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महिलाएं और न्यायिक सुधार

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श्रेया सिंघल
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2008 में आईटी एक्ट के सेक्शन 66ए के तहत सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री पोस्ट करने पर सजा का प्रावधान लाया गया. लगातार कई मामलों में हुए इसके गलत इस्तेमाल के बाद दिल्ली यूनिवर्सिटी की लॉ स्टूडेंट श्रेया सिंघल ने इसे रद्द करने के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी, जिसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने उनकी दलील का समर्थन करते हुए 66ए को असंवैधानिक करार दिया.

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 सत्यारानी चड्ढा
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1979 में सत्यारानी की बेटी शशिबाला की रसोई में काम करते वक्त जलने से मृत्यु हो गई, उस वक्त वो गर्भवती थीं. सत्यारानी जानती थीं कि ये एक हादसा मात्र नहीं बल्कि दहेज हत्या का मामला है. उन्होंने 34 साल तक उस पुराने कानून, जिसमें दहेज को विवाह का निमित्त माना गया था, को बदलने के लिए कानूनी लड़ाई लड़ी और अपनी बेटी के हत्यारों को सजा दिलवाई.

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इरोम चानु शर्मिला
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मणिपुर की इस आयरन लेडी ने 2 नवंबर 2000 को आफ्स्पा के विरोध में तब एक अनिश्चितकालीन भूख हड़ताल शुरू की जब मैलम में हुए एक नरसंहार में दस मासूम नागरिकों को उस वक्त गोली मार दी गई, जब वे बस स्टॉप पर खड़े बस का इंतजार कर रहे थे.

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चारू खुराना
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चारू को सिने कास्ट्यूम मेकअप आर्टिस्ट एंड हेयर ड्रेसर एसोसिएशन द्वारा लगभग साठ दशक पुराने एक नियम का हवाला देते हुए सदस्यता देने से मना कर दिया गया, जिसमें महिला मेकअप आर्टिस्ट को बैन किया गया था. चारू ने विरोध में याचिका दायर की और जज ने लिंग पर आधारित इस पक्षपात की निंदा करते हुए इस बैन को खत्म कर दिया.

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शाह बानो बेगम
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सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो को तब एलीमनी यानि भरण पोषण का अधिकार दिया जब 62 वर्ष की उम्र में उनके पति ने उन्हें तलाक दिया. मगर कट्टरपंथियों द्वारा एेतराज जताने पर इस निर्णय को निरस्त कर दिया गया और शाह बानो को केवल इद्दत (विधवा या तलाकशुदा स्त्री का दूसरे विवाह तक प्रतीक्षा का समय) की अवधि के लिए खर्चा मिला.

 

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निर्भया[/symple_box]

16 दिसंबर 2012 में हुए जघन्य निर्भया बलात्कार कांड के बाद क्रिमिनल लॉ बिल (संशोधित) पास किया गया, जिसके अनुसार महिलाओं की स्टॉकिंग यानी पीछा करने और छुप-छुपकर देखने को भी आपराधिक कृत्य माना जाएगा, साथ ही बलात्कार और एसिड अटैक (तेजाब से हमले) के लिए सजा भी बढ़ा दी गई. साथ ही जूवेनाइल जस्टिस एक्ट (किशोर न्याय अधिनियम) में भी संशोधन किए गए, जिनके अनुसार 16 से 18 आयुवर्ग के किशोर को किसी भी जघन्य अपराध में संलिप्त पाए जाने पर कानून की नजर में वयस्क की ही श्रेणी में रखा जाएगा.

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 भंवरी देवी
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1992 में नारी उत्थान प्रोजेक्ट से जुड़ीं भंवरी देवी को एक बाल-विवाह रोकने की सजा पांच सवर्णों द्वारा बलात्कार के रूप में मिली, हालांकि उन अपराधियों को सजा नहीं मिल पाई पर उनकी सतत न्यायिक लड़ाई ने कई याचिकाकर्ताओं और महिला संगठनों को साथ लाकर खड़ा कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप विशाखा गाइडलाइंस अस्तित्व में आई. विशाखा गाइडलाइंस कार्यस्थल पर हुए यौन शोषण के खिलाफ कानूनी सुरक्षा देती है.

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 लक्ष्मी
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मात्र 16 वर्ष की उम्र में एसिड अटैक का शिकार हुई लक्ष्मी ने 27,000 हस्ताक्षरों के साथ सुप्रीम कोर्ट में तेजाब की खरीद-फरोख्त पर याचिका दायर की. उच्चतम न्यायालय ने इसका समर्थन करते हुए तेजाब की खुदरा खरीद पर रोक लगा दी. साथ ही यह भी कहा कि अब से जो कोई तेजाब खरीदेगा उसे अपने किसी फोटो पहचान पत्र की कॉपी जमा करनी होगी. फिलहाल लक्ष्मी सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय को लागू करवाने के लिए एक नई लड़ाई लड़ रही हंै.

नरगिस को गूगल ने दी यादगार श्रद्घांजलि

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बॉलीवुड की शानदार अभिनेत्रियों में से एक रहीं नरगिस को गूगल ने एक यादगार श्रद्घांजलि दी है. 01 जून को उनके 86वें जन्मदिवस पर न‌रगिस को समर्पित गूगल-डूडल बनाया. 1935 में ‘तलाश-ए-हक’ फिल्म बतौर बाल कलाकार के रूप में बॉलीवुड में कदम रखने वाली नरगिस का असली नाम फातिमा राशिद था.

‘मदर इंडिया’ में अपने अभिनय को लेकर उन्हें फिल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार मिला था. विदेशी भाषा की फिल्म के तौर पर बॉलीवुड की ओर से ऑस्कर के लिए नामांकित यह पहली फिल्म थी. औपचारिक रूप से उन्होंने अभिनय की शुरुआत फिल्म ‘तमन्ना’ से की. 1940 से 1960 के बीच उन्होंने बॉलीवुड की कुछ सफल और चर्चित फिल्में ‘आवारा’, ‘श्री 420’ ‘बरसात’ की. राजकपूर के साथ उनकी जोड़ी काफी हिट थी.

1958 में मदर इंडिया के अपने को स्टार सुनील दत्त के साथ नरगिस ने घर बसाया था. उनके तीन बच्चे अभिनेता संजय दत्त, नम्रता दत्त और कांग्रेस नेता प्रिया दत्त हैं. वह पहली ऐसी अभिनेत्री थीं, जिन्हें 1958 में पद्मश्री से नवाजा गया. 51 साल की उम्र में पैनक्रियाटिक कैंसर की वजह से उनकी मौत हो गई.

गर्मी और लू से मौत का आंकड़ा 2200 के पार

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देश-भर में गर्मी और लू से जीना मुहाल हो गया है. अब तक 2200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. लोगों पर गर्मी का ये कहर आगे भी जारी रहने की उम्मीद है. सबसे ज्यादा मार आंध्र प्रदेश और नए राज्य तेलंगाना पर पड़ी है.

आंध्र प्रदेश की बात करें तो इसके विभिन्न जिलों में अब तक तकरीबन 1636 लोगों की मौत हो चुकी है. सबसे ज्यादा गुंटूर जिले में 233, पूर्वी गोदावरी में 192, विशाखापत्तनम में 185, विजयानगरम में 177, नेल्लोर में 163, कृष्णा में 78, चित्तूर में 64, श्रीकाकुलम में 60, अनंतपुर में 56, कडप्पा में 38, कुड़नुल में 34 और पश्चिम गोदावरी में 23 लोगों की मौत हुई है. वहीं तेलंगाना में 541 लोगों की मौत हो चुकी है. इसमें सबसे ज्यादा नालगोंडा जिले में 139, करीमनगर में 120, खम्मम में 95 और महबूब नगर में 42 लोगों की मौत हो चुकी है. ओडिशा में अब तक 21 लोगों की मौत हो चुकी है. इसके अलावा उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्‍थान में भी लोगों की मौत होने की सूचना है.

जानलेवा गर्मी के चार साल

आंकड़ों के आधार पर देखा जाए तो अब तक चार ऐसे वर्ष रहे जब गर्मी जानलेवा साबित हुई. गर्मी से सबसे अधिक मौत वर्ष 1998 में हुई. उस साल 2541 लोगों की मौत हुई थी. उसके बाद वर्ष 2015 की बारी आती है. इस वर्ष अब तक 2200 से ज्यादा लोगों की मौत हो चुकी है. इसके अलावा 2003 में 1210 और 2002 में 1030 लोगों की मौत हुई थी.

किसकी इच्छा से मृत्यु

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27 नवंबर 1973 की रात मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल (केईएम) अस्पताल में एक वार्ड ब्वॉय ने वहीं की नर्स अरुणा शानबाग को कुत्तों को बांधने वाली जंजीर से बांधकर अप्राकृतिक रूप से उसका बलात्कार किया. जंजीर से बांधने के कारण उनके दिमाग को ऑक्सीजन पहुंचनी बंद हुई और वह अचेत हो गईं. तड़के अस्पताल के स्टाफ को वो ऐसे ही बेजान हालत में मिलीं तब से अरुणा की सारी जिम्मेदारी उस अस्पताल की हो गई. िजंदगी के आखिरी दिनों तक वह ऐसे ही बनीं रहीं.

1978 से केईएम अस्पताल में बतौर नर्स काम कर रहीं लखबीर कौर ने ‘तहलका’ को बताया, ‘17 या 18 साल की उम्र से हमने यहां इंटर्नशिप शुरू की थी और अरुणा के साथ हुए इस नृशंस हादसे से बिल्कुल अनजान थे. इंटर्नशिप के बाद जब हम स्टाफर बने, तो उसी परंपरा को आगे बढ़ाया जो वर्षों से चली आ रही थी. अरुणा हममें से ही एक थीं, सीनियर थीं हमारी. हमने अपने बच्चे की तरह उनकी देखभाल की है.’

2009 में लेखिका और पत्रकार पिंकी विरानी ने एक रिट याचिका दाखिल की जिसमें 42 सालों से अचेत अरुणा के लिए एक शांतिपूर्ण मृत्यु की विनती की गई थी. इस तरह अरुणा अनजाने में ही देश मंे ‘यूथनेशिया’ यानी ‘इच्छा मृत्यु’ को वैध करने के लिए चल रही विवादित बहसों का चेहरा बन गईं. इच्छा मृत्यु से जुड़ी बहस देश में तब शुरू हुई, जब 1986 में एक कार एक्सीडेंट में सिजोफ्रेनिया और मानसिक रोगों का शिकार हुए एक पुलिस कांस्टेबल मारुति श्रीपति दुबल ने खुद को जलाकर मारने की कोशिश की.

इच्छा मृत्यु अप्रत्यक्ष रूप से समाज में मौजूद है. लाखों लोग उचित रख-रखाव, स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में धीरे-धीरे  इसकी तरफ ही बढ़ रहे हैं

आईपीसी की धारा 309 के तहत आत्महत्या या इसका प्रयास भी करना एक दंडनीय अपराध माना गया है. ऐसे में इच्छा मृत्यु, इस कानून का उल्लंघन करना होगा. इसलिए ऐसे व्यक्ति की इस काम में मदद करने वाला व्यक्ति भी धारा 306 के तहत आत्महत्या के लिए उकसाने के लिए दंड का अधिकारी होगा. यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21, सभी नागरिकों को जीने और निजी स्वतंत्रता का अधिकार देता है. एक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने इसे और विस्तार देते हुए ‘राइट टू क्वालिटी लाइफ’ यानी ‘गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने का अधिकार’ भी कहा है. हालांकि अरुणा शानबाग जैसे मामले इस बात को सोचने का एक अलग ही नजरिया देते हैं. क्या सालों से निष्चेष्ट पड़े एक इंसान को ऐसे जीवन को खत्म करने का अधिकार नहीं होना चाहिए? ऐसे लोगों को किस श्रेणी में रखना चाहिए, जो किसी लाइलाज बीमारी से जूझ रहे हों और आखिरकार मृत्यु से पहले भीषण दर्द के दौर से गुजरते हों? बहरहाल, पिंकी िवरानी द्वारा दायर याचिका पर, 2011 में जस्टिस मार्कंडेय काटजू और ज्ञान सुधा मिश्रा की अध्यक्षता वाली बेंच ने निर्णय देते हुए इस बहस को अस्पष्ट करार दिया था. उन्होंने कहा, ‘हम अनजान, अनदेखे समंदर में एक जहाज की तरह महसूस कर रहे हैं.’

