तस्वीर कि मुसलमान गैर-मजहबी लोगों से द्वेष रखनेवाले आतंकवादी हैं, जिसको आज मीडिया भी उछालता है, बतौर मुसलमान मेरी पहचान के बिलकुल खिलाफ है. कुरान की बेशुमार आयतें न केवल इस बात से रोकती हैं कि संगीन मामलात को इंसान खुद अपने हाथों में ले, बल्कि इस बात पर भी जोर देती हैं कि दरगुजर से काम लिया जाय. कुरान इस बात पर खास जोर देता है कि वे लोग जो इस्लाम या पैगंबर की बेहुरमती या बेइज्जती करते हैं उनको बिलकुल नजरअंदाज कर दिया जाए या उनसे तर्कपूर्ण ढंग से संवाद किया जाए.

चाहे फ्रांस में हुआ मामला हो या सलमान रुश्दी पर जारी किया गया फतवा,   सभी कुरान और नबी के उपदेशों के बिलकुल खिलाफ हैं. कुरान हमें जगह-जगह संयम से काम लेने की शिक्षा देता है और रसूल की शान में गुस्ताखी करनेवालों से पूरी तरह किनाराकशी करने का हुक्म देता है. मिसाल के तौर पर कुरान की यह आयत, ‘और अल्लाह ताला तुम्हारे पास अपनी किताब में ये हुक्म उतार चुका है कि तुम जब किसी मजलिसवाले को अल्लाह की आयतों के साथ कुफ्र करते या उनका मजाक उड़ाते सुनो तो उस महफिल में उनके साथ न बैठो’. (4.140)

हकीकत यह है कि आतंकी शिद्दत पसंद इस्लाम की गलत व्याख्या कर रहे हैं और हिंसा के जरिए वे इस्लाम की हिफाजत नहीं, बल्कि उसकी बदनामी कर रहे हैं

‘और जब बेहूदा बात कान में पड़ती है तो उससे किनारा कर लेते हैं, और कह देते हैं के हमारे अमल हमारे लिए और तुम्हारे अमल तुम्हारे लिए’ (28.55).

दूसरी कुछ आयतों में अल्लाह विभिन्न अपराधों की सजा का भी जिक्र करता है, लेकिन वह सजाएं जुर्म के हिसाब से महदूद हैं. इसके बावजूद अल्लाह एक ज्यादा बेहतर और नेक तरीका अपनाने का हुक्म देता है और वह है दरगुजर न कि इंतकाम.

‘और अगर बदला लो भी तो बिलकुल उतना ही जितना सदमा तुम्हें पहुंचाया गया हो और अगर सब्र कर लो तो सबिरों के लिए यही बेहतर है’ (6.126)

‘ये अपने किए हुए सब्र के बदले दोहरा अजर दिए जाएंगे. ये नेकी से बदी को टाल देते हैं’ (28.54).

इस्लाम में कहीं भी तौहीन की सजा मौत नहीं है. यह दहशतगर्द, चाहे वह इराक में हों, पाकिस्तान में या फिर पेरिस में, जो इस्लाम के नाम पर बेगुनाह लोगों का खून बहाते ह,ैं वे इस्लाम की कोई खिदमत अंजाम नहीं दे रहे हैं बल्कि खुद कुफ्र-ए-कुरान और तौहीन-ए-रिसालत कर रहे हैं. कुरान हमें बताता है कि तकरीबन हर नबी की शान में गुस्ताखियां की गईं, लेकिन उसके लिए दुनिया की कोई सजा तजवीज नहीं की गई.

कुरान में रसूल की जिंदगी के बहुत से वाकयात बयान हुए हैं जो इस बात की दलील हैं की रसूल रहम और दरगुजर से काम लेते थे. कुरैश ने मक्का में आपके साथ कितनी बदसलूकियां की और कितने जुल्म ढाए यहां तक कि आप को मक्का छोड़ देने पर मजबूर कर दिया. लेकिन जब आप मक्का को जीतकर दोबारा कमांडर की हैसियत से वापस लौटे तो आप ने आम माफी का ऐलान कर दिया और अपने दुश्मनों से भी दरगुजर का बर्ताव किया.

इस्लाम का एक हिस्सा मानना और एक हिस्से को छोड़ देना वास्तव में इस्लाम से कुफ्र करना है. इसे कुरान मुनारेकत का नाम देता है. आज जो दुनिया में दहशतगर्दी फैला रहे हैं असल में वो यही काम कर रहे हैं. वह कुरान का एक हिस्सा मानते हैं ज्यादातर हिस्से को नजरअंदाज कर देते हैं. बंदूक उठाने से बेहतर है वो कुरान की तालीम पर गौर करें और नबी के रास्ते पर चलने की कोशिश करें.

किसी मुसलमान को ये हक नहीं के वो गुस्ताख-ए-रसूल या मुंकर-ए-इस्लाम को सजा दे. यह हक सिर्फ अल्लाह का है. वो जो सजा चाहेगा, देगा. ये इन्तहापसंद इस्लाम की कोई सेवा नहीं कर रहे हैं बल्कि कुरान की तालीम को अपने पैरों तले रौंद रहे हैं और दुनिया में फसाद कर रहे हैं. ये ‘इस्लामी दहशतगर्द’ नहीं, बल्कि सिर्फ और सिर्फ दहशतगर्द हैं.

अपना-अपना इस्लाम

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मध्यकाल के अंधकारपूर्ण दौर में दो धर्मों के बीच लंबी लड़ाई चली थी. इतिहास में यह लड़ाई क्रूसेड या होली वॉर के नाम से दर्ज है. इस युद्ध को लेकर कई ऐतिहासिक मान्यताएं हैं, इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं. एक विचार कहता है कि यह पूरब में रोमन कैथलिक चर्च के विस्तार की कोशिशों का नतीजा था. रोमन कैथलिक चर्च इस युद्ध के जरिए जेरुसलम और उसके आसपास मौजूद पवित्र ईसाई स्थलों पर कब्जा करना चाहता था. एक मत यह भी है कि होली वॉर दरअसल इस्लाम के हिंसक विस्तार को रोकने की गरज से यूरोपीय देशों ने शुरू किया गया था, जिसका नेतृत्व रोमन कैथलिक चर्च ने किया था. सन 1050 से लेकर 1295 के दरम्यान लगभग ढाई सौ सालों तक दुनिया की दो धार्मिक सभ्यताएं निरंतर खून-खराबे में लिप्त रहीं. अंततः यह लड़ाई समाप्त हो गई. ईसाईयत ने खुद को यूरोप में सीमित कर लिया, इस्लाम अरब और यूरोप की सीमाओं तक जाकर रुक गया. वह लड़ाई भले ही खत्म हो गई थी, लेकिन उसकी जड़ें कहीं न कहीं शेष रह गईं. इन लड़ाइयों का केंद्र धर्म था.

