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विकास या फिर विनाश की पटकथा

NEPAL-INDIA-QUAKE

हम हर त्रासदी के बाद जगते हैं और फिर सो जाते हैं. यही हमारे काम करने का तरीका है. आज से दो साल पहले केदारनाथ में त्रासदी आई थी. वहां भी भारी संख्या में क्षति हुई थी. उस त्रासदी में जो भी क्षति हुई उसकी मुख्य वजह यह थी कि हमने पहाड़ों को बहुत कमजोर कर दिया है. हमने नदी के रास्ते में अपने लिए होटल और सराय बना लिए हैं. तब भी हमने इस बारे में थोड़ी बहुत बात की कि कैसे हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ कर रहे हैं. लेकिन ऐसा नहीं हुआ कि इस बारे में हमने कोई व्यापक चर्चा की हो या किसी नीति का निर्माण किया हो.

ऐसा भी नहीं है कि उस त्रासदी से हमने कुछ सीख लिया हो. थोड़ी-बहुत बात करने के बाद हमने फिर वही करना शुरू किया जो हम वर्षों से करते आए हैं. असल में हम जिसे अपना विकास समझ रहे हैं वो विनाश की पटकथा है. आज एक बार फिर इंसान अपने आपको प्रकृति के सामने कमजोर पा रहा है. हमसब नेपाल और भारत के कुछेक हिस्सों में आए भूकंप से हिले हुए हैं. हजारों जिंदगियां तबाह हुई हैं. तो क्या इस तबाही या बर्बादी का दोष प्रकृति पर है? क्या इस पूरी तबाही की वजह केवल भूकंप है?

पहली नजर में तो ऐसा ही लगता है लेकिन यह पूरी तरह से सच नहीं है. इस त्रासदी के लिए हम यानी इंसान सबसे ज्यादा दोषी हैं. हमने पिछले कई वर्षों में पूरे ‘इको सिस्टम’ को तबाह कर दिया है. हम इस तबाही को लगातार जारी रखे हुए हैं. हम पहाड़ों को डायनामाइट की मदद से उड़ा रहे हैं. हम कोयले और दूसरे खनिजों के लिए लगातार माइनिंग कर रहे हैं. हमने अपने इन कृत्यों से जमीन के भीतर एक हलचल मचा रखी है. सतह के ऊपर जो हरकत हम कर रहे हैं उसका प्रभाव सतह के नीचे दिखता है. सतह के नीचे की चट्टानें धीरे-धीरे कमजोर हो रही हैं. हमारे द्वारा लगातार किए जा रहे हस्तक्षेप से चट्टानें दरक रही हैं. इस वजह से भूकंप का असर पहले की तुलना में ज्यादा दिख रहा है और तबाही भी ज्यादा हो रही है. अगर हम इसी रफ्तार से अपना काम करते रहे तो आगे तबाही का स्तर और बड़ा होगा. अभी आंकड़ा हजारों में है आगे आंकड़ा लाखों में भी हो सकता है.

पृथ्वी पर नदी, झील, समुंद्र, पहाड़ और पठार ये सब मिलकर एक संतुलन बनाते हैं और हमें इस संतुलन को बने रहने देना चाहिए

भूकंप आना तो एक समान्य प्रक्रिया है. जब से पृथ्वी बनी है तब से भूकंप आ रहे हैं. हिमालय का बनना भी ऐसी ही एक प्रक्रिया से संभव हो पाया है. आज से करीब 6.5 करोड़ वर्ष पहले दो प्लेट्स के एक-दूसरे के करीब बढ़ने की वजह से ही हिमालय का निर्माण हुआ है.

कहने का मतलब कि धरती के गर्भ में भी एक दुनिया है जहां हर वक्त कुछ न कुछ चलता रहता है. इसे न तो हम रोक सकते हैं और न ही कभी इसे रोकने की कोशिश की जानी चाहिए. ऐसे में अब सवाल उठता है कि हम क्या कर सकते हैं. यहां मैं यह भी साफ कर दूं कि आज हमें जो करना है वो हमारी सुरक्षा के लिए ही जरूरी है. इसे किसी के ऊपर एहसान के तौर पर नहीं लेना चाहिए. जब हम कहते हैं कि पर्यावरण बचाना है तो साथ में हमें यह भी याद रखना चाहिए कि अगर हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारा अस्तित्व ही खत्म हो जाएगा.

अपनी सुरक्षा के लिए हमें केवल इतना करना है कि पृथ्वी का अपना जो संतुलन है, उसे हम जस का तस बना रहने दें. पृथ्वी पर नदी, झील, समुंद्र, पहाड़ और पठार ये सब मिलकर एक संतुलन बनाते हैं और हमें इस संतुलन को बने रहने देना है. नदी का सूखना रोकना होगा और पहाड़ को चीरना-फाड़ना बंद करना होगा. हमें अपने लालच पर लगाम लगानी पड़ेगी. अगर हम चाहते हैं कि भविष्य में ऐसी त्रासदियां न आएं तो हमें प्रकृति से सहयोग करते हुए जीना होगा.

(विकास कुमार से बातचीत पर आधारित)

प्रलय का शिलालेख

NEPAL-QUAKE

सन 1977 की जुलाई का तीसरा हफ्ता. उत्तरप्रदेश के चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब से खामोशी है. यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी, बिरही, का जल स्तर बढ़ता जा रहा है. उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकराकर गूंज रही है. फिर भी चमोली-बद्रीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6,500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को सब कुछ शांत-सा लग रहा है.

आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे. उसका तांडव देख चुके थे. इनके घर, खेत व ढोर उस प्रलय में बह चुके थे. उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था. कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएं, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सबके बीच से किसी तरह रास्ता बनाकर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है.

लेकिन सन 1970 की जुलाई का तीसरा हफ्ता ऐसा नहीं था. तब यहां घाटी नहीं थी, इस जगह पर पांच मील लंबा एक मील चौड़ा और कोई तीन सौ फुट गहरा एक विशाल ताल था- गौना ताल. ताल के कोने पर गौना गांव था और दूसरे कोने पर दुरमी गांव. इसलिए कुछ लोग इसे दुरमी ताल भी कहते थे. पर बाहर से आनेेवालों के लिए यह बिरही ताल ही था, क्योंकि चमोली-बद्रीनाथ मोटर मार्ग पर बसे बिरही गांव से ही इस ताल तक आने का पैदल रास्ता शुरू होता था.

ताल के ऊपरी हिस्से में त्रिशूल पर्वत की शाखा कुंवारी पर्वत से निकलनेवाली बिरही समेत अन्य छोटी-बड़ी चार नदियों के पानी से ताल में पानी भरता रहता था. ताल के मूंह से निकलने वालीअतिरिक्त पानी की धारा फिर से बिरही नदी कहलाती थी. यहां से लगभग 18 किलोमीटर के बाद यह अलकनंदा में मिल जाती थी. सन 1970 की जुलाई के तीसरे हफ्ते ने बरसों पुराने इस सारे दृश्य को एक ही क्षण में बदलकर रख दिया.

दुरमी गांव के प्रधानजी उस दिन को याद करते हैं: ‘तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा था. पानी तो इन दिनों हमेशा गिरता है, पर उस दिन की हवा कुछ और थी. ताल के पिछले हिस्से में आने वाले पानी के साथ बड़े-बड़े पेड़ बह-बह कर आने लगे थे. ताल के पानी में ऐसी बड़ी-बड़ी भंवरे उठ रही थी कि ये पेड़ उनमें तिनके की तरह खिच जाते थे, फिर कुछ देरी बाद बाहर फिंका जाते और ताल के चारों ओर चक्कर काटने लगे थे. ताल में उठ रही लहरें उन्हें यहां से वहां, वहां से यहां फेंक रही थी. देखते-देखते सारा ताल पेड़ों से ढंक गया. अंधेरा हो चुका था. हम लोग अपने-अपने घरों में बंद हो गये. घबरा रहे थे कि आज कुछ अनहोनी होकर रहेगी. खबर भी करते तो किसे करते? जिला प्रशासन हमसे 22 किलोमीटर दूर था.’ घने अंधेरे ने इन गांववालों को उस अनहोनी का
चश्मदीद गवाह न बनने दिया पर इनके कान तो सब सुन रहे थे.

प्रधानजी बताते हैं- ‘उस रात भयानक आवाजें आती रहीं. फिर एक जोरदार गड़गड़ाहट हुई और फिर सबकुछ ठंडा पड़ गया.’ ताल के किनारे की ऊंची चोटियों पर बसनेवाले इन लोगों ने सुबह के उजाले में पाया कि गौना ताल फूट चुका है, बड़ी-बड़ी चट्टानों और हजारों पेड़ों का मलबा और रेत ही रेत पड़ी थी चारों ओर. ताल का बचा-खुचा पानी इधर-उधर से रास्ता बनाकर बरसों पहले मिट चुकी बिरही नदी को फिर से जन्म दे रहा था.

ताल की पिछली तरफ से आनेवाली नदियों के ऊपरी हिस्सों में जगह-जगह भूस्खलन हुआ था. उसके साथ सैंकड़ों पेड़ उखड़-उखड़कर नीचे चले आए थे. इस सारे मलबे को, टूटकर आनेवाली बड़ी-बड़ी चट्टानों को गौना ताल अपनी 300 फुट की गहराई में समाता गया, सतह ऊंची होती गई, और फिर लगातार ऊपर उठ रहे पानी ने ताल के मूंह पर रखी एक विशाल चट्टान को उखाड़ फेंका और देखते ही देखते सारा ताल खाली हो गया. घटना स्थल से तीन सौ किलोमीटर दूर बसे नीचे हरिद्वार तक इसका असर पड़ा.