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हालांकि, दोनों न्यायाधीशों ने पिंकी विरानी की याचिका को खारिज कर दिया पर उन्होंने ‘पैसिव यूथनेशिया’ यानी ‘निष्क्रिय इच्छा मृत्यु’ शब्द लाकर बहस को नई दिशा दी. उन्होंने कहा कि भविष्य में ऐसा हो सकता है कि इच्छा मृत्यु चाहने वाले मरीज की जांच प्रतिष्ठित डॉक्टरों की एक कमेटी से करवाई जाए. साथ ही मरीज के बारे में अस्पताल के स्टाफ और नजदीकी रिश्तेदारों की राय भी ली जा सकती है, और जब ये प्रक्रिया पूरी हो जाए, तब हाई कोर्ट मरीज के हितों को ध्यान में रखते हुए निर्णय दे सकता है.

अब प्रश्न यह उठता है कि कैसे और कौन ये निर्णय लेगा कि मरीज के हित में क्या है? उदाहरण के लिए अरुणा के केस में तीन सदस्यों वाली डाॅक्टरों की एक टीम ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि अरुणा की स्थिति परमानेंट वेजिटेटिव स्टेट (स्थाई अचेतावस्था) के तय मापदंडों से काफी हद तक मिलती है. अपनी किताब ‘अरुणाज स्टोरीः द ट्रू अकाउंट ऑफ रेप एंड आफ्टरमैथ’ में पिंकी वीरानी ने लिखा है, ‘वो अपने बिस्तर पर हाथ-पैर मोडे़ लेटे रहती है. उसके हाथ-पैरों को सीधा रखने के लिए खपच्चियों (स्पिलिंट) का सहारा दिया गया है. कई बार तो वह उस तरह खुद को मोड़ लेती है, जैसे शिशु मां के गर्भ में रहता है. कभी जोर से, तो कभी धीरे-धीरे रोती है. कभी पागलों की तरह हंसती है. वो कुछ देख नहीं सकती. मुंह से खाना खाने की कोशिश करती है. चूंकि वह अपने हाथ-पैर मोड़े ही रखती है, उसके जोड़ों खासकर कलाई और कोहनियों में विकृतियां आने लगी है.’

एक सर्जन द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले चाकू का भी गलत इस्तेमाल किया जा सकता है, पर क्या सर्जन को चाकू का प्रयोग करने से रोक देना चाहिए?

फिर भी केईएम अस्पताल के डॉक्टर और स्टाफ की सर्वसम्मत राय को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि शानबाग न ही ब्रेन डेड थीं और न ही कोमा में. लखबीर कौर बताती हैं, ‘भूख लगने पर वो रोती थीं और जब हम लोग उनके आसपास होते थे तो वह हंसती भी थी. वो बिल्कुल बच्चों की तरह थीं.’ मगर क्या किसी व्यस्क के बच्चों की तरह होने या बच्चों की तरह देखभाल करने को एक सम्मानीय, सामान्य जीवन की श्रेणी में रखा जा सकता है? और ये भी सच है कि केईएम के स्टाफ ने अरुणा की लंबे समय तक अच्छी तरह से देखभाल की पर क्या इसी व्यवहार की उम्मीद तब की जा सकती थी, अगर अरुणा वहां पर नर्स न होतीं? क्या डॉक्टर और नर्सों की पीढि़यां अपने संसाधन और मुफ्त स्वास्थ्य सेवाएं किसी ऐसे को देंगे जो उनका अपना न हो?

अक्टूबर 2010 में उत्तर प्रदेश के कानपुर की झुग्गी बस्ती में रहने वाली 21 साल की ब्लड कैंसर की मरीज अलका तिवारी ने इच्छा मृत्यु के लिए सरकार की अनुमति मांगने के लिए अपील दायर की. अर्जी में लिखा था कि या तो सरकार उनके इलाज के लिए आर्थिक मदद मुहैया कराए या उन्हें मरने की इजाजत दे. इसके बाद केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय से उन्हें मदद का आश्वासन तो दिया गया पर कोई आर्थिक मदद नहीं मिली. जुलाई 2012 में तमिलनाडु के इरोड जिले के कलेक्ट्रेट में एक ऐसी ही याचिका आई, जिसमें एक महिला ने सेरेब्रल पाल्सी से पीडि़त अपनी 14 वर्षीय बेटी के लिए इच्छा मृत्यु की मांग की थी. उस मां का कहना था कि उनकी बच्ची बिना किसी मदद के कुछ भी कर पाने में असमर्थ है और किसी भी स्पेशल स्कूल में उसके दाखिले का प्रयास भी असफल रहा.

जेएनयू में सेंटर ऑफ सोशल मीडिया एंड कम्यूनिटी हेल्थ के प्रोफेसर मोहन राव कहते हैं, ‘अच्छा है कि इच्छा मृत्यु पर बहस हो रही है, पर जिस बात पर बहस नहीं हो रही है वह है कि किस तरह इच्छा मृत्यु अप्रत्यक्ष रूप से भारतीय समाज में मौजूद है. लाखों लोग खासकर गरीब उचित रख-रखाव और सस्ती स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में धीरे-धीरे इच्छा मृत्यु की तरफ ही बढ़ रहे हैं.’

मरने के अधिकार के समर्थन में ‘कॉमन कॉज’ जैसे एनजीओ हैं, जो ‘लिविंग विल’ को कानूनी मान्यता दिलाने के लिए लड़ रहे हैं. लिविंग विल एक ऐसा दस्तावेज होगा, जिसमें कोई भी व्यक्ति भविष्य में होने वाले अपने मेडिकल ट्रीटमेंट के बारे में अभी से निर्णय दे सकता है. अगर वो किसी हादसे का शिकार हो जाता है और खुद फैसला लेने की स्थिति में न रहे, तब इस लिविंग विल में लिखे हुए को उसकी मर्जी मानकर उसका इलाज किया जाएगा. 2005 में ‘कॉमन कॉज’ ने इस कानून को लागू करवाने के लिए एक याचिका भी दायर की. कॉमन कॉज की वकील स्वप्ना झा, ‘तहलका’ को बताती हैं, ‘हर व्यक्ति को ये अधिकार होना चाहिए कि वो बता सके कि किसी हादसे या मेडिकल इमरजेंसी के समय वह किस तरह का मेडिकल ट्रीटमेंट ले. देश के हर नागरिक को सम्मान से मरने का अधिकार होना चाहिए. यदि कोई व्यक्ति जानता है कि उसका स्वास्थ्य सुधरने की बजाय खराब ही होता जा रहा है, तो ऐसे में उसे अपने पूरे होशोहवास में ये फैसला करने का अधिकार होना ही चाहिए कि उसे किस प्रकार का इलाज दिया जाए या वो किस प्रकार अपना अंत चाहे.’

स्वप्ना यहां ये भी बताती हैं कि किस प्रकार ये लीगल विल का फैसला सभी सदस्यों ने निर्विरोध रूप से एकमत होकर लिया था. वह कहती हैं, ‘मुझे याद है कि हमारी संस्था के एक बहुत ही वृद्ध और कमजोर से सदस्य थे जो हर वार्षिक मीटिंग में सिर्फ ये जानने के लिए आया करते थे कि हमारे लिविंग विल की याचिका की क्या स्थिति है. कुछ सालों बाद जब वे वार्षिक मीटिंग में नहीं आए तब पता चला कि वो व्यक्ति अपनी इच्छा के अनुसार मरना चाहता था, अपनी उस अधूरी इच्छा को लिए ही दुनिया से चला गया.’

एक और संस्था  ‘द सोसायटी फॉर द राइट टू डाइ विद डिग्निटी’ के संयुक्त सचिव डाॅ. सुरेंद्र ढेलिया भी इस बात का समर्थन करते हैं. वो तो अपनी लिविंग विल भी बना चुके हैं, जिसमें लिखा है कि वो दृढ़ रूप से प्रतिबद्ध हैं कि विल में साफ-साफ बताई गई परिस्थितियों में उन्हें किसी भी प्रकार के जीवन रक्षक मेडिकल ट्रीटमेंट से दूर रखा जाए. इसमें आने वाली कानूनी अड़चनों का अंदेशा लगाते हुए ढेलिया ने एक पावर ऑफ अटॉर्नी भी बनाई है. अरुणा के केस का हवाला देते हुए ढेलिया लिविंग विल का महत्व बताते हैं, ‘अरुणा की स्थिति को देखते हुए जजों ने ये पूछा था कि क्या अरुणा ने किसी कानूनी वसीयत में इच्छा मृत्यु का समर्थन या विरोध किया है, पर ऐसा कोई दस्तावेज न होने की दशा में कोर्ट को निर्णय देने के लिए बाकी साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ा.

अगर दूसरे नजरिए से देखें तो लिविंग विल को इच्छा मृत्यु के एक बड़े कारण के रूप में भी देखा जा सकता है, तो क्या लिविंग विल के समर्थक मानते हैं कि व्यक्ति को खुद को ऐसे मौत के हवाले कर देना चाहिए? स्वप्ना कहती हैं, ‘नहीं, बिलकुल नहीं… वास्तव में, अगर देखा जाए तो लिविंग विल के माध्यम से वे चुन सकते हैं कि बिना किसी कृत्रिम माध्यम का सहारा लिए प्राकृतिक रूप से वे

कब तक जीना चाहेंगे या नहीं. ये सम्मानीय मृत्यु पाने की एक संभावना देता है.’

हालांकि, लंबा जीवन जीने का समर्थन करने वाले इसके दूसरे पहलू यानी गलत इस्तेमाल को लेकर भी सशंकित है, जिसकी संभावनाओं को नकारा नहीं जा सकता. क्या गारंटी है कि इच्छा मृत्यु के अधिकार का प्रयोग कमजोर, बूढ़े, विकलांग, मानसिक रूप से अक्षम लोगों को किसी निजी स्वार्थ की वजह से मारने के लिए नहीं किया जाएगा?

स्वैच्छिक इच्छा मृत्यु के अधिकार की समर्थक रहीं पेशे से काउंसलर बर्नाडाइन पांच साल पहले मुंबई से गोवा रहने आईं, पर यहां आने के बाद फिर से अपने स्टैंड पर सोचना चाहती हैं. कारण है उनका वृद्धाश्रमों के साथ काम करना. वे बताती हैं, ‘मेरे घर के पांच किलोमीटर के क्षेत्र में लगभग 6-7 वृद्धाश्रम हैं. बुजुर्गों को घर से निकालने और उनके प्रति हो रही हिंसा की कहानियां लगातार सुनने के बाद मैं फिर से सोचना चाहती हूं कि बुजुर्गों के लिए इच्छा मृत्यु की बात होनी चाहिए या नहीं.’ इच्छा मृत्यु के गलत इस्तेमाल की बहस पर अपना पक्ष रखते हुए ढेलिया कहते हैं, ‘क्या सिर्फ गलत इस्तेमाल की संभावनाओं के चलते इच्छा मृत्यु की बहस को ही खत्म कर देना चाहिए? एक सर्जन द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले चाकू का भी गलत इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसे में क्या सर्जन को चाकू का प्रयोग करने से रोक देना चाहिए?’ अपने निजी अनुभव साझा करते हुए वह बताते हैं, ‘मेरे पिता बहुत बीमार थे, दो साल से बिस्तर पर थे. उनको तड़पता देखकर मैं चाहता था कि वो जल्द से जल्द आराम से इस दुनिया से चले जाएं. ऐसा नहीं था कि मैं उन्हें प्यार नहीं करता था या उनकी परवाह नहीं करता था. मैं उन्हें बहुत प्यार करता था और उन्हें इस तरह से कष्ट में नहीं देख सकता था.’

