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‘बेटे के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसकी मां उसे याद करते हुए मर गई और उस वक्त वो वहां नहीं था…’

case 4‘सितंबर 2014 की बात है… मेरी मां अस्पताल में भर्ती थी… पुलिस कस्टडी में मैं उनसे मिलने अस्पताल गया था…  मेरे मिलकर आने के दो दिन के बाद ही मां ने दम तोड़ दिया… घर वालों ने बताया कि वो बार-बार मेरा ही नाम ले रही थीं… मुझे याद कर रही थीं लेकिन जब उनके प्राण निकले तो मैं वहां नहीं था… मुझे अगले दिन मालूम हुआ कि मेरी मां अब इस दुनिया में नहीं है… पुलिस कस्टडी में ही मैं अपनी मां के अंतिम संस्कार में भाग ले पाया… इसके अगले दिन ही मुझे फिर से जेल में डाल दिया गया.’

हरियाणा के कैथल निवासी नरेश कुमार के जीवन का सबसे बड़ा दुख यही है. अपने इस दुख के लिए वो देश की व्यवस्था को दोषी मानते हैं. वो कहते हैं, ‘जिस दिन प्लांट में झगड़ा हुआ उस दिन मैं छुट्टी पर था…मेरे एक संबंधी के यहां शादी थी… मैं वहां था… फिर भी जब मुझे मालूम हुआ कि पुलिस मुझे खोज रही है तो मैं खुद ही पुलिस के सामने पेश हो गया… मुझे नहीं मालूम था कि वो मुझे गिरफ्तार करके जेल में डाल देंगे जहां से मैं 30 महीने बाद जमानत पर बाहर आ सकूंगा.’

नरेश के अनुसार वो खुद ही पुलिस के सामने पेश हुए थे लेकिन पुलिस के मुताबिक नरेश को मानेसर में मारुति प्लांट के बाहर से गिरफ्तार किया गया था. जब हम पुलिस द्वारा दिए गए तथ्य को नरेश के सामने रखते हैं तो वो कहते हैं, ‘पुलिस के मुताबिक तो सारे के सारे लड़के वहीं से गिरफ्तार किए गए हैं. लेकिन वास्तविकता ऐसी नहीं है. तीन साल होने वाले हैं इस मामले को. अब तो कुछ दिन में फैसला ही आ जाएगा. फैसला आने के बाद यह तय हो जाएगा कि सही कौन है और गलत कौन है.’

मामले की अंतिम सुनवाई इसी साल जुलाई में होने वाली है और इसके बाद अदालत का फैसला आ जाएगा. इस फैसले का इंतजार नरेश के साथ-साथ वो सारे मजदूर भी कर रहे हैं जो जमानत पर रिहा हो चुके हैं या अभी भी जेल में ही हैं.

15 मई 2015 को जमानत पर रिहा हुए नरेश को एक बात बार-बार परेशान करती है और वो ये है कि अगर वो निर्दोष साबित होते हैं तो उन दो-ढाई सालों का क्या होगा जो उन्होंने जेल में बिताया. नरेश कहते हैं, ‘आज मेरा परिवार अगर शहर में रह रहा होता या घर में मैं अकेला होता तो मेरी पत्नी और बच्चे सड़क पर होते. वो तो भला हो मेरे भाइयों का जिन्होंने मेरी पत्नी और बच्चों का ख्याल रखा. इसी देश में सलमान खान को दोषी साबित होने के बाद भी जमानत मिल जाती है लेकिन मेरे जैसे कमजोर लोग बिना दोषी साबित हुए सालों-साल जेल में रहते हैं. सलमान खान के पास तो इतना पैसा है कि अगर वो जेल में रहते तब भी उनके परिवार का कुछ नहीं बिगड़ता लेकिन मेरे साथ तो ऐसा नहीं था. अब तक मुझ पर दोष साबित नहीं हुआ है लेकिन मैं जेल की सजा काट चुका हूं. मेरी नौकरी जा चुकी है और आज मैं बेरोजगार हूं. अगर मैं निर्दोष साबित होता हूं तो क्या मुझे दोबारा मारुति में नौकरी मिलेगी. पिछले दो साल की सैलरी मिलेगी?’

हम नरेश द्वारा उठाए गए इन सवालों का जवाब देने में असमर्थ हैं और शायद हमारी असमर्थता को नरेश भांप लेते हैं. वह खुद ही अपने सवालों का जवाब देते हुए कहते हैं, ‘मुझे ऐसी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है कि ये सब मुझे वापस मिलेगा क्योंकि जिस राज में बिना किसी गलती के सालों की जेल मिलती हैं वहां कुछ वापस नहीं मिलता, केवल छीना जाता है. आज मेरा सब कुछ छिन चुका है.’

 

‘पुलिस, न्यायालय, मीडिया किसी ने भी हमारा साथ नहीं दिया…’

case 3 (2)20 वर्षीय रमन विश्नोई हरियाणा के फतेहाबाद जिले के रहने वाले हैं. नवंबर 2011 में रमन ने मारुति के मानेसर प्लांट में बतौर प्रशिक्षु काम करना शुरू किया था. जुलाई 2012 की घटना के बाद पुलिस ने उन्हें भी उनके कमरे से गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया. अपनी गिरफ्तारी के पौने तीन साल बाद रमन इसी साल मई में जमानत पर रिहा हुए हैं.

रमन से हमारी मुलाकात गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायलय में हुई. वो यहां पेशी के लिए आए हैं. कंधे पर बैग लटकाए रमन एक पल के लिए किसी कॉलेज के छात्र जान पड़ते हैं लेकिन ऐसा है नहीं. रमन पिछले कई सालों से जेल में थे और उनके मुताबिक वो बिना किसी गलती के जेल की सजा काटकर आए हैं. रमन अपनी आपबीती बताते हुए कहते हैं, ‘क्या कहें… हमारा जीवन तो बर्बाद ही हो गया समझिए… हम तो पक्की नौकरी पर भी नहीं थे… ट्रेनी थे… कल को अगर बेगुनाह साबित भी हो गए तो भी कुछ नहीं मिलेगा… जो पक्की नौकरी पर थे वो तो केस-मुकदमा भी कर सकते हैं. हम क्या करेंगे… हमें तो कल को कोई नौकरी पर भी नहीं रखेगा… क्योंकि हम जेल में थे.’

रमन के परिवार में उनके पिता हैं जो खेती-किसानी करते हैं, मां हैं और एक बहन है. उनका छोटा-सा परिवार अपने गांव में ही रहता है. जितने दिन रमन जेल में रहे उतने दिन उनके पिता फतेहाबाद और गुड़गांव कोर्ट के बीच चक्कर लगाते रहे. हर तारीख पर आना. हर कुछ दिन पर अपने बेटे से जेल में जाकर मिलना. कपड़े और दूसरे जरूरी सामान देना उनकी नियमित

दिनचर्या थी. रमन के अनुसार आज उनके पिता जी के माथे पर करीब-करीब पांच से सात लाख का कर्ज है. बहन की शादी के लिए जो थोड़े-बहुत पैसे थे वो भी उन्हें बाहर लाने में चले गए. फिलहाल रमन को इस बात का

डर है कि आगे उन्हें कोई काम नहीं देगा क्योंकि उन पर जेल काटकर आने का ठप्पा लग चुका है.

रमन इस सबके लिए पूरे सिस्टम और मीडिया को दोषी मानते हैं. रमन के मुताबिक उनके साथ वही हुआ जो अब तक वो केवल टीवी या सिनेमा में देखते रहे हैं. वो कहते हैं, ‘मेरे साथ जो हुआ है वैसा होते हुए मैंने आज तक केवल फिल्मों में ही देखा है. फिल्म की शुरुआत में पूरा सिस्टम एक साथ मिलकर हीरो और उसके परिवार को परेशान करता है. फिल्म के आखिर में हीरो पूरे सिस्टम को सबक सिखाता है. लेकिन यहां ऐसा नहीं है. मैं फिल्म का हीरो नहीं हूं और यहां सब कुछ असली है. वास्तव में पूरा सिस्टम भ्रष्ट है. पुलिस ने हमे बिना एफआईआर में नाम के जेल में डाल दिया और अदालतों ने दो-ढाई साल तक जमानत नहीं दी… मीडिया ने भी हमारा साथ नहीं दिया… और मैं कुछ नहीं कर सकता. मैं केवल अपनी जिंदगी को शुरू होने से पहले ही बर्बाद होते हुए देख सकता हूं.’

मई की दोपहर में एक पेड़ के नीचे रमन विश्नोई हमसे ये सारी बातें एक सांस में कह गए. ऐसा महसूस होता है कि रमन ने जो कहा उसकी वजह से दिन का पारा सौ डिग्री के आसपास पहुंच गया है और इस आंच में सबकुछ धू-धूकर जल रहा है.

‘देख ना रहा हमारी हालत… चले जा यहां से… हमें ना करनी कोई बात…’

गुड़गांव में रहने वाले सुमित नैन उन 34 मजदूरों में से एक हैं जो आज भी जेल में बंद हैं. सुमित के ससुर चतर सिंह उनकी एक झलक देखने और उनसे मिलने के लिए गुड़गांव जिला एवं सत्र न्यायालय में पेशी के लिए पुलिस हिरासत में आए हैं. दामाद की एक झलक देखने के बाद चतर सिंह इस मामले में मजदूरों की तरफ से पैरवी कर रहे वकील से बात कर रह रहे हैं. वो उनसे अनुरोध कर रहे हैं कि उनके दामाद को भी जमानत दिला दी जाए.

चतर सिंह किसान हैं. 2011 में उन्होंने अपनी बेटी की शादी सुमित के साथ की थी. तब उन्हें लगा था कि उन्होंने अपनी बेटी के लिए सही लड़का खोज लिया है लेकिन शादी के एक साल बाद ही हालात बदल गए. सुमित गिरफ्तार होकर जेल चले गए और चतर सिंह की बेटी अपने पिता के यहा वापस आ गई. सुमित की गिरफ्तारी के बाद से चतर सिंह की पूरी दिनचर्या ही बदल गई है. पहले वो दिन-दिनभर खेतों में और मंडियों में रहा करते थे लेकिन अब उनके दिन अदालतों और वकीलों के इर्द-गिर्द घूमते हुए बीत रहे हैं. दिनभर चक्कर लगाने के बाद जब वो शाम में अपने घर पहुंचते हैं तो बेटी की उदास आंखें यही पूछती हैं कि सुमित को जमानत कब मिलेगी? कब वो जेल से बाहर आएगा या आएगा भी कि नहीं?

