मानेसर मामले की सुनवाई कहां तक पहुंची है? आिखरी फैसला कब तक आने की उम्मीद है?
जुलाई में इस मामले की आिखरी सुनवाई है. हम उसी की तैयारी कर रहे हैं. इस मामले में पुलिस ने कुल 148 मजदूरों को गिरफ्तार किया था. उनमें से 114 जमानत पर रिहा हो चुके हैं. बाकी 34 मजदूर अभी भी जेल में ही हैं. हम उनकी जमानत के लिए भी कोशिश कर रहे हैं. जल्दी ही ये सभी लोग भी बाहर होंगे.
घटना को तीन साल होने वाले हैं. अभी भी 34 मजदूर जेल में हैं. फिलहाल जो लोग जमानत पर बाहर हैं वो भी दो-ढाई साल से जेल में ही थे. जमानत मिलने में इतना वक्त कैसे लग गया?
जेल में कौन हैं? जेल में मजदूर बंद हैं और ऐसा लगता है कि इस देश को मजदूर चाहिए ही नहीं. पिछले कुछ समय से देश में जो माहौल बना है उससे तो ऐसा ही लगता है कि इस देश को केवल पूंजीपति चाहिए और व्यापारी चाहिए. मजदूर किसी को नहीं चाहिए… अगर आप मजदूर हैं. अगर आप मेहनतकश हैं तो आपका इस देश में कोई भला नहीं कर सकता. सरकारें केवल जीडीपी में योगदान देख रही हैं. इन्हें यह नहीं दिखता कि कारखानों में काम कौन करता है? किसकी मेहनत की वजह से जीडीपी में बढ़ोतरी हो रही है? उलटे इस बढ़ोतरी का पूरा श्रेय कंपनी मालिकों और पूंजीपति तबके को मिल जाता है. मजदूर या कहें कि मेहनतकश तबके के बारे में कोई सोच ही नहीं रहा.
लेकिन अदालतों में तो मामला केवल सबूत और गवाहों के आधार पर चलता है. क्या अदालत में मजदूरों का पक्ष कमजोर था या उनके खिलाफ इतने पुख्ता सबूत और गवाह थे कि जमानत मिलने में ही दो-ढाई साल लग गए.
मैं साफ-साफ नहीं बता सकती कि जमानत मिलने में इतना समय क्यों और कैसे लग गया. मैं सर्वोच्च न्यायालय में इस केस की पैरवी कर रही हूं. मैंने इस केस को पूरा पढ़ा है और इस आधार पर मैं कह सकती हूं कि केस में इन मजदूरों के खिलाफ कोई खास सबूत हैं ही नहीं. मैंने पुलिस की चार्जशीट पढ़ी है और उन सबूतों को भी देखा है जो इस मामले में पुलिस द्वारा अदालत के सामने रखे गए हैं. अदालत का फैसला सबूतों के आधार पर ही आता है. सबूतों को देखने-समझने पर साफ-साफ समझ आता है कि जेल में बंद 148 मजदूरों में से 110-112 तो ऐसे हैं जिनके खिलाफ एक भी सबूत नहीं है. किसी गवाह ने इनके खिलाफ एक शब्द तक नहीं कहा है. इन्हें अदालत में किसी ने पहचाना तक नहीं है. इस मामले में पुलिस ने बहुत से निर्दोष मजदूरों को जेल में डाल दिया. मारुति सुजुकी एक बड़ी कंपनी है. सभी राजनीतिक पार्टियों से इनके संबंध अच्छे हैं. संभव है कि जब पुलिस इस मामले की जांच कर रही थी तो उस पर मजदूरों को सबक सिखाने जैसा कोई दवाब रहा हो और इसी वजह से पुलिस ने बोगस गवाहों के आधार पर इतने सारे बेगुनाह मजदूरों को पकड़ कर जेल में ठूस दिया.
‘देश में जो माहौल बना है उससे तो ऐसा ही लगता है कि इस देश को केवल पूंजीपति और व्यापारी चाहिए, मजदूर नहीं’
आप कह रही हैं कि 110-112 मजदूर ऐसे हैं जिनके खिलाफ एक भी सबूत नहीं है. अदालत के सामने किसी ने इनकी पहचान तक नहीं की, लेकिन फिर भी उन्हें कोर्ट ने दो-ढाई साल तक जमानत नहीं दी. आखिर क्यों? अगर पुलिस ने बेगुनाहों को जेल में डाला था तो केस की सुनवाई कर रहे जजों को ये क्यों नहीं दिखा?
दिख तो जाना ही चाहिए था. पता नहीं क्यों नहीं दिखा. इस मामले में जब हमने एक मजदूर की जमानत के लिए चंडीगढ़ हाईकोर्ट में अर्जी लगाई तो जज ने हमारी अर्जी नामंजूर कर दी. अर्जी खारिज करते हुए जज ने जो कहा वो चौंकाने वाला था. उन्होंनेे कहा कि मानेसर प्लांट में जो घटना हुई है उससे देश में होने वाले विदेशी निवेश पर बड़ा बुरा प्रभाव पड़ेगा. अगर हम इस मामले में जमानत देंगे तो इससे गलत संदेश जाएगा और देश में विदेशी पूंजी निवेश पर बुरा असर पड़ेगा. यह काम अदालत का नहीं है. अदालत के सामने एक जमानत की अर्जी थी और ऐसे में उसे केवल सबूत देखने चाहिए और इस आधार पर अपना फैसला देना चाहिए. अदालतों का काम यह नहीं है कि वो देश में होने वाले विदेशी पूंजी निवेश की चिंता करें. इसके लिए सरकार के बाकी अंग हैं और उन्हें उनका काम करने देना चाहिए. देश की अदालतों को केवल इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि एक व्यक्ति को संविधान और देश के कानून से क्या अधिकार मिले हैं. अगर अदालतें फैसला देते वक्त यह देखने लगेंगी कि सरकार क्या चाहती है या कोई समूह क्या चाहता है तो इससे जनता के मूलभूत अधिकार खतरे में पड़ जाएंगे.
आप कह रही हैं कि पुलिस पर किसी तरह का दबाव रहा होगा. मैं यह जानना चाहता हूं कि क्या इस मामले की सुनवाई कर रही अदालतों पर भी किसी तरह का दबाव था?
नहीं. मैं सीधे तौर पर ऐसा नहीं मानती हूं. लेकिन इस केस को लेकर चंडीगढ़ हाईकोर्ट में जरूर कुछ ऐसा चल रहा था जो न्याय के पक्ष में नहीं था. वहां जरूर कुछ ऐसा हो रहा था जो हमारी न्याय व्यवस्था के लिए हितकर नहीं था.
यह मामला सुप्रीम कोर्ट की जानकारी में भी है. सुप्रीम कोर्ट ने भी शुरू-शुरू में जमानत देना उचित नहीं समझा. आखिर ऐसा कैसे हुआ?
जब मैंने केस की चार्जशीट और बाकी सबूतों को देखे तो लगा था कि ये केस सुप्रीम कोर्ट में तो बिल्कुल नहीं टिकेगा. पहली ही नजर में यह साफ दिख रहा था कि बोगस गवाहों के आधार पर मामला बनाया गया है. मेरा मानना है कि जज की कुर्सी पर जो बैठते हैं वो काफी अनुभवी होते हैं वो दूर से ही सूंघ लेते हैं कि मामले में कुछ दम है भी या पुलिस कहानी बना रही है. लेकिन पता नहीं इस केस में क्या हुआ? यहां तो ये कहानी इतनी साफ-साफ है कि अगर किसी आम पढ़े-लिखे व्यक्ति को भी गवाहों के बयान पढ़ा दिए जाएं तो वह भी कह देगा कि पुलिस ने झूठी कहानी बनाई है. पता नहीं अदालतों को यह कहानी क्यों समझ में नहीं आई. इस केस से जुड़ी एक और बात बताती हूं. पुलिस ने इस मामले की पूरी जांच गुड़गांव के ‘जैपनीज होटल’ में बैठकर की है. जैपनीज होटल में मारुति का खास गेस्ट हाउस है, जहां समय-समय पर कंपनी के शीर्ष अधिकारियों को ठहराया जाता है. इसी होटल में बैठकर पुलिस ने तमाम गवाहों के बयान दर्ज किए हैं.
जमानत मिलने में लगभग तीन साल लग गए. अगर ये लोग कल को बेगुनाह साबित होते हैं तो इन तीन सालों लिए कौन जिम्मेदार होगा?
यह एक बड़ा सवाल है. मैं तो कहूंगी कि ये लोग बिना किसी गलती के जेल में रहे हैं. इनके खिलाफ एक भी सबूत नहीं. कोर्ट में किसी ने इन्हें पहचाना तक नहीं है. अब ऐसे में इन्हें बरी तो होना ही चाहिए. अगर कल को ये बरी होते हैं तो यह सवाल उठेगा कि इन तीन सालों का हिसाब कौन देगा? इन सभी लोगों की नौकरियां जा चुकी हैं. इनकी नौकरी का क्या होगा? इस दौरान इन लोगों ने जो खोया है उसकी भरपाई कौन करेगा. ये सारे सवाल मेरे मन में भी उठते हैं और मजदूरों के मन भी उठते हैं. किसी न किसी को तो इनके इन तीन सालों का हिसाब देना ही चाहिए. एक बार मामले का फैसला आ जाए तब हम न्यायपालिका और सरकार के सामने इन सवालों को रखेंगे.
आमेर किले के ‘लाइट एंड साउंड’ कार्यक्रम के लिए लिखी गई स्क्रिप्ट को लेकर आपके और गुलजार के बीच क्या विवाद है?
असल में हुआ यह था कि 2007-08 में राजस्थान में जब भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की सरकार थी तब यह तय हुआ कि आमेर के किले में ‘लाइट एंड साउंड’ कार्यक्रम शुरू किया जाए. मुकेश भार्गव नाम के एक व्यक्ति हैं जिनसे शायद वसुंधरा राजे ने यह कहा कि इस कार्यक्रम की स्क्रिप्ट गुलजार से लिखवाई जाए और उसे अमिताभ बच्चन अपनी आवाज दें. गुलजार साहब से संपर्क किया गया और वे जयपुर तशरीफ लाए. वे यहां कुछ लोगों से मिले. उनसे मेरी कोई मुलाकात नहीं हुई. मैंने अपनी स्क्रिप्ट लिखी. फिर मैंने गुलजार साहब को फोन किया और पूछा कि अगर आपने स्क्रिप्ट लिख ली हो तो हमें भेज दीजिए. उन्होंने कहा कि हमें पैसा मिल जाएगा तो ही स्क्रिप्ट दूंगा. मैंने पूछा कि आपको कितना एडवांस चाहिए? गुलजार ने कहा कि मैं तो पूरा पैसा लेने के बाद ही स्क्रिप्ट दूंगा.
राजस्थान सरकार ने उन्हें स्क्रिप्ट के लिए कितने पैसे दिए?
सरकार की ओर से उन्हें पूरे 30 लाख रुपये का चेक भेजा गया. उन्होंने स्क्रिप्ट भी भेज दी.
फिर विवाद क्या है?
असल में कुछ विदेशी (सैलानी) जयपुर आए हुए थे और उन्हें लाइट एंड साउंड शो दिखाने की जल्दबाजी थी तो सलाउद्दीन अहमद साहब ने शो का प्रदर्शन करवाया. सलाउद्दीन तब कला व संस्कृति मंत्रालय के प्रमुख सचिव थे. सबने खूब तारीफ की. लेकिन वहां यह सवाल भी उठा कि इसमें अमिताभ की आवाज नहीं है. किसी ने कहा कि यह व्यवस्था कुछ दिनों के लिए है. अमिताभ की आवाज में इसे करवाएंगे. मगर सलाउद्दीन साहब को गुलजार की स्क्रिप्ट पसंद नहीं आई.
गुलजार साहब की लिखी हुई स्क्रिप्ट सलाउद्दीन साहब को क्यों नहीं पसंद आई? उस स्क्रिप्ट में क्या परेशानी थी?
सलाउद्दीन साहब ने जयपुर के जवाहर कला केंद्र में एक मीटिंग बुलवाई थी. मुझे भी उन्होंने बुलाया. मैं वैसे जवाहर कला केंद्र नहीं जाता हूं लेकिन इत्तेफाक से वहां इप्टा की ओर से किसी नाटक का मंचन होना था तो मेरी उनसे मुलाकात वहां हो गई. सलाउद्दीन ने मुझे गुलजार वाली स्क्रिप्ट देते हुए कहा कि यह बड़ी वाहियात है इसे दुरुस्त (ड्रैमेटाइज) कर दीजिए.
स्क्रिप्ट में क्या कोई दिक्कत थी?
मैं आमेर की अपनी स्क्रिप्ट पर पहले से काम कर ही रहा था इसलिए मैंने सलाउद्दीन साहब के कहने पर उनसे गुलजार वाली स्क्रिप्ट ले ली. गुलजार की लिखी स्क्रिप्ट वाकई में बहुत ही वाहियात थी. इस स्क्रिप्ट में आमेर के बारे में बहुत कम बताया गया था. गुलजार की इस स्क्रिप्ट में पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की पूरी शादी आमेर में संपन्न करा दी गई थी
जबकि इस प्रसंग का आमेर से कोई संबंध ही नहीं है. स्क्रिप्ट में बहुत सारी और दिक्कतें थीं. मैंने सलाउद्दीन साहब से माफी मांगते हुए कहा कि मैं नहीं कर पाऊंगा. मैंने उनसे यह भी कहा था कि अगर पायजामा फट जाए तो पैबंद नहीं लगता है. फिर उन्होंने कहा कि तुम ही कुछ लिख दो तो फिर देखेंगे कि क्या किया जा सकता है.
गुलजार की स्क्रिप्ट में इतिहास की दृष्टि से जो गड़बड़ियां थीं, उसे सलाउद्दीन साहब ने भी स्वीकारा?
हां. सलाउद्दीन इतिहास के अच्छे जानकार हैं. वे बहुत पढ़े-लिखे इंसान हैं. उन्होंने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से इतिहास में एमए की पढ़ाई की है. उनके घर पर बहुत अच्छी लाइब्रेरी है. पढ़ने में उनकी गहरी दिलचस्पी है.
खैर, मैंने जब स्क्रिप्ट पूरी कर ली तब उन्हें फोन किया और बताया कि काम पूरा हो गया है लेकिन मुझे टाइपिंग नहीं आती है. सलाउद्दीन अहमद ने कहा कि हम टाइप करवा लेंगे. उन्होंने किसी को भेजकर मुझसे स्क्रिप्ट मंगवा ली.
‘मैंने सलाउद्दीन साहब के कहने पर उनसे गुलजार वाली स्क्रिप्ट ले ली. गुलजार की लिखी स्क्रिप्ट वाकई में बहुत ही वाहियात थी. इस स्क्रिप्ट में आमेर के बारे में बहुत कम बताया गया था. गुलजार की इस स्क्रिप्ट में पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की पूरी शादी आमेर में संपन्न करा दी गई थी जबकि इस प्रसंग का आमेर से कोई संबंध ही नहीं है’
क्या स्क्रिप्ट को ठीक करने या लिखने को लेकर आपके और पर्यटन विभाग के बीच कोई करार भी हुआ था?