[symple_highlight color=”yellow”]पढ़ें : महिलाएं और न्यायिक सुधार[/symple_highlight]

ढेलिया ने अपने इरादे अपने दोस्तों और रिश्तेदारों को बताए, जिन्होंने उन्हें ऐसा करने के लिए मना किया. वे बताते हैं, ‘मेरे एक करीबी डॉक्टर दोस्त ने मुझे मना करते हुए कहा कि तुम्हें ये बात जीवन-भर सालती रहेगी कि तुमने अपने पिता को मारा था.’ ये सुनकर ढेलिया ने अपना इरादा छोड़ दिया पर कुछ महीनों बाद मेडिकल प्रेक्टिशनर्स की कॉन््फ्रेंस में एक न्यूरोसर्जन ने उन्हें इस बात के लिए मना लिया और फिर ढेलिया ने अपने पिता का एक्टिव ट्रीटमेंट रोक दिया जिसके बाद उनका देहांत हो गया. अपने इस निर्णय पर बहुत बेतकल्लुफी से ढेलिया बताते हैं, ‘वो शांति से चले गए.’

मगर कहां, कब और कौन (चाहे व्यक्ति से कितना ही करीबी क्यों न हो) किसी दूसरे व्यक्ति की मौत के बारे में फैसला कर सकता है? ये दुविधा अरुणा के मामले में भी कोर्ट के सामने आई थी. किसी रिश्तेदार या थर्ड पार्टी के, मरीज की मर्जी के बिना उसके लिए इच्छा मृत्यु की मांग करने के अधिकार पर कोर्ट ने सवाल उठाया था कि क्या थर्ड पार्टी यानी पिंकी िवरानी या केईएम अस्पताल के स्टाफ को, अरुणा के लिए इच्छा मृत्यु की मांग करने का अधिकार होना चाहिए? इस मामले में निर्णय देते हुए कोर्ट ने कहा था िक पिंकी विरानी जो अरुणा का करीबी दोस्त होने दावा करतीं हैं और जिन्होंने अरुणा की इच्छा मृत्यु के लिए याचिका दायर की है, वो न ही उनकी रिश्तेदार हैं, न ही केईएम अस्पताल के स्टाफ की तरह अरुणा से भावनात्मक जुड़ाव रखती हैं. इसलिए हम पिंकी िवरानी को अरुणा की करीबी दोस्त न मानते हुए केईएम अस्पताल के स्टाफ को उनका करीबी दोस्त मानकर फैसला दे रहे हैं.

बर्नाडाइन के मामले में भी यह दुविधा मौजूद थी. वे बताती हैं,  ‘हम बचपन से सुनते आते हैं कि मां-बाप यही चाहते हैं कि वो बिना किसी कष्ट या लंबी परेशानी के दुनिया से जाएं. जब 92 वर्ष की उम्र में मेरी मां ने बिस्तर पकड़ा तो इच्छा मृत्यु का ख्याल मेरे मन में आना लाजमी था. वो बिस्तर पर थीं, उन्हें बेडसोर हो गए थे पर उनकी दिमागी हालत बिलकुल ठीक थी. वो हमारे लिए बहुत खराब समय था.’ बर्नाडाइन याद करती हैं, ‘कई बार जब वो दर्द बर्दाश्त नहीं कर पाती थीं, तब मुझसे कहतीं कि वो जितनी जल्दी हो सके मरना चाहती हैं.’ कुछ समय बाद इन सब कष्टों, दुविधाओं को छोड़कर अपनी नींद में ही बर्नाडाइन की मां चल बसीं.

बर्नाडाइन की मां की कहानी सवाल उठाती है कि अत्याधिक कष्ट से गुजर रहे लोगों की मृत्यु की इच्छा को कितनी गंभीरता से लेना चाहिए. नई  दिल्ली के एक कैंसर सहायता समूह ‘शांति अवेदना सदन’ की पैलिएटिव केयर यूनिट के साथ काम कर रही डॉ. प्रिया जैन बताती हैं कि कैसे कुंठा में आकर न जाने कितने ही मरीज उनसे उन्हें मार देने की बात कहते हैं. वह बताती है, ‘मगर जैसे ही वो अपने घरवालों, करीबियों के बीच जाते हैं, बात करते हैं, वो अपनी कही बात भूल जाते हैं.’ प्रिया इस बात को भी नकारती हैं कि ‘टर्मिनली इल’ यानी लाइलाज बीमारियों से पीडि़त लोग जल्दी और आसान मौत चाहते हैं. उनके अनुसार, ‘बमुश्किल दो प्रतिशत मरीज ही ऐसे होंगे जो यहां आकर हमसे कहें कि वो जल्द से जल्द मरना चाहते हैं.’

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धार्मिक मतों को लेकर भी उलझन
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इच्छा मृत्यु से जुड़ी बहस को एक बड़ा कारण और उलझा देता है. वो है धार्मिक मत. हर धर्म में मृत्यु के समय और कारण को ईश्वर की मर्जी से जोड़कर देखा जाता है. ऐसे में इच्छा मृत्यु को ईश्वर के काम में इंसानी दखल माना गया है. सिख धर्म इच्छा मृत्यु को ईश्वर की इच्छा का विरोध कहता है, पर कष्ट भोगने को व्यक्ति के कर्मों का फल माना गया है. इस्लाम इच्छा मृत्यु को सिरे से खारिज करता है पर बहुत ही निराशाजनक परिस्थिति में अगर मरीज किसी आर्टिफिशियल तरीके की मदद से अपना जीवन नहीं जीना चाहता, तब ‘डू नॉट रिससिटेट (डीएनआर) आॅर्डर’ को मानते हुए अग्रिम निर्देश दिए जाएंगे. (डीएनआर एक कानूनी आदेश होता है, जो कि रोगी की सहमति के अनुसार, इमरजेंसी में डॉक्टरों द्वारा उसे सीपीआर या एडवांस्ड कार्डिएक लाइव सपोर्ट देने से रोकने के लिए होता है) यहूदी (ज्यूइश) मान्यताओं में मानव जीवन का संरक्षण ही सबसे बड़ा विषय है, हालांकि 16वीं सदी के एक कानून की नई व्याख्या कहती है ‘अगर आत्मा के जाने के रास्ते में कोई बाधा है तो उसे हटा देना ही जायज है क्योंकि यह कोई अलग कार्य नहीं है, बस उस अवरोध को हटा देना ही मृत्यु के प्राकृतिक तरीके की ओर ले जाएगा.’ (वेंटीलेटर?)

सरकार और धर्म ‘लिविंग डेड’ के बारे में अनिश्चितताओं से घिरे हैं.  दोनों कुछ ‘विशेष’ लोगों को अपनी मृत्यु का अधिकार चुनने की आजादी दे रहे हैं

बुद्ध धर्म की अवधारणाएं कुछ अलग हैं. उनकी धार्मिक पुस्तक ‘त्रिपिटक’ में बताया गया है कि स्वयं बुद्ध ने एक बीमार, शारीरिक रूप से कमजोर हो चुके भिक्षुक के आत्महत्या करने को गलत न मानते हुए माफ किया है. ईसाई धर्म में किसी भी व्यक्ति के लिए इच्छा मृत्यु का प्रस्ताव रखना, उसे जीवन के लिए अयोग्य मानने जैसा है पर वो विकल्प देते हैं. क्रिश्चियन मेडिकल एंड डेंटल एसोसिएशन मानती है कि किसी रोगी, जो दिन-ब-दिन शारीरिक तौर पर कमजोर होता जा रहा है, जिसके ठीक होने की भी कोई उम्मीद नहीं है, के लाइफ सपोर्ट सिस्टम को हटा देने का विरोध नहीं होना चाहिए.

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कानून, धर्म और मानवाधिकारों के बीच कुछ व्यक्तियों का मृत्यु आने तक उपवास रखने की प्रथा भी एक उलझा हुआ पहलू है. हिंदू धर्म ग्रंथों में इच्छा मृत्यु की खिलाफत की गई है पर ‘प्रयोपवेशन’ (मृत्यु आने तक उपवास करना) को आत्महत्या नहीं अपवाद माना गया है. जैन धर्म में भी इसी तरह से उपवास यानी ‘संथारा’ की प्रथा प्रचलित है. मृत्यु के लिए तैयार होने पर आहार छोड़ देने की इस प्रथा को ‘दिव्य बुलावे’ की तरह देखा जाता है.

नवंबर 2001 में, हिंदुओं के एक आध्यात्मिक गुरु सतगुरु सिवाया सुब्रमण्यस्वामी को जब पता चला कि उन्हें आंतों का लाइलाज कैंसर है, तो उन्होंने मृत्यु होने तक आहार छोड़ देने की घोषणा की. साथ ही किसी भी तरीके की मेडिकल सलाह या पैलिएिटव केयर लेने से भी मना कर दिया. 2006 में जैन धर्म की अनुयायी कैलादेवी हीरावत ने ‘संथारा’ लेने की घोषणा की, तब उनके परिजनों ने खुशी जाहिर की थी. बहरहाल मानवाधिकार कार्यकर्ता और वकील खुद को पक्ष-विपक्ष दोनों तरफ पाते हैं. कुछ को लगता है कि ये सामाजिक बुराई है, वहीं कुछ ये मानते हैं कि संविधान के अंतर्गत व्यक्ति को अपने धर्म और उसके विश्वासों का अभ्यास करने की पूरी आजादी है, तो इसे कानून का उल्लंघन नहीं माना जाना चाहिए.

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किसकी इच्छा से मृत्यु

सरकार और विभिन्न धर्म ‘लिविंग डेड’ के बारे में समान रूप से अनिश्चितताओं से घिरे हैं. इनके बीच एक समानता देख सकते हैं, वो ये है कि कैसे दोनों कुछ ‘विशेष’ लोगों को अपनी मृत्यु का अधिकार चुनने की आजादी दे रहे हैं. सरकार द्वारा जंग के मैदान में भेजे जाने वाले सैनिक और धर्म के पालन के नाम पर आहार छोड़कर मृत्यु के लिए उपवास कर रहे व्यक्ति दोनों अपनी परिणिति जानते हैं और ऐसे में कानून या धर्मों का इच्छा मृत्यु को वैध न मानना अस्वाभाविक है. देश के लिए जान देने वालों को शहीद कहते हैं और धर्म के लिए ये त्याग है. 42 साल तक अचेत रहते हुए भी अपने अस्तित्व के लिए लड़ी बलात्कार पीडि़ता अरुणा भी साहस की प्रतिमूर्ति कही जा रही हैं.

कुंठा में आकर मरीज खुद को मार देने की बात कहते हैं पर जैसे ही वो अपने करीबियों के बीच होते हैं तो अपनी कही ऐसी बातें भूल जाते हैं

इच्छा मृत्यु को लेकर चल रही तमाम पेचीदा बहसों के बावजूद जो इसका समर्थन करते हैं वो अपने विश्वास को लेकर दृढ़ हैं. गोवा की बर्नाडाइन अपनी मां के साथ घटे अनुभवों को दोहराना नहीं चाहतीं, वो अभी से अपने  बेटे को समझाती हंै, ‘मैं अब भी इच्छा मृत्यु को गलत नहीं मानती, कुछ भी हो जाए, पर उन्हें मुझे वेंटीलेटर पर मत रखने देना.’

 

उपेक्षा का दर्द

rifah e aam

लखनऊ का ऐतिहासिक रिफह-ए-आम क्लब फिलहाल मुशीर झंझानवी का शेर सुनाता मालूम होता है, ‘कांटा समझ के मुझसे न दामन बचाइए/गुजरी हुई बहार की इक यादगार हूं.’ कभी लखनऊ के इतिहास की आबरू रही ये जगह आज इतिहास का नौहा पढ़ रही है. गोलागंज इलाके में स्थित ये जगह शहर के स्वतंत्रता-संघर्ष, स्वाभिमान और प्रगतिशील चेतना की निशानी है, नया दौर जिसे मिसमार करने पर आमादा है.

अंग्रेजों के दौर में आम हिंदुस्तानियों के लिए खुला ये शहर का पहला क्लब था. इसीलिए इसका नाम रिफह-ए-आम (जन-हित) क्लब रखा गया था. इसी जगह को प्रथम विश्वयुद्ध के समय होमरूल लीग के जलसे के लिए चुना गया था, यहीं पर 1920 में सभा करके महात्मा गांधी ने लखनऊ वालों से असहयोग आंदोलन में जुड़ने की अपील की थी. खिलाफत काॅन्फ्रेंस भी यहीं हुई थी. 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन भी यहीं हुआ था जिसकी अध्यक्षता करते हुए प्रेमचंद ने इसी जगह अपना ऐतिहासिक भाषण दिया था. मगर तारीख की दौलत से मालामाल ये जगह आज अपनी बदहाली पर आंसू बहा रही है. इसकी खूबसूरत इमारत को लोगों ने इस कदर नुकसान पहुंचाया है कि ये नीचे से एकदम कमजोर हो चुकी है. इसमें अवैध कब्जे हो रहे हैं.