सुमित के ससुर चतर सिंह से हमने बात करने की दो बार कोशिश की लेकिन वो बात नहीं कर पा रहे थे. अपनी बात रखते-रखते वो बार-बार रोने लगते.

हमने उनसे कुछ जानना चाहा तो वो बोले, ‘एक्के बात के बार-बार पूछ रहे से… देख्यो नहीं हमारी हालत. चले जाओ यहां से… हमें कुछ न बताना… देख ना रहा हमारी हालत… चले जा यहां से… हमें न करनी बात…’ चतर सिंह हमें चले जाने को कहते हैं लेकिन हमारे जाने का इंतजार किए बिना, खुद ही हमसे दूर चले जाते हैं. हम उन्हें जाते हुए देख रहे हैं. वो हमसे थोड़ी दूर जाकर एक पेड़ के नीचे बैठे गए हैं. घुटनों के सहारे जमीन पर बैठे चतर सिंह के दोनों हाथ उनके िसर पर हैं. वो हमारी तरफ देख भी नहीं रहे हैं.  कई कोशिशों के बाद हम में इतनी हिम्मत शेष नहीं है कि फिर से चतर सिंह के करीब जाएं और उनसे पूछें कि जब उनका दामाद जेल चला गया तो इससे उनकी जिंदगी किस-किस तरह से बदली.

 

‘जमानत मिलने से कुछ नहीं बदला, फैसले का इंतजार है…’

vikas kumar‘मेरी मां बीमार है… बड़े भाई की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई और तीन साल का भतीजा बीमारी की वजह से इस दुनिया से विदा हो गया… ये सारी घटनाएं तब हुईं जब मैं जेल में था. एक के बाद एक कई ऐसी घटनाएं हुईं जिसकी वजह से मेरा परिवार तबाह हो गया. इन सारी घटनाओं के वक्त मैं अपने परिवार के साथ नहीं था. उलटे जब मैं इन मौकों पर पुलिस की कस्टडी में वहां पहुंचा तो परिवार का दुख और बढ़ गया… क्या-क्या बताऊं.  ये समझो कि पूरा परिवार ही इस दौरान बर्बाद हो गया.’

ये शब्द विकास कुमार के हैं. हरियाणा के सोनीपत में रहने वाले विकास उन मजदूरों में से एक हैं जो ढाई साल बाद जमानत पर रिहा होकर जेल से बाहर आए हैं. घटना के पंद्रह दिन के बाद ही पुलिस ने उन्हें उनके घर से गिरफ्तार किया था. इसके बाद से वो जेल में थे और पिछले हफ्ते ही जेल से बाहर आए हैं. विकास जब जेल में थे तब उनके बड़े भाई की एक सड़क दुर्घटना में मौत हो गई. इसके कुछ ही दिनों के बाद उनके तीन साल के भतीजे की भी एक बीमारी की वजह से मृत्यु हो गई.

इन सभी मौकों पर विकास अपने परिवार के साथ नहीं थे. जब ये घटनाएं हुईं तो उन्हें पुलिस कस्टडी में 12 घंटे के लिए परिवार के पास ले जाया गया. विकास बताते हैं, ‘इन मौकों पर परिवार के पास न होने का दुख मुझे अभी भी रात में सोने नहीं देता. घटनाओं को रोकना तो किसी के हाथ में नहीं है लेकिन अगर मैं जेल में नहीं होता तो इन मौकों पर अपने परिवार के साथ होता. उनके पास होता. जेल में होने की वजह से मुझे यह मौका भी ठीक से नहीं मिला.’

जब हम विकास से पूछते हैं कि उन्हें जमानत पर रिहा हुए एक सप्ताह हो चुका है, क्या इस दौरान उनके जीवन में कोई बदलाव आया है? क्या वो अब अपने परिवार की मदद कर पा रहे हैं? इन सवालों के जवाब देने से पहले विकास रिपोर्टर काे देखकर हंसते हैं और फिर कहते हैं, ‘मदद क्या कर सकता हूं. मेरी मां बीमार है… बिस्तर पर है. मेरे पास नौकरी नहीं कि मैं उसका इलाज करा सकूं. मेरी एक बेटी है. वो तीन साल की है. मैंने सोचा था कि उसे पहले दर्जे से ही अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ाऊंगा लेकिन फिलहाल मैं ऐसा नहीं कर सकता. नौकरी करने की सोच रहा हूं लेकिन जब तक इस मामले में फैसला नहीं आ जाता तब तक कहीं नौकरी नहीं मिलेगी. अब आप ही बताइए कि जमानत मिलने से मेरी जिंदगी कितनी बदल गई? हां… इतना हुआ कि मैं जेल में नहीं हूं और अपने परिवार के साथ रह रहा हूं लेकिन इतना काफी तो नहीं होता?’

फिलहाल हमारे पास विकास के किसी भी सवाल का जवाब नहीं है. हां… हमारे पास इनके लिए एक के बाद एक कई सवाल हैं. हम अपना अगला सवाल विकास के सामने रखते हैं. हम उनसे जानना चाहते हैं कि अब वो क्या करने की सोच रहे हैं. इस सवाल के जवाब में विकास कहते हैं, ‘कुछ तो करना ही होगा… बेरोजगार तो रहा नहीं जा सकता… मैं ऐसे किसी परिवार से तो हूं नहीं कि अगर काम नहीं करूंगा तब भी सब कुछ ठीक से चलता रहेगा. मैं तो रोज कमाने और खाने वाले परिवार से हूं. अगर मैं काम नहीं करूंगा तो मेरे परिवार को खाने के लाले पड़ जाएंगे.  देखते हैं आगे क्या करना है? अभी कुछ सोचा नहीं है…’

विकास से हमारी ये बातचीत गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय के परिसर में हो रही है. वो अदालत में पेशी के लिए आए हैं और अब वक्त हो गया है कि वो अदालत के सामने हाजिर हों. विकास हमसे विदा लेते हैं लेकिन जाते-जाते कहते हैं, ‘बतलाने के लिए बहुत कुछ है लेकिन इससे कोई फायदा नहीं है. जो होना था सो हुआ और जो आगे होना होगा वो भी होगा ही…’

‘अपनी बच्ची के बचपन को नहीं देख पाया और न ही बीमारी के वक्त मां को क्योंकि मैं जेल में था’

Kamal Singh and His wife1 (1)‘दो दिन पहले ही जेल से घर आया हूं. बहुत अच्छा लग रहा है. बिना किसी गलती के, बिना किसी अपराध के, ढाई साल जेल काटकर आया हूं. इन दो-ढाई सालों में पूरा परिवार तबाह हो गया. बड़े बुरे दिन थे. मैं उस वक्त को याद नहीं करना चाहता हूं’

इतना कहते-कहते 26 वर्षीय कमल सिंह की आंखों में आंसू भर आए. वो चुप हो गए. कमरे में चुप्पी पसर गई. वे उठे, पानी से चेहरा धोया. थोड़ी देर चुप रहने के बाद कहा, ‘जब मुझे मारुति में नौकरी मिली तो पूरा परिवार खुश हुआ. किसी को नहीं मालूम था कि इसी कंपनी की वजह से एक दिन मेरा पूरा परिवार तबाह हो जाएगा और मैं जेल चला जाऊंगा. आज मेरे पास न नौकरी है, न ही पैसा. पूरी तरह अपने पापा की कमाई पर आश्रित हूं. अकेले रहता तो और बात होती लेकिन मेरी पत्नी भी है और एक फूल-सी बच्ची भी है.’ मारुति के

मानेसर प्लांट में हुए झगड़े के एक महीने बाद 17 अगस्त 2012 की सुबह सादी वर्दी में कुछ लोग उनके घर आए और कमल को अपने साथ ले गए. लगभग 34 महीने जेल में रहने के बाद 15 अप्रैल 2015 को कमल जमानत पर रिहा हुए हैं.

2012 की अगस्त की उस सुबह को याद करते हुए कमल कहते हैं, ‘मैं अपने कमरे में सोया था. सुबह लगभग पांच-साढ़े पांच बजे पिताजी ने आवाज लगाई. मैंने दरवाजा खोला. मेरे सामने सादे लिबास में कुछ लोग थे. मैं पूरी तरह नींद से जगा नहीं निकला था. थोड़ी देर तक कुछ समझ ही नहीं आया कि हो क्या रहा है? ये लोग कौन हैं? मुझे कहां ले जाना चाहते हैं? मां लगातार रो रही थी. पिताजी बदहवासी में लगातार कह रहे थे कि मेरे लड़के का उस झगड़े से कोई लेना-देना नहीं है, साहेब. आपलोगों को जरूर कोई गलतफहमी हुई है…’

कमल आगे बताते हैं, ‘अब तक मुझे भी समझ में आ गया था कि ये लोग पुलिस वाले हैं और मुझे जुलाई के उस झगड़े के मामले में गिरफ्तार कर रहे हैं. वो मेरी मां से कह रहे थे कि बस पूछताछ के लिए ले जा रहे हैं. पूछताछ पूरी होते ही वापस भेज देंगे. लेकिन मुझे यह लग गया था कि ये लोग मुझे गिरफ्तार कर रहे हैं. उन्होंने न तो मुझे गिरफ्तारी का वारंट दिखाया और न ही स्थानीय पुलिस चौकी को सूचित किया.’

कमल की मां अपने लड़के के िसर पर हाथ फेरते हुए कहती हैं, ‘भइया… किसी के साथ वैसा न हो जो मेरे साथ हुआ. लड़के की नई-नई शादी हुई थी. बहू एक महीने की गर्भवती थी… दुख का पहाड़ टूट पड़ा. आज-कल, आज-कल करते सालों निकल गए.’