आज एक बार फिर से दुनिया कमोबेश उन्हीं स्थितियाें में खड़ी है, जहां अलग-अलग धर्म अामने-सामने हैं. इस्लाम का एक उग्र चेहरा दुनिया के सामने देखने को मिल रहा है. आज की समस्या यह है कि क्रूसेड काल के विपरीत आज अब यह टकराव सिर्फ ईसाईयत और इस्लाम का नहीं रह गया है. जो सोच और धारणाएं बन रही हैं, उनमें इस्लाम आज बाकी दुनिया के दूसरे धर्मों और पंथों के साथ टकराव की हालत में दिखता है. यही नहीं विरोधी इस तर्क पर भी आते हैं कि खुद इस्लाम का अपने ही भीतर दूसरे विचारों से टकराव चल रहा है. इस्लामी आतंकवाद और इस्लाम के भीतर अतिवाद जैसी सोच पिछले कुछ दशकों में पूरी दुनिया में धड़ल्ले से चल निकली हैं. सिडनी में हमले हो रहे हैं, भारत में हमले हो रहे हैं, पेरिस में हमले हो रहे हैं, बाली, इंडोनेशिया में यही स्थिति है, यूरोप और अमेरिका भी इसकी चपेट में हैं.

भारत में सदियों से हिंदू-मुसलमान बिना किसी बड़े संघर्ष के साथ-साथ रहते आए हैं, लेकिन पिछले दो दशकों में यहां भी आतंकवाद ने हालात बदले हैं

क्या दुनिया एक बार फिर से होली वॉर के दुष्चक्र में फंस गई है, जिसके एक सिरे पर अतिवादी इस्लामिक नुमाइंदे खड़े हैं और दूसरे सिरे का नेतृत्व अमेरिका जैसे देश कर रहे हैं. भारत की स्थिति विडंबनापूर्ण है. यहां सदियों से हिंदू-मुसलमान बिना किसी बड़े संघर्ष के साथ-साथ रहते आए हैं, लेकिन पिछले दो दशकों में यहां भी आतंकवाद ने हालात बदले हैं. चाहते न चाहते हुए भी भारत उस स्थिति में है जहां वह आतंकवाद के इस युद्ध में उस अमेरिका के पाले में खड़ा दिख रहा है, जो काफी हद तक मौजूदा इस्लामी आतंकवाद का जनक है. हमारे यहां दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी मुसलिम आबादी रहती है. हाल के दिनों में हमने देखा कि यहां के युवक भी आईएसआईएस जैसे संगठनों के लिए संघर्ष करने सीरिया जाने लगे हैं. खुद देश में आईएम जैसे संगठनों का खतरा बना हुआ है. तो क्या यह धर्म के भीतर मौजूद खामी है, क्या इस्लाम के डीएनए में ही हिंसा व्याप्त है या यह कुछेक सिरफिरे, जाहिल लोगों की करतूत है, क्या यह कुछ कठमुल्ला सोचवालों की तरकीब है, क्या यह इस्लामोफोबिया है या यह इस्लामी सत्ताओं द्वारा अपनी हुकूमत को बचाने की साजिश है? आखिर इस हिंसा का सच क्या है?

वैश्विक स्तर पर चल रही इन घटनाओं को लेकर भारत के आम मुसलमान के मन में क्या चल रहा है, वह क्या सोच रहा है, इस अराजक हिंसा को लेकर उसकी मन:स्थिति क्या है, यहां के मुसलिम बुद्धिजीवी, राजनेता, आध्यात्मिक गुरु, साहित्यकार, पत्रकार, कामकाजी मध्यवर्गीय मुसलमान, शिक्षक, मजदूर अपने धर्म को लेकर दुनिया-भर में बनी धारणा को कैसे देख रहा है, अतिवादी समूहों की कारगुजारियों पर उसकी क्या राय है. आगे के कई पन्नों पर इन्हीं सवालों के जवाब ढूंढने की कोशिश की गई है. अगर इस पूरी बहस के निष्कर्ष की बात करें, तो कह सकते हैं कि संकेत सुखद हैं, धर्म कट्टर नहीं है, हां, कुछ लोग जरूर भटक गए हैं, और उनकी हर संभव शब्दों में मुजम्मत करनेवाले इस कवर स्टोरी में प्रचुरता से उपलब्ध हैं. इस्लाम और अतिवाद को पर्यायवाची के रूप में पेश करनेवाली सोच को यह स्टोरी तार-तार करती है.

‘यह मोहम्मद का दीन तो नहीं है’

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शार्ली हेब्दो आज किसी परिचय को मोहताज नहीं है. यह वह नाम है जिसका आज लगभग हर व्यक्ति समर्थन कर रहा है और उसके प्रति सहानुभूति जता रहा है. पर क्या शार्ली हेब्दो वाकई निर्दोष है? क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता असीमित होती है? क्या उसके जरिए दूसरों की भावनाओं को आहत करने का अधिकार है? मेरा समझना है कि हर चीज की एक सीमा होती है और यह बात धार्मिक स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दोनों पर एक समान लागू होती है. अगर नहीं होती तो होनी चाहिए वरना हमें इस तरह की घटनाओं का आदी हो जाना चाहिए, क्योंकि फिलहाल हम जिस दुनिया में जी रहे हैं वह कोई आदर्श या संपूर्ण दुनिया नहीं है.

बहरहाल इस वक्त हर कोई शार्ली बनना चाहता है. यहां तक कि जिन्होंने एमएफ हुसैन के घर पर हमला किया था और उनकी पेंटिंग जलाई थी वे भी. मेरी अपनी समझ यही कहती है कि रचनात्मक होने के लिए आपको किसी का अपमान करने की जरूरत नहीं है. इस लिहाज से हुसैन और हेब्दो दोनों ही गलत हैं. सच्ची और अच्छी क्रिएटिविटी को प्रसिद्ध होने के लिए नंगेपन का मोहताज नहीं होना पड़ता. इस लिहाज से हुसैन भी अपने समय के शार्ली हेब्दो ही थे. मगर तब उनके साथ कोई नहीं खड़ा हुआ, न ही किसी ने ‘आई एम हुसैन’ के नारे लगाए.