इस पर अधिकार के लिए कई पक्षों में जंग छिड़ी हुई है. बिल्डरों और भू-माफिया की बुरी नजर भी इस पर है. इसका ऐतिहासिक मैदान कूड़ा डालने के लिए इस्तेमाल हो रहा है जिस कारण यहां गंदगी का अंबार है. ये नशेड़ियों का भी अड्डा है. इस पर गैर कानूनी ढंग से प्राइवेट बसें खड़ी की जा रही हैं, अवैध दुकानें लग रही हैं. लब्बो-लुअाब ये है कि अदब के शहर में इतिहास की इस धरोहर के साथ बेहद शर्मनाक सुलूक हो रहा है.

रिफह-ए-आम की बदहाली को लेकर शहर में जागरूक नागरिकों में बहुत रोष और निराशा है. वे अपने स्तर पर इसको बचाने की छोटी-मोटी कोशिश भी करते रहते हैं. पिछले दिनों एक स्कूल के छोटे-छोटे बच्चों ने सरकार से रिफह-ए-आम क्लब को बचाने की अपील करते हुए जुलूस निकाला. बच्चों ने आसपास के लोगों से इसे साफ रखने का निवेदन भी किया. लंबे समय से लखनऊ में ये मांग उठती रही है कि प्रदेश अथवा केंद्र की सरकार इस ऐतिहासिक जगह को अपने अधिकार में लेकर इसका कायाकल्प करे. लेकिन सरकारें नया लखनऊ आबाद करने में ही इस कदर मसरूफ रहती हैं कि पुराने लखनऊ की पामाली पर गौर करने के लिए उनके पास वक्त नहीं बचता. पिछले कुछ सालों में प्रदेश की अलग-अलग सरकारों ने नए लखनऊ में स्मारकों, पार्कों और मैदानों के निर्माण पर सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च किए हैं, मगर पुराने शहर की इस यादगार पर मामूली रकम खर्च करना भी सरकारों को गवारा नहीं है. केंद्र सरकार और भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण भी इसके जीर्णोद्धार में दिलचस्पी नहीं लेते.

रिफह-ए-आम की बदहाली पर अवधी संस्कृति के  जानकार योगेश प्रवीन कहते हैं, ‘इस जगह की हालत राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक गौरव को लेकर हमारी शोशेबाजी की पोल खोलती है. पता चलता है कि इतिहास को लेकर हम असल में कितने संजीदा और संवेदनशील हैं. ये इस इमारत की बदकिस्मती है कि ये लखनऊ में है, जहां राष्ट्रीय इतिहास को कूड़े की वस्तु समझा जाता है. यही अगर किसी सही जगह होती तो देशप्रेमियों का तीर्थ कहलाती.’ क्लब के पास ही रहने वाले मासूम रजा चाहते हैं कि इसे बचाने के लिए सरकार आगे आए. वे कहते हैं, ‘आज जो स्थिति है उसमें बिना सरकार की मदद के इसे बचाया नहीं जा सकता. हम लोग लंबे वक्त से इसके लिए गुहार लगा रहे है. मीडिया बार-बार इस जगह का सवाल उठा रहा है लेकिन इसके बावजूद स्थिति बद से बदतर होती जा रही है. ये कोई मामूली जगह नहीं है. सरकार को चाहिए कि इसे अपने अधिकार में लेकर यहां जीर्णोद्धार और सौंदर्यीकरण का काम करवाए और फिर इसे राष्ट्रीय चेतना और प्रगतिशील साहित्य के केंद्र के रूप में विकसित करे, ताकि लोगों को इसके महत्व का अंदाजा हो सके.’

राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक ये देसी क्लब आज बंद और बदहाल है जबकि अंग्रेजों के अत्याचार वाला एमबी क्लब अपनी सभी क्रूर रिवायतों के साथ जिंदा है

सितम तो ये है कि इतनी  बेशकीमती इमारत के निर्माण की सही तिथि शहर में किसी को नहीं पता. हर किसी की इसे लेकर अलग-अलग राय है. इतिहासकार रौशन तकी इसे बादशाह नासिरूद्दीन हैदर के जमाने का यानी 1830 के आसपास का बताते हैं. महमूदाबाद राजघराने से ताल्लुक रखने वाले राजकुमार अली नकी खां इसे वाजिद अली शाह के दौर का यानी 1850 के आसपास का बताते हैं. वहीं लखनऊ के नवाबी खानदान से जुड़ाव रखने वाले जाफर मीर अब्दुल्ला इसे 1857 के गदर के बाद का बना हुआ बताते हैं. हालांकि निर्माण काल को लेकर अधिकृत संदर्भ या प्रमाण कोई नहीं दे पाता. बावजूद इसके इमारत की स्थापत्य कला और इसके निर्माण में इस्तेमाल हुई सामग्री को देखते हुए इतना तो तय हो जाता है कि ये खूबसूरत इमारत 19वीं सदी में ही वजूद में आई होगी. हालांकि लखनऊ में इस जगह की धूम इसके निर्माण के कुछ सालों बाद शुरू हुई. उस दौर में जब यहां रिफह-ए-आम नाम से एक अनूठा क्लब शुरू हुआ. इमारत के निर्माण काल की तरह ही क्लब की शुरुआत की सही तारीख किसी को नहीं मालूम पर इसके शुरू होने की कहानी बड़ी दिलचस्प है. एक दौर में लखनऊ में मोहम्मद बाग क्लब और यूनाइटेड सर्विसेज क्लब सिर्फ अंग्रेजों और उनके खास मेहमानों के लिए होते थे. आम आदमी का इसमें प्रवेश वर्जित था. इसी से क्षुब्ध होकर अंग्रेजी क्लबों के जवाब के बतौर अवध के कुछ राजाओं-तालुकेदारों ने मिलकर रिफह-ए-आम क्लब की स्थापना की थी. ये हिन्दुस्तानियों का क्लब था. यहां एमबी क्लब की तरह अंग्रेजी वेशभूषा की अनिवार्यता भी नहीं थी. कई तरह के खेल खेलने और लाइब्रेरी की सुविधा भी यहां थी. इस लोकप्रिय स्थल पर शहर के तमाम सार्वजनिक जलसे हुआ करते थे. आजादी के बाद इसकी रौनक धीरे-धीरे घटने लगी और अस्सी का दशक आते-आते ये जगह एक भूली हुई दास्तान लगने लगी.

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गुहार हाल ही में लखनऊ के एक स्कूल के बच्चों ने रैली निकालकर रिफह-ए-आम क्लब को बचाने की अपी की थी

प्रगतिशील लेखक संघ के संस्थापक सज्जाद जहीर ने अपनी आत्मकथा ‘रौशनाई’ में रिफह-ए-आम क्लब की अजमत का विस्तार से वर्णन किया है. प्रलेस के पहले सम्मेलन के बारे में बताते हुए वे लिखते हैं, ‘एक जमाना था जब रिफह-ए-आम में बड़े-बड़े तारीखी जलसे और काॅन्फ्रेंस होती थीं. यहीं पर पहले विश्वयुद्ध के जमाने में होमरूल लीग का वह जलसा होना तय हुआ था जो एनी बेसेंट की गिरफ्तारी पर प्रतिरोध जताने के लिए शहर के राष्ट्र भक्तों ने बुलाया था. लेकिन अंग्रेज सरकार ने इसे गैर कानूनी करार दिया था. ये लखनऊ में अपने किस्म की पहली घटना थी. हथियारबंद पुलिस से रिफह-ए-आम भर गई थी और सारे शहर में जबरदस्त सनसनी फैल गई थी. 1920 में यहीं खिलाफत कॉन्फ्रेंस हुई जिसमें अली बंधुओं और मुल्क के तमाम बड़े लीडरों ने शिरकत की. इस मौके पर मौलाना मोहम्मद अली ने लगातार छह घंटे तकरीर की और रिफह-ए-आम के आहाते में अंग्रेजी कपड़ों के बड़े-बड़े अंबार जलाए गए थे. इसके बाद यहीं पर असहयोग आंदोलन के सिलसिले में कांग्रेसियों और खिलाफतियों ने लिबरल पार्टी की कॉन्फ्रेंस में हंगामा करके हॉल पर कब्जा कर लिया और उनके ही प्लेटफार्म से लिबरलों के खिलाफ रिजोल्यूशन पास करवाए थे.’

विडंबना ये है कि राष्ट्रीय गौरव का प्रतीक ये देसी क्लब आज बंद और बदहाल पड़ा है जबकि अंग्रेजों के अत्याचार वाला एमबी क्लब आज भी अपनी सभी क्रूर, अन्यायी और विभेदकारी रिवायतों के साथ जिंदा है. साधारण वेश-भूषा जैसे चिकन का कुरता-पैजामा और चप्पल पहनकर चलने वाले आम लखनवी का इसमें प्रवेश आज भी सख्ती के साथ वर्जित है. अंग्रेजों के जमाने में एमबी क्लब के ऐसे नियम लखनऊ वालों में रोष पैदा करते थे. अंग्रेजों के जाने के सत्तर साल बाद यही नियम लखनऊ वालों को स्टेटस सिंबल प्रदान करते हैं. उन्हें ‘तहजीब’ वाला बनाते हैं. उन्हें क्यों फर्क पड़े कि रिफह-ए-आम आज किस हालत में है. उनका एमबी क्लब तो बहरहाल गुलजार है… और अब तो यहां साहित्य पर बात करने के लिए महफिलें भी सजने लगी हैं. उसी साहित्य के बारे में बात करने के लिए, जिसके बारे में कभी प्रेमचंद ने रिफह-ए-आम में कहा था, ‘हम जब ऐसी व्यवस्था को सहन न कर सकेंगे कि हजारों आदमी कुछ अत्याचारियों की गुलामी करें तभी हम केवल कागज के पृष्ठों पर सृष्टि करके ही संतुष्ट न हो जाएंगे किंतु उस विधान की सृष्टि करेंगे जो सौंदर्य, सुरुचि, आत्म-सम्मान और मनुष्यता का विरोधी न हो. साहित्यकार का लक्ष्य केवल महफिल सजाना और मनोरंजन का सामान जुटाना नहीं है. उसका दरजा इतना न गिराइए. वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई भी नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सच्चाई है.’

रिफह-ए-आम को तो भुला दिया गया है. प्रेमचंद किसी को याद हैं?

सरकार का लेखा-जोखा

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मोदी की विदेश यात्राएं

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 बीते 12 महीने में 18 देशों की यात्रा

विदेशी यात्रा के दौरान 53 दिन बिताए

 यात्रा पर कुल खर्चः 317 करोड़ रुपये

57 द्विपक्षीय और 5 बहुपक्षीय समझौतों पर हस्ताक्षर हुए

अर्थव्यस्था

16 मई 2014 को शेयर सूचकांक

22,702

17 मई 2015 को शेयर सूचकांक

27,234

मई 2014 में मुद्रास्फीति

7.02 %

अप्रैल 2015 में मुद्रास्फीति

4.87 %

जून 2014 को पेट्रोल* की दर

71.51 प्रति लीटर

मई 2015 को पेट्रोल* की दर

66.29 प्रति लीटर

जून 2014 को डीजल* की कीमत

57.28 प्रति लीटर

मई 2015 को डीजल* की कीमत

52.28 प्रति लीटर

अंतरराष्ट्रीय बाजार में

मई 2014 में कच्चे तेल की कीमत

$109 प्रति बैरल

मई 2015 में कच्चे तेल की कीमत

$66.31 प्रति बैरल

(*दिल्ली में)

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चुनाव
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26 अगस्त 2014: बिहार विधानसभा उपचुनाव में भाजपा ने 10 में से 4 सीटें जीतीं. पहले इन 10 सीटों में से 6 भाजपा की थीं

14 सितंबर 2014: उत्तर प्रदेश, राजस्थान और गुजरात के विधानसभा उपचुनावों में तगड़ा झटका लगा. इन राज्यों में महज चार महीने पहले आम चुनाव में प्रदर्शन जबरदस्त रहा था, लेकिन तीनों राज्यों के उपचुनाव में 24 सीटों में से भाजपा ने 13 सीटें गंवाई

19 अक्टूबर 2014: महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में 288 सीटों में से 122 पर भाजपा ने जीत दर्ज की और पहली बार राज्य की सबसे बड़ी पार्टी बनी

19 अक्टूबर 2014: हरियाणा विधानसभा चुनाव में 90 सीटों में से 47 पर भाजपा ने जीत दर्ज करते हुए बहुमत हासिल किया

23 दिसंबर 2014: भाजपा ने झारखंड चुनाव में 81 में से 37 और आजसू ने 5 सीटें हासिल कर बहुमत हासिल किया.