मां को शुगर है. बेटे की गिरफ्तारी के बाद वह पहले से ज्यादा बीमार रहने लगीं. अस्पताल में कई बार भर्ती करवाना पड़ा. तबीयत के बारे में पूछा तो कहती हैं कि बेटा आ गया, अब तबीयत की कोई फिक्र नहीं…

इन सबसे अनजान कमल की दो साल की बेटी दीप्ति फर्श पर बैठी मोबाइल से खेल रही है. कमल की गिरफ्तारी के समय दीप्ति मां के गर्भ में थी. कमल ने बताया कि इसके जन्म की खबर उन्हें दो महीने बाद मिली थी. वो कहते हैं, ‘पिताजी दो-तीन महीनों में एक बार मुलाकात के लिए आते थे. इसके जन्म के दो महीने बाद वो मुझसे मिलने जेल आए थे. तभी मुझे जानकारी मिली थी कि मेरे घर बेटी हुई है. मैंने जेल से ही अपनी बच्ची का नाम रखा था. पिछले हफ्ते ही मैंने अपनी बच्ची को पहली दफा देखा है.’

बातें हो ही रही थीं कि कमल के 55 वर्षीय पिता धर्मपाल कमरे में आए. धर्मपाल दिल्ली सरकार में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं. कमल की गिरफ्तारी के बाद धर्मपाल नौकरी, परिवार और कोर्ट-कचहरी के बीच लगातार चक्कर लगाते रहे. घर में बीमार पत्नी और बहू गर्भवती थी. इन सबके बीच कमल को जेल से बाहर लाने की सारी कोशिशें उन्होंने ही की थी. धर्मपाल बीते दो-ढाई सालों के बारे में कहते हैं, ‘भागते-भागते मन और शरीर दोनों हार जाते थे लेकिन लड़के से कोर्ट में या जेल में मुलाकात होते ही महसूस होता कि सारी ताकत लगाकर उसे बाहर ले आऊं. लेकिन वकीलों के चक्कर लगाने के सिवाय कुछ कर नहीं पाया. लड़के को जमानत दिलवाने के लिए बहुत कोशिश की, मगर उसे जब बाहर आना था तभी वो बाहर आया.’

जमानत मिलने में काफी वक्त लग जाने के बारे में जब हमने पूछा तो धर्मपाल ने इसे ईश्वर की मर्जी बताया. आगे कहा, ‘कमल के जेल में होने के कारण घर की माली हालात खस्ता हो गई है. हम पर पांच-सात लाख का कर्ज तो हुआ ही हम दस साल पीछे भी चले गए.’

धर्मपाल से ये पूछने पर कि क्या वो मारुति या देश की न्यायपालिका को दोषी मानते हैं तो उन्होंने कहा, ‘किसी का कोई दोष नहीं. ईश्वर सब देख रहा है. हमसे कोई गलती हुई होगी उसी का हिसाब वो हमसे ले रहा है.’ इतना कहते-कहते उन्होंने अपना सब्र खो दिया और रोने लगे.

बेटे की जल्दी जमानत के लिए धर्मपाल सुप्रीम कोर्ट के कुछ नामी वकीलों के पास भी गए थे, लेकिन वहां उन्हें पता चला कि अगर वो अपना सब कुछ बेच भी देंगे तब भी वकील की एक पेशी की फीस नहीं दे पाएंगे. इस पर धर्मपाल बताते हैं, ‘हम सुप्रीम कोर्ट के तीस-पैंतीस वकीलों के पास गए. जिनकी एक पेशी के पांच से सात लाख रुपये हैं. किसी से सिर्फ मिलने की फीस एक लाख रुपये थी. सिद्धार्थ लूथरा, हरीश साल्वे और राम जेठमलानी के यहां भी  गए. हरीश साल्वे के पीए ने एक सुनवाई में पेश होने के 21 लाख रुपये मांगे और फिर अंत में 10 लाख रुपये पर आकर तैयार होते हुए पांच सुनवाई का चेक एडवांस में मांगा था. पीए ने कहा कि अगर लड़के की जमानत पहली सुनवाई में हो जाती है तब भी हम पांच सुनवाई की फीस लेंगे. जेठमलानी साहब के पीए ने एक सुनवाई के 31 लाख मांगे. हमने उनसे मिलवाने की गुहार की तो उन्होंने पांच लाख दस मिनट के लिए जमा करने को कहा. तब मुझे लगा कि सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगा पाना हमारे बूते से बाहर की बात है.’

बहरहाल कमल को जमानत मिल चुकी है. पूरा परिवार खुश है, लेकिन कमल के सामने कई उलझने हैं. वह इस मामले से जल्दी बाहर आकर नौकरी कर परिवार की आर्थिक जरूरतें पूरा करना चाहता है. कमल के मन में कई सवाल भी हैं जिनका जवाब खोजने की कोशिश में वे लगे हैं. वो कहते हैं, ‘कोर्ट में मेरे खिलाफ एक गवाह नहीं आया. किसी ने मेरी पहचान नहीं की. फिर भी मुझे ढाई साल जेल में रहना पड़ा, क्यों? मेरी गलती क्या थी? जो दुख-तकलीफ मैंने और मेरे परिवार ने उठाई उसकी भरपाई कौन करेगा? क्या उन पुलिस वालों पर, मारुति के कर्मचारियों पर कोई मुकदमा चलेगा, जिनकी वजह से जेल में रहा? अपनी बच्ची का बचपन नहीं देख पाया… बीमार मां की देखरेख नहीं कर पाया… और आज मैं बेरोजगार हूं…’

साल की सबसे कमाऊ फिल्म बनी तनु वेड्स मनु रिटर्न्स

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कंगना रनौत के जुड़वां अभिनय से सजी ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ 100 करोड़ क्लब में शामिल होकर साल की सबसे सफल फिल्म बन गई है. 30 करोड़ के साधारण बजट के साथ बॉक्स ऑफिस पर अवतरित हुई इस फिल्म का 10 दिनों में कुल कारोबार 103.47 करोड़ रुपये हो गया है. फिल्म विश्लेषक तरण आदर्श ने एक ट्वीट के माध्यम से यह जानकारी दी.

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इस फिल्म ने पिछले हफ्ते ही अपना विश्वस्तरीय कलेक्‍शन 100 करोड़ रुपये कर लिया था. फिल्म की कमाई पहले दिन मात्र 8.85 करोड़ रुपये थी. बाद के दिनों में इसकी कमाई ने रफ्तार पकड़ी और पहला हफ्ता खत्म होने पर यह 38.15 करोड़ रुपये का कारोबार कर चुकी थी. फिल्म ने दीपिका पादुकोण व अमिताभ बच्चन के अभिनय से सजी फिल्म ‘पीकू’ और अक्षय कुमार व श्रुति हासन की फिल्म ‘गब्बर इज बैक’ को पछाड़ दिया है. देश में ‘गब्बर इज बैक’ का अब तक का कुल कारोबार 86.55 करोड़ रुपये और ‘पीकू’ का कारोबार 77.33 करोड़ रुपये रहा.

2011 में आई ‘तनु वेड्स मनु’ की यह सीक्वल दर्शकों के साथ ही आलोचकों का दिल भी जीतने में सफल रही है. फिल्म में कंगना के अभिनय की जमकर तारीफ हो रही है और ‌इसके संवाद लोगों की जुबां पर चढ़े हुए हैं. आनंद एल. राय के निर्देशन में बनी इस फिल्म में कंगना के अलावा, आर. माधवन, जिमी शेरगिल, दीपक डोबरियाल, स्वरा भास्कर, मोहम्मद जिशान अयूब और राजेश शर्मा ने अभिनय किया है.

हंस लीजिए, लेकिन खुश होने वाली बात नहीं है !

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आपने बेरोकटोक पहनने की आजादी मांगी, घूमने-फिरने की आजादी मांगी, शराब पीने की आजादी मांगी, सेक्स-पार्टनर चुनने की आजादी मांगी, बहु-संबंधों की आजादी मांगी, जिम्मेदारियों से आजादी मांगी- उन्होंने दे दी! और इन सब आजादियों को मिला के ऐसा किरदार बना दिया जो अपने आसपास के हर इंसान को आतंकित किए रखता है… अब आप डैमेज-कंट्रोल करती रहिए.

फिल्में कम देखती हूं इसलिए स्त्रीवादी हिंदी फिल्मों पर कोई राय नहीं है. इस वजह से तुलना नहीं कर सकूंगी लेकिन ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ देखी है. सोशल मीडिया पर पढ़ा था कि एम्पावर्ड वीमेन की कहानी है. फिल्म देख के बस वो मुसलमान मर्द याद आए जो बुरका का समर्थन करते समय नग्नता का हवाला देते हैं, कि आप को शरीर ढकने से ऐतराज है क्योंकि आप न्यूडिटी पसंद करते हैं. मानो बुरका और न्यूडिटी के बीच जींस-टॉप, साड़ी, लहंगा, सलवार-कमीज, स्कर्ट-फ्रॉक आदि कुछ है ही नहीं. उसी तरह या तो एक महिला दबी-कुचली आदर्श नारी होगी या फिर बे-उसूल, बेवफा आजाद तितली. महानगरों में रह रही मेहनतकश, संघर्षरत, स्वयं-सिद्धा, स्वाभिमानी और व्यसनहीन ‘दत्तो’ का अकेले रह जाना बहुत सालता है.

तनु वेड्स मनु रिटर्न्स हॉल के भीतर आपको हंसने से फुर्सत नहीं देती. हॉल के बाहर आइए तो भोले-भाले क्यूट डायलॉग्स गाने की तरह गुनगुनाते रहिए. करैक्टर आर्टिस्ट्स के दृश्य इतने जानदार हैं कि मुख्य कलाकारों के बराबर खड़े हैं. यूपी और हरियाणा का समागम तो मानो दिल्लीवालों के दिल की बात हो गई. लेकिन इसके साथ-साथ ‘तनु’ और ‘दत्तो’ पर बारीक विश्लेषण भी जारी है. कुछ लोग इसे नारीवाद और एम्पावर्ड वीमेन के नजरिये से देख रहे हैं.

