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रेल यात्री जल्द करा सकेंगे सामान का बीमा

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आईआरसीटीसी इन दिनों रेल यात्रियों को लुभाने की पुरजोर कोशिश में लगा हुआ है. इसके पीछे का मकसद ज्यादा से ज्‍यादा मुनाफा कमाना है. ‘कैश ऑन डिलीवरी टिकट’ सुविधा के बाद आईआरसीटीसी जल्द ही यात्रियों को अपने सामानों का बीमा कराने की भी सुविधा देने वाला है.

योजना के तहत यात्री मोबाइल, लैपटॉप और दूसरे कीमती सामानों का बीमा करा सकेंगे. सामान चोरी या गुम होने की स्थिति में बीमा की रकम का दावा किया जा सकेगा. आईआरसीटीसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, ‘यह सुविधा सिर्फ ऑनलाइन टिकट लेने वाले ग्राहकों ‌को मिल सकेगी. इसके लिए हम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी के साथ मिलकर काम कर रहे हैं. यह पूरी तरह से यात्री की मर्जी होगा कि वह अपने सामान का बीमा करवाएं या नहीं. बीमा का प्रीमियम यात्रा की दूरी और क्लास पर निर्भर करेगा.’

इस योजना के तहत आईआरसीटीसी यात्रियों को यात्रा के दौरान जरूरत पड़ने पर अस्पताल पहुंचाने जैसी दूसरी सुविधाएं देने की भी कोशिश में लगा है. आईआरसीटीसी ने हाल ही में यात्रियों के लिए कैश ऑन डिलीवरी टिकट की सुविधा उपलब्ध कराई है. यह सेवा उन लोगों को ध्यान में रखकर दी गई है जिनके पास बैंक खाते या डेबिट कार्ड की सुविधा नहीं है.

आईआरसीटीसी का फायदा

दरअसल इन लोक लुभावन योजनाओं के पीछे आईआरसीटीसी का अपना ही फायदा है. हर दिन करीब 20 लाख से ज्यादा लोग ट्रेन से सफर करते हैं. इनमें से 52 फीसदी ई-टिकट लेते हैं. इन योजनाओं को देखते हुए आईआरसीटीसी को उम्मीद है कि ज्यादा से ज्यादा लोग काउंटर टिकट के बजाय ऑनलाइन टिकट खरीदेंगे जिसका सीधा फायदा कंपनी को होगा.

मौसम विभाग फेल, बिहार में तूफान से तबाही

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बिहार के उत्तर पूर्वी इलाके में चक्रवाती तूफान से अब तक 65 लोगों के मारे जाने की सूचना है. मृतकों में से अधिकांश पूर्णिया, मधेपुरा और मधुबनी जिलों के थे. हैरानी की बात ये है कि इस तूफान की जानकारी देने में मौसम विभाग पूरी तरह से असफल साबित हुआ.

मंगलवार देर रात आए इस तूफान के समय हवा 100 से 130 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही थी. बारिश के साथ गिरे ओलों ने हजारों लोगों के आशियानों को उजाड़ने के साथ ही फसलों को तबाह कर दिया. आपदा प्रबंधन विभाग के अनुसार, मधेपुरा, पूर्णिया, सहरसा, सुपौल, कटिहार, किशनगंज, दरभंगा और मधुबनी जिले के तकरीबन 25 हजार घर तूफान से उजड़ गए. तूफान से सबसे ज्यादा प्रभावित पूर्णिया जिला हुआ है. प्रभावित इलाकों मे बिजली की आपूर्ति पूरी तरह ठप पड़ गई है. इलाके में यातायात और रेलवे पर भी खासा असर पड़ा है.

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अधिकारियों से नुकसान का जायजा लेकर जल्द से जल्द सर्वे रिपोर्ट तैयार करने को कहा है. वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फोन पर नीतीश कुमार से नुकसान की जानकारी ली और हरसंभव सहायता का भरोसा दिलाया. नीतीश कुमार ने गृह मंत्री राजनाथ सिंह को भी हालात से अवगत कराया.

नहीं थ्‍ाा तूफान का अलर्ट

चौंकाने वाली बात ये है कि भारतीय मौसम विज्ञान विभाग के साथ ही बिहार मौसम विज्ञान विभाग भी इस तूफान की सूचना देने में नाकाम साबित हुआ. भारतीय मौसम विज्ञान विभाग की लापरवाही पर उठ रहे सवाल पर पटना शाखा के निदेशक एके सेन ने पल्ला झाड़ते हुए कहा कि हल्की बारिश के साथ बिजली कड़कने की संभावना थी. चक्रवाती तूफान की कोई आशंका नहीं थी. विभागीय सूत्रों के अनुसार विभाग ने अपनी वेबसाइट पर सिर्फ हल्की बारिश की सूचना को अपडेट किया था.

चार लाख का मुआवजा

मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने प्रभावित इलाका का जायजा लेने के बाद मृतकों के परिजन को चार लाख रुपये का मुवावजा देने की घोषणा की है. घायलों को तुरंत 4500-4500 रुपये की नकद सहायता देने का भी एलान किया. आपदा प्रबंधन के अधिकारी के अनुसार प्रभावितों को 2000 रुपये नकद, एक कुंतल अनाज और कपड़े के लिए 1800 रुपये मुहैया कराए गए हैं.

ऐप से कटाएं अनारक्षित टिकट

appरेल महकमे ने यात्रियों की सुविधा का ध्यान रखते हुए एक नई पहल की है. अब अनारक्षित टिकट के लिए काउंटर के सामने लंबी लाइन में लगने से यात्रियों को निजात मिल जाएगी. महकमे ने यात्रियों पेपरलेस अनारक्षित टिकट की सुविधा देने के लिए बुधवार को एक मोबाइल ऐप लॉन्च किया है.

इस ऐप से बुक कराए गए टिकट का प्रिंट आउट लेने की भी जरूरत नहीं है, सिर्फ टीटीई को मोबाइल में टिकट बुकिंग की सॉफ्ट कॉपी दिखानी होगी. इस सुविधा का लाभ सिर्फ एंड्राएड मोबाइल उपभोक्ता ही ले सकेंगे. यात्री गूगल प्ले स्टोर से इस ऐप को डाउनलोड कर सकते हैं.

ऐप डाउनलोड करते ही आपको एक र‌जिस्ट्रेशन नंबर मिला जाएगा, जिससे आप आईआरसीटीसी का ई-वॉलेट (पर्स) बना सकेंगे. टिकट बुकिंग के पैसे ई-वॉलेट से कटेंगे. ई-वॉलेट में पैसे आईआरसीटीसी की वेबसाइट या रेलवे काउंटर से जमा कराए जा सकेंगे. ऐप से मासिक सीजन टिकट (एमएसटी) का भी नवीकरण कराया जा सकेगा.

केजरीवाल के सामने किसान ने की आत्महत्या, सियासत शुरू

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फोटो: विजय पांडे

भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में नई दिल्ली के जंतर-मंतर पर आम आदमी पार्टी के प्रदर्शन के दौरान राजस्थान के एक किसान ने पेड़ से लटककर खुदकुशी कर ली.

चौका देने वाली बात ये है कि मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की मौजूदगी में चल रहा ये विरोध प्रदर्शन इस घटना के बाद भी कम से कम एक से डेढ़ घंटे तक जारी रहा.

इस बीच पार्टी के कार्यकर्ता उसे अस्पताल ले गए, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. किसान की पहचान गजेंद्र सिंह के रूप में हुई है.

इस घटना के बाद दिल्ली पुलिस पर सवाल उठ रहे हैं. सिर्फ दिल्ली पुलिस ही नहीं मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी सवालों के घेरे में हैं. इस विरोध प्रदर्शन के दौरान केजरीवाल किसानों की भाग्य बदलने की बात कर रहे थे और इसी दौरान देश का एक किसान खुदकुशी कर बैठा.

बहरहाल, इस घटना के बाद सियासत का खेल शुरू हो गया है. एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी है. दिल्ली सरकार ने घटना से पल्ला झाड़ते हुए इसका आरोप केंद्र सरकार पर मढ़ दिया है. भाजपा ने सवाल उठाया है कि किसान की मौत के बाद भी विरोध प्रदर्शन क्यों जारी रहा? जिंदगी ज्यादा जरूरी है या प्रदर्शन? भाजपा प्रवक्ता सं‌बित पात्रा ने कहा कि किसान के तड़पकर मरने के बाद भी विरोध प्रदर्शन क्यों नहीं रोका गया. उधर, कांग्रेस ने घटना के लिए राज्य सरकार के साथ ही केंद्र सरकार को भी दोषी ठहराया है. राजस्‍थान प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष सचिन पायलट ने घटना पर खेद जताते हुए कहा कि सरकार कि तरफ से मदद न मिलने की वजह से ‌निराश किसान रैलियां करने पर मजबूर हैं. मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि अगर किसान खुदकुशी कर रहा था तो रैली रोकी क्यों नहीं गई.