नहीं. हमारा कोई करार नहीं हुआ था. सलाउद्दीन साहब ने कहा और मैंने कर दिया. मैंने यह सब दोस्ताने की खातिर किया. इतने बड़े आदमी मुझसे कह रहे थे कि यह काम आप कर दो तो मैं यह कैसे कह सकता था कि नहीं जी पहले पैसे दो तभी करूंगा. मैंने तो भरोसे के ऊपर काम किया. बस यूं समझ लीजिए कि उन्होंने हुक्म दिया और मैंने उसकी तामील की. उस स्क्रिप्ट के ऊपर उन्होंने खुद लिखा, ‘स्क्रिप्ट अकॉर्डिंग रणवीर सिंह, 2008’. स्क्रिप्ट सौंपने के बाद दो मीटिंग और हुई और हमसे कुछ काट-छांट भी उन्होंने करवाए. उन्होंने मेरी स्क्रिप्ट को अंतिम रूप से तय माना. मुकेश भार्गव को स्क्रिप्ट दी गई लेकिन मुकेश को सलाउद्दीन अहमद द्वारा स्क्रिप्ट पर लिखी यह बात ‘स्क्रिप्ट अकॉर्डिंग रणवीर सिंह, 2008’ दिखाई ही नहीं दी. मुकेश उस स्क्रिप्ट को लेकर मुंबई गए और उसमें जोड़-घटाव करके और बगैर मुझे दिखाए ही उसे लाइट एंड साउंड शो में चलवा दिया गया और ताज्जुब ये है कि उसमें मेरा कहीं कोई जिक्र ही नहीं था.
आपने हिंदी वाली स्क्रिप्ट लिखी है या दोनों?
मैंने हिंदी और अंग्रेजी दोनों में ही स्क्रिप्ट लिखी है.
स्क्रिप्ट से आपका नाम हटाया गया और आपको कोई मेहनताना भी नहीं दिया गया?
स्क्रिप्ट में से मेरा नाम हटाया गया और न ही मुझे पैसा दिया गया. न माया मिली, न ही राम.
ऐसी परिस्थिति में कोई भी ठगा हुआ महसूस करेगा?
सीधे-सीधे कहूं तो मेरे साथ धोखा हुआ है. मैं पेशेवर आदमी हूं. मैं इतिहास का जानकार हूं. मेरे पास लोग आते हैं और मैं उनके सामने व्याख्यान देता हूं. अब इस परिस्थिति में मैं जयपुर के इतिहास के बारे में लोगों से बात करूं और कहूं कि आमेर के लाइट एंड साउंड वाली स्क्रिप्ट मेरी लिखी हुई है तो लोग मुझे ही फ्रॉड कहेंगे क्योंकि उसमें मेरे नाम का कहीं जिक्र ही नहीं किया गया है.
पर्यटन विभाग से इस बारे में कोई बात नहीं की?
पर्यटन विभाग से आज की तारीख में मेरी कोई बातचीत नहीं हो रही है. हां, जब बीना काक राजस्थान की पर्यटन मंत्री बनी थीं तब मैंने उनसे इस बारे में बातचीत की थी. बीना काक ने तब कहा भी था कि इस स्क्रिप्ट में रणवीर सिंह का नाम होना चाहिए लेकिन उसके बाद इस दिशा में कोई पहलकदमी हुई नहीं. मैंने बहुत लोगों से बात की. इस धोखाधड़ी के बारे में बताया. हताश होकर मैंने 2009 में अदालत में याचिका दायर की. अभी मामला अदालत में ही चल रहा है. अब जब यह मसला दोबारा उठा है तो लोगों ने मुझसे बात करनी शुरू की है. मैंने इस मसले को अपनी फेसबुक प्रोफाइल पर डाला है. मेरे पास मेरी लिखी हुई स्क्रिप्ट भी है और गुलजार वाली भी है. जिसको दिलचस्पी हो वो मेरे पास आए और देख ले.
आप यदि इप्टा जैसे संगठन के अध्यक्ष नहीं होते तो इस मामले को संभव है कि यूं ही इधर-उधर कर दिया जाता?
मैं न सिर्फ इप्टा का राष्ट्रीय अध्यक्ष हूं बल्कि मैं पूरे राजस्थान में अकेला व्यक्ति हूं जो रॉयल एशियाटिक सोसायटी, लंदन से भी जुड़ा हूं. उसके बाद भी मेरे साथ लोग धोखाधड़ी कर जाते हैं तो क्या किया जा सकता है. ये लोग मेरे साथ क्या, किसी के साथ कुछ भी कर सकते हैं.
गुलजार पर पहले भी इस तरह के आरोप कई बार लग चुके हैं. आपको याद हो फिल्म इश्किया के इब्नेबतूता, बगल में जूता… वाले उनके लिखे गाने को लेकर हिंदी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की बेटी ने आरोप लगाया था कि यह गाना उनके पिता की कविता की कॉपी है. फिल्म आंधी के समय भी उनके एक गीत को लेकर विवाद हुआ था.
जी, गुलजार पर इस तरह के बहुत सारे आरोप लगे हैं. अभी उनकी हालत तो यह हो गई है कि वे आमेर वाले इस मसले को लेकर किसी से बात ही नहीं कर रहे हैं.
जमींदाराना युग में इस तरह की बातें होती थीं कि ‘बोया किसी ने और काटा किसी ने’ ?
पुराने जमाने में राजे-रजवाड़े और जमींदार इस तरह की हरकतें करते थे. मैं यहां एक सच्ची घटना साझा करना चाहता हूं. राजस्थान के टोंक में एक नवाब साहब हैं, जिनसे मेरे अच्छे ताल्लुकात हैं. मैं उनके यहां किसी खास मौके पर पहुंचा था. बाहर मुशायरा चल रहा था. नवाब साहब ने किसी शायर को बुलाया और किसी और की शायरी सौंपते हुए कहा कि चल इसे पढ़ और मेरे नाम से पढ़. वो शायर बेचारा नवाब साहब के नाम से दूसरे की शायरी पढ़ता रहा. स्क्रिप्ट को लेकर ऐसा नहीं होना चाहिए था. यह मामला पूरी तरह से बेतुका और बकवास है.
पिता की तरह क्या आपने भी संस्मरण लिखने के बारे में सोचा है? इसका शीर्षक क्या होगा?
हां, मैं इसे लिख रहा हूं. किताब का शीर्षक ‘माय स्ट्रगल’ (मेरा संघर्ष) है.
अपने संस्मरण के बारे में क्या आप कुछ और प्रकाश डाल सकते हैं?
फिलहाल नहीं, इसके लिए आपको इसे पढ़ना होगा.
ऐसा कहा जाता है कि राजनीति में आने को लेकर आपकी कोई खास दिलचस्पी नहीं थी?
नहीं, मैं अनिच्छुक नहीं था. पिता (शेख अब्दुल्ला) के राजनीति में लौटने के एक साल बाद 1976 में मैं घाटी में लौटा था. मैंने देखा कि तब मेरे पिता सबसे नहीं मिल पाते थे. अपने सहयोगियों के अलावा उन्हें दूसरी सूचनाओं की भी जरूरत थी. इसलिए, मैं उनसे कुछ ऐसे मुद्दे साझा करना चाहता था जो दूसरे उन्हें बताने में असमर्थ हो रहे थे. तब मैंने उन्हें ये बताना शुरू किया कि क्या होना चाहिए. उस वक्त ‘नई दिल्ली’ और ‘श्रीनगर’ के बीच तमाम सारे मतभेद थे, जिसके चलते 1953 की शेख अब्दुल्ला सरकार के अलावा राज्य की कई सरकारें बर्खास्त हो गईं थीं. कुछ निहित स्वार्थों के कारण ये मतभेद बनाए गए थे. इसलिए सन 1980 में मैंने अपने पिता को बताया कि मैं राजनीति में शामिल होना चाहता हूं. तब उन्होंने कहा था, ‘राजनीति में मत शामिल हो. राजनीति नदी की तरह है, इसके लिए धारा के खिलाफ तैरने का साहस होना चाहिए.’ उनके पास कभी भी परिवार के लिए वक्त नहीं रहा और उन्हें डर था कि मेरे साथ भी ऐसा ही हो सकता है. मगर मैंने उनसे कहा था कि मैं राजनीति में शामिल होना चाहता हूं और अब आप देख सकते हैं कि मैं कैसे उन विपरीत हालातों से पार पा सका. जितना ज्यादा से ज्यादा मैं कर सकता था, उतनी कोशिश मैंने की. इससे मुफ्ती मोहम्मद सईद और दूसरे लोग खुश नहीं थे. उन्होंने साजिशें रचनी शुरू कर दीं और 1977 में एक बार फिर उन्होंने मेरे पिता की सरकार गिरा दी. राज्यपाल शासन लागू हो गया था, मगर सौभाग्य से हमारे पास एक अच्छे राज्यपाल थे और दिल्ली में कांग्रेस सत्ता में नहीं थी. उस वक्त मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री थे. मैं दो बातों के लिए मोरारजी देसाई का शुक्रगुजार हूं. पहली, तमाम सलाहों के खिलाफ जाकर उन्होंने जम्मू कश्मीर में चुनाव करवाया और कहा था कि यह स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से होगा. दूसरी, उन्होंने मेरी भारतीय नागरिकता मुझे वापस दिलवाई. इंग्लैंड में डॉक्टरी की प्रैक्टिस के दौरान मैं ब्रिटिश नागरिक बन गया था. अगर कांग्रेस की सरकार होती तो मैं अपनी नागरिकता वापस नहीं पा सकता था.
क्या यह सच है कि 1982 में आपकी सरकार की बर्खास्तगी के बाद आपको महसूस हुआ कि केंद्र सरकार के साथ अच्छे ताल्लुकात होने चाहिए? हाल ही में एक ट्वीट के जरिए आपके बेटे उमर अब्दुल्ला ने भी यही बात कही है.
मैं आपसे बिल्कुल स्पष्ट रहूंगा. हमारे पास संसाधन नहीं हैं. अब हमें हर चीज के लिए भीख मांगनी पड़ती है. मेरे कार्यकाल में सरकार को जो कर राजस्व मिला था वह 800 करोड़ रुपये से भी कम था और हमारा वेतन व्यय 5000 करोड़ रुपये था. इस असमानता को देखिए. सड़क, कृषि, बागवानी और पर्यटन क्षेत्र के विकास को तो छोड़ ही दीजिए, हमारे पास तो बुनियादी सुविधाओं के लिए भी पैसे नहीं थे. इसलिए जब तक केंद्र के साथ हमारे ताल्लुक अच्छे नहीं होंगे, तब तक हमें कुछ भी नहीं मिल सकता था. उदाहरण के तौर पर देखें तो जब जम्मू में सूखा पड़ा, तब कृषि मंत्री भजन लाल थे. प्रभावित क्षेत्रों का दौरा करते वक्त हर कहीं उन्होंने घोषणा की कि वह मुआवजा देंगे. ये रकम तकरीबन 1600 करोड़ थी. आप जानते हैं तब हमें क्या मिला? हमें कुछ भी नहीं मिला. बुनियादी सुविधाओं के विकास से समझौता करते हुए किसानों को 37 करोड़ रुपये देने के लिए मुझे बजट से कटौती करनी पड़ी. इसलिए मैंने किसानों को खाद, बीज और उपकरण मुहैया करवाए. मुफ्ती भी आज उन्हीं मुश्किलों का सामना कर रहे हैं. जिन लोगों के साथ उन्होंने गठबंधन किया है वे भी उन्हें कुछ नहीं दे रहे. वह यहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) लेकर आए, मगर बदले में उन्हें क्या हासिल हुआ? कुछ भी नहीं.
जम्मू और कश्मीर के लिए पीडीपी-भाजपा सरकार क्या मायने रखती है? घाटी में संघ का आना किस तरह से अहम है?
लोगों को यह महसूस होना चाहिए कि उन्होंने किसे वोट दिया है. एक समय मैं भी भाजपा के साथ था. क्या मैं आरएसएस को यहां लेकर आया? क्या मैं भाजपा को यहां लेकर आया? अब आप सचिवालय में भाजपा के झंडे को देख सकते हैं. उनके साथ हमारे अलग तरह के ताल्लुकात थे.
पीडीपी के अलावा आपकी भी पार्टी सरकार बनाने के लिए भाजपा के साथ बातचीत कर रही थी, जो सफल नहीं हो सकी?
कब..? इस समय..? वे (भाजपा) हमारा साथ चाहते थे. इसके इतर कोई बात नहीं है. इसमें कोई शक नहीं है कि वे उनके साथ (मुफ्ती) के साथ नहीं बैठना चाहते थे क्योंकि उन्हें लगता था कि वे सही व्यक्ति नहीं हैं. मगर हम भाजपा से सहमत नहीं थे. उमर ने अपने सहयोगियों और दूसरे सभी लोगों से पूछा था तो सभी ने इसके लिए ‘नहीं’ कहा था. इसलिए मैं लोगों की राय के खिलाफ नहीं जा सका. ये अवाम ही है जो हमारे लिए मायने रखती है. इसलिए हमने भाजपा के साथ सरकार बनाने के खिलाफ फैसला लिया. ‘कुर्सी के पीछे भागना गलत है. कुर्सी खुद आपके पीछे भागेगी अगर आपके तरीके सही हैं’, ये बात नहीं भूलनी चाहिए.
नेशनल कॉन्फ्रेंस चुनाव में इतनी बुरी तरह से क्यों हार गई? ऐसा दोबारा न हो इसके लिए क्या करना चाहिए?
(हंसते हुए) इसके पीछे कई कारण हैं. हम अपनी उपलब्धियों को सही तरीके से अावाम तक नहीं पहुंचा सके. मीडिया के साथ हमारा ताल्लुक बहुत कमजोर था. हमें युवा लोगों को मौका देना चाहिए, जो अभी प्रशिक्षु हैं. उन्हें अपने वरिष्ठों से सीखना होगा. हमने पुराने ‘घोड़ों’ को ही चुनाव में दौड़ा दिया, युवा पीढ़ी ने इसे पसंद नहीं किया.
राजनीतिक परिदृश्य में नरेंद्र मोदी के उभरकर आने को आप किस तरह से देखते हैं?
कांग्रेस की ऐसी-तैसी अपने घोटालों के कारण हुई. कोई भी यह मानने को तैयार नहीं था कि वे भ्रष्टाचार से मुक्त हैं. जैसा कि देश में मीडिया बहुत मजबूत है. घोटालों की खबरें जंगल की आग की तरह फैलीं. इस माहौल में एक नया आदमी (नरेंद्र मोदी) ‘गुजरात मॉडल’ के साथ लोगों के बीच आता है. इसके अलावा उन्होंने हिंदुत्व का कार्ड भी बहुत अच्छी तरह से यह संदेश फैलाते हुए खेला कि भारत हिंदुओं का है. इसकी वजह से उनके पक्ष में हिंदुत्व की लहर फैल गई.