मुझे यकीन है कि इस फिल्म की पुरुष टीम नारी-स्वछंदता से भयभीत है. मजाक-मजाक में फिल्म बता गई है कि आज की शहरी लड़की खुद-परस्त, धोखेबाज, बेवफा, बे-दिल, पुरुष-शोषक और बे-किरदार इंसान है. वो पति पर कमाने, खिलाने, रखने का बोझ तो डालती ही है साथ ही वो पति को निरंतर एक आशिक, हंसोड़-मित्र और मनोवैज्ञानिक बने रहने का अतिरिक्त भार भी डालती है, और ये सब करते समय उसकी अपनी कोई जिम्मेदारी नहीं है. यानी पति तो उसको सुपरमैन चाहिए और खुद वो एक पैरासाइट जोंक है जो सिर्फ लेना जानती है, देना नहीं.

फिल्म देख वो मुसलमान मर्द याद आए जो बुरके का समर्थन करते समय हवाला देते हैं कि आपको शरीर ढकने से ऐतराज है क्योंकि आप नग्नता पसंद करते हैं

शादी के अंदर और बाहर बस वो पुरुष साथियों का इस्तेमाल कर रही है. पति-पुरुष तो छोड़िए वो खुद-परस्ती में इस हद तक अंधी है की नाकाम शादी से पीछा छुड़ाकर जब मायके में परिवार पर बोझ बनती है तब भी वो उनकी सामाजिक परिस्थिति का लिहाज नहीं करती और परिवार वाले इस आतंक में रहते हैं कि लंदन-रिटर्न बेटी किस परिस्थिति में जलील करवा दे. मायके में वापसी कर वो रोजगार या आत्मनिर्भर होने की कोशिश नहीं करती बल्कि निकल पड़ती है अपनी बोरियत मिटाने और पीछे छूट गए आशिकों में संभावनाएं तलाशने.

उसके कपड़े, उसके परिधान-श्रृंगार, उसकी शराब, उसका घूमना-फिरना, मर्दों का इस्तेमाल करना आदि सब कुछ कॉमेडी की चाशनी में ऐसे घोला गया है कि आपको उस वक्त ऐतराज नहीं होता, लेकिन अपने साथ ही बैठे एक नौजवान मर्द को चहकते हुए मैंने कहते सुना, ‘मेरी गर्लफ्रेंड भी ऐसी ही बवाली थी,  हे भगवान तेरा शुक्र है कि पीछा छूट गया, वरना न काम का रहता न काज का !’ इस फिल्म में एक तनु के कारण बाकी सभी चरित्र दुखी हैं या

मुसीबत में हैं, ऐसी लड़की, नए कानूनों से डरे बैठे शहरी पुरुषों को सिर्फ और डरा सकती है.

अब हमारे हिंदी फिल्म निर्माता भी सामंती रिश्तेदारों की तरह, महिला की खुद-मुख्तारी को एक सुर में नग्नता, सुरापान, उन्मुक्त-यौन संबंध तक सीमित कर वही तर्क दे रहे हैं जो बुरके की अनिवार्यता पर कठमुल्ले देते हैं कि अगर आपको बंद-गोभी की तरह बुरका-बंद होने से ऐतराज है तो लाजमी तौर पर आप बिकिनी-न्यूडिटी समर्थक हैं, जबकि समाज की सच्चाई कुछ और है.

मारुति के मारे, व्यवस्था से हारे

India Maruti Suzuki Labor Unrest

सात मई की दोपहर दिल्ली के विवेक विहार में रहने वाले 55 वर्षीय शिव प्रसाद गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में आए हैं. मई की इस तपती दोपहरी में शिव प्रसाद पिछलेदो घंटे से चहलकदमी कर रहे हैं. वो समय रहते अपने बेटे का ‘बेल बॉन्ड’ भर लेना चाहते हैं ताकि उसे जेल से निकालकर घर ले जा सकें. शिव प्रसाद का 25 वर्षीय बेटा प्रदीप कुमार पिछले ढाई साल से जेल में बंद है. एक दिन पहले ही उसे जमानत मिली है. आज सुबह जब शिव प्रसाद घर से अदालत के लिए निकल रहे थे तो उनकी पत्नी ने उनसे कहा कि आज बेटे को घर लेकर ही आना. शिव प्रसाद कहते हैं, ‘क्या कहें ये ढाई साल कैसे बीते हैं. जवान बेटा जेल में था. आज-कल करते-करते ये ढाई साल निकल गए. जब कभी भी राकेश की मां को मिलने-मिलवाने के लिए लाया वो केवल रोई. घर पर भी उसके दिन और रात रोते-रोते ही बीते हैं. अगर आज लड़का घर जाएगा तो सबको सालों बाद थोड़ी खुशी मिलेगी.’

प्रदीप उन 148 मजदूरों में से एक हैं जो जुलाई 2012 में मारुति के हरियाणा स्थित मानेसर इकाई में मजदूरों और प्रबंधन के बीच हुई झड़प के बाद गिरफ्तार किए गए थे. इस घटना में कंपनी के महाप्रबंधक (एचआर) अवनीश कुमार देव की जलने से मौत हो गई थी.

मामले में पुलिस ने मारुति के मानेसर इकाई से जुड़े 148 मजदूरों पर आईपीसी की धारा 302 (हत्या), 307 (हत्या करने का प्रयास करना), 147 (दंगा करना), 353 (सरकारी काम में बाधा पहुंचाना), 436 (आग लगाना) और 120बी (साजिश करना) के तहत मामला दर्ज किया और सभी आरोपित मजदूरों को अगले कुछ दिनों में गिरफ्तार भी कर लिया.

‘मजदूरों के साथ बहुत बुरा हुआ. मारुति प्रबंधन ने तो अन्याय किया ही, हरियाणा के तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने भी मजदूरों के साथ न्याय नहीं किया. मैं खुद कई बार इस मामले में मुख्यमंत्री से मिला था. मेरे द्वारा बार-बार इस मुद्दे को उठाने की वजह से हुड्डा जी नाराज हो गए और उन्होंने मेरी शिकायत कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी तक से कर दी थी. यह मामला उतना बड़ा था नहीं जितना राज्य सरकार ने बना दिया’

                                                                                                                               राव सुरेंद्र कुमार, महासचिव, राष्ट्रीय मजदूर कांग्रेस

‘तहलका’ ने मार्च 2014 में इस मामले पर ‘मजबूर मजदूर’ नाम से रिपोर्ट प्रकाशित की थी. तब मजदूरों की तरफ से गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय में मामले की पैरवी कर रहे वरिष्ठ वकील रघुवीर सिंह हुड्डा ने पुलिस के चार्जशीट पर सवाल खड़े किए थे. उन्होंने चार्जशीट के जिस हिस्से पर सवाल खड़े किए थे उसमें चार चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज हैं. गवाह नंबर 9 ने अपने बयान में कुल 25 मजदूरों के नाम लिए हैं जिनके नाम अंग्रेजी के अक्षर ‘ए’ से ‘जी’ तक हैं. गवाह नं.10 ने भी अपने बयान में गिनकर 25 मजदूरों को ही देखने की बात स्वीकारी है. इनके नाम क्रम से अंग्रेजी के अक्षर ‘जी’ से ‘पी’ तक हैं. गवाह नंबर 11 ने जिन 25 मजदूरों के नाम लिए हैं वे अंग्रेजी के ‘पी’ से ‘एस’ तक हैं. गवाह नंबर 12 ने अपने बयान में 14 मजदूरों के नाम लिए हैं और ये नाम अंग्रेजी के ‘एस’ से ‘वाई’ तक हैं. इसके अलावा इन सभी चार गवाहों के बयान बिल्कुल एक जैसे ही हैं. जैसे कि इन सभी गवाहों ने अपने बयान के अंत में कहा है कि इनके अलावा और तीन-चार सौ मजदूर थे जो अपने हाथ में डोरबीम लिए हुए कंपनी के बाहर चले गए थे और मैंने बड़ी मुश्किल से अपनी जान बचाई.

पुलिस द्वारा अदालत में दाखिल की गई इस चार्जशीट को दिखाते हुए रघुवीर सिंह ने कहा था कि पहली ही नजर में यह साफ जान पड़ता है कि ये सारे बयान किसी एक ही आदमी ने लिखे हैं और इनमें जो नाम लिखे गए हैं वो कंपनी के किसी रजिस्टर से देखकर लिखे गए हैं.

आज, जुलाई 2012 की उस घटना को तीन साल होने वाले हैं. मामला अदालत में है और फिलहाल 114 आरोपित मजदूर जमानत पर रिहा हो चुके हैं, 34 मजदूर अब भी जेल में हैं. हालांकि जिन्हें जमानत मिली उन्हें भी इसके लिए कम से कम दो साल तीन महीने का इंतजार करना ही पड़ा.

इस मामले में पहली दफा फरवरी 2015 में दो मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली थी और उसके बाद ही बाकी 112 को जमानत मिलना संभव हो पाया. इस साल फरवरी में जिन दो मजदूरों को सुप्रीम कोर्ट से जमानत मिली उनकी याचिका गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायलय से तीन बार खारिज हो चुकी थी और चंडीगढ़ हाईकोर्ट से दो बार. चंडीगढ़ हाईकोर्ट के जज केसी पुरी ने मई 2013 में इन दो मजदूरों की जमानत याचिका को पहली बार खारिज करते हुए कहा था, ‘इस घटना की वजह से भारत की छवि दुनिया भर में खराब हुई है. विदेशी निवेशकों में गलत संदेश गया है. संभव है कि विदेशी निवेशक, मजदूर वर्ग में व्याप्त रोष की वजह से भारत में पूंजी निवेश न करें.’

चंडीगढ़ हाईकोर्ट द्वारा जमानत याचिका खारिज होने के बाद इन दो मजदूरों ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया. सुप्रीम कोर्ट ने 17 फरवरी 2014 को यह कहते हुए इनकी याचिका खारिज कर दी कि पहले मामले के चश्मदीद गवाहों के बयान निचली अदालत में दर्ज हो जाएं, इसके बाद जमानत पर विचार किया जाएगा. साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने जिला एवं सत्र न्यायालय गुड़गांव को निर्देश दिया कि 30 अप्रैल 2014 तक इस केस के चश्मदीद गवाहों के बयान अदालत में दर्ज करा लिए जाएं लेकिन ऐसा हुआ नहीं. बाद में सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय की गई समयसीमा के बाद चश्मदीद गवाहों के बयान अदालत में दर्ज हुए. गवाहों ने अदालत में इन दो मजदूरों की गलत पहचान की.