दूसरी ओर जिन लोगों ने शार्ली हेब्दो के कार्यालय पर हमला किया उन्होंने बड़ी खूबी के साथ हेब्दो के मकसद को पूरा कर दिया. पहले तो वह सिर्फ फ्रांस में ही जाना जाता था, मगर अब हेब्दो पूरी दुनिया में जाना जाता है. उसके समर्थक हर जगह उमड़ आए हैं. यह इसलिए नहीं हुआ कि शार्ली हेब्दो ने कोई बड़ा काम किया बल्कि इसलिए हुआ क्योंकी उन पर हमला करनेवालों ने काम ही इतना बुरा किया है. यह दुनियाभर के मुसलमानों के लिए बदनामी का सौदा है.

अगर हेब्दो के हमलावर यह दावा करते हैं कि उन्होंने अल्लाह और उसके नबी की राह पर चलकर यह काम किया है, तो वे गलत हैं. ऐसे मसलों पर अल्लाह का क्या हुक्म है और हमसे किस तरह के व्यवहार की उम्मीद रखता है? यहां तक कि खुद नबी कैसे पेश आते थे ऐसे लोगों के साथ, यह जानना बहुत जरूरी है. अल्लाह फरमाते हैं, ‘और मुश्रिकीन की जानिब से तू अपनी तवज्जो हटा ले, तेरी हिफाजत के लिए, इन हंसी उड़ानेवालों को हम देख लेंगे’. शायद ये आतंकवादी यह समझते हैं कि अल्लाह का यह हुक्म केवल नबी के समय के लिए ही था. सच्चा मुसलमान खुदा के वादे पर यकीन रखता है और उसकी हिदायत पर अमल करता है. आतंकवादी कहीं भी हों वह न केवल अल्लाह की नाफरमानी कर रहे हैं, बल्कि उसके बुरे नतीजे पूरी दुनिया के मुसलमानों को भुगतने पड़ रहे हैं.

सूरा ता हा में अल्लाह फरमाते हैं कि ‘तुम दोनों (मूसा और हारुन) जाओ फिरऔन के पास, बेशक उसने सारी हदें तोड़ दी हैं, और उससे नरमी से पेश आओ’. अगर हम इस आयत को परखें तो पाएंगे कि अल्लाह नरमी से समझानेवालों को पसंद करता है फिर चाहे सामने फिरऔन जैसा शख्स ही क्यों न हो.

आतंकवादी कहीं भी हों वह न केवल अल्लाह की नाफरमानी कर रहे हैं बल्कि उसके बुरे नतीजे पूरी दुनिया के मुसलमानों को भुगतने पड़ रहे हैं

पैगम्बर को अक्सर कुरैश के लोग उनका नाम बिगाड़ कर मोहम्मद की बजाय ‘मुधमम’ कह कर पुकारते थे, जिसका मतलब होता है धिक्कारा हुआ व्यक्ति. मगर पैगम्बर कभी उनकी बात का जवाब नहीं देते थे. वे उनकी बातों को यह कहकर टाल देते थे कि वे लोग किसी और को पुकार रहे हैं. तो फिर हम कैसे मान लें कि शार्ली हेब्दों ने जो कार्टून बनाया है वह हमारे नबी का ही है? जबकि उनकी तो कोई तस्वीर भी मौजूद नहीं. अब ऐसे मामले और सामने आएंगे, क्योंकि मुसलमानों ने अपनी एक कमजोरी जाहिर कर दी है और दुनिया का उसूल ही है कि जो जितना चिढ़े उसे उतना ज्यादा चिढ़ाओ. अगर मुसलमान इन बातों पर रद्दोअमल दिखाने की बजाए अपने किरदार पर ध्यान दें और जिस नबी के मजाक उड़ने पर इतना दुखी हैं उसकी दिखाई सही दिशा में चलें तो उनके लिए तो अच्छा होगा ही, समाज के लिए भी बेहतर होगा.

सुलह हुदैबिया के मौके पर उर्वा इब्न मसूद ने पैगम्बर की बहुत बेइज्जती की, यहां तक कि उनकी दाढ़ी भी खींचने की कोशिश की मगर फिर भी पैगंबर साहब ने कोई बुरा बर्ताव नहीं किया. आज जो लोग नबी के नाम पर लोगों का कत्ल कर रहे हैं, वह आखिर किसके दीन पर चल रहे हैं? यह मोहम्मद का दीन तो नहीं है.

कुछ लोग आतंकवादियों की गैर-इस्लामी हरकतों को यह कहकर जायज करार देते हैं की उस जमाने में मुसलमान कमजोर थे और तादाद में कम इसलिए उनको सब कुछ बर्दाश्त करना पड़ता था. मगर अब ऐसा नहीं है इसलिए मुसलमानों का बदला जायज है. सोचने की बात है कि जंग-ए-बदर में भी तो मुसलमान कमजोर थे और तादाद में कम थे तब भी उन्होंने जीत हासिल की थी. इससे यह साफ जाहिर है कि लोगों के ऊपर असर तादाद का नहीं ईमान का पड़ता है. आज तादाद ज्यादा है मगर ईमान कमजोर है. इस्लाम की आत्मा जो ‘दया’ और ‘क्षमा’ पर जोर देती है, उसे लोग भुला रहे हैं. जो इस्लाम आज सिखाया और पढ़ाया जा रहा है उसमें शायद कुछ कमी है, इसे सुधारना जरूरी है.