‘जय जवान, जय किसान’

मृतक किसान राजस्‍थान के दौसा जिले का रहने वाला था. पुलिस ने घटनास्थल से एक सुसाइड नोट भी बरामद किया है, जिसमें उसने लिखा है, ‘हमारी सारी फसल नष्ट होने की वजह से हमारे पिता ने हमें हमारे तीन बच्चों के साथ घर से बाहर कर दिया. जय जवान जय किसान.’

जेएनयू में रंग बयार

eKLOVYa sToRyनई दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) न सिर्फ अपने राजनीतिक जागरुकता के लिए देशभर में जाना जाता है बल्कि सांस्कृतिक समन्वय एवं कला के प्रति रुझान के लिए भी प्रख्यात है. इस विश्वविद्यालय में हाल ही में अपना वार्षिक नाट्य उत्सव ‘रंग बयार’ आयोजित किया गया. रंग बयार की शुरुआत 2012 में हुई थी और हर साल की तरह ही इस साल का आयोजन भी सफल रहा. जेएनयू की विभिन्न नाटक मंडलियां इस उत्सव के माध्यम से एक मंच पर इकट्ठा होती हैं. एक हफ्ते तक चले इस कार्यक्रम में कुल सात नाटकों का मंचन हो पाया.

4अप्रैल से शुरू हुए इस उत्सव में पहला नाटक खेला गया बहरूप ग्रुप की तरफ से. ‘अजंता की तरफ’ नाटक ख्वाजा अहमद अब्बास की तीन कहानियां ‘अजंता की तरफ’, ‘जाफरान के फूल’ और ‘मेरी मौत’ को एक धागे में पिरोए हुए था.  इस नाटक का निर्देशन किया था अरविंद आलोक ने.

5अप्रैल को श्रीराम सेंटर फॉर परफॉरमिंग आर्ट्स द्वारा ‘ऐसे दिन आए कैसे’ नाटक का मंचन हुआ.  इस नाटक का निर्देशन के.एस.राजेंद्रन द्वारा किया गया था. यह नाटक ब्रतोल्त ब्रेख्त की कहानी ‘द रेजिस्टिबल राइज ऑफ आर्तुरो उइ’ का हिंदुस्तानी रूपांतरण था.

6अप्रैल को विंग्स कल्चरल सोसाइटी ने ‘सारा का सारा आसमान’ नाटक प्रस्तुत किया. पाकिस्तानी कवयित्री सारा शगुफ्ता की जीवन गाथा दर्शानेवाले इस नाटक को दानिश इकबाल ने लिखा है और निर्देशन किया था तारीक हमीद ने. इस नाटक में दिखाया गया कि कैसे सारा ने विपरीत परिस्थितियों में शायरी लिखनी शुरू की और कैसे समाज उसे पागल समझता रहा और इस सब के चलते क्यों उसने एक दिन अपनी जान दे दी.

8अप्रैल को बोलिग्राड फाउंडेशन एवं स्पीका ढ़ोल ने प्रेमचंद के ‘गोदान’ की प्रस्तुति की. विष्णु प्रभाकर द्वारा किए गए इस नाट्य रूपांतरण का निर्देशन रामेंद्र चकवर्ती ने किया.

9अप्रैल को मंचन हुआ इप्टा के नाटक ‘जनरल, मगर सुन’ का. यह नाटक जुलियस फ्युचिक की एक कहानी पर आधारित था. इस कहानी का अनुवाद प्रभु जोशी ने किया और इस नाटक का निर्देशन किया था मनीश ने. यह नाटक 6 बच्चों के माध्यम से जंग की कड़वी सच्चाई बतलाता है. कैसे स्कूल जाते वो बच्चे जंग से पीड़ित लोगों की मदद करना चाहते हैं, और ऐसा करने के लिए वो बहुत मशक्कत से पैसे इकट्ठा करते हैं.

10अप्रैल को जुम्बिश द्वारा ’एकलव्य उवाच’ का मंचन हुआ. जातिवाद और शिक्षा प्रणाली पर व्यंग्य करता हुआ यह नाटक लिखा था कुलदीप कुणाल ने और इसका निर्देशन किया था सतीश मुख्तलिफ ने. यह नाटक एकलव्य की कथा का खंडन करते हुए शिक्षा के क्षेत्र में जाति प्रथा के प्रचलन पर प्रकाश डालता है। कहानी जब पौराणिक परिवेश से निकलकर समकालीन समय में प्रवेश करती है तो एहसास कराती है कि इस स्थिति में ज्यादा बदलाव नहीं आया है. आज भी जीवन के हर क्षेत्र में इस प्रथा का प्रचलन है.

11अप्रैल को सहर ने सुधन्वा देशपांडे द्वारा लिखित नाटक बहुत रात हो चली है का मंचन किया. दो पात्रों का यह नाटक दिखाता है कि कैसे जीवन की आपाधापी में लोग अपने उसूलों से अलग हो सकते हैं. यह कहानी बाबरी मस्जिद विध्वंस के संदर्भ में प्रदर्शित की गई. पूरे महोत्सव के दौरान जेएनयू सम्मेलन केंद्र खचाखच भरा रहा और हर नाटक के माध्यम से आज की ज्वलंत समस्याओं पर प्रकाश डाला गया.

‘विंडोज 10’ मुफ्त देने का मकसद

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दुनिया की सबसे बड़ी सॉफ्टवेयर निर्माता कंपनी माइक्रोसॉफ्ट ने अपने नए ऑपरेटिंग सिस्टम ‘विंडोज 10’ को लॉन्च करने से पहले नई रणनीतियों पर भी काम कर रही है. ‘विंडोज 10’ इस साल जुलाई के आखिर में बाजार में दस्तक देने वाला है. नई रणनीति के तहत माइक्रोसॉफ्ट सभी उपभोक्ताओं को मुफ्त में यह ऑपरेटिंग सिस्टम उपलब्‍ध कराएगा. यह सुविधा उन लोगों को भी मिलेगी जो विडोज का पाइरेटेट वर्जन इस्तेमाल करते हैं. अब तक के इतिहास में यह सबसे बड़ा अपग्रेडेशन प्रोग्राम भी होगा.

मुफ्त में देने के मायने

दुनियाभर में लगभग 52 फीसदी लोग पाइरेटेड ऑपरेटिंग सिस्टम का इस्तेमाल करते हैं. इसे देखते हुए माइक्रोसॉफ्ट पाइरेटेड वर्जन इस्तेमाल करने वालों को ऑपरेटिंग सिस्टम अपग्रेड करने की सुविधा मुफ्त में देने वाला है. हालांकि ‘विंडोज’ 10 में अपग्रेड होने से वो पाइरेटेड विंडो ओरिजनल में तब्दील नहीं होगा. पाइरेसी रोकने के अलावा माइक्रोसॉफ्ट का बड़ा मकसद अपने कुछ दूसरे उत्पादों के लिए बाजार तैयार कर उन्हें बेचना भी है.

दरअसल नई दिल्ली के नेहरू प्लेस से लेकर चीन के विभिन्न कम्‍प्यूटर बाजारों में माइक्रोसॉफ्ट पाइरेसी को रोकने में लगभग नाकाम रहा है. मुफ्त में ‘विंडोज 10’ देने में माइक्रोसाफ्ट को कोई नुकसान नहीं है. ऑपरेटिंग सिस्टम मुफ्त में मिलने से दुनियाभर में ज्यादा से ज्यादा लोग इसका इस्तेमाल करना शुरू कर देंगे. इससे कंपनी को बड़ा फायदा ये होगा कि वह अपनी दूसरी सेवाओं जैसे- ऑनलाइन स्टोरेज, वन ड्राइव, स्काइप और विंडोज ऐप को आसानी से बेच सकेगी.

हमें क्या फायदा?

भारत में तकरीबन 63 फीसदी लोग पाइरेटेड विंडो का ही इस्तेमाल करते हैं. मुफ्त ‘विंडोज 10’ अपग्रेड होने से पाइरेटेड उपभोक्ताओं को डेटा चोरी और हैकिंग जैसी समस्याओं से निजात मिलेगी. विंडोज 10 में सुरक्षा को लेकर बड़े बदलाव किए गए हैं. पाइरेटेड विंडो में हैकिंग, वायरस, फि‌शिंग से लेकर डेटा चोरी होने के खतरे बने रहते हैं.