इस आधार पर इन लोगों ने एक बार फिर जमानत के लिए चंडीगढ़ हाईकोर्ट से गुहार लगाई लेकिन 23 दिसंबर 2014 को हाईकोर्ट ने एक बार फिर इन्हें जमानत देने से मना कर दिया. जमानत याचिका खारिज करते हुए कोर्ट ने यह तो माना कि इन्हें जमानत दी जानी चाहिए लेकिन साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि इन लोगों को इसके लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका लगानी चाहिए. चंडीगढ़ हाईकोर्ट के इस फैसले के बाद मजदूरों ने दोबारा से सुप्रीम कोर्ट में जमानत याचिका दाखिल की और आखिरकार यहां से इन्हें 20 फरवरी 2015 को राहत मिली. इन दो मजदूरों को इनकी गिरफ्तारी के लगभग 31 महीने बाद जमानत मिली और ये जेल से बाहर आ पाए. इसके बाद मार्च 2015 में 77 और आरोपित मजदूरों को गुड़गांव के जिला एवं सत्र न्यायालय से जमानत मिली. कुल मिलाकर अब 114 आरोपित मजदूर जमानत पर बाहर हैं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि इन्हें जमानत मिलने में ही इतना वक्त क्यों और कैसे लग गया? जबकि कई मौकों पर सुप्रीम कोर्ट खुद ही यह मान चुका है कि देश की अदालतों को ‘जेल नहीं बेल’ की थ्योरी के तहत काम करना चाहिए. हम ये सवाल देश की जानी-मानी वकील वृंदा ग्रोवर के सामने रखते हैं. वृंदा इस मामले में मजदूरों की तरफ से सुप्रीम कोर्ट में पैरवी कर रही हैं. सवालों के जवाब में वृंदा कहती हैं, ‘मैं खुद नहीं समझ पा रही हूं कि जमानत मिलने में इतना समय कैसे लग गया. जबकि कानूनी तौर पर ये केस बहुत कमजोर है. जुलाई में इस मामले की अंतिम सुनवाई होनी है और अब तक 34 मजदूर जेल में हैं.’ वहीं गुड़गांव जिला एवं सत्र न्यायालय में मजदूरों की तरफ से पैरवी कर रहे वकील मोनू कुहाड़ का मानना है कि यह मामला कभी कानूनी था ही नहीं. मोनू कहते हैं, ‘जब हम इस मामले को कानून के दायरे से बाहर जाकर समझते हैं तो काफी कुछ साफ होता है. गुड़गांव में करीब-करीब 12 लाख मजदूर और कर्मचारी हैं जो कई अलग-अलग निजी कंपनियों में काम कर रहे हैं और समय-समय पर अपनी मांगों के लिए प्रबंधन पर दबाव बनाते रहते हैं. इस केस के हवाले से इन लाखों कर्मचारियों को एक संदेश देने की कोशिश की गई है कि अगर तुमने अपनी यूनियन बनानी चाही तो तुम्हें भी मारुति के मजदूरों की तरह बिना किसी खास सबूत और गवाह के दो-ढाई साल तक जेल में सड़ा दिया जाएगा. तुम्हारी नौकरी चली जाएगी और परिवार बिखर जाएगा.’

मोनू आगे बताते हैं, ‘इस केस में 148 मजदूर पिछले दो-ढाई साल से जेल में थे लेकिन जब हम इस केस को पढ़ते हैं तो पाते हैं कि केवल 10-15 मजदूर ऐसे हैं जिनके खिलाफ कुछ सबूत हैं वो भी इतने पुख्ता नहीं हैं कि उन पर हत्या का मामला साबित हो सके. इस केस में 102 गवाह थे और सबकी गवाही अदालत में हो चुकी है. 148 आरोपित मजदूरों में से 16 ऐसे हैं जिनके खिलाफ एक भी गवाह अदालत में नहीं आया. 98 ऐसे आरोपित मजदूर हैं जिनके खिलाफ गवाह तो आए लेकिन किसी भी गवाह ने इनकी पहचान नहीं की. ये लोग जिन्हें अभी जमानत मिली है वो पहली फुर्सत में बरी किए जाने चाहिए थे. क्योंकि इनके खिलाफ कोई सबूत ही नहीं है, कोई गवाह ही नहीं है.’

मोनू बात करते हुए कुछ सवाल उठाते हैं और इन सवालों के जवाब भी वो खुद ही देते हैं. वो कहते हैं, ‘जिनके खिलाफ कोई सबूत या गवाह नहीं है उस पर मुकदमा कैसे चल सकता है? इन्हें जेल में कैसे रखा जा सकता है? लेकिन सच्चाई ये है कि ये सालों तक जेल में रहे हैं और अब जमानत पर बाहर आए हैं. अब इससे तो यही समझ आता है कि सरकार और व्यवस्था इन मजदूरों के बहाने बाकी लाखों मजदूरों को एक सबक देना चाहती थी. जिसमें वो कामयाब रही.’

‘पूरा मामला बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है. मारुति मजदूरों के साथ जो हुआ वो बहुत ही पीड़ादायी है. वास्तव में सुजुकी ने अपने प्लांट में न तो जापान का श्रम कानून लागू किया और न ही भारत का. हमारे देश की सरकारें मारुति सुजुकी का ही समर्थन करती हैं’

                                                                                                                              विरजेश उपाध्याय, महासचिव, भारतीय मजदूर संघ

इस बारे में बात करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण से संपर्क करते हैं तो वह साफ शब्दों में न्यायपालिका और सरकार की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाते हैं. वो कहते हैं, ‘जमानत की पूरी प्रक्रिया ही मनमानी है. अदालतें जिसे चाहें जमानत दें और जिसे चाहें, न दें. हमारी अदालतों में वर्ग भेद भी बहुत है, यही कारण है कि पढ़े-लिखे और पैसे वाले व्यक्ति को तुरंत जमानत मिल जाती है लेकिन निचले तबके को जमानत के लिए सालों चक्कर लगाने पड़ते हैं.  सरकारों की मंशा भी अदालतों को प्रभावित करती है. सरकार जिसे दबाना चाहती है, अदालत उसे जमानत नहीं देती है.’

maruti case
पेशी : इस मामले में 34 मजदूर अभी भी जेल में हैं. इन मजदूरों की हर तारीख पर अदालत में पेशी होती है.

इस पूरे प्रकरण से जुड़ा एक और तथ्य है जिसे नजरअंदाज करके आगे नहीं बढ़ा जा सकता. जिस वक्त यह घटना हुई थी उस वक्त हरियाणा में कांग्रेस का शासन था और भूपेंद्र सिंह हुड्डा राज्य के मुख्यमंत्री थे. तत्कालीन मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा ने सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील केटीएस तुलसी को स्पेशल पब्लिक प्रॉसिक्यूटर नियुक्त किया. आरटीआई से मिली एक जानकारी के मुताबिक तत्कालीन हरियाणा सरकार ने केटीएस तुलसी को हर पेशी के लिए 11 लाख रुपये फीस दी. तुलसी के तीन सहायकों को एक पेशी के लिए 66,000 रुपये मिलते थे. दो साल में मारुति केस में भूपिंदर सिंह हुड्डा सरकार ने केटीएस तुलसी को 5 करोड़ रुपये बतौर फीस दिए थे. पिछले साल राज्य में सत्ता परिवर्तन हुआ. भाजपा के नेतृत्व में सरकार बनी और मनोहर लाल खट्टर राज्य में मुख्यमंत्री बने. भाजपा सरकार ने पिछले साल दिसंबर में केटीएस तुलसी को इस केस से अलग कर दिया. इस मामले में हरियाणा की मौजूदा सरकार का पक्ष जानने के लिए हमने खट्टर सरकार के  श्रम और रोजगार मंत्री कैप्टन अभिमन्यु से संपर्क किया लेकिन उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिल सकी.

इस कानूनी लड़ाई में एक पक्ष उन परिवारों का भी है जिनके लड़के इस मामले में सालों से जेल में बंद हैं या सालों बाद जमानत पर रिहा हुए हैं. जिन परिवारों के लड़के अभी तक जेल में बंद हैं वो जल्दी ही उनके जेल से छूटने की उम्मीद लगाए हुए हैं और इसी सहारे अपना जीवन जी रहे हैं. वहीं जिन परिवारों के बच्चे जमानत पर बाहर आ चुके हैं वो ठगा-सा महसूस करते हैं. उन्हें इस बात की खुशी तो है कि उनका लड़का जेल से बाहर आ गया लेकिन इनके मन में यह सवाल भी है कि इतने समय बाद क्यों? जब ‘तहलका’ ने ऐसे प्रभावित परिवारों से संपर्क किया तो कईयों ने बात करने से साफ मना कर दिया. कुछ लोगों का कहना था कि वो अब पिछली जिंदगी को याद नहीं करना चाहते और जो हुआ उसे भुलाकर भविष्य की तरफ देखने की कोशिश कर रहे हैं. वहीं कुछेक परिवारों ने मीडिया के प्रति अपनी नाराजगी का इजहार करते हुए बात करने से ही मना कर दिया.