23 दिसंबर 2014:  जम्मू-कश्मीर में भाजपा को 87 में सेे 23 सीटें हासिल हुईं. भाजपा ने पीडीपी के सहयोग से राज्य में सरकार बनाई.

10 फरवरी 2015: भाजपा को दिल्ली विधानसभा में जोरदार झटका लगा. पार्टी को दिल्ली चुनाव में 70 में से सिर्फ तीन सीटें मिलीं.

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मोदी के जुमले
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 सबका साथ, सबका विकास

मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस

 शासक नहीं, सेवक

रेड कारपेट, नॉट रेड टेप

 मंदिर से पहले शौचालय

प्रधानमंत्री नहीं, प्रधान सेवक

3डीः डेमोक्रेसी, डेमोग्राफी, डिमांड

4पीः पीपुल, पब्लिक, प्राइवेट, पार्टनरशिप

5टीः देश के विकास के लिए सूत्र- टैलेंट, टूरिज्म, टेक्नोलॉजी, ट्रेडिशन, ट्रेड

भारत अब सपेरों का देश नहीं है, हमने दुनिया को माउस (तकनीकी प्रतिभा) से भी प्रभावित किया है

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विवाद
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 सरकार ने एक विधेयक को मंजूरी दी ताकि नृपेंद्र मिश्र को मोदी का प्रमुख सचिव बनाया जा सके.

 केंद्रीय मंत्री प्रकाश जावेड़कर के जींस पहनने पर विवाद हुआ था.

मीडिया के एक धड़े का दावा है कि केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह के बेटे के दुर्व्यवहार की खबर पर मोदी ने चुप्पी साध ली क्योंकि राजनाथ सिंह ने इस्तीफा देने की धमकी दी थी. इस मसले पर पीएमओ व भाजपा ने राजनाथ का बचाव किया.

 हिंदुवादी संगठनों का घर वापसी अभियान.

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड (सीबीएफसी) की प्रमुख लीला सैमसन ने सरकार पर हस्तक्षेप का आरोप लगाते हुए इस्तीफा दिया.

 मोदी ने अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के भारत दौरे पर अपने नाम की धारीवाला सूट पहना.

एनजीओ खासकर ग्रीनपीस और फोर्ड फाउंडेशन पर सरकार नजर रखेगी. ग्रीनपीस से जुड़ी प्रिया पिल्लई के विदेश जाने पर पाबंदी लगाई गई.

 देश के अलग-अलग हिस्सों में कुछ चर्चों में तोड़फोड़ हुई.

 बड़ी संख्या में किसानों की आत्महत्या.

उद्योगपति गौतम अडाणी और मोदी के बीच अंतरंगता को लेकर विवाद बढ़ा. मोदी के ऑस्ट्रेलिया दौरे के दौरान एसबीआई अडाणी इंटरप्राइजेज की ऑस्ट्रेलियाई सहायक कंपनी को खनन के लिए 6000 करोड़ रुपये से ज्यादा ऋण देने पर हुआ. यह राशि क्वींसलैंड में खनन परियोजना के लिए बतौर ऋण के लिए दिए गए.

 मोदी के हालिया चीन दौरे के समय भी अडाणी ने कुछ और व्यापार समझौतों पर हस्ताक्षर किए.

 केंद्रीय मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी की शैक्षिक योग्यता को लेकर विवाद गहराया. इसके बाद ईरानी के अमेरिका के येल यूनिवर्सिटी से डिग्री लेने को लेकर विवाद हुआ. स्मृति ने केंद्रीय विद्यालयों में जर्मन भाषा को हटाकर संस्कृत पढ़ाने की बात की. चार साल के स्नातक पाठ्यक्रम को खत्म करने को लेकर भी विवाद हुआ.

 महाराष्ट्र और हरियाणा राज्य सरकार ने बीफ (गो मांस) पर प्रतिबंध लगाया.

बीबीसी की डॉक्युमेंट्री ‘इंडियाज डॉटर’ पर भारत में प्रतिबंध लगा.

विकास का चेहरा या सिर्फ मुखौटा!

Modi Lead

‘मैं नरेंद्र दामोदरदास मोदी ईश्वर की शपथ लेता हूं… 26 मई 2014 को प्रधानमंत्री के रूप में शुरू हुई नरेंद्र मोदी की इस पारी के लिए काफी समय से जमीन तैयार की जा रही थी. इसके लिए 2014 में हुए लोकसभा चुनावों में जीत दर्ज करने के लिए हरसंभव दांव खेले गए. मोदी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार बनने मात्र ने ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के कैडर को उत्साह से भर दिया.

साधनों का बहुत ही चतुराई से उपयोग किया गया, विकास के सपने बेचकर वोट खरीदे गए और अंततः विपक्षियों को शिकस्त मिली. स्वतंत्रता दिवस के मौके पर प्रधानमंत्री ने अपने पहले भाषण में 10 साल के लिए सांप्रदायिकता, जातिवाद और हिंसा पर रोक की बात की तब उनकी इस अपील में नरसिम्हा राव द्वारा 1992 में इसी अवसर पर दिए गए भाषण की अनुगूंज सुनाई दी. नरसिम्हा राव ने अपने उस भाषण में दो-तीन साल के लिए आपसी मतभेदों को पाटने की अपील की थी और इस अपील के चार महीने बाद ही अयोध्या में बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना घट गई थी.

मोदी ने अपनी वाकपटुता के दम पर 2014 का लोकसभा चुनाव जीत लिया और ऐसा संभव बनाने के लिए विकास के एजेंडे का सनसनीखेज तरीके से प्रचार किया, पर धीरे-धीरे विकास के इस सपने के रंग धुंधले पड़ रहे हैं क्योंकि साल भर होने के बाद भी वो चुनाव प्रचार के ही मूड में दिख रहे हैं. बीते साल सितंबर में अमेरिका का मैडिसन स्क्वायर गार्डन हो, चीन का शंघाई हो, लोक कल्याणकारी योजना के खर्चों में कटौती और सब्सिडी में कटौती करके उस पैसे का उपयोग बुनियादी ढांचों के लिए प्रोत्साहन पैकेज के तौर पर लाना हो या फिर सरदार वल्लभभाई पटेल की प्रतिमा के लिए पैसा इकट्ठा करने का मामला, उन्होंने हर मुद्दे पर एक मसीहा या मुक्तिदाता के अंदाज में तीसरा ही रास्ता चुना.

अपनी शैली के बारे में वे खुद कहते हैं, ‘मेरी सोच तीसरे प्रकार की है. आपको गिलास आधा खाली दिख सकता है पर मेरे लिए ये पूरा भरा है आधा पानी से और आधा हवा से. यही वजह है कि मैं खुद को प्रकृति से ही आशावादी कहता हूं.’ ये सब बातें नरेंद्र मोदी ने लोकसभा चुनाव में भारी बहुमत से जीत दर्ज करने के चार दिन बाद संसद के सेंट्रल हाल में कही थीं. इसके हफ्तेभर बाद उन्होंने देश के 15वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली.

मोदी समर्थकों का तर्क है कि महज सालभर बीतने पर सरकार की उपलब्धियां गिनाना जल्दबाजी होगी लेकिन अगर इन 365 दिनों को संकेत के रूप में देखा जाए तो मोदी खुद अपने प्रचार के जाल में फंस गए हैं. जनवरी में गुजरात में आयोजित वाइब्रेंट सम्मेलन में नरेंद्र मोदी ने कहा था कि प्रचार से गति मिलती है और इससे सरकारी अधिकारियों के निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी तेजी आती है, साथ ही लाल-फीताशाही खत्म करने में भी मदद मिलती है. पर उम्मीदें दिखाने और उन पर खरे न उतरने से कहीं वो उस बहुमत को फिजूल में ही न गंवा दें जिसने उन्हें वहां तक पहुंचाया है.

Modi at inauguration of HN Reliance Foundation Hospital

वैसे भाजपा के वरिष्ठ सदस्य अरुण शौरी मोदी की अर्थनीति को पहले ही दिशाहीन कह चुके हैं. मोदी सरकार ने गिरते-पड़ते, शोर-शराबे और तमाम चुप्पियों के बीच आखिर बारह महीने पूरे कर ही लिए हैं. इस बीच कुछ महत्वपूर्ण सुधार भी हुए जैसे प्राकृतिक संसाधनों की नीलामी शुरू हुई, पर सरकार भूमि अधिग्रहण बिल, वस्तु एवं सेवाकर के मामले में फंसती दिखी. मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के नए महासचिव सीताराम येचुरी कहते हैं, ‘प्रधानमंत्री विदेश में लोगों को अभी भी चुनावी अंदाज में संबोधित कर रहे हैं. वे विदेशों में भारतीय मूल के लोगों को संबोधित करने के दौरान विपक्षी दलों पर लगातार आरोप लगा रहे हैं और उनके खिलाफ टिप्पणियां कर रहे हैं. देश के इतिहास में शायद वो पहले प्रधानमंत्री होंगे जिन्होंने एक साल के अंदर 18 देशों की यात्राएं की हैं.’ कांग्रेस के आनंद शर्मा भी इस बात से सहमत होते हुए कह चुके हैं, ‘प्रधानमंत्री के विदेशों (जर्मनी और कनाडा) में दिए गए भाषण बहुत हल्के थे. यह साफ है कि वे अभी भी लोकसभा चुनावों के प्रचार की खुमारी से बाहर नहीं निकल पाए हैं.’

मोदी ने बहुत सारे अनछुए मुद्दों पर आवाज उठाई है पर कुछ जरूरी मामलों में उनकी चुप्पी बहुत खली, वो चाहे उनके कैबिनेट मंत्रियों की घटिया बयानबाजी हो, अल्पसंख्यकों के इबादत को लेकर दिए गए बयान हों या बेमौसम बारिश से बर्बाद हुई खेती के समय उठे विवाद, प्रधानमंत्री के कुछ न बोलने से बात बिगड़ती ही चली गई. इसके बावजूद, उत्तर प्रदेश के उन्नाव से भाजपा सांसद साक्षी महाराज मोदी की उपलब्धियां गिनाते हुए कहते हैं कि मोदी सरकार ने वो किया है जो कांग्रेस एक दशक में भी नहीं कर पाई. वो कहते हैं, ‘मोदी गुड गवर्नेंस के रोल मॉडल हैं और मुझे विश्वास है कि मोदी अगले 30-35 सालों तक देश का नेतृत्व करेंगे.’

मोदी अगर मतदाताओं की नजर में उठे हैं तो इसका कुछ श्रेय उन्हें मणिशंकर अय्यर के ‘चायवाला’ कहने को देना चाहिए और कुछ मनमोहन सिंह को

अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के लिए मोदी चार अक्षरों का एक नाम भर थे और रहेंगे पर अगर मोदी मतदाताओं की नजर में उठे हैं तो इसका कुछ श्रेय उन्हें मणिशंकर अय्यर के ‘चायवाला’ कहने को देना चाहिए और कुछ मनमोहन सिंह को. मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उजागर घोटालों और उनकी नीतियों की विफलता ने मोदी की सफलता की राह आसान की. मोदी ने खुद को देश का ‘प्रधान सेवक’ कहा, कुछ लोग उन्हें दूरद्रष्टा के तौर पर भी देखते हैं. कुछ का कहना ये भी है कि उन्हें बस कारोबार से मतलब है. मीडिया के एक धड़े ने उन्हें ऐसा राजनेता घोषित किया है जो देश को आगे ले जाने के लिए असीम ऊर्जा और उत्साह से भरा हुआ है. वो देशवासियों और दुनिया की नजर में भारत की छवि बदल देना चाहते हैं. (अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा ने टाइम पत्रिका में मोदी के बारे में लिखे एक लेख में उन्हें ‘इंडियाज रिफॉर्मर इन चीफ’ कहा था, और उनके जीवन को ‘फ्रॉम पावर्टी टू प्राइम मिनिस्टर’ का नाम दिया था.)