‘दहशतगर्दों की करतूतों को इस्लाम न समझा जाए’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
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आज दुनिया की कौमों ने तरक्की की कई मंजिलें तय कर ली हैं. हर दिन होनेवाली तकनीकी तब्दीलियां हमें अब हैरान नहीं करती. अगर कोई चीज हैरान करती है तो वो दुनिया में इंसानी जान की नाकद्री और उसको बेमतलब की छोटी-छोटी बातों के लिए खत्म कर देना. आज हम अपनी दुनिया से निकलकर दूसरे ग्रहों पर कदम डाल रहे हैं, लेकिन इंसानों से प्यार करना और उनकी जानों की कीमत भूलते जा रहे हैं. आतंकवाद के दैत्य के आगे दुनिया में नेकी और मुहब्बत बहुत छोटी हो गयी हैं. अच्छाई और नेकी की जिन कद्रों को हमारे उस्ताद और मां-बाप ने हमारे अंदर पैदा किया था आज उनकी झलक भी लोगों में देखने को नहीं मिलती.

एक बार जब मैं छोटी थी तो अपनी दादी के साथ वाज यानी सत्संग की महफिल में गई. वहां बयान में सुना कि एक यहूदी औरत पैगंबर को बहुत तंग करती थी और हर रोज वह उनके रास्ते में गंदगी डालकर उनको परेशान करती थी. फिर ऐसा हुआ कि कई दिनों तक उस ने कूड़ा नहीं डाला. तो मोहम्मद साहब को तश्वीश हुई. उन्होंने जाकर उसकी खैरियत मालूम की तो पता चला की वह बीमार है. पैगंबर साहब ने उसकी खिदमत की तो वह औरत बहुत शर्मिंदा हुई. यह वाकया मैंने इसलिए बयान किया की वह पैगंबर जो अपने दुश्मनों पर भी इतना मेहरबान था, उसके माननेवाले ऐसी हरकतें करके उनको बदनाम करने का काम कर रहे हैं. इस्लाम के नाम पर जिस आतंकवाद को फैलाया जा रहा है उसका असली इस्लाम से कोई लेना-देना नहीं है. पैगंबर ने एक पड़ोसी के भी इतने हक बताये कि उनके साथी-सहाबा सोचने लगे की कहीं पड़ोसी को भी विरासत में हिस्सा न दे दिया जाए. पैगंबर ने कहा कि जब कोई तुम्हारे ऊपर जुल्म करे, तो तुम उसका इतना ही बदला लो जितना जुल्म हुआ है, लेकिन अगर तुम उसे माफ कर दो तो ये और भी बेहतर है.

इस्लाम मजहब का अर्थ ही सलामती है तो फिर यह मजहब लोगों को मारने, बच्चों को कत्ल करने और इंसानों में खौफ व हिरास फैलाने की इजाजत कैसे दे सकता है

इस्लाम की असल हकीकत को समझने के लिए पैगंबर साहब की जिंदगी को ईमानदारी के आईने में देखकर और खुद समझकर फैसला करने की जरूरत है. सुनी-सुनाई बातों और इस्लाम के दुश्मन दहशतगर्दों की करतूतों को इस्लाम न समझा जाय. इस्लाम मजहब का अर्थ ही सलामती है तो फिर यह मजहब लोगों को मारने, बच्चों को कत्ल करने और इंसानों में खौफ व हिरास फैलाने की इजाजत कैसे दे सकता है?

‘रंगभेद और जातिवाद की तरह अतिवादी इस्लामवाद भी खत्म होगा’

इलस्ट्रेशनः आनंद नॉरम
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दहशतगर्द, अतिवाद, आतंकवाद, पाकिस्तान और ऐसे ही कुछ और लफ्ज इस्लाम के बारे में सोचते वक्त जेहन में उभरने लगते हैं. लंबी दाढ़ी, गुस्सैल आंखें और हाथ में हथियार लिए एक मुसलमान का चित्र दिमाग में सबसे पहले बनता है. न जाने क्यों बनता है पर ऐसा ही बनता है. एक अल्पसंख्यक समुदाय के तौर पर इस्लाम की स्थिति को अगर धोबी का गधा कहा जाये तो कोई बुराई नहीं है. कहा जा रहा है तीसरे विश्वयुद्ध की तैयारी शुरू हो चुकी है. यूरोप और यहूदियों के बाद अब बारी इस्लाम की है. इस बार फर्क सिर्फ इतना है की तबाही का जिम्मा इंटरनेट के हाथ में है. बुद्धिजीवियों के लिए इस्लाम अचानक से अहम मुद्दा बन गया है. पेरिस में हाल ही में हुए हमले के बाद वैश्विक स्तर पर भी इस्लाम की छवि बिगड़ती नजर आ रही है. लोग इस्लाम को लेकर धारणा बनाने लगे हैं. मुसलिम युवा दोराहे पर हैं. पर सरकार अगर चाहे तो मुसलमानों को इस संकट से निकाला जा सकता है. मुसलिमों में जागरुकता अभियान चला कर, उनकी अशिक्षा और गरीबी को दूर करके. अक्सर सुनने में आता है कि इस्लाम नए जमाने के लोकतांत्रिक विचारों से तालमेल नहीं बिठा पा रहा है. सवाल है क्यों नहीं बिठा पा रहा है. एक और तबका भी ह,ै जो मुसलमानों के भीतर ही मौजूद है और आम मुसलमानों को सरकार और व्यवस्था के खिलाफ भड़काने का काम कर रहा है. दोनों बातें एक साथ हो रही हैं. अक्सर लोगों के मन में इस्लाम को लेकर एक सामान्य विचार देखने-सुनने को मिलता है कि इस्लाम आंतकवाद पैदा करता है. ऐसा माननेवाले भी बहुत हैं कि इस्लाम की जड़ में ही आतंकवाद घुसा हुआ है. सच में ऐसा है क्या या कोई ये बाते रणनीति के तहत लोगों के दिमाग में ठूंस रहा है.

आनेवाले दिन इस्लाम के लिए परीक्षा की घड़ी हैं. खतरा जितना दूसरों के लिए है उतना ही इस्लाम के लिए भी है. हमारे यहां एक दक्षिणपंथी सोच वाली सरकार सत्ता में है. इसकी वजह से बहुसंख्यक हिन्दू हाल के दिनों में ज्यादा उग्र हुए हैं. जाहिर है इससे टकराव की स्थिति पैदा होने लगी हैं. हिन्दू चरमपंथी भारतीय मुसलमानों को पाकिस्तान और आईएसआईएस से  जोड़कर देखते हैं, नतीजा दोनों तरफ नफरत की स्थिति बढ़ रही है. लेकिन पेशावर या पेरिस में जो हो रहा है वह कतई इस्लाम नहीं है. अतिवादी का पैदाइशी धर्म चाहे जो हो, लेकिन उसके कर्म न तो इस्लामवाले हैं न ही इंसानियतवाले. आतंकवाद और अतिवाद से ऊपर उठकर अगर सारे लोग इंसानियत की बात करें तो बेशक इस्लाम भी बढ़ेगा और दुनिया भी खूबसूरत हो जाएगी. अंततः इसी विचार पर चलकर हम रंगभेद और जातिवाद की तरह अतिवादी इस्लामवाद जैसी सोच को खत्म कर पायंगे.