‘यह मामला अदालत में है सो फिलहाल मैं इस बारे में कुछ नहीं बोलना चाहूंगा. हां, जब यह घटना हुई थी तब मैंने कहा था कि राज्य सरकार को कानून व्यवस्था बनाए रखना चाहिए. अगर ऐसी घटनाएं घटेंगी तो हरियाणा से सारे उद्योग-धंधे बाहर चले जाएंगे’

                                                                                                                                          अशोक अरोड़ा, हरियाणा प्रदेश अध्यक्ष, इनेलो

दिल्ली में रहने वाले अमित कुमार इसी महीने जमानत पर रिहा हुए हैं. जब हमने अमित को फोन किया तो उन्होंने मीडिया के प्रति अपनी नाराजगी प्रकट करते हुए कहा, ‘अब क्यों मिलना चाह रहे हैं आप लोग… जब मैं जेल में था तब तो आपने मेरे परिवार, मेरे बीमार पिता का इंटरव्यू नहीं किया… अब जब मैं बाहर आ गया हूं तो आप मिलना चाहते हैं… मुझे आपसे नहीं मिलना… मुझे कुछ भी नहीं कहना… अब मैं बाहर आ गया हूं और मेरा परिवार बिल्कुल ठीक है… आपको मेरे परिवार की फिक्र करने की कोई आवश्यकता नहीं है.’  इतना कहने के बाद अमित ने फोन रख दिया. लेकिन कुछ ऐसे भी परिवार सामने आए जिन्होंने अपनी परेशानी, दुख और तकलीफ हमसे साझा की. अागे के पन्नों पर आप ऐसे ही कुछ प्रभावित परिवारों की आपबीती पढ़ेंगे जो इस दौरान कई दफा टूटे और फिर खुद ही जिंदगी की इस जंग में खड़े हुए.

Kamal Singh and His wife1 (1) [symple_box color=”yellow” text_align=”center” width=”100%” float=”none”]
व्यथा कथा : कमल सिंह
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‘अपनी बच्ची के बचपन को नहीं देख पाया और न ही बीमारी के वक्त मां को क्योंकि मैं जेल में था’read

 

 

vikas kumar [symple_box color=”yellow” text_align=”center” width=”100%” float=”none”]
व्यथा कथा : विकास कुमार
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                    ‘जमानत मिलने से कुछ नहीं बदला, फैसले का इंतजार है…                                   ’

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व्यथा कथा : नरेश कुमार
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बेटे के लिए इससे बड़ा दुख क्या होगा कि उसकी मां उसे याद करते हुए मर गई और उस वक्त वो वहां नहीं था..           

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case 3 (2) [symple_box color=”yellow” text_align=”center” width=”100%” float=”none”]
व्यथा कथा : रमन विश्नोई
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  ‘पुलिस, न्यायालय, मीडिया किसी ने भी हमारा साथ नहीं दिया…’                                    read          

 

 पढ़ें : इस मामले का कानूनी पक्ष जानने के लिए विकास कुमार ने वरिष्ठ अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर से बातचीत की

 

सम्राट अशोक ‘कुशवाहा’

sonu kishan

पानी में किसी वस्तु के तैरने के कारणों की खोज कर उत्प्लावन का सिद्धांत देने वाले महान वैज्ञानिक आर्किमिडीज की जिंदगी से जुड़ी एक बात बहुत ही चाव से बताई-सुनाई जाती है. बहुत हद तक संभव है कि यह किस्सा ही हो. कहते हैं कि आर्किमिडीज ने जिस समय वस्तुओं के पानी में तैरने के विज्ञान को समझा, उस वक्त वे एक तालाब में तैर रहे थे. आर्किमिडीज को जैसे ही उत्प्लावन के सिद्धांत का विचार दिमाग में कौंधा, वे अचानक पानी से बाहर निकलकर मारे खुशी के नंगे ही दौड़ने लगे. ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्लाते हुए वे सड़कों पर दौड़ रहे थे. यूरेका का मतलब होता है- पा लिया या खोज लिया. शुरू में लोगों ने समझा आर्किमिडीज पागल हो गए हैं लेकिन जब उन्होंने समझाया कि क्या पा लिया है तो दुनिया उत्प्लावन बल के सिद्धांत को समझ सकी. इसके बाद उनका मुल्क और उसके लोग उन पर गर्व करने लगे.

पिछले दिनों जब बिहार में भाजपा के सहयोग-समर्थन व मार्गदर्शन में चक्रवर्ती सम्राट अशोक की जाति की व्याख्या करते हुए राष्ट्रीय कुशवाहा परिषद की ओर से उनका 2320वीं जयंती समारोह (17 मई) मनाने के लिए होर्डिंग लगे और उस पर भाजपा नेताओं की तस्वीरें नजर आईं तो राजधानी पटना की सड़कों और नुक्कड़ों पर कुछ भाजपाई कार्यकर्ता ‘यूरेका-यूरेका’ वाले अंदाज में ही जोश में थे, चिल्ला रहे थे. ऐसा लग रहा था जैसे उन्होंने बिहार में सफल होने का सूत्र पा लिया है. बिहार में एक बड़ा वर्ग था, जिसको हंसी आ रही थी, कुछ को उबकाई भी कि प्रदेश की राजनीति को क्या हो गया है कि महान सम्राट अशोक तक को जाति की परिधि में बांधने की कोशिशें हो रही हैं. लेकिन तब पटना की सड़कों पर ‘यूरेका-यूरेका’ चिल्ला रहे भाजपाइयों का जोश देखते बन रहा था. वे अपनी ही धुन में मगन थे. उन्हें लग रहा था कि सियासत के समीकरण को बदलने का एक बड़ा सूत्र अथवा सिद्धांत उनके हाथ लग गया है. चक्रवर्ती सम्राट अशोक को कुशवाहा यानी कोईरी जाति की परिधि में कैद कर वे विजयी भाव से ग्रस्त दिख रहे थे. लोग हंसते रहे, गालियां देते रहे, सवाल पूछते रहे.

विधायक सूरज नंदन प्रसाद कुशवाहा एक ही वाक्य में रोमिला थापर से लेकर आरएस शर्मा जैसे इतिहासकारों के अध्ययन को खारिज कर देते हैं. उनका दावा है कि उनकी पार्टी के पास ठोस सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा ही थे

दिल्ली से इतिहासकार रोमिला थापर, जिन्होंने सम्राट अशोक पर विस्तार से अध्ययन कर एक किताब लिखी है. वह कहती रहीं कि अशोक की जाति का कहीं से कोई पता नहीं चलता. पटना निवासी प्रख्यात इतिहासकार आरएस शर्मा के अध्ययन संदर्भों का उदाहरण देकर पटना के ही इतिहासकार राजेश्वर प्रसाद सिंह कहते रहे कि अशोक के पूर्वज चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म एक शूद्र दासी की कोख से हुआ था, इसलिए उनके कुशवाहा होने का तो सवाल नहीं. दूसरी तरफ पटना में इतिहास पढ़ाने वाले विधायक सूरज नंदन प्रसाद कुशवाहा जैसे भाजपा के बौद्धिक चिंतक यह कहकर एक ही वाक्य में रोमिला थापर से लेकर आरएस शर्मा जैसे इतिहासकारों के अध्ययन को खारिज करते रहे कि उनकी पार्टी के पास ठोस सबूत है कि सम्राट अशोक कुशवाहा ही थे.

बहुत सारे तथ्य और तर्क हैं पास में. इतिहास के पन्नों से संदर्भ और तथ्य टकराते रहे हैं. बिहार में इतिहास से कोई सरोकार नहीं रखने वाले लोगों के भी सहज सवाल टकराते रहे कि अशोक पर तो कुशवाहा समाज पहले से दावेदारी करता ही रहा है. समाज उनके नाम पर आयोजन भी करता-कराता रहता था तो अचानक भाजपा को खुलकर जाति के इस खेल में आने की जरूरत क्यों पड़ गई? बिहार की राजनीति को जानने-समझने वालों को पता है कि भाजपाइयों में आया यह भाव अकारण नहीं है. वे जानते हैं कि बिहार की सियासत वर्षों से ऐसे ही समीकरणों से चलती रही है. जल्द ही अशोक कुशवाहा समाज के एक बड़े हिस्से के नायक हो जाएंगे और भाजपा ऐसा कर इस चुनाव में कुछ न कुछ तो फायदा उठा ही लेगी. इतिहास का क्या कबाड़ा होगा और आगे का इतिहास कैसा बनेगा, इसकी चिंता फिलहाल किसी को नहीं है. विधानसभा चुनाव में वे अशोक की जाति खोजकर क्या फायदा उठा लेंगे, यही उनके लिए सबसे जरूरी है. और उम्मीद की जा रही है कि कुछ हद तक तो वे इससे अपना मतलब साध ही लेंगे.

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता इसे ऐसे समझाते हैं, ‘देखिए, बिहार में वर्षों से लव-कुश समीकरण चल रहा है. यह दो जातियों कोईरी और कुर्मी के मेल-मिलाप वाला समीकरण है. इसके चैंपियन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार माने जाते रहे हैं. हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में इस समीकरण से उनका गणित हल नहीं हो सका.’ इस पर वह सवाल उठाते हुए पूछते हैं, ‘बताइए लव और कुश, दोनों भाई, दोनों क्षत्रीय कुल के रामचंद्र के वंशज, तो भला उनमें से एक कुर्मी और दूसरा कोईरी कैसे बन गया. कालांतर में समीकरण पर और उसी मिथकीय आधार पर वर्षों तक राजनीति को कैसे साधा जाता रहा.’ वह बताते हैं, ‘सम्राट अशोक वाले मामले को गंभीरता से लेने की जरूरत नहीं, बस अभी चुनाव है. लोकसभा चुनाव में कोईरी-कुर्मी गठजोड़ को नरेंद्र मोदी की आंधी के जरिये और उपेंद्र कुशवाहा जैसे नेता को आगे कर के तोड़ा जा चुका है. दूसरे नेताओं की जो बची-खुची संभावनाएं हैं, उस पर हमला करने के लिए ही सम्राट वाला फॉर्मूला निकाला गया है.’ यह पूछे जाने पर कि सब तो ठीक है लेकिन आपके दल के बड़े नेता पटना में अशोक की प्रतिमा भी लगाने को कह रहे हैं. उनकी प्रतिमा की कल्पना कैसे करेंगे? क्या मन से सोच लेंगे कि अशोक ऐसे रहे होंगे, वैसे रहे होंगे? इस पर वह बात को टालते हुए कहते हैं, ‘राम, कृष्ण या किसी दूसरे देवता को किसी ने देखा है क्या… फिर भी आज उनकी तस्वीरें और मूर्तियां पूरी दुनिया में हैं. अशोक की भी वैसे ही लग जाएगी.’