स्टार्ट मेन्यू से स्पार्टन तक

माइक्रोसॉफ्ट ‘विंडोज 10’ के साथ कई दूसरी सुविधाएं देने का दावा कर रही है. स्टार्ट मेन्यू जिसकी कमी आपको विडोज 8 में खली होगी, माइक्रोसॉफ्ट उसे नए अंदाज में कस्टमाइजेशन की सुविधा के साथ फिर से लाया है. एक साथ कई काम करने वालों के लिए बेहतरीन मल्टी डेस्कटॉप की सुविधा दी गई है. इसके साथ ही माइक्रोसॉफ्ट ने नया वेब ब्राउजर ‘स्पार्टन’ लाने का भी ऐलान किया है. स्पार्टन इंटरनेट एक्सप्लोरर के मुकाबले काफी बढ़िया बताया जा है. विशेषज्ञों की माने तो स्पार्टन गूगल क्रोम से स्मार्ट और कड़ी टक्कर देने वाला साबित हो सकता है.

बोलकर दे सकेंगे कमांड

विंडोज 10 को बोलकर भी चलाया जा सकेगा. मतलब अगर आपको कोई प्रोग्राम या एप्लीकेशन खोलना या फिर ईमेल भेजना है तो सिर्फ आपको कम्‍प्यूटर के सामने बोलना होगा और चंद सेकेंड्स में आपका काम हो जाएगा.

सुनीता तोमर…

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ये लाइनें 30 सेकेंड के उस वीडियो की हैं, जिसे केंद्र सरकार ने तंबाकू निषेध अभियान के तहत जारी किया था. अभियान की ब्रांड एंबेसडर और वीडियो का चेहरा कैंसर पीड़ित सुनीता तोमर थीं. ‘थीं’ इसलिए क्योंकि सुनीता की आवाज अब हमेशा के लिए खामोश हो गई है. इस महीने की एक तारीख को उन्होंने ग्वालियर के एक अस्पताल में दम तोड़ दिया. कैंसर पीड़ित सुनीता को जीवन के आखिरी दिनों में किसी तरह की सरकारी सहायता भी नसीब न हो सकी.

केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार आने के बाद से तमाम अभियान चलाए गए. अभियानों के जरिये देश का चेहरा बदलने का डंका पीटा गया. स्वच्छ भारत अभियान, मेक इन इंडिया, जनधन योजना, डिजिटल इंडिया, सांसद आदर्श ग्राम योजना… ये कुछ नाम हैं, जिन्हें वर्तमान सरकार ने शुरू कर लोगों का जीवन बदलने का दावा किया है. अभियान की सफलता या असफलता उस समय की सरकार के चाल, चरित्र और चेहरे की हकीकत को बयां करता है. तंबाकू निषेध अभियान ऐसा ही एक नाम है, जो सरकार की प्राथमिकताओं में से एक है. इसकी सफलता इस बात से जाहिर हो रही है कि अभियान का चेहरा रहीं सुनीता तोमर की दरिद्रता में असमय मौत हो गई. 28 वर्षीय सुनीता की मौत हमारे सरकारी तंत्र और कार्यप्रणाली के चेहरे पर करारा तमाचा है.

देश के हृदय प्रदेश कहे जानेवाले मध्य प्रदेश के छोटे से जिले भिंड की रहने वाली सुनीता की शादी 14 साल की कम उम्र में ट्रक ड्राइवर बृजेंद्र सिंह तोमर से हुई थी. उनके दो बच्चे ध्रुव (13) और गंधर्व (10) हैं. सुनीता बच्चों की शिक्षा को लेकर बहुत आग्रही थीं.

पान हमारे खानपान का अभिन्न हिस्सा रहा है. अब गुटका-तंबाकू हमारे खानपान का अपभ्रंश हिस्सा हो चले हैं. तंबाकू या गुटका चबाना हमारे समाज में दबंगई और रुतबे का प्रतीक समझे जाते हैं. सुनीता भी तंबाकू चबाने की लत का शिकार थीं. धीरे-धीरे यही लत उनके लिए घातक साबित हो गई. तंबाकू खाने के कुछ सालों के दौरान ही सुनीता के ओरल कैंसर से पीड़ित होने का पता चला. पति बृजेंद्र के अनुसार, ‘सुनीता की बीमारी का पता साल 2013 में चला था. भिंड के एक अस्पताल में कुछ समय इलाज के बाद डॉक्टरों ने उन्हें मुंबई के टाटा मेमोरियल अस्पताल में रेफर कर दिया.’ मुंबई में डॉक्टरों ने चेकअप के बाद ऑपरेशन करने की बात कही. ऑपरेशन के लिए पैसों की जरूरत पड़ी तो वर्ल्ड लंग फाउंडेशन नाम की संस्था आगे आई. यह विकासशील देशों में कैंसर पीड़ितों की इलाज में मदद करती है.

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तंबाकू सेवन से ऑपरेशन के बाद उनका चेहरा विकृत होने के बाद लोग उनसे बात करने में भी कतराने लगे थे. सुनीता को खाने में सिर्फ तरल पदार्थ ही दिया जाता था. टाटा मेमोरियल अस्पताल में उनका इलाज सर्जन डॉ. पंकज चतुर्वेदी की देखरेख में हो रहा था. पंकज कैंसर का इलाज करने के साथ ही इसके प्रति जागरुकता फैलाने के लिए अभियान भी चलाते हैं. सुनीता के बारे में पता चलने पर केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने उन्हें अपने अभियान का चेहरा बनाया. साल 2014 में मुंबई में इलाज के दौरान ही सुनीता पर कैंसर के प्रति जन जागरुकता अभियान के तहत 30 सेकेंड का वीडियो शूट किया गया.


मोदी के नाम खत

बृजेंद्र के अनुसार, सुनीता ने अपनी मौत से कुछ दिन पहले ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक मार्मिक पत्र लिखा था. जिसके मुताबिक, ‘गुटका हर दुकान पर खुलेआम बिकता है. छोटे बच्चों से लेकर नौजवान, बूढ़े, महिलाएं आदि इसका सेवन कर रहे हैं. इसलिए तंबाकू की बिक्री पर रोक जरूरी है. कानून तो है लेकिन उसका पालन नहीं हो रहा है. मैं किसी को तंबाकू खाते देखती हूं तो मेरी रूह कांप जाती है. पैकेट में सचित्र चेतावनी लोगों को जागरूक करती है और  इससे वे तंबाकू सेवन छोड़ने के लिए सोचने पर मजबूर होते हैं.’

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मोदी के मन की बात

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ महीनों पहले नशे की लत छोड़ने को लेकर ‘मन की बात’ की थी. इसमें उन्होंने कहा था, ‘ड्रग्स, नशा ऐसी भयंकर बीमारी है, जो अच्छे-अच्छो को हिला देती है. परिवार तबाह हो जाता है. समाज-देश सब कुछ बर्बाद हाे जाता है. ड्रग्स तीन बातों को लाता है और मैं उसको कहूंगा, एक बुराइयों वाला 3डी है. एक डी है ‘डार्कनेस’, दूसरा है ‘डिस्ट्रक्शन’ और तीसरा है ‘डीवास्टेशन’. नशा अंधेरी गली में ले जाता है. विनाश के मोड़ पर लाकर खड़ा कर देता है और बर्बादी का मंजर इसके सिवाय कुछ नहीं मिलता.


 

पिछले साल अगस्त में इस वीडियो की लॉन्चिंग के लिए तब के स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने खासतौर पर सुनीता को परिवार के साथ दिल्ली आने का बुलावा भेजा था. 35 वर्षीय पति बृजेंद्र के अनुसार, ‘सरकार की ओर से हमें एक रुपया भी नहीं मिला. कार्यक्रम में सुनीता को सिर्फ ‘श्रीफल’ देकर सम्मानित किया गया. मुझे लगा था कि वीडियो में आने के बाद सरकार की ओर से आर्थिक मदद जरूर मिलेगी, मगर ऐसा कभी नहीं हुआ.’ उस समय कार्यक्रम के दौरान सुनीता ने लोगों से तंबाकू न खाने और तंबाकू रहित विश्व का आह्वान किया था. इस समय पूर्व केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने देश में गुटका, खैनी, जर्दा जैसे तंबाकू उत्पादों के पैक पर ग्राफिक चेतावनी लागू करने की घोषणा भी की थी.

बृजेंद्र ने बताया, ‘ऑपरेशन के बाद सुनीता सामान्य जीवन जी रही थीं. कभी-कभी उन्हें सांस लेने में तकलीफ होती थी. 28 मार्च की रात में सुनीता की तबीयत बिगड़ी तो मैंने उन्हें भिंड के एक अस्पताल में भर्ती कराया. यहां राहत नहीं मिली तो डॉक्टरों ने ग्वालियर रेफर कर दिया.’ यहां इलाज शुरू हुए एक-दो दिन ही हुए थे कि एक अप्रैल को जिंदगी से संघर्ष करते हुए सुनीता ने दम तोड़ दिया.