‘लोकतंत्र के लिए इस्लाम में पूरा स्थान है’

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अतिवाद के दो मतलब होते हैं. मेरे हिसाब से इनमें से एक मतलब सही होता है और दूसरा मतलब गलत होता है. इस्लामिक अतिवाद का एक मतलब है धर्म की बुनियादी बातों के साथ टिके रहना या वफादार बने रहना. मौजूदा वक्त मजहबी आजादी का है. अगर कोई इंसान यह कहता है कि वह पूरी तरह से अपने मजहब के साथ वफादार बना रहेगा, तो उस पर सवाल उठाने की कोई वजह नहीं है. ऐसा इंसान केवल अपनी मजहबी आजादी के हक का इस्तेमाल कर रहा है. लेकिन अगर इस्लामिक अतिवाद को उसके दूसरे मायने में लिया जाए, यानी जबरदस्ती दूसरों पर इसे थोपने के अर्थ में तो यह गलत है. अगर कोई मुसलमान यह कहे कि वह अपने मजहब के मामले में दूसरों के साथ कोई समझौता नहीं करेगा और अपने मजहब की शिक्षाओं को दूसरों पर जबरदस्ती थोपेगा, तो यह इस्लामिक अतिवाद न केवल इस्लाम की भावना, बल्कि तार्किकता के भी खिलाफ होगा.

इस्लामिक अतिवाद की इस दूसरी संकल्पना ने ही उस रूप को जन्म दिया है, जिसे आधुनिक समय में इस्लामिक आतंकवाद कहा जाता है. लेकिन सच्चाई यह है कि इस्लामिक आतंकवाद जैसी शब्दों की जुगलबंदी परस्पर विरोधी हैं. इस्लाम सहिष्णुता और शांति का धर्म है. इस्लाम के पैगंबर ने एक बार कहा था- ‘मेरे हिसाब से जो मजहब है वह है दयालुता और सहिष्णुता का मजहब.’ (मुसनाद अहमद) इस्लाम आध्यात्मिक विकास की तरकीब है. इसका मकसद है इंसान के भीतर खुदा. (3:79)

विभिन्न मुसलिम इलाकों में हम जो हिंसा और विद्रोह देख रहे हैं, वह सामान्य तरीके की हिंसा नहीं है. यह वैचारिक रूप से न्यायोचित ठहराने की कोशिश में की जा रही हिंसा का एक उदाहरण है.

इस्लाम के नाम पर हिंसा या आतंकवाद की जड़ें बीसवीं सदी के मुसलिम विचारकों तक पहुंचती हैं, जिन्होंने यह विचार दिया कि इस्लाम एक पूर्ण व्यवस्था है और राजनीतिक शक्ति इसका एक जरूरी हिस्सा है, क्योंकि इसके बगैर इस्लाम को एक संपूर्ण जीवन पद्धति के तौर पर लागू नहीं किया जा सकता. जो लोग इस्लाम की राजनीतिक व्याख्या से प्रभावित थे, उन्होंने इसे समाज में एक राजनीतिक व्यवस्था के तौर पर लागू करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने देखा कि राजनीतिक पद तो पहले से किसी और समूह के कब्जे में है. ऐसे में उन्हें लगा कि इस्लामिक राज्य की स्थापना के लिए मौजूदा शासकों को पद से हटाना अनिवार्य है. इस तरह तत्कालीन राजनीतिक शक्तियों को सत्ता से हटाना समाज में इस्लामिक राजनीतिक व्यवस्था को स्थापित करने के लिए एक अनिवार्यता बन गया. इसके बाद जब पहले से राजनीतिक सत्ता में मौजूद लोगों ने पद त्यागने से इंकार किया, तब जो लोग राजनीतिक इस्लाम में विश्वास करते थे, उन्होंने पुराने शासकों को रास्ते से हटाने के लिए हिंसा और आतंक का सहारा लिया.

इस्लामी आतंकवाद की जड़ें बीसवीं सदी के उन मुसलिम विचारकों से जुड़ी हैं जिन्होंने यह विचार दिया कि इस्लाम एक पूर्ण व्यवस्था है और राजनीतिक शक्ति इसका एक जरूरी हिस्सा है

यह वही राजनीतिक इस्लाम की विचारधारा है जिसने मौजूदा वक्त के मुस्लिम युवाओं को आतंकवाद के प्रति आकर्षित किया है. ये लोग तब तक इस क्षेत्र में सक्रिय रहेंगे जब तक इस तरह की विचारधारा को गैरइस्लामी और पैगंबर के विचारों के खिलाफ कहकर खारिज न कर दिया जाए.

लोकतंत्र दरअसल शासन का वह तरीका है जिसमें लोगों के प्रतिनिधि ही समाज के सामाजिक-राजनीतिक कामकाज की जिम्मेदारी संभालते हैं. यह व्यवस्था एक प्राकृतिक व्यवस्था है. इस्लाम एक प्राकृतिक धर्म है और ऐसे में इस्लाम भी इस प्रकार की शासन व्यवस्था को स्वीकार करता है.

दरअसल मानव जीवन के दो अलग-अलग हिस्से हैं- व्यक्तिगत और सामाजिक. जहां तक व्यक्तिगत मामलों का ताल्लुक है, हर इंसान अपने हिसाब से किसी भी तरह की जीवन पद्धति अपनाने के लिए स्वतंत्र है, लेकिन तब तक, जब तक इसकी वजह से समाज को कोई नुकसान न पहुंचे. इस मामले में किसी भी तरह की कोई सीमा नहीं है.