भारत के लिए मोदी को प्रधानमंत्री बनना क्या मायने रखता है? आपने एक बार कहा था कि अगर वे प्रधानमंत्री बनते हैं तो कश्मीर भारत का अंग नहीं रहेगा?
मोदी ने हिंदुवादी लहर से शुरुआत की. यह भाजपा की जीत नहीं बल्कि मोदी की जीत है. यह मोदी की ही छवि थी जिसकी मदद से भाजपा सत्ता में आई. जो वादा उन्होंने किया वह यह था कि वे अयोध्या और दूसरी जगहों के मंदिरों का पुनर्निर्माण कराएंगे. वे इसे हिंदुओं की समृद्घि के रूप में देखते होंगे, यह भूलकर कि भारत सिर्फ हिंदुओं का नहीं है. जब संविधान लिखा गया था तो यह हिंदू, मुस्लिम, सिख और बौद्घों के लिए लिखा गया था. मेरे पास एक वोट है; हिंदू के पास एक और सिख के पास भी एक वोट है. वर्तमान में दुखद ये है कि आरएसएस घृणा का माहौल तैयार कर चुकी है, जो भारत के धर्म निरपेक्ष ताने-बाने को तबाह कर सकता है.
क्या राहुल गांधी मोदी से दो-दो हाथ कर सकते हैं? क्या कारण है कि वह अब तक कांग्रेस और जनता में अपने लिए भरोसा कायम नहीं कर पाए?
नए लोग पुराने लोगों से बिल्कुल अलग होते हैं. पुराने लोगों को ये समझने में समय लगेगा कि नए लोग आखिर हैं क्या. यही कारण है कि नए और पुराने लोगों के बीच बातचीत की कमी है. राहुल बातचीत की कमी की इस स्थिति को खत्म करने का कोशिश कर रहें हैं. उन्हें राजनीति की बारीकियों को समझना होगा. यह कोई छोटी बात नहीं. आपको आम जनता के स्तर पर आना होगा. युवा लोगों को जनता के दुख को समझकर उनसे बात करनी होगी तभी उन्हें ये महसूस होगा कि आप उनके साथ हैं. जब मैं डॉक्टर था तो मुझे सिखाया गया था कि लोगों का इलाज उन्हें मरीज समझ के मत करो. उनसे बात करो और उनका इलाज शुरू करने से पहले ही उनका भरोसा हासिल कर लो. युवा राजनीतिज्ञों को भी यही करना चाहिए. अावाम को सब्र के साथ सुनें.
क्या अब राहुल इस ओर कोशिश कर रहे हैं?
हां, वह कोशिश कर रहे हैं. आप खुद भी इसे देख रहे हो. पहले वह संसद में कभी नहीं बोलते थे, मगर अब काफी मुखर हो गए हैं.
कश्मीरी पंडितों के लिए टाउनशिप को लेकर आप क्या राय रखते हैं? नेशनल कॉन्फ्रेंस अपनी राय पर बहुत कड़ी रही है और घोषणा कर चुकी है कि समुदाय की समस्या के लिए अलग से निपटारे के वह खिलाफ है.
जब मैं जम्मू कश्मीर का मुख्यमंत्री था तब हालात बहुत आसान थे. उनके पास (कश्मीरी पंडित) के पास अपनी जमीनें थीं और उन्होंने उसे बेचा भी नहीं था. आज हालात ये हैं कि कश्मीरी पंडितों ने अपने घर और जमीनें बेच दी हैं. बहुत ही कम ऐसे हैं जो अब भी अपनी जायदाद रखे हुए हैं. मैं उनसे ये नहीं कहने जा रहा कि वे आएं और हब्बा कादल में अपनी समस्याएं सुलझा लें, जहां उन्होंने अपनी जायदाद मुस्लिमों को बेच दी हैं. आप यह नहीं चाहते हो हिंदुओ और मुस्लिमों के बीच कोई मतभेद पैदा हो और न ही आप ये हालात बनाना चाहते हो जहां मुस्लिम ये सोचने लगें कि कश्मीरी पंडित उन पर हावी हो रहे हैं या फिर कश्मीरी पंडित ये सोचने पर मजबूर हों कि मुस्लिम उन पर हावी हो रहे हैं, इसलिए मेरा मानना है कि यहां हमें मुस्लिम नेताओं, दिल्ली में कश्मीरी पंडितों और सिखों से बातचीत करनी चाहिए. फिर किसी समाधान की तलाश करें क्योंकि उन्हें ही साथ रहना है. अगर आप अलग तरीके से मामले को सुलझाना चाह रहे हो तो आपको हमेशा परेशानी में रहना होगा. क्या आप चाहते हैं कि आप सेना के जवान के पहरे के बीच किसी मुस्लिम इलाके से गुजरें? इसलिए आपको एक ऐसा रास्ता खोजना है, जहां आप सम्मान के साथ इस मसले को सुलझा सकें. किसी कौम विशेष के लिए टाउनशिप बसाने के बारे में सोचने से पहले आपको इन सब बातों का ध्यान रखना होगा.
क्या आपको किसी तरह का अफसोस है? क्या कुछ ऐसा है जिसके बारे में आप सोचते हैं कि आप इसे अलग तरीके से कर सकते थे?
मुझे नहीं लगता कि मुझे कोई अफसोस है. मैंने वह सबकुछ किया जो मैं करना चाहता था. हालांकि कुछ मामलों में मैं नाकाम रहा तो कुछ मामलों में मुझे कामयाबी भी मिली. आखिरकार गलतियां इंसान से ही होती हैं. मुझसे भी कुछ गलतियां हुई हैं, जिसके लिए मैं अल्लाह से माफी देने के लिए दुआ करता हूं.
क्या कश्मीर को लेकर आपके पास कोई ऐसा ख्वाब है जो अधूरा रह गया? अब आप इसे लेकर क्या तब्दीली करना चाहते हो?
हां, कश्मीर को लेकर मेरा एक ख्वाब है, मगर इसे मैं आपको नहीं बताऊंगा. जब मेरी किताब आ जाए तो आप इसे पढ़ लें.
अब्दुल्ला मानते हैं कि हुर्रियत से भी बात करनी होगी, क्योंकि वे भी कुछ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं
लगता है कश्मीर मसला पहले से कहीं ज्यादा पेचीदा हो गया है क्योंकि भारत और पाकिस्तान के बीच हो रही बातचीत का कोई नतीजा नहीं निकल रहा है. दिल्ली में भी बहस सिर्फ धारा 370 को हटाने को लेकर ही हो रही है, स्वायत्तता बहाल करने पर नहीं. सरकार भी अलगाववादियों से बात नहीं करना चाहती. इस बारे में आपकी क्या राय है?
भारत और पाकिस्तान दोनों को मिल-बैठकर इस समस्या का ऐसा समाधान निकालना चाहिए, जिसे सभी, यहां तक कि कश्मीर के लोग भी स्वीकार करें. इसके अलावा कोई भी उपाय काम नहीं कर सकता. युद्घ इसका समाधान नहीं है- वे (भारत-पाक) इस तरह से कई बार कोशिश कर चुके हैं. महज बातचीत ही रास्ता है. इसके साथ ही आपको हुर्रियत से भी बात करनी होगी क्योंकि वे भी कुछ लोगों का प्रतिनिधित्व करते हैं. हालांकि उनके खयालात बिल्कुल अलग हो सकते हैं. आखिर में आम जनता की राय ही अहम होगी. इसलिए अपने दरवाजे खोलिए, उन्हें बंद मत रखिए. आप ये नहीं कह सकते कि आप उनसे बात नहीं करने जा रहे. मुझे गृहमंत्री का बयान पढ़कर बुरा लगा, जिसमें उन्होंने कहा था कि केंद्र सरकार अलगावावादियों से बात नहीं करेगी और मुफ्ती से भी वह ऐसा ही चाहती है. मुफ्ती क्या कर सकते हैं, जब फैसला दिल्ली से होना है? इसलिए बातचीत के दरवाजे खोलिए. उन्हें (अलगाववादियों) पाकिस्तान से बातचीत करने दीजिए. भाई! ‘राज्य’ कहीं नहीं जा रहा. अगर चार लोग बातचीत के लिए पाकिस्तान जाते हैं तो हमें भी जाकर बातचीत करनी होगी. इससे आसमान नहीं टूट पड़ेगा. अगर आप बातचीत नहीं करते हो तो फिर इसका हल कैसे निकालोगे? इसका हल निकालने के लिए खुदा जमीं पर नहीं आएगा. हम यह पहले भी कह चुके हैं कि बीच-बचाव के लिए हम कोई तीसरी पार्टी नहीं चाहते. इस मसले पर मिलकर बातचीत करनी होगी.
क्या आपको लगता है कि भाजपा इसे और पेचीदा बना रही है?
एक बात मैं आपसे कहूंगा. अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान गए थे. क्या वो फारूक अब्दुल्ला को अपने साथ ले गए थे? नहीं न! क्यों? क्योंकि भाजपा की सोच थी कि ‘फारूक अब्दुल्ला जाएगा, अपनी बात कहेगा तो हम फिर क्या मुंह दिखाएंगे.’ एक तरफ तो आप कहते हो कि कश्मीर भारत का हिस्सा है, वहीं दूसरी तरफ इतनी हिम्मत भी नहीं कि आप कश्मीरियों को वहां (पाकिस्तान) ले जा पाएं. तब आप ये दावा कैसे कर सकते हो कि कश्मीर आपका है? आपके दिल में चोर है. पहले इसे निकालो. जब आप ऐसा कर लोगे तब आप इसके हल तक पहुंच जाओगे. दिल साफ कर बातचीत कीजिए, हर समस्या का एक हल होता है.
क्या आपको लगता है कि असहमतियों के लिए भी एक आजाद लोकतांत्रिक मंच होना चाहिए, जहां अलगाववादियों तक को भी अपनी बात रखने का मौका मिले?
मुझे लगता है कि मुफ्ती सबके लिए एक मंच बनाने में कामयाब होंगे. उमर फारूक या सईद अली शाह गिलानी या किसी और को गिरफ्तार कर वह ऐसा मंच तैयार नहीं कर सकते. आजादी का माहौल होना जरूरी है.
लेकिन जब आपकी हुकूमत थी तो नेशनल कॉन्फ्रेंस भी ऐसा ही कर रही थी.
नहीं, ऐसा नहीं है. जब तक कि वो पाकिस्तान का झंडा नहीं दिखाते, मुझे उन्हें मंच देने में कोई दिक्कत नहीं है. साथ ही उनसे बात करने में कोई दिक्कत नहीं, लेकिन क्या वे मुझसे बात करेंगे? गिलानी मुझसे बात नहीं करेंगे. गिलानी का उद्देश्य क्या है? पाकिस्तान! जो कभी नहीं होने जा रहा और जब ऐसा नहीं होने जा रहा तब आप मुझे बताइए कि आप किसे बेवकूफ बना रहे हैं. आपका (गिलानी) कोई भी सगा नहीं मरा है. अगर कोई मरा है तो वह है गरीब या कोई लाचार. आप लोगों पर बंदूक उठाने के लिए दबाव बनाते हो, नतीजन हजारों लोग मारे गए. हमें क्या मिला? क्या सरहद बदल गई? अगर सरहद एक भी इंच इधर-उधर हुई है तो मैं मान जाऊंगा. कुछ नहीं बदला. तो फिर ये तमाशा क्यों? मुझे लगता है कि पाकिस्तान को जवाब देने का सिर्फ यही (बातचीत) रास्ता है.
हाल ही में घाटी में पाकिस्तान का झंडा लहराने को लेकर बड़ा विवाद खड़ा करना जायज था?
कश्मीर में हमेशा से झंडे लहराए जाते रहे हैं. अहम ये है कि क्या इससे किसी तरह की तब्दीली आई या नहीं? क्या सरहद बदल गई? नियंत्रण रेखा (एलओसी) के दोनों तरफ सेनाएं अब भी तैनात हैं. क्या बदला? आप सिर्फ एक झंडा दिखा रहे हो और उसके बाद मीडिया में खूब हो-हल्ला मच जाता है. आम भारतीय सोचते हैं कि वे (जो पाकिस्तान का झंडा लहराता है) सीमा के उस पार के लोग हैं. इसकी वजह से हमें काफी नुकसान पहुंच रहा है. आज हिमाचल प्रदेश के पास एक भी ऐसी जगह नहीं जहां पर्यटक ठहर सकें. इसके अलावा दिल्ली से श्रीनगर की हवाई यात्रा के टिकट की कीमत तो देखिए. ये बहुत महंगे हैं. अफसोस है कि भारत सरकार इसे लेकर कुछ नहीं कर पा रही है. दिल्ली में कोई भी शख्स इस पैसे को दुबई और बैंकॉक जाने में खर्च कर सकता है. अगर टिकटों के दाम इतने महंगे होंगे तो कोई भी कश्मीर क्यों आएगा. यही समय है जब कश्मीर के लोगों को मदद की दरकार है. आपको हवाई यात्रा के किराए में 4000 से 3000 रुपये की कटौती करनी चाहिए ताकि आम लोग भी कश्मीर आ सकें.
ओंकारेश्वर बांध का जलस्तर बढ़ाए जाने के खिलाफ जल सत्याग्रह बिना किसी परिणाम के खत्म हो जाना इस तरह के आंदोलनों के प्रति गिरते विश्वास की तरफ इशारा करता नजर आ रहा है. ऐसा इसलिए क्योंकि आंदोलन के प्रति इस बार सरकार की तरफ से कोई ध्यान नहीं दिया गया. ये कुछ वैसा ही था जैसे भ्रष्टाचार को मुद्दा बनाकर आम आदमी पार्टी ने राजनीति में कदम रखा था. दिल्ली की जनता ने उन पर भरोसा किया और अरविंद केजरीवाल के दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद पता लगा कि आम आदमी पार्टी भी वैसी ही है जैसै कि दूसरे दल.
मध्य प्रदेश के अखबारों में इसे लेकर कुछ इस तरह की खबरें प्रकाशित हुईं ‘आंदोलन के 32वें दिन 12 मई को आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह घोघलगांव पहुंचे और किसानों से चर्चा के बाद सीधे पार्टी सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल से मोबाइल पर बात करने के बाद जल सत्याग्रह को खत्म करने का निर्णय ले लिया.’ पिछले 11 अप्रैल से किसान कमर भर पानी में खड़े होकर इसलिए जल सत्याग्रह कर रहे थे क्योंकि मध्य प्रदेश सरकार ने एक बार फिर ओंकारेश्वर बांध के जलस्तर को 189 मीटर से बढ़ाकर 191 मीटर करने का निर्णय किया है. इससे उस क्षेत्र में आने वाले किसानों की उपजाऊ जमीनें डूब क्षेत्र में आ गई हैं. तकरीबन 32 दिनों तक पानी में खड़े रहने के बाद आंदोलनकारियों के पैरों से खून रिसने लगा था. कुछ आंदोलनकारी गंभीर रूप से बीमार भी हो गए थे लेकिन इस बार सरकार ने इन पर ध्यान नहीं दिया. जबकि 2012 में जब इसी घोघलगांव में डूब प्रभावितों ने जल सत्याग्रह किया था तो मध्य प्रदेश सरकार आंदोलन के 17वें दिन ही जमीन के बदले जमीन देने और बांध के जलस्तर को 189 मीटर पर नियंत्रित रखने के आदेश देने को मजबूर हो गई थी.