मोदी की छवि उस वक्त और चमकी जब स्वतंत्रता दिवस के मौके पर अपने पहले ही भाषण में उन्होंने स्वच्छता, स्त्री-सुरक्षा, लैंगिक समानता जैसी बुनियादी बातें कहीं. उन्होंने अभिभावकों को समझाते हुए कहा कि अपने बेटों को स्त्रियों के प्रति संवेदनशील बनाएं, उनका सम्मान करना सिखाएं. उन्होंने ऐसे बुनियादी मुद्दों पर मुखर होकर अपनी बातें कहीं जो लालकिले से बोलना तो दूर, किसी सरकार के मुखिया के लिए विचारयोग्य ही नहीं मानी जाती थीं. एक कुशल वक्ता होने की वजह से मोदी ब्रांड बनते गए. पर कुशलता से गढ़ी गई इस छवि को तब चोट लगी, जब जनवरी में मोदी की अपने नाम का सूट पहनने की बात सामने आई. ‘एक नेता जो चायवाले के घर से आया है’ वाली जमीन से जुड़े होने की छवि इस ‘आत्म-केंद्रित, अपने नाम का सूट पहनने वाले नेता’ के नीचे दब गई. वोट देने वाली आम जनता ने उस छवि को वोट बटोरने की चाल समझा. इसका खामियाजा दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को भुगतना पड़ा. वो मतदाता जिसने लोकसभा चुनावों में रातोंरात मोदी को स्टार बनाया था, उसी मतदाता को उनकी कथनी और करनी में अंतर दिखने लगा. इस बीच संघ परिवार से जुड़े भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने भी सरकार की नीतियों के खिलाफ रोष भी प्रकट किया. मोदी की एक रौबीले प्रशासक होने की बात भी उठी जब खबरें आईं कि मोदी कैबिनेट मंत्रियों को जरिया बनाने की बजाय सचिवों से सीधे संपर्क में रहते हैं, साथ ही कुछ मंत्री ऐसे भी हैं, जिन्हें अपनी पसंद का निजी सेक्रेटरी भी नहीं रखने दिया गया. कुछ मंत्रियों को तो निर्देश भी मिले कि उन्हें किस मौके पर कैसी पोशाक पहननी है, किनसे मिलना है और कैसे बात करनी है. मोदी के बहुप्रचारित सिद्घांत ‘मिनिमम गवर्नमेंट, मैक्सिमम गवर्नेंस’ को उनके शपथ ग्रहण के कुछ महीनों के भीतर ही, तब झटका लगा जब मंत्रालयों को रैशनलाइज करने की कोशिश में एक ही मंत्री को कई मंत्रालय संभालने की योजना उस तरह नहीं चल पाई जैसा सोचा गया था.

modi and obama

हालांकि, सरकारी कार्यालयों में बायोमिट्रिक सिस्टम से उपस्थिति दर्ज करने को आम लोगों ने बहुत सराहा, पर दिल्ली के नौकरशाहों के एक वर्ग में इस बात को लेकर खासा रोष देखा गया. मोदी के प्रतिदिन 18 घंटे काम करने की बात का भी कई अधिकारियों ने विरोध किया. एक आईएएस अधिकारी व्यंग्यात्मक लहजे में ‘तहलका’ को बताते हैं, ‘आज, आप क्या करते हैं वह इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना ये कि आप इसे किस समय करते हैं. प्रधानमंत्री कार्यालय शाम को 6ः30 बजे तब काम शुरू करता है, जब सभी सरकारी कार्यालय बंद हो जाते हैं.’

‘सेल्फी’ खिंचवाने और भारतीयों को संबोधित करने के चलते वे विदेशों में तो बहुत लोकप्रिय होते जा रहे हैं पर अपने देश में उनकी विश्वसनीयता कम हो रही है

इसके अलावा सरकार के लिए मुश्किलें तब भी बढ़ी जब देशभर से लगभग 600 छोटे-बड़े सांप्रदायिक दंगों की खबरें आईं. पुणे में एक युवा आईटी कर्मचारी की हत्या का आरोप एक हिंदू अतिवादी संगठन पर लगा. मुजफ्फरनगर दंगों को भड़काने का आरोपी संजीव बालियान मोदी सरकार में शामिल हुआ. मुजफ्फरनगर दंगों के ही एक और आरोपी संगीत सोम को जेड प्लस सुरक्षा मुहैया कराई गई. इन मसलों पर मोदी की चुप्पी से लोगों का मोहभंग हुआ और सरकार से उम्मीदों को लेकर उनकी बेचैनी बढ़ी. सरकार के महिलाओं से जुड़े मुद्दों को हल न कर पाने की वजह से मोदी के इरादों को लेकर आशंकाएं प्रकट की जाने लगी. भाजपा के घोषणा-पत्र में खास तौर पर शामिल किया गया महिला आरक्षण विधेयक का मुद्दा अभी भी अधर में है. कुछ संस्थानों को भंग करना (योजना आयोग) भी विवादों  के विषय बने. ट्राई (संशोधित) विधेयक में बदलाव करना हो, नृपेंद्र मिश्रा की प्रधानमंत्री के मुख्य सचिव के रूप में नियुक्ति हो या हर्षवर्द्घन से स्वास्थ्य मंत्रालय लेकर उन्हें विज्ञान व तकनीकी मंत्री बनाना, ये सभी ही विवादों से जुड़े रहे.

‘बीते एक साल में मैंने एक दिन का भी अवकाश नहीं लिया है. मैंने दिन-रात काम किया. क्या मैंने कोई छुट्टी ली? क्या मैं आराम कर रहा हूं? क्या मैं अपने वादे पूरे नहीं कर रहा?,’ मोदी ने शंघाई में विपक्षियों पर चुटकी लेते हुए ये कहा था. एक मौके पर उन्होंने यह भी कहा कि मेरे बिना थके-हारे, लगातार काम करने की आलोचना हो रही है, मानो ऐसा करना अपराध हो, पर मैं ऐसा करता रहूंगा. अपनी पीठ थपथपाने के अंदाज में उन्होंने आगे कहा, ‘समय बदल रहा है, दुनिया अब भारत की तरफ अलग अंदाज से देख रही है. इसकी वजह बीते एक साल में सरकार का बेहतरीन प्रदर्शन है और भारत के सभी नागरिकों के लिए ये गौरव की बात है.’

मोदी विदेशी दौरों पर ‘सेल्फी’ खिंचवाने और वहां के भारतीयों को संबोधित करने के चलते वे विदेशों में तो बहुत लोकप्रिय होते जा रहे हैं पर अपने देश में उनकी विश्वसनीयता कम हो रही है. अपनी स्वीकार्यता और पहुंच बढ़ाने के लिए इससे पहले भी प्रधानमंत्री अपनी विदेश नीति का ही सहारा लेते आए हैं पर अगर किसी सरकार का मुखिया अपने कार्यकाल के शुरुआती दौर में ही इसका सहारा लेने लग जाए तो यह न तो प्रधानमंत्री के लिए और न ही सरकार के लिए अच्छा है.

पढ़ें : मोदी सरकार का लेखा-जोखा

रसूखदार दागी

sanjeev bhatt

मध्य प्रदेश व्यावसायिक परीक्षा मंडल (व्यापमं) की परीक्षाओं में हुए व्यापक भ्रष्टाचार को लेकर कांग्रेस जहां राज्य की भाजपा सरकार को घेरने का कोई मौका नहीं छोड़ रही है, वहीं उसके ही एक पूर्व नेता संजीव सक्सेना पर कदाचार के इतने आरोप लगे हैं कि कांग्रेस अपने ही मुद्दे पर कमजोर पड़ गई.

संजीव सक्सेना से भले ही कांग्रेस ने पीछा छुड़ा लिया है लेकिन उनसे जुड़े विवादों का जिन्न पार्टी की छीछालेदर करने के लिए बार-बार बोतल से बाहर आ जाता है. व्यापमं घोटाले में फंसने के बाद हवालात में दिन गुजार रहे संजीव सक्सेना अपनी करतूतों के कारण बार-बार चर्चा में आ ही जाते हैं. व्यापमं घोटाले में उनकी भूमिका पर चर्चा करने से पहले उनसे जुड़े ताजा विवाद पर एक नजर डालते हैं.
भोपाल का मौलाना आजाद राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान (मैनिट) मध्य प्रदेश के अलावा उससे लगे छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र और राजस्थान जैसे राज्यों के लिए जाना पहचाना नाम है. मैनिट और पूर्व कांग्रेस नेता संजीव सक्सेना का नाम एक बार फिर चर्चा में है. दरअसल मैनिट से संजीव के परिवार को बर्खास्तकर फिर दूसरे ही दिन बहाल कर दिया. जी हां, सक्सेना ने अपनी ऊंची रसूख के चलते मैनिट जैसे संस्थान में अपने आधे परिवार को ही नियुक्त करवा दिया था. संजीव सक्सेना की बहन अर्चना सक्सेना (असिस्टेंट लाइब्रेरियन), पत्नी अरुणा सक्सेना (ट्रेनिंग एंड प्लेसमेंट ऑफिसर) और बहन अंशु गुप्ता (असिस्टेंट प्रोफेसर) अलग-अलग पदों पर मैनिट में नौकरी कर रही थीं. इनके अलावा अभय शर्मा (असिस्टेंट प्रोफेसर) और कविता देहलवार (असिस्टेंट प्रोफेसर) को भी नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया था. सभी पांच लोगों की नियुक्ति काफी समय से विवादों में रही है और दो बार जांच में नियुक्ति के लिए योग्य नहीं पाए जाने के बाद मैनिट के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स (बीओजी) ने इनकी नियुक्ति रद्द करने का आदेश जारी किया था. लेकिन इस फैसले को पलटते हुए डायरेक्टर डॉ. अप्पू कुट्टन ने इस फैकल्टी को फिर से बहाल कर दिया. इससे ही सक्सेना परिवार की रसूख का अंदाजा हो जाता है. संजीव सक्सेना व्यापमं घोटाले के कारण भले ही जेल में बंद हैं लेकिन उनके जलवे अब भी बरकरार हैं. इस मामले में मैनिट के डायरेक्टर डॉ. अप्पू कुट्टन का कहना है कि सीबीआई ने नियुक्ति को क्लिनचिट दी है. जबकि मैनिट के बीओजी की बैठक में सीबीआई की रिपोर्ट को नहीं रखा गया था. इसलिए बर्खास्तगी का गलत फैसला ले लिया गया था. बाकी मुझे इस बारे में और कुछ नहीं कहना.