वे भाजपा सांसद और अधीनस्थ विधान संबंधी लोकसभा समिति के अध्यक्ष दिलीप गांधी के बयान से भी नाराज थीं. इसे लेकर उन्होंने प्रधानमंत्री काे पत्र भी लिखा था. दिलीप गांधी ने कहा था, ‘तम्बाकू ही कैंसर की वजह नहीं है.’ इसको लेकर सुनीता काफी नाराज थी. जानकारों के मुताबिक देश में तंबाकू का सेवन ही कैंसर की बड़ी वजह है.

बृजेंद्र ने बताया, ‘सुनीता ने प्रधानमंत्री से अपील की थी कि तंबाकू के पैकेटों पर तंबाकू निषेध से संबंधित चित्र बड़े आकार में बनाए जाएं, ताकि लोगों को पता चले कि ये कितने खतरनाक हैं. सुनीता के घरवालों का आरोप है कि सरकार की ओर से किसी भी तरह की आर्थिक मदद नहीं मिली. बृजेंद्र कहते हैं, ‘सरकार अगर जरा-सा भी संवेदनशील हो जाती तो सुनीता की जान बचाई जा सकती थी. उस प्रचार अभियान के बाद हमें लगा था कि सरकार हमारी मदद करेगी, लेकिन सरकार का कोई भी नुमाइंदा हमारे परिवार का हाल तक जानने नहीं आया. मैंने सुनीता के इलाज के लिए 3.5 लाख रुपये का कर्ज ले रखा है. कर्ज के बोझ तले बच्चों का भविष्य अंधेरे में नजर आने लगा है.’ अब सवाल यह उठता है की सुनीता भारत सरकार के तंबाकू निषेध अभियान का इतना बड़ा चेहरा थीं तो उनको सरकारी सहायता क्यों नहीं मिली? क्या सरकार जनता का ऐसे ही शोषण करेगी? अगर सुनीता के साथ ये हुआ तो आम जनता के साथ क्या होता होगा. हमारे देश के नीति निर्माताओं को इस पर सोचने की जरूरत है. सुनीता की मौत सरकारी तंत्र की कार्यप्रणाली में लगे लापरवाही के घुन की कहानी बयां करती है.

गुटबाजी से कांग्रेस पस्त, भाजपा मस्त

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छत्तीसगढ़ की राजनीति में इन दिनों भूचाल आया हुआ है. नागरिक आपूर्ति घोटाले से घिरी राज्य की भाजपा सरकार को लेकर कांग्रेस ने जो मशाल उठाई थी, उसमें भाजपा को तो कोई विशेष नुकसान नहीं पहुंचा, उलटे कांग्रेस के घर में आग की लपटें उठने लगी हैं.

जब दिल्ली समेत पूरे देश में कांग्रेस ने सुस्त रवैया अपना रखा है, उस वक्त आश्चर्यजनक रूप से छत्तीसगढ़ में पार्टी के नेता दोगुने उत्साह से काम करते नजर आ रहे हैं. कांग्रेस के जोश पर आश्चर्य इसलिए जताया जा रहा है क्योंकि नया राज्य बनने के बाद से अब तक कांग्रेस पर असफल और कमजोर विपक्ष का ठप्पा लगता रहा है. कई बड़े और जनसरोकारी मुद्दों पर कांग्रेस का मौन न केवल कार्यकर्ताओं बल्कि मतदाताओं को भी खटकता रहा है. खुद अपने 20 प्रमुख नेताओं (झीरम घाटी नक्सल हत्याकांड) की हत्या के मामले को भी कांग्रेस सही तरीके से न उठा पाई थी, न ही विधानसभा चुनावों में भुना पाई थी.

राज्य में कांग्रेस का नेतृत्व हर मुद्दे पर अब मुख्यमंत्री रमन सिंह और उनकी कैबिनेट को आड़े हाथ ले रहे हैं. किसानों को धान का बोनस नहीं दिए जाने के मुद्दे से लेकर भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार से रोज जवाब मांगा जा रहा है. दिक्कत ये है कि कांग्रेस अपनी गुटबाजी से उबर नहीं पा रही है. यही कारण है कि भाजपा सरकार के खिलाफ शुरू हुई कांग्रेस की लड़ाई ने अपने ही घर में सिर-फुटौव्वल का रूप ले लिया है. छत्तीसगढ़ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष भूपेश बघेल और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी रोज एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी पर उतर आए हैं. दोनों के बीच खींचतान नई बात नहीं है, लेकिन जिस मुद्दे पर दोनों उलझ रहे हैं, वह मुद्दा भाजपा सरकार को उलझाने के लिए उपयोग किया जाना था.

दरअसल पिछले महीने प्रदेश के नागरिक आपूर्ति निगम (नान) पर राज्य के भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो (एसीबी) ने छापा मारकर करोड़ों की अनियमितता और भ्रष्टाचार के मामले को उजागर किया था. कथित तौर पर एसीबी के हाथ नान के अफसरों की एक डायरी भी लगी थी, जिसमें कई सौ करोड़ के रुपयों के लेन-देन का ब्योरा था. भूपेश बघेल इस कथित डायरी को लेकर मुख्यमंत्री रमन सिंह से हर दूसरे दिन जवाब तलब कर रहे हैं. इस बीच अजीत जोगी का बयान आया कि केवल डायरी के आधार पर किसी का दोष सिद्ध नहीं होता. जोगी ने पुराने मामलों का हवाला देते हुए यह भी कहा कि न्यायालय केवल किसी डायरी को साक्ष्य नहीं मानता. बस यहीं से कांग्रेस के दोनों बड़े नेता सरकार को परे रख एक-दूसरे के खिलाफ व्यंग्यबाण छोड़ रहे हैं.

हाल ये है कि कांग्रेस के इन दो नेताओं की लड़ाई को कभी मुख्यमंत्री रमन सिंह तो कभी अजीत जोगी के बेटे अमित जोगी तड़का लगा रहे हैं. मरवाही विधानसभा सीट से विधायक अमित जोगी अपने पिता का बचाव करते हुए कहते हैं, ‘मेरे पिता ने केवल सुझाव दिया है, उसे मानना या ना मानना संगठन का काम है.’ वे पलटकर सवाल करते हैं कि जब मध्य प्रदेश के व्यावसायिक परीक्षा मंडल घोटाले को कांग्रेस कोर्ट ले जा सकती है तो छत्तीसगढ़ के नान घोटाले को क्यों नहीं ले जा सकती.’

मुख्यमंत्री रमन सिंह कहते हैं, ‘कांग्रेस की अंदरूनी लड़ाई कभी खत्म नहीं हो सकती है. अभी भी कांग्रेस में जो नजर आ रहा है, वो उनके अंदर का मामला है, लेकिन जिस नान घोटाले की कांग्रेस बात कर रही है, उसे सौ बार कहें या हजार बार, झूठ सच में नहीं बदल जाएगा.’

कांग्रेस नेताओं को संयम बरतने की हिदायत 

फिलवक्त कांग्रेस की अंदरूनी कलह सतह पर आ गई है. यही कारण है कि कांग्रेस के तेवर से जो राज्य सरकार सहमी नजर आ रही थी, अब वही कांग्रेस पर चुटकी लेने से नहीं चूक रही है। इस आपसी खींचतान का ही नतीजा है कि इसकी आंच अब दिल्ली भी पहुंच गई है. कांग्रेस के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा ने दोनों नेताओं को संयम बरतने की हिदायत दी है, वहीं पीसीसी अध्यक्ष भूपेश बघेल केंद्रीय नेतृत्व को इससे अवगत कराने दिल्ली पहुंच चुके हैं. अजीत जोगी भी दिल्ली जाने की तैयारी कर रहे हैं. उनकी योजना है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी के अलावा छुट्टी से लौट रहे राहुल गांधी से भी मुलाकात कर सकें. दूसरी तरफ जोगी के कुछ समर्थक बघेल पर पार्टी संविधान का पालन नहीं करने और पार्टी के बड़े नेता (जोगी) के खिलाफ अनुशासनहीनता का रंग देकर नया पासा फेंकने की तैयारी में है. अब सरकार की जड़ें ढीली करने के लिए बारूद जुटा रही कांग्रेस खुद ही धमाके का शिकार हो गई है. परिणाम ये हुआ कि राहत की सांस लेते हुए मुख्यमंत्री रमन सिंह अपने मंत्रिमंडल को नया रूप देने में व्यस्त हो गए हैं क्योंकि अप्रैल के अंत तक रमन कैबिनेट का विस्तार होना है.