नैतिक बल जन आंदोलनों की सबसे बड़ी पूंजी होती है, लेकिन जल सत्याग्रह में आम आदमी पार्टी के कूदने के बाद उनका नैतिक बल कम हो गया है
पूरे आंदोलन के दौरान सरकार का रवैया उदासीन रहा. वह न तो प्रभावितों की बात ही सुनने को तैयार थी और न ही अपनी बात से झुकने को. इस आंदोलन को लेकर राज्य सरकार शुरू से ही आक्रामक रही. उसके एक मंत्री ने तो इस सत्याग्रह को आधारहीन भी करार दे दिया था. प्रदेश भाजपा द्वारा भी इसे आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक का जल सत्याग्रह बताया गया था. आंदोलन के नेता मुख्यमंत्री से बात करने के लिए अनुरोध करते रहे, जिससे ओंकारेश्वर बांध से प्रभावित सत्याग्रहियों के पुनर्वास को लेकर कोई समाधान निकल सके लेकिन इसके जवाब में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान नर्मदा बचाओ आंदोलन और आम आदमी पार्टी को विकास और किसान विरोधी कह रहे थे. उनका कहना था कि क्षेत्र की जनता नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ नहीं है और कुछ लोगों को भड़काकर कथित जल सत्याग्रह चलाया जा रहा है इसलिए सरकार उनके दबाव में नहीं आएगी.
इस बार ऐसा क्या बदल गया है कि 31 दिनों तक सत्याग्रह चलने के बाद भी सरकार असंवेदनशील बनी रही? दरअसल इस बार सत्याग्रह अकेले नर्मदा बचाओ आंदोलन के नेतृत्व में नहीं चल रहा था. आप आदमी पार्टी भी इसमें पूरी सक्रियता के साथ शामिल थी. शायद इसीलिए मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को यह सहूलियत थी कि वे इससे एक आंदोलन से ज्यादा सियासत के तौर पर पेश आ सकें. इसलिए जब आप के राष्ट्रीय संयोजक अरविंद केजरीवाल की ओर से आंदोलनकारियों के समर्थन में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को एक पत्र लिखते हुए बांध प्रभावितों के उचित पुनर्वास की मांग की गई और आरोप लगाया गया कि इस संबंध में केजरीवाल ने उनसे फोन पर बात करने की भी कोशिश की थी, लेकिन मुख्यमंत्री की तरफ से समय नहीं दिया गया. बाद में शिवराज सिंह चौहान ने कहा कि उन्हें अरविंद केजरीवाल का कोई पत्र नहीं मिला है. उनकी कुमार विश्वास से बात हुई है जिन्हें सारी जमीनी हकीकत बता दी गई है.
इस मामले में प्रदेश भाजपा भी कूदती हुई दिखाई पड़ी. आंदोलन के बीच में जब कुमार विश्वास घोघलगांव आए थे तो उन्होंने यह आरोप लगाया कि इंदौर से घोघलगांव जाते समय भाजपा कार्यकर्ताओं ने उनके काफिले को रोकने की कोशिश की और पथराव किया. जवाब में प्रदेश भाजपा अध्यक्ष नंदकुमार सिंह चौहान ने इस आरोप को बेबुनियाद बताते हुए घोघलगांव सत्याग्रह को कुछ लोगों की नौटंकी करार दिया था. शिवराज सिंह चौहान की इस बेरुखी का मूल कारण आंदोलनकारियों की मांगें नहीं बल्कि आप आदमी पार्टी थी. वह बिलकुल नहीं चाहते थे कि आम आदमी पार्टी को ऐसा कोई मौका दिया जाए जिससे वह मध्य प्रदेश में किसानों के मुद्दों पर प्रभावी तरीके से लड़ती हुई दिखाई दे और उसे यहां एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरने का मौका मिल जाए. दरअसल शिवराज सिंह का लगातार तीसरी बार सत्ता में आने का एक प्रमुख कारण विपक्षी पार्टी का लगातार कमजोर होते जाना है. कांग्रेसी क्षत्रपों की आपसी खींचतान से यह स्थिति पैदा हुई है. कोई तीसरी पार्टी ऐसी है नहीं जो चुनौती खड़ी कर सके. ऐसे में शिवराज सिंह भला क्यों चाहेंगे कि इस समीकरण में किसी तरह का कोई बदलाव हो और कोई नया खिलाड़ी मैदान में उन्हें चुनौती देता नजर आए.
एक प्रभावित किसान का कहना है कि सत्ताधारी पार्टी के लोग कहने लगे थे हम नौटंकी कर रहे हैं. 32 दिनों तक पानी में खड़े होकर कोई नौटंकी नहीं करता
गौरतलब है कि 2012 में सरकार ने इन्हीं सत्याग्रहियों की मांगें मानकर जल सत्याग्रह समाप्त कराया था लेकिन इस दफा सरकार ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और आखिरकार सत्याग्रहियों को खुद ही आंदोलन स्थगित करना पड़ा. सरकार इसे एक ऐसे आंदोलन की तरह ट्रीट नहीं कर रही थी जिसकी विश्वसनीयता और नैतिक ताकत चुनावी राजनीतिक दलों से ऊपर रहा करती थी. इस बार तो वह इसे एक राजनीतिक पार्टी द्वारा चलाए जा रहे एक आंदोलन की तरह देख रही थी जिसका मकसद इसके बहाने चुनावी फायदा उठाना है. 2012 में स्थिति दूसरी थी आम आदमी पार्टी का गठन नहीं हुआ था और नर्मदा बचाओ आंदोलन कोई राजनीतिक चुनौती नहीं थी.
इस सत्याग्रह के प्रमुख चेहरे आलोक अग्रवाल नर्मदा बचाओ आंदोलन के एक धड़े के नेता तो हैं, साथ ही वे आम आदमी पार्टी के प्रदेश संयोजक भी हैं. पार्टी के उभार के बाद नर्मदा बचाओ आंदोलन के दो प्रमुख नेता आलोक अग्रवाल और मेधा पाटकर इसके साथ जुड़े थे. मेधा पाटकर ने मुंबई और आलोक अग्रवाल ने खंडवा से लोकसभा चुनाव भी लड़ा था. योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण विवाद के बाद मेधा पाटकर ने खुद को पार्टी से अलग कर लिया था लेकिन आलोक पार्टी के साथ बने हुए हंै. नर्मदा बचाओ आंदोलन के साथ लंबे समय से जुड़े रहे कई लोगों का मानना है कि इसके नेताओं के चुनावी राजनीति में जाने से आंदोलन की विश्वसनीयता पर प्रभाव पड़ा है, इसलिए इसे लेकर सरकार का रवैया पहले के मुकाबले अलग था. मध्य प्रदेश में लंबे समय से विभिन्न जन आंदोलनों से जुड़े रहे समाजवादी जन परिषद के कार्यकर्ता अनुराग मोदी कहते हैं, ‘जन आंदोलनों की सबसे बड़ी पूंजी नैतिक बल होती है. हम राज्य के सामने कोई बड़ी ताकत नहीं होते, फिर भी सरकारों को हमारे नैतिक बल के सामने झुकना पड़ता है. नर्मदा बचाओ आंदोलन के पास भी यह बल था. वह प्रमुखता से यह रेखांकित कर पा रहे थे कि सरकारों के पास विकास का जो मॉडल है वह गलत और अन्यायपूर्ण है, इसलिए इस ‘विकास’ को नकारना है. इसी आधार पर अब तक जो विस्थापित हुए उनके पुनर्वास के लिए संघर्ष किया जा रहा था, लेकिन सत्याग्रह में आम आदमी पार्टी के कूदने के बाद उनका नैतिक बल कम हो गया. मामले में राजनीति होने की भनक लगते ही सरकार ने इस तरफ ध्यान ही नहीं दिया. मजबूरी में सत्याग्रह को खत्म करना पड़ा.’ इस बार आंदोलन को मध्य प्रदेश के जन संगठनों और लोगों का भी वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा पहले मिला था.
डूबते को किसका सहारा: आंदोलन के साथ हो रही राजनीति के कारण बांध प्रभावितों का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है
दूसरी तरफ आंदोलन के प्रमुख कार्यकर्ता और आप के प्रदेश संयोजक आलोक अग्रवाल का कहना है, ‘सत्याग्रह के दौरान मध्य प्रदेश सरकार का रुख नकारात्मक रहा. केंद्र और राज्य दोनों में एक ही पार्टी की सरकार है इसलिए अब वह ज्यादा असंवेदनशील हो गई है. दोनों ही सरकारें किसानों से दूर होकर पूंजीपतियों के पक्ष में जा रही हैं. एक तरफ राज्य सरकार ने जमीन-हदबंदी कानून हटा दिया है तो केंद्र सरकार भी भूमि अधिग्रहण कानून के जरिए किसानों की जमीन उद्योगों को सौंपने के लिए तैयार है.’ यह पूछने पर कि क्या जल सत्याग्रह के साथ सीधे तौर पर आम आदमी पार्टी के जुड़ने से भी शिवराज सरकार का यह रुख सामने आया है, उन्होंने कहा, ‘महत्वपूर्ण यह नहीं है कि मांग कौन कर रहे थे बल्कि यह देखा जाना चाहिए कि मांगें क्या थीं. लोग पुनर्वास के लिए अपना कानूनी अधिकार मांग रहे थे. लोकतंत्र में हर किसी को ये हक है कि वह लोगों के लिए आवाज उठाए. ऐसे में अगर कोई राजनीतिक पार्टी मानवाधिकार का मुद्दा उठा रही है तो उस पर सवाल खड़ा करना एक खतरनाक संदेश है. आम आदमी पार्टी हमेशा से इस तरह के मुद्दों को उठाती रही है. अफसोस तो यह है कि कोई और पार्टी इन मुद्दों को उठाती ही नहीं. यह सब बहानेबाजी है. सरकार इसका बहाना बनाकर विस्थापितों को उनका कानूनी हक देने से बचने की कोशिश कर रही है.’
इस पर अनुराग मोदी का कहना है, ‘आम आदमी पार्टी से यह पूछा जाना चाहिए कि एक दल के तौर पर बड़े बांध बनाने को लेकर उनका पक्ष क्या है? ऐसा नहीं हो सकता कि आप एक तरफ बांध प्रभावितों के पुनर्वास की लड़ाई लड़ें और दूसरी तरफ आपके और दूसरी पार्टियों के विकास के मॉडल में कोई फर्क भी दिखाई न दे. यह तो बहुत बड़ा विरोधाभास होगा. नर्मदा बचाओ आंदोलन की लड़ाई से भले ही हम बड़े बांध रोकने और प्रभावितों को पूरी तरह से पुनर्वास दिलाने में कामयाब न रहे हों, कम से कम यह विकास के पूरे ढांचे पर सवाल तो खड़ा कर पा रहा था लेकिन इस बार यह भी नहीं हो पाया.’
बहरहाल, इस बार आंदोलन की प्रकृति किस कदर बदली हुई थी इसका नजारा सत्याग्रह के 26वें दिन 7 मई को भोपाल में बोर्ड ऑफिस चौराहे पर हुए प्रदर्शन के दौरान देखने को मिला. इसमें खंडवा जिले से सैकड़ों बांध प्रभावित शामिल हुए थे. प्रदर्शन में आम आदमी पार्टी के पदाधिकारी, कार्यकर्ता समर्थन में मौजूद थे, लेकिन स्थानीय जन संगठनों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की मौजूदगी वैसी नहीं थी, जो पहले हुआ करती थी. मंच पर आम आदमी पार्टी और नर्मदा बचाओ आंदोलन दोनों के बैनर लगे थे, मगर ज्यादातर आप के नेता दिखाई पड़ रहे थे. तकरीबन 500 प्रभावित लोगों में से ज्यादातर लोग आम आदमी पार्टी की टोपियां पहने हुए थे. हाथों में नर्मदा बचाओ आंदोलन का झंडा भी मौजूद था. इसके अलावा सत्याग्रह की समाप्ति के मौके पर घोघलगांव में आम आदमी पार्टी के नेताओं ने बलात्कार पीड़ित नाबालिग लड़कियों और उनके परिवार के लोगों को मंच पर बुलाया. उन्हें पार्टी की टोपी पहनाकर बिना चेहरा ढंके अपने साथ हुई ज्यादती की कहानी माइक से सुनाने को कहा गया, जबकि सुप्रीम कोर्ट ने बलात्कार पीिड़ताओं और उनके परिवार की पहचान को किसी भी हालत में सार्वजनिक नहीं करने के सख्त निर्देश दिए हैं. सत्याग्रह के समाप्ति के समय इसका कोई औचित्य भी नहीं था.
घोघलगांव के प्रभावित किसान अजय भारती का कहना है, ‘सत्ताधारी पार्टी के लोग कहने लगे थे हम नौटंकी कर रहे हैं. 32 दिनों तक पानी में खड़े होकर कोई नौटंकी नहीं करता. हम पर दो से चार लाख रुपये तक का कर्ज चढ़ा हुआ है. ऊपर से हमारी जमीनें भी डुबो दी गई हैं. हमारे पास अब कोई विकल्प नहीं बचा है. अगर सरकार ने कुछ और महीनों तक हमारी बात नहीं सुनी तो हमारे पास आत्महत्या करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचेगा. मुख्यमंत्री किसी एक पार्टी का नहीं सभी का होता है. उन्हें सबकी सुननी चाहिए. उन्हें किसान को देखना चाहिए, किसी पार्टी को नहीं.’ इस आंदोलन के साथ हो रही राजनीति के कारण बांध प्रभावितों का मुद्दा कहीं पीछे छूट गया है.
‘की हो झा जी, की मर्दे; आदमी साठा तब पाठा, बियाह कर ले बेटबा-पुतहुआ ठंडा हो जइतौ.’ झपसु मियां हर रोज की तरह अपने दालान में बैठकी लगाने आए और अपने मित्र कपिल झा को ब्याह करने की सलाह दी तो एकबारगी सब ठठाकर हंस पड़े. ऐसे ही थे झपसु मियां. कुछ महीने पहले उनका इंतकाल हो गया. उनके जनाजे में गांव के हर उम्र के लोग शामिल हुए और सभी उनके मिलनसार स्वभाव और उदार मन का विश्लेषण कर रहे थे.