सन 1970 में गौना ताल ने बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समाकर उसका छोटा-सा अंश ही बाहर फेंका था

गौना ताल ने इस बहुत बड़े प्रलय को अपनी गहराई में समाकर उसका छोटा-सा अंश ही बाहर फेंका था. उसने सन 1970 में अपने आप को मिटा कर उत्तराखंड, तराई और दूर मैदान तक एक बड़े हिस्से को बचा लिया था. वह सारा मलबा उसके विशाल विस्तार और गहराई में न समाया होता तो सन 70 की बाढ़ की तबाही के आंकड़े कुछ और ही होते. लगता है गौना ताल का जन्म बीसवीं सदी के सभ्य लोगों की मूर्खताओं के कारण आने वाले विनाश को थाम लेने के लिए ही हुआ था.

ठीक आज ही की तरह सन 1893 तक यहां गौना ताल नहीं था. उन दिनों भी यहां एक विशाल घाटी ही थी. सन 1893 में हुई तेज बरसात और उसके साथ आए भूस्खलन से घाटी के संकरे मुंह पर ऊपर से एक विशाल चट्टान आकर अड़ गई थी. घाटी की पिछली तरफ से आनेवाली बिरही और उसकी सहायक नदियों का पानी मुंह पर उस अड़ी चट्टान के कारण धीरे-धीरे गहरी घाटी में फैलने लगा था. अंग्रेजों का जमाना था, प्रशासनिक क्षमता में वे सन 1970 के प्रशासन से ज्यादा कुशल साबित हुए. तब के प्रशासन ने उस समय जन्म ले रहे गौना ताल के ऊपर बसे एक गांव में बाकायदा एक तारघर स्थापित किया. तारघर का तार बाबू समय-समय पर इस ताल के बढ़ते जलस्तर की ठीक-ठीक जानकारी नीचे बैठे ऊंचे अधिकारियों को देता रहता था.

एक साल तक ये नदियां उस ताल को भरती रहीं. जलस्तर लगभग तीन सौ फुट ऊंचा उठ गया. तारघर ने खतरे का तार नीचे भेज दिया. बिरही और सन 1970 की तरह एकाएक नहीं. किनारे के सभी गांव खाली करवा लिए गये थे. प्रलय को झेलने की पूरी तैयारी थी. फूटने के बाद तीन सौ फुट का जल स्तर 30 फुट मात्र रह गया. ताल सिर्फ फूटा था, पर मिटा नहीं था. गोरे साहबों से संपर्क न सिर्फ ताल से बल्कि उसके आसपास की चोटियों पर बसे गांवों से भी बना रहा. उन दिनों एक अंग्रेजी अधिकारी महीने में एक बार इस दुर्गम इलाके में जाकर वहां की समस्याओं और झगडों को निपटाने के लिए एक कोर्ट भी चलाता था. टूटने के बाद बचा-खुचा ताल अब भी विशाल था. ताल में नावें चलती थी.

आजादी के बाद भी नावें चलती रही. सन 1960 के बाद ताल से 22 किलोमीटर की दूरी पर गुजरने वाली हरिद्वार बद्रीनाथ मोटर-सड़क बन जाने से पर्यटकों की संख्या भी बढ़ गई. अब ताल में नाव की जगह मोटर बोट ने ले ली. ताल से प्रशासन का संपर्क सिर्फ पर्यटन विकास के नाम पर कायम रहा. वह ताल के इर्द-गिर्द बसे इन 13 गांवों को धीरे-धीरे भूलता गया. उसे बस इतनी ही बात याद रही कि ताल भरनेवाली नदियों के आगौर, पनढाल में घने जंगल लगे हैं. इन्हें वर्ष 1960 से 1970 के बीच बुरी तरह से काटा गया था.

मुख्य मोटर सड़क से ताल तक पहुंचने के लिए, गांवो तक नहीं, 22 किलोमीटर लंबी एक सड़क भी बनाई जाने लगी. सड़क अभी 12 किलोमीटर ही बन पाई थी कि सन 1970 की जुलाई का वह तीसरा हफ्ता आ गया. ताल फूट जाने के बाद सड़क पूरी करने की जरूरत ही नहीं समझी गई. सन 1894 में गौना ताल के फटने की चेतावनी तार से भेजी थी, सन 1970 में ताल फूटने के बाद ही खबर लग पाई.

बहरहाल अब यहां गौना ताल नहीं है. ऊपर उसमें बड़ी-बड़ी चट्टानों पर पर्यावरण का एक स्थायी लेकिन अदृश्य शिलालेख जरूर खुदा हुआ है. इस क्षेत्र में चारों तरफ बिखरी ये चट्टाने हमें बताना चाहती हैं कि हिमालय में, खासकर नदियों के पनढालों में खड़े जंगलों का हमारे पर्यावरण पर क्या असर पड़ता है. ऐसे हिमालय में, देवभूमि में हम कितना धर्म करें, कितना अधर्म होने दें, कितना विकास करें, कितनी बिजली बनाएं- यह सब इन बड़ी चट्टानों, शिलाओं पर बहुत स्पष्ट ढंग से लिखा हुआ है, खुदा हुआ है.
क्या हम इस शिलालेख को पढ़ने के लिए तैयार हैं.

(गांधी मार्ग से साभार)

 

नकली पेड़, असली मौत

कल हमारे युग को जिन चीजों से पहचाना जाएगा उनमें से एक फेसबुक भी होगी. पहले भी घटनाएं दो बार घटती थीं. पहली बार सचमुच और दूसरी बार मनुष्य के भीतर. लेकिन यह दूसरी बार का घटित होना अब अक्सर हर रंग की संवेदनाओं से जोड़ी गईं कविताओं के रूप में फेसबुक पर प्रकट होने लगा है. अगर अच्छे-बुरे के फेर में न पड़ा जाए तो मान लेना चाहिए कि पहले जो कविताएं लोगों के भीतर ही मर जाती थीं अब जन्म पा लेती हैं. कितनी देर जिंदा रहती हैं यह उनकी आंतरिक शक्ति पर निर्भर करता है. भीड़ के बीच, कैमरों के सामने हुई उस बहुआयामी घटना के बाद कृष्ण कल्पित की एक कविता आई- एक नकली किसान/एक नकली मुख्यमंत्री के सामने/एक नकली पेड़ से लटककर मर गया/और नकली पुलिस और नकली जनता देखती रही/सब नकली थे/लेकिन मृत्यु असली थी!

इस कविता की पहली ही लाइन लिखने के लिए हिम्मत चाहिए क्योंकि वह एक मौत के बाद किसानों की आत्महत्याओं पर मची देशव्यापी, नकली किंतु क्रुद्ध चक-चक के बीच लिखी जा रही है. कवि का कचूमर भी बन सकता है. अगर आप दिल्ली के जंतर मंतर पर तालियां बजाते लोगों के बीच पेड़ से गिरी उस दढ़ियल लाश के बगल में खड़े होकर देखें तो जान जाएंगे कि एक नकली जनता का भी निर्माण न सिर्फ किया जा चुका है बल्कि वह इस हद तक जटिल हो चुकी है कि अब उसका पुरानी हालत में लौट पाना नामुमकिन है. यह भीड़ अपनी अनुभूतियों को झुठलाते हुए सच और झूठ के बीच के धुंधलके में कैसे भी धक्के से किसी भी तरफ चल पड़ने को तैयार खड़ी रहती है जिसका एक नायाब नमूना मरनेवाला गजेंद्र सिंह खुद था.

वह किसानी की चौपट असलियत से वाकिफ था, वह कई राजनीतिक पार्टियों में रहते हुए नेताओं का ध्यान खींचने के छक्के पंजे सीख चुका था, किसान मिजाज के उलट अपने लिए उसने काम भी ऐसा चुना था जिसमें मजदूरी से ज्यादा बख्शीश मिलती है. वह कौतुक पैदा करनेवाली गति से मंच पर नेताओं को साफा बांधा करता था, उसे बख्शीश वे लोग दिया करते थे जो पगड़ी, तलवार, मुकुट और मक्खन के जरिए सत्ताधारी नेताओं को पांच मिनट के महाराजा बनाकर अपना उल्लू सीधा करने के उस्ताद होते हैं. वह दरअसल एक खानदान की बिरूदावली गाते या एक व्यक्ति का अहंकार सहलाते हुए राजनीति में तेजी से कामयाब हो रही नेताओं की प्रजाति का अनुसरण करना चाहता था लेकिन ऐसा करने की कोशिश में सिर्फ ध्यान खींचने वाला एक आइटम बनकर रह गया था.

Farmer Suicde
22 अप्रैल को आम आदमी पार्टी की जंतर-मंतर पर भूमि अधिग्रहण के खिलाफ आयोजित रैली के दौरान एक किसान ने फांसी लगाकर खुदकुशी कर ली थी. फोटो: विजय पांडे

इस बहुआयामी घटना में पतनशील पॉलिटिकल कल्चर के हुसकाए एक देहाती से अधिक हैरतअंगेज मौत उस नई पार्टी और उसके नेता की है जो आम आदमी को राजनीति के केंद्र में स्थापित करने चला था. पिछली बार दिल्ली में 47 दिन की सरकार देशभर में फैलने की महत्वाकांक्षा पर कुर्बान करने के बाद अरविंद केजरीवाल को एक आॅटोवाले ने थप्पड़ मारा था, वे राजघाट पर प्रार्थना करने के बाद उसके घर गए थे, तब लोगों में एक पागल-सी उम्मीद ने जन्म लिया था कि शायद यह आदमी राजनीति में कुचले जा चुके मानवीय मूल्यों को दोबारा वापस लाना चाहता है. उन्हीं अरविंद ने अपनी आंखों के सामने एक आदमी की मौत के बाद अपना भाषण इस तरह जारी रखा जैसे उनके ग्लैमर के पेट्रोमैक्स पर मंडराता एक भुनगा जल गया हो. इस बार मुख्यमंत्री बनने के बाद खुलती उनके व्यक्तित्व की परतों से जाहिर हो रहा है कि हिंद स्वराज की कितबिया के पाठ समेत वे विनम्रता, आदर्शवाद, करुणा और पवित्रता बोध के सारे नाटक सत्ता पाने की साधना के सोचे विचारे अनुष्ठान थे, उन्हें भी उन्हीं की तरह होना था जिनके खिलाफ वे लड़ने निकले थे. अब अगर वे मुख्यमंत्री की हैसियत से इंसानियत का वास्ता देते हुए दिल्ली के लोगों से अपील करें कि वे सड़क पर पड़े-पड़े मर जानेवाले घायलों को उठाकर अस्पताल पहुंचाएं तो कोई कान नहीं देगा. उलटा जवाब आएगा, ये बात वो कह रहा है जो मस्जिद में अजान होने पर सभा रोक सकता है लेकिन किसी की जान जाने पर नहीं रोकता.