भूपेश खिसियानी बिल्ली : जोगी

नान घोटाले पर राज्य सरकार के खिलाफ शुरू हुई कांग्रेस की जंग आपसी खींचतान के रूप में सामने आ रही है. अजीत जोगी ने भूपेश बघेल को खिसियानी बिल्ली बोलकर मामले को और संगीन कर दिया है. उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

आप लगातार कांग्रेस के स्थानीय नेतृत्व से नाखुश हैं, आपके बयान अपनी ही पार्टी के नेताओं को कठघरे में खड़ा करते नजर आते हैं?

देखिए, मैं पार्टी के आतंरिक मामलों को लेकर कभी कोई टीका टिप्पणी नहीं करता हूं. मैंने कभी ऐसा कोई बयान भी नहीं दिया, जिससे यह लगे कि मैं अपनी ही पार्टी के खिलाफ खड़ा हूं. लेकिन यदि कोई मेरा नाम लेकर ही बयानबाजी कर रहा है तो मैं उसके लिए उर्दू का यह शेर कहना चाहूंगा कि आईना जो उनको दिखाया तो बुरा मान गए.

लेकिन आपको लेकर भूपेश बघेल कह रहे हैं कि जब-जब वे रमन सरकार को घेरते हैं, बुरा आपको लगता है?

यह तो वही बात हुई कि खिसयानी बिल्ली खंभा नोचे। अब इन बातों से आप खुद ही निहितार्थ लगा लीजिए. मैं ज्यादा कुछ नहीं कहूंगा। यह जरूर कहना चाहता हूं कि यदि मैंने नान (नागरिक आपूर्ति निगम) घोटाले को लेकर कोर्ट जाने को कहा, बेमतलब की बयानबाजी न करने की सलाह दी, तो क्या गलत कहा.


क्या संन्यास ले लूं : बघेल

पीसीसी अध्यक्ष भूपेश बघेल भी अजीत जोगी को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रहे. प्रदेश की भाजपा सरकार से दो-दो हाथ करने के साथ ही बघेल जोगी पर भी बयानों के तीर छोड़ने में पीछे नहीं हैं. उनसे हुई बातचीत के प्रमुख अंश:

अजीत जोगी कह रहे हैं कि आप केवल बयानबाजी कर समय खराब कर रह हैं. नान घोटाले को लेकर वो आपको अदालत जाने की सलाह दे रहे हैं. क्या आपको उनकी बातें बुरी लग रही हैं?

मुझे क्यों बुरा लगेगा. जहां तक बयान देने का सवाल है तो वो मैं जरूर दूंगा और देता रहूंगा. कोर्ट जाने की बात तो वे अब कर रहे हैं, मैं तो पहले ही बोल चुका हूं कि नान घोटाले को लेकर हम अदालत का दरवाजा खटखटाएंगे।

अजीत जोगी वरिष्ठ हैं, उनकी सलाह में कुछ तो दम होगा?

मुझे एक बात नहीं समझ आती कि कैसे राजनीतिक व्यक्ति या दल जनता की लड़ाई छोड़ दें. क्या हम संन्यास ले लें? जब भी हम सरकार के खिलाफ कोई बयान देते हैं तो जोगी जी को क्यों तकलीफ होती है, यह समझ से परे है. आप इस पर भी गौर कीजिए की नान घोटाले को लेकर राज्य सरकार के खिलाफ जोगी जी ने अब तक कोई बयान नहीं दिया है. इस पर क्या कहा जाए.

‘एक आदमी जिससे मैं सिर्फ दो बार मिली और अब इस मोड़ पर खड़ी हूं’

mehar_tararआप पाकिस्तान पर एक किताब लिख रही हैं. यह साधारण पाकिस्तानी लोगों की कहानी है, जो समाज में बदलाव लाने की कोशिश कर रहे हैं. यह विचार दिमाग में कैसे आया?

दरअसल, यह विचार मेरे प्रकाशक की ओर से आया. भारत के बाल अधिकार कार्यकर्ता कैलाश सत्यार्थी के साथ मलाला युसूफजई के 2014 का नोबल शांति पुरस्कार पाने के बाद पाकिस्तानी सरकार और साधारण अवाम के बीच के संबंधों में एक नया आयाम जुड़ा है. पूरे विश्व से लगातार आ रहीं नकारात्मक धारणाओं की पृष्ठभूमि में एक बहुत बड़े वर्ग के सामने पाकिस्तान की दूसरी (सकारात्मक) छवि दिखाई ही नहीं जाती. एक आम पाकिस्तानी जो एक पारंपरिक पाकिस्तानी से भिन्न है. पश्चिम और दूसरे लोगों की ओर से एक आम पाकिस्तानी की छवि प्रतिगामी, अतिवादी, धर्मांध, साफा पहननेवाले, बंदूकधारी, उदारवाद से नफरत करनेवाले मुल्ला के रूप में दर्शाई जाती है. या अगर महिला हो तो उसे सताई हुई, बुर्कानशीं और पीड़िता बताया जाता है. इसके अलावा इस क्षेत्र से आनेवाली तमाम किताबों में भी 19 करोड़ से ज्यादा की आबादीवाले पाकिस्तान की गतिशील छवि को पेश करना बंद कर दिया गया है. इनके दैनिक अस्तित्व को कुछ हजार आतंकियों की छवि से बदला जा चुका है. ये मुट्ठी-भर आतंकी नफरत के अफसाने लिखने के साथ, विभाजन को बढ़ावा देने पर तुले हुए हैं. जो भी उनकी कट्टर विचारधारा के आड़े आता है वे उन्हें तबाह कर देते हैं. इन सबके बीच अपनी कम क्षमताओं के साथ अगर मैं पाकिस्तान का नरम और सकारात्मक पक्ष पेश कर सकी तो मानूंगी कि मैंने अपने देश को एक विनम्र तोहफा दे दिया है. यह पाकिस्तान को विकृत स्वार्थों के चश्मे से देखनेवाले लोगों का मुंह बंद करने में भी सहायक होगा.

आपने कश्मीर पर किताब लिखने की योजना बनाई थी. इसके लिए आपने लाहौर से जम्मू कश्मीर की यात्रा कर तब के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला का इंटरव्यू भी किया था. किन कारणों से आपकी रुचि कश्मीर के प्रति जगी थी? इसके इतर पिछले साल की शुरुआत में आपने ट्विटर पर पाकिस्तानी युवाओं से कश्मीर प्रेम की जगह अपनी देश की समस्याओं पर सोचने का आग्रह किया था.

कश्मीर पर किताब लिखने का मेरा सपना है और मैं उम्मीद करती हूं कि यह कभी न कभी जरूर पूरा होगा. मेरा इरादा सीधासा है. इस किताब का भारत-पाकिस्तान के बीच ‘क’ (कश्मीर) शब्द से उपजी जटिलताओं से कोई लेना देना नहीं. कश्मीर के अनसुलझे मुद्दे के साथ दोनों संप्रभु देशों के बीच की शत्रुता को वास्तव में मैं तूल नहीं देना चाहती. पाकिस्तान और भारत के बीच के गतिरोध ने पिछले 68 सालों से दोनों देशों के रिश्तों को रक्तरंजित कर रखा है. जहां तक मुझे

याद है कश्मीर एक खुला जख्म है. मेरी इच्छा थी कि मैं कश्मीर के लोगों से मिलूं और उनकी कहानियां सुनूं. मैं उनसे एक पाकिस्तानी के तौर पर नहीं, बल्कि एक महिला के तौर पर मिलना चाहूंगी ताकि उनकी पीड़ा को महसूस कर सकूं.

मेरा विचार था कि मैं मुस्लिम, हिन्दू, सिख और दूसरे लोगों से बात करूं और वर्तमान लड़ाई के चलते पीड़ित कश्मीरियों की कहानियों को एक साथ रख सकूं. ये कहानियां मुसलमानों की हो सकती हैं, जो नारकीय जीवन जी रहे हैं, या फिर कश्मीरी पंडितों की कहानी हो सकती है जिन्हें निशाना बनाया गया, सताने के साथ जान से मार दिया गया. उन्हें अपना ही घर छोड़ने के लिए मजबूर किया गया. यह उनकी कहानी भी हो सकती है जो आजादी चाहते हैं. उन महिला-पुरुषों की कहानी हो सकती थी जो आतंकवाद और भारतीय सेना के अत्याचार से पीड़ित हैं.