छह फुट से कुछ अधिक लंबे और गोरे-चिट्टे. संस्कारी. उन्हें दूर से ही पहचाना जा सकता है क्योंकि वे हमेशा बगबग करते (सफेद) कुर्ता और धोती पहनते थे. कुर्ते पर गमछा भी होता था. उनको दूर से पहचानने के लिए ये काफी था. वे कमर में ढेंका खोंस के धोती पहनते थे. उनके कपड़े पहनने का अंदाज कुछ-कुछ जमींदार जैसा था. सभी ने उनको हमेशा ऐसे ही देखा था. 75 साल की उम्र में भी वे हर साल प्रतिदिन दाढ़ी बनाते थे. नमाज, टोपी, दाढ़ी जैसे धार्मिक आडंबरों का प्रदर्शन करते उन्हें कभी किसी ने नहीं देखा था. गांव में कोई मस्जिद तो थी नहीं इसलिए तीन किलोमीटर दूर बरबीघा की मस्जिद में वो जुमे की नमाज पढ़ने कभी-कभार जाते थे पर वही धोती पहन के, ढेंका खोंस के…
बिहार के शेखपुरा जिले के बरबीघा कस्बे के पास बभनबीघा गांव में लगभग 500 हिंदू परिवार रहता है. पूरे गांव में सिर्फ झपसु मियां का ही एक परिवार मुस्लिम धर्म से ताल्लुक रखने वाला था. वे अपने परिवार में सबसे बड़े थे. वैसे तो उनका नाम नसीरुद्दीन था पर उन्हें इस नाम से पूरे गांव में कोई नहीं जानता. उनका परिवार बहुत बड़ा था. वे पूरी जिम्मेदारी के साथ परिवार को संभालकर रखते. उन्होंने अपने बच्चों के नाम भी राजेश, छोटे, बेबी, रूबी आदि रखा था. किसी को शायद ही एहसास हुआ हो कि वो मुसलमान हैं. झपसु मियां और उनके गांव के बीच गर्मजोशी से भरे रिश्ते को देखकर लगता कि आपसी प्रेम, सौहार्द, भाईचारा जैसे सारे शब्द इस गांव और इस परिवार तक आकर छोटे पड़ गए हों.
झपसु मियां के घर जब भी किसी भोज का आयोजन होता तो पूरा गांव भोज खाने पहुंचता था. भोज की सारी व्यवस्था गांव के हिंदू लड़कों के कंधों पर ही होती
गांव में बड़ी और छोटी जोत वाले किसानों के बीच झपसु मियां कहीं-न-कहीं सेतु का काम करते रहे. मुझे आज भी याद है कि तीस साल पहले अपने बचपन के दिनों में हम कई बार उनके ट्यूबवेल पर पहुंच जाते और घंटों धमाचौकड़ी मचाते रहते. हमने उनके बगीचे से दर्जनों बार अमरूद, फनेला आदि चुराकर खाए… गांव में किसी की भी मौत होती तो उनके परिवार के लोग झपसु मियां के ट्यूबवेल के आसपास लगे बंसेढ़ी बगैर किसी हिचक के पहुंच जाते और बांस काटकर ले आते. उनके बंसेढ़ी के बांस से ही अर्थी तैयार की जाती.
झपसु मियां के घर जब भी किसी भोज का आयोजन होता तो पूरा गांव भोज खाने पहुंचता था. भोज की सारी व्यवस्था गांव के हिंदू लड़कों के कंधों पर ही होती. भोज से पहले भंडार संकल्प करने के लिए पंडितजी आते तो उनको दक्षिणा भी झपसु मियां ही देते. और वो जब भोज खाने जाते तो एक साथ पंगत में बैठकर खाते.
उनकी एक खासियत यह भी थी की यूं तो वो ऊपरी तौर पर बहुत ही धीर और गंभीर थे पर अंदर से भरा-पूरा एक बच्चे-सा स्वभाव. गांव में किसी की साली आती तो वो उसको छेड़े बिना नहीं छोड़ते, चाहे वह उनके बच्चे की उम्र की ही क्यों न हो. जैसे ही किसी ने परिचय कराया कि ये मेरी साली है तो बोल पड़ते… ‘बड़ी खूबसूरत हखुन, एतबर गो गांव में इनखरा ले दूल्हे नै है हो मर्दे, बियाह करा दहीं..बेचारी मसुआल हखिन…’ और अपने पड़ोसी पंडीजी की पत्नी को वो रोज चिढ़ाते… ‘सुन्लाहीं हो पंडीजी नै हखिन औ उनकर घर में ई नया मर्दाना के जाते देखलिय…’ और पंडीजी की कन्या छिद्धीन छिद्धीन गाली देना शुरू कर देती… और वही पंडीजी जब मरणासन्न और पैसे के अभाव में इलाज कराने में असमर्थ थे, तब झपसु मियां की बेचैनी आसानी से देखी जा सकती थी. पंडीजी के घर जाकर हांक लगाई और रिक्शा बुलाकर उन्हें रिक्शे पर बिठाया. पंडिताइन को पैसा देकर कहा इलाज करा लीजिए जो भी खर्च आएगा देख लेंगे.
सरस्वती पूजा का चंदा देने में भले ही गांव के बड़े-बड़े बाबू साहेब बच्चों को दुत्कार देते पर झपसु मियां पहले तो प्रेम से चंदे की राशि को लेकर जोड़-तोड़ करते और फिर जेब से पैसा निकाल दे देते. आज धार्मिक उन्माद और अतिवाद अपने चरम पर है और जाहिर है कि इन हालात में झपसु मियां के बारे में पढ़कर दोनों पक्षों (हिंदू-मुस्लिम) के अतिवादी शर्मसार होंगे… भले ही वो कुछ भी कुतर्क करें… आदमी है, तो शर्म तो आएगी ही..राजनीतिज्ञ यदि धर्म का जहर न बोएं तो भारत में सौहार्द की फसल ऐसे ही लहलहाएगी.
(लेखक पत्रकार हैं और बिहार के शेखपुरा में रहते हैं)
कथाकार मन्नू भंडारी की एक कहानी है, ‘ग्लोबलाईजेशन’. कहानी एक बड़े शहर में बसे एक परिवार की है. एक सुबह जब घर की दाई देरी से आती है तो घर की मालकिन उसे डांटते हुए वजह पूछती है. जवाब में नौकरानी कहती है, ‘क्या करती मेम साहब? मरे मुर्दे को छोड़कर कैसे आ जाती? सुबह-सुबह ‘ए विंग’ वाले शर्मा जी के यहां गई थी. पहुंची तो देखा कि शर्मा जी मरे पड़े हैं. उनकी बेटी और बीवी रो-रोकर बेहाल हुए जा रहे हैं. शर्मा जी का प्राण रात में ही निकल गया था. रात से सुबह हो गई. न कोई अड़ोसी, न कोई पड़ोसी. न ही कोई सगा-संबंधी. मां, बेटी अकेले ही पूरी रात विलाप करते रहे. सुबह होने पर शर्मा जी के दफ्तर से जो लोग आए वो भी थोड़ी देर में ही निकल गए. शमशान तक कंधा देने के लिए भी कोई नहीं. ऐसे में कैसे आ जाती? लाश को शमशान पहुंचाया. फिर आई आपके घर.’ इस संवाद के आखिर में दाई यह कहते हुए किचन में रखे बरतनों को धोने चली जाती है कि ‘पता नहीं ये कौन-सी दुनिया है जहां लाश को कंधा देने के लिए भी कोई नहीं मिलता’.
कमोबेश शहरों की स्थितियां ऐसी ही हो गई हैं. दिल्ली, मुंबई, चेन्नई, हैदराबाद और बंगलुरु में ऐसे कई निजी संगठन हैं जो न केवल मृतक को कंधा देकर शमशान पहुंचाते हैं. बल्कि मृतक के धर्म के हिसाब से उसके अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था करते हैं. इसके लिए 8 से 10 हजार रुपये का खर्च आता है. कुछेक मामलों में ये रकम एक लाख रुपये तक भी हो सकती है. जैसी सुविधाएं होती हैं उस हिसाब से पैसा भी बढ़ता जाता है.
इस क्षेत्र में काम करने वाली निजी एजेंसिंयों की फोन लाइनें 24 घंटे खुली रहती हैं. किसी मुश्किल की घड़ी में इन्हें केवल एक फोन करना पड़ता है और बताना पड़ता है कि मृतक का क्रिया-कर्म किन धार्मिक मान्यताओं और विधि के मुताबिक करना है. बस, इसके बाद की सारी जिम्मेदारी इन एजेंसियों की होती है. इन एजेंसियों के संपर्क में पंडित, मौलवी, फूलवाले और वे सारे लोग होते हैं जिनकी जरूरत ऐसे वक्त में पड़ती है.
आपको बस बताना है कि मृतक का क्रिया-कर्म किन धार्मिक मान्यताओं और विधि से होगा. बाकी जिम्मेदारी इन एजेंसियों की होती है. इनके संपर्क में पंडित, मौलवी, फूलवाले और वे सारे लोग होते हैं जिनकी जरूरत ऐसे वक्त में पड़ती है
दिल्ली में शुरू हुई ऐसी ही एक कंपनी ‘इंडियन फ्यूनरल सर्विस’ का दावा है कि वो इस क्षेत्र की पहली एजेंसी है. ये कंपनी मुंबई, दिल्ली सहित दक्षिण भारत के शहरों में भी सेवा देती है. इसका मुख्यालय मुंबई में है. एजेंसी का दावा है कि वो इस क्षेत्र में सबसे बेहतर सेवा लोगों को देती है. इसके अलावा ‘पीएस फ्यूनरल एंड एंबुलेंस सर्विसेज प्राइवेट लिमिटेड’ आदि राजधानी की कुछ ऐसी कंपनियां हैं जो एंबुलेंस और शव वाहन के साथ-साथ अंतिम संस्कार से जुड़ी दूसरी सारी व्यवस्थाएं कराती हैं. एजेंसी के निदेशक एनएस भट्ट के मुताबिक उनकी एजेंसी दिल्ली और दिल्ली के आसपास के इलाकों में भी अपनी सेवाएं देती है और दूसरों के मुकाबले बेहतर सेवा देती है.
आखिर इस पेशे में कौन से लोग हैं और ये संगठन किस तरह से काम करते हैं, इस बारे में एनएस भट्ट बताते हैं, ‘हम एंबुलेंस और शव वाहन के पेशे में 1996-97 से जुड़े हैं. इस पेशे में रहते हुए और शवों को घर तक या शमशान तक छोड़ते हुए हमने महसूस किया कि कुछ लोग यह भी चाह रहे हैं कि हम उनके लिए पंडित बुला दें. फूल-माला की व्यवस्था करने के साथ शमशान घाट तक के इंतजामों को भी देख लें. दो-तीन ऐसे अनुभवों से गुजरने के बाद हमने 2000 से यह ऑफर करना शुरू किया.’ इस बातचीत में भट्ट एक बात और जोड़ते हैं. वे कहते हैं, ‘शहरों में भागमभागवाली जिंदगी है. आज भी गांवों में ये सारे काम मृतक के सगे-संबंधी करते हैं लेकिन यहां किसी के पास इतना समय ही नहीं है. ऐसे में हम मृतक के परिवार को ये सुविधाएं देते हैं कि वो अपने प्रिय व्यक्ति के बिछड़ने का दुख मनाए. बाकी इंतजाम हम कर देंगे. इसके लिए उन्हें केवल एक फोन कॉल करने की जरूरत होती है.’
एनएस भट्ट के मुताबिक, उनके यहां हर रोज चार से पांच ऐसे फोन आ ही आते हैं जो अपने किसी प्रिय की मौत से दुखी होते हैं और अंतिम संस्कार के लिए उनकी मदद लेना चाहते हैं. एनएस भट्ट का मानना है कि आनेवाले समय में इस क्षेत्र में और काम बढ़ेगा. वो कहते हैं, ‘हर कोई शहरों में ही रहना चाह रहा है. यहां 24 घंटे, काम का ही होता है. मतलब इंसान अभी जितना व्यस्त है वो आगे उससे भी ज्यादा व्यस्त होगा. ऐसे में उन्हें हमारी पहले से ज्यादा जरूरत पड़ेगी.’
‘समाज एक ही समय में भौतिकवादी और धार्मिक दोनों होना चाहता है. वो शराब पीता है. पब जाता है लेकिन जैसे ही उसके परिवार में मृत्यु जैसी कोई घटना होती है वैसे ही वो धार्मिक हो जाता है’
पंजाब के एक गांव से कुछ साल पहले दिल्ली आकर एक फ्यूनरल और एंबुलेंस सर्विस चलानेवाले एनएस भट्ट शहरी समाज के बदलाव की जो व्याख्या हमारे सामने रखते हैं वो डरानेवाली है. यहां एक प्रश्न उठता है कि क्या वाकई शहर में रहनेवाले इतने अकेले और व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें अपने बेहद निजी क्षणों तक में किसी न किसी सर्विस प्रोवाइडर की मदद लेनी पड़ रही है? क्या शहरी जीवन में समाज और सामाजिकता की पूरी अवधारणा चरमरा गई है? हम ये सवाल हिन्दी के जाने-माने कथाकार और शहरी सामाज पर गहरी पकड़ रखनेवाले शिवमूर्ति के सामने रखते हैं. इलाहाबाद में रहनेवाले शिवमूर्ति कहते हैं, ‘यह कोई आश्चर्यजनक बदलाव नहीं है. ये तो उन्हीं हजार बदलावों में से एक है जिससे मानव समाज गुजरते-गुजरते यहां तक पहुंचा है.’ वे आगे कहते हैं, ‘शुरू में जब शादियां होती थीं तो गांव-जवार की महिलाएं और पुरुष मिलकर ही सारा काम करा देते थे. खासकर खाना तो लोग खुद ही बनाते थे लेकिन आज तो हर जगह हलवाई का चलन है. क्या गांव, क्या शहर? फर्ज कीजिए कि आज गांव में एक लड़की की शादी होनी है और उसका बाप कहता है कि मैं हलवाई न रखूंगा. सारे समाज को मिलकर बारातियों के लिए खाना बनाना चाहिए. तो क्या होगा? लड़की के परिवार के ही लोग कहेंगे कि ये क्या बकवास है. ऐसा तो किसी भी सूरत में नहीं हो पाएगा.’ वे आगे कहते हैं, ‘जिस तरह से शादी-ब्याह के लिए हलवाई आने लगे उसी तरह से अब अंतिम संस्कार करवानेवाले लोग भी आ रहे हैं. जो काम हम खुद नहीं कर सकेंगे उसे कोई न कोई तो करेगा.’
बकौल शिवमूर्ति शहरी समाज एक ही समय में भौतिकवादी और धार्मिक दोनों होना चाहता है. वो शराब पीता है. पब जाता है लेकिन जैसे ही उसके परिवार में ऐसी कोई घटना होती है वैसे ही वो धार्मिक हो जाता है. वो यहां भौतिकवादी बिल्कुल नहीं दिखना चाहता. शिवमूर्ती आगे कहते हैं, ‘जैसे-जैसे समाज बदलेगा वैसे-वैसे पहले से बनी-बनाई कई व्यवस्थाएं बदलेंगी. इसमें कोई बात नहीं है. बदलाव एक सतत प्रक्रिया है.’