‘बिहार में वर्षों से लव-कुश समीकरण चल रहा है. बताइए लव और कुश, दोनों भाई, दोनों क्षत्रिय कुल के रामचंद्र के वंशज, तो भला उनमें से एक कुर्मी और दूसरा कोईरी कैसे बन गया’

संयोग से उनसे पटना के होटल अशोक की लॉबी में ही बात हो रही थी. भाजपा आज अशोक की जाति खोजने के बाद उनकी प्रतिमा लगा देने को बेताब और बेचैन है. सिक्के का दूसरा पहलू ये है कि बिहार में तकरीबन आठ सालों तक सत्ता में रहने के बावजूद अशोक के नाम पर इस इकलौते सरकारी होटल का उद्धार नहीं कराया जा सका और न ही भाजपा ने कभी इस बारे में बात की. इतना ही नहीं अशोक के नाम पर पटना में एक मुख्य सड़क ‘अशोक राजपथ’ की दशा सुधारने की चिंता भी किसी ने कभी व्यक्त नहीं की. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘बहुत हैरत में पड़ने की जरूरत नहीं. बस, इसमें आश्चर्य और हास्यास्पद बात ये है कि भाजपा जैसी पार्टी विकास की राजनीति का दावा करके सीधे-सीधे तौर पर जाति के खोल में समाने को बेचैन है. राज्य की राजनीति में ऐसा अरसे से होता रहा है. हर जाति में. 30 के दशक में ही त्रिवेणी संघ बना था, जिसमें कुर्मी और कोईरी जैसी जातियों ने कुर्मी क्षत्रीय और कुशवाहा क्षित्रय बनने का आंदोलन चलाया था. तब वे क्षत्रीय बनकर सत्ता और संपत्ति में अपना हक पाना चाहते थे. इसमें वे सफल भी हुए. संपत्ति में हिस्सेदारी हुई और अब सत्ता में हिस्सेदारी के लिए ये प्रपंच किया जा रहा है.’ वह कहते हैं, ‘पिछड़ी जातियों में यादव और कुर्मी द्वारा सत्ता पाने के बाद अब कुशवाहा समुदाय को भी यह लगता है कि वे भी इसके हकदार हैं. इसके लिए सम्राट अशोक जैसे नाम से खुद को जोड़ने से यह भाव उपजाने की कोशिश होगी कि यह जाति सबसे बड़े सम्राट की जाति का है. वह सत्ता संभालने के लायक है और आगे के लिए स्वाभाविक दावेदार है.’ सुमन बताते हैं कि राजनीति में यह सब चलता रहता है. मौर्य और अशोक को लेकर कुशवाहा समाज का एक बड़ा हिस्सा वर्षों से यह सब करता रहा है लेकिन दुखद यह है कि भाजपा जैसी पार्टी बिहार की राजनीति में इस तरह जाति का खेल खुलेआम खेलना चाहती है, जबकि उसे भी ये पता है कि समय के साथ संदर्भ बदल चुके हैं. अब मिथकीय या ऐतिहासिक नायकों के साथ लड़ाई नहीं लड़ी जाती.

बिहार या उत्तर भारत के इतिहास को देखें तो ऐसे नायकों की तलाश कर राजनीति होती रही है. खुद को मिथकीय या ऐतिहासिक नायकों से जोड़कर श्रेष्ठताबोध से भरने का दौर आता  रहा है. साथ ही बड़े नायकों को अपनी जाति में कैद कर लेने का दौर भी आया है. बड़े-बड़े नायकों को विरोधियों द्वारा किसी जाति विशेष का बताकर उसे छोटा करने का अभियान भी खूब चला है. इतिहास के पन्नों को पलटकर देखें तो बिहार में कुशवाहा समुदाय ऐसा पहली बार नहीं कर रहा. न ही पहली बार ऐसा हुआ है कि कुशवाहा परिषद जैसी संस्था को सामने कर भाजपा जैसी पार्टी ऐसा खेल खेल रही है. हां, यह सच है कि इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा बात तो विकास की कर रही है और उसके बूते ही चुनाव लड़ने का राग भी अलाप रही है लेकिन जातिगत राजनीति के हर दांव-पेंच को आजमाने में भी वह पीछे नहीं है. इसका एक उदाहरण पिछले दिनों भाजपा द्वारा धूमधाम से बड़े स्तर पर बाबा साहब आंबेडकर के नाम पर पटना में रैली करने से लेकर पासवानों के मिथकीय नायक, कुर्मी चेतना रैली आदि नीतीश कुमार के जीवन का प्रमुख टर्निंग प्वाइंट रहा है. इसके अलावा कुर्मी समाज द्वारा पटेल को अपनी जाति के खाके में कैद करने का अभियान भी चर्चित मामला रहा है. वीर कुंवर सिंह को राजपूतों द्वारा अपनी जाति की परिधि में कैद करने के लिए उनके नाम से संगठन बनाकर जयंती-पुण्यतिथि मनाने का रिवाज अब पुराना हो चला है. निषादों द्वारा रामायण के निषाद से लेकर वेदव्यास तक को अपनी जाति का मानना और अपने सामर्थ्य के हिसाब से इसे उभारने की कोशिश करना भी बिहार की राजनीति का ही एक हिस्सा है.

ब्राह्मणों द्वारा चाणक्य पर दावेदारी सब जानते हैं और भूमिहारों द्वारा परशुराम से लेकर स्वामी सहजानंद को अपने पाले में करने की पुरजोर कोशिश के बाद बिहार के पहले मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह और दिनकर जैसे कवि को अपने खेमे में लेने का अभियान चलता रहता है. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह के जमाने में भी उनके और बिहार विभूति अनुग्रह नारायण सिन्हा के बीच जाति के आधार पर चलने वाली लड़ाई का किस्सा सुनाया जाता है. बिहार में अब फणीश्वर नाथ रेणु जैसे महान लेखक को भी धानुक जाति से होने के कारण कुर्मी जाति का बताने का अभियान कुछ सालों से चल रहा है तो आर्यभट्ट को भट्ट ब्राह्मण बनाने का अभियान भी शुरू हो चुका है. जीतनराम मांझी के मुख्यमंत्री बनने के बाद दीना-भदरी जैसे मिथकीय नायकों का और माता सबरी के नायकत्व को उभारने की नए सिरे से कोशिश जारी है. एक जाति को दूसरी जाति की श्रेणी में लाने की होड़ भी बिहार की राजनीति का पुराना अभियान रहा है. भूमिहार द्वारा खुद को भूमिहार ब्राह्मण कहना और कुर्मी और कुशवाहा द्वारा खुद को क्षत्रिय कहना उसी अभियान का हिस्सा रहा है. और अब एक संगठन के बारे में यह सूचना है कि जल्द ही बुद्ध की जाति की तलाश कर उनके नाम पर जाति सम्मेलन की तैयारी पटना में चल रही है. पिछले दिनों महाराणा प्रताप को भी अपने खेमे में करने के लिए क्षत्रियों का एक समूह पटना में आयोजन कराने की कोशिश में था. यादवों की राजनीति के प्रतीक कृष्ण रहे हैं और उनका इस्तेमाल लालू प्रसाद यादव से लेकर नरेंद्र मोदी तक करते रहे हैं. लालू प्रसाद के आवास में कृष्ण की तस्वीरों की भरमार मिलेगी तो पिछले साल जब नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के समय बिहार आए तो यादवों की ओर इशारा करते हुए कहा था कि लालूजी के जेल जाने से यदुवंशी भाई परेशान न हों. उनका भी यदुवंशियों से पुराना नाता रहा है, क्योंकि वे गुजरात से आए हैं और गुजरात में ही द्वारका है. उस वक्त पूर्व मुख्यमंत्री राबड़ी देवी ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा था कि मोदी के कहने से यादव उनकी ओर नहीं जाएंगे. यादव हमारे साथ हैं. यदुवंशी जानते हैं सब सच.

बहरहाल इन प्रसंगों को बताने का आशय सिर्फ इतना है कि बिहार में शायद ही कोई मिथकीय या ऐतिहासिक नायक हो, जिसका इस्तेमाल राजनीति में अपना हित साधने के लिए न किया गया हो. अभी नरेंद्र मोदी द्वारा रामधारी सिंह दिनकर के नाम पर दिल्ली में आयोजन करके भले ही यह कहा गया कि बिहार जाति की राजनीति की वजह से बर्बाद हो रहा है. लेकिन मोदी के उस आयोजन का एक बड़ा मतलब बिहार के भूमिहारों को साधना था. सूत्र बताते हैं कि जल्द ही बिहार में बनारस की दुकानों से प्रेरणा लेकर महान लेखक जयशंकर प्रसाद को भी जाति के खाके में बांधने की तैयारी चल रही है. हलवाइयों की एक सभा कर जयशंकर प्रसाद की तस्वीरें बांटने का अभियान चलने वाला है.

बिहार में जाति की राजनीति का क्या रंग है और कौन-कौन से  रंग सामने आने वाले हैं, इसे पटना के इनकम टैक्स गोलंबर के इर्द-गिर्द लगने वाले पोस्टरों व होर्डिंग के जरिये जाना-समझा जा सकता है. यहां पर रोजाना नए पोस्टर लगते हैं. रातोरात पोस्टर बदले जाते हैं. एक लगाता है, दूसरा हटा देता है. वहां पल भर में पोस्टर को चुपके से हटाकर अपना पोस्टर लगा देने का अभियान चलता है. दिन में दिखता है कि भूमिहार और ब्राह्मण एक होकर नया एकता परिषद बना रहे हैं तो शाम तक दिखता है कि भूमिहार अकेले चलकर परशुराम की जयंती मना रहे हैं. ब्राह्मण समाज अलग से परशुराम पर दावेदारी करने के लिए पोस्टर लगा रहा है.

ऐसे कई किस्से और कहानियां बिहार की राजनीति में हैं. वर्षों से चली आ रही परंपरा की तरह. बस, इस बार मजेदार ये हुआ है कि भाजपा, जो राष्ट्रवादी राजनीति करने की पैरोकारी करती रही है, वह विशुद्ध रूप से जाति की राजनीति में समाने को बेचैन दिखी और खुलकर संकीर्ण व स्थानीय राजनीति का हिस्सा बनने के लिए बेताब. बिहार चुनाव को लेकर भाजपा की यह बेचैनी स्वाभाविक है, क्योंकि यह तय हो चुका है कि इस बार का विधानसभा चुनाव सिर्फ और सिर्फ जाति के आधार पर लड़ा जाना है. जाति की राजनीति को ही साधने के लिए किसी भी कीमत पर नीतीश कुमार अपने धुर विरोधी लालू प्रसाद के साथ अस्वाभाविक गठजोड़ करने के लिए दिन रात एक किए हुए हैं. जाति की राजनीति होने की संभावना की वजह से तीन दशक से राजनीति करते रहने वाले जीतन राम मांझी चुनाव की धुरी बन गए हैं.