यह किताब सभी कश्मीरियों के बारे में होगी. न तो यह किसी मुस्लिम लेखक की ओर से उसके साथी मुसलमानों का दर्द साझा करेगी और न ही किसी हिन्दू के नजरिये से कश्मीरी पंडितों के विस्थापन को बताएगी. मेरी इच्छा उन सभी लोगों, जो खुद को कश्मीरी कहते हैं, के दर्द को बताना है. मैंने उमर अब्दुल्ला का इंटरव्यू किया क्योंकि मेरी इच्छा एक कश्मीरी राजनेता, जिनका परिवार कश्मीर के राजनीतिक इतिहास में असर रखता है, के विचारों को अपने पाकिस्तानी पाठकों के सामने रखने की थी. मेरे सवालों के प्रति उनके स्पष्ट और ईमानदार जवाब से मुझे कश्मीर के बारे ने उनके नए दृष्टिकोण के बारे में पता चला. इससे इस बात की उम्मीद भी बंधी कि एक ऐसा सूत्र विकसित किया जा सकता है जो सभी पक्षों के लिए स्वीकार्य साबित होगा.

पाकिस्तान के कश्मीर दिवस के अवसर पर पांच फरवरी 2014 को मैंने ट्वीट किया था. यह कुछ धार्मिक संगठनों के संदर्भ में था जो देश में कश्मीर और कश्मीरियों के प्रति अपनी अमर निष्ठा दर्शाने के लिए पाकिस्तान में बड़ी-बड़ी रैलियां और प्रदर्शनों का आयोजन करते हैं. जबकि उसी देश में तालिबान की नृशंसता पर ये चुप्पी साधे हुए हैं. जमीन के एक टुकड़े को दुखद रूप से ‘पाकिस्तान अधिकृत’ और ‘भारत अधिकृत’ कश्मीर के तौर पर जाना जाता है. जिसके चलते कई दशकों से पाकिस्तान और भारत के बीच गतिरोध बरकरार है. इस संदर्भ में मेरे इस ट्वीट का मतलब कश्मीर के लोगों की पीड़ा को कम करके आंकना नहीं था.

कांग्रेस सांसद शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर की रहस्यमय मौत के बाद आपका नाम व्यापक तौर पर भारतीय मीडिया में उछाला गया था. भारतीय मीडिया ने आप पर शशि थरूर के साथ संबंध होने का आरोप लगाया था. इस बीच आपने कश्मीर का मुद्दा उठाया ताकि भारतीयों के बीच आपकी नई छवि बन सके?

मेरे लेखों और ट्वीट में भारत के प्रति मेरा अनुराग हमेशा पारदर्शी रहा है. एक साधारण पाकिस्तानी के दृष्टिकोण और विचारों को मैंने आगे लाने की कोशिश की थी, जो भारत आधारित अपनी कथित नीतियों के आगे जाते हुए अपने देश को देखने की इच्छा रखती है. आम भारतीयों के बीच पाकिस्तान के प्रति अपर्याप्त और विकृत सूचनाएं उपलब्ध हैं, जो अपने पड़ोसी देश के बारे में मन में नफरत रखता है. कुछ ऐसी ही सोच पाकिस्तान के तमाम लोगों की भारत के प्रति है.

दशकों से पाकिस्तान-भारत के बीच गतिरोध कायम है. मेरे ट्वीट का मतलब कश्मीरियों की पीड़ा कम करके आंकना नहीं था

अगर तकरीबन 140 शब्दों के ट्वीट से बिना एक-दूसरे का विनाश सोचे तीन या चार पाकिस्तानी और भारतीयों के बीच बातचीत कायम करने में मैं कामयाब हो सकी तो इसे सही दिशा में सही कदम के रूप में देखूंगी, क्योंकि मैं काफी आशावादी हूं. अगर दस मिनट के लिए मैं किसी टीवी शो में नजर आती हूं तो यह भी मुझे पाकिस्तान का पक्ष रखने की अनुमति देता है, लेकिन इसे भारत के साथ घृणा और शत्रुता को बढ़ावा देने के लिए गलत तरीके के राष्ट्रवाद से जोड़कर देखा गया.

पिछला साल काफी अप्रत्याशित और उतार-चढ़ाव भरा रहा. ट्विटर, जहां लोग मुझसे बातचीत करते हैं. इस सोशल प्लेटफॉर्म पर कुछ धर्मांधों की ओर से मुझे लगातार फंसाने की कोशिश की गई. मुझे लगता है कि जिन भारतीयों से मैं ऑनलाइन बातचीत करती हूं उनमें से सिर्फ दो फीसदी ही ऐसा कर रहे थे. ट्विटर पर जिस तरह की गर्मजोशी मुझे कुछ अजनबियों से मिली वह काफी उत्साहजनक और सादगीपूर्ण भी हैं.

वास्तव में कुछ लोगों के द्वेषपूर्ण रवैये का एक कारण है, वे मुझमें एक पाकिस्तानी को देखते हैं, जो अपने देश से प्यार करती है लेकिन इन सबके बावजूद भारत को शुभकामनाएं. कुछ या तमाम मुझे उस मामले की वजह से जानते होंगे जिसमें मेरा नाम दुर्भाग्यपूर्ण तरीके से घसीटा गया. घटनास्थल पर वे मौजूद भी नहीं होंगे फिर भी वे मुझे ऐसे ही जानते हैं या होंगे. लेकिन भारतीयों से ऑनलाइन बातचीत में जिस शालीनता और विशुद्ध शिष्टता का मुझे अनुभव हुआ, वह लोगों की जन्मजात अच्छाई पर मेरा विश्वास कायम रखने के लिए काफी है. हालांकि मेरा नाम उस मामले में भारतीय मीडिया ने लगातार खींचा फिर भी यह लोगों का मेरे बारे में अंदाजा लगाने का पैमाना नहीं है. न ही यह वाकया मेरे शब्दों, एक लेख, एक ट्वीट और किसी टीवी शो से मेरे बारे में जानने से लोगों को रोक पाएगा.

इस विवाद के बाद क्या आपकी जिंदगी बदल गई? अचानक हुई इस घटना के चलते भारत और पाकिस्तान के घर-घर में आप चर्चित हो गईं. इस विवाद ने अापके निजी और सार्वजनिक जीवन को कैसे प्रभावित किया?

इसके लिए यह कहना काफी होगा… इस विवाद और मामले में निजी तौर पर मुझे खींचे जाने की इस घटना को मेरे लिए शब्दों में बयां करना संभव नहीं है. यह काफी कठिन है. एक ऐसे देश में जहां मैं सिर्फ दो बार गई हूं, वहां की मीडिया में आपके बारे में लगातार धारणाएं बनाईं और बिगाड़ी जा रहीं हैं. वह वक्त प्रतिक्रिया करने की बेचैनी की बजाय आत्मसंयम रखने की सीख देता है. अपने ईमेल के इनबॉक्स में गूगल एलर्ट खोजते वक्त मुझे एक रिमाइंडर लगातार मिलता था कि कैसे जिनसे मैं कभी नहीं मिली, उन्होंने मुझे लेकर अपना द्वैमासिक बेक्रिंग न्यूज बना दिया. यह सब नरक के जैसा था. मैं किसी के लिए भी ऐसा नहीं चाहूंगी. एक साधारण इंसान होना और इस ज्ञान के साथ जीना कि आपका नाम घर-घर में चर्चित है, वह भी उस वजह से जो आपके खिलाफ हो. यह किसी अग्निपरीक्षा की तरह है. पिछला एक साल बहुत अविश्वसनीय रहा. मेरे परिवार, दोस्तों और सोशल मीडिया पर पूरी तरह से अजनबी लोगों से मिला समर्थन मुझे उत्साहित करनेवाला था. लोग आपके पास आते हैं, आपसे मिलते हैं और आप चुपचाप बैठे रहते हो. तब आपके पास कहने के लिए कुछ ज्यादा नहीं होता या किसी का हाथ पकड़े शांत बैठे रहते हो, यह जताने के लिए कि आप चिंतित हो.

पेशेवर तौर पर मैं काम नहीं करती इसलिए मुझे पता नहीं कि इसका जवाब किस तरह दिया जाए. एक बार फिर इसे रिकॉर्ड के तौर पर रखते हुए मैं बताना चाहूंगी कि ‘डेली टाइम्स’ में मार्च 2012 से नवंबर 2013 तक मैं ओपेड एडिटर थी. यही एकमात्र नौकरी थी जो मैंने की है और पत्रकारिता से मेरा नाता मात्र इसी से जुड़ा था. हां, मैं 2010 से लगातार लिख रही हूं और यह अभी भी जारी है, क्योंकि लेखन मेरा पहला प्यार है. यह वह चीज है जो मेरे सबसे करीब है और जिससे मेरा वजूद है. जब तक मेरी उंगलियां लैपटॉप के कीबोर्ड पर टाइपिंग करने के लिए समक्ष रहेंगी मैं किसी न किसी रूप में लेखन को जारी रखूंगी. पिछले साल मेरे लेखन में कई आयाम भी जुड़े. मेरे दृष्टिकोण में व्यापक रूप से बदलाव आया है. देर से सही लेकिन मैंने यह महसूस किया है कि मैं अपनी बातचीत में उतनी सहज अब नहीं हूं, जितना पहले कभी होती थी. यह जानना बहुत असुविधाजनक और डरानेवाला है कि मैं जो भी लिखती हूं वह अब इस रुचि के साथ पढ़ा जा रहा है जो हमेशा सकारात्मक नहीं होता.