इससे भी दिलफरेब वह कर्कश शोर है जो किसानों के लिए मचाया जा रहा है. जो अमीरों के पक्ष में नीतियां बनाते हैं वही प्रतिरोध की भी जगह घेर रहे हैं, भाषा में बिंब, रूपक और मुद्राएं हास्यास्पद ढंग से गांवों की ओर लपक रही हैं. नीयत को छिपाने के लिए एक नकली प्रतिसंसार रचा जा चुका है जिसमें सबकुछ भ्रामक है. याद कीजिए कवि ने एक नकली पेड़ का भी जिक्र किया था जिससे लटक कर वह आदमी मरा.

रोशनी बिखेरता सीतापुर

सीतापुर… उत्तरप्रदेश का एक छोटा-सा शहर. जैसे कई जनपद हैं, जनपदीय मुख्यालय हैं, कुछ उसी आकार-प्रकार का शहर. लेकिन यह कुछ अलग है, कुछ खास. उत्तरप्रदेश के एक कोने में बसा है लेकिन जानता इसे पूरा देश है, और उत्तर व पूर्वी भारत में तो गांव-गांव तक सीतापुर को जाननेवाले लोग मिलेंगे. भले ही वे सीतापुर गए हों या नहीं लेकिन सीतापुर का नाम लेते ही कहेंगे कि वही सीतापुर न, आंखवाला शहर! यह लोकप्रियता इस शहर को ऐसे ही अर्जित नहीं हुई है बल्कि उसकी ठोस वजह भी रही है. आंखों के अस्पतालवाला शहर के रूप में यह तब से लोकमानस में स्थापित हुआ, जब आंखों के अस्पताल गिने-चुने हुआ करते थे. अब तो हर शहर में बेहतर आंख अस्पताल हो गए हैं लेकिन एक समय था, जब देश के कोने-कोने में रोशनी पाने की उम्मीद उत्तरप्रदेश के इसी शहर में बंधती थी. हालांकि मिथ और कहानियों के घालमेल से इस शहर की और भी कई पहचान रही है लेकिन यथार्थ के धरातल पर यह रोशनी देनवाला शहर ही कहलाया.

सीतापुर के बारे में यह कहते हैं कि यह 88 हजार ऋषियों की तपस्थलीवाला इलाका रहा है. धार्मिक आस्थावाले इस धर्मधरा भी कहते हैं और उसके पीछे नैमिष नगरी मां ललिता के वास का हवाला देते हैं तो दूसरी ओर महर्षि दधीचि के अस्थि दान की गौरवकथा और गाथा को बताते हैं. और सीतापुर के दरी उद्योग की चर्चा भी हर कोई शहर में करता है. यहां के खैराबाद कस्बे में बड़े मखदूम साहब और बिसवां कस्बे में टक्करी बाबा गंगा-जमुनी तहजीब के दो बड़े नाम हैं जिनकी मजार पर आज भी प्रत्येक वर्ग, सम्प्रदाय के अकीदतमंद जाकर नतमस्तक होते हैं.

गांजरी अंचल से होकर गुजरनेवाली शारदा व घाघरा सरीखी बड़ी नदियां और ऐतिहासिकता को समेटे मनवा कस्बे के टीले इस जनपद की यशोगाथा का ही वाचन करते हैं. और इन सबके बीच यहां के मूंगफली, तम्बाकू, किवाम, प्लाई व ताजिया का कारोबार भी जेहन में अभी ताजगी के साथ छाया रहता है लेकिन इन तमाम पहचारों पर भारी पड़ती है इस शहर का रोशनी देनेवाली पहचान. सीतापुर आंख अस्पताल आज भी  अंधता निवारण में मील का पत्थर साबित हो रहा है. और यहां का अस्पताल तो इस हालत में है कि मरीजों के इलाज में आज विश्व स्तर पर विशेषज्ञ भी इस अस्पताल के मुरीद हैं.

sitapur eye hospital

सीतापुर का एक अस्पताल के जरिये रोशनी देनेवाला शहर बन जाने की कहानी भी अलग किस्म की है. डॉ. महेश प्रसाद मेहरे ने 1926 में सीतापुर के खैराबाद में एक छोटी सी डिस्पेंसरी खोलकर मरीजों का इलाज शुरू किया था. डाॅ मेहरे मूल रूप से इलाहाबाद के थे और जब यह काम शुरू कर रहे थे तब उनकी उम्र महज 26 साल की थी. उनका जन्म 1900 में हुआ था. आंखवाली डिस्पेंसरी में विश्वसनीयता बढ़ती गई. डाॅ मेहरे जाति-धर्म-समुदाय का बोध भुलाकर बस मरीजों की सेवा में लगे रहे और 1939 में वह समय आया जब सीतापुर में आंख अस्पताल की स्थापना कर दी गई.मिथकीय ऋषियों के नगर में डाॅ. मेहरे असल ऋषि बन गए. डॉ. मेहरे के प्रयास से चिकित्सक व संसाधन बढ़ते गए. धीरे धीरे ख्याति बढ़ती गई और सीतापुर आंख अस्पताल एशिया में प्रसिद्ध हो गया.

लेकिन खासियत यह रही कि यह स्थापना के समय भी गरीबों से लेकर अमीरों तक के लिए अस्पताल था और आज भी इसकी पहचान उसी रूप में है. 21 नवंबर 1964 को राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णनन ने सीतापुर आंख अस्पताल के नए भवन का शिलान्यास किया था. तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने 8 दिसंबर 1968 को नेत्र संस्थान का उद्घाटन किया. और फिर तो एक-एककर कारवां ही बनता गया. अहमदाबादवालों ने गुजराती वार्ड बनवाए, राजा बलरामपुर पटेश्वरी ने आॅपरेशन वार्ड बना दिए, राष्ट्रपति वीवी गिरि और प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी आये तो कुछ न कुछ देकर गए. यह भी गजब है कि एक व्यक्ति की लगन से आज यह शहर आंखों का शहर बन गया, जिसकी पहचान दूसरी थी. वर्तमान में सीतापुर आंख अस्पताल की शाखाएं उत्तर प्रदेश के 21 जिलों के अलावा उत्तरांचल के 10 जिलों में एक शाखा श्रीनगर में भी स्थापित हैं. और आज भी जब सीतापुर जाएंगे तो देखेंगे कि आंखोंवाले इस शहर में आंख के अस्पताल ने कितने किस्म के रोजगार के द्वार खोले हैं.

जाति पूछी और मोटर साइकिल से उतरने की रट लगा दी

Page 2 and 4मैं उस दिन भीगता-भागता स्कूल पहुंचा था. सो सारा दिन गीले-सीले कपड़े में ही पढ़ाना पड़ा. मार्च की इस बेमौसम बरसात ने फसल का ही नहीं स्कूल की पढ़ाई का भी नुकसान कर दिया है. बच्चे भी पढ़ने की बजाए छुट्टी की घंटी का इंतजार ज्यादा करते नजर आ रहे थे. बरसात थम तो गई थी लेकिन अपने पीछे कीचड़ का सैलाब छोड़ गई. इस सैलाब में लोग जहां-तहां फंसे हुए थे. छुट्टी की घंटी बज चुकी थी लेकिन किसी की हिम्मत स्कूल से बाहर जाने की नहीं हो रही थी. बच्चे तो छुट्टी की खुशी में कीचड़ के सैलाब को पारकर घर जा चुके थे लेकिन हम भद्र अध्यापकों को समझ में यह नहीं आ रहा था कि कैसे इस सैलाब को पार करें?

हमारे हेडमास्टर साहब भी कुछ परेशान से नजर आ रहे थे. उनकी परेशानी की वजह खास नहीं थी. मामला इतना था कि उनसे मिलने उनके कोई अध्यापक मित्र आनेवाले थे और इस बेमौसम बरसात के कारण वह बीच रास्ते मे कहीं फंस गए थे. उनको परेशान देख मैंने उनसे पूछ लिया कहां फंस गए हैं आपके दोस्त कहें तो मैं उन्हें ले आता हूं. मेरे पास मोटरसाइकिल है. मेरी इस पेशकश पर उन्होंने फौरन हामी भर दी. मैंने पूछा कि कहां से लाना है तो उन्होंने बताया कि वो लोनी गोल चक्कर और मोहन नगर के बीच कहीं फंसे हुए हैं. मैं तुम्हें उनका फोन नंबर दे देता हूं, उनसे बात कर लो और उन्हें यहां ले आओ. अब मैं फंसा हुआ महसूस कर रहा था. सो उनके मित्र महोदय से बातकर उन्हें लेने चल पड़ा. कीचड़ के सैलाब से बचते-बचाते अभी कुछ दूर ही गया था कि मेरी नजर पेड़ के नीचे, लिफ्ट मांगते एक बुजुर्ग पर पड़ी. इन्हें देख मुझे याद आया कि ये अक्सर यहीं खड़े होकर लिफ्ट मांगते दिखाई देते हैं. मैंने पहले भी इन्हें एक-दो बार लिफ्ट दी थी. मुझे लगा कि मौसम और रास्ते खराब हैं, सो ऐसे में ये बाबा कैसे जाएंगे. मैंने उनके आगे गाड़ी रोक दी और बोला आओ बाबा मेरे पीछे बैठ जाओ, मैं आपको छोड़ देता हूं. बाबा ने भी शायद मुझे पहचान लिया और वह मेरे पीछे बैठ गए. आज उन्हें लोनी गोल चक्कर तक जाना था. खैर, बाबा ने बैठते ही बातचीत शुरू कर दी.