शिवमूर्ति जिसे बदलाव की एक सतत प्रक्रिया मानते हैं उसे सीएसडीएस के सीनियर रिसर्च स्कॉलर और स्तंभकार चंदन श्रीवास्तव, इंसानी जीवन में बाजार द्वारा की जा रही घुसपैठ के तौर पर देखते है. उनके मुताबिक यह बदलाव की सतत प्रक्रिया बिल्कुल नहीं है. यह उस दिनचर्या की वजह से है जहां हर एक घंटे का हिसाब सैकड़े, हजार और लाख रुपये में लगाया जाता है. चंदन कहते हैं, ‘किसी की अंतिम यात्रा में जाने के लिए आपको कम से कम पूरे दिन का समय चाहिए. इतना समय निकालना हमारे लिए मुश्किल हो गया है. हमें लगता है कि इतने समय में तो हम कुछ सौ कमा सकते हैं. कुछ हजार बना सकते हैं और ये बात हमारे दिमाग में पिछले कई सालों में बिठाई गई है.’ चंदन आगे कहते हैं, ‘बाजार ने इंसानी जीवन के सबसे कोमल और मधुर पलों पर भी अपनी छाप छोड़ी है. चाहे वो रक्षाबंधन पर इंटरनेट से राखी भेजने का मसला हो, वेबकैम से घर की दिवाली और करवाचौथ मनाने की बात हो या फिर मरने पर इस तरह की किसी एजेंसी से अंतिम संस्कार करवाने का मामला हो.’ चंदन जिसे इंसानी जीवन में बाजार की घुसपैठ मानते हैं उसे कुछ लोग वरदान की तरह भी देख रहे हैं.
46 वर्षीय रमा का मानना है कि अगर हम शहर में रह रहे हैं तो यहां की व्यस्त जीवनचर्या को कैसे नकार सकते हैं. शहरों में ज्यादातर लोग अकेले हैं. जो साथ हैं उनकी भी अपनी-अपनी व्यस्तथाएं हैं. ऐसे में अगर इस तरह की सेवाएं हैं तो ये बहुत ही अच्छी बात है. कुछ पैसे देकर हम वे सारे कर्मकांड तो कर पा रहे हैं जिन्हें करना जरूरी है.
रमा अपनी छोटी बहन सिया मित्रा के साथ पिछले दस साल से दुबई में रह रही हैं. इस साल फरवरी में जब इनके पिता की मृत्यु हुई तो दोनों बहनों ने ऐसी ही एक एजेंसी की मदद से पिता का अंतिम संस्कार दिल्ली में किया. रमा कहती हैं, ‘शुक्र है दिल्ली में इस तरह की एजेंसियां तो हैं जिसकी मदद से हम अपनी सुविधा के हिसाब से पिता के अंतिम संस्कार की विधियां पूरी कर सके. इस शहर में तो हमारा एक भी रिश्तेदार नहीं है. हमारा तो सबकुछ दुबई में ही है. पापा की जिद थी कि वे दिल्ली में रहेंगे. एक-दो हफ्ते में बाकी काम भी हो जाएगा तो हम वापस दुबई चले जाएंगे.’
मध्यप्रदेश के मालवा में एक बहुत पुरानी कहावत आज भी लोकप्रिय है – ‘पग-पग रोटी, डग-डग नीर.’ लेकिन आज उसी मालवा के ज्यादातर इलाके बूंद-बूंद पानी के लिए तरस रहे हैं. हालात इतने बिगड़ गए हैं कि मालवा के एक कस्बे में पानी को माफियाओं से बचाने के लिए चंबल नदी के बांध पर पुलिस का पहरा बिठाना पड़ा. इतना ही नहीं पानी की कमी के चलते 6 हजार कर्मचारियों वाली एशिया की सबसे बडी फायबर बनानेवाली फैक्ट्री ग्रेसिम के भी चक्के थम गए. नागदा के अलावा कमोबेश पूरे मालवा इलाके में पानी के हालात बदतर हैं. 60 फीसदी से ज्यादा बोरवेल सूख चुके हैं. मालवा के देवास जिले में भी पानी की कमी के चलते कुछ साल पहले कई फैक्ट्रियों पर ताला लगाना पड़ा था. 2006-07 के दौरान देवास में इंजिनीयरिंग की पढ़ाई किए हुए एक जिलाधीश उमाकांत उमराव का आगमन क्या हुआ कि उन्होंने सिर्फ देढ़ साल के अपने कार्यकाल के दौरान जिले में पानी रचने की एक जोरदार कहानी गढ़ ली. उन्होंने किसानों का साथ लेकर ‘भागीरथ कृषक अभियान’ चलाया और देखते ही देखते देवास के गांवों की तस्वीर बदलने लगी. इस योजना में तब की सरकार का कोई पैसा भी नहीं लगा था. यह काम पूरी तरह से उमराव की पहल पर समाज के हाथों से शुरू हुआ था.
दिलचस्प बात यह है कि उमराव जब देवास आए तो उन्होंने देखा कि यहां रेल टैंकर के जरिए पानी लाया जा रहा था. भूजल का स्तर 500-600 फीट तक नीचे उतर चुका था. पक्षी के नाम पर यहां सिर्फ कौए ही दिखते थे. उन्होंने देवास के बड़े किसानों को इस बात के लिए राजी किया कि वे अपनी कुल जमीन की 10 फीसदी हिस्से पर तालाब का निर्माण कराएं. किसानों को बात समझ में आ गई और उन्होंने तालाब रचना शुरु कर दिया. अब पानी की प्रचुरता की वजह से यहां एक की बजाए दो-तीन फसल ली जाने लगी है. अनाज का उत्पादन प्रति हेक्टेयर बढ़ गया है और किसानों को खेती फायदे का सौदा लगने लगी है. इस इलाके में न सिर्फ आर्थिक समृद्घि आई है बल्कि यहां का सामाजिक ताना-बाना भी तेजी से बदलने लगा है. आदिवासी समुदाय का जीवन बदल रहा है. लड़कियां स्कूल और कॉलेज पढ़ने जाने लगी हैं. बाल विवाह पर नियंत्रण लगा है. अपराध करनेवाली जनजाति अब खेती-किसानी या दूसरे पेशों से जुड़ रही हैं.
आदिवासियों के घर समृद्धि के फूल खिले हैं
भिलाला आदिवासी समुदाय के मदन रावत ने 20 साल पहले अपना गांव पुंजपुरा छोड़ दिया और अपने ससुराल पोस्तीपुरा आ बसे. हालांकि यहां आते वक्त उन्होंने ऐसा सपने में नहीं सोचा होगा कि एक दिन उनकी पत्नी गीता बाई को राज्य के मुख्यमंत्री सर्वोत्तम कृषि पुरष्कार से नवाजेंगे. मदन के शब्दों, ‘मैं अपना गांव छोड़कर जब यहां आया था तब यहां निपट जंगल था. साल के तीन-चार महीने सड़कें बजबजाते कीचड़ से लिथड़ी रहती थीं. पक्की सड़कें तो अभी कुछ साल पहले ही बनीं हैं. पहले जब गांव में कोई बीमार होता तब उसे खाट पर लिटाकर हॉस्पिटल ले जाना पड़ता था. डॉक्टर तक पहुंचने से पहले ही कई लोग दुनिया को अलविदा कह देते. अब कुछ लोगों के पास गाड़ियां आ गई हैं. यहां से 4 किलोमीटर दूर पलासी गांव में एक स्वास्थ्य केंद्र भी शुरू हो चुका है. कुछ लोगों के पास खेती के लिए ट्रेक्टर भी आ गएैं. तालाबों के बनने से हमारे गांव में समृद्धि आ रही है इसलिए अब हम लड़ने की बजाए हमेशा एक-दूसरे की मदद को तैयार रहते हैं.’ इस गांव में भिलाला के अलावा बंजारे और कोरकू समाज के लोग भी रहते हैं.
पोस्तीपुरा गांव देवास जिले के बागली विकास खंड में पड़ता है. देवास जिला मुख्यालय से इसकी दूरी कोई 100 किलोमीटर के आसपास है. देवास से यहां पहुंचने के रास्ते में लगभग 7 किलोमीटर लम्बी बरजई घाटी पड़ती है. गोल-गोल घूमती हुई सड़कों की वजह से इसे यहां के लोग जलेबी घाट भी कहते हैं. कुछ लोग तो मजाक में परदेसियों को यह भी बताने से बाज नहीं आते हैं कि फिल्मोंवाली जलेबीबाई का गाना यहीं के जलेबीबाई से प्रेरित है. हकीकत में ऐसा कुछ भी नहीं है, पर इस सुरम्य घाटी से गुजरते हुए इस झूठ पर भी दिल लाख-लाख बार कुर्बान करने का मन होता है. इस घाटी में खूबसूरत सागवान के नए और पुराने पेड़ों की कतारें हैं. घाटी से उतरते हुए सड़क के दोनों ओर हरी-भरी सब्जियों के यहां से वहां तक खेत दिखने लगते हैं. हमारे साथ कृषि विभाग के सहायक निदेशक डॉ. अब्बास भी हैं. वे बताते हैं कि यहां से सब्जियां भोपाल तथा राज्य की दूसरी सब्जी मंडियों को भेजी जाती हैं.
पोस्तीपुरा के मदन के घर जब हमारा पहुंचना हुआ तो उनकी पत्नी टीन की छत पर कपास सुखा रही थीं. वे हमें देखकर नीचे उतर आईं. उनके घर के अंदर ट्रैक्टर, जीप और मोटसाइकिल खड़ी थी, मानों वे उनकी समृद्घि की गवाही दे रही हों. इस बारे में गीता बाई से पूछा तो उन्होंेने बताया कि यह सब तालाब की देन है. ऐसा कहते हुए उनकी आंखें नम हो उठती हैं और वे अपने घर के पिछवाड़े में बने तालाब की ओेर श्रद्घाभाव से देखने लग गईं. उन्हें कुरेदने की कोशिश की तो आगे उन्होंने बताया कि आपको कई तरह की पक्षियों की आवाज सुनाई दे रही है न. आप अगर तालाब बनने से पहले यहां आते तो आपको कौआ छोड़कर कुछ नहीं िदखता लेकिन अब यहां आपको पचासों किस्म के पक्षी और हिरण (काले और सामान्य) दिख जाएंगे. पहले यहां पानी की मारामारी थी. पीने भरने के लिए कई बार कुएं पर रातभर खड़ा रहना पड़ता था. गीताबाई की 20 बीघे की खेती है और उनके पास दो तालाब हैं. हमारे पास ही खड़े हुए एक बुजुर्ग ने बीच में टोकते हुए कहा- ‘बेटा, हम खुशाहाल हैं. हमारे बच्चे-बच्चियां पढ़ने लगे हैं.’
अब पोस्तीपुरा गांव में लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक बाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं
गांव में एक सरकारी स्कूल है जिसमें पांचवीं तक की पढ़ाई होती है. किसी को पांचवीं के आगे पढ़ाई करनी हो तो उसे चार-पांच किलोमीटर दूर पुंजीपुरा गांव स्थित हाई स्कूल की शरण लेनी पड़ती है. मदन बताते हैं कि हमारे गांव में कुछ साल पहले तक लड़कियां नहीं पढ़ती थीं. ऐसा सोचना भी अपराध सा था. अब लड़कियों के भाई और पिता ही उन्हें स्कूल और कॉलेज तक मोटरबाइक में बिठाकर ले जाते और वापिस घर लाते हैं. गांव में स्कूल खुल जाने की वजह से लड़कियां पीठ पर घास और अनाज का गट्ठर की जगह किताबों का थैला टांगे और आंखों में चमक लिए पढने हर रोज स्कूल पहुंच जाती हैं. मदन की तीनों बेटियां पढ़ रही हैं. एक बेटी तो देवास के कस्तूरबा गांधी कॉलेज के छात्रावास में रहकर बीए. द्वितीय वर्ष में पढ़ रही है. गांव के लोगों की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है, ऐसा गांव में नए पक्के मकानों और घर के अहाते में ट्रैक्टर, कार और मोटरसाइकिल देखकर कोई भी आसानी से अंदाजा लगा सकता है.
‘पढ़ेंगे लिखेंगे लेकिन खेत ही जोतेंगे’
देवास जिले के टोंक खुर्द ब्लॉक का टोंक कला गांव आगरा-मुंबई हाईवे से दो-तीन किलोमीटर दूर है. टूटे-फूटे रास्तों से होकर जब आप प्रेम सिंह खिंची के दरवाजे पर पहुंचेंगे तब आपको यह भ्रम होगा कि आप किसी शहर की कॉलोनी या सोसायटी में घुस आए हैं. एक ही अहाते में बिल्कुल एक जैसे पांच घर बने हुए हैं. ये घर देवास में तत्कालीन कलक्टर रहे उमाकांत उमराव द्वारा 2006 में शुरू किए गए ‘भागीरथ कृषि अभियान’ के तहत तालाबों के निर्माण के बाद आई समृद्घि के बाद बने हैं. इन घरों को बाहर से देखने पर पांचों भाइयों के परिवारों के बीच के प्रेम का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है. इस परिवार की एक बड़ी खासियत यह है कि अच्छी नौकरी या अच्छी पढ़ाई या डिग्री हासिल करने के बाद भी इस परिवार के लोग खेती-किसानी से पूरी तरह जुड़े हुए हैं. इसकी बड़ी वजह तालाब से खेती के सिंचिंत रकबे में लगातार हो रहा इजाफा भी है. प्रेम सिंह और उनके परिवार के अन्य सदस्य भी यह मानते हैं कि उमाकांत उमराव ने किसानों को साथ लेकर भागीरथ कृषक अभियान की शुरुआत की थी और पानी हासिल करने के लिए तालाबों का निर्माण कार्य शुरू करवाया था. पानी जो हमारे लिए कभी दूर की कौड़ी हो चुका था और तब हमारे खेत 10-15 फीसदी ही सिंचिंत थे लेकिन अब तालाबों के निर्माण के बाद हमारे 90 फीसदी खेत सिंचिंत हो चुके हैं. हमारे लिए खेती अब घाटे का सौदा नहीं रह गई और यही वजह है कि हमारे बच्चे दूसरों की चाकरी करने से अच्छा खेती करना पसंद कर रहे हैं.