हालांकि, जब बात समाज की आती है, तब हमें यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि यह काफी सारे लोगों से मिलकर बनता है. यहां हर इंसान अपनी सोच के मुताबिक रहना चाहता है. इस तरह के मामले के लिए इस्लाम हमें एक काफी व्यावहारिक तरीका बताता है. इसके मुताबिक, सामाजिक मामलों में यह निर्णय करने का अधिकार समाज के पास है कि सामाजिक मामलों का प्रबंधन किस तरह किया जाए. कुरान में इस सूत्र को इन शब्दों में व्यक्त किया गया है- ‘अमरुहुमशुराबायनाहुम’ (42:38) इसका मतलब है- ‘(जो लोग) अपने मामले आपसी विचार-विमर्श के जरिए निपटाते हैं.’ इस्लाम के मुताबिक, लोकतंत्र का यही सूत्र है. इसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत स्तर पर हर इंसान अपनी पसंद के मुताबिक जिदगी जीने के लिए स्वतंत्र है. लेकिन जहां तक सामाजिक मामलों का सवाल है, इनको सामाजिक विचार-विमर्श के जरिए प्रबंधित किया जाएगा. यही लोकतंत्र का सच्चा अर्थ है और शासन के इस तरीके की इस्लाम वकालत करता है.

लोकतंत्र कोई धार्मिक संकल्पना नहीं है. दरअसल यह सामाजिक संकल्पना है. लोकतंत्र मूल रूप से एक धर्मनिरपेक्ष सूत्र है जिसका मतलब है धर्म के प्रति अहस्तक्षेप के सिद्धांत को स्वीकार करना. लोकतंत्र धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप की अनुमति नहीं देता. धार्मिक मामले लोगों के व्यक्तिगत कार्यक्षेत्र में आते हैं. लोकतंत्र की व्यवस्था में धर्म को पूरी तरह से व्यक्ति पर छोड़ा गया है. लोकतंत्र केवल उन्हीं मामलों पर ध्यान देता है, जो समाज के सभी सदस्यों के साथ जुड़े हों. यह लोकतंत्र है और लोकतंत्र के इस रूप को इस्लाम स्वीकार करता है.

भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में मुसलिम युवा घृणा फैलानेवाली सामग्री से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं. यह इस्लाम के बारे में उनकी गहरी जानकारी के अभाव की वजह से है

भारत एक लोकतांत्रिक देश है जहां समाज के सभी वर्गों को स्वतंत्रता और अवसर समान रूप से मुहैया कराए गए हैं. विभिन्न क्षेत्रों में मुस्लिमों की बेहतर स्थिति मुस्लिम समुदाय के विकास के लिए मौजूद अवसरों की गवाही देती है. अगर कुछ दिक्कतें हैं, तो यह याद रखा जाना चाहिए कि समस्याएं हर समाज में होती हैं. ऐसा कोई भी समाज नहीं है जिसे सभी व्यक्तियों या व्यक्ति समूहों के लिए एक आदर्श समाज कहा जा सके. ऐसे में भारत में मुसलमानों को इस बात पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए- ‘समस्याओं पर ध्यान न दो और अवसरों का लाभ उठाओ.’

केवल भारत में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में मुसलिम युवा घृणा फैलानेवाली सामग्री से आसानी से प्रभावित हो जाते हैं. ऐसी सामग्री सोशल नेटवर्किंग माध्यमों में बड़ी मात्रा में उपलब्ध है. यह इस्लाम के बारे में गहरी जानकारी के अभाव की वजह से है. अगर अपने धर्म की रक्षा के लिए उन्हें प्रेरित करने के लिए भड़काऊ चित्र या आग लगानेवाली भाषा का इस्तेमाल किया जाता है, तो वे भावनात्मक रूप से प्रेरित हो जाते हैं. उन्हें लगता है आतंकी संगठनों के साथ जुड़कर वे अपने मजहब की खिदमत कर सकते हैं. यह उनकी भावनात्मक प्रतिक्रिया मात्र है और इसकी वजह है उनकी अपने मजहब के बारे में जानकारी की कमी. यह दरअसल एक शांतिप्रिय धर्म है. मुस्लिम युवाओं के आतंकी संगठनों से जुड़ने की समस्या का हल केवल उन्हें शिक्षित करने और इस्लाम का शांतिप्रिय साहित्य उनके बीच बांटने से ही होगा.

हिंसा और आतंकवाद, जो हम मौजूदा वक्त में देखते हैं, वह वास्तव में इस्लाम से भटकाव का नतीजा है. आज जो बात जरूरी है, वह है मूल इस्लाम की ओर लौटना. हमें यह देखना होगा कि इस्लाम की पवित्र बातें, कुरान और पैगंबर मुहम्मद की शिक्षाएं क्या बताती हैं. अगर हम इस्लाम की वास्तविक भावना को समझ लेंगे, तो धर्म के नाम पर जो खून खराबा हो रहा है, वह खत्म हो जाएगा.

भारतीय मुसलमानों को मौजूदा वक्त में शांति के महत्व को समझना चाहिए. कोई भी चीज, जो इस्लाम के साथ हिंसा को जोड़ती हो, उसकी निंदा की जानी चाहिए. मौजूदा परिस्थितियों में विकास के पीछे जो दो अहम कारक हैं, वे हैं शांति और स्वतंत्रता. भारत में मुसलमानों को ये दोनों ही उपलब्ध हैं. ऐसे में अपनी उन्नति और विकास के लिए उन्हें इन दोनों कारकों का हर संभव इस्तेमाल करना चाहिए.

भाजपा विजन डॉक्युमेंट की पांच बातें

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पूर्वोत्तर के ‘इमिग्रेंटस’ को सुरक्षा
विजन डॉक्युमेंट में पूर्वोत्तरवासियों को शामिल करने की जल्दी में भाजपा ने एक बड़ी भूल कर दी है. भाजपा ने पूर्वोत्तर वासियों को इमिग्रेंटस कहा है. ध्यान देने वाली बात यह है कि इमिग्रेंटस का मतलब ‘किसी देश का निवासी जिसने किसी दूसरे देश में स्थायी निवास ले लिया हो’. जो धारणा अब तक कही-सुनी जाती थी कि लोग पूर्वोत्तरवासियों को गैरभारतीय समझते हैं, विजन डॉक्युमेंट उसकी पुष्टि करता है. कायदे से पूर्वोत्तरवासियों के लिए माइग्रेंट्स (देश के एक हिस्से से दूसरे हिस्सें में बसने वाले लोग) शब्द का इस्तेमाल करना चाहिए था. यह गलती भाजपा के गले की हड्डी बन सकती है. सुरक्षा की आश्वासन तो भाजपा ने दे दिया है लेकिन शाब्दिक तौर पर उसने पूर्वोत्तरवासियों को असुरक्षित कर दिया है.