बाबा- बेटा, लगता है तूने पहले भी मुझे गाड़ी में बिठाया है.

मैंने जवाब दिया-हां बाबा.

इस पर बाबा ने जवाब दिया बेटा बाभन हूं, मांगना तो धर्म में भी लिखा है.

मैंने कहा बाबा किस जमाने की बात करते हो अब पुरानी बातों मेंे क्या रखा है?

बाबा ताड़ गए और उन्होंने बात बदल दी. उन्होंने पूछा बेटा घर में कौन-कौन है, कुछ जमीन जायदाद है कि नहीं? रंग तो बड़ा गोरा है तेरा, कौन जात हो?

बाबा ने एक साथ बहुत सारे सवाल दाग दिए थे. अब मुझे समझ नहीं आया कि इन सवालों के पीछे उनका मंतव्य क्या है? खैर मैंने उनसे कहा बाबा मेरे घर में मां-पिता, पत्नी-बच्चे, भाई हैं. और थोड़ी साझे की जमीन भी है.

बाबा को संतोष नहीं हुआ और उन्होंने फिर पूछा कि भाई जात कौन-सी है?

मैंने जवाब दिया बाबा मैं जातपात मैं भरोसा नहीं करता. बाबा साहब आंबेडकर की विचारधारा को मानता हूं.

मेरा इतना कहना था कि बाबा थोड़ा भन्नाते हुए बोले क्या चमार हो ?

मैंने थोड़ा सख्ती से कहा हां बाबा मैं चमार हूं. यह सुनते ही बाबा का हिलना ढुलना शुरू हो गया. वह राम-राम रटने लगे. मैंने मैं पूछा बाबा क्या बैठने में कोई तकलीफ हो रही है? उन्हाेंने फौरन जवाब दिया हां, भईया हमको उतार दो. सीट में कुछ चुभ रहा है. मैंने पूछा, ‘क्या चुभ रहा है ?’ उन्होंने कहा बस यहीं उतार दे हमें, आगे नहीं जाना है. मैंने कहा अभी तो गोल चक्कर दूर है तो उनका जवाब आया बस यहीं उतार दो हमें यही जाना है. तुम हमें गलत दिशा में ले जा रहे हो. मुझे समझ नहीं आया कि एकाएक उन्हें क्या परेशानी हो गई है. खैर मैंने गाड़ी रोकी और उन्हें उतार दिया. उतारते हुए मैंने पूछा क्या बाबा मेरे चमार होने से दिक्कत हो गई. वह बोले भई जब सब जान गए हो तो पूछते क्यों हो?

इस घटना की टीस मेरे मन में बहुत गहरे उतर चुकी थी. मैंने यहां तक सोचा लिया था कि अब सवर्ण पर भरोसा नहीं करूंगा. लेकिन एकाएक मुझे बाबा साहब अांबेडकर की कही बात याद आ गई कि हमारी लड़ाई ब्राह्मणवाद से है , सवर्णों या सिर्फ ब्राह्मणों से नहीं.

लेखक पेशे से अध्यापक हैं और उत्तर प्रदेश के गाजियाबाद में रहते हैं

‘दो गज जमीं भी न मिली कुए यार में’

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दिल्ली के अंतिम मुगल शासक बहादुरशाह जफर ने अंग्रेजी शासन के खिलाफ बगावत का झंडा बुलंद किया था और जब वे अंग्रेजों की पकड़ में आए तो उन्हें सजा के तौर पर म्यामार (तत्कालीन वर्मा) की राजधानी यंगून (रंगून) में जेल की काल कोठरी में गुजारनी पड़ी थी. उनका इंतकाल जेल में हो गया था. अपनी बेदिनी और बेवतनी पर जफर ने एक गजल लिखी थी जिसका अंतिम अशआर कुछ इस तरह था, ‘कितना बदनसीब जफर दफ्न के लिए, दो गज जमीं भी न मिली कुए यार में.’  इतिहास के पन्नों में दर्ज जफर के संघर्ष और उसकी पीड़ा से गुजरते हुए किसी की भी आंखें नम हो जाती होंगी. लेकिन हकीकत आज भी यही है कि भारत की लाखों की आबादी वाली कालबेलिया जनजाति को दफ्न के लिए दो गज जमीन की खातिर मारा-मारा फिरना पड़ रहा है. प्रशासनिक अधिकारियों से शिकायत दर्ज कराने पर भी ज्यादातर समय उन्हें न्याय नहीं मिलता हो तब स्वभाविक है कि पीड़ित समुदाय कुछ इस तरह ही खुद को अभिव्यक्त करना चाहेगा- ‘हम सारी जिंदगी भटकते रहते हैं और नसीब ऐसा कि मरने के बाद भी मिट्टी नहीं मिलती है.’

इस हकीकत को टटोलने के लिए हम भीलवाड़ा जिले के कुछ गांवों में पहुंचे. हम सबसे पहले ज्ञानगढ़ ग्राम पंचायत पहुंचे. इस गांव में कालबेलिया समुदाय के लगभग 15 घर हैं. भीलवाड़ा जिले का यह गांव गुर्जर बहुल है. यहां हम कालबेलिया समुदाय के एक परिवार के घर गए जिनके यहां दो सदस्यों की मृत्यु पिछले कुछ वर्षों में हुई और जब उन्हें दफनाने के लिए गांव की सामूहिक शमशान भूमि पहुंचे तो दूसरी जातियों के लोगों ने शव को दफ्न नहीं करने दिया. अंततः स्वादी देवी ने घर के आंगन में पहले अपने ससुर और बाद में घर से दो किलोमीटर दूर अपने पति को समाधि दे दी. भीलवाड़ा जिले के कलेक्टर रवि कुमार सुरपुर से कालबेलिया समाज के लोगों का दूसरी जातियों द्वारा किए जा रहे उत्पीड़न और उन्हें मृतकों को दफन करने के लिए भूमि आवंटन नहीं किए जाने की बात पूछी तो उनका जवाब था-‘जिस भी गांव में इस तरह की दिक्कत हो, उस गांव के लोग आवेदन दें, हम कार्रवाई करेंगे. ‘इस इलाके में सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय रहनेवाले मजदूर किसान शक्ति संगठन के महत्वपूर्ण सदस्य भंवर मेघवंशी को हमने जिला कलेक्टर की बात बताई और कहा कि आप पीड़ित गांव के लोगों के लिए आवेदन दीजिए. भंवर मेघवंशी ने बीच में टोकते हुए कहा है, ‘कालबेलिया समुदाय का उत्पीड़न भीलवाड़ा के सिर्फ तीन-चार गांव में नहीं हो रहा है. कालबेलियों का उत्पीड़न भीलवाड़ा के ज्यादातर गांवों में हो रहा है. यह समस्या राज्य के दूसरे जिलों मसलन बाड़मेर, पाली, जोधपुर, अजमेर, बांसवाड़ा, राजसमंद आदि में भी है.’

रोजी-रोटी के लिए भिक्षावृत्ति

स्वादी देवी की उम्र 50 के करीब है. लगभग तीन वर्ष पूर्व इनके ससुर नैनूनाथ कालबेलिया की मौत हो गई थी और जाट समुदाय के लोगों ने उनकी लाश को गांव के खेत-खलिहान और सरकारी जमीन में भी दफ्न नहीं करने दिया। हाल ही में उनके पति की भी मौत हो गई. स्वादी देवी ने बताया, ‘हम घुमंतू जाति से आते हैं. जिंदगीभर हम रोजी-रोटी के लिए भटकते रहते हैं. हमारे पास रहने को कोई ठिकाना नहीं. सरकार द्वारा बीपीएल, राशन कार्ड सहित कोई सुविधा नहीं. पानी भी खरीदना पड़ता है. घर है तो उसका पट्टा, गांव के एक दबंग भैरों सिंह के पास है.’ स्वादी देवी के चार बेटे हैं. दो बेटों की शादी हो चुकी है. घर में एक ही मिट्टी का कमरा है जिसमें इतनी जगह नहीं है कि हाल ही में मां बनी बहू को सोने की जगह मिल सके. दोनों बहुएं खुले में सोती हैं. पूरा परिवार खुले में शौच निपटान के लिए जाते हैं. आर्थिक उपार्जन के नाम पर परिवार के पास कुछ बकरियां और कुछ मुर्गियां बची हैं. पिछले महीने ओला गिरने से छह बकरियां मर गईं.

स्वादी देवी का बड़ा बेटा उगमनाथ कालबेलिया कुछ महीने पहले जोधपुर से बहुत बीमार हालत में घर लौटा है. 23 वर्षीय उगमनाथ जोधपुर में एक फार्म हाउस में बंधुआ मजदूर के बतौर काम करता था. उगम छठी जमात पास है और अपने गांव के कालबेलिया समाज का वह सबसे ज्यादा पढ़ा-लिखा लड़का है. उगमनाथ समेत राज्य की कई लाख आबादीवाले कालबेलिया समाज के बारे में घुमंतू, अर्द्घ-घुमंतू एवं विमुक्त जाति परिषद के प्रदेश अध्यक्ष रत्ननाथ कालबेलिया चिंता भरे स्वर में कहते हैं- ‘इस समाज का पारंपरिक पेशा सांप पकड़ना, बीन बजाना, मनोरंजन करना, हाथ चक्की चलाना आदि खत्म सा हो चला है. इनके पास भीख मांगने और बीन बजाने जैसे काम ही बचे हैं. भीख मांगने के पेशे को न अपनाना पड़े इसलिए उगमनाथ बंधुआ मजदूरी करने जोधपुर चला गया था लेकिन तीन साल के दौरान ही उसका स्वास्थ्य पूरी तरह चौपट हो गया. अब मुश्किल से उसकी जान बच पाई है.’