संजीव सक्सेना की पहुंच का अंदाजा इस बात से लगाया जाता रहा है कि नौकरी से निकाले जाने के बाद भी उनके परिजनों की बहाली कर दी गई

संजीव सक्सेना की पत्नी अरुणा सक्सेना की नियुक्ति ट्रेनिंग एंड प्लेसमेंट ऑफिसर, बहन अर्चना सक्सेना की असिस्टेंट लाइब्रेरियन और अरुणा सक्सेना की बहन अंशु गुप्ता की असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर नियुक्ति 2005 में हुई थी. इनके अलावा अभय शर्मा और कविता देहलवार की असिस्टेंट प्रोफेसर के तौर पर भी नियुक्ति हुई थी. इन सभी की नियुक्ति अवैध ठहराई गई थीं. इन नियुक्तियों में गड़बड़ी की शिकायत मानव संसाधन विकास मंत्रालय (एमएचआरडी) पहुंची थी. एमएचआरडी के निर्देश पर सबसे पहले रिटायर्ड आईएएस एमएन बुच को इसकी जांच सौंपी गई. बुच की रिपोर्ट के बाद एमएचआरडी ने मैनिट के चेयरमैन को मामले की विस्तार से जांच करने के निर्देश दिए तो एसएम शुक्ला की अध्यक्षता में इसकी जांच शुरू हुई जो बाद में सीबीआई को सौंप दी गई. करीब पांच सालों तक यह मामला चलता रहा. 2010 में मैनिट के बोर्ड ऑफ गवर्नर ने एसएच लोधा और आरके त्रिपाठी को मामले की न्यायिक जांच करने की जिम्मेदारी दी. जांच में सामने आया कि 2005 में की गईं ये नियुक्तियां नियमों के मुताबिक सही नहीं थी और न ही नियुक्तियों के दौरान ऑल इंडिया काउंसिल ऑफ टेक्निकल एजुकेशन (एआईसीटीई) के नियमों का पालन किया गया. इस समिति ने 2005 में हुई सभी नियुक्तियों को रद्द करने की सिफारिश की थी. पिछले साल मैनिट ने हाईकोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एमए सिद्दीकी की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय समिति की जांच फिर से करवाई. समिति की रिपोर्ट के आधार पर इन पांच लोगों की नियुक्ति रद्द कर दी गई.
संजीव सक्सेना का मैनिट में काफी प्रभाव माना जाता है. वह मैनिट से पढ़े हैं. इसके बाद किसी न किसी रूप में संस्थान में उनकी सक्रियता बरकरार रही. जब मैनिट की इमारत बन रही थी, तब इसके निर्माण का ठेका भी उनके पास ही था. उस वक्त सक्सेना ठेकेदारी पर भवन निर्माण का कार्य भी करते थे. संजीव सक्सेना का एक निजी इंजीनियरिंग कॉलेज भी है. पिछले साल मैनिट के छात्रों ने ट्रेनिंग एंड प्लेसमेंट ऑफिसर अरुणा सक्सेना (संजीव की पत्नी) पर आरोप लगाया था कि वे मैनिट में कैंपस सेलेक्शन के लिए आनेवाली कंपनी को उनके पति के कॉलेज भेज देती हैं. इसके बाद उनके साथ एक और ऑफिसर अटैच किया गया था.
डॉ. संजीव सक्सेना मूलतः भिंड के रहने वाले हैं. उनका एक भाई अभिषेक सक्सेना पार्षद रहे हैं और अभी वर्तमान में भोपाल के एक वार्ड से उनकी भाभी कांग्रेस पार्षद हैं. ये कन्नड़ फिल्मों की अभिनेत्री भी रह चुकी हैं. खुद सक्सेना 2013 में भोपाल पश्चिम विधानसभा सीट से पूर्व गृह मंत्री उमाशंकर गुप्ता के खिलाफ चुनाव लड़ चुके हैं. उनके चुनाव प्रचार के लिए राजीव शुक्ला और रवीना टंडन जैसी हस्तियां भोपाल पहुंची थीं. सक्सेना का राजनीति में प्रवेश भी कम नाटकीय नहीं है. कुछ वर्ष पूर्व भोपाल में एक नाबालिग बच्ची की लाश मिलने के बाद सक्सेना ने कई आंदोलन और प्रदर्शन किए थे. अपने धनबल के जरिए इन आंदोलनों में भीड़ भी जुटाई थी. बस इससे प्रभावित होकर कांग्रेस ने संजीव सक्सेना को अपनी पार्टी का अहम कार्यकर्ता बना दिया था. उस वक्त मध्य प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सुरेश पचौरी थे. उनकी सिफारिश पर ही सक्सेना को विधानसभा का टिकट दिया गया था. सक्सेना 2005 में भी मेडिकल की प्रीपीजी परीक्षा का पर्चा लीक करने का आरोपी भी रहे हैं. व्यापमं घोटाले की जांच कर रही एसटीएफ (स्पेशल टास्क फोर्स) ने सक्सेना के खिलाफ दुग्ध संघ जूनियर सप्लाई ऑफिसर भर्ती परीक्षा 2012 और आरक्षक भर्ती परीक्षा 2012 में फर्जीवाड़े के मामले में चार अलग-अलग केस दर्ज कर रखें हैं. तीन मामलों में जमानत मिल चुकी है लेकिन एक मामले में अदालत ने जमानत नहीं दी है और वे जेल में हैं.
पुलिस जांच में सक्सेना के पास अकूत संपत्ति पाई गई है. सक्सेना ने भोपाल के अलावा दिल्ली और केरल में भी संपत्ति में निवेश कर रखा है. भोपाल में उनके पास श्यामला हिल्स और कोटरा जैसे पॉश इलाकों में भूखंड हैं. अमरावदखुर्द और कुशलपुरा में 100 एकड़ जमीन है. भोपाल के ही संजय कॉम्प्लेक्स, सात नंबर स्टॉप, शिवाजीनगर में दुकानें हैं. चूनाभट्टी और शाहपुरा में बंगलें भी हैं. सक्सेना राधा रमण कॉलेज के नाम से भोपाल व मध्य प्रदेश के दूसरे शहरों में शिक्षण संस्थान भी संचालित करते हैं. संजीव सक्सेना कांग्रेस नेता आरिफ मसूद के करीबी भी माने जाते हैं.

संजीव सक्सेना के संबंध भारतीय जनता पार्टी के बड़े नेताओं से भी रहे हैं. इसका खुलासा व्यापमं घोटाले के उजागर होने के बाद हुआ

संजीव सक्सेना की पहुंच का अंदाजा इस बात से लगाया जाता रहा है कि मैनिट के 11 साल पहले के नियुक्ति मामले में एक बार नौकरी से निकाले जाने के बाद भी सक्सेना के परिजनों की बहाली कर दी गई थी. मैनिट प्रबंधन ने बहाली के बाद तर्क दिया था कि सीबीआई की रिपोर्ट के आधार पर बहाली की गई है, जबकि हाईकोर्ट के दो रिटायर्ड जजों की कमेटियों की रिपोर्ट नजरअंदाज कर दी गई. यूपीए सरकार में जब सीबीआई इस मामले की जांच कर रही थी, तो उसे इन नियुक्तियों में कोई गड़बड़ी नहीं मिली थी.
वर्ष 2005 में मैनिट में 60 नियुक्तियां हुई थीं. शुरुआती जांच में इन सभी पर सवाल उठाए गए थे, लेकिन आखिर में उनके परिवार से जुड़ी पांच नियुक्तियां ही संदिग्ध मानी गई थीं. 2005 में ही रिटायर्ड आईएएस अधिकारी एमएन बुच ने मामले की जांच की थी और दोबारा जांच की अनुशंसा की. वर्ष 2008 में एसएम शुक्ला की कमेटी ने सीबीआई को रेफर करने की अनुशंसा की थी. लेकिन सीबीआई ने जांच के बाद मामले में सभी को क्लीनचिट दे दी. 2010 में जस्टिस लोढा और आरके त्रिपाठी कमेटी ने पूरी भर्ती प्रक्रिया को ही नियम विरुद्ध माना. वर्ष 2014 में जस्टिस एमए सिद्दीकी की कमेटी ने पांचों नियुक्तियों को गलत मानते हुए निरस्त करने की सिफारिश की.
संजीव सक्सेना के संबंध भाजपा के बड़े नेताओं से भी रहे हैं. इसका खुलासा व्यापमं घोटाले के उजागर होने के बाद हुआ. पुलिस आरक्षक-उपनिरीक्षक परीक्षा भर्ती घोटाले के दो अलग-अलग मामलों में कांग्रेस नेता संजीव सक्सेना और खदान व्यवसायी सुधीर शर्मा की संलिप्तता पाई गई थी. संजीव सक्सेना पर आरोप है कि उन्होंने भाजपा नेता सुधीर शर्मा के जरिए व्यापमं के अधिकारियों से सांठ-गांठकर फर्जी तरीके से परीक्षा में चयन कराया है. खुद एसटीएफ ने अदालत में पेश प्रतिवेदन में यह बात कबूली है. संजीव सक्सेना की ओर से पेश अग्रिम जमानत अर्जी के विरोध में एसटीएफ ने यह प्रतिवेदन अदालत में पेश किया था. विशेष सत्र न्यायाधीश संजीव कालगांवकर की अदालत में पेश प्रतिवेदन में एसटीएफ ने बताया कि पुलिस आरक्षक भर्ती परीक्षा में संजीव सक्सेना ने दुर्गेश सिंह, बृजेश साहू और भरत सिंह ठाकुर के चयन के लिए व्यापमं के अधिकारियों को 3 लाख रुपये दिए थे. उपनिरीक्षक भर्ती घोटाले में भी सक्सेना ने सुधीर शर्मा के जरिए व्यापमं के अधिकारियों को पैसे देकर फर्जी तरीके से चयन कराया है.
जब सक्सेना का व्यापमं घोटाले में नाम आया तो वे फरार हो गए लेकिन जब कोर्ट ने उनकी संपत्ति राजसात करने की चेतावनी दी तो उन्होंने भोपाल जिला न्यायालय के मुख्य न्यायिक दंडाधिकारी (सीजेएम) पंकज सिंह माहेश्वरी की अदालत में 12 मई 2014 को आत्मसमर्पण कर दिया. इससे पहले सक्सेना ने मीडिया से चर्चा के दौरान कहा था कि उन्होंने तत्कालीन गृहमंत्री उमाशंकर गुप्ता के खिलाफ चुनाव लड़ा था, इसलिए उनके खिलाफ साजिश कर उन्हें आरोपी बनाया गया है. छह महीने तक फरार रहने के सवाल पर उनका कहना था कि वे फरार नहीं हुए थे, बल्कि गिरफ्तारी से बचने के लिए हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट गए थे. संजीव सक्सेना ने मीडिया के सामने खुद स्वीकार भी किया था कि उनके भाजपा नेता और खनिज कारोबारी सुधीर शर्मा और व्यापमं के चीफ सिस्टम एनालिस्ट नितिन महिंद्रा से अच्छे संबंध हैं. शर्मा और महिंद्रा भी इस फर्जीवाड़े में आरोपी हैं.
सुधीर सक्सेना का कांग्रेस के ही बड़े-बड़े नेताओं से करीबी संबंध रहा है. पूर्व केंद्रीय मंत्री सुधीर पचौरी ने उसे विधानसभा चुनाव का टिकट दिलाया था. मध्यप्रदेश के प्रभारी बनकर पहुंचे वरिष्ठ कांग्रेस नेता मोहन प्रकाश से भी सक्सेना ने नजदीकियां बढ़ा ली थी.
भाजपा नेता हितेश बाजपेयी बताते हैं, ‘देखिए मैं इस विषय पर कोई टिप्पणी नहीं कर सकता. जहां तक व्यापमं घोटाले और इसमें संजीव सक्सेना या किसी अन्य की संलिप्तता की बात है तो इतना जरूर कह सकता हूं कि यह प्रशासनिक चूक का मामला है. कानून अपना काम कर ही रहा है. इसे राजनीति से जोड़कर देखा जाना ठीक नहीं है. हालांकि यह अलग बात है कि इसमें राजनीतिक लोगों की लिप्तता ही पाई गई है. इसलिए इस मामले में टिप्पणी करना ठीक नहीं है.’ वहीं कांग्रेस के प्रदेश प्रवक्ता केके मिश्रा कहते हैं, ‘सक्सेना का कांग्रेस से कोई रिश्ता नहीं. हम उन्हें निष्कासित कर चुके हैं इसलिए उन पर बात करने का कोई औचित्य नहीं है. व्यापमं घोटाले में नाम आने के बाद हमने सक्सेना को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया है. मैनिट में उनकी भूमिका को लेकर बहुत सारी बातें होती रही हैं लेकिन जब वह कांग्रेस में हैं ही नहीं, तो बात करने का कोई मतलब नहीं है.’
फिलवक्त संजीव सक्सेना को हाईकोर्ट के चीफ जस्टिस एएम खानविलकर व जस्टिस आलोक आराधे की युगलपीठ ने सक्सेना की दुग्ध संघ जूनियर सप्लाई ऑफिसर की भर्ती मामले में 25 लाख रुपये के मुचलके पर जमानत तो दे दी है लेकिन संविदा शिक्षक मामले में जमानत नहीं मिलने के कारण वे जेल में हैं.
गिरफ्तारी के बाद एसटीएफ की ओर से संजीव सक्सेना के खिलाफ संविदा शिक्षक भर्ती मामले का चौथा प्रकरण दर्ज किया गया था. बहरहाल, भले ही व्यापमं घोटाले में नाम आने के बाद कांग्रेस ने दोहरे मापदंड से बचने के लिए संजीव सक्सेना को पार्टी से बर्खास्त कर दिया हो लेकिन भाजपा उनका नाम ले-लेकर कांग्रेस की लानत मलानत करने से नहीं चूक रही.