यह मसला वास्तव में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन उतना षडयंत्रपूर्ण और भयावह नहीं, जैसा कि कुछ लोग इसे बनाने पर अमादा हैं

विवादास्पद मौत: कांग्रेस सांसद शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर नई दिल्ली के एक होटल में मृत पाई गई थीं. जिसके बाद मेहर तरार विवादों में घिर गईं.
विवादास्पद मौत:कांग्रेस सांसद शशि थरूर की पत्नी सुनंदा पुष्कर नई दिल्ली के एक होटल में मृत पाई गई थीं. जिसके बाद मेहर तरार विवादों में घिर गईं.

सुनंदा पुष्कर की मौत के मामले में चल रही जांच के दौरान आपका नाम चर्चित रहा. आपने इसका सामना कैसे किया?

जैसा कि मैंने पहले कहा, यह नरक की तरह था, जिसका मैंने सामना किया. हर दिन लगातार एक महिला (सुनंदा) जिससे मैं कभी नहीं मिली, एक व्यक्ति (शशि) जिनसे मैं दो बार मिली और अब मैं यहां खड़ी हूं. उनकी कहानी का एक हिस्सा, यह मसला वास्तव में बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है लेकिन उतना षडयंत्रपूर्ण और भयावह नहीं है, जैसा कि कुछ लोग इसे बनाने पर अमादा हैं. इस मामले में किसी दिन पुलिस जरूर किसी नतीजे पर पहुंच जाएगी. तब शायद इस संबंध में मेरा नाम लिया जाना बंद हो जाएगा. कम से कम मीडिया में तो जरूर. यह जानकर अवास्तविक लगता है कि अजनबी आप पर बहस करते हैं, आपके शब्दों का विश्लेषण करते हैं, जो भी आप बोलते या लिखते हैं उनके अर्थ का अंदाजा लगाते हैं. मुझे उम्मीद है कि समय के साथ यह खत्म हो जाएगा लेकिन एक यथार्थवादी होने के नाते मैं जानती हूं कि यह सब जल्दी नहीं होगा.

इस विवादास्पद मसले को लेकर आपकी कोई इच्छा है या फिर कुछ ऐसा जिसे आपने किया या कहा न हो?

हां, मैं इसे पहले ही कह चुकी हूं और यहां फिर से कहती हूं. अगर मैं इसे फिर से कर सकती जिन ट्वीट्स के साथ मुझे टैग किया गया उनके जवाब में मैंने उस दुर्भाग्यपूर्ण दिन कोई ट्वीट नहीं किया होता. मुझे चुप रहना चाहिए था. हालांकि मैंने उस तरह से प्रतिक्रिया नहीं दिखाई जैसाकि आमतौर पर लोग गलत तरीके से निशाना बनाए जाने पर करते हैं. लेकिन उन जवाबों ने विवाद को और बढ़ा दिया. ट्विटर पर मैंने कुछ चीजों के बारे में बताया भी था जो मेरे खिलाफ थीं. मुझे इन सब चीजों को ट्विटर से हटा लेना चाहिए. मुझे लगता है यह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी, लेकिन दूरदर्शी रूप में देखा जाए तो यह बेवकूफी भरा भी था.

जो कुछ भी हुआ क्या उस पर कभी आप किताब लिखना चाहेंगी? जैसा कि प्रख्यात लेखक पैट्रिक फ्रेंच की ओर से इस मामले को लेकर एक कहानी लिखने की जानकारी मिली है?

नहीं, मैं ऐसे विषय पर कभी कुछ नहीं लिखूंगी जो मेरे लिए काफी निजी है. वे लोग जो मेरे काफी करीबी हैं, जैसे मेरा बेटा, मेरी भतीजी और कुछ दोस्तों को छोड़कर मैं इस बारे में किसी से बात भी नहीं करना चाहती. क्या है और क्या था यह मेरी जिंदगी का बहुत ही निजी हिस्सा है. इसे सनसनीखेज बनते हुए देखना, बिना तथ्यों को जाने इसमें लोगों का जोड़-तोड़ करना और इसका घिनौना अखबारी नाटक बनते हुए देखना मेरे लिए बहुत दुखद था. और इस बारे में ऐसा कुछ भी नहीं कि मैं किसी से कोई बात करना चाहूंगी.

बर्बर कानून को बेकरार सरकार

फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी
फोटोः एएफपी

यूं तो ‘गुजरात मॉडल’ को विकास का पर्याय बना दिया गया है, पर इस बार राज्य सरकार की ओर से किए जा रहे कुछ कानूनी बदलावों की बयार विकास की उल्टी दिशा में बहती दिखाई पड़ रही है. दस साल से अस्तित्व में आने की कोशिश में लगा ‘गुजरात कंट्रोल ऑफ टेररिज्म एंड ऑर्गनाइज्ड क्राइम (गुकटॉक)’ बिल, जिसे अपने अलोकतांत्रिक प्रावधानों के कारण राष्ट्रपति कई बार रद्द कर चुके हैं, एक बार फिर विधानसभा में पारित हो चुका है. पारित होने के साथ ही इसने विवादों की चिंगारी को हवा दे दी है.

भारतीय दंड संहिता के अनुसार, पुलिस के सामने दिए गए किसी आरोपी के बयान को, कोर्ट में सबूत के तौर पर नहीं रखा जा सकता पर गुजरात सरकार की ओर से विधानसभा में पारित ‘गुकटॉक’ बिल में इस प्रावधान को बदल दिया गया है। इस विवादित बिल को फिर से लाकर गुजरात सरकार ने कानून और नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं के गुस्से को भड़का दिया है। कानूनविदों की मानंे तो ये बिल रद्द किये जा चुके कानून ‘पोटा’ (प्रिवेंशन ऑफ टेररिज्म एक्ट) से काफी मिलता-जुलता है.

यह बिल उस बिल में थोड़ा फेरबदल कर पास किया गया है, जिसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में तीन बार विधानसभा में पारित किया था. 2004, 2008 और 2009 में इस बिल को पारित होने से राष्ट्रपति ने खारिज कर दिया था.

बताया जाता है कि यह कानून मोदी की ओर से किये जानेवाले बदलावों की सूची में कभी सबसे ऊपर था. गुजरात दंगों के बाद 2003 में इस बिल को लाया गया था. नाम था ‘गुजकोका’ (गुजरात कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट). ‘मकोका’ (महाराष्ट्र कंट्रोल ऑफ ऑर्गनाइज्ड क्राइम एक्ट, 1999) की तर्ज पर इसे पारित करने की कोशिश की जा रही थी. राष्ट्रपति द्वारा ‘बेरहम’ की संज्ञा पा चुके इस बिल के बारे में और अच्छी जानकारी पाने के लिए उन दो मुस्लिम युवकों की कहानी जानना जरूरी है, जिन्हें दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल ने आतंकवादी कहकर पकड़ा था. बाद में मामले की सीबीआई जांच में दोनों दोषमुक्त पाए गए. 9 फरवरी, 2006 को दिल्ली पुलिस ने मोहम्मद इरशाद अली और उसके दोस्त मौरीफ कमर को देशद्रोह के आरोप में गिरफ्तारकर तिहाड़ जेल भेज दिया था. तब रक्षा विशेषज्ञों और मीडिया के अधिकांश धड़ों ने पुलिस को अच्छी खासी शाबासी भी दी. सीबीआई जांच के बाद दिल्ली हाई कोर्ट ने दोनों को जमानत दे दी. जांच में पता चला था कि दोनों पुलिस के ही मुखबिर थे, जो जम्मू कश्मीर में आतंकवादियों के घुसपैठ की सूचना पुलिस को देते थे.

इस विवादित बिल के पारित होने से मानवाधिकार कार्यकर्ता नाराज हैं. कानूनविदों की माने तो यह रद्द किए जा चुके ‘पोटा’ कानून से काफी मिलता है

तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को भेजी अपनी चिट्ठी में इरशाद ने लिखा था, ‘मेरी एकमात्र गलती ये है कि मैंने उनका (खुफिया एजेंसियों का) साथ देने से मना कर दिया था। ये कहना मेरे लिए बहुत पीड़ादायी है कि हमारी अदालतें भी इसी श्रेणी में आती हैं… आग से आग नहीं बुझाई जा सकती, उसके लिए पानी चाहिए होता है। आपकी सुरक्षा एजेंसियां पेट्रोल से आग बुझाने की कोशिश कर रही हैं.’ उनके वकील सुफियान सिद्दीकी बताते हैं, ‘सुरक्षा एजेंसियों ने इरशाद को कुछ खतरनाक काम करने के लिए मजबूर किया था. पिता बनने के बाद इरशाद ने ऐसे खतरनाक काम करने से मना कर दिया था. इसके बाद देश के खिलाफ साजिश रचने के आरोप में उसे गिरफ्तार कर लिया गया.’