गांव भीतर गांव

ज्ञानगढ़ में सार्वजनिक पानी पर दबंग जातियों के लोगों का अधिकार है. यहां एक सरकारी हैंडपंप था, जो कई साल से रूठा हुआ है और उसकी सुध लेने भी कोई नहीं आता. कालबेलिया समाज के लिए पीने का पानी तो छोड़िए नहाने और धोने तक के लिए भी पानी नहीं है. हर घर में पानी की एक हौज है, जिसे भरवाने का खर्च 300 रुपये आता है. 10 लोगों का पूरा परिवार इस हौज के पानी से महीने-डेढ़ महीने गुजारा करता है. हमने हौज का ढक्कन हटाकर नंगी आंखों से देखा तो वहां  छोटे-छोटे जलचर अपनी दुनिया बसा चुके नजर आए. कमोबेश यही स्थिति भीलवाड़ा जिले के एक दूसरे गांव उप-ग्राम ‘नायकों का खेड़ा’ में भी देखने को मिली. ‘नायकों का खेड़ा’ अपने मूल गांव गोरखिया से थोड़ी दूरी पर बसा हुआ है. गोरखिया गांव, भीलवाड़ा जिले के करेड़ा तहसील में पड़ता है.  एक ही गांव के भीतर दो गांव इसलिए बसे क्योंकि बड़ी और समृद्घ जाट और गुर्जर आबादी को एक साथ गुजर करना कभी भी मंजूर नहीं रहा. मेघवंशी जी की मानें तो कालबेलिया समुदाय का शोषण करने में बड़ी और अगड़ी जातियां तो आगे हैं ही लेकिन अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) में शामिल जातियां भी इनके शोषण के मामले में किसी से पीछे नहीं हैं.

‘नायकों का खेड़ा’ गांव में कालबेलियों के 10 परिवार रहते हैं जबकि मूल गांव गोरखिया की आबादी कुछ हजार से भी ज्यादा की है. ‘नायकों का खेड़ा’ गांव तक पहुंचने के लिए एक कच्चा और संकरा रास्ता है. रास्ते के दोनों ओर बबूल और थोर के कांटों की झाड़ें लगी हुई हैं. रास्ते इतने तंग हैं कि आप बच-बचाकर ही गांव में पहुंच सकते हैं. जरा सी चूक हुई नहीं कि आपका पांव बुरी तरह से छलनी हो जा सकता है. मुख्य सड़क से लगभग तीन किलोमीटर दूर स्थित इस गांव में पहुंचने पर पहला घर श्रवणनाथ कालबेलिया का है. एक छोटे से प्लॉट पर  श्रवणनाथ के दो भाइयों का परिवार शांति और सुकून से कई वर्ष से रह रहा था. श्रवणनाथ की मौत तीन महीने पहले हो गई तो उन्हें दफनाने की मुसीबत पेश आई. गांव की दबंग जातियों के लोगों ने उनके शव को दफनाने की छूट सरकारी जमीन तक पर नहीं दी. अंततः उन्हें रात के निपट अंधेरे में चुपके से घर से कोई 50 कदम दूर सरकारी जमीन में दफनाया गया. दूसरे दिन जब मूल गांव गोरखिया के जाट और गुर्जर आबादी को इसकी खबर लगी तो वे इसकी शिकायत करने थाना पहुंच गए. उन्होंने पत्थरों से बनी श्रवणनाथ की समाधि को हटाने के लिए हरसंभव दबाव बनाने की कोशिश की. थानेदार ने गांववालों से जब इस बारे में पूछा कि ऐसा क्यों किया और अब लाश को जमीन से निकालना पड़ेगा, इसके जबाव में श्रवणनाथ के गांव के लोगों ने कहा कि हमारे पास अपने मृतकों को दफनाने की जगह नहीं है तो हम क्या करें? कालबेलिया समाज के लोग जब इस मुद्दे पर गोलबंद होते दिखे तो पुलिस ने मामला गंभीर होता देख गोरखिया के लोगों को किसी तरह शांत किया. श्रवणनाथ और उनके भाई के घरों के चूल्हे और दरवाजे पर लगे तालों को देखकर हमें यह साफ-साफ समझ में आया कि इस घर में पिछले कुछ सप्ताह से कोई आया-गया नहीं है. पड़ाेस के दो-तीन घरों में हमें छोटी उम्र के कुछ बच्चे मिले जो इस बारे में कुछ भी बता पाने में असमर्थ दिखे. हम गांव के दूसरे सिरे से निकलने लगे तब कालबेलिया समुदाय की तीन औरतें खेतों में काम करती दिखीं और जब उनसे इस बारे में पूछताछ की तो उन्होंने दोनों हाथ हवा में उठाए और इनकार में सिर हिलाया. कई बार पूछने और उकसाने पर भी उनके मुंह पर श्रवणनाथ के घर पर लटके तालों की तरह ही कोई हरकत नहीं हुई. दोनों परिवार के लोगों के घर में मौजूद नहीं होने के बारे में लौटने की वजह दबंग जातियों का खौप था या रोजी-रोटी के जुगाड़ में यहां-वहां दर-ब-दर होने की बेबसी, इसका अनुमान भर ही लगाया जा सकता था.

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हमें ज्ञानगढ़ के उगमनाथ ने भीलवाड़ा जिले की रूपाहेली ग्राम पंचायत के पोंडरास गांव की किस्सा सुनाया जिसकी पुष्टि प्रसिद्घ सामाजिक कार्यकर्ता अरुणा रॉय और रतननाथ ने भी का. पोंडरास में घुमंतू कालबेलिया समुदाय के करीब 30 परिवार रहते हैं. इनके पास रिहाइश और खेती के लिए थोड़ी बहुत जमीनें हैं लेकिन मुर्दों को दफनाने के लिए जमीन नहीं है. नतीजन इन्हें अपने मृत परिजनों के शरीरों को घरों में या खेतों की मेड़ाें पर दफनाना पड़ रहा है. इस इलाके के निवासी नारायणनाथ ने बताया कि बीते साल के दिसंबर महीने में गीता बाई कालबेलिया की मृत्यु हो गई थी.

गांव के लोग जब गीता के शव को अन्य समुदायों की शमशान भूमि के पास खाली पड़ी जमीन पर दफनाने के लिए ले जाने लगे तो गांव के ही लोहार समुदाय के लोगों ने आपत्ति जताई और वहां शव को दफनाने नहीं दिया. इसी गांव में कालबेलिया परिवार के एक सदस्य की मौत बीते साल नवंबर में हो गई थी और उसका मृत शरीर दो दिन तक घर में पड़ा रहा था. इस गांव  में 2013 की जनवरी की एक रात को 62 वर्षीय नाथूनाथ कालबेलिया की मृत्यु हो गई. इस बार समुदाय के लोगों ने मांग की कि उन्हें शमशान के लिए भूमि दी जाए. वे शमशान भूमि की मांग को लेकर मृतक के घर के बाहर ही बैठ गए और कहा कि वे लाश का अंतिम संस्कार तब ही करेंगे जब उनके समुदाय के लिए जमीन आवंटित की जाएगी. कालबेलिया अधिकार मंच, राजस्थान के प्रदेश संयोजक रतननाथ ने इस घटना के बारे में बताया, ‘हमने स्थानीय विधायक रामलाल जाट से संपर्क किया लेकिन उन्होंने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई.

फिर हमने भीलवाड़ा के कलेक्टर को फोन किया और  कहा कि हम शव कहां दफन करें? कलेक्टर महोदय ने कहा कि हम क्या करें, जहां मर्जी हो कर लो. इसके बाद मैंने अरुणा रॉय से संपर्क किया. अरुणा जी ने मुख्यमंत्री कार्यालय (सीएमओ) में संपर्क किया. सीएमओ से कलेक्टर को फोन आया तब पटवारी गांव पहुंचा और किसी तरह इस इलाके में एक नदी बहती है उसके किनारे उस व्यक्ति को दफनाया जा सका.’ दो दिन बीत जाने के बाद प्रशासन की ओर से पटवारी राजेश पारीक व वार्ड पंच राजू जाट (वार्ड पंच एवं सरपंच पति) मृतक के घर पहुंचा था. उन्होंने मामले की गंभीरता को देखते हुए अन्य समुदायों की शमशान भूमि के पास ही खाली पड़ी जमीन को कालबेलिया समुदाय के लिए शमशान आवंटित करने का आश्वासन देते हुए मृतक का अंतिम संस्कार वहीं पर करने को कहा लेकिन कालबेलिया समुदाय के लोगों ने उस जमीन को बस्ती से बहुत दूर होने की बात कहते हुए वहां दफनाने से इंकार कर दिया. कालबेलिया की मान्यता यह भी है कि वे अपने मृतकों का शव गांव से बहुत दूर भी दफनाना नहीं चाहते हैं.

कालबेलिया को लेकर राज्य सरकार और जिला प्रशासन के असंवेदनशील रुख के बारे में अरुणा रॉय ने बताया, ‘कालबेलिया समुदाय के लोगों के पास बीपीएल और राशन कार्ड भी नहीं हैं. इनके बच्चों के लिए स्कूल नहीं है. यह सही है कि कालबेलिया घुमंतू जनजाति हैं. रोजीरोटी के लिए इन्हें दर-ब-दर होना पड़ता है लेकिन राज्य सरकार को इनके शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजी-रोटी आदि के लिए गंभीरता से पहल करनी चाहिए.’