फिर बारूद पर बस्तर

Naxal Maoist by Shailendra (49)

छत्तीसगढ़ में एक बार फिर गृह युद्ध जैसी स्थितियां बनती नजर आ रही हैं. उच्चतम न्यायालय के निर्देश के बाद बंद किया गया ‘सलवा जुडूम’ एक बार फिर एक नए नाम से शुरू करने का शंखनाद कर दिया गया है. महेंद्र कर्मा के परिवार समेत सलवा जुडूम के पुराने नेता ‘बस्तर विकास संघर्ष समिति’ के बैनर तले इकट्ठा होकर नए आंदोलन की रूपरेखा तय कर रहे हैं. समिति की अगुवाई कर्मा के दूसरे बेटे छविंद्र कर्मा कर रहे हैं. कांग्रेस ने जहां इस अभियान से दूरी बनाने का ऐलान किया है, वहीं भाजपा एक बार फिर इसका स्वागत करती नजर आ रही है. उधर इस समिति को लेकर नक्सलियों के भी कान खड़े हो गए हैं. नक्सलियों ने एक प्रेस विज्ञप्ति जारीकर छविंद्र कर्मा को जान से मारने की धमकी देते हुए समिति की ओर से शुरू होनेवाले आंदोलन वापस लेने की चेतावनी दी है.

सलवा जुडूम यानी ‘शांति का कारवां’ साल 2005 में शुरू किया गया था. हैरानी की बात ये है कि शांति के इस कारवां पर अतीत में हिंसा के अनगिनत आरोप लग चुके हैं. इतने आरोप लगे कि 2011 में सलवा जुडूम का मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और वहां इसे अवैध घोषित कर दिया गया. अब एक बार फिर बस्तर सुलगने लगा है. एक तरफ माओवादी लगातार अर्द्धसैनिक बलों के साथ ग्रामीणों की हत्या कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ महेंद्र कर्मा के बेटे छबिंद्र कर्मा, सलवा जुडूम से शुरुआती दौर से जुड़े रहे चैतराम अटामी और सुखदेव ताती जैसे नेताओं को ‘बस्तर विकास संघर्ष समिति’ के बैनर तले एकजुट करके फिर से आंदोलन शुरू कर रहे हैं. महेंद्र कर्मा ने जिसे कभी सलवा जुडूम का नाम दिया था, यह समिति भी बिलकुल वैसी ही है. जैसे नई बोतल में पुरानी शराब.

नए आंदोलन पर बात करने से पहले सलवा जुडूम के आगाज और अंजाम पर एक नजर दौड़ाना जरूरी है. अपने राजनीतिक कॅरियर की शुरुआत में कम्युनिस्ट नेता रहे महेंद्र कर्मा ने कांग्रेस का दामन थामने के बाद सलवा जुडूम आंदोलन की शुरुआत की. इस आंदोलन को लेकर तर्क दिया गया था कि यह बस्तर के आदिवासियों का स्वतः स्फूर्त आंदोलन है, जो नक्सलियों के खिलाफ है. इस अभियान में ग्रामीणों को माओवादियों के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया गया. 2005 में जब सलवा जुडूम की विधिवत शुरुआत हो रही थी, तब छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकार बन चुकी थी.

रमन सिंह मुख्यमंत्री बन चुके थे. रमन सिंह को सलवा जुडूम अभियान अच्छा लगा. विरोधी पार्टी की सरकार होने के बाद भी रमन सिंह ने कांग्रेस के इस अभियान को हर मंच पर सराहा. राज्य सरकार का समर्थन मिलने से कई ग्रामीण आदिवासियों को हथियार देकर स्पेशल पुलिस ऑफिसर (एसपीओ) बनाया गया. इसके तहत उन्हें 1500 से 3000 रुपये तक भत्ता भी दिया जाता था.

सलवा जुडूम में शामिल ग्रामीणों ने नक्सलियों को गांवों में शरण और राशन देने से इंकार कर दिया. इस अभियान को सफलता भी मिली. आदिवासियों की मदद से माओवादियों की जंगलों में चल रही विरोधी गतिविधियों और ठिकानों की जानकारी सुरक्षा एजेंसियों को मिली. उसी दौरान नक्सलवाद से निपटने के लिए आतंकवाद विशेषज्ञ और पंजाब के वरिष्ठ पुलिस अफसर केपीएस गिल की भी सेवाएं ली गईं, लेकिन वांछित सफलता नहीं मिल सकी. सलवा जुडूम के चलते नक्सली और ग्रामीणों के बीच तकरार बढ़ा और 644 से अधिक गांव खाली हो गए. उस वक्त स्थिति ऐसी थी कि 23 राहत शिविरों में हजारों लोग रहते थे.

वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी अपनी एक किताब में लिखते हैं कि लोगों को ट्रकों में भरकर सलवा जुडूम कैंपों में लाकर छोड़ा जा रहा था. गांव के गांव खाली करवाए जा रहे थे. आदिवासी या तो सलवा जुडूम कैंप में आने के लिए मजबूर थे या फिर भागकर जंगल की शरण ले रहे थे. माओवादी ‘सलवा जुडूम’ से काफी नाराज थे. वे भी लगातार सलवा जुडूम कैंपों पर या जुडूम नेताओं पर हमला कर रहे थे. धीरे-धीरे सलवा जुडूम आंदोलन ने तो दम तोड़ दिया. शिविर से कुछ लोग अपने गांव लौट गए तो कुछ पड़ोसी राज्यों में पलायन कर गए. तमाम लोग अब पड़ोसी राज्यों से भी लौट रहे हैं. मानवाधिकार कार्यकताओं ने सलवा जुडूम को खूनी संघर्ष बढ़ानेवाला अभियान बताया. उन्होंने इसके औचित्य पर प्रश्नचिह्न उठाए. उनका कहना था कि मासूम गांववालों को सरकार माओवादियों और नक्सलियों के खिलाफ हथियार बनाकर लड़ रही है. 2011 में मानवाधिकार कार्यकर्ता नंदिनी सुंदर मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट में पहुंचीं और उच्चतम न्यायालय ने सलवा जुडूम को अवैध घोषित किया. आरोप ये भी लगे कि सलवा जुडूम को आपसी रंजिश का बदला लेने के लिए हथियार की तरह इस्तेमाल किया गया. इसकी आड़ में अवैध उगाही की खबरें भी आईं. सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद सरकार को एसपीओ से हथियार वापस लेने पड़े.

25 मई 2013 को नक्सलियों ने जगदलपुर के पास झीरम घाटी में घात लगाकर महेंद्र कर्मा समेत 27 कांग्रेस नेताओं की हत्या कर दी. महेंद्र कर्मा सलवा जुडूम शुरू करने के बाद से ही नक्सलियों की हिट लिस्ट में थे. उन पर इसके पहले भी कई बार जानलेवा हमला हो चुका था, हर बार वे बच निकले थे. लेकिन झीरम में उनकी बर्बरतापूर्वक हत्या कर दी गई. सलवा जुडूम बंद होने के बाद उसके कई नेता मारे गए. उनके नामों की सूची बहुत लंबी है. बाकी बचे हुए नेता या तो शहरों में शरण लिए हुए हैं, या फिर बंदूकों के साए में जीने को मजबूर हैं.

अब यही सारे लोग फिर से बस्तर संघर्ष समिति के बैनर तले मजबूत होना चाहते हैं. सलवा जुडूम के पुराने नेताओं ने कर्मा परिवार के साथ मिलकर एक बार फिर नक्सलियों के खिलाफ आंदोलन छेड़ने का ऐलान कर दिया है. 25 मई 2015 को महेंद्र कर्मा की दूसरी पुण्यतिथि के मौके पर आंदोलन की रणनीति तय की जानी है.

आंदोलन का ऐलान होते ही नक्सलियों के दंडकारण्य जोनल कमेटी के प्रवक्ता गुडसा उसेंडी ने विज्ञप्ति जारीकर छविंद्र कर्मा से आंदोलन वापस लेने की चेतावनी भी दे दी है. नक्सलियों ने छविंद्र को मारने की धमकी भी दी है. वहीं दिंवगत नेता महेंद्र कर्मा के पुत्र छविंद्र कर्मा कहते हैं, ‘सलवा जुडूम बंद नहीं होता तो कम से कम दक्षिण बस्तर से नक्सलवाद को हम खत्म कर चुके होते. लेकिन दुर्भाग्यवश सलवा जुडूम ही बंद कर दिया गया और इस कारण महेंद्र कर्मा समेत हमारे कई बड़े नेता मारे गए. अब हम फिर एकजुट हो रहे हैं. नक्सलियों का बयान यह साबित करता है कि वे हमसे डर गए हैं.’

छविंद्र कर्मा, कांग्रेस के भी नेता हैं लेकिन उनकी ही पार्टी उनके इस अभियान का विरोध करती नजर आ रही है. छत्तीसगढ़ के नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव ने साफ कर दिया है कि आंदोलन से कांग्रेस का कोई लेना-देना नहीं है. वहीं भाजपा ठीक 2005 ही की तरह कर्मा परिवार की इस कवायद का स्वागत कर रही है. भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक कहते हैं, ‘इसमें गलत क्या है. गांववाले एक बार फिर नक्सलियों का विरोध कर रहे हैं. हम इस आंदोलन का समर्थन करते हैं.’

इन सब के बीच छत्तीसगढ़ पुलिस ने मौन धारण कर रखा है. राज्य के पुलिस महानिदेशक एनएन उपाध्याय इस विषय पर बात नहीं करना चाहते. हालांकि हकीकत ये भी है कि बस्तर में पिछले कुछ सालों में नक्सल गतिविधियों में तेजी आई है. आंकड़ों पर गौर करें तो वर्ष 2005 से अप्रैल 2015 तक छत्तीसगढ़ में 2232 लोगों की हत्या नक्सलियों के हमले में हुई है. इस हिसाब से राज्य में नक्सल हमले में औसतन दो दिनों में एक मौत हुई है. 11 सालों में 896 सुरक्षा बल के जवान, 667 आम नागरिकों की मौत हुई है तो दूसरी तरफ पुलिस द्वारा 709 नक्सलियों को मार गिराने का दावा किया गया है. सर्वाधिक मौत का आंकड़ा 2006 में दर्ज है. इस साल 361 की मौत हुई थी. 2007 में 350, 2009 में 345 और 2010 में 327 लोगों की मौत हुई थी. 2015 में ही पांच महीनों में अभी तक 30 लोगों की मौत हुई है, जिनमें 17 सुरक्षा बल के जवान, नौ नागरिक व दो नक्सली शामिल हैं. 11 सालों में नक्सली हमले में 2232 झारखंड में 1344, आंध्र प्रदेश में 712, ओडिशा में 612 एवं महाराष्ट्र में 424 लोगों की मौत हो चुकी है.

बहरहाल अविभाजित मध्य प्रदेश से अलग हुए छत्तीसगढ़ को नक्सलवाद विरासत में मिला है. सलवा जुडूम जैसा आंदोलन भी छिटपुट रूप से नब्बे के दशक में आकार लेने लगा था. भले ही 2005 में यह व्यापक रूप में सामने आया. सलवा जुडूम के दौरान बस्तर के आदिवासियों ने मौत का नंगा देखा है. दोनों तरफ से चलती बंदूकों के बीच फंसा निर्दोष आदिवासी एक बार फिर चिंतित है कि वह किसके पाले में जाए और किससे दूर रहे क्योंकि मरना तो उसे दोनों तरफ से है. उसे तो बस यह
चुनने की आजादी मिली है कि वह किसकी गोली से मरना चाहता है.