साल 2008 ‘गुजकोका’ के खारिज होने के बाद मोदी ने दुनिया भर में फैले गुजरातियों से आग्रह किया था कि वे इस बिल को पारित करवाने के लिए तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को पत्र और ईमेल भेजें. मोदी का इस बिल पर जिद्दी रवैया तब और साफ दिखा, जब पुलिस के सामने आरोपी के बयान को सबूत का दर्जा देनेवाले अनुच्छेद का हवाला देते हुए इसमें संशोधन करने के लिए साल 2009 में एक बार फिर केंद्र ने इसे राज्य सरकार को वापस भेज दिया. तब मोदी का कहना था कि संशोधन करने से इस कानून का मूलभूत ढांचा बिगड़ जाएगा. उस समय मोदी के गुरु कहे जानेवाले लाल कृष्ण आडवाणी ने आरोपी के पुलिस के सामने दिए गए बयान को प्रमाणित साक्ष्य कहे जाने को लेकर संसद में काफी बहस भी की थी.

कानून के जानकार बताते हैं कि अगर ये बिल पारित होता तो ये न्यायिक जांच की श्रेणी में नहीं आता. आतंकी मसलों के जानकार वरिष्ठ वकील युग मोहित चौधरी बताते हैं, ‘जमीर अहमद बनाम महाराष्ट्र सरकार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय देते हुए कहा था कि देश की सुरक्षा से जुड़े मुद्दों पर कानून बनाने का अधिकार सिर्फ केंद्र सरकार को प्राप्त है और चूंकि आतंकवाद संघ सूची यानी यूनियन लिस्ट में है इसलिए इस पर कोई राज्य अपना कानून नहीं बना सकता.’

भारत में आतंकवाद का मुकाबला करने वाले तंत्र का बदसूरत चेहरा दिखानेवाली किताब ‘काफ्कालैंड’ की लेखक मनीषा सेठी बताती हैं, ‘ऐसा हो सकता है कि मोदी और उनके साथी ऐसी बारीकियों को न जानते हों. उनका इरादा तो बस आतंकवाद से जुड़े डर को बढ़ाना और एक पक्षीय बहस शुरू करना है. गुजरात तो बस शुरुआतभर है। वे तो इस ‘विकृत’ कानून को केंद्र से लागू करवाना चाहते हैं जिससे किसी भी वैचारिक मतभेद या नाइत्तेफाकी को आतंकवाद के नाम पर दबाया जा सके. ऐसे में गुजरात उनके लिए एक प्रयोगशाला का काम कर रहा है.’ इस बिल के कुछ मुख्य प्रावधानों के अनुसार, एसपी से ऊपर की रैंक के किसी पुलिस अधिकारी के सामने दिया गया बयान या कुबूलनामा कोर्ट में स्वीकार्य साक्ष्य का काम करता था. टेलीफोन से जुड़ी रोक के अधिकार, आरोपी की संपत्ति कुर्क करने का अधिकार और बिना चार्जशीट दाखिल किए 90 दिन की कस्टडी को बढ़ाकर 180 दिन का अधिकार पुलिस को था.

वैसे अगर बीते हुए कुछ उदाहरण देखे जाएं तो पता चलता है कि ऐसे कड़े नियमों को गुजरात में लागू करना कभी आसान नहीं रहा है। सेंटर फॉर इक्विटी स्टडीज की भारत में आतंक निरोधी कानूनों पर आई एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ‘साल 2003 तक गुजरात में पोटा के अन्तर्गत दर्ज हुए मामलों में एकाध को छोड़कर अधिकांश मामले मुस्लिमों के खिलाफ ही थे.’ रिपोर्ट के अनुसार, ‘1993 में अकेले गुजरात में टाडा के अंतर्गत लगभग 19,263 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें अधिकांश बांध-विरोधी प्रदर्शनकारी, मजदूर संगठन और एक धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय से ताल्लुक रखनेवाले लोग थे.’ ऐसा ही चयनात्मक लक्ष्यीकरण हाल में तब देखा गया जब गुजरात पुलिस ने एक आदिवासी नेता जयराम गमित को एक अन्य कड़े कानून ‘प्रिवेंशन ऑफ एंटी सोशल एक्टिविटी एक्ट’ (पासा) के तहत गिरफ्तार किया. हालांकि उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वह भूमि अधिग्रहण बिल के विरोध में लोकतांत्रिक मानकों के अनुरूप प्रदर्शन कर रहे थे.

जन संघर्ष मंच के प्रतीक सिन्हा बताते हैं, ‘इस बिल का समर्थन करने वाले सोचते हैं कि सुप्रीटेंडेंट रैंक से ऊपर के अधिकारी कानून का पालन करते होंगे लेकिन क्या गुजरात का ट्रैक रिकॉर्ड किसी से छुपा हुआ है? गुजरात के न जाने कितने ही वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी फर्जी एनकाउंटर और हिरासत में हुई हिंसा के मामलों में संलिप्त पाए गए हैं. केस दर केस अध्ययन किया जाए तो पता चलता है कि ऐसे मामलों में ऊपर से नीचे तक पूरा महकमा मिला होता है.’ बात आगे बढ़ाते हुए मनीषा सेठी कहती हैं, ‘अक्षरधाम बम धमाका मामले के मुख्य आरोपी अदम अजमेरी को पोटा कोर्ट ने सजा-ए-मौत दी थी जिसे गुजरात उच्च न्यायालय ने भी बरकरार रखा था. उसके खिलाफ मुख्य भूमिका उन बयानों ने निभाई थी जो उसने पहले डीसीपी संजय गढवी और फिर सीजेएम के सामने दिए थे. इस मामले का खुलासा मुख्य जांच अधिकारी जीएल सिंघल ने डीआईजी डीजी वंजारा द्वारा दी गईं सूचनाओं के आधार पर किया था. बाद में अजमेरी को बरी करते हुए सुप्रीम कार्ट ने निचली अदालतों के फैसले को ‘अतार्किक’, ‘अन्यायपूर्ण’ और ‘अनुचित’ करार दिया था. साथ ही इसे मौलिक और आधारभूत मानवाधिकारों का हनन भी माना था.’

ट्रुथ ऑफ गुजरात के कार्यकर्ता बताते हैं, ‘नए बिल के चैप्टर 4 की धारा 15 (3) का प्रयोग दक्षिणपंथी संस्थाएं उन जोड़ों के खिलाफ कर सकती हैं जो परिवार के खिलाफ जाकर प्रेम विवाह कर लेते हैं. अगर यह साबित हो जाता है कि कोई वादा करके आरोपी ने किसी का अपहरण किया या भगाया है तो विशेष अदालत इसे जबरदस्ती या शोषण का केस मान सकेगी.’ वैसे भी हमारे देश में मानवाधिकार हनन और आतंकवाद निरोधी कानूनों का इतिहास एक-सा ही रहा है. ऐसे

अधिकतर मामलों में फैसले में देरी के कारण केस साल दर साल अदालत में चलते  रहते हैं. आतंकवाद निरोधी कानूनों के तहत जेल में बंद अधिकांश आरोपी समाज के हाशिये पर पड़े उस तबके से आते हैं जिनका समाज में किसी भी स्तर पर किया गया योगदान शून्य के बराबर होता है.

क्या सच का ये चेहरा भी सत्ता में बैठी भाजपा को दिखाई देगा और वो एक बेरहम बिल को कानून में बदलने से खुद को रोकेगी? भविष्य कुछ भी हो पर इस वक्त आर्थिक सुधारों के नाम पर लिए जा रहे मनमाने फैसले कुछ और ही बयां कर रहे हैं. एक कड़े कानून से आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक, मजदूर या किसान आदि वर्गों की असहमति खत्म की जा सकती हैं. इसके अलावा सीआइआइ और फिक्की जैसे व्यापार संगठनों की आतंकवाद निरोधी कड़े कानून बनाने की दिलचस्पी और ‘टास्क फोर्स रिपोर्ट ऑन नेशनल सिक्योरिटी एंड टेररिज्म’ जैसे आधिकारिक दस्तावेजों से भाजपा के ऐसे कानून बनानेवाले सपने को और मजबूत करेगी. ऐसे में यह एक आदर्श उदाहरण होगा, जैसा कि इरशाद ने अपने भावुक कर देने वाले खत में कहा था, ‘सुरक्षा एजेंसियां पेट्रोल से आग बुझाने का काम कर रही है’.