टाइटेनिक की राह पर समाचार चैनल

देश में धड़ाधड़ समाचार चैनल बंद हो रहे हैं, हजारों की संख्या में टेलीविजन प्रोफेशनल बेरोजगार हैं. वॉयस ऑफ इंडिया नाम के टाइटेनिक के डूबने से शुरू हुआ यह सिलसिला बदस्तूर कायम है। सीएनईबी, पी 7, भास्कर न्यूज ,जिया न्यूज और फॉर रियल न्यूज जैसे न जाने कितने नाम हैं जो इस परंपरा को आगे बढ़ा रहे हैं. कई बार मीडिया के साथियों से बातचीत में इस त्रासदी में सरकारी दखल की जरूरत की बात सामने आती है. बात ठीक भी लगती है कि इतने जिम्मेदार व्यवसाय की इतनी दुर्गति और पत्रकारों की जीविका पर बार बार आने वाले इस संकट के लिए सरकार को कुछ करना चाहिए. लेकिन सरकारी मीडिया यानी सरकार की फंडिंग से चलने वाले स्वायत्त मीडिया की हालत देखकर बदलाव की उम्मीदें धराशाई हो जाती हैं. दूरदर्शन को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस प्रकार की बातें की थी उससे लगता था कि काॅरपोरेट मिल्कियत वाले मीडिया में ना सही सरकारी मीडिया के तो हालात सुधरेंगे. विचार और कलम की क्रांति भले ही दम तोड़ दे लेकिन रोजगार का जरिया तो बना रहेगा. लेकिन कुछ सलाहकारों (वैचारिक) की नियुक्तियों के अलावा दस महीने में ऐसा कोई काम नहीं हुआ जिससे उम्मीद कायम रहे. यहां तक कि दूरदर्शन के लिए पूर्णकालिक महानिदेशक खोजना और किसान चैनल की शुरुआत भी सरकार के लिए पहाड़ चढ़ने जैसा मुश्किल काम नजर आ रही है. खैर महानिदेशक खोजेगा भी कौन, इस महकमे के लिए तो मंत्री जी के पास ही फुलटाइम नहीं है,  फायनेंस बड़ा मामला है और उसके सामने सूचना प्रसारण को कौन तरजीह दे?

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माना जा सकता है कि सबसे वरिष्ठ और सबसे काबिल मंत्री जी ने दूरदर्शन को पुराना मर्ज मानकर नौकरशाहों के हवाले छोड़ रखा है. लेकिन लोकसभा और राज्यसभा टीवी जैसे नए प्रयोगों का हाल तो इससे भी बुरा नजर आता है. हाल ही में तहलका के वेब एडिशन पर प्रकाशित एक खबर के मुताबिक राज्यसभा चैनल पर 2011 से हुई शुरुआत के बाद से अब तक सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए जा चुके हैं. पांच साल के अनुभव वाले गुरदीप सप्पल का कांग्रेसी नेताओं के आशीर्वाद से सीईओ बनना और लाखों रुपये की तनख्वाह उठाना. मनमर्जी से से लोगों की नियुक्तियां और अनापशनाप खर्चे इस चैनल की प्रसिद्धि के सबसे बड़ा कारण रहे हैं. इस सरकारी मीडिया पर सवाल उठाना भी आसान नहीं है. देश की व्यवस्था देश की संसद के प्रति जवाबदेह होती है लेकिन उच्च सदन के सभापति से जवाब की तो बात ही छोड़ दीजिए सवाल पूछना भी मुमकिन नहीं है. समय लगातार सरकार के हाथ से फिसल रहा है लेकिन कुछ बदल नहीं रहा है. उच्च सदन की कार्यवाही दिखाना इस चैनल का प्राथमिक उद्देश्य है, लेकिन इसमें बाकायदा न्यूज बुलेटिन और न्यूज बेस्ड डिस्कशन कार्यक्रम भी होते हैं. समाचार के लिए डीडी न्यूज जैसे एक बड़े सरकारी मीडिया के होते हुए इस कंटेंट का कोई तुक नहीं समझ नहीं आता. लोकसभा टीवी के सीईओ और सलाहकारों की नियुक्ति की कहानियां तो पहले से ही सार्वजनिक हैं.

दूरदर्शन के करीब चालीस चैनल हैं, राज्यसभा, लोकसभा और आकाशवाणी को मिलाकर करीब पचास हजार लोग इस सरकारी मीडिया में काम करते हैं. योजना आयोग को नीति आयोग में बदलकर व्यवस्था परिवर्तन का दम भरने वाली सरकार क्या इन सभी संस्थाओं में नियुक्तियों के लिए कोई नई प्रक्रिया नहीं ला सकती. क्या यह सड़ा गला सिस्टम दुरुस्त नहीं हो सकता? क्या इस सरकारी मीडिया की सार्वजनिक जवाबदेही तय नहीं की जा सकती? क्या राजनेता, दलालों और नौकरशाहों के गठजोड़ से पत्रकार इन संस्थानों को बचा नहीं सकते?

नया सफरः शुरू के दिन

लगभग ग्यारह महीने हुए, राज्यसभा का सदस्य बने. लगातार मन में यह सवाल उठता रहा है कि यह अनुभव कैसा है? हालांकि यह शुरूआत के ही दिन हैं. दिसंबर, 2014 के अंत तक दिल्ली में घर नहीं मिला या छोटा आफिस नहीं बना सका था. बिना आफिस बने एक सार्थक भूूमिका (बतौर एम.पी) संभव नहीं. प्रक्रिया ही ऐसी है. अप्रैल 10, 2014 से राज्यसभा सदस्य के तौर पर कार्यकाल की शुरूआत हुई. जून में शपथ ली. एक महीने का बजट सत्र था. उसमें शरीक रहा. फिर शीतकालीन सत्र में. इस सत्र में थोड़ा अनुपस्थित रहना पड़ा. राजनीतिक काम, अस्वस्थता व झारखंड चुनाव के कारण. कुछेक पार्लियामेंट्री कमेटी की बैठकों में शरीक हुआ. इस पद पर जाने का प्रस्ताव अचानक आया. वह रात अब भी जेहन या स्मृति में हैं. तब पिछले कुछेक महीनों से रात दस से साढ़े दस के बीच खाना खाकर सोने का क्रम चल रहा था. पर उस दिन किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर एक टीवी आयोजन की परिचर्चा में भाग लेना था. टीवी चैनल के लोग अपना ओवी वैन लेकर घर आये थे. इस डिबेट के कारण सोने में सोने में देर हुई. लगभग ग्यारह बजे रात में फोन आया कि आपको राज्यसभा जाना है. अगले दिन शाम में इसकी घोषणा हुई. पहली प्रतिक्रिया एक किस्म की आनंद की, खुशी की थी. क्योंकि इस व्यवस्था में राज्यसभा, लोकसभा जाना एक बड़ी उपलब्धि मानी जाती है. इसके पहले 1991 में जब चंद्रशेखर जी प्रधानमंत्री थे, तब उन्होंने प्रधानमंत्री कार्यालय में, प्रधानमंत्री के अतिरिक्त सूचना सलाहकार, संयुक्त सचिव भारत सरकार के रूप में, इसी तरह अचानक बुलाया. जब तक वह सरकार में रहे, रहा. जिस दिन उन्होंने इस्तीफा दिया, उसी दिन प्रधानमंत्री कार्यालय के रिसेप्शन पर इस्तीफा, गाड़ी, घर की चाबी, सबको छोड़ कर रांची लौट आया था.

उस वक्त भी पहली बार खबर पाकर एक उल्लास हुआ था कि व्यवस्था की अंदरूनी दुनिया देखने का अवसर मिलेगा. तब युवा था. उत्सुकता थी कि देखूं कि सरकार चलती कैसे है? सही भूमिका की कितनी गुंजाइश है? इससे अधिक न तब कोई कामना थी, न अब कोई कामना है. यह व्यवस्था अंदर से कैसे चलती है? इसके महत्व क्या हैं? इसी क्रम में राज्यसभा जाने का यह अवसर आया. याद आया कि प्रभात खबर में आना एक बदलाव का प्रतीक था, निजी जीवन में. कोलकाता में आनंद बाजार पत्रिका (रविवार) और मुंबई, टाइम्स आफ इंडिया समूह के धर्मयुग में काम करने के बाद. यानी दो सबसे बड़े अखबार घरानों के दो सबसे महत्वपूर्ण हिंदी प्रकाशनों में काम करने के बाद एक बंद प्रायः अखबार प्रभात खबर में आना. उसको खड़ा करनेवाली टीम के सदस्य के रूप में होना. पिछले 25 वर्षों तक इससे जुड़े रहने के बाद एक ठहराव का एहसास होना. उस दौर या मनःस्थिति में राज्यसभा जाने का यह प्रस्ताव, निजी जीवन में एक बदलाव का प्रतीक लगा. यह बदलाव कैसा रहेगा? पिछले कुछेक महीनों से यह सवाल मन में उठता रहा है? अंर्तद्वंद के रूप में यह सवाल उठता रहा कि क्यों इस पद के लिए लोग 100-200 करोड़ रुपये खर्च करते हैं?

राज्यसभा में किस प्रभाव के लोग पहुंचते हैं, इसकी चर्चा पढ़ी थी. आज केंद्र में जो रक्षा राज्यमंत्री हैं, वीरेंद्र सिंह. वह हरियाणा की राजनीति में असरदार व्यक्ति रहे हैं. लंबे समय तक कांग्रेस में रहे. कद्दावर व्यक्ति. कांग्रेस छोड़ने से पहले उनका बयान आया कि सौ करोड़ में हमारे यहां से लोग राज्यसभा जा रहे हैं. कुछ ही महीनों पहले एच.डी.कुमार स्वामी, जो कर्नाटक में मुख्यमंत्री रहे, उनका एक टेपरिकार्डेड बयान, देश के सारे अखबारों की सुर्खियों में रहा. उन्होंने अपने यहां एमएलसी के एक व्यक्ति को टिकट देने के लिए पांच करोड़ रुपये की मांग की. जब यह खबर सार्वजनिक हुई, तब उन्होंने कहा कि हां, पार्टी के लिए हमलोगों ने चंदा मांगा.