दिल्ली के कॉलेजों में 85% आरक्षण
भाजपा ने राष्ट्रीय राजधानी के लिए जो विजन डॉक्युमेंट पेश किया है उसमें दिल्ली के कॉलेजों में दिल्ली के छात्रों के लिए 85% आरक्षण का वादा किया है. गौर करने वाली बात यह है कि वर्तमान में दिल्ली की प्रमुख शिक्षण संस्था दिल्ली विश्वविद्यालय में तकरीबन 70 % छात्र देश के अलग-अलग हिस्सों से आते हैं. ऐसे में यह डॉक्युमेंट कितना दूरगामी या पश्चगामी है इस पर आने वाले समय में बड़ी चर्चा छिड़ सकती है. इस वादे में स्पष्टता का अभाव भी है. यह आदेश किन कॉलेजों पर लागू होगा यह तय नहीं है क्योंकि दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ कॉलेज दिल्ली सरकार द्वारा वित्त सहायता प्राप्त हैं तो कुछ केंद्र सरकार द्वारा.

झुग्गी मुक्त दिल्ली
झुग्गियों की राजनीति में इस बार भाजपा ने गंभीरता से सेंध लगाने की कोशिश की है. दिल्ली की झुग्गियों में आम धारणा है कि ‘जब-जब भाजपा की सरकार आई है झुग्गियों की शामत आई है.’ विजन डॉक्युमेंट में बिना किसी समय सीमा का जिक्र किए ही दिल्ली को झुग्गी मुक्त करने का वादा कर दिया गया है. ‘जहां झुग्गी – वहां मकान’ का नया नारा भाजपा ने दिया है.

युवा सशक्तिकरण
युवा सशक्तिकरण के लिए देश के युवाओं को टूरिस्ट गाइड, चालक आदि बनने की ट्रेनिंग दी जाएगी. इस तरह से भाजपा उनका स्किल डेवलपमेंट करेगी और आगे चलकर ये युवा इन कुशलताओं की सहायता से आत्मनिर्भर हो जाएंगे. इसी तरह से कमजोर वर्ग की महिलाओं के लिए अल्पकलीन पाठयक्रम की व्यवस्था भी करने का वादा किया गया है.

न्यूज़पेपर वेंडर और हॉकरों को आईडी
असंगठित क्षेत्र के श्रमिकों को सशक्त करने के दिशा में कदम बढ़ाते हुए भाजपा ने वादा किया है कि वह न्यूज़पेपर वेंडर और हॉकरों को आईडी प्रदान करेगी ताकि वह बिना किसी परेशानी के व्यापार कर पाए. यह बेहद अटपटा वादा है जिस पर पार्टी की तरफ से स्पष्टता आनी बाकी है.

कुल मिलाकर भाजपा का विजन डॉक्युमेंट पुराने दौर के घोषणापत्रों का नया नाम भर है यानी नई बोतल में शराब पुरानी.

‘मैं शंकर बिगहा बोल रहा हूं’

मैं शंकर बिगहा, आपसे कुछ कहना चाहता हूं,
यह खत किसे संबोधित करूं, समझ में नहीं आ रहा. मेरे मन पर कुछ नृशंस हत्याओं का बोझ है, मेरी देह बेकसूर लोगों के खून से सनी हुई है. क्या यह खत मैं उन जिला न्यायाधीश महोदय को लिखूं जिन्होंने 13 जनवरी 2015 को फैसला सुनाया कि 25 जनवरी 1999 को शंकर बिगहा के पुरबारी टोला में जो हत्याएं हुई थीं, उसके लिए किसी को जिम्मेवार नहीं ठहरा सकते, या यह पत्र उस जिला प्रशासन को लिखूं जो घटना के चश्मदीदों में इतना विश्वास भी नहीं भर सका कि वे कोर्ट में जाकर आंखो देखी बयान कर सकें. जिन्होंने अपनी आंखों के सामने अपनी बेटी, बीवी, भाई और बाप को मरते हुए देखा था वे यह सच अपने सीने में दबाए रह गए. उन्होंने देखा था कि कत्लेआम करनेवाले एक किलोमीटर दूर स्थित धोबीबिगहा गांव से आए थे, वे हत्यारों को पहचानते भी थे, लेकिन अदालत में इस सच को कहने का साहस नहीं जुटा सके. किसे संबोधित करूं यह खत, समझ नहीं आ रहा. क्या सरकार के नाम संबोधित कर दूं, जिसमें अभी भी वही लोग शामिल हैं जिनकी पूरी राजनीति इसी गांव की रहवासी जातियों के इर्द गिर्द घूमती है. वे अपने सत्ता में आगमन को सामाजिक न्याय कहते हैं, और मेरे रहवासियों को न्याय दिलाने के सवाल पर चुप हो जाते हैं. तब इनका नारा था राबड़ी-लालू की सरकार को बर्खास्तकर राष्ट्रपति शासन लगना चाहिए, क्योंकि उनसे राज्य संभल नहीं रहा. क्या उन्हीं राबड़ी देवी और लालू यादव के नाम से पत्र लिखूं जो घटना के बाद शंकर बिगहा आये थे और मुआवजे की घोषणा करने में लगे थे. तब मेरे गांव की महिलाओं ने कहा था कि राबड़ी जी हमें आपका मुआवजा नहीं चाहिए, हमें हथियार दे दीजिए, हमलोग खुद न्याय कर लेंगे! मेरे गांव की वे महिलाएं शायद सही थीं, उन्हें अंदेशा था कि अदालती न्याय उन्हें कभी नहीं मिलेगा. जहानाबाद जिला अदालत के फैसले ने उनकी आशंका को सही साबित किया है.