टोंक कला में 125 से ज्यादा तालाब हैं. प्रेम सिंह के परिवार की जमीन पर 30 तालाब हंै. उनका परिवार पढ़ा-लिखा होने के बावजूद खेती में मन रमा रहा है
प्रेम सिंह खिंची के बाद की पीढ़ी यानी उनके बेटे और भतीजे बड़ी-बड़ी डिग्रियां लेकर भी खेती में रमे हैं. प्रेम सिंह के भाई उदय सिंह अपने घर की युवा पीढ़ी की खेती-किसानी में दिलचस्पी की वजह तालाब को मानते हैं. वे बताते हैं कि तालाब की वजह से अब हमारे खेत लगभग पूरी तरह सिंचिंत हो गए हैं. पहले हम साल में बारिश के बाद सिर्फ सोयाबीन की एक फसल ले पाते थे और अब गेहूं, डॉलर चना, टमाटर, मिर्ची, आंवला आदि जो चाहते हैं उगा लेते हैं.
इस गांव में गौर करने लायक एक परिवर्तन और यह आया है कि जो किसान पहले अपने बच्चों की सरकारी स्कूल की 5-10 रुपये की फीस नहीं भर पाते थे, अब वे अपने बच्चों की 25-30 हजार रुपये तक की सालाना फीस खुशी-खुशी भर रहे हैं.’ इस गांव के नगेंद्र बताते हैं-’देवास में 2006-07 तक पानी की घोर किल्लत थी. हम कभी खेत की ओर देखते तो कभी आसमान की ओर. धरती का पानी भी हम चट कर गए थे. उमाकांत उमराव साहब के कहने पर हमने गांव में तालाब बनवाया. पहली बारिश में ही तालाब भर गया और हमने अपने जीवन में पहली बार एक साल में दो फसल ली. उत्पादन बढ़ता चला गया और नतीजा यह हुआ कि हमारे पास पैसे बचने लगे. हम अब अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए हर साल 20-25 हजार रुपए खर्च कर पा रहे हैं.’ प्रेम सिंह खिंची बताते हैं कि तालाब होने की वजह से खेती से हमारा मुनाफा बढ़कर दस गुना हो गया है.’
टोंक कला में 125 से ज्यादा तालाब हैं. प्रेम सिंह के परिवार की जमीन पर 30 तालाब हैं. तालाब के फायदे के बारे में जब ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने उनसे पूछा तो उन्होंने बताया कि भागीरथ कृषक अभियान शुरू होने से पहले हमने कभी भी तालाब निर्माण नहीं करवाया था. अब हमारे भीतर यह जागृति आ गई है और हम तालाब की तकनीक और उसके व्यवहारिक पक्ष से पूरी तरह वाकिफ हो गए हैं. प्रेम सिंह थोड़े दार्शनिक अंदाज से भरकर आगे बताते हैं- ‘आदमी का स्वभाव ही ऐसा है कि वह बगैर नुकसान उठाए सबक नहीं लेता है. हमारे इलाके में लोगों ने अपने खेतों में ट्यूबवेल खुदवा-खुदवाकर अपनी बर्बादी देख ली. 2006 से पहले हमें एक फसल से जो मुनाफा होता था, उसे हम पानी खोजने में खर्च कर देते थे. नतीजा यह होता था कि साल के अंत में हमारे पास पैसा ही नहीं बचता था.’
इन तालाबों की वजह से गांव का जल स्तर ऊपर आ रहा है. पानी की उपलब्धता होने की वजह से लोगों ने खेती और उससे जुड़े धंधों में दिलचस्पी दिखानी शुरू कर दी है. इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि खेती-किसानी में लगे परिवारों के पास गाय-भैंस तो होते ही हैं. वे पशुओं के गोबर को तालाब में बहा देते हैं. तालाब में पल रही मछलियों को अच्छा चारा मिल जाता है. तालाबों के पानी में गोबर के मिले होने से खेतों को पानी के साथ जैविक खाद भी मिल जाती है. इस प्रयोग से खेतों की उर्वरा शक्ति में वृद्घि हो रही है. फसल की अच्छी पैदावार के लिए रसायनिक और उर्वरक पर निर्भरता कम हो रही है. तालाब के निर्माण होने से गांव की प्रकृति में पूरी तरह से बदलाव आ गया है. लोगों की आर्थिक उन्नति हो रही है. पहले साल के आठ महीने लोग खाली घूमा करते थे. फिजूल की बातें करते थे लेकिन अब पानी की वजह से खेती अच्छी हो गई है और गांववालों के पास बेकार बातों के लिए समय नहीं है. बड़ी जोतवाले किसानों को तालाब का फायदा होता देख छोटी जोतवाले किसानों ने भी अपनी जमीन के 10 फीसदी भूभाग पर तालाब बनाना शुरू कर दिया है. उन्हें पूरे साल खाने को अनाज मिल जाता है. वे अपने बच्चे को अच्छा कपड़ा पहना रहे हैं और उन्हें पब्लिक स्कूल में पढ़ा रहे हैं.
पढ़े बेटी, बढ़े बेटी
देवास जिले का एक ग्राम पंचायत पाड़ल्या है जो महिलाओं के लिए सुरक्षित है. इस गांव के ज्यादातर मकान पक्के हैं और उन्हें देखने से यह भान होता है कि ये पिछले कुछ सालों के दौरान निर्मित हुए हैं. तालाब के निर्माण के बाद यहां आर्थिक समृद्घि के साथ जीवन में समरसता भी लौट रही है. बेटियों को पढ़ाने पर गांव में जोर दिया जाने लगा है. जो महिलाएं अपनी जिंदगी में नहीं पढ़ पाईं थीं, वे अपनी बच्चियों को खूब पढ़ाने की हसरत रखने लगी हैं. उनके पति भी इस काम में खूब सहयोग दे रहे हैं. इसे यहां की वर्तमान सरपंच सीमा मंडलोई के उदाहरण से समझा जा सकता है. वे महज आठवीं पास हैं. 16 की उम्र में ही उनकी शादी हो गई थी. नए रिश्ते में बंधकर जब मायके (रतनखेड़ी) से ससुराल आईं तो पढ़ाई से मानों नाता ही टूट गया. न ही मायके में और न ही ससुराल में उन दिनों हाई स्कूल हुआ करता था. अब पाड़ल्या में 12वीं तक का स्कूल है. हायर सेकेंडरी की पढ़ाई पूरी करने के बाद कॉलेज की पढ़ाई के लिए अब लड़के और लड़कियां देवास और इंदौर पहुंचने लगे हैं. सीमा मंडलोई के पति (वे सरपंच पति के नाम से गांव में बुलाए जाते हैं) बताते हैं- ‘बीते सात-आठ साल के दौरान तालाब की वजह से हमारे खेत, हमारी डेयरियां और वेयरहाउस आबाद हुए हैं. पुरुष का काम खेती अच्छी होने की वजह से बढ़ गया है इसलिए उनके नजरिए में भी बदलाव आ रहा है. हमारे इलाके में लड़के-लड़कियां पढ़ाई का महत्व समझने लगे हैं. बाल-विवाह जैसी बुरी प्रथा पर भी रोक लगी है. लड़कों में नशाखोरी की लत नहीं है. हालांकि गांव के आसपास सरकारी ठेके हाल में खुले हैं.’
‘कंजर’ अपराध छोड़कर खेती करने लगे हैं. इनके बच्चे स्कूल व कॉलेज पढ़ने जाने लगे हैं लेकिन नौकरी के दरवाजे इनके लिए अब भी बंद हैं
सीमा से बिटिया की शादी के बारे में पूछने पर वे मुस्कराकर जबाव देती हैं- ‘अभी पढ़ेगी. वह पढ़ ले तब उसकी शादी की सोचेंगे.’ कितना पढ़ाएंगी? इसके जवाब में सीमा कहती हैं- ‘गांव में 12वीं तक की पढ़ाई के लिए स्कूल है, इतना तो पढ़ ही लेगी. 12वीं के आगे अगर दादाजी और दादीजी पढ़ाने के लिए देवास भेजने को तैयार हुए तो उसे जरूर पढ़ाएंगे.’ बेटी को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाने की हसरत भरी आंखों से वे पास ही बैठे दादाजी की ओर देखने लग जाती हैं. बहु के इशारों को दादाजी भांप जाते हैं और खुद ही जोरदार आवाज में कहते हैं- ‘हां, हां क्यों नहीं? जब तक पढ़ेगी, हम पढ़ाएंगे.’ सीमा मंडलोई की देवरानी भी आठवीं पास है जब उनकी शादी हुई तब उनकी उम्र 17 साल थी. देवरानी की लड़की अभी 12वीं में पढ़ रही है और वह कॉलेज भी पढ़ने जाना चाहती हैं.
इसके बाद हम इसी ग्राम पंचायत की पूर्व सरपंच पवन मालवी के घर पहुंचते हैं. पांच साल तक गांव की सरपंच रहने के बावजूद आज भी वे कच्चा-पक्का घर में रहती हैं. पवन की शादी महज 12 साल की उम्र में हो गई थी. उन्होंने शादी के बाद मायके में रहकर पढ़ाई जारी रखी और 10वीं कक्षा तक पढ़ाई की. आगे पढ़ने की हसरत उस जमाने में पूरी नहीं हो पाई थी लेकिन वे अपनी दोनों लड़कियों को पढ़ाकर आत्मनिर्भर बनाना चाहती हैं. बेटा बीए की पढ़ाई के लिए गांव से 25 किलोमीटर दूर हर रोज देवास आता-जाता है. एक बेटी 11 वीं में और दूसरी 8वीं में पढ़ रही है. बड़ी बेटी 17 साल की हो चुकी है लेकिन पवन अभी उसकी शादी की चिंता नहीं कर रही है. वह उसे पढ़ाना चाहती है. उनसे यह पूछने पर कि आप बच्चियों को क्यों पढ़ाना चाहती हैं? इस सवाल के जबाव में वे कहती हैं- ‘लड़कियां पढ़ लंे और नौकरी पा लें तो उनकी बहुत सारी समस्या खुद ही दूर हो जाती हैं. लड़कों से ज्यादा जरूरी लड़कियों का पढ़ना है. पढ़ी-लिखी लड़कियों के बच्चे भी पढ़ जाते हैं.’
‘हाथों को काम मिले तो वह अपराध क्यों करें ?’
देवास जिले के टोंक खुर्द विकास खंड में कंजर नामक घुमंतू जनजातियों का एक गांव है-भैरवाखेड़ी. यह गांव जिला मुख्यालय से 10-12 किलोमीटर की दूरी पर है. इस इलाके के लोग कंजर जाति को सामान्य तौर पर ‘अपराधी’ के तौर पर पहचानते हैं. इस जनजाति के लोग खुद ही यह स्वीकारते हैं कि वे लोग कुछ साल पहले तक लूटपाट और चोरी करते थे. वे देवास और आसपास के इलाकों में ट्रक लूटने का काम करते थे और कई बार इस काम को अंजाम देने के लिए राजस्थान, गुजरात और महाराष्ट्र तक चले जाते थे लेकिन अब वे अपराध से दूरी बना चुके हैं और खेती-किसानी करने लगे हैं. इस गांव के 20-22 साल से बड़ी उम्र के लोगों में से शायद ही किसी ने स्कूल का मुंह देखा होगा. यह पूछने पर कि आखिर क्या ऐसा हो गया कि आपलोग अपराध से दूर होकर खेती करने लग गए हैं? इसके जबाव में गांव का एक युवक अक्षय हाड़ा बताता है- ‘इस इलाके में पानी के अभाव में खेती पूरी तरह तबाह थी. मजबूरी में हम अपराध करते थे, अब हम इस मारामारी से थक चुके हैं. पिछले कुछ सालों के दौरान इस इलाके में हजारों की संख्या में तालाब, ताल-तलैयों का निर्माण हुआ जिसकी वजह से हमारे गांव के भूजल स्तर में बहुत सुधार हुआ. हमारे गांव में भूजल का स्तर 500-600 फीट तक गहरे चला गया था लेकिन अब 125-150 फीट तक पानी मिल जाता है.खेती-किसानी ठीक होने से हमारे जीवन में समृद्घि व स्थिरता आ रही हैं. सरकार भी हमें सुविधा दे रही है लेकिन हमारा दुख यह है कि हमारे बच्चे सरकारी या प्राइवेट नौकरी नहीं कर सकते हैं.’ ‘तहलका’ के इस संवाददाता ने जब पूछा कि उन्हें नौकरी मिलने में क्या समस्या आ रही हैं, तो अक्षय ने बताया कि पुलिस रिकॉर्ड में हमें आज भी अपराधी बताया जा रहा है जबकि हम लोग पिछले एक दशक से शराफत की जिंदगी जी रहे हैं.
इस गांव में हम जिनके दरवाजे पर खड़े होकर ग्रामीणों से बातचीत कर रहे थे, उस घर की लड़की मेनका गोदेन बीए में पढ़ रही हैं. वे डेयरी के काम में अपने पति का हाथ भी बंटाती हैं. मेनका के पति पांचवी तक पढ़े हैं. मेनका के चेहरे पर अपने और गांववालों के जीवन में आ रहे बदलावों को लेकर संतोष का भाव दिखता है. देवास के कलक्टर रह चुके उमाकांत उमराव भी इस बदलाव को लेकर हामी भरते हैं. उमराव वर्तमान समय में मध्य प्रदेश के आदिवासी विभाग के सचिव हैं. सच तो यह है कि उन्हें जिले में पानी की वापसी का श्रेय देने से कोई नहीं चूकता है. इस जिले में उन्हें आज भी ‘जलाधीश’ कहकर पुकारा जाता हैं. उमाकांत उमराव कहते हैं- ‘देवास जिले में पानी की वापसी से जिंदगी फिर से अपनी लय में लौटने लगी है. इस जिले केे लोग मुझे फाेन करके बताते हैं कि यहां अपराध के मामलों में कमी आई है. ‘कंजर’ अब अपराध से दूर हो रहे हैं और यह देखना सुखद है कि वे खेती-किसानी से जुड़ रहे हैं.
सोशल मीडिया साइट फेसबुक ने ‘इंस्टेंट आर्टिकल’ नाम की एक सेवा शुरु की है जिसके जरिए बिना किसी दूसरे ब्राउजर के पूरी खबर पढ़ी जा सकती है. न्यूजफीड में खबरों के लिंक पर क्लिक करने के बाद फेसबुक के प्लेटफॉर्म पर आसानी से खुल जाएंगी. इससे किसी और ब्राउजर पर पेज खुलने में लगने वाले समय से बचा जा सकेगा.
फेसबुक के मुताबिक यह सेवा काफी तेज है. इसमें कोई भी खबर आठ सेकेंड में खुल सकती है. खबर के फोटो और वीडियो भी हाई क्वालिटी में देखे जा सकेंगे. फेसबुक ने यह सेवा दुनिया की नौ समाचार कंपनियों- द न्यूयॉर्क टाइम्स, बीबीसी, नेशनल जियोग्राफिक, द गार्जियन, एनबीसी, बजफीड, द अटलांटिक आदि के साथ मिलकर शुरू की है.