यह पद पा लेने के बाद अनुभव करता हूं कि एक नया सांसद, अगर वह समृद्ध पृष्ठभूमि से नहीं आता, अगर उसके पास अपना कोई व्यवसाय नहीं, बड़ी पूंजी की आमद नहीं है, उसके घर से कोई सपोर्ट नहीं है, तो वह दिल्ली में मंहगी गाडि़यां कैसे रख सकता है और उसका रखरखाव कर सकता है? यही नहीं अपने क्षेत्र में मंहगी गाडि़यां रखने के साथ-साथ, अन्य चार-पांच न्यूनतम गाडि़यां लेकर वह कैसे चलता है? मैं एक नये सांसद की बात कर रहा हूं. पिछले 10-11 महीनों से मेरे मन में एक सवाल बार-बार उठ रहा है कि अगर मैं प्रभात खबर से जुड़ा नहीं होता, तो एक सांसद के रूप में जो चीजें मुझे उपलब्ध हैं, उसकी बदौलत एक गाड़ी से अधिक मेनेटेन करना असंभव है. गाडि़यों का काफिला लेकर चलने की बात दूर छोड़ दें. इस पृष्ठभूमि में मैं कई राजनेताओं को देखता हूूं. वे एक-दो टर्म ही विधायक या सांसद रहे, पर खुद मंहगी गाडि़यों पर चढ़ते ही हैं, उनके आगे-पीछे कई गाडि़यां चलती हैं. सांसद हैं, तो दिल्ली में गाड़ी रखते हैं. जिस राज्य से सांसद हैं, उस राज्य की राजधानी में रखते हैं. फिर अपने क्षेत्र में रखते हैं. यह कैसे संभव है? स्पष्ट नहीं होता. सांसद बना. फिर लोकसभा चुनाव आ गये. इसमें व्यस्त रहने के कारण तत्काल शपथ नहीं ली. बाकी लोगों में शपथ लेने की जल्दी थी, ताकि सांसद के रूप में मिलनेवाली सुविधाएं शुरू हो जायें. विलंब से, जब पहले दिन संसद पहुंचा, तो एक अजीब अनुभव हुआ. वह स्मृति में है. सांसदों को सेक्रेट्रियट काम के लिए भत्ता रूप में लगभग 30 हजार रुपये मिलते हैं. यह तब मिलता है, जब आप अपने सहायक के नाम दे दें. चूंकि सांसद के रूप में मैं दिल्ली गया था, मेरा कोई ठौर-ठिकाना नहीं था. मेरा कोई सहायक नहीं था, इसलिए मैं किसी का नाम नहीं दिया. मुझे पता चला कि नहीं यहां अपने घर के परिचित लोगों के, सगे-संबंधियों के नाम दें दे, ताकि यह भत्ता प्रतिमाह मिलने लगे. मैंने मना कर दिया. मैंने कहा कि जब तब ऐसे लोग मेरे साथ कामकाज के तौर पर नहीं जुड़ जाते, दिल्ली में घर नहीं मिल जाता, मैं ऐसे लोगों को रख नहीं लेता, तब तक मैं कुछ नहीं लूंगा. मुझे पता चला कि आमतौर से कुछ लोग ऐसे ही लेते हैं. तब मुझे याद आया, लगभग वर्ष भर पहले इंडियन एक्सप्रेस में छपी खबर कि कैसे लगभग एक वर्ष पहले तक कुछेक सांसद अपने बेटे, बेटी या सगे-संबंधियों के नाम अपने सहायक के रूप में दे देते थे.

एक सामान्य व्यक्ति की तरह एक सांसद क्यों नहीं रह सकता? यह सवाल भी मेरे मन में उसी दिन शुरू हुआ, जिस दिन मुझे यह सूचना मिली कि मैं राज्यसभा जानेवाला हूं. इसलिए जब पटना में नामांकन दाखिल करने गया, तो अकेले गया. एक सांसद मित्र ने मजाक में ही कहा कि लेफ्टिस्ट (वामपंथी) की तरह सोचिए, बात करिए, सिद्धांत रखिए. पर जीवन राइटिस्ट (दक्षिणपंथी) की तरह जीयें. यानी एक सांसद के तौर पर आपको जो सरकारी या व्यवस्थागत सुख-सुविधाएं मिलती हैं, उनका पूरी तरह उपयोग करें. और बात सामान्य लोगों की करें. मुझे लगा कि एक सांसद को जहाज में एक्जिक्यूटिव क्लास में यात्रा करने की अनुमति है. पर अगर सामान्य स्थिति में सामान्य श्रेणी में यात्रा कर सकता हूं, अब तक करता रहा हूं, तो क्यों करूं, बिजनेस क्लास में? यह देश का पैसा है, टैक्स देनेवालों का पैसा है. इसलिए तब से आज तक सिर्फ एक -दो बार, खास परिस्थितियों के कारण एक्जिक्यूटिव क्लास में हवाई यात्रा किया. शेष लगभग 99 फीसदी यात्रा सामान्य क्लास में. सबसे सस्ता विमान टिकट लेकर यात्रा करने की कोशिश की.

Paliament

एयरपोर्ट पर आगे बढ़कर अपने सांसद होने का या खास होने का परिचय नहीं बताना. आमतौर से स्थिति यह रहती है कि सांसदों के पास जो दो चार लोग रहते हैं, वे उनके पहुंचते ही वीवीआइपी रूम खुलवाते हैं, उनके अलग से बैठने की व्यवस्था करते हैं. उनकी विशिष्टता के बारे में आसपास के लोगों को बताते हैं. वहां के अधिकारियों को एहसास कराते हैं. इस तरह से लोगों से अपने बारे में कहना वल्गर लगता है. गांधी, लोहिया, जेपी की परंपरा में कहूं, तो अश्लीलता जैसी. इसलिए अब तक इससे बचता रहा. कुछ खास होने का एहसास कराना, यह राजनीति में दिखाई देती है. उससे बचना. एयरपोर्ट पर भी आम लोगों के बीच बैठना, उसी तरह चेकिंग कराना, साथ खड़े लोगों को यह एहसास तक नहीं होने देना कि हम समाज के आम लोगों से अलग हैं. लगभग आठ महीने बाद आवास आबंटित हुआ. उसमें थोड़ा बहुत काम हुआ. आबंटन के समय मैंने कहा था कि जो मामूली काम है, उसे आप करा दें, ताकि रहने लायक हो जाये. मेरी कोई खास पसंद नहीं है. स्पष्ट कर दूं, ऐसा जीने-करनेवालों में मैं अकेले नहीं हूं. अनेक सांसद-विधायक हैं. खासतौर से साम्यवादी-समाजवादी पृष्ठभूमि के. पहले के चाहे कांग्रेसी हों या जनसंघी या अन्य, अधिसंख्य गांधीवादी जीवन शैली में रहते-जीते थे.

एक एयरपोर्ट पर, एक दिन मैंने बहुत रोचक दृश्य देखा. केंद्र सरकार (यूपीए) के मंत्री रहे एक व्यक्ति को मैंने देखा. पहले जेपी भक्त थे. जनता पार्टी में थे. बाद में कांग्रेसी हो गये. वह जहाज से उतर कर टर्मिनल तक बस से नहीं गये. सबके साथ वे जहाज से उतरे. एक दूसरे मंत्री (एनडीए) भी उतरे, वह अपना सूटकेश लेकर जा रहे थे. लेकिन पूर्वमंत्री तब तक वहां खड़े रहे, जब तक वीआइपी गाड़ी उन्हें लेने नहीं आ गयी. दिल्ली एयरपोर्ट पर भी ऐसा एक और दृश्य देखा. एक सज्जन, जो आज के छह साल पहले केंद्र में मंत्री रहे थे, यूपीए- एक में. जिस एयरलाइंस से हम सब आ रहे थे, एयरपोर्ट से प्लेन पकड़ने के लिए वह कॉमन बस से नहीं आये. उनके लिए अलग वीआइपी गाड़ी की व्यवस्था की गयी. ऐसे अनेक दृश्य रोज दिखते हैं.

दरअसल, गुजरे महीनों में यह सारा जो जद्दोजहद रहा, वह इस मानस के कारण कि सांसद बनकर सामान्य नागरिक की तरह क्यों नहीं रहा जा सकता? देखता हूं कि भाजपा के बड़े नेता दीनदयालजी की बातें करते हैं. उन्हें योजनाओं के द्वारा अमर बनाने की कोशिश करते हैं. हम सब तो लोहिया, जेपी की बात करते रहे हैं. पर आज सार्वजनिक जीवन में सादगी के प्रति आदर है? आप राजनीति में मामूली विधायक या जिला परिषद के सदस्य या मुखिया हैं, तो आप खास हैं, यह एहसास सामनेवाले को कराना जरूरी हो गया है. यह है, नये दौर की राजनीति. अगर राजनीति को सचमुच बदलना है, तो सोचने का तरीका बदलना होगा. यह याद दिलाना होगा कि यह देश कामराज का है, लालबहादुर शास्त्री जैसे नेताओं का है, यह लोहिया जैसे नेताओं का है, जो दो जोड़ी कुरता-धोती लेकर रेल में यात्रा करते रहे. ऐसे लोगों की बड़ी जमात है. रामसुभग सिंह, रामसेवक यादव,भोला पासवान शास्त्री, कर्पूरी ठाकुर, रामानंद तिवारी जैसे लोग आज स्मृति में हैं? समाज की प्रेरणा के स्रोत हैं.