Shankar-Bigahaआज 15 साल बाद नतीजा यही निकला कि मेरे गांव में 25 जनवरी 1999 की रात जो 23 इंसान मारे गए थे, जिसमें पांच महिलाएं, सात बच्चे और एक दस माह का बच्चा भी शामिल था, उन्हें मारनेवाला कोई नहीं था. एक बार को सोचता हूं कि मौजूदा मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी के नाम ही यह पत्र लिख भेंजूं. वे तो हर दिन ही दलितों-महादलितों को न्याय दिलाने, अधिकार दिलाने की बात कर रहे हैं. लेकिन उन्हें भी संबोधित करने का क्या फायदा! वे अपने इलाके गया जिले के पुरा गांव के दलितों का साथ तो दे नहीं पाते, जिन्हें गांव के दबंगों की वजह से पिछले माह गांव छोड़कर भाग जाना पड़ा था, वे मेरी पीड़ा कितनी महसूस करेंगे, जुबानी बयान भी तो खर्च नहीं किया उन्होंने मेरे ऊपर अभी तक.

शायद सबसे मुफीद होगा कि मैं अपने लोगों, बिहार की आम जनता के नाम ही डाक भेजूं. उन तमाम लोगों को जो गांव की गलियों, कस्बों के नुक्कड़ों से लेकर राजधानी पटना के अड्डे और राजधानी दिल्ली की सड़कों तक फैले हुए हैं. बथानी टोला, लक्ष्मणपुर बाथे, नगरी और मियांपुर नरसंहार में भी इसी तरह के फैसले आए पर इन लोगों में कोई हलचल पैदा नहीं हुई, वे तब भी चुप रहे थे, वे शंकर बिगहा के फैसले पर भी चुप रहे. बस आहें भरते हुए, चाय की चुस्कियां लेते हुए.

सबको मालूम होगा कि अदालत ने बीती 13 जनवरी को क्या कहा. अदालत ने कहा कि जिन आरोपितों के खिलाफ आरोप लगाये गए हैं, गवाह उनके खिलाफ गवाही देने को तैयार नहीं हैं, इसलिए सबको बरी किया जाता है. उन अभियुक्तों को पहचानने से, उन अभियुक्तों के खिलाफ गवाही देने से मेरे गांव के लोग कतरा गये, जिनके खिलाफ 26 फरवरी 2000 को और 15 अगस्त 2003 को दो-दो चार्जशीट दाखिल हुई थी. मेरे गांव का भैरो राजवंशी जैसा गवाह, जिसने आंखों के सामने पत्नी और दो बच्चों के संग परिवार के पांच लोगों को मारे जाते हुए देखा था, उसने भी गवाही देने से इंकार कर दिया. आकर पूछिए कभी भैरो से कि उसने ऐसा क्यों किया? वह कहता है कि क्या करें, प्रशासन सुरक्षा दे नहीं रहा था और दबंग नतीजा भुगतने की धमकी दे रहे थे. मेरे ही गांव के रामप्रसाद पासवान से पूछिए. वह बताएगा कि उसे भी उस रात गोली मारी गई थी, वह बेहोश हो गया था, इसलिए नहीं देख सका कि कौन लोग मार रहे हैं, कहते-कहते रामप्रसाद रोने लगेगा. वह झूठ बोलेगा, क्योंकि उसे मालूम है कि सच बोल देने से उसे भी मार दिया जाएगा. मेरे गांव में सबको मालूम है कि धोबीबिगहा में जिन 23 अभियुक्तों को बरी किया गया है, उनकी बात शासन-प्रशासन में सुनी जाती है और वे ताकतवर लोग हैं, इसलिए सब अदालत में झूठ बोल रहे हैं.

क्या-क्या कहूं, आज कुछ लोग बड़ी-बड़ी बातें कर रहे हैं कि शंकर बिगहा में तो अन्याय हो गया. यह बड़ा अजीब लगता है. सामाजिक न्याय के नाम पर दिन-भर जुगाली करने की बजाय इन लोगों ने धरा पर आकर कभी न्याय-अन्याय की परवाह की होती तो मैं बताता कि इन 15 सालों में मेरे साथ क्या हुआ. यहीं कहा गया था नरसंहार के बाद कि मारे गये लोगों के परिजनों को नौकरी मिलेगी, लेकिन एक को सिर्फ चैकीदार की नौकरी मिली, वह भी अनुकंपा के आधार पर. कभी आते तो देखते कि आज तक गांव की सड़क कच्ची और टूटी-फूटी है. स्कूल जर्जर है लेकिन घोषणा की गई थी कि मेरे साथ न्याय होगा. मेरे गांव के बच्चे आज भी उसी गांव में पढ़ने जाते हैं, जिस गांव के लोगों ने 25 जनवरी 1999 की रात आकर रक्तपात किया था और एक क्रूर इतिहास रचा था. सिर्फ बच्चे ही पढ़ने नहीं जाते, बड़े लोग भी उनके यहां ही काम करने जाते हैं. खेती-मजदूरी का काम, क्योंकि उनके पास कोई विकल्प नहीं है. कोई मेरे साथ खड़ा नहीं हुआ. पेट पालने के लिए उनके यहां ही जाने की मजबूरी हो तो कौन गवाही देगा. मेरे लोग कायर नहीं थे, लेकिन मजबूर थे. उनके पास कोई और विकल्प नहीं था. 25 जनवरी की वह रात मेरे जेहन में अब भी ताजा है. उस रात सिर्फ लल्लन साव का घर बच गया था, अकेला पक्का घर होने के कारण हत्यारे उसके घर में घुस नहीं सके थे. इस कहने-सुनने का भी क्या फायदा. मेरे गांव की घटना तो फिर भी 15 साल पुरानी हो गई. बाथे-बथानी-नगरी-मियांपुर की घटना को भी वर्षों गुजर गए. लोग तब भी चुप ही थे. सब जगह एक सा न्याय हुआ- किसी को किसी नें नहीं मारा. पुरानी बातों को छोड़ दीजिए, एक बार रोहतास जिले के मोहनपुर गांव में चले जाइयेगा, एक बार भोजपुर जिले के डुमरिया गांव में चले जाइए. ये तो आज कल की घटना है. डुमरिया में छह महिलाओं को दारू पिलाकर उनके साथ गैंगरेप किया गया है. उन्हीं को न्याय दिला दीजिए.

मेरे नाम पर राजनीति मत कीजिए. न्याय की उम्मीद तो अब मिट चुकी है. अंत में एक सवाल जज साहब से कहना चाहता हूं. क्या हमें किसी ने नहीं मारा?

हमें आपके न्याय ने मारा है.

सादर

शंकर बिगहा

प्रखंड- अरवल सदर, जिला अरवल

बिहार