दुनियाभर में पत्रकारों का एक तबका इसे पत्रकारिता पर खतरा मान रहा है. उनके मुताबिक इस सेवा से फेसबुक मीडिया पर एकाधिकार बनाना चाहता है. यह काफी खतरनाक है. रॉयटर्स के पत्रकार फेलिक्स सैल्मन के मुताबिक यह संभव है कि फेसबुक अपने हिसाब से खबरों को चुनकर लोगों को दिखाए. धीरे-धीरे लोगों के बीच न्यूज चैनल या अखबार की तरह फेसबुक भी खबरों का जरिया बन जाएगा. ऐसे में पेड न्यूज की आशंका बढ़ेगी साथ ही समाचार चैनलों और अखबारों के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगेगा. इस सेवा के तहत जिन मीडिया कंपनियों ने करार किया है उनकी खबरों को फेसबुक अपने न्यूजफीड में प्राथमिकता से दिखाएगा. ऐसे में दूसरी मीडिया कंपनियों को उसके साथ करार करने के लिए विवश होना पड़ेगा. इससे पत्रकारिता के साथ-साथ मीडिया कंपनियों को भी नुकसान होगा. इसे दूसरे समाचार चैनलों की वेबसाइट के लिए भी खतरा बताया जा रहा है.
42 साल अचेतावस्था में बिताने के बाद बलात्कार की शिकार अरुणा शानबाग की पिछले दिनों मुंबई के किंग एडवर्ड मेमोरियल (केईएम) हॉस्पिटल में मौत हो गई. उनकी मौत के बाद उनके गुनहगार सोहनलाल वाल्मीकि के गांव छोड़ देने की सूचना है. पता चला है कि वह मध्य प्रदेश में अपने किसी रिश्तेदार के यहां रहने चला गया है. हालांकि खबर लिखे जाने तक इसकी पुष्टि नहीं हो सकी है.
सोहनलाल इन दिनों हापुड़ जिले के परपा गांव में रह रहा था. इसके अलावा एनटीपीसी में दिहाड़ी मजदूर के तौर पर काम करता था. मुंबई के एक दैनिक अखबार के मुताबिक सीआईएसएफ ने एनटीपीसी के लिए उसका एंट्रीपास जब्त कर लिया है. मुंबई पुलिस कमिश्नर को पत्र भेजकर सीआईएसएफ ने यह जानकारी दी है.
वार्ड नंबर चार अरुणा के नाम
इधर, सोमवार को केईएम अस्पताल में दिवंगत अरुणा शानबाग का 68वां जन्मदिवस मनाया गया. इस अवसर पर अस्पताल प्रबंधन ने वार्ड नंबर चार का नाम अरुणा के नाम करने का निर्णय किया है. इसी वार्ड में अरुणा ने अचेतावस्था के 42 साल गुजारे थे.
छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका देश-दुनिया में अक्सर सुर्खियों में रहता है. माओवादियों की मांद के कारण. पुलिसिया कार्रवाई के कारण. और इन दोनों के बीच के समीकरण साधने की राजनीति के कारण. उसी बस्तर के बकावड़ जिला मुख्यालय से करीब 30 किलोमीटर दूरी पर बसे एक गांव की रहनेवाली सोनबारी नाम की लड़की है. आदिवासी धाविका. बीते साल वह महज 14 वर्ष की थी. सातवीं क्लास की छात्रा थी. वह दौड़ती तो लगता हवा से बात कर रही हो. कभी मीडिया की सुर्खियों में जगह नहीं मिल पाई थी लेकिन बस्तरवाले उसे बड़े प्यार और गर्व से उड़नपरी कहने लगे थे. उसी उड़नपरी का पिछले साल एक रात किसी ने धारदार हथियार से पैर काट दिया. सोनबारी के मां-पिता उस रात किसी पास के गांव में धार्मिक आयोजन में भाग लेने गए थे. वह अपनी दादी और भाई के साथ सो रही थी. अचानक वह जोर से चिल्लाई. उसकी चीख से भाई और दादी जग गए. घर में रोशनी हुई तो पास में धारदार हथियार रखा हुआ मिला. सोनबारी का पैर काटा जा चुका था और चारों ओर खून ही खून पसर चुका था. सोनबारी का पैर काटनेवाला कौन था यह तो बहुत बाद में मालूम हो सका लेकिन उसका मकसद क्या था, यह अब तक पता नहीं चल सका है. हालांकि दरिंदे का मकसद क्या रहा होगा, यह किसी को भी आसानी से समझ में आ सकता है. उनका मकसद सोनबारी यानी बस्तरवाली नन्हीं उड़नपरी के कैरियर का अंत करना था और वे इसमें कामयाब भी हो गए. सोनबारी तो अब भी जिंदा है लेकिन संभावनाओं से भरी हुई एक प्रतिभा का उसी मनहूस रात को अंत हो गया.
लगभग एक साल बाद अब वही सोनबारी ‘सोनचांद’ के रूप में सिनेमा के जरिए आनेवाली है. यह फिल्म बड़े परदेवाली होगी. लेकिन मुंबई के रास्ते नहीं, छत्तीसगढ़ के ही पड़ोसी आदिवासी राज्य झारखंड के रास्ते. और सिनेमा बनानेवाला भी कोई बड़ा स्टार डायरेक्टर या भारी-भरकम टीम नहीं बल्कि वे लोग हैं, जिनके पास गंभीरता, उत्साह,उल्लास, उमंग, सार्थक सोच और जिद-जुनून की पूंजी है.
‘सोनचांद’ नाम से फिल्म बनाने की सोच झारखंड की राजधानी रांची में रहनेवाले लेखक, रंगकर्मी, पत्रकार अश्विनी कुमार पंकज की है. अश्विनी ने ही सोनबारी की कहानी को विस्तार देकर सोनचांद नाम से फिल्म की पटकथा लिखी है. निर्देशन भी अश्विनी कर रहे हैं. निर्माता के तौर पर संस्कृतिकर्मी वंदना टेटे, मानवाधिकार कार्यकर्ता ग्लैडसन डंुगडुंग जैसे लोग इस मुहिम में साथ हैं. और रंजीत एकलव्य, जो फिल्म ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, पुणे (एफटीआइ) से पढ़ाई करने के बाद मंुबई में फिल्मों से जुड़कर काम करने पहुंचे थे, वे सब छोड़-छाड़कर निर्देशन में सक्रिय भूमिका निभाने रांची आ गए हैं. रंजीत इसके पहले अपनी मातृभाषा ‘कुड़ुख’ में ‘पेनाल्टी काॅर्नर’ फिल्म बना चुके हैं. एफटीआइ से बनी वह पहली आदिवासी फिल्म है, जिसे अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में काफी सराहना भी मिली है. लेकिन रंजीत अब पूरी तरह से अपने समुदाय का सिनेमा बनाने में ही जुटे हैं. ऐसा करनेवाले रंजीत एकलव्य अकेले नहीं हैं बल्कि अश्विनी के आह्वान पर आदिवासी समुदाय ने सोनबारी की कथा को सामने लाने के लिए उत्साह दिखाया तो सत्यजीत रे फिल्म इंस्टीट्यूट, कोलकाता से मंजूल टोप्पो, मुंबई से राजकुमार यादव, पुरुलिया से कमलाकांत दास, दिल्ली से सचिन मीणा, पटना से प्रकाश सिंह जैसे दर्जनों नौजवान रांची पहुंचकर इस सिनेमा को बनाने में अपनी भूमिका निभाने में जुट गए हैं. मुंबई में मुजफ्फर अली जैसे मशहूर फिल्मकार के साथ काम कर चुके सिनेमाटोग्राफर कृष्ण देव भी रांची पहुंचेे. भोजपुरी फिल्मों में अभिनय कर चुके बीएन तिवारी ने भी अश्विनी को हर तरह से सहयोग का भरोसा दिलाया है और इस फिल्म में वे अभिनय करने को तैयार हैं. हाल के दिनों में लोकसंगीत में एक नए सितारे की तरह उभरी मशहूर लोकगायिका चंदन तिवारी ने भी इस फिल्म में अपनी आवाज में गाना गाने की सहमति दी है. दिलचस्प यह है कि इस फिल्म से जो भी जुड़ रहे हैं, उनमें से कोई भी कुछ लाभ-लोभ की इच्छा मन में नहीं रख रहा है. हर कोई जिनसे जितना संभव हो वह अपनी अंजुरी भरकर देने की इच्छा रख रहा है. वे अपना काॅस्ट्यूम तक खुद तैयार करवा रहे हैं. शूटिंग के लिए सभी अपने खर्च पर रांची पहुंच रहे हैं और हर कोई यहां की सामान्य व्यवस्था में ढलकर आनंद में डूबकर रचने का बस ख्वाब पाल रहा है. मुश्किलों के बावजूद किसी के जुनून में कमी देखने को नहीं मिल रही है. अश्विनी कहते हैं कि यह बहुत चुनौती भरा काम है और सभी के मन में एक बड़ा उद्देश्य हैै. हमलोगों ने पहले तो कोशिश की कि धाविका सोनबारी से ही अभिनय कराएंगे लेकिन यह संभव नहीं हो पाया. हमलोगों ने फिल्म के पात्रों के चयन के लिए झारखंड-उड़ीसा आदि कई जगहों पर आॅडिशन किए. फिर भी हमें अपनी फिल्म के हिसाब से नायिका नहीं मिली तब हमने झारखंड के अड़की ब्लाॅक के मुंडा समुदाय के सुदूरवर्ती गांवों में घूमना शुरू किया. अलग-अलग गांवों से पांच लड़कियों का चयन किया. फिर सोशल मीडिया के जरिए लोगों से राय मांगी. सोशलसाइट्स पर हमने कहानी और संभावित नायिकाआें का चित्र साझा किया. माकी नाम की एक लड़की को सर्वाधिक लोगों ने पसंद किया. माकी ने अभिनय तो दूर, सिनेमा भी कभी कायदे से नहीं देखा था. वह आठवीं में पढ़ती है. माकी ने तत्काल सहमति दे दी. सोनबारी के साथ सह नायिका के लिए जमशेदपुर के करीम सिटी काॅलेज से मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई करनेवाली पूजा सिंह ने खुद ही इसमें रुचि दिखाई. फिर ‘फेविकोल’ वाले जीतराई हांसदा के साथ काम करनेवाले थियेटर आर्टिस्ट मानु मुर्मू ने सहनायक की भूमिका के लिए अपनी रुचि दिखाई. अश्विनी कहते हैं, यह सबकुछ बहुत मुश्किल था लेकिन समुदाय के स्तर पर सिनेमा बनाने को लेकर लोग जुड़ते गए और कारवां बनता गया लेकिन मुश्किलें सिर्फ इतनी ही नहीं थी. समस्या फिल्म निर्माण के खर्चे को लेकर थी लेकिन 20 से 30 मार्च तक जब शूटिंग की बात तय हुई तो कई ऐसे लोग सामने आए, जिसमें से किसी ने कैंप में आनेवाले सभी लोगों के लिए चाय पहुंचाई, तो किसी ने दाल, किसी ने आटा आदि. अश्विनी कहते हैं, शूटिंग का एक शिड्यूल पूरा हो गया तो अब दूसरा चरण भी पूरा हो जाएगा. चुनौती तो शुरू करने की ही होती है, उसके बाद तो मुश्किलों में भी रास्ते निकलते ही रहते हैं.
सोनचांद नाम से इस फिल्म का निर्माण वीर बुरू ओंपाई मीडिया के बैनर तले हो रहा है. इस कंपनी का निर्माण आदिवासी सिनेमा को बढ़ाने के लिए हुआ है. फिल्म के निर्देशन में सक्रिय भूमिका निभा रहे रंजीत से हमने पूछा कि ऐसे समय में, जब खिलािड़यों पर मैरी काॅम जैसी भारी बजटवाली फिल्म आ चुकी है तो फिर कम बजटवाली सोनचांद जैसी फिल्मों का क्या भविष्य होगा? बना भी लेंगे तो प्रदर्शित कौन करेगा? रंजीत कहते हैं- जहां तक स्टारकास्ट की बात है तो हमलोगांे ने मुंबई में जाकर डैनी डेंगजोप्पा से इसके लिए संपर्क किया था और राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता उषा जादव से भी. दोनों से प्राथमिक स्तर पर ही बात हुई थी. दोनों बिना मेहनताना लिए बिना तैयार हो जाते लेकिन उनके आने-जाने और उनको ठहराने आदि पर जो खर्च आता, उसके लिए हमारे पास फंड नहीं था, इसलिए हमलोगाें ने उनसे दुबारा संपर्क नहीं किया. रंजीत उत्साह से भरकर कहते हैं कि हम इतने ही संसाधन में, सिर्फ सामुदायिक सहयोग से बढ़े मनोबल के जरिए एक बेहतरीन सिनेमा बनाएंगे. रही बात दिखाने की तो वक्त आयेगा तो तय होगा. पहले सिनेमा बनने तो दीजिए.
फिल्म निर्माण के लिए फंडिंग एक चुनौतीपूर्ण कार्य था लेकिन आदिवासी समुदाय के लोगों में से किसी ने आगे बढ़कर चाय पहुंचाई तो किसी ने दाल और किसी ने आटा
सोनचांद की भूमिका निभा रही माकी से भी हमने बात की. गांव से निकलकर पहली बार रांची पहुंची और पहली बार कैमरा देख रही माकी अाहिस्ते से कहती है- हम करेंगे दादा, सिनेमा करेंगे. हम सीख जाएंगे सिनेमा. माकी मासूमियत से अपनी बात कहती है. वह आत्मविश्वास से लबरेज है तो उसकी वजहें हैं. माकी देख रही है कि कैसे सरहुल और रामनवमी में गांव-गिरांव में जाकर मामूली लोगों से, मामूली लोगों से गलियों में अभिनय करवाया जा रहा है. माकी पल-पल सिनेमा को महसूस कर रही है. माकी का आत्मविश्वास जग रहा है और उसी आत्मविश्वास के बूते वह कह रही है कि वह सीख जाएगी सिनेमा.
आप यह अनुमान लगा लें तो ऐसी फिल्में तो रोज बनती हैं और रोज दम तोड़ती हैं. रोज ही ऐसी शूटिंग चलती रहती है और डिब्बे में बंद हो जाती है. आप यह भी कह सकते हैं कि फिल्म ही एक ऐसी विधा है, जो अब शगल की तरह है. जिसे जी में आया, कैमरे का जुगाड़ किया और बना लिया सिनेमा. फिल्म की निर्माता वंदना टेटे कहती हैं, ‘हां यह सही है. इससे किसी कोे इंकार नहीं. लेकिन भारतीय सिनेमा की 100 साल की स्वर्णिम परंपरा और इतिहास में आदिवासियों का अपना सिनेमा नहीं बन सका है. हम इतिहास के उसी निर्माण के दरवाजे पर दस्तक देने की कोशिश कर रहे हैं. हमारा काम कोशिश करना है, अभी से ही परिणाम की चिंता में मर-मिट जाना नहीं. हम सफल होंगे तो नजीर बनेंगे, बहुतों के लिए संभावनाओं के द्वार खोलेंगे, विफल हुए तो पथ प्रदर्शक तो बनेंगे ही.