राज्यसभा में आने के बाद अनेक लोगों ने संपर्क करना शुरू किया कि मेरे बच्चे का नामांकन करा दें. आमतौर से मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि सिस्टम ऐसा हो कि बच्चा जन्म ले या बच्ची जन्म ले, तो आसपास स्थित स्कूलों में स्वतः उसका दाखिला हो जाये. चीन में यह व्यवस्था है. जिस मुहल्ले में आप रहते हैं, उस मुहल्ले के स्कूल में ही आपके बच्चे पढ़ सकते हैं. साम्यवादी देश चीन में ही सिर्फ यह व्यवस्था नहीं है. ऐसी ही व्यवस्था पूंजीवादी देश, अमेरिका में भी है. पर गांधी के देश में एकसमान शिक्षा की व्यवस्था महज सपना रह गया. बहरहाल, मुझे पता चला कि सांसद के पास यह कोटा है कि एक सांसद होने के नाते वह छह बच्चों के नामांकन के लिए सेंट्रल स्कूल में अनुमोदन कर सकता है. इसके तहत सबसे पहले मुख्यमंत्री के निवास पर एक चपरासी मिला था. तब सांसद बना भी नहीं था, पेपर भरने जा रहा था कि उसने अपने दो बच्चों के नाम एडमिशन के लिए दिये. तब तक मुझे अपने कोटे की उपलब्धता के बारे में जानकारी नहीं थी. मुझे लगा कि उसने कहा कि जब आप सांसद हो जायेंगे, तो सांसद होने के प्रभाव के तहत यह दाखिला करायेंगे. पर बाद में पता चला कि नहीं एक सांसद को सेंट्रल स्कूल में नामंकन कराने के लिए कोटा है. सही रूप में आप पूछें तो किसी भी तरह के सांसदों के ऐसे कोटे या विशेषाधिकारों के खिलाफ हूं. एक सांसद को प्राथमिकता के आधार पर किसी को टेलीफोन या गैस देने-दिलाने की बात पहले हुआ करती थी. बजाज स्कूटर या और भी कई चीजों के आबंटन के विशेषाधिकार होते थे. निजी दृष्टि में ये चीजें गलत हैं. पेट्रोल पंप, गैस एजेंसी, क्यों सांसद-मंत्री बांटे? हमारे समाज में स्पष्ट नीति होनी चाहिए, ताकि गैस हो, टेलीफोन हो, गाड़ी या स्कूटर हो … ये सब चीजें उस नीति के तहत लोगों तक पहुंचे. नीतियां बनाने का काम जरूर राजनीति के हाथ है. पर अपने हाथ में विशेषाधिकार रखना, तो एक गैर बराबरी वाले समाज को जन्म देना है. पर भारत के शासक या राजनेता, चाहे वह किसी पंथ या विचारधारा के रहे हों, पिछले साठ वर्षों में, अपने अधिकार कम करने की ओर कम उन्मुख हुए. गांधी के सपनों के तहत. अभी यह यात्रा पूरी होनी बाकी है. यह सही है कि अब टेलीफोन या गैस देने का वह विशेषाधिकार नहीं रहा, क्योंकि बाजार में यह प्रचुरता से उपलब्ध होने लगा है. अब ऐसी चीजें आप देने भी जायें, तो कोई लेनेवाला नहीं मिलेगा? इसलिए जो चीजें हम सबको दे सकते हैं, उनके लिए नियम या नीति बनाकर हमें चलना चाहिए. सांसद होने की वजह से या ताकतवर राजनीतिज्ञ होने की वहज से कोई किसी मनपसंद या खास का भला करे, व्यवस्था ऐसी नहीं होनी चाहिए. फिर भी जब यह अधिकार था, तो इस अधिकार के तहत उस चपरासी के एक बेटे को एडमिशन के लिए रिकमेंड किया. मेरे गांव के एक अध्यापक हुआ करते थे. वह थे, तो किसी और जगह के. बाद में उनकी हत्या हो गयी थी, उनके बेटे के बेटे यानी पौत्र को, जो कक्षा चार में होगा, पढ़ने में अच्छा था, लेकिन गांव में पढ़ रहा था, उसे चुना. गुरुऋण. तीसरा एक मेरे परिचित व्यक्ति के ड्राइवर के बेटे को, जिसे बड़ी इच्छा थी कि वह कहीं अच्छा स्कूल में पढ़े, उसका दाखिला कराया. हालांकि उस ड्राइवर से मेरा निजी परिचय या मिलन नहीं हुआ है. एक पार्टी कार्यकर्ता, जो पार्टी में बहुत दिनों से काम कर रहे हैं, उन्होंने एप्रोच किया. सीतामढ़ी के एक गांव के एक किसान परिवार के बच्चे को करवाया. इस तरह ऐसे लोगों के बच्चों के बीच अपना एक-एक कोटा बांट दिया. इसके लिए संबंधित कार्यालयों को लिखा. लिखने के बाद भी मेरे मन में यह सवाल उठता रहा है कि क्या हम कोई ऐसी व्यवस्था बना सकते हैं, जहां पूरे देश में एक समान, एक स्तर के स्कूल हों. नीतीश कुमार ने बड़ी पहल की थी, जब वह पहली बार बिहार में, सत्ता में आये थे. समान शिक्षा की नीति. जहां तक मुझे ज्ञात है, पूर्व विदेश सचिव मुचकुंद दुबे इस समिति के अध्यक्ष थे. उन्होंने रिपोर्ट भी तैयार की थी. पर बाद में अनेक राजनीतिक कारणों में उलझने के बाद शायद रिपोर्ट पीछे छूट गयी. पर एक राज्य चाहे भी, तो यह बड़ा कदम नहीं उठा सकता है. यह कदम नयी राजनीति का एजेंडा होना चाहिए. साथ ही यह कदम पूरे देश में एकसाथ उठना चाहिए. ऐसे सारे बुनियादी सवालों से नयी राजनीति शुरू हो, तो शायद संभव है. पर उस नयी राजनीति का माहौल अभी दिखायी नहीं देता. आज की राजनीति सत्ता तक सीमित हो गयी है. राजनीति का मकसद सत्ता पाना है.

आईपीएल में सबसे कम उम्र का खिलाड़ी बना सरफराज

सरफराज खान
सरफराज खान
सरफराज खान

दुनिया के महान बल्लेबाजों में से एक मास्टर ब्‍लास्टर सचिन तेंडुलकर के ज‌न्मदिन के ठीक पहले क्रिकेट जगत में एक नए खिलाड़ी का पदार्पण नई उम्मीद जगाता है. यह उम्मीद सरफराज खान के रूप में उभरी है. मुंबई के इस किशोर क्रिकेटर ने सबसे कम उम्र में आईपीएल खेलने का कीर्तिमान हासिल कर लिया है.

इस साल फरवरी में आईपीएल मैचों के लिए हुई क्रिकेट खिलाड़ियों की नीलामी में रॉयल चैलेंजर्स बैंगलोर ने इस 17 वर्षीय खिलाड़ी को 50 लाख रुपये में खरीदा था.

सरफराज से पहले दिल्ली के प्रदीप सांगवान को सबसे कम उम्र के आईपीएल खिलाड़ी होने का खिताब प्राप्त था.  दिलचस्प बात यह है कि सांगवान ने भी महज 17 साल के ही उम्र में आईपीएल खेलना शुरू किया था, लेकिन सरफराज की उम्र उनसे दो दिन कम है. इसके अलावा दिल्ली के ही बल्लेबाज उन्मुक्त चंद ने 18 साल की उम्र में ही आईपीएल खेलकर सुर्खियां बटोरी थीं.

 परिवार और मोहल्लेवाले उत्साहित

कुर्ला के तकसीमन कॉलोनी में रहने वाला सरफराज का परिवार और उसके मोहल्लेवाले आईपीएल में उन्हें खेलते देख काफी उत्साहित हैं. आईपीएल में 22 मार्च को चेन्नई सुपरकिंग्स के खिलाफ जब इस खिलाड़ी ने अपनी पहली पारी खेली तो मोहल्ले के लोग खुशी से झूम उठे. इस पारी में सरफराज ने एक छक्के की मदद से 11 रनों की पारी सात गेंदों पर खेली. उनका स्ट्राइक रेट 157.14 था.

सरफराज के पिता और उनके कोच नौशाद खान के अनुसार, ‘मै क्या कह सकता हूं, आज सरफराज को धोनी और कोहली जैसे दुनिया के महान खिलाड़ियों के साथ क्रिकेट खेलते देख मुझे अपना सपना पूरा होने जैसा लग रहा है. सरफराज को एबी डिवीलियर्स जैसे बड़े खिलाड़ियों से क्रिकेट की बारीकियां सीखने का मौका मिल रहा है.’ उन्होंने बताया कि उनका क्रिकेटर बनने का सपना पूरा नहीं हो पाया लेकिन सरफराज को विश्वस्तरीय क्रिकेट खिलाड़ी बनाने में वह कोई कसर नहीं छोड़ेंगे.

बासमती से ज्यादा बीफ निर्यात करते हैं हम

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महाराष्ट्र में बीफ पर प्रतिबंध लगने के बाद इसे लेकर देशभर में हाय-तौबा मची हुई है. इस बीच खबर आई है कि भारत दुनियाभर में बीफ का सबसे बड़ा निर्यातक देश है. हाल ये है कि हमारा कृषि प्रधान देश बासमती से ज्यादा बीफ का निर्यात करता है. एक  रिपोर्ट में इस बात का खुलासा हुआ है.

यूनाइटेड स्टेट्स डिपार्टमेंट ऑफ एग्रीकल्चर (यूएसडीए) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक ब्राजील को पीछे छोड़ते हुए बीफ निर्यात के मामले में भारत तीन साल से लगातार नंबर वन बना हुआ है. रिपोर्ट के मुताबिक 2015 के अंत तक तीन फीसदी की बढ़ोतरी करते हुए भारत के बीफ निर्यात का आंकड़ा एक करोड़ दो लाख टन पार कर जाएगा. रूस समेत तेल आधारित अर्थव्यवस्‍था वाले दूसरे देशों की ओर से होने वाले निर्यात में गिरावट के कारण भारत के बीफ निर्यात में बढ़ोतरी दर्ज होगी. रिपोर्ट के अनुसार, यह बढ़ोतरी ब्राजील, उरुग्वे और अमेरिका से होने वाले बीफ निर्यात की दर में कमी से आएगी. रूस ने भारत की चार कंपनियों को निर्यात की मंजूरी दी है. इसके तहत पहली खेप भेजी भी जा चुकी है।

बीफ बैन पर अगले हफ्ते फैसला

बीफ बैन मामले की सुनवाई करते हुए बॉम्बे हाई कोर्ट ने अगले हफ्ते तक के लिए अपना फैसला सुरक्षित कर लिया है. महाराष्ट्र में गाय, बैल और भैंस के मांस के उपभोग पर प्रतिबंध लगाने के खिलाफ दर्जनों याचिकाएं हाई कोर्ट में दाखिल की गई हैं. बीते मार्च महीने की शुरुआत में महाराष्ट्र सरकार ने बीफ पर प्रतिबंध लागू कर दिया था जिसके बाद से सरकार को विरोध का सामना करना पड़ रहा है.