जल्द ही बिहार में बनारस की दुकानों से प्रेरणा लेकर लेखक जयशंकर प्रसाद को भी जाति के खाके में बांधने की तैयारी है. हलवाइयों की सभा कर जयशंकर प्रसाद की फोटो बांटने का अभियान चलने वाला है

राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणि कहते हैं, ‘आगे-आगे देखते तो रहिए क्या होता है. इसे विडंबना ही कहिए कि राष्ट्रवादी राजनीति का ढिंढोरा पीटने वाली भाजपा इस तरह खुलकर जाति की राजनीति करने पर अामादा है. हालांकि इसमें आश्चर्य जैसा कुछ नहीं क्योंकि इसके पहले प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार रहते हुए खुद नरेंद्र मोदी अपने को पिछड़ा बताकर यह संकेत दे चुके थे कि भाजपा आगे किस रास्ते पर चलने वाली है.’ वह कहते हैं, ‘भाजपा राम को भी चाहती है और भारत के सबसे प्रतापी सम्राट अशोक पर भी कब्जा जमाना चाहती है. राम और अशोक पर एक साथ कब्जा करने की राजनीति उसकी विडंबना को ही दिखाता है. सबसे शर्मनाक बात ये लगी कि अशोक को कुशवाहा जाति में कैद करने और अपनी पार्टी में लाने के लिए केंद्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद ने यह घोषणा कर दी है कि वे अशोक की मूर्ति लगाने के साथ डाक टिकट भी जारी करेंगे. जिस राजा के सिंह को भारत का चिह्न माना गया है, जिसके चक्र को राष्ट्रीय प्रतीक माना गया है, उसकी मूर्ति बनाकर उसका महत्व कम करना ही तो होगा. अशोक के जमाने में ही सिंह और चक्र की मूर्ति बनी थी. अशोक या उसके बाद के लोग चाहते तो उस समय के कुशल कारीगरों से अशोक की मूर्ति बनवा सकते थे लेकिन ऐसा नहीं किया गया. अब उस महानायक के नाम पर इस तरह की मनमानी और छेड़छाड़ ठीक नहीं.’ फिलहाल भाजपा अपनी धुन में मगन है. वह अशोक की प्रतिमा बनवाएगी. कुछ दिनों बाद चंद्रगुप्त मौर्य की प्रतिमा भी बनेगी. संभव है कि पटना में फिर एक-एक कर कई मिथकीय नायकों की प्रतिमा को स्थापित करने का दौर भी शुरू हो. संभव है कि पटना में ही मूर्तियों में आरक्षण का भी दौर शुरू हो, क्योंकि मूर्तियों की संख्या बढ़ेगी और सभी जाति व समुदाय के लोग अपने नायकों की प्रतिमा स्थापित करने की मांग करेंगे. उस पटना को देखना मजेदार होगा.

इंतजार कीजिए. कुछ दिनों बाद बुद्ध की जाति तलाश कर आयोजन होंगे. यह तय है और मजाक में कहा जाता है कि राम को राजपूत, कृष्ण को यादव, परशुराम को भूमिहार बना देने के बाद बिहार अगले एकाध चुनाव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश की जाति का भी पता लगाकर दिखा देगा. बिहार वह राज्य है, जहां जीते जी जाति की परिधि में रखने के लिए तमाम प्रयोग तो होते ही हैं, यह स्वर्गीय हो जाने के बाद भी जाति के बाहर नहीं रहने देने वाला और इस परंपरा को मजबूती से स्थापित करने वाला राज्य भी है.

एक साल दो मोदी

MOdi drum

इवेंट मैनेजमेंट स्पिन गेंदबाजी है, गेंद की जगह घटनाओं को मनमाफिक दिशा में घुमाने का हुनर मोदी की राजनीति की कुंजी है. उन्हें इस काम में अपने विरोधियों पर काफी बढ़त हासिल है. लिहाजा उनकी सरकार एक साल में कितनी कामयाब रही यह जवाबी कव्वाली के पुरजोश मुकाबले से तय किया जाएगा. सरकार और विपक्ष, जिसके लाउडस्पीकर का शोर जितना ऊंचा जाएगा और जो मंच पर देर तक टिका रहेगा, खुद को जुमले, लंतरानियों और बोलती बंद करा देने की अदाओं का सरताज भले मान लंे, लेकिन इससे एक औसत नागरिक के पल्ले कुछ नहीं पड़ने वाला. वह सरकार को भी वैसे ही नापता है जैसे समाज में अपनी हैसियत. जिंदगी से जो मेरी अपेक्षाएं थीं कितनी पूरी हुईं, कोई मुझे प्यार करता है या नहीं, खुद मैं परिवार, समाज और देश के लिए कैसा हूं…यह कभी शास्त्रार्थ से पता नहीं लगाया जाता. अनुभव और संवेदना पर आधारित ये खामोश फैसले एक आंतरिक बोध के रूप में ऐसे होते हैं जैसे सुनसान रात में ओस टपकती है जिसकी आवाज सुनाई नहीं देती. यह जरूर होता है कि राजनीति के स्पिनर अपनी कारगुजारियों से सपनों, कमजोरियों, स्वार्थों को हवा देकर इन फैसलों को बदलवा देते हैं. जाहिर है इन दिनों फिजा में छाई जवाबी कव्वाली का मकसद भी यही है.

अगर प्रधानमंत्री मोदी को म्यूट मोड पर रख कर यानि उन्हें उनके भाषणों के बिना देखा जाए तो एक दिलचस्प नजारा दिखाई देता है जो सालगिरह के शोर के पीछे दुबकी चुप्पी से लेकर भविष्य के बीच की खाली जगह में बनती धुंधली आकृतियों का अंदाजा देता है. कूटनीतिज्ञ, जासूस, कार्टूनिस्ट, फोटोग्राफर और प्रधानमंत्रियों के निजी स्टाफ के सदस्य उन्हें इसी तरह आंकते हैं क्योंकि शब्दों के जाल में फंसकर भटकने का अंदेशा बहुत कम हो जाता है. मोदी राजपाट संभालने के बाद से संसद और सार्वजनिक कार्यक्रमों में बहुत कम मुस्कराते पाए गए, चेहरे पर सायास कमोबेश एक जैसा ही सधाव रहता है जिससे भावनाओं को भांप पाना कठिन होता है, चुनाव के समय वाली आवाज का लोच अब नहीं है, अब उसमें पुरानी ड्रामाई कशिश तभी पैदा की जाती है जब किसी बात पर बहुत जोर देना होता है, चेहरे के सधाव के बरअक्स मंत्रियों और भाजपा के बड़े नेताओं की देहभाषा को देखा जाए तो साफ हो जाता है कि यह सिर्फ एक आदमी का शो और रुतबा है, बाकी झालर लोकतांत्रिक खानापूर्ति के लिए सजाई गई है.

इसके बिल्कुल उलट मोदी जब विदेश में होते हैं तब सहज, प्रसन्न और बेलाग लपेट होते हैं, बोलने की रौ में अनजान दिशाओं में ऐसे जाते हैं कि खुद को भी भूल जाते हैं. यह एक बिडंबना है कि वास्तविक मोदी विदेश में ही दिखाई देते हैं. अपनों के बीच उनके खुलेपन में ऐसा विस्फोटक क्या है जो अब तक के किए धरे को मटियामेट कर सकता है. इसकी खोज आने वाले दिनों में जरूर की जाएगी कि असली मोदी कौन है. ऐसा ही एक क्षण चीन यात्रा के दौरान सरकार की ऐन सालगिरह के दिन शंघाई में भारतीयों के बीच से उठते मोदी-मोदी के प्रायोजित पार्श्वसंगीत के बीच आया जब प्रधानमंत्री ने खुद को परिभाषित करने की कोशिश की. चीनी यात्री ह्वेनसांग की अपने गांव बड़नगर की यात्रा और वहां बौद्धों के एक पुरातन संस्थान का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा, जब मैं मुख्यमंत्री बना तो मैंने सरकार से कहा खुदाई कराओ. इसके बाद एक छोटा-सा पॉज लेकर उन्होंने कहा, कोई अपने यहां खुदाई क्यों कराएगा, आंय?…लेकिन मैं ऐसा ही हूं. आत्ममुग्धता के आवेश से चेहरे की झुर्रियों समेत रेखाएं खिल उठीं. उन्होंने आसमान की थाह पा चुके पक्षी के पंख की तरह बायां हाथ हिलाया जिसमें उन गीतों की लय थी जो महानायकों के मिथ और रहस्यों के बारे में गाए गए हैं. साथ ही उस हाथ की जुंबिश में यह उलाहना भी थी कि जाने दो कोशिश मत करो, आप नहीं जान पाओगे कि मोदी क्या चीज है. इस तरह एक साल में मोदी एक से दो बन चुके हैं जो सरकार का अच्छा या बुरा सबसे बड़ा हासिल है.

देखने का एक और तरीका ये हो सकता है इस जवाबी कव्वाली में आरएसएस की चुप्पी और पस्ती पर गौर किया जाए जिसने चुनाव से पहले ही प्रधानमंत्री नामित करने के व्यक्तिवादी फैसले और नकली लालकिले से भाषण देने के स्वांग को मंजूरी देने के अलावा संगठनकर्ताओं और प्रचारकों को अभी नहीं तो कभी नहीं के भाव से मोदी के पीछे झोंक दिया था. अब वही आरएसएस खुद को बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना जैसी हालत में पा रहा है. अगर पितृसंगठन की ही अपेक्षाएं मोदी से पूरी होती नहीं दिखाई दे रही तो क्या बाकी लोगों को उम्मीदों के तंबू कनात ताने रहना चाहिए.